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म. ८
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५४५)
अन्य लेप।
अर्शाभ्यो जलजाशस्त्रसूचीक्वैः पुनः पुनः । कुष्टं शिरीषबीजानि पिप्पल्यः सैंधवं गुडः॥ अर्थ-जो मस्से फूले हुए और कठोर हो अर्कक्षीरं सुधाक्षीरं त्रिफला च प्रलेपनम् । ते हैं, तथा जिनसे रुधिर नहीं निकलता है
अर्थ-कूठ, सिरसके बीज, पीपल,सेंधा। उनसे जोक, शस्त्र, सुई वा कूर्च यंत्र द्वारा नमक, गुड, आकका दूध, थूहर का दूध, वार वार रक्त निकालना चाहिये । और त्रिफला इन सबका लेपभी अर्श में
रक्तनिकालने का कारण । हितकारी है।
शीतोष्णस्निग्धरूक्षाद्यैर्न व्याधिरुपशाम्यति . अन्य लेप ।
| रक्त दुष्टे भिषक् तस्माद्रक्तमेवावलेचयेत् । आर्क पयः नुहीकांड कटुकालांबुपल्लवा ॥ अर्थ-रुधिरके दूषित होनेपर जब शीकरंजो बस्तमूत्रं च लेपनं श्रेष्टमर्शसाम् ।
| तल, उष्ण, स्निग्ध वा रूक्ष कोई क्रिया अर्थ-आकका दूध, थूहरका पत्ता, कु
काम नहीं देती है तब रुविर निकालना ही टकी, तूंत्री के पत्ते, और कंजा इन सब
हितकारी है। औषधों को बकरेके मूत्रमें पीसकर लेप करना - अर्शमें गोरसपानादि। अर्श में हितकारी हैं।
यो जातो गोरसः अनुवासिनिक लेप ।
क्षीराद्वन्हिचूर्णावचूर्णितात् ३० आनुवासनिकैलेपः पिप्पल्याद्यैश्च पूजितः विवस्तमेव तेनैव भुजानो गुदजान् जयेत्।
अर्थ-अनुवासन के योग्य द्रव्यों से । अर्थ-गौके दूधका दही वा तक्र बनाआथवा पीपल आदि द्रव्यों द्वारा लेप करना । कर उसमें चीता मिलाकर पीनसे अथवा अर्श में हितकारी है।
उसी गोरस के साथ भोजन करने से गुदा अभ्यंजनादि।
के मस्से प्रशमित होजाते हैं । किसी २ एभिरेवोषधैः कुर्यात्तैलान्यभ्यंजनानि च।
पुस्तक में 'वहुमूलावचूर्णतात्' पाठभी है, अर्थ-ऊपर जो द्रव्य लेपके लिये कहे गये हैं उनके द्वारा ही तेल अभ्यंजन सिद्ध
बहुमूला का अर्थ सितावर है ।
अन्यपानादि । करके अर्शरोग में काममें लाने चाहिये ।
कोविज्ञानमूलानां मथितेन रजः पिबेत ॥ धनीसबिगडे रुधिरका निकालना। अनन् जीणेच पथ्यानि मुच्यते हतनामभिः धूपनालेपनाभ्यंगैः प्रस्रवंति गुदांकुराः॥ अर्थ-कचनार का चूर्ण मिलाकर मथे संचित दुष्टरुधिरं ततः संपद्यते सुखी। हुए जलरहित तक को पीवै फिर पथ्य अन्न अर्थ-धूप, आलेपन और तैलादि के ल
का सेवन करे, इससे अर्श नष्ट होजाताहै । गाने से मस्सोंमें जो विगडा हुआ रुधिर इ
अन्य उपाय। कठा होजाता है वह सब निकलने लगता है। गुदश्वयथुशूला” मन्दाग्नि!ल्मिकान्इससे रोगीको सुख प्राप्त होता है ।
पिवेत्॥ ३२॥ ____ मस्सोंसे रुधिर निकालना। हिंग्वादीननुतकां वा खादेद्गुडहरीतकीम् । अवर्तमानमुच्छ्रनकठिनेभ्यो हरेदसृक् ॥ तक्रेण वा पिवेत्पथ्यावेल्लाभिकुटजत्वचा३३
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