SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 713
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६१६) अष्टांगहृदय । अ.१४ नाशक सबै प्रकार की वस्ति दैनी चाहिये । | घी में आलोडित करके एक घडेमें भरकर क्षार प्रयोग । मुख बंद करदे और अग्निमें रखदे, जब घडा कृतमूळ महावास्तुं कठिनं स्तिमितं गुरुम् ।। लालगरम होजाय और भीतर की दवा गूढमांसं जयेदुल्म क्षारारिष्टानिकभिः॥ एकांतरं द्वयंतर वा विश्रमय्याऽथ वाम्यहम् जली हुई प्रतीतहो तब इसको निकाल ले शरीरदोषवलयोर्वर्धनक्षपणोद्यतः ॥१०१॥ इसतरह यह क्षार बनताहै । इसको दूध घी । अर्थ-कृतमूल ( जड पकडा हुआ ), तक्र और मद्यके साथ सेवन करे । इससे महावस्तु ( विस्तारयुक्त ], कठोर, स्तिमित, गुल्म उदावर्त, वर्म, भर्श, जठर, ग्रहणी, भारी और गूढ मांसवाले गुल्मको एक दिन कृमि, अपस्मार, गर, उन्माद, योनिरोग, दो दिन वा तीन दिन का विश्राम देदेकर शुक्ररोग, अश्मरी दूर होजाते हैं तथा यह क्षारकर्म, अरिष्ट और अनिकर्म द्वारा दूर कर क्षार चूहे और सर्पके विषको भी दूर कर नेका यत्न करै और शरीरके बढाने तथा देताहै । दोषके बलको क्षीण करनेमें सदा उद्यत रहे। । क्षारद्वारा कफका अधःपतन । . कफाधिक्य गुल्ममें क्षार । "श्लेष्माणं मधुरं निग्धंरसक्षीरघृताशिनः । अर्शीश्मरीग्रहण्युक्ताःक्षारायोज्याकफोल्वणे | छित्त्वा भित्त्वा ऽऽशयं क्षारः । पर्थ-कफाधिक्य गुल्ममें अर्श, अश्मरी |. .. क्षारत्वात्पातयत्यधः ॥ १०६ ॥ और ग्रहणी रोगों में कहे हुए क्षारों को उप __ अर्थ-मांसरस, दूध और घृतको खाने योग में लावे । वाले मनुष्य के मधुर और स्निग्ध कफको क्षार अपने क्षारपने से कफाशय को छिन्न अन्य क्षार । देवदारुत्रिवृद्दतीकटुकापंचकोलकम् ॥ भिन्न करके नीचे गिरा देताहै । स्वर्जिकायावशूकाख्यौ श्रेष्ठा पाठोपकुंचिकाः आसवादि का प्रयोग । कुष्ट सर्पसुगंधां च द्यक्षांशं पटुपंचकम् ॥ | मंदेऽग्नावरुचौमात्म्यमद्यैः सनेहमश्नताम् पालिकं चूर्णितं तैलवसादधिघृताप्लुतम्। | योजयेदासवारिष्टाभिगदान्मार्गशुद्धये । घटस्यांतः प.त्पक्वमग्निवणे घटे च तम् ।। अर्थ-अग्नि की मंदता और अरुचि हो तो क्षारंगृहीत्वाक्षीराज्यतक्रमद्यादिभिःपिवेत् गुल्मोदावर्तवर्मार्टोअठरग्रहणीकृमीन् साम्य मद्यके साथ स्नेहयुक्त आहार खानेको अपस्मारगरान्मादयोनिशुक्रामयाश्मरीः। दे, तथा मार्ग की शुद्धि के निमित्त आसव, क्षारो गदोऽयं शमयेद्विषं चाखुभुजंगजम् | अरिष्ट और निगद नामक मद्यकी योजना ... अर्थ-देवदारू, निसौथ, दंती, कुटकी, करै। पंचकोल,सज्जीखार,जवांखार,त्रिफला,पाठा, पथ्यविधान । कलौंजी, कूठ, और नाकुली इनमें से हरएक दो दो तोले, पांचों नमक एक एक पल, चिरिविल्वाग्नितकारीयवानीवरणांकुरः ॥ शालयः षष्टिका जीर्णाः फुलत्था जांगलं परम् इनका चूर्ण बनाकर तेल, चर्बी, दही और | शिस्तरुणविल्वानि वालं शुष्कं च मूलकम् For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy