Book Title: Yoga Shastram
Author(s): Subodhsuri, Ruchaksuri
Publisher: Dharmbhaktipremsubodh Granthamala Prakashan Samiti
Catalog link: https://jainqq.org/explore/009699/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www धर्म-भक्ति-प्रेम-सुबोध-ग्रंथमाला ग्रन्थाङ्क १ शास्त्र विशारद जैनाचार्य विजय धर्मसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमः कलिकाल सर्वज्ञहेमचन्द्राचार्यप्रणीतम् योगशास्त्रम् (स्वोज्ञविवरणसहितम्) संपादकाः प. पू. आचार्यदेव विजयसुबोधसूरीश्वराः तथा प. पू. आचार्यदेव विजयरुचकसूरीश्वराः ग्रन्थप्रकाशन प्रेरणादाता उपदेशदाता च प. पू. श्रीमद् आचार्यदेव विजय भक्तिसूरीश्वर पट्टा लंकार प. पू. आचार्यदेव विजय प्रेमसूरीश्वराः प्रकाशकः श्री धर्मभक्तिप्रेमसुवोधग्रन्थमाला अहमदावाद EF WE 66 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रक :पं. मफतलाल झवेरचंद गांधी श्री नयन प्रि.प्रेस ढींकवावाडी, गांधीरोड, अहमदाबाद. प्राप्तिस्थान :जैन श्वेताम्बर टेम्पल १११ ब गुरुवार पेठ, गोडीजी जैन मंदिर पूना-२. मूलकार :प. पू. कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरीश्वरजी म. वृत्तिकार :प. पू. कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरीश्वरजी म. ग्रन्थ प्रकाशन प्रेरक :प. पू. आचार्य विजय प्रेमसूरीश्वरजी म. ग्रन्थ संपादक :प.पू. आ. विजय सुबोधसूरीश्वरजी म. तथा प. पू. आ. रुचकसूरीश्वरजी म. प्रस्तावना :पं. मफतलाल झवेरचंद गांधी - श्री धर्मभक्तिप्रेममुबोध ग्रन्थमाला पं. मफतलाल झवेरचंद गांधी प्रकाशन समय :वीर संवत २४९८ वि. सं. २०२८ सने १९७२ प्राप्ति प्रतिसंख्या :- १००० साधु-साध्वी महाराजोने भेट एकवीश रुपिया पण्यम् : Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानामाननननननननननना प. पू. आचार्य म. श्री विजय भक्तिसूरीश्वरजी म. ना पट्टधर प. पू. आचार्य महाराजश्री विजय प्रेमसूरीश्वरजी म. तथा प. पू. आचार्य म. श्री विजय सुबोधसूरीश्वरजी म. ना सदुपदेशथी योगशास्त्र सटीक प्रकाशनमां सहाय आफ्नार ५००१-०० श्री विजय देवसूरसंघ श्री गोडीजी महाराज जैन दहेरासर अने धर्मादा खाताओना ट्रस्टना ज्ञानखातामांथी पायधुनी मुवइ-३. ७००१-०० गोरेगांव जवाहरनगर जैन संघ ज्ञान खातामांथी गोरेगांव मुंबइ-६२. २००१-०. श्री वाडीलाल साराभाइ ट्रस्ट चंद्रप्रभु जैन मंदिर, ज्ञानखातामांथी प्रार्थना समाज मुंबइ-४ १२५१-०० श्री घेलाभाइ करमचंद जैन सेनेटेरीयम ट्रस्ट ज्ञानखातामांथी पार्ला मुबइ. १००१-०० श्री जीवणभाइ अबजीभाइ जैन ज्ञान मंदिर उपाश्रय ट्रस्ट किंग सर्कल माटुंगा जैन संघ ज्ञानखातामांथी माटुंगा मुंबइ. नवन भवनवनवनवनवालाना Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bada BAAAAADOO DO १००१-०० श्री गोडीजी जैन उपाश्रय (पायधुनी) नी श्राविका व्हेनो तरफथी हस्ते हेमकोरबेन तथा चंदनवेन १०००-०० तपागच्छ जैन संघ ज्ञानमन्दिरमांथी शान्ताक्रूझ मुंबई. ५०१-०० राजस्थान विजापुर (स्टे. फालना) वाळा श्रीमती लहेरीबेन मोहनलालनी अट्ठाईतप तथा श्रीमती लीलावेन कांतिलालना पांच उपवासनी तपस्या निमित्ते हाल शान्ताक्रूझ मुंबई. ५०१-०० शा. गांगजीभाइ धारशीभाइ अजाणी तथा श्रीमती देवकावेन गांगजीभाइ अजाणी कच्छ हाल शान्ताक्रूझ मुंबई. ५०१-०० अमुभाइ सोमचंद शाह अमदावादवाला हाल शान्ताक्रुझ मुंबई. ५०१-०० श्री चमनलाल खुशालदास मणियार कडीवाला हाल शान्ताक्रूझ मुंबई. ५०१-०० श्री प्रवीणभाई अरवीन्दभाई शाह धोराजीवाला, हस्ते गुणवंतीबेन अरविंदभाई शाह शान्ताक्रुझ मुंबई. २०७६० -०० न 이이이이이이이이이 아이어학 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ. भक्ति योग म.जीवन शाखम् DBABIRBIRBHABIRROREHREPEPREE स्व. प. पू. आचार्यदेव श्री विजयभक्तिसूरीश्वरजी महाराजनी जीवन झरमर जगतमा प्रत्येक क्षणे सेंकडो माणसो जन्मे छे अने मृत्यु पामे छे. आ मृत्यु पामनार मानवोमां कोडक ज बडभागी महापुरुष होय छे के जेना मृत्यु पछी वर्षीसुधी तेना गुणोने लोको याद करना जेना जीवननी ज्योतना प्रकाशे पोतानो जीवनपंथ शोधे छे. समग्र जगत स्वार्थने रडे छे. स्वार्थ पुरो थतां कोइ कोइने याद करतुं नथी. पतिना मृत्यु पछी पाशा पटकनारी पत्नी समय जतां दुःख विसारे पाडे छे. पुत्र आदिना लग्नोत्सवमां म्हाले छे. पिता माता के भाई बधाना स्नेह कोइ ने कोइ स्वार्थ खातर होय छे, अने ते स्वार्थ पुरो थतां विसरी जाय छे अने जते दिवसे तेना नाम पण विसरी जाय छे. त्यारे जगतमां केटलाक महापुरुषो जन्मी एq जीवन वितावे छे के 'जब तुं आयो जगतमें तं रोवत जग द्वास. एसी करणी अब करो तुं हसत जग रोय'. (ज्यारे तारो जन्म थयो त्यारे पुत्र जन्म्यो एम मानी लोको इसे छे. पण तुं ते वखते रोवे छे. जगत्मां जन्म्या पठी तुं एबुं जीवन जीव के ज्यारे तं मत्य पामे त्यारे तारा मुख उपर हास्य होय अने जगत् तारा गुणोने संभारी रडया करे.) तेमना RRAIBARSHIDARBRBRBRBRBA ॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग प्रा .यक्ति म.जीवन शास्त्रम् ॥२॥ ORSRAEBARBARSHABIRBIRRORBA मृत्यु पछी वर्षों मुधी तेमनां जीवननी ज्योतना-प्रकाशना सहारे पोतानो जीवनपथ नकी करे छे. स्व. प. पू. आचार्यदेव विजयभक्तिसूरीश्वरजी महाराज एवा महापुरुषो पैकीमांना एक हता. जेमन बाळपण निर्दोष हतुं. जेमनी युवानी पवित्र हती, जेमनी वृद्धावस्था मार्गदर्शक हती. तेओश्री जीवनना प्रारंभथी धर्ममार्गमां ओतप्रोत अने सेंकडोने धर्ममार्गे जोडनारा, धर्मक्रियानुष्ठानमा तत्पर, सदा परोपकारी, अति सरळ अने भद्रिक परिणामी हता. स्व. प. पू. आचार्यदेव विजयभक्तिसूरीश्वरजी महाराजे आबाल ब्रह्मचारीपणे २७ वर्षनी भरयुवानीमां परम पावन भागवती दीक्षा स्वीकारी हती. दीक्षा स्वीकारतां पहेलां पण सामायिक,-प्रतिक्रमण, पौषध, रास विगेरेमा सेंकडो माणसोने धर्मक्रियानुष्ठानमा जोडी धर्मक्रियामां पाते ओतप्रोत रहेनार हता. ५८ वर्षनो तेमनो अतिनिर्मल दीक्षापर्याय हतो. आ ५८ वर्षना गाळामां तेमणे ठेरठेर गुजरात, कच्छ, काठीआवाड, बंगाल, राजस्थान विगेरे दूर सुदूर प्रदेशोमां बिहार को छे. गामेगामना कुसंपोने तेमना निर्मळ चारित्र अने भद्रिकपणाथी उकेल्या छे. ठेर ठेर मुक्तिमार्गना परवसमां वर्धमान तपना खाताओ खोलाबो अनेकने तपमार्गे जोड्या छे, शासननी प्रभावना करता १९ थी २० छरी पाळता संघो कढावी जैन शासननी प्रभावना करी छे. परम परमात्मा देवाधिदेव तीर्थकर भगवंतोना १२ जेवा प्रतिष्ठा प्रसंगो योजी सेंकडो, हजारो मानवोना हृदयमा धर्मने प्रतिष्ठित को छे. ७२-७३ शिष्य प्रशिष्यरुप विद्वान तपस्वी अने KADURERSARDARBAREXPECTED ॥२॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DAAROB आ-भक्ति म.जीवन योग शाखम् WORDPRESSIONP ॥३॥ O RORBIRBASHROOPLES चारित्रपात्र मुनिगणने श्री संघने समी पोताना जीवनने कृतकृत्य धन्य करवा साथे जैनशासनने अजवाळयु छे. ७५ जेवा परम पवित्र साध्वीगण जैनशासनने सांपी चतुर्विध संघ पैकीना श्रमणसंघना पायाने मजबुत कयों छे. तेमना जीवननी सुवास क्यां नथी? बंगालमां, कलकत्तामां, यु.पी.मां, बनारसमां, राजस्थानमा सादडी पालीमां, काठीयावाडमां पालीताणा, वीरमगाम, मांगरोळ, वढवाण, जामनगर, भावनगर अने लींबडीमां तथा गुजरातमां पाटण, अमदावाद, राधनपुर, खंभात, मुंबई, कपडवंज, महेसाणा विगेरे ५८ स्थळोए चातुर्मास करी हमेशना धर्मस्थानोना पाया मजबूत कर्या छे. सदा माटे तपत्यागनो प्रवाह बहेतो रहे ते माटे धर्मक्रियानुष्ठान खाताओं तेमणे सभर बनाव्यां छे. आजे मूरिवर नथी पण तेमणे करेलां कामो तेमनी साक्षि पूरे छे. आजे सूरिवरनी भदिकमुखमुद्रा सत्मनो सरल अने हृदयसांसरो असर करे तेवो धर्मोपदेश आपणा काने अथडातो नथी पण तेमणे जैनशासनने समर्पण करेल केइ उत्तम मुनिगण तेमनां अनेकरुपो करी ठेर ठेर तेमनो उपदेश आपे छे. प. पू. आचार्यदेवनो जन्म वढीयारमा आवेल समी गाममां थयो हतो. आ समी गामे खरेखर सम सरळ-सीधा नम्र एवा महापुरुपने समी जेनशासनने प्रभावित बनावेल पितानं नाम वस्ताचंदभाई अने मातानुं नाम हस्तुबाइ. वि. सं. १९३० ना आसो मुदी ८ नो शाश्वत आयंबीलनी ओलीनो दिवस ते तेमनो जन्मदिन. खरेखर महापुरूषना जन्मदिननी नियततामां पण भाविनं R ॥३॥ OGARLS Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् आ. भक्ति म.जीवन ॥४॥ SARORDARNIRRORSCORRESPEE सूचन होय छे. तपथी प्रभावित थनारा दिवसोमां जन्मनार आ महापुरुष वर्धमान तप आदि तपना अणमोल प्रभाव करनारां स्थानो ठेठेर उभा करी स्वयं तपोमूर्ति बन्या हता. गृहस्थीपणामां तेमनु नाम 'मोहनलाल' पाडवामां आव्यु. खरे तेमणे गृहस्थीपणामां समग्र तपक्रिया द्वारा समी गामने तेमणे मोहित कयु हतु. त्यारपछी पवित्र संयमीजीवन अने भद्रिकपणाथी जैन शासनने पण प्रभावित कयु हतु. मोहनलाले ते कालनी व्यवहारिक केळवणी लीधी परतु सेमनी रुचि धार्मिक अभ्यासमां वधु इती. तेमणे प्रतिक्रमण स्मरण अने प्रकरणना अभ्यास कर्यो. व्यवहारिक अभ्यास पछी व्यापारवणजमां चित्त परोववा करतां तेमणे प्रतिक्रमण पौषध अने तपमा चित्त पराव्यु. छट्ट अट्ठाई विगेरे विविध तपो करी तेमणे तेमना आत्माने निर्मल बनाव्यो-भावित बनाव्यो. पवित्र थयेला मोहनलालने धार्मिकतानो रंग लाग्यो. समी शंखेश्वर राधनपुर वच्चेनु विहारक्षेत्र साथेज खुबज धार्मिकवृत्तिवाळु गाम. अटले अवर नवर पधारता विद्वान् संयमो मुनिभगवंतानो पण, तेमणे परिचय करवा मांडयो. कर्म विवरे मार्ग मोकळो कर्यो, वैराग्यनी झलक मोहनलालना हृदयमा स्फुरी अने तेना निमित्तरुप प. पू. आचार्यश्री विजय धर्मसरोश्वरजी महाराज (ते वखते प. पू. मुनिश्री धर्मविजयजी) समी पधार्या. तेमना -984-%CRO ॥४॥ B IOfee Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् . भक्ति म. जीवन MORPOROPSIRROC ॥५॥ -RRORPOROREPORRORETROPPED उपदेशे मोहनलालने संयममार्गे विचारवा दृढ निश्चयी बानाव्या. मनोमंथन अने मातापितानो समजावट बाद संमति मेलवी वि. सं. १९५७ महावदि १० ना रोज समीमां सकळसंघना खूबज आशीर्वाद पूर्वक परम उल्लास साथे तेमणे भागवती प्रव्रज्या स्वीकारी अहिं प. पू. धर्मविजयजी महाराजे तेमन मुनि भक्तिविजयजी नाम पाडयुं अने बडी दीक्षा तेमनी उंझामां करवामां आवी. वि. सं. १९५७ नुं प्रथम चातुर्मास तेमणे वीरमगाममां कयु. अहिं दशकालिक तथा सारस्वत व्याकरणनो अभ्यास शरु कर्यों. वि. सं. १९५८नु चातुर्मास मांडलमां कयु, आ बे वर्ष दरमियान मुनि भक्तिविजयजीए ठीक ठीक शास्त्र अभ्यास कर्यो. मांडरना चातुर्मास दरमियान आपणा चारित्रनायकना गुरुदेव पू. धर्मविजयजी महाराजे जैनधर्मना प्रकाण्ड विद्वानो तैयार करवानु अक विद्यार्थी वर्तुळ उभु कयु. आ विद्यार्थी वर्तुळने विद्याना धाम काशीमां तैवार करवानु लक्ष्य राखी तेमणे आपणा नूतनमुनि पं. कमलविजयजी महाराजने सौंपी तेमणे काशी तरफ विहार कों. अने वि. सं. १९५९ना वैशाख सुदि ३ ना रोज काशीमां श्री यशोविजयजी जैन पाठशाळानी स्थापना करी. ___ चार वर्ष ना टुका गाळामां तैयार करेला विद्यार्थी वर्तुळमां पू. मुनिश्री भक्तिविजयजी म.ना संसारीभाइ सौभाग्यचंद. श्री बेचरदास, श्री मफतलाल, श्री गुणचंद, अने श्री नरसींदासने वि. सं. १९६३ना चैत्र वदी O CCASCORPEX ॥५॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥६॥ ५ ना रोज कलकत्तामां परमपावन भागवती प्रवज्या आपी अनुक्रमे तेमना मुनिश्री सिंहविजयजी मुनिश्री विद्याविजयजी मुनिश्री महेन्द्रविजयजी, मुनिश्री गुणविजयजी अने मुनिश्री न्यायविजयजी नाम राखवामां आव्यां. वि. सं १९५९ १९६० १९६१ आ. त्रण चातुर्मास अनुक्रमे महेसाणा, पाटण अने वीरमगाम आपणा चरित्रनायकनां थयां आ वर्ष दरमियान सं. १९५९मां थराना वतनी आलमचंदने पू. पं. श्री कमल विजयजी महाराजना वरद हस्ते दीक्षा अपावी तेमनुं नाम अमृतविजयजी राखी आपणा चरित्र नायकना प्रथम शिष्य बनाववामां आव्या. अने त्यारवाद वि. सं. १९६० मां टीकरना रहीश सुंदरभाइने दीक्षा आपी मुनिश्री चंद्रविजयजी नाम राखी बीजा शिष्य बनाववामां आव्या तदुपरांत श्री कल्पसूत्र अने महानिशीथना योग अने विशिष्ट शास्त्रग्रन्थोना अभ्यास कर्यो. आपणा चरित्र नायक मुनिश्री भक्तिविजयजी म० ने पू. पं. कमलविजयजी महाराजनी शितल छाया तथा उत्तरोत्तर अभ्यास योगोद्वहन अने शिष्योनी दीक्षा आ बधुं होवा छतां गुरुमहाराजनो विरह खुब साल्यो, तेमनुं मन पूज्य गुरुदेवनी शीतल छायामां जवा तत्पर थयुं. तेथी वि० सं० १९६१ नु चातुर्मास पूर्ण कर्या बाद कपडवंज, गोधरा, रतलाम, उज्जैन, मक्षी, झांसी, कानपुर विगेरे घणा घणा स्थळोनी यात्रा करी, बच्चे चातुर्मासनी विनंति होवा छतां वि० सं० १९६२ना वैशाख वदी १३ बनारस पधार्या अने वि० सं० १९६२ नुं चातुर्मास गुरुदेवनी छायामां कयुं. आ. भक्ति म. जीवन ॥६॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ. भक्ति योग शास्त्रम् म. जीवन ॥७॥ G-RRER.RRORSHIROMANOHIBITORROR वि० सं० १९६३, अने १९६४ १९६५ नां चातुर्मास पू. गुरुदेवनी साये कलकत्ता अने बनारसमां थयां, आ चातुर्मास दरमियान शाखोभ्यास अने गुरुदेवनी शुश्रुषाथी तेमणे गुरुमहाराजनो अनहद प्रेम संपादन कर्यों. वि० सं० १९६५ ना चातुर्मास बाद गुरुमहाराजनी आज्ञा लइ मुनिश्री भक्तिविजयजी महाराजे गुजरात तरफ विहार कर्यो, वि. सं. १९६६- चातुर्मास पालीमां ( राजस्थान ) कर्यु. चातुर्मास उतर्या बाद गुजरातमां १९६७-१९६८-१९६९-१९७० ना चातुर्मास अनुक्रमे साणंद, समी सादडी अने पालीमा अने १९७११९७२-१९७३-१९७४ नां चातुर्मास अमदावाद, पालीताणा, अने वीरमगाममा करी वि. सं. १९७५ मां कपडवंज पधार्या. कपडवंजमां ते वखते पूज्यपाद् आचार्य श्री विजयवीरसूरीश्वरजी म. बिराजता इता. तेमणे श्री संघने प्रेरणा करी चरित्रनायक मुनिश्री भक्तिविजयजीने गणिपद तथा पन्यासपद लेवानो आग्रह को. श्री संघना आग्रहथी महोत्सवपूर्वक वि० सं० १९७५ ना अपाड सुदि २ ना रोज गणिपद अने अषाड सुदि ५ ना रोज पन्यासपद योगोदवहनपूर्वक पू. आचार्य विजयवीरमरीश्वरजी म.ना वरद हस्ते श्री सकल संघना खुब उत्साहपूर्वक राहवे मनिश्री भक्तिविजयजी पंन्यास भक्तिविजयजी गणि थया. अने वि० सं० १९७५ - चातर्मास कपडवंजमां कयु. चातर्मास उतरू बाद पन्यास भक्तिविजयजी गणिवर पालीताणा पधार्या. आ वखते पालीताणामां 00RRERBRBRBRBRECECE00 ॥७॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P २-२-00-40- योग शास्त्रम् आ. भक्ति म. जीवन 1॥८॥ 11OIRBRBREARRAR-80% पू. आगमोद्धारक आ. सागरानंदसूरीश्वरजीए आगमवाचना शरु करेल. पू. पंन्यासजीए आ वाचनामां ओपनियुक्ति, पिंडनियुक्ति, भगवतीसूत्र अने पन्नवणाजी विगेरे सूत्रोनी यांचना लीधी. वि. सं. १९७६नुं चातुर्मास पालीताणा कोटावाळी धर्मशाळामां कयु. अर्हि आगमोद्धारक आचार्यदेव सागरानंदसूरीश्वरजीना गाढ परिचयमां आव्या. अने तेमना हृदयमां जैनशासनमां वर्तता वर्तमान पदस्थोमां तेमनु स्थान खुब लागणीभयुं हतुं. वि. सं. १९७७-१९७८ १९७९-१९८०-१९८१-१९८२-१९८३-१९८४ ना चातुर्मास अनुक्रमे मांगरोळ, वढवाण, समी, विरमगाम, भावनगर, पाटडी, वढवाण केम्प, राधनपुरना चातुर्मास करी वि० सं० १९८५ नुं चातुर्मास शाहपुर अमदावादमां कर्यु. अहि पं. भक्तिविजयजी गणीवरने पू, आगमोद्धारक आचार्यदेव साथे वधु गाढ परिचय थयो. वि. सं. १९८६नु चातुर्मास माणसा कयु:: अने अहि वर्धमान तपनी संस्थानी स्थापना करी चोमासा वाद पू. पन्यासजी महाराज बोरु पधार्या. अहिंथी पानसरनो संघ नीकळ्यो. त्यां तीर्थमाळा पहेरावी अमदावादथी साहित्य प्रदर्शनमां पधारवानी आग्रहभरी विनाति यवाथी अमदावाद पधार्या. साहित्य प्रदर्शननी पूर्णाहूति बाद खेडा थइ खंभात आव्या. खंभातमां श्री महेसाणानो संघ आव्यो अने चातुर्मास माटे आग्रहभरी चिनति करी आथी तेओश्री महेसाणा पधार्या. __ महाराजश्रीनुं व्याख्यान हमेशा वैराग्यमय रहेत. आ व्याख्यानथी मूळ मारवाडना वतनी परंतु ते वखते महेसाणामां रहेता श्री पन्नालाल अने शेषमल बन्नेना हृदयमां वैराग्यांकुर सविशेष पल्लवित ORDPRESSIRBAREILLEGEEG ॥८॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - था. भक्ति IC:म.जीवन शास्त्रम् ॥९॥ HR HORS-% थया. माता-पिताना धार्मिक उत्तम संस्कार हता. कंदमूळ अभक्ष्यनो त्याग हतो. क्रियानुष्ठान अने तप प्रत्ये खेचाण हतुं. तेमां महाराजश्रीना उपदेशे तेमने दीक्षार्थी बनाव्या. श्री पन्नालाले प्रथम दीक्षानी भावना दर्शावी. पूज्य महाराजश्री तेमने माता पितानी अनुज्ञा मेळवी तेमने अमदावाद विद्याशाळामां बिराजता प. पू. आगमोद्धारक आ. सागरानं दसूरीश्वरजी पासे मोकल्या अने तेमना वरद हस्ते श्री पन्नालालनी दीक्षा प्रथम अषाड वदी-६ ना रोज सुमुहूर्ते थइ. अहि तेमनु नाम प्रेमविजयजी पाडवामां आव्यु. नृतनमुनि प्रेमविजयजीपू. आचार्य सागरानंदसरीश्वरजी महाराजश्रीनी निश्रामां चातुर्मास कयु. अने पू. पन्यासजी महाराजर्नु सं. १९८७नु चातुर्मास महेसाणामां श्यु. चोमासु उतरे नूतनमुनि तेओ पोताना गुरुमहाराज पासे महेसाणा आव्या. महेसाणामां ते वखते खुब धर्म उत्साह हतो केमके पूज्य पन्यासजी महाराजना हाथे जे संघमां प्रथम वमनस्य हतुं ते दुर थइ संप थयो हतो. तेमज खुब ज प्रभावना पूर्ण उपधान तप चालता हता. उपधान तपना मालारोपण महोत्सव प्रसंगमा वि. सं. १९.८८ना मागसर सुदि ५ ना रोज नतनमनि प्रेमविजयजीनी बडी दीक्षा थइ. आ बडी दीक्षानो प्रसंग मुनि उदयविजयजी अने प्रबोधविजयजीनी साथे प्रण मुनि भगवंतोनो हतो. उपधान तपनी पूर्णाहूति बाद पूज्य महाराजश्री वीरमगाम पधार्या. अहिं श्री पन्नालालना भाइ 393GPBPOTOSBEEGLECRECED A ॥९॥ PPS Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग आ. भक्ति म. जीवन शास्त्रम् REGARD ॥१०॥ -%% 20%D शेषमलनी दीक्षा पूज्य पन्यासजी महाराजना वरद हस्ते स. १९८८ ना पाप बदी-१० ना रोज थइ. तेमर्नु नाम सुबोधविजयजी पाडवामां आव्गुं अने तेमनी वडी दीक्षा महा वदी-६ अमदावाद शाहपुरमा थइ. आ बन्ने बांधव बेलडी आजे पू. आ. प्रेमसूरिजी अने पु. पंसुबोधविजयजी पूज्य आचार्यदेव भक्तिसूरीश्वरजी महाराजना समुदायनी सान वधारता विचरे छे. अमदावादथी विहार करी पू. पंन्यासजी महाराज कपडवंज पधार्या त्यां सुरतनी आग्रहभरी विनंति थवाथी वि. स. १९८८नु चातुर्मास सुरत करी वि. सं. १९८९नु चातुर्मास मुंबइ लालबागमा कयु अने तेमना शिष्य मुनिश्री कचनविजयजीने गोडीजीमां चातुर्मास करवा माटे आज्ञा आपी. मुंबइना चातुर्मास दरमियान घणी दीक्षाओ प्रतिष्ठाओ अने अनेकविध धर्मप्रभावनाना कार्य करी पृ. पन्यासजी महाराज खंभातनी आग्रहभरी विनति थवाथी खंभात पधार्या. अने वि. सं. १९९०नु चातुर्मास खंभात कयु. अहि मुनिश्री कंचनविजयजी अने मुनिश्री भुवनविजयजीने भगवतीना योगमा प्रवेश कराव्यो अने खंभातमां उपधान तप विगेरे अनेकविध शासन प्रभावनाना कार्य करावी पूज्य पन्यासजी महाराज पालीताणा पधार्या. अहिं पालीताणामां वि. सं. १९९१ना महा सुदी ६ना चडते पहोरे मुनिश्री कंचनविजयजी अने मुनिश्री भुवनविजयजीने गणि तथा पन्यास पदवीथी विभूषित कर्या. पदार्पण महोत्सव बाद तलाजा थई पृ. पंन्यासजी महाराज भावनगर पधार्या अने सं. १९९१नु चातुर्मास तेमणे भावनगरमां कयु. चातुर्मास बाद संघ साथे पालीताणा यात्रा करी लीबडी पधायाँ. DAANBROPEOPKIPEPEPSION BN ॥१०॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग | आ.भक्ति म. जीवन शास्त्रम् ॥११॥ CRORECARRORESCORRECEMCCCCRECORE अहिं लींबडीमां श्री शेठ पोपटलाल धारशीभाइ द्वारा आगमोद्धारक आचार्यदेव सागरानंदमूरिजी पु. पन्यासजी महाराजने आचार्यपद ग्रहण करवा जणाव्यु. परंतु पन्यासजी महाराजे जे पदमां हु छुते पर्याप्त छे अने विनंतिपूर्वक जणाव्यु के आपनी कृपा छे. ते बस छे. फरी श्री पापटभाइ पू. आगमोद्धारकश्रीना संदेशो लई आव्या अने तेमनी आज्ञाने वश थइ पन्यासजी म. पालीताणा पधार्या. त्यां प. पू. आगमोद्धारक आचार्यदेवना वरद हस्ते वि. सं. १९९२ वै. सु-४ ना शनिवारना प्रातः समये श्री आगमोद्धारक आचार्यदेवना वरद हस्ते आचार्यपदारुढ करवामां आव्या. आ वखते अनुक्रमे पू. आ. माणिक्यसागरसूरि, आ. कुमुदसूरि, आ. भक्तिसरि अने पू. आ. विजयप्रभसरि थया । हवे आपणा चारित्र नायक पू आ. भक्तिमरि महाराज संघनी विन तिथी तलाजा थइ लींबडी पधार्या अने वि. सं. १९९२नु चातुर्मास तेमणे लींबडीमां कहुँ । वि. स. १९९३ चातुर्मास पू. पंन्यासजी महाराजे समीमां कर्यु: अहीं पू. मुनि श्री सुमतिविजयजीने भगवतीजीना योगमा प्रवेश कराव्यो. अहि पण तेमणे उपधान विगेरे अनेक शासनप्रभावनाना कार्यों कराव्या. त्यारवाद महाराज विहार करी वीरमगाम पधार्या. अहिं महोत्सवपुर्वक पू. सुमतिविजयजी म, ने वि. सं. १९९४ना महावदी ७ना दिवसे गणिपदाल कृत कर्या अने १९९४नु चातुर्मास पाटण कयु अहि पण उपधान विगेरे शासन प्रभावना करनारा महान् उत्सवो थया. MP4%AE%ERS555PERDHA% ॥११॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् मा- भक्ति म. जीवन ॥१२॥ ARROREGISTRAROHORORBASABIRHORORE त्यारवाद समी वगेरे ठेकाणे थइ पू. पन्यासजी महाराज चाणस्मा पधार्या. अहिं वि. सं. १९९५ना महा सुद १३ना रोज सुमतिविजयजी गणिवरने पन्यास पदाल कृत कर्या. वि. सं. १९९५थी वि. सं. २००८ सुधीना चातुर्मास अनुक्रमे वढवाण, जामनगर, पालीताणा, वीरमगाम, समी, महेसाणा, थरा, खभात, कपडवंज, पालीताणा, अमदावाद, समी, पाटण अने महेसाणामां कर्या. वि. सं. २००९र्नु चातुर्मास शाहपुर अमदावादमां कयु । वि. सं. २००९ना चातुर्मासमां मुनिश्री प्रतापविजयजी, मुनिश्री प्रेमविजयजी, मुनिश्री सुबोधविजयजी, मुनिश्री महिमाविजयजी, मुनिश्री रंजनविजयजी, मुनिश्री प्रभावविजयजी, मुनिश्री विनयविजयजीसात मुनिवर्याने श्री भगवतीजीसूत्रना योगमा प्रवेश कराव्यो अने संवत २०१०ना कारतक वदी ६ना दिवसे चतुर्विध संघ समक्ष खुवज महोत्सवपूर्वक गणिपद अर्पण कयु अने मागसर सुदी ५ना शुभ दिने मुनिश्री कनकविजयजी गणिसहित आठे गणिवरोने पन्यास पदवीथी विभूषित कर्या. आ पदार्पण प्रसंगे अट्ठाइ महोत्सव, शान्तिस्नात्र तथा स्वामिवात्सल्य आदि अनेक शुभ कार्यों थयां इता. पछी श्री पृ. आचार्यश्री सपरिवार सिद्धाचलजीनी यात्राओं पधार्या. वि. सं. २०१०र्नु चातुर्मास पालीताणा कर्या बाद वि, सं. २०११-२०१२ना चातुर्मास समी भने थरामां कयु. वि. सं. २०१३थी तेमनी तबीयत अस्वस्थ रहेवा मांडी, आथी वि, सं, २०१३ अने अने वि. स. २०१४नु चातुर्मास समीमां कयु CHORDARORRECR UARLAEEG ॥१२॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् मा-भक्ति म.मीवन वि. सं. २०१४ना समीना चातुर्मासमां पं. प्रेमविजयजी (हाल आ. प्रेमसूरीश्वरजी) पं. सुबोधविजयजी विगेरे नव ठाणा पू० आचार्यदेवनी साथे हता. आ. चातुर्मास छेल्लु इतुं. साथेना मुनिभगवतो पण गुरुदेवनी शुश्रुषानो परम लाभ उठाव्यो. चोमासु उतरतां तेमने श्री शंखेश्वरतीर्थनी यात्रानी रढ लागी हती तेथी ते शंखेश्वर पधार्या. मागसर वद-१० ना पार्श्वनाथ भगवानना जन्म कल्याणकनी आराधना चार एकासणा द्वारा करी. अने मागसर बद-१४ नो उपवास शिष्यो अने डॉकटरोनी ना छतां तेमणे कों. पोतान आसन मंदिरना शिखरना दर्शन थाय ते रीते राख्यु. पोताना अंतिम समयनो पोतानो ख्याल आवी गयो होय ते रोते तेमणे बधुं समेटवा मांडा. सूरिमंत्रना पाना, स्थापनाचार्य वासक्षेपनो बाटवो विगेरे बधु पोताना शिष्य पं. प्रेमविजयजीने आप्यो अने पाछळनो समुदाय पण तेमने सोप्यो. वि. सं. २०१५ ना पोष सुद-३ सोमवारे बरावर विजयमुहूर्ते सकळ संघ द्वारा यती नमस्कार महामंत्रनी घोषणा सांभळ्या पूर्वक अर्धपद्मासने नवकारवाळी गणतां आराधना पूर्वक आ नश्वरदेहने पुरेपुरू तेना पासेथी कार्य लइ त्याग कयों, पोष शुदी-४ना अगियार वागे जरीथी मढेल पालखीमां निहरण यात्रा निकळी. जय जय नंदा अने जय जय भदा ना अवाज साथे संघनी आंखमां आंसु अने नादमां डुमो हतो. समी, पाटण, अमदावाद, मांडल, वीरमगाम, महेसाणा दसाडा, पाटडी, आदरीयाणा, थरा, मुंजपुर, हारीज, पंचासर, बजाणा आदिना श्री संघो तथा जेनेतरो आदि हजारो मानवमेरामण आ निहरण यात्रामां सामेल हतो. ॥१३॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् भा-भक्ति म.जीवन ॥१४॥ RORDIRECORDIRECRORIERREN साधु साध्वी श्रावक श्राविका सौ अनाथ जेवा बन्या. किंकर्तव्य मृढ बन्या. जगत्भरने नश्वर मानता अने मनावता धीरगंभीर मुनिगणनी आंखमां पण आंसु उभरायां, आ आंसु मोहना न हतां पण स्व. आचार्यदेवना उपकारना स्मरणनां इता. सौजे देववंदन करी स्वर्गस्थना जीवननी गुणानुमोदना करी. आ हता आपणा स्व. गुरुदेव आचार्य भक्तिसूरीश्वरजी महाराज. आम तेमना समयमां जैन संघमां अग्रगण्य गणाता प. पू. शासनसम्राट् आ. विजयनेमिसरीश्वरजी म. आगमोद्धारक आचार्य सागरानंदसूरीश्वरजी म. पू. आ. विजयनीतिसूरीश्वरजी म. पू. आ. विजय वल्लभसूरीश्वरजी म. विगेरे तमाम आचार्योंनो खुब ज सदभाव अने लागणी तेमणे मेळवी हती. आ बधामा तेमनो अतिसरळ स्वभाव, भद्रिक परिणाम अने केवळ वैराग्य ओतप्रोत सुंदर संयमी जीवन हतु. तेमनुं आयुष्य, ८६ वर्षन हतुं. संयमीजीवन पर्याय ५७ वर्षनो हतो. आ. सत्तावन वर्षना संयमीजीवनमा दीक्षा, प्रतिष्ठा. उपधान, संघ, गामो गामना संघमां संप, धार्मिक खाताओनी जाळवणी, धर्मोपदेश जीवमात्र उपरनी करुणाथी तेमनुं जीवन सभर हतुं, रगे रगमां धर्म प्रेम वहेतो हतो. अने परमात्मानं ध्यान, सदा उघमां पण तेमने धर्ममां सदा जागृत् राखतुं हतुं. भारे दबदबापूर्वकना सामैया, भक्तवर्ग, साधुओनो समुदाय के मोटा उत्सवथी कदापि ते छलकाया नहोता. क्रोधने समताथी तेमणे जीत्यो हतो. सरळ स्वभावने कारणे माया तेमना हृदयमा प्रवेश कयों न इतो. सर्वत्याग करनार अने सर्वने छूटे हाथे पोताना तन मननी शक्तिथी उपकार करनारने ममत्व के लोभ तो कयांधी होय ज? आवा परमउपकारी शासनप्रभावक गुरुदेवने कोटि कोटि वंदन हो । सदा उघमा पणा करुणाथी तेमनुं जीवन गामना संघमां सप, घात. आ. सत्त ॥१ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शाखम् क्रमणिका प्रथम प्रकाश विषय: ॥१५॥ २ योगभितमहावीर स्तुतिः ३ महावीरस्य समदृष्टिगर्भित 6GBPSPEPPEOPPERSOUR5 चरितम् अनुक्रमणिका ९ योगप्रभावोपरि मरुदेवादृष्टान्तः १० योगमाहात्म्योपरि दृढप्रहारिकथा ११ योगश्रद्धावर्धनोपरि चिलातिपुत्रकथा ६३ १२ योगस्तुतिः तल्लक्षणं च रत्नत्रयम् १३ सम्यग्ज्ञानस्वरूपम् ६९ १४ जीवादिनवतत्त्वस्वरूपम् ७२ १५ सम्यगदर्शनलक्षणं तत्स्वरूपं च ७४ १६ सम्यक्चारित्रस्वरूपम् ७६ १७ महाव्रतरूपमूलगुणस्वरूपम् ७६ १८ महात्रतानां भावनाः ७९ १९ उत्तरगुणरूपचारित्रस्वरूपम् ८४ २० पश्चसमितिस्वरूपम् द्विचत्वारिंशद्भिक्षादोषाश्च ८५ २१ गुप्तित्रयस्वरूपम् २२ धर्माधिकारिश्रावक लक्षणम् द्वितीय प्रकाश २३ द्वादशव्रतनामानि २४ सम्यक्त्वस्वरूपम् २५ मिथ्यात्वस्वरूपम् ११३ २६ सुदेवलक्षणम् २७ कुदेवलक्षणम् ११८ २८ सुगुरुलक्षणम् १२० २९ कुगुरुलक्षणम् १२१ ३० सद्धर्मलक्षणम् १२१ १११ ४ योगशास्र प्रस्तावः १८ ५ योगमाहात्म्यम् १८ ६ योगफलप्राप्तौ सनत्कुमारच क्रिचरितम् ७ लब्धिस्वरूपम् २३ ८ योगमाहात्म्योपरि भरत २८ चक्रिकथाऽऽदिनाथ चरितगर्मा - SHORSHASTRORESARSORREARROROPENER ॥१५॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥१६॥ ३१ असद्धर्मलक्षणम् १२३ ३२ कुदेवादीनां प्रतिक्षेपः १२४ ३३ सम्यक्त्वलिङ्गपञ्चकम् १२४ ३४ सम्यक्त्वभूषणपश्चकम् १२७ ३५ सम्यक्त्वदुषणपश्चकम् १२९ ३६ अणुव्रतस्वरूपम्, तद्भङ्गाश्च १३३ ३७ हिंसोत्यागोपदेशः १३६ ३८ हिंसाकर्तुर्निन्दा १४० १४२ ३९ हिंसोपरि सुभूमब्रह्मदत्तयोः कथा ४० पुनहिंसाकर्तुर्निन्दा १७८ ४१ कुलक्रमागतहिंसात्यागे कालसौकरिकपुत्रकथा १७९ ४२ हिँसाकर्तुर्दमादयो निरर्थकाः १८८ ४३ हिंसानिरूपणम् १८९ ४४ हिंसाशास्त्रोपदेशक निन्दा १९० ४५ श्राद्धीयहिंसाप्ररूपणम् १९४ ४६ अहिंस्य स्तुतिः फलं च ४७ असफल ४८ सत्यव्रतस्वरूपम् ४९ असत्यफलम् ५० असत्यस्यैहिकामुष्मि १९६ १९६ १९७ १९७ १९९ कफलम् ५१ सत्यासत्यविषये कालिक| वसुराज कथा २०० ५२ परपीडाकारि सत्यमपि त्याज्यम् २०७ ५३ तदुपरि कौशिककथा २०७ ५४ असत्यवादिनिन्दा सत्यवादिस्तुतिव ५५ अचौर्यव्रतस्वरूपम् ५६ हिंसातेोऽपि चार्यस्य बहुदोषत्वम् ५७ चौर्ये मण्डिकस्याचौर्ये च रौहिणेयस्य कथा २१३ २१२ २०८ २११ ५८ चौर्यनिवृत्तस्य फलम् २३८ ५९ ब्रह्मव्रतस्वरूपम् २३८ ६० मैथुनदोषाः ६१ स्त्रियाः दोषाः ६२ वेश्यादोषाः ६३ परदारगमनदोषाः ६४ परखरमणेच्छायामपि दोषास्तुदुपरि रावणकथा २४८ ६५ परखीविरतसुदर्शनकथा २६५ २३९ २४२ २४५ २४८ मडु क्रमणिका ॥१६॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BIP का योग शाखम् अनु कमणिका ३४० ॥१७॥ २८ ६६ मैथुनासक्तस्त्रीपुंसयो रुपदेशः फलं च २७७ ६७ ब्रह्मचर्यस्यो___भयलोकफलम् २७८ ६८ परिग्रहस्वरूपम् ६९ परिग्रहदोषाः २८५ ७० परिग्रहोपरि सगर-कुचिकर्ण तिलक-नन्दकथानकानि २८६ ७१ संतोषोपरि ___अभयकुमारकथा २९४ ७२ संतोषस्तुतिः ३०७ तृतीय प्रकाशः ७३ गुणवतविषये दिग्विरति नामप्रथमगुणवतम् ३०७ ७४ दिग्विरतेः फलम् ३११ ७५ द्वितीयं भोगोपभोगगुणव्रतम् ३१२ ७६ भोगे वय॑वस्तूनि ३१३ ७७ मदिरादोषाः ३१३ ७८ मांसदोषाः ३१६ ७९ मांसभक्षणं न दोषायेति मतनिरास: ३१९ ८. नवनीतभक्षणदोषाः ३२५ ८१ मधुभक्षणदोषाः ३२६ ८२ पञ्चोदुम्बरदोषाः ३२८ ८३ अनन्तकायस्वरूपम् ३२९ ८४ अज्ञातफलवजनम् ३३० ८५ रात्रिभोजननिषेधः ३३१ ८६ आमगोरससंपृक्तद्विदलादिभोजननिषेधः ३३९ ८७ जन्तुमिश्रफलपुष्पादिम क्षणनिषेधः ८८ तृतीयं गुणव्रत मनर्थदण्डः । ८९ दुानवर्जनोपदेशः ३४१ ९० पापोपदेशवर्जनम् ३४१ ९१ प्रमादवर्जनोपदेशः ३४२ ९२ सामायिकं नाम प्रथम शिक्षाव्रतम् ३४५ ९३ सामायिकात्कर्मनिजरा चन्द्रावतंसककथासहिता ३४९ ९४ देशावकाशिक द्वितीय शिक्षाव्रतम् ९५ पौषधं तृतीयं शिक्षाव्रतम् ३५१ ERSPECURUGRABODHPUR ॥१७॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शाखम ॥१८॥ ९६ पौषधोपरि चुलनीपितुः सप्तक्षेत्रस्वरुपच ११९ स्थुलिभद्र कथा कथा ३५२ १०८ महाश्रावकदिनचर्या ४१५ १२० व्रतपालनोपरि ९७ अतिथिस विभाग: १०९ जिनवन्दनविधिः कामदेवकथा ५३. चतुर्थ शिक्षाव्रतम् ३५६ तत्सूत्राणां चार्थ: ४१५ १२१ उच्चमनोरथचिन्तनम् ५३४ ९८ सुपात्रदानोपरि ११० गुरुवन्दनविधिः ४६३ १२२ श्रावकस्यैकादश प्रतिमा:५३८ सङ्गमककथा ३६५ १११ मध्याहपूजा ४६४ १२३ समाधिमरणोपरि ५४१ ९९ अतिचारस्वरूपम् ३७३ ११२ सायंकालपूजा ४६५ आनन्दश्रावक कथा १०० प्रथमव्रतातिचाराः ३७४ ११३ पञ्चविंशतिरावश्यकानि४६६ १२४ श्रावकस्योत्तरा गतिः ५५० १०१ द्वितीयव्रतातिचारा ३७७ ११४ गुरुवन्दनभाष्यस्य चतुर्थ प्रकाशः १०२ तृतीयव्रतातिचाराः ३७९ संक्षिप्तार्थः संक्षिप्तार्थः ४६६ १२५ आत्मनो रत्नत्रयेण १०३ चतुर्थव्रतातिचाराः ३८० ११५ प्रतिक्रमणविधिः १८९ सहैकत्वम् १०४ पश्चमव्रतातिचाराः ३८४ ११६ कार्योत्सर्गविधिः १२६ आत्मज्ञानस्तुतिः ५५३ १०५ गुगव्रतस्यातिचाराः ३८७ कायोत्सर्गदोषाश्च ४९६ १२७ कषायस्वरूपम् १०६ शिक्षाव्रतस्यातिचारा: ३९८ ११७ प्रत्याख्यान स्वरूपम् ४९७ १२८ इन्द्रियस्वरूपम् १०७ महाश्रावकलक्षणम् ४०४ ११८ रात्रिकृत्यम् ५११ १२९ मनःशुद्धिस्वरूपम् ५७५ BAEROREGARURBAHUREAUSERAL ५५२ ५७० ॥१८॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ योग शास्त्रम् अनु क्रमणिका ५८७ ॥१९॥ १३० लेश्यास्वरूपम् ५७९ १४२ जयपराजयज्ञानोपायः ७१९ सप्तमः प्रकाश १३१ शगदेषयोजयत्वम् ५८३ १४३ पवननिश्चयापाय: ७२३ १५१ ध्यानविधित्योः क्रमः ७२९ १३२ रागादिजयोपायः ५८४ १४४ नाडीशुद्धिः १५२ ध्यातृस्वरूपम् १३३ समताप्रभावः नाडीसंचारज्ञाने फलम् ७२४ १५३ ध्येयस्वरूपम् ७३० १३४ द्वादश भावनाः ५८९ १४५ वेधविधिः १५४ धारणापञ्चकम् ७३० १३५ मैंत्र्यादिभावना (परकायप्रवेशविधिः) ७२५ १५५ पिण्डस्थध्येयमाहात्म्यम्७३२ चतुष्टयम् १३६ ध्यानसाधनस्थानम् ६७० षष्ठ प्रकाश अष्टम प्रकाश १३७ पर्यङ्काद्यासनानि ६७१ १४६ परकायप्रवेशस्या १५६ पदस्थध्येयलक्षणम् ७३३ १३८ कायोत्सर्गः ६७३ १५७ पदस्थध्येयफलम् ७३३ १५८ पदस्थध्येयस्वरूपम् पश्चम प्रकाश १४७ प्राणायामस्य मोक्ष पदमयी ध्येयदेवता च ७३४ १३९ प्राणायामस्वरूपम् ६७७ १४. प्राणायामस्य त्रैविध्य १४८ प्रत्याहारस्वरुपम् नवम प्रकाशः सप्तधात्वम् च ६७८ १४९ धारणास्थाननि ७२८ १५९ रूपस्थं ध्येयम् ७४६ १४१ काल (मरण) ज्ञानम् ६९५ १५० धारणाफलम् ७२८ १६० असध्याननिरासः ७४७ ॐASHRESPESALPECIAL ॥१९॥ ७२७ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DARSURESOR योग शाखम ॥२०॥ दशमः प्रकाशः १६१ रूपातीतं ध्येयम् ७४८ १६२ आज्ञाविचयध्यानम् ७४९ १६३ अपायविचयध्यानम् ७५० १६४ विपाक विचयध्यानम् ७५१ १६५ संस्थानविचयध्यानम् ७५३ १६६ लोकध्यानम् ७५३ १६७ धर्मध्यानम् ७५३ एकादशः प्रकाशः १६८ शुक्लध्यानस्वरूपम् तभेदाश्च ७५५ १६९ घातिकर्माणि ७६२ १७० तीर्थकरस्यातिशयाः ७६२ १७१ सामान्यकेवलिस्वरूपम् ७६६ १७२ केवलिसमुद्घातः ७६७ १८१ गुरूपदेशेन योगिनः । १७३ शैलेशीकरणम् ७७० कृत्यम् ७७७ १७४ सिद्धस्योर्ध्वगमने हेतुः ७७० १८२ औदासीन्य तत्फलं च ७७७ १८३ इन्द्रियरोधनिषेधः ७७८ द्वादशः प्रकाशः १८४ मनःस्थिरतोपायः ७७९ १७५ अनुभवसिद्धतत्त्वकथनम् ७७३ १८५ मनोजयविधिः १७६ विक्षिप्त-यातायात-श्लिष्ट तत्फलम् च ७७९ सुलीनभेदचित्तम् म् ७७३ ०३ १८६ तत्वज्ञानस्य प्रत्ययः ७८१ १७७ निरालम्बनध्यानम् ७७४ १८७ अमनस्कत्वस्य फलम् ७८१ १७८ बाह्यात्मा-अन्तरात्मा ७७५ १८८ उपदेशसर्वस्वम् ७८४ परमात्मास्वरूपम् १८९ एतच्छास्त्ररचने १७९ आत्मनपरमात्मनो कारणम् ७७६ १८० गुरुपारतन्त्रस्य गुणवत्ता PBRUARBRBRORECAUGUARCHECREC T रैक्यम् SPAPER ॥२०॥ ७७६ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रकम् योग शास्त्रम् पृष्ठ पंक्ति अभुद्ध शुद्ध ३ मनस्कत्व मनस्कत्वं ६ ६ कथाचिद् कश्चिद् जगौ ७ १३ मञ्ज कार्या ॥२१॥ मज्ज क्लेश ROBORRERASTRORIANDROIRRORISPUR प्रष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ३६ १२ क्षुधात क्षुधातः ३७ ४ का ३९ ११ स्लर्ग स्वर्ग आर्वभूवा आविबभूवा लकेश ४४ १४ ध ऽथ ४५ ४ मात्मजः भात्मजः आचामाम्ला आचाम्ला ५० ३ तह तर्हि ५७ ७ शक्रण शक्रण ६५ ५ मसौ ६७ १० धान्य धान्य ६७ १० ६९ ५ चप्प धप्य ७ म्भोरधिधगम्य म्भोधेरधिगम्य १० वस्तूधृत्या वस्तूधृत्या सप्पि द्रुमस्यता मस्यैता पुष्फलं पुष्कलं मिम्रम् विभ्रम् ७ तस्मि तस्मि धम्मिणः धम्मिणः १५ नामिभू सर्पि BREPUBAERISPEAUGRECORRIDORE बसौ ३२ शार्ष शीर्ष नाभिभू ॥२१॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश योग शाखम् याच पत्रकम् ॥२२॥ REPमिBिRUROPEASABRE ७१ ५ चतुदश जन्तुद्यात ८१ ६ तदग्रहो ८१ ११ भूध्व ८३ १४ नविध बाह्मा मालोटक्य ८५ ६ मतो गच्छेञ्जा ८ वांचं ८७ १० आसिज्वे ९० ५ कुवतो ९१ १३ धतादि ९९ १ ववयित् ९९ ४ मित्यदा जन्तुधात तदवग्रहो मूल नवविध बाह्या मालोक्य मता गच्छेज्जा वाचं आसिज्जे कुर्वतो घृतादि क्वचित् मित्यादौ १०२ १० पूर्वाजिता पूर्वार्जिता १०५ १३ यातीना यतीना १०८ १० लज्जयः लज्जया: ११२ ६ यद्धा यद्वा १२१ ५ ब्रह्म ब्रह्म १२१ १३ सयमा संयमा १२४ २ अब्रह्म अब्रह्म १२४ १३ मत्तौ मत्ताः १२५ ३ कड़वा कण्ह्वा १२६ १ निच्वेयओ निव्वेयओ १२८ ६ बौक्रिय वैक्रिय १२९ ४ तित्य तित्थं १३० ११ भकतं भक्तं १३६ १० सङ्कल्पेतः सङ्कल्पतः HERBRBARORRECIPEPUBSF ॥२२॥ ध्रुवं Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् RREARRRR शुद्धि १४० १४ पत्रकम् ॥२३॥ १३७ १३ इर्थ इत्थं १३८ १३ सक सूक १३९ निन्तर निरन्तर महादिदं महदिदं १४२ ७ ध्यानृ । ध्यान १४२ १४ वावाल्यां वावाभ्यां १४३ ४ निममे निर्ममे १४५ ३ ब्राह्म १४५ ९ हस्तिनपुरे हस्तिनापुरे १५१ ३ मीयः मीयतुः १५२ ४ गेहावे मेहाद्गे १५७ १३ तधिति तदिति स्थुदित्वा त्युदित्वा १६७ १४ अत्युम अत्युत्तम १७३ ११ नपः नृपाः ब्राह्म GBPSROPERBRBRBRBRBRBRBRBRUARY १७५ २ समपितः समर्पितः १७६ १२ ञ्जगाद ज्जगाद १७९ १४ वसुवेवस्य वसुदेवस्य १८५ ६ ब्राह्माण्या ब्राह्मण्या १९१ ५ करमणः । क्रूरकर्माणः पध्यादीनां पध्यादीनां २०० १० नासत्य नासत्य २०३ ४ यध्यामके पध्यापके दाह्यत दाहत २०३ १२ स्नेहात् २०६ १२ क्रद्धा क्रुद्धा: २०६ १४ सुस्तुत: वसुस्ततः २११ ११ धमा २११ १४ कृत्याविवेकः कृत्यविवेकः २१६ ५ तवाभ्यङ्ग तवाभ्यङ्ग सूहात् R धमों ॥२३॥ RRRBIBADF Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B निल योग शाखम पत्रकम ॥२४॥ २६८ RBIRRORBARRORSHIBIRSTURBHIBHIHEB २१८ १२ इया ईष्या २२० ५ देवदत्तन्तिके देवदत्तान्तिके २२४ ६ विचारसि विचारयसि २२५ ७ मन्दगेहे मद्गेहे २२५ १२ निधपितौ निर्षितौ २२६ १२ मूवदेवो मूलदेवो २२६ १३ रनोक्तः राज्ञोक्तः २३२ वैमानिको वैमानिकै २३२ ३ सरेः २३२ ७ दुत २३२ ८ ओत्सुक्य औत्सुक्य २३६ १४ इस्युक्तः इत्युक्तः २३७ ३ करिप्ये करिष्ये २४१ ३ सम्मा सूक्ष्मा २४१ २ वत्मसु वर्त्मसु २६१ ११ निलिः २६२ ११ पाठय। त्पाटय २६२ १२ प्रदारेण प्रहारेण २६७ ६ स्विलां खिला २६७ ९ व्यसननिनः व्यसनिनः २६८ ६ मनोरमां मनोरमा प्पविनश्वरी प्यविनश्वरी २७० ११ पुरोधोभ्यां पुरोधाभ्यां २७१ ३ स्वाधीन स्वाधीन २७२ १३ पाठयां पाटयां २७३ ८ आविविकारा आविविकारा २७४ १० ओस्मन्न अस्मिन्न २१९ १३ समालिङ्गया समालिङ्गय २८१ ५ मा २८१ १२ कुर्जादिति कुर्यादिति REAEROBORUARVADOLLAG ॥२४॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शोत्रम् ॥२५॥ २१७ २१७ २१८ २८२ २८३ ६ २८३ १० २८३ ११ २८७ ७ २८९ ९ ३०४ ३०५ १० ३२४ ११ ३२५ १४ ३२७ ७ ३३९ १० २ ५ ७ ९ ६ देवदत्तो मुवदेवो वाणिच्यादि माव निमञ्जति बहा स्तृप्तौ स्वद्दतो ५ श्ललाद नकोटि निघणो अन्मं ध्य शातये इत्वादि हृत देवदत्ता मुलदेवो वाणिज्यादि माह निमज्जति बहा स्तृप्तो स्तद्देवो श्छलाद रत्नकोटि निर्धाणो अन्तर्मध्य शान्तये हेत्वादि ३३९ ११ गप्येषु ३४५ ५ रागद्वष ३४६ ६ तदाय ३४९ १ महद्धकः वर्द्धमानाम् ३७३ ३८३ ६ मदाना ३९७ १ प्रतिषेध ४१५ ११ स्मरणे ४१९ १२ ४२४ १० ४२९ १३ ४२९ १५ 67 तसमु अक्वार्थ भगवन्तः रिमूत ४३२ १३ पुरुषावर ४३६ ९ वारिय ४३६ १३ तदुक्त गम्येषु रागद्वेष तदाय महर्द्धिकः वर्द्धमानाम् मदना प्रतिषेध स्मरणे दसमु अनेकार्य भगवन्तः रिभूत' पुरुषवरा चारित्र तदुत्कर्षा शुद्धि पत्रकम् ॥२५॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग क्षणा RRERRORISABR शुद्धि पत्रकम् शास्त्रम् ॥२६॥ यो ५३५ EAR-SCHORRHOEASPBERRORE ४७२ १२ वदन् वदन् ४८० १४ त्वकृत्वा स्यक्त्वा ४८४ ८ एथेत्थं अथेत्य ५०८ रभ्भे रम्भे ५११ ७ मुपासात मुपासीत ५२८ १४ या पुप्पे षु ५५२ ६ अर्थ अथ ८ लोचलुम्पन्न' लोचन लुम्पन् ५६६ ८ क्ष ५६६ १४ कववलन कवलनं ५९४ ११ समस्तलाका समस्तलोका ६०१ १४ कृताति कृतानि ६२७ १ मञ्जद् मज्जेद ६२७ ३ सुनर्त ६२८ १५ परिष्ठापपन परिष्ठापन ६३० ११ क्षमा ६३२ ८ व्यासमा व्यसना ६३६ ११ द्रव्य: द्रव्यः ६४७ २ ६५२ १० पष्टि षष्टि ६५३ १० निज्चुओ निच्चुज्जोओ ६६० १० भावनां भावानां ६६१ ९ पकृति प्रकृति ६७० २ जयो ६७१ १० वामारू वामोरू ६७१ १४ वज्राकती वज्राकृती भद्रसनम् भद्रासनम् ६७६ १० न्नाम्रि न्नाम्नि ६८० ९ वल बल ५६० शक्ष जया I ORSUPERHEAR ॥२६॥ मुनृतं Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि पत्रकम योग शास्त्रम् पीतपन्न स्वर्गे मैक्य पुर्वगत ॥२७॥ ६८३ ६ लाघ लाघवं रन्ध्रे ६९३ ११ सक्रान्ति संक्रान्ति ७२० १३ क्षणास्थिते क्षणास्थिते ७२१ ८ कुली डुली गली गली ७२४ ५ कतु कतुं ७२४ ८ मागेण मार्गेण । ७४० १ सवज्ञाभभि सर्वज्ञाभमि ७४९ १० सवज्ञा सर्वज्ञा ७५१ १ अन्नान्तर अत्रान्तर ७५१ ९ विचया विचयो PSIOSPEROROPERBREPORISROP13 ७५३ ११ ७५४ ७ ७५७ ५ ७५८ १४ ७५९ ११ ७६१ ७ ७६२ १ ७६३ १ ७६४ ३ ७६६ ३ पीतप स्वगे मक्य पर्वगत श्रत श्रुताथ हात यागी स्मन् कमस्य शरारा श्रुतार्थ SBIRBARBARBARDASTRIBRORRER योगी स्मिन् क्रमस्य शरीरा ॥२७॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग सानम् ॥२८॥ SASTRORSHASTRORISAREERINRBAROBARIE ॐ शिवमस्तु सर्व जगतः परिहितनरता भवन्तु भूतगणाः दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥ सर्वमंगलमांगल्यं, सर्वकल्याणकारणम् ।। प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥ ORERSABRDARBODINGBIRHUAESECRUAE ॥२८॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् પ્રકાશકીય નિવેદન प्रास्ताविक IIII ૨૭ મિટર સાસતિ છે. આ માર-તાપ રૂપ ત્રણ ભારતની સંસ્કૃતિ ધર્મ પ્રધાન છે. તેનું શહેર-ગામડું જંગલ કે પહાડ જ્યાં નજર કરશે ત્યાં દરેક જગ્યાએ ધર્મ જુદા જુદા સ્વરૂપે જણાયા વિના રહેશે નહિ. મોટા શહેર કે નાના શહેરમાં મંદિર હશે તે ગામડામાં તેને અનુરૂપ દેવસ્થાન અને જંગલ કે પહાડમાં કાંઈ નહિ મળે તો છેવટે ખડક કે પત્થર પર સિંદુર કંકુના ચાંલ્લા કરી કે ઉગતા સૂર્ય, નદી, સમુદ્ર વિગેરેને દેવભાવે માની પોતાની અનિત્યતાને પ્રગટ કરી. સ્તુતિ દ્વારા જનતાએ કૃતકૃત્યતા અનુભવી છે. આમ ભારતની રગેરગમાં ધર્મનું સ્થાન છે. આ ધર્મના વાહક સાધુસંતે છે. અને તમામ ધર્મના સાધુ સંતમાં ત્યાગને પ્રધાન પદ આપવામાં આવ્યું છે. જન ધર્મ યુક્તિયુક્ત કલ્યાણકારી ધર્મ છે. કષ-છેદ-તાપ રૂપ ત્રણ પરીક્ષાથી ઉત્તીર્ણ થયેલ આ ધર્મના વાહકે મુનિ-ભગવંતે છે. જેઓ ઉઘાડે માથે ઉઘાડે પગે કંચન-કામિનીના ત્યાગ પૂર્વક જગત માત્રના જીવની કલ્યાણની બુદ્ધિ હૈડે રાખી સ્વકલ્યાણ સાથે પર કલ્યાણમાં રક્ત રહ્યા છે. પ. પુ. આચાર્ય વિજય પ્રેમસૂરીશ્વરજી મહારાજ એ સ્વ. ૫. પૂ. આચાર્યદેવ વિજયભક્તિસૂરીશ્વરજી મહારાજના પટ્ટધર આચાર્યું છે. જેમણે નાની ઉંમરે દીક્ષા લીધી છે. ગુરૂમહારાજશ્રીની અત્યંત ભક્તિ કરી છે. અને જેમનું હદય ખુબજ સાત્વિક અને પ્રેમાળ છે. તેઓનું વિ. સં. ૨૦૨૦નું સાગરના ઉપાશ્રયે પાટણમાં ચાતુર્માસ થયું. પાટણમાં તેઓશ્રીની નિશ્રામાં અનેક ધાર્મિક કાર્યો સાથે ઉપધાન તપ થયાં. ઉપધાનની માળારોપણ બાદ પૂ. આચાર્ય મહારાજ મહેસાણા પધાર્યા. ના નવા છત્ર-છ કલાક IIII Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रास्ताविक योग शाखम III અહિં મહેસાણામાં ફાગણ વદી ૧૧ના રોજ મુંબઈ ગેડીજી મહારાજના ઉપાશ્રયના ટ્રસ્ટી શ્રી પાનાચંદ રૂપચંદ તથા શ્રી લક્ષ્મીચંદ દુર્લભજી વિગેરે ગેડીજીના ઉપાશ્રયે વિ. સં. ૨૦૨૧ ના ચાતુર્માસ માટે વિનંતિ કરવા આવ્યા. પૂજ્ય મહારાજશ્રીએ પ્રથમ તે આનાકાની કરી. પરંતુ તે જ વખતે પાટણથી વંદનાથે આવેલા ૨૫ ભાઈઓ અને ગેડીજીના ટ્રસ્ટીઓના અતિ આગ્રહથી વિ. સં. ૨૦૨૧ ના ચાતુર્માસની જય બોલાવાઈ. પ. પૂ. આચાર્ય વિજય પ્રેમસૂરિ મહારાજ વિ. સં.૨૦૨૧ના જેઠ સુદ ૧૩ ના રાજ૫. શ્રી સુબેધવિજયજી ગણિવર, તથા પન્યાસશ્રી કનકવિજયજી ગણિવર આદિ ઠાણા સાત સાથે ગોડીજી ઉપાશ્રયે ભવ્ય સામૈયા પૂર્વક પધાર્યા, સામૈયામાં ખુબજ જનમેદની હતી. મુંબઈનું આ ચાતુર્માસ મુંબઈ માટે ખુબજ યાદગાર બન્યું, આ ચાતુર્માસ દરમિયાન સાત સુખ, આઠ મોક્ષ તપ વિગેરે તપ એકાસણાથી થયાં. જેમાં ૮૦૦ કરતાં વધારે ભાવિકે તે તપમાં જોડાયા. આ પછી સ્વર્ગસ્થતિક તપ થયે તેમાં ૧૩૦૦ કરતાં પણ વધુ તપસ્વીઓએ લાભ લીધો. બને તપનાં જુદા જુદા ગૃહસ્થ તરફથી એકાસણાં ગેડીજીમાં થતાં અને તે વખતને આનંદ અવર્ણનીય હતો. આ પછી શાંતિનાથ ભગવાનના સામુદાયિક અઠ્ઠમ તપની આરાધના થઈ. ૧૦૦૦ લગભગ ભાવિકે જોડાયા. અત્તરવાયણા પારણા થયાં. અને દેવદ્રવ્યની ૧૦૦૦૦/દસ હજારની ઉપજ થઈ. ગૌતમસ્વામીનો છઠ્ઠ તપ પણ થયું. તેમાં પણ ૬૫૦ ભક્ત વગ જોડાયે. આમ ચોમાસું ખુબજ ધમપ્રભાવનામય ભાવોલ્લાસ પૂર્વક થયું. ચોમાસા બાદ ધાનેરા નિવાસી ઉજમશીભાઈની દીક્ષા ગોડીજી ઉપાશ્રયમાં થઈ. આ નૂતન દીક્ષિતને ઉપકરણો વહેરાવવાની ઉછામણી રૂ. ૧૬૦૦૦ થઈ. તેઓનું મુનિશ્રી ઉત્તમવિજયજી નામ રાખી પૂ. આચાર્ય મહારાજના શિષ્ય તરીકે જાહેર કરવામાં આવ્યા. ગોડીજીનું આ ચાતુર્માસ ખુબજ યાદગાર હતું. એમાસામાં માસ ખમણું ૧૬ ભWાં ૧૫-૧૨-૧૦ આદિ ઘણી તપશ્ચર્યાએ થઈ. તેમજ સિદ્ધચક્રપૂજન, ઋષિમંડળપૂજન, બૃહદ્ અષ્ટોત્તરી, તથા અહંદૂ મહાપૂજન જેવાં ઘણાં ધર્મ પ્રભાવક ઉત્સવો થયા. નવરાહમિનિટ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् 11311 તપશ્ચર્યા વિ. સં. ૨૦૨૨નું ચાતુર્માસ પૂ. આચાર્યદેવ વિજયપ્રેમસૂરીશ્વરજી મહારાજનું માટુંગામાં થયું. આ ચામાસામાં પણ વિવિધ એવ મહેાવ અદ્ મહાપૂજન અને બૃહત સિદ્ધચક્ર પૂજન વિગેરે ધર્માંપ્રભાવક કાર્યાં થયાં. વિ. સં. ૨૦૨૩ તું ચાતુર્માસ વાલકેશ્વરમાં થયું. અહિં ૨૦ દીવસના એકાસણાના તપ થયા. જુદા જુદા ગૃહસ્થા તરફથી રાજ એકાસણા કરાવવામાં આવતાં. છઠ્ઠ અઠ્ઠમ વિગેરેના તપ પણ થયા અને તેના પારણા અત્તરવાયણા પણ જુદા જુદા ગૃહસ્થા તરફથી થયાં. વાલકેશ્વરના ચાતુર્માસમાં વધુ યાદગાર દિવસ ભા. સુ. ૧૪ના હતા. આ દિવસે દેશ પરદેશમાં જૈન ધર્મના ફેલાવા કરનાર અને જૈન ધર્મ પ્રત્યે નતમસ્તક બનાવનાર શાસ્ત્રવિશારદ્ આચાર્ય વિજયધસૂરીશ્વરજી મહારાજનેા શતાબ્દિ સમારંભ ખુબજ ધામધૂમ પૂર્વક ઉજવાયા. તે દિવસે ૧૪૦૦ આયંબિલ, અઢારલાખ નવકાર મત્રનેા જાપ, સવાલાખ ફુલની પ્રભુની અંગરચના થઈ. હારા માસેાએ દનના લાભ લીધો. શતાબ્દિ મહેાત્સવની સભા પૂજ્ય આચાર્યાદિ મુનિભગવ ંતાની નિશ્રામાં યેાજાઇ. જેમાં પૂજ્ય આચાર્યાદિ મુનિ ભગવંતા તથા આગેવાનજૈનાના પ્રવચના ઉપરાંત તે વખતના કેન્દ્રીય પ્રસારણ મંત્રી કે, કે. શાહ, મહારાષ્ટ્રના મંત્રી મદ્યનિષેધપ્રધાન ભાનુશંકર યાજ્ઞિક તથા ધારાસભ્ય પાન્ડેય વગેરેના પ્રવચના ખુબજ જૈનશાસનની પ્રભાવના કરનારાં હતાં. આ સભામાં જૈન સમાજના આગેવાના ઉપરાંત જૈનેતરાની પણ મેટી સંખ્યા હતી. જેમાં સ્વ. પૂજ્ય આચાર્યદેવ વિજ્યધર્માંસૂરીશ્વરજી મહારાજે જૈન ધર્મના પ્રચાર અને પ્રભાવ માટે કરેલ પુરુષાર્થને પ્રશંસી પોતાની શ્રદ્ધાંજલિ સમર્પી હતી. વાલકેશ્વરમાં પૂ. વિજ્યપ્રેમસૂરીશ્વરજી મહારાજની નિશ્રામાં ઉપધાનતપ તથા ૨૮ છોડનુ` ભવ્ય ઉજમણું થયું. નાના મેટા અનેક ઉત્સવા આ ચાતુર્માસ દરમિયાન થયા. અહિ વાલકેશ્વરમાં તખતગઢનિવાસિ ભજીતમલજીની તેના કુટુબીઓની સંમતિ પૂર્વક પૂ. આચાર્ય મહારાજના વરદ હસ્તે દીક્ષા થઈ. તેઓનું નામ મુનિભદ્રવિજયજી રાખી મુનિશ્રી રૂચકવિજ્યજીના શિષ્ય મનાવ્યા. वास्ताविक 11311 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रास्ताविक योग शास्त्रम् પ. પૂ. આ. દેવ વિજયપ્રેમસૂરીશ્વરજી મહારાજે વિ. સં. ૨૦૨૩નું ચાતુર્માસ ગોરેગાંવ કર્યું”. આ ચાતુર્માસ દરમિયાન એકાસણા તપ. અઠ્ઠમતપ, છતપ, તથા પર્યુષણમાં ખુબ તપશ્ચર્યા થઈ તે અભૂતપૂર્વ થઈ હતી. આ તપશ્ચર્યા નિમિત્તે અદાઈ મહોત્સવ, અષ્ટોત્તરીસ્નાત્ર, સિદ્ધચક્ર મહાપૂજન, ઋષિમંડળપૂજન, અહંદમહાપૂજન વિગેરે મહાન ધર્મપ્રભાવક ધમ કાર્યો થયાં. Imali નજીકના - - ગોરેગાંવમાં થયેલ ઉપધાન તપ તે ખુબજ અવર્ણનીય હતું. ર લાખ આસપાસ ઉપધાનતપની માળાની ઉછામણી થઈ. જીવદયા તથા સાધારણની પણ ટીપ મોટા પ્રમાણમાં થઈ. માળાના દિવસે ૩૫૦૦૦/ માણસેએ સાધાર્મિક વાત્સલ્યનો લાભ લીધે હશે. તેની વ્યવસ્થા દેખી લેકેએ ખુબ આનંદ અનુભવ્યો. આની વ્યવસ્થા માટે જેનો ઉપરાંત જનેતાએ પણ ખુબ સારો લાભ લીધું હતું. તપ પ્રસંગે ૫૧ છોડનું ઉજમણું પણ ગોરેગાંવમાં થયું હતું. આમ ગોરેગાંવના ઇતિહાસમાં આવા વણા ધાર્મિક કાર્યોથી ચાતુર્માસ ઉજવાયું હોય તે આ પ્રથમ હતું. વિ. સં ૨૦૨૪ના જેઠ વદી ૬ ના રોજ મુંબઈના સુપ્રસિદ્ધ ઝવેરી બિજાપુર નિવાસિ ચંદુલાલ ખુશાલચંદના પુત્ર ગુલાબચંદજીના પુત્ર બાળબ્રહ્મચારી ૧૮ વર્ષના અરૂણકુમારની દીક્ષા પૂ. આચાર્ય શ્રી વિજય પ્રેમસૂરીશ્વરજી મહારાજના વરદ હસ્તે થઈ. તેઓનું નામ શ્રી અણુવિજયજી રાખી પૂ. ૫. શ્રી સુબેધવિજયજી ગણિવરના શિષ્ય તરીકે જાહેર કરવામાં આવ્યા. અને તેઓશ્રીની વડી દીક્ષા ગોડીજીના ઉપાયે વિ. સં, ૨૦૨૫ના માગસર સુદ ૬ના રેજ થઈ. આ પ્રસંગ ઠાઠમાઠ પૂર્વક ખૂહસિદ્ધચક્ર પૂજન વિગેરે ધાર્મિક કાર્યો દ્વારા શ્રી ચંદુલાલ ખુશાલચંદ તરફથી ઉજવાયે. ધનરાજ એજન્સીવાળા બળવંતરાજના પુત્ર ચંદનરાજની ઉંમર વર્ષ ૧૧ ની હોવા છતાં તેમનામાં ધર્મ પ્રત્યેને અવિહડ રાગ અને વૈરાગ્ય નસેનસમાં વહેતા હતા. તેમણે માતાપિતાની અનુમતિપૂર્વક વિ. સં. ૨૦૨૬ના ડી. સુ. ૧૧ના રોજ ગોડીજીના ઉપશ્રયમાં મહોત્સવ પૂર્વક પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજના વરદ હસ્તે ભાગવતી પ્રવજ્યા સ્વીકારી. તેમનું નામ ચંદ્રસેનવિજયજી રાખી - - * - * Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शाखम् 119411 આચાર્ય દેવના શિષ્ય તરીકે જાહેર કરવામાં આવ્યા. આ નિમિત્તે અત્તરી સ્નાત્ર તેમના તરફથી ભણાવવામાં આવ્યું હતું. કુર્લાનિવાસી મેઘજી માલાના પુત્ર શાંતિભાઇની વિ. સં. ૨૦૨૬ના કારતક વદી ૬ ના રાજ ભાગવતી પ્રવ્રજ્યા કુર્તામાં તેમના માતા તથા ભાઇની સંમતિ પૂર્વક પૂ. આચાર્ય મહારાજશ્રી વિજયપ્રેમસૂરીશ્વરજી મહારાજના વરદ હસ્તે થઇ અને તેઓને પૂ.પ શ્રી સુક્ષ્માધવિજયજી ગણિવરના શિષ્ય મુનિ શ્રી શાંતિચંદ્ર વિજયજી નામ રાખી કરવામાં આવ્યા. આ દીક્ષા પ્રસંગે કુર્તાવીસાઓસવાળ કચ્છી સંઘ તરફથી ૧૫૦૦૦ ખેંચી સિદ્ધચક્ર મહોત્સવ વિગેરે ધમ પ્રભાવક કાર્યો થયાં. આ ગારગાંવના ચાતુર્માસ દરમિયાન જે ગ્રંથ આજે ઘણા વખતથી અપ્રાપ્ય છે. અને જેમાં શ્રાવકધમ અને સાધુધમ સાથે જૈન ધર્મને સ્પતા અનેક વિષયાનું વિસ્તૃત નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. તેવા રોચક કલિકાળ સત્ત શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય નિર્મિત યોગશાસ્ત્ર પ્રકાશનનું કામ શરૂ કરવામાં આવ્યું. અમે આ ગ્રંથ એક વર્ષીમાં પુરા કરવાની ગણત્રીથી ાપવામાં આપેલ પણ પ્રેસના સંચાલકના પ્રમાદને કારણે આજે તે વિલંબથી બહાર પડે છે. આ મૂળગ્રંથ પ. પૂ. સ્વ. શાસ્ત્રવિશારદ આચાર્ય શ્રી વિજય ધસૂરીશ્વરજી મહારાજે સશાષિત કરી બહાર પાડ્યો હતા. ત્યારબાદ તેમના શિષ્ય પ. પૂ. આચાર્યદેવ વિજય ભકિતસૂરીશ્વરજી મહારાજે આ ગ્રંથનું પુનર્મુદ્રણ કરાવ્યું હતું. પરંતુ કેટલાક વર્ષથી આ ગ્રંથ પણ દુઃપ્રાપ્ય હોવાથી તેને પ્રગટ કરવાની ઈચ્છા પૂ. આચાર્ય મહારાજે પ્રગટ કરી અને તે માટે શ્રી ગોડીજી ઉપાશ્રય, વિગેરે વિગેરે ઠેકાણેથી મદના વચને મળવાથી તેને પ્રગટ કરવામાં આવ્યો છે. આ ગ્રંથમાં ઉંચી જાતના સનલીટ કાગળ વાપરવામાં આવ્યા છે. આજે કાગળ તથા પાઈના ભાવ ખુબ વધી ગયા છે. પરંતુ આવા ગ્રંથા એ શાસન પ્રભાવક પ્રથા છે કે જેમાં યાગ સાથે માર્ગાનુસારિપણાથી તે શ્રાવકધાં અને સાધુ ધર્મ આદિ સમગ્ર શાસનનું હાર્દ કળિકાળ સત્ત શ્રી હેમચ ંદ્રાચાર્ય ભગવંતે રજુ કર્યું" છે. આ ગ્રંથ તેમણે પરમાત્ કુમારપાળ મહારાજાની પ્રેરણાથી બનાવ્યા છે. તે વાત ગ્રંથના અતે કર્તાએ જણાવી છે. અંતે ઇચ્છીએ છીએ કે આ ગ્રંથના વાંચન મનન ઉપદેશ અને શ્રવણદ્વારા આના યાગ્ય લાભ ઉઠાવી અમારા આ પ્રયત્નને શ્રાતા અને પાઠક વર્ગ સફળ કરે એજ અભ્યર્થના પ્રકાશક प्रास्ताविक Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शाखम શાસ્ત્રવિશારદ શ્રી વિજ્યધર્મસૂરીશ્વરજી મહારાજને શ્રદ્ધાંજલિ. प्रास्ताविक IIધા જાવડશાહે તીર્થાધિરાજ શત્રુજ્યને ઉદ્ધાર કર્યો તે પ્રસિદ્ધ છે. આવા જાવડશા જેવા ધર્મધુરંધર દાનવીરથી મહુવા એ જે પ્રસિદ્ધિ મેળવી તે કરતાં પણ સવાઈ પ્રસિદ્ધિ જેના જન્મથી મળી તે શારઅવિશારદ આચાર્ય શ્રી વિધર્મસૂરિજી છે. આ મહુવામાં વિ. સં. ૧૯૨૪ વૈ. વ. ૫ ને સોમવારે પિતા રામચંદ્ર અને માતા કમળાદેવીને ત્યાં આ ચરિત્ર નાયક મહાપુરૂનો જન્મ થયે. આ બાળકનું નામ મૂળચંદ રાખવામાં આવ્યું. તેમને બે મોટા ભાઈ અને ચાર બહેન હતી: ઓગણીસ વર્ષની ઉંમરે મૂળચંદે વિ. સં. ૧૯૪૩ ના જેઠ વદી ૫ ને દિવસે ભાવનગરમાં પ. પૂ. વૃદ્ધિચંદ્રજી મહારાજ પાસે ભાગવતી પ્રત્રજ્યા સ્વીકારી, અહિં તેમનું નામ ધર્મવિજ્ય રાખવામાં આવ્યું. ગુરૂમહારાજની છત્ર છાયા માત્ર છ વર્ષ રહી. વિ. સં. ૧૯૪૯ના વૈ. સુ. ૭ ના રોજ ગુરુમહારાજ સમાધિપૂર્વક કાળધમ પામ્યા. પરંતુ આ છ વર્ષના ગાળામાં ગુરુમહારાજના આશીર્વાદ એવા ફળ્યા કે ગૃહસ્થપણામાં ખાસ કાંઈ પણ અભ્યાસ વિનાના આ મુનિશ્રી ધર્મવિજયજીએ સારસ્વત ચંદ્રીકા તેમજ પ્રાકૃત ભાષાના સુંદર અભ્યાસ સાથે આગને ઠીક ઠીક અભ્યાસ કરી લીધે. ગુરૂમહારાજના સ્વર્ગગમન બાદ તેમનું વિહાર ક્ષેત્ર એકદમ વિસ્તૃત બન્યું. કાઠીઆવાડમાંથી ગુજરાત અને ગુજરાતમાંથી માળવા રાજસ્થાન બંગાળ સુધી લંબાયું. ગુજરાતમાં માંડલના ચાતુર્માસમાં ૧૦ વિદ્યાર્થીઓની સંખ્યાથી ફરતી શ્રી યશોવિજયજી જેન પાઠશાળા સ્થાપી. સાથે વિહારમાં ભણાવતા આ વિદ્યાથીઓની પૂર્વભૂમિકાથી શરૂ કરેલ આ પાઠશાળા વિ. સં. ૧૯૬૩ માં બનારસમાં સ્થિર થઈ. વિદ્યાધામ નરGિરતિકૂળ Iકા Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येोग शाखम् पास्ताविक | ৷৷ બનારસમાં જનધનો ધ્વજ તેમણે ફરકાવ્યો અને અહિં તેમણે સારા વિદ્વાને તયાર કર્યો અને અહિંજ તેમને કાશીનરેશે વિદ્વાનોની સભામાં શાસ્ત્રવિશારદ જેનાચાર્યની પદવી આપી. કાશીમાં તેમણે વિદ્વાને તૈયાર કર્યા. સાથે યશવિજયજી ગ્રંથમાળા સ્થાપી અમુકિત હસ્તલિખિત પ્રતનું સંશોધન કરી ઘણા ગ્રંથ પ્રસિદ્ધ કર્યા. નવ વર્ષ સુધી સતત દૂર સુદૂર તે પ્રદેશમાં રહી જૈન શાસ્ત્રની પ્રભાવના સાથે જન ધમની પરાગ પરદેશમાં પણ ગ્રંથ નિમણુ દ્વારા ફેલાવી. પરિણામે દેશ પરદેશના અનેક રાજા મહારાજાએ જેને ધર્મના જ્ઞાનથી, તપ, ત્યાગ અને વૈરાગ્યથી પ્રભાવિત થયા. ન સાહિત્યના પ્રશંસક પ્રસિદ્ધ હમન જેકોબી અને ડે. શુશ્રીગથી માંડી ૪૦ વિદ્વાને તેમની વિદ્વત્તા સહકાર અને ઔદાર્યના એશીગણ રહ્યા છે. એક નહિ પણ કાશી નરેશ જેવા ૧૫ રાજવીએ તેમના ઉપદેશદ્વારા જેન ધર્મથી પ્રભાવિત બની નતમસ્તક બન્યા હતા. તે વખતના ગવર્નર, દેશી રાજ્યોના એડમેનીટેટર વિગેરે યુરોપીય અમલદારામાંના ભાગ્યેજ કોઈ એવા હતા કે તેમના પરિચયમાં ન આવ્યા હોય અને તેમના જ્ઞાનથી પ્રભાવિત ન બન્યા હોય. વિ. સં. ૧૯૭૮ માં ભા. સુ. ૧૪ ના રોજ શિવપુરીમાં તેઓ સુસમાધિ પૂર્વક કાળધર્મ પામ્યા. ત્યારે તેઓ જૈન સમાજને ચરણે વિવિધ ક્ષેત્રે ખુબ નિષ્ણાત આઠ શિષ્યગણ સમર્પિત કરી ગયા. આ ગશાસ્ત્રનું સૌ પ્રથમ પ્રકાશન સ્વર્ગસ્થ પૂજ્ય ગુરુદેવે કર્યું છે. તેનું બીજું પ્રકાશન તેઓશ્રીના શિષ્ય ભકિતરસ પ્રધાન વૈરાગ્યમતિ શ્રી વિજય ભક્તિસૂરીશ્વરજી મહારાજની પ્રેરણાથી થયું છે. અને આ હાલ અપ્રાપ્ય ચોગ્યશાસ્ત્ર ગ્રંથનું ત્રીજુ આવર્તન તેઓના મણિ સરળ પરિણામી પ્રેમમતિ પૂ. આ શ્રી વિજય પ્રેમસૂરીશ્વરજીના હાથે થાય છે. તે પણ કોઈ એક વિધિસ’કેત લાગે છે.. પૂ. ગુરુદેવને અમારી કોટિ કોટિ વંદના. નિરાદ્ધ-ત્રકાર | શા Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રાસ્તાવિક योग शखिम प्रास्ताविक શાસ્ત્રોમાં “સત્તર વર્ષાભિ' કહી મનુષ્યપણાની પ્રાપ્તિ દુર્લભ ગણાવી છે. દેવગતિ પ્રચુર સુખસામગ્રીવાળા હોવા છતાં તેને દુર્લભ ન ગણાવી પણ મનુષ્યગતિને દુર્લભ એટલા માટે ગણાવી કે આ ગતિ પરમેચ્ચસ્થાન–મોક્ષપ્રાપ્તિ માટે અનન્ય કારણરૂપ છે. જીવને આત્મવિકાસના સર્વ પગથાર-ગુણસ્થાનકેની પ્રાપ્તિ કરવી હોય તે આ ગતિમાં થઈ શકે છે. દેવ નારકમાં ચારગુણસ્થાનક અને તિય"ચમાં પાંચ ગુણસ્થાનથી આગળ વધી શકાતું નથી. વિવેક, તપ, ત્યાગ અને આત્મન્નતિનાં સર્વ સાધને અહીં જેટલાં સુલભ છે તેટલાં સાધને બીજી ગતિમાં નથી. દેવમાં પૌગલિક સુખનું ભલે પ્રાચુયું હોય પણ તપ, ત્યાગ, મૃતપાસના અને સંયમપ્રાપ્તિ નથી. નરકમાં ક્ષેત્રજન્ય અને બીજાં પરસ્પદારિત દુઃખે એટલાં બધાં છે કે ત્યાં કંઈ આમેન્નતિને અવકાશ નથી. તિર્યંચગતિ પરાધીન જીવન અને વિવેક વિનાની છે, જેથી ત્યાં પણ આત્મવિકાસનું ઓછું સ્થાન છે. માનવભવજ એક એ ભવ છે કે જ્યાં | બધી અનુકુળતા મળવાનો સંભવ છે. ક્ષેત્ર અને સંસ્કારને લઈ માનવભવમાં પણ આત્મવિકાસ માટે અનેક જાતની પ્રતિકુળતા હોય છે. અત્યંત ઉષ્ણુ પ્રદેશ જંગલ અને ખીણ પ્રદેશ, દરિયાકાંઠા અને ટાપુઓ, આ બધામાં તે તે ક્ષેત્રને અનુસરી ખેરાક, રહેણી કહેણી અને જીવનનું એવું ઘડતર હોય છે કે જ્યાં આત્મવિકાસને કોઈ વિચાર જ ન આવે. આવા આત્મવિકાસ શૂન્ય પ્રદેશને શાસે અનાર્ય પ્રદેશ કહ્યા છે. 6િ માનવભવની પ્રાપ્તિ એ જીવને દુર્લભ વસ્તુઓની પ્રાપ્તિ પૈકી એક છે. તેમજ જે પ્રદેશમાં ધર્મ અને નીતિના સંસ્કાર હોય, જે પ્રદેશનું વાતાવરણ આત્મવિકાસ માટે અનુકુળ હોય તે આર્ય દેશ. આ આર્યદેશની પ્રાપ્તિ એ પણ જીવનમાં દુર્લભ વસ્તુની પ્રાપ્તિ પૈકીમાં એક છે. આ ભારત આર્ય દેશ છે. આ દેશના જંગલ, પર્વત, ખીણ, ગામ કે શહેર જ્યાં નજર નાંખશે ત્યાં બધે કોઈ ને કોઈપણ રીતે ધર્મ અને નીતિના સંસ્કારને આવિર્ભાવ છે. પરમાત્માની ઉપાસના, પરભવનો ભય, માનવજીવનની અનિત્યતા રરરરર-જિનવિકટ li૮il Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् तप्रास्ताविक અને જીવનમાં કોઈને કંઈ પણ ઉપાસ્ય તત્તની ઉપાસના ભારતના ખૂણે ખૂણે પથરાયેલ છે. તેથી જ ભારતનું પ્રત્યેક ગામડું પ્રત્યેક જંગલ કે પર્વત કાંઈ ને કાંઈ ગીત, કે પત્થર યા વૃક્ષના થડ ઉપર સિંદુર કેળી દેવદેવીના આરોપણ દ્વારા પિતાની અનિયતા પામરતા જાહેર કરી તેની ઉપાસના કરે છે, આમ કરેડો વર્ષથી આ ભૂમિ ધર્મ સંસ્કારથી સાવિત છે. અને આ ધર્મ સંસ્કારને સદા પક્ષવિત રાખનાર કોઈ ને કંઈ સંત મહંત ઓછી કે વધુ શક્તિશાળી દરેક જગ્યાએ પથરાયેલા છે. આથી જ ભારતે એ સદા સતની ભૂમિ રહી છે.. રાજા, મહારાજા, શ્રેણિ, સામત કે વિદ્વાને અનેક જાતની પૌદ્ગલિક સુવિધા છવનમાં હોવા છતાં તે હરહમેશાં પરભવની વિચારણા કરતા આવ્યા છે. અને તેથી જ ભારતમાં રાજ્યપાટ અને વૈભવ છેઠી તપવનને આશરે લેનારા અનેક રાજવીઓ નીકળ્યા છે, કોડાની સંપત્તિને છૂટે હાથે દાન દેનારા દૈશિવ નીકળ્યા છે અને તવંગષણ પાછળ ઠેર ઠેર ધૂમી સત્યની શોધ કરનારા વિદ્વાનો ભારતમાં પાકયા છે. આમ ભારતની કેવલ ઐહિક સુખ પાછળની દેટ નથી પણ પારમાર્થિક સુખ પાછળ તેનું ચિંતન સદાકાળ રહ્યું છે. આ પારમાર્થિક સુખની ગષણાને લઈને ભારતમાં અનેક ધર્મો નીકળ્યા અને તે તે ધર્મોએ કોઈ ને કોઈ સિદ્ધાંત સ્થિર કરી તેની દ્વારા આચાર વિચારનું વર્તુળ સ્થિર કર્યું. આ અનેક જાતના ધર્મો-વિચારોનું વગીકરણ તે વદર્શન છે. આ છએ દર્શનને સમન્વય અગર સમગ્ર ધમને સમન્વય તે જૈન દર્શન છે. આથી જ આનંદઘનજી મહારાજે નમિનાથ ભગવાનના દર્શન જિન અંગ ભણી જે' સ્તવનમાં જેનદર્શનમાં બધાં દર્શન સમાઈ જાય છે તે જણાવ્યું છે. આ સમન્વય દષ્ટિના પ્રતાપે જ ભગવાન પાસેથી “ ઉપને ઈ વા, વિગમે ઈ વા, હવે ઈ વા ” આ ત્રણ ત્રિપદીને વિસ્તારી ગણધર ભગવતેએ દ્વાદશાંગીની રચના કરી છે. આ દ્વાદશાંગી ચાર અનુગમય છે. દ્રવ્યાનુયોગ, ગણિતાનુગ, કથાનુગ અને ચરણકરણાનુગ. કમનું સ્વરૂપ તેની વગણા, બંધ, ઉદય, ઉદીરણા, સત્તા, કરણે વિગેરે સમાતિસૂક્ષ્મ પદ્રવ્યની વિચારણા તે દ્રવ્યાનુગ છે. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मास्ताविक योग शास्त्रम् liીની દેવવિમાને, જોતિષચક, નરકાવાસાએ, ઠી, સમુદ્રો, પવતે વિગેરે ચૌદ રાજલોકમાં શાશ્વત અશાશ્વત અનેકાનેક સ્થાનના મા૫ પરિમાણની વિચારણા તે ગણિતાનુયોગ છે. “નિરસંનિવપUTHી..ચિરંતન પાપનો નાશ કરનારી છોને કલ્યાણમાના આલંબનરૂપ કથાનો વિસ્તાર 8ા તે કથાનુગ છે. સર્વવિરતિ, દેશવિરતિથી માંડીને માર્ગાનુસારપણાના ગુણ સુધીની વિચારણા, નાના મોટા જીવનના અનુષ્ઠાને, ચરણ સિરિ કરણસિત્તરિને વિસ્તાર આ ચરકરણાનુગ છે. આ ચારે અનુયાગમય દ્વાદશાંગી છે અને એ દ્વાદશાંગીમાંથી ઉતરી આવેલું ઉત્તરોત્તર ક્ષીણ થતું આવેલું આજે આપણી પાસે રહેલું જે આગમશ્રત છે તે પણ એ ચાર અનુયાગમય છે. આગમશ્રતને અનુસરી આપણા પૂર્વાચાર્યોએ તે તે અધિકારીઓને અનુલક્ષી અનેકવિધ સાહિત્યસર્જન કર્યું છે. તે પણ સઘળું સાહિત્ય ચાર અનુગરૂપ છે. આ ચારે અનુયોગનું ફળ એ મોક્ષપ્રાપ્તિ છે. અને દ્રવ્યાનુયોગ, ગણિતાનુયોગ અને કથાનુયોગ આ ત્રણે અનુગનું સીમાન્ત ચરકરણાનુયોગ છે. - આ ચરકરણાનુગના સંદર્ભરૂપ યોગશાસ્ત્ર છે. આમાં મુખ્યત્વે ચરકરણાનુગ છે. તેમ છતાં આ યોગશાસ્ત્રમાં પપ્ત વૃત્તિકારે બીજા ત્રણ અનાગને સંદર્ભ પણ આપે છે. કર્મના ભેદ, ગુણસ્થાનનું સ્વરૂપ વિગેરે જણાવી દ્રવ્યાનુયોગ, ચૌદ રાજ | લેકનું સ્વરૂપ વિગેરે રજુ કરી ગણિતાનુયોગ અને દરેક વ્રત ઉપર તે તે વિષયને સ્પષ્ટ કરવા સુવિસ્તૃત કથાઓ દ્વારા કથાનુગ પણ આ ગ્રંથમાં સંકલિત છે. અને આ ચરણ-કરણાનુયોગનું ફલિતાર્થ જ્ઞાનદર્શન અને ચારિત્ર છે. આ ત્રણેને સમુચ્ચય તે ચાગ છે. આથી જ કલિકાલ સર્વજ્ઞ હેમચંદ્રસૂરિ મહારાજે પહેલા પ્રકાશના ૧૫ મા કલેકના ઉત્તરાર્ધમાં જણાવ્યું છે કે : નેપરક્રવારના Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शाखम् III જ રિક્વરરરરરર જ્ઞાન-કાન-વારિત્ર રત્નત્ર ન : ૨ ના થાગ તાન, દર્શન અને ચારિત્રરૂપ રત્નત્રયીરૂપ છે, આથી આ યોગશાસ્ત્રમાં જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રનું વર્ણન અને રિા વિસ્તાર છે. યોગશાસ્ત્રના પ્રથમ પ્રકાશના ૧૬મા લેકમાં જ્ઞાનનું વર્ણન છે. यथावस्थिततत्त्वानां सक्षेपाद् विस्तरेण वा. योऽवबोधस्तमत्राहुः सम्यग्ज्ञान मनीषिणः ॥१॥ યથાવસ્થિત તને સંક્ષેપ કે વિસ્તારથી જે અવધ થવો તેને પંડિતે સમ્યગૂજ્ઞાન કહે છે. fafd g ......પ્રથમ પ્રકાશના સત્તરમા અને અઢારમા કલેકથી દર્શન અને ચારિત્રનું સ્વરૂપ બતાવ્યું છે, પ્રથમ પ્રકાશના ૧૮માં કલેકથી ૪૬મા લોક સુધી ચારિત્રની વ્યાખ્યા પાંચ મહાવ્રતનું સ્વરૂપ, પાંચ સમિતિ, ત્રણ ગુપ્તિને પરિચય બતાવી ___ सर्वात्मना यतीन्द्राणामेतश्चारित्रमीरितम् यतिधर्मानुरक्तानां देशतः स्यादगारिणाम् ॥ સર્વસાવદ્યોગની વિરતિરૂપ આ ચારિત્ર ઉત્તમ મુનિવરેને હેય છે અને યતિધર્મ તરફ અનુરાગવાળા ગૃહસ્થને દેશથી દેશવિરતિ ચારિત્ર હોય છે. આ દેશવિરતિ ચારિત્રમાં કેવા પ્રકારનો ગૃહસ્થ ધર્માધિકારી બની શકે તે માટે ધર્માધિકારી બનવા માટે માર્ગોનુસારીપણાના ૩૫ ગુણાનું વર્ણન પ્રથમ પ્રકાશમાં ૪૭ થી ૧૬ કલાક સુધીમાં આપી પ્રથમ પ્રકાશ પૂર્ણ કરેલ છે. આમ ખરી રીતે પ્રથમ પ્રકાશ ગ્રંથની પ્રસ્તાવના સ્વરૂપ છે. નિરિક Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक योग शास्त्रम् iા . બીજા પ્રકાશમાં “જ્ઞાન-બંતાન-નારિત્ર' કહી વેગને જ્ઞાન દર્શન ચારિત્રરૂપ કહેલ છે તેના બીજા અંશ તેથી દર્શનનું સ્પષ્ટિકરણ થી ૧૭ પ્લાક સુધીમાં સમાતનું તેના ૬૭ બેદના વર્ણનપૂર્વક વિસ્તારથી સ્વરૂપ બતાવ્યું છે. બીજા પ્રકાશના ૧૮ મા લોકથી ૫૩ મા કલેક સુધી શ્રાવકના પહેલા પૂલહિંસા વિરમણુરૂપ પ્રથમ વતનું, ૫૪ માં લોકથી ૬૪ સુધી સ્થલમૃષાવાદ અસત્ય વિરમગુરૂ૫ બીજા વ્રતનું, ૬૫ થી ૭૫ મા કલાક સુધી સ્થૂલ અદત્તાદાન-ચેરી વિરમણરૂપ ત્રીજા વ્રતનું, ૭૬ થી ૧૦૫ લેક સુધી સ્થલ બ્રહ્મચર્ય વ્રતનું અને ૧૦૬ થી ૧૧૫ લેક સુધીમાં પરિગ્રહ પરિમાણ વ્રતનું વિસ્તૃત સ્વરૂપ આપ્યું છે. અને તે તે વ્રતને અનુસરતાં દરેક તે ઉપરના સુવિસ્તૃત કથાનકે પણ આપ્યાં છે. ત્રોજા પ્રકાશમાં ૧ થી ૩ સુધી પહેલા ગુણવત-દિમ્ પરિમાણ વ્રતનું સ્વરૂપ, ૪ થી ૭૨ સુધી ભગોપભોગ પરિમાણ વ્રતરૂપ બીજા ગુણવ્રતનું, ૭૩ થી ૮૧ સુધી અનર્થદંડવિરમણ વ્રતરૂપ ત્રીજા ગુણુવ્રતનું વિસ્તૃત નિરૂપણ દ્વારા ત્રણ ગુણવ્રતનું નિરૂપણ કર્યું છે. કલેક ૮૨-૮૩ માં સામાયિકવતા૫ પ્રથમ શિક્ષાવ્રતનું, ૮૪ થી ૮૫ સુધીમાં દેશાવકાશિક વતનું, ૮૬મા માં પૌષધ વ્રતનું,. ૮–૮૮ માં અતિથિ સંવિભાગ વ્રતનું વિસ્તૃત સ્વરૂપ બતાવ્યું છે. ૮૯મા શ્લોકથી ૧૧૮ શ્લોક સુધી ૧૨ અણુવ્રતના અતિચારાનું સ્વરૂપ બતાવવામાં આવ્યું છે. ૧૧૯ થી ૧૫૫ ગ્લૅક સુધીમાં શ્રાવકજીવનના સમગ્ર કર્તવ્યોનું વર્ણન, સામાયિક, ચૈત્યવંદન વિગેરેમાં આવતા સૂત્રોને વિશિષ્ટ અર્થ પચ્ચખાણુ-ગુરૂવંદન અને દેવવંદન ભાષ્યને સંક્ષેપ, શ્રાવકની દિનચર્યા આદિ વિશિષ્ટ કરણીના સવિસ્તર નિરૂપણુઠારા ધમધમીના ભેદનયને આશ્રીને જ્ઞાનાદિ ત્રણ રત્નો જે મુક્તિના કારણરૂપ છે તેનું નિરૂપણ કર્યું છે. આ રીતે ભેદનયની દૃષ્ટિથી ૧ થી ૩ પ્રકાશમાં ધમ અને ધમી વચ્ચેનો ભેદ માની આત્માના જ્ઞાનાદિ ત્રણ ગુણેને વિચાર કરવામાં આવ્યું છે. ચોથા પ્રકાશમાં ધર્મ અને ધમીને અભેદ માનીને વિચાર કરવામાં આવ્યો છે. તેમાં ચાર કષાય, લેસ્યાઓનું સ્વરૂપ, અનિત્યાદિ બાર ભાવના અને મૈચાદિ ચાર ભાવનાનું વિસ્તૃત સ્વરૂપ આપવામાં આવ્યું છે. પાંચમા પ્રકાશમાં, પ્રાણાયામ રેચક, કુંભક અને પુરક વિગેરેના ભેદનું વર્ણન, વાયુના ભેદનું વર્ણન અને સ્વરૂપ, નાડી નવરાનિકારક Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शखिम् प्रास्ताविक વખ, વગેરેનું વર્ણન આપવામાં આવ્યું છે. છઠ્ઠા પ્રકાશમાં પ્રત્યાહાર અને ધારણાનું સ્વરૂપ અને ફળ બતાવ્યું છે. સાત-આઠ-નવ અને દસમાં પ્રકાશમાં અનુક્રમે પિન્ડસ્થ પદસ્થ, પસ્થ, અને સ્પાતીત ધ્યાનનું વર્ણન અને સ્વરૂપ વિસ્તૃત રીતે આપવામાં આવેલ છે. ૧૧મા પ્રકાશમાં શુક્લયાનનું સ્વરૂપ, તીર્થંકર ભગવાનના અતિશે અને સમુદવાત વિગેરેનું વર્ણન આપવામાં આવ્યું છે. ૧૨મા પ્રકાશમાં અનુભવસિદ્ધ તત્વનું વર્ણન કરેલ છે. અને તેમાં વિક્ષિપ્ત, યાતાયાત, સંસ્પિષ્ટ અને સલીન વિગેરે ધ્યાનનું વર્ણન કરેલ છે. આ રીતે યોગશાસ્ત્રના બાર પ્રકાશમાં વિવિધ રીતે ભેગનું વર્ણન કરેલ છે. શ એટઢે પાસનાદિ આસન જમાવીને શ્વાસોશ્વાસની પ્રક્રિયા કરવી તે લોકપ્રસિદ્ધ યોગમાં યોગપરિપૂર્ણ થતો નથી. પરંતુ જેની દ્વારા પરમસુખનિધાન આત્યંતિક સુખરૂપ મેક્ષની પ્રાપ્તિમાં જે કારણરૂપ બને છે તે યોગ છે. આવા યોગના પરિણામે ચક્રવતિ આરિસાભુવનમાં રહ્યા છતાં અનિત્યતાની વિચારણાઠારા કેવળજ્ઞાન પામ્યા. બ્રાહ્મણ, સ્ત્રી, બાળક અને ગાય૩૫ મહાપાતકના કરનાર દઢપ્રહારી તેમજ ભયંકર દુષ્કર્મ કરનાર ચિલાતી પુત્ર જેવા આ યોગના પ્રતાપે કેવળજ્ઞાન પામ્યા છે. ટૂંકમાં ચિત્તવૃત્તિને આત્મલક્ષી બનાવવાથી યોગી યોગદ્વારા क्षिणाति योग: पापानि चिरकालाजितान्यपि અનેક ભવનાં ઉપાર્જન કરેલાં પાપને ક્ષણમાત્રમાં યોગ બાળી મુકે છે. આ ગશાસ્ત્રની રચના કલિકાલ સર્વજ્ઞ હેમચંદ્રસૂરિ મહારાજે श्रुताम्भोधेरधिगम्य सम्प्रदायाच्च सदगुरोः स्व संवेदनतश्चापि योगशास्त्र विरच्यते ॥ ને સલાબતe Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् प्रास्ताविक નિરમાનાર મૃતરૂ૫ સમુદ્રથી, સદગુરુઓની પરંપરાથી અને સ્વાનુભવથી જાણીને હું યેગશાસ્ત્ર રચું છું. આમ પૂ. હેમચંદ્રસૂરિ મહારાજે શાસ્ત્રોથી, ગુરુઓના ઉપદેશથી અને પિતાના અનુભવથી આ ત્રણ સાધનો દ્વારા યોગશાસ્ત્રની રચના કરી છે. પ્રથમના ચાર પ્રકાશ જનઆગમાં અને શાસ્ત્રોમાં વર્ણિત વસ્તુને સંકલિત કરી દર્શન-જ્ઞાન અને ચારિત્રના વર્ણનરૂપે આપેલ છે. પાંચથી અગિઆર પ્રકાશ જેનશાએ, ઈતરશાસ્ત્ર અને ગુરુભગવંતે દ્વારા જાણેલ જ્ઞાનને એકત્રિત કરી સંકલિત કર્યા છે. અને બાર પ્રકાશ પિતાના અનુભવો દ્વારા લખે છે. આ યોગશાસ્ત્રમાં મૂળોકે ૧૦૦૯ છે અને તેની વૃત્તિ ગ્રંથકારે પોતે લખી છે. તે વૃત્તિનું પ્રમાણ ૧૨૦૦૦ શ્લેક પ્રમાણ છે. આ યોગશાસ્ત્રની રચના કલિકાલ સર્વજ્ઞ હેમચંદ્રસૂરિ મહારાજે પરમહંત કુમારપાળ મહારાજાની પ્રાર્થનાથી કરેલ છે. અને આ યોગશાસ્ત્રની રચનાથી જે કાંઈ સુકૃત મેં ઉપાર્જન કર્યું હોય તેથી ભવ્ય પ્રાણીઓ બોધિલાભને પામે તેવા આશીર્વાદ પૂર્વક પિતાનું સ્વપજ્ઞ વિવરણ સમાપ્ત કરેલ છે. श्री चौलुक्यक्षितिपतिकृतप्रार्थनाप्रेरितोऽह संप्रापि योगशासात् तद्विवृतेश्चापि यन्मया सुकृतम् तेन जिनबोधिलाभप्रणयी भव्यो जना भवतात् ॥ ચૌલુકયવંશી કુમારપાલ મહારાજાએ કરેલી પ્રાર્થનાથી પ્રેરાઈને મેં આ તત્વજ્ઞાનના સમુદ્રરૂપ સ્વપજ્ઞ વિવરણ કર્યું છે. આ યોગશાસ્ત્રની રચના દ્વારા જે મેં કાંઈ પુણ્ય ઉપાર્જન કર્યું હોય તેથી ભવ્યછ બેધિ પામે. આમ આ યોગશાસ્ત્રની રચના મહારાજા કુમારપાળને લક્ષમાં રાખી શા. ગુરૂપરંપરા અને અનુભવથી મહારાજા કુમાર પાળની માફક બીજાઓને પણ ઉપકારી થાય તે રીતે રચના કરી છે. શરિરતિનિચ્છના છા Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् प्रास्ताविक ચરરરરરરરર આ પોગશાસ્ત્રના રચયિતા કલિકાળ સર્વજ્ઞ હેમચંદ્રસૂરિ મહારાજ અને જેમને માટે આ યોગશાઅની રચના કરી છે તે પરમાત કુમારપાળ મહારાજા સંબંધિતું વર્ણન કરનારા ઘણા ગ્રંથે આજે મળે છે. અને કલિકાલ સર્વજ્ઞ હેમચંદ્રસુરિ પછી થયેલા પૂર્વાચાર્યોની પણ તેમના સંબંધી અનેક સ્તુતિએ અનેક ગ્રંથોમાં ઉપલબ્ધ થાય છે. કલિકાલ સર્વજ્ઞ હેમચંદ્રસૂરિ મહારાજ અને કુમારપાળ સંબંધીનું સુવિસ્તૃત વર્ણન નીચેના ગ્રંથમાં ઉપલબ્ધ છે. તેમ પ્રભાચાર્યશ્રત કુમારપાળ પ્રતિબંધ સં. ૧૨૪૧, મેહપરાજ્ય નાટક, પ્રભાવક ચરિત્ર, પ્રબંધચિંતામણિ, ચતુર્વિશતિપ્રબંધ, સિંહ મૂરિત કુમારપાળચરિત્ર, સંમતિલક રેકૃત કુમારપાળચરિત્ર, કુમારપાળ પ્રબંધ, ચારિત્રસુંદરકૃત કુમારપાળચરિત્ર, જિનમંડનઃ કુમારપાળપ્રબંધ, તીર્થક૫, ઉપદેશતરંગિણી, ઉપદેશપ્રાસાદ, દેવપ્રભગણિત કુમારપાળ રાસ, હીરકુશળકૃત કુમારપાળ રાસ, કવિઝષભદાસકૃત કુમારપાળ રાસ વિગેરે વિગેરે. કલિકાલ સર્વજ્ઞ હેમચંદ્રસૂરિ મહારાજને જોઈને શ્રી તીર્થકર ભગવાન અને ગણધર ભગવતે કેવા જ્ઞાની હશે તેને ખ્યાલ આવે છે, આ માટે સોમપ્રભાચાર્ય કુમારપાળ પ્રબંધ પ્ર. ૧ ગાથા ૨૪થી જળ્યા છે કે, ક્રમ નાક-કવિતા इच्चाइ गुणाहं हेमसरिणो पेच्छिउण छेयजणी सद्दहइ अदिढे वि हु तित्थंकर गुणहरप्पमुहे ઈત્યાદિ ગુણોવાળા હેમચંદ્રસુરિને જોઈને ચતુર માણસને અદષ્ટ એવા તીર્થંકર ગણધર પ્રમુખની શ્રદ્ધા બેસે છે આવી આવી અનેક સ્તુતિઓ મળે છે. કુમારપાળ મહારાજાના સંબંધમાં ૫ણ. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जिनागमागधनातत्परेण राजर्षिणा एकविंशतिः ज्ञानकोशाः कारापिता;...सप्तशतलेखका लिखति कु प्र. पृ. ९६-९७ योग शाखम् प्रास्ताविक Ifકા કુમારપાળ રાજર્ષિએ અગિઆર જ્ઞાનભંડાર સ્થાપા, અગિયાર અંગ અને બારઉપાંગની સોનેરી અક્ષરે પ્રતિએ લખાવી. ગશાસ્ત્ર અને વીતરાગ સ્તોત્ર આદિ ગ્રંથ સુવર્ણ અક્ષરે લખાવ્યા. સાત લહીયાઓને આ ગ્રંથ લખવામાં રોકવામાં આવ્યા હતા. મૃગયા ઘત વિગેરે સાત વ્યસનને રાજ્યમાંથી દૂર કરાવ્યાં. ભગવાનના મંદિરેથી યુક્ત પૃથ્વીને સંપ્રતિ મહારાજાની ત્રિ. પર્વ ૧૦ કલિકાલ સર્વજ્ઞ હેમચંદ્રસૂરિ મહારાજનો જન્મ વિ. સં. ૧૧૪૫માં, દીક્ષા વિ. સં. ૧૧૫૪માં, સૂરિપદ વિ. સં. ૧૧૬૬ અને સ્વર્ગવાસ વિ. સં. ૧૨૨૯માં થેયે છે. ધંધુકા ગામમાં મોઢ જ્ઞાતીય ચર્ચા નામે વણિગ હતા તેને ચાહિણી નામે ભાય હતી. તેમને ત્યાં વિ. સં. ૧૪૪૫ કાર્તિક સુદ ૧૫ ના દિને પુત્ર જન્મે. તેમણે આ પુત્રનું નામ ચંગદેવ પડયું. આ ચંગદેવ ખુબ જ બુદ્ધિશાળી હતે. ધંધુકામાં એક વખત દેવચંદ્ર સુરિ પધાર્યા. આ દેવચંદ્રસુરિ પૂર્ણતલ ગચ્છના દત્તસૂરિના શિષ્ય યશોભદ્રસુરિ તેમના શિષ્ય પ્રદ્યુમ્નસૂરિ તેમના શિષ્ય ગુણસેનસૂરિ અને ગુણસેનસૂરિના પટ્ટપ્રભાવક હતા. વિ. સં. ૧૧૫માં તેમને દીક્ષા આપવામાં આવી. દીક્ષા વખતે તેમનું નામ સેમચંદ્ર પાડવામાં આવ્યું. મારવાડમાં આવેલ નાગેરમાં વિ. સં. ૧૧૬૬માં આચાર્યપદ આપવામાં આવ્યું અને વિ. સં. ૧૨૨૬માં તે સ્વર્ગવાસી બન્યા. કલિકાલ સર્વજ્ઞ હેમચંદ્રસૂરિ ભગવંતનો પ્રભાવ સિદ્ધરાજ અને કુમારપાળ બન્ને રાજાઓ ઉપર પડેલ છે. સિદ્ધરાજને તેમણે પિતાની રડન : દ્દિા Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ૯િ કારતાવિક Iકા નનળન%િeele ઉત્કૃષ્ટ વિદ્વત્તાથી આકથી નતમસ્તક બનાવ્યા હતા અને કુમારપાળ ઉપકારથી શીગણ બની પરમભક્ત બન્યો હતો તેમની સાહિત્ય રચના માટે સમપ્રભસૂરિજી શતાર્થ કાવ્યની ટીકાના ૯૩મા કલેકમાં. क्लृप्त व्याकरण नव विरचित छन्द नव द्वाश्रयाऽ लंकारौ प्रथितौ नवौ प्रकटितौ श्री योगशास्त्र नवम् । तर्कः संजनितो नवो जिनवरादीनां चरित्रं नवम् बद्ध येन न केन विधिना मोहः कृता दूरतः ॥१॥ જેમણે નવું વ્યાકરણ, નવું છંદશાસ્ત્ર નવું વાશ્રયકાવ્ય, નવું અલંકારશાસ્ત્ર, નવું યોગશાસ્ત્ર, નવું તર્કશાસ્ત્ર અને નવાં જિનેશ્વર ભગવાનના ચરિત્રો રચેલ છે તેમણે આ રીતે કયા કયા પ્રકારે આપણે મેહ દૂર નથી કર્યો. કલિકાલ સર્વજ્ઞ હેમચંદ્રસૂરિ મહારાજે સાડા ત્રણ કોડ સ્લોક પ્રમાણ ગ્રંથ રચના કરી છે. ૧ પંચાંગ વ્યાકરણ, (મૂળસુત્રો, તેના ઉપરતી લધુવૃત્તિ, બૃહત્તિ , ઉણાદિસવૃત્તિ, લિંગાનુશાસન સવૃત્તિક) ૨ વાકય મહાકાવ્ય ૩ અભિધાન ચિંતામણિ કેષ ૪ હેમ અનેકાર્થસંગ્રહ, ૫ દેશીનામમાળા ૬ નિઘોષ, કાવ્યાનુશાસન સટીક ૮ અંદાનુશાસન ૯ વાદાનુશાસન ૧૦ પ્રમાણ મીમાંસા ૧૧ અન્યગ વ્યવચ્છેદ દ્વાવિંશિકા ૧૨ અગવ્યવચ્છેદ વાત્રિશિકા ૧૭ વીતરાગસ્તોત્ર ૧૪ યોગશાસ્ત્ર ૧૫ ત્રિષષ્ઠિ શલાકાપુરષચરિત્ર વિગેરે વિગેરે તમામ સાહિત્ય ઉપર ગ્રંથ રચના કરી છે. કલિકાલ સર્વજ્ઞ હેમચંદ્રસુરિ મહારાજ સમર્થ વિદ્વાન પ્રતિભાવાન અને દીર્ઘદૃષ્ટિવંત મહાપુરૂષ હતા. તેમજ તેમણે પિતાની પાછળ વિદ્વાન અને શાસન પ્રભાવક શિષ્યમંડળ મુકયું હતું. અનિછનિક iારણા ત્ર Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧ પ્રબન્ધ શતકર્તા રામચંદ્રસૂરિ, योग मुक्तया रामचन्द्रस्य वसन्तः क्लगीतयः शास्त्रम् प्रास्ताविक liા રાજ્યના કિનારા “કવિ'રામચંદ્રની સુકિતએ સુંદર વસંતના ગીતે છે ૨ મહેન્દ્રસુરિ ૩ વર્ધમાનગણિ ૪ દેવચંદ્રગણિ ૫ ઉદયચંદ્રગણિ ૬ યશચંદ્રમણિ ૭ બાળચંદ્ર ગણિ (સ્નાતસ્યાના કર્તા.) આ બધા શિષ્ય વિદ્વાન અને અનેક ગ્રંથના નિર્માતા છે. આ સટીક ગશાસ્ત્રમાં અનેક વિષયો આપવામાં આવેલા છે. એકજ ગશાસ્ત્રનો સાંગોપાંગ અભ્યાસક જનશાસ્ત્રોની ઘણી વસ્તુઓને જ્ઞાતા બની શકે તેમ છે. નવતત્ત્વનું સ્વરૂપ, સુત્રોના અર્થ, ત્રણભાષ્યનું રહસ્ય, માગનુસારિપણાથી તે શ્રાવકેના વત, અનેક કથા સંદર્ભે, ભગવાનના ચરિત્રો વિગેરે વિગેરે અનેક જેનશાના વિષયે આ ગ્રંથમાં આપવામાં આવ્યા છે. આ ગ્રંથ તત્ત્વજ્ઞાન ગર્ભિત હોવા છતાં ખૂબજ રસપ્રદ અને ચિત્તનોગ્ય બનાવ્યું છે. જેને લઈ આ ગ્રંથની ભંડારોમાં ઠેર ઠેર સેંકડો પ્રતિએ ઉપલબ્ધ થાય છે. અને આ ગ્રંથને સેંકડે ભાવિકેએ પોતાના રાજના સ્વાધ્યાય તરીકે રાખી જીવનમાં તેના રહસ્યને ઓતપ્રેત કરેલ છે. રરરરરરરછલકનક આજે પણ આ ગ્રંથના ચાર પ્રકાશ સુધીનું વાંચન ઘણી જગ્યાએ ચાતુર્માસમાં મુનિભગવતે કરે છે. આ ગ્રંથ ઘણા સમય અગાઉ ૫. પૂ. આચાર્ય દેવ વિજ્યપ્રેમસુરીશ્વરજી મહારાજના ગુરૂ ભગવંત પૂ. 4. આચાર્ય દેવ ભકિતસુરીશ્વરજી મહારાજે પ્રકાશિત કર્યો હતો. પરંતુ હાલ તે ગ્રંથ અપ્રાપ્ય અને જીર્ણ શીર્ણ હોવાથી આજે પુનર્મુદ્રિત કરવામાં આવ્યું છે. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આ ગ્રંથના પ્રકાશન વખતે તે હું પુરું ધ્યાન આપી શકયો નથી. પરંતુ તેની પ્રસ્તાવના વખતે આ ગ્રંથને સાવંત અવગાહવાની તક આપવા બદલ પૂજ્ય આચાર્ય પ્રેમસૂરિ મહારાજનો આભાર માનું છું.. योग शास्त्रम् प्रास्ताविक અંતે આ ગ્રંથના વાંચન, ઉપદેશ અને શ્રવણ દ્વારા વાંચક, વકતા અને શ્રોતા લાભ ઉઠાવી આ પ્રકાશનના અમારા પ્રયત્નને સફળ બનાવે તે અભ્યર્થના સાથે પ્રમાદ, દષ્ટિદોષ કે મુદ્રણદોષની રહેલી ક્ષતિ માટે ક્ષમા માગી વિરમું છું. ૨ . તા. ૨૧-૮-૭૨ મફતલાલ ઝવેરચંદ ગાંધી IIRRI Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ro|| a** * POR** * योग शास्त्रम् ORoll Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहम श्रीवृद्धिचन्द्रगुरुभ्यो नमः। कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं योगशास्त्रम्। स्वोपज्ञविवरणसहितम् । प्रणम्य सिद्धाद्भुतयोगसम्पदे श्रीवीरनाथाय बिमुक्तिशालिने। स्वयोगशास्त्रार्थविशेषनिर्णयो भव्यावबोधाय मया विधास्यते॥१॥ ___ तस्य चायमादिश्लोकः नमो दुर्वाररागादिवैरिवारनिवारिणे । अर्हते योगिनाथाय महावीराय तायिने ॥१॥ अत्र महावीरायेति विशेष्यपदम् । विशेषेण ईरयति क्षिपति कर्मांणीति वीरः । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलादि योगशास्त्रम् ॥२॥ विदारयति यत्कर्म तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च तस्माद्वीर इति स्मृतः ॥१॥ इति लक्षणाग्निरुक्ताद्वा वीरः महांश्चासावितरवीरापेक्षया वीरश्च महावीरः इदं च जन्ममहोत्सवसमये तनुशरीरोऽयं कथं जलप्राग्भारं सोदेति शकशङ्काशकुँसमुद्धरणाय भगवता वामचरणागुष्ठनिपीडितसुमेरुशिखरप्रकम्पमानमहीतलोल्लसितसरित्पतिक्षोभशङ्कितब्रह्माण्डमाण्डोदरदर्शनप्रयुक्तावधिज्ञानज्ञातप्रभावातिशयविस्मितेन वास्तोष्पतिना नाम निर्ममे महावीरोऽयमिति । तत्पुनरनादिभवप्ररूढप्रौढकर्मसमुन्मूलनबलेन यथार्थीकृतं च भगवता। वर्द्धमान इति तु नाम मातरपितराभ्यां कृतम् । श्रमणो देवार्य इति च जनपदेन । तस्मै नम इति सम्बन्धः । शेषाणि विशेषणानि । तैस्तु सद्भतार्थप्रतिपादनपरैश्चत्वारो भगवदतिशयाः प्रकाश्यन्ते, तत्र पूर्वानापायापगमातिशयः । अपायभूता हि रागादयस्तदपगमेन भगवतः स्वरूपलाभः १ । अर्हते इत्यनेन च सकलसुरासुरमनुजजनितपूजाप्रकर्षवाचिना पृजातिशयः २ । योगिनाथायेत्यनेन तु ज्ञानातिशयः, योगिनोऽवधिजिनादयस्तेषां नाथो विमलकेवलबलावलोकितलोकालोकस्वभावो भगवानेव ३। तायिने इत्यनेन तु वचनातिशयः ४ । तायी सकलसुरासुरमनुजतिरश्चां पालकः । पालकत्वं च सकलभुवनाभयदानसमर्थसमग्रभाषापरिणामिधर्मदेशनाद्वारेण भगवत एव । पालकत्वमात्रं तु स्वापत्यादेर्व्याघ्रादीनामपि सम्भवति । तदेवं चतुरतिशयप्रतिपादनद्वारेण भगवतो महावीरस्य पारमार्थिकी स्तुतिरभिहितेति ॥१॥ पुनर्योगगां स्तुतिमाहपन्नगे च सुरेन्द्रे च कौशिके पदिसंस्पृशि। निर्विशेषमनस्काय श्रीवीरस्वामिने नमः ॥२॥ ॥शा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥३॥ Fotoohora पन्नगस्य कौशिकत्वं पूर्वभवस्थितकौशिक गोत्रत्वेन बुध्यस्व कौशिकेति भगवता तथैव भाषितत्वेन च । सुरेन्द्रस्य तु कौशिकत्वं कौशिकाभिधानात् । पादस्पर्शश्च पन्नगस्य दर्शनबुद्धया सुरेन्द्रस्य च भक्त्यतिशयेन । निर्विशेषमस्व च भगवतो द्वेषरागविशेषरहितत्वेन माध्यस्थ्यात् ।। सम्प्रदाय गम्यश्चायमर्थस्तथाहि श्री वीरः प्राणतस्वर्गपुष्पोत्तर विमानतः । पूर्वजन्मार्जितौजस्वितीर्थ नामकर्म्मकः ॥ १॥ ज्ञानवि सिद्धार्थनृपवेश्मनि । त्रिशलाकुक्षौ सरस्यां राजहंस इवागमत् ||२|| (युग्मं ) सिंहो गजो वृषः साभिषेकश्रीः खक शशी रविः । महाध्वजः पूर्णकुम्भः पद्मसरः सरित्पतिः ||३|| विमानं रत्नपुञ्जश्च निर्धूमाग्निरिति क्रमात् । देवी चतुर्द्दश स्वापश्यत्तत्र गर्भगे ||४|| त्रैलोक्योद्योतकृद्देवदानवासनकम्पकृत् । अपि नारकजन्तूनां क्षणदत्तमुखासिकम् ||५|| प्रभुः सुखं सुखेनैव जन्म प्राप शुभे दिने । तत्कालं दिक्कुमार्यश्च सूतिकर्माणि चक्रिरे (युग्मम्) ||६|| अथ जन्माभिषेकाय कृत्वोत्सङ्गे जगत्प्रभुम् । मेरुमूर्ध्नि सुधर्मेन्द्रः सिंहासनमशिश्रियत् ||७|| इयन्तं वारिसम्भारं कथं स्वामी सहिष्यते ? । इत्याशशङ्के शक्रेण भक्तिकोमलचेतसा ||८|| तदाशङ्कानिरासाय लीलया परमेश्वरः । मेरुशैलं वामपादाङ्गुष्ठाग्रेण न्यपीडयत् ||९|| शिरांसि मेरोरनमन्नमस्कर्त्तुमिव प्रभुम् । तदन्तिकमिवायातुमचलंश्च कुलाचलाः॥१०॥ अतुच्छमुच्छलन्ति स्म स्नात्रं कर्त्तुमिवार्णवाः । विवेषे सत्वरं तत्र नर्त्तनाभिमुखेव भूः ॥११॥ किमेतदिति सञ्चिन्त्यावधिज्ञानप्रयोगतः । लायितं भगवतो विदाञ्चक्रे विडौजसा ||१२|| स्वामिन्ननन्यसामान्यं सामान्यो मादृशो जनः । विदाङ्करोतु माहात्म्यं कथङ्कारं तवेदृशम् ॥१३॥ तन्मिथ्यादुष्कृतं भूयाच्चिन्तितं यन्मयाऽन्यथा । इतीन्द्रेण ब्रुवाणेन प्रणेमे परमेश्वरः ॥ १४॥ EOLOOKDEO REETY GREENS योग गर्भ स्तुतिः ॥३॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥ ४ ॥ KESKARO FOTO The सानन्दं वादितातोद्यं चक्रे शक्रैर्जगद्गुरोः । तीर्थगन्धोदकैः पुण्यैरभिषेकमहोत्सवः ॥ १५ ॥ अभिषेकजलं तत्तसुरासुरनरोरगाः । ववन्दिरे मुहुः सर्वाङ्गीण च परिचिक्षिपुः ||१६|| प्रभुस्नात्रजलालीढा वन्दनीया मृदप्यभूत् । गुरूणां किल संसर्गाद्गौरवं स्याल्लघोरपि ॥ १७ ॥ निवेश्येशानशक्राङ्के सौधर्मेन्द्रोऽप्यथ प्रभुम् । स्नपयित्वाऽर्च्चयित्वारात्रिकं कृत्वेति तुष्टुवे ॥ १८ ॥ नमोऽर्हते भगवते स्वयम्बुद्धाय वेधसे । तीर्थङ्करायादिकृते पुरुषेषुत्तमाय ते ॥ १९ ॥ नमो लोकप्रदीपाय लोकप्रद्योतकारिणे । लोकोत्तमाय लोकाधीशाय लोकहिताय ते ||२०|| नमस्ते पुरुषवरपुण्डरीकाय शम्भवे । पुरुषसिंहाय पुरुषैकगन्धद्विपाय ते ॥ २१ ॥ चक्षुर्दायाभयदाय बोधिदायाध्वदायिने । धर्म्मदाय धर्म्मदेष्ट्रे नमः शरणदाय ते ॥२२॥ धर्म्मसारथये धर्म्मनेत्रे धर्मैकचक्रिणे । व्यावृत्तच्छद्मने सम्यग्ज्ञानदर्शनधारिणे ॥२३॥ जिनाय ते जापकाय तीर्णाय तारकाय च । विमुक्ताय मोचकाय नमो बुद्धाय बोधिने ||२४|| सर्व्वज्ञाय नमस्तुभ्यं स्वामिने सर्वदर्शिने । सर्व्वातिशयपथाद्रयाय कम्र्म्माष्टकनिदिने ||२५|| तुभ्यं क्षेत्राय पात्राय तीर्थाय परमात्मने । स्याद्वादवादिने वीतरागाय मुनये नमः ॥ २६ ॥ पूज्यानामपि पूज्याय महद्भ्योऽपि महीयसे । आचार्याणामाचार्याय ज्येष्ठानां ज्यायसे नमः ||२७|| नमो विश्वभुवे तुभ्यं योगिनाथाय योगिने । पावनाय पवित्रायानुत्तरायोत्तराय च ||२८|| योगाचार्यांय सम्प्रक्षालनाय प्रवराय च । अध्याय वाचस्पतये मङ्गल्याय नमोऽस्तु ते ॥ २९ ॥ नमः पुरस्तादुदितायैकवीराय भास्वते । ॐ भूर्भुवः स्वरितिवाक्रस्तवनीयाय ते नमः || ३० ॥ नमः सर्व्वजनीनाय सर्व्वार्थायामृताय च । उदितब्रह्मचर्यायाप्ताय पारगताय ते ॥ ३१ ॥ नमस्ते दक्षिणीयाय निर्व्विकाराय तायिने । वज्रऋषभनाराचवपुषे योगगर्भस्तुतिः ॥ ४ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगगर्भस्तुतिः ॥५॥ तत्त्वदृश्वने ॥३२॥ नमः कालत्रयज्ञाय जिनेन्द्राय स्वयम्भुवे । ज्ञानबलवीर्यतेजःशक्त्यैश्वर्यमयाय ते ॥३३॥ आदिपुंसे नमस्तुभ्यं नमस्ते परमेष्ठिने । नमस्तुभ्यं महेशाय ज्योतिस्तत्त्वाय ते नमः॥३४॥ तुभ्यं सिद्धार्थराजेन्द्रकुलक्षीरोदधीन्दवे । महावीराय धीराय त्रिजगत्स्वामिने नमः॥३५॥ इति स्तुत्वा नमस्कृत्य गृहीत्वा परमेश्वरम् । आनीय तत्क्षणं मातुरर्पयामास वासवः ॥३६॥ स्ववंशवृद्धिकरणाद्यथार्थ पितरौ तदा । नामधेयं विदधतुर्वर्द्धमान इति प्रभोः ॥३७॥ सोऽहंपूचिकया भक्तैः सेव्यमानः सुरासुरैः । दृशा पीयूषवर्षिण्या सिञ्चन्निव वसुन्धराम् ॥३८॥ अष्टोत्तरसहस्त्रेण लक्षणैरुपलक्षितः। निसर्गेण गुणैर्वृद्धो वयसा ववृधे क्रमात् ॥३९॥ राजपुत्रैः सवयोभिः समं निःसीमविक्रमः । वयोऽनुरूपक्रीडाभिः कदाचित्क्रीडितुं ययौ ॥४०॥ तदा ज्ञात्वावधिज्ञानान्मध्येसुरसभं हरिः। धीरा अनुमहावीरमिति वीरमवर्णयत् ॥४१॥ क्षोभयिष्यामि तं धीरमेषोऽहमिति मत्सरी । आजगामामरः कोऽपि यत्र क्रीडन्नभूद्विभुः ॥४२॥ कुळत्यामलकीक्रीडां राजपुत्रैः सह प्रभो । सोऽविवेष्टविटपिनं भुजगीभूय मायया । ॥४३॥ तत्कालं राजपुत्रेषु वित्रस्तेषु दिशोदिशि । स्मित्वा रज्जुमिवोत्क्षिप्य तं चिक्षेप क्षितौ विभुः ॥४४॥ सनीडाः क्रीडितुं तत्र कुमाराः पुनराययुः। कुमारीभूय सोऽप्यागात्सर्वेऽप्यारुरुहुस्तरुम् ॥४५॥ पादपाग्रं कुमारेभ्यःप्राप प्रथमतः प्रभुः। यद्वा कियदमुष्येदं यो लोकायं गमिष्यति ॥४६।। शुशुभे भगवांस्तत्र मेरुश्रृङ्ग इवार्यमा । लम्बमाना बभुः शाखास्वन्ये शाखामृगा इव ॥४७॥ जिग्ये भगवता तत्र कृतश्चासीदियं पणः। जयेद्य इह स ह्यन्यान् पृष्ठामारुह्य वाहयेत् ॥४८॥ आरुह्यावाहद्वाहानिव वीरः कुमारकान्। आरुरोह सुरस्यापि पृष्ठं प्रष्ठो महोजसाम् ॥४९॥ ततः करालं वेतालरूपमाधाय (१) (वीरा) (२) वीरम् ॥५॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् Hદ્દા योगगर्भस्तुतिः दुष्टधीः । भूधरानप्यधरयन् प्रारब्धो वर्धितुं सुरः ॥५०॥ वक्त्रे पातालकल्पेऽस्य जिहया तक्षकायितम् । पिङ्गैस्तुङ्गे शिरःशैले केशैर्दावानलायितम् ॥५१॥ तस्यातिदारुणे दंष्टे अभूतां क्रकचाकृती । जाज्वल्यमाने अङ्गारशकटयाविव लोचने ॥५२॥ घोणारन्त्रे महाघोर महीधरगुहे इव । भृकुटीभङ्गरे भीमे महोरग्याविव भ्रवौ॥५३॥ व्यरंसीद्वर्धनानासौ यावत्तावन्महौजसा। आहत्य मुष्टिना पृष्ठे स्वामिना वामनीकृतः॥५४॥ एवं च भगवर्य साक्षात्कृत्येन्द्रवर्णितम् । प्रभु नत्वात्मरूपेण निजं धाम जगाम सः॥५५॥ मातापितृभ्यामन्येयुः प्रारब्धेऽध्यापनोत्सवे । आः सर्वज्ञस्य शिष्यत्वमितीन्द्रस्तमुपास्थित।।५६।। उपाध्यायासने तस्मिन्वासवेनोपवेशितः। प्रणम्य प्रार्थितः स्वामी शब्दपारायणं जगौ ॥५७॥ इदं भगवतेन्द्राय प्रोक्तं शब्दानुशासनम् । उपाध्यायेन तच्छुत्वा लोकेप्वैन्द्रमितीरितम् ॥५८॥ मातपित्रोरनुरोधादष्टाविंशतिवत्सरीम् । कथाठिचदगृहवासेऽस्थात्प्रवज्योत्कण्ठितः प्रभुः॥५९॥ अथ पूर्णायुषोः पित्रोदेवभूयमुपेयुषोः ईहाश्चक्रे परिव्रज्यां निरीहो राज्यसम्पदः ॥६०॥ भगवन्मा क्षते क्षारं क्षैप्सीरिति सगद्गदम् । भ्रात्रीक्त्वा ज्यायसा नन्दिवर्द्धनेनोपरोधितः॥६१।। भावतो यतिरेवाथ नानाभरणभूषितः। कायोत्सर्ग श्रयश्चित्रशालिकायामवस्थितः॥६२॥ एषणीयप्रामुकामपानवृत्तिमहामनाः। वर्षमेकं कथमपि भगवानत्यवाहयत् ॥६॥ तीर्थ प्रवर्तयेत्यभ्यर्थितो लोकान्तिकामरैः । यथाक.मीनमर्थिभ्यो दानं दातुं प्रचक्रमे ॥६४॥ द्वतीयीकेन वर्षेण विनिर्मायानृणां भुवम् । औज्झद्राज्यश्रियं स्वामी मन्यमानस्तृणाय ताम् ॥६५॥ सव्वैर्देवनिकायैश्च कृतनिष्क्रमणोत्सवः । सहसवाद्यामारू, शिवीं चन्द्रप्रभाभिधा॥६६॥ ज्ञातखण्डवने गत्वा सर्वसावद्यवर्जनात् । प्रव्रज्यामग्रहीदहश्चतुर्थप्रहरे แผน Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥७॥ DODDFOR प्रभुः ||६७|| जगन्मनोगतान भावान प्रकाशयदथ प्रभोः । ज्ञानं तुरीयं संजज्ञे मन:पर्ययसंज्ञकम् ||६८|| ततश्च गत्वा सन्ध्यायां कुर्म्मारग्रामसन्निधौ । गिरीन्द्र इव निष्कम्पः कायोत्सर्ग व्यधाद्विभुः ||६९ || गोपालनाथ यामिन्यां निष्कारणकृतक्रुधा । उपद्रोतुं समारेभे भगवानात्मवैरिणा ॥७०॥ अथेन्द्रेणावधिज्ञानाज्जज्ञे प्रभुमुपद्रवन् । स दुःशीलो महाशैलमाखुश्चिखनिपन्निव ॥ ७१ ॥ कल्याणी भक्तिरागाच्च शक्रः प्रभुपदान्तिकम् । नष्टो मत्कुणनाशं च स गोपहतकः कचित् ॥७२॥ ततः प्रदक्षिणीकृत्य त्रिर्मूर्ध्ना प्रणिपत्य च । इति विज्ञापयाञ्चक्रे प्रभुः प्राचीनवर्हिषा ॥ ७३ ॥ भविष्यति द्वादशाब्दान्युपसर्गपरम्परा । तां निषेधितुमिच्छामि भगवान् पारिपार्श्विकः ||७४ || समाधिं पारयित्वेन्द्रं भगवानूचिवानिति । नापेक्षाञ्चक्रिरेऽईन्तः परसाहाय्यकं कचित् ॥७५॥ ततो जगद्गुरुः शीतलेश्यः शीतमयुखवत् । तपस्तेजोदुरालोकोऽधिपतिस्तेजसामिव ॥ ७६ ॥ शौण्डीर्यवान् गज इव सुमेरुरिव निश्चलः । सर्व्वस्पर्शान् सहिष्णुश्च यथैव हि वसुन्धरा ||७७|| अम्भोधिरिव गम्भीरो मृगेन्द्र इव निर्भयः । मिथ्यादृशां दुरालोकः सुहुतो हव्यवाडिव ॥७८॥ खश्रृङ्गमिवैकाकी जातस्थामा महोक्षवत् । गुप्तेन्द्रियः कूर्म्म इवाहिरिवैकान्तदत्तदृक् ||७९ || निरञ्जनः शङ्ख इव जातरूपः सुवर्णवत् । विप्रमुक्तः खा इव जीव इवास्वलद्गतिः ॥ ८० ॥ व्योमेवानाश्रयो भारण्डपक्षीवाप्रमद्वरः । अम्भोजिनीदलमिवोपलेपपरिवर्जितः ॥ ८१ ॥ शत्रौ मित्रे तृणे स्त्रैणे स्वर्णेऽश्मनि मणौ मृदि । इहामुत्र सुखे दुःखे भवे मोक्षे समाशयः॥ ८२ ॥ निष्कारणैककारुण्यपरायणमनस्तया । मञ्जद्भवोदधौ मुग्धमुद्दिधीर्षुरिदं जगत् ॥ ८३ ॥ प्रभुप्रभञ्जन इवाप्रतिबद्धोऽब्धिमेखलाम् । नानाग्रामपुरारण्यां विजहार वसुन्धराम् ||८४|| देशं दक्षिणवाचालमवाप्य प्रभुरन्यदा । OOKOEESE योगगर्भ स्तुतिः जा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगगर्म स्तुतिः licin श्वेतम्बी नगरी गच्छन्नित्यूचे गोपदारकैः ॥८५॥ देवार्यायमृजुः पन्थाः श्वेतम्बीमुपतिष्ठते । किन्त्वन्तरेऽस्य कनकखलाख्यस्तापसाश्रमः ॥८६॥ स हि दृग्विषसणाधिष्ठितो वर्ततेऽधुना । वायुमात्रैकसञ्चारोऽप्रचारः पक्षिणामपि ॥८७॥ विहाय तदमुं मार्ग वक्रेणाप्यमुना व्रज । सुवर्णेनापि किं तेन कर्णच्छेदो भवेद्यतः ॥८८॥ तं चाहिं प्रभुरज्ञासीधदसौ पूर्वजन्मनि। क्षपकः पारणकार्थ विहर्तुं वसतेरगात् ॥८९॥ गच्छता तेन मण्डूकी पादपाताद्विराधिता। आलोचनार्थमेतस्य दर्शिता क्षुल्लकेन सा ॥९०॥ सोऽथ प्रत्युत मण्डूकीर्दर्शयन् लोकमारिताः । ऊचे क्षुल्लं मया क्षुद्र किमेता अपि मारिताः॥९१॥ तूष्णीकोऽभूत्ततः क्षुल्लोऽमस्त चैवं विशुद्धधीः। महानुभावो यदसौ सायमलोचयिष्यति ॥९२॥ आवश्यकेऽप्यनालोच्य यावदेष निषेदिवान् । क्षुल्लकोऽचिन्तयत्तावद्विस्मृतास्य विराधना ॥९३॥ अस्मारयच्च तां भेकीमालोचयसि किं नहि । क्षपकोऽपि क्रुधोत्थाय क्षुल्लं हन्मीति धावितः॥९४॥ कोपान्धश्च ततः स्तम्भे प्रतिफल्य व्यपद्यत । विराधितश्रामण्योऽसौ ज्योतिष्केपूदपद्यत ॥९५॥ सच्युत्वा कनकखले सहस्राईतपस्विनाम् । पत्युः कुलपतेः पन्याः पुत्रोऽभूत्कौशिकाहयः॥९६॥ तत्र कौशिकगोत्रत्वादासन्नन्येऽपि कौशिकाः। अत्यन्तकोपनत्वाच्च स ख्यातश्चण्डकौशिकः॥९७॥ श्राद्धदेवातिथित्वं च तस्मिन् कुलपतौ गते। असौ कुलपतिस्तत्र तापसानामजायत ॥९८॥ मूर्च्छया वनखण्डस्य सोऽन्तर्धाम्यन्नहर्निशम् । अदात्कस्यापि नादातुं पुष्पं मूल फलं दलम् ॥९९॥ विशीर्णमपि योऽग्रहणादने तत्र फलादिकम् । उत्पाटय परशुं यष्टिं लोष्टं वा तं जघान सः ॥१००॥ फलाद्यलभमानास्तु सीदन्तस्ते तपस्विनः। पतिते लगुडे काका इव जग्मुर्दिशोदिशम् ॥११॥ अन्येधुः कण्टिकाहेतोः कौशिके बहिरीयुषि । अभाक्षुर्मक्षु राजन्याः HT ॥८॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम योगगर्भस्तुतिः liા श्वेतम्व्या एत्य तद्वनम्॥२॥अथ व्यावर्त्तमानस्य गोपास्तस्य न्यवीविदन् । पश्य पश्य वनं कैश्चिद्भज्यते भज्यते तवा। जाज्वल्यमानः क्रोधेन हविषेव हुताशनः । अकुण्ठधारमुद्यम्य कुठारं सोऽभ्यधावत॥४॥राजपुत्रास्ततो नेशुः श्येनादिव शकुन्तयः । स्खलित्वा च पपातायं यमवक्त्र इवावटे॥५॥ पततः पतितस्तस्य सम्मुखः परशुः शितः। शिरो द्विधा कृतं तेन ही विपाकः कुकर्मणाम्॥६। स विपद्य वनेऽत्रैव चण्डोऽहिंदृग्विषोऽभवत्। क्रोधस्तीबानुबन्धो हि सह याति भवान्तरे ॥७॥ अवश्यं चैष बोधाई इति बुद्धया जगद्गुरुः। आत्मपीडामगणयन्नृ जुनैव पथा ययौ।।८॥ अभवत्पदसञ्चारमुखमीभूतवालुकम्। उदपानावहत्कुल्यं शुल्कजर्जरपादपम्॥९॥जीर्णपर्णचयास्तीर्ण कीर्ण वल्भीकपर्वतैः । स्थलीभृतोटजं जीणारण्यं न्यविशत प्रभुः॥१०॥ तत्र चाथ जगन्नाथो यक्षमण्डपिकान्तरे । तस्थौ प्रतिमया नासाप्रान्तविश्रान्तलोचनः॥११॥ ततो दृष्टिविषः सर्पः सदो भ्रमितुं बहिः । बिलान्निरसरज्जिह्वा कालरात्रिमुखादिव॥१२॥ भ्रमन् सोऽनुवनं रेणुसंक्रामद्भोगलेखया । स्वाज्ञालेखामिव लिखनीक्षाश्चक्रे जगद्गुरुम् ॥१३॥ अत्र मां किमविज्ञाय किमवज्ञाय कोऽप्यसौ । आः प्रविष्टो निराशङ्ख निष्कम्पः शङ्कवत् स्थितः॥१४॥ तदेनं भस्मसादद्य करोनीति विचिन्तयन् । आध्मायमानं कोपेन फटाटोपं चकार सः॥१५।। ज्वालामालामुद्वमन्त्या निर्दहन्त्या लताद्रुमान् । भगवन्तं दृशापश्यत्स्फारफूत्कारदारुणः॥१६॥ दृष्टिज्वालास्ततस्तस्य ज्वलन्त्यो भगवत्तनौ । विनिपेतुर्दुरालोका उल्का इव दिवो गिरौ ॥१७॥ प्रभोर्महाप्रभावस्य प्रभवन्ति स्म नैव ताः । महानपि मरुन्मेरुं किं कम्पयितुमीश्वरः ॥१८॥ दारुदाई न दग्धोऽसावद्यापीति क्रुधा ज्वलन् । दर्श दर्श दिनकरं दृग्ज्वालाः सोऽमुचत्पुनः ॥१९|| सम्पन्नासु प्रभौ वारिधाराप्रायासु Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ૨૦ योगगर्भस्तुतिः तास्वपि । ददंश दन्दशूकोऽसौ निःशूकः पादपङ्कजे ॥२०! दष्ट्वा दष्ट्वापचक्राम स्वविषोद्रेकदुर्मदः। यत्पतन्मद्विषाक्रान्तो मृदुनीयादेष मामपि ॥२१॥ दशतोऽप्यसकृत्तस्य न विषं प्राभवत्प्रभौ । गोक्षीरधाराधवलं केवलं रक्तमक्षरत् ॥२२॥ ततश्च पुरतः स्थित्वा किमेतदिति चिन्तयन् । विक्षाश्चके जगन्नाथं वीक्षापन्नः स पन्नगः ॥२३।। ततो निरूप्य रूपं तदनुरूपं जगद्गुरोः । कान्तिसौम्यतया मक्षु विध्याते तद्विलोचने ॥२४॥ उपसन्नं च तं ज्ञात्वा बभाषे भगवानिति । चण्डकौशिक बुध्यस्व बुध्यस्व ननु मा मुहः॥२५॥श्रुत्वा तद्भगवद्वाक्यमूहापोहं वितन्वतः। पन्नगस्य समुत्पेदे स्मरणं पूर्वजन्मनाम् ।।२६।। सत्रिः प्रदक्षिणीकृत्य ततश्च परमेश्वरम् । निष्कषायः सुमनसाऽनशनं प्रत्यपद्यत ॥२७॥ कृतानशनकाणं निष्कर्माणं महोरगम् । प्रशमापनमज्ञासीदन्वज्ञासीच्च तं प्रभुः ॥२८॥ कुत्राप्यन्यत्र मा यासीदृष्टिमें विषभीषणा । इति तुण्डं बिले क्षिप्त्वा पपौ स समतामृतम् ॥२९॥ तस्थौ तथैव तत्रैव स्वामी तदनुकम्पया । परेषामुपकाराय महतां हि प्रवृत्तयः ॥३०॥ भगवन्तं तथा दृष्ट्वा विस्मयस्मेरलोचनाः । गोपाला वत्सपालाश्च तत्रोपसमपुट्टतम् ॥३१॥ वृक्षान्तरे तिरोभूय यथेष्ट ग्रावलोष्टुभिः। प्रतिजघ्नुरनिनास्ते परगस्य महात्मनः ॥३२॥ तथाप्यविचलन्तं तं वीक्ष्य विश्रम्भमाजिनः। यष्टिभिर्घट्टयामामुनिकटीभूय तत्तनुम् ॥३३॥ आख्यन् जनानां ते गोपास्ततस्तत्रागमन् जनाः। ववन्दिरे महावीरममहंश्च महोरगम् ॥३४॥ घृतविक्रयकारिण्यो गच्छन्त्यस्तेन वर्त्मना । नागं हैयङ्गवीनेनाम्रक्षयन् पस्पृशुश्च तम् ॥३५॥ आगत्य घृतगन्धेन तीक्ष्णतुण्डाः पिपीलिकाः। चक्रिरे तितउपायमहेस्तस्य कलेवरम् ॥३६॥ मत्कर्मणां कियदेतदित्यात्मानं विरोधयन् । वेदनामधिसेहे तां दुःसहां सोऽहिपुङ्गवः ॥३७॥ वराक्यो मा स्म पील्यन्त स्वल्पसाराः पिपीलिकाः । इत्यचीचलदङ्गं न मनागपि महोरगः॥३८॥ ॥१०॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगगर्मस्तुतिः ॥११॥ सिक्तः कृपासुधावृष्टयादृष्टया भगवतोरगः । पक्षान्ते पश्चतां प्राप्य सहस्रारदिवं ययौ ॥३९॥ विदधति विविधोपसर्गबाधां फणिभृति दृष्टिविषे हरौ तु भक्तिम् । इति तुल्यमनस्कता शशंसे चरमजिनस्य जगत्त्रयैकबन्धोः ॥१४० ॥२॥... प्रकारान्तरेण पुनर्योगगर्भामेव स्तुतिमाहकृतोपराधेऽपि जने कृपामन्थरतारयोः। ईषद्वाष्पार्द्रयोर्भद्रं श्रीवीरजिननेत्रयोः॥३॥ विहितविप्रियेऽपि जने सङ्गमकादौ कृपया मन्थरे ईषनते तारे कनीनिके ययोः ईषद्वाष्पश्चक्षुर्जलं स च करुणाकृत एव तेन आर्टे क्लिन्ने भगवतो नेत्रे तयोर्भद्रमिति सामर्थ्यान्नमस्कारप्रतीतिः । तथाहि अनुग्राममनुपुरं विहरन् विभुरन्यदा ।दृढभूमिमनुप्राप बहुम्लेच्छकुलाकुलाम्॥१॥ पेढालग्रामं निकषा पेढालाराममन्तरा । कृताष्टमतपःका पोलासं चैत्यमाविशत् ॥२॥ जन्तूपरोधरहितमधिष्टाय शिलातलम् । आजानुलम्बितभुजो दरावनतविग्रहः॥३॥स्थिरीकृतान्तःकरणो निर्निमेषविलोचनः। तस्थौ तत्रैकरात्रिक्या महाप्रतिमया प्रभुः॥४॥तदा शक्रः सुधर्मायां सभायां परिवारितः। सहखैश्चतुरशीत्या सामानिकदिवौकसाम्।।५||त्रयस्त्रिंशत्रायस्त्रिंशैः पर्षद्भिस्तिमृभिस्तथा। चतुर्भिर्लोकपालैश्च संख्यातीतैः प्रकीर्णकैः॥६॥प्रत्येकं चतुरशीत्या सहस्रैरङ्गरक्षकैः। दृढाबद्धपरिकरैः ककुप्सु चतसृष्वपि ॥७॥ सेनाधिपतिभिः सेनापरिवीतैश्च सप्तभिः। देवदेवीगणैराभियोग्यः किल्बिषिकादिभिः॥८॥तूर्यत्रयादिभिः काल विनोदैरतिवाहयन् । गोप्ता दक्षिणलोकार्द्ध शक्रः सिंहासने स्थितः॥९॥ अवधिज्ञानतो ज्ञात्वा भगवन्तं तथास्थितम् । ॥११॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगगर्भ स्तुतिः ॥१२॥ उत्थाय पादुके त्यक्त्वोत्तरासङ्गं विधाय च॥१०॥जान्वसव्यं भुवि न्यस्य सव्यं च न्याय किश्चन । शकस्तवेनावन्दिष्ट भूतलन्यस्तमस्तकः॥११।। समुत्थाय च सर्वाङ्गोदश्चद्रोमाञ्चकञ्चकः। शचीपतिरुवाचेदमुद्दिश्य सकलां सभाम्॥१२॥ भो भोः सर्वेऽपि सौधर्मवासिनस्त्रिदशोत्तमाः। श्रृणुत श्रीमहावीरस्वामिनो महिमाद्भतम्॥१३॥ दधानः पश्च समितीर्गुप्तित्रयपविवितः। क्रोधमानमायालोभानभिभूतो निराश्रवः॥१४॥ द्रव्ये क्षेत्रे च काले च भावे चाप्रतिबद्धधी रुक्षकपुरलन्यस्तनयनो ध्यानमास्थितः॥१५॥ अमरैस्सुरैयक्ष रक्षोभिरूरगैनरैः। त्रैलोक्येनापि शक्येत ध्यानाच्चालयितुं न हि॥१६॥ इत्याकर्ण्य वचः शाकं शक्रसामानिकः सुरः। ललाटपट्टयटितभृकुटीमङ्गभीषणः॥१७॥ कम्पमानाधरः कोपाल्लोहितायितलोचनः । अभव्यो गाढमिथ्यात्वसङ्गः सङ्गमकोऽवदत्॥१८॥ मत्यः श्रमणामात्रोऽयं यदेव देव वर्ण्यते । स्वच्छन्द सदसद्वादे प्रभुत्वं तत्र कारणम् ॥१९॥ देवैरपि न चाल्योऽयं ध्यानादित्युद्भटं प्रभोः । कथं धायेत हृदये धृते वा प्रोच्यते कथम् ॥२०॥ रुद्धान्तरिक्षः शिखरैर्मूले रुद्धरसातलः। यः किलोदस्यते दोष्णा सुमेरुलॊष्टलीलया ॥२१॥ सकुलाचलमेदिन्याःप्लावनव्यक्तवैभवः। येषामेषोऽपि गण्डूषमुकरोमकराकरः।२२। अप्येक जदण्डेन प्रचण्डांछत्रलीलया। उद्धरन्ति महानेकभूधरां ये वसुन्धराम्॥२३॥तेषामसमऋद्धीनां सुराणाममितौजसाम् । इच्छासम्पन्नसिद्धीनां मर्त्यमात्र: कियानयम्॥२४॥ एषोऽहं चालयिष्यामि तं ध्यानादित्युदीर्य सः । करेण भूमिमाहत्योदस्थादास्थानमण्डपात्॥२५॥ अर्हन्तः परसाहय्यात्तपः कुर्वन्त्यखण्डितम् । मा ज्ञासीदिति दुर्बुद्धिः शक्रेण स उपेक्षितः॥२६।। ततो वेगानिलोत्पातपतापतघनाघनः। रौद्राकृतिदुरालोको भयापसरदप्सराः॥२७॥ विकटोर:स्थलाघातपुञ्जितग्रहमण्डलः। स पापस्तत्र गतवान् ॥१२॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगगर्भस्तुतिः ॥१३॥ यत्रासीत्परमेश्वरः।।२८॥ निष्कारणजगबन्धुं निराबाधं तथास्थितम् । श्रीवीरं पश्यतस्तस्य मत्सरो ववृधेऽधिकम् ॥२९।। गी गपांसनः पांशुवृष्टिं दुष्टोऽतनिष्ट सः। अकाण्डघटितारिष्टामुपरिष्ठाजगत्प्रभोः॥३०॥ विधुर्विधुन्तुदेनेव दुर्दिनेनेव भास्करः। पिदधे पांशुपूरेण सर्वाङ्गीणं जगत्प्रभुः ॥३१॥ समन्ततोऽपि पूर्णानि तथा श्रोतांसि पांशुभिः । यथा समभवत्स्वामी निश्वासोच्छ्वासवर्जितः ॥३२॥ तिलमात्रमपि ध्यानान्न चचाल जगद्गुरुः । कुलाचलश्चलति किं गजैः परिणतैरपि॥३३॥ अपनीय ततः पांशुं वज्रतुण्डाः पिपीलिकाः । स समुत्पादयामास प्रभोः सर्वाङ्गपीलिकाः ॥३४॥ प्राविशन्नेकतोऽङ्गेषु स्वरं निर्ययुरन्यतः । विध्यन्त्यस्तीक्ष्णतुण्डायैः सूच्यो निवसनेष्विव।।३५।। निर्भाग्यस्येव वाञ्छासु मोघीभूतासु तास्वपि । स दंशान् रचयामास नाकृत्यान्तो दुरात्मनाम् ॥३६॥ तेषामेकप्रहारेण रक्तैर्गोंक्षीरसोदरः । क्षरद्भिरभवन्नाथः सनिझर इवाद्रिराट् ॥३७॥ तैरप्यक्षोभ्यमाणेऽथ जगन्नाथे स दुर्मतिः। चक्रे प्रचण्डतुण्डाग्रा दुर्निवारा घृतेलिकाः॥३८॥ शरीरे परमेशस्य निमग्नमुखमण्डलाः। ततस्ताः समलक्ष्यन्त रोमाणीव सहोत्थिताः॥६९॥ ततोऽप्यविचलच्चित्ते योगचित्ते जगद्गुरौ । स महावृश्चिकांश्चके ध्यानव्रश्चननिश्चयी॥४०॥ प्रलयाग्निस्फुलिङ्गाभास्तप्ततोमरदारुणैः। तेऽभिन्दन भगवद्देहं लालार्कुटकण्टकैः ॥४१॥ तैरप्यनाकुले नाथे कूटसङ्कल्पसङ्कलः। सोऽनल्पान् कल्पयामास नकुलान् दशनाकुलान् ॥४२॥ खिखीति रसमानास्ते दंष्ट्राभिर्भगवत्तनुम् । खण्डखण्डैस्त्रोटयन्तो मांसखण्डान्यपातयन्॥४३॥तैरप्यकृतकृत्योऽसौ यमदोर्दण्डदारुणान । अत्युत्कट फटाटोपान् कोपात्प्रायुक्त पन्नगान॥४४||आशिरःपादमापीडय महावीरं महोरगाः। अवेष्टयन्महावृक्षकपिकच्छुलता इव।।४५।। प्रजघ्नुस्त तथा तत्र स्फुटन्ति स्म फटा यथा । तथा दशन्ति स्म यथाऽभज्यन्त दशना अपि I ॥१३॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगगर्भस्तुतिः शास्त्रम् ॥१४॥ ॥४६॥ उद्वान्तगरलेष्वेषु लम्बमानेषु रज्जुवत् । स वज्रदशनानाशु मूषकानुदपीपदत् ॥४७॥स्वाम्यङ्गं खनकावख्नु खैदन्तैर्मुखः खरैः। मोमूत्र्यमाणास्तत्रैव क्षते सारं निचक्षिपुः॥४८॥ तेष्वप्यकिश्चिदभूतेषु भूतीभृत इव क्रुधा । उद्दण्डदन्तमुसलं हस्तिरूपं ससर्ज सः ॥४९॥ सोऽधावत्पादपातेन मेदिनी नमयम्भिव । उड्न्युदस्तहस्तेन नभस्तखोटयभिव ॥५०॥ कराग्रेण गृहीत्वा च दुर्वारेण स वारणः । दरमुल्लालयामास भगवन्तं नभस्तले ॥५१॥ विशीर्य कणशो गच्छत्वसाविति दुराशयः । दन्तावुन्नम्य स व्योम्नः पतन्तं स्म प्रतीच्छति ॥५२॥ पतितं दन्तघातेन विध्यति स्म मुहुर्मुहुः । वक्षसो बन्न कठिनात् समुत्तस्थुः स्फुलिङ्गकाः ॥५३॥ न शशाक वराकोऽसौ कर्तु किश्चिदपि द्विपः । यावत्तावत्सुरश्चक्रे करिणीं वैरिणीमिव॥५४॥ अखण्डशुण्डदन्ताभ्यां भगवन्तं बिभेद सा । स्वैरं शरीरनीरेण विषेणेव सिषेच च।।५५।। करेणो रेणुसाद्भूते तस्याः सारे सुराधमः:पिशाच रुपमकरोन्मकरोत्कटदंष्ट्रकम्॥५६॥ ज्वालाजालाकुलं व्यात्तं व्यायतं वक्त्रकोटरम् । अभवद्भीषणं तस्य वहिकुण्डमिव ज्वलत्।।५७||यमौकस्तोरणस्तम्भाविव प्रोत्तम्भितौ भुजौ । अभूच्च तस्य जनोरु तुझं तालद्रुमोपमम्।।५८॥स साट्टहासः फेत्कुर्वन् स्फूजत्किलकिलारवः । कृत्तिवासाः कत्रिकाभृद्भगवन्तमुपाद्रवत्।।५९॥ तस्मिन्नपि हि विध्याते क्षीणतैलप्रदीप वत् । व्याघ्ररूप क्रुधाघ्रात शीघ्रं चक्रे स निर्षणः ॥६॥ अथ पुच्छच्छटाच्छोटैः पाटयधिव मेदिनीम्, वृत्कारप्रतिशब्दैश्च रोदसी रोदयन्निव ॥६॥ दंष्ट्राभिर्वज्रसाराभिर्नखरैः शूलसोदरैः । अव्यग्रं व्यापिपर्ति स्म व्याघ्रो भुवनभर्तरि ॥६२॥ तत्र विच्छायतां प्राप्ते दवदग्ध इव मे । सिद्धार्थराजत्रिशलादेव्यो रूपं व्यधत्त सः ॥६३॥ किमेतद्भवता तात प्रक्रान्तमतिदुष्करम् । प्रव्रज्यां मुश्च मास्माकं प्रार्थनामवजीगणः ॥६४॥ १४॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१५॥ वृद्धावशरणावावां त्यक्तावानन्दिवर्द्धनः ।त्रायस्वेति स्वरैर्दीनदीनैय॑लपतां च तौ ॥६५॥ (युग्मं) ततस्वयोर्विलापैरप्यलिप्तमनसि प्रभौ । आवासितं दुराचारः स्कन्धावारमकल्पयत् ॥६६॥ तत्रानासाद्य दृषदं सूदः सादर ओदने । चुल्लीपदे प्रभोः पादौ कृत्वा स्थालीमकल्पयत् ॥६७॥ तत्कालं ज्वालितस्तेन जज्वाल ज्वलनोऽधिकम् । पादमूले जगद्भर्त्तगिरेरिव दवानलः ॥६८|| तप्तस्यापि प्रभोः स्वर्णस्येव न श्रीरहीयत । ततः सुराधमश्चक्रे पकणं दारुणकनन् ।६९॥ पकणोऽपि प्रभोः कण्ठे कर्णयोर्भुजदण्डयोः । जङ्गयोश्च क्षुद्रपक्षिपञ्जराणि व्यलम्बयत् ॥७०॥ खगैश्चञ्चनखाघातैस्तथा दद्रे प्रभोस्तनुः । यथा च्छिद्रशताकीर्णा तत्पञ्जरनिभाभवत् ॥७१॥ तात्रप्यसारतां प्राप्ते पकणे पकपत्रवत् । उत्पादितमहोत्पातं खरवातमजीजनत् ॥७२॥ अन्तरिक्षे माहावृक्षांस्तृणोत्क्षेपं समुत्क्षिपन् । विक्षिपन् पांशुविक्षेप दिक्षु च ग्रावकर्करान् ॥७३॥ सर्वतो रोदसीगर्भ भस्त्रापूरं च पूरयन् । उत्पाडयोत्पाटय वातोऽसौ भगवन्तमपातयत् ।७४॥ (युग्मं) तेनापि खरवातेनापूर्णकामो विनर्ममे । घुसत्कुलकलङ्कोऽसौ द्राकलं कलिकानिलम् ॥७५॥ भूभृतोऽपि भ्रमयितुमलङ्कर्माणविक्रमः। भ्रमयामास चक्रस्थमृत्पिण्डमिव स प्रभुम् ॥७६॥ भ्रम्यमाणोऽणवावर्तेनेव तेन नभस्वता । तदेकतानो न ध्यानं मनागपि जही प्रभुः ॥७७|| वज्रसारमनस्कोऽयं बहुधाऽपि कदर्थितः । न क्षोभ्यते कथमहं भग्नागूर्यामि तां सभाम् ॥७८॥ तदस्य प्राणनाशेन ध्यानं नश्यति नान्यथा । चिन्तयित्वेति चक्रे स कालचक्रं सुराधमः ॥७९॥ अह्नाय तदयोभारसहस्रघटितं ततः । उद्दधार सुरः शैलं कैलासमिव रावणः ॥८॥ पृथिवी सम्पुटीकत्तुं कृतं मन्ये पुटान्तरम् । उत्पत्त्य कालचक्रं स प्रचिक्षेपोपरि प्रभोः ॥८॥ ज्वालाजालैरुच्छलद्भिर्दिशः सर्वाः Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % योगशास्त्रम् योगगर्भ स्तुतिः ॥१६॥ करालयन् । उत्पपात जगतोनल इवार्णवे ॥८२॥ कुलक्षितिधरक्षोदक्षमस्यास्य प्रभावतः । ममज्जाजानु भगवानन्तर्वसुमतीतलम् ॥८३॥ एवम्भूतोऽपि भगवानशोचदिदमस्य यत् । तितारयिषवो विश्वं वयं संसारकारणम् ॥८४॥ कालचक्रहतोऽप्येष प्रपेदे पश्चतां न यत् । अगोचरस्तदत्राणमुपायः क इहापरः ॥८५।। अनुकूलैरुपसर्गः क्षुभ्येद्यदि कथचन । इति बुद्ध्या विमानस्थः स पुरोऽस्थादुवाच च ॥८६॥ महर्षे तव तुष्टोऽस्मि सत्त्वेन तपसौजसा । प्राणानपेक्षभावेनारब्धनिर्वहणेन च ॥८७|| पर्याप्तं तपसानेन शरीरक्लेशकारिणा । ब्रूहि याचस्व मा कार्षीः शङ्कां यच्छामि किं तव ॥८८॥ इच्छामात्रेण पूर्य्यन्ते यत्र नित्यं मनोरथाः । किमनेनैव देहेन त्वां स्वर्ग प्रापयामि तम् ॥८९॥ अनादिभवसंरूढकनेनिर्मोक्षलक्षणम् । एकान्तपरमानन्दं मोक्षे वा त्वां नयामि किम् ॥१०॥ अशेषमण्डलाधीशमौलिलालितशासनम् । अथवा चैव यच्छामि साम्राज्यं प्राज्यमृद्धिभिः ॥९॥ इत्थं प्रलोभनावाक्यैरक्षोभ्यमनसि प्रभौ । अप्राप्तप्रतिवाक्पापः पुनरेवमचिन्तयत् ॥९२॥ मोघीकृतमनेनैतन्मम शक्तिविजृम्भितम् । तदिदानीममोघं स्याद्यद्येकं कामशासनम् ॥९३॥ यतः कामास्त्रभूताभिः कामिनीभिः कटाक्षिताः। दृष्टा महापुमांसोऽपि लुम्पन्तः पुरुषव्रतम् ॥९४॥ इति निश्चित्य चित्तेन निर्दिदेश सुराङ्गनाः। तद्विभ्रमसहायान् षट् प्रायुक्त स ऋतूनपि ॥९५॥ कृतप्रस्तावना मत्तकोकिलाकलकूजितः। कन्दर्पनाटकनटी वसन्तश्रीरशोभत ॥९६॥ मुखवासं सज्जयन्ती विकपनीपरेणुभिः । सैरन्ध्रोव दिग्वधूनां ग्रीष्मलक्ष्मीरजम्भत ॥९७॥ राज्याभिषेके कामस्य मङ्गल्यतिलकानिव । सर्वाङ्गं केतकव्याजात्कुर्वती प्रावृडाबभौ ॥९८॥ सहस्त्रनयनीभूय नवनीलोत्पलच्छलात् । स्वसम्पदमिवोदामां पश्यन्ती शुशुभे शरत् ॥९९॥ जयप्रशस्ति कामस्य श्वेताक्षरसहोदरैः। ॥१६॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगगर्म स्तुतिः योगशास्त्रम् ॥१७॥ हेमन्तश्रोलिंलेखेव प्रत्यग्रैः कुन्दकुडमलैः ॥१००॥ गणिकेवोपजीवन्ती हेमन्तसुरभीसमम् । कुन्दैश्च सिन्दुवारैश्च शिशिरश्रीरचीयत ॥१॥ एवमुजृम्भमाणेषु सर्चतुषु समन्ततः। मीनध्वजपताकिन्य प्रादुरासन् सुराङ्गनाः॥२॥ सङ्गीतमविगीताङ्गयः पुरो भगवतस्ततः । ताः प्रचऋमिरे जैत्रं मन्त्रास्वमिव मान्मथम् ॥३॥ तत्राधिसूत्रितलयं गान्धारग्रामवन्धुरम् । काभिश्चिदुदगीयन्ते जातयः शुद्धवेसराः॥४॥ क्रमव्युत्क्रमगैस्तानैर्व्यक्तैर्व्यञ्जनधातुभिः । प्रवीणावादयद्वीणां काचित्सकलनिष्कलाम् ॥५॥ ३ फुटत्तकारधोङ्कारप्रकारैर्मेघनिस्वनान् काश्चिच्च वादयामामुर्मंदगांत्रिविधानपि ॥६॥ नभोभूगतचारीकं विचित्रकरणोद्भटम् । दृष्टिभावनवनवैः काश्चिदप्यनरीनृतुः ॥७॥ दृढाङ्गहाराभिनयैः सद्यखुटितक०चुका । बनती श्लथधम्मिल्लं दोमूलं काप्यदीदृशत्।।८।दण्डपादाभिनयनच्छलात्कापि मुहुर्मुहुः। चारुगोरोचनागौरमूरूमूलमदर्शयत् ॥९॥ श्लथचण्डातकग्रन्थिदृढीकरणलीलया । कापि प्राकाशयद्वापीसनाभि नाभिमण्डलम् ॥१०॥ व्यपदिश्येभदन्ताख्यहस्तकाभिनयं मुहुः। गाढमङ्गपरिष्वङ्गसंज्ञां काचिच्च निर्ममे ॥११॥ सञ्चारयन्त्यन्तरीयं नीवीनिविडनच्छलात् । नितम्बबिम्बफलकं काचिदाविरभावयत् ॥१२॥ अङ्गभङ्गापदेशेन वक्षः पीनोन्नतस्तनम् । सुचिरं रोचयामास काचिद्चिरलोचना ॥१३॥ यदि त्वं वीतरागोऽसि रागं तनस्तनोषि किम् । शरीरनिरपेक्षश्चेद्दत्से वक्षोऽपि किं न नः ॥१४॥ दयालुर्यदि वासि त्वं तदानीं विषमायुधात् । अकाण्डाकृष्टकोदण्डादस्मान त्रायसे कथम् ॥१५॥ उपेक्षसे कौनुकेन यदि नः प्रेमलालसाः किश्चिन्मानं हि तद्युक्तं मरणान्तं न युज्यते ॥१६।। स्वामिन् कठिनतां मुश्च पूरयास्मन्मनोरथान् । प्रार्थनाविमुखो मा भूः काश्चिदित्यूचिरे (१) तत्रातिसूत्रितलयम् (२) सुन्दरम् (३) स्फुटत्वक्पर० प्रत्यन्तरे ॥१७॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् uk चिरम् ||१७|| एवं गीतातोद्यनृतैर्विकारैराङ्गिकैरपि । चादुभिश्व सुरखीणां न चुक्षोभ जगत्प्रभुः ||१८|| एवं रात्रौ व्यतीतायां ततो विहरतः प्रभोः । निराहारस्य षण्मासान् सुराधम उपाद्रवत् ||१९|| भट्टारक सुखं तिष्ट स्वैरं भ्रम गतोऽस्म्यहम् । षण्मासान्ते ब्रुवन्नेवं खिन्नः सङ्गमकोऽगमत् ॥२०॥ कर्म्मणैवंविधेनायं क वराको वजिष्यति । न शक्यते तारयितुमस्माभिरपि तारकैः ||२१|| एवं भगवतश्चिन्तां तन्वतस्तत्र गच्छति । दृशावभूतां कृपयोबापे मन्थरतारके || १२२|| ३ || एवं देवतां नमस्कृत्य मुक्तिमार्ग योगमभिधित्सुस्तच्छास्त्रं प्रस्तौति । श्रुताम्भोरधिधेगम्प सम्प्रदायाच्च सद्गुरोः । स्वसम्वेदनतश्वापि योगशास्त्रं विरच्यते ॥४॥ इह नानिर्णीतस्य योगस्य पदवाक्यप्रबन्धेन शास्त्रविरचना कर्त्तुमुचितेति योगस्य त्रिहेतुको निर्णयः ख्याप्यते । शास्त्रतो गुरुपारम्पर्य्यात् स्वानुभवाच्च । तं त्रिविधमपि क्रमेणाह । श्रुताम्भोधेः सकाशादधिगम्य निर्णीय योगमिति शेषः । तथा गुरुपारम्पर्यात् तथा स्वसम्वेदनादेवं त्रिधा योगं निश्चित्य तच्छास्त्रं विरच्यते । एतदेव निर्व्वहणे वक्ष्यति । या शास्त्रात्स्वगुरोर्मुखादनुभवाचाज्ञायि किञ्चित् कचित् योगस्योपनिषद्विवेकिपरिपच्चेतश्चमत्कारिणी । श्रीचौलुक्य - कुमारपालनृपतेरत्यर्थमभ्यर्थनादाचार्येण निवेशिता पथि गिरां श्री हेमचन्द्रेण सा || १ || ४ ॥ योगस्यैव महात्म्यमाह - योगः सर्व्वविपद्बल्लीविताने परशुः शितः । अमूलमन्त्रतन्त्रं च कार्म्मणं निर्वृत्तिश्रियः ॥ ५ ॥ योग महात्म्यम् ॥१८॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योग महात्म्यम् ॥१९॥ सर्वा विपद आध्यात्मिक-आधिभौतिक-आधिदैविकलक्षणाः ताश्चातिविततत्वाद्वल्लीरूपास्तासां वितानः समूहस्तत्र तीक्ष्णः परशुर्योग-इत्यनर्थपरिहारो योगस्य फलम्। उत्तरार्द्धनार्थप्राप्तिर्मोक्षलक्ष्म्याःपरमपुरूषार्थरुपाया मूलमन्त्रतन्त्रपरिहारेण कार्मणं संवननं योगः। कार्मणं हि मूलमन्त्रतन्त्रैर्विधीयते । योगस्तु मूलादिरहित एव मोक्षलक्ष्मीवशीकरणहेतुरिति॥५॥ कारणोच्छेदमन्तरेण न विपल्लक्षणस्य कार्यस्योच्छेदः शक्यक्रिय इति विपत्कारणपापनिर्घातहेतुत्वं योगस्याहभूयांसोऽपि हि पाप्मानः प्रलयं यान्ति योगतः । चण्डवाताद्घनघना घनाघनघटा इव ॥६॥ बहून्यपि पापानि योगात्प्रलयमुपयान्ति प्रचण्डवातोध्धूता अतिघना मेघघटा इव ॥६॥ स्यादेतदेकजन्मोपार्जितं पापं योगःक्षिणुयादपि अनेकभवपरम्परोपात्तपापस्य तु निर्मूलनं योगादसम्भावनीयमित्याहक्षिणोति योगः पापानि चिरकालार्जितान्यपि । प्रचितानि यथैधांसि क्षणादेवाशुशुक्षणिः ॥७॥ यथा चिरकालमीलितान्यपीन्धनानि क्षणमात्रप्रचितोऽप्यकृशः कृशानुर्भस्मसात्करोति । एवं योगः क्षणमागेणैव चिरसश्चितपापसंक्षयक्षमो भवतीति ॥७॥ योगस्य फलान्तरमाहकफविण्मलामर्शसषिधिमहर्द्धयः। सम्भिन्न श्रोतोलब्धिश्च यौगं ताण्डवडम्बरम् ॥८॥ महर्द्धिशब्दः प्रत्येकमपि सम्बध्यते । कफः श्लेष्मा विप्रडुच्चारः पुरीषमिति यावत् । मलः कर्णदन्तनासिकानयनजिद्दोद्भवः शरीरसम्भवश्च । आमर्शी हस्तादिना स्पर्शः सव्वें विण्मूत्रकेशनखादय उक्ता अनुक्ताश्च औषधयो (१) पिकृशः प्रत्यन्तरे Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग योगमहात्म्यम् शास्त्रम् ૨૦ योगप्रभावान्महड़यो भवन्ति । अथवा महदयो विभिन्ना एवाणुत्वादयः तथा श्रोतांसीन्द्रियाणि संभिन्नानि सङ्गतानि एकैकशः सर्वविपर्यस्तेषां लब्धिर्योगस्येदं योगं ताण्डवडम्बरं रदर्शितम् । तथाहि योगमाहात्म्याद्योगिनां कफबिन्दवः । सनत्कुमारादेरिव जायन्ते सर्वरुक्छिदः ॥१॥ सनत्कुमारो हि पुरा चतुर्थश्चक्रवर्त्यभूत् । षट्खण्डपृथिवीभोक्ता नगरे हस्तिनापुरे ॥२॥ कदाचिच्च सुधर्मायां सभायां जातविस्मयः । रूपं तस्याप्रतिरूपं वर्णयामास वासवः ॥३॥ राज्ञः सनत्कुमारस्य कुरुवंशशिरोमणेः । यपं न तदन्यत्र देवेषु मनुजेषु वा ॥४॥ इति प्रशंसां रूपस्याश्रद्दधानावुभौ सुरौ । विजयो वैजयन्तश्च पृथिव्यामवतेरतुः ॥५।। ततस्तौ विप्ररूपेण रूपान्वेषणहेतवे । प्रसादद्वारि नृपतेस्तस्थतुर्दाःस्थसन्निधौ ।।। आसीत् सनत्कुमारोऽपि तदा प्रारब्धमज्जनः । मुक्तनिःशेषनेपथ्यः सर्वाङ्गाभ्यङ्गमुद्वहन ॥७॥ द्वारस्थौ द्वारपालेन द्विजाती तौ निवेदितौ। न्यायवर्ती चक्रवर्ती तदानीमप्यवीविशत ॥८॥ सनत्कुमारमालोक्य विस्मयस्मेरमानसौ । धूनयामासतुर्मालि चिन्तयासतुश्च तौ ॥९॥ ललाटपट्टः पर्यस्ताष्टमीरजनिजानिकः। नेत्रे कर्णान्तविश्रान्ते जितनीलोत्पलत्विषी ॥१०॥ दन्तच्छदौ पराभूतपकविम्बीफलच्छवी । निरस्तशुक्तिको कर्णी कण्ठोऽयं पाञ्चजन्यजित ॥११॥ करिराजकराकारतिस्कारकरौ भुजौ । स्वर्णशैलशिलालक्ष्मीविलुण्टाकमुरः स्थलम् ॥१२॥ मध्यभागो मृगारातिकिशोरोदरसोदरः। किमन्यदस्य सर्वाङ्गलक्ष्मीर्वाचां न गोचरः ॥१३॥ अहो कोऽप्यस्य लावण्यसरित्पूरो निरर्गलः । येनाभ्यङ्ग न जानीमो ज्योत्स्नयोडुप्रभामिव ॥१४॥ यथेन्द्रो वर्णयामास तथेदं भाति नान्यथा। मिथ्या न खलु भाषन्ते महात्मानः कदाचन ॥१५॥ किं निमित्तमिहायातौ भवन्तौ (१) विलसितम् /૨૦ણી Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योग माहात्म्यम् ॥२१॥ द्विजसत्तमौ । इत्थं सनत्कुमारेण पृष्टौ तावेवमूचतुः ॥१६॥ लोकोत्तरचमत्कारकारकं सचराचरे । भुवने भुवतो रूपं नरशार्दूल गीयते॥१७॥ दूरतोऽपि तदाकर्ण्य तरङ्गितकुतूहलौ । विलोकयितुमायातावावामवनिवासव ॥१८॥ वर्ण्यमानं यथा लोके शुश्रुवेऽस्माभिरद्भुतम् । रूपं नृप ततोऽप्येतत्सविशेष निरीक्ष्यते ॥१६॥ ऊचे सनत्कुमारोऽपि स्मितविस्फुरिताधरः । इयं हि कियती कान्तिरङ्गेऽभ्यङ्गतरङ्गिते ॥२०॥ इतो भूत्वा प्रतीक्षेयां क्षणमात्रे द्विजोत्तमौ । यावनिवर्त्यतेऽस्माभिरेष मज्जनकक्षणः ॥२१॥ विचित्ररचिताकल्पं भूरिभूषणभृषितम् । रूपं पुनर्निरीक्षेथां सरत्नमिव काञ्चनम् ॥२२॥ ततोऽवनिपतिः स्नात्वा कल्पिताकल्पभूषणः । साडम्बरः सदोऽध्यास्ताम्बर रत्नमिवाम्बरम् ॥२३॥ अनुज्ञातौ ततो विप्रौ पुरोभूय महीपतेः । निदध्यतुश्च तद्रूपं क विषण्णौ दध्यतुश्च तौ ॥२४॥ क तद्रूपं क सा कान्तिः क तल्लावण्यमप्यगात् । क्षणेनाप्यस्य मानां क्षणिकं सर्वमेव हि ॥२५॥ नृपः प्रोवाच तौ कस्माद् दृष्ट्वा मां मुदितौ पुरा । कस्मादकस्मादधुना विषादमलिनाननौ ॥२६॥ ततस्तावृचतुरिदं सुधामधुरया गिरा । महाभाग मुरावावां सौधर्मस्वर्गवासिनौ ॥२७॥ मध्ये सुरसभं शक्रश्चक्रे त्वपवर्णनम् । अश्रद्दधानौ तद्रष्टुं मत्येमागताविह ॥२८॥ शक्रेण वर्णितं यादृक् तादृशं वपुरीक्षितम् । रूपं नृप तवेदानीवन्यादृशमजायत ॥२९॥ अधुना व्याधिभिरयं कान्तिस स्वतस्करैः। देहः समन्तादाक्रान्तो निः श्वारैरिव दर्पणः ॥३०॥ यथार्थमभिधायेति द्वाक्तिरोहितयोस्तयोः। विच्छाय स्वं नृपोऽपश्यद्धिमनस्तमिव इमम ॥३१॥ अचिन्तयच्च धिगिदं सदा गदपदं वपुः । मुधैव मुग्धाः कुर्वन्ति तन्मूर्छा तुच्छबुद्धयः ॥३२॥ शरीरमन्तरुत्पन्नैयाधिभिर्विविधैरिदम् । दीर्यते दारुणैर्दारु दारुकीटगणैरिव ॥३३॥ बहिः कथञ्चिद्यद्यतत्परोच्येत (१) ख. ग. ताहगेव पुरेक्षितम् ॥२२॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगमाहात्म्यम् રરા तथापि हि । नैयग्रोधं फलमिव मध्ये कृमिकुलाकुलम् ॥३४॥ रुजा लुम्पति कायस्य तत्कालं रूपसम्पदम् महासरोवरस्येव वारिसेवालवल्लरी॥३५॥ शरीरं श्लथते नाशा रूपं पाति न पापधीः । जरा स्फुरति न ज्ञानं धिग स्वरूपं शरीरिणाम् ॥३६॥ रूपं लवणिमा कान्तिः शरीरं द्रविणान्यपि । संसारे तरलं सर्व कुशाग्रजलबिन्दुवत् ॥३७॥ अद्यश्वीनविनाशस्य शरीरस्य शरीरिणाम् । सकामनिज्जरासारं तप एव महत्फलम् ॥३८॥ इति सजातवैराग्यभावनः पृथिवीपतिः । प्रव्रज्यां स्वयमादित्मुः। तं राज्ये न्यवीविशत् ॥३९॥ गत्वोद्याने सविनयं विनयन्धरसूरितः। सर्वसावधविरतिप्रधानं सोऽग्रहीत्तपः॥४०॥महाव्रतधरस्यास्य दधानस्योत्तरान गुणान् । ग्रामादग्राम बिहरतः समतैकाग्रचेतसः ॥४१॥ गाढानुरागबन्धेन सर्व प्रकृतिमण्डलम् । पृष्ठतोऽगात्करिकुलं महायूथपतेरिख ॥४२॥ (युग्म) निष्कषायमुदासीनं निर्मम निष्परिग्रहम् । तं पर्युपास्य षण्मासान् कथश्चित्तन्न्यवर्त्तत ॥४३॥ यथाविध्यात्तभिक्षाभिरकालापथ्यभोजनैः । व्याधयोऽस्य ववृधिरे सम्पूर्णैर्दोहदैरिव ॥४४॥ करुशोषज्वरश्वासारुचिकुक्ष्यक्षिवेदनाः । सप्ताधिसेहे पुण्यात्मा सप्तवर्षशतानि सः ॥४५॥ दुःसहान् सहमानस्य तस्याशेषपरीपहान् । उपायनिरपेक्षस्य समपद्यन्त लब्धयः ॥४६॥ अत्रान्तरे सुरपतिः समुद्दिश्य दिवौकसः । हृदि जातचमत्कारश्चकारेत्यस्य वर्णनम् ॥४७ । चक्रवर्तिश्रियं त्यक्त्वा प्रज्वलत्तृणपूलबत् । अहो सनत्कुमारोऽयं तप्यते दुस्तपं तपः ॥४८॥ तपोमहात्म्यलब्धासु सास्वपि हि लब्धिषु । शरीरनिरपेक्षोऽयं स्वरोगान्न चिकित्सति ॥४९॥ अश्रद्दधानौ तद्वाक्यं वैद्यरूपधरौ सुरौ । विजयो वैजयन्तश्च तत्समीपमुपेयतुः॥५०॥ ऊचतुश्च महाभाग किं रोगैः परिताम्यसि । वैद्यावावां चिकित्सावो विश्व स्वैरेव भेषजैः ॥५१॥ यदि त्वमनुजानासि रोगग्रस्त ॥२२॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम રા शरीरकः । तदहाय निगृहणीवो रोगानुपचितांस्तव ॥ ५२ ॥ ततः सनत्कुमारोऽपि प्रत्यूचे भोचिकित्सकौ । द्विविधा देहिनां रोगा द्रव्यतो भावतोऽपि च ॥ ५३॥ क्रोधमानमाया लोभा भावरोगाः शरीरिणाम् । जन्मान्तरसहखानुगामिनोऽनन्तदुःखदाः ||५४|| तांश्चिकित्सितुमीशौ चेद्युवां तर्हि चिकित्सतम् । अथो चिकित्स द्रव्यरोगांस्तद्वत पश्यतम् ||५५|| ततोऽङ्गुलीं गलत्पामां शीणी स्वकफविप्रुषा । लिप्तां शुल्वं रसेनेव द्राक् सुवर्णी चकार सः॥५६॥ ततस्तामङ्गुलीं स्वर्णशलाकामिव भास्वतीम् । आलोक्य पादयोस्तस्य पेततुः प्रोचतुश्च तौ ॥५७॥ निरुरूपयिषू रूपं यौ त्वामायातपूर्विणौ । तावेव त्रिदशावावां सम्प्रत्यपि समागतौ ॥५८॥ सिद्ध लब्धिरपि व्याधिबाधां सोढा तपस्यति । सनत्कुमारो भगवानितीन्द्रस्त्वामवर्णयत् ||५९ || आवाभ्यां तदिहागत्य प्रत्यक्षेण परीक्षितम् । इत्युदित्वा च नत्वा च त्रिदशौ तौ तिरोहितौ ॥६०॥ एतन्निदर्शनमात्रं कफलब्धेः प्रदर्शितम् । लब्ध्यन्तरकथा नोक्ता ग्रन्थगौरवभीरुभिः ॥ ६१ ॥ योगिनां योगमाहात्म्यात्पुरीषमपि कल्पते । रोगिणां रोगनाशाय कुमुदामोदशालि च|| ६२|| मलः किल समाम्नातो द्विविधः सर्व्वदेहिनाम् । कर्णनेत्रादिजन्मैको द्वितीयस्तु वपुर्भवः ||६३|| योगिनां योगसम्पत्तिमाहात्म्याद्विविधोऽपि सः । कस्तूरिकापरिमलो रोगहा सर्व्व रोगिणाम् ॥६४॥ योगिनां कायसंस्पर्शः सिञ्चन्निव सुधारसैः । क्षिणोति तत्क्षणं सर्वानामयानामयाविनाम् ||६५|| नखाः केशारदाश्चान्यदपि योगिशरीरगम् । भजते भेषजीभावमिति सव्र्व्वेषिधिः स्मृता ॥ ६६ ॥ तथाहि तीर्थनाथानां योगभृच्चक्रवर्त्तिनाम् । देहास्थिसकलस्तोमः सर्व्वस्वर्गेषु पूज्यते ॥ ६७॥ किञ्च -- SEESOKEEK REESHO FORESTOESEX योग माहात्म्यम् ॥२३॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ઘરમાા मेघमुक्तमपि वारि यदसङ्गमात्रान्नदीवाप्यादिगतमपि सर्व्वरोगहरं भवति । तथा विषमूर्च्छिता अपि यदीयाङ्गसङ्गिवातस्पर्शादेव निर्विषा भवन्ति । विषसंपृक्तामप्यन्नं यन्मुखप्रविष्टमविषं भवति । महाविषव्याधिवाधिता अपि यद्वचः श्रवणमात्राद्यदर्शनाच्च वीतविकारा भवन्ति । एष सर्वोऽपि सर्वौषधिप्रकारः । एते कफादयो महर्द्धिरूपाः । अथवा महर्द्धयो विभिन्ना एव । वैक्रियलब्धयोऽनेकधा अणुत्व - महत्त्व - लघुत्व - गुरुत्व - प्राप्ति - प्राकाम्य - ईशित्ववशित्व - अप्रतिघातित्व-अन्तर्द्धान कामरूपित्वादिभेदात् । अणुत्वमणुशरीरविकरणम् । येन विसच्छिद्रमपि प्रविशति तत्र च चक्रवर्त्तिभोगानपि भुङ्क्ते । महत्वं मेरोरपि महत्तरशरीरकरणसामर्थ्यम् । लघुत्वं वायोरपि लघुतरशरीरता । गुरुत्वं वज्रादपि गुरुतरशरीरतया इन्द्रादिभिरपि प्रकृष्टबलैर्दुःसहता। प्राप्तिर्भूमिस्थस्य अङ्गुल्यग्रेण मेरुपर्व्वताग्रप्रभाकरादिस्पर्शसामर्थ्यम् । प्राकाम्यमप्सुभूमा विव प्रविशतो गमनशक्तिः तथा अप्स्विव भूमावुन्मज्जननिमज्जने । ईशित्वं त्रैलोक्यस्य प्रभुता तीर्थकर त्रिदशेश्वरऋद्धिविकरणम् । वशित्वं सर्व्वजीववशीकरणलब्धिः। अप्रतिघातित्वं अद्रिमध्येऽपि निःसङ्ग गमनम् । अन्तर्द्धानमदृश्यरूपता । कामरूपित्वं युगपदेव नानाकाररूपविकरणशक्तिः । इत्येवमादयो महर्द्धयः । अथवा प्रकृष्टश्रुतावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतसाधारण महाप्रज्ञर्द्धिलाभा अनधीतद्वादशाङ्गचतुर्द्दशपूर्वा अपि सन्तो यमर्थ चतुद्देशपूर्वी निरूपयति तस्मिन विचारकृच्छ्रेप्यवर्थेऽतिनिपुणप्रज्ञाः प्राज्ञश्रमणाः । अन्येऽधीतदशपूर्व्वा रोहिणीप्रज्ञप्त्यादिमहाविद्यादिभिरङ्गुष्ठप्रसेनिकाभिरल्पविद्यादिभिश्चोपतानां भूयसीनामृद्धीनां अवशगा विद्यावेगधारणात् विद्याधरश्रमणाः । केचिद्बीजकोष्ठपदानुसारिबुद्धिविशेषर्द्धियुक्ताः। सुकृष्टवसुमतीकृते क्षेत्रे क्षित्युदकाद्यनेककारण विशेषापेक्षं बीजमनुपहतं यथानेकबीजकोटीप्रदं योगमाहात्म्यम् ॥२४॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगमाहात्म्यम् ॥२५॥ भवति तथैव ज्ञानावरणादिक्षयोपशमातिशयप्रतिलम्भादेकार्थबीजश्रवणे सति अनेकार्थबीजानां प्रतिपत्तारो बीजबुद्धयः । कोष्ठागारिकस्थापितानामसङ्कीर्णानामविनष्टानां भूयसां धान्यबीजानां यथा कोप्ठेऽवस्थानं तथा परोपदेशादवधारितानां श्रीतानामर्थग्रन्थबीजानां भूयसामनुस्मरणमन्तरेणाविनष्टानामवस्थानात्कोष्टबुद्धयः । पदानुसारिणोऽनुश्रोतःपदानुसारिणः प्रतिश्रोतः पदानुसारिण उभयपदानुसारिणश्च । तत्रादिपदस्यार्थ ग्रन्थं च परत उपश्रुत्य आअन्त्यपदादर्थग्रन्थविचारणासमर्थपटुतरमतयोऽनुश्रोतः पदानुसारिबुद्धयः । अन्त्यपदस्यार्थ ग्रन्थं च परत उपश्रुत्य ततः प्रातिकूल्येनादिपदादअर्थग्रन्थविचारपटवः प्रतिश्रोतः पदानुसारिबुद्धयः। मध्यपदस्यार्थ ग्रन्थं च परकीयोपदेशादधिगम्याद्यन्तावधिपरिच्छन्नपदसमूहप्रतिनियतार्थग्रन्थोदधिसमुत्तरणसमर्थासाधारणातिशयपटुविज्ञाननियता उभयपदानुसारिबुद्धयः । बीजबुद्धिरेकपदार्थावगमादनेकार्थानामवगन्ता पदानुसारी त्वेकपदावगमा त्पदान्तराणामवगन्तेति विशेषः । तथा मनोवाकायबलिनः । तत्र प्रकृष्टज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषेण वस्तू त्यान्तर्मुहूर्तेन सकलश्रुतोदध्यवगाहनावदातमनसो मनोबलिनः । अन्तर्मुहर्तेन सकलश्रुतवस्तूच्चारणसमर्था वाग्बलिनः । अथवा पदवाक्यालङ्कारोपेतां वाचमुच्चैरुच्चारयन्तो ऽविरहितवाक्क्रमाहीनकण्ठा वाग्बलिनः । वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतासाधारणकायबलत्वात्प्रतिमयावतिष्ठमानाः श्रमक्लमविरहिता वर्षमात्रप्रतिमाधरा बाहुबलिप्रभृतयः कायबलिनः । तथा क्षीरमधुसर्पिरमृताखविणो येषां पात्रपतितं कदनमपि क्षीरमधुसप्पिरमृतरसवीय विपाकं जायते वचनं वा शरीर मानसदुःखप्राप्तानां देहिनां क्षीरादिवत्सन्तर्पकं भवति ते क्षीरानविणो मध्वाखविणः सपिराखविणोऽमृतास्त्रविणश्च । केचिदक्षीणर्दियुक्तास्ते च द्विविधा अक्षीणमहानसा अक्षीणमहा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥२६॥ लयाश्च । येषामसाधारणान्तरायक्षयोपशमादल्पमात्रमपि पात्रपतितमन्नं गौतमादीनामित्र बहुभ्यो दीयमानमपि न atra asaणमहानसाः। अक्षीणमहालयर्द्धिप्राप्ताश्च यत्र परिमित भूप्रदेशेऽवतिष्ठन्ते तत्रासंख्याता अपि देवास्तिर्यञ्चो मनुष्याश्च सपरिवाराः परस्परवाधारहितास्तीर्थकरपर्षदीय मुखमासते । इति प्रज्ञाश्रमणादिषु महाप्रज्ञादयो महर्द्धयो दर्शिताः । सर्वेन्द्रियाणां विषयान् गृह्णात्येकमपीन्द्रियम् । यत्प्रभावेन सम्भिन्नश्रोतोलब्धिस्तु सा मता || १ ||८|| तथा चोरणाशीविषावधिमनःपर्यायसम्पदः । योगकल्पद्रुमस्यता विकासिकुसुमश्रियः॥ ९ ॥ अतिशयचरणाच्चारणा अतिशयगमनादित्यर्थः । तत्सम्पन्नलब्धिरित्यर्थः । आशीविषलब्धिनिग्रहानुग्रह सामर्थ्यम् अवधिज्ञानलब्धिर्मूर्त्तद्रव्यविषयं ज्ञानम् । मनः पर्य्यायज्ञानलब्धिर्मनोद्रव्यप्रत्यक्षीकरणशक्तिः । एता लब्धयो योग कल्पवृक्षस्य कुसुमभूताः । फलं तु केवलज्ञानं मोक्षो वा । भरतमरुदेव्युदाहरणाभ्यां वक्ष्यते । तथाहि द्विविधाश्वारणा ज्ञेया जङ्घविद्योत्थशक्तितः । तत्राद्या रुचकद्वीपं यान्त्येकोत्पातलीलया ॥१॥ वलन्तो रुचकद्वीपादेकेनोत्पतनेन ते । नन्दीश्वरे समायान्ति द्वितीयेन यतो गताः ||२|| ते चोर्ध्वगत्यामेकेन समुत्पतनकर्मणा । गच्छन्ति पाण्डुकवनं मेरुशैलशिरः स्थितम् ||३|| ततोऽपि वलिता एकोत्पातेनायान्ति नन्दनम् । उत्पातेन द्वितीयेन प्रथमोत्पात भूमिकाम् ||४|| विद्याचारणास्तु गच्छन्त्येकेनोत्पातकर्मणा । मानुषोत्तरमन्येन द्वीपं नन्दीश्वरम् ||५|| तस्मादायान्ति चैकेनोत्पातेनोत्पतिता यतः । यान्त्यायान्त्यूर्ध्वमार्गेऽपि तिर्य्यग्यानक्रमेण ते ||६|| योग महात्म्यम् ॥२६|| Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥२७॥ अन्येऽपि बहुभेदाश्चारणा भवन्ति । तद्यथा आकाशगामिनः पर्य्यङ्कावस्थानिषण्णा : कायोत्सर्गशरीरा वा पादोत्क्षेप निक्षेपक्रमाद्विना व्योमचारिणः । केचित जलजङ्घाफलपुष्पपत्रश्रेण्यग्निशिखाधूम नीहारावश्याय मेघवारिधारामर्कटक तन्तुज्योतीरश्मिपवनाद्यालम्बनगलिपरिणामकुशलाः । जलमुपेत्य बापी निम्नगासमुद्रादिष्वष्कायिक जीवानविराधयन्तो जले भूमाविव पादोत्क्षेपनिक्षेपकुशला जलचारणाः । भ्रुव उपरि चतुरङ्गुलप्रमिते आकाशे जङ्घा निक्षेपोत्क्षेपनिपुणा जङ्घाचारणाः । नानाद्रुमफलान्युपादाय फलाश्रयप्राण्यविरोधेन फलतले पादोत्क्षेप निक्षेपकुशलाः फलचारणाः नानाद्रुमलतागुल्मपुष्पान्युपादाय पुष्पसूक्ष्मजीवानविराधयन्तः कुसुमतलदलावलम्बन सङ्गगतयः पुष्पचारणाः । नानावृक्षगुल्मवीरुल्लता विताननानाप्रवालतरुणपल्लवालम्बनेन पर्णसूक्ष्मजीवानविराधयन्त चरणोत्क्षेप निक्षेपपटवः पत्रचारणाः । चतुर्योजनशतोच्छ्रितस्य निषधस्य नीलस्य चाद्रेष्टङ्कच्छिन्नां श्रेणिमु पादायोपय्येधो वा पादपूर्वकमुत्तरणावतरणनिपुणाः श्रेणिचारणाः । अग्निशिखामुपादाय तेजः कायिकानविराध यन्तः स्वयमदह्यमानाः पादविहारनिपुणा अग्निशिखाचारणाः । धूमवर्त्ति तिरवीनामूर्द्धगां वा आलम्ब्यास्खलितगमनास्कन्दिनो धूमचारणाः । नीहारमवष्टभ्याष्कायिकपीडामजनयन्तो गतिमसङ्गामनुवाना नीहारचारणाः । अवश्यायमाश्रित्य तदाश्रयजीवानुपरोधेन यान्तोऽवश्यायचारणाः । नभोवर्त्मनि प्रविततजलधरपटलपटास्तरणे जीवानुपघातिचक्रमणप्रभवो मेघचारणाः । प्रावृषेण्यादिजलधरादेर्विनिर्गतवारिधारावलम्बनेन प्राणिपीडामन्तरेण यान्तो वारिधाराचारणाः । कुब्जवृक्षान्तरालभाविनभः प्रदेशेषु कुब्जवृक्षादिसम्बद्धमर्कटकतन्त्वालम्बनपादोद्धरणनिक्षोपावदाता मर्कटकतन्तू नच्छिन्दन्तो यान्तो मर्कटकतन्तुचारणाः । चन्द्रार्कग्रहनक्षत्राद्यन्यतमज्योतीरश्मिसम्बन्धेन EXCOHOOMFORT प्रथमः प्रकाशः ॥२७॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगगर्भ योगशाखम् ॥२८॥ स्तुतिः भुवीव पादविहार कुशलाः ज्योतीरश्मिचारणाः । पवनेष्वनेकदिग्मुखोन्मुखेषु प्रतिलोमानुलोमवर्तिषु तत्प्रदेशावलीमुपादाय गतिमस्खलितचरणविन्यासामास्कन्दन्तो वायुचारणाः । तपश्चरणमाहात्म्याद्गुणादितरतोऽपि वा । आशीविषाः समर्थाः स्युनिग्रहेऽनुग्रहेऽपि च ॥१॥ द्रव्याणि मूर्तिमन्त्येव विषयो यस्य सर्चतः । नैयत्यरहितं ज्ञानं तत्स्यादवधिलक्षणम् ॥२॥ स्यान्मनःपर्यायो ज्ञानं मनुष्यक्षेत्रवर्तिनाम् । प्राणिनां समनस्कानां मनोद्रव्यप्रकाशकम् ॥३॥ ऋजुश्च विपुलश्चेति स्यान्मनःपर्ययो द्विधा । विशुद्धय प्रतिपाताभ्यां विपुलस्तु विशिष्यते ॥४॥९॥ केवलज्ञानलक्षणफलोपदर्शनेन योगमेव स्तौति| अहो योगस्य माहात्म्यं प्राज्यं साम्राज्यमुद्वहन् । अवाप केवलज्ञानं भरतो भरताधिपः॥१०॥ __अहो इत्याश्चर्ये प्राज्य पुष्फलं साम्राज्यं चक्रवर्तित्वमुद्वहन्नेव न पुनस्त्यक्तराज्यसम्पत् । भरताधिपः षदखण्डभरतक्षेत्रस्वामी । तथाहि-- एतस्यामवसपिण्यामेकान्तसुषमारके । सागरोपमकोर्टानां चतुष्कोटिमिते गते ॥१॥ सागरोपमकोटीनां तिमृभिः कोटिभिर्मिते । अरके सुषमानाम्नि द्वितीयेऽपि गते सति ॥२॥ तदद्विकोटाकोटिमिते सुषमदुःपमारके । पल्ल्याष्टमांशशेषे च दक्षिणाईस्य भारते ॥३॥ सप्ताभूवन् कुलकरा इमे विमलवाहनः । चक्षुष्मांश्च यशस्वी चाभिचन्द्रोऽथ प्रसेनजित् ॥४॥ मरुदेवश्च नाभिश्च तत्र नाभेगृहिण्यभूत् । मरुदेवेति सच्छीलपवित्रितजगत्त्रया ॥५॥ ૨૮ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगगर्म स्तुतिः ॥२९॥ ॥५॥ तृतीयारस्य शेषेषु पूर्वलक्षेषु संख्यया । चतुरशीतौ साष्टिमासे वर्षत्रयेऽपि च ॥६॥ तस्याश्च कुक्षौ सर्वार्थविमानादवतीर्णवान् । चतुर्दशमहास्वमसूचितः प्रथमो जिनः ॥७॥ नाभेश्च मरुदेव्याश्च तदा सम्यगजानतोः । स्वप्नार्थमिन्द्राः सर्वेऽपि व्याचक्रुः प्रमदोन्मदाः ॥८॥ ततः सुखेन जातस्य शुभेऽह्नि परमेशितुः । षट्पञ्चाशदिकुमार्यः सूतिकर्म प्रचक्रिरे ॥९॥ मेरुमूर्ध्नि विभु नीत्वा कृत्वोत्सङ्गे दिवस्पतिः । तीर्थोदकरभ्यषिञ्चत्वं च हर्षाश्रुवारिभिः ॥१०॥ वासवेन ततो मातुरपितस्य जगद्गुरोः । धात्रीकर्माणि सर्वाणि विदधुविबुधस्त्रियः ॥११॥ निरीक्ष्य ऋषभाकारं लक्ष्मोरौ दक्षिणे प्रभोः । चक्रतुः पितरौ नाम ऋषभेति प्रमोदतः ॥१२॥ अमन्दं दददानन्दं सुधारश्मिवि प्रभुः । त्रिदशाहारयोगेन पोषितो ववृधे क्रमात् ॥१३॥ अन्येधुर्घसदामीश उपासितुमुपागतः । अचिन्तयद्भगवतो वंशः क इह कल्प्यताम् ॥१४॥ अवगत्य तदाकूतमवधिज्ञानतो विभुः। तत्करेक्षुलतां लातुं करीव करमक्षिपत् ॥१५॥ तां समर्प्य जगद्भर्तुः प्रणम्य च बिडौजसा । इक्ष्वाकुरिति वंशस्य तदा नाम प्रतिष्ठितम् ॥१६॥ बाल्यं कल्यमिवोल्लङ्घ्य मध्यन्दिनमिवार्यमा। विभुर्विभक्तावयवं द्वितीयं शिश्रिये वयः ॥१७॥ यौवनेऽपि मृदू रक्तौ कमलोदरसोदरौ उष्णावकम्प्रावस्वेदौ पादौ समतलौ प्रभोः॥१८॥ नतार्तिच्छेदनायेव प्रपेदे चक्रमीशितुः । सदास्थितश्रीकरणोरिव दामाङ्कुशध्वजाः॥१९॥ स्वामिनः पादयोर्लक्ष्मीलीलासदनयोरिव । शकुम्भौ तले पाणौँ स्वस्तिकश्च विरेजिरे ॥२०॥ मांसलो वत्तलस्तुङ्गो भुजङ्गमफ णोपमः । अङ्गुष्ठः स्वामिनो वत्स इव श्रीवत्सलाञ्छितः ॥२१॥ प्रभोनिर्वातनिष्कम्पाः स्निग्धदीपशिखोपमाः । नीरन्ध्रा ऋजवोऽगुल्यो दलानीव पदाब्जयोः ॥२२॥ नन्दावर्ता जगद्भर्तुः पादङ्गुलितलेष्वभान् । यबिम्बानि ॥२९॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ||३०|| क्षितौ धर्मप्रतिष्ठा हेतुतां ययुः ||२३|| वाः पर्वस्वङ्गुलीनामघो वापीभिरावभुः । उप्ता इव जगल्लक्ष्मी विवाहाय जगत्प्रभोः ||२४|| कन्दः पादाम्बुजस्येव पाणिर्वृत्तायतः पृथुः । अङ्गुष्ठाङ्गुलिफणिनां फणामणिनिभा नखाः || २५ || हेमारविन्दमुकुलकर्णिकागोलकश्रियम् । गूढौ गुल्फौ वितेनाते नितान्तं स्वामिपादयोः ||२६|| प्रभोः पादावुपर्यानुपूर्व्या कूर्म्मवदुन्नतौ । अप्रकाशसिरौ स्निग्धच्छवी लोमविवजितौ ||२७|| अन्तर्मग्नास्थिपिशितपुष्कले क्रमवर्तुले । एणीजङ्घाविडम्बिन्यौ जङ्गे गौर्यौ जगत्पतेः ||२८|| जानुनी स्वामिनोऽघातां वर्चुले मांसपूरिते । तूलपूर्ण पिधानान्तः क्षिप्तदर्पणरूपताम् ||२९|| ऊरू च मृदुलौ स्निग्धावानुपूर्व्येण पीवरौ । बिभराञ्चक्रतुः प्रौढकदलीस्तम्भमिभ्रमम् ||३०|| स्वामिनः कुञ्जरस्येव मुष्कौ गूढौ समस्थिती । अतिगृढं च पुचिह्नं कुलीनस्येव वाजिनः ॥३१॥ तच्चासिरमनिम्नोच्चमहूस्वादीर्घमश्लथम् । सरलं मृदु निर्लोम वर्त्तलं सुरभीन्द्रियम् ||३२|| शीतप्रदक्षिणावर्त्तशब्दयुक्तैकधारकम् । अवीभत्सावर्त्ताकारकोशस्थं पिञ्जरं तथा ||३३|| आयता मांसला स्थूला विशाला कठिना कटिः । मध्यभागस्तनुत्वेन कुलिशोदरसोदरः ||३४|| नाभिर्वभार गम्भीरा सरिदावर्त्तविभ्रमम् । Fat fruit Hindi कोमलौ सरलौ समौ ॥ ३५ ॥ अधाद्वक्षः स्थलं स्वर्णशिलापृथुलमुन्नतम्। श्रीवत्सरत्नपीठाङ्कं श्रीलीलावेदिकाश्रियम् ||३६|| दृढपीनोन्नतौ स्कन्धौ ककुद्मत्ककुदोपमौ । अल्परोमोन्नते कक्षे गन्धस्वेदमलोज्झिते ||३७|| पीनौ पाणिफणिच्छत्रौ भुजावाजानुलम्बितौ । चञ्चलाया नियमने नागपाशाविव श्रियः ||३८|| नवाम्रपल्लवाताम्रतलौ निष्कर्मकर्कशौ । अस्वेदनावपच्छिद्रावुष्णौ पाणी जगत्पतेः ॥ ३९ ॥ दण्डचक्रधनुर्मत्स्यश्रीवत्सकुलिशाङ्कुशैः । ध्वजाब्जचामरच्छत्रशङ्खकुम्भाब्धिमन्दरैः ||४०|| मकरर्षभसिहाश्वरथस्वस्तिकदिग्गजैः । प्रासादतोरणद्वीपैः योगगर्भ - स्तुतिः ||३०|| Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगगर्भ योगशास्त्रम् स्तुतिः ॥३१॥ पाणी पादाविवाङ्कितौ ॥४१॥ अङ्गुष्ठाङ्गलयः शोणाः सरलाः शोणपाणिजाः। प्ररोहा इव कल्पद्रोः प्रान्तमाणिक्यपुष्पिताः॥४२॥ यवाः स्पष्टमशोभन्त स्वामिनोऽङ्गुष्ठपर्वसु । यशोवरतुरङ्गस्य पुष्टिवैशिष्टयहेतवः॥४३।।अगुलीमूर्द्धसु विभोः सर्वसम्पत्तिशंसिनः । दधुः प्रदक्षिणावत्ता दक्षिणावर्त्तशङ्खताम् ॥४४॥ कृच्छादुद्धरणीयानि जगन्ति त्रीण्यपीत्यभान् । संख्यालेखाहव तिस्रो लेखा मूले कराब्जयोः ॥४५॥ वर्तुलोऽनतिदीर्घश्च लेखात्रयपवित्रितः। गम्भीरध्वनिराधत्ते कण्ठः कम्बुविडम्बनाम् ॥४६॥ विमलं वत्तलं कान्तितरङ्गि वदनं विभोः। पीयूषदीधितिरिवापरो लाञ्छनवर्जितः ॥४७॥ ममृणौ मांसलौ स्निग्धौ कपोलफलको प्रभोः । दर्पणाविव सौवर्णी वाग्लक्ष्म्योः सहवासयोः ॥४८॥ अतरावर्त्तसुभगौ कौँ स्कधान्तलम्बितौ । प्रभोर्मुखप्रभासिन्धुतीरस्थे शुक्तिके इव ॥४९॥ ओष्ठौं बिम्बोपमा दन्ता द्वात्रिंशत्कुन्दसोदराः। क्रमस्फारा क्रमोत्तुङ्गवंशा नाशा महेशितुः ॥५०॥ अहस्वदीर्घ चिबुकं मांसलं वत्तुल मृदु । मेचकं बहुलं स्निग्धं कोमलं श्मश्रु तायिनः ॥५१॥ प्रत्यग्रकल्पविटपिप्रवालारुणकोमला । प्रभोजिह्वानतिस्थूला द्वादशाङ्गागमार्थवः॥५२॥ अन्तरा कृष्णधवले प्रान्तरक्ते विलोचने । नीलस्फटिकशोणाश्ममणिन्यासमये इव ॥५३॥ ते च कर्णान्तविश्रान्ते कज्जलश्यामपक्ष्मणी । विकस्वरे तामरसे निलीनालिकुले इव ॥५४॥ बिभराश्चक्रतुभत्तः श्यामले कुटिले भ्रुवौ । दृष्टिपुष्करिणीतीरसमुद्भिन्नलताश्रियम् ॥५५॥ विशालं मांसलं वृत्तं मसणं कठिनं समम् । भालस्थलं जगद्भुर्तुरष्टमीसोमसोदरम् ॥५६॥ भुवनस्वामिनो मौलिरानुपूर्ध्या समुन्नतः। दधावधोमुखीभूतच्छत्रसब्रह्मचारिताम् ॥५७॥ मौलिच्छत्रे महेशस्य जगदीशत्वशसिनि । वृत्तमुत्तमुष्णीष शिश्रिये कलशश्रियम् ॥५८॥ केशाश्चकाशिरे मूनि प्रभोर्भमरमेचकाः । कुश्चिताः कोमलाः स्निग्धाः कालिन्द्या इव ॥३१॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगमहात्म्यम् tોરૂર वीचयः ॥५९॥ गोरोचनागर्भगौरी स्निग्धस्वच्छा त्वगाणभौ । स्ववद्रवविलिप्तेव तनौ त्रिजगदीशितुः ॥६॥ मृदृनि भ्रमरश्यामान्यद्वितीयोद्गमानि च विसनन्तुतनीयांसि लोमानि स्वामिनस्तनौ ॥६१॥ उत्फुल्लकुमुदामोदः श्वासो विस्नेतरत्पलम् । गोक्षीरधाराधवलं रुधिरं च जगत्पतेः॥६२॥ इत्यसाधारण नालक्षणैर्लक्षितः प्रभुः। रत्न रत्नाकर इव सेव्यः कस्येह नाभवत् ॥६३॥ अन्येयुः क्रीडया क्रीडद्बालभावानुरुपया । मिथो मिथुनकं किश्चित्तले तालतरोरगात् ॥६४॥ तदैव दैवदुर्योगात्तन्मध्यानरमूर्द्धनि । तडिद्दण्ड इवैरण्डेऽपतत्तालफलं महत् ॥६५॥ प्रहतः काकतालीयन्यायेनाश्वेव मर्माणि । विपन्नो दारकस्तत्र प्रथमेनापमृत्युना ॥६६॥ कालधर्म गते तस्मिस्तद्वितीया नितम्बिनी। यूथभ्रष्टा कुरङ्गीव किंकर्तव्यजडाभवत्॥६७॥ अकाण्डमुद्गराघातेनेव तेनापमृत्युना । बभूवुमूछितानीव मिथुनान्यपराण्यपि ॥६८॥ तानि तामग्रतः कृत्वा नारी पुरुषवर्जिताम् । किंकत्तव्यविमूढानि श्रीनाभेरुपनिन्यिरे ॥६९॥ एषा वृषभनाथस्य धर्मपत्नी भवत्विति । प्रतिजग्राह तां नाभिर्नेत्रकैरवकौमुदीम् ॥७०॥ अन्यदा तु रविभोरुद्यत्याग्भोगफलकर्मणः । आगादिन्द्रो विवाहार्थ वृन्दारकगणान्वितः ॥७॥ ततः स्वर्णमयस्तम्भभ्राजिष्णुमणिपुत्रिकम् । अनेकनिर्गमद्वारमकार्षुमण्डपं सुराः ॥७२॥ श्वेतदिव्यांशुकोल्लोचच्छलेन गगनस्थया। गङ्गयेवाश्रितः सोऽभूभूरिशोभादिदृक्षया ॥७३॥ तोरणानि चतुर्दिक्षु सन्तानतरुपल्लवैः। तत्राभूवन् धनूंषीव सज्जितानि मनोभुवा ॥७४॥ चतस्रो रत्नकलशश्रेण योऽभ्रंलिहाग्रगाः पर्यस्थाप्यन्त देवीभिनिधानानि रतेरिव ॥७५॥ ववृषुमण्डपद्वारे चेलोरक्षेपं पयोमुचः । चक्रे मध्ये सुरीभिर्भूः पङ्किला यक्षकदमैः ॥७६|| वाद्यमानेषु तूर्येषु गीयमाने च मङ्गले । अवादयन्नगायश्च प्रतिशब्दर्दिगङ्गनाः ।। ७७ ॥ १. विभोरभ्युद्यद्भोगफलकर्मणः २. अभ्रंलिहायकाः ॥३२॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग योगशास्त्रम् माहात्म्यम् ॥३३॥ सुमङ्गलामुनन्दाभ्यां कुमारीभ्यामकारयत् । वासवः परमेशस्य पाणिग्रहमहोत्सवम् ॥७८॥ ततः सुमङ्गलादेवी देवैः प्रकृतमङ्गला । अपत्ये भरतब्राहम्यौ युग्मरूपे अजीजानत् ॥७६॥ त्रैलोक्यजनितानन्दा सुनन्दा सुषुबे युगम् । सुबाहुँ बाहुबलिनं सुन्दरीं चातिसुन्दरीम्।।८०॥ पुनरेकोनपञ्चाशत्पुंयुगानि सुमङ्गला । अमूत बलिनो मूर्त्तान् द्वैरूप्येणेव मारुतान् ॥८१।। अन्येारन्याय इति पूत्कारोध्धृतबाहुभिः। नाभिर्व्यज्ञपि सम्भूय सर्वमिथुनकैरिदम ॥८२॥ तिखो हकारमकारधिक्काराख्याः सुनितयः । न गण्यन्तेऽधुना पुम्भिः कुव्वद्भिरसमञ्जसात् ॥८३॥ ततः कुलकरोऽप्यूचे त्रातास्मादसमञ्जसात् । एष वो वृषभः स्वामी तद्वत्तध्वं तदाज्ञया ॥८४॥ तदा कुलकराज्ञातः कर्त राज्यस्थिति स्फुटाम् । प्रभुर्ज्ञानत्रयमयो मिथुनान्येवमन्वशात् ॥८५॥ राजा भवति मर्यादाव्यतिक्रमनिरोधकः। तस्योच्चासनदाने नाभिषेकः क्रियते जलैः ॥८६॥ आकर्ण्य वचनं भस्तेि सर्षे युग्मम्मिणः । तच्छिक्षया ययुः पत्रपुटैजलजिघृक्षया ।।८७॥ तदा चासनकम्पेनावधिज्ञानप्रयोगतः । विज्ञातभगवद्राज्यसमयः शक आययौ ॥८८॥ रत्नसिहासनेऽध्यास्य वासवःपरमेश्वरम् । साम्राज्येऽभिसिषेचालश्चक्रे च मुकुटादिभिः ॥८९॥ इतचाम्भोजिनीपत्रपुटैरञ्जलिधारितैः । निज मन इव स्वच्छमानिन्ये मिथुनर्जलम् ।।९०॥ उदयाद्रिमिवार्केण मुकुटेनोपशोभितम् । अत्यन्तविमलैवस्वैव्योमेव शरदम्बुदैः ॥११॥ हंसैरिव शरत्काल सञ्चरचारुचारुचामरैः । कृताभिषेक नाभेयं ददृशुस्तानि विस्मयात् ॥९२॥ (युग्मं) नैतद्युक्तं प्रभोमुनि क्षेप्तुमेवं विमशिभिः । विनीतैमिथुनैर्वारि निदधे पादपद्मयोः ॥९३॥ योजनान्यथ विस्तीर्णा नव द्वादश चायताम् । विनीताख्यां पुरी कर्त श्रीदमुक्त्वा हरिया ॥ ९४ ॥ सोऽपि रत्नायीं भूमेर्माणिक्यमुकुटोपमाम् । व्यधात् द्विपामयो ॥३३॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् un ध्येति तामयोध्यापराभिधम् ॥९५॥ तां च निर्माय निर्मायः पूरयामास यक्षराट्र | अक्षय्यरत्नवसनधनधान्यैनिरन्तरम् ॥ ९६ ॥ वजेन्द्रनीलवैर्य हर्म्य किम्मररश्मिभिः । भित्तिं विनापि खे तत्र चित्रकर्म्म विरच्यते ॥ ९७॥ तद्वप्रे दीप्रमाणिक्यकपिशीर्षपरम्पराः अयत्नादर्शतां यान्ति चिरं खेचरयोषिताम् ||१८|| तस्यां गृहाङ्गणभुवि स्वस्तिकन्यस्तमौक्तिकैः । स्वैरं कर्करकक्रीडां कुरुते वालिकाजनः ॥ ९९ ॥ तत्रोद्यानोच्चवृक्षाग्रस्खल्यमानान्यहनिशम् । खेचरीणां विमानानि क्षणं यान्ति कुलायताम् ॥ १०० ॥ तत्र दृष्ट्वाऽहर्म्येषु रत्नराशीन् समुच्छ्रितान् । तदवकरकूटोऽयं तर्क्यते रोहणाचलः ||१|| जलकेलिरतस्त्रीणां त्रुटितैर्हारमौक्तिकैः । ताम्रपर्णीश्रियं तत्र दधते गृहदीर्घिकाः ॥ २ ॥ तत्रेभ्याः सन्ति ते येषां कस्याप्येकतमस्य सः। व्यवहतुं गतो मन्ये वणिक्पुत्रो धनाधिपः ||३|| नक्तमिन्दुदृषद्भित्तिमन्दिरस्यान्दिवारिभिः । प्रशान्तपांशवो रथ्याः क्रियन्ते तत्र सर्व्वतः ||४|| वापीकूपसरोलक्षैः सुधासोदरवारिभिः । नागलोकं नवसुधाकुण्डं परिवभूव सा ||५|| नगरीं तामलङ्कुर्व्वन्नरेन्द्रो वृषभध्वजः । अपत्यानि निजानीव प्रजाश्विरमपालयत् || ६ || तत उत्पादयामास लोकानुग्रहकाम्यया । एकैकशो विंशतिधा पञ्च शिल्पानि नाभिभूः ||७|| राज्यस्थितिनिमित्तं चाऽग्रहीद्गास्तुरगान् गजान् । सामाद्युपायसारां च नीतिरीतिमदर्शयत् ||८|| द्वासप्ततिकलाकाण्डं भरतं चाध्यजीगपत् । भरतोऽपि निजान् भ्रातॄंस्तनयानितरानपि || ९ || नाभेयो बाहुबलिनं भिद्यमानान्यनेकशः । लक्षणानि च हस्त्यश्वस्त्रीपुंसानामजिज्ञपत् ||१०|| अष्टादशलिपोर्ब्राह्म्या अपसव्येन पाणिना । दर्शयामास सव्येन सुन्दर्या गणितं पुनः || ११|| वर्णव्यवस्थां रचयन् न्यायमार्ग प्रवर्त्तयन् । त्र्यशीति पूर्वलक्षाणि नामिभूरत्वाहयत् ||१२|| प्रभुः KET CREATION O योगमाहात्म्यम् રા Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥३५॥ स्मरकृतावासे मधुमासे समेयुषि । अगादन्येद्युरुद्याने परिवारानुरोधतः ||१३|| गुञ्जद्भिः कुलमाकन्दमकरन्दोमालिभिः । मधुलक्ष्मीर्बभूव स्वागतिकीव जगत्प्रभोः || १४ || पूर्व्वरङ्ग इवारब्धे पञ्चमो चारिभिः पिकैः । अदर्शयल्लतालास्यं मलयानिललासकः || १५ || प्रतिशाखं विलग्नाभिः पुष्पोच्च यकुतूहलात् । स्त्रीभिस्तत्राभवन् वृक्षाः सब्जातस्त्रीकला इव ||१६|| पुष्पवासगृहासीनः पुष्पाभरणभूषितः । पुष्पगेन्दुकहस्तोऽभान्मधुर्मूर्त्त इव प्रभुः।।१७।। तत्र १ खेलायमानेषु निर्भरं भरतादिषु । दध्यौ स्वामी किमीदृक्षा क्रीडा दोगुन्दगेष्वपि ॥ १८ ॥ जज्ञेऽथावधिना स्वामी स्वःसुखान्युत्तरोत्तरम् । अनुत्तरस्वर्गसुखं भुक्तपृर्व्वं स्वयं च तत् ॥ १९ ॥ भूयोऽप्यचिन्तयदिदं विगलन्मोबन्धनः । धिगेष विषयाक्रान्तो वेत्ति नात्महित जनः || २० || अहो संसारकूपेऽस्मिन् जीवाः कुर्वन्ति कर्मभिः । अरघट्टघटीन्यायेनै हिरेया हिरां क्रियाम् ||२१|| इत्यासीन्मनसा यावद्विभुर्भवपराङ्मुखः । तावल्लोकान्तिका देवा एयुः सारस्वतादयः॥२२॥ बद्धैरञ्जलिभिर्मूर्ध्नि कृतान्यमुकुटा इव । प्रणम्य ते व्यज्ञपयन् स्वामिस्ती प्रवर्त्त ||२३|| गतेषु तेषु भगवानुद्यानान्नन्दनाभिधात् । व्यावृत्य गत्वा नगरीमा जुहावावनीपतीन् ||२४|| राज्येऽभ्यषिञ्चद्भरतं ज्येष्ठपुत्रं ततो विभुः । बाहुबल्यादिपुत्राणां विभज्य विषयान् ददौ ||२५|| सांवत्सरिकदानेन ततोऽतर्पीत्तथा भुवम् । देहीति दीनवाक्यश्च कश्विदासीद्यथा नहि ||२६|| अशासनप्रकम्पेन सर्वेऽप्यभ्येत्य वासवाः । अभिषेकं प्रभोश्च कुगिरेखि पयोमुचः॥ २७॥ माल्याङ्गरागैर्देवेशन्यस्तैर्वासितविष्टपैः । स्वयशोभिरिवाशोभि परितः परमेश्वरः।।२८ विचित्रैरचितो वस्त्रे रत्नक्लृप्तैश्च भूषणैः । विभुर्वभासे सन्ध्याभ्रधिष्णैरिव मरुत्पथः ॥ २९ ॥ दिवि दुन्दुभिनादं च कारयामास वासवः । जगतो दददानन्दमसन्मान्तमिवात्मनि ||३०|| सुरासुररनरोद्वाह्यामारोहच्छिविकां विभुः । (१) दोलायमानेषु । योगमाहात्म्यम् ॥३५॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग योगमाहात्म्यम् शास्त्रम् ॥३६॥ उर्व लोकगतेर्माग जगतो दर्शयन्निव ॥३१॥ एवं सदेवैर्देवेशैश्चक्रे निष्क्रमणोत्सवः । यं पश्यद्भिनिजदृशां नैनिमेष्यं कृतार्थितम् ॥३२॥ गत्वा सिद्धार्थकोद्याने मुमोच परमेश्वरः । कुसुमाभरणादीनि कषायानिव सवतः ॥३३॥ चतुर्भिमुष्टिभिः केशानुद्दधार जगदगुरुः । जिघृक्षुः पञ्चमी मुष्टिं वासवेनेति याचितः ॥ ३४ ॥ देवांसयोः स्वर्णरुचोर्वाचातीतातिशोभते । केशवल्लय॑सावास्तामिति तो स्वाम्यधारयत् ॥ ३५ ॥ प्रतीच्छतश्च सौधर्माधिपतेः सिचयाञ्चले । स्वामिकेशा दधुदत्तवर्णान्तरगुणश्रियम् ॥ ३६ ॥ क्षीरोदधौ सुधर्मेशः केशान् क्षिप्त्वाभ्युपेत्य च । रङ्गाचार्य इवारक्षत्तुमुलं मुष्टिसंज्ञया ॥३७॥ सर्व सावा प्रत्याख्यामीति चारित्रमुच्चकैः । मोक्षाध्वनो रथमिवाध्यारुरोह जगत्पतिः ॥३८॥ सर्वतः सर्वजन्तूनां मनोद्रव्याणि दर्शयत् । जज्ञे ज्ञानं प्रभोस्तुयें मनःपर्यायसंज्ञकम् ॥३९॥ राज्ञां सहस्राश्चत्वारोऽनुयान्तस्तं निजप्रभुम् । व्रतमाददिरे भक्त्या कुलीनानां क्रमो ह्यसौ ॥४०॥ ततः सर्वेष्वपीन्द्रा गतेषु स्वं स्वमालयम् । व्यहरत्तवृतः स्वामी युथनाथ इव द्विपैः॥४१॥ लोकैर्भिक्षास्वरूपा भिक्षार्थ भ्रमतः प्रभोः । अढौकि कन्येभाश्वादि धिगार्जवमपि कचित् ॥४२॥ न्याय्यामप्राप्नुवन् भिक्षां सहमानः परीपहान् । अदिनमानसः स्वामी मौनव्रतमुपाश्रितः ॥ ४३ ॥ श्रमणानां सहस्रीस्तैश्चतुर्भिरपि नाभिभूः । क्षुधातर्मुमुचे को वा ससत्त्वो भगवानिव ॥ ४४ ॥ बने मूलफलाहारा जज्ञिरे ते तु तापसाः । भावाटवीपथजुषो धिक्तान्मोक्षपथच्युतान् ॥४५॥ अथ कच्छमहाकच्छपुत्रावाज्ञागतौ कचित् । ईयतुर्नमिविनमी स्वामिन प्रतिमास्थितम् ॥ ४६ ॥ प्रणम्य तौ विज्ञपयाम्बभूवतुरिति प्रभुम् । आवयो परः स्वामी स्वामिन् राज्यप्रदो भव ॥४७॥ न किश्चिदुचे भगवांस्तदा तौ सेवकावपि । निर्ममा हि न लिप्यन्ते ॥३६॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगगर्म स्तुति ॥३७॥ कस्याप्यहिकचिन्तया ॥४८॥ तौ कृटासी सिषेवाते स्वामिनं पारिपाचिकौ । अर्निशं मेरुगिरि सूर्याचन्द्रममाविव ॥४९॥ अथ तौ धरणेन्द्रेण प्रभुं वन्दितुमेयुषा । कौ युवामिह को हेतुरित्युक्तावेवमृचतुः ॥५०॥ भृत्यावावामसौ भर्ता कचिदप्यादिदेश च । राज्यं विभज्य सर्वेषां स्वपुत्राणामदत्त च ॥५१॥ अपि प्रदत्तसर्वस्वो दातासौ राज्यमावयोः अस्ति नास्तीति का चिन्ता का सेवेव सेवकैः ॥५२ याचेथां भरतं स्वामी निर्ममो निष्परिग्रहः। किमद्य दद्यादिति तौ तेनोक्तावित्यवोचताम् ॥५३॥ विश्वस्वामिनमाप्यामुं कुर्वः स्वाम्यन्तरं नहि कल्पपादपमासाद्य कः करीरं निषेवते ॥५४|| आवां याचावहे नान्यं विहाय परमेश्वरम् । पयोमुचं विमुच्यान्यं याचते चातकोऽपि किम् ॥५५।। स्वस्त्यस्तु भरतादिभ्यः किं तवास्मद्विचिन्तया । स्वामिनोऽस्माद्यद्भवति तद्भवत्वपरेण किम् ।।५६।। तदुक्तिमुदितोऽवादीदथेदं पन्नगेश्वरः। पातालपतिरेषोऽस्मि स्वामिनोऽस्यैव किङ्करः।।५७॥ सेव्यः स्वाम्ययमेवेति प्रतिज्ञा साधु साधु वः। स्वामिसेवाफलं विद्याधरैश्वयं ददामि तत् ॥५८|| स्वामिसेवाप्तमेवैतबुध्येथां हन्त नान्यथा । सम्बोध्येति ददौ विद्याः प्रज्ञप्तीप्रमुखास्तयोः॥५९॥ ईयतुस्तदनुज्ञातो पश्चाशद्योजनीपृथुम् । ती बेताढयाद्रिमुत्सेधं पश्चविशतियोजनम् ॥६॥ दशयोजनविस्तारदक्षिणश्रेणिमध्यगाः । तत्र विद्याबलाचक्र नमिः पश्चाशतं पुरिः॥६१।। दशयोजन विस्तारोत्तरश्रेग्यां न्यवीविशत् । विद्याधरपतिः पष्टि पुराणि विनामः पुनः ॥६२॥ चक्राते चक्रवर्तित्वं १चिराद विद्याधरेषु तौ। तादृशः स्वामिसेवाया: कि नाम स्यादुरासदम् ॥६३।। वर्ष मौनी निराहारो विहरन भगवानपि । पुर गजपुरं नाम प्रययौ पारणेच्छया ।।६४|| तदा च सोमयशसः श्रेयांसः स्वममैक्षत। मेरुं श्याम सुधाकुम्भैः क्षालयित्वोज्ज्वलं व्यधात् ॥६५॥ सुबुद्धिश्रेष्ठिनाप्यक्षि गोसहस्र रवेश्च्युतम् । श्रेयांसेनाहितं तत्र ततोऽसौ भासुरोऽभवत (१) चिरम् । ॥३७॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगगर्म स्तुतिः ॥३८॥ ॥६६॥ अदर्शि सोमयशसा राजैको बहुभिः परैः । रुद्धः समन्ताच्छ्रेयांससाहाय्याज्जयमीयिवान् ॥६७॥ त्रयस्ते सदसि स्वप्नानन्योऽन्यस्य न्यवीविदन् । ते निर्णयमजानन्तः स्वं स्वं स्थानं पुनर्ययुः ॥६८॥ प्रादुर्भावयितुमिव तदा तत्स्वप्मनिर्णयम् । श्रेयांसस्य ययौ वेश्म भिक्षार्थी भगवानपि ॥६९॥ भगवन्तं समायान्तं शशाङ्कमिव सागरः । आलोक्य श्रेयसां पात्रं श्रेयांसः शिश्रिये मुदम् ॥७०॥ ऊहापोहं वितन्वानः श्रेयांसः स्वामिदर्शनात् । अवाप जातिस्मरणं पूर्वनष्टनिधानवत् ॥७१॥ चक्रभृद्वज्रनाभोऽसौ प्राग्भवेऽस्यास्मि सारथिः । अनुप्रवजितश्चामुं तदेत्यादि विवेद सः ॥७२॥ ततो विज्ञातनिर्दोषभिक्षादानविधिः सुधीः । स्वामिने प्रासुकायातेक्षुरसं मुदितो ददौ ॥७३॥ भूयानपि रसः पाणिपात्रे भगवतो ममौ । श्रेयांसस्य तु हृदये ममुर्नहि मुदस्तदा ॥७४॥ स्त्यानोऽनुस्तम्भितोऽन्वासीद् व्योम्नि लग्नशिखो रसः। अब्जलौ स्वामिनोऽचिन्त्यप्रभावाः प्रभवः खलु ॥७५॥ ततो भगवता तेन रसेनाकारि पारणम् । सुरासुरनृणां नेरैः पुरस्तद्दर्शनामृतैः ॥७६॥ कुर्वद्भिर्दुन्दुभिध्वानं देवैर्दिवि घनैरिव । वृष्टयो रत्नपुष्पाणां चक्रिरे वारिवृष्टिवत् ॥७७।। अथ तक्षशिलां स्वामी ययौ बाहुबलेः पुरीम् । बाह्योद्याने प्रपेदे च प्रतिमामेकरात्रिकीम् ॥७८॥ प्रभाते पावयिष्यामि स्वं लोकं स्वामिदर्शनात् । इतीच्छतो बाहुबलेः सामुन्मासोपमा निशा ॥७९॥ स प्रातः प्रययौ यावत्तावत्स्वाम्यन्यतोऽगमत् । तच्चास्वामिकमुद्यानं व्योमेवाचन्द्रमैक्षत ॥८॥ मनोरथो विलीनो मे हृदि बीजमिवोषरे । हा धिक प्रमद्वरोऽस्मीति बहात्मानं निनिन्द सः ॥८१॥ यत्रास्थातां प्रभोः पादौ रत्नस्तत्रार्षभिर्व्यधात् । धर्मरकं सहस्रारं सहखांशुमिवापरम् ॥८२॥ विवधाभिग्रहः स्वामी म्लेच्छदेशेष्वधर्मसु । विजहार यथार्येषु समभावा हि योगिनः ॥८३॥ ॥३८॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगगर्मस्तुतिः ॥३९॥ तदा प्रभृत्यनार्याणामपि पापैककर्मणाम् । धर्मास्तिक्यधिया जज्ञे दृढानुष्ठानचेष्टितम् ॥८४॥ एवं विहरमाणस्तु सहसे शरदां गते । पुरं पुरिमतालाख्यमाजगाम जगदगुरुः ॥८५।। तत्पूर्वोत्तरदिग्भागे कानने शकटानने । वटस्याधोऽष्टमभक्तनास्थात्प्रतिमया प्रभुः ॥८६॥ आरुह्य क्षपकश्रेणिमपूर्वकरणक्रमात् । शुक्लध्यानान्तरं शुद्धमध्यासीच्च जगत्पतिः ॥८७॥ ततश्च घातिकर्माणि व्यलीयन्त घना इव । स्वामिनः केवलज्ञानरविराविर्बभूव च ॥८८॥ विमानान्यतिसम्माद् घट्टयन्तः परस्परम् । एयुरिन्द्राश्चतुःषष्टिः समं देवगणैस्तदा ॥८९॥ त्रैलोक्यभर्नुः समवसरणस्थानभूतलम् । अमृजन्वायुकुमाराः स्वयं माजितमानिनः ॥९०॥ गन्धाम्बुवृष्टिभिर्मेषकुमाराः सिषिचुः क्षितिम् । सुगन्धिवाष्पैः सोक्षिप्तधृपावैष्यतः प्रभोः ॥९१॥ पुष्पोपहारमृतवो जानुदघ्नं व्यधुर्भुवि । अप्येषत्पूज्यसंसर्गः पूजायै खलु जायते ॥९२॥ स्निग्धधमशिखास्तोमवासितव्योममण्डलाः । चक्रधूपघटीस्तत्र तत्र वह्निकुमारकाः ॥९३।। इन्द्राचापशतालीढमिव नानामणित्विषा । ततः समवसरणं चक्रे शक्रादिभिः सुरैः ॥९४॥ रजतस्वर्णमाणिक्यवप्रास्तत्र त्रयो बभुः । भुवनाधिपतिज्योतिर्वैमानिकसुरैः कृताः ॥९५॥ असौ म्लर्गमसौ मोक्षं गच्छत्यध्वेति देहिनाम् । शंसन्त्य इव वल्गन्त्यः पताकास्तेषु रेजिरे ॥९६॥ विद्याधर्यो रत्रमय्यौ वोपरि चकाशिरे । कृतप्रवेशनिष्काशा विमानाशकया मुरैः ॥९७॥ माणिक्यकपिशीर्षाणि मुग्धामरवधूजनैः । आलोक्यन्त चिरं हांद्रत्नताडङ्कशङ्कया।।९८॥ प्रतिवनं च चत्वारि गोपुराणि बभासिरे । चतुर्विधस्य धर्मस्य क्रीडावातायना इव ॥९९।। चक्रे समवसरणान्तरेऽशोकतरुः सुरैः। क्रोशत्रयोदयो रत्नत्रयोदयमिवोद्दिशन् ॥२००॥ तस्याधःपूर्वदिग्भागे रत्नसिंहासनं सुराः सपादपीठं विदधुः सारं स्वर्गश्रियामिव॥१॥ प्रविश्य पूर्वद्वारेण नत्वा तीर्थ तम ॥३९॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् योगमहात्म्यम् ॥४०॥ च्छिदे । स्वामी सिंहासनं भेजे पूर्वाचलमिवार्यमा ॥२॥ रत्नसिंहासनस्थानि दिक्ष्वन्यास्वपि तत्क्षणम् । भगवत्प्रतिबिम्बादि त्रीणि देवा विचक्रिरे॥३॥ वराकीकृतराकेन्दुमण्डलं परमेशितुः। त्रैलोक्यस्वामिताचिह्नमिव च्छत्रत्रयं बभौ ॥४॥ भगवानेक एवायं स्वामीत्यूर्वीकृतो भुजः। इन्द्रेणेव प्रभोरग्रे रेजे रत्नमयो ध्वजः॥५॥ चकाशे केवलज्ञानिचक्रवत्तित्वसूचकम् अत्यद्भुतप्रभाचक्रं धर्मचक्रं प्रभोः पुरः॥६॥ रेजतुर्जाह्नवीवीचिसोदरे चारुचामरे। हंसाविवानुधावन्तौ स्वामिनो मुखपङ्कजम्॥७॥ आर्वभूवानुवपुस्तदा भामण्डलं विभोः। खद्योतपोतवद्यस्य पुरा मार्तण्डमण्डलम् ॥८॥प्रतिध्वानैश्चतस्रोऽपि दिशो मुखरयन् भृशम् । अम्भोद इव गम्भीरो दिवि दयान दुन्दुभिः।।९।। अधोवृन्ताः सुमनसो विष्वग्ववृषिरे सुरैः । शान्तीभूते जने त्यक्तान्यखाणीव मनोभुवा ॥ १०॥ पञ्चत्रिंशदतिशयान्वितया भगवान् गिग । त्रैलोक्यानुग्रहायाथ प्रारेभे धर्मदेशनाम् ॥ ११ ॥ भगवत्केवलज्ञानोत्सवं चारा अचीकथन् । भरतस्य तदा चक्ररत्नमप्युदपद्यत ॥१२॥ उत्पन्न केवलस्तात इतश्चक्रमितोऽभ्यगात् । आदौ करोमि कस्यार्चामिति दध्यौ क्षणं नृपः ॥ १३ ॥क विश्वाभयदस्तातः क चक्रं प्राणिघातकम् । विमृश्येति स्वामिपूजाहेतोः स्वानादिदेश सः॥ १४ ॥ सूनोः परीषहोदन्तदुःखाश्रुत्पन्नदृगुजम् । मरुदेवामथोपेत्य नत्वा चासौ व्यजिज्ञपत् ॥१५ ।। आदिशः सर्बदापीदं यन्मे सूनुस्तपात्यये । पद्मखण्ड इव मृदुः सहते वारिविद्रवम् ।। १६ ।। हिमत्तौं हिमसम्पातपरिल्केशवशां दशाम् । अरण्ये मालतीस्तम्ब इव याति निरन्तरम् ॥ १७॥ उष्ण वुष्णकिरणकिरणैरतिदारुणैः । सन्तापं चानुभवति स्तम्बेरम इवाधिकम् ॥१८॥ तदेवं सर्वकालेषु वनवासी निराश्रयः । पृथग्जन इवैकाकी वत्सो मे दुःखभाजनम् ॥१९॥ त्रैलोक्यस्वामिताभाजः स्वसनोस्तस्य सम्प्रति । पश्य सम्पदमित्युक्त्वारोहयामास तां गजे ॥४ou Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगमाहात्म्यम् ॥४१॥ ॥ २० ॥ सुवर्णवत्रमाणिक्यभूषणैस्तुरगैगजैः । पत्तिभिः स्यान्दनैर्मुर्तश्रीमयैः सोऽचलत्ततः ॥ २१ ॥ सैन्यभूषण भाःपुजकृतजङ्गमतोरणैः। गच्छन् दुरादपि नृपोऽपश्यद्रत्नध्वजं पुरः ॥२२॥ मरुदेवामथावादीद्भरतः पुरतो ह्यदः प्रभोः समवसरणं देवि देवैर्विनिर्मितम् ॥ २३ ॥ अयं जयजयारावतुमुलस्त्रिदिवौकसाम् । श्रूयते तातपादान्ते सेवोत्सवमुपेयुषाम् ॥ २४ ॥ मालवकैशिकीमुख्यग्रामरागपवित्रिता । कर्णामृतमियं वाणी स्वामिनो देशनाकृतिः ॥ २५ ॥ मयूरसारसक्रौञ्चहंसाद्यैः स्वस्वराधिका । आकर्ण्यते दत्तकर्णैः स्वामिनो गीः सविस्मयम् ॥ २६ ॥ तातस्य तोयदस्येव ध्वनावायोजनादिह । श्रते मनो बलाकेव वलवद्देवि धावति ॥२७॥ त्रैलोक्यमर्तर्गम्भीरां वाणी संसारतारिणीम् । निर्वातदीपनिस्पन्दा मरुदेवा मुदाऽश्रृणोत् ॥२८॥ श्रृण्वन्त्यास्तां गिरं देव्या मरूदेव्या व्यलीयत । आनन्दाश्रृपयःपूरैः पङ्कवत्पटलं दृशोः ॥२९॥ साऽपश्यत्तीर्थकुल्लक्ष्मीं तस्याऽतिशयशालिनीम् । तस्यास्तद्दशनानन्दस्थैर्यात्कर्म व्यशीर्यत ॥ ३० ॥ भगवदर्शनानन्दयोगस्थैर्यमुपेयुषी । केवलज्ञानमम्लानमाससाद तदैव सा ॥ ३१ ॥ करिस्कन्धाधिरूढैव प्राप्तायुःकर्मसङक्षया । अन्तकृत्केवलित्वेन निर्वाणं मरुदेव्यगात ॥ ३२ ॥ एतस्यामवसप्पिण्यां सिद्धोऽसौ प्रथमस्ततः। क्षीराब्धौ तद्वपुः क्षिप्त्वा चक्रे मोक्षोत्सवः सुरैः॥ ३३ ततो विज्ञाततन्मोक्षो हर्षशुग्भ्यां समं नृपः। अभ्रच्छायाकतापाभ्यां शरत्काल इवानशे ॥३४॥ सन्त्यज्य राज्यचिह्नानि पदातिः सपरिच्छदः । ततः समवसरणं प्रविवेश विशाम्पतिः॥३५।। चतुर्भिर्देवनिकायैः स्वामी परि वृतस्तदा । ददृशे भरतेशेन दृकचकोरनिशाकरः॥३६॥ त्रिश्च प्रदक्षिणीकृत्य भगवन्तं प्रणम्य च । मूर्ध्नि बद्धाजलिः स्तोतुमिति चक्री प्रचक्रमे ॥३७॥ जयाखिलजगन्नाथ जय विश्वाभयप्रद । जय प्रथमतीर्थेश जय संसारतारण ॥४१॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥४२॥ |३८|| अद्यावसर्पिणीलोकपद्माकरदिवाकर । त्वयि दृष्टे प्रभातं मे प्रनष्टतमसोऽभवत् ॥ ३९॥भव्यजीवमनोवारिनिर्मलीका रकर्मणि । वाणी जयति ते नाथ कतकक्षोदसोदरा ॥ ४० ॥ तेषां दूरे न लोकाग्रं कारुण्यक्षीरसागर । समारोहन्ति ये नाथ त्वच्छासनमहारथम् ||४१|| लोकग्रतोऽपि संसारमग्रिमं देव मन्महे । निष्कारणजगद्वन्धुर्यत्र साक्षान्चमीक्ष्य से ||४२|| त्वदर्शन महानन्दस्यन्दनिष्यन्दलोचनैः । स्वामिन मोक्षसुखास्वादः संसारेऽप्यनुभूयते ॥४३॥ रागद्वेष पायाद्यैरुद्धं जगदरातिभिः । इदमुद्वेष्टयते नाथ त्वयैवाभयसत्रिणा ||४४ || स्वयं ज्ञापयसे तवं मार्ग दर्शयसि स्वयम् । स्वयं च त्रायसे विश्वं त्वत्तो नाथामि नाथ किम् ||४५ || इति स्तुत्वा जगन्नार्थं महीनाथ शिरोमणिः । देशनावात्रसुधां पूर्ण कर्णाञ्जलिपुटं पपौ || ४६ || तदा ऋषभसेनादीन् भगवान्वृषभध्वजः । दीक्षायामास चतुरशीतिं गणधरान् स्वयम् ||४७|| अदीक्षयत्ततो ब्राह्मीं भरतस्य च नन्दनान् । शतानि पञ्च नप्तृव शतानि सप्त नाभिभूः || ४८ || साधवः पुण्डरीकाद्याः साध्व्यो ब्राहम्यादयोऽभवन् । श्रेयांसाद्याः श्रावकाश्च श्राविकाः सुन्दरीमुखाः ॥ ४९ ॥ एवं चतुर्विधः सङ्घः स्थापितः स्वामिना तदा । ततः प्रभृति सङ्घस्य तथैवेयं व्यवस्थितिः ॥५०॥ स्वाम्यथो भव्यबोधायान्यतोऽगात्सपरिच्छदः । तं नत्वा भारताधीशोऽप्ययोध्यां नगरीं ययौ ॥ ५१ ॥ तत्र नाभ्यङ्गभृवंशरत्नाकर निशाकरः । यथाविधि जुगोपो न्यायो विग्रहवानिव ॥ ५२ ॥ चतुःषष्टिः सहखाणि बभ्रुवुस्तस्य वल्लभाः । अनुचर्यः श्रियो यासां जज्ञिरे रूपसम्पदा || ५३|| तस्मिन्नर्द्धासनासीने वासवस्य दिवौकसः । द्वयोर्भेदमजानन्तः पेतुः प्रणतिसंशये ॥५४|| प्रारब्धदिग्जयः पूर्वं पूर्वस्यां भानुमानिव । सोऽगाज्जितान्यतेजोभिस्तेजोभिद्यतयन् जगत् ॥५६॥ योग महात्व्यम् ॥४२॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् प्रथमः प्रकाशा ॥४३॥ उत्क्षिप्ताधमिवोद्वीचिहस्तविन्यस्तबिटुमैः । गङ्गासम्भेदसुभगं स प्रापत् पूर्वसागरम् ॥५६॥ मागधतीर्थकुमारं देवं मनसिकृत्य च । प्रपेदेऽष्टमभक्तं सोऽर्थसिद्धारमादिमम् ॥५७॥ यादांसि त्रासयन्नाशु रथेनारुह्य रंहसा । जलधि मन्दरेणेव जगाहे स महाभुजः ॥५८॥ रथनाभ्युदये तोये स्थित्वा द्वादशयोजनीम् । बाणं दूतमिव प्रेषीनामाकं मागधाय सः ॥५९॥ अथ मागधतीर्थस्य पतिर्निपतिते शरे । चुकोप विकटाटोपभृकुटीभङ्गभीषणम् ॥६०॥ शरे मन्त्राक्षराणीव तस्य नामाक्षराण्यसौ । दृष्ट्वा नागकुमारोऽभून्नितान्तं शान्तमानसः ॥६॥ प्रथमश्चक्रवत्यैष उत्पन्न इति चिन्तयन् । उपतस्थे स भरतं विजयो मूर्तिमानिव ॥२॥ नरचूडामणेरने निजं चूडामणि फणी । चिराजितं तेज इवोपानयत्तच्छरं च सः ॥६३॥ तवाहं पूर्वदिक्पालः किङ्करः करवाणि किम् । इति विज्ञपयन् राज्ञा सोऽनुजज्ञे महौजसा ॥६४॥ जयस्तम्भमिवारोप्य तत्र त मागधाधिपम् । पूर्वनीरनिधेस्तीरान्नरदेवो न्यवर्तत ॥६५॥ उर्वोमनुीं कुर्वाणश्चलयन्नचलानपि । चतुरङ्गबलेनाथ प्रपेदे दक्षिणोदधिम् ॥६६॥ एलालवङ्गलवलीककोलबहले तटे । सैन्यान्यावासयामास स दोर्वीर्यपुरन्दरः ॥६७॥ तेजसा स दुरालोको द्वितीय इव भास्करः । महावाहं महाबाहुरारुरोह महारथम् ॥६८॥ तरङ्गैरिख रङ्गद्भिस्ततस्तुगैस्तुरङ्गगैः। रथनाभ्युदयं तोयं ललवे स महोदधिम् ।।६९।। वरदामाभिमुखं च सज्जीकृतशरासनः । धनुर्वेदोङ्कारमिव ज्यानि?षं ततान सः ॥७०॥ सौवर्णकर्णताडपद्मनालतुलास्पृशम् । काञ्चनं सन्दधे बाणमाकर्णाकृष्टकामुके ॥७१॥ वरदामाख्यतीर्थेशमभि श्रीभरतस्ततः । मुमोच नमुचिद्वेषिस्थामा नामाङ्कितं शरम् ॥७२॥ वरदामपतिर्वाणं प्रेक्ष्य च प्रतिगृह्य च । भरतं प्रत्युपायज्ञ उपायनमुपानयत् ॥७३॥ ऊचे च ॥४३॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥४४॥ भरताधीशं धन्योऽस्मि यदिहागमः । नाथेन भवता नाथ सनाथोऽहमतः परम् ॥ ७४ ॥ ततस्तमात्मसात्कृत्वा कृत्यविद्भरतेश्वरः । प्रति प्रतीचीमचलन्चलयन्नचलां बलैः ॥७५॥ अपरार्णवमासाद्य प्रभाभिमुखं शरम् । जाज्वल्पमानं भरतस्तडिद्दण्डमिवाक्षिपत् ॥७६॥ दण्डं प्रयच्छ कुर्वाज्ञां जिजीविषसि चेत्सुखम् । इत्यक्षराणि तद्वाणे प्रभासपतिरैक्षत ॥७७॥ प्राज्यानि प्रगुणीकृत्य प्राभृतान्यद्भूतानि सः । चचाल शरमादाय प्रसाधयि - तुमाभिम् ॥७८॥ हारानीहारहरिणानाजहारातिहारिणः । चिरकालाज्र्जितानात्मयशोराशीनिवाखिलान् ॥ ७९ ॥ येषामग्रे दृषत्कल्पो रमारमणहृन्मणिः । तांस्तान्विश्राणयामास मणीनरशिरोमणेः ||८०|| कटकानि कटीसूत्रं चूडामणिमुरोमणिम् । निष्कादि चार्पयद्राज्ञे मूर्त्त तेज इव स्वकम् ॥८१॥ इति प्रसादितस्तेनाच्छद्मना भक्तिसद्मना । भरतोऽगानदीं सिन्धुमुत्तरद्वारदेहलीम् ||८२|| निकषा सिन्धुभवनं निदधे शिविरं नृपः । सिन्धुदेवीं समुद्दिश्य विदधे चाष्टमं तपः ॥८३॥ सिन्धुश्चासनकम्पेन ज्ञात्वा चक्रिणमागतम् । उपेत्योपायनैदिव्यैरानर्च पृथिवीपतिम् ॥ ८४ ॥ तामुरीकृत सेवां च विसृज्य कृतपारणः । अष्टाहिकोत्सवं तस्य विदधे वसुधाधवः ||८५|| सोऽथ चक्रानुगो गच्छन ककुभोत्तरपूर्वया । भरतार्द्धद्वयाघाटं वैतादद्याद्रिमवाप च ॥ ८६ ॥ नितम्बे दक्षिणे तस्य विन्यस्तशिविरस्ततः । अधिवैताढयकुमारं नृपतिर्विदधेऽष्टमम् ||८७|| विज्ञायावधिना सोऽपि दिव्यैस्तैस्तैरुपायनैः । उपतस्थे महीपालं सेवां च प्रत्यपद्यत ||८८|| तं विसृज्य नृपश्चक्रेऽष्टमभक्तान्तपारणम् । अष्टाट्रिकोत्सवं तस्य विदधे यथाविधि ॥ ८९ ॥ गुहां तमिस्रामभितस्तमिवारिवि त्विषा । जगाम तददुरे च स्कन्धावारं न्यधानृपः ॥९०॥ कृतमालामरं तत्र स उद्दिश्याष्टमं व्यधात्। सोऽपि ज्ञात्वासनकम्पादानचपेत्य भूपतिम् ॥ ९१ ॥ योगमहात्म्यम् ગા Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगमाहात्म्यम् ॥४५॥ विसृज्य तमपि मापः कृत्वा चाष्टमपारणम् । विदधेऽष्टाह्निकां तस्य महोत्सव पुरःसरम् ॥९२॥ सुषेगो भरतादेशात्सिन्धुमुत्तीय चर्मणा । तरसा साधयामास दक्षिणं सिन्धुनिष्कुटम् ॥९३॥ करं ततस्त्यम्लेच्छानामादाय स्वेच्छयाथ सः । उत्तीर्य चर्मणा सिन्धुमाययौ भरतेश्वरम् ॥९४॥ वैताढये तमिस्रां वत्रकपाटपिहितां गुहाम् । उद्घाटयितुमादिक्षत् सुषेणमृपमात्मजः ॥९५।। सुषेणोऽपि प्रभोराज्ञां शेषावन्मूनि धारयन् । प्रदेशेऽगात्तमिसाया गुहाया अदवीयसि ॥९६॥ तदधिष्ठातृदेवं च कृतमालमनुस्मरन् । तस्थौ पौषधशालायामष्टमेन विशु धीः ॥९७॥ स्नात्वा चाष्टमभक्तान्ते बाह्याभ्यन्तरशौचभृत् पर्यधाच्छुचिवस्त्राणि विविधाभरणानि च ॥९८॥ होमकुण्डोपमे धूपदहने ज्वलदग्निके । धृपमुष्टीः क्षिपन् स्वार्थसाधनीराहुतीरिव ॥९९॥ ततः स्थानादसौ तस्या गुहाया द्वारमभ्यगात । कोशद्वारं तदायुक्त इवोद्घाटयितुं त्वरी॥३००|| दृष्टमात्र तत्कपाट युगलं प्रणनाम च । नेतारमिव तदन्तःप्रवेशः स्यात्कुतोऽन्यथा ॥१॥ गुहाद्वारे ततोऽष्टाष्टमङ्गलालेखपूर्वकम सोऽष्टाहिकामहिमानं चक्रे स्वमहिमोचितम् ॥२॥ दण्डरत्न बज्रसारं सर्वशत्रुविनाशनम् । अथ सेनापतिवन बज्रपाणिरिवाददे ॥३॥ पदानि कतिचित्सोऽपमृत्य वक्र इव ग्रहः । दण्डरत्नेन झटिति कपाटी त्रिरताडयत ॥४॥ पक्षाविवादेववेक दण्डरत्नेन ताडितो तडत्तडिति कुर्वाणो विश्लिष्टौ तो बभूवतुः ॥५।। तद्गुहाद्वारवत्सद्यः सविकाशमुखो भृशम् । मुषेणो भरतायेदं गत्वा नत्वा व्यजिज्ञपत् ।।६।। अद्याभूत्त्वत्प्रभावेण गुहाद्वारमपार्गलम । यतेनिःश्रेयसद्वारं तपसेवातिभूयसा ।।७|| मघवैरावणमिवाधिरूढो गन्धवारणम् । तत्कालं भरताधीशो गुहाद्वारमुपाययौ ॥८॥ अन्धकारापहाराय मणिरत्नं न्यधान्नृपः । दक्षिणे कुम्भिनः कुम्भे पूर्वाद्राविव भास्करम् ॥९॥ (१) ततस्तम्पभात्मजः ॥४५॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगमाहात्म्यम् ॥४६॥ ततोऽनुगचमूचक्रश्चक्रमार्गानुगो गुहाम । प्रविवेश विशामीशो मेघमध्यमिवार्यमा ॥१०॥ गोमूत्रिकाक्रमेणानुयोजनान्तं तमश्छिदे । पार्श्वयोः काकिणीरत्नेनालिखन्मण्डलानि सः ॥११॥ दीप्रैरेकोनपश्चाशन्मण्डलैः काकिणीकृतैः । मार्तण्डमण्डलोद्योतैस्तद्वाहिन्योऽवहन्मुखम् ॥१२॥ भूपेऽथापश्यदुन्मग्ननिमग्ने निम्नगे ययोः । एकत्रोन्मज्जति ग्रावान्यस्यां मज्जत्यलाववपि ॥१३॥ अतिदुस्तरतामाजोरपि सारणिलीलया । तयोनधोरनवद्यां पद्यां व्यधित बद्धकिः ॥१४॥ पद्यया ते समुत्तीय तद्गुहाकुहरान्नृपः । निरगच्छन्महामेघमण्डलादिव भास्करः ॥१५॥ भरतो भरतक्षेत्रोत्तरखण्डं प्रविष्टवान् । अयुध्यत ततो म्लेच्छै नवैवि वासवः ॥१६॥ जिता राज्ञा महेशेन म्लेच्छाः प्रतिजयेच्छवः। उपासाश्चक्रीरे मेघमुखान् स्वकुलदेवताः ।।१७।। मुसलाकारधाराभिरारादासारदारुणम् । ते प्रावर्तन्त संवत इव विष्वक् प्रवर्षितुम् ॥१८॥ चर्मरत्नमधस्तेने राज्ञा द्वादशयोज नीम् । तद्वदृवं छत्ररत्नं मध्ये च निदधे चमः ॥१९॥ मणिरत्नमुरुध्वान्तध्वंसाय वसुधाधिपः । पूर्वाचल इवादित्यं छत्रदण्डे न्ययोजयत् ॥२०॥ तरदण्ड इवाराजत्तद्रत्नद्वयसम्पुटम् । ततस्तदादिलोकेऽभूब्रह्माण्डमिति कल्पना ॥२१॥ पूर्वाहणे वापितान शालीनपराहणे च पवित्रामान् । प्रत्यावासं गृहपतिर्भोजनार्थमपूरयत् ॥२२॥ वर्ष वर्ष च निविण्णरूचे मेघकुमारकैः । किराताश्चक्रव]ष न साध्योऽस्मादृशामपि ॥२३॥ भग्नेच्छास्तगिरा म्लेच्छाः शरणं भरतं ययुः । अग्निना किल दग्धानामग्निरेव महौषधम् ॥२४॥ ततश्चाजय्यमजयसिन्धोरुत्तरनिष्कुटम् । स्वाम्यादेशेन सेनानीः संसारमिव योगवित् ॥२५॥ कैश्चित्प्रयाणकैर्गच्छन् गजेन्द्र इव लीलया । नितम्ब दक्षिणं क्षुद्रहिमाद्रः प्राप भूपतिः ॥२६॥ उद्दिश्य (१) महेच्छेन । शालीनपराईका । किराताश्कल दग्धानामवि योगवित ॥४६॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगमाहात्म्यम् ॥४७॥ क्षुद्रहिमवत्कुमारं तत्र चार्षभिः । चक्रेऽष्टम कार्यसिद्धेस्तपो मङ्गलमादिमम् ॥२७॥ गत्वाष्टामान्ते हिमवत्पर्वत त्रिरताडयत् । साटोपो रथशीर्षेण शीर्षण्यः पृथिवीभुजाम् ।।२८|| भरतेशस्ततः क्षुद्रहिमवगिरिमूर्द्धनि । द्वासप्तति योजनानि नामाङ्क वाणमक्षिपत ॥२९॥ बाणमालोक्य हिमवत्कुमारो ऽप्येत्य सत्वरम् । भरताज्ञां स्वशिरसा शिरस्त्राणमिवाग्रहीत् ॥३०॥ गत्वा ऋषभकूटाद्रिमृषभस्वामिभूस्ततः । जघान रथशी पेण त्रिदन्तेनेव दन्तिराट् ॥३१॥ अवसर्पिण्यां तृतीयारप्रान्ते भरतेऽस्म्यहम् । चक्रीति वर्णान् काकिण्या तत्पूर्वकटकेऽलिखत् ॥३२॥ ततो व्यावृत्त्य सद्वृत्तः स्कन्धावारं निजं ययौ । चकाराष्ट्रमभक्तान्तपारणं च महीपतिः ॥३३॥ ततश्च क्षुद्रहिमवत्कुमारस्य नरेश्वरः । अष्टाहिकोत्सवं चक्रेऽनुरूपं चक्रिसम्पदः॥३४॥ ततो निववृते चक्रवर्ती चक्रपथानुगः । सिन्धुगङ्गान्तरं कुर्वन् सङ्कटं विपुलैर्बलैः ॥३५॥ नितम्बमुत्तरमथ वैताढयाद्रेरवाप सः । तत्र स्वस्थपरीवारं स्कन्धावारं न्यधत्त च ॥३६॥ ततो नमिविनम्याख्यौ विद्याधरपती प्रति । आदिदेश विशामीशो मार्गणं दण्डमार्गणम् ॥३७॥ वैताढयश्रृङ्गादुत्तीर्य कुपितौ दण्डयाचनात् । आजन्मतुयुयुत्सू तौ विद्याधरवलावृतौ ॥३८॥ कुर्वन्मणिविमानैर्या बहुसूर्यमयीमिव । प्रज्वलद्भिः प्रहरणैस्तडिन्मालामयीमिव ॥३९॥ उद्दामदुन्दभिध्वानघघोषमयी मिव । विद्याधरवलं व्योमन्यपश्यद्भरतस्ततः ॥४०॥ दण्डार्थिन् दण्डमस्मत्तस्त्वं गृह्णासीति भाषिणी । आहवायाहयेतां तौ विद्यादृप्तौ महीपतिम् ॥४१॥ अथ ताभ्यां ससैन्याभ्यां प्रत्येकं युगपच्च सः । युयुधे विविधेयुद्धयुद्धाा यजयश्रियः ॥४२॥ युधा द्वादशवार्षिक्या विद्याधरपती जितौ । प्राञ्जली प्रणिपत्यैवं भरताधीशमूचतुः ॥४३॥ रवेरुपरि किं तेजो वायोरुपरि को जवी । मोक्षस्योपरि किं सौख्यं कश्च शूरस्तवोपरि ॥४४॥ ॥४७॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगमाहात्म्यम् ऋषभो भगवान् साक्षादद्य दृष्टस्त्वमार्षभे । अज्ञानाद्योधितोऽस्माभिः कुलस्वामिन् सहस्व तत् ॥४५॥ किरीट इव नो मूर्ध्नि मण्डनं तब शासनम् । कोशो वपुरपत्यानि सर्वमन्यच्च तावकम् ॥४६॥ भक्तिगर्भमिति प्रोच्य भरतेशाय दत्तवान् । विनम्रो विनमिर्नारीरत्नं रत्नोच्चयं नमिः ॥४७॥ ततो राज्ञा विसृष्टौ तौ राज्यान्यारोप्य मनुषु । विरक्तावृषभेशांहिमूले जगृहतुव्रतम् ॥४८॥ ततोऽपि चलितवतश्चक्ररत्नस्य पृष्ठतः । गच्छन्नासादयामास राजा मन्दाकिनीतटम् ॥४९॥ उत्तरं निष्कुटं गारगं सुषेणोऽप्यभिषेणयन् । तरसा साधयामास किमसाध्य महात्मनाम् ॥५०॥राजाप्यहमभक्तेन गङ्गादेवीमसाधयत् । आनर्च भरतं सापि देवता रुपायनैः ॥५१॥ ततो गङ्गानदीकूले कमलामोदमालिनि । वासागार इवोवास वसुमत्येकवासवः ॥५२॥ भरतं रूपलावण्यकिङ्करीकृतमन्मथम् । तत्रावलोक्य गङ्गापि प्राप क्षोभमयी दशाम् ॥५३॥ विराजमाना सर्वाङ्ग मुक्तामयविभूषणैः । वदनेन्दोरनुगतैस्तारैस्तारागणेरिव ॥५४॥ वस्त्राणि कदलीगर्भत्वक्सगर्भाणि विभ्रती । स्वप्रवाहपयांसीव तद्रूपपरिणामतः ॥५५॥ रोमाञ्चकञ्चकोदश्चत्कुचस्फुटितकञ्चका । सद्यस्तरङ्गितापाङ्गा गङ्गा भरतमभ्यगात् ॥५६॥ (त्रिभिविशेषकम्) प्रेमगद्गदवादिन्या गाढमभ्यर्च्य पार्थिवः। रिरंसमानया निन्ये तया निजनिकेतनम्।।५७।। भुञ्जानो विविधान् भोगांस्तया सह महीपतिः । एकाहमिव वर्षाणां सहस्त्रं सोऽत्यवाहयत् ॥५८॥ गुहां खण्ड प्रपाताख्यामखण्डितपराक्रमः । ततः स्थानान्नृपः प्राप करटीव वनाद्वनम् ॥५९॥ कृतमालकवत्तत्र नाटयमालमसाधयत् । अष्टमेन नृपस्तद्वत्तस्य चाष्टाह्निकां व्यधात् ॥६०॥ सुषेणोद्घाटितद्वारकपाटां तां गुहां नृपः । प्रावि शदक्षिणं तस्या द्वारमुज्जघटे स्वयम् ॥६१॥ निर्ययौ तद्गुहामध्यात्केशरीव नरेश्वरः । स्कन्धावारं च निदधे ॥४८॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम्. योगमाहात्म्यम् ॥४९॥ गाङ्गे रोधसि पश्चिमे ॥६२॥ नवापि निधयो नागकुमाराधिष्ठितास्तदा । गङ्गाकूलमनुप्राप्तं राजानमुपतस्थिरे ॥६३॥ इत्यूचुस्ते वयं गङ्गामुखमागधवासिनः । आगतास्त्वां महाभाग भवद्भाग्यवंशीकृताः ॥६॥ यथाकाममविश्रान्तमुपभुइक्ष्व प्रयच्छ च । अपि क्षीयेत पाथोऽब्धौ न तु क्षीयामहे वयम् ॥६५॥ सहसैनवभिर्यक्षः किङ्करैरिव तावकैः । आपूर्यमाणाः सततं चक्राष्टकप्रतिष्ठिताः ॥६६॥ द्वादशयोजनायामा नवयोजनविस्तृताः । भूमध्ये सञ्चरिष्यामो देव त्वत्पारिपार्श्विकाः ॥६७॥ (युग्मम् ) सेनापति सुषेणोऽपि गङ्गादक्षिणनिष्कुटम् । महावनं महावायुरिवोन्मूल्य समाययो ॥६८॥ समासहसः षष्टयैवं जित्वा षटूखण्डमेदिनीम् । चक्रमार्गानुगोऽयोध्यां जगाम जगतीपतिः ॥६९॥ ततो द्वादशभिर्व - रागत्यागत्य पार्थिवैः । प्रचक्रे चक्रवर्तित्वाभिषेको भरतेशितुः ॥ ७० ॥ कुर्वता स्वकुटुम्बस्य सारं च ददृशे कृशाम् । सुन्दरीं चास्थिभूतां च चुकोप भरतेश्वरः ॥ ७१ ।। ऊचे प्राहरिकान् किं रे मद्गेहे नास्ति भोजनम् यदेवमीदृशी जाता अस्थिचर्ममयी कथम् ॥७२॥ स्वामिन् विजययात्राभूत्तव तावत्प्रभृत्यपि । आचामाम्लान्यविश्रान्तमकार्षीत्सुन्दरी यतः ॥७३ ॥ अत्रान्तरे च भगवान् विहृत्य वसुधातले । भगवान् समवासादिष्टापदगिरौ ततः ॥ ७४ ।। श्रुत्वा च भरताधीशः स्वामिवन्दनहेतवे । आगात्तद्देशनां श्रुत्वा व्रतं जग्राह सुन्दरी ॥ ७५ ॥ भ्रातृननागतान् ज्ञात्वा तस्मिन्नपि महोत्सवे । तेषामेकैकशो दृतान् प्राहिणोद्भरतेश्वरः ॥ ७६ ॥ राज्यानि चेन्समीहध्वे सेवध्वं भरतं ततः। दुतैरित्युदिताः सर्वेऽप्यालोच्यैवावदन्निदम् ।। ७७ ॥ विभज्य राज्य दत्तं नस्तातेन भरतस्य च । संसेव्यमानो भरतोऽधिकं किं नः करिष्यति ॥ ७८ ॥ समापतन्तं कि काले कालं ॥४९॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥५०॥ योगमाहात्म्यम् प्रस्खलयिष्यति । किं जराराक्षसी देहग्राहिणीं निग्रहीष्यति ॥ ७९ ॥ बाधाविधायिनः कि वा व्याधिव्याधान् हनिष्यति । यथोत्तरं वर्द्धमानां तृष्णां वा दलयिष्यति ॥८॥ ईदृसेवाफलं दातुं न चेद्भरत ईश्वरः । मनुष्यभावे सामान्ये तहि कः केन सेव्यताम् ॥८१।। प्राज्यराज्योऽप्यसन्तोषादस्मद्राज्यं जिघृक्षति । स्थाम्ना चेत्तद्वयमपि तस्य तातस्य सूनवः ।। ८२ ।। अविज्ञपय्य तातं तु सोदर्येणाग्रजन्मना । दुत त्वत्स्वामिना योधुं न वयं प्रोत्सहामहे ॥ ८३ ॥ ते दृतानभिधायैवमृषभस्वामिनं ययुः । नत्वा भरतसदिष्टं तच्च सर्व व्याजिहापन् ॥८४॥ अम्लानकेवलादर्शसंक्रान्ताशेषविष्टपः । कृपावान् भगवानादिनाथोऽपीत्यादिदेश तान् ॥ ८५ ॥ अनेकयोनिसम्पातानन्तबाधानिबन्धनम् । अभिमानफलेवेयं राज्यश्रीः सापि नश्वरी ॥ ८६ ॥ किश्च या स्वःसुखस्तृष्णा नाटयत्प्राग्भवेषु वः । साङ्गारकारकस्येव मर्त्य भोगैः कथं त्रुटेत् ॥ ८७ ।। अङ्गारकारकः कश्चिदादाय पयसो दृतिम् । जगाम कर्तुमङ्गारानरण्ये रीणवारिणि ॥८८॥ सोऽङ्गारानलसन्तापान्मध्यहातपपोषितात् । उद्भतया तृपाक्रान्तः सर्च दृतिपयः पपौ ॥ ८९ ॥ तेनाप्यच्छिन्नतृष्णः सन् सुप्तः स्वप्ने गृहं गतः। आलूकलशनन्दानामुदकान्यभितोऽप्यपात् ॥ ९० ॥ तज्जलैरप्यशान्तायां तृष्णायामग्नितैलवत् । वापीकूपतडागानि पायंपायमशोषयत् ।। ९१ ।। तथैव तृषितोऽथापात्सरितः सरितां पतीन् । न तु तस्य तृपादृटयनारकस्येव वेदना ।। ९२ ।। मरुकूपे ततो यातः कुशपूलं स रज्जुभिः । बध्ध्वा चिक्षेप पयसे किमार्त्तः कुरुते न हि ॥ ९३ ॥ दूराम्बुत्वेन कृपस्य मध्येऽपि गलिताम्बुकम् । निश्चोत्य पूलं द्रमकः स्नेहप्रोतमिवापिबत् ।। ९४ ॥ न च्छिन्ना यार्णवाद्येस्तृट् छेद्या पूलाम्भसा न सा । तद्वद्वः स्वः सुखाच्छिन्ना छेद्या राज्यश्रिया किमु ॥९५|| अमन्दानन्दनिःस्यन्दिनिर्वाणप्राप्तिकार (१) तत्स्वरूपं व्यजिज्ञपन् । तृषाक्रान्तः सर्व कामगारानरण्ये राणवासियभोगैः कथं जुटेत गारवरी ॥ ८६ ॥ किञ्च १५०॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगमाहात्म्यम् ॥५१॥ णम् । वत्साः संयमराज्य तद्युच्यते वो विवेकिनाम् ॥९६।। तत्कालोत्पन्नवैराग्यवेगा भगवदन्तिके । तेऽष्टानवतिरप्याशु प्रवज्यां जगृहुस्ततः॥९७।। अहो धैयमहो सत्त्वमहो वैराग्यधीरिति । चिन्तयन्तस्तत्स्वरूपं दूता राज्ञे व्यजिज्ञपन् ॥९८ तत् श्रुत्वा भरतस्तेषां राज्यानि जगृहे स्वयम् । लाभाद्विवादितो लोभो राजधर्मो ह्यसौ सदा||९९।। अथ विज्ञपयामास सेनानीभरतेश्वरम् न चक्रं चक्रशालायां विशत्यद्यापि नः प्रभो ॥४०॥ स्वामिन् दिग्विजये कश्चिदाज्ञाबाह्यो नृपः कचित् । विवर्त्तते डोल इव घरट्टे भ्रमति प्रभो ॥१॥आ ज्ञातं भरतोऽवादील्लोकोत्तरपराक्रमः। अस्मदन्धुर्महाबाहुरेको बाहुबलिबली ॥२॥ एकतो गरुडश्चैकोऽन्यतोऽप्यहिकुलानि च । मृगारिको यत्कुर्यात्कुर्यान्मृगकुलं न तत् ॥३॥ एकतः संहताः सर्वे देवदानवमानवाः। तथान्यतो बाहुबलि: प्रतिमल्लो न विद्यते ॥४॥ एकतश्चक्रशालायां चक्रं न प्रविशत्यदः । नेच्छत्याज्ञामन्यतो (मितो) बाहुः सङ्कटे पतितोऽस्म्यहम् ॥५॥ किंवा बाहुबलिः सोऽयमाज्ञा कस्यापि मन्यते । सहते नाम पर्याणं केसरी किं कदाचन ॥६॥ एवं विमृशतस्तस्य सेनानीजगदे ह्यदः । स्वामिस्त्वद् (स्तव ब) लस्याग्रे गेलोक्यं च तृणायते ॥७॥वैमात्रेयं कनीयांसमथ बाहुबलिं प्रति । दृतं तक्षशिलापुर्य्या प्रेषयामास पार्थिवः ॥८॥ शैलश्रृङ्गे सिंहमिवोत्तुङ्गसिहासने स्थितम् । नत्वा बाहुबर्षि दुतो युक्तिस्यूतमवोचत ।।६॥ त्वमेकः श्लाध्यसे यस्य ज्येष्ठो भ्राता जगज्जयी । षट्खण्डभरताधीशो लोकोत्तरपराक्रमः॥१०॥ त्वद्भातुश्चक्रवर्त्तित्वाभिषेके के महीभुजः । मङ्गल्योपायनकराः करदीभूय नाययुः ॥११॥ सूर्योदय इवाम्भोजखण्डस्य भरतोदयः । श्रिये तवैव किन्त्वस्याभिषेके न त्वमागमः॥१२।। ततः कुमार भवतोऽसमागमनकारणम् । ज्ञातुं राज्ञा नयज्ञेनाज्ञापितोऽहमिहागमम् ॥१३॥ नागा यद्यार्जवेनापि तत्र कोऽपि जनः पुनः । तवाविनीततां Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् योगमाहात्म्यम् ॥५२॥ ते यच्छिद्रान्वेषिणः खलाः ॥१४॥ पिशुनानां प्रवेशं तद्यत्नागोपयितुं तव । आगन्तुं युज्यते तत्र का त्रपा स्वाम्युपासने ॥१५॥ भ्रातेति यदि निर्भीको नागास्तदपि नोचितम् । आज्ञासारा न गृह्यन्ते ज्ञातेयेन महीभुजः ॥१६॥ अयस्कान्तैरिवायांसि देवदानवमानवाः । कृष्टास्तेजोभिरधुना ह्यकं भरतमन्वगुः ॥१७॥ यम - सनदानेन वासवोऽपि सखीयति । सेवामात्रेण तं हन्तानुकूलयसि किं नहि ॥१८॥ वीरमानितया यद्वा राजानमवमन्यसे त्वं हि तस्मिन् ससैन्योऽपि समुद्रे सक्तुमुष्टिवत् ॥१९॥ लक्षाश्चतुरशीतिस्तद्गजाः शक्रेभसन्निभाः । सह्याः केनाभिसर्पन्तः पर्वता इवा जङ्गमाः ॥२०॥ तावतोऽश्वान् रथांचास्य विष्वक प्लावयतो महीम् । कल्लो लानिव कल्पान्तोदधेः कः स्खलयिष्यति ॥२१॥ तस्य षण्णवतिग्रामकोटिभर्तः पदातयः । कोट्यः षण्णवतिः सिंहा इव त्रासाय कस्य न ॥२२॥ एकः सुषेणसेनानीर्दण्डपाणिः समापतन् । कृतान्त इव कि शक्यः सोढुं देवासुरैरपि ॥२३॥ अमोघं बिभ्रतश्चक्रं चक्रिणो भरतस्य तु । सूर्यस्यैव तमस्तोमः स्तोकिकैव त्रिलोक्यपि ॥२४॥ तेजसा वयसा ज्येष्ठो नृपश्रेष्ठः स सर्वथा । राज्यजीवितकामेन सेव्यो बाहुबले त्वया ॥२५॥ अथ बाहुबलिर्बाहुबलापास्तजगदलः । ऊचे भ्रूभगभृद्वीरध्वानोऽर्णव इवापरः ॥२६।। युक्तं यदुक्तं भवता लोभेन क्षोभण वचः । दृताः खलु यथावस्थस्वामिवाचिकवाचिनः ॥२७॥ सुरासुरनरेन्द्रायों इन तातोत्तमविक्रमः । श्लाघाहेतुर्मे भरतः कीर्तितो दूत नूतनः ॥२८॥ करदीभूय भूपाला नागच्छन्तु कथं नु तम् । दृश्यते न त्वसौ यस्य भ्राता बाहुबलिबली ॥२९॥ आवयोर्ननु मार्तण्डपङ्गरुट्खण्डयोरिख । किं न स्याव्यवहितयोरपि प्रीतिः परस्परम् ॥३०॥ सदा मनसि तिष्ठामस्तस्य भ्रातुरहो वयम् । गत्वा किमतिरिच्येत प्रीतिनैसर्गिकी हि नः (१) न तातो न च विक्रमः । ॥५२॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगमाहात्म्यम् ॥५३॥ ॥३१॥ आर्जवानागताः सत्यं कौटिल्यं भरतेन किम् । विमृश्यकारिणः सन्तो यन्ते कि खलोक्तिभिः॥३२॥ एक एवाबयोः स्वामी भगवानादितीर्थकृत् । तस्मिन्विजयिनि स्वामी कथङ्कारं ममापरः ॥३२॥ भ्रातास्म्यभीः स चाज्ञेश आज्ञापयतु यद्यलम् । ज्ञातिस्नेहेन किं वज्र वज्रेण न विदायते ॥३४॥ सुरासुरनरोपास्त्या प्रीतोऽस्त्वेष मयास्य किम् । मार्ग एव क्षमः स्तम्बे रथः सज्जोऽपि भज्यते॥३५॥ तातभक्तो महेन्द्रश्चज्ज्येष्ठं तं तातनन्दनम् । आसयत्यासनस्याः स किं तेनापि दृप्यति ॥३६॥ तेऽन्ये तस्मिन् समुद्रे ये ससैन्याः सक्तुमुष्टिवत् । तेजोभिर्दुःसहोऽहं तु हन्त स्यां वडवानलः ॥३७॥ पत्तयोऽश्वा रथा नागाः सेनानीर्भरतोऽपि च । मयि सचे प्रलोयन्तां तेजांसीवाकतेजसि ॥३८॥ याह दुत स एवैतु राज्यजीवितकाम्यया । तातदत्तशितुष्टेन मयैवोपेक्षितास्य भूः ||३९॥ दृतेनागत्य विज्ञप्ते यथार्थे तेन तत्क्षणम् । युयुत्सुर्बाहुबलिना भरतोऽथाभ्यषेणयत् ॥४०॥ छादयन्मेदिनीं सैन्यैर्घनत्ता घनैरिव । महाबाहुस्ततो वाहुबलिर्भरतमभ्यगात् ॥४१॥ उभयोरपि वाहिन्योर्महासुभटयादसोः। आन्योऽन्यास्फालिताखोम्मिः सम्फेटोऽभृद्भयानकः ॥४२॥ तत्सैनिकानामन्योऽन्यं कुन्ताकुन्तिशराशरि । आमन्त्रितश्राद्धदेवः प्रावर्तत रणक्षणः ॥४३।। पर्यस्याशेषसैन्यानि तूलानीव महाबलः । अभ्येत्य भरत बाहुबलिरेवमवोचत ॥४४॥ हस्त्यश्वपत्तिघातेन कि मुधा पापदायिना । यद्यलं तत्त्वमेकाकी युद्धद्यस्वैकाकिना मया ॥४५॥ एकाङ्गाजि प्रतिज्ञाय द्वाभ्यामपि निवारिताः । सैनिका उभयेऽप्यस्थुः पश्यन्तः साक्षिणो यथा ॥४६॥ ततो दृग्युद्ध आरव्धे निर्निमेषविलोचनौ । देवैरपि नृदेवौ तौ देवाविति वितकितौ ॥४७॥ भरते निर्जिते तत्र साक्षीभूतामरं तयोः वाग्युद्धमभवत्पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहात् ॥४८॥ तत्रापि हीनवादित्वं भरते (१) सभ्यीभूतामरं तयोः ॥५३॥ DATE Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥५४॥ समुपेयुषि । भृभुजौ भुजयुद्धेन युयुधाते महाभुजौ ॥ ४९ ॥ भरतो लम्बमानोऽथ बाहौ बाहुबलेः स्थिरे । शाखा मृगो महाशाखिशाखायामिव वीक्षितः ॥ ५० ॥ भरतस्य महाबाहोरपि बाहुबलिर्बली । एकेन बाहुना बाहुं लतानालमनामयत् ॥ ५१ ॥ प्रारब्धे मुष्टियुद्धेऽथ पेतुर्भरतमुष्टयः । बाहुबलौ समुद्रोम्मिघाता इव तटाचले ||५२ || आहतो बाहुबलिना वज्रकल्पेन मुष्टिना । पपात भरतः पृथ्व्यां स्वसैन्याऽश्रुजलैः सह ॥५३॥ मूर्च्छान्ते भरतो बाहुबलिं दण्डेन दर्पितः । ताडयामास दन्तीव तिर्यग्दन्तेन पर्वतम् ॥५४॥ दण्डेन बाहुबलिना निहतो भरतस्ततः । भूम्यामाजानुमग्नोऽस्थानिखात इव कीलकः || ५५|| किमेष चक्रवर्त्तीति भरतः कृतसंशयः। यावत्संस्मृतवांश्चक्र तावदागात्करेऽस्य तत् ||५६|| भूमेर्निःसृत्य कोपेन महता भरतेश्वरः । चिक्षेप प्रज्वलच्चक्रं कृताहारखं बलैः ॥५७॥ तच्चक्रं पार्श्वतो बाहुवलेर्भ्रान्त्वा न्यवर्त्तत । दैवतानि हि शस्त्राणि स्वगोत्रे प्रभवन्ति न ||५८ || अक्षत्रं प्रेक्ष्य तद्बाहुबलिः कोपारुणेक्षणः । सचक्रं चूर्णयाम्येनमिति मुष्टिमुद क्षिपत् ॥ ५९ ॥ असाविव कषायैधिगहं भ्रातृवधोद्यतः । विजित्य करणग्रामं कषायानेव हन्मि तान् ॥ ६० ॥ इति सञ्जातसंवेग स्तदा तेनैव मुष्टिना । केशानुत्पाटयामास सामायिकमथाददे || ६१|| साधु साध्विति सानन्दं व्याहरन्तः सुरा सुरा । उपरिष्टाद्वाहुबलेः पुष्पवृष्टि वितेनिरे ॥ ६२ ॥ गत्वा भगवतः पार्श्वे ज्ञानातिशयशालिनाम् । कनीयसां सोदराणां विधास्ये वन्दनां कथम् || ६३ || उत्पन्नकेवलज्ञानस्ततां यास्यामि पर्षदम् । इति तत्रैव मौनेन सोऽस्थाप्रतिमया कृती ||६४ || ( युग्मम्) भरतस्तं तथा दृष्ट्वा विचार्य स्वं कुकर्म च । बभूव न्यश्चितग्रीवो विविक्षुरिव मेदिनीम् ||६५ || शान्तरसं मूर्त्तमिव भ्रातरं प्रणनाम च । नेत्रयोरथुभिः कोष्णैः कोपशेषमिवोत्सृजन् ॥६६॥ योगमाहात्म्यम् ॥५४॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगमाहात्म्यम् ॥५५॥ प्रणमन् भरतस्तस्याऽधिकोपास्तिविधित्सया । नखादशेषु संक्रान्त्या नानारूप इवाभवत् ॥६७॥ सुनन्दानन्दनमुनेगुणस्तवनपूर्विकाम् । स्वनिन्दामित्यथाकार्पोत्स्वापवादगदौषधीम् ॥६८॥ धन्यस्त्वं तत्यजे येन राज्यं मदनुकम्पया । पापोऽहं यदसन्तुष्टो दुर्मदस्त्वामुपाद्रवम् ॥६९।। स्वशक्तिं ये न जानन्ति ये चान्यायं प्रकुर्वते । जीयन्ते ये च लोभेन तेषामस्मि धुरन्धरः ॥७०॥ राज्यं भवतरोर्वीजं ये न जानन्ति तेऽधमाः। तेभ्योऽप्यह विशिष्ये यत्तदमुश्चन विदन्नपि ॥ ७१ ॥ त्वमेव पुत्रस्तातस्य यस्तात पथमन्वगः । पुत्रोऽहमपि तस्य स्यां चेद्भवामि भवादृशः ॥ ७२ ॥ विषादपङ्कमुत्साय पश्चात्तापजलैरिति । तत्पुत्रं सोमयशसं तद्राज्ये स न्यवीविशत ॥ ७३ ॥ तदादिसोमवंशोऽभूच्छाखाशतसमाकुलः । तत्तत्पुरुषरत्नानामेकमुत्पत्तिकारणम् ॥ ७४ ॥ ततो बाहुबलिं नत्वा भरतः सपरिच्छदः । पुरिमयोध्यामगमत्स्वराज्यश्रीसहोदराम् ॥ ७५ ॥ दुस्तपं तप्यमानोऽथ ततो बाहवलिर्मुनिः । वर्षमेकं व्यतीयाय सह प्राग्जन्मकर्मभिः ॥ ७६ ॥ ततश्चामूढलक्ष्येण स्वामिना नाभिसूचना । ब्राह्मी च सुन्दरी चानुज्ञाते तत्पाश्चमीयतुः ॥७७॥ ऊचतुश्च महासत्व समस्वर्णाश्मनस्तव । न युक्तं त्यक्तसङ्गस्य करिस्कन्धाधिरोहणम् ॥७८॥ एवम्भूतस्य ते हन्त कथं ज्ञानं प्ररोहति । अधःस्थितकरीषाग्नेः पादपस्येव पल्लवः ॥७९॥ आत्मनैव विचार्य त्वात्तितीर्घर्भवोदधिम् । हस्तिनोऽस्मादवतर तरण्डादायसादिव ॥८०॥ ततोऽसौ चिन्तयामास कुतस्त्यो हस्तिसङ्गमः । पादपारोहमारूढवल्लीकवपुषो मम ॥८१।। त्यजेन्मुद्रां समुद्रोऽपि चलेयुरचला अपि । इमे तु भगवच्छिष्ये भाषेते न मृषा कचित् ॥८२॥ आः ज्ञातमथवाऽस्त्येष मान एव मतङ्गजः । स एव मे ज्ञानफलं बभञ्ज विनयद्रुमम् ॥८३॥ कथं कनीयसो भ्रातृन्वन्दे ॥५५॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥५६॥ धिगिति चिन्तितम् । तपसा ज्यायसां तेषां मिथ्यादुष्कृतमस्तु मे ॥ ८४ ॥ सुरासुरनमस्यस्य गत्वा भगवतोऽन्तिके । वन्दे कनिष्टानपि तांस्तच्छिष्यपरमाणुवत् ||८५|| अचलत्पादमुत्पाटय यावत्तावदसौ मुनिः । अवाप केवलज्ञानं द्वारं निर्वाणवेश्मनः ||८६|| करामलकवद्विश्वं कलयन् केवलश्रिया । समीपे स्वामिनोऽध्यास्त सदः केवलभास्वताम् ||८७|| भरतोऽपि महारत्नैश्चतुर्द्दशभिराश्रितः । चतुःषष्टिसहस्त्रान्तःपुरो नवनिधीश्वरः ॥८८॥ धर्म्मार्थकामान् सम्राज्यसम्पदल्ले: फलोपमान् । परस्पराविरोधेन यथा कालमसेवत ॥८९ अन्यदा विहरन स्वामी जगामाष्टापदाचलम् । भरतोऽपि ययौ तत्र स्वामिपादान्विवन्दिषुः ॥९०॥ सुरासुरार्च्य समवसरणस्थं जगत्पतिम् । स त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य नमस्कृत्येति तुष्टुवे ॥ ९१ ॥ विश्वासमिव मूर्तिस्थं सद्वृत्तमिव पिण्डितम् । प्रसादमिव निःशेषजगतामेकतः स्थितम् ॥९२॥ ज्ञानराशिमिवाध्यक्षं पुण्यस्येव समुच्चयम् । सर्वलोकस्य सर्वस्वमिवैकत्र समाहृतम् ॥९३॥ वपुःस्थं संयममिवोपकारमिव रूपिणम् । शीलमिव पादचारि क्षमामिव वपुष्मतम् ||१४|| रहस्यमित्र योगस्य विश्ववीर्यमिवैकगम् । सिद्धयुपायमिवावन्ध्यं कौशल्यमिव केवलम् ॥९५॥ मैत्रीमिव मूर्त्तिमतीं सदेहां करुणामिव । मुदितामिव पिण्डस्थामुपेक्षामिव रूपिणीम् ॥९६॥ तपः प्रशमसज्ज्ञानयोगमेकमिवाहृतम् । साक्षाद्वैनयिकमिव सिद्धिं साधारणीमिव ॥ ९७॥ व्यापकं हृदयमिव सर्वासां श्रुतसम्पदाम् नमःस्वस्तिस्वधास्वाहावषडर्थमिवापृथक् ||१८|| विशुद्धधर्मनिर्माण प्रकर्षमिव केवलम् । समस्ततपसां पिण्डीभूतं फलमिवाखिलम् ॥ ९९ ॥ परभागमिवाशेषगुणराशेरनश्वरम् । उपन्नमिव निर्विघ्नं श्रेयो निःश्रेयसश्रियः ||५०० || प्रभावस्यैकधामेव मोक्षस्य प्रतिमामिव । कुलवेश्मेव विद्यानां फलं सर्वाशिषामिव ॥१॥ आर्यवर्य योगमाहात्म्यम् ॥५६॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगमाहात्म्यम् ॥५७॥ चरित्राणामात्मदर्शमिवामलम् । कूटस्थं प्रशममिव जगतो दत्तदर्शनम् ॥२॥ दुःखशान्तेरिव द्वारं ब्रह्मचर्यमिवोज्वलम् । पुण्यरुपनतं जीवलोकस्येवैकजीवितम् ॥३॥ मृत्युव्याघ्रमुखादेतदाक्रष्टुमखिलं जगत् । बाहुं प्रसारितमिव निर्वाणेन कृपालुना ॥४॥ ज्ञानमन्दरसंक्षुब्धज्ञेयाम्भोधेः समुत्थितम् । अपरं पीयूषमिव देहभाजाममृत्यवे ॥५॥ विश्वाभयप्रदानेन समाश्वासितविष्टपम् । शरणं त्वां प्रपन्नोऽस्मि प्रसीद परमेश्वर ॥६॥ तत्र च त्रिजगन्नाथमृषभस्वामिनं ततः । एकाग्रमनसोपासाश्चक्र चक्रधरश्चिरम् ।।७।। अथाद्रौ तत्र साधनां सहखेर्दशभिर्वृतः । दीक्षाकालाद्गते पूर्वलक्षे मोक्षं ययौ प्रभुः ॥८॥ तदा निर्वाणमहिमा १चक्रं शक्रादिभिः सुरैः । अस्तोकशोकः शक्रण भरतेशोऽप्यबोध्यत ॥९॥ चक्रेऽथ २भरतो रत्नमयमष्टापदोपरि । सिंहनिषद्याप्रासादमष्टापदमिवापरम् ॥१०॥ तत्र च स्वामिनो मानवर्णसंस्थानशोभितम् । रत्नोपलमयं बिम्बं स्थापयामास चक्रभृत् ॥११॥ स्वामिशिष्टत्रयोविंशभावितीर्थकृतामपि । यथावन्मानसंस्थानवर्णविम्बान्यसूत्रयत् ॥१२॥ भ्रातृणां नवनवतेरपि तत्र महात्मनाम् । रचयामास रत्नाश्मस्तूपाननुपमान्तृपः ॥१३॥ पुनरेत्य निजां राजधानी राजशिरोमणिः । यथावदाज्यमशिषत्प्रजारक्षणदीक्षितः ॥१४॥ स कमभिर्भोगफलैः प्रेर्यमाणो निरन्तरम् । बुभुजे विविधान्भोगान् साक्षादिव दिवस्पतिः ॥१५॥ नेपथ्यकर्म निर्मातुमपरेधुरगादसौ । मध्ये शुद्धान्तनारीणां ताराणामिव चन्द्रमाः ॥१६॥ तत्र सर्लाङ्गविन्यस्तरत्नाभरणबिम्बितैः स्त्रीजनैयुगपत्प्रेम्णा परिरब्ध इवाभक्त् ॥१७॥ पश्यन्नसौ स्वमादर्शेऽपश्यत्वस्ताङ्गुलीयकाम् । अङ्गुलिं गलितज्योत्स्नां दिवा शशिकलामिव ॥१८॥ ततः (१) प्रभोश्चक्रे मुरामुरैः । (२) ततोऽसौ विदधे । ॥५७॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगमाहात्म्यम् 11५८॥ प्रोद्भिननिर्वेदात्प्रत्यङ्गोज्झितभूषणम् । स्वमपश्यद्गतश्रीकं शीर्णपणमिव दुमम् ॥१९॥ अचिन्तयच्च धिगहो वपुपो भूपगादिभिः । श्रीराहर्येव कुडचस्य पुस्तायैरिख कर्मभिः ॥२०॥ अन्तःक्लिनस्य विष्टायेमलैः स्रोतोभवेहिः । चिन्त्यमानं किमप्यस्य शरीरस्य न शोभनम् ॥२१॥ इदं शरीरं कर्पूरकस्तूरीप्रभृतीन्यपि । दुषयत्येव पाथोदपयांस्यूपरभूरिव ॥२२॥ विरज्य विषयेभ्यो यैस्तेपे मोक्षफलं तपः । तैरेव फलमेतस्य जगृहे तत्त्ववेदिभिः ॥२३॥ इति चिन्तयतस्तस्य शुल्कथ्यानमुपेयुषः। उत्पेदे केवलज्ञानमहो योगस्य जृम्भितम् ॥२४॥ रजोहरणमुख्यानि मुनिचिह्नानि तत्क्षणात् । विनीत उपनीयास्मै नमश्चक्रे दिवस्पतिः ॥२५॥ तद्राज्थेऽकृत तत्पुत्रमादित्ययशसं तदा । यदाद्यादित्यवंशोऽयमद्याप्यस्ति महीभुजाम् ॥५२६॥१०॥ स्यान्मतं युक्तं भरतस्य पूर्वजन्मार्जितयोगसमृद्धिवलक्षपिताशुभकर्मणः कर्मलेशक्षपणाय योगप्रभाववर्णनम् । यस्तु जन्मान्तरेषु अलब्धरत्नत्रयोऽत एवाक्षपितकर्मा मानुषत्वमात्रमप्यप्राप्तवान्, स कथमनन्तकालप्रचितशुभाशुभकर्मनिमूलनमनुभवेत् । तत्राह__ पूर्वमप्राप्तधर्मापि परमानन्दनन्दिता । योगप्रभावतः पाप मरुदेवा परं पदम् ॥११॥ मरुदेवा हि स्वामिनी आसंसारं त्रसत्वमात्रमपि नानुभूतवती किं पुनर्मानुषत्वं तथापि योगबलसमृद्धेन शुल्कध्यानाग्निना चिरसश्चितानि कर्मेन्धनानि भस्मसात्कृतवती । ॥५८॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥५९॥ यदाह -- “ जह? एगा मरुदेवा अच्चतं थावरा सिद्धा" मरुदेवाचरितं चोक्तप्रायम् ॥ ११॥ ननु जन्मान्तरेऽपि अकृतक्रूरकर्मणां मरुदेवादीनां योगबलेन युक्तः कर्म्मक्षयः ये त्वत्यन्तक्रूरकर्माणस्तेषु योगः कुण्ठतामप्यासादयेत् । इत्याह ब्रह्मस्त्रीभ्रूणगोघातपातकान्नरकातिथेः । दृढप्रहारिप्रभृतेर्योगो हस्तावलम्बनम् ॥१२॥ ब्रह्मणो ब्राह्मणस्य स्त्रिया वनिताया भ्रूणस्य गर्भस्य गर्भिण्याश्च गोर्धेनोस्तेषां घातः स एव पातकं तस्मात् । यद्यपि समदर्शिनां ब्राह्मणाब्रह्मणयोः स्त्रीपुरुपयोभ्रूणाभ्रूणयोर्गवागवोर्घातेऽविशेषेण पापबन्धः । यदाहसव्वो न हिसियन्वो जह महिपालो तहा उदयपालो । न य अभयदाणवरणा जणोवमाणेण होयव्वं ॥ १॥ तथापि लोकप्रसिद्ध नुरोधेन ब्रह्मेत्याद्युक्तम् । ये हि लौकिकाः सर्वस्या हिंसायाः पापफलं न मन्यन्ते । तेऽपि ब्रह्मादिघातकस्य महापापीयस्तां मन्यन्त एवेति । नरकातिथेर्दृढप्रहारिप्रभृतेर्योगो हस्तावलम्बनम् तेनैव भवेन मोक्षगमनात् । प्रभृतिग्रहणादन्येऽपि पापकारिणो विदितजिनवचनास्तत एव प्राप्तयोग सम्पदो नरकप्राप्तियोग्यानि कर्माणि निर्मूल्य परमसम्पदमासादितवन्तो द्रष्टव्याः । यदाह - (१) यथा एका मरुदेवाऽत्यन्तं स्थावरा सिद्धा (२) सर्वो न हिंसितव्यो यथा महीपालस्तथा उदयपालः । न च अभयदानव्रतिना जनोपमानेन भवितव्यम् ॥ १ ॥ EXCOM OR O योग माहात्म्यम् 114811 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगमाहात्म्यम् ॥६॥ स्कूरा वि सहावेणं विसयविसवसाणुगा वि होऊणं । भावियजिणवयणमणा तेलुक्कसुहावहा होति ॥१॥ इति । तथाहि___ कस्मिंश्चिनगरे कश्चिदासीदद्विजातिरुद्भटः । प्रजासु कर्तुमन्यायान् प्रावर्तत स पापधीः ॥११॥ आरक्षपुरुषैरेष ततो निर्वासितः पुरात् । व्याधहस्तमिव श्येनश्चौरपल्लीं जगाम च ॥२॥ नृशंसचरितैस्तैस्तैरात्मनस्तुल्य इत्यसौ। चौरसेनाधिपतिना पुत्रत्वेनान्वमन्यत ॥३॥ चौरसेनापतौ तस्मिन्नवसानमुपेयुषि । तत्पुत्र इति तत्स्थाने स बभूव महाभुजः ॥४॥ निष्कृपं प्रहरत्येष सर्वेषां प्राणिनां यतः । ततो दृढप्रहारीति नाम्ना निजगदे जनैः ॥५॥ अन्येद्युर्विश्वकुट्टाकलुण्टाकभटपेटकैः स कुशस्थलनामानं ग्राम लुण्टयितुं ययौ ॥६॥ ब्राह्मणो देवशर्मेति तत्र दारियविद्वतः। अवकेशीफलमिव क्षीरानं याचितोऽर्भकैः ॥७॥ पर्यटच सकले ग्रामे कापि कापि स तन्दुलान् । कापि कापि पयोऽभ्यर्थ्य परमानमपीपचत् ॥८॥ नद्यां स्नातुं ययावेष यावत्तावत् तदोकसि । ते क्रूरतस्कराः पेतुर्देवं दुर्बलघातकम् ॥९॥ तेषामेकतमो दस्युरपश्यत्तस्य पायसम् । क्षुधातुरः प्रेत इव तदादाय पलायितः ॥१०॥ आच्छिद्यमाने तस्मिस्तु पायसे जीवितव्यवत् । क्रन्दन्ति डिम्भरूपाणि गत्वा पितरमूचिरे ॥११॥ व्यात्ताननानामस्माकं दस्युवृन्देन पायसम् । जडू प्रसारितदृशामनिलेनेव कजलम् ॥१२॥ तदाकण्य वचो विप्रः क्षिप्रं दिनः क्रुदग्निना । यमदूत इवादाय परिघं पर्यधावत ॥१३॥ सरोषराक्षसावेशात्समुत्पादितदोबलः । हन्तुं प्रववृते दस्यून् परिषेण पशूनिव ॥१४॥ तेनावकरवत्साक्षामिप्यमाणानवेक्ष्य तान् । वित्रस्यतस्तिरस्कुर्वन् (२) कूरा अपि स्वभावेन विषयविषवशानुगा अपि भूत्वा । भावितजिनवचनमनसः त्रैलोक्यसुखावहा भवन्ति ।।१।। LLEOLL Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् प्रहारिकथा दधावे तस्करेश्वरः ॥१५॥ तस्यापि धावतो दैवाद्गतिविघ्नविधायिनी । निरोधुं दुर्गतिमिव मार्गे गौरन्तरेऽभवत ॥१६॥ करालकरवालैकप्रहारेण वराकिकाम् । जघान नृजघन्यस्तां चण्डाल इव निघृणः ॥१७॥ तस्याभ्यापततो रोरद्विजातेः स शिरो भुवि । पनसद्रोः फलमिवापातयत्खङ्गायष्टिना ॥१८। आः पाप निष्कृप कृतं किमेतदिति वादिनी । बाला मासवती तं चाभ्यागात् द्विजकुटुम्बिनी ॥१९॥ तस्या वृक इव च्छाग्या गुविण्याः सोऽतिदारुणः। कुष्माण्डदारमुदरं दारयित्वा द्विधाकरोत् ॥२०॥ ततो जरायुमध्यस्थं तस्या गर्भ द्विधाकृतम् । स स्फुरन्तं निरैक्षिष्ट लताया इव पल्लवम् ॥२१॥ तथा सम्पश्यमानस्य तस्य विहलचेतसः। कृपा गतकृपस्यापि जज्ञे वल्कमिवाश्मनः ॥२२॥ ततो हा तात तातेति हा मातर्मातरित्यपि । विलपन्तः समाजग्मुस्तत्कालं द्विजबालकाः ॥२३॥ नग्नान् भुग्नानतिक्षामान् १श्यामानतिमलेन च । दृष्ट्वा दृढप्रहारी तान् सानुतापमचिन्तयत् ॥२४॥ हहा घ्नता निघणेन दरिद्रौ दम्पती मया । अमी बाला हतास्तोयशोषे जीवन्ति किं झपाः ॥२५॥ क्रूरेण कर्मणानेन नेष्यमाणस्य दुर्गतिम् । अघभीतस्य मे कः स्यादुपायः शरणं च कः ॥२६॥ इति सश्चिन्तयन्नेव वैराग्यावेगभागसं । एनोगदागदङ्कारान्साधूनुद्यान ऐक्षत ॥२७॥ नत्वोवाचेत्यहं पाप्मा भाष्यमाणोऽपि पाप्मने । पङ्किलः स्पृश्यमानोऽपि पङ्किली कुरुते परम् ॥२८॥ येषामेकतरमपि नरकायैव तान्यहम् । ब्रह्मस्त्रीभ्रणगोपातपातकान्यकृपो व्यधात(म्) ॥२९॥ मामीदृशमपि त्रातुं साधवो यूयमर्हथ । मेघानां वर्षतां स्थानमस्थानं वा न किश्चन ॥३०॥ अथ ते साधवस्तस्मै यतिधर्ममुपादिशन् । सोऽथ च्छत्रमिवोष्णालुः पापभीरुस्तमाददे ॥३१॥ १ दिग्धानतिमलेन च Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रहारिकथा न भोक्ष्ये तत्र यत्राहि स्मरिष्याम्यस्य पाप्मनः । करिष्ये सर्वथा शान्ति सोऽग्रहीदित्यभिग्रहौ ॥३२॥ पूर्वावस्कन्दिते तस्मिन्नेव ग्रामे कुशस्थले । कर्मक्षयं चिकीर्षुः स विजहार महामनाः ॥३३॥ स एवायं कृतच्छया पापः पापीयसामहो । इत्यतयंत लोकेन स महात्मा दिवानिशम्॥३४॥ गोभ्रणद्विजघात्येष इति लोकेन जल्पता। विशन गृहेषु भिक्षार्थ श्वेव लौष्टैरकुटयत ॥३५॥ स्मार्यमाणः स तत्पापं प्रति वासरमप्यसौ । शान्तस्वान्तो न भुङ्क्ते स्म । किवा सत्त्वस्य दुष्करम् ॥३६॥ कचित्प्रातः कचिन्मध्यंदिने सायमपि कचित् । स्मार्यमाणः स तत्पापं कुत्राप्यति न भुक्तवान् ॥३७॥ लोष्टुभिर्यष्टिभिः पांशुवृष्टिभिमुष्टिभिर्जनाः । यजघ्नुः सोधिसेहे तत्सम्यक् चैवमभावयत् ॥३८॥ आत्मन् यादृकृतं कर्म तादृशं फलमाप्नुहि । यादृक्षमुप्यते बीजं फलं तादृक्षमाप्यते ॥३९॥ यदमी निरनुक्रोशमाक्रोशान्मयि तन्वते । अयत्नेनैव सिद्धा तन्ममेयं कर्मनिर्जरा ॥४०॥ मय्याक्रोशाः प्रमोदाय यथेषां मे तथैव हि । यत्प्रीत्या सहमानस्य कर्मक्षयविधायिनः ॥४१॥ यन्मां भर्त्सयतामेषां सुखमुत्पद्यतेऽद्य तत् । उत्पद्यतां भवे हन्त दुर्लभः सुखसङ्गमः॥४२॥ अमी मदीयं दुष्कर्मग्रन्थि परुषभाषितैः । क्षारैखि चिकित्सन्तो नितान्तं सुहृदो मम ॥४३॥ कुर्वन्तु ताडनं हन्त ममैते यदिदं किल । स्वर्णस्येवाग्निसन्तापो मलिनत्वमपोहति ॥४४॥ कर्षन् दुर्गतिगुप्तेर्मा स्वं प्रक्षिपति तत्र यः । कथं कुप्याम्यहं तस्मै प्रहारानपि कुर्वते ॥४५॥ मत्पापानि व्यपोहन्ति निजपुण्यव्ययेन ये । कथङ्कारमिवैतेभ्योऽपरः परमबान्धवः ॥४६॥ वधबन्धादि हर्षाय यन्मे संसारमोचनम् । तदेवानन्-संसारहेतुरेषां दुनोति माम् ॥४७॥ केचित्परेषां तोषाय त्यजन्त्यर्थान्वपूंष्यपि । एषां प्रीतिदमाक्रोशहननादि कियन् मम ॥४८॥ ६२॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् चिलाती पुत्रकथा ॥६३।। तर्जितोऽहं हतो नाऽस्मि हतो वा नास्मि मारितः । मारितो वा न मे धर्मोऽपहृतो बान्धवैरिव ॥४९॥ आक्रोशवागविक्षेपो बन्धनं हननं मृतिः । सह्य श्रेयोऽर्थिना सर्व श्रेयो हि बहुविघ्नकम् ॥५०॥ एवं भावयता तेन गर्हता स्वं च दुष्कृतम् । निर्दग्धः सर्वतः कर्मराशिः कक्ष इवाग्निना ॥५१॥ अम्लानं केवलज्ञानमथ लेभे सुदुर्लभम् । अयोगिकेवलिगुणस्थानस्थो मोक्षमाप च ॥५२॥ योगप्रभावेण दृढप्रहारी यथैष नरकातिथित्वम् । पदं प्रपेदे परमं तथान्योऽप्यसंशयानः प्रयतेत योगे ॥५॥१२॥ पुनरुदाहरणान्तरेण योगश्रद्धामेव वर्द्धयति । तत्कालकृतदुष्कर्मकर्मठस्य दुरात्मनः । गोप्ने चिलातीपुत्रस्य योगाय स्पृहयेन कः ॥१३॥ तत्काल तत्क्षणं कृतं यदुष्कर्म स्त्रीवधलक्षणं तेन कर्मठः कर्मशूरस्तस्य दुरात्मन इति पापकरणकालापेक्ष चिलातीपुत्राभिधानस्य गोप्ने दुर्गतिपातरक्षकाय योगाय को न स्पृहयेत् सर्व एव स्पृहयेदित्यर्थः । तथाहि क्षितिप्रतिष्ठे नगरे यज्ञदेवोऽभवदद्विजः । निनिन्द पण्डितम्मन्यः स सदा जिनशासनम् ॥१॥ असहिष्णुश्च तां निन्दां जिगीषुः कोऽपि चेल्लकः । गुरुणा वार्यमाणोऽपि तं वादार्थमवीवदत् ॥२॥ ईदृशी च प्रतिज्ञा भूद्वादाधिष्ठितयोस्तयोः । येन यो जेष्यते तस्य शिष्यत्वं स करिष्यति ॥३॥ आनीतो निग्रहस्थानं बुद्धिकौशलशालिना । विवदन्वादिना तेन यज्ञदेवः पराजितः ॥४॥ चेल्लको जितकाशी तु यज्ञदेवद्विजन्मना । तदा पूर्व(१) स दुर्लभम् Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् કા प्रतिज्ञातां परिव्रज्यामजिग्रहत् ||५|| ततः शासनदेव्यैवं यज्ञदेवो व्यबोध्यत । चारित्रं प्रतिपन्नोऽसि ज्ञानश्रद्धानवान्भव ||६|| व्रतं ततः प्रभृत्येष यथावत्पालयन्नपि । निनिन्द वस्त्राङ्गमलं प्राकुसंस्कारो हि दुस्त्यजः ||७|| अशाम्यन् ज्ञातयोऽप्यस्य संसर्गेण महात्मनः । प्रावृषेण्याभ्रसम्पर्केणाहिमांशोरिवांशवः ||८|| अस्य पाणिगृहीती तु नितान्तमनुरागिणी । उज्झाञ्चकार नो रागं नीलीरक्तेव शाटिका ||९|| वश्यो मेऽस्त्विति सा तस्मै पारणे कामेण ददौ । सत्यं रक्ता विरक्ताश्च मारयन्त्येव योषितः ॥ १०॥ क्षीयमाणः कृष्णपक्षेणेव कार्म्मणकर्म्मणा । समुनीन्दुर्ययौ स्वर्गं मण्डलं तरणेखि ||११|| तस्यावसानात् सञ्जातनिर्वेदा सापि गेहिनी । प्रव्रज्यामग्रहीदेकं मानुष्यकतरोः फलम् ||१२|| अनालोच्यैव सा पापं पतिव्यसनसम्भवम् । कालं कृत्वा दिवं प्राप दुष्प्रापं तपसा हि किम् ||१३|| यज्ञदेवस्य जीवोऽथ च्युत्वा राजगृहे पुरे । धनसार्थपतेश्चेटचाश्चिलात्यास्तनयोऽभवत् ॥ १४ ॥ चिलात्याः पुत्र इत्येष चिलातीपुत्रसंज्ञया । आहूयते स्म लोकेन नाम नान्यत्प्रकल्पि - तम् ॥ १५ ॥ यज्ञदेवप्रियाजीवश्च्युत्वाऽनुमुतपश्चकम् । भद्राया धनभार्यायाः सुमुमेति सुताऽभवत् ॥ १६ ॥ धनो नियोजयामास चिलातीतनयं च तम् । सुसुमायाः स्वदुहितुः बालग्राहककर्म्मणि ॥ १७ ॥ aravarrier चक्रेऽसौ श्रेष्ठयभेषीच्च राजतः । स्वामी भृत्यापराधेन यतः स्याद्दण्डभाजनम् || १८ || मन्त्रवित्तं धनश्रेष्ठी सदोपद्रवकारिणम् । गृहान्निर्वासयामास दासेरं दन्दशूकवत् ॥ १९ ॥ सोऽथ सिंहगुहां चौरपल्लीं वल्लीं महासम् । ययौ प्रियागाः प्रीतिहि तुल्यव्यसनशीलयोः ||२०|| स नृशंसो नृशंसेन दस्युवृन्देन सङ्गतः । वायुनेवाग्निरभवदारुणोऽप्यतिदारुणः ॥ २१ ॥ ततः सिंहगुहाधीशे चौरसेनापतौ मृते । चौरसेनापतिः सोऽभूत्त चिराती पुत्रकथा ॥६४॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् चिलाती पुत्रकथा ॥६५॥ दर्थमिव निर्मितः ॥२२॥ यौवनं सुसुमाप्याप्ता रूपादिगुणशालिनी। कलाकलापपर्णाभूत् खेचरीब महीचरी ॥ ॥२३॥ चैलातेयोऽन्यदोचे स्वानस्ति राजगृहे पुरे । श्रेष्ठी धनो ऽनन्तधनो दुहिता चास्य मुसुमा ॥२४॥ तस्करास्तत्र गच्छामो धनं बः सुसुमा तु मे । इति व्यवस्थामास्थाय सोऽगाद्धनगृहं निशि ॥२५॥ प्रयोज्य स्वापनी विद्या कीर्तयित्वा स्वमागतम् । स धनं ग्राहयामास सुसुमा स्वयमग्रहीत् ॥२६॥ सुप्ताशेषपरीवारः सूनुभिः पञ्चभिः समम् । अपमृत्य धनस्तस्थौ नयो नयवतां मसौ ॥२७॥ जीवनाई गृहीत्वा च हृदयेन स सुसुमाम् । चैलातेयः पलायिष्ट सलोपत्रैर्दस्युभिः सह ॥२८॥ आहूयारक्षपुरुषान् धनश्रेष्ठीत्यभाषत । चौरापइतवित्तं च प्रत्यानयत २मुसुमाम् ॥२९॥ ततो धनः सहारः पुत्रेश्वायुधपाणिभिः पुरोगस्वमनःपर्द्धयेव त्वरितमन्वगात ॥ ॥३०॥ जलं स्थलं लता वृक्षानन्यदप्यखिलं पथि । पीतोन्मत्तो हैममिव सोऽपश्यत्सुसुमामयम् ॥३१॥ इतः पीतमितो भुक्तमितः स्थितमितो गतम् । एवं वदद्भिः पदिकै स दस्यूनिकषा ययौ ॥३२॥ हत हतेति गृहीत गृहीतेति च भाषिणः । मलिम्लुचानाममिलनारक्षपुरुषास्ततः ॥३३॥ दिशो दिशि प्रणेशुस्ते वित्तं त्यक्त्वान्यतस्कराः । सुरुमां स तु नामुश्चच्चौरो व्याघ्रो मृगीमिव ॥३४॥ आरक्षपुरुषास्ते तु तद्वित्तं प्राप्य पुष्कलम् । व्यावर्तन्त कृतार्थों हि सर्वः स्यादन्यथामतिः ॥३५॥ उद्वहन् सुसुमामंसे लतामिव मतङ्गजः । प्रविवेश महारण्यं चिलातीतनयस्ततः ॥३६॥ सूनुभिः पञ्चभिः पत्राननैरिव धनोऽन्वगात् । कष्टुं पुत्री मुखाइस्यो राहोरिन्दकलामिव ॥३७॥ धने स सविधीभूते मा भवत्वस्य ३सा मम । मुसुमेति धिया तस्याः शिर:कमलमच्छिनत ॥३८॥ (१) वः। (२) सुंसमेति पाठः सर्वत्र साधुः। (३) मा । ॥६५॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥६६॥ आकृष्ट करवालोऽसौ हस्तविन्यस्तमस्तकः । तदा यमपुरीद्वारक्षेत्रपाल इवा बभौ ||३९|| सुसुमायाः कबन्धस्यान्तिके स्थित्वा रुदन् धनः । वारीव बाष्पपूरेण नयनाञ्जलिभिर्ददौ ||४०|| तस्याः कबन्धमुत्सृज्य व्यावृत्तः ससुतो धनः । शल्यितः शोकशल्येन महाटव्यामथापतत् ॥ ४१ ॥ ललाटन्तपतपनतेजस्तापभयादिव । विष्वक् सङ्कुचितच्छायो मध्याह्नश्च ततोऽभवत् ॥ ४२ ॥ शोकश्रमक्षुधातृष्णामध्याह्नातपवह्निभिः । धनः सुताश्च पञ्चाग्निसाधका इव तेपिरे ||४३|| न जलं न फलं नान्यद्ददृशुर्जीवनोषधम् । मृत्यवे प्रत्युतापश्यंस्ते हिखश्वापदान् पथि ॥ ॥४४॥ आत्मनस्तनयानां च तां पश्यन्विषमां दशाम् । धनश्रेष्ठी पथ्यतुच्छे गच्छन्नेवमचिन्तयत् ॥ ४५ ॥ मम सर्वस्वनाशोऽभूत्पुत्री प्राणप्रिया मृता । मृत्युकोटिं वयं प्राप्ता धिगहो दैवजृम्भितम् ॥ ४६ ॥ नस्यत्पुरुषकारेण साध्यं धीसम्पदा न च । तदेकं दैवमेवेह बलिभ्यो बलवत्तरम् ||४७|| प्रसाद्यते न दानेन विनयेन न गृह्यते । सेवयावर्ज्यते नैव केर्यदुःसाध्यता विधेः ॥४८॥ विबुधैर्बोध्यते नैव बलवद्भिर्न रुध्यते । न साध्यते तपस्यद्भिः प्रतिमल्लोऽस्तु को विधेः || ४९ ॥ अहो दैवं मित्रमिव कदाचिदनुकम्पते । कदाचित्परिपन्थीव निःशङ्कं प्रणिहन्ति च ॥५०॥ विधिः पितेव सर्वत्र कदाचित्परिरक्षति । कदाचित्पीडयत्येव दायाद इव दुर्दमः ॥ ५१ ॥ विधिर्नयति मार्गेणामार्गस्थमपि कर्हिचित् । कदाचिन्मार्गगमपि विमार्गेण प्रवर्त्तयेत् ॥ ५२॥ आनयेदपि दूरस्थं करस्थमपि नाशयेत् मायेन्द्रजालतुल्यस्य विचित्रा गतयो विधेः ||५३|| अनुकूले विधौ पुंसां विषमप्यमृतायते । विपरीते पुनस्तत्रामृतमेव विषायते ॥ ५४ ॥ स एवं चिन्तयन्नेव प्राप राजगृहं पुरम् । सशोकः सुसुमापुत्र्या (१) दुर्मदः 0 बिलाती पुत्रकथा' ॥६६॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥६७॥ विदधे चौर्ध्वदेहिकम् ||५५ || वैराग्याद्व्रतमादाय श्रीवीरस्वामिनोऽन्तिके । दुस्तपं स तपस्तेपे पूर्णायुश्च दिवं ययौ ॥५६॥ चैलातेयोऽप्यनुरागात्सुसुमाया मुहुर्मुहुः । मुखं पश्यन्नविज्ञातश्रमो याम्यां दिशं ययौ ॥ ५७ ॥ सर्वसन्तापहरणं छायावृक्षमिवाध्वनि । साधुमेकं ददर्शासौ कायोत्सर्गजुषं पुरः ||५८ || स स्वेन कर्मणा तेन किञ्चिदुद्विग्नमानसः । तमुवाच समाख्याहि धर्म संक्षेपतो मम ॥ ५९ ॥ अन्यथा कदलीलावं विष्यामि शिरस्तव । अनेनैव कृपाणेन सुसुमाया इव क्षणात् ॥ ६०॥ स ज्ञानान्मुनिरज्ञासीद्बोधिबीजमिहाहितम् । अवश्यं यास्यति स्फाति पल्वले शालिबीजवत् ॥ ६१॥ कार्यः सम्यगुपशमो विवेकः संवरोऽपि च । इत्युक्त्वा चारणमुनिः स पक्षीव खमुद्ययौ ॥६२॥ पदानि मन्त्रवत्तानि परावर्त्तयतस्ततः । जज्ञे चिलातीपुत्रस्य तदर्थोल्लेख ईदृशः ॥ ६३॥ क्रोधादीनां कषायाणां कुर्यादुपशमं सुधीः ॥ दृहा तैरहमाक्रान्तश्चन्दनः पन्नगैरिव ॥ ६४ ॥ चिकित्साम्यद्य तदिमान्महारोगानिवात्मनः । क्षमामृदुत्वऋजुता सन्तोषपरमौषधैः ॥६५॥ धनद्यान्यहिरण्यादिसर्वस्वत्यागलक्षणम् । विवेकमेकं कुर्वीत बीजं ज्ञानमहातरोः ॥ ६६ ॥ तदिदं सुसुमाशार्ष कृपाणं च करस्थितम् । सर्वस्वभूतं मुञ्चामि केतनं पापसम्पदः ||६७ || संवरश्वाक्षमनसां विषयेभ्यो निवर्त्तनम् । स मया प्रतिपन्नोऽद्य संयमश्रीशिरोमणिः ||६८ || पदार्थ भावयन्नेवं संरुद्धसकलेन्द्रियः । समाधिमधिगम्याभूमनोमात्रैकचेतनः ॥ ६९ ॥ ततोऽस्य विवगन्धाक्छटाकवचितं वपुः । कीटिकाभिः शतच्छिद्रं चक्रे दारु धुणैरिव ||७० || पिपीलिकोपसर्गेऽपि स स्तम्भ इव निश्चल: । सार्द्धाहोरात्रयुग्मेन जगाम त्रिदशालयम् ॥ ७१ ॥ यदाह-जो तिहिं पएहि धम्मं समभिओ संमं समारूढो । उवसमविवेयसंवर चिलाइपुत्तं नम॑सामि ॥७२॥ (१) यात्रिभिः पदैः धमं समभिगतः संयमं समारूढः । उपशमविवेक संवरचिलातीपुत्रं नमस्यामि ॥ चिलाती पुत्रकथा ાદના Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् iદા १अहिसरिया पाएहि सोणियगंधेण जस्स कीडीओ । खायति उत्तमंग तं दुकरकारयं वंदे॥७३॥ धीरो२ चिलाइपुत्तो मुयङ्गलीयाहिं चालणिव्व कओ । जो तहवि खज्जमाणो पडिवनो उत्तम अटुं ॥७४॥ ३अट्ठाइहिं राइदिएहिं पत्तं चिलाइपुत्तेण । देविंदामरभवणं अच्छरगणसङ्कुलं रम्मम् ॥७६॥ चरित्रैरापन्नः श्वपच इव धिक्कारपदवीम्, चिलातीपुत्रोऽसावधिनरकमासूत्रितगतिः । समालब्यैवं यत्त्रिदिवसदनातिथ्यमगमत्, स एवायं योगः सकलसुखमूल विजयते ॥७६॥॥१३॥ पुनरेव योगमेव स्तौति-- तस्याजननिरेवास्तु नृपशोषिजन्मनः । अविद्धकर्णो यो योग इत्यक्षरशलाकया ॥१४॥ न जननमजननिः "नोऽनिः शापे" ।। (सिद्धहेमसू०) ५।३।१२७॥इत्यनिः । अस्तु भूयात् । ना चासौ पशुश्च नृपशुस्तस्य नृपशोः। पशुप्रायपुरुषस्य मोघजन्मन इति निष्फल जननस्य, यः, किं ? योऽविद्धकर्णः कया अक्षरशलाकया-अक्षराण्येव शलाका कर्णवेधजननी अक्षरशलाका । केनोल्लेखेन यान्यक्षराणि अत एव आह । योग इति योग इत्यक्षरलक्षणशलाकया योऽविद्धकर्णः लोहादिमयशलाकाविद्धकर्णोऽपि । तस्य नृपशोर्वरमजननिर्युक्ता न (१) अधिसृताः पादैः शोणितगन्धेन यस्य हीनाङ्गयः (कीटिकाः) । खादन्ति उत्तमाचं तं दुष्करकारकं वन्दे ॥ (२) धीरश्चिलातीपुत्रः पिपीलिकाभिश्चालनीव कृतः । यस्तथापि खाद्यमानः प्रतिपन्न उत्तममर्थम् ।। (३) साद्विभिः रात्रिदिनैः प्राप्तं चिलातीपुत्रेण । देवेन्द्रामरभवनं अप्सरोगणसड्कुलं रम्यम् ॥ ॥६८॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥६९॥ पुनर्विडम्बनाप्रायं जननमिति ||१४|| पुनरपि पूर्वार्द्धन योगं स्तुत्वा उत्तरार्द्धेन तस्वरूपमाह - चतुर्वर्गेऽग्रणीर्मेोक्षो योगस्तस्य च कारणम् । ज्ञान श्रद्धानचारित्ररूपं रत्नत्रयं च सः ॥ १५॥ चतुर्वर्गोऽर्थकामधर्म्ममोक्षलक्षणः तस्मिन्नग्रणीः प्रधानं मोक्षः । अर्थो हि अर्जनरक्षण नाशव्यय हेतुकदुःखानुषङ्गदुषितत्वान्न चतुर्वर्गेऽग्रणीर्भवति । कामस्तु सुखानुषङ्गलेशाद्यद्यप्पर्थादुत्कृष्यते तथापि विरसावसानत्वात् दुर्गतिसाधनत्वाच्च नाग्रणीः । धर्मस्तु ऐहिकामुष्मिक सुखसाधनत्वेन अर्थकामाभ्यां यद्यप्युत्कृष्यते तथापि कनकनिगड रूप पुण्यकर्मबन्धननिबन्धनत्वाद्भवभ्रमणहेतुरिति नाग्रणीः । मोक्षस्तु पुण्यपापक्षयलक्षणो न क्लेशबहुलो न विषसम्पृक्तान्नवदापातरमणीयः परिणामदुःखदायी न वा ऐहिकामुष्मिकफलाशंसादोषदुषित इति भवति परमानन्दमयश्चतुर्वर्गेऽग्रणीः यः । तस्य च कारणं साधकतमं करणं योगः । तस्य किं रूपमित्याह । रत्नत्रयं मरकतादिव्यवच्छेदेनाह । ज्ञानश्रद्धानचारित्ररूपमिति ||१५|| रत्नत्रये प्रथमं ज्ञानस्वरूपमाह - यथावस्थितत्तत्त्वानां संक्षेपाद्विस्तरेण वा । योऽवबोधस्तमत्राहुः सम्यग्ज्ञानं मनीषिणः ॥१६॥ यथावस्थितानि नयप्रमाणप्रतिष्ठितस्वरूपाणि यानि तत्त्वानि जीवाजीवाश्रवसंवर निर्जराबन्धमोक्षलक्षणानि तेषां योऽवबोधस्तत्सम्यग्ज्ञानं स चावबोधः क्षयोपशमविशेषात्कस्यचित्संक्षेपेण कर्मक्षयात् कस्यचिद्विस्तरेण । तथाहि योगस्वरूपम् ॥६९॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगस्वरूपम् 11 goll जीवाजीवावाश्रवश्च संवरो निर्जरा तथा । बन्धो मोक्षश्चति सप्त तत्त्वान्याहुर्मनीषिणः ॥१॥ तत्र जीवा द्विधा ज्ञेया मुक्तसंसारि भेदतः । अनादिनिधनाः सर्वे ज्ञानदर्शनलक्षणाः ॥२॥ मुक्ता एकस्वभावाः स्युर्जन्मादिक्लेशवर्जिताः । अनन्तदर्शनज्ञानवीर्यानन्दमयाश्च ते ॥३॥ संसारिणो द्विधा जीवाः स्थावरत्रसभेदतः । द्वितयेऽपि द्विधा पर्याप्तापर्याप्त विशेषतः ॥४॥ पर्याप्तयस्तु पडिमाः पर्याप्तत्वनिबन्धनम् । आहारो वपुरक्षाणि प्राणा भाषा मनोऽपि च ॥५॥ स्युरेकाक्षविकलाक्षपञ्चाक्षाणां शरीरिणाम् । चतसः पञ्च षड्वापि पर्याप्तयो यथाक्रमम् ॥६॥ एकाक्षाः स्थावरा भूम्यप्तेजोवायुमहीरुहः । तेषां तु पूर्वे चत्वारः स्युः सूक्ष्मा बादरा अपि ॥७॥ प्रत्येकाः साधारणाश्च द्विप्रकारा महील्हः । तत्र पूर्वे बादराः स्युरुत्तरे सूक्ष्मबादराः ॥८॥ सा द्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियत्वेन चतुर्विधाः । तत्र पञ्चन्द्रिया द्वेधा संज्ञिनोऽसंज्ञिनोऽपि च ॥९॥ शिक्षोपदेशालापान्ये जानते तेऽत्र संज्ञिनः । संप्रवृत्तमनःप्राणास्तेभ्योऽन्ये स्युरसंज्ञिनः ॥१०॥ स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रमितीन्द्रियम् । तस्य स्पर्शों रसो गन्धो रूपं शब्दश्च गोचरः ॥११॥ द्वीन्द्रियाः कृमयः शङ्खा गण्डूपदजलौकसः । कपर्दाः शुक्तिकाद्याश्च विविधाकृतयो मताः ॥१२॥ यूकामत्कुगमत्कोटलिक्षाद्यास्त्रीन्द्रिया मताः । पतङ्गमक्षिकाभृङ्गदशाद्याश्चतुरिन्द्रियाः ॥१३॥ तिर्यग्योनिभवाः शेषा जलस्थलखचारिणः । नारका १मानवा देवाः सर्वे पञ्चेन्द्रिया मताः ॥१४॥ मनोभापाकायबलत्रयमिन्द्रियपश्चकम् । आयुरुच्छ्वासनिःश्वासमिति प्राणा दश स्मृताः ॥१५॥ सर्वजीवेषु देहायुरुच्छ्वासा इन्द्रियाणि च । विकलासंज्ञिना भाषा पूर्णानां संज्ञिनां मनः ॥१६॥ उपपादभवा (१) मनुजाः । ॥७०॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग योगशास्त्रम् स्वरूपम् ॥७२॥ देवार नारका गर्भनाः पुनः। जरायुपोताण्डभवाः शेषाः सम्मृर्छनोद्भवाः ॥१७॥ सम्मृच्छिनो नारकाच जीवाः पापा नपुंसकाः । देवास्तु २वीदाः स्युर्वेदत्रयजुषः परे ॥१८॥ सर्वे जीवा व्यवहार्यव्यवहारितया द्विधा । सूक्ष्मनिगोदा ३एवान्त्यास्तेभ्योऽन्ये व्यवहारिणः ॥१९॥ सचित्तः संवृतः शीतस्तदन्यो मिश्रितोऽपि बा । विभेदैरान्तभिन्नो नवधा योनिरङ्गिनाम् ॥२०॥ प्रत्येकं सप्त लक्षाणि पृथ्वीवार्यग्निवायुषु । प्रत्येकानन्तकायेषु क्रमाद्दश चतुर्दश ॥२१॥ षट् पुनर्विकलाक्षेषु मनुष्येषु चतुद्दश । स्युश्चतनश्वतखश्च श्वभ्रतिर्यक्सुरेषु तु ॥२२॥ एवं लक्षाणि योनीनामशीतिश्चतुरुत्तरा । सर्वज्ञोपज्ञमुक्तानि सर्वेषामपि जन्मिनाम् ॥२३॥ एकाक्षा बादराः सूक्ष्माः पञ्चाक्षाः संझ्यसंज्ञिनः । स्युर्द्वित्रिचतुरक्षाश्च पर्याप्ता इतरेऽपि च ॥२४॥ एतानि जीवस्थानानि जिनोतानि चतुर्दश । मार्गणा अपि तावन्त्यो ज्ञेयास्ता नामतो यथा ॥२५।। गतीन्द्रियवपुर्योगवेदज्ञानक्रुदादयः । संयमाहारदृग्लेश्याभव्यसम्यक्त्वसंज्ञिनः ॥२६॥ मिथ्यादृष्टिः सास्वादनसम्यग्मिथ्यादृशावपि । अविरतसम्यगदृष्टिविरताविरतोऽपि च ॥२७॥ प्रमत्तश्चाप्रमत्तश्च निवृत्तिबादरस्ततः । अनिवृत्तिबादरश्चाथ सूक्ष्मसंपरायक: ॥२८|| ततः प्रशान्तमोहश्च क्षीणमोहश्च योगवान् । अयोगवानिति गुणस्थानानि स्युश्चतुर्दश ॥२९|| मिथ्यादृष्टिमवेन्मिथ्यादर्शनस्योदये सति । गुणस्थानत्वमेतस्य भद्रकत्वाद्यपेक्षया ॥३०॥ मिथ्यात्वस्यानुदयेऽनन्तानुबन्ध्युदये सति । सास्वादनः सम्यग्दृष्टिः स्यादुत्कर्षात् षडावलीः ॥३१॥ सम्यक्त्वमिथ्यात्वयोगान्मुहूर्त मिश्रदर्शनः । अविरतसम्यग्दृष्टिरप्रत्याख्यानकोदये ॥३२॥ विरताविरतस्तु स्यात्प्रत्याख्यानोदये सति । प्रमत्तसंयतः प्राप्तसंयमो यः प्रमाद्यति ॥३३।। सोऽप्रमत्तसंयतो यः संयमी न प्रमाद्यति उभावपि परावृत्त्या (१) देवनारकाः । (२) देवाः स्त्रीपुंसवेदाः । (३) तेऽन्येऽपि व्यवहारिणः । ॥७२॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् uહા स्यातामान्तर्मुहूर्त्तकौ ||३४|| कर्मणां स्थितिधातादीनपूर्वान् कुरुते यतः । तस्मादपूर्वकरणः क्षपकः शमकश्च सः ||३५|| यद्वादरकषायाणां प्रविष्टानामिमं मिथः । परिणामा निवर्त्तन्ते निवृत्तिवादरोऽपि तत् ||३६|| परिणामा निवर्तन्ते मिथो यत्र न यत्नतः । अनिवृत्तिवादरः स्यात्क्षपकः शमकश्च सः ||३७|| लोभाभिधः सम्परायः सूक्ष्म किट्टीकृतो यतः । स सूक्ष्मसम्परायः स्यात्क्षपकः शमकोऽपि च ||३८|| अथोपशान्तमोहः स्यान्मोहस्योपशमे सति । मोहस्य तु क्षये जाते क्षीणमोहं प्रचक्षते ||३९|| सयोगिकेवली वातिक्षयादुत्पन्नकेवलः । योगानां तु क्षये जाते स एवायोगिकेवली ||४०|| ॥ इति जीवतत्त्वम् ॥ अजीवाः स्युर्धम्र्म्माधर्म्मविहायः कालपुद्गलाः । जीवेन सह पञ्चापि द्रव्याण्येते निवेदिताः ॥४१॥ तत्र कालं विना सर्वे प्रदेशप्रचयात्मकाः । विना जीवमचिद्रूपा अकर्त्तारच ते मताः ||४२|| कालं विनास्तिकायाः स्युरमूर्त्ताः पुद्गलं विना । उत्पादविगमधौन्यात्मानः सर्वेऽपि ते पुनः ||४३|| पुद्गलाः स्युः स्पर्शरसगन्धवर्णस्वरूपिणः । तेऽणुस्कन्धतया द्वेधा तत्राऽबद्धाः किलाणवः ||४४|| बद्धाः स्कन्धा गन्धशब्दसौक्ष्म्यस्थौल्याकृतिस्पृशः । अन्धकारातपोद्योत भेदच्छायात्मका अपि || ४५ || कर्मकायमनोभाषाचेष्टितोच्छ्वासंदायिनः । सुखदुःखजीवितव्यमृत्यूप ग्रहकारिणः ||४६ || प्रत्येकमेकद्रव्याणि धर्म्माधर्म्मा नभोऽपि च । अमूर्त्तानि निष्क्रियाणि स्थिराण्यपि च सर्व्वदा ||४७|| एकजीवपरीमाणसंख्यातीतप्रदेशकौ । लोकाकाशमभिव्याप्य धर्म्माधम्मौ व्यवस्थितौ ||४८|| स्वयं गन्तुं प्रवृत्तेषु जीवाजीवेषु सर्वतः । सहकारी भवेद्धर्म्मः पानीयमिव यादसाम् ||४९ ॥ जीवानां पुद्गलानां च प्रपन्नानां स्वयं स्थितिम् । अधर्मः सहकार्येषु यथा च्छायाऽध्वयायिनाम् ॥५०॥ सर्वगं योग स्वरूपम् ॥७२॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् योग स्वरूपम् ॥७३॥ स्वप्रतिष्ठं स्यादाकाशमवकाशदम् । लोकालोकौ स्थितं व्याप्य तदनन्तप्रदेशभाक् ॥५१॥ लोकाकाशप्रदेशस्था भिन्नाः कालाणवस्तु ये । भावानां परिवर्ताय मुख्यः कालः स उच्यते ॥५२॥ ज्योति शास्त्रे यस्य मानमुच्यते समयादिकम् । स व्यावहारिकः कालः कालवेदिभिरामतः॥५३॥ नवजीर्णादिरूपेण यदमी भवनोदरे । पदार्थाः परिवर्तन्ते तत्कालस्यैव चेष्टितम् ॥५४॥ वर्तमाना अतीतत्वं भाविनो वर्तमानताम् । पदार्थाः प्रतिपद्यन्ते कालक्रीडाविडम्बिताः ॥५५॥ ॥ इति अजीवतत्त्वम् ॥ मनोवचनकायानां यत्स्यात्कर्म स आश्रवः । शुभः शुभस्य हेतुः स्यादशुभस्त्वशुभस्य च ॥५६।। ॥ इति आश्रवः ॥ सर्वेषामाश्रवाणां यो रोधहेतुः स संवरः । कर्मणां भवहेतूनां जरणादिह निर्जरा ॥५७॥ ॥ इति संवरनिर्जरे ॥ वक्ष्यन्ते भावनास्वेवाश्रवसंवरनिर्जराः । तन्नात्र विस्तरेणोक्ताः पुनरुक्तत्वभीरुभिः ॥५८॥ सकषायतया जीवः कर्मयोग्यांस्तु पुद्गलान् । यदादत्ते स बन्धः स्याज्जीवास्वातन्त्र्यकारणम् ।।५९॥ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशाविधयोऽस्य तु । प्रकृतिस्तु स्वभावः स्यात् ज्ञानावृत्यादिरष्टधा ॥६०॥ ज्ञानदृष्टयावृती वेध मोहनीयायुषी अपि । नामगोत्रान्तरायाश्च मूलप्रकृतयो मताः ॥ ६१ ॥ निकर्षोत्कर्षतः कालनियमः कर्मणां स्थितिः । अनुभागो विपाकः स्यात्प्रदेशोऽशप्रकल्पनम् ॥६२॥ मिथ्यादृष्टिरविरतिप्रमादौ च क्रुदादयः। योगेन सह पञ्चैते विज्ञेया बन्धहेतवः ॥ ६३ ॥ ॥ इति बन्धतत्त्वम् ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् ॥७४। योग स्वरूपम् अभावे बन्धहेतूनां घातिकर्मक्षयोद्भवे । केवले सति मोक्षः स्याच्छेषाणां कर्मणां क्षये ॥६४॥ सुरासुरनरेन्द्राणां यत्सुख भुवनत्रये । स स्यादनन्तभागोऽपि न मोक्षसुखसम्पदः ॥६५।। स्वस्वभावजमत्यक्षं यदस्मिन् शाश्वतं सुखम् । चतुर्वर्गाग्रणीत्वेन तेन मोक्षः प्रकीर्तितः ॥६६।। ॥ इति मोक्षतचम् ॥ मतिश्रुतावधिमनःपर्यायाः केवलं तथा । अमीभिः सान्वयैर्भदैनिं पञ्चविधं मतम् ॥६७॥ अवग्रहादिभिभिन्न बहाद्यैरितरैरपि । इन्द्रियानिन्द्रियभवं मतिज्ञानमुदीरितम् ॥६८॥ विस्तृतं बहुधा पूर्वैरङ्गोपाङगैः प्रकीर्णकैः। स्याच्छब्दलान्छितं ज्ञेयं श्रुतज्ञानमनेकधा ॥६९॥ देवनैरयिकाणां स्यादवधिर्भवसम्भवः । षडविकल्पस्तु शेषाणां क्षयोपशमलक्षणः ॥ ७० ॥ ऋजुर्विपुल इत्येवं स्यान्मनःपर्ययो द्विधा । विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषोऽवगम्यताम् ॥७१॥ अशेषद्रव्यपर्यायविषयं विश्वलोचनम् । अनन्तमेकमत्यक्षं केवलज्ञानमुच्यते ॥७२॥ एवं च पञ्चभिज्ञानैतितत्त्वसमुच्चयः । अपवर्गहेतुरत्नत्रयस्याद्याङ्गभाग्भवेत् ॥७३॥ भवविटपिसमूलोन्मूलने मत्तदन्ती, जडिमतिमिरनाशे पद्मिनीप्राणनाथः। नयनमपरमेतद्विश्वतत्त्वप्रकाशे, रकरणहरिणबन्धे वागुरा ज्ञानमेव ॥७४॥१६॥ द्वितीयं रत्नमाह-- रुचिर्जिनोक्ततत्त्वेषु सम्यक्श्रद्धानमुच्यते । जायते तनिसर्गेण गुरोरधिगमेन वा ॥१७॥ जिनोक्तेषु तत्त्वेषु जीवादिपूक्तस्वरूपेषु या रुचिरतत् श्रद्धानम् । न हि ज्ञानमित्येव रुचि विना फलसिद्धिः। १ करणानि इन्द्रियाणि । TORUL Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग CHO योग शास्त्रम् स्वरूपम् S शाकान्नादिस्वरूपवेदिनाऽपि रूचिरहितेन न सौहित्यलक्षणं फलमवाप्यते। श्रुतज्ञानवतोऽप्यङ्गारमर्दकादेरभव्यस्य दूर नव्यस्य वा जिनोक्ततत्त्वेषु रुचिरहितस्य न विवक्षितं फलमुपश्रूयते । तस्य चोत्पादे द्वयी गतिः निसर्गोऽधिगमश्च । निसर्गः स्वभावो गुरूपदेशादिनिरपेक्षः सम्यश्रद्धानकारणम् । तथाहि अनाद्यनन्तसंसारावर्तवर्तिषु देहिषु । ज्ञानदृष्टयावृतिवेदनीयान्तरायकर्मणाम् ॥१॥ सागरोपमकोटीनां कोटयखिशत्परा स्थितिः । विंशतिगोत्रनाम्नोश्च मोहनीयस्य सप्ततिः ॥२॥ ततो गिरिसरिग्रावघोलनान्यायतः स्वयम् । एकाब्धिकोटिकोटयना प्रत्येकं क्षीयते स्थितिः ॥३॥ शेषाब्धिकोटिकोटयन्तःस्थितौ सकलजन्मिनः । यथाप्रवृत्तिकरणादग्रन्थिदेशं समिग्रति ॥४॥ रागद्वेषपरीणामो दुर्भेदो ग्रन्थिरुच्यते । दुरुच्छेदो दृढतरः काष्ठादेवि सर्वदा ॥५॥ ग्रन्थिदेशं तु संप्राप्ता रागादिप्रेरिताः पुनः । उत्कृष्टबन्धयोग्याः स्युश्चतुर्गतिजुषोऽपि ते ॥६॥ तेषां मध्ये तु ये भव्या भाविभद्राः शरीरिणः । आविष्कृत्य परं वीर्यमपूर्वकरणे कृते ॥७॥ अतिक्रामन्ति सहसा तं ग्रन्थि दुरतिक्रमम् । अतिक्रान्तमहाध्वानो घट्टभूमिमिवाध्वगाः ॥८॥ अथानिवृत्तिकरणादन्तरकरणे कृते । मिथ्यात्वं विरलीकुयुर्वेदनीयं यदग्रतः ॥९॥ अन्तर्मुहर्तिकं सम्यग्दर्शनं प्राप्नुवन्ति यत् । निसर्गहेतुकमिदं सम्यकश्रद्धानमुच्यते ॥१०॥ गुरूपदेशमालम्ब्य सर्वेषामपि देहिनाम् । यत्तु सम्यकश्रद्धानं तत्स्यादधिगम परम् ॥११॥ यमप्रशमजीवातुर्बीजं ज्ञानचरित्रयोः । हेतुस्तपः श्रुतादीनां सद्दशनमुदीरितम् ॥१२॥ श्लाध्य हि चरगज्ञानवियुक्तमपि दर्शनम् । नपुननिचारित्रे मिथ्यात्वविषदृषिते ॥१३॥ ज्ञानचारित्रहीनोऽपि श्रूयते (१) तृप्ति लक्षणं । (२) नदी तीरभूमिम् । ॥७५10 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥७६॥ श्रेणिकः किल । सम्यग्दर्शनमाहात्म्यात्तीर्थकृत्त्वं प्रपत्स्यते ॥ १४॥ अधृतचरणबोधाः प्राणिनो यत्प्रभावादसमसुखनिधानं मोक्षमासाद्यन्ति । भवजलनिधिपोतं दुःखकान्तारदावम्, श्रयत तदिह सम्यग्दर्शनं रत्नमेकम् || १५ ॥ १७॥ तृतीयं रत्नमाह सर्वसावद्ययोगानां त्यागश्चारित्रमिष्यते । कीर्त्तितं तदहिंसादिव्रतभेदेन पञ्चधा ॥ १८ ॥ सर्वे न तु कतिपये ये सावद्ययोगाः सपापव्यापारास्तेषां त्यागो ज्ञानश्रद्धानपूर्वकं परिहारः स सम्यक्चारिगं ज्ञानदर्शनविनाकृतस्य चारित्रस्य सम्यक् चारित्रत्वानुपपत्तेः । सर्वग्रहणं देशचारित्रव्यवच्छेदार्थम् । इदं च चारित्रं मूलोत्तरगुणभेदेन द्विविधं कीर्तितमित्यादिना मूलगुणरूपं चारित्रमाह । पञ्चधेति व्रतभेदेन, न तु स्वरूपतः ||१८|| मूलगुणानेव कीर्तयति — अहिंसासूनृतास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः । पञ्चभिः पञ्चभिर्युक्ता भावनाभिर्विमुक्तये ॥१९॥ असादयश्च पश्चापि प्रत्येकं पञ्चविधभावनाभ्यहिताः सन्तः स्वकार्यजननं प्रति अप्रतिबद्धसामर्थ्या भवन्तीति पश्चभिरित्याद्युक्तम् ॥१६॥ प्रथमं मूलगुणमाहन यत्प्रमादयोगेन जीवितव्यपरोपणम् । त्रसानां स्थावराणां च तदहिसात्रतं मतम् ॥२०॥ प्रमादोऽज्ञानसंशयविपर्ययरागद्वेषस्मृतिभ्रंशयोग दुष्प्रणिधानधर्मानादर भेदादष्टविधः । तद्योगात्त्रसानां स्थावराणां च जीवानां प्राण व्यपरोपणं हिंसा । तन्निषेधादहिंसा प्रथमं व्रतम् ||२०|| योग स्वरूम् ४७६॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग योगशास्त्रम् स्वरूपम् 1990 द्वितीयमाहप्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं सूनृतव्रतमुच्यते । तत्तथ्यमपि नो तथ्यमप्रियं चाहितं च यत् ॥२१॥ तथ्यं वचोऽमृषारूपमुच्यमानं सूनृतव्रतमुच्यते। कि विशिष्ट तथ्यं ? प्रियं पथ्यं च, तत्र प्रियं यत् श्रुतमात्रं प्रीणयति, पथ्यं यदायतौ हितम् । ननु तथ्यमेवैकं विशेषणमस्तु सत्यव्रताधिकारात् प्रियपथ्ययोस्तु कोऽधिकारः ? अत आह-तत्तथ्यमपीति व्यवहारापेक्षया तथ्यमपि यदप्रियं यथा चौरं प्रति चौरस्त्वं कुष्टिनं प्रतिकुष्ठीत्वमिति तदप्रियत्वान्न तथ्यम् । तथ्यमप्यहितं यथा मृगयुभिः पृष्टस्यारण्ये मृगान् दृष्टवतो मया मृगा दृष्टा इति तज्जन्तुद्यातहेतुत्वान्न तथ्यम् ॥२१॥ तृतीयमाहअनादानमदत्तस्यास्तेयव्रतमुदीरितम् । बाह्याः प्राणा नृणामों हरता तं हता हि ते ॥२२॥ वित्तस्वामिना अदत्तस्य वित्तस्य यदनादानं तदस्तेयवतम् । तच्च स्वामिजीवतीर्थकरगुर्चदत्तभेदेन चतुर्विधम् । तत्र स्वाम्यदत्तं तृणोपलकाष्टादिकं तत्स्वामिना यददत्तम् । जीवादत्तं यत्स्वामिना दत्तमपि जीवेनादत्तं यथा प्रव्रज्यापरिणामविकलो मातापितृभ्यां पुत्रादिगुरुभ्यो दीयते । तीर्थकरादत्तं यत्तीर्थकरैः प्रतिषिद्धमाधाकर्मिकादि गृह्यते । गुदत्तं नाम स्वामिना दत्तमाधाकम्मिकादिदोषरहितं गुरूनननुज्ञाप्य यद्गृह्यते । नन्वहिंसापरिकरत्वं सव्रतानामदत्तादाने तु केव हिंसा येनाहिंसापरिकरत्वं स्यादित्युक्तं बाह्याः प्राणा इत्यादि । यदि स्तेयस्य प्राणहरणस्वरूपं मृग्यते तदा तदस्त्येव ॥२२॥ LIUS Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥७८॥ चतुर्थमाह- दिव्यौदारिकामानां कृतानुमतिकारितैः । मनोवाक्कायतस्त्यागो ब्रह्माष्टादशधा मतम् ||२३|| दिवि भवा दिव्याः ते च वैक्रियशरीरसम्भवाः । औदारिकाश्च औदारिकतिर्यग्मनुष्य देहप्रभवास्ते च ते काम्यन्त इति कामाश्च तेषां त्यागोऽब्रह्मनिषेधात्मकं ब्रह्मचर्यव्रतम् । तच्चष्टादशधा मनसा अब्रह्म न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमपि परं नानुमन्ये । एवं च वचसा कायेन वेति दिव्ये ब्रह्मणि नव भेदाः । एवमौदारिकेऽपीत्यष्टादश । यदाह- दिव्यात्कामरतिसुखात् त्रिविधं त्रिविधेन विरतिरिति नवकम् । औदारिकादपि तथा तद्ब्रह्माष्टादशविकल्पम् ॥ १॥ इति ॥ कृतानुमतिकारितैरिति मनोवाक्कायत इति च मध्ये कृतत्वात्पूर्वोत्तरेष्वपि महाव्रतेषु सम्बन्धनीयम् ||२३|| पश्चममाह- सर्वभावेषु मूर्च्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः । यदसत्स्वपि जायेत मूर्च्छया चित्तविप्लवः ॥२४॥ सर्वभावेषु द्रव्यक्षेत्र कालभावरूपेषु यो मूर्च्छाया गार्द्धयस्य त्यागो न तु द्रव्यादित्यागमात्रं सोऽपरिग्रहव्रतम् । ननु परिग्रहत्यागोऽपरिग्रहवतं स्यात् किं मूर्छात्यागलक्षणेन तल्लक्षणेन ? अत आह-यदसत्स्वपीति । यस्मादसत्स्वप्यविद्यमानेष्वपि द्रव्यक्षेत्रकालभावेषु मूर्च्छया चित्तविप्लवः स्यात् । चित्तविप्लवः प्रशमसौख्यविपर्यासः । योग स्वरूपम् ॥७८॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योग स्वरूपम् ॥७९॥ असत्यपि धने धनगर्दवतो राजगृहनगरद्रमकस्येव चित्तसंक्लेशो दुर्गतिपातनिबन्धनं भवति । सत्यपि वा | द्रव्यक्षेत्रकालभावलक्षणे सामग्रीविशेषे तृष्णाकृष्णाहिनिरूपद्रवमनसां प्रशमसुखप्राप्त्या चित्तविप्लवाभावः । अत एव धर्मोपकरणधारिणां यतीनां शरीरे उपकरणे च निर्ममत्वानामपरिग्रहत्वम् । यदाह यदत्तुरगः सत्स्वप्याभरणभूषणेष्वनभिषक्तः । तद्वदुपग्रहवानपि न सङ्गमुपयाति निर्ग्रन्थः ॥१॥ यथा च धर्मोपकरणवतामपि मूर्छारहितानां मुनीनां न परिग्रहग्रहित्वदोषस्तथा वतिनीनामपि गुरूपदिष्टधर्मोपकरणधारिणीनां रत्नत्रयवतीनां तेन तासां धर्मोपकरणपरिग्रहमात्रेण मोक्षापवादः प्रलापमात्रम् ॥२४॥ पञ्चभिः पञ्चभिर्युक्ता भावनाभिविमुक्तये इत्युक्तं तत्प्रस्तौति-- भावनाभिर्भावितानि पञ्चभिः पञ्चभिः क्रमात् । महाव्रतानि नो कस्य साधयन्त्यव्ययं पदम् ॥२५॥ | भाव्यन्ते वास्यन्ते गुणविशेषमारोप्यन्ते महाव्रतानि यकाभिस्ता भावनाः ॥२५॥ अथ प्रथमव्रतस्य भावना आहमनोगुप्त्येषणादानेर्याभिः समितिभिः सदा। दृष्टान्नपानग्रहणेनाहिंसां भावयेत् सुधीः॥२६॥ मनोगुप्तिर्वक्ष्यमाणलक्षणा तयेत्येका भावना। एषणा विशुद्धपिण्डग्रहणलक्षणा तस्यां या समितिः ।आदानग्रहणेन निक्षेप उपलक्ष्यते । तेन पीठादेग्रहणे स्थापने च या समितिः। ईरणमीर्या गमनं तत्र या समितिः आभिरेषणादानेर्यासमितिभिदृष्टयोरनपानयोग्रहणेनोपलक्षणत्वात् तद्ग्रासेनाहिसां भावयेदिति सम्बन्धः। इह ॥७९॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ll coll च गुप्तिसमितीनां महाव्रतभावनात्वेन गतार्थानामपि अथवा पञ्चसमितीत्यादिग्रन्थेन पुनरुत्कीर्त्तनं गुप्तिसमितीनामुत्तरगुणत्वज्ञापनार्थम् । यदाह- १ पिण्डस्स जा विसोही समिईओ भावणा तवो दुविहो । पडिमा अभिग्गहो चिय उत्तरगुणमोविहाणाहिं ॥ १ ॥ इह च मनोगुप्तेर्भावनात्वं हिंसायां मनोव्यापारस्य प्राधान्यात् । श्रूयते हि प्रसन्नचन्द्रराजर्षिर्मनोगुप्त्याऽभाविताहिंसात्रतो हिंसामकुर्व्वन्नपि सप्तमनरकपृथ्वीयोग्यं कर्म्म निर्ममे । एषणादानेर्यासमितयस्तु अहिंसायां नितरामुपकारिण्य इति युक्तं भावनात्वम् । दृष्टान्नपानग्रहणं च संसक्तान्नपान परिहारेणा हिंसात्रतोपकारायेति पञ्चमी भावना ||२६|| द्वितीयव्रतस्य भावना आह हास्यलोभभयक्रोधप्रत्याख्यानैर्निरन्तरम् । आलोच्य भाषणेनापि भावयेत्सूनृतव्रतम् ॥२७॥ हसन् हि मिथ्या ब्रूयात्, लोभपरवशश्चार्थाकाङ्क्षया, भयार्त्तः प्राणादिरक्षणेच्छया, क्रुद्धः क्रोधतरलितमनस्कतया मिथ्या ब्रूयादिति हास्यादिप्रत्याख्यानानि चतस्रो भावनाः । आलोच्य भाषणं सम्यगृज्ञानपूर्वकं पर्यालोच्य मृषा मा भूदिति मोहतिरस्कारद्वारेण भाषणं पञ्चमी भावना । मोहस्य च मृषावादहेतुत्वं प्रतीतमेव । यदाह -- " रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते नृतमिति" ||२७|| तृतीयव्रतस्य भावना आह-१ पिण्डस्य या विशोधिः समितयो भावनास्तपो द्विविधम् । प्रतिमा अभिनग्रहश्चैव उत्तरगुणविधानानि ( प्रकाराः ) ॥ १ ॥ 1 योगस्वरूपम् IlColl Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥१॥ आलोच्यावग्रहयाञ्चाभीक्ष्णावग्रहयाचनम् । एतावन्मात्रमेवैतदित्यवग्रहधारणम् ॥ २८ ॥ समानधार्मिकेभ्यश्च तथावग्रहयाचनम् । अनुज्ञापितपानान्नाशनमस्तेयभावनाः ॥ २९ ॥ (युग्मम्) आलोच्य मनसा विचिन्त्यावग्रहं याचेत । देवेन्द्रराजगृहपतिशय्यातरसाधर्मिक भेदाद्धि पञ्चावग्रहाः । अत्र च पूर्वः पूर्वी बाध्य उत्तर उत्तरो बाधकः । तत्र देवेन्द्रावग्रहो यथा सौधर्माधिपतेर्दक्षिणलोकार्थे ईशानाधिपतेरुत्तरलोकार्धम् । राजा चक्रवर्ती तस्यावग्रहो भारतादिवर्षम् । गृहपतिर्मण्डलाधिपतिस्तस्यावग्रहस्तन्मण्डलादि । शय्यात वसतिस्वामी तदग्रहो वसतिरेव । साधर्मिकाः साधवस्तेषामवग्रहः शय्यातरप्रदत्तं गृहादि । एतानवग्रहान् ज्ञात्वा यथायथमवग्रहं याचेत् । अस्वामियाचेनहि परस्परविरोधेन अकाण्डघाटनादय ऐहिका दोषाः परलोकेऽपि अदत्तपरिभोगजनितं पापकर्म्म । इति प्रथमा भावना । सकृद्दत्तेऽप्यवग्रहे स्वामिना अभीक्ष्णं भूयोभूयोऽवग्रहयाचनं कार्य्यं पूर्व्वलब्धेऽवग्रहे ग्लानाद्यवस्था मूत्रपुरीषोत्सर्गपात्रकरचरणप्रक्षालनस्थानानि दातृचित्तपीडापरिहारार्थ याचनीयानि । इति द्वितीयभावना । एतावन्मात्रमेव एतावत्परिमाणमेवैतत् क्षेत्रादि ममोपयोगिनाधिकमिति अवग्रहस्य धारणं व्यवस्थापनम् । एवमवग्रहधारणे हि तदभ्यन्तरवर्तिनीमृध्वस्थानादिक्रियामासेमानो न दातुरूपरोधकारी भवति । याञ्चाकाल एवावग्रहानवधारणे विपरिणतिरपि दातुश्चेतसि स्यादात्मनोऽपि चादत्तपरिभोगजनितकर्म्मबन्धः स्यादिति तृतीयभावना । धर्म चरन्तीति धार्मिकाः समानास्तुल्याः प्रतिपन्नैकशासनाः साधवस्तेभ्यः पूर्वपरिगृहीतक्षेत्रेभ्योऽवग्रहो याच्यस्तदनुजानाद्धि तत्रासितव्यं, अन्यथा स्तेयं स्यादिति h योग स्वरूपम् ॥८॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥८२॥ चतुर्थी भावना । अनुज्ञापिते अनुज्ञया स्वीकृने ये पानान्ने तयोरशनं सूत्रोक्तेन हि विधिना प्रामुकमेषणीयं कल्पनीयं च पानानं लब्धमानीयालोचनापूर्वं गुरवे निवेद्यानुज्ञातो गुरुणा मण्डल्यामेकको वाऽश्नीयात् । उपलक्षणमेतत् यत् किञ्चिदौघिकौपग्रहिक भेदमुपकरणं धर्मसाधनं तत्सर्वं गुरुणाऽनुज्ञातं परिभोक्तव्यम् । एवं विदधानो नातिक्रामत्यस्तेयत्रतमिति पञ्चमी भावना । चतुर्थव्रतभावना आह— स्त्रीषण्ढपशुमद्वेश्मासनकुडचान्तरोज्झनात् । सरागस्त्रीकथात्यागात्प्राग्रतस्मृतिवर्जनात् ॥३०॥ स्त्रीरम्याङ्गेक्षणस्वाङ्गसंस्कारपरिवर्जनात् । प्रणीतात्यशनत्यागाद् ब्रह्मचर्ये तु भावयेत् ॥३१॥ (युग्मम्) स्त्रियो देवमानुष भेदाद्विविधाः एताश्च सचित्ताः । अचित्तास्तु पुस्तलेप्यचित्रकर्मादिनिर्मिताः । पण्डास्तृतीयवेदोदयवर्त्तिनो महामोहकर्माणः खीपुंससेवनाभिरताः । पशवस्तिर्यग्योनिजाः तत्र गोमहिषीवडवा बालेयीअजाsविकादयः सम्भाव्यमानमैथुनाः । एभ्यः कृतद्वन्द्वेभ्यो मतुः स्त्रीषण्ढपशुमती च ते वेश्मासने च वेश्म - वसतिः, आसनं-संस्तारकादि, कुडचान्तरं यत्रान्तरस्थोऽपि कुडचादौ दम्पत्योर्मोहनादिशब्दः श्रूयते ब्रह्मचर्यभङ्गभयादेषा मुज्झनं त्यागः । इति प्रथमा भावना । सरागस्य मोहोदयवतो या स्त्रीभिः कथा खीणां वा कथा सरागाश्च ताः त्रियश्च ताभिस्तासां वा कथा तस्यास्त्यागः । रागानुबन्धिनी हि देशजातिकुलनेपथ्यभाषागतिविभ्रमेङ्गितहास्य (१) बालेयी - गर्दभी योग स्वरूपम् ॥८२॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥८३॥ लीलाकटाक्षप्रणयकलह श्रृङ्गाररसानुविद्धा कथा वात्येव चित्तोदधेरवश्यं विक्षोभमादधातीति द्वितीया भावना । प्राक् प्रव्रज्याब्रह्मचर्यात् पूर्व गृहास्थावस्थायां यद्रतं स्त्रीभिः सह निधुवनं तस्य स्मृतिस्तस्या वर्जनं, प्राग्रतस्मरणेन्धनाद्धि कामानि: सन्धुक्ष्यते । इति तृतीया भावना । स्त्रीणामविवेकिजनापेक्षया यानि रम्याणि स्पृहणीयान्यङ्गानि मुखनयनस्तनजघनादीनि तेषामीक्षणमपूर्वविस्मयरसनिर्भरतया विस्फारिताक्षस्य विलोकनम् । ईक्षणामात्रं तु रागद्वेषरहितस्यादुष्टमेव । यदाह अशक्यं रूपमद्रष्टुं चक्षुर्गोचरमागतम् । रागद्वेषौ तु यौ तत्र तौ बुधः परिवर्जयेत् ॥ १॥ इत्यादि ॥ तथा स्वस्यात्मनोऽङ्गं शरीरं तस्य संस्कारः स्नानविलेपधूपननखदन्त केशसन्मार्जनादिः, स्त्रीरम्याङ्गेक्षणं च स्वाङ्गसंस्कारश्च तयोः परिवर्जनात् । स्त्रीरम्याङ्गेक्षणतरलितविलोचनो हि दीपशिखायां शलभ इव विनाशमुपयाति । अशुचिशरीरसंस्कारमूढो हि तत्तदुत्कलिकामयैर्विकल्पेर्वृथात्मानमायासयतीति चतुर्थी भावना । प्रणीतो १वृष्यः स्निग्धमधुरादिरसः । अत्यशनमप्रणीतस्याऽपि रूक्षभैक्षस्या कण्ठमुदरपूरणं तयोस्त्यागो निरन्तरवृष्यमधुरस्निग्धरसप्रणीतो हि प्रधानधातुपरिपोषेण वेदोदयादब्रह्माऽपि सेवेत । अत्यशनस्य तु न केवलं ब्रह्मक्षतिकारित्वाद्वर्जनं शरीरपीडाकारित्वादपि । यदाह २अद्धुमसणस्स व्वंजणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दगस्स दो भागे । वाउपवियारणहाछबूभायं ऊणगं कुज्जा ॥१॥ इति पञ्चमी भावना । एवं नविधब्रह्मचर्यगुप्तिसंग्रहेण ब्रह्मचर्यव्रतस्य पञ्च भावनाः ||३०||३१|| १ वीर्यवर्धकः २ अर्धमशनस्य सव्यञ्जनस्य द्वौ भागौ । वायुप्रविचारणार्थ षष्ठभागमूनकं कुर्यात् ॥१॥ योग स्वरूपम् ८३॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योग स्वरूपम् LICEUL पश्चमव्रतस्य भावना आह-- स्पर्शे रसें च गन्धे च रुपे शब्दे च हारिणि । पञ्चस्वितीन्द्रियार्थेषु गाढं गाढं गाद्धर्थस्य वर्जनम् ॥३२॥ | एतेष्वेवामनोज्ञेषु सर्वथा द्वेषवर्जनम् । आकिञ्चन्यव्रतस्यैवं भावनाः पञ्च कीत्तिताः ॥३३॥ (युग्मम्) स्पर्शादिषु मनोहारि विषयेषु यद्गाद गाद्धर्यस्याभिष्वङ्गस्य वर्जनम् । स्पर्शादिष्वेवामनोज्ञेष्विन्द्रियप्रतिकूलेषु यो द्वेषोऽप्रीतिलक्षणस्तस्य वर्जनम् । गाद्धर्यवान् हि मनोज्ञे विषयेऽभिष्वङ्गवानमनोज्ञान्विषयान्विद्वेष्टि मध्यस्थस्य तु मूर्छारहितस्य न कचित्प्रीतिरप्रीतिर्वा, रागानान्तरीयकतया च द्वेषस्योपादानम् । किश्चन बाह्माभ्यन्तरपरिग्रह रूपं नास्यास्तीत्यकिञ्चनस्तद्भाव आकिश्चन्यमपरिग्रहता । आकिश्चन्यं च तद्रतं च तस्यैताः पञ्च भावनाः ॥३२॥३३॥ मूलगुणरूपचरित्रमभिधायोत्तरगुणरूपं तदाह-- अथवा पञ्चसमितिगुप्तित्रयपवित्रितम् । चरित्रं सम्यक्चारित्रमित्याहुर्मुनिपुङ्गवाः ॥३४॥ समितिरिति पञ्चानां चेष्टानां तान्त्रिकी संज्ञा । अथवा सं सम्यक् प्रशस्ता अर्हत्प्रवचनानुसारेण इतिः चेष्टा समितिः पश्चानां समितीनां समाहारः पञ्चसमिति । गुप्तिरात्मनः संरक्षणं मुमुक्षोर्योगनिग्रह इत्यर्थः गुप्तीनां त्रयं गुप्तित्रय पञ्चसमिति च गुप्तित्रयं च ताभ्यां पवित्रितं यच्चरित्रं यतीनां चेष्टा सा सम्यक्चारित्रमुच्यते । सम्यनवृत्तिलक्षणा समितिः प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणा गुप्तिरित्यनयोविशेषः ॥३४॥ ॥८४॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग योगशास्त्रम् स्वरूपम् अथ समितिगुप्तीश्च नामत आहईर्याभाषेषणोदाननिक्षेपोत्सर्गसंज्ञिकोः । पञ्चाहुः समितीस्तिसो गुप्तीस्त्रियोगनिग्रहात् ॥३५॥ ईर्यासमिति षासमितिरेषणासमितिरादाननिक्षेपसमितिरुत्सर्गसमितिरित्येताः पञ्च समितीब्रुवते तीर्थकराः । त्रिसंख्या योगास्त्रियोगा मनोवाक्कायव्यापारास्तेषां निग्रहो निरोधः प्रवचनविधिना मार्गव्यवस्थापनमुन्मार्गनिवारणं च । निग्रहादिति हेतौ पश्चमी तेन मनोगुप्तिर्वचनगुप्तिः कायगुप्तिरिति तिस्रो गुप्तीब्रुवते ॥३५॥-ईर्यालक्षणमाहलोकातिवाहिते मार्गे चुम्बितेभास्वदंशभिः। जन्तरक्षार्थमालोटक्य गतिरीर्या मतो सताम ||3| त्रसस्थावरजन्तुजाताभयदानदीक्षितस्य मुनेरावश्यके प्रयोजने गच्छतो जन्तुरक्षानिमित्तं स्वशरीररक्षानिमित्त च पादाग्रादारभ्य युगमात्रक्षेत्र यावत निरीक्ष्य ईरणमीर्या गतिस्तस्यां समितिरीर्यासमितिः। यदाहः १पुरओ जुगमायाए पेहमाणो महि चरे । वज्जतो बीयहरियाई पाणे य दगमट्टियं ॥१॥ २ओवायं विसमं खाणुं विजल परिवञ्जए । सङ्कमेण न गच्छेञ्जा विज्जमाणे परक्कमे ॥२॥ गतिश्च मार्गे भवति तस्य विशेषणं लोकातिवाहितेलोकैरतिवाहितेअत्यन्तक्षुणे स्पृष्टे चुम्बिते आदित्यकिरणैः । प्रथमविशेषणेन परॅविराधिते मार्गे गच्छतो यतेः षड्जीवनिकायविराधना न भवति उन्मार्गेण न गन्तव्यमिति (१) पुरतो युगमात्रया प्रेक्षमाणों महीं चरेत् । वर्जयन् बीजहरितानि प्राणान् च दकमृत्तिकाम् ॥ (२) अवपातं विषम स्थाणु विजलं परिवर्जयेत् । संक्रमेण न गच्छेत् विद्यमाने पराक्रमे ॥ ॥८५॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JOICCCase योगशास्त्रम् योगस्वरूपम् ॥८६॥ वाह । तथाविधेऽपि मार्गे रात्रौ गच्छतः सम्पातिमसत्त्वविराधना भवेदिति तत्परिहारार्थ द्वितीयविशेषणम् । एवं विधोपयोगवतश्च गच्छतो मुनेः कथंचित् प्राणिवधेऽपि प्राणिवधपापं न भवति । यदाह-- १उच्चालियम्मि पाए इरियासमियस्स सङ्कमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिङ्गी मरिज्ज तं जोगमासज्ज ॥१॥ न२ य तस्स तन्निमित्तो बंधो मुहुमो वि देसिओ समए । अणवज्जो उपओगेण सब्वभावेण सो जम्हा ॥२॥ तथाजिअदु३ व मरदु ब जीवो अजदाचारस्स निच्छओ हिंसा । पयदस्स णत्थि बंधो हिसामित्तेण समिदस्स ॥३॥३५॥ भाषासमितिमाहअवद्यत्यागतः सर्वजनीनं मितभाषणम् । प्रिया वांचंयमानां सा भाषा समितिरुच्यते ॥३७॥ अवद्यानि भाषादोषा वाक्यशुद्धयध्ययनप्रतिपादिताः धर्तकामुकक्रव्यादचौरचार्वाकादिभाषितानि च तेषां निर्दम्भतया त्यागस्ततः सर्वजनीनं सर्वजनेभ्यो हितं, मितं स्वल्पमप्यतिबहुप्रयोजनसाधकं तच्च तद्भाषणं च । यदाह(१) उच्चालिते पादे ईर्यासमितस्य(तेन)संक्रमार्थम् । व्यापद्येत कुलिङ्गी (द्वीन्द्रियादिः) म्रियते तं योगमासाद्य ॥१॥ (२) न च तस्य तन्निमितो बन्धः सूक्ष्मोऽपि दर्शितः समये । अनवद्य उपयोगेन सर्वभावेत स यस्मात् ॥३॥ (३) जीवतु वा म्रियतां वा जीवोऽसदाचारस्य निश्चयतो हिंसा । प्रयतस्य नास्ति बन्धो हिंसामात्रेण समितस्य ॥३॥ ॥८६॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥८७॥ BHOOK O महुरं निउणं थोवं कज्जावडियं अगव्वियमतुच्छं । पुव्वि महसंकलियं भणंति जं धम्मसंजुत्तं ॥ १॥ एवंविधं यद्भाषणं सा भाषासमितिः । भाषायां सम्यगितिर्भाषासमितिः । सा च प्रिया अभिमता वाचंयमानां मुनीनाम् । यदाहु: जाय सच्चा न वतव्वा सच्चामोसा य जा मुसा । जा य बुद्धेहिं णाइण्णा ण तं भासेज्ज पण्णवं ॥ १ ॥ इति ॥ ३७॥ एषणासमितिमाह द्विचत्वारिंशता भिक्षादोषैर्नित्यमदूषितम् । मुनिर्यदन्नमादत्ते सैषणासमितिर्मता ३८ द्वाभ्यामधिका चत्वारिंशत् द्विचत्वारिशद्भिक्षादोषाः उद्गमोत्पादनैषणालक्षणाः तत्रोद्गमदोषा गृहस्थप्रभवाः षोडश यद्यथा ३आहाकम्मुद्देसियपूईकम्मे अ मीसजाए य । ठवणा पाहुडियाए पाओयरकीयपामिच्चे ॥१॥ परिट्टिए अभिडे उन्त्रभिणे मालोहडे इय । अच्छिज्ये अणिसिद्धे अज्झोअरए य सोलसमे ॥२॥ (१) मधुरं निपुणं स्तोकं कार्यापतितमगविंतमतुच्छम् । पूर्वे मतिसङ्कलितं भणन्ति यद्धर्मसंयुक्तम् ॥ (२) या च सत्या न वक्तव्या सत्यामृषा च या मृषा । या च बुद्धैरनाचीर्णा न तां भाषेत प्रज्ञावान् ॥ (३) आधाकमदशिकपूतिकर्म च मिश्रजातं च । स्थापना प्राभृतिका प्रादुष्कारक्रीतप्रामित्यम् ॥ (४) परिवर्तितमम्याहृतमुद्भिन्नं मालापहृतमिति । आच्छेद्यमनिसृष्टं अध्यवपूरकश्च षोडशः ॥ योग स्वरुपम् 114911 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् योगस्वरूपम् ॥८ ॥ आधाय विकल्प्य यति मनसि कृत्वा सचित्तस्याचित्तीकरणमचित्तस्य या पाको निरुक्तादाधाकर्म ॥१॥ उद्देशः साध्वर्थ सङ्कल्पः स प्रयोजनमस्य औद्देशिक यत्पूर्वकृतमोदनमोदकक्षोदादि तत्साधृद्देशेन दध्यादिना गुडपाकेन च संस्कुतो भवति ॥२॥ आधाकम्मिकावयवसम्मिश्रं शुद्धमपि यत्तत्पूतिकर्म शुचिद्रव्यमिवाशुचिद्रव्यसम्मिश्रम् ॥३॥ यदात्मार्थ साध्वयं चादित एव मिश्रं पच्यते तन्मिश्रम् ॥४॥ साधुयाचितस्य क्षीरादेः पृथक्कृत्य स्वभाजने स्थापनं स्थापना ॥५॥ कालान्तरभाविनो विवाहादेरिदानीं सन्निहिताः साधवः सन्ति तेषामप्युपयोगे भवत्विति बुद्धया इदानीमेव करणं समयपरिभाषया प्राभृतिका, सन्निकृष्टस्य विवाहादेः कालान्तरे साधुसमागमन सश्चिन्त्योत्कर्षणं' वा ॥६॥ यदन्धकारव्यवस्थितस्य द्रव्यस्य वसिप्रदीपमण्यादिना भित्त्यपनयनेन वा, बहिनिष्कास्य द्रव्यधारणेन वा, प्रकटकरणं तत्प्रादुष्करणम् ॥७॥ यत्साध्वर्थ मूल्येन क्रीयते तत्क्रीतम् ॥८॥ यत्साध्वर्थमन्नादि उद्यतकं गृहीत्वा दीयते तत्प्रामित्यकम् ॥९॥ स्वद्रव्यमर्पयित्वा परद्रव्यं तत्सदृशं गृहीत्वा यद्दीयते तत्परिवर्तितम् ॥१०॥ गृहयामादेः साध्वर्थ यदानीतं तदभ्याहृतम् ॥११॥ (१) दूरनयनम्, विलम्बेन करणमिति यावत् ॥ (२) उद्धारके ॥ છેલ્લા Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योग ॥८ ॥ कुतुपादिस्थस्य प्रतादेर्दानार्थ यत् मृत्तिकाद्यपनयनं तदुद्भिन्नम् ॥१२॥ यदुपरिभूमिकातः शिक्यादेभूमिगृहाद्वा आकृष्य साधुभ्यो दानं तन्मालापहृतम् ॥१३॥ उदाच्छिद्य परकीयं हठात् गृहीत्वा स्वामी प्रभुश्चौरो वा ददाति तदाच्छेद्यम् ॥१४॥ यद्गोष्ठीभक्तादि सर्वैरदत्तमननुमतं वा एकः कश्चित्साधुभ्यो ददाति तदनिसृष्टम् ॥१५॥ स्वार्थमधिश्रयणे सति साधुसमागमश्रवणात्तदर्थं पुनर्यों धान्यादिवापः सोऽध्यवपूरकः ॥१६॥ उत्पादनादोषा अपि पोडश ते च साधुप्रभवाः । तद्यथा-- धाई दुई निमित्ते आजीववणीवगे तिगिच्छा य । कोहे माणे माया लोभे अ हवन्ति दस एए ॥१॥ २पुब्धि पच्छासंथविज्जामन्ते अ चुण्णजोए य । उप्पायणाइ दोसा सोलसमे मूलकम्मे य ॥२॥ बालस्य क्षीरमज्जनमण्डनक्रीडनाङ्कारोपणकर्मकारिण्यः पञ्च धान्यः एतासां कर्म भिक्षार्थ कुर्वतो मुनेर्धात्रीपिण्डः ॥१॥ मिथः सन्देशकथनं दूतीत्वं तत्कुर्वतो भिक्षार्थ दतीपिण्डः ॥२॥ अतीतानागतवर्तमानकालेषु लाभालाभादिकथनं निमित्तं तद्भिक्षार्थ कुर्वतो निमित्तपिण्डः ॥३॥ जातिकुलगणकर्मशिल्पादिप्रधानेभ्य आत्मनस्तत्तद्गुणत्वारोपणं भिक्षार्थमाजीवपिण्डः ॥४॥ (१) धात्री दुती निमित्तं आजीववनीपके चिकित्सा च । क्रोधो मानो माया लोभश्च भवन्ति दश पते ॥ (२) पूर्वपश्चात्संस्तवविद्यामन्त्रं च चूर्णयोगश्च । उत्पादनाया दोषाः पोख्यो मूलकर्म च ॥ ॥८॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥९०॥ श्रमण ब्राह्मणक्षपणातिथिश्वानादिभक्तानां पुरतः पिण्डार्थमात्मानं तत्तद्भक्तं दर्शयतो वनीपकपिण्डः ॥५॥ वमन विरेचनवस्तिकर्मादि कारयतो वैद्यभैषज्यादि सूचयतो वा पिण्डार्थ चिकित्सा पिण्डः || ६ || विद्यातपःप्रभावज्ञापनं राजपूजादिख्यापनं क्रोधफलदर्शन वा भिक्षार्थं कुर्वतः क्रोधपिण्डः ॥७॥ लब्धिप्रशंसोत्तानस्य परेणोत्साहितस्यावमतस्य वा गृहस्थाभिमानमुत्पादयतो मानपिण्डः ||८|| नानावेषभाषापरिवर्त्तनं भिक्षार्थी कुवतो मायापिण्डः ॥ ९ ॥ अतिलोभाद् भिक्षार्थी पर्यटतो लोभपिण्डः ॥१०॥ पूर्वसंस्तवं जननीजनकादिद्वारेण पश्चात्संस्तवं श्वश्रूश्वशुरादिद्वारेणात्मपरिचयाऽनुरूषं सम्बन्धं भिक्षार्थं घटयतः पूर्वपश्चात्संस्तव पिण्डः ||११ विद्यां मन्त्र चूर्ण योगं च भिक्षार्थं प्रयुञ्जानस्य चत्वारो विद्यादिपिण्डाः-मन्त्रजपहोमादिसाध्या स्त्रीदेवताधिष्ठाना वा विद्या ||१२|| पाठमात्र प्रसिद्धः पुरुषाधिष्ठानो वा मन्त्रः ॥ १३ ॥ चूर्णानि नयनाञ्जनादीनि अन्तर्द्धानादिफलानि ॥१४॥ पादप्रलेपादयः सौभाग्यदौर्भाग्यकरा योगाः ॥ १५ ॥ गर्भस्तम्भगर्भाधानप्रसवस्नपनकमूलरक्षाबन्धनादि भिक्षार्थं कुर्वतो मूलकर्म्मपिण्डः ॥१६॥ गृहिसाधूभयप्रभवा एषणादोषा दश । तद्यथा- योग स्वरूपम् ॥९०॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग योग स्वरूपम् शाखम् सङ्कियमक्खियनिक्खित्नपिहियसाहरिअदायगुम्मीसे । अपरिणयलिसछड्डिय एसणदोसा दस हवंति ॥१॥ आधाकर्मकादिशङ्काकलुषितो यदन्नाद्यादत्ते तच्छङ्कितं यं च दोष शङ्कते तमापद्यते ॥१॥ पृथिव्युदकवनस्पतिभिः सचित्तैरचित्तैरपि मध्वादिभिर्गहितैराश्लिष्टं यदनादि तन्म्रक्षितम् ॥२॥ पृथिव्युदकतेजोवायुवनस्पतिषु त्रसेषु च यदनाद्यचित्तमपि स्थापितं तनिक्षिप्तम् ॥३॥ सचित्तेन फलादिना स्थगितं पिहितम् ॥४॥ दानभाजनस्थमयोग्यं सचित्तेषु पृथिव्यादिषु निक्षिप्य तेन भाजनेन ददतः संहृतम् ॥५॥ बालवृद्धपण्डकवेपमानज्वरितान्धमत्तोन्मत्तच्छिन्नकरचरणनिगडितपादुकारूढकण्डकपेषकभर्जककर्तकलोठकवींखकपिञ्ज कदलकव्यालोडकभोजकषइकायविराधका दातृत्वेन प्रतिषिद्धा या च स्त्री वेलामासवती गृहीतबाला बालवत्सा वा एभ्यो अनादि गृहीतुं साधोर्न कल्पते ॥६॥ देयद्रव्यं खण्डादि सचित्तेन धान्यकणादिना मिश्रं ददत उन्मिश्रम् ॥७॥ देयद्रव्यं मिश्रमचित्तत्वेनापरिणमनादपरिणतम् ॥८॥ वसादिना संसष्टेन हस्तेन पात्रण वा ददतोऽनादि लिप्तम् ॥९॥ घतादि च्छईयन् यद्ददाति तत् छर्दितं, छद्यमाने घृतादौ तत्रस्थस्यागन्तुकस्य वा सर्वस्य जन्तोर्मधुबिन्दुदाहरणेन विराधनासम्भवात् ॥१०॥ (१) शङ्कितम्रक्षितनिक्षिप्तपिहितसंहृतदायकोन्मिश्रम् । अपरिणतलिप्तछर्दितं एषणादोपा दश भवन्ति ॥ ॥११॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥९२। योग स्वरूपम् तदेवमुद्गमोत्पादनैषणादोषाः संहता द्विचत्वारिंशद्भवन्ति, ते च भिक्षादोषास्तैरक्षितमन्नमशनखाद्यस्वाधभेदमुपलक्षणत्वात्पान सौवीरादि, तथा रजोहरणमुखवस्त्रचोलपट्टपात्रादिस्थविरकल्पिकयोग्यश्चतुर्दशविधो, जिनकल्पिकयोग्यश्च द्वादशविध औधिक उपधिः, आर्यिकायोग्यश्च पञ्चविंशतिविधः । औपग्रहिकश्च शय्यापीठफलकचर्मदण्डादिरूपलक्षणादेव परिगृह्यते । न ह्यौधिकरजोहरणाद्यन्तरेण औपग्रहिकपीठफलकाद्यन्तरेण च वर्षासु हेमन्तग्रीष्मयोरपि जलकणिकाकुलायामनूपभूमौ१ महाव्रतसंरक्षणं कर्तु क्षमम् । एतदोषविशुद्धमन्नादि यन्मुनिरादत्ते सा एषणमेषणा यथागममन्नादेरन्वेषणम् । अत्र “इषोऽनिच्छायाम्" ॥५।३।११२॥ इति खियाममस्तस्यां च समितिरेषणासमितिः। इयं गवेषणारूपा एषणा, ग्रासैषणाप्यनयोपलक्ष्यते तस्यां च पश्च दोषाः । तद्यथा संयोजना १ प्रमाणातिरिक्तता २ अङ्गारो ३ धूमः ४ कारणाभावश्च ५ । तत्र रसलोभाद्रव्यस्य मण्डकादेद्रव्यान्तरेण खण्डघृतादिना वसतेबहिरन्तर्वा योजनं संयोजना ॥१॥ धृतिबलसंयमयोगा यावता न सीदन्ति तदाहारप्रमाणम् । अधिकाहारस्तु वमनाय मृत्यवे व्याधये चेति तं परिहरेदिति प्रमाणातिरिक्ततादोषः ॥२॥ स्वाद्वनं तदातारं वा प्रशंसन् यद्भुक्ते सरागाग्निना चरित्रेन्धनस्याङ्गारीकरणादगारो दोषः ॥३॥ निन्दन् पुनश्चारित्रेन्धनं दहन् धूमकरणाधूमो दोषः ॥४॥ क्षुद्वेदनाया असहनं क्षामस्य च वैयावृत्त्याकरणमीर्यासमितेरविशुद्धिः प्रेक्षोत्प्रेक्षादेः संयमस्य चापालनं क्षुधातुरस्य प्रबलाग्न्युदयात्प्राणप्रहाणशङ्का आतरौद्रपरिहारेण धर्मध्यानस्थिरीकरण चेति भोजनकारणानि तदभावे भुजानस्य कारणाभावदोषः ॥५॥ यदाह(१) जलमयभूमौ ॥१२॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगस्वरूपम् LIR RUL उत्पादनोद्गमैषणाध्मांगारप्रमाणकारणतः । संयोजनाच पिण्डं शोधयतामेषणासमितिः ॥१॥ इति ॥३८॥ आदाननिक्षेपसमितिमाह-- आसनादीनि संवीक्ष्य प्रतिलिख्य च यत्ननः। गृह्णीयान्निक्षिपेद्वा यत्सादानसमितिः स्मृता ॥३९॥ आसनं विष्टरः आदिशब्दाद्वस्त्रपात्रफलकदण्डादेः परिग्रहः । तान्यासनादीनि संवीक्ष्य चक्षुषा प्रतिलिख्य रजोहरणादिना यत्नत इत्युपयोगपूर्वकम् । अन्यथा सम्यक्प्रतिलेखना न स्यात् । यदाह १पडिलेहणं कुणतो मिहो कई कुणइ जणवयकहं वा । देइ व पच्चक्खाणं वाएइ सय पडिच्छइ वा ॥१॥ २पुढवीआउकाए तेऊवाऊवणस्सइतसाण । पडिलेहणापमत्तो छण्डंपि विराहगो भणिओ ॥२॥ यद्गृह्णीयादाददीत निसिपेत् स्थापयेत्सवीक्षितप्रतिलिखितभूमौ सा आदाननिक्षेपसमितिः। भीमो भीमसेन इति न्यायादादानसमितिः ॥३७॥ उत्सर्गसमितिमाह| कफमूत्रमलपोयं निर्जन्तुजगतीतले । यत्नाद्यदुत्सृजेत्साधुः सोत्सर्गसमितिर्भवेत् ।४०। कफः श्लेष्मा मुखनासिकासञ्चारी मूत्रं प्रश्रवणं मलो विष्ठा प्रायग्रहणादन्यदपि परिष्ठापनायोग्य वस्त्रपात्रभतपानादि गृह्यते । निर्जन्तुस्खसस्थावरजन्तुरहिता स्वयं च निजन्तुर्या जगती तस्यास्तलं स्थण्डिलमित्मर्थः। तत्र (१) प्रतिलेखनां कुर्वन् मिथः कथां करोति जनपदकथां वा । ददाति वा प्रत्याख्यानं वाचयति स्वयं प्रतीच्छति वा । (२) पृथिव्यप्कायतेजोवायुवनस्पतित्रसानाम् । प्रतिलेखनाप्रमत्तः षण्णामपि विराधको भणितः ॥ ॥१३॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग योगशास्त्रम् स्वरूपम् ॥२४॥ यत्नादुपयोगपूर्वकं यदुत्सृजेत्साधुः सोत्सर्गसमितिः ॥४०॥ अथ गुप्तीनामवसरः, तत्र मनोगुप्तिमाह| विमुक्तकल्पनाजालं समत्वे सुप्रतिष्ठितम्। आत्मारामं मनस्तज्ज्ञैर्मनोगुप्तिरुदाहृता ॥४१॥ इह मनोगुप्तिस्त्रिधा । आतरौद्रध्यानानुबन्धिकल्पनाजालवियोगः प्रथमा । शास्त्रानुसारिणी परलोकसाधिका धर्मध्यानानुबन्धिनी माध्यस्थ्यपरिणतिद्धितीया । कुशलाकुशलमनोवृत्तिनिरोधेन योगनिरोधावस्थाभाविन्यात्मारामता तृतीया । ता एतास्तिस्रोऽपि विशेषणत्रयेणाह-विमुक्तकल्पनाजालमिति समत्वे सुप्रतिष्ठितमिति आत्माराममिति च एवंविधं मनो मनोगुप्तिः ॥४१॥ वाग्गुप्तिमाह-- संज्ञादिपरिहारेण यन्मौनस्यावलम्बनम् । वाग्वृत्तेः संवृतिर्वा या सा वाग्गुप्तिरिहोच्यते ॥४२॥ संज्ञा मुखनयनभूविकारागुल्याच्छोटनादिका अर्थसूचिकाश्चेष्टाः आदिशब्दाल्लोष्टक्षेपो भावकासितहुकृतादीनि गृह्यन्ते । संज्ञादीनां यः परिहारस्तेन यन्मौनमभाषणं तस्यावलम्बनमभिग्रहः । संज्ञादिना हि प्रयोजनानि सूचयतो मौनं निष्फलमेवेत्येका वाग्गुप्तिः । वाचनप्रच्छनपृष्टव्याकरणादिषु लोकागमाविरोधेन मुखवस्त्रिकाच्छादितवक्त्रस्य भाषमाणस्यापि वाग्वृत्तेः संवृतिर्वाग्विनियन्त्रणं द्वितीया वाग्गुप्तिः। आभ्यां भेदाभ्यां वाग्गुप्तेः सर्वथा वाग्निरोधः सम्यग्भाषणं च रूरूपं प्रतिपादितं भवति, भाषासमितौ तु सम्यग्वाक्प्रवृत्तिरेवेति वाग्गुप्तिभाषासमित्योर्भेदः। ॥९४ा Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योग स्थरूपम् यदाहु:-- १समिओ नियमा गुत्तो गुत्तो समियत्तणम्मि भयणिज्जो। कुसलवयमुईरंतो जं वइगुत्तो वि समिओ वि ॥२४॥ अथ कायगुप्ति सा च द्विधा चेष्टानिवृत्तिलक्षणा यथासूत्रं चेष्टानियमलक्षणा च, तत्राद्यामाह-- उपसर्गप्रसङ्गेऽपि कायोत्सर्गजुषो मुनेः । स्थिरीभावः शरीरस्य कायगुप्तिर्निगद्यते ॥४३॥ उपसर्गा देवमानुषतिर्यकृता उपद्रवाः । उपलक्षणत्वात् क्षुत्पिपासादयः परीषहा अपि गृह्यन्ते तेषां प्रसङ्गः । सन्निपातः । अपि शब्दात्तदभावेऽपि मुनेः साधोः कायः शरीरं तस्योत्सर्गस्त्यागस्तत्र निरपेक्षतालक्षणस्तं जुषते तस्य कायोत्सर्गजुषो यः स्थिरीभावो निश्चलता योगनिरोधं कुर्वतः सर्वथा शरीरचेष्टापरिहारो वा यः, सा कायगुप्तिः ॥४३॥ द्वितीयामाहशयनासननिक्षेपादानचंक्रमणेषु यः स्थानेषु । चेष्टानियमः कायगुप्तिस्तु साऽपरा ॥४४॥ शयनमागमोक्तो निद्राकालः स च रात्रावेव न दिवा । अन्यत्र ग्लानाध्वश्रान्तवृद्धादेः । तत्रापि प्रथमयामेऽ तिक्रान्ते गुरूनापृच्छच प्रमाणयुक्तायां वसतौ संवीक्ष्य प्रमृज्य च भूमि संहत्यास्तीर्य च संस्तरणपट्टकद्वयमूर्ध्वमधश्च कार्य सपादं मुखवस्त्रिकारजोहरणाभ्यां प्रमृज्यानुज्ञापितसंस्तारकावस्थानः पठितपश्चनमस्कारसामायिकसूत्रः १ समितो नियमाद्गुप्तो गुप्तः समितत्वे भजनीयः। कुशलबाचमुदीरयन् यत् वाग्गुप्तोऽपि सांमतोऽपि ॥१॥ १९५॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगस्वरूपम् ॥९ ॥ भूप्रदेशे प्रत्येच मुखवजिको वा प्रमा कृतवामवाहूपधान आकुश्चितजानुकः कुक्कुटीवद्वियति प्रसारितजसो वा प्रमार्जितक्षोणीतलन्यस्तचरणो वा भूयः सङ्कोचसमये प्रमार्जितसंदंशकः उद्वर्तनकाले च मुखवस्विकाप्रमृष्टकायो नात्यन्ततीब्रनिद्रः शयीत । प्रमाणयुक्ता तु वसतिस्तत्रयप्रमिते भूप्रदेशे प्रत्येकं सभाजनानां साधूनां यत्रावस्थानं सकलाबकाशपूरणं च स्यात् । आसनमुपवेशनं तद्यत्र प्रदेशे चिकीर्षितं तं चक्षुषा निरीक्ष्य प्रमृज्य च रजोहरणेन बहिर्निषद्यामास्तीर्योपविशेत् उपविटोऽप्याकुञ्चनप्रसारणादि तथैव कुर्वीत वर्षादिषु च वृषीपीठादिषूक्तयैव सामाचार्योपविशेत् । निक्षेपादाने च दण्डाद्युपकरणविषये ते अपि प्रत्यवेक्ष्य प्रमृज्य च विधेये । चंक्रमणं गमनं तदप्यावश्यकप्रयोजनवतः साधोः पुरस्तायुगमात्रप्रदेशसन्निवेशितदृष्टेरप्रमत्तस्य त्रसस्थावरभूतानि संरक्षतोऽत्वरया पदन्यासमाचरतः प्रशस्तं । स्थानमूर्ध्वस्थितिलक्षणमवष्टम्भादि च प्रत्यवेक्षितप्रमार्जितप्रदेशविषयम् । एतेषु चेष्टानियमः स्वच्छन्दचेष्टापरिहारो यः सा अपरा द्वितीया कायगुप्तिरिति ॥४४॥ एतासामागमप्रसिद्ध मातृत्वमुपदर्शयतिएताश्चारित्रगात्रस्य जननात्परिपालनातू संशोधनाच्च साधूनां मातरोष्टौ प्रकीर्तिताः॥४५॥ एताः समितिगुप्तयः शास्त्रेऽष्टौ मातर इति प्रसिद्धाः। मातृत्वे हेतूनाह । साधूनां सम्बन्धि चारित्रमेव गात्रमङ्गं तस्य जननादभूतस्य प्रादुर्भावनात् । जनितस्य च चारित्रगात्रस्य परिपालनात्सापद्रवनिवारणेन पोषणेन च वृद्धिनयनात् । चारित्रगात्रस्यैवादिचारनलिनस्य सतः संशोधनान्निर्मलीकरणादिति ॥४५॥ चारित्रं व्याख्यायोपसंहरति ॥९॥ eesed Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योग स्वरूपम् ॥९॥ सर्वात्मना यतीन्द्राणामेतच्चारित्रमीरितम् । यतिधर्मानुरक्तानां देशतः स्यादगारिणाम् ॥४६॥ द्विधा चारित्रं सर्वदेशभेदात् । सर्वात्मना चारित्र सर्वसावधयोगविरतिलक्षणम् । यतीन्द्राणामनगारिश्रेष्ठानामेतन्मूलगुणोत्तरगुणस्वरूपमीरितम् । धातूनामनेकार्थत्वात्प्रतिपादितम् । देशचारित्रं तु केषामित्याह । अगारिणां गृहस्थानां देशत एकदेशविरतिलक्षणम् । कि विशिष्टानामगारिणां ? यतिधर्मानुरक्तानां यतिधर्मे सर्वविरतिचारित्र रूपे अनुरक्तानां संहननादिदोषादकुर्वतामपि प्रीतिमताम् । यदाह-सर्वविरतिलालसः खलु देशविरतिपरिणामः यतिधर्मानुरागरहितानां तु गृहस्थानां देशविरतिरपि न सम्यगिति देशतः स्यादगारिणामित्युक्तम् ॥४६॥ तत्र यादृशो गृहस्थो धर्माधिकारी तादृशमुपदर्शयितुं तथाहीत्यनेन प्रस्तावनामाह, तथाहीत्युपदर्शने निपातसमुदायः-- न्यायसम्पन्न विभवः शिष्टाचारप्रशंसकः । कुलशीलसमैः साथै कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजः ॥४७॥ पापभीरुः प्रसिद्धं च देशाचारं समाचरन् । अवर्णवादी न वापि राजादिषु विशेषतः॥४८॥ अनतिव्यक्तगुप्ते च स्थाने सुप्रातिवेश्मिके । अनेकनिर्गमद्वारविवर्जितनिकेतनः ॥४९॥ कृतसङ्गः सदाचारर्मातापित्रोच पूजकः । त्यजन्नुपप्लुतं स्थानमप्रवृत्तश्च गर्हिते ॥५०॥ व्ययमायोचितं कुर्वन् वेषं वित्तानुसारतः । अष्टभिर्धीगुणैर्युक्तः श्रृण्वानो धर्ममन्वहम्॥५१॥ ॥२७॥ MADHE Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् योगस्वरूपम् ॥९८॥ || अजीर्णे भोजनत्यागी काले भोक्ता च सात्म्यतः। अन्योऽन्याप्रतिबन्धेन त्रिवर्गमपि साधयन्।५२ यथावदतिथौ साधौ दोने च प्रतिपत्तिकृत् । सदानभिनिविष्टश्च पक्षपाती गुणेषु च ॥५३॥ अदेशाकालयोश्चर्या त्यजन् जानन् बलाबलम् । वृत्तस्थज्ञानवृद्धानां पूजकः पोष्यपोषकः॥५४॥ दीर्घदशी विशेषज्ञः कृतज्ञो लोकवल्लभः । सलजः सदयः सौम्यः परोपकृतिकर्मठः ॥५५॥ अन्तरङ्गारिषड्वर्गपरिहारपरायणः । वशीकृतेन्द्रियग्रामो गृहिधर्माय कल्पते ॥५६॥ (दशभिः कुलकम्) स्वामिद्रोहमित्रद्रोहविश्वसितवञ्चनचौर्यादिगार्थोपार्जनपरिहारेणार्थोपार्जनोपायभूतः स्वस्ववर्णानुरूपः सदाचारो न्यायस्तेन सम्पन्न उत्पन्नो विभवः सम्पद्यस्य स तथा । न्यायसम्पन्नो हि विभव इहलोकहिताय । अशङ्कनीयतया स्वशरीरेण तत्फलभोगान्मित्रस्वजनादौ संविभागकरणाच । यदाह सर्वत्र शुचयो धीराः स्वकर्मबलगर्विताः । कुकर्मनिहतात्मानः पापाः सर्वत्र शङ्किताः ॥१॥ परलोकहिताय च सत्पात्रेषु विनियोगाद्दीनादौ कृपया वितरणाच्च । अन्यायोपात्तस्तु लोकद्वयेऽप्यहितायैव इहलोके हि लोकविरुद्धकारिणो वधबन्धादयो दोषाः परलोके नरकादिगमनादयः । यद्यपि कस्यचित्पापानुबन्धिपुण्यकर्मवशादैहलौकिकी विपन्न दृश्यते तथाप्यायत्यामवश्यम्भाविन्येव । यदाह ॥१८॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥९९॥ COCHES & CHOO पापेनैवार्थरागान्धः फलमाप्नोति यत् कथित् । वडिशामिषवत्तत्तमविनाश्य न जीर्यति ॥ १ ॥ न्याय एव परमार्थतोऽर्थोपार्जनोपायोपनिषत् । यदाह- निपानमिव मण्डूकाः सरः पूर्णमिवाण्डजाः । शुभकर्माणमायान्ति विवशाः सर्वसम्पदः ||१|| विभवत्वं च गार्हस्थ्ये प्रधानं कारणमित्यादा न्यायसम्पन्नविभव इत्युक्तम् ॥१॥ तथा शिष्टाचारप्रशंसकः चारचरितम् । यथा— लोकापवादभीरुत्वं दीनाभ्युद्धरणादरः । कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं सदाचारः प्रकीर्त्तितः ||१|| इत्यादि । तस्य प्रशंसकः । यथा विपद्युच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महतां, प्रिया न्याय्या वृत्तिर्मलिनमसुभङ्गेऽप्यसुकरम् ॥ असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यस्तनुधनः सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् ॥ १ ॥२॥ तथा कुलं पितृपितामहादिपूर्व पुरुषवंशः, शीलं मद्यमांसनिशाभोजनादिपरिहाररूपः समाचारस्ताभ्यां समास्तुल्याः समकुलशीला इत्यर्थः । गोत्रं नाम तथाविधैकपुरुषप्रभवो वंशस्तत्र जाता गोत्रजाः तेभ्योऽन्येऽन्यगोत्र' जस्तैः सार्द्धं कृतोद्वाsो विहितविवाहः । अग्निदेवादिसाक्षिकं पाणिग्रहणं विवाहः । स च लोकेऽष्टविधः तत्रालङ्कृत्य कन्यादानं ब्राह्मो विवाहः १ । विभवविनियोगेन कन्यादानं प्राजापत्यः २ । गोमिथुनदानपूर्वकमार्षः ३ । यत्र यज्ञार्थमृत्विजः कन्याप्रदानमेव दक्षिणा स दैवः ४ । एते धर्म्या विवाहाश्चत्वारः । मातुः पितुर्बन्धूनां शिष्यन्ते स्म शिष्टा दृत्तस्थज्ञानवृद्धसेवोपलब्धविशुद्धशिक्षाः पुरुषविशेषास्तेषामा EXCORERO ORREST & CREEEEEE योग स्वरूपम् ॥९९॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योग स्वरूपम् uooll चाप्रामाण्यात्परस्परानुरागेण मिथः समवायादगान्धर्बः ६ । पणबन्धेन कन्याप्रदानमासुरः ६। प्रसा कन्याग्रहणा द्राक्षसः ७ । सुप्तप्रमत्तकन्याग्रहणात्पैशाचः ८ । एते चत्वारोऽप्यधाः । यदि वधूवरयोः परस्परं रुचिरस्ति तदा अधा अपि धाः । शुद्धकलत्रलाभफलो विवाहः । अशुद्धभार्यादियोगेन नरक एव । तत्फलं वधूरक्षणमाचरतः सुजातसुतसन्ततिरनुपहता चित्तनिवृत्तिडकृत्यमुविहितत्वमाभिजात्याचारविशुद्धत्वं देवातिथिबान्धवसत्कारानवद्यत्वं चेति । वधूरक्षणोपायास्त्वेते-गृहकमविनियोगः १ परिमितोऽर्थसंयोगो २ ऽस्वातन्त्र्यम् ३ सदा च मातृतुल्यस्त्रीलोकावरोधन ४ मिति ॥३॥ पापानि दृष्टादृष्टापायकारणानि कर्माणि तेभ्यो भीरुः । तत्र दृष्टापायकारणानि चौर्यपारदारिकत्वद्यूतरमणादीनि इहलोकेऽपि सकललोकप्रसिद्धविडम्बनास्थानानि । अदृष्टापायकारणानि मद्यमांससेवनादीनि शास्त्रनिरूपितनरकादियातनाफलानि ॥४॥ __ प्रसिद्धः तथाविधापरशिष्टसम्मततया दुरं रूढिमागतः। देशाचारो भोजनाच्छादनादिचित्रक्रियात्मकः सकलमण्डलव्यवहारस्तं सम्यगाचरन्, तदाचारातिलङ्घने हि तद्देशवासिजनतया विरोधसम्भावनादकल्याणलाभः स्यात् ।। अवर्णोऽश्लाघा तं वदतीत्येवंशीलोऽवर्णवादी न कापि जघन्योत्तममध्यमभेदेषु जन्तुषु । परावणवादी हि बहुदोषः । यदाहपरपरिभवपरिवादादात्मोत्कर्षाच्च बध्यते कर्म । नीचैर्गोत्रं प्रतिभवमनेकभवकोटिदुर्मोचम् ॥१॥ तदेवं सकलजनगोचरोऽप्यवर्णवादो न श्रेयान् । किं पुना राजामात्यपुरोहितादिषु बहुजनमान्येषु । राजाद्य Hlboll Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग योगशास्त्रम् ॥१०१ वर्णवादाद्धि वित्तप्राणनाशनादिरपि दोषः स्यात् ॥६॥ तथा अनेक बहु यनिर्गमद्वारं उपलक्षणत्वात्तदेव च प्रवेशद्वारं तेन विवर्जितं निकेतनं यस्य स तथा । बहुषु हि निर्गमप्रवेशद्वारेष्वनुपलक्ष्यमाणनिर्गमप्रवेशानां दुष्टलोकानामापाते स्वीद्रविणादिविप्लवः स्यात् । अत्र चानेकद्वारतायाः प्रतिषेधेन विधिराक्षिप्यते । ततः प्रतिनियतद्वारसुरक्षितगृहो गृहस्थः स्यादिति लभ्यते । तथाविधमपि निकेतनं स्थान एव निवेशयितुं युक्तं नास्थाने । स्थानं तु शल्यादिदोषरहितं बहुलप्रवालकुशस्तम्बप्रशस्तवर्णगन्धमृत्तिकासुस्वादुजलोद्गमनिधानादिमच्च । स्थानगुणदोषपरिज्ञानं च शकुनस्वप्नोपश्रुतिप्रभृतिनिमित्तादिवलेन । स्थानमेव विशिनष्टि-अतिव्यक्तमतिप्रकटमतिगुप्तमतिप्रच्छन्नं तन्निषेधादनतिव्यक्तगुप्तम् । तत्र अतिव्यक्त यसन्निहितगृहान्तरतया परिपार्श्वतो निरावरणतया चौरादयोऽभिभवेयुः। अतिगुप्ते च सर्वतो गृहान्तरैनिरुद्धत्वान्न स्वशोभां लभते, प्रदीपनकायुपद्रवेषु च दुःखनिर्गमप्रवेशं गृहं भवति । पुनः कथंभूते स्थाने ? सुप्रतिवेश्मिके शोभनाः शीलादिसम्पन्नाः प्रातिवेश्मिका यत्र । कुशीलपातिवेश्मिकत्वे हि तदालापश्रवणतच्चेष्टादर्शनादिवशात् स्वतः सगुणस्यापि गुणहानिः स्यात् । दुष्प्रातिवेश्मिकास्त्वेते शाखप्रतिषिद्धाः १खरियातिरिक्खजोणीतालायरसमणमाहणसुसाणा । वग्गुरिअवाहगुम्मियहरिएसपुलिदमच्छंधा ॥ १ ॥७॥ तथा कृतः सङ्गो येन स कृतसङ्गः सन् शोभन आचार इहपरलोकहिता प्रवृत्तिर्येषां ते सदाचारास्तै तु कितवर्तविटभट्टभण्डनटादिभिस्तत्सङ्गे हि सदपि शीलं विलीयेत । यदाह१ खरिका (दासी) तिर्यग्योनितालाचरश्रमणब्राह्मणस्मशानाः । वागरिकव्याधगौल्मिकहरिकेशपुलिन्द्रमत्स्यन्धाः॥१॥ Nil॥२०१५ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ११०२॥ स्वरूपम् यदि सत्सङ्गनिरतो भविष्यसि भविष्यसि । अथासज्जनगोष्ठीषु पतिष्यसि पतिष्यसि ॥१॥ सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत्त्यक्तुं न शक्यते। स सद्भिः सह कर्तव्यः सन्तः सङ्गस्य भेषजम्॥२॥ ॥इति च ॥८॥ तथा माता जननी पिता जनकस्तयोः पूजकस्विसन्ध्यं प्रणामकरणेन परलोकहितानुष्टाननियोजनेन सकलव्यापारेषु तदाज्ञया प्रवृत्त्या वर्णगन्धादिप्रधानस्य पुष्पफलादिवस्तुन उपढौकनेन तद्भोगे भोगेन चानादीनमान्यत्र तदनुचितादिति । माता च पिता च मातापितरौ " आ द्वद्वे" ॥३२॥३९॥ इत्यात्वं मातुश्चाभ्यर्हितत्वात्पूर्वनिपातः । यन्मनु: उपाध्याया दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता । सहसं तु पितुर्माता गौरवेणातिरिच्यते ॥१॥९॥ तथा त्यजन् परिहरन उपप्लुतं स्वचक्रपरचक्रविरोधादुर्भिक्षमारीतिजनविरोधादेश्चास्वस्थीभूतं यत् स्थानं ग्राम नगरादि । अत्यज्यमाने हि तस्मिन् धर्मार्थकामानां पूोजितानां विनाशेन नवानां चानुपार्जनेनोभयलोकभ्रंश एव स्यात् ॥१०॥ तथा गर्हित देशजातिकुलापेक्षया निन्दितं कर्म तत्राप्रवृत्तः। देशगर्हितं यथा-"सौवीरेषु कृषिकर्म । लाटेषु मद्यसन्धानम् । जात्यपेक्षया यथा-ब्राह्मणस्य सुरापानं तिललवणादिविक्रयश्च । कुलापेक्षया यथा-चौलुक्यानां मद्यपानम् गर्हितकर्मकारिणो हि शेषमपि धर्म्य कर्मोपहासाय भवति ॥११॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥१०३॥ तथा व्ययो भर्त्तव्यभरणस्वभोगदेवतातिथिपूजनादिप्रयोजने द्रव्यविनियोगः । आयः कृषिपाशुपाल्यवाणिज्यसेवादिजनितो द्रव्यलाभः तस्योचितमनुरूपं व्ययं कुर्वन् । यदाह - १लाभोचियदाणे लभोचियभोगे लाभोचियनिहिकरे सिया । " आयोचितश्च व्ययश्चतुर्भागादितया कैश्चिदुच्यते । यदाह— पादमायान्निधिं कुर्यात्पादं वित्ताय घट्टयेत् । धर्मोपभोगयोः पादं पादं भर्त्तव्यपोषणे ॥ १॥ केचित्त्वाहु:आयादर्द्ध नियुञ्जीत धर्मे समधिकं ततः । शेषेण शेषं कुर्वीत यत्नतस्तुच्छ मेहिकम् ॥१॥ आयानुचितो हि व्ययो रोगमिव शरीरं कृशीकृत्य विभवसारमखिलव्यवहारासमर्थ पुरुषं कुर्वीत । उक्तं चआयव्ययमनालोच्य यस्तु वैश्रवणायते । अचिरेणैव कालेन सोऽत्र वै श्रमणायते || १ || १२ || 64 तथा वेषो वस्त्रालङ्करणादिभोगः । दित्तं विभव उपलक्षणाद्वयोऽवस्था देशकालजात्यादिग्रहः । तदनुसारेण तदानुरूप्येण कुर्व्वन्निति सम्बद्ध्यते । विभवाद्यननुसारेण वेषं कुर्वतो जनोपहसनीयतातुच्छत्वान्यायसम्भावनादयो दोषाः । अथवा व्ययमायोचितं कुर्वन्नेव वेषं वित्तानुसारेण कुर्व्वन्नेवेत्यपरोऽर्थः । यो हि सत्यप्याये कार्पण्याद् व्ययं न करोति सत्यपि वित्ते कुचेलत्वादिधर्मा भवति । स लोकगर्हितो धर्मेऽप्यनधिकारीति ॥ १३॥ तथा अष्टभिर्धीगुणैर्युक्तः धियो बुद्धेर्गुगाः शुश्रूषादयः । ते त्वमी शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा । ऊहोsपं होऽर्थविज्ञानं तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः ॥ १॥ (१) लाभोचितदानं लाभोचितभोगो लाभाचित निधिकरः स्यात् । 05050 hote योग स्वरूपम् ॥१०३॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योगस्वरूपम् ॥१०४॥ मिदमि एते ति । यावाल्यन तत्र शुश्रूषा श्रोतुमिच्छा । श्रवणमाकर्णनम् । ग्रहणं शास्त्रार्थोपादानम् । धारणमविस्मरणम् । ऊहो विज्ञात मर्थमवलम्ब्यान्येषु तथाविधेषु व्याप्त्या वितर्कणम् । अपोह उक्तियुक्तिभ्यां विरुद्धादर्थाद् हिंसादिकात् प्रत्यपा यसम्भावनया व्यावर्त्तनम् । अथवा ऊहः समान्यज्ञानमपोहो विशेषज्ञानम् । अर्थविज्ञानमूहापोहयोगान्मोहसन्देहविपर्यासव्युदासेन ज्ञानम् । तत्त्वज्ञानमूहापोहविज्ञानविशुद्धमिदमित्थमेवेति निश्चयः । शुश्रूषादिभिर्हि उपाहितप्रज्ञाप्रकर्षः पुमान कदाचिदकल्याणमामोति । एते च बुद्धिगुणा यथासम्भवं द्रष्टव्याः ॥१४॥ तथा श्रृण्वानस्ताच्छील्येन धममभ्युदयनिःश्रेयसहेतुः श्रृण्वन् अन्वहं प्रतिदिनं धर्मश्रवणपरो हि मनः खेदाप नोदादिकमामोति । यदाह क्लान्तमपोज्झति खेदं तप्तं निर्वाति बुद्धयते मूढम् । स्थिरतामेति व्याकुलमुपयुक्तसुभाषितं चेतः ॥१॥ प्रत्यहं धर्मश्रवणं चोत्तरोत्तरर्गुणप्रतिपत्तिसाधनत्वात्प्रधानमिति श्रवणमात्राबुद्धिगुणादस्य भेदः ॥१५॥ तथा अजीर्णे अजरणे पूर्वभोजनस्य अथवा अजीर्णे परिपाकमनागते पूर्वभोजने नवं भोजनं त्यजतीत्येवंशीलः अजीर्णभोजने हि सर्वरोगमूलस्याजीर्णस्य वृद्धिरेव कृता भवति । यदाइ-"अजीर्णप्रभवा रोगा इति" अजीर्ण च लिङ्गतो ज्ञातव्यम् । यदाह मलवातयोगिन्धो विभेदो गात्रगौरवमरुच्यम् । अविशुद्धश्चोगारः पडजीर्णव्यक्तलिङ्गानि ॥१॥१६॥ तथा काले बुभुक्षासमये भोक्ता अन्नायुपजीवकः । भोक्तेति साधौ तृन्, तेन लौल्यपरिहारेण यथाग्निबलं मितं भुञ्जीत । अतिरिक्तभोज हि वमनविरेचनमरणादिना न साधु भवति, यो हि मितं भुङ्क्ते स बहु भुक्ते । loણા Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१५॥ स्वरूपम् अक्षुधितेन ह्यमृतमपि भुक्तं भवति विषम् । तथा क्षुत्कालातिक्रमादनद्वेषो देहसादश्च भवति। विध्यातेऽग्नौ कि नामेन्धनं कुर्यादिति । पानाहारादयो यस्याविरुद्धाः प्रकृतेरपि । सुखित्वायावकल्पन्ते तत्सात्म्यमिति गीयते ॥१॥ एवं लक्षणात्सात्म्यात् आजन्म सात्म्येन भुक्तं विषमपि पथ्यं भवति । परमसात्म्यमपि पथ्यं सेवेत न पुनः सात्म्यप्राप्तमप्यपथ्यम् । सर्व बलवतः पथ्यमिति मत्वा न कालकूटं खादेत् । सुशिक्षितोऽपि विषतन्त्रज्ञो म्रियत एव कदाचिद्विषात् ॥१७॥ तथा त्रिवर्गों धर्मार्थकामः तत्र यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः। यत आभिमानिकरसानुविद्धा सर्वेन्द्रियप्रीतिः स कामः। ततोऽन्योऽन्यस्य परस्परं योऽप्रतिबन्धोऽनुपघातस्तेन त्रिवगमपि न त्वेकैकं साधयेत् । यदाह यस्य त्रिवर्गशून्यानि दिनान्यायान्ति यान्ति च । स लोहकारभव श्वसनपि न जीवति ॥१॥ तत्र धर्मार्थयोरुपघातेन तादात्विकविषयसुखलुब्धो वनगज इव को नाम न भवत्यास्पदमापदाम् । न च तस्य धनं धर्मः शरीरं वा यस्य कामेऽत्यन्तासक्तिः। धर्मकामातिक्रमादनमुपार्जितं परेऽनुभवन्ति स्वयं तु परं पापस्य भाजनं सिंह इव सिन्धुरवधात् । अर्थकामातिक्रमेण च धर्मसेवा यातीनामेव धर्मो न गृहस्थानाम् । न च धर्म बाधयाऽर्थकामौ सेवेत । बीजभोजिनः कुटुम्बिन इव नास्त्यधार्मिकस्यायत्यां किमपि कल्याणम् । स खलु सुखी योऽमुत्र सुखाविरोधेन इहलोकसुखमनुभवति । एवमर्थबाधया धर्मकामौ सेवमानस्य ऋणाधिकत्वम् । कामबाधया ॥१०॥ । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशानम् योग स्वरूपम् ॥१.६॥ धर्मायौँ सेवमानस्य गार्हस्थ्याभावः स्यात् । एवं च तादात्विकमूलहरकदर्येषु धर्मार्थकामानामन्योऽन्यबाधा मुलभैव तथाहि यः किमप्यसश्चिन्त्योत्पन्नमर्थमपव्येति स तदात्विकः । यः पितृपैतामहमर्थमन्यायेन भक्षयति स मूलहरः यो भृत्यात्मपीडाभ्यामर्थ सचिनोति न तु कचिदपि व्ययते स कदर्यः। तत्र तादात्विकमूलहरयोरर्थभ्रशेन धर्मकामयोर्विनाशाम्नास्ति कल्याण । कदर्यस्य त्वर्थसंग्रहो राजदायादतस्कराणां निधिर्न तु धर्मकामयोर्हेतुरिति । अनेन च त्रिवर्गबाधा गृहस्थस्य कर्तुमनुचितेति प्रतिपादितम् । यदा तु दैववशाबाधा सम्भवति, तदोत्तरोत्तरवाधायां पूर्वस्य पूर्वस्य बाधा रक्षणोया । तथाहि-कामबाधायां धर्मार्थयोर्बाधा रक्षणीया, तयोः सतो कामस्य सुकरोत्पादकत्वात् । कामार्थयोस्तु बाधायां धर्मो रक्षणीयः धर्ममूलत्वादर्थकामयोः । उक्तं च धर्मश्चेन्नावसीदेत कपालेनापि जीवतः । आढयोऽस्मीत्यवगन्तव्यं धर्मवित्ता हि साधवः ॥१॥१८॥ तथा न विद्यते सततप्रवृत्तातिविशदैकाकारानुष्ठानतया तिथ्यादिदिनविभागो यस्य सोऽतिथिः । यथोक्तम्तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे त्यक्ता येन महात्मना । अतिथिं तं विजानीयाच्छेषमभ्यागः विदुः ॥१॥ साधुः शिष्टाचाररतः सकललोकाऽवगीतः। दोनो दीङ्च् क्षय इति वचनात् क्षीणसकलधर्मार्थकामाराधनशक्तिः तेषु प्रतिपत्तिकृत् प्रतिपत्तिरुपचरोऽनपानादिरूपः । कथं यथावत् औचित्यानतिक्रमेण । यदाह औचित्यमेकमेकत्र गुणानां कोटिरेकतः । विषायते गुणग्राम औचित्यपरिवर्जितः ॥११॥१९॥ तथा अनभिनिविष्टोऽभिनिवेशरहितः। अभिनिवेशश्च नीतिपथमनागतस्यापि पराभिभवपरिणामेन कार्यस्या ॥१०६॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् योग स्वरूपम् ॥१०॥ रम्भः । स च नीचानां भवति । यदाह दर्पः श्रमयति नीचानिष्फलनयविगुणदुष्करारम्भैः । श्रोतोविलोमतरणव्यसनिभिरायास्यते मत्स्यैः॥१॥ अनभिनिविष्टत्वं च कादाचित्कं शाठयानीचानामपि सम्भवत्यत आह । सदेति ॥२०॥ तथा गुणेषु सौजन्यौदार्यदाक्षिण्यस्थैर्यप्रियपूर्वप्रथमाभिभाषणादिषु स्वपरयोरुपकारकारणेष्वात्मधर्मेषु पक्षपाती । पक्षपातस्तु बहुमानतत्प्रशंसासाहाय्यकरणादिना अनुकूला प्रवृत्तिः। गुणपक्षपातिनो हि जीवा अवन्ध्यपुण्यवीजनिषेकेणेहामुत्र च गुणग्रामसम्पदमारोहन्ति ॥२१॥ तथा प्रतिषिद्धो देशोऽदेशः प्रतिषिद्धः कालोऽकालः तयोरदेशाकालयोश्चर्या चरण तां त्यजन् परिहरन् अदेशकालचारी हि चौरादिभ्योऽवश्यमुपद्रवमानोति ॥२२॥ तथा जानन् विदन् बलं शक्ति स्वस्य परस्य वा द्रव्यक्षेत्रकालभावकृतं सामर्थ्यम् । अबलमपि तथैव । बलाबलपरिज्ञाने हि सर्वः सफल आरन्भः अन्यथा तु विपर्ययः । यदाहस्थाने शमवतां शक्या व्यायामे वृद्धिरङ्गिनाम् । अयथावलमारम्भो निदानं क्षयसम्पदः ॥१॥इति॥२३॥ तथा वृत्तमनाचारपरिहारः सम्यगाचारपरिपालनं च, तत्र तिष्ठन्तीति वृत्तस्थाः । ज्ञानं हेयोपादेयवस्तुविनिश्चयस्तेन वृद्धा महान्तः । वृत्तस्थाश्च ते ज्ञानवृद्धाश्च तेषां पूजकः । पूजा च सेवाजल्यासनाभ्युत्थानादिलक्षणा। वृत्तस्थज्ञानवन्तो हि पूज्यमाना नियमात्कल्पतरव इब सदुपदेशादिफलैः फलन्ति ॥२४॥ तथा पोष्या अवश्यभर्तव्या मातृपितगृहिण्यपत्यादयस्तान् योगक्षेमकरणे. ५..यतीति पोषकः ॥२५॥ ॥१०॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥१०८ तथा दीर्घकालभावित्वाद्दीर्घमर्थमनर्थे च पश्यत पर्यालोचयतीत्येवंशीलो दीर्घदर्शी ॥ २६ ॥ तथा वस्त्ववस्तुनोः कृत्याकृत्योः स्वपरयोर्विशेषमन्तरं जानाति निश्चिनोतीति विशेषज्ञः, अविशेषज्ञो हि पुरुषः पशोर्नातिरिच्यते अथवा विशेषमात्मन एव गुणदोषाधिरोहलक्षणं जानातीति विशेषज्ञः । यदाहप्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्वरितमात्मनः । किं नु मे पशुभिस्तुल्यं किं तु सत्पुरुपैरिति ॥ १ ॥ २७ ॥ तथा कृतं परोपकृतं जानाति न निह्नुते कृतज्ञः, एवं हि तस्य कुशललाभो यदुपकारिणो बहु मन्यते, कृतघ्नस्य तु निष्कृतिरेव नास्ति । यदाह " कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिरिति" ||२८|| तथा लोकानां विशिष्टजनानां विनयादिगुणैर्वभः प्रियः । को हि गुणवतः प्रति प्रीतो न भवति । यस्तु न लोकवल्लभः स न केवलमात्मानं स्वस्य धर्मानुष्ठानमपि परैर्देषयन् परेषां बोधिलाभ शहेतुर्भवति ॥२९॥ तथा लज्जा वैयात्याभावः सह लज्जयः सलज्जा । लज्जावान् हि प्राणप्रहाणेऽपि न प्रतिज्ञातमपजहाति । यदाहलज्जां गुणौघजननीं जननीमिवार्यामत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्त्तमानाः । तेजस्विनः सुखमनपि सन्त्यजन्ति सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् || १ ||३०|| तथा सह दयया दुःखितजन्तुदुःखत्राणाभिलाषेण वर्त्तत इति सदयः । धर्मस्य दया मूलमिति ह्यामनन्ति । तदवश्यं दयां कुर्वीत । यदाह योग स्वरूपम् ॥१०८॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥१०९॥ प्राणा यथात्मनोऽभीष्टा भूतानामपि ते तथा । आत्मौपम्येन भूतानां दयां कुर्वीत मानवः ॥ १ ॥ ३१ ॥ तथा सौम्योऽक्रूराकारः, क्रूरो हि लोकस्योद्वेगकारणम् ||३२|| तथा परोपकृतौ परोपकारे कर्म्मठः कर्म्मश्ररः कर्म्मणि घटते " तत्र घटते कर्म्मणष्ठः” ॥७|१|१३७॥ इति ठः, परोपकारपरो हि पुमान् सर्वस्य नेत्रामृताञ्जनम् ||३३|| तथा अन्तरङ्गश्वासावरिषड्वर्गस्तस्य परिहारोऽनासेवनं तत्र परायणस्तत्परः । तत्रायुक्तितः प्रयुक्ताः कामक्रोध लोभमानमदहर्षाः शिष्टगृहस्थानामन्तरङ्गोऽरिषड्वर्गः । तत्र परपरिगृहीतास्वनूढासु वा स्त्रीषु दुरभिसन्धिः कामः । परस्यात्मनो वा अपायमविचार्य कोपकरणं क्रोधः । दानार्हेषु स्वधनाप्रदानं निष्कारणं परधनग्रहणं च लोभः । दुरभिनिवेशारोहो युक्तोक्ताग्रहणं वा मानः । कुलबलैश्वर्यरूपविद्यादिभिरहङ्कारकरणं परप्रधर्षनिबन्धनं वा मदः । निर्निमित्तं परदुःखोत्पादनेन स्वस्य द्यूतपापद्धर्याद्यनर्थसंश्रयेण वा मनःप्रमोदो हर्षः । एतेषां च परिहार्यत्वमपायहेतुत्वात् । यदाह दाण्डक्यो नाम भोजः कामाद्ब्राह्मणकन्यामभिमन्यमानः सबन्धुराष्ट्रो विननाश करालश्च वैदेहः १ । क्रोधाज्जनमेजयो ब्राह्मणेषु विक्रान्तस्तालजङ्घश्च भृगुषु २ । लोभादैलञ्चातुर्वर्ण्यमभ्याहारायमाणः सौवीरश्चाजबिन्दुः ३ । मानाद्रावणः परदारानप्रयच्छन् दुर्योधनो राज्याभ्रंशं च ४ । मदादम्भोद्भवो भूतावमानी हैहयश्चार्जुनः ५ । हर्षाद्वातापिरगस्त्यमभ्यासादयन् वृष्णिसङ्घव द्वैपायन ६ मिति ||३४|| योगस्वरूपम् užા Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् utu तथा वशीकृतः स्वच्छन्दतां त्याजित इन्द्रियग्रामो हृषीकसमूहो येन स तथा । अत्यन्तासक्तिपरिहारेण स्पर्शनादीन्द्रियविकारनिरोधकः । इन्द्रियजयो हि पुरुषाणां परमसम्पदे भवति । यदाह आपदां कथितः पन्था इन्द्रियाणामसंयमः । तज्जयः सम्पदां मार्गों येनेष्टं तेन गम्यताम् ॥१॥ इन्द्रियाण्येव तत्सर्वं यत् स्वर्गनरकावुभौ । निगृहीतविसृष्टानि स्वर्गीय नरकाय च ॥२॥ सर्वथेन्द्रियनिरोधस्तु यतीनामेव धर्म्म इह तु श्रावकधर्मो चितगृहस्थस्वरूपमेवाधिकृतमित्येवमुक्तम् ||३५|| एवंविधगुणसमयो मनुष्यो गृहिधर्म्माय कल्पते अधिकृतो भवतीति ॥५६॥ इति परमाईत श्री कुमारपाल भूपालशुश्रूषिते आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचितेऽध्यात्मोपन्निपन्नाम्नि सञ्जातपट्टबन्धे श्रीयोगशास्त्रे स्वोपज्ञं प्रथमप्रकाशविवरणम् । योगस्वरूपम् માના Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् अहम् द्वितीय प्रकाशा द्वितीयः प्रकाशः। ॥१२॥ गृहिधर्माय कल्पत इत्युक्तं गृहिधर्मच श्रावकधर्मः स च सम्यक्त्वमूलानि द्वादश व्रतानि तान्येवाह-- सम्यक्त्वमूलानि पञ्चाणुव्रतानि गुणास्त्रयः। शिक्षापदानि चत्वारि व्रतानि गृहमेधिनाम् ॥१॥ सम्यक्त्वं मूलं कारणं येषां तानि सम्यक्त्वमूलानि । अणूनि महाव्रतापेक्षया लघूनि व्रतानि अहिसादीनि पञ्च एतानि मूलगुणाः । गुणास्त्रय उत्तर गुणरूपाः ते च गुणव्रतानि दिग्वतादीनि त्रीणि । शिक्षणं शिक्षा अभ्यासः शिक्षायै पदानि स्थानानि चत्वारि सामायिकादीनि प्रतिदिवसाभ्यसनीयानि तत एव गुणवतेभ्यो भेदः। गुणब्रतानि हि प्रायो यावज्जीविकानि गृहमेधिनां श्रावकाणाम् ॥१॥ सम्यक्त्वमूलानीत्युक्तं तत्र सम्यक्त्वं विभजतिया देवे देवताबुद्धिगुरौ च गुरुतामतिः। धर्मे च धर्मधीः शुद्धा सम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥२॥ या देवे गुरौ धौ च वक्ष्यमाणलक्षणे देवत्वगुरुत्वधर्मत्वबुद्धिरयमेव देवो गुरुर्धर्म इति निश्चयपूर्वा रुचिः श्रद्धानमिति यावत्, शुद्धा अज्ञानसंशयविपर्यासनिराकरणेन निर्मला सा सम्यक्त्वम् । यद्यपि रुचिजिनोक्ततत्वे ॥११॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् રા द्वितीय प्रकाश ष्विति यतिश्रावकाणां साधारणं सम्यक्त्वलक्षणमुक्तम् । तथापि गृहस्थनां देवगुरुधर्मेषु पूज्यत्वोपास्यत्वानुष्ठेयत्वलक्षणोपयोगवशाद् देवगुरुधर्मतत्त्वप्रतिपत्तिलक्षणं सम्यक्त्वं पुनरभिहितम् । ननु तत्त्वार्थरुचिलक्षणे सम्यक्त्वे देवगुरुधर्माणां क तत्त्वेऽन्तर्भावः ? उच्यते-देवा गुरवश्च जीवतत्त्वे, धर्मः शुभाश्रवे संवरे चान्तर्भवति । सम्यक्त्वं च त्रिधा-औपशमिकं क्षायोपशमिकं क्षायिकं च । तत्रोपशमो भस्मच्छन्नाग्निवत् मिथ्यात्वमोहनीयस्यानन्तानुबन्धिनां च क्रोधमानमायालोभानामनुदयावस्था । उपशमः प्रयोजनं प्रवर्तकमस्य औपशमिकं, तच्चानादिमिथ्यादृष्टेः करणत्रयपूर्वकमान्तीहूर्तिकं चतुर्गतिगतस्यापि जन्तोर्भवतीत्युक्तप्रायम् । यद्वा उपशमश्रेण्यारूढस्य भवति । यदाह१उवसामगसेढिगयस्स होइ उवसामियं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो अ खवियमिच्छो लहइ सम्म ॥१॥ क्षयो मिथ्यात्वमोहनीयस्यानन्तानुबन्धिनां च उदितानां देशतो निर्मूलनाशः अनुदितानां चोपशमः, क्षयेण युक्त उपशमः क्षयोपशमः स प्रयोजनमस्य क्षायोपशमिकं, तच्च सत्कर्मवेदनाद्वेदकमप्युच्यते । औपशमिकं तु सत्कर्मवेदनारहितमित्यौपशमिकक्षायोपशमिकयोर्भेदः। यदाह श्वेएइ संतकम्मं खओवसमिएसु नाणुभावं सो । उवसंतकसाओ उण वेएइ न संतकम्मं वि । एतस्य च स्थितिः षट्षष्टिः सागरोपमाणि साधिकानि । यदाह(१) उपशमकश्रेणिगतस्य भवति औपशमिकं तु सम्यक्त्वम् । यो वाऽकृतत्रिपुञ्जश्च क्षपितमिथ्यो लभते सम्यक।। (२) वेदयति सत्कर्म क्षायोपशमिकेषु नानुभावं सः । उपशान्तकषायः पुनर्वेदयति न सत्कर्मापि ।। ॥११२॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥११३॥ दो वारे विजयाइसु गयस्स तिण्णच्चुए अहव ताई । अइरेग नरभवियं नाणाजीवाण सव्वद्धं ॥१॥ क्षयो मिथ्यात्वमोहनीयस्यानन्तानुबन्धिनां च निर्मूलनाशः । क्षयः प्रयोजनमस्य क्षायिकं तच साधनन्तम् । अत्र चान्तरश्लोकाः मूल बोधिमस्यैतत् द्वारं पुण्यपुरस्य च । पीठं निर्वाणहर्म्यस्य निधानं सर्वसम्पदाम् ॥१॥ गुणानामेक आधारो रत्नानामिव सागरः । पात्रं चारित्रवित्तस्य सम्यक्त्वं श्लाध्यते न कैः ॥२॥ अवतिष्ठेत नाज्ञानं जन्तौ सम्यक्त्ववासिते । प्रचारस्तमसः कीदृक् भुवने भानुभासिते ॥३॥ तिर्यनरकयोभरे दृढा सम्यक्त्वमर्गला। देवमानवनिर्वाणसुखद्वारैककुश्रिका ॥४॥ भवेद्वैमानिकोऽवश्यं जन्तुः सम्यक्त्ववासितः । यदि नोद्वान्तसम्यक्त्वो बद्धायुर्वापि नो पुरा ॥५॥ अन्तर्मुहूर्तमपि यः समुपास्य जन्तुः, सम्यक्त्वरत्नममलं विजहाति सधः। बम्भ्रम्यते भवपथे सुचिरं न सोऽपि तबिभ्रतश्चिरतरं किमुदीरयामः ॥६॥ इति ॥ विपक्षज्ञाने सति विवक्षितं सुज्ञान भवतीति सम्यक्त्वविपक्ष मिथ्यात्वमाहअदेवे देवबुद्धिर्या गुरुधीरगुरौ च या। अधर्म धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात् ॥३॥ अदेवोऽगुरुरधर्मश्च वक्ष्यमाणलक्षणस्तत्र देवत्वगुरुत्वधर्मत्वप्रतिपत्तिलक्षणं मिथ्यात्वं तस्य लक्षण तद्वि(१) द्वौ वारो विजयादिषु गतस्य त्रीन् अच्युतेऽथवा तान् । अतिरेकं नरभविकं नानाजीवानां सर्वार्टम ॥ ॥११३॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥११४। द्वितीय प्रकाशः पर्ययादिति तस्य सम्यक्त्वस्य विपर्ययः तस्माद्धेतोः सम्यक्वविपर्ययरूपत्वादित्यर्थः । तथा च इदमपि संगृहीतं-देवे अदेवत्वस्य गुरावगुरुत्वस्य धर्म अधर्मत्वस्य प्रतिपत्तिरिति ।। मिथ्यात्वं च पश्चया आभिग्रहिकमनाभिग्रहिकमाभिनिवेशिकं सांशयिकमनाभोगिकं च ।। तत्राभिग्रहिकं पाखण्डिनां स्वस्वशास्त्रनियन्त्रितविवेकालोकानां परपक्षप्रतिक्षेपदक्षाणां भवति ॥१॥ अनाभिग्रहिकं तु प्राकृतलोकानां सर्वे देवा वन्दनीया न निन्दनीया एवं सर्वे गुरवः सर्वे धर्मा इति ॥२॥ आभिनिवेशिकं जानतोऽपि यथास्थितं वस्तु दुरभिनिवेशलेशविप्लावितधियो जमालेरिव भवति ॥३॥ सांशयिकं देवगुरुधर्मेष्वयमयं वेति संशयानस्य भवति ॥४॥ अनाभोगिकं विचारशून्यस्यैकेन्द्रियादेर्वा विशेषविज्ञानविकलस्य भवति ॥५॥ यदाह आभिग्गहिय २अणभिग्गहं च तह अभिणिवेसियं चेव । संसइयमणाभोग मिच्छत्तं पंचहा होइ ॥१॥ अत्रान्तरश्लोकाःमिथ्यात्वं परमो रोगो मिथ्यात्वं परमं तमः । मिथ्यात्वं परमः शत्रुर्मिथ्यात्वं परमं विषम् ॥१॥ जन्मन्येकत्र दुःखाय रोगो ध्वान्तं रिपुर्विषम् । अपि जन्मसहखेषु मिथ्यात्वमचिकित्सितम् ॥२॥ (१) आभियहिकमनभिग्रहं च तथा अभिनिवेशिकं चैव । सांशयिकमनाभोगं मिथ्यात्वं पञ्चधा भवति ।। (२) अणभिग्गहियं । १११४॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥११५॥ द्वितीय प्रकाशन मिथ्यात्वेनालीढचित्ता नितान्तं, तत्त्वातत्त्वं जानते नैव जीवाः । किं जात्यन्धाः कुत्रचिद्वस्तुजाते, रम्यारम्यव्यक्तिमासादयेयुः ॥३॥ देवादेवगुर्वगुरुधर्माधर्मेषु लक्षयितव्येषु देवलक्षणमाह-- | सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ॥४॥ देवस्य देवत्वे चतुरोऽतिशयानाचक्षते विचक्षणाः । तद्यथाज्ञानातिशयः १ अपायापगमातिशयः २ पूजातिशयः ३ वागतिशयश्च ४ । तत्र सर्वज्ञ इत्यनेन सकलजीवाजीवादितत्त्वज्ञतया ज्ञानातिशयमाह । न तु यथाहुर्विशृङ्खलवादिनः परे।। सर्व पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥१॥ दूरं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेतान् गृध्रानुपास्महे ॥२॥ इति ॥ न हि विवक्षितस्यैकस्यापीष्टस्यार्थस्य ज्ञानमशेषार्थज्ञानमन्तरेण भवति । सर्वे हि भावा भावान्तरैः साधारणासाधारणरूपा १इत्यशेषज्ञानमन्तरेण २सालक्षण्यवैलक्षण्याभ्यां नैकोऽपि ज्ञातो भवति । यदाहुः एको भावः सर्वथा येन दृष्टः, सर्वे भावास्तच्चतस्तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा, एको भावस्तत्त्वतस्तेन दृष्टः ॥१॥ (१) इत्यशेषज्ञतामन्तरेण । (२) लक्षणसहितस्य भावः सालक्षण्यम् । सर्व पश्यतु वा मा वा तामष्टं तु पश्यतु । प्रमाण रण भवति । सर्वे हि Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१९६॥ जितरागादिदोष इत्यनेनापायापगमातिशयमाह । तत्रेदं सर्वजनप्रतीतम् यथा सन्ति रागद्वेषादयः । ते च दोषास्तैरात्मनो दुषगात् । ते च जिताः प्रतिपक्षसेवनादिभिर्भगवतेति जितरागादिदोष इत्युक्तम् । सदा रागादिरहित एव कश्चित्पुरुषविशेषोऽस्तीति तु वार्त्तामात्रम् । अजितरागादेश्वाम्मदादिवन्न देवत्वमिति । त्रैलोक्यपूजित इत्यनेन पूजातिशयमाह । कतिपयप्रतारितमुग्धबुद्धिपूजायां हि न देवत्वं स्यात् । यदा तु चलितासनैः सुरासुरैर्नाना देशभाषाव्यवहारविसंस्थुलैर्मनुष्यैः परस्परनिरुद्धवैरैः सख्यमुपागतैस्तिर्यग्भिश्च समवसरणभूमिमभिपतद्भिरहमहमिकया सेवाञ्जलिपूजा गुणस्तोत्रधर्म देशनामृतरसास्वादादिभिः पूज्यते भगवान् तदा देवत्वमिति । यथास्थितार्थवादीत्यनेन वागतिशयः यथास्थितं सद्भूतमर्थ वदतीत्येवंशीलो यथास्थितार्थवादी । यदाचक्ष्महि स्तुतौअपक्षपातेन परीक्षमाणा द्वयं द्वयस्याप्रतिमं प्रतीमः । यथास्थितार्थप्रथनं तवैतदस्थाननिर्वन्धरसं परेषाम् ॥१॥ यथा वा क्षिप्येत वाऽन्यैः सदृशीक्रियेत वा, तवांघ्रि पीठे लुठनं सुरेशितुः । इदं यथावस्थितवस्तुदेशनं, परैः कथङ्कारमप करिष्यते ॥२॥ देव इति लक्ष्यपदं दीव्यते स्तूयते इति देवः स च सामर्थ्यादर्द्दन् परमेश्वरो नान्यः || ४ || चतुरतिशयवतो देवस्य ध्यानोपासनशरणगमनशासनप्रतिपत्तीः साधिक्षेपमुपदिशतिध्यातव्योऽयमुपास्योऽयमयं शरणमिष्यताम् । अस्यैव प्रतिपत्तव्यं शासनं चेतनास्ति चेत् ॥ ५ ॥ अयं देवो ध्यातव्यः पिण्डस्थपदस्थरुपस्थरूपातीत रूपतया श्रेणिकेनेव । श्रेणिको हि वर्णप्रमाणसंस्थानसंह द्वितीय प्रकाशः ॥१९६॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥११७॥ द्वितीय प्रकाश ननचतुर्विंशदतिशयादियोगिनं भगवन्तं श्रीमहावीरमनुध्यातवान् । तदनुभावाच्च तद्वर्णप्रमाणसंस्थानसंहननातिशययुक्तः पद्मनाभस्तीर्थकरो भविष्यति । यदाचक्ष्महि तह तम्मएण मणसा वीरजिणो झाइयो तए पुब्बिं । जह तारिसो च्चिय तुम अहेसि ही जोगमाहप्पं ॥१॥ आगमश्च२जस्सीलसमायारो अरिहा तित्थंकरो महावीरो। तस्सीलसमायारो होहि हु अरिहा महापउमो ॥२॥ उपास्यः सेवाञ्जलिसंबन्धादिना अयमेव देवः दुष्कृतगर्हासुकृतानुमोदनापूर्वकमयमेव देवो भवभयातिभेदी शरणमिष्यताम् । अस्यैवोक्तलक्षणस्य देवस्य शासनमाज्ञा प्रतिपत्तव्यं स्वीकरणीयम् । शासनान्तराणि हि निरतिशयपुरुषप्रणेतृकाणि न प्रतिपत्तियोग्यानि । चेतनास्ति चेदित्यधिक्षेपः चेतनावत एव प्रत्युपदेशस्य सफलत्वात् । अचेतनं तु प्रति विफलं उपदेशप्रयासः । यदाह अरण्यरुदितं कृतं शवशरीरमुर्तितं, श्वपुच्छमवनामितं बधिरकर्णजापः कृतः। स्थले कमलरोपणं सुचिरम्परे वर्षणं, तदन्धमुखमण्डनं यदबुधे जने भाषितम् ॥१॥५॥ ___ अदेवलक्षणमाह(१) तथा तन्मयेन मनसा वीरजनो ध्यातस्त्वया पूर्वम् । यथा तादृश एव त्वमासीः ही योगमाहात्म्यम्। (२) यच्छीलसमाचारो अईन तीर्थकरो महावीरः । तच्छीलसमाचारो भविष्यति खलु अहन् महापद्मः॥ ॥११ ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् mા ये स्त्रीशस्त्रसूत्रादिरागाद्यङ्ककलङ्किताः । निग्रहानुग्रहपरास्ते देवाः स्युर्न मुक्तये ॥६॥ स्त्री कामिनी, शस्त्रं शूलादि, अक्षसूत्रं जपमाला, तान्यादौ येषां नाटयाट्टहासादीनां ते स्त्रीशस्त्राक्षसूत्रादयः राग आदिर्येषां ते रागादयः आदिशब्दाद् द्वेपमोहपरिग्रहः, रागादीनामङ्काचिह्नानि, स्त्रीशखाक्षसूत्रादयश्च ते रागाद्यङ्काश्च तैः कलङ्किता दुषितास्तत्र स्त्री रागचिनं शस्त्रं द्वेपचिहनं अक्षसूत्रं मोहचिह्नम् । वीतरागो हि नाङ्गनासङ्गभाग्भवति । वीतद्वेषो वा कथं शस्त्रं विभृयात् । गतमोहो वा कथं विस्मृतिचिह्नं जपमालां परिगृद्धियात् । रागद्वेषमोहैः सर्वदोषाः संगृहीतास्तन्मूलत्वात्सर्वदोषाणाम् । निग्रहो वधबन्धादिः, अनुग्रहो वरप्रदानादिः, तौ परौ प्रकृष्टौ येषां ते तथा । निग्रहानुग्रहावपि रागद्वेषयोश्चि । ये एवंविधास्ते देवा न भवन्ति मुक्तये इति मुक्तिनिमित्तम् । देवत्वमात्रं तु क्रीडनादिकारिणां प्रेतपिशाचादीनामिव न वार्यते ॥६॥ मुक्तिनिमित्तत्वाभावमेव व्यनक्ति नाटयाट्टहाससङ्गीताद्युपप्लवविसंस्थुलाः । लम्भयेयुः पदं शान्तं प्रपन्नान् प्राणिनः कथम् ॥७॥ इह सकलसांसारिकोपप्लवरहितं शान्तं पदं मुक्तिकैवल्यादिशब्दाभिधेयमस्तीत्यत्र नास्ति विप्रतिपत्तिः । तादृशं शान्तं पदं नाटयाट्टहाससङ्गीतादिविसंस्थुलाः स्वयमुपहतवृत्तयः कथमाश्रितजनान् प्रापयेयुः । न हयेरण्डतरुः कल्पतरुलीलामुद्वहति । ततश्च रागद्वषमोहदोषविवज्जितो जिन एको देवो मुक्तये नेतरे दोषदुषिताः । अत्रान्तरश्लोकाः द्वितीय प्रकाशः uku Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाशा योगशास्त्रम् ॥११९॥ न सर्वज्ञा न नीरागाः शङ्करब्रह्मविष्णवः । प्राकृतेभ्यो मनुष्येभ्योऽप्यसमञ्जसवृत्तितः ॥१॥ स्त्रीसङ्गः काममाचष्टे द्वेषं चायुधसंग्रहः । व्यामोहं चाक्षसूत्रादिरशौच च कमण्डलुः ॥२॥ गौरी रुद्रस्य सावित्री ब्रह्मणः श्रीसुरद्विषः । शचीन्द्रस्य रवे रत्नादेवी दक्षात्मजा विधोः ॥३॥ तारा बृहस्पतेः स्वाहा वह्नश्चेतोभुवो रतिः । धूमोर्णा श्राद्धदेवस्य दारा एवं दिवौकसाम् ॥४॥ सर्वेषां शस्त्रसम्बन्धः सर्वेषां मोहज़म्भितम् । तदेवं देवसन्दोहो न देवप वीं स्पृशेत ॥५॥ बुद्धस्यापि न देवत्वं मोहाच्छून्याभिधायिनः । प्रमाणसिद्ध शून्यत्वे शून्यवादकथा वृथा ॥६॥ प्रमाणस्यैव सत्त्वेन न प्रमाणविवर्जिता । शून्यसिद्धिः परस्यापि न स्वपक्षस्थितिः कथम् ? ॥७॥ सर्वथा सर्वभावेषु क्षणिकत्वे प्रतिश्रुते । फलेन सह सम्बन्धः साधकस्य कथं भवेत् ॥८॥ वधस्य वधको हेतुः कथं क्षणिकवादिनः । स्मृतिश्च प्रत्यभिज्ञा च व्यवहारकरी कथम् ॥९॥ निपत्य ददतो व्याघ्रयाः स्वकार्य कृमिसङ्कलम् । देयादेयविमूढस्य दया बुद्धस्य कीदृशी ॥१०॥ स्वजन्मकाल एवात्मजनन्युदरदारिणः । मांसोपदेशदातुश्च कथं शौद्धोदनेदया ॥११॥ यो ज्ञानं प्रकृतेर्द्धर्म भाषते स्म निरर्थकम् । निर्गुणो निष्क्रयो मूढः स देवः कपिल कथम् ॥१२॥ आर्याविनायकस्कन्दसमीरणपुरस्सराः। निगद्यन्ते कथं देवा । सर्वदोषनिकेतनम् ॥१३॥ या पशुगूथमश्नाति स्वपुत्रं च वृषस्यति । श्रृङ्गादिभिघ्रती जन्तून् सा वन्द्यास्तु कथं नु गौः ॥१४॥ पयःप्रदानसामर्थ्याद्वन्द्या चेन्महिषी न किम् ? । विशेषो दृश्यते नास्यां महिषीतो मनागषि ॥१५॥ स्थानं तीर्थर्षिदेवानां सर्वेषामपि गौर्यदि। विक्रियते दुह्यते च हन्यते च कथं ततः॥१६॥ मुसलोखले चुल्ली देहली पिप्पलो जलम् । निम्बोऽकश्चापि यैः प्रोक्ता देवास्तैः केऽत्र वर्जिताः ॥१७॥ ॥११९॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥१२०॥ वीतरागस्तोत्रेऽप्युक्तमस्माभिः । कृतार्था जठरोपस्थदुःस्थितैरपि दैवतैः । भवादृशानिहनुवते हहा देवास्तिकाः परे ॥१८॥७॥ गुरुलक्षणमाहमहाव्रतधरा धीरा भैक्षमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः ॥८॥ महाव्रतानि अहिंसादीनि तानि धरन्तीति महाव्रतधराः । महाव्रतधारित्व एवार्य हेतुः धीरा इति, धैर्य ह्यापत्स्वप्यबैक्लव्यं तद्योगाद्धि अखण्डितमहाव्रतधरा भवन्ति । मूलगुणधारित्वमुक्त्वा उत्तरगुणधारित्वमाहभैक्षमात्रोपजीविन इति, भिक्षाणां समूहो भक्षं अनपानधर्मोंपकरणरूपं तन्मात्रमेवोपजीवन्ति लोकान पुनर्द्धनधान्यहिरण्यग्रामनगरादि । मूलगुणोत्तरगुणधारणकारणभूतगुणवत्त्वमाह-सामायिकस्था इति, समो रागद्वेषविकल आत्मा समस्य आयो विशिष्टज्ञानादिगुणलाभः समायः स एव सामायिकं “ विन्यादित्वादिकण्" तत्र तिष्ठन्तीति सामायिकस्थाः । सामायिकस्थो हि मूलगुणोत्तरगुणभेदभिन्नं चारित्रं पालयितुं क्षमः। एतद्यतिमात्रसाधारणलक्षणम् । गुरोस्तु असाधारणलक्षणं-धर्मोपदेशका इति, धर्म संवरनिजरारूपं यतिश्रावकसम्बन्धिभेदभिन्न वा उपदिशन्तीति धर्मोपदेशकाः । यदुक्तमस्माभिरभिधानचिन्तामणौ-"गुरुर्धर्मोपदेशक" इति गृणन्ति सद्भूतं शास्त्रर्थमिति गुरवः ॥८॥ ॥१२ou Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥१२१॥ अगुरुलक्षणमाह— सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः । अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु ॥९॥ सर्वमुपदेश्यसम्बन्धिस्त्रीधनधान्यहिरण्यक्षेत्रवास्तु चतुष्पदाद्यभिलपन्तीत्येवंशीलाः सर्वाभिलाषिणः । तथा सर्व मद्यमधुमांसानन्तकायादि भुञ्जत इत्येवंशीलाः सर्वभोजिनः । सह परिग्रहेण पुत्रकलत्रादिना वर्त्तन्ते सपरिग्रहाः । अत एवाब्रह्मचारिणः, अब्रह्मणो महादोषतां कथयितुमब्रह्मचारिण इति पृथगुपन्यासः । अगुरुत्वे असाधाणं कारणमाह - मिथ्योपदेशा इति, मिथ्या वितथ आप्तोपज्ञोपदेशरहितत्वादुपदेशो धर्मदेशनं येषां ते तथा । न तु नैव एवंविधा गुरव इति ॥ ९ ॥ न धर्मोपदेशदायित्वं चेदस्ति तदास्तु गुरुत्वं किं निष्परिग्रहित्वादिगुणगवेषणेन ? इत्याहपरिग्रहारम्भमग्नास्तारयेयुः कथं परान् ? । स्वयं दरिद्रो न परमीश्वरीकर्तुमीश्वरः ॥ ११ ॥ परिग्रहस्यादिरारम्भो जन्तुहिसानिबन्धनं सर्वाभिलाषित्व सर्वभोजित्वादिः ताभ्यां मग्ना भवान्धौ ब्रुडिताः कथं परानुपदेश्यान् भवाम्भोधेस्तारयेयुस्तारणसमर्थाः स्युः ? । साधकं दृष्टान्तमाह - स्वयमित्यादि स्पष्टम् ॥१०॥ धर्मलक्षणमाह दुर्गतिप्रपतत्प्राणिधारणाद्धर्म उच्यते । संयमादिर्दशविधः सर्व्वज्ञोक्को विमुक्तये ॥११॥ दुर्ग नरकतिर्यगुलक्षणायां प्रपतन्तो ये प्राणिनस्तेषां धारणाद्धेतोर्द्धर्म उच्यते । धर्मशब्दार्थोऽयं । इदमेव च DOSTOOREE SHEERONORCE द्वितीय प्रकाशः ॥ १२१ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥१२२॥ लक्षणं धर्म्मस्य । धत्ते वा नरसुरमोक्षस्थानेषु जन्तूनिति निरुक्ताद्धर्म्मः । यदाह - दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून् यस्माद्धारयते ततः । धत्ते चैतान शुभे स्थाने तस्माद्धर्म्म इति स्मृतः । ॥१॥ स तु वक्ष्यमाणैः संयमादिभिर्भेदैर्दशधा । सर्वज्ञोक्तत्वाद्विमुक्तये भवति । देवतान्तरप्रणीतस्त्वसर्वज्ञवक्तृकत्वाम प्रमाणम् ॥ ११ ॥ ननु सर्वज्ञोक्तत्वाभावेऽप्यपौरुषेयवचनोपज्ञस्य धर्मस्य प्रामाणिकत्वमस्तु । यदा — चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्मं स्थूलं व्यवहि । विप्रकृष्टमेवंजातीयकमर्थमवगमयितुं शक्नोति नान्यत्किञ्चनेन्द्रियमिति । चोदना च अपौरुषेयत्वेन पुरुषगतानां दोषाणामप्रवेशात् प्रमाणमेव । यदाह -- शब्दे दोषोद्भवस्तावद्वक्त्रधीन इति स्थितम् । तदभावः कचित्तावद्गुणद्ववकत्वतः ॥ १॥ तद्गुणैरपकृष्टानां शब्दे संक्रान्त्यसम्भवात् । यद्वा वक्तुरभावेन न स्युर्दोंपा निराश्रयाः ॥ २॥ किञ्च दोषाः सन्ति न सन्तीति पौरुषेयेषु युज्यते । कर्त्तुरभावाच्च दोषाशङ्कैव नास्ति नः ||३|| इत्याह-अपौरुषेयं वचनमसम्भवि भवेद्यदि । न प्रमाणं भवेद्वाचां ह्याप्ताधीना प्रमाणता ॥ १२ ॥ पुरुषेण कृतं पौरूषेयं तन्प्रतिषेधादपौरुषेयम् । उच्यते स्थानकरणाभिघातपूर्वकं पुरुषेण प्रतिपाद्यते इति बचनम् । तदिदं परस्परविरुद्धम् अपौरुषेयं वचनं चेति । तदेवाह - असम्भवि न ह्यस्ति सम्भवो वचनस्य त्रस - रेणोरिवाकाशे । न चामूर्त्तस्य सतोऽप्यदर्शनमिति वक्तुं युक्तं प्रमाणाभावात् । अभिव्यञ्जकवशाच्छद्धश्रवण मेव प्रमाणमिति चेत् न । तस्य जन्यत्वेऽप्युपपत्तेः । अभिव्यङ्ग्यत्वे प्रत्युत दोषसम्भवः । एकशब्दाभिव्यक्त्यर्थ स्थान h द्वितीय प्रकाशः ॥१२२॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥ १२३॥ करणाभिघाते शब्दान्तराणामपि तद्देश्यानामभिव्यक्तिप्रसङ्गः । न च प्रतिनियतव्यञ्जकव्यङ्ग्यता शब्दानां भवति व्यङ्ग्यान्तरेषु तददर्शनात् । तथा च गृहे दधिघीं द्रष्टुमाहितो गृहमेधिना । अपूपानपि तद्देश्यान् प्रकाशयति दीपकः ॥ १ ॥ तदेवं वचनस्यापौरुषेयता न सम्भवति । अथाप्यप्रामाणिक हेवा कबलादाकाशादिवच्छब्दस्यापौरुषेयता यदि भवेत् तथापि प्रामाण्यं न सम्भवति । हि यस्मादाप्तवक्तृकत्वेन वाचां प्रामाण्यं नान्यथा । यतःशब्दे गुणोद्भवस्तावद्वक्त्रधीन इति स्थितम् । तदभावः कचित्तावदोषवद्वक्तुकत्वतः ||१|| तद्दोषैरपकृष्टानां शब्दे संक्रान्त्यसम्भवात् । यद्वा वक्तुरभावेन गुणा न स्युर्निराश्रयाः ||२|| किश्च - गुणाः सन्ति न सन्तीति पौरुषेयेषु युज्यते । वेदे कर्त्तुरभावाच्च गुणशदेव नास्ति नः ||३||१२|| एवं तावदषौरुषेयवचनाभिहितस्यासम्भवादिना अभावमभिधायासर्वज्ञ पुरुषवक्तुकस्य धर्म्मस्याप्रामाणिकत्वमाहमिथ्यादृष्टिभिराम्नातो हिंसाद्यैः कलुषीकृतः । स धर्म्म इति वित्तोऽपि भवभ्रमणकारणम् ॥१३॥ मिथ्यादृष्टिभिर्हरिहरहिरण्यगर्भकपिलबुद्धादिभिराम्नातः आत्मोपज्ञतया प्रतिपादितः । यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धाद्यो मिथ्यादृष्टिभिराम्नातः स धर्मत्वेन मुग्धबुद्धीनां प्रसिद्धोऽपि भवभ्रमणकारणमधर्म एवेत्यर्थः । कुत इत्याहहिंसाद्यैः कलुषीकृत इति । मिथ्यादृष्टिप्रणीता ह्यागमा हिंसादिदोषदुषिताः ॥ १३॥ इदानीमदेवागुर्व्वधर्माणां साक्षेपं प्रतिक्षेपमाह 500=6OKE द्वितीय प्रकाशः ॥ १२३ ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग द्वितीय प्रकाशा शास्त्रम् ૨૨છા सरागोऽपि हि देव श्चेद् गुरुरब्रह्मचार्यपि । कृपाहीनोऽपि धर्म स्यात्कष्टं नष्टं हहा जगत् ॥१४ रागग्रहणमुपलक्षणं द्वेषमोहयोः । अब्रह्मचारित्वमुपलक्षणं प्राणातिपातादीनाम् । कृपाहीनत्वमुपलक्षणं मूलोत्तरगुणहीनत्वस्य । चेच्छन्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । आक्षेप प्रकटयति-कष्टमिति खेदे नष्टं जगत् देवगुरुधर्मशू न्यत्वेन विनष्टं दुर्गतिगमनात् । हहा निपातः खेदातिशयसूचकः। यदाह रागी देवो दोसी देवो मामि सुन्नपि देवो मज्जे धम्मो मंसे धम्मो जीवहिंसाइ धम्मो। रत्ता मत्ता कन्तासत्ता जे गुरू तेवि पुज्जा, हाहा कळं नहो लोओ अट्टमटू कुणंतो ॥१॥१४॥ तदेवमदेवागुर्वधर्मपरिहारेण देवगुरुधर्मप्रतिपत्तिलक्षणं सम्यक्त्वं सुव्यवस्थितम् । तच्च शुभात्मपरिणामरूपमस्मदादीनामप्रत्यक्षं केवलं लिङ्गैलेक्ष्यते, तान्येवाह|| शमसंवेगनिर्वेदानुकम्पस्तिक्यलक्षणैः। लक्षणैः पञ्चभिः सम्यक् सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते॥१५॥ पञ्चभिलक्षणैलिङ्गः परस्थं परोक्षमपि सम्यक्त्वं सम्यगुपलक्ष्यते । लिङ्गानि तु शमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्ति क्यस्वरूपाणि । शमः प्रशमः क्रूराणामनन्तानुबन्धिनां कषायाणामनुदयः । स च प्रकृत्या वा कषायपरिणते: कटुफलावलोकनाद्वा भवति । यदाह(१) रागी देवो द्वेषी देवो सखे शृन्योऽपि देवः, मधे धर्मों मांसे धर्मः जीवहिसायां धर्म। रक्ता मत्तोः कान्तासत्ता ये गुरवः तेऽपि पूज्याः हाहा कष्टं नष्टो लोको अट्टम कुर्वन् । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग द्वितीय प्रकाशा शास्त्रम् ॥१२५।। पपईईए कम्माणं नाऊणं वा विवागममुहं ति । अवरुद्ध वि न कुप्पइ उवसमओ सव्वकालं पि ॥१॥ अन्ये तु क्रोधकण्डूविषयतृष्णोपशमः शम इत्याहुः। अधिगतसम्यग्दर्शनो हि साधृपासनावान् कथं क्रोधकण्वा विषयतृष्णया च तरलीक्रियेत ? ननु क्रोधकण्ड्वषयतृष्णोपशमश्चच्छमस्तर्हि कृष्णश्रेणिकादीनां सापराधे निरपराधेऽपि च परे क्रोधवतां विषयतृष्णातरलितमनसां च कथं शमः? तदभावे च सम्यक्त्वं न गम्येत ? नैवम् । दृश्यते हि धूमरहितोऽप्ययस्कारगृहेषु वह्निः भस्मच्छन्नस्य वा वझेने धूमलेशोऽपीति । अयं तु नियमः सुपरीक्षिते लिङ्गे सति लिङ्गी भवत्येव । यदाह-- लिङ्गे लिङ्ग भवत्येव लिंगिन्ये वेतरत्पुनः । नियमस्य विपर्यासे सम्बन्धो लिङ्गलिङ्गिनोः ॥१॥ सज्वलनकषायोदयोदयाद्वा कृष्णादीनां क्रोधकण्डूविषयतृष्णे। सज्वलना अपि केचन कषायास्तीव्रतया अनन्तानुबन्धिसदृशविपाकवन्त इति सर्वमवदातम् । संवेगो मोक्षाभिलापः । सम्यग्दृष्टिहिं नरेन्द्र सुरेन्द्राणां विषयसुखानि दुःखानुषङ्गाददुःखतया मन्यमानो मोक्षसुखमेव सुखत्वेन मन्यते अभिलपति च । यदाहरनरविबुहेसरसोक्खं दुक्ख चिय भावओ अ मन्नतो। संवेगओ न मोक्खं मोत्तणं किंचि पच्छे (त्थे) इ ॥१॥ निर्वेदो भववैराग्यम् । सम्यग्दर्शनी हि दुःखदौर्गत्यगहने भवकारागारे कर्मदण्डपाशिकैस्तथातथाकदर्यमानः प्रतिकर्तुमक्षमो ममत्वरहितश्च दुःखेन निविणो भवति । यदाह (१) प्रकृत्याः कर्मणां ज्ञात्वा वा विपाकमशुभमिति । अपराधेऽपि न कुप्यति उपशमतः सर्वकालमपि ॥ (२) नरविबुधेश्वरसौख्यं दुःखमेव भावतश्च मन्यमानः । संवेगतो न मोक्षं मुक्त्वा किञ्चित् प्रेक्षते, (प्रार्थयति)। १२५॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाश ॥१२६॥ १नारयतिरियनरामरभवेसु निच्वेयओ वसइ दुक्खं । अकयपरलोयमग्गो ममत्तविसवेगरहिओ य ॥१॥ अन्ये तु संवेगनिर्वेदयोरर्थविपर्ययमाहुः संवेगो भवविरागः निर्वेदो मोक्षाभिलाष इति । अनुकम्पा दुःखितेषु अपक्षपातेन दुःखप्रहाणेच्छा । पक्षपातेन तु करुणा स्वपुत्रादौ व्याघ्रादीनामप्यस्त्येव । सा चानुकम्पा द्रव्यतो भावतश्च भवति द्रव्यतः। सत्यां शक्तौ दुःखप्रतीकारेण । भावत आर्द्रहृदयत्वेन । यदाह___२दट्टण पाणिनिवहं भीमे भवसायरम्मि दुक्खत्तं । अविसेसओणुकंप २दुविहावि सामच्छ (त्थ) ओ कुणइ ॥१॥ अस्तीति मतिरस्येत्यास्तिकस्तस्य भावः कर्म वा आस्निक्यम् । तत्वान्तरश्रवणेऽपि जिनोक्ततत्त्वविषये निराकाक्षा प्रतिपत्तिः। आस्तिक्येन हि जीवधर्मतया अप्रत्यक्ष सम्यक्त्वं लक्ष्यते । तद्वान् हि आस्तिक इत्युच्यते । यदाह४मन्नइ तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहि पन्नत्तं । सुहपरिणामो सम्मं कंखाइविमुत्तिआरहिओ ॥१॥ अन्ये तु शमादीनि लिङ्गान्यन्यथा व्याचक्षते सुपरीक्षितप्रवक्तप्रवाच्यप्रवचनतत्त्वाभिनिवेशान्मिथ्याभिनिवे| शोपशमः शमः। स सम्यग्दर्शनस्य लक्षणम् । यो ह्यतत्त्वं विहायात्मना तत्त्वं प्रतिपन्नः स लक्ष्यते सम्यग्दर्शन (१) नारकतियङ्कनरामरभवेषु निर्वेदतः वसति दुःखम् । अकृतपरलोकमार्गों ममत्वविषवेगरहितश्च । (२) दृष्ट्वा प्राणिनिवहं भीमे भवसागरे दुःखार्तम् । अविशेषतोऽनुकम्पां द्विविधामपि सामर्थ्यतः करोति ॥ (३) दुहावि। (४) मन्यते तदेव सत्यं द्विशएं यदजिनः प्रज्ञापितम् (प्रज्ञप्तम)। शुभपरिणामः सम्यकू काक्षादिविसूत्रिकारहितः।। HPREH Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितोष प्रकाश ॥१२७॥ वानिति । संवेगो भयं जिनप्रवचनानुसारिणो हि नरकेपु शारीरं मानसं च शीतोष्णादिजनितं च संक्लिष्टासुरोदीरितं च परस्परोदीरितं च, तिर्यक्षु भारारोपणाद्यनेकविधं, मनुजेषु दारिद्र्यदौर्भाग्यादि च दुःखमवलोकयतस्तद्धीमतया तत्प्रशमोपायभूतं धर्ममनुतिष्ठतो लक्ष्यते विद्यतेऽस्य सम्यग्दर्शनमिति । निर्वेदो विषयेष्वनभिष्वङ्गः यथा इहलोक एव प्राणिनां दुरन्तकामभोगाभिष्वङ्गोऽनेकोपद्रवफल: परलोकेऽप्यतिकटुकनरकतिर्यग्रमनुष्यजन्मफलप्रदः। अतो न किश्चिदनेन । उज्झितव्य एवायमिति । एवंविधनिर्वेदेनापि लक्ष्यतेऽस्त्यस्य सम्यग्दर्शनमिति । अनुकम्पा कृपा यथा सर्व एव सत्त्वाः सुखार्थिनो दुःखप्रहाणार्थिनश्च । ततो नैषामल्पापि पीडा मया कार्येत्यनयापि लक्ष्य तेऽस्त्यस्य सम्यक्त्वमिति । सन्ति खलु जिनेन्द्रप्रवचनोपदिष्टा अतीन्द्रिया जीवपरलोकादयो भवा इति परिणाम आस्तिक्यम् । अनेनापि लक्ष्यते सम्यग्दर्शनयुक्तोऽयमिति ॥१५॥ सम्यक्त्वलिङ्गान्युक्त्वा भूषणान्याह-- स्थैर्य प्रभावना भक्तिः कौशलं जिनशासने। तीर्थसेवा च पञ्चास्य भूषणानि प्रचक्षते ॥१६॥ अस्य सम्यक्त्वस्य पञ्च भूषणानि भूष्यते अलङ्क्रियते यैस्तानि भूषणानि जिनशासने जिनशासनविषये। एतच्च सर्वत्र सम्बध्यते । स्थैर्य जिनधर्म प्रति चलितचित्तस्य परस्य स्थिरत्वापादनं स्वयं वा परतीर्थिकर्द्धिदर्शनेऽपि जिनशासनं प्रति निष्प्रकम्पता। प्रभवति जैनेन्द्रशासनं तस्य प्रभवतः प्रयोजकत्वं प्रभावना । सा चाष्टधा प्रभावकभेदेन । यदाह ॥३२ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१२८॥ SHREE ROKENO CREEN SHEESHOHOKR १पावयणी धमकी बाई नेमित्तिओ तवस्सी य। विज्जा सिद्धो अ कई अव पभावगा भणिया ||१|| तत्र प्रवचनं द्वादशाङ्ग गणिपिटकं तदस्यास्त्यतिशयवदिति प्रवचनी युगप्रधानागमः । धर्मकथा प्रशस्या - स्यास्तीति धर्मकथी शिखादित्वादिन् । वादिप्रतिवादिसभ्यसभापतिलक्षणायां चतुरङ्गायां सभायां प्रतिपक्षनिरासपूर्वकं स्वपक्षस्थापनार्थमवश्यं वदतीति वादी । निमित्तं त्रैकालिकं लाभालाभादिप्रतिपादकं शास्त्रं तद्वेत्यधीते वा नैमित्तिकः । तपो विकृष्टमष्टमाद्यस्यास्तीति तपस्वी । विद्याः प्रज्ञप्त्यादयः शासनदेवतास्ताः साहाय (य्य) के यस्य स विद्यावान् । अञ्जनपादले पतिलकगुटिकासकलभूताकर्षण निष्कर्षणवौक्रियत्वप्रभृतयः सिद्धयस्ताभिः सिद्धयति स्म सिद्धः । कवते गद्यपद्यादिभिः प्रबन्धैर्वर्णनां करोतीति कविः । एते प्रवचन्यादयोऽष्टौ प्रभवतो भगवच्छासनस्य यथायथं देशकालाद्यौचित्येन साहाय (य्य) ककरणात्प्रभावकास्तेषां कर्म प्रभावना द्वितीयं भूषणम् । भक्तिः प्रवचने विनयवैयावृत्त्यरूपा प्रतिपत्तिः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रादिगुणाधिकेष्वभ्युत्थानमभियानं शिरस्यञ्ज– लिकरणं स्वयमासनढौकनमासनाभिग्रहो वन्दना पर्युपासना अनुगमनं चेत्यष्टविधकर्मविनयनादष्टविध उपचारविनयः । व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्त्यम् । तच्चाचार्योपाध्यायतपस्विशि (शै) क्षकग्लानकुलगणसङ्घसाधुसमनो(मान) ज्ञेषु दशस्वन्नपानवस्त्रपात्रप्रतिश्रयपीठ फलकसंस्तारादिभिर्धर्म्मसाधनैरुपग्रहः शुश्रूषाभैषजक्रियाकान्तारविषमदुर्गोपसर्गेष्वभ्युपपत्तिश्च । जिनशासनविषये च कौशलं नैपुण्यम् । ततो हि व्यवहितादिरप्यर्थो विषयीक्रियते । यथानार्यदेशवर्त्ती आर्द्रककुमारः श्रेणिकपुत्रेणाभयकुमारेण कौशलात्प्रतिबोधित इति । तीर्थं नद्यादेखि संसारस्य तरणे (१) प्रवचन धर्मकथी वादी नैमित्तिकः तपस्वी च । विद्यावान् विद्वश्व कविः अष्ठैव प्रभावका भणिताः ॥ द्वितीय प्रकाशः ॥१२८॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशः ॥१२९॥ | सुखावतारो मार्गः । तच्च द्विधा द्रव्यतीर्थ भावतीर्थ च । द्रव्यतीर्थ तीर्थकृतां जन्मदीक्षाज्ञाननिणिस्थानम् । यदाह १जम्मं दिक्खा नाणं तित्थयराणं महाणुभावाणं । जत्थ य किर निवाण आगाढं दसणं होई ॥शा ___ भावतीर्थ तु २चतुर्विधः श्रमणसङ्घः प्रथमगणधरो वा । यदाह-"३तित्थ भन्ते तित्यं तित्थयरे तित्थं ? गोयमा! अरिहा ताव नियमा तित्थंकरे, तित्यं पुण चाउवणे समणसंघे पढममणहरे" । तीर्थस्य सेवा तीर्थसेवा ॥१६॥ __ अस्य सम्यक्त्वस्य भूपणान्युक्त्वा दृषणान्याहशङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सामिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् । तत्संस्तवश्च पश्चापि सम्यक्त्वं दूषयन्त्यलम १७॥ पश्चापि शङ्कादयो निर्दोषमपि सम्यक्त्वं दूषयन्ति अलमतिशयेन । शङ्का सन्देहः सा च सर्वविषया देशविषया च । सर्वविषया अस्ति वा नास्ति वा धर्म इत्यादि । देशशङ्का एकैकवस्तुधर्मगोचरा । यथा अस्ति जीवः केवलं सर्वगतोऽसर्वगतो वा सप्रदेशोऽप्रदेशो वेति । इयं च द्विधाऽपि भगवदहत्प्रणीतप्रवचनेषु अप्रत्ययरूपा सम्य(१) जन्म दीक्षा ज्ञानं तीर्थकराणां महानुभावानाम् । यत्र च किल निर्वाणं आगाढं दर्शन भवति ॥ (२) चतुर्वर्णः । (३) तीर्थ भगवन् तीर्थ तीर्थकरः तीर्थ ? गौतम ! अईन् तावनियमेन तीर्थकरस्तीर्थ पुनश्चातुर्वणो श्रमणसङ्कः प्रथमगणधरो वा। १२९॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग द्वितीय प्रकाशः शास्त्रम् ॥१३०॥ क्वं दूषयति । केवलागमगम्या अपि हि पदार्था अस्मदादिप्रमाणपरीक्षानिरपेक्षा आप्तप्रणेतृकत्वान्न सन्देग्धुं योग्या यत्रापि मोहवशात् कचन संशयो भवति तत्राप्यप्रतिहतेयमर्गला । यथा कत्थ य मइदुब्बल्लेण तविहायरियविरहओ वावि । नेयगहणत्तणेण य नाणावरणोदएणं च ॥१॥ २हेऊदाहरणासंभवे असइ सुटु ज न बुज्झेज्जा । सव्वन्नुमयमवितहं तहावि तं चिंतए मइमं ॥२॥ ३अणुवकयपरागुग्गहपरायणा जं जिणा जगप्पवरा । जियरागदोसमोहा य ननहा वाइणो तेणं ॥३॥ यथा वा सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः मिथ्यादृष्टिः। सूत्रं हि नःप्रमाणं जिनाभिहितम् । काङ्क्षा अन्यान्यदर्शनग्रहः। सापि सर्वविषया देशविषया च । सर्वविषया सर्वपाखण्डिधर्माकाक्षारूपा । देशकाक्षा त्वेकादिदर्शनविषया यथा सुगतेन भिक्षणामक्लेशको धर्म उपादिष्टः स्नानानपानाच्छादनशयनीयादिषु सुखानुभवद्वारेण । यदाह मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, मध्ये भकतं पानकं चापराहणे । द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्द्धरात्रे, मोक्षश्चान्ते शाक्यसिंहेन दृष्टः ॥१॥ इति (१) क च (कवचन) मतिदुर्बलेन तद्विधाचार्यविरहतो वापि । ज्ञेयगहनत्वेन च ज्ञानावरणोदयेन च ।। (२) हेतूदाहरणासंभवे च सति सुष्टु यन्न बुध्येत । सर्वज्ञमतमवितथं तथापि तच्चिन्तयति मतिमान् ॥ (३) अनुपकृतपरानुग्रहपरायणा यज्जिना जगत्प्रवराः। जितरागदोष (द्वेष) मोहाश्च नान्यथा वादिनस्तेन ॥ ॥१३०॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१३१॥ EXORORSCHOO एतदपि घटमानकमेव न दूरापेतम् । तथा परिव्राद्भौतत्रह्मणादयो विषयानुपभुञ्जाना एव परलोकेऽपि सुखेन युज्यन्त इति साधीयानेषोऽपि धर्म इति । एवं च काङ्क्षापि परमार्थतो भगवदर्हत्प्रणीतागमानाश्वासरूपा सम्यक्त्वं दूषयति । विचिकित्सा चिचविप्लवः, सा च सत्यपि युक्त्यागमोपपन्ने जिनधर्मेऽस्य महतस्तपः क्लेशस्य सिकताकणकवलवनिःस्वादस्यायत्या फलसम्पद्भवित्री । अथ क्लेशमात्रमेवेदं निर्जराफलविकलमिति । उभयथा हि क्रिया दृश्यन्ते सफला अफलाश्च कृषीबलादीनामिव इयमपि तथा सम्भाव्यते । यदाह १ पुव्वपुरिसा जहोइअमग्गचरा घडइ तेसि फलजोगो । अम्हेसु य धीसंघयणविरहओ न तह तेसि फलं ॥ १ ॥ इति ॥ विचिकित्सापि भगवद्वचनानाश्वासरूपत्वात्सम्यक्त्वस्य दोषः । न च शङ्कातो नेयं भिद्यते । शङ्का हि सकला सकलपदार्थभाक्त्वेन द्रव्यगुणविषया, इयं तु क्रियाविषयैव । यद्वा विचिकित्सा निन्दा सा च सदाचारमुनिविषया यथा अस्नानेन प्रस्वेदजलक्लिन्नमलत्वाद्दुर्गन्धिवपुष एत इति । को दोषः स्याद्यदि प्रासुकवारिणाऽङ्गक्षालनं कुर्वीरन्निति । इयमपि तत्त्वतो भगवद्धर्म्मानाश्वासरूपत्वात् सम्यक्त्वदोषः ३ । मिथ्या जिनागमविपरीता दृष्टिर्दर्शनं येषां ते मिथ्यादृष्टयस्तेषां प्रशंसनं प्रशंसा तच्च सर्वविषयं देशविषयं च । सर्वविषयं सर्वाण्यपि कपिलादिदर्शनानि युक्तियुक्तानीति माध्यस्थ्यसारा स्तुतिः सम्यक्त्वस्य दूषणम् । यदाचक्ष्महि स्तुतौ (१) पूर्वपुरुषा यथोचितमार्गचरा घटते तेषां फलयोगः । अस्मासु च धीसंहननविरहतः न तथा तेषां फलम् ॥ द्वितीय प्रकाशः ॥१३१॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥१३२॥ सुनिश्चितं मत्सरिणो जनस्य, न नाथ मुद्रामतिशेरते ते । माध्यस्थ्यमास्थाय परीक्षका ये, मणौ च काचे च समानुबन्धाः ||१|| देशविषयं तु इदमेव बुद्धवचनं साङ्ख्यकणादिवचनं वा तत्त्वमिति । इदं तु व्यक्तमेव सम्यक्त्वदुषणम् ४ । तैर्मिथ्यादृष्टिभिरेकत्र संवासात्परस्परालापादिजनितः परिचयः संस्तवः । एकत्र वासे हि तत्प्रक्रियाश्रवणात्तत्क्रियादशनाच्च सम्यक्त्ववतोऽपि दृष्टिभेदः सम्भाव्यते, किमुत मन्दबुद्धेर्नवधर्म्मस्य इति संस्तवोऽपि सम्यक्त्वदूषणम् ५ । एवंविध च सम्यक्त्वं विशिष्टद्रव्यक्षेत्र कालभावसामद्रयां सत्यां गुरो समीपे विधिना प्रतिपद्य श्रावको यथावत्पालयति । यदाह १ समणोवास तत्थ मिच्छत्ताओ पडिक्कमे । दव्वओ भावओ पुव्वि सम्मतं पडिवज्जए ||१|| २न कप्पए से परतित्थियाणं, तहेव तेसिं चिय देवयाणं । परिग्गहे ताण य चेइयाणं पहावणावंदणपूयणा ॥ २ ॥ श्लोयाण तित्थेसु सिणाणदाणं, पिंडप्पयाणं हुणणं तवं च । संकंतिसोमग्गहणाइएं, पभूयलोयाण पवाह किच्चं ||३|| एवं तावत्सागरोपमकोटीकोटयां शेषायां किञ्चिदूनायां मिथ्यात्वमोहनीयस्थितौ जन्तुः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते सागरोपमकोटी कोट्यामप्यवशिष्टायां पल्योपमपृथक्त्वं यदा व्यतीतं भवति तदा देशविति प्रतिपद्यते । यदाह(१) श्रमणोपासकस्तत्र मिथ्यात्वात्प्रतिक्रमेत् । द्रव्यतो भावतः पूर्वं सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ॥ (२) न कल्पते तस्य परतीर्थिकानां तथैव तेषामेव देवतानाम् । परिग्रहे तेषां च चैत्यानां प्रभावनावन्दनपूजनादि ॥ (३) लोकानां तीर्थेषु स्नानदानं पिण्डप्रदानं हवनं तपश्च । संक्रान्तिसोमग्रहणादिकेषु प्रभूतलोकानां प्रवाहकृत्यम् ।। द्वितीय प्रकाशः "સા Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाशः योगशास्त्रम् ॥१३३॥ "सम्मत्तम्मि उ लद्धे पलियपुहुत्तेण सावओ होज्ज ति" ॥१७॥ सम्यक्त्वमूलानि पश्चाणुव्रतानीत्युक्तं सम्यक्त्वमभिहितमिदानीमणुव्रतान्याह| विरतिं स्थूलहिंसादेर्द्विविधत्रिविधादिना । अहिंसादीनि पञ्चाणुव्रतानि जगदुर्जिनाः ॥१८॥ स्थूला मिथ्यादृष्टीनामपि हिंसात्वेन प्रसिद्धा या हिंसा सा स्थूलहिसा स्थूलानां वा प्रसानां जीवानां हिंसा स्थूलहिंसा । स्थूलग्रहणमुपलक्षणम् । तेन निरपराधसङ्कल्पपूर्वकहिंसानामपि ग्रहणं आदिग्रहणात् स्थूलानृतस्तेयाब्रह्मचर्यषरिग्रहाणां संग्रहः । एभ्यः स्थूलहिंसादिभ्यो या विरतिनिवृत्तिस्तामहिंसादीनि अहिंसासूनृतास्तेयब्रह्मचपिरिग्रहान् पञ्चाणुव्रतानीति ( तानि ) जिनास्तीर्थकरा जगदुः प्रतिपादितवन्तः । किमविशेषेण विरतिर्नेत्याह । द्विविधत्रिविधादिना भङ्गजालेन द्विविधः कृतकारितरूपस्त्रिविधो मनोवाकायभेदेन यत्र स द्विविधत्रिविध एको भङ्गः । इह यो हिंसादिभ्यो विरतिं प्रतिपद्यते, स द्विविधां कृतकारितभेदां त्रिविधेन मनसा वचसा कायेन चेति । एवं च भावना---स्थूलहिंसां न करोत्यात्मना न कारयत्यन्येन मनसा वचसा कायेन चेति । अस्य चानुमतिरप्रतिषिद्धा अपत्यादिपरिग्रहसद्भावात् तैर्हिसादिकरणे च तस्यानुमतिप्राप्तः । अन्यथा परिग्रहापरिग्रहयोरविशेषेण प्रव्रजिताप्रबजितयोरभेदापत्तेः ननु भगवत्यादावागमे त्रिविधं त्रिविधेनेत्यपि प्रत्याख्यानमुक्तमगारिणः, तच्च श्रुतोक्तत्वादनवद्यमेव तत्कस्मान्नोच्यते ? उच्यते-तस्य विशेषविषयत्वात् । तथाहि यः किल प्रविजिषुरेव (१) सम्यक्त्वे तु लब्धे पल्योपमपृथक्त्वेन श्रावको भवेदिति । ॥३३॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा iા प्रतिमाः प्रतिपद्यते पुत्रादिसन्ततिपालनाय यो वा विशेष स्वयंभूरमणादिगतं मत्स्यादिमांसं स्थूलहिंसादिकं वा कचिदवस्थाविशेषे प्रत्याख्याति स एव त्रिविध त्रिविधेनेति करोति । इत्यल्पविषयत्वानोच्यते । बाहुल्येन तु द्विविधं त्रिविधेनेति। द्विविधत्रिविध आदिर्यस्य द्विविधत्रिविधादेर्भङ्गजालस्य तेन ॥ द्विविधं द्विविधेनेति द्वितीयो भङ्गः द्विविधमिति स्थूलहिंसां न करोति न कारयति द्विविधेनेति मनसा वचसा यद्वा मनसा कायेन यद्वा वाचा कायेनेति । तत्र यदा मनसा वाचा न करोति न कारयति तदा मनसा अभिसन्धिरहित एव वाचापि हिंसकमब्रुवन्नेव कायेनैव दुश्चेष्टितादिना असंजिवत्करोति । यदा तु मनसा कायेन न करोति न कारयति तदा मनसाभिसन्धिरहित एव कायेन दुश्चेष्टितादि परिहरन्नेवानाभोगाद्वाचैव हन्मि घातयामि वेति ब्रूते यदा तु वाचा कायेन न करोति न कारयति तदा मनसैवाभिसन्धिमधिकृत्य करोति कारयति च । अनुमतिस्तु त्रिभिरपि सर्वत्रवास्ति । एवं शेषविकल्पा अपि भावनीयाः। द्विविधमेकविधेनेति तृतीयः द्विविधं करण कारणं च एकविधेन मनसा यद्वा कायेन । एकविधं त्रिविधेनेति चतुर्थः एकविध करणं यद्वा कारण मनसा वाचा कायेन च । एकविधं द्विविधेनेति पञ्चमः एकविधं करण यद्वा कारण द्विविधेन मनसा वाचा यद्वा मनसा कायेन यद्वा वाचा कायेन । एकविधमेकविधेनेति षष्ठः एकविधं करण यद्वा कारण एकविधेन मनसा यद्वा वाचा यद्वा कायेन । यदाह ॥१३॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् द्वितीय মকায়: ॥१३५॥ १दुविहतिहेण पढमो दुविहं दुविहेण बीयओ होइ। दुविहं एगविहेण एगविहं चेव तिविहेण ॥१॥ एगविहं दुविहेणं एगेगविहेण छठओ होइत्ति । एते च भङ्गाः करणत्रिकेण योगत्रिकेण च विशेष्यमाणा एकोनपश्चाशद्भवन्ति । तथाहिहिंसां न करोति मनसा १ वाचा २ कायेन ३ मनसा वाचा ४ मनसा कायेन ५ वाचा कायेन वा ६ मनसा वाचा कायेन च ७ एते करणेन सप्त भङ्गाः । एवं कारणेन सप्त । अनुमत्या सप्त । तथा हिंसां न करोति न कारयति च मनसा १ वाचा २ कायेन ३ मनसा वाचा ४ मनसा कायेन ५ वाचा कायेन वा ६ मनसा वाचा कायेन च ७। एते करणकारणाभ्यां | सप्त भङ्गाः। एवं करणानुमतिभ्यां सप्त । कारणानुमतिभ्यामपि सप्त । करणकारणानुमतिभिरपि सप्त । एवं सर्वे मीलिता एकोनपश्चाशद्भवन्ति । एते च त्रिकालविषयत्वात् प्रत्याख्यानस्य कालत्रयेण गुणिताः सप्तचत्वारिंशदधिकं शतं भवन्ति । यदाह २सेयालं भंगसय पच्चक्खाणम्मि जस्स उवलद्रं । सो खलु पच्चक्खाणे कुसलो सेसा अकुसलाओ ॥१॥ (१) द्विविधत्रिविधेन प्रथमो द्विविधं द्विविधेन द्वितीयो भवति । द्विविधं एकविधेन एकविधं चैव त्रिविधेन । एकविधं द्विविधेन एककविधेन षष्ठको भवतीति । (२) सप्तचत्वारिंशत्भङ्गशतं प्रत्याख्याने यस्य उपलब्धम् । स खलु प्रत्याख्याने कुशलः शेषा अकुशलाः ॥ ॥१३५४ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१३॥ द्वितीय प्रकाशः त्रिकालविषयता चातीतस्य निन्दया साम्प्रतिकस्य संवरणेन अनागतस्य प्रत्याख्यानेनेति । यदाह “अइ निंदामि पडुप्पन्नं संवरेमि अणागय पच्चक्खामि त्ति । एते च भङ्गा अहिंसावतमाश्रित्योपदर्शिता व्रतान्तरेष्वपि द्रष्टव्याः ॥१८॥ एवं सामान्येन हिंसादिगोचरां विरतिमुपदर्य प्रत्येकं हिंसादिषु तामुपदिदर्शयिषुर्हिसायां तावदाह| पङ्गुकुष्ठिकुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः। निरागस्त्रसजन्तूनां हिंसां संकल्पतस्त्यजेतू॥१९॥ इह नादृष्टपापफलाः पापानिवर्तन्त इति पापफलमुपदर्शयन् हिंसाविरतिव्रतमुपदिशति । पगुः सत्यपि पादे पादविहरणाक्षमः, कुष्टी त्वग्दोषी, कुणिर्विकलपाणिः तेषां भावः पङ्गुकुष्ठिकुणित्वम् । आदिग्रहणात्पङ्गुत्वोपलक्षितमधःकायवैगुण्यम्, कुष्ठित्वोपलक्षितं सकलरोगजातम्, कुणित्वोपलक्षितमुपरिकायवैगुण्यं संगृह्यते । एतद्धिसाफलं दृष्ट्वा सुधीरिति बुद्धिमान्, स हि शास्त्रबलेन हिंसायाः फलमेतदिति निश्चित्य हिंसां त्यजेत् । अत्र विधौ सप्तमी । केषां ? निरागस्त्रसजन्तूनां निरागसो निरपराधाखसा द्वीन्द्रियादयस्तेषां सङ्कल्पेन सङ्कल्पेतः आधादित्वात्त. तीयान्तात्तसुः । निरागस इति निरपराधजन्तुविषयां हिंसां प्रत्याचष्टे सापराधस्य तु न नियमः। त्रसग्रहणेनैकेन्द्रि यविषयां हिसां नियमयितुं नक्षम इत्याचष्टे-सङ्कल्पत इति अमु जन्तुं मांसाधर्थित्वेन हन्मीति सङ्कल्पपूर्वकं हिंसा वर्जयेत् । आरम्भजा तु हिंसा अशक्यप्रत्याख्यानेति तत्र यतनामेव कुर्यादिति । अत्रान्तरश्लोका:(१) अतीतं निन्दामि प्रत्युत्पन्नं संवृणोमि अनागतं प्रत्याख्यामीति । ॥१३६॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१३७॥ येषामेकान्तिको भेदः सम्मतो देह देहिनोः । तेषां देहविनाशेऽपि न हिसा देहिनो भवेत् ||१|| अभेदैकान्तवादेऽपि स्वीकृते देहदेहिनोः । देहनाशे देहिनाशात्परलोकोऽस्तु कस्य वै ||२|| भिन्नाभिन्नतया तस्माज्जीवे देहात्प्रतिश्रुते । देहनाशे भवेत्पीडा या तां हिसां प्रचक्षते ||३|| दुःखोत्पत्तिर्मनः क्लेशस्टत्पर्यायस्य च क्षयः यस्यां स्यात्सा प्रयत्नेन हिंसा हेया विपश्चिता || ४ || प्राणी प्रमादतः कुर्याद्यत्प्राणव्यपरोपणम् । सा हिंसा जगदे प्राज्ञैवजं संज्ञेसारभूरुहः ||५|| शरीरी म्रियतां मा वा धवं हिंसा प्रमादिनः । सा प्राणव्यपरोपेऽपि प्रमादरहितस्य न || ६ || जीवस्य हिंसा न भवेन्नित्यस्यापरिणामिनः । क्षणिकस्य स्वयं नाशात्कथं हिंसोपपद्यताम् ॥७॥ नित्यानित्ये ततो जीवे परिणामिनि युज्यते । हिसा कायवियोगेन पीडातः पापकारणम् ||८|| केचिद्वदन्ति हन्तव्याः प्राणिनः प्राणिघातिनः । हिंखस्यैकस्य घाते स्याद्रक्षणं भूयसां किल || ९ || तदयुक्तमशेषाणां हिंखत्वात्प्राणिनामिह । हन्तव्यता स्यात्तल्लाभमिच्छोर्मूलक्षतिः स्फुटा ||१०|| अहिंसासम्भवो धर्म्मः स हिंसातः कथं भवेत् । न तोयजानि पद्मानि जायन्ते जातवेदसः ॥ ११॥ पापहेतुर्वधः पापं कथं छेत्तुमलं भवेत् । मृत्युहेतुः कालकूटं जीविताय न जायते || १२ || संसारमोचकास्त्वाहुदुःखिनां वध इष्यताम् । विनाशे दुःखिनां दुःखवि ना जायते कि ||१३|| तदप्यसाम्प्रतं ते हि हता नरकगामिनः । अनन्तेषु नियोज्यन्ते दुःखेषु स्वल्पदुःखकाः | १४ ॥ किं च सौख्यवतां घाते धर्म्मः स्यात्पापवारणात् । इथे विचार्य हेयानि वचनानि कुतीर्थिनाम् ||१५|| चार्वाकाः प्रादुरात्मैव तावन्नास्ति कथञ्चन । तं विना कस्य सा हिसा कस्य हिसाफलं भवेत् ॥ १६ ॥ भूतेभ्य एक चैतन्य पिष्टादिभ्यो यथा मदः । भूतसंहतिनाशे च पञ्चत्वमिति कथ्यते || १७|| आत्माभावे च तन्मूल: द्वितोप प्रकाशः ॥१३७॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् ११३८॥ द्वितीय प्रकाशा परलोको न युज्यते। अभावे परलोकस्य पुण्यापुण्यकथा वृथा ॥१८॥ तपांसि यातनाश्चित्राः संयमो भोगवञ्चना । इति विप्रतिपत्तिभ्यः परेभ्यः परिभाष्यते ॥१९॥ स्वसंवेदनतः सिद्धः स्वदेहे जीव इष्यताम् । अहं दुःखी सुखी वाहमिति प्रत्यययोगतः ॥२०॥ घटं वेदम्यहमित्यत्र त्रितयं प्रतिभासते। कर्म क्रिया च कर्ता च तत्कर्ता किं निषिध्यते ॥२१॥ शरीरमेव चेत्कत न कत्तं तदचेतनम् । भूतचैतन्ययोगाच्चेच्चेतनं तदसङ्गतम् ॥२२॥ मया दृष्टं श्रुतं स्पृष्टं घातमास्वादितं स्मृतम् । इत्येककर्तृकाभावात् भूतचिद्वादिनः कथम् ॥२३॥ स्वसंवेदनतः सिद्धे स्वदेहे चेतनात्मनि । परदेहेऽपि तत्सिद्धिरनुमानेन साध्यते ॥२४॥ बुद्धिपूर्वा क्रियां दृष्ट्वा स्वदेहेऽन्यत्र तद्गतिः प्रमाणबलतः सिद्धा केन नाम निवार्यते ॥२५।। तत्परलोकिनः सिद्धौ परलोको न दुर्घटः। तथा च पुण्यपापादि १सर्वमेवोपपद्यते ॥२६॥ तपांसि यातनाश्चित्रा इत्याधुन्मत्तभाषितम् । सचेतनस्य तत्कस्य नोपहासाय जायते ॥२७॥ निर्बाधोऽस्ति ततो जीवः स्थित्युत्पादव्ययात्मकः। ज्ञाता द्रष्टा गुणी भाक्ता कर्ता कायप्रमाणकः॥२८॥ तदेवमात्मनः सिद्धी हिंसा कि नोपपद्यते तदस्याः परिहारेणाहिंसाव्रतमुदीरितम् ॥२९॥१९॥ हिंसानियमे स्पष्टं दृष्टान्तमाहआत्मवत्सर्वभूतेषु सुखदुःखे प्रियाप्रिये । चिन्तयन्नात्मनोऽनिष्टां हिंसामन्यस्य नाचरेत् ॥२०॥ मुखशब्देन मुखसाधनमनपानस्त्रचन्दनादि गृह्यते । दुःखशब्देन दुःखसाधन वधबन्धमारणादि । ततो (१) स्वयमेवोः । ॥१३८॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाश ॥१३९॥ यथात्मनि दुःखसाधनमप्रियं तथा सर्वभूतेष्वपि । एवं चिन्तयन् दुःखसाधनत्वादप्रियां परस्य हिंसां न कुर्वोत । सुखग्रहणं दृष्टान्तार्थम् । यथा सुखसाधनं प्रियमेवं दुःखसाधनमप्रियम् । तथा सर्वभूतेष्वपि दुःखसाधनमप्रियमित्यर्थः । यदाहुलौकिका अपि श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥१॥ इति ॥२०॥ ननु प्रतिषिद्धाचरणे दोषः, प्रतिषिद्धा च त्रसजीवविषया हिंसा, स्थावरेषु त्वप्रतिषिद्धर्हिसेषु यथेष्ट चेष्टन्ताम् गृहस्था इत्याहनिरर्थिकां न कुर्वीत जीवेषु स्थावरेष्वपि । हिंसामहिंसाधर्मज्ञः काङ्क्षन्मोक्षमुपासकः ॥२१॥ __ स्थावराः पृथिव्यम्बुतेजोवायुवनस्पतयस्तेष्वपि जीवेषु हिंसां न कुर्वीत । किविशिष्टां ? निरथिको प्रयोजनरहितां, शरीरकुटुम्बनिर्वाहनिमित्तं हि स्थावरेषु हिंसा न प्रतिषिद्धा, या त्वर्थिका शरीरकुटुम्बादिप्रयोजनरहिता तादृशीं हिंसां न कुर्वीत उपासकः श्रावकः । किविशिष्टः ? अहिंसाधर्मज्ञः अहिंसालक्षणं धर्म जानातीति अहिंसाधर्मज्ञः। न हि प्रतिषिद्धवस्तुविषयैवाहिंसा धर्मः किन्त्वप्रतिषिद्धेष्वपि सा यतनारूपा । ततश्च तथाविधं धर्म जानन् स्थावरेष्वपि निरर्थिकां हिसां न विदधीत । ननु प्रतिषिद्धविषयैवाहिंसास्तु किमनया सूक्ष्मेक्षिकया ? इत्याह-काक्षन्मोक्षं, स हि मोक्षाकाक्षी यतिवत् कथं निरथिकां हिंसामाचरेत् ? ॥२१॥ ननु निन्तरहिंसापरोऽपि सर्वस्वं दक्षिणां दत्त्वा पापविशुद्धिं विदध्यात् किमनेन हिंसापरिहारक्लेशेन ? इत्याह ॥१३९। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय योगशास्त्रम् प्रकामा ॥१४॥ " प्राणी प्राणितलोभेन यो राज्यमपि मुञ्चति । तद्वधोत्थमघं सर्वीिदानेऽपि न शाम्यति ॥२२॥ प्राणी जन्तुः प्राणितं जीवितव्यं तस्य लोभेन राज्यमपि तत्कालोपस्थितं परिहरति । यदाहमार्यमाणस्य हेमाद्रिं राज्यं वाथ प्रयच्छतु । तदनिष्टं परित्यज्य जीवो जीवितुमिच्छति ॥१॥ तत्तथाविधप्राणितप्रियप्राणिवधसम्भवं पापं सकलपृथ्वीदानेनापि न शाम्यति । भूदानं हि सकलदानेभ्योऽभ्यधिकमिति श्रुतिः ॥२२॥ अथ श्लोकचतुष्टयेन हिंसाकर्तुनिन्दामाहवने निरपराधानां वायुतोयतृणाशिनाम् । निघ्नन् मृगाणां मांसार्थी विशिष्येत कथं शुनः ?॥२३॥ मृगाणामिति “ निप्रेभ्यो नः" ॥२॥२॥१५॥ इति कर्मत्वप्रतिषेधाच्छेषे षष्ठी। वने वनवासिनां न तु परस्वीकृतभूमिबासिनां । तथाविधा अपि सापराधाः स्युरित्याह-निरपराधानां परधनहरणपरगृहभङ्गपरमारणाद्यपराधरहितानां । निरपराधत्वे हेतुमाह-वायुतीयतृणाशिनाम्, न हि वायुतोयतृणानि परधनानि येन तद्भक्षणात्सापराधत्वं स्यात् । मांसार्थीति अत्रापि मृगाणामिति सम्बध्यते । मृगाणां यन्मांसं तदर्थयते, मृगग्रहणेनाटविकाः प्राणिन, गृह्यन्ते । एवंविधमृगमांसार्थी मृगवधपरायणो निरपराधमानुषपिचण्डिकामांसलुब्धाच्छुनः कथं विशिष्येत श्ववेत्यर्थः ॥२३॥ दीर्यमाणः कुशेनापि यः स्वाङ्गे हन्त दूयते । निर्मन्तून् स कथं जन्तूनन्तयेनिशितायुधैः ॥२४॥ ॥१४०॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशः ॥१४॥ दीर्यमाणो विदार्यमाणः कुशेन दर्भेण अपिशब्दादास्तां शस्त्रेण यः स्वारगे शरीरे हन्तेति प्रतिबोध्यामन्त्रणे यते उपतप्यते । निर्मान्तूनिरपराधान् जन्तून् स कथं अन्तयेदन्तं प्रापयेत् निशितायुधैः कुन्तादिभिः ? आत्मानुसारेणापि परपीडामजानन्नेवं निन्द्यते । तथा च मृगयाव्यापृतान् क्षत्रियान् प्रति केनचिदुक्तम् रसातलं यातु यदत्र पौरुष, एक नीतिरेषाऽशरणो ह्यदोषवान् । निहन्यते यदलिनातिदुर्बलो, हहा महाकष्टमराजकं जगत् ॥१॥२४॥ | निर्मातुं क्रूरकर्माणः क्षणिकामात्मनो धृतिम् । समापयन्ति सकलं जन्मान्यस्य शरीरिणः ॥२५॥ करं रौद्रं कर्म हिसादि येषां ते क्रूरकर्माणो लुब्धकादयः। आत्मनः स्वस्य धृति स्वास्थ्यलक्षणां निर्मातुमिति सम्बन्धः । धृतेविशेषणं क्षणिकामिति आजन्मशाश्वतिकधृतिनिमित्तं कदाचित्किश्चिद्विरुद्धमपि क्रियते । क्षणिकधृतिनिर्माणार्थ तु समापयन्ति समाप्तिं नयन्ति जन्म अन्यस्य वध्यस्य शरीरिणः । अयमर्थः-परप्राणमांसजन्यक्षणिकतृप्तिहेतोराकालिकं परस्यायुः समाप्यत इति महादिदं वैशसम् । यहाह योऽश्नाति यस्य तन्मांसमुभयोः पश्यतान्तरम् । एकस्य क्षणिका तृप्तिः प्राणैरन्यो वियुज्यते ॥२५॥ म्रियस्वेत्युच्यमानोऽपि देही भवति दुखितः। मार्यमाणः प्रहरणैर्दारुणैः स कथं भवेत् ?॥२६॥ म्रियस्व त्वमित्युच्यमानोऽपि न तु मार्यमाणो देही जन्तुर्जायमानमृत्युरिव दुःखितो भवतीति सर्वप्राणिप्रती(१) कुनीति । ॥१४॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१४२॥ ॥ तम्। प्रहरणैः कुन्ततोमरादिभिर्मार्यमाणो विनाश्यमानः स वराकोदेही कथं भवेत् ? परमदुःखित एव भवेदित्यर्थः । मरणवचनेनाऽपि दुयमानस्य निशितैः शस्त्रैर्मारणमिति मृतमारणं तत्कथं सकर्णः कुर्यादिति निन्दा ||२६|| हिसाफलं दृष्टान्तद्वारेणाह- श्रूयते प्राणिघातेन रौद्रध्यानपरायणौ । सुभूमो ब्रह्मदत्तश्च सप्तमं नरकं गतौ ॥२७॥ श्रूयते आकर्ण्यते एतदागमे । यदुत प्राणिघातेन हेतुना सुभूमब्रह्मदत्तौ चक्रवर्त्तिनौ सप्तमं नरकं गतौ । हिंसाया नरकगमनहेतुत्वं न रौद्रध्यानमन्तरेण भवति । अन्यथा सिहवधकतपस्विनोऽपि नरकः स्यादित्युक्तं रौद्रध्यानृपरायणौ हिसानुबन्धिध्यानयुक्तावित्यर्थः । तथा तौ नरकं गतौ तथा कथानकद्वारेण दर्श्यते । तथाहि वसन्तपुरनामायां पुर्यामुच्छन्नवंशकः । आसीच्च्युत इवाकाशादग्निको नाम दारकः ॥ १ ॥ सोऽन्यदा चलितस्तस्मात् स्थानाद्देशान्तरं प्रति । सार्थाद्धीनः परिभ्राम्यन्नगमत्तापसाश्रमम् ||२|| तमग्निं तनयत्वेनाग्रहीत्कुलपतिर्ज्जमः । जमदग्निरिति ख्यातिं स लोकेषु ततोऽगमत् ||३|| तप्यमानस्तपस्तीक्ष्णं प्रत्यक्ष इव पावकः । तेजसा दुःसहेनासौ पप्रथे पृथिवीतले ||४|| अत्रान्तरे महाश्राद्धो नाम्ना वैश्वानरः सुरः । धन्वन्तरिश्व तापसभक्तो व्यवदतामिति ||५|| एक आहाईतां धर्मः प्रमाणमितरः पुनः । तापसानां विवादेऽस्मिन् व्यधातामिति निर्णयम् ||६|| आईतेषु जघन्यो यः प्रकृष्टस्तापसेषु यः । परीक्षणीयावावाल्यां को गुणैरतिरिच्यते ? ॥७॥ तदानीं मिथिलापु नवधर्मपरिष्कृतः । श्रीमान् पद्मरथो नाम प्रस्थितः पृथिवीपतिः ||८|| दीक्षां श्रीवासु द्वितीय प्रकाशः ॥१४२॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥१४३॥ घृज्यान्ते ग्रहीतुं भावतो यतिः। गच्छंश्चम्पापुरी ताभ्यां देवाभ्यां ददृशे पथि ॥९॥ परीक्षाकाक्षया ताभ्यां पानान्ने दौकिते नृपः । तृषितः क्षुधितोऽप्यौज्झद्वीराः सत्त्वाच्चलन्ति न ॥१०॥ क्रकचैरिव चक्राते क्रूरैः कर्करकण्टकैः। पीडां देवौ नृदेवस्य मृदुनोः पादपद्मयोः ॥११॥ पादाभ्यां प्रक्षरद्रक्तधाराभ्यां तादृशेऽध्वनि । तूलिकातलसञ्चारं सचेरे च तथापि सः ॥१२॥ निममे गीतनृत्यादि ताभ्यां क्षोभाय भूपतेः। तन्मोघमभवत्तत्र दिव्यास्त्रमिव गोत्रजे ॥१३॥ तौ सिद्धपुत्ररूपेण पुरोभूयेदमृचतुः। तवाद्यापि महाभाग महदायुयुवासि च ॥१४॥ स्वच्छन्दं मुंव तद्भोगान् का धीर्यद्यौवने तपः। निशीथकृत्यं को प्रातः कुर्यादुद्योगवानपि ॥१५॥ यौवने तदतिक्रान्ते देहदौर्बल्यकारणम् । गृह्णीयास्त्वं तपस्तात द्वितीयमिव वाईकम् ॥१६॥ राजोचे यदि बहायुर्बहपुण्यं भविष्यति । जलमानेन नलिनीनालं हि परिवर्द्धते ॥१७॥ लोलेन्द्रिये यौवने हि यत्तपस्तत्तपो ननु । दारुणास्त्रो रणे यो हि शूरः शूरः स उच्यते ॥१८॥ तस्मिन्नचलिते सत्त्वात्साधु साध्विति वादिनौ । तौ गतौ तापसोत्कृष्टं जमदग्नि परीक्षितुम् ॥१९॥ न्यग्रोधमिव विस्तारिजटासंस्पृष्टभूतलम् । वल्मीकाकीर्णपादान्तं दान्तं तौ तमपश्यताम् ॥२०॥ तस्य श्मश्रुलताजाले नीडं निर्माय मायया । तदैव देवौ चटकमिथुनीभूय तस्थतुः॥२१॥ चटकश्चटकामूचे यास्यामि हिमवगिरौ। अन्यासक्तो नैष्यसि त्वमिति तं नान्वमस्त सा ॥२२॥ गोघातपातकेनाहं गृह्ये नायामि चेत्प्रिये । इत्युक्तशपथं भूयश्चटकं चटकाऽब्रवीत् ॥२३॥ ऋषेरस्यैनसा गृह्ये शपेथा इति चेप्रिय । विसृजामि तदैव त्वां पन्थानः सन्तु ते शिवाः॥२४॥ इत्याकर्ण्य वचः क्रूद्धो जमदनिमुनिस्ततः। उभाभ्यामपि हस्ताभ्यामुभौ जग्राह पक्षिणौ ॥२५॥ आचचक्षे ततो हन्त कुर्वाणे दुष्कर ॥१४३॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् SCRE द्वितीय प्रकाश तपः । उष्णरश्माविव ध्वान्तमाः पापं मयि कीदृशम् ॥२६॥ अथर्षि चटकोवाच मा कुपस्ते मुधा तपः । अपुत्रस्य गतिर्नास्तीत्यश्रौषीस्त्वं न कि श्रुतिम् ॥२७॥ तत्तथा मन्यमानोऽयं मुनिरेवमचिन्तयत् । ममाकलत्रपुत्रस्य प्रवाहे मूत्रितं तपः॥२८।। क्षुभितं तं परिज्ञाय धिग् भ्रान्तस्तापसैरिति । जज्ञे धन्वन्तरिः श्राद्धः प्रत्येति प्रत्ययान्न कः ॥२९॥ बभूवतुरदृश्यौ च तावपि त्रिदशौ तदा । जमदग्निश्च सम्पाप पुरं नेमिककोष्टकम् ॥३०॥ जितशत्रुमहीपालं तत्र भूयिष्ठकन्यकम् । स प्रेप्सुः कन्यकामेकां दक्षं हर इवागमत् ॥३१॥ कृत्वाभ्युत्थानमुर्वीशः प्राञ्जलिस्तमभाषत । किमर्थमागता यूयं ब्रूत कि करवाण्यहम् ॥३२॥ कन्यार्थमागतोऽस्मीति मुनिनोक्ते नृपोऽब्रवीत् । मध्ये शतस्य कन्यानां त्वां येच्छति गृहाण ताम् ॥३३॥ स कन्यान्तःपुरं गत्वा जगाद नृपकन्याकाः। धर्मपत्नी मम काचिद्भवतीभ्यो भवत्विति ॥३४॥ जटिलः पलितः क्षामो भिक्षाजीवो वदन्निदम् । न लजसे त्वमिति ताः कृतथूत्कारमूचिरे ॥३५।। समीरण इव क्रुद्धो जमदग्निमुनिस्ततः। अधिज्येष्वासयष्टयाभाः कन्याः कुब्जीचकार ताः ॥३६।। अथाङ्गणे रेणुपुञ्ज रममाणां नृपात्मजाम् । एकामालोकयामास रेणुकेत्यब्रवीच ताम् ॥३७।। स तस्या इच्छसी त्युक्त्वा मातुलिङ्गमदर्शयत् । तया प्रसारितः पाणिः पाणिग्रहणसूचकः॥३८॥ तां मुनिः परिजग्राह रोरो धनमिवोरसा सार्द्ध गवादिभिस्तस्मै ददौ च विधिवन्नृपः ॥३९॥ स श्यालीस्नेहसम्बन्धादेकोनं कन्यकाशतम् । सज्जीचक्रे तपःशक्त्या धिग्मृढानां तपोव्ययः॥४०॥ नीत्वाश्रमपदं तां च स मुग्धमधुराकृतिम् । हरिणीमिव लोलाक्षी प्रेम्णा मुनिरवर्द्धयत् ४१ अर्जुलीभिर्गणयतो दिनान्यस्य तपस्विनः । यौवनं चारुकन्दप्पलीलावनमवाप सा ॥४२॥ साक्षीकृतज्वलदग्निर्ज(१) अधिज्यधनुर्यष्टितुल्याः । ॥१४४॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशः ॥१४५॥ मदग्निमुनिस्ततः यथावदुपयेमे तां भूतेश इव पार्वतीम् ॥४३॥ ऋतुकाले स ऊचे तां चरु ते साधयाम्यहम् । यथा ब्राह्मणमूर्द्धन्यो धन्य उत्पद्यते सुतः ॥४४॥ सोवाच हस्तिनापुरेऽनन्तवीर्यस्य भूपतेः । पत्न्यस्ति मत्स्वसा तस्यै चरुः क्षात्रोऽपि साध्यताम् ॥४५॥ ब्राह्म सधर्मचारिण्यै क्षात्रं तज्जामयेऽपरम् । स चरुं साधयामास पुत्रीयमुपजीवितुम् ॥४६॥ साचिन्तयदहं तावदभूवमटवीमृगी । मा भून्मादृक् सुतोऽपीति क्षात्रं चरुमभक्षयत् ॥४७॥ साऽदाब्राह्मं चरु स्वखे जातौ च तनयौ तयोः । तत्र रामो रेणुकायाः कृतवीर्यश्च तत्स्वसुः ॥४८॥ क्रमेण ववृधे राम ऋषित्वे पैतृकेऽपि सः । क्षात्र प्रदर्शयंस्तेजो हुताशनमिवाम्भसि ॥४९॥ विद्याधरोऽन्यदा तत्त्र कोऽप्यागादतिसारकी । विद्या तस्यातिसाराा विस्मृताकाशगामिनी ॥५०॥ रामेण प्रतिचरितो भेषजायेः स बन्धुवत् रामाय सेवमानाय विद्यां पारशवीं ददौ ॥५१।। मध्येशरवणं गत्वा तां च विद्यामसाधयत् । रामः परशुरामोऽभूत्ततः प्रभृति विश्रुतः ॥५२॥ अन्येयुः पतिमापृच्छय रेणुकोत्कण्ठिता स्वसुः। जगाम हस्तिनपुरे प्रेम्णो दूरे न किश्चन ॥५३॥ श्यालीति लालयन् लोललोचनां तत्र रेणुकाम् । अनन्तवीर्योऽरमयकामः कामं निरङ्कुशः ॥५४॥ ऋषिपत्न्या तया राजाहल्ययेव पुरन्दरः । अन्वभूच्च यथाकामं सम्भोगसुखसम्पदम् ॥५५॥ अनन्तवीत्तिनयो रेणुकायामजायत । ममतायामिवोतथ्यः सधर्मिण्यां बृहस्पतेः ॥५६॥ तेनापि सह पुत्रेण रेणुकामानयन्मुनिः । स्त्रीणां लुब्धो जनः प्रायो दोषं न खलु वीक्षते ॥५७॥ तां पुत्रसहितां वल्लीमकालफलितामिव । सञ्जातकोपः परशुरामः परशुनाऽच्छिनत् ॥५८॥ तद्भगिन्या स वृत्तान्तोऽनन्तवीर्यस्य शंसितः । कोपनुद्दीपयामास कृशानुमिव मारुतः ॥५९॥ ततश्चावार्यदोर्वीर्योऽनन्तवीर्यों महीपतिः। जमदग्न्याश्रमं गत्वाभाक्षीन्मत्त इव ॥१४५॥ । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्रम् द्वितीय प्रकाशः ॥१४६॥ द्विपः ॥६०॥ तापसानां कृतत्रासः समादाय गवादि सः। मन्दं मन्दं परिक्रामन् केसरीब न्यवर्तत ॥६१॥ त्रस्यत्तपस्वितुमुलं श्रुत्वा ज्ञात्वा च तां कथाम् । क्रुद्धः परशुरामोऽथाधावत्साक्षादिवान्तकः ॥६२॥ सुभटग्रामसंग्रामकौतुकी जमदग्निजः । पशुना खण्डशश्चक्रे दारुवदारुणेन तम् । ॥६३॥ सज्ये निवेशयाञ्च तस्य प्रकृतिपूरुषैः। कृतवीर्यों महावीर्यः स एव तु वयोलघुः॥६४॥स तु मातृमुखाच्छुत्ता मृत्युव्यतिकरं पितुः । आदिष्टाहिरिवागत्य जमदग्निममारयत् ॥६५॥ रामः पितृवधक्रुद्धो द्राग्गत्वा हस्तिनापुरे । अमारयत्कृतवीय किं यमस्य दवीयसि ॥६६॥ जामदग्न्यस्ततस्तस्य राज्ये न्यविशत स्वयम् । राज्यं हि विक्रमाधीनं न प्रमाणं क्रमाक्रमौ ॥६७॥ रामाक्रान्तपुराद्राज्ञी कृतवीयस्य गुर्विणी व्याघ्राघ्रातवनादेवागमत्तापसाश्रमम् ॥६८॥ कृपाधने भूगृहान्तः सा निधाय निधानवत् । तपस्विभिर्गोप्यते स्म क्रूरात्परशुरामतः ॥६९॥ चतुर्दशमहास्वमसूचितोऽस्याः सुतोऽजनि । गृह्णन् भूमि सुखेनाभूत्सुभूमो नामतस्ततः ॥७०॥ क्षत्रियो यत्र यत्रासीत्तत्र तत्राप्यदीप्यत । पशुः परशुरामस्य कोषाग्निरिव मूर्तिमान् ॥७१॥ रामोऽगादन्यदा तत्राश्रमे पशुश्च सोऽज्वलत् । क्षत्रं चासूचयद्धम इव धूमध्वजं तदा ॥७२॥ किमत्र क्षत्रियोऽस्तीति पृष्टास्तेन तपस्विनः इत्यूचुस्तापसीभूताः क्षत्रिया वयमास्महे ॥७३॥ रामोऽप्यमर्षानिःक्षत्रां सप्तकृत्वो वसुन्धराम् । निर्ममे निस्तृणां शैलतटीमिव दवानलः ॥७४॥ क्षुण्णक्षत्रियदंष्ट्राभी रामः स्थालमपूरयत् । यमस्य पूर्णकामस्य पूर्णापात्रश्रियं दधत् ॥७५॥ रामः पप्रच्छ नैमित्तानन्येद्य, कुतो बधः । सदा वैरायमाणा हि शङ्कन्ते परतो मृतिम् ॥७॥ यो दंष्ट्राः पायसीभूताः सिंहासन इह स्थितः । भोक्ष्यतेऽमृस्ततस्त्यस्ते वधो भावीति तेऽब्रुवन् ॥७७॥ रामोऽथ ॥१४६॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्रम् द्वितीय प्रकाश ॥१४॥ कारयामास सत्रागारमवारितम् । धुरि सिंहासनं तत्रास्थापयत्स्थालमग्रतः ॥७८॥ अथाश्रमे प्रतिदिनं लालयद्भिस्तपस्विभिः। निन्येऽङ्गणदुन इव मुभूमो वृद्धिमभूताम् ॥७९॥ विद्याधरो मेघनादोऽन्येधुनैमित्तिकानिति । परिपप्रच्छ पद्मश्रीः कन्या मे कस्य दीयताम् ॥८०॥ तस्या वरं वरीयांसं सुभूमं तेऽप्युपादिशन् । दत्वा कन्यां ततस्तस्मै तस्यैवाभूत्स सेवकः॥८१।। कूपभेक इवानन्यगोऽथ पप्रच्छ मातरम् । सुभूमः किमियानेव लोकोऽयमधिकोऽपि किम् ॥८२।। माताप्यचीकथदथो लोकोऽनन्तो हि वत्सक । मक्षिकापदमानं हि लोकमध्येऽयमाश्रमः ॥८३।। अस्मिम् लोकेऽस्ति विख्यातं नगरं हस्तिनापुरम् । पिता ते कृतवीर्योऽभूत्तत्र राजा महाभुजः ॥८५॥ हत्त्वा ते पितरं रामो राज्यं स्वयमशिश्रियत् । क्षिति निक्षत्रियां चक्रे तिष्ठामस्तद्भयादिह ॥८५॥ तत्कालं हस्तिनापुरे सुभूमो भौमवज्ज्वलन् । जगाम वैरिणे क्रुद्धः, क्षानं तेजो हि दुर्द्धरम् ।।८६॥ तत्र सो ययौ सिंह इव सिहासनेऽविशत् । दंष्ट्रास्ताः पायसीभूताः सुभुजो बुभुजे च सः ॥८७॥ उत्तिष्ठमाना युद्धाय ब्राह्मणास्तत्र रक्षकाः। जनिरे मेघनादेन व्याघ्रण हरिणा इव ॥८८॥ प्रस्फुरदंष्ट्रिकाकेशो दशनैरधरं दशन् । ततो रामः क्रुधा कालपाशाकृष्ट इवाययौ ॥८९॥ रामेण मुमुचे रोषात्सुभूमाय परश्वधः। विध्यातस्तत्क्षणं तस्मिन् स्फुलिङ्ग इव वारिणि ॥९०॥ अखाभावात्सुभूमोऽपि दंष्ट्रास्थालमुदक्षिपत् । चक्रीवभूव तत्सद्यः किं न स्यात्पुण्यसम्पदा ॥९१॥ चक्रवर्त्यष्टमः सोऽथ तेन चक्रण भास्वता । शिरः परशुरामस्य पङ्कजच्छेदमच्छिदत् ॥९२॥ क्षमां निःक्षत्रियां रामः सप्तकृत्वो यथा व्यधात् । एकविशतिकृत्वस्तां तथा निर्वाह्मणामसौ ॥९३।। क्षुण्णक्षितिपह (१) मङ्गलग्रहवत्. ॥१४॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाश ૨૪૮ स्त्यश्वपदातिय॒हलोहितः वाहयन् वाहिनिनव्याः स प्राक् प्राचीमसाधयत् ॥९४॥ स च्छिन्नाने कसुभटमुण्डमण्डितभूतलः । दक्षिणाशां दक्षिणाशापतिरन्य इवाजयत् ॥९५॥ भटास्थिभिर्दन्तुरयन् शुक्तिशखैरिवाभितः । रोधो नीरनिधेः सोऽथ प्रतीचीमजयदिशम् ॥९६॥ हेलोद्घाटितवैताढयकन्दरः स्थाममन्दरः। म्लेच्छान्विजेतुं भरतोत्तरखण्डं विवेश सः ॥९७॥ उच्छलच्छोणितरसच्छटाच्छुरितभूतलः । म्लेच्छांस्तत्राथ सोऽभाक्षीदिसूनिव महाकरी ॥९८॥ एवं चतुर्दिश भ्राम्यन् घरदृश्वणकानिव । दलयन् सुभटानुीं स पट्खण्डामसाधयत् ॥९९॥ उज्जासंयन्त्रसुमतामिति नित्यरौद्रध्यानानलेन सततं ज्वलदन्तरात्मा । : आसाद्य कालपरिणामवशेन मृत्यु, तां सप्तमी नरकभूमोमगात्सुभूमः ॥१०॥ इति सुभूमचक्रवर्तिकथानकम् ॥ अथ ब्रह्मदत्तकथा साकेतनगरे चन्द्रावतंसस्य सुतः पुरा । नामतो मुनिचंद्रोऽभूञ्चन्द्रवन्मधुराकृतिः ॥१॥ निर्विण्णः कामभोगेभ्यो भारेभ्य इव भारिकः। मुनेःसागरचन्द्रस्य पार्श्वे जग्राहस व्रतम् ॥२॥ प्रव्रज्यां जगतः पूज्यां पालयन्नयमन्यदा । देशान्तरे विहाराय चचाल गुरुणा सह ॥३॥ स तु भिक्षानिमित्तेन पथि ग्रामं प्रविष्टवान् । सार्थाद्मष्टोऽटवीमाट यूथच्युत इवैणक ॥४॥ स तत्र क्षुप्तिपासाभ्यामाक्रान्तो ग्लानिमागतः। चतुर्भिः प्रतिचरितो पल्लभवैर्वान्धवैरिव ॥५॥ स तेषामुपकाराय निर्ममे धर्मदेशनाम् । अपकारिष्वपि कृपा सतां कि नोपकारिषु ॥६॥ प्रवव्रजुस्ते तत्पाधैं चत्वारः शमशालिनः । ॥१४८॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१४॥ द्वितीय प्रकाश चतुर्विधस्य धर्मस्य चतख इव मूर्तयः॥७॥ व्रतं ते पालयन् सम्यक किन्तु द्वौ तत्र चक्रतुः। धर्मे जुगुप्सा चित्रां हि चित्तवृत्तिः शरीरिणाम् ।।८॥ जग्मतुस्तपसा तौ द्यां जुगुप्साकारिणावपि । स्वर्गाय जायतेऽवश्यमप्येकाहः कृतं तपः ॥९॥ च्युत्वा ततो दशपुरे शाण्डिल्यब्राह्मणाबुभौ । युग्मरूपौ सुतौ दास्यां जयवत्यां बभूवतुः । ॥१०॥ तौ क्रमाद्यौवनं प्राप्तौ पित्रादिष्टौ च जग्मतुः । रक्षितुं क्षेत्रमीय हि दासेराणां नियोजनम् ॥११॥ तयोः शयितयोर्नक्तं निःसृत्य वटकोटरात् । एकः कृष्णा हिना दष्टः कृतान्तस्येव बन्धुना ॥१२॥ ततः सर्पोपलम्भाय द्वितीयोऽपि परिभ्रमन् । वैरादिवाशु तेनैव दष्टो दुष्टेन भोगिना ॥१३॥ तावनाप्तप्रतीकारौ वराको मृत्युमापतुः । यथाऽऽयातौ तथा यातौ निष्फलं जन्म धिक्तयोः ॥१४॥ कालिञ्जरगिरिप्रस्थे मृग्या यमलरूपिणौ । मृगावजनिषातां तौ ववृधाते सहैव च ॥१५॥ प्रीत्या सहचरन्तौ तौ मृगौ मृगयुणा हतौ । बाणेनैकेनैककालं कालधर्ममुपेयतुः ॥१६॥ ततोऽपि मृतगङ्गायां राजहंस्या उभावपि अजायेतां सुतौ युग्मरूपिणौ पूर्वजन्मवत् ॥१७॥ क्रीडन्तावेकदेशस्थौ धृत्वा जालेन जालिकः । ग्रीवा भक्त्वा ऽवधीद्धर्महीनानां हीदृशी गतिः ॥१८॥ वाराणस्यां ततोऽभूतां भूतदत्ताभिधस्य तौ । महाधनसमृद्धस्य मातगाधिपतेः सुतौ ॥१९॥ चित्रसम्भूतनामानौ तौ मिथः स्नेहशालिनौ । न कदापि व्ययुज्येतां सम्बद्धौ नखमांसवत् ॥२०॥ वाराणस्यां तदा चाभूच्छङ्घ इत्यवनीपतिः। आसीच्च सचिवस्तस्य नमुचिर्नाम विश्रुतः ॥२१॥ अपरेद्यः सोऽपराधे महीयसि महीभुजा । अर्पितो भूतदत्तस्य प्रच्छन्नवधहेतवे ॥२२॥ तेनोचे नमुचिश्छन्नं त्वां रक्षामि निजात्मवत् । पाठयस्यात्मजौ मे त्वं यदि भूमिगृहस्थितः॥२३॥ प्रतिपन्नं नमुचिना तन्मातङ्गपतेर्वचः। ॥१४॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग द्वितीय प्रकाशः शास्त्रम् ॥१५॥ जनो हि जीवितव्यार्थी तनास्ति न करोति यत् ॥२४॥ विचित्राश्चित्रसम्भूतौ स तथाऽध्यापयत् कलाः । रेमे नुरक्तया साई मातङ्गपतिभार्यया ॥२५॥ ज्ञात्वा तद्भूतदत्तेनारेमे मारयितुं स तु । सहते कः स्वदारेषु पारदारिकविप्लवम् ॥२६॥ ज्ञात्वा मातङ्गपुत्रभ्यां स दृरेणापसारितः । सैवास्मै दक्षिणा दत्ता प्राणरक्षणलक्षणा ॥२७॥ ततो निःमृत्य नमुचिर्गतवान् हस्तिनापुरे । चक्रे सनत्कुमारेण सचिवश्चक्रिणा निजः ॥२८॥ इतश्च चित्रसम्भूतौ बभतुर्नवयौवनौ । कुतोऽपि हेतोरायातौ पृथिव्यामाश्विनाविव ॥२९॥ तौ स्वादु जगतुर्गीतं हाहाहूहूपहासिनौ । वादयामासतुर्वीणामतितुम्बुरुनारदौ ॥३०॥ गीतप्रबन्धानुगतैः सुव्यक्तैः सप्तभिः स्वरैः । तयोर्वादयतोर्वेणुं किं. करन्ति स्म किन्नराः ॥३१॥ मुरज धीरघोष तौ वादयन्तौ च चक्रतुः। गृहीतमुरकंकालातोद्यकृष्णविडम्बनाम् ।। ॥३२॥ शिवः शिवोर्वशीरम्भामुज्जकेशीतिलोत्तमाः । यन्नाटयं न विदाञ्चक्रुस्तौ तदप्यभिनिन्यतुः ॥३३॥ सर्व गन्धर्वसर्वस्वमपूर्व विश्वकार्मणम् । प्रकाशयद्भयामेताभ्यां न जहे कस्य मानसम् ॥३४॥ तस्यां पुरी प्रववृते कदाचिन्मदनोत्सवः । निरीयुः पौरचर्चर्य्यस्तत्र संगीतपेशलाः ॥३५॥ चर्चरी निर्ययौ तत्र चित्रसम्भूतयोरपि । जग्मुस्तत्रैव तद्गीताकृष्टा पौरा मृगा इव ॥३६।। राज्ञो व्यज्ञपि केनापि मातङ्गाभ्यां पुरीजनः । गीतेनाकृष्य सर्वोऽयमात्मवन्मलिनः कृतः ॥३७॥ क्ष्मापेनापि पुराध्यक्षः साक्षेपमिदमाज्ञपि । न प्रवेशः प्रदातव्यो नगर्यामनयोः कचित् ॥३८॥ ततःप्रभृति तौ वाराणस्या दूरेण तस्थतुः । प्रवृत्तश्चैकदा तत्र कौमुदीपरमोत्सवः ॥३९॥ राजशासनमुल्लङ्घन्य लोलेन्द्रियतया च तौ । प्रविष्टौ नगरी भृङ्गौ गजगण्डतटीमिव ॥४०॥ उत्सवं प्रेक्षमाणौ तौ सर्वाङ्गीणावगुण्ठनौ । दस्युवनगरीमध्ये छन्नं छनं विचरतुः ॥४१॥ क्रोष्टुवत्क्रोष्टुशब्देन RCES ॥१५ol Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥ १५१ ॥ पोरगीतेन तौ ततः । अगायतां तारतारमलङ्घया भवितव्यता ॥ ४२ ॥ आकर्ण्य कर्णमधुरं तद्गीतं युवनागरैः । मधुवन्मक्षिकाभिस्तौ मातङ्गौ परिवारितौ ॥४३॥ कावेताविति विज्ञातुं लोकैः कृष्टावगुण्ठनौ । अरे तावेक मातङ्गावित्याक्षेपेण भाषितौ ॥ ४४ ॥ नागरैः कूटयमानौ तौ यष्टिभिर्लोष्टुभिस्ततः । श्वानाविव गृहात्पूर्या (र्याः) नतग्रीव निरीयतुः ॥ ४५ ॥ तौ सैन्यशशवल्लोकैर्हन्यमानौ पदे पदे । स्खलत्पादौ कथमपि गम्भीरोद्यानमीय : ॥४६॥ तावचिन्तयतामेवं धिग् नौ दुर्ज्ञातिदुषितम् । कलाकौशलरूपादि पयो घातमिवाहिना ॥४७॥ उपकारो गुणैरास्तामपकारोऽयमावयोः । तदिदं क्रियमाणायाः शान्तेर्वेताल उत्थितः || ४८|| कलालावण्यरूपाणि स्यूतानि वपुषा सह । तदेवानर्थसदनं तृणवत्त्यज्यतां क्षणात् ||४९ || इति निश्चित्य तौ प्राणपरिहारपरायणौ । मृत्युं साक्षादिव द्रष्टुं चेलतुर्दक्षिणामभि ॥ ५० ॥ ततौ दूरं प्रयातौ तौ गिरिमेकमपश्यताम् । यत्रारूढैर्भुवीक्ष्यन्ते करिणः किरिपोतवत् ||५१|| भृगुपातेच्छया ताभ्यामारोहद्भ्यां महामुनिः । ददृशे पर्वते तस्मिन् जङ्गमो गुणपर्वतः ॥५२॥ प्रावृषेण्यमिवाम्भोदं मुनिं गिरिशिरः स्थितम् । दृष्ट्वा प्रणष्टसन्तापप्रसरौ तौ बभूवतुः ||५३|| तौ प्राग्दुःखामिवो ज्ज्ञन्तावानन्दाश्रुजलच्छलात् । तत्पादपद्मयोर्भुङ्गाविव सद्यो निपेततुः ॥ ५४ ॥ समाप्य मुनिना ध्यानं कौ युवां किमिहागतौ । इति पृष्टौ स्ववृत्तान्तं तावशेषमशंसताम् ||५५ || स ऊचे भृगुपातेन वपुरेव हि शीर्यते । शीर्यते नाशुभं कर्म जन्मान्तरशतार्जितम् ॥ ५६ ॥ त्याज्यं वपुरिदं वां चेद् गृहणीतं वपुषः फलम् । तच्चापवर्गस्वर्गादिका रणं परमं तपः ||५७|| इत्यादिदेशनावाक्यसुधानिधैतमानसौ । तस्य पार्श्वे जगृहतुर्यतिधर्ममुभावपि ॥५८॥ अधीयानौ क्रमेणाथ तौ गीतार्थो बभूवतुः । आदरेण गृहीतं हि किं वा न स्यान्मनस्विनाम् ॥५६॥ षष्ठाष्टमप्र 30209OOD द्वितीय प्रकाशः ॥। १५१ ।। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥१५२॥ भृतिभिस्तौ तपोभिः सुदुस्तयैः । क्रशयामासतुर्देहं प्राक्तनैः कर्मभिः सह ॥ ६०॥ ततो विहरमाणौ तौ ग्रामाद्ग्रामं पुरात्पुरम् । कदाचित्प्रतिपेदाते नगरं हस्तिनापुरम् || ६१|| तौ तत्र रुचिरोद्याने चेरतुर्दुश्वरं तपः । सम्भोगभूमयोऽपि स्युस्तपसे शान्तचेतसाम् ||६२|| सम्भूतमुनिरन्येद्युर्मासक्षपणपारणे । पुरे प्रविष्टो भिक्षार्थ यतिधर्मोऽङ्गवानिव ||६३॥ गेाद्वेहं परिभ्राम्यनीर्यासमितिपूर्वकम् । स राजमार्गापतितो दृष्टो नमुचिमन्त्रिणा || ६४ || मातङ्गदारकः सोऽयं मदवृत्तं ख्यापयिष्यति । मन्त्रीति चिन्तयामास पापा: सर्वत्र शङ्किताः ॥६५॥ यावन्मन्मर्म कस्यापि प्रकाशयति न ह्यसौ । तावन्निर्वासयाम्येनमिति पत्नीन्न्ययुक्त सः || ६६ ॥ स ताडयितुमारेभे तेन पूर्वोपकाय्यपि क्षीरपानमिवाहीनामुपकारोऽसतां यतः ||६७॥ लकुटैः कुटयमानोऽसौ सस्यबीजमिवोत्कटैः स्थानात्ततोऽपचक्राम त्वरितं त्वरितं मुनिः ||६८|| अमुच्यमानः कुट्टाकैर्भिर्यन्नपि मुनिस्तदा । शान्तोऽप्यकुप्यदापोऽपि तप्यन्ते वह्नितापतः ||६९ || निर्जगाम मुखात्तस्य बाप्पो नीलः समन्ततः । अकालोपस्थिताम्भोदविभ्रमं विभ्रदम्बरे ॥७० || तेजोलेश्योल्ललासाथ ज्वालापटलमालिनी । तडिन्मण्डलसङ्कीर्णामिव धामभितन्बती ॥ ७१ ॥ अतिविष्णुकुमारं सं तेजोलेश्याधरं ततः । प्रसादयितुमाजग्मुः पौराः सभयकौतुका ॥७२ || राजा सनत्कुमारोऽपि ज्ञात्वा तत्त्र समाययौ । उत्तिष्ठति यतो वह्निस्तद्धि विध्यापयेत्सुधीः ||७३|| नत्वोचे तं नृपः कि वो युज्यते भगवन्निदम् । चन्द्रारमाशुततोऽपि नाचिमुञ्चति जातुचित् ॥७४॥ एभिरत्यपरार्द्ध यत्कोषोऽयं भवतामतः । क्षीराब्धेर्मध्यमानस्य कालकूटमभून्न किम् ||७५ || न स्यात्स्याच्चेचिरं न स्याच्चिरं चेत्तत्फलेऽन्यथा । खलस्नेह इव क्रोधः सतां तद्ब्रूमहेऽत्र किम् ॥ ७६ ॥ तथापि नाथ नाथामि कोपं मुञ्चतरोचितम् । भवादृशाः समदृशो ह्यपकार्य्युपकारिषु द्वितीय प्रकाशः ॥१५२॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१५३॥ द्वितीय प्रकाशा ७७॥ चित्रोऽप्यत्रान्तरे ज्ञात्वा सम्भूतमुनिमभ्यगात् । सान्त्वयितुं भद्रमिव द्विपं मधुरभाषितैः ॥७८॥ तस्य कोपं उपाशाम्यच्चित्रवाक्यैः श्रुतानुगैः । पयोवाहपयःपूरैगिंरेखि दवानलः ॥७९॥ महाकोपतमोमुक्तः शशाङ्क इव पार्वणः । क्षणादासादयामास प्रसादं स महामुनिः॥८॥ वन्दित्वा क्षमयित्वा च लोकस्तस्मान्यवर्तत ॥ सम्भूतश्चित्रमुनिना तदुधानमनीयत ॥८१॥ पश्चात्तापं चक्रतुस्तौ पर्यटद्भिगृहे गृहे । आहारमात्रककृते प्राप्यते व्यसनं महत् ॥८२॥ शरीरं गत्वरमिदं ह्याहारेणापि पोषितम् । किमनेन शरीरेण किं वाहारेण योगिनाम्।।८३॥ चेतसीति विनिश्चित्य कृतसंलेखनौ पुरा । उभौ चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं प्रचक्रतुः ॥८४॥ कः पराभूतवान्साधु वसुधाम्पाति मय्यपि । इति जिज्ञासतो राज्ञो मन्त्री व्यज्ञपि केनचित् ॥८५।। अाभार्चति यः सोऽपि पापः किमुत हन्ति यः । इत्यानाययदुर्वोशो दस्युवत्संयमय्य तम् ॥८६॥ अन्योऽपि साधुविध्वंसं मा विधादिति शुद्धधीः। तं बद्धं पुरमध्येन सोऽनैषीत्साधुसन्निधौ ॥८७॥ नमन्नृपशिरोरत्नभाभिरम्भोमयीमिव । कुर्वन्नुर्वी स उर्वीशपुङ्गवस्ताववन्दत ॥८८॥ सव्यपाणिगृहीतास्यवस्विकापिहितानानौ । उदक्षिणकरौ तौ तमाशशंसतराशिषा ॥८९॥ यो वोऽपराधवान् सोऽस्तु स्वकर्मफलभाजनम् । राज्ञा सनत्कुमारणेत्यदर्शि नमुचिस्तयोः ॥९॥ अमोचि नमुचिः प्राप्तः पञ्चत्वोचितभूमिकाम् । सनत्कुमारतस्ताभ्यामुरगो गरुडादिव ॥९१॥ निर्वास्य कर्मचण्डालश्चण्डाल इव पत्तनात् । वध्योऽप्यमोच्यसौ राज्ञा मान्यं हि गुरुशासनम् ॥९२॥ सपत्नीभिश्चतु:पष्टिसहखैः परिवारिता । वन्दितुं तौ सुनन्दागात् वीरत्नमथ चक्रिणः ॥९॥ सा सम्भूतमुनेः पादपद्मयोललितालका । पपातास्येन कुर्वाणा भुवमिन्दुमतीमिव ॥९॥ तस्याश्चालकसंस्पर्श सम्भूतमुनिरन्वभूत् । रोमाश्चितश्च ॥१५३॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥१५॥ सद्योऽभूच्छलान्वेषी हि मन्मथः ॥९५॥ अथ सान्तःपुरे राज्ञि तावनुज्ञाप्य जग्मुषि । रागाभिभूतः सम्भूतो निदानमिति निर्ममे ॥९६॥ दुष्करस्य मदीयस्य यद्यस्ति तपसः फलम् । तत्स्त्रीरत्नपतिरहं भूयासं भाविजन्मनि ॥९७॥ चित्रोऽप्यूचे काङ्सीदं मोक्षदात्तपसः फलम् । मौलियोग्येन रत्नेन पादपीठं करोषि किम् ॥६॥ मोहात्कृतं तनिदानमिदानीमपि मुच्यताम् । मिथ्यादुष्कृतमस्यास्तु मुह्यन्ति न भवादृशाः ॥९९॥ एवं निवार्यमाणोऽपि सम्भूतश्चित्रसाधुना । निदानं नामुचदहो विषयेच्छा बलीयसी ॥ १० ॥ नियूंढानशनौ तौ तु प्राप्तायुःकर्मसंक्षयौ । सौधर्म समजायेतां विमाने सुन्दरे मुरौ ॥१॥ च्युत्वा जीवोऽथ चित्रस्य प्रथमस्वर्गलोकतः। पुरे पुरिमतालाख्ये महेभ्यतनयोऽभवत् ॥२॥ च्युत्वा सम्भूतजीवोऽपि काम्पिल्ये ब्रह्मभूपतेः। भार्यायानुलनीदेव्याः कुक्षौ समवतीणवान् ॥३॥ चतुर्दशमहास्वमसूचितागामिवैभवः । अथ जज्ञे सुतस्तस्याः प्राच्या इव दिवाकरः ॥४॥ ब्रह्ममग्न इवानन्दाद् ब्रह्मभूपतिरस्य च । ब्रह्माण्ड विश्रुतां ब्रह्मदत्त इत्यभिधां व्यधात् ॥ ५॥ वकृधे स जगन्नेत्रकुमुदानां मुदं दिशन् । पुष्यन् कलाकलापेन कलानिधिरिवामलः ॥६॥ वक्त्राणि ब्रह्मण इव चत्वारि ब्रह्मणोऽभवन् । प्रियमित्राणि तत्रैकः कटकः काशिभूपतिः ।।७।। कणेरुदत्तसंज्ञोऽन्यो हस्तिनापुरनायकः । दीर्घश्च कोशलाधीशश्चम्पेशः पुष्पचूलकः॥८॥ ते स्नेहाद्वर्षमेकैकमेकैकस्य पुरं युताः। पञ्चाप्यधिवसन्ति स्म स्वर्द्वमा इव नन्दनम् ॥९॥ ब्रह्मणो नगरेऽन्येधुस्ते यथायोगमाययुः। तत्र च क्रीडतां तेषां ययौ कालः कियानपि॥१०॥ ब्रह्मदत्तस्य पूर्णेषु वर्षेषु द्वादशेष्वथ । परलोकगति भेजे ब्रह्मराजः शिरोरुजा ॥११॥ कृत्वौर्ध्वदेहिकं ब्रह्मभूपतेः कटकादयः । उपाया इच मृर्तास्ते चत्वारोऽमन्त्रयन्निति ॥१२॥ ब्रह्मदत्तः शिशुर्यावदेकेकस्तावदत्र नः । तस्य | ॥१५॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१५५॥ प्राहरिक इव वर्षे वर्षेऽस्तु रक्षक ः ||१३|| दीर्घखातं सुहृद्राज्यं तैः संयुज्य न्ययुज्यत । ततः स्थानाद्यथास्थानमथ जग्मुनयोऽपि ते ||१४|| अदीर्घबुद्धिदीर्घोऽपि ब्रह्मणो राज्यसम्पदम् । उक्षेवारक्षकं क्षेत्रं स्वच्छन्दं बुभुजे ततः ||१५|| निरङ्कुशतया कोशं चिरगूढं स मूढधीः । सर्वमन्वेषयामास परममेव दुर्जनः ||१६|| स प्राक् परिचयादन्तरन्तः पुरमनर्गलः । सञ्चचाराधिपत्यं हि प्रायोऽन्धंकरणं नृणाम् ||१७|| एकान्ते चुलनीदेव्या सोऽतिमात्रममन्त्रयत् । वचोभिर्नर्म्मनिपुणैर्बुदन् स्मरशरैरिव ॥ १८ ॥ आचारं ब्रह्मसुकृतं लोकं चावगणय्य सः । संप्रसक्तश्चुलन्याभृद्दुर्वाराणीन्द्रियाणि हि ||१९|| ब्रह्मराजे पतिप्रेम मित्रस्नेहं च तावुभौ । जहतुश्चलनीदीर्घावहो सर्वङ्कषः स्मरः ||२०|| सुखं विलसतोरेवं यथाकामीनयोस्तयोः । बहवो व्यतियान्ति स्म मुहूर्त्तमिव वासराः ॥ २१ ॥ ब्रह्मराजस्य हृदयं द्वैतीयीकमिव स्थितम् । मन्त्रयज्ञासीद्धनुरिदं स्पष्टं दुश्चेष्टितं तयोः ॥ २२ ॥ सचिवोऽचि तयच्चेदं चुलनी स्त्रीस्वभावतः | अकार्यमाचरत्वेषा सत्यो हि विरलाः स्त्रियः ||२३|| सकोशान्तःपुरं राज्यं न्यासे विश्वासतोऽर्पितम् । यद्विद्रवति दीर्घस्तदकार्यं नास्य किश्चन ||२४|| तदसावाचरेत्किश्चित्कुमारस्यापि विप्रियम् । पोषकस्यापि नात्मीयो मार्जार इव दुर्जनः ||२५|| विमृश्येति वरधनुसंज्ञं स्वसुतमादिशत् । तचत् ज्ञापयितुं नित्यं ब्रह्मदत्तं च सेवितुम् ||२६|| विज्ञप्ते मन्त्रिपुत्रण वृत्तान्ते ब्रह्मनन्दनः । शनैः प्राकाशयत्कोपं नवोद्भिश्न इव द्विपः॥२७॥ ब्रह्मदत्तोऽसहिष्णुस्तन्मातृदुश्चरितं ततः । मध्ये शुद्धान्तमगमद्गृहीत्वा काककोकिले ॥ २८ ॥ वर्णसङ्करतो वध्यावेतावन्यमपीदृशम् । निश्चितं निग्रहीष्यामि तत्रेत्युच्चैरुवाच सः ॥ २९ ॥ काकोऽहं त्वं पिकी त्यावां निजिघृक्षत्यसाविति । दीर्घेणोक्तेऽवदद्देवी मा भैषीर्वालभाषितात् ॥ ३० ॥ एकदा भद्रवशया सह नीत्वा द्वितीय प्रकाशः ॥१५५॥। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१५६॥ यावत्क मृगद्विषम् । साक्षेपं तद्वदेवोचे कुमारो मारसूचकम् ॥ ३१ ॥ इति श्रुत्वाऽवदद्दीर्घः साकूतं बालभाषितम् । ततश्चुलन्युवाचेति यद्यस्त्येवं ततोऽपि किम् ||३२|| इंस्याऽन्येद्युर्बकं बध्ध्वाभ्यवत्त ब्रह्मसूरिति । अनया रमते ह्येष सहे कस्यापि दशम् ||३३|| दीर्घोऽवादीदिदं देवि स्वपुत्रस्य शिशोः श्रृणु । अन्तरुद्भिभरोषाग्निधूमोद्वारोपमा गिरः || ३४ || वर्द्धमानः कुमारोऽयं तदवश्यं भविष्यति । आवयोरतिविघ्नाय करेण्वोवि केसरी ||३५|| न वचहरः कुमारो हन्त जायते । तावद्विषद्रुम इव बालोऽप्युन्मूल्यतामसौ ||३६|| चुलन्यूचे कथं राज्यधरः पुत्रो विहन्यते । तिरश्च्योऽपि हि रक्षन्ति पुत्रान् प्राणानिवात्मनः ||३७|| दीर्घोऽब्रवीत्पुत्रमूर्त्या तव कालोऽयमागतः मा मुहस्त्वं मयि सति सुतास्तव न दुर्लभाः ||३८|| विमुच्यापत्यवात्सल्यं शाकिनीव चुलन्यथ । रतस्नेहपरवशा प्रतिशुश्राव तत्तथा ॥ ३९ ॥ सामन्त्रयद्विनाश्योऽयं रक्ष्या च वचनीयता । यद्वदाम्रवणं सेक्यं कार्य च पितृतर्पणम् ॥४०॥ क उपायोऽथवास्त्येष विवाह्यो ब्रह्मसूरसौ । वासागारमिषात्तस्य कार्य जतुगृहं ततः ॥४१॥ गूढप्रवेशनिःसारे तत्रोद्वाहादनन्तरम् । सुषुसे सस्नुषेऽप्यस्मिन् ज्वाल्यो निशि हुताशनः ॥४२॥ उभाभ्यां मन्त्रयित्वैवं पुष्पचूलस्य कन्यका । वृता वैवाहिकी सर्वसामग्री चोपचक्रमे ||४३|| तयोश्च क्रूरमाकूतं विज्ञाय सचिवो धनुः । इति विज्ञपयामास दीर्घराजं कृताञ्जलिः ||४४ || कलाविभीतिकुशलः सूनुर्वरधनुर्मम । १वहंलिहयुवेवास्तु त्वदाज्ञारथधूर्वहः || ४५ || २जरद्गव इवाहं तु यातायातेषु निःसहः । गत्वा कचिदनुष्ठानं करोमि त्वदनुज्ञया ॥ ४६ ॥ कमप्यनर्थ कुर्वीत मायाव्येष गतोऽन्यतः । आशङ्कतेति तं दीर्घौ धीमद्भ्यः को न शङ्कते (१) वृषभयुवा. (२) वृद्धवृषभः । द्वितीय प्रकाशः ॥१५६॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥१५७॥ ||४७|| मायाकृतावहित्थोऽथ दीर्घः सचिवमूचिवान् । राज्येन त्वां विना नः किं यामिन्येव विना विधुम् ॥४८॥ धर्म सत्रादिनाऽत्रैव कुरु मा गास्त्वमन्यतः । राज्यं भवादृशैर्भाति सदवृक्षैरिव काननम् ॥ ४९ ॥ ततो भागीरथीतीरे सद्बुद्धिर्विदधे धनुः । धर्मस्येव महाच्छत्रं पवित्रं सत्रमण्डपम् ॥ ५० ॥ सत्रं च पान्थसार्थानामन्नपानादिना ततः । प्रवाहमिव गाङ्गं सोऽनवच्छिन्नमवाहयत् ॥ ५१ ॥ दानमानोपकारात्तैः स प्रत्ययितपूरुषैः । चक्रे सुरङ्गां द्विक्रोशां ततो जतुगृहावधि ॥५२॥ इतः प्रच्छन्नलेखेन सौहार्दद्रुमवारिणा । इमं व्यतिकरं पुष्पचूलमज्ञापयद्धनुः ॥५३॥ ज्ञात्वा तत्पुष्पचूलोऽपि सुधीः स्वदुहितुः पदे । प्रेषयामास दासेरीं हंसीस्थाने बकीमिव ॥५४॥ पित्तले च स्वर्णमिति पौष्पचूलीति सा जनैः । लक्षिता भूषणमणिद्योतिताशाविशत्पुरीम् ॥५५॥ मूर्च्छद्गीतिध्वनितूर्यपूर्यमाणे नभस्तले । मुदा तां चुलनी ब्रह्मनुना पर्यणाययत् ||५६ || चुलन्यप्यखिलं लोकं विसृज्य रजनीमुखे । कुमारं सस्तुषं प्रेपीज्जातुषे वासवेश्मनि ॥५७॥ सवधूकः कुमारोऽपि विसृष्टान्यपरिच्छदः। तत्रागाद्वरधनुना छाययेव स्वया सह ॥ ५८ ॥ वार्त्ताभिर्मन्त्रिपुत्रेण ब्रह्मदत्तस्य जायतः । निशार्द्धं व्यतिचक्राम कुतो निद्रा महात्मनाम् ||५९ || चुलन्यादिष्टपुरुषैः फूत्कर्त्तु नमिताननैः । ज्वलेति प्रेरित इव वासगृहेऽज्वलच्छिखी ॥६०॥ धूमस्तोमस्ततो विष्वक् पूरयामास रोदसीम् । चुलनीदीर्घदुष्कृत्यदुष्कीतिंप्रसरोपमः ॥ ६१ ॥ सप्तजिह्वोऽप्यभूत्कोटिजिहो ज्वालाकदम्बकैः । तत्सर्वे कवलीकर्तुं बुभुक्षित इवानलः ||६२|| किमेतधिति संपृष्टो ब्रह्मदत्तेन मन्त्रिसूः । संक्षेपादाचचक्षेऽदचलनी दुष्ट चेष्टितम् || ६३ || आक्रष्टुं त्वामितः स्थानाद्रूपं करिकरादिव । अस्ति तातेन दत्तेह सुरङ्गा सत्रगामिनी || ६४ || अत्र पाणिप्रहारेण प्रकाशीकृत्य तत्क्षणात् । योगीव विवर FOR MORE द्वितीय प्रकाशः ॥१५७॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय योगशास्त्रम् प्रकाशः ॥१५८॥ द्वारं तद्वार प्रविशाधुना ॥६५।। आतोद्यपुटवत्सोऽथ पाणिनाऽऽस्फोटय भूपुटम् । सुरङ्गया समित्रोऽगाद्रत्नरन्ध्रेण सूत्रवत् ॥६६।। सुरङ्गान्ते धनुधृतौ तुरङ्गावध्यरोहताम् । राजमन्त्रिकुमारौ तौ रेवन्तश्रीविडम्बकौ ॥६७॥ पश्चाशद्योजनीं क्रोशमिव पश्चमधारया । अश्वौ जग्मतुरुच्छ्वासौ ततः पञ्चत्वमापतुः ॥६८॥ ततस्तौ पादचारेण प्राणत्राणपरायणौ । जग्मतुर्निकषा ग्राम कृच्छ्रात्क्रोष्टकनामकम् ।।६९॥ प्रोवाच ब्रह्मदत्तोऽथ सखे वरधनोऽधुना। स्पर्द्धमाने इवान्योऽन्य बाधेते क्षुत्तषा च माम् ॥७०॥ क्षणमत्र प्रतिक्षस्वेत्युक्त्वा तं मन्त्रिनन्दनः। ग्रामादाकारयामास नापितं वपनेच्छयो ॥७१॥ मन्त्रिपुत्रस्य मन्त्रेण तत्रैव ब्रह्मनन्दनः। वपनं कारयामास चुलामात्रमधारयत् ॥७२॥ तथा कषायवस्त्राणि पवित्राणि स धारयन् । सन्ध्याभ्रच्छन्नबालांशुमालिलीलामधारयत् ॥७३॥ कण्ठे वरधनुन्यस्तं ब्रह्मसूत्रमधत्त च । ब्रह्मपुत्रो ब्रह्मपुत्रसादृश्यमुदुवाह च ॥७४॥ मन्त्रिसूर्ब्रह्मदत्तस्य वक्षः श्रीवत्सलाग्छितम् । पट्टेन पिदधे प्रावृट् पयोदेनेव भास्करम् ॥७५॥ एवं वेषपरावर्त ब्रह्मसः सूत्रधारवत् । पारिपार्श्विकवन्मन्त्रिपुत्रोऽपि विदधे तथा ॥७६।। ततः प्रविष्टौ ग्रामे तो पार्वणाविन्दुभास्करौ । केनापि द्विजवर्येण भोजनाय निमन्त्रितौ ॥७७।। सोऽथ तौ भोजयामास भक्त्या राजानुरूपया । प्रायस्तेजोऽनुमानेन जायन्ते प्रतिपत्तयः ॥७८॥ कुमारस्याक्षतान्मूर्ध्नि क्षिपन्ती विप्रगेहिनी । श्वेतवस्त्रयुगं कन्यां चोपनिन्येऽप्सर:समाम् ॥७९॥ ऊचे ततो वरधनुर्बटोरस्याकलापटोः । कण्ठे बध्नासि किमिमां मूढे शण्डस्य गामिव ॥८०॥ ततो द्विजवरेणोचे ममेयं गुणवन्धुरा । कन्या बन्धुमती नास्या विनामुमपरो वरः ।।८१॥ पट्खण्डपृथिवीपाता पतिरस्या भविष्यति । इत्याख्यायि निमित्त निश्चित चायमेव सः ॥८२॥ तैरेवाख्यायि मे पट्टच्छन्नश्रीवत्सलाञ्छनः । ॥१५८॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाशा शास्त्रम् ॥१५॥ भोक्ष्यते यस्तवगृहे तस्मै देया स्वकन्यका ॥८॥ जज्ञे च ब्रह्मदत्तस्योद्वाहः सह तया तदा। भोगिनामुपतिष्ठन्ते भोगाः काममचिन्तिताः ॥८४॥ तामुषित्वा निशां बन्धुमतीमाश्वस्य चान्यतः । ययौ कुमार एकत्रावस्थानं सद्विषां कुतः॥८५॥ प्रातमं प्रापतुस्तौ तत्र चाशृणुतामिदम् । पन्थानोऽधिब्रह्मदत्तं सर्वे दीर्पण रोधिताः॥८६॥ प्रस्थितावुत्पथेनाथ पेततुस्तौ महाटवीम् । निरुद्धां श्वापदैर्दीर्घपुरुषैरिव दारुणैः ।।८७॥ ततः कुमारं तृषितं मुक्त्वा वटतरोरधः । वारिणेऽगाद्वरधनुर्मनस्तुल्येन रंहसा ॥८८॥ ततो वरधनुः सोऽयामुपलक्ष्य न्यरुध्यत । रुषितैर्दीघपुरुषः पोत्रिपोत इव श्वभिः ॥८९॥ गृह्यतां गृह्यतामेष बध्यतां बध्यतामिति । भीषणं भाषमाणैस्तैर्जगृहे ववधे च सः ॥९०॥ संज्ञामधिब्रह्मदत्तं पलायस्वेति सोऽकृत । पलायिष्ट कुमारोऽपि समये खलु पौरुषम् ॥११॥ ततस्तस्या महाटव्या महाटव्यन्तरं जवात् । ब्रह्मसूराश्रमीवागादाश्रमादाश्रमान्तरम् ॥९२।। स तु तत्र कृताहारो विरसैररसैः फलैः । तृतीये दिवसेऽपश्यदेकं तापसमग्रतः ॥९॥ कुत्राश्रमो वो भगवनिति पृष्टस्तपस्विना । स स्वाश्रमपदं निन्ये तापसा बतिथिप्रियाः ॥९४॥ सोऽथापश्यत्कुलपति बवन्दे पितृवन् मुदा । प्रमाणमन्तःकरणमविज्ञातेऽपि वस्तुनि ॥९५॥ ऊचे कुलपतिर्वत्स तवातिमधुराकृतेः । को हेतुरत्रागमने मरौ सुरतरोरिव ॥१६॥ ततो महात्मनस्तस्य विश्वस्तो ब्रह्मसूनिजम् । वृत्तान्तमाख्यत्प्रायेण गोप्यं न खलु तादृशम् (शः) ॥९७॥ हृष्टस्ततः कुलपतिाहरद्द्दाक्षरम् । द्विधास्थित इवात्मैको भ्राताई त्वत्पितुर्लघुः ॥९॥ ततो निजगृहं प्राप्तस्तिष्ठ वत्स यथासुखम् । अस्मत्तपोभिर्वर्द्धस्व सहैवास्मन्मनोरथैः ॥९९॥ कुर्वन् जनगा१ किरिबालः ॥१५९॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग द्वितीय शास्त्रम् प्रकाशः ॥१६॥ नन्दममन्दं विश्ववल्लभः । असौ तत्राश्रमे तस्थौ प्रावृट्कालोऽप्युपस्थितः ॥२०॥ तत्राऽसौ निवसंस्तेन बलेनेव जनार्दनः । शास्त्राणि शस्त्राण्यवाणि सर्वाण्यध्माप्यते स्म च ॥११॥ वर्षात्यये समायाते सारसालापबन्धुरे । बन्धाविव फलाद्यर्थ प्रचेलुस्तापसा वनम् ॥२॥ सादरं कुलपतिना वार्यमाणोऽप्यगाद्वनम् । तैः सह ब्रह्मदत्तोऽपि कलभः कलभैरिव ॥३॥ भ्रमन्नितस्ततोऽपश्यद्विपमूत्रं तत्र दन्तिनः । प्रत्यग्रमिति सोऽमंस्त हस्ती कोऽप्यस्ति दूरतः ॥४॥ तापसैर्वायमाणोऽपि ततः सोऽनुपदं व्रजन् । योजनपञ्चक स्यान्ते नागं नगमिवैक्षत ॥५॥ निःशङ्ख बद्धपर्यङ्कः कुर्वन् गर्जितमूर्जितम् । मल्लो मल्लमिवाहास्त नृहस्ती मत्त हस्तिनम् ॥६॥ क्रुधोधुषितसर्वाङ्गो व्याकुश्चितकरः करी । निष्कम्पकर्णस्ताम्रास्यः कुमारं प्रत्यधावत ॥७॥ इभोऽभ्यर्णेऽभ्यगाद्यावत् कुमारस्तावदन्तरे । उत्तरीय प्रचिक्षेप तं वञ्चयितुमभवत् ॥८॥ अभ्रखण्डमिव. भ्रश्यदन्तरिक्षात्तदंशुकम् । दशनाभ्यां प्रतीयेष क्षणदेषोऽत्यमर्षणः ॥९॥ एवंविधाभिश्चेष्टाभिः कुमारस्तं मतङ्गाजम् । लीलया खेलयामासाहितुण्डिक इवोरगम् ॥१०॥ सखेव ब्रह्मदत्तस्यात्रान्तरे कृतडम्बरः। धाराधरोऽम्बुधाराभिरुपदुद्राव तं गजम् ॥११।। ततो रसित्वा विरसं मृगनाशं ननाश सः। कुमारोऽपि भ्रमन्नद्रिदिग्मूढः प्राप निम्न गाम् ॥१२॥ उत्ततार कुमारस्तां नदी मूर्तामिवापदम् । ददर्श च तटे तस्याः पुराणं पुरमुद्वसम् ॥१३॥ कुमारः प्रविशंस्तस्मिन्नपश्यद्वंशजालिकाम् । तत्रासिवसुनन्दौ चोत्पातकेतुविधू इव ॥१४॥ तौ गृहीत्वा कृपाणेन कुमार शस्त्रकौतुकी । चिच्छेद कदलीच्छेदं तां महावंशजालिकाम् ॥१५॥ वंशजालान्तरे चासौ स्फुरदोष्ठदलं शिरः । ददर्श पतितं पृथ्व्यां स्थलपद्ममिवाग्रतः ॥१६॥ सम्यक् पश्यन्नपश्यच्च ब्रह्मसूस्तत्र कस्यचित् । ॥१६॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥१६१॥ श्वल्गुलीकरणस्थस्य कबन्धं धूमपायिनः॥१७॥ हा विद्यासाधनधनो निधनं प्रापितो मया । कोऽप्येषोऽनपराधो धिग् मामिति स्खं निनिन्द सः ॥१८॥ अग्रतः स ययौ यावत्तावदुद्यानमैक्षत । सुरलोकादवतीर्णमवन्यामिव नन्दनम् - ॥१९॥ स तत्र प्रविशन्नग्रे प्रासादं सप्तभुमिकम् । अदर्शत्सप्तलोकश्रीरहस्यमिव मूछितम् ॥२०॥ आरूढेभ्रलिहे तस्मिनिषण्णां खेचरीमिव । हस्तविन्यस्तवदनां नारीमेकां स ऐक्षत ॥२१॥ उपमृत्य कुमारस्तां पप्रच्छ स्वच्छया गिरा । का त्वमेकाकिनी किंवा किंवा शोकस्य कारणम् ॥२२॥ अथ सा साध्वसाक्रान्ता जगादेति सगद्गदम् । महान् व्यतिकरो मेऽस्ति ब्रुहि कस्त्वं किमागतः॥२३।। ब्रह्मदत्तोऽस्मि पश्चालभूपतेब्रह्मणः सुतः । इति सोऽचीकथद्यावन्मुदा सा तावदुत्थिता ॥२४॥ आनन्दबाष्पसलिलैलॊचनाञ्जलिविच्युतैः । सा कुर्वती पाद्यमिव पपातामुष्य पादयोः ॥२५॥ कुमाराशरणाया मे शरण त्वमुपागतः । मजतो नौरिवाम्मोधी बदन्तीति रुरोद सा ॥२६॥ तेन पृष्टा च साप्यूचे त्वन्मातृभ्रातुरस्म्यहम् । नाम्ना पुष्पवती पुष्पचूलस्यगपतेः सुता॥२७॥ कन्यास्मि भवते दत्ता विवाहदिवसोन्मुखी । हंसीव रन्तुमुद्याने दीपिकापुलिनेऽगमम् ॥२८॥ दुष्टविद्याधरेणाई नाटयोन्मत्ताभिधेन तु । अत्रापहृत्यानीतास्मि रावणेनेव जानकी ॥२९॥ दृष्टिं सोऽसहमानो मे विद्यासाधनहेतवे शूर्पणखास नुरिव प्राविशद्वंशजालिकाम् ॥३०॥ धूमपस्योर्ध्वपादस्य तस्य विद्याद्य सेत्स्यति । शक्तिमान् सिद्धविद्यः स किल मां परिणेष्यति ॥३१॥ ततस्तद्वधवृत्तान्तं कुमारोऽस्यै न्यवेदयत् । हर्षस्योपरि हर्षोऽभूत्प्रियाप्त्या विप्रियच्छिदा ॥३२॥ तयोरथ विवाहोऽभद्दान्धर्वोऽन्योऽन्यरक्तयोः। श्रेष्ठो हि क्षत्रियेष्वेष निर्मन्त्रोऽपि सकामयोः १ वल्गुलः पक्षिविशेषः, तत: चिः ॥१६॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग द्वितीय प्रकाशा शास्त्रम् ॥१६॥ ॥३३॥ रममाणस्तया साई विचित्रालापपेशलम् । स एकयामामिव तां त्रियामामत्यवाहयत् ॥३४॥ ततः प्रभातसमये ब्रह्मदत्तन शुश्रुवे । आकाशे खेचरस्त्रीणां कुररीणामिव ध्वनिः॥३५॥ अकस्माज्जायते कोऽयं खे शब्दोऽनन्दवृष्टिवत् । तेनेति पृष्टा संभ्रान्ता पुष्पवत्येवमत्रवीत् ॥३६॥ भगिन्यौ त्वद्विषो नाटयोन्मत्तस्ये मे समागते । नाम्रा खण्डा विशाखा च विद्याधरकुमारिके ॥३७॥ तन्निमित्तं विवाहोपस्करपाणी इमे मुधा । अन्यथा चिन्तित कार्य देवं घटयतेऽन्यथा ॥३८॥ अपसर्प क्षणं तावद्यावत्त्वद्गुणकीर्तनः । लभेऽहमनयोर्भावं त्वयि रागविरागयोः ॥३९॥ रागे रक्तां प्रेरयिष्ये पताकां तत्त्वमापतेः । विरागे चालयिष्यामि श्वेतां गच्छेस्तदाऽन्यतः ॥४०॥ ब्रह्मदत्तस्ततोऽवादीन्मा भैषीर्भीरु नन्वहम् । ब्रह्मसूनुः किमेते मे तुष्टे रुष्टे करिष्यतः ॥४१॥ उवाच पुष्पवत्येवं नैताभ्यां वच्मि ते भयम् । एतत्सम्बन्धिनः किन्तु मा विरौत्सुर्नभश्चराः ॥४२॥ तस्याश्चित्तानुवृत्त्या तु तत्रैवास्थात् स एकतः । अथ पुष्पवती श्वेतां पताकां पर्यचीचलन् ।।४३।।ततः कुमारस्तां दृष्ट्वा तत्प्रदेशाच्छनैः शनैः । प्रियानुरोधादगमन हि भीस्तादृशां नृणाम् ॥४४॥ आकाशमिव दुर्गा (ग) हमरण्यमवगाह्य सः । दिनान्तेऽर्क इवाम्भोधि प्रापदेकं महासरः ॥४५॥ ततः प्रविश्य तत्रासौ सुरेभ इव मानसे । स्नात्वा स्वच्छन्दमत्यच्छा: सुधा इव पपावपः ॥४६॥ निःसृत्य ब्रह्मसूभरातीरमुत्तरपश्चिमम् । लतावणदलिस्वानः १सौस्नातिकमिवाभ्यगात् ॥४७॥ तत्र तेन द्रुमलताकुञ्ज पुष्पाणि चिन्वती । वनाधिदेवता साक्षादिव काप्यैक्षि सुन्दरी ॥४८॥ दध्याविति कुमारोऽपि जन्मप्रभृति वेधसः । रूपाण्यभ्यस्य१ सुस्नानपृच्छकमिव. ॥१६२॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥१६॥ तोऽमुष्यां सञ्जातं रूपकौशलम् ॥४९॥ सा दास्या सह जल्पन्ती कटाक्षैः कुन्दसोदरैः। कण्ठे मालामिवास्यन्ती | तं पश्यन्त्यन्यतो ययौ ॥५०॥ पश्यन् कुमारस्तामेव प्रस्थितो यावदन्यतः। वस्त्रभूषणताम्बूलभृद्दासी तावदाययौ ॥५१॥ सा वखाद्यर्पयित्वोचे या त्वया ददृशेऽत्र सा। सत्यङ्कारमिव स्वार्थसिद्धेः प्रेषोदिदं त्वयि ॥५२॥ आदिष्टा चास्मि यदमुं मन्दिरे तातमन्त्रिणः । नयातिथ्याय तथ्याय स हि वेत्ति यथोचितम् ॥५३॥ सोऽगात् सह तया वेश्म नागदेवस्य मन्त्रिणः। अमात्योऽप्यभ्युदस्थात्तमाकृष्ट इव तद्गुणः ॥५४॥ श्रीकान्तया राजपुत्र्या वासाय तव वेश्मनि । प्रेषितोऽसौ महाभागः सन्दिश्येति जगाम सा ॥५५॥ उपास्यमानः स्वामीव विविध तेन मन्त्रिणा । क्षणदां क्षपयामास क्षणमेकमिवैष ताम् ॥५६॥ मन्त्री राजकुलेऽनैषीत्कुमारं क्षणदात्यये । अर्घादिनोपतस्थेऽमुं बालार्कमिव भूपतिः॥५७॥ वंशाद्यपृष्टवापि नृपः कुमाराय सुतां ददौ । आकृत्यैव हि तत्सर्व विदन्ति ननु तद्विदः ॥५८॥ उपायंस्त कुमारस्तां हस्तं हस्तेन पीडयन् । अन्योऽन्यं संक्रमयितुमनुरागमिवाभितः॥५९॥ ब्रह्मदत्तोऽन्यदा क्रीडन् रहः पप्रच्छ तामिति । एकस्याज्ञातवंशादेः पित्रा दत्तासि मे कथम् ॥६०॥ श्रीकान्ता कान्तदन्तांशुधौताधरदलाऽब्रवीत् । राजा शबरसेनोऽभूद्वसन्तपुरपत्तने ॥६१॥ तत्स्नु, पिता राज्ये निषण्णः क्रूरगोत्रिभिः । पर्यस्तोऽशिश्रियदिमां पल्लीं सबलवाहनः ॥६२॥ भिल्लानुपनमय्यात्र वार्वग इव वेतसान् । ग्रामघातादिना तातः पुष्णाति स्वं परिग्रहम् ॥६३।। जातास्मि चाहं तनया तातस्यात्यन्तवल्लभा । स्वामिन् सम्पदिवोपायांश्चतुरस्तनयाननु ॥६४॥ स मामुद्यौवनामृचे सर्वे मे द्वेषिणो नृपाः । त्वयेह स्थितया वीक्ष्य वंश्यो यस्ते मतो वरः ॥६५॥ तस्थुषी चक्रवाकीव सरस्तीरे निरन्तरम् । ततः प्रभृति पश्यामि सर्वानेकैकशोऽ ॥१६३॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा Iકા ध्वगान् ॥६६॥ मनोरथानामगतिः स्वप्नेऽप्यत्यन्तदुर्लभः । आर्यपुत्रागतोऽसि त्वं मद्भाग्योपचयादिह ॥६७॥ स पल्लीपतिरन्येद्यामघातकृते ययौ । कुमारोऽपि समं तेन क्षत्रियाणां क्रमो ह्यसो ॥६८॥ लुण्टयमाने ततो ग्रामे कुमारस्य सरस्तटे । पादाब्जयोर्वरधनुरेत्य हंस इवापतत् ॥६९॥ कुमारकण्ठमालम्ब्य मुक्तकण्ठं रुरोद सः नवीभवन्ति दुःखानि सञ्जाते हीष्टदर्शने ॥७०॥ ततः पीयूषगण्डूषरिवालापैः सुपेशलैः । आश्वास्य पृष्टस्तेनोचे स्ववृत्तमिति मन्त्रिमः ॥७१॥ वटे (टा)ऽधस्त्वां तदा मुक्त्वा गतोऽहं नाथ पाथसे । सुधाकुण्ड मिवापश्यं किञ्चिदग्रे महासरः ॥७२॥ तुभ्यमम्भोजिनीपत्रपुटेनादाय वार्यहम् । यमदतैरिवागच्छन् रूद्धः संवर्मितै टैः ॥७३॥ अरे वरधनो ब्रूहि ब्रह्मदत्तः क्व विद्यते । इति तैः पृच्छयमानः सन्न वेबीत्यहमब्रु(ब्र)वम् ॥७४॥ तस्करैरिव निःशङ्कं ताडयमानोऽथ तैरहम् । इत्यवोचं यथा ब्रह्मदत्तो व्याघ्रग भक्षितः ॥७५।। तं देशं दर्शयेत्युक्तो माययेतस्ततो भ्रमन् । त्वदर्शनपथेऽभ्येत्याकार्ष संज्ञां पलायने ॥७६।। परिवाइदत्तगुटिकां मुखेऽहं क्षिप्तवांस्ततः । तत्प्रभावेन निःसंज्ञो मृत इत्युज्झितोऽस्मि तैः ॥७७॥ चिरं गतेषु तेष्वास्यादाकृष्य गुटिकामहम् । त्वां नष्टार्थमिवान्वेष्टुं भ्रमन् ग्रामं कमप्यगाम् ॥७८॥ तत्रैककोऽपि ददृशे परिव्राजकपुङ्गवः। साक्षादिव तपोराशिनमश्चक्रे मया ततः ॥७९॥ सोऽवदन् मां वरधनो मित्रमस्मि धनोरहम् । वसुभागो महाभागो ब्रह्मदत्तः क्व वर्तते ॥८०॥ आचचक्षे मयाप्यस्य विश्वं विश्वस्य सूनृतम् । स च मे दुष्कथाधमानास्यः पुनरभ्यधात् ॥८१॥ तदा जतुगृहे दग्धे दीर्घः प्रातरुदैवत । करङ्कमेकं निर्दग्धं करवृत्रितयं न हि ॥८२॥ सुरङ्गां तत्र चापश्यत्तदन्तेऽश्वपदानि च । धनोबुद्धया प्रणष्टौ वां ज्ञात्वा तस्मै चुकोप सः ॥८३॥ बध्ध्वा युवां समानेतुं प्रत्याशं साधनानि सः। अस्खलद्गमनान्य ॥१६४॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१६५॥ REET KEE CHEHOOK 1 मांसीवादिदेश च ॥ ८४ ॥ पलायितो धनुर्मन्त्री जनयित्त्री तु सा तव । दीर्घेण नरक इव क्षिप्ता मातङ्गपाटके ॥ ८५ ॥ गण्डोपरिष्टास्पिटकेनेवा वार्त्तया तया । दुःखोपर्युद्भवद्दुःखः काम्पील्यं गतवानहम् ||८६ ॥ छद्मकापालिकीभूय तत्र मातङ्गपाटके । वेश्म वेश्मानुप्रवेशमस्थां शश इवानिशम् ॥८७॥ पृच्छयमानश्च लोकेन त भ्रमणकारणम् । अवोचमिति मातङ्गया विद्यायाः कल्प एष मे ||८८|| तत्रैव भ्राम्यता मैत्री मया विश्वास भाजनम् । अजायतारक्षकस्य मायया कि न साध्यते ॥ ८९ ॥ अन्येद्युस्तन्मुखेनाम्वामवोचं यत्करोत्यसौ त्वत्पुत्रमित्रकौण्डिन्यो महाप्रत्यभिवादनम् ॥९०॥ द्वितीयेऽह्नि स्वयं गत्वा जनन्या बीजपूरकम् । अदां सगुटिकं जग्धेनासंज्ञा तेन साऽभवत् ॥ ९१ ॥ मृतेति तां पुराध्यक्षो गत्वा राज्ञे व्यजिज्ञपत् । राज्ञादिष्टाः स्वपुरुषास्तस्याः संस्कारहेतवे ॥ ९२ ॥ तत्रायाता मयोक्तास्ते संस्कारोऽस्याः क्षणेऽत्र चेत् । महाननर्थो वो राइवेति जग्मुः स्वधाम ते ||९३ || आरक्षं चावदं त्वं चेत् सहायः साधयाम्यहम् । सर्वलक्षण भाजोऽस्था मन्त्रमेकं शवेन तत् ॥ ९४ ॥ आरक्षः प्रतिपेदे तत्तेनैव सहितस्ततः । सायमादाय जननीं श्मशानेऽगां दवीयसि ||१५|| स्थण्डिले मण्डलादीनि मया निर्माय मायया । पूर्देवीनां बलिं दातुमारक्षः प्रेषितस्ततः ॥९६॥ गते तस्मिन्नहं मातुरपरां गुटिकामदाम् । निद्राच्छेद इवोज्जृम्भा सोदस्थाज्जातचेतना || ९७|| स्वं ज्ञापयित्वा रुदतीं निवार्य स्म नयामि ताम् । कच्छग्रामे गृहे तातसुहृदो देवशर्म्मणः ॥ ९९ ॥ इतस्ततो भ्रमन्नेषोऽन्वेषयं स्त्वामिहागमम् । दिष्ट्या दृष्टोऽधुना साक्षात्पुण्यराशिरिवासि मे ॥ ९९ ॥ ततः परं कथं नाथ प्रस्थितोऽसि स्थितोऽसि च । तेनेति पृष्टः स्वं वृत्तं कुमारोऽपि न्यवेदयत् ॥ ३०० || अथ कोऽप्येत्य तावूचे ग्रामे दीर्घभटाः * द्वितीय प्रकाशः ॥१६५॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥१६६॥ पटम् । युष्मत्तुल्यर्द्धिरूपाङ्क दर्शयन्तो वदन्त्यदः || १ || ईदृग्नरौ किमायातावत्रेत्याकर्ण्य गां मया । दृष्टावि युवां यद्वां रुचितं कुरुतं हि तत् ||२|| ततस्तस्मिन् गतेऽरण्यमध्येन कलभाविव । पलायमानौ कौशाम्बीं प्रापतुस्तौ पुरीं क्रमात् ||३|| तत्र सागरदत्तस्य श्रेष्ठिनो बुद्धिलस्य च । उद्यानेऽपश्यतां लक्षपणं तौ कुक्कुटाहवम् ||४|| उत्पत्योत्पत्य नखरैः प्राणाकर्षाङ्कुटैरिव । युयुधाते ताम्रचूडौ चञ्चाचश्चवि चोच्चकैः ॥५॥ तत्र सागरदत्तस्य जात्यं शक्तं च कुक्कुटम् । भद्रेभमिव मिश्रभोऽभाङ्क्षी बुद्धिलकुक्कुटः ||६|| ततो वरधनुः स्माह कथं जात्योऽपि कुक्कुटः । भग्नस्ते सागरानेन पश्याम्येनं यदीच्छसि ||७|| सागराऽनुज्ञया सोऽप्यपश्यत् बुद्धिलकुक्कुटम् तत्पादयोरयः सूचीर्यमदुतीरिवैक्षत ||८|| लक्षयन बुद्धिलोऽप्यस्य लक्षार्द्ध छन्नमिष्टवान् । सोऽप्याख्यत्तं व्यतिकरं कुमारस्य १जनान्तिके ||९|| ब्रह्मदत्तोऽप्ययः सूचीः कृष्ट्वा बुद्धिलकुक्कुटम् । भूयोऽपि सागरश्रेष्ठिकुक्कुटेनाभ्ययोजयत् ||१०|| असूचिकः कुक्कुटेन तेन बुद्धिलकुक्कुटः । क्षणादभव्जि निम्नानां छद्मवाद्यं कुतो जयः ।। ११ । हृष्टः सागरदत्तस्तावारोप्य स्यन्दनं स्वकम् । जयदानैकसुहृदौ निनाय निलये निजे ॥ १२ ॥ स्वधामनीव तद्धाम्न तयोर्निवसतोरथ । किमप्याख्यद्वरधनोरेत्य बुद्धिलकिङ्करः ||१३|| तस्मिन् गते वरधनुः कुमारमिदमभ्यधात् । यद्बुद्धिलेन लक्षार्द्ध दित्सितं मेऽद्य पश्य तत् || १४ || सोऽदर्शयत्ततो हारं निर्मलस्थूलवर्त्तलैः । कुर्वाणं मौक्तिकैः शुक्रमण्डलस्य विडम्बनाम् ||१५|| हारे बद्धं स्वनामाकं ब्रह्मसूर्लेखमै त । आगाच्च वाचिकमिव मूर्त्त वत्साख्यतापसी ||१६|| अक्षतानि तयोर्मूर्ध्नि क्षिप्त्वाशीर्वादपूर्वकम् । नीत्वान्यतो वरधनुं किञ्चिदाख्याय सा ययौ १ रहसि . द्वितीय प्रकाशः ॥१६६॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१६७॥ ||१७|| तच्चाख्यातुं समारेमे मन्त्रिसूत्रह्मसूनवे । प्रतिलेखं हारबद्धलेखस्येयमयावत ||१८|| श्रीब्रह्मदत्तनामाङ्को लेखोऽयं प्रथयस्व तत् । को ब्रह्मदत्त इति सा मया पृष्ठेदमत्रवीत् ||१९|| अस्ति श्रेष्ठिता रत्नवती नामेड पत्तने । रूपान्तरेण कन्यात्वं प्रपनेव रतिर्भुवि ॥ २० ॥ भ्रातुः सागरदत्तस्य बुद्धिलस्य च तद्दिने । कुक्कुटायोधनेऽपश्यद्दत्तमिम हि सा || २१॥ ततः प्रभृति ताम्यन्ती कामार्त्ता सा न शाम्यति । शरणं ब्रह्मदत्तो मे स एवेत्याह चानिशम् ॥२२॥ स्वयं लिखित्वा चान्येद्युर्लेखं हारेण संयुतम् । अयेतां ब्रह्मदत्तस्येत्युदित्वा सा ममार्पयत् ||२३|| दाहस्ते मया लेखः प्रेषीत्युक्त्वा स्थिता सती । मयापि प्रतिलेखं तेऽययित्वा सा व्यसृज्यत ||२४|| दुर्वारमारसन्तापः कुमारोऽपि ततो दिनात् । मध्याह्नार्ककरोत्तप्तः करीव न सुखं स्थितः ||२५|| कौशाम्बीस्वामिनोऽन्येद्युर्दीर्घेण प्रहिता नराः । नष्टशल्यवदङ्गे तौ तत्रान्वेष्टुं समाययुः ॥२६॥ राजादेशेन कौशाम्ब्यां प्रवृत्तेऽन्वेषणे तयोः । सागरो भूगृहे क्षित्वा तौ जुगोप निधानवत् ||२७|| निशि तौ निर्यियासन्तौ रथमारोप्य सागरः । कियन्तमपि पन्थानं निनाय ववले ततः ॥२८॥ तौ गच्छन्तौ पुरो नारीमुद्याने समपश्यताम् । अत्रपूर्णरथारूढाममरीमिव नन्दने ॥ २९ ॥ लग्ना किमियती वेला युवयोरिति सादरम् । तयोक्तौ तौ बभाषाते कावावां वेत्सि वा कथम् ||३०|| अथाभाषत सा पुर्य्यामस्यां श्रेष्ठी महाधनः धनप्रवर इत्यासीद्धनदस्येव सोदरः ॥ ३१ ॥ श्रेष्ठिश्रेष्ठस्य तस्याहमष्टानां तनुजन्मनाम् । उपरिष्टाद्विवेकश्रीर्धीगुणानामिवाभवम् ||३२|| उद्यौवनास्मिन्नुद्याने यक्षत्तमाराधयं बहु । अत्युमवरप्राप्त्यै स्त्रीणां नाऽन्यो मनोरथः ॥३३॥ तुष्टो भस्यैष मे यक्षवरो वरमिदं ददौ । ब्रह्मदत्तश्चक्रवर्ती तव भर्त्ता भविष्यति ||३४|| सागरबुद्धि ROCESSORDERS द्वितीय प्रकाशः ॥१६७॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग द्वितीय प्रकाशा शाखम् लश्रेष्ठिकुक्कुटाजो य एष्यति। श्रीवत्सी ससखा तुल्यरूपो ज्ञेयः स तु त्वया ॥३५।। मदायतनवत्तिन्याः प्रथमस्ते भविष्यति । मेलको ब्रह्मदोन तज्जाने सोऽसि सुन्दर ॥३६।। एहि तन्मां विरहदहनार्ता चिरादिह । विध्यापय पयःपूरेणेव सङ्गेन सम्प्रति ॥३७॥ तथेति प्रतिपद्यास्या अनुरागमिवाल घुम् । सोऽधितष्ठौ रथं तां च गन्तव्य क्वेति पृष्टवान् ॥३८॥ सेत्यूचे मगधपुरे मत्पितृव्यो धनावहः । अस्ति श्रेष्ठयावयोवहीं प्रतिपत्ति स दास्यति ॥३९॥ तदितस्तत्र गन्तव्यमिति रत्नवतीगिरा । ब्रह्मसूमन्त्रिपुत्रेण सूतेनाश्वाननोदयत् ॥४०॥ कौशाम्बीदेश मुल्लङ्घय क्षणेन ब्रह्मनन्दनः। क्रीडास्थानं यमस्येव प्राप भीमां महाटवीम् ॥४१॥ सुकण्टकः कण्टकश्च तत्र चौरचम्पती । ब्रह्मदत्तं रुरुधतुः श्वानाविव महाकिरिम् ॥४२॥ ससैन्यौ युगपत् कालरात्रिपुत्राविवोत्कटौ । शरैर्नभो मण्डपवच्छादयामासतुश्च तौ ॥४३॥ आरधन्वा कुमारोऽपि गर्गश्चौरवरूथिनीम् । निषिषेधेषुभिर्धारासारैर्दवमिवाम्बुदः ॥४४॥ कुमारे वर्षति शरान् ससैन्यौ तौ प्रणेशतुः। हन्त प्रहारिणि हरौ हरिणानां कुतः स्थितिः ॥४५॥ कुमारं मन्त्रिमुरेवमूचे श्रान्तोऽसि सङ्गरात् । मुहत्तै स्वपिहि खामिम्तर्दि हैव रथे स्थितः ॥४६॥ स्यन्दने ब्रह्मदत्तोऽपि रत्नवत्या समन्वितः। सुष्वाप गिरिनितम्बे करिण्येव करी युवा ॥४७॥ विभातायां विभाव- प्राप्यकामथ निम्नगाम् । तस्थुः श्रान्तास्तुरङ्गाश्च कुमारश्च व्यबुध्यत ॥४८॥ विबुद्धस्तु स नापश्यत्स्यन्दने मन्त्रिनन्दनम् । पयसे कि गतः स्यादित्यसकृद् व्याजहार तम् ॥४६॥ सोऽलब्ध प्रतिवाग् दृष्ट्वा रथानं रक्तपकिलम् । विलपन् हा हतोऽस्मीति मूर्छितो न्यपतद्रथे ॥५०॥ उत्थितो लब्धसंज्ञः सन् हाहा वरधनो सखे । कासीति लोकवत् क्रन्दन् रत्नवत्येत्यबोधि सः ॥५१॥ विपनौ ॥१६८॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१६९॥ FOO ज्ञायते नैव स तावद्भवतः सखा । तस्य वाचाप्यमाङ्गल्यं नाथ कर्त्तुं न युज्यते ॥ ५२ ॥ त्वत्कार्याय गतः कापि स भविष्यत्यसंशयम् । यान्ति नाथमपृष्ट्वापि नाथकार्याय मन्त्रिणः ॥ ५३ ॥ स तवोपरि भक्त्यैव रक्षितो नूनमेष्यति । स्वामिभक्तिप्रभावो हि भृत्यानां कवचायते || ५४ || स्थाने प्राप्ताः करिष्यामो नरैस्तस्य गवेषणम् । युज्यते नेह तु स्थातुमन्तकोपवने वने ॥ ५५ ॥ तद्वाचा सोऽनुदद्रध्यान् प्रपेदे मगधक्षितेः । सीमग्रामं दविष्ठं हि वाजिनां मरुतां च किम् ॥ ५६ ॥ ग्रामेशेन सदःस्थेन पृष्ट्वा निन्ये स्ववेश्भ सः । अज्ञाता अपि पूज्यन्ते महान्तो मूर्तिदर्शनात् ||५७|| शोकाक्रान्त इवासीति पृष्टो ग्रामाधिपेन सः । इत्यूचे मत्सखा चारैर्युध्यमानो गतः क्वचित् ॥५८॥ तस्य प्रवृत्तिमानेष्ये सीताया इव मारुतिः । इत्युक्त्वा ग्रामणीः सर्वां तां जगाहे महाटवीम् ॥५६॥ अथैत्य ग्रामणीरूचे दृष्टः कोऽपि वने न हि । प्रहारपतितः किन्तु प्राप्त एष शरो मया ॥ ६० ॥ हतो वरधनूनमिति चिन्तयतस्ततः । ब्रह्मसूनोः शोक इव तमोभूरभवनिशा ॥ ६१ ॥ यामे तुरीये यामिन्यास्तत्र चौराः समापतन् । ते तु भग्नाः कुमारेण १मारेणेव प्रवासिनः || ६२|| ततोऽनुयातो ग्रामण्या ययौ राजगृहं क्रमात् । स चामुचद्रत्नवतीं तद्बहिस्तापसाश्रमे ॥ ६३ ॥ विशन् पुरं स ऐक्षिष्ट हर्म्यवातायनस्थिते । साक्षादिव रतिप्रीती कामिन्यौ नवयौवने ॥ ६४ ॥ ताभ्यां सोऽभिदधे प्रेमभाजं त्यक्त्वा जनं ननु । यत्तदा गतवान् युक्तं तत् किं ते प्रत्यभासत ||६५ || व्याजहार कुमारोऽपि प्रेमभाग्र बत को जनः । स कदा च मया त्यक्तः कोऽहं के वा युवामिति ॥ ६६ ॥ प्रसीदागच्छ विश्राम्य नाथेत्यालापनिष्ठयोः । प्राविशद्ब्रह्मदत्तोऽपि मनसीव तयोर्गृहे (१) कामेन । 300===TOOR द्वितीय प्रकाशः ॥१६९॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग छास्त्रम् १७०॥ ||१७|| तिष्ठमाने कृतस्नानाशनाय ब्रह्मसूनवे । कथयामासतुस्ते स्वां कथामवितथामिति ॥ ६८ ॥ अस्ति विद्याधरावासः कलधौतशिलामयः । मेदिन्यास्तिलक इव वैताढ्यो नाम पर्वतः ॥ ६९ ॥ अमुष्य दक्षिणश्रेण्यां नगरे शिवमन्दिरे । राजास्ति ज्वलनशिखोऽलकायामिव गुह्यकः ॥७०॥ विद्याधरपतेस्तस्य धुतिद्योतितदिग्मुखा । प्रिया विद्युच्छिखेत्यस्ति विद्युदम्भोमुचो यथा ॥ ७१ ॥ तयोः प्राणप्रिये नाटयोन्मत्ताभितानुजे । नाम्ना खण्डा विशाखा च पुत्र्यावात्रां बभूविव ॥ ७२ ॥ तातः सौधेऽन्यदा सख्याग्निशिखेन सालपन् । गच्छतोऽष्टापदगिरिं गीर्वाणान् खे निरैक्षत ||७३|| ततः स तीर्थयात्रार्थ चलितोऽचालयच्च नौ । सुहृदं चाग्निशिखं तं धर्मेणेष्टं हि योजयेत् ॥७४ || प्राप्ता अष्टापदं तत्रापश्याम मणिनिमिता । प्रतिमास्तीर्थनाथानां मानवर्णसमन्विताः ॥७५॥ स्नानं विलेपनं पूजां विरचय्य यथाविधि । तास्त्रिः प्रदक्षिणीकृत्यावन्दामहि समाहिताः ॥ ७६ ॥ प्रासादान्निःसृतैर्दृष्टौ रक्ताशोकतरोरधः । चारणश्रमणौ मूर्त्तिमन्ताविव तपः शमौ ॥७७॥ तौ प्रणम्योपविश्याग्रे शुशुम श्रद्धया वयम् । अज्ञानतिमिरच्छेद कौमुदीं धर्मदेशनाम् ॥७८॥ पछाग्निशिखः कः स्यात्कन्ययोरनयोः पतिः । तावूचतुर्यो ह्यनयोर्भ्रातरं मारयिष्यति ॥ ७९ ॥ हिमेनेव शशी म्लानो जातस्तात स्तया गिरा । आवामपीत्यवोचाव वाचा वैराग्यगर्भया ॥ ८० ॥ संसारासारतासारा देशनाद्यैव शुश्रुवे । तद्विषाद निषादेन किं तात परिभूयसे ॥८१॥ अलमस्माकमप्येवंविधैविषयजैः सुखैः । प्रवृत्ते वत्प्रभृत्यावां त्रातुं निजसहोदरम् ॥८२॥ भ्राम्यन्नपश्यन्मे भ्राताऽन्यदा पुष्पवतीमसौ । मातुलस्य त्वदीयस्य पुष्पचूलस्य कन्यकाम् ॥८३॥ रूपेणाद्भुतलावण्यपुण्येन हृतमानसः । तां जहार स दुर्बुद्धिर्बुद्धिः कर्मानुसारिणी || ८४॥ सोऽसहिष्णुर्दशं तस्या द्वितीय प्रकाशर ॥ १७९॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१०१॥ विद्यां साधयितुं ययौ । स्वयं संविद्रते सम्यग् भवन्तस्तु ततः परम् ||८५ || तदा च पुष्पवत्याख्यदावयोर्भ्रात् सङ्क्षयम् । शोकं धर्माक्षरैः शोकापनोद इव चानुदत् ॥ ८६ ॥ अन्यच्च पुष्पवत्यूचेऽभिगम्योऽयमिहगतः । ब्रह्मदत्तोऽस्तु वां भर्ता नान्यथा हि मुनेर्गिरः ||८७|| स्वीकृतं च य (त) दावाभ्यां तया च रभसावशात् । पताकाचालि धवला त्यक्त्वावां त्वं गतस्ततः ॥ ८८ ॥ यदास्मद्भाग्यवैगुण्यान्नागतोऽसि न चेक्षितः । भ्रान्त्वा सर्वत्र निर्विण्णे आवामिह तदागते ॥ ८९ ॥ पुण्यैरसि समायातः पुरा पुष्पवतीगिरा । वृतोऽसि वरयाच तद्गतिरेकस्त्वमावयोः ॥९०॥ गान्धर्मेण विवाहेन स उपायंस्त ते अपि । भोगी हि भाजनं स्त्रीणां सरितामिव सागरः ॥९१॥ रममाणः समं ताभ्यां गङ्गोमाभ्यामिवेश्वरः । तत्रातिवाहयामास तां निशां ब्रह्मनन्दनः ॥९२॥ यावन्मे राज्यलाभः स्यात्पुष्पवत्याः समीपतः । तावद्युवाभ्यां स्थातव्यमित्युक्त्वा व्यसृजच्च ते ॥ ९३॥ तथेत्यादृतवत्यौ ते सलोकस्तच्च मन्दिरम् । गन्धर्वनगरमिव ततः सर्वे तिरोदधे ॥ ९४ ॥ अथाश्रमे रत्नवतीमन्वेष्टुं ब्रह्मसूरगात् । अपश्यंस्तत्र पप्रच्छ नरमेकं शुभाकृतिम् ||१५|| दिव्याम्बरधरा नारी रत्नाभरणभूषिता । कापि दृष्टा महाभाग त्वयातीतदिनेऽथ वा ॥ ९६ ॥ स ऊचे नाथ नाथेति रुदती ह्यो मयेक्षिता । प्रत्यभिज्ञाय नष्त्रीति तत्पितृव्याय चार्पिता ॥९७॥ तद्वरोऽसीति तेनोक्तस्तथेति ब्रह्मसूर्वदन् । निन्ये तेन प्रहृष्टेन तत्पितृव्यनिकेतनम् ||९८|| रत्नवत्या पितृव्योऽपि ब्रह्मदत्तं व्यवाहयत् । ऋद्धया महत्या धनिनां सर्वमीषत्करं यतः ॥९९॥ तया विषयसौख्यानि समं सोऽनुभवन्नथ । मृतकार्यं वरधनोरपरेद्युः प्रचक्रमे ॥४००|| साक्षादिव परेतेषु १ जानन्ति, द्वितीय प्रकाशः ॥२७०॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CCEO योगशाखम् द्वितीय प्रकाशा ॥१७॥ मुञ्जानेषु द्विजन्मसु । विप्रवेषो वरधनुस्तत्रागत्याब्रवीदिति ॥१॥ मम चेद्भोजनं दत्य साक्षाद्वरधनोहि तत् । इति श्रुतिसुधेवास्य श्रुता वाग् ब्रह्ममनुना ॥२॥ स तं दृष्टा परिष्वङ्गादेकीकुर्वनिवात्मना । स्नपयभिव हर्षास्त्रैनिनायान्तर्ग्रहं ततः॥३॥ ऊचे पृष्टः कुमारेण स्ववृत्तं सोऽकथय (कथ) त्तदा । सुप्ते त्वयि निरुद्धोऽहं चौरैः दीर्घभटैर्यथा ॥४॥ वृक्षान्तरस्थितेनैकदस्युनैकेन पत्रिणा । हतोऽहं पतितः पृथव्यां तिरोऽधां च लतान्तरे ॥५।। गतेषु तेषु चौरेषु मध्ये वृक्षं तिरोभवन् । आतिरन्तजेलमिव क्रमेण ग्राममाप्नुवम् ॥६॥ भवत्प्रवृत्ति ग्रामेशाद्विज्ञायाहमिहागमम् । दिष्टयाऽपश्यं भवन्तं च कलापीव पयोमुचम् ॥७॥ अथोचे ब्रह्मदत्तस्तमस्माभिः स्थास्यते ननु । विना पुरुषकारेण क्लीबैरिव कियच्चिरम् ॥८॥ अत्रान्तरे च सम्प्राप्तसाम्राज्यमकरध्वजः । मधुवन्मदको यूनां प्रादुरासीन्मधृत्सवः ॥९॥ तदा च राज्ञो मत्तेभः स्तम्भं भङ्क्त्वाऽपश्रृङ्गलः । निर्ययो त्रासिताशेषमयों मृत्योरिवानुजः ॥१०॥ ततो नितम्बभारार्चा काश्चित् कन्यां स्खलद्गतिम् । करी करेण जग्राहाकृष्ण पुष्करिणीमिव ॥११॥ तस्यां च शरणार्थिन्यां क्रन्दन्त्यां दीनचक्षुपि । जज्ञे हाहारवो विश्वदुःखबीजाक्षरोपमः॥१२॥रे मातङ्गासि मातङ्गः स्त्रियं गृह्णन्न लज्ज से । इत्युक्तः स कुमारेण तां विमुच्य तमभ्यगात्॥१३॥ उत्प्लुत्य दन्तसोपाने पादं विन्यस्य हेलया । आरुरोह कुमारस्तमशिश्रयदथासनम् ॥१४॥ वाक्पादाङ्कुशयोगेन स्वं योगेनेव योगवित् । वशीचकार तं नागं कुमारस्तरसा ततः।।१५।। साधु साध्वित्युच्यमानो जनैर्जय जयेति च । कुमारः करिणं स्तम्भे नीत्वाबध्नादशामिव ॥१६॥ ततो नरेन्द्रस्तत्रागातं च दृष्ट्वा विसिष्मिये । आकृतिवि१ पक्षिविशेषः । २ चण्डालः । ॥१७॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाश योगशास्त्रम् ॥१७॥ क्रमश्चास्य कस्य चित्रीयते न वा ॥१७॥ कोऽयं कुतो वा छन्नात्मा किं सूर्यों वासवोऽथवा । राज्ञेत्युक्ते रत्नबत्याः पितृव्यस्तमचीकथत् ॥१८॥ ततो विशाम्पतिः कन्याः पुण्यमानी कृतोत्सवः । दक्षः रक्षपाकरायेव ब्रह्मदत्ताय दत्तवान् ॥१९॥ परिणीय स तास्तत्र सुख तिष्ठन्नथाऽन्यदा । जरत्यैत्यैकयेत्यूचे भ्रमयित्वांशुकाञ्चलम् ॥२०॥ इह बैश्रवणोऽस्त्यादयः श्रिया वैश्रवणोऽपरः । तस्य च श्रीमति म सुता श्रीरिख वारिधेः ॥२१॥ मोचिता भवता व्यालादाहोरिन्दुकलेव या । सा त्वामेव पतीयन्ती ततःप्रभृति ताम्यति ॥२२॥ यथा गजात्वया त्राता तथा त्रायस्व तां स्मरात् । गृहाण पाणिं त्वं तस्या यथा हृदयमग्रहीः ॥२३॥ उपयेमे कुमारस्तां विविधोद्वाहमङ्गलैः । सुबुद्धिमन्त्रिणः कन्यां नन्दां वरधनुः पुनः ॥२४॥ पप्रथाते पृथिव्यां तौ तिष्ठन्तौ तत्त्र शक्तितः । साभियोगी प्रतस्थाते ततो वाराणसी प्रति ॥ २५ ॥ श्रुत्वा यान्तं ब्रह्मदत्तं ब्रह्माणमिव गौरवात् । अभ्येत्य संमुखं वाराणसीशः स्वगृहेऽनयत् ॥ २६ ॥ कटकः कटकवर्ती नाम पुत्री निजां ददौ । चतुरङ्गचमं चास्मै मृर्तामिव जयश्रियम् ॥२७॥ कणेरुदत्तश्चम्पेशो धनुमन्त्री तथाऽपरे । भगदत्तादयोऽप्येयुनपाः श्रुत्वा तदागमम् ॥ २८ ॥ कृत्वा वरधनं सेनान्यं सुषे गमिवार्षभिः३ । दीर्घ दीर्घपथे नेतुं प्रतस्थे ब्रह्मनन्दनः ॥ २६ ॥ दीर्घस्य दृतः कटकराजमेत्यैवमूचिवान् । दार्पण सममावाल्यमैत्री त्यक्तुं न युज्यते ॥३०॥ ततः कटक इत्युचे ब्रह्मणा सहिताः पुरा । सोदा इव पश्चाप्यभवाम मुहृदो वयम् ॥३१॥ स्वर्जुषो ब्रह्मणः पुत्रे राज्ये च त्रातुमर्पिते। दीर्पण धिक्कृतं नात्ति शाकिन्यपि समर्पितम् ॥३२॥ (१) चन्द्राय । (२) सोद्यमौ । (३) भरतचक्री । १७३ evAAA Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१७४॥ ब्रह्मणः पुत्रभाण्डे यद्दीर्घो दीर्घमचिन्तयत् । आचचारातिपापं तच्छ्वपचोऽपि किमाचरेत् ||३३|| तद्गच्छ शंस दीर्घाय ब्रह्मदत्तोऽभ्युपेत्यसौ । युद्धचस्व यदि वा नश्येत्युक्त्वा दृतं व्यसर्जयत् ||३४|| ततः प्रयाणैरच्छिन्नैः काम्पील्यं ब्रह्मसूर्ययौ । सदीर्घमप्यरात्सीत्तन्नभः सार्कमिवाम्बुदः ||३५|| दीर्घः सर्वाभिसारेण रणसारेण पत्तनात् । १दण्डाक्रान्तो निरसरदविलादिव महोरगः || ३६ || चुलन्यपि तदात्यन्तवेराग्यादाददे व्रतम् । पार्श्वे पूर्णाप्रवर्त्तिन्याः क्रमान्निर्वृतिमाप च ||३७|| पुरोगा दीर्घराजस्य पुरोगैर्ब्रह्मजन्मनः । नदीयादांस्यकूपारयादोभिरिव जघ्निरे ॥ ३८ ॥ दीर्घोऽप्यमर्पादुन्नामिदंष्ट्रिका विकटाननः । वराह इव धावित्वा हन्तुं प्रववृते परान् ॥ ३९ ॥ ब्रह्मदत्तस्य पादातरथिसाद्यादिकं बलम् । पर्यास्यत नदीपूरेणेव दीर्घेण वेगिना ॥ ४० ॥ ब्रह्मदत्तस्ततः starरुणाक्ष युयुधे स्वयम् । गर्जता दीर्घराजेन गर्जन् दन्तीव दन्तिना ॥ ४१ ॥ उभावपि बलिष्ठौ तावस्त्राण्यस्त्रैनिर।सतुः । कल्लोलैरिव कल्लोलान् युगान्तोद्भ्रान्तवारिधी ||४२ ॥ ज्ञात्वाऽथ सेवक इवावसरं प्रसरति । डुढौके ब्रह्मदत्तस्य चक्रं दिक्चक्रजित्वरम् ||४३|| ततो जहार दीर्घस्य तेनाशु ब्रह्मरसून । विमर्दो विद्युतः को ar गोधाधनसाधने ॥ ४४ ॥ जयतादेष चक्रीति भाषिणो मागधा इव । ब्रह्मदत्तोपरि सुराः पुष्पवृष्टिं विनिरे ||४५ || पोरैः पितेव मातेव देवतेव स वीक्षितः । पुरं विवेश काम्पील्यं सुत्रामेवामरावतीम् ॥ ४६ ॥ पूर्वोदृढाः सर्वतोऽपि पत्नीरानाययन्नृपः । कुरुम ( पुष्पव ) त्यभिधानां च स्त्रीरत्नं प्रत्यतिपित् ॥४७॥ विभिन्नस्वामिनोद्भूतसीमनिर्मूलनादसौ । षट्खण्डां साधयित्वोर्वी मेकखण्डां विनिर्ममे ॥ ४८ ॥ संवत्सरैर्द्वादश (१) युद्धाक्रान्तः पक्षे यष्ठचाक्रान्तः । द्वितीय प्रकाशः ॥१७४॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥१७५॥ भिरुपेत्योपेत्य सर्वतः । तस्याभिषेको विदधे भरतस्येव राजभिः ॥४९॥ चतुःषष्टिसहसान्तःपुरखीपरिवारितः । स राज्यसौख्यं बुभुजे प्राक्तपोभूरुहः फलम् ॥५०॥ अन्येधुर्नाटयसंङ्गीते तस्य दास्या समपितः । स्वर्वधूगुम्फित इव विचित्रः पुष्पगेन्दुकः ॥५१॥ ब्रह्मदत्तस्तु तं दृष्ट्वा दृष्टपूर्वो मयेदृशः । कुत्रापीति व्यधादन्तरूहापोई मुहुर्मुहुः ॥ ५२ ॥ प्रापश्चजन्मस्मरणोत्पत्तेस्तत्कालमेव च । सौधर्म दृष्टवानेतदित्यज्ञासीन्महीपतिः ॥ ५३ ॥ स सिक्तश्चन्दनाम्भोभिः स्वस्थीभूयेत्यचिन्तयत् । कथं मेलिष्यति स मे पूर्वजन्मसहोदरः ॥५४॥ तं ज्ञातुकामः श्लोकार्द्धसमस्यामेवमार्पयत् । आस्व दासौ मृगौ हंसौ मातङ्गावमरौ तथा ॥ ५५ ॥ अश्लोकसमस्यां मे य इमां पूरयिष्यति । राज्या? तस्य दास्यामीत्यसावघोषयत्पुरे ॥५६॥ श्लोकार्द्ध तत्तु सर्वोऽपि कण्ठस्थं निजनामवत् । पठनकार्षीत्पश्चाई न चापूरिष्ट कश्चन ॥५७॥ तदा च पुरिमतालाच्चित्रजीवो | महेभ्यसूः । जातिस्मृतेः प्रवजितो विहरनेकदाऽऽययौ ॥५८॥ तत्र कस्मिंश्चिदुद्याने प्रासुकस्थण्डिलस्थितः । श्लोकार्द्ध तत्त पठतः सोऽश्रीषीदारपट्टिकात् ॥५९॥ एषा नौ षष्ठिका जातिरन्योऽन्याभ्यां वियुक्तयोः । श्लोकापरा मेवं स सम्पूर्य तमपाठयत् ॥६०॥ श्लोकापरा, तद्राज्ञः पुरस्तादारपट्टिकः । पपाठ कः कविरिति तत्पृष्टस्तं मुनि जगौ ॥६॥ स पारितोषिकं तस्मै वितीयॊत्कण्ठया ययौ । तत्त्रोद्याने मुनि द्रष्टुं धर्मद्रुममिवोद्गतम्॥६२॥वन्दित्वा तं मुनि तत्ा बाष्पपूर्णविलोचनः । निषसादान्तिके राजा सस्नेहः पूर्वजन्मवत् ॥६॥ आशीर्वाद मुनिर्दच्या कृपारसमहोदधिः । अनुग्रहार्थ भूपस्य प्रारेभे धर्मदेशनाम् ॥६४॥ राजन्नसारे संसारे सारमन्यन्न किञ्चन । सारोऽस्ति धर्म एवैकः सरोजमिव कई मे ॥६५॥ शरीरं यौवनं लक्ष्मीः स्वाम्यं मित्त्राणि बन्धवः । सर्वमप्यनिलो ॥१७५॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाश ॥१७६॥ इतपताकाश्चलचञ्चलम् ॥६६॥ बहिरङ्गान् द्विषोऽजैषीर्यथा साधयितुं महीम् । अन्तरङ्गान् जय तथा मोक्षसाधनहेतवे ॥६७॥ गृहाण यतिधर्म तत्पृथक्कृत्य त्यजापरम् । राजहंसो हि गृह्णाति विभज्य क्षीरमम्भसः । ॥६८॥ ब्रह्मदत्तस्ततोऽवादीद् दिष्टया दृष्टोऽसि बान्धव । इयं तवैव राज्यश्री क्ष्व भोगान् यथारुचि ॥६९।। तपसो हि फलं भोगाः सन्ति ते कि तपस्यसि । उपक्रमेत को नाम स्वतः सिद्ध प्रयोजने ॥७०॥ मुनिरूचे ममाप्यासन धनदस्येव सम्पदः । मया तास्तृणवस्यक्ता भवभ्रमणभीरुणा ॥७१॥ सौधर्मान् क्षीणपुण्योऽस्मिन्नागतोऽसि महीतले । इतोऽपि क्षीणपुण्यः सन् राजन्मा गा अधोगतिम् ॥७२।। आर्ये देशे कुले श्रेष्ठे मानुष्यं प्राप्य मोक्षदम् । साधयस्यमुना भोगान् सुधया पादशौचवत् ।।७३।। स्वर्गाच्च्युत्वा क्षीणपुण्यौ भ्रान्तावावां कुयोनिषु । यथा तथा स्मरन् राजन् किं बाल इव मुह्यसि ? ॥७४॥ तेनैवं बोध्यमानोऽपि नाबुद्ध वसुधाधवः। कुतः कृतनिदानानां बोधिबीजसमागमः॥७५॥ तमबोध्यतम बुध्ध्या जगाम मुनिरन्यतः । कालादिष्टाहिना दृष्टे कियत्तिष्ठन्ति मान्त्रिकाः ॥७६।। घातिकर्मक्षयात्प्राप्य केवलज्ञानमुत्तमम् । भवोपग्राहिकर्माणि हत्वा प्राप परं पदम् ॥७७॥ ब्रह्मदत्तोऽपि संसारसुखानुभवलालसः । सप्तातिवाहयामास शतानि शरदा क्रमात् ॥७८॥ कदाचित्पापरिचितो द्विजः कश्चिञ्जगाद तम् । चक्रवर्तिन् स्वयं भुरक्षे यत्तन्मे देहि भोजनम् ॥७९॥ ब्रह्मदत्तोऽप्यवोचत्तं मदनं द्विज दुर्जरम् । चिरेण जीर्यमाणं तु महोन्मादाय जायते ॥८॥ कदर्योऽस्यन्नदानेऽपि धिक्त्वामिति वदन् द्विजः । अभोजि सकुटुम्बोऽपि भूभुजा भोजनं निजम् ।।८१॥ निशायामथ विप्रस्य बीजादिव तदोदनात् । शतशाखः स्मरोन्मादतरुः प्रादुरभूभृशम् ॥८२॥ अज्ञातजननीमामिस्नुपाव्यतिकरं मिथः । पशुवत्सहपुत्रोऽपि ॥१६॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥ १७७॥ विप्रः प्रववृते रते ||८३|| ततो विरामे यामिन्या द्विजो गृहजनश्च सः । हिया दर्शयितुं स्वास्यमन्योऽन्यमपि नाशकत् ||८४|| क्रूरेणानेन राज्ञाऽस्मि सकुटुम्बो बिडम्बितः । चिन्तयन्नित्यमर्षेण नगरान्निरगाद्विजः ॥८५॥ दूरादश्वत्थपत्राणि काणयन् शर्कराकणैः । तेन कश्चिदजापालो ददृशे भ्रमता बहिः || ८६|| मद्वैरसाधनायालमाविति विमृश्य सः । तं मुल्येनेव सत्कारेणादायैवमवोचत ||८७ ॥ राजमार्गे गजारूढो यः श्वेतच्छत्रचामरः याति कृष्ये दृशौ तस्य त्वया प्रक्षिप्य गोलिके ॥८८॥ विप्रवाचमजापालः प्रतिपेदे तथैव ताम् । पशुवत्पशुपाला हि न विमृश्यविधायिनः ॥ ८९ ॥ | सोऽथ कुडचान्तरे स्थित्वा समं प्रक्षिप्य गोलिके । आस्फोटयद् दृशौ राज्ञो नाज्ञा लङ्घया विधेः खलु ॥९०॥ सोऽङ्गरक्षैरजापालः प्राप्तः श्येनैरिव द्विकः । हन्यमानस्तमेवाख्यद्विप्रं विप्रियकारकम् ||११|| तच्छ्रुत्वा पर्थिवोऽबोचडिग घिर जातिर्द्विजन्मनाम् । यत्रैते भुञ्जते पापास्तत्र भञ्जन्ति भाजनम् ||१२|| यः स्वमीयति दातारं दतं तस्मै वरं शुने । जातु दानुमुचितं कृत्नानां द्विजन्मनाम् ॥९३॥ वञ्चानां नृशंसानां श्वापदानां पलादिनाम् । सृष्टिं द्विजानां योऽकार्षीन्निग्राद्यः प्रथमं हि सः ॥ ९४ ॥ इति जल्पन्नल्पक्रुत् पृथ्वीपतिरघातयत् । सपुत्रबन्धुमित्रं तं विप्रं मशकमुष्टिवत् ॥ ९५ ॥ दृशो - रन्धीकृतस्तेन हृदयेऽन्धीकृतः क्रुधा । विप्रान् सोऽघातयत् सर्वान् पुरोधः प्रभृतीनपि ॥ ९६ ॥ सोऽमात्यमादिदेशैवं नेत्रैरेषां द्विजन्मनाम् । विशालं स्थालमापुर्थ्य निधेहि पुरतो मम ॥९७॥ रौद्रमध्यवसायं तं राज्ञो विज्ञाय मन्त्र्यपि । श्लेष्मातकफलैः स्थालं पूरयित्वा पुरो न्यधात् ॥ ९८|| मुमुदे ब्रह्मदत्तोऽपि पाणिना संस्पृशन्मुहुः । विप्राणां लोचनैः स्थालं साधु पूर्णमिति ब्रुवन् ॥ ९९ ॥ स्पर्श स्त्रीरत्नरूपायाः पुष्पवत्यास्तथा न हि MORE OF CHOIC द्वितीय प्रकाशः ॥९७७॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥१७८॥ यथाssसीद्ब्रह्मदत्तस्य तत्स्थालस्पर्शने रतिः || ५०० ॥ न कदाचन स स्थालमपासारयदग्रतः । दुर्म्मदी मदिरापात्रमित्र दुर्गतिकारणम् ||१|| विप्रनेत्रधियाऽमृद्नात् श्लोष्मातकफलानि सः । फलाभिमुखपापद्रोः सज्जयन्निव दोहदम् ||२|| तस्यानिवर्त्तको रौद्राध्यवसायोऽत्यवर्द्धत । अशुभं वा शुभं वाऽपि सर्वे हि महतां महत् ॥ ३॥ तस्यैवं वसुधेशस्य रौद्रध्यानानुबन्धिनः । पापपङ्कबराहस्य ययुर्वर्षाणि षोडश || ४ || यातेषु षोडशयुतेषु समाशतेषु सप्तस्वसौ क्षितिपतिः परिपूरितायुः । हिंसाऽनुबन्धिपरिणामफलानुरूपां तां सप्तमीं नरकलोकभुवं जगाम ||५|| २७ ॥ इति ब्रह्मदत्तचक्रवर्त्तिकथानकम् || पुनरपि हिंसकान्निन्दति । कुणिर्वरं वरं पङ्गुरशरीरी वरं पुमान् । अपि सम्पूर्णसर्वाङ्गो न तु हिंसापरायणः॥२८॥ कुणिर्विकलपाणिः वरमिति मनागिष्टे मन्तमव्ययं, पङ्गुः पादविकलः, कुत्सितं शरीरमशरीरं नमः कुत्सार्थत्वात् तद्विद्यते यस्य सोऽशरीरी कुष्ठी विकलाङ्गः, कुणिपङ्गुकुष्ठिनस्ते हि विकलाङ्गत्वादेव हिंसामकुर्वन्तो मनाक् श्रेष्टाः, सम्पूर्णसर्वाङ्गोऽपि कृतपरिकरबन्धं हिसापरायणः पुमान्न तु श्रेष्ठः ||२८| ननु रौद्रध्यानपरायणस्य या तु शान्तिकनिमित्तं प्रायश्चित्तभूता हिंसा या वा कुलक्रमायाता मत्स्यबन्धानामिव सा रौद्रध्यानरहितत्वान्न दोषायेत्याह हिंसा विघ्नाय जायेत विघ्नशान्त्यै कृताऽपि हि । कुलाचार धियाऽप्येषा कृता कुलविनाशनी ॥२९ द्वितीय प्रकाशः ॥१७८॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाशः योगशास्त्रम् ॥१२॥ रौद्रध्यानमन्तरेणाप्यविवेकाल्लोभावा या शान्तिनिमित्तं कुलक्रमाद्वा हिंसा न केवलं पापहेतुःप्रत्युत विघ्नशान्तिनिमित्तं क्रियमाणा समरादित्यकथोक्तस्य यशोधरजीवस्य सुरेन्द्रदत्तस्येव पिष्टमयकुक्कुटवधरूपा विघ्नाय जायते कल्पेत अस्मत्कुलाचारोऽयमिति बुद्धयाऽपि कृता हिंसा कुलमेव विनाशयति ॥२९॥ इदानी कुलक्रमायातामपि हिसां परिहरन् पुमान् प्रशस्य एवेत्याह । अपि वंशक्रमायाता यस्तु हिंसां परित्यजेत् । सश्रेष्ठः सुलस इव कोलसौकरिकात्मजः॥३०॥ वंशः कुलं कुलक्रमायातामपि हिंसां यः परिहरेत् सः श्रेष्टः प्रशस्यतमः सुलस इव, तस्य विशेषणं काल सौकरिकात्मजः कालसौकरिको नाम सौनिकस्तस्यात्मज पुत्रः । यदाहअवि इच्छन्ति य मरणं न य परपीडं कुणन्ति मणसा वि । जे सुविइअसुगइपहा सोयरिअसुओ जहा सुलसो ॥ मुलसकथानकं सम्प्रदायगम्यम् । स चाय महर्दि मगधेष्वस्ति पुरं राजगृहाभिधम् । तत्र श्रीवीरपादाब्जभृङ्गोभृच्छ्रेणिको नृपः॥१॥ तस्य प्रियतमे नन्दाचिल्लणे शीलभूषणे । अभूतां देवकीरोहिण्याविवानकदुन्दुभेः ॥२॥ नन्दायां नन्दनो विश्वकुमुदानन्दचन्द्रमाः । नाम्नाऽभयकुमारोऽभूदुभयान्वयभूषणः ॥३॥ राजा तस्य परिज्ञाय प्रकृष्टं बुद्धिकौशलम् । ददौ (१) अपि इच्छन्ति च मरणं न च परपीडां कुर्वन्ति मनसापि । ये सुविदितसुगतिपथाः सौकरिकसुतो यथा मुलसः (२) वसुवेवस्य कृष्णपितुः । ulgeli Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥१८॥ सर्वाधिकारित्वं गुणा हि गरिमास्पदम् ॥४ा अन्यदा श्रीमहावीरो विहरन् परमेश्वरः । जगत्पूज्यः पुरे तस्मिनागत्य समवासरत् ॥५॥ श्रुत्वा स्वामिनमायातं जङ्गमं कल्पपादपम् । कृतार्थमानी तत्रागान्मुदितः श्रेणिको नृपः ॥६॥ यथास्थानं निषण्णेषु देवादिषु जगद्गुरुः। प्रारेमे दुरितध्वंसदेशनीं धर्मदेशनाम् ॥७॥ तदा कुष्ठगलत्कायः कश्चिदेत्य प्रगम्य च । निषसादोपतीर्थेशमलकर इव कुट्टिमे ॥८॥ ततो भगवतः पादौ निजपूयरसेन सः । निःशङ्कश्चन्दनेनेव चर्चयामास भूयसा ॥९॥ तद्वीक्ष्य श्रेणिकः कूद्धो दध्यौ वध्योऽयमुत्थितः। पापीयान् यजगद्भर्त्तव्येवमाशातनापरः ॥१०॥ अत्रान्तरे जिनेन्द्रेण क्षुते प्रोवाच कुष्ठिकः । म्रियस्वेत्यथ जीवेति श्रेणिकेन क्षुते सति ॥१॥ क्षुतेऽभयकुमारेण जीव वा त्वं म्रियस्व वा । कालसौकरिकेणापि क्षुते मा जीव मा मृथाः ॥१२॥ जिनं प्रति म्रियस्वेति वचसा रुषितो नृपः । इतः स्थानादुत्थितोऽसौ ग्राह्य इत्यादिशद्भटान् ॥१३॥ देशानान्ते महावीरं नत्वा कुष्ठी समुत्थितः । रुरुधे श्रेणिकभटैः किरातैरिव शूकरः ॥१४॥ स तेषां पश्यतामेव दिव्यरूपधरः क्षणात् । उत्पपाताम्बरे कुर्वनकबिम्बविडम्बनाम् ॥१५॥ पत्तिभिः कथिते राज्ञा क एष इति विस्मयात् । विज्ञप्तो भगवानस्मै देवोऽसावित्यचीकथत् ॥१६॥ पुनर्विज्ञपयामास सर्वज्ञमिति भुपतिः । देवः कथमभूदेष कुष्ठी वा केन हेतुना ॥१७॥ अथोचे भगवानेवमस्ति वत्सेषु विश्रुता । कौशाम्बी नाम पूस्तस्यां शतानीकोऽभवन्नृपः ॥१८॥ तस्यां नगामेकोऽभून्नामतः सेडुको द्विजः । सीमा सदा दरिद्राणां मूर्खाणामवधिः परः ॥१९॥ गर्मिण्याऽभाणि सोऽन्येचुर्लाह्मण्या सूतिकर्मणे । भट्टानय घृतं मा समान बन्यथा व्यथा (१) मत्तःश्वा. ॥१८॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगपात्रम् द्वितीय प्रकाश ॥१८॥ ॥२०॥ सोऽप्यूचे तां प्रिये नास्ति मम कुत्रापि कौशलम् । येन किञ्चिल्लमे कापि कलायाद्या यदीश्वराः ॥२१॥ उवाच सा च तं भट्ट गच्छ सेवस्व पार्थिवम् । पृथिव्यां पार्थिवादन्यो न कश्चित्कल्पपादपः ॥२२॥ तथेति प्रतिपद्यासौ नृपं पुष्पफलादिना । प्रवृत्तः सेवितुं विप्रो रत्नेच्छुरिव सागरम् ॥२३।। कदाचिदथ कौशाम्बी चम्पेशेनामितैलैः। घनतुनेव मेघेद्याररुध्यत समन्ततः॥२४॥ सानीकोऽपि शतानीको मध्येकौशाम्बि तस्थिवान् प्रतीक्षमाणः समयमन्तविलमिवोरगः ॥२५॥ चम्पाधिपोऽपि कालेन बहुना सनसैनिकः । प्रावृषि स्वाश्रयं यातुं प्रवृत्तो राजहंसवत् ॥२६॥ तदा पुष्पार्थमुद्याने गतः सेडुक ऐक्षत । तं क्षीणसैन्यं प्रत्यूषे निष्प्रभोडुमिवोडपम ॥२७॥ तूर्णमेत्य शतानीकं व्यजिज्ञपदसाविदम् । याति क्षीणबलस्तेऽरिभग्नदंष्ट्र इवोरगः ॥२८॥ यद्यद्योत्तिष्ठसे तस्मै तदा प्रायः सुखेन सः। बलीयानपि खिन्नः सनखिम्भेनाभिभूयते ॥२९॥ तद्वचः साधु मन्यानो राजा सर्वाभिसारतः। निःससार २शरासारसारनासीरदारुणः ॥३०॥ ततः पश्चादपश्यन्तो नेशुश्चम्पेशसैनिकाः । अचिन्तिततडित्पाते को वीक्षितुमपि क्षमः ॥३१॥ चम्पाधिपतिरेकाङ्गः कान्दिशीकः पलायितः। तस्य हस्त्यश्वकोशादि कौशाम्बीपतिरग्रहीत् ॥३२॥ हृष्टः प्रविष्टः कौशाम्बी शतानीको महामनाः । उवाच सेडुकं विप्रं ब्रूहि तुभ्यं ददामि किम् ॥३३॥ विप्रस्तमृचे याचिष्ये पृष्ट्वा निजकुटुम्बिनीम् । पर्यालोचपदं नान्यो गृहिणां गृहिणीं विना ॥३४॥ भट्टः प्रहृष्टो भट्टिन्यै तदशेष शशंस सः। चेतसा चिन्तयामास सा चैव बुद्धिशालिनी ॥३५।। यधमुना ग्राहयिष्ये नृपाद्ग्रामादिकं तदा । करिष्यत्यपरान्दारान्मदाय विभवः खलु ॥३६॥ दिनं प्रत्येक ३आलोच (१) खिन्नसैनिकः २ बाणवृष्टया सारभूतं नासीरम्-अग्रसैन्यं तेन दारुणः ३ दर्शनम् । ॥१८॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१८२॥ द्वितीय प्रकाशा स्तथाग्रासनभोजनम् । दीनारो दक्षिणायां च याच्य इत्यन्वशात्पतिम् ॥३७॥ ययाचे तत्तथा विप्रो राजाऽदात्तद्वदनिदम् । करकोऽन्धिमपि प्राप्य गृह्वात्यात्मोचितं पयः ॥३८॥ प्रत्यहं तत्तथा लेभे प्राप्य सम्भावनां च सः। पुंसां राजप्रसादो हि वितनोति महाघताम् ॥३९॥ राजमान्योऽयमित्येष नित्यं लोकैन्यमन्त्र्यत । यस्य प्रसनो नृपतिस्तस्य कः म्यान सेवकः ॥४०॥ अग्रे भुक्तं चालयित्वा बुभुजेऽऽनेकशोऽप्यसौ। प्रत्यहं दक्षिणालोभाद्धिग्धिग्लोभो द्विजन्मनाम् ॥४१॥ उपाचीयत विप्रोऽसौ विविधैर्दक्षिणाधनैः । प्रासरत्पुत्रपौत्रैश्च पादैरिव वद्रुमः ॥४२॥ स तु नित्यमजीर्णानवमनावंगै रसैः । आमेरभूषितत्वगश्वत्थ इव लाक्षया ॥४३॥ कुष्ठी क्रमेण सञ्जज्ञे शीर्णघ्राणांहिपाणिकः। तथैवाभुक्त राजाने सोऽतृप्तो हव्यवाडिव ॥४४॥ एकदा मन्त्रिभिभूपो विज्ञप्तो देव कुष्ठचसौ । सञ्चरिष्णुः कृष्ठरोगो नास्य योग्यमिहाशनम् ॥४५॥ सन्त्यस्य नीरुजः पुत्रास्तेभ्यः कोऽप्यत्र भोज्यताम् । व्यङ्गितप्रतिमायां हि स्थाप्यते प्रतिमान्तरम् ॥४६॥ एवमस्त्विति राझोक्तेऽमात्यैविप्रस्तथोदितः। स्वस्थानेऽस्थापयत्पुत्रं गृहे तस्थौ स्वयं पुनः ॥४७॥ मधुमण्डकपदक्षुद्रमक्षिकाजालमालितः। पुत्रैहादपि बहिः कुटीरेऽक्षेपि स द्विजः ॥४८॥ बहिः स्थितस्य तस्याज्ञां पुत्रा अपि न चक्रिरे । दारुपात्रे ददुः किन्तु शुनकस्येव भोजनम् ॥४९॥ जुगुप्समाना वध्वोऽपि तं भोजयितुमाययुः । तिष्ठिवुर्वलितग्रीवं मोटनोत्पुटनासिकाः ॥५०॥ अथ सोऽचिन्तयद्विप्रः श्रीमन्तोऽमी मया कृताः। एभिर्मुक्तोऽस्म्यनादृत्य तीर्णाम्भोभिस्तरण्डवत् ॥५१॥ तोषयन्ति न वाचाऽपि रोषयन्त्येव माममी । कुष्ठो रुष्टो न सन्तुष्टो भव्य इत्यनुलापिनः ॥५२॥ (२) घटः (२) वान्त्वा. ॥१८२॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१८३॥ द्वितीय प्रकाशा जुगुप्सन्ते यथैते मां जुगुपयाः स्युरमी अपि । यथा तथा करिष्यामीत्यालोच्यावोचदात्मजान् ॥५३॥ उद्विग्नो जीवितस्याहं कुलाचारस्त्वसौ सुताः । मुमूर्षुभिः कुटुम्बस्य देयो मन्त्रोक्षितः पशुः ॥५४॥ पशुरानीयतामेक इत्याकpनुमोदिनः। आनिन्यिरे तेऽय पशुं पशुवन्मन्दबुद्धयः ॥५५॥ उद्वयॊद्वय॑ च स्वाङ्ग मन्नेन व्याधिवर्तिकाः । तेनाचारि पशुस्तावद्यावत् कुष्ठी बभूव सः ॥५६॥ ददौ विप्रः स्वपुत्रेभ्यस्तं हत्वा पशुमन्यदा । तदाशयमजानन्तो मुग्धा बुभुजिरे च ते ॥५७। तीर्थे स्वार्थाय यास्यामीत्यापृच्छय तनयान् द्विजः । ययावूर्ध्वमुखोऽरण्यं शरण्यमिव चिन्तयन् ॥५८॥ अत्यन्तवृषितः सोऽटनटव्यां पयसे चिरम् । अपश्यत्सुहृदमिव देशे नानाद्रुमे हृदम् ॥५९॥ नीरं तीरतरुखस्तपत्रपुष्पफलं द्विजः । ग्रीष्ममध्यन्दिनार्को शुकथितं काथवत्पपौ ॥६०॥ सोऽपायथा यथा वारि भूयोभूयस्तु पातुरः । तथा तथा विरेकोऽस्य बभूव कृमिभिः सह ॥६१॥ स नीरुगासीत्कतिभिरप्यहोभिईदाम्भसा । मनोज्ञसवयवो वसन्तेनेव पादपः ॥२॥ आरोग्यइष्टो ववले विप्रः क्षिप्रं स्ववेश्मने । पुंसां वपुर्विशेषोत्थश्रृङ्गारो जन्मभूमिषु ॥६३॥ स पुर्य्या प्रविशन् पौरैर्ददृशे जातविस्मयैः । देदीप्यमानो निर्मुको निर्मोक इव पन्नगः ॥६४॥ पारैः पृष्टः पुनर्जात इवोल्लाघः कथं न्वसि । देवताराधनादस्मीत्याचचक्षे स तु द्विजः॥६५॥ स गत्वा स्वगृहेऽपश्यत्स्वपुत्रान् कुष्ठिनो मुदा । मयाऽवज्ञाफलं साधु दत्तमित्यवदच्च तान् ॥६६॥ मुतास्तमेवरचूश्च भवता तात निघृणम् । विश्वस्तेषु किमस्मासु द्विषेवेदमनु ष्ठितम् ॥६७॥ लोकैराक्रुश्यमानोऽसौ राजनागत्य ते पुरम् । आश्रयज्जीविकाद्वारं द्वारपालं निराश्रयः ॥६८॥ तदाऽत्र वयमायाता द्वास्थोऽस्मदर्मदेशनाम् । श्रोतुं प्रचलितोऽमुश्चत्तं विप्रं निजकर्मणि ॥६९॥ द्वारोपविष्टः स ॥१८॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥९८४॥ द्वारदुर्गाणामग्रतो बलिम् । जन्मादृष्टमिवाभुक्त यथेष्टं कष्टितः क्षुधा ॥७०॥ आकण्ठं परिभुक्तान्नदोषाद्गीष्मोष्मणा च सः । उत्पन्नया तृषाऽकारि मरुपान्थ इवाकुलः ॥ ७१ ॥ तत्त द्वाःस्थभिया स्थानं त्यक्त्वा नागात्प्रपा दिषु । असौ जलचरान् जीवान् धन्यान्मेने तृषातुरः ||७२|| आरटन् वारि वारीति स तृषार्त्तो व्यपद्यत । sta नगरद्वारवाप्यामजनि दर्दुरः ||७३ || विहरन्तो वयं भूयोऽप्यागमा मेह पत्तने । लोकोऽस्मद्वन्दनार्थ च प्रचचाल ससम्भ्रमः ||७४ || अस्मदागमनोदन्तं श्रुत्वाऽम्भोहारिणीमुखात् । स भेकोऽचिन्तयदिदं काप्येवं श्रुतपूर्व्यहम् ||७५ || ऊहापोहं ततस्तस्य कुर्वाणस्य मुहुर्मुहुः । स्वमस्मरण वज्जातिस्मरणं तत्क्षणादभूत् ॥७६॥ स दध्यौ दर्दुरचैव द्वारे संस्थाप्य मां पुरा । द्वाःस्थो यं बन्दितुमगात्स आगाद्भगवानिह ॥७७॥ यथैते यान्ति तं द्रष्टुं लोका यास्याम्यहं तथा । सर्वसाधारणी गङ्गा न हि कस्यापि पैतृकी ॥७८॥ ततोऽस्मद्वन्दनाहेतोरुत्प्लु त्योत्प्लुत्य सोऽध्वनि । आयांस्तेऽश्वखुरक्षुण्णो भेकः पञ्चत्वमाप्तवान् ॥ ७९ ॥ दर्दुराकोऽयमुत्पेदे देवोऽस्मद्भक्तिभावितः । भावना हि फलत्येव विनाऽनुष्ठानमप्यहो ||८०|| इन्द्रः सदस्युवाचेदमुपश्रेणिकमाईताः । अश्रद्दधानस्तदसौ त (त्व) परीक्षार्थमागतः ॥ ८१ ॥ गोशीर्षचन्दनेनायमानच्चे चरणौ मम । त्वद्दृष्टिमोहनायान्यत्सर्वं व्यधित वैक्रियम् ॥८२॥ अथोचे श्रेणिकः स्वामिनमङ्गल्यं प्रभोः क्षुते । एषोऽन्येषां तु मङ्गल्यामङ्गल्यानि जगाद किम् ॥८३॥ अथाचचक्षे भगवान् किं भवेऽद्यापि तिष्ठसि । शीघ्रं मोक्षं प्रयाहीति मां म्रियस्वेत्युवाच सः ॥ ८४ ॥ स त्वां जगाद जीवेति जीवतस्ते यतः सुखम् । नरके नरशार्दुल मृतस्य हि गतिस्तव ॥ ८५ ॥ जीवन् धर्म विधते स्याद्विमानेऽनुत्तरे मृतः । जीव म्रियस्व वेत्येवं तेनाभयमभाषत ॥ ८६ ॥ जीवन् पापपरो मृत्वा सप्तमं द्वितीय प्रकाशः १८४॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशन ॥१८५॥ नरकं व्रजेत् । कालांकरिकस्तेन प्रोचे मा जीव मा मृथाः ॥८७॥ तच्छुत्वा श्रेणिको नत्वा भगवन्तं व्यजिज्ञपत् । त्वयि नाथे जगन्नाथ कथं मे नरके गतिः ।।८८|| बभाषे भगवानेवं पुरा त्वमसि भूपते । बद्धायुनरके तेन तत्रावश्यं गमिष्यसि ॥८६॥ शुभानामशुभानां वा फलं प्रारबद्धकर्मणाम् । भोक्तव्यं तव (तद्व)यमपि नान्यथा कतमीश्महे ॥९॥ आद्यो भाविजिनचतुर्विंशतौ त्वं भविष्यसि । पद्मनाभाभिधो राजन् खेदं मा स्म कृयास्ततः ॥ ९१ ॥ श्रेणिकोऽथावदनाथ किमुपायोऽस्ति कोऽपि सः । नरकायेन रक्ष्येऽहमन्धकूपादिवान्धलः ॥ ९२ ॥ भगवान् व्याजहारेदं साधुभ्यो भक्तिपूर्वकम् । ब्राह्माण्या चेत्कपिलया भिक्षां दापयसे मुदा ॥९३॥ कालसौकरिकासूनां विमोचयसि वा यदि । तदा ते नरकान्मोक्षो राजन् जायेत नान्यथा ॥९४॥ सम्यगित्युपदेशं स हृदि हारमिवोद्वहन् । प्रणम्य श्रीमहावीरं चचाल स्वाश्रयं प्रति ॥९५॥ अत्रान्तरे परीक्षार्थ दर्दुराकेन भूपतेः। अकार्य विदधत्साधुः कैवर्त इव दर्शितः ॥९६॥ तं दृष्ट्वा प्रवचनस्य मालिन्यं मा भवत्विति । निवार्याकार्यतः साम्ना स्वगृहं प्रत्यगान्नृपः ॥६७॥ स देवो दर्शयामास साध्वीमुदरिणी पुनः। नृपः शासनभक्तस्तां जुगोप निजवेश्मनि ॥९॥ प्रत्यक्षीभूय देवोऽपि तमृचे साधु साधु भोः । सम्यक्त्वाच्चाल्यसे नैव पर्वतः स्वपदादिव ॥९९॥ नृनाथ यादृशं शक्रः सदसि त्वामचीकथत् । दृष्टस्तादृश एवासि मिथ्यावाचो न तादृशाः ॥१०॥ दिवानिर्मितनक्षत्रश्रेणिक श्रेणिकाय सः । व्यश्राणयत्ततो हारं गोलकद्वितयं तथा ॥१॥ योऽमुं सन्धास्यते हारं त्रुटितं स मरिष्यति । इत्युदीर्य तिरोऽधत्त स्वप्नदृष्ट इवामरः ॥२॥ दिव्यं देव्यै ददौ हारं चेल्लणायै मनोहरम् । गोलकद्वितयं ततु नन्दायै नृपतिर्मुदा ॥३॥ दानस्यास्यास्मि योग्येति सेयं नन्दा मनस्विनी । आस्फाल्य स्फोटयामास स्तम्भे Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥१८॥ तद्रगोलकद्वयम् ॥४|| एकस्मात्कुण्डलद्वन्द्वं चन्द्रद्वन्द्वमिवामलम् । देदीप्यमानमन्यस्मात्सोमयुग्मं च निःसृतम् ॥५॥ तानि दिव्यानि रत्नानि नन्दा सानन्दमग्रहीत् । अनभ्रवृष्टिवल्लाभो महतां स्यादचिन्तितः ॥६॥ राजा ययाचे कपिलां साधुभ्यः श्रद्धयाऽन्विता । भिक्षां प्रयच्छ निर्भिक्षां त्वां करिष्ये धनोच्चकैः ॥७॥ कपिलोचे विधत्से मां सर्वा स्वर्णमयीं यदि । हिनस्मि वा तथाऽप्येतदकृत्यं न करोम्यहम् ॥८॥ कालसौकरिकोऽप्यूचे राज्ञा सूनां विमुश्च यत् । दास्येऽहमर्थमर्थस्य लोभात्त्वमसि सौनिकः ॥९॥ सूनायां ननु को दोषो यया जीवन्ति मानवाः । तां न जातु त्यजामीति कालसौकरिकोऽवदत् ॥१०॥ सूनाव्यापारमेषोऽत्र करिष्यति कथं न्विति । नृपः क्षिप्त्वाऽन्धकूपे तमहोरात्रमधारयत् ॥११॥ अथ विज्ञपयामास गत्वा भगवते नृपः। सोऽत्याजि सौनिकः सूनामहोरात्रमिदं विभो ॥१२॥ सर्वज्ञोऽभिदधे राजन्नन्धकूपेऽपि सोऽवधीत् । शतानि पञ्च महिषान् स्वयं निर्माय मृन्मयान् ॥१३॥ तद्गत्वा श्रेणिकोऽपश्यत् स्वयमुद्विविजे ततः। धिगहो मे पुरा कर्म नान्यथा भगवदगिरः ॥१४॥ पञ्च पश्च शतान्यस्य महिषाभिघ्नतोऽन्वहम् । कालसौकरिकस्योच्चैः पापराशिरवर्द्धत ॥१५॥ इहापि रोगास्तस्यासन्दारुणैरतिदारुणाः। पर्यन्तनरकप्रारुपयुत्कलितैरघेः ॥१६॥ हा तातमहा मातरिति व्याधिवाधाकदर्थितः । वध्यमानः शूकरवत्कालसौकरिकोऽरटत् ॥१७॥ सौऽङ्गनातूलिकापुष्पवीणाकणितमार्जिताः । दृष्टित्वमासिकाकर्णजिहाशूलान्यमन्यत ॥१८॥ ततस्तस्य सुतस्तादृक् स्वरूपं सुलसोऽखिलम् । जगाद जगदाप्तायाभयायाभयदायिने ॥१९॥ उचेऽभयस्त्वत्पिता यच्चक्रे तस्येदृशं फलम् । सत्यमत्युग्रपापानां (१) मार्जिता-मुगन्धिद्रव्यैः संस्कृतं दधि. ॥१८६॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशः फलमत्रैव लभ्यते ॥२०॥ तथाऽप्यस्य कुरु प्रीत्यै विपरीतेन्द्रियार्थताम् अमेध्यगन्धविध्वंसे भवेन जलमौषधम् ॥२१॥ अथैत्य सुलसस्तं तु कटुतिक्तान्यभोजयत् । अपाययदपोऽत्युष्णास्तप्तत्रपुसहोदराः ॥२२॥ भूयिष्ठविष्ठया मुष्ठु सर्वाङ्गीणं व्यलेपयत् । उर्ध्वकण्टकमय्यां च शय्यायां पर्यसूषुपत् ॥२३॥ श्रावयामास १चक्रीवत्क्रमेलकरवान् कटून् । रक्षोवेतालककालघोररूपाण्यदर्शयत् ॥२४॥ तैः प्रीतः सोऽब्रवीत्पुत्रं चिरात्स्वाद्वद्य भोजनम् शीतं वारि मृदुः शय्या सुगन्धि च विलेपनम् ॥२५॥ शब्दः श्रुतिसुधाऽमूनि रूपाण्येकं सुखं दृशोः। भक्तेनापि त्वयाऽस्मात् किं वञ्चितोऽस्मि चिरं सुखात् ॥२६॥ तच्छुत्वा सुलसो दध्याविदमत्रैव जन्मनि । अहो पापफलं घोरं नरके कि भविष्यति ॥२७॥ सुलसे चिन्तयत्येवं स मृत्वा प्राप दारुणम् । सप्तमे नरके स्थानमप्रतिष्ठानसंज्ञितम् ॥२८॥ कृतोर्ध्वदेहिकोऽभाणि सुलसः स्वजनैरिति । पितुः श्रयपदं स्याम सनाथा हि त्वया यथा ॥२९॥ सुलसस्तानुवाचेदं करिष्ये कर्म न ह्यदः । किचिल्ले में फलं पित्राऽप्यत्रैवामुष्य कर्मणः ॥३०॥ यथा मम प्रियाः प्राणास्तथाऽन्यप्राणिनामपि । स्वप्राणिताय धिगहो परप्राणप्रमारणम् ॥३१॥ हिंसाजीविकया जीवेत् कः प्रेक्ष्य फलमीदृशम् । मरणेकफलं ज्ञात्वा किंपाकफलमत्ति कः॥३२॥ अथ ते स्वजनाः प्रोचुः पापं प्राणिवधेऽत्र यत् । तद्विभज्य ग्रहीष्यामो हिरण्यमिव गोत्रिणः ॥३३॥ त्वमेकं महिषं इन्या हनिष्यामोऽपरान् वयम् । अत्यल्पमेव ते पापं भविष्यति ततो ननु ॥३४॥ आदाय सुलसः पित्र्यं कुठारं पाणिना ततः । तेनाजघ्ने निजां जवां मूर्छितो निपपात च ॥३५॥ लब्धसंज्ञस्ततोऽवादीत् साक्रन्दः करुणस्वरम् । हा कुठार (१) चक्रीवत्-रासभः क्रमेलकश्च-उष्ट्रः तयोः शब्दान्, ॥१८७॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१८८॥ I प्रहारेण कठोरणास्मि पीडितः ||३६|| गृह्णीत बन्धवो यूयं विभज्य मम वेदनाम् । स्यामल्पवेदनो येन पीडित पात पात माम् ||३७|| सलसं खिन्नमनसस्ते च प्रतिबभाषिरे । पीडा कस्यापि केनापि गृहीतुं शक्यते किमु ॥३८॥ सुलसो व्याजहारेदं यद् व्यथामियतीमपि । न मे ग्रहीतुमीशिध्वे तत्कथं नरकव्यथाम् ||३९|| कृत्वा पापं कुटुम्बार्थे घोरां नरकवेदनाम् । एकोऽसुत्र सहिष्येऽहं स्थास्वन्त्यत्रैव बान्धवाः ॥४०॥ हिंसां aa करिष्यामि पैत्रिकीर्माप सर्वथा । पिता भवति यद्यन्धः किमन्धः स्यात्सुतोऽपि हि ॥ ४१ ॥ एवं व्याहरमाणस्य मुलसस्यातिपीडया । प्रतिजागरणायागादभयः श्रेणिकात्मजः || ४२ || परिरभ्य बभाषे तमभयः साधु साधु भोः । सर्वे ते श्रुतमस्माभिः प्रमोदाद्वयमागताः || ४३ || पापात्पैत्र्यादपक्रामन् कर्दमादिव दूरतः । त्वमेकः श्लाध्यसे हन्त पक्षपातो गुणेषु नः ||४४ || सुलसं पेशलैरेवमालापैर्धर्मवत्सलः । अनुमोद्य निजं धाम स जगाम नृपात्मजः ||४५|| स्वाननादृत्य सुलसो गृहीतद्वादशव्रतः । दौर्गत्यभीतोऽस्थाज्जैनधर्मे रोर इवेश्वरे ॥४६॥ कालसौकरिकसूनुरिवैवं यस्त्यजेत् कुलभवामपि हिंसाम् । स्वर्गसम्पददवीयसि तस्य, श्रेयसामविषयो न हि किश्चित् ॥ १४७॥३०॥ अथ हिंसां कुर्वन्नपि दमादिभिः पुण्यमर्जयत्येव पापं च विशोधयेदित्याह - दमो देवगुरूपास्तिर्दानमध्ययनं तपः । सर्वमप्येतदफलं हिंसां चेन्ना परित्यजेत् ॥३१॥ दम इन्द्रियजयः, देवगुरूपास्तिर्देवसेवा गुरुसेवा च दानं पात्रेषु द्रव्यविश्राणनं अध्ययनं धर्मशास्त्रादेः द्वितीय प्रकाशः ગા Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥ १८९॥ पठनं तपः कृच्छ्रचान्द्रायणादि एतद्दमादि सर्वमपि न तु किञ्चिदेव, अफलं पुण्यार्जन पापक्षयादिफलरहितं चेद्यदि हिंसां शान्तिहेतुं कुलक्रमायातां वा न परित्यजेन्न परिहरेत् ॥ एवं तावन्मांसलुब्धानां शान्तिकार्थिनां कुलाचारमनुपालयतां च या हिंसा सा प्रतिषिद्धा ||३१|| इदानीं शास्त्रीयां हिंसां प्रतिषेधन शास्त्रत्वेन वाऽऽक्षिपति विश्वस्तो मुग्धधीर्लेाकः पात्यते नरकावनौ । अहो नृशंसैर्लेाभान्धेर्हि साशास्त्रोपदेशकैः ॥३२॥ हिसाशाखं वक्ष्यमाणं तस्योपदेशका हिंसाशास्त्रोपदेशका मन्वादयस्तैः किंविशिष्टैनृशंसे निर्दयैः । दयावान् हि कथं हिंसाशास्त्रमुपदिशेत् । नृशंसत्वे हेतुमाह । लोभान्धैः मांसलोभान्धैः स्वाभाविकविवेकविवेकिसंसर्ग चक्षुरहितैः । यदाह — एकं हि चक्षुरमलं सहजो विवेक- स्तद्वद्भिरेव सह संवसतिर्द्वितीयम् । एतद्द्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धः - स्तस्यापमार्गचलने खलु कोऽपराधः ? || १ || अहो इति निर्वेदे, यतो विश्वस्तो विश्रब्धः, विश्वस्तत्वे हेतुर्मुग्धधीः । चतुरबुद्धिर्हि कृत्याकृत्यं विवेचयन् न प्रतारकवचस् विश्वसिति । लोकः प्राकृतो जनः पात्यते क्षेप्यते नरकावनौ नरकपृथ्व्याम् ||३२|| हिंसाशास्त्रमेव यदाहुरित्यनेन प्रस्तुत्य निर्दिशति यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥ ३३ ॥ द्वितीय प्रकाशः ॥१८॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग द्वितीय प्रकाश शास्त्रम् ॥१९॥ यज्ञार्थ यज्ञानिमित्तं स्वयंभुवा प्रजापतिना पशवः सृष्टा उत्पादिताः स्वयमेवेत्यर्थवादः । अस्य जगतो विश्वस्य यज्ञो ज्योतिष्टोमादिः भूत्यै भूतिविभवः, तस्मात्तत्र यो वधः स न वधो विज्ञेयः हिंसाजन्यस्य पापस्यानुत्पत्तेः । एवमुच्यते । कथं पुनर्यज्ञे हिंसादोषो नास्ति ? उच्यते-हिसा हिंस्यमानस्य महानपकारः प्राणवियोगेन पुत्रदारधनादिवियोगेन वा सर्वानर्थोत्पत्तददुष्कृतस्य वा नरकादिफलविपाकस्य प्रत्यासत्तः । यज्ञे तु हतानामुपकारो नापकारः नरकादिफलानुत्पत्तेः ॥३३॥ एतदेवाहऔषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा। यज्ञार्थ निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्यु(च्छि)ति पुनः॥३४॥ __ औषध्यो दर्भादयः पशवश्छागादयः वृक्षा पादयः तिर्यश्चो गवाश्वादयः पक्षिणः कपिञ्जलादयः यज्ञार्थं यज्ञनिमित्त निधनं विनाश प्राप्ताः । यद्यपि केषाश्चित्तत्र निधनं नास्ति तथापि या च यावती च पीडा विद्यत इति सा निधनशब्देन लक्ष्यते । प्राप्नुवन्ति यान्ति उच्छितिमुत्कर्ष देवगन्धर्वयोनित्वमुत्तरकुर्वादिषु दीर्घायुष्कादि च ॥३४॥ यावत्यः काश्चिच्छास्त्रे चोदिता हिंसास्ताः संक्षिप्य दर्शयतिमधुपर्के च यज्ञे च पितृदेवतकर्मणि । अनौव पशवो हिस्या नान्यत्रोत्यब्रवीन्मनुः ॥३५॥ मधुपर्कः क्रियाविशेषः तत्र गोवधो विहितः, यज्ञो ज्योतिष्टोमादिः तत्र पशुवपो विहितः, पितरो दैवतानि यत्र कर्मण्यष्टकादौ तच्च श्राद्धं पितणां दैवतानां च कर्म महायज्ञादि ॥३५॥ ॥१९० Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१९१॥ द्वितीय प्रकाशा एष्वर्थेषु पशून् हिंसन वेदतत्वार्थविद्विजः। आत्मानं च पशुंश्चैव गमयत्युत्तमां गतिम् ॥३६॥ एतानर्थान् साधयितुं पशुन् हिंसन द्विज आत्मानं पशुश्चोत्तमां गतिं स्वर्गापवर्गलक्षणां गमयति प्रापयति वेदतत्त्वार्थविदिति विदुषोऽधिकारित्वमाह ॥३६॥ हिंसाशास्त्रमनूद्य पुनस्तदुपदेशकानाक्षिपतिये चक्रुः क्ररर्माणः शास्त्रं हिंसोपदेशकम् । क्व ते यास्यन्ति नरके नास्तिकेभ्योऽपि नास्तिकाः॥३७॥ ये मन्वादयः-करं निर्धणं कर्म येषां ते क्रूरकर्माणः शाखं स्मृत्यादि हिंसाया उपदेशकं चक्रुः ते हिसाशास्त्रकर्तारः क नरके यास्यन्तीति विस्मयः । ते चास्तिकाभासा अपि नास्तिकेभ्योऽपि नास्तिकाः परमनास्तिका इत्यर्थः ॥३७॥ उक्तं चेत्यनेन संवादश्लोकमुपदर्शयति-- वरं वराकश्चार्वाको योऽसौ प्रकटनास्तिकः । वेदोस्तितापसच्छमच्छन्नं रक्षो न जैमिनिः॥३८ वरमिति मनागिष्टो जैमिन्यपेक्षया चार्वाको लौकायातिकः वराक इति दम्भरहितत्वादनुकम्प्यः । तदेवाहयोऽसौ प्रकटनास्तिकः । जैमिनिस्तु न बरं कुतः वेदोक्तितापसच्छद्म तापसवेषस्तेन छन्नं रक्षो राक्षसः, अयं हि वेदोक्ति मुखे कृत्वा सकलप्राणिवचनात् मायावी राक्षस इव । यच्चोक्तं यज्ञार्थ पशवः स्वष्टा इति तद्वाङ्मात्र निजनिजकर्मनिर्माणमाहात्म्येन नानायोनिषु जन्तवः समुत्पद्यन्त इति व्यलीकः कस्यचित् सृष्टिवादः, यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्येति त्वर्थवादः पक्षपातमात्र, वधोऽवध इति तूपहासपात्रं वचः, यज्ञार्थ विनिहतानां चौषध्यादीनां पुनरुच्छू ॥१९॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥१९२१ यप्राप्तिः श्रधानभाषितं अकृतसुकृतानां यज्ञवधमात्रेणोच्छ्रितगतिप्राप्त्ययोगात् । अपि च यज्ञहननमात्रेण यदि उच्छ्रितगतिप्राप्तिस्तर्हि मातापित्रादीनामपि यज्ञे वधः किं न क्रियते । यदाहुःनाहं स्वर्गफलोपभोगतृषितो नाभ्यर्थितस्त्वं मया, सन्तुष्टस्तृणभक्षणेन सततं साधो न युक्तं तव । स्वर्गे यान्ति यदि त्वया विनिहता यज्ञे ध्रुवं प्राणिनो, यज्ञं कि न करोषि मातृपितृभिः पुत्रैस्तथा बान्धवैः॥१॥ ___ मधुपर्कादिषु च हिंसा श्रेयसे नान्यत्रेति स्वच्छन्दभाषितं, को हि विशेषो हिंसाया येनैका श्रेयस्करी नान्येति पुण्यात्मानस्तु सर्वाऽपि हिंसा न कर्तव्येत्याहुः । यथा__ सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउ न मरजिउ । तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णम् ॥१॥ यत्तुक्तं "आत्मानं च पशृंश्चैव गमयत्युत्तमां गतिमिति" तदतिमहासाहसिकादन्यः को वक्तुमर्हति ? । अपि नाम पशोरहित्रस्याकामनिर्जरयोत्तमगतिलाभः संभवेत् , द्विजस्य तु निशातकृपाणिकाप्रहारपूर्व सैनिकस्येव निर्दयस्य हिंसतः कथमुत्तमगतिसंभावनाऽपि स्यात् ? ॥३८॥ एतदेव विशेषाभिधानपूर्वकमुपसंहरबाहदेवोपहारव्योजेन यज्ञव्याजेन येऽथवा । घ्नन्ति जन्तून् गतघृणा घोरांते यान्ति दुर्गतिम्॥३९॥ देवा भैरवचण्डिकादयस्तेभ्यः उपहारो बलिः स एव व्याजं छद्म तेन महानवमीमाधाष्टमीचैत्राष्टमीनमसितका(१) सर्वे जीवा अपि इच्छन्ति जीविन्तुं न मर्तुम् । तस्मात् प्राणिवधं घोरं निर्ग्रन्था वर्जयन्ति ॥१॥ ॥१९॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥१९३॥ 50 380009 NORSEE दिषु देवपूजाच्छद्मना ये जन्तुघातं कुर्वन्ति ये च यज्ञव्याजेन गतघृणा निर्दयास्ते घोरां रौद्रां दुर्गति नरकादिलक्षणां यान्ति, अत्र देवोपहारव्याजेनेति विशेषाभिधानं यज्ञव्याजेनेत्युपसंहारः, क्वाऽपि च निराबाधे धर्मसाधने स्वाधीने साबाधपराधीनधर्मसाधनपरिग्रहो न श्रेयान् । यदाहुः - अर्को चेन्मधु विन्देत किमर्थं पर्वतं ब्रजेदिति ॥ ३९ ॥ शमशीलदयामूलं हित्वा धर्मं जगद्धितम् । अहो हिंसा पि धर्माय जगदे मन्दबुद्धिभिः॥४०॥ शमः कषायेन्द्रियजयः, शीलं सुस्वभावता, दया भूतानुकम्पा, एतानि मूलं कारणं यस्य स तथा धर्मोऽभ्युदयनिःश्रेयसकारणं तं । किं विशिष्ट ? जगद्धितं हित्वा उपेक्ष्य शमशीलादीनि धर्मसाधनान्युपेक्ष्येत्यर्थः, अहो इति विस्मये हिंसाऽपि धर्मसाधनवहिर्भूता धर्मसाधनत्वेन मन्दबुद्धिभिरुक्ता सर्वजनप्रसिद्धानि शमशीलादीनि धर्मसाधनान्युपेक्ष्य अधर्मसाधनमपि हिसां धर्मसाधनत्वेन प्रतिपादयतां परेषां व्यक्तैव मन्दबुद्धिता ||४०|| एवं तावल्लभमूला शान्त्यर्था कुलक्रमायाता यज्ञनिमित्ता देवोपहारहेतुका च हिंसा प्रतिषिद्धा । पितृनिमित्ता अवशिष्यते तां प्रतिनिषेधितुं परशास्त्रीयां परलोकी मनुवदतिहविर्यच्चिररात्राय यच्चानन्त्याय कल्पते । पितृभ्यो विधिवद्दत्तं तत्प्रवक्ष्याम्यशेषतः ॥४१॥ चिररात्रशब्दो दीर्घकलवचनः, यच्चानन्त्याय केनचिद्धविषा दीर्घकालतृप्तिर्जायते केनचिदनन्तैव तदुभयं प्रवक्ष्यामि ॥४१॥ O: OX OXENO OBE द्वितीय प्रकाशः ॥१९३॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥१९४॥ तिलैबींहियवैरिद्भिर्मूलफलेन वा । दत्तेन मासं प्रीयन्ते विधिवत्पितरो नृणाम् ॥४२॥ __ तिलादिग्रहणं नेतरपरिसंख्यानार्थमपि तूपात्तानां फलविशेषप्रदर्शनार्थम् । एतैर्विधिवदत्तैः पितरो मास प्रीयन्ते ॥४२॥ द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन् मासान् हारिणेन तु । औरप्रेणाथ चतुरः शाकुनेनेह पञ्च तु॥४३ ___ मत्स्याः पाठीनकाद्याः, हरिणा मृगाः, औरभ्रा मेषाः, शकुनय आरण्यकुक्कटाद्याः ॥४३॥ | षण्मासांश्छागमांसेन पार्षतेनेह सप्त वै । अष्टावेणस्य मांसेन रौरवेण नवैव तु ॥४४॥ | छागश्छगलः, पृषतैणरुरवो मृगजातिविशेषवचनाः ॥४४॥ दशमासांस्तु तृप्यन्ति वराहमहिषामिषैः । शशकूयोर्मा सेन मासानेकादशैव तु ॥४५॥ ___ वराह आरण्यशूकरः ॥४५॥ संवत्सरं तु गव्येन पयसा पायसेन तु । वार्षीणसस्य मांसेन तृप्तिादशवार्षिकी ॥४६॥ श्रुतानुमितयोः श्रुतसंबन्धस्य बलीयस्त्वाद्रव्येन पयसा पायसेन च संबन्धो न मांसेन प्राकरणिकेन, अन्ये तु व्याख्यानयन्ति मांसेन गव्येन पयसा पायसेन वा । पयसो विकारः पाय दध्यादि । पयःसंस्कृते त्वोदने प्रसिद्धिः । वाणसो जरच्छागः यस्य पिबतो जलं त्रीणि स्पृशन्ति जिहा कौँ च यदाहत्रिपिवं विन्द्रियक्षीणं श्वेतं वृद्धमजापतिम् वाोणसं तु तं प्राहुर्याज्ञिकाः पितृकर्मसु ॥१॥४६॥ ॥१९॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥ १९५॥ EXOFOO पितृनिमित्तहिंसोपदेशकं शास्त्रमनूद्य तदुपदिष्टां हिंसां दूषयति इति स्मृत्यनुसारेण पितॄणां तर्पणाय या । मूढैर्विधीयते हिंसा साऽपि दुर्गतिहेतवे ॥४७॥ इति पूर्वोक्ता या स्मृतिर्धर्मसंहिता तस्या अनुसारेणालम्बनेन पितरः पितुर्वश्याः । यच्छ्रुतिः-- "पित्रे पितामहाय प्रपितामहाय पिण्डं निर्वपेदिति" । तेषां तर्पणाय तृप्तये मूढैरविचारकैर्या हिंसा विधीयते सापि न केवलं मांसलोभादिनिमित्ता दुर्गतिहेतवे नरकाय । न हि स्वल्पाऽपि कार्याद्धिंसा न नरकादिनिबन्धनं । यत्तु पितृप्रपञ्चवर्णनं तन्मुग्धबुद्धिप्रतारणमात्रं, न हि तिलव्रीह्यादिभिर्मत्स्यमांसादिभिर्वा परासूनां पितॄणां तृप्तिरुत्पद्यते यदाह— मृतानामपि जन्तूनां यदि तृप्तिर्भवेदिह । निर्वाणस्य प्रदीपस्य स्नेहः संवर्द्धयेच्छिखाम् ||१|| इति न केवलं हिंसा दुर्गतिहेतुरेव किं तु हिंस्यमानैर्जन्तुभिर्विरोधनिबन्धनत्वेन स्वस्यापि इहामुत्र च हिसाहेतुतया भयहेतुः || ४७|| अहिंस्य तु सर्वजीवाभयदानशौण्डस्य न कुतोऽपि भयमस्तीत्याह-यो भूतेष्वभयं दद्याद्भूतेभ्यस्तस्य नो भयम् । यादृग्वितीर्यते दानं तादृगासाद्यते फलम् ४८ स्पष्टम् ॥४८॥ एवं तावद्धिंसापराणां मनुष्याणां नरकादि हिंसाफलमभिहितं । सुराणामपि हिंसकानां जुगुप्सनीयचरितानां मूढजनप्रसिद्धं पूज्यत्वं १ परिदेवते -- (१) शोचति । द्वितीय प्रकाश. ॥ १९५॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥१९६॥ द्वितीय प्रकाशा को दण्डदण्डचक्रासिशुलशक्तिधराः सुराः । हिंसका अपि हा कष्टं पूज्यन्ते देवताधिया ॥४९॥ ___ हा कष्टमित्यतिशयनिदे हिंसका अपि रुद्रप्रभृतयः सुराः प्राकृतैर्जनैः पूज्यन्ते विविधपुष्पोपहारादिभिर हा कष्टमित्यतिशयनिर्वेदे हिंसका अपि रूद्रप्रभृतयः सुराः प्राकृतैजनैः पूज्यन्ते विविधपुष्पोपहारादिभिरय॑न्ते । ते च यथाकथश्चिदभ्यर्च्यतां नाम केबलं देवतावुद्धिस्तत्र विरुद्धा इत्याह-देवताधिया। हिंसकत्वे विशेषणद्वारेण हेतुमाह-कोदण्डदण्डचक्रासिशूलशक्तिधरा इति कोदण्डादिधरत्वाद्धिसकाः, हिंसकत्वमन्तरेण कोदण्डादीनां धारयितुमयुक्तत्वात् । कोदण्डधरः, शङ्करः, दण्डधरो यमः, चक्रासिधरो विष्णुः, शूलधरौ शिवौ, शक्तिधरः कुमारः उपलक्षणमन्येषां शस्त्राणां शस्त्रधराणां च ॥४९॥ एवं प्रपञ्चतो हिंसां प्रतिषिध्य तद्विपक्षमतमहिसावतं श्लोकद्वयेन स्तौतिमातेव सर्वभूतानामहिंसा हितकारिणी। अहिंसैव हि संसारमरावमृतसारणिः ॥५०॥ अहिंसा दुःखदावाग्निप्रावृषेण्यघनावली। भवभ्रमिरुगा नामहिंसा परमौषधी ॥५१॥ स्पष्टम् ॥५०॥५१॥ अहिंसावतस्य फलमाहदीर्घमायुः परंरुपमारोग्यं श्लाघनियता । अहिंसायाः फलं सर्वं किमन्यत्काणदैव सा ॥५२॥ अहिंसापरो हि परेषामायुर्वर्दयननुरुपमेव जन्मान्तरे दीर्घायुष्ट्वं लभते । तथैव पररूपमविनाशयन् प्रकृष्ट रूपमनोति । तथैव चास्वास्थ्यहेतुं हिंसां परिहरन् परमस्वास्थ्यरूपमारोग्यं लभते सर्वभूताभयप्रदश्च तेभ्य आत्मनः श्लाघनीयतामश्नुते । एतत्सर्वमहिंसायाः फलं, कियद्वा शृङ्गन्याहिकया वक्तुं शक्यते इत्याह-किमन्यत्कामदेव सा ॥१९॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय ॥१९७॥ . . यद्यत्कामयते तसस्मै ददाति उपलक्षणमेतदकामितस्यापि स्वर्गापवर्गादेः फलस्य दानात् । अत्रान्तरे श्लोकःहेमाद्रिः पर्वतानां हरिरमृतभुजां चक्रवर्ती नाराणां, शीतांशुज्योतिषां स्वस्तरुरवनिरुहां चण्डरोचिग्रहाणाम् । सिन्धुस्तोयाशयानां जिनपतिरसुरामर्त्यमाधिपानां, यदत्तद्वद्वतानामधिपतिपादवीं यात्यहिंसा किमन्यत् ॥१॥५२॥ उक्तमहिंसाव्रतम्, अथ नृतव्रतस्यावसरस्तच नालीकविरतिव्रतमन्तरेणोपपद्यते, न च तत्फलमनुपदर्यालीकाद्विरति कारयितुं शक्यः पर इत्यलीकफलमुपदर्य तद्विरतिमुपदर्शयतिमन्मनत्वं काहलत्व मूकत्वं मुखरोगिताम् । वीक्ष्यासत्यफलं कन्यालीकाद्यसत्यमुत्सृजेत्॥५३॥ मन एव मन्तृ यत्र तन्मन्मनं परस्याप्रतिपादकं वचनं तद्योगात्पुरुषोऽपि मन्मनस्तस्य भावो मन्मनत्वं १ । काहलमव्यक्तवर्ण वचनं तद्योगात्पुरुषोऽपि काहलस्तस्य भावः काहलत्वं २ मूकोऽवाक तस्य भावो मूकत्वं ३। मुखस्य रोगा उपजिहादयस्तेऽस्य सन्ति मुखरोगी तस्य भावो मुखरोगिता ४ । एतत्सर्वमसत्यफलं वीक्ष्य शास्त्र बलेनोपलभ्यासत्यं स्थूलासत्यमुत्सृजेच्छावकः । यदाहमूका जडाश्च विकला वागहीना वागजुप्सिताः । प्रतिगन्धमुखाश्चैव जायन्तेऽनृतभाषिणः ॥१॥५३॥ असत्यं च कन्यालीकादि वक्ष्यमाणम् । तदेवाहकन्यागोभृम्यलीकानि न्यासापहरणं तथा । कूटसाक्ष्यं च पञ्चेति स्थूलोसत्यान्यकीर्तयन्॥५४॥ ॥१९॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम ॥१९८॥ कन्यालीकं १ गवालीकं २ भूम्यलीकं ३ न्यासापहरणं ४ कूटसाक्ष्यं च ५ एतानि पञ्च स्थूलासत्यान्यकीर्त्तयन् जिनाः । तत्रा कन्याविषयमलीक कन्यालीकं भिन्नकन्यामभिन्नां विपर्ययं वा वदतो भवति इदं च सर्वस्य कुमारादिद्विपदविषयस्यालीकस्योपलक्षणं १ । गवालीकमल्पक्षीरां बहुक्षीरां विपर्ययं वा वदतः, इदमपि सर्वचतुपदविषयस्यालीकस्योपलक्षणं २ | भूम्यलीकं परसत्कामप्यात्मादिसत्कां विपर्ययं वा वदतः, इदं च शेषपादपाद्यपदद्रव्यविषयालीकस्योपलक्षणं ३ । अथ द्विपदचतुष्पदग्रहणमेव कस्मान्न कृतम् ? उच्यते - कन्याद्यलीकानां लोके अतिगर्हितत्वेन रूढत्वादिति । न्यस्यते रक्षणायान्यस्मै समर्प्यत इति न्यासः सुवर्णादिः तस्यापहरणमपलापस्तद्वचनं स्थूलपृषावादः, इदं चानेनैव विशेषेण पूर्वालीकेभ्यो भेदेनोपातं, कूटसाक्ष्यं प्रमाणीकृतस्य लञ्चामत्सरादिना कूटं वदतः यथाहमत्र साक्षी, अस्य च परकीयपापसमर्थकत्वलक्षणविशेषमाश्रित्य पूर्वेभ्यो भंदेनोपन्यासः एतानि क्लिष्टाशयसमुत्थत्वात् स्थूलासत्यानि ॥ ५४ ॥ एतेषां स्थूलालीकत्वे विशेषणद्वारेण हेतुमुपन्यस्य प्रतिषेधमाह - सर्वलोकविरुद्धं यद्यद्विश्वसितघातकम् । यद्विपक्षश्च पुण्यस्य न वदेत्तदसूनृतम् ॥ ५५ ॥ सर्वलोके विरुद्धत्वात् कन्यागो भूम्यलीकानि न वदेत् । विश्वसितघातकत्वान्न्यासापलापं न वदेत् । पुण्यस्य धर्मस्य विपक्षरूपोऽधर्मस्तं हि वदन् प्रमाणीकृतो विवादिभिरभ्यर्ध्यते धर्मं ब्रूयान्नाधर्ममिति । इति धर्मविपक्षत्वा कूटसाक्ष्यं न वदेत् ||५५॥ असत्यस्य फलविषशेमुपदर्शयंस्तत्परिहारमुपदिशति- द्वितीय प्रकाशः ॥१९८॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग शास्त्रम् ॥१९९॥ असत्यतो लघीयस्त्वमसत्याद्वचनीयता । अधोगतिरसत्याच्च तदसत्यं परित्यजेत् ॥ ५६ ॥ लघीयत्त्वं वचनीयता चासत्यस्यैहिकं फलं, अधोगतिरामुष्मिकम् ॥५६॥ अथ भवतु क्लिष्टाशयपूर्वस्यासत्यस्य निषेधः, प्रामादिकस्य तु का वार्चेत्याहअसत्यवचनं प्रोज्ञः प्रमादेनापि नो वदेत् । श्रेयांसि येन भज्यन्ते वात्ययेव महाद्रुमाः ॥ ५७ ॥ आस्तां क्लिष्टाशयपूर्वकमसत्यवचनं, प्रामादिकमप्यज्ञानसंशयादिजनितवचनं न वदेत् येन प्रामादिकेनासत्यवचनेन श्रेयांसि भङ्गमुपयान्ति वात्ययेव महा मा इति दृष्टान्तः । यदाहुर्महर्षयः अम्मिय कालम्मि पच्चुप्पन्नमणागए । जमठ्ठे तु न जाणेज्जा एवमेच्चं ति णो वए ॥१॥ अमिय कालम्मि पच्चुप्पणमणागए । जत्थ संका भवे तं तु एवमेअं ति णो वए ॥२॥ अमिय कालम्मि पच्चुप्पन्नमगागए । निस्संकिअं भवे जं तु एवमेच्चं तु निद्दिसे ॥३॥ एतच्चासत्यं चतुर्द्धा -भूतनिवो, अभृतोद्भावनं, अर्थान्तरं, गर्दा च । भूतनिहवो यथा - नास्त्यात्मा, नास्ति पुण्यं नास्ति पापं चेत्यादि । अभूतोद्भावनं यथा - सर्वगत आत्मा श्यामाकतन्दुलमात्रो अर्थान्तरं यथा-गाम अद्धम्मि । (१) अतीते च काले प्रत्युत्पन्नमनागते । यमर्थं तु न जानीयात् एवमेतत् इति नो वदेत् ॥१॥ (२) अतीते च काले प्रत्युत्पन्नमनागते । यत्र शङ्का भवेत्तत्तु एवमेतत् इति नो वदेत् ॥२॥ अतीते च काले प्रत्युत्पन्नमनागते । निःशङ्कितं भवेत्तत्तु एवमेततु निर्दिशेत् ॥ ३॥ अद्धम्मि | द्वितीय प्रकाशः ॥ १९९॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥२०॥ श्वमभिदधतः । गर्दा तु त्रिधा, एका सावधव्यापारप्रवर्तनी, यथा क्षेत्रं कृषेत्यादि । द्वितीया अप्रिया, काणं काणमिमि वदतः। तृतीया आक्रोशरूपा, यथा अरे बान्धकिनेय इत्यादि ॥५७।। अतिपरिहरणीयत्वमसत्यवचनस्य दर्शयन् पुनरप्यैहिकान् दोषानाहअसत्यवचनाद्वैरविषादाप्रत्ययादयः । प्रादुःषन्ति न के दोषाः कुपथ्यायाधयो यथा ॥५०॥ वैरं विरोधः, विषादः पश्चात्तापः अप्रत्ययोऽविश्वासः । आदिग्रहणाद्राजावमानादयो गृह्यन्ते ॥१८॥ आमुष्मिकं मृषावादम्य फलमाह--- निगोदेष्वथ तिर्यक्षु तथा नरकवासिषु । उत्पाद्यन्ते मृषावादप्रसादेन शरीरिणः ॥५९॥ निगोदा अनन्तकायिका जीवास्तेषु तिर्यक्षु गोबलीवर्दन्यायेन शेषतिर्यग्योनिषु नरकवासिषु नैरयिकेषु ॥५९॥ इदानीं मृषावादपरिहारे अन्वयव्यतिरेकाभ्यां कालिकाचार्यवसुराजौ दृष्टान्तावाहब्रूयाद्वियोपरोधाद्वा नासत्य कालिकार्यवत् । यस्तु ब्रूते स नरकं प्रयाति वसुराजवत॥६० भिया मरणादिभयेन उपरोधादाक्षिण्यादसत्यं हयात् । यस्तु ते मियोपरोधाद्वा इत्यत्रापि संबन्धनीयं दृष्टान्तौ संप्रदायगम्यौ । स चायम्(१) कुलटापुत्र । ॥२०॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौगशाखम् ॥२०१॥ द्वितीय प्रकाशा अस्ति भूरमणीमौलिमणिस्तुरमणी पुरी । यथार्थनामा तत्रासीजितशत्रमहीपतिः ॥१॥ रुद्रेति नामधेयेन ब्राह्मणी तत्र विश्रुता । दत्त इत्यभिधानेन तस्याः पुत्रो बभूव च ॥२॥ दत्तो नितान्तदुर्दान्तो घृतमद्यप्रियः सदा । सेवितुं तं महीपालं प्रवृत्तो वर्तनेच्छया ॥३॥ राज्ञा प्रधानीचक्रेऽसौ छायावत्पारिपार्श्वकः। आरोहायोपसर्पन्त्या विषवल्लेरपि दुमः॥४॥ विभेद्य प्रकृतीरेष राजानं निरवासयत् । पापात्मानः कपोताच स्वाश्रयोच्छे. ददायिनः ॥५॥ तस्य राज्ञो दुरात्माऽसौ राज्ये स्वयमुपाविशत् । क्षुद्रः पादान्तदानेऽपि क्रामत्युच्छीर्षकावधि ॥६।। पशुहिंसोत्कटान् यज्ञानज्ञो धर्मधिया व्यधात् । धूमैर्मलिनयन विश्वं स मृरिव पातकैः ॥७॥ विहरन् कालिकार्याख्यथाचार्यस्तस्य मातुलः । तत्राजगाम भगवानङ्गवानिव संयमः ॥८॥ तत्समीपमनापित्सुर्दत्तो मिथ्यात्वमोहितः । अत्यर्थ प्रार्थितो मात्रा मातुलाभ्यर्णमाययौ ॥९॥ मत्तोन्मत्तप्रमत्ताभो दत्तोऽपृच्छत्तमुद्भटम् । आचार्य यदि जानासि यज्ञानां ब्रूहि किं फलम् ॥१०॥ उवाच कालिकाचार्यों धर्म पृच्छसि तच्छृणु । तत्परस्य न कर्तव्यं यद्यद्विप्रियमात्मनः ॥११॥ ननु यज्ञफलं पृच्छामीति दत्तोदिते पुनः । सूरिरूचे न हिंसादि श्रेयसे किन्तु पाप्मने ॥१२॥ पुनस्तदेव साक्षेपं पृष्टो दत्तेन दुर्षिया । ससौष्ठवमुवाचार्यों यज्ञानां नरकः फलम् ॥१३॥ दत्तः क्रुद्धोऽभ्यधादेवमिह कः प्रत्ययो वद । आर्योऽप्यूचे श्वकुम्भ्यां त्वं पक्ष्यसे सप्तमेऽहनि ॥१४॥ दत्तः कोपादस्तभ्ररुणीकृतलोचनः। भूताविष्ट इवोवाच प्रत्ययोऽत्रापि को ननु ॥१५॥ अथोचे कालिकार्योऽपि श्वकुम्भीपचनात्पुरः । तस्मिन्नेवायकस्मात्ते मुखे विष्टा प्रवेक्ष्यति ॥१६॥ रोषाद् दत्तो जगादेदं तव मृत्युः कुतः कदा । न कुतोऽपि स्वकाले द्यां यास्यामीत्यवदन्मुनिः ॥१७।। अमुं निरुन्द्र दुर्बुद्धिमिति दत्तेन रोषतः। आदिष्टः ॥२०१॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् २०२॥ द्वितीय प्रकाशा कालिकाचार्यों रुरुधे दण्डपुरुषैः ॥१८॥ अथ दत्तात् समुद्विग्नाः सामन्ताः पापकर्मणः । आहाद्य नृपं तस्मै दत्तमर्पयितुं किल ॥१९॥ दत्तोऽपि शङ्कितस्तस्थौ निलीनो निजवेश्मनि । कण्ठीरवरवत्रस्तो निकुञ्ज इव कुञ्जरः ॥२०॥ स विस्मृतदिनो देवादागते सप्तमे दिने । बहिनिर्गन्तुमारक्ष राजमार्गानरक्षयत् ॥२१॥ तत्रैको मालिका प्रातर्विशन् पुप्पकरण्डवान् । चक्रे वेगातुरो विष्ठां भीतः पुष्पैः प्यधत्त च ।।२२।। इहाउनि हनिष्यामि पशुवन्मुनिपांसनम् चिन्तयनिति दत्तोऽपि निर्ययौ सादिभिवृतः॥२३॥ एकेन वल्गताऽश्वेन विष्टोक्षिप्ता खुरेण सा । दत्तस्य प्राविशच्चास्ये नासत्या यमिनां गिरः॥२४॥ शिलास्फालितवत्सद्यः श्लथाङ्गो विमनास्ततः। स सामन्ताननापृच्छय ववले स्वगृहं प्रति ॥२५|| नाऽस्मन्मन्त्रोऽमुना ज्ञात इति प्रकृतिपूरुषैः । गृहमप्रविशन्नेव बद्धदा दः स गौरिव ॥२६॥अथ प्रकाशयंस्तेजो निनं राजा चिरन्तनः । प्रादुरासीत्तदानीं स निशात्यय इवार्यमा ॥२७॥ सोऽहिः करण्डनिर्यात इव दूर ज्वलन् क्रुधा । दत्तं श्वकुम्भ्यां नरककुम्भ्यामिव तदाऽक्षिपत् ॥२८॥ अधस्तात्ताप्यमानायां कुम्भ्यां श्वानोऽन्तरा स्थिताः । दत्तं विदुः परमाधार्मिका इव नारकम् ॥२९॥ निरस्तभूपालभयोपरोधः श्रीकालिकाचार्य इवैवमुच्चैः । सत्यत्रतत्राणकृतप्रतिज्ञो न जातु भाषेत मृषा मनीषी ॥३०॥ ॥ इति कालिकाचार्यदत्तकथानकम् ॥ अस्ति चेदिषु विख्याता नाम्ना शुक्तिमती पुरी । शुक्तिमत्याख्यया नद्या नर्मसख्येव शोभिता ॥१॥पृथ्वीमुकुटकल्पायां तस्यां तेजोभिरद्धतः । माणिक्यमिव पृथ्वीशाऽभिचन्द्रो नामतोऽभवत् ।।२।।मनुः सूतृतवाक्तस्य वसुरि ॥२०२॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥२०३॥ त्यभिधानतः । अजायत महाबुद्धिः पाण्डोरिव युधिष्ठिरः || ३|| पार्श्वे क्षीरकदम्बस्य गरोः पर्वतकः सुतः । राजपुत्रो वसुच्छात्रो नारदश्चापठंस्त्रयः || ४ || सौधोपरि शयानेषु तेषु पाठश्रमान्निशि । चारणश्रमणौ व्योम्नि यान्तावित्यूचतुर्मिथः ||५|| एषामेकतमः स्वर्ग गमिष्यत्यपरौ पुनः । नरकं यास्यतस्तच्चाश्रषीत्क्षीरकदम्बकः || ६ || तच्छुवा चिन्तयामास खिन्नः क्षीरकदम्बकः । मय्यप्यध्यामके शिष्यौ यास्यतो नरकं हहा ||७|| एभ्यः को यास्यति स्वर्ग नरकं कौ च यास्यतः। जिज्ञासुरित्युपाध्यायस्तांखीन् युगपदाह्यत ||८|| यावपूर्ण समर्थैषामेकैकं पिष्टकुक्कुटम् । स ऊचेऽमी तत्र वध्या यत्र कोऽपि न पश्यति ||९|| पर्वतौ तत्र गत्वा शून्यप्रदेशयोः । आत्मनीनां गतिमिव जघ्नतुः पिष्टकुक्कुटौ ||१०|| महात्मा नारदस्तत्र व्रजित्वा नगराद्बहिः । स्थित्वा च विजने देशे दिशः प्रेक्ष्य व्यतर्कयत् ॥११॥ गुरुपादैरस्तावदादिष्टं वत्स यत्त्वया । वध्योऽयं कुक्कुटस्तत्र यत्र कोऽपि न पश्यति ||१२|| असौ पश्यत्यहं पश्याम्यमी पश्यन्ति खेचराः । लोकपालाश्च पश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानिनोऽपि च ॥ १३॥ नास्त्येव स्थानमपि तद्यत्र कोऽपि न पश्यति । तात्पर्यं तद्गुरूगिरां न वध्यः खलु कुक्कुटः || १४ || गुरुपादा दयावन्तः सदा हिंसापराङ्मुखाः । अस्मत्प्रज्ञां परिज्ञातुमेतन्नियतमादिशन् ||१५|| विमृश्यैवमहत्वैव कुक्कुटं स समाययौ । कुक्कुटाइनने हेतुं गुरोर्व्यज्ञपयच्च तम् ॥ १६ ॥ स्वर्ग यास्यत्यसौ तावदिति निश्चित्य सस्वजे । गुरुणा नारदः खेहात् साधु साध्विति भाषिणा ||१७|| सुपर्वतको पश्चादागत्यैवं शशंसतुः । निहतौ कुक्कुटौ तत्र यत्र कोऽपि न पश्यति ||१८|| अपश्यतं युवामादात्रपश्यन् खेचरादयः । कथं हतौ कुक्कुटौ रे पापावित्यशपद्गुरुः ||१९|| ततः खेदादुपाध्यायो दध्यौ विध्यातपाठधीः । मुधा मेऽध्यापनक्लेशो वसृपवतयोरभूत् ||२०|| गुरूपदेशो हि यथापात्रं द्वितीय प्रकाशः ॥२०३॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥२०४॥ परिणमेदिह । अभ्राम्भः स्थानभेदेन मुक्तालवणतां व्रजेत् ||२१|| प्रियः पर्वतकः पुत्रः पुत्रादप्यधिको वसुः । नरकं यास्यतस्तस्माद्गृहवासेन किं मम ||२२|| निर्वेदादित्युपाध्यायः प्रव्रज्यामग्रहीत्तदा । तत्पदं पवतोऽध्यास्त व्याख्याक्षणविचक्षणः ||२३|| भृत्वा गुरोः प्रसादेन सर्वशास्त्रविशारदः । नारदः शारदाम्भोदशुद्धधीः स्वां भुवं यौ ॥ २४ ॥ नृपचन्द्रोऽभिचन्द्रोऽपि जग्राह समये व्रतम् । ततश्चासीद्वसू राजा वासुदेवसमः श्रिया ||२५|| सत्यवादीति स प्राप प्रसिद्धि पृथिवीतले । तां प्रसिद्धिमपि श्रातुं सत्यमेव जगाद सः ॥ २६ ॥ अथैकदा मृगयुणा मृगाय मृगयाजुषा । चिक्षिपे विशिखो विन्ध्यनितम्बे सऽन्तराऽस्खलत् ||२७|| इषुस्खलनहेतुं स ज्ञातुं तत्र art ततः । आकाशस्फटिकशिलामज्ञासीत्पाणिना स्पृशन् ||२८|| स दध्याविति मन्येऽस्यां संक्रान्तः परतश्चरन् । भूमिच्छायेव शीतांशौ ददृशे हरिणो मया ||२९|| पाणिस्पर्श विना नेयं सर्वथाऽप्युपलक्ष्यते । अवश्यं तदसौ योग्या वसोर्वसुमतीपतेः ||३०|| रहो व्यज्ञपयद्राज्ञे गत्वा तां मृगयुः शिलाम् । हृष्टो राजाऽपि जयाह ददौ चामै महद्धनम् ||३१|| स तया घटयामास च्छन्नं स्वासनवेदिकाम् । तच्छिल्पिनोऽघातयच्च नात्मीयाः कस्यचिन्नृपाः ||३२|| तस्यां सिंहासनं वेदौ चेदीशस्य निवेशितम् । सत्यप्रभावादाकाशस्थितमित्यबुधज्जनः ||३३|| सत्याद्धि तुष्टाः सान्निध्यमस्य कुर्वन्ति देवताः । एवमूर्जस्विनी तस्य प्रसिद्धिर्व्यानशे दिशः ॥ ३४ ॥ तया प्रसिद्धया राजानो भीतास्तस्य वशं गताः । सत्या वा यदि वा मिथ्या प्रसिद्धिर्जयिनी नृणाम् ||३५|| आगाच्च नारदोऽन्येद्युस्ततश्चैक्षिष्ट पर्वतम् । व्याख्यानयन्तमृग्वेदं शिष्याणां शेमुषीजुषाम् ॥३६॥ अर्जेर्यष्टव्यभित्यस्मिन् मेषैरित्युपदेशकम् । बभाषे नारदो भ्रातर्भ्रान्त्या किमिदमुच्यते ॥३७॥ 100%OOOOO द्वितीय प्रकाशः ॥२०४॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशास्त्रम् ॥२०५॥ द्वितीय प्रकाशः स्त्रिवार्षिकाणि धान्यानि न हि जायन्त इत्यजाः । व्याख्याता गुरुणाऽस्माकं व्यस्मार्षीः केन हेतुना ॥३८॥ ततः पर्वतकोऽवादीदिदं तातेन नोदितम् । उदिताः किं त्वजा मेषास्तथैवोक्ता निघण्टुषु ॥३९॥ जगाद नारदोऽप्येवं शब्दानामर्थकल्पना । मुख्या गौणी च तत्रेह गौणी गुरुरचीकथत् ॥४०॥ गुरुद्धर्मोपदेष्टैव श्रुतिर्द्धर्मात्मिकैव च । द्वयमप्यन्यथाकुर्वन्मित्र मा पापमर्जय ॥४१॥ साक्षेपं पर्वतोऽजल्पदजान्मेषान् गुरुर्जगौ । गुरूपदेशशब्दार्थोंल्लङ्घनाममजेसि ॥४२॥ मिथ्याभिमानवाचो हि न स्युदण्डभयान्नृणाम् । स्वपक्षस्थापने तेन जिवाच्छेदः पणोऽस्तु नः ॥४३॥ प्रमाणमुभयोरत्र सहाध्यायी वसुनुपः । नारदः प्रतिपेदे तन्न क्षोभः सत्यभाषिणाम्॥४४॥ रहः पर्वतमूचेऽम्बा गृहकर्मरताऽप्यहम् । अजास्त्रिवाषिकं धान्यमित्यश्रौष भवत्पितुः ॥४५॥ जिहाच्छेदं पणेऽकार्यिदात्तदसाम्प्रतम् । अविमृश्य विधातारो भवन्ति विपदां पदम् ॥४६॥ अवदन्पर्वतोऽप्येवं कृतं तावदिदं मया । यथातथाकृतस्याम्ब करणं न हि विद्यते ॥४७॥ साऽथ पर्वतकापायापीडया हृदि शल्यिता । वसुराजमुपेयाय पुत्रार्थे क्रियते न किम् ॥४८॥ दृष्टः क्षीरकदम्बोऽद्य यदम्बं त्वमसीक्षिता । किं करोमि प्रयच्छामि किं चेत्यभिदधे वसुः ॥४९॥ साऽवादीद्दीयतां पुत्रनिक्षा मह्य महीपते । धनधान्यैः किमन्यमें विना पुत्रण पत्रक ॥५०॥ वसुरूचे मम मातः पाल्यः पूज्यश्च पर्वतः । गुरुवद्गुरुपुत्रेऽपि बर्तितव्यमिति श्रुतिः ॥६॥ कस्याद्य पत्रमुत्क्षिप्तं कालेनाकालरोषिणा । को जिघांसुर्धातरं मे ब्रूहि मातः किमातुरा ॥५२॥ अजव्याख्यानवृत्तान्तं १ कोषेषु. ॥२०५॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥२६॥ स्वपुत्रस्य पणं च तम् । त्वं प्रमाणीकृतश्चासीत्याख्यायार्थयते स्म सा ॥५३॥ कुर्वाणो रक्षणं भ्रातुरजान्मेपानुदीरय । प्राणैरप्युपकुर्वन्ति महान्तः कि पुनगिरा ॥५४॥ अवोचत बसुर्मातर्मिथ्या वच्मि वचः कथम् । प्राणात्ययेऽपि शंसन्ति नासत्यं सत्यभाषिणः ॥५५|| अन्यदप्यभिधातव्यं नासत्यं पापभीरुणा । गुरुवागन्यथाकारे कूटसाक्ष्ये च का कथा ॥५६॥ बहुकुरु गुरोः सुनु यद्वा सत्यव्रताग्रहम् । तथा सरोषमित्युक्तस्तद्वचोऽमंस्त पार्थिवः ॥५७॥ ततः प्रमुदिता क्षीरकदम्बगृहिणी ययौ । आजग्मतुश्च विद्वांसो तत्र नारदपर्वतौ ॥५८॥ सभायाममिलन् सभ्या माध्यस्थ्यगुणशालिनः । वादिनोः सदसद्वादक्षीरनीरसितच्छदाः ॥५९॥ आकाशस्फटिकशिलावेदिसिंहासनं वसुः । सभापतिरलश्चक्रे नभस्तलमिवोडपः ॥६०॥ ततो निजनिजव्याख्यापक्ष नारदपर्वतौ । कथयामासत् राज्ञे सत्यं ब्रूहीति भाषिणौ ॥६१॥ विप्रवृधेरथोचे स विवादस्त्वयि तिष्ठते । प्रमाणमनयोः साक्षी त्वं रोदस्योरिवार्यमा ॥६२।। घटप्रभृतिदिव्यानि वर्तन्ते हन्त सत्यतः । सत्वाद्वर्षति पर्जन्यः सत्यात्सिद्धय न्ति देवताः ॥६२॥ त्वथैव सत्ये लोकोऽयं स्थाप्यते पृथिवीपते । त्वामिहार्थे चूमहे कि ब्रूहि सत्यव्रतोचितम् ॥६४॥ वचोऽश्रुत्वैव तत्सत्यप्रसिद्धिं स्वां निरस्य च । अजान्मेषान गुरुर्व्याख्यदिति साक्ष्यं वसुर्व्यधात् ॥६५॥ असत्यवचसा तस्य क्रद्धास्तत्रैव देवताः । दलयामासुराकाशस्फटिकासनवेदिकाम् ॥६६॥ बसुर्वसुमतीनाथस्ततो वसुमतीतले । पपात सद्यो नरकापातं प्रस्तावयम्भिव ॥६७॥ कूटसाक्ष्यं प्रदातुस्ते श्वपचस्येव को मुखम् । पश्येदिति वसुं निन्दन्नारदः स्वास्पदं ययौ ॥६८॥ देवताभिरसत्योक्तिकुपिताभिनिपातितः । जगाम घोरं नरकं नरनाथो सुस्तुतः ॥६९॥ यो यः सूनुरुपाविक्षद्राज्ये तस्यापराधिनः। प्रजघ्नुर्देवतास्तं तं यावदष्टौ निपातिताः ॥७॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय मक ॥२०७॥ इति वसुनृपतेरसत्यवाचः, फलमाकर्ण्य जिनोक्तिविद्धकर्णः । कथमप्युपरोधतोऽपि जल्पे-दनृतं प्राणितसंशयेऽपि नैव ॥७१॥६०॥ ॥ इति नारदपर्वतकथानकम् ॥ . सद्भयो हितं सत्यमिति व्युत्पत्त्या अवितथमपि परपीडाकरं वचनमसत्यमेवाहितत्वादिति सत्यमपीदृशं न भाषेतेत्याहन सत्यमपि भाषेत परपीडाकरं वचः। लोकेऽपि श्रूयते यस्मात् कौशिको नरकं गतः ॥६१॥ __ सत्यमवितथं लोकरूढया परमार्थतस्तु परपीडाकरत्वादसत्यमेवेत्यर्थः, तन्न भाषेत; तद्भाषणानरकगमनश्रुतेः। अत्रार्थे लौकिकं दृष्टान्तमाह-लोकेऽपि समयान्तरेऽपि श्रूयते निशम्यते परपीडाकरसत्यभाषणेन कौशिकौ नरकं गत इति । कौशिकस्तु संप्रदायगम्यः, स चायम्आसीत्सत्यधनः कोऽपि कौशिको नाम तापसः। अपास्य ग्रामसंवासमनुगडमुवास सः ॥१॥ कन्दमूलफलाहारो निर्ममो निष्परिग्रहः। सत्यवादितया प्राप प्रसिद्धि परमामसौ ॥२॥ मुषित्वा ग्राममन्येचुर्दस्यवस्तस्य पश्यतः। आश्रमं निकषा जग्मुर्वनं बिलमिवोरगाः ॥३॥ तेषामनुपदिनस्तु ग्राम्याः पप्रच्छुरेत्य तम् । सत्यवाद्यसि तद्बुडि तस्कराः कुत्र वव्रजुः ॥४॥ धर्मतत्त्वानभिज्ञोऽथ कथयामास कौशिकः । घने तरुनिकुठजेऽस्मिन् दस्यवः प्राविशन्निति ॥५॥ तस्योपदेशात्सम्बह्य प्रामीणाः शस्त्रपाणयः । वनं प्रविश्य निर्जघ्नुर्दस्यून् ब्याधा Row Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ૨૦૮ द्वितीय प्रकाशा मृगानिव ॥६॥ ऋतमप्यनृतं परव्यथा-करणेनेदमुदीरयन वचः । परिपूर्य निजायुरुल्वणं, नरक कौशिकतापसो ययौ ॥७॥६॥ अल्पमप्यसत्यवचनं प्रतिषेधितुं महदसत्यं वदतः परिदेवयतेअल्पादपि मृणीवादाद्रौरवादिषु समवः । अन्यथा वदतां जनीं वाचं त्वहह का गतिः॥६२॥ अल्पादप्यैहिकार्थविषयत्वेन स्तोकादपि मृषावादादसत्याद्रौरवादिषु रौरवमहारौरवाप्रभृतिषु नरकावासेषु संभव उत्पत्तिः, लोकप्रसिद्धत्वाद्रौरवग्रहणम् । अन्यथा सर्वनरकेष्वित्युच्येत । अन्यथा विपरीतार्थतया जेनी वाचं वदतामतीवासत्यवादिनां कुर्तीथिकानां स्वयथ्यानां च निववादीनां का गतिर्नरकादप्रधिका तेषां गतिः प्रामोतीत्यर्थः । अहहेति खेदे अशक्यप्रतीकाराः परिदेवतीयाः खल्वेत इति । यदाह अहह सयलनपावाहिं वितहपनवणमणुमवि दुरंत । जं मिरिइभवतदज्जियदुक्कयअवसेसलेसवसा ॥१॥ सुरथुयगुणो वि तित्थंकरो वि तिहुयणअतुल्लमल्लोवि । गोवाइहिं वि बहुसो कथिओ तिजयपहु त सि ॥२॥ ३थीगोभणभूर्णतगा वि केवि इह दिढपहाराई । बहुपावा वि पसिदा सिद्धा किर तम्मि चेव भवे ॥३॥६॥ (१) अहह सकलान्यपापेभ्यो वितथप्रज्ञापनमण्वपि दुरन्तम् । यन्मरीचिभवतदर्जितदुष्कृतावशेषलेशवशात् ॥१॥ (२) सुरस्तुतगुणोऽपि तीर्थकरोऽपि त्रिभुवनातुल्यमल्लोऽपि । गोपादिभिरपि बहुशः कथितः त्रिजगत्प्रभुस्त्वमसि ॥२॥ (३) स्त्रीगोब्राह्मणभ्रुणान्तका अपि केऽपि इह दृढप्रहार्यादयः। बहुपापा अपि प्रसिद्धाः सिद्धाः किल तस्मिन्नेव भवे ॥३॥ ર૦૮ના Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशः ॥२०॥ असत्यवादिनो निन्दित्वा सत्यवादिनः स्तौतिज्ञानचारित्रयोर्मूलं सत्यमेव वदन्ति ये । धात्री पवित्रीक्रियते तेषां चरणरेणुभिः ॥६३॥ ज्ञानचारित्रयोनिक्रिययोमूलं कारणं यत्सत्यं तदेव वदन्ति ये, ज्ञानचारित्रग्रहणं 'नाणकिरियाहि मोक्खो' इति भगवद्भाष्यकारवचनानुवादार्थ ज्ञानग्रहणेन दर्शनमप्याक्षिप्यते। दर्शनमन्तरेण ज्ञानस्याज्ञानत्वात् मिथ्यादृष्टिहि सत्त्वासत्त्वे वैपरीत्येन जानाति, भवहेतुश्च तज्ज्ञानं यदृच्छया चार्थनिरपेक्षमुपलभ्यते, न च ज्ञानफलमस्य । यदाइ-- २सयसयविसेसणाओ भवहेउ जइच्छओपलंभाओ। नाणफलाभावाओ मिच्छदिहिस्स अणाणं ॥१॥ स्पष्टमन्यत् ॥६॥ सत्यवादिनामैहिकमपि प्रभावं दर्शयति-- अलीकं ये न भाषन्ते सत्यव्रतमहाधनाः। नापराद्धमलं तेभ्यो भूतप्रेतोरगादयः ॥६४॥ भूता भूतोपलक्षिता व्यन्तराः प्रेताः पितरो ये स्वसंबन्धिनो मनुष्यान् पीडयन्ति भूतप्रेतग्रहणं भुवनपत्यादीनामुपलक्षणार्थम् । उरगाः सर्पाः आदिग्रहणाद् व्याघ्रादीनां परिग्रहः । (१) "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" (२) सदसदविशेषणात् भवहेतुर्यदृच्छोपलम्भात् । ज्ञानफलाभावामिथ्यादृष्टेरज्ञानम् ॥१॥ ॥२०॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥२१ ॥ अत्रान्तरे श्लोका: अहिंसापयसः पालिभूतान्यन्यव्रतानि यत् । सत्यभङ्गात्पालिभङ्गेऽनर्गलं विप्लवेत तत् ॥११॥ सत्यमेव वदेत्प्राज्ञः सर्वभूतोपकारकम् । यद्वा तिष्ठेत् समालम्ब्य मौनं सर्वार्थसाधकम् ॥२॥ पृष्टेनापि न वक्तव्यं वचो वैरस्य कारणम् । मर्माविकर्कश शङ्कास्पदं हिनमसूयकम् ॥३॥ धर्मध्वंसे क्रियालोपे स्वसिद्धान्तार्थविप्लवे । अपृष्टेनापि शक्तेन वक्तव्यं ननिषेधितुम् ॥४॥ चार्वाकः कौलिकैविप्रेः सौगतैः पाश्चरात्रिकैः । असत्येनैव विक्रम्य जगदेतद्विडम्बितम् ॥५।। अहो पुरजलस्रोतः सोदरं तन्मुखोदरम् । निःसरन्ति यतो वाचः पकाकुलजलोपमाः ॥६॥ दावानलेन ज्वलता परिप्लुष्टोऽपि पादपः। सान्द्रिभवति लोकोऽयं न तु दुर्वचनाग्निना ॥७॥ चन्दनं चन्द्रिका चन्द्रमणयो मौक्तिकखजः । आहादयन्ति न तथा यथा वाक सूनृता नृणाम् ||८|| शिखी मुण्डी जटी नग्नश्चीवरी यस्तपस्यति । सोऽपि मिथ्या यदि ते निन्द्यः स्यादन्त्यजादपि ॥९॥ एकत्रासत्यजं पापं पापं निःशेषमन्यतः। द्वयोस्तुलाविधृतयोराद्यमेवातिरिच्यते ॥१०॥ पारदारिकदस्यूनामस्ति काचित्प्रतिक्रिया । असत्यवादिनः पुंसः प्रतीकारो न विद्यते ॥११॥ कुर्वन्ति देवा अपि पक्षपातं, नरेश्वराः शासनमुद्वहन्ति ॥ शीतीभवन्ति ज्वलनाइयो य-तत् सत्यवाचां फलमामनन्ति ॥१२॥ इति द्वितीयं व्रतम् ॥६॥ इदानीं तृतीयमस्तेयव्रतमुच्यते । तत्रापि फलानुपदर्शनेन न स्तेयानिवर्तत इति फलोपदर्शनपूर्व स्तेयनिवृत्तिमाह-- ॥२१॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाशः योगशास्त्रम् | दौर्भाग्यं प्रेष्यतां दास्यमङ्गच्छेदं दरिद्रताम् । अदत्तात्तफलं ज्ञात्वा स्थूलस्तेयं विवर्जयेत्॥६५॥ ॥२१॥ दौर्भाग्यमुद्वेजनीयता, प्रेष्यता परकर्मकरत्वं, दास्यमङ्कपातादिना परायत्तशरीरता, अङ्गच्छेदः करचरणादिच्छेदः, दरिद्रता निर्धनत्वं, एतानीहामुत्र चादत्तादानफलानि शास्त्रतो गुरुमुखाद्वा ज्ञात्वा स्थूलं चौरादिव्यपदेशनिबन्धनं स्तेयं विवर्जयेच्छावकः ॥६५॥ स्थूलस्तेयपरिहारमेव प्रपञ्चयतिपतितं विस्मृतं नष्टं स्थितं स्थापितमाहितम् । अदत्तं नाददीत स्व. परकीय क्वचित्सुधीः॥६६॥ पतितं गच्छतो वाहनादेष्ट, विस्मृतं कापि मुक्तमिति स्वामिना यन्न स्मर्य्यते, नष्ट कापि गतमिति स्वामिना यन्न ज्ञायते, स्थितं स्वामिपावें यदवस्थित, स्थापितं न्यासीकृतं, अहित निधीकृतं, तदेवंविधं परकीय स्वं धनमदत्तं सभाददीत कचिद्रव्यक्षेत्राद्यापद्यपि सुधीः प्राज्ञः॥६६॥ इदानीं स्तेयकारिणो निन्दतिअयं लोकः परलोको धमा धैर्य धृतिर्मतिः। मुष्णता परकीयं स्वं मुषितं सर्वमप्यदः॥६॥ परकीयं स्वं धनं मुष्णता अपहरता सर्वमप्यद एतत् स्वं स्वकीयं मुषितं स्वशब्दस्योभयत्र संबन्धात् । किं तदित्याह, अयं लोकः अयं प्रत्यक्षेणोपलभ्यमानो लोक इदं जन्मेत्यर्थः, परलोको जन्मान्तरं, धर्मः पुण्यं धैर्यमापत्स्वप्यवैक्लव्यं धृतिः स्वास्थ्य, मतिः कृत्याकृत्याविवेकः ॥६७।। SECONCE ॥११॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा अथ हिंसाकारिभ्योऽपि स्तेयकारिणो बहुदोषत्वमाह-- | एकस्यैकं क्षणं दुःख मार्यमाणस्य जायते । सपुत्रपौत्रस्य पुनर्यावज्जीव हृते धने ॥६॥ एकस्य न तु बहूनां एक क्षणं न तु बहुकालं, दुःखमसातं, मार्यमाणस्य हिंस्यमानस्य । स्तेयकारिणा त्वपहृते धने परस्य सपुत्रपौत्रस्य, न त्वेकस्य, यावज्जीवं न त्वेकं क्षणं, दुःखं जायत इति संबन्धः ॥६८॥ उक्तमपि स्तेयफलं प्रपञ्चेनाहचार्यपापद्रुमस्येह वधवन्धादिकं फलम् । जायते परलोके तु फल नरकवेदना ॥६९॥ चौ-त्पापं तदेव द्रुमस्तस्येह लोके फलं वधबन्धादिकं, परलोके तु फलं नरकभाविनी वेदना ॥६९॥ अथ कदाचित्प्रमादात् स्तेयकारी नृपतिभिन नियत तथाप्यस्वास्थ्यलक्षणमैहिकं फलमवस्थितमेव इत्याहदिवसे वा रजन्यां वा स्वप्ने वाजागरेऽपि वा । सशल्य इव चौर्येण नैति स्वास्थ्यं नरः क्वचित्७० स्वमः स्वापः, जागरो निद्राया अभावः, चौर्येण हेतुना कचिदपि स्थाने ॥७॥ न केवलं स्तेयक: स्वास्थ्याभाव एव किन्तु बन्धुभिः परित्यागोऽपीत्याह| मित्रपुत्रकलत्राणि भ्रोतरः पितरोऽपि हि । संसजन्ति क्षणमपि न म्लेच्छैरिव तस्करैः ७१ पिता जनकः, पितृतुल्याः पितरः, पिता च पितरश्च पितरः न संसजन्ति न मिलन्ति पापभयात् । यदाहुःब्रह्महत्या सुरापाणं स्तेयं गुर्वगनागमः। महान्ति पाताकान्याहुस्तत्संसर्ग च पश्चमम् ॥१॥ ॥२१२॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥२१॥ राजदण्डभयाद्वा । यदाहुःचौरश्चौरापको मन्त्री भेदज्ञः काणकक्रयी । स्थानदो भक्तदश्चैव चौरः सप्तविधः स्मृतः ॥१॥ तस्करैरिति तदेव चौयं कुर्वन्तीत्येवंशीलास्तस्करास्तैः ॥७१।। स्तेयप्रवृत्तानां तनिवृत्तानां च दोषान् गुणांश्च प्रत्येकं दृष्टान्तद्वारेणाहPA संबन्ध्यपि निगृह्यत चौर्यान्मण्डिकवन्नृपैः । चौरोऽपि त्यक्तचौर्यः स्यात्स्वर्गभाग्रौहिणेयवत्।७२ दृष्टान्तद्वयमपि संप्रदायगम्यं । स चायम्-- __ अलब्धमध्यमम्भोधेरिवाम्भो बहुरत्नभूः । अस्तीह पाटलीपुत्रं नाम गौडेषु पत्तनम् ॥१॥ कलाकलापनिलयः साहसस्यैकमन्दिरम् । राजपुत्रो मूलदेवस्तत्र मूलं धियामभूत् ॥२॥ स धूर्तविद्यैकधवः१ कृपणानाथबान्धवः । कटचेष्टामधुरिपू रूपलावण्यमन्मथः ॥३॥ चौरे चौरः साधौ साधुर्वके वक्र ऋजाजुः । ग्राम्ये ग्राम्यश्छेके रछेको विटे विटो भटे भटः ॥४॥ द्यूतकारे इतकारो वात्तिके वार्तिकश्च सः । तत्काल स्फटिकाश्मेव जग्राह पररूपताम् ॥५॥ चित्रैः कौतूहलैस्तत्र लोकं विस्माययनसौ । विद्याधर इव स्वैरं चचार चतुराग्रणीः ॥६॥ इतकव्यसनासक्तिदोषात्पित्राऽपमानितः । द्यसत्पुरश्रीजयिन्यामुज्जयिन्यां जगाम सः ॥७॥ गुलिकायाः प्रयोगेण स भूत्वा कुब्जवामनः । पौरान विस्माययंस्तत्र कलाभिः ख्यातिमासदत् ॥८॥ तत्रासीपलावण्यकलाविज्ञानकौ१ धवः पतिः । ॥२१॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् १२१४॥ द्वितीय प्रकाशा शलैः । दत्तत्रपा रतेर्देवदत्तेति गणिकोत्तमा ॥९॥ गुणः कलावतां यो यः प्रकृष्टा तत्र तत्र सा । छेकाया रब्जने तस्याः प्रतिच्छेको न कोऽप्यभूत्॥१०॥ मूलदेवस्ततस्तस्याः क्षोभार्थ तगृहान्तिके। प्रभाते गातुमारेमे प्रत्यक्ष इव तुम्बरुः ॥११॥ आकर्ण्य देवदत्ताऽपि कोऽप्येष मधुरो ध्वनिः। कस्येति विस्मयादास्याऽन्वेषयामास तं बहिः ॥१२॥ शशंसागत्य सा देवि गन्धर्वः कोऽपि गायति । मृत्यैव वामनः पूर्णगुणः पुनरवामनः ॥१३॥ देवदत्ता ततः कुब्जां माधवीं नाम चेटिकाम् । प्रजिघाय तमाहातुं प्रायो वेश्याः कलाप्रियाः ॥१४॥ सा गत्वा तं जगादेदं महाभाग कलानिधे । देवदत्ता स्वामिनी मे त्वामाहयति गौरवात् ॥१५॥ मूलदेवोऽवदद्गच्छ नागमिष्याभि कुब्जिके । कुट्टिनीवश्यवेश्यानां स्ववशो वेश्म को विशेत् ॥१६॥ व्याघुटन्तीं विनोदेच्छुः कलाकौशलयोगतः। स आस्फाल्य ऋजूचक्रे तां कुब्जीमब्जनालवत् ।। १७ ।। वपुर्नवमिवासाद्य सानन्दा साऽपि चेटिका । उपेत्य देवदत्तायै तच्चेष्टितमचीकथत् ॥ १८ ॥ देवदत्तवरेणेव देवदत्ताऽपि तेन ताम् । कुब्जामृतां वीक्ष्य परम प्राप विस्मयम् ॥१६॥ देवदत्ता ततोऽवादीदीदृक्षमुपकारिणम् । निजालिमपि च्छित्वा तमेकच्छेकमानय ॥२०॥ ततो गत्वा समभ्यर्थ्य चाटुभिश्चतुरोचितैः अचालि वेश्माभिमुखं धृतराजो भुजिष्यया ॥२१॥ तया निर्दिश्यमानावा प्रविवेश निवेशनम् । ततोऽसौ देवदत्ताया राधाया इव माधवः ॥२२॥ तं वामनमपि प्रेक्ष्य कान्तिलावण्यशालिनम् । सा मन्वाना मुर छन्नमुपावेशयदासने ॥२३॥ मिथो हृदयसंवादिसंलापसुभगा ततः। तयोः प्रववृते गोष्ठी तुल्य वैदग्ध्यशालिनोः ॥२४॥ अथाऽऽगात्तत्र कोऽप्येको वीणाकारः प्रवीणधीः वीणामवीवदत्तेन देवदत्ताऽतिकौतुकात् ।।२५॥ वल्लकी वादयन्तं च व्यक्तिग्रामश्रुतिस्वराम् । धूनयन्ती शिरो देवदत्ताऽपि ॥२१४॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२१५ ॥ SETOHOO प्रशशंस तम् ॥ २६ ॥ स्मित्वाऽवदन्मूलदेवोऽप्यहो उज्जयिनीजनः । जानात्यत्यन्तनिपुणो गुणागुणाविवेचनम् ॥ २७ ॥ साशङ्का साऽयुवाचैव किमत्र क्षूणमस्त्यहो । छेकछेकप्रशंसायामुपहासं हि शङ्कते ॥ २८ ॥ सोप्याचचक्षे किं क्षुणमस्ति कापि भवादृशाम् । सगर्भा किन्त्वसौ तन्त्री किश्च वंशोऽपि शल्यवान् ॥ २९ ॥ कथं ज्ञायत इत्युक्तस्तयाऽऽदाय स वल्लकीम् । वंशादश्मानमाकृष्य तन्त्र्याः केशमदर्शयत् ॥ ३० ॥ समारचथ्य तां वीणां ततः स्वयमवादयत् । श्रोतृकर्णेषु पीयूषच्छटामिव परीक्षिपन् ॥ ३१ ॥ देवदत्ता - aarनैव सामान्यस्त्वं कलानिधे । नररूपं प्रपेदाना साक्षादसि सरस्वती ।। ६२ ।। वीणाकारश्चरणयेोः प्रणिपत्ये त्यवोचत । स्वामिन् शिक्षे भवत्पार्श्वे वीणावाद्यं प्रसीद मे ||३३|| मूलदेवो जगादैवं सम्यग् जानामि न ह्यहम् किन्तु जानामि तान् ये हि सम्यग् जानन्ति वल्लकीम् ॥ ३४ ॥ के नाम ते क सन्तीति पृष्टोऽसौ देवदत्तया । अवोचदस्ति पूर्वस्यां पाटलीपुत्रपत्तनम् ॥ ३५ ॥ तस्मिन् विक्रमसेनोऽस्ति कलाचार्यो महागुणः । मूलदेवोऽहं च तस्य सदाप्यासन्नसेवकः || ३६ || अत्रान्तरे विश्वभूतिर्नाट्याचार्यः समागतः । साक्षाद्भरत इत्यस्मै कथितो देवदत्तया ॥ ३७|| मूलदेवोऽप्येवमूचे सत्यमेवायमीदृशः । ग्राहिताभिः कलां युष्मादृशीभिरपि लक्ष्यते ॥ ३९ ॥ विश्वभूतिरुपक्रान्ते विचारे भारते ततः । तं खर्व इत्यवाज्ञासी बाह्यार्थज्ञा हि तादृशाः || ३९ ॥ मेने च धूर्त्तराजेन विद्वन्मान्ययमस्य तत् । ताम्रस्वर्णालङ्करणस्येवान्तदर्शयाम्यहम् ||४०|| स्वच्छन्द भरते तस्य गल्भमानस्य धूर्तराट् । पूर्वापरविरोधाख्यं व्याख्याने दोषमग्रहीत् ॥ ४१ ॥ विश्वभूतिस्ततः कोपाद संबद्धमभाषत । प्राज्ञैः पृष्टा - पाध्यायाश्छादयन्त्यज्ञतां रुषा ॥ ४२ ॥ त्वमेवं नाटयेर्नाटयाचार्य नारीषु नान्दतः । हसितो मूलदेवेन तुष्णीकः द्वितीय प्रकाशः ॥२१५॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥२२६॥ सोऽप्यजायत || ४३ ॥ स्मेराक्षी देवदत्ताऽपि पश्यन्ती वामनं मुदा । उपाध्यायस्य वैलक्ष्यमपनेतुमवोचत ||४४|| इदानीमुत्सुका यूयमुपाध्यायाः क्षणान्तरे । परिभाव्याभिधातव्यं प्रश्ने विज्ञानशालिनाम् ॥ ४५ ॥ देवदत्ते वयं यामो नाटयस्यावसरोऽधुना । सज्जस्व त्वमपीत्युक्त्वा विश्वभृतिस्ततो ययौ ॥ ४६ ॥ देवदत्ताऽप्यथादिक्षदावयोः स्नानहेतवे । अङ्गमर्दों निर्विमदं कश्चिदाहूयतामिति ॥ ४७ ॥ अजल्पद्धूर्त्तराजोऽपि व्याहार्षीर्माऽङ्गमर्दकम् सुभ्रू यद्यनुजानासि तवाभ्यङ्ग करोमि तत् ॥ ४८ ॥ किमेतदपि वेत्सीति तयोक्तः प्रत्युवाच सः । न जानामि स्थितः किन्तु तज्ज्ञानामहमन्तिके ||४८ || || ४९ || आदेशाद्देवदत्तायाः पकतैलान्यथाययुः । अभ्यङ्गं कर्तुमारेभे स मायावामनस्ततः ॥५०॥ मृदुमध्यदृढं स्थानौचित्यात् पाणिं प्रसारयन् । अने तस्या मूलदेवः सुखमद्वैतमादधे ॥५१॥ सर्वार्थेषु कलादाक्ष्यमीदृग्नान्यस्य कस्यचित् । न सामान्योऽयमित्यंहृयोः पतित्वा साऽब्रवीदिति ॥५२॥ गुणैरपि त्वमाख्यातः कोऽप्युत्कृष्टः पुमानिति । मयूरव्यंसकात्मानं किं गोपयसि मायया ॥ ५३॥ प्रसीद दर्शयात्मानं किं मोहयसि मां मुहुः । भक्तानामुपरोधेन साक्षात्स्युर्देवता अपि ॥ ५४ ॥ आकृष्य गुलिकामास्याद् रूपं तत्परिवर्त्त्य सः । प्रतिपेदे निजं रूपं शैलूष इव तत्क्षणात् ||५५ || अनङ्गमिव जाता तं लावण्यैकसागरम् । उद्वीक्ष्य विस्मता सोचे । प्रसादः साधु मे कृतः || ५६ || तस्यार्पयित्वा स्नानीयं पोतं प्रीता स्वपाणिना । अङ्गा भ्यङ्गव्यरचय द्देवदत्ताऽनुरागिणी ॥ ५७ ॥ खलिप्रक्षालनापूर्वं पिष्टातकसुगन्धिभिः । कवोष्णवारिधाराभिस्ततो द्वापि सस्रतुः ||५८|| देवदृष्ये देवदत्तोपनीते पर्य्यधत्त सः । सुगन्ध्याढ्यानि भोज्यानि बुभुजाते समं च तौ (१) निविमर्दः इति वा पाठः (२) वनम् । द्वितीय प्रकाशः ॥२१६॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय योगशास्त्रम् ॥२१७॥ ॥५९॥ रहाकलारहस्यानि वयस्यीभूतयोस्तयोः । मिथः कथयतोरेकः क्षणः सुखमयो ययौ ॥६०॥ ततः सा व्याजहारैवं हतं मे हृदयं त्वया । गुणैर्लोकोत्तरैर्नाथ प्रार्थयेऽहं तथाऽप्यदः ॥६१॥ यथा पदमकार्षीस्त्वं हृदये मम सुन्दर । विदधीयास्तथा नित्यमस्मिन्नेव निकेतने ॥६२॥ मूलदेवोऽप्युवाचैवं निर्धनेषु विदेशिषु । अस्मा दृशेषु युष्माकमनुबन्धो न युज्यते ॥६॥ गुणानां पक्षपातेनानुरागो निर्धनेऽपि चेत् । वेश्यानामर्जनाभावात्कुलं सीदेत्तदाऽखिलम् ॥६४॥ बभाषे देवदत्तोऽपि को विदेशो भवादृशाम् । सर्वः स्वदेशो गुणिनां नृणां केसरिणा मिव ॥६५॥ आत्मानमर्थयन्त्यर्थैर्खा हि बहिरेव नः । प्रवेशं न लभन्तेऽन्तर्विना त्वां .गुणमन्दिर ॥६६॥ | सर्वथा प्रतिपत्तव्यं त्वया सुभग मद्वचः। इत्युक्ते मूलदेवेनाप्यामेति जगदे वचः ॥६७।। ततश्च क्रीडतोः स्नेहा द्विनोदैविविधस्तयोः । राजद्वाःस्थोऽब्रवीदेत्यागच्छ प्रेक्षाक्षणोऽधुना ॥६८॥ छन्नवेष मूलदेवं सा नीत्वा राजवेश्मनि । राज्ञोऽग्रे नृत्यमारेभे रम्भेव करणोज्ज्वलम् ।।६९॥ शक्रपाटहिकसमः १पाटप्रकटने पटुः । मूलदेवोऽपि निपुणोऽवादयत्पटहं ततः ॥७०॥ राजाऽरज्यत नृत्तेन तस्याः करणशालिना। प्रसादं मार्गयेत्यूचे तं च न्यासीचकार सा ॥७१॥ सा मूलदेवसहिता जगौ चानु ननत च । ददौ चास्यै नृपस्तुष्टः स्वाङ्गलग्नं विभूषणम्।।७२॥ पाटलीपुत्रराजस्य राजदौवारिकस्ततः । हृष्टो विमलसिंहाख्य इत्युवाच महीपतिम् ॥७३॥ अयं हि पाटलीपुत्रे मूलदेवस्य धीमतः । कलाप्रकर्षोंऽमुष्या वा न तृतीयस्य कस्यचित् ॥७४॥ ततः प्रदीयतां देव मूलदेवादनन्तरम् विज्ञानिषु च पट्टोऽस्य पताका नर्तकीषु च ॥७५॥ ततो राज्ञा तथा दत्ते साऽब्रवीदेष मे गुरुः । ततः प्रसादमा(१) पाटो विस्तारः। ॥२१७॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा li૨૨૮ दास्ये स्वामिन्नस्याभ्यनुज्ञया ॥७६॥ राजाऽप्यवोचत्तदियं महाभागानुमन्यताम् । धृतॊऽप्यवादीद्यदेव आज्ञापयति तत्कुरु ॥७७॥ अत्रान्तरे धूर्तराजा वीणां स्वयमवादयत् । हरन्मनांसि विश्वेषां विश्वावसुरिवापरः ॥७८|| ततो विमलसिंहेन बभाषे देव खेल्वयम् । मूलदेवश्छन्नरूपो नापरस्येदृशी कला ॥७९॥ विज्ञानातिशयस्यास्य प्रयोक्ता नापरः कचित् । मूलदेवं विना देव सर्वथाऽसौ स एव तत् ॥८॥ राजा जगाद यद्येवं तदाहो स्वं प्रदर्शय । दर्शने मूलदेवस्य रत्नस्येवास्मि कौतुकी ।।८१॥ गुलिकां मूलदेवोऽपि मुरवादाकृष्य तत्क्षणात् । व्यक्तोऽभूत्कान्तिमान्मेघनिर्मुक्त इव चन्द्रमाः ॥८२॥ साधु ज्ञातोऽसि विज्ञानिनिति सप्रेमभाषिणा । ततो विमल सिंहेन धूर्तसिंहः स सस्वजे ॥८॥ न्यपतन्मूवदेवोऽपि नृदेवस्य पदाब्जयोः। राजाऽपि तं प्रसादेन सगौरवमपूजयत् ॥८४॥ एवं च देवदत्ताऽपि तस्मिन्नत्यनुरागिणी । पुरूरवस्युर्वशीवान्वभूद्विषयजं सुखम् ॥८५॥ अतिष्ठन्मूलदेवोऽपि न विना घृतदेवनम् । भवितव्यं हि केनापि दोषेण गुणिनामपि ॥८६॥ ययाचे देवदत्ताऽपि धिग् द्युतं त्यज्यतामिति । नात्यजन्मूलदेवस्तत्प्रकृतिः खलु दुस्त्यजा ॥८७॥ तस्यां नगर्यामासीच्च धनेन धनदोपमः । सार्थवाहोऽचलो नाम मृाऽपर इव स्मरः ॥८८॥ आसक्तो देवदत्तायां मूलदेवाग्रतोऽपि सः । कृतस्वीकरणो भाटया बुभुजे तां निरन्तरम् ॥८९।। ईर्ष्या स मूलदेवाय महतीं वहति स्म च । अन्विष्यति स्म तच्छिद्राण्युद्रपवचिकीर्षया ॥९०॥ तच्छङ्कया मूलदेवोऽप्यगात्तद्वेश्मनि च्छलात् । पारवश्येऽप्यविच्छिन्नो रागः प्रायेण रागिणाम् ॥९१॥ देवदत्तां जनन्यूचे धूर्ततामृगधर्तकम् । निर्धन द्यूतकारं च मूलदेवं सुते त्यज ॥९२॥ प्रत्यहं विविधं द्रव्यं यच्छत्यस्मिन् रमस्व तत् । अचले निश्चलरती रम्भेव धनदात्मजे ॥९॥ देवदत्ता प्रत्युवाच मातरेकान्ततो २१८॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२१९॥ ह्यहम् । धनानुरागिणी नास्मि किं त्वस्मि गुणरागिणी ॥ ९४ || अमुष्य द्यूतकारस्य गुणास्तिष्ठन्ति कीदृशाः । इति कोपाज्जनन्योक्ता देवदत्तेत्यभाषत ॥९५॥ धीरो वदान्यो विद्याविद्गुणरागी स्वयं गुणी । विशेषज्ञः शरण्योऽयं नामुं त्यक्ष्यामि तत् खलु ॥ ९६ ॥ ततश्च कुट्टिनी रुष्टा कूटजुष्टा प्रचक्रमे । उच्चाटयितुं तनयां स्वैरिणी स्वैरिणीमिव ॥९७॥ साऽदात्तयाऽर्थिते माल्ये निर्माल्यं शरके पयः । इक्षुखण्डे वंशखण्डे श्रीखण्डं नीपखण्डलम् ॥९८॥ सोपं देवदत्तोक्ता कुट्टिनी कुटिलाऽब्रवीत् । मा कुपः पुत्रि यादृक्षो यक्षस्तारग्बलिः किल ॥९९॥ लव कण्टकित किमालम्ब्य स्थितास्यमुम् । सर्वथा मूलदेवं तत्यजापात्रमिमं पतिम् ॥१००॥ आवादीदेवदत्तैव मातः किमिति मुह्यसि । पुमान् पात्रमपात्रं वा किमुच्येतापरीक्षितः || १|| परीक्षा क्रियतां तत्युक्ता साक्षेपमम्बया । मुदिता देवदत्तैवमादिदेश स्वचेटिकाम् ||२|| यदिक्षौ देवदत्ताया अभिलाषोऽद्य विद्यते । प्रेष्यन्तामिक्षवः सार्थवा हाचल ततस्त्वया ||३|| तयोक्तः सार्थवाहोऽपि धन्यमानी प्रमोदतः । शकटानीक्षुपूर्णानि प्रेषयामास तत्क्षणात् ||४|| हृष्टा कुट्टिन्युवाचैवमचलस्वामिनो हले । अचिन्तनीयमौदार्य पश्य चिन्तामणेरिव ॥५॥ विषण्णा देवदत्तोचे किमम्बाऽस्मि करेणुका । भक्षणायेक्षवः क्षिप्ता यत्समूलदलायकाः ||६|| आदिश्यतां मूलदेवोऽप्यस्मिन्नर्थे भुजिष्यया । विवेके ज्ञायते मातर्द्वयोरपि यथाऽन्तरम् ||७|| मूलदेवोऽपि चेटयोक्त इक्षनादाय पञ्चषान् । मूलाग्राणि त्यजन्मक्षु निस्ततक्ष विचक्षणः ||८|| कठोरत्वेन दुश्चर्वपर्वग्रन्थीन् परित्यजन् । द्व्यङ्गुला गण्डिकाचक्रे पीयूषस्येव कुण्डिकाः ॥९॥ चतुर्जातेन संस्कृत्य कर्पूरेणाधिवास्य च । शुलप्रोता वर्द्धमानसंपुटे प्राहिणोत्स ताः ॥१०॥ देवदत्ताऽपि ताः प्रेक्ष्य बभाषे शम्भलीमिति । धूर्त्तशाचलयोः पश्य स्वर्णरीयरिवान्तरम् ॥११॥ द्वितीय प्रकाशः ॥२१९॥ ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय योगशास्रम् ॥२२॥ कुदिन्यचिन्तयदहो महामोहान्धमानसा । मृगीव मृगतृष्णाम्भो धूर्तमेषाऽनुधावति ॥१२॥ स कोऽप्युपायः क्रियते येन निष्कास्यते पुरात् । अत्युष्णाजलसेकेन बिलादिव महोरगः ॥१३॥ कुहिनी मूलदेवस्योच्चाटनायाचलं जगौ । कर्त्तव्यः कृत्रिमो ग्रामगमनोपक्रमस्त्वया ॥१४॥ ग्रामे यास्यामीत्यलीकं सार्थवाह त्वमञ्जसा । कथयेर्देवदत्ताया विश्रब्धा सा यथा भवेत् ॥१६॥ ततो ग्रामान्तरगतं श्रुत्वा त्वां धूर्तपांसनः । निःशकं देवदत्तायाः स समीपमुपैष्यति ॥१६॥ देवदत्तन्तिके मूलदेवे दीव्यति निभैरम् । आगच्छेः सर्वसमग्र्या मत्सङ्केतेन सुन्दर ॥१७॥ ततस्तथा कथमपि त्वमेतमवमानयेः । यथैतां न भजेद्भयस्तित्तिरीमिव तित्तिरः ॥१८॥ तत्तथा प्रतिपद्याथ यास्यामि ग्राममित्यसौ । आख्याय देवदचाया द्रव्यं दत्त्वा च नियंयौ ॥१९॥ ततस्तस्या निरातङ्क मूलदेवे प्रवेशिते । आहास्त कुट्टिन्यचलं कुट्टाकभटवेष्टितम् ॥२०॥ देवदत्ता च सहसा प्रविशन्तं ददर्श तम् । मृलदेवं च खट्वाऽधो न्यधात्पत्रकरण्डवत् ॥२१॥ तथास्थितं मूलदेवं कुट्टिन्या ज्ञापितोऽचलः । पर्यके कृतपर्यको निषसाद स्मिताननः ॥२२॥ अवोचदचलस्तत्र कुर्वन् कैतवनाटितम् । देवदत्ते वयं श्रान्ताः स्नास्यामः प्रगुणीभव ॥२॥ देवदत्ताऽब्रवीदेवं विलक्षवितयस्मिता । स्नानयोग्यासने तर्हि स्नातुं पादोऽवधार्यताम् ॥२४॥ एवमुत्थाप्यमानोऽपि सादरं देवदत्तया विशेषतोऽभूत खट्वायामचलो निश्चलासनः ॥२५॥ शशाक धूर्तराजोऽपि स्थातुं गन्तुं च नो तदा । प्रायेण विगलन्त्येवास्वस्थे मनसि शक्तयः ॥२६॥ अवोचदचलो देवदत्ते स्वमो मयेक्षितः। पर्यकेऽस्मिन् कृताभ्यङ्गः सचेलस्नातवानहम् ॥२७॥ स्वप्नं सत्यापयिष्यामि तदर्थमहमागमम् । सत्यीकृतो ह्ययं स्वमः शुभोदाय जायते 113 Roll Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२२१॥ द्वितीय प्रकाशः ॥२८॥ कुट्टिन्यवोचदादेशः प्रमाण जीवितेशितुः। पुत्रि किं न श्रुतं स्वामी यदिच्छति करोति तत् ॥२९॥ देवदत्ताऽब्रवीदार्य किमेतदुचितं तव । अदृष्यदेवदृष्येयं तूलिका यद्विनश्यति ॥३०॥ अचलोऽप्यवदद्भद्रे कार्पण्यं किमिदं तव । शरीरमपि यच्छन्ति पत्यर्थे त्वादृशः स्त्रियः ॥३१॥किं तेऽन्यास्तूलिका न स्युः पतिर्यस्याः किलाचलः । लवणेन स कि सीदेद्यस्य रत्नाकरः सखा ॥३२॥ ततो भाटीविवशया कारितो देवदत्तया । अभ्यगोद्वर्तनादीनि पर्यङ्कस्थित एव सः ॥३३॥ स्नप्यमाने ततस्तस्मिन्नीशे खलिजलादिना । मूलदेवश्चण्ड' इव भ्रियते स्म समन्ततः ॥३४॥ आजुहावाचलभटान् कुट्टिनी दृष्टिसंज्ञया । निदिदेशाचलं चाशु धूर्ताकर्षणकर्मणे ॥३५॥ कोपाटोपसमाविष्टो मूलदेवं ततोऽचलः । चकर्ष धृत्वा केशेषु द्रौपदीमिव कौरवः ॥३६॥ तं चोवाच नयज्ञोऽसि विद्वानसि सुधीरसि । कर्मणऽस्यानुरूपोऽध ब्रूहि कस्तेऽस्तु निग्रहः ॥३७॥ धनाधीनशरीरेयं वेश्या तां चेद्रिरंससे । ग्रामपट्टकवद्भरिधनेन न किमग्रहीः ॥३८॥ मूलदेवोऽपि निष्पन्दस्तदा मुकुलितेक्षणः। विफलीभूतफा लस्योऽवाह द्वीपिनस्तुलाम् ॥३९॥ एवं च चिन्तयामास सार्थवाहपतिस्ततः । न निग्राह्यो महात्माऽसौ दैवादेवं दशां गतः ॥४०॥ इति चोवाच मुक्तोऽद्य त्वमस्मादागसो मया । कृतज्ञो स्युपकर्तव्यं त्वयाऽपि समये मम ॥४१॥ मुक्तोऽथ तेन धृतशो वेश्मतो निर्ययौ ततः । तूर्ण तूर्ण परिक्रामन् रणाद्भग्न इव द्विपः॥४२॥ गत्वा पुरीपरिसरे सस्नौ सरसि विस्तृते । शरत्काल इव भेजे तत्क्षणात् क्षालिताम्बरः ॥४३॥ अचलस्यापकर्तु चोपकर्त च स धृतराट् । मनोरथरथारूढोऽचलद्वेणातटं अति ॥४४॥ द्वादशयोजनायामां स श्वापदकुलाकुलाम् । दुर्दुशायाः (१) ईश्वरस्य गणः-सेवकः चण्डनामा । ॥२२१॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ારરા प्रियसखीमिव प्राप महाटवीम् ||४५ || पारावारमिवापारां तितीर्षुस्तां महाटवीम् । सहायं चिन्तयामास तरण्डमिव धूर्त्तराट् ||४६|| कस्मादप्यागतोऽकस्मादभ्रादिव परिच्युतः । शम्बलस्थगिकां विभ्रत्कोऽपि को द्विजस्तदा ॥४७॥ असहायः सहायीयं तं विप्रं क्षिप्रमागतम् । वृद्धो यष्टिमिव प्राप्य मूलदेवो मुदं ययौ ॥४८॥ जगाद मूलदेवस्तं ममारण्ये प्रपेतुषः । आत्मच्छायाद्वितीयस्य दिष्ट्या मिलितवानसि ॥ ४९ ॥ स्वच्छन्दं वार्त्तयिष्यावस्तदावां द्विजसत्तम । मार्गखेदापहरणी विद्या वार्त्ता हि या पथि ॥ ५० ॥ दूरे कियति गन्तव्यं स्थाने जिगमिषा क ते । कथ्यतां भो महाभाग मार्गमैत्री वशीकुरु ॥५१॥ विप्रोऽप्याख्यद्गमिष्यामि पारेऽरण्यमिव स्थितम् । स्थानं निधानाख्यं ब्रूहि त्वं कुत्र यास्यसि || ५२ || मूलदेवोऽब्रवीद्यास्याम्यहं वेणातटे पुरे । विप्रोऽप्यूचे तदेहि त्वमेकोऽध्वा दुरमावयोः || ५३ || ललाटन्तपतपने मध्याह्नेऽथ समागते । मिलिताभ्यां च गच्छद्भयां ताभ्यां प्रापि महासरः ॥५४॥ पाणिपादमुखं मूलदेवः प्रक्षाल्य वारिणा । निरन्तरतरुच्छाये भूतले समुपाविशत् ॥५५॥ स्थगिकायाः समाकृष्य सक्तनालोड्य वारिणा । एकोऽपि भोक्तुमारेभे टक्को रङ्क इव द्रुतम् ॥५६॥ धूर्त्तोऽप्यचिन्तयद सौ नाऽऽदौ भोजनं ददौ । अतिक्षुधाऽऽतुरो भुङ्क्ते युक्तः सन् खलु दास्यति ॥५७॥ भुक्त्वा तत्रोत्थिते विप्रे बन्धा (घ्न ) ति स्थगि कामुखम् । दध्यौ धूर्त्तोऽपि यद्यद्य नादात्तच्छ्रवः प्रदास्यति ॥ ५८ ॥ तस्मिन्नदन्वा भुञ्जने मूल देवस्तदाशया ।। त्रीन्वासरानगमयन्नृणामाशा हि जीवितम् ॥ ५९ ॥ अटवीं तां परित्यज्य धूर्त्तराज द्विजोऽवदत् । स्वस्ति तुभ्यं महाभाग यास्याम्यहमितोऽधुना ॥ ६० ॥ तमूचे मूलदेवोऽपि त्वत्साहाय्यादियं मया । द्वादशयोजनायामा क्रोशवल्लङ्घिताऽटवी ॥ ६१॥ dra गमिष्यामि मूलदेवाभिधोऽस्म्यहम् । तत्र मे कथयेः कार्य कथ्यतां कि च नाम ते ॥ ६२॥ लोकैर्निर्घृणशर्मेति द्वितीय प्रकाशः ારરા Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाश ॥२२३॥ विहितापरनामकः। विप्रोऽहं सदडो नामेत्युक्त्वा टक्कस्ततो ययौ ॥६॥ गच्छता मूलदेवेन ततो वेणातट प्रति । दृष्टः | १संवसथः ३कश्चिद्वसदावसथः पथि ॥६४॥ प्रविष्टस्तत्र भिक्षार्थ वामकुक्षिर्बुभुक्षया । भ्रमन्नासादयामास कुल्माषान् कुत्रचिद्गृहे ॥६५॥ ग्रामानिष्कामतस्तस्याभिमुखः कोऽप्यभून्मुनिः। मासक्षपणपुण्यात्मा पुण्यपुञ्ज इवाङ्गवान् ॥६६॥ तं दृष्ट्वा मुदितः सोऽभूदहो मे सुकृतोदयः। यन्मयाप्तमिदं पात्रं यानपात्रं भवोदधौ ॥६७॥ साधोः कुल्माषदानेन रत्नत्रितयशालिनः । उन्मीलतु चिरादध मद्विवेकतरोः फलम् ॥६८॥ कुल्माषान् साधवे दत्त्वा मृलदेवः पपाठ च । धन्यास्ते खलु येषां स्युः कुल्माषाः साधुपारणे ॥६९॥ तस्य भावनया हृष्टा वभाषे व्योम्नि देवता । अश्लोकेन याचस्व भद्र किं ते प्रदीयताम् ॥७०॥ प्रार्थयामास सद्यस्ता मूलदेवोऽपि देवताम् । गणिकादेवदत्तेभसहखं राज्यमस्तु मे ॥७१॥ एवमस्त्विति देव्यूचे मूलदेवोऽपि तं मुनिम् । वन्दित्वाऽथ ग्राममध्ये भिक्षित्वा बुभुजे स्वयम् ॥७२॥ मार्ग क्रामन् क्रमेणासौ प्राप वेणातटं पुरम् । सुष्वाप पान्थशालायां निद्रामुखमवाप च ॥७३॥ यामिन्याः पश्चिमे यामे स सुप्तः स्वममैक्षत । यत्पूर्णमण्डलश्चन्द्रः प्रविवेश मुखे मम ॥७४॥ तमेव स्वप्नमद्राक्षीत्कोऽपि कार्पटिकस्तदा । अन्यकापटिकानां च प्रबुद्धस्तमचीकथत् ॥७५॥ तेषु कार्पटिकेष्वेकः स्वप्नमेवं व्यचारयत् । अचिरेण लप्स्यसे त्वं सखण्डघृतमण्डकम् ॥७६॥ हृष्टः कार्पटिकः सोऽभूदेवं भूयादिति ब्रुवन् । जायेत बदरेणापि श्रृगालस्य महोत्सवः ॥७७॥ स्वप्नं नाचीकथत्तेषामज्ञानां धृतराट् निजम् । मृर्खा हि दर्शिते रत्ने दृषत्खण्डं प्रचक्षते ॥७८॥ मण्डकं कर्पटिः प्राप गृहाच्छादनपर्वणि (१) ग्रामः । (२) बसतां प्राणिनामावसथो विश्रामस्थानम् । ॥२२३॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥२२४॥ प्रायेण फलति स्वप्न विचारस्यानुसारतः ॥ ७९ ॥ धूर्त्तोऽपि प्रातरारामे गत्वा पुष्पोच्चयादिना । अग्रीणान्मालिकं १ लोकंपूणं कर्मापि तादृशाम् ||८०| गृहीत्वा मालिकात्तस्मात्स पुष्पाणि फलानि च । शुचिर्भूत्वा ययौ वेश्म स्वमशास्त्रविपश्चितः ॥ ८१ ॥ मूलदेवस्ततो नत्वा दत्त्वा पुष्पफलानि च । उपाध्यायाय तज्ज्ञाय शशंस स्वममात्मनः ॥८२॥ मुदितः सोऽवदद्विद्वान्वत्स स्वमफलं तव । सुमुहूर्त्ते कथयिष्याम्यद्यास्माकं भवातिथिः ॥ ८३॥ मूलदेव स्नपयित्वा भोजयित्वा च गौरवात् । परिणाययितुं कन्यामुपाध्याय उपानयत् ||८४ ॥ बभाषे मूलदेवोऽपि ताताऽज्ञातकुलस्य मे । कन्यां प्रदास्यसि कथं विचारसि किं न हि || ८५ || उपाध्यायोऽप्युवाचैवं त्वन्मूर्त्यांऽपि कुलं गुणाः । ज्ञातास्तत्सर्वथा कन्या ममेयं परिणीयताम् ||८६|| तद्वाचा मूलदेवोऽपि कन्यकां तामुपायत । कार्यसिद्धेभविष्यन्त्याः प्रादुर्भुतमिवाननम् ||८७ || मध्ये दिनानां सप्तानां त्वं राजेह भविष्यसि । इति तस्य स्वप्नफलमुपाध्यायो न्यवेदयत् ||८८|| हृष्टस्तत्र वसन् धूर्त्तराजो गत्वा बहिः पुरात् । सुष्वाप चम्पकतले संप्राप्ते पञ्चमेऽहनि ||८९|| तदा च नगरे तस्मिन्नग्रेतनमहीपतिः । अपुत्रो निधनं प्राप निष्पाद इव पादपः ॥९०॥ मन्त्रोक्षिताः पुरीभाश्वच्छत्रभृङ्गारचामराः । भ्रमुः प्रापुर्न राज्याईं दुष्प्रापस्तादृशो जनः ॥ ९१ ॥ ततो वहिः पर्य टन्तो निकषा चम्पकद्रुमम् । अपश्यन्मूलदेवं ते नरदेवपदोचितम् ॥९२॥ हयेन हेषितं चक्रे गजेनोर्जितगर्जितम् भृङ्गारेण च तस्याऽर्घश्वामराभ्यां च वीजनम् ॥ ९३ || २पुण्डरीकं स्वर्णदण्डमण्डितं तस्य चोपरि । शरदभ्रमिवा दभ्रतडिद्दण्डमजृम्भत ॥९४॥ तं चाधिरोहयामास स्वस्कन्धे जयकुञ्जरः । स्वाम्याप्तिमुदितैर्लोकैश्चक्रे जयजयारवः (१) जनप्रीतिकरम् । (२) श्वेतच्छत्रम् । द्वितीय प्रकाशः ॥२२४॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ||९५ || पुरं महातूर्यवैः पूर्यमाणदिगन्तरम् । तत्प्राविशन्मूलदेवो राजराज इवालकाम् ॥९६॥ उत्तीर्णो राजहऽसौ सिंहासनमधिष्ठितः ||९७|| अथोचे देवता व्योम्नि देवतानां प्रसादतः । अयं विक्रमराजाख्यो ॥२२५॥ राजा जज्ञे कलानिधिः ||१८|| वर्त्तिष्यन्ते न येऽमुष्य शासने क्षितिशासितुः । तानहं निग्रहीष्यामि महीभृत इवाशनिः ||९९|| तद्गिरा विस्मितं भीतं सर्वं प्रकृतिमण्डलम् । यतेरिवेन्द्रियग्रामः सदा तस्य वशेऽभवत् ॥ २०० ॥ ततः स राजा विषयसुखान्यनुभवन् व्यधात् । प्रीतिमुज्जयिनीशेन मिथः संव्यवहारतः ॥१॥ तदानीं देवदत्ताऽपि मूलदेव विडम्बनाम् । तादृक्षीं प्रेक्ष्य साक्षेपा व्यब्रवीदचलं प्रति ॥२॥ किं ज्ञाता द्रव्यदर्पान्ध त्वया कुलगृहिण्यहम् । मुमूर्षो मूर्ख मन्द्गेहे व्यवाहार्षीर्यदीदृशम् ||३|| त्वयाऽस्मदीयसदने नागन्तव्यमतः परम् । इति निष्कास्य तं गेहात्समीपे नृपतेरगात् ||४|| तया च याचितो राजा स वरो दीयतामिति । यथेच्छं ब्रूहि यच्छामि तं येनेत्यवदन्नृप ||५|| सोचे मां प्रति नाज्ञाप्यो मूलदेवं विना पुमान् । वारणीयोऽचलश्चायमागच्छन्मम वेश्मनि ॥ ६ ॥ एवमस्त्विति राज्ञोक्ता ( जोक्त्वा ) हेतुः कोऽत्रेति पृष्टवान् । शशंस माधवी देवदत्तासंज्ञया ततः ||७|| जितशत्रुनृपः कोपाच्चलित भ्रूलतस्ततः । सार्थवाहं तमाहूय साक्षेपमिदमब्रवीत् ॥८॥ मत्पुरीमण्डनावेतौ रत्नभूतावरे त्वया । मूर्खेण धनमत्तेन ग्रावणीव निर्घापती ||९|| ततोऽमुष्यापराधस्य प्राणापहरणं तव । दण्डोऽस्त्विति नरेन्द्रोक्ते देवदत्ता न्यवारयत् ॥१०॥ त्वं यद्यप्यनया त्रतोऽधुना त्राणं तथापि ते । मूलदेवे समानीते भवेदित्यभ्यधान्नृपः ॥ ११ ॥ नृपं नत्वा ततो गत्वा सार्थवाहः प्रचक्रमे । नष्टरत्नमिवान्वेष्टुं मूलदेवं समन्ततः ||१२|| मूलदेवमपश्यन् स भीतो न्यूनतया तया CHOREOGR FORES EXOOOOOOO द्वितीय प्रकाशः ॥२२५॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग द्वितीय प्रकाशा शास्त्रम् १२२६।। भाण्डं भृत्वा ययौ शीघ्रं पारसकूलमण्डलम् ॥१३॥ दध्यौ च मूलदेवोऽपि विना मे देवदत्तया। भोज्येनालवणेनेव प्राज्यराज्यश्रियाऽपि किम् ॥१४॥ ततः स देवदत्ताया जितशत्रोश्च भूपतेः । चतुरं प्रेषयामास दूतं प्राभृतसंयुतम् ॥१५॥ गत्वोज्जयिन्यां दृतोऽपि जितशत्रु व्यजिज्ञपत् । देवतादत्तराज्यश्रीमूलदेवो वदत्यदः ॥१६॥ यथा मे देवदत्तायां प्रेम जानीथ तत्तथा । यद्यस्यै रोचते वोऽपि तदियं प्रेष्यतामिति ॥१७॥ ततोऽवददवन्तीशस्तेनेदं कियदर्थितम् । राज्ञा विक्रमराजेन भेदो राज्येऽपि नास्ति नः॥१८॥ आकार्य देवदत्तां च जगादोजयिनीपतिः । दिष्टया जाताऽसि भद्रे त्वं चिरात पूर्णमनोरथा ॥१९॥ राजा जज्ञे मूलदेवो देवतायाः प्रसादतः त्वामानेतुं च स प्रपीत्प्रधानपुरुषं निजम् ॥२०॥ ततस्त्वं तत्र गच्छेति प्रसादाज्जितशत्रुणा । आदिष्टा देवदत्तागाद्वेणातटपुरं क्रमात् ॥२१॥ राजा विक्रमराजोऽपि महोत्सवपुरःसरम् । स्वचेतसीव विपुले स्ववेश्मनि निनाय ताम् ॥२२॥ जिना_मर्चतस्तस्य सम्यक् पालयतः प्रजाः । दीव्यतो देवदत्तां च त्रिवर्गोऽभूदबाधितः ॥२३॥ इतश्च पारसकूलाद्वह्वात्तकेयवस्तुकः । आययावचलस्तत्र जलपूर्ण इवाम्बुदः ॥२४॥ लक्ष्मीमहत्वपिशुनैर्मणिमाक्तिकविद्युमैः । भृत्वा विशालं स स्थालं महीनाथमुपास्थितः ॥२५॥ अचलोऽयमिति क्षिप्रमुपलक्षितवान् नृपः दृष्ट्वा प्रायजन्मसम्बन्धमपि प्राज्ञाः स्मरन्ति हि॥२६॥ राजानं मृवदेवोऽयमित्यज्ञासीत्तु नाचलः । आतवेषं नटमपि स्थूलप्रज्ञा न जानते ॥२७|| कुतस्त्वमिति रज्ञोक्तः पारसादित्युवाच सः । ययाचे पञ्चकुलं च भाण्डालोकनकर्मणे ॥२८॥ कौतुकात्स्वयमेष्याम इत्युक्तो भूभुजा स तु । महाप्रसाद इत्यूचे कोपं को वेचि तादृशाम् ॥२९॥ ततः पञ्चकुलोपेतो ययौ राजा तदाश्रये । मजिष्ठापट्टसूत्रादि सोऽपि भाण्डमदर्शयत् ॥३०॥ भाण्डं ॥२२६॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२२७॥ द्वितीय प्रकाशा किमियदेवेदं सत्यं ब्रहीति भूभुजा । उक्त इत्युक्तवान् श्रेष्ठी सत्यमेतावदेव मे ॥३१॥ नृपेण पुनरप्यूचे सम्यग् ज्ञात्वा निवेदय । अस्मद्राज्ये शुल्कचौर्या यच्छरीरेण निग्रहः ॥३२॥ अवोचदचलोऽप्येवमस्माभिः कथ्यते न्यथा । पुरतो नापरस्यापि स्वयं देवस्य किं पुनः ॥३३॥ राजेत्युवाच तस्य श्रेष्ठिनः सत्यभाषिणः । क्रियता मदानं च सम्यग्भाण्डं च वीक्ष्यताम् ॥३४॥ ततः पञ्चकुलेनांहिप्रहारावंशवेधतः । असारभाण्डमध्यस्थं सारभाण्डमशङ्कयत ॥३५॥ जाताशकैस्ततो राजपुंभिर्विभिदिरे क्षणात् । शुल्कदस्युमनांसीव भाण्डस्थानानि सर्वतः ॥३६॥ तैर्यथा शङ्कितं भाण्डं वित्तशाठयं तथाऽभवत् । परपुरान्तःप्रवेशकारिणो राधिकारिणः ॥३७॥ तज्ज्ञात्वा कुपितो राजा बन्धयामास तं क्षणात् । सामन्ता अपि बध्यन्ते राजादेशाद्वणिक् कियान् ॥३८॥ ततस्तं सदने नीत्वा छोटयित्वा च बन्धनम् । किं मां प्रत्यभिजानासि पप्रच्छेति महीपतिः ॥३९॥ अचलोऽपि जगादेवं जगदुद्द्योतकारिणम् । भानुमन्तं भवन्तं च बालिशोऽपि न वेत्ति कः ॥४०॥ पर्याप्त चाटुवचनैः सम्यक् त्वं वेत्सि तद्वद । राज्ञेत्युक्तोऽचलोऽवोचत्तर्हि जानामि नयहम् ॥४१॥ देवदत्तामथाहूय भूपतिस्तमदर्शयत् । इष्टैदृष्टा कृतार्था स्यान्मनःसिद्धिर्हि मानिनाम् ॥४२॥ देवदत्तामसौ दृष्ट्वा हीतः कष्टां दशां ययौ। अग्रेस्त्र्यपभ्राजना हि मृत्योरप्यधिका नृणाम् ॥४३॥ साऽप्यूचे मूलदेवोऽयमित्युक्तो यस्तदा त्वया । एवं कुर्या ममाऽपि त्वं देवायसनमीयुषः ॥४४॥ तदसि व्यसनं प्राप्तः प्राणसन्देहकारणम् । मुक्तोऽसि चार्यपुत्रेण नेदृक्षा: क्षुद्रघातिनः ॥४५॥ ततो विलक्षः स वणिक् पतित्वा पादयोस्तयोः । ऊचे सर्वापराधान्मे तितिक्षध्वं तदा कृतान ॥४५॥ रुष्टस्तेनापराधेन जितशत्रुमहीपतिः। प्रवेशमुज्जयिन्यां मे युष्मद्वाचा प्रदास्यति ॥४७॥ ॥२२७॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२२८॥ अथोचे मूलदेवोऽपि मया क्षान्तं तदैव ते । यदा प्रसादो विदधे देव्या श्रीदेवदत्तया ॥ ४८ ॥ ततः प्रसादं दत्त्वोच्चैर्दूतमेकं समर्प्य च । पुरीमुज्जयिनीं गन्तुं विससर्जाचलं नृपः ॥ ४९ ॥ प्रवेशोऽवन्तिनाथेन तस्यावन्त्यामदीयत । मूलदेवस्य वचसा कोपस्तन्मूल एव यत् ॥ ५० ॥ अन्येद्युर्दुः खविधुराः प्रजाकार्यधुरन्धरम् । मिलित्वा वणिओ मूलदेवमेवं व्यजिज्ञपन् ॥ ५१ ॥ जाग्रत्यपि प्रजास्त्रातुं त्वयि देव दिवानिशम् । अमुष्यतेदं नगरं परितः परिमोषिभिः ॥५२॥ कोला इव चिरं चौराः पुरेऽस्मिन्मन्दिराणि नः । प्रतिक्षपं खनन्त्युच्चैर्नारक्षा रक्षितुं क्षमाः || ५३ || अदृश्यमानाः केनापि कृतसिद्धान्ञ्जना इव । भ्राम्यन्ति चौराः स्वैरं नो गृहेषु स्वगृहेश्विव ॥ ५४ ॥ अचिराभिग्रहीष्यामि तस्करानयशस्करान् । मूलदेवोऽभिधायैवं वणिजो विससर्ज तान् ||५५|| आदिक्षनगराध्यक्षं साक्षेपं क्ष्मापतिस्ततः । अन्विष्य तस्करान् सर्वान् गृहाण निगृहाण च ॥ ५६ ॥ अथोवाच पुराध्यक्षः स्वामिetsस्ति तस्करः । असौ न शक्यते तु दृष्टनष्टः पिशाचवत् ॥५७॥ जातामर्षस्ततो राजा महौजा निर्ययौ निशि । नीलाम्बरप्रावरणो नीलाम्बर इवापरः ॥५८॥ स्थानेषु शङ्कास्थानेषु बभ्राम स्थामधाम से । दस्युं कमपि नापश्यदहेः पदमिवाम्भसि ॥५९॥ स सवं नगरं भ्रान्तः श्रान्तः सुष्वाप कुत्रचित् । खण्डदेवकुकुः शैलगुहायामिव केसरी ॥६०॥ निशाचर इवाकस्मान्निशाचरणदारुणः । तस्कराग्रे सरस्तत्रोपासरन्मण्डिकाभिधः ॥६१॥ कोऽर्त्रेति व्याहरन्नुच्चैर्मलिम्लुचपतिस्ततः । रुष्टः सुप्तमिव व्यालं पदा नृपमघट्टयत् ॥६२॥ चेष्टां स्थानं च वित्तं च जिज्ञासुस्तस्य भूपतिः । ऊचे कार्यटिकोऽस्मीति क क निष्णा न तादृशाः ॥ ६३॥ एहि कार्यटिकाद्य त्वामदरिद्रीकरोम्यहम् । इत्यूचे तस्करो भूपं मदान्धानां धिगताम् ॥ ६४ ॥ तमन्वचालीत्सोऽर्थेच्छुः द्वितीय प्रकाशः ॥२२८॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥२२९॥ BENGADनताaar पत्तिवत्पृथिवीपतिः। ममर्द गर्दभस्यापि पादौ कार्याजनार्दनः॥६५॥ अजानानः स राजानं पार्श्व मृत्युमिवात्मनः। जगाम धाम कस्यापि श्रेष्ठिनः श्रेष्ठसम्पदः॥६६॥ तत्र खात्रं खनित्रेण पातयित्वा स वेश्मनः। जग्राह सारद्रविणं राहुः कुण्डात्सुधामिव ॥६७॥ अज्ञो राज्ञा समस्तं तद्वाहयामास तस्करः । उदरं दर्शयामास शाकिन्येव स मूढधीः ॥६८॥ तमुन्मूलयितुं मूलान्मूलदेव उवाह तत् । धूर्ती हि कारणोपात्तमार्दवाः कार्यराक्षसाः ॥६९॥ जीर्णोद्यानं ततो गत्वा गुहामुद्घाटय सोऽविशत् । निनाय तत्र भूपं च १च्छगणारोपितालिवत् ॥७०॥ आसीनागकुमारीव कुमारी तत्र तत्स्वसा । नवयौवनलावण्यपुण्यावयवशालिनी ।।७१॥ क्षालयास्यातिथेः पादावित्यादिष्टा स्वबन्धुना । सोपकूपं ततो भूपमुपावेशयदासने ॥७२॥ प्रक्षालयन्ती तत्पादकमले कमलेक्षणा । अनुभूय मृदुस्पर्श तं सर्वाङ्गसुदैवत ॥७३।। अहो कोऽप्येष कन्दर्पः साक्षादिति सविस्मया । सानुरागा सानुकम्पा साडब्रवीदिति भूपतिम् ।।७४॥ पादप्रक्षालनव्याजात्कूपेऽस्मिन्नपरे नराः । अपात्यन्त महाभाग तस्कराणां कुतः कृपा ॥७५।। क्षेप्यामि नेह कूपे त्वां त्वत्प्रभाववशीकृता । महतामनुभावो हि वशीकरणमद्भुतम् ॥ ७६ ॥ ततो मदुपरोधेन सुन्दरापसर द्रुतम् । द्वयोरप्यन्यथा नाथ कुशलं न भविष्यति ॥७७॥ विमृश्याथ महीनाथो निर्जगाम द्रुतं ततः । धीमन्तो हि धिया नन्ति द्विषः सत्यपि विक्रमे ॥७८॥ गते नृपे तु व्याहारि तया गच्छत्यसाविति स्वक्षणरक्षणार्थ हि प्रपञ्चो धीमतामयम् ॥७९॥ कृष्टकङ्कासिजिह्वालो वेताल इव दारुणः । अनुभूपालमुत्तालो दधावे मण्डिकस्ततः ।।८०॥ तं समासनमालोक्य भूपति(बृहस्पतिः। चत्वरोत्तम्भितग्रावस्तम्भेनान्तरितोऽभवत् (१) 'मर्दयामास' इति प्रत्यन्तरपाठः साधीयान् । (२) अलिः वृश्चिकः । રા Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाश ॥२३०॥ ॥८॥ कोपान्धनयनश्चासौ स एवैष पुमानिति । कङ्कासिना दृषत्स्तम्भं च्छित्वाऽगाद्धाम मण्डिकः ॥८२॥ ययौ स्वं धाम राजाऽपि हृष्टश्चौरोपलम्भतः। प्राप्तः सौख्याय जायेत रदोषकारी न कस्य वा ॥८३॥ राजा प्रातस्ततो राजपाटिकाव्याजतो बहिः । दस्युं विश्वमनोदस्युस्तं निरूपयितुं ययौ।।८४॥ अथ वखापणद्वारे कुर्वाणं तुकारताम् । प? - वेष्टितजोरु किञ्चिदुद्घाटिताननम् ।।८५॥ तस्कर मस्करलतोपेतं छद्मश्लथाकृतिम् । दृष्ट्वोपालक्षयत् क्ष्मापः क्षपादृष्टानुमानतः॥८५॥(युग्मम्) गत्वा हयं महोनाथोऽभिज्ञानानि निवेदयन् । पुरुषान् प्रेषयामास तस्याकारणहेतवे।८७। न हतः स पुमान्नूनं तद्विजम्भितमित्यसौ । आहूतोऽमस्त चोरा हि महारानिकवेदिनः||८८|| सोऽगात्ततो राजकुले राज्ञाऽऽस्यत महासने । महाप्रसादं कुर्वन्ति नीतिज्ञा हि जिघांसवः।।८९॥ तं भूपतिरभाषिष्ट प्रसादमुखया गिरा । स्वस्वसा दीयतां मह्यं दातव्या एव कन्यका ॥९०॥ दृष्टपूर्वी स्वसारं मे नापरो निरगात्ततः । अयं स एव राजेति निश्चिक्ये मण्डिको हृदि ।।९१॥ गृह्यतां मत्स्वसा देव देवकीयैव सा किल । मदीयमन्यदप्येवमवोचत स पार्थिवम् ।।९।। तदानीमप्युपायंस्त रूपातिशयशालिनीम् । तस्य स्वसारं नृपतिः कंसारिरिव रुक्मिणीम् ॥९३॥ महामात्यपदे चक्रे तस्कर ने नरेश्वरः। को वेत्ति भूभुजां भावं मध्यं पत्युरिवाम्भसाम् ॥९४॥ तस्मा भूषणवस्त्रादि तद्भगिन्यैव भूपतिः । नित्यमानादयदहो धृत्तों धृत्रधृष्यत ॥९५॥ बहु यावत्समाकृष्ट द्रव्यं तावन्नृपेण सा । अभाषि वित्तं त्वदबन्धोः कियदद्यापि तिष्ठति ॥९६॥ वित्तमेतावदेवासीदस्य दस्योः स्वसाऽपि हि । एवं न्यवेदयद्राज्ञो गोप्यं प्रियतमे न हि ॥९७॥ विडम्बनाभिर्बहीभिर्मण्डिक चण्डशासनः । निजग्राह ततो (१) 'दोषाकरः' इति पाठः संभवति । (२) वंशलतोपेतम् ॥२३॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२३१॥ द्वितीय प्रकाशा राजा पापानां कुशल कियत् ॥९८॥ चौर्यात् श्वशुर्यमपि विक्रमराजराजः, आनीय मण्डिकमखण्डनयो जघान । स्तैन्यं न तेन विदधीत सुधीः कथञ्चिदत्रापि जन्मनि विरुद्धफलानुबन्धि ॥२९९॥ ॥ इति मूलदेवमण्डिकयोः कथानकम् ॥ आसीद्राजगृहे सम्पज्जितामरपुरे पुरे । पादाक्रान्तनृपश्रेणि: श्रेणिको नाम पार्थिवः ॥१॥ राजस्तस्य च तनयो नयविक्रमभाजनम् । नाम्नाऽभयकुमारोभूत् प्रद्युम्नः श्रीपतेरिव॥२॥ इतश्च तस्मिन्नगरे वैभारगिरिकन्दरे। चौरो लोहखुराख्योऽभूद्रौद्रो रस इवाङ्गवान् ॥३॥ स तु राजगृहे नित्यं पौराणामुत्सवादिषु । लब्ध्वा छिद्राणि विदधे पिशाचवदुपद्रवम् ॥४॥ आददानस्ततो द्रव्यं भुजानश्च परस्त्रियः । भाण्डागारं निशान्तं वा निजं मेने स तत्पुरम् ॥५॥ चौर्यमेवाभवत्तस्य प्रीत्यै वृत्तिनं चापरा । अपास्य क्रव्यं क्रव्यादा भक्ष्यस्तृप्यन्ति नापरैः ॥६॥ तस्यानुरूपो रूपेण चेष्टया च सुतोऽभवत् । भार्यायां रोहिणीनाम्न्यां रौहिणेयोऽभिधानतः ॥७॥ स्वमृत्युसमये प्राप्ते पित्राऽऽहयेत्यभाषि सः । यद्यवश्यं करोषि त्वमुपदेशं ददामि तत् ॥८॥ अवश्यमेव कत्तव्यमादिष्टं भवतां मया । कः पितुः पातयेदाज्ञां पृथिव्यामित्युवाच सः ॥९॥ प्रहृष्टो वचसा तेन चौरो लोहखुरस्ततः । पाणिना संस्पृशन् पुत्रमभाषिष्टेति निष्ठुरम् ॥१०॥ योऽसौ समवसरणे स्थितः सुरविनिर्मिते । विधत्ते देशनां वीरो मा श्रौषीस्तस्य भाषितम् ॥११॥ अन्यत्त स्वेच्छया वत्स कुर्यास्त्वमनियन्त्रितः । उपदिश्येति पश्चत्वं प्राप लोहखुरस्ततः ॥१२॥ मृतकार्य पितुः कृत्वा रौहिणेयस्ततोऽनिशम् । चकार चौरिकां लोहखुरोऽपर इवोद्गतः ॥१३॥ ॥१३॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् ॥२३२॥ पालयन् पितुरादेशं जीवितव्यमिवात्मनः । स्वदा सेरमिवामुष्णात् स राजगृहपत्तनम् || १४ || तदा च नगरग्रामाकरेषु विहरन् क्रमात् । चतुर्दशमहासाधुसहस्रपरिवारितः ॥ २५ ॥ सुरैः संचाय्र्यमाणेषु स्वर्णाम्भोजेपु चारुषु । न्यस्यन् पदानि तत्रागाद्वीरश्वरमतीर्थकृत ॥। १६ ।। १व्यन्तरैरसुरैर्ज्योतिषिकैवैमानि कैरपि । सुरेः समवसरणं चक्रे जिनपतेस्ततः ।। १७ । आयोजनविसर्पिण्या सर्वभाषानुयातया । भारत्या भगवान् वीरः प्रारेभे धर्मदेशनाम् ॥ १८ ॥ तदानीं रौहिणेयोऽपि गच्छन् राजगृहं प्रति । मार्गान्तराले समवसरणाभ्यर्णमाययौ ॥ १९ ॥ एवं चिन्तयामास पथाऽनेन व्रजामि चेत् । श्रणोमि वीरवचनं तदाज्ञा भज्यते पितुः || २०|| न चान्यो विद्यते पन्था भवत्वेवं विमृश्य सः । कर्णौ पिधाय पाणिभ्यां तं राजगृहं ययौ ॥ २१ ॥ एवमन्वहमप्यस्य यातायातकृतोऽ न्यदा । उपसमवसरणं पादेऽभज्यत कण्टकः ||२२|| ओत्सुक्यगमनाद्गाढमग्नं पादे स कण्टकम् । अनुध्धृत्य समुद्धर्त्तुं न शशाक क्रमात् क्रमम् ||२३|| नास्त्युपायोऽपरः कोऽपीत्याकृष्य श्रवणात्करम् । कर्षन् कण्टकम - श्रोषीदिति विश्वगुरोर्गिरम् ||२४|| महीतलास्पर्शिपादा निर्निमेषविलोचनाः । अम्लानमाल्या निःस्वेदा नीरजोऽगाः सुरा इति ||२५|| बहुश्रुतमिदं धि धिगित्याशुध्धृतकण्टकः । पिधाय पाणिना कर्ण तथैवापस - सारसः ||२६|| अथान्वहं मुष्यमाणे पत्तने तेन दस्युना । उपेत्य श्रेणिकं श्रेष्ठिश्रेष्ठा व्यज्ञपयन्निति ॥२८॥ त्वयि शासति देवान्यन्न भयं द्रविणं तु नः । आकृष्य गृह्यते चौरैरदृष्टैश्वेटिकैरिव ॥ २८ ॥ बन्धूनामिव तेषां तु गृहीतः पीडया ततः । सकोपाटोपमित्यूचे नृपतिर्दण्डपाशिकम् ॥ २९॥ किं चौरीभूय दायादीभूय वा मम (१) वैमानिकैज्र्ज्योतिषिकैर्व्यन्तरैरसुरैरपि इति वा पाठः । द्वितीय प्रकाशः ॥२३२॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥२३३॥ वेतनम् । गृहासि चौरैर्गह्यन्ते यदेते त्वदुपैक्षितैः ॥३०॥ सोऽप्यूचे देव कोऽप्येष चौरः पौरान् विलुण्टति। रौहिणेयाहयो धत्तुं दृष्टोऽपि न हि शक्यते ॥३॥ विधुदुस्क्षिप्तकरणेमोत्प्लुत्यायं प्लवङ्गवत् । गहादगेहं ततो वप्रमुल्लयति हेलया ॥३२॥ मार्गेण यामस्तन्मार्ग यावत्तावत्स नेक्ष्यते । त्यक्तो ह्येकक्रमेणापि शतेन त्यज्यते क्रमैः ॥३३॥ न तं हन्तुं न वा धर्तमहं शक्नोमि तस्करम् । गृह्णातु तदिमां देवो दाण्डपाशिकतां निजाम् ॥३४॥ नृपेणोल्लासितैकद्मसंज्ञया भाषितस्ततः । कुमारोऽभयकुमारस्तमूचे दाण्डपाशिकम् ॥३५॥ चतुरङ्गचमं सज्जीकृत्य मुश्च बहिष्पुरात । यदान्तःप्रविशेञ्चौरः पत्तनं वेष्टयेस्तदा॥३६॥ अन्तश्च त्रासितो विधुदुक्षिप्तकरणेन सः । पतिष्यति बहिः सैन्ये वागुरायां कुरङ्गवत् ॥३७॥ प्रतिभूमिरिवानीतो निजपादैस्ततश्च सः। ग्रहीतव्यो महान् दस्युरप्रमत्तः पदातिभिः॥३८॥ तथेत्यादेशमादाय निर्ययौ दाण्डपाशिकः । तथैव च चमं सज्जां प्रच्छन्नं निर्ममे सुधी॥३६॥ तदिने रौहिणेयोऽपि नामान्तरसमागमात् । अजानानः पुरी रुद्धां वारी गज इवाविशत् ॥४०॥ तैरुपायैस्ततो धृत्वा बध्ध्वा च स मलिम्लुचः। आनीय नृपतेर्दाण्डपाशिकेन समर्पितः॥४१॥ यथा न्याय्यं सतां त्राणमसतां निग्रहस्तथा । निगृह्यतामसौ तस्मादित्यादिक्षन्महीपतिः ॥ ॥४२॥ अलोतः प्राप्त इत्येष न हि निग्रहमर्हति । विचार्य निग्रहीतव्य इत्युवाचाभयस्ततः ॥४३॥ अथ पप्रच्छ ते राजा कत्यः कीदृशजीविकः। कुतो हेतोरिहायातो रौहिणेयः स चासि किम् ॥४४॥ स्वनामशङ्कितः सोऽपि प्रत्युवाचेति भूपतिम् । शालिग्रामे दुर्गचण्डाभिधानोऽहं कुटुम्बिकः ॥ ४५ ॥ प्रयोजनवशेनेहायातः संजातकौतुकात् । एकदेवकुले रात्रि महतीमस्मि च स्थितः ॥४६॥ स्वधाम गच्छन्नारक्षराक्षिप्तो राक्षसैरिव । अलवयमहं वनं प्राणभीमइती हि भीः॥४७॥ मध्यारक्ष ॥२३३॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशः ॥२३४॥ विनिर्यातो बाह्यारक्षगणेष्वहम् । कैवर्तहस्तविसस्तो जाले मत्स्य इवापतम् ॥४८॥ ततो निरपराधोऽपि वध्वा चौर इवाधुना । अहमेभिरिहानीतो नीतिसार विचारय ॥४९॥ ततस्तं भूपतिर्गुप्तौ प्रेषयामास तत्क्षणात् । तत्प्रवृत्तिज्ञानहेतोस्तत्र मामे च पूरुषम् ॥५०॥ सोऽग्रेऽपि प्राहितो ग्रामः सकेतं तेन दस्युना । चौराणामपि केषाश्चिच्चित्रमायतिचिन्तनम् ॥५१॥ तत्स्वरूपं राजपुंसा ग्रामः पृष्टोऽब्रवीदिदम् । दुर्गचण्डोऽत्र वास्तव्यः परं प्रामान्तरं गतः ।। ५२ ॥ तत्रार्थे तेन विज्ञप्ते दध्यौ श्रेणिकमरिदम् । अहो सुकृतदम्भस्य ब्रह्माऽप्यन्तं न गच्छति ॥ ५३॥ अभयोऽसजयदय प्रासादं सप्तभूमिकम् । महार्घरत्नखचित विमानमिव नाकिनाम् ॥ ५४ ॥ श्रियाऽप्सरायमाणाभी रमणीभिरलङ्कृतम् । दिवोऽमरावतीखण्डमिव भ्रष्टमतर्कि सः॥५५।। गन्धर्ववर्गप्रारब्धसङ्गीतकमहोत्सवः । सोऽधादकस्मादुद्भूतगन्धर्वनगरश्रियम् ॥५६॥ ततोऽभयो मद्यपानमूढं निर्माय तस्करम् । परिधाप्य देवदुष्ये अधितल्पमशाययत् ॥५७॥ मदे परिणते यावदुदस्थातावदैवत । सोऽकस्माद्विस्मयकरीमपूर्वा दिव्यसंपदम् ॥५८॥ अत्रान्तरेऽभयादिष्टैनरनारीगणैस्ततः। उदचारि जय जय नन्देत्यादिकमङ्गलम् ॥५९॥ अस्मिन्महाविमाने त्वमुत्पत्रिदशोऽधुना । अस्माकं स्वामिभूतोऽसि त्वदीयाः किङ्करा वयम् ॥६०॥ अप्सरोभिः सहैताभी रमस्व स्वैरमिन्द्रवत् । इत्यादि चतुरं चाटुगर्भमूचे च तैरसौ ॥६१॥ जातः सुरः किमस्मीति दध्यौ यावत्स तस्करः। संगीतकार्य तावत्तैः प्रदत्तः समहस्तकः ॥६२॥ उपेत्य पुंसा केनापि स्वर्णदण्डभृता ततः। सहसा भोः किमारब्धमेतदेवमभाष्यत ॥६॥ ततः प्रतिबभाषे तैः प्रतिहार निजप्रभोः। प्रदर्शयितुमारब्धं स्वकं विज्ञानकौशलम् ॥६॥ सोऽप्युवाच स्वनाथस्य दर्श्यतां निजकौशलम् । देवलोकसमाचारं कार्यतां किं त्वसाविति ॥६५॥ तैरुक्तं ॥२४॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रम् ॥२३॥ द्वितीय प्रकाश कीगाचार इति श्रुत्वा स पुरुषः । साक्षेपमित्यभाषिष्ट किमेतदपि विस्मृतम् ॥६६॥ य इहोत्पद्यते देवः स स्वे सुकृतदुष्कृते । आख्याति प्राक्तने स्वर्गभोगाननुभवेत्ततः ॥६७॥ विस्मृतं स्वामिलाभेन सर्वमेतत्प्रसीद नः। देवलोकस्थिति देवः कार्यतामिति तेऽवदन् ॥६८॥ स रौहिणेयमित्यूचे निजे हन्त शुभाशुभे । प्राक्तने शंस नः स्वर्गभोगान् भुक्ष्व ततः परम् ॥६९॥ ततः सोऽचिन्तयइस्युः किमेतत् सत्यमीदृशम् । मां ज्ञातुमभयेनैप प्रपञ्चो रचितोऽथवा ॥७०॥ ज्ञेयं कथमेतदिति ध्यायता तेन संस्मृतम् । कण्टकोदरणकालाकर्णितं भगवद्वचः ॥७॥ देवस्वरूपं श्रीवीराछुत चेत् संवदिष्यति । तत्सत्यं कथयिष्यामि करिष्याम्यन्यथोत्तरम् ॥७२॥ इति बुद्धया स तानीक्षाश्चक्रे क्षितितलस्पृशः । प्रस्वेदमलिनान् म्लानमाल्यानिमिषदीक्षणान् ॥७३॥ तत्सर्व कपटं ज्ञात्वाऽचिन्तयत दस्युरुत्तरम् । तेनोचे कथ्यतां देव लोकः सर्वोऽयमुत्सुकः ॥ ७४ ॥ रौहिणेयस्ततोऽवादीन्मया पूर्वत्र जन्मनि । अदीयत सुपात्रेभ्यो दानं चैत्यानि चक्रिरे ॥७५।। प्रत्यष्ठाप्यन्त बिम्बानि पूजितान्यष्टधार्चया। विहितास्तीर्थयात्राश्च गुरवः पर्युपासिताः ॥७६।। इत्यादि सदनुष्ठानं मया कृतमिति ब्रुवन् । ऊचे दण्डभृता शंस चरित्रमपि स्वकम् ॥ ७७ ॥ रोहिणेयोऽप्युवाचेदं साधुसंसर्गशालिना । कदाचिदप्याचरितं किञ्चिन्ना शोभनं मया ॥७८ ।। व्याजहार प्रतीहारो जन्म नैकस्वभावतः । याति तत्कथ्यतां चौर्यपारदारिकतादिकम् । ॥७९॥ रौहिणेयोऽभ्यधत्व किमेवंविधचेष्टितः । स्वलोकं प्राप्नुयादन्धः किमारोहति पर्वतम् ॥ ८० ॥ गत्वा ततस्तैस्तत्सर्वमभयाय निवेदितम् । अभयेन च विज्ञप्तं श्रेणिकस्य महीपतेः ॥ ८१॥ एवंविधैरुपायैर्यश्चौरो ज्ञातुं न शक्यते । स चौरोऽपि विमोक्तव्यः शक्या नीतिन लवितुम् ॥८२॥ अभयः पार्थिवादेशाद्रोहिणेयमथामुचत । ॥२३५॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२३६॥ द्वितीय प्रकाशा वळच्यन्ते वञ्चनादौदेक्षा अपि कदाचन ॥८३॥ ततः सोऽचिन्तयच्चौरो धिगादेशं पितुर्मम । कश्चितोऽस्मि चिरं येन भगवद्वचनामृतात् ॥८४॥ नागमिष्यत् प्रभुवचो यदि मे कर्णकोटरम् । तदा विविधमारेणागमिष्यं यमगोचरम् ॥८५॥ अनिच्छयाऽपि हि तदा गृहीतं भगवद्वचः । मम जीवातवे जज्ञे भैषज्यमिव रोगिणः ॥८६॥ त्यक्त्वाहद्वचनं हा धिक् चौरवाचि रतिर्मया । आम्राण्यपास्य निम्बेषु काकेनेव चिरं कृता ॥८७॥ उपदेशैकदेशोऽपि यदीयः फलतीदृशम् । तस्योपदेशः सामस्त्यात् सेवितः किं करिष्यति ॥८८॥ एवं विमृश्य मनसा ययौ भगवतोऽन्तिके । पादाम्बुजे च नत्वैवं रौहिणेयो व्यजिज्ञपत् ।।८९॥ भवाब्धौ प्राणिनां घोरविपन्नक्रकुलाकुले । महापोतायते ते गीरायोजनविसर्पिणी ॥९॥ निषिद्धस्त्वद्वचः श्रोतुमनाप्तेनाप्तमानिना । इयत्कालमहं पित्रा वश्चितस्तज्जगदगुरी ॥९१॥ त्रैलोक्यनाथ ते धन्याः श्रद्दधानाः पिबन्ति ये । भवद्वचनपीयूष कर्णाअलिपुटैः सदा ॥ ९२ ॥ अहं तु पापोऽशुश्रुषुर्भगवन् भवतो वचः। पिधाय कौँ हा कष्टमिदं स्थानमलवयम् ॥ ९३ ॥ एकदाऽनिच्छताऽप्येकं श्रुतं युष्मद्वची मया । तेन मन्त्राक्षरेणेव रक्षितो राजराक्षसात् ॥९४॥ यथाऽहं मरणास्त्रातस्तथा त्रायस्व नाथ माम् । संसारसागरावर्ते निमज्जन्तं जगत्पते ॥९५॥ ततस्तकृपया स्वामी निर्वाणपददायिनीम् । विशुद्धां विदधे साधु साधुधर्मस्य देशनाम् ॥९६॥ ततः प्रबुद्धः प्रणमन् रौहिणेयोऽब्रवीदिदम् । यतिधर्मस्य योग्योऽस्मि न वेत्यादिश मां प्रभो ॥९७॥ योग्योऽसीति स्वामिनोक्ते, ग्रहीष्यामि विभो व्रतम् । परं किश्चिद्वदिष्यामि, श्रेणिकेनेत्युवाच सः ॥९८॥ निर्विकल्पं निर्विशई स्ववक्तव्यमुदीरय । इस्युक्तः श्रेणिकनृपेणोचे लोहखुरात्मजः ॥९९।। इह देव भवद्भिर्यः श्रुतोऽई लोकवार्तया । स एष रौहिणेयोऽस्मि भवत्पत्तन ॥२३६क्षा Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२३७॥ मोषकः ॥१००॥ भगवद्वचसैकेन दुर्लङ्घया लघिता मया । प्रज्ञाऽभयकुमारस्य तरण्डेनेव निम्नगा ॥१॥ अशेषमेतन्मुषितं पत्तनं भवतो मया । नान्वेषणीयः कोऽप्यन्यस्तस्करो राजभास्कर ||२|| कमपि प्रेषय यथा तल्लोत्रं दर्शयाम्यहम् । करिप्ये सफलं जन्म ततः प्रव्रज्यया निजम् || ३ || अभयोऽथ समुत्थाय श्रेणिकादेशतः स्वयम् । कौतुकात्पौरलोकश्च सहागाचेन दस्युना ||४|| ततो गिरिणदीकुञ्जश्मशानादिषु तद्धनम् । स्थगितं दर्शयामास सोऽथ श्रेणिकसूनवे ||५|| अभयोऽपि हि यद्यस्य तत्तस्य धनमार्पयत् । नीतिज्ञानामलोभानां मन्त्रिणां नापरा स्थितिः || ६ || परमार्थ कथयित्वा प्रबोध्य निजमानुषान् । श्रद्धालु भगवत्पार्श्वे रौहिणेयः समाययौ ॥७॥ ततः श्रेणिकराजेन कृतनिष्क्रमणोत्सवः । स जग्राह परिव्रज्यां पार्श्वे श्रीवीरपादयोः ||८|| ततचतुर्थादारभ्य षण्मासान् यावदुज्ज्वलम् । विनिर्ममे तपःकर्म कर्म निर्मूलनाय सः ॥ ९ ॥ तपोभिः कृशितः कृत्वा भावसंलेखनां च सः । श्रीवीरमा पृच्छ्य गिरौ पादपोपगमं व्यधात् ||१०|| शुभध्यानः स्मरन् पञ्चपरमेष्ठिनमस्क्रियाम् । त्यक्त्वा देहं जगाम द्यां रौहिणेयो महामुनिः ॥११॥ रौहिणेय इव चौर्यनिवृत्तः, स्वर्गलोकमचिरादुपयाति । तमुधी विदधीत कथञ्चिच्चौरिकामुभयलोकविरुद्धाम् ॥ ११२ ॥ इति रौहिणेयकथानकम् ॥७२॥ स्तेयस्यातिपरिहरणीयतामाह दूरे परस्य सर्वस्वमपहर्तुमुपक्रमः । उपाददीत नादत्तं तृणमात्रमपि क्वचित् ॥७३॥ दूरे आस्तां तावत्रस्य सर्वस्वं निःशेषधनम्, अपहर्तुमुपक्रमः प्रारम्भः अदत्तं स्वामिना तृणमात्रमपि नोपाददीत न गृह्णीयात् न तदर्थं यत्नं कुर्यादिति यावत् ॥७३॥ द्वितीय प्रकाशः ॥ २३७॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥ २३८ ॥ स्तेयनिवृत्तानां फलं श्लोकद्वयेनाह- परार्थग्रहणे येषां नियमः शुद्धचेतसाम् । अभ्यायान्ति श्रियस्तेषां स्वयमेव स्वयम्बराः ॥७४ || परार्थग्रहणे परधनहरणे येषां नियमो निवृत्तिः शुद्धचेतसां निर्मलचित्तानां न तु बकवृत्तीनां कश्मलमनसां तेषामभ्यायान्ति अभिमुखमायान्ति श्रियः सम्पदः, स्वयमेव न तु परप्रेरणया व्यवसायेन वा । स्वयंवरा इत्युपमानगर्भम् । स्वयम्बरा इव कन्याः ॥७४ || तथा अनर्था दूरतो यान्ति साधुवादः प्रवर्त्तते । स्वर्गसौख्यानि ढौकन्ते स्फुटमस्तेयचारिणाम् ॥७५॥ अनर्था विपदः, दूरतो यान्त्यासन्ना अपि न भवन्ति, साधुरयमिति प्रवादः साधुवादः श्लाघा, प्रवर्त्तते प्रसरति, एतावदैहिकं फलम्, स्वर्गसौख्यानीति तु पारलौकिकम्, अस्तेयव्रतेनावश्यं चरन्तीत्यस्तेयचारिणस्तेषाम् । अत्रान्तरश्लोकाः- वरं वह्निशिखा पीता सर्पास्यं चुम्बितं वरम् । वरं हालाहलं लीढं परस्वहरणं न तु ॥ १॥ प्रायः परस्वलुब्धस्य निःशुका बुद्धिरेधते । हन्तुं भ्रातॄन् पितॄन् दारान् सुहृदस्तनयान् गुरून् ||२|| परस्वं तस्करो गृह्णन् वन्धादि नेक्षते । पयःपायीव लगुडं बिडाल उपरिस्थितम् ||३|| व्याधधीवरमार्जारादिभ्यश्चौरोऽतिरिच्यते । निगृह्यते नृपतिभिर्यदसौ नेतरे पुनः || ४ || स्वर्णादिकेऽप्यन्यधने पुरस्थे, सदा मनीषा दृषदीव येषाम् । सन्तोषपीयूषरसेन तृप्तास्ते द्यां लभन्ते गृहमेधिनोऽपि ॥५॥७५॥ द्वितीय प्रकाशः ||२३८|| Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥२३९ । इदानीमामुष्मिकमैहिकं चाब्रह्मफलमुपदर्श्य गृहस्थोचितं ब्रह्मचर्यव्रतमाह षण्ढत्वमिन्द्रियच्छेदं वीक्ष्याब्रह्मफलं सुधीः। भवेत् स्वदारसन्तुष्टोऽन्यदारान् वा विवर्जयेत् ॥७६॥ षण्ढत्वमामुष्मिकं परदाररतानां फलं, इन्द्रियच्छेदश्व राजादिकृत ऐहिकं, अब्रह्मणः प्रतिषिद्धस्य मैथुनस्य, वीक्ष्य शास्त्रात्प्रत्यक्षेण वा ज्ञात्वा स्वदारेषु धर्मपत्न्यां सन्तुष्टो भवो भवेदित्येकं गृहस्थब्रह्मचर्य्यम्, अन्यदारान् परसम्बन्धिनीः स्त्रियो विवर्जयेत् । स्वस्त्रीसाधारणस्त्रीसेवीत्यर्थः इति द्वितीयम् ॥ ७६ ॥ यद्यपि गृहस्थस्य प्रतिपन्नं व्रतमनुपालयतो न तादृशः पापसम्बधोऽस्ति तथापि यतिधर्मानुरक्तो यतिधर्मप्राप्तेः पूर्व गार्हस्थ्येऽपि कामभोगविरक्तः सन् श्रावकधमं परिपालयति इति तं वैराग्यकाष्ठामुपनेतुं सामान्येनाब्रह्मदोषानाह रम्यमापातमात्रे यत् परिणामेऽतिदारुणम् । किंपाकफलसंकाशं तत्कः सेवेत मैथुनम् ॥७७॥ आपातमात्रे प्रथमारम्भमात्रे, रम्यं मनोहरं, परिणामे प्रारम्भादुत्तरावस्थायां, दारुणं रौद्रं, किंपाकफलसंकाश किंपाको वृक्षविशेषस्तत्फलसदृशं, किपाकफलं ह्यापाते रम्यं परिणामे दारुणं मारणात्मकत्वात् यदाह१वण्णड्ढा २ हलहलया दीसन्ता दिन्ति हिययपरिओसं । किंपागफला पुत्तय आसायन्तो वियाणिहिसि ॥ १ ॥ एवंविधं यन्मैथुनं मिथुनकर्म तत्कः सेवेतेति सम्बन्धः । यदाह (१) वर्णाद्याः कौतुका दृश्यमाना ददति हृदयपरितोषम् । किंपाकफलानि पुत्रक आस्वादमानो विज्ञास्यसि ॥१॥ (२) "तुमलम्मि कोउए हलहलं" इति श्री हेमचन्द्राचार्याः देशीनाममालायां अष्टमवर्गे अनेकार्थप्रकरणे७४ श्लोके व्याचख्युः । द्वितीय प्रकाशः ॥२३९॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् २४०॥ यद्यपि निषेव्यमाणा मनसः परितुष्टिकारका विषयाः । किंपाकफलादनवत् भवन्ति पश्चादविदुरन्ताः ॥२॥७७॥ मैथुनस्य परिणामदारुणत्वमाह - कम्पः स्वेदः श्रमो मूर्च्छाभ्रमिग्लानिर्बलक्षयः । राजयक्ष्मादिरोगाश्च भवेयुमैथुनोत्थिताः ॥७८॥ कम्पो वेपथुः स्वेदो धर्मः, श्रमः क्रमः मूर्च्छा मोहः, भ्रमिभ्रमः, ग्लानिरङ्गसादः, बलक्षयः शक्तिनाशः, राजयक्ष्मा क्षयरोगः, स आदिर्येषां कासश्वासादीनां रोगाणां ते तथा मैथुनोत्थिता मैथुनप्रभवाः ॥७८॥ अहिंसापरिवारत्वाच्छेषव्रतानां मैथुने अहिंसाया एवाभावमाह - योनियन्त्रसमुत्पन्नाः सुसूक्ष्मा जन्तुराशयः । पीड्यमाना विपद्यन्ते यत्र तन्मैथुनं त्यजेत् ॥७९॥ योनिः प्रसवमार्गः सैव यन्त्राकारत्वाद्यन्त्रं तत्र समुत्पन्नाः संमूर्च्छनेनोत्पन्नाः, ते च न चक्षुर्ग्राह्या इत्याहसुसूक्ष्माः, जन्तुराशयो जन्तुसमूहाः, पीड्यमाना मृद्यमानाः पुंध्वजेनेति शेषः, रूतनालिकायां तप्तभ्यःकणकप्रवेशे रूतानीव, विपद्यन्ते विनश्यन्ति, यत्र मैथुने तन्मैथुनं त्यजेत् ॥ ७९ ॥ योनौ जन्तुसद्भावं संवादेन द्रढयति जन्तुसद्भावं वात्स्यायनोऽप्याह । वात्स्यायनः कामशास्त्रकारः । अनेन च वात्स्यायनसंवादाधीनमस्य प्रामाण्यमिति नोच्यते, न हि जैनं शासनमन्यसंवादाधीनप्रामाण्यं किन्तु येऽपि कामप्रधानास्तैरपि जन्तुसद्भावो नापन्हुत इत्युच्यते । द्वितीय प्रकाशः IRVoll Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौग शास्त्रम ॥२४१ ॥ वात्स्यायन श्लोको यथा रक्तजाः कृमयः सूक्ष्मा मृदुमध्याधिशक्तयः । जन्मवत्मसु कण्डूर्ति जनयन्ति तथाविधाम् ॥ ८० ॥ रक्तजा रक्तोद्भवाः, कृमयो जन्तुविशेषाः, सम्मा अप्रत्यक्षाः, मृदुमध्याधिशक्तयः मृदुशक्तयो मध्यशक्तयोऽधिशक्तयश्च, तथाविधां मृदुमध्याधिमात्रशक्त्यनुरूपां मृदुशक्तयो मृद्वीं, मध्यशक्तयो मध्यां, अधिकशक्तयोऽधिकां कण्डूतिं कण्डू जन्मवत्सु योनिषु जनयन्ति ॥ ८० ॥ कामज्वरचिकित्सार्थमौषधमिव मैथुनसेवनमिति यो मन्यते तं प्रत्याह स्त्रीसम्भोगेन यः कामज्वरं प्रतिचिकीर्षति । स हुताशं घृताहुत्या विध्यापयितुमिच्छति ॥ ८१ प्रतिचिकीर्षति प्रतिकर्तुमिच्छति, विध्यापयितुं शमयितुम्, अयमर्थो - नायं कामज्वरस्य प्रतीकारोऽनुगुणः अपि तु बृद्धिहेतुः, न हि हुताशे घृताहुतिप्रक्षेपस्तच्छान्त्यै भवति किन्तु तद्वृद्धयै । बाह्या अप्याहु:न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवत्र्मेव भूय एवाभिवर्द्धते ॥१॥ किन्तु कामज्वरप्रतीकारा ईषत्करा वैराग्यभावनाप्रतिपक्षसेवाधर्मशास्त्रश्रवणादयः, तदेतेषु कामज्वरप्रशान्त्युपायेषु सत्सु किं भवभ्रमणहेतुना मैथुनसेवनेन ॥८१॥ एतदेवाह - वरं ज्वलदयस्तम्भपरिरम्भो विधीयते । न पुनर्नरकद्वाररामाजघनसेवनम् ॥८२॥ द्वितीय प्रकाश‍ ॥२४१ ॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा પરશો अयमर्थ:-भवतु कामज्वरोपशमहेतुमैथुनं परं नरकहेतुत्वान प्रशस्यम् ॥८२॥ अपि च वीसम्बन्धनिबन्धनं, विधुवनं स्त्रियश्च स्मृता अपि सकलगुणगरिमविघातहेतव इत्याहसतामपि हि वामभूर्ददाना हृदये पदम् । अभिरामं गुणग्राम निर्वासयति निश्चितम् ॥८३ सतामपि हि महात्मनामपि वामभ्रविरचितलोचनविकारा, हृदये पदं ददाना स्मृतिमात्रेणापि सन्निधापिता, अभिरामं रमणीय, गुणग्राम गुणसमूह, निर्वासयति उद्वासयति श्लेषच्छाया चेयम् । यथा कुनियोगी कश्चिद्देशमध्ये पदं ददान एव रक्षितव्यान् ग्रामान् लोभमोहादिनोद्वासयति, एवं हृदये लब्धपदा कामिन्यपि पालनीयं गुणग्राममुच्छेदयति । अथवा सतामपि गुणग्राम सतामेव हृदये पादं दवा वामभ्रनिर्वासयति ॥८३॥ हृदयसन्निधापनमपि स्त्रीणां बहुदोषत्वाद्गुणहानिहेतुः किं पुना रमणमित्येतदेवाहवञ्चकत्वं नृशंसत्वं चञ्चलत्वं कुशीलता। इति नैसर्गिका दोषा यसां तासु रमेत कः ॥४॥ वञ्चकत्वं मायाशीलता, नृशंसत्वं क्रूरकर्मकारिता, चञ्चलत्वं कुत्राप्यवस्थितचित्तत्वाभावः, कुशीलता दुः स्वभावता, उपस्थसंयमाभावो वा, इत्येते नैसगिकाः स्वाभाविका दोषा न त्वौपाधिकाः. तासु को रमेत ॥८४॥ न चेयन्त एव दोषा किन्त्वपरिसंख्याता इत्याहप्राप्तु पारमपारस्य पारावारस्य पार्यते । स्त्रीणां प्रकृतिवक्राणां दुश्चरित्रस्य नो पुनः॥५४॥ पारावारस्य समुद्रस्य, अपारस्यादृष्टपारस्य, पारं परतीरं, प्राप्तुं पार्यते, शक्यते न पुनः स्त्रीणां प्रकृतिवक्राणां Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥२४३॥ स्वभावकुटिलचरित्राणां दुश्चरित्रस्य दुष्टचेष्टितस्य, पारं पर्यन्तः, प्राप्तुं पार्यत इति ॥८५॥ दुश्चरित्रमेवाह-- नितम्विन्यः पतिं पुत्र पितर भ्रातरं क्षणात् । आरोपयन्त्यकार्येऽपि दुर्वृत्ताः प्राणसंशये॥८६ नितम्बिन्य इति योवनोन्माददर्शनार्थम् । अत एव स्त्रीति नोक्तम् । दुवृत्ता दुष्टशीला:, अकार्येऽपि प्रयोजनमन्तरेणापि, अथवाऽकार्येऽल्पे प्रयोजने नबोऽल्पार्थत्वात्, प्राणसंशये प्राणसन्देहे उपलक्षणं चैतत् । प्राणनाशेऽपि आरोपयन्ति आरोहयन्ति । कमित्याह-पति भर्तारम् । सूर्यकान्तेव प्रदेशिराजम् । यदाह भज्जा वि इन्दियविगारदोसनडिया करेइ पइपावम् । जह सो पएसिराया सूरियकताइ तह वहिओ ॥१॥ पुत्रं तनयम् । चुलनीव ब्रह्मदत्तम् । यदाहमाया नियगमइविगप्पियम्मि अत्थे अपूरमाणम्मि । पुत्तस्स कुणइ वसणं चुलणी जह बंभदत्तस्स ॥२॥ पितरं जनकं, भ्रातरं सोदरम् । जीवयशा इव जरासन्धं, कालादींश्च भ्रातृन् ॥८६॥ अत एवभवस्य बीजं नरकद्वारमार्गस्य दीपिका । शुचां कन्दः कलेमलं दुःखानां खानिरङ्गना॥८७॥ (१) भार्याऽपि इन्द्रियविकारदोषनटिता करोति पतिपापम् । यथा स प्रदेशिराजः सूर्यकान्तया तथा वधितः॥१॥ (२) माता निजकमतिविकल्पिते अर्थे अपूर्यमाणे । पुत्रस्य करोति व्यसनं चुलनी यथा ब्रह्मदत्तस्य ॥२॥ ॥२४३॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२४४॥ भवस्य संसारस्याङ्गकुरस्येव बीजं तत्कारणत्वात्संसारस्य, नरकद्वारं नरकप्रवेशः, तत्र यो मार्गः पन्थास्तत्र दीपिकेव दीपिका तत्प्रकाशकत्वात् शुचां शोकानां वल्लीनामिव कन्दस्तत्प्ररोहहेतुत्वात्, कले: कलहस्य तरोवि मूलं पादो वृद्धिहेतुत्वात्, दुःखानां शरीरमानसानां लवणादीनामिव खानिराकरस्तत्समुत्थत्वात् दुःखानां काऽसौ ? अङ्गना । एवं तावद्यतिधर्मानुरक्तं गृहस्थं प्रति सामान्येन मैथुनदोषाः खीदोषाश्वोक्ताः ||८७|| सम्प्रति स्वदारसन्तुष्टान् गृहस्थानधिकृत्य साधारण स्त्रीदोषाः श्लोकपञ्चकेनोच्यन्तेमनस्यन्यद्वचस्यन्यत्क्रियायामन्यदेव हि । यासां साधारणस्त्रीणां ताः कथं सुखहेतवः ॥ ८८॥ मनसि चित्तेऽन्यत् वचःक्रिययोर्विलक्षणं वचसि वचनेऽन्यत् मनः क्रिययोर्विलक्षणं, क्रियायां चेष्टितेऽन्यत् वाङ्मनसोर्विसंवादि, यासां साधारणस्त्रीणां वेश्यानां ता विसंवादिप्रेमाणः कथं सुखस्य विश्वासैकनिबन्धनस्य हेतवः १ यदाह अन्यस्मै दत्तसङ्केता याचतेऽन्यं स्तुते परम् । अन्यचित्ते परः पार्श्वे गणिकानामहो नरः || १॥८८॥ तथा मांसमिश्रं सुरामिश्रमनेकविटचुम्बितम् । को वेश्यावदनं चुम्बेदुच्छिष्टमिव भोजनम् ॥ ८९ ॥ मांसेन जलस्थलखचारिजीवजाङ्गलेन मिश्रमामगन्धि, मांसादित्वाद्वेश्यानां सुरया काष्ठपिष्टादिमय्या मादिरया मिश्र व्यास, सुरापाणप्रसक्तत्वात् । अनेक विटैर्बहुभिर्विटैरित्यर्थः, चुम्बितमास्वादितम् प्रायो विटास द्वितीय प्रकाशः રા Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् द्वितीय प्रकाशा ર क्तत्वात, एवंविधं वेश्यानां बदनं कथुम्बेन कश्चिच्चेतनश्चुम्बेदित्यर्थः। उच्छिष्टमिव भोजनमित्युपमानमनेकवि टचुम्बितवेश्यावदनस्योपमेयस्य । अथवा मांसमिश्रत्वं सुरामिश्रत्वं चोच्छिष्टभोजनेऽपि योज्यम् ।।८९॥ तथा॥ अपि प्रदत्तसर्वस्वात् कामुकात् क्षीणसम्पदः। वोसोऽप्याच्छेत्तमिच्छन्ति गच्छतः पण्ययोषितः।९०। प्रदत्तसर्वस्वादपि महाधनावस्थायां, पुण्यक्षयात्क्षीणसम्पदः कामुकात्तत एव गच्छतः स्वगृहं प्रति, वासोऽपि परिधानवस्त्रमपि, आच्छेत्तं बलाद ग्रहीतुमिच्छन्ति, पण्यं मूल्यं तत्प्रधाना योषितो वेश्या, अनेन कृतघ्रत्वं तासामाह । यदाह उपचरिताऽप्यतिमात्र प्रकटवधुः क्षीणसम्पदः पुंसः । पातयति दृशं व्रजतः स्पृहया परिधानमात्रेऽपि॥१॥९॥ तथा| न देवान गुरुनापि सुहृदो न च बान्धवान् । असत्सङ्गरतिनित्यं वेश्यावश्यो हि मन्यते।९१ वेश्यावश्यः पुमान देवादीन्मन्यते, कुतः असत्सङ्गरतिनित्यं असद्भिविटादिभिः सङ्गो असत्सङ्गस्तत्र रतिर्यस्य । वेश्यावश्यस्य हि सुलभा एवासत्सङ्गाः ॥९१॥ तथा| कुष्टिनोऽपि स्मरसमान् पश्यन्ती धनकाङ्क्षया । तन्वन्ती कृत्रिमस्नेहं निःस्नेहां गणिकां त्यजेता __ कुष्ठिनः कुष्ठिरोगिणोऽप्यत्यन्तमनुपादेयान्, स्मरसमान् कन्दर्पतुल्यान् , धनकारक्षया हेतुभूतया पश्यन्ती, महत्या प्रतिपत्त्या प्रतिपादयन्ती, न च स्नेहमन्तरेण कुष्ठिनोऽपि सकाशाद्धनावाप्तिरिति । तन्वन्तीं विस्तारयन्ती, ॥२४॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ારકા कृत्रिममुपचरितं स्नेहं प्रेम, परमार्थतस्तु निःस्नेहां गणिकां वेश्यां त्यजेत् । एवं तावत्स्वदारसन्तुष्टस्य पण्याङ्ग— नागमने दोषाः प्रतिपादिताः ॥९२॥ इदानीं परदारगमनदोषानाह नांसक्त्यो सेवनीया हि स्वदारा अप्युपासकैः । आकरः सर्वपापानां किं पुनः परयोषितः ॥ ९३ ॥ सर्वविरतिलालसः खलु देशविरतिपरिणाम इति गार्हस्थ्येऽपि वैराग्यातिशयादुपासकैरप्रतिषिद्धाः स्वदारा अध्यासत्या गर्द्धनेन न सेवनीयाः, किं पुनः परयोषितः ? ता अत्यन्तमसेवनीया इत्यर्थः यत आकरः खानिः सर्वपापानां मायामृषावादादीनाम् हि शब्दो यस्मादर्थे, यस्मात् स्वदारानपि नासक्त्या सेवन्ते उपासकाः, ततः कथं परदारेषु प्रसजेयुरित्यर्थः ॥ ९३ ॥ परस्त्रीणां पापकारित्वमेव दर्शयति स्वपति या परित्यज्य निस्त्रपोपपति भजेत् । तस्यां क्षणिकचित्तायां विश्रम्भः कोऽन्ययोपिति ॥ ९४ ॥ तस्यां क्षणिकचित्तायां चलितचित्तायामन्ययोषिति, को विश्रम्भः को विश्वासः ? न कश्चिदित्यर्थः । विश्रम्भाधीनं च सुखं तदपि नास्तीत्यर्थः । या किं, या स्वपति देवतारूपं भर्तृदेवता हि खियः' इति श्रुतेः, परित्यज्य पाणिगृहीत्यपि त्यक्त्वा, निखपा लज्जारहिता, त्रपा हि भूषणं खीणाम्ः, उपपतिं पत्यन्तरं भजेत् ॥९४॥ इदानीं परस्त्री प्रसक्तोऽनुशिष्यते द्वितीय प्रकाशः મારા Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशः भीरोराकुलचित्तस्य दुःस्थितस्य परस्त्रियाम् । रतिर्न युज्यते कर्तुमुपशूनं पशोरिव ॥१५॥ परस्त्रियां रतिः प्रीतिः, कर्तुं न युज्यते, भीरोः पतिराजादिभीतस्य, अत एवाकुलचित्तस्य अनेन दृष्टोऽनेन ज्ञातोऽहमिति उपसर्पतीति व्याकुलचित्तस्य, दुःस्थितस्य खण्डदेवकुलादौ शय्यासनादिरहितस्य, कस्येव, पशोरिव वध्यस्य, उपशूनं शूनासमीपे ॥९५।। तस्मात्प्राणसन्देहजननं परमं वैरकारणम् । लोकद्वयविरुद्धं च परस्त्रीगमनं त्यजेत् ॥१६॥ परस्त्रियां गमनं सम्भोगस्तत्त्यजेत्, प्राणानां जीवितव्यस्य सन्देहो नाशशङ्का, तं जनयतीति प्राणसन्देहजननं परस्त्रीषु प्रसक्तस्य हि प्रायेण परैः प्राणाः प्रणाश्यन्ते कदाचिन्नेति प्राणसन्देहः, परमं प्रकृष्टं वैरस्य विरोधस्य कारणम् यदाह-" बद्धमूलस्य मूलं हि महद्वैरतरोः स्त्रिय" इति । लोकद्वयमिहलोकपरलोकलक्षणं, तस्य विरुद्ध प्राणसन्देहजननत्वारिकारणत्वाल्लोकद्वयविरुद्धत्वादिति परस्त्रीगमनत्यागे हेतुत्रयं विशेषणद्वारेण ॥९६॥ लोकद्वयविरुद्धं चेति विशेषणमस्फुटं स्फुटयतिसर्वस्वहरणं बन्धं शरीरावयवच्छिदाम् । मृतश्च नरकं घोरं लभते पारदारिकः ॥१७॥ सर्वधनापहारं, रज्ज्वादिना बन्धं, शरीरावयवः पुंध्वजादिस्तस्य च्छिदां छेदं लभत इतीहलोकविरोधः। मृतश्च नरकं घोरं लभते इति परलोकविरोधः। परदारान् गच्छतीति पारदारिकः ॥९॥ उपपत्तिपूर्व परखीगमनप्रतिषेधमाह URL Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग द्वितीय शानम् प्रका /ર૪૮ खदाररक्षणे यत्नं विदधानो निरन्तरम् । जाननपि जनो दुःखं परदारान् कथं व्रजेत् ॥९॥ जानम्नपि अनुभवनपि, दुःखं मनःपीडां, परदारप्रसङ्गे, परदाराः परेषां दाराः, परदाराः अतः स्वदारप्रसक्तेषु परेषु दुःखमनुभवत्येव । अत्र हेतुमाह । स्वरक्षणे, स्वदारकलत्ररक्षणे यत्नमादरं, भित्तिवरण्डकपाकारप्राहरिका दिभिर्विदधानः कुर्वन् , निरन्तरं दिवानिशं, स्वदाररक्षणपरिक्लेशशाली जनो जानात्येव स्वस्मिन् दुःखं इत्यात्मानुभवेन परेष्वपि दुःख पश्यन् कथं परदारान् ब्रजेत् ? ॥९८॥ आस्तां परखीष रमणं रमणेच्टटारणि रanविक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि, परस्त्रीषु रिसिया । कृत्वा कुलक्षयं प्राप नरकं दशकन्धरः ॥१९॥ . .....४५ 11 । ननु पारलाकिक फल नरकगमनरूपमास्तां, ऐहलौकिकं तु बलवतां कुतस्त्य का भवेदित्याह। विक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि, न हि दशकन्धरादन्यो बलवान् , यो विक्रमेण विश्वमप्याक्रान्तवान् सोऽपि यद्यनर्थमश्नुते तदा परस्य का मात्रेति ॥९९॥ अयं चार्थः सम्प्रदायगम्यः, स चायम् - अस्ति त्रिकूटशिरसि शिरोमणिरिव क्षितेः । रक्षोद्वीपे हिरण्याका केति प्रथिता पुरी ॥१॥ विद्याधरनृप રા Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्रम् द्वितीय प्रकाशा ll૨8ા खदाररक्षणे यत्नं विदधानो निरन्तरम् । जाननपि जनोदुःखं परदारान् कथं व्रजेत् ॥९॥ जाननपि अनुभवन्नपि, दुःखं मनःपीडां, परदारप्रसङ्गे, परदाराः परेषां दाराः, परदाराः अतः स्वदारप्रसक्तेषु परेषु दुःखमनुभवत्येव । अत्र हेतुमाह । स्वरक्षणे, स्वदारकलत्ररक्षणे यत्नमादरं, भित्तिवरण्डकपाकारणाहरिका दिभिर्विदधानः कुर्वन् , निरन्तरं दिवानिशं, स्वदाररक्षणपरिक्लेशशाली जनो जानात्येव स्वस्मिन् दुःखं इत्यात्मानुभवेन परेष्वपि दुःख पश्यन् कथं परदारान् व्रजेत् ? ॥९८॥ आस्तां परस्त्रीषु रमणं रमणेच्छाऽपि महतेऽनयेति आहपरस्त्रीविषये रमणाभावेऽपि रिंसामात्रेण हेतुना, दशकन्धरो रावणो, नरकं प्राप इति पारलौकिकं फलम् । ऐहिकमाह-कृता कुलक्षयं, यद्यपि कुलक्षयस्तस्य रामादिभिः कृतो न तेन, तथापि तदीयपरदाररिरंसापूर्वकत्वादिभिस्तत्त्वतस्तत्कृत उच्यते । ननु पारलौकिकं फलं नरकगमनरूपमास्तां, ऐहलौकिकं तु बलवतां कुतस्त्य भवेदित्याह। विक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि, न हि दशकन्धरादन्यो बलवान् , यो विक्रमेण विश्वमप्याक्रान्तवान् सोऽपि यद्यनर्थमश्नुते तदा परस्य का मात्रेति ॥९९॥ अयं चार्थः सम्प्रदायगम्यः, स चायम् - अस्ति त्रिकूटशिरसि शिरोमणिरिव क्षितेः । रक्षोद्वीपे हिरण्याङ्का लङ्केति प्रथिता पुरी ॥१॥ विद्याधरनृप ॥२४॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२४॥ द्वितीय प्रकाशा स्तस्यां पुलस्त्यकुलकौस्तुभः । अजायत महावी? राषणो विश्वरावणः ॥२॥ अभूतां भ्रातरौ तस्य निःसीमस्थामशोभिनौ। अपराविव दोस्तम्भौ कुम्भकर्णविभीषणौ ॥३॥ देवतामिव कुलस्य स्वपूर्वपुरुषार्जिताम् । गृहे नवमहारत्नखजं सोऽपश्यदन्यदा ॥४॥ श्रूयन्ते द्वादशादित्या नवादित्या इमे पुनः। दृश्यन्ते कथमित्येतदवृद्धान् पप्रच्छ तत्र सः॥५॥ अथाचचक्षिरे तस्मै त्वत्पूर्वपुरुषैः पुरा । वरलब्धा महासाराऽनयेयं रत्नमालिका ॥६॥ इमां क्षिपेत यः कण्ठे स्यात्सोऽर्द्धभरतेश्वरः। इत्याम्नायात्तवाम्नाये पूज्यते पूर्वजैरसौ ॥७॥ ततस्तां सोऽक्षिपत्कण्ठे तद्रत्नेषु नवस्वपि । सक्रान्तास्यतया चासौ दशास्य इति पप्रथे ॥ ८॥ ततो जनैर्जयजयेत्यारावैरभिनन्दितः। सोऽभान्मूर्त इवोत्साहो जगद्विजयहेतवे ॥९॥ तस्यानवद्या विद्यास्ताः प्रज्ञप्तीप्रमुखाः सदा । असाध्यसाधनप्रौढाः पार्श्व सेना इवावसन् ॥ १०॥ ततो भरतवर्षाः स एकग्रामलीलया । दःसाधं साधयामास दोःकडून त्वपूर्यत ॥ ११॥ आसीदितश्च वैताढयगिरौ विद्याधरेश्वरः। इन्द्रनामा पूर्वजन्मानुभूतेन्द्रपदस्थितिः ॥ १२ ॥ विश्वेश्वर्यबलोद्रेकादिन्द्रत्वाभ्यासतोऽपि च । इन्द्रमात्मानमेवायममंस्तेन्द्रं तु नापरम् ।१३। शचीति स स्वमाहिषीं स्वमखं वज्रमित्यपि । पट्टेभमैरावण इत्यश्वमुच्चैःश्रवा इति ॥ १३ ॥ सारथिं मातलिरिति चतुरोऽन्यान्महाभटान् । सोमो यमः पाशधरः कुबेर इति चाभ्यधात् ॥ १५॥ मन्यमानस्तृणायान्यानिन्द्रमन्यः स दोर्मदी । नाजीगणद्रावणमप्यत्यन्तरणदारुणम् ॥ १६ तस्मै ततः प्रकुपितः कृतान्त इव दारुणः। रावणः श्रावणाम्भोदगर्जद्गजबलोऽचलत् ॥ १८॥ विद्याबलात्ससैन्योऽपि लङ्घयामास सोऽर्णवम् । विद्याधरास्तुल्ययाना सुव्यम्भसि नभस्यपि ॥ १८ ॥ स दिशश्छादयन् सैन्यवात्योधृत रजश्चयैः । वैताढ्यं प्राप कल्पान्तमहावात ॥२४॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥२५० इव द्रुतम् ॥ १९ ॥ श्रुत्वा रावणमायान्तमिन्द्रोऽपि द्रुतमभ्यगात् । पुमां मैत्र्यां च वैरे च संमुखोत्थानमादिमम् ॥ २०॥ दूरादपि दशास्येन प्रहितो महितौजसा । अथ दुताऽभ्युपेत्येन्द्रमित्युवाच ससौष्ठवम् ॥ २१॥ ये केचिदिह राजानो विद्यादोर्वीयदपिणः । तैरुपेत्योपायनाद्यैः पूजितो दशकन्धरः ॥ २२ ॥ दशकण्ठस्य विस्मृत्या भवतश्चाजवादयम् । इयान् कालो ययौ तस्मिन् भक्तिकालस्तवाधुना ॥ २३॥ भक्तिं दर्शय तत्तस्मिन् शक्ति वा दर्शयाधुना । भक्तिशक्तिविहीनश्चेदेवमेव विनश्यसि ॥ २४ ॥ इन्द्रोऽपि निजगादेवं वराकैः पूजितो नृपः। रावणस्तदयं मत्तः पूजां मत्तोऽपि वाञ्छति ॥ २५ ॥ यथा तथा गतः कालो रावणस्य सुखाय सः । कालरूपस्त्वयं कालस्तस्येदानीमुपस्थितः ॥२६॥ गत्वा स्वस्वामिनो भक्ति शक्ति वा मयि दर्शय । स भक्तिशक्तिहीनश्वेदेवमेव विनश्यति ॥२७॥ दुतेनागत्य विज्ञप्ते रावणः क्रोधदारुणः । चचालानन्तसैन्योर्मिः क्षयोद्धान्त इवाणवः ॥ २८॥ तयोर्बलानामन्योऽन्यं संफेटः शस्त्रवर्षिणाम् । संवर्तपुष्करावर्त्तवारिदानामिवाभवत् ॥ २९ ॥ रावणं रावणिर्नत्वा युद्धायेन्द्रमथाहत । रणक्रीडासु वीरा हि नाग्रं ददति कस्यचित् ॥३०॥ ततश्चैकाङ्गविजयाकारक्षिणाविन्द्ररावणी । सैन्यान्यपास्यायुध्येतां द्वन्द्वयुद्धेन दुर्द्धरौ ॥ ३१ ॥ मिथः प्रतिहतास्त्रौ तौ रणपारयियासया। युयुधाते नियुद्धेन मदान्धौ सिन्धुराविव ॥ ३२ ॥ रावणिः कीमधोऽथेन्द्र ऊर्ध्वमिन्द्रोऽथ रावणिः। नालक्ष्यत तयोर्व्यक्तिर्वेगाद्विपरिवर्तिनोः ॥ ३३॥ विजयश्रीः क्षणेनेन्द्रे मेघनादे क्षणेन च । यातायातं व्यधानीतेवोभयोरपि भीमयोः ॥ ३४ ॥ असौ मशक इत्यस्थाद्यावद्गर्वेण वज्रभित् । तावत्सवौंजसा मेघनादस्तं समुपाद्रवत् ।३५। पातयित्वा झगित्येव तं बबन्ध दशास्यसूः । जिगीषूणां जये हेतुः प्रथमो द्याशुकारिता ॥ ३६ ॥ मेघनादः ॥२५० Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२५॥ द्वितीय प्रकाशा सिंहनादैर्नादयन् रोदसी अपि । पितुः समर्पयामास मूर्त जयमिवाथ तम् ॥३७॥ प्रबलारक्षगुप्तायां तं गुप्तौ रावणोऽक्षिपत् । द्वयं विधत्ते हि बली निहन्त्यपि वहत्यपि ॥३८॥ सोमो दण्डधरः पाशी कुबेरश्च समेत्य ते। दशास्यमिन्द्रग्रहणात्क्रुद्धा रुरुधिरे ततः ॥३९॥ जितकाशी दशास्योऽपि भूत्वोत्साहाच्चतुर्गुणः । योधयामास संग्रामचतुरश्चतुरोऽपि तान् ॥४०॥ सोऽभाक्षीदण्डिनो दण्ड चुक्षोद गदिनो गदाम् । पाशिनोऽत्रोटयत्पाशान् धनुः सोमस्य चाच्छिदत् ॥४१॥ अपातयत्प्रहारैस्तान्महेभः कलभानिव । अग्रहीद्रावणो बध्ध्वा वैरिविद्रावणः क्षणात् ॥४२॥ सप्ताङ्गराज्यसहितमुपादाय पुरन्दरम् । पाताललङ्कां लकेशो विजेतुमगमत्ततः ॥ ४३ ॥ हत्वा चन्द्रोदरं तत्र तद्राज्यं स्वां च सोदरीम् । सोऽदात्खराय त्रिशिरोषणज्यायसे ततः ॥४४॥ चन्द्रोदरस्य निःशेष खरः खरबलोऽयहीत् । एका तु गुर्विणी राज्ञी प्रणश्य कचिदप्यगात् ॥४५॥ ततः पाताललङ्कातो लङ्कां लङ्कापतिर्ययौ । तत्र निष्कण्टकं राज्यं चक्रे विष्टपकण्टकः॥४६॥ सोऽनेयुः पुष्पकारूढः क्रीडयेतस्ततो भ्रमन् । मरुत्तभूपप्रारब्धमीक्षाश्चक्रे महामखम् ॥४७॥ ततो विमानादुत्तीर्णो दशास्यस्तद्दिदृक्षया । आनर्चे भूभुजा तेन पायसिंहासनादिना ॥४८॥ ततो मरुत्तभूपालं जगादेवं दशाननः । अरे किमेष क्रियते नरकाभिमुखैमखः ॥४९॥ धर्मः प्रोक्तो ह्यहिंसातः सर्वखिजगद्धितः । पशुहिसात्मकाद्यज्ञात्स कथं नाम जायते ॥५०॥ लोकद्वयारिं तद्यज्ञं मा कार्षीश्चेत्करिष्यसि । मद्गुप्ताविह ते वासः परत्र नरके पुनः॥५१॥ विससज मखं सद्यो मरुत्तनृपतिस्ततः। अलङ्गचा रावणाज्ञा हि विश्वस्यापि भयङ्करा ॥५२॥ प्रभञ्जन इवौजस्वी मरुत्तमखभञ्जनः। ततोऽगाच्चैत्ययात्रार्थ सुमेर्वष्टापदादिषु।।५३।। विधाय यात्रां चैत्येषु कृत्रिमाकृत्रिमेषु सः । आजगाम निजं धाम पुनरेव दशाननः॥५४॥ |॥२५१॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् ॥२५२॥ द्वितीय प्रकाशा इतश्चासीदयोध्यायां पुर्यामेकमहारथः । राजा दशरथो नाम धाम निःसीमसम्पदाम् ॥ ५६ ।। पल्यः कौशल्याकैकेयीसुमित्रासुप्रभाभिधाः । प्रियाश्चतसस्तस्यासन्मूर्त्ता इव दिशां श्रियः ॥५६॥ कौशल्या सुषुवे राम कैकेयी भरतं सुतम् । सुमित्रा लक्ष्मणं नाम शत्रुघ्नं सुप्रभाऽभिधा ॥५७॥ रामलक्ष्मणभरतशत्रुध्नास्तस्य रेजिरे। चत्वारः सूनवो दन्ता इव त्रिदशदन्तिनः ॥५८|| जनकस्य सुतां सीतां भामण्डलसहोदरीम् । कार्मुकारोपणपणां रामभद्र उपायत ॥५९|| जिनेन्द्रबिम्बस्नपनजलं मङ्गलहेतवे । चतसृणां च राज्ञीनां नृपः औषयदन्यदा ॥६॥ तत्तोयमागतं पश्चादिति रोषमुपेयुषीम् । अनुनेतुं स्वयं राज्ञी सुमित्रामगमन्नृपः ॥६१।। घण्टान्तालिकालोलदशनं चलिताननम् । श्वेतसङ्गरोमाणं भ्ररोमच्छन्नलोचनम् ॥६२॥ पदे पदे प्रस्खलन्तं याचमानं च पश्चताम् । गतस्तत्र ददर्शकं जरत्कन्चुकिनं नृपः ॥६३॥ तं दृष्ट्वाऽचिन्तयद्राजा स्मो यावन्नेदृशा वयम् । चतुर्थपुरुषार्थाय तावद्धि प्रयतामहे ॥६४॥ व्रतं जिघक्षुः स ततो राज्ये स्थापयितुं निजे । अहायाहाययामास तनयौ रामलक्ष्मणौ ॥६५॥ भरतस्य जनन्याऽथ कैकेय्या मन्थरागिरा । वरौ प्राकप्रतिपन्नौ स याचितः सत्यसङ्गरः ॥ ६६ ॥ वरेणार्थित एकेन स तदा रघुपुङ्गवः । प्रतिपन्नस्थितो राज्यं भरताय समार्पयत् ॥६७॥ चतुर्दशसमा यावद्वनवासाय चादिशत् । ससीतालक्ष्मणं रामं वरेणान्येन चार्थितः ॥६८॥ ससीतालक्ष्मणो रामः सद्योऽगाद्दण्डकावनम् । पञ्चवटयाश्रमे चावतस्थेऽसौ सत्यसङ्गरः॥६९॥ तत्रायातौ चारणी राघवाभ्यां नमस्कृतौ । सीताऽऽनर्चातिथीभृतौ श्रद्धालुः शुद्धभिक्षया ॥७०॥ ततो गन्धोदकैर्वृष्टिरमरैर्विदधे तदा । तद्गन्धादाययौ तत्र जटायुर्नाम गृध्रराट् ॥७१॥ तौ मुनी देशनां तत्र चक्रतुः स व्यबोधि च । संजातजातिस्मरणोऽवतस्थे चानुजानकि ॥७२॥ ॥२५२॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाश ॥२५३॥ तस्थुषस्तत्र रामस्य फलाद्यर्थ बहिर्गतः । ददर्श लक्ष्मणः खड्गमाहीच्च कुतूहलात् ॥७३॥ तत्तीक्ष्णत्वपरीक्षार्थ तत्क्षण तेन लक्ष्मणः । अभ्यर्णस्थां वंशजाली नाललावं लुलाव च ॥७४|| वंशजालान्तरस्थस्य कृतं कस्यापि देहिनः । अर्थक मौलिकमलं सोऽपश्यत्पतितं पुरः ॥७५॥ अयुध्यमानोऽशस्त्रश्च पुमान् कोऽपि हतो मया । अमुना कर्मणा धिग्मामित्यात्मानं निनिन्द सः ॥७६॥ गत्वा च रामभद्राय तदशेषमचीकथत् । असिं च दर्शयामास रामोऽप्येवमभाषत ॥७७॥ आसावसिः सूर्यहासः साधकोऽस्य त्वया हतः । अस्य सम्भाव्यते नूनं कश्चिदुत्तरसाधकः ॥७८॥ अत्रान्तरे दशग्रीवस्वसा चन्द्रणखाऽभिधा । खरभार्या ययौ तत्र ददर्श च हतं सुतम ॥७९॥ कासि हा वत्स शम्बूक शम्बूकेति रुदत्यसौ। अपश्यल्लक्ष्मणस्यांघ्रिन्यासपक्ति मनोहराम ॥८॥ मम सूनुहतोऽनेन यस्येयं पदपद्धतिः । पदपक्तिपथेनैव ततश्चन्द्रणखाऽऽययौ ॥८॥ यावत्किश्रिदगात्तावत्ससीतालक्ष्मणं पुरः। नेत्राभिरामं रामं साऽपश्यत्तरुतले स्थितम् ॥८॥ निरीक्ष्य रामं सा सद्यो रिरंसाविवशाऽभवत् । कामावेशः कामिनीनां शोकोद्रेकेऽपि कोऽप्यहो ॥८॥ स्वं रूपं चारु कृत्वाऽथ रन्तुं रामस्तयाऽर्थितः । हसन्नचे सभार्योऽहमभायं भज लक्ष्मणम् ॥८४॥ तयाऽर्थितस्तथैवैत्य | लक्ष्मणोऽप्येवमब्रवीत् । आयं गता त्वमार्येव तदलं वार्तयाऽनया ॥८५॥ सा याश्चाखण्डनात्पुत्रवधाच्च रुषिताऽधिकम् । आख्यद्गत्वा खरादीनां तत्कृतं तनयक्षयम् ॥८६॥विद्याधरसहस्रेस्ते चतुर्दशभिरावृताः । ततोऽभ्येयुरुपद्रोतुं रामं शैलमिव द्विपाः ॥८७! किमार्यः सत्यपि मयि योत्स्यते स्वयमीदृशैः । इति राममयाचिष्ट तेषां युद्धाय लक्ष्मणः ॥८८|| गच्छ वत्स ! जयाय त्वं यदि ते सङ्कटं भवेत् । सिंहनादं Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२५४॥ Cha ममाहूत्यै कुर्या इत्वन्वशात् स तम् ||८९ || रामाज्ञा प्रतिपद्योच्चैर्लक्ष्मणोऽथ धनुः सखा । गत्वा प्रववृते हन्तुं स तांस्तार्क्ष्य इवोरगान् ॥९०॥ प्रवर्द्धमाने तद्युद्धे स्वभर्तुः पाणिवृद्धये । गत्वा त्वरितमित्यूचे रावणं रावणस्त्रसा ॥९१॥ आयातौ दण्डकारण्ये मनुष्यौ रामलक्ष्मणौ । अनात्मज्ञौ निन्यतुस्ते यामेयं यमगोचरम् ॥९२॥ श्रुत्वा स्वसृपतिस्ते तु सानुजः सबलो ययौ । तत्र सौमित्रिणा सार्द्धं युद्धयमानोऽस्ति संप्रति ॥९३॥ कनिष्ठभातृवीर्येण स्ववीर्येण च गर्वितः । परतोऽस्ति स्थितो रामो विलसन् सीतया सह ॥ ९४ || सीता च रूपलावण्यश्रिया सीमेव योषिताम् । न देवी नोरगी नापि मानुष्यन्यैव काऽपि सा ॥ ९५|| तस्या दासीकृताशेषसुरासुरवधूजनम् । त्रैलोक्येऽप्यप्रतिच्छन्दं रूपं वाचामगोचरम् ||१६|| आसमुद्रममुद्राझ ! यानि कान्यपि भूतले । तवैवार्हन्ति रत्नानि तानि सर्वाणि बान्धव ! ॥ ९७ ॥ दृशामनिमिषीकारकारणं रूपसम्पदा । स्त्रीरत्नमेतद्गृहणीया न चेत्तन्नासि रावणः ॥९८॥ आरुह्य पुष्पकमयादिदेश दशकन्धरः । विमानराज ! त्वरितं याहि यत्रास्ति जानकी ॥९९॥ ययौ चात्यन्तवेगेन विमानमनुजानकि । स्पर्द्धयेव दशग्रीवमनसस्तत्र गच्छतः ॥ १०० ॥ दृष्ट्वापि रामादत्युग्रतेजसो दशकन्धरः । विभाय दुरे तस्थौ च व्याघ्रो हुतवहादिव ॥ १॥ इति चाचिन्तयदितः कष्टं रामो दुरासदः इतश्च सीताहरणमितो व्याघ्र इतस्तटी ||२|| विमृश्य च ततो विद्यामस्मार्षोदवलोकनीम् । उपतस्थे च सा मड्क्षु किङ्कव कृताञ्जलिः ||३|| ततश्वाज्ञापयामास तत्कालं तां दशाननः । कुरु साहाय्यमहाय मम सीतां हरिष्यतः ||४|| साऽवोचद्वासुकेम लिरत्नमादीयते सुखम् । न तु रामसमीपस्था सीता देवासुरैरपि ॥५॥ किन्त्वसावस्ति यायाद् येनैष लक्ष्मणम् । तस्यैव सिंहानादेन सङ्केतो ह्यनयोरयम् || ६ || एवं कुर्विति तेनोक्ता उपायः Short HORSETO CO द्वितीय प्रकाशः ॥२५४॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२५॥ द्वितीय प्रकाशा वजित्वा परतस्ततः । सा साक्षादिव सौमित्रिः सिडनादं विनिर्ममे ॥७॥ तं श्रुत्वा मैथिली तत्र मुक्त्वा रामो ययौ द्रुतम् । महतामपि मोहाय भवेन्माया हि मायिनाम् ॥८॥ अथोत्तीर्य दशग्रीवः सीतामारोप्य पुष्पके । त्वां हरन् रावणोऽस्मीति कथयन्नभसा ययौ ॥९॥ हा नाथ विद्विषन्माय राम हा वत्स लक्ष्मण । हा तातपाद हा भ्रातर्भामण्डल महाभुज ॥१०॥ सीता वो हियतेऽनेन काकेनेव बलिश्छलात् । एवं सीता रुरोदोच्चै रोदयन्तीव रोदसीम् ॥११॥ मा भैषीः पुत्रि मा भैषी करे यासि निशाचर । रोषादिति वदन् दुराज्जटायुस्तमधावत ॥ ॥१२॥ भामण्डलानुगश्चैकः कोऽपि विद्याधराग्रणीः । डुढौके दशकण्ठं रे तिष्ठ तिष्ठेति तर्जयन् ॥१॥ जटायुविकटाटोपकरजबोटिकोटिभिः । प्रणिहन्तुं दशग्रीवोरसि प्रववृते ततः ॥१४॥ रे जीवितस्य तृप्तोऽसि जरद्धेति विब्रुवन् । दशास्याश्चन्द्रहासासिमाकृष्य निजघान तम् ॥१५॥ तस्य विद्याधरस्यापि विद्या दशमुखोऽहरत् । निकृत्तपक्षः पक्षीव सोऽपविद्योऽपतद्धवि ॥१६॥ रावणोऽगात्ततो लकां सीतां चोपवनेऽमुचत तां प्रलोभयितुं तत्र त्रिजटामादिदेश च ॥१७॥ रामस्यापि हतामित्रः सौमित्रिः समुखोऽभवत् । आर्यामार्य ! विमुच्यैकां किमागा इति चाब्रवीत् ॥१८॥ आहूतः सिंहनादेन तव वैधुर्यलक्ष्मणा । लक्ष्मणाहमिहायातो व्याजहरेति राघवः ॥१९॥ लक्ष्मणोऽप्यपदच्चक्रे सिंहनादो मया न हि । श्रुतश्चार्येण तन्नूनं वयं केनापि वञ्चिताः ॥२०॥ अपनेतुं सत्यमार्यामपनीतोऽस्युपायतः । सिंहनादस्य करणे शके स्तोकं न कारणम् ॥२१॥ ब्रुवन् साध्विति रामोऽपि स्वस्थानेऽगात्सलक्ष्मणः। सीतामपश्यन् क्यासीति विलपन्मूच्छितोऽपतत् ॥२२॥ तं लब्धसंज्ञं सौमित्रिरित्यूचे रुदितैरलम् । पौरुषं पुरुषाणां हि व्यसनेषु प्रतिक्रया ॥२३॥ ॥२५५॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥२५ ॥ __ अत्रान्तरे पुमानेकः कश्चिदेत्य ननाम तौ । ताभ्यां पृष्टः स्ववृत्तान्तमेवं व्यज्ञपयच्च सः ॥२४॥ हत्वा पाता ललकेशं तातं चन्द्रोदरं मम । अश्वस्येव पदे तस्य खरं खररथोऽकरोत् ॥२५॥ गुर्वी च नष्टा मन्माता विराधं नाम मां सुतम् । अन्यत्रासत तस्याश्च कश्चिदाख्यदिदं मुनिः ॥२६॥ यदा दाशरथिर्हन्ता खरादींस्त्वत्सुतं तदा । पाताललकाधिपति करिष्यति न संशयः ॥२७॥ तदद्य समयं लब्ध्वा युष्मानस्मि समाश्रितः । पितृवेरिवधक्रीतं पत्तिं जानीथ मां निजम् ॥२८॥ रामस्ततोऽदात्पाताललङ्कां तस्मै महाभुजः। फलन्ति समयज्ञानां स्वामिनः स्वयमेव हि ॥२९॥ तं च स्थापयितुं तत्र गच्छन् रामः सलक्ष्मणः। हृतविद्यं पुरोऽपश्यद्भस्थं भामण्डलानुगम् ॥३०॥ अथ दाशरथी नत्वा स वृत्तान्तं व्यजिज्ञपत् । आत्मनश्च जटायोश्च सीताया रावणस्य च ॥३१॥ अथ पाताललङ्कायां ययौ रामः सलक्ष्मणः । सत्यसन्धो विराधं च पि (पै)व्ये राज्ये न्यवेशयत् ॥३२॥ इतश्च साहसगति म विद्याधराग्रणी । खे भ्रमनधिकिष्किन्धाधित्यकं समुपाययौ ॥३३॥ ययौ तदा च किष्किन्धाधिपतिः क्रीडितुं बहिः । सुग्रीवः सपरीवारो राज्ञां हि स्थितिरीदृशी ॥३४॥ ददर्श साहसगतिस्तदा चान्तःपुरस्थिताम् । सुग्रीवस्य प्रियां नाम्ना तारां तारविलोचनाम् ॥३५॥ तस्यां लावण्यकूलिन्यां स चिक्रीडिपुरुच्चकैः । इयेष नान्यतो गन्तुं धर्मा इव कुब्जरः ॥३६॥ सोऽस्थात्तथैव तत्रैव निषिद्धगमनःक्षणात् । तां मृता॑मिव कामाज्ञामुल्लङ्घयितुमक्षमः ॥३७॥ रमणी रमणीयेयं रमणीया मया कथम् । इतीच्छाव्याकुल: सोऽप्युपायं क्षणमचिन्तयत् ॥३८॥ सहसा साहसगतिस्ततः सुग्रीवरूपताम् । स कुशीलत्वकुशलः कुशीलव इवाददे ॥३९॥ अथासौ विटमुग्नीवः सुग्रीव इति मानिभिः । अङ्गरक्षरस्खलितः सुग्रीवभवनेऽविशत् ॥२५॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ योगशास्त्रम् हितोष प्रकाशा રબા n ॥४०॥ अन्तःपुरगृहद्वारं स ययौ यावदुत्सुकः । तावद्वयाघुटच सुग्रीवः स्ववेश्मद्वारमाययौ ॥४१॥ सुग्रीवस्य प्रवेष्टुं न द्वार प्राहरिका ददुः । अग्रे प्रविष्टो राजाऽस्ति त्वमन्योऽसीति वादिनः ॥४२॥ ततश्च सत्यमुग्रीवे स्खल्यमाने स्ववेत्रिभिः । अतुलस्तुमुलो जज्ञे मथ्यमान इवार्णवे ॥४३॥ सुग्रीवद्वितयं दृष्ट्वा सन्देहाद्वालिनन्दनः । शुद्धान्तविप्लवं आतुं तद्वारं त्वरितो ययौ ॥४४॥ शुद्धान्ते विटसुग्रीवः प्रविशन् वालिसूनुना । मार्गाद्रिणा सरित्पूर इव प्रस्खलितस्ततः ॥४५॥ अथामिलन् सैनिकानामक्षौहिण्यश्चतुर्दश । चतुर्दशजगत्सारसर्वस्वानीव सर्वतः ॥४६॥ द्वयोरपि तयोर्भेदमजानन्तोऽथ सैनिकाः- सत्यसुग्रीवतोऽऽर्दै विटमुग्रीवतोऽभवन् ॥४७॥ ततः प्रववृते युद्धं सैन्ययोरुभयोरपि । कुन्तपातै दिवं कुर्वदुल्कापातमयीमिव ॥४८॥ युयुधे सादिना सादी निषादी च निषादिना । पदातिना पदातिश्च रथिको रथिकेन च ॥४९॥ चतुरङ्गचमूचक्रविमर्दादथ मेदिनी । अवाप कम्पं मुग्धेव प्रौढप्रियसमागमात् ॥५०॥ एोहि रे परगृहप्रवेशश्वनिति ब्रुवन् । विटसुग्रीवमुग्रीवः सुग्रीवो योध्धुमाहत ॥५१॥ ततश्च विटमुग्रीवो मत्तम इव तर्जितः । ऊर्जितं गर्जितं कुर्वन् संमुखीनो युधेऽभवत् ॥५२॥ युयुधाते महायोधौ तौ क्रोधारुणलोचनौ। विदधानौ जगत्त्रासं कीनाशस्व सोदरौ ॥५३॥ तौ निशातेनिशातानि शखैः शस्त्राण्यथो मिथः । चिच्छेदाते तणच्छेदं रणच्छेकाबुभावपि ॥५४॥ शस्त्रखण्डैरुच्छलद्भिदृवे खेचरीगणः । महायुद्धे तयोवृक्षखण्डो महिषयोखि ॥५५॥ तौ छिन्नास्वावथान्योन्यममर्षणशिरोमणी । मल्लयुद्धनास्फलतां पर्वताविव जङ्गमौ ॥५६॥ उत्पतन्तौ (१) परगृहप्रवेशे सारमेयसरश!। ॥२५॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा il૯૮ क्षणायोम्नि निपतन्तौ क्षणाद्भुवि । ताम्रचूडाविवाभातां वीरचूडामणी उभौ ॥५७॥ तौ द्वावपि महाप्राणौ मिथो जेतुमनीश्वरौ । अपमृत्य च दरेण वृषभाविव तस्थतुः ॥५८॥ पुनयुदन मुग्रीवः खिन्नः खिन्नतनुस्ततः। बहिनिगत्य किष्किन्धापुरादावासमग्रहीत् ॥५९॥ तत्रैव विटसुग्रीवस्तस्थावस्वस्थमानसः। अन्तःपुरप्रवेशं तु न लेभे वालि नन्दनात् ॥६०॥ मुग्रीवो न्यश्चितग्रीवमर्थवं पर्यचिन्तयत् । अहो खीलम्पटः कूटपटुः कोऽप्येष नो द्विपन् ॥६॥ आत्मीया अप्यनात्मीया द्विषन्मायावशीकृताः। अहो बभूवुस्तदसाववस्कन्दो निजैर्हयैः ॥६२॥ मायापराक्रमोत्कृष्टः कथं वध्यो द्विषन् मया । धिग्मां पराक्रमभ्रष्ट वालिनाम्नत्रपाकरम् ॥६॥ धन्यो महावली वाली योऽखण्डपुरुषव्रतः । राज्यं तृणमिव त्यक्त्वा यश्च भेजे परं पदम् ॥६४॥ चन्द्ररश्मिः कुमारो मे बलीयान् जगतोऽप्यसौ । किं तु द्वयोरभेदज्ञः कं रक्षतु निहन्तु कम् ॥६५॥ इदं तु विदधे साधु साध्वहो चन्द्ररश्मिना । तस्य पापीयसो रुद्धं शुद्धान्ते यन्प्रवेशनम् ॥६६॥ वधाय बलिनोऽमुष्य बलीयांसं श्रयामि कम् । यद् घात्या एव रिपवः स्वतोऽपि परतोऽपि वा ॥६७॥ भूभुवःस्वस्त्रयीवीरं मरुत्तमखभञ्जनम् । भजामि विद्विषयातहेतवे किं दशाननम् ॥६९॥ असो किंतु प्रकृत्या स्त्रीलोलखेलोक्यकण्टकः । तं च मां च निहत्याशु तारामादास्यते स्वयम् ॥६९॥ ईदृशे व्यसने प्राप्ते साहाय्यं कर्तुमीश्वरः । आसीत् खरः खरतरो राघवेण हतः स तु ॥७०॥ तावेव रामसौमित्री गत्वा मित्रीकरोमि तत् तत्कालोपनतस्यापि यौ विराधस्य राज्यदौ ॥७१॥ तौ तु पाताललङ्कायामलंकर्मीणदोबलौ । विराधस्योपरोधेन तथैवाद्यापि तिष्ठतः ॥७२॥ एवं विमृश्य सुग्रीवोऽनुशिष्य रहसि स्वयम् । विराधपुर्या विश्वासभूतं दूतं न्ययोजयत् ॥७३॥ गत्वा पाताललङ्कायां विराधाय प्रणम्य सः । स्वामिव्यसनवृत्तान्तं कथयित्वाऽब्रवीदिदम् ॥७४॥ ॥२५८॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाश ॥२५९॥ महति व्यसने स्वामी पतितो नस्तदीडशे । राघवौ शरणीकर्तुं तव द्वारेण वाञ्छति ।।७५।। द्रुतमायातु सुग्रीवः सतां सङ्गो हि पुण्यतः । तेनेत्युक्तो दूत एत्य सुग्रीवाय शशंस तत् ॥७६॥ प्रचचालाथ सुग्रीवोऽश्वानां ग्रैवेयकस्वनैः । दिशो मुखरयन् सर्वा वेगादरमदृरयन् ॥७७॥ पाताललङ्कां स पाप क्षणेनाप्युपवेश्मवत् । विराधं चोपतस्थेऽसावभ्युत्तस्थौ स चापि तम् ॥७८॥ विराधोऽपि पुरोभूय रामभद्राय तायिने । तं नमस्कारयामास तहःखं च व्यजिज्ञपत् ॥७९॥ सुग्रीवोऽप्येवमूचेऽस्मिन् दुःखे त्वमसि मे गतिः। क्षुते हि सर्वथा मृढे शरणं तरणिः खलु ॥८०॥ स्वयं दु:ख्यपि तदुःखच्छेदं रामोऽभ्युपागमत् । स्वकार्यादधिको यत्नः परकार्ये महीयसाम् ॥८१॥ सीताहरणवृत्तान्तं विराधेनावबोधितः। रामं विज्ञपयामास सुग्रीवोऽथ कृताञ्जलिः ॥८२॥ त्रायमाणस्य ते विश्वं तथा द्योतयतो रवेः। न कापि कारणापेक्षा देव बच्मि तथाप्यदः॥८३॥ त्वत्प्रसादात् क्षतारिः सन् ससैन्योऽपि तवानुगः । आनेष्यामि प्रवृत्तिं च सीताया नचिरादहम् ॥८४॥ ससुग्रीवः प्रतस्थे च किष्किन्धां प्रति राघवः। विराधमनुगच्छन्तं संबोध्य विससर्ज च ॥ ८६ ॥ रामभद्रेऽथ किष्किन्धास्कन्धावारमधिष्ठिते । सुग्रीवो विटसुग्रीवमाहास्त रणकर्मणे ॥९६॥ निनदन विटसुग्रीवोऽप्यागादाहानमात्रतः । रणाय नालसाः शूरा भोजनाय द्विजा इव ॥८७॥ दुर्द्धरैश्चरणन्यासैः कम्पयन्तौ वसुन्धराम् । तावुभावप्ययुध्येतां मत्ताविव वनद्विपौ ॥८८॥ रामः सरूपौ तौ दृष्ट्वा कोऽस्मदीयः परश्च कः। इति संशयतस्तस्थावुदासीन इव क्षणम् ।।८९॥ भवत्वेवं तावदिति विमृशन् रघुपुङ्गवः । वज्राव भिधधनुष्टङ्कारमकरोत्ततः॥९०॥ धनुष्टङ्कारतस्तस्मात्सा साहसगतेः क्षणात् ।रूपान्तरकरी विद्या हरिणीव पलायत ॥९१॥ विमोह्य मायया सर्व परदार रिरंससे । पापारोपय रे ॥३५९॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् १२६०॥ हितीय प्रकाश चापमिति रामस्ततर्ज तम् ॥८२॥ एकेनापीषुणा प्राणांस्तस्याहाद्रिचूद्वहः । न द्वितीया चपेटा हि हरेहरिणमारणे ॥९३॥ विराधमिव सुग्रीवं रामो राज्ये न्यवेशयत् । सुग्रीवोऽपि स्वलोकेन प्राग्वदेवानमस्यत ॥९४॥ इतश्च रामकार्यायागाद्विराधः समं बलैः । स्वामिकृत्यमकृत्वा हि कृतज्ञा नासते सुखम् ॥९५॥ भामण्डलोऽपि तत्रागाद् विद्याधरचमृवृतः। प्रभुकार्य कुलीनानामुत्सवो द्युत्सवादपि ॥ ६९ ॥ जाम्बुवद्धनुमन्नीलनलादीन् विदितौजसः । सुग्रीवश्च स्वसामन्तान् समन्तादप्यजूहवत् ॥९७॥ विद्याधरचमूचक्रेष्वायातेष्वय सर्वतः । उपेत्य राम सुग्रीवः प्रणम्यवं व्यजिज्ञपत् ॥९८॥ रहनूमानाञ्जनेयोऽयं विजयी पावनञ्जयिः । सीताप्रवृत्त्यै लङ्कायां त्वदादेशाद ब्रजिष्यति ॥९९॥ रामेणाज्ञापितो दत्त्वा स्वमभिज्ञानमूमिकाम् । नभस्वानिव नभसा नभखत्तनयो ययौ ॥२००॥ सोऽगात्क्षणेन लङ्कायामुद्याने शिशपातले । सीतामपश्यद्धयायन्तीं नाम रामस्य मन्त्रवत् ॥१॥ तरुशाखातिरोभूतः सीतोत्सङ्गेऽङ्गुलीयकम् । हनूमान् पातयामास तदृष्ट्वा मुमुदे च सा ॥२॥ तदेव गत्वा त्रिजटा दशकण्ठं व्यजिज्ञपत् । इयत्कालं विषण्णाऽऽसीत् सानन्दा त्वद्य जानकी ॥३॥ मन्ये विस्मृतरामेयं रिरंसुर्मयि संप्रति । तद्गत्वा बोध्यतामित्यादिक्षत् मन्दोदरीं स तु ॥४॥ ततश्च पत्युदत्येन तत्र मन्दोदरी ययौ । प्रलोभनकृते सीतां विनीता सेत्यवोचत ॥५॥ अद्वैतैश्वर्यसौन्दर्यवर्यस्तावधशाननः । त्वमप्यप्रतिरुपैव रुप लावण्यसम्पदा ॥६॥ यद्यप्यज्ञेन दैवेन युवयोरुभयोरपि । न व्यधाय्युचितो योगस्तथापि ह्यस्तु संप्रति ॥७॥ (१) हनुमानिति सर्वत्र पाठः । UROON Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय 'प्रकाशः ॥२६॥ उपेत्य भजनीय तं भजन्तं भज रावणम् । अहमन्याश्च तद्राश्यस्त्वदाज्ञां सुभ्र ! विभ्रतु वा सीताऽप्यवोचदाः पापे पतिदृस्यविधायिनि । त्वद्भर्तुरिव वीक्षेत मुख दुर्मुखि कस्तव ॥९॥ रामस्य पार्श्वे मां विद्धि सौमित्रिमिह चागतम् । खरादीनिव हन्तुं द्राक धवं तव सबान्धवम् ॥१०॥ उत्तिष्ठोत्तिष्ठ पापिष्ठे वच्मि नातः परं त्वया । सीतया तर्जितैवं सा सकोपा प्रययौ ततः॥११॥ अथावतीर्य हनुमान् सीतां नत्वा कृताञ्जलिः । इत्यूचे देवि न जयति दिष्टया रामः स लक्ष्मणः ॥१२॥ त्वप्रवृत्तिकृते रामेणादिष्टोऽहमिहागमम् । मयि तत्र गते राम इहैण्यति रिपुच्छि दे ॥१३॥ पतिदूतं हनूमन्तमभिज्ञानसमर्पकम् । प्रीता सीताऽप्यथाशीर्भिरमोघाभिरनन्दयत् ॥१४॥ हनूमदुपरोधेन रामोदन्तमुदा च सा । एकोनविंशत्युपवासान्ते व्यधित भोजनम् ॥१५॥ प्राभञ्जनिः प्रभञ्जन इवोद्यानस्य भञ्जने । प्रवृत्तो दशकण्ठस्य बलालोकनकौतुकात् ॥१६॥ भज्यमानं तद्यानं तेन मानमिवोच्चकैः । उपेत्य दशकण्ठस्याशंसन्नुद्यानपालकाः ॥१७॥ आरक्षा रावणादिष्टास्तं निहन्तुं समागताः । हता हनूमतैकेन विचित्रा हि रणे गतिः ॥१८॥ आदिष्टो दशकण्ठेन साटोपः शक्रजित्ततः। तबन्धायामुचत्पाशान् पाशैः स्वं सोऽप्यवन्धयत् ॥१९॥ नीतश्चाग्रे दशास्यस्य दलयन् मुकुटं पदा । उत्पपातापास्तपाशस्तडिदण्ड इवानिलि: ॥२०॥ हन्यतां गृह्यतां चैष इति जल्पति रावणे । अनाथामिव सोऽभाक्षीत्तत्पुरी पाददर्दरैः ॥२१॥ क्रीडां कृत्वैवमुत्पत्त्य सुपर्ण इव पावनिः । एत्य रामं नमस्कृत्य तं वृत्तान्तं व्यजिज्ञपत् ॥२२॥ रामस्तं गाढमाप डयो रसा सुतमिवौर पम् । लङ्काविजययात्रायै सुग्रीवादीनथादिशत् ॥२३॥ समुद्रं रावणारखं वद्भवा सेतुं च राघवः । लङ्कापुरी विमानस्थः मुग्रीवाद्यैः समं ययौ ॥२४॥ निवेश्य कटकं रामो इंसद्वीपान्तरे ततः। अववेष्टदबलेलङ्का ॥२६॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥२६२॥ मेकपाटकलीलया ॥२५॥ ___ अत्रान्तरे दशग्रीवं प्रणम्योचे बिभीषणः। कनिष्ठस्यापि मे स्वामिन्नधैकं वचनं कुरु ॥२६॥ आयातो रामभद्रोऽत्र निजां जायां च याचते । अर्यतां तदसौ सीता धर्मोऽप्येवं न बाध्यते ॥२७॥ अथोचे रावणो रोषाद्रे बिभेषि बिभीषण । तदेवमुपदेशं मे दत्से कापुरुषोचितम् ॥२८॥ विभीषणो बभाषेऽथ दूरे रामः सलक्ष्मणः। तत्पत्तिरेको हनुमान दृष्टो देवेन कि न हि ॥२९॥ अस्मद्वेषी विपक्षानुरागी ज्ञातोऽसि याहि रे । इति निर्वासितस्तेन ययौ रामं विभीषणः ॥३०॥ लङ्काधिपत्यमेतस्मै रामोऽपि प्रत्यपद्यत । न ह्यौचित्ये विभु ह्यन्ति महात्मानः कदाचन ॥३१॥ बहिनिर्गत्य लड़ेशसेना राघवसेनया । कांस्यतालं कांस्यताले नेवास्फलदथोल्वणम् ॥३२॥ प्राणसर्वस्वदेविन्योमिथश्चम्वोर्गतागतम् । जयश्रीः श्रीरिवाकार्षीदुत्तमर्णाधमर्णयोः ॥३३॥ रामभ्रसंज्ञयाऽऽज्ञप्ता हनूमत्प्रमुखास्ततः । जगाहिरे द्विषत्सैन्य सुरा इव महोदधिम् ॥३४॥ हताः केऽपि धृताः केऽपि नाशिताः केऽपि राक्षसाः । प्रसरशी रामवीरेदुरारणेरिव ॥३५॥ कुम्भकर्णस्तदाकर्ण्य क्रुद्धो वह्निरिव ज्वलन् । मेघनादश्च सावेशः प्रविवेश रणाङ्गणम् ॥३६॥ तावापतन्तौ कल्पान्तपवनज्वलनाविव । न हि सोढुमशक्येतां रामसैन्यैर्मनागपि ॥३७॥ सुग्रीवोऽथ रुषोत्पाठय शिलामिव शिलोचयम् । अक्षिपत्कुम्भकर्णाय सोऽपि तं गदयाऽपिषत् ॥३८॥ पुनर्गदाप्रदारेण पातयित्वा कपीश्वरम् । कक्षायां न्यस्य पौलस्त्यो लङ्कां प्रत्यचलत्ततः ॥३९॥ मेघवन्निनदन्मेघनादोऽपि मुदितस्ततः । प्लवङ्गान् प्लावयामास निशातशरवृष्टिभिः ॥४०॥ डुढौके तिष्ठ तिष्ठेति भाषमाणोऽरुणेक्षणः । रामोऽथ कुम्भकर्णाय मेघनादाय लक्ष्मणः ॥४१॥ सुग्रीवोऽप्युत्प ॥२६२॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥२६३॥ पाताथ कृत्वौजो रावणानुनात् । मुष्टो धृतः कियत्कालं ननु तिष्टति पारदः ॥४२॥ वलितः कुम्भकर्णोऽपि रामेण युयुधे ततः। सौमित्रिणा मेघनादोऽप्रमादः क्षोभयन् जगत् ॥४३॥ मिलितौ रामपौलस्त्यावन्धी पूर्वापराविव । अभातामुत्तरापाच्याविव लक्ष्मणरावणी ॥४४॥ रावणावरजं रामो रावणिं लक्ष्मणः पुनः । पातयित्वाऽग्रहीत्सत्यं रक्षसामपि राक्षसः ॥४५॥ रावणैरावणो रोषादशेषकपिकुञ्जरान् । पिपन्नथाययौ युद्धभुवं भुवनभीषणः ॥४६॥ अलमार्य ! स्वयं युद्धेनेति राम निवारयन् । सौमित्रिरभ्यमित्रीणो बभूवास्फालयन् धनुः ॥४७॥ चिरं युद्धवाऽखिलैरस्त्रैरनविद्रावणस्ततः । जघानामोधया शक्या मक्षु वक्षसि लक्ष्मणम् ॥४८॥ शक्या भिन्नोऽपतत्क्षोण्यां लक्ष्मणस्तत्क्षणादपि । तथैव सद्यो रामोऽपि बलवच्छोकशङ्कुना ॥४९॥ कृत्वा वप्रान् भटैरष्टौ प्राणैरपि हितैषिणः । सुग्रीवाद्यास्ततो रामं सलक्ष्मणमवेष्टयन् ॥५०॥ मरिष्यत्यद्य सौमित्रिस्तदभावे तदग्रजः । कि मुधा मे रणेनेति रावणोऽगात्पुरी ततः॥५१।। राघवं परितो जाते वप्रद्वारचतुष्टये । सुग्रीव प्रमुखास्तस्थुरारक्षीभूय ते निशि ॥५२॥ भामण्डलमथोपेत्य दक्षिणद्वाररक्षणम् । पूर्वसंस्तुत इत्यूचे कोऽपि विद्याधराग्रणीः॥५३॥ अयोध्याया योजनेषु द्वादशस्वस्ति पत्तनम् । कौतुकमङ्गलमिति तत्र द्रोणघनो नृपः।५४॥ । कैकेयीभ्रातुरस्यास्ति विशल्या नाम कन्यका । तस्याः स्नानाम्भसः स्पर्शे शल्यं निर्याति तत्क्षणात् ॥५५॥ आप्रत्यूषालक्ष्मणश्चेत्तत्स्नानपयसोक्ष्यते । गतशल्यस्तदा जीवेदन्यथा तु न जीवति ॥५६॥ ततो मत्प्रत्ययाद्रामभद्रं विज्ञपय द्रुतम् । कस्यापि दापयादेशं तदानयनहेतवे ॥५७॥ त्वर्यतां स्वामिकार्याय प्रत्यूषे किं करिष्यथ । उदस्ते शकटे हन्त कि कुर्वीत गणाधिपः ॥५८॥ भामण्डलस्ततो गत्वा तद्रामाय व्यजिज्ञपत् । ॥२६३॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥२६॥ आदिक्षत्तत्कृते रामस्तमेव हनुमधुतम् ॥५९॥ ईयतुस्तौ विमानेनायोध्यां पवनरंहसा । प्रासादाङ्के ददृशतुः शयानं भरतं ततः ॥६०॥ भरतस्य प्रबोधाय तौ गीतं चक्रतुः कलम् । राजकार्येऽपि राजान उत्थाप्यन्ते ह्युपायतः ॥६१॥ विबुध्य भरतेनापि दृष्टः पृष्टः पुरो नमन् । ऊचे भामण्डलः कार्य नाप्तस्याप्ते प्ररोचना ॥६२॥ सेत्स्यत्येतन्मया तत्रेयुषेति भरतस्ततः । तद्विमानाधिरूढोऽगात्पुरं कौतुकमङ्गलम् ॥६३॥ भरतेन द्रोणघनो विशल्यामथ याचितः । स २होद्वाह्य स्त्रीसहससहितां तामदत्त च ॥६४|| भामण्डलोऽप्ययोध्यायां मुक्त्वा भरत मुत्मकः । आययौ सपरीवारविशल्यासंयुतम्ततः ॥६५॥ ज्वलद्दीपविमानस्थो भीतैः सूर्योदयभ्रमात् । क्षणं दृष्टो निजैः सोऽधाद्विशल्यामुपलक्ष्मणम् ॥६६॥ तया च पाणिना स्पृष्टाल्लक्ष्मणात्तत्क्षणादपि । निःसृत्य काप्यगाच्छक्तियष्टिनेव महोरगी ॥६७॥ तस्याः स्नानाम्भसाऽन्येऽपि रामादेशादथोक्षिताः। निःशल्या जज्ञिरे सैन्याः पुनर्जाता इव क्षणात् ॥६८॥ अस्याः स्नानाम्भसा सेक्तुं कुम्भकर्णादयोऽपि ते। आनीयतामिहेत्युच्चैरादिदेश रघूद्वहः ॥६९॥ तदानीमेव तैर्देव प्रव्रज्या जगृहे स्वयम् । इति विज्ञपयामामुरारक्षा लक्ष्मणाग्रजम् ॥७॥ बन्धास्तेऽद्य महात्मानो मोच्या मुक्तिपथस्थिताः । इति रामगिराऽऽरक्षनत्वाऽमुच्यन्त ते क्षणात् ॥७॥ विशल्यां कन्यकास्ताश्च तदोपायंस्त लक्ष्मणः । रावणोऽपि स्णायागादमर्पणशिरोमणिः ॥७२॥ प्रणम्य राम सौमित्रिरुत्तस्थेऽधिज्यकार्मुकः । विवाहाद्युत्सवेभ्योऽपि वीराणामुत्सवो रणः ॥७३॥ यद्यदखं दशग्रीवो विससर्जातिदारुणम् । तत्तच्चिच्छेद सौमित्रिरस्त्रैः कदलिकाण्डवत् ॥७४॥ अस्त्रच्छेदादथ क्रुश्चक्रं चिक्षेप १ हिते जने हितजनस्य प्ररोचना न भवति । २ ह इति स्फुटार्थेऽव्ययम् । ॥२६४॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग द्वितीय प्रकाशा शास्त्रम् ॥२६५॥ रावणः । तल्लक्ष्मणोरस्यपतच्चपेटावन्न धारया ॥७५॥ तदेवादाय सौमित्री रावणस्याच्छिदच्छिरः। निजाश्वरप्यवस्कन्दः पतेत् स्वस्य कदापि हि ॥७६॥ सीता स्वर्णशलाकेव निर्मला शीलशालिनी । रामेण जगृहे लङ्काराज्ये न्यस्तो विभीषणः ॥७७॥ शत्रु निहत्य ससहोदरदारमित्रो, रामो ययावथ निजां नगरीमयोध्याम् । उत्पन्नया परकलत्ररिरंसयाऽपि, कृत्वा कुलक्षयमगाभरकं दशास्यः ॥२७८॥ ॥ इति सीतारावणकथानकम् ॥९९॥ तस्मात् । Al लावण्यपुण्यावयवां पदं सौन्दर्यसम्पदः । कलाकलापकुशलामपि जह्यात्परस्त्रियम् ॥१०॥ दुस्त्यजामपि परस्त्रियं जह्यात्परिहरेत् । दुस्त्यजत्वे हेतूनाह-लावण्यपुण्यावयवां लावण्यं स्पृहणीयतारूपादिभ्योऽतिरिक्तं तेन पुण्याः पवित्रा अवयवा यस्यास्तां, पदं स्थानं सौन्दर्यसंपदो रूपसम्पदः कला द्वासप्ततिलेखाद्याः स्त्रीजनोचिताः तासां कलापः समूहस्तत्र कुशलां प्रवीणाम् । लावण्यं, रूपं, वैदग्ध्यं च परदाराणां दुस्त्यजत्वे हेतुः । अपिशब्दस्त्रिप्वपि हेतुषु सम्बन्धनीयः ॥१०॥ परस्त्रीगमने दोषानभिधाय परस्त्रीविरतान् प्रशंसतिअकलङ्कमनोवृत्तेः परस्त्रीसन्निधावपि । सुदर्शनस्य किं ब्रूमः सुदर्शनसमुन्नतेः ? ॥१०१॥ परस्त्रीसन्निधानेऽपि निष्कलङ्कचेतोवृत्तेः सुदर्शनाभिधानस्य महाश्रावकस्य किं ब्रुमः कां स्तुति कुर्महे ? । ॥२६॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥२६॥ वचनगोचरातीता स्तुतिरित्यर्थः । सुदर्शनस्य विशेषणं सुदर्शनसमुन्नतेः शोभना दर्शनसमुन्नतिर्यस्मात्तस्य, सुदर्शनप्रभावकस्येत्यर्थः । सुदर्शनश्च संप्रदायगम्यः । स चायम् अस्त्यङ्गदेशेऽत्यलकापुरी चम्पेति तत्र च । दधिवाहन इत्यासीद्राजाऽतिनेरवाहनः ॥१॥ अभूत्तस्याभया नाम कलाकौशलशालिनी । महादेवी स्वलावण्यावज्ञातत्रिदशाङ्गना ॥२॥ इतो नगर्यां तस्यां च समग्रवणिमग्रणीः । श्रेष्टी वृषभदासोऽभूदासीनः श्रेष्ठकर्मणि ॥३॥ यथार्थनामिका जैनधर्मोपासनकर्मणा । अर्हद्दासीति तस्यासीद वल्लभा शीलशालिनी ॥४॥ श्रेष्ठिनस्तस्य महिषीरक्षोऽभूत्सुभगाभिधः । अनैपीन्महिषीनित्यं स तु चारयितुं वने ॥५॥ वनानिवृत्तः सोऽन्येधुर्माघमासे दिनात्यये । अपश्यदप्रावरणं कायोत्सर्गस्थितं मुनिम् ॥६॥ अस्यां हिमगिरी स्थाणुरिव यः स्थास्यति स्थिरम् । असौ धन्यो महात्मेति चिन्तयन् स गृहं ययौ ॥७॥ महामुनिमवज्ञातहिमानीपातवेदनम् । तमेव चिन्तयन्नाद्रमना रात्रि निनाय सः ॥८॥ अविभातविभावगृहीत्वा महिषीस्ततः । स ययौ तत्र यत्रासीत् स मुनिः प्रतिमास्थितः ॥९॥ कल्याणीभक्तिरानम्योपासाञ्चके सतं तदा । अहो नैसर्गिकः कोऽपि विवेकस्तादृशामपि ॥१०॥ अत्रान्तरे चण्डरोचिरारोहदुदयाचलम् । श्रद्धया तमिव द्रष्टुं कायोत्सर्ग स्थितं मुनिम् ॥११॥ स नमो अरिहन्ताणमिति वाचमुदीरयन् । द्वितीय इव चण्डाशुरुत्पपात नभस्तले ॥१२॥ आकाशगामिनी नूनमियं विद्येति बुद्धितः । नमस्कारपदं तं तु सुभगो निदधे हृदि ॥१३॥ जाग्रत्स्वपन्नटस्तिष्ठन्दिवा निशि गृहे बहिः। तदपाठीत स उच्छिष्टोऽप्येकपाहा हि तादृशाः ॥१४॥ HAMARARIANRASHRI २६६॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौगशास्त्रम् ॥२६७॥ ततः पप्रच्छ तं श्रेष्टीं विश्वोत्कृष्टप्रभावभृत् । प्राप्तं पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारपदं कुतः || १५ || अशेषं महिषीपालः कथयामास तत्ततः । साधु भोःसाधु भद्रेति शंसन् श्रेष्ठी जगाद तम् ॥ १६॥ आकाशगमने हेतुरसौ विद्या न केवलम् किन्तु हेतुरसावेव गतौ स्वर्गापवर्गयोः ॥ १७॥ यत्किञ्चित्सुन्दरं वस्तु दुष्प्रापं भुवनत्रये । लीलया प्राप्यते सर्वं तदमुष्य प्रभावतः || १८ || अस्य पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारस्य वैभवम् । परिमातुं न शक्तोऽस्मि वारि वारिनिधेरिव ||१९|| साधु प्राप्तमिदं भद्र तत्त्वया पुण्ययोगतः किन्तूचि हैर्ग्रहीतव्यं गुरुनाम न जातुचित् ||२०|| व्यसनी व्यसनमिव न त्यक्तं क्षणमप्यदः । अलमस्मीति तेनोक्तः श्रेष्ठी हृष्टोऽब्रवीदिदम् ||२१|| तदधीष्वास्विलां पञ्चपरमेष्ठिनमस्क्रियाम् । कल्याणानि यथा ते स्युः परलोकैहलोकयोः ॥२२॥ ततोऽशेषनमस्कारं लब्धार्थमिव तद्धनः । परावर्त्तयताजस्त्रं सुभगः सुभगाशयः ||२३|| महिषीपालकस्यास्य श्रुत्तष्णावेदनाहरः । परमेष्ठिनमस्कारः प्रकामं समजायत ||२४|| एवं तस्य नमस्कारपाठव्यसननिनः सतः । कियत्यपि गते काले वर्षाकालः समाययौ ||२५|| धारानाराचधोरण्या प्रसर्पिण्या निरन्तरम् । अकीलयदिव द्यावापृथिव्यौ नव्यवारिदः ||२६|| गृहाद्गृहीत्वा महिषीःस्रुभगोऽपि बहिर्गतः । विनिवृत्तोऽन्तराऽपश्यद्घोरपूरां महानदीम् ||२७|| तां दृष्ट्वा स मनाग् भीतस्तस्थौ किञ्चिद्विचिन्तयन् । नदीं तीर्त्वा परक्षेत्रे महिष्यः प्राविशस्ततः ॥ २८ ॥ नमस्कारं पठन् व्योमयानविद्याधिया ततः । उत्पपात कृतोत्फालो मध्येनदि पपात च ॥ २९|| तत्रान्तः कर्दमं मग्नः खरः खदिरकीलकः । कृतान्तदन्तसोदर्यो हृद्यस्य प्रविशेश च ॥ ३० ॥ तथैवावर्त्तयन् पञ्चपरमेष्ठिनमस्क्रियाम् । तदा मर्माविधा तेन कालधर्ममियाय सः ॥३१॥ श्रेष्ठिपत्न्यास्ततः सोऽईदास्याः कुक्षाववातरत् । नमस्काररतानां हि सद्गतिर्न विसंवदेत् ॥३२॥ तस्मिन् ENO ONE OR ROKE द्वितीय प्रकाशः ॥२६७ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् १२६८॥ द्वितीय प्रकाशा गर्भस्थिते मासि तार्तीयीके व्यतीयुषि । श्रेष्टिनी श्रेष्टिने स्वस्य दोहदानित्यचीकथत् ।।३३।। गन्धोदकैः स्नपयितुं विलेप्तुं च विलेपनैः । अचितुं कुसुमैरिच्छाम्यहतां प्रतियातनाः॥३४॥ प्रतिलम्भयितुं साधूनिच्छाम्याच्छादनादिभिः। संघं पूजयितुं दातुं दीनेभ्यश्च मतिर्मम ॥३५॥ इत्यादिदोहदांस्तस्याः श्रुत्वा मुदितमानसः। चिन्तामणिरिव श्रेष्ठिशिरोमणिरपूरयत् ॥३६॥ ततो नवसु मासेषु दिनेष्वाष्टमेषु च । गतेषु श्रेष्ठिनी पुत्रमसूत शुभलक्षणम् ॥३७॥ सद्यो महोत्सवं कृत्वा श्रेष्ठि हृष्टः शुभे दिने । सूनोः सुदर्शन इति यथार्थ नाम निर्ममे ॥३८॥ बर्द्धमानः क्रमात्पित्रोमनोरथ इवोच्चकैः । सुदर्शनो यथौचित्यं जग्राह सकलाः कलाः ॥३९॥ कन्यां मनोरभां नाम मनोरमकुलाकृतिम । साक्षादिव रमा श्रेष्ठी तेन तां पर्यणाययत् ॥४०॥ सौम्यमूर्तिः स हर्षाय पित्रोरेव न केवलम् । जज्ञे राज्ञोऽपि लोकस्य सर्वस्य च शशाङ्कवत् ॥४१॥ इतो नगर्या तत्राभूभूपते हृदयङ्गमः। पुरोधाः कपिलः प्राप्तरोधा विद्यामहोदधेः ॥४२॥ समं सुदर्शनेनास्य मन्मथेन मधोरिव । अजायत परा प्रीतिः सर्वदाऽप्पविनश्वरी ॥४३॥ (युग्मम्) प्रायः सुदर्शनस्यैव स पुरोधा महात्मनः । रौहिणेय इवोष्णांशो परिपार्श्वमवर्तत ॥४४॥ कपिलं कपिला नाम भार्यापृऽच्छत्तमन्यदा । विस्मरनित्यकर्माणि कियत्कालं नु तिष्ठसे ॥४५॥ पार्वे सुदर्शनस्याई तिष्ठामीति तदीरिते। कोऽसौ सुदर्शन इति तयोक्तः प्रत्युवाच सः ॥४६॥ मम मित्रं सतां धुर्य विश्वैकप्रियदर्शनम् । सुदर्शनं न चेद्वेत्सि तवं वेत्सि न किश्चन ॥४७॥ तं ज्ञापयाधुनापीति तयोक्तः कपिलोऽवदत् । असावृषभदासस्य श्रेष्ठिनस्तनयः सुधीः ॥४८॥ एष रूपेण पञ्चेषुः (१) प्रतिमाः (१) प्राप्तपारः १२६८॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२६॥ द्वितीय प्रकाशा कान्त्येन्दुस्तेजसा रविः । गाम्भीर्येण महाम्भोधिः क्षमया मुनिसत्तमः ॥४९॥ दानकचिन्तामाणिक्यं गुणमाणिक्यरोहणः । प्रियालापसुधाकुण्डं वसुधामुखमण्डनम् ॥५०॥ रखलूक्त्वा खलु यद्वाऽस्य निखिलानपरान् गुणान् । गुणचूडामणेः शीलं यस्य न स्खलति कचित् ॥५१॥ कपिला कपिलाच्छुत्वा तद्गुणान् कामविला । चक्रेडनुरागं चपलाः प्रायेण द्विजयोषितः ॥५२॥ सुदर्शनाभिसरणोपायं प्रतिदिनं ततः। कपिला चिन्तयामास परं ब्रह्मव योगिनी ॥५३॥ अपरेधुर्नपादेशानामान्तररमुपेयुषि । कपिले कपिलेयाय सुदर्शननिकेतनम् ॥५४॥ सा मायाविन्यवोचत्तमद्य त्वत्सुहृदो महत् । शरीरापाटवं तेन हेतुना नाययाविह ॥५५॥ अपाटवं त्वद्विरहाद्वपुषो द्विगुण यतः । अतस्त्वामहमाहातुं प्रेषिता सुहृदा तव ॥५६॥ नैतजज्ञातं मयेत्युक्त्वा तदैवागात्स तद्गृहम् नान्यमायां हि शङ्कन्ते सन्तः स्वयममायिनः ॥५७॥ स तत्र प्रविशन्नूचे क नाम सुहृदस्ति मे । सोवाच गम्यतामग्रे शयानः सुहृदस्ति ते ॥५८॥ किश्चिच्च परिसृप्याग्रे पुनः प्रोचे सुदर्शनः । अत्रापि कपिलो नास्ति किम न्यत्र कचिद्ययौ ॥५९॥ सोचे स्थितो निवातेऽम्ति शरीरापाटवादसौ । मूलापबरकं गच्छ बयस्यं तत्र पश्य च ॥ ॥६०॥ तत्रापि प्रविवेशायमपश्यन् सुहृदं ततः । कपिले ! कपिलः कास्तीत्युवाच सरलाशयः ॥६१।।अवरुद्धय ततो द्वारं मदनोद्दीपनानि सा । किश्चित्प्रकाश्य स्वाङ्गानि च्छादयन्त्यच्छवाससा ॥६२॥ दृढबन्धामपि नीवीं श्लथयित्वाऽभिवध्नती । विलोललोचनाऽवोचद्रोमाञ्चोदश्चिकन्चुका ॥६३॥ (युग्मं) नास्तीह कपिलस्तस्मात्कपिलां प्रतिजागृहि । बिभेदो भवतः को वा द्वयोः कपिलयोननु ॥६४॥ प्रतिजागरितव्यं किं कपिलाया इति ब्रु (१) अलम् । ॥२६९॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्रम् द्वितीय प्रकाशा UR SOIL वन् । सुदर्शनो निजगदे पुनः कपिलभार्यया ॥६५॥ त्वद्वयस्यः शशंस त्वां यदाऽद्भुतगुणं मम । ततः प्रभृति मामेष दुनोति मदनज्वरः ॥६६॥ दिष्टया मे बिरहा याश्छद्मनाऽपि त्वदागमः । भुवो ग्रीष्माभितप्ताया इव मेघसमागमः ॥६७॥ अद्य नाथामि तन्नाथ ! मन्मथोन्माथविहलाम् । निजाश्लेषसुधावर्षे राश्वासय चिराय माम् ॥६७॥ प्रपञ्चः कोऽप्यसावस्या दुर्विचिन्त्यो विधेरपि । धिक् स्त्रीरिति विचिन्त्योचे स प्रत्युत्पन्नधीरिदम् ॥६९॥ यूनां युक्तमिदं किन्तु १पण्डकोऽहमपण्डिते! । मुधा पुरुषवेषेण मदीयेनासि वश्चिता ॥७०॥ ततो विरक्ता सद्यः सा याहि याहीति भाषिणी । द्वारमुद्घाटयामास निर्ययौ च सुदर्शनः ॥७१।। स्तोकेन मुक्तो नरकद्वारादस्मीति चिन्तयन् । श्रेष्ठिसू नुई तपदं प्रपेदे निजमन्दिरम् ॥७२॥ अतिराक्षसयः कूटादतिशाकिनयश्छलात् । अतिविद्युतचापलादारुणाः किमपि स्त्रियः ॥७३॥ एताभ्यो भीरुरस्मीति प्रत्यौपीद्विमृश्य सः । नातः परं परगृहे यास्यामि कचिदेककः ॥७४॥ निर्मिमाणः स धाणि कर्माणि शुभकर्मठः। सतां मूर्त इवाचारो नावचं किञ्चिदाचरत् ॥७५॥ एकदा तु यथाकालं पुरे तस्मिन्नवर्तत । समग्रजगदानन्दपदमिन्द्रमहोत्सवः ॥७६॥ सुदर्शनपुरोधोभ्यां सहोद्यानं ययौ नृपः । साक्षादिव शरत्कालश्चन्द्रागस्तिविराजितः ॥७७॥ इतः कपिलया युक्ताऽभया भूपतिमन्वगात् । समारूढा याप्ययाने विमान इब नाकिनी ॥७८॥ सुदर्शनस्य भार्याऽपि पइभिः पुत्रैर्मनोरमा । तत्रागाद्यानमारुह्य सतीधर्म इवाङ्गवान् ॥७९॥ तां दृष्ट्वा कपिलाऽपृच्छत्केयं स्वामिनि ! वणिनी । रूपलावण्यसर्वस्वभाण्डागार इवाग्रतः ॥८॥ ततस्तामभयाऽवादीन्न ज्ञातेयमपि त्वया । सुदर्शनस्य गृहिणी गृहलक्ष्मीरिव (१) क्लीवः (२) देवी। ॥२७॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EDIO योगशास्रम् द्वितीय प्रकाधा ॥२७१॥ स्वयम् ॥८॥ तच्छुत्वा विस्मिता स्माह कपिला देवि ! यद्यसौ । सुदर्शनस्य गृहिणी तदस्याः कौशलं महत् ।। ॥८२॥ किमस्याः कौशलमिति रायोक्ता साऽब्रवीत्पुनः । इयन्ति पुत्रभाण्डानि यदसौ समजीजनत् ॥८३॥ स्वाधीनपतिका पुत्रानङ्गना जनयेद्यदि । तत्कि कौशलमित्युक्ताऽभयया कपिलाऽवदत् ॥८४॥ एवं देवि ! भव त्येव पतिर्यदि पुमान् भवेत् । सुदर्शनः पुनरयं पण्डः पुरुषवेषभृत ॥८५॥ कथमेतत्त्वया ज्ञातं राज्येति गदिता ततः । सा सुदर्शनवृत्तान्तं स्वानुभूतमचीकथत् ॥८६॥ अभयाऽप्यब्रवीदेवं यद्येवं वश्चिताऽसि तत् । मृढे ! पण्डः परस्त्रीषु न त्वयं निजयोषिति ॥८७॥ ततो विलक्षा कपिला प्रललापेत्यमूयिता । वञ्चिता यद्यहं मूढा प्राज्ञायाः किं तवाधिकम् ॥८८॥ अनयोचे मया मुग्धे ! रागतः पाणिना धृतः। द्रवेदनावाऽपि निःसंज्ञः ससंज्ञः कि पुनः पुमान् ॥८९॥ सासूयमूचे कपिलाऽप्येवं मा गर्वमुबह । गर्व वहसि चेद्देवि ! रम्यतां तत्सुदर्शनः ॥९०॥ व्याजहाराभया देवी साहङ्कारमिदं ततः । हला ! रमितमेवैनं मया विद्धि सुदर्शनम् ॥११॥ रमणीभिर्विदग्धाभिः कठोरा वनवासिनः तपस्विनोऽपि रमिताः कोऽसौ मृदुमना गृही ॥९२॥ रमयामि न यद्येनं प्रविशामि तदाऽनलम् । इत्यालपन्त्या वुद्यानं प्रपेदाते क्षणेन ते ॥९३।। तत्रारमयतां स्वैरं नन्दनेऽप्सरसाविव । अभयाकपिले श्रान्ते स्वं स्वं धाम गते ततः॥९४॥ अथ तत्राभया राज्ञी स्वप्रतिज्ञामजिज्ञपत् । धात्रिकां पण्डितां नाम सर्वविज्ञानपण्डिताम् ॥१५॥ पण्डिताऽवोचदाः ! पुत्रि ! न युक्तं मन्त्रितं त्वया । अज्ञेऽद्यापि न जानासि धैर्यशक्ति महात्मनाम् ॥१६॥ जिनेन्द्रमुनिशुश्रूषानिष्कम्पीकृतमानसः। सुदर्शनः खल्वसौ तत्प्रतिज्ञां घिगिमां तव ॥९७॥ अन्योऽपि श्रावको नित्यं परनारीसहोदरः । किमुच्यते पुनरसौ महासत्वशिरोमणिः ॥९८॥ ब्रह्मचर्यधना नित्यं गुरखो यस्य साधवः ॥२७१॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ૨૭ર कथं कार्येत सोऽब्रह्म गुरुशीलाधुपासकः ॥९९॥ सदा गुरुकुलासीनो ध्यानमौनाश्रितः सदा । आनेतुमभिसत वा स कथं नाम शक्यते ॥१००॥ वरं फणिफणारत्नग्रहणाय १प्रतिश्रवः । कदापि न पुनस्तस्य शीलोल्लङ्घनकर्मणे ॥१॥ अथाभयोचे कथमप्येकवारं तमानय । तत ऊर्ध्वमहं सर्व करिष्यामि न ते च्छलम् ॥२॥ विचिन्त्य चेतसा किञ्चिदित्यवोचत पण्डिता । यद्ययं निश्चयस्ते तदस्त्युपायोऽयमेककः ॥शा पर्वाहे शून्यगेहादौ कायोत्सर्ग करोति सः । तथास्थितो यदि परमानेतव्योऽन्यथा तु न || उपायः साधुरेषोऽस्मिन् यतितव्यं त्वयाऽन्वहम् । इत्युक्तवत्यां तात्पर्याद्देव्यामोमित्युवाच सा ॥५॥ ततः परं व्यतीतेषु दिवसेषु कियत्स्वपि । विश्वानन्दकृत्कौमुदीमहोत्सव उपाययौ ॥६॥ अथ यज्ञोत्सवोत्सेकविधित्सोत्सुकचेतसा । आरक्षकाः समादिष्टाः पटहेनेत्यघोषयन् ॥७॥ सर्वद्धर्या सर्वलोकेन कौमुद्युत्सवमीक्षितुम् । अधोद्यानेडभिगन्तव्यमिति वो राजशासनम् ॥८॥ प्रातरेष्यच्चतुर्मासधर्मकर्मक्रियोन्मनाः । श्रुत्वा सुदर्शनस्तत्त विषादादित्यचिन्तयत् ॥९॥ मनः अहमिदं प्रातश्चैत्यवन्दनकर्मणे । उद्यानगतये चैतत्प्रचण्डं राजशासनम् ॥१०॥ क उपायो भवत्वेवं तावदित्यभिचिन्त्य सः । समयॊपायनं भूमिपतिमेवं व्यजिज्ञपत् ॥११॥ प्रातः पर्वदिनं युष्मत्प्रसादाद्विदधाम्यहम् । देवार्चादीनि (ति) तेनोक्तोऽनुमेने तन्महीपतिः ॥१२॥ द्वितीयेऽहि जिनेन्द्राणां भक्क्या स्नात्रं विलेपनम् । अर्चा च रचयंश्चैत्यपरिपाठयां चचार सः॥१३॥ ततः सुदर्शनो रात्रौ गृहीत्वा पौषधव्रतम् कायोत्सर्गेण कस्मिश्चित्तस्थौ नगरचत्वरे ॥१४॥ पण्डिताऽप्यभयामृचे कदाचित्ते मनोरथाः । पूर्य्यन्ते परमुद्या(१) प्रतिज्ञा । २ उत्सुकम् । ૨૭૨ા Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥२७३॥ OXES CHOIN CH नमद्य त्वमपि मा गमः || १५ || शिरो मे बाधत इति कृत्वोत्तरमिलापतेः तस्थौ राज्ञी प्रपञ्चे हि सिद्धसारस्वताः स्त्रियः ||१६|| ततो लेप्यमयीं काममूर्त्तिमाच्छाद्य वाससा । याने कृत्वा पण्डिताऽगात्प्रवेष्टुं राजवेश्मनि ॥१७॥ किमेतदिति पृच्छद्भिर्वेत्रिभिः स्खलिता तु सा । इत्यूचे पण्डिता भाण्डागारिकी कूटसम्पदाम् ॥१८॥ शरीरकारणादेवी नाद्योद्यानं ययौ ततः । पूजां स्मरादिदेवानां वेश्मन्येव करिष्यति ॥ १९ ॥ इयं प्रवेश्यते तस्मा त्प्रतिमा पुष्पधन्वनः । अप्यन्यासां देवतानां प्रवेश्या ह्यद्य मूर्त्तयः ॥२०॥ तदिमां दर्शयित्वैव याहीति द्वाःस्थ भाषिता । सा काममूर्त्तिमुद्घाटयादर्शयच्च जगाम च ॥ २१॥ सा प्रतीहारमोहाय गृहीताऽपरमूर्त्तिका । द्वित्रिव प्रविवेशाsो नारीणां छद्मकौशलम् ||२२|| याने सुदर्शनं न्यस्योत्तरीयेण पिधाय च । द्वाःस्थैरस्खलिताऽनीयाभयायाः पण्डिताऽऽर्पयत् ||२३|| आविविकारा साऽनेकप्रकारं मदनातुरा । अभया संक्षोभयितुमित्यभाषत तं ततः ||२४|| कन्दर्पो मां दुनोत्येष निःशङ्कं निशितैः शरैः । कन्दर्पप्रतिरूपस्तच्छ्रितोऽसि शरणं मया ||२५|| शरण्यः शरणयातामार्त्ती त्रायस्व नाथ ! माम् । परकार्ये महीयांसो कार्यमपि कुर्वते ॥ २६ ॥ आनी छद्मनाऽसीति कार्यः कोपस्त्वया न हि । कार्ये त्राणे यदार्त्तानां गृह्यते न खलु च्छलम् ||२७|| ततः सुदर्शनोऽप्युच्चैः परमार्थविचक्षणः । देवताप्रतिमेवास्थात्कायोत्सर्गेण निश्चलः ||२८|| पुनरप्यभयाऽवादीद्भावहावमनोहरम् । नाथ ! सम्भाषमाणां मां तूष्णीकः किमुपेक्षसे ॥ २९ ॥ व्रतकष्टमिदं मुश्च मा कृथास्त्वमतः परम् । मत्संप्राप्त्या व्रतफलं विद्धि संसिद्धमात्मनः ||३०|| ताम्यन्तीं याचमानां मां नम्रां मानय मानद । दैवात्पतितमुत्सङ्गे रत्नं गृह्णासि किं न हि ॥ ३१॥ कियदद्यापि सौभाग्यगर्वमुन्नाटयिष्यसि । इत्यालपन्त्या जगृहे तया द्वितीय प्रकाशः ॥ २७३॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२७४ पाणौ स पाणिना ||३२|| निबिडं मण्डलीभूतपीनो चुङ्गस्तनं तया । भुजाभ्यां पद्मिनीनालमृदुलाभ्यां स सस्वजे ||३३|| एवं तदुपसर्गेषु निसर्गेण स धीरधीः । धर्मध्याने निश्चलोऽभूत् किं चलत्यचलः कचित् ॥ ३४ ॥ स दध्यौ चेति चेन्मुच्ये कथञ्चिदहमेतया । पारयामि तदोत्सर्गमन्यथाऽनशनं मम ||३५|| अमानिताऽथ घटित - भ्रकुटि: कुटिलाशया । अभया तं भाषयितुमित्यभाषत निर्भया || ३६ || मुमूर्षो ! मूर्ख ! मा कार्षीर्मान्याया मेsवमाननाम् । न वेत्सि मानिनी नृणां निग्रहानुग्रहक्षमा ||३७|| मनोभववशाया मे वशमाविश रे जड ! । नो वेद्यमवशं यास्यस्यत्र नास्त्येव संशयः ||३८|| इति संरम्भकाष्ठायां साऽऽरुरोह यथा यथा । धर्मध्याने महामाsसावारुरोह तथा तथा ||३९|| एवं कदर्थितो रात्रिं तया ध्यानान्न सोऽचलत् । किं क्षुभ्यते महाम्भोधि कापि नौदण्डताडनैः ॥४०॥ ततः प्रेक्ष्य प्रभातं सा स्वं लिलेख नखैर्वपुः । कोऽप्यसौ मे बलात्कारकारीत्युचै ररास च ॥४१॥ ततः प्राहरिकास्तत्र संभ्रान्ता यावदागमन् । कायोत्सर्गस्थितं तावद्ददृशुस्ते सुदर्शनम् ॥४२॥ ओस्मन्न सम्भवत्येतदिति द्रुतमुपेत्य तैः । विज्ञप्तो भूपतिस्तत्राययौ पप्रच्छ चाभयाम् ||४३|| सोचे संपृच्छय देव ! त्वामहं यावदिह स्थिता । एषोऽकस्मादिहायातो दृष्टस्तावत्पिशाचवत् ॥ ४४ ॥ एष मेष इवोन्मत्तो मन्मथव्यसनी ततः । रिरंसुर्मामयाचिष्ट पापिष्ठवाकोटिभिः ॥ ४५ ॥ ऊचे मयैष रे मैषीरसतीवत्सतीरपि शक्यन्ते हि चणकवन्मरिचानि न चर्वितुम् ||४६ || ततः परं बलात्कारादेष एवं चकार मे । मया च पूत्कृतमन्यदबलानां बलं न हि ॥४७॥ अस्मिन्निदमसम्भाव्यमिति मत्वा महीपतिः । किमेतदिति पप्रच्छ बहुधैव सुदर्शनम् ॥४८॥ पृष्टोऽपि राज्ञा कृपया किश्चिनोचे सुदर्शनः । परतापोपशान्त्यै हि निघृष्टमपि चन्दनम् COOKEDO CRE द्वितीय प्रकाशः ॥ २७४॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥२७५॥ BOOK REET FOR MORE ॥४९॥ ततः सम्भावयामास दोषं तस्यापि भूपतिः । पारदारिकदस्यूनां तूष्णीकत्वं हि लक्षणम् ॥ ५० ॥ इत्यादिदेश स क्रोधात्सकलेऽप्यत्र पत्तने । दोषप्रख्यापनां कृत्वा पाप एष निगृह्यताम् ॥५१॥ आरक्षपुरुषैर्दोष्णि स धृत्वोत्पाटितस्ततः । बचसा सिद्धयो राज्ञां मनसेव दिवौकसाम् ॥ ५२ ॥ स मण्डितो मुखे मध्या शरीरे रक्तचन्दनैः । करवीरखजा मुण्डे कण्ठे कोशकमालया ॥५३॥ खरमारोप्य विधृतसूर्पच्छत्रः स तैस्ततः । वाद्यमानेनानकेनारेभे भ्रमयितुं पुरे ॥ ५४ ॥ कृतापराधः शुद्धान्ते वध्यतेऽसौ सुदर्शनः । नात्र दोषो नृपस्येति चक्रुराघोषणां च ते ॥५५॥ न युक्तं सर्वथाऽप्येतन्नेह सम्भवतीदृशम् । इति लोकप्रघोषोऽभूद् हाहारवयुतस्ततः ॥५६॥ एवं च भ्रम्यमाणोऽगाद् द्वारदेशे स्ववेश्मनः अदृश्यत महासत्यां स मनोरमयाऽपि च ॥ ५७ ॥ चिन्तयामास सा चैव सदाचारः पतिर्मम | भूपतिश्च प्रियाचारो दुराचारो विधिर्ध्रुवम् ॥ ५८ ॥ इदमप्यसदथवा ध्रुवमस्य महात्मनः । उपस्थितं फलमिदं प्राक्तनाशुभकर्मणः ॥५९॥ कोऽपि नास्य प्रतीकारस्तथाप्येष भविष्यति । निश्चित्येति प्रवि श्यान्तर्जिनाचः साऽर्चयत्ततः || ६०|| कायोत्सर्गेण च स्थित्वा सोचे शासनदेवताः । भगवत्यो मम पत्युर्दोषसम्भावनाऽपि न||६१॥ परमश्रावकस्यास्य सान्निध्यं चेत्करिष्यथ । तदाऽहं पारयिष्यामि कायोत्सर्गमिमं खलु ॥ ५२ ॥ अन्यथैवंस्थिताया मे भवत्वनशनं ध्रुवम् । धर्मध्वंसे पतिध्वंसे किं जीवन्ति कुलखियः ? || ६३ ॥ इतश्च न्यधुरारक्षाः शूलिकायां सुदर्शनम् । अलङ्घनीया भृत्यानां राजाज्ञा हि भयङ्करा ||६४ || स्वर्णाब्जासनतां भेजे शूलाऽप्यस्य महात्मनः । देवतानां प्रभावेन यमदंष्ट्राऽपि कुण्ठति ||६५ || वधाय तस्य चारक्षैद्दढं व्यापारितः शितः । करवा लोऽपतत्कण्ठे पुष्पमाला च सोऽभवत् ॥ ६६ ॥ तद्दृष्ट्वा चकितैरेत्य विज्ञप्तस्तैर्महीपतिः । आरुह्य हस्तिनीं वेगाद्य OOOOO द्वितीय प्रकाशः ॥२७५॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥२७६॥ यावधिसुदर्शनम् ||६७ || तमालिङ्गय महीपालोऽनुतापादित्यवोचत । श्रेष्ठिन्नहि विनष्टोऽसि दिष्टयाऽऽत्मीयप्रभावतः ||६८ || मया हि तावत्पापेन किं राज्ञाऽसि विनाशितः । नाथः सतामनाथानां धर्मो जागर्त्ति सर्वथा ॥ ६९ ॥ स्त्रीणां मायाप्रधानानां प्रत्ययात्वां निहन्ति यः । अविमृश्यकरः पापो नापरो दधिवाहनात् ॥७०॥ किंच किञ्चिदिदं पापं भवताऽप्यस्मि कारितः । असकृद्यन्मया साधो ! तदा पृष्टोऽपि नावदः ॥ ७१ ॥ एवमालपता राज्ञा करिण्यामधिरोप्य सः । नीत्वा स्वहम्र्म्ये स्नपितश्चन्दनैश्च विलेपितः ॥ ७२ ॥ वखालङ्कारजातश्च परिधाप्य सुदर्शनः । राज्ञा पृष्टो रात्रिवृत्तं यथातथमचीकथत् ॥७३॥ अथ राज्ञीं प्रति क्रुद्धो भूपतिर्निग्रहोद्यतः । सुदर्शनेन व्याधि शिरः प्रक्षिप्य पादयोः ॥७४॥ ततः श्रेष्ठी नृपेणेभमारोप्य पुरमध्यतः । महाविभूत्या तद्वेश्म नायितो न्यायतायिना || ७५ || अभयाऽप्येतदाकण्र्योद्बध्यात्मानं व्यपद्यत । परद्रोहकराः पापाः स्वयमेव पतन्ति हि ॥ ७६ ॥ पण्डिताऽपि प्रणश्यागात्पाटलीपुत्रपत्तनम् । अवसद्देवदत्ताया गणिकायाश्च सन्निधौ ॥७७॥ तत्रापि पण्डिता नित्यं तथाऽऽशंसत्सुदर्शनम् । दर्शनेऽस्य यथा देवदत्ताऽभूभृशमुत्सुका ॥७८॥ सुदर्शनोऽपि संसारविरक्तो व्रतमग्रहीत् । उपसृत्य गुरोः पार्श्वे रत्नमम्भोनिधेरिव ॥ ७९ ॥ तपः कृशाङ्ग एकाङ्गविहारप्रतिमास्थितः । स क्रमाद्विरन् प्राप पाटलीपुत्रपत्तनम् ||८०|| भिक्षार्थ पर्यटंस्तत्र दृष्टः पण्डितया च सः । कथितो देवदत्तायाः सा तया तमहत् ॥ ८१ ॥ भिक्षाव्याजात्तयाऽऽहूतस्तत्रापि स मुनिर्ययौ । विमर्शमविधायैव सापायनिरपाययोः ॥ ८२ ॥ देवदत्ता ततो द्वारं पिधाय तमनेकधा । दिनं कदर्थयामास चुक्षोभ स मुनिर्न तु ||८३|| अथ मुक्तो नया सायमुद्यानं गतवानसौ । तत्रापि दृष्टोऽभयया व्यन्तरीभूतया तया ॥८४॥ कदर्थयितुमारेभे प्राकर्मस्मरणादसौ द्वितीय प्रकाशः ॥२७६॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् t૨૭છા द्वितीय प्रकाश ऋणं वैरं च जन्तूनां नश्ये जन्मान्तरेऽपि न ॥८५॥ क्लिश्यमानो बहु तया महासत्त्वः सुदर्शनः। आरोहत् क्षपकश्रेणिमपूर्वकरणक्रमात् ॥८६॥ ततः स भगवान् प्राप केवलज्ञानमुज्ज्वलम् । तस्य केवलमहिमा सधश्चक्रे सुरासुरैः ॥८७॥ उद्दिधीषुभवाब्जन्तून् स चक्रे धर्मदेशनाम् । लोकोदयायाभ्युदयस्तादृशानां हि जायते ॥८॥ तस्य देशनया तत्राबुद्धचन्तान्ये न केवलम् । देवदत्ता पण्डिता च व्यन्तरी च व्यबुद्धयत ॥८९॥ सीसन्निधावपि तदेवमषितात्मा, जन्तून् प्रबोध्य शुभदेशनया क्रमेण । स्थानं सुदर्शनमुनिः परमं प्रपेदे जैनेन्द्रशासनजुषां न हि तदुरापम् ॥१९०॥ ॥ इति सुदर्शनऋषिकथानकम् ॥१०१॥ धर्ये कर्मणि न पुरुषा एवाधिक्रियन्ते किन्तु स्त्रीणामप्यधिकारश्चतुर्वणे सङ्घ तासामप्यङ्गभूतत्वात् ततः पुरुषस्य परदारप्रतिषेधवत् स्त्रीणां परपुरुषगमनं प्रतिषेधयतिऐश्वर्यराजराजोऽपि रूपमीनध्वजोऽपि च । सीतया रावण इव त्याज्यो नार्या नरः परः॥१०२ ऐश्वर्येण विभवेन, राजराजो धनदः स इव राजराजः, आस्तामितरः। रूपेण सौन्दर्येण, मीनध्वजोऽपि स्म रोऽपि, आस्तामन्यः। त्याज्यः परिहरणीयः नार्या स्त्रिया परः स्वपतेरन्यो नरःपुरुषः, क इव कया, सीतया रावण इव । सीताचरितमुक्तमेव ॥१०२॥ ___ स्त्रीपुंसयोईयोरपि परकान्तासक्तत्वस्य फलमाइनपुंसकत्वं तिर्यक्त्वं दौर्भाग्यं च भवे भवे । भवेन्नराणांस्त्रीणां चान्यकान्तासक्तचेतसाम् ॥१०३ ॥२७७॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२७८॥ | ===000 नपुंसकत्व षण्ढवं तिर्यक्त्वं तिर्यग्भावः दौर्भाग्यमनादेयता भवे भवे जन्मनि जन्मनि, भवेत् जायेत, नराणां स्त्रीणां च । अन्यकान्तासक्तचेतसामिति श्लिष्टं द्वयोर्विशेषणम् । यदा पुरुषाणां तदा अन्यस्य कान्ता भार्या अन्यकान्ता तदासक्तचेतसाम् । यदा तु स्त्रीणां तदा अन्यः पत्युरपरः स चासौ कान्तश्च कामयिता तत्रासक्तचेतसाम् ॥ १०३ ॥ अब्रह्मनिन्दां कृत्वा ब्रह्मचर्यस्यैहिकं गुणमाह प्राणभूतं चरित्रस्य परब्रह्मेककारणम् । समाचरन् ब्रह्मचर्यै पूजितैरपि पूज्यते ॥ १०४॥ प्राणभूतं जीवितभूतं, चरित्रस्य देशचारित्रस्य सर्वचारित्रस्य च परब्रह्मणो मोक्षस्य, एकमद्वितीयं, कारणं समाचरन् पालयन् ब्रह्मचर्यं जितेन्द्रियस्योपस्थनिरोधलक्षणं पूजितैरपि सुरासुरमनुजेन्द्रः न केवलमन्यैः पूज्यते मनोवाक्कायोपचारपूजाभिः ॥ १०४ ॥ ब्रह्मचर्यस्य पारलौकिकं गुणमाह चिरायुषः सुसंस्थाना दृढसंहनना नराः । तेजस्विनो महावीर्या भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः ॥ १०५ ॥ चिरायुषो दीर्घायुषोऽनुत्तरसुरादिपूत्पादात् शोभनं संस्थानं समचतुरखलक्षणं येषां ते सुसंस्थाना: अनुत्तर सुरादिपूत्पादादेव, दृढं बलवत् संहननमस्थिसञ्चयरूपं वज्रऋषभनाराचाख्यं येषां ते दृढसंहननाः, एतच्च मनुजभवेत्पद्यमानानां देवेषु संहननाभावात् तेजः शरीरकान्तिः प्रभावो वा विद्यते येषां ते तेजस्विनः, महावीर्या बलवत्तमाः तीर्थकरचक्रवत्र्यादित्वेनोत्पादात्, भवेयुर्जायेरन् ब्रह्मचर्यतो ब्रह्मचर्यानुभावात् ॥ द्वितीय प्रकाशः ॥२७८॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाश BB ॥२७॥ अत्रान्तरश्लोकाः पश्यन्ति कृष्णकुटिलां कबरीमेव योषिताम् । तदभिष्वङ्गजन्मानं न दुष्कर्मपरम्पराम् ॥१॥ सीमन्तिनीनां सीमन्तः पूर्णः सिदूररेणुना । पन्थाः सीमन्तकाख्यस्य नरकस्येति लक्ष्यताम् ॥२॥ भ्रूवल्लरीं वर्णिनीनां वर्णयन्ति न जानते । मोक्षाध्वनि प्रस्थितानां पुरोगामुरगीमिमाम् ॥३॥ भगुरानयनापानानानानां निरीक्षते । हतबुद्धिन तु निजं भङ्गरं हन्त जीवितम् ॥४॥ नासावंश प्रशंसन्ति स्त्रीणां सरलमुन्नतम् । निजवंशं न पश्यन्ति भ्रश्यन्तमनुरागिणः ॥५॥ स्त्रीणां कपोले संक्रान्तमात्मानं वीक्ष्य हृष्यति । संसारसरसीपडूमज्जन्तं वेत्ति नो जड: ॥६॥ पिबन्ति रतिसर्वस्वबुद्धया बिम्बाधरं स्त्रियाः। न बुध्यन्ते यत्कृतान्तः पिबत्यायुर्दिवानिशम् ॥७॥ योषितां दशनान् कुन्दसोदरान् बहु मन्यते । स्वदन्तभङ्गं नेक्षन्ते तरसा जरसा कृतम् ॥८॥ स्मरदोलाधिया कर्णपाशान् पश्यति योषिताम् । कण्ठोपकण्ठलुठितान् कालपाशांस्तु नात्मनः॥९॥ योषितां प्रोषितमतिमुखं पश्यत्यनुक्षणम् क्षणोऽपि हन्त नास्त्यस्य कृतान्तमुखवीक्षणे ॥१०॥ नरः स्मरपराधीनः स्त्रीकण्ठमवलम्बते । नात्मनो वेत्यसूनद्य श्वो वा कण्ठावलम्बिनः ॥११॥ स्त्रीणां भुजलताबन्धं बन्धुरं बुध्यते कुधीः । न कर्मबन्धनद्धमात्मानम नुशोचति ॥१२॥ धत्ते स्त्रीपाणिभिः स्पृष्टो हृष्टो रोमाञ्चकण्टकान् । स्मारयन्ति न किं तेऽस्य कूटशान्मलिकण्ट कान ॥१॥ कुचकुम्भौ समालिङ्गचा स्त्रियाः शेते मुखं जडः । विस्मृता नूनमेतस्य कुम्भीपाकोद्भवा व्यथा ॥१४॥ मध्यमध्यासते मुग्धा मुग्धाक्षीणां क्षणे क्षणे । एतन्मध्यं भवाम्भोधेरिति नैते विविठचते ॥१५॥ धिग (१) नष्टमतिः । १२७१॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ૫૨૮૦ના ङ्गनानां त्रिवलीतरङ्गैड्रियते जनः त्रिवलीछद्मना ह्येतन्ननु वैतरणीयम् ||१६|| स्मरार्त्त मज्जति मनः पुंसां स्त्रीनभिवापिषु । प्रमादेनापि किं नेदं साम्याम्भसि मुदास्पदे ||१७|| स्मरारोहणिनिःश्रेणीं स्त्रीणां रोमलतां विदुः नराः संसारकारायां न पुनर्लोहश्रृखलाम् ||१८|| जघन्या जघनं स्त्रीणां भजन्ति विपुलं मुदा । संसारसिन्धोः पुलिनमिति नूनं न जानते ॥१९॥ भजते करभोरुणामूरूनल्पमतिर्नरः । अनूरुक्रियमाणं तैः सद्गतौ स्व न बुद्धयते ॥२०॥ स्त्रीणां पादैर्हन्यमानमात्मानं बहु मन्यते । हताशो न तु जानाति क्षेप्यमाणमधोगतौ ॥ २१॥ दर्शनात् स्पर्शनाच्छ्लेषाद् या हन्ति शमजीवितम् । हेयोग्रविषनागीव वनिता सा विवेकिभिः ॥२२॥ इन्दुलेखेव कुटिला सन्ध्येव क्षणरागिणी । निम्नगेव निम्नगतिर्वर्जनीया नितम्बिनी ॥ २३ ॥ न प्रतिष्ठां न सौजन्यं न दानं न च गौरवम् । न च स्वान्यहितं वामाः पश्यन्ति मदनान्धला ः ||२४|| निरङ्कुशा नरे नारी तत्करोत्यसमञ्जसम् यत्क्रुद्धाः सिंहशार्दूलव्याला अपि न कुर्वते ||२५|| दूरतस्ताः परित्याज्याः प्रादुर्भावितदुर्मदाः । विश्वोपतापकारिण्यः करिण्य इव योषितः ॥२६॥ स कोऽपि स्मर्यतां मन्त्रः स देवः कोऽप्युपास्यताम् । न येन स्त्रीपिशाचीयं ग्रसते शीलजीवितम् ॥२७॥ शास्त्रेषु श्रूयते यच्च यच्च लोकेषु गीयते । संवादयन्ति दुःशीलं तन्नार्य्यः कामविहलाः ||२८|| संपिण्ड वाहिदंष्ट्राग्नियमजिह्वाविषाङ्कुरान् । जगज्जिघांसुना नायः कृताः क्रूरेण वेधसा ||२९|| यदि स्थिरा भवेद्विद्युत्ति ष्ठन्ति यदि वायवः । दैवात्तथापि नारीणां न स्थेम्ना स्थीयते मनः ||३०|| यद्विना मन्त्रतन्त्राद्यैर्वव्च्यन्ते चतुरा अपि । इन्द्रजालमिदं हन्त नारीभिः शिक्षितं कुतः ||३१|| अपूर्वा वामनेत्राणां मृषावादेषु वैदुषी । प्रत्युक्षाण्यप्यकृ त्यानि यदपह्नुवते क्षणात् ॥ ३२॥ पीतोन्मत्तो यथा लोष्टं सुवर्णं मन्यते जनः । तथा स्त्रीसङ्गजं दुःखं सुखं द्वितीय प्रकाशः 11RCOL Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥२८१ ॥ मोहान्धमानसः ||३३|| जटी मुण्डी शिखी मौनी नग्नो वल्की तपस्व्यथ । ब्रह्माऽप्यब्रह्मशीलश्चेत्तदा मां न रोचते ||३४|| कण्डूयन् कच्छुरः कच्छू यथा दुःखं सुखीयति । दुर्वारमन्मथावेशविवशो मैथुनं तथा ॥३५॥ नाय्य यैरुपमीयन्ते काञ्चनप्रतिमादिभिः । आलिङ्गयालिङ्गत्य तान्येव किमु न तृप्यति ॥ ३६ ॥ यदेवाङ्गं कुत्सनीयं गोपनीयं च योषिताम् । तत्रैव हि जनो रज्येत् केनान्येन विरज्यताम् ||३७|| मोहादहह नारीणामङ्गर्मा 'सास्थिनिर्मितैः । चन्द्रेन्द्रीवरकुन्दादि सहक्षीकृत्य दुषितम् ||३८|| नारीं नितम्बजघनस्तनभूरिभारा-मारोप यन्त्युरसि मूढधियो रताय । संसारवारिनिधिमध्यनिमज्जनाय जानन्ति तां न हि शिलां निजकण्ठबद्धाम् ॥३६॥ भवोदन्वद्वेलां मदनमृगयुव्याधहरिणीं, मदावस्थाहालां विषयमृगतृष्णामरुभुवम् । महामोहध्वान्तोच्चयबहुलपक्षान्तरजनीम्, विपत्खानिं नारीं परिहरत हे श्राद्धसुधियः ! ॥४०॥१०५॥ संप्रति मूर्च्छाफलमुपदर्शयंस्तनियन्त्रणारूपं पञ्चममणुव्रतमाह असन्तोषमविश्वासमारम्भं दुःखकारणम् । मत्वा मूर्च्छाफलं कुर्यात्परिग्रहनियन्त्रणम् ॥ १०६ ॥ दुःखकारणमित्यसन्तोषादिभिखिभिः प्रत्येकमभिसंबध्यते । असन्तोषादीनि दुःखकारणानि मूर्च्छाया गास्य फलत्वेन विज्ञाय मूर्च्छाहेतोः परिग्रहस्य नियन्त्रणं नैयत्यमुपासकः कुर्जादिति योगः । तत्रासन्तोषस्तृप्त्यभावः, स दुःखकारणम् । मूर्च्छावान् हि बहुभिरपि धनैर्न संतुष्यति, उत्तरोत्तराशाकदर्थितो दुःखमेवानुभवति । परसंप(१) काम एव मृगयुः व्याधः तस्य व्याधे वेधने हरिणीम् । :: FOX द्वितीय प्रकाशः Au Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाश ॥२८॥ दुत्कर्षश्च हीनसंपदमसन्तुष्ट दुःखाकरोति । यदाह असन्तोषवतां पुंसामपमानः पदे पदे । सन्तोषैश्वर्यसुखिनां दूरे दुर्जनभूमयः ॥१॥ ___ अविश्वासः खल्वपि दुःखकारणम्, अविश्वस्तो ह्यशङ्कनीयेभ्योऽपि शकमानः स्वधनस्य रक्षां कुर्वन्न कचिद्विश्वसिति । यदाह१उक्खणइ खणई निहणइ रत्तिं न सुअइ दिआ वि अ ससंको । लिंपइ ठवेइ सययं लंछियपडिलंछियं कुणइ ।। म परिगतश्चारम्भं प्राणातिपातादिकं प्रतिपद्यते। तथाहितनयः पितरं पिता च तनयं भ्राता च भ्रातरं हिनस्ति, गृहीतलञ्चश्च कूटसाक्षित्वदायी बहनृतं भाषते, बलप्रकर्षात्पथिकजनं मुष्णाति, खनति खात्रं, गृह्णाति रविन्द, धनलोभात् परदारानभिगच्छति, तथा सेवाकृषिपाशुपाल्यवाणिच्यादि च करोति । मम्मणवणिगिव नद्यादिषु प्रविश्य काष्ठान्याकर्षति । ननु दुःखकारणं मूर्छाफलं ज्ञात्वा परिग्रहनियन्त्रणं कुर्यादिति केयं वाचो युक्तिः ? उक्तमत्र-मूर्छाकारणत्वात् परिग्रहोऽपि मृच्छेव, अथवा " मूर्छा परिग्रहः" इति सूत्रकारवचनात् मृच्छैव परिग्रह इति निश्चयनयमतेनोच्यते, मृच्छ मन्तरेण धनधान्यादेरपरिग्रहत्वात् । यदाह___अपरिग्रह एव भवेद्वस्त्राभरणाचलङ्कृतोऽपि पुमान् । ममकारविहितः सति ममकारे सजवानमः॥१॥ तथा (१) उत्खनति खनति निहन्ति रात्रिं न स्वपिति दिवाऽपि च सशकः । लिम्पति स्थापयति सततं लाग्छितप्रतिलाग्छितं करोति ॥१॥ (२) 'वन्द' इति प्रत्यन्तरपाठः साधीयान् । ॥२८॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकाशा शास्त्रम् ॥२८॥ ग्राम गेहं च विशन् कर्म च नोकर्म छाददानोऽपि । अपरिग्रहोऽममत्वोऽपरिग्रहो नान्यथा कश्चित् ॥१॥ तथा१ज पि वत्यं व पायं वा कंबलं पायपुंष्णं । तं पि संजमलज्जट्टा धारंति परिहरंति अ॥१॥ २न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इइ वुत्तं महेसिणा ॥२॥ इति सर्वमवदातम् ॥१०६॥ प्रकारान्तरेण परिग्रह नियन्त्रणमावपरिग्रहमहत्त्वाद्धि मजत्येव भवोम्बुधौ । महापोत इव प्राणी त्यजेत्तस्मोतू परिग्रहम् ॥१०७॥ परिगृह्यत इति परिग्रहो धनधान्यादिस्तस्य महत्त्वं निरवधित्वं तस्माद्धेतोः मज्जत्येव, अवश्यमेव मज्जति, प्राणी शरीरी, भवे संसारे क इव क ? अम्बुधौ समुद्रे महापोत इव महायानपात्रमिव, यथा निरवधिधनधान्यादिभाराक्रान्तः पोतः समुद्रे मज्जति, तथैवापरिमितपरिग्रहः प्राणी नरकादौ निमञ्जति । यदाहुः-- "महारंभयाए महापरिग्गयाए कुणिमाहारेणं पंचिंदियवहेणं जीवा नरयाउयं अजति"। तथा बहारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुष इति यस्मादेवं तस्मात्त्यजेनियन्त्रयेत् परिग्रहं धनधान्यादिरुपं मूळरुपं वा ॥१०७॥ (१) यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा कम्बलं वा पादप्रोग्छनम् । तदपि संयमलज्जार्थ धारयन्ति परिभुजते च ॥१॥ (२) न स परिग्रह उक्तः ज्ञातपुत्रेण तायिना । मूर्छा परिग्रह उक्तः इत्युक्तं महर्षिणा ॥२॥ (१) महारम्भतया महापरिग्रहतया कुणिमाहारेण पञ्चेन्द्रियवधेन जीवा नरकायुष्कमर्जन्ति । ॥२८३॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Planeounese योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा ॥२८॥ सामान्येन परिग्रहदोषानाहत्रसरेणुसमोऽप्यत्र न गुणः कोऽपि विद्यते । दोषास्तु पर्वतस्थूलाः प्रादुष्षन्ति परिग्रहे ॥१०॥ त्रसरेणवो गृहजालान्तःप्रविष्टसूर्यकिरणोपलक्ष्याः सूक्ष्मा द्रव्यविशेषास्तत्समोऽपि तत्प्रमाणोऽपि अत्र परिग्रहे न कश्चन गुणोऽस्ति, न हि परिग्रहबलादामुष्मिकः पुरुषार्थः सिद्धयति । यस्तु भोगोपभोगादिः स न गुणः प्रत्युत गर्द्धहेतुत्वादोष एव । योऽपि जिनभवनविधानादिलक्षणः परिग्रहस्य गुणः शास्त्रे वर्ण्यते न स गुणः, किं तु परियहस्य सदुपयोगव्यावर्णन न तु तदर्थमेव परिग्रहधारण श्रेयः । यदाहु: धर्मार्थ यस्य वित्तहा तस्यानीहा गरीयसी। प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दुरादस्पर्शनं वरम् ॥१॥ तथा१कंचणमणिसोवाणं थंभसहस्सोसियं सुवण्णतलं । जो कारिज जिणहरं तओ वि तवसंजमो अहिओ० ॥१॥ व्यतिरेकमाह-दोषास्तु दोषाः पुनः पर्वतस्यूला अतिमहान्तो वक्ष्यमाणाः परिग्रहे सति प्रादुष्षन्ति प्रादुर्भवन्ति ॥१०॥ दोषास्तु पर्वतस्थूला इति यदुक्तं तत् प्रपञ्चयति(१) काञ्चनमणिसोपानं स्तम्भसहस्रोच्छूितं सुवर्णतलम् । यः कारयेजिनगृहं ततोऽपि तपःसंयमोऽधिकः ॥१॥ (२) 'अणंतगुणो' इति प्रत्यन्तरे ० संबोधसत्तरिवृत्ती तुकंचणमणिसोवाणे थम्भसहस्ससिए सुवन्नतले । जो कारवेज जिणहरे तओवि तवसंजमो अणंतगुणो ति ॥ एवं पाठो दृश्यते । ॥२८॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशास्त्रम् ॥२८॥ सङ्गान्वन्त्यसन्तोऽपि रागद्वेषादयो द्विषः। मुनेरपि चलेच्चेतो यत्तेनान्दोलितात्मनः॥१०९॥ || द्वितीय सगात्परिग्रहादेतोभवन्ति प्रादुर्भवन्ति असन्तोऽपि उदयावस्थामप्राप्ता अपि रागद्वेषप्रभृतयः शत्रवः । प्रकाशः सङ्गवतो हि तन्निबन्धनो रागः प्रादुर्भवति । सङ्गप्रतिपन्थिषु च द्वेषः, एवं मोहभयादयो वधबन्धादयो नरक पातादयश्च द्रष्टव्याः । तदिदं पर्वतस्थूलत्वं दोषाणाम् । कथमसन्तोऽपि रागादयो भवन्तीति ? उच्यते-यत् यस्मान्मुनेरपि आस्तामन्यस्य चलेत प्रशमावस्थायाश्च्यवेत् चेतो मनः तेन सङ्गेन आन्दोलितात्मनः अस्थिरीकृतात्मनः मुनिरपि हि सङ्गानङ्गीकुर्वन्मुनित्वाद भ्रश्यत्येव । यदाहछेओ' मेओ वसणं आयासकिलेसभयविवागो अ। मरणं धम्मभंसो अरई अत्थाओ सव्वाई ॥१॥ दोससयमूलजालं पुन्वरिसिविवज्जियं जई वंतं । अत्यं वहसि अणत्थं कीस निरत्थं तवं चरसि ॥२॥ वहबंधणमारणसेहणाओ काओ परिग्गहे णत्थि । तं जइ परिग्गहो च्चिय जइधम्मो तो णणु पवंचो॥३॥१०९॥ सामान्येन परिग्रहस्य दोषानभिधाय प्रकृतेन श्रावकधर्मेणाभिसंबध्नातिसंसारमूलमारम्भास्तेषां हेतुः परिग्रहः । तस्मादुपासकः कुर्यादल्पमल्पं परिग्रहम् ॥११०॥ (१) छेदो भेदो व्यसनं आयासक्लेशभयविपाकाश्च । मरणं धर्मभ्रंशः अरतिरर्थात् सर्वाणि ॥१॥ (२) दोषशतमूलजालं पूर्वर्षिविवर्जितं यदि वान्तम् । अर्थ वहसि अनर्थ कस्माभिरर्थे तपश्चरसि ॥२॥ (३) वधबन्धनमारणसेधनाः काः परिग्रहे न सन्ति । तद् यदि परिग्रह एव यतिधर्मस्ततो ननु प्रपञ्चः ॥३॥ ॥२८५॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२८॥ १साना: आरम्भाः प्राण्युपमर्दादयस्ते संसारस्य मूलम्, एतदविवादसिद्धं, ततः किं तेषामारम्भाणां हेतुः कारणं ? द्वितीय परिग्रहः, यत एवं तस्मादुपासकः साधुपासकः परिग्रहं धनधान्यादिकमल्पमल्पं नियतपरिमाणं कुर्यात् ॥११०॥ प्रकाशा ___ पुनरपि सिंहावलोकितेन परिग्रहदोषानाह-- मुष्णन्ति विषयस्तेना दहति स्मरपावकः । रुन्धन्ति वनिताव्याधाः सङ्गैरङ्गीकृतं नरम् ॥१११ ।। सङ्गैर्धनधान्यहिरण्यादिपरिग्रहैरङ्गीकृतं वशीकृतं यथा बहुपरिग्रहं कान्तारगत पुरुषं चौरा मुष्णन्ति तथा संसारकान्तारगतं विषयाः शब्दादयः संयमसर्वस्वापहारेण मुष्णन्ति निदनी कुर्वन्ति । यथा वा बहुपरिग्रहं नष्टुमशक्नुवन्तं दीप्तो दवाग्निर्दहति तथा संसारकान्तारगतं मन्मथाग्निश्चिन्तादिना दशप्रकारेण विकारेण दहत्युपतापयति । यथा वा बहुपरिग्रहं कान्तारगत व्याधा लुब्धका धनशरीरलोभेन रुन्धन्ति पलायितुमपि न ददति तथा भवकान्तारगतं वनिताः कामिन्यो धनाथिन्यः शरीरभोगार्थिन्यश्च स्वातन्त्र्यवृत्तिनिषेधेन धन्ति । अपि च बहुनापि परिग्रहेण कासावतां न तृप्तिः सम्भवति अपि त्वसन्तोष एव वर्द्धते । यन्मुनयः रसुवणरुप्पस्स य पव्वया भवे सिआ हु केलाससमा असङ्ख्या। नरस्स लुद्धस्स न तेहि किचि इच्छा हु आगाससमा अणंतिआ ॥१॥ (१) सुवर्णरूप्यस्य च पर्वता भवे स्युः खलु कैलाससमा असायकाः । नरस्य लुब्धस्य न तैः किश्चित् इच्छा खलु आकाशसमाऽनन्तिका ॥१॥ ॥२८६॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२८७॥ १पुढवी साली जवा चैव हिरण्णं पमुभिस्सह । पडिपुण्णं नालमेगस्स इइ विज्जा तवं चरे ॥२॥ कवयोऽप्याहु:-- तृष्णा खनिरगाधेयं दुष्पूरा केन पूर्यते । या महद्भिरपि क्षिप्तेः पूरणैरेव खन्यते ॥१॥ तथा- Raver अखंडिअ चि विहवे अच्चुन्नए वि लहिऊण । सेलं पि समारुहिऊण किं व गयणस्स आरूढं ॥ १ ॥ १११ ॥ एतदेवाह सागरो द्वितीयश्चक्रवर्त्ती, न षष्टिसहखसंख्यैः पुत्रैः सन्तुष्टस्तृप्तौऽभवत् । कुचिकर्णो नाम कश्चित् स बहुभिरपि गोधनैर्न तृप्तः । तिलको नाम श्रेष्ठी न धान्यैस्तृप्तः । न वा नन्दनृपतिः कनकराशिभिस्तृप्तः ततोऽसन्तोषहेतुरेव परिग्रहः । सम्प्रदायगम्याश्च सगरादयः । स चायम् आसीत्पुर्यामयोध्यायां जितशत्रुर्महीपतिः । युवराजः सुमित्रोऽभूदुभाववनिमावतुः ॥१॥ जितशत्रोरभूत्सूनुरजितस्वामितीर्थकृत् । सगरचक्रवर्त्ती च सुमित्रस्य महाभुजः ||२|| जितशत्रुसुमित्रौ च व्रतं जगृहतुस्ततः । (१) पृथ्वी शालयो यवा एव हिरण्यं पशुभिः सह । प्रतिपूर्ण नालमेकस्य इति विदित्वा तपश्चरेत् ||२|| (२) तृष्णा अखण्डिता एव विभवान् अत्युन्नतान् अपि लब्ध्वा । शैलमपि समारुह्य किं वा गगनस्य आरुढम्|| १ | BY CREOHOROSC द्वितीय प्रकाशः ॥२८७॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ૫૨૮ના राजाऽभूदजितस्वामी सागरो युवराट् पुनः || ३|| प्रवत्राजाजितस्वामी गते काले कियत्यपि । राजाऽभूत्सगरश्चक्रवर्त्ती ऋषभसूनुवत् ||४|| अथ षष्टिसहस्राणि जज्ञिरे तस्य सूनवः । खेदच्छिदः संश्रितानां शाखा इव महातरोः ||५|| ज्येष्ठो जहूनुः कुमारोऽभूत्तेषां सगरजन्मनाम् । तेनैकदा तोषितोदादेवतेव पिता वरम् || ६ || त्वत्प्रासादेन दण्डादिरत्नैः सह सबान्धवः । महीं विचरितुं वाञ्छामीति जनुरयाचत ||७|| तद्दत्त्वा सगरेणापि विसृष्टः प्राचलत्ततः जनुर्हतसहस्रांशुः सहस्त्रैश्छत्रमण्डलैः ||८|| ऋद्धया महत्या भक्त्या चाच्चेत्यानि पदे पदे । सोऽर्चयन् विचरन् यावष्टापदं क्रमात् ||९|| तमष्टयोजनोच्छ्रायं चतुर्योजनविस्तृतम् । आरोहत्सह सोदर्यैर्जहूनुर्मितपरिच्छदः ॥ १० ॥ तत्रैकयोजनायाममर्द्धयोजनविस्तृतम् । त्रिगन्यूत्युन्नतं चैत्यं चतुर्द्वारं विवेश सः || ११|| विम्बानि स्वस्वसंस्थानमानवर्णानि तत्र सः अर्हतामृषभादीनां यथावत्पर्यपूजयत् ॥१२॥ ववन्दे भरत भ्रातृशतस्तूपांश्च पावनान्। किञ्चिद्विचिन्त्य श्रद्धालुरुच्चैरेवमुवाच च ॥ १३ ॥ अष्टापदसमं स्थानं मन्ये क्वापि न विद्यते । कारयामो वयं यत्र चैत्यमेतदिवापरम् ||१४|| मुक्तोऽपि भरतं भुक्ते भरतश्चक्रवर्त्यहो । शैले भरतसारेऽस्मि चैत्यव्याजादवस्थितः । ॥१५॥ एतदेव कृतं चैत्यमस्माभिश्चेद्विधीयते । भविष्यत्पार्थिवैरस्य लुप्यमानस्य रक्षणम् ||१६|| ततः सुरसहस्राधिष्ठितमादाय पाणिना । स दण्डं भ्रमयामास परितोऽष्टापदाचलम् ॥१७॥ चेले योजनसहखं दीर्णा कूष्माण्डवमही । भ्राम्यता तेन भिन्नानि नागानां भुवनानि च ॥ १८॥ तैर्भीतैः शरणं भेजे स्वस्वामी ज्वलनप्रभः स ज्ञात्वाऽवधिनोपेत्य जनुमित्यब्रवीत् क्रुधा ॥ १९ ॥ अनन्तजन्तु निर्घातकारणं किमकारणं । भवद्भिर्विदधे मत्तैर्दारुणं भूमिदारणम् ॥२०॥ अजितस्वामिभ्रातृव्यैः पुत्रैः सगरचक्रिणः । किमेतत्क्रियते पापमरे रे ! कुलपांसनाः । ॥ २१ ॥ I द्वितीय प्रकाशः ગાસ્ટા Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौगशास्त्रम् ॥२८९॥ जह्नुरूचे मयाऽत्रैत्य चैत्यं त्रातुमदः कृतम् । युष्मद्भवनभङ्गोऽभूद्यदज्ञानात्स सह्यताम् ॥२२॥ अज्ञानकृतमागोऽदः सोढं ते मा कृथाः पुनः । इत्युदीर्य निजं धाम जगाम ज्वलनप्रभः ||२३|| सानुजोऽचिन्तयज्जहुः कृतेय परिखा परम् । परिपूरिष्यते पांशुपूरैः कालेन गच्छता ||२४|| ततः स कृष्ट्वा दण्डेन गङ्गां तत्राक्षिपद्भृशम् । उपद्रुतानि ततोयैः पुनर्वेश्मानि भोगिनाम् ||२५|| क्रुद्धोऽथैत्य समं नागकुमारैर्ज्वलनप्रभः । तान् दृष्ट्वा भस्मसाच्चक्रे दवानल इव द्रुमान् ||२६|| धिग्धिग्नः स्वामिनः प्लुष्टाः क्लीबानामिव पश्यताम् । द्वियेत्ययोध्यासविधे तस्थुरागत्य सैनिकाः ||२७|| स्वं मुखं दर्शयिष्यामो वक्ष्यामो ऽदः कथं प्रभोः । इति मन्त्रयतां तेषां कोऽप्येत्येत्यवदद् द्विजः ||२८|| कथयिष्याम्यदो राज्ञो न च मोहो भविष्यति । उत्तरिष्यत्यवद्यं वो मा भूत व्याकुला ननु ॥ २९ ॥ इत्युक्त्वा मृतकं कञ्चिदादायानाथमभ्यगात् । राजद्वारे मृतापत्य इव स व्यलपत्ततः ॥ ३०॥ राज्ञाऽप्रच्छि ततोऽवादीदयमेकः सुतो मम । दष्टः सर्पेण निश्रेष्टस्तदेतो जीवयत्वमुम् ॥३१॥ अथादिष्टैर्नरेद्रेणनरेन्द्रैर्मन्त्रकौशलम् । निजं प्रयुक्तं तत्राभूत्तद्भस्मनि हुतोपमम् ||३२|| मृतो जीवयितुं शक्यो नायं तावद्विजोऽप्ययम् । कथं नु च्छान्दसो बोध्य इत्यालोच्योचिरेऽथ ते ||३३|| यस्मिन् वेश्मनि नो कोऽपि मृतः पूर्व ततोऽधुना । भृशमानीयतां रक्षा जीवयामस्तया त्वमुम् ||३४|| ततो द्वाःस्थैनृपादेशात्पूर्या ग्रामेषु चेक्षितम् । गृहं न दृष्ट तत्किञ्चिन्मृतो यत्र न कश्चन ||३५|| राजाऽप्यूचे मदीयेऽपि कुले कुलकरा मृताः । भगवानृषभस्वामी भरतच क्रवपि ||३६|| राजा बाहुबलिः सूर्ययशाः सोमयशा अपि । अन्येऽप्यनेकशः केऽपि शिवं केऽपि दिवं ययुः ||३७|| जितशत्रुः शिवं प्राप सुमित्रविदिवं ततः । सर्वसाधारणं मृत्युं स्वसूनोः सहसे न किम् ॥३८॥ द्वितीय प्रकाशः ॥२८९ ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥२९०॥ विप्रोऽप्यूचे सत्यमेतत्तथाऽप्येको हि मे सुतः । रक्षणीयस्त्वया दीनानाथत्राणं सतां व्रतम् ॥३९॥ अथोचे चक्रवत्वं हो ब्राह्मण ! मा मुहः । शरणं मरणात हि भववैराग्यभावना ॥४०॥ व्याजहार द्विजोऽप्येवं यद्येवं साधु बुद्धयसे । महीश ! मा मुहः षष्टिसहस्रसुतमृत्युना ॥ ४१ ॥ ततः स यावद्भूपो हा किमेतदित्यचिन्त यत् । तावत्संकेतिताः सैन्याः सर्वमाख्यन्नुपेत्य ते ||४२ || उदन्तेन ततस्तेन दारुणेनाथ मूच्छितः । पपात भूपतिर्भूमौ पर्वतः पविनेव सः ||४३|| लब्धसंज्ञस्ततो राजा रुदित्वा जनवत्क्षणम् । भेजे संसारवैराग्यं चिन्तयामास चेत्यसौ ॥ ४४ ॥ अन्वयं मण्डयिष्यन्ति प्रीणयिष्यन्ति मां सुताः । इत्याशा धिग्ममासारं संसारं जानतोऽप्यभूत् ||४५ || द्वित्रैखिचतुरैः पञ्चषैर्वाऽन्येषां भवेत्कथम् । पुत्रैस्तृप्तिरियन्मात्रैरपि यन्मे बभूव न || ४६ || सिं कथममी कुर्युस्तावन्तोऽपि ममात्मजाः । ईदृग्गतिमकाण्डेऽयुरतृप्ताः प्राणितस्य ते ||४७|| इत्थं विचिन्त्याथ सुतैरतृप्तिकः, स तत्क्षये जहनुसृतं भगीरथम् । राज्ये निवेश्याजितनाथसन्निधौ, प्रव्रज्य वब्राज तदक्षयं पदम् ||४८ ॥ ॥ इति सगरचक्रिकथानकम् ॥ ग्रामः सुघोषो नामाऽभून्मध्ये मगधनीवृतः । कुचिकर्णाभिधानश्च ग्रामणीस्तत्र विश्रुतः । ॥१॥ गवां शतसहस्राणि तस्य संजज्ञिरे क्रमात् । बिन्दुना बिन्दुना हन्त म्रियते हि सरोवरम् ||२|| गोपालानां पालनाय सोऽर्पयामास गास्ततः । भव्या मम न ते भव्या इत्ययुध्यन्त ते बहिः || ३|| कुचिकर्णो विभज्येता आर्पयत् कस्यचित् सिताः। कृष्णाः कस्यापि कस्यापि रक्ताः पीताश्च कस्यचित् ॥ ४ ॥ पृथक् पृथगरण्येषु गोकुलानि न्यवेशयत् । भुञ्जानो दधिपयसी सोऽवसत्तेषु च क्रमात् ॥५॥ अन्वहं वर्द्धयामास गोष्ठे गोष्ठे स गोधनम् । द्वितीय प्रकाशः ॥२९० ॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् द्वितीय प्रकाशा ॥२९॥ अतृप्तो दधिपयसोः सुराया इव दुर्मदः॥६॥ तस्याभवदथाजीर्णमध ऊवं सरद्रसम् । प्रदीपनान्तःपतितस्येव दाहो महानभूत् ॥७॥ हा धेनवो हा नवतर्णकाच, हा 'शाकरा वः क कदा च लप्स्ये । स गोधनैरेवमतृप्त एव, मृत्वाऽथ तिर्यग्गतिमाससाद ॥८॥ इति कुचिकर्णकथानकम् । __ श्रेष्ठयासीत्तिलको नाम पुरेऽचलपुरे पुरा । असौ पुरेषु ग्रामेषु चाकरोद्धान्यसंग्रहम् ॥१॥ माषमुद्रगतिलब्रीहिगोधूमचणकादिकम् । ददौ सार्दिकया धान्यं काले सार्द्ध च सोऽग्रहीत् ॥२॥ धान्यैर्धान्यं धनैर्धान्यं धान्य २जीवधनैरपि । उपायैश्चाग्रहीद्धान्यं ध्यायन् धान्यं स तत्त्ववत् ॥३॥ दुर्भिक्षकाले धान्येभ्यः प्रत्युपातमहाधनैः । बभार परितो धान्यरिवासौ धान्यकोष्ठकान् ॥४॥ पुनः सुभिक्षे धान्यं स क्रीत्वा क्रीत्वा समग्रहीत् । लब्धास्वादः पुमान् यत्र तत्रासक्ति न मुञ्चति ॥५॥ कीटकोटिवधं नैषोऽजीगणत् कणसंग्रहे। पीडां पश्चेन्द्रियाणामप्यतिभाराधिरोपणात् ॥६॥ नैमित्तः कोऽपि तस्याख्यद्भाविदुर्भिक्षमैषमः । सर्वस्वेनाथ सोऽक्रीणाकणान् पुन रतृप्तिकः ॥७॥ वृद्धयाऽपि द्रव्यमाकृष्याग्रहीद्धान्यमनेकधा । स्थानाभावे गृहेऽक्षेप्सीत् किं न कुर्वीत लोभवान् ॥८॥ असौ जगदमित्रस्य मित्रस्येवोन्मनास्ततः । दुर्भिक्षस्यैष्यतो मार्गमीक्षाञ्चक्रे दिने दिने ॥९॥ अथ वर्षाप्रवेशेऽपि ववर्षोंपेत्य सर्वतः। धारासारैर्घनस्तस्य हृदयं दारयन्निव ॥१०॥ गोधूममुद्गकलमाचणका मकुष्टा, मापास्तिलास्तदपरेऽपि कणा विनश्य । यास्यन्ति संप्रति हहेति स तैरतृप्तो, हृत्स्फोटजातमरणानरकं प्रपेदे ॥११॥ इति तिलक)ष्टिकथानकम् ॥ (१) वृषभाः (२) जीवा गवादयः त एव धनानि तैः। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग द्वितीय प्रकाशा शास्त्रम् ॥२९२॥ प्राच्यां महेन्द्रनगरीप्रतिबिम्बमिवोच्चकैः । आख्यया पाटलीपुत्रमित्यस्ति प्रवरं पुरम् ॥१॥ आसीत्तत्रातिसुत्रामा शत्रुवर्गविसूत्रणे। त्रिखण्डवसुधाधीशो नन्दो नाम नरेश्वरः ॥२॥ सोऽकराणां करं चक्रे सकराणां महाकरम् । महाकराणामपि च किश्चिच्चक्रे करान्तरम् ॥३॥ यं कश्चिदोषमुत्पाद्य धनिभ्यो धनमग्रहीत् । छलं वहति भूपानां हलं नेति नयं वदन् ॥४॥ सर्वोपायैईन लोकानिष्कृपः स उपाददे । अपामब्धिर्नपोऽर्थानां पात्रं नान्य इति ब्रुवन् ॥५॥ तथाऽर्थ सोऽग्रहील्लोकाल्लोकोऽभूनिर्धनो यथा । भूमावूर्णायुचीयां न खलु प्राप्यते तृणम् ॥६॥ हिरण्यनाणकाऽऽख्याऽपि तेन लोकेषु नाशिता । प्रवृत्तो व्यवहारोऽपि चर्मणो नाणकैस्तदा ॥७॥ पाखण्डिनोऽपि वेश्या अप्यसाबर्थमदण्डयत् । हुताशनः सर्वभक्षी न हि किश्चिद्विमुञ्चति ॥८॥ श्रीवीरमोक्षादे कोनविशत्यब्दशतेषु यः। साग्रेषु भावी किं सोऽयं कल्कीति जनवागभूत् ॥९॥ आक्रोशान् पश्यतोऽप्यस्य भूमिभाजनभोजनः । जनो ददौ गतभयो, भयं भवति भाजने ॥१०॥ स स्वणः पर्वतांश्चक्रे पूरयामास चावटान् । भाण्डागाराणि चापूरि पूर्णकामस्तु नाभवत् ॥११॥ आकर्ण्य तत्तथाऽयोध्यानाथेनाथ हितैषिणा । तं प्रबोधयितुं वाग्मी दूतः प्रेषित आगमत् ॥१२॥ सर्वतोऽप्याहृतश्रीकं निःश्रीकं तं तथापि हि । दूतो भूपमथापश्यन्नत्वा चोपाविशत्पुरः ॥१३॥ सोऽनुज्ञातो नृपेणोचे श्रुत्वा मत्स्वामिवाचिकम् । कोपितव्यं न देवेन न हिताश्चाटुभाषिणः ॥१४॥ अवर्णवादो देवस्य यः परम्परया श्रुतः । स प्रत्यक्षीकृतो ह्यद्य न निर्मूला जनश्रुतिः ॥१५॥ अन्यायतोऽर्थलेशोऽपि राज्ञः सर्वयशश्छिदे । अप्येकं तुम्बिकाबीजं गुडभारान् विनाशयेत् ॥१६॥ आत्मभूताः प्रजा राज्ञो राजा न च्छेत्तुमर्हति । क्रव्यादा अपि न क्रव्यं निजमश्नन्ति जातुचित ॥१७॥ प्रजाः पुषाण पुष्ण ॥२९॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाश ॥२९३॥ न्ति पोषिता एव ता नृपम् । वश्याऽपि न बनड्वाही दत्ते दुग्धमपोषिता ॥१८॥ सर्वदोषप्रसूर्लोभो लोभः सर्वगुणापहः । लोभस्तस्यज्यतामेतत्त्वद्धितो वक्ति मत्प्रभुः ॥१९॥ नन्दोऽपि तदगिरा दावदग्धभूरिव वारिणा । अत्युष्णवाष्पममुचद् दग्धुकाम इवाशु तम् ॥२०॥ राजदौवारिको जातुन वध्य इति नन्दराट् । उत्थाय गर्भवेश्मान्तः सशिरोऽतिरिवाविशत् ॥२१॥ नासौ सदुपदेशानां जवासक इवाम्भसाम् । योग्य इत्यामृशन् दुतोऽप्यगात स्वस्वामिनोऽन्तिकम् ॥२२।। नन्दोऽप्यन्यायपापोत्थैर्वेदनादानदारुणैः । रोगैरिहापि संप्राप्तः परमाधार्मिकैरिव ॥२३॥ वेदनाभिर्दारुणाभिः पीडद्यमानो यथा यथा । नन्दश्चक्रन्द लोकोऽभूज्जातानन्दस्तथा तथा ॥२४॥ पच्यमानो भृज्यमानो दह्यमान इव व्यथाम् । अवाप नन्दः स्तोकं हि सर्व तादृक्षपाप्मनः ॥२५॥ ये भूतले विनिहिता गिरिवच्च कूटीभूताश्च येऽद्य मम काञ्चनराशयस्ते । कस्य स्युरित्यभिगृणन्नवितृप्त एव, मृत्वा निरन्तभवदुःखमवाप नन्दः ॥२६॥ इति नन्दकथानकम् ॥११२॥ ___ अपि च योगिनामपि परिग्रहमुपगृह्णतां लाभमिच्छता मूलक्षतिरायातेत्याहतपाश्रुतपरीवारां शमसाम्राज्यसंपदम् । परिग्रहग्रहग्रस्तास्त्यजेयुर्योगिनोऽपि हि ॥११३॥ योगो रत्नत्रयप्राप्तिस्तद्वन्तो योगिनस्तेऽपि, आसतां पृथग्जनाः, परिग्रह एव ग्रहस्त मस्ताः पिशाचकिन इव शमसाम्राज्यसंपदं स्वाधीनामपि त्यजेयुः, शमस्य वितृष्णतायाः साम्राज्यं परमैश्वर्य, तद्रूपा सम्पत् ताम् । साम्राज्यं च नैकाकिनो भवतीत्याह-तप:श्रुतपरीवारां तपश्चारित्रं, श्रुतं सम्यग्ज्ञानं, ते एव परीवारः परिच्छदो ॥२९॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशा લા यस्यास्तां तथाविधाम् शमसाम्राज्यसंपदं स्वाधीनां परित्यज्य मुखार्थिनः परिग्रहलवलुब्धा मूलमुच्छेद्य लाभमिच्छन्तीत्यर्थः ॥११३॥ इदानीमसन्तोषफलोपदर्शनपूर्वकं सन्तोषफलमाहअसन्तोषवतः सौख्यं न शक्रस्य न चक्रिणः। जन्तोः सन्तोषभाजो यदभयस्येव जायते ॥११४॥ सन्तोषरहितस्य तत्फलभूतं सौख्यं न शक्रस्य देवराजस्य, नापि चक्रिणो मनुजराजस्य, यत्सौख्यं सन्तोषवतो जन्मिनो जायते । कस्येवेत्याह-अभयस्य अभयकुमारस्य श्रेणिकराजपुत्रस्य । स हि पित्रोपनीतमपि राज्यं परिहत्य शमसाम्राज्यसम्पदं परिगृहीतवानिति । कथानकं च सम्प्रदायगम्यम् । स चायम्___ अस्तीह भरतक्षेत्रे केदारमिव सुन्दरम् । विशालशालिकमलं नाम्ना राजगृहं पुरम् ॥१॥ तत्र प्रसेनजिनाम नामिताशेषभूपतिः। पतिर्वारामिवालब्धमध्योऽभूत्पृथिवीपतिः ॥२॥ श्रीमत्पाजिनाधीशशासनाम्भोजषट्पदः । सम्यग्दर्शनपुण्यात्मा सोऽणुव्रतधरोऽभवत् ॥३॥ ओजसा तेजसा कान्त्या जितामरकुमारकाः । कुमारास्तस्य बहवो बभूवुः श्रेणिकादयः ॥४॥ को राज्ययोग्य इत्येषां परीक्षार्थ महीपतिः । एकत्र पायसस्थालान्यशनायैकदाऽऽर्पयत् ।।५॥ ततो भोक्त्तुं प्रवृत्तानां कुमाराणाममोचयत् । व्याघ्रानिव व्यात्तवक्त्रान् सारमेयान् स सारधीः ॥६।। कुमारा द्रुतमुत्तस्थुरापतत्सु ततः श्वसु । एकस्तु श्रेणिकस्तस्थौ धियां धाम तथैव हि ॥७॥ सोऽन्यस्थालात्पायसान्नं स्तोकं स्तोकं शुनां ददौ । यावल्लिलिहिरे श्वानस्तावच्च बुभुजे स्वयम् ॥८॥ येन केनाप्युपायेन निषे મારા Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥२९५॥ द्वितीय प्रकाशा धिष्यत्यरीनयम् । भोक्ष्यते च स्वयं पृथ्वी राजा तेनेति रञ्जितः ॥९॥ राजा पुनः परीक्षार्थ सुतानामन्यदा ददौ । मोदकानां करण्डांश्च पयस्कुम्भांश्च मुद्रितान् ॥१०॥ इमां मुद्रामभञ्जन्तो भुञ्जीवं मोदकानमून् । पयः पिबत मा कुढ़वं छिद्रमित्यादिशन्नृपः ॥११॥ विना श्रेणिकमेतेषां कोऽपि नामुक्त नापिबत् । बुद्धिसाध्येषु कार्येषु कुर्युरूजस्विनोऽपि किम् ? ॥१२॥ चलयित्वा चलयित्वा श्रेणिकोऽथ करण्डकम् । बुभुजे मोदकक्षोदं शलाकाविवरच्युतम् ॥१३॥ रौप्यशुक्क्या घटस्याघो गलद्वार्बिन्दुपूर्णया । स पयोऽपि पपौ किं हि दुःसाधं सुधियां धियः ॥१४॥ तत्प्रेक्ष्य नृपतिः प्रीतो जातेऽन्येयुः प्रदीपने । यो यद्गृह्णाति मद्गेहात्तत्तस्येत्यादिशत्सुतान् ॥१५॥ सर्वे गृहीत्वा रत्नानि कुमारा निर्ययुस्ततः । आदाय भम्भां त्वरितः श्रेणिकस्तु विनिर्ययौ ॥१६॥ किमेतत्कृष्टमित्युक्तो नृपेण श्रेणिकोऽवदत् । जयस्य चिह्न भम्भेयं प्रथमं पृथिवीभुजाम् ॥१७॥ अस्याः शब्देन भूपानां दिग्यात्रामङ्गलं भवेत् । रक्षणीया क्षमापालैः स्वामिस्तदियमात्मवत् ॥१८॥ ततः परीक्षानिर्वाहज्ञातबुद्धिर्महीपतिः । तस्य प्रीतो ददौ भम्भासार इत्यपराभिधाम् ॥१९॥ राज्याईमानिनो मैन राज्याई सूनवोऽपरे ज्ञासिषुरित्यवाज्ञासीच्छ्रेणिकं पृथिवीपतिः ॥२०॥ पृथक् पृथक् कुमाराणां ददौ देशाचरेश्वरः । न किश्चिच्छ्रेणिकस्यास्तु राज्यमस्यायताविति ॥२१॥ ततोऽभिमानी स्वपुरात्कलभः काननादिव । निःसृत्य श्रेणिकोऽगच्छत्तर्ण वेणातटं पुरम् ।।२२।। तत्र च प्रविशन् भद्राभिधस्य श्रेष्ठिनोऽथ सः। कर्म लाभोदयं मृर्तमिवोपाविशदापणे ॥२३॥ तदा च नगरे तस्मिन विपुलः कश्चिदुत्सवः। नव्यदिव्यदुकूलाङ्गरागपौराऽऽकुलोऽभवत् ॥२४॥ प्रभूतक्रायकैरासीत् स श्रेष्ठी व्याकुलस्तदा । कुमारोऽप्यार्पयद्वध्वाऽस्मै पुटीपुटिकादिकम् ॥२५॥ द्रव्यं कुमार ॥२९५॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥२९६ ॥ माहात्म्याच्छ्रेष्ठी भूयिष्ठमार्जयत् । पुण्यपुंसां विदेशेऽपि सहचर्य्यो ननु श्रियः ||२६|| अद्यावितथ पुण्यस्य कस्यातिथिरसीत्यथ । श्रेणिकः श्रेष्ठिना पृष्टो भवतामित्यभाषत ||२७|| नन्दायोग्यो वरो दृष्टः स्वप्नेऽद्य निशि यो मया । असौ साक्षात् स एवेति श्रेष्ठि चेतस्यचिन्तयत् ॥ २८ ॥ सोऽभाषिष्ट च धन्योऽस्मि यद्भवस्यतिथिर्मम असावलसमध्येन ननु गङ्गा समागता || २९ || संवृत्याहं ततः श्रेष्ठी तं नीत्वा निजवेश्मनि । स्नपयित्वा परिधाप्य सगौरवमभोजयत् ||३०|| एवं च तिष्ठस्तद्गेहे श्रेणिकः श्रेष्ठिनाऽन्यदा । कन्यां परिणयेमां मे नन्दां नाम्नेत्ययाच्यत ॥३१॥ ममाज्ञातकुलस्यापि कथं दत्से सुतामिति । श्रेणिकेनोक्त ऊचे स ज्ञातं तव गुणैः कुलम् ||३२|| ततस्तस्योपरोधेनोदधेरिव सुतां हरिः । श्रेणिकः पर्यणैषीत्तां भवद्धबलमङ्गलम् ||३३|| भुञ्जानो विविधान् भोगान् सह वल्लभया तया । अतिष्ठच्छ्रेणिकस्तत्र निकुञ्ज इव कुञ्जरः ||३४|| श्रेणिकस्य स्वरूपं तद्विवेदाशु प्रसेनजित् । सहाखाक्षा हि राजानो भवन्ति चरलोचनैः ||३५|| उग्रं प्रसेनजिद्रोगं प्रापाथान्तं विदन्निजम् । सुतं श्रेणिकमानेतुं शीघ्रानादिक्षदौष्ट्रिकान् ॥३६॥ औष्ट्रिकेभ्यो ज्ञातयाऽऽत्तेः पितुरत्यर्त्तिवर्त्तिया । नन्दां संबोध्य सस्नेहं प्रतस्थे श्रेणिकस्ततः॥३७॥ वयं पाण्डुरकुड्या गोपाला राजगृहे पुरे । आह्वानमन्त्रप्रतिमान्यक्षराणीति चार्पयत् ॥ ३८ ॥ माऽन्या तातस्य रोगार्त्तेर्मदर्त्तिर्भूदिति द्रुतम् । उष्ट्री श्रेणिक आरुह्य ययौ राजगृहं पुरम् ||३९|| तं दृष्ट्वा मुदीतो राजा हर्षनेत्राश्रुभिः समम् । राज्येऽभ्यषिव्चद्विमलैः सुवर्णकलशाम्बुभिः ||४०|| राजाऽपि संस्मरन् पार्श्व जिनं पञ्चनमस्क्रियाम् । चतुःशरणमापन्नो विपद्य त्रिदिवं ययौ ॥ ४१ ॥ विश्वं विश्वम्भराभारं बभार श्रेणिकस्ततः । तेन सा गुर्विणी मुक्ता गर्भ नन्दाऽपि दुर्बहम् ॥४२॥ तस्या दोहद इत्यासीद्गजारूढा शरीरिणाम् । महाभूत्योपकुर्वाणा भवाम्यभयदा यदि ॥४३॥ द्वितीय प्रकाशः ||२९६॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाश ॥२९॥ विज्ञपय्याथ राजानं तत्पित्राऽपूरि दोहदः । पूर्णे काले च साऽस्त प्राची रविमिवार्भकम् ॥४४॥ दोहदार्थानुसारेण तस्याथ दिवसे शुभे । चकराभयकुमार इति मातामहोऽभिधाम् ॥४५॥ स मावृधे विद्या निरवद्याः पपाठ च । अष्टवर्षोऽभवद्दक्षो द्वासप्तत्यां कलासु च।।४६।। सवयाः कलहे कोऽपि तं कोपादित्यतर्जयत् । किं त्वं जल्पसि यस्याहो पिता विज्ञायते न हि ॥४७॥ उचेऽभयकुमारस्तं ननु भद्रः पिता मम । पिता भद्रो भवन्मातुःप्रत्युवाचेति सोऽभयम् ॥४८॥ नन्दा प्रत्यभयोऽप्यूचे मातः! को मे पितेत्यथ । अयं तव पिता भद्रः श्रेष्ठी नन्देत्यचीकथत् ॥४९॥ भद्रस्तव पिता शंस मदीयं पितरं ननु। पुत्रेणेत्युदिता नन्दा निरानन्देदमब्रवीत् ॥५०॥ देशान्तरादागतेन परिणीताऽस्मि केनचित् । मम च त्वयि गर्भस्थे तमीयुः केचिदौष्ट्रिकाः॥५१॥ रहः स किश्चिदुक्त्वा तैः सहैव क्वचिदप्यगात् । अद्यापि तं न जानामि कुतस्त्यः कश्चिदित्यहम् ॥५२॥ स यान् किश्चिज्जजल्प त्वामिति पृष्टाऽभयेन सा । अक्षराण्यर्पितान्यतानीति पत्रमदर्शयत् ॥५३॥ तद्विभाब्याभयः प्रीतोऽब्रवीन्मम पिता नृपः। पुरे राजगृहे तत्र गच्छामो ननु संप्रति ॥५४॥ आपृच्छच श्रेष्ठिनं भद्रं सामग्रीसंयुतस्ततः। नान्देयो नन्दया सार्द्ध ययौ राजगृहं पुरम् ॥५५॥ मातरं बहिरुद्याने विमुच्य सपरिच्छदाम् । तत्र स्वल्पपरीवारः प्रविवेशाभयः पुरे ॥५६॥ इतश्च मेलितान्यासंस्तदा श्रेणिकभूभुजा । शतानि पञ्चैकोनानि मन्त्रिणां मन्त्रसत्रिणाम् ॥५७॥ मन्त्रिपञ्चशतीं पूर्णां कर्तुं नरपतिस्ततः । लोके गवेषयामास कश्चिदुत्कृष्टपूरुषम् ॥५८॥ ततश्च तत्परीक्षार्थ शुष्ककूपे निजोमिकाम् । प्रचिक्षेप क्षितिपतिर्लोकानित्यादिदेश च ॥५९॥ आदास्यति करेणैतामूर्मिकां यस्तटस्थितः । तस्य धीकौशलक्रीता मदीया मन्त्रिधुर्यता ॥६०॥ तेऽप्यूचुर्यदशक्यानुष्ठानमस्मादृशामिदम् । ताराः करेण य: २९ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाश ॥२९८॥ कर्षेत् स इमामूमिकामपि ॥६॥ ततोऽभयकुमारोऽपि संप्राप्तस्तत्र सस्मितम् । ऊचे किं गृह्यते नैषा, किमेतदपि दुष्करम् ॥६२॥ तं दृष्ट्वा च जना दध्युः कोऽप्यसावतिशायिधीः। समये मुखरागो हि नृणामाख्याति पौरुषम् ॥६३॥ ऊचुश्च ते महाभाग! त्वं गृहाणेत्यमूमिकाम् । ऊर्मिकाकर्षणपणां धुर्यतां चैषु मन्त्रिषु ।।६४॥ ततोऽभयकुमारस्तामूमिकां कूपमध्यगाम् । आगोमयपिण्डेन निजधानोपरि स्थितः ॥६५॥ प्रक्षिप्योपरि तत्कालं ज्वलन्तं तृणपूलकम् । सद्यः संशोषयामास गोमयं तन्महामतिः ॥६६॥ नन्दाया नन्दनः सद्यः कारयित्वाऽय सारणिम् । वारिणाऽपूरयत् कूपं विस्मयेन च तं जनम् ॥६७॥ तद्गोमयं श्रेणिकसः करेण तरसाऽऽददे । धीमद्भिः सुप्रयुक्तस्य किमुपायस्य दुष्करम् ? ॥६८॥ तस्मिन् स्वरूपे चारक्षैर्विज्ञप्ते जातविस्मयः । नृपोऽभयकुमारं द्रागाजुहावात्मसन्निधौ ॥६९।। अभयं श्रेणिकः पुत्रप्रतिपत्त्याऽथ सस्वजे । बन्धुरज्ञायमानोऽपि दृष्टो मोदयते मनः॥७०॥ कुतस्त्वमागतोऽसीति पृष्टः श्रेणिकभूभुजा। वेणातटादागतोऽहमिति चाभिदधेऽभयः॥७॥ राजाऽपृच्छद्भद्रमुख ! किं भद्र इति विश्रतः। श्रेष्ठी तत्रास्ति तस्यापि नन्दानाम्नी च नन्दना ।।७२॥ अस्त्येव सम्यगित्युक्ते तेन भूयोऽपि भूपतिः। ऊचे नन्दोदरिण्यासीत्किमपत्यमजायत ? ॥७॥ अथाख्यत्कातदन्तांशुश्रेणिः श्रेणिकसूरिदम् । देवाभयकुमाराख्यं सा नन्दनमजीजनत् ।।७४॥ किं रूपः किं गुणः सोऽस्तीत्युदिते सति भूभुजा । ऊचेऽभयः स एवाहं स्वामिन्नस्मीति चिन्त्यताम् ।।७५॥ परिष्वज्याङ्कमारोप्य समाघ्राय च मूर्द्धनि । स्नेहात् स्नपयितुमिव सिषेच नयनाम्बुभिः।७६॥ कुशलं वत्स ! ते मातुरिति पृष्ठे महीभूजा । इति विज्ञपयामास बद्धाञ्जलि पुटोभयः ॥७७॥ अनुस्मरन्ती भृङ्गीव त्वत्पादाम्भोजसङ्गमम् । स्वामिन्नायुष्मती मेऽम्बा बाह्योद्यानेऽस्ति संप्रति॥७८॥ ॥२९८॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाशः । ॥२९९॥ ततो नन्दा समानेतुममन्दानन्दकन्दलः । न्ययुक्त सर्वसामग्रीमग्रेकृत्य नृपोऽभयम् ॥७९॥ ततः स्वयमपि प्राज्योत्कण्ठोल्लिखितमानसः। नन्दामभिययौ राजा राजहंस इवाब्जिनीम् ॥८०॥ शिथिलीभूतवलयां कपोललुलितालकाम् । अनञ्जनाक्षी कबरीधारिणी मलिनांशुकाम् ॥८१॥ तनोस्तनिम्ना दधतीं द्वितीयेन्दुकलातुलाम् । ददर्श राजा सानन्दो नन्दामुद्यानवासिनीम् ॥८२॥ (युग्मम् ) नन्दामानन्ध नृपतिर्नीत्वा च स्वं निकेतनम् । पट्टाराज्ञीपदेऽकार्षीत् सीतामिव रघूद्वहः ॥८३॥ भक्तितः पितरि स्वस्य पदातिपरमाणुताम् । मन्वानः साधयामास दुःसाधान् भूभुजोऽभयः ॥८४॥ अन्यदोज्जयिनीपुर्याश्चण्डप्रद्योतभूपतिः। चलितः सर्वसामच्या रोधुं राजगृहं पुरम् ॥८५॥ प्रद्योतो बद्धमुकुटाश्चतुर्दश परे नृपाः। तत्रायान्तो जनैर्दष्टाः परमाधार्मिका इव ॥८६॥ पाट्पट(टैः)प्लुतैरश्वैः पाटयन्निव मेदिनीम् । आगच्छन् प्रणिधिभ्योऽथ शुश्रुवे श्रेणिकेन सः ॥८७॥ किञ्चिच्च चिन्तयामास प्रद्योतोऽद्य समापतन् । क्रूरग्रह इव क्रुद्धः कार्यों हतबलः कथम् ? ॥८८॥ ततोऽभयकुमारस्यौत्पत्तिक्यादिधियां निधेः । नृपतिमुखमैक्षिष्ट सुधामधुरया दृशा ॥८९॥ यथार्थनामा राजानमभयोऽथ व्यजिज्ञपत् । का चिन्तोज्जयिनीशोऽद्य भूयायुद्धातिथिर्मम ॥९०॥ यदि वा बुद्धिसाध्येऽर्थे शखाशस्त्रिकथा वृथा । बुद्धिमेव प्रयोक्ष्ये तबुद्धिहि जयकामधुक ॥९१॥ अथ बाह्येऽरिसैन्यानामावासस्थानभूमिषु । लोहसंपुटमध्यस्थान् दीनारान् स न्यचीखनत् ।।९२॥ प्रद्योतनृपतेः सैन्यैस्ततो राजगृहं पुरम् । पर्यवेष्टचत भूगोलः पयोधिसलिलैरिव ॥९३।। अथेत्थं प्रेषयामास लेखं प्रद्योतभृपतेः। अभयो गुप्तपुरुषैः परुषेतरभाषिभिः ॥९४॥ शिवादेवीचेल्लणयोर्भेदं नेक्षे मनागपि । तन्मान्योऽसि शिवादेवीस(१) गच्छद्भिः Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् द्वितीय प्रकाश ॥३०॥ म्बन्धेनापि सर्वदा ॥९५॥ तदवन्तीश! वच्मि त्वामेकान्तहितकाक्षया। सर्वे श्रेणिकराजेन भेदितास्तव भूभुजः ॥९६॥ दीनाराः प्रेषिताः सन्ति तेभ्यस्तान् कर्त्तमात्मसात् । ते तानादाय बध्ध्वा त्वामर्पयिष्यन्ति मत्पितुः ॥९७॥ तदावासेषु दीनारा निखाताः सन्ति तत्कृते । खानयित्वा पश्य को वा दीपे सत्यग्निमीक्षते ॥९८॥ विदित्वैवं स भूपस्यैकस्यावासमचीखनत् । लब्धास्तत्र च दीनारास्तान् दृष्ट्वाऽऽशु पलायत ॥९९॥ नष्टे तत्र तु तत्सैन्यं विलोड्याब्धिमिवाखिलम् । हस्त्यश्वाधाददे सारं मगधेन्द्रः समन्ततः ॥ १०॥ नासारूढेन जीवेन वायुवाजेन वाजिना । ततः प्रद्योतनृपतिः कथञ्चित् स्वां पुरी ययौ ॥१॥ ये चतुर्दश भूपाला ये चान्येऽपि महारथाः । तेऽपि नेशुः काकनाशं हतं सैन्यं ह्यनायकम् ॥ २ ॥ असंयतलुलत्केशैश्छत्रशून्यैश्च मौलिभिः । राजानमनुयान्तस्तेऽप्यापुरुज्जयिनी पुरीम् ॥३॥ अभयस्यैव मायेयं वयं नेदृशकारिणः । प्रत्यायितः सशपथं तैरथोज्जयिनीपतिः॥४॥ कदाचिदचेऽवन्तीशो मध्येसभममर्षणः। योऽर्पयत्यभयं बध्ध्वा मम सम्पत्स्यते स किम् ॥५॥ पताकं हस्तमुत्क्षिप्य काऽप्येका गणिका ततः। व्यजिज्ञपदवन्तीशमलमस्मीह कर्मणि ॥६॥ तामादिदेशावन्तीशो यद्येवमनुतिष्ठ तत् । करोम्यर्थादिसाहाय्यं ब्रूहि किं तव संप्रति ? ॥७॥ सा च दध्यौ यदभयो नोपायैग्रह्यतेऽपरैः। धर्मच्छद्म तदादाय साधयामि समीहितम् ॥८॥ अयाचत ततश्च द्वे द्वितीयवयसौ स्त्रियौ । ते तदैवार्पयद्राजा ददौ द्रव्यं च पुष्कलम् ॥९॥ कृतादराः प्रतिदिनमुपास्योपास्य संयताः । बभूवुरुत्कटप्रज्ञास्तास्तिस्रोऽपि बहुश्रुताः॥१०॥ तास्तिखोऽपि ततो जग्मुः श्रेणिकालङ्कृतं पुरम् । जगत्त्रयीं वश्चयितुं मायाया इव मूर्तयः॥११॥ बाह्योद्याने कृतावासा सा पणत्रीमतल्लिका । पत्तनान्तर्ययौ चैत्यपरिपाटीचिकीर्षया ॥१२॥ सा विभूत्याऽतिशा ॥३००। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वितीय प्रकाश ॥३०१॥ यिन्या चैत्ये नृपतिकारिते । प्रविवेश समं ताभ्यां कृत्वा नैषेधिकीत्रयम् ॥१३॥ मालवकैशिकीमुख्यभाषामधुरया गिरा । देवं वन्दितुमारेभे सपर्या विरचय्य सा ॥१४॥ तत्राभयकुमारोऽपि ययौ देवं विवन्दिषुः । आत्मतृतीयां तामग्रे वन्दमानां ददर्श च ॥१५।। देवदर्शनविघ्नोऽस्या मा भूत्प्रविशता मया । द्वार्यवेत्यभयस्तस्थौ मण्डपान्तविवेश न ॥ १६ ॥ प्रणिधानस्तुति कृत्वा सा मुक्ताशुक्तिमुद्रया। यावदुत्तस्थुषी तावदभयोऽभ्याजगाम ताम् ॥१७॥ तादृशीं भावनां तस्यास्तं वेषं प्रशमं च तम् । अभयो वर्णयामास सानन्दं च जगाद ताम् ॥१८॥ दिष्टया भद्रेऽधुना त्वाहासाधर्मिकसमागमः । साधर्मिकात्परो बन्धुर्न संसारे विवेकिनाम् ॥ १९ ॥ का त्वं किमागमः का वा वासभूमिरिमे च के। यकाभ्यां स्वातिराधाभ्यामिन्दुलेखेव शोभसे ॥ २० ॥ व्याजहाराथ सा व्याजश्राविकाऽवन्तिवासिनः । महेभ्यवणिजः पाणिगृहीती विधवा त्वहम् ॥ २१ ॥ इमे च मम पुत्रस्य कलत्रे कालधर्मतः । विच्छाय्यभूतां विधवे भग्नवृक्षे लते इव ॥२२॥ व्रतार्थमापपृच्छाते उभे अपि तदैव माम् । विपन्नपतिकानां हि सतीनां शरणं व्रतम् ।।२३।। मयाऽप्युक्ते ग्रहीष्यामि निर्वोराऽहमपि व्रतम् । गार्हस्थ्यस्य फलं किन्तु गृह्यतां तीर्थयात्रया ॥२४॥ व्रते हि भावतः पूजा युज्यते द्रव्यतो न तु । इत्यहं तीर्थयात्रार्थमेताभ्यां सह निर्ययौ ॥२५|| अत्थेत्थमभयोऽवोचदतिथीभवताद्य नः आतिथेयं सतीर्थ्यानां तीर्था दप्यतिपावनम् ॥२६।। प्रत्युवाचाभयं साऽपि युक्तमाह भवान् परम् । कृततीर्थोपवासाऽहं भवाम्यद्यातिथिः कथम् ॥२७॥ अथ तनिष्ठया हृष्टोऽभयस्तामवदत्पुनः । अवश्यं मम तत्प्रातरागन्तव्यं निकेतने ॥२८|| साऽप्यूचे यत्क्षणेनापि जन्मिनो जन्म पूर्यते । अहं प्रातरिदं कर्ताऽस्मीति जल्पेत्कथं सुधीः ? ॥२९॥ अस्त्विदानीमियं भूयः श्वो निमन्त्र्येति ॥३० Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ૫૦૨ા चिन्तयन् । तां विसृज्याभयश्चैत्यं वन्दित्वा स्वगृहं ययौ ॥ ३० ॥ तां निमन्त्र्याभयः प्रातर्गृहचैत्यान्यवन्दयत् । भोजयामास च प्राज्यवस्त्रदानादि च व्यधात् ॥ ३१॥ निमन्त्रितस्तयाऽन्येद्युर्मितीभूयाभयोऽप्यगात् । साधर्मिकोपरोधेन किं न कुर्वन्ति तादृशाः १ ॥३२॥ तया च विविधैर्भोज्यैरभयोऽकारि भोजनम् । चन्द्रहाससुरामिश्रपानकानि च पायितः ||३३|| भुक्तोत्थितश्च तत्कालं सुष्वाप श्रेणिकात्मजः । आदिमा मद्यपानस्य निद्रा सहचरी खलु ॥३४॥ तं रथेन स्थाने स्थाने स्थापितैश्चापरै रथैः । अवन्तीं प्रापयामास दुर्लक्ष्यच्छद्मसद्म सा ||३५|| ततोऽभयान्वेषणाय श्रेणिकेन नियोजिताः । स्थाने स्थानेऽन्वेषयन्तस्तत्रापीयुर्गवेषकाः || ३६ || किमिहाभय आयात इत्युक्ता तैरुवाच सा । इहाभयः समायातः परं यातस्तदैव हि ||३७|| वचनप्रत्ययात्तस्या अन्यत्रेयुर्गवेषकाः । स्थाने स्थाने स्थापिताश्चैः साऽप्यवन्तीं समाययौ ॥ ३८ ॥ सा प्रचण्डाऽभयं चण्डप्रद्योतस्यार्पयत्तत्तः । अभयाऽऽनयनो पायस्त्ररूपं च व्यजिज्ञपत् ||३९|| तां प्रद्योतोऽप्युवाचैवं न साधु विहितं त्वया । यदमुं धर्मविश्रब्धं त्वं धर्मच्छद्मनाऽऽनयः ॥ ४० ॥ कथासप्ततिसंशंसी मार्जार्येव शुकोऽनया । नीतिज्ञोऽपि गृहीतोऽसि जगादेत्यभयं च सः ॥४१॥ अभयोऽप्यब्रवीदेवं त्वमेव मतिमानसि । यस्यैवंविधया बुद्ध्या राजधर्मः प्रवर्द्धते ||४२ || लज्जितः कुपितचाथ चण्डप्रद्योत भूपतिः । राजहंस मिवाक्षैप्सीदभयं काष्ठपारे ||४३|| अग्निभीरू रथो देवी शिवा नलगिरिः करी । लोहजङ्घो लेखबाहो राज्ये रत्नानि तस्य तु ||४४ || लोहजङ्कं नृपः प्रैषीभृगुकच्छे मुहुर्मुहुः । तद्गातागतसंक्लिष्टा स्तत्रत्या इत्यमन्त्रयन् ||४५ || आयात्ययं दिनेनापि पञ्चविंशतियोजनीम् । असकृद्वयाहरत्यस्मान् हन्मः संप्रत्यमुं ततः ॥४६|| ते विमृश्येत्यदुस्तस्य शम्बले विषमोदकान् । तद्भस्त्राशम्बलं चान्यत्समन्तादप्यपाहरन् ॥४७॥ द्वितीय प्रकाशः ॥३०२ ॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥२०३॥ कञ्चित्पन्थानमुल्लङ्घय नदीरोधसि शम्बलम् । तद्भोक्तुमवतस्थेऽसौऽभूवन्नशकुनान्यथ ॥४८॥ शकुनज्ञस्तु सोऽभुक्त्वोत्थाय दूरं ययौ ततः । क्षुधितो भोक्तुकामस्तद्वारितः शकुनैः पुनः ॥ ४९|| दूरं गत्वा भोक्तुकामः शकुनैवरितः पुनः । ततो गत्वा स तत्सर्वं प्रद्योतस्य न्यवेदयत् ॥५०॥ ततो राज्ञा समाहूय तत्पृष्टः श्रेणिकात्मजः । पाथेयभस्त्रा माघ्राय जगाद मतिमानिदम् ॥ ५१ ॥ अस्ति दृष्टिविषोऽत्राहिर्द्रव्यसंयोगसंम्भवः । असौ दग्धो भवेन्नूनं भवामुद्घाटचेद्यदि ॥ ५२ ॥ ततः पराङ्मुखोऽरण्ये मोच्य इत्यभयोदिते । तथैव मुमुचे सद्यो दग्धा वृक्षा मृतश्च सः ॥५३॥ विना बन्धनमोक्षं त्वं वरं याचस्व मामिति । नृपेणोक्तेऽभयोऽवादीन्न्यासी भूतोऽस्तु मे वरः ||५४॥ अन्यदाऽऽलानमुन्मूल्य पातयित्वा निषादिनौ । स्वैरं नलगिरिर्भ्राम्यन् क्षोभयामास नागरान् ।। ५५ ।। असावant हस्ती व नेयः कथं न्विति । राज्ञा पृष्टोऽभयोऽशंसद्गायन्नुदयनो नृपः ॥ ५६ ॥ पुत्र्या वासवदया गान्धीत धृतः । जगावुदयनस्तत्र समं वासवदत्तया ॥५७॥ तद्गीताकर्णनाक्षिप्तो बद्धो नलगिरिः करी । पुनर्ददौ वरं राजा न्यासीचक्रेऽभयस्तथा ॥ ५८ ॥ अभूवन्त्यामन्येद्युर्निर्विच्छेदं प्रदीपनम् । पृष्टश्च तत्प्रतीकारं प्रद्योतेनाभोऽवदत् ॥ ५९ ॥ विषस्येव विषं वहनेर्वह्निरेव यदौषधम् । तदन्यः क्रियतां वह्निर्यथा शाम्येत् प्रदीपनम् || ६० ॥ तत्तथा विदधे राज्ञाऽशाम्यतच्च प्रदीपनम् । तृतीयं च वरं सोऽदान्न्यासी चक्रेऽभयश्च तम् ||६१|| अशिवं महदन्येद्युरुज्जयिन्यां समुत्थितम् । तत्प्रशान्त्यै नरेन्द्रेण पृष्ट इत्यभयोऽब्रवीत् ॥६२॥ आगच्छन्त्वन्तरास्थानं देव्यः सर्वा विभूषिताः । युष्मान् जयति या दृष्ट्या कथनीया तु सा मम ॥ ६३ ॥ तथैव विदधे राज्ञा राज्ञ्योऽन्या विजिता दृशा । देव्या तु शिवया राजा कथितं चाभयाय तत् ॥ ६४ ॥ EXCO TO TO REETOORNO MORE द्वितीय प्रकाशः ॥३०३ ॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् upol अभाषताभंयोऽप्येवं महाराज्ञी शिवा स्वयम् । करोतु कूरबलिना भूतानामर्चनं निशि ।। ६५ ।। यद्यद्भूतं शिवारूपेणोत्तिष्ठत्यथ वासते । तस्य तस्य मुखे देव्या क्षेप्यः क्रूरवलिः स्वयम् ||६६ || विदधे शिवया तच्चाशिवशान्तिर्बभूव च । तुर्ये चादाद्वरं राजा ययाचे चाभयोऽप्यदः ॥ ६७ ॥ स्थितो नलगिरी मेण्ठीभूते त्वयि शिवाङ्कगः । अहं विशाम्यग्निभीरुरथदारुकृतां चिताम् ॥ ६८ ॥ ततो विषण्णः प्रद्योतो वरान् दातुमशक्नुवन् । विससर्जाञ्जलिं कृत्वा कुमारं मगधेशितुः || ६९ || १ आशुश्रावाभयोऽप्येवं त्वयाऽऽनीतश्ललादहम् । दिवा रटन्तं पूर्मध्ये त्वां तु नेष्याम्यसावहम् ॥ ७० ॥ ततोऽभयकुमारोऽगात् क्रमाद्राजगृहे पुरे । कथमप्यवतस्थे च कश्चित्कालं महामतिः ॥७१॥ गृहीत्वा गणिकापुत्र्यौ रूपवत्यावथाभयः । वणिग्वेषोऽगादवन्त्यां राजमार्गेऽग्रहीद्गृहम् ॥७२ || प्रद्योतेनेक्षिते ते च दारिके पथि गच्छता । ताभ्यां च सविलासाभ्यां प्रद्योतोऽपि निरीक्षितः ॥७३॥ प्रद्योतेन गृहे गत्वा रागिणा प्रेषिता ततः । दुतिकाऽनुनयन्त्याभ्यां क्रुद्धाभ्यामपहस्तिता ॥ ७४ ॥ द्वितीयस्मिन्नपि दिनेऽर्थयमाना नृपाय च । ताभ्यां शनैः सरोषाभ्यामवामन्यत दृतिका ||७५|| तृतीयेऽप्यहि निर्वेदादेत्य ते याचितेऽनया । ऊचतुश्च सदाचारो भ्राता नावेष रक्षति ||७६ || ततो बहिर्गतेऽमुष्मिन् सप्तमेऽह्नि समागते । इहायातु नृपश्छन्नस्ततः सङ्गो भविष्यति ॥ ७७॥ ततोऽभयेन प्रद्योतसहगेकः पुमान्निजः । उन्मत्तो विदधे तस्य प्रद्योत इति नाम च ॥७८॥ ईदृशोऽयं मम भ्राता भ्राम्यतीतस्ततस्ततः । रक्षितव्यो मया हा किं करोमीत्यवदज्जने ॥ ७९ ॥ तं वैद्यसद्मनयनच्छद्मना प्रत्यहं बहिः । रटन्तं मञ्चकारूढं निनायार्त इवाभयः ॥ ८० ॥ नीयमानश्च (१) प्रतिज्ञां चकार । द्वितीय प्रकाशः ॥३०४॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥३०५ ॥ 06 OCE तेनोच्चैः स उन्मत्तश्चतुष्पथे । प्रद्योतोऽहं ह्रियेनेनेत्युदभुवदनोऽरटत् ॥ ८१ ॥ सप्तमेऽह्नि नृपोऽप्येकस्तत्र प्रच्छन्न आययौ । कामान्धः सिन्धुर इव बद्धश्वाभयपुरुषैः ॥ ८२ ॥ नीयतेऽसौ वैद्यवेश्मेत्यभयेनाभिभाषिणा । पर्य्यङ्केन समं जड़े पुरान्तः सन् दिवा ॥८३॥ क्रोशे क्रोशे पुरे मुक्त रथैरथ सुवाजिभिः । पुरे राजगृहेऽनैषीत्प्रद्यो तमभयोऽभयः ||८४|| ततो निनाय प्रद्योतं श्रेणिकस्य पुरोऽभयः । दधावे खड्गमाकृष्य तं प्रति श्रेणिको नृपः ||८५|| ततोऽभयकुमारेण बोधितो मगधेश्वरः । संमान्य वस्त्राभरणैः प्रद्योतं व्यसृजन्मुदा ॥ ८६ ॥ अन्यदा गणभृद्देवसुधर्मस्वामिनोऽन्तिके । प्रव्रज्यामग्रहीत्कोऽपि विरक्तः काष्ठभारिकः ॥ ८७ ॥ विहरन् स पुरे पौरैः पूर्वावस्थाऽनुवादिभिः । अभर्त्स्यतोपाहस्यतागर्ह्यतापि पदे पदे ॥८८॥ नावज्ञां सोडुमीशोऽत्र विहरामि तदन्यतः इति व्यज्ञपयत् स श्री धर्मस्वामिनं ततः ॥ ८९ ॥ सुधर्मस्वामिनाऽन्यत्र विहारक्रमहेतवे । आपृच्छयताभयः पृच्छन् ज्ञापितस्तच कारणम् ||१०|| दिनमेकं प्रतीक्षध्वमूर्ध्व यत्प्रतिभाति वः । तद्विधत्तेत्ययाचिष्ट प्रणम्य श्रेणिकात्मजः ॥ ९१ ॥ सोऽथ राजकुलात्कृष्ट्वा नकोटित्रयीं बहिः । दास्याम्येतामेत लोकाः पटहेनेत्यघोषयत् ॥ ९२ ॥ ततथेयुर्जनाः सर्वेऽप्यवोचदभयोऽप्यदः । जलाग्निस्त्रीवर्जको यस्तस्य रत्नोच्चयोऽस्त्वयम् ॥९३॥ लोकोत्तरमिदं लोकः स्वामिन ! किं कर्तुमीश्वरः । इति तेष्वाभाषमाणेष्वभयोऽपीत्यभाषत ॥९४॥ यदि वो नेदृशः कश्चिद्रत्नकोटीत्रयं ततः । जलाग्निस्त्रीमुचः काष्ठभारिणोऽस्तु महामुनेः || ९५|| सम्यगीदृगयं साधुः पात्रं दानस्य युज्यते । मुधाऽसौ जहसेऽस्माभिरिति तैर्जगदेऽभयः ॥ ९६ ॥ अस्य भसपहासादि न कर्त्तव्यमतः परम् आदिष्टमभयेनैवं प्रतिपद्य ययुर्जनाः ॥९७॥ एवं बुद्धिमहाम्भोधिः पितृभक्तिपरोऽभयः । निरीहो धर्मसंसक्तो SOOR द्वितीय प्रकाशः ॥२९३॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥३०६ ॥ राज्यमन्वशिषत्पितुः ॥९८॥ वर्त्तमानः स्वयं घर्मे स प्रजा अध्यवर्त्तयन् । प्रजानां च पशूनां च गोपायत्ताः प्रवृत्तयः ||९९ || राजा चक्रे जजागार यथा द्वादशधा स्थिते । तथा श्रावकधर्मेऽसावप्रमद्वरमानसः ॥ २०० ॥ बहिरङ्गान् यथाऽजैषी दुर्जयानपि विद्विषः । अन्तरङ्गानपि तथा स लोकद्वयसाधकः ||१|| तमूचे श्रेणिकोऽन्येस! राज्यं त्वमाश्रय । अहं श्रयिष्ये श्रीवीरशुश्रूषासुखमन्वहम् ||२|| पित्राज्ञाभङ्गसंसारमीरुरित्यमयोऽब्रवीत् । यदादिशत तत्साधु प्रतीक्षध्वं क्षणं परम् ||३|| इतश्च भगवान् वीरः प्रव्राज्योदायनं नृपम् । मरुमण्डलतस्तत्राभ्यागत्य समवासरत् ||४|| ततो गत्वाऽभयो नत्वा पप्रच्छ चरमं जिनम् । राजर्षिः कोऽन्तिमोऽथाख्यतत्रैवोदायनं प्रभुः ||५|| गत्वोचे श्रेणिकं सोऽस्मि राजा चेण ऋषिस्तदा । श्रीवीरोऽन्तिमराजर्षि शशंसोदायनं यतः ॥६॥ श्रीवीरं स्वामिनं प्राप्य प्राप्य त्वत्पुत्रतामषि । नो छेत्स्ये भवदुःखं चेन्मत्तः कोऽन्योऽधमस्ततः||७|| नाम्नाऽहमभयस्तात । सभयोऽस्मि भवाद्भृशम् । भुवनाभयदं वीरं तच्छयामि समादिश ||८|| तदलं मम राज्येनाभिमानमुखहेतुना । यतः सन्तोषसाराणि सौख्यान्याहुर्महर्षयः || ९ || निर्बन्धाद्ग्राह्यमाणेऽपि न यदा राज्यमग्रहीत । तदाऽभयो व्रतायानुजक्षे राज्ञा प्रमोदतः ||१०|| राज्यं तृणमिव त्यक्त्वा सन्तोषसुखभागसौ । दीक्षां चरमतीर्थेशवीरपादान्तिकेऽग्रहीत् ॥११॥ संतोषमेवमभयः सुखदं दधानः सर्वार्थसिद्धिसुरधाम जगाम मृत्वा । सन्तोष मेवमपरोऽप्यवलम्बमान - स्तान्युत्तरोत्तरमुखानि नरो लभेत ॥ २१२ ॥ ॥ इति श्री अभयराजर्षिकथानकम् ॥११४॥ प्रकृतं सन्तोषमेव स्तौति OKEY OR FORC 'द्वितीय प्रकाशः ખારા Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग शास्त्रम् ॥३०७॥ सन्निधौ निधयस्तस्य कामगव्यनुगामिनी । अमराः किङ्करायन्ते सन्तोषो यस्य भूषणम् ॥ ११५ ॥ निधयो महापद्मादयः, सन्निधौ सन्निहिताः, कामगवी कामधेनुः, सा अनुगच्छतीत्येवंशीला अनुगामिनी, अमराः सुराः, किङ्करा इवाचरन्ति किङ्करायन्ते । तस्येति योगः यस्य किम् ? यस्य पुंसः सन्तोषो भूषणमलङ्करणम् । तथाहि —सन्तुष्टा मुनयः शमप्रभावात्तृणाग्रादपि रत्नसमूहान् पातयन्ति, कामितफलदायिनश्च सुरेन्द्रैरप्यहमहमिकयोपचर्यन्त इत्यत्र कः सन्देहः । अत्रान्तरश्लोकाः धनं धान्यं स्वर्णरूप्यकुप्यानि क्षेत्रवास्तुनी । द्विपाच्चतुष्पाच्चेति स्युर्नव बाह्याः परिग्रहाः। ! १ ॥ रागद्वेषौ कषायाः शुग्हासौ रत्यरती भयम् । जुगुप्सा वेदमिध्यात्वे आन्तराः स्युश्चतुर्दश ॥२॥ बाह्यात् परिग्रहात्प्रायः प्रकुप्यन्त्यान्तरा अपि । प्रावृषो मूषिकालर्कविषजोपद्रवा इव ||३|| प्राप्तप्रतिष्ठानपि च वैराग्यादिमहादुमान् । उन्मूलयति निर्मूलं परिग्रहमहाबलः १ ||४|| परिग्रहनिषण्णोऽपि योऽपवर्गे विमार्गति । लोहोडुपनिविष्टोऽसौ पारावारं तितीर्षति ||५|| बाह्याः परिग्रहाः पुंसां धर्मस्य ध्वंसहेतवः । तज्जन्मानोऽपि जायन्ते समिधामिव वह्नयः ||६|| बाह्यानपि हि यः सङ्गान्न नियन्त्रयितुं क्षमः । जयेत् क्लीवः कथं सोऽन्तः परिग्रचम्मम्म् ||७|| क्रीडोद्यानमविद्यानां वारिधिर्व्यसनार्णसाम्१ । कन्दस्वष्णामहावल्लेरेक एव परिग्रहः ॥ ८॥ अहो आश्चर्यमुन्मुक्तसर्वसङ्गान्मुनीनपि । धनार्थित्वेन शङ्कन्ते धनरक्षापरायणाः ||९|| राजतस्करदायादवहितोयादिभीरुभिः । धनैकतानैर्धनिभिर्निशास्वपि न सुध्यते ॥१०॥ दुर्भिक्षे वा सुभिक्षे (१) वायुः । (१) जलानाम् । द्वितीय प्रकाशः २२८९ ॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | द्वितीय प्रकाशा शाखम् ।३०८॥ वा वने जनपदेऽपि वा । शक्काऽऽतकाकुलतया धनी सर्वत्र दुःखितः ॥११॥ निर्दोषा वा सदोषा वा सुखं जीवन्ति निर्धनाः । बाध्यन्ते धनिनो लोके दोषैरुत्पादितैरपिः ॥१२॥ अर्जने रक्षणे नाशे व्यये सर्वत्र दुःखदम् । धत्ते कर्णगृहीताच्छभल्ललीलां धनं नृणाम् ॥१३॥ धिग्धनं धनवन्तो यदेकामिषजिघक्षुभिः। स्वजनैरपि बाध्यन्ते शुनकाः शुनकैरिव ॥१४॥ इत्थमर्थ लभेयाई रक्षेयं वर्द्धयेय च। कृतान्तदन्तयन्त्रस्थोऽपीत्याशां न त्यजेद्धनी ॥१५॥ पिशा वीव धनाशेयं यावदुच्छ्रङ्खला भवेत् । तावत् प्रदर्शयेन्नृणां नानारूपां विडम्बनाम् ॥१६॥ यदीच्छसि सुखं धर्म मुक्तिसाम्राज्यमेव च। तदा परपरीहारादेकामाशां वशीकुरु ॥१७॥ स्वर्गापवर्गनगरप्रवेशप्रतिरोधिनी। अभेद्या वज्रधाराभिराशैव हि महार्गला ॥१८॥ आशैव राक्षसी पुंसामाशैव विषमञ्जरी । आशैव जीर्णमदिरा धिगाशा सर्वदोषभूः ॥१९॥ ते धन्याः पुण्यभाजस्ते तैस्तीर्णः क्लेशसागरः। जगत्संमोहजननी यैराशा ऽऽशीविषी जिता ॥२०॥ पापवल्लीं दुःखखानि सुखाग्नि दोषमातरम् । आशां निराशीकुरुते यस्तिष्ठति सुखेन सः ॥२१॥ आशादवाग्नेमहिमा कोऽपि लोकपथातिगः। धर्ममेधं समाधि यो विध्यापयति तत्क्षणात् ॥२२॥ दीनं जल्पन्ति गायन्ति नृत्यन्त्यभिनयन्ति च । आशापिशाचीविवशाः पुमांसो धनिनां पुरः।।२३।। न यान्ति वायवो यत्र नाप्यन्दुमरीचयः । आशामहोर्मयः पुंसां तत्र यान्ति निरर्गलाः॥२४॥ येनाशायै ददे स्वाम्यं तेनात्तं दास्यमात्मनः। आशा दासीकृता येन तस्य स्वाम्यं जगत्त्रये।।२५।। नाशा नैसगिकी पुसि या जीर्यति न जीर्यति । उत्पात एव कोऽप्येषा तस्यां सत्यां कुतः सुखम्।।२६।। वलयो वलयाः पुसा पलितानि खजः कृताः। किमन्यन्मण्डनं कृत्वा कृतार्थाऽऽशा भविष्यति ॥२७॥ प्राप्तेभ्योऽप्यतिरिच्यन्ते तेऽस्त्यक्ता य आशया । क्रोडीकरोति यानाशा ते तु स्वप्नेऽपि |॥२९॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥३०९॥ द्वितीय प्रकाशा ॥३०९॥ दुर्लभाः॥२८॥ यानर्थान् बहुभिर्यत्नरिच्छेत्साधयितुं नरः। अयत्नासिद्धा एवैते कृते ह्याशानिमीलने॥२९॥ पुण्योदयोऽ स्ति चेत् पुंसां व्यथैवाशापिशाचिका । अथ पुण्योदयो नास्ति व्यथैवाशापिशाचिका ॥३०॥ अधीती पण्डितः प्राज्ञः पापभीरुस्तपोधनः। स एव येन हित्वाऽऽशां नैराश्यमुररीकृतम् ॥३१॥ सुखं सन्तोषपीयूषजुषां यत् स्ववशात्मनाम् । तत्पराधीनवृत्तीनामसन्तोषवतां कुतः ॥३२॥ सन्तोषवर्मणि व्यर्था आशानाराचपळूक्तयः । ताः कथं प्रतिरोद्धव्या इति मा स्माकुलो भवः ॥३३॥ वाक्येनैकेन तद्वच्मि यद्वाच्यं वाक्यकोटिभिः । आशापिशाची शान्ता च प्राप्त च परमं पदम् ॥३४॥ तत्सन्त्यजाऽऽशावैवश्यं मितीकृतपरिग्रहः । भजस्व द्रव्यसाधुत्वं यतिधर्मानुरक्तधीः ॥३५॥ मिथ्याग्भ्यो विशिष्यन्ते सम्यगदर्शनिनो जनाः। तेभ्योऽपि देशविरता मितारम्भपरिग्रहाः ॥३६॥ यामन्यतीथिका यान्ति गति तीव्रतपोजुषः। उपासकाः सोमिलवत्तां विराद्धव्रता अपि ॥३७।। मासे मासे हि ये बालाः कुशाग्रेणैव भुञ्जते । सन्तुष्टोपासकानां ते कलां नाईन्ति षोडशीम् ॥३८॥ अप्यद्भुततपोनिष्ठस्तामलिः पूरणोऽपि वा। सुश्रावकोचितगतेरतिहीनां गतिं ययौ ॥३९॥ आशापिशाचवित्रशं कुरु मा स्म चेतः, सन्तोषमुबह परिग्रहनिग्रहेण । श्रद्धां विधेहि यतिधर्मधुरीणताया-मन्तर्भवाष्टकमुपैषि यथाऽपवर्गम् ॥४०॥११५॥ इति परमाईतश्रीकुमारपालभूपालशुश्रषिते आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते अध्यात्मोपनिषनाम्नि सञ्जातपट्टवन्धे श्रीयोगशास्त्रे स्वोपज्ञं द्वितीयप्रकाशविवरणम् । (१) 'भावसाधुत्वं' इति प्रत्यन्तरम् । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग अईम् तृतीयः प्रकाशः। तृतीय प्रकाशा शास्त्रम् ॥३१०॥ अथाणुव्रतव्यावर्णनानन्तरं गुणवतानामवसरस्तत्रापि प्रथमं गुणवतमाह| दशस्वपि कृता दिक्षु यत्र सीमा न लक्ष्यते । ख्यातं दिग्विरतिरिति प्रथमं तद्गुणव्रतम् ॥१॥ ऐन्द्री, आग्नेयी, याम्या, नैऋती, वारुणी, वायव्या, कौबेरी, ऐशानी, नागी, ब्राह्मीति दश दिशस्तासु, अपिशब्दादेकद्विव्यादिदिक्ष्वपि, सीमा मर्यादा. कृता प्रतिपन्ना, यत्र व्रते सति, न लङ्घचते नातिक्रम्यते, तत्प्रथमं गुणवतम् । उत्तरगुणरूपं व्रतं गुणवतम्, गुणाय चोपकाराय अणुव्रतानां व्रतं गुणवतम् , ख्यातं प्रसिद्ध तस्याभिधानं दिग्विरतिरिति ॥११॥ ननु हिंसादिपापस्थानविरतिरूपाणि युक्तान्यणुव्रतानि, दिगवते तु कस्य पापस्थानस्य निवृत्तिर्येनास्य व्रतत्वमुच्यते ? उच्यते-अत्रापि हिंसादीनामेव पापस्थानानां विरतिरेतदेवाहचराचराणां जीवानां विमर्दननिवर्तनात् । तप्तायोगोलकल्पस्य सद्वृतं गृहिणोऽप्यदः ॥२॥ चरास्त्रसा द्वीन्द्रियादयः, अचराः स्थावराः एकेन्द्रियाः, तेषां नियमितसीमाबहिर्वतिनां जीवानां, यद्विमर्दनं यातायातादिना हिंसा, तस्य निवत्तनाद्धेतोरिदमपि हिंसाप्रतिषेधपरमेव गृहस्थस्यापि सव्रतम् । हिंसाप्रतिषेधपरत्वे ॥३१ ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् वृतीय प्रकाशा ॥३१॥ च असत्यादिप्रतिषेधपरताऽपि सुवचैव । यद्यवं, साधूनामपि दिग्विरतिव्रतप्रसङ्ग इत्याह-तप्तायोगोलकल्पस्येति। गृहस्थो ह्यारम्भपरिग्रहपरत्वाद्यत्र यत्र याति, भूक्त, शेते, व्यापारान्तरं वा कुरुते, तत्र तप्तायोगोलक इव जीवोपमर्द करोति । गृहिणोऽपीत्यपिशब्दस्तप्तायोगोलकल्पस्येत्यत्र सम्बध्यते, तप्तायोगोलकल्पस्यापीत्यर्थः। यदाहश्तत्तायगोलकप्पो पमत्तजीवोऽणिवारियप्पसरो । सव्वत्थ किं न कुज्जा पावं तकारणाणुगओ ॥१॥ साधूनां तु समितिगुप्तिप्रधानव्रतशालिनां नायं दोष इति न तेषां दिग्विरतिव्रतम् ॥२॥ लोभलक्षणपापस्थानविरतिपरमपि चैतद् व्रतमित्याहजगदाक्रममाणस्य प्रसरल्लोभवारिधेः । स्खलनं विदधे तेन येन दिग्विरतिः कृता ॥३॥ लोभ एव दुर्लङ्घयत्वाद्वारिधिः समुद्रः प्रसरंश्चासौ नानाविकल्पकल्लोलाकुलतया लोभवारिधिश्च, तस्य विशेषणं जगदाक्रममाणस्य । वारिधिपक्षे जगल्लोकः, लोभपक्षे तु निःशेषमेव भुवनत्रयम् । लोभवशगो हि ऊर्ध्वलोकगतां सुरसम्पदं मध्यलोकगतां च चक्रवर्त्यादिसम्पदमधोलोकगतां च पातालप्रभुत्वादिसम्पदमभिलषस्त्रिभुवनमपि मनोरथेराक्रामतीति लोभस्य जगदाक्रमणम् , तेन स्खलनं प्रसरनिरोधः, तद्विदधे, येन किं ? येन पुरुषेण दिग्विरतिविहिता । दिग्विरतो हि प्रतिज्ञातसीमातः परतोऽगच्छंस्तत्स्थमुवर्णरूप्यधनधान्यादिषु प्रायेण लोभं न कुरुते इति लोभलक्षणपापस्थानविरतिपरताऽस्य व्रतस्य । अत्रान्तरश्लोकाः (१) तप्तायोगोलकल्पः प्रमत्तजीवोऽनिवारितप्रसरः । सर्वत्र कि न कुर्यात् पापं तत्कारणानुगतः ॥ ॥३१ ॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग- I शास्त्रम् तृतीय प्रकाश ॥३१२॥ ॥३१॥ तदेतद्यावज्जीव वा सद्भुतं गृहमेधिनाम् । चतुर्मासादिनियमादथवा स्वल्पकालिकम् ॥१॥ सदा सामायिकस्थानां यतीनां तु जितात्मनाम् । न दिशि कचन स्यातां विरत्यविरती इमे ॥२॥ चारणानां हि गमनं यचं मेरुमूर्द्धनि । तिर्यग्ररुचकशैले च नैषां दिग्विरतिस्ततः ॥३॥ गन्तुं सर्वासु यो दिक्षु विदध्यादवधि सुधीः । स्वर्गादौ निरवधयो जायन्ते तस्य सम्पदः ॥४॥३॥ द्वितीयं गुणव्रतमाहभोगोपभोगयोःसंख्या शक्त्या यत्र विधीयते । भोगोपभोगमानं तद् द्वैतीयीकं गुणव्रतम् ॥४॥ भोगोपभोगयोर्वक्ष्यमाणलक्षणयोः संख्या परिमाणं यत्र व्रते विधीयते, कया ? शक्या शरीरमनसोरनाबाधया, तद्भोगोपभोगमानं नाम गुणवतं, द्वितीयमेव द्वैतीयीकम् ; स्वार्थे टीकण ॥४॥ भोगोपभोगयोलक्षणमाहसकृदेव भुज्यते यः स भोगोऽन्नसगादिकः । पुनःपुनः पुनौग्य उपभोगोऽङ्गनादिकः ॥५॥ सकृदेव एकवारमेव, भुज्यते सेव्यते इति भोगः, अनमोदनादि. खग्माल्यं, आदिशब्दात्ताम्बूलविलेपनोद्वर्त्तनधूपनस्नानपानादिपरिग्रहः । पुनःपुनरनेकवारं, भोग्यः सेव्यः, अङ्गना वनिता, आदिशब्दाद्वस्त्रालङ्कारगृहशयनासनवाहनादिपरिग्रहः ॥५॥ इदं च भोगोपभोगव्रतं भोक्तुं योग्येषु परिमाणकरणेन भवति, इतरेषु तु वर्जनेनेति श्लोकद्वयेन तर्जनीयानाह Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥३१३।। तृतीय प्रकाशा मयं मांसं नवनीतं मधुदुम्बरपञ्चकम् । अनन्तकायमज्ञातफलं रात्रौ च भोजनम् ॥६॥ आमगोरससंपृक्तं द्विदलं पुष्पितौदन । दध्यहतियातीतं कुथितान्नं च वर्जयेत् ॥७॥ तत्र मधं द्विधा-काष्ठनिष्पन्न, पिष्टनिष्पमं च, मांसं त्रिधा-जलस्थलखचरमांसभेदेन । मांसग्रहणेन चर्मरुधिर मेदोमज्जानः परिगृह्यन्ते । नवनीतं गोमहिष्यजाऽविसम्बन्धेन चतुर्दा । मधु धा-माक्षिकं, भ्रामरं, कौत्तिकं च । उदुम्बरपञ्चकादयो यथास्थानं व्याख्यास्यन्ते ॥६॥७॥ तत्र मद्यस्य वर्जनीयत्वहेतून् दोषान् श्लोकदशकेनाहमदिरापानमात्रेण बुद्धिर्नश्यति दूरतः । वैदग्धीबन्धुरस्यापि दौर्भाग्येणेव कामिनी ॥६॥ वैदग्धीबन्धुरस्यापि छेकस्यापि पुंसो, मदिरापानमात्रेण बुद्धिनश्यति क्षयं याति, दुरतो दूरं यावत् सर्वथा विनश्यतीत्यर्थः । अत्रोपमानं दौर्भाग्येणेव कामिनीति । वैदग्धीबन्धुरस्यापि दुरत इति चात्रापि सम्बध्यते । तेन यथा विदग्धस्यापि दौर्भाग्यदोषेण कामिनी नश्यति पलायते, दुरतो दुरादपि ॥८॥ तथापापाः कादम्बरीपानविवशीकृतचेतसः । जननी हा प्रियीयन्ति जननीयन्ति च प्रियाम् ॥९॥ ___ कादम्बरी मदिरा, जननी मातरं, हा इति खेदे, प्रियीयन्ति प्रियामिव जायामिवाचरन्ति, प्रियां च जननीयन्ति जननीमिवाचरन्ति । मदिरामदविहलवाज्जननीजाययोराचारव्यत्ययेन व्यवहरन्तीत्यर्थः ॥९॥ तथा ॥३१ ॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥३१॥ न जानाति परं स्वं वा मद्याचलितचेतनः । स्वोमीयति वराकःस्वं स्वामिनं किङ्करीयति॥१०॥ मद्याद्धेतोः चलितचेतनो नष्टचैतन्यः सन् , स्वमात्मानं, परं वा आत्मव्यतिरिक्तं, न जानाति अत्र हेतुमाह -यत आत्मानमजानन् स्वं स्वामिनमिवाचरति, वराकश्चैतन्यहीनत्वादनुकम्पनीयः। परमजानन् स्वामिनं नार्थ किङ्करमिवाचरति ॥१०॥ तथा-- | मद्यपस्य शवस्येव लुठितस्य चतुष्पथे। मूत्रयन्ति मुखे खानो व्यात्ते विवरशङ्कया ॥११॥ स्पष्टः ॥११॥ तथा-- | मद्यपानरसे मग्नो नग्नः स्वपिति चत्वरे । गूढं च स्वमभिप्रायं प्रकाशयति लीलया ॥१२॥ ___ मद्यस्य पानं तत्र रस आसक्तिस्तत्र मग्नो निषण्ण मद्यपानव्यसनीत्यर्थः। अत एव वस्त्रमपि स्वस्तमजानन् नग्नः स्वपिति चत्वरे, न तु गृह एव । दोषान्तरं च-गूढं केनाप्यविदितं, स्वमभिप्राय राजद्रोहादिकं प्रकाशयति प्रकटीकरोति लीलया बन्धनताडनादिव्यतिरेकेणापि ॥१२॥ तथा-- वारुणीपानतो यान्ति कान्तिकीर्तिमतिश्रियः । विचित्राश्चित्ररचना विलुठत्कज्जलादिव ॥१३॥ वारुणीपानतो मद्यपानात् , यान्त्यपगच्छन्ति, कान्तिः शरीरतेजः, कीर्तिर्यशः, मतिस्तात्कालिकी प्रतिभा, श्रीः सम्पत् । विचित्रा इत्याद्युपमानं स्पष्टम् ॥१३॥ तथाभूतात्तवन्नरीनति रारटीति सशोकवत् । दाहज्वरातवद्भूमौ सुरोपो लोलुठीति च॥१४॥ भूतात्तो व्यन्तरविशेषपरिगृहीतः, त्रीण्यपि क्रियापदानि भृशाभीक्ष्णयोर्यलुबन्तानि ॥१४॥ तथा ॥३१४॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥३१५॥ विदधत्यङ्गशथिल्यं ग्लपयन्तीन्द्रियाणि च । मूर्छामतुच्छां यच्छन्ती हाला हालोहलोपमा ॥१५॥ ___ हाला सुरा, हालाहलोपमा हालाहलो विषविशेषस्तत्सदृशी। साधारणधर्मानाह-विदधती कुर्वाणा अङ्गशैथिल्यं शरीरविशंस्थुलत्वम् । ग्लपयन्तो कार्याक्षमाणि कुर्वती इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि । मूर्छा चैतन्याभावस्तामतुच्छां प्रचुरां यच्छन्ती । अङ्गशैथिल्यादयो हालाहालाहलयोः साधारणा धर्माः॥१५॥ तथाविवेकः संयमो ज्ञानं सत्यं शौचं दया क्षमा । मद्यात्प्रलीयते सर्व तृण्या वहिनकणादिव ॥१६॥ विवेको हेयोपादेयज्ञानं, संयम इन्द्रियवशीकारः, ज्ञानं शास्त्रावबोधः, सत्यं तथ्या भाषा, शौचमाचारशुद्धिः, दया करुणा, क्षमा क्रोधस्यानुत्पाद उत्पन्नस्य वा विफलीकरणम् । मद्यान्मद्यपानात् प्रलीयते नाशमुपयाति | सर्व विवेकादि । यथा वह्निकणात् तृण्या तृणसमूहः । तृणानां समूहस्तृण्या, पाशादित्वाल्ल्यः॥१६॥ दोषाणां कोरणं मद्यं मद्यं कारणमापदाम् । रोगातुर इवापथ्यं तस्मान्मद्यं विवर्जयेत् ॥१७॥ ____ दोषाणां चौर्यपारदारिकत्वादीनां कारणं हेनुः, मद्यपानरतो हि किं किमकार्य न कुरुते ? दोषकारणत्वादेव चापदां वधबन्धादीनां कारणं, तस्मान्मय विवर्जयेदित्युपसंहारः। रोगातुर इवापथ्यमित्युपमानम् । अत्रान्तरश्लोकाः रसोद्भवाश्च भूयांसो भवन्ति किल जन्तवः । तस्मान्मद्य न पातव्यं हिंसापातकभीरुणा ॥१॥ दत्तं न दत्तमात्तं च नातं कृतं च नो कृतम् । मृषोद्यराज्यादिव हा स्वैरं वदति मद्यपः ॥२॥ गृहे बहिर्वा मार्गे वा परद्रव्याणि मूढधीः । वधबन्धादिनिर्भीको गृह्णात्याच्छिद्य मद्यपः ॥३॥ बालिकां युवतीं वृद्धां ब्राह्मणी श्वपचीमपि ॥३१५॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | तृतीय योगधानम् ॥३१६॥ प्रकाशा मुक्क्ते परस्त्रियं सद्यो मद्योन्मादकदर्थितः ॥४॥ रटन् गायन् लुठन् धावन् कुप्यंस्तुष्यन् रुदन् हसन । स्तननमन् भ्रमंस्तिष्ठन् सुरापः पापराट् नटः॥५॥ श्रूयते किल शाम्बेन मद्यादन्धम्भविष्णुना । हतं वृष्णिकुलं सर्व प्लोषिता च पुरी पितुः॥६॥ पिबन्नपि मूहुर्मयं मद्यपो नैव तृप्यति । जन्तुजातं कवलयन् कृतान्त इव सर्वदा ॥७॥ लौकिका अपि मद्यस्य बहुदोषत्वमास्थिताः। यत्तस्य परिहार्यत्वमेवं पौराणिका जगुः ॥८॥ कश्चिदृषिस्तपस्तेपे भीत इन्द्रः सुरस्त्रियः। क्षोभाय प्रेषयामास तस्यागत्य च तास्तकम् ॥९॥ विनयेन समाराध्य वरदाभिमुखं स्थितम् । जगुर्मा तथा मांस सेवस्वाब्रह्म चेच्छया ॥१०॥ स एवं गदितस्ताभियोर्नरकहेतुताम् । आलोच्य मद्यरूपं च शुद्धकारणपूर्वकम् ॥११॥ मयं प्रपद्य तद्भोगान् नष्टधर्मस्थितिमदात् । विदंशार्थमजं हत्वा सर्वमेव चकार सः॥१२॥ अवद्यमूलं नरकस्य पद्धति, सर्वापदां स्थानमकीर्त्तिकारणम् । अभव्यसेव्यं गुणिभिगिर्हितं, विवर्जयेन्मद्यमुपासकः सदा ॥१३॥१७॥ अथ मांसदोषानाह| चिखादिषति यो मांसं प्राणिप्राणापहारतः। उन्मूलयत्यसौ मूलं दयाऽऽख्यं धर्मशाखिनः ॥१८॥ चिखादिषति खादितुमिच्छति, यःकश्चित, मांसं पिशितं । असौ पुमान् , उन्मूलयति, किं तत् ? मूलं दयासंज्ञकं, कस्य ? धर्मशाखिनः पुण्यवृक्षस्य, । मांसखादने कथं धर्मतरोर्दयास्यं मूलमुन्मूल्यते ? इत्याहप्राणिप्राणापहारतः प्राणिप्राणापहारादेतोः, न हि प्राणिप्राणापहारमन्तरेण मांसं संभवतीति ॥१८॥ ॥३१॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥३१७॥ BOOK OR FOR अथ मांस चिखादिषमपि प्राणिदयां करिष्यतीत्याह अशनीयन् सदा मांसं दयां यो हि चिकीर्षति । ज्वलति ज्वलने वल्लीं स रोपयितुमिच्छति ॥१९॥ सदा सर्वदा, मांसमशनीयन्, मांसमशनमिवाचरन्, पुत्रीयति च्छात्रमितिवत् " आधाराच्चोपमानादाचारे " ||३||४||२४|| इति क्यनि रूपम्, दयां कृपां यः कश्चित् हि स्फुटं चिकीर्षति कर्तुमिच्छति । ज्वलतीत्यादिना निदर्शनम्, यथा ज्वलत्यग्नौ वल्लीरोपणमशक्यम्, तथा मांसमशनीयता दयाऽपि कर्तुमशक्येत्यर्थः ॥ १९ ॥ नन्वन्यः प्राणिनां घातकोऽन्यश्च मांसभक्षक इति कथं मांसभक्षकस्य प्राणिप्राणापहरणमिति ? उच्यतेभक्षकोsपि घातक एवेत्याह हन्ता पलस्य विक्रेता संस्कर्त्ता भक्षकस्तथा । क्रेताऽनुमन्ता दाता च घातका एव यन्मनुः ॥ २० ॥ इन्ता शस्त्रादिना प्राणिनां प्राणापहारकः, पलस्य विक्रेता यो मांसं विक्रिणीते । पलस्येत्युत्तरेष्वपि पदेषु सम्बन्धनीयम् । संस्कर्त्ता यो मांसं संस्करोति, भक्षकः खादकः क्रेता यो मांसं क्रीणाति, अनुमन्ता यः प्राणिहिंसया मांसमुत्पाद्यमानमनुमोदते, दाता यो मांसमतिध्यादिभ्यो ददाति एते साक्षात्पारम्पय्र्येण वा घातका एव प्राणिप्राणापहारका एव, यन्मनुरिति संवादार्थम् ॥२०॥ मानवमेवोक्तं दर्शयति— अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी । संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातकाः ॥२१॥ BOOK OR MOR तृतीय प्रकाशः ॥३१७॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग तृतीय प्रकाशा शास्त्रम् ॥३१८॥ ॥३१८ अनुमन्ता अनुमोदकः, विशसिता हतस्याङ्गविभागकरः, निहन्ता व्यापादकः, क्रयविक्रयी क्रयविक्रयौ विद्यते यस्य स तथा, क्रेता विक्रता चेत्यर्थः, संस्कर्ता मांसपाचकः, उपहर्ता परिवेष्टा, खादको भक्षकः, एते सर्वे घातकाः ॥२१॥ द्वितीयमपि मानवं श्लोकमाहनाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित् । न च प्राणिवधः स्वय॑स्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्॥२२॥ ___ यावत्प्राणिनो न हतास्तावन्मांसं नोत्पद्यते, हिंसा चातिशयेन दुःखावहा, तस्मान्मांसं विवर्जयेत् , उत्पद्यत इति मांसस्य हिंसानिमित्तत्वात् कर्तव्यपदेश इति समानकर्तकत्वमविरुद्धम् । न च स्वर्ग्य इति न स्वर्गानुत्पत्तिमात्रम-भिप्रेतमपि तु नरकादिदुःखहेतुता ॥२२॥ इदानीमन्यपरिहारेण भक्षकस्यैव वधकत्वमाहये भक्षयन्त्यन्यपलं स्वकोयपलपष्टये। त एव घातका यन्न वधको भक्षकं विना ॥२३॥ __ अन्यपलमन्यमांसं स्वमांसपुष्टये ये भक्षयन्ति त एव परमार्थतो घातका न तु हन्तृविक्रेत्प्रभृतयः । अत्र युक्तिमाह-यद्यस्मान्न भक्षकं विना वधको भवति; ततो हन्तुप्रभृतिभ्यो भक्षकः पापीयान, स्वकीयपलपुष्टय इति हिंसाभिप्राय स्वपलपोषणमात्रप्रयोजनः कतिपयदिनजीवितः परजीवितप्रहाणं कुर्यात् । यदाहहंतूणं परपाणे अप्पाणं जे कुणंति सप्पाणं अप्पाणं दिवसाणं करण नासेंति अप्पाणं ॥१॥ तथा(१) हत्वा परप्राणान् आत्मानं ये कुर्वन्ति सप्राणम् । अल्पानां दिवसानां कृतेन नाशयन्ति आत्मानम् । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥३१९॥ तृतीय प्रकाशा ॥३१९॥ १एकस्स कए नियजीवियस्स बहुआउ जीवकोडीओ। दुक्खे ठवंति जे केवि ताण किं २सासयं जीयं ? ॥१॥२३॥ ___ एतदेव सजुगुप्समाहमिष्टान्नान्यपि विष्टासादमृतान्यपि मूत्रसात् । स्युर्यस्मिन्नङ्गकस्यास्य कृते कः पापमोचरेत् ॥२४॥ मिष्टान्नानि शालिमुद्माषगोधूमादीनि तान्यपि विष्टासाद्विष्टात्वेन स्युः संपधेरन् । अमृतानि पयःप्रभृतीनि तान्यपि मूत्रसान्मूत्रत्वेन स्युः संपोरन यस्मिन् (अङ्ग)। अस्य प्रत्यक्षस्य अङ्गकस्य कुत्सितस्य शरीरस्य. कृते निमित्तं, कः सचेतनः पापं प्राणिघातलक्षणमाचरेत् विदधीत ? ॥२४॥ इदानीं मांसभक्षणं न दोषायेति बदतो निन्दतिमांसाशने न दोषोऽस्तीत्युच्यते यैर्दुरात्मभिः। व्याधगृध्रवृकव्याघ्रश्रृगालास्तैर्गुरुकृताः ॥२५॥ मांसभक्षणे न दोषोऽस्तीति यैरुच्यते दुरात्माभिर्दुःस्वभावैः, यथा" न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला" ॥१॥ इति । तैाधा लुब्धकाः, गृध्रा हिंसाः पक्षिविशेषाः, वृका अरण्यश्वानाः, व्याघ्राः शार्दूलाः, शृगाला जम्बुकाः, गुरुकृताः उपदेशकाः कृताः। न हि व्याधादीन गुरून् विना कश्चिदेवंविधं शिक्षयति, न चाशिक्षितं (१) एकस्य कृते निजजीवितस्य बहुका जीवकोटीः। दुःखे स्थापयन्ति ये केऽपि तेषां किं शाश्वतो जीवः? (२) सासओ अप्पा । इतिप्रत्यन्तरे । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥३२०॥ महाजनपूज्या एवमुपदिशन्ति । अपि च । निवृत्तिस्तु महाफलेति वदद्भिर्येषां निवृत्तिर्महाफला तेषां प्रवृत्तिन दोषवतीति स्वयमेव स्ववचनविरोध आविष्कृत इति किमन्यद महे ॥२५॥ निरुक्तबलेनापि मांसस्य परिहार्यत्वमाहमां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाम्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वे निरुक्तं मनुरब्रवीत् ॥२६॥ मांस भक्षयितेति अत्र स इति सर्वनामसामान्यापेक्षं योग्येनार्थेन निराकाक्षीकरोति-यस्य मांसमहमझि, इहेति इहलोके, अमुगति परलोके, एतन्मांसस्य मांसत्वे मांसरूपतायां, निरुक्तं नामधेयनिर्वचनं मनुरब्रवीत् ॥२६॥ मांसभक्षणे महादोषमाह| मांसास्वादनलुब्धस्य देहिनं देहिनं प्रति। हन्तुं प्रवर्त्तते बुद्धिः शाकिन्या इव दुर्धियः॥२७॥ मांसभक्षण लम्पटस्य देहिनं देहिनं प्रति यं यं पश्यति जलचरं मत्स्यादिकं, स्थलचरं मृगवराहादि अजाऽविकादि च, खेचरं तित्तिरिलावकादि, अन्ततो मूषिकाद्यपि तं तं प्रति हन्तुं हननाय बुद्धिः प्रवर्त्तते; दुर्धियो दुर्बुदः। शाकिन्या इव-यथा हि शाकिनी यं यं पुरुषं स्त्रियमन्यं वा प्राणिनं पश्यति, तं तं हन्तुं तस्या बुद्धिः प्रवर्त्तते, तथा मांसास्वादनलुब्धस्यापीति ॥२७॥ ___ अपि च मांसभक्षिणामुत्तमपदार्थपरिहारेण नीचपदार्थोपादानं महबुद्धिवैगुण्यं दर्शयतीति दर्शयन्नाह| ये भक्षयन्ति पिशितं दिव्यभोज्येषु सत्स्वपि । सुधारसं परित्यज्य भुञ्जते ते हलाहलम् ॥२८॥ ॥२०॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥३२१॥ । दिव्यभोज्येषु सकलधातुबहकेषु सर्वेन्द्रियप्रीतिप्रदेषु क्षीरक्षरेयी किलाटीकूर्चिकारसालादध्यादिषु मोदकमण्डकमण्डिकाखाद्यकपर्पटिकाघृतपुरादिषु इण्डेरिकापूरणवटकवटिपपर्पटादिषु इक्षुगुडखण्डशर्करादिषु द्राक्षासहकारकदलदाडिमनालिकेरनारङ्गखर्जूराक्षोटराजादनपनसादिषु च सत्स्वपि तान्यनादृत्य ये मूढा विस्नगन्धिजुगुप्साकर शकाप्रधानानां वान्तिकरं मांसं भक्षयन्ति ते जीवितवृद्धिहेत्वमृतरसपरिहारेण जीवितान्तकरं हलाहलं विषभेदं भुञ्जते । बालोऽपि हि दृषत्परिहारेण सुवर्णमेवादत्त इति बालादपि मांसभक्षिणो बालाः ॥ २८॥ भयन्तरेण मांसभक्षणदोषमाहनधर्मो निर्दयस्यास्ति पलादस्य कुतो दया । पललुब्धो न तद्वेत्ति विद्याद्वोपदिशेन्न हि॥२९॥ निर्दयस्य कृपारहितस्य, धर्मों नास्ति, धर्मस्य दया मूलमिति ह्यामनन्ति । ततः प्रस्तुते किमायातमत आहपलादस्य कुतो दया, पलादस्य मांसोपजीविनः, कुतो दया ? नैव दयेत्यर्थः, भक्षकस्य वधकत्वेनोक्तत्वात, वधकच कथं सदयो नाम इति पलादस्य निर्धमता लक्षणो दोषः । ननु सचेतनः, कथमात्मनि धर्माभावं सहेत ? उच्यते-पललुब्धो न तद्वेत्ति मांसलोभेन न तत्पूर्वार्धोक्तं जानाति । अथ कथश्चिद्विद्याज्जानीयात्तहि स्वयं मांसलुब्धो मांसनिवृत्तिं कर्तुमशक्नुवन् सर्वेऽपि मम सदृशा भवन्त्विति परेभ्यो मांसनिषेधं नोपदिशेदाजिणकवत् । श्रयते हि कश्चिदाजिणको मार्गे गच्छन्नेकया सर्पिण्या भक्षितस्तत्सर्वेऽपि भक्ष्यन्तामनयेति बुद्धया परेभ्यो नाख्यातवानिति द्वितीयोऽपि तयैव दष्टो नान्येषां कथितवान् , एवं यावत्सप्त दष्टाः। मांसभक्षकोपि मांसभक्षणात्स्वयं नरके पतन् “स्वयं नष्टाः दुरात्मानो नाशयन्ति परानपि" इति न परेभ्य उपदिशति ॥ २९॥ PR|॥३२१५ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥३२२॥ इदानीं मांसभक्षकाणां मूढतामुपदर्शयति| केचिन्मांसं महामोहोदश्नन्ति न परं स्वयम् । देवपित्रतिथिभ्योऽपि कल्पयन्ति यदूचिरे ॥३०॥ केचित् कुशास्त्रविप्रलब्धा महतो मोहान केवलं स्वयं मांसमश्नन्ति किन्तु देवेभ्यः पितृभ्योऽतिथिभ्यश्च कल्पयन्ति, यद्यस्मादूचिरे तद्धर्मशास्त्रकाराः ॥३०॥ उक्तमेवाहa क्रीत्वा स्वयं वाऽप्युत्पाद्य परोपहृतमेव वा। देवान् पितॄन् समभ्यर्च्य खादन् मांसं न दुष्यति।३१। मृगपक्षिमांसविषयमेतच्छास्त्रं, तेन सूनापणमांसं विना व्याधशाकुनिकादिभ्यः क्रीत्वा मूल्येन । सूनापणमांसे तु देवपूजादावनधिकृतेः । तथा स्वयमुत्पाद्य-ब्राह्मणो याश्चया, क्षत्रियो मृगया कर्मणा, अथवा परेणोपहृतं ढौकितं तेन मांसेन देवानां पितृणां चार्चनं कृत्वा मासं खादन्न दुष्यति, एतच्च महामोहादिति वदद्भिरस्माभिर्दृषि तमेव । स्वयमपि हि प्राणिघातहेतुकं मांस भक्षयितुमयुक्तं किं पुनर्देवादिभ्यः कल्पयितुम् । देवा हि सुकृतसम्भारलब्धात्मानोऽधातुकशरोरा अकावलिकाहाराः कथं मांस भक्षयेयुः? अभक्षयद्भचस्तत्कल्पनं मोह एव । पितरश्च स्वसुकृतदुष्कृतवशेन प्राप्तगतिविशेषाः स्वकर्मफलमनभवन्तो न पुत्रादिकृतेनापि मुकृतेन तार्यन्ते कि पुनर्मासढौकनदुष्कृतेन ? । न च पुत्रादिकृतं सुकृतं तेषासुपतिष्ठते । न ह्यानेषु सेकः कोविदारेषु फलं दत्ते । अतिथिभ्यश्च सत्कारार्हेभ्यो नरकपातहेतोर्मा सस्य दौकनं महते अधर्माय । एवं परेषां महामोहचेष्टितम् । श्रुतिस्मृ ॥३२२॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् ॥३२३॥ तृतीय प्रकाशा तिविहितत्वादनोद्यमेतदिति चेन्न । श्रतिभाषितेष्वप्रामाणिकेषु प्रत्ययस्य कर्तुमशक्यत्वात् । श्रूयन्ते हि श्रुतिवचांसि-यथा पापघ्नो गोस्पर्शः, दुमाणां च पूजा; छागादीनां वधः स्वर्ग्यः । ब्राह्मणभोजनं पितृप्रीणनं, मायावीन्यधिदेवतानि, वह्नौ हुतं देवप्रीतिप्रदम् । तदेवं विधेषु श्रुतिभाषितेषु युक्तिकुशलाः कथं श्रद्दधीरन् ? । यदाहस्पर्शोऽमेध्यभुजां गवामघहरो वन्द्या विसंज्ञा द्रमाः, स्वर्गश्छागवधाद्धिनोति च पितृन् विप्रोपभुक्ताशनम् । आप्ताश्छद्मपराः सुराः शिखिहुतं प्रीणाति देवान् हविः, स्फीतं फल्गु च वल्गु च श्रुतिगिरां को वेत्ति लीलायितम् ? ॥१॥ तस्मान्महामोह एवायं मांसेन देवपूजाऽऽदिकमित्यलं विस्तरेण ॥३१॥ ननु मन्त्रसंस्कृतो वहिन दहति पचति वा, तन्मन्त्रसंस्कृतं मांसं न दोषाय स्यात् । यन्मनु:असंस्कृतान् पशून्मन्त्रै धाद्विप्रः कथश्चन । मन्त्रैस्तु संस्कृतानद्याच्छाश्वतं विधिमास्थितः ॥१॥ शाश्वतो नित्यो वैदिक इत्यर्थः । अत्राहमन्त्रसंस्कृतमप्यद्याद्यवाल्पमपि नो पलम् । भवेज्जीवितनाशाय हालाहललवोऽपि हि॥३२॥ __ मन्त्रसंस्कृतमपि मन्त्रपूतमपि, पलं नाद्यात् , न हि मन्त्रा अग्नेर्दहनशक्तिवनरकादिप्रापणशक्ति मांसस्य प्रतिबध्नन्ति । तथा सति सर्वपापानि कृत्वा पापघ्नमन्त्रानुस्मरणमात्रात् कृता भवेयुः। एवं च सर्वपापप्रतिषेधोऽपि निरर्थकः स्यात् , सर्वपापानां मन्त्रादेव नाशप्रसक्तः। अथ यथा स्तोकं मद्यं न मदयति तथा स्वल्पं मांसं न 11223 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥३२४॥ तृतीय प्रकाशा पापाय स्यात् । उच्यते-यवाल्पमपि यवतुल्यप्रमाणमपि नाद्यात् पलमिति संबध्यते, तदपि दोषाय, अत्रोत्तरार्द्धन निदर्शनम् ॥३२॥ इदानीमनुत्तरं मांसस्य दोषमुपदर्शयन्नुपसंहरतिसद्यः संमूछितानन्तजन्तुसन्तोनदूषितम् । नरकाध्वनि पाथेयं कोऽश्नीयात्पिशितं सुधीः? ॥३३॥ ___ सद्यो जन्तुविशसनकाल एव संमृच्छिता उत्पन्ना अनन्ता निगोदरूपा ये जन्तवस्तेषां सन्तानः पुनः पुनभवनं तेन दूषितम् । यदाह१आमासु अ पक्कासु अ विपच्चमाणासु मंसपेसीसु । सययं चिय उववाओ भणिओ उ निगोअजीवाणं ॥१॥ तत एव नरकाध्वनि पाथेयम् , पिशितभक्षणस्य पाथेयत्वे पिशितमपि पाथेयमुक्तं, कोऽश्नीयात्पिशितं सुधीरित्युपसंहारः। अत्रान्तरश्लोकाः____ मांसलुब्धैरमर्यादैर्नास्तिकैः स्तोकदर्शिभिः । कुशास्त्रकारवैयात्याद्गदितं मांसभक्षणम् ॥१॥ नान्यस्ततो गतघृणो नरकार्चिष्मदिन्धनम् । स्वमांसं परमांसेन यः पोषयितुमिच्छति ॥२॥ स्वाङ्गं पुष्णन्नृगूथेन वरं हि गृहशूकरः। प्राणिघातोद्भवैर्मा सैन पुनर्निधणो नरः ॥३॥ निःशेषजन्तुमांसानि भक्ष्याणीति य उचिरे । नृमांसं वर्जितं शङ्क (१) आमासु च पकासु च विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सततमेव उपपातो भणितस्तु निगोदजीवानाम् ॥१॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततोय योगशास्त्रम् ॥३२५।। प्रकाशा स्ववधाशक्यैव तैः ॥ ४॥ विशेष यो न मन्येत तृमांसपशुमांसयोः धार्मिकस्तु ततो नान्यः पापीयानपि नापरः ॥५॥ शुक्रशोणितसम्भूतं विष्टारसविवदितम् । लोहितं स्त्यानताप्रासं कोऽश्नीयादकृमिः पलम् ? ॥ ६ ॥ अहो द्विजातयो धर्म शौचमूलं वदन्ति च । सप्तधातुकदेहोत्थं मांसमश्नन्ति चाधमाः ॥७ ॥ येषां तु तुल्ये मांसान्ने सतृणाभ्यवहारिणाम् । विषामृते समे तेषां मृत्युजीवितदायिनी ॥ ८॥ भक्षणीयं सतां मांसं प्राण्यङ्गत्वेन हेतुना । ओदनादिवदित्येवं ये चानुमिमते जडाः ॥९॥ गोसम्भवत्वात्ते मृत्रं पयोक्न्न पिबन्ति.किम् ? प्राण्य तानिमित्ता च नौदनादिषु भक्ष्यता ॥ १०॥ शङ्खादि शुचि नास्थ्यादि प्राण्यङ्गत्वे समे यथा । ओदनादि तथा भक्ष्यमभक्ष्यं पिशितादिकम् ॥ ११॥ यस्तु प्राण्यङ्गमात्रत्वात् प्राह मांसौदने समे । स्त्रीत्वमात्रान्मातृपत्न्योः स कि साम्यं न कल्पयेत् ? ॥ १२॥ पञ्चेन्द्रियस्यैकस्यापि वधे तन्मांसभक्षणात् । यथा हि नरकप्राप्तिन तथा धान्यभोजनात् ॥ १३॥ न हि धान्यं भवेन्मांस रसरक्तविकारमम् । अमांसभोजिनस्तस्मान्न पापा धान्यभोजिनः ॥१४॥ धान्यपाके प्राणिवधः परमेकोऽवशिष्यते । गृहिणां देशयमिनां स तु नात्यन्तबाधकः ॥१५॥ मांसखा दकगतिं विमृशन्तः, सस्यभोजनरता इइ सन्तः। प्राप्नुवन्ति सुरसम्पदसुच्चै-जैनशासनजुषो गृहिणोऽपि ॥१६॥३३॥ क्रमप्राप्त भवनीतमक्षणदोपमाह| अन्तर्मुहूर्तात्परतः सुसूक्ष्मा जन्तुराशयः । यत्र मूर्छन्ति तन्नायं नवनीतं विवेकिभिः ॥३४॥ अर्मभ्यं मुहूर्तस्य अन्तर्मुहूर्त, तस्मात् परत ऊध्वं, अतिशयेन सूक्ष्माः, सुसूक्ष्माः जन्तुराशयो जन्तुसमूहाः ॥३२५॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥३२६॥ यस्मिन्नवनीते, मूर्च्छन्ति उत्पद्यन्ते, तन्नवनीतं, नाद्यं न भक्षणीय, विवेकिभिः ॥ ३४ ॥ एनमेवार्थ भावयतिएकस्यापि हि जीवस्य हिंसने किमघं भवेत् । जन्तुजातमयं तत् को नवनीतं निषेवते ? ३५ एकस्यापि हि जन्तोर्वधे किं निर्देष्टुमशक्यमघं पापं भवेत् तत्तस्माज्जन्तुजातं प्रकृतमस्मिस्तज्जन्तुजातमयं नवनीतं को निषेवते कः सविवेकोऽश्नाति ? ॥ ३५ ॥ क्रमप्राप्तान्मधुदोषानाह| अनेकजन्तुसङघातनिघातनसमुद्भवम् । जुगुप्सनीयं लालावत् कः स्वादयति माक्षिकम् ? ३६ अनेकस्य जन्तुसङ्घातस्य यनिघादनं विनाशस्तस्मात् समुद्भवो यस्य तत्तथा । निघातनमिति हन्त्यर्थाश्चेति इन्तेश्चुरादिपाठात् णिजन्तस्य रूपम् । अयं परलोकविरोधो दोषः, जुगुप्सनीयं कुत्सनीयं, लालावल्लालामिव, अर्यामह लोकविरोधो दोषः, कः सचेतनः, स्वादयति भक्षयति, मक्षिकाभिः कृतं माक्षिकं मधु एतच्च भ्रमरादीनामुपलक्षणम् ॥ ३६ ॥ इदानीं मधुमक्षकाणां पापीयस्तां दर्शयतिभक्षयन्माक्षिक क्षुद्रजन्तुलक्षक्षयोद्भवम् । स्तोकजन्तुनिहन्तृभ्यः शौनिकेभ्योऽतिरिच्यते ३७ क्षुद्रजन्तुरनस्थिः स्यादथवा क्षुद्र एव यः । शतं वा प्रसूतिर्येषां केचिदानकुलादपि ॥ १॥ तषां क्षुद्रजन्तूनां लक्षाणि, लक्षग्रहणं बहूत्वोपलक्षणम् । तेषां क्षयो विनाशस्तस्मादुद्भवो यस्य तत्तथा, ३२६॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥३२७॥ तद्भक्षयन् स्तोकपश्वादिजन्तुनिहन्तुभ्यः शौनिकेभ्यः खट्टिकेभ्योऽतिरिच्यते अधिकीभवति भक्षकोऽपि घातक इत्युक्तप्रायम् ||३७|| लौकिकानामप्युच्छिष्टभोजनत्याजिनामुच्छिष्टत्वान्मधु परिहर्त्तव्यमेवेत्याहएकैककुसुमक्रोडाद्रसमापीय मक्षिकाः । यद्वमन्ति मधूच्छिष्टं तदश्नन्ति न धार्मिकाः ॥३८॥ एकैकस्य कुसुमस्य यः क्रोड उत्सङ्गस्तस्माद्रसं मकरन्दमापीय पीत्वा, मक्षिकाः यद्वमन्ति उद्गिरन्ति, तदुच्छिष्टं मधुः धर्मं चरन्ति धार्मिकास्ते नाश्नन्ति । अनुच्छिष्टभोजनं हि धर्मों लौकिकानाम् ॥ ३८ ॥ ननु 'त्रिदोषशमनं मधु' नातः परमौषधमस्तीति रोगोपशात्तये मधुभक्षणे को दोष इत्याहअप्यौषधकृते जग्धं मधु श्वभ्रनिबन्धनम् । भक्षितः प्राणनाशाय कालकूटकणोऽपि हि । ३९ । आस्तां रसास्वादलाम्पटयेन यावदौषधकृतेऽपि औषधनिमित्तमपि मधु जग्धं यद्यपि रोगापहारकं, तथापि श्वस्य नरकस्य निबन्धनम् हि यस्मात् प्रमादाज्जीवितार्थितया वा कालकूटस्य विषस्य कणोऽपि लवोऽपि भक्षितः सन् प्राणनाशाय भवति ॥ ३५ ॥ ननु खर्जुरद्राक्षादिरसवन्मधु मधुरमिति सर्वेन्द्रियाप्यायकत्वात् कथं परिहाय्यै स्यादित्याहमधुनोऽपि हि माधुर्यमबोधैरहहोच्यते । आसद्यान्ते यदारवादाच्चिरं नरकवेदनाः ॥ ४० ॥ सत्यमस्ति मधुना माधुर्य व्यवहारतः परमार्थतस्तु नरकवेदनाहेतुत्वादत्यन्तकटुकत्वमेव । अबोधैरिति पर तृतीय प्रकाशः ॥३२७|| Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥३२८ ।। XXOEM मार्थपरिशीलनाविकलैः, नरकवेदनाहेतोरपि मधुनो माधुर्यवर्णनमबोधानामित्यह हेत्यनेन विषादो द्योत्यते । यस्य मधुन आस्वादाभरकवेदनाश्विरमासाद्यन्ते प्राप्यन्ते ॥ ४० ॥ पवित्रत्वात् मधु देवस्नानोपयोगीति ये मन्यन्ते तानुपहसति मक्षिकामुखनिष्ठयुतं जन्तुघातोद्भवं मधु । अहो पवित्रं मन्वाना देवस्नाने प्रयुञ्जते ॥ ४१ ॥ मक्षिकाणां मुखानि तैर्निष्ठ्यतं वान्तं जन्तुघातात्प्राणिघातादुद्भवो यस्य तत्तादृशमपवित्रं मधु, पवित्रं शुचि मन्वाना अभिमन्यमानाः देवानां शङ्करादीनां स्नाने स्नाननिमितं प्रयुञ्जते व्यापारयन्ति अहो इत्युपहासे यथा करभाणां विवाहे रासभास्तत्र गायनाः । परस्परं प्रशंसन्ति अहो रूपमहो ध्वनिः ॥ १ ॥ ४१ ॥ क्रमप्रासान् पञ्चोदुम्बरदोषानाह उदुम्बरवटप्लक्षकाकोदुम्बरशाखिनाम् । पिप्पलस्य च नाश्रीयात्फलं कृमिकुलाकुलम् ॥४२॥ उदुम्बरबट प्लक्षकाकोदुम्बरिकापिप्पलानां पञ्चोदुम्बरसंज्ञितानां फलं नाश्नीयात् । अनशने कारणमाहयल्लौकिका अपि पेठु: कोऽपि कापि कुतोऽपि कस्यचिदहो चेतस्यकस्माज्जनः केनापि प्रविशत्युदुम्बरफलप्राणिक्रमेण क्षणात् । येना तृतीय प्रकाशः ॥३२८॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वतीय योगशास्त्रम् ॥३२९॥ प्रकाशः स्मिन्नवि पाटिते विघटिते वित्रासिते स्फोटिते, निष्पिष्टे परिगालिते निर्यात्यसौ वा न वा ॥१॥ इति ॥४२॥ पश्चोदुम्बरफलविरतानां स्तुतिमाह| अप्राप्नुवन्नन्यभक्ष्यमपि क्षामो बुभुक्षया । न भक्षयति पुण्यात्मा पञ्चोदुम्बरजं फलम् ॥४३॥ यः पुण्यात्मा पवित्रात्मा पुरुषः, स पञ्चोदुम्बरजं फलं न भक्षयति, आस्तां सुलभधान्यफलसमृद्ध देशे काले वा, यावद्देशदोषात् कालदोषाद्वा अप्राप्नुवन्नप्यन्यभक्ष्यं धान्यफलादिभक्ष्यः अपिशब्द उत्तरत्रापि सम्बध्यते, बुभुक्षया क्षामोऽपि कृशोऽपि; अबुभुक्षितस्य स्वस्थस्य व्रतपालनं नातिदुष्करम् ; यस्तु अप्राप्तभोज्यः क्षुत्क्षामश्च ब्रतं पालयति स पुण्यात्मेति प्रशस्यते ॥४३॥ ____ क्रमप्राप्तमनन्तकायनियमं श्लोकत्रयेण दर्शयतिआर्द्रः कन्दः समग्रोऽपि सर्वः किशलयोऽपि च । स्नुही लवणवृक्षत्वक् कुमारी गिरिकर्णिका ॥४४॥ शतावरी विरुढानि गुडूची कोमलाम्लिका । पल्ल्यकोऽमृतवल्ली च वल्लः शूकरसंज्ञितः ॥४५॥ अनन्तकायाः सूत्रोक्ता अपरेऽपि कृपोपरैः। मिथ्यादृशामविज्ञाता वर्जनीयाः प्रयत्नतः॥४६॥ आद्रोऽशुष्कः, शुष्कस्य तु निर्जीवत्वादनन्तकायत्वं न भवति, कन्दो भूमिमध्यगो वृक्षावयवः समग्रोऽपि, सर्वे कन्दा इत्यर्थः। ते च सूरणआर्द्रकलशुनवज्रकन्दहरिद्राकच्चूरपलाशकन्दगृञ्जनेलोढककसेरुकमुद्गरमुस्तामूलकआलुकपिण्डालुकहस्तिकन्दमनुष्यकन्दप्रभृतयः, किशलयः पत्रादाय बीजस्योच्छूनावस्था सर्वा न तु काचिदेव, |॥३२९॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥३३०॥ स्नुही वजतरुः, लवणनाम्नो वृक्षस्य त्वक, त्वगेव न त्वन्ये अवयवाः, कुमारी मांसलप्रणालाकारपत्रा, गिरिकर्णिका वल्लीविशेषः, शतावरी वल्लीविशेष एव, विरूढानि अङ्करितानि द्विदलधान्यानि, गुडूची वल्लीविशेषः, कोमलाऽम्लिका कोमला अबद्धास्थिका अम्लिका चिश्चिणिकाः, पल्ल्यङ्कः शाकभेदः, अमृतवल्ली वल्लीविशेषः, वल्ल: शुकरसंज्ञितः शूकरवल्ल इत्यर्थः, शूकरसंज्ञितग्रहणं धान्यवल्लनिषेधार्थम् । एते आर्यप्रसिद्धाः म्लेच्छप्रसिद्धास्तु अन्येऽपि सूत्रोक्ताः, सूत्रं जीवाभिगमः। अपरेऽपि कृपापरैः सुश्रावकैर्वर्जनीयाः। ते च मिथ्यादृष्टिनामविज्ञाताः, मिथ्यादृशो हि वनस्पतीनपि जीवत्वेन न मन्यन्ते कुतः पुनरनन्तकायान् ॥४४॥४५॥४६॥ अथ क्रमप्राप्तमज्ञातफल वर्जयितुमाहस्वयं परेण वा ज्ञातं फलमद्याद्विशारदः। निषिद्धे विषफले वा मा अभूदस्य प्रवर्तनम् ॥४७॥ अज्ञातमिति संबन्धिविशेषानिर्देशात् स्वयमात्मना, परेण अन्येन, ज्ञातं फलमद्याद्भक्षयेद्विशारदो धीमान, यत्तु स्वयं परेण वा न ज्ञातं तदज्ञातफलं वर्जयेत् । अज्ञातफलभक्षणे दोषोऽयम् -निषिद्धे फले विषफले वा अज्ञानादस्य विशारदस्य मा भूत्प्रवृत्तिः। अज्ञानतो हि प्रतिषिद्धे फले प्रवर्तमानस्य व्रतभङ्गः, विषफले तु जीवितनाशः॥४७॥ अथ क्रमप्राप्त रात्रिभोजनं निषेधुमाहअन्नं प्रेतपिशाचाथैः सञ्चरभिर्निरङकुशैः। उच्छिष्टं क्रियते यत्र तत्र नाद्यादिनात्यये ॥४॥ प्रेता अधमा व्यन्तराः, पिशाचा व्यन्तरा एवः, आद्यग्रहणाद्राक्षसादिपरिग्रहः, निशाचरत्वाग्निरङ्कुशैः सर्वत्र ॥३३०॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥३३१॥ EXOTOROXXBOKES सञ्चरद्भिः स्पर्शादिनोच्छिष्टमभोज्यं क्रियते यत्र दिनात्यये रात्रौ तत्र नाद्यान भुञ्जीत । यदाहु:मालिति महिअलं जामिणीसु रयणीअरा समंतेण । ते विट्टालेति ० फुडं रयणीए भुजमाणं तु ॥ १ ॥ ४८ ॥ तथा घोरान्धकाररुद्वाक्षैः पतन्तो यत्र जन्तवः । नैव भोज्ये निरीक्ष्यन्ते तत्र भुञ्जीत को निशि ? ॥४९॥ प्रबलान्धकारनिरुद्धलोचनैः कृमिपिपीलिकामक्षिकादयः पतन्तो घृततैलतक्रादौ भोज्ये न दृश्यन्ते यत्र तत्र तस्यां निशि सचेतनः को भुञ्जीत १ ।। ४९ ॥ रात्रिभोजने दृष्टान् दोषान् श्लोकत्रयेणाह — मेधां पिपीलिका हन्ति यूका कुर्याज्जलोदरम् । कुरुते मक्षिका वान्ति कुष्ठरोगंच कोलिकः । ५०। कष्टको दारुखण्डं च वितनोति गलव्यथाम् । व्यञ्जनान्तर्निपतितस्तालु विध्यति वृश्चिकः ५१ विलग्नश्च गले वालः स्वरभङ्गाय जायते । इत्यादयो दृष्टदोषाः सर्वेषां निशि भोजने ५२ पिपीलिका कीटिका, अन्नादिमध्ये भुक्ता सती, मेधां बुद्धिविशेषं, हन्ति, पिपीलिकेति जातावेकवचनम् । तथा यूका जलोदरमुदररोगविशेषं कुर्यात्, तथैव मक्षिका वान्ति वमनं करोति, तथैव कोलिको मर्कटकः, कुष्टरोगं, ( १ ) मालयन्ति महीतलं यामिनीषु रजनीचराः समन्तात् । तेऽपि च्छलन्ति स्फुटं रजन्यां भुञ्जानं तु । १ । ते वि छलंति हु इति रत्नशेखरसूरिकृत श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रटीकायाम् । ROOF: CH तृतीय प्रकाशः ॥३३१॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग तृतीय प्रकाशः शास्त्रम् करोति कण्टको बदर्यादिसंबन्धी, दारुखण्डं च काष्ठशकलं, तथैव गलव्यथां वितनोति, व्यञ्जनानि शाकादीनि तेषां मध्ये निपतितो वृश्चिकस्तालु विध्यति । ननु पिपीलिकादयः सूक्ष्मत्वान्न दृश्यन्ते, वृश्चिकस्तु स्थूलत्वाद् दृश्यत एव तत्कथमयं भोज्ये निविशेत ? उच्यते-व्यञ्जनमिह वार्ताकुशाकरूपमभिपते तबृन्तं च वृश्चिकाकारमेव भवतीति वृश्चिकस्य तन्मध्यपतितस्यालक्ष्यत्वाद्भोज्यता सम्भवतीति । विलग्नश्च गले वाल इत्यादि स्पष्टम् । एवमादयो रात्रिभोजने दृष्टा दोषाः सवर्षों मिथ्यादृशामपि । यदाहु:मेहं पिपीलिआओ हणंति वमणं च मच्छिया कुणइ । जूया जलोयरतं कोलियो कोढरोगं च ॥१॥ बालो सरस्स भङ्ग कण्टो लग्गई गलम्मि दारुं च । तालुम्मि विधइ अली वंजणमज्झम्मि भुजतो ॥ २ ॥ __ अपि च निशाभोजने क्रियामाणे अवश्य पाक: संभवी तत्र च पइजीवनिकायवधोऽवश्यंभावी, भाजनधावनादौ च जलगतजन्तुविनाशः, जलोज्झनेन भूमिगतकुन्थुपिपीलिकादिजन्तुघातश्च भवति, तत्प्राणिरक्षणकाक्षया अपि निशाभोजनं न कर्त्तव्यम् । यदाहु:२जीवाण कुंथुमाइण घायणंभ ायणधोयणाईसु । एमाइरयणिभोयणदोसे को साहिउँ तरइ ? ॥१॥५०॥५१॥५२॥ (१) मेधां पिपीलिका घन्ति (हन्ति) वमनं च मक्षिका करोति । युका जलोदरत्वं कोलिकः कुष्ठरोगं च ॥ १॥ वालः स्वरस्य भङ्गं कण्टको लगति गले दारु च । तालुनि विध्यति अलिय॑जनमध्ये भुज्यमानः ॥२॥ (२) जीवानां कुन्थ्वादीनां घातनं भाजनधावनादिषु । एवमादिरजनीभोजनदोषान् कः कथयितुं शक्रोति ? ॥१॥ ॥३२॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रम् uu तृतीय प्रकाशा ॥३३३॥ नाप ननु यत्रात्रस्य न पाको न वा भाजनधावनादिसंभवस्तत्सिद्ध मोदकादि खजरद्राक्षादि च भक्षयतःक इव दोष इत्याह-- नाप्रेक्ष्यसूक्ष्मजन्तूनि निश्यद्यात्मासुकान्यपि। अप्युद्यत्केवलज्ञानेर्नादृतं यनिशाशनम् ।५३। | प्रासुकान्यपि अचेतनान्यपि उपलक्षणत्वात्तदानीमपक्वान्यपि मोदकफलादीनि न निश्यद्यात् । कुतः ? अप्रेक्ष्यमूक्ष्मजन्तुनि अप्रेक्ष्याः प्रक्षितुमशक्याः मूक्ष्माः कुन्थुपनकादयो जन्तवो यत्र तानि विशेषणद्वारेण हेतुवचनं, अप्रेक्ष्यलक्ष्मजन्तुत्वादित्यर्थः। यद् यस्मादुत्पन्न केवलज्ञानैः केवलज्ञानवलेनाधिगतसमेतरजन्तुसंपाते। निर्जन्तुकस्याहारस्याभावानातं निशाभोजनम् । यदुक्तं निशीथभाष्ये जइवि ह फासुगदवं कुंथूपणगावि तहावि दुप्पस्सा । परचक्खनाणिणो वि ह राईभत्तं परिहरंति ॥१॥ जइवि हु पिवीलगाई दीसंति पईवमाइउज्जोए । तहवि खलु अणाइनं मूलवयविराहणा जेण ॥ २॥ ५३॥ लौकिकसंवाददर्शनेनापि रात्रिभोजनं प्रतिषेधतिधर्मविन्नैव भुञ्जित कदाचन दिनात्यये । वाह्या अपि निशाभोज्यं यदभोज्यं प्रचक्षते ॥५४॥ धर्मवित् श्रुतधर्मवेदी न कदाचिग्निशि भुञ्जीत, बाद्या जिनशासनबहिर्भूता लौकिकास्तेऽपि यत् यस्मात् निशि (१) यद्यपि खलु प्रासुकद्रव्यं कुन्थुपनका अपि तथापि दुर्दर्शाः। प्रत्यक्षज्ञानिनोऽपि खलु रात्रिभक्तं परिहरन्ति ॥१॥ (२) यद्यपि खलु पिपीलिकादयो दृश्यन्ते प्रदीपायुयोते । तथापि खलु अनाचीणं मूलव्रतविराघना येन ।२। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाश ॥३३४॥ भोज्यमभोज्यं प्रचक्षते ॥ ५४ ॥ येन शास्त्रेण बाह्या निशाभोज्यमभोज्यं प्रचक्षते तच्छास्त्रोपदर्शनाथं तद्यथेति तच्छास्त्रमेव पठति तद् यथात्रयीतेजोमयो भानुरिति वेदविदो विदुः । तत्करैः पूतमखिलं शुभं कर्म समाचरेत् ॥५५॥ __ त्रयी ऋग्यजुःसामलक्षणा तम्याम्तेजः प्रकृतं प्रस्तुतमस्मिन् त्रयीतेजोमयो भानुरादित्यः त्रयीतनुरिति ह्यादित्यस्य नाम । इति वेदविदो जानन्ति । तत इति शेषः । तत्करैर्भानुकरैः पृतं पवित्रीकृतमखिलं समस्तं शुभं कर्म समाचरेत् तदभावे शुभं कर्म न कुर्यात् ।। ५५ ॥ एतदेवाह| नैवाहुतिर्न च स्नानं न श्राद्धं देवतार्चनम् । दानं वा विहितं रात्रौ भोजनं तु विशेषतः ॥५६॥ _ आहुतिरग्नौ समिदाद्याधान, स्नानमङ्गप्रक्षालनं, श्राद्धं पितृकर्म, देवतार्चनं देवपूजा, दानं विश्राणनं न विहितमिति सर्वत्र नत्रो योगः, भोजनं तु विशेषतो न विहितमिति । ननु नक्तभोजनं श्रेयसे श्रूयते, न च रात्रिभोजनं विना तद्भवति ? उच्यते - नक्तशब्दार्थापरिज्ञानादेवमुच्यते ।। ५६ ॥ तदेवाहदिवसस्याष्टमे भागे मन्दीभूते दिवाकरे। नक्तं तु तद्विजानीयान नक्तं निशि भोजनम् ॥५७॥ दिवसस्य दिनस्याष्टमे भागे पाश्चात्येऽद्धप्रहरे योजनं तनक्तमिति विजानीयात् । द्विविधा हि शब्दस्य प्रवृत्तिमुख्या गौणी च, तत्र क्वचिन्मुख्यया व्यवहारः क्वचिन्मुख्यार्थबाधायां सत्यां गौण्या, नक्तशब्दस्य વિકા Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाशा पोगशास्त्रम् ॥३३५॥ रात्रिभोजनलक्षणमुख्यार्थबाधा, रात्रिभोजनस्य तत्र तत्र प्रतिषिद्धत्वादिति गौणार्थ एब नक्तशब्द इत्यसौ दिवसशेषभोजने वर्त्तते । तत्र निमित्तमुक्तं-मन्दीभूते दिवाकरे, मुख्यार्थप्रतिषेधाच्च न निशि भोजनं नक्तम् ।५७। रात्रिभोजनप्रतिषेधमेव परकीयेण श्लोकद्वयेनाहदेवैस्तु भुक्तं पूर्वाहणे मध्याहूने ऋषिभिस्तथा ?। अपराहणे च पितृभिः सायाहूने दैत्यदानवैः॥५०॥ | सन्ध्यायां यक्षरक्षोभिः सदा भुक्तं कुलोद्वह ! । सर्ववेलां व्यतिक्रम्य रात्रौ भुक्तमभोजनम् ॥५९॥ ___ पूर्वमहः पूर्वाह्नः तस्मिन् देवैर्भुक्तं मध्यमहो मध्याहस्तस्मिन्नृषिभिर्भुक्तं, अपरमहो अपराहणस्तस्मिन् पितृभि भुक्तम् ; सायमहः सायाह्रो विकालस्तस्मिन् दैत्यैर्दितिजैर्दानवैर्दनुभुक्तम्, सन्ध्या रजनीदिनयोः प्रवेशनिष्काशौ तस्यां यक्षगुह्यक रक्षोभी राक्षसभुक्तम् । कुलोद्बहेति युधिष्ठिरस्यामन्त्रणम् । सर्वेषां देवादिनां वेला अक्सरस्तां व्यतिक्रम्य रात्री भुक्तमभोजनम् ॥ ५८ ॥ ५९ ॥ ॥आयुर्वेदेश्प्युक्तम् ॥ एवं पुराणेन रात्रिभोजनप्रतिधस्य संवादमभिधायायुर्वेदेन संवादमाह-आयुर्वेदेऽप्युक्तमित्यनेन । आयुर्वेदस्तु | हन्नाभिपद्मसङ्कोचश्चण्डरोचिरपायतः । अतो नक्तं न भोक्तव्यं सूक्ष्मजीवादनादपि ॥६०॥ इह शरीरे द्वे पो; हृत्पद्यं च यदधोमुख, नाभिपद्मं च यद्धर्ध्वमुखं, द्वयोरपि च पद्मयोः रात्रौ सङ्कोचः; ॥३३५।। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥ ३३६ ॥ कुतः ? चण्डरोचिषः सूर्यस्यापायादस्तमयात् । अतो हृत्पद्मनाभिपद्मसङ्कोचाद्धेतोर्नक्तं रात्रौ न भोक्तव्यम्; सूक्ष्मजीवादनादपीति द्वितीयं निशिभोजनप्रतिषेधकारणम् । सूक्ष्मा ये जीवास्तेषामदनं भक्षणं, तस्मादपि रात्रौ न भोक्तव्यम् ॥ ६० ॥ परपक्षसंवादमभिधाय स्वपक्षं समर्थयते— संसजज्जीवसङ्गतं भुञ्जाना निशिभोजनम् । राक्षसेभ्यो विशिष्यन्ते मूढात्मानः कथं नु ते ॥ ६१ ॥ संबध्यमानजीवसमूह, भोजनं भोज्यं, भुञ्जाना निशि रात्रौ राक्षसेभ्यः क्रव्यादेभ्यः कथं नु कथं नाम विशिष्यन्ते भिद्यन्ते ? राक्षसा एव ते इत्यर्थः । मूढात्मानो जडाः, अपि च, लब्धे मानुषत्वे जिनधर्मपरिष्कृते विरतिरेव कर्तुमुचिता, विरतिहीनस्तु शृङ्गपुच्छहीनः पशुरेव ॥६॥ एतदेवाह - वासरे च रजन्यां च यः खादन्नेव तिष्ठति । शृङ्गपुच्छपरिभ्रष्टः स्पष्टं स पशुरेव हि ॥६२॥ स्पष्टम् ॥६१|| रात्रिभोजननिवृत्तेभ्योऽपि सविशेषपुण्यवतो दर्शयति अनो मुखेऽवसाने च यो द्वे द्वे घटिके त्यजन् । निशा भोजनदोषज्ञोऽश्नात्यसौ पुण्यभाजनम् ॥ अहनो मुखे आरम्भे, अवसाने पश्चिमे भागे, द्वे द्वे घटिके मुहूर्त्त मुहूर्त्तं रात्रः प्रत्यासन्नं त्यजन् परिहरन्, योऽश्नाति स पुण्यभाजनम् । निशाभोजनदोषज्ञ इति निशाभोजने सम्पातिमजन्तुसम्पातलक्षणा ये तृतीय प्रकाशः ।।३३६ ॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥३३७॥ FOXOX KO दोषास्तान जानन् रात्रिप्रत्यासन्नमपि मुहूर्त्त मुहूर्त्त सदोषत्वेन जानाति, अत एवागमे सर्वजघन्यं प्रत्याख्यानं मुहूर्त्त प्रमाणनमस्कारसहितमुच्यते । पाश्चात्यमुहूर्त्तादप्यर्वाक् श्रावको भोजनं करोति, तदनन्तरं रात्रिभोजनं प्रत्याख्याति ॥ ६३ ॥ ननु यो दिवैव भुङ्क्ते तस्य रात्रिभोजनप्रत्याख्याने फलं नास्ति, फलविशेषो वा कश्चिदुच्यतामित्याह— अकृत्वा नियमं दोषाभोजनाद्दिनभोज्यपि । फलं भजेन्न निर्व्याजं न वृद्धिर्भाषितं विना ॥ ६४ ॥ नियमं निवृत्ति, रात्रिभोजनादकृत्वा दिने भोक्तुं शीलमस्यासौ दिनभोजी सोऽषि निशाभोजनविरतेः फलं निर्व्याजं निश्छद्म न भजेत् न लभेत । कुत इत्याह- वृद्धिर्भाषितं विना, वृद्धिः कलान्तरं भाषितं जल्पितं बिना न स्यात् । लौकिकमेतद् यथा भाषितमेव कलान्तरं भवेदिति ॥ ६४ ॥ पूर्वोक्तस्य विपर्ययमाह - ये वासरं परित्यज्य रजन्यामेव भुञ्जते । ते परित्यज्य माणिक्यं काचमाददते जडाः ॥ ६५ ॥ दिवसं परित्यज्य तच्छीलतया रात्रावेव ये भुञ्जते, दृष्टान्तः स्पष्टः ॥६५॥ ननु नियमः सर्वत्र फलवान् ततो यस्य ' रात्रावेव मया भोक्तव्यं न दिवसे' इति नियमस्तस्य का गतिरित्याहवासरे सति ये श्रेयस्काम्यया निशि भुञ्जते । ते वपन्त्यूषरक्षेत्रे शालीन् सत्यपि पल्वले ॥६६॥ श्रेयोतौ वासरभोजने सत्यपि कुशास्त्र संस्कारान्मोहाद्वा श्रेयस्काम्यया ये रात्रावेव भुञ्जते ते शालिवपनयोग्ये OX: 9 तृतीय प्रकाशः ॥३३७. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥३३८।। 060020 पल्वले सत्यपि ऊपरे क्षेत्रे शालीन् वपन्ति । यथा ह्यूषरे क्षेत्रे शालिवपनं निरर्थकं, तथा रात्रावेव मया भोक्तव्य मिति निष्फलो नियमः । अधर्मनिवृत्तिरूपो हि नियमः फलवानयं तु धर्मनिवृत्तिरूप इत्यफलो विपरीतफलो वा । ६६ । रात्रिभोजनस्य फलमाह - उलूककाकमार्जारगृध्रशम्बरशूकराः । अहिवृश्चिकगोधाश्च जायन्ते रात्रिभोजनात । ६७ । रात्रिभोजनादुकादिषु जन्म भवति । उलूकादय उपलक्षणं तेनान्येष्वप्यधमतिर्यक्षु रात्रिभोजनो जायन्ते ॥ ६७॥ वनमालोदाहरणेन रात्रिभोजनदोषस्य महत्तां दर्शयति श्रूयते ह्यन्यशपथानादृत्यैव लक्ष्मणः । निशाभोजनशपथं कारितो वनमालया ॥ ६८ ॥ श्रूयते रामायणे दशरथनन्दनो लक्ष्मणः पितृनिदेशात् सह रामेण सीतया च दक्षिणापथे प्रस्थितोऽन्तरा कूवरनगरे महीधरराजतनयां वनमालामुपयेमे, ततश्च रामेण सह परतो देशान्तरं यियासन् स्वभार्या वनमालां प्रतिमोचयति स्म, सा तु तद्विरहकातरा पुनरागमनमसम्भावयन्ती लक्ष्मणं शपथानकारयत् । यथा प्रिये ! रामं मनीषिते देशे परिस्थाप्य यद्यहं भवतीं स्वदर्शनेन न प्रीणयामि तदा प्राणातिपातादिपातकिनां गति यामीति सा तु तैः शपथैरतुष्यन्ती 'यदि रात्रिभोजनकारिणां शपथं करोषि तदा त्वां प्रतिमुञ्चामि नान्यथेति' तमुवाच स तथेत्यभ्युपगत्य देशान्तरं प्रस्थितवान् । एवमन्यशपथानादृत्य लक्ष्मणो वनमालया रात्रिभोजनशपथं कारितः विशेषचरितं तु ग्रन्थगौरवभयान्नेह लिख्यते ॥ ६८ ॥ तृतीय प्रकाशः ||३३८|| Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥ ३३९॥ शास्त्र निदर्शनं च विना सकलजनानुभवसिद्धं रात्रिभोजनविरतेः फलमाह — करोति विरति धन्यो यः सदा निशि भोजनात्। सोऽद्धं पुरुषायुषस्य स्यादवश्यमुपोषितः ॥ ६९ ॥ यः कश्चिद्धर्मधनो हि रात्रिभोजनस्य विरतिं करोति, सोऽर्द्ध पुरुषायुषस्योपोषितः स्यात् । उपवास्य चैकस्यापि निर्जराकारणत्वान्महाफलत्वं पञ्चाशद्वर्षसम्मितानां तूपवासानां कियत्फलं सम्भाव्यते ? इदं च शतवर्षायुषः पुरषानधिकृत्योक्तम् । पूर्वकोटीजीविनस्तु प्रति तदर्द्धमुपवासानां न्यायसिद्धमेव ॥ ६९ ॥ तदेवं रात्रिभोजनस्य भूयांसो दोषास्तत्परिवर्जने तु ये गुणास्तान् वक्तुमस्माकमशक्ति रेवेत्याहरजनीभोजनत्यागे ये गुणः परितोऽपि तान् । न सर्वज्ञाहते कश्चिदपरो वक्तुमीश्वरः ॥ ७० ॥ स्पष्टम् ||७०|| अथ क्रमप्राप्तमामगोररू संपृक्तद्विदलादिभोजनप्रतिषेधमाह आमगोरस संपृक्तद्विदलादिषु जन्तवः । दृष्टाः केवलिभिः सूक्ष्मास्तस्मात्तानि विवर्जयेत् ॥ ७१ ॥ इह हियं स्थितिः केचिद्भावा हेतुगम्याः केचित्त्वागमगम्यास्तत्र ये यथा हत्वादिगम्यास्ते तथैव प्रवचनधरैः प्रतिपादनीयां । आगमगप्येषु हेतून्, हेतुगम्येषु त्वागममात्रं प्रतिपादयम्नाज्ञाविराधकः स्यात् । यदाहजो देउवापक्खम्म उओ आगमे य आगमिओ । सो ससमयपन्नवओ सिद्धंतविराहओ अनो ॥ १ ॥ इत्यामगोरससंपृक्तद्विदलादौ न हेतुगम्यो जीवसद्भावः किन्त्वागमगम्य एव । तथाहि - आमगोरससंपृक्ते (१) यो हेतुवादपक्षे हेतुक आगमे चागमिकः । स स्वसमयप्रज्ञापकः सिद्धान्तविराधकोऽन्यः । F450 ततोय प्रकाशः ॥३३९॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥३४०॥ तृतोय प्रकाशा द्विदले आदिशब्दात्पुष्पितौदने, अहतियातीते दधिन, कुथितान्ने च, ये जन्तवस्ते केवलज्ञानिभिर्दष्टा इति जन्तुमिश्रामगोरसमिश्रद्विदलादिभोजनं वर्जयेत् । तद्भोजनाद्धि प्राणातिपातलक्षणो दोषः। न च केवलिनां निर्दोषत्वेना सानां वचनानि विपरियन्ति ॥७१। अपि च । न मद्यादीनि कुथितानपर्यवसानान्येवाभोज्यानि, किन्त्वन्यान्यपि जीवसंसारवितबहुलान्यागमादुपलभ्य वर्जनीयानीत्याहजन्तुमिश्रं फलं पुष्पं पत्रं चान्यदपि त्यजेत् । सन्धानमपि संसक्तं जिनधर्मपरायणः ॥७२॥ __ जन्तुभिर्मिश्रं फलं मधूकबिल्वादेः, पुष्पमरणिशिग्रुमधृकादेः. पत्रं प्रावृषि तण्डुलीयकादेः. अन्यदपि मूलादित्यजेत् । सन्धानमाम्रफलादीनां यदि संसक्तं भवेत्, तदा जिनधर्मपरायणः कृपालुत्वात्यजेदिति संबन्धः । इदं च भोजनतो भोगोपभोगव्रतमुक्तम्, भोगोपभोगकारणं धनोपार्जनमपि भोगोपभोग उच्यते, उपचारात् । तत्परिमाणमपि भोगोपभोगव्रतम् । यथा श्रावकस्य खरकर्मपरिहारेण कर्मान्तरेण जीविका । एतच्च सक्षेपार्थमतिचारप्रकरण एव वक्ष्यति । अवसितं भोगोपभोगव्रतम् ॥७२॥ अथानर्थदण्डस्य तृतीयगुणवतस्यावसरः तच्चतुःति श्लोकद्वयेनाहआतै रौद्रमपध्यानं पापकर्मोपदेशिता । हिंसोपकारिदानं च प्रमादोचरणं तथा ॥७३॥ शरीराद्यर्थदण्डस्य प्रतिपक्षतया स्थितः। योऽनर्थदण्डस्तत्त्यागस्तृतीयं तु गुणव्रतम् ॥७४॥ ॥३४०अ॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** ****** योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशः ॥३४०ब। ॥३४०ब ********** अपकृष्ट ध्यानमपध्यानं, तदनर्थदण्डस्य प्रथमो भेदः । तच्च द्वेधा-आर्त रौद्रं च, तत्र ऋतं दुःखं तत्र भवमात; यदि वा अतिः पीडा यातनं च, तत्र भवमातम् । तच्चतु -अमनोज्ञानां शब्दादीनां संप्रयोगे तद्विप्रयोगचिन्तनमसप्रयोगप्रार्थना च प्रथमम् । शूलादिरोगसम्भवे च तद्वियोगप्रणिधानं तदसंप्रयोगचिन्ता च द्विती यम् । इष्टानां च शद्वादीनां विषयाणां सातवेदनायाश्चावियोगाध्यवसानं संप्रयोगाभिलाषश्च तृतीयम् । देवेन्द्रचक्रवादिविभवप्रार्थनारूपं निदानं चतुर्थम् । यदाहुः१अमणुण्णाणं सद्दाइविसयवत्थूण दोसमइलस्स । धणि विओअचितणमसंपओगाणुसरणं च ॥१॥ २तह सूलसीसरोगाइवेयणाए विओअपणिहाणं । तदसंपओर्गाचता तप्पडियाराउलमणस्स ॥२॥ ३इठ्ठाणं विसयाईण वेयणाए अ रागरत्तस्स । अविओगज्झवसाणं तद संजोगाभिलासो अ॥३॥ ४देविंदचक्कवट्टित्तणाइगुणरिद्धिपत्थणामइयं। अहम नियाचितणमण्णाणाणगयमच्चतं ॥ ४ ॥ ५एयं चउम्विहं रागदोसमोहंकियस्स । अट्टज्झाणं संसारवद्धणं तिरियगइमूलं ॥ ५॥ ******* **************** (१) अमनोज्ञानां शद्वादीविषयवस्तूनां द्वेषलिनस्य । अत्यर्थं वियोगचिन्तनमसंप्रयोगानुसरण च ॥१॥ (२) तथा शूलशिरोरोगादिवेदनायाः वियोगप्रणिधानम् । तदसंप्रयोगचिन्ता तत्प्रतीकाराकुलमनसः ॥२॥ (३) इष्टानां विषयादीनां वेदनायाश्च रागरक्तस्य । अवियोगाध्यवसानं तथा संयोगाभिलाषश्च ॥ ३॥ (४) देवेन्द्र चक्रवत्तित्वादिगुद्धिप्रार्थनामयम् । अधमं निदानचिन्तनमज्ञानानुगतमत्यन्तम् ॥ ४॥ (५) एतत् चतुविधं रागद्वेषमोहाक्डितस्स जीवस्य । आर्तध्यानं संसारवर्द्धन तिर्यग्गतिमूलम् ॥५॥ **************** Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****** तृतीय योगशास्त्रम् ************ ॥३४०क॥ ॥३४०॥ रोदयत्यपरानिति रुद्रो दुःखहेतुस्तेन कृतं तस्य वा कर्म रौद्रम् तच्चतुर्द्धा-हिंसानुबन्धि मृषानुबन्धि स्तेयानुबन्धि धनसंरक्षणानुबन्धि च । यदाहुः१सत्तवहवेवबंधणमारणाइपणिहाणं । अइकोहग्गहघत्थं निग्घिणमणसोऽहमविवागं ॥१॥ २पिसुणासम्भासब्भूयघायाइवयणपणिहाणं । मायाविणो अइसंधणपरस्स पच्छन्नपावस्स ॥२॥ ३तह तिव्वकोहलोहाउलस्स भूओवघायणमणज्जं । परदव्वहरणचित्तं परलोगावानिरवेक्खं ॥३॥ ४सद्दाइविसयसाहणधणसंरक्खणपरायणमणिठें । सव्वाभिसंकणपरोवघायकलुसाउलं चित्तं ॥ ४ ॥ ५एयं चउम्विहं रागदोसमोहंकियस्स जीवस्स । रोद्दज्झाणं संसारबद्धणं निरयगइमूलं ॥५॥ । एवमातरौद्रध्यानात्मकमपध्यानमनर्थदण्डस्य प्रथमो भेदः । पापकर्मोपदेशिता वक्ष्यमाणा द्वितीयः । हिंसोपकारिणां शस्त्रादीनां दानमिति तृतीयः । प्रमादानां गीतनत्तादीनामाचरणं चतुर्थः । शरीरादिनिमित्तं यः प्राणिनां दण्डः सोऽर्थाय प्रयोजनाय दण्डोऽर्थदण्डस्तस्य शरीराद्यर्थदण्डस्य यः प्रतिपक्षरुपोऽनर्थदण्डो निष्प्रयोजनो ****** ** * ********* ******* (१) सत्ववधवेधबन्धनदहनाक्डनमारणादिप्रणिधानम् । अतिक्रोधग्रहप्रस्तं निघृणमनसोऽधविपाकम् ॥१॥ (२) पिशुनासभ्यासद्भूतभूतघातादिवचनप्रणिधानम् । मायाविनोऽतिसन्धानपरस्य प्रच्छन्नपापस्य ॥२॥ (३) तथा तीवक्रोधलोभाकुलस्य भूतोपधातनमनार्यम् । परद्रव्यहरणचित्तं परलोकापायनिरपेक्षम् ॥३॥ (४) शद्वादिविषयसाधनधनसंरक्षणपरायणमनिष्टम् । सर्वाभिशक्ङनपरोपघातकलुषाकुलं चित्तम् ॥४॥ (५) एवं चतुविधं रागद्वेषमोहाक्डितस्य जीवस्य । रौद्रध्यानं संसारवर्द्धनं नरकगतिमूलम् ॥५॥ ** ****** ** Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाशा दण्ड इति यावत्, तस्य त्यागोऽनर्थदण्डविरतिस्तृतीयं गुणवतम् । यदाह १ज इंदियसयणाई पडुच्च पावं करेज सो होई । अत्थे दंडो एत्तो अण्णो उ अणत्थदंडो उ॥१॥७३।। ७४॥ पोग अपध्यानस्य स्वरूपं परिमाणं चाहशास्त्रम् uTM वैरिघातो नरेन्द्रत्वं पुरघाताग्निदीपने। खचरत्वाद्यपध्यानं मुहूर्तात्परतस्त्यजेत् ॥७५॥ वैरिघातपरयाताग्निदीपनादिविषयं रौद्रध्यानमपध्यान, नरेन्द्रत्वं खचरत्वमादिशब्दादप्सरोविद्याधरीपरिभोगादि, तेष्वार्तध्यानरूपमपध्यान, तस्य तत्परिमाणरूपं व्रतं मुहूर्तात्परतस्त्यजेदिति ॥ ७५ ॥ अथ पापोपदेशस्वरूपं तद्विरतिं चाहवृषभान दमय क्षेत्र कृष षण्ढय वाजिनः। दाक्षिण्याविषये पापोपदेशोभ्यंन कल्पते ॥७॥ वृषभान् वत्सतरान् प्रसङ्गादिना दमय दान्तान् कुरु, प्रत्यासीदति सलु वर्षाकालः, तथा क्षेत्रं बीजावापभवं कृष, वृष्टः खलु मेघो, यास्यति वापकालो, भृता वा केदारा गायन्तां, साईदिनत्रयमध्ये उप्यन्तां च ब्रीडयः,तथा नेदीयोऽश्वः प्रयोजनं राज्ञामिति षण्ढय वर्द्धितकान् कुरु वाजिनोऽश्वान् उपलक्षणं चैतदन्येषां ग्रीष्मे दवामिदानादीनाम, अयं पापरूप उपदेशः, श्रावकाणां न कल्पते न युज्यते । सर्वत्र पापोपदेशनियमं कर्तुमशक्तभ्योऽपवा (१) यदिन्द्रियस्वजनादीन् प्रतीत्य पापं कुर्यात् स भवति । अर्थे दण्डः इतः अन्यस्तु अनर्थदण्डस्तु ॥१॥ (२) समीपतरं प्रयोजनमश्वः । ॥३४॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाशा शास्रम् ॥३४२॥ दोऽयमुच्यते । दाक्षिण्याविषय इति । बन्धुपुत्रादिविषयदाक्षिण्यवतः पापोपदेशोऽशक्यपरिहारः। दाक्षिण्याभावे तु यथा तथा मौखर्येण पापोपदेशो न कल्पते ॥७६ ॥ ____ अथ हिंसोपकारीणि तददानपरिहारं चाहयन्त्रलाङ्गलशस्त्राग्निमुशलोदूखलोदिकम् । दाक्षिण्याविषये हिंसं नार्पयेत्करुणापरः ॥७७॥ . यन्त्रं शकटादि, लाङ्गलं हलं, शख खड्गादि, अग्निवह्निः, मुशलमयोऽग्रं, उदुखलमुलूखलं, आदिशब्दाद्धनुभखादिपरिग्रहः । हिंसं वस्तु, करुणापरः श्रावको नार्पयेत्, दाक्षिण्याविषय इति पूर्ववत् ॥ ७७॥ अथ प्रमादाचरणमनर्थदण्डस्य चतुर्थभेदं तत्परिहारं च श्लोकत्रयेणाहकुतूहलाद्गीतनृत्तनाटकादिनिरीक्षणम् । कामशास्त्रप्रसक्तिश्च द्युतमद्यादिसेवनम् ॥ ७॥ जलक्रीडाऽऽन्दोलनादिविनोदोजन्तुयोधनम् । रिपोः सुतादिना वैरं भक्तस्त्रीदेशराटकथाः।७९। रोगमार्गश्रमौ मुक्त्वा स्वापश्च सकलां निशाम् । एवमादि परिहरेत्प्रमादाचरणं सुधीः ।८।। ___ कतूहलात्कौतुकादेतोर्गीतस्य नृत्तस्य नाटकस्य आदिशब्दात्प्रकरणादोनिरीक्षणं, तेन तेनेन्द्रियेण यथोचितं विषयीकरणम् । कुतूहलग्रहणाज्जिनयात्रादौ प्रासङ्गिकनिरीक्षणे च न प्रमादाचरणम् । तथा कामशास्त्रे वात्स्यायनादिकृते, प्रसक्तिः पुनः पुनः परिशीलनम्, तथा द्यूतमक्षकादिभिः क्रीडनम्, मद्यं सुरा, आदिशब्दान्मृगयादि, तेषां सेवनं परिशीलनं, तथा जलक्रीडा तडागजलयन्त्रादिषु मज्जनोन्मज्जनश्रुङ्गिकाच्छोटनादिरूपा, तथा आन्दो ॥३४२॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥३४३॥ ल्नं वृक्षशाखादौ दोलाखेलनं; आदिशब्दात्पुष्पावचयादि; तथा जन्तूनां कुक्कुटादीनां योधनं परस्परेणाभ्याहननम्; तथा रिपोः शत्रोः सम्बन्धिना पुत्रपौत्रादिना वैरम् अयमर्थो येन तावत्कथञ्चिदायातं वैरं तद्यः परिहत्तु न शक्नोति तस्यापि पुत्रपौत्रादिना यद्वैरं तत्प्रमादाचरणम् ; तथा भक्तकथा यथा इदं चेदं च मांस्पाकमामोदकादि साधु भोज्यं साध्वनेन भुज्यते, अहमपि वा इदं भोक्ष्ये इत्यादिरूपा; तथा स्त्रीकथा स्त्रीणां नेपथ्यङ्गहारहावभावादिवर्णनरूपा “कर्णाटी सुरतोपचारचतुरा लाटी विदग्धप्रिया" इत्यादिरूपा वा; तथा देशकथा, यथा दक्षिणापथः प्रचुरानपानः स्त्रीसम्भोगप्रधानः, पूर्वदेशो विचित्रवनगुडखण्डशालिमद्यादिप्रधानः, उत्तरापथे शूराः पुरुषा जविनो वाजिनो गोधूमप्रधानानि धान्यानि सुलभं कुङ्कुमं मधुराणि द्राक्षादाडिमकपित्थादीनि पश्चिमदेशे सुखस्पर्शानि च वस्त्राणि सुलभा इक्षवः शीतं वारीत्येवमादिः राट्रकथा राजकथा यथा शुरोऽस्मदीयो राजा, सधनचौडः गजपतिगैंडः, अश्वपतिस्तुरुष्क इत्यादि । एवं प्रतिकूला अपि भक्तादिकथा वाच्या; तथा रोगो ज्वरादिः, मार्गश्रमो मार्गखेदः तौ मुक्त्वा सकलां निशां स्वापो निद्रा । रोगमार्गश्रमयोस्तु न प्रमादाचरणम् । एवमादिपूर्वोक्तस्वरूपं प्रमादाचरणं परिहरेत् । सुधीः श्रमणोपासकः । प्रमादाचरितं च मज्जं विसयकसाया निद्दा विगहा य पश्चमी भणिया । एए पञ्च पमाया जीवं पाडेन्ति संसारे ॥ १ ॥ इति पञ्चविधस्य प्रमादस्य प्रपञ्चः ।। ७८ ।। ७९ ।। ८० ।। देशविशेषं प्रमादपरिहारमाह (१) मद्यं विषयकपाया निद्रा विकथा च पञ्चमी भणिता । एते पञ्च प्रमादा जीवं पातयन्ति संसारे ॥ १ ॥ COOK:: तृतीय प्रकाशः ॥३४३॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखाम् तृतीय प्रकाशा ॥३४॥ विलासहासनिष्ठ्यूतनिद्राकलहदुष्कथाः। जिनेन्द्रभवनस्यान्तराहारं च चतुर्विधम ॥१॥ जिनेन्द्रभवनस्यान्तरित्यादित आरभ्य संबध्यते, तेन जिनेन्द्रभवनस्य मध्ये विलासं कामचेष्टां, हासं कहकहध्वानं इसनं, निष्ठ्यूतं निष्ठीवनं, निद्रां स्वापं, कलहं राटी, दुष्कथां चौरपारदारिकादिकथां, चतुर्विधं चाहारम् -अशनपानखाद्यस्वाधस्वरूपं परिहरेत् । परिहरेदिति पूर्वतः सम्बन्धनीयम् । तत्राशनं शाल्यादि मुद्गादि सक्त्वादि पेयादि मोदकादि क्षीरादि सूरणादि मण्डकादि च । यदाह असणं ओअणसत्तगमुग्गजगाराइ खज्जगविही य । खीराइमरणाई मंडगपभिई अविण्णे ॥१॥ पानं सौवीरं यवादिधावनं, सुरादि सर्वश्चापकायः कर्कटकजलादिकं च । यदाह२पाणं सोवीरजवोदगाइ चित्तं सुराइयं चेव । आउक्काओ सव्वो कक्कडगजलाइयं च तहा ॥१॥ खाद्य भृष्टधान्यं गुलपर्पटिकाखजूरनालिकेरद्राक्षाकर्कटचाम्रपनसादि । यदाह३भत्तोसं दंताई खज्जूरं नालिएरदक्खाई । ककडिगंबगफणसाइ बहुविहं खाइमं नेयं ॥ १ ॥ स्वाद्यं दन्तकाष्ठं ताम्बूलनुलसिकापिण्डार्जकमधुपिप्पलीसुण्ठीमरिचजीरकहरीतकीविभीतवस्थामलक्यादि । यदाह (१) अशनमोदनसक्तुकमुद्गजगादि खाद्यकविधिश्च । क्षीरादि सूरणादि मण्डकप्रभृति च विज्ञेयम् ।। (२) पानं सौवीरयवोदकादि चित्रं सुरादिकं चैव । अप्कायः सर्वः कर्कटकजलादिकं च तथा ॥१॥ (३) भक्तोषं दन्त्यादि खजूरं नालिकेरद्राक्षादि । कर्कटिकाम्रपनसादि बहुविधं खादिमं ज्ञेयम् ॥१॥ भत्ता काष्ठं ताम्बूलनुलसिका सायकविधिश्च । क्षीदाय सर्वः कर्कटकजलादिम ज्ञेयम् ॥ १ ॥ ॥३४४॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग तृतीय प्रकाशा शास्त्रम् ॥३४५॥ दंतरवण तंबोले चित्तं तुलसीकुहेडगाईयं । महुपिप्पलिमुंठाई अणेगहा साइमं होइ ॥१।।८।। उक्तानि त्रीणि गुणव्रतानि । अथ चत्वारि शिक्षाप्रतान्युच्यन्ते, तत्रापि सामायिकदेशावकाशिकपौषधोपवासातिथिसंविभागलक्षणेषु चतुर्षु शिक्षाव्रतेषु प्रथम सामायिकाख्यं शिक्षाघ्रतमाह-- त्यतातरौद्रध्यानस्य त्यक्तसावद्यकर्मणः। मुहूर्त समता या तां विदुः सामायिकवतम्।८२। मुहूर्त मुहूर्त्तकालं, या समता रागद्वषहेतुषु मध्यस्थता, तां सामायिकवतं विदुः, समस्य रागद्वेषविनिर्मुक्तस्य सतः आयो ज्ञानादीनां लाभः प्रशमसुखरूपः समायः, समाय एव सामायिकम् , विनयादित्वादिकण् । समायः प्रयोजनमस्येति वा सामायिकम् । तच्च सामायिक मनोवाकायचेष्टापरिहारं विना न भवतीति त्यक्तातरौद्रध्यानस्ये त्युक्तं, त्यक्तसावधकर्मण इति च, त्यक्तं सावध वाचिकं कायिकं च कर्म येन तस्य । सामाथिकस्थश्च श्रावकः गृहस्थोऽपि यतिरिव भवति । यदाह २सामाइयंमि उ कए समणो इव सावो हवइ जम्हा । एएण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥१॥ अत एव तस्य देवस्नात्रपूजादौ नाधिकारः । नन्वगर्हितं कर्म कुर्वाणस्य देवस्नात्रादौ को दोषः, सामायिक हि सावधव्यापारनिषेधात्मकं, निरवधव्यापारविधानात्मकं च, तत्स्वाध्यायपठनपरिवर्तनादिवत् देवपूजादौ को (१) दन्तपावनं ताम्बूलं चित्रं तुलसीकुहेडकादिकम् । मधुपिप्पलिमुण्ठयादि अनेकधा स्वादिमं भवति ।। (२) सागायिक एव (के तु) कृते श्रमण इव श्रावको भवति यस्मात् । एतेन कारणेन बहुशः सामायिकं कुर्यात् ।। ॥३४५॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तुतीय योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥३४६॥ दोषः ? नैवम्, यतेवि देवस्नात्रपूजनादौ नाधिकारः । भावस्तवार्थ च द्रव्यस्तवोपादानम् सामायिके च सति संप्राप्तो भावस्तव इति किं द्रव्यस्तवकरणेन ? । यदाहदबत्यो य भावत्यो य दबत्यो बहुगुणो त्ति बुद्धि सिया । अणिउणजणवयणमिणं छज्जीवहियं जिणा विति।। ___ इह श्रावकः सामायिककर्त्ता द्विविधो भवति-ऋद्धिमाननृद्धिकश्च, योऽसावनृद्धिकः स चतुषु स्थानेषु सामायिकं करोति-जिनगृहे, साधुसमीपे, पौषधशालायां, स्वगृहे वा, यत्र वा विश्राम्यति, निर्व्यापारो वा आस्ते तत्र च । तत्र यदा साधुसमीपे करोति तदाय विधिः, यदि कस्माच्चिदपि भयं नास्ति, केनचिद्विवादो नास्ति ऋणं वा न धारयति, मा भूत्तत्कृताकर्षणापकर्षणनिमित्तश्चित्तसंक्लेशः तदा स्वगृहेऽपि सामायिक कृत्वा ईर्या शोधयन्, सावद्या भाषां परिहरन, काष्ठलेष्ट्वादिना यदि कार्य तदा तत्स्वामिनमनुज्ञाप्य प्रतिलिख्य प्रमाय च गृह्णन्, खेलसिङ्घाणकादींश्चाविवेचयन् विवेचयंश्च स्थण्डिलं प्रत्यवेक्ष्य प्रमृज्य च, एवं पञ्चसमितिसमितस्विगुप्तिगुप्तः साध्याश्रय गत्वा साधूनमस्कृत्य सामायिकं करोति यथा करेमि भंते सामाइयं सावजं जोगं पच्चक्खामि जाव साहू पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि तस्स भंते पडिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ सामायिकसूत्रस्यायमर्थः-करेमि अभ्युपगच्छामि, भंते इति गुरोरामन्त्रणम्, हे भदन्त ! भदन्ते सुखवान् कल्याणवांश्च भवति भदुद मुखकल्याणयोः अस्य औणादिकान्तप्रत्ययान्तस्य निपातनात् रूपम् । आमन्त्रणं च (१) द्रव्यस्तवश्च भावस्तवश्च द्रव्यस्तवो बहुगुण इति बुद्धिः स्यात् । अनिपुणजनवचनमिदं षड्जीवहितं जिना युवतेश ॥३४६॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥३४॥ प्रत्यक्षस्य गुरोस्तदभावे परोक्षस्यापि बुद्धया प्रत्यक्षीकृतस्य भवति, यथा जिनानामभावे जिनप्रतिमाया आरोपितजिनवायाः स्तुतिपूजासम्बोधनादिकं भवति, गुरोश्चाभिमुखीकरणं तदायत्तः सर्वो धर्म इति प्रदर्शनार्थम् । यदाह१नाणस्स होइ भागी थिरयरओ दसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचति ॥१॥ अथवा भवान्तहेतुत्वाद्भवान्तः, भन्ते इत्यार्षत्वात् । मध्यव्यञ्जनलोपे रूपं भन्ते इति “अत एत्सौ पुंसि मागध्याम्" ॥८॥४॥२८७॥ इत्येकारोऽर्द्धमागधत्वादार्षस्य । सामायिकमुक्तनिर्वचनम् । अवयं पापं, सहावधेन सावद्यः युज्यते इति योगो व्यापारस्तं प्रत्याख्यामि प्रतीति प्रतिषेधे आङाऽऽभिमुख्ये ख्यांक प्रकथने, ततश्च प्रतीपमभिमुख ख्यापकं सावधयोगस्य करोमीत्यर्थः । अथवा पच्चक्खामीति प्रत्याचक्षे, चक्षिक व्यक्तायां वाचीत्यस्य प्रत्यापूवस्ट रूपम् प्रतिषेधस्यादरेणाभिधानं करोमीत्यर्थः । जाव साहू पज्जुवासामि यावच्छब्दः परिमाणमर्यादाऽवधारणवचनस्तत्र परिमाणे यावत्साधुपर्युपासनं मम तावत्प्रत्याख्यामीति, मर्यादायां साधुपर्युपासनादक, अवधारणे यावत्साधुपयुपासनं तावदेव न तस्मात्परत इत्यर्थः । दुविहं तिविहेणं, द्वे विधे यस्य स द्विविधः सावधो योगः स च प्रत्याख्येयत्वेन कर्म सम्पद्यते; अतस्तं द्विविधं योगं करणकारणलक्षणमनुमतिप्रतिषेधस्य गृहस्थैः कर्तुमशक्यत्वात् पुत्रभृत्यादिकृतस्य व्यापारस्य स्वयमकरणेऽप्यनुमोदनात् । त्रिविधेनेति करणे तृतीया । मणेणं वायाए कारणं इति त्रिविधस्यैव सूत्रोपात्त विवरणं मनसा वाचा कायेन चेति त्रिविधेन करणेन । न करोमि न कारयामीति सूत्रोपात्तमेव द्विविधमित्यस्य विवरणम् । किं पुनः कारणमुद्देशक्रममतिलङ्घय व्यत्यासेन (१) ज्ञानस्य भवति भागी स्थिरतरको दर्शने चरित्रे च । धन्या यावत्कथायां (थ) गुरुकुलवासं न मुश्चन्ति ॥१॥ 1॥३४॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥३४८॥ निर्देशः कृतः ? उच्यते-योगस्य करणाधीनतोपदर्शनार्थम् । करणाधीनता हि योगानाम्, करणभावे भावात्तदभावे | चाभावाद्योगस्य । तस्सेति, तस्य अत्राधिकृतो योगःसंबध्यते, अवयवावयविभावलक्षणसम्बन्धे षष्ठीः, योऽयं योगस्त्रिकालविषयस्तस्यातीतमवयवं प्रतिक्रामामि निवर्त प्रतीपं कामामीत्यर्थः, निन्दामि जुगुप्से गर्हामि स एवार्थः, केवलमात्मसाक्षिकी निन्दा, गुरुसाक्षिकी गर्दा । भन्ते इति पुनर्गुरोरामन्त्रणं भक्त्यतिशयख्यापनार्थ न पुनरुक्तम्, अथवा सामायिकक्रियाप्रत्यर्पणाय पुनर्गुरोः सम्बोधनम् । अनेन चैतत् ज्ञापितं भवति, सर्वक्रियाऽवसाने गुरोः प्रत्यर्पणं कार्यमिति । उक्तं च भाष्यकारेण १सामाइयपच्चप्पणबयणोवायं भयंतसहोत्ति । सव्वकिरियावसाणे भणिय पञ्चप्पणमणेण ॥१॥ अप्पाणमिति; आत्मानमतीतकालसावद्ययोगकारिणम्: वोसिरामीति व्युत्सृजामिः विशब्दो विविधार्थों विशेषार्थों वा; उच्छब्दो भृशार्थः। विविधं विशेषेण वा भृशं मृजामि त्यजामित्यर्थः। अत्र च करेमि भंते सामाइयमिति वर्तमानस्य सावधयोगस्य प्रत्याख्यानम् , सावज जोगं पञ्चक्खामीत्यनागतस्य तस्स भंते पडिक्कमामीत्यतीतस्येति त्रैकालिकं प्रत्याख्यानमुक्तमिति त्रयाणां वाक्यानां न पौनरुक्त्यम् । उक्तश्च “अईयं निंदामि पडुप (प्प) संवरेमि अणागयं पच्चक्खामीति । एवं कृतसामायिक ईर्यापथिकायाः प्रतिक्रामति पश्चादागमनमालोच्य यथाज्येष्ठमाचार्यादीन् वन्दते, पुनरपि गुरुं वन्दित्वा प्रत्युपेक्ष्य निविष्टः श्रृणोति, पठति, पृच्छति वा। एवं चैत्यभवनेऽपि द्रष्टव्यम् यदा तु स्वगृहे (१) सामायिकप्रत्यर्पणवचनोपायो भदन्तशब्द इति । सर्वक्रियाऽवसाने भणित प्रत्यर्पणमनेन ॥१॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥३४९॥ तृतीय प्रकाशा HERANASIAN पोषधशालायां वा सामायिकं गृहीत्वा तत्रैवास्ते तदा गमनं नास्ति । यस्तु राजादिमहर्दिकः स गन्धसिन्धुरस्कधाधिरूढछत्रचामरादिराजालङ्करणलश्कृतो हास्तिकाश्वीयपादातिरथकटचापरिकरितो भेरीभाङ्कारभरिताम्बरतलो बन्दिवृन्दकोलाहलाकुलीकृतनभस्तलोऽनेकसामन्तमण्डलेश्वराहमहमिकासंप्रेक्ष्यमाणपादकमलः पौरजनैः सश्रद्धम गुल्योपदय॑मानो मनोरयैरुपस्पृश्यमानस्तेषामेवाञ्जलिबन्धान लाजाजलिपातान् शिरःप्रणामाननुमोदमानः “अहो धन्यो धर्मों य एवंविधैरप्युपसेव्य" इति प्राकृतजनैरपि श्लाध्यमानोऽकृतसामायिक एव जिनालयं साधुवसतिं वा गच्छति, तत्र गतो राजककुदानि छत्रचामरोपानदमुकुटखगरूपाणि परिहरति, जिनार्चनं साधुवन्दनं वा करोति, यदि त्वसौ कृतसामायिक एव गच्छेत् तदा गजाश्वादिभिरधिकरणं स्यात् ; तच्च न युज्यते कर्तुम् । तथा कृतसमायिकेन पादाभ्यामेव गन्तव्यम् , तच्चानुचितं भुपतीनामिति । आगतस्य च यद्यसौ श्रावको भवति तदा न कोऽप्यभ्युत्थानादि करोति । अथ यथाभद्रकस्तदा पूजा कृता भवत्विति पूर्वमेवासनं रच्यते । आचार्याश्च पूर्वमेवोत्थिता आसते मा उत्थानानुत्थानकृता दोषा भूवनिति, आगतश्चासौ सामायिकं करोतीत्यादि पूर्ववत् ॥८२॥ सामायिकस्थश्च महानिर्जरो भवतीति दृष्टान्तद्वारेणाहसोमायिकव्रतस्थस्य गृहिणोऽपि स्थिरात्मनः। चद्रावतंसकस्येव क्षीयते कर्म सञ्चितम् ॥८३॥ गृहस्थस्यापि कृतसामायिकस्य कर्मनिर्जरा भवतीति चन्द्रावतंसक उदाहरणम् । तच्च सम्प्रदायगम्यम् । स चायम् अस्ति साकेतनगरं श्रीसङ्केतनिकेतनम् । हसितेन्द्रपुरश्रीकं सिताहच्चैत्यकेतनः ॥१॥ तत्र लोकगानन्दो द्वितीय इव चन्द्रमाः। चन्द्रावतंसो राजाऽसोदवतंस इवावनेः ॥२॥ स यथा धारयामास शस्त्राणि त्राणहेतवे । ॥३४९॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् वतीय प्रकाशा ॥३५०॥ तीक्ष्णानि शिक्षावशतो व्रतान्यपि तथा सुधीः ॥३॥ माघमासे विभावर्या सोऽन्यदा वासवेश्मनि । आदीपज्वलन स्थास्यामीति सामायिके स्थितः ॥४॥ तच्छय्यापालिका ध्वान्तं स्वामिनो मा स्म भूदिति । याते प्राग्यामिनीयामे प्रदीपे तैलमक्षिपत् ॥५॥ गते यामे द्वितीयस्मिन्नपि सा भक्तमानिनी । जाग्रती दीपके क्षीणतैले तैलं न्यधात्पुनः ॥६॥ त्रियामायास्तृतीयस्मिन्नपि यामे व्यतीयुषि । मल्लिकायां प्रदीपस्य तैलं चिक्षेप सा पुनः॥७॥ विभातायां विभावर्यामवसानमथासदत् । श्रमोत्पन्नव्यथाक्लान्तो राजा स इव दीपकः ॥८॥ सामायिक समधिगम्य निहत्य कर्म चन्द्रावतंसनृपतिस्त्रिदिवं ततोऽगात् । सामायिकवतजुषो गृहिणोऽपि सद्यः, क्षीयेत कर्म निचितं सुगतिर्भवेच्च ॥६॥ ॥ इति चन्द्रावतंसराजर्षिकथानकम् ॥८॥ द्वितीय शिक्षाव्रतमाह-- दिगवते परिमाणं यत्तस्य संक्षेपणं पुनः । दिने रात्रौ च देशावकाशिकव्रतमुच्यते ॥४॥ दिग्रव्रते प्रथमगुणवते यद्दशस्वपि दिक्षु गमनपरिमाणं तस्य दिवा रात्रौ चोपलक्षणत्वात्प्रहरादौ च यत् सक्षेपणं तदशावकाशिकव्रतम् । देशे दिग्व्रतगृहीतपरिमाणस्य विभागे अवकाशोऽवस्थान देशावकाशः सोऽत्रास्तीति देशावकाशिकं “अतोऽनेकस्वरात्" ॥७॥२॥६॥ इतीकः। दिग्रवतसंक्षेपकरणमणुव्रतादिसंक्षेपकरणस्याप्युपलक्षणं द्रष्टव्यम् , एषामपि संक्षेपस्यावश्यं कर्त्तव्यत्वात् । प्रतिव्रतं च संक्षेपकरणस्य विभिन्नव्रतत्वे द्वादश व्रतानीति संख्याविरोधः स्यात् ।।८४॥ (१) पात्रे. ॥३५॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग शास्त्रम् ॥३५१॥ तृतीय प्रकाशः अथ तृतीयं शिक्षाघ्रतमाहचतुष्पा चतुर्थादिकुव्यापारनिषेधनम् । ब्रह्मचर्य क्रियास्त्रानादित्यागः पोषधव्रतम् ॥८५॥ चतुष्पर्वी अष्टमी-चतुर्दशी-पूणिमा-अमावास्यालक्षणा, चतुर्णा पर्वाणां समाहारश्चतुष्पर्वी। पर्वशब्दोऽकारान्तोऽप्यस्ति, तस्यां चतुर्थादिकं तपः, कुब्यापारस्य सावधव्यापारस्य निषेधः, ब्रह्मचर्यक्रिया ब्रह्मचर्यस्य करणं स्नानादेः शरीरसत्कारस्य त्यागः । आदिशब्दादुद्वर्तनवर्णकविलेपनपुष्पगन्धविशिष्टवस्त्राभरणादिपरिग्रहः। पोषं पुष्टि प्रक्रमाद्धर्मस्य धत्त पोषधः स एव व्रतं पोषध व्रतम् सर्वतः पोषध इत्यर्थः । द्विविधं हि पोषधवतं देशतः सर्वतश्च । तत्राहारपोषधो देशतो विवक्षितविकृतेरविकृतेराचामाम्लस्य वा सकृदेव द्विरेव वा भोजनमिति। सर्वतस्तु चतुर्विधस्याप्याहारस्याहोरात्रं यावत्प्रत्याख्यानम्, कुव्यापारनिषेधपोषधस्तु देशत एकतरस्य कस्यापि कुव्यापारस्याकरणं, सर्वतस्तु सर्वेषामपि कृषिसेवावाणिज्यपाशुपाल्यगृहकर्मादिनामकरणं, ब्रह्मचर्यपौषधोऽपि देशतो दिवैव रात्रावेव वा, सकृदेव द्विरेव वा स्वीसेवां मुक्त्वा ब्रह्मचर्यकरणम्, सर्वतस्तु अहोरात्रं यावत् ब्रह्मचर्य पालनम् । देशतः स्नानादेः शरीरसत्कारस्यैकतरस्याकरणं सर्वतस्तु सर्वस्यापि तस्याकरणम्, इह च देशतः कुव्यापारनिषेधपोषधं यदा करोति तदा सामायिकं करोति वा न वा, यदातु सर्वतः करोति तदा सामायिक नियमात्करोति, अकरणे तु तत्फलेन वच्च्यते । सर्वतः पोषधव्रतं च चैत्यगृहे वा, साधुमूले वा, गृहे वा, पोषधशालायां वा त्यक्तमणिसुवर्णाधलङ्कारो व्यपगतमालाविलेपनवर्णकः परिहृतप्रहरणः प्रतिपद्यते । तत्र च कृते पठति च पुस्तकं वाचयति धर्मध्यानं ध्यायति, यथैतान् साधुगुणानहं मन्दभाग्यो न समर्थों धारयितुमिति। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशानम् तत्तीय प्रकाशा ॥३५२॥ इह च यद्याहारशरीरसत्कारब्रह्मचर्यपोषधवत् कुव्यापारपोषधव्रतमध्यन्यत्रानाभोगेनेत्याद्याकारोच्चारणपूर्वकं प्रतिपद्यते तदा सामायिकमपि सार्थकं स्यात् । स्थूलत्वात्पोषधप्रत्याख्यानस्य सूक्ष्मत्वाच्च सामायिकस्येति । तथा पोषधयताऽपि सावधव्यापारा न कार्या एव ततः सामायिकमकुर्वस्तल्लाभाद्मश्यतीति । यदि पुनः सामाचारीविशेषात सामायिकमिव विविधं त्रिविधेनेत्येवं पोषधं प्रतिपद्यते तदा सामायिकार्थस्य पौषधेनैव गतत्वान्न सामायिकमत्यन्तं फलवत् । यदि परं पोषधसामायिकलक्षणं व्रतद्वयं प्रतिपनं मयेत्यभिप्रायात् फलवदिति ॥८५॥ इदानीं पोषधव्रतकतन् प्रशंसतिU| गृहिणोऽपि हि धन्योस्ते पुण्यं ये पोषधव्रतम् । दुष्पालं पालयन्त्येव यथा स चुलनीपिता॥८६॥ ___ यतयस्तावद् धन्या एव गृहिणोऽपि गृहस्था अपि ते धन्याः धर्मधनं लब्धारः ये निःसत्त्वजनदुष्पालं पुण्यं पवित्रं पोषव्रतं पालयन्ति, यथा स चुलनीपितेति दृष्टान्तः, स च सम्प्रदायगम्यः । स चायम्___ अस्ति वाराणसी नामानुगडं नगरी वरा । विचित्ररचनारम्या तिलकश्रीरिवावनेः ॥१॥ सुत्रामेवामरावत्यामविसत्रितविक्रमः। जितशत्रुरभूत्तत्र धरित्रीधवपुङ्गवः ॥२॥ आसीदगृहपतिस्तस्यां महेभ्यश्चुलनीपिता। प्राप्तो मनुष्यधर्मेव मनुष्यत्वं कुतोऽपि हि ॥३॥ जगदानन्दिनस्तस्यानुरुपा रूपशालिनी । श्याभा नामाभवद्भार्या श्यामेव तुहिनद्युतेः ॥४॥ अष्टौ निधानेऽष्टौ वृद्धावष्टौ च व्यवहारगाः । इति तस्याभवन् हेम्नश्चतुर्विंशतिकोटयः ॥५॥ एकैकशी गोसहस्त्रैर्दशभिः प्रमितानि तु । तस्यान् गोकुलान्यष्टौ कुलवेश्मानि सम्पदाम् ॥३५२॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ।।३५३।। ॥६॥ तस्यां पुर्यामथान्येद्युरुद्याने कोष्टकाभिधे । भगवान् समवसृतो विहरंश्वरमो जिनः ॥७॥ ततो भगवतः पादवन्दनाय सुरासुराः । सेन्द्राः समाययुस्तत्र जितशत्रुश्च भूपतिः ||८|| पद्धयां चचाल चुलनीपिताऽप्युचितभूषणः । वन्दितुं नन्दितमनाः श्रीवीरं त्रिजगत्पत्तिम् ||९|| भगवन्तं ततो नत्वोपविश्य चुलनीषिता । शुश्राव परया भक्त्या प्राञ्जलिर्धर्मदेशनाम् ॥१०॥ अथोस्थितायां सदसि प्रणम्य चरणौ प्रभोः । इति चिज्ञपयामास विनीतचुलनीपिता ||११|| स्वामिन्नस्मादृशां बोधहेतोर्विहरसे महीम् । जगद्बोधं विना नान्यो ह्यर्थचक्रमणे रवेः ॥१२॥ सर्वोऽपि याच्यते गत्वा स दत्ते यदि वा न वा । आगत्य याचितो धर्मं दत्से हेतुः कृपाऽत्र ते ॥१३॥ जानामि यतिधर्म चेत् गृह्णामि स्वामिनोऽन्तिके । योग्यता परमियती मन्दभाग्यस्य नास्ति मे || १४ || याचे श्रावकधर्मं तु स्वामिन् ! देहि प्रसीद मे | आदत्तेऽब्धावप्युदको भरणं निजमेव हि । | १५ || यथासुखं गृहाणेति स्वामिनाऽनु मतस्ततः । स प्रत्याख्यत्स्थूलहिंसां मृषावादं च चौरिकाम् ||१६|| प्रत्याख्यश्च स्वभार्यायाः श्यामाया अपरस्त्रियम् । अष्टाष्टकोट्यभ्यधिकं स्वर्ण निध्यादिषु त्रिषु || १७|| ब्रजेभ्योऽन्यानथाष्टभ्यः प्रत्याचख्यौ ब्रजानपि । हलपञ्चशतीतोऽन्यां कृषियोग्यां महीमपि ।। १८ ।। अनःशतेभ्यः पञ्चभ्योदिग्यायिभ्योऽपरं त्वनः । संवहद्भयश्च पञ्चभ्यः प्रत्याचख्यौ महामतिः ||१९|| दिग्रयात्रिकाणि चत्वारि चत्वारि प्रवहन्ति च । वाहनानि विना सोऽथ प्रत्याख्यदितराणि तु ||२०|| अन्यत्र गन्धकाषाय्याः प्रत्याख्यदङ्गपुंसनम् । आर्द्राया मधुकयष्ठेरितद्दन्तधावनम् ॥ २१॥ अन्यतः क्षीरामलकात्प्रत्याचख्यौ फलान्यपि । सहस्रशतपाकाभ्यां तैलाभ्यां म्रक्षणान्तरम् ||२२|| गन्धाढ्यादन्यतः प्रत्याचख्यावुद्धर्त्तनान्यपि । अष्टाभ्य औष्ट्रिकेभ्योऽम्भः कुम्भेभ्योऽधिकमज्जनम् ||२३|| वस्त्रं प्रत्याख्यदन्यच्च कार्पासाद्वत्रयुग्म तृतीय प्रकाशः ॥३५३॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशास्त्रम् प्रकाशा ।।३५४॥ कात् । विलेपनानि चान्यत्र कुङ्कुमागरुचन्दनात् ॥२४॥ पुष्पं प्रत्याख्यदन्यच्च पद्माज्जातिखजोऽपि च । कर्णिकानाममुद्राभ्यामन्यानि भूषणानि च ॥२५ मुमोच धूपमगरुतुरुष्काभ्यामथापरम् । अन्याश्च काष्ठपेयायाः पेया अपि समन्ततः॥२६।। खण्डखाद्याद् घृतपूराच्चेतरत् खाद्यमत्यजत् । ओदनान्यपि निःशेषाण्यन्यतः कलमौदनात् ॥२७॥ कलायमुद्रमाषेभ्य इतरं सूपमत्यजत् । शरत्कालभवात्सर्व गोघृतादपरं घृतम् ॥२८॥ शाकं पल्यङ्कमण्डूकीशाकाभ्यामन्यम(द)त्यजत् । विना स्नेहाम्लदाल्यम्ले तीमनान्यपि सर्वतः॥२९॥ अन्तरिक्षोदकादन्यदुदकं पर्यवर्जयत् । मुखवासं च ताम्बूलात्पश्चसौगन्धिकादृते ॥३०॥ अपध्यानं हिंसदानं प्रमादाचरितं तथा। पापकर्मोपदेश चानर्थदण्डानवर्जयत् ॥३१॥ एवं श्रावकधर्म स सम्यक् सम्यक्त्वपूर्वकम् । सर्वातिचाररहित प्रपेदे पुरतः प्रभोः ॥३२॥ भगवन्तं ततो नत्वा गत्वा च निजवेश्मनि । प्रतिपन्न तथा धर्म स्वभार्यायै न्यवेदयत् ॥३३॥ तेनाथ साऽप्यनुज्ञाता रथमारुह्य तत्क्षणम् । उपेत्य भगवत्पार्चे गृहिधममशिश्रियत् ॥३४॥ तदा च गौतमो नत्वा पप्रच्छेति जगत्पतिम् । महाव्रतधरः किं स्यान्न वाऽयं चुलनीपिता ? ॥३५॥ अथोचे स्वामिना नैष यतिधर्म प्रपत्स्यते । गृहिधर्मरतः किं तु मृत्वा सौधर्ममेष्यति ॥३६।। अरुणाभे विमाने च चतुष्पल्योपमस्थितिः। ततश्च्युत्वा विदेहेषुत्पद्य निर्वाणमेष्यति ॥३७॥ (युग्मम्) गृहभारं ज्येष्ठपुत्रे न्यस्याथ चुलनीपिता । तस्थौ पौषधशालायां पालयन् पोषधव्रतम् ॥३८॥ तस्याथ पोषधस्थस्य मायामिथ्यात्ववान् सुरः। निशीथे कश्चिदागच्छत्पाचे व्रतजिघांसया ॥३९॥ घोराकारः पुरोभूय खड्गमाकृष्य भीषणम् । स इत्यूचे तमत्युच्चैश्चुलनीपितरं मुरः ॥ ४०॥ अप्रार्थितप्रार्थक रे ! श्रमणोपासकव्रतम् । त्वया किमिदमारब्धं मदादेशेन मुच्यताम् ॥४१॥ ॥५४॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥३५५॥ तृतीय प्रकाशा मुश्चसीदं न चेत्तेऽग्रे ज्येष्ठपुत्रमहं तव । कुष्माण्डमिव खड्ड्रेन खण्डयिष्यामि खण्डशः ॥४२॥ भवतः प्रेक्षमाणस्य पुरस्तत्पिशितान्यहम् । क्षिप्त्वा कटाहे पक्ष्यामि शूलैर्भक्ष्यामि तत्क्षणात् ॥४३॥ आचमिष्यामि तन्मांसशोणितानि तथाऽधुना । प्रेक्षमाणो यथा हि त्वं स्वयमेव विपत्स्यसे ॥४४॥ देवब्रुवे विब्रुवति तत्रैवं चुलनीपिता । न चकम्पे केसरीव गर्जत्यूर्जितमम्बुदे ॥४५॥ अक्षोभं प्रेक्षमाणस्तु चुलनीपितरं सुरः । विभीषयितुकामस्तं तथैवोचे पुनः पुनः ॥४६॥ एवं विभाषमाणस्य सुरस्य चुलनीपिता । न सन्मुखमपि प्रेक्षाश्चक्रे शुन इव द्विपः ॥ ४७ ॥ स विकृत्य पुरो ज्येष्ठतनयं चुलनीपितुः । निस्त्रिंशेन नृशंसात्मा पशुवद् व्यशसत्ततः॥४८॥ छित्वा क्षित्वा कटाहान्तस्तन्मांसानि पपाच च । बभ्रज च शितः शूलैराचचाम च सोऽमरः ॥४९॥ अधिसेहे च तत्सर्व तत्वज्ञः चुलनीपिता । अन्यत्वभावनाभाजां स्वाङ्गच्छेदोऽपि नातये ॥५०॥ अथोचे स सुरो रे रे ! व्रतमद्यापि नोज्झसि । तद् ज्येष्ठमिव ते पुत्रं हन्मि मध्यममप्यहम् ।।५१।ततोऽहन्मध्यमं पुत्रं तथैवोचे पुनः पुनः। निरीक्ष्याक्षुभितं तं च कनिष्ठं चावधीत्सुतम् ॥५२॥ तत्राप्यालोक्य निष्कम्पं तं क्रुद्धः स सुरोऽब्रवीत् । नाद्याप्युज्झसि पाखण्ड मातरं ते विहन्मि तत ॥५३॥ भद्रां नामाथ चुलनीपितुर्मातरमातुराम् । विकरोति स्म रुदती करुणं कुररीमिव ॥५४॥ स सुरः पुनरप्यूचे मुच्यतां प्रकृतं त्वया । स्वकुटुम्बप्रणाशाय कृत्यातुल्यमिदं व्रतम् ॥५५॥ अन्यथा कुलमेढिं ते मातरं हरिणीमिव । हत्वा भ्रक्ष्यामि पक्ष्यामि भक्षयिष्यामि च क्षणात् ॥५६॥ ततोऽप्यभीतं चुलनीपितरं वीक्ष्य सोऽमरः । भद्रामाराटयत्तारं सूनान्यस्तामजामिव ॥५७॥ यया भार इवोढस्त्वमुदरेणोदरंभरिः । मातरं हन्यमानां तां पश्येत्यूचे पुनः सुरः ॥५८॥ अथैवं चिन्तयामास चेतसा चुलनीपिता । अहो ॥३५॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग रातोय शाखम् प्रकाशा १३५६॥ दुरात्मा कोऽप्येष परमाधार्मिकोपमः ॥५९॥ पुत्रत्रयं मे पुरतो जघान च चखाद च । क्रव्यादिव ममाम्बामप्यधुना हन्तुमुद्यतः ॥६०॥ यावन हन्त्यमूं तावद्रक्षामीति चचाल सः। कुर्वाणेन महाशब्दमुत्पेते च सुरेण खे ॥६१॥ तं च कोलाहलं श्रुत्वा भद्रा दुतमुपेत्य तम् । किमेतदिति चापृच्छत्सोऽशंसत्तदशेषतः ॥६२॥ ततोऽभाषिष्ट भट्रैवं मिथ्यादृक्कोऽप्ययं सुरः। पोषधव्रतविघ्नं ते चक्रे कृत्रिमभीषणैः ॥६३॥ पोषधवतभङ्गस्य कुरुष्वालोचनं ततः । पापाय व्रतभङ्गस्य स्यादनालोचनं यतः ॥६४॥ तथैव प्रतिपेदेऽथ तद्वाचं चुलनीपिता । चकारालोचनां तस्य व्रतभङ्गस्य शुद्धधीः ॥६५।। अथैकादश भेजेऽसौ श्रावकप्रतिमाः क्रमात् । सोपानानीव स स्वर्गसौधारोहणकर्मणे ॥६६॥ निस्त्रिंशधारानिशितं स एवं श्रावकव्रतम् । सुचिरं पालयामास भगवद्वचनोचितम् ॥६७॥ ततः संलेखनापूर्व प्रपद्यानशनं सुधीः। मृत्वा सौधर्म उत्पेदे विमाने सोऽरुणप्रभे ॥६८॥ दुष्पालमेवं चुलनीपिता यथा तत्पालयामास स पोषधव्रतम् । ये पालयन्त्येव तथा परेऽप्यदो, दृढव्रतास्ते खलु मुक्तिगामिनः ॥६९॥ ॥इति चुलनीपितुः कथानकम् ॥८६॥ इदानीं चतुर्थ शिक्षाव्रतमाहदोनं चतुर्विधाहारपात्राच्छादनसद्मनाम् । अतिथिभ्योऽतिथिसंविभागवतमुदीरितम् ॥८७॥ अतिथिभ्यस्तिथिपर्वाधुत्सवरहितेभ्यो भिक्षार्थ भोजनकाले उपस्थितेभ्यः साधुभ्यो, दानं विश्राणनं, चतुर्विध स्याशनपानखाघस्वाधरूपस्याहारस्य, पात्रस्यालाब्वादेः, आच्छादनस्य वस्त्रस्य कम्बलस्य वा, सबनो वसतेरुपलक्षणात्पीठफलकशय्यासंस्तारकादीनामपि । अनेन हिरण्यादिदाननिषेधस्तेषां यतेरनधिकारात् । तदेतदतिथिसंवि ॥३५६॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥३५॥ भागवतमुच्यते । अतिथेः सङ्गतो निर्दोषो विभागः पश्चात्कर्मादिदोषपरिहारायांशदानरूपोऽतिथिसंविभागस्तद्रपं व्रतमतिथिसंविभागवतम् । आहारादीनां च न्यायार्जितानां प्रासुकैपणीयानां कल्पनीयानां च देशकालश्रद्धासत्कारपूर्वकमात्मानुग्रहबुद्धया यतिभ्यो दानमतिथिसंविभागः । यचु:-"नायागयाणं कप्पणिज्जाणं अन्नपाणाइणं दव्याणं देसकालसद्धासकारक्कमजुझं पराए भत्तीए आयाणुग्गहबुद्धीए संजयाणं दाणं अतिथिसंविभागो।" अनुदितं चैतत् प्रायः शुद्धस्त्रिविधविधिना प्रासुकैरेषणीयैः, कल्प्यप्रायः स्वयमुपहतैर्वस्तुभिः पानकाचैः। काले प्राप्तान् सदनमसमश्रद्धया साधुवर्गान्, धन्याः केचित्परमवहिता इन्त ! संमानयन्ति ॥१॥ अशनमखिलं खाद्य स्वाधं भवेदथ पानकं, यतिजनहितं वस्त्रं पात्रं सकम्बलप्रोग्छनम् । वसतिफलकप्रख्यं मुख्यं चरित्रविवर्द्धनं, निजकमनसः प्रीत्याधायि प्रदेयमुपासकैः ॥ २॥ तथा२साहूण कप्पणिज्जं जं न वि दिन्न कहिंचि किंचि तहिं। धीरा जहुत्तकारी सुसावगा तं न भुजति ॥२॥ श्वसहीसयणासणभत्तपाणभेसज्जवत्थपत्ताई । जइ वि न पज्जत्तधणो थोवाओ वि थोवयं देइ ॥२॥ (१) न्यायागतानां कल्पनीयानां अन्नपानादीनां द्रव्याणां देशकालश्रद्धासत्कारक्रमयुतं परया भक्त्या आत्मानुग्रह बुद्ध्या संयतानां दानं अतिथिसंविभागः । (२) साधूनां कल्पनीयं यद् नापि कस्मिंश्चित् किञ्चित् तस्मिन् । धीरा यथोक्तकारिणः सुश्रावकास्तन भुञ्जते॥२॥ (३) वसतिशयनासनभक्तपानभैषज्यवस्वपात्रादि । यद्यपि न पर्याप्तधनः स्तोकादपि स्तोकं दद्यात् ॥ २॥ ॥३५७॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशास्त्रम् प्रकाश ॥३५८॥ वाचकमुख्यस्त्वाहकिश्चिच्छुदं कल्प्यमकल्प्यं स्यात् स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्डः शय्या वस्त्रं पात्रं वा भेषजाधं वा ॥१॥ देशं कालं पुरुषमवस्थामुपयोगशुद्धिपरिणामान् । प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं नैकान्तात्कल्पते कल्प्यम् ॥ २ ॥ ननु यथा शास्त्रो आहारदातारः श्रूयन्ते न तथा वस्त्रादिदातारः न च वस्त्रादिदानस्य फलं श्रूयते, तन्न वस्त्रादिदानं युक्तम् । नैवम् । भगवत्यादौ वस्त्रादिदानस्य साक्षादुक्तत्वात् । यथा-१“समणे निग्गंथे फामुएणं एसणि ज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकबलपायपुंछणेणं पीढफलगसेज्जा संथारएणं पडिलाभेमाणे विहरइ ।" ___ इत्याहारवत्संयमाधारशरीरोपकारकत्वाद्वस्त्रादयोऽपि साधुभ्यो देयाः । संयमोपकारित्वं च वस्त्रस्य तावत् तृणग्रहणानलसेवानिवारणार्थत्वेन, धर्मशुक्लध्यानसाधनार्थत्वेन, ग्लानपीडापरिहारार्थत्वेन, मृतकपरिष्ठापनार्थत्वेन च । यदाहु:__ रतणगहणानलसेवानिवारणा धम्मसुक्कझाणहा । दिलु कप्पग्गहणं गिलाणमरणहया चेव ॥ १॥ वाचकाऽप्याह शीतवातातपैर्दशैर्मशकैश्चापि खेदितः । मा सम्यक्त्वादिषु ध्यान न सम्यक् संविधास्यति ॥ १ ॥ इत्यादि (१) श्रमणान् निर्ग्रन्थान् प्रामुकेन एषणीयेन अशनपानखादिमस्वादिमेन वस्त्रपतद्ग्रहकम्बलपादप्रोग्छनेन पीठफलकशय्यासंस्तारकेण प्रतिलाभ्यमानान् विहारयति । (२) तृणग्रहणाऽनलसेवानिवारणाय धर्मशुक्लध्यानार्थम् । दिष्टं कल्पग्रहणं ग्लानमरणार्थ चैव ॥१॥ ॥३५८॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥३५९॥ 36OOKS ORDE पात्रस्याप्युपयोगः, अशुद्धस्यान्नादेर्ग्रहणेन तत्परिष्ठापनं, संसक्तान्नस्याविराधनात् । प्रमादात्पूतरकसहितस्य तण्डुलोकाग्रहणे सति तत्परिष्ठापनामुखं च । एवमादयोऽन्येऽपि पात्रग्रहणे गुणाः । यदाहु: १छक्कायरक्खणट्ठा पायग्गहणं जिणेहिं पन्नत्तं । जे अ गुणा संभोए हवंति ते पायगहणे वि ॥ १ ॥ अतरंतबालबुड्ढा सेहाऽऽएसा गुरुअसहवग्गे । साहारणावग्गहालद्धिकारणा पायग्गहणं तु ॥२॥ ननु तीर्थकराणां वस्त्रपात्रपरिभोगो न श्रूयते, तीर्थकरचरितानुकारश्च तच्छिष्याणां युक्तः । वदन्ति हि “३जारिसयं गुरूलिङ्गं सीसेण वि तारिसेण हविअव्वम् " इति । मैवं वोचः - अच्छिद्रपाणयस्तीर्थकराः, अपि चन्द्रादित्यौ यावच्छिखा गच्छति, न तु पानीयबिन्दुरप्यधः पतति; चतुर्विधज्ञानबलाच्च ते संसक्तासंसक्तमनं सत्रसमत्रसं च जलादि ज्ञात्वा निर्दोषमेवोपाददते, इति नैषां पात्रधारणे गुणः । वख तु दीक्षाकाले तीर्थकरा अपि गृह्णन्ति । यदाहुः— ४ सव्वे वि एगदु सेण निग्गया जिणवरा चउव्वीसं । न य नाम अण्णलिंगे न य गिहिलिगे कुलिंगे वा ॥१॥ (१) पकायरक्षणार्थ पात्रग्रहणं जिनैः प्रज्ञप्तम् । ये च गुणाः संभोगे भवन्ति ते पात्रग्रहणेऽपि ॥१॥ (२) ग्लानबालवृद्धात् शिक्षकात् प्राघूर्णिकाद् गुरोरसहिष्णुवर्गात् । साधारणावग्रहालब्धिकारणात् पात्रग्रहणं तु ॥२॥ (३) यादृशं गुरुलिङ्गं शिष्येणापि तादृशेन भवितव्यम् । (४) सर्वेऽपि एकदुष्येण निर्गता जिनवराश्चतुर्विंशतिः । न च नामान्यलिङ्गे न च गृहिलिङ्गे कुलिङ्गे वा ॥१॥ दतीय प्रकाशः ॥३५९ ॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग तृतीय शास्त्रम प्रकाशा ॥३६॥ परमार्ष च सेवेमि जे अईया जे अणागया जे अ वट्टमाणां ते सव्वे सोवहिधम्मो देसियव्यो त्ति कटु एगं देवसमादाय निक्खमिसु निक्खामंति निक्खमिस्संति वा। प्रवज्योत्तरकालं च सर्वबाधासहत्वान्न वस्त्रेण प्रयोजनमिति यथाकथञ्चित्तदपैतु नाम । गुरूलिङ्गानुवर्तनं च तच्छिष्याणां यदुक्तं, तदैरावणानुकरणमिव सामान्यकरिणाम् । कि च तीर्थकरानुकारमिच्छद्भिर्मठे निवसनमाधाकर्मिकादिपरिभोगस्तैलाभ्यङ्गोऽङ्गारशकटीसेवनं तृणपटीपरिधान कमण्डलुधारणं बहुसाधुमध्ये निवासश्छद्मस्थानां धर्मदेशनायाः करणं शिष्यशिष्यादीक्षादिकं सर्वमविधेयं स्यात् तच्च कुर्वन्ति । कम्बलस्य च वर्षासु बहिनिर्गतानां तात्कालिकवृष्टावकायरक्षणमुपयोगः, बालवृद्धग्लाननिमित्तं बर्षत्यपि जलधरे भिक्षायै निःसरतां कम्बलावृतदेहानां न तथाविधाप्कायविराधना, उच्चारप्रस्त्रवणादिपीडितानां कम्बला वृतदेहानां गच्छतामपि न तथाविधा विराधना । छत्राधाच्छादितानां कम्बलमन्तरेणापि गच्छतां को दोष? इति चेत् न 'छत्तस्स य धारणहाए' इत्यागमेन च्छत्रस्य प्रतिषिद्धत्वात् ॥ रजोहरणं पुनः साक्षाज्जीवरक्षार्थ प्रतिलेखना कारित्वादुपयोगीति कस्तत्र विवादं कुर्यात् ? । मुखवस्त्रमपि सम्पातिमजीवरक्षणादुष्णमुखवातविराध्यमानबाह्यवायुकायजीवरक्षणान्मुखे धूलिप्रवेशरक्षणाच्चोपयोगि। पीठफलकयोर्वर्षासु पनककुन्थावदिसंसक्तायां भुवि भूशयनस्य (१) सेवे येऽतीता येऽनागता ये च वर्तमानास्ते सर्वे सोपधिधों देष्टव्य इति कृत्वा एकं देवदृष्यमादाय निरक्रमिषुः निष्क्रामन्ति निष्क्रमिष्यन्ति वा । ॥३६॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशः ॥३६१॥ प्रतिषिद्धत्वाच्छयनासनादावुपयोगः । शय्यासंस्तारकयोश्च शीतोष्णकालयोः शयनादावुपयोगः। वसतिश्च निवासार्थ यतीनामत्यन्तोपकारिणी । यदाहजो देइ उवस्सयं मुणिवराण गगुणजोगधारीण । तेणं दिण्णा वत्थण्णपाणसयणासणविकप्पा ॥१॥ जं तत्थ ठियाण भवे सव्वेसिं तेण तेसिमुवओगो । रक्खपरिपालणा वि, अतो दिण्णा एव ते सव्वे ॥२॥ ३सीयायवचोराणं दंसाणं तह य बालमसगाणं । रक्खंतो मुणिवसभे सुरलोयसुहं समज्जिणइ ॥ ३॥ एवं यदन्यदप्यौधिकमौपग्रहिकं वा धर्मोपकरणं तत्साधूनां धारयतां न दोषः। तद्दातणां तु सुतरां गुण एव ॥ उपकरणमानं तुजिष्णा बारसरुवाओ थेरा चोइसरूविणो । अज्जाणं पणवीसं तु अओ उड्ढे उवग्गहो ॥ १॥ इत्याद्यागमादवगन्तव्य, इह तु ग्रन्थगौरवभयान प्रतन्यते । इह वृद्धोक्ता सामाचारी-श्रावकेण पोषधं पारयता नियमात्साधुभ्यो दत्त्वा भोक्तव्यम् । कथम् ? यदा भोजनकालो भवति तदा आत्मनो विभूषां कृत्वा प्रतिश्रयं गत्वा साधून् निमन्त्रयते; भिक्षां गृहणीतेति ॥ साधूनां च तं प्रति का प्रतिपत्तिः ? उच्यते-तदैकः पटलकमन्यो (१) यो ददात्युपाश्रयं मुनिवराणामनेकगुणयोगधारिणाम् । तेन दत्ता वस्त्रानपानशयनासनविकल्पाः ॥१॥ (२) यत्तत्र स्थितानां भवेत् सर्वेषां तेन तेषामुपयोगः। रक्षापरिपालना अपि, अतो दत्ता एव ते सर्वे ॥२॥ (३) शीतातपचौरेभ्यो दंशेभ्यस्तथा च बालमशकेभ्यः । रक्षन् मुनिवृषभान् सुरलोकसुख समर्जति ॥३॥ (४) जिना द्वादशरुपाः स्थविराश्चतुर्दशरूपिणः। आर्याणां पञ्चविंशतिस्तु अतः ऊर्ध्वमुपग्रह (१) ॥३६॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा રેકરા मुखानन्तकमपरो भाजनं प्रत्यवेक्षते, माऽन्तरायदोषाः स्थापनादोषा वा भूवनिति । स च यदि प्रथमायां पौरुष्यां निमन्त्रयते, अस्ति च नमस्कारसहितप्रत्याख्यानी, ततस्तद्गृह्यते । अथ नास्त्यसौ तदा न गृह्यते, यतस्तद्वोढव्यं भवति । यदि पुनर्घनं लगेत् , तदा गृह्यते संस्थाप्यते च, यो वा उद्घाटपौरुष्यां पारयति पारणकवानन्यो वा तस्मै तद्दीयते, पश्चात्तेन श्रावकेण समं सङ्घाटको व्रजति, एको न वर्त्तते प्रेषयितुं, साधुपुरतः श्रावकस्तु मार्गे गच्छति ततोऽसौ गृहं नीत्वा तावासनेनोपनिमन्त्रयते, यदि निविशेते, तदा भव्यम्, अथ न निविशेते, तथापि विनयप्रयुक्तो भवति, ततोऽसौ भक्तं पानं च स्वयमेव ददाति, भाजनं वा धारयति, स्थित एवा (एव वा) स्ते यावद्दीयते। साधू अपि पश्चात्कर्मपरिहरणार्थ सावशेष गृहणीतः, ततो वन्दित्वा विसर्जयति, अनुगच्छति कतिचित्पदानि, ततः स्वयं भुङ्क्ते ॥ यदि पुनस्तत्र ग्रामादौ साधवो न भवन्ति तदा भोजनवेलायां द्वारावलोकनं करोति, विशुद्धभावेन च चिन्तयति-"यदि साधवोऽभविष्यन् तदा निस्तारितोऽहमभविष्यमिति” । एष पोषधपारणके विधिः। अन्यदा तु दत्त्वा भुङ्क्ते, भुक्त्वा वा ददातीति । अत्रान्तरश्लोकाः___ अनादीनामिदं दानमुक्तं धर्मोपकारिणाम् । धर्मोपकारबाह्यानां स्वर्णादीनां न तन्मतम् ॥१॥ दत्तेन येन दीप्यन्ते क्रोधलोभस्मरादयः। न तत्स्वर्ण चरित्रिभ्यो दद्याच्चारित्रनाशनम् ॥२॥ यस्यां विदार्यमाणायां म्रियन्ते जन्तुराशयः। क्षितेस्तस्याः प्रशंसन्ति न दानं करुणापराः ॥३॥ यद्यच्छस्त्रं महाहिस्त्रं तत्तयेन विधीयते । तदहिखमना लोहं कथं दद्याद्विचक्षणः ॥४॥ संमूर्च्छन्ति सदा यत्र भूयांसस्त्रसजन्तवः। तेषां तिलानां को दानं मनागप्यनुमन्यते ? ॥५॥ दद्यादर्द्धप्रसूतां गां यो हि पुण्याय पर्वणि । म्रियमाणामिव हहा ! वर्ण्यते सोऽपि ॥३६२॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् हतीय प्रकाशा ॥३६३।। धार्मिकः ॥६॥ यस्य अपाने तीर्थानि मुखेनानाति याऽशुचिम् । तां मन्वानाः पवित्रां गां धर्माय ददते जडाः ॥७॥ प्रत्यहं दुह्यमानायां यस्यां वत्सः प्रपीडयते । खुरादिभिर्जन्तुघ्नीं तां दद्याद्गां श्रेयसे कथम् ॥८॥ स्वर्णमयी रूप्यमयी तिलमय्याज्यमय्यपि । विभज्य भुज्यते धेनुस्तदातुः किं फलं भवेत् ? ॥९॥ कामगद्धकरी बन्धुस्नेहद्रुमदवानलः । कलेः कलितरुर्दुर्गतिद्वारकुश्चिका ॥१०॥ मोक्षद्वारार्गला धर्मधनचौरी विपत्करी । या कन्या दीयते साऽपि श्रेयसे कोऽयमागमः १ ॥११॥ विवाहसमये मूर्धर्मबुद्धया विधीयते । यत्तु यौतुकदानं तत्स्या द्भस्मनि हुतोपमम् ॥१२॥ यत् संक्रान्तौ व्यतीपाते वैधते पर्वणोरपि । दानं प्रवर्तितं लुब्धैमुग्धसंमोहनं हि तत् ॥१॥ मृतस्य तृप्त्यै ये दानं तन्वन्ति तनुबुद्धयः । ते हि सिञ्चन्ति मुशलं सलिलैः पल्लवेच्छया ॥ १४ ॥ विप्रेभ्यो भोजने दत्ते प्रीयन्ते पितरो यदि । एकस्मिन् भुक्तवत्यन्यः पुष्टः किं न भवेदिह? ॥ १५ ॥ अपत्यदत्तं चेदानं पितृणां पापमुक्तये । पुगेण तप्ते तपसि तदा मुक्ति पिताऽऽप्नुयात् ॥ १६ ॥ गङ्गागयादौ दानेन तरन्ति पितरो यदि । तत्रोक्ष्यन्तां प्ररोहाय गृहे दग्धा मास्तदा ॥ १७ ॥ गतानुगतिकैः क्लुप्तं न दद्यादुपयाचितम् । फलन्ति हन्त ! पुण्यानि पुण्याभावे मुधैव तत् ॥ १८ ॥ न कोऽपि शक्यते त्रातुं पूर्णे काले सुरैरपि । दत्तोपयाचितैस्तेषां बिम्बैखाणं महाद्भुतम् ॥१९॥ महोशं वा महाज वा श्रोत्रियायोपकल्पयन् । दाताऽत्मानं च पात्रं च पातयेन्नरकावटे ॥२०॥ ददद्धर्मधिया दाता न तथाऽधेन लिप्यते । जाननपि यथा दोषं ग्रहीता मांसलोलुपः ॥२१॥ अपात्रप्राणिनो हत्वा पात्रं पुष्णन्ति ये पुनः । अनेकमेकघातेन ते प्रीणन्ति भुजङ्गमम् ॥२२॥ न स्वर्णादीनि दानानि देयानीत्यर्हतां मतम् । अन्नादीन्यपि ॥३६३॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग तृतीय प्रकाशा शास्त्रम् lઉછા पागेभ्यो दातव्यानि विपश्चिता ॥२३॥ ज्ञानदर्शनचारित्ररूपरत्नत्रयान्विताः । समितीः पञ्च बिभ्राणा गुप्तित्रि तयशाालिनः ॥२४ ॥ महाव्रतमहाभारधरणैकधुरन्धराः । परीषहोपसर्गारिचमूजयमहाभटाः ॥ २५ ॥ निर्ममत्वाः शरीरेऽपि किमुतान्येषु वस्तुषु ? । धर्मोपकरण मुक्त्वा परित्यक्तपरिग्रहाः ॥ २६ ॥ द्विचत्वारिंशता दोषैरदुष्टं भैक्षमात्रकम् । आददाना वपुर्धर्मयात्रामात्रप्रवृत्तये ॥ २७ ॥ नवगुप्तिसनाथेन ब्रह्मचर्येण भूषिताः। दन्तशोधनमात्रेऽपि परस्वे विगतस्पृहाः ॥ २८ ॥ मानापमानयोर्लाभालाभयोः सुखदुःखयोः। प्रशंसानिन्दयोहर्षशोकयोस्तुल्यवृत्तयः ॥२९॥ कृतकारितानुमतिप्रभेदारम्भवर्जिताः । मोक्षेकतानमनसो यतयः पात्रमुत्तमम् ॥३०॥ सम्यग्दनिवन्तस्तु देशचारित्रयोगिनः । यतिधर्मेच्छवः पानं मध्यमं गृहमेधिनः ॥३१।। सम्यक्त्वमात्रसन्तुष्टा ब्रतशीलेषु निःसहाः । तीर्थप्रभावनोद्युक्ता जघन्य पात्रमुच्यते ॥३२॥ कुशास्त्रश्रवणोत्पन्नवैराग्यानिष्परिग्रहाः । ब्रह्मचर्यरताः स्तेयमृषाहिंसापराङ्मुखाः ॥३३॥ घोरव्रता मौनजुषः कन्दमूलफलाशिनः । शिलोच्छवृत्तयः पत्रभोजिनो भैक्षजीविनः ॥३४॥ कषायवत्रा निर्वस्त्राः शिखामौण्डचजटाधराः। एकदण्डस्त्रिदण्डा वा गृहारण्यनिवासिनः ॥ ३५ ॥ पञ्चाग्निसाधका ग्रीष्मे गलन्तीधारिणो हिमे । भस्माङ्गरागाः खट्वाङ्गकपालास्थिविभूषणाः ॥ ३६॥ स्वबुद्धया धर्मवन्तोऽपि मिथ्यादर्शनदृषिताः । जिनधर्मद्विषो मूढाः कुपानं स्युः कुतीर्थिनः ॥ ३७ ॥ प्राणिप्राणापहरणा मृषावादपरायणाः । परस्वहरणोयुक्ताः प्रकामं कामगर्दभाः ॥३८॥ परिग्रहारम्भरता न सन्तुष्टाः कदाचन । मांसाशिनो मधरताः कोपनाः कलहप्रियाः ॥ ३९ ॥ कुशास्त्रमात्रपाठेन सदा पण्डितमानिनः । तत्त्वतो नास्तिक प्राया अपात्रमिति शंसिताः॥४०॥ इत्यपात्रं कुपानं च परिहत्य विवेकिनः । पात्रदाने प्रवर्तन्ते सुधियो मोक्ष Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥३६५।। कारिक्षणः ॥४१॥ दानं स्यात्सफलं पात्रे कुपात्रापात्रयोरपि । पात्रे धर्माय तच्च स्यादधर्माय तदन्ययोः।४। पयःपानं भुजङ्गानां यथा विषविवृद्धये । कुपात्रापात्रयोर्दानं तद्वद्भवविवृद्धये ॥४३॥ स्वादु क्षीरं यथा क्षिप्तं कटवलावुनि दुष्यति । दानं दत्त शुद्धमपि कुपात्रापात्रयोस्तथा ॥४४॥ दत्ता कुपात्रापात्राभ्यां सर्वोळपि फलाय न । पात्राय दत्तो ग्रासोऽपि श्रद्धया स्यान्महाफलः ॥४५॥ इयं मोक्षफले दाने पात्रापात्रविचारणा । दयादानं तु तत्त्वज्ञैः कुत्रापि न निषिध्यते ॥ ४६ ॥ शुद्धयशुद्धिकृता भङ्गाश्चत्वारः पात्रदानयोः। आद्यः शुद्धो द्वितीयो वैकल्पिकोऽन्यौ तु निष्फलौ ॥४७॥ दानेन भोगानामोतीत्यविमृश्यैव भाष्यते । अनर्घ्यपात्रदानस्य क्षुद्रा भोगाः कियत्फलम् ? ॥४८॥ पात्रदाने फलं मुख्यं मोक्षः सस्यं कृषेरिव । पलालमिव भोगास्तु फलं स्यादानुषङ्गिकम् ॥ ४९ ॥ जिनानां दानदातारः प्रथमे मोक्षगामिनः । धनादयो दानधर्माबोधिबीजमुपाजयन् ।५० जिनानां पारणे भिक्षादातणां मन्दिराजिरे । हाँत्कर्षपराः सद्यः पुष्पवृष्टिं व्यधुः सुराः॥५१॥ इत्यतिथिसंविभागवतमेतदुदीरितं प्रपञ्चेन । देयादेये पात्रापात्रे ज्ञात्वा यथोचितं कुर्यात् ॥ ५२ ॥ ८७ ॥ ___ यद्यपि विवेकिनः श्रद्धावतः सत्पात्रदाने साक्षात्पारम्पर्येण वा मोक्षः फलं, तथापि मुग्धजनानुग्रहार्थ पात्रदानस्य प्रासङ्गिकं फलमाहपश्य सङ्गमको नाम सम्पदं वत्सपालकः । चमत्कारकरी प्राप मुनिदानप्रभावतः ॥८॥ (१) न त्वपात्रकुपात्रयोः इति वा पाठः Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥३६६। पश्येत्यनेन मुग्धबुद्धिमभिमुखयति । सङ्गमको नामेति सङ्गमकाभिधानः वत्सपालो वत्सपालनजीवकः, TR तृतीय चमत्कारकरी सम्पदं प्राप, कुतः ? मुनिदानप्रभावतः । अत्र सङ्गमकस्य पारम्पर्येण मोक्षोऽपि फलमस्ति, तथापि प्रकाशा प्रासङ्गिकफलाभिधानरभसेन स नोक्तः । सङ्गमकचरितं च सम्प्रदायगम्यम् । स चायम्___ मगधेष्वस्ति निःसीमरत्नप्राग्भारभासुरम् । पुरं समुद्रवद्राजगृहं कुलगृहं श्रियः ॥१॥राजा पुरं तदपरैरनुल्लवितशासनः । शशास श्रेणिकः पाकशासनः स्वःपुरीमिव ॥ २ ॥ शालिग्रामेऽथ धन्येति काचिदुच्छिमवंशिका । बालं सङ्गमकं नाम समादाय समाययौ ॥ ३॥ वसंस्तत्र स पौराणां वत्सरूपाण्यचारयत् । अनुरूपा ह्यसौ रोरबालानां मृदुजीविका ॥ ४ ॥ अथापरेयुः संजाते तत्र कस्मिंश्चिदुत्सवे । पायसं सङ्गमोऽपश्यद् भुज्यमानं गृहे गृहे ॥ ५ ॥ गत्वा स्वगेहे जननीं ययाचे सोपि पायसम् । साऽप्युवाच दरिद्राऽस्मि मद्गेहे पायसं कुतः१।६। बालेन तेनाज्ञतया याच्यमाना मुहुर्मुहुः । स्मरन्ती पूर्वविभवं तारतारं रुरोद सा ॥ ७॥ तस्या रुदितदुःखेनानुविद्धहृदया इव । आगत्य प्रातिवेश्मिन्यः पप्रच्छुर्दुःखकारणम् ॥ ८॥ ताभ्योऽभ्यधत्त सा दुःखकारणं गद्गदाक्षरैः क्षीराद्यदुश्च तास्तस्यै साऽपचत् पायस ततः ॥९॥ खण्डाज्यपायसैभृत्वा स्थालं बालस्य तस्य सा। आर्पयत्प्रययौ चान्तह कार्येण केनचित् ॥ १० ॥ अत्रान्तरे च कोऽप्यागान्मुनिर्मासमुपोषितः पारणाय भवोदन्वत्तारणायास्य नौरिव ॥ ११ ॥ सोऽचिन्तयदिदं चिन्तामाणिक्यमिव चेतनम् । जङ्गमः कल्पशोखीव कामधेनुरिवापशुः ॥१२॥ साधु साधु महासाधुर्मद्भाग्यैरयमाययौ । कुतोऽन्यथा वराकस्य ममेदृक्पात्रसङ्गमः ॥१३॥ भाग्योदयेन केनापि ममाद्य समपद्यत । चित्तं वित्तं च पात्रं च त्रिवेणीसङ्गमो ह्ययम् ॥ १४ ॥ इत्यसौ स्थालमुत्पाटय पायसं साधवे ॥३६६॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥३६७॥ OOOOOOXF ददौ । जग्राहानुग्रहायास्य महाकारुणिको मुनिः ॥ १५ ॥ ययौ च स मुनिर्गेहान्मध्याद् धन्याऽपि निर्ययौ । मन्ये भुक्तमनेनेति ददौसा पायसं पुनः ॥ १६ ॥ तत्पायसमतृप्तः सन्नाकण्ठं बुभुजेऽथ सः । तदजीर्णेन यामिन्यां स्मरन् साधुं व्यपद्यत ॥ १७॥ तेन दानप्रभावेण सोऽथ राजगृहे पुरे । गोभद्रेभ्यस्य भार्याया भद्राया उदरेऽभवत् ॥ १८ ॥ शालिक्षेत्रं सुनिष्पन्नं स्वप्नेऽपश्यच्च सा ततः । भर्तुः शशंस सोऽप्यस्याः सूनुः स्यादित्यचीकथत् ॥१९॥ चेद्दाधर्मकर्माणि करोमीति बभार सा । दोहदं तं तु गोभद्रः पूरयामास भद्रधीः ॥२०॥ पूर्णे काले ततो भद्रा द्युतिद्योतितदिग्मुखम् | असूत तनयं रत्नं विदुरं गिरिभूरिव ॥ २१॥ दृष्टस्वप्नानुसारेण सूनोस्तस्य शुभे दिने । चक्रतुः : पितरौ शालिभद्र इत्यभिधां शुभाम् ॥ २२ ॥ धात्रीभिः पञ्चभिः पाल्यमानः स ववृधे क्रमात् । किश्चिद् नाष्टवर्षः सन् पित्राऽप्यध्यापितः कलाः ॥ २३ ॥ संप्राप्तयौवनश्वासौ युवतीजनवल्लभः । सवयोभिः समं रेमे प्रद्युम्न इव नूतनः ||२४|| तत्पुरश्रेष्ठिनोऽथैत्य कन्या द्वात्रिंशतं निजाः । प्रदातुं शालिभद्राय भद्रानाथं ययाचिरे ॥२५॥ अथ प्रहृष्टो गोभद्रः शालिभद्रेण सादरम् । सर्वलक्षणसंपूर्णाः कन्यकाः पर्यणाययत् ॥ २६ ॥ शालिभद्रस्ततो रम्ये विमान इव मन्दिरे । विललास समं ताभिः पतिर्दिविषदामिव ||२७|| विवेदानन्दमग्नोऽयं न रात्रिं न च वासरम् । तस्यापूरयतां भोगसामग्रीं पितरौ स्वयम् ॥ २८ ॥ श्रीवीरपादमूलेऽथ गोभद्रो व्रतमग्रहीत् । कृत्वा चानशनं मृत्वा देवलोकं जगाम च ॥ २९ ॥ अवधिज्ञानतो ज्ञात्वा शालिभद्रं निजात्मजम् । तन्पुण्यावर्जितः सोऽभूत् पुत्रवात्सल्यतत्परः ||३०|| दिव्यानि वस्त्रनेपथ्यादीन्यस्य प्रतिवासरम् । सभार्यस्यार्पयामास कल्पशाखीव सोऽमरः ॥३१॥ यद्यन्मन्त्र्योचितं कार्यं भद्रा तत्तदसाधयत् । पूर्वदानप्रभावेण भोगान् सोऽभुङ्गक्त केवलम् ||३२|| EXEVEDEO REMO तृतीय प्रकाशः ॥३६७ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् तृतीय प्रकाशा ३६८॥ वणिग्भिः कैश्चिदन्येाहीत्वा रत्नकम्बलान । शिश्रिये श्रेणिकस्तांश्च महात्वेन नाग्रहीत् ॥३३॥ ततस्ते वणिजो जग्मुः शालिभद्रनिकेतनम् । तदुक्तार्पण तान् भद्राऽप्यग्रहीद्रत्नकम्बलान् ॥३४॥ मद्योग्यो गृह्यतामेको महामूल्योऽपि कम्बलः इत्यूचे चेल्लणादेव्या तदा च श्रेणिको नृपः ॥३५॥ राज्ञाऽपि मूल्यपूर्व ते कम्बलं वणिजोऽर्थिताः। भद्रा जग्राह तान् सर्वान् कम्बलानित्यचीकथन् ॥३६॥ श्रणिकः प्राहिणोदेकं प्रवीणं पुरुषं ततः । भद्रापार्श्वे मूल्यदानात्कम्बलादानहेतवे ॥ ३७॥ याचिता तेन भद्रोचे छित्त्वा तान् रत्नकम्बलान् । शालिभद्रप्रियापादप्रो छनीकृतवत्यहम् ॥ ३८॥ कार्य निष्पद्यते किश्चिजीर्णश्चेद्रत्नकम्बलैः । तद्गत्वाऽऽपृछय राजानमागच्छामून् गृहाण च ॥ ३९ ॥ आख्यद्गत्वा स तद्राज्ञे राझ्यूचे चेल्लणाऽप्यदः । पश्यास्माकं वणिजांच परीरिहेम्नोरिवान्तरम् ।४०॥ तमेव पुरुषं प्रेष्य श्रेणिकेन कुतूहलात् । आकारिते शालिभद्रे भद्रोपेत्य व्यजिज्ञपत् ॥४१॥ बहिर्न हि महीनाथ ! जातु याति मदात्मजः। प्रसादः क्रियतां देव ! मद्गृहागमनेन मे ॥४२॥ कौतूहलाच्छ्रेणिकोऽपि तत्तथा प्रत्यपद्यत। तं च क्षणं प्रतीक्ष्याथ साऽग्रे भूत्वा गृहं ययौ ॥४३॥ विचित्रवस्त्रमाणिक्यचित्रकत्वङ्मयीं ततः । आराजहर्म्य स्वगृहाददृशोभां व्यधत्त सा ॥ ४४ ॥ तयाऽऽहूस्ततो राजा कृतां सद्यः सुरैरिव । विभावयन् इदृशोभा शालिभद्रगृहं ययौ ॥ ४५ ॥ स्वर्णस्तम्भोपरि प्रेकदिन्द्रनीलाश्मतोरणम् । मौक्तिकस्वस्तिकश्रेणिदन्तुरद्वारभूतलम् ।४६। दिव्यवस्वकृतोल्लोचं सुगन्धिद्रव्यधूपितम् । भुवि दिव्यविमानानां प्रतिमानमिव स्थितम् ॥ ४७ ॥ तद्विवेश विशामीशो विस्मयस्मेरलोचनः । भूमिकायां चतुझं तु सिंहासन उपाविशत् ॥ ४८ ॥ सप्तम्या भुवि भद्रेत्य (१) पित्तलसुवर्णयोः। ॥३६८॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥३६९॥ शालिभद्रं ततोऽवदत् । इहायातः श्रेणिकोऽस्ति तं द्रष्टुं क्षणमेहि तत् ॥ ४९ ॥ अम्ब ! त्वमेव यद्वेत्सि तमर्थ कारय स्वयम् । किं मया तत्र कर्त्तव्यं स भद्रामित्यभाषत् ॥५०॥ ततो भद्राऽप्युवाचैनं क्रेतव्यं वस्तु न ह्यदः । किन्त्वसौ सर्वलोकानां युष्माकमपि च प्रभुः ॥ ५१ ॥ तच्छ्रुत्वा शालिभद्रोऽपि सविषादमचिन्तयत् । धिक् सांसारिकमैश्वर्य यन्ममाप्यपरः प्रभुः ॥५२॥ भोगिभोगैरिवैभिर्मे भोगैरलमतः परम् । दीक्षां मक्षु ग्रहीष्यामि श्रीवीरचरणान्तिके ॥५३॥ एवं संवेगयुक्तोऽपि स मातुरुपरोधतः । सभार्योऽभ्येत्य राजानमनमद्विनयान्वितः ॥५४॥ सस्वजे श्रेणिनाथ स्वाङ्के सुत इवासितः । स्नेहाच्छिरसि चाघ्रातः क्षणाच्चाणि सोऽमुचत् ॥ ५४ ॥ ततो भद्रा जगादैवं देवायं मुच्यतां यतः । मानुस्यमाल्यगन्धेन मनुष्योऽप्येष बाध्यते ॥ ५६ ॥ देवभूयं गतः श्रेष्ठी सभार्यस्यास्य यच्छति । दिव्य नेपथ्यवस्त्राङ्गरागादीन् प्रतिवासरम् ||५७॥ ततो राज्ञा विसृष्टोऽसौ ययौ सप्तमभूमिकाम् । इहैव भोक्तव्यमिति विज्ञप्तो भद्रया नृपः || ५८ || भद्रादाक्षिण्यतो राजा प्रत्यपद्यत तत्तथा । सद्यः साऽसाधयत्सर्वं श्रीमतां किं न सिध्यति ? ॥ ५९ ॥ सस्नौ स्नानीयतैलाम्बुचूर्णैस्तूर्ण ततो नृपः । अङ्गुलीयं तदङ्गुल्याः क्रीडावाप्यां पपात च ॥ ६०॥ यावदन्वेषयामास भूपतिस्तदितस्ततः । तावद्भद्राऽऽदिशदासीं वाप्य म्भोऽन्यत्र नाय्यताम् ॥ ६१ ॥ तथा कृते तया चित्रदिव्याभरणमध्यगम् । अङ्गारामं स्वाङ्गुलीयं दृष्ट्वा राजा विसिष्मिये ॥ ६२ ॥ किमेतदिति राज्ञोक्ता दास्यवोचदिहान्वहम् ! । निर्माल्यं शालिभद्रस्य सभार्यस्य निधीयते ॥६३॥ सर्वथा धन्य एवैष धन्योऽहमपि संप्रति । राज्ये यस्येदृशाः सन्ति विममर्शति भूपतिः ॥६४॥ बुभुजे सपरिवारो भूभुजामग्रणीस्ततः । चित्रालङ्कारवस्त्राद्यैरचितच गृहं ययौ ॥ ६५ ॥ शालिभद्रोऽपि संसारविमोक्षं तृतीय प्रकाशः ॥ ३६९ ॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाश ॥३७॥ यावदिच्छति । अभ्येत्य धर्मसुहृदा विज्ञप्तस्तावदीदृशम् ॥६६॥ आगाच्चतुर्ज्ञानधरः सुरासुरनमस्कृतः । मूर्ती धर्म इवोद्याने धर्मघोषाभिधो मुनिः ॥ ६७ ॥ शालिभद्रस्ततो हर्षादधिरुह्य रथं ययौ। आचार्यपादान् वन्दित्वा साधूंश्चोपाविशत्पुरः॥६८॥ स सरिर्देशनां कुर्वन् नत्वा तेनेत्यपृच्छयत । भगवन् ! कर्मणा केन प्रभुरन्यो न जायते ? ॥६९॥ भगवानप्युवाचेदं दीक्षां गृहणन्ति ये जनाः । अशेषस्यापि जगतः स्वामिभावं भजन्ति ते ॥७०॥ यद्येवं नाथ ! तद्गत्वा निजामापृच्छय मातरम् । ग्रहीष्यामि व्रतमिति शालिभद्रो व्यजिज्ञपत् ॥७१॥ न प्रमादो विधातव्य इत्युक्तः सूरिणा ततः । शालिभद्रो गृहं गत्वा भद्रां नत्वेत्यभाषत ॥७२॥ धर्मः श्रीधर्मघोषस्य सूरेरद्य मुखाम्बुजात् । विश्वदुःखविमोक्षस्योपायभूतो मया श्रुतः ॥७३॥ अकार्षीः साध्विदं वत्स ! पितुस्तस्यासि नन्दनः प्रशशंसेति भद्राऽपि शालिभद्रं प्रमोदतः ॥७४॥ सोऽप्यवोचदिदं मातरेवं चेत्तत् प्रसीद मे । ग्रहीष्यामि व्रतमहं ननु तस्य पितुः सुतः ॥७५॥ साऽप्यवादीदिदं वत्स ! युक्तस्तेऽसौ प्रतोधमः । किन्त्वत्र लोहचणकाचर्वणीया निरन्तरम् ॥७६॥ सुकुमारः प्रकृत्याऽपि दिव्यभोगैश्च लालितः । स्पन्दनं तर्णक इव कथं त्वं वक्ष्यसि व्रतम् ? ॥७७॥ शालिभद्रोऽप्युवाचैवं पुमांसो भोगलालिताः । असहा व्रतकष्टानां कातरा एव नेतरे ॥७८॥ त्यज भोगान् क्रमान्मर्त्यमाल्यगन्धान सहस्व च । इत्यभ्यासाव्रतं वत्स! गृहणीया इत्युवाच सा ॥७९॥ शालिभद्रस्ततो भद्रावचनं प्रतिपद्य तत् । भामेकां तूलिकां च मुश्चति स्म दिने दिने।।८०॥ इतश्च तस्मिन् नगरे धन्यो नाम महाधनः । बभूव शालिभद्रस्य कनिष्ठभगिनीपतिः ॥८१॥ शालिभद्रस्वसा साश्रु स्नपयन्ती तु तं तदा । किं रोदिषीति तेनोक्ता जगादेति सगद्गदम् ॥८२॥ व्रतं ग्रहीतुं मे भ्राता त्यजत्येकां दिने दिने। भार्यां च तूलिकां चाहं हेतुना तेन रोदिमि ॥३७॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥३७१॥ तृतीय प्रकाशा ॥८३॥ य एवं कुरुते फेरुवि भीरुस्तपस्व्यसौ। हीनसत्त्वस्तव भ्रातेत्यूचे धन्यः सनर्मकम्।।८४॥ सुकरं चेदव्रतं नाथ! क्रियते कि नहि त्वया ? एवं सहासमन्याभिर्भार्याभिर्जगदेऽथ सः॥८५॥ धन्योऽप्यूचे व्रते विघ्नो भवत्यस्ताश्च पुण्यतः। अनुमन्त्र्योऽद्य मेऽभूवन् प्रब्रजिष्यामि तद् द्रुतम् ॥८६॥ ता अप्यूचुः प्रसीदेदमस्माभिर्नर्मणोदितम् । मा स्म त्याक्षीः श्रियोऽस्मांश्च मनस्विन् ! नित्यलालिताः ॥८७॥ अनित्यं स्त्रीधनाद्येतत्प्रोज्झ्य नित्यपदेच्छया अवश्य प्रव्रजिष्यामीत्यालपन् धन्य उत्थितः ॥८८॥ त्वामनु प्रव्रजिष्याम एवमुक्तवतीश्च ताः । अन्वमन्यत धन्योऽपि धन्यमन्यो महामनाः ॥८६॥ इतश्च वैभारगिरौ श्रीवीरः समवासरत् । विदाञ्चकार तं सद्यो धन्यो धर्मसुहृगिरा ॥९०॥ दत्तदानः सदारोऽसावारुह्य शिबिकां ततः। भवभीतो महावीरचरणौ शरणं ययौ ॥९॥ सदारः सोऽग्रहीद दीक्षां ततो भगवदन्तिके । तच्छ्रुत्वा शालिभद्रोऽपि जितमन्यः प्रतत्वरे ॥९२॥ सोऽन्वीयमा नस्तदनु श्रेणिकेन महीभुजा । उपेत्य श्रीमहावीरपादमूलेऽग्रहीद व्रतम् ॥९३॥ ततः सपरिवारोऽपि स्वामी सिद्धार्थनन्दनः। विहरनन्यतोऽगच्छत् सयूथ इव हस्तिराट् ॥९४॥ धन्यश्च शालिभद्रश्च तावभूतां बहुश्रुतौ । महत्तपश्च तेपाते खड्गधारासहोदरम् ॥९५॥ पक्षाद् मासाद् द्विमास्यास्त्रिमास्या मासचतुष्टयात् । शरीरनिरपेक्षौ तौ चक्रतुः पारण मुनी ॥९६॥ तपसा समजायेतां निर्मा सरुधिराङ्गको । चर्मभस्त्रोपमौ शालिभद्रधन्यौ महामुनी ॥९॥ अन्येद्यः श्रीमहावीरस्वामिना सह तौ मुनी। आजग्मतू राजगृहं पुरं जन्मभुवं निजाम् ॥९८॥ ततः समवसरणस्थितं नन्तुं जगत्पतिम् । श्रद्धाऽतिशययोगेनाच्छिन्नमीयुर्जनाः पुरात् ॥९९।। मासपारणकै शालिभद्रधन्यावुभावपि । काले विहर्नु भिक्षार्थ भगवन्तं प्रणेमतुः ॥१०॥ मातृपाश्र्वात्पारणं तेऽद्येत्युक्तः स्वमिना ततः। इच्छामीति ॥३७१॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग तृयती शास्त्रम् प्रकाशा ॥३७२॥ भणन् शालिभद्रो धन्ययुतो ययौ ॥१॥ गत्वा भद्रागृहद्वारि तावुभावपि तस्थतुः। तपःक्षामतया तौ च न केनप्युपलक्षितौ ॥ २॥ श्रीवीरं शालिभद्रं च धन्यमप्यद्य वन्दितुम् । यामीति व्याकुला भद्राऽप्यऽज्ञासीदुत्सुका न तौ ॥ ३ ॥ क्षणमेकमवस्थाय तत्र तो जग्मतुस्ततः। महर्षी नगरद्वारप्रतोल्या च निरीयतुः॥ ४॥ तदाऽऽयान्ती पुरे तस्मिन्विक्रेतुं दधिसर्पिषी । शालिभद्रस्य प्राग्जन्ममाता धन्याऽभवत्पुरः ॥ ५ ।। शालिभद्रं तु सा प्रेक्ष्य सञ्जातप्रखवस्तनीं । वन्दित्वा चरणौ भक्त्या द्वाभ्यामपि ददौ दधि ॥ ६॥ श्रीवीरस्यान्तिके गत्वा तदालोच्य कृताञ्जलिः। शालिभद्रोऽवदत्स्वामिन्मातृतः पारणं कथम् ? ॥ ७॥ सर्वज्ञोऽप्याचचक्षेऽथ शालिभद्र ! महामुने । प्राग्जन्ममातरं धन्यामन्यदप्यन्यजन्मजम् ॥८॥ कृत्वा पारणकं दध्नोऽऽपृच्छय च स्वामिनं ततः। वैभारादि ययौ शालिभद्रो धन्यसमन्वितः ॥९॥ शिलातले शालिभद्रः सधन्यः प्रतिलेखिते । पादपोपगमं नाम तत्रानशनमाश्रयत् ॥१०॥ तदा च भद्रा तन्माता श्रेणिकश्च महीपतिः। आजग्मतुर्भक्तियुक्तौ श्रीवीरचरणान्तिकम् ॥११॥ ततो भद्राऽवदद्धन्यशालिभद्रौ क तौ मुनी?। भिक्षार्थ नागतौ कस्मादमस्मद्वेश्म जगत्पते ! ॥१२॥ सर्वज्ञोऽपि बभाषे तौ त्वद्वेश्मनि मुनी गतौ । ज्ञातौ न तु भवत्येहागमनव्यग्रचित्तया ॥१३॥ प्रायजन्ममाता त्वत्सूनोधन्या यान्ती पुरं प्रति । ददौ दधि तयोस्तेन पारणं चक्रतुश्च तौ॥१४॥ उभावथ महासत्त्वौ सत्वरौ भवमुज्झितुम् । वैभारपवते गत्वाऽनशनं तौ प्रचक्रतुः ॥१५॥ श्रेणिकेन समं भद्रा वैभारादि ययौ ततः। तथास्थितावपश्यच्च तावश्मघ टिताविव ॥१६॥ तत्कष्टमय पश्यन्ती स्मरन्ती तत्सुखानि च । सारोदीद्रोदयन्तीव वैभारादि प्रतिस्वनैः॥१७॥ आयातोऽपि गृहं वत्स ! मया तु स्वल्पभाग्यया । न ज्ञातोऽसि प्रमादेनाप्रसादं मा कृथा मयि ॥१८॥ यद्यपि ३७२॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥ ३७३ ॥ त्यक्तनाभस्त्वं तथापि निजदर्शनात् । आनन्दयिष्यसि दृशौ पुरेत्यासीन्मनोरथः || १९|| आरम्भेणामुना पुत्र ! शरीरत्यागहेतुना । मनोरथं तमपि मे भक्तमस्युद्यतोऽधुना ॥ २० ॥ प्रारब्धं यत्तपस्तत्र न ते विघ्नीभवाम्यहम् । किन्त्वेतत्कर्कशतमं शिलातलमितो भव ॥२१॥ अथोचे श्रेणिको हर्षस्थाने किमम्ब ! रोदिषि ? | ईदग् यस्याः सृतः स्त्रीषु त्वमेका पुत्रवत्यसि ।२२। तत्वज्ञोऽयं महासस्वस्त्यक्त्वा तृणमिव श्रियम् । प्रप्रेदे स्वामिनः पादान साक्षादिव परं पदम् ॥ २३ ॥ असौ जगत्स्वामिशिष्यानुरूपं तप्यते तपः । मुधाऽनुतप्यते मुग्धे ! किं त्वया स्त्रीस्वभावतः ॥ २८ ॥ भद्वैवं बोधिता राज्ञा वन्दित्वा तो महामुनी । विमनस्का निजं धाम जगाम श्रेणिकस्तथा ।। २५ । मृत्वा ततस्तौ सर्वार्थसिद्धस्वर्गे बभूवतुः । सुरोत्तमौ त्रयस्त्रिंशत्सागरप्रमितायुषौ ॥ २६ ॥ सत्पात्रदानफलसम्पदमद्वितीयां स प्राप सङ्गमक आयतिबर्द्धमानाम् । कार्यो नरैरवितथातिथिसंविभागे, भाग्यार्थिभिर्ननु ततः सततं प्रयत्नः ॥ १२७॥ ॥ इति सङ्गमककथानकम् ॥ ८८ ॥ उक्तानि द्वादशव्रतानि, अथ तच्छेषमतिचाररक्षणलक्षणं प्रस्तोतुमाह व्रतानि सातिचाराणि सुकृतोय भवन्ति न । अतिचारास्ततो हेयाः पञ्च पञ्च व्रते व्रते ।। ८९ ॥ अतिचारो मालिन्यं तद्युक्तानि व्रतानि न सुकृताय भवन्ति, तदर्थमेवैकैकस्मिन् व्रते पञ्च पञ्चातिचाराः परिहरणीयाः । ननु सर्वविरतावेवातिचारा भवन्ति, संज्वलनोदय एव तेषामभिधानात् । यदाह १सव्वे वि अ अइआरा संजलणाणं तु उदयतो हुंति । मूलच्छिज्जं पुण होइ बारसहं कसायाणं ॥ १ ॥ १ सर्वेऽपि च अतिचाराः संज्वलनानां तु उदयतो भवन्ति । मूलच्छेद्यं पुनः भवति द्वादशानां कपायाणाम् ॥ १ ॥ F तृतीय प्रकाशः ३७३। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥३७४॥ संज्वलनोदयश्च सर्वविरतानामेव, देशविरतानां तु प्रत्यारव्यानावरणोदय इति न देशविरतावतिचारसम्भवः । युज्यते चैतत्, अल्पीयस्त्वात्तस्याः, कुन्थुशरीरे व्रणाद्यभाववत् । तथाहि प्रथमाणुव्रते स्थूलं सङ्कल्पं निरपराधं द्विविधं त्रिविधेनेत्यादिविकल्पैर्विशेषितत्वेनातिसूक्ष्मतां गते देशाभावात्कथं देशविराधनारूपा अतिचारा भवन्तु ? अतः सर्वनाश एव तस्योपपद्यते । महाव्रतेषु तु ते संभवन्ति, महत्वादेव हस्तिशरीरे व्रणपट्टबन्धादिवदिति । उच्यते - देशविरतावतिचारा न संभवन्तीत्यसङ्गतम् । उपासकदशादिषु प्रतिव्रतमतिचारपञ्चकाभिधानात् । अथ भङ्गा एव ते, न त्वतिचाराः । नैवम्, भङ्गाद्भेदेनातिचारस्यागमे संमतत्वात् । यच्चोक्तम् सर्वेऽप्यतिचाराः संज्वलनोदय एव तत्सत्यम् । केवलम् सर्वविरतिचारित्रमेवाश्रित्य तदुच्यते, न तु सम्यक्त्व देशविरती । यतः सव्वे वि अ अइयारा इत्यादि गाथाया एवं व्यारव्या-संज्वलनानामेवोदये सर्वविरतावतिचारा भवन्ति, शेषोदये तु मूलच्छेद्यमेव तस्याम् । एवं च न देशविरतावतिचाराभावः ॥ ८६ ॥ तत्र प्रथमत्रते तानाह क्रोधाद्वन्धच्छविच्छेदोऽधिकभाराधिरोपणम्। प्रहारोऽन्नादिरोधश्चाहिंसायां परिकीर्त्तिताः ॥९०॥ अहिंसायां प्रथमाणुत्र अमी पञ्चातिचाराः - बन्धो रज्ज्वादिना गोमहिष्यादीनां नियंत्रणम्ः स्वपुत्रादीनामपि विनयग्राहणार्थं क्रियते, अतः क्रोधादित्युक्तम् ; क्रोधात् प्रबलकषायोदयाद्यो बन्धः स प्रथमोऽतिचारः ? | छविः शरीरं त्वग्वा, तस्याः छेदो द्वैधीकरणम् ; स च पादवल्मीकोपहतपादस्य पुत्रादेरपि क्रियते इति क्रोधादित्य तृतीय प्रकाशः ॥ ३७४॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥ ३७५ ॥ EXOOOOOOO नुवर्त्तते । क्रोधाद्यः छविच्छेदः स द्वितीयोऽतिचारः २ । अधिकस्य वोढुमशक्यस्य भारस्यारोपणं गो-करम -रासम मनुष्यादेः स्कन्धे पृष्ठे शिरसि वा वाहनायाधिरोपणम्; इहापि क्रोधादित्यनुवर्त्तते, तेन क्रोधात्तदुपलक्षिताल्लोभाद्वा यदधिकभारारोपणं स तृतीयोऽतिचारः ॥ ३॥ प्रहारो लगुडादिना ताडनं क्रोधादेवेति चतुर्थोऽतिचारः || ४ || अनादि रोधो भोजनपानादेर्निषेधः क्रोधादेवेति पञ्चमोऽतिचारः ||५|| अत्र चायमावश्यकचूर्ण्याद्युक्तो विधि:-बन्धो द्विपदानां चतुष्पदानां वा स्यात्, सोऽपि सार्थकोऽनर्थको वा, तत्रानर्थकस्तावद् विधातुं न युज्यते, सार्थकः पुनरसौ द्विविधः, सापेक्षो निरपेक्षश्च तत्र सापेक्षो यो दामग्रन्थिना शिथिलेन, यश्च प्रदीपनादिषु मोचयितुं छेत्तुं वा शक्यते निरपेक्षो यत् निश्चलमत्यर्थश्च बध्यते । एवं तावत् चतुष्पदानां बन्धो, द्विपदानामपि दासदासीचौरपाठादिप्रमत्तपुत्रादीनां यदि बन्धस्तदा सविक्रमणा एव बन्धनीया रक्षणीयाश्च यथाऽग्निभयादिषु न विनश्यन्ति ; तथा द्विप दचतुष्पदाः श्रावण त एव संगृहीतव्या ये अबद्धा एवासते इति । छविच्छेदोऽपि तथैव, नवरम् निरपेक्षो हस्तपादकर्णनासिकादि यनिर्दयं छिनत्ति, सापेक्षः पुनर्गण्डं वा अरुर्खा छिन्द्याद्वा दहेद्वेति तथाऽधिकभारोऽपि नारोपयितव्यः पूर्वमेव हि या द्विपदादिवाहनेन जीविका सा श्रावकेण मोक्तव्या, अथान्याऽसौ न भवेत्, तदा द्विपदोऽयं भारं स्वयमुत्क्षिपति अवतारयति च तं वाह्यते, चतुष्पदस्य तु यथोचितभारः किञ्चिदूनः क्रियते हलकटादिषु पुनरुचितवेलायामसौ मुच्यत इति । प्रहारोऽपि तथैव, नवरम् निरपेक्षः प्रहारो निर्दयताडना, सापेक्षः पुनः श्रावणादित एव भीतपर्षदा भवितव्यं, यदि पुनः कोऽपि न करोति विनयं तदा तं मर्माणि मुक्त्वा लतया दवरकेण वा सकृद् द्विर्वा ताडयेदिति । तथा अन्नपानादिरोधो न कस्यापि कर्त्तव्यस्तीक्ष्णबुभुक्षो होवं FORESTO CREENS तृतीय प्रकाशः ॥३७५ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाशा ॥३७॥ सति म्रियते, स्वभोजनवेलायां तु ज्वरितादीन् विना नियमत एवान्यान् विधृतान् भोजयित्वा स्वयं भुञ्जीत। अनादिरोधोऽपि सार्थकानर्थकभेदो बन्धवत् द्रष्टव्यः, नवरम् सापेक्षो रोगचिकित्साथै स्यात्, अपराधकारिणि च वाचैव वदेद्-अद्य ते न दास्यते भोजनादि । शान्तिनिमित्तं चोपवासादि कारयेत् । किंबहुना ? मूलगुणस्याहिंसालक्षणस्यातिचारो यथा न भवति तथा यतनया वर्तनीयम् । ननु हिंसैव श्रावकेण प्रत्याख्याता ततो बन्धादिकरणेऽपि न दोषो हिंसाविरतेरखण्डितत्वात् । अथ बन्धादयोऽपि प्रत्याख्यातास्तदा तत्करणे व्रतभङ्ग एव, विरतिखण्डनात् । किश्च बन्धादीनां प्रत्याख्येयत्वे व्रतेयत्ता विशीर्यंत, प्रतिव्रतमतिचारव्रतानामाधिक्यादिति । एवं च न बन्धादीनामतिचारतेतिः । उच्यते-सत्यं, हिंसव प्रत्याख्याता न बन्धादयः केवलं तत्प्रत्याख्याने अर्थतस्तेऽपि प्रत्याख्याता द्रष्टव्याः, हिंसोपायत्वात्तेषाम् । न च बन्धादिकरणेऽपि व्रतभङ्गः किन्त्वतिचार एवं। कथम् ? इह द्विविधं व्रतम्-अन्तवृत्या बहिवृत्त्या च, तत्र मारयामीति विकल्पाभावेन यदा कोपाचावेशात्परप्राणप्रहाणमविगणयन् बन्धादौ प्रवत्तते, न च हिंसा भवति, तदा निर्दयता विरत्यनपेक्षप्रवृत्तत्वेनान्तवृत्या व्रतस्य भङ्ग, हिंसाया अभावाच्च बहिवृत्त्या पालनमिति देशस्य भञ्जनादेशस्यैव पालनादतिचारव्यपदेशः प्रवर्तते तदुक्तम् न मारयामीति कृतव्रतस्य विनैव मृत्यु क इहातिचारः ।। निगद्यते यः कुपितो वधादीन् करोत्यसो स्यानियमानपेक्षः ॥१॥ मृत्योरभावाभियमोऽस्ति तस्य कोपाइयाहीनतया तु भग्नः । देशस्य भनादनुपालनाच्च पूज्या अतीचारमुदाहरन्ति ॥२॥ ॥३७६॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाशा शास्त्रम् ॥३७७॥ यच्चोक्तम्-व्रतेयत्ता विशीर्यत इति तदयुक्तम्, विशुद्धाहिंसासद्भावे हि बन्धादीनामभाव एव । तत् स्थितमेतबन्धादयोऽतिचारा एव । बन्धादिग्रहणस्य चोपलक्षणत्वान्मन्त्रप्रयोगादयोऽन्येऽप्यतिचारतया ज्ञेयाः ॥९॥ अथ द्वितीयस्य व्रतस्यातिचारानाहमिथ्योपदेशः सहसाऽभ्योख्यानं गुह्यभाषणम् । विश्वस्तमन्त्रभेदश्च कूटलेखश्च सूनृते ॥९१ ॥ मिथ्योपदेशोऽसदुपदेशः, प्रतिपन्नसत्यव्रतस्य हि परपीडाकरं वचनमसत्यमेव, ततः प्रमादात्परपीडाकरणे उपदेशे अतिचारो यथा-बाह्यन्तां खरोष्ट्रादयो हन्यन्तां दस्यव इति । यद्वा यथास्थितोऽर्थस्तथोपदेशः साधीयान् विपरीतस्तु अयथार्थोपदेशो, यथा-परेण सन्देहापनेन पृष्टे न तथोपदेशः। यद्वा विवादे स्वयं परेण वा अन्य तराभिसन्धानोपायोपदेश इति प्रथमोऽतिचारः १ । सहसा अनालोच्याभ्याख्यानमसदोषाध्यारोपणं, यथाचौरस्त्वं पारदारिको वेत्यादि । अन्ये तु सहसाऽभ्याख्यानस्थाने रहस्याभ्याख्यानं पठन्ति, व्याचक्षते च-रह एकान्तस्तत्र भवं रहस्यं रहस्येनाभ्याख्यानमभिशंसनमसदध्यारोपणं, रहस्याभ्याख्यानं यथा-यदि वृद्धा स्त्री ततस्तस्यै कथयति-अयं तव भर्चा तरुण्यामतिप्रसक्तः, अथ तरुणी तत एवमाह-अयं ते भर्ता प्रौढचेष्टितायां मध्यमवयसि योषिति प्रसक्ता, तथाऽयं खरकामो मृदुकाम इति वा परिहसति, तथा स्त्रियमभ्याख्याति भतः पुरः यथा-पत्नी ते कथयति एवमयं मां रहसि कामगर्दभः खलीकरोति, अथवा दम्पत्योरन्यस्य वा पुसः स्त्रिया वा येन रागप्रकर्ष उत्पद्यते तेन तादृशा रहस्येनानेकप्रकारेणाभिशंसनं हास्यक्रीडादिना न त्वभिनिवेशेन, तथा सति व्रतभङ्ग एव स्यात् । यदाह ॥३७७॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥३७८॥ १सहसाभक्खाणाइ जाणतो जइ करेज्ज तो भंगो । जइ पुण णाभोगाईहिंतो तो होइ अइयारो ॥१॥ इति द्वितीयोऽतिचारः २। तथा गुह्य गृहनीयं न सर्वस्मै यत्कथनीयं राजादिकार्यसंबद्धं तस्यानधिकृतेनैवाकारेजितादिभित्विाऽन्यस्मै प्रकाशनं गुह्यभाषणं यथा-एते हीदमिदं च राजविरुद्धादिकं मन्त्रयन्ते, अथवा गुह्यभाषणं पैशुन्यं यथा-द्वयोः प्रीतौ सत्यामेकस्याकारादिनोपलभ्याभिप्रायमितरस्य तथा कथयति यथा प्रीतिः प्रणश्यति । इति तृतीयोऽतिचारः ३। तथा विश्वस्ता विश्वासमुपगता ये. मित्रकलत्रादयस्तेषां मन्त्री मन्त्रणं तस्य भेदः प्रकाशनं तस्यानुवादरूपत्वेन सत्यत्वात् यद्यपि नातिचारता घटते तथापि मन्त्रितार्थप्रकाशनजनितलज्जादितो मित्रकलत्रादेर्मरणादिसम्भवेन परमार्थतोऽस्यासत्यत्वात् कथञ्चिद्भङ्गरूपत्वेनातिचारतैव । गुह्यभाषणे गुह्यमाकारादिना विज्ञायानधिकृत एव गुह्यं प्रकाशयति, इह तु स्वयं मन्त्रयित्वैव मन्त्रं भिनत्तीत्यनयोर्भेदः । इति चतुर्थोऽतिचारः४ । तथा कूटमसद्भूतं तस्य लेखो लेखनं कूटलेखः, अन्यस्वरूपाक्षरमुद्राकरणम्, एतच्च यद्यपि कायेनासत्यां वाचं न वदामीत्यस्य, न वदामि न वादयामीत्यस्य वा व्रतस्य भङ्ग एव, तथापि सहसाकारानाभोगादिना अतिक्रमादिना वाऽतिचार; अथवा असत्यमित्यसत्यभणनं मया प्रत्याख्यातमिदं पुनर्लेखनमिति भावनया व्रतसापेक्षस्यातिचार एवेति पञ्चमोऽतिचारः ५ ॥ ९१ ॥ अथ तृतीयव्रतातिचारानाह(१) सहसाभ्याख्यानादीन् जानन् यदि कुर्यात् ततो भङ्गः । यदि पुनरनाभोगादिभ्यस्ततो भवत्यतिचारः॥१॥ ॥३७८॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥३७॥ तृतीय प्रकाशा स्तेनानुज्ञा तदानीतादानं द्विइराज्यलङ्घनम् । प्रतिरूपक्रिया मानान्यत्वं चास्तेयसंश्रिताः ॥९२। __ स्तेनाश्चौरास्तेषामनुज्ञा-हरत ययमिति हरणक्रियायां प्रेरणा, अथवा स्तेनोपकरणानि कुशिकाकतरिकाघर्घरिकादीनि तेषामर्पणं वा स्तेनानुज्ञा । अत्र च यद्यपि चौर्य न करोमि न कारयामीत्येवं प्रतिपन्नव्रतस्य स्तेनानुज्ञाव्रतभङ्ग एव, तथापि किमधुना यूयं निर्व्यापारास्तिष्ठत ?, यदि वो भक्तादि नास्ति तदाऽहं तददामि. भवदानीतमोषस्य वा यदि विक्रायको न विद्यते तदाऽहं विक्रेष्ये, इत्येवंविधवचनैश्चौरान् व्यापारयतः स्वकल्पनया तद्वयापारणं परिहरतो व्रतसापेक्षस्यासावतिचारः। इति प्रथमोऽतिचारः १ । तथा तच्छब्देन स्तेनपरामर्शः स्तेनैरानीतमाहृतं कनकवस्त्रादि तस्यादानं ग्रहणं मूल्येन मुधिकया वा तदानीतादानं, स्तेनानीतं हि काणक्रयेण मुधिकया वा प्रच्छन्न, गृहर्णश्चौरो भवति ततश्चौर्यकरणाबतभगः, वाणिज्यमेव मया क्रियते न चौरिकेत्यध्यवसायेन व्रतसापेक्षत्वान्न तद्भङ्ग इति भङ्गाभङ्गरूपोऽतिचारः। इति द्वितीयः २। तथा द्विषोविरुद्धयो राज्ञोरिति शेषः, राज्य नियमिता भूमिः कटकं वा, तस्य लङ्घनं व्यवस्थाऽतिक्रमः, व्यवस्था च परस्परविरुद्धराजकृतैव, तल्लङ्घनं चान्यतरराज्यनिवासिन इतरराज्ये प्रवेशः, इतरराज्यनिवासिनो वा अन्यतरराज्ये प्रवेशः, द्विराज्यलधनस्य यद्यपि स्वस्वामिना अननुज्ञातस्य '१सामिजीवादत्तं तित्थयरेणं तहेव य गुरूहि । इत्यदत्तादानलक्षणयोगेन तत्कारिणां च चौर्यदण्डयोगेन अदत्तादानरूपत्वाबतभङ्ग एव, तथापि द्विराज्यलङ्घनं कुर्वता मया वाणिज्यमेव कृतं न चौर्यमिति भावनया व्रतसापेक्षत्वाल्लोके च चौरोऽयमिति व्यपदेशाभावदतिचा (१) स्वामि जीवादत्तं तीर्थकरेण तथैव च गुरुभिः । ॥३७९॥ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥३८०॥ रता। इति तृतीयः३ तथा प्रतिरूपं सदृशं ब्रीहीणां पलञ्जिः, घृतस्य वसा, हिङ्गोःखदिरादिवेष्टः, तैलस्य मूत्र, जात्यसुवर्णरूप्ययोयुक्तिसुवर्णरूप्ये, इत्यादिप्रतिरूपेण क्रियाव्यवहारः, व्रीह्यादिषु पलज्यादि प्रक्षिप्य तत्तद्विक्रीणीते । यद्वा, अपहृतानां गवादीनां सशृङ्गागामग्निपक्यकालिङ्गीफलस्वेदादिना श्रृगाण्यधोमुखानि प्रगुणानि तिर्यग्वलितानि वा यथारुचि विधायान्यविधत्वमिव तेषामापाद्य सुखेन धारणविक्रयादि करोति । इति चतुर्थः ४ तथा मीयतेऽनेनेति मानं कुडवादि, पलादि, हस्तादि, तस्यान्यत्वं हीनाधिकत्वं, हीनमानेन ददाति, अधिकमानेन गृणाति । इति पञ्चमः ५। प्रतिरूपक्रिया मानान्यत्वं च परव्यसनेन परधनग्रहणरूपत्वाद्भङ्ग एव, केवलं खात्रखननादिकमेव चौर्य प्रसिद्ध, मया तु वणिक्कलैब कृतेति भावनया व्रतरक्षणोद्यतत्वादतिचारावेवेति । अथवा स्तेनानुज्ञादयः पश्चाप्यमी व्यक्तचौर्यरूपा एव, केवलं सहसाकारादिना अतिक्रमव्यतिक्रमादिना वा प्रकारेण विधीयमाना अतिचारतया व्यपदिश्यन्ते । न चैते राजसेवकादीनां न सम्भवन्ति, तथाहि-आधयोः स्पष्ट एव सम्भवः, द्विराज्यलनं तु यदा सामन्तादिः कश्चित् स्वस्वामिनो वृत्तिमुपजीवति, तद्विरुद्धस्य च सहायो भवति, तदाऽस्यातिचारो भवति । प्रतिरूपक्रिया मानान्यत्वं च यदा राजा भाण्डागारे द्रव्याणां विनिमयं मानान्यत्वं च कारयति तदा राज्ञोऽप्यतिचारो भवति । एते च पश्चाप्यस्तेयव्रताश्रिता अतिचाराः ॥१३॥ अथ चतुर्थव्रतातिचारानाहइत्वरात्तागमोऽनात्तागतिरन्यविवाहनम् । मदनात्याग्रहोऽनङ्गक्रीडा च ब्रह्मणि स्मृताः ॥९४ । ॥३८०॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् ॥३८॥ वतीय प्रकाशा ब्रह्मणि ब्रह्मचर्यव्रते, एतेऽतिचाराः स्मृताः । इत्वरी प्रतिपुरुषमयनशीला, वेश्या इत्यर्थः सा चासावात्ता च कश्चित्कालं भाटीप्रदानादिना संगृहीता पुंवद्भावे इत्वरात्ता । अथवा इत्वरं स्तोकमप्युच्यते, इत्वरं स्तोकमल्प मात्ता इत्वराचा, विस्पष्टपटुवत् समासः। अथवा इत्वरकालमाचा इत्वराचा, मयूरव्यंसकादित्वात् समासः काल शब्दलोपश्च । तस्यां गम आसेवनम् । इयं चात्र भावना-भाटीप्रदानादित्वरकालस्वीकारेण स्वकलत्रीकृत्य वेश्यां सेवमानस्य स्वबुद्धिकल्पनया स्वदारत्वेन व्रतसापेक्षचित्तत्वान्न भङ्गः अल्पकालपरिग्रहाच्च वस्तुतोऽन्यकलत्रत्वाद्भगः इति भङ्गाभङ्गरूपत्वादित्वरात्तागमोऽतिचारः । इति प्रथमः १। तथा अनात्ता अपरिगृहीता वेश्या स्वैरिणी प्रोषितभर्तृका कुलाङ्गना वाऽनाथा तस्यां गतिरासेवनम् । इयं चानाभोगादिना अतिक्रमादिना वा अतिचारः। इमौ चातिचारौ स्वदारसन्तोषिण एव न तु परदारवर्जकस्य; इत्वरात्ताया वेश्यात्वेन अनात्तायाः स्वनाथतयैवा परदारत्वात्, शेषास्त्वतिचारा द्वयोरपि, इदं च सूत्राऽनुपाति । यदाहुः-सदारसंतोसस्स इमे पञ्च अइयारा जाणियन्वा न समायरिअव्वा ।" ___ अन्ये त्वाः-इत्वरात्तागमः स्वदारसन्तोषवतोऽतिचारस्तत्र भावना कृतैव, अनातागतिस्तु परदारवर्जिनः । अनात्ता हि वेश्या, यदा तां गृहीतान्यसक्तभाटिकामभिगच्छति, तदा परदारगमनजन्यदोषसम्भवात् कथञ्चित् परदारत्वाच्चाभङ्गत्वेन भङ्गाभङ्गरूपोऽतिचारः । इति द्वितीयः२। तथाऽन्येषां स्वस्वापत्यव्यतिरिक्तानां विवाहनं विवाहकरणं कन्याफललिप्सया, स्नेहसम्बन्धादिना वा परिणयनविधानम् । इदं च स्वदारसन्तोषवता (१) स्वदारसन्तोषस्येमे पश्चातिचारा ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः । ॥३८॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशः રૂ૮રા स्वकलत्रात् परदारवर्जकेन च स्वकलत्रवेश्याभ्यामन्यत्र मनोवाक्कायमैथुन न कार्य न च कारणीयमिति यदा प्रतिपन्नं व्रतं भवति तदा अन्यविवाहकरणं मैथुनकारणमर्थतः प्रतिषिद्धमेव भवति, तद्बती तु मन्यते-विवाह एवाऽयं मया विधीयते न मैथुनं कार्यते इति व्रतसापेक्षत्वादतिचार इति, कन्याफललिप्सा च सम्यग्दृष्टेरव्युत्पन्नाऽवस्थायां सम्भवति, मिथ्यादृष्टेस्तु भद्रकावस्थायामनुग्रहार्थ व्रतादाने सा सम्भवति । नन्वन्यविवाहनवत् स्वापत्यविवाहनेऽपि समान एव दोषः? सत्यम्, यदि स्वकन्याया विवाहो न कार्यते, तदा स्वच्छन्दचारिणी स्यात्, ततश्च शासनोपघातः स्यात्, विहितविवाहा तु पतिनियन्त्रितत्वेन न तथा स्यात् । परेऽप्याहुःपिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने । पुत्रस्तु स्थविरे भावे न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥१॥ यस्तु दाशाईस्य कृष्णस्य चेटकराजस्य च स्वापत्येष्वपि विवाहनियमः श्रूयते, स चिन्तकान्तरसद्भावे द्रष्टव्यः। अन्ये त्याहुः-अन्यस्य कलत्राऽन्तरस्य विशिष्टसन्तोषाभावात् स्वयं विवाहनमन्यविवाहनम् । अयं स्वदारसन्तुष्टस्याऽतिचारः। इति तृतीयः ।।३।। मदने कामेऽत्याग्रहः परित्यक्तान्यसकलव्यापारस्य तदध्यवसायत: योषामुखकक्षोरूपस्थान्तरेष्ववितृप्ततया प्रक्षिप्य प्रजननं महतीं वेलां निश्चलो मृत एवास्ते, चटक इव चटकायां मुहुर्मुहुर्योषायामारोहति, जातबलक्षयश्च वाजीकरणान्युपयुक्ते; अनेन खल्वौषधप्रयोगेण गजप्रसेकी तुरगावमर्दीव पुरूषो भवतीति बुद्धया । इति चतुर्थः ॥४॥ तथा अनङ्गः कामः स च पुंसः स्त्रीपुंनपुंसकेषु सेवनेच्छा, हस्तकर्मादीच्छा वा वेदोदयात् । योषितोऽपि योषिनपुंसक पुरुषासेवनेच्छा हस्तकर्मादीच्छा वा; नपुंसकस्यापि नपुंसक पुरुषस्त्रीसेवनेच्छा हस्तकर्मादीच्छा वा । एतोऽनङ्गो नान्यः कश्चित् तेन तस्मिन् ૨૮૨ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥३८३॥ वा क्रीडा रमणमनङ्गक्रीडा । यद्वा आहाय्यः काष्ठपुस्तफलमृतिकाचर्मादिभिर्घटितैः प्रजननैः स्वलिङ्गेन कृतकृत्योऽपि योषितामवाच्यदेशं भूयो भूयः कुनाति, केशाकर्षणप्रहारदानदन्तनखकदर्थनाऽऽदिप्रकारैश्च मोहनीयकर्मावेशात् तथा क्रीडति यथा बलवान् रागः प्रसूयते । अथवाऽङ्ग देहावयवो मैथुनापेक्षया योनिमेंहनं वा तद्वयतिरिक्तान्यङ्गानि कुचकक्षोरुवदनादीनि तेषु क्रीडा अनङ्गक्रीडा । इह च श्रावकोऽ त्यन्तपापभीरुतया ब्रह्मचर्य चिकीर्षुरपि यदा वेदोदयासहिष्णुतया तद्विधातुं न शक्नोति, तदा यापनामात्रार्थ स्वदारसन्तोषादि प्रतिपद्यते । मैथुनमात्रेणैव च यापनायां सम्भवन्त्यां मदानात्याग्रहानङ्गक्रीडे अर्थतः प्रतिषिद्धे । तत्सेवने न च कश्चिद्गुणः, प्रत्युत तात्कालिकी छिदा राजयक्ष्मादयश्च रोगा दोषा एव भवन्ति । एवं प्रतिषिद्धाचरणाद्भङ्गो नियमाबाधनाचाभङ्ग इत्यतिचारावेतौ । अन्येत्वन्यथाऽतिचारद्वयमपि भावयन्ति- स हि स्वदारसन्तोषी मैथुनमेव मया प्रत्याख्यातमिति स्वकल्पनया वेश्यादौ तत् परिहरति, नालिङ्गनादिः परदारविवर्जकोऽपि परदारेषु मैथुनं परिहरति. नालिङ्गनादि, इति कथञ्चिद्बतसापेक्षत्वादतिचारौ । एवं स्वदारसन्तोषिणः पश्चातिचाराः परदारवर्जकस्य तूत्तरे त्रय एवेति स्थितम् । अन्ये त्वन्यथाऽतिचारान् विचारयन्ति यथा १परदारवज्जिणो पञ्च हुन्ति तिणि उ सदारसंतुढे । इत्थीउ तिणि पश्च व भंगविगप्पेहि अइयारा ॥१॥ इत्वरकालं या परेण भाट्यादिना परिगृहीता वेश्या, तां गच्छतः परदारवर्जिनो भङ्गः, कथञ्चित् परदारत्वा त्तस्याः लोके तु परदारत्वारूढेन भङ्ग इति भङ्गाभङ्गरूपोऽतिचारः । अपरिगृहीतायामनाथकुलाङ्गनायां या गतिः (१) परदारवर्जिनः पञ्च भवन्ति त्रयस्तु स्वदारसन्तुष्टे । स्त्रियास्त्रयः पञ्च वा भङ्गविकल्पैरतिचाराः ॥१॥ ॥३८३॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोगशाखम् तृतीय प्रकाशा ॥३८४॥ परदारवर्जिनः सोऽप्यतिचारः, तत्कल्पनयाऽपरस्य भर्तुरभावेनापरदारत्वादमङ्गः, लोके च परदारतया रूढेङ्ग इति पूर्ववदतिचारः । शेषास्तु त्रयो द्वयोरपि भवेयुः; स्त्रियास्तु स्वपुरुषसन्तोषपरपुरुषवर्जनयोन भेदः, स्वपुरुषव्य तिरेकेणाऽन्येषां परपुरुषत्वात् । अन्यविवाहनादयस्तु त्रयः स्वदारसन्तोषिण इव स्वपुरुषविषयाः स्युरिति पश्च वा । कथम् ? आधस्तावद्यदा स्वकीयपतिर्वारकदिने सपत्न्या परिगृहीतो भवति, तदा सपत्नीवारकं विलुप्य तं परिभु आनाया अतिचारः, द्वितीयस्त्वतिक्रमादिना परपुरुषमभिसरन्त्या अतिचारः, ब्रह्मचारिणं वा स्वपतिमतिक्रमादिनाऽभिसरन्त्या अतिचारः । शेषास्त्रयः स्त्रियाः पूर्ववत् ॥ ९४ ।। अथ पश्चमव्रतस्याऽतिचारानाहधनधान्यस्य कुप्यस्य गवादेः क्षेत्रवास्तुनः । हिरण्यहेम्नश्च संख्याऽतिक्रमोऽत्र परिग्रहे । ९५। __ अत्र श्रावकधर्मोचिते परिग्रहवते यः संख्याऽतिक्रमः सोऽतिचारः कस्य कस्येत्याह-धनं गणिमधरिममेयपरीक्ष्यलक्षणम् । यदा-ह गणिमं जाईफलकोप्फलाइ धरिमं तु कुङ्कमगुडाइ। मेज चोप्पडलोणाइ रयणवत्थाइ परिच्छेज्जं ॥१॥ धान्यं सप्तदशविधम् । यदाह "ब्रीहिर्यचो मसूरो गोधूममुद्गमाषतिलचणकाः । अणवः प्रियाकोद्रवमकुष्टकाः शालिराढक्यः ॥ १॥ (१) गणिमा जातिफलपूगफलादि धरिमा तु कुङ्कुमगुडादि । मेयं म्रक्षणलवणादि रत्नवस्त्रादि परिछेद्यम् ॥१॥ 11३८४॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाश योगशास्त्रम् ॥३८५॥ किश्च कलायकुलत्यौ सणसप्तदशानि धान्यानि ।" धनं च धान्यं च धनधान्यं तस्य धनधान्यस्य । अत्रोत्तरत्र च समाहारनिर्देशः परिग्रहस्य पञ्चविधत्वज्ञापनार्थः । तथा सति ह्यतिचारपञ्चकं सुयोजं भवति । कुप्यं रूप्यमुवणव्यतिरिक्तं कांस्यलोहताम्रसीसकत्रपुमृद्भाण्डत्वचिसारविकारोदङ्किकाष्ठमञ्चकमश्चिकामसूरकरयशकटहलप्रभृति द्रव्यं. तस्य कुप्यस्य । गौरनइवाननड्वाही च, स आदिर्यस्य द्विपदचतुष्पदवर्गस्य स गवादिः । आदिशब्दान्महिषमेषाऽविककरभरासभतुरगहस्त्यादिचतुष्पदानां हंसमयूरकुकुटशुकसारिकापारापतचकोरादिपक्षिद्विपदानां पत्नीउपरुद्धादासीदासकर्मकरपदात्यादिमनुष्याणां च संग्रहः । क्षेत्रं सस्योत्पत्तिभूमिः, तत् त्रिविधं, सेतुकेतूभयभेदात् । तत्र सेतुक्षेत्रं यदरघट्टादिजलेन सिच्यते, केतुक्षेत्रमाकाशोदकपातनिष्पाद्यसस्यम्; उभयमुभयजलनिष्पाद्यसस्यम् । वास्तु गृहादि ग्रामनगरादि च । तत्र गृहादि त्रिविधं खातं भूमिगृहादि, उच्छ्रितं प्रासादादि, खातोच्छ्रितं भूमिगृहस्योपरि गृहादिसन्निवेशः । क्षेत्रं च वास्तु चेति समाहारद्वन्द्वः। तथा हिरण्यं रजतं, घटितं अघटितं चाऽनेकप्रकारं पात्र्यादि, एवं सुवर्णमपि, हिरण्यं च हेम चेत्यत्राऽपि समाहारः । संख्या व्रतकाले यावज्जीव चतुर्मासादिकालावधि वा यत्परिमाणं गृहीतं तस्या अतिक्रम उल्लहुन संख्यातिक्रमोऽतिचारः ॥ ९५॥ ननु प्रतिपन्नव्रतसंख्याऽतिक्रमो भग एवं स्यात्, कथमतिचारः? इत्याहबन्धनाद्भावतो गर्भाधोजनाद् दानतस्तथा । प्रतिपन्नव्रतस्यैष पञ्चधाऽपि न युज्यते॥१६॥ न साक्षात् संख्याऽतिक्रमः, किन्तु व्रतसापेक्षस्य बन्धनादिभिः पञ्चभिर्हेतुभिः स्वबुद्धया व्रतभङ्गमकुर्वत ॥३८५॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥३८६॥ एवातिचारो भवति बन्धनादयश्च यथासंख्येन धनधान्यादीनां परिग्रहविषयाणां सम्बध्यन्ते । तत्र धनधान्यस्य बन्धनात् संख्याऽतिक्रमो यथा - कृतधनधान्यपरिमाणस्य कोऽपि लभ्यमन्यद्वा धनं धान्यं वा ददाति, तच्च व्रतभङ्गभयाच्चतुर्मास्यादिपरतो गृहगतधनादिविक्रये वा कृते ग्रहीष्यामीति भावनया बन्धनात् यन्त्रणात्, रज्ज्वादिसंयमनात्, सत्यङ्कारदानादिरूपाद्वा स्वीकृत्य तद्गृह एव तत् स्थापयतोऽतिचारः ९ । कुप्यस्य भावतः संख्या - तिक्रमो यथा - कुप्यस्य या संख्या कृता तस्याः कथञ्चिद् द्विगुणत्वे सति व्रतभङ्गभयाद् भावतो द्वयोर्द्वयोर्मीलनेन एकीकरणरूपात् पर्यायान्तरात् स्वाभाविकसंख्याबाधनात् संख्यामात्र पूरणाच्चातिचारः । अथवा भावतोऽभिप्रायादर्थित्वलक्षणाद्विवक्षितकालावधेः परतो ग्रहीष्यामि अतो नान्यस्मै देयमिति पराप्रदेयतया व्यवस्थापयतोऽतिचारः २ । तथा गोमहिषीवडवादेर्विवक्षित संवत्सराद्यवधिमध्य एव प्रसवे अधिकगवादिभावादु व्रतभङ्गः स्यादिति तद्भयात् कियत्यपि काले गते गर्भतो गर्भग्रहणाद्गर्भस्थ गवादिभावेन बहिस्तदभावेन कथञ्चिद्व्रतभङ्गङ्गाद् व्रतिनोऽतिचारः ३ । तथा क्षेत्रवास्तुनो योजनात् क्षेत्रवास्त्वन्तरमीलनाद्गहीतसंख्याया अतिक्रमोऽतिचारः । तथाहि किलैकमेव क्षेत्रं वास्तु चेत्यभिग्रहवतोऽधिकतरतदभिलाषे सति व्रतभङ्गभयात् प्राक्तनक्षेत्रवास्तुप्रत्यासन्नं तद् गृहीत्वा पूर्वेण सह तस्यैकत्वकरणार्थं वृत्ति ( ति ) भित्त्याद्यपनयनेन तत्तत्र योजयतो व्रतसापेक्षत्वात् कथञ्चिद्विरतिबाधनाच्चातिचारः ४ । तथा हिरण्यहेम्नोर्दानाद्वितरणाद् गृहीतसंख्याया अतिक्रमः । यथा केनापि चतुर्मासाद्यवधिना हिरण्यादिसंख्या प्रतिपन्ना, तेन च तुष्टराजादेः सकाशात् तदधिकं तल्लब्धं तदन्यस्मै व्रतभङ्गभयाद् ददाति पूर्णेऽवध ग्रहीष्यामीत्यभिप्रायेणेति व्रतसापेक्षत्वादतिचारः । एष गृहीतसंख्याऽतिकमः, पञ्चधा तृतीय प्रकाशः ॥३८६॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय ॥३८७॥ ऽपि पञ्चभिरपि प्रकारैः, प्रतिपन्नव्रतस्य श्रावकस्य न युज्यते, कर्तुमिति शेषः, व्रतमालिन्यहेतुत्वात् । पञ्चधेत्युपलक्षणमन्येषां सहसाकारानाभोगादीनाम् । उक्ता अणुव्रतानां प्रत्येकं पञ्च पश्चातिचाराः ॥५॥९६॥ अथ गुणवतानामवसरः, तत्रापि प्रथमगुणवतस्य दिग्विरतिलक्षणस्याऽतिचारानाहस्मृत्यन्तर्धानमूर्ध्वाधस्तिर्यग्भागव्यतिक्रमः । क्षेत्रवृद्धिश्च पञ्चेति स्मृता दिग्विरतिव्रते ॥९७॥ दिग्विरतिव्रते पश्चातिचाराः, इत्यनेन रूपेण, स्मृताः पूर्वाचाय्यः। तद्यथा-स्मृतेर्योजमशतादिरूपदिकपरिमाणविषयाया अतिव्याकुलत्वप्रमादित्वमत्यपाटवादिनाऽन्तर्धानं भ्रंशः। तथाहि-कैनचित् पूर्वस्यां दिशि योजनशतरूपं परिमाणं कृतमासीत्, गमनकाले च स्पष्टतया न स्मरति, किं शतं परिमाणं कृतमुत पश्चाशत् ? तस्य चैवं पञ्चाशतमतिक्रामतोऽतिचारः शतमतिकामतो भङ्गः, सापेक्षत्वानिरपेक्षत्वाच्चेति । तस्मात् स्मर्तव्यमेव गृहीतव्रतं, स्मृतिमूलं हि सर्वमनुष्ठानमिति प्रथमोऽतिचारः १। तथा ऊवं पर्वततरूशिखरादेः, अधो ग्रामभूमिगृहकूपादेः, तिर्यक् पूर्वादिदिक्षु, योऽसौ भागो नियमितः प्रदेशः तस्य व्यतिक्रमः एत त्रयोऽतिचाराः । यत्सूत्रम्-“१उढदिसिपमाणाइक्कमे अहोदिसिपमाणाइक्कमे तिरियदिसिपमाणाइक्कमे" इति ।। एते च अना भोगातिक्रमादिभिरेवाऽतिचारा भवन्ति, अन्यथाप्रवृत्तौ तु भङ्गा एव । यस्तु न करोमि न कारयामीति वा नियम करोति, स विवक्षितक्षेत्रात् परतः स्वयं गमनतः परेण नयनानयनाभ्यां च दिक्प्रमाणातिक्रमं परिहरति, तदन्य (१) ऊर्ध्वदिकप्रमाणातिक्रमोऽधोदिक्प्रमाणातिक्रमस्तिर्यदिक्प्रमाणातिक्रमः ॥ ३८॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रभू ॥३८८ ।। FOOTOS 44 स्य तु तथाविधप्रत्याख्यानाऽभावात् परेण नयनानयनयोर्न दोषः २|३|४| तथा क्षेत्रस्य पूर्वादिदेशस्य दिग्व्रतविषयस्य ह्रस्वस्य सतः वृद्धिर्वधेनं पश्चिमादिक्षेत्रान्तरपरिमाण प्रक्षेपेण दीर्घीकरणं क्षेत्रवृद्धिरिति पञ्चमोऽतिचारः। तथाहि — केनापि पूर्वापरदिशोः प्रत्येकं योजनशतं गमनपरिमाणं कृतं स चोत्पन्नप्रयोजन एकस्यां दिशि नवतिं योजनानि व्यवस्थाप्य अन्यस्यां दिशि तु दशोत्तरयोजनशतं करोति, उभाभ्यामपि प्रकाराभ्यां योजनशतद्वयरूपस्य परिमाणस्याव्याहतत्वादित्येवमेकत्र क्षेत्रं वर्धयतो व्रतसापेक्षत्वादतिचार इति । यदि वाऽनाभोगात् क्षेत्रपरिमाणमतिक्रान्तो भवति तदा निवर्तितव्यं, ज्ञाते वा न गन्तव्यम्, अन्योऽपि न विसर्जनीयः । अथानाज्ञया कोऽपि गतो भवेत् तदा यत् तेन लब्धं, स्वयं वा विस्मृतितो गतेन लब्धं तद् परिहर्तव्यम् ॥९७॥ अथ द्वितीयगुणत्रतस्य भोगोपभोगमानरूपस्यातिचारानाह— सचित्तस्तेन सम्बद्धः सन्मिश्रोऽभिषवस्तथा । दुष्पक्कोहार इत्येते भोगोपभोगमानगाः ॥ ९८ ॥ सह चित्तेन चेतनया वर्तते यः स सचित्त आहार एव, आहारस्तु दुष्पकाहार इत्यस्मादाकृष्य सम्बध्यते, एवमुत्तरेष्वप्याहारशब्दो योजनीयः । सचित्तस्तु कन्दमूलफलादिः पृथ्वीकायादिर्वा । इह च निवृत्तिविषयी कृतप्रवृत्तौ भङ्गसद्भावेऽप्यतिचाराभिधानं व्रतसापेक्षस्यानाभोगातिक्रमादिना प्रवृत्तौ द्रष्टव्यम् १ | तेन सचितेन सम्बद्धः प्रतिबद्धः सचित्तसंबद्धः, सचेतनवृक्षादिना सम्बद्धो गुन्दादिः पकफलादिर्वा, सचित्तान्तर्बीजः खर्जूराम्रादिः, तदाहारो हि सचित्ताहारवर्जकस्यानाभोगादिना सावद्याहारप्रवृत्तिरूपत्वादतिचारः । अथवा बीजं त्यक्ष्यामि तस्यैव सचेतनत्वात्, कटाहं तु भक्षयिष्यामि तस्याचेतनत्वादिति बुद्धया पक्वं खजूरादिफलं मुखे प्रक्षिपतः सचित्तवर्जकस्य तृतीय प्रकाशः ॥३८८|| Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥३८९॥ तृतीय प्रकाशा सचित्तप्रतिबद्धाहारो द्वितीयः २। तथा सचितेन मिश्रः शबल: आहारः सन्मिश्राहारः। यथा-आर्द्रकदाडिमबीजकुलिकाचिर्भटिकादिमिश्रः पूरणादिः, तिलमिश्रो यवधानादि, अयमप्यनाभोगातिक्रमादिनाऽतिचारः । अथवा सम्भवत्सचित्तावयवस्यापककणिक्कादेः पिष्टत्वादिना अचेतनमिति बुद्धया आहारः सन्मिश्राहारः व्रतसापेक्षवादतिचार इति तृतीयः ३ । अभिषवोऽनेकद्रव्यसंधाननिष्पन्नः सुरासौवीरकादिः, मांसप्रकारखण्डादिसुरामध्वाधभिस्यन्दिवृष्यद्रव्योपयोगो वा, अयमपि सावद्याहारवर्जकस्यानाभोगातिक्रमादिनाऽतिचार इति चतुर्थः ४। तथा दुष्पको मन्दपकः स चासावाहारश्च दुष्पकाहारः, स चार्धस्विन्नपृथुकतन्दुलयवगोधूमस्थूलमण्डककर्कटकफलादिरैहिकप्रत्यवायकारी यावता चांशेन सचेतनस्तावता परलोकमप्युपहन्ति पृथुकादेदुष्पक्वतया सम्भवत्सचेतनावयवत्वात् पक्वत्वेनाचेतन इति भुञ्जानस्याऽतिचार इति पञ्चमः ५ । केचित् त्वपक्काहारमप्यतिचारत्वेन वर्णयन्ति अपक्वं चाग्न्यादिना यदसंस्कृतम् । एष च सचित्ताहारे प्रथमातिचारेऽन्तर्भवति । तुच्छौषधिभक्षमपि केचिदति चारमाहुः । तुच्छौषधयश्च मुद्गादिकोमलशिम्बीरूपास्ताश्च यदि सचित्तास्तदा सचित्तातिचार एवान्तर्भवन्ति, अथ अग्निपाकादिना अचित्तास्तर्हि को दोषः ? इति । एवं रात्रिभोजनमद्यादिनिवृत्तिष्वपि अनाभोगातिक्रमादिभिरतिचारा भावनीयाः एते पश्चातिचारा भोगोपभोगपरिमाणगता बोद्धव्याः ॥ ९८॥ ___ अथ भोगोपभोगातिचारानुपसंहरन भोगोपभोगव्रतस्य लक्षणान्तरं तद्गतांश्चातिचारानुपदर्शयितुमाह| अमी भोजनतस्त्याज्याः कर्मतः खरकर्म तु । तस्मिन् पञ्चदश मलान् कर्मादानानि संत्यजेत्।९९।। अमी उक्तस्वरूपाः पञ्चातिचाराः, भोजनतो भोजनमाश्रित्य, त्याज्या वर्जनीयाः । भोगोपभोगमानस्य च ॥३८९॥ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ||३९०॥ व्याख्यानान्तरं - भोगोपभोगसाधनं यद्द्द्रव्यं तदुपार्जनाय यत्कर्म व्यापारस्तदपि भोगोपभोगशब्देनोच्यते, कारणे कार्य्योपचारात् । ततश्च कर्मतः कर्माश्रित्य खरं कठोरं प्राणिबाधकं यत्कर्म कोट्टपालनगुप्तिपालनवीतपालनादिरूपं तत्याज्यं, तस्मिन् खरकर्मत्यागलक्षणे भोगोपभोगव्रते, पञ्चदश मलानतिचारान् संत्यजेत् । ते च कर्मादानशब्देनोच्यन्तेः कर्मणां पापप्रकृतीनामादानानि कारणानीति कृत्वा ॥ ९९ ॥ तानेव नामतः श्लोकद्वयेन दर्शयतिअङ्गारवनशकटभाटकस्फोटजीविका । दन्तलाक्षारसकेश विषवाणिज्यकानि च ॥१००॥ यन्त्रपीडा निर्लाञ्छनमसतीपोषणं तथा । दवदानं सरःशोष इति पञ्चदश त्यजेत् ॥ १०१ ॥ जीविकाशब्दः प्रत्येकं सम्बध्यते । अङ्गारजीविका १ वनजीविका २ शकटजीविका ३ भाटकजीविका ४ स्फोटजीविका ५ । उत्तरार्धेऽपि वाणिज्यशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । दन्तवाणिज्यं ६ लाक्षावाणिज्यं ७ रसवाणिज्यं ८ केशवाणिज्यं ९ विषवाणिज्यं १० यन्त्रपीडा ११ निर्लाञ्छनं १२ असतीपोषणं १३ दवदानं १४ सरः शोषः १५ इत्येतान् पञ्चदशातिचारान् त्यजेत् ॥ १०० ॥ १०१ ॥ क्रमेण पञ्चदशाप्यतिचारान् व्याचष्टे तत्राङ्गारजीविकामाहअङ्गारभ्राष्ट्रकरणं कुम्भायः स्वर्णकारिता । ठठारत्वेष्टकापाकाविति ह्यङ्गारजीविका ॥१०२॥ अङ्गारकरणे काष्ठदाहेनाङ्गारनिष्पादनं तद्विक्रयश्थ, अङ्गारकरणे हि षण्णां जीवनिकायानां विराधनासम्भवः । XOXO ante तृतीय प्रकाशः ॥३९०॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥३९१ ॥ एवं च ये येऽग्निविराधनारूपा आरम्भास्ते तेऽङ्गारकर्मण्यन्तर्भवन्ति; प्रपश्चाथं तु भेद उक्तः । भ्राष्ट्रकरणं, भ्रष्ट्र जीवित्यर्थः । तथा कुम्भकारिता कुम्भकरणपाचनविक्रयनिमित्ता जीविका । तथा अयो लोहं तस्य करणघटनादिना जीविका । स्वर्णकारिता सुवर्णरूप्ययोर्गालनघटनादिना जीविका । कुम्भायः स्वर्णानि करोतीत्येवं शीलस्तस्य भावस्तत्ता । तथा ठठारत्वं शुल्वनागबङ्गकांस्यपित्तलादीनां करणघटनादिना जीविका, इष्टकापाकः इष्टकापाकवेलुकादीनां पाकस्तेन जीविका । इत्येवंप्रकारा अङ्गारजीविका ॥ १०२ ॥ अथ वनजीविकामाह - छिन्नाच्छिन्नवनपत्र प्रसूनफलविक्रयः । कणानां दलनात् पेषाद् वृत्तिश्च वनजीविका ॥ १०३ ॥ छिन्नस्य द्विधाकृतस्य अच्छिन्नस्य च वनस्य वनस्पतिसमूहस्य पत्राणां प्रसूनानां फलानां च छिन्नाच्छिन्नानां विक्रयो वनजीविकेत्युत्तरेण सम्बन्धः । कणानां च घरट्टादिना दलनाद् द्वैधीकरणात्, शिलाशिलापुत्रकादिना पेषात् चूर्णीकरणाद्या वृत्तिः सा वनजीविका । वनजीविका च वनस्पतिकायादिघातसम्भवा ॥ १०३ ॥ अथ शकटजीविकामाह शकटानां तदङ्गानां घटनं खेटनं तथा । विक्रयश्चेति शकटजीविका परिकीर्तिता ॥ १०४ ॥ शकटानां चतुष्पदवाह्यानां वाहनानां तदङ्गानां शकटाङ्गानां चक्रादीनां घटनं स्वयं परेण वा निष्पादनं, खेटनं वाहनं, तच्च शकटानामेव सम्भवति स्वयं परेण वा विक्रयश्च शकटानां तदङ्गानां च, इति सकलभूतोपम तृतीय प्रकाश ॥३९२॥ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धोम तृतीय प्रकाशा शास्त्रम् ॥३९ ॥ दजननी गवादीनां च वधवन्धादिहेतुः शकटजीविका प्रकीर्तिता ॥१०४॥ अथ भाटकजीविकामाहशकटोक्षलुलायोष्ट्रखराश्वतरवाजिनाम् । भारस्य वाहनाद् वृत्तिर्भवेद्धाटकजीविका ॥१०५॥ शकटशब्द उक्तार्थः उक्षाणो बलीवर्दाः लुलाया महिषाः उष्ट्राः करभाः खरा रासभा, अश्वतरा वेसराः, वाजिनोऽश्वाः एतेषां भाटकनिमित्तं यद्भारवाहनं, तस्माद् या वृत्तिः सा भाटकजीविका ॥१०५।। अथ स्फोटजीविकामाहसरःकपादिखननशिलाकुट्टनकर्मभिः । पृथिव्यारम्भसम्भूतैर्जीवनं स्फोटजीविका ॥१६॥ सरसः कूपस्य आदिग्रहणाद वापोदीर्घिकादेः खननमोड्डुकर्म, हलादिना वा क्षेत्रादे विदारणं, शिलाकुट्टनकर्म पाषाणघटनकर्मः एतैः पृथिव्याः पृथिवीकायस्य य आरम्भ उपमर्दस्तस्य सम्भूतं सम्भवो येभ्यस्तैः पृथिव्यारम्भसम्भूतैः, उपलक्षणं चैतद् भूमिखनने वनस्पतित्रसादिजन्तुघातानाम् । एभिर्जीवनं स्फोटजीविका, स्फोट पृथिव्या विदारणं तेन जीविका स्फोटजीविका ॥१०६॥ अथ दन्तवाणिज्यमाहदन्तकेशनखास्थित्वग्रोम्णो ग्रहणमाकरे । त्रसाङ्गस्य वणिज्यार्थं दन्तवाणिज्यमुच्यते ॥१०७॥ दन्ता हस्तिनां उपलक्षणत्वादन्येऽपि त्रसजीवावयवा दन्तग्रहणेन गृह्यन्ते । तदेवाह-केशाश्चमर्यादीनां, नखा ॥२२॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥३९३॥ धूकादीनां, अस्थीनि शङ्खादीनां, त्वक् चित्रकादीनां, रोमाणि हंसादीनां, तेषां ग्रहणं मूल्यादिना स्वीकारः; रोम्ण इत्येकवचनं प्राण्यङ्गत्वात् । आकरे तदुत्पत्तिस्थाने, सागस्य त्रसजीवावयवस्य, वाणिज्यार्थ वाणिज्यनिमित्त, आकरे हि दन्तादिग्रहणाथं पुलिन्द्रानां यदा द्रव्यं ददाति तदा तत्प्रति(वि)क्रयार्थ इस्त्यादिवधं ते कुर्वन्ति, आकरग्रहं चानाकरे दन्तादेग्रहणे विक्रये च न दोष इति ज्ञापनार्थम् ॥ १०७ ॥ अथ लाक्षावाणिज्यमाह लाक्षामनःशिलानीलीधातकीटकणादिनः। विक्रयः पापसदनं लाक्षावाणिज्यमुच्यते ॥१०॥ लाक्षा जतु अत्रापि लाक्षाग्रहणमुपलक्षणमन्येषां सावधानां मनःशिलादीनाम् । तान्येवाह-मनःशिला कुनटी, नीली गुलिका, धातकी वृक्षविशेषः तस्याः त्वक् पुष्पं च मद्यसन्धानहेतुर्धातकी टङ्कणः क्षारविशेषः, आदिशब्दात् संकूटादयो गृह्यन्ते, तेषां विक्रयः । स च पापसदनं टङ्कणमनःशिलयो ह्यजीवघातकत्वेन, नील्या जन्तुधाताविनाभावेन, धातक्या मद्यहेतुत्वेन तत्कल्कस्य च कृमिहेतुत्वेन पापसदनत्वं ततस्तद्विक्रयस्याऽपि पापसदनत्वम् । तदेतद् लाक्षावाणिज्यमुच्यते ॥१०८॥ अथ रसकेशवाणिज्ये एकेनैव श्लोकेनाहनवनीतवसाक्षौद्रमद्यप्रभृतिविक्रयः। द्विपाचतुष्पाद्विक्रयो वाणिज्यं रसकेशयोः ॥१०९॥ |॥३९३॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥ ३९४ ॥ नवनीतं दधिसारं, वसा मेदः, क्षौद्रं मधु, मद्यं सुरा, प्रभृतिग्रहणात् मज्जादिग्रहः । एषां विक्रयो रसवाणिज्यम् द्विपदां मनुष्यादीनां चतुष्पदां गवाश्वादीनां विक्रयः केशवाणिज्यम्, सजीवानां विक्रयः केशवाणिज्यमजीवानां तु जीवाङ्गानां विक्रयो दन्तवाणिज्यमिति विवेकः । रसकेशयोरिति यथासंख्येन योगः । दोषास्तु नवनीते जन्तुसमूर्च्छनं वासाक्षौद्रयोर्जन्तुघातोद्भवत्वं, मद्यस्य मदनजननं तद्गतकृमिविघातश्चेति द्विपाञ्चतुष्पाद्विक्रये तु तेषां पारवश्यं वधबन्धादयः क्षुत्पिपासापीडा चेति ॥ १०९ ॥ अथ विषवाणिज्यमाह - विषास्त्रहलयन्त्रायोहरितालादिवस्तुनः । विक्रयो जीवितघ्नस्य विषवाणिज्यमुच्यते ॥११०॥ विषं श्रृङ्गिकादि तच्चोपलक्षणं जीवघातहेतुनामखादीनाम् । तान्येवाह — अस्त्रं खङ्गादि, हलं लागलं, यन्त्र मरघट्टादि, अयः कुशीकुद्दालादिरूपं, हरितालं वर्णकविशेषः । आदिशब्दादन्येषामुपविषाणां ग्रहणम् । एवमादिवस्तुनो विक्रयो विषवाणिज्यं विषादेर्विशेषणं-जीवितघ्नस्य, अमीषां जीवितघ्नत्वं प्रसिद्धमेव ॥ ११०॥ अथ यन्त्रपीडाकर्माह - तिलेक्षुसर्षपै रण्डजलयन्त्रादिपीडनम् । दलतैलस्य च कृतिर्यन्त्रपीडा प्रकीर्तिता ॥ १११ ॥ यन्त्रशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । तिलयन्त्रं तिलपीलनोपकरणम्, इक्षुयन्त्र कोइलुकादि, सर्पपैरण्डयन्त्र तत्पीलनोपकरणे, जलयन्त्रमरघट्टादि, दलतैलं यत्र दलं तिलादि दीयते तैलं च प्रतिगृह्यते तद्दलतैलं तस्य कृति विधानमिति, यन्त्रपीडा यन्त्रपीडनं यन्त्रपीडाकर्मणश्च पीडनीयतिलादिक्षोदात्तद्गतत्र सजीववधाच्च सदोषत्वम् । तृतीय प्रकाशः ||३९४॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् तृतीय प्रकाशा ॥३९५॥ लौकिका अपि ह्याचक्षते-दशमनासमं चक्रमिति ॥ १११ ॥ अथ निर्लाग्छनकर्माहनासावेधोऽङ्कनं मुष्कच्छेदनं पृष्टगालनम् । कर्णकम्बलविच्छेदो निर्लाञ्छनमुदीरितम् ॥११२॥ नितरां लान्छनमगावयवच्छेदः; तेन कर्म जीविका निर्लान्छनकर्म । तद्भेदानाह-नासावेधो गोमहिषादीनाम्, अङ्कनं गवाश्वादीनां चिह्नकरण, मुष्कोऽण्डस्तस्य च्छेदनं वर्धितकीकरणं गवाश्वादीनामेव, पृष्ठगालनं करभाणां, गवां च कर्णकम्बलविच्छेदः । एषु जन्तुबाधा व्यक्तैव ॥ ११२ ॥ अथासतीपोषणमाह| सारिकाशुकमार्जारस्वकुर्कुटकलापिनाम् । पोषो दास्याश्च वित्तार्थमसतीपोषणं विदुः ॥११३॥ ___ असत्यो दुःशीलास्तासां पोषणं, लिंगमतन्त्रम्, शुकादीनाम् पुंसामपि पोषणमसतीपोषण ,सारिका व्यक्तवाक् पक्षिविशेष :, शुकः कीरः, मार्जारो बिडालः, श्वा कुक्कुरः, कुकुंटस्ताम्रचूडः, कलापी मयूरः, एतेषां तिरश्चां पोषः पोषणं, दास्याश्च पोष इति वर्तते, स च भाटीग्रहणार्थमसतीपोषः। एषां च दुःशीलानां पोषणं पापहेतुरेव ॥११३॥ अथ दवदानसर शोषावेकेन श्लोकेनाहव्यसनातू पुण्यबुद्धया वा दवदानं भवेद् द्विधा। सरःशोषः सरःसिन्धुहृदादेरम्बुसंप्लवः ॥११४॥ दवस्य दवाग्नेः तृणादिहननिमित्तं दानं वितरणं दवदानं, तच्च द्विधा संभवति-व्यसनात् फलनिरपेक्षता ॥३९५॥ SED Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥३९६॥ त्पर्य्यात् यथा वनेचरा एवमेवाग्नि ज्वालयन्ति, पुण्यबुद्धया वां यथा मे दवा देया मरणकाले इयन्तो मम श्रेयोऽर्य धर्मदीपोत्सवाः, करणीया इति, अथवा तृणदाहे सति नवतृणाङ्कुरोद्रेदाद् गावश्चरन्तीति क्षेत्रे वा सस्यसम्पत्तिवृ येऽग्निज्वालनम् । अत्र जीवकोटीनां वधः स्यात् । सरसः शोषः सर शोषः सरोग्रहणमुपलक्षणं जलाशयान्तराणाम् । तदेवाह-सरः सिन्धुहृदादिभ्यो योऽम्बुनो जलस्य संप्लवः सारणीकर्षणं धान्यवपनार्थ, आदिशब्दात् तडागादिपरिग्रहः तत्राऽखातं सरः खातं तडागम् । सर शोषे च जलस्य तद्गतानां त्रसानां तत्प्लावितानां च षण्णां जीवनिकायानां वध इति सरःशोषदोषः। इत्युक्तानि पञ्चदशकर्मादानानि, दिङ्मात्रं चेदम् , एवं जातीयानां बहूनां सावद्यकर्मणां न पुनः परिगणनमिति । इह चैवं विंशतिसंख्याऽतिचाराभिधानमन्यत्राऽपि पश्चातिचारसंख्यया तज्जातीयानां व्रतपरिणामकालुष्यनिबन्धनविधीनामपरेषां संग्रह इति ज्ञापनार्थम् । तेन स्मृत्यन्तर्धानादयो यथासम्भवं सर्वत्रतेध्वतिचारा दृश्याः । नन्वङ्गारकर्मादयः कथं खरकर्मण्यतिचाराः?, खरकर्मरूपा एव घेते । सत्यम्, खरकर्मरूपा एवैते, किन्त्वनाभोगादिना क्रियमाणा अतिचाराः, उपेत्य क्रियमाणास्तु भङ्गा एवेति ॥११४॥ अथानर्थदण्डविरतिव्रतस्याऽतिचारानाहसंयुक्ताधिकरणत्वमुपभोगातिरिक्तता। मौखर्य्यमथ कौत्कुच्यं कन्दोऽनर्थदण्डगाः॥११५॥ ___ अनर्थदण्डगा इत्यनर्थदण्डविरतिव्रतगामिन एते पञ्चातिचाराः। तद्यथा-अधिक्रियते दुर्गतावात्माऽनेनेत्यधिकरणमुखलादिसंयुक्तम्, उदुखलेन मुशलं, हलेन फालः, शकटेन युगं, धनुषा शरा, एवमेकमधिकरणमधिकरणान्तरेण संयुक्तं संयुक्ताधिकरणं तस्य भावस्तत्त्वम् । इह च श्रावकेण संयुक्तमधिकरण न धारणीयम् । ॥३९६॥ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशः ॥३९७॥ तथा सति हि यः कश्चित् संयुक्तमधिकरणमाददीत, वियुक्ताधिकरणतायां तु सुखेन परः प्रतिषेधयितुं शक्यते । एतच्च हिंसप्रदानरूपस्यानर्थदण्डस्यातिचारः १ । तथा उपभोगस्योपलक्षणत्वाद्भोगस्य चोक्तनिर्वचनस्य यदतिरिक्तत्वमतिरेकः सा उपभोगातिरिक्तता । अयं प्रमादाचरितस्याऽतिचारः। इह च स्नानपानभोजनचन्दनकुङ्कुमकस्तुरिकावस्त्राभरणादीनामतिरिक्तानामारम्भोऽनर्थदण्डः । अत्राऽपि वृद्धसम्प्रदायः- अतिरिक्तानि बहूनि तैलामलकानि यदि गृहणाति, तदा तल्लौल्येन बहवः स्नानार्थ तडागादौ ब्रजन्ति, ततश्च पूतरकाप्कायादिवधोऽधिकः स्यात्न कल्पते. ततः को विधिः? तत्र स्नानेच्छुना तावद्गृह एव स्नातव्यम् तद्भावे तु तैलामलकैगृह एव शिरो घर्षयित्वा तानि सर्वाणि शाटयित्वा तडागादीनां तटे निविष्टोऽञ्जलिभिः स्नाति । तथा येषु पुष्पादिषु संसक्तिः सम्भवति तानि परिहरति, एवं सर्वत्र वाच्यमिति द्वितीयोऽतिचारः २ । तथा मुखमस्यास्तीति मुखरोऽनालोचि तभाषी वाचाटः तस्य भावो मौखऱ्या घाष्टर्थप्रायमसभ्यासम्बद्धबहुपलापित्वम्, अयं च पापोपदेशस्यातिचारः, मौखर्ये सति पापोपदेशसम्भवादिति तृतीयः ३। तथा कुदिति कुत्सायां निपातो, निपातानामानन्त्यात् । कुत् कुत्सितं कुचति भ्रनयनौष्ठनासाकरचरणमुखविकारैः सङ्कुचतीति कुत्कुचस्तस्य भावः कौत्कुच्यम् अनेकप्रकारा भण्डादिविडम्बनक्रिया इत्यर्थः । अथवा कौकुच्यमिति पाठः, तत्र कुत्सितः कुचः कुकुचः संकोचादिक्रियाभाक तद्भावः कौकुच्यम्, अत्र च येन परो हसति, आत्मनश्च लाघवं भवति, न तादृशं वक्तुं चेष्टितुं वा कल्पते, प्रमादात्तथाचरणे चातिचार इति चतुर्थः ४ । तथा कन्दर्पः कामस्तद्धेतुस्तत्प्रधानो वा वाक्प्रयोगोऽपि कन्दर्पः । इह च सामाचारी-श्रावकेण न तादृशं वक्तव्यं येन स्वस्य परस्य वा मोहोरेको भवतीति पञ्चमः ५। एतौ द्वावपि ॥३९ ॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥३९८॥ प्रमादाचरितस्यातिचारा, इत्यवसिता गुणव्रतातिचाराः ॥ ११५ ॥ अथ शिक्षाव्रतातिचारावसरः । तत्रापि सामायिकस्य तावदतिचारानाहकायवाङ्मनसां दुष्टप्रणिधानमनादरः । स्मृत्यनुपस्थापनं च स्मृतोः सामायिकवते ॥ ११६ ॥ कायस्य वाचो मनसश्च प्रणिहितिः प्रणिधानम् , दुष्टं च तत्प्रणिधानं दुष्टप्रणिधानं सावधे प्रवर्तनं कायदुप्रणिधानं वाग्दुष्प्रणिधानं मनोदुष्प्रणिधानं चेत्यर्थः । तत्र शरीरावयवानां पाणिपादादीनामनिभृतताऽवस्थापनं कायदुष्प्रणिधानम् वर्णसंस्काराभावोऽर्थानवगमश्चापलं च वाग्दुष्प्रणिधानम् क्रोधलोभद्रोहाऽभिमानेादयः कार्यव्यासङ्गसम्भ्रमश्च मनोदुष्प्रणिधानम् ; एते त्रयोऽतिचाराः । यदाहु: अनिरिक्खियापमज्जियथण्डिल्ले ठाणमाइ सेवंतो। हिंसाभावे वि न सो कडसामाइओ पमायाउ ॥ १॥ कडसामाइउ पुचि बुद्धीए पेहिऊण भासिज्जा । सइ निरवज्ज वयणं अन्नह सामाइयं न हवे ॥ २ ॥ सामाइयं तु काउं घरचिन्तं जो उ चिन्तए सट्टो । अट्टवसट्टोवगओ निरत्ययं तस्स सामाइयं ॥ ३ ॥ तथाऽनादरोऽनुत्साहः प्रतिनियतवेलायां सामायिकस्याकरणम्, यथाकथञ्चिद्वा करणम्, प्रबलप्रमादादिदोषात् (१) अनिरीक्षिताऽप्रमार्जितस्थण्डिले स्थानादि सेवमानः । हिंसाभावेऽपि न स कृतसामायिकः प्रमादात् ॥१॥ कृतसामायिकः पूर्व बुद्धया प्रेक्ष्य भाषेत । सदा निरवद्यं वचनमन्यथा सामायिकं न भवेत् ॥ २ ॥ सामायिकं तु कृत्वा गृहचिन्तां यस्तु चिन्तयेत् श्राद्धः। आर्तवशातोपगतो निरर्थकं तस्य सामायिकम् ॥३॥ ३९८ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥ ३९९ ॥ करणानन्तरमेव पारणं च । यदाहुः - १काऊण तक्खणं चिr पारेइ करेइ वा जहिच्छाए । अणवद्वियसामाइये अणायराओ न तं सुद्धं ॥ १ ॥ इति चतुर्थः ॥ ४ ॥ स्मृती स्मरणे सामायिकस्याऽनुपस्थापनं स्मृत्यनुपस्थापनं सामायिकं मया कर्तव्यं न कर्तव्यमिति वा, सामायिकं मया कृतं न कृतमिति वा, प्रबलप्रमादाद्यदा न स्मरति तदा अतिचारः, स्मृतिमूलत्वान्मोक्षसाधनाऽनुष्ठानस्य । यदाहु: न सरइ पमायजुतो जो सामाइयं कया य कायव्वं । कयमकर्यं वा तस्स हु कयं पि विहलं तय नेयं ॥ १ ॥ ननु काय दुष्प्रणिधानादौ सामायिकस्य निरर्थकत्वादिप्रतिपादनेन वस्तुतोऽभाव एवोक्तः, अतिचारश्च मालिन्यरूप एव भवतीति कथं सामायिकाभावे स भवेत् ?, अतो भङ्गा एवैते नातिचारा इति चेत् उच्यतेअनाभोगतोऽतिचारत्वम् । ननु द्विविधं त्रिविधेन सावद्यप्रत्याख्यानं सामायिकं तत्र च कायदुष्प्रणिधानादौ प्रत्याख्यानभङ्गात् सामायिकाभाव एव तद्भङ्गजनितं च प्रायश्चित्तं विधेयं स्यात् मनोदुष्प्रणिधानं चाशक्यपरिहारं मनसोऽनवस्थितत्वादतः सामायिकप्रतिपत्तेः सकाशात्तदप्रतिपत्तिरेव श्रेयसी । यदाहु: - " अविधिकृताद्वरमकृतमिति" । नैवम्, यतः सामायिकं द्विविधं त्रिविधेन प्रतिपन्नम्, तत्र च मनसा वाचा कायेन सावद्यं न करोमि न कारयामीति पर प्रत्याख्यानानि इत्येकतरप्रत्यानभङ्गेऽपि शेषसद्भावान्मिथ्यादुष्कृतेन मनोदुष्प्रणिधानमात्रशुद्धेश्व (१) कृत्वा तत्क्षणमेव पारयति करोति वा यथेच्छम् । अनवस्थितसामायिकमनादराद् न तत् शुद्धम् ॥ १ ॥ (२) न स्मरति प्रमादयुक्तो यः सामायिकं कदा च कर्तव्यम् । कृतमकृतं वा तस्य खलु कृतमपि विफलं तस्य ज्ञेयम् ॥ १ ॥ FERO OKO ORESEE MORE TO CREATE ENO FOR तृतीय प्रकाशः ||३९९|| Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ४००ll न सामायिकस्यात्यन्ताभावः, सर्वविरतिसामायिकेऽपि च तथाऽभ्युपगतम्, यतो गुप्तिभङ्गे मिथ्यादुष्कृतं प्रायश्चितमुक्तम् । किञ्च सातिचारादप्यनुष्ठानादभ्यासतः कालेन निरतिचारमनुष्ठानं भवति । यदाहुर्बाह्या अपि - अभ्यासो हि कर्मणां कौशलमावहति, न हि सकृन्निपातमात्रेणोदविन्दुरपि ग्रावणि निम्नतामादधाति । न चाविधिकृताद् वरमकृतमिति युक्तम्, असूयावचनत्वादस्य । यदाहुः १ अविहिकया वरमक असूयवयणं भणन्ति समयन्नू । पायच्छित जम्हा अकए गुरुअ कए लहुअ ॥ १ ॥ केचित्तु पोषधशालायां सामायिकमेकेनैव कार्य्यं न बहुभिः, 'एगे अबीए' इति वचनप्रामाण्यादित्याहुः । नायमेकान्तो वचनान्तरस्याऽपि श्रवणात् । व्यवहारभाष्येऽप्युक्तम् – “२ राजसुयाई पश्च वि पोसहसालाइ संमिfिor " । इत्यले प्रसङ्गेन ॥ ११६ ॥ एते पञ्श्चातिचाराः सामायिकत्रते उक्ताः, इदानीं देशावका शिकवतातिचारानाहप्रेष्यप्रयोगानयने पुगलक्षेपणं तथा । शब्दरूपाऽनुपातौ च व्रते देशावकाशिके ॥ ११७ ॥ दिनविशेष एव देशावका शिकव्रतम्, इयांस्तु विशेषः - दिगवतं यावज्जीवं संवत्सरचतुर्मासीपरिमाणं वा, देशावका शिकं तु दिवसप्रहरमुहूर्तादिपरिमाणम् । तस्य च पश्चातिचाराः । तद्यथा-- प्रेष्यस्याऽऽदेश्यस्य प्रयोगो (१) अविधिकृताद् वरमकृतमसूयावचनं भणन्ति समयज्ञाः । प्रायश्चित्तं यस्मादकृते गुरुकं कृते लघुकम् ॥ १ ॥ (२) राजसुतादयः पञ्चाऽपि पोषधशालायां संमिलिताः । तृतीय प्रकाशः ॥४००॥ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४०१ ॥ विवक्षितक्षेत्राद्बहिष्प्रयोजनाय व्यापारणम्, स्वयं गमने हि व्रतभङ्गः स्यादिति प्रेष्यप्रयोगः । देशावका शिकव्रतं हि मा भूद् गमनागमनादिव्यापारजनितप्राण्युपमर्द इत्यभिप्रायेण गृह्यते स तु स्वयं कृतोऽन्येन कारित इति न कश्चित् फले विशेषः प्रत्युत स्वयं गमने ईर्यापथविशुद्धेर्गुणः परस्य पुनरनिपुणत्वादीर्य्यासमित्यभावे दोष इति प्रथमोऽतिचारः १ । आनयनं विवक्षितक्षेत्राद् वहिः स्थितस्य सचेतनादिद्रव्यस्य विवक्षितक्षेत्रे प्रापणं सामर्थ्यात् प्रेष्येण; स्वयं गमने हि व्रतभङ्गः स्यात् परेण तु आनयने न व्रतभङ्गः स्यादिति बुद्धया प्रेष्येण यदाऽऽनाययति सचेतनादि द्रव्यं तदाऽतिचार इति द्वितीयः २ । तथा पुद्गलाः परमाणवस्तत्संघातसमुद्भवा बादरपरिणाम प्राप्ता लोष्टेटकाः काष्ठशलाकादयोऽपि पुद्गलास्तेषां क्षेपणं प्रेरणम् । विशिष्टदेशावग्रहे हि सति कार्यार्थी परतो गमननिषेधाद्यदालोष्टादीन् परेषां बोधनाय क्षिपति, तदा लोष्टादिपातसमनन्तरमेव ते तत्समीपमनुधावन्तिः ततश्च तान् व्यापारयतः स्वयमनुपमर्दकस्यातिचारो भवतीति तृतीयः ३ । शब्दरूपानुपातो चेति शब्दानुपातो रूपानुपातश्च । तत्र स्वगृहवृत्ति (ति) प्राकारादिव्यवच्छिन्नभूदेशाभिग्रहः प्रयोजने उत्पन्ने स्वयमगमनाद् वृत्ति (ति) प्राकारप्रत्यासन्नवर्ती भूत्वा अभ्युत्का सितादिशब्दं करोति, आह्रानीयानां श्रोत्रेऽनुपातयति, ते च तच्छन्दश्रवणा तत्समीपमागच्छन्ति इति शब्दानुपातोऽतिचारः । तथा रूपं स्वशरीरसम्बन्धि उत्पन्न प्रयोजनः शब्दमनुच्चारयन् आहानीयानां दृष्टावनुपातयति, तद्दर्शनाच्च ते तत्समीपमागच्छन्तीति रूपानुपातः । इयमत्र भावना-विवक्षितक्षेत्राद्बहिः स्थितं कञ्चन नरं व्रतभङ्गभयादाहातुमशक्नुवन् यदा स्वकीयशब्दश्रावण रूपदर्शनव्याजेन तमाकारयति, तदा व्रतसापेक्षत्वाच्छब्दानुपातरूपानुपातावतिचाराविति चतुर्थपञ्चमौ ४ । ५ । इह चाद्यातिचारद्वयमव्युत्पन्नबुद्धितया सहसाकारादिना तृतीय प्रकाशः ॥ ४०२ ॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४०२॥ वा, अन्त्यत्रयं तु मायावितया अतिचारतां याति । अत्र दिग्रव्रतसंक्षेपकरणवद् व्रतान्तराणामपि संक्षेपकरणं देशावकाशिकवतमिति वृद्धाः । अतिचाराश्च दिग्वतकरणस्येव श्रृयन्ते न व्रतान्तरसंक्षेपकरणस्य, तत्कथं व्रतान्तरसंक्षेपकरण देशावकाशिकव्रतम् ? अत्रोच्यते-प्राणातिपातादिविरमणव्रतान्तरसंक्षेपकरणेषु वधबन्धादय एवातिचाराः दिगव्रतसंक्षपकरणे तु संक्षिप्तत्वात् क्षेत्रस्य, प्रेष्यप्रयोगादयोऽतिचाराः । भिन्नातिचारसम्भवाच्च दिग्रव्रतसंक्षेपकरणस्यैव देशावकाशिकत्वं साक्षादुक्तमिति ॥ ११७ ॥ अथ पोषधव्रतस्यातिचारानाह| उत्सर्गादानसंस्ताराननवेक्ष्याप्रमृज्य च । अनादरः स्मृत्यनुपस्थापनं चेति पोषधे ॥११८॥ ___ उत्सर्जनमुत्सर्गस्त्याग उच्चारप्रखवणखेलसिंघाणकादीनामवेक्ष्य प्रमृज्य च स्थण्डिलादौ उत्सर्गः कार्यः । | अवेक्षणं चक्षुषा निरीक्षणम् । प्रमार्जनं वस्त्रप्रान्तादिना स्थण्डिलादेरेव विशुद्धीकरणम् । अथानवेक्ष्याप्रमृज्य चोत्सर्ग करोति तदा पोषधव्रतमतिचरतीति प्रथमोऽतिचारः १ । आदानं ग्रहणं यष्टिपीठफलकादीनाम्, तदप्य वेक्ष्य प्रमृज्य च कार्यम्, अनवेक्षितस्याप्रमार्जितस्य चादानमतिचारः । आदानग्रहणेन निक्षेपोऽप्युपलक्ष्यते यष्टयादीनाम्, तेन सोऽप्यवेक्ष्य प्रमाय च कार्यः अनवेक्ष्याप्रमृज्य च निक्षेपोऽतिचार इति द्वितीयः २ । तथा संस्तीर्यते यः प्रतिपन्नपोषधनतेन दर्भकुशकम्बलिवस्त्रादिः स संस्तारः, स चावेक्ष्य प्रमाय॑ च कर्तव्यः अनवेक्ष्याप्रमाय॑ च करणेऽतिचारः। इह चानवेक्षणेन दुरवेक्षणम्, अप्रमार्जनेन दुष्प्रमार्जन संगृह्यते, नत्रः कुत्सार्थ स्याऽपि दर्शनात, यथा कुत्सितो ब्राह्मणोऽब्राह्मणः । ૧ર૦રા Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् तृतीय प्रकाशा ॥४०॥ यत् सूत्रम्-१अप्पडिलेहिअदुप्पडिलेहिअसिज्जासंथारए, अप्पमज्जिअदुप्पमज्जिअसिज्जासंथारए, अप्पडिलेहिअदुप्पडि लेहिअउच्चारपासवणभूमीए,*अप्पमजिअदुप्पमज्जिअउच्चारपासवणभूमि (मीए)॥ इति तृतीयः३। तथा अनादरः पोषधव्रतप्रतिपत्तिकर्तव्यतायामिति चतुर्थः ४। तथा स्मृत्यनुपस्थापन तद्विषयमेवेति पञ्चमः, पोषधे सर्वतः पोषधे देशतः पोषधे तु नायं विधिः ५॥११८॥ अथातिथिसंविभागवतस्यातिचारानाहसचित्ते क्षेपणं तेन पिधानं काललङ्घनम् । मत्सरोऽन्यापदेशश्च तुर्यशिक्षाव्रते स्मृताः॥११९॥ सचित्ते सजीवे पृथ्वीजलकुम्भोपचुल्लीधान्यादौ, क्षेपणं निक्षेपो देयस्य वस्तुनः, तच्च अदानबुद्धया निक्षिपति, एतज्जानात्यसौ तुच्छबुद्धिः यत् सचित्ते निक्षिप्तं न गृहणते साधव इत्यतो देयं चोपस्थाप्यते न चाददते साधव इति लाभोऽयं ममेति प्रथमोऽतिचारःश तथा तेन सचितेन सूरणकन्दपत्रपुष्पफलादिना तथाविधयैव बुद्धया पिधत्ते इति द्वितीयः । तथा कालस्य साधनामुचितभिक्षासमयस्य लङ्घनमतिक्रमः, अयमर्थः-उचितो यो भिक्षाकालः साधनां लङ्घयित्वा, अनागतं वा भुकते पोषधव्रती । इति तृतीयः३। तथा मत्सरः कोपः यथा मागितः सन् कुप्यति, सदपि मार्गितं न ददाति । अथवाऽनेन तावद् द्रमकेण मार्गितेन दत्तम् . किमहं ततोऽपि हीन इति मात्सर्या(१) अप्रतिलेखितदुष्प्रतिलेखितशय्यासंस्तारके, अप्रमार्जितदुष्प्रमाजितशय्यासंस्तारके, अप्रतिलेखितदुष्प्रतिलेखितोच्चा रप्रसवणभूमौ, अप्रमार्जितदुष्प्रमाणितोचारप्रस्रवणभूमौ । * 'भूमीओ इत्यपि पाठः' ॥४०॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ll૪૦ણા ददाति, अत्र परोन्नतिवैमनस्य मात्सर्यम्, यदुक्तमस्माभिरेवाऽनेकार्थसंग्रहे-मत्सरः परसम्पत्त्यक्षमायां तद्वति क्रुधि । इति चतुर्थः ४। तथा अन्यस्य परस्य सम्बन्धीदं गुडखण्डादीति व्यपदेशो व्याजोऽन्यापदेशः, यदनेकार्थसंग्रहे-अपदेशस्तु कारणे व्याजे लक्ष्येऽपि । इति पत्रमः ५। एते पश्चातिचारास्तुर्यशिक्षाव्रते अतिथिसंविभागनाम्नि स्मृताः। अतिचारभावना पुनरियम्-यदा अनाभोगादिना अतिचरन्ति तदा अतिचाराः, अन्यथा तु भङ्गाः; इत्यवसितानि सम्यक्त्वमूलानि द्वादश ब्रतानि, तदतिचाराश्चाभिहिताः ॥११९॥ इदानीमुक्तशेषं निर्दिशन् श्रावकस्य महाश्रावकत्वमाहएवं व्रतस्थितो भक्त्या सप्तक्षेत्र्यां धनं वपन । दयया चातिदीनेष महाश्रावक उच्यते॥१२०॥ ___ एवं पूर्वोक्तप्रकारेण सम्यक्त्वमूलेष्वतिचारविशुद्धेषु द्वादशसु व्रतेषु स्थितो निश्चलचित्तत्वेन निलीनः सप्तानां क्षेत्राणां समाहारः सप्तक्षेत्री जैनबिम्बभवनागमसाधुसाध्वीश्रावक श्राविकालक्षणा तस्यां, न्यायोपात्तं धनं वपन् निक्षिपन् । क्षेत्रे हि बीजस्य वपनमुचितमित्युक्तं वपश्निति, वपनमपि क्षेत्रे उचितं नाक्षेत्रे इति सप्तक्षेच्यामित्युक्तम् । क्षेत्रत्वं च सप्तानां रूढमेव । वपनं च सप्तक्षेत्र्यां यथोचितस्य द्रव्यस्य भक्त्या श्रद्धया, तथाहि-जिनबिम्बस्य तावद्विशिष्टलक्षणलक्षितस्य प्रसादनीयस्य वज्रेन्द्रनीलाऽञ्जनचन्द्रकान्तसूर्यकान्तरिष्टाङ्ककर्केतनविद्रमसुवर्णरूप्यचन्दनोपलमृदादिभिः सारद्रव्यैर्विधापनम् । यदाह सन्मृत्तिकामलशिलातलरूप्यदारु–सौवर्णरत्नमणिचन्दनचारुबिम्बम् । कुर्वन्ति जैनमिह ये स्वधनानुरुपं, ते प्राप्नुवन्ति नृसुरेषु महासुखानि ॥१॥ ॥४०४॥ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥४०५॥ तथाहि१पासाइआ पडिमा लक्खणजुत्ता समत्तलङ्करणा । जह पल्हाएइ मणं तह निज्जरमो विआणाहि ॥१॥ तथा निर्मितस्य जिनबिम्बस्य शास्त्रोक्तविधिना प्रतिष्ठापनम्, अष्टाभिश्च प्रकारैरभ्यर्चनं, यात्राविधानं, विशिटाभरणभूषण, विचित्रवः परिधापनमिति जिनबिम्बे धनवपनम् । यदाह गन्धैर्माल्यैर्विनिर्यबहलपरिमलैरक्षतेधूपदीपैः, सामाज्यैः प्राज्यभेदैश्चरुभिरुपहृतैः पाकपूतैः फलैश्च । अम्भःसंम्पूर्णपात्रेरिति हि जिनपतेरर्चनामष्टभेदां, कुर्वाणा वेश्मभाजः परमपदसुखस्तोममाराल्लभन्ते ॥१॥ ननु जिनबिम्बानां पूजादिकरणे न कश्चिदुपयोगः, न हि पूजादिभिस्तानि तृप्यन्ति तुष्यन्ति वा, न चातृप्ततष्टाभ्यो देवताभ्यः फलमाप्यते । नैवम् , चिन्तामण्यादिभ्य इवातृप्ततुष्टेभ्योऽपि फलप्राप्त्यविरोधात् । यदुक्तं वीतरागस्तोत्रेऽस्माभिः अप्रसन्नात् कथं प्राप्यं फलमेतदसङ्गतम् । चिन्तामण्यादयः किं न फलन्त्यपि विचेतनाः॥१॥ तथा२उवगाराभावम्मि वि पुज्जाणं पूयगस्य उवगारो। मन्ताइसरणजलणादिसेवणे जह तहेहं पि ॥१॥ एष तावत् स्वकारितानां बिम्बानां पूजादिविधिरुक्तः, अन्यकारितानामपि । अकारितानां च शाश्वतप्रतिमानां (१) प्रासादिता प्रतिमा लक्षणयुक्ता समस्तालङ्करणा । यथा प्रहलादयति मनस्तथा निर्जीर्यामो विजानीहि ।। । (२) उपकाराभावेऽपि पूज्यानां पूजकस्योपकारः । मन्त्रादिस्मरणज्वलनादिसेवने यथा तथेहापि ॥१॥ ॥४०५॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४०६॥ यथाहं पूजनवर्धनादिविधिरनुष्ठेयः । त्रिविधा हि जिनप्रतिमाः - भक्तिकारिताः स्वयं परेण वा चैत्येषु कारिताः या इदानीमपि मनुष्यादिभिविधाप्यन्ते; मङ्गल्यकारिता या गृहेषु द्वारपत्रेषु मङ्गलाय कार्यन्ते, शाश्वत्यस्तु अकारिता एव अधस्तिर्यगूर्ध्वलोकावस्थितेषु जिनभवनेषु वर्तन्त इति । नहि लोकत्रयेऽपि तत्स्थानमस्ति यन पारमेश्वरीभिः प्रतिमाभि: पवित्रितमिति । जिनप्रतिमानां च वीतरागस्वरूपाध्यारोपेण पूजादिविधिरुचित इति । जिनभवनक्षेत्रे स्वधनवनं यथा - शल्यादिरहितभूमौ स्वयंसिद्धस्योपलकाष्ठादिदलस्य ग्रहणेन सूत्रकारादिभृतकान तिसन्धानेन भृत्यानामधिकमूल्यवितरणेन षड्जीवनिकायरक्षायतनापूर्वकं जिनभवनस्य विधापनम् । सति विभवे भरतादिवद् रत्नशिलाभिर्वद्धचामीकरकुट्टिमस्य मणिमयस्तम्भसोपानस्य रत्नमयतोरणशतालङ्कारकृतस्य विशालशालाबलानकस्य शालभञ्जिकाभङ्गिभूषितस्तम्भादिप्रदेशस्य दह्यमान कर्पूरकस्तूरिका गुरुप्रभृतिधूपसमुच्छलद्धूमपटलजातजलदशङ्कानृत्यत्कलकण्ठकुलकोलाहलस्य चतुर्विधाऽऽतोद्यनान्दीनिनादनादितरोदसीकस्य देवाङ्गप्रभृतिविचित्रवस्त्रोल्लोचखचितमुक्तावचूलालङ्कृतस्य उत्पतश्निपतद्गायन्नृत्यद्वल्गत्सिंहादिनादितवत्सुरसमूहमहिमानुमोदनप्रमोदमानजनस्य विचित्रचित्रचित्री यितसकललोकस्य चामरध्वजच्छत्राद्यलङ्कारविभूषितस्य मूर्धारोपितविजयवैजयन्ती निबद्धकिङ्किणीरणत्कारमुखरितदिगन्तस्य कौतुकाक्षिप्तसुरासुरकिन्नरी (र) निवहाहमहमिकाप्रारब्धसङ्गीतस्य गन्धर्वगीतध्वनितिरस्कृतुम्बुरुमहिनो निरन्तरतालारसरासक हल्ली सकप्रमुखप्रबन्धनानाभिनयनव्यग्र कुलाङ्गनाचमत्कारितभव्यलोकस्या - भिनीयमाननाटककोटिरसाक्षिप्तरसिकजनस्य जिनभवनस्योत्तुङ्गगिरिशृङ्गेषु जिनानां जन्मदीक्षाज्ञाननिर्वाणस्थानेषु सम्प्रतिराजवच्च प्रतिपुरं प्रतिग्रामं पदे पदे विधापनम् असति तु विभवे तृणकुटयादिरूपस्याऽपि । यदाह — तृतीय प्रकाशः ॥४०६ ॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥४०७॥ तृतीय प्रकाशा यस्तृणमयीमपि कुटी कुर्यादद्यात्तथैकपुष्पमपि । भक्त्या परमगुरुभ्यः पुण्योन्मानं कुतस्तस्य ? ॥१॥ किं पुनरुपचितदृढघनशिलासमुद्घातघटितजिनभवनम् । ये कारयन्ति शुभमतिविमानिनस्ते महाधन्याः॥२॥ राजादेस्तु विधापयितुः प्रचुरतरभाण्डागारग्रामनगरमण्डलगोकुलादिप्रदानं जिनभवनक्षेत्रे वपनम्, तथा जीर्णशीर्णानां चैत्यानां समारचनम्, नष्टभ्रष्टानां समुद्धरणं चेति । ननु निरवद्यजिनधर्मसमाचरणचतुराणां जिनभवनविम्बपूजादिकरणमनुचितमिव प्रतिभासते षड्जीवनिकायविराधनाहेतुत्वात्तस्य, भूमीखननदलपाटकानयनग पूरणेष्टकाचयनजलप्लावनवनस्पतित्रसकायविराधनामन्तरेण न हि तद्भवति । उच्यते-य आरम्भपरिग्रहप्रसक्तः कुटुम्बपरिपालननिमित्तं धनोपार्जनं करोति, तस्य धनोपार्जनं विफलं मा भूदिति जिनभवनादौ धनव्ययः श्रेयानेव न च धर्मार्थ धनोपार्जन युक्तम् यतः धर्मार्थ यस्य वित्तेहा तस्यानीहा गरीयसी । प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ॥१॥ इत्युक्तमेव । न च वापीकूपतडागादिखननवदशुभोदकं जिनभवनादिकरणम्, अपि तु सङ्घसमागमधर्मदेशनाकरणव्रतप्रतिपत्त्यादिकरणेन शुभोदकमेव । षड्जीवनिकायविराधना च यतनाकारिणामगारिणां कृपापरवशत्वेन सूक्ष्मानपि जन्तून् रक्षयतामविराधनैव । यदाहु:-- १जा जयमाणस्स भवे विराहणा मुत्तविहिसमग्गस्स । सा होइ निज्जरफला अब्भत्थविसोहिजुत्तस्स ॥१॥ (१) या यतमानस्य भवेद विराधना सूत्रविधिसमग्रस्य । सा भवति निर्जरफलाभ्यर्थनाविशोधियुक्तस्य ||१|| ॥४०७॥ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् तृतीय प्रकाशा ॥४०८॥ १परमरहस्समिसीणं समत्तगणिपिडगभरिअसाराणं । परिणामि पमाणं निच्छयमवलम्बमाणाणं ॥२॥ यस्तु निजकुटुम्बार्थमपि नारम्भं करोति प्रतिमाप्रतिपन्नादिः, तस्य मा भूज्जिनबिम्बादिविधापनमपि । यदाहु:देहाइनिमित्तं पि हु जे कायवहम्मि इह पयट्टन्ति । जिणपूआकायवहम्मि तेसिमपवत्तणं मोहो ॥१॥ इत्यलं प्रसङ्गेन । जिनागमक्षेत्रे च स्वधनवपनं यथा-जिनागमो हि कुशास्त्रजनितसंस्कारविषसमुच्छेदनमहामन्त्रायमाणो धर्माधर्मकृत्याकृत्यभक्ष्याभक्ष्यपेयापेयगम्यागम्यसारासारादिविवेचनहेतुः संतमसे दीप इव, समुद्रे द्वीपमिव, मरौ कल्पतरुरिख, संसारे दुरापः। जिनादयोऽप्येतत्प्रामाण्यादेव निश्चीयन्ते। यदवोचाम स्तुतिषुयदीयसम्यक्त्वबलात् प्रतीमो भवादृशानां परमाप्तभावम् । कुवासनापाशविनाशनाय नमोऽस्तु तस्मै तव शासनाय ॥१॥ जिनागमबहुमानिनां च देवगुरुधर्मादयोऽपि बहुमता भवन्ति । किं च केवलज्ञानादपि जिनागम एव प्रामाण्येनाऽतिरिच्यते । यदाहुः ३ओहे सुओवउत्तो सुयनाणी जइ हु गिण्डइ असुद्ध । तं केवली वि भुञ्जइ अपमाणं सुभं भवे इहरा ॥१॥ एकमपि जिनागमवचनं भविनां भवनाशहेतुः। यदाहु: एकमपि च जिनवचनाद्यस्मानिर्वाहकं पदं भवति । श्रूयन्ते चानन्ताः सामायिकमात्रपदसिद्धाः ॥१॥ इति ॥ (१) परमरहस्यमृषीणां समस्तगणिपिटकभृतसारणाम् । परिणामितं प्रमाणं निश्चयमवलम्बमानानाम् ॥२॥ (२) देहादिनिमित्तमपि खलु ये कायवधे इह प्रवर्तन्ते । जिनपूजाकायवधे तेषामप्रवर्तनं मोहः ॥३॥ (३) ओघे श्रुतोपयुक्तः श्रुतज्ञानी यदि खलु गृह्णात्यशुद्धम् । तत् केवल्यपि भुङ्क्तेऽप्रमाणं श्रुतं भवेदितरथा॥१॥ | ॥४०८॥ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४०९|| यद्यपि च मिथ्यादृष्टिभ्य आतुरेभ्य इव पथ्यान्नं न रोचते जिनवचनम्, तथापि नान्यत् स्वर्गापवर्गमार्गप्रकाशनसमर्थम्, इति सम्यग्दृष्टिभिस्तदादरेण श्रद्धातव्यम्, यतः कल्याणभाजिन एव जिनवचनं भावतो भावयन्ति । इतरेषां तु कर्णशूलकारित्वेनामृतमपि विषायते । यदि चेदं जिनवचनं नाभविष्यत्, तदा धर्माधर्मव्यवस्थाशून्यं भवान्धकूपे भुवनमपतिष्यत् । यथा च हरीतकी भक्षयेद् विरेककामः इति वचनाद्धरीतकीभक्षणप्रभवविरेकलक्षणेन प्रत्ययेन सकलस्याप्यायुर्वेदस्य प्रामाण्यमवसीयते, तथा अष्टाङ्गनिमित्तकेवलिकाचन्द्राग्रहचारधातुवादरसरसायनादिभिरप्यागमोपदिष्टैर्दष्टार्थवाक्यानां प्रामाण्यनिश्चयेनादृष्टार्थानामपि वाक्यानां प्रामाण्यं मन्दधीभिर्निश्चेतव्यम् । जिनवचनं च दुःषमाकालवशादुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुनस्कन्दिलाचार्यप्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् । ततो जिनवचनबहुमानिना तत् पुस्तकेषु लेखनीयं वस्त्रादिभिरभ्यर्चनीयम् । यदाह न ते नरा दुर्गतिमाप्नुवन्ति, न मूकतां नैव जडस्वभावम् । न चान्धतां बुद्धिविहीनतां च, ये लेखयन्तीह जिनस्य वाक्यम् ॥ १ ॥ लेखयन्ति नरा धन्या ये जिनागमपुस्तकम् । ते सर्व वाङ्मयं ज्ञात्वा सिद्धिं यान्ति न संशयः ॥ २ ॥ जिनागमपाठकानां वस्त्रादिभिरभ्यर्चनं भक्तिपूर्व समानन च । यदाहपठति पाठयते पठतामसौ, वसनभोजनपुस्तकवस्तुभिः । प्रतिदिनं कुरुते य उपग्रहं स इह सर्वविदेव भवेन्नरः॥१॥ लिखितानां च पुस्तकानां संविग्नगीतार्थेभ्यो बहुमानपूर्वकं व्याख्यानार्थ दानम् , व्याख्यायमानानां च प्रतिदिनं पूजापूर्वकं श्रवणं चेति । साधूनां च जिनवचनानुसारेण सम्यक् चारित्रमनुपालयतां दुर्लभ मनुष्यजन्म सफलीकुर्वतां ॥४०९॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशास्त्रम् प्रकाश 1॥४१॥ धुधर्मनिन्दापराणां यादृष्टानमनुतिष्ठन्ति, तथा सानपुत्र्यादेरपि समर्पणं चन स्वयं तीर्णानां परं तारयितुमुद्यतानामातीर्थङ्करगणधरेभ्य आ चैतदिनदीक्षितेभ्यः सामायिकसंयतेभ्यो यथोचितप्रतिपत्त्या स्वधनवपनम् , यथा-उपकारिणां प्रासुकैषगीयानां कल्पनीयानां चाशनादीनां, रोगापहारिणां, च भेषजादीनां, शीतादिवारणार्थानां च वस्त्रादीनां, प्रतिलेखनाहेतो रजोहरणादीनां, भोजनाद्यर्थ पात्राणां, औपग्राहिकाणां च दण्डकादीनां निवासार्थमाश्रयाणां दानम् । न हि तदस्ति यद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षयाऽनुपकारकं नाम, तत्सर्वस्वस्यापि दानम्, साधुधर्मोद्यतस्य स्वपुत्रपुत्र्यादेरपि समर्पणं च । किं बहुना ? यथा यथा मुनयो निराबाधवृत्त्या स्वयमनुष्टानमनुतिष्ठन्ति, तथा तथा महता प्रयत्नेन सम्पादनम्, जिनवचनप्रत्यनीकानां च साधुधर्मनिन्दापराणां यथाशक्ति निवारणम् । यदाह१तम्हा सइ सामत्थे आणाभम्मि नो खलु उवेहा । अणुकूलगेयरे हि अ अणुसठ्ठी होइ दायव्वा ॥१॥ तथा रत्नत्रयधारिणीषु साध्वीषु साधुष्विव यथोचिताहारादिदानं स्वधनवपनम् । ननु वीणां निःसत्त्वतया दुःशीलत्वादिना च मोक्षेऽनधिकारः, तत्कथमेताभ्यो दानं साधुदानतुल्यम् ? । उच्यते-निःसत्त्वमसिद्धम्, ब्राह्मीप्रभृतीनां साध्वीनां गृहवासपरित्यागेन यतिधर्ममनुतिष्ठन्तीनां महासत्त्वानां नासत्त्वसम्भवः । यदाह ब्राह्मी सुन्दर्यार्या राजीमती चन्दना गणधराऽन्या । अपि देवमनुजमहिता विख्याताः शीलसत्त्वाभ्याम् ॥१॥ गार्हस्थ्येऽपि सुसत्त्वा विख्याताः शीलवतीतमा जगति । सीतादयः कथं तास्तपसि विशीला विसत्त्वाश्च ? ॥२॥ संत्यज्य राजलक्ष्मी पतिपुत्रभ्रातृबन्धुसम्बन्धम् । पारिवाज्यवहायाः किमसत्त्वं सत्यभामादेः ? ॥ ३॥ (१) तस्मात् सति सामर्थ्य आज्ञाभ्रष्टे नो खलूपेक्षा । अनुकूलकेतरे हि चानुशिष्टिर्भवति दातव्या ॥ १॥ ॥४१०॥ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम तृतीय प्रकाशा ॥४१॥ ननु महापापेन मिथ्यात्वसहायेन स्त्रीत्वमय॑ते; न हि सम्यग्दृष्टिः स्त्रीत्वं कदाचिद् बध्नाति इति कथं स्त्रीशरीरवर्तिन आत्मनो मुक्तिः स्यात् ? । मैवं वोचः, सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकाल एवाऽन्तःकोटिकोटिस्थितिकानां सर्वकर्मणां भावेन मिथ्यात्वमोहनीयादीनां क्षयादिसम्भवान्मिथ्यात्वसहितपापकर्मसम्भवत्वमकारणम्, मोक्षकारणवैकल्यं तु तासु वक्तुमुचितम् । तच्च नास्ति । यतःजानीते जिनवचनं श्रद्धत्ते चरति चाऽऽर्यिका शबलम् । नास्यास्त्यसम्भवोऽस्यां नादृष्टविरोधगतिरस्ति ॥१॥ इति तत्सिद्धमेतन्मुक्तिसाधनधनासु साध्वीषु साधुवद् धनवपनमुचितमिति । एतच्चाधिकं यत् साध्वीनां दुःशीलेभ्यो नास्तिकेभ्यो गोपनम्, स्वगृहप्रत्यासत्तौ च समन्ततो गुप्ताया गुप्तद्वाराया वसतेर्दानम्, स्वस्त्रीभिश्च तासां परिच-विधापनम् , स्वपुत्रीकाणां च तत्सन्निधौ धारणम्, व्रतोद्यतानां स्वपुत्र्यादीनां प्रत्यर्पणं च, तथा विस्मृतकरणीयानां तत्स्मारणम्, अन्यायप्रवृत्तिसम्भवे तनिवारणम्, सकृदन्यायप्रवृत्तौ शिक्षणम्, पुनः पुनः प्रवृत्तौ निष्ठुरभाषणादिना ताडनम्, उचितेन वस्तुनोपचारणं चेति । श्रावकेषु स्वधनवपनं यथा-साधर्मिकाः खलुश्रावकस्य श्रावकाः, समानधार्मिकाणां च सङ्गमोऽपि महते पुण्याय, किं पुनस्तदनुरूपा प्रतिपत्तिः ? । सा च स्वपुत्रादिजन्मोत्सवे विवाहेऽन्यस्मिन्नपि तथाविधे प्रकरणे साधर्मिकाणां निमन्त्रणम्, विशिष्टभोजनताम्बूलवस्त्राभरणादिदानम्, आपग्निमग्नानां च स्वधनव्ययेनाप्यभ्युद्धरणम्, अन्तरायदोषाच विभवक्षये पुनः पूर्वभूमिकाप्रापणम्, धर्मे च विषीदतां तेन तेन प्रकारेण धर्म स्थैर्यारोपणम्. प्रमाद्यतां च स्मारणवारणचोदनाप्रतिचोदनादिकरणम्, वाचनाप्रच्छनापरावर्तनाऽनुप्रेक्षाधर्मकथादिषु यथायोग्यं विनियोजन. विशिष्टधर्मानुष्ठानकरणार्थ च साधारणपोषधशालादेः ॥४११॥ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४१२॥ करणमिति । श्राविकासु धनवपनं श्रावकवदन्यूनातिरिक्तमुन्नेतव्यम् । तत्र ज्ञानदर्शनचारित्रवत्यः शीलसन्तोषप्रधानाः सधवा विधवा वा जिनशासनानुरक्तमनसः साधर्मिकत्वेन माननीयाः । ननु स्त्रीणां कुतः शीलशालित्वम्?, कुतो वा रत्नत्रययुक्तत्वम् ?, स्त्रियो हि नाम लोके लोकोत्तरे चानुभवाच्च दोषभाजनत्वेन प्रसिद्धाः। एताः खल्वभूमिजा विषकन्दल्यः, अनभ्रसम्भवा वज्राशनयः, असंज्ञका व्याधयः, अकारणो मृत्युः. अकन्दरा व्याघ्यः, प्रत्यक्षा राक्षस्यः; असत्यवचनस्य, साहसस्य, बन्धुस्नेहविघातस्य, सन्तापहेतुत्वस्य निर्विवेकत्वस्य च परमं कारणमिति दूरतः परिहार्याः, तत्कथं दानसंमानवात्सल्यविधानं तासु युक्तियुक्तम् ! । उच्यते-अनेकान्त एषः, यत् स्त्रीणां दोषबहुलत्वमुच्यते, पुरूषेष्वपि हि समानमेतत् । तेऽपि क्रूराशया दोषबहुला नास्तिकाः कृतघ्नाः स्वामिद्रोहिणो देवगुरुवश्चकाश्च दृश्यन्ते । तद्दर्शनेन च महापुरुषाणामवज्ञा कर्तुं न युज्यते, एवं स्त्रीणामपि । यद्यपि कासाश्चिद्दोषबहुलत्वमुपलभ्यते, तथापि कासांचिद् गुणबहुलत्वमप्यस्ति ।तीर्थकरादिजनन्यो हि खीत्वेऽपि तत्तद्गुणगरिमयोगितया सुरेन्द्रैरपि पूज्यन्ते, मुनिभिरपि स्तूयन्ते । लौकिका अप्याहु:निरतिशयं गरिमाणं तेन युक्त्या वदन्ति विद्वांसः । तं कमपि वहति गर्भ जगतामपि यो गुरुर्भवति ॥१॥ इति।। काश्चन स्वशीलप्रभावादग्नि जलमिव, विषधर रज्जुमिव, सरितं स्थलमिव, विषममृतमिव कुर्वन्ति । चतुर्वर्णे च सङ्के चतुर्थमङ्गं गृहमेधिखियोऽपि । सुलसाप्रभृतयो हि श्राविकामतीर्थकरैरपि प्रशस्यगुणाः सुरेन्द्ररपि स्वर्गभूमिषु पुनः पुनर्बहुमतचारित्राः प्रबलमिथ्यात्वैरप्यक्षोभ्यसम्यक्त्वसम्पदः, काश्चिच्चरमदेहाः, काश्चिद्वित्रि (त्र) भवान्तरितमोक्षगमनाः शास्त्रेषुः श्रूयन्ते । तदासां जननीनामिव भगिनीनामिव स्वपुत्रीणामिव वात्सल्यं युक्तियुक्तमेवो १४१२॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४१३॥ त्पश्यामः । दुष्प्रसहयक्षिणीनागिलाख्यत्रतत्रतिनीश्रावकवदपश्चिमा सत्यश्रीः । तत्कथं श्राविकाः पापवव निता निदर्शनेन दुष्यन्ते ? । तस्माद्दूरेण न परिहरणीयाः, वात्सल्यं चासां करणीयमित्यलं प्रसङ्गेन । न केवलं सप्तक्षेत्र्यां धनं वपन महाश्रावक उच्यते, किन्त्वतिदीनेष्वपि निःस्वान्धबधिरपङ्गुरोगार्त्तप्रभृतिषु कृपया केवलया धनं वपन् न तु भक्त्या । भक्तिपूर्वकं हि सप्तक्षेत्र्यां यथोचितं दानम् । अतिदीनेषु त्वविचारितपात्रापात्रमविसृष्टकल्पनीयाकल्पनीयप्रकारं केवल्यैव करुणया स्वधनस्य वपनं न्याय्यम् । भगवन्तोऽपि हि निष्क्रमणकालेऽनपेक्षितपात्रापात्रविभागं करुणया सांवत्सरिकदानं दत्तवन्त इति । तदेवं भक्त्या सप्तक्षेत्र्यां दीनेषु चातिदयया धनं वपन महाश्रावक उच्यते । ननु श्रावक इत्युच्यताम्, महाश्रावक इति तु महत्त्वविशेषणं किमर्थं १ उच्यते श्रावकत्वमविरतानामेकाद्यणुव्रतधारिणां च श्रृणोतीति व्युत्पत्त्योच्यते; यदाह १ सम्पत्तदंसणाई पइदियहं जइजणा सुणेई य । सामायारिं परमं जो खलु तं सावयं विन्ति ॥ १ ॥ श्रद्धालुतां श्राति पदार्थचिन्तनाद् धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । किरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवना - दद्यापि तं श्रावकमाहुरञ्जसा ॥ २ ॥ sa freearer श्रावकत्वं सामान्यस्यापि प्रसिद्धम् विवक्षितस्तु निरतिचारसकलव्रतधारी सप्तक्षेत्रीलक्षणे क्षेत्रे धनवपनाद्दर्शनप्रभावकतां परमां दधानो दीनेषु चात्यन्तकृपापरो महाश्रावकशब्देनोच्यत इत्यदोषः ॥ १२० ॥ सप्तक्षेत्र्यां धनवपनं व्यतिरेकद्वारेण समर्थयते (१) संप्राप्तदर्शनादिः प्रतिदिवस यतिजनात् शृणोति च । सामाचारी परमां यः खलु तं श्रावकं ब्रुवते |१| तृतीय प्रकाशः | ॥४१३॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग तृतीय शाखम् . प्रकाशा ॥४१४॥ | यः सद्बाह्यमनित्यं च क्षेत्रेषु न धनं वपेत् । कथं वराकश्चारित्रं दुश्चरं स समाचरेत् ?॥१२१॥ __ सदिति विद्यमानमसतो हि धनस्य कथं दानं भवेत् ? सदपि बाह्य शरीराबहिर्भुतं आन्तरस्य तु कस्य- चिदानं न शक्यं कर्तु, बाह्यमपि यदि नित्यमाकालस्थायि भवेत् तदा न दीयेतापि, इदं त्वनित्यं चौरजलज्वलनदायादपार्थिवादिहरणीय प्रयत्नगोपितमपि पुण्यक्षयेऽवश्यं विनश्यति, यदस्मद्गुरवः१अत्यं चोरा विलुपंति उद्दालंति य दाइया । राया वा संवरावेइ बला मोडीइ कत्थइ ॥१॥ जलणो वा विणासेइ पाणियं वा पलावए । अवदारेण निग्गच्छे वसणोपहयस्स वा ॥ २ ॥ भूमीसंगोवियं चेव हरन्ति वन्तरा सुरा । उज्झित्ता जाइ सव्वं पि मरन्तो वा परं भवं ॥३॥ अनित्यमपि स्वधन किश्चित्क्षेप्तुं शक्यते, न हि बहुतैलमस्तीति पर्वता अभ्यज्यन्त इत्युक्तम् क्षेत्रेष्विति, क्षेत्राणि येषूप्तं धनं शतसहस्त्रलक्षकोटिगुणं भवति । एवं विधायामपि सामग्र्यां यः स्वधनं न वपेत् स वराकः निःसत्त्वश्चारित्रं महासत्त्वसेवनीयमत एव दुश्चरं कथं समाचरेत् ?; धनमात्रलुब्धो निःसत्त्वः कथं सर्वसङ्गत्याग रूपं चारित्रं विदधीत ?, अनाराधितचारित्रश्च कथं सद्गति प्राप्नुयात् ? सर्वविरतिप्रतिपत्तिकलशारोपणफलो हि (१) अर्थ चौरा विलुम्पन्ति, उद्दालयन्ति च दायादाः। राजा वा संवारयति बलात् मृद्यते कुत्रापि ॥१॥ ज्वलनो वा विनाशयति पानीयं वा प्लावयति। अपद्वारेण निर्गच्छेत् व्यसनोपहतस्य वा ॥ २ ॥ भूमीसंगोपितमेव हरन्ति व्यन्तराः सुराः । उज्झित्वा याति सर्वमपि म्रियमाणो वा परं भवम् ॥३॥ 11४१४॥ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् mા TOMORESHKOKEKON श्रावकधर्मप्रासाद इति ॥ १२१ ॥ इदानीं महाश्रावकस्य दिनचर्यामाह ब्राह्मे मुहूर्त्त उत्तिष्ठेत् परमेष्ठिस्तुतिं पठन् । किधर्मा किंकुलश्चास्मि किंनतोऽस्मीति च स्मरन् ॥ १२२ ॥ पञ्चदशमुहूर्ता रजनी, तस्यां चतुर्दशो मुहूर्तो ब्राह्मस्तस्मिन्नुतिष्ठेत् निद्रां जह्यात्; परमे तिष्ठन्तीति परमेष्ठिनः पञ्चाईदादयस्तेषां स्तुतिं नमो अरिहन्ताणमित्यादिरूपामात्यन्तिकतद्बहुमानकार्य्यभूतां परममङ्गलार्थ वा पठनव्यक्तवर्णामिति शेषः । यदाह १ परमेद्विचिन्तणं माणसम्मि सेज्जागरण कायव्वं । सुत्ता विणयपवित्ती निवारिया होइ एवं तु ॥ १ ॥ अन्ये त्वविशेषेणैव नमस्कारपाठमा हुर्न सा काचिदवस्था यस्यां पञ्चनमस्कारस्यानधिकार इति मन्वानाः । न केवलं पठन्, को धर्मों यस्याऽसौ किधर्मा, किं कुलं यस्याऽसौ किकुलः, किं व्रतं यस्याऽसौ किंव्रतोऽस्मीत्यहमिति च स्मरनिदं भावतः स्मरणम् । उपलक्षणत्वात्के गुरवो ममेति द्रव्यतः, कुत्र ग्रामे नगरादौ वा वसामीति क्षेत्रतः, कः कालः प्रभातादिरिति कालतचेत्यादि स्मरन्, धर्मस्य जैनादेः, कुलस्येक्ष्वाकादेः, व्रतानामणुव्रतादीनां स्मरणे तद्विरुद्धपरिहारस्येपत्करत्वात् ॥ १२२ ॥ ततः - शुचिः पुष्पामिषस्तोत्रैर्देवमभ्यर्च्य वेश्मनि । प्रत्याख्यानं यथाशक्ति कृत्वा देवगृहं व्रजेत् ॥ १२३॥ (१) परमेष्ठिचिन्तनं मानसे शय्यागतेन कर्तव्यम् । सुप्त्वा विनयप्रवृतिर्निवारिता भवति एवं तु ॥ १ ॥ तृतीय प्रकाशः ॥४१५ ॥ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशास्त्रम् प्रकाला ॥४१॥ शुचिरिति मलोत्सर्गदन्तधावनजिहालेखनमुखप्रक्षालनगण्डूषकरणस्नानादिना शुचिः सनित्यनुवादपरं लोकसिद्धो ह्ययमर्थ इति नोपदेशपरम्, अप्राप्ते हि शास्त्रमर्थवत् । न हि मलिनः स्नायात्, बुभुक्षितोऽश्नीयादित्यत्र शास्त्रमुपयुज्यते । अप्राप्ते त्वामुष्मिके मार्गे नैसगिकमोहान्धतमसविलुप्तालोकस्य लोकस्य शास्त्रमेव परमं चक्षुरित्येवमुत्तरत्राप्यप्राप्ते विषये उपदेशः सफल इति चिन्तनीयम् । न च सावद्यारम्भेषु शास्तृणां वाचनिक्यष्यनुमोदना युक्ता । यदाहु:१सावज्जणवजाण वयणाणं जो न जाणइ विसेस । वुत्त पि तस्स न खमं किम ! पुण देसणं काउं ॥१॥ इति शुचित्वमनूद्य पुष्पामिषस्तोत्ररित्यायपदिशति-वेश्मनि गृहे देवं मङ्गलचैत्यरूपं भगवन्तमहन्तमभ्यर्च्य पूजयित्वा, पूजाप्रकारानाह-पुष्पामिषस्तोत्रैरिति. पुष्पाणि कुसुमानि पुष्पग्रहण सर्वेषां सुगन्धिद्रव्याणां विलेपनधूपगन्धवासवस्त्राभरणादीनामुपलक्षणम् । आमिषं भक्ष्य पेयं च, तच्च पकानफलाक्षतदीपजलघृतपूर्णपात्रादिरूपं, स्तोत्रं शक्रस्तवादिसद्भूतगुणोत्कीर्तनरूपं, ततः प्रत्याख्यानं नमस्कारसहिताधद्धारूपं सङ्केतरूपं च अन्थिसहितादि कृत्वा यथाशक्तीति शक्त्यनतिक्रमेण, शक्तितस्त्यागतपसी इति सुप्रसिद्धमेव, देवगृहं भक्तिचैत्यरूपं ब्रजेद् गच्छेत् । अत्र च स्नानविलेपनवर्णकविशिष्टवस्त्राभरणालङ्कारशत्रपरिग्रहविशिष्टवाहनाधिरोहणप्रभृतीनां स्वतःसिद्धानां नोपदेशः । अप्राप्ते शास्त्रमर्थवदित्युक्तमेव । देवगृहबजनविधिः पुनरयम्-यदि राजा भवति तदा (१) सावधानवद्यानां वचनानां यो न जानाति विशेषम् । उक्तमपि तस्य न क्षमं किमङ्ग! पुनर्देशनां कर्तुम् ॥ ॥४१६॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४१७॥ १सव्वाए इड्डीए सव्वाए दित्तीए सवाए जुईए सब्वबलेणं सव्वपोरिसेणं' इत्यादिवचनात्प्रभावनानिमित्तं महर्यायाति । ___ अथ सामान्यविभवस्तदा औद्धत्यपरिहारेण लोकोपहासं परिहरन् व्रजति ॥१२३॥ ततःप्रविश्य विधिना तत्र त्रिः प्रदक्षिणयेजिनम् । पुष्पादिभिस्तमभ्यर्च्य स्तवनरुत्तमैःस्तुयात् ॥१२४॥ तत्र देवगृहे विधिना विधिपूर्वकं प्रविश्य त्रिस्त्रीन् वारान् प्रदक्षिणयेत् प्रदक्षिणीकुर्यात: जिनमहद्भट्टारकम् , प्रवेशविधिश्चायम्-पुष्पताम्बूलादिसचित्तद्रव्याणां क्षुरिकापादुकाधचित्तद्रव्याणां च परिहारेण कृतोत्तरासङ्गो जिनबिम्बदर्शनेऽञ्जलिबन्धं शिरस्यारोपयन् मनसश्च तत्परतां कुर्वनिति पञ्चविधाभिगमेन नैषेधिकीपूर्व प्रविशति । __यदाह-सचित्ताणं दवाणं वि उसरणयाए, अचित्ताणं दव्वाणं वि उसरणयाए, एगल्लसाडिएणं उत्तरासङ्गकरणेणं चक्खुफासे अञ्जलिपग्गहेणं मणसो एगत्तीभावकरणेणं ति । यस्तु राजादिः चैत्यभवनं प्रविशति स तत्कालं राजचिणानि परिहरति । यदाह ३अवहह रायकउआई पञ्च वररायकउआरूवाई । खग्गं छत्तोवाणह मउडं तह चामराओ य ॥१॥ (१) सर्वया ऋद्धया, सर्वया दीप्त्या, सर्वया द्युत्या, सर्वबलेन, सर्वपौरुषेण । (२) सचित्तानां द्रव्याणामपि अवसरणतया, अचितानां द्रव्याणामपि अवसरणतया, एकशाटकेनोत्तरासङ्गकरणेन, चक्षः-स्पर्श अञ्जलिप्रग्रहेण मनस एकत्वीभावकरणेनेति । (३) अपहृत्य राजककुदानि पञ्च वरराजककुदरूपाणि । खगः छत्रमुपानद् मुकुटं तथा चामराणि च ॥ ॥४१ ॥ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४१८॥ पुष्पादिभिरिति पुष्पग्रहणं मध्यग्रहणे आधन्तयोरपि ग्रहणमिति न्यायप्रदर्शनार्थम्, तथाहि-नित्यं विशेषतश्च पर्वणि स्नात्रपूर्वक पूजाकरणमिति स्नात्रकाले प्रथम मुगन्धिश्रीखण्डेन जिनबिम्बस्य तिलककरणम् । ततः मीनकुरङ्गमदागुरुसारं, सारसुगन्धिनिशाकरतारम् । तारमिलन्मलयोत्थविकारं, लोकगुरोर्दह धूपमुदारम् ॥१॥ इति वचनाध्धृपोतक्षेपणम्, ततः सर्वोषध्यादिद्रव्याणां जलपूर्णकलशे क्षेपणं, पश्चात् कुसुमाञ्जलिक्षेपपूर्वक सर्वोषधिकर्परकुङ्कमश्रीखण्डागुरुप्रभृतिभिर्जलमित्रैतदुग्धप्रभृतिभिश्च स्नात्रकरणम्, ततः सुरभिणा मलयजरसादिना विलेपनविधानम् , ततः सुगन्धिजाति-चम्पक-शतपत्र-विचकिल-कमलादिमालाभिर्भगवतोऽभ्यर्चनम्, रत्रसुवर्णमुक्ताभरणादिभिरलङ्करणम् , वस्त्रादिभिः परिधापनम् ,पुरतश्च सिद्धार्थकशालितण्डुलादिभिरष्टमाङ्गलिकालेखनम् , तत्पुरतश्च बलिमङ्गलदीपदधिघृतादीनां ढौकनम् , भगवतश्च भालस्थले गोरोचनया तिलककरणम् , तत आरात्रिकद्युत्तारणम् । यदाह गन्धवरधृवसवोसहीहि उअगाइएहि चित्तेहिं । सुरहिविलेवणवरकुसुमदामबलिदीवएहि च ॥शा सिद्धत्ययदहिअक्खयगोरोअणमाइएहिं जहलाभं । कञ्चणमोत्तिअरयणाइदामएहिं च विविहेहिं ॥२॥ पवरेहिं साहणेहि पायं भावो वि जायए पवरो। न य अन्नो उवओगो एएसि सिया ण लट्ठयरो॥३॥त्ति। (१) गन्धवरधूपसर्वोषधीभिरुदकादिकैश्चित्रैः । सुरभिविलेपनवरकुसुमदामबलिदीपकैश्च ॥१॥ सिद्धार्थक-दध्यक्षत-गोरोचनादिकर्यथालाभम् । कञ्चनमौक्तिकरत्नादिदामभिश्च विविधैः ॥२॥ प्रवरैः साधनैः प्रायो भावोऽपि जायते प्रवरः । न चान्य उपयोग एतेषां स्याद् मनोहरतरः ॥३॥ इति । ४१८॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशास्त्रम् प्रकाश ॥४१९॥ एवं भगवन्तमभ्यर्च्य पूजयित्वा ऐर्यापथिकीप्रतिक्रमणपूर्वकं शक्रस्तवादिभिर्दण्डकैश्चैत्यवन्दनं कृत्वा स्तवनैः स्तोत्रैरुत्तमैरुत्तमकविरचितैः स्तूयाद् गुणोत्कीर्तनं कुर्यात् । स्तोत्राणां चोत्तमत्वमिदमुक्तम्-यथापिण्डक्रियागुणगतैर्गम्भीरैविविधवर्णसंयुक्तैः। आशयविशुद्धिजनकैः संवेगपरायणैः पुण्यैः ॥१॥ पापनिवेदनगौंः प्रणिधानपुरस्सरैर्विचित्राथैः । अस्खलितादिगुणयुतैः स्तोत्रैश्च महामतिप्रथितैः ॥२॥ इति । न पुनरेवंविधैः एक ध्याननिमीलनान्मुकुलितं चक्षुद्वितीयं पुनः, पार्वत्या विपुले नितम्बफलके श्रृङ्गारभारालसम् । अन्यद्रविकृष्टचापमदनक्रोधानलोद्दीपितं, शम्भोभिन्नरसं समाधिसमये नेत्रत्रयं पातु वः ॥१॥ तथाधन्या केयं स्थिता ते शिरसि शशिकला किं नु नामैतदस्या, नामैवास्यास्तदेतत्परिचितमपि ते विस्मृतं कस्य हेतोः। नारों पृच्छामि नेन्दुं कथयतु विजया न प्रमाणं यदीन्दु-देव्या निह्नोतुमिच्छोरिति सुरसरितं शाठयमव्याद्विभोर्वः ॥१॥ तथा१पनमत पनयप्पकुपितगोलीचलणग्गलग्गपडिबिंबं । तससु नखतप्पनेसुं एकातसतनुथलं लुई ॥१॥ तथा(१) प्रणमत प्रणयप्रकुपितगौरीचरणाग्नलग्नप्रतिबिम्बम् । दशसु नखदर्पणेषु एकादशतनुधरं रुद्रम् ॥१॥ N४ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाश ॥४२oll एतत्किं शिरसि स्थितं मम पितुः खण्डं सुधादीधिते-लालाट किमिदं विलोचनमिदं हस्तेऽस्य किं पन्नगः । इत्थं क्रौश्चरिपोः क्रमादुपगते दिग्वाससः शूलिनः, प्रश्ने वामकरोपरोधसुभग देव्याः स्मितं पातु वः ॥१॥ तथा-- उत्तिष्ठन्त्या रतान्ते भरमुरगपतौ पाणिनैकेन कृत्वा, धृत्वा चान्येन वासो विगलितकबरीभारमंसं वहन्त्याः । मृयस्तत्कालकान्तिद्विगुणितसुरतप्रीतिना शौरिणा वः, शय्यामालिङ्गय नीतं वपुरलसलसद्बाहु लक्ष्म्याः पुनातु ॥१॥ अनेन च सम्पूर्णों वन्दनाविधिरुपलक्षितः । यथा१तिम्नि निसीहिय तिनि य पयाहिणा तिनि चेव य पणामा । तिविहा पृआ य तहा अवत्थतियभावणं चेव ॥१॥ तिदिसिनिरक्खणविरई भूमीई पमजणं च तिक्खुत्तो । वण्णाइतियं मुद्दातियं च तिविहं च पणिहाणं ॥२॥ पुप्फामिसथुइभेआ तिविहा पूआ अवत्थतियगं तु । छउमत्थ-केवलितं सिद्धत्तं भुवणनाहस्स ॥३॥ वण्णाइतियं तु पुणो वण्णत्वालम्बणस्सरुवं तु । मणवयणकायजणिअंतिविहं पणिहाणमवि होइ ॥४॥ तथा(१) तिस्रो नैषेधिक्यस्तिस्त्रश्च प्रदक्षिणास्त्रयः एव च प्रणामाः। त्रिविधा पूजा च तथाऽवस्थात्रिकभावनं चैव ॥१२॥ त्रिदिनिरीक्षणविरतिभूमौ प्रमार्जनं च त्रिकृत्वः (त्रिः) । वर्णादित्रिक मुद्रात्रिकं च त्रिविधं च प्रणिधानम् ॥२॥ पुष्पामिषस्तुतिभेदाखिविधा पूजाऽवस्थात्रिककं तु । छद्मस्थ-केवलित्वं सिद्धत्वं भुवननाथस्य ॥३॥ वर्णादित्रिकं तु पुनर्वर्णालम्बनस्वरुपं तु । मनो-वचन-कायजनितं त्रिविधं प्रणिधानमपि भवति ॥४॥ ॥४२०॥ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४२॥ तृतीय प्रकाशा पंचङ्गो पणिवाओ थयपाढो होइ जोगमुदाए। वन्दन जिणमुद्दाए पणिहाण मुत्तमुत्तीए ॥१॥ दो जाणू दोन्नि करा पंचमय होइ उत्तिमंग तु । सम्मं संपणिवाओ नेओ पंचगपणिवाओ ॥२॥ अण्णोणतरिअंगुलिकोसागारेहिं दोहिं हत्थेहि । पिट्टोवरिकोप्परसंठिएहिं तह जोगमुद्दत्ति ॥३॥ चत्तारि अंगुलाई पुरओ ऊणाई जत्थ पच्छिमओ। पायाणं उस्सग्गो एसा पुण होइ जिणमुद्दा ॥४॥ मुत्तासुत्तीमुद्दा जत्थ समा दोवि गम्भिया हत्था । ते पुण णिडालदेसे लग्गा अग्ने अलग्गत्ति ॥५॥ इत्यादि । ऐर्यापथिकीप्रतिक्रमणपूर्वक चैत्यवन्दनमित्युक्तम् । तत ऐर्यापथिकीसुत्रं व्याख्यायते-तच्च इच्छामि पडिक्कमिउमित्यादि तस्स मिच्छामि दुक्कडमित्यन्तम्, इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए विराहणाए; इच्छामि अभिलषामि प्रतिक्रमितुं प्रतीपं क्रमितुम्, ईरणमीर्या गमनमित्यर्थः, तत्प्रधानः पन्था ईर्यापथः, तत्र भवा ऐर्यापथिकी; काऽसौ ? विराधना जन्तुबाधा, तस्या ऐर्यापथिक्या विराधनायाः सकाशात् प्रतिक्रमितुमिच्छामीति सम्बन्धः। अस्मिश्च व्याख्याने ईर्यापथनिमित्ताया एव विराधनायाः प्रतिक्रमण स्याद, न तु शयनादेरुत्थितस्य (१) पञ्चाङ्गः प्रणिपातः स्तवपाठो भवति योगमुद्रया। वन्दनं जिनमुद्रया प्रणिधान मुक्ताशुक्त्या ॥१॥ द्वे जानुनी द्वौ करौ पञ्चमकं भवत्युत्तमाकं तु । सम्यक संप्रणिपातो ज्ञेयः पश्चाङ्गप्रणिपातः ॥२॥ अन्योन्यान्तरिताङ्गलिकोशागा(का)राभ्यां द्वाभ्यां हस्ताभ्याम् । उदरोपरिकूपरसंस्थिताभ्यां तथा योगमुद्रेति ॥३॥ चत्वार्यगुलानि पुरत ऊनानि यत्र पश्चिमकः । पादयोरुत्सर्ग एषा पुनर्भवति जिनमुद्रा ॥४॥ मुक्ताशुक्तिमुद्रा यत्र समौ द्वावपि गर्भितौ हस्तौ । तौ पुनर्ललाटदेशे लग्नावन्यावलग्नाविति ॥५॥ ॥४२१॥ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् तृतीय प्रकाशा ४२२।। कृतलोचादेर्वा, तस्मादन्यथा व्याख्यायते-ईपिथः साध्वाचारः, यदाह-ईपिथो मौनध्यानादिकं भिक्षुत्रतं तत्र भवा ऐपिथिकी; काऽसौ ? विराधना साध्वाचारातिक्रमरूपा तस्या इच्छामि प्रतिक्रमितुमिति सम्बन्धः। साध्वाचाराऽतिक्रमश्च प्राणातिपातादिरूपः। तत्र च प्राणातिपातस्यैव गरीयस्त्वम्, शेषाणां तु पापस्थानानामत्रैवान्तर्भावः, अत एव प्राणातिपातविराधनाया एवोत्तरः प्रपञ्चः । क सति विराधना? गमणगमणे गगनं चागमनं च समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन्, गमनं प्रयोजने सति बहिर्यानम् आगमनं प्रयोजनसमाप्ती स्वस्थान एव गमनम् । गमनागमनेऽपि कथं विराधना ? इत्याह-पाणकरणे प्राण्याक्रमणे प्राणिना द्वीन्द्रियादयस्तेषामाक्रमणं पादेन पीडनं प्राण्याक्रमणं तत्र; तथा बीअक्कमणे बीजाक्रमणे, अनेन बीजानां जीवत्वमाह; तथा, हरिभक्कमणे हरिताक्रमणे; अनेन सकलवनस्पतेः, तथा ओसाउत्तिंगपणगदगमट्टीमक्कडासंकमणे, अवश्यायो जलविशेषः, इह चावश्यायग्रहणमतिशयतः शेषजलसम्भोगपरिहरणार्थम्, उत्तिंगा गर्दभाकृतयो जीवाः, ते हि भूमौ विवराणि कुर्वन्ति, कीटिकानगराणि वा उत्तिंगाः पनकः पञ्चवर्णोल्लि; दकमृत्तिका अनुपहतभूमौ चिक्खिल्ल: अथवा दकशब्देनाप्कायो गृह्यते मृत्तिकाशब्देन तु पृथ्वीकाय इति; मकट: कोलिकस्तस्य सन्तानो जालकम्, ततश्चावश्यायश्चोत्तिङ्गश्चेत्यादिद्वन्द्वः तेषां संक्रमणमाक्रमणं तस्मिन् । कियन्तो वा भेदेनाख्यातुं शक्यन्ते ? इत्याह-जे मे जीवा विराहिया ये केचन सर्वथा मया जीवा विराधिता दुःखे स्थापिताः; ते च एगिदिया एकं स्पर्शनमात्रमिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रियाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिलक्षणाः; बेइंदिया द्वे स्पर्शनरसने इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रियाः कृम्यादयः; तेइंदिया त्रीणि स्पर्शनरसनघ्राणानि इन्द्रियाणि येषां ते त्रीन्द्रियाः पिपीलिकादयः; चउरिदिया ॥४२२॥ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशास्त्रम् ॥४२३॥ चत्वारि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुर्लक्षणानीन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रिया भ्रमरादयः; पंचिंदिया पञ्च श्रोत्रान्तानि इन्द्रियाणि येषां ते पञ्चन्द्रिया मूषकादयः। विराधनाप्रकारमाह-अभिहया अभिमुखा हताश्चरणेन घट्टिताः, उत्क्षिप्य क्षिप्ता वा; वत्तिआ वर्तिताः पुञ्जीकृताः धुलिचिक्खल्लादिना स्थगिताः, लेसिआ श्लेषिताः पिष्टा भूम्यादिषु वा लगिताः, संघाइया संघातिताः अन्योन्यगात्रैरेकत्र लगिताः, संघट्टिया संघट्टिताः मनाक् स्पृष्टाः, परिआविआ परितापिताः समन्ततः पीडिताः, किलामिआ क्लमिता ग्लानिमापादिता मारणान्तिकं समुद्घातं नीता इत्यर्थः, उद्दविआ अवद्राविता उत्त्रासिताः, ठाणाओ ठाणं संकामिया स्वस्थानात् परस्थानं नीताः, जीवियाओ ववरोविया जीविताद् व्यपरोपिता मारिता इत्यर्थः,-तस्स तस्य अभिहया इत्यारभ्योक्तविराधनाप्रकारस्य सर्वस्य मिच्छा मि दुक्कडं मिथ्या मे दुष्कृतम् एतद् दुष्कृतं मिथ्या मे भवतु विफलं भवत्वित्यर्थः । मिच्छा मि दुक्कडमित्यस्य पूर्वाचार्या निरुक्तविधिमुपदर्शयन्ति-तद्यथामित्तिर मिउमद्दवत्थे छत्ति य दोसाण छायणे होइ । मित्ति अमेराए ठिओ दुत्ति दुगंछामि अप्पाणं ॥१॥ कत्ति कडं मे पावं डत्ति य डेवेमि तं उवसमेणं । एसो मिच्छादुक्कडपयक्खरत्थो समासेणं ॥२॥ एवमालोचनाप्रतिक्रमणरूपं द्विविधं प्रायश्चित्तं प्रतिपद्य कायोत्सर्गलक्षणं प्रायश्चित्तं प्रतिपित्सुरिद सूत्रं पठतितस्स उत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं विसोहीकरणेणं विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणठाए ठामि (१) मीति मृदु-मार्दवार्थे छेति च दोषाणां छादने भवति । मीत्यमर्यादायां स्थितो दु-इति जुगुप्स आत्मानम् ॥१॥ केति कृतं मे पापं डेति च लङ्घयामि तदुपशमेन । एष मिच्छादुक्कड (मिथ्यादुष्कृत) पदाक्षरार्थः समासेन ॥२॥ तस्स उत्तधातक्रमणरूपं द्विविय उपसमेणं। एसो ॥४२३॥ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ।।४२४॥ काउस्सग्गं। तस्यालोचितप्रतिक्रान्तस्य विराधनाप्रकारस्य उत्तरीकरणादिना हेतुभूतेन ठामि काउस्सगमिति योगः। तत्रोत्तरकरणं पुनः संस्कारद्वारेण परिष्करणमनुत्तरस्योत्तरस्य करणमुत्तरीकरणम्, अयं भाव:-विराधनस्य हि पूर्वमालोचनादिकं कृतं तस्यैव कायोत्सर्गकरणमुत्तरकरणम् , तेन पापकर्मनिर्घातना भवति । उत्तरीकरणं च प्रायश्चित्तकरणद्वारेण भवति इत्याह-पायच्छित्तकरणेणं प्रायो बाहुल्येन चित्तं जीवं मनो वा शोधयति प्रायश्चित्तम् , यद्वा पापं छिनत्तीति पापच्छित् आपत्वात्पायच्छित्तं तस्य करणेन हेतुभूतेन । प्रायश्चित्तकरणं च विशुद्विद्वारेण भवतीत्याह-विसोहीकरणेणं विशोधनं विशुद्धिः अपराधमलिनस्यात्मनो निर्मलिकरणं विशुद्धेः करणं विशुद्धिकरणं तेन हेतुभूतेन । विशुद्धिकरणं च विशल्यकरणद्वारेण भवति अत आह-विसल्लीकरणेणं विगतानि शल्यानि मायादीनि यस्याऽसौ विशल्यः, अविशल्यस्य विशल्यस्य करणं तेन हेतुभूतेन किमित्याह-पावाणं कम्माण निग्घायणट्ठाए पापानां संसारनिबन्धनभूतानां कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनां निर्घातनार्थाय निर्घातनमुच्छेदः स एवार्थः प्रयोजन तस्मै, ठामि काउस्सग्गं अनेकार्थत्वाद्धातूनां ठामि करोमि कायस्स उत्सर्गों व्यापारवत परित्यागस्तम्। किं सर्वथा ? नेत्याह-अन्नत्थ ऊससिएणं अन्यत्रोच्छ्वसितात , तृतीया पश्चम्यथें, ऊर्ध्व प्रलम्ब वा श्वसितमुच्छ्वसितं तन्मुक्त्वा योऽन्यो व्यापारस्तेन व्यापारवतः कायस्य उत्सर्ग इत्यर्थः, उच्छ्वसितं हि निरोद्धमशक्यम् , तनिरोधे सद्यः प्राणविघाताखापत्तेः । यदाह १ऊसासं न निरंभइ अभिग्गहिओवि किमुअ चिट्ठाए । सज्ज मरणं निरोहे सुहुमुस्सासं तु जयणाउ ॥१॥ (१) उच्छवासं न निरुणद्धि आभिग्रहिकोऽपि किमुत चेष्टया। सद्यो मरणं निरोधे सूक्ष्मोच्छ्वासं तु यतनया । ॥४२४॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशः ॥४२५॥ ___ एवं निःश्वसिताद्यपि नीससिएणं अधःश्वसितं निःश्वसितं तस्मात; खासिएणं काशितात; छिएण क्षुतात; जम्भाइएणं विवृतवदनस्य प्रबलपवननिर्गमो जृम्भितं तस्मात्, उड्डुएणं उद्गारितात्; वायनिसग्गेण अपानेन पवननिर्गमो वातनिसर्गस्तस्मात्, भमलिए शरीरभ्रमेराकस्मिक्याः, पित्तमुच्छाए पित्तप्राबल्यान्मनाग्मोहो मूर्छा तस्याः, सुहुमेहि अंगसंचालेहि सूक्ष्मेभ्यो लक्ष्यालक्ष्येभ्योऽङ्गसञ्चारेभ्यो गात्रविचलनप्रकारेभ्यो रोमोद्गमादिभ्यः, मुहुमेहि खेलसंचालेहिं सूक्ष्मेभ्यः खेलस्य श्लेष्मणः सश्रारेभ्यः, आत्मनो हि वीर्ययुक्तद्रव्यतया अन्तः सूक्ष्मश्लेष्मसञ्चारः सम्भ वतीत्यतोऽन्यत्रोच्यते । सुहुमेहि दिहिसंचालेहिं सूक्ष्मेभ्यो दृष्टिसञ्चारेभ्यो निमेषादिभ्यः, सूक्ष्मा हि दृष्टिसञ्चारास्तदा सर्वथा निरोधुं शक्यन्ते यदा एकस्मिन् द्रव्ये दृष्टिनिवेशः स्थिरीकतुं शक्यते, न च शक्यते कर्तुमिति । उच्छ्वसितादिभ्योऽन्यत्र कायोत्सर्ग करोमीत्येतावता किमुक्त भवति ? एवामाइएहि आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ हुज मे काउस्सग्गो एवमादिभिरुच्छ्वसितनिःश्वसितादिभिः पूर्वोक्तैराकारैरपवादरूपैरभग्नोऽविराधितो मे कायोत्सर्गों भूयादिति सम्बन्धः, आदिशब्दादन्यैरपि यदा अग्ने विद्युतो वा ज्योतिः स्पृशति तदा प्रावरणायोपधिग्रहणं कुर्वतो न कायोत्सर्गभङ्गः। ननु नमस्कारमेवाभिधाय किमिति तद्ग्रहण न करोति येन तद्भङ्गो न भवति ! उच्यतेनाऽत्र नमस्कारेण पारणमेवावशिष्टकायोत्सर्गमानं क्रियते, किन्तु यो यत्परिमाणः कायोत्सर्ग उक्तस्तावन्तं कालं प्रतीक्ष्य तत ऊर्य नमस्कारमपठित्वा पारयतो भङ्गोऽपरिसमाप्तेऽपि च पठतो भङ्ग एव, तस्माद्यो यत्परिमाणः कायोत्सर्गस्तस्मिन् पूर्ण एव नमो अरिहंताणमिति वक्तव्यम् । तथा मार्जारमूषिकादेः पुरतो गमनेऽग्रतः सरतोऽपि न भङ्गः। तथा चौरसंभ्रमे राजसंभ्रमे वा अस्थानेऽपि नमस्कारमुच्चारयतो न भङ्गः। तथा सर्पदष्टे आत्मनि परे ॥४२५॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ||४२६॥ वा साध्वादौ सहसा उच्चारयतो न भङ्गः यदाहुः १ अगणि उच्छिन्दिज्ज-बोहिअखोभाइ-दीहडको वा । आगारेहिं न भग्गो उस्सग्गो एवमाईहिं ॥ १ ॥ आक्रियन्ते आगृह्यन्ते इत्याकाराः कायोत्सर्गापवादप्रकारा इत्यर्थः, तैराकारैर्विद्यमानैरपि भग्नः सर्वथा विनाशितः, न भग्नोऽभग्नः, विराधितो देशभग्नः, न विराधितोऽविराधितो भवेन्मम कायोत्सर्गः । कियन्तं कालं यावदित्याह -- जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमोक्कारेणं न पारेमि यावदिति कालावधारणे, यावदर्हतां भगवतां सम्बन्धिना नमस्कारेण नमो अरिहंताणमित्यनेन न पारयामि न पारं गच्छामि तावत्किमित्याह -ताव कार्य ठाणेण मोणेण झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि तावत्तावन्तं कालं कार्य देहं स्थानेनोर्ध्वस्थानेन हेतुभूतेन ऊर्ध्वस्थानमभिगृह्य कायप्रसरनिषेधेनेत्यर्थः, मौनेन वाग्निरोधलक्षणेन, ध्यानेन शुभेन सद्विषये चिन्तामभिगृह्येत्यर्थः, अप्पा आर्यत्वादात्मीयं कार्य वोसिरामि व्युत्सृजामि कुव्यापारनिराकरणेन परित्यजामि । अन्ये तु अप्पाणमिति न पठन्ति । अयमर्थः पञ्चविंशत्युच्छ्वासमानं कालं यावदूर्ध्वस्थानस्थितः प्रलम्बभुजो निरुद्धवाक्प्रसरः प्रशस्त ध्यानाऽनुगत स्तिष्ठामि स्थानमानध्यानक्रियाव्यतिरेकेण क्रियान्तराध्यासद्वारेण व्युत्सृजामि । पञ्चविंशत्युच्छ्वासाश्च चतुर्विंशतिस्तवेन चन्देसु निम्मलयरा इत्यन्तेन चिन्तितेन पूर्यन्ते, पायसमा ऊसासा इति वचनात् । संपूर्णकायोत्सर्गश्च नमो अरिहंताणमिति नमस्कारपूर्वकं पारयित्वा चतुविंशतिस्तवं संम्पूर्ण पठति । एवं सन्निहिते गुरौ (१) अग्न्युच्छेद्य-बोधिकक्षोभादि दीर्घदष्टो वा । आकारैर्न भग्न उत्सर्ग एवमादिभिः ॥ १ ॥ OOOOORXSEXOLO तृतीय प्रकाशः ॥४२६॥ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४२७॥ तत्समक्षं, गुरुविरहे तु गुरुस्थापनां मनसि कृत्वा ईर्यापथप्रतिक्रमणं निर्वर्त्य चैत्यवन्दनमृत्कृष्टमारभ्यते, जघन्यमध्यमे तु चैत्यवन्दने ऐर्यापथिकी प्रतिक्रमणमन्तरेणाऽपि भवतः । अत्र नमस्कारेण नमो अरिहंताणमित्यनेन - वपुरेव तवाचष्टे भगवन् ! वीतरागताम् । न हि कोटरसंस्थेऽग्नौ तरुर्भवति शावलः ॥ १ ॥ इत्यादिना कविकृतेन च जघन्या चैत्यवन्दना भवति । अन्ये तु प्रणाममात्ररूपां जघन्यां चैत्यवन्दनां वदन्ति । प्रणामस्तु पञ्चधा एकाङ्गः शिरसो नामे स द्वयङ्गः करयोर्द्वयोः । त्रयाणां नमने त्र्यङ्गः करयोः शिरसस्तथा ॥ १ ॥ चतुर्णां करयोर्जान्वोर्नमने चतुरङ्गकः । शिरसः करयोर्जान्वोः पञ्चाङ्गः पञ्चके नते ॥ २ ॥ मध्यमा तु स्थापनार्हतः स्तवदण्डकेन स्तुत्या चैकया भवति । यदाह १नवकारेण जहन्ना दंडगथुइजुगल मज्झिमा णेया । संपुष्णा उक्कोसा विडिणा खलु वंदना तिविहा ॥१॥ इत्युत्कृष्टया चैत्यवन्दनया वन्दितुकामो विरतः साधुः श्रावकश्च अविरतसम्यग्रदृष्टिरपुर्नबन्धको वा यथाभद्रको यथोचितं प्रतिलेखित प्रमार्जितस्थण्डिलो भुवनगुरौ विनिवेशितनयनमानसः संवेगवैराग्यवशादुत्पन्नरोमाश्चकञ्चुको मुदश्रुपूर्णलोचनः अतिदुर्लभ भगवत्पादवन्दनमिति बहु मन्यमानो योगमुद्रया अस्खलितादिगुणोपेतं तदर्थानुस्मरणगर्भ प्रणिपातदण्यकसूत्रं पठति । तत्र च त्रयस्त्रिंशदालापका आलापकद्विकादिप्रमाणाश्च विश्रामभूमिरूपा नवसम्पदो भवन्ति । यदाह (१) नमस्कारेण जघन्या दण्डकस्तुतियुगलाद् मध्यमा ज्ञेया । सम्पूर्णोत्कृष्टा विधिना खलु वन्दना त्रिविधा ॥ १ ॥ तृतीय प्रकाशः રા Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग तृतीय মক্কায় शास्त्रम् ॥४२८॥ . दो तिअ चउर ति पंचा दोनि अ चउरो य हुन्ति तिने य । सकथए नव संपय तित्तीसं होन्ति आलावा ॥१॥ ____एताश्च यथास्थानं नामतः प्रमाणतश्च कथयिष्यन्ते । व्याख्या नमो त्यु णं अरहंताणं भगवंताणं तत्र नम इति नैपातिकं पदं पूजार्थ, पूजा च द्रव्यभावसकोचः। तत्र करशिरःपादादिद्रव्यसन्यासो द्रव्यसङ्कोचः, भावसकोचस्तु विशुद्धस्य मनसो नियोगः, अस्त्विति भवतु । प्रार्थनैषा धर्मबीजमाशयविशुद्धिजनकत्वात् । णमिति वाक्यालकारे । अतिशयपूजामईन्तीति अर्हन्तः । यदाह २अरहंति वंदणनमसणाई अरहंति पूयसकारं । सिद्धिगमण च अरिहा अरहंता तेण वुच्चति ॥१॥ सुगद्विषाईः सत्रिशत्रुस्तुत्ये ॥५।२।२६ ॥ इति वर्तमानकालेऽतृश् । कथं वर्तमानकालत्वमिति चेत्, पूजारम्भस्याऽनुपरमात् । एष एव हि न्याय्यो वर्तमानकालो यत्नारब्धस्यापवर्गों नास्ति । तथा अरिहननादहन्तः, अरयश्च मोहादयः साम्परायिककर्मबन्धहेतवः, तेषामरीणामनेकभवगहनव्यसनप्रापणकारणानां हननादहन्तः । तथा रजोहननादहन्तः, रजश्च घातिकर्मचतुष्टय येनावृतस्यात्मनः सत्यपि ज्ञानादिगुणस्वभावत्वे धनसमूहस्थगितगभस्तिमण्डलस्य विवस्वत इव तद्गुणानामभिव्यक्तिने भवति तस्य हननादहन्तः। तथा रहस्याभावादहन्तः; तथाहि-भगवतां निरस्तनिरवशेषज्ञानावरणादिकर्मपारतन्त्र्याणां केवलमप्रतिहतमनन्तमद्धतं ज्ञान दर्शन चास्ति, ताभ्यां जगदनवरतं युगपत्प्रत्यक्षतो जानतां पश्यतां च रहस्यं नास्ति, तस्माद्रहस्याभावादहन्तः। एषु त्रिष्वर्थेषु (१) द्वौ त्रयश्चत्वारस्त्रयः पञ्च द्वौ च चत्वारश्च भवन्ति त्रयश्च । शक्रस्तवे नव सम्पदखयस्त्रिंशद् भवन्ति आलापाः॥१॥ (२) अर्हन्ति वन्दन-नमस्यनाधईन्ति पूजासत्कारम् । सिद्धिगमने च अर्हा अर्हन्तस्तेनोच्यन्ते ॥१॥ ॥४२८॥ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४२९॥ पृषोदरादित्वादहदिति सिद्धयति । अथवा अविद्यमान रह एकान्तरूपो देशोऽन्तश्च मध्यं गिरिगुहादीनां सर्ववेदितया प्रच्छन्नस्य कस्याप्यभावेन येषां तेऽरहोऽन्तरस्तेभ्योऽरहोन्तभ्यः अथवा अरहदभ्यः क्षीणरागत्वात् कचिदप्यासक्तिमगच्छद्भ्यः । अथवा अरहद्भ्यो रागद्वेषहेतुभूतमनोज्ञेतरविषयसंपर्केऽपि वीतरागत्वादिकं स्वं स्वभावमत्यजदभ्यः । अरिहंताणमिति पाठान्तरं वा; तत्र कर्मारिहन्तृभ्यः । आह च अट्टविहं पि हु कम्मं अरिभूय होइ सयलजीवाणं । तं कम्ममरिहंता अरिहंता तेण वुच्चंति ॥१॥ अरुहंताणमित्यपि पाठान्तरम् । तत्र अरोहद्भ्योऽनुपजायमानेभ्यः. क्षीणकर्मबीजत्वात् उक्तश्चदग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाइकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे नारोहति भवाङ्कुरः ॥१॥ शाब्दिकास्तु अर्हच्छब्दस्यैव प्रकृते रूपत्रयमिच्छन्ति, यद्वयमवोचाम-"उच्चाहति" ॥८२१११॥ चकाराददितावपि, तेभ्योऽहंदभ्यो नमोऽस्त्विति नमःशब्दयोगाच्चतुर्थी, " चतुर्थ्याः षष्ठी" ॥ ८।३।१३१॥ इति प्राकृतसूत्राच्चतुर्थ्याः स्थाने षष्ठी । बहुवचनं चाद्वैतव्यवच्छेदेनाऽर्हबहुत्वख्यापनार्थम्, विषयबहुत्वेन नमस्कर्तुः फलातिशयज्ञापनार्थ च । एते चाऽर्हन्तो नामाधने कभेदा इति भावाईत्सम्परिग्रहार्थमाह भगवद्भ्यः भगोऽर्कज्ञानमाहात्म्ययशोवैराराग्यमुक्तिषु । रूपवीर्यप्रयत्नेच्छाश्रीधमैश्वर्ययोनिषु ॥१॥ इतिवचनादर्कयोनिवर्जमिह द्वादशधा भगशब्दस्याथः स विद्यते येषां ते मगवन्तः, निन्दावजं भूम्या (म्ना)दिष्वर्थेषु मतुः ज्ञानं तावद्गर्भनिवासात् प्रभृति आदीक्षातो मतिश्रुतावधिलक्षणं दीक्षानन्तरं त्वाघातिकर्मचतुष्टय (१) अष्टविधमपि खलु कर्माऽरिमृतं भवति सकलजीवानाम् । तत्कारिहन्तारोऽन्तस्तेनोच्यन्ते ॥१॥ ॥४२९॥ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४३०॥ क्षयाद् मनःपर्यायज्ञानसहितम्, घातिक्षये चानन्तमनन्तविषयं निःशेषभावाभावस्वभावावभासकं केवलज्ञानम् १ | माहात्म्यं प्रभावातिशयः, तच्च सर्वकल्याणकेषु नारकाणामपि सुखोत्पादकत्वेन नित्यसन्तमसेष्वपि नरकेषु प्रकाशजनकत्वेन गर्भनिवासात् प्रभृति कुलस्य घनादिवर्धनेनाऽप्रणतसामन्तानां च प्रणत्येतिमारिर्वैरोपहतिवर्जितराज्यकरणेनाऽतिवृष्टयनावृष्टिप्रभृत्युपद्रवरहितजनपदत्वेन चलितासनसकलसुरासुरप्रणतपादपद्मत्वेन चाऽवसेयम् २ । यशस्तु रागद्वेषपरीषहोपसर्गपराक्रमसमुत्थमाकालप्रतिष्ठं यत्सर्वदा दिवि सुरसुन्दरीभिः पाताले नागकन्याभि र्गीयते सुरासुरैर्नित्यमभिष्ट्रयते च ३ । वैराग्यं मरुन्नरेन्द्रलक्ष्मीमनुभवतामपि यत्र तत्र रतिर्नाम, यदा तु सर्वविषय त्यागपूर्वकं प्रवज्यां प्रतिपद्यन्ते तदाऽलमेभिरिति यदा तु क्षीणकर्म (र्मा) णो भवन्ति तदा सुखदुःखयोर्भवमोक्षयोरौदासीन्यमिति त्रिविधमप्यतिशायि भवति । यदवोचाम वीतरागस्तोत्रे यदामरुन्नरेन्द्रश्रीस्त्वया नाथोपभुज्यते । यत्र तत्र रतिर्नाम विरक्तत्वं तदापि ते ॥ १ ॥ नित्यं विरक्तः कामेभ्यो यदा योगं प्रपद्यसे । अलमेभिरिति प्राज्यं तदा वैराग्यमस्ति ते ॥ २ ॥ सुखे दुःखे भवे मोक्षे यदौदासीन्यमीशिषे । तदा वैराग्यमेवेति कुत्र नाऽसि विरागवान् ||३|| इति ॥४॥ मुक्तिश्व सकलक्लेशप्रहाणलक्षणा सन्निहितैवेति ॥ ५ ॥ रूपं तु- १ सव्वसुरा जइ रूवं अंगुठ्ठपमाणयं विउव्विज्जा । जिणपायंगुहं पर न सोहए तं जहिंगालो ॥ १ ॥ इति निदर्शनात् सिद्धं सर्वातिशायि ६ । वीर्यं च मेरोर्दण्डरूपतां धरित्र्याच छत्ररूपतां कर्तुं सामर्थ्यम्, (१) सर्वसुरा यदि रूपमङ्गुष्ठप्रमाणकं विकुर्वेयुः । जिनपादाङ्गुष्ठं प्रति न शोभते तद् यथाकारः ॥१॥ तृतीय प्रकाशः १४३०॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SERSEC योगशाखम् तृतीय प्रकाशा ।।४३१॥ श्रयते हि तत्कालजातेनैव श्रीमहावीरेण शक्रशङ्कापनोदाय वामपादाङ्गुष्ठेन मेरुपर्वतः प्रकम्पितः ७ । प्रयत्नः परमवीर्यसमुत्थ एकरात्रिक्यादिमहाप्रतिमहाप्रतिमाभावहेतुः समुद्धातशैलेश्यवस्थाव्यङ्ग्यः ८। इच्छा तु जन्मान्तरे सुरजन्मनि तीर्थकरजन्मनि च दुःखपङ्कमग्नस्य जगत उद्दिधीर्षातिशयवती ९। श्रीर्घातिकर्मोच्छेदविक्रमावाप्तकेवलालोकसम्पत्तिः, अतिशयमुखसम्पच्चानुपमा १० । धर्मः पुनरनाश्रवो महायोगात्मको निर्जराफलोऽतिश्रेयान् ११। ऐश्वर्य तु भक्तिभरावनम्रत्रिदशपतिविहितसमवसरणप्रातिहार्यादिरूपम् १२ । एवम्भूता एव प्रेक्षावतां स्तोतव्या इत्याभ्यामालापकाभ्यां स्तोतव्यसम्पदुक्ता । साम्प्रतमस्या हेतुसम्पदुच्यते-आइगराणं तित्थयराण संयंसंबुद्धाणंआदिकरणशीला आदिकरणहेतवो वा आदिकराः सकलनीतिनिबन्धनस्य श्रुतधर्मस्येति सामर्थ्यादगम्यते तेभ्यः। यद्यपि सैषा द्वादशाङ्गी न कदाचिन्नासीत्, न कदाचिन भवति, न कदाचिन भविष्यति, अभूच्च भवति च भविष्यति चेति वचनाद नित्या द्वादशाङ्गी; तथाप्यर्थापेक्षया नित्यत्वं शब्दापेक्षया तु स्वस्वतीर्थेषु श्रुतधर्मादिकरत्वमविरुद्धम् । एतेऽपि कैवल्यानन्तरापवर्गवादिभिरतीर्थकरा एवेष्यन्ते अकृत्वक्षये कैवल्याभावादिति वचनादिति तद्वचपोहार्थमाह-तीर्थकरेभ्यस्तीयते संसारसमुद्रोऽनेनेति तीर्थ तच्च प्रवचनाधारश्चतुर्विधसङ्घः प्रथमगणधरो वा, यदाहु:-रतित्थं भन्ते ! तित्थं ? तित्थयरे तित्थ ? गोयमा! अरिहा ताव नियमा तित्थंकरे तित्य पुण चाउवण्णे समणसंधे पढमगणहरे वा, तत्करणशीलास्तीर्थकराः। न चाकृत्वक्षये कैवल्यं न भवति, घातिकर्मक्षये अघातिकर्मभिः कैवल्यस्याबाधनात् । एवं ज्ञानकैवल्ये तीर्थकरत्वमुपपद्यते, मुक्तकैवल्ये तु तीर्थकरत्वमस्माभिरपि (१) तीर्थ भगवन् ! तीर्थ ! तीर्थकरस्तीर्थ? गौतम ! अईस्तावनियमात् तीर्थकरस्तीर्थ पुनश्चतुर्वर्णः श्रमणसंघः प्रथम गणधरो वा । AAMAmeramasex H४३१॥ emasex Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाश ॥४३२॥ नेष्यते । एतेऽपि तदा शिवानुग्रहात् कैश्चिद्बोधवन्त इष्यन्ते, यदाह-महेशानुग्रहाद् बोधनियमाविति तन्निराकरणार्थमाह-स्वयंसंबुद्धेभ्यः स्वयमात्मना तथाभव्यत्वादिसामग्रीपरिपाकान तु परोपदेशात् सम्यगविपर्ययेण बुद्धा अवगततत्त्वाः स्वयंसंबुद्धास्तेभ्यः । यद्यपि भवान्तरेषु तथाविधगुरुसन्निधानायत्तबोधास्तेऽभूवन् तथापि तीर्थकरजन्मनि परोपदेशनिरपेक्षा एव बुद्धाः, यद्यपि च तीर्थकरजन्मन्यपि लोकान्तिकत्रिदशवचनात् भयवं तित्थं पवत्तेह' इत्येवलक्षणाद् दीक्षां प्रतिपद्यन्ते तथापि वैतालिकवचनानन्तरप्रवृत्तनरेन्द्रयात्रावत् स्वयमेव प्रवज्यां प्रतिपद्यन्ते । इदानीं स्तोतव्यसम्पद् एव हेतुविशेषसम्पदुच्यते-पुरिमुत्तमाण पुरिससीहाणं पुरिसवरपुण्डरीआणं पुरिसवरगन्धहत्थीणं-पुरि शरीरे शयनात् पुरुषा विशिष्टकर्मोदयाद्विशिष्टसंस्थानवत्शरीरवासिनः सत्त्वास्तेषामुत्तमाः सहजतथाभव्यत्वादिभावतः श्रेष्ठाः पुरुषोत्तमाः तथाहि-आसंसारमेते परार्थव्यसनिन उपसर्जनीकृतस्वार्था उपचितक्रियावन्तोऽदीनभावाः सफलारम्भिणो दृढानुशयाः कृतज्ञतापतयोऽनुपहतचित्ता देवगुरुबहुमानिनो गम्भीराशया इति । न खल्वसमारचितमपि जात्यरत्नं समानमितरेण । न च समारचितोऽपि काचादिर्जात्यरत्नीभवति । एवं च यदाहुः सौगताः-नास्तीह कश्चिदभाजन सत्त्व इति, सर्वे बुद्धा भविष्यन्ति इति च, तत् प्रत्युक्तम् । एते च बाह्यार्थसंवादसत्यवादिभिः संस्कृताचार्यशिष्यनिरुपमानस्तवार्हा एवेष्यन्ते हीनाधिकाभ्यामुपमा मृषेति वचनात्तद्वयवच्छेदार्थमाह-पुरुषसिहेभ्यः पुरुषाः सिंहा इव प्रधानाः शौर्यादिगुणभावेन पुरुषसिंहाः, यथा सिंहाः शौर्यादिगुणयोगिनः तथा भगवन्तोऽपि कर्मशत्रुन् प्रति शूरतया तदुच्छेदं प्रति क्रूरतया क्रोधादीन् प्रत्यसहन (१) भगवस्तीर्थ प्रवर्तय । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४३३॥ तया रागादीन् प्रति वीर्ययोगेन तपःकर्म प्रति वीरतया ख्याताः, तथा एषामवज्ञा परीषहेषु, न भयमुपसर्गेभ्यः, न चिन्ताऽपि इन्द्रियवर्गे, न खेदः संयमावनि, न प्रकम्पो ध्याने, न चैवमुपमा मृषा तद्द्वारेण तदसाधारणगुणा भिधानादिति । एते च सुचारुशिष्यैः सजातीयोपमायोगिन एवेष्यन्ते विजातीयेनोपमायां तत्सदृशधर्मापत्त्या पुरुषत्वाद्यभावप्राप्तिः। यदाहु:-ते विरुद्धोपमायोगे तद्धपित्त्या तदवस्तुत्वमिति तद्वचपोहायाह-पुरुषवरपुण्डरीकेभ्यः पुरुषा वरपुण्डरीकाणीव संसारजलासङ्गादिना धर्मकलापेन पुरुषवरपुण्डरीकाणि तेभ्यः, यथाहि पुण्डरीकाणि पङ्के जातानि जलेन वर्धितानि तदुभयं विहायोपरि वर्तन्ते प्रकृतिसुन्दराणि च भवन्ति, निवासो भुवन लक्ष्म्याः , आयतनं चक्षुराद्यानन्दस्य, प्रवरगुणयोगतो विशिष्टतिर्यनरामरैः सेव्यन्ते, सुखहेतवो भवन्ति, तथा भगवन्तोऽपि कर्मपङ्के जाता दिव्यभोगजलेन वर्षिता उभयं विहाय वर्तन्ते, सुन्दराश्चातिशययोगेन, निवासो गुणसम्पदः, हेतवः परमानन्दस्य, केवलादिगुणभावेन तिर्यग्नरामरैः सेव्यन्ते, निवृत्तिसुखहेतवश्च जायन्ते इति भिषजातीयोपमायोगेऽप्यर्थतो विरोधाभावेन यथोदितदोषासम्भवः । यदि तु विजातीयोपमायोगेन तद्धर्मापत्तिरापाद्यते तहि सिंहादिसजातीयोपमायोगे तद्धर्माणां पशुत्वादीनामप्यापत्तिः स्यादिति । एतेऽपि यथोत्तरं गुणक्रमाभिधानवादिभिः सुरगुरोविनेय-नगुणोपमापूर्वकमधिकगुणोपमारे इष्यन्ते। अभिधानक्रमाभावे अभिधेयमपि तद्वदक्रमवदसदितिवचनादेतन्निरासायाह-पुरुषवरगन्धहस्तिभ्यः पुरुषावर गन्धहस्तिन इव वरगजेन्द्रा इव पुरुष वरगन्धहस्तिनः यथा गन्धहस्तिनां गन्धेनैव तद्देशविहारिणः क्षुद्रगजा भज्यन्ते तद्वदिति परचक्रदुर्भिक्षमारिप्रभृतयःसव एवोपद्रवगजा भगवतामचिन्त्यपुण्यानुभावानां विहारपवनगन्धादेव भज्यन्ते । न चैवमभिधानक्रमाभावेऽभिधेयमपि ॥४३॥ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा क्रमवदसदिति वाच्यम्, सर्वगुणानामेकत्राऽन्योऽन्यसंवलितत्वेनावस्थानात् , तेषां यथारुचि स्तोत्राभिधाने न दोषः। एवं पुरुषोत्तमत्वादिना प्रकारेण स्तोतव्यसम्पद एव हेतुविशेषसम्पत्तृतीया ।३। इदानी स्तोतव्यसम्पद एव सामान्येनोपयोगसम्पदमाह-लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहिआण लोगपईवाणं लोगपज्जोअगराणं-समुदायेष्वपि प्रवृत्ताः शब्दा अनेकधा अवयवेष्वपि प्रवर्तन्ते इति न्यायाद्यद्यपि लोकशब्देन तत्त्वतः पश्चास्तिकाया उच्यन्ते, धर्मादीनां वृत्तिव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रं तैव्यैः सह लोकस्तद्विपरीतं ह्यलोकाख्यमिति वचनात् । तथापीह लोकशब्देन भव्यसत्त्वलोक एव परिगृह्यते, सजातीयोत्कर्ष एवोत्तमत्वोपपत्तेः। अन्यथा अभव्यापेक्षया सर्वभव्यानामप्युत्तमत्वान्भेषामतिशय उक्तः स्यात् । ततश्च भव्यसत्त्वलोकस्य सकलकल्याणनिबन्धनतया भव्यत्वभावेनोत्तमा लोकोत्तमास्तेभ्यः, लोकनाथेभ्यः इह लोकशब्देन बीजाधानादिना संविभक्तो रागाद्यपद्रवेभ्यो रक्षणीयो विशिष्टो भव्यलोकः परिगृह्यते अस्मिन्नेव नाथत्वोपपत्तेः, योगक्षेमकृन्नाथ इति वचनात्, तदिह येषामेव बीजाधानोद्भेदपोषणैर्योगः, क्षेमं च तत्तदुपद्रवरक्षणेन ते एव भन्या लोकशब्देन गृह्यन्ते, न चैते योगक्षेमे सकलभव्यसत्त्वविषये कस्यचित्सम्भवतः सर्वेषामेव मुक्तिप्रसङ्गात्तस्मादुक्त स्यैव लोकस्य नाथा इति । तथा लोकहितेभ्यः,इह लोकशब्देन सकल एव सांव्यवहारिकादिभेदभिन्नःप्राणिवर्गों गृह्यते, तस्मै सम्यग्दर्शनप्ररुपणरक्षणयोगेन हिता लोकहिताः, तथा लोकप्रदीपेभ्यः, अत्र लोकशब्देन विशिष्ट एव देशनाघंशुभिर्मिथ्यात्वतमोऽपनयनेन यथाई प्रकाशित ज्ञेयभावः संज्ञिलोकः परिगृह्यते तं प्रत्येव भगवतां प्रदीपत्वोपपत्तेः । न ह्यन्धं प्रति प्रदीपः प्रदीपो नाम, तदेवंविधं लोकं प्रति प्रदीपा लोकप्रदीपाः। तथा लोकप्रद्योतकरेभ्यः इह लोकशब्देन विशिष्टचतुर्दशपूर्वविल्लोकः परिगृह्यते, तत्रैव तत्त्वतः प्रद्योतकरत्वोपपत्तेः, प्रद्योतं च सप्तप्रकारं जीवा ॥४३४॥ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धास्त्रम् ॥४३५॥ द्विवस्तुतत्त्वं तत्प्रद्योतकरणश्च विशिष्टानामेव पूर्वविदां भवति, तेऽपि षट्स्थानपतिता एव श्रूयन्ते, न च तेषां तृतीय सर्वेषामपि प्रद्योतः सम्भवति, प्रद्योतो हि विशिष्टतत्त्वसंवेदनयोग्यता, सा च विशिष्टानामेव भवति । तेन In प्रकाशा विशिष्टचतुर्दशपूर्वविल्लोकापेक्षया प्रद्योतकराः । एवं लोकोत्तमत्वादिभिः पञ्चभिः प्रकारैः परार्थकरणाः स्तोतव्यस म्पदः सामान्येनोपयोगसम्पच्चतुर्थी ४ । इदानीमुपयोगसम्पद एव हेतुसंपदुच्यते-अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं सरणदयाणं बोहिदयाणं-इह अभयं सप्तधा इह परलोका-ऽऽदाना--ऽकस्मादा-ऽऽजीव-मरण-श्लाघा भेदेनैतत्प्रतिपक्षतोऽभयं विशिष्टमात्मनः स्वास्थ्य निःश्रेयसे धर्मभूमिकानिबन्धनभूतं धृतिरित्यन्येषां तदित्थंभूतमभयं गुणप्रकर्षयोगादचिन्त्यशक्तियुक्तत्वात् सर्वथा परार्थकारित्वाद् भगवन्त एव ददतीत्यभयदास्तेभ्यः, तथा घनर्देभ्यः इह चक्षुर्विशिष्टमात्मधर्मरूपं तत्त्वावबोधनिबन्धनं गृह्यते । तच श्रद्धेत्यन्येषां तद्विहीनस्याचक्षुष्मत इव वस्तुतत्त्वदर्शनायोगाद न च मार्गाऽनुसारिणी श्रद्धा सुखेनावाप्यते सत्यां चास्यां कल्याणचक्षुषो भवति वस्तुतत्त्वदर्शनम्, तदियं धर्मकल्पद्रुमस्यावन्ध्यबीजभूता भगवद्भ्य एव भवतीति चक्षुर्ददतीति चक्षुर्दाः, तथा मार्गदेभ्यः इह मार्गों भुजङ्गमनलिकायामतुल्यो विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रवणः स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषोऽयममुमन्ये सुखेत्याचक्षते अस्मिन्नसति न यथोचितगुणस्थानावाप्तिर्गिविषमतया चेतः स्खलनेन प्रतिबन्धोपपत्तेः. मार्गश्च भगवदभ्य एवेति मार्ग ददतीति मार्गदाः. तथा शरणदेभ्यः, इह शरणं भयार्तत्राणं तच्च संसारकान्तारगतानामतिप्रबलरागादि पीडितानां समाश्वासनस्थानकल्पं तत्त्वचिन्तारूपमध्यवसानं विविदिषेत्यन्येषामस्मिश्च सति तत्त्वगोचराः शुश्रूषाश्रवण-प्रहण-धारण-विज्ञानो-हापोह-तत्वाभिनिवेशाः प्रज्ञागुणा भवन्ति । तत्त्वचिन्तामन्तरेण तेषामभावात् ४३५॥ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशाखम् प्रकाशा ४३६॥ सम्भवन्ति तु तामन्तरेणापि तदाभासा न पुनः स्वार्थसाधकत्वेन भावसाराः तत्त्वचिन्तारूपं शरणं भगवद्भ्य एव भवतीति शरणं ददतीति शरणदाः, तथा बोधिदेभ्यः, इह बोधिर्जिनप्रणीतधर्मावाप्तिः, इयं पुनर्यथाप्रवृत्तअपूर्व-अनिवृत्तिकरणत्रयव्यापाराभिव्यङ्ग्यमभिन्नपूर्वग्रन्थिभेदतः प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमुच्यते विज्ञप्तिरित्यन्येषां पञ्चकमप्येतदपुनर्बन्धकस्य, पुनर्बन्धके यथोचितस्यास्याभावादेते च यथोत्तरं पूर्वपूर्वफलभूताः, तथा हि- अभयफलं चक्षुः चक्षुःफलं मार्गः, मार्गफलं शरणम्, शरणफलं बोधिः, सा च भगवद्भ्य एव भवतीति बोधि ददतीति बोधिदाः । एवमभयदानचक्षुर्दानमार्गदानशरणदानबोधिदानेभ्यो यथोदितोपयोगसिद्धरुपयोगसम्पद एव हेतुसम्पदुक्ता । साम्प्रतं स्तोतव्यसम्पद एव विशेषोपयोगसम्पदुच्यतेधम्मदयाण धम्मदेसयाण धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरन्तचक्कवट्टीणं-धर्मदेभ्यः, इह धर्मश्चारियधर्मों गृह्यते स च यति-श्रावकसम्बन्धिभेदेन द्वेधा । यतिधर्मः सर्वसावद्ययोगविरतिलक्षणः; श्रावकधर्मस्तु देशविरतिरुपः स चायमुभयरूपोऽपि भगवद्भय एव हेत्वन्तराणां सद्भावेऽपि भगवतामेव प्रधानहेतुत्त्वादिति धर्म ददतीति धर्मदाः, धर्मदत्वं च धर्मदेशनाद्वारेणैव भवति नान्यथेत्याह-धर्मदेशकेभ्यः, धर्म प्रस्तुतं यथाभव्यमवन्ध्यतया देशयन्तीति धर्मदेशकाः तथा धर्मनायकेभ्यः धर्मोऽधिकृत एव तस्य नायकाः, स्वामिनस्तद्वशीकरणभवात् तदुकर्षावाप्तेस्तत्प्रकृष्टफलभोगात् तद्वयाघातानुपपत्तेश्च धर्मनायकाः, तथा धर्मसारथिभ्यः प्रस्तुतस्य धर्मस्य स्वपरापेक्षया सम्यक्प्रवर्तनपालनदमनयोगतः सारथयो धर्मसारथयः तथा धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्तिभ्यः, धर्मः, प्रस्तुत स एव त्रिकोटिपरिशुद्धितया सुगतादिप्रणीतधर्मचक्रापेक्षया उभयलोकहितत्वेन चक्रवर्त्यादिचक्रापेक्षया च वरं प्रधान ४३६॥ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४३७॥ तृतीय प्रकाशा चतसृणां गतीनां नारकतिर्यग्नरामरलक्षणानामन्तो यस्मात् तच्चतुरन्तं चक्रमिव चक्रं रौद्रमिथ्यात्वादिभावशत्रुलवनात्तेन वर्तन्ते इत्येवंशीला धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्तिनः चाउरन्तेति समृद्धयादित्वादात्वमेवं धर्मदत्वादिभिः पञ्चभिः स्तोतव्यसम्पदेव विशेषोपयोगसम्पदुक्ता ।६। इदानीं __ सर्व पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः कोपयुज्यते ? ॥१॥ इति सर्वदर्शनप्रतिक्षेपेणेष्टतत्त्वदर्शनवादिनः सौगतान् प्रतिक्षिपति-अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं विअट्टछउमाणं-अप्रतिहते सर्वत्राप्रतिस्खलिते बरे क्षायिकत्वात् प्रधाने ज्ञानदर्शने विशेषसामान्यावबोधरूपे धारयतीति अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरास्तेभ्यः, अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरत्वं च निरावरणत्वेन सर्वज्ञानदर्शनस्वभावतया च, ज्ञानग्रहणं चादौ सर्वा लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्येति ज्ञापनार्थमिति । एते च कैश्चित्तत्त्वतः खल्वव्यावृत्तच्छद्यान एवेष्यन्ते यदाह ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः॥१॥ तया दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितभीरुनिष्ठम् । मुक्तः स्वयं कृतभवश्च परार्थशूरस्त्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यम् ॥१॥ इति । तभिवृत्त्यर्थमाह-व्यावृत्तच्छद्मभ्यः, छादयतीति छद्म ज्ञानावरणादिघातिकर्म तद्बन्धयोग्यतालक्षणो भवाधिकारच, व्यावृत्तं निवृत्तं छद्म येभ्यस्ते तथाविधाः, नाऽक्षीणे संसारे अपवर्गः क्षीणे च जन्मपरिग्रह इत्यसत ॥४३७॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा १४३८॥ हेत्वभावात् । न च तीर्थनिकारजन्मपराभवो हेतुस्तेषां मोहाभावाद मोहे वा अपवर्ग इति प्रलापमात्रमेवमप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरत्वेन व्यावृत्तच्छद्मतया च स्तोतव्यसम्पद एव सकारणा स्वरूपसम्पत् । एते च कल्पिता विद्यावादिभिः परमार्थतो जिनादय एवेष्यन्ते भ्रान्तिमात्रमसद्विद्येति वचनात् एतद्बयपोहाय आह-जिणाणं जावयाणं, रागादिजेतृत्वाज्जिनाः, न च रागादीनामसत्त्वं प्रतिप्राण्यनुभवसिद्धत्वात् , न चाऽनुभवोऽपि भ्रान्तः सुखदुःखाधनुभवेष्वपि भ्रान्तिप्रसङ्गात् एवं च जेयसम्भवाज्जिनत्वमविरुद्धम् । एवं रागादीनेव सदुपदेशादिना जापयन्तीति जापकाः तेभ्यः, एतेऽपि कालकारणवादिभिरनन्तशिष्यैर्भावतोऽतीर्णादय एवेष्यन्ते काल एव कृत्स्नं जगदावर्तयति इति वचनात्, एतन्निरासायाह-तिण्णाणं तारयाणं-सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रपोतेन भवार्णवं तीर्णवन्तः तोर्णाः, न चैषां तीर्णानां पारगतानामावर्तः सम्भवति तद्भावे मुक्त्यसिद्धेः, एवं च न मुक्तः पुनर्भवे भवतीति तीर्णत्वसिद्धिः, एवं तारयन्ति अन्यानपीति तारकास्तेभ्यः, एतेऽपि परोक्षज्ञानवादिभिर्मीमांसकभेदैरबुद्धादय एवेष्यन्ते अप्रत्यक्षा हि नो बुद्धिः प्रत्यक्षोऽर्थः इति वचनात् एतद्धयवच्छेदार्थमाह-बुद्धाणं बोहयाणं-अज्ञाननिद्राप्रमुप्ते जगत्यपरोपदेशेन जीवाजीवादिरूपं तत्त्वं स्वसंविदितेन ज्ञानेन बुद्धवन्तो बुद्धाः, न चास्वसंविदितेन ज्ञानेनार्थज्ञानं सम्भवति । न ह्यदृष्टप्रदीपो बाह्यमर्थ प्रत्यक्षीकरोति, न चेन्द्रियबदस्वसंविदितस्यापि ज्ञानस्यार्थप्रत्यक्षीकरणमिन्द्रियस्य भावेन्द्रियत्वात् तस्य च स्वसंविदितरुपत्वात् यदाह-" अप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थदृष्टिः प्रसिद्धयति" एवं च सिद्ध बुद्धत्वमेवमपरानपि बोधयन्तीति बोधकास्तेभ्यः, एतेऽपि जगत्कर्तृलीनमुक्तवादिभिः सन्तपनविनेयैस्तत्त्वतोऽमुक्तादय एवेष्यन्ते, ब्रह्मवद् ब्रह्मसङ्गतानां स्थितिरिति वचनात् एतभिराचिकीर्षयाऽऽह ४३८॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाशा योगशास्त्रम् ॥४३९॥ मुत्ताण मोअगाणं-चतुर्गतिविपाकचित्रकर्मबन्धमुक्तत्वात मुक्ताः कृतकृत्या निष्ठितार्था इत्यर्थः, न च जगत्कर्तरि लये निष्ठितार्थत्वं सम्भवति, जगत्करणेन कृतकृत्यत्वायोगात् हीनादिकरणे च रागद्वेषाऽनुषङ्गः, न चान्यत्राऽन्यस्य लयः सम्भवति एकतराभावप्रसङ्गात्, एवं च जगत्कर्तरि लयाभावाद् मुक्तत्वसिद्धिः, एवं मोचयन्त्यन्यानपीति मोचकास्तेभ्यः, एवं च जिनत्वजापकत्वतीर्णत्वतारकत्वबुद्धत्वबोधकत्वमुक्तत्वमोचकत्वैः स्वपरहितसिद्धेरात्मतुल्यफलकर्तृत्व सम्पदष्टमी ।। ८॥ एतेऽपि बुद्धियोगज्ञानवादिभिः कापिलैरसर्वज्ञा असर्वदर्शिन एवेष्यन्ते बुद्धयध्यवसितमर्थ पुरुषश्चेतयते इति वचनात् एतनिराकरणायाह-सव्वन्नूणं सव्वदरिसीण-सर्व जानन्तीति सर्वज्ञाः सर्व पश्यन्तीत्येवंशीलाः सर्वदर्शिनः तत्स्वभावत्वे निरावरणत्वात् । उक्त चस्थितः शीतांशुवज्जीवः प्रकृत्या भावशुद्धया । चन्द्रिकावच्च विज्ञानं तदावरणमभ्रवत् ॥ १॥ न करणाभावे कर्ता तत्फलसाधक इत्यप्यनैकान्तिकम् , परनिष्ठितप्लवकस्य तरण्डकाभावेऽपि प्लवनदर्शनात इति बुद्धिलक्षणं करणमन्तरेणापि आत्मनः सर्वज्ञत्वसर्वदशित्वसिद्धिः। अन्यस्त्वाह-ज्ञानस्य विशेषविषयत्वाद दर्शनस्य च सामान्यविषयत्वात्, तयोः सर्वार्थविषयत्वमयुक्तं तदुभयस्य सर्वार्थविषयत्वादित्युच्यते-न हि सामान्यविशेषयोर्भेद एव, किन्तु ते एव पदार्थाः समविषमतया संप्रज्ञायमानाः सामान्यविशेषशब्दाभिधेयतां प्रतिपद्यन्ते, ततश्च ते एव ज्ञायन्ते ते एव दृश्यन्ते इति युक्तं ज्ञानदर्शनयोः सर्वाथविषयत्वमिति । ननु ज्ञानेन विषमताधर्मविशिष्टा एव गम्यन्ते न समताधर्मविशिष्टा अपि, दर्शनेन च समताधर्मविशिष्टा एव गम्यते न विषमताधर्मविशिष्टा अपि । ततश्च ज्ञानदर्शनाभ्यां समताविषमतालक्षणधर्मद्वयाग्रहणादयुक्तमेव तयोः सर्वार्थविषयत्व ॥४३९.1 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४४०॥ मिति, न धर्मधर्मिणोः सर्वथाभेदानभ्युपगमात् । ततश्चाभ्यन्तरीकृतसमताख्यधर्माण एव विषमताधर्मविशिष्टा ज्ञानेन गम्यन्ते अभ्यन्तरीकृतविषमताख्यधर्माण एव समताधर्मविशिष्टा दर्शनेन गम्यन्ते इति ज्ञानदर्शनयो ऽसर्वार्थविषयत्वमिति सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनश्च तेभ्यः। एते च सर्वगतात्मवादिभिर्मुक्तत्वे सति न नियतस्थानस्था एवेष्यन्ते । यदाहुस्ते-"मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति व्योमवत्तापवर्जिताः" इति । तनिराकरणार्थमाह-सिवमयलमरुअमणतमक्खयमबाबाहमपुणरावित्ति सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं-शिवं सर्वोपद्रवरहितत्वात्, अचलं स्वाभाविकप्रायोगिकचलनक्रियारहितत्वात, अरुजं व्याधिवेदनारहितं तनिबन्धनयोः शरीरमनसोरभावात्, अनन्तमनन्तज्ञानविषयत्वयुक्तत्वात्, अक्षयं विनाशकारणाभावात्, अव्याबाधमकर्मत्वात्, अपुनरावृत्ति न पुनरावृत्तिः संसारेऽवतारो यस्मात्, सिद्धिगतिनामधेय सिद्धिगतिरेव सिद्धयन्ति निष्ठितार्था भवन्त्यस्यां जन्तव इति सिद्धोंकान्तक्षेत्रलक्षणा सैव गम्यमानत्वादगतिः, सिद्धिरेव नामधेय यस्य तत्तथा, स्थानं तिष्ठिन्त्यस्मिन्निति स्थान व्यवहारतः सिद्धिक्षेत्रम् । यदाहुः-१इह बुन्दि चइत्ता ण तत्थ गंतूण सिज्झइ" इति । निश्चयतस्तु स्वस्वरूपमेव सर्वे भावा आत्मभावे तिष्ठन्तीति वचनात्, विशेषणानि च निरुपचरितत्वेन यद्यपि मुक्तात्मन्येव भूयसा सम्भवन्ति तथापि स्थानस्थानिनोरभेदोपचारादेवं व्यपदेशः, तदेवंविधं स्थानं सम्प्राप्ताः सम्यगशेषकर्मविच्युत्या स्वरूपगमनेन परिणामान्तरापत्त्या प्राप्तास्तेभ्यः, न हि विभूनामेवंविधप्राप्तिसम्भवः, सर्वगतत्वे सति सदैकस्वभावत्वात, नित्यानां चैकरूपतया अवस्थानं तद्भावाव्ययस्य नित्यत्वात् । अतः क्षेत्रतोऽसर्वगतपरिणामिनामेवैवं प्राप्तिः सम्भवति, (१) इह शरीरं त्यक्त्वा तत्र गत्वा सिध्यति । ॥४४oll Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४१॥ अत एव कायप्रमाणमात्मेति सुस्थितं वचनं, तेभ्यो नम इति क्रियायोगः, एवंभूता एव प्रेक्षावतां नमस्काराहा, आद्यन्त सङ्गतश्च नमस्कारो मध्यव्यापीति । जितभया अप्येते एव नान्ये इति प्रतिपादयितुमुपसंहरबाह-नमो जिणाण जिअभयाणं-नमो जिनेभ्यो जितभयेभ्य इति । तदेवं सव्वन्नूण सव्वदरिसीणमित्यत आरभ्य नमो जिणाणं जिअभयाणमित्येवमन्तैखिभिरालापकैः प्रधानगुणापरिक्षयप्रधानफलावाप्तिरुपा सम्पन्नवमी ।९। अत्र स्तुतिप्रस्तावान पौनरुक्त्यशङ्का करणीया । यदाह सज्झाय-ज्झाण-तव-ओसहेसु उवएस-थुइ पयाणेसु । सन्तगुणकित्तणेसु य न होन्ति पुणरुत्तदोसा ओ(उ) ॥१॥ एताभिर्नवभिः सम्पद्भिः प्रणिपातदण्डक उच्यते, तत्पाठानन्तरं प्रणिपातकरणाज्जिनजन्मादिषु स्वर्विमानेषु तीर्थप्रवृत्तेः पूर्वमपि शक्रोऽनेन भगवतः स्तौतीति शक्रस्तवोऽप्युच्यते, अयश्च प्रायेण भावाईद्विपयो भावादध्यारोपाच्च स्थापनाईतामपि पुरः पठयमानो न दोषाय, प्रणिपातदण्डकानन्तरं चाऽतीतानागतवर्तमानजिनवन्दनार्थ केचिदेतां गाथां पठन्ति जे अ अईआ सिद्धा जे अ भविस्संति णागए काले । संपइ अ वट्टमाणा सव्वे तिविहेण वंदामि ॥१॥ सुगमा चेयम् । ततश्चोत्थाय स्थापनाईद्वन्दनार्थ जिनमुद्रया अरिहंतचेइयाणमित्यादिसूत्रं पठति । अर्हतां पूर्वोक्तस्वरुपाणां चैत्यानि प्रतिमालक्षणानि अर्हच्चैत्यानि-चित्तमन्तःकरणं तस्य भावः कर्म वा वर्णदृढादित्वात् (१) स्वाध्याय-ध्यान-तप-औषधेषूपदेश-स्तुति-प्रदानेषु । सद्गुणकीर्तनेषु च न भवन्ति पुनरुक्तदोषास्तु ।।१।। (२) ये चातीताः सिद्धा ये च भविष्यन्त्यनागते काले । सम्प्रति च वर्तमानाः सर्वान् त्रिविधेन वन्दे ॥२॥ ॥४१॥ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् तृतीय प्रकाशा ॥४४॥ टयणि चैत्यं बहुविषयत्वे चैत्यानि । तत्राऽहतां प्रतिमा हि प्रशस्तसमाधिचित्तोत्पादकत्वादहच्चैत्यानि भण्यन्ते तेषां । किं ? वन्दनादिप्रत्ययं कायोत्सर्ग करोमीति सम्बन्धः-कायस्य शरीरस्य उत्सर्गः कृताकारस्य स्थानमौनध्यानक्रियाव्यतिरेकेण क्रियान्तराध्यासमधिकृत्य परित्यागस्तं करोमि। वंदणवत्तिआए--वन्दनप्रत्यय, वन्दनमभिवादनं प्रशस्तकायवाङ्मनः प्रवृत्तिरित्यर्थः, तत्प्रत्ययं तनिमित्तं । कथं नाम कायोत्सर्गादेव मम वन्दनं स्यादिति वत्तिआए इत्यार्षत्वात्सिद्धमेवं सर्वत्र द्रष्टव्यम् । तथा पूअणवत्तिआए पूजनप्रत्ययं पूजननिमित्तं पूजनं गन्धमाल्यादिभिरभ्यर्चनम् । तथा सकारवत्तिआए-सत्कारप्रत्ययं सत्कारनिमित्त, सत्कारः प्रवरवस्त्राभरणादिभिरभ्यर्चनम् , ननु च यतेः पूजनसत्कारावनुचितौ द्रव्यस्तवत्वात् ; श्रावकस्य तु साक्षात्पूजासत्कारकर्तुः कायोत्सर्गद्वारेण तत् प्रार्थना निष्फला, उच्यते-साधोव्यस्तवप्रतिषेधः करणमधिकृत्य, न पुनः कारणानुमती, यत उपदेशदानतः कारणसद्भावो भगवतां च पूजासत्कारदर्शनात् प्रमोदेनानुमतिरपि । यदाहरसुव्वइअवइररिसिणा कारवणं पि अ अणुट्ठियमिमस्स । वायगगन्थेसु तहा आगया देसणा चेव ॥१॥ श्रावकस्तु सम्पादयन्नपि एतौ भावातिशयादधिकसम्पादनार्थ पूजासत्कारौ प्रार्थयमानो न निष्फलारम्भः, तथा सम्माणवत्तिआए-सन्मानप्रत्ययं सन्माननिमित्तं सन्मानः स्तुत्यादिभिर्गुणोन्नतिकरणं मानसप्रीतिविशेष इत्यन्ये । अथ वन्दनादयः किंनिमित्तमित्याह-बोहिलाभवत्तिआए-बोधिलाभोऽहत्प्रणीतधर्मावाप्तिस्तत्प्रत्यय तन्निमित्तं । बोधिलाभोऽपि किंनिमित्तमित्याह-निरुवसग्गवत्तिआए-जन्माधुपसर्गाभावेन निरुपसर्गों मोक्षस्तत्प्रत्यय (१) सुवतिकवर्षिणा कारणमपि चानुष्ठितमस्य । वाचकग्रन्थेषु तथा आगता देशना चैव ॥३॥ 1॥४२॥ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् तृतीय प्रकाशा ॥४४३॥ तनिमित्तं । ननु साधुश्रावकयोर्बोधिलाभोऽस्त्येव तत्किं सतस्तस्य प्रार्थनया बोधिलाभमूलो मोक्षोऽप्यनभिलषणीय एव, उच्यते-क्लिष्टकर्मोदयवशेन बोधिलाभस्य प्रतिपातसम्भवाद् जन्मान्तरे च तस्यार्थ्यमानत्वाग्निरुपसर्गोऽपि तवारेण प्रार्थ्यत एवेति युक्तोऽनयोरुपन्यासः। अयं च कायोत्सर्गः क्रियमाणोऽपि श्रद्धादिविकलस्य नाभिलषितार्थप्रसाधनायालमित्याह-सद्धाए मेहाए धिईए धारणाए अणुप्पेहाए वढमाणीए ठामि काउस्सगं-श्रद्धा मिथ्यात्वमोहिनीयकर्मक्षयोपशमादिजन्योदकप्रसादकमणिवच्चेतसः प्रसादजननी, तया श्रद्धया, न तु बलाभियोगादिना, एवं मेधया न जडत्वेन, मेधा च सच्छास्त्रग्रहणपटुः पापश्रुतावज्ञाकारी ज्ञानावरणीयक्षयोपशमजश्चित्तधर्मः अथवा मेधया मर्यादावर्तितया, नासमजसत्वेन । एवं धृत्या मनःसमाधिलक्षणया, न रागद्वेषाद्याकुलतया । एवं धारणया अर्हदगुणाविस्मरणरूपया, न तु तच्छून्यतया । एवमनुप्रेक्षयाऽहंद्गुणानामेव मुहुर्मुहुरनुस्मरणेन, न तवैकल्येन वर्धमानतयेति श्रद्धादिभिः प्रत्येकमभिसम्बन्ध्यते । श्रद्धादीनां क्रमोपन्यासो लाभापेक्षया श्रद्धायां हि सत्यां मेधा तद्भावे धृतिस्ततो धारणा तदन्वनुप्रेक्षा वृद्धिरप्यासामेव । तिष्ठामि करोमि कायोत्सर्ग। ननु प्राक्करोमि कायोत्सर्गमित्युक्तं साम्प्रतं तिष्ठामीति किमर्थमुच्यते ? सत्यं सत्सामीप्ये सद्वत्प्रत्ययो भवतीति करोमि करिष्यामि इति क्रियाऽभिमुख्यं पूर्वमुक्तमिदानीं त्वासनतरत्वात् क्रियाकालनिष्ठाकालयोः कथश्चिदभेदात् तिष्ठाम्यवाहमिति । किं सर्वथा तिष्ठामि कायोत्सर्ग ? नेत्याह-अन्नत्थ ऊससिएणमित्यादि व्याख्यातं पूर्व । कायोत्सर्गश्चाष्टोच्छ्वासमात्रो न त्वत्र ध्येयनियमोऽस्ति । कायोत्सर्गान्ते च यद्येक एव ततो नमो अरिहंताणमिति नमस्कारेण पारयित्वा यत्र चैत्यवन्दनां कुर्वनस्ति तत्र यस्य भगवतः सन्निहितं स्थापनारूपं तस्य स्तुति पठति । अथ बहवस्तत एक एव ॥४४३॥ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशः SSSSUEARCH ॥४४॥ स्तुति पठति. अन्ये तु कायोत्सर्गस्थिता एव श्रृण्वन्ति यावत् स्तुतिसमाप्तिः, ततः सर्वेऽपि नमस्कारेण पारयन्तीति | तदनन्तरं तस्यामेवावसर्पिण्यां ये भारते वर्षे तीर्थकृतो अभूवन् तेषामेवैकक्षेत्रनिवासिनामासनोपकारित्वेन कीर्तनाय चतुर्विशतिस्तवं पठति, पठन्ति वा । तथा__ लोगस्स उज्जोअगरे धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं चउवीसंपि केवली ॥१॥ अरिहंत इति विशेष्यपदम् अर्हत उक्तनिर्वचनात् (न्), कीर्तयिष्ये नामोच्चारणपूर्वकं स्तोष्ये. ते च राज्याघवस्थासु द्रव्याईन्तो भवन्तीति भावाईत्त्वप्रतिपादनायाह-केवलिन उत्पन्न केवलज्ञानाद्भावाईत इत्यर्थः, अनेन ज्ञानातिशय उक्तः, तत्संख्यामाह-चतुर्विशतिमपि, अपिशब्दादन्यानपि, किं विशिष्टान् ? लोकस्योद्दद्योतकरान् लोक्यते प्रमाणेन दृश्यत इति लोकः पश्चास्तिकायात्मकस्तस्योद्योतकरणशीलान् , केवलालोकदीपेन सर्वलोकप्रकाशकरणशीलान् इत्यर्थः। ननु केवलिन इत्यनेनैव गतार्थमेतल्लोकोद्दद्योतकरणशीला एव हि केवलिनः । सत्यम् , विज्ञानाद्वैतनिरासेनोद्योतकराः उद्दयोत्यस्य भेददर्शनार्थम् , लोकोद्दद्योतकरत्वं च तत्स्तावकानामुपकाराय, न चाऽनुपकारिणः कोऽपि स्तौति इत्युपकारकत्वप्रदर्शनायाह-धर्मतीर्थकरान् धर्म उक्तस्वरुपः तीर्यतेऽनेन तीर्थ धर्मप्रधानं तीर्थ धर्मतीर्थ धर्मग्रहणाद द्रव्यतीर्थस्य नद्यादेः शाक्यादिसम्बन्धिनश्च अधर्मप्रधानस्य परिहारः, तत्करणशीला धर्मतीर्थकराः तान् सदेवमनुजासुरायां पर्षदि सर्बभाषापरिणामिन्या वाचा धर्मतीर्थप्रवर्तकानित्यर्थः, अनेन पूजातिशयो वागतिशयश्चोक्तः । अपायापगमातिशयमाह-जिनान् रागद्वेषादिजेतृनित्यर्थः । यदुक्तं कीर्तयितु मीति तत्कीर्तनं कुर्वनाह Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४४५॥ उसभमजिअं च वंदे संभवमभिनंदणं च सुमई च । पउमप्पहं मुपास जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥ २ ॥ मुविहिं च पुप्फदंतं सीअल सिज्जंस वासुपुज्जं च । विमलमणंतं च जिणं धम्म संतिं च बंदामि ॥ ३ ॥ कंथु अरं च मल्लि वन्दे मुणिमुव्वयं नमिजिणं च वंदामि रिहनेमि पासं तह बद्धमाणं च ॥४॥ समुदायार्थः सुगमः । पदार्थस्तु विभज्यते, स च सामान्यतो विशेषतश्च । तत्र सामान्यतः ऋषति गच्छति परमपदमिति ऋषभः, “ उदृत्वादौ " ॥८१। १३१ ॥ इत्युत्वे उसहो । वृषभ इत्यपि, बर्षति सिञ्चति देशनाजलेन दुःखाग्निना दग्धं जगत्, इत्यस्यान्वर्थः, " वृषभे वा वा,” ॥ ८॥१।१३३ ॥ इति वकारेण ऋत उत्वेऽस्यापि उसहो। विशेषतस्तु ऊर्वोवृषभो लाग्छनमभूद्भगवतः, जनन्या च चतुर्दशानां स्वप्नानामादा. वृषभो दृष्टस्तेन ऋषभो वृषभो वा ॥१॥ परीपहादिभिन जित इति अजितः, तथा गर्भस्थे भगवति जननी द्यते राज्ञा न जिता इत्यजितः । २। सम्भवन्ति प्रकर्षण भवन्ति चतुस्त्रिंशदतिशयगुणा अस्मिन्निति सम्भवः, शं सुख भवत्यस्मिन् स्तुते इति शम्भवो वा, तत्र “शपोः सः” ॥८१२६०॥ इति सत्वे सम्भवः तथा गर्भगतेऽप्यस्मिन् अभ्यधिकसस्यसम्भवात्सम्भवः । ३। अभिनन्धते देवेन्द्रादिभिरित्यभिनन्दनः, तथा गर्भात्प्रभृति एवाऽभीक्ष्णं शक्नाद्यभिनन्दनात् अभिनन्दनः । ४ । सु शोभना मतिरस्येति सुमतिः, तथा गर्भस्थे जनन्याः सुनिश्चिता मतिरभूदिति मुमतिः। ५। निष्पङ्कतामङ्गीकृत्य पद्मस्येव प्रभा यस्याऽसौ पद्मप्रभः, तथा पद्मशयनदोहदो मातुर्देवतया पूरित इति. पद्मवर्णश्च भगवानिति पद्मप्रभः । ६। शोभनाः पार्खा अस्येति सुपार्श्वः, तथा गर्भस्थे भगवति जनन्यपि सुपा जातेति सुपार्श्वः। ७। चन्द्रस्येव प्रभा ज्योत्स्ना सौम्यलेश्याविशेषोऽस्येति चन्द्रप्रभः, ४४५॥ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् तृतीय प्रकाशा ४४६।। तधा देव्याश्चन्द्रपानदोहदोऽभूत, चन्द्रसमवर्णश्च भगवानीति चन्द्रप्रभः । ८ । शोभनो विधिः सर्वत्र कौशलमस्येति सुविधिः, तथा गर्भस्थे भगवति जनन्यप्येवमिति सुविधिः, पुष्पकलिकामनोहरदन्तत्वात् पुष्पदन्त इति द्वितीयं नाम । ९। सकलसत्त्वसन्तापहरणाच्छीतलः, तथा गर्भस्थे भगवति पितुः पूर्वोत्पन्नाचिकित्स्यपित्तदाहो जननीकरस्पर्शादुपशान्त इति शीतलः । १० । सकलभुवनस्याऽपि प्रशस्यतमत्वेन श्रेयान्, श्रेयांसावंसावस्येति पृषोदरादित्वात् श्रेयांसो वा, तथा गर्भस्थेऽस्मिन् केनाप्यनाक्रान्तपूर्वा देवताधिष्ठितशय्या जनन्या आक्रान्तेति श्रेयो जातमिति श्रेयांसः । ११ । वसवो देवविशेषाः, तेषां पूज्यो वसुपूज्यः, प्रज्ञादित्वादणि वासुपूज्यः, तथा गर्भस्थेऽस्मिन् वसु हिरण्यं तेन वासवो राजकुलं पूजितवानिति वासुपूज्यः, वसुपूज्यस्य राज्ञोऽयमिति वा " तस्येदम्" ॥६।३। ६० ॥ इत्यणि वासुपूज्यः । १२। विगतमलो विमलः, विमलानि वा ज्ञानादीन्यस्येति विमलः, तथा गर्भस्थे मातुर्मतिस्तनुश्च विमला जातेति विमलः ॥१३ । अनन्तकर्मा शान् जयति अनन्तैर्वा ज्ञानादिभिर्जयति अनन्तजित, तथा गर्भस्थे जनन्या अनन्तरत्नदाम दृष्टम्, जयति च त्रिभुवनेऽपीति अनन्तजित्, भीमो भीमसेन इति न्यायादनन्त इति ।१४। दुर्गतौ प्रपतन्तं सत्त्वसङ्घातं धारयतीति धर्मः, तथा गर्भस्थे जननी दानादिधर्मपरा जाति धर्मः। १५ । शान्तियोगात्, तदात्मकत्वात् तत्कर्तृत्वाद्वा शान्तिरिति, तथा गर्भस्थे पूर्वोत्पन्नाशिवशान्तिरभूदिति शान्तिः । १६ । कुः पृथ्वी तस्यां स्थितवानिति निरुक्तात् कुन्थुः तथा गर्भस्थे जननी रत्नानां कुन्थु राशि दृष्टवतीति कुन्थुः । १७ । सर्वो नाम महासत्त्वः कुले य उपजायते । तस्याऽभिवृद्धये वृद्धैरसावर उदाहृतः ॥ १॥ ॥४४६॥ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशास्त्रम् | মঙ্কায় ॥४७॥ इति वचनादरः । तथा गर्भस्थे जनन्या स्वप्ने सर्वरत्नमयोऽरो दृष्ट इत्यरः॥१८॥ परीषहादिमल्लजयानिरुक्तान्मल्लिः, तथा गर्भस्थे मातुः एकऋतौ सर्वतसुरभिकुसुममाल्यशयनीयदोहदो देवतया पूरित इति मल्लि: । १९ । मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः “मनेरुदेतौ चास्य वा" (उणा-६१२) इति इप्रत्यये उपान्त्यस्योत्वम् , शोभनानि व्रतान्यस्येति सुव्रतः, मुनिश्चासौ सुव्रतश्च मुनिसुव्रतः, तथा गर्भस्थे जननी मुनिवस्सु व्रता जातेति मुनिसुव्रतः ॥२०॥ परीषहोपसर्गादिनामनाद् 'नमेस्तु वा' (उणा-६१३) इति विकल्पेनोपान्त्यस्येकाराभावपक्षे नमिः, तथा गर्भस्थे भगवति परचक्रनृपैरपि प्रणतिः कृतेति नमिः ॥२१॥ धर्मचक्रस्य नेमिवन्नेमिः, तथा गर्भस्थे भगवति जनन्या रिष्टरत्नमयो महानेमिष्ट इति रिष्टनेमिः, अपश्चिमादिशब्दवत् नअपूर्वत्वेऽरिष्टनेमिः ॥२२॥ पश्यति सर्वभावानिति निरुक्तात् पार्श्वः, तथा गर्भस्थे जनन्या निशि शयनीयस्थयाऽन्धकारे सपों दृष्ट इति गर्भानुभावोऽयमिति मत्वा पश्यतीति पार्श्वः, पार्थोऽस्य वैयावृत्त्यकरस्तस्य नाथः पार्श्वनाथः, भीमो भीमसेन इतिवत् पार्श्वः ॥२३॥ उत्पत्तेरारभ्य ज्ञानादिभिर्वर्धत इति वर्धमानः, तथा भगवति गर्भस्थे ज्ञातकुलं धनधान्यादिभिर्वर्धत इति वर्धमानः ॥२४॥ विशेषाऽभिधानर्थसंग्राहिकाश्चमाः श्रीभद्रबाहुस्वामिप्रणीता गाथाः१ऊरूसु उसहलब्छणमुसभं सुमिणम्मि तेण उसहजिणो । अक्खेसु जेण अजिआ जणणी अजिओ जिणो तम्हा ॥१॥ (१) ऊर्वोऋषभलाञ्छनमृषभं स्वप्ने तेनर्षभजिनः। अक्षेषु येनाजिता जननी अजितो जिनस्तस्मात् ॥१॥ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥४४८|| १अभिसम्भूआ सासत्ति सम्भवो तेण बुच्चइ भयवं । अभिनन्दइ अभिक्खं सको अभिनन्दणो तेण ||२|| जणी सम्वत्थ विणिच्छपसु सुमइति तेण सुमइजिणो । पउमसयणम्मि जणणीइ डोहलो तेण पउमाभो ||३|| गन्भगए जं जणणी जाय सुपासा तओ सुपासजिणो । जणणीइ चंदपिअणम्मि डोहलो तेण चंदाभो ॥४॥ सव्वविद्दी अ कुसला गव्भगए जेण होइ सुविहिजिणो । पिउणो दाहोबसमो गन्भगए सीअलो तेणं ||५|| महरिहसिज्जारुहणम्मि डोहलो होइ तेण सिज्जंसो । पूएइ वासवो जं अभिक्खणं तेण वसुपुज्जो ॥६॥ विमलतणुबुद्धिजणणी गन्भगए तेण होइ विमलजिणो । रयणविचित्तमणंत दामं सुमिणे तओऽणतो ॥७॥ गभगए जं जणणी जाय सुधम्मत्ति तेण धम्मजिणो । जाओ असिवोवसमो गन्भगए तेण संतिजिणो ॥८॥ (१) अभिसंभृतानि सस्यानीति संभवस्तेनोच्यते भगवान् । अभिनन्दत्यभीक्ष्णं शक्रोऽभिनन्दनस्तेन ॥२॥ जननी सर्वत्र विनिश्चयेषु सुमतिरिति तेन सुमतिजिनः । पद्मशयने जनन्या दोहदस्तेन पद्माभः || ३| गर्भगते यज्जननी जाता सुपार्श्वा ततः सुपार्श्वजिनः । जनन्याश्चन्द्रपाने दोहदस्तेन चन्द्राभः || ४ || सर्वविधिषु च कुशला गर्भगते येन भवति सुविधिजिनः । पितुर्दाहोपशमो गर्भगते शीतलस्तेन ||५| महाईशय्यारोहणे दोहदो भवति तेन श्रेयांसः । पूजयति वासवो यमभिक्षणं तेन वासुपूज्यः ||६|| विमलतनुबुद्विजननी गर्भगते तेन भवति विमलजिनः । रत्नविचित्रमनन्तं दाम स्वप्ने ततोऽनन्तः ||७|| गर्भगते यज्जननी जाता सुधर्मेति तेन धर्मजिनः जातोऽशिवोपशमो गर्भगते तेन शान्तिजिनः ||८|| तृतीय प्रकाशः ४४८॥ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशः ૪૬ रह रयणविचित्त कुंथु सुमिणम्मि तेण कुंथुजिणो। सुमिणे अरं महरिहं पासइ जणणी अरो तम्हा ॥९॥ वरसुरहिमल्लसयणम्मि डोहलो तेण होई मल्लिजिणो । जाया जणणी जे सुब्वयत्ति मुणिसुव्वओ तम्हा ॥१०॥ पणया पञ्चतनिवा दंसियमित्ते जिणम्मि तेण णमी। रिहरयणं च नेमि उप्पयमाणं तओ नेमी ॥ ११ ॥ सप्पं सयणे जणणी जं पासइ तमसि तेण पासजिणो । बढइ य नायकुलं ति अ तेण जिणो वद्धमाणु त्ति ॥१२॥ इति कीर्तनं कृत्वा चेतःशुद्धयर्थ प्रणिधानमाहएवं मए अभिथुआ विहअरयमला पहीणजरमरणा । चउवीस पि जिणवरा तित्थयरा मे पसीअन्तु ॥५॥ एवमनन्तरोदितेन विधिना मयेत्यात्मनिर्देशः, अभिष्टुता आभिमुख्येन स्तुताः स्वनामभिः कीर्तिता इत्यर्थः। कि विशिष्टास्ते, विधूतरजोमलाः-रजश्च मलं च रजोमले, विधूते प्रकम्पिते अनेकार्थत्वादपनीते वा रजोमले यैस्ते विधुतरजोमलाः, बध्यमानं च कर्म रजः, पूर्वबद्धं तु मलम्, अथवा बद्धं रजो, निकाचित मलम् , अथवा ऐर्यापथं रजः, साम्परायिकं मलमिति । यतश्चैवभूता अत एव प्रक्षीणजरामरणाः कारणाभावात् । चतुर्विंशतिरपि, अपिशब्दादन्येऽपि जिनवराः श्रुतादिजिनेभ्यः, प्रकृष्टाः, ते च तीर्थकरा इति पूर्ववत्, मे मम, किं ? प्रसीदन्तु प्रसा (१) स्तूपं रत्नविचित्रं कुन्थु स्वप्ने तेन कुन्थुजिनः । स्वप्ने महाई पश्यति जननी, अरस्तस्मात् ॥९॥ वरसुरभिमाल्यशयने दोहदस्तेन भवति मल्लिजिनः । जाता जननी यत् सुत्रतेति मुनिसुव्रतस्तस्मात् ॥१०॥ प्रणताः प्रत्यन्तनृपा दर्शितमात्रे जिने तेन नमिः । रिष्टरत्नं च नेमिमुत्पतन्तं ततो नेमिः ॥११॥ सर्प शयने जननी यत् पश्यति तमसि तेन पार्श्वजिनः । वर्धते च ज्ञातकुलमिति च तेन जिनो वर्धमान इति ॥१२॥ ॥४४॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगयास्त्रम् तुनीय प्रकाशा 118'ROLL दपरा भवन्तु । ते च वीतराग़त्वाद्यधपि स्तुताः तोषम्, निन्दिताश्च द्वेष न यान्ति, तथाऽपि स्तोता स्तुतिफलम्, निन्दकश्च निन्दाफलमामोत्येव यथा चिन्तामणिमन्त्राधाराधकः, यदवोचाम वीतरागस्तवे अप्रसन्नात् कथं प्राप्य फलमेतदसङ्गतम् । चिन्तामण्यादयः किं न फलन्त्यपि विचेतनाः॥१॥ इत्युक्तमेव । अथ यदि न प्रसीदन्ति, तत्कि प्रसीदन्त्विति वृथा प्रलापेन ! । नैवम् । भक्त्यतिशयत एवमभिधानेऽपि न दोषः। यदाह-क्षीणक्लेशा एते न हि प्रसीदन्ति, न तत्स्तवोऽपि वृथा, तत्स्तवभावविशुद्धः,प्र. योजन कर्मविगम इति ॥५॥ तथाकित्तिा वंदिअ महिआ जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आरुग्गबोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दितु ॥६॥ कीर्तिताः स्वनामभिः प्रोक्ताः वन्दितास्त्रिविधयोगेन सम्यक् स्तुताः, महिताः पुष्पादिभिः पूजिताः। मइआ इति पाठान्तरम्, तत्र मयका मया । के एते ?, इत्याह-ये एते लोकस्य प्राणिवर्गस्य कर्ममलकलङ्काभावेनोत्तमाः, प्रकृष्टाः, सिद्धयन्ति स्म सिद्धाः कृतकृत्या इत्यर्थः, अरोगस्य भाव आरोग्यं सिद्धत्वं तदर्थम् बोधिलाभः अर्हत्प्रणीतधर्मप्राप्तिरारोग्यबोधिलाभः, स ह्यनिदानो मोक्षायैव भवति तम्, तदर्थ च समाधिवरं वरसमाधि परमस्वास्थ्यरूपं भावसमाधिमित्यर्थः, असावपि तारतम्यभेदादनेकधैव, अत आह-उत्तम सर्वोत्कृष्टं ददतु प्रयच्छन्तु, एतच्च भक्त्योच्यते । यत उक्तम्१भासा असच्चमोसा नवरं भतीइ भासिआ एसा । न हुखीणपिज्जदोसा दिति समाहिं च बोहिं च ॥१२॥ इति (१) भाषा असत्यमृषा नवरं भक्त्या भाषितेषा । न खलु क्षीणप्रेमदोषा ददति समाधि च बोधि च ॥१२॥ ॥४५ou Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४५१॥ तथाचंदेसु निम्मलयरा आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगम्भीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसन्तु ॥७॥ “पञ्चम्याम्तृतीया च" ||८॥३॥१३६॥ इति पञ्चम्यर्थे सप्तमी, अतश्चन्द्रेभ्योऽपि निर्मलतराः सकलकर्ममलापगमात्, पाठान्तरं वा चन्देहि निम्मलयरा, एवमादित्येभ्योऽप्यधिकं प्रकाशकराः, केवलोद्योतेन लोकालोकप्रकाशकत्वात् । उक्तं च१चंदाइचगहाणं पहा पयासेइ परिमिअं खित्तं । केवलिअनाणलम्भो लोआलोअं पयासेइ ॥१॥ सागरवरः स्वयम्भूरमणाख्यः समुद्रः, परीषहोपसर्गाद्यक्षोभ्यत्वात् तस्मादपि गम्भीराः सिद्धाः कर्मविगमात् कृतकृत्याः, सिद्धि परमपदप्राप्तिम्, मम दिशन्तु प्रयच्छन्तु । एवं चतुर्विशतिस्तवमुक्त्वा सर्वलोक एवाईच्चैत्यानां वन्दनाद्यर्थ कायोत्सर्गकरणायेदं, पठति, पठन्ति वा। सव्वलोए अरिहंतचेइआणं करेमि काउस्सग्गमित्यादि वोसिरामीति यावत् । व्याख्या पूर्ववत् । नवरम्, सर्वश्चासौ लोकश्च अधस्तिर्यगर्ध्वभेदस्तस्मिंस्त्रैलोक्ये इत्यर्थः, अधोलोके हि चमरादिभवनेषु, तिर्यग्लोके द्वीपाचलज्योतिष्कविमानादिषु, ऊर्ध्वलोके सौधर्मादिषु सन्त्येवाईच्चैत्यानि, ततश्च मौलचैत्यं समाधिकारणमिति मूलप्रतिमायाः प्राक् स्तुतिरुक्ता । इदानीं सर्वेऽहंन्तस्तद्गुणा इति सर्वलोकसंग्रहः, तदनुसारेण सर्वतीर्थकरसाधारणी स्तुतिः । अन्यथा अन्यकायोत्सर्गे अन्या स्तुतिरिति न सम्यगतिप्रसङ्गादिति सर्वतीर्थकराणां स्तुतिरुक्ता । इदानीं येन ते भगवन्तस्तदभिहिताश्च भावाः स्फुटमुपलभ्यन्ते (१) चन्द्रादित्यगृहाणां प्रभा प्रकाशयति परिमितं क्षेत्रम् । केवलिकज्ञानलाभो लोकालोकं प्रकाशयति ॥२॥ SwederPAaPeepance ॥५१॥ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ilધરા तत्प्रदीपस्थानीयं सम्यक श्रुतमर्हति कीर्तनम्, तत्रापि तत्प्रणेतृन् भगवतः प्रथमं स्तौतिपुक्खरवरदीवढे धायइखंडे अ जम्बुद्दीवे अ । भरहेरवयविदेहे धम्माइगरे नमसामि ॥१॥ भरतं भरतक्षेत्रम्, ऐरवतमैरवतक्षेत्रम्, विदेहमिति भीमो भीमसेन इति न्यायाद् महाविदेहक्षेत्रम्, एवं समाहारद्वन्द्वः, तेषु भरतैरवतविदेहेषु धर्मस्य श्रुतधर्मस्यादिकरान् सूत्रतः प्रथमकरणशीलान् , नमस्यामि स्तुवे । क यानि भरतैरवतमहाविदेहक्षेत्राणि', इत्याह-पुष्कराणि पद्मानि, तेर्वरः पुष्करवरः स चासौ द्वीपश्च पुष्करवरद्वीपः तृतीयो द्वीपः तस्या, मानुषोत्तराचलादर्वाग्भागवति, तत्र द्वे भरते, द्वे ऐरवते द्वे महाविदेहे, तथा धातकीनां खण्डानि वनानि यस्मिन् स धातकीखण्डो द्वीपः तस्मिन् , द्वे भरते, द्वे ऐवते, द्वे महाविदेहे । जम्ब्या उपलक्षितः तत्प्रधानो वा द्वीपो जम्बूद्वीपः, अत्रैकं भरतमेकमैरवतमेकं च महाविदेहमित्येताः पञ्चदशकर्मभूमयः शेषास्त्वकर्मभूमयः यदाह-"भरतैरवतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरूभ्यः” (तत्त्वा-३॥१६) महत्तरक्षेत्रप्राधान्याङ्गीकरणात्पश्चानुपूर्व्या निर्देशः । धर्मादिकरत्वं यथा भगवतां भवति तथा अपौरुषेयवादनिराकरणावसरे प्राग्निीतम् । नन्वेवमपि कथं धर्मादिकरत्वं भगवताम्, 'तप्पुव्विा अरहया' इति वचनात् वचनस्यानादित्वात् ? नैवम्, बीजाङ्कुरवत्तदुपपत्तेः--बीजाद्धि अङ्कुरो भवति अङ्कुराच्च बीजमिति । एवं भगवतां पूर्वजन्मनि श्रुतधर्माभ्यासात्तीर्थकरत्वम् , तीर्थकृतां च श्रुतधर्मादिकरत्वमदुष्टमेव । न चाऽयं नियमः श्रुतधर्मपूर्वकमेवाहत्त्वमिति मरुदेव्यादीनां श्रुतधर्मपूर्वकत्वाभावेऽपि केवलज्ञानश्रवणादित्यलं प्रसङ्गेन । एवं श्रुतधर्मादिकराणां स्तुतिरुक्ता । इदानीं श्रुतधर्मस्याह ॥४५२॥ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् तृतीय प्रकाशा ॥४५३॥ तमतिमिरपडलविद्धंसणस्य सुरगणनरिंदमहिअस्स । सीमाधरस्स वंदे पप्फोडिअमोहजालस्स ॥२॥ तमोऽज्ञानम् तदेव तिमिरम्, अथवा बद्धस्पृष्टनिधत्तं ज्ञानावरणीय कर्म तमः; निकाचितं तिमिरं, ततस्तमस्तिमिरस्य, तमस्तिमिरयोर्वा पटलं वृन्दम्, तद्विध्वंसयति विनाशयतीति नन्दादित्वादने तमस्तिमिरपटलविध्वंसनस्तस्य, अज्ञाननिरासेनेवास्य प्रवृत्तेः । सुरगणैश्चतुर्विधाऽमरनिकायैनरेन्द्रश्चक्रवर्त्यादिभिर्महितः पूजितस्तस्य । आगममहिमां हि कुर्वन्त्येव सुरासुरादयः। सीमां मर्यादाम, सीमायां वा धारयतीति सीमाधरस्तस्य, श्रुतधर्म इति विशेष्यम्, ततः कर्मणि द्वितीया, तस्याश्च “कचिद् द्वितीयादेः" ।। ८।३।१३४ ॥ इति प्राकृत्स्त्रात् षष्ठी, अतस्तं वन्दे, तस्य वा यन्माहात्म्यं तद्वन्दे इति सम्बन्धे षष्ठी; अथवा तस्य वन्दे वन्दनं करोमीति । प्रकर्षण स्फोटितं विदारितं मोहजालं मिथ्यात्वादिरूपं येन स तथा तस्य । श्रुतधर्मे हि सति विवेकिनो मोहजालं मिथ्यात्वादिरूपं विलयमुपयात्येव ॥ इत्थं श्रुतमभिवन्द्य तस्यैव गुणोपदर्शनद्वारेणाप्रमादगोचरतां प्रतिपादयन्नाह जाईजरामरणसोगपणासणस्स, कल्लाणपुक्खलविसालमुहावहस्स । को देवदाणवनरिंदगणच्चिअस्स, धम्मस्स सारमुक्लब्भ करे पमायम् ? ॥ ३ ॥ कः सचेतनः, धर्मस्य श्रुतधर्मस्य, सारं सामर्थ्यम्, उपलभ्य विज्ञाय, श्रुतधर्मोदितेऽनुष्ठाने, प्रमादमनादरं कुर्यात् ?, न कश्चित् कुर्यादित्यर्थः । किं विशिष्टस्य श्रुतधर्मस्य ? जातिजन्म, जरा विश्रसा, मरण प्राणनाशः, शोको मानसो दुःखविशेषः, तान् प्रणाशयति अपनयति, जातिजरामरणशोकप्रणाशनः तस्य, श्रुतधर्मोक्तानुष्ठानाद्धि जात्यादयः प्रणश्यन्त्येव, अनेनास्यानर्थप्रतिघातित्वमुक्तम् । कल्यमारोग्यमणति शब्दयति इति कल्याणम् , ॥४५३॥ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय ॥४५४॥ पुष्कलं सम्पूर्णम्, न च तदल्पं किन्तु विशालं विस्तीर्णमेवम्भूतं सुखमावहति प्रापयतीति कल्याणपुष्कलविशालसुखावहः तस्य, तथा च श्रुतधर्मोक्तानुष्ठानादुक्तलक्षणमपवर्गसुखमवाप्यत एव, अनेन चाऽस्य विशिष्टार्थप्रापक त्वमाह । देवानां दानवानां नरेन्द्राणां च गणैरचितस्य पूजितस्य, सुरगणनरेन्द्रमहितस्य इति, अस्यैव निगमनं देवदानवेत्यादि । यतश्चैवमतः सिद्धे भो! पयो नमो जिणमए नंदी सया संयमे, देवनागसुवण्णकिन्नरगणस्सम्भूअभावच्चिए । लोगो जत्थ पइडिओ जगमिणं तेलुक्कमच्चामुरं, धम्मो वड्ढउ सासयं विजयओ धम्मुत्तरं वड्ढउ ॥४॥ सिद्धः फलाव्यभिचारेण प्रतिष्ठितः, अथवा सिद्धः सकलनयव्यापकत्वेन त्रिकोटिपरिशुद्धत्वेन च प्रख्यातस्तस्मिन्, भो इत्यतिशयिनामामन्त्रणम् पश्यन्तु भवन्तः प्रयतोऽहं यथाशक्त्येतावन्तं कालं प्रकर्षेण यतः, इत्यं परसाक्षिकं प्रयतो भूत्वा पुनर्नमस्करोति, नमो जिणमए नमो जिनमताय, प्राकृतत्वाच्चतुर्थ्याः सप्तमी । अस्मिश्च सति नन्दिः समृद्धिः, सदा सर्वकालम्, संयमे चारित्रं भूयात् । उक्तं च-(१) ' पढमं नाणं तओ दया'। किंविशिष्टे संयमे ?, देवनागसुपर्णकिन्नरगणैः सद्भूतभावेनार्चिते-देवा विमानिनः, नागा धरणादयः, सुपर्णा गरुडाः, किनरा व्यन्तरविशेषाः, उपलक्षणं शेषाणां, देवमित्यनुस्वारः छन्दःपूरणे, तथा च संयमवन्तोऽर्थ्यन्त एव देवादिभिः । यत्र जिनमते, किं यत्र ? लोकनं लोको ज्ञानम्, प्रतिष्ठितः तद्वशीभूतः, तथा जगदिदं ज्ञेयतया प्रतिष्ठितमिति योगः; केचिन्मनुष्यलोकमेव जगन्मन्यन्ते, अत आह-त्रैलोक्यमासुरमाधाराधेयरूपम् । अयमि (१) प्रथमं ज्ञानं ततो दया । ४५४॥ FORSE Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४५५॥ त्थम्भूतो धर्मः श्रुतधर्मो वर्धतां वृद्धिमुपयातु, शाश्वतमिति क्रियाविशेषणं शाश्वतमप्रच्युत्या वर्धतामिति; विजयतः परवादिविजयेन, धर्मोत्तरं चारित्रधर्मोत्तरं वर्धताम् पुनर्वृद्ध्यभिधानं मोक्षार्थिना प्रत्यहं ज्ञानवृद्धिः कार्य्या इति प्रदर्शनार्थम् । तथा च तीर्थकरनामकर्महेतून प्रतिपादयतोक्तम्- ' अपुव्वनाणगहणे ' इति । प्रणिधानमेतन्मोक्ष कल्पं परमार्थतोऽनाशंसारूपमेवेति प्रणिधानं कृत्वा श्रुतस्यैव वन्दनाद्यर्थं कायोत्सर्गार्थं पठति पठन्ति वा । सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गमित्यादि वोसिरामीति यावदथः पूर्ववत् । नवरम् - श्रुतस्येति प्रवचनस्य सामायिका देबिन्दुसारपर्यन्तस्य, भगवतो यशोमाहात्म्यादियुक्तस्य, ततः कायोत्सर्गकरणं पूर्ववत्पारयित्वा श्रुतस्य स्तुतिं पठति । ततश्च अनुष्ठानपरम्पराफलभूतेभ्यः सिद्धेभ्यो नमस्कारकरणायेदं पठति पठन्ति वा - सिद्धाणं बुद्धाणं पारगयाणं परम्परगयाणं । लोअग्गमुवगयाणं नमो सया सव्वसिद्धाणं ॥ १ ॥ सिद्ध्यन्ति स्म सिद्धा ये येन गुणेन निष्पन्नाः परिनिष्ठिताः सिद्धौदनवद् न पुनः साधनीया इत्यर्थः तेभ्यो नम इति योगः । ते च सामान्यतः कर्मादिसिद्धा अपि भवन्ति यथोक्तम् कम्मे सिप्पे य विज्जाअ मंते जोगे य आगमे । अत्य जत्ता अभिप्पाए तवे कम्मक्खए इअ ॥ १ ॥ तत्र कर्म आचार्योपदेशरहितं भारवहनकृषिवाणिज्यादि, तत्र सिद्धः, परिनिष्ठितः सह्यगिरिसिद्धवत् । शिल्पं त्वाचार्योपदेशजं तत्र सिद्धः, कोकासवर्धकिवत् । विद्या जपहोमादिना फलदा मन्त्रो जपादिरहितः पाठमात्रसिद्धः, स्त्रीदेवताऽधिष्ठाना विद्या पुरुषदेवताधिष्ठानस्तु मन्त्रः । तत्र विद्यासिद्ध आर्यखपुटवत् मन्त्रसिद्धः १ कर्मणि शिल्पे च विद्यायां मन्त्रे योगे चागमे । अर्थे यात्रायामभिप्राये तपसि कर्मक्षय इति ॥ १ ॥ तृतीय সন্ধাश: ॥४५५ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४५६॥ स्तम्भाकर्षकवत् । योग औषधिसंयोगः, तत्र सिद्धो योगसिद्धः आर्यसमितवत्, आगमो द्वादशाङ्गं प्रवचनं तत्रासाधारणार्थावगमात्सिद्धः आगमसिद्धो गौतमवत्, अर्थो धनम् स इतरासाधारणो यस्य सोऽर्थसिद्धो मम्मणवणिग्वत् । जले स्थले वा यस्याविना यात्रा स यात्रासिद्धस्तुण्डिकवत् । यमर्थमभिप्रैति तमर्थ तथैव यः साधयति सोऽभिप्राय सिद्धोऽभय कुमारवत् । यस्य सर्वोत्कृष्टं तपः स तपःसिद्धो दृढप्रहारिवत् । यः कर्मक्षयेण ज्ञानावरणीयाद्यष्टकर्म निर्मूलनेन सिद्धः स कर्मक्षयसिद्धो मरुदेवीवत् । अतः कर्मादिसिद्धव्यपोहेन कर्मक्षयसिद्धपरिहार्थमाह-बुद्धेभ्यः अज्ञाननिद्राप्रमुप्ते जगति अपरोपदेशेन जीवादिरूपं तत्त्वं बुद्धवन्तो बुद्धाः, बुद्धत्वानन्तरं कर्मक्षयं कृत्वा सिद्धा इत्यर्थः तेभ्यः । एते च संसारनिर्वाणोभयपरित्यागस्थितिमन्तः कैश्चिदिष्यन्ते न संसारे न निर्वाणे स्थितो भुवनभूतये । अचिन्त्यः सर्वलोकानां चिन्तारत्नाधिको महान् ॥ १ ॥ ईति वचनात् । एतन्निरासार्थमाह - पारगतेभ्यः पारं पर्यन्तं संसारस्य प्रयोजनवातस्य वा, गताः पारगताः तेभ्यः, एते च यदृच्छावादिभिः कैश्चिदरिद्रराज्याप्तिवदक्रमसिद्धत्वेनाभिधीयन्ते, तद्व्युदासार्थमाह — परम्परगयाणं — परम्परया चतुर्दशगुणस्थानक्रमारोहरूपया, अथवा कथञ्चित् कर्मक्षयोपशमादिसामग्रया सम्यग्दर्शनं तस्मात् सम्यग्ज्ञानं तस्मात् सम्यक्चारित्रमित्येवम्भूतया गता मुक्तिस्थानं प्राप्ताः परम्परागताः तेभ्यः । एते च कैश्चिदनियतदेशा अभ्युपगम्यन्ते, यत्र क्लेशक्षयस्तत्र विज्ञानमवतिष्ठते । बाधा च सर्वथाऽस्येह तदभावान्न जातुचित् ॥ १ ॥ इति वचनात् एतन्निरासायाह - लोकाग्रमुपगतेभ्यः लोकाग्रमीषत्प्राग्भाराख्यायाः पृथिव्या उपरिक्षेत्रं तदुप तृतीय प्रकाशः ॥४५६॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥४५७॥ सामीप्येन तदपराभिन्नदेशतया निःशेषकर्मक्षयपूर्वकं गताः प्राप्ताः । उक्तं च १ जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ य अनंता भवक्खयविमुक्का । अण्णोष्णमणाबाहं चिट्ठति सुही सुई पत्ता ॥१॥ तेभ्यः । ननु क्षीणकर्मणो जीवस्य कथं लोकाग्रं यावद्गतिः ? उच्यते-- पूर्वप्रयोगादियोगात् । यदाह — पूर्वप्रयोगसिद्धेर्बन्धच्छेदादसङ्गभावाच्च । गतिपरिणामाच्च तथा सिद्धस्योर्ध्वं गतिः सिद्धा ॥ १ ॥ ननु सिद्धिक्षेत्रात्परतोऽधस्तिर्यग्वा कस्मान्न गच्छन्ति ?, अवाऽप्युक्तम् नाऽधो गौरवविगमादसङ्गभावाच्च गच्छति विमुक्तः । लोकान्तादपि न परं लवक इवोपग्रहाभावात् ॥ १ ॥ यो प्रयोगयोश्चाभावात्तिर्यग् न तस्य गतिरस्ति । तस्मात्सिद्धस्योर्ध्वं ह्यालोकान्ताद्गतिर्भवति ॥ २ ॥ इति ॥ नमः सदा सर्वसिद्धेभ्यः – नमो नमोऽस्तु, सदा सर्वकाल, सर्वसिद्धेभ्यः -- सर्वं साध्य सिद्धं येषां ते सर्वसिद्धाः तेभ्यः, अथवा सर्वसिद्धेभ्यः तीर्थसिद्धादिभेदेभ्यः, यथोक्तम् -- २तित्थसिद्धा १ अतित्थसिद्धा २ तित्थयरसिद्धा ३ अतित्थयरसिद्धा ४ सयंबुद्धसिद्धा ५ पत्तेयबुद्धसिद्धा ६ बुद्धबोहिअसिद्धा ७ थीलिङ्गसिद्धा ८ पुरिसलिङ्गसिद्धा ९ नपुंसकलिङ्गसिद्धा १० सलिङ्गसिद्धा ११ अन्नलिङ्गसिद्धा १२ गिहिलिङ्गसिद्धा १३ एगसिद्धा १४ १ यत्र चैकः सिद्धास्तत्र चानन्ता भवक्षयविमुक्ताः अन्योन्यमनाबाधं तिष्ठन्ति सुखिनः सुखं प्राप्ताः ॥ १ ॥ २ तीर्थसिद्धाः, अतीर्थसिद्धाः, तीर्थकरसिद्धाः, अतीर्थकर सिद्धाः, स्वयंबुद्धसिद्धाः, प्रत्येकबुद्धसिद्धाः, बुद्धबोधितसिद्धाः, स्त्रीलिङ्गसिद्धाः, पुरुषलिङ्ग सिद्धाः, नपुंसकलिङ्गसिद्धाः, स्वलिङ्गसिद्धाः, अन्यलिङ्गसिद्धाः, गृहिलिङ्गसिद्धाः, एकसिद्धाः, अनेकसिद्धाः, ESOMENE तृतीय प्रकाशः ॥४५७॥ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४५८॥ अगसिद्धा १५ । तत्र तीर्थे चतुर्विधभ्रमणसङ्के उत्पन्ने सति ये सिद्धाः ते तीर्थसिद्धाः | १| अतीर्थे जिनान्तरे साधुव्यवच्छेदे सति जातिस्मरणादिनाऽवाप्तापवर्गमार्गाः सिद्धाः अतीर्थसिद्धाः, मरुदेवीप्रभृतयो वा तदा तीर्थस्याऽनुत्पन्नत्वात् । २ । तीर्थकर सिद्धाः तीर्थकरत्वमनुभूय सिद्धाः । ३ । अतीर्थकर सिद्धाः सामान्यकेवलित्वे सति सिद्धाः। ४ । स्वयं बुद्धाः सन्तो ये सिद्धाः ते स्वयंबुद्धसिद्धाः | ५ | प्रत्येकबुद्धाः सन्तो ये सिद्धाः तं प्रत्येकबुद्धसिद्धाः। ६ । स्वयम्बुद्धप्रत्येकबुद्धयोश्च बोध्युपधिश्रुतलिङ्गकृतो विशेषः – स्वयं बुद्धा हि बाह्यप्रत्ययमन्तरेण बुध्यन्ते, प्रत्येकबुद्धास्तु बाह्यप्रत्ययेन वृषभादिना करकण्डवादिवत्, उपधिस्तु स्वयंबुद्धानां पात्रादिर्द्वादशधा, प्रत्येकबुद्धानां प्रावरणवर्जी नवविधः स्वयंबुद्धानां पूर्वाधीतश्रुतेऽनियमः, प्रत्येकबुद्धानां तु नियमतो भवत्येव; लिङ्गप्रतिपत्तिस्तु स्वयंबुद्धानां गुरुसन्निधावपि भवति, प्रत्येकबुद्धानां तु देवता लिङ्ग प्रयच्छति; बुद्धा आचार्या अवगतत्वाः तैर्बोधिताः सन्तो ये सिद्धाः ते बुद्धबोधितसिद्धाः । ७ । एते च सर्वेऽपि केचित् स्त्रीलिङ्गसिद्धाः, केचित् पुंलिङ्गसिद्धाः केचित् नपुंसकलिङ्गसिद्धाः । ननु तीर्थकरा अपि किं स्त्रीलिङ्गसिद्धा भवन्ति ?, उच्यते, भवन्त्येव -- यदुक्तं सिद्धप्राभृते--१सव्वत्थोवा तित्थयरिसिद्धा, तित्थयरतित्थे नोतित्थयरसिद्धा असंखेज्जगुणा, तित्थयरितित्थे नोतित्थयरिसिद्धाओ असंखिज्जगुणाओ, तित्थयरितित्थे नोतित्थयरसिद्धा असंखेज्जगुणा इति । नपुंसकलिङ्गसिद्धास्तु तीर्थकरसिद्धा न भवन्त्येव, प्रत्येकबुद्धसिद्धास्तु पुलिङ्ग सिद्धा एव । ८ । ९ । १० । स्वलि (१) सर्वस्तोकास्तीर्थकरी सिद्धास्तीर्थेकरतीर्थे नोतीर्थंकरसिद्धा असंख्ययेयगुणाः, तीर्थकरीतीर्थे नोतीर्थंकरीसिद्धा असंख्येय गुणाः, तीर्थकरीतीर्थे नोतीर्थकरसिद्धा असंख्येयगुणाः । तृतीय प्रकाशः ॥४५८॥ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४५९॥ केन रजोहरणादिना द्रव्यलिन सिद्धाः स्वलिङ्गसिद्धाः । ११ । अन्येषां परिव्राजकादीनां लिन सिद्धाः अन्यलिङ्गसिद्धाः।१२। गृहिलिङ्गसिद्धा मरुदेव्यादयः ।१३। एकैकस्मिन् समये एकाकिनः सिद्धाः एकसिद्धाः ॥१४॥ एकस्मिन् समये अष्टोत्तरं शतं यावत् सिद्धाः अनेकसिद्धाः ।१५। यत उक्तम्१बत्तीसा अडयाला सही बाहत्तरी य बोद्धव्वा । चुलसीई छण्णउई दुरहिअमहोत्तरसयं च ॥१॥ नन्वते सिद्धभेदा आधयोस्तीर्थसिद्धाऽतीर्थसिद्धयोरेवाऽन्तर्भवन्ति, तीर्थकरसिद्धादयो हि तीर्थसिद्धा वा स्युरतीर्थसिद्धा वेति । सत्यम्, सत्यप्यन्तर्भावे पूर्वभेदद्वयादेवोत्तरभेदाप्रतिपत्तेरज्ञातज्ञापनार्थ भेदाभिधानमदुष्टमिति । इत्थं सामान्येन सर्वसिद्धनमस्कारं कृत्वा आसनोपकारित्वाद्वर्तमानतीर्थाधिपतेः श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिनः स्तुति करोति___ जो देवाण वि देवो जे देवा पंजली नमसंति । त देवदेवमहि सिरसा वन्दे महावीरं ॥२॥ __यो भगवान् महावीरो देवानामपि भवनवास्यादीनां पूज्यत्याद् देवः, अत एवाह-यं देवाः प्राञ्जलयो विनयरचितकरसम्पुटाः सन्तो नमस्यन्ति प्रणमन्ति, तं भगवन्तं देवदेवैः शक्रादिभिमहितं पूजितम्, वन्दे शिरसा उत्तमाङ्गन आदरप्रदर्शनार्थ चैतत् । तक? महाबोरम्, विशेषेण ईरयति कर्म गमयति याति वा - शिवमिति वीरः, महांश्चासौ वीरश्च महावीरस्तम् । इत्थं स्तुति कृत्वा पुनः परोपकाराय आत्मभाववृद्धये च फल प्रदर्शनपरमिदं पठति(१) द्वात्रिंशदष्टचत्वारिंशत् षष्टिासप्ततिश्च बोद्धव्याः। चतुरशीतिः षण्णवतिद्वधिकमष्टोत्तरशतं च ॥ १॥ ॥४५९॥ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४६०॥ इक्को वि नमुक्कारो जिणवरवसहस्स बद्धमाणस्स । संसारसागराओ तारेइ नरं व नारिं वा ॥३॥ एकोऽप्यासतां बहवः, नमस्कारो द्रव्यभावसंकोचलक्षणः, जिनवरवृषभाय---जिनाः श्रुतावधिजिनादयः तेषां वराः केवलिनस्तेषां वृषभः तीर्थकरनामकर्मोदयादुत्तमो जिनवरवृषभस्तस्मै । स च ऋषभादिरपि भवतीत्याह--वर्धमानाय, यत्नात्कृतः सन्निति शेषः । किम् ? संसरणं संसारस्तिर्यग्नरनारकामरभवानुभावलक्षणः स एव भवस्थितिकायस्थितिभ्यामनेकधावस्थानेनालब्धपारत्वात्सागर इव संसारसागरः, तस्मात् तारयति पारं नयतीत्यर्थः ? कमित्याह ? नरं वा नारिं वा नरग्रहणं पुरुषोत्तमधर्मप्रतिपादनार्थम् नारीग्रहणं तासामपि तद्भव एव संसारक्षयो भवतीति ज्ञापनार्थम् । यथोक्तं यापनीयतन्त्रे १नो खलु इत्थी अजोवो, न यावि अभव्या न यावि दसणविरोहिणी, नो अमाणुस्सा, नो अणायरियउप्पन्ना, नो असंखेज्जाउआ, नो अइकूरमई, नो अणुवसन्तमोहा, नो अ सुद्धाचारा, नो असुद्धबोंदी, नो ववसायवज्जिा नो अपुव्वकरणविरोहिणी, नो नवगुणहाणरहिआ, नो अजोग्गा लद्धीए, नो अकल्लाणभायणं ति कहं न उत्तमधम्मस्स साहगा ? इति । अयमत्र भावः-सति सम्यग्दर्शने परया भावनया क्रियमाण एकोऽपि नमस्कारस्तथाभूतस्याध्यवसायस्य (१) नो खलु स्त्री अजीवः न चाप्यभव्या, न चापि दर्शनविरोधिनी, नो अमानुष्या, नो अनार्योत्पन्ना नो असंख्ये यायुष्का, नो अतिक्रूरमतिः, नो अनुपशान्तमोहा, नो अशुद्धाचारा, नो अशुद्धशरीरा, नो व्यवसायवर्जिता नो अपूर्वकरण विरोधिनी नोनवगुणस्थानरहिवा, नो अयोग्या लब्ध्याः , नो अकल्याणभाजनमिति कथं नोत्तमधर्मस्य साधिका ? इति । 118 goll Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४६॥ हेतुर्भवति यथाभूतात् श्रेणिमवाप्य निस्तरति भवोदधिमिति । अतः कार्ये कारणोपचारादेवमुच्यते न च चारित्रस्य वैफल्यम्, तथाभूताध्यवसायस्यैव चारित्ररूपत्वादिति । एतास्तिवः स्तुतयो गणधरकृतत्वाद् नियमेनोच्यन्ते केचित्तु अन्ये अपि स्तुती पठन्ति यथा-- उज्जितसेलसिहरे दिक्खा नाणं निसीहिया जस्स । तं धम्मचकवहि अरिष्टनेमि नमसामि ॥ ४॥ चत्तारि अह दस दो अवंदिआ जिणवरा चउवीसं । परमहनिटिअहा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥५॥ सुगमे। एवमेतत्पठित्वोपचितपुण्यसम्भार उचितेष्वौचित्येन प्रवृत्तिरिति ज्ञापनार्थ पठति पठन्ति वा--वेयावच्चगराणं सन्तिगराणं सम्मदिहिसमाहिगराणं करेमि काउस्सग्ग--वैयावृत्यकराणां प्रवचनार्थ व्यापृतभावानां गोमुखयक्षाऽप्रतिचक्राप्रभृतीनां, शान्तिकराणां सर्वलोकस्य, सम्यग्दृष्टिविषये समाधिकराणाम्, एषां सम्बन्धिनां षष्ठयाः सप्तम्यर्थत्वादेतद्विषयमेतान् वाश्रित्य करोमि कायोत्सर्गम् । अत्र वन्दनादिप्रत्ययमित्यादि न पठ्यते, अपि तु अन्यत्रोच्छ्वसितेनेत्यादि, तेषामविरतत्वात् इत्यमेव तद्भाववृद्धरुपकारदर्शनात् । एतव्याख्या च पूर्ववत् । नवरं स्तुतिर्वैयावृत्यकराणां पुनस्तेनैव विधिना उपविश्य पूर्ववत् प्रणिपातदण्डकं पठित्वा मुक्ताशुक्तिमुद्रया प्रणिधानं कुर्वन्ति । यथा-- जय वीयराय ! जगगुरु ! होउ ममं तुह पभावओ भयवं ! । भवनिव्वेओ मग्गाणुसारिआ इट्ठफलसिद्धी ॥१॥ लोगविरुद्धच्चाओ गुरुजणपूआ परत्थकरण च । सुहगुरुजोगो तब्बयणसेवणा आभवमखण्डा ॥ २ ॥ ॥४६॥ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ||४६२॥ जय वीतराग ! जगद्गुरो ! इति भगवतस्त्रिलोकनाथस्य बुद्धयां सन्निधानार्थमामन्त्रणम् भवतु जायतां ममेत्यात्मनिर्देशः तव प्रभावतः तव सामर्थ्येन, भगवन्निति पुनः सम्बोधनं भक्त्यतिशयख्यापनार्थम् । किं तदित्याह -- भवनिर्वेदः संसारनिर्वेदः । न हि भवादनिर्विण्णो मोक्षाय यतते, अनिर्विण्णस्य तत्प्रतिबन्धान्मोक्षे यत्नोऽयत्न एव, निर्जीवक्रियातुल्यत्वात् । तथा मार्गानुसारिता असद्ग्रहविजयेन तत्त्वानुसारिता, तथा इष्टफलसिद्धिरभिमतार्थनिष्पत्तिः ऐहलौकिकी, ययोपगृहीतस्य चित्तस्वास्थ्यं भवति तस्माच्चोपादेयप्रवृत्तिः । तथा लोकविरुद्धत्यागः सर्वजननिन्दादिलोकविरुद्धानुष्ठानवर्जनम् । यदाह १ सव्वस्स चैव निदा विसेसओ तह य गुणसमिद्धाणं । उजुधम्मकरणहसणं रीढा जणपुयणिज्जाणं ॥ १ ॥ बहुजनविरुद्धसंगो देसाचारस्स लंघणं चेवं । उव्वणभोओ अ तहा दाणाइवियडमओ || २ || साहुवसणम्मि तो सो सइ सामत्थम्मि अपडियारो अ । एमाइयाई इत्थं लोगविरुद्धाई आई ॥ ३ ॥ गुरुजनस्य पूजा उचितप्रतिपत्तिर्गुरुपूजा, गुरवश्च यद्यपि धर्माचार्य्या एवोच्यन्ते तथापीह मातापित्रादयोऽपि गृह्यन्ते । यदुक्तम्- माता पिता कलाचार्य एतेषां ज्ञातयस्तथा । वृद्धा धर्मोपदेष्टारो गुरुवर्गः सतां मतः ॥ १ ॥ (१) सर्वस्य चैव निन्दा विशेषतस्तथा च गुणसमृद्धानाम् । ऋजुधर्मकरणहसनं रीढा जनपूजनीयानाम् ॥ १ ॥ बहुजनविरुद्धसङ्गो देशाचारस्य लङ्घनं चैव । उल्वणभोगश्च तथा दानादिविकटमन्यस्मात् ॥ २ ॥ साधुव्यसने तोषः सति सामर्थ्येऽप्रतिकारश्च । एवमादिकानि इत्थं (अत्र) लोकविरुद्धानि ज्ञेयानि ॥३॥ तृतीय प्रकाशः જા Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥४६३॥ NO ROC परार्थकरणं सचार्थकरणं जीवलोकसारं पौरुषचिह्नमेतत् । सत्येतावति लौकिके सौन्दर्ये लोकोत्तरधर्माधिकारी भवतीत्याह- शुभगुरुयोगो विशिष्टचारित्रयुक्ताचार्यसम्बन्धः तथा तद्वचनसेवा सद्गुरुवचन सेवना न जातु चिदयमहितमुपदिशति, आभवमासंसारमखण्डा सम्पूर्णा । इदं च प्रणिधानं न निदानरूपम्, प्रायेण निस्सङ्गाभिलाषरूपत्वात् । एतच्चाप्रमत्तसंयतादर्वा कर्तव्यम्, अप्रमत्तादीनां मोक्षेऽप्यनभिलाषात् तदेवंविधिशुभफलप्रणिधानपर्यन्तं चैत्यवन्दनम् ॥ १२४ ॥ इदानीमनन्तरकरणीयमाह ततो गुरूणामभ्यणें प्रतिपत्तिपुरःसरम् । विदधीत विशुद्धात्मा प्रत्याख्यानप्रकाशनम् ॥ १२५॥ ततोऽनन्तरं गुरूणां धर्माचार्याणां देववन्दनार्थमागतानां स्नात्रादिदर्शनधर्मकथाद्यर्थं तत्रैव स्थितानाभ्यर्णे उचिते समीपे, उचितत्वं चार्धचतुर्थहस्तप्रमाणात् क्षेत्राद् बहिरवस्थानम्, प्रतिपत्तिर्व्याख्यास्यमाना बन्दनकादिरूपा वा तत्पुरःसरं तत्पूर्वकं विदधीत कुर्य्यात्, विशुद्धात्मा निर्मलचित्तो न तु दम्भादियुक्तः, प्रत्याख्यानस्य देवसमीपे कृतस्य प्रकाशनं गुरोः पुरतः प्रकटनम्; त्रिविधं हि प्रत्याख्यानविधानमात्मसाक्षिकं देवसाक्षिकं गुरुसाक्षिकं च । ॥। १२५ ।। प्रतिपत्तिपुरःसरमित्युक्तमिति गुरुप्रतिपत्तिं श्लोकद्वयेन दर्शयतिअभ्युत्थानं तदालोकेऽभियानं च तदागमे । शिरस्यञ्जलिसंश्लेषः स्वयमासनढौकनम् ॥ १२६ ॥ आसनाऽभिग्रहो भक्त्या वन्दना पर्युपासनम । तद्यानेऽनुगमश्चेति प्रतिपत्तिरिथं गुरोः ॥ १२७॥ तृतीय प्रकाशः ॥४६३॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ४६४॥ अभ्युत्थानं ससम्भ्रममासनत्यागः, तदालोके गुरुणामालोकने सति, अभियानमभिमुखं गमनं तदागमे तृतीय गुर्वागमे, शिरसि मस्तके गुरुदर्शनसमकालमञ्जलिसंश्लेषः करकोरककरणं नमो खमासमणाणं ति वचनोच्चारपूर्वकं प्रकाशा मुरुषु स्वयमासितव्यमित्यभिग्रहः आसनाभिग्रहः, भक्त्या भक्तिपूर्वकं वन्दना पञ्चविंशत्यावश्यकविशुद्धं वन्दनं स्वयमित्यात्मना न तु परप्रेषणेन आसनढौकनमासनसन्निधापनम् ॥१२६॥ आसनाऽभिग्रहः आसन उपविष्टेषु स्थानस्थितानां च गमनादिव्याकुलत्वाभावे पर्युपासनं सेवा, तेषां गुरूणां याने गमनेऽनुगमनं पृष्ठतः कतिपयप दानुसरणमियं प्रतिपत्तिरुपचारविनयरूपा गुरोर्धर्माचार्यस्य ॥ १२७ ॥ ततो गुरुपाघे धर्मदेशनां श्रुत्वा| ततः प्रतिनिवृत्तः सन् स्थानं गत्वा यथोचितम् । सुधीधर्माऽविरोधेन विदधीतार्थचिन्तनम् ॥१२८॥ ततो देवगृहात् प्रतिनिवृत्तो व्यावृत्तः सन् यथोचित स्थानं गत्वा यथोचितमिति यदा राजादिस्तदा धवलगृह यद्यमात्यादिस्तदा करणम्, अथ वणिगादिस्तदा आपणमिति सुधीवुद्धिमान् विदधीत अर्थचिन्तनमर्थोपायचिन्तां धर्माविरोधेनेति धर्मस्य जिनधर्मस्य अविरोधेन अबाधया । अत्र चार्थचिन्तनमित्यनुवाद्यं तस्य स्वतःसिद्धत्वात् धर्माविरोधेनेति विधेयमप्राप्तत्वात् । धर्माविरोधश्च राज्ञां दरिद्रेश्वरयोर्मान्यामान्ययोरुत्तमनीचयोर्माध्यस्थ्येन न्यायदर्शनात, नियोगिनां च राजार्थप्रजार्थसाधनेन, वणिजां च कूटतुलाकूटमानादिपरिहारेण पञ्चदशकर्मादानपरिहारेण च बोद्धव्यः ॥ १३८ ॥ ततो माध्यानिकी पूजां कुर्यात् कृत्वा च भोजनम् । तद्विद्भिः सह शास्त्रार्थरहस्यानि विचारयेत् १२९ । ॥४६४॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् दतीय प्रकाशा ESSORDER ॥४६५।। ततस्तदनन्तरं माध्यानिकी मध्याह्नकालभाविनी पूजां जिनसप- कुर्यात्, विधाय च भोजनमित्यनुवादः । माध्याहिकीपूजाभोजनयोश्च न कालनियमः। तीव्रबुभुक्षोहि बुभुक्षाकालो भोजनकाल इति रूढेमध्याह्नादांगपि गृहीतप्रत्याख्यानं तीरयित्वा देवपूजापूर्वक भोजनं कुर्वन्न दुष्यति । अत्र चाऽयं विधिःरजिनपूओचिअदाण परियणसम्भालणा उचियकिच्चं । ठाणुवएसो य तहा पच्चक्खाणस्स सम्भरण ॥१॥ तथा भोजनाऽनन्तरं सम्भवतो प्रन्थिसहितादेः प्रत्याख्यानस्य करणं प्रमादपरिजिहीर्णोहि प्रत्याख्यानं विना न युक्तं क्षणमप्यासितुम् । शास्त्रार्थानां रहस्यान्यदंपर्याणि विचारयेदिदमित्थं भवति नेति वा सम्प्रधारयेत , कथं ! सह सार्ध । कैः? तद्विद्भिः तच्छास्त्रार्थरहस्य विदन्ति ये तैः, गुरुमुखात् श्रुतान्यपि शास्त्रार्थरहस्यानि परिशीलनाविकलानि न चेतसि सुदृढप्रतिष्ठानि भवन्तीति कृत्वा ॥ १२९ ।। ततश्च सन्ध्यासमये कृत्वा देवार्चन पुनः। कृतावश्यककर्मा च कुर्यात् स्वाध्यायमुत्तमम् ॥१३०॥ ___ ततस्तदनन्तरं यो द्विभुङ्क्ते स विकालसमये अन्तमुहुर्तादर्वाग भोजनं कृत्वा सन्ध्यासमये पुनस्तृतीयवारं देवा र्चनं कृत्वा साधुसमीपं गत्वा भूमिकौचित्येन षविधावश्यक सामायिक-चतुर्विंशतिस्तव-वन्दनक-प्रतिक्रमणकायोत्सर्ग-प्रत्याख्यानलक्षण कुर्यात् तत्र सामायिकमातरौद्रध्यानपरिहारेण धर्मध्यानपरिकरणेन शत्रुमित्रणकाअनादिषु समता, तच्च पूर्वमेवोक्तम् । चतुर्विशतेस्तीर्थकराणां नामोत्कीर्तनपूर्वकं स्तवो गुणकीर्तनं तस्य च कायो१ जिनपूजोचितदानं परिजनसभालनमुचितकृत्यम् । स्थानोपदेशश्च तथा प्रत्याख्यानस्य संस्मरणम् ॥१॥ ॥४६५॥ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ||४६६॥ त्सर्गे मनसाऽनुध्यानं शेषकालं व्यक्तवर्णपाठः । अयमपि पूर्वमुक्तः । वन्दनं वन्दनायोग्यानां धर्माचार्याणां पश्चविंशत्यावश्यकविशुद्धं द्वात्रिंशदोषरहितं नमस्करणम् तत्र पञ्चविंशतिरावश्यकानि यथा १दुओणयं अहाजायं किय (इ) कम्मं बारसावयं (त) । चउसिरं तिगुत्तं च दुपवेस एगनिक्खमणं ॥ १ ॥ इति ॥ द्वे अवनमने “ इच्छामि खमासमणो वंदिउ जावणिज्जाए निसीहिआए " इत्यभिधाय गुरोश्छन्दानुज्ञापनाय प्रथममवनमनम् । १ । यदा पुनः कृतावर्तो निष्क्रान्त इच्छामीत्यादिसूत्रमभिधाय पुनभ्छन्दोऽनुज्ञापनायैव तदा द्वितीयम् । २ । तथा यथाजातं जातं जन्म तच्च द्वेधा प्रभवः प्रव्रज्याग्रहणं च । तत्र प्रसवकाले रचितकरसं पुटो जायते प्रव्रज्याकाले च गृहीतरजोहरणमुखवत्रिक इति यथा जातमस्य स यथाजातस्तथाभूत एव वन्दते इति वन्दनमपि यथाजातम् । ३ तथा द्वादशावर्ता : काय चेष्टाविशेषा गुरुचरणन्यस्तहस्तशिरः स्थापनरूपा यस्मिंस्तद् द्वादशावर्तमिह च प्रथमप्रविष्टस्य अहो कायं इत्यादिसूत्रोच्चारणगर्भाः षडावर्ताः निष्क्रम्य पुनः प्रविष्टस्याऽपि त एव डिति द्वादश । १५ । चत्वारि शिरांसि यस्मिन् तच्चतुः शिरः प्रथमप्रवेशे क्षामणाकाले शिष्याचार्ययोरवनमच्छि रोद्वयम्, निष्क्रम्य पुनः प्रवेशे तथैव च शिरोद्वयम् । १९ । त्रिगुप्तं मनोवाक्कायकर्मभिर्गुप्तम् । २२ । तथा प्रथमोनुज्ञाप्य प्रवेशो द्वितीयः पुनर्निर्गत्य प्रवेश इति द्वौ प्रवेशौ यत्र तद् द्विप्रवेशमेकं निष्क्रमणमावश्यक्या निर्गच्छतो यत्र तदेकनिष्क्रमणम् । २५ । द्वात्रिंशदोषा यथा— (१) द्वयवनतं यथाजात कृतिकर्म द्वादशावर्तम् । चतुः शिरः त्रिगुतं च द्विप्रवेशमेकनिष्क्रमणम् ॥ १ ॥ SECRETOOK Tohaa तृतीय प्रकाशः ॥४६६॥ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४६७॥ १अणाढियं च थड्द च पविद्धं परिपिडियं । टोलगइ अंकुसं चेव तहा कच्छभरिंगिअं॥१॥ मच्छोव्वत्तं मणसा य पउठें तह य वेइयाबद्धं । भयसा चेव भयंतं मेत्ती गारवकारणा ॥२॥ तेणिअं पडणीअं चेव रुष्टुं तज्जियमेव य । सदं च हीलिअं चेव तहा विपलिउंचि ॥ ३ ॥ दिहमदिटुं च तहा सिगं च करमोअणं । आलिद्धमनालिद्धं ऊणं उत्तरचूलिअं ॥४॥ मूअं च ढड्ढरं चेव चुडलिं च अपच्छिमं । बत्तीसदोसपरिसुद्धं किइकम्मं पउंजए ॥ ५॥ अनादृतं सम्भ्रमरहितं वन्दनम् । १। स्तब्धं मदाष्टकवशीकृतस्य वन्दनम् ।२। प्रविद्धं वन्दनं ददत एव पलायनम् । ३। परिपिण्डितं प्रभूतानां युगपद्वन्दनम्, यद्वा कुक्षेरुपरि हस्तौ व्यवस्थाप्य परिपिण्डितकरचरणस्याऽव्यक्तसूत्रोच्चारणपुरःसरं वन्दनम् । ४ । टोलगति तिड्डवदुत्प्लुत्योत्प्लुत्य विसंस्थुलं वन्दनम् । ५। अङ्कुशमुपकरणे चोलपट्टकल्पादौ हस्ते वा अवज्ञया समाकृष्य अकुशेन गजस्येवाचार्यस्योवस्थितस्य शयितस्य प्रयोजनान्तरव्यग्रस्य वा वन्दनकार्थमासन उपवेशनम् । न हि पूज्याः कदाचिदप्याकर्षणमर्हन्ति, अविनयत्वादस्य, यद्वा (१) अनादृतं च स्तब्धं च प्रविद्धं परिपिण्डितम् । टोलगति अङ्कुशं च तथा कच्छपरिङ्गितम् ॥ १॥ मत्स्योवृत्तं मनसा च प्रदुष्टं तथा च वेदिकाबद्धम् । भयाद् चैव भजमानं मैत्री गौरवकारणम् ॥२॥ स्तैनिकं प्रत्यनीकं चैव रुष्टं तर्जितमेव च । शठं च हीलितं चैव तथा विपरिकुञ्चितम् ॥३॥ दृष्टमदृष्टं च तथा शंङ्ग च करमोचनम् । आश्लिष्टमनाश्लिष्टमूनमुत्तरचूलित (क)म् ॥ ४ ॥ मकं च दडूढरं चैव चुडलिश्चापश्चिमम् । द्वात्रिंशद्दोषपरिशुद्ध कृतिकर्म प्रयुञ्जीत ॥ ५ ॥ ॥४६७। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ४६८॥ रजोहरणमङ्कुशवत्करद्वयेन गृहीत्वा वन्दनम्, यदि वाऽङ्कुशाक्रान्तस्य हस्तिन इव शिरोनमनोभमने कुर्वाणस्य वन्दनम् । ६ । कच्छपरिङ्गितमूर्ध्वस्थितस्य तित्तिसणयरा इत्यादिसूत्रमुच्चारयत उपविष्टस्य वा अहो कार्य काय इत्यादिसूत्रमुच्चारयतोऽग्रतोऽभिमुखं पश्चादभिमुखं च रिङ्गतचलतो वन्दनम् । ७ । मत्स्योद्वृत्तमुत्तिष्ठनिविशमानो वा जलमध्ये मत्स्य इवोद्वर्तते उद्वेल्लते यत्र तत् । यद्वा एकं वन्दित्वा द्वितीयस्य साधोर्द्वतं द्वितीयपार्श्वेन रेचकावर्तेन मत्स्यवत् परावृत्य वन्दनम् । ८ । मनसा प्रदुष्टं शिष्यस्तत्सम्बन्धी वा गुरुणा किञ्चित्परुषमभिहितो यदा भवति तदा मनसो दूषितत्वाद् मनसा प्रदुष्टं यद्वा वन्दयो हीनः केनचिद्गुणेन ततोऽहमेवंविधेनाऽपि वन्दनं दापयितुमारब्ध इति चिन्तयतो वन्दनम् | ९| वेदिकाबद्धं जानुनोरुपरि हस्तौ निवेश्य अधो वा पार्श्वयोर्वा उत्सङ्गे वा जानु करद्वयान्तः कृत्वा वा इति पञ्चभिर्वेदिकाभिर्वद्धं युक्तं वन्दनम् । १० । बिभ्यत् सङ्घात् कुलात् गच्छात् क्षेत्राद्वा निष्कासयिष्येऽहमिति भयाद् वन्दनम् | ११ | भजमान भजते मां सेवायां पतितो मम अग्रे वा मम भजनं करिष्यति ततोऽहमपि वन्दनसत्कं निहोरकं निवेशयामीति बुद्धया वन्दनम् | १२| मैत्रीतो मम मित्रमाचार्य इति, आचार्येणेदानीं मैत्री भवत्विति वा वन्दनम् । १३ । गौरवाद्वन्दनकसामाचारी कुशलोऽहमिति गर्वादन्येऽप्यवगच्छन्तु मामिति यथावदावर्तादीनाराधयतो वन्दनम् । १४ । कारणाद् ज्ञानादिव्यतिरिक्ताद्वत्रादिलाभहेतो वन्दनम्, यद्वा ज्ञानादिनिमित्तमपि लोकपूज्योऽन्येभ्यो वाऽधिकतरो भवामीत्यभिप्रायतो वन्दनम्, यद्वा वन्दनकमूल्यवशीकृतो मम प्रार्थनाभङ्ग न करिष्यतीति बुद्धया वन्दनम् ॥१५॥ स्वैनिकं मम लाघवं भविष्यतीति परेभ्य आत्मानं निगूहयतो वन्दनम्, अयमर्थ:- एवं नाम शीघ्रं वन्दत यथा स्तेनवत् केनचिद् दृष्टः केनचिनेति । तृतीय प्रकाशः ૪૬ના Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४६९॥ १६ । प्रत्यनीकमाहारादिकाले वन्दनम् । १७ । यदाह वक्खित्तपराहुत्ते पमत्ते मा कयावि बंदिज्जा ॥ आहारं च करिते नीहारं वा जइ करेइ ॥१॥ रुष्ट क्रोधाध्मातस्य गुरोर्वन्दनमात्मना वा क्रुद्धेन वन्दनम् । १८ । तर्जितमवन्धमानो न कुप्यसि वन्द्यमानश्राविशेषज्ञतया न प्रसीदसि इति निर्भर्त्सयतो यद्वा बहुजनमध्ये मां वन्दनं दापयस्तिष्ठसि ज्ञास्यते मया तवैकाकिन इति धिया तर्जन्या शिरसा वा तर्जयतो वन्दनम् । १९। शठं शाठयेन विश्रम्भार्थ वन्दनं ग्लानादिव्यपदेशं वा कृत्वा न सम्यग्रवन्दनम् । २० । हीलितं हे गणिन् वाचक ! किं भवता वन्दितेनेत्यादिना अवजानतो वन्दनम् । २१ । विपरिकुंचितम् अर्धवन्दित एव देशादिकथाकरणम् । २२। दृष्टादृष्टं तमसि स्थितः केनचिदन्तरित एवमेवास्ते दृष्टस्तु वन्दत इति । २३ । श्रृङ्ग अहो काय काय इत्याद्यावर्तानुचारयतो ललाटमध्यदेशमस्पृशतः शिरसो वामदक्षिणे श्रङ्गे स्पृशतो बन्दनकरणम् । २४ । करः कर इव राजदेयभाग इव अर्हत्प्रणीतो वन्दनककरोऽवश्यदातव्य इति धिया वन्दनम् । २५ । मोचनं लौकिककराद्वयं मुक्ता न मुच्यामहे वन्दनकरादिति बुद्धया वन्दनम् । २६ । आश्लिष्टानाश्लिष्टमत्र चतुर्भङ्गी, सा च अहो काय काय इत्याद्यावर्तकाले भवति रजोहरणस्य शिरसश्च कराभ्यामाश्लेषणं, रजोहरणस्य न शिरसः, शिरसो न रजोहरणस्य, न रजोहरणस्य नाऽपि शिरसः । अत्र प्रथमः शुद्धः शेषास्तु दुष्टाः । २७ । न्यून व्यञ्जनाभिलापावश्यकैरसम्पूर्णम् । २८। उत्तरचूल वन्दनं दत्त्वा महता शब्देन मस्तकेन वन्दे इत्यभिधानम् ।२९। मूकं आलापाननुच्चारयतो बन्दनम् । ३० । ढड्ढरं महता (१) व्याक्षिप्तपराभूतान् प्रमत्तान् मा कदापि वन्दिष्ठाः। आहारं च कुर्वतो नीहारं वा यदि करोति ॥१॥ ॥ ६ ॥ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा Byoll शब्देनोच्चारयतो वन्दनम् । ३१। चुडली उल्मुकं यथोन्मुकं गृह्यते तथा रजोहरणं गृहीत्वा वन्दनं, यद्वा यत्र दीर्घहस्तं प्रसार्य वन्दे इति भणतो वन्दनम्, अथवा हस्तं भ्रमयित्वा सर्वान् वन्दे इति वदतो वन्दनम् । ३२। ___ वन्दनके च शिष्यस्य षडभिलापा भवन्ति, तद्यथा इच्छा अनुज्ञापना अव्यावा, यात्रा यापना अपराधक्षामणा च, यदाह१इच्छा य अणुण्णवणा अव्वाबाहं च जत्त जवणा य । अवराहखामणा चिय छठाणा हुँति वन्दणए ॥१॥ गुरुवचनान्यपि पडेव यथा छन्देन अनुजानामि तथेति तुभ्यमपि वर्तते एवमहमपि क्षमयामीति । यदाह छंदेनरे अणुजाणामि तह ति तुभं पि वट्टइ एवं । अहमवि खामेमि तुमे आलावा वंदणरिहस्स ॥१॥ एते च द्वये अपि यथास्थानं सूत्रव्याख्यायां दर्शयिष्यन्ते । सूत्रं च___ इच्छामि खमासमणो वंदिउ जावणिज्जाए निसीहियाए अनुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि अहो काय कायसंफासं खमणिज्जो भे किलामो अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कतो जत्ता में जवणिज्जं च भे खामेमि खमासमणो देवसि वइक्कम आवसिआए पडिकमामि खमासमणाण देवसिआए आसायणाए तित्तीसनयराए जं किंचि मिच्छाए मणदुक्कडाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए लोहाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोवयाराए सव्वधम्माइक्कमणाए आसायणाए जो मे अडआरो कओ तस्स खमासमणो ! पडिक्कमामि (१) इच्छा चानुज्ञापना अव्याबाधं च यात्रा यापना च । अपराधक्षामणा चैव पट् स्थानानि भवन्ति वन्दनके ॥१॥ (२) छन्देनानुजानामि तथेति तवाऽपि वर्तते एवम् । अहमपि क्षमयामि तवालापाद वन्दनाईस्य ॥१॥ ॥४७॥ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४१॥ निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । व्याख्या-अत्र हि शिष्यो गुरुवन्दनेन बन्दितुकामः पूर्व लघुवन्दनपुरःसरं संदंशको प्रमृज्योपविष्ट एवं मुखवस्त्रिकां पश्चविशतिकृत्वः प्रत्युपेक्षते, तया च शरीर पञ्चविंशतिकृत्व एव प्रमृज्य परेण विनयेन मनोवाककायसंशुद्धो गुरोः सकाशादात्मप्रमाणात् क्षेत्राद् बहिःस्थितोऽधिज्यचापवदवनतकायः करद्वयगृहीतरजोहरणादिबन्दनायोद्यत एवमाह-इच्छामि अभिलषामि, अनेन बलाभियोगः परिहतः, क्षमाश्रमण ! 'क्षमृषि सहने' इत्यस्य पित्त्वादङि क्षमा सहनमित्यर्थः, श्राम्यति संसारविषये खिनो भवति तपस्यतीति वा नन्द्यादित्वात् कर्तरि अने श्रमणः, क्षमाप्रधानः श्रमणः क्षमाश्रमणः तस्य सम्बोधने प्राकृते खमासमणो ! 'डो दीर्घो वा' ।। (सिद्धहेम०८ । ३ । ३८)॥इति आमन्त्र्ये से?कारः, क्षमाग्रहणेन मार्दवाजवादयो गुणाः सूचिताः। ततश्च क्षमादिगुणोपलक्षितयतिप्रधान ! अनेन वन्दनाईत्वं तस्यैव सूचितम्, किं कर्तुं वन्दितुं नमस्कतुं भवन्तमिति गम्यते, कया ? यापनीयया नैषेधिक्या, अत्र नैषेधिक्येति विशेष्य, यापनीययेति विशेषणम्, 'पिधू गत्याम् । इत्यस्य निपूर्वस्य घबि निषेधः प्राणातिपातादिनिवृत्तिः स प्रयोजनमस्या नैषेधिकी तनुः तया। कीदृश्या ? यापनीयया 'यांक प्रापणे, अस्य गिगन्तस्य प्वागमे यापयतीति यापनीया प्रवचनादित्वात् कर्तर्यनीयः तया, शक्तिसमन्वितया इत्यर्थः । अयं समुदायार्थ:-हे श्रमणगुणयुक्त ? अहं शक्तिसमन्वितशरीरः प्रतिपिद्धपापक्रियश्च त्वां वन्दितुमिच्छामि । अत्र विश्रामः । अत्र चान्तरे गुरुर्यदि व्याक्षेपबाधायुक्तस्तदा भणति प्रतीक्षस्वेति । तच्च बाधादिकारणं यदि कथनयोग्यं भवति तदा कथयति अन्यथा तु नेति चूर्णिकारमतम् । वृत्तिकारस्य तु मतं त्यस्य निकपणे ' अयं समुदा |॥४७१॥ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाश ॥४७२॥ त्रिविधेनेति भणति मनसा वचसा कायेन प्रतिषिद्धोऽसीत्यर्थः। ततः शिष्यः संक्षेपवन्दनं करोति । व्याक्षेपादि रहितश्चेदगुरुः तदा वन्दनमनुज्ञातुकामः छन्देनेति बदति छन्देनाऽभिप्रायेण ममाऽपि एतदभिप्रेतमित्यर्थः। ततो विनेयोऽवग्रहाद बहिःस्थित एवैवमाह अनुजानीत अनुमन्यध्वं मे इति आत्मनिर्देशे, किं ? मितश्चासाववग्रहश्च मितावग्रहः इहाचार्यस्य चतसृषु दिक्षु आत्मप्रमाणं क्षेत्रमवग्रहः, तस्मिन्नाचार्याऽनुज्ञां विना प्रवेष्टुं न कल्पते, यदाह आयप्पमाणमेत्तो चउद्दिस होइ अवग्गहो गुरुणो । अणणुण्णायस्स सया न कप्पए तत्थ पविसेउं ॥ १॥ ततो गुरुर्भणति-अनुजानामि । ततः शिष्यो भुवं प्रमृज्य नैषेधिकी कुर्वन गुर्ववग्रहे प्रविशति । निसीहीति निषिद्धसर्वाशुभव्यापारः सन् प्रविशाम्यहमित्यर्थः । ततः संदंशप्रमार्जनपूर्वकमुपविशति । गुरुपादान्तिके च भूमौ निधाय रजोहरणं तन्मध्ये च गुरुचरणयुगलं संस्थाप्य मुखवस्त्रिकया वामकर्णादारभ्य वामहस्तेन दक्षिणकर्ण यावल्ललाटमविच्छिन्नं च वामं जानु त्रिः प्रमृज्य मुखवस्त्रिका वामजानूपरि स्थापयति । ततोऽकारोच्चारणसमकालं रजोहरणं कराभ्यां संस्पृश्य होकारोच्चारणसमकालं ललाटं स्पृशति । ततः काकारोच्चारणसमकालं रजोहरणं स्पृष्टा यकारोच्चारणसमकालं ललाटं स्पृशति । पुनश्च काकारोच्चारणसमकालं रजोहरणं स्पृष्ट्वा यकारोच्चारणसमकालं ललाटं स्पृशति । ततः संफासमिति बद्न् शिरसा पाणिभ्यां च रजोहरणं स्पृशति ततः शिरसि बद्धाञ्जलिः 'खमणिज्जो मे किलामो' इत्यारभ्य 'दिवसो वइक्कतो' यावदगुरुमुखे निविष्टदृष्टिः पठति । अधस्तात (१) आत्मप्रमाणमात्रश्चतुर्दिशं भवत्यवग्रहो गुरोः । अननुज्ञातस्य सदा न कल्पते तत्र प्रवेष्टुम् ॥ १ ॥ (२) त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य प्रमृज्य इति प्रत्यन्तरम् । ॥४७२॥ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् दतीय प्रकाशा ।।४७३॥ कायोऽध:काय: पादलक्षणस्तं प्रति कायेन निजदेहेन हस्तललाटलक्षणेन संस्पर्श आमर्शस्तं करोमि' इति गम्यते । एतदपि ममानुजानीध्वमित्यनेन योगः। आचार्यमननुज्ञाप्य हि संस्पर्शों न कार्यः। ततो वक्तिखमणिज्जो क्षमणीयः सोढव्यः, भे भवद्भिः, किलामो क्लमः संस्पर्श सति देहग्लानिरूपः। तदा अप्पकिलताणं अल्पं स्तोक क्लान्तं क्लमो येषां तेऽल्पक्लान्तास्तेषामल्पवेदनानामित्यर्थः, 'बहुसुभेण ' बहु च तच्छुभं च बहुशुभं तेन बहुमुखेनेत्यर्थः, 'भे' भवताम्. 'दिवसो वइक्कतो' दिवसो व्यतिक्रान्तः। अत्र दिवसग्रहण रात्रिपक्षादीनामुपलक्षण द्रष्टव्यम् । एवं योजितकरसंपुटं गुरोः प्रतिवचनमीक्षमाण शिष्य प्रत्याह गुरु:-'तह ति' तथेति प्रतिश्रवणे, अत्र तथाकारः यथा भवान् ब्रवीति तथेत्यर्थः । एवं तावदाचार्यशरीरवार्ता पृष्टा । अथ तपोनियमविषयां वार्ता पृच्छन्नाह-जत्ता भे, 'ज' इत्यनुदात्तस्वरेणोच्चारयन् रजोहरणं कराभ्यां स्पृष्टा रजोहरणललाटयोरन्तराले ‘त्ता' इति स्वरितेन स्वरेणोच्चाय, उदात्तस्वरेण 'भे' इत्युच्चारयन् गुरुमुखनिविष्टदृष्टिललाटं स्पृशति, यात्रा संयमतपोनियमादिलक्षणा क्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकमावलक्षणा वा भे' भवताम् 'उत्सपति' इति गम्यते । अत्रान्तरे गुरो : प्रतिवचनम् ' तुम्भं पि वट्टइ ' मम तावदुत्सर्पति, भवतोऽप्युत्सर्पति । ___ अधुना नियन्त्रणीयपदार्थविषयां वार्ता पृच्छन् पुनरप्याह विनेयः-जवणिज्जं च भे, 'ज' इत्यनुदात्तस्वरेण रजोहरण स्पृष्ट्वा 'व' इति स्वरितस्वरेण रजोहरणललाटयोरन्तराले उच्चार्य णिशब्दमुदात्तस्वरेणोच्चारयन् कराभ्यां ललाटं स्पृशति, न पुनः प्रतिवचनं प्रतीक्षते, अर्धसमाप्तत्वात् प्रश्नस्य; ततो 'ज' इत्यनुदात्तस्वरेणोच्चार्य कराभ्यां रजोहरणं स्पृशन् पुनरेव रजोहरणललाटान्तराले 'च' इति स्वरितस्वरेणोच्चार्य 'भे' इत्युदात्तस्वरेणो ४७॥ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४७४ ॥ चारयन् कराभ्यां ललाटं स्पृष्ट्वा प्रतिवचनं शुश्रूषमाणस्तथैवास्ते; 'जवणिज्जं च' यापनीयमिन्द्रियनोइन्द्रियो - पशमादिना प्रकारेणावाधितं च 'भे' भवतां ' शरीरम्' इति गम्यम् । एवं परया भक्त्या पृच्छता विनेयेन विनयः कृतो भवति । अत्रान्तरे गुरुराह — एवं आम यापनीयं च मे इत्यर्थः । इदानीमपराधक्षामणां कुर्वन् रजोहरणोपरिन्यस्तहस्तमस्तको विनेय इदमाह - 'खामेमि खमासमणो ! देवसियं वइक्कमं क्षमयामि क्षमाश्रमण ! दिवसे भवो दैवसिकस्तं व्यतिक्रममवश्यकरणीययोगविराधनारूपमपराधम् । अत्रान्तरे च गुरुर्वदति – 'अहमवि खामेमि' अहमपि क्षमयामि दैवसिकं स्वं व्यतिक्रमं प्रमादोद्भवम् । ततो विनेयः प्रणमन् क्षमयित्वा 'आवसि आए' इत्यादि ' जो मे अइआरो कओ ' इत्यन्तं स्वकीयातिचार निवेदनपरमालोचनार्हप्रायश्चित्तसूचकं सूत्रं ' तस्स खमासमणो पडिक्कमामि' इत्यादिकं च प्रतिक्रमणाईप्रायश्चित्ताभिधायकं पुनरवरणेनाभ्युत्थित आत्मानं शोधयिष्यामीति बुद्धयाऽवग्रहाद् निःसृत्य पठति - अवश्यं कर्तव्येषु चरणकरणेषु भवा क्रिया आवश्यकी तया आसेवनाद्वारेण हेतुभूतया यदसाध्वनुष्ठितं तस्मात् प्रतिक्रमामि निवर्ते । इत्थं सामान्येनाभिधाय विशेषेणाभिधत्तेक्षमाश्रमणानां सबन्धिन्या देवसिक्या ज्ञानाद्यायस्य शातना खण्डना आशातना तथा किंविशिष्टया ? त्रयस्त्रिंशदन्यतरया त्रयस्त्रिंशत्संख्यानामाशातनामन्यतरया कयाचित् उपलक्षणत्वाद् द्वाभ्यां तिसृभिरपि यतो दिवस - मध्ये सर्वा अपि संभवन्ति, ताश्च वक्ष्यन्ते यत् किश्चित् कदालम्बनमाश्रित्य मिथ्यया मिध्यायुक्तेन कृतयेत्यर्थः; मिथ्याभावोऽत्रास्तीत्यभ्रादित्वाद (दा) कारे मिथ्या, एवं क्रोधयेत्यादावपि मनसा दुष्कृता मनोदुष्कृता तया प्रद्वेषनिमि तयेत्यर्थः, वाग्दुष्कृतया असभ्यपरुषादिवचननिमित्तया, कायदुष्कृतया आसन-गमन - स्थानादिनिमित्तया, क्रोधया तृतीय प्रकाशः ॥ ১৪॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४७५ क्रोधयुक्तया, मानया मानयुक्तया, मायया मायायुक्तया, लोभया लोभयुक्तया, अयं भावः-क्रोधाधनुगतेन या | काचिद् विनयभ्रंशादिलक्षणाऽऽशातना कृता तयेति । एवं देवसिक्याशातनोक्ता । अधुना पक्ष-चातुर्मास-संवत्सर तृतीय प्रकाशा कालकृता इहमवान्यभवगतातीतानागतकालकृता च या आशातना तस्याः संग्रहार्थमाह-'सबकालियाए' सर्वकालेषु भवा सावकालिको तया । अनागतकाले कथमाशातनासंभवः ? इति चेत् उच्यते-'वोऽस्य गुरो रिदमिदं वानिष्टं कर्तास्मि' इति चिन्तया । इत्थं भवान्तरेऽपि तद्वधादिनिदानकरणेन संभवत्येव । सर्व एव 18 मिथ्योपचारा मातृस्थानगर्भाः क्रियाविशेषा यस्यां सा सर्वमिथ्योपचारा तया। सर्वे धर्मा अष्टौ प्रवचनमातरः सामान्येन करणीयव्यापारा वा तेषामतिक्रमणं लङ्घनं विराधनं यस्यां सा सर्वधर्मातिक्रमणा। एवंभूतयाऽऽशातनया यो मयातिचारोऽपराधः कृतो विहितस्तस्यातिचारस्य हे क्षमाश्रमण ! युष्मत्साक्षिकं प्रतिक्रमामि अपुनःकरणेन निवर्तेः तथा दुष्टकमकारिणं निन्दाम्यात्मानं भवोद्विग्नेन प्रशान्तेन चेतसा; तथा गर्हे आत्मानं दुष्टकर्मकारिणं युष्मत्साक्षिकम्, व्युत्सृजाम्यात्मानं दुष्टकर्मकारिणं तदनुमतित्यागेन । एवं तत्रस्थ एवार्धावनतकायः पुनरेवं भणति-'इच्छामि खमासमणो' इत्यारभ्य यावद् 'वोसिरामि' इतिः परमयं विशेषः-अवग्रहाद बहिनिष्क्रमणरहित आवश्यकीविरहितं दण्डकसूत्रं पठति । वन्दनकविधिविशेषसंवादिकाश्चेमा गाथाः१आयारस्स उ मूल विणओ सो गुणवओ अ पडिवत्ती। सा अ विहिवंदणाओ विही इमो बारसावत्तो ॥१॥ (१) आचारस्य तु मूलं विनयः स गुणवतश्च प्रतिपत्तिः । सा च विधिवन्दनाद् विधिरयं द्वादशावर्तः ॥१॥ ॥५७५॥ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥ ४७६ ॥ १होउमहाजाओ वहि संडासं पमज्ज उक्कुद्दुअद्वाणो । पडिलेहियमुहपत्तीपमज्जिओवरिमदेहो || २ || उद्वेडं परिसंठिअकुप्परद्विअपट्टगोनमिअकाओ । जुत्तिपिहिअपच्छद्धा पवयण कुच्छा जह न होइ ||३|| वामंगुलिमुहपोती करजुअलतलत्थजुत्तरयहरणो । अवणिय जहोत्तदोसं गुरुसंमुहं भणइ पयडमिणं ||४|| इच्छामि खमासमणो इच्चाई जा निसीहिआए त्ति । छंदेणं ति सुणेउं गुरुवयण उग जाए ||५|| अणुजाह मे मिउग्गहमणुजाणामिति भासिए गुरुणा । उग्गहखेतं पविसइ पमज्ज संडासए निसीए ॥ ६ ॥ वामदसे रयहरणं पमज्ज भूमीए संठवेऊण । सीसफुसणेण होही कज्जं ति तओ पढममेव ॥७॥ वामकरगहिअपोत्ती एगद्देसेण वामकन्नाओ । आरंभिऊण णिडालं पमज्ज जा दाहिणो कण्णो ॥८॥ (१) भूत्वा यथाजातो बहिः संदेशं प्रमृज्योत्कुटुकस्थानः । प्रतिलिखितमुखवस्त्रिकाप्रमार्जितोपरिमदेहार्धः ||२॥ उत्थाय प्रतिसंस्थितकूर्परस्थितपट्टकावनतकायः । युक्तिपिहितपश्चार्थः प्रवचनकुत्सा यथा न भवति ||३|| वामाङ्गुलिमुखवखिकाकरयुगलतलस्थयुक्तरजोहरणः । अपनीय यथोक्तदोषं गुरुसंमुखं भणति प्रकटमिदम् ||४|| इच्छामि क्षमाश्रमण ! इत्यादि यावद् नैषेधिक्येति । छन्देनेति श्रुत्वा गुरुवचनमवग्रहं याति ॥५॥ अनुजानीध्वं मे मितावग्रहमनुजानामीति भाषिते गुरुणा । अवग्रहक्षेत्रं प्रविशति प्रमृज्य संदंश निषीदेत् ॥६॥ वामदर्श रजोहरणं प्रमृज्य भूमौ संस्थाप्य । शिरःस्पर्शनेन भविष्यति कार्यमिति ततः प्रथममेव ॥७॥ वामकरगृहीतमुखवत्रिक एकदेशेन वामकर्णात् । आरभ्य ललाटं प्रमृज्य यावद् दक्षिणः कर्णः ||८|| तृतीय प्रकाशः ॥ ४७६ ॥ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४७७।। १ अच्छिन्नं वामयजाणुं नसिऊण तत्थ मुहपोति । रयहरणमज्झदेसम्मि ठावए पुज्जपायजुगं ॥ ९॥ सुपसारिअ बाहुजुओ ऊरुजुअलंतरं अफुसमाणो । जमलट्ठिअग्गपाणी अकारमुच्चारयं फुसइ || १० || अब्भंतरपरिअट्टिअकरगलमुवणीअ सीसफुसणंतं । तो करजुअलं निज्जा होकारोच्चारसमकालं ॥ ११ ॥ yer मुहर काकारसमं ठविज्ज रयहरणं । यंसदेणं समयं पुणो वि सीसं तहच्चे ॥ १२ ॥ काकारसमुच्चारणसमयं रयहरणमालुहेऊण । यत्ति य सद्देण समं पुणो वि सीसं तहच्चे ॥ १३ ॥ संफासं ति भणतो सीसेणं पणमिऊण रयहरणे । उन्नामिअमुद्धंजलि अव्वावाहं तओ पुच्छे ॥ १४ ॥ खमणिजो भे किलामो अप्पकिलंताणं बहुसुभेणं भे । दिण पक्खो वरिसो वा वइक्कंतो इय तओ तुसिणी ॥ १५ ॥ (१) अव्युच्छिन्नं वामकजानु न्यस्य तत्र मुखवस्त्रिकाम् । रजोहरणमध्यदेशे स्थापयेत् पूज्यपादयुगम् ॥ ९ ॥ सुप्रसारितबाहुयुग ऊरुयुगलान्तरमस्पृशन् । यमलस्थिताग्रपाणिरकारमुच्चारयन् स्पृशति ॥ १० ॥ अभ्यन्तरपरिवर्त्तितकरतलमुपनीय शिरः स्पर्शनान्तम् । ततः करयुगलं नयेद् होकारोच्चारसमकालम् ॥ ११ ॥ पुनरधस्ताद् मुखकरतलं काकारसमं स्थापयेद् रजोहरणम् । यंशब्देन समकं पुनरपि शिरस्तथैव ॥ १२ ॥ काकारसमुच्चारणसमकं रजोहरणमाश्लिष्य । य इति च शब्देन समं पुनरपि शिरस्तथैव ॥ १३ ॥ सफासं इति भणन् शिरसा प्रणम्य रजोहरणं । उन्नामितमूर्धाञ्जलिरख्याबाधां ततः पृच्छेत् ॥ १४ ॥ क्षमणीयो भवद्भिः क्लमोऽल्पक्लान्तानां बहुश्शुभेन भवताम् । दिनं पक्षो वर्षं वा व्यतिक्रान्तमिति ततस्तूष्णीकः | १५ | तृतीय प्रकाशः ॥४७७८ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् तृतीय प्रकाशा Iક૭૮ १गुरुणा तह त्ति भणिए जत्ता जवणा य पुच्छियव्वा य । परिसंठिएण इणमो सराण जोएण कायव्वं ॥ १६ ॥ तत्थ य परिभासेमो मंदमइविणेअगाहणठाए । नीउच्चमज्झमाओ सरजुत्तीओ ठवेयव्वा ॥ १७ ॥ नीओ तत्थणुदत्तो रयहरणे उच्चओ उदत्तो उ । सीसे निर्दसणीओ तदंतरालम्मि सरिओ य ॥ १८ ॥ अणुदत्तो अ जकारो ता सरिओ होइ भे उदत्तसरी । पुणरवि जवणिसद्दा अनुदत्ताई मुणेअव्वा ॥ १९ ॥ ज्जं अणुदत्तो अ पुणो च स्सरिओ भे उदत्तसरणामो । एवं रयहरणाइसु तिसु हाणेसुं सरा णेया ॥ २०॥ पढमं आवत्ततिगं वण्णदुगेणं तु रइयमणुकमसो। बीयावत्ताण तिगं तिहि तिहिं वण्णेहि निष्फन्नं ॥२१॥ रयहरणम्मि जकारं ताकारं करजुएण मज्झम्मि । भेकारं सीसम्मि अकाउं गरुणो वयं सुणसु ॥ २२ ॥ (१) गुरुणा तथेति भणिते यात्रा यापनाच प्रष्टव्या च । परिसंस्थितेनेदं स्वराणां योगेन कर्तव्यम् ॥ १६ ॥ तत्र च परिभाषामहे मन्दमतिविनेयग्राहणार्थम् । नीचोच्चमध्यमाः स्तरयुक्तयः स्थापयितव्याः ॥१७॥ नीचस्तत्रानुदात्तो रजोहरणे उच्चक उदात्तस्तु । शीर्षे निदशनीयस्तदन्तराले स्वरितश्च ॥ १८ ॥ अनुदात्तश्च जकारः त्ता स्वरितो भवति भे उदात्तस्वरः। पुनरपि जवणिशब्दा अनुदात्तादयो ज्ञातव्याः॥१९॥ ज्ज अनुदातश्च पुनश्च स्वरितो भे उदात्तस्वरनामः। एवं रजोहरणादिषु त्रिषु स्थानेषु स्वरा ज्ञेयाः॥२०॥ प्रथममावर्तत्रिकं वर्णद्विकेन तु रचितमनुक्रमशः । द्वितीयावर्तानां त्रिक त्रिभित्रिभिर्वर्णैर्निष्पन्नम् ॥ २१ ॥ रजोहरणे जकारं ताकारं करयुगेण मध्ये । मेकारं शिरसि च कृत्वा गुरोर्वचः शृणु ॥ २२ ॥ 11४७८॥ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४७९॥ तुभ पि वट्टइ ति य गुरुणा भणिअम्मि सेसआवत्ता । दुण्णि वि काउं तुसिणी जा गुरुणा भणिअमेवं ति ॥२३॥ अह सीसो रयहरणे कयंजली भणइ सविणयं सिरसा । खामेमि खमासमणो ! देवसिआइवइक्कमणं ॥ २४ ॥ अहमवि खामेमि तुमे गुरुणाऽणुण्णाए खामणे सीसो । निक्खमइ उग्गहाओ आवसियाए भणेऊण ॥२५॥ ओणयदेहो अवराहखामणं सव्वमुच्चरेऊण । निदियगरहिअवोसट्टसव्वदोसो पडिकतो॥ २६ ॥ खामित्ता विणएणं तिगुत्तो तेण पुणरवि तहेअ । उग्गहजायणपविसणदुओणयं दो पवेसं च ॥ २७ ॥ पढमे छच्चावत्ता बीयपवेसम्मि हुँति छच्चेव । ते अ अहो इच्चाई असंकरेणं पउत्तव्वा ॥ २८ ॥ पढमपवेसे सिरनामणं दुहा बीअए अ तह चेव । तेणेअ वउसिरंतं भणियमिणं एगनिक्खमणं ॥ २९ ॥ (१) तवापि वर्तत इति च गुरुणा भणिते शेषावर्ती। द्वावपि कृत्वा तूष्णीं यावद् गुरुणा भणितमेवमिति ॥२३॥ अथ शिष्यो रजोहरणे कृताजलिर्भणति सविनय शिरसा । क्षमयामि क्षमाश्रमण ! देवसिकादिव्यतिक्रमणम्।२४। अहमपि क्षमयामि त्वां गुरुणाऽनुज्ञाते क्षमणे शिष्यः । निष्कामत्यवग्रहादावश्यक्या भणित्वा ॥ २५ ॥ अवनतदेहोऽपराधक्षमणं सर्वमुच्चार्य । निन्दितगर्हितव्युत्सृष्टसर्वदोषः प्रतिक्रान्तः ॥ २६ ॥ क्षमयित्वा विनयेन त्रिगुप्तस्तेन पुनरपि तथैव । अवग्रहयाचनप्रवेशनद्विकावनतं द्वयोः प्रवेशं च ॥ २७ ॥ प्रथमे षडावर्ता द्वितीयप्रवेशे भवन्ति षडेव । ते च अहो इत्यादयोऽसंकरण प्रयोक्तव्याः ॥ २८ ॥ प्रथमप्रवेशे शिरोनामनं द्विधा द्वितीयके च तथैव । तेनैव व्युत्सृजाम्यन्तं भणितमिदमेकनिष्क्रमणम् ॥२९॥ ॥४७९ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४८॥ एवमहाजाएग तिगुत्तिसहि च हुंति चत्तारि । सेसेसुं खित्तेमुं पणवीसावस्सया हुंति ॥३०॥ 'तित्तीसनयराए' इत्युक्तमिति त्रयस्त्रिंशदाशातना विवेच्यन्ते-गुरोः पुरतो गमनं शिष्यस्य निष्कारणं विनयभङ्गहेतुत्वादाशातना मार्गदर्शनादिकारणे तु न दोषः, गुरोःपार्थाभ्यामपि गमनम्, पृष्ठतोऽप्यासनगमनम्, निःश्वासक्षुतश्लेष्मपातादिदोषप्रसङ्गात् । ततश्च यावता भूमागेन गच्छत आशातना न भवति तावता गन्तव्यम् ।१।२।३ । एवं पुरतः, पार्श्वतः, पृष्ठतश्च स्थानम् । ४ । ५।६। तथा पुरतः पार्श्वतः पृष्ठतो वा निषदनम् ।७।८।९। आचार्येण सहोच्चारभूमि गतस्याचार्यात् प्रथममेवाचमनम् । १० । गुरोरालापनीयस्य कस्यचिच्छिष्येण प्रथममालपनम् । ११ । शिष्यस्याचार्येण सह बहिर्गतस्य पुनर्निवृत्तस्याचार्यात् प्रथममेव गमनागमनालोचनम् ।१२। भिक्षामानीय शिष्येण गुरोः पूर्व शैक्षस्य कस्यचित् पुरत आलोच्य पश्चाद् गुरोरालोचनम् । १३ । भिक्षामानीय प्रथमं शैक्षस्य कस्यचिदुपदर्य गुरोर्दर्शनम् । १४ । भिक्षामानीय गुरुमनापृच्छय शैक्षाणां यथारुचि प्रभूतभैक्ष्यदानम् । १५। भिक्षामानीय शैक्षं कञ्चन निमन्त्र्य पश्चाद गुरोरुपनिमन्त्रणम् । १६ । शिष्येण भिक्षामानीयाचार्याय यत् किश्चिद् दत्वा स्निग्धमधुरमनोज्ञाहारशाकादीनां वर्णगन्धरसस्पर्शवतां द्रव्याणां स्वयमुपभोगः । १७ । रात्रौ 'आर्याः ! कः स्वपिति जागर्ति वा ?' इति गुरोः पृच्छतोऽपि जाग्रताऽपि शिष्येणाप्रतिश्रवणम् । १८ । शेषकालेऽपि गुरौ व्याहरति यत्र तत्र स्थिते शयितेन वा शिष्येण प्रतिवचनदानम् । १९ । आहूतेनासनं शयनं वा त्वक्त्वा संनिहितीभूय 'मस्तकेन वन्दे' इति वदता गुरुवचन (१) एवं यथाजातैकं त्रिगुप्तिसहितं च भवन्ति चत्वारि। शषषु क्षेत्रेषु पञ्चविंशतिरावश्यका भवन्ति ॥३०॥ 118 CON Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४८१॥ श्रोतव्यम्, तद्कुर्वत आशातना । २० । गुरुणा आहूतस्य शिष्यस्य किमिति वचनम्, भणितव्यं च मस्तकेन वन्दे इति । २१ । गुरुं प्रति शिष्यस्य त्वंकारः।२२। गुरुणा ग्लानादिवैयावृत्यादिहेतोः 'इदं कुरु' इत्यादिष्टः 'त्वमेव किं न कुरुषे' इति 'त्वमलसः' इत्युक्ते 'त्वमप्यलसः' इति च शिष्यस्य तज्जातवचनम् । २३ । गुरोः पुरतो बहोः कर्कशस्योच्चैः स्वरस्य च शिष्येण वदनम् । २४। गुरौ कथां कथयति एवमेतत्' इत्यन्तराले शिष्यस्य वचनम् । २५। गुरौ धर्मकथां कथयति 'न स्मरसि त्वमेतमर्थम्, नायमर्थः संभवति' इति शिष्यस्य वचनम् । २६। गुरौ धर्म कथयति सौमनस्यरहितस्य गुरूक्तमननुमोदमानस्य 'साधूक्तं भवद्भिः' इत्यप्रशंसतः शिष्यस्योपहतमनस्त्वम् । २७। गुरौ धर्म कथयति 'इयं भिक्षावेला, सूत्रपौरुषीवेला, भोजनवेला' इत्यादिना शिष्येण पर्षद्भेदनम् । २८ । गुरौ धर्मकथां कथयति 'अहं कथयिष्यामि' इति शिष्येण कथाच्छेदनम् । २९। तथा आचार्येण धर्मकथायां कृतायामनुत्थितायामेव पर्षदि स्वस्य पाटवादिज्ञापनाय शिष्येण सविशेष धर्मकथनम् । ३० । गुरोः पुरत उच्चासने समासने वा शिष्यस्योपवेशनम् । ३१ । गुरोः शय्यासंस्तारकादिकस्य पादेन घट्टनम् , अननुज्ञाप्य हस्तेन वा स्पर्शनम्, घट्टयित्वा स्पृष्ट्वा वाऽक्षामणम्, यदाह संघट्टइत्ता कायेण तहा उवहिणामवि । खमेह अवराह मे वइज्ज न पुण त्ति अ॥ १ ॥ ३२ ॥ गुरोः शय्यासस्तारकादौ स्थान निषोदन शयनं चेति । ३३ । एतदर्थसंवादिन्यो गाथा ॥४८ (१) संघट्टय कायेन तथोपधीनामपि । क्षमस्वापराधं मे वदेद् न पुनरिति च ॥ १ ॥ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा કરા १पुरओ पक्खासने गमण ठाण निसीअण ति नव । सेहे पुवं आइ(य) मइ आलवइ तह य आलोए ॥१॥ असणाइअमालोइअ पडिदंसइ देई उवनिमतेइ । सेहस्स तहाहारइ लुद्धो निद्धाइ गुरुपुरओ ॥ २ ॥ राओ गुरुम्स वयओ तुसिणी सुणिरो वि सेसकाले वि। तत्थ गो वा पडिसुणेइ बेइ किति व तुमं ति गुरुं॥३॥ तज्जाएणं पडिहणइ बेइ बहु तह कहतरे वयइ । एवमिमं ति न सरसि नो सुमणे भिंदई परिसं ॥ ४ ॥ छिदइ कहं तहाणुट्टियाइ परिसाइ कहइ सविसेसं । गुरुपुरओ विनिसीयइ ठाइ समुच्चासणे सेहो ॥ ५ ॥ संघट्टइ पाएणं सेज्जासंथारयं गुरुस्स तहा । तत्थेव ठाइ निसियइ सुअइ अवसेहोत्ति तेत्तीसं ॥६॥ ___इह यद्यपि यतिरेव वन्दनककतॊक्तो न श्रावकः, तथापि यतेः कर्तुर्भणनात् श्रावकोऽपि कर्ता विज्ञेयः, प्रायेण यतिक्रियानुसारेणैव श्रावकक्रियाप्रवृत्तः, श्रूयते च कृष्णवासुदेवेनाष्टादशानां यतिसहस्राणां द्वादशावर्तव(१) पुरतः पक्षासन्ने गमन स्थानं निषोदनमिति नव । शैक्षे पूर्वमाचमति आलपति तथा चालोचयति ॥ १॥ ___ अशनादिकमालोच्य प्रतिदर्शयति ददात्युपनिमन्त्रयति । शैक्षस्य तथाहरति लुब्धः स्निग्धादि गुरुपुरतः॥२॥ रात्रौ गुरोर्वदतस्तूष्णीं श्रोताऽपि शेषकालेऽपि । तत्रगतो वा प्रतिशणोति ब्रवीति किमिति वा त्वमपि (मिति) गुरुम् ॥३॥ तज्जातेन प्रतिहन्ति ब्रवीति बहु तथा कथान्तरे वदति । एवमिदमिति न स्मरसि नो सौमनस्य भिनत्ति पर्षदम् ॥४॥ छिनत्ति कथां तथानुत्थितायां परिप(पर्ष)दिकथयति सविशेषम् । गुरुपुरतो विनिषीदति तिष्ठति समोच्चासने शैक्षः।।५।। संघट्टयति पादेन शय्यासंस्तारकं गुरोस्तथा । तत्रैव तिष्ठति निषीदति शेतेऽषशैक्ष इति त्रयस्त्रिंशत् ॥ ६॥ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४८३॥ तृतीय प्रकाशा न्दनमदायि, इत्याशातना अपि यत्यनुसारेण यथासंभवं श्रावकस्य वाच्याः। एवं वन्दनकं दत्त्वाऽवग्रहमध्यस्थित एव विनेयोऽतिचारालोचनं कर्तुकामः किश्चिदवनतकायो गुरुं प्रतीदमाह-' इच्छाकारेण संदिसह देवसियं आलोएमि ' इति । इच्छाकारेण निजेच्छया, संदिशत आज्ञां ददत, देवसिकं दिवसभवम् 'अतीचारम्' इति गम्यम्। एवं रात्रिकपाक्षिकादिकमपि द्रष्टव्यम् , आलोचयामि मर्यादया सामस्त्येन वा प्रकाशयामि । इह च देवसिकादीनामयं कालनियमः-यथा देवसिकं मध्याह्नादारभ्य निशीथं यावद् भवति, रात्रिकं निशीथादारभ्य मध्याह्नं यावद् भवति, पाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकाणि पक्षाद्यन्ते भवन्ति । अत्रान्तरे 'आलोअह' इति गुरुवचनमाकर्ण्य एतदेव शिष्यः समर्थयन्नाह-'इच्छं आलोएमि' इच्छाम्यभ्युपगच्छामि गुरूवचः आलोचयामि पूर्वमभ्युपगतमर्थ क्रियया प्रकाशयामीति । इत्थं प्रस्तावनामभिधायालोचनामेव साक्षात्कारेणाह-'जो मे देव. सिओ अइआरो को काइओ वाइओ माणसिओ उस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिज्जो दुज्झाओ दुव्विचिंतिओ अणायारो अणिच्छियब्बो असावगपाउग्गो नाणे दंसणे चरित्ताचरित्ते मुए सामाइए तिण्डं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं पंचण्हमणुव्वयाणं तिण्डं गुणव्वयाणं चउण्हं सिक्खावयाणं बारसविहस्स सावगधम्मस्स जं खंडिअं जं विराहि तस्स मिच्छा मि दुकडं'। __ व्याख्या-यो मया दिवसे भवो देवसिकोऽतिचारोऽतिक्रमः कृतो निर्वर्तितः, स पुनरतिचार उपाधिभेदेना नेकधा भवति, अत एवाह--' काइओ' कायः प्रयोजनं प्रयोजकोऽस्यातिचारस्येति कायिकः, एवं वाइओ वाक प्रयोजनमस्य वाचिकः, एवं मनः प्रयोजनमस्येति मानसिकः, 'उस्सुत्तो' सूत्रादुत्क्रान्त उत्सूत्रः सूत्रमतिक्रम्य कृत ॥४८३॥ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् શા इत्यर्थः, ' उम्मग्गो' मार्गः क्षायोपशमिको भावस्तमतिक्रान्त उन्मार्गः क्षायोपशमिकभावत्यागेनौदयिकभावसंक्रमः कृत इत्यर्थः, ' अकप्पो' कल्पो न्यायो विधिराचारश्वरणकरणव्यापार इति यावत्, न कल्पोऽकल्पोऽतद्रूप इत्यर्थः करणीयः सामान्येन कर्त्तव्यः न करणीयोऽकरणीयः हेतुहेतुमद्भावश्चात्र यत एवोत्त्रोऽत एवोन्मार्ग इत्यादि. उक्तस्तावत् कायिको वाचिकश्च । अधुना मानसिकमाह – ' दुज्झाओ' दुष्टो ध्यातो दुर्ध्यात एकाग्रचित्त तयाssर्तरौद्रलक्षणः 'दुव्विचितिओ' दुष्टो विचिन्तितो दुर्विचिन्तितः, अशुभ एव चलचित्ततया '१जं थिरमझवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं' इति वचनात् यत एवेत्थंभूतस्तत एव 'अणायारो' आचरणीयः श्रावकाणामाचारः, न आचारोऽनाचारः, यत एवानाचरणीयोऽत एव 'अणिच्छियव्वो' अनेष्टव्यः मनागपि मनसापि न एष्टव्य आस्तां तावत् कर्तव्यः, यत एथेत्थंभूतोऽत एव 'असावगपाउग्गो' अश्रावकप्रायोग्यःअभ्युपेतसम्यक्त्वः प्रतिपन्नाणुव्रतश्च प्रतिदिवस यतिभ्यः सकाशात् साधूनामगारिणां च सामाचारी श्रृणोतीति श्रावस्तस्य प्रायोग्य उचितः श्रावकप्रायोग्यः, न तथा श्रावकानुचित इत्यर्थः । अयं चातिचारः क विषये भवतीत्याह - 'णाणे दंसणे चरित्ताचरिते' इति, ज्ञानविषये दर्शनविषये, स्थूलसावद्ययोगनिवृत्तभावाच्चारित्रं च सूक्ष्म सावद्ययोगनिवृत्यभावादचारित्रं च चारित्राचारित्रं तस्मिन देशविरतिविषये इत्यर्थः । अधुना भेदेन व्याचष्टे - ' सुए ' श्रुतविषये श्रुतग्रहणं मत्यादिज्ञानोपलक्षणम्, तत्र विपरीतप्ररूपणा, अकालस्वाध्यायश्चाति (१) यत् स्थिरमध्यवसायं तद् ध्यानं यच्चलं तश्चित्तम् । तृतीय प्रकाशः ४८४॥ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशास्त्रम् प्रकाशः ॥४८५॥ चारः, 'सामाइए' सामायिकविषये, सामायिकग्रहणात् सम्यक्त्वसामायिकदेशविरतिसामायिकयोग्रहणम तत्र सम्यक्त्वसामायिकातिचारः शङ्कादिः । देशविरतिसामायिकातिचारं तु भेदेनाह-'तिण्हं गुत्तीणं' तिमृणां गुप्तीनां 'यत् खण्डितम्' इत्यादिना सर्वत्र योगः, मनोवाक्कायगोपनात्मिकास्तिखो गुप्तयो व्याख्याता. तासां चाश्रद्धानविपरीतप्ररूपणाभ्यां खण्डना विराधना च, चतुर्णा क्रोधमानमायालोभलक्षणानां कषायाणां प्रतिषिद्धानां करणेनाश्रद्धानविपरीतप्ररूपणाभ्यां च, पश्चानामणुव्रतानां त्रयाणां गुणव्रतानां चतुर्णा शिक्षावतानामुक्तस्वरूपाणाम, अणुव्रतादिमीलनेन द्वादशविधस्य श्रावकधर्मस्य यत् खण्डित देशतो भग्नम्, यद् विराधितं सुतरां भग्न. न पुनरेकान्ततोऽभावमापादितम्, 'तस्स मिच्छा मि दुक्कडं' तस्य दैवसिकायतिचारस्य ज्ञानादिगोचरस्य, तथा गुप्तीनां, कषायाणां द्वादशविधश्रावकधर्मस्य च यत् खण्डनं विराधनं चातिचाररूपं तस्य मिथ्येति प्रतिक्रमामि दुष्कृतमेतदकर्तव्यमिदं ममेत्यर्थः ।। अत्रान्तरे विनेयः पुनरप्यर्धावनतकायः प्रवर्धमानसंवेगो मायामदविप्रमुक्त आत्मनः सर्वातिचारविशुद्धचर्य सूत्रमिदं पठति-'सव्वस्स वि देवसिय दुचिंतिय दुभासिय दुच्चिट्ठिय इच्छाकारेण संदिसह।' सर्वाण्यपि लुप्तषष्ठीकानि पदानि । ततोऽयमर्थः-सर्वस्यापि दैवसिकस्याणुव्रतादिविषये प्रतिषिद्धाचरणादिना जातस्यातिचारस्येति गम्यते, पुनः कीदृशस्य ? दुश्चिन्तितस्य दुष्टमातरौद्रध्यानतया चिन्तितं यत्र स तथा तस्य दुश्चिन्तितो वस्येत्यर्थः, अनेन मानसमतीचारमाह, दुष्टं सावधवाग्रूपं भाषितं यत्र तत् तथा तस्य दुर्भाषितोत्पन्नस्येत्यर्थः, अनेन वाचिकं सूचयति, दुष्टं प्रतिषिदं धावनवल्गनादिकायक्रियारूपं चेष्टितं यत्र तत् तथा तस्य ॥४८५॥ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशः 11४८६॥ दुश्चेष्टितोद्भवस्येत्यर्थः, अनेन कायिकमाह, अस्यातिचारस्य किमित्याह 'इच्छाकारेण संदिसहेति, आत्मीयेच्छया मम प्रतिक्रमणज्ञां प्रयच्छत, इत्युक्त्वा तूष्णीको गुरुमुख प्रेक्षमाण आस्ते । ततो गुरुराह-'पडिकमह' प्रतिक्रामत (क्राम) । ततः शिष्यः प्राह-'इच्छ' इच्छाम्येतद् भगवद्वचः, 'तस्स' तस्य दैवसिकातिचारस्य 'मिच्छामि दुकडं' आत्मीयं दुष्कृतं मिथ्येति जुगुप्स इत्यर्थः । तथा, द्वितीयच्छन्दनकावग्रहान्तः स्थित एव विनेयोऽर्धावनत कायः स्वापराधक्षामणां चिकीर्षुगुरुं प्रतीदमाह-'इच्छाकारेण संदिसह इति, इच्छाकारेण स्वकीयाभिलाषेण न पुनवेलाभियोगादिना संदिशत आज्ञां प्रयच्छत यूयम् । आज्ञादानस्यैव विषयमुपदर्शयन्निदमाह-'अब्भुडिओ अम्हि अभितरदेवसि खामेमि' अभ्युत्थितोऽस्मि प्रारब्धोस्मि अहम् अनेनाभिलाषमात्रस्य व्यपोहेन क्षमणाक्रियायाः प्रारम्भमाह-'अभितरदेवसि इति दिवसाभ्यन्तरसंभवम् अतीचारम्' इति गम्यते, क्षमयामि मर्पयामि, इत्येका वाचना । अन्ये त्वेवं पठन्ति-'इच्छामि खमासमणो अन्भुडिओ अम्हि अभितरदेवसि खामेउं इति, इच्छामि अभिलपामि क्षमयितुम् इति योगः, हे क्षमाश्रमण ! न केवलमिच्छामि, किन्तु 'अन्मुडिओ अम्हि इत्यादि पूर्ववदेव । एवं स्वाभिप्राय प्रकाश्य तूष्णीमास्ते यावद् गुरुराह-'खामेह' इति क्षमयस्वेत्यर्थः। ततः स गुरुवचनं बहु मन्यमान आह-'इच्छं खामेमि इति, इच्छं इच्छामि भगवदाज्ञाम्, खामेमि क्षमयामि च स्वापराधम् । अनेन क्षमणक्रियायाः प्रारम्भमाह । ततो विधिवत् पञ्चभिरकैः स्पृष्टधरणीतलो मुखवत्रिकया स्थगितवदनदेश इदमाह-ज किंचि अपत्तिय परपत्ति भत्ते पाणे विणए वेयावच्चे आलावे संलावे उच्चासणे समासणे अंतरभासाए उवरिभासाए ज किंचि मज्झ विणयपरिहीणं मुहुमं वा बायरं वा तुब्भे जाणह अहं न याणामि तस्स ॥४८६॥ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा il૮૭ી मिच्छा मि दुक्कडं। व्याख्या- किचि यत् किंचित् सामान्यतो निरवशेष वा, अपत्तिय' आपत्वादप्रीतिकमप्रीतिमात्रम्, 'परपत्ति' प्रकृष्टमप्रीतिकं परप्रत्ययं वा परहेतुकम्, उपलक्षणत्वादस्यात्मप्रत्ययं चेति द्रष्टव्यम्, युष्मद्विषये मम जातं युष्माभिर्वा मम जनितमिति वाक्यशेषः, तस्स मिच्छामि इत्युत्तरेण संबन्धः तथा, 'भत्ते' भक्ते भोजनविषये 'पाणे' पानविषये, 'विणए' विनयेऽभ्युत्थानादिरूपे, 'वेआवच्चे' वैयापृत्ये वैयावृत्त्ये वा औषधपथ्यादिनाऽवष्टम्भरूपे 'आला आलापे सकृज्जल्परूपे, 'सलावें लापे मिथ:कथारूपे, 'उच्चासणे गुरोरासनादुश्चैरासने, समासणे' गुर्वासनेन तुल्ये आसने, 'अन्तरभासाए' अन्तर्भाषायां गुरोर्भाषमाणस्य विचालभाषणरूपायाम्, 'उवरिभासाए' उपरिभाषायां गुरोर्भाषणानन्तरमेव विशेषभाषणरूपायाम् एषु भक्तादिषु 'जं किंचि' यत् किश्चित् समस्तं सामान्यतो वा, 'मज्झ' मम, 'विणयपरिहीणं' विनयपरिहीनं शिक्षावियुक्तं 'संजातम्' इति शेषः। विनयपरिहीनस्यैव द्वैविध्य माह-मुहुमं वा बायरं वा' सूक्ष्ममल्पप्रायश्चित्तविशोध्यम्, बादरं बृहत्प्रायश्चित्तविशोध्यम्, वाशब्दौ द्वयोरपि मिथ्यादुष्कृतविषयत्वतुल्यतोद्भावनाथौं, 'तुम्भे जाणहेति' यूयं जानीथ, सकलभाववेदकत्वात् अहं न 'याणामि' अहं पुनर्न जानामि, मूढत्वात्, तथा 'यूयं न जानीथ प्रच्छन्नकृतत्वादिना, अहं जानामि, स्वयं कृतत्वात, तथा, यूयं न जानीथ, परेण कृतत्वादिना, अहं न जानामि, विस्मरणादिना, तथा यूयमपि जानीथ, अहमपि जानामि, द्वयोः प्रत्यक्षत्वात् एतदपि द्रष्टव्यम्, 'तस्स' तस्य षष्ठीसप्तम्योरभेदात् तस्मिन्नप्रीतिकविषये विनयपरिहीणविषये च 'मिच्छा मि दुक्कडं' मिथ्या मे दुष्कृतमिति स्वदुश्चरितानुपात्तसूचकं ४८७॥ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग तृतीय प्रकाश शाखम् ॥४८८॥ स्वदोषप्रतिपत्तिसूचकं वा प्रतिक्रमणमिति पारिभाषिकं वाक्यं प्रयच्छामीति शेषः, अथवा, तस्येति विभक्तिपरिणामात् तदप्रीतिकं विनयपरिहीनं च मिथ्या मोक्षसाधनविपर्ययभूतं वर्तते मे मम; तथा दुष्कृतं पापमिति स्वदोषप्रतिपत्तिरूपमपराधक्षमणमिति । बन्दनपूर्वके चालोचनक्षमणे भवत इति कृत्वा वन्दनकानन्तरं ते व्याख्याते, अन्यथा प्रतिक्रमणे तयोरवसरः वन्दनकस्य च फलं कर्मनिर्जरा, यदाहु: वंदणएणं भंते! जीवे किं अज्जिणइ ? । गोअमा ! अट्ठ कम्मपयडीओ निविडबंधणबद्धाओ सिढिलबंधणबद्धाओ करेइ, चिरकालठिइआओ अप्पकालठिइआओ करेइ, तिब्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ करेइ, बहुपएसग्गाओ अप्पपएसग्गाओ करेइ, अणाइअं च णं अणवदग्गं संसारकंतारं नो परिअट्टइ । तथा, वंदणएणं भंते ! जीवे किं अज्जिणइ ? । गोअमा! बंदणएणं नीयागोत्तकम्म खवेइ उच्चागो निबंधइ, सोहग्गं च णं अप्पडिइयं आणाफलं निव्वत्तेइ । तथा (१) वन्दनकेन भगवन् ! जीवः किमर्जयति ? । गौतम ! अष्टकर्मप्रकृतीनिबिडबन्धनबद्धाः शिथिलबन्धनबद्धाः करोति, चिरकालस्थितिकाः अल्पकालस्थितिकाः करोति, तीव्रानुभावा मन्दानुभावाः, करोति बहुप्रदेशिका अल्पप्रदेशिकाः करोति, अनादिकं चानन्तं संसारकान्तारं नो पर्यटति । (२) वन्दनकेन भगवन् ! जीवः किमर्जयति ? । गौतम ! वन्दनकेन नीचगोत्रकर्म क्षपयति, उच्चगोत्रं निबध्नाति सौभाग्यं चाप्रतिहतमाज्ञाफलं निवर्तयति । ॥४८८॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥४८९ ॥ १ विणओवयारमाणस्स भजणा पूअणा गुरुजणस्स । तित्थयराण य आणा सुअधम्माराहणाकिरिआ ॥ १ ॥ अथ प्रतिक्रमणं - प्रतीत्युपसर्गः प्रतीपे प्रातिकूल्ये वा, क्रमू पादविक्षेपे, अस्य प्रतिपूर्वस्य भावानडन्तस्य प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणम्, अयमर्थः -शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेष्वेव क्रमणात् प्रतीपंक्रमणम्, यदाह, — स्वस्थानाद् यत् परस्थानं प्रमादस्य वशाद् गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ १ ॥ प्रतिकूलं वा गमनं प्रतिक्रमणम्, यदाह, क्षायोपशमिकाद् भावादौदयिकवशं गतः । तत्रापि च स एवार्थः प्रतिकूलगमात् स्मृतः ॥ १ ॥ प्रति प्रतिक्रमणं वा प्रतिक्रमणम्, उक्तं च प्रति प्रतिप्रवर्तन वा शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेषु । निःशल्यस्य यतेर्यत् तद् विज्ञेयं प्रतिक्रमणम् ॥ १ ॥ तच्चातीतानागतवर्तमान कालत्रयविषयम् । नन्वतीतविषयमेव प्रतिक्रमणम् यत उक्तम्, -- “ २अइयं पडिकमामि, पप्पनं संवरेमि, अणागयं पच्चक्खामि' इति तत् कथं त्रिकालविषयता ? । उच्यते-अत्र प्रतिक्रमणशब्दोऽशुभयोगनिवृत्तिमात्रार्थः- ३मिच्छत्तपडिकमणं तदेव अस्संजमे पडिकमणं । कसायाण पडिकमण जोगाण य अप्पसत्थाणं ॥ १ ॥ (१) विनयोपचारमानस्य भजना पूजना गुरुजनस्य । तीर्थकराणां चाज्ञा श्रुतधर्माराधनाक्रिया ॥ १ ॥ (२) अतीत प्रतिक्रमामि प्रत्युत्पन्न संवृणोमि, अनागतं प्रत्याख्यामि । (३) मिथ्यात्वप्रतिक्रमणं तथैवासंयमे प्रतिक्रमणम् । कषायाणां प्रतिक्रमणं योगानां चाप्रशस्तानाम् ॥ १ ॥ तृतीय प्रकाशः musi Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४९॥ ततश्च निन्दाद्वारेणाशुभयोगनिवृत्तिरूपमतीतविषयं प्रतिक्रमणम्, प्रत्युत्पन्नविषयमपि संवरद्वारेण अनागतमपि प्रत्याख्यानद्वारेणेति न कश्चिद् दोषः । तच्च दैवसिकादिभेदात् पञ्चधा -- दिवसस्यान्ते दैवसिकम्, रात्रे - रन्ते रात्रिकम्, पक्षस्यान्ते पाक्षिकम्, चतुर्णा मासानामन्ते चातुर्मासिकम्, संवत्सरस्यान्ते सांवत्सरिकम् । पुनद्वेधा -- ध्रुवम्, अध्रुवं च । ध्रुवं भरतैरावतेषु प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थेषु अपराधो भवतु वा मा वा, उभयकाल प्रतिक्रमणम् । अध्रुवं मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु विदेहेषु च कारणजाते प्रतिक्रमणम्, यदाह किमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्य य जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिकमणं ॥ १ ॥ प्रतिक्रमणविधिश्चैताभ्यो गाथाभ्योऽवसेयः, - पञ्च विहायारविमुद्धिहेउमिह साहू सावगो वावि । पडिकमण सह गुरुणा गुरुविरहे कुणई इको वि ॥ १ ॥ दि चेआई दाउचउराइए खमासमणे । भूनिहिअसिरो सलाइयारमिच्छोकडं देइ ॥ २ ॥ सामाइअपुब्वमिच्छामि ठाउं काउस्सग्गमिच्चाई । सुतं भणिअ पलंबिअभुयकुप्परधरियपहिरणओ ॥ ३ ॥ (१) प्रतिक्रमणो धर्मः प्रथमस्य च पश्चिमस्य च जिनस्य । मध्यमकानां जिनानां कारणे जाते प्रतिक्रमणम् ॥ १॥ (२) पञ्चविधाचारविशुद्धिहेतोरिह साधुः श्रावको वापि । प्रतिक्रमण सह गुरुणा गुरुविरहे करोत्येकोऽपि ॥ १ ॥ वन्दित्वा चैत्यानि दत्त्वा चतुरादिकान् क्षमाश्रमणान् । भूनिहितशिराः सकलातिचार मिध्यादुष्कृतं दद्यात् ॥२॥ सामायिक पूर्वमिच्छा मे स्थापयितुं कायोत्सर्गमित्यादि । सूत्रं भणित्वा प्रलम्बितभुजकूर्परधृतपरिधानः ॥३॥ तृतीय प्रकाशः ४९०॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४९१ ॥ १ घोडगमाईदोसेहिं विरहिअं तो करेइ उस्सग्गं । नाहिअहो जाणुद्धं चउरंगुलठविअकडिपट्टी ॥ ४ ॥ तत्थ य घरे rिee जहकमं दिणकए अइआरे । पारेत्तु नमुकारेण पढइ चउवीसथयदंडं ॥ ५ ॥ संडासगे पमज्जिय उवविसिय अलग्गविअयबाहुजुओ । मुहणंतगं च कार्य च पेहए पंचवीस इहा ॥ ६ ॥ ओ सवियं विहिणा गुरुणो करेइ किइकम्मं । बत्तीसदोसरहिअं पणवीसावस्सगविसुद्धं ॥ ७ ॥ अह सम्ममवण अंगो करजुअविहिधरिअपुत्तिरयहरणो । परिचितिअ अइआरे जहकमं गुरुपुरो वियडे ॥ ८ ॥ अह उववित्ति सुत्तं सामाइयमाइयं पढिय पयओ । अब्भुट्टियओ म्हि इच्चाइ पढइ दुह उडिओ विहिणा ॥ ९ ॥ दाऊण वंदणं तो पणगाइसु जइसु खामए तिष्णि । किकम्मं करे आयरिअमाइगाहातिगं पढइ ॥ १० ॥ (१) घोटकादिदोषैर्विरहितं ततः करोति उत्सर्गम् । नाभ्यधो जानूर्ध्व चतुरङ्गुलस्थापितकटीपट्टः ॥ ४ ॥ तत्र च धारयति हृदये यथाक्रमं दिनकृतानविचारान् । पारयित्वा नमस्कारेण पठति चतुर्विंशतिस्तवदण्डम् ||५|| संदेशं प्रमृज्योपविश्यालग्नविततबाहुयुगः । मुखानन्तकंच कायं च प्रेक्षते पञ्चविंशतिधा ।। ६ ।। उत्थितस्थितः सविनयं विधिना गुरोः करोति कृतिकर्म्म । द्वात्रिंशद्दोषरहितं पञ्चविशत्यावश्यकविशुद्धम् ||७|| अथ सम्यगवनताङ्गः करयुगविधिधृतवस्त्रिकारजोहरणः । परिचिन्तयत्यति (न्तिताति) चारान् यथाक्रमं गुरुपुरो विस्तृतान् (विस्तृणुयात् ॥ ८ ॥ अथोपविश्य सूत्रं सामायिकादिक ं पठित्वा प्रयतः । अम्युत्थितोऽस्मीत्यादि पठति द्विधोत्थितो विधिना ॥९॥ दत्वा वन्दनं ततः पञ्चकादिषु यतिषु क्षमयेत् त्रिः । कृतिकर्म कुर्यादाचार्यादिगाथात्रिकं पठति ॥१०॥ &ONOROX OR तृतीय प्रकाशः ॥४९१॥ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् un १३ सामाइ उस्सग्गमुत्तमुच्चरिय काउसग्गठिओ । चिंतइ उज्जोयदुगं चरित्तअइयारसुद्धिकए || ११ ॥ विहिणा पारिय सम्मत सृद्धिहेडं च पढइ उज्जोअं । तह सव्वलोअअरहंतचेइयाराहणोसम्गं ॥ १२ ॥ काउं उज्जोअगरं चिंतिय पारेइ सुद्धसम्मत्तो । पुक्खरवरदीवढं कढइ सुअसोहणनिमित्तं ॥ १३ ॥ पुण पणवीसोस्सास उस्सगं कुणइ पारए विहिणा । तो सयलकुसल किरियाफलाण सिद्धाण पढइ थयं ॥ १४ ॥ अह सुअसमिद्धिहेतुं सुअदेवीए करेइ उस्सगं । चिंतेइ नमोकार सुणइ वदे व्व तीइ थुई ॥ १५ ॥ एवं खेत्तमूरीए उस्सग्गं कुणइ सुणइ देइ थुई । पढिऊण पंचमंगलमु विसर पमज्ज संडासे ॥ १६ ॥ पुव्वविहिणेव पेहिय पुतिं दाऊण वंदणं गुरुणो । इच्छामो अणुसद्धिं ति भणिय जाणूहिंतो ठाइ ॥१७॥ (१) इति सामायिकोत्सर्गसूत्रमुच्चार्य कायोत्सर्गस्थितः । चिन्तयत्युद्योतद्विकं चारित्रातिचारशुद्धिकृते ।। ११ ।। विधिना पारयित्वा सम्यक्त्वशुद्धिहेतोश्च पठेदुद्द्योतम् । तथा सर्वलोकाईच्चैत्याराधनोत्सर्गम् ॥ १२ ॥ कृत्वोद्योतकरं चिन्तयित्वा पारयति शुद्धसम्यक्त्वः । पुष्करवरद्वीपा पठति श्रुतशोधननिमित्तम् ॥ १३ ॥ पुनः पञ्चविंशत्युच्छ्वासमुत्सगं करोति पारयति विधिना । ततः सकलकुशलक्रियाफलानां (लेभ्यः) सिद्धानां पठेत् स्तवम् ॥ १४ ॥ अथ श्रुतसमृद्धिहेतोः श्रुतदेव्याः कुर्यादुत्सर्गम् । चिन्तयेद् नमस्कारं शृणुयाद् वदेद् वा तस्याः स्तुतिम् ||१५|| एवं क्षेत्रसूर्या उत्सर्ग कुर्यात् शृणुयाद् दद्यात् स्तुतिम् । पठित्वा पञ्चमङ्गलमुपविशेत् प्रमृज्य संदंशम् ||१६|| पूर्वविधिनैव प्रेक्ष्य वतिकां दत्वा वन्दनं गुरोः । इच्छामोऽनुशास्तिमिति भणित्वा जानुभ्यां तिष्ठेत् ॥१७॥ COOKERO OKE OREOF तृतीय प्रकाशः ॥४९२॥ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥४९३॥ १ गुरुथुरगहणे थुइ तिणि वद्धमाणक्खरस्सरो पढइ । सक्कत्थवं थवं पढिअ कुणइ पच्छित्तउस्सग्गं ॥ १८ ॥ एवं ता देवसि राइयमवि एवमेव नवरि तर्हि । पढमं दाउ मिच्छा मि दुक्कडं पढइ सक्कत्थयं ॥ १९ ॥ aise करे विहिणा उस्सग्गं चितए अ उज्जोअं । वीयं दंसणसुद्धीए चिंतए तत्थ इममेव ॥ २० ॥ are निसाअइआरं जहकमं चिंतिऊण पारे । सिद्धत्थयं पढित्ता पमज्ज संडासमुवविसइ ॥ २१ ॥ पुव्वं व पुत्तिपेहणवंदणमालोयसुत्तपढणं च । वंदणखामणवंदणगाहातिगपढणमुग्गो ॥ २२ ॥ तत्थ य चिंतर संजमजोगाण न होइ जेण मे हाणी । तं पडिवज्जामि तवं छम्मासं ता न काउमलं ॥ २३ ॥ गाइगुणतीसूणयं पि न सहो न पंचमासमवि । एवं चउ ति दुमास न समत्थो एगमासं प ||२४|| (१) गुरुस्तुतिग्रहणे स्तुतीस्तित्रो वर्धमानाक्षरस्वरः पठेत् । शक्रस्तवं स्तवं पठित्वा कुर्यात् प्रायश्चित्तोत्सर्गम् ॥१८॥ एवं तावद् दैवसिकं रात्रिकमप्येवमेव नवरं तत्र । प्रथमं दवा मिथ्या मे दुष्कृतं पठेत् शक्रस्तवम् ॥ १९ ॥ उत्थाय कुर्याद् विधिनोत्सर्ग चिन्तयेच्चोद्योतम् । द्वितीयं दर्शनशुद्धौ चिन्तयेत् तत्रेदमेव || २० || तृतीये निशातीचारं यथाक्रमं चिन्तयित्वा पारयेत् । सिद्धस्तवं पठित्वा प्रमृज्य संदंशमुपविशेत् ॥ २१ ॥ पूर्वमिव वस्त्रिकाप्रेक्षणं वन्दनमालोचसूत्रपठनं च । वन्दनक्षमणावन्दनगाथात्रिकपठनमुत्सर्गः ॥ २२ ॥ तत्र च चिन्तयेत् संयमयोगानां न भवति येन मे हानिः । तत् प्रतिपद्ये तपः षड् मासांस्तावद् न कर्तुमलम् ॥ २३ ॥ एकाकोनत्रिंशदूनकमपि न सहो न पञ्च मासानपि । एवं चतुरस्त्रीन् द्वौ मासौ न समर्थ एकमासमपि ॥२४॥ te Roohoto o तृतीय प्रकाशः ॥४९३॥ ॥ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा १४९४॥ रजा तं पि तेरसूणं चउतीसइमाइअं दुहाणीए । जाव चउत्थं तो आयंबिलाइ जा पोरिसि नमो वा ॥२५॥ जं सकं तं हियए धरेत्तु पारेनु पेहए पोत्तिं । दाउं वंदणमसढो तं चिय पच्चक्खए विहिणा ॥२६॥ इच्छामो अणुसहि ति भणियउवविसिअ पढइ तिण्णि थुई । मिउसद्देणं सक्कत्थयाइ तो चेइए वंदे ॥२७॥ अह पक्खियं चउद्दसिदिणम्मि पुव्वं व तत्थ देवसि। मुत्तंतं पडिक्कमिउं तो सम्मिमिमं कम कुणइ॥२८॥ मुहपोत्ति वंदणयं संबुद्धाखामणं तहालोए । वंदणं पत्तेयक्खामणं च वंदणयमह सुत्तं ॥ २९ ॥ सुत्तं अन्भुटाणं उस्सग्गो पुत्ति वंदणं तह य । पज्जंतियखामणं तह चउरो थोभवंदणया ॥ ३०॥ पुव्वविहिणेव सव्वं देवसियं वंदणाइ तो कुणइ । सेज्जसुरीउस्सग्गे भेओ संतिथयपढणे अ ॥ ३१ ॥ (१) यादत्तदपि त्रयोदशोनं चतुस्त्रिंशदादिकं द्विहान्या । यावच्चतुर्थ तत आचाम्लादि यावत् पौरुषी नमो वा ॥२५॥ यत् शक्यं तद् हृदये धारयित्वा पारयेत प्रेक्षेत वस्त्रिकाम् । दत्वा वन्दनमशठस्तदेव प्रत्याख्यायाद् विधिना ॥२६॥ इच्छामोऽनुशास्तिमिति भणित्वोपविश्य पठेत् तिखः स्तुतीः। मृदुशब्देन शक्रस्तवादि ततश्चैत्यानि वन्देत ॥२७॥ अथ पाक्षिकं चतुर्दशीदिने पूर्वमिव तत्र देवसिकम् । सूत्रान्तं प्रतिक्रम्य ततः सम्यगिम क्रमं कुर्यात् ॥२८॥ मुखवस्त्रिका वन्दनकं संबुद्धक्षमणा तथालोचः । वन्दनं प्रत्येक क्षमणा च वन्दनकमथ सूत्रम् ॥२९॥ सूत्रमभ्युत्थानमुत्सर्गों वस्त्रिका वन्दनं तथा च । पार्यन्तिकक्षमणा तथा चत्वारि स्तोभवन्दनकानि ॥३०॥ पूर्वविधिनैव सर्व दैवसिकं वन्दनादि ततः कुर्यात् । शय्यासुर्युत्सर्गे भेदः शान्तिस्तवपठने च ॥३१॥ 188 ULL Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥४९५॥ १एवं चिय चउमासे वरिसे अ जहक्कम विही णेओ । पक्खचउमास वरिसेसु नवरि नामम्मि नाणत्तं ॥३२॥ तह उस्सग्गोज्जोआ बारस वीसा समंगलिग चत्ता। संबुद्धखामणं ति पण सत्त साहूण जहसंखं ॥३३॥ प्रतिक्रमणसूत्रविवरण तु ग्रन्थविस्तरभयाद् नोक्तम् ॥ अथ कायोत्सर्गः । कायस्य शरीरस्य स्थानमौनध्यानक्रियाव्यतिरेकेणान्यत्रोच्छ्वसितादिभ्यः क्रियान्तराध्यासमधिकृत्य य उत्सर्गस्त्यागो 'नमो अरहंताणं' इति वचनात् प्राक् स कायोत्सर्गः । स च द्विविधः, चेष्टायामभिभवे च। चेष्टायां गमनागमनादावीर्यापथिकादिप्रतिक्रमणभावी, अभिभवे उपसर्गजयार्थम् ; यदाहुः२सो उस्सग्गो दुविहो चेहाए अभिभवे अ नायव्वो । भिक्खायरिया पढमो उसग्गभिउंजणे बीओ ॥१॥ तत्र चेष्टाकायोत्सर्गोऽष्ट-पञ्चविंशति-सप्तविंशति-त्रिशती-पश्चशती-अष्टोत्तरसहस्रोच्छ्वासान् यावद् भवति, अभिभवकायोत्सर्गस्तु मुहूर्तादारभ्य संवत्सरं यावद् बाहुबलेरिख भवति । स च कायोत्सर्ग उच्छ्रित-निषण्णशयितभेदेन त्रेधा । एकैकश्चतुर्धा-उच्छ्रितोच्छूितो द्रव्यत उच्छ्रित ऊर्ध्वस्थानं भावत उच्छ्तिो धर्मध्यानशुक्लध्याने इति प्रथमः। तथा द्रव्यत उच्छ्रित ऊर्ध्वस्थानं भावतोऽनुच्छ्रितः कृष्णादिलेश्यापरिणाम इति द्वितीयः। द्रव्यतो नोच्छ्रितो नोर्ध्वस्थानं भावत उच्छ्रितो धर्मध्यान-शुक्लध्याने इति तृतीयः। न द्रव्यतो नापि भावत उच्छित (१) एवमेव चतुर्मासे वर्षे च यथाक्रमं विधिज्ञेयः। पक्षचतुर्मासवर्षे पु; नवरं नाम्नि नानात्वम् ॥ ३२ ॥ तथोत्सर्ग उद्योता द्वादश विंशतिः समङ्गलिकाश्चत्वारिंशत् । संबुद्धक्षमणास्तिसः पश्च सप्त साधूनां यथासंख्यम्३३ (२) स उत्सर्गों द्विविधश्चेष्टायामभिभवे च ज्ञातव्यः । भिक्षेर्यायां प्रथम उत्सर्गाभियोजने द्वितीयः॥१॥ ॥४९५। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थितयोरपि चतुर्भङ्गी वाच्याश्चितैक पादस्य घोटक स्तम्भदोषः ॥३॥ कुड़ योगशानम् सृतीय प्रकाशा ॥४९६॥ इति चतुर्थः। एवं निषण्ण-शयितयोरपि चतुर्भङ्गी वाच्या । दोषरहितश्च कायोत्सर्गः कार्यः। दोषाश्चैकविंशतिः-आकुश्चितैकपादस्य घोटकस्येव स्थानं घोटकदोषः ॥१॥ खरवातप्रकम्पिताया लताया इव कम्पनं लतादोषः ॥२॥ स्तम्भमवष्टभ्य स्थानं स्तम्भदोषः ॥३॥ कुडयमवष्टभ्य स्थानं कुडयदोषः ॥४॥ माले शिरोऽवष्टभ्य स्थानं मालदोषः॥५॥ हस्तौ गुह्यदेशे स्थापयित्वा शबर्या इव स्थानं शवरीदोषः ॥६॥ शिरोऽवनम्य कुलवध्वा इव स्थानं वधूदोषः ॥७॥ निगडितस्येव विवृतपादस्य मिलितपादस्य वा स्थानं निगडदोषः ।।८।। नाभेरुपर्याजानु चोलपट्टकं निबध्य स्थानं लम्बोत्तरदोषः ॥९॥ दंशादिवारणार्थमज्ञानाद् वा स्तने चोलपट्टकं निबध्य स्थानं स्तनदोषः; 'धात्रीवद् बालार्थ स्तनावुनमय्य स्थानं वा' इत्येके ।१०। पार्णी मीलयित्वाऽग्रचरणौ विस्तार्य, अङ्गुष्ठौ वा मीलयित्वा पार्णी विस्तार्य स्थानं शकटोर्टिकादोषः॥११॥ व्रतिनीवत् पटेन शरीरमाच्छाद्य स्थानं संयतीदोषः॥१२॥ खलीनमिब रजोहरणं पुरस्कृत्य स्थानं खलीनदोषः, अन्ये खलीनाहियवर्ध्वाधःशिरःकम्पनं खलीनदोषमाहुः।१३। वायसस्येवेतस्ततो नयनगोलकभ्रमणं दिगवेक्षणं वा वायसदोषः ।१४। षट्पदिकाभयेन कपित्थवच्चोलपट्ट संवृत्य मुष्टो गृहीत्वा स्थानं कपित्थदोषः, 'एवमेव मुष्टिं बद्ध्वा स्थानम्' इत्यन्ये ॥१५॥ भूताविष्टस्येव शीर्ष कम्पयतः स्थानं शीर्षोत्कम्पितदोषः।१६। मूकस्येवाव्यक्तशब्दं कुर्वतः स्थान मूकदोषः।१७। आलापकगणनार्थमगुलीचालयतः स्थानमङ्गुलिदोषः॥१८॥ व्यापारान्तरनिरुपणार्थ भ्रनृत्तं कुर्वतः स्थानं भ्रूदोषः।१९। निष्पद्यमानवारुण्या इव बुडबुडारावेण स्थानं वारुणीदोषः, 'वारुणीमत्तस्येव घूर्णमानस्य स्थान वारुणीदोषः इत्यन्ये ॥२०॥ अनुप्रेक्षमाणस्येवौष्ठपुटे चलयतः स्थानमनुप्रेक्षादोषः ॥२१॥ यदाहुः 1॥४९६॥ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥४९७॥ रघोडग लया य खंभे कुडे माले य सवरि बहु णियले। लंबोत्तर थण उद्धी संजइ खलिणे य वायस कविढे ॥१॥ सीसोकपिअ मूइ अंगुली भमुहा य वारुणी पेहा । इतिएके त्वन्यानपि कायोत्सर्गदोषानाहुः, यथानिष्ठीवनं वपुःस्पर्शः प्रपञ्चबहुला स्थितिः। सूत्रोदितविधेय॑नं वयोऽपेक्षाविवर्जनम् ॥ १ ॥ कालापेक्षाव्यतिक्रान्तिाक्षेपासक्तचित्तता । लोभाकुलितचित्तत्वं पापकार्योद्यमः परः ॥ २ ॥ कृत्याकृत्यविमूढत्वं पट्टिकाद्यपरि स्थितिः । इति । कायोत्सर्गस्यापि फलं निजरैव; यदाहुः२काउस्सग्गे जह संठिअस्स भज्जति अंगुवंगाई । इय भिदंति सुविहिया अविहं कम्मसंघायं ॥ १॥ कायोत्सर्गसूत्रार्थः प्राग व्याख्यात एव ॥ अथ प्रत्याख्यानम्-प्रति प्रवृत्तिप्रतिकूलतया आ मर्यादया ख्यानं प्रकथनं प्रत्याख्यानम् । तच्च द्वेधामूलगुणरुपमुत्तरगुणरूपं च । मूलगुणा यतीनां महाव्रतानि, श्रावकाणामणुव्रतानि, उत्तरगुणास्तु यतीनां पिण्डविशुद्धयादयः, श्रावकाणां तु गुणवतशिक्षाव्रतानि । मूलगुणानां तु प्रत्याख्यानत्वं हिंसादिनिवृत्तिरूपत्वात्, (१) घोटको लता च स्तम्भः कुडयं मालं च शबरी वधूनिगडः। लम्बोत्तरं स्तन उद्धिर्सयती खलीनं च वायसः कपित्थः ॥१॥ शीर्षोत्कम्पितं मूकोऽगुलिभ्रंश्च वारुणी प्रेक्षा । (२) कायोत्सर्गे यथा संस्थितस्य भज्यन्तेऽङ्गोपाङ्गानि । एवं भिन्दन्ति सुविहिता अष्टविधं कर्मसंघातम् ॥१॥ ४९७॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशः ४९८॥ उत्तरगुणानां तु पिण्डविशुद्धयादीनां दिग्वतादीनां च प्रतिपक्षनिवृत्तिरूपत्वात् । तत्र स्वयं कृतप्रत्याख्यानः काले विनयपूर्वकं सम्यगुपयुक्तो गुरुवचनमनुच्चरन् स्वयं जानन् ज्ञस्यैव गुरोः पार्थे प्रत्याख्यानं करोति । ज्ञत्वे चतुर्भङ्गी द्वयोर्जत्वे प्रथमो भङ्गः शुद्धः। १ । गुरोर्जत्वे शिष्यस्याज्ञत्वे द्वितीयः । तत्र तत्कालं शिष्यं संक्षेपतः प्रबोध्य यदा गुरुः प्रत्याख्यानं कारयति तदाऽयमपि शुद्धः, अन्यथा त्वशुद्धः ।। गुरोरज्ञत्वे शिष्यस्य ज्ञत्वे तृतीयः। अयमपि तथाविधगुरोरप्राप्तौ गुरुबहुमानाद् गुरोः पितृ-पितृव्य-मातुल-ज्येष्ठभ्रात्रादिकं साक्षिणं कुर्वतस्तृतीयः शुद्धाः, अन्यथा त्वशुद्धः । ३ । द्वयोरज्ञत्वे चतुर्थः, असावशुद्ध एव । ४ । __उत्तरगुणप्रत्याख्यानं प्रतिदिनोपयोगि द्विविधम्-संकेतप्रत्याख्यानमद्धाप्रत्याख्यानं च । तत्र संकेतप्रत्याख्यानं श्रावकः पौरुष्यादिप्रत्याख्यानं कृत्वा क्षेत्रादौ गतो गृहे वा तिष्ठनु 'भोजनप्राप्तेः प्राक् प्रत्याख्यानरहितो मा भूवम् ' इत्यङ्गुष्ठादिकं संकेतं करोति–'यावदङ्गुष्ठं मुष्टिं ग्रन्थि वा न मुञ्चामि, गृह वा न प्रविशामि, स्वेदविन्दवो वा यावद् न शुष्यन्ति, एवतावन्तो वोच्छ्वासा यावद् न भवन्ति, जलार्द्रमश्चिकायां यावदेते विन्दवो न शुष्यन्ति दीपो वा यावद् न निर्वाति तावद् न भुजे' इति, यदाहु: अंगुटमुटिंगठीघरसेऊसासथिवुगजोइक्खे । एअं संकेय भणियं धीरेहिं अणंतनाणीहिं ॥१॥ अद्धा कालस्तद्विषयं प्रत्याख्यानमद्धाप्रत्याख्यानम् । तच्च नमस्कारसहितं, पौरुषी. दिनपूर्वाधः, एकाशनम्, एकस्थानकम्, आचामाम्लम्, उपवासः, चरमम्, अभिग्रहः, विकृतिनिषेधश्चेति दशविधम्, यदाहुः(१) अगुष्ठमुष्टिग्रन्थिगृहस्वेदोच्छ्वासस्तिबुकज्योतिष्कान् । एतत् सङ्केतं भणितं धीरैरनन्तज्ञानिभिः॥१॥ ॥४९८॥ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥४९९ ॥ BEO १ नवकार पोरिसीए पुरिमइदेक्कासणेगठाणे य। आयंबिल भत्तट्ठे चरमे अ अभिग्ग विगई ॥ १ ॥ नन्वेकाशनादिप्रत्याख्यानं कथमद्धाप्रत्याख्यानम् न हि तत्र कालनियमोऽस्ति ? सत्यम् अद्धाप्रत्याख्यानपूर्वाण्येकाशनादीनि प्रायेण क्रियन्त इत्युद्धाप्रत्याख्यानत्वेनोच्यन्ते । प्रत्याख्यानं चापवादरूपाकारसहितं कर्तव्यम्, अन्यथा तु भङ्गः स्यात् स च दोषाय; यदाहु: श्वयभंगे गुरूदोसो थेवस्स वि पालणा गुणकरी ओ । गुरु लाघवं च णेयं धम्मम्मि अओ अ आगारा ||१|| ते च नमस्कारसहितादिषु यावन्तो भवन्ति तावन्त उपदर्श्यन्ते । तत्र नमस्कारसहिते मुहूर्तमात्रकाले नमस्कारोच्चारणवसाने प्रत्याख्याने द्वावाकारौ भवतः । आक्रियते विधीयते प्रत्याख्यानभङ्गपरिहारार्थमित्याकारः प्रत्याख्यानापवादः। ननु कालस्यानुक्तत्वात् संकेतप्रत्याख्यानमेवेदम् । नैवम्, सहितशब्देन मुहूर्तस्य विशेषणात् । अथ मुहूर्तशब्दो न श्रूयते, तत् कथं तस्य विशेष्यत्वम् ? उच्यते - अद्धाप्रत्याख्यानमध्येऽस्य पाठात्, पौरुषीप्रत्याख्यानस्य वक्ष्यमाणत्वादवश्यं तदवय् मुहूर्त एवावशिष्यते । अथ मुहूर्त्तद्वयादिकमपि कुतो न लभ्यते ? | उच्यते-अल्पाकारत्वादस्य । पौरुष्यां हि षडाकाराः, तदस्मिन् प्रत्याख्याने आकारद्वयवति स्वल्प एव कालोऽवशिष्यते । स च नमस्कारेण सहितः, पूर्णेऽपि काले नमस्कारपाठमन्तरेण प्रत्याख्यानस्यापूर्यमाणत्वात्, सत्यपि नमस्कारपाठे मुहूर्त्ताभ्यन्तरे प्रत्याख्यानभङ्गात् । तत् सिद्धमेतत् - मुहूर्त्तमानकाल नमस्कारसहितं प्रत्याख्यानमिति । (१) नमस्कारः पौरुषी पूर्वार्ध एकाशनमेकस्थानं च । आचामाम्लमभक्तार्थश्वरमोऽभिग्रहो विकृतिः ॥ १ ॥ (२) व्रतभङ्गे गुरुदोषः स्तोकस्यापि पालना गुणकरी तु । गुरु लाघवं च ज्ञेयं धर्मेऽतश्चाकाराः ॥१ ॥ तृतीय प्रकाशः ॥४९९॥ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ५०० अथ प्रथम एव मुहूर्त्त इति कुतो लभ्यते ? । सूत्रप्रामाण्यात्, पौरुषीवत् । सूत्रं चेदम्उग्गए सूरे नमोकारसहिअ पच्चक्खाइ चउब्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अण्णत्थणाभोगेणं सहसागारेण वोसिरइ । व्याख्या - उद्गते सूरे सूर्योद्गमादारभ्येत्यर्थः, नमस्कारेण परमेष्ठिस्तवेन सहितं युक्तं नमस्कारसहितं प्रत्याख्याति, “सर्वे धातवः करोत्यर्थेन व्याप्ताः इतिन्यायाद् नमस्कारेण सहितं प्रत्याख्यानं करोति । इदं गुरोरनुवादभङ्गया वचनम् । शिष्यस्तु 'प्रत्याख्यामि' इत्येतदाह । एवं 'व्युत्सृजति' इत्यत्रापि वाच्यम् । कथम् ? चतुर्विधमिति, न पुनरेकविधादिकम्, आहारमभ्यवहार्ये 'व्युत्सृजति' इत्युत्तरेण योगः । इदं चतुर्विधाहारस्यैव भवतीत संप्रदायः, रात्रिभोजनव्रततीरणप्रायत्वादस्य । अशनमित्याद्याहारधाचातुविंध्य कीर्तनम् । अशनादय आहाराः पूर्वं व्याख्याताः । अत्र नियमभङ्गभयादाकारावाह- अण्णत्थणाभोगेणं सहसागारेण, अत्र पञ्चम्यर्थे तृतीया, अन्यत्रानाभोगात् सहसाकाराच्च, एतौ वर्जयित्वेत्यर्थः । तत्रानाभोगोऽत्यन्तविस्मृतिः । सहसाकारोऽतिप्रवृत्तयोगानिवर्तनम् । व्युत्सृजति परिहरति । अथ पौरुषी प्रत्याख्यानम् - पौरिसि पञ्चख्खाइ उगए सूरे चउब्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइम साइमं अण्णत्थणाभोगेण सहसा गारेण पच्छन्नेणं काळेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं वोसिरइ || पुरुषः प्रमाणमस्याः पौरूषी छाया तद्युक्तः कालोऽपि पौरुषी प्रहर इत्यर्थः, तां प्रत्याख्याति पौरूषी प्रत्याख्यानं COOKER Doho तृतीय प्रकाशः ॥५००॥ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाशा योगशास्त्रम् ॥५०१॥ करोतीत्यर्थः। कथम् ? चतुर्विधमशन-पान-खाद्य-स्वाद्यलक्षणं 'व्युत्सृजति' इत्युत्तरेण योगः । अत्र षडाकाराः प्रथमौ द्वौ पूर्ववत् । अन्यत्र प्रच्छन्नकालात् , दिगमोहात् , साधुवचनात् , सर्वसमाधिप्रत्ययाकाराच्च । प्रच्छन्नता च कालस्य, यदा मेघेन रजसा गिरिणा वान्तरितत्वात् सूरो न दृश्यते, तत्र पौरुषी पूर्णां ज्ञात्वा भुञ्जानस्यापूर्णायामपि तस्यां न भङ्गः, ज्ञात्वा त्वर्षभुक्तेनापि तथैव स्थातव्यं यावत् पौरुषी पूर्णा भवति, पूर्णायां ततः परं भोक्तव्यम् , न पूर्णेति ज्ञाते तु भुञ्जानस्य भङ्ग एव । दिग्मोहस्तु यदा पूर्वामपि पश्चिमेति जानाति तदाऽपूर्णायामपि पौरुष्यां मोहाद् भुञ्जानस्य न भङ्गः मोहविगमे तु पूर्ववदर्धभुक्तेनापि स्थातव्यम्, निरपेक्षतया भुञ्जानस्य भङ्ग एवेति । साधुवचनं 'उद्घाटा पौरुषी' इत्यादिकं विभ्रमकारणम् , तत् श्रुत्वा भुञानस्य न भङ्गः, भुञ्जानेन तु ज्ञाते अन्येन वा कथिते पूर्ववत् तथैव स्थातव्यम् । तथा कृतपौरुषीप्रत्याख्यानस्य समुत्पन्नतीव्रशूलादिदुःखतया संजातयोरात-रौद्रध्यानयोः सर्वथा निरासः सर्वसमाधिस्तस्य प्रत्ययः कारण स एवाकारः प्रत्याख्यानापवादः सर्वसमाधिप्रत्ययाकार:-समाधिनिमित्तमौषधपथ्यादिप्रवृत्तावपूर्णायामपि पौरुष्यां भुङ्क्ते तदा न भङ्ग इत्यर्थः । वैद्यादिर्वा कृतपौरुषीप्रत्याख्यानोऽन्यस्यातुरस्य समाधिनिमित्तं यदाऽ पूर्णायामपि पौरुष्यां भुङ्क्ते तदा न भङ्गः, अर्धभुक्ते त्वातुरस्य समाधौ मरणे वोत्पन्ने ज्ञाते सति तथैव भोजनस्य त्यागः ॥ सार्धपौरुषीप्रत्याख्यानं पौरुषीप्रत्याख्यान एवान्तर्भूतम् ॥ अथ पूर्वार्धप्रत्याख्यानम् ॥५० ॥ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥५०२॥ सूरे उग्गए पुरिमइदं पच्चक्खाइ चउव्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छण्णेणं कालेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं महत्तरागारेण सन्यसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ ॥ पूर्व च तदधं च पूर्वाध दिनस्याद्यं प्रहरद्वयं पूर्वार्ध प्रत्याख्याति पूर्वार्धप्रत्याख्यानं करोति । षडाकाराः पूर्ववत् । 'महत्तरागारेणं' इति, महत्तरं प्रत्याख्यानानुपालनलभ्यनिर्जरापेक्षया वृहत्तरनिर्जरालाभहेतुभूतं पुरुषान्तरासाध्यं ग्लानचैत्यसंघादिप्रयोजनं तदेवाकारः प्रत्याख्यानापवादो महत्तराकारस्तस्मात् 'अन्यत्र' इति योगः । यच्चानव महत्तराकारस्याभिधानं न नमस्कारसहितादौ, तत्र कालस्याल्पत्वं महत्त्वं च कारणमाचक्षते । अथैकाशनप्रत्याख्यानम् । तत्रष्टावाकाराः, यत् सूत्रम् एक्कासणगं पच्चक्खाइ चउब्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अणत्थणाभोगेणं सहसागारेणं सागारिआगारेणं आउंटणपसारणेणं गुरुअब्भुटाणेणं पारिहावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं वोसिरइ॥ एकं सकृदशनं भोजनम्, एकं वासनं पुताचलनतो यत्र तदेकाशनमेकासनं च, प्राकृते द्वयोरपि एगासणं' इति रूपम्, तत् प्रत्याख्याति-एकाशनप्रत्याख्यानं करोतीत्यर्थः । अत्राधावत्यौ च द्वावाकारौ पूर्ववत । सागारिआगारेणं सह आगारेण वर्तते इति सागारः स एव सागारिको गृहस्थः स एवाकारः प्रत्याख्यानापवादः सागारिकाकारस्तस्मादन्यत्र । गृहस्थसमक्ष हि साधूनां भोक्तुं न कल्पते. प्रवचनोपघातसंभवात्, अत एवोक्तम्, ॥५०२।। Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाश ॥५०३॥ १छक्कायदयावंतो वि संजओ दुल्लहं कुणइ बोहिं । आहारे नीहारे दुगुंछियपिंडगहणे अ॥१॥ ततश्च भुञ्जानस्य यदा सागारिकः समायाति, स यदि चलस्तदा क्षणं प्रतीक्षते, अथ स्थिरस्तदा स्वाध्यायादिव्याघातो मा भूदिति ततः स्थानादन्यत्रोपविश्य भुञ्जानस्यापि न भङ्गः । गृहस्थस्य तु येन दृष्टं भोजनं न जीर्यति स सागारिकः । आउंटणपसारणेणं-आउंटणं आकुञ्चनं जवादेः संकोचनं प्रसारणं च तस्यैवाकुञ्चितस्य ऋजूकरणम्, आकुश्चने प्रसारणे चासहिष्णुतया क्रियमाणे किश्चिदासनं चलति ततोऽन्यत्र प्रत्याख्यानम् । गुरुअब्भुटाणेणं-गुरोरभ्युत्थानार्हस्याचार्यस्य प्राघुर्णकस्य वाऽभ्युत्थानं प्रतीत्यासनत्यजनं गुर्वभ्युत्थानं ततोऽन्यत्र । अभ्युत्थानं चावश्यकर्त्तव्यत्वाद् भुञ्जानेनापि कर्तव्यमिति न तत्र प्रत्याख्यानभङ्गः पारिद्वावणिआगारेणं परिष्ठापनं सर्वथा त्यजनं प्रयोजनमस्य पारिष्ठापनिकमन्नं तदेवाकारः पारिष्ठापनिकाकारः, ततोन्यत्र । तत्र हि त्यज्यमाने बहुदोषसंभवात्, आश्रीयमाणे चागमिकन्यायेन गुणसंभवाच्च गुर्वाज्ञया पुनर्भुञानस्य न भङ्गः । वोसिरइ इति, अनेकासनमशनाद्याहारं च परिहरति ॥ ___ अथैकस्थानकम् । तत्र सप्ताकाराः । अत्र सूत्रम्-एकहाणं पच्चक्खाइ इत्याद्येकाशनवत् । आकुश्चनप्रसारणाकारवर्जमेकमद्वितीय स्थानमङ्गविन्यासरूपं यत्र तदेकस्थानं प्रत्याख्यानम् यद् यथा भोजनकालेऽङ्गोपाङ्गं स्थापितम, तस्मिंस्तथास्थित एव भोक्तव्यम् । मुखस्य पाणेश्चाशक्यपरिहारत्वाच्चलनं न प्रतिषिद्धम् । आकुञ्चनप्रसारणाकारवर्जनं चैकाशनतो भेदज्ञापनार्थम् अन्यथैकाशनमेव स्यात् ॥ (१) षट्कायदयावानपि संयतो दुर्लभं करोति बोधिम् । आहारे नीहारे जुगुप्सितपिण्डग्रहणे च ॥१॥ ॥५०३॥ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥५०४॥ अथाचामाम्लम् । तत्राष्टावाकाराः । अत्र सूत्रम् आयबिलं पच्चक्खाइ अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं लेवालेवेणं उक्खित्तविवेगेणं गिहत्थसंसटेणं पारिद्वावणि आगारेण महत्तरागारेणं सव्वसमाहिबत्तिआगारेणं वोसिरइ । आचामोऽवसावणम्, अम्ल चतुर्थों रसः, एते च प्रायेण व्यञ्जने यत्र भोजने ओदन-कुल्माष-सक्तुप्रभृतिके तदाचामाम्लं समयभाषयोच्यते, तत् प्रत्याख्याति-आचामाम्लप्रत्याख्यानं करोतीत्यर्थः । आद्यावन्त्याश्च त्रय आकाराः पूर्ववत् । लेवालेवेण' लेपो भोजनभाजनस्य विकृत्य। तीमनादिना वाऽचामाम्लप्रत्याख्यातुरकल्पनीयेन लिप्तता, अलेपो विकृत्यादिना लिप्तपूर्वस्य भोजनभाजनस्यैव हस्तादिना संलेखनतोऽलिप्तता, लेपश्चालेपश्च लेपालेप तस्मादन्यत्र-भाजने विकृत्याद्यवयवसद्भावेऽपि न भङ्ग इत्यर्थः। उक्खित्तविवेगेणं शुष्कौदनादिभक्ते पतितपूर्वस्याचामाम्लप्रत्याख्यानवतामयोग्यस्याद्रवविकृत्यादिद्रव्यस्योक्षिप्तस्योध्धृतस्य विवेको निःशेषतया त्याग उत्क्षिप्तविवेक उत्क्षिप्तत्याग इत्यर्थः, तस्मादन्यत्र-भोक्तव्यद्रव्यस्याभोक्तव्यद्रव्यस्पर्शनापि न भङ्ग इति भावः । यत्तत्क्षेप्तुं न शक्यं तस्य भोजने भङ्गः । गिहत्थससटेणं गृहस्थस्य भक्तदायकस्य संबन्धि करोटिकादिभाजनं विकृत्यादिद्रव्येणोपलिप्त गृहस्थसंसृष्टं ततोऽन्यत्र । विकृत्यादिसंमृष्टभाजनेन हि दीयमानभक्तमकल्प्यद्रव्यावयवमिश्रं भवति, न च तद् भुञ्जानस्यापि भङ्गः, यद्यकल्प्यद्रव्यरसो बहु न ज्ञायते । वोसिरइ इति-अनाचामाम्लं चतुर्विधाहारं च व्युत्सृजति ॥ अथाभक्तार्थप्रत्याख्यानम् । तत्र पञ्चाकाराः, यत् सूत्रम् 11५०४॥ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशः ॥५०५॥ सूरे उग्गए अब्भत्तटुं पच्चक्खाइ चउब्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पारिद्वावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरह । सूर उद्गते सूर्योद्मादारभ्य, अनेन च भोजनान्तरं प्रत्याख्यानस्य निषेध इत्याह भक्तेन भोजनेनार्थः प्रयोजनं भक्तार्थः, न भक्तार्थोऽभक्तार्थः अथवा न विद्यते भक्तार्थोऽस्मिन् प्रत्याख्यानविशेषे सोऽभक्तार्थ उपवास इत्यर्थः। आकाराः पूर्ववत् । नवरं पारिष्ठापनिकाकारे विशेषः । यदि त्रिविधाहारस्य प्रत्याख्याति तदा पारिष्ठापनिकं कल्पते, यदि तु चतुर्विधाहारस्य प्रत्याख्याति पानकं च नास्ति तदा न कल्पते, पानके तूद्धरिते कल्पते । वोसिरइ इति भक्तार्थमशनादि च व्युत्सृजति ॥ ____ अथ पानकम् । तत्र पौरुषीपूर्वार्धकाशनकस्थानाचामाम्लाभक्तार्थप्रत्याख्याने पूत्सर्गतश्चतुर्विधाहारस्य प्रत्याख्यानं न्याय्यम् । यदि तु त्रिविधाहारस्य प्रत्याख्यानं करोति तदा पानकमाश्रित्य षडाकारा भवन्ति, यत् सूत्रम्पाणस्स लेवाडेण वा अलेवाडेण वा अच्छेण वा बहुलेण वा ससित्थेण वा असित्थेण वा वोसिरह। इह 'अन्यत्र' इत्यस्यानुवृत्तेस्तृतीयायाः पञ्चम्यर्थत्वात् लेवाडेण वेति कृतलेपाद् वा पिच्छलत्वेन भाजनादिनामुपलेपकारकात् खजूरादिपानकादन्यत्र तद् वर्जयित्वेत्यर्थः । त्रिविधाहारं 'व्युत्सृजति' इति योगः । वाशब्दोऽलेपकृतपानकापेक्षयाऽवजनीयत्वाविशेषद्योतनार्थः, अलेपकारिणेव लेपकारिणाप्युपवासादेन भङ्ग इति भावः। एवमलेपकृताद् वाऽपिच्छलात, अच्छाद् वा निर्मलादुष्णोदकादेः, बहुलाद् वा गडुलात् तिलतन्दुलधाव नादेः, ससिक्थाद् वा भक्तपुलाकोपेतादवखावणादेः, असिस्थाद् वा सिक्थवजितात् पानकाहारात् ॥ अथ चरमम् । चरमोऽन्तिमो भागः। स च दिवसस्य भवस्य चेति द्विधा । तद्विषयं प्रत्याख्यानमपि चरमम् । ॥५॥५॥ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥५०६॥ इह च भवचरम यावजीवम् । तत्र द्विविधेऽपि चत्वार आकारा भवन्ति, यत्सूत्रम् दिवसचरिमं भवचरिमं वा पच्चक्खाइ चउब्बिहं पि आहारं असण पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं वोसिरइ । __ननु दिवसचरिमप्रत्याख्यानं निष्फलम्, एकाशनादिप्रत्याख्यानेनैव गतार्थत्वात् । नैवम्, एकाशनादिकं ह्यष्टाद्याकारमेतच्च चतुराकारम्, अत आकाराणां संक्षेपकरणात् सफलमेव । अत एवैकाशनादिकं दैवसिकमेव भवति, रात्रिभोजनस्य त्रिविधं त्रिविधेन यावज्जीवं प्रत्याख्यातत्वात् । गृहस्थापेक्षया पुनरिदमादित्योदगमान्तम्, दिवसस्याहोरात्रपक्यतयापि दर्शनात । तत्र येषां रात्रिभोजननियमोऽस्ति, तेषामपीदं सार्थकम्, अनुवादकत्वेन स्मारकत्वात् । भवचरमं तु द्वयाकारमपि भवति । यदा जानाति महत्तरसर्वसमाधिप्रत्ययरूपाभ्यामाकाराभ्यां न प्रयोजनम्, तदाऽनाभोगसहसाकाराकारौ भवतः, अगुल्यादेरनाभोगेन सहसाकारेण वा मुखे प्रक्षेपसंभवात् । अत एवेदमनाकारमप्युच्यते, आकारद्वयस्यापरिहार्यत्वात् ।। __ अथाभिग्रहप्रत्याख्यानम् । तच्च दण्डप्रमार्जनादिनियमरूपम् । तत्र चत्वार आकारा भवन्ति, यथा, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं वोसिरइ । यदा त्वप्रावरणाभिग्रहं गृहणाति तदा चोलपट्टगागारेणं' इति पञ्चम आकारो भवति, चोलपट्टकाकारादन्यत्रेत्यर्थः ॥ अथ विकृतिप्रत्याख्यानम् । तत्र नव, अष्टौ वाऽऽकाराः, यत् सूत्रम्-- ५०६॥ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥५०७॥ विगईओ पच्चक्खाइ अन्नत्थणाभोगेण सहसागारेण लेवाले वेणं गिहत्थसंसठेणं उक्खित्तविवेगेण पडुच्चमक्खिएणं पारिद्वावणिआगारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं वोसिरइ । मनसो विकृतिहेतुत्वाद् विकृतयः, ताश्च दश, यदाहु:१छीरं दहि नवणीअं घयं तहा तेल्लमेव गुड मज्ज । महु मंस चेव तहा ओगाहिमग च विगईओ ॥१॥ तत्र पञ्च क्षीराणि, गोमहिष्यजोष्ट्रयेलकासंबन्धभेदात् । दधि नवनीत-घृतानि तु चतुर्भेदानि, उष्ट्रीणां तदभावात् । तैलानि चत्वारि, तिलातसीलट्टासर्षपसंबन्धभेदात् । शेषतैलानि तु न विकृतयः, लेपकृतानि तु भवन्ति । गुड इक्षुरसक्वाथः । स द्विधा, पिण्डो द्रवश्च । मद्यं द्वेधा काष्ठपिष्टोद्भवत्वात् । मधु त्रेधा-माक्षिकम् कौत्तिक भ्रामरं च । मांस त्रिविधम्. जल-स्थल-खेचरजन्तूद्भवत्वात्। अथवा मांस त्रिविधम्, चर्म-रुधिर-मांसभेदात् । अवगाहेन स्नेहबोलनेन निवृत्तमवगाहिम पक्वान्नम् “भावादिमः" (सिद्धहेम-६-४-२१) इतीमः, यत् तापिकायां घृतादिपूर्णायां चलाचलं खाद्यकादि पच्यते, तस्यामेव तापिकायां तेनैव घृतेन द्वितीय तृतीयं च खाद्यकादि विकृतिः, ततः परं पक्कान्नानि योगवाहिनां निर्विकृतिप्रत्याख्यानेऽपि कल्पन्ते । अथैकेनैव पूपकेन तापिका पूर्यते तदा द्वितीय पक्कानं निविकृतिप्रत्याख्यानेऽपि कल्पते, लेपकृतं तु भवति । इत्येषा वृद्धसामाचारी। एतासु च दशसु विकृतिषु मद्यमांसमधुनवनीतलक्षणाश्चतखो विकृतयोऽभक्ष्याः। शेषास्तु षड भक्ष्याः। तत्र भक्ष्यासु विकतिवेकादिविकृतिप्रत्याख्यानं षडविकृतिप्रत्याख्यानं च निर्विकृतिकसंज्ञं विकृतिप्रत्याख्यानेन संगृहीतम् । आकाराः (१) क्षीरं दधि नवनीतं घृतं तथा तैलमेव गुडो मद्यम् । मधु मांस चैव तथाऽवगाहिमकं च विकृतयः ॥११॥ 119 VIL Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाश ॥५०८॥ पूर्ववत् । नवरम् गिहत्थसंसट्टेणं इति गृहस्थेन स्वप्रयोजनाय दुग्धसंसृष्ट ओदनो दुग्धं च तमतिक्रम्योत्कर्षतश्चत्वार्यगुलानि यावदुपरि वर्तते तदा तद् दुग्धमविकृतिः, पञ्चमाशुलारभ्भे विकृतिरेव । अनेन न्यायेनान्यासामपि विकृतीनां गृहस्थासंसृष्टत्वमागमादवसेयम् । उक्खित्तविवेगेणं इत्ति, उत्क्षिप्तविवेक आचामाम्लवदुद्धतुं शक्यासु विकृतिषु द्रष्टव्यः, द्रवविकृतिषु नास्ति । पडुच्चमक्खिएणं इति,, प्रतीत्य सर्वथा रूक्षमण्डकादिकमपेक्ष्य म्रक्षितं म्रक्षिताभासमित्यर्थः । इह चायं विधिः-यद्यगुल्या तैलादि गृहीत्वा मण्डकादि म्रक्षितं तदा कल्पते निर्विकृतिकस्य धारया तु न कल्पते । व्युत्सृजति विकृति त्यजतीत्यर्थः । इह च यासु विकृतिक्षिप्तविवेकः संभवति तामु नवाकाराः, अन्यासु तु द्रवरूपास्वष्टौ । एतदर्थसंवादिन्यो गाथा:दो चेव नमुक्कारे आगारा छच्च पोरिसीए उ। सत्तेव य पुरिमड्ढे एक्कासणगम्मि अठेव ।१॥ सत्तेगहाणस्स उ अठेव य अबिलम्मि आगारा। पंचेव अब्भत्तढे छप्पाणे चरिम चत्तारि ॥२॥ पंच चउरो अभिग्गहे निविए अट्ट नव य आगारा । अप्पाउरणे पंच उ हवंति सेसेसु चत्तारि ॥३॥ (१) द्वावेव नमस्कारे आकारौ षट् च पौरुष्यां तु । सप्तैव च पूर्वार्धे एकाशनेऽष्ट्रव ॥१॥ सप्तैकस्थानस्य त्वष्टैव चाचामाम्ले आकाराः। पञ्चैवाभक्तार्थ षटू पानके चरमे चत्वारः॥२॥ पञ्च चतुरोऽभिग्रहे निर्विकृतिकेऽष्ट नव चाकाराः । अप्रावरणे पञ्च तु भवन्ति शेषेषु चत्वारः॥३॥ ॥५०८॥ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रमू तृतीय प्रकाशा ॥५०९॥ ननु निर्विकृतिक एवाकाराभिधानाद् विकृतिपरिमाणप्रत्याख्याने कुत आकारा अवगम्यन्ते ? । उच्यतेनिर्विकृतिकग्रहणे विकृतिपरिमाणस्यापि संग्रहो भवति, त एव चाकारा भवन्ति, यथा-एकासनस्य पौरुष्याः पूर्वाधस्यैव च सूत्रेऽभिधानेऽपि दूधासनकस्य साधपौरुष्या अपार्धस्य च प्रत्याख्यानमदुष्टम् , अप्रमादवृद्धः संभवात् । आकारा अप्येकासनादिसंबन्धिन एवान्येष्वपि न्याय्याः, आसनादिशब्दसाम्यात् चतुर्विधाहारपाठेऽपि द्विविधत्रिविधाहारप्रत्याख्यानवत् । ननु द्वयासनादीनि अभिग्रहप्रत्याख्यानानि ततस्तेषु चत्वार एवाकाराः प्राप्नुवन्ति । न, एकासनादिभिस्तुल्ययोगक्षेमत्वात् । अन्ये तु मन्यन्ते,-एवं हि प्रत्याख्याने संख्या विशीर्यंत । तत एकासनादीन्येव प्रत्याख्यानानि, तदशक्तस्तु यावत्सहिष्णुस्तावत् पौरुष्यादिकं प्रत्याख्याति, तदुपरि ग्रन्थिसहितादिकमिति । प्रत्याख्यानं च स्पर्शनादिगुणोपेतं सुप्रत्याख्यानं भवति, यदाहु:-- फासिअं पालियं चेव सोहिअं तीरिअं तहा । किट्टियमाराहियं चेव एरिसयम्मि पयइअव्व ॥१॥ तत्र स्पृष्टं प्रत्याख्यानकाले विधिना प्राप्तम् ॥१॥ पालितं पुनःपुनरुपयोगप्रतिजागरणेन रक्षितम् ।२। शोभितं गर्वादिप्रदत्तशेषभोजनासेवनेन ।३। तीरितं पूर्णेऽपि कालावधौ किञ्चित्कालावस्थानेन ।४। कीर्तितं भोजनवेलायाममुकं मया प्रत्याख्यातमधुना पूर्ण भोक्ष्य इत्युच्चारणेन ।५। आराधितमेभिः प्रकारैः संपूर्णैर्निष्ठां नीतमिति।।६।। प्रत्याख्यानस्य चानन्तर्येण पारंपर्येण च फलमिदम्:(१) स्पृष्टं पालितं चापि शोभित तीरितं तथा । कीर्तितमाराधितं चैवेदृशे प्रयतितव्यम् ॥१॥ | ॥५०॥ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा 1५१०॥ १पञ्चक्खाणम्मि कए आसवदाराई हुंति पिहिआई । आसवदारपिहाणे तण्हावुच्छेअणं होइ ॥१॥ तण्हावुच्छेएण य अउलोवसमो भवे मणुस्साणं । अउलोवसमेण पुणो पञ्चक्खाणं हवइ सुद्धं ॥२॥ तत्तो चरित्तधम्मो कम्मविवेगो अपुवकरणं च । तत्तो केवलणाणं सासयसोक्खो तओ मोक्खो ॥३॥ न चावश्यकर्तव्यमावश्यकं चैत्यवन्दनाघेव श्रावकस्य, न पइविधमिति वक्तुं युक्तम्, २समणेण सावरण य अवस्सकायब्वयं हवइ जम्हा अंता अहोनिसिस्सय तम्हा आवस्सयं नाम ॥१॥ इत्यागमे श्रावकं प्रत्यावश्यकस्योक्तत्वात् । न चात्र चैत्यवन्दनायेवावश्यकं वक्तपुचितम्, अंतो अहो निसिस्स य' इति कालद्वयाभिधानात्, चैत्यवन्दनस्य च त्रैकालिकत्वेनोक्तत्वात् । अनुयोगद्वारेष्वपि ३जणं समणो वा समणी वा सावए वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदहोवउत्ते तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए उभओकालं आवम्सयं करेइ, से तं लोउत्तरिमं भावावस्सयं इति वचनात् श्रावकस्याप्यावश्यकमुक्तमेव । ततः कृतषइविधाव(१) प्रत्याख्याने कृते आस्रवद्वाराणि भवन्ति पिहितानि । आस्रवद्वारपिधाने तृष्णाव्युच्छेदनं भवति ॥१॥ तृष्णाव्युच्छेदेन चातुलोपशमो भवेद् मनुष्याणां । अतुल पशमेन पुनः प्रत्याख्यानं भवति शुद्धम् ।।२।। ततश्चारित्रधर्मः कर्मविपाकोऽपूर्वकरण च ततः केवलज्ञानं शाश्वतसौख्यस्ततो मोक्षः ॥३॥ (२) श्रमणेन श्रावकेण चावश्यकर्तव्यकं भवति यस्मात् । अन्तेऽहो निशश्च तस्मादावश्यकं नाम ॥१॥ (३) यत् श्रमणो वा श्रमणी वा श्रावको वा श्राविका वा तच्चित्तस्तन्मनास्तल्लेश्यस्तदर्थोपयुक्तस्तदपितकर णस्तद्भावनाभावित उभयकालमावश्यकं कुर्यात् , तल्लोकोत्तरं भावावश्यकम् । ॥५१०॥ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा श्यककर्मा स्वाध्यायम् अणुव्रतविध्यादेः पञ्चनमस्कारस्य वा परिवर्तनं कुर्यात्, अथवा, स्वाध्याय पञ्चविधं वाचना-प्रश्न-परिवर्तना-ऽनुप्रेक्षा-धर्मकथारूपं कुर्यात् । यस्तु साधूपाश्रयमागन्तुमशक्तो राजादिर्वा महर्टिको वा बहपायः स स्वगृह एवावश्यकं स्वाध्यायं च करोति । उत्तममित्युत्तमनिर्जराहेतुम्, यदाह रबारसविहम्मि वि तवे सभितरवाहिरे कुसलदिहे । नवि अस्थि नवि अ होही सज्झायसमं तवोकम्मं ॥१॥ तथा सज्झाएण पसत्थं झाणं जाणइ अ सव्वपरमत्यं । सज्झाए बटुंतो खणे खणे जाइ वेरग्गं ॥१॥ इत्यादि ॥ १३०॥ न्याय्ये काले ततो देवगुरुस्मृतिपवित्रितः । निद्रामल्पामुपासीत प्रायेणाब्रह्मवर्जकः ॥ १३१॥ न्याय्यो न्यायादनपेतः कालः, स च रात्रेः प्रथमयामोऽर्धरात्रं वा शरीरसात्म्येन, तत इति स्वाध्यायकरणानन्तरं, निद्रामल्पामुपासीतेति क्रिया । कथम्भूतः सन् ? देवगुरुस्मृतिपवित्रित:-देवा अर्हट्टारकाः, गुरवो धर्माचार्याः, तेषां स्मृतिर्मनस्यारोपणं तया पवित्रितो निर्मलीभूतात्मा। उपलक्षणं चैतच्चतुःशरणगमनदुष्कृतगर्दासुकृतानुमोदना-पश्चनमस्कारस्मरणप्रभृतीनाम् । न ह्येतत्स्मरणमन्तरेण पवित्रता भवति । तत्र देवस्मृतिः-"३नमो (१) द्वादशविधेऽपि तपसि साभ्यन्तरबाह्ये कुशलदिष्टे । नाप्यस्ति नापि च भविष्यति स्वाध्यायसमं तपःकर्म ॥१॥ (२) स्वाध्यायेन प्रशस्तं ध्यानं जानाति च सर्वपरमार्थम् । स्वाध्याये वर्तमानः क्षणे क्षणे याति वैराग्यम् ॥१॥ (३) नमो वीतरागेभ्यः सर्वज्ञेभ्यस्त्रैलोक्यपूजितेभ्यो यथास्थितवस्तुवादिभ्यः । Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ।।५१२। वीयरायाणं सव्वण्णूणं तिलोकपूइआणं जहद्विअवत्थुवाईणं" इत्यादि गुरुस्मृतिश्च - “धन्यास्ते ग्राम-नगर- जनपदादयो येषु मदीया धर्माचार्या विहरन्ति" । निद्रामल्पामिति । निद्रामिति विशेष्यम्, अल्पामिति विशेषणम् । विशेषणस्य चात्र विधिः, “सविशेषणे हि विधि - निषेधौ विशेषणमुपसंक्रामतः" इति न्यायात् । निद्रामिति च विशेव्यमिति न तत्र विधिः, दर्शनावरणीयकर्मोदयेन निद्रायाः स्वतः सिद्धत्वात्, 'अप्राप्ते हि शास्त्रमर्थवत्' इत्युक्तप्रायम् । अब्रह्म मैथुनं तद् वर्जयति अब्रह्मवर्जकः, प्रायेणेति बाहुल्येन, गृहस्थत्वादस्य ॥ १३१ ॥ पुनश्च - निद्राच्छेदे योषिदङ्गतत्त्वं परिचिन्तयेत् । स्थूलभद्रादिसाधूनां तन्निवृत्ति परामृशन् ॥ १३२ ॥ परिणतायां रात्रौ निद्रायाश्छेदे सति योषिदङ्गानां स्त्रीशरीराणां सतत्त्वं स्वरूपं परितश्चिन्तयेत् किं कुर्वन् ? स्थूलभद्रादीनां साधूनां तनिवृत्ति योषिदङ्गनिवृत्ति परामृशन् अनुस्मरन् । स्थूलभद्रचरितं संप्रदायगम्यम् । स चायम्; अस्ति सौधप्रभाजालधूपधूमैर्निरन्तरैः । जितगङ्गार्कजासङ्गं पाटलीपुत्रपत्तनम् ॥ १ ॥ तत्र त्रिखण्ड पृथिवी - पतिः पतिरिव श्रियः । समुत्खातद्विषत्कन्दो नन्दो नामाभवद् नृपः || २ || विसंकटः श्रियां वासोऽसंकटः शकटो धियाम् । शकटाल इति तस्य बभूवामात्यपुङ्गवः || ३ || तस्याभूज्ज्येष्ठतनयो विनयादिगुणास्पदम् अस्थूलधीः स्थूलभद्रो भद्राकारनिशाकरः || ४ || भक्तिनिष्ठः कनिष्ठोऽस्य श्रीयकोऽजनि नन्दनः । नन्दराइहृदयामन्दानन्दगोशीर्षचन्दनः || ५ || बभूव तत्र कोशेति वेश्या रूपश्रियोर्वशी । वशीकृतजगच्चेताश्चेतोभूजीवनौषधिः ||६|| भुब्जानो विविधान् भोगान् स्थूलभद्रो दिवानिशम् । उवासावसथे तस्या द्वादशाब्दानि तन्मनाः ॥ ७ ॥ तृतीय प्रकाशः ॥५१२॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥५१३॥ श्रीयस्त्वङ्गरक्षोऽभूद् भूरिविश्रम्भभाजनम् । द्वितीयमिव हृदयं नन्दस्य पृथिवीपतेः 11 2 11 तत्र चासीद् वररुचिर्नाम द्विजवराग्रणीः । कवीनां वादिनां वैयाकरणानां शिरोमणिः ॥ ९ ॥ स्वयंकृतैर्नवनवैरष्टोऽत्तरशतेन सः । वृत्तैः प्रवृत्तोऽनुदिनं नृपावलगने सुधीः ॥ १० ॥ मिथ्यादृगिति तं मन्त्री प्रशशंस न जातुचित् । तुष्टोऽप्यस्मै तुष्टिदानं न ददौ नृपतिस्ततः ॥ ११ ॥ ज्ञात्वा वररुचिस्तत्र दानाप्रापणकारणम् । आराधयितुमारेभे गृहिणीं तस्य मन्त्रिणः ॥ १२ ॥ संतुष्टया तयाऽन्येद्युः कार्यं पृष्टोऽब्रवीदिदम् । राज्ञः पुरस्ताद् मत्काव्यं तव भर्ता प्रशंसतु ॥ १३ ॥ तया तदुपरोधेन तद्विज्ञप्तोऽवदत् पतिः । मिथ्यादृष्टेरमुष्याहं प्रशंसामि कथं वचः ? ।। १४ ।। तयोक्तः साग्रहं मन्त्री तत् तथा प्रत्यपद्यत । अन्धस्त्रीबालमूर्खाणामाग्रहो बलवान् खलु ||१५|| राज्ञः पुरस्तात् पठतः काव्यं वररुचेस्ततः । अहो ! सुभाषितमिति वर्णयामास मन्त्रिराट् ॥ १६ ॥ दीनारशतमष्टाग्रं ततोऽस्मै नृपतिर्ददौ । राजमान्यस्य वाचापि जीव्यते ह्यनुकूलया || १७ || दीनाराष्टोत्तरशते दीयमाने दिने दिने । किमेतद् दीयत इति भूपं मन्त्री व्यजिज्ञपत् ॥ १८ ॥ अथोचे नृपतिर्मन्त्रिन् दद्मोऽस्मै त्वत्प्रशंसया । वयं यदि स्वयं दद्मो दद्मः किं न पुरा ततः १ ॥ १९ ॥ मन्त्र्यप्यूचे मया देव ! प्रशंसा नास्य निर्ममे । काव्यानि परकीयानि प्रशशंस तदा त्वहम् ॥ २० ॥ पुरो नः परकाव्यानि स्वीकृत्य पठत्ययम् । किमेतत् सत्याभवेनेत्यभाषत नृपस्ततः ॥ २१ ॥ एतत्पठितकाव्यानि पठन्ति वालिका अपि । दर्शयिष्यामि वः प्रातरित्यूचे सचिवोऽपि च ॥ २२ ॥ यक्षा यक्षदत्ता भूता भूतदत्ता तथैणिका । वेणा रेणेति सप्तासन् प्राज्ञाः पुत्रयोsस्य मन्त्रिणः ||२३|| जग्राह ज्यायसी तासां सकृदुक्तं तथेतराः द्वित्र्यादिवारक्रमतो गृहणन्ति स्म यथा POORXXX तृतीय प्रकाशः ॥५१३॥ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥५१॥ क्रमम् ||२४|| राज्ञः समीपं सचिवो द्वितीयेऽह्नि निनाय ताः । तिरस्करिण्यन्तरिताः समुपावेशयच्च सः ||२५|| अष्टोत्तरशतं श्लोकान् स्वयं निर्माय नैत्यिकान् । ऊचे वररुचिस्ता अप्यनुज्येष्ठमनूचिरे ॥२६॥ ततो वररुचे रुष्टो राजा दानं न्यवारयत् । उपायाः सचिवानां हि निग्रहानुग्रहक्षमाः ॥ २७॥ ततो वररुचिर्गत्वा यन्त्रं गङ्गाजले न्यधात् । तन्मध्ये वस्त्रबद्धं च दीनारशतमष्टयुक् ॥ २८ ॥ प्रातर्गङ्गाम स्तुत्वा यन्त्रमाक्रमर्दङ्गिणा । दीनारास्ते च तत्पाणावुत्पत्य न्यपतंस्ततः ॥ २९ ॥ स एवं विदधे नित्यं जनस्तेन विसिष्मिये । तच्च श्रुत्वा जनश्रुत्या राजाऽशंसञ्च मन्त्रिणे ||३०|| इदं यद्यस्ति सत्यं तत् प्रातर्वीक्षामहे स्वयम् इत्युक्तो मन्त्रिणा राजा तत्तथा प्रत्यपद्यत ॥ ३१ ॥ दत्त्वा शिक्षां चरः सायं प्रेषितस्तत्र मन्त्रिणा । शरस्तम्बनि लीनोऽस्थात् पक्षीवानुपलक्षितः ॥ ३२ ॥ तदा वररुचिर्गत्वा छन्नं मन्दाकिनीजले । दीनाराष्टोत्तरशतग्रन्थिं न्यस्य ययौ गृहे ||३३|| तज्जीवितमिवादाय दीनारग्रन्थिमेष तु । चरः समर्पयामास प्रच्छन्नं वरमन्त्रिणे ॥ ३४ ॥ अथ गुप्तात्तदीनारग्रन्थिर्मन्त्री निशात्यये । ययौ राज्ञा समं गङ्गामागाद् वररुचिस्तदा ॥ ३५ ॥ द्रष्टुकामं नृपं दृष्ट्वोत्कृष्टमानी सविस्तरम् । स्तोतुं प्रववृते गङ्गां मूढो वररुचिस्ततः ॥ ३६ ॥ स्तुत्यन्तेऽचालयद् यन्त्र यदा वररुचिः पदा । दीनारग्रन्थिरुत्पत्य नापतत् पाणिकोटरे ||३७|| द्रव्यं सोऽन्वेषयामास पाणिना तज्जले ततः । तस्थावपश्यंस्तूष्णीको धूर्तो घृष्टो हि मौनभाक् ॥ ३८ ॥ इत्यूचे च महामात्यः किं ते दत्ते न जाह्नवी । न्यासीकृतमपि द्रव्यमन्वेषयसि यद् मुहुः ? ||३९|| उपलक्ष्य गृहाणेदं निजद्रव्यमिति ब्रुवन् । सोऽर्पयामास दीनारग्रन्थि वररुचेः करे ||४० ॥ दीनारग्रन्थिना तेनोत्सर्पिहृद्ग्रंन्थिनेव सः । दशामासादयामास मरणादपि दुस्सहाम् ॥४१॥ CHORORO तृतीय प्रकाशः ॥५१४॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥५१५॥ विप्रतारयितुं लोकं सायमत्र क्षिपत्यसौ । द्रव्यं प्रातः पुनर्ग्रहणातीत्यूचे सचिवो नृपम् ॥४२॥ साधु ज्ञातमिदं छद्मेत्यालपन् मन्त्रिपुङ्गवम् । विस्मयस्मेरनयनः स्ववेश्मागाद् महीपतिः ॥४३॥ अमर्षणो वररुचिः प्रतिकारं विचिन्तयन् । गृहस्वरूपं सचिवस्यापृच्छच्चेटिकादिकम् ॥४४॥ तस्याथ कथयामास काचित् सचिवचेटचदः । भूपतिः श्रीयकोद्वाहे भोक्ष्यते मन्त्रिवेश्मनि ॥४५॥ सज्यते चात्र शस्त्रादि दातुं नन्दाय मन्त्रिणा । शस्त्रप्रियाणां राज्ञां हि शस्त्रमाद्यमुपायनम् ॥४६॥ समासाद्य च्छलज्ञस्तच्छलं वररुचिस्ततः । चणकादि प्रदायेति डिम्भरूपाण्यपाठयत् ॥४७॥ न वेत्ति राजा यदसौ शकटालः करिष्यति । व्यापाद्य नन्दं तद्राज्ये श्रीयकं स्थापयिष्यति ॥४८॥ स्थाने स्थाने च पठतो डिम्भानेवं दिने दिने । जनश्रुत्या तदोषीदिति चाचिन्तयद नृपः॥४९।। बालका यच्च भाषन्ते भाषन्ते यच्च योषितः । औत्पातिकी च या भाषा सा भवत्यन्यथा न हि ॥५०॥ तत्प्रत्ययार्थ राज्ञाथ प्रेषितो मन्त्रिवेश्मनि । पुरुषः सर्वमागत्य यथादृष्टं व्यजिज्ञपत्॥५१॥ ततश्च सेवावसरे मन्त्रिणः समुपेयुषः । प्रणामं कुर्वतो राजा कोपात् तस्थौ पराङ्मुखः ॥५२॥तद्भावज्ञो ऽथ वेश्मैत्यामात्यः श्रीयकमब्रवीत् । राज्ञोऽस्मि ज्ञापितः केनाप्यभक्तो विद्विषन्निव ॥५३।। असावकस्मादस्माकं कुलक्षय उपस्थितः । रक्ष्यते वत्स ! कुरुषे यद्यादेशमिमं मम ॥५४॥ नमयामि यदा राज्ञे शिरश्छिन्द्यास्तदासिना । अभक्तः स्वामिनो वध्यः पितापीति वदेस्ततः ॥५५॥ जरसापि यियासौ मय्येवं याते परासुताम् । त्वं मत्कुलगृहस्तम्भो नन्दिष्यसि चिरं ततः ॥५६॥ श्रीयकोऽपि रुदन्नेवमवदद् गद्गदस्वरम् । तात! घोरमिदं कर्म श्वपचोऽपि करोति किम् ? ॥५७॥ अमात्योऽप्यनवीदेवमेवं कुर्वन् विचारणाम् । मनोरथान् पूरयसे SeemaSSED Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥५१६॥ वैरिणामेव केवलम् ||५८|| राजा यम इवोद्दण्डः सकुटुम्बं न हन्ति माम् । यावत् तावन्ममैकस्य क्षयाद् रक्ष कुटुम्बकम् ||५९|| मुखे विषं तालपुटं न्यस्य नंस्यामि भूपतिम् । शिरः परासोर्मे छिन्द्याः पिठहत्या न ते ततः ॥६०॥ पित्रैवं बोधितस्तत् स प्रतिपेदे चकार च । शुभोदय धीमन्तः कुर्वन्त्यापातदारुणम् ॥ ६१॥ भवता किमिदं वत्स ? विदधे कर्म दुष्करम् । ससंभ्रममिति प्रोक्तो नृपेण श्रीयकोऽवदत् ||६२|| यदैव स्वामिना ज्ञातो द्रोह्ययं निहतस्तदा । भर्तृचित्तानुसारेण भृत्यानां हि प्रवर्तनम् || ६३|| भृत्यानां युज्यते दोषे स्वयं ज्ञाते विचारणा । स्वामिज्ञाते प्रतीकारो युज्यते न विचारणा ||६४ || कृतौर्ध्वदेहिकं नन्दस्ततः श्रीयकमत्रवीत् । सर्वव्यापारसहिता मुद्रेयं गृह्यतामिति || ६५ || अथ विज्ञपयामास प्रणम्य श्रीयको नृपम् । स्थूलभद्राभिधानोऽस्ति पितृतुल्यो ममाग्रजः || ६६ || पितृप्रसादाद् निर्बाधं कोशायास्तु निकेतने । भोगानुपभुञ्जानस्य तस्यान्दा द्वादशागमन् || ६७ || आहूयाथ स्थूलभद्रस्तमर्थं भूभुजोदितः । पर्यालोच्यामुमादेशं करिष्यामीत्यभाषत ॥ ६८|| अद्यैवालोचयेत्युक्तः स्थूलभद्रो महीभुजा । अशोकवनिकां गत्वा विममशैति चेतसा ॥ ९९ ॥ शयनं भोजनं स्नानं यच्चान्यत् सुखसाधनम् । कालेऽपि नानुभूयन्ते रोरैरिव नियोगिभिः ॥७०॥ नियोगिनां स्वान्यराष्ट्रचिन्ताव्यये च चेतसि । प्रेयसीनां नावकाशः पूर्णकुम्भेऽम्भसामिव ॥ ७१ ॥ त्यक्त्वा सर्वमपि स्वार्थ राज्ञोऽर्थं कुर्वतामपि । उपद्रवन्ति पिशुना उद्बद्धानामिव द्विकाः ॥ ७२ ॥ यथा स्वदेहद्रविणव्ययेनापि प्रयत्यते । राजार्थे तद्वदात्मार्थे यत्यते किं न धीमता ? विमृश्यैवं व्यधात् केशोत्पाटनं पञ्चमुष्टि सः। रत्नकम्बलदशाभी रजोहरणमप्यथ ||७४ || ततश्च स महासत्त्वो गत्वा सदसि पार्थिवम् । आलोचितमिदं तृतीय प्रकाशः ॥५१६॥ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् तृतीय प्रकाशा ॥५१॥ # धर्मलाभः स्तादित्यवोचत ।। ७५ ॥ ततः स राजसदनाद् गुहाया इव केसरी । निःससार महासारः संसारकरिरो षणः ॥ ७६॥ किमेष कपटं कृत्वा यायाद् वेश्यागृहं पुनः । इत्यप्रत्ययतः क्षमापो गवाक्षेण निरक्षत ॥ ७७ ॥ प्रदेशे शबदुर्गन्धेऽप्यविकूणितनासिकम् । यान्तं दृष्ट्वा स्थूलभद्रं नरेन्द्रोऽधृनयच्छिरः ॥७८॥ भगवान् वीतरागोऽसावस्मिन् धिग् मे कुचिन्तितम् । इत्यात्मानं निनिन्दोच्चैनन्दस्तमभिनन्दयन् ॥ ७९ ॥ स्थूलभद्रोऽपि गत्वा श्रीसंभूतिविजयान्तिके। दीक्षा सामायिकोच्चारपूर्विकां प्रत्यपद्यत ॥ ८॥ __गृहीत्वा श्रीयकं दोष्णि ततो नन्दः सगौरवम् । मुद्राधिकारे निःशेषव्यापारसहिते न्यधात् ॥८१॥ चकार श्रीयको राज्यचिन्तामवहितः सदा । साक्षादिव शकटालः प्रकृष्टनयपाटवात् ॥ ८२ ॥ स नित्यमपि कोशाया विनीतः सदने ययौ । स्नेहाद् भ्रातुस्तत्प्रियापि कुलीनैबहु मन्यते ।। ८३ ॥ स्थूलभद्रवियोगार्ता श्रीयकं प्रेक्ष्य साऽरुदत । इष्टे दृष्टे हि दुःखार्ता न दुःखं धर्तुमीशते ॥ ८४ ॥ ततस्तां श्रीयकोऽवोचदार्ये! किं कुर्महे वयम् । असौ वररुचिः पापोऽघातयञ्जनकं हि नः ॥ ८५ ॥ अकाण्डोत्थितवज्राग्निप्रदीपनसहोदरम् । स्थूलभद्रवियोगं च भवत्या अकरोदयम् ॥ ८६ ॥ त्वज्जाम्यामुपकोशायां यावद् रक्तोऽस्त्यसो खलः। तावत् प्रतिक्रियां काश्चिद विचिन्तय मनस्विनि ! ॥८७॥ तदादिशोपकोशां यत् प्रतार्य कथमप्यसौ । विधीयतां वररुचिर्मद्यपानरुचिस्त्वया ॥ ८८॥ प्रेयोवियोजनाद् वैराद् दाक्षिण्याद् देवरस्य च । तत् प्रतिज्ञाय सा सद्योऽप्युपकोशां समादिशत् ॥८९॥ कोशायाश्च निदेशेनोपकोशा तं तथा व्यधात् । यथा पपौ मुरामेष स्त्रीवशैः क्रियते न किम् ? ॥९॥ सुरापानं वररुचिः स्वैरं भट्टोऽद्य कारितः। उपकोशेति कोशाय शशंसाथ निशात्यये ॥९१॥ अथ कोशामुखात सर्व शुश्राव Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥५१८॥ श्रीयकोऽपि तत् । मेने च पितृवैरस्य विहित प्रतियातनम् ॥९२॥ शकटालमहामात्यात्ययात् प्रभृति सोऽप्यभूत् । भट्टो वररुचिर्भूपसेवावसरतत्परः॥९३॥ स प्रत्यहं राजकुले सेवाकाले समापतन् । राज्ञा च राजलोकैश्च सगौरवमदृश्यत ।९४। अन्यदा नन्दराइ मन्त्रिगुणस्मरणविहलः। सदसि श्रीयकामात्य जगादेवं सगद्गदम् ।।९५।। भक्तिमान् शक्तिमान् नित्यं शकटालो महामतिः। अभवद् मे महामात्यः शक्रस्येव बृहस्पतिः॥९६॥ एवमेव विपन्नोऽसौ दैवादद्य करोमि किम् ? । मन्ये शून्यमिवास्थानमहं तेन विनात्मनः ॥९७॥ उवाच श्रीयकोऽप्येवं कि देवेह विदध्महे । इदं वररुचिः सर्व पापं व्यधित मद्यपः ॥९८॥ सत्यमेष सुरां भट्टः पिबतीति नृपोदिते । श्वोऽमुं दर्शयितास्मीति श्रीयकः प्रत्यवोचत ॥ ९९ ।। श्रीयकस्तु द्वितीयेऽह्नि सर्वेषामीयुषां सदः । स्वघुसा शिक्षितेनाग्रथं पद्ममेकैकमापयत् ॥ १०० ॥ तत्काल मदनफलरसभावनयाऽश्चितम् । दुरात्मानो वररुचेरर्पयामास पङ्कजम् ॥१॥ कुतस्त्यमद्भुतामोदमिदमित्यभिवणिनः । घ्रातुं राजादयो निन्युर्नासाग्रे स्वं स्वमम्बुजम् ॥२॥ सोऽपि भट्टोऽनयद् घ्रातुं घ्राणाग्रे पङ्कज निजम् । चन्द्रहाससुरां सद्यो रात्रिपीतां ततोऽवमत् ॥ ३॥ धिगमुं सीधुपं ब्रह्मबन्धुं बन्धवधोचितम् । सरित्याक्रुश्यमानो निर्ययौ सदसोऽय सः॥४॥ ब्राह्मणा याचितास्तेन प्रायश्चित्तमचीकथन् । तापितत्रपुणः पानं सुरापाणाघघातकम् ।। ५॥ मूषया तापितमथ पपौ वररूचिस्त्रपु । प्राणैश्च मुमुचे सद्यस्तत्प्रदाहभयादिव ॥६॥ स्थूलभद्रोऽपि संभूतविजयाचार्यसन्निधौ। प्रव्रज्यां पालयामास पारदृश्वा श्रुताम्बुधेः ।। ७॥ वर्षाकालेऽन्यदाऽऽयाते संभूतविजयं गुरुम् । प्रणम्य मूर्ना मुनय इत्यगृहणन्नभिग्रहान् ॥८॥ अहं सिंहगुहाद्वारे कृतोत्सर्ग उपो. षितः । अवस्थास्ये चतुर्मासीमेकः प्रत्यश्रणोदिदम् ॥९॥ दृगविषाहिबिलद्वारे चतुर्मासीमुपोषितः। स्थास्या ॥५१८॥ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशास्त्रम् प्रकाश ॥५१९॥ मि कायोत्सर्गेण द्वितीयोऽभ्यग्रहीदिति ॥१०॥ उत्सर्गी कूपमण्डूकासने मासचतुष्टयम् । स्थास्याम्युपोषित इति तृतीयः प्रत्यपद्यत ॥ ११ ॥ योग्यान् मत्वा गुरुः साधून यावत् तानन्वमन्यत । स्थूलभद्रः पुरोभूय नत्वैवं तावदब्रवीत् ॥ १२ ॥ कोशाभिधाया वेश्याया गृहे या चित्रशालिका । विचित्रकामशास्त्रोक्तकरणालेख्यशालिनी ॥ १३ ॥ तत्राकृततपःकर्मविशेषः षड्रसाशनः । स्थास्यामि चतुरो मासानिति मेऽभिग्रहः प्रभो ! ॥ १४ ॥ ज्ञात्वोपयोगाद् योग्यं तं गुरुस्तत्रान्वमन्यत । साधवश्च ययुः सर्वे स्वं स्वं स्थानं प्रतिश्रुतम् ॥ १५ ॥ स्थूलभद्रोऽपि संप्राप कोशावेश्यानिकेतनम् । अभ्युत्तस्थौ ततः कोशाऽप्याहिताञ्जलिरग्रतः ॥१६॥ सुकुमारः प्रकृत्यासौ रम्भास्तम्भ इवोरुणा । प्रतभारेण विधुरोऽत्रागादिति विचिन्त्य सा॥१७॥ उवाच स्वागतं स्वामिन् ! समादिश करोमि किम् ? । वपुर्धन परिजनः सर्वमेतत् तवैव हि ॥ १८ ॥ युग्मम् ॥ चातुर्मासीं वसत्यै मे चित्रशालेयमर्प्यताम् । इत्यूचे स्थूलभद्रोऽपि सा तूचे गृह्यतामिति ॥१९॥ तया च तस्यां प्रगुणीकृतायां भगवानपि । कामस्थानेऽविशद धर्म इव स्वबलवत्तया ॥२०॥ अथ सा पइरसाहारभोजनानन्तरं मुनेः। विशेषकृतश्रृङ्गारा क्षोभाय समुपाययौ ॥ २१ ॥ सोपविष्टा पुरस्तस्योत्कृष्टा काचिदिवाप्सराः। चतुरं रचयामास हावभावादिकं मुहुः ॥ २२ ॥ करणानुभवक्रीडोद्दामानि सुरतानि च । तानि तानि प्राक्तनानि स्मारयामास साऽसकृत् ॥२३॥ यद् यत् क्षोभाय विदधे तया तत्र महामुनौ । तत् तद् मुधाऽभवद् यद्वद् वज्रे नखविलेखनम् ॥२४॥ प्रतिवासरमप्येवं तत्क्षोभाय चकार सा । जगाम स तु न क्षोभं मनागपि महामनाः ॥२५।। तयोपसर्गकारिण्या प्रत्युतास्य महामुनेः । आदीप्यत ध्यानवहिर्मेघवतिरिवाम्भसा ॥ २६ ॥ त्वयि पूर्वमिवाज्ञानाद् Sex ॥५१९॥ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ASTE तृतीय प्रकाश ॥५२०॥ रन्तुकामां धिगीश! माम् । आत्मानमिति निन्दन्ती साऽपतत् तस्य पादयोः ॥२७॥ मुनेस्तस्येन्द्रियजयप्रकर्पण चमत्कृता । प्रपेदे श्रावकत्वं साऽग्रहीच्चैवमभिग्रहम् ॥ २८॥ तुष्टः कदापि कस्मैचिद् ददाति यदि मां नृपः। विना पुमांसमेकं तमन्यत्र नियमो मम ॥२९॥ गते तु वर्षासमये ते त्रयोऽपि हि साधवः । नियूंढाभिग्रहा एयुगुरुपादान्तिकं क्रमात् ॥३०॥ आयान् सिंहगुहासाधुरहो ! दुष्करकारक ! । तव स्वागतमित्यूचे किञ्चिदुत्थाय सूरिणा ॥ ३१ ॥ सूरिणा भाषितौ तद्वदायान्तावितरावपि । समे प्रतिज्ञानिर्वाहे समा हि स्वामिसक्रिया ॥३२॥ अथायान्तं स्थूलभद्रमुत्थाय गुरुरब्रवीत । दृष्करदुष्करकार ! महात्मन् ! स्वागतं तव ॥३३॥ सासूयाः साधवस्तेऽथाचिन्तयनित्यहो! गुरोः। इदमामन्त्रणं मन्त्रिपुत्रताहेतुकं ननु ॥३४॥ यद्यसौ षड्रसाहारः कृतदुष्करदुष्करः । इदं वर्षान्तरे तर्हि प्रतिज्ञास्यामहे वयम् ॥३५।। एवं मनसि संस्थाप्य सामर्शास्ते महर्षयः। कुर्वाणाः संयम मासाम्नष्टावगम यन् क्रमात् ॥३६॥। उत्तमर्ण इव प्राप्ते काले हृष्टः पुरोः गुरोः । साधुः सिंहगुहावासी चकारेति प्रतिश्रवम् ॥३७॥ कोशावेश्यागृहे नित्यं षड्रसाहारभोजनः । भगवन् ! समवस्थास्ये चतुर्मासीमिमामहम् ॥३८॥ स्थूलभद्रेण मात्सर्यादेतदङ्गीकरोत्ययम् । विचार्येत्युपयोगेन ज्ञात्वा च गुरुरादिशत् ॥३९॥ वत्स ! माभिग्रहं कार्षीरतिदुष्करदुष्करम् । स्थूलभद्रः क्षमः कर्तुमद्रिराज इव स्थिरः ॥४०॥ न हि मे दुष्करोऽप्येष कथं दुष्करदुष्करः । तदवश्यं करिष्यामीत्युवाच स मुनिर्गुरुम् ॥४१॥ गुरुरूचेऽमुना भावी भ्रंशः प्राक्तपसोऽपि ते । आरोपितोऽतिभारो हि गात्रभङ्गाय जायते ॥४२॥ गुरोर्वचोऽवमन्याथ वीरमन्यो मुनिः स तु । उन्मीनकेतनं प्राप कोशायास्तु निकेतनम् ॥४३॥ स्थूलभद्रस्पर्धयेहायाति मन्ये तपस्व्यसौ । भवे पतन् रक्षणीय इत्युत्थाय ननाम सा ॥४४॥ व 11५२०॥ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशास्त्रम् प्रकाशा सत्य याचितां तेन मुनिना चित्रशालिकाम् । कोशा समर्पयामास स मुनिस्तत्र चाविशत् ॥४५॥ तं भुक्तपडरसाहारं मध्याहनेऽय परीक्षितुम् । कोशापि तत्र लावण्यकोशभूता समाययौ ॥४६॥ चुक्षोभ स मुनिर्मक्षु पङ्कजाक्षीमुदीक्ष्य ताम् । स्त्री तादृग् भोजनं तादृय विकाराय न किं भवेत् ? ॥४७॥ स्मराा याचमानं तं कोशाप्येवमवोचत । वयं हि भगवन् ! वेश्या वश्याः स्मो धनदानतः ॥४८॥ स मुनिर्व्याजहाराथ प्रसीद मृगलोचने ।। अस्मासु भवति द्रव्यं किं तेलं वालुकास्विव ? ॥४९॥ नेपालभूपोऽपूर्वस्मै साघवे रत्नकम्बलम् । दत्ते तमानयेत्यूचे स निर्वेदयितुं मुनिम् ॥५०॥ ततश्चचाल नेपालं प्रत्यकालेऽपि बालवत् । पङ्किलायामिलायां स निजव्रत इव स्खलन् ॥५१॥ तत्र गत्वा महीपालाद् रत्नकम्बलमाप्य च । स मुनिवलितो वर्त्मन्यासंस्तत्र च दस्यवः ॥५२॥ आयाति लक्षमित्याख्यद् दस्यूनां शकुनस्ततः । किमायातीत्यपृच्छच्च दस्युराइ द्रुस्थितं नरम् ॥५३॥ आगच्छन् भिक्षरेकोऽस्ति न कश्चित् तादृशोऽपरः । इत्यशंसद् दुमारूढश्चौरसेनापतेः स तु ॥५४॥ साधुस्तत्राथ संप्राप्तस्तैविधृत्य निरूपितः । कमप्यर्थमपश्यद्भिर्मुमुचे च मालम्लुचैः॥५५॥ एतल्लक्ष 'प्रयातीति व्याहरच्छकुनः पुनः । मुनि चौरपतिः प्रोचे सत्यं ब्रूहि किमस्ति ते ? ॥५६।। वेश्याकृतेऽस्य वंशस्यान्तः क्षिप्तो रत्नकम्बलः। अस्तीत्युक्ते मुनिश्चोरराजेन मुमुचेऽथ सः॥५७॥ स समागत्य कोशायै प्रददौ रत्नकम्बलम् । चिक्षेप सा गृहस्रोतः पङ्के निःशङ्कमेव तम् ॥५८॥ अजल्पद् मुनिरप्येवं न्यक्षेप्यशुचिकर्दमे । महामूल्यो ह्यसौ रत्नकम्बलः कम्बुकण्ठि ! किम् ? ॥५९॥ अथ कोशाप्युवाचैवं कम्बलं मूढ ! शोचसि । गुणरत्नमयं श्वभ्रे पतन्तं स्वं न शोचसि ॥ ६० ॥ तत् श्रुत्वा जातसंवेगो मुनिस्तामित्यवोचत । बोधितोऽस्मि त्वया साधु संसारात् साधु रक्षितः ॥६१।। अघान्यतीचार ॥५२॥ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 02 । योगशास्त्रम् प्रकारा भवान्युन्मूलयितुमात्मनः। यास्यामि गुरुपादान्ते धर्मलाभस्तवान ! ॥६२॥ कोशापि तमुवाचैवं मिथ्या मे दप्कृतं त्वयि । ब्रह्मव्रतस्थयाप्येवं मया यदसि खेदितः॥६३॥ आशात नेयं युष्माकं बोधहेतोर्मया कृता ।क्षन्तव्या सा गुरुवचः श्रयध्वं यात सत्वरम् ॥६४॥ इच्छामीति भणित्वा च गुर्वन्तिकमुपेत्य सः। गृहीत्वालोचनां तीक्ष्णमाचचार पुनस्तपः ॥६५॥ राज्ञा प्रदत्ता कोशापि तुष्टेन रथिनेऽन्यदा । राजायत्तेति शिश्राय विना रागेण सा तु तम् ॥६६।। स्थूलभद्रं विना नान्यः पुमान् कोऽपोत्यहनिशम् । सा तस्य रथिनोऽभ्यर्णे वर्णयामास वणिनी ॥६७॥ रथी गत्वा गृहोद्याने पर्यके च निषद्य सः। तन्मनोरञ्जनायेति स्वविज्ञानमदर्शयत् ॥ ६८ ॥ माकन्दलुम्बी बाणेन विव्याध तमपीषुणा । पुढेऽन्येन तमप्यन्येनेत्याहस्तं शराल्यभूत् ॥६९॥ वृन्तं छित्वा क्षुरप्रेण बाणश्रेणिमुखस्थिताम् । लुम्बीं स्वपाणिनाऽऽकृष्यासीनस्तस्यै स आर्पयत् ॥७०॥ इदानीं मम विज्ञानं पश्येत्यालप्य सापि हि । व्यत्ति सार्ष राशिं तस्योपरि ननर्त च ॥७१॥ सूची क्षिप्त्वा तत्र राशौ पुष्पपत्रैः पिधाय ताम् । सा ननर्त च नो सूच्या विद्धा राशिश्च न क्षतः ॥७२॥ ततः स ऊचे तुष्टोऽस्मि दुष्करणामुना तव । याचस्व यद् ममायत्तं ददामि तदहं ध्रुवम् ॥ ७३ ॥ सोवाच किं मयाऽकारि दुष्करं येन रञ्जितः । इदमप्यधिकं चास्मात् किमभ्यासेन दुष्करम् ? ॥ ७४॥ किञ्चाम्रलुम्बीच्छेदोऽयं नृत्यं चेदं न दुष्करम् । अशिक्षितं स्थूलभद्रो यच्चक्रे तत्त दुष्करम् ॥ ७५ ॥ द्वादशाब्दानि बुभुजे भोगान् यत्र समं मया । तत्रैव चित्रशालायां तस्थौ सोऽखण्डितव्रतः ॥७६॥ दुग्धं नकुलसंचारादिव स्त्रीणां प्रचारतः। योगिनां दृष्यते चेतः स्थूलभद्रमुनि विना ॥ ७७ ॥ दिनमेकमपि स्थातुं कोऽलं स्त्रीसंनिधौ तथा ? । चतुर्मासीं यथा तस्थौ स्थूलभद्रोऽ सापयत् ॥७०॥ इदा नो सूच्या कि तस्योपरि ननर्त ॥५२२॥ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥५२३॥ क्षतवतः ॥ ७८ ॥ आहारः षडरसश्चित्रशालावासोऽङ्गनान्तिके । अप्येकं व्रतलोपायान्यस्य लोहतनोरपि ॥ ७९ ॥ विलीयन्ते धातुमयाः पार्श्वे वहुनेरिव स्त्रियाः । स तु वज्रमयो मन्ये स्थूलभद्रो महामुनिः ॥८॥ स्थूलभद्रं महासत्त्वं कृतदुष्करदुष्करम् । व्यावर्ण्य युक्ता मुरैव मुखे वर्णयितुं परम् ।। ८१ ॥ रथिकोऽप्यथ पप्रच्छ य एवं वर्ण्यते त्वया। को नाम स्थूलभद्रोऽयं महासत्त्वशिरोमणिः ? ॥ ८२॥ साऽप्यूचे शकटालस्य नन्दभूपालमन्त्रिणः । तनयः स्थूलभद्रोऽयं तवाग्रे वर्णयामि यम् ॥ ८३ ॥ तच्छुत्वा सोऽपि संभ्रान्त इत्युवाच कृताञ्जलिः । एषोऽस्मि किङ्करस्तस्य स्थूलभद्रमहामुनेः॥४४॥ संविग्नं साथ तं ज्ञात्वा विदधे धर्मदेशनाम् । प्रत्यबुध्यत सद्बुद्धिर्मोहनिद्रामपास्य सः॥८५॥ प्रतिबुद्धं च तं बुध्ध्या साऽऽख्यद् निजमभिग्रहम् । तत् श्रुत्वा विस्मयोत्फुल्ललोचनः सोऽब्रवीदिदम् ॥ ८६॥ बोधितोऽहं त्वया भद्रे ! स्थुलभद्रगुणोक्तिभिः। यास्यामि तस्य पन्थानं भवत्यैवाद्य दर्शितम् ।। ८७ ॥ कल्याणमस्तु ते भद्रे ! पालय स्वमभिग्रहम् । उक्त्वैवं सद्गुरोः पार्श्व गत्वा दीक्षां स आददे ।। ८८ ॥ भगवान् स्थूलभद्रोऽपि तीव्र व्रतमपालयत् । द्वादशाब्दप्रमाणश्च दुष्कालः समभूत्तदा ।। ८९ ॥ तीरं नीरनिधेर्गत्वा साधुसंघोऽखिलोऽप्यथ । गमयामास दुष्कालं करालं कालरात्रिवत् ।।९०॥ अगुण्यमानं HAL तु तदा साधूनां विस्मृतं श्रुतम् । अनभ्यसनतो नश्यत्यधीतं धीमतामपि ।। ९१ ॥ संघोऽथ पाटलीपुत्रे समवायं विनिर्ममे । यदङ्गाध्ययनोद्देशाद्यासीद् यस्य तदाददे ॥ ९२॥ ततश्चैकादशाङ्गानि श्रीसंघोऽमेलयत्तदा । दृष्टिवादनिमित्तं च तस्थौ किश्चिद विचिन्तयन् ॥९३॥ संघोऽस्मरद भद्रबाहोर्दष्टिवादभृतस्ततः। तदानयनहेतोश्च प्रजिघाय मुनिद्वयम् ॥९४ ॥ गत्वा नत्वा मुनी तौ तमित्यूचाते कृताञ्जली। समादिशति वः संघस्तत्रागमनहेतवे ॥ ९५॥ ॥५२३॥ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥५२४॥ सोऽप्युवाच महाप्राणध्यानमारब्धमस्ति यत् । भविष्यति ततो हेतोर्न तत्रागमनं मम ॥ ९६ ॥ तद्वचस्तौ मुनी गत्वा संघस्याशंसतामथ । संघोऽप्यपरमायादिदेशेति मुनिद्वयम् ।।९७।। गत्वा वाच्यः स आचार्यों यः श्रीसंघस्य शासनम् । न करोति भवेत् तस्य दण्डः क इति शंस नः॥ ९८ ।। संघबाह्यः स कर्तव्य इति वक्ति यदा स तु तहिं तद्दण्डयोग्योऽसीत्याचार्यों वाच्य उच्चकैः ।। ९९ ॥ ताभ्यां गत्वा तथैवोक्त आचार्योऽप्येवमूचिवान् । मैवं करोतु भगवान् संघः किन्तु करोत्वदः ॥२०० ॥ मयि प्रसादं कुर्वाणः श्रीसंघः प्रहिणोत्विह । शिप्यान् मेधाविनस्तेभ्यः सप्त दास्यामि वाचनाः॥१। तत्रैकां वाचनां दास्ये भिक्षाचर्यात आगतः। अन्यां च कालवेलायां बहिर्भूम्यागतोऽपराम् ॥२॥ अन्यां विकालवेलायां तिस आवश्यक पुनः । सेत्स्यत्येवं संघकार्य मत्कार्यस्याविबाधया ॥३॥ ताभ्यामेत्य तथाख्याते श्रीसंघोऽपि प्रसादभाक । प्राहिणोत् स्थूलभद्रादिसाधुपश्चशतीं ततः॥४॥ तान् सूरिर्वाचयामास तेऽप्यल्पा वाचना इति । उद्भज्ये युनिज स्थानं स्थलभद्रस्त्ववास्थित ॥ ५॥ नोद्भज्यसे किमित्युक्तः सूरिणा सोऽब्रवीदिदम् । नोद्भज्ये भगवन् ! किन्तु ममाल्पा एव वाचनाः ॥६॥ मूरिरूचे मम ध्यान पूर्णप्रायमिदं ततः। तदन्ते वाचनास्तुभ्यं प्रदास्यामि त्वदिच्छया ॥७॥ पूर्णे ध्याने ततः मूरिरिच्छया तमवाचयत् । द्विवस्तूनानि पूर्वाणि दश यावत् पपाठ सः॥ ८ ॥ विहारक्रमयोगेन पाटलीपुत्रपत्तनम् । श्रीभद्रबाहुरागत्य बाह्योद्यानमशिश्रियत् ॥९॥ विहारक्रमयोगेन वतिन्योऽत्रान्तरे तु ताः। भगिन्यः स्थूलभद्रस्य वन्दनाय समाययुः ॥१०॥ वन्दित्वा गुरुमूचुस्ताः स्थूलभद्रः क नु प्रभो ! । इहापवरकेऽस्तीति तासां सूरिः शशंस च ॥ ११ ॥ ततस्तमभिचेलुस्ताः समायान्तीविलोक्य सः । आश्चर्यदर्शनकृते सिहरूपं विनिममे ।।१२।। दृष्ट्वा सिंहं तु भीतास्ताः ॥५२४॥ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥५२५॥ सूरिमेत्य व्यजिज्ञपन् । ज्येष्ठार्य जयसे सिंहस्तत्र सोऽद्यापि तिष्ठति ॥ १३॥ ज्ञात्वोपयोगादाचार्योऽप्यादिदेशेति गच्छत । वन्दध्वं तत्र वः सोऽस्ति ज्येष्ठार्यो न तु केसरी ॥ १४ ॥ ततोऽयुस्ताः पुनस्तत्र स्वरूपस्थं निरूप्य च । ववन्दिरे स्थूलभद्रं ज्येष्ठा चाख्यद् निजां कथाम् ||१५|| श्रीयकः सममस्माभिर्दीक्षां जग्राह किन्त्वसौ । क्षुधावान् सर्वदा कर्तु भक्तमपि क्षमः ||१६|| मयोक्तः पर्युषणायां प्रत्याख्याद्यद्य पौरुषीम् । स प्रत्याख्यातवानुक्तो मया पूर्णेऽवधौ पुनः ||१७|| प्रतीक्षस्व क्षणं प्रत्याख्याहि पूर्वार्धमप्ययि ? | अद्य यावत् त्वया चैत्यपरिपाटी विधीयते ॥१८॥ तथैव प्रतिपेदेऽसौ समयेऽभिहितः पुनः । तिष्ठेदानीमस्त्वपार्धमिति चक्रे तथैव सः ॥ १९ ॥ प्रत्यासन्ना ऽधुना रात्रिः मुखं सुप्तस्य यास्यति । तत्प्रत्याख्याह्यभक्तार्थमित्युक्तः सोऽकरोत् तथा ||२०|| ततो निशीथे संप्राप्ते स्मरन् देवगुरूनसौ । क्षुत्पीडया प्रसरन्त्या विपद्य त्रिदिवं ययौ | २१ | ऋषिघातो मयाऽकारीत्युत्ताम्यन्ती ततस्त्वढम् । पुरः श्रमण संघस्य प्रायश्चित्ताय ढौकिता | २२| संघोऽप्यूचे व्यधायीदं भवत्या शुद्धभावया । प्रायश्चित्तं ततो नेह कर्तव्यं किञ्चिदस्ति ते |२३| ततोहमित्यवोचं च साक्षादाख्याति चेज्जिनः । ततो हृदयसंवित्तिर्जायते मम नान्यथा ॥ २४ ॥ अत्रार्थे सकलः संघः कायोत्सर्ग ददावथ । एत्य शासनदेव्यूचे व्रत कार्य करोमि किम् १ ||२५|| संघोऽप्येवमभाषिष्ट जिनपार्श्वमिमां नय । सोचे निर्विघ्नगत्यर्थं कायोत्सर्गेण तिष्ठत ||२६|| संघे तत्प्रतिपेदाने मां साऽनै पखिनान्तिके । ततः सीमन्त्ररस्वामी वन्दितो भगवान् मया ||२७|| भरतादागताऽऽर्येयं निर्दोषत्यवदज्जिनः । कृपया मनिमित्तं च व्याचक्रे चूलिकाद्वयम् ||२८|| ततोऽहं छिन्नसंदेहा देव्यानीता यथाश्रयम् । श्रीसंवस्यापि तवती चूलिकाद्वितयं च तत् ॥ २९ ॥ इत्याख्याय स्थूलभद्रानुज्ञाता निजमाश्रयम् । ता ययुः स्थूलभद्रोऽपि वाच तृतीय प्रकाशः ॥ ५२५ ।। Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाश ॥५२६॥ नार्थमगाद् गुरुम् ॥३०॥ न ददौ वाचनां तस्यायोग्योऽसीत्यादिशन गुरुः । दीक्षादिनात् प्रभृत्येषोऽप्यपराधान् व्यचिन्तयत् ॥३१॥ चिन्तयित्वा च न ह्यागः स्मरामीति जगाद च । कृत्वा न मन्यसे शान्तं पापमित्यवद् गुरुः ॥३२॥ स्थूलभद्रस्ततः स्मृत्वा पपात गुरुपादयोः। न करिष्यामि भूयोऽदः क्षम्यतामिति चाब्रवीत् ॥३३॥ न करिष्यसि भूयस्त्वमकार्षीयदिदं पुनः । न दास्ये वाचनां तेनेत्याचार्यास्तमनूचिरे ॥ ३४ ॥ स्थूलभद्रस्ततः सर्वसंघनामानयद गुरम् । महतां कुपितानां हि महन्तोऽल प्रसादने ॥३५॥ सूरिः संघ बभाषेऽथ विचक्रेऽसौ यथाधुना । तथाऽन्ये विकरिष्यन्ते मन्दसत्त्वा अतः परम् ॥३६।। अवशिष्टानि पूर्वाणि सन्तु मत्पार्श्व एव तत् । अस्यास्तु दोषदण्डोऽयमन्यशिक्षाकृतेऽपि हि ॥ ३७ ॥ स संघेनाग्रहादुक्तो विवेदेत्युपयोगतः । न मत्तः शेषपूर्वाणामुच्छेदो भाव्यतस्तु सः ॥ ३८ ॥ अन्यस्य शेषपूर्वाणि प्रदेयानि त्वया नहि । इत्यभिग्राह्य भगवान स्थूलभद्रमवाचयत् ॥ ३९ ॥ सर्वपूर्वधरोऽथासीत् स्थूलभद्रो महामुनिः । प्राप्य चाचार्यकं भद्रभविनः प्रत्यबोधयत् ॥४०॥ स्त्रीभ्यो निवृत्तिमधिगम्य समाधिलीनः श्रीस्थूलभद्रमुनिराप दिवं क्रमेण । एवंविधप्रवरसाधुजनस्य सर्वसंसारसौख्यविरतिं विमृशेद मनीषी ॥ २४१ ॥ १३२ ॥ ॥ इति श्री स्थूलभद्रकथानकम् ॥ योषिरदङ्गसतत्त्वं कलापकेनाह(१) सतत्त्वं याथार्थ्यम् । |॥५२६u Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् तृतीय ॥५२७॥ प्रकाश है| यकृच्छकृन्मलश्लेष्ममजास्थिपरिपूरिताः । स्नायुस्यूता वही रम्याः स्त्रियश्चर्मप्रसेविकाः ॥१३३ यकृत् कालखण्डम् शकृद् विष्ठा, मला दन्ताधुपलेपाः श्लेष्मा कफः, मज्जा षष्ठो धातुः, अस्थीनि पञ्चमो धातुः, एभिः परिपूरिताः खियः स्त्रीशरीराणि, चर्मप्रसेविका भवाः, अत एव बहिरेव रम्याः। भखा हि मध्ये पूतिद्रव्यपूरिता अपि बाह्ये रम्या भवन्ति, स्त्रियोऽप्येवम्, भनाश्च स्यूता भवन्ति, अत एव स्नायुस्यूताः स्नायुभिः स्नसादिभिः स्यूता इव स्यूताः ॥ १३३ ॥ तथाबहिरन्तविपर्यासः स्त्रीशरीरस्य चेद भवेत । तस्यैव कामकः कुर्याद गध्रगोमायगोपनम् ।१३४॥ ___ बहिश्चान्तश्च, तयाविपर्यासो विनिमयः बहिर्भागोऽन्तर्भवेत् अन्तर्भागो वा बहिः, स्त्रीशरीरस्य स्त्रीदेहस्य चेद् यदि भवेत्, तदा तस्यैव स्त्रीशरीरस्य कामुकः कामी गृघ्रगोमायुगोपनं गृध्रगोमायुभ्यो रक्षणं कुर्यात् । गृध्र गोमायुग्रहण दिवानिशं रक्षणीयताप्रतिपादनार्थमः गृध्रा हि दिवा प्रभविष्णवः, गोमायवश्च रात्रौ । तत्स्त्रीशरीरस्य विपर्यासे नक्तंदिन कामुको गृध्रगोमायुरक्षणव्याकुल एव स्यात्, दूरे तत्परिभोगः ।। १३४ ।। तथास्त्रीशस्त्रेणापि चेत् कामो जगदेतज्जिगीषति। तुच्छपिच्छमयं शस्त्रं किं नादत्ते स मूढधीः१।१३५॥ ___ स्न्येव शस्त्रं स्त्रीशस्त्रं तेन जगद्विजयार्थमुपात्तेन, अपीत्यनादरे, चेद् यदि, कामो मन्मथः, एतज्जगत् त्रैलोक्यात्मकम्, जिगीपति जेतुमिच्छति, तदा स मूढधीः कामः तुच्छं काकादीनां यत् पिच्छं तन्मयं शस्त्रं किं नादत्ते कुतो हेतोन गृहणाति ? । अयमर्थः-यद्यसारेण रसामुग्मांसमेदोऽस्थिमज्जशुक्रपूरितेन बहुप्रयासलभ्येन स्त्रीरूपेण ॥५२७॥ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥५२८॥ शस्त्रेण जिगीषत्ययम्, तदा तुच्छं पिच्छमेव सुलभमपूति च किं नादत्ते ? इदं हि विस्मृतमस्य मृढधियः, यल्लौकिकाः पठन्तिअर्के चेद् मधु विन्देत किमर्थ पर्वतं व्रजेत् । इष्टस्यार्थस्य संसिद्धौ को विद्वान् यत्नमाचरेत् ? ॥१॥१३५॥ तथा इदमपि निद्राच्छेदे चिन्तयेत्सङ्कल्पयोनिनानेन हहा ! विश्वं विडम्बितम् । तदुत्खनामि सङ्कल्पं मूलमस्येति चिन्तयेत्।१३६। सङ्कल्पः कल्पनामात्रं योनिः कारणं यस्य न तु वास्तवं किश्चित् कारणमित्यर्थस्तेन, अनेन सकलजगत्संवेदनसिद्धेन, हहा इति खेदे, विश्वं जगद् ब्रह्म-हरि-हर-संक्रन्दनप्रभृतिक कीटपर्यवसानं तैस्तैः स्वीदर्शनालिङ्गनस्मरणादिभिः प्रकारैविंडम्बितं विगोपितम्। श्रूयते हि पुराणे-हरगौरीविवाहोत्सवे पुरोहितीभूतः पितामहो, गौरीप्रणयप्रार्थनासु हरः, गोपीचाटुकर्मणा श्रीपतिः, गौतमभार्यायां रममाणः सहसलोचनः, बृहस्पतेर्भार्यायां तारायां चन्द्रः, अश्वायामप्यादित्यो विडम्बनां प्रापितः। तदनेनासारेणासारहेतूद्भवेन च यद् विश्वं विडम्ब्यते तदसाम्प्रतम् । तत् तस्मादिदानीमस्यैव जगद्विडम्बनकर्तुः सङ्कल्पलक्षणं मूलमुत्खनामि उन्मूलयामि । इति स्त्रीशरीरस्याशुचित्वमसारत्वं सङ्कल्पयोन्युपकरणत्वं च विचिन्तयेदिति प्रकृतयोजना ॥१३६ ॥ ___ तथा, इदमपि निद्राच्छेदे चिन्तयेत्यो यः स्याद्वाधको दोषस्तस्य तस्य प्रतिक्रियाम् । चिन्तयेद् दोषमुक्तेषु प्रमोदं यतिषु व्रजन् १३७ ॥५२८॥ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ।।५२९॥ यो यो राग-द्वेष - क्रोध- मान - माया - लोभ-मोह - मन्मथाऽसूया - मत्सरादिदोषो बाधकश्चित्तप्रशान्तिवाहिकायास्तस्य तस्य दोषस्य प्रतिक्रियां प्रतीकारं चिन्तयेत् ; तथाहि - रागस्य वैराग्यम्, द्वेषस्य मैत्री, क्रोधस्य क्षमा, मानस्य मार्दवम्, मायाया आर्जवम्, लोभस्य सन्तोषः, मोहस्य विवेकः, मन्मथस्य स्त्रीशरीराशौच भावना, असूयाया अनसूयत्वम्, मत्सरस्य परसंपदुत्कर्षेऽपि चित्तानावाधा च प्रतिक्रिया मता । इदं चाशक्यमिति नाशङ्कनीयम्, दृश्यन्ते हि मुनयस्तत्तद्दोषपरिहारेण गुणमयमात्मानं विभ्रतः । अत एवाह - दोषमुक्तेषु यतिषु प्रमोदं वजन । सुकरं हि दोषमुक्तमुनिदर्शनेन प्रमोदादात्मन्यपि दोषमोक्षणम् ।। १३७ ॥ तथा दुःस्थां भवस्थितिं स्थेम्ना सर्वजीवेषु चिन्तयन् । निसर्गसुखसर्ग तेष्वपवर्ग विमार्गयेत् ॥ १३८ दुःस्थां दुःखहेतुम्, भवस्थिर्ति संसारावस्थानम्, चिन्तयन् विमृशन, सर्वजीवेषु तिर्यग्र - नारक - नरा - ऽमरेषु; तथाहि - तिरथां वध-बन्ध - ताडन - पारवश्य-श्रुत्-पिपासा - ऽतिभारारोपणा -ऽङ्गच्छेदादिभिः, नारकाणां च स्वाभाविक - परस्परोदीरित-परमाधार्मिककृत क्षेत्रानुभावज वेदनामनुभवतां क्रकचदारण- कुम्भीपाक - कूटशाल्मलीसमाश्लेष - वैतरणीतरणादिभिः, नराणां च दारिद्र्यव्याधिपारवश्यवधबन्धादिभिः सुराणां चेर्ष्या-विषाद - विपक्षसंपद्दर्शनमरणदुःखानुचिन्तनादिभिर्दुःस्थैव भवस्थितिः, तां स्थेम्ना स्थैर्येण चिन्तयंस्तेषु सर्वजीवेष्वपवगं मोक्षम् . किं विशिष्टम् ? निसर्गसुखसर्ग निसर्गेण सुखसंसर्गे यत्र तम्, विमार्गयेदाशंसेत् — कथं नु नाम सर्वे संसारिणः सकलदुःखविमोक्षेण मोक्षेण संयुज्येरन्निति ।। १३८ ॥ इदमपि निद्राच्छेदे चिन्तयेत् — तृतीय प्रकाशः ॥५२९ ॥ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥ ५३०॥ संसर्गेऽप्युपसर्गाणां दृढव्रतपरायणाः । धन्यास्ते कामदेवाद्याः श्लाघ्यास्तीर्थकृतामपि ॥ १३९॥ संसर्गेऽपि संबन्धेऽपि, उपसर्गाणां सुरादिकृतानाम्, दृढव्रतपरायणाः प्रतिपन्नत्रतपालनपराः, कामदेवाद्याः कामदेवप्रभृतयः, धन्या धमंधनं लब्धारः, त इति भगवदुपासकत्वेन प्रसिद्धाः । धन्यत्वे विशेषहेतुमाह — श्लाघ्याः प्रशस्यास्तीर्थकृतां श्रीमन्महावीरस्य पूजायां बहुवचनम् । कामदेवकथानकं च संप्रदाय गम्यम् । स चायम्, अनुगङ्गे पतद्वंशश्रेणीभिरिव चारुभिः । चत्यध्वजै राजमाना चम्पेत्यस्ति महापुरी ॥ १ ॥ भोगिभोगायतस्तम्भः कुलगृहं श्रियः । जितशत्रुरिति नाम्ना तस्यामासीद् महीपतिः || २ || अभूद् गृहपतिस्तस्यां कामदेवाfe: सुधीः । आश्रयोऽनेकलोकानां महातरुरिवाध्वनि ॥ ३ ॥ लक्ष्मीरिव स्थिरीभूता रूपलावण्यशालिनी । अभूद् भद्राकृतिर्भद्रा नाम तस्य सधमिणी || ४ || निधौ षट् स्वर्णकोटयः षड् वृद्धौ षड् व्यवहारगाः । व्रजाः पट् चास्य दशगोसहस्रमितयोऽभवन् ॥ ५ ॥ तदा च विहरन्तु तत्रोर्वीमुखमण्डने । पुण्यभद्राभिधोद्याने श्रीवीरः समवासरत् || ६ || कामदेवोऽथ पादाभ्यां भगवन्तमुपागमत् । शुश्राव च श्रोत्रसुधां स्वामिनो धर्मदेशनाम् ||७|| कामदेवस्ततो देवनरासुरगुरोः पुरः । प्रपेदे द्वादशविधं गृहिधर्म विशुद्धधीः ॥ ८ ॥ प्रत्याख्यात् स विना भद्रां स्त्रीजान पड़ीं विना । निधौ वृद्धौ व्यवहारे षट् षट् कोटीर्विना वसु || ९ || हलपञ्चशतीं मुक्त्वाऽत्याक्षीत् क्षेत्राण्यनांसि तु । दिग्यात्रिकाणि वादृणि पञ्च पञ्च शतान्यते ॥ १० ॥ दिग्यात्रिकाणि चत्वारि चत्वारि प्रवहन्ति च । विहाय वहनान्येष प्रत्याख्याद् वहनान्यपि ॥ ११ ॥ विनैकां गन्धकाषायीं स तत्याजाङ्गमार्जनम् । दन्तधावनमप्याद्रमपास्य मधुयष्टिकाम् ||१२|| ऋते च क्षीरामलकात् फलान्यन्यानि सोऽमुचत् । अभ्यङ्गं च तृतीय प्रकाशः ५३०॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाश ॥५३१॥ विना तैले सहखशतपाकिमे ॥१३॥ विना सुगन्धिगन्धाढयमुद्वर्तनकमत्यजत् । विनाष्टावौष्टिकानम्भस्कुम्भान् मज्जनकर्म च ॥ १४ ॥ ऋते च ौमयुगलाद् वस्त्रं सर्वमवर्जयत् । चन्दनागुरुघुसणान्यपास्यान्यद् विलेपनम् ॥ १५ ॥ जातीखनं च पद्म च विना कुसुममत्यजत् । कर्णिका नाममुद्रां च विहायाभरणान्यपि ॥१६ तुरुकागुरुधूपेभ्य ऋते धृपविधि जहौ । घृतपूरात् खण्डखाद्यादन्यद् भक्ष्यमवर्जयत् ॥ १७ ॥ काष्ठपेयां विना पेयामोदनं कलमं विना। माषमुद्गकलायेभ्य ऋते सूपं च सोऽमुचत् ॥१८॥ तत्याज च घृतं सर्वमृते शारदगोघतात् । शाकं स्वस्तिकमण्डूक्याः पल्यङ्काच्चापरं जहौ ॥ १९ ॥ अन्यत् स्नेहाम्लदाल्यम्लात् तीमनं वारि खाम्भसः । जहौ सुगन्धिताम्बूलाद् मुखवासमथापरम् ॥ २० ॥ ततः प्रभुं स वन्दित्वा ययौ निजनिकेतनम् । तद्भार्याप्येत्य जग्राह स्वाम्यग्रे श्रावकव्रतम् ॥२१॥ कुटुम्बमारमारोप्य ज्येष्ठपुत्रे ततः स्वयम् । तस्थौ पौषधशालायामप्रमादी व्रतेषु सः ॥ २२ ॥ तस्थुषस्तस्य तत्राथ निशीथे क्षोभहेतवे । पिशाचरूपमृद मिथ्यादृष्टिः कोऽप्याययौ सुरः ॥२३॥ शिरोरुहाः शिरस्यस्य कर्कशाः कपिशत्विषः । चकासामासुरापक्वाः केदार इव शालयः ॥ २४ ॥ भाण्डभित्तनिभं भालं बभ्रुपुच्छोपमे भ्रवौ । कणौं सूर्पाकृती युग्मचुल्लीतुल्या च नासिका ॥२५॥ उष्ट्रौष्ठलम्बिनावोष्ठौ दशनाः फालसनिभाः । जिह्वा सर्पोपमा श्मश्रु वाजिवालधिसोदरम् ॥ २६ ॥ तप्तमूषानिभे नेत्रे हनू सिंहहनूपमौ । हलास्यतुल्यं चिबुकं ग्रीवोष्ट्रग्रीवया समा ॥२७॥ उरः पुरकपाटोरु भुजौ भुजगभीषणौ । पाणी शिलाभावमुल्यः शिलापुत्रकसन्निभाः ॥२८ ॥ पातालतुल्यमुदरं नाभिः कूपसहोदरा । शिश्न चाजगरप्राय वृषणौ कुतुपोपमौ ॥ २९ ॥ जो तालझुमाकारे पादौ शैलशिलोपमौ । कोलाहलरवोऽकाण्डाशनिध्वनिभयानका ॥५३१ । Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥ ५३२॥ DOSTOOREETO HENOXE ॥३०॥ स मूर्म्याखुस्रजं बिभ्रत् कण्ठे च सरटखजम् । नकुलान् कर्णिकास्थानेऽङ्गदस्थाने च पन्नगान् ॥३१॥ क्रुद्धान्तकसमुत्क्षिप्ततर्जनाङ्गुलिदारुणम् । उदस्यन्नपकोशासिं कामदेवं जगाद सः ||३२|| अप्रार्थितप्रार्थक ! रे ! किमारब्धमिद त्वया । किं स्वर्गमपवर्ग वा वराक ! त्वमपीच्छसि ? ||३३|| मुञ्चारब्धमिदं नो चेदनेन निशितासिना । तरोरिव फलं स्कन्धात् पातयिष्यामि ते शिरः ॥ ३४ ॥ तर्जयत्यपि तत्रैवं समाधेर्न चचाल सः । शरभः शैरिभारावैः किं क्षुभ्यति कदाचन १ ||३५|| कामदेवः शुभध्यानाद् न चचाल यदा तदा । व्याजहार तथैवायं द्वित्रिस्त्रिदशपांसनः || ३६ || तत्राप्यक्षुभ्यतः सोऽस्य क्षोभायैमं वपुर्व्यधात् । स्वशक्त्यन्तमनालोक्य विरमन्ति खला न हि ||३७|| सोऽधत्त विग्रहं तु सजलाम्भोदसोदरम् | सर्वतोऽप्येत्य मिध्यात्वं राशीभूतमिवैकतः ॥ ३८ ॥ स दीर्घदारुणाकारं विषाणद्वन्द्वमुन्नतम् । धारयामास कीनाशभुजदण्डविडम्बकम् ॥ ३९ ॥ किञ्चिदाकुश्चितां शुण्डां कालपाशामिवोद्वहन् । कामदेवं जगादेवं देवः कूटैकदैवतम् ॥ ४० ॥ मायाविन् ! मुच्यतां माया सुखं तिष्ठ मदाज्ञया । पाखण्डगुरुणा केन त्वमस्येवं विमोहितः १ ॥ ४१ ॥ न चेद् मुञ्चस्य धर्म शुण्डादण्डेन तद् द्रुतम् । क्रक्ष्यामि त्वामितः स्थानाद् नेष्यामि च नभोऽङ्गणे ||४२|| व्योम्नः पतन्तं दन्ताभ्यां प्रेषयिष्यामि चान्तरा । अवनम्य ततस्ताभ्यां दारयिष्यामि दारुवत् ||४३|| पादैः कर्दममर्द च त्वां मर्दिष्यामि निर्दयम् । एकपिण्डीकरिष्यामि तिलपिष्टिमिव क्षणात् ॥ ४४ ॥ उन्मत्तस्येव तस्यैवं घोरं व्याहरताऽपि हि । नोत्तरं कामदेवोऽदाद् ध्यानसंलीनमानसः ॥ ४५ ॥ असंक्षुभितमीक्षित्वा कामदेवं दृढाशयम् । द्वित्रिश्चतुरभाषिष्ट तथैव १ ' प्रत्येयिष्यामि इति प्रत्यन्तरम् । SETO CRESTO HORESTOCK तृतीय प्रकाशः ।।५३२ ।। Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् D तृतीय प्रकाशा ॥५३३॥ स दुराशयः ॥४६॥ ततोऽप्यभीतं तं प्रेक्ष्य शुण्डादण्डेन सोऽग्रहीत् । व्योमन्युच्छालयामास प्रतीयेष च पूलवत् ॥४७॥ दलयामास दन्ताभ्यां पादन्यासममर्द च । धर्मकर्मविरुद्धानां किमकृत्यं दुरात्मनाम् ? ॥४८॥ अधिसेहे च तत् सर्व कामदेवो महामनाः । मनागपि च न स्थैर्य जहौ गिरिरिव स्थिरः॥४९॥ तस्मिन्नचलिते ध्यानादीदृशेनापि कर्मणा । सदर्पः सर्परूपं स विदधे विबुधाधमः ॥५०॥ देवः पूर्ववदेवोचे स तं भापयितुं ततः। कामदेवस्तु नाभैषीद ध्यानसंवर्मितः सुधीः॥५१॥ भूयो भूयस्तथोक्वा तं निर्भीक प्रेक्ष्य दुःसुरः। आतोद्यमिव वःण स्वभोगेनाभ्यवेष्टयत् ॥५२॥ निःशूकमेव दशनर्देदशूको ददंश तम् । स तु ध्यानसुधामग्नो न तद्वाधामजीगणत् ॥५३॥ दिव्यरूपं ततः कृत्वा द्युतिद्योतितदिङ्मुखम् । सुरः पौषधशालायां विवेशैवमुवाच च ॥५४॥ धन्योऽसि कामदेव ! त्वं देवराजेन संसदि । प्रशंसाऽकारि भवतोऽसहिष्णुस्तामिहागमम् ॥५५॥ प्रभवः प्राभवेणापि वर्णयन्ति ववस्त्वपि । अतः परीक्षितोऽसि त्वं नानारूपभृता मया ॥५६।। त्वां यथाऽवर्णयच्छकस्तथैवासि न संशयः। क्षम्यतामपराधो मे परीक्षणभवस्त्वया ॥५७॥ प्रययावभिधायैवं स देवो देवसद्मनि। कामदेवोऽपि शुद्धात्मा प्रतिमां तामपारयत् ॥५८॥ उपसर्गसहिष्णुं तमश्लाघिष्ट स्वयं प्रभुः । सभायां भगवान् वीरो गुरवो गुणवत्सलाः ॥५९॥ कामदेवो द्वितीयस्मिन्नति पारितपोषधः। त्रिजगत्स्वामिनः पादवन्दनार्थमथागमत् ॥६॥ जगद्गुरूरभाषिष्ट गौतमप्रभृतीनिति । गृहधर्मेऽप्यसावेवमुपसर्गान् विसोढवान् ॥६॥ सर्वसङ्गपरित्यागाद यतिधर्मपरायणैः। तद्विशेषेण सोढव्या उपसर्गा भवादृशैः ॥६२॥ कर्मनिमूलनोपायान् श्रावकप्रतिमास्ततः। एकादशापि शिश्राय कामदेवः क्रमेण ताः ।।६३।। सोऽथ संलेखनां कृत्वा प्रपेदेऽशनव्रतम् । परं समाधिमापनः ॥५३३॥ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥५३४ ।। कालधर्ममुपायौ ॥ ६४॥ सोऽरूणाभे विमानेऽभूद् चतुष्पल्यस्थितिः सुरः । स्युत्वा ततो विदेहेषूत्पद्य सिद्धिं जिष्यति ॥ ६५ ॥ यथोपसर्गेऽपि निसर्गधैर्यात स कामदेवो व्रततत्परः सन् । श्लाघ्योऽभवत् तीर्थकृतां तथाऽन्येऽप्येवंविधा धन्यतमाः पुमांसः ||६६ || १३९ ॥ ॥ इति कामदेवकथानकं सपूर्णम् ॥ इदमपि निद्राच्छेदे चिन्तयेत् — जिनो देवः कृपा धर्मो गुरवो यत्र साधवः । श्रावकत्वाय कस्तस्मै न श्लाघेताविमूढधीः १ ॥ १४० ॥ श्रावका उक्तनिर्वचनास्तेषां भावः श्रावकत्वं तस्मै श्रावकत्वाय को न श्लाघेत ? सर्वः श्लाघेतैव, मुक्त्वा मोहमूढान् । अत एवाह - अविमूढधीः; मूढबुद्धीनां ह्यतश्वदर्शिनां तैमिरिकाणामिव चन्द्रद्वितय- शङ्खपीतिमदर्शिनां या भूत् श्रावकत्वाय श्लाघा, अमूढबुद्धयस्तु तत्त्वदर्शित्वात् श्लाघन्त एव । तस्मै इति तत्संबन्धिनं यच्छन्दमाह — यत्र श्रावकत्वे जिनो रागादिदोषजेता देवः पूज्यो न तु रागादिमान्, कृपा दुखितदुःखप्रहाणेच्छा धर्मोऽनुष्ठेयरूपो न तु हिंसात्मको यागादिः साधवः पञ्चमहाव्रतरताः गुरखो धर्मोपदेष्टारो न तु परिग्रहारम्भसक्ताः ॥१४०॥ तथा निद्राच्छेदे तांस्तान् मनोरथान् सप्तभिः श्लोकैगह जिनधर्म विनिर्मुक्तो मा भूर्वं चक्रवर्त्यपि । स्यां चेटोऽपि दरिद्रोऽपि जिनधर्माधिवासितः ॥ १४१ ॥ 9 तृतीय प्रकाशः ||५३४॥ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकाशा योग शास्त्रम् ॥५३५।। जिनधर्मेण ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपेण विनिर्मुक्तो रहितश्चक्रवर्त्यपि सार्वभौमोऽपि मा भूवं मा जनिषि, तस्य नरकमूलत्वातः किन्तु स्यां भवेयं चेटोऽपि दासोऽपि दरिद्रोऽपि दुःस्थितोऽपि, कथंभूतः ? जिनधर्मेणोक्तस्वरूपेणाधिवासितः ॥ १४१ ॥ तथा त्यक्तसङ्गो जीर्णवासा मलक्लिन्नकलेवरः । भजन माधुकरी वृत्तिं मुनिचर्या कदा श्रये॥१४२॥ । त्यक्ता गृहगृहिणीप्रभृतयः सङ्गा येन स त्यक्तसङ्गः, जीर्ण जरद वासो यस्य स जीर्णवासः, मलेन क्लिन्नं कलेवर' यस्य स मलक्लिन्नकलेबरः, मधुकरस्येयं माधुकरी माधुकरीव माधुकरी वृत्तिर्भिक्षा तां भजन् सेवमानः, यदाहुः,१जहा द्रुमस्स पुप्फेसु भमरो आविभइ रसं । न य पुप्फ किलामेइ सो य पीणेइ अप्पयं ॥ १ ॥ एमेए समणा मुत्ता जे लोए संति साहुणो । विहगमा व पुप्फेसु दानभत्तेषणे रया ॥ २ ॥ वयं च वित्ति लब्भामो न य कोवुवहम्मइ । अहागडेसु रीयंते पुप्फेसु भमरा जहा ॥ ३ ॥ मुनीनां चर्या मूलगुणोत्तरगुणरूपा तां कदा कहिं श्रये श्रयिष्यामि, कदाकोर्नवा ॥ ५ । ३ ॥८॥ इति (१) यथा द्रुमस्य पुप्पेषु भ्रमर आपिबति रसम् । न च पुष्पं क्लमयति स च प्रीणात्यात्मानम् ॥ १॥ एवमेते श्रमणा मुक्ता ये लोके सन्ति साधवः । विहङ्गमा इव पुष्पेषु दानभक्तपणे रताः ॥ २ ॥ वयं च वृत्तिं लप्स्यामो न च कोऽप्युपहन्यते । यथाकृतेषु रीयन्ते पुष्पेषु भ्रमरा यथा ॥ ३ ॥ ॥५३५।। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥५३६॥ वत्स्यति वर्तमाना ॥ १४२ ॥ त्यजन् दुःशीलसंसर्ग गुरुपादरजः स्पृशन् । कदाहं योगमभ्यस्यन् प्रभवेयं भवच्छिदे ॥१४३॥ दुःशीला लौकिका लोकोत्तराश्च । तत्र लौकिका दुःशीला रिट-भट-भण्ड-गणिकादयः, लोकोत्तरास्तु पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्तयथाच्छान्दास्तैः संसर्ग संवासादिरूपं, त्यजन् परिहरन् । न च तन्मात्रेण भवतीत्याह-- गुरुपादरजः स्पृशन् । अनेन सत्संसर्गमाह । न चैतावताप्यलमित्याह – योगमभ्यस्यन् योगो रत्नत्त्रयं ध्यानं वा तमभ्यस्यन् पुनः पुनः परिशीलयन् कदाहं प्रभवेयं प्रभविष्यामि । कस्यै ? भविच्छदे संसारोच्छेदाय ।। १४३ ।। तथा महानिशायां प्रकृते कायोत्सर्गे पुराद् बहिः । स्तम्भवत् स्कन्धकषणं वृषाः कुर्युः कदा मयि ॥ १४४ ॥ महानिशायां निशीथे, कायोत्सर्गे प्रकृते प्रारब्धे पुराद् बहिर्नगराद् बाह्यप्रदेशे स्तम्भ इव स्तम्भवद् मयि स्कन्धकषणं स्कन्धकण्डूयनं कदा वृषा उत्सृष्टपशवः कुर्युः करिष्यन्ति । इदं च प्रतिमाप्रतिपन्नश्रावकविषयम्, तस्यैव पुराद् बहिष्कृत कायोत्सर्गस्य शिलास्तम्भभ्रान्त्या वृषभैः स्कन्धकषण संभवः, प्रैप्सितयत्यवस्थापेक्षं वा यतीनां जिनकल्पिकादीनां सर्वदा कायोत्सर्गसंभवात् ॥ १४४ ॥ तथा वने पद्मासनासीनं क्रोडस्थितमृगार्भकम् । कदाऽप्रास्यन्ति वक्त्रे मां जरन्तो मृगयूथपाः॥ १४५॥ वनेऽरण्डे पद्मासनं वक्ष्यमाणं तेनासीनमुपविष्टम्, अहिंस्रत्वेन क्रोड उत्सङ्गे स्थिता मृगार्भका मृगडिम्भा *CKERESTOCKOO तृतीय प्रकाशः ॥५३६॥ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५३७॥ तृतीय प्रकाशा योग यस्य तं क्रोड स्थितमृगार्भकम्, एवंविधं मामपरिकर्मशरीरं कदा वक्त्रे आघ्रास्यन्ति, के ? मृगयूथपा मृगयूथाधिशास्त्रम् पतयः, किंविशिष्टाः ! जरन्तो वृद्धाः। जरन्तो हि यथाकथश्चित् न विश्वसन्ति, परमसमाधिनिश्चलतासंदर्शनात् तेऽपि विश्वस्ताः सन्तो जातिस्वभावाद् वक्त्रे आजिघ्रन्ति ॥१४५॥ तथा-- | शत्रौ मित्रे तृणे स्त्रैणे स्वर्णेऽश्मनि मणौ मृदि । मोक्षे भवे भविष्यामि निर्विशेषमतिः कदा।१४६।। शत्रौ रिपौ, मित्रे सुहृदि, तृणे शष्पादौ स्त्रैणे स्त्रीसमूहे, स्वर्णे काश्चने, अश्मन्युपले, मणौ रत्ने, मृदि मृत्तिकायाम, मोक्षे कर्मवियोगलक्षणे, भवे कर्मसंबन्धलक्षणे, निर्विशेषमतिस्तुल्यमतिः कदा भविष्यामि । शत्रुमित्रादिषु निर्विशेषमतित्वमप्यन्यस्यापि भवेत, असौ तु परमवैराग्योपगतो मोक्ष-भवयोरपि निविशेषत्वमर्थयते, यदाह.-"मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिसत्तमः" इति । एते च मनोरथाः क्रमेणोत्तरोत्तरप्रकर्षवन्तः, तथाहि-प्रथमे श्लोके जिनधर्मानुरागमनोरथः, द्वितीये तु यतिधर्मपरिग्रहमनोरथः, तृतीये तु यतिचर्याकाष्ठाधिरोहणमनोरथः, चतुर्थे तु कायोत्सर्गादिमनोरथः, पञ्चमे तु गिरि-गुहाद्यवस्थितमुनिचर्यामनोरथः, षष्ठे तु परमसामायिकपरिपाकमनोरथः ॥१४६॥ इदानीमुपसंहरति| अधिरोढं गुणश्रेणि निःश्रेणी मुक्तिवेश्मनः। परानन्दलताकन्दान् कुर्यादिति मनोरथान् ।१४७॥ अधिरोदुमारोढुं गुणश्रेणिमुत्तरोत्तरगुणस्थानरूपाम्, किंविशिष्टाम् ! निःश्रेणीमिव निःश्रेणीम् , कस्य ? ArianaमानKA ॥५३७॥ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग तृतीय प्रकाशा शास्त्रम् ॥५३८॥ मुक्तलक्षणस्य वश्मना मान्दरस्य, कुयोद विदध्यात् इति श्लोकषट्कनाक्तान् मनोरथान्, किावशिष्टान् । परानन्दलताकन्दान् परश्वासावानन्दश्च स एव लता तस्याः कन्दान् कन्दभूतान् । यथा हि कन्दाल्लता प्रभवति तथैतेभ्योऽपि मनोरथेभ्यः परो य आनन्दः परमसामायिकरूपः स प्रभवति । सप्तभिः कुलकम् ॥१४७॥ ____ अथोपसंहरतिइत्याहोरात्रिकी चर्यामप्रमत्तः समाचरन् । यथावदुक्तवृत्तस्थो गृहस्थोऽपि विशुध्यति ॥१४८॥ इति पूर्वोक्तक्रमेण, अहोरात्रे भवामाहोरात्रिकी चर्या समाचाररूपामप्रमत्तः प्रमादरहितः समाचारन् सम्यक कुर्वन् , उक्तं जिनागमेऽभिहितं यद् वृत्त प्रतिमादिलक्षण तत्र तिष्ठतीत्युक्तवृत्तस्थः, कथम् ? यथावत् सम्यविधिना, गृहस्थोऽपि यतित्वमप्राप्नुवन्नपि विशुध्यति क्षीणपापो भवति । ___ अथ पुनः काः प्रतिमाः यासु स्थितो गृहस्थोऽपि विशुध्यति ! उच्यते-शङ्कादिदोषरहितं प्रशमादिलिङ्गं स्थैर्यादिभूषणं मोक्षमार्गप्रासादपीठभूतं सम्यग्दर्शन भय-लोभ-लज्जादिभिरप्यनतिचरन् मासमात्रं सम्यक्त्वमनुपालयति, इत्येषा प्रथमा प्रतिमा ।१। द्वौ मासौ यावदखन्डितान्यविराधितानि च पूर्वप्रतिमानुष्ठानसहितानि द्वादशापि व्रतानि पालयतीति द्वितीया ।२। त्रीन् मासानुभयकालमप्रमत्तः पूर्वोक्तप्रतिमानुष्ठानसहितः सामायिकमनुपालयतीति तृतीया । ३ । चतुरो मासांश्चतुष्पा पूर्वप्रतिमानुष्ठानसहितोऽखण्डितं पौषधं पालयतीति चतुर्थी ।४।। पञ्च मासांश्चतुष्पा गृहे तद्वारे चतुष्पथे वा परीषहोपसर्गादिनिष्कम्पकायोत्सर्गः पूर्वोक्तप्रतिमानुष्ठान ॥५३८॥ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥५३९।। पालयन् सकलां रात्रिमास्त इति पञ्चमी । ५। एवं वक्ष्यमाणास्वपि प्रतिमासु पूर्वपूर्वप्रतिमानुष्ठाननिष्ठिता अवसेयाः, नवरं षण्मासान् ब्रह्मचारी भवतीति षष्ठी।६। सप्त मासान् सचित्ताहारान् परिहरतीति सप्तमी । ७ । अष्टौ मासान् स्वयमारम्भं न करोतीत्यष्टमी । ८ । नव मासान् प्रष्यैरप्यारम्भं न कारयतीति नवमी । ९ । दश मासानात्मार्थनिष्पन्नमाहारं न भुक्त इति दशमी । १०। एकादश मासान् त्यक्तसङ्गो रजोहरणादिमुनिवेषधारी कृतकेशोत्पाटः स्वायत्तेषु गोकुलादिषु वसन् 'प्रतिमाप्रतिपनाय श्रमणोपासकाय भिक्षां दत्त' इति वदन् धर्मलाभशब्दोच्चारणरहितं सुसाधुवत् समाचरतीत्येकादशी । उक्तं हि;दसणपडिमा नेआ सम्मत्तजुअस्स जा इहं बुंदी। कुग्गहकलंकरहिआ मिच्छत्तखओवसमभावा ॥ १ ॥ बीआ पडिमा णेया सुद्धाणुन्वयधारणं । सामाइअपडिमाओ सुद्धं सामाइयं पि अ ॥२॥ अहमीमाइपव्वेसु सम्म पोसहपालणं । सेसाणुढाणजुत्तस्स चउत्थो पडिमा इमा ॥ ३ ॥ (१) दर्शनप्रतिमा ज्ञेया सम्यक्त्वयुतस्य येह तनुः । कुग्रहकलङ्करहिता मिथ्यात्वक्षयोपशमभावात् ॥ १ ॥ द्वितीया प्रतिमा ज्ञेया शुद्धाणुव्रतपालन (धारण)म् । सामायिकप्रतिमातः शुद्धं सामायिकमपि च ॥ २॥ अष्टम्यादिपर्वसु सम्यक् पौषधपालनम् । शेषानुष्ठानयुक्तस्य चतुर्थों प्रतिमेयम् ॥ ३ ॥ ॥५३॥ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाश ॥५४॥ निकंपो काउसगं तु पुव्वुत्तगुणसंजुओ । करेइ पव्वराईसु पंचमि पडिवनओ ॥ ४ ॥ छट्ठीए बंभयारी सो फासुआहार सत्तमी । वज्जे सावजमारंभं अहमि पडिवनओ ॥ ५ ॥ अवरेणावि आरंभं नवमी नो करावए । दसमीए पुणोद्दिढ फासुझं पि न भुंजए ॥ ६ ॥ एक्कारसीइ निस्संगो धरे लिंगं पडिग्गई । कयलोओ सुसाहु ब्व पुन्वुत्तगुणसायरो ॥ ७ ।। इति ॥ १४८।। इदानीं पञ्चभिः श्लोकैर्विधिशेषमाहसोऽथावश्यकयोगानां भङ्गे मृत्योरथागमे । कृत्वा संलेखनामादौ प्रतिपद्य च संयमम् ॥१४९॥ | जन्मदीक्षाज्ञानमोक्षस्थानेषु श्रीमदर्हताम् । तदभावे गृहेऽरण्ये स्थण्डिले जन्तुवर्जिते ॥१५०॥ त्यक्त्वा चतुर्विधाहारं नमस्कारपरायणः । आराधनां विधायोच्चैश्चतुःशरणमाश्रितः ॥१५१॥ | इहलोके परलोके जीविते मरणे तथा । त्यक्त्वाशंसा निदानं च समाधिसुधयोक्षितः ॥१५२ (१) निष्कम्पः कायोत्सगं तु पूर्वोक्तगुणसंयुतः । करोति पर्वरात्रीषु पञ्चमी प्रतिपन्नकः ॥ ४ ॥ षष्ठयां ब्रह्मचारी स प्रासुकाहारः सप्तम्याम् । वर्जयेद् सावधमारम्भमष्टमी प्रतिपन्नकः ।। ५ ॥ अपरेणाप्यारम्भ नवम्यां नो कारयेत् । दशम्यां पुनरुद्दिष्टं प्रासुकमपि न भुञ्जीत ॥ ६ ॥ एकादश्यां निस्सङ्गो धरेल्लिङ्गं प्रतिग्रहम् । कृतलोचः मुसाधुरिव पूर्वोक्तगुणसादरः ॥ ७ ॥ 1199Xolt Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् तृतीय प्रकाशा ॥५४१॥ परीषहोपसर्गेभ्यो निर्भीको जिनभक्तिभाक् । प्रतिपद्येत मरणमानन्दः श्रावको यथा ॥१५३॥ व्याख्या-स श्रावकः, अथानन्तरम्, आवश्यका अवश्यं करणीया ये योगाः संयमव्यापारास्तेषां भने कर्तुमशक्तावित्येकं कारणम्, अथ द्वितीय-मृत्योरागमे मृत्युसमये संप्राप्ते, संलिख्यते तक्रियते शरीरं कषायांचापनयेदिति संलेखना, तत्र शरीरसंलेखना क्रमेण भोजनत्यागः, कपायसंलेखना तु क्रोधादिकषायपरिहारः। तत्र प्रथमायाः कारणमिदम्, १देहम्मि असंलिहिए सहसा धाऊहि खिज्जमाणेहिं । जायइ अट्टज्झाणं सरीरिणो चरमकालम्मि ॥१॥ द्वितीयायाः पुनरिदम्,२न ते एयं पसंसामि किसं साहु सरीरयं । कीस ते अंगुली भग्गा भावं संलिह मा तुर ! ॥१॥ इत्यादिना प्रबन्धेनोक्तम् । संयमं च यथौचित्येन प्रतिपद्यते । तत्रेयं सामाचारी;-श्रावकः किल सकलस्य श्रावकधर्मस्योद्यापनार्थमिवान्ते संयम प्रतिपद्यते तस्य साधुधर्मशेषभूतैव संलेखना, यदाह;-३संलेहणा उ अंते न निओआ जेण पव्वअइ कोई। ततो यःसंयम प्रतिपद्यते स संयमानन्तरं काले संलेखनां कृत्वा मरणं प्रतिपद्यते। (१) देहेऽसंलिखिते सहसा धातुभिः खिद्यमानैः । जायत आर्तध्यानं शरीरिणश्चरमकाले ॥१॥ (२) न ते एतत् प्रशंसामि कृशं साधो ! शरीरकम् । कस्मात् तेऽगुलिर्भग्ना भावं संलिख मा त्वरस्व ॥१॥ (३) संलेखना त्वन्ते न नियोगाद येन प्रव्रजति कोऽपि । ॥५४१॥ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥५४२॥ यस्तु न संयम प्रतिपद्यते तं प्रति सकलो ग्रन्थः 'आनन्दः श्रावको यथा' इतिपर्यन्तः संबध्यते ॥१४६।। श्रीमदहेद्भट्टारकाणां जन्म-दीक्षा-ज्ञान- मोक्षस्थानेषुः तत्र जन्मस्थानानि,१इक्खागुभूमि उज्झा सावस्थि विणीय कोसलपुरं च । कोसंबी वाणारसि चंदाणण तह य कायंदी ॥१॥ भद्दिलपुरं सीहपुरं चंपा कंपिल्ल उज्झ रयणपुरं । तिन्नेव गयपुरम्मी मिहिला तह चेअ रायगिहं ॥२॥ मिहिला सोरिअनयरं वाणारसि तहय चेअ कुंडपुरं । उसभाईण जिणाणं जम्मणभूमी जहासंखं ॥३॥ दीक्षास्थानानि,२उसभो अ विणीआए बारवईए अरिद्ववरनेमी। अवसेसा तित्थयरा निक्खंता जम्मभूमीसु ॥१॥ उसभो सिद्धत्थवणम्मि वासुपुज्जो विहारगिहगम्मि । धम्मो अ वप्पगाए नीलगुहाए मुणीनामो ॥२॥ आसमपयम्मि पासो वीरजिणिंदो अनायसंडम्मि। अवसेसा निक्खंता सहसंबवणम्मि उज्जाणे ॥३॥ (१) इक्ष्वाकुभूमिरयोध्या श्रावस्ती विनीता कोशलपुरं च । कौशाम्बी वाणारसी चन्द्रानना तथा च काकन्दी ॥१॥ भदिलपुरं सिंहपुरं चम्पा कम्पिलाऽयोध्या रत्नपुरम् । त्रयाणामपि गजपुरं मिथिला तथा चैव राजगृहम् ।।२।। मिथिला शौर्यनगरं वाणारसी तथैव कुण्डपुरम् । ऋषभादीनां जिनानां जन्मभूम्यो यथासंख्यम् ॥३॥ (२) ऋषभो विनीतायां द्वारवत्यामरिष्टवरनेमिः। अवशेषास्तीर्थकरा निष्क्रान्ता जन्मभूमिषु ॥१॥ ऋषभः सिद्धार्थवने वासुपूज्यो विहारगृहके । धर्मश्च वप्रगायां नीलगुहायां मुनिनामा ॥२॥ आश्रमपदे पार्थों वीरांजनेन्द्रश्च ज्ञातपण्डे । अवशेषा निष्क्रान्ता सहलाम्रवण उद्याने ॥३॥ 1५४२॥ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् 1148311 ज्ञानस्थानानि ; १ उसभस्म पुरिमताले वीरस्सोज्जुवालिआनईतीरे । सेसाण केवलाई जेसुज्जाणेसु पव्वइआ ॥ १ ॥ मोक्षस्थानानि अद्वावयचंपोज्जितपावास मेअसेलसिहरेसु । उसभ वासुपुज्ज नेमी वीरो सेसा य सिद्धिगया ॥ १ ॥ तदभावे जन्म- दीक्षा - ज्ञान - मोक्षस्थान प्राप्त्यभावे गृहे यतिवसत्यादौ, अरण्ये शत्रुञ्जयादिषु सिद्धिक्षेत्रेषु, तेष्वपि भुवं निरीक्ष्य प्रमृज्य च जन्तुविवर्जिते स्थण्डिले, इदं च जन्मादिस्थानेष्वपि द्रष्टव्यम् || १५० ।। त्यक्त्वा परित्यज्य चतुर्विधाहारमशन-पान-खाद्य-स्वाद्यरूपम्, नमस्कारः पञ्चपरमेष्ठिस्तवः, तत्परायणस्तदनुस्मरणपरः, आराधना ज्ञानाद्याराधना तामतिचारपरिहारेण विधाय चतुर्णामईत्-सिद्ध-साधु-धर्माणां शरणं तेषु स्वात्मसमर्पणं चतुःशरणं तदाश्रितः, यदाहुः - ( ३अरहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धं सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलिपत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि' त्ति ।। १५१ ।। आहारपरिहारप्रतिपत्तिश्च पञ्चविधातिचारपरिहारेण कार्या; तदेवाह - इहलोके इहलोकविषये धन-पूजा कीर्त्यादिष्वाशंसा, परलोके परलोकविषये स्वर्गादावाशंसा, जीवितं प्राणधारणम्, तत्र पूजादिविशेषदर्शनात् प्रभूतपरिवारावलोकनात्, सर्वलोक श्लाघाश्रवणाच्चैवं मन्यते जीवितमेव (१) ऋपभस्य पुरिमताले वीरस्यर्जुवालिकानदीतीरे । शेषाणां केवलानि येषूद्यानेसु प्रव्रजिताः ॥ २ ॥ (२) अापद- चम्पो ज्जयन्त - पापा - संमेत शैलशिखरेषु । ऋषभ वासुपूज्य- नेमयो वीरः शेषाश्च सिद्धिगताः || १ || (३) अर्हतः शरणं प्रपद्ये, सिद्वान् शरणं प्रपद्ये साधून शरणं प्रपद्ये, केवलिप्रज्ञतं धर्मे शरणं प्रपद्य इति । दतीय प्रकाशः ॥५४३ ॥ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥५४४ ॥ ODOO श्रेयः प्रत्याख्यातचतुर्विधाहारस्यापि यत एवंविधा मदुद्देशेनेयं विभूतिर्वर्तत इत्याशंसा, मरणं प्राणत्यागः, तत्र यदा न कश्चित् तं प्रतिपन्नानशनं प्रति सपर्यया आद्रियते, न च कश्चित् श्लाघते, तदा तस्यैवंविधश्चित्तपरिणामो जायते, यदि शीघ्रं म्रिये इत्याशंसा तां त्यक्त्वा, निदानं च 'अस्मात् तपसो दुरनुचराज्जन्मान्तरे चक्रवर्ती, वासुदेव:, महामण्डलेश्वरः, सुभगः, रूपवान् स्याम्' इत्यादिप्रार्थनां त्यक्त्वा पुनः किंविशिष्टः ! समाधिसुधयोक्षितः समाधिः परमस्वास्थ्यं स एव सुधाऽमृतं तयोक्षितः सिक्तः ।। १५२ ।। परीषदेभ्यो निर्भयो जितपरीषद इत्यर्थः, तत्र मार्गाच्यवन-निर्जराथ परिषद्यन्त इति परीषहाः, ते च द्वाविंशतिः, तद्यथाः क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यार तिस्त्रीचर्य्यानिषद्याशय्याऽऽक्रोशवधयाश्चाऽलाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारप्रज्ञाज्ञानदर्शनलक्षणाः, तेषां जयश्चैवम् ; क्षुदार्तः शक्तिभाक् साधुरेषणां नातिलङ्घयेत् । अदीनो विहलो विद्वान् यात्रामात्रोद्यतश्चरेत् ॥ १ ॥ पिपासितः पथिस्थोऽपि तत्वविद् दैन्यवर्जितः । न शीतमुदकं वाच्छेदेषयेत् प्रासुकोदकम् ॥ २ ॥ बाध्यमानोऽपि शीतेन त्वग्-वस्त्र-त्राणवर्जितः । वासोऽकल्प्यं नाददीत ज्वलनं ज्वलयेद् न च ॥ ३॥ उष्णेन तप्तो नैवोष्णं निन्देच्छायां चन स्मेरत् । वीजनं मज्जनं गात्राभिषेकादि च वर्जयेत् ॥ ४ ॥ दष्टोऽपि दशैर्मशकैः सर्वाहारप्रियत्ववित् । त्रासं द्वेषं निरासं न कुर्यात् कुर्यादुपेक्षणम् ||५|| नास्ति वासोऽशुभं चैतद् तभेच्छेत् साध्वसाधु वा । नाग्न्येन विप्लुतो जानल्लाभालाभविचित्रताम् ॥६॥ न कदाप्यरतिं कुर्याद् धर्मारामरतिर्यतिः । गच्छंस्तिष्ठ॑स्तथासीनः स्वास्थ्यमेव समाश्रयेत् || ७ || दुर्ध्यानसङ्गपङ्का हि मोक्षद्वारार्गलाः स्त्रियः । चिन्तिता धर्मनाशाय चिन्तयेदिति तृतीय प्रकाशः ॥५४४ ॥ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशास्त्रम् प्रकाशा नैव ताः॥ ८॥ ग्रामाद्यनियतस्थायी स्थानावन्धविवर्जितः। चर्यामेकोऽपि कुर्वीत विविधाभिग्रहैर्युतः ॥ ९॥ श्मशानादौ निषद्यायां स्न्यादिकण्टकवजिते । इष्टानिष्टानुपसर्गान् निरीहो निर्भयः सहेत् ॥ १०॥ शुभाशुभायां शय्यायां विषहेत सुखासुखे । राग-द्वेषौ न कुर्वीत प्रातस्त्याज्यति चिन्तयेत् ॥ ११॥ आक्रुष्टोऽपि हि नाक्रोशेत क्षमाश्रमणतां विदन् । प्रत्युताक्रोष्टरि यतिश्चिन्तयेदुपकारिताम् ॥१२॥ सहेत हन्यमानोऽपि प्रतिहन्याद् मुनिन तु । जीवानाशात् क्रुधो दौष्टचात् क्षमया च गुणार्जनात् ॥ १३॥ नायाचितं यतीनां यत् परदत्तोपजीविनाम् । याचा दुःखं प्रतीच्छेत् तद् नेच्छेत् पुनरगारिताम् ।। १४ ।। परात् परार्थ स्वार्थ वा लभेतानादि नापि वा । मायेद न लाभाद नागभाद् निन्देत् स्वमथवा परम् ॥१५॥ उद्विजेत न रोगेभ्यो न च काक्षेच्चिकित्सितम् । अदीनस्तु सहेद देहाज्जानानो भेदमात्मनः ।। १६ ॥ अभूताल्पाणुचेलत्वे संस्तुतेषु तृणादिषु । सहेत दुःखं तत्स्पर्शभवमिच्छेद् न तान् मृदन् ॥ १७ ॥ ग्रीष्मातपपरिक्लिन्नात् सर्वाङ्गीणाद् मलाद् मुनिः। नोद्विजेत न सिस्नासेद् नोद्वर्तयेत् सहेत तु ॥ १८ ॥ उत्थाने पूजने दाने न भवेदभिलाषुकः। असत्कारे न दीनः स्यात् सत्कारे स्यान हर्षवान् ॥१९॥ प्रज्ञा प्रज्ञावतां पश्यन्नात्मन्यप्राज्ञतां विदन् । न विषीदेद् न वा मायेत् प्रज्ञोत्कर्षमुपागतः॥ २०॥ ज्ञानचारित्रयुक्तोऽस्मि च्छद्मस्थोऽहं तथापि हि । इत्यज्ञानं विषहेत ज्ञानस्य क्रमलाभवित् ॥ २१॥ जिनास्तदुक्तं जीवो वा धर्माधर्मों भवान्तरम् । परोक्षत्वाद् मृषा नैव चिन्तयेत् प्राप्तदर्शनः ॥२२॥ शारीरमानसानेवं स्वपरप्रेरितान् मुनिः। परीषहान् सहेताभीर्वाक्कायमनसां वशी ॥२२॥ ज्ञानावरणीये वेध मोहनीयान्तराययोः। कर्मसूदयमाप्तेषु संभवन्ति परीषहाः ॥२४॥ वेद्यात् स्यात् क्षुत् तृषा शीतमुष्णं दंशादयस्तथा। चर्या शय्या वधो Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥५४६॥ रोगस्तृणस्पर्शमलावपि ॥२५॥ प्रज्ञाज्ञाने तु विज्ञेयौ ज्ञानावरणसंभवौ। अन्तरायादलाभोऽमी च्छद्मस्थस्य चतुर्दश ॥२६॥ क्षुत् पिपासा शीतमुष्णं दंशाश्चर्या वधो मलः । शय्या रोगस्त गस्पर्शी जिने वेद्यस्य संभवात् ॥२७॥ तथा उपसर्गेभ्यो निर्भीकः, तत्रोप सामीप्येन उपसर्जनादुपसृज्यत एभिरिति वा, उपसृज्यन्त इति वोपसर्गाः, ते च; दिव्यमानुपतैरश्चात्मसंवेदनभेदतः । चतुष्प्रकाराः प्रत्येकमपि ते स्युश्चतुर्विधाः ॥१॥ हास्याद् द्वेषाद् विमर्शाच्च तन्मिश्रत्वाच्च देवताः। हास्याद् द्वेषाद् विमर्शाद दुःशीलसङ्गाच्च मानुषाः ॥२॥ तैरश्चास्तु भयक्रोधाहारापत्यादिरक्षणात् । घट्टनस्तम्भनश्लेषप्रपातादात्मवेदनाः ॥३॥ यद्वा वात-पित्त-कफ-संनिपातोद्भवा अमी। परीषहोपसर्गाणामेषां सोढा भवेदमीः ॥४॥ जिनेष्वाराधनाकारिषु भक्तिभाक् बहुमानभाक, 'जिनैरपि हि संसारपारावारपारीणैः पर्यन्ताराधनानुष्ठिता इति बहुमानात् । तथा च, १निव्वाणमंतकिरिआ सा चोइसमेंण पढमनाहस्स। सेसाण मासिएणं वीरजिणंदस्स छठेण ॥१॥ एवंभूतः सन् मरणं समाधिमरणं प्रतिपद्येत, आनन्दश्रावको यथेति संप्रदायगम्यम् । स चायम्:-- अस्त्यपास्तापरपुरं परमाभिर्विभूतिभिः नाम्ना वाणिजकग्राम इति ख्यातं महापुरम् ॥१॥ तत्र प्रजानां विधिवत् पितेव परिपालकः जितशत्रुरिति ख्यातो बभूव पृथिवीपतिः ॥२॥ आसीद् गृहपतिस्तस्मिन् नयनानन्दिदर्शनः । आनन्दो नाम मेदिन्यामायात इव चन्द्रमाः ॥३॥ सधर्मचारिणी तस्य रूपलावण्यहारिणी। बभूव शिवनन्देति शशाङ्कस्येव रोहिणी ॥४॥ निधौ वृद्धो व्यवहारे चतस्रोऽस्य पृथक् पृथक् । हिरण्यकोटयोऽ (१) निर्वाणमन्तक्रिया सा चतुर्दशेन प्रथमनाथस्य । शेषाणां मासिकेन वीरजिनेन्द्रस्य षष्ठेन ॥१॥ ॥५४६॥ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥५४७॥ भूत्वारश्च व्रजा गवाम् ||५|| तत्पुरादुत्तर प्राच्यां कोल्लाकाख्योपपत्तने । आनन्दस्यातिबहवो बन्धुसंबन्धिनोऽभवन् ॥ ६ ॥ तदा च पृथिवीं विहरन् जिनः सिद्धार्थनन्दनः । तत्पुरोपवने दूतिपलाशे समवासरत् ॥ ७ ॥ जितशत्रुर्महीनाथ त्रिजगन्नाथमागतम् । श्रुत्वा ससंभ्रमोऽगच्छद् वन्दितुं सपरिच्छदः ॥ ८ ॥ आनन्दोऽपि ययौ पद्भ्यां पादमूले जगत्पतेः । कर्णेपीयूषगण्डूषकल्पां शुश्राव देशनाम् ॥९॥ अथानन्दः प्रणम्यांही त्रिजगत्स्वामिनः पुरः । जग्राह द्वादशविधं गृहिधर्म महामनाः ॥ १० ॥ शिवनन्दामन्तरेण स्त्रीः स तत्याज हेम तु । चतस्रश्वतखः स्वर्णकोटी र्निध्यादिगा विना ॥ ११ ॥ प्रत्याचख्यौ व्रजानेष ऋते च चतुरो व्रजान । क्षेत्रत्यागं च विदधे हलपञ्चशतीं विना || १२ || शकटान् वर्जयामास पञ्च पञ्च शतान्यृते । दिग्यात्राच्यापृतानां च वहतां चानसामसौ ॥ १६ ॥ दिग्यात्रिकाणि चत्वारि स सांवहनिकानि च । विहाय वहनान्यन्यवनानि व्यवर्जयत् ॥ १४ ॥ अपरं गन्धकाषाय्याः स तत्याजाङ्गपुंसनम् । दन्तधावनमार्द्राया मधुयष्टेते जहाँ || १५ || वर्जयामास च क्षीरामलकादपरं फलम् । अभ्यङ्गं च विना तैले सहखशतपाकिमे ||१६|| अन्यत् सुरभिगन्धाढ्यादुद्वर्तनक मत्यजत् । अष्टभ्य औष्ट्रिकपयस्कुम्भेभ्योऽन्यच्च मज्जनम् ॥ १७ ॥ अपरं क्षौमयुगलाद् वासः सर्वमवर्जयत् । श्रीखण्ड गुरु घुसृणान्यपास्यान्यद् विलेपनम् ||१८|| ऋते च मालतीमाल्यात् पद्माच्च कुसुमं जहौ । कर्णिकानाममुद्राभ्यामन्यच्चाशेषभूषणम् ||१९|| तुरुष्कागुरुधूपेभ्य ऋते धूपविधिं जहौ । घृतपूरात् खण्डखाद्यादपरं भक्ष्यमत्यजत् ।। २० ।। काष्ठपेयां विना पेयां कलमादन्यदोदनम् । मासमुद्रकलायेभ्य ऋते सूपमपाकरोत् ॥ २१ ॥ घृतं च वर्जयामास बिना शारदगोघृतात् । शाकं स्वस्तिकमण्डूकीं पालक्यां च विना जहाँ ॥ २२ ॥ ऋते स्नेहाम्ल ECOND ORTOHOTO 0050 तृतीय प्रकाशः ॥५४७॥ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय योगशास्त्रम् प्रकाशा १५४८॥ दाल्यम्लात् तीमनं चाम्बु खाम्बुनः । पञ्चसुगन्धिताम्बूलाद् मुखवासं च सोऽमुचत् ॥२३ ॥ आनन्दः शिवनन्दाया उपेत्याथ ससमदः । अशेषं कथयामास गृहिधर्म प्रतिश्रुतम् ॥ २४ ॥ शिवाय शिवनन्दापि यानमारुह्य तत्क्षणम् । भगवत्पादमूलेऽगाद् गृहिधर्मार्थिनी ततः ॥२५॥ तत्र प्रणम्य चरणौ जगत्त्रयगुरोः पुरः । प्रपेदे शिवनन्दापि गृहिधर्म समाहिता ॥ २६ ॥ अभिरुह्य ततो यानं विमानमिव भासुरम् । भगवद्वाक्सुधापानमुदिता सा गृहं ययौ ॥२७॥ अथ प्रणम्य सर्वज्ञमिति पप्रच्छ गौतमः । महात्मायं किमानन्दो यतिधर्म ग्रहीष्यति ? ॥ २८ ॥ त्रिकालदर्शी भगवान् कथयामासिवानिति । श्रावकव्रतमानन्दः मुचिरं पालयिष्यति ॥ २९ ॥ ततः सौधर्मकल्पेऽसौ विमाने चारुणप्रभे । भविष्यत्यमरवरश्चतुष्पल्योपमस्थितिः ॥३०॥ सततं जागरूकस्य द्वादशव्रतपालने । आनन्दस्य ततोऽतीयुर्हायनानि चतुर्दश ॥३१॥ निशान्ते चिन्तयामास सोऽन्येधुरिति शुद्धधीः । आश्रयः श्रीमतामस्मि भूयसामिह पत्तने ॥ ३२ ॥ विक्षिप्तश्चिन्तया तेषां मा स्म स्खलमहं कचित् । अङ्गीकृतेऽस्मिन् सर्वज्ञप्रज्ञप्ते धर्मकर्मणि ॥३३॥ ततो मनसिकृत्यैवं प्रातरुत्थाय कृत्यवित् । कोल्लाके पोषधशालां सुविशालामचीकरत् ॥ ३४ ॥ निमन्त्र्य मित्रसंबन्धिबान्धवादीनसावथ । भोजयित्वाऽखिलं ज्येष्ठे भारं पुत्रेऽध्यरोप, यत् ॥३५॥ ततश्च पुत्रमित्रादीन् सर्वानप्यनुमान्य सः । ययौ पौषधशालायां धर्मकर्मविधित्सया ॥४६ ॥ तस्थौ तत्र महात्मासौ कर्मेव कृशयन् वपुः। धर्म भगवदादिष्टमात्मानमिव पालयन् ॥ ३७ ॥ निःश्रेणिकल्पां स्वर्गापवर्गसौधाधिरोहणे । श्रावकप्रतिमापक्तिमारुरोह क्रमेण सः ॥३८॥ तपसा तेन तीव्रण शुष्कासपिशिताङ्गकः। चर्मवेष्टितयष्टयाभो महासत्वो बभूव सः ॥ ३९ ॥ धर्मजागयया जाग्रनिशीथसमयेऽन्यदा । अभनस्तपसानन्दश्च ॥५४८॥ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥५४९ ॥ तस्येवमचिन्तयत् ||४० ॥ यावदुत्थातुमीशोऽस्मि शब्दायितुमपीश्वरः । धर्माचार्यश्च भगवान् यावद् विहरते मम ॥४१॥ संलेखनामुभयथापि कृत्वा मारणान्तिकीम् । तावच्चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं करोम्यहम् ||४२॥ चिन्तविमानन्दस्तथैव विदधेऽपि च । विसंवदति चिन्तायाचेष्टितं न महात्मनाम् ||४३|| निराकाङ्गक्षस्य कालेऽपि समत्वाध्यवसायिनः । तस्य जज्ञेऽवधिज्ञानं तदावरण शुद्वितः ॥ ४४ ॥ तत्राजगाम भगवान् श्रीवीरो विहरंस्तदा । दुतिपलाशे समवासरच्चक्रे च देशनाम् ||४५ || गौतमश्च तदा भिक्षाचर्यया प्राविशत् पुरे | आत्तान्नपानः कोलाके ययावानन्दभूषिते ||४६ || मिलितं तत्र भूयांसं लोकं संजातविस्मयम् ||४७|| शिष्यो जगद्गुरोर्वीरस्यानन्दो नाम पुण्यधीः । प्रपन्नानशनोऽस्वीह: निरीह सर्वथापि हि ||४८ || गौतमस्तु तदाकर्ण्य पश्याम्यमुपासकम् इति बुद्धया जगामाथ तत्पोपधनिकेतनम् ||४९ || अकस्माद् रत्नवृष्टयाभं तमचिन्तितमागतम् । दृष्ट्वा सानन्दमानन्दो - ऽवन्दतैवमुवाच च ॥ ५० ॥ भगवन् ! तपसाऽनेन क्लिष्टमुत्थातुमक्षमः । इह्यनभियोगेन यथा पादौ स्पृशामि ते ॥ ५१ ॥ उपेत्य पुरतस्तस्य तस्थुषोऽस्य महामुनेः । अवन्दत त्रिधानन्दवरणौ शिरसा स्पृशन् ॥५२॥ किं भवत्यवधिज्ञानं भगवन् गृहमेधिनः १ । इत्यानन्देन पृष्टः सन्नामेत्यूचे महामुनिः ॥ ५३॥ आनन्दोऽथावदत् स्वामिन् ! तर्हि गृहमेधिनः । अवधिज्ञानमुत्पेदे गुरुपादप्रसादतः ॥ ५४ ॥ आपं च योजनशतीं पूर्वाब्धौ दक्षिणोदधौ । पश्चिमाब्धौ च वीक्षेऽहमुदीच्यां त्वा हिमाचलात् ॥ ५५ ॥ ऊर्ध्वं सौधर्मकल्पादा पश्यामि भगवन्नम् । अधो रत्नप्रभायास्तु पृथ्व्या आ लोलुपाद् वनात् ॥ ५६ ॥ मुनिरुवेऽवधिज्ञानं जायते गृहमेधिनः । न त्वियन्मात्रविषयं स्थानस्यालोचयास्य तत् ||५७|| आनन्दोऽप्यब्रवीदेतदस्ति मे तत् सतामपि । भावानामभिधाने किं भवेदालो 2000 तृतीय प्रकाशः 1198811 Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् तृतीय प्रकाशा ॥५५०॥ चना कचित् ? ॥५८॥ भवेदालोचना नो चेद ननु तद् यूयमेव हि । आलोचनामाददीध्वं स्थानस्यामुष्य संप्रति ॥५९|| आनन्देनेत्यभिहिते साशङ्को गौतमस्ततः । ययौ श्रीवीरपादान्ते भक्तपानाधदर्शयत् ॥६॥ आनन्दस्यावधिज्ञानमानविप्रतिपत्तिजम् । वादं चावेदयाञ्चक्रे गौतमस्तं जगद्गुरोः ॥६॥ आलोचनीयं तदिह किमानन्देन किं मया ? गौतमेनेति विज्ञप्ते भवतेत्यादिशत् प्रभुः ॥६२॥ तथैव प्रतिपेदे तद् विदधे च तथैव सः। क्षमयामास चानन्दं क्षमिणं क्षमिणां वरः ॥६३।। वर्षाणि विंशतिमिति प्रतिपाल्य धर्म-मानन्द आसददथानशनेन मृत्युम् । जज्ञे सुरोऽरुणविमानवरे विदेहेवृत्पद्य यास्यति पदं परमं ततश्च ॥६॥१५३।। ॥ इति आनन्दश्राद्धकथानकम् ।। अथ प्रकृतस्य श्रावकस्योत्तरां गतिं श्लोकद्वयेनाहप्राप्तः स कल्पेष्विन्द्रत्वमन्यद्वास्थोनमुत्तमम् । मोदतेऽनुत्तरप्राज्यपुण्यसंभारभाक ततः ॥१५४॥ च्युत्वोत्पद्य मनुष्येषु भुक्त्वा भोगान् सुदुर्लभान् । विरक्तो मुक्तिमानोति शुद्धात्मान्तर्भवाष्टकम् ॥१५५॥ व्याख्या–स श्रावको यथोक्तश्रावकधर्मपरिपालनात् कल्पेषु, सौधर्मादिषु, सम्यग्दृष्टीनामन्यत्रोत्पादाभावात इन्द्रत्वं शक्रत्वम्, अन्यद् वा सामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषद्य-लोकपालादिसंबन्धि स्थानं पदं प्राप्तः, उत्तममित्या ॥५५॥ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् 1149811 For OR O भियोग्यादिस्थानव्यवच्छेदार्थम्, तत्रोत्पन्नश्च मोदते प्राप्तरत्नविमानमहोद्यानमज्जनवापीविचित्ररत्नवस्त्राभरणः सुरसुन्दरीचामरव्यजनव्याजवार्यमाणमौलिमन्दारमाल्यमधुकरोऽहमहमिका सेवासमायातत्रिदशकोटीचाटुकारजयजयध्वनिप्रतिध्वनितनभोङ्गणो मनोमात्र परिश्रमसंमिलितसकलवैपीयकसुखलालितो नानासिद्धायतनयात्रासमुत्पन्नहर्ष प्रकर्षः सन् प्रमोदभाग् भवति । अथ हेतुमाह — — अनुत्तरा अनन्यसाधारणाः प्राज्या बहवो ये पुण्यसंभारास्तान् भजते तद्भाक् ॥ १५४ ॥ ततः कल्पेभ्यश्च्युत्वा मनुष्यायुर्निबन्धेन च्यवनमनुभूय मनुष्येषु विशिष्टदेशजातिकुलबलैश्वर्यरूपवत्सूत्पद्यौदारिकशरीरत्वेन जन्म लब्ध्वा भुक्त्वाऽनुभूय भोगान् शब्द-रूप-रस- गन्ध-स्पर्शलक्षणानकृत पुण्यैरतिशयेन दुर्लभान, यत् किञ्चिद् निमित्तमवाप्य सांसारिकेभ्यः सुखेभ्यो विरक्तो वैराग्यस्यैव परमप्रकर्षयोगेन सर्वविरति प्रतिपद्य तत्रैव जन्मनि क्षपकश्रेण्याक्रमणक्रमेण केवलज्ञानमुत्पाद्य निःशेषकर्मनिर्मूलनेन शुद्धात्मा मुक्तिमाप्नोति । अथ न तत्रैव मुक्तिस्तदा कियत्सु जन्मान्तरेषु मुक्तिः स्यादित्याह -- ' अन्तर्भवाष्टकम् इति भवाष्टकाभ्यन्तर इत्यर्थः ।। १५५ ।। प्रकाशत्रयोक्तमर्थमुपसंहरति- इति संक्षेपतः सम्यग्रत्नत्रयमुदीरितम् । सवाऽपि यदनासाद्य नासादयति निर्वृतिम् ॥१५६॥ इति प्रकाशत्रयेण रत्नत्रयं ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकं योगत्वेन प्रत्याख्यातमुदीरितं कथितम् । कथम् ? सम्यग् जिनागमाविरोधेन । विस्तरस्यासर्वविदा वक्तुमशक्यत्वादाह-संक्षेपतः । रत्नत्रयं विनाऽन्यतोऽपि कारणाद् निर्वाणप्राप्तिं शङ्कमानं प्रत्याह – सर्वोऽपि, आस्तां कश्चिदेकः यद् रत्नत्रयमनासाद्य काकतालीयेनापि न्यायेन ENO MOTO GOO तृतीय प्रकाशः ॥५५१ ॥ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतर्थ योगशास्त्रम् प्रकाश. नाप्नोति निर्वृति मोक्षम् । न ह्यज्ञाततत्वोऽश्रद्दधानो नवं कर्म निबन्धन् पूर्वोपात्तानि कर्माणि शुक्लध्यानबलेनाक्षपयन् संसारबन्धनाद् मुक्तिमाप्नोतीति सर्व समञ्जसम् ॥ १५६ ॥ ॥ इति परमाईतश्रीकुमारपालभूपालशुश्रुषिते आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितेऽध्यात्मोपनिषनाम्नि संजातपट्टबन्धे श्रीयोगशास्त्रे स्वोपर्ड्स तृतीयप्रकाशविवरणम् ॥ ३ ॥ ॥५५॥ ॥ अहम् ॥ अर्थ चतुर्थः प्रकाशः । धर्मधर्मिणोर्भेदनयमधिकृत्यात्मनो रत्नत्रयं मुक्तिकारणत्वेनोक्तम् । इदानीमभेदनयाश्रयेणात्मनो रत्नत्रयेणैकत्वमाहआत्मैव दर्शनज्ञानचारित्राण्यथवा यतेः । यत्तदात्मक एवैष शरीरमधितिष्ठति ॥ १ ॥ अथवेति भेदनयापेक्षया प्रकारान्तरस्याभेदनयस्य प्रकाशनार्थम् । आत्मैव न ततो भिन्नानि दर्शनज्ञानचारित्राणि । यतेरिति संबन्धिपदम् । अत्रोपपत्तिमाह-यद् यस्मात् तदात्मक एव दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक एव ॥५५२॥ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् चतुर्थ प्रकाशा ॥५५३॥ तदभेदमापन एवैष आत्मा शरीरमधितिष्ठति । आत्मभिन्नानां हि दर्शनादीनां नात्मनि मुक्तिहेतुत्वं स्यात् , देवदत्तसंबन्धिनामिव यज्ञदत्ते ॥१॥ अभेदमेव समर्थयितुमाहआत्मानमात्मनो वेत्ति मोहत्यागाद्य आत्मनि । तदेव तस्य चारित्रं तज्ज्ञानं तच्च दर्शनम् ॥२॥ आत्मानं कर्मतापन्नमात्मन्याधारभूते आत्मनां स्वयमेव यो वेत्ति जानीते । एतच्च ज्ञानं न मुढानां भवतीत्याह-मोहत्यागात् । तदेवात्मज्ञानमेव तस्यात्मनश्चारित्रम् , अनाश्रवरूपत्वात् , तज्ज्ञानं, तदेव ज्ञानम् बोधरूपत्वात ; तच्च दर्शनम् तदेव दर्शनं श्रद्धानरूपत्वात् ॥ २ ॥ आत्मज्ञानमेव स्तौतिआत्माज्ञानभवं दुःखमात्मज्ञानेन हन्यते । तपसाप्यात्मविज्ञानहीन छेत्तुं न शक्यते ॥ ३ ॥ इह सर्व दुःखमनात्मविदां भवति, तदात्माज्ञानभवं प्रतिपक्षभूतेनात्मज्ञानेन शाम्यति क्षयमुपयाति तम इव प्रकाशेन । ननु कर्मक्षयहेतुः प्रधानं तप उक्तम्, यदाहुः,-"१पुचि दुच्चिन्नाणं दुप्पडिकंताणं कडाणं कम्माणं वेअइत्ता मोक्खो, नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता" इत्याह,-तपसापि आस्तामन्येनानुष्ठानेन तदात्माज्ञानभवं दुःखमात्मविज्ञानहीनैर्न कछेत्तुं शक्यते, ज्ञानमन्तरेण तपसोऽल्पफलत्वात् यदाह; (१) पूर्व दुश्चरितानां दुष्प्रतिक्रान्तानां कृतानां कर्मणां वेदयित्वा मोक्षो नास्त्यवेदयित्वा तपसा वा क्षपयित्वा । Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥५५४॥ १ अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुआहिं वासकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमेत्तेण ॥ १ ॥ तत् स्थितमेतत् – बाह्यविषयव्यामोहमपहाय रत्नत्रय सर्वस्वभूते आत्मज्ञाने प्रयतितव्यम्, यदाहुर्बाह्या अपि-"आत्मा रे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य" इति । आत्मज्ञानं च नात्मनः कर्मभूतस्य पृथक् किञ्चित्, अपि त्वात्मनश्चिद्रूपस्य स्वसंवेदनमेव मृग्यते, नातोऽन्यदात्मज्ञानं नाम, एवं दर्शनचारित्रे अपि नात्मनो भिन्ने । एवं च चिद्रूपोऽयं ज्ञानाद्याख्याभिरभिधीयते । ननु विषयान्तरव्युदासेन किमित्यात्मज्ञानमेव मृग्यते ? विषयान्तरज्ञानमेव ह्यज्ञानरूपं दुःखं छिन्द्यात् । नैवम्, सर्वविषयेभ्य आत्मन एव प्रधानत्वात् तस्यैव कर्मनिबन्धनशरीरपरिग्रहे दुःखितत्वात्, कर्मक्षये च सिद्धस्वरूपत्वात् ॥ एतदेवाह - अयमात्मैव चिद्रूपः शरीरी कर्मयोगतः । ध्यानाग्निदग्धकर्मा तु सिद्धात्मा स्यान्निरञ्जनः ४ ॥ अयमिति सकलप्रमाणप्रतिष्ठितश्चिपञ्चतनस्वभावः, उपयोगलक्षणत्वाज्जीवस्य, तथा स एव शरीरी भवति, कर्मयोगात्, न त्वन्ये विषयाः, तेन न विषयान्तरज्ञानं मृग्यते । आत्मैव च शुक्लध्यानाग्निदग्धकर्माऽशरीरः सन् मुक्तस्वरूपो भवति निरञ्जनो निर्मलः । अतोऽपि कारणादात्मज्ञानं मृग्यते ॥ ४ ॥ तथा-अयमात्मैव संसारः कषायेन्द्रियनिर्जितः । तमेव तद्विजेतारं मोक्षमाहुर्मनीषिणः ॥ ५ ॥ (१) यदज्ञानी कर्म क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटिभिः । तज्ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः क्षपयत्युच्छ्रवासमात्रेण ॥१॥ चतुर्थ प्रकाशः ॥५५४॥ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥५५५॥ 'अयमात्मैव' इति पूर्ववत् । संसारो नारक - तिर्यग् नरा-डमररूपतया । किंविशिष्टः सन् ! कषायेन्द्रियनिर्जितः कषायैरिन्द्रियैश्च पराभूतः । तमेव चात्मानं तद्विजेतारं कषायेन्द्रियजेतारं मोक्षमाहुः । न हि स्वरूपलाभादन्यो मोक्षः । याऽप्यानन्दरूपता सापि स्वरूपलाभरूपैव । तस्मादात्मज्ञानमुपासनीयम्, दर्शन - चारित्रादेरत एव सिद्धेरिति ॥ ५ ॥ 'कषायेन्द्रियनिर्जितः' इत्युक्तम्, तत्र कषायान् विवृणोति -- स्युः कषायाः क्रोधमानमायालोभाः शरीरिणाम् । चतुर्विधास्ते प्रत्येकं भेदैः संज्वलनादिभिः॥६॥ क्रोधमानमायालोभाः कषायशब्दवाच्या भवन्ति कथ्यन्ते हिंस्यन्ते प्राणिनोऽस्मिन्ननेनेति वा कषः संसारः कर्म वा तस्याया लाभाः प्राप्तय इति कृत्वा, अथवा, कर्षं संसारमयन्त एभिरिति कृत्वा । ते च शरीरिणां संसारिणां न तु मुक्तानाम् । ते क्रोधादयः प्रत्येकं चतुर्विधाश्चतुष्प्रकाराः संज्वलनादिभिर्भेदैः । तत्र क्रोधः संज्वलनः, प्रत्याख्यानावरणः, अप्रत्याख्यानावरणः, अनन्तानुबन्धी च । एवं मानः, माया लोभश्चेति ॥ ६ ॥ संज्वलनादीनां लक्षणमाह- पक्षं संज्वलनः प्रत्याख्यानो मासचतुष्टयम् । अप्रत्याख्यानको वर्षे जन्मानन्तानुबन्धकः ॥७॥ पक्ष मासार्धमभिव्याप्य संज्वलनः क्रोधो मानो माया लोभश्च भवति । संज्वलन इति तृणाग्निवदीपज्ज्वलनात्मकः, परीपहादिसंपाते सपदि ज्वलनात्मको वा । प्रत्याख्यानो “ भीमो भीमसेन" इति न्यायेन प्रत्याख्या चतुर्थ प्रकाशः 1194411 Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥५५६।। नावरणः प्रत्याख्यानं सर्वविरतिमावृणोतीति कृत्वा । स मासचतुष्टयमभिव्याप्य भवति । अप्रत्याख्यानोऽप्रत्याख्यानावरणः, नमोऽल्पार्थत्वादल्पमपि प्रत्याख्यानमावृणोतीति कृत्वा । स वर्ष संवत्सरमभिव्याप्य भवति । अनन्तं भवमनुबध्नातीत्यनन्तानुबन्धकः मिथ्यात्वसहचरितत्वादस्यानन्तभवानुबन्धित्वम् । स जन्म जीवितकालमभिव्याप्य भवति । प्रसन्न चन्द्रादेः क्षणमात्रस्थितीनामपि कषायाणामनन्तानुबन्धित्वम्, अन्यथा नरकयोग्यकमोपार्जनाभावात् ॥ ७ ॥ इति कालनियमकृते संज्वलनादिलक्षणेऽपरितुष्यंल्लक्षणान्तरमाह- वीतरागयतिश्राद्धसम्यग्दृष्टित्वघातकाः । ते देवत्वमनुष्यत्वतिर्यक्त्वनरकप्रदाः ॥ ८॥ त्वशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, तेन वीतरागत्वस्य यतित्वस्य, श्रावकत्वस्य सम्यग्दृष्टित्वस्य च क्रमेण घातकाः, तथाहि -संज्वलनोदये यतित्वं भवति न पुनर्वीतरागत्वम्, प्रत्याख्यानावरणोदये श्रावकत्वं भवति न पुनर्यतित्वम्, अप्रत्याख्यानावरणोदये सम्यग्दृष्टित्वं भवति न पुनः श्रावकत्वम्; अनन्तानुबन्ध्युदये सम्यगृष्टित्वं न भवति । एवं बीतरागत्वघातकत्वं संज्वलनस्य, यतित्वघातकत्वं प्रत्याख्यानावरणस्य, श्रावकत्वघातकत्वमप्रत्याख्यानावरणस्य, सम्यग्दृष्टित्वघातकत्वमनन्तानुबन्धिनः स्थितं लक्षणं भवति । उत्तरार्धेनामीषां फलदायकस्वमाह - ते संज्वलनादयो देवत्वादिफलदायकाः, तथाहि संज्वलनाः क्रोधादयो देवगतिम् प्रत्याख्यानावरणा मनुष्यगतिम् अप्रत्यानावरणास्तिर्यग्गतिम् अनन्तानुबन्धिनो नरकगति प्रयच्छन्तीति । एतेषां च संज्वलनादिभेदानां चतुर्णां कषायाणां स्पष्टदृष्टान्तकथनेन स्वरूपमुच्यते - जलराजि - रेणुराजि - पृथिवीराजि - पर्वतरा जिसदृशाः चतुर्थ प्रकाशः ।।५५६।। Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् प्रकाशा क्रोधाः संज्वलनादिभेदाः, तिनिशलता-काष्ठा-ऽस्थि-शैलस्तम्भसदृशाश्चत्वारो मानाः, अवलेखन-गोमूत्रिकामेषश्रृङ्ग-वंशिमूलसमाश्वतखो मायाः, हरिद्रा- खञ्जन-कर्दम-कृमिरागसदृशाश्चत्वारो लोभाः, यदाह१जलरेणुपुढविपव्ययराईसरिसो चउन्विहो कोहो । तिनिसलयाकट्टडियसेलत्थंभोवमो माणो ॥१॥ मायावलेहगोमुत्तिमिदसिंगघणवंसिमूलसमा। लोहो हलिदखंजणकदमकिमिरागसारिच्छो ॥२॥ इति ॥८॥ अथ कपायाणां जेतव्यत्वमुपदर्शयितुं दोषानाहतत्रोपतापकः क्रोधः क्रोधो वैरस्य कारणम् । दुर्गतर्वर्तनी क्रोधः क्रोधः शमसुखार्गला ॥९॥ तत्रेति तेषु कपायेषु क्रोधः प्रथमकषाय उपतापयति शरीरमनसी इत्युपतापकः, तथा वैरस्य परस्परोपघातात्मनो विरोधस्य सुभूम-परशुरामयोरिव कारणम्, तथा दुर्गतेनैरकलक्षणायास्तयोरिव वर्तनी मार्गः क्रोधः, तथा शमसुखस्य प्रशमानन्दस्यात्मनि प्रविशतोऽर्गलेवागला, तदुपरोधकारित्वात् । पुनः पुनः क्रोधग्रहणं तस्यातिदौष्टयज्ञापनार्थम् ।।९।। स्व-परोपतापकारित्वेऽपि क्रोधस्य कृशानुदृष्टान्तेन स्वोपतापकत्वं समर्थयते,उत्पद्यमानः प्रथमं दहत्येव स्वमाश्रयम् । क्रोधः कृशानुवत्पश्चादन्यं दहति वा न वा ॥१०॥ (१) जलरेणुपृथ्वीपर्वतराजिसदृशश्चतुर्विधः क्रोधः । तिनिशलताकाष्ठास्थिकशेलस्तम्भोपमो मानः ॥११॥ मायाऽवलेखगोमूत्रिकामेंढकशृङ्गधनवंशिमूलसमा । लोभो हरिद्राखञ्जनकर्दमकृमिरागसदृशः ॥२॥ ५७७॥ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥५५८॥ तथाविधकारणसंपाते उत्पद्यमानः क्रोधः कृशानुवत् स्वं स्वकीयमाश्रयं, यत्र स उत्पद्यते तं, नियमेन दहति, पश्चात् कृशानुवदेवान्यं दाह्यान्तरं दहति वा न वा. परस्य क्षमाशीलत्वादिना साई (सान्द्र) द्रुमादिवत् दग्धुमशक्यत्वान् । अत्रान्तरश्लोकाः__ अर्जितं पूर्वकोटया यद् वर्षैरष्टभिरुनया। तपस्तत् तत्क्षणादेव दहति क्रोधपावकः ॥१॥ शमरुपं पयः प्राज्यपुण्यसंभारसंचितम् । अमर्षविषसंपर्कादसेव्यं तत्क्षणाद् भवेत् ॥२॥ चारित्रचित्ररचनां विचित्रगुणधारिणीम् । समुत्सर्पन् क्रोधधूमो श्यामलीकुरुतेतराम् ॥३॥ यो वैराग्यशमीपत्रपुटैः समरसोऽर्जितः। शाकपत्रपुटामेन क्रोधेनात्सृज्यते स किम् ? ॥४॥ प्रवर्धमानः क्रोधोऽयं किमकार्य करोति न?। जज्ञे हि द्वारका द्वैपायनक्रोधानले समित् ।।५।। ध्यतः कार्यसिद्धिर्या न सा क्रोधनिबन्धना । जन्मान्तरार्जितोजस्विकर्मणः खलु तत्फलम् ॥६॥ स्वस्य लोकद्वयोच्छित्त्यै नाशाय स्वपरार्थयोः। धिगहो! दधति क्रोधं शरीरेषु शरीरिणः ॥७॥ क्रोधान्धाः पश्य निघ्नन्ति पितरं मातरं गुरुम । महदं सोदरं दारानात्मानमपि निघृणाः ॥८॥१०॥ क्रोधस्य स्वरूपमुक्त्वा तज्जयोपायमुपदिशतिक्रोधवनेस्तदहूनाय शमनाय शुभात्मभिः। श्रयणीयो क्षमैकव संयमारामसारणिः ॥११॥ यस्मात् क्रोध एवंविधस्तस्मात् क्रोधवरहाय झटिति शमनाय शान्तये शुभात्मभिः पुण्यात्मभिः, असायग्रहणं झटिति क्रोधोपशमोपदेशार्थम, क्रोधो हि प्रथममेवाप्रतिहतः सन् विवर्धमानो दवानल इव पश्चात् निवारयितुमशक्यः, यदाह-- ॥५५८॥ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशास्त्रम् चतुर्थ प्रकाहा: ॥५५९॥ १अणथोवं वणथोवं अग्गियोवं कसायथोवं च । न हु मे वीससियव्वं थोवं पि हु तं बहु होई ॥१॥ श्रयणीया आश्रयितव्या एकैव क्षमा । नहि क्षमामन्तरेण क्रोधोपशमोपायो जगत्यस्ति, क्रोधफलसंप्रदानं तु वैरहेतुत्वेन प्रत्युत क्रोधवृद्धिहेतुः, न तु तत्प्रशमाय इत्येकग्रहणम् । क्षमा विशिनष्टि-संयमारामसारणिः संयम एव नवनवानां संयमस्थानानां तरुणामारोपहेतुत्वेन तबृद्धिहेतुत्वेन चारामो विचित्रअरुसमूहात्मकस्तस्य सारणिः कुल्या संयमारामवृद्धिहेतुतया पुष्पफलप्राप्ति हेतुतया च । क्षमा हि प्रशान्तवाहितारूपा चित्तपरिणतिः सा सारणित्वेन रूपिता नवनवप्रशमपरम्पराप्रवाहरूपत्वात् । अत्रान्तरश्लोकाः-- अपकारिजने कोपो निरोधुं शक्यते कथम् । शक्यते सत्त्वमाहात्म्याद यद्वा भावनयाऽनया ॥१॥ अङ्गीकृत्यात्मनः पापं यो मां बाधितुमिच्छति । स्वकर्मनिहि (ह) तायास्मै कः कुप्येद् बालिशोऽपि सन् ॥ २ ॥ प्रकुप्याम्यपकारिभ्य इति चेदाशयस्तव । तत् किं न कुप्यसि स्वस्य कर्मणे दुःखहेतवे ॥३॥ उपेक्ष्य लोष्टक्षेप्तारं लोष्टं दशति मण्डलः । मृगारिः शरमप्रेक्ष्य शरक्षेप्तारमृच्छति ॥ ४ ॥ यः परः प्रेरितः रमह्यं कुप्यति कर्मभिः तान्युपेक्ष्य परे क्रुध्यन् किं श्रये भवगश्रियम् ॥५॥ श्रूयते श्रीमहावीरः क्षान्त्यै म्लेच्छेषु जग्मिवान् । अयत्नेनागतां शान्ति वो९ किमिव नेच्छसि ॥ ६ ॥ त्रैलोक्यप्रलयत्राणक्षमाश्चेदाश्रिताः क्षमाम् । कदलीतुल्यसत्त्वस्य क्षमा तव न किं क्षमा ? ॥ ७॥ तथा कि नाकृथाः पुण्यं यथा कोऽपि न बाधते ? । स्वप्रमादमिदानीं तु शोचनगीकुरु क्षमाम् ॥ ८ ॥ क्रोधान्धस्य मुनेश्चण्डचण्डालस्य च नान्तरम् । तस्मात् क्रोधं परित्यज्य भजोज्ज्वलधियां पदम् । (१) ऋणस्तोक वनस्तोकमग्निस्तोक कषायस्तोकं च । न खलु भवता विश्वसितव्यं स्तोकमपि तद् बहु भवति ॥१२॥ ॥५५९॥ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥५६०।। ॥ ९ ॥ महर्षिः क्रोधसंयुक्तो निष्क्रोधः कूरगड्डुकः । ऋषि मुक्त्वा देवताभिर्ववन्दे कूरगड्डुकः ॥ १०॥ अरुन्तुदैवचः शस्त्रैस्तुद्यमानो विचिन्तयेत् । चेत् तथ्यमेतत् कः कोपोऽथ मिथ्योन्मत्तभाषितम् ॥११॥ वधायोपस्थितेऽन्यस्मिन् हसेद् विस्मितमानसः । वये मत्कर्मसंसाध्ये वृथा नृत्यति बालिशः || १२ || निहन्तुमुद्यते ध्यायेदायुषः क्षय एष नः । तदसौ निर्भयः पापात् करोति मृतमारणम् ||१३|| सर्वपुरुषार्थचौरे कोपे कोपो न चेत् तव । धिक् त्वां स्वल्पापराधेऽपि परे कोपपरायणम् || १४ || सर्वेन्द्रियग्लानिकरं विजेतुं, कोपं प्रसर्पन्तमिवोग्रसर्पम् । विद्यां सुधीर्जाङ्गुलिकीमिवान-वद्यां क्षमां संततमाद्रियेत ॥ १५ ॥ ११ ॥ मानकषायस्य स्वरूपमाह - विनयश्रुतशीलानां त्रिवर्गस्य च घातकः । विवेकलोव लुम्पन्नं मानोऽन्धङ्करणो नृणाम् | १२ | विनयश्च गुर्वादिपूपचारलक्षणः श्रुतं च विद्या, शीलं च सुस्वभावता, तेषां घातकः । जात्यादिमदाध्मातो हि पिशाचकिप्रायो न गुर्वादीनां विनीतो भवति । अविनीतश्च गुरुनशुश्रूषमाणो न विद्यां प्रतिलभते । अत एव सर्वजनावज्ञाकारी स्वस्य दुःस्वभावतां प्रकटयति । न केवलं विनयादीनामेव घातको मानो यावत् त्रिवर्गस्य धर्मार्थकामलक्षणस्य | मदावलिप्तस्य हि नेन्द्रियजयः, तदधीनश्च धर्मः कथं स्यात् ? । अर्थोऽपि राजादि सेवापरायत्तवृत्तिर्मानस्तब्धस्य कथं स्यात् ? । कामस्तु मार्दवमूल एव तत् कथं मानस्तब्धे स्थाणाविव भवेत् ? । किश्च अनन्धोऽन्धः क्रियतेऽनेनेत्यन्धङ्करणो मानः । केषां ? नृणाम् । कि कुर्वन् ? लुम्पन् । किं तत् ? विवेकलोचनं विवेकः कृत्याकृत्यविचारणं स एव लोचनम्, “ एकं हि चक्षुरमलं सहजो विवेकः " इति वचनात् । मानवतो हि चतुर्थ प्रकाशः ॥५६०॥ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोगशास्त्रम् प्रकाशा ॥५६॥ वृद्धसेवामकुर्वाणस्य विवेकलोचनलोपनमवश्यंभावि, तस्मिश्च सत्यन्धकरणत्वं मानस्य सुवचमेव ॥१२।। इदानीं मानस्य भेदानुपदर्शयंस्तत्फलमाहजातिलाभकुलैश्वर्यबलरुपतपःश्रुतैः। कुर्वन् मदं पुनस्तानि हीनानि लभते जनः ॥१३॥ जातिश्च लाभश्चेत्यादिद्वन्द्वः, तैर्मदं मदलिप्तचित्ततां कुर्वन् , तान्येव जात्यादीनि जन्मान्तरे हीनानि लभते । अत्रान्तर श्लोकाः___ जातिभेदान् नैकविधानुत्तमाधममध्यमान । दृष्ट्वा को नाम कुर्वोत जातु जातिमदं सुधीः॥१॥ उत्तमां जातिमामोति हीनामाप्नोति कर्मतः। तत्राशाश्वतिकी जाति को नामासाद्य माद्यतु ॥२॥ अन्तरायक्षयादेव लाभो भवति नान्यथा। ततश्च वस्तुतत्त्वज्ञो न लाभमदमुहेत ॥३॥ परप्रसादशक्त्यादिभवे लाभे महत्यपि । न लाभमदमृच्छन्ति महात्मानः कथञ्चन ॥४॥ अकुलीनानपि प्रेक्ष्य प्रज्ञाश्रीशीलशालिनः। न कर्तव्यः कुलमदो महाकुलभवैरपि ॥५॥ किं कुलेन कुशीलस्य सुशीलस्यापि तेन किम् । एवं विदन् कुलमदं विदध्याद् न विचक्षणः ॥६॥ श्रुत्वा त्रिभुवनैश्वर्यसंपदं वजधारिणः । पुरग्रामधनादीनामैश्वर्य कीदृशो मदः ॥७॥ गुणोज्ज्वलादपि भ्रश्येद् दोषवन्तमपि श्रयेत् । कुशीलस्त्रीवदैश्वर्य न मदाय विवेकिनाम् ॥८॥ महाबलोऽपि रोगाद्यैरबलः क्रियते क्षणात् । इत्यनित्ये बले पुंसां युक्तो बलमदो न हि ॥९॥ बलवन्तोऽपि जरसि मृत्यौ कर्मफलान्तरे। अबलाश्चेत्, ततो हन्त ! तेषां बलमदो मुधा ॥१०॥ सप्तधातुमये देहे चयापचयधमिणि । जरारुजाभिभाव्यस्य को रूपस्य मदं बहेत् ॥११॥ सनत्कुमारस्य रूपं तत्क्षयं च Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग चतुर्थ शानम् प्रकाशा ॥५६॥ विचारयन् । को वा सकर्णः स्वप्नेऽपि कुर्याद रूपमदं किल ॥१२॥ नाभेयस्य तपोनिष्ठां श्रुत्वा वीरजिनस्य च । को नाम स्वल्पतपसि स्वकीये मदमाश्रयेत् ॥१३॥ येनैव तपसा त्रुटचेत् तरसा कर्मसंचयः । तेनैव मददिग्धेन वर्धते कर्मसंचयः ॥१४॥ स्वबुद्धया रचितान्यन्यैः शास्त्राण्याघ्राय लीलया । सर्वज्ञोऽस्मीति मदवान् स्वकीयाङ्गानि खादति ॥१५॥ श्रीमद्गणधरेन्द्राणां श्रुत्वा निर्माणधारणे। कः श्रयेत श्रुतमदं सकर्णहृदयो जनः॥१६॥ केचित्तु ऐश्वर्यतपसोः स्थाने वाल्लभ्यबुद्धिमदौ पठन्ति, उपदिशन्ति, च,द्रमकैरिव च दुष्कर्मकमुपकारनिमित्तकं परजनस्य । कृत्वा यद वाल्लभ्यकमवाप्यते को मदस्तेन ॥१॥ गर्व परप्रसादात्मकेन वाल्लभ्यकेन यः कुर्यात् । तद्वाल्लभ्यकविगमे शोकसमुदयः परामृशति ॥२॥ तथाग्रहणोद्याहणनवकृतिविचारणार्थावधारणायेषु । बुद्धयङ्गविधिविकल्पेष्वनन्तपर्यायवृद्धेषु ॥३॥ पूर्वपुरुषसिंहानां विज्ञानातिशयसागरमनन्तम् । श्रुत्वा सांप्रतपुरुषाः कथं स्वबुद्धया मदं यान्ति ? ॥४॥१३॥ मानस्य स्वरूप भेदांश्च प्रतिपाद्य, इदानीं स मानप्रतिपक्षभूतं मार्दवं मानजयोपायमुपदिशति,उत्सर्पयन् दोषशाखा गुणमलान्यधो नयन् । उन्मूलनीयो मानदुस्तन्मार्दवसरिप्लवैः ॥१४॥ ___ मान एव द्र म उन्नतिविशेषधारित्वेन । मानदुमयोः साधर्म्यमाह-उत्सर्पयन्नू नयन् दोषा एव प्रसरणशीलत्वेन शाखा दोषशाखास्ताः, गुणा एव मूलानि गुणमूलानि तान्यधो नयन् न्यक्कुर्वन् । कैरुन्मूलनीयः? मादवसरित्प्लवैर्दिवमेव सततवाहितया सरित् तस्याः प्लवैः प्रसरैः। मद्रुमो हि यथा यथा वर्धते तथा तथा 11५६२॥ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् चतुर्थ प्रकाशा ॥५६३॥ गुणमूलानि तिरोदधाति, दोषशाखाश्च विस्तारयति । तदयं कुठारादिभिरुन्मूलयितुमशक्यो मार्दवभावनासरित्प्रवाहेण समूलमुन्मूलनीय इत्यर्थः । अत्रान्तरश्लोकाः___ मार्दवं नाम मृदुता तच्चौद्धत्यनिषेधनम् । मानस्य पुनरौद्धत्यं स्वरूपमनुपाधिकम् ॥ १ ॥अन्तः स्पृशेद् यत्र यत्रौद्धत्य जात्यादिगोचरम् । तत्र तस्य प्रतीकारहेतोर्दिवमाश्रयेत् ॥२॥ सर्वत्र मार्दवं कुर्यात् पूज्येषु तु विशेषतः । येन पापाद् विमुच्येत पूज्यपूजाव्यतिक्रमात् ॥ ३ ॥ मानाद् बाहुबलिर्बद्धो लताभिरिव पाप्मभिः । मादवात् तत्क्षण मुक्तः सद्यः संजातकेवलः॥ ४ ॥ चक्रवर्ती त्यक्तसङ्गो वैरिणामपि वेश्मसु । भिक्षायै यात्यहो! मानच्छेदायामृदु मार्दवम् । ॥५॥ चक्रवर्त्यपि तत्कालदीक्षितो रङ्कसाधवे । नमस्यति त्यक्तमानश्चिरं च वरिवस्यति ॥६॥ एवं च मानविषय परिमृश्य दोषं, ज्ञात्वा च मार्दवनिषेवणजे गुणौघम् । मानं विहाय यतिधर्मविशेषरूपं सद्यः समाश्रयत मार्दवमेकतानाः ॥ ७ ॥ १४ ॥ ___इदानीं मायाकषायस्वरूपमाह-- असूनृतस्य जननी परशुः शीलशाखिनः । जन्मभूमिरविद्यानां माया दुर्गतिकारणम् ।१५।।। असूनृतस्यानृतस्य जननीव जननी, मायामन्तरेण प्रायेणासूनृतस्याभावात, 'माया' इति वक्ष्यमाणं संबध्यते, माया वञ्चनात्मकः परिणामः, तथा परशुः कुठारः शीलं सुस्वभावता तदेव शाखी तस्य परशुरिव परशुः छेदकत्वात्, तथा जन्मभूमिरुत्पत्तिस्थानम्, कासाम् ? अविद्यानां मिथ्याज्ञानानाम् । सा च दुर्गतेः कारणमिति प्रधानफलनिर्देशः ॥ १५ ॥ ॥५६॥ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥५६४॥ 659e. Côn परवचनार्थे प्रयुक्ताया मायायाः परमार्थतः स्ववञ्चनमेव फलमित्याह - कौटिल्यपटवः पापा मायया वकवृत्तयः । भुवनं वञ्चयमाना वञ्चयन्ते स्वमेव हि ॥ २१६ ॥ मायया तृतीयकषायेण भुवनं जगद् वञ्चयमानाः प्रतारयन्तः स्वमेवात्मानमेव वञ्चयन्ते । के ? पापाः पापकर्मकारिणः । पापकर्मनिह्नवार्थमेव बकवृत्तयः, यथा वको मत्स्यादिवञ्चनाथं मन्दं मन्दं विचेष्टते तथा तेऽपि जगद्वञ्चनार्थ तथा चेष्टन्ते यथा बकसडशा भवन्ति । ननु मायया जगद्वञ्चनम्, तस्याश्च निह्नवः, इति कुत इयन्तं भारं ते वोडुं समर्थाः ? इत्याह- कौटिल्यपटवः कौटिल्यपाटवरहिता हि न कदाचित् परं वञ्चयते, न वा कदाचिद नित इति, कौटिल्यपाटवे तु द्वयं भवति परवञ्चनं वञ्चनाच्छादनं चेति । अत्रान्तरश्लोकाः कूटषाड्गुण्ययोगेन च्छलाद् विश्वस्तघातनात् । अर्थलोभाच्च राजानो वञ्चयन्तेऽखिलं जनम् ॥ १ ॥ तिलकैः मुद्रया मन्त्रैः क्षामतादर्शनेन च । अन्तःशून्या बहिःसारा वञ्चयन्ते द्विजा जनम् ||२|| कूटाः कूटतुलामानाशुक्रियाकारियोगतः । वञ्चयन्ते जनं मुग्धं मायाभाजो वणिग्जनाः || ३ || जटामण्ड्यशिखाभस्मवल्कनाग्न्यादिधारणैः, धं श्राद्धं गर्धयन्ते पाखण्डा हृदि नास्तिकाः ||४|| अरक्ताभिर्भाविहावलीलागतिविलोकनैः । कामिनो रञ्जयन्तीभिर्वेश्याभिर्वच्यते जगत् ||५|| प्रतार्य कूटैः शपथैः कृत्वा कूटकपर्दिकाम् । धनवन्तः प्रतार्यन्ते दुरोदरपरायणैः ||६|| दम्पती पितरः पुत्राः सोदर्याः सुहृदो निजाः । ईशा भृत्यास्तथान्येऽपि माययाऽन्योन्यवञ्चकाः ॥७॥ अर्थलुब्धा गतघृणा बन्दकारा मलिम्लुचाः । अहर्निशं जागरूकाभ्छलयन्ति प्रमादिनम् ||८|| कारवश्चान्त्यजाश्चैव स्वकर्मफलजीविनः । माययाऽलोकशपथैः कुर्वते साधुवञ्चनम् ||९|| व्यन्तरादिकुयोनिस्था दृष्ट्वा प्रायः चतुर्थ प्रकाशः ॥५६४॥ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाश ॥५६५॥ प्रमादिनः । क्रूराश्छलैबहुबिधैर्वाधन्ते मानवान् पशून् ॥१०॥ मत्स्यादयो जलचराश्छलात् स्वापत्यभक्षकाः । बध्यन्ते धीवरैस्तेऽपि माययाऽऽनायपाणिभिः ॥११॥ नानोपायमंगयुभिर्वश्चनप्रवणैर्जडाः । निषध्यन्ते विनाश्यन्ते प्राणिनः स्थलचारिणः ॥ १२ ॥ नभश्चरा भूरिभेदा वराका लावकादयः। बध्यन्ते माययाऽत्युग्रेः स्वल्पकासगृनुभिः ॥ १३ ॥ तदेवं सर्वलोकेऽपि परवश्वकतत्पराः । स्वस्य धर्म सद्गति च नाशयन्तः स्ववञ्चकाः ॥ १४ ॥ तथा, तिर्यगजातेः परं बीजमपवर्गपुरागला । विश्वासद्रुमदावाग्निर्माया हेया मनीषिभिः ॥१५॥ मल्लिनाथः पूर्वभवे कृत्वा मायां तनीयसीम् । मायाशल्यमनुत्खाय स्त्रीत्वं प्राप जगत्पतिः ॥ १६ ॥ १६ ॥ इदानीं मायाजयाय तत्प्रतिपक्षभूतमार्जवमुपदिशन्नाहतदार्जवमहौषध्या जगदानन्दहेतुना । जयेजगद्रोहकरी मायां विषधरीमिव ।। १७ ॥ यतो माया एवंविधा तत् तस्माद् मायां विषधरीमिव जयेत् । मायाविषधर्योः साधर्म्यमाह-जगदद्रोहकरी जगतो जङ्गमलोकस्य द्रोहोऽपकारस्तं करोतीत्येवंशीला जगद्रोहकरी ताम् । केन जयेत् ! आर्जवमहौषध्या आर्जवमकौटिल्यं तदेव महानुभावा ओषधिमहौषधिस्तया । उभयोः साधर्म्यमाह-जगदानन्दहेतुना जगतो जंगमलोकस्य यथायथं य आनन्दः कायारोग्यप्रभवः प्रीतिविशेषो वञ्चकत्वपरिहारेण कषायजयाद् मोक्षरूपश्च तस्य हेतुना कारणेन । अत्रान्तरश्लोकाः आर्जवं सरलः पन्था मुक्तिपुर्याः प्रकीर्तितः। आचारविस्तरः शेषो बाह्या अपि यदचिरे ॥१॥ स जिज्ञ ॥4841 Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥५६६॥ 50386 मृत्युपदमार्जवं ब्रह्मणः पदम् । एतावाव्ज्ञानविषयः प्रलापः किं करिष्यति १ ॥ २ ॥ इति ॥ भवेयुरार्जवजुषो लोकेऽपि प्रीतिकारणम् । कुटिलादुद्विजन्ते हि जन्तवः पन्नगादिव ||३|| अजिह्मचित्तवृत्तीनां भववासस्पृशामपि । अकृत्रिमं मुक्तिमुखं स्वसंवेद्यं महात्मनाम् ||४|| कौटिल्यशकुना क्लिष्टमनसां वञ्चकात्मनाम् । परव्यापादनिष्ठानां स्वप्नेऽपि स्यात् कुतः सुखम् ।। ५ ।। समग्रविद्यावैदुष्येऽधिगतासु कलासु च । धन्यानामुपजायेत बालकानामिवार्जवम् ||६|| अज्ञानामपि बालानामार्जवं प्रीतिहेतवे । किं पुनः सर्वशास्त्रार्थपरिनिष्ठितचेतसाम् ? ॥ ७ ॥ स्वाभाविकी हि ऋजुता कृत्रिमा कुटिलात्मता । ततः स्वाभाविकं धर्मं हित्वा कः कृत्रिमं श्रयेत् ? ॥ ८ ॥ छलपैशुन्यवक्रोक्तिवञ्चनाप्रवणे जने । धन्याः केचिद् निर्विकाराः सुवर्णप्रतिमा इव ॥ ९ ॥ श्रुताधिपारप्राप्तोऽपि गौतमो गणभृद्वरः। अहो ! शैक्ष इवाश्रौषीदाजवाद् भगवद्भिरः ॥ १० ॥ अशेषमपि दुष्कर्मऋज्वालोचनया क्षिपेत् कुटिलालोचनां कुर्वन्नल्पीयोऽपि विवर्धयेत् ।। ११ ।। काये वचसि चित्ते च समन्तात् कुटिलात्मनाम् । न मोक्षः किन्तु मोक्षः स्यात् सर्वत्राकुटिलात्मनाम् ॥ १२ ॥ इति निगदितमुग्रं कर्म कौटिल्यभाजा - मृजुपरिणतिभाजां चानवद्यं चरित्रम् । तदुभयमपि बुद्धया संस्पृशन् मुक्तिकामो, निरुपममृजुभावं संश्रयेच्छुद्धबुद्धिः ॥ १३ ॥ १७ ॥ इदानीं लोभकषायस्वरूपमाह - आकरः सर्वदोषाणां गुणग्रसनराक्षसः । कन्दो व्यसनवल्लीनां लोभः सर्वार्थबाधकः ॥ १८ ॥ आकरः खानिः सर्वदोषाणां प्राणातिपातादीनां 'लोहादीनामिव' इति गम्यते, गुणानां ज्ञानादीनां प्राणिनामिव यद् ग्रसनं कववलनं तत्र राक्षस इव राक्षसः, तथा कन्दो मूलाधोऽवयवः, कासां व्यसनवल्लीनां चतुर्थ प्रकाशः ॥५६६॥ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योग शास्त्रम् प्रकाशा व्यसनानि दुःखानि तान्येव बल्लयस्तासाम्, लोभश्चतुर्थकषायः, तस्य स्वरूपसंग्रहमाह-सर्वार्थबाधकः सर्वेषामर्थ्यन्त इत्यर्था धर्मार्थकाममोक्षलक्षणास्तेषां बाधकः प्रतिकूलः । लोभस्य सर्वदोषाकरत्वम्, गुणघातकत्वम्, व्यसनहेतुत्वं, सर्वपुरुषार्थघातकत्वं च प्रसिद्धमेव ॥ १८ ॥ लोभस्य दुर्जयत्वं श्लोकत्रयेणाद्दधनहीनः शतमेकं सहस्र शतवानपि । सहस्राधिपतिर्लक्षं कोटि लक्षेश्वरोऽपि च ॥ १९ ॥ कोटीश्वरो नरेन्द्रत्वं नरेन्द्रश्चक्रवर्तिताम् । चक्रवर्ती च देवत्व देवोऽपीन्द्रत्वमिच्छति ॥२०॥ इन्द्रत्वेऽपि हि संप्राप्ते यदिच्छा न निवर्तते । मूले लघीयांस्तल्लोभः सराव इव वर्धते ॥२१॥ स्पष्टम् अत्रान्तरश्लोकाः-- हिंसेव सर्वपापानां मिथ्यात्वमिव कर्मणाम् । राजयक्ष्मेव रोगाणां लोभः सर्वागसां गुरुः ॥ १॥ अहो ! लोभस्य साम्राज्यमेकच्छत्रं महीतले । तरवोऽपि निधिं प्राप्य पादः प्रच्छादयन्ति यत् ॥२॥ अपि द्रविणलोभेन ते द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः । स्वकीयान्यधितिष्ठन्ति प्रानिधानानि मूर्छया ॥३॥ भुजङ्गगृहगोधाखुमुख्याः पञ्चेन्द्रिया अपि । धनलोभेन लीयन्ते निधानस्थानभूमिषु ॥ ४ ॥ पिशाचमुद्गलप्रेतभूतयक्षादयो धनम् । स्वकीयं परकीयं वाऽप्यधितिष्ठन्ति लोभतः॥ ५॥ भूषणोद्यानवाप्यादौ मूछितास्त्रिदशा अपि । च्युत्वा तत्रैव जायन्ते पृथ्वीकायादियोनिषु ॥ ६ ॥ प्राप्योपशान्तमोहत्वं क्रोधादिविजये सति । लोभांशमात्रदोषेण पतन्ति यतयोऽपि १५६७॥ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: पोगशास्त्रम् चतुर्थ प्रकाश ॥५६८॥ हि ॥ ७ ॥ एकामिषाभिलाषेण सारमेया इव द्रुतम् । सोदर्या अपि युध्यन्ते धनले शजिघृक्षया ॥८॥ लोभाद ग्रामाद्रिसीमानमुद्दिश्य गतसौहृदाः । ग्राम्या नियुक्ता राजानो वैरायन्ते परस्परम् ।।९॥ हासशोकद्वेषहर्षानसतोऽप्यात्मनि स्फुटम् । स्वामिनोऽग्रे लोभवन्तो नाटयन्ति नटा इव ॥१०॥ आरभ्यते पूरयितुं लोभगर्तो यथा यथा। तथा तथा महच्चिनं मुहुरेष विवर्धते ॥११॥ अपि नामैष पूर्यत पयोभिः पयसां पतिः । न तु त्रैलोक्यराज्येऽषि प्राप्ते लोभः प्रपूर्यते ॥ १२ ॥ अनन्ता भोजनाच्छादविषयद्रव्यसंचयाः । भुक्तास्तथापि लोभस्य नाशोऽपि परिपूर्यते ॥१३॥ लोभस्त्यक्तो यदि तदा तपोभिरफलैरलम् । लोभस्त्यक्तो न चेत् तर्हि तपोभिरफलैरलम् ॥१४॥ मृदित्वा शास्त्रसर्वस्वं मयैतदवधारितम् । लोभस्यैकस्य हानाय प्रयतेत महामतिः ॥ १५ ॥ १९॥ २० ॥२१॥ लोभस्वरूपं निरूप्य तजयोपायमुपदिशतिलोभसागरमुढेलमतिवेलं महामतिः । संतोषसेतुबन्धेन प्रसरन्तं निवारयेत् ॥ २२ ॥ लोभ एवाप्राप्तपारत्वेन सागरस्तम्, उद्वेलमुद्तवेलं तत्तदुत्कलिकावत्वेन विवृद्धोच्छायम्, अतिवेलं भृशम्, एतच्च 'निवारयेत्' इति क्रियाया विशेषणम् । 'प्रसरन्तम्' इति लोभसागरस्य विशेषणम् । महामतिर्मुनिः । निवारणकारणमुपदिशति-संतोषसेतुबन्धेन संतोषो लोभप्रतिपक्षभूतो मनोधर्मः स एव सेतुबन्धो जलस्खलनाथं पालीबन्धः, तेन प्रतिपक्षभूतेन संतोषेण लोभकषायं निरुन्ध्यादिति भावः । अत्रान्तरश्लोकाः-- यथा नृणां चक्रवर्ती सुराणां पाकशासनः । तथा गुणानां सर्वेषां संतोषः प्रवरो गुणः॥१॥ संतोषयुक्तस्य यतेरसंतुष्टस्य चक्रिणः । तुलया संमितो मन्ये प्रकर्षः मुखदुःखयोः ॥ २॥ स्वाधीन राज्यमुत्सृज्य संतोपाम 1५६॥ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥५६९॥ तृष्णया । निस्सङ्गत्वं प्रपद्यन्ते तत्क्षणाच्चक्रवर्तिनः ॥ ३ ॥ निवृत्तायां धनेच्छायां पार्श्वस्था एव संपदः । अङ्गुल्या पिहिते कर्णे शब्दाद्वैतं विजृम्भते || ४ || संतोषसिद्धौ संसिद्धाः प्रतिवस्तु विरक्तयः । अक्ष्णोः पिधाने पिहितं ननु विश्व चराचरम् ||५|| किमिन्द्रियाणां दमनैः किं कायपरिपीडनै: ? । ननु संतोषमात्रेण मुक्तिश्रीमुखमीक्षते ॥६॥ जीवन्तोऽपि विमुक्तास्ते ये मुक्तिसुखशालिनः । कि वा विमुक्तेः शिरसि श्रृङ्गं किमपि वर्त्तते ? ॥ ७ ॥ किं artist fear विषयसंभवम् । येन संतोषजं सौख्यं हीयेत शिवसौख्यतः १ ॥८ ॥ परप्रत्यायनासारैः किंवा शास्त्रसुभाषितैः । मीलिताक्षा विमृशन्तु संतोपास्वादजं सुखम् ॥९॥ चेत् कारणानुकारीणि कार्याणि प्रतिपद्यसे । संतोषानन्दजन्मा तन्मोक्षानन्दः प्रतीयताम् ॥ १० ॥ ननु तीव्रं तपःकर्म कर्मनिर्मूलनं जगुः । सत्यं तदपि संतोषरहितं विफलं विदुः ॥ ११ ॥ | कृषिसेवापाशुपाल्यवाणिज्यैः किं सुखार्थिनाम् । ननु संतोषपानात् किं नात्मा निर्वृतिमाप्यते ! ||१२|| यत् संतोषवतां सौख्यं तृणसंस्तरशायिनाम् । क तत् संतोषवन्ध्यानां तूलिकाशायिनामपि || १३|| असंतुष्टास्तृणायन्ते धनिनोऽपीशिनां पुरः । ईशिनोऽपि तृणायन्ते संतुष्टानां पुरः स्थिताः ॥ १४॥ आयासमात्रं नश्वर्यश्वक्रिशक्रादिसंपदः । अनायास च नित्यं च सुखं संतोषसंभवम् ॥ १५ ॥ इति प्रत्यादेष्टुं निखिलमपि लोभस्य ललितं, मयोक्तः संतोषः परमसुख साम्राज्यसुभगः । कुरुध्वं लोभाग्निप्रसरपरितापं शमयितुं, तदस्मिन् संतोषामृतरसमये वेश्मनि रतिम् ॥ १६ ॥ २२ ॥ एवं च -- इत्यनेन वक्ष्यमाणसंग्रह श्लोकस्यावसरमाह- क्षान्त्या क्रोधो मृदुत्वेन मानो मायार्जवेन च । लोभवानीहया जेयाः कषोया इति संग्रहः ॥२३॥ चतुर्थ प्रकाशः ॥५६९॥ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥५७०।। पूर्वोक्तस्यार्थस्य संग्रहणात् संग्रहः ॥ २३ ॥ यद्यपि तुल्ययोगितया कषायेन्द्रियजयौ मोक्षरूपत्वेनोक्तौ, तथाप्यनयोः कषायजयः प्रधानम्, तद्धेतुस्तु इन्द्रियजयः, तदेवाहविनेन्द्रियजयं नैव कषायाओतुमीश्वरः। हन्यते हैमनं जाडयं न बिना ज्वलितानलम् ॥२४॥ समकालसंभविनोरपि कषायजयेन्द्रियजययोः प्रदीपप्रकाशयोरिवास्ति कार्यकारणभावः, अत उक्तम्-इन्द्रियजयं विना न कषायजयः । हन्यते इत्यादिना दृष्टान्तः। हैमनजाडयसदृशाः कषायाः, ज्वलितानलप्रायश्चेन्द्रियजयः। हेमन्ते भवं हैमनम् “ हेमन्ताद् वा तलुक्च " ॥६।३।९१।। इत्यनेनाणि तलोपे वृद्धौ च सिद्धम् ॥२४॥ ___इन्द्रियजयः कषायजयहेतुत्वेनोक्तः. अजितानां त्विन्द्रियाणां न कषायजयहेतुत्वं प्रत्युतापायहेतुत्वमेवेत्याहअदान्तैरिन्द्रियहयैश्चलेरपथगामिभिः। आकृष्य नरकारण्ये जन्तुः सपदि नीयते ॥ २५ ॥ ___ इन्द्रियाण्येव हया अश्वा इन्द्रियहयास्तैश्चलैरेकत्रानवस्थायिभिः प्रकृत्या, अदान्तैरजितैः सद्भिरपथगामिभिरुन्मार्गचारिभिराकृष्य बलात्कारेण कृष्ट्वा जन्तुः प्राणी, नरक एवारण्यं विविधभीतिहेतुत्वाद् नरकारण्यं तस्मिन् सपदि तत्क्षणाद् नीयते । यथाऽदान्तो हयोऽपथगामित्वेन स्वमारोहकमरण्ये नयति तथैवाजितैरिन्द्रियैर्जन्तुर्विविधापायबहुले नरके नीयत इत्यर्थः ॥ २५ ॥ कथमजितानीन्द्रियाणि नरकं नयन्तीत्याह-- ॥५७०॥ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ।।५७१ ।। इन्द्रियैर्विजितो जन्तुः कषायैरभिभूयते । वीरैः कृष्टेष्टकः पूर्वं वप्रः केः कैर्न खण्डयते ? ||२६|| इन्द्रियाणि जेतुमशक्तोऽत एव तैर्विजितः, यान् जेतुमिन्द्रियजय उपदिश्यते तैरेव प्रत्युत कषायैरभिभूयते । कषायाभिभूतश्च नरकं यातीति सुप्रसिद्धमेव । ननु यदीन्द्रियजयेऽशक्तो जन्तुः, तहन्द्रियजनितैव बाधास्तु, कोऽवसरः कषायवाधायाः ? इत्याशङ्कामपनेतुं दृष्टान्तमाह- वीरैविक्रान्तैः कृष्टा इष्टका यस्मात् स कृष्टेष्टकः वप्रः प्राकारः पूर्व प्रथमम् पश्चात् कैः कैरवीरैरपि एकैकेष्टकाशकलकर्षणेन न खण्डयते न खण्डशो नीयते ? । अयमर्थ:यथा वीरपुरुषपातितच्छिद्रः प्राकारः कर्मकरप्रायाणामपि गम्यो भवति तथैव वप्रप्रायः प्राणी वीरप्रायैरिन्द्रियैर्भ ग्नप्राय इतर पुरुषप्रायैः कषायैर्वाध्यते इन्द्रियानुसारित्वात् कषायाणाम् ||२६|| न केवलमनिर्जितैरिन्द्रियैः कषायाभिभूतो जन्तुर्नरके नीयते, यावदिहलोकेऽपि अनिर्जितानीन्द्रियाण्यपायकारणान्येवेत्याह कुलघाताय पाताय बन्धाय च वधाय च । अनिर्जितानि जायन्ते करणानि शरीरिणाम् ॥२७॥ शरीरिणां जन्तूनां करणानीन्द्रियाणि अनिर्जितानि अदान्तानि जायन्ते । कस्मै ? कुलघाताय कुलघातो वंशोच्छेदः, पाताय पातो राज्यादिभ्रंशः, बन्धाय बन्धो नियमनम्, वधाय वधः प्राणनिग्रहः । तत्र कुलघातायेन्द्रियाणि रावणस्येव । तस्य निर्जितेन्द्रियस्य परदारान् रिरंसमानस्य रामलक्ष्मणाभ्यां कुलक्षयः कृत इत्युक्तपूर्वम् । पातयेन्द्रियाणि सोदासस्येव । स हि राज्यं पालयन् मांसप्रियतया नानाविधैर्मासैरात्मानं प्रीणयनेकदा चतुर्थ प्रकाशः 1149811 Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । योगशास्त्रम् चतुर्थ प्रकाशः ॥५७२॥ सूपकारैः संस्कृते मांसे बिडालादिभिर्भक्षिते सति तस्मिन दिने धार्मिकैः श्रावकजनै राजानं प्रसाद्यामारिपटहे दापिते जीववधाभावादन्यमांसाप्राप्तौ मुलभस्य कस्यचिडिम्भस्य मांसं परिवेष्य राजा परितोषितः । स चैकान्ते सूपकारान् शपथदानपूर्वकं पप्रच्छ । तैश्च यथास्थिते कथिते मानुषमांसगृद्धया सकलनगरे डिम्भमानुषग्रहणाय स्वपुरुषान् नियुक्तवान् । एतच ज्ञात्वा पौरजानपदैर्मन्त्रिभिश्च भीतभीतैरेकमतीभूय मद्यपानप्रमत्तो बध्ध्वाऽरण्ये विमुक्तः। स च राज्यात्, कुलात् परिवाराच पतितोऽरण्ये श्वापद इव दुःखमनुबभूव । बन्धायेन्द्रियाणि चण्डप्रद्योतस्येव । वधाय मृत्यवे इन्द्रियाणि रावणस्येवेत्युक्तपूर्वम् । अत्रान्तरश्लोकाः इन्द्रियैः स्वार्थविवशैः कस्को नैव विडम्ब्यते । अपि विज्ञातशास्त्रश्चिष्टन्ते बालका इव ॥९॥ किमतोऽपि घृणास्थानमिन्द्रियाणां प्रकाश्यते । यद् बन्धौ बाहुबलिनि भरतोऽप्यसमक्षिपत् ॥२॥ जयो यद् बाहुबलिनि भरते च पराजयः । जिताजितानां तत् सर्वमिन्द्रियाणां विज़म्भितम् ॥३॥ यच्छवाशखि युध्यन्ते चरमेऽपि भवे स्थिताः। दुरन्तानामिन्द्रियाणां महिम्नानेन लज्जिताः॥४॥ दण्डयन्तां चण्डचरितैरिन्द्रियैः पशवो जनाः। शान्तमोहाः पूर्वविदो दण्ड चन्ते यत् तदद्भतम् ॥५।। जिता हृषीकैरत्यन्तं देवदानवमानवाः । जुगुप्सितानि कर्माणि ही ! तन्वन्ति तपस्विनः ॥६॥ अखाद्यान्यपि खादन्त्यपेयान्यपि पिबन्ति च । अगम्यान्यपि गच्छन्ति हृषीकवशगा नराः ॥७॥ वेश्यानां नीचकर्माणि दास्यान्यपि च कुर्वते । कुलशीलोज्झितास्त्यक्तकरुणैः करणैर्हताः ॥८॥ परद्रव्ये परस्त्रीषु मोहान्धमनसां नृणाम् । या प्रवृत्तिः सेन्द्रियाणामतन्त्राणां विजम्भितम् ॥९॥ पाणिपादेन्द्रियच्छेदमरणानि शरीरिभिः । प्राप्यन्ते यद्वशात् तेभ्यः करणेभ्यो नमो नमः ॥१०॥विनयं ग्राह ॥५७२॥ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ।।५७३ ।। CYPROKENOCKSTO HORSE यन्त्यन्यान ये स्वयं करणैर्जिताः । पिधाय पाणिना वक्त्रं तान् हसन्ति विवेकिनः ॥ ११ ॥ आ विरिञ्चादा च कीटाद् ये केचिदिह जन्तवः । विमुच्यैकं वीतरागं ते सर्वेऽपीन्द्रियैर्जिताः ॥ १२ ॥ २७ ॥ एवं सामान्येनेन्द्रियदोषानभिधाय स्पर्शनादीन्द्रियाणां श्लोकपञ्चकेन दोषानाह-वशास्पर्शसुखास्वादप्रसारितकरः करी । आलानबन्धन क्लेशमासादयति तत्क्षणात् ॥ २८ ॥ पयस्यगाधे विचरन् गिलन् गलगतामिषम् । मैनिकस्य करे दीनो मीनः पतति निश्चितम् ॥२९॥ निपतन् मत्तमातङ्गकपोले गन्धलोलुपः । कर्णतालतलाघाताद् मृत्युमाप्नोति षट्पदः ||३०|| कनकच्छेद संकाश शिखा लोकविमोहितः । रभसेन पतन दीपे शलभो लभते मृतिम् ॥३१॥ हरिणो हारिणीं गीतिमाकर्णयितुमुधुरः । आकर्णाकृष्टचापस्य याति व्याधस्य वेध्यताम् स्पष्टाः नवरं वशा हस्तिनी, गलो रज्जुबद्धो लोहकण्टकः, मीनान हन्तीति मैनिको धीवरः, कर्णताल एव तलश्च पेटस्तेनाघातः, गीति गीतम् ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ उपसंहरति एवं विषय एकैकः पञ्चत्वाय निषेवितः । कथं हि युगपत् पञ्च पञ्चत्वाय भवन्ति न ? ॥३३॥ विषय इन्द्रियस्य गोचरः, इन्द्रियप्रकरणेऽपि यद् विषयस्य दोषदर्शनम्, तद् विषयद्वारेणैवेन्द्रियाणां दोष Thoho0OHOMESHE चतुर्थ काश ॥५७३॥ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥ ५७४ ॥ जनकत्वमिति दर्शनार्थम् । एकैको विषयो गजादीनां पञ्चत्वाय मरणाय । यस्तु पुमान् सर्वेषु विषयेष्वासक्तस्तं प्रत्याह-- कथं हि युगपत् पञ्चापि विषयाः सेविताः पञ्चत्वाय न भवन्ति ? अपि तु भवन्त्येवेति । यदाहपञ्चसु सक्ताः पञ्च विनष्टा यत्रागृहीतपरमार्थाः । एकः पञ्चसु सक्तः प्रयाति भस्मान्ततां मूढः ॥ १ ॥३३॥ इन्द्रियदोषानभिधाय तज्जयोपदेशमाह- तदिन्द्रियजयं कुर्याद् मनः शुद्ध्या महामतिः । यां विना यमनियमैः कायक्लेशो वृथा नृणाम् ॥ ३४ ॥ यस्मादेवंविधानर्थसार्थसमर्थकानीन्द्रियाणि तत् तस्मादिन्द्रियाणां भावेन्द्रियाणां जयं कुर्यात् । द्विविधानि हीन्द्रियाणि द्रव्येन्द्रियाणि भावेन्द्रियाणि च । तत्र द्रव्येन्द्रियाणि स्पर्शनेन्द्रियाद्याकारपरिणतानि पुद्गलद्रव्याणि भावेन्द्रियाणि स्पर्शादिष्वभिलाषोपायरूपाणि तेषां जयो लौल्यपरिहारेणावस्थानम् । अत्रान्तरश्लोकाः अनिजितेन्द्रियग्रामो यतो दुखैः प्रबाध्यते । तस्माज्जयेदिन्द्रियाणि सर्वदुःखविमुक्तये ॥ १॥ न चेन्द्रियाणां विजयः सर्वथैवाप्रवर्त्तनम् । रागद्वेषविमुक्तया तु प्रवृत्तिरपि तज्जयः || २ || अशक्यो विषयोऽस्प्रष्टुमिन्द्रियैः स्वसमीपगः । रागद्वेषौ पुनस्तत्र मतिमान परिवर्जयेत् || ३|| हताहतानीन्द्रियाणि सदा संयमयोगिनाम् । अहतानि हितार्थेषु हतान्यतिवस्तुषु ॥ ४ ॥ जितान्यक्षाणि मोक्षाय संसारायाजितानि तु । तदेतदन्तरं ज्ञात्वा यद् युक्तं तत् समाचर ||५|| स्पर्शे मृदौ च तुल्यादेरुपलादेश्च कर्कशे । भव रत्यरती हित्वा जेता स्पर्शनमिन्द्रियम् ॥ ६ ॥ रसे स्वादौ च भक्ष्यादेरितरस्मिन्नथापि वा । प्रीत्यप्रीती विमुच्योच्चैर्जिह् वेन्द्रियजयी भव ||७|| घ्राण देशमनुप्राप्ते शुभे गन्धेऽपरत्र वा । ज्ञात्वा वस्तुपरीणामं घ्राणेन्द्रियजयं कुरु ॥ ८ ॥ मनोज्ञं रूपमालोक्य यदिवा तद्विलक्षणम् । त्यजन् हर्ष चतुथ प्रकाशः ॥। ५७४॥ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥५७५॥ जुगुप्सां च जय त्वं चक्षुरिन्द्रियम् ॥ ९॥ स्वरे श्रव्ये च वीणादेः खरोष्ट्रादेश्च दुःश्रवे । रतिं जुगुप्सां च जयन् श्रोत्रेन्द्रियजयी भव ॥१०॥ कोऽपि नास्तीह विषयो मनोज्ञ इतरोऽपि वा। य इन्द्रियैर्नोपभुक्तस्तत्स्वास्थ्यं किं न सेव्यते ? ॥११॥ शुभा अप्यशुभायन्ते शुभायन्तेऽशुभा अपि । विषयास्तत् क रज्येत विरज्येत क चेन्द्रियैः ॥१२॥ स एव रुच्यो द्वेष्यो वा विषयो यदि हेतुतः । शुभाशुभत्वं भावानां तन्न तत्वेन जातुचित् ॥ १३ ॥ एवं विमृश्य विषयेषु शुभाशुभत्व-मौपाधिकं तदविमुक्तिविरक्तचेताः। हन्तेन्द्रियार्थमधिकृत्य जहीहि राग, द्वेष तथेन्द्रियजयाय कृताभिलाषः॥१४॥ अथैवं दुजयेन्द्रियजय प्रति कोऽसाधारण उपाय इत्याह--मनःशुद्धया मनसो निर्मलत्वेन सन्त्यन्यान्यपि यमनियमवृद्धसेवाशास्त्राभ्यासादीनीन्द्रियजयकारणानि किन्तु साधकतम मनःशुद्धिरेव । अन्यानि तु नैकान्तिकान्यात्यन्तिकानि वा, अविशुद्ध हि मनसि यमनियमादीनि सन्त्यपि नेन्द्रियजयनिबन्धनानि, एतदेवाह--यां विना यमेत्यादि । यां मनःशुद्धिं विना यमा मूलगुणा नियमा उत्तरगुणास्तैरुपलक्षणत्वाद् वृद्धसेवादिभिश्च यः कायक्लेशः स नृणां पुरुषाणां वृथा। सा च मनःशुद्धिः केषाश्चित् स्वभावत एव भवति मरुदेव्यादीनाम् । केषाञ्चित् तु यमनियमाद्यपायबलाद् नियन्त्रिते मनसि भवति ॥ ३४ ॥ __ अनियन्त्रितं मनो यत्करोति तदाहमनः क्षपाचरो भ्राम्यन्नपशङ्क निरङ्कुशः। प्रपातयति संसाराऽऽवर्तगर्ते जगत्त्रयीम् ॥३५॥ ॥५७५॥ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाशः ।।५७६. इह द्विविधं मनः-द्रव्यमनो भावमनश्च । तत्र द्रव्यमनो विशिष्टाकारपरिणताः पुद्गलाः । भावमनस्तु तद्र्व्योपाधिसंकल्पात्मक आत्मपरीणामः । मन एव संकल्परूपं क्षपाचरो राक्षसः, अविषयेऽपि प्रवृत्तिशीलत्वात्, भ्राम्यन् तत्र तत्र विषये स्थर्यमनवलम्बमानः कथं भ्राम्यन् ? अपशकं निभयं यथा भवति । तदपि कुतः? । निर्गतस्तत्वभावनादिनि(नि)वारकत्वात् अकुशो यस्माद् स तथा । प्रपातयति प्रकर्षेण पातयति संसार एवावर्तप्रधानोगतस्तत्र । जगत्त्रयो मिति । न स कश्चिद् जन्तुर्जगत्त्रयेऽप्यस्ति, यो निरङ्कुशेन मनसा संसारावर्तगर्ने न पात्यते । जगत्त्रयगतानां जन्तूनां संसारावर्तगर्ने पातनाद् जगत्त्रयीं पातयतीति उपचारादुक्तम् ॥३५॥ पुनरनियन्त्रिते मनसि दोषमाहतप्यमानांस्तपो मुक्तौ गन्तुकामान् शरीरिणः। वात्येव तरलं चेतः क्षिपत्यन्यत्र कुत्रचित् ॥३६॥ तप्यमानान् कुर्वाणान्, कि सत् ! तपः। तथा मुक्ती मोक्षे गन्तुकामान् गन्तुमध्यवसितान् शरीरिणो जन्तून् तरलमेकत्रानवस्थायि चेतो भावमनः क क्षिपत्यन्यत्र कुत्रचित मोक्षादन्यत्र नरकादौ । किवद् ! वात्येव, यथान्यत्र गन्तुकामान् मनुष्यादीन् बातसमूहो विवक्षिताद् देशात अन्यत्र नयति, एवं तरलं चेतोऽपि ॥ ३६ ॥ पुनरनियन्त्रितस्य मनसो दोपमाह-- अनिरुद्धमनस्कः सन् योगश्रद्धां दधोति यः। पद्भ्यां जिगमिषुर्गामं स पणुरिव हस्यते ॥३७॥ न विरुद्ध चापल्यात् च्यावितं मनो येन सोऽनिरुद्धमनस्कः सन् योगश्रद्धा अहं योगीत्यभिमान यो दधाति ॥५७६।। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RI चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाश अ५७७॥ 2 . = धारयति स हस्यते विवेकिभिः। क इव कथम्भूतः। पङ्गुरिव पद्भ्यां पादाभ्यां ग्रामान्तरं निगमिषुः । पादप्रचाररुपो हि मनोरोधस्तदभावे कथं पङ्गुनामान्तरजिगमिषातुल्या योगश्रद्धेति ॥३७॥ न केवलमनिरुद्धमनस्कस्य योगश्रद्धा विफला यावदशुभकर्माणि बहुतराण्यस्य प्रादुःषन्तीत्युत्तरान प्रतिपादयितुं पूर्वार्द्धन काका मनोरोधमुपदिशतिमनोरोधे निरुध्यन्ते कर्माण्यपि समन्ततः । अनिरुद्धमनस्कस्य प्रसरन्ति हि तान्यपि ॥३८॥ मनसो रोधो विषयेभ्यो निवारणं तस्मिन् सति निरुध्यन्ते प्रतिबाध्यन्ते आश्रवनिरोधात् कर्माण्यपि ज्ञानावरणादीन्यतिप्रबलानि समन्ततः सामस्त्येन । मनोरोधायत्तत्वात् कर्मरोधस्य । प्रकृते योजयति-अनिरुद्धमनस्कस्य पुंसस्तान्यपि कर्माणि प्रसरन्ति विवर्द्धन्ते मनः प्रसराधीनत्वात् कर्मप्रसरस्य ॥३८॥ तदेतनिश्चित्य मनोनियन्त्रणाय यत्नः कार्य इत्येतदाहमनःकपिरयं विश्वपरिभ्रमणलम्पटः । नियन्त्रणीयो यत्नेन मुक्तिमिच्छुभिरात्मनः ॥३९॥ ___ मनो भावमन एव कपिमकटः। अयमिति सर्वेषां स्वसंवेदनसिद्धः। कपित्वरुपेण साधर्म्यमाह-विश्वस्मिन् जगति परिभ्रमणमन्यान्यविषयमहरूपमनवस्थानं तत्र लम्पटो लोलुपस्तदेवंविधो मनःकपिनियन्त्रणीयो निरोद्धव्यः चापलं परित्याज्योचिते विषये परिस्थाप्यः। यत्नेन तत्त्वाभ्यासरुपेण । किं कुर्वद्भिः? मुक्ति मोक्षमिच्छन्तीत्येवंशीलास्तरात्मनः स्वस्य । मनश्चापलनिरोधस्य साध्या हि मुक्तिरिति ॥३९॥ ॥५७७॥ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशास्त्रम् TT-T: 11५७८॥ इदानीमिन्द्रियजयहेतुं मनःशुद्धिं प्रस्तौतिदीपिका खल्वनिर्वाणा निर्वाणपथदर्शिनी। एकैव मनसः शुद्धिः समाम्नाता मनीषिभिः॥४०॥ एकैव सा यमनियमादिरहितापि मनःशुद्धिः दीपिकेव दीपिका, किंविशिष्टा ? अनिर्वाणा अविध्याता, निर्वाणस्य मोक्षस्य पन्था निर्वाणपथस्तं दर्शयतीत्येवंशीला निर्वाणपथदर्शिनी, मुमुक्षोः इति शेषः, समाम्नाता पारम्पर्येण कथिता. कैः! मनीषिभिः पूर्वाचार्यैः, यदाह-- ज्ञाने ध्याने दाने माने मौने सदोद्यतो भवतु । यदि निर्मलं न चित्तं तदा हुतं भस्मनि समग्रम् ॥१॥४०॥ मनःशुद्धरन्वयव्यतिरेकाभ्यां गुणान्तरदर्शनेनोपदेशमाह-- सत्यां हि मनसःशुद्धौ सत्यसन्तोऽपि यद्गुणाः। सन्तोऽप्यसत्यां नो सन्ति सैव कार्या बुधैस्ततः।४१॥ ___ यद् यस्मात् सत्यां विद्यमानायां मनसः शुद्धावसन्तोऽप्यविद्यमाना अपि सन्ति भवन्ति तत्फलसद्भावाद् गुणाः क्षान्त्यादयः । सन्तो विद्यमाना अपि गुणा असत्यां मनसः शुदौ नो सन्ति न सन्त्येव, तत्फलाभावात् । ततः कारणादन्वयव्यतिरेकाभ्यां निश्चितफला सैव मनःशुद्धिः कार्या बुधैर्विवेकिभिः ॥४१॥ ये तु “ आस्तामेषा मनः शुद्धिः, तपोबलेनैव मुक्तिं वयं साधयिष्यामः," इति प्रतिपद्यन्ते तान् प्रत्याहमनःशुद्धिमविभ्राणा ये तपस्यन्ति मुक्तये । त्यक्त्वा नावं भुजाभ्यां ते तितीर्षन्ति महार्णवम् ।४२। मनःशुद्धिमविभ्राणा अधारयन्तो ये मुक्तये मुक्तिनिमित्तं तपस्यन्ति तपाक्लेशमनुभवन्ति, ते दुग्रडग्रहिलाः ॥५७८॥ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥५७९॥ संनिहितां नावं परित्यज्य महार्णवं भुजाभ्यां तरीतुमिच्छन्ति । यथा नावमन्तरेण महार्णवो भुजाभ्यां दुस्तरः तथा मनःशुद्धिमन्तरेण तपसा मुक्तिर्दष्प्रापा ॥४२॥ ये तु ध्यानं तपःसहितं मुक्तिद इति वदन्तो मनःशुद्धिमुपेक्षन्ते, ध्यानमेव तु कर्मक्षयकारण इति प्रतिपनास्तान प्रत्याहतपस्विनो मनःशुद्धिविनाभूतस्य सर्वथा । ध्यानं खलु मुधा चक्षुर्विकलस्येव दर्पणः ॥४३॥ तपस्विनोऽपि ध्यानं, खलु निश्चयेन, मुधा । किंविशिष्टस्य ? सर्वथा मनःशुद्धिविनाभूतस्य लेशेनापि मनःशुद्धिरहितस्य । यद्यपि मनःशुद्धिरहितानामपि तपोध्यानवलेन नवमवेयकं यावद् गतिः श्रूयते, तथापि तत् प्रायिकम् , न च तत् फलत्वेन विवक्षितम् , मोक्षस्यैव फलरूपत्वात् । अतो ध्यानं मुधा । यथा दर्पणो रूपनिरूपणकारणमपि चक्षुर्विकलस्य मुधा, तथा ध्यानमपीति भावः ॥४३॥ उपसंहरतितदवश्यं मनःशुद्धिः कर्तव्या सिद्धिमिच्छता । तपःश्रुतयमप्रायैः किमन्यैः कायदण्डनैः ॥४४॥ तत् तस्मात् अवश्यं निश्चयेन मनःशुद्धिः कर्त्तव्या सिद्धिं मोक्षमभिलषता । आवश्यकत्वे हेतुमाह-किमन्यैः कायदण्डनैः ? कायो दण्डयत एभिरिति कायदण्डनास्तैः, कैः? तपः श्रुतयमप्रायैः--तपोऽनशनादि, श्रुतमागमः, यमा महाव्रतानि । प्रायग्रहणाद् नियमादयो गृह्यन्ते । अत्रेदमनुयोक्तव्यम्-केयं मनसः शुद्धिः? लेश्याविशुद्धया ॥५७९। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशाखम् प्रकाशः 1५८०॥ मनसो निर्मलत्वम् । काः पुनर्लेश्याः ? कृष्णनीलकापोततेजःपद्मशुक्लवर्णद्रव्यसाचिव्यादात्मनस्तदनुरूपः परिणामः, यदाह_कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥१॥ तत्र कृष्णवर्णपुद्गलसन्निधाने य आत्मनोऽशुद्धतमः परिणामः सा कृष्णलेश्या-। नीलद्रव्यसमिधाने य आत्मनोऽशुद्धतरः परिणामः सा नीललेश्या । कापोतवर्णद्रव्यसान्निध्यात्तदनुरूपोऽशुद्ध आत्मपरिणामः कापोतलेश्या । तेजोवर्णद्रव्यसान्निध्यात्तदनुरूपः शुद्ध आत्मपरिणामस्तेजोलेश्या । पद्मवर्णद्रव्यसान्निध्यात्तदनुरूपः शुद्धतर आत्मपरिणामः पद्मलेश्या । शुक्लवर्णद्रव्यसान्निध्याच्छुद्धतम आत्मपरिणामः शुक्ललेश्या । कृष्णादिद्रव्याणि च सकलकर्मप्रकृतिनिःस्यन्दभूतानि, तदुपाधिजन्मानो भावलेश्याः कर्मस्थितिहेतवः । यदाह-- ताः कृष्णनीलकापोततैजसी (स) पद्मशुक्लनामानः श्लेष इव वर्णवन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधायः॥२॥ एताश्चाऽशुद्धतमाऽशुद्धतराऽशुद्धशुद्धशुद्धतरशुद्धतमात्मपरिणामरूपा जम्बूफलखादकदृष्टान्ताद् ग्रामघातकदृष्टान्ताच्चावसेयाः । आगमगाथाश्चात्र-- १जह जम्बुतरुवरेगो सुपक्कफलभरियनमियसालग्गो । दिह्रो छहि पुरिसेहिं ते बिती जंबु भक्खेमो ॥१॥ किह पुण ते बितेगो आरुहमाणाण जीअसंदेहो । ता छिदिऊण मूले पाडेउ ताहि भकखेमो ॥२॥ (१) यथा जम्बूतरुवर एकः सुपक्वफलभरितनमितसालानः । दृष्ट पद्भिः पुरुषैस्ते ब्रुवन्ति जम्बूनि भक्षयामः॥१॥ कथं पुनस्ते ब्रुवन्ति एक (आह) आरोहतां जीवसन्देहः। ततश्छित्त्वा मूलतः पातयित्वा तानि भक्षयामः॥२॥ ॥५८oll Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥५८१ ॥ यह एहणं कि छत्रेण तरुण उ अम्हंति । साहा महल्ल छिंदह तइओ बेई पसाहाओ || ३ || गुच्छे उत्थओ पुण पंचमओ बेइ गेण्डह फलाई । छट्टो बेई पडिआ एइच्चिय खायह य घेतुं ॥ ४ ॥ दिवंतस्सोवणयो जो बेइ तरुं तु छिंद मूलाओ । सो वट्टर किन्हाए साल महल्लाओ नीलाए ॥ ५ ॥ हव पसाहा काऊ गुच्छे तेऊ फलाणि पम्हाए । पडियाणि सुकलेसा अहवा अनं उआहरणं ॥ ६॥ चोरा गामवहथ्थं विणिग्गया एगु बेइ घाए । जं पेच्छह तं सव्वं दुपयं चउप्पयं वावि ॥ ७ ॥ माणुस पुरिसे तइओ साउहे चउथ्यो अ । पंचमओ जुज्झते छट्टो उण तथिथमं भणइ ॥ ८ ॥ एकं ता हर धणं बीअं मारेह मा कुणह एयं । केवल हरह घणं ता उवसंहारो इमो तेसिं ॥ ९ ॥ (१) द्वितीय आह एतावता कि छिन्नेन तरुणा तु अस्माकमिति ? । शाखा महतीछिन्त तृतीयो ब्रवीति प्रशाखाः | ३ | गुच्छां चतुर्थकः पुनः पंचमो ब्रवीति गृहणीत फलानि । षष्ठस्तु ब्रवीति पतितान्येवैतानि खादत च गृहीत्वा ||४|| दृष्टान्तस्योपनयो योऽब्रवीत् तरुं तु छिन्त मूलतः । स वर्त्तते कृष्णायां शाखा महतीर्नीलायाम् ॥ ५ ॥ भवति प्रशाखाः (छिन्तेति) कापोती गुच्छांस्तैजसी फलानि पद्मा । पतितानि शुक्ललेश्या अथवाऽन्यदुदाहरणम् । ६ । चौरा ग्रामवधार्थं निर्गता एको ब्रवीति घातयत । ये प्रेक्षध्वं तं सर्वं द्विपदं चतुष्पदं वापि ॥ ७ ॥ द्वितीयो मनुष्यान् पुरुषान् तृतीयः सायुधांश्चतुर्थस्तु । पंचमस्तु युध्यतः षष्ठः पुनस्तत्रेद ं भणति ॥ ८ ॥ एकं तावद् हरत धनं द्वितीय मारयथ मा कार्ष्टतत् । केवलं हरत धनं तदुपसंहारस्त्वयं तेषाम् ।। ९ ।। BEETLOOKS TO FO चतुर्थ प्रकाशः 1196211 Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥५८२॥ १ सव्वे माहति वह सो किण्डलेसपरिणामो । एवं कमेण सेसा जा चरमो मुकलेसाए || १० || एतस्वाद्यास्तिस्रोऽप्रशस्तोः, उत्तराः प्रशस्ताः एताश्च मनुष्याणां परिवर्तमाना भवन्ति । ततश्च यदा उत्तराtra आत्मनो भवन्ति तदा विशुद्धिरित्याख्यायते । यदा चैता मरणकाले भवन्ति तदा तदनुरूपासु गतिष्वात्मा प्रयाति । तत्र कृष्णनीलकापोत लेश्यापरिणतो नरकेषु तिर्यक्षु चोत्पद्यते । पीतपद्मशुक्ललेश्यापरिणतस्तु मनुष्येषु देवेषु चोत्पद्यते । यदाहुर्भगवन्तः – “२ जलेसे मरइ तल्लेसेमु उववज्जइ । " लौकिकास्त्वाहुः'अन्ते च भरतश्रष्ठ ! या मतिः सा गतिर्नृणामिति " । अत्र यदि मतिश्चेतनामात्र तदा या मतिः सा गतिरिति कि केन संगतम् ? । अथाशुद्धतमादिपरिणामयुक्ता मतिर्व्याख्यायते तदमेव पारमर्षं वचनं साध्वित्यलं प्रसङ्गेन । एवं तावदशुद्धलेश्यात्यागेन विशुद्धलेश्यापरिग्रहेण च मनसः शुद्धिरुक्ता । ४४ ॥ .. इदानीं मनः शुद्धिनिमित्तमीषत्करमुपायान्तरमुपदिशति - मनः शुद्धयै च कर्तव्यो रागद्वेषविनिर्जयः । कालुष्यं येन हित्वात्मा स्वरूपेऽवतिष्ठते ॥४५॥ मनसो भावमनस आत्मरूपस्य शुद्धिहेतवे कर्तव्यो रागद्वेषयोः प्रीत्यप्रीत्यात्मकयोर्विनिर्जयो निरोधः, उदितयोफिलीकरणेन अनुदितयोश्वानुत्पादनेन । तथा सति किं स्यात् ? कालुष्यमशुद्धत्वं हित्वा आत्मा भावमनोरूपः स्वकीये स्वरूपे परमशुद्धिलक्षणेऽवतिष्ठते स्थिरो भवति ।। ४५ ।। (१) सर्वान् मारयतेति वर्त्तते स कृष्णलेश्यापरिणामः । एवं क्रमेण शेषा यावच्चरमः शुक्ललेश्यायाम् ॥ १० ॥ (२) यल्लेश्यो म्रियते तासु लेश्या उत्पद्यते । चतुर्थ प्रकाशः ॥५८२ ॥ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् चतुर्थ ॥५८३॥ प्रकाशा ESEGG अथ राग-द्वेषयोर्दुर्जयत्वं श्लोकत्रयेणाहआत्मायत्तमपि स्वान्तं कुर्वतामत्र योगिनाम्। रागादिभिः समाक्रम्य परायत्तं विधीयते ॥४६॥ आत्मायत्तमपि आत्मनि निमग्नमपि स्वान्तं मनः कुर्वतां योगिनामत्र जगति रागादिभी रागद्वेषाभ्यां तदविनाभूतेन च मोहेन समाक्रम्य रक्तं द्विष्टं मूह च कृत्वा परायत्तमात्मनोऽनधीनं क्रियते ॥४६ ॥ तथारक्ष्यमाणमपि स्वान्तं समादाय मनार मिषम् । पिशाचो इव रागाद्याश्छलयन्ति मुहर्मुहुः॥४७॥ रक्ष्यमाणमपि गोप्यमानमपि यमनियमादिभिर्मन्त्रतन्त्रप्रायः स्वान्तं भावमनः समादाय पुरस्कृत्य मनाय मिषं स्वल्पं छलं प्रमादरूपं,, छलयन्ति-आत्मवशं कुर्वन्ति । क एते ? रागादयः । क इव ! पिशाचा इव । मुहर्मुहुरिति यदा यदा प्रमादलेशोऽपि भवति तदा तदा छलयन्ति । यथा हि पिशाचा मन्त्रादिकृतरक्षमपि साधक छलं प्राप्यात्मवशं कुर्वन्ति, तथा रागादयोऽपि योगिमन इति ॥ ४७ ॥ तथारागादितिमिरध्वस्तज्ञानेन मनसा जनः। अन्धेनान्ध इवाकृष्टः पात्यते नरकावटे ॥४८॥ रागादय एव सम्यग्दर्शनविघातहेतुत्वात् तिमिरमक्ष्णोविप्लवः तेन ध्वस्तं ज्ञानं तत्वालोको यस्य तेन तथाविधेन मनसा आकृष्टो जनो नरकावटे नरककूपे पात्यते । केन क इव ? अन्धेनान्ध इव रागादिभिरन्धीकृतेन मनसा जनोऽप्यन्धः, तस्यैव मार्गदर्शकत्वात् । ततो यथाऽन्धेनान्धः समाकृष्यावटे पात्यते तथाऽन्धेन मनसा अन्धो जनो नरकावटे पात्यते । अत्रान्तरश्लोकाः ASTRAMADHAGESS 1५८३॥ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाश 1५८४॥ द्रव्यादिषु रतिप्रीती राग इत्यभिधीयते । तेष्वेवारतिमप्रीति चाहुषं मनीषिणः ॥ १॥ उभावेतौ दृढतरं बन्धनं सर्वजन्मिनाम् । सर्वदुःखानोकहानां मूलकन्दौ प्रकीर्तितौ ॥ २॥ कः सुखे विस्मयस्मेरो दुःखे कः कृपणो भवेत् ? । मोक्षं को नाप्नुयाद् रागद्वेषौ स्यातां न चेदिह ॥३॥ रागेण ह्यविनाभावी द्वेषो द्वेषेण चेतरः। तयोरेकतरत्यागे परित्यक्तावुभावपि॥४॥दोषाः स्मरप्रभृतयो रागस्य परिचारकाः। मिथ्याभिमानप्रमुखा द्वेषस्य तु परिच्छदः ॥५॥ तयोर्मोहः पिता बीजं नायकः परमेश्वरः । ताभ्यामभिन्नस्तद्रक्ष्यः सर्वदोषपितामहः ॥६॥ एवमेते त्रयो दोषा नातो दोषान्तरं कचित् । तैरमी जन्तवः सर्वे भ्रम्यन्ते भववारिधौ ॥७॥ स्वभावेन हि जीवोऽयं स्फटिकोपलनिर्मलः । उपाधिभूतैरेतैस्तु तादात्म्येनावभासते ॥८॥ अराजकमहो! विश्वं यदेभिः पश्यतोहरैः । हियते ज्ञानसर्वस्वं स्वरूपमपि जन्मिनाम् ॥ ९॥ ये जन्तवो निगोदेषु येऽपि चासनमुक्तयः । सर्वत्रास्पृष्टकरुणा पतत्येषां पताकिनी ॥१०॥ मुक्त्या वैरं किमेतेषां मुक्तिकामैः सहाथवा । येनोभयसमायोगस्तैर्भवन् प्रतिषिध्यते ॥११॥ दोषक्षयक्षमाणां हि किमुपेक्षा क्षमाऽर्हताम् । जगद्दाहकरं यन शान्तं दोषप्रदीपनम् ॥२२॥ व्याघ्रव्यालजलाग्निभ्यो न बिभेति तथा मुनिः। लोकद्वयापकारिभ्यो रागारिभ्यो भृशं यथा ॥१३॥ वातिसंकटमहो! योगिभिः समुपाश्रितम् । रागद्वेषौ व्याघ्रसिंहौ पार्श्वतो यस्य तिष्ठतः ॥१४ ॥४८॥ अथ रागद्वेषजयोपायमुपदिशतिअस्ततन्द्रैरतः पुंभिनिर्वाणपदकातिभिः । विधातव्यः समत्वेन रागद्वेषद्विषजयः ॥ ४९ ॥ यत एवंविधौ रागद्वेषौ, अतः कारणादस्ततन्द्रनिरस्तप्रमादैः पुभिः पुरुषधर्मोपेतयोगिभिः, किंविशिष्टैः ? ૧૮જા Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥५८५॥ निर्वाणपदकाक्षिभिः निर्वान्ति रागद्वेषोपतप्ताः शीतीभवन्त्यस्मिन्निति निर्वाणं तदेव पद्यमानत्वात् पदं तत्काक्षणशीला निर्वाणपदकाक्षिणः, तैर्विधातव्यो विधेयो रागद्वेषावेवोपतापकारित्वाद द्विषन्तौ तयोर्जयोऽभिभवः, केनोपायेनेत्याह-समत्वेन, रागहेतुषु द्वेपहेतुषु च माध्यस्थ्येनौदासीन्येनेति यावत् ॥ ४९॥ ___ यथा साम्यं रागद्वेषजयोपायस्तथाऽऽह-- अमन्दानन्दजनने साम्यवारिणि मज्जताम् । जायते सहसा पुंसां रागद्वेषमलक्षयः ॥५०॥ साम्यमेवातिशीतीभावजनकत्वाद् वारि तत्र । किविशिष्टे ? अमन्दस्तीतो य आनन्द आहादस्तस्य जनने, मज्जतां तन्मध्यमवगाहमानानां, सहसा अकस्मात् । केषां ? पुसां। रागद्वेषावेव मलस्तस्य क्षयः। प्रसिद्ध पेतद् यथा बारिणि मज्जतां मलक्षयो भवति, एवं साम्ये निमज्जतां लीयमानानां रागद्वेपक्षयो भवति ॥ ५० ॥ न परं रागद्वेषयोरेवापनायकं साम्यम्, अपि तु सर्वकर्मणामपीत्याह-- प्रणिहन्ति क्षणार्धन साम्यमालम्ब्य कर्म तत् । यन्न हन्यानरस्तीव्रतपसा जन्मकोटिभिः॥५१॥ प्रणिहिन्त निहन्ति क्षणार्धनान्तर्मुहूर्तेन साम्यमुक्तलक्षणमालम्ब्याश्रित्य तत् कर्म ज्ञानावरणीयादि, यत् किश्चित् कर्म न हन्याद नापनयेद नरः पुमान् तीव्रतपसा तीव्रण शरीरमनसोः संतापहेतुनाऽनशनादिरूपेणार्थात् साम्यरहितेन जन्मकोटिभिर्बहुभिरपि जन्मभिः ॥ ५१ ॥ कथमन्तर्मुहूत्तमात्रेण साम्यं सर्वकर्मापनायकमित्याह ॥५८५॥ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् । चतुर्थ प्रकाशा ५८६।। कर्म जीवं च संश्लिष्टं परिज्ञातात्मनिश्चयः। विभिन्नीकुरुते साधुः सामायिकशलाकया॥५२॥ सामायिकमेव समत्वमेव शलाका वंशादिमयी तया विभिन्नीकुरुते पृथक् करोति साधुर्यतिः। किं विभिन्नीकुरुते ? कर्म जीवं च संश्लिष्टं संपृक्तम्, यथा श्लेषद्रव्यसंपृक्तानां पात्रादीनां शलाकया पृथग्र भावः क्रियते तथा जीवकर्मणोरपि तादात्म्येन संबद्धयोः सामायिकेनेति । अयमेव कर्मक्षयः। न हि कर्मपुतलानामात्यन्तिकः क्षयः संभवति, नित्यत्वात् तेषाम्, आत्मनस्तु पृथग्भूतानि कर्माणि क्षीणानि इत्युच्यन्ते । ननु वाङ्मात्रमेतद् यत् सामायिकशलाकया साधुः कर्माणि पृथक् करोतीत्याह--परिज्ञातात्मनिश्चयः परिज्ञातः पुनः पुनः संविदित आत्मनिश्चय आत्मनिर्णयो येन स तथा । अयमर्थः--आत्मज्ञानमभ्यस्यस्तथाविधावरणापगमेन तथा पुनः पुनः स्वसंवेदनेनात्मनिश्चयं दृढं करोति यथात्मरूपाद् भिन्नरूपाणि आत्मरूपावारकाणि च कर्माणि परमसामायिकबलेन निर्जरयति ॥ ५२ ॥ न केवलमात्मनिश्चयबलेन कर्माणि पृथक् करोति यावदात्मनि परमात्मदर्शनमपि भवतीत्याह-- रागादिध्वान्तविध्वंसे कृते सामयिकांशुना। स्वस्मिन् स्वरूपं पश्यन्ति योगिनः परमात्मनः॥५३॥ रागादय एव स्वरूपतिरोधायकत्वाद् ध्वान्तं तस्य विध्वंसस्तस्मिन् कृते । केन ? सामायिकमेवांशुरादित्यस्तेन । ततः किं स्यात् ! स्वस्मिन्नात्मनि परमात्मनः स्वरूपं योगिनः पश्यन्ति । सर्वेऽपि ह्यात्मानस्तत्त्वतः ॥५८६॥ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग चतुर्थ शास्त्रम् प्रकाशा ॥५८७॥ परमात्मान एव, केवलज्ञानस्य येन तेनांशेन सर्वत्र भावात् , यत् पारमर्षम्-"सव्वजीवाणं पि अणं अक्खरस्साणंतभागो निच्चुग्धाडिओ चेव" । केवलं रागद्वेषादिदोषकलुषितत्वाद् न साक्षात् परमात्मस्वरूपाभिव्यक्तिः। सामायिकांशुमत्प्रकाशनेन तु रागादितिमिरेऽपगते आत्मन्येव परमात्मस्वरूपमभिव्यक्तं भवति ॥५३॥ ___ इदानीं साम्यप्रभावं व्यनक्तिस्निह्यन्ति जन्तवो नित्यं वैरिणोऽपि परस्परम् । अपि स्वार्थकृते साम्यभाजः साधोः प्रभावतः।५४।। ___ अपि स्वार्थकृते स्वार्थनिमित्तमपि साम्यवतः साधोः प्रभावाद नित्यवैरिणोऽप्यहिनकुलादयः स्निह्यन्ति परस्परं मैत्रीं कुर्वन्ति । अयमर्थः-ईदृशः साम्यस्य महिमा यदेतत् स्वनिमित्तं कृतमपि परेषु नित्यवैरिषु पर्यवस्यति. यत् स्तुवन्ति विद्वांसः देवाकृष्य करेण केशरिपदं दन्ती कपोलस्थली, कण्डूयत्यहिरेष बभ्रपुरतो मार्ग निरुध्य स्थितः। व्याघ्रव्यात्तविशालवक्त्रकुहरं जिघ्रत्यजस्रं मृगो, यत्रैवं पशवः प्रशान्तमनसस्तामर्थये त्वद्भुवम् ॥१॥ लौकिका अपि साम्यवतां योगिनां स्तुतिमाहुर्यथा-तत्सन्निधौ वैरत्याग इति । अत्रान्तर श्लोकाः चेतनाचेतन वैरिष्टानिष्टतया स्थितेः । न मुह्यति मनो यस्य तस्य साम्यं प्रचक्षते ॥१॥ गोशीर्षचन्दनाले पे वासीच्छेदे च वाहयोः २अभिन्ना चित्तवृत्तिश्चेत् तदा साम्यमनुत्तरम् ॥२॥ अभिष्टोतरि च प्रीते रोषान्धे चापि १ सर्वजीवानामप्यक्षरस्यानन्तभागो नित्योद्घाटित एव । २ भुजयोः ॥५८७॥ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् चतुर्थ प्रकाश ॥५८८॥ शप्तरि । यस्याविशेषणं चेतः स साम्यमवगाहते ॥३॥ न हूयते तप्यते न दीयते वा न किश्चन । अहो! अमूल्यक्रीतीयं साम्यमात्रेण निवृतिः ॥४॥ प्रयत्नकृष्टः क्लिष्टैश्च रागाद्यैः किमुपासितैः ? । अयत्नलभ्यं हृद्यं च श्रय साम्यं सुखावहम् ॥५॥ परोक्षार्थप्रतिक्षेपात् स्वर्गमोक्षावपहनुताम् । साम्यशर्म स्वसंवेद्यं नास्तिकोऽपि न निहनुते ॥६॥ कविप्रलापरूढेऽस्मिन्नमृते कि विमुह्यसि ? स्वसंवेद्यरसं मूढ ! पिब साम्यरसायनम् ॥७॥ खाद्यलेह्यचू (चो) ष्यपेयरसेभ्यो विमुखा अपि । पिबन्ति यतयः स्वैरं साम्यामृतरसं मुहुः ॥८॥ कण्ठपीठे लुठन् भोगिभोगो मन्दारदाम च । यस्याप्रीत्यै न वा नो वा प्रीत्यै स समतापतिः ॥९॥ न गूढं किश्चनाचार्यमुष्टिः काचिद् न चापरा । बालानां सुधियां चैकं साम्यं भवरुजौषधम् ॥१०॥ अतिक्रूरतरं कर्म शान्तानामपि योगिनाम् । यद् घ्नन्ति साम्यशस्त्रेण रागादीनां कुलानि ते ॥१॥ अयं प्रभावः परमः समत्वस्य प्रतीयताम् । यत् पापिनः क्षणेनापि पदमियति शाश्वतम् ॥१२॥ यस्मिन् सति सफलतामसत्यफलतां व्रजेत् । रत्नत्रयं नमस्तस्मै समत्वाय महौजसे ॥१३॥ विगाह्य सर्वशास्त्रार्थमिदच्चैस्तरां ब्रुवे । इहामुत्र स्वपरयोर्नान्यत् साम्यात् सुखाकरम् ॥१४॥ संसर्गेऽप्युपसर्गाणामपि मृत्यावुपस्थिते । नैतत्कालोचित किश्चित् साम्यादौपयिकं परम् ॥१५॥ रागद्वेषादिशत्रुप्रतिहतिनिपुणां साम्यसाम्राज्यलक्ष्मी, भुक्त्वा भुक्त्वा निरन्ताः शुभगतिपदवीं लेभिरे प्राणभाजः। तेनैतद् मानुषत्वं सपदि सफलतां नेतुकामैनिकामं, साम्ये निस्सीमसौख्यप्रचयपरिचिते न प्रमादो विधेयः॥१६॥५४॥ ___ नन्बवगतमेतत् सर्वदोषनिवारणकारणं समत्वम् , प्रीताः स्मः, यदि तु साम्यं प्रत्यप्युपायः कश्चन स्यात् । तदुपायेऽप्युपायान्तरमीपत्करं स्यात् , तदा निराकाक्षाः प्रमोदामहे, इत्येतद् मनसि कृत्वा श्लोकद्वयमाह-- 11५८८॥ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतर्थ प्रकाशा योगशास्त्रम् साम्यं स्याद् निर्ममत्वेन तत्कृते भावनाः श्रयेत् । अनित्यतामशरणं भवमेकत्वमन्यताम् ॥५५॥ अशौचमाश्रवविधि संवरं कर्मनिर्जराम् । धर्मस्वाख्याततां लोकं द्वादशी बोधिभावनाम् ॥५६ साम्यं यथोक्तस्वरूपं निर्ममत्वेनोपायेन स्यात् । ननु साम्यनिर्ममत्वयोः को भेदः ? उच्यते-साम्यं राग-द्वेषयोरुभयोरपि प्रतिपक्षभूतम्, निर्ममत्वं रागस्यैकस्य प्रतिपक्षभूतम् । तदोषद्वयनिवारणाय साम्ये चिकिर्षिते भवति बलवत्तरस्य रागस्य प्रतिपक्षभूतं निर्ममत्वमुपायः । यथा हि बलवत्यां सेनायां बलवत्तरस्य कस्यचिद् विनाश इतरेषां विनाशाय, तथा रागनिग्रहहेतु निर्ममत्वं हीनबलानां द्वेषादीनां विनाशायेति अलं प्रसङ्गेन । निर्ममत्वस्याप्युपायं दर्शयति-तत्कृते निर्ममत्वनिमित्तं भावना अनुप्रेक्षाः श्रयेद् योगी । प्रकृता भावना नामतः कथयति-अनित्यतामित्यादि, स्पष्टं चैतत् ॥५५॥५६।। __ तद्यथा । तद्यथा इत्युपस्कारपूर्वकमनित्यताख्यां प्रथमां भावनां दर्शयतियत्प्रातस्तन्न मध्याहने यन्मध्याह्ने न तनिशि । निरीक्ष्यते भवेऽस्मिन् हो! पदार्थानामनित्यता ।५७॥ शरीरं देहिनां सर्वपुरुषार्थनिबन्धनम् । प्रचण्डपवनोध्धूतघनाघनविनश्वरम् ॥ ५८ ॥ कल्लोलचपला लक्ष्मीः संगमोः स्वप्नसंनिभाः । वात्याव्यतिकरोत्क्षिप्ततूलतुल्यं च यौवनम्।५९॥ श्लोकत्रयं स्पष्टम्, नवरं शरीरमित्यादिश्लोके पूर्वाः यदिति शेषः; उत्तरार्दै तदिति शेषः ॥ अत्रान्तरश्लोकाः १५८९॥ - Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत पोगशास्त्रम् प्रकाशा १५९०॥ स्वतोऽन्यतश्च सर्वाभ्यो दिग्भ्यश्चागच्छदापदः । कृतान्तदन्तयन्त्रस्था; कष्ट जीवन्ति जन्तवः ॥ १॥ वज्रसारेषु देहेषु यद्यास्कन्दत्यनित्यता । रम्भागर्भसगर्भेषु का कथा तर्हि देहिनाम् ? ॥ २ ॥ असारेषु शरीरेषु स्थेमानं यश्चिकीर्षति । जीर्णशीर्णपलालोत्थे चश्चापुंसि कगेतु सः ॥३॥ न मन्त्रतन्त्रभैषज्यकरणानि शरीरिणाम् । त्राणाय मरणव्याघ्रमुखकोटरवासिनाम् ॥४॥ प्रवर्द्धमानं पुरुषं प्रथमं असते जरा । ततः कृतान्तस्त्वरते धिगहो ! जन्म देहिनाम् ॥५॥ यद्यात्मानं विजानियात् कृतान्तवशनर्तिनम् । को ग्रासमपिगृहणीयात् पापकर्मसु का कथा ? ॥ ६ ॥ समुत्पद्य समुत्पद्य विपद्यन्तेऽप्सु बुदबुदाः । यथा तथा क्षणेनैव शरीराणि शरीरिणाम् ॥ ७ ॥ आढयं निःस्वं नृपं रकं ज्ञं मुखं सज्जनं खलम् । अविशेषेण संहतुं समवर्ती प्रवर्तते ॥ ८ ॥ न गुणेष्वस्य दाक्षिण्यं द्वेषो दोषेषु चास्ति न । दवाग्निवदरण्यानि विलुम्पत्यन्तको जनम् ॥ ९ ॥ इदं तु मा स्म शकिष्ठाः कुशास्त्रैरपि मोहितः । कुतोऽप्युपायतः कायो निरपायो भवेदिति ॥१०॥ ये मेरुं दण्डसात् कर्तुं पृथ्वीं वा छत्रसात् क्षमाः। तेऽपि त्रातुं स्वमन्यं वा न मृत्योः प्रभविष्णवः ।। ११ ॥ आ कीटादा च देवेन्द्रात् प्रभावन्तकशासने । अनुन्मत्तो न भाषेत कथञ्चित् कालवञ्चनम् ॥१२॥ पूर्वेषां चेत् क्वचित् कश्चिजीवन् दृश्येत तद् वयम् । मनोरथातीतमपि प्रतीमः कालवञ्चनम् ॥१३॥ अनित्यं यौवनमपि प्रतियन्तु मनीषिणः। बलरूपापहारिण्या जरसा जर्जरीभवेत् ॥१४॥ यौवने कामिनीभिर्ये काम्यन्ते कामलीलया । निकामकृतथूत्कारं त्यज्यन्ते तेऽपि वाईके ॥१५॥ यदर्जितं बहुक्लेशैरभुक्त्वा यच्च पालितम् । तद् याति क्षणमात्रेण निधनं धनिनां धनम् ॥१६॥ उपमानपदं किं स्यात् फेनबुबुदविद्युताम् । धनस्य नश्यतोऽवश्यं पश्यतामपि तद्वताम् ? ॥१७॥ ॥५९०॥ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशा योगशास्त्रम् ॥५९१॥ समागमाः सापगमाः सुहृद्भिर्बन्धुभिनिजैः। स्वस्य वाऽन्यस्य वा नाशे विकृतेऽपकृतेऽपि वा ॥१८॥ ध्यायननित्यतां नित्यं मृतं पुत्रं न शोचति । नित्यताग्रहमूढस्तु कुड्यभङ्गेऽपि रोदिति ॥१६॥ एतच्छरीरधनयौवनबान्धवादि, तावद् न केवलमनित्यमिहासुभाजाम् । विश्वं सचेतनमचेतनमप्यशेष-मुत्पत्तिधर्मकमनित्यमुशन्ति सन्तः ॥२०॥५७॥५८॥५९॥ अनित्यताभावनामुपसंहरन्नुपदर्शयति| इत्यनित्यं जगद्वृत्तं स्थिरचित्तः प्रतिक्षणम् । तृष्णाकृष्णाहिमन्त्रीय निर्ममत्वाय चिन्तयेत् ॥६०॥ इति पूर्वोक्तप्रकारेण जगद्वृत्तं जगत्स्वरुपमनित्यं प्रतिक्षणं चिन्तयेदवधारयेत्, स्थिरचित्तो निश्चलचित्तः सन् किमर्थम् ? निर्ममत्वाय-अनित्यत्वादिभावनासाध्यवीतरागत्वनिमित्तम् । किविशिष्टाय ? तृष्णाकृष्णाहिमन्त्रायतृष्णा रागः सैव कृष्णाहिस्तस्या मन्त्राय मन्त्रस्वरूपाय | अहिशब्दः स्त्रीलिङ्गोऽप्यस्तीति नोपमानोपमेययोभिन्न लिङ्गत्वम् । अनित्यता ॥१॥६०॥ अथाशरणभावनामुपदिशति| इन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्येते यन्मृत्योर्यान्ति गोचरम् । अहो! तदन्तकातके कः शरण्यः शरीरिणाम ? ६१ इन्द्रः सुरनाथः, उपेन्द्रो वासुदेवस्तावादी येषां सुरमनुष्यादीनां, चक्रवर्तिपरिहारेणोपेन्द्रग्रहणं लोके मृत्युकाले शरणत्वोपहासपरम्, तेऽपि यद् यस्माद् मृत्येर्गोचरं वशं यान्ति; अहो इति विस्मये, तत् तस्मादन्तकातके मृत्यु ॥५९१॥ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशाखम् चतुर्थ प्रकाशः 1५९२॥ भये उपस्थिते कः शरण्यः शरणे साधुः शरीरिणां जन्तूनाम् ?-कोऽपि नास्तीत्यर्थः ॥६१॥ तथा-- पितुर्मातुःस्वसुर्धातुस्तनयानां च पश्यताम् । अत्राणोनीयते जन्तुः कर्मभिर्यमसद्मनि ॥६२॥ पित्रादीनां पश्यतां ताननादृत्यैवात्राणोऽशरणो जन्तुः कर्मभिः परभववेदनीयैः शुभाशुभैर्यमसद्मनि यमालये नीयते । एतच लोकप्रसिद्धद्यपेक्षम्, न पुनर्यमसद्मनि कश्चिद् नीयते, अपि तु चतुर्गतिस्वरूपे संसारे तत्तद्गत्युचितैः कर्मभिस्तत्र तत्र नीयत इति परमार्थः ॥६२।। तथाशोचन्ति स्वजनानन्तं नीयमानान् स्वकर्मभिः। नेष्यमाणं तु शोचन्ति नात्मानं मूढबुद्धयः॥६३॥ शोचन्ति शोकविषयतां नयन्ति स्वजनान बन्धन , अन्तमवसानं नीयमानान् स्वकर्मभिर्भवान्तरवेदनीयैर्मुढबुद्धय इन्युत्तरेण योगः। आत्मानं तु स्वकर्मभिरेवान्त नेष्यमाणं न शोचन्ति । संनिहितपरित्यागे हि व्यवहितं प्रति कारणं वाच्यम् , संनिहितश्चात्मा, तस्य शोचनीयतां मुक्त्वा व्यवहितस्य स्वजनादेः शोचनं बुद्धिमोहनिबन्धनमेव ॥६॥ अशरणभावनामुपसंहरतिसंसारे दुःखदावाग्निज्वलज्ज्वालाकरालिते। वने मृगार्भकस्येव शरणं नास्ति देहिनः ॥६॥ संसारे शरणं देहिनो नास्ति । कस्येव । कुत्र ? वने मृगार्भकस्येव । किविशिष्टे संसारे ? दुखमेव दावाग्निस्तस्य ज्वलन्त्यो या ज्वाला दुःखस्यैव प्रभेदास्तैः करालिते रौद्रे । वने किविशिष्टे ? दुःखो दुःखहेतुर्यों दावाग्निस्तस्य म्वलन्त्यो या ज्वालास्ताभिः करालिते। अर्भकग्रहणमतिमौग्ध्यख्यापनार्थम् । अशरणभावना अत्रान्तरश्लोकाः ॥५९२॥ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोन शास्त्रम् ॥५९३॥ अष्टाङ्गेनायुर्वेदेन जीवातुभिरथागदैः । मृत्युंजयादिभिर्मन्त्रैस्त्राणं नैवास्ति मृत्युतः ||१|| खड्गपञ्जरमध्यस्थश्चतुरङ्गचमूवृतः । रङ्कवत् कृष्यते राजा हठेन यमकिङ्करैः ॥२॥ जलमध्यस्थितस्तम्भमूर्ध्वपञ्जरमध्यगम् । राज्ञः प्रियसुतं मृत्युश्चकर्षान्यस्य का कथा ? || ३ || षष्टिं पुत्रसहखाणि सगरस्यापि चक्रिणः । तृणवत् त्राणरहितान्यदहज्ज्वलनप्रभः ||४|| आस्कन्ध स्कन्दकाचार्य मुनिपश्चशतीं घ्नतः । न कश्चिदभवत् त्राता पालकादन्तकादिव ||५|| यथा मृत्युप्रतीकारं पशवो नैव जानते । विपश्चितोऽपि हि तथा धिक् प्रतीकारमूढताम् ॥६॥ येऽसिमात्रोपकरणाः कुर्वते क्ष्मामकण्टकाम् । यमभ्रूभङ्गभीतास्तेऽप्यास्ये निदधतेऽङ्गगुलीः ||७|| स्नेहादाश्लिष्य शक्रेणार्द्धासनेऽ ध्यास्यते स्म यः । श्रेणिकः सोऽप्यशरणोऽश्रोतव्यां प्राप तां दशाम् ||८|| मुनीनामप्यपापानामसिधारोपमैर्व्रतैः । न शक्यते कृतान्तस्य प्रतिकर्तु कदाचन ||९|| अशरण्यमहो ! विश्वमराजकमनायकम् । यदेतदप्रतीकारं ग्रस्यते यमरक्षसा ॥१०॥ योऽपि धर्मप्रतीकारो न सोऽपि मरणं प्रति । शुभां गतिं ददानस्तु प्रतिकर्तेति कीर्त्यते ॥११॥ एवं विश्वमनाकुल: कवलयन्नान्ब्रह्म कीटावधि, श्रान्ति याति कथञ्चनापि न खलु त्रैलोक्यभीमो यमः । नैवास्य प्रतिकारकर्मणि सुराधीशोऽप्यलं भूष्णुता - मालम्बेत शरण्यवर्जितमिदं हा ! हा ! जगत् ताम्यति ॥ १२ ॥ अशरणभावना ॥२॥६४॥ अथ संसारभावनां श्लोकत्रयेणाह - श्रोत्रियः श्वपचः स्वामी पत्तिर्ब्रह्मा कृमिश्च सः । संसारनाटये नटवत् संसारी हन्त ! चेष्टते । ६५ । संसारो नानायोनिषु सञ्चरणं स एव नाटचं नटकर्म तत्र नटवत् नर्तकवत् संसारी जन्तुश्चेष्टते विविधां चेष्टां करो चतुर्थ प्रकाशः ॥५९३॥ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECE योगशास्त्रम् चतुथ प्रकाशः ॥५९४॥ तीति । हन्तेत्यामन्त्रणे । कैनोल्लेखेन चेष्टते ? श्रोत्रियो वेदपारगः स एव श्वपचो भवति, स्वामी प्रभुः स | एव पत्तिर्भवति, ब्रह्मा प्रजापतिः स एव कृमिर्भवति । यथेष्टं च विध्यनुवादौ, तेन श्वपचः श्रोत्रियः पतिः स्वामी, कृमिब्रह्मा, इत्यपि द्रष्टव्यम् । यथा हि नाटचे विविधवर्णकादियोगाद् भूमिकान्तरं नटाः प्रतिपद्यन्ते तथैव संसारी विविधकर्मोपाधिः श्रोत्रियादितां प्रतिपद्यते, न पुनरस्य तथाविधं परमार्थतो रूपमस्ति ॥६५||तथा न याति कतमां योनि कतमां वा न मुञ्चति । संसारी कर्मसम्बन्धोदवक्रयकुटीमिव॥६६॥ योनिमेकेन्द्रियादिलक्षणां कतमा न याति ? सर्वामपि यातीत्यर्थः, कतमा वा योनि न मुश्चति ? सर्वामपि मुश्चतीत्यर्थः, संसारो जन्तुः । कुतो हेतोरित्याह-कर्मसम्बन्धात; अवक्रयकुटीमिव भाटककुटीमिव । यथा हि तथाविधोपयोगहेतोगृहमेधी एकां कुटीं प्रविशति, उपयोगाभावे तां मुञ्चतिः उपयोगान्तराच्च कुटयन्तरमादत्ते, परिहरति च, एवं नियतकर्मोपभोगहेतोरेकां योनि जन्तुः प्रविशति, तद्योग्यकर्मोपभोगानन्तरं तु तां विमुञ्चति, योन्यन्तरं तूपादत्ते पुनश्च परिहरति, न पुनर्नियतः कोऽपि योनिपरिग्रहोऽस्तीति ॥६६॥ तथासमस्तलाकाकाशेपि नानारूपैः स्वकर्मतः । वालाग्रमपि तन्नास्ति यन्न स्पृष्टं शरीरिभिः।६७। __ इहाकाशं द्विविधं-लोकाकाशमलोकाकाशं च । यत्र धर्माधर्मजीवपुद्गलानां सम्भवोऽस्ति तल्लोकाकाशम् , इतरत्त्वलोकाकाशम् , यदाह, धर्मादीनां वृत्तिव्याणां यत्र भवति तत् क्षेत्रम् । तैद्रव्यैः सह लोकस्तद्विपरीतं ह्यलोकारख्यम् ॥१॥ ॥५९४॥ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥५९५॥ प्रकाशः ततः समग्रेऽपि लोकाकाशे चतुर्दशरज्ज्वात्मके वालाग्रमपि वालाग्रप्रमाणमपि तत् क्षेत्रं नास्ति यत् शरीरि भिरुत्पद्यमानै विपद्यमानश्च न स्पृष्टम् । अत्र हेतुमाह-किंविशिष्टैः शरीरिभिः ? सूक्ष्मवादरप्रत्येकसाधारणैकेन्द्रियभेदतो द्वित्रिचतुष्पचन्द्रियभेदतश्च यथायोग्यं नानारूपैः। नानारूपत्वमपि कुतः ? स्वकर्मतः, न त्वीश्वरादिप्रेरणया, यदाहुः परे अज्ञो जन्तुरनीशः स्यादात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥१॥ तत्रेश्वरप्रेरणा यदि कर्मनिरपेक्षा तदा विश्वस्य वैश्वरूप्यं विलीयेत । कर्मसापेक्षतायां त्वीश्वरस्यास्वातन्त्र्यं वैफल्यं वा स्यादिति कर्मैवास्तु प्रेरकम् , किमीश्वरेण ? यदवोचाम वीतरागस्तोत्रेकर्मापेक्षः स चेत् तर्हि न स्वतन्त्रोऽस्मदादिवत् । कर्मजन्ये च वैचित्र्ये किंमनेन शिखण्डिना ? ॥१॥ अत्रान्तरश्लोकाःसंसारिणश्चतुर्भेदाः श्वभ्रतियग्नरामराः। प्रायेण दुःखबहुलाः कर्मसम्बन्धबाधिताः ॥१॥ आद्येषु त्रिषु नरकेपृष्ण शीतं परेषु च । चतुर्थे शीतमुष्णं च दुःखं क्षेत्रोद्भवं त्विदम् ॥२॥ नरकेषूष्णशीतेषु चेत् पतेल्लोहपर्वतः । विलीयेत विशीर्येत तदा भुवमनाप्नुवन् ॥३॥ उदीरितमहादुःखा अन्योन्येनासुरैश्च ते। इति त्रिविध-दुःखार्ता वसन्ति नरकावनौ ॥४॥ समुत्पन्ना घटीयन्त्रेष्वधार्मिकसुरैर्बलात् । आकृष्यन्ते लघुद्वाराद् यथा सीसशलाकिकाः ॥५॥ गृहीत्वा पाणिपादादौ वज्रकण्टकसङ्कटे । आस्फाल्यन्ते शिलापृष्ठे वासांसि रजकैरिव ॥६॥ दारुदारं विदार्यन्ते दारुणैः कुकचैः क्वचित् । तिलपेषं च पिष्यन्ते चित्रयन्त्रैः कचित् पुनः ॥७॥ पिपासार्ताः पुनस्तप्तत्र ॥५९५॥ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतथ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥५९६॥ पुसीसकवाहिनीम् । नदी वैतरणी नामातवार्यन्ते वराककाः ॥८॥ छायाभिकाङ्क्षिणः क्षिप्रमसिपत्रवनं गताः । 111) । पत्रशस्त्रैः पतद्भिस्ते छिद्यन्ते तिलशोऽसकृत् ॥९॥ आश्लोष्यन्ते च शाल्मल्यो वन्नकण्टकसङ्कटाः । तप्तायःपुत्रिकाः कापि स्मारितान्यवधरतम् ॥१०॥ संस्मार्य मांसलोलत्वमाश्यन्ते मांसमगजम् । प्रख्याप्य मधुलौल्यं च पाय्यन्ते तापितं अपु ॥११॥ भ्राष्ट्रकन्दुमहाशूलकुम्भीपाकादिवेदनाः । अश्रान्तमनुभाव्यन्ते भृज्यन्ते च भटित्रवत् ॥१२॥ छिन्नभिन्नशरीराणां पुनर्मिलितवर्मणाम् । नेत्राद्यङ्गानि कृष्यन्ते वककङ्कादिपक्षिभिः ॥१३॥ एवं महादुःखहताः सुखांशेनापि वर्जिताः । गमयन्ति बहुं कालमात्रयस्त्रिंशसागरम् ॥१४॥ तिर्यग्गतिमपि प्राप्ताः सम्प्राप्यकेन्द्रियादिताम् । तत्रापि पृथिवीकायरूपतां समुपागताः ॥१५॥ हलादिशः पाटयन्ते मृद्यन्तेऽश्वगजादिभिः । वारिप्रवाहैः प्लान्यन्ते दह्यन्ते च दवाग्निना ॥१६॥ व्यथ्यन्ते लवणाचाम्ल मृत्रादिसलिलैरपि । लवणक्षारतां प्राप्ताः क्वथ्यन्ते चोष्णवारिणि ॥१७॥ पच्यन्ते कुम्भकाराद्यैः कृत्वा कुम्भेष्ट कादिसात् । चीयन्ते भित्तिमध्ये च कृत्वा कर्दमरूपताम् ॥१८॥ केचिच्छाणैनिघृष्यन्ते विपच्य क्षारमृत्पुटैः । टङ्कान्दुकैर्विदार्यन्ते पाट यन्तेऽद्रिसरित्प्लवैः ॥१९॥ अप्कायतां पुनः प्राप्तास्ताप्यन्ते तपनांशुभिः । घनीक्रियन्ते तुहिनैः संशोष्यन्ते च पांशुभिः ॥२०॥ क्षारेतररसाश्लेषाद् विपद्यन्ते परस्परम् । स्थाल्यन्तस्था विपच्यन्ते पीयन्ते च पिपासितैः ॥२१॥ तेजस्कायत्वमाप्ताश्च विध्याप्यन्ते जलादिभिः । घनादिभिः प्रकुटयन्ते ज्वाल्यन्ते चेन्धनादिभिः ॥२२॥ वायुकायत्वमप्याप्ता हन्यन्ते व्यजनादिभिः । शीतोष्णादिद्रव्ययोगाद् विपद्यन्ते क्षणे क्षणे ॥२३॥ प्राचीनाद्यास्तु सर्वेऽपि विराध्यन्ते परस्परम् । मुखादिवातैर्बाध्यन्ते पीयन्ते चोरगादिभिः॥२४॥ ॥५९६॥ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥५९७॥ वनस्पतित्वं दशधा प्राप्ताः कन्दादिभेदतः । छिद्यन्ते चाथ भिद्यन्ते पच्यन्ते चाग्नियोगतः ॥ २५ ॥ संशोष्यन्ते निपिष्यन्ते प्लुष्यन्तेऽन्योन्यघर्षणैः । क्षारादिभिश्च दह्यन्ते संधीयन्ते च भोक्तृभिः ॥ २६ ॥ सर्वावस्थासु खाद्यन्ते भज्यन्ते च प्रभञ्जनैः । क्रियन्ते भस्मसाद् दावैरुन्मूल्यन्ते सरित्प्लवैः ॥ २७ ॥ सर्वेऽपि वनस्पतयः सर्वेषां भोज्यतां गताः । सर्वैः शस्त्रैः सर्वदाऽनुभवन्ति क्लेशसन्ततिम् ||२८|| द्वीन्द्रियत्वे च ताप्यन्ते पीयन्ते पूतरादयः । चूर्ण्यन्ते कृमयः पादैर्भक्ष्यन्ते चटकादिभिः ॥ २९ ॥ शङ्कादयो निखन्यन्ते निकृष्यन्ते जलौकसः । गण्डूपदाद्याः पात्यन्ते जठरादौषधादिभिः ॥ ३० ॥ त्रीन्द्रियत्वेऽपि सम्प्राप्ते षट्पदीमत्कुणादयः । विमृज्यन्ते शरीरेण ताप्यन्ते चोष्णवारिणा ||३१|| पिपीलिकास्तु तुद्यन्ते पादैः सम्मार्जनेन च । अदृश्यमानाः कुन्थ्वाधा मध्यन्ते चासनादिभिः ॥ ३२ ॥ चतुरिन्द्रियताभाजः सरघाभ्रमरादयः । मधुमक्षैर्विराध्यन्ते यष्टिलोष्टादिताडनैः ||३३|| ताड्यन्ते तालवृन्ताद्यैर्द्राग् दंशमशकादयः । ग्रस्यन्ते गृहगोधाद्यैर्मक्षिकामर्कटादयः || ३४ ॥ पञ्चेन्द्रिया जलचराः खादन्त्यन्योन्यमुत्सुकाः । धीवरैः परिगृह्यन्ते गिल्यन्ते च वकादिभिः ॥ ३५ ॥ उत्कीलयन्ते त्वचयद्भिः प्राप्यन्ते च भटित्रताम् । भोक्तुकामैर्विपच्यन्ते निगाल्यन्ते वसार्थिभिः || ३६ || स्थलचारिषु चोत्पन्ना अबला बलवत्तरैः । मृगाद्याः सिंहप्रमुखैर्मायन्ते मांसकाङ्क्षिभिः ||३७|| मृगयासक्तचित्तैश्च क्रीडया मांसकाम्यया । नरैस्तत्तदुपायेन हन्यन्तेऽनपराधिनः ॥ ३८ ॥ क्षुधापिपासाशीतोष्णातिभारारोपणादिना । कशाङ्कुशप्रतोदैश्च वेदनां प्रसहन्त्यमी ||३९|| खेचरास्तित्तिरशुक कपोतचटकादयः । श्येनसिश्चानगृधाद्यैर्ग्रस्यन्ते मांसगृध्नुभिः ॥ ४० ॥ मांसलुब्धैः शाकुनिकैर्नानोपायप्रपञ्चतः । संगृह्य प्रतिहन्यन्ते नानारूपैविडम्बनैः ॥ ४१ ॥ जलाग्निशस्त्रादिभवं Osteoto hot dohor चतुर्थ प्रकाशः ॥५९७॥ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥५९८॥ तिरश्चां सर्वतो भयम् । कियद वा वर्ण्यते स्वस्वकर्मबन्धनिबन्धनम् ॥४२॥ __ मनुष्यत्वेऽनार्यदेशे समुत्पन्नाः शरीरिणः । तत् तत् पापं प्रकुर्वन्ति यद् वक्तुमपि न क्षमम् ॥ ४३ ॥ उत्पन्ना आर्यदेशेऽपि चण्डालश्वपचादयः । पापकर्माणि कुर्वन्ति दुःखान्यनुभवन्ति च ॥४४॥ आर्यवंशसमुद्भूता अप्यनार्यविचेष्टिताः । दुःखदारिद्रयदौर्भाग्यनिर्दग्धा दुःखमासते ॥ ४५ ॥ परसम्पत्प्रकर्षणापकर्षेण स्वसम्पदाम् । परप्रेष्यतया दग्धा दुखं जीवन्ति मानवाः॥ ४६॥ रुग्जरामरणैस्ता नीचकर्मकदर्थिताः । तां तां दुःखदशां दीनाः प्रपद्यन्ते दयास्पदम् ॥ ४७ ॥ जरा रुजा मृतिर्दास्यं न तथा दुःखकारणम् । गर्भवासो यथा घोरनरके वाससन्निभः ॥४८॥ सूचिभिरग्निवर्णाभिभिन्नस्य प्रतिरोम यत् । दुःखं नरस्याष्टगुणं तद् भवेद् गर्भवासिनः ॥४९॥ योनियन्त्राद् विनिष्क्रामन् यद दुःखं लभते भवी । गर्भवासभवाद् दुःखात् तदनन्तगुणं खलु ॥५०॥ बाल्ये मूत्रपुरीषाभ्यां यौवने रतचेष्टितैः । वार्धक्ये श्वासकासाथैजनो जातु न लज्जते ॥५१॥ पुरीषशूकरः पूर्व ततो मदनगर्दभः जराजरगवः पश्चात् कदापि न पुमान् पुमान् ॥५२॥ स्याच्छैशवे मातृमुखस्तारुण्ये तरुणीमुखः । वृद्धभावे सुतमुखो मूखों नान्तर्मुखः कचित् ॥५३॥ सेवाकर्षणवाणिज्यपाशुपाल्यादिकर्मभिः क्षपयत्यफलं जन्म धनाशाविहलो जनः ॥ ५४ ॥ कचिच्चौर्य कचिद् इतं कचिद् नीचैर्भुजङ्गता। मनुष्याणामहो ! भूयो भवभ्रमनिबन्धनम् ॥५५।। सुखित्वे कामललितैर्दुःखित्वे दैन्यरोदनैः । नयन्ति जन्म मोहान्धा न पुनर्द्धर्मकर्मभिः ॥५६॥ अनन्तकर्मप्रचयक्षयक्षममिदं क्षणात् । मानुषत्वमपि प्राप्ताः पापाः पापानि कुर्वते ॥५७।। ज्ञानदर्शनचारित्ररत्नत्रितयभाजने । मनुजत्वे पापकर्म स्वर्णभाण्डे सुरोपमम् ॥ ५८ ॥ संसारसागरगतैः शमिला Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् युगयोगवत् । लब्धं कथञ्चिद् मानुष्यं हा! रत्नमिव हार्यते ॥५९।। लब्धे मानुष्यके स्वर्ग-मोक्षप्राप्तिनिबन्धने । हा ! नरकाप्त्युपायेषु कर्मसूत्तिष्ठते जनः ॥६०॥ आशास्यते यत् प्रयत्नादनुत्तरसुरैरपि । तत् सम्प्राप्त मनुष्यत्वं पापैः पापेषु योज्यते ॥६॥ परोक्षं नरके दुःखं प्रत्यक्षं नरजन्मनि। तत्प्रपञ्चः प्रपञ्चेन चतुर्थ प्रकाशा मममुपवयेते ? भन्यादिहतबुद्धिषु । शोचन्ति मुनि शोकामर्षविपादेया॑दैन्यादिहतबुद्धिषु । अमरेष्वपि दुःखस्य साम्राज्यमनुवर्तते ॥६३॥ दृष्ट्वा परस्य महतीं श्रियं प्राम्जन्मजीवितम् । अर्जितस्वल्पसुकृतं शोचन्ति सुचिरं सुराः ॥६४॥ विराद्धा बलिनान्येन प्रतिकर्तु तमक्षमाः। तीक्ष्णेनामर्षशल्येन दोद्यन्ते निरन्तरम् ॥६५॥ न कृतं सुकृतं किश्चिदाभियोग्यं ततो हि नः। दृष्टोत्तरोत्तरश्रीका विषीदन्तीति नाकिनः ॥६६॥ दृष्ट्वान्येषां विमानस्त्रीरत्नोपवनसम्पदम् । यावज्जीवं विपच्यन्ते ज्वलदानलोमिभिः ॥६७॥ हा प्राणेश ! प्रभो! देव ! प्रसीदेति सगद्गदम् । परैर्मुषितसर्वस्वा भाषन्ते दीनवृत्तयः ॥६८॥ प्राप्तेऽपि पुण्यतः स्वर्गे कामक्रोधभयातुराः। न स्वस्थतामश्नुवते सुराः कान्दपिकादयः ॥६९।। अथ च्यवनचिह्नानि दृष्ट्वा दृष्ट्वा विमृश्य च । विलीयन्तेऽथ जल्पन्ति कनिलीयामहे वयम् ? ॥७॥ तथाहि अम्लाना अपि हि मालाः सुरद्रुमसमुद्भवाः । म्लानीभवन्ति देवानां वदनाम्भोरुहै। समम् ॥७१॥ हृदयेन समं विष्वर विश्लिष्यत्सन्धिबन्धनाः । महाबलैरप्यकम्प्याः कम्पन्ते कल्पपादपाः ॥७२॥ अकालप्रतिपन्नाभ्यां प्रियाभ्यां च सहैव हि । श्रीडोभ्यां परिमुच्यन्ते कृतागस इवामराः ॥७३॥ अम्बरश्रीरपमला मलिनीभवति ॥५९९॥ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ६०० क्षणात् । अप्यकस्माद्विसृमरैरधौघैर्मलिनैर्घनैः ॥ ७४ ॥ अदीना अपि दैन्येन विनिद्रा अपि निद्रया । आश्रीयन्ते मृत्युकाले पक्षाभ्यामिव कीटिकाः ॥ ७५ ॥ विषयेष्वतिरज्यन्ते न्यायधर्मविबाधया । अपथ्यान्यपि यत्नेन स्पृहयन्ति मुमूर्षवः ॥७६॥ नीरुजामपि भज्यन्ते सर्वाङ्गोपाङ्गसन्धयः । भाविदुर्गतिपातोत्थवेदनाविवशा इव ॥७७॥ पदार्थग्रहणेऽकस्माद् भवन्त्यपदुदृष्टयः । परेषां सम्पदुत्कर्षमिव प्रेक्षितुमक्षमाः ॥७८॥ गर्भवासनिवासोत्थदुःखागमभयादिव । प्रकम्पतरलैरङ्गैर्भापयन्ते परानपि ॥ ७९ ॥ निश्चितच्यवनाश्विनैर्लभन्ते न रतिं कचित् । विमाने नन्दने वाप्यामङ्गारालिङ्गिता इव ॥ ८० ॥ हा ! प्रिया ! हा ! विमानानि ! हा वाप्यो ! हा ! सुरदुमाः । क द्रष्टव्याः पुनर्यूयं हतदैववियोजिताः ? ॥ ८१ ॥ अहो ! स्मितं सुधावृष्टिरहो ! विम्बाधरः सुधा । अहो ! वाणी सुधावर्षिण्यहो ! कान्ता सुधामयी ||८२ ॥ हा ! रत्नघटिताः स्तम्भाः हा श्रीमन्मणिकुट्टिम ! | हा ! वेदिका ! रत्नमय्यः ! कस्य यास्यथ संश्रयम् ? ॥ ८३ ॥ हा ! रत्नसोपानचिताः कमलोत्पलमालिताः । भविष्यन्त्युपभोगाय कस्येमाः पूर्णवापयः ॥ ८४|| हे ! पारिजात ! मन्दार ! सन्तान ! हरिचन्दन ! | कल्पद्रुम ! विमोक्तव्यः किं भवद्भिरयं जनः ? ||८५ || हा ! स्त्रीगर्भनरके वस्तव्यमवशस्य मे । हाsशुचिरसास्वादः कर्तव्यो मयका मुहुः || ८६|| हहा हा! जठराङ्गारशकटीपाकसम्भवम् । मया दुःखं विसोढव्यं बद्धेन निजकर्मणा ॥८७॥ रतेरिव निधानानि क तास्ताः सुरयोषितः ? । काशुचिस्यन्दबीभत्सा भोक्तव्या नरयोषितः ? ||८८ || एवं स्वर्लोकवस्तूनि स्मारं स्मारं दिवौकसः । विलपन्तः क्षणस्यान्तर्विध्यायन्ति प्रदीपवत् ||८९|| (नवभिः कुलकम् ।। ) एवं नास्ति सुखं चतुर्गतिजुपामप्यत्र संसारिणां दुखं केवलमेव मानसमथो शारीर चतुर्थ प्रकाशः ६०० Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥६०१॥ मत्यायतम् । ज्ञात्वैवं ममतानिरासविधये ध्यायन्तु शुद्धाशया अश्रान्तं भवभावनां भवभयच्छेदोन्मुखत्वं यदि ॥९॥ ॥ संसारभावना ३॥ ६७ ॥ अथैकत्वभावनां श्लोकद्वयेनाहएक उत्पद्यते जन्तुरेक एव विपद्यते । कर्माण्यनुभवत्येकः प्रचितानि भवान्तरे ॥६॥ एकोऽसहाय उत्पद्यते शरीरसम्बन्धमनुभवति जन्तुः प्राणी, विपद्यते शरीरेण वियुज्यते, कर्माणि ज्ञानावरणीयादीनि भवान्तरे पूर्वजन्मनि प्रचितानि कृतानि अनुभवति वेदयते, भवान्तरग्रहणमुपलक्षणम्, इहजन्मकृतानामप्यनुभवात्, यदाहुर्भगवन्तः;-१परलोअकडा कम्मा इहलोए वेइज्जति, इहलोअकडा कम्मा इहलोए वेइन्जति ॥ ६८ ॥ तथाअन्यैस्तेनार्जितं वित्तं भूयः संभूय भुज्यते । स त्वेको नरककोडे क्लिश्यते निजकर्मभिः॥१९॥ तेनैकेन जन्तुनाऽजितं महारम्भपरिग्रहादिनोपार्जितं वित्तमन्यैः सम्बन्धिबन्धुभृत्यप्रभृतिभिः सम्भूय मिलित्वा भूयः पुनः पुनर्भुज्यते वित्तस्य विनियोगः क्रियते । स तु वित्तस्यार्जयिता एको भोक्तृलोकविरहितो नरकक्रोडे नरकोत्सङ्गे क्लिश्यते वाध्यते निजकर्मभिर्धनार्जनकालप्रचितैः पापकर्मभिः ।। अत्रान्तरश्लोकाः दुःखदावाग्निभीष्मेऽस्मिन् वितते भवकानने। बम्भ्रमीत्येक एवासौ जन्तुः कर्मवशीकृतः॥१॥ ननु जीवस्य (१) परलोककृताति कर्माणि इहलोके वेद्यन्ते । इहलोके कृतानि कर्माणि इहलोके वेद्यन्ते ।। ।६०१॥ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ||६०२॥ मा भूवन् सहाया बान्धवादयः । शरीरं तु सहायोऽस्तु सुखदुःखानुभूतिदम् ॥ २ ॥ नायाति पूर्वभवतो न याति च भवान्तरम् । ततः कायः सहायः स्यात् संफेटमिलितः कथम् १ || ३ || धर्माधर्मौ समासन्नौ सहायाविति चेद मनिः । नैषा सत्या न मोक्षेऽस्ति धर्माधर्मसहायता ॥ ४ ॥ तस्मादेको बम्भ्रमीति भवे कुर्वन् शुभाशुभे । जन्तुर्वेदयते चैतदनुरूपे शुभाशुभे ॥५॥ एक एव समादत्ते मोक्षश्रियमनुत्तराम् । सर्वसम्बन्धिविरहाद् द्वितीयस्य न सम्भवः॥६॥ यद् दुःखं भवसम्बन्धि यत् सुखं मोक्षसम्भवम् । एक एवोपभुक्ते तद् न सहायोऽस्ति कश्चन ॥ ७ ॥ यथैकैकस्तरन् सिन्धुं पारं व्रजति तत्क्षणात् । न तु हृत्पाणिपादादिसंयोजितपरिग्रहः ॥ ८ ॥ तथैव धनदेहादिपरिग्रहपराङ्मुखः । स्वस्थ एको भवाम्भोधेः पारमासादयत्यसौ || ९ || एकः पापात् पतति नस्के याति पुण्यात् स्वरेकः पुण्यापुण्यप्रचयविगमाद् मोक्षमेकः प्रयाति । एवं ज्ञात्वा चिरमवितथां निर्ममत्वस्य हेतो - रेकत्वाख्यामवहितधियो भावनां भावयन्तु ॥ १० ॥ ॥ एकत्वभावना ४ ॥ ६९ ॥ अथान्यत्वभावनामाह- यत्रान्यत्वं शरोरस्य वैसदृश्याच्छरीरिणः । धनबन्धुसहायानां तत्रान्यत्वं न दुर्वचम् ॥७०॥ यत्रेति प्रक्रमार्थमव्ययम् । अन्यत्वं भेदः शरीरस्य कायस्य । कस्माद् भेदः ? शरीरिण आत्मनः सकाशात् । कुतो हेतोः ? वैसदृश्यात् । प्रतीतमेव हि वैसदृश्य शरीरशरीरिणोर्मूर्तत्वामूर्तत्वाभ्याम्, अचेतनत्वचेतनत्वाभ्याम्, अनित्यत्वनित्यत्वाभ्याम्, भवान्तरेष्वगमनगमनाभ्यां च । तत्रेति प्रक्रमोपसंहारे, शरीरिणः सकाशादन्यत्वं न चतुर्थ प्रकाशः ॥ ६०२ ॥ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥१०३॥ दुर्वचं न दुर्भणम् । केषाम् ? धनवन्धुसहायानां धनानां धनधान्यादिभेदैर्नवविधानाम्, बन्धूनां मातृपितृपुत्रादीनाम्, सहायानां सुहृत् - सेवक - पत्त्यादीनाम् । अयमर्थः- यो जीवात् शरीरस्योपपत्त्या भेदं ग्राहितः स धनादिभ्यो भैदं ग्राहयितुं सुशक एवेति ॥ ७० ॥ न केवलमन्यत्वभावनाया निर्ममत्वमेव फलम्, किन्तु तत्फलान्तरमप्यस्ति, तदेवाह - यो देहधनबन्धुभ्यो भिन्नमात्मानमीक्षते । क्व शोकशङ्कुना तस्य हन्तातङ्कः प्रतन्यते ॥ ७१ ॥ यः प्राणी देहाद् धनाद् बन्धुभ्यश्च भिन्नमात्मानं स्वमीक्षते विवेकालोकेन, तस्य भेदप्रेक्षितु:-क्व, नैवेत्यर्थः शोकशङ्गकुना शोकशल्येन, हन्तेति हर्षार्थमव्ययम्, आतङ्कः पीडा प्रतन्यते क्रियते । अत्रान्तरश्लोकाः इान्यत्वं भवेद् भेदः स वैलक्षण्यलक्षणः । आत्मदेहादिभावानां साक्षादेव प्रतीयते ॥ १ ॥ देहाद्या इन्द्रिह्या आत्मानुभवगोचरः । तदेतेषामनन्यत्वं कथं नामोपपद्यते ॥ २ ॥ आत्मदेहादिभावानां यद्यन्यत्वं स्फुटं ननु । ततो देहप्रहारादौ कथमात्मा प्रपीडयते ||३|| सत्यं येषां शरीरादौ भेदबुद्धिर्न विद्यते । तेषां देहप्रहारा - दावात्मपीडोपजायते ||४|| ये तु देहात्मनोर्भेदं सम्यगेव प्रपेदिरे । तेषां देहप्रहारादावपि नात्मा प्रपीडयते ॥ ५ ॥ तथाहि लोहचक्रेण क्षैरेयीपचनेन च । देहबाधेऽप्यवाधात्मा तद्भेदज्ञोऽन्तिमो जिनः ॥ ६ ॥ नमिर्धनात्मभेदज्ञः पूर्दाऽपीन्द्रमत्रवीत् । दाहेऽपि मिथिलापुर्या न मे किमपि दाते ||७|| भेद विद्वान् न पीडयेत पितृदुःखेऽप्युपस्थिते । आत्मीयत्वाभिमानेन भृत्यदुःखेऽपि मुह्यति ||८|| अस्वत्वेन गृहीतः सन् पुत्रोऽपि पर एव चतुर्थ प्रकाशः ६०३ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकासः ६०४॥ हि । स्वकीयत्वेन भृत्योऽपि स्वपुत्रादतिरिच्यते ॥९॥ ममेति मतिमाश्रिताः परतरेऽपि वस्तुन्यहो !, निबध्य दधतेतरां स्वमिह कोशकारा इव । विविच्य तदिदं मुहुवितथभावनावर्जनाद, भजेत ममताच्छिदे सततमन्यत्व भावनाम् ॥१०॥ ॥ अन्यत्वभावना ५॥ ७१ ।। अथाशुचित्वभावनामाहरसासृग्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रान्त्रवर्चसाम् । अशुचीनां पदं कायः शुचित्वं तस्य तत् कुतः?।७२ रसो भुक्तपीतानपानपरिणामजो निस्यन्दः, असृग् रक्तं रससम्भवो धातुः, मांसं पिशितमसृग्भवम्, मेदो वसा मांससम्भवम् , अस्थि कीकसं मेदसम्भवम्, मज्जासारोऽस्थिसम्भवः शुक्र रेतो मज्जासम्भवम्, अन्त्रं पुरीतत्, वर्षों विष्टा, एतेषामशुचिद्रव्याणां पदं स्थानं कायः। तत् तस्मात् तस्यःकायस्य कथंशुचित्वम् ? न कथ श्चिदित्यर्थः।।७२।। _ ये त्वत्रापि शुचित्वमानिनस्तानुपालभते-- नवस्त्रोतःसवद्विसरसनिःस्यन्दपिच्छिले । देहेऽपि शौचसङ्कल्पो महन्मोहविजृम्भितम् ॥७३॥ नवभ्यो नेत्रश्रोत्रनासामुखपायपस्थेभ्यः खोतोभ्यो निर्गमद्वारेभ्यः खवन क्षरन् विखमामगन्धिर्योऽसौ रसस्तस्य निःस्यन्दो निर्यासस्तेन पिच्छिलो यः कायस्तस्मिन्नपि शौचसङ्कल्पः शुचित्वाभिमानो यः स महद् गुरुतरं मोहस्य विजृम्भितम् । अत्रान्तरश्लोकाः ॥६०४॥ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ।।६०५॥ शुक्रशोणितसम्भूतो मलनिः स्यन्दवर्धितः । गर्भे जरायुसंच्छन्नः शुचिः कायः कथं भवेत् ? || १ || मातृजsurनपानोत्थरसं नाडीक्रमागतम् । पायं पायें विवृद्धः सन् शौच मन्येत कस्तनौ ? ||२|| दोषधातुमलाकीणं कृमिगण्डूपदास्पदम् । रोगभोगिगणैर्जग्धं शरीरं को वदेत् शुचि ||३|| सुस्वादुन्यन्नपानानि क्षीरेक्षुविकृती अपि । भुक्तानि यत्र विष्टायै तच्छशरीरं कथं शुचि ? || ४ || विलेपनार्थमासक्तः सुगन्धिर्यक्षकर्दमः । मलीभवति यत्राशु क्व शौचं तत्र वर्ष्मणि ? ||५|| जग्ध्वा सुगन्धि ताम्बूलं सुप्तो निश्युत्थितः प्रगे । जुगुप्सते वक्त्रगन्धे यत्र तत् किं वपुः शुचि ? ||६|| स्वतः सुगन्धयो गन्धधूपपुष्पस्त्रगादयः यत्सङ्गाद् यान्ति दौर्गन्ध्यं सोऽपि कायः शुचीयते ? ||७|| अभ्यक्तोऽपि विलिप्तोऽपि धौतोऽपि घटकोटिभिः । न याति शुचितां काय: शुण्डाघट इवाशुचिः ||८|| मृज्जलानलवातांशुस्नानैः शौचं वदन्ति ये । गतानुगतिकैस्तैस्तु विहितं तुषकण्डनम् ॥९॥ शरीरकस्यैवमशौच भावनां, मदाभिमानस्मरसाददायिनीम् । विभावयन् निर्ममतामहाभरं, वोदु' दृढः स्याद् बहुनोदितेन किम् ? ॥१०॥ अशौच भावना || ६ || ७३ ॥ अथाश्रवभावनामाहमनोवाक्कायकर्माणि योगाः कर्म शुभाशुभम् । यदाश्रवन्ति जन्तूनामाश्रवास्तेन कीर्तिताः ॥ ७४ ॥ मनश्च वाक् च कायश्च मनोवाक्कायास्तेषां कर्माणि व्यापारा योगशब्देनोच्यन्ते तत्रात्मना शरीरवता सर्वप्र देशैर्गृहीता मनोयोग्याः पुद्गलाः शुभादिमननार्थं करणभावमालम्बन्ते, तत्सम्बन्धादात्मनः पराक्रमविशेषो मनोयोगः स च पञ्चेन्द्रियाणां समनस्कानां भवति । तथा आत्मना शरीरवता वाग्योग्यपुद्गला गृहीता विसृज्यमाना वाक्त्वेन करणतामापद्यन्ते, तेन वाकरणेन सम्बन्धादात्मनो भाषणशक्तिर्वाग्योगः । सा च द्वीन्द्रियादीनाम् । चतुर्थ प्रकाशः । ६०५ ॥ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् चतुर्थ प्रकाश ॥६०६॥ कायः शरीरमात्मनो निवासस्तद्योगाज्जीवस्य वीर्यपरिणामः काययोगः। ते चामी त्रयोऽपि मनोवाक्कायसम्बन्धादग्निसम्बन्धादिष्टकादे रक्ततेवात्मनो वीर्यपरिणतिविशेषा योगा इत्युच्यन्ते यदाहः योगो वीरिअं थामो उच्छाह परिक्कमो तहा चेट्टा । सत्ती सामत्थं चिअ जोगस्स हवंति पज्जाया ॥१॥ एते च स्थविरस्य दुर्बलस्य वा आलम्बनयष्टयादिवज्जीवस्योपग्राहकाः तत्र मनोयोग्यपुद्गलात्मप्रदेशपरिणामो मनोयोगः, भाषायोग्यपुद्गलात्मप्रदेशपरिणामो वाग्योगः, कायोयोग्यपुद्गलात्मप्रदेशपरिणामो गमनादिक्रियाहेतुः काययोगः। एते योगाः, यस्मात् शुभं सद्वेद्यादि, अशुभमसवेद्यादि कर्माश्रवन्ति प्रसुवते, तेन कारणेनाश्रया इति कीर्तिताः, आश्रयते कमभिरित्याश्रवाः । एतेषां च करणभूतानामपि कर्तृत्वमिहोक्तम् , स्वातन्त्र्यविवक्षणात । यथा असिश्छिनत्ति इति ॥७४।। ___'योगाः कर्म शुभाशुभामाश्रवन्ति' इत्युक्तम् , कार्याणां च कारणानुकारित्वं दृष्टम् , इति शुभानां शुभकर्म। हेतुत्वम् , अशुभानामशुभकर्महेतुत्वं च विवेकेन दर्शयति-- | मैत्र्यादिवासितं चेतः कर्म सूते शूभात्मकम् । कषायविषयोकान्तं वितनोत्यशुभं पुनः ॥७५॥ मैत्रीमुदिताकरुणोपेक्षालक्षणाभिश्चतसृभिर्भावनाभिर्वासितं भावितं चेतो मनः कर्त, शुभात्मकं पुण्यात्मकं कर्म सूते । तच्च सद्वेद्य-सम्यक्त्व-हास्य-रति-पुरुषवेद-शुभायु-र्नाम-गोत्रलक्षणम् । तदेव मनः, कषायाः (१) योगो वीर्य स्थामोत्साहः पराक्रमस्तथा चेष्टा । शक्तिः सामर्थ्यमेव योगस्य भवन्ति पर्यायाः ॥शा ६०६॥ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ६०७।। क्रोधादयो, विषिण्वन्ति बध्नन्ति संसारिणं काम्यमानाः सन्त इन्द्रियार्थाः स्पर्शादयो विषयाः, कषायाश्च विषयाश्च तैराक्रान्तं वशीकृतं वितनोति करोत्युशुभमसद्वेद्यादि कर्म ॥७५॥ तथा शुभार्जनाय निर्मिथ्यं श्रुतज्ञानाश्रितं वचः । विपरीतं पुनर्ज्ञेयमशुभार्जनहेतवे ॥७६॥ निर्मिध्यमवितथम्, तच्च जैनमेव वचनं भवतीत्याह - श्रुतज्ञानाश्रितं वचः श्रुतज्ञानं द्वादशाङ्गं गणिपिटकं तदाश्रितं तदविरोधेन वर्तमानं वचो वाग्योगः स शुभस्य कर्मणोऽर्जनाय । तदेव वचो विपरीतं मिथ्या श्रुतज्ञानविरोध चाशुभस्य कर्मणोऽर्जनाय ॥७६॥ तथा शरीरेण सुगुप्तेन शरीरी चिनुते शुभम् । सततारम्भिणा जन्तुघातकेनाशुभं पुनः ॥७७॥ शरीरेण कायेन सुगुप्तेनासच्चेष्टारहितेन कायोत्सर्गाद्यवस्थायां निश्रेष्टेन शरीरी जन्तुविनुते करोति शुभं सद्यादि कर्म । सततारम्भिणा पुनर्महारम्भिणा अत एव जन्तुघातकेन प्राणिव्यापादकेनाशुभं कर्मासद्वेद्यादि चिनोति । इति शुभाशुभयोगमूलत्वेन शुभाशुभकर्मणां जन्मप्रतिपादनाद न कार्यकारणभावविरोधः ॥७७॥ शुभयोगानां शुभफल हेतुत्वं प्रसङ्गादुक्तम् । भावनाप्रकरणे त्वशुभयोगानामशुभफल हेतुत्वं वैराग्योत्पादनाय प्रतिपादनीयम्, इत्युक्तानुक्तानहेतून्संगृह्णाति — कषायाविषया योगाः प्रमादाविरती तथा । मिथ्यात्वमार्तराद्रे चैत्यशुभं प्रतिहेतवः ॥७८॥ कषायाः क्रोध-मान-माया-लोभलक्षणाः, नोकपायाथ कपायसहचरिता हास्यरस्यरतिभयशोकजुगुप्सापुंस्त्री प्रकाशः ॥६७॥ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् likol नपुंसक वेदलक्षणा नव कषायशब्देन गृह्यन्ते, विषयाः काम्यमानाः स्पर्शादयः, योगा मनोवाक्कायकर्मलक्षणाः, प्रमादोऽज्ञान- संशय-विपर्यय-राग-द्वेष-स्मृतिभ्रंश-धर्मानादर--योग दुष्प्रणिधानभेदैरष्टधा, अविरतिर्नियमाभावः, मिथ्यात्वं मिथ्यादर्शनम्, आर्त्त-राद्रे ध्यानभेदायुक्तपूर्वी, इत्येतेऽशुभं कर्म प्रति हेतवः । नन्वेते बन्धं प्रति हेतुत्वेनोक्ताः, यद् वाचकमुख्याः - "मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगा बन्धहेतवः" इति तत् किमाश्रवभावनायां बन्ध हेतूनामेतेषामभिधानम् ? सत्यम्, आश्रवभावनेव बन्धभावनापि न महद्भिर्भावनात्वेनोक्ता, आश्रवभावनयैव गतार्थत्वात् । आश्रवेण ह्युपात्ताः कर्मपुद्गला आत्मना सम्बध्यमाना बन्ध इत्यभिधीयते, यदाह - सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः इति । ततश्च बन्धाश्रवयोर्भेदो न विवक्षितः । ननु कर्मपुद्गलैः सह क्षीर नीरन्यायेनात्मनःः संबन्धो बन्ध उच्यते, तत् कथमाश्रव एव बन्धः ? युक्तमेतत्, तथाप्याश्रवेणानुपात्तानां कर्म पुद्गलानां कथं बन्धः स्यात् ? । इत्यतोऽपि कर्मपुद्गलादानहेतावाश्रवे बन्धहेतूनामभिधानमदुष्टम् ननु तथापि बन्धहेतूनां पाठो निरर्थकः । नैवम्, बन्धाश्रवयोरेकत्वेनोक्तत्वात्, आश्रवहेतूनामेवायं पाठ इति सर्वमवदातम् । अत्रान्तरश्लोकाः यः कर्म पुद्गलादानहेतुः प्रोक्तः स आश्रवः । कर्माणि चष्टधा ज्ञानावरणीयादिभेदतः ||१|| ज्ञानदर्शनयोस्तद्वत् तद्धेतूनां च ये किल । विघ्ननिह्नवपैशून्याशातनाघातमत्सराः ||२|| ते ज्ञानदर्शनाचारकर्महेतव आश्रवाः । देवपूजा गुरूपास्तिः पात्रदानं दया क्षमा ||३|| सरागसंयमो देशसयमोऽकामनिर्जरा । शौचं बालतपश्चेति सवेद्यस्य स्युराश्रवाः ||४|| दुःखशोकवधास्तापाक्रन्दने परिदेवनम् । स्वान्योभयस्थाः स्युरसद्वेद्यस्यामी इहाश्रवाः चतुर्थ प्रकाशः ६०॥ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग शास्त्रम् चतुर्थ ६०९॥ प्रकाशा ॥५॥ वीतरागे श्रुते संघे धर्मे सर्वसुरेषु च । अवर्णवादिता तीव्रमिथ्यात्वपरिणामिता ॥ ६ ॥ सर्वज्ञसिद्धदेवापदवो धार्मिकदूषणम् । उन्मार्गदेशनाऽनर्थाग्रहोऽसंयतपूजनम् ॥ ७ ॥ असमीक्षितकारित्वं गुर्वादिष्ववमानना । इत्यादयो दृष्टिमोहस्याश्रवाः परिकीर्तिताः ॥८॥ कपायोदयतस्तीवः परिणामो य आत्मनः । चारित्रमोहनीयस्य स आश्रव उदीरितः ॥९॥ उत्प्रासनं सकन्दर्पोपहासो हासशीलता। बहुप्रलापो दैन्योक्तिर्दासस्यामी स्युराश्रवाः ॥१०॥ देशादिदर्शनौत्सुक्यं चित्रे रमणखेलने । परचित्तावर्जन चेत्याश्रवाः कीर्तिता रतेः ॥ ११ ॥ असूया पापशीलत्वं परेषां रतिनाशनम् । अकुशलप्रोत्साहनं चारतेराश्रवा अमी ॥ १२ ॥ स्वयं भयपरिणामः परेषामथ भापनम् त्रासनं निर्दयत्वं च भयं प्रत्याश्रवा अमी ॥१३॥ परशोकाविष्करण स्वशोकोत्पादशोचने । रोदनादिप्रसक्तिश्च शोकस्यैते स्युराश्रवाः ॥१४॥ चतुर्वर्णस्य सङ्घस्य परिवादजुगुप्सने । सदाचारजुगुप्सा च जुगुप्सायाः स्युराश्रवाः ॥१५।। ईर्ष्याविषयगाद्धर्थे च मृषावादोऽतिवक्रता । परदाररतासक्तिः स्त्रीवेदस्याश्रवा इमे ॥ १६ ॥ स्वदारमात्रसन्तोषोऽना मन्दकषायता । अवक्राचारशीलत्वं पुवेदस्याश्रवा इति ॥ १७॥ स्त्रीपु सानङ्गसेवोग्राः कषायास्तीवकामता । पाखण्डस्त्रीव्रतभ्रंशः षण्ढवेदाश्रवा अमी ॥१८॥ साधूनां गर्हणा धर्मोन्मुखानां विघ्नकारिता । मधुमांसविरतानामविरत्यभिवर्णनम् ॥ १९॥ विरताविरतानां चान्तरायकरणं मुहुः । अचारित्रगुणाख्यानं तथा चारित्रदुषणम् ॥२०॥ कषायनोकषायाणामन्यस्थानामुदीरणम् । चारित्रमोहनीयस्य सामान्येनाश्रवा अमी ॥२१॥ पञ्चन्द्रियप्राणिवधो बहारम्भपरिग्रहौ । निरनुग्रहता मांसभोजनं स्थिरवैरता ॥ २२॥ रौद्रध्यानं मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिकषायता । कृष्णनीलकापोताश्च लेश्या अनृतभाषणम् ॥२३॥ परद्रव्यापहरणं मुहुर्मैथुनसेवनम् । ॥६०९॥ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ६१० अवशेन्द्रियता चेति नारकायुष आश्रवाः ॥ २४ ॥ उन्मार्गदेशना मार्गप्रणाशो मूढचित्तता । आर्तध्यानं सशल्यत्वं मायारम्भपरिग्रह ||२५|| शीलवते सातिचारे नीलकापोतलेश्यता । अप्रत्याख्यानाः कषायास्तिर्यगायुष आश्रवाः ॥२६॥ अल्पौ परिग्रहारम्भौ सहजे मार्दवार्जवे । कापोतपीत लेश्यत्वं धर्मध्यानानुरागिता || २७ ॥ प्रत्याख्यान कषायत्वं परिणामश्च मध्यमः । संविभाग विधायित्वं देवतागुरुपूजनम् ॥ २८ ॥ पूर्वालापप्रियालापौ सुखप्रज्ञापनीयता । लोकयात्रासु माध्यस्थ्यं मानुषायुष आश्रवाः ॥ २९ ॥ सरागसंयमो देशसंयमोऽकामनिर्जरा । कल्याणमित्रसम्पर्को धर्मश्रवणशीलता ||३०|| पात्रे दानं तपःश्रद्धा रत्नत्रय्या विराधना । मृत्युकाले परीणामो लेश्ययोः पद्मपीतयोः ॥३१॥ बालतपोऽग्नितोयादिसाधनोल्लम्बनानि च । अव्यक्तसामायिकता देवस्यायुष आश्रवाः ||३२|| मनोवाक्कायवक्रत्वं परेषां विप्रतारणम् । मायाप्रयोगो मिथ्यात्वं पैशून्यं चलचित्तता ||३३|| सुवर्णादिप्रतिच्छन्दकरणं कूटसा क्षित्ता । वर्णगन्धरसस्पर्शाद्यन्यथापादनानि च ॥ ३४ ॥ अङ्गोपाङ्गच्यावनानि यन्त्रपञ्जरकर्म्म च । कूटमानतुलाकर्मान्यनिन्दात्मप्रशंसनम् ||३५|| हिंसानृतस्तेयाब्रह्ममहारम्भपरिग्रहाः परुषासभ्यवचनं शुचिवेषादिना मदः ॥ ३६ ॥ मौखर्याक्रोशौ सौभाग्योपघातः कार्मणक्रिया । परकौतूहलोत्पादः परिहासविडम्बना || ३७ || वेश्यादीनामलङ्कारदानं दावाग्निदीपनम् । देवादिव्याजाद् गन्धादिचौर्य तीव्रकषायता ॥ ३८ ॥ चैत्यप्रतिश्रयारामप्रतिमानां विनाशनम् | अङ्गारादिक्रिया चेत्यशुभस्य नाम्न आश्रवाः || ३९ ॥ एते एवान्यथारूपास्तथा संसारभीरुता । प्रमादहानं सद्भावार्पण क्षान्त्यादयोऽपि च ॥ ४० ॥ दर्शने धार्मिकाणां च संभ्रमः स्वागतक्रिया । आश्रवाः शुभनाम्नोऽथ तीर्थकृन्नाम्न आश्रवाः ॥४१॥ भक्तिरर्हत्सु सिद्धेषु गुरुषु स्थविरेषु च । बहुश्रुतेषु गच्छे च श्रुतज्ञाने तपस्विषु चतुर्थ प्रकाशः ॥६१०॥ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Is चतुर्थ पोगशास्त्रम् प्रकाशा ॥६११॥ ॥४२॥ आवश्यके व्रतशीलेष्वप्रमादो विनीतता। ज्ञानाभ्यासस्तपस्त्यागौ मुहुर्त्यानं प्रभावना ॥ ४३ ॥ संघे समाधिजननं वैयावृत्त्यं च साधुषु । अपूर्वज्ञानग्रहणं विशुद्धिर्दर्शनस्य च ॥ ४४ ॥ आधन्ततीर्थनाथाभ्यामेते विंशतिराश्रवाः! एको द्वौ वा त्रयः सर्वे चान्यैः स्पृष्टा जिनेश्वरैः ॥४५॥ परस्य निन्दावज्ञोपडासाः सद्गुणलोपनम् । सदसदोषकथनमात्मनस्तु प्रशंसनम् ॥४६॥ सदसदगुणशंसा च सदोषाच्छादनं तथा । जात्यादिभिर्मदश्चति नीचैर्गोत्राश्रवा अमी ॥४७॥ नीचैर्गोत्राश्रवविपर्यासो विगतगर्वता । वाक्कायचित्तविनय उच्चैर्गोत्राश्रवा अमी ॥४८॥ दाने लाभे च वीर्ये च तथा भोगोपभोगयोः। सव्याजाव्याजविघ्नोऽन्तरायकर्मण आश्रवाः॥४९॥ प्रस्तावतः खलु शुभाश्रव एष उक्तो, वैराग्यकारणमसौ न तु देभाजाम् । ज्ञात्वा तदेवमशुभाश्रव एव भाव्यो भव्यैर्जनैः सपदि निर्ममतानिमित्तम् ॥५०॥ आश्रवभावना ॥ ७॥७८|| ___ अथ संवरभावनामाह-- सर्वेषामोश्रवाणां तु निरोधः संवरः स्मृतः । स पुनर्भिद्यते द्वेधा द्रव्यभावविभेदतः ॥७९॥ सर्वेषां पूर्वोक्तानामाश्रवाणां निरुध्यन्तेऽनेनेति निरोधः संवर उक्तः संवियतेऽनेनेति कृत्वा । स चायोगिकेवलिनामेव । इदं च सर्वसंवरस्य स्वरूपम् । एकद्विच्याद्याखवनिरोधस्तु सामर्थ्याद् देशसंवरः। स चायोगिकेवलिनः प्राग्गुणस्थानकेषु । सर्वसंवरो देशसंवरश्च प्रत्येक द्रव्यभावभेदेन द्विविधः ॥७९।। द्वैविध्यमेवाह-- Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥१२॥ | यः कर्मपुद्गलादानच्छेदः स द्रव्यमंवरः । भवहेतुक्रियात्यागः स पुनर्भावसंवरः ॥ ८० ॥ ____ कर्मपुद्गलानामाश्रवद्वारेणादानं प्रवेशनं तस्य यच्छिद्यतेऽनेनेति च्छेदः स द्रव्याणां संवरो द्रव्यसंवरः । भावसंवरस्तु संसारकारणभूतायाः क्रियाया आत्मव्यापाररूपायास्त्याग इति ॥८॥ इदानीं कषाया विषया योगा इत्यादिनाऽभिहितानामशुभकर्महेतूनां प्रतिपक्षभूतानुपायान् स्तौतियेन येन ह्युपायेन रुध्यते यो य आश्रवः। तस्य तस्य निरोधाय स स योज्यो मनीषिभिः८१ ___ स्पष्टः॥ ८१ ॥ उपायानाहक्षमया मृदुभावेन ऋजुत्वेनाप्यनीहया । क्रोधं मानं तथा मायां लोभं रुन्ध्याद् यथाक्रमम् ___ क्षमया प्रतिपक्षभूतया क्रोधम् , मृदुभावेन मानम् , ऋजुत्वेन मायाम्, अनीहया लोभ निरुन्ध्यात् संवरार्थ कृतोद्यम इति चतुर्थश्लोकपदेन योगः।। ८२ ॥ कषायाणां प्रतिपक्षतः क्षयमुक्त्वा विषयाणामाह-- असंयमकृतोत्सेकान् विषयान् विषसंनिभान् । निराकुर्यादखण्डेन संयमेन महामतिः ॥३॥ असंयमेनेन्द्रियोन्मादेन कृत उत्सेकः स्वकार्यजननं प्रति सामर्थ्य येषां तान विषयान् स्पर्शादीन् , किविशिटान ! विषसंनिभान आपातरम्यत्वेन परिणामदारुणत्वेन च विषतुल्यान्, निराकुर्याद निवारयेत् केन ? संयमेनेन्द्रियजयेन । किविशिष्टेन ? अखण्डेनाप्रतिहतेन ॥ ८३ ।। ॥६१२॥ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् यतथ प्रकाश ॥६१३॥ इदानीं योगप्रमादाविरतीनां प्रतिपक्षानाहतिसृभिर्गुप्तिभियोगान् प्रमादं चाप्रमादतः । सावद्ययोगहानेनाविरतिं चापि साधयेत् ॥८॥ गुप्तिभिर्मनोवाक्कायरक्षणलक्षणाभिः, तिमभिरिति तासां संख्यावचनम् , योगान् मनोवाक्कायव्यापारलक्षणान् , प्रमादं मद्यविषयकषायनिद्राविकथालक्षणं पञ्चविधम् , अज्ञानसंशयविपर्ययरागद्वेषस्मृतिभ्रंशधर्मानादरयोगदष्प्राणिधानरूपतयाऽष्टविधं वाऽप्रमादेन तत्प्रतिक्षभूतेन साधयेत् , सावद्या ये योगा व्यापारास्तेषां हानेन त्यागेनाविरतिमनियमं साधयेत् ॥८४॥ इदानीं मिथ्यात्वार्तरौद्रध्यानानां प्रतिपक्षानाहसद्दर्शनेन मिथ्यात्वं शुभस्थैर्येण चेतसः । विजयेतातरौद्रे च संवरार्थं कृतोद्यमः ॥८५॥ सदर्शनेन सम्यग्दर्शनेन मिथ्यात्वं मिथ्यादर्शनं विजयेत, शुभं धर्मशुक्लध्यानरूपं यच्चेतसः स्थैर्य तेनार्तरौद्रध्याने विजयेत, संवरार्थ संवरनिमित्तं कृतोद्यमः प्रयत्नवान् योगी । अत्रान्तरश्लोकाः यथा चतुष्पथस्थस्य बहुद्वारस्य वेश्मनः । अनावृतेषु द्वारेषु रजः प्रविशति ध्रुवम् ॥१॥ प्रविष्टं स्नेहयो गाच्च तन्मयत्वेन बध्यते । न विशेन च बध्येत द्वारेषु स्थगितेषु तु ॥२॥ यथा वा सरसि क्वापि सर्वैारे विशेज्जलम् । तेषु तु प्रतिरुद्धेषु प्रविशेद् न मनागपि ॥३॥ यथा वा यानपात्रस्य मध्ये रन्धेविशेज्जलम् । कृते रन्ध्रपिधाने तु न स्तोकमपि तद् विशेत् ॥४॥ योगादिष्वाश्रवद्वारेष्वेवं रुद्धषु सर्वतः । कर्मद्रव्यप्रवेशो न HE Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाश ॥६१४॥ जीवे संवरशालिनि ॥५॥ संवरादाश्रवद्वारनिरोधः संवरः पुनः । क्षान्त्यादिभेदाद् बहुधा तथैव प्रतिपादितः॥६॥ गुणस्थानेषु यो यः स्यात् संवरः स स उच्यते । मिथ्यात्वानुदयादुत्तरेषु मिथ्यात्वसंवरः ॥७॥ तथा देशविरत्यादौ स्यादविरतिसंवरः । अप्रमत्तसंयतादौ प्रमादसंवरो मतः ॥८॥ प्रशान्तक्षीणमोहादौ भवेत् कषायसंवरः । अयोगाख्यकेवलिनि सम्पू) योगसंवरः ॥९॥ एवमाश्रवनिरोधकारण संवरः प्रकटितः प्रपश्रतः । भावनागणशिरोमणिस्त्वयं, भावनीय इह भव्यजन्तुभिः ॥१०॥ संवरभावना ॥८॥८५॥ __अथ निर्जराभावनामाह| संसारबीजभूतानां कर्मणां जरणादिह । निर्जरा सा स्मृता द्वेषा सकामा कामवर्जिता॥८६॥ जन्तूनां चतुर्गतिभ्रमणरूपस्य संसारस्य बीजभूतानां कारणभूतानां कर्मणां जरणादात्मप्रदेशेभ्योऽनुभूतरसकर्मपुद्गलपरिशाटनादिह प्रवचने निर्जरोच्यते । सा निर्जरा द्वेधा-सह कामेन 'निर्जरा मे भूयात्' इत्यभिलाषेण युक्ता सकामा, न पुनरिहलोकपरलोकफलादिकामेन युक्ता, तस्य प्रतिषिद्धत्वात् , यदाहुः, "-नो इहलोगट्टयाए तवमहिहिज्जा, नो परलोगट्टयाए तवमहिहिज्जा, नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगहयाए तवमहिहिज्जा नण्णत्थ निज्जरयाए तवमहिहिज्जा" इत्येका निर्जरा । द्वितीया तु कामवर्जिता कामेन पूर्वोक्तेन वर्जिता । अत्र चकारमन्तरेणापि समुच्चयो गम्यते, इति चकारो नोक्तः, यथा (१) ना इहलोकार्थ तपोऽधितिष्ठेत् , नो परलोकार्थ तपोऽधितिष्ठेत् । नो कीर्तिवर्णशब्दश्लोकार्थ तपोऽधितिष्ठेत् , नान्यत्र निर्जरार्थात् तपोऽधितिष्ठेत् । ॥६१४॥ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् प्रकाशा ॥६१५॥ अहरहनयमानो गामश्वं पुरुषं पशुम् । वैवस्वतो न तृप्यति सुराया इव दुर्मदी ॥१॥८६।। उभयीमपि निजरां व्याचष्टेज्ञेया सकामा यमिनामकामा वन्यदेहिनाम् । कर्मणां फलवत् पाको यदुपायाम् स्वतो पि हि।८७॥ सकामा निर्जराऽभिलाषवती यमिनां यतीनां विज्ञेया । ते हि कर्मक्षयार्थ तपस्तप्यन्ते । अकामा तु कर्मक्षय लक्षणफलनिरपेक्षा निर्जराऽन्यदेहिनां यतिव्यतिरिक्तोनामेकेन्द्रियादीनां प्राणिनाम् , तथाहि-एकेन्द्रियाः पृथिव्यादयो वनस्पतिपर्यन्ताः शीतोष्णवर्षाजलाग्निशस्त्राद्यभिधातच्छेदभेदादिनाऽसद्वेद्यं कर्मानुभूय नीरसं कर्म स्वदेशेभ्यः परिशाटयन्ति । विकलेन्द्रियाश्च क्षुत्पिपासाशीतोष्णादिभिः, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चश्च छेदभेददाहशस्त्रादिभिः, नारकाच त्रिविधया वेदनया, मनुष्याश्च क्षुत्-पिपासा-व्याधि-दारिद्रयादिना, देवाश्च पराभियोग-किल्विषत्वादिनाs कर्मानुभूय स्वप्रदेशेभ्यः परिशाटयन्ति । इत्येषामकामा निर्जरा । ननु सकामत्वाकामत्वस्वरूपेण निर्जराया द्वैविध्यं कुत्र दृष्टम् ? इति प्रश्ने स्पष्टं दृष्टान्तमाह-कर्मणामसवेद्यादीनां फलवत् फलानामिव यद् यस्मात् पाक उपायाद् निवातप्रदेशपलालाच्छादनादिरूपात् स्वतोऽपि वा वृक्षस्थानामेव । तदेवं यथा फलानां पाकस्य स्वत उपायतश्च द्वैविध्य दृश्यते तद्वत् कर्मणामपि, इत्युक्तम्-सकामा कामवर्जिता च निर्जरा इति । ननु फलपाकस्य द्वैविध्ये कर्मणां पाकस्य किमायातम् १ नवम् , पाकस्य निर्जरारूपत्वात् । ततो यथा फलपाको द्वेधा भवति तथा कर्मनिर्जरापि ॥८॥ ॥६१५॥ - Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥६१६।। MOOREE KHOOREETO OKSE अथ कामनिर्जराया हेतुं स्पष्टदृष्टान्तेनाह- सदोषमपि दीप्तेन सुवर्णं वह्निना यथा । तपोऽग्निना तप्यमानस्तथा जीवो विशुध्यति ॥ ८८ ॥ ॥ सदोषमपि किट्टिकादिदोषयुक्तमपि सुवणं दीप्तेन वह्निना तप्यमानं यथा विशुद्धयति तथा जीवोऽप्यसवेद्या दिकर्मदोषयुक्तस्तपोऽग्निना तप्यमानो विशुध्यति । तपस्तु तप्यन्ते रसादिधातवः कर्माणि चानेनेत्यन्वयात्, यदाहरसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राण्यनेन तप्यन्ते । कर्माणि चाशुभानीत्यतस्तपो नाम नैरुक्तम् ॥१॥ तच्च निर्जराहेतुः, यदाह- यद्वद् विशोषणादुपचितोऽपि यत्नेन जीर्यते दोषः । तद्वत् कर्मोपचितं निर्जरयति संवृतस्तपसा ॥१॥८८॥ तच्च बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधम् तत्र वाद्यं तपस्तावद् भेदेनाहअनशनमौनोदर्यं वृत्तेः संक्षेपणं तथा । रसत्यागस्तनुक्लेशो लीनतेति बहिस्तपः ॥ ८९ ॥ अशनमाहारस्तत्परित्यागोऽनशनम् । तद् द्विधा - इत्वरं यावज्जीविकं च । इत्वरं नमस्कारसहितादि श्रीमन्महावीरतीर्थे षण्मासपर्यन्तम्, श्रीनाभेयतीर्थे तु संवत्सरपर्यन्तम्, मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु त्वष्टौ मासान् यावत् । यावज्जीविकं तु पादपोपगमनेङ्गिनी भक्तप्रत्याख्यानभेदात् त्रिविधम् । तत्र पादपोपगमनं द्विधा - सव्याघातमव्या घातं च । तत्र सतोऽप्यायुषः समुपजातव्याधिविधुरेणोत्पल महावेदनेन वा देहिना यदुत्क्रान्तिः क्रियते तत् सव्याघातम् । निर्व्याघातं तु- चतुर्थ प्रकाशः ॥६१६॥ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥६१७॥ P005502952OOK निफाइआ य सीसा गच्छो परिपालिओ महाभागो । अन्भुञ्जिओ बिहारो अहवा अन्भुज्जयं मरणं ॥ १ ॥ इति दशावयः परिणामे सति त्रस — स्थावर विरहिते स्थण्डिले पादपवद् निश्चेष्टस्य येन तेन संस्थानेन प्रशस्वध्यानव्यापृतान्तःकरणस्य प्राणोत्क्रान्ति यावदवस्थितिरिति । तदेतद् द्विविधमपि पादपोपगमनम् । इङ्गिनी श्रुतविहितः क्रियाविशेषस्तदुद्विशिष्टमनशनमिङ्गिनी । अस्य प्रतिपत्ता तेनैव क्रमेणायुषः परिहाणिमवबुध्य तथाविध एव स्थण्डिले एकाकी कृतचतुर्विधाहारप्रत्याख्यानभ्छायात उष्णमुष्णाच्छायां संक्रामन् सचेष्टः सम्यगृध्यानपरायणः प्राणान् जहाति । इत्येतदिङ्गिनीरूपमनशनम् । यस्तु गच्छमध्यवर्ती समाश्रितमृदुसंस्तारकः समुत्सृष्टशरीरो पकरणममत्वस्त्रिविधं चतुर्विधं वाऽऽहारं प्रत्याख्याय स्वयमेवोद्ग्राहितनमस्कारः समीपवर्त्तिसाधुदत्तनमस्कारो वोर्तन - परिवर्तनादि कुर्वाणः समाधिना कालं करोति, तस्य भक्तप्रत्याख्यानमनशनम् । अथौनोदर्यम् — ऊनमवममुदरं यस्य स ऊनोदरस्तस्य भाव औनोदर्य्यम् । तच्च चतुर्धा - अल्पाहारौनोदर्थ्यम्, उपाधानोदयम्, अर्धी नोदर्य्यम् प्रमाणप्राप्तात् किञ्चिदूनौनोद च । तत्राहारः पुंसो द्वात्रिंशत्कवलप्रमाणः । कबलश्चोत्कृष्टापकृष्टौ वर्जयित्वा मध्यम इह गृह्यते । सा चा विकृतस्वमुखविवरप्रमाणः । तत्र कवलाष्टकाभ्यवहारोऽ ल्पाहारौनोदर्य्यम् । अर्धस्य समीपमुपाधं द्वादश कवलाः, यतः कवलचतुष्टयप्रक्षेपात् सम्पूर्णमधं भवति, ततो द्वादश कवला उपाधानोदर्य्यम् । षोडश कवला अनोदर्थ्यम् । प्रमाणप्राप्त आहारो द्वात्रिंशत् कवलाः, स चैका दिकवलैरूनश्चतुर्विंशतिकवान् यावत् प्रमाणप्राप्तात् किञ्चिदूनौनोदयम् । चतुर्विधेऽप्यस्मिन्नेकैककवलहानेन (१) निष्पादिताश्च शिष्या गच्छः परिपालितो महाभागः । अभ्युद्यतो विहारोऽथवाऽभ्युद्यतं मरणम् ॥ १॥ चतुर्थ प्रकाशः ॥६१७॥ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥६१८|| बहूनि स्थानानि जायन्ते । सर्वाणि चामून्यौनोदयविशेषाः । योषितस्तु अष्टाविंशतिकवलाहारप्रमाणम्, यदाह, खलु कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलिआए अट्ठावीसं भवे कवला ॥१॥ तस्याः पुरुषानुसारेण न्यूनाहारादिकं भावनीयम् । १ तथा वर्ततेऽनयेति वृत्तिभैक्ष्यम्, तस्याः संक्षेपणं ह्रासः । तच्च दत्तिपरिमाणरूपम् । एकद्वित्र्याद्यगारनियमो रथ्याग्रामार्धग्रामनियमश्च । अत्रैव द्रव्य – क्षेत्र — काल - भावाभिग्रहा अन्तर्भूताः । " तथा रसानां मतुलोपाद् विशिष्टरसवतां वृष्याणां विकारहेतूनाम् अत एव विकृतिशब्दवाच्यानां मद्यमांसमधुवनीतानां दुग्ध - दधि घृत-तैल- गुडावग्राह्यादीनां च त्यागो वर्जनं रसत्यागः । तथा तनुः कायस्तस्याः क्लेशः शास्त्राविरोधेन बाधनं तनुक्लेशः । ननु तनोरचेतनत्वात् कथं क्लेशसम्भवः ? उच्यते – शरीर - शरीरिणोः क्षीरनीरन्यायेनाभेदादात्मक्लेशे तनुक्लेशस्यापि सम्भवात् तनुक्लेश इत्युक्तम् । स च विशिष्टासनकरणेनाप्रतिकर्मशरीरत्वकेशोल्लुश्ञ्चनादिना चावसेयः । ननु परषहेभ्यः कोऽस्य विशेषः ? उच्यते स्वकृतक्लेशानुभवरूपस्तनुक्लेशः, परीषहास्तु स्वपरकृतक्लेशरूपा इति विशेषः । तथा लीनता विविक्तशय्यासनता । सा चैकान्तेनावाधेऽसंसक्ते स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिते शून्यागार देवकुलसभापर्वतगुहादीनामन्यतमस्मिन् स्थानेऽवस्थानं मनोवाक्कायकषायेन्द्रियसंवृतता च । इति षट्प्रकारं बहिस्तपो बाह्य तपः । बाह्यत्वं च बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात्, परप्रत्यक्षत्वात् कुतीर्थिकैगृहस्थैश्व कार्य्यत्वाच्च । भस्मात् षड्विधादपि (१) द्वात्रिंशत् खलु कवला आहारः कुक्षिपूरको भणितः । पुरुषस्य महिलाया अष्टाविंशतिर्भवेयुः कबलाः चतुर्थ प्रकाशः વા Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतण योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥६१९॥ बाह्यात तपस सङ्गत्याग-शरीरलाघवे-न्द्रियविजय-संयमरक्षण-कर्मनिर्जरा भवन्ति। ८९॥ आभ्यन्तरं तप आहप्रायश्चित्तं वेयावृत्त्यं स्वाध्यायो विनयोऽपि च । व्युत्सर्गोऽथ शुभं ध्यानं पोढेत्याभ्यन्तरं तपः॥९०॥ मूलोत्तरगुणेषु स्वल्पोऽप्यतीचारो निश्चितं मलिनयतीति तच्छुद्धयर्थ प्रायश्चित्तम्-प्रकर्षण अयते गच्छत्यस्मादाचारधर्म इति प्रायो मुनिलोकस्तेन विचिन्त्यते स्मर्य्यतेऽतिचारविशुद्धयर्थमिति निरुक्तात् प्रायश्चित्तमनुष्ठान विशेषः । अथवा प्रायो बाहुल्येन व्रतातिक्रम चेतसि सञ्जानीते चेतश्च न पुनराचरतीत्यतः प्रायश्चित्तम् । अथवा प्रायोऽपराध उच्यते स येन चेतति विशुध्यति तत् प्रायश्चित्तम् । भीमसेनात् पूर्व आचार्य्याश्चितै (ती) धातु विशुद्धावपि पठन्ति, यदाहु:-'चिती संज्ञानविशुद्धयो ।। प्रायश्चित्तं च दशविधम्-आलोचनम् , प्रतिक्रमणम् , मिश्रम् , विवेकः, व्युत्सर्गः, तपः, छेदः, मूलम् , अनवस्थाप्यता. पाराश्चिकमिति । तत्रालोचनं गुरो पुरतः स्वापराधस्य प्रकटनम् । तच्चासेवनानुलोम्येन प्रायश्चित्तानुलोम्येन च । आसेवनानुलोम्यं येन क्रमेणातिचार आसेवितस्तेनैव क्रमेण गुरोः पुरतः प्रकटनम् । प्रायश्चित्तानुलोम्यं च गीतार्थस्य शिष्यस्य भवति । स हि पञ्चक-दशक पञ्चदशकक्रमेण प्रायश्चित्तानि गुरुलध्वपराधानुरूपाणि विज्ञाय योऽपराधो गुरुस्तं तं प्रथममालोचयति, पश्चाल्लघु लघुतरं च । अतीचाराभिमुख्यपरिहारेण प्रतीपं क्रमणमपसरणं प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतसंयुक्तेन पश्चात्तापेन 'पुनरेवं न १६१९॥ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाशः ॥६२०॥ करिष्यामि' इति प्रत्याख्यानम् । मिश्रमालोचनप्रतिक्रमणरूपम् , प्रागालोचनं पश्चाद् गुरुसन्दिष्टेन प्रतिक्रमणम् । विवेकः संसक्तान्नपानोपकरणशय्यादिविषयस्त्यागः । व्युत्सगोंऽनेषणीयादिषु त्यक्तेषु गमनागमनसावधस्वमदर्शननौसन्तरणोच्चारप्रश्रवणेषु च विशिष्टप्रणिधानपूर्वकः कायवाडूमनोव्यापारत्यागः । तपस्तु च्छेदग्रन्थानुसारेण जीतकल्पानुसारेण वा येन केनचित् तपसा विशुद्धिर्भवति तत् तद् देयमासेवनीयं च। छेदस्तपसा दुर्दमस्याहोरात्रपञ्चकादिना क्रमेण श्रमणपर्यायच्छेदनम् । मूलं महाव्रतानां मूलत आरोपणम् । तथा अवस्थाप्यत इत्यवस्थाप्यस्तन्निषेधादनवस्थाप्यस्तस्य भावोऽनवस्थाप्यता दुष्टतरपरिणामस्याकृततपोविशेषस्य व्रतानामारोपणम् , तपः कर्म चास्योत्थाननिषदनादिकर्मकरणशक्तिपर्यन्तम् । स हि यदोत्थानाद्यपि कर्तुमशक्तस्तदाऽन्यान् प्रार्थयते-'आOः ! उत्थातुमिच्छामि' इत्यादि । ते तु तेन सह संभाषणमकुर्वाणास्तत्कृत्यं कुर्वन्ति , यदाह उहिज्ज निसीअज्ज व भिक्खं हिंडीज्ज मत्तगं पेहे । कुविअपिअबंधवस्स करेइ इयरो वि तुसिणीओ ॥१॥ एतावति तपसि कृते तस्योत्थापना क्रियते । (१) उत्तिष्ठ निषीद वा भिक्षां हिण्ड मात्र प्रक्षस्व । कुपितप्रियबान्धवस्य करोतीतरोऽपि तुष्णीकस्तु ॥१॥ ॥६२०॥ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥६२१॥ तथा पारमन्तं प्रायश्चित्तानां तत उत्कृष्टतरप्रायश्चित्ताभावात् अपराधानां वा पारमश्चति गच्छतीत्ये शीलं पाराचि तदेव पाराश्चिकम् । तच्च महत्यपराधे लिङ्गकुलगणसंवेभ्यो बहिष्करणम् । एतच्च छेदपर्यन्तं प्रायश्चित्तं व्रणचिकित्सातुल्यं पूर्ववरिभिरभिहितम् । तत्र तनुरतीक्ष्णमुखो रुधिरमप्राप्तस्त्व गुलः शल्यो देहदुधियते, न तत्र व्रणस्य मर्दनं विधीयते शल्याल्पत्वेन व्रणस्याल्पत्वात् । द्वितीये तु लग्नोध्धृतशल्ये मर्दनं क्रियते न तु कर्णमलेन पूर्य्यते । तृतीये तु दूरतरगतशल्ये शल्योद्धारमलनकरणमलपूरणानि क्रियन्ते । चतुर्थे तु शल्यकर्षणमर्दनरुधिरगालनानि वेदनापहारार्थं क्रियन्ते । पञ्चमे तु गाढतरावगाढशल्योद्धरणं, ततो गमनादिचेष्टा निवार्य्यते । षष्ठे हितमितभोज्यभोजनोऽभोजनो वा शल्योद्धारानन्तरं भवति । सप्तमे तु शल्योद्धारानन्तरं यावच्छल्येन मांसादिदुषितं तावत् छिद्यते, गोनसभक्षितादौ पादवल्मीके वा पूर्वोक्तक्रियाभिरनुपशमाद् विसर्पति, अङ्गच्छेदः सहास्थ्ना शेषरक्षणार्थं विधीयते । एवं द्रव्यवणदृष्टान्तेन मूलोत्तरगुणरूपस्य चारित्र पुरुषस्यापराधरूपो व्रण आलोचनादिना छेदान्तेन प्रायश्चित्तविधिना शोधनीयः यदाहुर्भगवद्भद्रबाहुस्वामिपादाः, - तणुओ अतिक्खतुंडो असोणिओ केवलं तयालग्गो । उद्धरिउ अवउज्झइ सल्लो न मलिज्जइ वणो उ ॥१॥ लग्गुद्धियम्मि बीए मलिज्जइ परं अदुरगे सल्ले । उद्धरणमलणपूरण दूरयरगए तइयगम्मि ||२|| (१) तनुकोऽतीक्ष्णतुण्डोऽशोणितः केवलं त्वग्लग्नः । उध्धृत्यापत्यज्यते शल्यो न मृद्यते व्रणस्तु ॥१॥ (२) लग्नोध्धृते द्वितीये मृद्यते परमदूरगे शल्ये । उद्धरणमलनपूरणानि दूरतरगते तृतीयके ॥२॥ EXOXO FORE चतुर्थ प्रकाशः ॥६२१ ॥ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् चतुर्थ प्रकाश ॥६२२।। मा वेयणा उ तो उद्धरित्तु गालंति सोणिअ चउत्थे । रुज्झइ लहुं ति चेहा वारिज्जइ पंचमे वणिणो॥३॥ रोहेइ बण छठे हिअमिअभोइ अभुजमाणो वा । तत्तियमेत्तं छिज्जइ सत्तमए पूइमसाई ॥४॥ तहविध अट्ठायमाणे गोणसखइयाइ रफए वावि । कीरइ तयंगछेओ सअहिओ सेसरक्खठूठा ॥५॥ मूलोत्तरगुणरूवस्स ताइणो परमचरणपुरिसस्स । अवराहसल्लपहवो भाववणो हीइ नायव्वो ॥६॥ भिक्खायरियाइ सुज्झइ अइयारो कोइ वियडणाए उ । बीओ ह असमिओ मित्ति कीस सहसा अगुत्तो वा ॥७॥ सहाइएसु राग दोसं च मणा गो तइअगम्मि । नाउँ अणेसणिज्ज भत्ताइविगिचण चउत्थे ॥८॥ उस्सग्गेण वि सुज्झइ अइयारो कोइ कोइ उ तवेणं । तेण वि असुज्झमाण छेयविसेसा विसोहिति ॥९॥ (१) मा वेदनास्तत उध्धृत्य गालयन्ति शोणितं चतुर्थे । रुह्यते लघु इति चेष्टा वार्यते पञ्चमे ब्रणिनः॥३॥ रोहयति व्रणं षष्ठे हितमितभोजी अभुजानो वा । तावन्मात्र छिद्यते सप्तमके पूतिमांसादि ॥४|| तथापि अतिष्ठति गोनसभक्षितादौ रप्फकर्वापि । क्रियते तदङ्गच्छेदः सहास्थिकः शेषरक्षार्थम् ॥५॥ मूलोत्तरगुणरूपस्य तायिनः परमचरणपुरुषस्य । अपराधशल्यप्रभवो भावव्रणो भवति ज्ञातव्यः ॥६॥ भिक्षाचर्यादिः शुध्यत्यतिचारः कश्चिद्विकटनयैव । द्वितीयोहासमितोऽस्मीति किं सहसाऽगुप्तो वा ॥७॥ शब्दादिकेषु राग द्वेषं च मनाक् गतस्तृतीयके । ज्ञात्वाऽनेषणीयं भक्तादिविगिचना चतुर्थे ॥८॥ उत्सर्गेणापि शुध्यत्यतिचारः कश्चित् कश्चित् तु तपसा । तेनाप्यशुध्यमानं छेदविशेषा विशोधयन्ति ॥९॥ ॥६२२॥ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् ॥६२३॥ प्रमाददोषव्युदासभावप्रसादनैः शल्यानवस्थाव्यावृत्तिमर्यादात्यागसंयमदाढर्याराधनादिप्रायश्चित्तफलम् । अथ वैयावृत्त्यम्-व्यावृत्तो व्यापारप्रवृत्तः प्रवचनोदितक्रियानुष्ठानपरस्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्त्यम् । व्याधिपरीषहमिथ्यात्वाद्युपनिपाते तत्प्रतीकारो बाह्यद्रव्यासम्भवे स्वकायेन तदानुकूल्यानुष्ठानं च । तच्चाचार्योंपाध्यायस्थविरतपस्विशैक्षग्लानसाधर्मिककुलगणसङ्घलक्षणविषयभेदेन दशधा । तत्र स्वयमाचरति परांश्चाचारयति, आचर्यते सेव्यत इति वाऽऽचार्यः । स पश्चधाप्रव्रजकाचार्यः, दिगाचार्यः, उद्देशकाचार्यः, समुद्देशानुज्ञाचार्यः, आम्नायार्थवाचकाचार्य इति । तत्र सामायिकवतादेरारोपयिता प्रव्राजकाचार्यः । सचित्ताचित्तमिश्रवस्त्वनुज्ञायी दिगाचार्यः । प्रथमत एव श्रतमुद्दिशति यः स उद्देशाचार्यः । उद्देष्टगुवभावे तदेव श्रुतं समुद्दिशत्यनुनानीते वा यः स समुद्देशानुज्ञाचार्यः । आम्नायमुत्सर्गापवादलक्षणमर्थ वक्ति यः स प्रवचनार्थकथनेनानुग्राहकोऽक्षनिष खाद्यनुज्ञायी आम्नायार्थवाचकः, आचारगोचरविषयं स्वाध्याय वा । आचार्याल्लब्धानुज्ञाः साधव उप समीपेड धीयतेऽस्मादित्युपाध्यायः । स्थविरो वृद्धः । स श्रुत-पर्याय-वयोभेदात् त्रिविधः । श्रुतस्थविरः समवायाङ्ग यावदध्येता, पर्यायस्थविरो यस्य दीक्षितस्य विंशत्यादीनि वर्षाणि, वयः स्थविरः सप्तत्यादिवर्षजीवितः। विकृष्टं दशमादि किश्चिन्यूनषण्मासान्तं तपः कुर्वस्तपस्वी। अचिरप्रबजितः शिक्षाहः शैक्षः। रोगादिक्लिष्टशरीरो ग्लानः । साधर्मिकाः समानधर्मिणो द्वादशविधसम्भोगवन्तश्च । बहूनां गच्छानामेकजातीयानां समूहः कुलं चन्द्रादि । गच्छस्त्वेकाचार्यप्रणेयः साधुसमूहः । कुलसमुदायो गणः कोटिकादिः। सङ्घः साधुसाध्वीश्रावक-श्राविकासमुदायः एषामाचार्यादीनाममपानवस्त्रपात्रप्रतिश्रयपीठफलकसंस्तारकादिभिर्धर्मसाधनैरुपग्रहः शुश्रूषा भैषजक्रिया, कान्ताररो ॥६२३॥ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग चतुर्थ शास्त्रम् प्रकाशः ॥६२४॥ गोपसर्गेषु परिपालनम् , एवमादि वैयावृत्त्यम् । __ अथ स्वाध्यायः । सुष्ठु मर्यादया कालवेलापरिहारेण पौरुष्यपेक्षया वाऽध्ययनं स्वाध्यायः। स पञ्चविधः वाचनम् , प्रच्छनम् , अनुप्रेक्षा, आम्नायः, धर्मोपदेशश्चेति । तत्र वाचनं शिष्याध्यापनम् । प्रच्छन ग्रन्थार्थयोः सन्देहच्छेदाय निश्चितबलाधानाय वा परानुयोगः। अनुप्रेक्षा ग्रन्थार्थयोरेव मनसाऽभ्यासः। आम्नायो घोषविशुद्ध परिवर्तनम् , गुणनम् , रूपादानमिति यावत् । धर्मोपदेशोऽर्थोपदेशो व्याख्यानमनुयोगो वर्णनमिति यावत् । ___ अथ विनयः-विनीयते क्षिप्यतेऽष्टप्रकारं कर्मानेनेति विनयः । स चतुर्धा, ज्ञान-दर्शन-चारित्रो-पचार भेदाव । तत्र सबहुमान ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादि ज्ञानविनयः । सामायिकादौ लोकबिन्दुसारपर्यन्ते श्रुते भगवत्प्रकाशितपदार्थान्यथात्वासम्भवात् तत्त्वार्थश्रद्धानिःशङ्कितत्वादिना दर्शनविनयः । चारित्रवतश्चारित्रे समाहितचित्तता चारित्रविनयः । प्रत्यक्षेष्वाचार्यादिष्वभ्युत्थानाभिगमनाञ्जलिकरणादि उपचारविनयः, परोक्षेष्वपि काय वाग्मनोभिरञ्जलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणादिरुपचारविनयः । __ अथ व्युत्सर्गः-व्युत्सर्जनीयस्य परित्यागो व्युत्सर्गः । स द्विविधः-बाह्य आभ्यन्तरश्च । तत्र बाह्यो द्वादशादिभेदस्योपधेरतिरिक्तस्य, अनेषणीयस्य संसक्तस्य श्वाऽन्नपानादेर्वा त्यागः । आभ्यन्तरः कषायाणाम् , मृत्युकाले शरीरस्य च त्यागः । ननु व्युत्सर्गः प्रायश्चित्तमध्य एवोक्तस्तत् किं पुनरत्र वचनेन ? सत्यम् , सोऽतिचारविशुद्धयर्थ उक्तः अयं तु सामान्येन निर्जरार्थ इत्यपौनरुक्त्यम् । (१) अन्नपात्रादेर्वा इति वा पाठः । ॥६२४॥ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥६२५।। अथ शुभध्यानम्-शुभमातरौद्रविवेकेन शुभरूपं धर्म शुक्लरूप ध्यानम् अत्रातरौद्रध्याने उक्तपूर्वे, धर्म शुक्लं च शुभध्याने वक्ष्येते । इत्यनेन प्रकारेण पोढाऽऽभ्यन्तरं तपः इदं चाभ्यन्तरस्य कर्मणस्तापकत्वात , अभ्यन्तरैरेवान्तर्मुखैभगवद्भिर्जायमानत्वाच्चाभ्यन्तरम् । ध्यानस्य सर्वेषां तपसामुपरि पाठो मोक्षसाधनेष्वस्य प्राधान्यख्यापनार्थः, यदाह-संवरविणिज्जराओ मोक्खस्स पहो तवा पहो ताति । ज्झाणं च पहाणंग तवस्स तो मोक्खहेऊ तं ॥१॥९॥ ___ अथ तपसो निर्जराहेतुत्वं प्रकटयन्नाहदीप्यमाने तपोवह्नौ बाह्ये चाभ्यन्तरेऽपि च । यमी जरति कर्माणि दुर्जराण्यपि तत्क्षणात्॥९१॥॥ तप एव वह्निः पापवनदाहकत्वात तपोवहिस्तस्मिन दीप्यमाने प्रबलीभते । किविशिष्टे ? बाह्येऽशनादौ, आभ्यन्तरे प्रायश्चित्तादौ सति । यमी संयमवान जरति भस्मसात् करोति । अन्तर्भूतण्यर्थत्वात् सकर्मकता । कर्माणि ज्ञानवरणीयादीनि दुर्जराण्यपि दुःखक्षयाण्यपि । निर्जराहेतुत्वं तपस उपलक्षणम् , संवरहेतुत्वादप्यस्य, यदाह वाचकमुख्यः--तपसा निर्जरा च तपसा निर्जरा संवरश्च भवतीत्यर्थः। तपश्च संवरत्वादभिनवकर्मोपचयप्रतिषेधकम् , निर्जरणफलत्वाच्चिरन्तनकर्मनिर्जरकम् , तथा च निर्वाणप्रापकमिति । अत्रान्तरश्लोकाः यथा हि पिहितद्वारमुपायैः सर्वतः सरः । नवैनवैर्जलापूरैः पूर्यते नैव सर्वथा ॥१॥ तथैवाश्रवनिरोधेन कर्म (१) संवरविनिर्जरे मोक्षस्य पन्थास्तपः पन्थास्तयोः । ध्यानं च प्रधानाङ्गं तपसस्ततो मोक्षहेतुस्तत् ॥१॥ ॥६२५॥ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥६२६ ॥ ROOE43 द्रव्यैर्नवैर्नवैः । अयं न पूर्यते जीवः संवरेण समावृतः ॥ २॥ यथैव सरसस्तोयं संशुष्यति पुरा चितम् । दिवाकरकरालातपातिसन्तापितं मुहुः ||३|| तथैव पूर्वसम्बद्धं सर्वकर्म शरीरिणा । तपसा ताप्यमानं सत् क्षयमायाति तत्क्षणात् ||४|| निर्जराकरणे बाह्याच्छ्रेष्ठमाभ्यन्तरं तपः । तत्राप्येकातपत्रत्वं ध्यानस्य मुनयो जगुः ॥५॥ चिरार्जितानि भूयांसि प्रबलान्यपि तत्क्षणात् । कर्माणि निर्जरन्त्येव योगिनो ध्यानशालिनः ॥६॥ यथौवोपचितो दोषः शोषमायाति लङ्घनात् । तथैव तपसा कर्म क्षीयते पूर्वसञ्चितम् ॥७॥ यथा वा मेघसङ्घाताः प्रच ण्डपवनैर्हताः । इतस्ततो विशीर्यन्ते कर्माणि तपसा तथा ||८|| प्रतिक्षणं सम्भवन्त्यावपि संवरनिर्जरे । प्रकृष्येते यदा मोक्षं प्रसुवाते तदा ध्रुवम् ||९|| निर्जरां निर्जरां कुर्वस्तपोभिद्विविधैरपि । सर्वकर्मविनिर्मोक्षं मोक्षमानोति शुद्धधीः ॥१०॥ एवं तपोभिरभितैः परिचीयमाना, स्यान्निर्जरा सकलकर्मविघातहेतुः । सेतुर्भवोदधि समुत्तरणे ममत्व - व्याघातकारणमतः खलु भावयेत् ताम् ॥११॥ ॥ निर्जराभावना ९॥९१॥ ॥ अथ धर्मस्वाख्यात भावना स्वाख्यातः खलु धर्मोऽयं भगवद्भिर्जिनोत्तमैः । यं समालम्बमानो हि न मज्जेद् भवसागरे ॥ ९२ ॥ सुष्ठु कुतीर्थिकापेक्षया प्राधान्येन, अविधिप्रतिषेधमर्यादया ख्यातः कथितः खलु निश्वयेन धर्मों वक्ष्यमाणलक्षणः, अयं विपश्चितां चेतसि विवर्त्तमानः । कैः ? जिनोत्तमैरवधिजिनादिभ्यः प्रकृष्टैः केवलिभिः । कथम्भूतैः भगवद्भिर्व्याख्यातस्वरूपैरर्हद्भिरिति यावत् । स्वाख्याततामेवाह-यं धर्म समालम्बमानो दुर्गतिपातभयादाश्रयन्, XOOX चतुर्थ प्रकाशः ||६२६॥ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥६२७॥ RECE जन्तुरिति गम्यते, न मजेद् ब्रुडेद् भवसमुद्रे ॥९२॥ स्वाख्यातं धर्ममाह - संयम सूनृत शौचं ब्रह्माकिञ्चनता तपः । क्षान्तिर्मदंमृजुता मुक्तिश्च दशधा स तु ॥ ९३ ॥ स तु धर्मो दशधा दशप्रकारः । तत्र संयमः प्राणिदया सप्तदशविधः । तत्र पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुष्पचेन्द्रियाणां मनोवाक्कायकर्मभिः करणकारणनुमतिभिश्च संरम्भसमारम्भारम्भवर्जनमिति नवधा । अजीवरूपाण्यपि पुस्तकादीनि दुःपमादोषात् प्रज्ञाबलहीनशिष्यानुग्रहार्थे यतनया प्रतिलेखनाप्रमार्जनापूर्वे धारयतोऽ जीवसंयमः । तथा प्रेक्ष्य चक्षुषा दृष्ट्वा स्थण्डिलं बीजजन्तुहरितादिरहितं तत्र शयनासनादीनि कुर्वीतेति प्रेक्षा संयमः । गृहस्थान् सावद्याव्यापारप्रसक्तानव्यापारणेनोपेक्षमाणस्योपेक्षासंयमः । प्रेक्षितेऽपि स्थण्डिले रजोहरणादिना प्रमृज्य शयनासनादीन् कुर्वतः स्थण्डिलाच्च स्थण्डिलं संक्रामतः सचिचाचित्तामिश्रासु पृथिवीषु रजोऽवगु ण्ठितौ चरणौ प्रमार्ण्य गच्छतो वा प्रमार्जनासंयमः । भक्तपानादिकमनेषणीयं वस्त्रपात्रादिकं चानुपकारकं संसक्तं वा निर्जन्तु स्थण्डिले परिष्ठापयतः परिष्ठापनासंयमः । मनसोऽभिद्रोहाभिमानेर्ष्यादिभ्यो निवृत्तिर्धमध्यानादिषु च प्रवृत्तिर्मनः संयमः । वाचो हिंखपरुषादिवचोभ्यो निवृत्तिः शुभभाषायां च प्रवृत्तिर्वीक् संयमः । कायस्य धावनवलगनादिभ्यो निवृत्तिः शुभक्रियासु च प्रवृत्तिः कायसंयम इति । एवं सप्तदशप्रकारः प्राणातिपातनिवृत्तिरूपः संयमः, यदाहुः— 04 OF 4 O चतुर्थ प्रकाशः ||દ્દા Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम ||६२८॥ पुढ विदगअगणिमारुयवणस्सइवितिचउपगिंदिअज्जीवे । पेहुप्पे उपमज्जणपरिट्ठवणमणेवईकाए ॥१॥ तथा 'ऊनण् परिहाणे' अस्य धातोः सुष्ठु ऊन्यतेऽप्रियमात्राश्रयणं मितीक्रियते इति सून्, सून् च ततं च सूनृतं प्रियं सत्यं च । तच्च पारुष्य - पैशुन्या-सभ्यत्व - चापला - विलत्व - विरलत्व - संभ्रान्तत्व - सन्दिग्धत्वग्राम्यत्व — रागद्वेषयुक्तत्वो - पधावद्य विकत्थनपरिहारेण माधुयौदार्यस्फुटत्वाभिजात्यपदार्थाभिव्याहाराऽर्हद्वचनानुसारार्थत्वार्थिजनभावग्राहकत्व देशका लोपपन्नत्व यतमितति वैयुक्त वाचनप्रच्छनप्रश्नव्याकरणदिरूपमिति मृषावादपरिहाररूपं नृतम् । शौच संयमं प्रति निरुपलेपता । सा चादचादानपरिहाररूपा । लोभार्त्तो हि परधनं जिघृक्षन संयमं मलिन यति । लौकिका अप्याहु: सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम् । योऽर्थेषु शुचिः स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः ||१|| अशुचिर्हि भावकल्मषसंयुक्त इहामुत्र चाशुभं कर्मोपविनोति, उपदिश्यमानमपि च श्रेयो न प्रतिपद्यते, इत्यदत्तादान परिहाररूपं शौचम् । नवत्रह्मगुप्तसनाथमुपस्थसयमो ब्रह्म 'भीमो भीमसेनः' इति न्यायाद् ब्रह्मचयं बृहत्त्वाद् ब्रह्मात्मा तत्र चरणं ब्रह्मचर्यमात्माराम तेत्यर्थः । तदर्थं गुरुकुलसेवनमपि ब्रह्मचर्यमित्यब्रह्मनिवृत्तिरूपं ब्रह्मचर्यम् । नास्य किश्चन द्रव्य मस्तीत्यकिञ्चनस्तस्य भावोऽकिञ्चनता । उपलक्षणं चैतत् तेन शरीरधर्मोपकरणादिष्वपि निर्ममत्वमकिञ्चनत्वम् (१) पृथिवीदकाग्निमारुतवनस्पतिद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियाजीवाः । प्रेक्षोप्रेक्षाप्रमार्जनपरिष्ठापपनमनोवाक्कायाः ॥ १ ॥ चतुर्थ प्रकाशः १६२८|| Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् चतुर्थ प्रकाशा ॥६२९॥ शरीरमपि धारयन्तो मुनयो निर्ममत्वात् तत् परिग्रहरहिता भोजनादिकमपि सयमयात्रार्थ शकटाक्षलेपनवत् कुर्वन्ति, न मृर्छया । उपकरणमपि च रजोहरणादिकं संयमरक्षार्थ वस्त्रपात्रादिकं च संयमशरीरपरित्राणार्थ धारयन्ति, न पुनर्लोभादिना इति निष्परिग्रहा एव । इति परिग्रहपरिहाररूपाऽकिचनता । तप उक्तनिर्वचनम् , उक्तस्य संयमादेवक्ष्यमाणस्य क्षान्त्याः संवरहेतोधर्मस्य मध्ये पठितम् , संवरनिर्जराहेतुत्वात् । तच्च द्वादशप्रकारं पूर्वमुक्तम् , प्रकीर्णकं चेदमनेकविधम् , तद्यथा-यवमध्यं, वज्रमध्यं, चान्द्रायणं कनकरत्नमुक्तावल्यस्तिस्त्रः, सिंहविक्रीडिते द्वे सप्त सप्तमिकाद्याः प्रतिमाश्चतस्रः सर्वतोभद्रम्, भद्रोत्तरम् , आचाम्लवर्धमानमित्येवमादि । तथा, द्वादशभिक्षुप्रतिमा मासिक्याधा आ सप्तमासिक्याः सप्त, सप्तरात्रिक्यस्तिस्रः अहोरात्रिकी, एकरात्रिकी च । क्षान्तिः क्षमा शक्तस्याशक्तस्य वा सहनपरिणामः । सा च क्रोधनिमित्तस्यात्मनि भावाभावचिन्तनात् , क्रोधदोषचिन्तनात् , बालस्वभावचिन्तनात् , स्वकृतकर्मफलाभ्यागमचिन्तनात् , क्षमागुणनुप्रेक्षणाच्च । तत्र येन दोषेण मामाक्रोशति परः स दोषो मयि यद्यस्ति तदस्य सद्भूतमर्थ प्रकाशयतः कोऽपराधः । अथ नास्ति तर्हि मृषाऽसौ वदतीति भावाभावविचिन्तनात् क्षमितव्यमेव, यदाह आष्टेन मतिमता तत्त्वार्थविचारणे मतिः कार्या । यदि सत्यं कः कोपः स्यादनृतं किं नु कोपेन ॥१॥ __ क्रोधदोषचिन्तनादपि क्षमितव्यमेव । क्रुद्धस्य तावद् ध्रुवं कर्मबन्धः, ततः पराभिघातः, ततोऽप्यहिंसाव्रतलोपः, क्रुद्धस्य चापवदतः नृतव्रतलोपः, विस्मृतप्रव्रज्याप्रतिपत्तिश्चादत्तमपि गृह्णीयात् ततोऽस्तेयव्रतलोपः, द्वेषात् Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् चतुथ प्रकाश. ॥६३०॥ परपाखण्डिनीष्वब्रह्मासेवमानस्य ब्रह्मचर्यव्रतलोपः, प्रद्विष्टस्याविरतेषु गृहस्थेषु सहायबुद्धया मूर्छापि स्यादित्यपरिग्रहनतलोपः । उत्तरगुणभङ्गप्रसङ्गे तु का कथा ? । क्रद्धश्च गुरूनप्यासातदधिक्षिपेद् वा । इति क्रोधदोषचिन्तनम् । बालस्वभावचिन्तनाच्च क्षन्तव्यम् । बालोऽज्ञस्तत्स्वभावचिन्तनं पुनर्बालः कदाचित् परोक्षमाक्रोशति कदाचित् प्रत्यक्षम् । आक्रोशम्नपि कश्चित् ताडयति, कश्चिद् मारयति कश्चिद् धर्मभ्रंशमपि चिकीर्षति, तद् दिष्टया वर्धामहे मामेष परोक्षमाक्रोशति न प्रत्यक्षम, प्रत्यक्षं वाऽऽक्रोशति न ताडयति वा न मारयति, मारयति वा न धर्माद् भ्रंशयति, इत्युत्तरस्योत्तरस्याभावे लाभ एप ममेति मन्यते, यदाहु:__ अक्कोसहणणमारणधम्मभंसाण बालसुलहाण । लाभ मन्नइ धीरो जहोत्तराण अभावम्मि ॥१॥ इति बालस्वभावचिन्तनम् । स्वकृतकर्मफलाभ्यागमचिन्तनादपि क्षन्तव्यमेव । पूर्वकृतकर्मणां फलाभ्यागम एषः, फलभोगं तपो वा विना न निकाचितस्य कर्मणः क्षय इत्यवश्यभोक्तव्ये फले निमित्तमात्रमेव परः, यदाहः, सव्वो पुवकयाण कम्माण पावफलविवागो । अबराहेसु गुणेसु अ निमित्तमित्तं परो होइ ॥१॥ इति स्वकृतकर्मफलाभ्यागमचिन्तनम् । क्षणगुणानुप्रेक्षणाच्च क्षन्तव्यम्-अनायासः क्रोधनिमित्तप्रायश्चित्ता भावः, शुभध्यानाध्यवसायः, परसमाधानोत्पादनम् , स्तिमितप्रसन्नान्तरात्मत्वम् , प्रहरणसहायान्वेषणाभावः. असंरम्भः, प्रसन्नमुखता, धवलविलोचनता, अस्वेदता, निष्कम्पता परप्रहारवेदनाऽभाव इति क्षमागुणाः । इति (१) आक्रोशहननमारणधर्मभ्रंशानां बालसुलभानाम् । लाभ मन्यते धीरो यथोत्तराणामभावे ॥१॥ (२) सर्वः पूर्वकृतानां कर्मणां पापफलविपाकः । अपराधेषु गुणेषु च निमित्तमात्रं परो भवति ॥१॥ ॥६३०॥ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् चतुर्थ ॥६३१॥ प्रकाशः क्रोधविपक्षः क्षमाधर्मः। __ अथ मार्दवम्-मृदुरस्तब्धस्तस्य भावः कर्म वा मार्दवं नीचैवृत्तिरनुत्सेकश्च, तदुभयमपि मदनिग्रहाद् भवति । मदाश्च जातिमददायः पूर्वमुक्ताः । ततश्च जातिकुलरूपवललाभबुद्धिवाल्लभ्यकश्रुतमदान्धा क्लीबाः परत्र चेह च हितमप्यर्थ न पश्यन्तीत्यादिमददोषपरिहारहेतुर्मानप्रतिपक्षो मार्दवम् । अथ ऋजुता-ऋजुरवक्रमनोवाक्कायकर्मा तस्य भावः कर्म वा ऋजुता मनोवाक्कायविक्रियाविरह इत्यर्थः, मायारहितत्वमिति यावत् । मायावी हि सर्वातिसन्धानपरतया सर्वाभिशङ्कनीयो भवति; यदाह मायाशील: पुरुषो यद्यपि न करोति कश्चिदपराधम् । सर्प इवाविश्वास्यो भवति तथा ह्या (प्या) त्मदोषहतः॥१॥ इति मायाप्रतिपक्षभूता ऋजुता । अथ मुक्तिः-सा च बाह्याभ्यन्तरवस्तुपु तृष्णाविच्छेदरूपा लोभाभाव इत्यर्थः । लोभाभिभूतो हि क्रोधमान-माया हिंसा-ऽनृत-स्तेया--ऽब्रह्म-परिग्रहदोषजालेनोपचीयते, यदाह सर्वविनाशाश्रयिणः सर्वव्यसनैकराजमार्गस्य । लोभस्य को मुखगतः क्षणमपि दुःखान्तरमुपेयात् ! ॥१॥ इति लोभपरिहाररूपा निर्भयत्व-स्वपरहितात्मप्रवृत्तिमत्त्व-ममत्वाभाव निस्सङ्गता-ऽपरद्रोहकत्वादिगुणयुक्ता रजोहरणादिकेष्वप्युपकरणेष्वनभिष्वङ्गस्वभावा मुक्तिः। इति दशविधो धर्मः । ननु संयम-सूनृत-शौच-ब्रह्मा-ऽकिचन तानां महाव्रतेषु, क्षमामार्दवावमुक्तीनां संवरप्रकरणे, तपसश्च संवर-निर्जराहेतुत्वेनोक्तत्वाद् धर्मप्रतिपादनप्रकरणे पुनरुक्तत्वमेव । उच्यते-नात्र संयमादीनां पुनर्भणनं प्रकृतम् , किन्तु संयमादिदशविधधर्मप्रतिपादनप्रका ३ ॥ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् चतुर्थ प्रकाश ॥६३२॥ रेण भगवतामहतां स्वाख्यातधर्मत्वानुप्रेक्षणमेव, इति धर्माणां गुणभावेन तदाख्यातॄणां भगवतामनुप्रेक्षानिमित्त स्तुतिरिति सर्व समञ्जसम् ॥९३॥ अथास्य धर्मस्य माहात्म्यमाहधर्मप्रभावतः कल्पद्रुमाद्या ददतीप्सितम् । गोचरेऽपि न ते यत्स्युरधर्माधिष्ठितात्मनाम् ॥१४॥ __कल्पद्रुमः कल्पवृक्षः, आदिशब्दाच्चिन्तामण्यादयः परिगृह्यन्ते, ते वनस्पतिरूपा उपलरूपाश्च धर्मवद्भयः सुषमादिकालभाविभ्योऽभीष्टफलदायिनो भवन्ति । ते एव धर्महीनानां दुःषमादिकालभाविनाम् , अस्तामभीष्टं न ददति, गोचरेऽपि न भवन्ति । अत्रार्थप्राप्तिः फलम् ॥९४॥ तथाअपारे व्योसनाम्भोधौ पतन्तं पाति देहिनम् । सदा सविधवाकबन्धुर्धर्मोऽतिवत्सलः ॥९५॥ स्पष्टः । अत्रानर्थपरिहारः फलम् ॥९५॥ तथा-- आप्लावयति नाम्भोधिराश्वासयति चाम्बुदः । यन्महीं स प्रभावोऽयं ध्रुवं धर्मस्य केवलः॥१६॥ अत्रानर्थपरिहारोऽर्थप्राप्तिश्च फलम् ॥९॥ इदानीं साधारणधर्मस्य साधारणं फलमाह न ज्वलत्यनलस्तिर्यग् यदुवं वोति नानिलः । अचिन्त्य महिमा तत्र धर्म एव निबन्धनम्॥९७॥ स्पष्टः । मिथ्यादृशोऽप्याहुः-अग्रे_ज्वलनम् , वायोस्तिर्यक पवनमदृष्टकारितम् इति ॥६७॥ तथा દ્રા Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥६३३॥ निरालम्बा निराधारा विश्वाधारो वसुन्धरा। यच्चावतिष्ठते तत्र धर्मादन्यद् न कारणम् ॥९॥ निरालम्बा आलम्बनस्य रज्ज्वादेरभावात् , निराधारा आधारस्य शेषकूर्मवराहदिक्कुञ्जरादेः प्रमाणानुपपन्नत्वेनाभावात् , विश्वस्य चराचरभेदस्य जगत अधारः, वसुन्धरा पृथ्वी यदवतिष्ठते, नाधः पतति, तत्र धर्मा दन्यद् न कारणम् , अन्वयव्यतिरेकाभ्यामन्यस्य कस्यचिदवस्थानहेतोरभावात् ॥९८॥ तथासूर्याचन्द्रमसावेतौ विश्वोपकृतिहेतवे । उदयेते जगत्यस्मिन् नूनं धर्मस्य शासनात् ॥९९॥ स्पष्टः ॥१९॥ अबन्धुनामसौ वन्धुरसरवीनामसौ सखा । अनाथानामसौ नाथो धर्मो विश्वैकवत्सलः ॥१०॥ ___ अबन्धूनां बन्धुरहितानामसौ धर्मो बन्धुः, बन्धुकार्यस्य विपदुत्तारणादेः करणात, असखीनां मित्ररहितानामसौ सखा प्रीत्युत्पादकत्वात् , अनाथानामस्वामिकानामसौ नाथः, योगक्षेमकारित्वात् , यदाह-योगक्षेमकृद नाथः इति । अत्र हेतुर्विश्वकवत्सल:-वत्सं लाति स्नेहेनादत्ते वत्सला गौस्तद्वत् सकलजगत्प्रीतिहेतुत्वाद धर्मोऽपि वत्सलः ॥१०॥ इदानीमनर्थनिवृत्तेः प्राकृतैरप्याकाक्ष्यमाणत्वाद् धर्मफलमाहरक्षोयक्षोरगव्याघ्रव्यालानलगरादयः । नापकर्तुमलं तेषां यैर्धर्मः शरणं श्रितः ॥१०१॥ स्पष्टः ॥१०१॥ इदानी प्रधानभूतामनर्थनिवृत्तिमर्थप्राप्ति च धर्मस्य फलमाह CATENEDARPAN ६३३॥ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशास्त्रम् चतुर्थ प्रकाशा ॥६३४॥ धर्मो नरकातालपातादवति देहिनः । धो निरुपमं यच्छत्यपि सर्वज्ञवैभवम् ॥१०२॥ ___ नरकपातरक्षणलक्षणा अनर्थनिवृत्तिः सर्वज्ञवैभवप्राप्तिप्रधानभूता धर्मस्य फलम् , शेषं त्वानुषङ्गिकमुक्तमिति । अत्रान्तर श्लोकाः अयं दशबिधो धर्मों मिथ्याग्भिन वीक्षितः । योऽपि कश्चित् कचित् प्रोक्षे सोऽपि वाङ्मात्रवर्णनम् ॥१॥ तत्त्वार्थों वाचि सर्वेषां केषाश्चन मनस्यपि । क्रिययापि नरीनति नित्यं जिनमतस्पृशाम् ॥२॥ वेदशास्त्रपराधीनबुद्धयः सूत्रकण्ठकाः । न लेशमपि जानन्ति धर्मरत्नस्य तत्त्वतः ॥३॥ गोमेधनरमेधाश्वमेधाद्यध्वरकारिणाम् । याज्ञिकानां कुतो धर्मः प्राणिघातविधायिनाम् ? ॥४॥ अश्रद्धेयमसद्भूतं परस्परविरोधि च । वस्तु प्रलपतां धर्मः कः पुराणविधायिनाम् ? ॥५॥ असद्भूतव्यवस्थाभिः पराद्रव्य जिघृक्षताम् । मृत्पानीयादिभिः शौचं स्मार्तादीनां कुतो ननु? ॥६॥ ऋतुकाले व्यतिक्रान्ते भ्रूणहत्याविधायिनाम् । ब्राह्मणानां कुतो ब्रह्म ब्रह्मचर्यापलापिनाम् ? ॥७॥ अदित्सतोऽपि सर्वस्वं यजमानाज्जिघृक्षताम् । अर्थार्थे त्यजतां प्राणान् काकिश्चन्यं द्विजन्मनाम् ? ॥८॥ दिवसे च रजन्यां च मुखामापृच्छय भक्षताम् । भक्ष्याभक्ष्याविवेकानां सौगतानां कुतस्तपः ? ॥९॥ मृद्वी शय्या प्रातः पेया मध्ये भक्तं सायं पानम् । द्राक्षाखण्डं रात्रेमध्ये शाक्योपज्ञः साधुर्धमः ॥१०॥ स्वल्पे-ष्वप्यपराधेषु क्षणात् शापं प्रयच्छताम् । लौकिकानामृषीणां न क्षमालेशोऽपि दृश्यते ॥११॥ जात्यादिमददुर्वृत्तपरिनर्तितचेतसाम् । क मार्दवं द्विजातीनां चतुराश्रमवर्तिनाम् ॥१२॥ दम्भसंरम्भगर्भाणां बकवृत्तिजुषां बहिः । भवेदार्जवलेशोऽपि पाखण्डवतिनां कथम् ? ॥१३।। गृहिणीगृहपुत्रादिपरिग्रहवतां सदा । द्विजन्मनां कथं मुक्ति ॥६३४॥ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥६३५॥ लोभैककुलवेश्मनाम् ? ॥१४॥ अरक्तद्विष्टमूढानां केवलज्ञानशालिनाम् । ततो भगवतामेषा धर्मस्वाख्याततार्हताम् ॥१५॥ रागाद् द्वेषात् तथा मोहाद् भवेद् वितथवादिता । तदभावे कथं नामाईतां वितथवादिता ? ॥१६॥ ये तु रागादिभिर्दोषैः कलषीकृतचेतसः । न तेषां सूनृता वाचः प्रसरन्ति कदाचन ॥१७॥ तथाहि यागहोमादि कर्माणीष्टानि कुर्वताम् । वापीकूपतडागादीन्यपि पूर्तान्यनेकशः ॥१८॥ पशूपघाततः स्वर्गलोकसौख्यं विमार्गताम् । द्विजेभ्यो भोजनैर्द तैः पितृप्ति चिकीर्षताम् ॥१९॥ घृतयोन्यादिकरणैः प्रायश्चित्तविधायिनाम् । पश्चस्वा पत्सु नारीणां पुनरुद्वाहकारिणाम् ॥२०॥ अपत्यासम्भवे स्त्रीषु क्षेत्रजापत्यवादिनाम् । सदोषाणामपि स्त्रीणां रजसा शुद्धिवादिनाम् ॥२१॥ श्रेयोबुद्धयाऽध्वरहतच्छागशिश्नोपजीविनाम् । सौत्रामण्यासप्ततन्तौ सीधुपानविधायिनाम् ॥२२॥ गूथाशिनीनां च गवां स्पर्शतः पूतमानिनाम् । जलादिस्नानमात्रेण पापशुद्धयभिधायिनाम ॥२३॥ वटाश्वत्थामलक्यादिद्रुमपूजाविधायिनाम् । वह्नौ हुतेन हव्येन देवप्रीणनमानिनाम् ॥२४॥ भुवि गोदोहकरणाद् रिष्टशान्तिकमानिनाम् । योषिद्विडम्बनाप्रायव्रतधर्मोपदेशिनाम् ॥२५॥ तथा-जटापटलभस्माङ्गरागकौपीनधारिणाम् । अर्कघत्तरमालूरैर्देवपूजाविधायिनाम् ॥२६।। कुर्वतां गीतनृत्यादि पुतौ वादयतां मुहः । मुहुर्वदननादेनातोधनादविधायिनाम् ॥२७॥ असत्यभाषापूर्व च मुनीन् देवान् जनान् नताम् । विधाय व्रतभङ्गं च दासीदासत्वमिच्छताम् ॥२८॥ गृहणतां मुञ्चतां भूयो भूयः पाशुपतं व्रतम् । भेषजादिप्रयोगेण यूकालिक्ष प्रणिध्नताम् ॥२९॥ नरास्थिभूषणभृतां शूलखट्वाङ्गवाहिनाम् । कपालभाजनभुजां घण्टानूपुरधारिणाम ॥३०॥ मद्यमांसाङ्गनाभोगप्रसक्तानां निरन्तरम् । पुतानुबघण्टानां गायतां नृत्यतां मुहुः ॥३१॥ ॥६३५॥ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥६३६॥ KOTHORE THE=5040 तथा- अनन्तकायकन्दादिफलमूलदलाशिनाम् । कलत्रपुत्रयुक्तानां वनवासजुषामपि ||३२|| भक्ष्याभक्ष्ये पेयापेये गम्यागम्ये समात्मनाम् । योगिनाम्ना प्रसिद्धानां कौलाचार्यान्तवासिनाम् ||३३|| अन्येषामपि जैनेन्द्रशासनास्पृष्टचेतसाम् । क धर्मः क फलं तस्य तस्य स्वाख्यातता कथम् १ ||३४|| जिनेन्द्रस्यापि धर्मस्य यदत्रामुत्र वा फलम् | अनुषङ्गिकमेवेदं मुख्यं मोक्षं प्रचक्षते ॥ ३५ ॥ सस्यतौ कृषौ यद्वत् पलालाद्यानुषङ्गिकम् । अपवर्गफले धर्मे तद्वत् सांसारिकं फलम् ||३६|| स्वाख्याततामिति जिनाधिपतिप्रणीतधर्माश्रितामसकृदेव विभावयन्तः । मुक्ता ममत्वविषवेगविकारदोषैः, साम्यं प्रकर्षपदवीं परमां नयन्ति ||३७|| धर्मस्वाख्यातता भावना १० ॥ १०२ ॥ तथा अथ लोकभावनामाह - कटिस्थकरवैशाखस्थानकस्थनराकृतिम् । द्रव्यः पूर्ण स्मरेल्लोकं स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकैः ॥ १०३ कटिः श्रोणिस्तत्र तिष्ठत इति कटिस्थौ करौ यस्यासौ कटिस्थकरः, वैशाखं प्रसारितापादं तच्च तत् स्थानकं च तत्र तिष्ठति तत्स्थः, स चासौ नरश्च तद्वदाकृतिर्यस्य तं लोकमाकाशक्षेत्रं चतुर्दशरज्जुप्रमाणं स्मरेदनुप्रेक्षेत । किंविशिष्टम् ? द्रव्यैर्धर्माधर्मकालजीवपुद्गलैः पूर्णम्, किंविशिष्टैर्द्रव्यैः ? स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकैः स्थितिर्धौव्यम्, उत्पत्तिरुत्पादः, व्ययो विनाशस्ते आत्मानः स्वरूपं येषां तानि तथा । सर्वमपि हि वस्तु स्थित्युत्पादव्ययात्मकम् चतुर्थ प्रकाशः ||६३६॥ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥६३७|| यदाहः, – “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् " आकाशादयोऽपि हि नित्यानित्यत्वेन प्रसिद्धाः प्रतिक्षणं तेन तेन पर्यायेणोत्पद्यन्ते च विपद्यन्ते च । प्रदीपादयोऽप्युत्पादविनाशयोगिनोऽवतिष्ठन्ते, न पुनरैकान्तिकस्थितियोगि उत्पादविनाशयोगि वा किञ्चिदस्ति यदवोचामः, - आदीपमाव्योमसमभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्य - दिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ||१|| इति ॥ १०३॥ लोकस्वरूपमेवाह— लोको जगत्त्रयाकीर्णे भुवः सप्तात्र वेष्टिताः । घनाम्भोधिमहावाततनुवातैर्महाबलैः ॥ १०४ ॥ लोक उक्तस्वरूपो जगतां लोकदेशानां त्रयेणाधस्तिर्यगूर्ध्व रूपेणाकीर्णो व्याप्तः, वदन्ति हि 'अधोलोकः, तिर्यग्लोकः ऊर्ध्वलोकः, इति । तत्र लोके सप्तसंख्या भुवः पृथिव्यो रत्नप्रभा – शर्कराप्रभा – वालुकाप्रभा - धूमप्रभा - तमः प्रभा -- महातमः प्रभा यथार्थाभिधानाः, अनादिकालप्रसिद्धाऽनन्वर्थसंज्ञाथ, तद्यथा घर्मा, वंशा, शैला अञ्जना अरिष्टा, माघव्या, माघवी च । ततश्च प्रत्येकं रत्नाप्रभाया अधोऽधः पृथुतराः । तासु त्रिंशत्, पञ्चविंशतिः, पञ्चदश दश, त्रीण्येकं पञ्चानं नरकावासशतसहस्र, पञ्चैव नारकावासा यथाक्रमम् । ताश्च वेष्टिता परिवृता अधः पार्श्वतश्च । कैः ? घनो निविडो न तु द्रवो योऽसावम्भोधिः, महांश्चासौ वातश्च महावातो घनवातः, तनुश्वासौ वातश्च तनुवातः तैः । किं विशिष्टैः ? महाबलैः पृथ्वीधारणसमर्थैः । चतुर्थ प्रकाशः ॥६३७॥ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाशः u૬૮ तत्र सर्वासां पृथिवीनामधो घनोदधयः मध्योत्सेधे विंशतियोजनसहस्राणि, महावाताः उत्सेधे घनोदधितोड संख्यानि योजनसहखाणि, तनुवाताश्च महाबातेभ्योऽसंख्यानि योजनसहखाणि ततोऽप्यसंख्येयानि योजनसहरसाण्याकाशम् । एतच्च मध्ये उत्सेधमानम् । ततः परं क्रमेण हीयमानं प्रान्ते वलयतुल्यमानमिति । घनोदधिवलय विष्कम्भमान रत्नप्रभायाः षड़योजनानि, घनवातवलयविष्कम्भमानमर्धपञ्चमयोजनानि, तनुवातवलयविष्कम्भमानं साधं योजनम् । रत्नप्रभावलयमानादुपरि योजनविभागो घनोदधौ, घनवाते गव्यूतम्, तनुवाते च गव्यूतत्रिभागो वर्तते । एतच्छर्कराप्रभायां वलयमानम् । एवं शर्कराप्रभावलयमानादुपर्ययमेव प्रक्षेपः। एवं पूर्वपूर्ववलयमानादुपर्ययमेव प्रक्षेपः सप्तमपृथिवीं यावत् , यदाहातिभागो गाउयं चेव तिभागो गाउयस्स य । आइधुवे पक्खेवो अहो अहो जाव सत्तमिआ ॥१॥ प्रक्षेपे सति वलयविष्कम्भमानमाभ्यो गाथाभ्योऽवसेयम् , तद्यथाछस्सतिभाग पउणा य पंच वलयाण जोअणपरिमाणं । एगं बारसभागा सत्त कमा बीयपुढबीए ॥१॥ जोअणसत्ततिभागोण पंच एगं च वलयपरिमाणं । बारसभागा अट्ठ उ तइयाइ जहक्कम नेयं ॥२॥ (१) त्रिभागो गव्यूतं चैव त्रिभागो गव्यूतस्य च । आदिध्रुवे प्रक्षेपोऽधोऽधो यावत् सप्तमीम् ॥१॥ (२) पट्कत्रिभागःप्रन्नाश्च पञ्च वलयानां योजनपरिमाणम् । एकं द्वादशभागाः सप्त क्रमेण द्वितीयपृथिव्याम्॥१॥ योजनसप्तत्रिभागोनं पञ्चैकं च वलयपरिमाणम् । द्वादशभागा अष्ट तु तृतीयायां यथाक्रमं ने (ज्ञे) यम् ॥२॥ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥६३९॥ सत्त सवाया पंच उ पउणा दो जोअणा चउत्थीए । घणउअहिमाइयाणं वलयाणं माणमेयं तु ||३|| सतिभागसच तह अछह वलयाण माणमेयं तु । जोअणमेगं बारसभागा दस पंचमीए तहा ॥४॥ अहं तिभागोणाई पउणाइ छच्च वलयमाणं तु । छट्टीए जोअणं तहा बारसभागा य एकारा ॥५॥ अ य छचि यदुच्चिय घणोअहीमाइआण माणं तु । सत्तममहीए नेयं जहासंखेण तिन्हं पि ॥६॥ एतानि च वलयानि पृथिव्याधारभूतघनोदध्यादिभ्यः पृथ्वीपर्यन्तपरिधि प्रान्तेषु वलयाकारतया एतावद्विष्कम्भाणि पृथिव्युत्सेधसमोत्सेधानि च ॥ १०४॥ पुनर्लोकस्वरूपमाह वेत्रासनसमोऽधस्तान्मध्यतो झल्लरीनिभः । अग्रे मुरजसङ्काशो लोकः स्यादेवमाकृतिः ॥ १०५ ॥ अधस्तादधोभागे वेत्रासनमधस्ताद् विस्तीर्णमुपर्युपरिसङ्कोचवत् तत्समस्ततदाकारः, मध्यतो मध्ये झल्लुरी वाद्यविशेषस्तत्सदृशः, अग्रे मध्यलोकादुपरि मुरजा ऊर्ध्वमधश्च संकुचितो मध्यभागे विस्तृतो वाद्यविशेषस्तत्सदृशः । (१) सप्त सपादाः पश्च तु प्रन्ने द्वे योजने चतुर्थ्यां म् । घनोदध्यादिकानां वलयानां मानमेतत् ||३|| सत्रिभागसप्त तथा अर्धषष्ठं वलयानां मानमेतत्तु | योजनमेकं द्वादशभागा दश पञ्चम्यां तथा ॥४॥ अष्ट त्रिभागोनानि प्रन्नानि षट् च वलयमानं तु । षष्ट्यां योजनं तथा द्वादशभागचैकादश ॥५॥ अष्टच पट् चैव द्वौ चैव घनोदध्यादिकानां मानं तु । सप्तममयां ने (ज्ञे) यं यथासंख्येन त्रयाणामपि ॥ ६ ॥ ॥६३९॥ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग चतुर्थ शास्त्रम् प्रकाशा ६४०॥ एवमधोमध्योर्वेषु आकारत्रययोगी लोकः, यदाहुः-- तत्राधोमुखमल्लकसंस्थानं वर्णयन्त्यधोलोकम् । स्थालमिव च तिर्यग्लोकमूर्ध्वमथ मल्लकसमुद्गम् ॥१॥ इह चाधस्तियगूज़लोका रुचकापेक्षया । रुचकश्च मेरुमध्यगोस्तनाकारचतुराकाशप्रदेशप्रमाणोऽधः, तादृश एवोर्ध्वम् , एवमष्टप्रदेशः, यदाहु: अहपएसो रुअगो तिरियलोगस्स मज्झयारम्मि । एस पहवो दिसाणं एसेव भवे अणुदिसाणं ॥१॥ तत्र रुचकादध उपरि च नव नव योजनशतानि तिर्यग्लोक इत्युत्सेधेऽष्टादशयोजनशतप्रमाणः, तिर्यग्लोकादधो नवयोजनशतोनसप्तरज्जुप्रमाणोऽधोलोकः । तत्र सप्त पृथिव्य उक्तरूपाः। तत्र रत्नप्रभायां पृथिव्यामशीतिसहस्राधिकयोजनलक्षबाहल्यायामुपर्यधश्च योजनसहखं मुक्त्वा मध्येऽष्टसप्ततिसहस्राधिके योजनलक्षे भवनपतीनां भवनानि । ते चासुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निर्वातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः। ते च चूडामणिफणिवज्रगरुडघटाश्ववर्धमानमकरसिंहहस्तिचिह्नाः । तत्र भवनपतयो दक्षिणोत्तरदिग्व्यवस्थिताः । तत्रासुरकुमाराणां द्वाविन्द्रौ चमरो बलिश्च । नागकुमाराणां धरणो भूतानन्दश्च । विद्युत्कुमाराणां हरिहरिसहश्च । सुपर्णकुमाराणां वेणुदेवो वेणुदा लिश्च । अग्निकुमाराणामग्निशिखोऽग्निमाणवश्च । वातकुमाराणां वेलम्बः प्रभजनश्च । स्तनितकुमाराणां सुघोषो महाघोषश्च । उदधिकुमाराणां जलकान्तो जलप्रभश्च । द्वीपकुमाराणां पूर्णों वशिष्ठश्च । दिक्कुमाराणाममितो मितवाहनश्च । अस्यामेव रत्नप्रभायामुपरितनयोजनसहखस्याध उपरि च योजनशतं मुक्त्वा मध्येऽष्टासु योजनशतेष्वष्ट (१) अष्टप्रदेशो रुचकस्तिर्यग्लोकस्य मध्यकारे । एष प्रभवो दिशानामेष एव भवेदनुदिशानाम् ॥१॥ ॥६४०॥ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् चतुर्थ प्रकाशा ॥६४१॥ विधानां पिशाचभूतयक्षराक्षसकिन्नरकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वाणां कदम्बवृक्षमुलसवृक्षवटवृक्षखट्वाङ्गाशोकवृक्षचम्पकवृक्षनागवृक्षतुम्वरुवृक्षचिहानां तिर्यग्लोकवासिनां व्यन्तराणां नगराणि । तेष्वपि दक्षिणोत्तरदिग्व्यवस्थितेषु द्वौ द्वाविन्द्रौ । तत्र पिशाचानामिन्द्रौ कालो महाकालश्च । भूतानां सुरूपः प्रतिरूपश्च । यक्षाणां पूर्णभद्रो माणिभद्रश्च । राक्षसानां भीमो महाभीमश्च । किन्नराणां किन्नरः किंपुरुषश्च । किंपुरुषाणां सत्पुरुषो महापुरुषश्च । महोरगाणामतिकायो महाकायश्च । गन्धर्वाणां गीतरतिगीतयशाश्च । रत्नप्रभायामेव प्रथमस्य शतस्याध उपरि च दश दश योजनानि मुक्त्वा मध्येऽशीतौ योजनेषु अणपन्निवपणपग्निप्रभृतयस्तथैव दक्षिणोत्तरव्यवस्थिता अष्टौ व्यन्तरनिकायाः, तथैव द्वौ द्वाविन्द्रौ । ___ तथा रत्नप्रभायाः पृथिव्याः समतलादुपरि सप्तसु नवत्यधिकेषु योजनशतेषु ज्योतिषामधस्तलप्रदेशः तदुपरि दशयोजनेषु सूर्यः, तदुपर्यशीतियोजनेषु चन्द्रः, तदुपरि विंशतियोजनेषु तारा ग्रहाश्च । एवमयं ज्योतिर्लोको दशोत्तरं योजनशतं बाहल्येन । एकादशभिर्योजनशतैरेकविंशत्युत्तरैर्जम्बूद्वीपकमेरुमस्पृशन् सर्वासु दिक्षु मण्डलिकया व्यवस्थितं ज्योतिश्चक्रं ध्रुववजे भ्राम्यति, लोकान्तं च एकादशभिर्योजनशतैरेकादशोत्तरैरस्पृशन् मण्ड लिकया तिष्ठति, यदाह, एक्कारसेकवीसा सयमेक्काराहिआ य एक्कारा । मेरु अलोगा बाहं जोइसचकं चरइ ठाइ ॥१॥ अत्र सर्वोपरि किल स्वातिनक्षत्रम् , सर्वेषामधो भरणिनक्षत्रम् , सर्वदक्षिणो मूलः, सर्वोत्तरश्चाभीचिः । तत्र (१) एकादशैकविंशतिः शतान्येक दशाधिकाश्चैकादश । मेरु--अलोकाभ्यां बहिज्योतिश्चक्रं चरति तिष्ठति ॥१॥ कादशभियोजनशतैरेकविंशत्यनतारा ग्रहाश्च । एवमयं से लकया व्यवस्थितं ज्योति ॥६४१॥ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् प्रकाशः ६४२॥ जम्बूद्वीपे द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूयौं । लवणसमुद्रे चत्वारश्चन्द्राः सूर्याश्च । धातकीखण्डे द्वादश चन्द्राः सूर्याश्च । कालोदे द्विचत्वारिंशच्चन्द्रा सूर्याश्च । पुष्करवरार्धे द्वासप्ततिश्चन्द्राः सूर्याश्च । इत्येवं मनुष्यलोके द्वात्रिंशं चन्द्रशतं सूर्यशतं च भवति । अष्टाशीतिहाः अष्टविंशतिनक्षत्राणि, षट्षष्टिः सहस्राणि नव शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि तारकाकोटिकोटीनामेकैकस्य चन्द्रमसः परिग्रहः । तत्र एकपष्टिभागीकृतस्य योजनस्य पट्पञ्चाशद्भागा आयामविष्कम्भाभ्यां चन्द्रविमानं, अष्टचत्वारिंशत् (भागाः) सूर्यविमानं, ग्रहाणामधयोजनं, नक्षत्राणां गव्यूतं, आयुषा सर्वोत्कृष्टायास्ताराया अर्धक्रोशः, सर्वजघन्यायाः पञ्च धनु शतानि, बाहल्यं तु सर्वेषामायामार्थेन । एते च पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनप्रमिते मनुष्यक्षेत्रे भवन्ति । चन्द्रादिविमानवाहनानि च पुरतः सिंहाः, दक्षिणतो गजाः अपरतो वृषभाः, उत्तरतोऽश्वाः। ते चाभियोगिका देवाश्चन्द्रसूर्ययोः पोडश सहखाणि, ग्रहाणामष्टौ, नक्षत्राणां चत्वारि, तारकाणां द्वे, स्वरसप्रवृत्तगतीनामपि चन्द्रादीनामाभियोग्यकर्मवशात्तत्रोपतिष्ठन्ति । मानुषोत्तरात् परतः पञ्चाशता योजनसहखैः परस्परमन्तरिताः सूर्यान्तरिताश्चन्द्राः चन्द्रान्तरिताः सूर्याः मनुष्यक्षेत्रीयचन्द्रसूर्यप्रमाणादधप्रमाणा यथोत्तरं क्षेत्रपरिधिवृद्धया संख्यया वर्धमानाः शुभलेश्या ग्रहनक्षत्रतारापरिवारा घण्टाकारा असंख्येया आ स्वयंभूरमणल्लक्षयोजनान्तरिताभिः पङ्क्तिभिस्तिष्ठन्ति । मध्यलोके तु जम्बूद्वीपलवणादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्रा असङ्ख्याता द्विगुणद्विगुणविस्ताराः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः । अन्त्यः स्वयंभूरमणः समुद्रः ॥ जम्बूद्वीपमध्ये मेरुः काञ्चनस्थालमिव वृत्तो योजनसहस्रमधो धरणितलमवगाढो, नवनवतियोजनसहसोच्छितो दश योजनसहस्राणि सातिरेकनवत्यधिकानि कन्दे विस्तृतो, धरणितले दश योजनसहखाणि विस्तृतः, उपरि ॥६४२॥ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगपास्त्रम् प्रकाशा ॥६४३॥ योजनसहसं विस्तृतः, त्रिकाण्डः, त्रिलोकप्रविभक्त मूर्तिः, चतुभिर्वनैर्भद्रशालनन्दनसौमनसपाण्डकैः परिवृतः । तत्र शुद्धपृथिव्युपलबजशर्कराबहुलं योजनसहस्रमेकं प्रथम काण्डं, द्वितीयं त्रिषष्टियोंजनसहखाणि रजतजातरूपा स्फटिकबहुलं, तृतीयं पत्रिंशद्योजनसहखाणि जाम्बूनदबहुलं वैडूर्यबहुलाऽस्य चूलिका चत्वारिंशद्योजनानि उच्छ्रायेण, मूले द्वादश विष्कम्भेण, मध्येऽष्टौ, उपरि चत्वारीति । मेरोमूलभूमौ वलयाकृति भद्रशालवनं । भद्रशालवनात् पञ्चभ्यो योजनशतेभ्य ऊर्ध्व पञ्चयोजनशतविस्तारं मेखलायां वलयाकृति नन्दनवनं, ततः सार्धद्विषष्टियोजनसहखेभ्य ऊर्ध्व द्वितीयमेखलायां पश्चयोजनशतविस्तारं वलयाकृति सौमनसं वनं ततोऽपि पत्रिंशयोजनसहस्त्रेभ्य ऊर्ध्वं तृतीयमेखलायां चतुर्नवत्यधिकचतुर्योंजनशतविस्तारं वलयाकृति मेरोः शिरसि पाण्डकवनम् ॥ तत्र जम्बूद्वीपे सप्त वर्षाणि । तत्र दक्षिणतो भरतक्षेत्रं, तदुत्तरतो हैमवतं, ततोऽपि हरिवर्ष, ततोऽपि विदेहाः, ततोऽपि रम्यकक्षेत्रं, ततोऽपि हैरण्यवतं, ततोऽप्यैरावतमिति । क्षेत्रविभागकारिणस्तु हिमवन्महाहिमवनिषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः, ते च यथाक्रमं हेमाणु उतपनीय रिजततपनीयमया मणिविचित्रपार्धा मृलोपरि तुल्यविस्ताराः । तत्र पञ्चविंशतियोजनान्यवगाढो योजनशतोच्छ्यो हिमवान् , तद्विगुणो महाहिमवान् तदद्विगुणो निषधः, तत्समो नीलः, महाहिमवत्समो रुक्मी, हिमवत्समः शिखरी। तदुपरि पद्ममहापद्मतिगिच्छिकेशरिमहापुण्डरीकपुण्डरीका हृदाः । योजनसहखायामस्तदर्धविस्तीर्णः प्रथमः, तद्विगुणद्विगुणायामविस्तारौ परौ उत्तरे पुण्डरीकादयो दक्षिणतुल्याः। सर्वेष्वपि च पद्मानि दशयोजनावगाहानि तन्निवासिन्यः क्रमेण श्रीहीधृतिकी (१) अधोलोके १०० । तिर्यग्लोके १८०० । ऊर्ध्वलोके ९८१०० ॥ तत्र जम्बूद्वीपे सप्त व ततोऽपि हैरण्यवत, तता मानु तपनीय ६४३ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥६४४॥ तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयः सामानिकपारिषद्यात्मरक्षानीकपरिवृताः । तत्र भरते गङ्गासिन्धु महानद्यौ, हैमवते रोहितांशारोहिते, हरिवर्षे हरिकान्ताहरिते, महाविदेहे शीताशीतोदे, रम्यके नारीनरकान्ते, हैरण्यवते सुवर्णकूलारूप्यकूले. ऐखते रक्तारतोदे । प्रथमाः पूर्वगाः, द्वितीयाः पश्चिमगाः तत्र चतुर्दश नदीसहखपरिवृते प्रत्येकं गङ्गासिन्धू । यथोत्तरं द्विगुणनदीपरिवृते द्वे द्वे नद्यौ शीताशीतोदाभ्यामर्वाक् तु प्रत्येक द्वात्रिंशत्सहखाधिकपञ्चलक्षनदीपरिवृते । उत्तारास्तु दक्षिणाभिस्तुल्याः । भक्षेत्र fassम्भतः पञ्च योजनशतानि षडविंशानि एकोनविंशतिभागीकृतस्य योजनस्य षड् भागाः, द्विगुणविष्कम्भा यथोत्तरं वर्षधरवर्षा विदेहान्ताः । उत्तरा दक्षिणतुल्याः । विदेहेषु निषधस्योत्तरतो मेरोर्दक्षिणतो विद्युत्प्रभसौमनसाभ्यां पश्चिमपूर्वाभ्यां निषधमेवान्तर्वर्तिभ्यां गजदन्ता कृतिभ्यां पर्वताभ्यामावृताः शीतोदानदीभिन्नहदपञ्चकोभयपार्श्वव्यवस्थितैर्दशभिः काञ्चनपर्वतैर्विराजिताः शीतोदानदीपूर्वापरकूलस्थिताभ्यां योजनउत्रोच्चाभ्यां तावदधोविस्तृताभ्यां तदर्थौपरिविस्तृताभ्यां च विचित्रकूटचित्रकूटा भ्यां शोभिताच देवकुरवः विष्कम्भेणैकादशयोजनसहखाणि अष्टौ शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि । मेरोरुत्तरतो नीलादक्षिणतो गन्धमादनमाल्यवत्पर्वताभ्यां गजदन्ताकृतिभ्यां मेरुनीलान्तरस्थाभ्यामावृताः शीतानदी विभिन्नहृदपञ्चकोभयपार्श्वस्थितकाञ्चनपर्वतशतेन शीतानद्युभयकूलस्थाभ्यां काञ्चनाभ्यां यमकपर्वताभ्यां विचित्रकूटचित्रकूटमानाभ्यां च विराजिता उत्तराः कुरवः । देवकुरूत्तरकुरुभ्यः पूर्वतः पूर्वविदेहाः, पश्चिमतोऽपरविदेहाः । पूर्वविदेहेषु चक्रवति विजेतव्या नदीपर्वतविभक्ताः चतुर्थ प्रकाशः in Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥६४५॥ परस्परमगम्याः पोडश विजयाः, एवमपरविदेहेष्वपि ॥ भरतक्षेत्रमध्ये च पूर्वापरायत उभयतः समुद्रमवगाढो दक्षिणोत्तरार्धविभागकारी तमिखाखण्डप्रपातागुहाद्वयो पशोभितः पड़ योजनानि सक्रोशानि धरणितलमवगाढः पञ्चाशद्योजनविस्तृतः पञ्चविंशतियोजनोच्छूितो वैतादचपर्वतः । अत्र च दक्षिणोत्तरपार्थाभ्यां भूमितो दशयोजनेभ्य ऊर्ध्व दशयोजनविस्तृते विद्याधरश्रेण्यौ । तत्र दक्षिणस्यां सजनपदानि पञ्चाशनगराणि, उत्तरस्यां तु षष्टिः । विद्याधरश्रेणिभ्यामूर्ध्वमुभयतो दशयोजनान्ते १व्यन्तरश्रेण्यौ, तयोय॑न्तरावासाः । व्यन्तरश्रेण्योरुपरि पञ्चसु योजनेषु नव कूटानि । वैताढयवक्तव्यता ऐरावतक्षेत्रेऽपि समाना वक्तव्या ॥ जम्बूद्वीपस्य च प्राकारभूता वज्रमयी अष्टयोजनोच्छ्राया जगती, द्वादश योजनान्यस्या मूले विष्कम्भः, मध्येऽष्टौ योजनानि, उपरि चत्वारि योजनानि, तदुपरि द्विगव्यूत्युच्छ्रायो जालकटको विद्याधरक्रीडास्थानम् । तस्याप्युपरि पद्मवरवेदिका देवभोगभूमिः । अस्याश्च जगत्याः पूर्वादिषु दिक्षु विजयवैजयन्तजयन्तापराजिताख्यानि चत्वारि द्वाराणि, हिमवन्महाहिमवतोरन्तरे शब्दापाती नाम वृत्तवैताढयपर्वतः । रुक्मिशिखरिणोर्मध्ये विकटापाती । महाहिमवनिषधयोरन्तरे गन्धापाती । नीलरुक्मिणोरन्तरे माल्यवान् । सर्वेऽपि योजनसहखोच्छ्रायाः पल्याकृतयः॥ तथा जम्बूद्वीपपरिक्षेपी तद्विगुणविस्तारो (मध्ये दशयोजनसटव) योजनसहखावगाढो मात्रया पञ्चनवति १ तिर्यग्जंभकानां. ॥६४५॥ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् શાકા योजनसहखाणि यावदुभयत उच्छ्रयेण (सप्तशतयोजन) प्रवर्धमानजलो मध्ये दशसहखविस्तारे षोडशयोजनसइस्रोच्छ्रयशिखरः तदुपरिकालद्वयेऽपि गव्यूतद्वितयं यावत् ह्रासवृद्धिमान् लवणोदः समुद्रः । तत्र मध्ये चतुर्दिश योजनलक्षप्रमाणाः १ प्राक्क्रमात् वडवामुखकेयूरपूपकईश्वराख्याः सहख (योजन ) वज्रमयकुडचा दशयोजनसहखाण्यत्रो मुखे च विस्तृताः कालमहाकालवेलम्बप्रभञ्जनसुरावासा वायुघृतत्रिभागजला २ महालिञ्जराकृतयः पातालकलशाः । क्षुल्लकाश्चान्ये साहखाः अधो मुखे च शत्याः, दशयोजनकुडयाः, वायूनामितमध्यमिश्रोपरिजलाः चतुरशीत्यधिकाष्टशतान्वितसप्तसहखसख्या: ( ७८८४ ) तथा द्विचत्वारिंशत्सहस्रसङ्ख्या (४२०००) नागकुमारा अन्तर्वेलाधारिणः, द्विसप्ततिसहखाणि ( ७२०००) बाह्यवेलाधारिणः, षष्टिसहस्राणि (६००००) शिखा - derधारिणः । गोस्तूपोदकाभासशङ्खोदकसीमानो वेलाधारीन्द्रगिरयः ३ कनकाङ्करजतस्फटिकमया गोस्तूपशिवकशङ्खमनःशिलावासाः द्विचत्वारिंशद्योजनसहखेषु४ दिश्याः एकविंशसप्तदशयोजनशतोच्चाः (१७२१) अधो द्वात्रिंशत्यधिकयोजनसहखविस्ताराः (१०२२ ) उपरि चतुर्विंशचतुःशतयोजनाः (४२४) तदुपरि प्रासादाः । कर्कोटककार्दमकैलासारुणप्रभा अणुवेलाधारीन्द्रगिरयः सर्वरत्नमयाः कर्कोटविद्युजिहकैलासारुणप्रभावासाः । तथा विदिक्षु द्वादशयोजनसहखेषु प्राच्या मिन्दुद्वीपों तावद्विस्तारायामौ तावत्परेण सवित्रोः । तथा गौतमद्वीपः सुस्थितावासस्तावति । तथा अन्तर्बाह्यलावणिकचन्द्रसूर्याणां (द्वीपाः) सर्वेषु च प्रासादाः, लवणो लवणरसः ॥ लवणोदधिपरिक्षेपी तद्विगुणो धातकीखण्डः । य एते मेरुवर्षधरवर्षादयो जम्बूद्वीपेऽभिहिता एते द्विगुणा (१) उच्चत्वे विस्तारे च । (२) महागर्ताकाराः उच्चत्वे विस्तारे च सहस्रम् । (३) वेलंधरपर्वताः (४) जम्बूद्वीपजगत्याः चतुर्थ प्रकाशः ॥६४६॥ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥६४७॥ धातकीखण्डे द्वाभ्यामिषुकारपर्वताभ्यां दक्षिणोत्तरायताभ्यां विभक्ताः, एभिरेव नामभिर्जम्बुद्वीपकसमसङ्ख्याः पूर्वार्धे चापराधे च चक्ररसंस्थिता ( जम्बूद्वीपसंबन्धि ) निषधादिसमोच्छ्रायाः कालोदधिलवणजलस्पर्शिनो वर्ष - धराः सेवाकारपर्वताः, अरधिवरसंस्थिताश्च वर्षा इति ॥ धातकीखण्ड परिक्षेपी अष्टयोजनलक्षविष्कम्भः कालोदः समुद्रः ॥ कालोदपरिक्षेपी तद्विगुणविस्तारः पुष्करवरद्वीपः तदर्धे यावन्मानुषं क्षेत्रं । यश्च धातकीखण्डे मेर्वादीनां सेष्वाकारपर्वतानां सङ्ख्या विषयनियमः स एव पुष्करार्धे वेदितव्यः, धातकीखण्डक्षेत्रादिविभागतो द्विगुणक्षेत्रादिविभागश्च । धातकीखण्ड पुष्करार्धयोश्च क्षुद्रमेरवश्चत्वारोऽपि महामेरोः पञ्चदशभिर्योजनसह खेहींनो च्छ्रायाः (८५०००) षभिर्योजनशतैर्धरणितले हीनविष्कम्भाः तेषां प्रथमं काण्डं महामेरुतुल्यं (१०००) द्वितीयं सप्तभिर्योजनसहस्रैर्हीनं (५६०००) तृतीयमष्टाभिः (२८००० ) भद्रशालनन्दनवने महामेरुवत् सार्धपञ्चपञ्चाशद्योजन सहखोपरि पञ्चयोजनशतविस्तृतं सौमनसं, ततोऽष्टाविंशतियोजनसहखोपरि चतुर्णवत्यधिकचतुर्योजनशतविस्तृतं पाण्डकवनम् उपरि चाधश्च विष्कम्भोऽवगाहश्च ( १००० - १०००० - १००० ) तुल्यो महामेरुणा, चूलिका चेति ॥ " तदेवं मानुषं क्षेत्रमर्धतृतीया द्वीपाः, समुद्रद्वयं पञ्च मेवः पञ्चत्रिंशत्क्षेत्राणि, त्रिंशद्वर्षधरपर्वताः, पञ्च देवकुरवः पञ्श्चोत्तराः कुरवः शतं षष्ट्यधिकं विजयानामिति ॥ ततः परं मानुषोत्तरो नाम पर्वतो मानुषलोकपरिक्षेपी महानगरप्राकारवृत्तः पुष्करवरद्वीपार्धविनिविष्टः काञ्च चतुर्थ प्रकाशः II૬૩૭૫ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् I[૬ઠ્ઠા नमयः सप्तदशयोजनशतान्येकविंशान्युच्छ्रितः चत्वारि योजनशतानि त्रिंशानि क्रोशं चाधो धरणितलमवगाढो, योजनसह द्वाविशमधास्ताद्विस्तृतः सप्त योजनशतानि त्रयोविशानि मध्ये चत्वारि योजनशतानि चतुर्विंशान्युपरीति । न कदाचिदस्मात्परतो मनुष्या जायन्ते वा म्रियन्ते वा । येऽपि चारणविद्याधरर्द्धिप्राप्ता मनुष्यास्तमुल्लङ्घ्य परतो गतास्तेऽपि तत्र न म्रियन्ते, अत एव मानुषोत्तर इत्युच्यते । न च तत्परतो बादराग्निमेघविद्युन्नदीकालपरिवेषादयः । मानुषोत्तरादर्वा पुनः पञ्चत्रिंशति क्षेत्रेषु सान्तरद्वीपेषु जन्मतो मनुष्या भवन्ति संहरण विद्यद्धियोगात् सर्वेष्वर्धतृतीयेषु द्वीपेषु समेर्वादिशिखरेषु समुद्रद्वये चेति ॥ भारतका हैमवतका इत्येवमादयः क्षेत्रविभागेन, जम्बूद्वीपका लवणका इत्यादयो द्वीपसमुद्रविभागेन मनुष्या इति । ते च द्विविधा आर्या म्लेच्छाच । तत्रार्याः सार्धपञ्चविशतिजनपदप्रभवाः । जनपदास्तु विशिष्टनगरोपल क्षिता इमे तद्यथा रायगिह मगह १ चंपा अंगा २ तह तामलित्ति वंगा ३ य । कंचणपुरं कलिगा ४ वाणारसी चैव कासी ५ अ ॥१॥ साकेय कोसला ६ गयपुरं च कुरु ७ सोरिअं कुसहाय ८ । कंपिल्लं पंचाला ९ अहिछत्ता जंगला १० चेव ॥२॥ (१) जंघाचारणविद्याचारणाः || १ राजगृहं मगधाः १ चंपा अङ्गा २ स्तथा तामलिप्तिर्वङ्गाय ३ । काञ्चनपुरं कलिङ्गा ४ वाणारसी चेव काशी ५ च ॥ १ ॥ साकेतं कोशला ६ गजपुरं च कुरवः ७ शौयं कुशार्ताश्च ८ काम्पील्यं पञ्चाला ९ अहिच्छत्रा जाङ्गलाश्चैव १० ||२|| चतुर्थ प्रकाशः ॥६४८॥ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाश ॥६४९॥ वारवई असुरहा ११ मिहिलविदेहा १२ अ वच्छ कोसंबी। नंदिपुरं संडिल्ला १४ भदिलपुरमेव मलया १५ य॥३॥ बइराड मच्छ १६ वरणा अच्छा १७ तह मत्तियावइ दसण्णा । १८ सुत्तीमई य चेदी १९ वीअभयं सिंधुसोवीरा २०॥४॥ls महुरा य सूरसेणा २१ पावा मंगा २२ अ मास पुरिवट्टा २३ । सावत्थी अ कुणाला २४ कोडीबरितं च लाढा २५ य॥५॥ सेयविया वि य नयरी केअयश्रद्धं २६ च आरिअं भणिअं । जत्थोप्पत्ति जिणाणं चक्कीणं रामकण्हाणं ॥६॥ शकयवनादयस्तु म्लेच्छाः । तद्यथा(२) सगजवणसबरबब्बरकायमुरुडुड्डगोणपक्कणया । अरवागहूणरोमसपारसखसकोसिया चेव ॥१॥ डुम्बिल अलउस बुक्कस भिल्लंध पुलिंद कुंच भमररुआ। कापोअ चीण चंचु अ मालव दविडा कुलत्था (क्खा)य केकय किराय हयमुह खरमुहगयतुरगमेंढपमुहा य । हयकण्णा गयकण्णा अण्णे वि अणारिआ बडवे ॥३॥ (१) द्वारबती च सुराष्ट्रा११ मिथिला विदेहाश्च१२ वत्साः कौशाम्बी१३ । नन्दीपुरं शांडिल्या १४ भद्दिलपुरमेव मलयाश्र१५ पर विराटः मत्स्या१६ वरुणा अच्छा:१७ तथा मृत्तिकावती दशार्णाः१८ शुक्तिमती च चेदयः१९ वीतभयं सिन्धुसौवीराः२० मथुरा च च शूरसेनाः२१ पापा मगाश्च २२ माषपुरी वर्ताः २३ । श्रावस्तिश्च कुणाला २४ कोटिवर्षे च लाढाश्च २५/09 श्वेतम्बिकाऽपि च नगरी कैकेया २६ चार्या भणिताः। यत्रोत्पत्तिजिनानां चक्रिणां रामकृष्णानाम् ॥६॥ (२) शकयवनशबरकायमुरुण्डोड्डगोणपक्वणकाः । आख्यानकहूणरोमशपारसखसकौशिकाश्चैव ॥१॥ दुम्बलिश्च लकुशबुक्कासभिल्लान्ध्रपुलिन्द्रक्रौंचभ्रमररुचयः । कापोतचीनचंचुकमालवद्रविडकुलार्था (ख्या) श्च कैकेयकिरातहयमुखखरमुखगजतुमिदप्रमुखाश्च । हयकर्णा गजकर्णा अन्येऽप्यनार्या बहवः ॥३॥ ॥६४९० Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ।।६५०॥ पावा य चंडकम्मा अणारिया निग्विणा निरणुतावा | धम्मो त्ति अक्खराई सुविणे वि न नञ्जए ताण ||४|| तथाsन्तरद्वीपजा अपि म्लेच्छाः । अन्तरद्वीपाश्च षट्पञ्चाशत् । तद्यथा - हिमवतः प्राग्भागे पश्चाद्भागे च विदिक्षु पूर्वोत्तरादिकासु चतसृषु त्रीणि योजनशतानि लवणजलधिमवगाह्य पूर्वोत्तरस्यां दिशि योजनशतत्रयायामविष्कम्भः प्रथमोऽन्तरद्वीपः एकोरुकाभिधानः स्थितः, स चैकोरुक पुरुषाणामधिवासः द्वीपनामतश्च पुरुषनामानि पुरुषास्तु सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दरा नैकोरुका एव, एवं शेषा अपि । दक्षिणपूर्वस्यां त्रीणि योजनशतानि लवणजलधिमवगाह्य योजनत्रिशतायामविष्कम्भ आभाषिक पुरुषाधिवासः प्रथम आभाषिकोऽन्तरद्वीपः । तथा दक्षिणापरस्यां त्रीणि योजनशतानि लवणजलधिमवगाह्य योजनत्रिशतायामविष्कम्भो लाङ्गूलिकमनुष्यावासो लाङगुलकाभिधानः प्रथमोऽन्तरद्वीपः । तथोत्तरापरस्यां त्रिणि योजनशतानि लवणजलधिमवगाह्य योजनत्रिशतायामविष्कम्भो वैषाणिक मनुष्यावासो वैशाणिकाभिधानः प्रथमोऽन्तरद्वीपः ॥ ततश्चत्वारि योजनशतान्यवगाह्य चतुर्योजनशतायामविष्कम्भा एवमेव हयकर्णानां गजकर्णानां गोकर्णानां शष्कुलिकर्णानां चत्वारोऽन्तरद्वीपाः । ततः पञ्च योजनशतान्यवगाह्य पञ्च योजनशतायामविष्कम्भा आदर्शमुखानां मेषमुखानां हयमुखानां गजमुखानामन्तरद्वीपाः । ततः षड् योजनशतान्यवगाह्य तावदायामविष्कम्भा अश्वमुखानां हस्तिमुखानां सिंहमुखानां व्याघ्रमुखाणामन्तरद्वीपाः ॥ ततः सप्त योजनशतान्यवगाह्य तावदायामविष्कम्भा अश्व - (१) पापाश्च चण्डकर्माणोऽनार्या निर्घृणा निरनुतापाः । धर्म इत्यक्षराणि स्वप्नेऽपि न ज्ञायन्ते तेषाम् ||४|| चतुर्थ प्रकाशः ॥६५०॥ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् प्रकाशा कर्णानां सिंहकर्णानां हस्तिकर्णानां कर्णप्रावरणानामन्तरद्वीपाः ॥ ततोऽष्टौ योजनशतान्यवगाह्य तावदायामविष्कम्भा उल्कामुखानां विद्युज्जिहानां मेष नुखाणां विद्युदन्तानामन्तरद्वीपाः ॥ ततो नव योजनशतान्यवगाह्य तावदायामविष्कम्भा घनदन्तानां गूढदन्तानां श्रेष्टदन्तानां शुद्धदन्तानामन्तरद्वीपाः॥ एतेषु च मनुष्या युग्मप्रसवाः पल्योपमासङ्ख्येयभागायुषोऽष्टधनुःशतोच्चा भवन्ति । तथैरावतक्षेत्रविभागकारिणः शिखरिणोऽपि पूर्वोत्तरादि विदिक्षु अमुनैव क्रमेण नामकलापेन चान्तरद्वीपकानामष्टाविंशतिर्भवति, मिलिताः षट्रपञ्चाशदन्तरद्वीपका भवन्ति ॥ __ मानुषोत्तरात्परतस्तु पुष्करवरद्वीपस्य द्वीतीयममध। पुष्करवरद्वीपात् परतस्तत्परिक्षेपी द्वीपद्विगुणविस्तारः पुष्करोदसमुद्रः । ततो वारुणिवरद्वीपसमुद्रौ, क्षीरवरद्वीपसमुद्रौ, घृतवरद्वीपसमुद्रौ, इक्षुवरद्वीपसमुद्रौ च भवतः । अष्टमो नन्दीश्वरद्वीपः स च चतुरशीतिलक्षोपेतत्रिषष्टिकोटयधिकयोजनकोटिशतप्रमाणवलयविष्कम्भो विविधविन्यासोद्यानवान् देवलोकप्रतिस्पर्धी जिनेन्द्रपूजाव्यापृतदेवसंपातातिरुचिरः स्वेच्छाविविधक्रियादेवसंभोगरम्यः। तत्र तस्य मध्यभागे चतुमषु दिक्षु चत्वारोऽञ्जनगिरयोऽञ्जनवर्णा बाह्यमेरुसमुच्छाया (८४००० योजन) दशयोजनसहखातिरिक्तविस्तारा मृले उपरि २साहसाः । ते च क्रम देवरमणनित्योद्योतस्वयंप्रभरमणीयनामानः । तेषु जिनायतनानि योजनशतायामानि तदर्धविस्ताराणि द्विसप्ततियोजनोच्चानि । तत्त्र षोडशयोजनोच्चानि अष्टयोजनविस्ताराणि अष्टयोजनप्रवेशानि देवासुरनागसुपणाख्यामरनिवासानि तन्नामानि च चत्वारि द्वाराणि, तन्मध्ये मणिपीठिकाः षोडशयोजनायामविस्तारा अष्टयोजनोत्सेधाः तदुपरि देवच्छन्दका साधिकायामोच्चकाः, तेष (१) भूमौ दशयोजनसहसविस्ताराः इत्यपि ज्ञेयम्. (२) सहखयोजनविस्तारा इत्यर्थः । ॥६५१॥ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 चतुर्थ योगशास्रम् प्रकाशः ६५२। प्रत्येकमृषभावर्धमानावारिषेणाचन्द्राननाभिख्यानां शाश्वतजिनप्रतिमानां पर्यङ्कनिषण्णानां स्वपरिवारवृतानामष्टोत्तर शतं । प्रतिप्रतिमं च द्वे नागप्रतिमे यक्षप्रतिमे भूतप्रतिमे कुण्डधरप्रतिमे चामरधरप्रतिमे च भवतः, पृष्ठतश्छत्रधरप्रतिमैका । तानि च दामघण्टाधूपघटिकाऽष्टमङ्गलकतोरणध्वजपुष्पचङ्गेरिकापटलच्छवासनादिमन्ति तपनीयरुचिररजोवालुकाप्रस्तृतानि षोडशपूर्णकलशादिभूषितानि आयतनमानमुखमण्डपप्रेक्षामण्डपाक्षवाटकमणिपीठिकास्तूपप्रतिमाचैत्यवृक्षेन्द्रध्वजपुष्करिणीक्रमरचनानि । ___ अञ्जनगिरीणां चतुसषु दिक्षु प्रत्येकं लक्षयोजनमानाः पुष्करिण्यः, तद्यथा-नन्दिषेणा, अमोघा. गोस्तूपा, सुदर्शना । नन्दोत्तरा. नन्दा, सुनन्दा, नन्दिवर्धना । भद्रा, विशाला, कुमुदा पुण्डरीकिणी । विजया, वैजयन्ती जयन्ती अपराजिता प्राक्क्रमाद्गण्याः । तासां च प्रत्येकं पञ्चयोजनशत्याः परतो लक्षयोजनायामानि पञ्चयोजनशतीपृथूनि अशोकसप्तच्छदचम्पकचूताभिधानान्युद्यानानि । वापीनां च मध्ये स्फाटिका दधिमुखा ललामवेदि कोद्यानादिलाञ्छनाश्चतुःपष्टियोजनसहस्रोच्चा योजनसहखमवगाढा दशयोजनसहखाधोविस्तृताः तावदुपरि, पल्या कृतयः । केचित्त पुष्करिणीनामन्तरे द्वौ द्वौ रतिक पर्वातावाहुः । ते च द्वात्रिंशद्भवन्ति । दधिमुखेषु रतिकरेषु चाञ्जनवदायतनानि । द्वीपविदिक्षु रतिकाराश्चत्वारो दशयोजनसहखायामविष्कम्भा योजनसहस्रोच्चाः सर्वरत्नमया झल्लाकृतयः । तत्र दक्षिणयोः शक्रस्य उत्तरयोरीशानस्य अष्टाष्टानां महादेवीनां योजनशतसहस्राबाधस्थाना दिक्षु जम्बूद्वीपसमाः प्रत्येकं जिनायतनभूषिता अष्टाष्ट राजधान्यः सुजाता सौमनसा अर्चिाली प्रभाकरा पद्या शिवा शुचिरञ्जना भूतावतंसा गोस्तूपा सुदर्शना अमला अप्सरा रोहिणी नवमी चेति । तथा रत्ना रत्नोच्चया सर्वरत्ना ॥६५२॥ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥६५३॥ रत्नसंचया वसुः वसुमित्रा वसुभागा वसुंधरा नन्दोत्तरा नन्दा उत्तरकुरु देवकुरु कृष्णा कृष्णराजिः रामा रामरक्षिता चेति प्राग्दक्षिणाक्रमात् तत्र देवाः सर्वसम्पदन्तः स (स्व) परिवारानुगताः पुण्यतिथिषु सुरासुराविद्याधरादिपूज्यानां जिनानामायतनेषु प्रमुदितमनसोऽष्टाहिकीपूजाः कुर्वन्ति । इह चाञ्जनेषु (४) दधिमुखेषु (१६) च विंशतिर्जिनायतनानि, रतिकरेषु द्वात्रिंशत् । एवं गिरिशिखरेषु द्विपञ्चाशत् राजधानीषु (च) द्वात्रिशज्जिनायतनानि केचित्तु षोडश मन्यन्ते । एतदर्थसंवादिन्यो गाथा: १ जण कोडि सय तिसह चउरासीलक्खवलय विक्खंभो । अहमदीबो नंदीसरोऽत्थि सइ विलसिर सुरोहो ॥ १ ॥ तत्थ मज्झे चउरो दिसासु अंजनगिरी गवलवना । जोयणसहस्स चुलसीह मूसिया सहसमवगाढा ||२|| भूमितले दससहसा (१००००) चउनउइ सया (९४००) य सहसमुवरितले (१०००) पिहुला अडवीसंसत्तिगं (३ / २८) दसंसोय खयबुड्ढी ||३|| पुवदिसि देवरमणो निचुजोओ अ दाहिणदिसाए । अवरदिसाए सयंपभ रमणिज्जो उत्तरे पासे ||४|| (१) योजनकोटिशतत्रिपष्टिचतुरशीतिलक्षवलयविष्कम्भः । अष्टमद्वीपो नन्दीश्वरोऽस्ति सदा विलसितसुरौघः ॥१॥ तत्र मध्ये चत्वारो दिक्षु अब्जनगिरयो गवल (महिषशृङ्ग) वर्णाः । योजनसखचतुरशीतिमुच्छ्रिताः सहखमवगाढाः || २ | भूमितले दशसहखाः चतुर्नवदिशतानि च (भूमौ ) सहखमुपरिदले । पृथुला अष्टाविशांशत्रिकं दशांशश्च क्षयवृद्धी ॥ ३ पूर्वदिशि देवरमणो नित्योद्योतश्च दक्षिणदिशि । अपरदिशि स्वयंप्रभो रमणीय उत्तरे पार्श्वे ||४|| XXX चतुर्थ प्रकाशः ॥६५३॥ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्व योगशास्रम् ६५४॥ अंजणयाण चउदिसि जोयणलक्खम्मि लक्खविखंभा । पुक्खरिणीउ सहस्सोवेहा निम्मच्छसच्छजला ॥५॥ नंदिसेणा १ अमोहा य २ गोत्थुभा य ३ सुदंसणा ४ । नंदुत्तरा १ य नंदा २ सुनंदा ३ नंदिवद्धणा ४॥६॥ भद्दा १ विसाला २ कुमुया बारसी पुंडरीगिणी ४ । विजया १ वैजयंती २ य जयंती ३ अपराजिआ ४॥७॥ पुन्वाइकमा नामा पुक्खरिणीणं तो अ पंचसए । गंतूण लक्खदीहा वणसंडा पंचसयपिहुला ||८|| पुन्वेण असोगवणं दक्खिणओ वा सत्तवनवणं । चंपकवणमवरेणुत्तरेण सव्वाण चूअवणं ॥९॥ पल्लसमा जोअणदससहस्सपिडुला सहस्समोगाढा । चउसहिसहरसुच्चा फलिहमया पुक्खरिणिमज्झे ॥१०॥ सोलस दहिमुहगिरिणो अंजणदहिमुहनगोवरितलेसु । जोयणसयदीह तयद्धवित्थडा दुगसयरिमुच्चा ॥११॥ (१) अब्जनकानां चतुर्दिक्षु योजनलक्षे लक्षविष्कम्भाः। पुष्करिण्यः सहसाधा निर्मत्स्यस्वच्छजलाः ॥५॥ नन्दिषेण १ अमोघा २ च गोस्तूपा ३ च सुदर्शना ४ । नन्दोत्तरा १ च नन्दा २ सुनन्दा ३ नन्दिवर्धना ४॥६ भद्रा १ विशाला २ कुमुदा ३ द्वादशी पुण्डरीकिणी ४ । विजया १ वैजयन्ती च २ जयन्ती ३ अपराजिता ४ ॥७॥ पूर्वादिक्रमात् नामानि पुष्करिणीनां ततश्च पञ्चशतम् । गत्वा लक्षदीर्घा वनखण्डाः पञ्चशतपृथुलाः ॥८॥ पूर्वेण अशोकवनं दक्षिणतो वा सप्तपर्णवनम् । चम्पकवनमपरेणोत्तरेण सर्वेषां चूतवनम् ॥९॥ पल्यसमा योजनदशसहखपृथुलाः सहस्त्रमवगाढाः। चतुःषष्टिसहस्रोच्चाः स्फटिकमयाः पुष्करिणीमध्ये ॥१०॥ षोडश दधिमुखगिरयः अजनदधिमुखनगोपरितलेषु । योजनशतदीर्घतदर्धविस्तृतानि द्वासप्ततिमुच्चानि ॥११॥ ॥६५४॥ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ।।६५५।। १बहुविविहरूवरूवगविचित्तविच्छित्तिभत्तिसयकलिया । पत्तेयं जिणभवणा तोरणझयमंगलाइजुआ ||१२|| देवासुरनागसुवण्णनामगा नामसमसुरारक्खा । दारा सोलहट्टच पिहुपवेसा य चउरेसु ॥ १३ ॥ परदारं कलसाईमुहमंडवपेच्छमंडवक्खाडा | मणिपीढधूभपडि माचि इतरुज्झय पुक्खरणिओ अ ||१४|| अच्च सोलसाययपिहुला मणिपीढिया जिणहरंतो । तदुवरि देवच्छंदा रयणमया साहियपमाणा ॥ १५॥ तत्थुसभवद्धमाणयचंदाणणवारिसेणनामाणं । सासयजिणपडिमाणं पलिअंकनिसष्णमयं ॥ १६ ॥ पपडिमं पुरो दो दो नागपडिमजक्खभूयकुंडधरा । दुहओ दो चमरधरा पिठ्ठे छत्तधरपडिमेगा || १७॥ तह घंटाचंदणघडभिंगाराय रिसयाइसुपरडा । पुप्फाइणेगचंगेरिपडलछत्तासणाइ इह || १८ || (१) बहुविविधरूपरूपकविचित्रविच्छित्तिभक्तिशतकलितानि । प्रत्येकं जिनभवनानि तोरणध्वजमङ्गलादियुतानि ॥ १२॥ देवासुरनागसुपर्णनामकानि नामसमसुरारक्ष्याणि । द्वाराणि षोडशाष्टाष्टोच्च पृथुप्रवेशानि च चतुर्षु (भवनेषु) प्रतिद्वारं कलशादिमुखमण्डप प्रेक्षामण्डपाक्षाटकाः । मणिपीठस्तूपप्रतिमाचैत्यतरुध्वजपुष्करिण्यश्व ||१४|| अष्टोच्चा षोडशायतपृथुला मणिपीठिका जिनगृहान्तः । तदुपरि देवच्छन्दा रत्नमयाः साधिकप्रमाणाः ॥१५॥ तत्र ऋषभवर्धमानकचन्द्राननवारिषेणनाम्नाम् । शाश्वतजिनप्रतिमानां पल्यङ्कनिषण्णमष्टशतम् (१०८) ॥ १६ ॥ प्रतिप्रतिमं पुरो द्वे द्वे नागप्रतिमायक्षभूतकुण्डधराः । उभयतो द्वे चामरधरे पृष्ठे छत्रवरप्रतिमैका ॥ १७॥ तथा घण्टा चन्दनघटभृङ्गारादर्शकादिसुप्रतिष्ठाः । पुष्पाद्यनेकचङ्गेरीपटलच्छत्रासनादि इह ||१८|| चतुर्थ प्रकाशः ।।६५५ ।। Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम ॥६५६॥ इह सत्तवतमास दुक्खरिणिअंतरे दो दो । रइकरगनगा बत्तीसमेसु पुब्वंव जिणभवणा ||१९|| वंदंतनमंसंत अभित्थुर्णतपूयंत इंतजंतेहि । खयरसुरेहि अरहिआ पुन्नतिहि महामहकरेहि ॥२०॥ तहा जोयणसहस्रुच्चा विक्खंभायामसमदाससहस्सा । झल्लरिनिभा रइकरा रयणमया विदिसि दीबंतो ॥ २१ ॥ तेसु चउन्ह दिसासु जोयणलक्खम्मि जंबुदीवसमा । अट्ठ रायहाणी सक्साणग्गमहिसीणं ॥ २२॥ विमलमणिसाळवल्याण ताण मज्झे पुढो जिणाययगा । जिणपडिमा पुव्वमिवेह अणुवमपरमरमणिज्जा ||२३|| इय वीसं बावनं च जिणहरे गिरिसिरे संधुणिमो | इंदाणिरायहाणिसु बत्तीसं सोलसं च वंदे ||२४|| नन्दीश्वरद्वीपपरिक्षेपी नन्दीश्वरः समुद्रः । ततः परमरुणो द्वीपः, अरूणोदः समुद्रः । ततोऽरुणवरो द्वीपः, अरुणवरः समुद्रः । ततोऽरुणाभासो द्वीपः, अरुणाभासः समुद्रः । ततः कुण्डलो द्वीपः कुण्डलोदः समुद्रः । ततो (१) इह सूत्रोक्तोदेशात् द्विपुष्करिण्यन्तरे द्वौ द्वौ । रतिकरकनगौ द्वात्रिंशत् एषु पूर्ववत् जिनभवनानि ॥ १९॥ वन्दमाननमस्यदभिस्तुवत्पूजयद्गच्छद्भिः । खचरसुरैः अरहिताः पुण्यतिथौ महामहकरैः ||२०|| तथा योजनसहखोच्चा] विष्कम्भायामसमदशसहखाः। झल्लरीनिभा रतिकरा रत्नमया विदिक्षु द्वीपस्य (दीप्यमानाः) तेषां चतुणी दिक्षु योजनलक्षे जम्बूद्वीपसमाः । अष्टाष्ट राजधान्यः शक्रेशानाग्रमहिषीणाम् ||२२|| विमलमणिशालवलयानां तासां मध्ये पृथक् जिनायतनानि । जिनप्रतिमाः पूर्ववदिह अनुपमपरमरमणीयाः ||२३ इति विंशति द्विपञ्चाशतं च जिनगृहाणि गिरिशिखरे षुसंस्तुवीमः । इन्द्राणीराजधानीषु द्वात्रिशतं षोडश वा वन्दे प्रकाशः ॥६५६॥ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥६५७॥ रुचको द्वीपः, रुचकः समुद्रः । एवं प्रशस्तनामानो द्विगुणमाना द्वीपसमुद्राः । अन्त्यः स्वयम्भूरमणः समुद्रः॥ एषां च मध्येऽर्धतृतीयद्वीपेषु भरतैरवतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः । कालोदपुष्करस्वयंभूरमणा उदकरसाः लवणोदो लवणरसः । वारूणोदश्चित्रपानवान् । क्षीरोदः खण्डादिमिश्रघृतचतुर्भागगोक्षीररसवान् । घृतोदः सुक्वथितसद्योविस्यन्दितगोघृतरसः । शेषाश्चतुर्जातकयुक्तत्रिभागच्छिन्नेक्षुरसबज्जलाः। लवणकालोदस्वयंभूरमणा बहुमत्स्यकच्छपाः, नेतरे ॥ तथा जम्बूद्वीपे जघन्येन चत्वारस्तीर्थकृतः चक्रवर्तिनो बलदेवा वासुदेवाश्च सदा भवन्ति । उत्कर्षेण चतुर्खि शजिनाः त्रिंशच क्षितीशाः (चक्रिणः) । धातकीखण्डे पुष्करार्धे च द्विगुणाः । तिर्यग्रलोकार्ध्व नवयोजनशतोनसप्तरज्जुप्रमाण ऊर्ध्वलोकः । तत्र सौधर्मेशानसनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकमहाशुक्रसहखारानतप्राणतारणाच्युता द्वादश कल्पाः । तदुपरि नव ग्रैवेयकाः । तदुपरि विजयवैजयन्तजयन्तापराजितानि विमानानि प्राक्क्रमात् , मध्ये सर्वार्थसिद्धम् । तदुपरि द्वादशसु योजनेषु पञ्चचत्वारिंशद्योजन लक्षायामविष्कम्भा ईषत्प्रग्भारा नाम पृथ्वी, सा सिद्धिशिला । ततोऽप्युपरि गव्यूतत्रयावं चतुर्थगव्युतषष्ठभागे आ लोकान्तात् सिद्धाः ॥ तत्र धरणितलात समभागात् सौधर्मशानौ यावत्सार्धरज्जुः । सनत्कुमारमाहेन्द्रौ यावत् सार्धं रज्जुद्वयं । सहस्रारं यावत् पञ्च रज्जवः । अच्युतं यावत् षट् रज्जवः । लोकान्तं यावत्सप्त रज्जवः ॥ सौधर्मेशानौ वृत्तौ चन्द्रमण्डलाकारौ । तत्र दक्षिणार्धे शक्र इन्द्रः, उत्तरार्धे ईशानः। सनत्कुमारमाहेन्द्रावप्येवं, ॥६५७॥ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ।।६५८।। तत्र दक्षिणार्थे सनत्कुमार उत्तरार्धे माहेन्द्रः । तत ऊर्ध्वलोकमध्यभागे लोक पुरुषकूर्परसमप्रदेशे ब्रह्मलोकः, तन्नामेन्द्रः तदेकदेशवासिनः सारस्वतादित्यवदन्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधमरुतारिष्टाख्या लोकान्तिका देवाः । ततोऽप्युपरि लान्तकः, तन्नामेन्द्रः । ततोऽप्युपरि महाशुक्रः, तन्नामेन्द्रः । ततोऽप्युपरि सहस्त्रारः तन्नामेन्द्रः । ततोऽप्युपरि सौधर्मेशानवच्चन्द्राकारावानतप्राणतौ कल्यो, तत्र प्राणतवासी तन्नामा तयोरेक इन्द्रः । ततोऽप्युपरि प्राग्वच्चन्द्राकारावारणाच्युतौ तत्राच्युत निवासी तनामा तयोरेक इन्द्रः । ततः परमहमिन्द्रा देवाः || तत्र प्रथम कल्प घनोदधिप्रतिष्ठानौं । तदुपरि त्रयो वायुप्रतिष्ठानाः । ततः परं त्रयो घनोदधिघनवातप्रतिष्ठानाः । तदुपर्याकाशप्रतिष्ठानाः । तेष्विन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिशत्परिषद्यात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिविषिका देवाः । तत्रेन्द्राः सामानिकादिभेदानां नवानामधिपतयः । इंद्रसमानाः सामानिका अमात्यपितृगुरूपाध्यायमहत्तरवत्केवलमिन्द्रत्वहीनाः १ त्रायस्त्रिशा मन्त्रिपुरोहितस्थानीयाः २ । पारिषद्या वयस्यस्थानीयाः ३ । आत्मरक्षा अङ्गरक्षस्थानीयाः ४ । लोकपाला आरक्षकार्थचरस्थानीयाः ५ । अनीकान्यनीकस्थानीयानि, तदधिपतयो दण्डनायक स्थानीया अप्यनीकानि ६ । प्रकीर्णकाः पौरजनपदस्थानीयाः ७ । आभियोग्या दासस्थानीयाः ८ । किल्विषिका अन्तस्य ( अन्त्यज) स्थानीयाः ९ । त्रायस्त्रिशल्लोकपालवर्जा व्यन्तरा ज्योतिष्काः ॥ सौधर्मे विमानानां द्वात्रिंशल्लक्षाः । ऐशानेऽष्टाविंशतिः । सनत्कुमारे द्वादश । माहेन्द्रेऽष्टौ । ब्रह्मलोके चत्वारः । लान्तके पञ्चाशत्सहखाणि । शुक्रे चत्वारिंशत्सहस्राणि । सहस्रारे पट् सहखाणि । आनतप्राणतयोश्चत्वारि शतानि । भरणाच्युतयोस्त्रीणि । प्रथमे ग्रैवेयकत्रिके एकादशोत्तरं शतं । मध्यमे त्रिके सप्तोत्तरं । उपरि त्रिके एकमेव शतं । Saras चतुर्थ प्रकाशः ॥६५८॥ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् चतुर्थ प्रकाशः ॥६५९॥ अनुत्तरविमानानि पञ्चैव इति । एवं विमानानां चतुरशीतिर्लक्षाः सप्तनवतिश्च सहखाणि त्रयोविंशानिति विजया- | दिषु चतुर्खनुत्तरविमानेषु द्विचरमा देवाः । सर्वार्थसिद्ध त्वेकचरमाः ॥ ___ एतेषु च सौधर्मादारभ्य सर्वार्थसिद्धं यावद्देवाः स्थित्या प्रभावेण सुखेन दीप्त्या लेश्यया विशुध्या इन्द्रियविषयेण अवधिज्ञानविषयेण च पूर्वपूर्वेभ्य उत्तरोत्तरेऽधिकाः, गत्या शरीरेण परिग्रहेणाभिमानेन च हीनहीनतराः। उच्छ्वासः सर्वजघन्यस्थितीनां भवनपत्यादीनां देवानां सप्तस्तोकान्ते आहारश्चतुर्थान्ते । पल्योपमस्थितीनामन्तर्दिवसस्योच्छ्वासः, दिवसपृथक्त्वतश्चाहारः। यस्य यावन्ति सागरोपमाणि (आयुषः) तस्य तावत्स्वर्धमासेषूच्छ्वासः, तावत्स्वेव वर्षसहस्रेष्वाहारः । देवाश्च सद्वेदनाः प्रायेण भवन्ति, यदि चासद्वेदना भवन्ति ततोऽन्तर्मुहर्तमेव, न परतः॥ उत्पत्तिर्देवीनामा ईशानात, गमनं च आ अच्युतात् । तापसानामा ज्योतिष्कादुत्पत्तिः। आ ब्रह्मलोकाच्चरकपरिव्राजकानां । पञ्चेन्द्रियतिरश्चामा सहस्रारात् । मनुष्यश्रावकाणामा अच्युतात् । मिथ्यादृष्टीनां प्रतिपन्नजिनलिङ्गानां यथोक्तसमाचारीपरिपालकानामा नवमवेयकात् । चतुर्दशपूर्वधराणां ब्रह्मलोकादूर्ध्वमा सर्वार्थसिद्धात् । अविराधितव्रतानां साधूनां श्रावकाणां च जघन्येन सौधर्मे ।। भवनवास्यादयो देवा आ ईशानात् कायप्रवीचाराः । ते हि संक्लिष्कर्माणो मनुष्यवन्मैथुनमुखमनुप्रलीयमानास्तीत्रानुशयाः कायसंक्लेशज सर्वाङ्गीणं स्पर्शमुखमवाप्य प्रीतिमुपलभन्ते इति । शेषाः स्पर्शरूपशब्दप्रवीचारा (१) चरमभविनः ॥ ॥६५९॥ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥६६०॥ द्वयोर्द्वयोः, चतुर्षु मनःप्रवीचाराः परेष्वप्रवीचाराः प्रवीचारवद्भयो देवेभ्योऽनन्तगुणसुखा इति । अयमधस्तिर्य गुर्ध्वभेदो लोकः । अस्य च मध्ये रज्जुप्रणायामविष्कम्भा ऊर्ध्वाधश्चतुर्दशरज्ज्वात्मिका सनाडी त्रसाः स्थवराव जीवा अत्र भवन्तीति कृत्वा । सनाड्या बहिः स्थावरा एव जीवा भवन्तीति ॥ १०५॥ लोकस्यैव विशेषस्वरूपमाह निष्पादितो न केनापि न धृतः केनचिच्च सः । स्वयंसिद्धो निराधारो गगने कित्ववस्थितः॥१०६॥ निष्पादितः कृतो न केनापि प्रकृतीश्वरविष्णुब्रह्मपुरुषप्रभृतीनामन्यतमेन । प्रकृतेरचेतनत्वात् कर्तृत्वानुपपत्तेः । ईश्वरादीनां च न कर्तृत्वं प्रयोजनाभावात् । क्रीडा प्रयोजनमिति चेत् न, क्रीडायाः कुमारकाणामिव रागिणा मेव संभवात्, क्रीडासाध्यायाश्च प्रीतेस्तेषां शाश्वतिकत्वात् क्रीडानिमित्तायां तु प्रीतौ तेषां पूर्वमतृप्तत्वप्रसङ्गः । कृपया प्रवृत्तिरिति चेत् तर्हि मुख्येव सर्गः स्यात् न दुःखी । कर्मापेक्षः सुखदुःखमयः सर्ग इति चेत् तर्हि कर्मैव कारणमस्तु । कर्मापेक्षत्वे चैषां स्वातन्त्र्यविघातः । कर्मजन्ये च भावनां वैचित्र्ये किमीश्वरादिभिः प्रयोजनम् ? । अथ प्रयोजनमन्तरेणैव तेषां सर्गक्रमः, तदयुक्तं, न प्रयोजनमन्तरेण बालोऽपि किञ्चित्करोति, तस्मान्न केनचिदयं लोको निष्पादित इति । न च केनचिदयं धियते, शेषकूर्मवराहादयस्तस्य धारका इति चेत् तेषामपि किं धारकमिति वाच्यं, आकाशमिति चेत् तस्यापि किं धारकं ? स्वप्रतिष्टमेवेदमिति चेत्, लोकोऽपि तथाऽस्तु । एवं च सति केनचिदनुत्पादितत्वात्स्वयंसिद्धः केनचिदधृतत्वान्निराधारः । ननु निराधारस्यापि तस्य कुत्रावस्थानम् ? इत्याह गगने किं त्ववस्थितः आकाशरूप एवायमाकाश च प्रतिष्ठितः इत्यर्थः । अत्रान्तरश्लोकाः चतुर्थ प्रकाशः ॥६६०।। Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥६६१ ॥ ननु लोकभावनाया भावनात्वं कथं भवेत् ? । उच्यते निर्ममत्वं स्यादितोऽपि हि निशम्यताम् ॥१॥ सुखहेतों क्वचिद्भावे मनो रज्यन्मुहुर्मुहुः । लोकभावनयाऽत्यर्थे विप्रकीर्ण विधीयते || २ || भूद्वीपसागरादीनि धर्मध्यानस्य गोचरः । इत्युक्तं ध्यानशतके नर्ते तल्लोकभावनाम् ||३|| जिनोक्ते लोकरूपे च संवादिनि विनिश्चिते । अतीन्द्रिये मोक्षमार्गेऽथाधत्ते प्रत्ययं जनः || ४ || इति लोकभावना ॥ ११॥१०६॥ अथ बोधिदुर्लभत्वभावनां श्लोकत्रयेणाह - अकामनिजरूपात् पुण्याज्जन्तोः जायते । स्थावरत्वात्त्रसत्वं वा तिर्यक्त्वं वा कथञ्चन ॥१०७॥ अकामनिर्जरा यथाप्रवृत्तिकरणेन गिरिसरिदुपलघोलनाकल्पेनाकामस्य निरभिलाषस्य या निर्जरा कर्मप्रदेशविचटनरूपा सैव रूपं यस्य तस्मात् पुण्यादिति पुण्यं न पुण्यपकृतिरूपं, किन्तु कर्मलाघवरूपं तस्मात् जन्तोः शरीरिणः प्रजायते भवति । किं तदित्याह - स्थावरत्वादेकेन्द्रियजातिसहचारिस्थावरनामकर्मोदयकृतात् पर्यायविशेषात्, त्रसत्वं वा त्रसनामकर्मोदयजं द्वीन्द्रियत्वादिसहचारि,, तिर्यक्त्वं वा पञ्चेन्द्रियतिर्यग्रूपता, कथञ्चन विशि ष्टात्कर्मलाघवात् ॥१०७॥ तथामानुष्यमार्यदेशश्च जातिः सर्वाक्षपाटवम् । आयुश्च प्राप्यते तत्र कथञ्चित्कर्मलाघवात् ॥ १०८ ॥ मानुषस्य भावो मानुष्यं कुतोऽपि कर्मलाघवात् युगच्छिद्रे शमिलाप्रवेशन्यायेन । ततोऽपि शकयवनाद्यनार्य चतुर्थ प्रकाशः ॥६६१॥ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् चतुर्थ प्रकाश ॥६६२॥ देशपरिहारेणार्यदेशो मगधादिः । ततोऽप्यायदेशप्राप्तावपि जातिः, अन्त्यजादिपरिहारेणोत्तमजातिः. जात्या कुलमुपलक्ष्यते । जातिकुलप्राप्तावपि सर्वाक्षपाटवमहीनपञ्चेन्द्रियता । तत्र सर्वाक्षपाटवेऽपि दीर्घमायुः कथश्चित्कर्मलाघवात् अशुभस्य कर्मणो लाघवात् अपचयात् , उपलक्षणात् पुण्यस्योपचयाच्च प्राप्यते, न ह्यल्पायुः किश्चनैहिकमामुष्मिकं वा कार्य कर्तुं शक्तः, भगवन्तोऽपि वीतरागा "हे आयुष्मन् ! गौतम !" इत्यादि वदन्तो दीर्घायुष्कं (ष्ट्र) सर्वगुणेभ्योऽधिकमाचचक्षिरे ॥१०८॥ तथाप्राप्तेषु पुण्यतः श्रद्धाकथकश्रवणेष्वपि । तत्त्वनिश्चयरूपं तबोधिरत्नं सुदुर्लभम् ॥१०९॥ पुण्यतः कर्मलाघवलक्षणात् शुभकर्मोदयलक्षणाच्च प्राप्तेष्वासादितेषु । केषु ? इत्याह-श्रद्धा धर्माभिलाषः कथको धर्मोपदेष्टा गुरुः, श्रवणं तद्वचनाकर्णनं, एतेषु सत्स्वपि । तदिति प्रसिद्धं, बोधिरत्नं सुदुल , बोधिस्तु तत्वनिश्चयः तत्त्वस्य देवगुरुधर्मरूपस्य निश्चयो दृढोऽभिनिवेशः, तदेव रूपं यस्य तत् तत्त्वनिश्चयरूपं । स्थावरत्वात्त्रसत्वादीन्यपि दुर्लभानि, तेभ्योऽपि बोधिरत्नं दुर्लभमिति सुशब्देनाह । यतो मिथ्यादृशोऽपि त्रसत्वादीनि श्रवणान्तान्यनन्तशः प्राप्नुवन्ति, बोधिरत्नं तु न लभन्ते, तच्चाविघ्नं मोक्षतरुवीजमिति । अत्रान्तरश्लोकाः राज्यं वा चक्रभृत्त्वं वा शक्रत्वं वा न दुर्लभम् । यथा जिनप्रवचने बोधिरत्यन्तदुर्लभा ॥११॥ सर्वे भावाः सर्वजीवैः प्राप्तपूर्वा अनन्तशः। बोधिन जातुचित्प्राप्ता भवभ्रमणदर्शनात् ॥२॥ पुद्गलानां परावर्तेष्वनन्तेषु गतेष्विह। उपार्धपुदगलावर्ते शेषे सर्वशरीरिणाम् ॥३॥ सर्वेषां कर्मणां शेषे कोटिकोटयन्तरस्थितौ । ग्रन्थिभेदाव कश्चिदेव लभते बोधिमुत्तमाम् ॥४॥ यथाप्रवृत्तिकरणादन्ये तु ग्रन्थिसीमनि । प्राप्ता अप्यवसीदन्ति भ्रमन्ति च पुनर्भवम् ॥५॥ ॥६६२। Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् चतुर्थ ॥६६३॥ प्रकाश कुशास्त्रश्रवणं सङ्गो मिथ्यादृग्भिः कुवासना । प्रमादशीलता चेति स्युर्बोधेः परिपन्थिनः ॥६॥ चारित्रस्यापि संप्राप्तिदुर्लभा यद्यपीरिता । तथापि बोधिप्राप्तौ सा सफला निःफलाऽन्यथा ॥७॥ अभव्या अपि चारित्रं प्राप्य ग्रेवेयकादिषु । उत्पद्यन्ते विना बोधि त्वाप्नुवन्ति न निवृतिम् ॥८|| असंप्राप्ते बोधिरत्ने चक्रवर्त्यपि रङ्कवत् संप्राप्तबोधिरत्नस्तु रङ्कोऽपि यस्यात्ततोऽधिकः ॥९॥ संप्राप्तबोधयो जीवा न रज्यन्ते भवे क्वचित् । निर्ममत्वाद्भजन्त्येकं मुक्तिमार्गमनर्गलाः ॥१०॥ ये प्राप्ताः परमं पदं तदपरे प्राप्स्यनि ये केऽपि वा, केचिदवाप्नुवन्ति विकसत्पुण्यर्द्धयः संप्रति । सर्वेऽप्यप्रतिमप्रभावविभवां बोधि समासाद्य ते, तस्माद्बोधिरुपास्यतां किमपरं संस्तूयतां श्रूयताम् ॥११॥ इति बोधिभावना ॥१२॥१०९॥ भावनां निर्ममत्वहेतुकामुपसंहरन् प्रकृते समत्वे योजयतिभावनाभिरविश्रांतमिति भावितमानसः। निर्ममः सर्वभावेषु समत्वमवलम्बते ॥११०॥ स्पष्टः ॥११०॥ साम्यस्यैव फलमाह| विषयेभ्यो विरक्तानां सोम्यवासितचेतसाम्। उपशाम्येत् कषायाग्निर्वाधिदीपः समुन्मिषेत् ॥१११॥ __साम्यवासितचेतसां योगिनामत एव विषयेभ्यो विरक्तानामुपशाम्येत् कषायाग्निरित्यनर्थनिषेधः बोधिदीपः समुन्मिषेदित्यर्थप्राप्तिः ॥११॥ ॥६६३॥ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ।।६६४॥ तदेवं कषायजयमिन्द्रियजयेन, इन्द्रियजयं मनःशुद्धया, मनःशुद्धि रागद्वेषजयेन, रागद्वेषजयं समत्वेन, समत्वं च भावनाहेतुक निर्ममत्वेन प्रतिपाद्योत्तरं प्रकरणं प्रक्रमते -- समत्वमवलम्ब्याथ ध्यानं योगी समाश्रयेत् । विना समत्वमारब्धे ध्याने स्वात्मा विडम्यते ॥ ११२ ॥ अथानन्तरं योगी मुनिः समत्वमवलम्ब्य दृढं चेतसि व्यवस्थाप्य ध्यानं वक्ष्यमाणलक्षणं समाश्रयेत् । यद्यपि ध्यानमपि समत्वमेव, तथापि विशिष्टतरं साम्यं ध्यानमुच्यते ध्यानरूपतायोग्यं त्वाभ्यासिकं साम्यमिति न पौनरुक्त्यम् । व्यतिरेकमाह-- अनुप्रेक्षादिबललब्धं समत्वं विनाऽरब्धे ध्याने स्वकीय एवात्मा विडम्ब्यते । तथाहि - इन्द्रियाणि न गुप्तानि मनःशुद्धिर्न वा कृता । रागद्वेपौ जितौ नैव निर्ममत्वं न निर्मितम् ॥ १॥ नाभ्यस्ता समता किन्तु गतानुगतिकत्वतः । मूढैरारभ्यते ध्यानं लोकद्वयपथच्युतैः ॥२॥ I यथाविधि ध्यानं तु विधीयमानं न बिडम्बना, प्रत्युतात्महिताय ॥ ११२ ॥ एतदेवाह - मोक्षः कर्मक्षयादेव स चात्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानसाध्यं मतं तच्च तद्वयानं हितमात्मनः ॥ ११३ ॥ मोक्षः स्वरूपलाभलक्षणः कर्मणां स्वरूपावरणीयानां क्षयादेव, नान्यथा इत्येतदविवादसिद्धं । स च कर्मक्षय आत्मज्ञानादेव भवतीत्यत्राप्यविवादः । तच्चात्मज्ञानं ध्यानसाध्यं ध्यानेनैव साध्यते, ध्यानस्य साध्यमेवेत्यन्ययोगव्यवच्छेदस्वयोगव्यवस्थाभ्यां ध्यानसाध्यता । तत्तस्माद्धेतोर्ध्यानमात्मनो हितमिति प्रकृतम् ॥ ११३ ॥ ननु पूर्वमर्थप्राप्तयेऽनर्थपरिहाराय च साम्यमुक्तं इदानीं तु ध्यानस्यात्महितत्वमुच्यते, तत्कस्य प्राधान्यं ? चतुर्थ प्रकाशः ||६६४॥ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥६६५॥ उच्यते — द्वयोरपि प्राधान्यं नान्तरीयकत्वात् । एतदेवाह - सोम्येन विना ध्यानं न ध्यानेन विना च तत् । निष्कम्पं जायते तस्माद्वयमन्योऽन्यकारणम् साम्यं विना न ध्यानं भवति, न च ध्यानं विना साम्यं भवति । एवं तर्दीतरेतराश्रयं ? नैवं साम्यमन्तरेण ध्यानं न भवत्येव, ध्यानं तु विना साम्यं भवदपि निष्कम्पं न भवतीति इतरेतराश्रयदोषाभावः । एवं च सति द्वयमन्योऽन्यस्य हेतुत्वेनावतिष्ठते ॥ ११४ ॥ साम्यं पूर्वमेव व्याख्यातम् इदानीं ध्यानस्य स्वरूपं व्याख्यायते- मुहन्तःस्थैर्ये ध्यानं छमस्थयोगिनाम् । धर्म्यं शुक्लं च तद्वेधा योगरोधस्त्वयोगिनाम्॥ ११५ इह द्वये ध्यातारः -- सयोगा अयोगिनश्च । सयोगा अपि द्विविधा: -- छद्मस्थाः केवलिनश्च । तत्र छद्मस्थयोगिनां ध्यानस्य लक्षणमेतत्, यदुतान्तमुहूर्त्त । कालमेकस्मिनालम्बने चेतसः स्थितिः, यदाह-- उत्तम संहननस्यैका ग्रचित्तनिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्त्तात् । तच्च छद्मस्थायोगिनां द्वेधा-धर्म्यं शुक्लं च । तत्र धर्मादशविधादनपेतं धर्मेण प्राप्यं वा धर्म्यम् । शुक्लं शुचि निर्मलं सकलकर्ममलक्षय हेतुत्वात् । यद्वा शुगू दुःख तत्कारणं वाऽष्टविधं कर्म शुक्लमयतीति शुक्लं । अयोगिनां तु अयोगिकेवलिनां ध्यानं योगनिरोधः योगानां मनोवाक्कायानां निरोधो निग्रहः । सयोगिकेवलिनां तु योगनिरोधकाल एव ध्यानसंभव इति पृथग् नोक्तं, ते हि देशोनपूर्वकोटिं यावन्म नोवाक्कायव्यापारयुक्ता एव विहरन्ति । अपवर्गकाले तु योगनिरोधं कुर्वन्तीति ॥ ११५ ॥ चतुर्थ प्रकाशः ॥६६५|| Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥६६६॥ ननु छद्मस्थयोगिनां यदि मुहूर्त्तकालं ध्यानं तर्हि ततः परं किं स्यादित्याह - पुहूर्त्तात्परतश्चिन्ता यद्वा ध्यानान्तरं भवेत् । बह्वर्थसंक्रमे तु स्वाद्दीर्घाऽपि ध्यानसंततिः॥११६ मुहूर्त्तात्परतो मुहूर्त्तत्तरकालं चिन्ता भवेत् यद्वा ध्यानान्तरं आलम्बनभेदेन भिन्न भवेत् न पुनरेकमेव ध्यान मुहूर्त्तात् परतो भवति तत्स्वाभाव्यादिति । एवं चैकस्मादर्थाद्वितीयमर्थमालम्बमानस्य पुनस्तृतीयं चतुर्थ च दीर्घाऽपि दीर्घकालाऽपि ध्यानसंततिर्भवेत्, मुहर्त्तान्तरं च प्रथमे ध्याने समाप्तप्राये आलम्बनान्तरे तद्विवृद्धयर्थं ध्याने भावनां कुर्वीत् ॥ ११६॥ तदेवाह- ञिमिदा मैत्रीप्रमोद कारुण्यमाध्यस्थ्यानि नियोजयेत् । धर्म्यध्यानमुपस्कर्तुं तद्धि तस्य रसायनम्॥११७॥ स्नेहने, मे (मि) द्यति स्निह्यतीति मित्रं, तस्य भावः समस्तसत्त्वविषयः स्नेहपरिणामो मैत्री । प्रमोदनं प्रमोदो वदनप्रसादादिभिर्गुणाधिकेष्वभिव्यज्यमानान्तर्भक्तिरनुरागः । करुणैव कारुण्यं दीनादिष्वनुकम्पा । रागद्वेषयोरन्तरालं मध्यं तत्र स्थितो मध्यस्थः अरागद्वेषवृत्तिः, तद्भावो माध्यस्थ्यमुपेक्षा । तानि आत्मनि नियोजयेत् । किमर्थ ? धर्म्यध्यानमुपस्कर्तुं त्रुटयतो ध्यानस्य पुनर्ध्यानान्तरेण सन्धानं कर्तुं । कुत इत्याह तद्धि तस्य रसायनं तत् मैत्र्यादियोजनं हिर्यस्मात्तस्य ध्यानस्य जराजर्जरस्येव शरीरस्य त्रुटयतो रसायनमिव रसायनम् ॥११७॥ चतुर्थ प्रकाशः ६६६॥ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् चतुर्थ ॥६६७॥ प्रकाशा तत्र मैत्रीस्वरूपमाह|| मा कार्षीत् कोऽपिपापानि मा च भूत् कोऽपि दुःखितः । मुच्यतां जगदप्येषा मतिमैत्री निगद्यते कोऽपि जन्तुरुपकार्यनुपकारी वा पापानि दुःखनिबन्धनानि मा कार्षीत् , पापकरणनिषेधात् मा च भूत् कोऽपि दुःखितः। जगदिति तांस्तान् देवमानुषतिर्यग्नारकपर्यायानत्यर्थ गच्छतीति जगत् प्राणिजातं । अपिशब्दान्नैकः कश्चित् , किं तु सकलं जगत् मुच्यतां मोक्षमाप्नुयादित्यर्थः । एषा उक्तस्वरूपा मतिमत्रीशब्देनोच्यते । न हि कस्यचिदेकस्य मित्रं मित्रं भवति, व्याघ्रादेरपि स्वापत्यादौ मैत्रीदर्शनात् , तस्मादशेषसत्त्वविषया मैत्री । एवं कृतापकारणमपि सर्वसत्त्वानां मित्रतां व्यवस्थाप्य क्षमेऽहं सम्यग्मनोवाक्कायैर्येषां च मयाऽपकारः कृतस्तानपि सर्वान् क्षमयेऽहमिति मैत्रीभावना ॥११८॥ ___अथ प्रमोदस्वरूपमाह-- अपास्ताशेषदोषाणां, वस्तुतत्त्वावलोकिनाम् । गुणेषु पक्षपातो यः स प्रमोदः प्रकीर्तितः ॥११९॥ अपास्ता अशेषा दोषाः प्राणिवधादयो यस्तेषां । तथा वस्तुतत्त्वमवलोकन्त इत्येवंशीलास्तेषां । अनेन ज्ञानक्रियाद्वयं मोक्षहेतुमाह, यदाह भाष्यकार:-" नाणकिरियाहि मोक्खो" इति (ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः) एवं विधानां मुनीनां गुणेषु क्षायोपशमिकादिभावावर्जितेषु शमदमौचित्यगाम्भीर्यधैर्यादिषु यः पक्षपातो विनयप्रयोगवन्दनस्तुतिवर्णवादवैयावृत्त्यकरणादिभिः परात्मोभयकृतपूजाजनितश्च सर्वेन्द्रियाभिव्यक्तो मनःप्रहर्षः स प्रमोदः ॥६६७॥ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् चतुर्थ Test प्रकाशा ॥६६८॥ प्रकीर्तितः ॥११९॥ अथ कारुण्यस्वरूपमाहदीनेष्वार्तेषु भीतेषु याचमानेषु जीवितम्। प्रतीकारपरा बुद्धिः कारुण्यमभिधीयते ॥१२०॥ दीनेषु मतिश्रुताज्ञानविभङ्गबलेन प्रवर्तितकुशास्त्रेषु स्वयं नष्टेषु परानपि नाशयत्सु अत एव दयास्पदत्वाद्दीनेषु । तथाऽऽर्तेषु नवनवविषयार्जनपूर्वार्जितपरिभोगजनिततृष्णाग्निना दंदह्यमानेषु, हिताहितप्राप्तिपरिहारविपरीतबृत्तिषु अर्थाजनरक्षणव्ययनाशपीडावत्सु च । तथा भीतेषु विविधदुःखपीडिततया अनाथकृपणबालवृद्धप्रेष्यादिषु सर्वतो बिभ्यत्सु । तथा वैरिभिराक्रान्तेषु रोगपीडितेषु मृत्युमुखमधिशयितेष्विव याचमानेषु प्रार्थयमानेषु जीवितं प्राणत्राणं । एतेषु दीनादिषु "अहो कुशास्त्रप्रणेतारः तपस्विनो यदि कुमार्गप्रणयनान्मोच्येरन् भगवानपि हि भुवनगुरुः स (उ)न्मार्गदेशनात्सागरोपमकोटिकोटिं यावद्भवे भ्रान्तः तत्काऽन्येषां स्वपापप्रतीकारं कर्तुमशक्नुवतां गतिः?, तथा धिगमी विषयार्जनभोगतरलहृदया अनन्तभवानुभूतेष्वपि विषयेष्वसंतृप्तमनसः कथं नाम प्रशमामृततृप्ततया वीतरागदशां नेतुं शक्या ? इति, तथा बालवृद्धादयोऽपि विविधभयहेतुभ्यो भीतमनसः कथं नामैकान्तिकात्यन्तिकभयवियोगभाजनीकरिष्यन्ते ? इति, तथा मृत्युमुखमधिशयिताः स्वधनदारपुत्रादिवियोगमुत्प्रेक्षमाणा मारणान्तिकी पीडामनुभवन्तः सकलभयरहितेन पारमेश्वरवचनामृतेन सिक्ताः कथमजरामरीकरिष्यन्ते ?" इत्येवं प्रतीकारपरा या बुद्धिः, न तु साक्षात्प्रतीकार एव, तस्य सर्वेष्वशक्यक्रियत्वात् , सा कारुण्यमभिधीयते । या तु अशक्यप्रतीकारेषु सर्वान् जन्तून् मोचयित्वा मोक्षं यास्यामीति सौगतानां करुणा, न सा ६६८॥ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ||६६९॥ ROOKEROSE करुणा, वाङ्मात्रत्वात्, न शक्यं भवितुं संसारिषु मुक्तेषु मया मोक्तव्यमिति, संसारोच्छेदप्रसङ्गेन सर्वसं सारिणां मुक्यभावात् तस्माद्वाङ्गमात्रमेतत् मुग्धजनप्रतारकं सौगतानां कारुण्यं । १ एतच्च कुर्वन् हितोपदेशदेशकालापेक्षान्नपानाश्रयवस्त्र ( पात्र) भेषजैरपि ताननुगृह्णातीति ॥१२०॥ क्रूरकर्मसु निःशङ्कं देवतागुरुनिन्दिषु । आत्मशंसिषु योपेक्षा तन्माध्यमुस्थ्यमुदीरितम् ॥१२१ अथ माध्यस्थ्यस्वरूपमाह- क्रूराणि अभक्ष्यभक्षणापेयपानागम्यगमनऋपिबालस्त्री भ्रूणघातादीनि कर्माणि येषां तेषु तेऽपि कदाचिदवाप्तसंवेगा नोपेक्षणीयाः स्युरत आह- देवतागुरुनिन्दिषु देवताश्चतुस्त्रिंशदतिशयादियुक्ता वीतरागाः, गुरवः तदुक्तानुष्ठानस्य पालका उपदेष्टारथ तान् रक्तद्विष्टमूढपूर्वव्युद्ग्राहिततया निन्दन्तीत्येवं शीलाः तेषु तथाविधा अपि कथंचन वैराग्यदशापन्ना आत्मदोषदर्शिनो नोपेक्षणीयाः स्युरित्याह-- आत्मशंसिषु आत्मानं सदोषमपि शंसन्ति प्रशंसन्तीत्येवंशीला आत्मबहुमानिन इत्यर्थः तेषु मुद्रशैलेष्विव पुष्कारावर्त्तवारिभिर्मृदुकर्तुमशक्येषु देशनाभिः, योपेक्षा तन्माध्यस्थ्यमुदीरितम् ॥ १२१ ॥ अथ यदुक्तं धर्मध्यानमुपस्कर्तुमिति तद्विवेचयति आत्मानं भावयन्नाभिर्भावनाभिर्महामतिः । त्रुटितामपि संघत्ते विशुद्ध ध्यानसंततिम् ॥ १२२॥ १ कारुण्यम् । चतुथ प्रकाशः ॥६६९॥ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चता योगशास्त्रम् प्रकाशः ॥६७०॥ स्पष्टः ॥ १२२ ॥ ध्यानसाधनाय स्थानं निदर्शयतितीर्थंवा स्वस्थताहेतु यत्तद्वा ध्यानसिद्धये। कृतासनजयो योगी विविक्तं स्थानमाश्रयेत् ॥१२३॥ तीर्थ तीर्थकृतां जन्मदीक्षाज्ञाननिर्वाणभूमि, तदभावे स्वास्थ्यहेतु यत्तद्वा गिरिगुहादि विविक्त स्त्रीपशुपण्डकादिरहितं स्थानमाश्रयेत् । यदाहनिच्चं चित्र जुवइपसूनपुंसगकुसीलवज्जिअं जइणो । ठाणं विअणं भणि विसेसओ झाणकालम्मि॥१॥ थिरकयजोगाणं पुण मुणीणं झाणे सुनिच्चलमण्णाणं । गामम्मि जणाइण्णे सुन्नेऽरण्णे व न विसेसो ॥२॥ तो जत्थ समाहाणं होइ मणोवयणकायजोगाणं । भूओवरोहरहिओ सो देसो झाण (य)माणस्स ॥३॥ स्थानग्रहणेन कालोऽप्युपलक्ष्यते । यदाह-- कालो वि सो च्चिय जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ । न उ दिवसनिसावेलाए निअमणं झाइणो भणि॥१॥ ध्यानसिद्धये योगी स्थानमाश्रयेदिति संबन्धः । किविशिष्टः ? कृतासनजयः कृत आसनानां कायसन्निवेशविशेषाणां वक्ष्यमाणस्वरूपाणां जयोऽभ्यासो येन स तथा ॥१२३।। (१) नित्यं चैव युवतिपशुनपुंसककुशीलवर्जितं यतेः । स्थानं विजनं भणितं विशेषतो ध्यानकाले ॥१॥ स्थिरकृतयोगानां पुनर्मुनीनां ध्याने मुनिश्चलमनसाम् । ग्रामे जनाकीणे शून्येऽरण्ये वा न विशेषः ॥२॥ ततो यत्र समाधान भवति मनोवचनकाययोगानाम् । भूतोपरोधरहितः स देशो ध्यायतः ॥३॥ (२) कालोऽपि स चैव यत्र योगसमाधानमुत्तमं लभते । न तु दिवसनिशावेलायां नियमनं ध्यानिनो भणितम् ॥१॥ ॥६७०॥ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥६७२॥ अथासनान्येवाहपर्यवीरवज्राब्जभद्रदण्डासनानि च। उत्कटिका गोदोहिका कायोत्सर्गस्तथासनम् ॥१२४॥ पर्यङ्कादिषु प्रत्येकमासनशब्दः संबध्यते ॥१२४॥ क्रमेणासनानि व्याचष्टेस्याजङ्घयोरधोभागे पादोपरि कृते सति । पर्यको नाभिगोत्तानदक्षिणोत्तरपाणिकः॥१२५॥ ___ जङ्घयोरधोभागे पादोपरि कृते सति पाणिद्वयं नाभ्यासन्नमुत्तानं दक्षिणोत्तरं यत्र दक्षिणोत्तरोपरिवर्ती यत्र तत्तथा एतत्पर्यको नाम शाश्वतप्रतिमानां श्रीमहावीरस्य च निर्वाणकाले आसनं यथा पर्यङ्कः पादोपरि भवति तथाऽयमपीति पर्यङ्कः "जानुप्रसारितबाहोः शयनं पर्य" इति पातञ्जलाः ॥१२५॥ ___ अथ वीरासनम्-- वामोऽह्रिर्दक्षिणोरूष वामोरूपरि दक्षिणः। क्रियते यत्र तद्वीरोचितं वीरासनं स्मृतम्॥१२६ वामोऽहिमपादो दक्षिणोरूवं वामस्य चोरोरुपरि दक्षिणोऽहिर्यत्र क्रियते तद्वीराणां तीर्थकरप्रभृतीनामुचितं, न कातराणां, वीरासनं स्मृतं । अग्रहस्तन्यासः पर्यवत् , इदं पद्मासनमित्येके, एकस्यैव पादस्य ऊरावारोपणेऽर्धपद्मासनम् ॥१२६॥ अथ वज्रासनम्-- पृष्ठे वज्राकतीभूते दोभ्यां वीरासने सति। गृह्णीयात् पादयोर्यत्रगुष्ठौ वज्रासनं तु तत् ॥१२७ ॥६७१॥ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्रकाशः ॥६७२।। उक्तस्वरूपे वीरासने सति पृष्ठे वज्राकाराभ्यां दोा पादयोर्यत्राङ्गुष्ठौ गृहणीयात् तद्वज्रासनं इदं योग वेतालासनमित्यन्ये ॥ १२७ ॥ मतान्तरेण वीरासनमाह-- शाखम् II सिंहासनाधिरूढस्यासनापनयने सति । तथैवोवस्थितिय तामन्ये वीरासनं विदुः ॥१२०॥ सिंहासनमधिरूढस्य भूमिन्यस्तपादस्य सिंहासनापनयने सति तथैवावस्थानं वीरासनम् । अन्ये इति सैदान्तिकाः कायक्लेशतपःप्रकरणे व्याख्यातवन्तः । पाताञ्जलास्त्वाहुः--ऊर्ध्वस्थितस्यैकतरः पादो भून्यस्त एकचाकुश्चितजानुरूर्ध्वमित्येतद्वीरासनमिति ॥ १२८ ॥ अथ पद्मासनम्-- जायो मध्यभागे तु संश्लेषो यत्र जङ्घया। पद्मासनमिति प्रोक्तं तदासनविचक्षणः॥१२९॥ जङ्घाया वामाया दक्षिणाया वा द्वितीयया जङ्घया मध्यभागे संश्लेषो यत्र तत् पद्मासनम् ॥१२९॥ अथ-भद्रसनम् | संपुटीकृत्य मुष्काग्रे तलपादौ तथोपरि। पाणिकच्छपिकां कुर्याद्यत्र भद्रासनं तु तत् ॥१३०॥ स्पष्टम् । यत्पातञ्जला:--पादतले वृषणसमीपे संपुटीकृत्य तस्योपरि पाणिकच्छपिकां कुर्यात् , एतद्भद्रासनम् ॥ १३० ॥ अथ दण्डासनम्-- श्लिष्टाङ्गुलीश्लिष्टगुल्फो भूश्लिष्टोरू प्रसारयेत । यत्रोपविश्य पादौ तद्दण्डासनमुदीरितम्॥१३१ ।। स्पष्टम् । यत्पातञ्जला:--उपविश्य श्लिष्टाछगुलीको श्लिष्टगुल्फो भूमिश्लिष्टजनौ च पादौ प्रसार्य दण्डासन ॥६७२॥ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् प्रकाशा ॥६७३॥ मभ्यस्येत् ॥१३॥ अथोत्कटिकासनगोदोहिकासनेपुतपाणिसमायोगे प्राहुरुत्कटिकासनम् । पाणिभ्यां तु भुवस्त्यागे तत्स्याद्गोदोहिकासनम्॥१३२॥ पुतयोः पाणिभ्यां भूमिलनाभ्यां योगे उत्कटिकासन प्राहुः, यत्र भगवतः श्रीवीरस्य केवलज्ञानमुत्पन्नम् । यदाह-- १ भिअवहि उजुवालिअतीरे विसाहसियदसमिपहरतिगे । छठेणोकडुअडिअस्स केवलं आसि सालतले ॥१॥ तदेवोत्कटिकासनं गोदोहिकासनं गोदोहकसमाकारत्वात् पाणिभ्यां भुवस्त्यागे सति । इदं च प्रतिमाकल्पिकादीनां विधेयतयोपदिष्टम् ॥१३२॥ अथ कायोत्सर्गः-- प्रलम्बितभुजद्वन्द्वमूर्ध्वस्थस्यासितस्य वा । स्थानं कायानपेक्षं यत्कायोत्सर्गः स कीर्तितः॥१३३॥ प्रलम्बितं भुजयोर्द्वन्द्वं यत्र तत्तथा, कायानपेक्षं स्थानं स कायोत्सर्गो नामासनमूर्ध्वस्थस्यासितस्य वा ऊर्ध्वस्थितानां कायोत्सर्गों जिनकल्पिकादीनां छअस्थतीर्थकराणां च भवति, ते हि ऊर्ध्वर्जव एवासते, स्थविरकल्पिकानां तु ऊर्ध्वस्थितानामासितानां वा, उपलक्षणात शयितानां वा यथाशक्ति भवति कायोत्सर्ग इति स्थानध्यानमौनक्रियाव्यतिरेकेण क्रियान्तरसंबन्धिनः कायस्योत्सर्गस्त्याग इत्यर्थः । इदं चासनानां दिक्प्रदर्शनमात्रमुक्तमासनान्तराणामुपलक्षणार्थ, तथाहि-आम्रकुब्जासनम् आम्राकारतयाऽवस्थितिः, यथा भगवान् महावीर एकरा(१) जम्भिकादबहिः ऋजुवालिकावीरे वैशाखसितदशमीप्रहरत्रिके । षष्ठेनोत्कटिकास्थितस्य केवलमासीत् सालतले॥१॥ ॥६७३॥ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतर्थ योगशास्त्रम् प्रकाश ॥६७४॥ त्रिकी प्रतिमां श्रितः संगमकसुराधमेन विहितां विंशतिमुपसर्गाणामधिसेहे । तथा एकापार्श्वशायित्वम् तच्चोर्ध्वमुखस्याधोमुखस्य तिर्यमुखस्य वा भवति । तथा दण्डायताशायित्वम् ऋजूकृतशरीरस्य प्रसारितजङ्घोरुद्वयस्य चलनरहितस्य तद्भवति । तथा लगडशायित्वं मूर्ध्नः पार्योश्च भूमिस्पर्शे शरीरेण भूमेरस्पर्शे तद्भवति । तथा समसंस्थाने यत् पार्घ्यग्रपादाभ्यां द्वयोराकुश्चितयोरन्योऽन्यपीडनं । तथा दुर्योधासनं यद्भूमिप्रतिष्ठितशिरस उत्पादमवस्थानं कपालीकरणमिति च प्रसिद्ध, तस्मिन्नेव यदा जो पद्मासनीकृते भवतस्तदा दण्डपद्मासनं । तथा स्वस्तिकासनं यत्र सव्यमाकुञ्चितं चरणं दक्षिणजसोर्वन्तरे निक्षिपेत् दक्षिणं चाकुश्चितं वामजयोर्वन्तरे इति । तथा सोपाश्रयं योगपट्टकयोगाद्यद्भवति । तथा क्रौञ्चनिषदनहंसनिषदनगरुडनिषदनादीन्यासनानि क्रौश्चादीनां निषण्णानां संस्थानदर्शनात प्रत्येतव्यानि । तदेवं न व्यवतिटते आसनविधिः ॥१३॥ ततःजायते येन येनेह विहितेन स्थिरं मनः । तत्तदेव विधातव्यमासनं ध्यानसोधनम् ॥१३४॥ मेदस्विनामितरेषां च बलवतामपरेषां च येन येनासनेन कृतेन सात्म्यविशेषात् स्थिरं मनो जायते तत्तदेवासनं ध्यानसाधनत्वेन विधेयं । यदाह सव्वासु वट्टमाणा मुणओ जे देसकालचिहासु । वरकेवलाइलाभ पत्ता बहुसो समिअपावा ॥१॥ (१) सर्वासु वर्तमाना मुनयो यद् देशकालचेष्टासु । वरकेवलादिलाभ प्राप्ता बहुशः शमितपापाः ॥१॥ ॥६७४॥ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥६७५|| तो देसकालचेट्टानियमो ज्झाणस्स नत्थि समयम्मि । जोगाण समाहाणं जह होइ तहा पयइअव्वं ॥२॥ न चैवमासनाभिधानमनर्थक, प्रतिमाकल्पिकान् प्रत्यासननियमस्याभिधानात् द्वादशसु भिक्षुप्रतिमासु अष्टम्यां प्रतिमायामासननियमो यथाउत्ताणगपासल्ली नेसज्जीवावि ठाणठाइत्ता । सह उस्सग्गे घोरे दिव्वाई तत्थ अविकंपो॥१॥ नवम्यां यथा दोच्चा वि एरिस च्चिय बहिआ गामाइआण नवरं तु । उक्कडलगडसाई दंडाययउव्व ठाइत्ता ॥२॥ दशम्यां यथातच्चावि एष नवरं ठाणं तु तस्स होइ गोदोही । वीरासणमहवा वी ठाइज्ज वि अंबखुज्जो उ ॥३॥१३४॥ इदानीमासनानां यथा ध्यानसाधनत्वं भवति तथा श्लोकद्वयेनाहसुखासनसमासीनः सुश्लिष्टाधरपल्लवः नासाग्रन्यस्तहरद्वन्द्वो दन्तैर्दन्तानसंस्पृशन् ॥१३५॥ प्रसन्नवदनः पूर्वाभिमुखो वाप्युदङमुखः। अप्रमत्तः सुसंस्थानो ध्याता ध्यानोद्यतो भवेत् ॥१३६॥ (१) ततो देशकालचेष्टानियमो ध्यानस्य नास्ति समये । योगानां समाधानं यथा भवति तथा प्रयतितव्यम्॥२॥ (२) उत्तानकः पार्श्वशायी नैषधिको वापि स्थानं स्थित्वा । सहेतोपसर्गान् घोरान् दिव्यादीन् तत्राविकम्पः॥१॥ (३) द्वितीयाऽपीदृशी चैव वहिामादिम्यो नवरं तु । उत्कटिकलगडशायी दण्डायतिक इव (को वा) स्थित्वा॥२॥ (४) तृतीयाऽप्येवं नवरं स्थानं तु तस्य भवति गोदोही । वीरासनमथवाऽपि तिष्ठेदप्याम्रकुब्जःतु (वा) ॥३॥ ॥६७५॥ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥६७६ ॥ सुखं सुखावहं आस्यतेऽनेन आस्ते वाऽनेन तदासनं, सुखं च तदासनं च तेनासीनः अनेनासनजयमाह । सुष्टि मिलितावधरपल्लवौ यस्य स तथा अनेन प्राणप्रसरनिषेधमाह । नासाग्रे न्यस्तं दृग्द्वन्द्वं येन स तथा, अनेन प्राणजयस्य हेतुमाह । दन्तैरुपरितनैरधस्तनैश्व दन्तानुपरितनानधस्तनांचा संस्पृशन्, तत्संस्पर्शे हि ध्याननिश्चलता न स्यात् । तथा प्रसन्नं रजस्तमोरहितत्वेन प्रसादवत् भ्रूविक्षेपादिरहितं वदनं यस्य सः । तथा पूर्वाभि मुखो वा उदमुखो वा, अनेनानयोर्दिशोः पूज्यत्वमाह । जिनजिनप्रतिमाभिमुखो वा । अप्रमत्तः प्रमादरहितः अनेन मुख्यमधिकारिणमाह । यदाह – धर्म्यमप्रमत्तसंयतस्य शोभनमृज्वायतमूर्त्तिकं संस्थानं शरीरसन्निवेशो यस्य स तथा । एवंविधः सन् ध्याता ध्यानोद्यतो भवेत् ध्याने उद्यच्छेत् । इति निगिदितमेतत्साधनं ध्यानसिद्धे — तिगृहित भेदाद्भिनरत्नत्रयं च । सकलमपि यदन्यध्ध्यानभेदादि सम्यक् प्रकटितमुपरिष्टादष्टभिस्तत्प्रकाशैः ॥ १ ॥ १३५॥१३६॥ इति परमाईत श्री कुमारपाल भूपालशुश्रूषिते आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते अध्यात्मोपनिषन्नानि संजातपट्टबन्धे श्री योगशास्त्र स्वोपज्ञं चतुर्थप्रकाशविवरणम् ॥ ******************************** इति योगशास्त्रे प्रथमो विभागः 2008-06-30€ 100€ 100€ 38€ 30£******* चतुथ प्रकाशः ||६७६ ॥ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥६७७॥ आचार्य श्री हेमचंद्रविरचितम् । ॥ योगशास्त्रम् ॥ (स्वोपज्ञविवरणसहितम्) ( द्वितीयो विभागः ) ॥ पञ्चमः प्रकाश ॥ ॐ नमः सर्वज्ञाय परमात्मने श्रीजिनेन्द्राय || अत्रान्तरे परैः प्राणायाम उपदिष्टो " यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि योगस्येति " वचनात् । न प्राणायामो मुक्तिसाधने ध्याने उपयोगी, असौमनस्यकारित्वात् । यदाहुः - १ऊसासं न निरुंभइ आभिग्गहिओ वि किमुअ चिहाए ? । सज्ज मरणं निरोहे सुहुमोसासं तु जयणाए ॥१॥ तथापि कायारोग्यकालज्ञानादौ स उपयोगीत्यस्माभिरपीहोपदर्श्यतेप्राणायामस्ततः कैश्चिदाश्रितो ध्यानसिद्धये । शक्यो नेतरथा कर्तुं मनःपवननिर्जयः ॥१॥ (१) उच्छ्वासं न निरुणद्धि आभिग्रहिकोऽपि किमुत चेष्टावान् ? । सद्यो मरणं निरोधे (ततः) सूक्ष्मोच्छ्वासं तु यतनया (ग्राह्यः)। १ । ==htohoKEX पश्चम प्रकाशः ॥६७७।। Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥६७८ ॥ प्राणस्य मुखनासान्तरसंचारिणो वायोः आ समन्तात् यमनं गतिविच्छेदः प्राणायामः । ततः आसनजयादनन्तरं कैश्चित् पातञ्जलिप्रभृतिभिः आश्रितोऽङ्गीकृतः ध्यानसिद्धये ध्यानसिद्ध्यर्थ । तदाश्रयणे कारणमाहइतरथा मनसः पवनस्य च जयः कर्तुं न शक्यः ॥१॥ ननु प्राणायामात् पवनविजयो भवतु, मनोविजयस्तु कथं ? इत्याह मनो यत्र मरुत्तत्र मरुयत्र मनस्ततः । अतस्तुल्यक्रियावेतौ संवीतौ क्षीरनीरवत् ॥२॥ मनश्चेतो यत्र देशे तत्र मरुत्, यत्र मरुत् ततो मनः, तत इति आद्यादित्वेन सप्तम्यन्तात्तसुः । अत एतौ मनःपवनौ तुल्यक्रियौ तुल्ये क्रिये गमनस्थानलक्षणे ययोस्तौ तथा । संवीतौ क्षीरनीवत् यथा क्षीरनीरे मिलिते समरसता वर्तेते तथा मनःपवनावपि ॥२॥ तुल्यक्रियत्वमेव भावयति- एकस्य नाशेऽन्यस्य स्यान्नाशो वृत्तौ च वर्तनम् । ध्वस्तयोरिन्द्रियमतिध्वंसान्मोक्षश्च जायते। ३ । एकस्य मनःपवनयोरन्यतरस्य नाशेऽन्यस्य तदेकतरस्य नाशः स्यात्, वृत्तौ प्रवृत्तौ वर्तनं प्रवृत्तिः स्यात् । मनःपवनयोर्ध्वस्तयोः सतोरिन्द्रियमतिध्वंसो भवति, इन्द्रियमतिध्वंसाच्च मोक्षो भवति ||३|| प्राणायामस्य लक्षणं तद्भेदांचाह- प्राणायामो गतिच्छेदः श्वासप्रश्वासयोर्नतः । रेचकः पूरकश्चैव कुम्भकश्चेति स त्रिधा ॥४॥ पञ्चम प्रकाशः ॥६७८ ॥ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥६७९।। Eh बाह्यस्य वायोराचमनं श्वासः, कोष्ठस्य वायोर्निश्वसनं प्रश्वासः, तयोर्गतिच्छेदः प्राणायामः । स त्रिधा - रेचकः पूरकः कुम्भकश्चेति ॥४॥ आचार्यान्तरमतेन भेदान्तराण्याह- प्रत्याहारस्तथा शान्त उत्तरश्चाधरस्तथा । एभिर्भेदैश्चतुर्भिस्तु सप्तधा कीर्त्यते परैः ॥५॥ प्रत्याहारशान्तोत्तराधरलक्षणैश्चतुर्भिर्भेदैः पूर्वभेदसहितैः प्राणायामः सप्तधा ||५|| क्रमेणैषां लक्षणमाह- यत्कोष्ठादतियत्नेन नासाब्रह्मपुराननैः । बहिः प्रक्षेपणं वायोः स रेचक इति स्मृतः ॥६॥ कोष्ठादुदरात् अतियत्नेन नासया ब्रह्मरन्ध्रेणाननेन च यद् बहिः प्रक्षेपणं वायोः स रेचकः प्राणायामः ||६|| तथा- समाकृष्य यदापानात् पूरणं स तु पूरक: । नाभिपद्मे स्थिरीकृत्य रोधनं स तु कुम्भकः ॥ ७ बाह्येन वायुना आकृष्टेन आ अपानं (नात् ) यत् कोष्ठस्य पूरणं स पूरकः । यत् पुनर्नाभिपद्मे कुम्भ इव वायोः स्थिरीकरणं स कुम्भकः ||७|| तथा-स्थानात्स्थानन्तरोत्कर्षः प्रत्याहारः प्रकीर्तितः । तालुनासाननद्वारर्निरोधः शान्त उच्यते॥८॥ स्थानात् नाभ्यादेः स्थानान्तरे हृदयादौ वायोरुत्कर्षणं स प्रत्याहारः । त.लु च नासा चाननं च तालुनासा SHOREEN COOKEE CHDAYERE पश्चम प्रकाशः ॥६७९॥ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् प्रकाशा ॥६८०॥ ननं तत्र द्वाराणि तैर्यों वायोनिरोधः स शान्तः ॥८॥ तथाआपीयोर्वं यदुत्कृष्य हृदयादिषु धारणम् । उत्तरः स समाख्यातो विपरीतस्ततोऽधरः॥९॥ आपीय पीत्वा बाह्यवायुमूर्ध्वमुत्कृष्योन्नीय हृदयादिषु यद्वायोर्धारणं स उत्तरः, ततो विपरीतोऽधरः उर्ध्वदेशादधोनयनरूपः। ननु रेचकादिषु कथं प्राणायामो गतिविच्छेदरूपो हि स उच्यते ? उच्यते--यत्र रेचके कोष्ठयो वायुविरेच्य बहिर्धार्यते तत्रास्ति श्वासप्रश्वासयोर्गतिच्छेदः, यत्रापि पूरके बाह्यो वायुराचम्यान्तर्धार्यते तत्राप्यस्ति श्वासप्रश्वासयोगतिच्छेदः, एवं कुम्भकादिष्वपि ॥९॥ रेचकादीनां फलमाहरेचनादुदरव्याधेः कफस्य च परिक्षयः । पुष्टिः पूरकयोंगेन व्याधिघातश्च जायते ॥१०॥ विकसत्योशु हृत्पनं प्रन्थिरन्तर्विभिद्यते । वलस्थैर्यविवृद्धिश्च कुम्भकाद्भवति स्फुटम् ॥११॥ प्रत्याहारावलं कान्तिपिशान्तिश्च शान्ततः । उत्तराधरसेवातः स्थिरता कुम्भकस्य तु ॥१२॥ श्लोकत्रयं स्पष्टम् ॥१०॥११॥१२॥ न केवलं प्राणायामः प्राणस्यैव जयहेतुः, किन्तु पश्चानामपि वायूनां जयहेतुरित्याहप्राणमपानसमानावुदानं व्यानमेव च । प्राणायामैजयेत् स्थानवर्णक्रियार्थबीजवित् ॥१३॥ ॥६८०॥ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् पञ्चमः प्रकाश ॥६८२॥ प्रकर्षेण नयतीति प्राणः, मूत्रपुरीषगर्भादीनपनयतीत्यपानः, अशितपीताहारपरिणतिभेदं रसं तत्र तत्र स्थाने सममनुरूपं नयतीति समानः, रसादीनू नयतीत्युदानः, व्यानयति व्यामोतीति व्यानः, डप्रत्ययान्ता एते। अथवा प्रसरणेनापसरणेन समन्तात्प्रसरणार्श्व व्याप्त्या च अनिति अनेनेति घन्ताः प्राणमपानं समानमुदानं व्यानं च वायु प्राणायामै रेचकादिभिर्जयेद्योगी । किविशिष्टः ? स्थानवर्णक्रियार्थबीजवित् प्राणादीनां स्थानं वर्ण क्रियामर्थ बीजं च वेत्ति यः स तथा ॥१३॥ तत्र प्राणस्य स्थानादीन्याहप्राणो नासोग्रहन्नाभिपादाङ्गुष्ठान्तगो हरित् । गमागमप्रयोगेण तज्जयो धारणेन वा ॥१४॥ प्राणो नाम वायुर्नासाग्रे हृदि नाभौ पादाङ्गुष्ठान्ते च गच्छतीति स तथा इति स्थानं । हरिदिति वर्णः। गमागमप्रयोगेण धारणेन च (वा) तज्जयः इति क्रिया । अर्थों बीजं च वक्ष्यते ॥१४॥ ___अथ गमागमप्रयोग धारणं च व्याचष्टे-- नासादिस्थानयोगेन पूरणाद्रेचनान्मुहुः । गमागमप्रयोगः स्याद्धारणं कुम्भनात् पुनः ॥१५॥ ___स्पष्टः ॥१५॥ अथापानस्य-- अपानः कृष्णरुग्मन्यापृष्ठपृष्ठान्तपाणिगः। जयः स्वस्थानयोगेन रेचनात् पूरणान्मुहुः ११६॥ कृष्णरुक कृष्णवर्णः, मन्ये ग्रीवापश्चान्नाडयौ, पृष्ठं तदधोभागः, पृष्ठान्तो गुदः, पाणी पादपश्चाद्भागो, तेषु ॥६८२॥ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥६८२ ॥ गच्छति यः स तथा, स्वस्थानं मन्यादि तद्गतरेचनपूरणाभ्यां जेयः ||१६|| अथ समानस्य - शुक्लः समानो हन्नाभिसर्वसन्धिष्ववस्थितः । जेयः स्वस्थानयोगेनासकृद्रेचनपूरणात् ॥ १७॥ शुक्लो वर्णेन । हृदये नाभौ सर्वसन्धिषु च स्थानमस्य स स्वस्थानेऽसकृद्रेचनात् पुरणाच्च यः ॥ १७॥ अथोदानस्य रक्तो हत्कण्ठतालुभ्रूमध्य मूर्धनि संस्थितः । उदानो वश्यतां नेयो गत्योगतिनियोगतः ॥ १८ ॥ रक्तो वर्णेन । हृदयं कण्ठः तालु भ्रूमध्यं मूर्धा च स्थानमस्य । स उदानो गत्यागतिप्रयोगेण वशमायत्ततां नेयः ॥१८॥ गत्यागतिप्रयोग मेवाह- नासाकर्षणयोगेन स्थापयेत्तं हृदादिषु । बलादुत्कृष्यमाणं च रुध्ध्वा रुध्ध्वा वशं नयेत् ॥ १९ ॥ तमुदानं हृदयादिषु स्थापयेत् । केन ? नासाकर्षणयोगेन नासयाऽऽकर्षणमधस्तान्नयनं स एव योगस्तेन, तथाऽप्यजीयमानं बलादाकृष्यमाणं ऊर्ध्वं नीयमानं रुध्ध्वा रुध्ध्वा विधार्य विधार्य वशं नयेत् ॥ १९ ॥ अथ व्यानस्य -- सर्वत्वग्वृत्तिको व्यानः शक्राकार्मुकसन्निभः । जेतव्यः कुम्भकाभ्यासात्सङ्कोवप्रसृतिक्रमात् ॥२०॥ सर्वस्यां त्वचि वर्तमानः इति स्थाननिर्देशः । शक्रकार्मुकसन्निभ इति वर्णनिर्देशः । कुम्भकाभ्यासाज्जेतव्यः । पश्चमः प्रकाशः । १६८२॥ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पागशास्रम् ॥६८३॥ प्रकाश। अभ्यासक्रवाह-सङ्कोचप्रसूतिक्रमात् सङ्कोचेन प्रसरणेन चेत्यर्थः ॥२०॥ अथैषां ध्यातव्यवीजान्याहप्राणापानसमानोदानव्यानेष्वेषु वायुषु । ये पैरौ लौ बीजानि ध्यातव्यानि यथाक्रमम्॥२१॥ प्राणस्य य इति बीजं. अपानस्य पै समानस्य वै, उदानस्य रौं व्यानस्य लौ ॥२१॥ इदानीं श्लोकत्रयेण प्राणादिजयस्यार्थमाहप्राबल्यं जाठरस्याग्नेर्दीर्घश्वासमरुज्जयौ । लाघवं च शरीरस्य प्राणस्य विजये भवेत् ॥२२॥ दीर्घोऽन्युच्छिन्नः श्वासः प्राणधारणप्रत्ययार्य, प्राणप्रतिबद्धाः सर्वे मरुतः, तज्जये सर्वमरुज्जयो भवतीति॥२२॥ तथा रोहणं क्षतभङ्गादेख्दरामेः प्रदीपनम् । वचोऽल्पत्वं व्याधिघातः समानापानयोजये ॥२३॥ रोहणं रोपणं, कस्य ? क्षतभङ्गादेः क्षतस्य-वणस्य, भङ्गस्य-अस्थ्यादिसंबन्धिनः, आदिशब्दादन्यस्य तत्प्रकारस्य । शेष स्पष्टम् ॥२३॥ तथाउत्क्रान्तिर्वारिपङ्कायेश्वाबाधोदाननिर्जये। जये व्यानस्य शीतोष्णासङ्गः कान्तिररोगिता ॥२४॥ उत्क्रान्तिरुत्क्रमणं प्रयाणकालेऽचिरादिमार्गेण स्ववशित्वेनोत्क्रान्ति करोतीत्यर्थः । जलपकादिभिश्चाबाधा, तैर्न प्रतिहन्यत इत्यर्थः । आदिशब्दात् कण्टकादिपरिग्रहः उदाननिर्जये सति ।व्यानस्य जये शीतोष्णाभ्यामसङ्गः अबाधा, कान्तिर्दीप्तिः, अरोगिताऽऽरोग्यम् ॥२४॥ ॥६८३॥ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥६८४॥ प्राणादीनां जये प्रत्येकं फलमुक्त्वा सामस्त्येन फलमाह - यत्र यत्र भवेत् स्थाने जन्तो रोगः प्रपीडकः । तच्छान्त्यै धारयेत्तत्र प्राणादिमरुतः सदा । २५ || स्पष्टः ||२५|| पूर्वोक्तमुपसंहरन्नुत्तरं संबध्नाति -- एवं प्राणादिविजये कृताभ्यासः प्रतिक्षणम् । धारणादिकमभ्यस्येन्मनः स्थैर्यकृते सदा ॥२६॥ धारणादिकमभ्यस्येत्, आदिशब्दात् ध्यानसमाधी, किमर्थ ? मनः स्थैर्यार्थम् ||२६|| अथ धारणादिविधिं श्लोकपञ्चकेनाह उक्तासनसमासीनो रेचयित्वाऽनिलं शनैः । आपादाङ्गुष्ठपर्यन्तं वाममार्गेण पूरयेत् ॥२७॥ पादाङ्गुष्ठे मनः पूर्वं रुध्ध्वा पादतले ततः। पाष्णौ गुल्फे च जङ्घायां जानुन्यूरौ गुदे ततः ॥ २८ लिङ्गे नाभौ च तुन्दे च हृत्कण्ठरसनेऽपि च । तालुनासाग्रनेत्रे च भ्रुवोर्भाले शिरस्यथ ॥ २९ ॥ एवं रश्मिक्रमेणैव धारयन्मरुता सह । स्थानात्स्थानान्तरं नीत्वा यावदब्रह्मपुरं नयेत् ॥३०॥ ततः क्रमेण तेनैव पादाङ्गुष्ठान्तमानयेत् । नाभिपद्मान्तरं नीत्वा ततो वायुं विरेचयेत् ॥ ३१ ॥ उक्तानि यानि पर्यङ्कादीन्यासनानि तेषु समासीनः पवनं रेचयित्वा शनैरिति मन्दं मन्दं पादाङ्गुष्ठप्रान्तं यावत् पूरयेत् वाममार्गेण वामनाड्या ||२७|| पादाङ्गुष्ठे मनः प्रथमं रुध्ध्वा धारयित्वा ततः पादतले, ततोऽपि पाण पञ्चमः प्रकाशः । ॥६८४॥ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् । ॥६८५।। ततो गुल्फे, ततो जङ्घायां ततो जानुनि, ततोऽप्यूरौ ततो गुदे ॥२८॥ ततो लिगे, ततो नाभौ, ततस्तुन्दे, ततो हृदि, ततः कण्ठे, ततो रसनायां ततस्तालुनि, ततो नासाग्रे, ततो नेत्रयोः, ततो भ्रुवो:, ततो ललाटे, ततः शिरसि ||२९|| एवं रश्मिक्रमेण मनो मरुता सह धारयन् स्थानात् स्थानान्तरं नीत्वा ब्रह्मपुरं नयेत् ॥३०॥ ततस्तैनैवारोहक्रमेण पादाङ्गुष्ठान्तं मनो मरुता सहानयेत्, ततो नाभिपद्ममध्यं नीत्वा वायुं विरेचयेत् ॥३१॥ अथ धारणायाः फलं श्लोकचतुष्टयेनाह पादाङ्गुष्ठादौ जङ्घायां जानूरुगुदमेदने । धारितः क्रमशो वायुः शीघ्रगत्यै बलाय च ॥ ३२ ॥ att ज्वरादिघाताय जठरे कायशुद्धये ॥ ज्ञानाय हृदये कूर्मनाड्यां रोगजराच्छिदे ॥ ३३ ॥ कण्ठे क्षुत्तर्षनोशाय जिह्वा - रससंविदे । गन्धज्ञानाय नासाग्रे रूपज्ञानाय चक्षुषोः ॥३४॥ भाले तद्रोगनाशोय क्रोधस्योपशमाय च । ब्रह्मरन्त्र च सिद्धानां साक्षाद्दर्शनहेतवे ॥ ३५ ॥ पादाङ्गुष्ठे, आदिशब्दात् पाष्ण गुल्फे च, जङ्घायां, जानुनि, ऊरौ, गुदे, मेहने, क्रमेण धारितो वायुः शीघ्रगत्यै बलाय च भवति ||३२|| शेषं सुगमम् ॥ ३३ ।। ३४ ।। ३५ ।। अथ धारणामुपसंहृत्य पवनचेष्टितमाह अभ्यस्य धारणामेवं सिद्धीनां कारणं परम् । चेष्टितं पवमानस्य जानीयाद्गतसंशयः ॥ ३६ ॥ स्पष्टः ।। ३६ ।। तद्यथा पञ्चमः प्रकाशः । ॥६८५॥ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम्। पञ्चमः प्रकाशः। ॥६८६॥ नाभेनिष्कामतश्चारं हृन्मध्ये नयतो गतिम् । तिष्ठतो द्वादशोन्ते तु विद्यात्स्थान नभस्वतः॥३९ ।। स्पष्टः । नवरं गतिं नयत इति गच्छतः । द्वादशान्तं तु ब्रह्मरन्ध्रम् ॥३७॥ अथ चारादीनां ज्ञानस्य फलमाहतच्चारगमनस्थानज्ञानादभ्यासयोगतः । जानीयात् कालमायुश्च शुभाशुभफलोदयम् ॥३०॥ कालं मृत्यु, आयुर्जीवितं, शुभाशुभफलस्य चोदयं जानीयात् , एतच्च यथास्थानं वक्ष्यते ॥ ३८ ॥ उत्तरकरणीयमाहततः शनैः समाकृष्य पवनेन समं मनः । योगी हृदयपद्मान्तर्विनिवेश्य नियन्त्रयेत् ॥३९॥ ततोऽनन्तरं शनैर्मन्दं मन्दं ब्रह्मरन्ध्रात् पवनेन सह मनः समाकृष्य हृदयपद्मस्यान्तमध्ये विनिवेश्य नियन्त्रयेत् धारयेत् ॥ ३९ ॥ हृदयस्थे पवने मनसि च यत्फलं तदाह| ततोऽविद्या विलीयन्ते विषयेच्छा विनश्यति । विकल्पो विनिवर्तन्ते ज्ञानमन्तर्विजृम्भते ॥४०॥ अविद्याः कुवासना विलीयन्ते । शेषं स्पष्टम् ॥४०॥ हृदये स्थिरीकृते मनसि वायोः स्वरूपज्ञानार्थ प्रक्रमतेक्व मण्डले गतिर्वायोः संक्रमः क्व व विश्रमः । का च नाडीति जानीयोत्तत्र चित्ते स्थिरीकृते॥४१ ॥६८६॥ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम्। ॥६८७॥ प्रकाश। कुत्र मण्डले वायोर्गतिः? क संक्रमण ? क वा विश्रामः? का च नाडी वामादिरूपा ? इति जानीयात् तत्र हृदये स्थिरीकृते मनसि ॥ ४१ ॥ तत्र मण्डलान्याहु:मण्डलानि च चत्रारि नासिको विवरे विदुः। भौमवारुणवोयव्याग्नेयाख्यानि यथोत्तरम् ॥४२॥ ____ यथोत्तरमिति प्रथमं भौम पार्थिवं मण्डलं ततो वारुणमाप्य, ततो वायव्यं, ततोऽप्याग्नेयम् ॥४२॥ भौम मण्डलं व्याचष्टेपृथिवीबीजसंपूर्ण वज्रलाञ्छनसंयुतम् । चतुरस्त्रं द्रुतस्वर्णप्रभं स्योभौममण्डलम् ॥४३॥ पृथिवीबीजं क्षितिलक्षणं तेन मध्ये संपूर्ण, चतुरस्रं, कोणेषु वज्रलाञ्छनं, तप्तस्वर्णवर्ण, भौममण्डलं स्यात् ॥४३॥ अथ वारुणम्स्यादर्धचन्द्रसंस्थानं वारुणक्षरलाञ्छितम् । चन्द्राभममृतस्यन्दसान्द्रं वारुणमण्डलम् ॥४४॥ __अष्टमीचन्द्रसंस्थानं, वारुणाक्षरो वकारस्तेन लाञ्छितं, चन्द्राभं श्वेतवर्ण, अमृतस्य पीयूषस्य स्पन्दः क्षरणं तेन सान्द्र बहलं वारुणमण्डलम् ॥ ४४ ॥ अथ वायव्यम्स्निग्धाञ्जनघनच्छायं सुवृत्तं बिन्दुसंकुलम् । दुर्लक्ष्यं पवनाक्रान्तं चञ्चलं वायुमण्डलम् ॥४५॥ ॥६८७॥ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ६८८|| ECHO OXOXO CXCCE स्निग्धयोरञ्जनघनयोरिव च्छाया यस्य तत्तथा, सुष्ठु वृत्तं वर्तुलं, मध्ये बिन्दुसंकुलं, दुर्लक्ष्यं दुरवगमं, परितः पवनवेष्टितं, चञ्चलं वायव्यमण्डलम् ॥ ४५ ॥ अथाग्नेयम् - ऊर्ध्वज्वालाञ्चितं भीमं त्रिकोणं स्वस्तिकान्वितम् । स्फुलिङ्गपिंगं तद्वीजं ज्ञेयमाग्नेयमण्डलम्। ४६ । ऊर्ध्वगामिनीभिर्व्वालाभिश्चितं भीमं भयानकं, त्रिकोणं, कोणेषु स्वस्तिकाश्चितं, स्फुलिङ्गवत् पिङ्गं तदित्यनेनाग्नेः परामर्षः, बीजं च रेफः, एतदाग्नेयमण्डलम् ॥ ४६ ॥ अश्रद्दधानबोधार्थमाह- अभ्यासेन स्वसंवेद्यं स्यान्मण्डलचतुष्टयम् । क्रमेण संचरन्नत्र वायुर्ज्ञेयश्चतुर्विधः ॥४७॥ अभ्यासेन स्वसंवेद्यमेतत् मण्डलचतुष्टयं स्यात्, नापातमात्रेण, अत्र मण्डलचतुष्टये संचरन् वायुमण्डलभेदेन चतुर्विधो भवतीति क्रमेणाह ॥४७॥ नासिकारन्त्रमापूर्य पीतवर्णः शनैर्वहन् । कवोष्णोऽष्टाङ्गुलः स्वच्छो भवेद्वायुः पुरन्दरः॥४८॥ नासाविवरमापूर्य पीतवर्णः शनैर्मन्दं मन्दं वहन् किञ्चिदुष्णः अष्टाङ्गुलप्रमाणः स्वच्छः पार्थिवः पुरन्दरनामा वायुः ॥ ४८ ॥ तथा- धवलः शीतलोऽधस्तात्त्वरितत्वरितं वहन् । द्वादशांगुलमानश्च वायुर्वरुण उच्यते ॥४९॥ वर्णेन धवलः, स्पर्शेन शीतः, अधस्तादधः त्वरितत्वरितं वहन् द्वादशाङ्गुलप्रमाणो वायुर्वरुणनामा ॥४९॥ तथा 6 पश्चम प्रकाशः llll Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शखिम् ॥६८९॥ पञ्चमः प्रकाशः। उष्णः शीतश्व कृष्णश्च वहन् तिर्यगनारतम् । षडङ्गुलप्रमाणश्च वोयुः पवनसंज्ञितः ॥५०॥ स्पर्शेन कचिदुष्णः कचिच्छीतः, कृष्णो वर्णेन. तिर्यक् सततं वहन् षडङ्गुलप्रमाणो वायुः पवननामा ॥५०॥तथाबालादित्यसमज्योतिरत्युष्णश्चतुरंगुलः । आवर्तवान् वहन्नू पवनो दहनः स्मृतः ॥५१॥ बालार्कारुणो वर्णेन, अतिशयोष्णः स्पर्शन, चतुरङ्गुलप्रमाणः, आवर्तवान् , उध्वं वहन् दहननामा पवनः ॥५१॥ यस्मिन् वायौ यत्कार्य कुर्यात्तदाह-- ॥ इन्द्रं स्तम्भादिकार्येषु वरुणं शस्तकर्मसु। वायु मलिनलोलेषु वश्यादौ वहनिमादिशेत् ॥५२॥ ___स्तम्भस्तोभादिषु पुरन्दरं, प्रशस्तेषु कर्मसु वरुणं, मलिनेषु चलेषु च कर्मसु वायुं, वशीकरणादौ वह्निपवन मादिशेत् ॥५२॥ - इदानीमारब्धे कार्ये कार्यप्रश्ने च यो यदा वायुवहति तस्य फलं श्लोकचतुष्टयेनाहछत्रचामरहस्त्य श्वरामाराज्यादिसंपदम् । मनीषितं फलं वायुः समाचष्टे पुरन्दरः ॥५३॥ रामाराज्यादिसंपूर्णः पुत्रस्वजनबन्धुभिः। सारेण वस्तुना चापि योजयेद्वरुणः क्षणात् ॥५४॥ कृषिसेवादिकं सर्वमपि सिद्धं विनश्यति । मृत्युभीः कलहो वैरं त्रासश्च पवनं भवेत् ॥५५॥ भयं शोकं रुजं दुःखं विघ्नव्यूहपरंपराम् । संसूचयेद्विनाशं च दहनो दहनात्मकः ॥५६॥ ६८| Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् । ||६९०॥ स्पष्टाः ॥५३॥५४॥५५॥ ५६ ॥ एतेषामेव सूक्ष्मतरं फलमाह-शशाङ्करविमार्गेण वायो मण्डलेष्वमी । विशन्तः शुभदाः सर्वे निष्क्रामन्तोऽन्यथा स्मृताः ॥५७॥ सर्वेऽपि वायवः पुरन्दरादयः शशाङ्कमार्गेण वामेन रविमार्गेण दक्षिणेन प्रविशन्तः शुभावहाः, निःसरन्तस्तु अशुभावहाः ||५७ ॥ प्रवेशनिर्गमयोः शुभाशुभत्वे कारणमाह- प्रवेशसमये वायुर्जीवो मत्युस्तु निर्गमे । उच्यते ज्ञानिभिस्तादृक्फलमप्यनयोस्ततः ॥ ५८ ॥ स्पष्टः || ५८ || इदानीं वायोः शुभत्वमशुभत्वं मध्यमत्वं (च) नाडीभेदात् श्लोकद्वयेनाह-पथेन्दोरिन्द्रवरुणौ विशन्तौ सर्वसिद्धिदौ । रविमार्गेण निर्यान्तौ प्रविशन्तौ च मध्यमौ ॥ ५९ ॥ दक्षिणेन विनिर्यातौ विनाशायानिलानलौ । निःसरन्तौ विशन्तौ च मध्यमावितरेण तु ॥ ६० ॥ ॥ स्पष्टौ ॥५९॥६०॥ अथ नाडीरेवाह- इडा च पिङ्गला चैव सुषुम्णा चेति नाडिकाः । शशिसूर्यशिवस्थानं वामदक्षिण मध्यगाः ॥ ६१ ॥ वामगा इडा नाडी शशिनः स्थानं, दक्षिणगा पिङ्गला नाम रवेः स्थानं, मध्यमगा सुषुम्णा नाम शिवस्थानम् ॥ ६१ ॥ एतासु वायुसंचारे फलं श्लोकद्वयेनाह- पञ्चमः प्रकाश । ||६९० ॥ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यांगशाखम्। पञ्चमा प्रकाशः। ॥६९१॥ पीयूषमिव वर्षन्ती सर्वगात्रेषु सर्वदा । वामाऽमृतमयी नडी सम्मताऽभीष्टसूचिका ॥६॥ वहन्त्यनिष्टशंसित्री संहीं दक्षिणा पुनः। सुषुम्णा तु भवेत् सिद्धिनिर्वाणफलकारणम् ॥६३। स्पष्टौ । नवरं सिद्धयोऽणिमाद्याः; निर्वाणं मुक्तिः ॥६॥६३॥ वामदक्षिणयोः कार्य प्रति विशेषमाहवामैवाभ्युदयादीष्टशस्तकार्येषु सम्मता । दक्षिणा तु रताहारयुद्धादौ दीप्तकर्मणि ॥६॥ __अभ्युदयादीनीष्टानि शस्तानि च यानि कार्याणि तेषु वामैव नाडी सम्मता, दक्षिणा तु रतारम्भे, भोजनकाले युद्धे, आदिशब्दादन्यत्रापि दीप्ते कर्मणि सम्मता ॥६॥ पुनर्बामदक्षिणयोविषयविभागमाह-- वामा शस्तोदये पक्षे सिते कृष्णे तु दक्षिणो। त्रीणि त्रीणि दिनोनीन्दुसूर्ययोरुदयः शुभः॥ ६५॥ सिते पक्षे आदित्योदयकाले वहन्ती वामा शस्ता भवति, कृष्णपक्षे तु दक्षिणा शस्ता । किं सकलेऽपि पक्षे ? नेत्याह-इन्दुसूर्ययोमदक्षिणयोर्नाडयोसीणि त्रीणि दिनानि उदयः शुभः ॥६५॥ उदयनियममुक्त्वाऽस्तनियममाह-- शशाङ्केनोदये वायोः सूर्येणास्तं शुभावहम् । उदये रविणा त्वस्य शशिनास्तं शिवं मतम् ॥६६॥ यत्र दिने शशाङ्केन वायोरुदयस्तत्रास्तं सूर्येण शुभावह, यत्र च सूर्येणोदयस्तत्रास्तं शशाकेन शुभावहम् ॥६६॥ पूर्वोक्तमेवार्थ त्रिभिः श्लोकैविस्तरेणाह १६९१॥ Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगहाखिम्। पश्चम प्रकाशः। ग६९२५ सितपक्षे दिनारम्भे यत्नेन प्रतिपदिने । वायोर्वीक्षेत संचारं प्रशस्तमितरं तथा ॥६७॥ 8 उदेति पवनः पूर्वं शशिन्येष त्र्यहं ततः। संक्रामति व्यहं सूर्ये शशिन्येव पुनथ्यहम् ॥६॥ वहेद्यावद बृहत्पर्व क्रमेणोनेन मारुतः। कृष्णपक्षे पुनः सूर्योदयपूर्वमयं क्रमः ॥६९॥ स्पष्टाः ॥ ६७ ॥ ६८ ॥ ६९ ॥ अस्य क्रमस्य व्यतिक्रमे फलं श्लोकद्वयेनाह-- श्रीन्. पक्षानन्यथात्वेऽस्य मासषट्केन पञ्चता । पक्षद्वयं विपर्यासेऽभीष्टबन्धुविपद्भवेत् ॥७०॥ भवेत्तु दारुणे व्याधिरेकं पक्ष विपर्यये । द्विव्याद्यहविपर्यासे कलहादिकमुद्दिशेत् ॥७१॥ पूर्वोक्तस्य चन्द्रसूर्यचारस्य त्रीन् प्रक्षान् यावद् व्यतिक्रमे पइभिर्मासैमरणं, द्वौ पक्षौ यावद्वयतिक्रमेऽभीष्टबन्धु| विपद्भवेत् , पक्षमेकं यावद्वयतिक्रमे दारुणो व्याधिर्भवेत् ॥ ७० ॥ ७१ ॥ तथा-- एक द्वे त्रीण्यहोरात्राण्यर्क एव मरुद्वहन् । वर्षेत्रिभिभ्यमिकेनान्तायेन्दौ रुजे पुनः ॥७२॥ | एकमहोरात्रम् अर्क एव पवनो वहन वर्षत्रयेण मरणाय, द्वे अोरात्रे वहन् वर्षद्वयेन, त्रीणि त्वहोरात्राणि वहन् वर्षेणैकेन । इन्दौ तु तथा वहन् पवनो रोगाय ॥ ७२ ॥ तथा-- मासमेकं खावेव वहन् वायुर्विनिर्दिशेत। अहोरात्रावधि मृत्युं शशाङ्के तु धनक्षयम् ॥७३॥ स्पष्टः ॥ ७३ ॥ तथा-- ॥६९२॥ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥ ६९३॥ 009 CHOCO FORCE वायुस्त्रिमार्गगः शंसेन्मध्याह्नात् परतो मृतिम् । दशाहं तु द्विमार्गस्थः संक्रान्तौ मरणं दिशेत् ॥ त्रिषु मार्गेषु इडापिङ्गलासुषुम्णालक्षणेषु गच्छतीति त्रिमार्गगो वायुः मध्याह्नात् परतो मरणं शंसेत् । दश दिनानि यावदसंक्रान्त एव द्विमार्गगो वायुः ततः परं संक्रामन् मरणं सूचयति ॥ ७४ ॥ तथा-दशाहं तु वहन्निन्दावेवोद्वेगरुजे मरुतू । इतश्चेतश्च यामार्धं वहन् लाभार्चनादिकृत् ॥७५॥ चन्द्र एवं दशाहानि बहन् मरुत् उद्वेगाय रुजे च स्यात् । यामार्धं यावदितश्चेतश्च वामाया दक्षिणायां, दक्षिणायाः (च) वामायां वायुर्वहन् लाभपूजादिकारी भवति ॥ ७५ ॥ तथा-विषुवत्समयप्राप्तौ स्पन्देते यस्य चक्षुषो । अहोरात्रेण जानीयात्तस्य नाशमसंशयम् ॥ ७६ ॥ समरात्रिन्दिवः कालेा विषुवान् स चासौ समयश्च तस्य प्राप्तौ सङ्गमे यस्य चक्षुषी स्पन्देते, स्पन्दनं वायोविकार इति नाधिकारभ्रंशः । शेषं स्पष्टम् ॥ ७६ ॥ तथा— पञ्चातिक्रम्य संक्रान्तीर्मुखे वायुर्वहन् दिशेत् । मित्रार्थहानी निस्तेजोऽनर्थान् सर्वान्मृति विना ॥ नाडयन्तरे वायोः संक्रमकालः संक्रान्तिः, तत्सक्रान्तिपञ्चकमतिक्रम्य षष्ठयां संक्रान्तौ यदा मुखेन वायुर्वहति तदा मित्रानिमर्थहानिं, निस्तेजः, सर्वाननर्थानिति उद्वेगरोग देशान्तरगमनादीनादिशेत्, मरणं विना, मृतिस्तु न स्यात् ॥ ७७ ॥ तथा- पश्ञ्चमः प्रकाशः । ॥६९३॥ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग. शाखम्। पञ्चमा प्रकाशः। ॥६९४५ संक्रान्तीः समतिक्रम्य त्रयोदश समीरणः। प्रवहन् वामनासायां रोगोद्वेगादि सूचयेत् ॥७॥ वामनासायां त्रयोदश संक्रान्तीय॑तिक्रम्य चतुर्दश्यां संक्रान्तौ वहन् वायू रोगोद्वेगादि सूचयति।।७८||तथा-- मार्गशीर्षस्य संक्रान्तिकालादारभ्य मारुतः। वहन् पञ्चाहमाचष्टे वत्सरेऽष्टोदशे मृतिम् ॥७९॥ ___ मार्गशीर्षस्य प्रथमदिवसादारभ्य यदा पञ्चरात्रमेकनाड्यां वहेत् वायुः तदाऽष्टादशे वर्षे मरणम् ॥७९॥ तथा| शरत्संक्रान्तिकालाच पञ्चाहं मारुतो वहन् । ततः पञ्चदशाब्दानामन्ते मरणमादिशेत् ॥८॥ ____ अश्वयुक्प्रथमदिवसादारभ्य पञ्च दिनान्येकनाडयां यदि वायुर्वहेत् तदा पञ्चदशवर्षान्ते मरणम् ॥८०॥ तथा-- | श्रावणादेः समारभ्य पश्चाहमनिलो वहन् । अन्ते द्वादशवर्षाणां मरणं परिसूचयेत् ॥८१॥ | वहन् ज्येष्ठादिदिवसादशाहानि समीरणः। दिशेन्नवमवर्षस्य पर्यन्ते मरणं ध्रुवम् ॥८२॥ | आरभ्य चैत्राद्यदिनात् पञ्चाहं पवनो वहन् । पर्यन्ते वर्षषट्कस्य मृत्यु नियतमादिशेत् ॥८३॥ | आरभ्य माघमासादेः पच्चाहानि मरुद्वहन् । सवत्सरत्रयस्यान्ते संसूचयति पञ्चताम् ॥८४॥ ____ अमी चत्वारः श्लोकाः पूर्ववद्वयाख्येयाः ॥ ८१ ॥ ८२ ॥ ८३ ॥ ८४ ॥ तथाill सर्वत्रा द्वित्रिचतुरो वायुश्चेदिवसान वहेत् । अब्दभागैस्तु ते शोध्या यथावदनुपूर्वशः ॥५॥ ॥६९४॥ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शखिम् ॥६९५॥ येषु पञ्चाहगमनं वायोर्निदिष्टं तेषु द्वित्रिचतुर्दिवसवाहिनि मारुते पञ्चाहफलानुसारेण मरणवर्षमूह्यं । अब्दभागैस्तु ते शोध्या इति पञ्चाहवाहिनि वायौ किलाष्टादशाब्दानि ततो दिनचतुष्टयवाहिनि एकदिवसभागे वर्षत्रयं मासाः सप्त दिनानि षट् अस्मिन् शोधिते लब्धं चतुर्दश वर्षाणि चत्वारो मासाः चतुर्विंशतिर्दिनानि । एवं द्वयहत्र्यहवाहिन्यपि वाच्यं । शरदादिष्वप्येवमेव भागशुद्धिः कार्या ॥ ८५ ॥ अथ प्रकारान्तरेण वायुनिमित्तं कालज्ञानोपदेशं प्रतिजानीते- अथेदानीं प्रवक्ष्यामि कञ्चित् कालस्य निर्णयम् । सूर्यमार्गे समाश्रित्य स च पौष्णेऽवगम्यते ॥८६॥ स्पष्टः || ८६|| पौष्ण इत्युक्तं तस्य स्वरूपमाह- जन्मऋक्षगते चन्द्रे समसप्तगते रवौ । पौष्णनामा भवेत्कालो मृत्यु निर्णयकारणम् ॥८७॥ यदा जन्मनक्षत्रे चन्द्रः समसप्तगतश्च सूर्यो भवति तदा पौष्णः कालः ॥८७॥ तस्मिन् सूर्यनाडीप्रवाहेण कालज्ञानमाह- दिन दिनमेकं च यदा सूर्ये मरुद्वहन् । चतुर्दशे द्वादशेऽब्दे मृत्यवे भवति क्रमात् ॥ ८८ ॥ दिना सूर्यनाडयां वहन् वायुश्चतुर्दशे वर्षे दिनं तु वहन् द्वादशेऽब्दे मृत्यवे स्यात् ||८८|| तथातथैव च वहन् वायुरहोरात्रं द्वयह त्र्यहम् । दशमाष्टमषष्ठाव्देष्वन्ताय भवति क्रमात् ॥ ८९ ॥ पञ्चमः प्रकाशः। |||६९५ ॥ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥६९६ ॥ तथैव सूर्यनाडयामहोरात्रं वहन् वायुर्दशमे वर्षे, द्वयहं वहन्नष्टमे वर्षे त्र्यहं वहन् षष्ठे वर्षे मृत्यवे भवति ॥८९॥ तथा वहन् दिनानि चत्वारि तुर्येऽब्दे मृत्यवे मरुत् । साशीत्यहः सहस्र तु पञ्चाहानि वहन् पुनः ॥ ९० ॥ ॥ तथैव सूर्यनाड्यां चत्वारि दिनानि वहन् वायुश्चतुर्थे वर्षे मृत्यवे । पश्च दिनानि तथा वहन् वायुरशीत्यधि दिनसहखे वर्ष इत्यर्थः ॥९०॥ तथा- एकद्वित्रिचतुःपञ्चचतुर्विंशत्यहःक्षयात् । षडादीन दिवसान् पञ्च शोधयेदिह तद्यथा ॥९१॥ साशीत्यहः सहखमध्यादेकस्या द्वयोस्तिसृणां चतसृणां पञ्चानां चतुर्विंशतीनां यथाक्रमं पातनेन पट् सप्ताष्टौ नव दश च दिनानि शोधयेत्, तद्गतं च कालं जानीयात् । तद्यथेति विवरणोपन्यास चतुभिः श्लोकैः ॥९१॥ षट्कं दिनानामभ्यर्के वहमाने समीरणे । जीवत्यह्नां सहस्रं षट्पञ्चाशद्दिवसाधिकम् ॥ ९२ ॥ || षट् दिनान्यर्कनाडा वहमाने वायौ षट्पञ्चाशदधिकं दिनसहस्रं जीवति अशीत्यधिक सहखादेकचतु विंशत्यपनयने एतदेव भवति ॥ ९२ ॥ तथा सहस्रं सोष्टकं जीवेद्वायौ सप्ताहवाहिनि । सषट्त्रिंशन्नवशतीं जीवेदष्टाहवाहिनि ॥ ९३॥ सप्ताहवाहिनि वायावष्टोत्तरं दिनसहखं जीवेत्, षट्पञ्चाशदधिकसहखात् द्वयोश्चतुर्विंशत्योरपनयने एतदेव पश्चम प्रकाशः ॥१९६॥ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् प्रकाशः। ॥६९७॥ भवति । अष्टाहवाहिनि तु वायौ पत्रिंशदधिकां दिननवशतीं जीवेत् , अष्टोत्तरसहस्रात्तिमृणां चतुर्विंशतोनामपन यने एतदेव भवति ॥१३॥ तथा-- एकत्रैव नवाहानि तथा वहति मारुते । अनामष्टशती जीवेच्चत्वारिंशदिनाधिकोम् ॥९॥ नव दिनानि वहति वायौ चत्वारिंशदधिकां दिनानामष्टशतीं जीवेत् पत्रिंशदधिकनवशतीमध्याच्चतमृणां चतुर्विशतीनामपनयने एतदेव भवति ॥१४॥ तथा-- । तथैव वायौ प्रवहत्येकत्र दश वासरान् । विंशत्यभ्यधिकामना जीवेत्सप्तशती ध्रुवम् ॥१५॥ ____ दश वासरान् वायौ वहति विंशत्यधिकां दिनसप्तशतीं जीवेत् । चत्वारिंशदधिकाष्टशतीमध्यात् पञ्चानां चतुर्वि शतीनामपनयने एतदेव स्यात् ॥९५॥ तथाएकद्वित्रिचतुःपञ्चचतुर्विंशत्यहाक्षयोत् । एकादशादिपञ्चाहान्यत्र शोध्यानि तद्यथा ॥१६॥ ___ स्पष्टः ॥९६॥ तद्यथेति एनमेव श्लोकं विवृणोतिएकादश दिनान्यर्कनाड्यां वहति मारुते। षण्णवत्यधिकान्यहनां षट् शतान्येव जीवति ॥९७॥ एकादश दिनानि वहति वायौ षण्णवत्यधिकानि दिनानां षट् शतानि जीवति, विंशत्यधिकसप्तशतीमध्यादेकस्याश्चतुर्विशतेरपनयने एतदेव भवति ॥९७॥ तथा ॥६९७॥ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शाखम्। पञ्चम प्रकाश ॥६९८॥ IM तथैव द्वादशाहानि वायौ वहति जीवति । दिनानां षट्शतीमष्टचत्वारिंशत्समन्विताम् ॥९८ द्वादशाहानि वहति वायौ अष्टचत्वारिंशदधिकां दिनषट्शतीं जीवति, पण्णवत्यधिकषट्शतीमध्यात् द्वयोश्च तुर्विशत्योरपनयने एतदेव भवति ॥९८॥ तथात्रयोदश दिनान्यर्कनाडीचारिणि मारुते । जीवेत्पञ्चशतीमहूनां षट्सप्ततिदिनाधिकाम् ॥१९॥ ___ त्रयोदश दिनानि वहति वायौ षट्सप्तत्यधिकां दिनपञ्चशतीं जीवेत् , अष्टचत्वारिंशदधिकषट्शतीमध्यात्तिसृणां चतुर्वि शतीनामपनयने भवत्येतदेव ॥९९॥ तथाचतुर्दश दिनान्येवं प्रवाहिणि समीरणे। अशीत्यभ्यधिकं जीवेदनां शतचतुष्टयम ॥१०॥ चतुर्दश दिनानि वहति वायौ अशीत्यधिकां दिनचतुःशतीं जीवेत् , षट्सप्तत्यधिकपञ्चशतीमध्याच्चतमृणां चतुर्विंशतीनामपनयने एतदेव स्यात् ॥१०॥ तथातथो पञ्चदशाहानि यावद्वहति मारुते । जीवेत् षष्टिदिनोपेतं दिवसानां शतत्रयम् ॥१०॥ पञ्चदश दिनानि वहति वायौ षष्टयधिकं दिनशतत्रयं जीवेत् , अशीत्यधिकचतुःशतीमध्यात् पञ्चानां चतुर्विशतीनामपनयने एतदेव भवति ॥१.१॥ तथाएकद्वित्रिचतुःपञ्चद्वोदशाहक्रमक्षयात् । षोडशाद्यानि पञ्चाहान्यत्र शोध्यानि तद्यथा ॥१०२॥ ॥६९८ BCCES Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम्। पश्चमा प्रकाश ॥६९९॥ एकद्वित्रिचतुःपञ्चसङ्ख्याता ये द्वादशाहास्तेषां क्रमेण क्षयस्ततः पोडशादीनि विंशत्यन्तानि पश्च दिनानि शोध्यानि ॥१०२॥ तद्यथेति विवृणोति-- | प्रवहत्येकनासायां षोडशाहोनि मारुते । जीवेत्सहाष्टचत्वारिंशतं दिनशतत्रयीम् ॥१०३॥ पोडश दिनानि पिङ्गलायां वहति वायावष्टचत्वारिंशदधिकां दिनशतत्रयीं जीवेत् , षटयधिकशतत्रयीमध्यादेकस्य द्वादशाहस्यापनयने एतदेव भवति ॥१०३।। तथावहमाने तथा सप्तदशाहानि समीरणे । अनां शतत्रये मृत्युश्चतुर्विंशतिसंयुते ॥१०४॥ सप्तदश दिनानि वहति वायौ चतुर्विशत्यधिकं दिनशतत्रयं जीवति, अष्टचत्वारिंशदधिकशतत्रयाद् द्वयो योरपनयने एतदेव भवति ॥१०४॥ तथा-- | वहति विचरत्यष्टादशाहानि तथैव च । नाशोऽष्टोशीतिसंयुक्ते गते दिनशतद्वये ॥१०५॥ अष्टादश दिनानि वहति वायौ अष्टाशीत्यधिके दिनशतद्वये मृत्युः, चतुर्विशत्यधिकशतत्रयात्त्रयाणां द्वाद नामपनयने एतदेव भवति ॥१०५॥ तथा| चरत्यनिले तद्वदिनान्येकोनविंशतिम् । चत्वारिंशद्युते याते मृत्युर्दिनशतद्वये ॥१०६॥ ॥६९९॥ Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् पञ्चमः प्रकाशः। ७००॥ एकोनविंशतिदिनवाहिनि वायौ चत्वारिंशदधिकदिनशतद्वये मृत्युः, अष्टाशीत्यधिकशतद्वयाच्चतुर्णा द्वादशा मपनयने एतदेव भवति ॥१०६॥ तथागतिदिवसानेकनासाचारिणि मारुते । साशीतौ वासरशते गते मृत्युर्न संशयः ॥१०७॥ एकविंशति दिनानि वहति वायौ अशीत्यधिके दिनशते मृत्युः, चत्वारिंशदधिकशतद्वयात् पश्चानां द्वादशाहा_ नयने एतदेव भवति ॥१०॥ एकद्वित्रिचतुःपञ्चदिनषट्कक्रमक्षयात् । एकविंशोदिपञ्चाहान्यत्र शोध्यानि तद्यथा ॥१०॥ ____एकद्वित्रिचतुःपञ्चानां दिनषट्कानां क्रमेण क्षयात् एकविंशत्यादि पञ्चविंशतिपर्यन्तानि पश्च दिनानि शोधयेत् ॥१०८॥ ___ तद्यथेति पूर्ववत्एकविंशत्यहं त्वर्कनाडीवाहिनि मारुते । चतुःसप्ततिसंयुक्ते मृत्युदिनशते भवेत् ॥१०९॥ __एकविंशति दिनानि वहति वायौ चतुःसप्तत्यधिके दिनशते मृत्युः, अशीत्यधिकशतादेकस्य षट्कस्यापनयने एतदेव भवति ॥१०९॥ तथा| द्वाविंशति दिनान्येवं सद्विषष्टावहःशते । पइदिनोनैः पञ्चमासैस्त्रयोविंशत्यहानुगे ॥११०॥ ॥७००॥ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् । ॥७०१ ॥ द्वाविंशति दिनानि वहति वायौ द्विषष्ट्यधिके दिनशते मृत्युः, चतुःसप्तत्यधिकशताद् द्वयोः षट्कयोरपनयने एतदेव भवति । तथा त्रयोविंशतिं दिनानि वहति वायौ चतुश्चत्वारिंशदधिके दिनशते मृत्युः, द्विषष्ट्यधिकशतात्रयाणां षट्कानामपनयने एतदेव भवति ॥ ११० ॥ तथा- तथैव वायौ वहति चतुर्विंशतिवासम् । विंशत्यभ्यधिके मृत्युर्भवेद्दिनशते गते ॥१११॥ चतुर्विंशतिं दिनानि वहति वायौ विंशत्यधिके दिनशते मृत्युः, चतुश्चत्वारिंशदधिकदिनशताच्चतुर्णां षट्कानामपनयने एतदेव भवति ॥ १११ ॥ तथा- पञ्चविंशत्यहं चैवं वायौ मास ये मृतिः । मासद्वये पुनर्मृत्युः षडविंशतिदिनानुगे ॥ ११२॥ पञ्चविंशति दिनानि वहति वायौ मासत्रये मृत्युः, विंशत्यधिकशतात् पञ्चानां षट्कानामपनयने एतदेव भवति । षड्विंशति दिनानि वहति वायौ मासद्वये मृत्युः ॥ ११२ ॥ तथा--- सप्तविंशत्यहवहे नाशो मासेन जायते । मासार्धेन पुनर्मृत्युरष्टाविंशत्यहानुगे ॥११३॥ सप्तविंशति दिनानि वहति वायौ मासेन मृत्युः । अष्टाविंशति दिनानि वहति वायौ मासार्धेन मृत्युः ॥ ॥११३॥ तथा- एकोनत्रिंशदहगे मृतिः स्याद्दशमेऽहनि । त्रिंशद्दिनीचरे तु स्यात्पञ्चत्वं पञ्चमे दिने ॥ ११४ ॥ पनमः प्रकाशः । 1190211 Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम्। पञ्चमः प्रकाशः। ॥७०२॥ एकोनत्रिंशतं दिनानि वहति वायौ दशमे दिने मृत्युः। त्रिंशतं दिनानि वहति वायौ पञ्चमे दिने मृत्युः ॥११४॥ तथा-- एकत्रिंशदहचरे वायौ मृत्युर्दिनत्रये । द्वितीयदिवसे नाशो द्वात्रिंशदहवाहिनि ॥११५|| एकत्रिंशतं दिनानि वहति वायौ दिनत्रये मृत्युः। द्वात्रिंशतं दिनानि वहति वायौ दिनद्वये मृत्युः॥११५॥ इदानीं सूर्यनाडीचारमुपसंहरचन्द्रनाडीचारमाचष्टे-- त्रयस्त्रिंशदहचरे त्वेकाहेनापि पञ्चता। एवं यदीन्दुनाड्यां स्यात्तदा व्याध्यादिकं दिशेत् ॥११६॥ ___ त्रयविंशतं दिनानि वहति वायावेकेन दिनेन मृत्युः। इन्दनाड्यां यद्येवं वायुचारो भवति तदा न मृत्युभवति, किन्तु पूर्वोक्तविधिना व्याध्यादिकं स्यात् , आदिशब्दात्मुहन्नाशमहाभयस्वदेशविरहधनपुत्रादिनाशराजविनाशदुर्भिक्षादयः संगृह्यन्ते ॥११६॥ उपसंहरतिअध्यात्मं वायुमाश्रित्य प्रत्येकं सूर्यसोमयोः। एवमभ्यासयोगेन जानीयोत्कालनिर्णयम् ।११७॥ आत्मशब्देन शरीरमुच्यते, आत्मन्यधि अध्यात्म शरीरान्तर्गतं वायुमाश्रित्य सोमसूर्ययोरभ्यासयोगेन कालनिर्णयं कालावधारणं जानीयात् ॥११७॥ बाह्यं काललक्षणं जिज्ञापयिषुः प्रस्तौति " ॥७०२॥ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम्। पञ्चमा प्रकाशः। ॥७०३॥ अध्यात्मिकविपर्यासः संभवेद्वन्याधितोऽपि हि। तन्निश्चयाय बध्नामि बाह्य कालस्य लक्षणम् ॥११८ ____ अध्यात्मिकस्य शरीरान्तर्गतस्य वायोाधिनाऽपि विपर्ययः संभवति, न ततः कालज्ञानं स्फुटं भवति, ततस्तनिश्चयाय कालनिश्चयाय बाह्यं कालस्य लक्षणं बध्नामि ॥११८॥ नेत्रश्रोत्रशिरोभेदात् स च त्रिविधलक्षणः। निरीक्ष्यः सूर्यमाश्रित्य यथेष्टमपरः पुनः ॥११९॥ स च कालो नेत्रश्रोत्रशिरोभेदात् त्रिविधं लक्षणं ज्ञापकं यस्य स तथा, सूर्यमाश्रित्यालम्ब्य निरीक्षणीयः। अपरसिविधादन्यो यथेष्टं स्वेच्छया निरीक्षणीयः ॥११९।। तत्र नेत्रलक्षणमाहवामे तत्रेक्षणे पद्म षोडशच्छदमैन्दवम् । जानीयाद्धानवीयं तु दक्षिणे द्वादशच्छदम् ॥१२०॥ ___ वामे लोचने ऐन्दवं षोडशदलं पद्म चिन्तयेत् । दक्षिणे तु नेत्रे भानवीयं द्वादशदलं पद्म चिन्तयेत् ॥१२०॥ - खद्योतद्युतिवर्णानि चत्वारि च्छदनानि तु । प्रत्येकं तत्र दृश्यानि स्वार्जुलीविनिपीडनात् ॥१२॥ __तत्र षोडशदले पद्मे चत्वारि दलानि खद्योतद्युतिवर्णानि गुरूपदेशेनाङ्गुलीनिपीडनात् दृश्यानि प्रत्येकमपि द्वयोरपि पद्मयोः ॥१२१॥ तत्रसोमाधो भूलतापाङ्गघ्राणान्तिकदलेषु तु । दले नष्ट क्रमान्मृत्युः षत्रियुग्मैकमासतः ॥१२२॥ ॥७०३॥ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Imamiman योगशाखम् 68 पश्वमा प्रकाशः। 11७०४॥ तत्र सोमस्याधो देशेऽदृश्यमाने दले षड्भिर्मासैर्मृत्युः । सोमस्यैवोपरिदेशे भ्रलतासमीपवर्तिनि दलेऽदृश्यमाने त्रिभिर्मासैमत्युः । अपाङ्गदेशवर्तिनि दलेऽदृश्यमाने मासद्वयेन मृत्युः। घ्राणान्तिकवर्तिनि दलेऽदृश्यमाने मासेन मृत्युः ॥१२२॥ तथाअयमेव क्रमः पद्मे भोनवीये यदा भवेत् । दशपञ्चत्रिद्विदिनैः क्रमोन्मृत्युस्तदा भवेत् ॥१२३॥ __ अयमेवाङ्गुलीनिपीडनादिलक्षणः क्रमो भानवीयेऽपि पद्मेऽदृश्यमाने तत्तद्दले यथासङ्ख्यं दशभिः पञ्चभिः त्रिभिः द्वाभ्यां च दिनाभ्यां मृत्युभवेत् ॥१२३॥ तथाएतान्यपीड्यमानानि द्वयोरपि हि पद्मयोः । दलानि यदि वीक्षेत मृत्युदिनशतात्तदा ॥१२४॥ एतान्येव दलानि सोमसूर्यसंबन्धीनि अङ्गुलीभिरपीडयमानान्येव यदि पश्येत्तदा दिनशतान्मृत्युः ॥१२४॥ अथ श्रोत्रलक्षणं श्लोकद्वयेनाह1}| ध्यात्वा हृद्यष्टपत्राब्जं श्रोत्रे हस्तोग्रपीडिते । न येतामिनि?षो यदि स्वः पञ्च वासरान् ।१२५/ दश वा पञ्चदश वा विंशति पञ्चविंशतिम् । तदा पञ्च चतुस्त्रिद्वयेकवर्षेर्मरणं क्रमात् ॥१२६॥ हृदयेऽष्टपत्रं कमलं ध्यात्वा हस्ताग्रपीडिते श्रोत्रे यदि स्वकीयोऽग्निनिर्घोषः पञ्च वासरान् यावन्न श्रूयते तदा पञ्चभिर्वर्षे :, यदि दश वासरान श्रूयेत तदा चतुर्विषः, यदि पञ्चदश वासरान श्रूयेत तदा त्रिभिवर्षे , यदि 1७०७॥ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग- शाखम्। पञ्चमा प्रकाशः। तथा ॥७०५॥ विंशति वासराम श्रयेत तदा द्वाभ्यां वर्षाभ्यां, यदि पञ्चविंशति वासरान श्रुयेत तदा वर्षेण मृत्युभवेत् ॥१२५॥ ॥१२६॥ तथा एकद्वित्रिचतुःपञ्चचतुर्विंशत्यहाक्षयात् । षडादिषोडशदिनान्यान्तराण्यपि शोधयेत् ॥१२७॥ ___एकस्या द्वयोस्तिमृणां चतसृणां पश्चानां च दिनचतुर्विशतीनां क्षयात् षडादीनि षोडशदिनान्यान्तराणि शोधयेत । तथाहि-पश्च दिनानि अश्रूयमाणे श्रोत्रनिर्घोषे पञ्चभिर्व पैमृत्युर्भवतीत्युक्तम् ततश्च षष्ठेऽपि दिनेऽश्रयमाणे निघोंषे पञ्चभ्यो वर्षेभ्य एकस्या दिनचतुर्विशतेरपनयने षट्सप्तत्यधिकैः सप्तदशभिर्दिनशतैर्मृत्युभवेत् । सप्तमदिने ऽप्यश्रयमाणे श्रोत्रनिर्घोषे प्राग्दिनेभ्यो द्वयोश्चतुर्विशत्योरपनयनेऽष्टाविंशत्यधिकैः सप्तदशभिदिनशतैमृत्युभवेत । अष्टमेऽपि दिनेऽश्रयमाणे श्रोत्रनि?षे प्राग्दिनेभ्यश्चतसृणां चतुर्विशतीनामपनयने षट्पञ्चाशदधिकैः षोडशभिर्दिनशतैर्मत्युः नवमेऽपि दिनेऽश्रूयमाणे निर्घोषे प्राग्दिनेभ्यश्चतसृणां चतुर्विंशतीनमपनयने षष्टयधिकैः पञ्चदशभिर्दिनशमत्युः दशमेऽपि दिनेऽश्रयमाणे नि?षे प्राग्दिनेभ्यः पश्चानां चतुर्विशतीनामपनयने चतुर्भिवै मृत्यरित्यक्त मेव । एवमेकादशादिषु षोडशादिष्वेकविंशत्यादिष्वप्यूह्यम् ॥१२७॥ अथ शिरोलक्षणमाह-- ब्रह्मद्वारे प्रसर्पन्तीं पञ्चाहं धूममालिकाम् । न चेत् पश्येत्तदा ज्ञेयो मृत्युः संवत्सरौत्रभिः॥१२८॥ ब्रह्मरन्ध्र प्रसर्पन्तीं धूमरेखां गुरूपदेशदृश्यां यदि पञ्च दिनानि यावन्न पश्यति तदा त्रिभिर्व मत्युः॥१२८॥ ॥७०५॥ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शाखम्। पञ्चमा प्रकाशा 1७०६|| प्रकारान्तरेण कालज्ञानं षड्भिः श्लोकैराहप्रतिपदिवसे कालचक्रज्ञानाय शौचवान् । आत्मनो दक्षिणं पाणिं शुक्लपक्षं प्रकल्पयेत् ॥१२९॥ __ प्रतिपदिवसे प्रथमतिथौ शुचिः कालचक्रं ज्ञातुमात्मनो दक्षिण पाणिं शुक्लपक्षं प्रकल्पयेत् ॥१२९॥ तथाअधोमध्यो पर्वाणि कनिष्ठाङ्गुलीगानि तु । क्रमेण प्रतिपत्षष्ठयेकादशीः कल्पयेत्तिथीः॥१३०॥ अवशेषाङ्गुलीपर्वाण्यवशेषतिथीस्तथा । पञ्चमीदशमीराकाः पर्वाण्यङ्गुष्ठगानि तु ॥१३१॥ | ___ कनिष्ठागुलेरधस्तनपर्व प्रतिपदं, मध्यपर्व षष्ठीं, ऊर्ध्वपर्व एकादशी कल्पयेत् । अष्टवज शेषाङ्गुलीपर्वाणि शेषास्तिथीः कल्पयेत् । तथाहि--अनामिकापर्वसु द्वितीयातृतीयाचतुर्थी.. मध्यमापर्वसु सप्तम्यष्टमीनवमीः, तर्जन्यां द्वादशीत्रयोदशीचतुर्दशीः कल्पयेत् । अङ्गुष्ठपर्वाणि पश्चमीदशमीपञ्चदशीः कल्पयेत् ॥१३०॥१३१।।तथावामपाणिं कृष्णपक्षं तिथीस्तद्वच्च कल्पयेत् । ततश्च निर्जने देशे बद्धपद्मासनः सुधीः।१३२॥ प्रसन्नः सितसंव्यानः कोशीकृत्य करद्वयम् । ततस्तदन्तः शून्यं तु कृष्णं वर्ण विचिन्तयेत् ।१३३ ___ स्पष्टौ ॥१३२॥१३३॥ तथा-- उद्घाटितकराम्भोजस्ततो यत्राङ्गुलीतिथौ। वीक्ष्याते कालविन्दुः स काल इत्यत्र कीर्त्यते।१३४ * "वीक्षते कालविन्दु स" इति पाठः स्यात् ॥ I७०६॥ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम्। पञ्चमा प्रकाशन 11७०७ स्पष्टः । नवरमत्रेति कालज्ञानप्रस्तावे ॥१३४॥ कालज्ञाने उपायान्तराण्याह-- क्षुतविण्मेदमूत्राणि भवन्ति युगपद्यदि । मासे तत्र तिथौ ता वर्षान्ते मरणं तदा॥१३५॥ क्षुतं क्षवः, विद विष्टा मेदो रेतः, मूत्रं प्रखावः, एतानि यदि युगपद्भवेयुस्तदा वर्षान्ते तत्रैव मासे तत्रैव दिने मृत्युः स्यात् ॥१३५॥ तथा-- रोहिणी शशभृल्लंक्ष्म महापथमरुन्धतीम् । ध्रुवं च न यदा पश्येद्वर्षेण स्यात्तदा मृतिः।।१३६॥ रोहिणी नक्षत्रविशेष, शशभृतो लक्ष्म लाञ्छनं महापथं छायापथं, अरुन्धती वशिष्ठभार्या, ध्रुवमौत्तानपादि, यदैक युगपद्वा पटुदृष्टिन पश्येत्तदा वर्षेण मृत्युः । लौकिका अप्याहु: अरुन्धतीं ध्रुवं चैव विष्णोस्त्रीणि पदानि च । क्षीणायुषो न पश्यन्ति चतुर्थ मातृमण्डलम् ॥१॥ अरुन्धती भवेज्जिहा ध्रुवो नासाग्रमुच्यते । तारा० विष्णुपदं प्रोक्तं ध्रुवौ स्यान्मातृमण्डलम् ॥२॥१३६।। स्वप्ने स्वं भक्ष्यमाणं श्वगृध्रकाकनिशाचरैः। उह्यमानं खरोष्ट्राधैर्यदा पश्येत्तदो मृतिः॥१३७॥ स्वमात्मानं श्वगृध्रकाकनिशाचरैर्भक्ष्यमाणं, उपलक्षणात् कृष्यमाणमपि, खरोष्ट्राद्यैः आदिशब्दात् श्ववराहादिभिश्चोह्यमान, उपलक्षणात् कृष्यमाणं, यदा स्वप्ने पश्येत्तदा वर्षान्ते मृत्युः । वर्षेणेत्यनुवर्तते ॥१३७॥ तथा •"भ्रूमध्ये विष्णुपदं ज्ञेयं तारिका मातृमण्डलम् ॥” इति प्रत्यन्तरम् ॥ 11901911 Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम्। पश्चमः प्रकाशः। ॥७०८॥ | रश्मिनिर्मुक्तमादित्यं रश्मियुक्तं हविर्भुजम् । यदा पश्येद्विपद्येत तदेकोदशमासतः ॥१३०॥ ___ रश्मयः किरणाः तद्वन्तमादित्यम् अन्येषु पश्यत्स्वपि यदा रश्मिहीनं पश्यति वहिं च रश्मियुक्तं पश्यति THI तदैकादशे मासे मृत्युः ॥१३८॥ तथावृक्षाग्रे कुत्रचित् पश्येद्गन्धर्वनगरं यदि। पश्येत् प्रेतान् पिशाचोन् वा दशमे मासि तन्मृतिः॥१३९॥ गन्धर्वनगरं सत्यनगरप्रतिबिम्बक, तद्यदि वृक्षाग्रे पश्येत् , प्रेतान् पिशाचान् वा यदि साक्षात् पश्येत् तदा दशमे मासे मृत्युः ॥१३९॥ तथा-- छदि मूत्रं पुरीषं वा सुवर्णरजतानि वा । स्वप्ने पश्येद्यदि तदा मासान्नवैव जीवति ॥१४०॥ ___ स्पष्टः ॥१४०॥ तथा| स्थूलोऽकस्मात् कृशोऽकस्मोदकस्मादतिकोपनः। अकस्मादतिभीरा मासानष्टैव जीवति॥१४१॥| ____ अकस्मात् कारणाभावेन । शेष स्पष्टम् ॥१४१॥ तथासमग्रमपि विन्यस्तं पाशौ वा कर्दमेऽपि वा। स्याचेत्खण्डं पदं सप्तमास्यन्ते म्रियते तदा ॥१४२॥ स्पष्टः । नवरं सप्तमास्या अन्ते ॥१४२॥ तथा| तारांश्यामां यदा पश्येच्छुष्येदधरतालु च । न स्वाङ्गुलित्रुयं मायाद्रोजदन्तद्वयान्तरे ॥१४३॥ ॥७०८॥ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् पञ्चमा प्रकाश ७०९॥ गृध्रः काकः कपोतों वा क्रव्यादोऽन्योऽपि वा खगः । निलीयेत यदा मूर्ति षण्मास्यन्ते मृतिस्तदा ॥१४४॥ __ तारा कनीनिका, श्यामा अञ्जनवर्णा । शुष्येतामकस्मादधरौ दन्तच्छदौ तालु च काकुदं । राजदन्तावध उपरि च द्वौ द्वौ दन्तौ । शेषं स्पष्टम् ॥१४३॥१४४॥ प्रत्यहं पश्यतोनभ्रेऽहन्यापूर्य जलैर्मुखम् । विहिते पूत्कृते शक्रधन्वा तु तत्रा दृश्यते ॥१४५॥ यदा न दृश्यते तत्तु मासैः षइभिर्मतिस्तदा । परनेत्रो स्वदेहं चेन्न पश्येन्मरणं तदा ॥१४६।। ___ अनभ्रंऽहनि मुखमापूर्य जलैः पूत्कृतेन ऊध्वं क्षिपन् शक्रधनुः पश्यतीति स्थितमेतत् । यदा तदिन्द्रधनुर्न पश्यति तदा षभिर्मासमतिः । परकनीनिकायां स्वदेहो दृश्यते, यदा तं न पश्येत्तदा षभिर्मासैमरणम् । ॥१४५॥१४६॥ तथाकूर्परौ न्यस्य जान्वोम॒न्येकीकृत्य करौ सदा। रम्भाकोशनिभां छायां लक्षयेदन्तरोद्भवाम् ॥१४७॥ | विकासि च दलं तो यदेकं परिलक्ष्यते । तस्यामेव तिथौ मृत्युः षण्मास्यन्ते भवेत्तदा ॥१४॥ ___ अनभ्रेऽहनीति वर्तते । शेषं स्पष्टम् ॥१४७॥१४८॥ तथाइन्द्रनीलसमच्छाया वक्रीभूताः सहस्रशः । मुक्ताफलालङ्करणाः पन्नगाः सूक्ष्ममूर्तयः॥१४९॥ दिवा संमुखमायान्तो दृश्यन्ते व्योनि सन्निधौ । न दृश्यन्ते यदा ते तु षण्मास्यन्ते मृतिस्तदा१५०|| 11७०९॥ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥७१०॥ BEER CUF OXO O आतपस्थितेन सर्वजनेनात्माभिमुखमायान्तः सूक्ष्ममूर्तयः सर्पा दृश्यन्ते इति स्थितमेतत्, ते पन्नगा यदा न दृश्यन्ते तदा षण्मास्या अन्ते मृत्युः || १४९ ॥ १५०॥ तथा स्वप्ने मुण्डितमभ्यक्तं रक्तगन्धस्त्रगम्बरम् । पश्येद् याभ्यां खरे यान्तं स्वं योऽब्दार्थं स जीवति । १५१ स्पष्टः ।। १५१ ।। तथा घण्टानादों रतान्ते चेदकस्मादनुभूयते । पञ्चता पञ्चमास्यन्ते तदा भवति निश्चितम् ॥१५२॥ स्पष्टः || १५२ ॥ तथा शिरो वेगात्समारुह्य कृकलासो व्रजन् यदि । दध्याद्वर्णत्रयं पञ्चमास्यन्ते मरणं तदा ॥ १५३ ॥ स्पष्टः ॥ १५३ ॥ तथा वक्रीभवति नासा चेद्वर्तुलीभवतो दृशौ । स्वस्थानाद्भश्यतः कणैौ चतुर्मास्यां तदा मृतिः ॥ १५४॥ स्पष्टः || १५४ ॥ तथा | कृष्णं कृष्णपरीवारं लोहदण्डधरं नरम् । यदा स्वप्ने निरीक्षेत मृत्युर्मासैस्त्रिभिस्तदा ॥ १५५ ॥ स्पष्टः || १५५ ।। तथा इन्दुमुष्णं रविं शीतं छिद्रं भूमौ वावपि । जिह्वां श्यामां मुखं कोकनदाभं च यदेक्षते ॥ १५६॥ तालुकम्पो मनःशोको वर्णोऽङ्गे नैकधा यदा । नाभेाकास्मकी हिक्का मृत्युर्मासद्वयात्तदा ॥१५७॥ पञ्चमः प्रकाशः । ॥१०॥ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रम् पञ्चमः प्रकाशः। १७११॥ स्पष्टौ । नवरं मनःशोको हृदयमतिशयेन रोदितीत्यर्थः ॥१५६॥१५७॥ तथा-- जिह्वा नास्वादमादत्ते मुहुः स्खलति भाषणे । श्रोत्रे न श्रृणुतः शब्दं गन्धं वेत्तिन नासिको।१५८ स्पन्देते नयने नित्यं दृष्टवस्तुन्यपि भ्रमः। नक्तमिन्द्रधनुः पश्येत् तथोल्कापतनं दिवा ॥१५९॥ न च्छायामात्मनः पश्येदर्पणे सलिलेऽपि वा । अनब्दां विद्युतं पश्येच्छिरोऽकस्मादपि ज्वलेत्।१६० | हंसकाकमयूराणां पश्येच्च क्वापि संहतिम् । शीतोष्णखरमृद्वादेरपि स्पर्श न वेत्ति च ॥१६१॥i अमीषां लक्ष्मणां मध्याद्यदैकमपि दृश्यते । जन्तोर्भवति मासेन तदा मृत्युन संशयः॥१६२ ।। __पञ्चापि स्पष्टाः ॥१५८-१६२॥ तथाशीते हकारे फुत्कारे चोष्णे स्मृतिगतिक्षये। अङ्गपञ्चकशैत्ये च स्योद्दशाहेन पञ्चता ॥१६३॥ व्यात्तमुखस्य वायुना सह हकारस्य निर्गच्छतो यदा शैत्यं भवति, किश्चिद्विवृतोऽष्टद्वयस्य वायुना कृतः फुत्कारो यधुष्णो भवति, स्मृतिगत्योश्च भ्रंशो भवति, अङ्गपश्चकशैत्यं च भवति, तदा दशाहेन मृत्युः॥१६३।। तथा-- अ?ष्णमर्धशीतं च शरीरं जायते यदा। ज्वालाकस्माज्ज्वलेद्वाङ्गे सप्ताहेन तदा मृतिः॥१६४। स्पष्टः ॥ १६४ ॥ तथा ॥७११॥ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम्। ॥७१२५ स्नातमात्रस्य हृत्पादं तत्क्षणाद्यदि शुष्यति । दिवसे जायते षष्ठे तदा मृत्युरसंशयम् । १६५ हृदयं च पादौ च हृत्पादम् | शेषं स्पष्टम् ॥ १६५ ॥ तया- जायते दन्तघर्षश्श्रेच्छवगन्धश्च दुःसहः । विकृता भवति च्छाया त्र्यहेण म्रियते तदा । १६६ स्पष्टः ॥ १६६ ॥ तथा- न स्वनासां स्वजिह्वां न न ग्रहान्नामला दिशः। नापि सप्तऋषीन् यर्हि पश्यति म्रियते तदा स्पष्टः ॥ १६७ ॥ तथा प्रभाते यदि वा सायं ज्योत्स्नावत्यामथो निशि । प्रवितत्य निजौ बाहू निजच्छायां विलोक्य च । शनैरुत्क्षिप्य नेत्रे स्वच्छायां पश्येत्ततोऽम्बरे । न शिरो दश्यते तस्यां यदा स्यान्मरणं तदा ॥ १६९ ॥ नेक्ष्यते वामबाहुश्चत् पुत्रदारक्षयस्तदा । यदि दक्षिणाबाहुर्नेक्ष्यते भ्रातृक्षयस्तदा ॥ १७० ॥ अदृष्टे हृदये मृत्युरुदरे च धनक्षयः । गुह्ये पितृविनाशस्तु व्याधिरूरुयुगे भवेत् ॥ १७१ || अदर्शने पादयोश्च विदेशगमनं भवेत् । अदृश्यमाने सर्वाङ्गे सद्यो मरणमादिशेत् ॥ १७२ ॥ स्पष्टाः ॥ १६८-१७२ ॥ प्रकारान्तरेण कालज्ञानमाह - पश्चमः प्रकाशः । ७१२॥ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् । ७१३|| A FO EXESER विद्यया दर्पणाङ्गुष्ठकुड्या सिष्ववतारिता । विधिना देवता पृष्टो ब्रूते कालस्य निर्णयम् ॥ १७३ ॥ सूर्येन्दुग्रहणे विद्यों नरवीरठवेत्यसौ । साध्या दशसहस्रयाष्टोत्तरया जपकर्मतः ॥ १७४॥ अष्टोत्तरसहस्रस्य जापात् कार्यक्षणे पुनः । देवता लीयतेऽस्यादौ ततः कन्याऽऽह निर्णयम् । १७५ सत्साधकगुणाकृष्टा स्वयमेवाथ देवता | त्रिकालविषयं ब्रूते निर्णयं गतसंशयम् ॥ १७६॥ स्पष्टाः ॥ १७३ - १७६ ।। अथ शकुनद्वारेण पञ्चभिः श्लोकैः कालज्ञानमाह- अथवा शकुनाद्विन्द्यात्सज्जो वा यदिवाऽऽतुरः । स्वतो वा परतो वाऽपि गृहे वा यदि वा बहिः । १७७ बहिवृश्चिक म्यानुगृहगोघापिपीलिकाः । यूकामत्कुणलूताश्च वल्मीको थोपदेहिकाः ॥१७८॥ कीटका घृतवर्णाश्च भ्रमर्यश्च यदाऽधिकाः । उद्वेगकलहव्याधिमरणानि तदा दिशेत् ॥ १७९ उपानद्वहिनच्छत्रशस्त्रच्छोयाङ्गकुन्तलान् । चञ्च्वा चुम्बेद्यदा काकस्तदा सन्नैव पञ्चता ॥ १८० ॥ अश्रुपूर्णदृशो गावो गाढं पादैर्वसुन्धराम् । खनन्ति चेत्तदानीं स्याद्रोगो मृत्युश्च तत्प्रभोः॥ १८१ ॥ स्पष्टाः ॥ १७७ - १८१ ॥ प्रकारान्तरेण स्तौति- अनातुरकृते ह्येतच्छकुनं परिकीर्तितम् । अधुनाऽऽतुरमुद्दिश्य शकुनं परिकीर्त्यते ॥ १८२ ॥ &B पश्चमप्रकाशः। ॥७१३॥ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् पश्चम प्रकाशः। ७१४॥ स्पष्टः ॥ १८२ ॥ आतुरशकुनेषु श्वगतशकुनानि त्रिभिः श्लोकैराह-- दक्षिणस्यां वलित्वा चेत् श्वा गुदं लेढयुरोऽथवा । लाङ्गलं वा तदा मृत्युरेकद्वित्रिदिनैः क्रमात्। १८३ । शेते निमित्तकाले चेत् श्वा संकोच्याखि वपुः। धूत्वा की वलिवाङ्गं धूनोत्यथ ततो मृतिः।१८४ यदि व्योत्तमुखो लालां मुञ्चन् संकोचितेक्षणः। अगं संकोच्य शेते श्वा तदा मृत्युन संशयः॥१८५॥ ___ स्पष्टाः ॥ १८३-१८५ ॥ काकशकुनानि श्लोकद्वयेनाहयद्यातुरगृहस्यो काकपक्षिगणो मिलन् । त्रिसन्ध्यं दृश्यते नूनं तदा मृत्युरुपस्थितः ॥१८६॥ महानसे तथा शय्यागारे कोकाः क्षिपन्ति चेत् । चर्मास्थिरज्जु केशान् वा तदासन्नैव पञ्चतां ।१८७॥ ___स्पष्टौ ॥ १८६-१८७ ॥ अथ नवभिः श्लोकैरुपश्रुत्या कालज्ञानमाहअथवोपश्रुतेविन्याद्विद्वान् कालस्य निर्णयम् । प्रशस्ते दिवसे स्वप्नकाले शस्तां दिशं श्रितः॥१८॥ पूत्वो पञ्चनमस्कृत्याचार्यमन्त्रेण वा श्रुती । गेहाच्छन्नश्रुतिर्गच्छेच्छिल्पिचत्वरभूमिषु ॥१८९॥ चन्दनेनार्चयित्वा मां क्षिप्त्वा गन्धाक्षतादि च । सावधोनस्ततस्तत्रोपश्रुतेः श्रृणुयाध्वनिम् ॥१९० | अर्थान्तरापदेश्यश्च सरूपश्चति स द्विधो । विमर्शगम्यस्तत्राद्यः स्फुटोक्तार्थोऽपरः पुनः॥१९१॥ ॥७१४॥ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् पन्नमा प्रकाशः। यथेष भवनस्तम्भः पञ्चषभिरयं दिनैः । पर्फर्मासैरथो वर्भक्ष्यते यदि वा न वा॥१९२॥ मनोहरतरश्वासीत् किन्त्वयं लघु भक्ष्यते । अर्थान्तरापदेश्या स्यादेवमादिरुपश्रुतिः॥१९३॥ एषा स्त्री पुरुषो वाऽसौ स्थानादस्मान्न यास्यति। दास्यामो न वयं गन्तुं गन्तुकामो न चाप्ययम् विद्यते गन्तुकामोऽयमह च प्रेषणोत्सुकः। तेन यास्यत्यसौ शीघ्र स्यात्सरूपेत्युपश्रुतिः॥१९५॥ कर्णोद्घाटनसंजातोपश्रुत्यन्तरमोत्मनः। कुशलाः कालमासन्नमनासन्नं च जोनते ॥१९६॥ स्पष्टाः ॥१८८-१९६॥ अथ शनैश्चरपुरुषेण कालज्ञानं श्लोकचतुष्टयेनाह-- शनिः स्याद्या नक्षत्रे तदातव्यं मुखे ततः। चत्वारि दक्षिणे पाणौ त्रीणि त्रीणि च पादयोः१९७/R चत्वारि वामहस्ते तु क्रमशः पञ्च वक्षसि । त्रीणि शीर्षे दृशोढ़े द्वे गुह्ये एकं शनौ नरे॥१९८/28 निमित्तसमये तत्र पतितं स्थापनाक्रमात् । जन्मइँ नामऋक्षं वो गुह्यदेशे भवेद्यदि ॥१९९॥ दृष्टं श्लिष्टं ग्रहर्दुष्टैः सौम्यैरप्रेक्षितायुतम् । सन्जस्यापि तदा मृत्युः का कथा रोगिणः पुनः॥२०० *" तथेयद्भिरय दिनैः" इति प्रत्यन्तरम् ॥ ॥१५॥ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् पञ्चमा प्रकाशः। ॥१६॥ स्पष्टाः । नवरं दृष्टमितिदशमतृतीये नवपञ्चमे चतुर्थाष्टमे कलगे च । पश्यन्ति पादवृध्ध्या फलं तथैव प्रयच्छन्ति ॥१॥ इत्यनेन क्रमेण ग्रहदर्शनं वाच्यम् । श्लिष्ट यदि तचैव क्रूरग्रहो भवेत् तद्विपर्ययेण सौम्यग्रहैरदृष्टास्पृष्टम् ॥१९७-२००॥ अथ पृच्छालग्नानुसारेण कालज्ञानमाहपृच्छोयामथ लमास्तचतुर्थदशमस्थिताः । ग्रहाः क्रराः शशी षष्ठाष्टमश्चत्स्यात्तदा मृतिः॥२०१॥ पृच्छायां प्रश्ने सति लग्ने तत्काललग्नं अस्ते लग्नात्सप्तमे, चतुर्थे दशमे वा स्थाने स्थिताः क्रूरग्रहाश्चेत् चन्द्रस्तु पष्ठोऽष्टमो वा यदि स्यात्तदा मृत्युः॥२०१॥ तथापृच्छायाः समये लग्नाधिपतिर्भवति ग्रहः। यदिवास्तमितों मृत्युः सन्जस्यापि तदा भवेत्॥२०२ लग्नाधिपतयो मेषादिषु राशिषु-- कुजशुक्रज्ञेन्दुज्ञशुक्रकुजजीवसौरिशनिगुरवः । भेशा नवांशकानामजमकरतुलाकुलीराद्याः ॥१॥ इति शाखादवगन्तव्याः ॥२०२।। तथालमस्थश्वेच्छशी सौरिर्टादशो नवमः कुजः। अष्टमो कस्तदा मृत्युः स्याच्चेन्न बलवान् गुरुः ॥२०३॥ स्पष्टः ॥२०३॥ तथा CCSROOOL ॥१६॥ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम्। पञ्चमः प्रकाशः। ॥१७॥ | रविः षष्ठः तृतीयो वा शशी च दशमस्थितः । यदा भवति मृत्युः स्यात्ततीये दिवसे तदा ॥२०४॥ पापग्रहाश्चदुदयात्तुर्ये वा द्वादशेऽथवा । दिशन्ति तद्विदो मृत्यु तृतीये दिवसे तदा ॥२०५॥ ___ स्पष्टौ ॥२०४-२०५॥ तथाउदये पञ्चमे वापि यदि पापग्रहा भवेत् । अष्टभिर्दशभिर्वा स्यादिवसः पञ्चता तदा॥२०६॥ स्पष्टः ॥२०६॥ तथाधनुमिथुनयोः सप्तमयोर्यद्यशुभा ग्रहाः। तदा व्याधिम॒तिर्वा स्याज्ज्योतिषामिति निर्णयः॥२०७॥ ____ स्पष्टः ॥२०७॥ यन्त्रद्वारेण कालज्ञानमष्टभिः श्लोकैराह अन्तस्थाधिकृतप्राणिनामप्रणवगर्भितम् । कोणस्थरेफमाग्नेयपुरं ज्वालाशताकुलम् ॥२०॥ सानुस्वारैरकाराद्यैः षट्स्वरैः पार्श्वतो वृतम् । स्वस्तिकाङ्कवहिःकोंणस्वाक्षरोन्तःप्रतिष्ठितम् २०९॥ चतुःपावस्थगुरुयं यन्त्रं वायुपुरावृतम् । कल्पयित्वा परिन्यस्येत् पादहच्छीर्षसन्धिषु ॥२१०॥ सूर्योदयक्षणे सूर्यं पृष्ठे कृत्वा ततः सुधीः। स्वपरायुर्विनिश्चेतु निजच्छायां विलोकयेत्॥२११॥ पूर्णा छायां यदीक्षेत तदा वर्षे न पञ्चता । कर्णाभावे तु पञ्चत्वं वर्षे दशभिर्भवेत् ॥२१२॥ ॥७२७॥ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग. काखम्। प्रकाशः। al हस्ताङ्गुलिस्कन्धकेशपार्श्वनासाक्षये कमात् । दशाष्टसप्तपञ्चत्र्येकवर्षे मरणं दिशेत् ॥२१३॥ ' षण्मास्या म्रियते नाशे शिरसश्चिबुकस्य वा । ग्रीवानाशे तु मासेनैकादशाहेन दृक्क्षये ॥२१४॥ १७२८॥ A सच्छिद्रे हृदये मृत्युर्दिवसैः सप्तभिर्भवेत् । यदि च्छायाद्वयं पश्येद्यमपाश्चै तदा व्रजेत् ॥२१५॥ अन्तस्थं मध्यगतमधिकृतप्राणिनाम यस्य, स चासौ णवश्च तेन गर्भितं, आग्नेयपुरं, कोणस्थरेफं, ज्वालाशतैराकुलं अनुस्वारसहितेः षड्भिः स्वरैः अकाराद्यैः पार्श्वतो वृतं, बहिः कोणेषु स्वस्तिकाङ्क स्वा इत्यक्षरस्य मध्यस्थितं आग्नेपुरमेव, तथा चतुःपार्श्वस्थो गुरुर्विसर्गान्तो यकारो यस्य तत्तथा, एवंभूतं यन्त्रं वायु-पुरेणावृतं कल्पयित्वा पादयोर्हदि शीर्ष सन्धिषु च न्यसेत् । यन्नं च स्थापनानुसारेण द्रष्टव्यं । शेषाः श्लोकाः स्पष्टाः ॥२०८-२१५ ॥ यन्त्रप्रयोगमुपसंहरन् विद्यया कालज्ञानमाह इति यन्त्रप्रयोगेण जानीयात्कालनिर्णयम् । यदि वो विद्यया विन्द्याद्वक्ष्यमाणप्रकारया ॥ २१६ ॥ स्पष्टः ॥२१६॥ विद्यामेव सप्तभिः श्लोकराह ॥७१८॥ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् पश्चमा प्रकाश ॥७१९॥ | प्रथमं न्यस्य चूटायां स्वाशब्दमों च मस्तके । क्षि नेत्र हृदये पञ्च नाभ्यब्जे हाक्षरं ततः॥२१७॥ ओं जुसः ओं मृत्युंजयाय ओं वज्रपाणिने शूलपाणिने हर हर दह दह स्वरूप दर्शय दर्शय हुं फट् फट् ॥ अनया विद्ययाष्टाप्रशतवारं विलोचने । स्वच्छायां चामिमन्त्र्या पृष्ठे कृत्वाऽरुणोदये ॥२१॥ परच्छायां परकृते स्वच्छायां स्वकृते पुनः। सम्यक्तत्कृतपूजः सन्नुपयुक्तों विलोकयेत् ॥२१९॥ संपूर्णा यदि पश्येत्तामावर्ष न मृतिस्तदा । क्रमजयाजान्वभावे त्रिद्वयकाब्दैमृतिः पुनः॥२२०॥ ऊरोरभावे दशभिर्मासैनश्येत्कटेः पुनः । अष्टाभिर्नवभिर्वापि तुन्दाभावे तु पञ्चषणैःः २२१॥ ग्रीवाऽभावे चतुस्त्रिद्धयेकमासैम्रियते पुनः। कज्ञोभावे तु पक्षण दशाहेन भुजक्षये ॥२२२॥ दिनः स्कन्धक्षयेष्टाभिश्चतुर्याम्या तु हृत्क्षये । शीर्षाभावे तु यामाभ्यां सर्वाभावे तु तत्क्षणात्॥ ___स्पष्टाः ॥ २१७-२२३ ॥ कालज्ञानोपायानुपसंहरतिएवमाध्यात्मिकं कालं विनिश्चतु प्रसङ्गतः। बाह्यस्यापि हि कालस्य निर्णयः परिभाषितः॥२२४॥ ___स्पष्टः ॥ २२४ ॥ अथ जयपराजयपरिज्ञानोपायमाहको जेष्यति द्वयोयुद्ध इति पृच्छत्यवस्थितः । जयः पूर्वस्य पूर्ण स्याद्रिक्ते स्यादितरस्य तु ॥२२५॥ - - - TH७१९॥ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखाम् पञ्चमः प्रकाशः। ७२०॥ स्पष्टः ॥ २२५ ॥ रिक्तपूर्णयोर्लक्षणमाहयत्त्यजेन्संचरन् वायुस्तद्रिक्तमभिधीयते । संक्रमेद्यत्र तु स्थाने तत्पूर्ण कथितं बुधैः ॥२३६॥ स्पष्टः ॥ २१६ ॥ प्रकारान्तरेण कालज्ञानमाहप्रष्टाऽऽदौ नाम चेज्ज्ञातुर्गृह्णात्यन्वातुरस्य तु । स्यादिष्टस्य तदा सिद्धिर्विपर्यासे विपर्ययः ॥२२७॥ ___स्पष्टः ।। २२७ ॥ तथा| वामबाहुस्थिते दूते समनामाक्षरो जयेत् । दक्षिणाबाहुगे त्वाजौ विषमाक्षरनामकः ॥२२८॥ __ स्पष्टः ॥ २२८ ॥ तथाभूतादिभिर्गृहीतानां दष्टानां वा भुजङ्गमैः। विधिः पूर्वक्ति एवासौ विज्ञेयः खलु मान्त्रिकैः॥२२९॥ - पूर्वोक्तो वामहस्ते पृच्छके समाक्षरो जीवेत् , दक्षिणास्थे विषमाक्षरः ॥ २२९ ॥ तथापूर्णा संजायते वामा विशता वरुणेन चेत् । कार्याण्यारभ्यमोणानि तदा सिध्यन्त्यसंशयम् ॥२३०॥ स्पष्टः ॥ २३० ॥ तथाजयजीवितलाभादिकार्याणि निखिलान्यपि । निष्फलोन्येव जायन्ते पवने दक्षिणाोस्थते॥२३१॥ स्पष्टः ॥ २३१ ।। तत ॥७२॥ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥७२१ ॥ ज्ञान बुद्धानि सम्यक् पुष्पं हस्तात्प्रपातयेत् । मृतजीवितविज्ञाने ततः कुर्वीत निश्चयम् ॥ २३२ ॥ स्पष्टः || २३२ || निश्चयमेवाह त्वरितो वरुणे लाभश्वरेण तु पुरन्दरे । जायते पवने स्वल्पसिद्धोऽप्यग्नौ विनश्यति ॥२३३॥ स्पष्टः || २३३|| तथा---- आयाति वरुणे यातः तत्रैवास्ते सुखं क्षितौ । प्रयाति पवनेऽन्यत्र मृत्त इत्यनले वदेत् ॥२३४॥ स्पष्टः || २३४|| तथा---- दहने युद्धपृच्छायां युद्धभङ्गश्च दारुणः । मृत्युः सैन्यविनाशो वा पवने जायते पुनः ॥ २३५॥ स्पष्टः ||२३५|| तथा महेन्द्रे विजयो युद्धे वरुणे वाञ्छिताधिकः । रिपुभङ्गेन सन्धिर्वा स्वसिद्धिपरिसूचकः ॥ २३६॥ स्पष्टः || २३६|| तथा---- भौमे वर्षति पर्जन्यो वरुणे तु मनोमतम् । पवने दुर्दिनाभ्भोदौ वनौ वृष्टिः कियत्यपि ॥ २३७॥ स्पष्टः ||२३७|| तथा--- वरुणे सस्यनिष्पत्तिरतिश्लाघ्या पुरन्दरे । मध्यस्था पवने च स्यान्न स्वल्पाऽपि हुताशने ॥ २३८॥ पश्ञ्चमः प्रकाशः । ॥७२१॥ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम्। पञ्चमः प्रकाशः। ॥७२२॥ स्पष्टः ॥२३८॥ तथा-- | महेन्द्रवरुणौ शस्तौ गर्भप्रश्ने सुतप्रदौ । समीरदहनौ स्त्रीदौ शून्यं गर्भस्य नोशकम् ॥२३९॥ ___ स्पष्टः ॥२३९॥ तथा--- गृहे राजकुलादौ च प्रवेशे निर्गमेऽथवा। पूर्णाङ्गपादं पुरतः कुर्वतः स्यादभीप्सितम् ॥२४॥ पूर्ण यदङ्ग वाम दक्षिणं वा तत्पादं पुरतः प्रथमं कुर्वतः, शेषं स्पष्टम् ॥२४०॥ तथागुरुबन्धुनृपामात्या अन्येऽपीप्सितदायि नः पूर्णाङ्गे खलु कर्तव्याः कार्यसिद्धिमभीप्सता॥२४१॥ स्पष्टः ॥२४१॥ तथाआसने शयने वोऽपि पूर्णाङ्गे विनिवेशिताः । वशीभवन्ति कामिन्यो न कार्मणमतः परम्॥२४२॥ स्पष्टः ॥२४२॥ तथा--- | अरिचौराधमांद्या अन्येऽप्युत्पातविग्रहाः। कर्तव्याः खलु रिक्ताङ्गे जयलाभसुखार्थिमिः ॥२४३॥ __स्पष्टः ॥२४३॥ तथा--- प्रतिपक्षप्रहारेभ्यः पूर्णाङ्गे योऽभिरक्षति । न तस्य रिपुभिः शक्तिर्वलिष्ठेरपि हन्यते ॥२४॥ स्पष्टः ॥२४४॥तथा ॥७२२॥ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शाखम् पश्चम प्रकाशः। ॥७२३॥ वहन्तीं नासिकां वामां दक्षिणां वाऽभिसंस्थितः। पृच्छेद्यदि तदा पुत्रो रिक्तायां तु सुता भवेत् ॥ सुषुम्णावाहभागे द्वौ शिशूरिक्ते नपुंशकम् । संक्रान्तौ गर्भहानिः स्यात् समे क्षेममसंशयम्॥२४६॥ स्पष्टौ ॥२४५-२४६ मतान्तरमाह--- चन्द्रे स्त्री पुरुषः सूर्ये मध्यभागे नपुंसकम् । प्रश्नकाले तु विज्ञेयमिति कैश्चिन्निगद्यते ॥२४७॥ स्पष्टः ॥२४७॥ पवननिश्चयोपायमाहA यदो न ज्ञायते सम्यक् पवनः संचरन्नपि । पीतश्वतारुणश्योमेनिश्चेतव्यः स बिन्दुभिः ॥२४८॥ स्पष्टाः ॥२४८॥ बिन्दुनिरीक्षणोपायं श्लोकद्वयेनाहअङ्गुष्ठाभ्यां श्रुती मध्याङलीभ्यां नोसिकापुटे । अन्त्योपोन्त्योङलीभिश्च पिधाय वदनाम्बुजम् ॥ | कोणावक्ष्णोनिपीड्याद्याशुलीभ्यां श्वासरोधतः। यथावणं निरीक्षेत विन्दुमव्यग्रमानसः॥२५०॥ ___स्पष्टौ ॥२४९-२५०॥ बिन्दुज्ञानात् पवननिश्चयमाहपीतेन बिन्दुना भौमं सितेन वरुणं पुनः। कृष्णेन पवनं विन्द्यादरुणेन हुताशनम् ॥२५॥ स्पष्टः ॥२५१॥ अनभिमतां नाडी निषेधुमुपायमाह-- निरुरुत्सेद्वहन्तीं यां वामां वा दक्षिणामथ । तदङग पीडयेत्सद्यो यथा नाडीतरा वहेत् ॥२५२॥ ॥७२३॥ Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PO योगशास्त्रम् प्रकाशः। ॥७२४॥ अग्रे वामविभागे हि शशिक्षेत्रं प्रचक्षते । पृष्टौ दक्षिणभागे तु रविक्षेत्रं मनीषिणः ॥२५३॥ लाभालाभौ सुखं दुखं जीवितं मरणं तथा । विदन्ति विरलाः सम्यग्वायुसंचारवेदिनः ॥२५४॥ निरुरुत्सेत् निरोध्धुमिच्छेत् , तदङ्ग निषेधनाडयङ्ग पीडयेत् शयनादिना । शेषं स्पष्टम् ॥२५२-२५४॥ नाडिशुद्धिश्च पवनसंचारेण ज्ञायते इति तामेव स्तौति-- अखिलं वायुजन्मेदं सामर्थ्यं तस्य जायते । कतु नाडीविशुद्धिं यः सम्यग जानात्यमूढधीः ॥२५५॥ ___स्पष्टः ॥२५५॥ इदानीं नाडीशुद्धिं श्लोकचतुष्टयेनाह-- नाभ्यब्जकर्णिकारूढं कलाविन्दुपवित्रितम् । रेफोक्रान्तं स्फुरद्भासं हकारं परिचिन्तयेत् ।२५६॥ तं ततश्च तडिद्वेगं स्फुलिङ्गार्चिशताञ्चितम् । रेचयेत्सूर्यमागेण प्रापयेच्च नभस्तलम् ॥२५७॥ अमृतैः प्लावयन्तं तमवतार्य शनैस्ततः । चन्द्राभं चन्द्रमार्गेण नाभिपद्मे निवेशयेत ॥२५॥ 8| निष्क्रमं च प्रवेशं च यथामार्गमनारतम् । कुर्वन्नेवं महाभ्यासो नाडीशुद्धिमवाप्नुयात् ॥२५९॥ ___ स्पष्टाः ॥२५६-२५९॥ नाडीसंचारज्ञाने फलमाह-- नाडीशुद्धाविति प्राज्ञः संपन्नाभ्यासकौशलः। स्वेच्छया घटयेद्वायुं पुटयोस्तत्क्षणादपि ॥२६०॥ स्पष्टः ॥२६०॥ वामदक्षिणनाडयोरधिवसतः पवनस्य कालमानमाह-- ॥७२४॥ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् । ॥७२५ ।। द्वे एव घटिके सार्धे एकस्यामवतिष्ठते । तामुत्सृज्यापरां नाडीमधितिष्ठति मारुतः ॥ २६१॥ स्पष्टः ॥ २६१॥ तथा- षट्शतोभ्यधिकान्याहुः सहस्राण्येकविंशतिम् । अहोरात्रे नरि स्वस्थे प्राणवायोर्गमागमम् । २६२। स्पष्टः ॥२६२॥ वायुसंक्रमावे दिनस्तत्त्वनिर्णयेऽनधिकारमाह- मुग्धः समीरस्य संक्रान्तिमपि वेत्ति न । तत्त्वनिणयावार्ता स कथं कर्तुं प्रवर्तते ॥ २६३ ॥ स्पष्टः || २६३ ॥ इदानीं वेधविधिं श्लोकाष्टकेनाह- पूरितं पूरकेणाधोमुखं हृत्पद्ममुन्मिषेत् । ऊर्ध्वस्रोतो भवेत्तच्च कुम्भकेन प्रबोधितम् ॥ २६४॥ आदिक्षिप्य रेचकेनाथ कर्षेद्वायुं हृदम्बुजात् । ऊर्ध्वस्रोतःपथग्रन्थि भित्त्वा ब्रह्मपुरं नयेत् ॥२६५॥ रानिष्क्रमय्य योगी कृतकुतूहलः । समाधितोऽर्कतूलेषु वेधं कुर्याच्छनैः शनैः ॥ २६६ ॥ मुहुस्तत्र कृताभ्यासो मालतीमुकुलादिषु । स्थिरलक्ष (क्ष्य) तया वेधं सदा कुर्यादतन्द्रितः ॥ २६७॥ दृढाभ्यासस्ततः कुर्याद्वेधं वरुणवायुना । कर्पूरागुरुकुष्ठादिगन्धद्रव्येषु सर्वतः ॥ २६८॥ एतेषु लब्धलक्षो(क्ष्योऽथ वायुसंयोजने पटुः । पक्षिकायेषु सूक्ष्मेषु विदध्याद्वेधमुद्यतः ॥ २६९॥ पतङ्गभृङ्गकायेषु जातभ्यासो मृगेष्वपि । अनन्यमनसो धीरः संचरेद्विजितेन्द्रियः ॥२७०॥ पञ्चमः प्रकाशः। १७२५॥ Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥७२६॥ नराश्वकरिकायेषु प्रविशन्निःसरन्निति । कुर्वीत संक्रमं पुस्तोपलरूपेष्वपि क्रमात् ॥ २७१॥ स्पष्टाः ॥२६४ - २७१ ॥ उक्तमुपसंहरन् वाच्यशेषमाह- एवं परोसुदेहेषु प्रविशेद्वामनासयो । जीवद्देहप्रवेशस्तु नोच्यते पापशङ्कया ॥ २७२ ॥ पापशङ्कयेति जीवद्देहप्रवेशे हि परस्य प्राणप्रहाणं स्यात्, तच्च पापं शस्त्रघातादिवनोपदेष्टव्यं । न च परोपघातमन्तरेण जीवत्परपुरप्रवेशः संभवति । तथाहि- ब्रह्मरन्ध्रेण निर्गत्य प्रविश्यापानवर्त्मना । श्रित्वा नाभ्यम्बुजं यायात् हृदम्भोजं सुषुम्णया ॥१॥ तत्र तत्प्राणसंचारं निरुन्ध्यानिजवायुना । यावद्देहात्ततो देही गतचेष्टो विनिष्पतेत् ॥२॥ तेन देहे विनिर्मुक्ते प्रादुर्भूतेन्द्रियक्रियः । वर्तेत सर्वकार्येषु स्वदेह इव योगवित् ||३|| दिना वा दिनं चेति क्रीडेत् परपुरे सुधीः । अनेन विधिना भूयः प्रविशेदात्मनः पुरम् ||४|| २७२ || परपुरप्रवेशफलमाह- क्रमेणैवं परपुरप्रवेशाभ्यासशक्तितः । विमुक्त इव निर्लेपः स्वेच्छया संचरेत् सुधीः॥ २७३॥ स्पष्टः ॥ २७३॥ इति परमातुश्री कुमारपालशुश्रूषिते आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचितेऽध्यात्मोपनिषद्नाम्नि संजातपट्टबन्धे श्री योगशास्त्रे स्वोपज्ञं पञ्चमप्रकाशविवरणम् ||५|| पश्चमः प्रकाशः । ॥७२६ ॥ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखाम् अथ षष्ठः प्रकाशः षष्ठः। प्रकाश ॥७२७॥ ___ओं अहं ॥ परपुरप्रवेशस्यापारमार्थिक्यमाहइह चायं परपुरप्रवेशश्चित्रमात्रकृतू । सिध्येन्न वा प्रयासेन कोलेन महताऽपि हि ॥१॥ स्पष्टः ॥१॥ कुतः?-- जित्वाऽपि पवनं नानाकरणः क्लेशकारणैः। नाडीप्रचारमायत्तं विद्ययापि वपुर्गतम् ॥२॥ अश्रद्धेयं परपुरे साधयित्वाऽपि संक्रमम् । विज्ञानकप्रसक्तस्य मोक्षमार्गो न सिध्यति ॥३॥ स्पष्टौ ॥२-३॥ __"प्राणायामस्तत: कैश्चिदाश्रितो ध्यानसिद्धये" इति यदुक्तं तत् श्लोकद्वयेन पाह तन्नानोति मनःस्वास्थ्यं प्राणायामैः कदर्थितम् ।प्राणस्यायमने पीडा तस्यांस्याचित्तविप्लवः॥४॥ पूरणे कुम्भने चैव रेचने च परिश्रमः। चित्तसंक्लेशकरणान्मुक्तेः प्रत्यूहकारणम् ॥५॥ स्पष्टौ ॥४-५॥ प्राणायामानन्तर प्रत्याहारः कैश्चिदुक्तः स च न दुष्ट इति तमाह-- ॥२७॥ Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम्। प्रकाशन I७२८॥ इन्द्रियैः सममाकृष्य विषयेभ्यः प्रशान्तधीः। धर्मध्यानकृते तस्मान्मनःकुर्वीत निश्चलम् ॥६॥ इन्द्रियैः सह मनो बाह्यविषयेभ्य आकृष्येत्यनेन प्रत्याहारकथनम् । यदुक्तमस्माभिरभिधानचिन्तामणौ-- "प्रत्याहारस्त्विन्द्रियाणां विषयेभ्यः समाहृतिः" । मनः कुर्वीत निश्चलमिति प्रत्याहारानन्तरोपदिष्टाया धारणाया उपक्रमः ॥६॥ धारणास्थानान्येवम्-- नाभीहृदयनासोग्रभालभूतालुदृष्टयः मुख कर्णौ शिरश्चेति ध्यानस्थानोन्यकीर्तयन् ॥७॥ ध्यानस्थानानीति ध्याननिमित्तस्य धारणायाः स्थानानि ॥७॥ धारणायाः फलमाह-- एषामेकत्र कुत्रापि स्थाने स्थापयतो मनः। उत्पद्यन्ते स्वसं वित्तेर्बहवः प्रत्ययाः किल ॥८॥ प्रत्ययाः वक्ष्यमाणाः । शेषं स्पष्टम् ॥८॥ इति परमाईतश्रीकुमारपालशुश्रषिते आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितेऽध्यात्मोपनिषनाम्नि संजातपट्टबन्धे श्रीयोगशास्त्रे स्वोपज्ञं षष्ठप्रकाशविवरणम् ॥६॥ ॥७२८॥ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् सप्तमः। प्रकाश ॥७२॥ अथ सप्तमः प्रकाशः। ओं अहं ॥ अथ ध्यानविधित्सोः क्रममाहध्यानं विधित्सता ज्ञेयं ध्याता ध्येयं तथा फलम् । सिध्यन्ति न हि सामग्री विना कार्याणि कर्हिचित् ॥१॥ स्पष्टः ॥२॥ अथ ध्यातारं पइमिः श्लोकैराहअमुञ्चन् प्राणनाशेऽपि संयमैकधूरीणताम् । परमप्यात्मवत् पश्यन् स्वस्वरूपापरिच्युतः ॥२॥ उपतापमसंप्राप्तः शीतवातातपादिभिः । पिपासुरमरीकारि योगामृतरसायनम् ॥३॥ रागादिभिरनाक्रान्तं क्रोधादिभिरदूषितम् । आत्मारामं मनः कुर्वन्निर्लेपः सर्वकर्मसु ॥४॥ विरतः कामभोगेभ्यः स्वशरीरेऽपि निःस्पृहः । संवेगहृदनिर्ममः सर्वत्र समतां श्रयन् ॥५॥ नरेन्द्रे वा दरिद्रे वा तुल्यकल्याणकामनः । अमात्रकरुणापात्रं भवसौख्यपराङ्मुखः ॥६॥ सुमेरुरिव निष्कम्पः शशीवानन्ददायकः । समीर इव निःसङ्गः सुधीर्ध्याता प्रशस्यते ॥७॥ स्पष्टाः ॥२-७॥ अथ भेदप्रतिपादनद्वारेण ध्येयस्य स्वरूपमाह ॥७२९॥ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शाखम्। सप्तमः प्रकाशः। ॥७३०॥ पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् । चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यालम्बनं बुधैः ॥८॥ पिण्डं शरीरं तत्र तिष्ठतीति पिण्डस्थं ध्येयम् ॥८॥ तद्धारणाभेदेनाहपार्थिवी स्यादथाग्नेयी मारुती वारुणी तथा । तत्रभूः पञ्चमी चेति पिण्डस्थे पञ्च धोरणाः॥९॥ ___स्पष्टः ॥९॥ तत्र पार्थिवीं धारणां श्लोकत्रयेणाह-- | तिर्यग्लोकसमं ध्यायेत् क्षीराब्धि तत्र चाम्बुजम् । सहसपत्रं स्वर्णाभं जम्बूद्वीपसमं स्मरेत्॥१०॥ तत्केसरततेरन्तः स्फुरत्पिङ्गप्रभाञ्चिताम् । स्वर्णाचलप्रमाणां च कर्णिकां परिचिन्तयेत् ॥११॥ श्वेतसिंहासनासीनं कर्मनिर्मूलनोद्यतम् । आत्मानं चिन्तयेत्तत्र पार्थिवी धारणेत्यसौ ॥१२॥ तिर्यग्लोकसम तिर्यग्लोकप्रमाणं यावान् तिर्यग्लोकस्तावन्मात्रं रज्जुप्रमाणमिति यावत् । शेषं स्पष्टम् ॥१०-१२॥ अथाग्नेयीं धारणां षइभिः श्लोकैराह-- विचिन्तयेत्तथा नाभौ कमलं षोडशच्छदम् । कर्णिकायां महामन्त्रं प्रतिपत्रं स्वरावलिम् ॥१३॥ रेफबिन्दुकलाक्रान्तं महामन्त्रो यदक्षरम् । तस्य रेफोद्विनिर्यान्तीं शनै—मशिखां स्मरेत् ॥१४॥ || ॥७३०॥ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् । ॥७३१ ॥ CEREC FOR CROCH स्फुलिंगसंततिं ध्यायेज्ज्वालामालामनन्तरम् । ततो ज्वालाकलापेन दहेत् पद्मं हृदि स्थितम् ॥१५॥ तदष्टकर्मनिर्माणमष्टपत्रमधोमुखम् । दहत्येव महामन्त्रध्यानोत्थः प्रबलानलः ॥१६॥ ततो देहाद्बहिर्ध्यायेत् त्र्यस्त्रं वह्निपुरं ज्वलत् । लाञ्छितं स्वस्तिकेनान्ते वह्निबीजसमन्वितम् ॥ १७॥ देहं पद्मं च मन्त्राचिरन्तर्वह्निपुरं बहिः । कृत्वाऽऽशु भस्मसाच्छाम्येत्स्यादाग्नेयीति धारणा ॥ १८ ॥ स्पष्टाः । नवरं महामन्त्रं सिद्धचक्रवर्तिबीजं अर्ह इति ॥ १३-१८॥ अथ वायवीं धारणां श्लोकद्वयेनाह ततस्त्रिभुवनाभोगं पूरयन्तं समीरणम् । चालयन्तं गिरीनब्धीन् क्षोभयन्तं विचिन्तयेत् ॥१९॥ तच्च भस्मरजस्तेन शीघ्रमुध्धूय वायुना । दृढभ्यासः प्रशान्ति तमानयेदिति मारुती ॥२०॥ स्पष्टौ ॥ १९-२० ॥ अथ वारुणीं धारणां श्लोकद्वयेनाह- स्मरेद्वर्षत्सुधासारैर्घनमालाकुलं नभः । ततोऽर्धेन्दुसमाक्रान्तं मण्डलं वारुणाङ्कितम् ॥२१॥ नभस्तलं सुधाम्भोभिः प्लावयेत्तत्पुरं ततः । तद्रजः कायसंभूतं क्षालयेदिति वारुणी ॥२२॥ स्पष्टौ ॥२१ - २२॥ अथ तत्रभूधारणां सोपसंहारां त्रिभिः श्लोकैराह -- सप्तमः प्रकाशः । ॥७३१॥ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥७३२॥ सप्तमः प्रकाशा सप्तधातुविनाभृतं पूर्णेन्दुविशदद्युतिम्। सर्वज्ञकल्पमात्मानं शुद्धिबुद्धिः स्मरेत्ततः ॥२३॥ ततः सिंहासनारूढं सर्वातिशयभासुरम् । विश्वस्ताशेषकर्माणं कल्याणमहिमान्वितम् ॥२४॥ : | स्वाङ्गगर्भनिराकारं संस्मरेदिति तत्रभूः । साभ्यासइति पिण्डस्थे योगी शिवसुखं भजेत् ॥२५॥ स्पष्टाः ॥२३-२५॥ पिण्डस्थध्येयस्य माहात्म्यं त्रिभिः श्लोकैराह8अश्रान्तमिति पिण्डस्थे कृताभ्यासस्य योगिनः। प्रभवन्ति न दुर्विद्या मन्त्रमण्डलशक्तयः ॥२६॥ 3 शाकिन्यः क्षुद्रयोगिन्यः पिशाचाः पिशिताशनाः। नेस्यन्ति तत्क्षणादेव तस्य तेजोऽसहिष्णवः२७ Nil दुष्टाः करटिनः सिंहोः शरभोः पन्नगा अपि । जिघांसवोऽपि तिष्ठन्ति स्तम्भिता इव दूरतः॥२०॥ इति परमाईतश्रीकुमारपालशुश्रूषिते आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितेऽध्यात्मोपनिषद्नाम्नि संजातपट्टबन्धे श्रीयोगशास्त्रे स्वोपझं सप्तमप्रकाशविवरणम् ॥७॥ . 'नराकारं' इति प्रत्यन्तरम् ॥ ॥७३२॥ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् अष्टम प्रकाश ॥७३३॥ । अथाष्टमः प्रकाशः।८ ओं अहं ॥ अथ पदस्थस्य ध्येयस्य लक्षणमाह" यत्पदानि पवित्राणि समालम्ब्य विधीयते । तत्पदस्थं समाख्यातं ध्यानं सिद्धान्तपारगैः ॥१॥ ___स्पष्टः ॥१॥ विशेषं त्रिभिः श्लोकराह तत्र षोडशपत्राढये नाभिकन्दगतेऽम्बुजे । स्वरमालां यथापत्रं भ्रमन्तीं परिचिन्तयेत् ॥२॥ | चतुर्विशतिपत्रं च हृदि पद्मं सकर्णिकम् । वर्णान् यथाक्रमं तत्रा चिन्तयेत् पञ्चविंशतिम् ॥३॥ | वक्त्राब्जेऽष्टदले वर्णाष्टकमन्यत्ततः स्मरेत् । संस्मरन्मातृकामेवं स्याच्छ्रतज्ञानपारगः ॥४॥ __स्पष्टाः ॥२-४॥ अस्य फलमाहध्यायतोऽनादिसंसिद्धान वर्णानेतान यथाविधि । नष्टादिविषये ज्ञानं ध्यातरुत्पद्यते क्षणात् ॥५॥ स्पष्टः । उक्तं च-"जापाज्जयेत्क्षयमरोचकमग्निमान्ध, कुष्ठोदरास्मकसनश्वसनादिरोगान् । प्राप्नोति चाप्रतिमवाग्महतीं महद्भ्यः , पूजां परत्र च गतिं पुरुषोत्तमाप्ताम् ॥११॥” इति ॥५॥ प्रकारान्तरेण पदमयीं देवतां ध्येयतया द्वादशभिः श्लोकैः निर्दिशति ७३३५ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् । ॥७३४ ॥ अथवा नाभिकन्दाधः पद्ममष्टदलं स्मरेत् । स्वरालीकेसरं रम्यं वर्गाष्टकयुतैदलैः ॥६॥ दलसन्धिषु सर्वेषु सिद्धस्तुतिविराजितम् । दलायेषु समग्रेषु मायाप्रणवपावितम् ॥७॥ तस्यान्तरन्तिमं वर्णमाद्यवर्णपुरस्कृतम् । रेफाक्रान्तं कलाबिन्दुरम्यं प्रालेयनिर्मलम् ॥८॥ अर्हमित्यक्षरं प्राणप्रान्तसंस्पर्श पावनम् । ह्रस्वं दीर्घं प्लुतं सूक्ष्ममतिसूक्ष्मं ततः परम् ॥९॥ ग्रन्थीन् विदारयन्नाभिकन्दहृद्घष्टिकादिकान् । सुसूक्ष्मध्वनिना मध्यमार्गयायि स्मरेत्ततः॥ १०॥ अथ तस्यान्तरात्मानं प्लाव्यमानं विचिन्तयेत् । बिन्दुतप्तकलानिर्यत्क्षीरगौरामृतोर्मिभिः ॥ ११ ॥ ततः सुधासरः सूतषोडशाब्जदलोदरे । आत्मानं न्यस्य पत्रेषु विद्यादेवीश्च षोडश ॥ १२ ॥ स्फुटस्फटिकभृङ्गारक्षरत्क्षीरसितामृतैः । आभिराप्लाव्यमानं स्वं चिरं चित्ते विचिन्तयेत् ॥१३॥ अथास्य मन्त्रराजस्याभिधेयं परमेष्ठिनम् । अर्हन्तं मूर्धनि ध्यायेत् शुद्धस्फटिकनिर्मलम् ॥१४॥ तध्यानावेशतः सोऽहं सोऽहमित्यालपन्मुहुः । निःशङ्कमेकतां विद्यादात्मनः परमात्मना ॥ १५ ॥ ततो नीरागमद्वेषममोहं सर्वदर्शितम् । सुरार्च्य समवसृतौ कुर्वाणं धर्मदेशनाम् ॥ १६ ॥ ध्यायन्नात्मानमेवेत्थमभिन्नं परमात्मना । लभते परमात्मत्वं ध्यानी निर्धूतकल्मषः ॥ १७ ॥ COOKE th अष्टमः प्रकाशः। ॥७३४ ॥ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् । ॥७३५॥ स्पष्टाः ॥६- १७ ॥ पुनरपि प्रकारान्तरेण पदमयीं देवतां पञ्चभिः श्लोकैराह— यद्वा मन्त्राधिपं धीमानूर्ध्वाधरेफसंयुतम् । कलाविन्दुसमाक्रान्तमनहितयुतं तथा ॥ १८ ॥ कनकाम्भोजगर्भस्थं सान्द्रचन्द्रांशुनिर्मलम् । गगने संचरन्तं च व्याप्नुवन्तं दिशः स्मरेत् ॥ १९ ॥ ततो विशन्तं वक्त्राब्जे भ्रमन्तं भ्रूलतान्तरे । स्फुरन्तं नेत्रपत्रेषु तिष्ठन्तं भोलमण्डले ॥२०॥ निर्यातं तालुरन्ध्रेण स्रवन्तं च सुधारसम् । स्पर्धमानं शशाङ्केन स्फुरन्तं ज्योतिरन्तरे ॥२१॥ संचरन्तं नभोभागे योजयन्तं शिव श्रिया । सर्वावयवसंपूर्ण कुम्भकेन विचिन्तयेत् ॥२२॥ अहं । स्पष्टाः । याहु:- "अकारादि हकारान्तं रेफमध्ये सबिन्दुकम् । तदेव परमं तत्त्वं यो जानाति स तत्ववित् ॥१॥” इति ॥ २२॥ मन्त्रराजस्य ध्याने फलमाह- महातत्त्वमिदं योगी यदैव ध्यायति स्थिरः । तदैवानन्दसंपद्भूर्मुक्तिश्रीरुपतिष्ठते ॥२३॥ स्पष्टः ||२३|| अनन्तरविधिमाह रेफबिन्दुकलाहीनं शुभ्रं ध्यायेत्ततोऽक्षरम् । ततोऽनक्षरतां प्राप्तमनुच्चार्यं विचिन्तयेत् ॥२४॥ स्पष्टः ||२४|| ततः अष्टमः प्रकाशः । ॥७३५॥ Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः योगशास्त्रम्॥ प्रकाशः। 11७३६॥ निशाकरकलोकारं सूक्ष्मं भास्करभास्वरम् । अनाहताभिधं देवं विस्फुरन्तं विचिन्तयेत् ॥२५॥ स्पष्टः ॥२५॥ ततः-- | तदेव च क्रमात्सूक्ष्मं ध्यायेद्वालाग्रसन्निभम् । क्षणमव्यक्तमीक्षेत जगज्ज्योतिर्मयं ततः ॥२६॥ तदेव अनाहतमेव सूक्ष्मं ध्यायेत् , ततस्तदेवाव्यक्तं निराकारं जगज्ज्योतिर्ध्यायेत् ॥२६॥ एवं चप्रच्याव्यमानसंलक्ष्यादलक्ष्ये दधतः स्थिरम् । ज्योतिरक्षयमत्यक्षमन्तरुन्मीलति क्रमात् ॥२७॥ स्पष्टः ॥२७॥ प्रकृतमुपसंहरति| इति लक्ष्यं समालम्ब्य लक्ष्यभावः प्रकाशितः। निषण्णमनमस्तत्र सिध्यत्यभिमतं मुनेः ॥२०॥ स्पष्टः ॥ २८ ॥ इति मन्त्रराजोऽनाहतमव्यक्तं चोक्तं । प्रकारान्तरेण परमेष्ठिवाचकां पदमयीं देवतां श्लोकद्वयेन निर्दिशतितथा हृत्पद्ममध्यस्थं शब्दब्रह्मैककारणम् । स्वरव्यञ्जनसंवीतं वाचकं परमेष्ठिनः ॥२९॥ मूर्धसंस्थितशीतांशुकलामृतरसप्लुतम् । कुम्भकेन महामन्त्रं प्रणवं परिचिन्तयेत् ॥३०॥ _ स्पष्टौ ॥२९-३०॥ तस्य ध्येयत्वे प्रकारान्तराण्याह-- पीतं स्तम्भेऽरुणं वश्ये क्षोभणे विद्रुमप्रभम् । कृष्णं विद्वेषणे ध्यायेत् कर्मधाते शशिप्रभम् ॥३१॥ ॥७३६ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् । ७३७ यद्यपि कर्मघातार्थिनां शशिप्रभस्यैव प्रणवस्य ध्यानमुचितं, तथापि तत्तद्रव्य क्षेत्रकालभावसामग्रीवशेन पीतादिध्यानान्यपि कदाचिदुपकारीणीत्येतदुपदिष्टम् । ओं ॥३१॥ प्रकारान्तरेण पदमयीं देवतां प्रस्तौति- तथा पुण्यतमं मन्त्रं जगत्त्रितयपावनम् । योगी पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारं विचिन्तयेत् ॥३२॥ स्पष्टः ||३२|| ततश्च- अष्टपत्रे सिताम्भोजे कर्णिकायां कृतास्थितिम् । आद्यं सप्ताक्षरं मन्त्रं पवित्रं चिन्तयेत्ततः ॥ ३३ ॥ | | " नमो अरिहंताणं' इति आद्यः सप्ताक्षरो मन्त्रः ||३३|| ततश्व सिद्धादिकचतुष्कं च दिक्पत्रेषु यथाक्रमम् । चूलापादचतुष्कं च विदिक्पत्रेषु चिन्तयेत् ॥ ३४ ॥ दिकपत्रेषु पूर्वादिदिग्व्यवस्थितेषु पत्रेषु सिद्धादिचतुष्टयं नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं । विदिक्पत्रेषु आग्नेय्यादिविदिग्व्यवस्थितेषु दलेषु चूलापादचतुष्कं - एसो पंच नमुकारो, सव्वपावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं । इति ध्यायेत् ||३४|| अस्य व्युष्टिमाह त्रिशुध्या चिन्तयंस्तस्य शतमष्टोत्तरं मुनिः । भुञ्जानोऽपि लभेतैव चतुर्थतपसः फलम् ॥ ३५॥ 'अरहंताणं' इत्यपि प्रत्यन्तरे दृश्यते, एवमग्रेऽपि सवत्र दृश्यम् ॥ ME RECENT & SECSE अष्टमः प्रकाशः । ॥७३७॥ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग. शाखम्। अष्टमः। प्रकाशा १७३८५ त्रिशुद्धया मनोवाकाय शुद्धया चतुर्थ तप उपवासः ॥३५॥ तथाएवमेव महामन्त्रं समाराध्येह योगिनः । त्रिलोक्याऽपि महीयन्तेऽधिगताः परमां श्रियम् ॥३६॥ कृत्वा पापसहस्राणि हत्वा जन्तुशतानि च । अमुं मन्त्र समाराध्य तिर्यञ्चोऽपि दिवं गताः ॥३७॥ तियश्चः कम्बलशम्बलादयः। शेषं स्पष्टम् ॥३६-३७ ॥ प्रकारान्तरेणैनां विद्यामाहगुरुपञ्चकनामोत्था विद्या स्यात् षोडशाक्षरा । जपन् शतद्वयं तस्याश्चतुर्थस्याप्नुयात्फलम् ॥३०॥ ___ गुरुपञ्चकं परमेष्ठिपञ्चकं तनामानि विभक्त्या नमःपदेन च रहितानि “अरिहंतसिद्धआयरियउवज्ज्ञायसाहु" इत्येवलक्षणानि । शेषं स्पष्टम् ॥३८॥ तथाशतानि त्रीणि षड्वर्णं चत्वारि चतुरक्षरम् । पञ्चावर्ण जयन् योगी चतुर्थफलमश्नुते ॥३९॥ पइवर्ण 'अरिहंतसिद्ध' इति, चतुरक्षरं 'अरिहंत' इति अवर्ण अकारमेव मन्त्र जपन् चतुर्थफलं लभते, चतुर्थादिफलप्रतिपादनं तु मुग्धजनप्रतिपादनार्थ स्वल्पमेवोक्तं, मुख्यं तु स्वर्गापवर्गों ॥३८॥ एतदेवाहप्रवृत्तिहेतुरेवैतदमीषां कथितं फलम् । फलं स्वर्गापवर्गों तु वदन्ति परमार्थतः ॥४०॥ ७३८॥ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् अष्टमा प्रकाश ॥७३९॥ स्पष्टः ॥४०॥ प्रकारान्तरेण पदमयीं देवतामाहNI पञ्चवर्णमयी पञ्चतत्वा विद्योधृता श्रुतात् । अभ्यस्यमाना सततं भवक्लेश निरस्यति ॥४१॥ श्रुतात् विधाप्रवादाभिधानात् पूर्वात् उध्धृता, सा च "हाँ ही हु हौं हूं: असिआउसा नमः" इत्येवंलक्षणा । | शेषं स्पष्टम् ॥४१॥ तथामङ्गलोत्तमशरणपदान्यव्यग्रमानसः। चतुःसमोश्रयाण्येव स्मरन् मोक्षं प्रपद्यते ॥४२॥ तद्यथा-चत्तारि मङ्गलं, अरिहंता मंगल, सिद्धा मंगल साहू मंगलं, केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपन्नतो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि | सरणं पवज्जामि अरिहंते सरणं पवामि, सिद्धे सरण पवज्जामि, साहू सरण पवज्जामि, केवलिपन्नत्तं धम्म सरण पवज्जामि । चतुःसमाश्रयाणीति अर्हत्सिद्धसाधुधर्मसमाश्रयाणि ॥४२॥ ___ अथ पूर्वार्धेन विद्यामपरार्धेन च मन्त्रमेकेनैव श्लोकेनाहमुक्तिसौख्यप्रदां ध्यायेद्विद्यां पञ्चदशाक्षरोम् । सर्वज्ञाभं स्मरेन्मन्त्रं सर्वज्ञानप्रकाशकम् ॥४३॥ विद्यां पञ्चदशाक्षरामिति “ओं अरिहंतसिद्धसयोगिकेवली स्वाहा" इत्येवंलक्षणां । सर्वज्ञाभं स्मरेन्मन्त्रमिति "ओं श्री ही अहं नमः" इत्येवंलक्षणम् ॥४३॥ 1७३९॥ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् ॥७४० ॥ सर्वज्ञाभभित्येतदेव भावयति — वक्तुं न कश्चिदप्यस्य प्रभावं सर्वतः क्षमः । समं भगवतो साम्यं सर्वज्ञेन विभर्ति यः ॥४४॥ स्पष्टः ||४४|| यदीच्छेद्भवदावाग्नेः समुच्छेदं क्षणादपि । स्मरेत्तदादिमन्त्रस्य वर्णसप्तकमादिमम् ॥ ४५ ॥ नमो अरिहंताण इति ॥ ४५ ॥ इदानीमेकेन श्लोकेन मन्त्रद्वयमाह - पञ्चवर्ण स्मरेन्मन्त्रं कर्मनिर्घातकं तथा । वर्णमालाञ्चितं मन्त्रं ध्यायेत्सर्वाभयप्रदम् ॥ ४६ ॥ पञ्चवर्ण पञ्चाक्षरं " नमो सिद्धाण" इतिलक्षणं इत्येको मन्त्रः । वर्णमालाञ्चितमिति द्वितीयः स चायं - “ओं नमो अर्हते केवलिने परमयोगिने विस्फुरदुरुशुक्लध्यानाग्निनिर्दग्धकर्मवीजाय प्राप्तानन्तचतुष्टयाय सौम्याय शान्ताय मङ्गलवरदाय अष्टादशदोषरहिताय स्वाहा ||४६ || मन्त्रान्तरं व्युष्टिसहितं दशभिः श्लोकैराह— ध्यायेत्सिताब्जं वक्त्रान्तरष्टवर्गी दलाष्टके । ओं नमो अरिहंताणमिति वर्णानपि क्रमात् ॥४७॥ केसरालीं स्वरमयीं सुधाविन्दुविभूषिताम् । कर्णिकां कर्णिकायां च चन्द्रविम्बात्समापतत् ॥४८॥ संचरमाणं वक्त्रेण प्रभामण्डलमध्यगम् । सुधादीधितिसंकाशं मायावीजं विचिन्तयेत् ॥ ४९ ॥ Y Y CONCE अष्टमः प्रकाशः । 11983411 Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम्। ७४१॥ अष्टमा प्रकाशः। | ततो भ्रमन्तं पोषु संचरन्तं नभस्तले । ध्वंसयन्तं मनोवान्तं सवन्तं च सुधारसम् ॥५०॥ तालुरन्ध्रण गच्छन्तं लसन्तं भूलतान्तरे । त्रैलोक्योचिन्त्यमाहात्म्यं ज्योतिर्मयमिवादभुतम् ॥५१॥ | इत्यमुं ध्यायतो मन्त्रं पुण्यमेकापचेतसः । वाग्मनोमलमुक्तस्य श्रुतज्ञानं प्रकाशते ॥५२॥ मासैः षड्भिः कृतभ्यासः स्थिरीभूतमनास्ततः। निःसरन्तीं मुखाम्भोंजाच्छिखां धूमस्य पश्यति ॥ सवत्सरं कृताभ्यासस्ततो ज्वालां विलोकते। ततः संजातसंवेगः सर्वज्ञमुखपङ्कजम् ॥५४॥ स्फुरत्कल्याणमाहात्म्यं संपन्नातिशयं ततः। भामण्डलगतं साक्षादिव सर्वज्ञमीक्षते ॥५५॥ ततः स्थिरीकृतस्वान्तस्तत्र संजातनिश्चयः। मुक्त्वा संसारकान्तारमध्यास्ते सिद्धिमन्दिरं ॥५६॥ ___ मायावीजं ही” इति । शेषं स्पष्टम् ॥४७-५६॥ तथाशशिबिम्बादिवोद्भूतां सवन्तीममृतं सदा । विद्यां वीं इति भालस्थां ध्यायेत्कल्याणकारणम् ॥ स्पष्टः ॥५७॥ तथाक्षीराम्भोधेविनिर्यान्तीं प्लावयन्ती सुधाम्बुभिः। भाले शशिकलां ध्यायेत् सिद्धिसोपानपद्धतिम् ॥ स्पष्टः ५८॥ अस्या ध्याने फलमाह ॥७४१॥ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगछान्नम्। अष्टमः। प्रकाशा ७४२५ अस्याः स्मरणमात्रेण त्रुट्यद्भववनिबन्धनः। प्रयाति परमानन्दकारणं पदमव्ययम् ॥५९॥ ___ स्पष्टः ॥५९॥ तथानासाग्रे प्रणवः शून्यमनाहतमिति त्रयम् । ध्यायन् गुणोष्टकं लब्ध्वा ज्ञानमामोति निर्मलम् ॥६०॥ ओं । । अष्टौ गुणा अणिमादयः ॥६०॥ एतदेव विशिनष्टि।। शङ्खकुन्दशशाङ्काभांस्त्रीनमून् ध्यायतः सदा। समाविषयज्ञानप्रागल्भ्यं जायते नृणाम॥६१॥ ____ स्पष्टः ॥६१॥ तथा| द्विपाश्वप्रणवद्वन्द्वं प्रान्तयोर्मायया वृतम्। सोऽहं मध्ये विमूर्धानं अहम्ली कारं विचिन्तयेत् ॥६२॥ ही ओं ओं सः अहम्ली ई ओं ओं ही ॥६२॥ तथा| कामधेनुमिवाचिन्त्यफलसंपादनक्षमाम् । अनवद्यां जपेद्विद्यां गणभृद्वदनोद्गताम् ॥६३॥ विद्या च ओं जोग्गे मग्गे तच्चे भूए भविस्से अंते पक्खे जिणपाधै स्वाहा ॥६३॥ तथा| षट्कोणेप्रतिचक्रे फडिति प्रत्येकमक्षरम् । सव्ये न्यसेद्विचक्राय स्वाहा बाह्येऽपसव्यतः ॥६४॥ भूतान्तं बिन्दुतन्मयुक्तं मध्ये न्यस्य चिन्तयेत् । नमो जिणाणमित्याद्यैरोंपूर्वै वेष्टयेबहिः॥६५॥ • “ओं हइ" इति प्रत्यन्तरम् ॥ 11७४२॥ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ॥७४३॥ 3BBBER ओं नमो जिणाण, ओं नमो अहिजिणाण, ओं नमो परमोहिजिणाण, ओं नमो सव्वोसहिजिणाण, ओं नमो अनन्तोहिजिणाणं, ओं नमो कुहबुद्धीणं, ओं नमो बीयबुद्धीणं, ओं नमो पदानुसारीणं, ओं नमो संभिनसोआ, ओं नमो उज्जुमदीणं, ओं नमो विउलमदीण, ओं नमो दसपुव्वीण, ओं नमो चउदसपुव्वीण, ओं नमो अहंगमहानिमित्त कुसलाण, ओं नमो विउब्वणइढिपत्ताण, ओं नमो विज्जाहराण, ओं नमो चारणाण ओं नमो पण्णसमणाण, अ नमो आगासगामीण, ओं ज्सौं ज्सौं श्रीह्रीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्मी स्वाहा, इतिपदैर्वलयं पूरयेत् । पञ्चनमस्कारेण पञ्चाङ्गुलीन्यस्तेन सकलीक्रियते, तद्यथा - ओं नमो अरिहंताणं ही स्वाहा अङ्गुष्ठे । ओं नमो सिद्धाणं ही स्वाहा तर्जन्याम् । ओं नमो आयरियाण ं हूँ स्वाहा मध्यमायां । ओं नमो उवज्झायाणं हूँ स्वाहा अनामिकायां । ओं नमो लोए सव्वसाहूणं ह्रीँ स्वाहा कनिष्ठायां । एवं वारत्रयमङ्गुलीषु विन्यस्य मस्तकस्योपरि पूर्वदक्षिणापरोत्तरेषु भागेषु विन्यस्य जपं कुर्यात् || ६४ - ६५ ॥ तथा— अष्टपत्रे ऽम्बुजे ध्यायेदात्मानं दीप्रतेजसम् । प्रणवाद्यस्य मन्त्रस्य वर्णान् पत्रेषु च क्रमात् ॥ ६६ ॥ पूर्वाशाभिमुखः पूर्वमधिकृत्यादिमण्डलम् । एकादशशतान्यष्टाक्षरं मन्त्रं जपेत्ततः ॥६७॥ पूर्वाशानुक्रमादेवमुद्दिश्यान्यदलान्यपि । अष्टरात्रं जपेद्योगी सर्वप्रत्यूहशान्तये ॥ ६८ ॥ अष्टरात्रे व्यतिक्रान्ते कमलस्यास्य वर्तिनः । निरूपयति पत्रेषु वर्णानेताननुक्रमम् ॥ ६९ ॥ 54 अष्टमः प्रकाश १७४३ ॥ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग अष्टमः प्रकाशः। I७४४॥ भीषणाः सिंहमातङ्गरक्षः प्रभृतयः क्षणात् । शाम्यन्ति व्यन्तराधान्ये ध्यानप्रत्यूहहेतवः ॥७॥ शास्त्रम्। Is मन्त्रः प्रणवपूर्वोऽयं फलमैहिकमिच्छुभिः। ध्येयः प्रणवहीनस्तु निर्वाणपदकातिभिः ॥७१॥ प्रणवाद्यो मन्त्रः ओं नमो अरिहंताणं । शेष स्पष्टम् ॥६६-७१॥ अथ श्लोकेनैकेन मन्त्र विद्यां चाह| चिन्तयेदन्यप्येनं मन्त्रं कपिशान्तये । स्मरेत्सत्त्वोपकाराय विद्यां तां पापभक्षिणीम् ॥७२॥ अन्यमपीति श्रीमदृषभादिवर्धमानान्तेभ्यो नम इत्येवंरूपं । पापभक्षिणीमिति ओं अईन्मुखकमलवासिनि' पापात्मक्षयकरि श्रुतज्ञानज्वालासहस्त्रज्वलिते सरस्वति मत्पापं हन हन दह दह क्षाक्षी क्षु क्षौ क्षः क्षीरवरधवले अमृतसंभवे व व ई स्वाहा इत्येवंलक्षणम् ॥७२॥ अस्या न्युष्टि:प्रसीदति मनः सद्यः पापकालुष्यमुज्झति । प्रभावातिशयोदस्या ज्ञानदीपः प्रकाशते ॥७३॥ स्पष्टः ॥७३॥ तथाज्ञानवद्भिः समाम्नातं वज्रस्वाम्यादिभिः स्फुटम् । विद्यावादात्समुध्धृत्य बीजभूतं शिवश्रियः॥ जन्मदावहुताशस्य प्रशान्तिनववारिदम् । गुरूपदेशाद्विज्ञाय सिद्धचक्र विचिन्तयेत ॥७५॥ | स्पष्टौ ॥७४-७५।। तथा-- ॥७४४॥ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् अष्टमः। प्रकाश नाभिपद्मे स्थितं ध्यायेदकारं विश्वतोमुखम् / सिवर्ण मस्तकाम्भोजे आकारं वदनाम्बुजे // 7 // उकारं हृदयाम्भोजे साकारं कण्ठपङ्कजे / सर्वकल्याणकारीणि बीजान्यन्यान्यपि स्मरेत् // 77 // असिआउसा / बीजान्यन्यान्यपि नमः सर्वसिद्धेभ्यः इति // 76-77 // उपसंहरतिश्रुतसिन्धुसमुद्भुतमन्यदप्यक्षरं पद्म / अशेष ध्यायमानं स्यानिर्वाणपदसिद्धये // 78 // स्पष्टः // 7 // उक्तं चवीतरागो भवेद्योगी यत्किञ्चिदपि चिन्तयेत् / तदेव ध्यानमाम्नातमतोऽन्ये ग्रन्थविस्तराः // 79 // anl एवं च मन्त्रविद्यानां वर्णेषु च पदेषु च। विश्लेषः क्रमशः कुर्याल्लक्ष्मीभावोपपत्तये // 8 // स्पष्टौ // 76-80 // आशिषमाहइति गणधरधुर्याविष्कृतादुद्धृतानि, प्रवचनजलराशेस्तत्त्वरत्नान्यमूनि / B हृदयमुकुरमध्ये धीमतामुल्लसन्तु, प्रचितभवशतोत्थक्लेशनि शहेतोः // 1 // इति परमाईतश्रीकुमारपालभूपालशुश्रूषिते आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितेऽध्यात्मोपनिषभाम्नि संजातपट्टवन्धे श्रीयोगशास्त्रे स्वोपज्ञमष्टमप्रकाशविवरणम् // 8 // // 745 // * "लक्षा (क्ष्य)" इति प्रत्यन्तरम् // Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम्॥ नवमः प्रकाशः // 746 // ॥अथ नवमः प्रकाशः: 9 ___ ओं अहं / अथ रूपस्थं ध्येयं सप्तभिः श्लोकैराह7 | मोक्षश्रीसम्मुखीनस्य विध्वस्ताखिलकर्मणः। चतुर्मुखस्य निःशेषभुवनाभयदायिनः // 1 // इन्दुमण्डलसंकाशच्छत्रत्रितयशालिनः / लसद्भामण्डलाभोगविडम्बितविवस्तः // 2 // दिव्यदुन्दुभिनिघापगीतसाम्राज्यसंपदः। रणद्विरेफझङ्कारमुखराशोकशोभिनः // 3 // I सिंहासननिषण्णस्य वीज्यमानस्य चामरैः। सुरासुरशिरोरत्नदोप्रपादनखयुतेः // 4 // दिव्यपुष्पोत्कराकीर्णासङ्कीर्णपरिषद्भुवः / उत्कन्धरैर्मृगकुलैः पीयमानकलध्वनेः // 5 // | शान्तवैरेभसिंहादिसमुपासितसन्निधेः। प्रभोः समवसरणस्थितस्य परमेष्ठिनः // 6 // सर्वातिशययुक्तस्य केवलज्ञानभास्वतः। अर्हतो रूपमालम्ब्य ध्यानं रूपस्थमुच्यते // 7 // ___स्पष्टाः // 1-7 // प्रकारान्तरेण रूपस्थं ध्येयं त्रिभिः श्लोकैराहरागद्वेषमहामोहविकारैरकलङ्कितम् / शान्तं कान्तं मनोहारि सर्वलक्षणलक्षितम् // 8 // ||766 Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् नवम प्रकाश 11001 तीर्थिकैरपरिज्ञातयोगमुद्रामनोरमम् / अक्ष्णोरमन्दमानन्दनिःस्यन्द दददद्भुतम् // 9 // जिनेन्द्रप्रतिमारूपमपि निर्मलमानसः। निर्निमेषदृशा ध्यायन् रूपस्थध्यानवान् भवेत् // 10 // ___ स्पष्टाः / / 8-10 // ततश्च | योगी चाभ्यासयोगेन तन्मयत्वमुपागतः। सर्वज्ञीभूतमात्मानमवलोकयति स्फुटम् // 11 // | सर्वज्ञो भगवान् योऽयमहमेवास्मि स ध्रुवम् / एवं तन्मयतां यातः सर्ववेदीति मन्यते // 12 // ____ स्पष्टौ // 11-12 // कथमित्याह| वीतरागो विमुच्येत वीतरार्ग विचिन्तयन् / रागिणं तु समालम्ब्य रागी स्यात्क्षोभणादिकृत् // 13 // ___ स्पष्टः // 13 // उक्तं चB येन येन हि भावेन युज्यते यन्त्रवाहकः। तेन तन्मयतां याति विश्वरूपो मणिर्यथा // 14 // ___ स्पष्टः // 14 // एवं सध्ध्यानमुक्त्वाऽसध्ध्यानं निराकुर्ववाहनासध्यानानि सेव्यानि कौतुकेनापि किन्त्विह / स्वनाशायैव जायन्ते सेव्यमानानि तानि यत् // 15 // स्पष्टः // 15 // कुतः?-- // 47 // Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् दशमप्रकाशा 1748 // सिध्यन्ति सिद्धयः सर्वाः स्वयं मोक्षावलम्बिनाम् / संदिग्धा सिद्धिरन्येषां स्वार्थभ्रंशस्तु निश्चितः स्पष्टः // 16 // इति परमाईश्रीकुमारपालभूपालशुश्रषिते आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितेऽध्यात्मोपनिषद्नाम्नि संजातपट्टबन्धे श्रोयोगशास्त्रे स्वोपज्ञं नवमप्रकाशविवरणम् // 9 // - रे / अथ दशमः प्रकाशः। 10 ओं अहं / अथ रूपातीतं ध्येयमाहअमर्तस्य चिदानन्दरूपस्य परमात्मनः। निरञ्जनस्य सिद्धस्य ध्यानं स्याद्रूपवर्जितम् // 1 // __स्पष्टः // 1 // एवं चइत्यजसं स्मरन् योगी तत्स्वरूपावलम्बनः। तन्मयत्वमवाप्नोति ग्राह्यग्राहकवर्जितम् // 2 // ___ स्पष्टः // 2 // अनन्यशरणीभूय स तस्मिन् लीयते तथा। ध्यातृभ्यानोभयाभावे ध्येयेनैक्यं यथा व्रजेत् // 3 // Hous Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः प्रकाशः। योगशास्त्रम्। // 749 // 16 स्पष्टः // 3 // तात्पर्यमाह-- सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं मतम् / आत्मा यदपृथक्त्वेन लीयते परमात्मनि // 4 // ___स्पष्टः // 4 // ऐदम्पर्यमुपदिशति-- अलक्ष्यं लक्ष्यसंबन्धात् स्थूलात्सूक्ष्मं विचिन्तयेत्। सालम्बाच्च निरालम्बं तत्त्ववित्तत्वमंजसा / 5 / स्पष्टः / / 5 / / पिण्डस्थादिरूपं चतुर्विधं ध्येयमुपसंहरति# एवं चतुर्विधध्यानामृतमग्नं मुनेर्मनः / साक्षात्कृतजगत्तत्वं विधत्त शुद्धिमात्मनः // 6 // | स्पष्टः // 6 // पिण्डस्थादिक्रमेण चतुर्विधं ध्येयमभिधाय प्रकारान्तरेण तस्य चातुर्विध्यमाह-- | आज्ञापायविपाकानां संस्थानस्य च चिन्तनात् / इत्थं वा ध्येयभेदेन धम्यं ध्यानं चतुर्विधम् // 7 // ___ ध्येयभेदाच्चातुर्विध्यं ध्यानस्य // 7 // अथाज्ञाध्यानमाहआज्ञां यत्र पुरस्कृत्य सवज्ञानामबाधिताम् / तत्त्वतश्चिन्तयेदास्तदाज्ञाध्यानमुच्यते // 6 // आज्ञाऽऽसवचनं प्रवचनमिति यावत् / अबाधितां प्रमाणान्तरैः परस्परविरोधेन च तत्त्वत इति परमार्थवृत्त्या, अर्थान् पदार्थान् जीवादीन चिन्तयेत् // 8 // आज्ञाया अबाधितत्त्वं भावयति-- 749 // Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् दशमा प्रकाशः। 750 // सर्वज्ञवचनं सूक्ष्मं हन्यते यन्न हेतुभिः। तदाज्ञारुपमादेयं न मृषाभाषिणो जिनाः // 9 // __ स्पष्टः / अत्रान्तरश्लोकाः-- आज्ञा स्यादाप्तवचनं सा द्विधैव व्यवस्थिता / आगमः प्रथमा तावद्धतुवादोऽपरा पुनः // 1 // शब्दादेव पदार्थानां प्रतिपत्तिकृदागमः / प्रमाणान्तरसंवादाद्धेतुवादो निगद्यते // 2 // द्वयोरप्यनयोस्तुल्य प्रामाण्यमविगानतः / अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणमिति लक्षणात् // 3 // दोषा रागद्वेषमोहाः संभवन्ति न तेऽहति / अदुष्टहेतुसंभूतं तत्प्रमाण' वचोऽर्हताम् // 4 // नयप्रमाणसंसिद्धं पूर्वापर्याविरोधि च। अप्रतिक्षेप्यमरैर्बलिष्ठेरपि शासनैः // 5 // अङ्गोपाङ्गप्रकीर्णादिबहुभेदापगाम्बुधिम / अनेकातिशयप्राज्यसाम्राज्यश्रीविभूषितम् // 6 // दुर्लभ दूरभन्यानां भव्यानां सुलभं भृशम् / गणिपिटकतयोच्चैनित्यं स्तुत्य नरामरैः // 7 // एवमाज्ञां समालम्ब्य स्याद्वादन्याययोगतः / द्रव्यपर्यायरूपेण नित्यानित्येषु वस्तुषु // 8 // स्वरूपपररूपाभ्यां सदसट्ठपशालिषु / यः स्थिर: प्रत्ययो ध्यानं तदाज्ञाविच याहयम् // 6 // 9 // ___ अथापायविचयमाहरागद्वेषकषायाद्यैर्जायमानान् विचिन्तयेत् / यत्रापायांस्तदपायविचयध्यानमिष्यते // 10 // रागद्वेषजनितानामपायानां विपयो विचिन्तनं यत्र तदपायविचयम् // 10 // तस्य फलमाहऐहिकामुष्मिकापायपरिहारपरायणः। ततः प्रतिनिवर्तेत समन्तात् पापकर्मणः // 11 // // 50 // Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशाखम्। // 751 // दशमः प्रकाशः। स्पष्टः अन्नान्तरश्लोका: अस्पृष्टजिनमार्गाणामविज्ञातपरात्मनाम् / अपरामृष्टयतीनामपायाः स्युः सहस्रशः // 1 // मायामोहान्धतम3 सविवशीकृतचेतसा / किं किं नाकारि कलुषं कस्कोऽपायोऽप्यवापि न // 2 // यद्यदुःखं नारकेषु तिर्यक्षु मनुजेषु च / मया प्रापि प्रमादोऽयं ममैव हि विचेतसः // 3 // प्राप्यापि परमां बोधि मनोवाकायकर्मजः दुश्चेष्टितमयवायं शिरसि ज्वालितोऽनलः // 4 // स्वाधीने मुक्तिमार्गेऽपि कुमार्गपरिमार्गणैः। अहो आत्मंस्त्वयैवैष स्वात्मा| ऽपायेषु पातितः // 5 // यथा प्राप्तेऽपि सौराज्ये भिक्षां भ्राम्यति बालिशः। आत्मायत्ते तथा मोक्षे भवाय भ्रान्त-18 वानसि // 6 / / इत्यात्मनः परेषां च ध्यात्वाऽपायपरंपराम् / अपायविचय ध्यानमधिकुर्वीत योगवित् // 7 // 11 // ___ अथ विपाकविचयमाह| प्रतिक्षणसमुद्भूतो यत्र कर्मफलोदयः चिन्त्यते चित्ररूपः स विपाकविचयो मतः // 12 // ___स्पष्टः // 12 // एतदेव भावयति-- या संपदाऽर्हतो या च विपदा नारकात्मनः। एकोतपत्रता तत्रा पुण्यापुण्यस्य कर्मणः // 13 // आ अईतः आ नारकात्मन इति चभिव्याप्तौ पञ्चमी शेषं स्पष्टम् / अत्रान्तरश्लोकाः विपाकः फलमाम्नातः कर्मणां स शुभाशुभः। द्रव्यक्षेत्रादिसामग्रथा चित्ररूपोऽनुभूयते // 1 // शुभस्तत्राङ्गनामाल्यखाद्यादिद्रव्यभोगतः / अशुभस्त्वहिशस्त्राग्निविषादिभ्योऽनुभूयते // 2 // क्षेत्र सौधविमानोपवनादौ वसना // 751 // Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यगशाखम्। दशमः। प्रकाशः। // 752 // O च्छुभः। स्मशानजागलारण्यप्रभृतावशुभः पुनः // 3 // काले त्वशीतलानुष्णे वसन्तादौ रतेः शुभः। उष्णे शीते ग्री मे हेमन्तादौ भ्रमणतोऽशुभः // 4 // मनःप्रसादसन्तोषादिभावेषु शुभो भवेत् / क्रोधाहकाररौद्रत्वादिभावेध्वशुभः पुनः // 5 // सुदेवत्वभोगभूमिमानुष्यादिभवे शुभः / कुमर्त्यतिर्यङ्नरकादिभवेष्वशुभः पुनः // 6 // अपिचउदयक्षयक्षयोपशमोपशमाः कर्मणां भवन्त्यत्र / द्रव्यं क्षेत्र कालं भावं च भवं च संप्राप्य // 7 // इति द्रव्यादिसामग्रीयोगात्कर्माणि देहिनाम् / स्वं स्वं फलं प्रयच्छन्ति तानि त्वष्टव तद्यथा // 8 // जन्तोः सर्वज्ञरूपस्य ज्ञानमावियते सदा / येन चक्षुःपटेनेव ज्ञानावरणकर्म तत् // 6 // मतिश्रुतावधिमनःपर्यायाः केवलं तथा / यदात्रियन्ते ज्ञानानीत्येतज्ज्ञानावृतेः फलम् // 10 // पञ्चनिद्रा दर्शनानां चतुष्कस्यावृतिश्च या / दर्शनावरणीयस्य विपाकः कर्मणः स तु // 11 // यथा दिदृक्षुः स्वाम्यत्र प्रतीहारनिरोधतः। न पश्यति स्वमप्येवं दर्शनावरणोदयात् // 12 // मधुलिप्तासिधारामास्वादाभं वेद्यकर्म यत् / सुखदुःखानुभवनस्वभाव परिकीर्तितम् // 13 // सुरापाणसम प्राज्ञा मोहनीयं प्रचक्षते / यदनेन विमृढात्मा कृत्याकृत्येषु मुह्यति // 14 // तत्रापि दृष्टिमोहाख्य मिथ्यादृष्टिविपाककृत् / चारित्रमोहनीयं तु विरतेः प्रतिषेधनम् // 15 // तृतियङ्नारकामर्त्य भेदादायुश्चतुर्विधम् स्वस्वजन्मनि जन्तूनां धारकं गुप्तिसन्निभम् // 16 // गतिजात्यादिवैचित्र्यकारि चित्रकरोपमम् नामकर्म विपाकोऽस्य शरीरेषु शरीरिणाम् // 17 // उचैनीचैर्भवेदगोत्रं कर्मोच्चोंचगोत्रकूत् / क्षीरभाण्डसुराभाण्डभेदकारि कुलालवन // 18 // दानादिलब्धयो येन न फलन्ति विबाधिताः॥ तदन्तरायं कर्म स्याद्भाण्डागारिकसनिमम् // 13 // 18 इति मूलप्रकृतीनां विपाकास्तान् विचिन्वतः। विपाकविचयं नाम धर्मध्यान वर्तते // 20 // 13 // // 752 // Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् // 753 // प्रकाराः अथ संस्थानविचयमाहअनाद्यन्तस्य लोकस्य स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मनः। आकृति चिन्तयेद्यत्र संस्थानविचयः स तु॥१४॥ लोकशब्देन लोकस्तद्गतानि च क्षित्यादीनि द्रव्याणि परिगृह्यन्ते / शेष स्पष्टम् // 14 // लोकध्यानस्य फलमाहनानाद्रव्यगतानन्तपर्यायपरिवर्तनात् / सदा सक्तं मनो नैव रागाद्याकुलतां व्रजेत् // 15 // स्पष्टः अत्रान्तरश्लोकाः-- संस्थानविचयो लोकभावनायां अपश्चितः। तन्नेह वर्ण्यते भूयः पुनरुक्तत्वभीरुभिः // 1 // अथ लोकभावनायाः # संस्थानविचयस्य च / को नाम भेदो येनोभौ विभिन्नौ परिकीर्तितौ // 2 // उक्तमेतद्यथा चिन्तामात्रक लोक| भावना। स्थिरा तु लोकादिमतिः संस्थानध्यानमुच्यते // // 15 // धर्मध्यानस्यैव स्वरूपविशेषमाहधर्मध्याने भवेद्भावः क्षायोपशमिकादिकः। लेश्याः क्रमविशुद्धाः स्युः पीतप सिताः पुनः॥१६॥ क्षायोपशमिकादिक इत्यादिग्रहणादौपशमिकस्य क्षायिकस्य च ग्रहणम्, न त्वौदयिकस्य / यदाहधर्म्यमप्रमत्तसंयतस्य उपशान्तक्षीणकषाययोश्च / धर्मध्याने च क्रमेण विशुद्धास्तिस्रो लेश्या भवन्ति, तद्यथापीतलेश्या, ततो विदा पालेश्या, ततोऽपि विशुद्धतरा शुक्ललेश्येति // 16 // ॥७५३शा Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् दशमः प्रकाशा // 754aa चतुर्विधस्य धमध्यानस्य फलमाह-- अस्मिनितान्तवैराग्यव्यतिषङ्गतरङ्गिते। जायते देहिनां सौख्यं स्वसंवेद्यमतीन्द्रियम् // 17 // स्पष्टः / उक्तं च-- अलौल्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वं, गन्धः शुभो मृत्रपुरीषमल्पम् / कान्तिः प्रसादः स्वरसौम्यता च, योगप्रवृत्तेः प्रथमं हि चितम् // 1 // 17 // ___ आमुष्मिक फलं श्लोकचतुष्टयेनाह-- त्यक्तसङ्गास्तनुं त्यक्त्वा धर्मध्यानेन योगिनः। 7वेयकादिस्वगषु भवन्ति त्रिदशोत्तमाः // 18 // महामहिमसौभाग्यं शरश्चन्द्रनिभप्रभम् / प्राप्नुवन्ति वपुस्तत्र सरभूषाम्बरभूषितम् // 19 // विशिष्टवीर्यवोधाढयं कामार्तिज्वरवर्जितम् / निरन्तरायं सेवन्ते सुखं चानुपमं चिरम् // 20 // इच्छासंपन्नसर्वार्थमनोहारि सुखामृतम् / निर्विघ्नमुपभुञ्जाना गतं जन्म न जानते // 21 // दिव्यभोगावसाने च व्युत्वा त्रिदिवतस्ततः / उत्तमेन शरीरेणावतरन्ति महीतले // 22 // दिव्यवंशे समुत्पन्ना नित्योत्सवमनोरमान् / भुञ्जते विविधान् भोगानखण्डितमनोरथाः // 23 // 0 RRESOOCESSOCTER // 754 B90100 Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोगशास्त्रम् पकादशः प्रकाशा 1725 // ततो विवेकमाश्रित्य विरज्याशेषभोगतः / ध्यानेनध्वस्तकर्माणः प्रयान्ति पदमव्ययम् // 24 // स्पष्टाः // 18-24 // इति परमाईतश्रीकुमारपालभूपालशुश्रूषिते आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितेऽध्यात्मोपनिषन्नाम्नि संजातपट्टबन्धे श्रीयोगशास्त्रे स्वोपर्श दशमप्रकाशविवरणम् // 10 // -Rotes अथैकादशः प्रकाशः // 11 // ओं अहं // धर्मध्यानमुपसंहरन् शुक्लध्यान प्रस्तौति-- स्वर्गापवर्गहेतुर्धमध्यानमिति कीर्तितं तावत् / अपवर्गकनिदानं शुक्लमतः कीर्त्यते ध्यानम् // 1 // धर्मध्यानस्यापवर्गहेतुत्वं पारम्पर्येण, अपवर्गस्यैकमसाधारण निदान कारण शुक्लध्यानम्, इदं चोत्तरशुक्लध्यानद्वयापेक्षया द्रष्टव्यम् / आधयोस्तु शुक्लध्यानभेदयोरनुत्तरविमानगमननिबन्धनताऽप्यस्ति / यदाह १होंति सुहासवसंवरविणिज्जरामरसुहाई विउलाई। झाणवरस्स फलाई सुहाणुबन्धीणि धम्मस्स // 1 // (1) भवन्ति शुभाश्रवसंवरविनिर्जरामरसुखानि विपुलानि / ध्यानवरस्य फलानि शुभानुबन्धीनि धर्म्यस्य // 1 // 1755 / Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम्॥ पकादशः प्रकाशा 756 // तेयविसेसेण सुहासवादओणुतरामरमुहं च / दोण्हं मुक्काण फलं परिनिव्वाणं परिल्लाणं // 2 // 1 // शुक्लध्यानस्याधिकारिणं निरूपयतिइदमादिमसंहनना एवालं पूर्ववेदिनः कर्तुम् / स्थिरतां न याति चित्तं कथमपि यत्स्वल्पसत्वानाम्। ___ आदिमं वज्रर्षभनाराचसंहननं येषां ते तथा / सकलश्रुतात् पूर्व प्रणयनात् पूर्वाणि तानि विदन्तीत्येवंशीलाः पूर्ववेदिनः पूर्वधराः / इदं च प्रायिकं, माषतुषमरुदेव्यादीनामपूर्वधराणामपि शुक्लध्यानसंभवात् / आदिमसंहनना इत्यस्य स्थिरतामित्यादिना हेतुरुक्तः // 2 // इदमेव भावयति धत्ते न खलु स्वास्थ्यं व्याकुलितं तनुमतां मनोविषयैः। शुक्लध्यान तस्मान्नास्त्यधिकारोऽल्पसाराणाम्' // 3 // स्पष्टम् / यदाहछिमें भिन्ने हते दग्धे देहे स्वमपि दुरगम् / प्रपश्यन् वर्षवातादिदुःखैरपि न कम्पते // 1 // न पश्यति तदा किञ्चिन श्रणोति न जिघ्रति / स्पष्ट किञ्चिन्न जानाति लेप्यनिवृत्तमूर्तिवत् // 2 // इति // 3 // ननु यधादिमसंहननानां शुक्लध्यानेऽधिकारस्तीदानी सेवार्तसंहननानां पुरुषाणां शुक्लध्यानोपदेशे कोडवसरः ? इत्याह तेजोविशेषेण मुखास्वादतोऽनुत्तरामरसुखं च / द्वयोः शुक्लयोः फलं परिनिर्वाणं परयोः // 2 // Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशाखम्। पकादश // 757 // अनवच्छित्याम्नायः समागतोऽस्येति कीर्त्यतेऽस्माभिः / दुष्करमप्याधुनिकैः शुक्लध्यानं यथाशास्त्रम् // 4 // यद्यप्यैदंयुगीनानां न शुक्लध्यानेऽधिकारस्तथापि संप्रदायाविच्छेदार्थ तदुपदेश इत्यर्थः // 4 // शुक्लध्यानस्य भेदानाहज्ञेयं नानात्वश्रुतविचारमक्यश्रुताविचारं च / सूक्ष्मक्रियमुत्पन्नक्रियमिति भेदैश्चतुर्धा तत् // 5 // नानात्वं पृथक्त्वं श्रुतं वितर्कः विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः इति पृथक्त्ववितर्क सविचारं प्रथमम् / ऐक्यमपृथक्त्वं एकत्ववितर्कमविचारं च द्वितीयम् / सूक्ष्मक्रियमप्रतिपातीति तृतीयम् उत्सनक्रियमनिवर्तीति चतुर्थम् / एवं चतुर्विध शुक्लध्यानम् // 5 // अथाद्यभेदं ब्याचष्टेएका पर्ययाणां विविधनयानुसरणं श्रुताद्व्ये / अर्थव्यञ्जनयोगान्तरेषु संक्रमणयुक्तमाद्यं तत् // एकस्मिन् परमाण्वादौ द्रव्ये पर्यायाणामुत्पादस्थितिभङ्गमूर्तत्वामूर्तत्वादीनां विविधनौव्याथिकपर्यायार्थिकादिभिर्यदनुसरणमनुचिन्तनं, श्रुतात् पूर्वविदां पूर्वगतश्रुतानुसारेण, इतरेषां त्वन्यथा, तदाधं शुक्लमिति संबन्धः / कथंभूतं ? अर्थव्यञ्जनयोगान्तरेषु संक्रमणयुक्तं, अर्थों द्रव्यं तस्माद्वयञ्जने शब्दे शब्दाच्चार्थे संक्रमणं, योगायोगान्तरसंक्रमणं तु मनोयोगात् काययोगे वा वाग्योगे वा संक्रान्तिः, एवं काययोगान्मनोयोगे वाग्योगे वा, वाग्योगान्मनोयोगे काययोगे वा संक्रमणं, तेन युक्तं / यदाहुः 757 // Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ occi योग शाखम्। 758 // एकादेशः प्रकाशा उप्पायठिईभंगाइपज्जवाणं जमेगदव्वम्मि / नाणानयानुसरण पुव्वगयसुयाणुसारेण // 1 // सवियारमत्थवंजणजोगंतरओ तयं पढमसुक्कं / होइ पुहुत्तवियकं सवियारमरागभावस्स // 2 // ननु अर्थव्यञ्जनयोगान्तरेषु संक्रमणात् कयं मनःस्थैर्य ? तदभावाच्च कथं ध्यानत्वं ? उच्यते-एकद्रव्यविषयत्वे मनःस्थैर्यसंभवाध्ध्यानत्वमविरुद्धम् // 6 // द्वितीय भेदं व्याचष्टे एवं श्रुतानुसारादेकत्ववितर्कमेकपर्याये / अर्थव्यञ्जनयोगान्तरेष्वसंक्रमणमन्यत्तु // 7 // ___एवं श्रुतानुसारादिति पूर्वविदां पूवगतश्रुतानुसारादितरेषामन्यथापि एकपर्यायविषयमेकत्ववितर्क नाम द्वितीयं शुक्लध्यानं, तच्चार्थव्यञ्जनयोगेष्वसंक्रमणरूपं / यदाहु: जर पुण सुणिप्पयंपं निवायसरणप्पईवमिव चित्तं / उप्पायठिईभंगाइयाण एगम्मि पज्जाये // 1 // अवियारमत्थर्वजणजोगंतरओ तयं बीयसुक्कं / पुव्वगयसुयालंबणमेगत्तवियकमवियारं // 2 // 7 // (1) उत्पादस्थितिभङ्गादिपर्यवानां यदेकद्रव्ये / नानान यानुसरणं पूर्वगतश्रुतानुसारेण // 1 // सविचारमर्थव्यञ्जनयोगान्तरतः तत् प्रथमशुक्लम् / भवति पृथक्त्ववितर्क सविचारमरागभावस्य / / 2 // (2) यत्पुनः सुनिष्प्रकम्पो निवातशरणप्रदीप इव चित्तम् / उत्पादस्थितिभङ्गादिकानामेकस्मिन् पर्याये // 1 // अविचारमर्थव्यञ्जनयोगान्तरतः तक द्वितीयशुक्लम् / पर्वगतश्रुतालम्बनमेकत्ववितर्कमविचारम् // 2 // // 758 // Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोगशाखम् एकादेश प्रकाशः। 759 // तृतीयभेदं व्याचष्टे निर्वाणगमनसमये केवलिनो दरनिरुद्धयोगस्य / सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति तृतीयं कीर्तितं शुक्लम् // 8 // निर्वाणगमनसमये मोक्षगमनप्रत्यासन्नसमये केवलिनः सर्वज्ञस्य मनोयोगवाग्योगद्वये निरुद्धे सति बादरे च काययोगे निरुद्धे सूक्ष्मा उच्छ्वासनिश्वासादिका कायक्रिया यत्र तत्तथा / अप्रतिपाति अनिवर्ति / दरशब्दः प्राकृतवत् संस्कृतेऽपि दृश्यते, यथा-"दरदलितहरिद्राग्रन्थिगौरं शरीरम्" (इत्यादौ) // 8 // चतुर्थ भेदं व्याचष्टेकेवलिनः शैलेशीगतस्य शैलवदकम्पनीयस्य / उत्सन्नक्रियमप्रतिपाति तुरीयं परमशुक्लम् // ___ स्पष्टः // 9 // चतुर्वपि योगसङ्ख्यां निरूपयतिएकत्रियोगभाजामाद्यं स्यादपरमेकयोगानाम् / तनुयोगिनां तृतीयं निर्योगाणां चतुर्थं तु // 10 // आद्यं पृथक्त्ववितर्क सविचारं मनःप्रभृत्येकयोगभाजां योगत्रयभाजां वा, तच्च भङ्गिकश्रतपाठकानां भवति / अपर मेकत्ववितर्कमविचारं मनःप्रभृत्यन्यतरैकयोगानां, योगान्तरे संक्रमाभावात् / तृतीयं सूक्ष्मक्रियमनिवर्ति तत् तनुयोगे काययोगे सूक्ष्मे, न तु योगान्तरे। चतुर्थ व्युत्सन्नक्रियमप्रतिपाति निर्योगाणामयोगिकेवलिनां शैलेशीगतानां भवति / योगस्तु कायवाग्मनोभेदात्त्रिविधः। तत्रौदारिकवैक्रियाहारकतजसकार्मणशरीरवतो जीवस्य // 759 // Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम्। // 760 // पकादशः प्रकाश वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः / औदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवागद्रव्यसमूहसाचिव्याजीवव्यापारो वाग्योगः / औदारिवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो मनोयोगः // 10 // ननु शुक्लध्यानोपरितनभेदद्वये मनो नास्त्येव, अमनस्कत्वात्केवलिनः, ध्यानं च मनःस्थैर्य, तदेतत्कथं ? इत्याह छद्मस्थितस्य यद्वन्मनः स्थिरं ध्यानमुच्यते तज्झैः / निश्चलमङ्गं तद्वत्केवलिनां कीर्तितं ध्यानम् // 11 // यथा छमस्थस्य मनः स्थिरं सत् ध्यानं भण्यते, तथा केवलिनोऽपि सुनिश्चलः कायो योगत्वाव्यभिचाराद्ध्यानशब्दाभिधेयो भवति // 11 // ननु चतुर्थे शुक्लध्याने काययोगस्य निरुद्धत्वात् असावपि न भवति, तथापि भावेऽतिप्रसङ्गः, तत्र कथं ध्यानशब्दवाच्यता ? इत्याह पूर्वाभ्यासाजीवोपयोगतः कर्मजरणहेतोर्वा / / शब्दार्थबहुत्वाद्वा जिनवचनाद्वाऽप्ययोगिनो ध्यानम् // 12 // यथा कुलालचक्रं भ्रमणनिमित्तदण्डादेरभावेऽपि पूर्वाभ्यासाभ्रमति, तथा मनःप्रभृतिसर्वयोगोपरमेऽप्ययोगिनो ध्यानं भवति / तथा यद्यपि द्रव्यतो योगा न सन्ति, तथापि जीवोपयोगरूपभावमनःसद्भावादयोगिनो ध्यानम् / यद्वा ध्यानकार्यस्य कर्मनिर्जरणस्य हेतोः हेतुत्वात् ध्यान, यथा पुत्रकार्यकरणादपुत्रोऽपि पुत्र उच्यते / 760 // Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगशाखम्। एकादश प्रकाशः॥ // 76 / / भवति ह्यस्य भवोपग्राहिकर्मनिर्जरा / अथवा शब्दार्थबहुत्वाध्यान, यथा हरिशब्दस्यार्ककर्कटादयो बहवोऽर्थाः, एवं ध्यानशब्दस्यापि, तथाहि-ध्य चिन्तायां, ध्यै काययोगनिरौधे ध्ये अयोगित्वेऽपि / वदन्ति हि निपाताश्वोपसर्गाश्च धातवश्चेति ते त्रयः। अनेकार्थाः स्मृताः सर्वे पाठस्तेषां निदर्शनम् // 1 // इति जिनागमाद्वाऽयोगिनोऽपि ध्यानं / यदाहआगमश्चोपपत्तिश्च संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् / अतीन्द्रियाणामर्थानां सद्भावप्रतिपत्तये // 1 // इति // // 12 // उक्तमपि शुक्लध्यानचतुष्टयं प्रपञ्चयतिआयेश्रुतावलम्बनपूर्वे पूर्वश्रुताथसंबन्धात्। पूर्वधराणां छद्मस्थयोगिनां प्रायशो ध्याने॥१३॥ प्रायश इत्यपूर्वधराणामपि माषतुषमरुदेव्यादीनां शुक्लध्यानसद्भावादित्युक्तप्रायम् // 13 // तथा| सकलालम्बनविरहप्रथिते द्वे त्वन्तिमे समुद्दिष्टे / निर्मलकेवलदृष्टिज्ञानानां क्षीणदोषाणाम् // 14 // स्पष्टः / / 14 // तथातत्र श्रुताद्गृहीत्वैकमर्थाब्रजेच्छब्दम् / शब्दोत् पुनरप्यर्थ योगायोगान्तरं च सुधीः // 15 // संक्रामत्यविलम्बितमर्थप्रभृतिषु यथा किल ध्यानी। व्यावर्तते स्वयमसौ पुनरपि तेन प्रकारेण / 16 / 762 // Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकावशः प्रकाशा योगशास्त्रम् 762 // | इति नानात्वे निशिताभ्यासः संजायते यदा योगी।आविर्भूतोत्मगुणस्तदेकताया भवेद्योग्यः॥१७॥ | # उत्पादस्थितिभङ्गादिपर्ययाणां यदेकयोगः सन् / ध्यायति पर्ययमेकं तत्स्यादेकत्वमविचारम् // 1 // त्रिजगद्विषयं ध्यानादणुसंस्थं धारयेत् क्रमेण मनः / विषमिव सर्वांगगतं मन्त्रबलान्मान्त्रिको देशे // 19 // अपसारितेन्धनभरः शेषः स्तोकेन्धनोऽनलो ज्वलितः। तस्मादपनीतो वा निर्वाति यथा मनस्तद्वत् // 20 // स्पष्टाः // 15-20 // द्वितीयध्यानस्य फलमाहज्वलति ततश्च ध्यानज्वलने भृशमुज्ज्वले यतीन्द्रस्य / निखिलानि विलीयन्ते क्षणमात्राद् घातिकर्माणि // 21 // स्पष्टाः // 21 // घातिकर्माण्याहज्ञानावरणीयं दृष्टयावरणीयं च मोहनीयं च। विलयं प्रयान्ति सहसा सहान्तरायेण कर्माणि॥२२॥ स्पष्टः // 22 // घातिकर्मक्षये फलमाह 76 // Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशा योग. शास्त्रम् // 763 // संप्राप्य केवलज्ञानदर्शने दुर्लभे ततो योगो। जानाति पश्यति तथा लोकालोकं यथावस्थम् // 23 // ध्यानान्तरे वर्तमान इति शेषः / शेषं स्पष्टम् // 23 // अथोत्पन्नकेवलज्ञानस्य तीर्थकृतोऽतिशयान् चतुर्विशत्याऽऽर्याभिराहदेवस्तदा स भगवान् सर्वज्ञः सर्वदयनन्तगुणः। विहरत्यवनीवलयं सुरासुरनरोंरगैः प्रणतः॥२४॥ वाग्ज्योत्स्नयाऽखिलान्यपि विबोधयति भव्यजन्तुकुमुदानि / उन्मूलयति क्षणतो मिथ्यात्वं द्रव्यभावगतम् // 25 // तन्नामग्रहमात्रादनादिसंसारसंभव दुःखम् / भव्यात्मनामशेषं परिक्षयं याति सहसैव // 26 // अपि कोटीशतसख्याः समुपासितुमागताः सुरनराद्याः / क्षेत्र योजनमात्रे मान्ति तदाऽस्य प्रभावेण // 27 // त्रिदिवौकसो मनुष्यास्तिर्वाञ्चोऽन्येऽप्यमुष्य बुध्यन्ते / निजनिजभाषानुगतं वचनं धर्मावबोधकरम् // 28 // Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् बकादशः प्रकाश // 76 // आयोजनशतमुग्रा रोगाः शाम्यन्ति तत्प्रभावेण / उदयिनि शोतमरीचाविव तापरुजः क्षितेः परितः // 29 // मारीतिदुर्भिक्षातिवृष्टयनावृष्टिडमरवैराणि / न भवन्त्यस्मिन् विहरति सहस्ररश्मी तमांसीव॥३०॥ मार्तण्डमण्डलश्रीविडम्बि भामण्डलं विभोः परितः / आविर्भवत्यनुवपुः प्रकाशयत्सर्वतोऽपि दिशः // 31 // संचारयन्ति विकचान्यनुपादन्यासमाशु कमलानि / भगवति विहरति तस्मिन् कल्याणीभक्तयो देवाः // 32 // अनुकूलो वाति मरुत् प्रदक्षिणं यान्त्यमुष्य शकुनाश्च // तरवाऽपि नमन्ति भवन्त्यधोमुखाः कण्टकाश्च तदो // 33 // आरक्तपल्लवो शोकपादपः स्मेरकुसुमगन्धाब्यः। प्रकृतस्तुतिरिव मधुकरविरुतेर्विलसत्युपरि तस्य | षडपि समकालमृतवा भगवन्तं तं तदोपतिष्ठन्ते / स्मरसाहाय्यककरणे प्रायश्चित्तं ग्रहोतुमिव 35 || अस्य पुरस्तानिनदन् विजृम्भते दुन्दुभिर्नभसि तारम् / कुर्वाणा निर्वाणप्रयाणकल्याणमिव सद्यः Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् // 765 // एकादशः प्रकाश पञ्चापि चेन्द्रियार्थाः क्षणान्मनोज्ञीभवन्ति तदुपान्ते। को वा न गुणोत्कर्ष सविधे महतामवाप्नोति अस्य नखा रोमाणि च वर्धिष्णून्यपि न हि प्रवर्धन्ते। भवशतसंचितकर्मच्छेदं दृष्ट्वेव भौतानि३८ शमयन्ति तद्भ्यणे रजांसि गन्धजलवृष्टिभिर्देवाः / उन्निद्रकुसुमवृष्टिभिरशेषतः सुरभयन्ति भुवम् // 39 // Bछत्रत्रयी पवित्रा विभोरुपरि भक्तितत्रिदशराजैः। गङ्गाश्रोतस्रितयीव धार्यते मण्डलीकृत्य // 4 // अयमेक एव नः प्रभुरित्याख्यातुं विडोजसोन्नमितः / अगुलिदण्ड इवोचैश्चकास्ति रत्नध्वजस्तस्य // 41 // अस्य शरदिन्दुदीधितिचारूणि च चामराणि धूयन्ते / वदनारविन्दसंपातिराजहंसभ्रमं दधति४२ प्राकारास्त्रय उच्चैविभान्ति समवसरणस्थितस्यास्य / कृतविग्रहाणि सम्यक्चारित्रज्ञानदर्शनानीव // 43 // चतुराशावर्तिजनान् युगपदिवानुग्रहीतुकामस्य / चत्वारि भवन्ति मुखान्यङ्गानि च धर्ममुपदिशतः 765 // Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम्। एकादुश, प्रकाश // 766 // अभिवन्द्यमानपादः सुरासुरनरोरगैस्तदा भगवान् / सिंहासनमधितिष्ठति भास्वानिव पूर्वगिरिश्रृङ्गम् // 45 // तेजःपुञ्जप्रसरप्रकाशिताशेषदिक्कमस्य तदा / त्रैलोक्यचक्रवर्तित्वचिह्नमग्रे भवति चक्रम् // 46 // भुवनपतिविमानपतिज्योतिःपतिवानमन्तराः सविधे / तिष्ठन्ति समवसरणे जघन्यतः कोटिंपरिमाणाः // 47 // L] स्पष्टाः // 24-47 // तीर्थकरकेवलिनोऽतिशयस्वरूपमुक्तम्, इतरकेवलिनः स्वरूपमाह तीर्थकरनामसंज्ञं न यस्य कास्ति सोऽपि योगबलात् / उत्पन्नकेवलः सन् सत्यायुषि बोधयत्युवींम् // 48 // स्पष्टः // 48 // उत्तरकरणीयमाहसंपन्नकेवलज्ञानदर्शनोऽन्तर्मुहूर्त्तशेषायुः। अर्हति योगी ध्यानं तृतीयमपि कर्तुमचिरेण // 49 // अन्तर्मुहर्त मुहूर्तस्य मध्ये / शेषमायुर्यस्य स तथा / शेषं स्पष्टम् // 49 // तत्किमविशेषेण सर्वोऽपि योगी तृतीयं ध्यानमारभते उतास्ति कश्चिद्विशेषः? इत्याह 766 // Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम्। पकादशः प्रकाश // 767 // आयुःकर्मसकाशादधिकानि स्युर्यदाऽन्यकर्माणि / तत्साम्याय तदोपक्रमेत योगी समुद्घातम् // यावत्यायुःकर्मणः स्थितिः शेषा तावत्येव वेदनीयस्य कर्मणो यदि स्यात्तदा तृतीयं ध्यानमारभते / अथायुःस्थितेः सकाशाद्राधीयसी स्थितिवेदनीयस्य भवति तदा स्थितिघातरसघाताद्यर्थ समुद्घातं प्रयत्नविशेष करोति / यदाहयस्य पुनः केवलिनः कर्म भवत्यायुषोऽतिरिक्ततरम् / स समुद्घातं भगवानथ गच्छति तत्समीकर्तुम् // 1 // इति / समुद्घात इति सम्यगपुनर्भावेन उत् प्राबल्येन हननं घातः शरोराबहिर्जीवप्रदेशानां निःसारणम् // 50 // तस्य विधिमाह| दण्डकपाटे मन्थानकं च समयत्रयेण निर्माय / तुर्ये समये लोकं निःशेषं पूरयेद्योगी // 51 // ___इह प्रथमसमय एव स्वेदेहतुल्यविष्कम्भमूर्ध्वमधश्चायत लोकान्तगामिनं जीवप्रदेशसंघातं दण्डाकारं केवली करोति / द्वितीयसमये च तमेव दण्डं पूर्वापरदिग्द्वयप्रसारणात् पार्श्वतो लोकान्तगामि कपाटमिव कपाटं करोति / तृतीयसमये तु तदेव कपाटं दक्षिणोत्तरदिग्द्वयप्रसारणान्मन्थानमिव मन्यानं करोति लोकान्तप्रापिणमेव / एवं च लोकस्य प्रायो बहु पूरितं भवति / चतुर्थसमये तु मन्थान्तराण्यपूरितानि अनुश्रेणिगमनात् सह लोकनिष्कुटैः पूरयति / ततश्च सकलो लोको जीवप्रदेशैः पूरितो भवति / लोकपुरणश्रवणाच्च परेषामात्मविभुत्ववादः समुदभूतः। तथा चार्थवादः-"विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोवाहुरुत विश्वतःपात्" इत्यादि // 51 // अथ पञ्चमादिसमयेषु कर्तव्यमाह // 767 // Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्रम् एकादशः प्रकाशा // 768 // समयैस्ततश्चतुर्भिनिवर्तिते लोकपूरणादस्मात् / विहितायुःसमकर्मा ध्यानी प्रतिलोममार्गेण॥५२ / ततः पञ्चमसमये पूर्वक्रमात् प्रतिलोमं मन्थान्तराणि जीवप्रदेशरूपाणि सकर्मकाणि संकोचयति / षष्ठे समये मन्थानमुपसंहरति, घनतरसंकोचात् / सप्तमे समये कपाटमुपसंहरति, दण्डात्मनि संकोचात् / अष्टमे समये दण्डमुपसंहृत्य शरीरस्थ एव भवति / समुद्घातकाले च मनोवाग्योगयोरव्यापार एव प्रयोजनाभावात् / काययोगस्यैव केवलस्य व्यापारः। तत्रापि प्रथमाष्टमसमययोरौदारिककायप्राधान्यादौदारिककाययोग एव। द्वितोयषष्ठसप्तमेषु समयेषु पुनरोदारिकाद्वहिर्गमनात् कार्मणवीर्यपरिस्पन्दादौदारिककार्मणमिश्रः / तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु औदारिकावहिबहुतरप्रदेशव्यापारादसहायकार्मणयोग एव / यदाह-- औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः मिश्चोदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु // 1 // कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पश्चमे तृतीये च। समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् // 2 // परित्यक्तसमुद्घातश्च कारणवशाद्योगत्रयमपि व्यापारयति, यथा--अनुत्तरसुरः पृष्टो मनोयोगं सत्यं वाऽसत्यामुषं वा प्रयुङ्क्ते / एवमामन्त्रणादौ वाग्योगमपि, नेतरौ द्वौ भेदौ / द्वयोरपि काययोगमप्यौदारिकं फलकप्रत्यपणादाविति / ततोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रेण कालेन योगनिरोधमारभते / इह त्रिविधोऽपि योगो द्विविध:--सूक्ष्मो बादरश्च / तत्र केवलोत्पत्तेरूत्तरकालो जघन्येनान्तर्मुहर्तम, उत्कर्षेण च देशोना पूर्वकोटिः, तां विहृत्यान्तमुहर्रावशेषायुष्कः सयोगिकेवली प्रथम बादरकाययोगेन बादरौ वाङ्मनसयोगौ निरूणद्धि / ततः सूक्ष्मकाययोगेन बादरकाययोगं // 768H / Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् एकादेश प्रकाशः। 119ERII निरुणद्धि / सति तस्मिन् सूक्ष्मयोगस्य रोध्धुमशक्यत्वात् / न हि धावन् वेपथु वारयति / ततश्च सर्वबादरयोगनिरोधानन्तरं सूक्ष्मेण काययोगेन सूक्ष्मौ वाङ्मनसयोगौ निरुणद्धि / ततः सूक्ष्मक्रियमनिवति शुक्लध्यानं ध्यायन् 18 स्वात्मनैव सूक्ष्मकाययोगं निरूणद्धि // 42 // एतदेवार्यात्रयेणाह श्रीमानचिन्त्यवीर्यः शरीरयोगेऽथ बादरे स्थित्वा अचिरादेव हि निरुणद्धि बादरौ वाङ्मनसयोगौ॥५३॥ सूक्ष्मेण काययोगेन काययोगं स बादरं रुन्ध्यात् / / तस्मिन्ननिरुद्ध सति शक्यो रोईं न सूक्ष्मतनुयोगः॥५४॥ वचनमनायोंगयुगं सूक्ष्मं निरुणद्धि सूक्ष्मात्तनुयोगात् / विदधाति ततो ध्यानं सूक्ष्मक्रियमसूक्ष्मतनुयोंगम् // 55 // स्पष्टाः // 53-55 // तदनन्तरं समुत्सन्नक्रियमाविर्भवेदयोंगस्य / अस्यान्ते क्षोयन्ते त्वघातिकर्माणि चत्वारि // स्पष्टः॥ 56 // ततश्च // 769 // Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् पकादश प्रकाशा 11770 // लघुवर्णपञ्चकोगिरणतुल्यकालामवाप्य शैलेशीम्। क्षपयति युगपत् परितो वेद्यायुर्नामगोत्राणि // 57 // लघुवर्णपश्चकं अइउऋल्लक्षणं तस्यादगिरणमुच्चारणं तेन तुल्यः कालो यस्याः। शैलेशो मेरूस्तस्येयं शैलेशी तद्वत् स्थिरावस्थेत्यर्थः, तामवाप्य / युगपदेककाल परितः सामस्त्येन क्षपयति वेदनीयायुर्नामगोत्रलक्षणानि कर्माणि // 57 // ततश्च-- औदारिकतैजसकार्मणानि संसारमूलकरणानि / हित्वेह ऋजुश्रेण्या समयेनैकेन याति लोकान्तम् // 58 // औदारिकतैजसकामणलक्षणानि शरीराणि संसारमूलभूतानि करणानि साधकतमानि, इह देहत्यागभूमौ हित्या एकया ऋजव्या श्रेण्या वियहरहितया प्रदेशान्तराण्यस्पृशन्नेकेन समयेन समयान्तरमस्पृशन लोकान्तं सिद्धिक्षेत्रं याति साकारोपयोगोपयुक्त इति शेषः यदाह-" इह बोंदि चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई " इति // 54 // ननूपरि गच्छन् लोकान्तादुपर्यपि कि न गच्छति ? देहत्यागभूमेरधस्तिर्यग्वा कि न गच्छति ? इत्याह-- 1 इह शरीरं त्यक्त्वा तत्र गत्वा सिध्यति / 770 Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् पकाशः। प्रकाशा 771 // नोर्ध्वमुपग्रहविरहादधोऽपि वा नैव गौरवाभावात् / योगप्रयोगविगमात् न तिर्यगपि तस्य गतिरास्ति // 59 // उपग्रहो गत्युपष्टम्भकारी धर्मास्तिकायलक्षणा मत्स्यानामिव जलं, लोकान्तात् परतस्तस्याभावानोर्ध्व याति / गौरवमधोगमनहेतुस्तस्याभावानाधो याति / योगः काययोगादिः प्रयोगः परप्रेरणं तयोगिमादभावान्न तिर्यग यातीति // 59 // ___ इह च कर्ममुक्तस्योर्ध्वदेशनियमेन गतिर्नोपपद्यत इतिवादिनं प्रत्याह-- लोघवयोगाध्धूमवेदलाबुफलवच्च सङ्गविरहेण / बन्धनविरहादेरण्डवच्च सिद्धस्य गतिरूव॑म् // 60 // लाघवं गौरवप्रतिपक्षभृतः परिणामस्तद्योगात् धूमस्येव सिद्धस्याचं गतिर्भवति / तथा सङ्गविरहेण तथाविधएरिणामत्वादष्टमृत्तिकालेपविलिप्तजलाधोनिमग्नक्रमापनीमृत्तिकालेपजलतलमर्यादोर्ध्वगामितथाविधालावुफलस्येव सिद्धस्याध्वं गतिः तथा बन्धनस्य कर्मलक्षणस्य विरहादभावात्तथाविधपरिणतेः कोशबन्धनविमुक्तैरण्डफलवत सिद्धस्यावं गतिः // 60 // ततश्च-- 771 / Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शाखमा प्रकाशा 1772| सादिकमनन्तमनुपममव्यावाचं स्वभावजं सौख्यम् / प्राप्तः सकेवलज्ञानदर्शनो मोदते मुक्तः // 61 // सहादिना वर्तत इति सादिकं, ससारे कदाचिदप्यभावात् / नास्यान्तोऽस्तीत्यनन्तं, क्षयाभावात् / सादेः कथमनन्तत्वमिति चेत् घटादिप्रध्वंसे तथा दर्शनात्, घटादिप्रध्वंसो हि सादिः. मुद्गरादिव्यापारजन्यत्वात्, अनन्तश्च,क्षयाभावात्, तत्क्षये हि घटस्य पुनरुन्मज्जनप्रसङ्गः। अनुपममुपमानस्य कस्यचिदभावात् सांसारिकमखानां सर्वजीववर्तिनामतीतानामनागतानां वर्तमानानां च सिद्धसुखापेक्षयाऽनन्तभागत्वात् / नास्य व्याबाधाऽस्तीत्यव्याबाधं, शरीरमनसोराबाधाहेत्वारभावात् / स्वभावजं स्वभावादात्मस्वरूपमात्राज्जायते, न पुनः कुश्चित्कारणान्तरात्, एवंविधं सुखं प्राप्तः, केवलज्ञानदर्शनाभ्यां युक्ता मुक्तः सन् मोदते परमानन्दवान् भवति / अनेन मुखादिगुणविकलो ज्ञानदर्शनरहितश्च मुक्त इति, मतमपास्तं, यदाहुबैशेषिका:--"बुध्यादीनां नवानामात्मविशेषगुणानामत्यन्तोच्छेदो मोक्ष" इति, ये वा प्रदीपनिर्वाणकल्पमभावैकरूपं मोक्षमाहुस्तेऽपि निरस्ताः बुद्धयादि गुणोच्छेदरूपस्यात्माच्छेदरूपस्य वा मोक्षस्यास्पृहणीयत्वात्, को हि सचेतनः स्वगुणोच्छेदमात्मोच्छेदं चार्थयेत् ? तस्मादनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यमयस्वरूपो मोक्षः सर्वप्रमाणसिद्धो युक्तः॥ 61 // इति परमाईत श्रीकुमारपालभूपालशुश्रषिते आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितेऽध्यात्मोपनिषन्नाम्नि संजातपट्टबन्धे श्रीयोगशास्त्रे स्वोपनं एकादशप्रकाशविवरणम् // 11 // // 772 // Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शाखम्। प्रकाशः॥ // 773|| ॥अथ द्वादशः प्रकाशः॥ ॐ अई // शास्त्रारम्भे यदुक्तं " स्वसंवेदनतश्चापि " इति तत्प्रपञ्चयितुं प्रस्तावनामाह श्रुतसिन्धोर्गुरुमुखतो यदधिगतं तदिह दर्शितं सम्यक् / अनुभवसिद्धमिदानी प्रकाश्यते तत्त्वमिदममलम् // 1 // अत्र पूर्वार्धेन वृत्तकीर्तन उत्तरार्धेन तु वर्तिष्यमाणतत्त्वप्रकाशनम् // 1 // अथोचमपदवीमारोहुँ चित्तस्य चातुर्विध्यमाह-- इह विक्षिप्तं यातायातं श्लिष्टं तथा सुलीनं च / चेतश्चतुःप्रकारं तज्ज्ञचमत्कारकारि भवेत् // 2 // इह योगाभ्यासप्रक्रमे चत्वारि चित्तानि भवन्ति, तद्यथा-विक्षिप्तं, यातायात, श्लिष्ट, मुलीनं चेति // 2 // क्रमेण व्याचष्टे विक्षिप्तं चलमिष्टं यातायातं च किमपि सानन्दम् / प्रथमाभ्यासे द्वयमपि विकल्पविषयग्रहं तत्स्यात् // 3 // 773 // Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वादशः प्रकाशः 177 // विक्षिप्त चलमितस्ततो भ्राम्यदिति यावत् / यातं च बहिः आयातं चान्तरिति यातायातं. तत् किमपि सान | न्द, स्वात्मन्यभिनिवेशात् / तच्च चेतोद्वयमपि विक्षिप्त यातायात च प्रथमाभ्यासवर्तिनां भवति / विकल्पेन च बाह्यार्थग्रह उभयस्मिन् // 3 // तथा श्लिष्टं स्थिरसानन्दं सुलीनमतिनिश्चलं परानन्दम् / तन्मात्रकविषयग्रहमुभयमपि बुधैस्तदाम्नातम् // 4 // स्थिरत्वात् सानन्दं स्थिरसानन्दं श्लिष्टमुच्यत इति / निश्चल परमानन्दयुक्तं च मुलीनं / एतच्च द्वयमपि तन्मात्रकमेव चित्तमात्रकमेव विषयं गृहणाति, न तु बाह्यम् / / 4 // ततश्च-- एवं क्रमशोऽभ्यासावेशाध्यानं भजेनिरालम्बम् / समरसभोवं यातः परमानन्दं ततोऽनुभवेत् // 5 // क्रमशोऽभ्यासावेशादिति विक्षिप्ताच्चेतसः स्वाभाविकाद्यातायात चित्तमभ्यस्येत्, ततोऽपि विश्लिष्टं, ततोऽपि च मुलीनं, एवं पुन: पुनरभ्यासाभिरालम्ब ध्यानं भवेत् / ततः समरसभावप्राः परमानन्दमनुभवति // 5 // समरसभावप्राप्तियथा भवति तथाऽऽह 1199811 Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः प्रकाशः योग. शाखम् 11775 // बाह्यात्मानमपास्य प्रसत्तिभाजान्तरात्मना योगी / सततं परमात्मानं विचिन्तयेत्तन्मयत्वाय // 6 // स्पष्टा // 6 // बहिराद्यात्मनां स्वरूपमार्याद्वयेनाह-- आत्मधिया समुपात्तः कायादिः की तेऽत्र बहिरात्मा। कायादेः समधिष्ठायको भवत्यन्तरात्मा तु // 7 // चिद्रूपानन्दमयो निःशेषोपाधिवर्जितः शुद्धः / अत्यक्षोऽनन्तगुणः परमात्मा कीर्तितस्तज्ज्ञैः // 6 // स्पष्टे // 7-8 // बहिरात्मान्तरात्मनोहेंदज्ञाने यद्भवति तदाहपृथगात्मानं कायोत्पृथक् च विद्यात्सदात्मनः कायम् / उभयोर्भेदज्ञातात्मनिश्चये न स्खलेद्योगी // 9 // स्पष्टा // 9 // तथाहि अन्तःपिहितज्योतिः संतुष्यत्यात्मनोऽन्यतो मूढः / तुष्यत्यात्मन्येव हि बहिनिवृत्तभ्रमो ज्ञानी // 10 // स्पष्टा // 10 // तदेवाह INDAIL Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् बादका प्रकाशु पुंसामयत्नलभ्यं ज्ञानवतोमव्यय पदं नूनम् / यद्यात्मन्यात्मज्ञानमात्रमेते समीहन्ते // 11 // अव्ययं पदं परमात्मरूपता। शेषं स्पष्टम् // 11 // एतदेव स्पष्टयति-- श्रयते सुवर्णभावं सिद्धरसस्पर्शतो यथा लोहम् / आत्मध्यानादात्मा परमात्मत्वं तथाऽऽप्नोति // 12 // स्पष्टा // 12 // एतच्च मुज्ञानमेवेत्याइ जन्मान्तरसंस्कारात्स्वयमेव किल प्रकाशते तत्त्वम् / सुप्तोत्थितस्य पूर्वप्रत्ययवनिरुपदेशमपि // 13 // पैन जन्मान्तरे आत्मज्ञानमभ्यस्त तस्य सुप्तप्रबुद्धस्य पूर्वार्थप्रत्यय इवात्मज्ञानं भवति // 13 // इतरस्य तु अथवा गुरुप्रसादादिहैव तत्त्वं समुन्मिपति नूनम् / / गुरुचरणोपास्तिकृतः प्रशमजुषः शुद्धचित्तस्य // 14 // इहेव इह जन्मन्येव जन्मान्तरसंस्कारं विनापीत्यर्थः // 14 // उभयत्रापि गुरुमुखप्रेक्षित्वमनिवार्यमेवेत्याह-- | तत्र प्रथमे तत्त्वज्ञाने संवादको गुरुर्भवति / दर्शयिता त्वपरस्मिन् गुरुमेव सदा भजेत्तस्मात् // 15 // | // 776 // Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वादशः प्रकाशा 1777 // प्रथमे जन्मान्तराभ्यस्ते तत्त्वज्ञाने / अपरस्मिन् गुरूपदर्शिते तत्वज्ञाने // 15 // गुरुमेव स्तौति-- यद्वत्सहसकिरणः प्रकाशको निचिततिमिरमग्नस्य / यद्वद्गुरुरत्र भवेदज्ञानध्वान्तपतितस्य॥१६॥ATI निचिततिमिरमग्नस्य अर्थस्येति शेषः / अज्ञानध्वान्तपतितस्य तत्त्वस्येति शेषः // 16 // ततश्च-- प्राणायामप्रभृतिक्लेशपरत्यागतस्ततो योगी / उपदेशं प्राप्य गुरोरात्माभ्यासे रतिं कुर्यात् // 17 // स्पष्टा // 17 / / ततश्चवचनमनःकायोनां क्षोंमें यत्नेन वर्जयेच्छान्तः। रसमाण्डमिवात्मानं सुनिश्चलं धारयेन्नित्यम् // 18 // स्पष्टा // 18 // औदासीन्यपरायणवृत्तिः किञ्चिदपि चिन्तयेन्नैव / यत्संकल्पाकुलितं चित्तं नासादयेत् स्थैर्यम्॥१९॥ स्पष्टा // 19 // व्यतिरेकमाह-- यावत्प्रयत्नलेशो यावत्सङ्कल्पकल्पका काऽपि / तावन्न लयस्यापि प्राप्तिस्तत्त्वस्य का नु कथा // 20 // स्पष्टा // 20 // औदासीन्यस्य फलमाह यदिदं तदिति न वक्तुं साक्षाद्गुरुणाऽपि हंत शक्येत / Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशानम् द्वादशः प्रकाश 1778 स्पष्टा // 21 // यथौदासीनस्य परे तत्त्वे लयो यथा चोन्मनीभावो भवति तथा कलापकेनाह एकान्तेऽतिपवित्रे रम्ये देशे सदा सुखासीनः / आ चरणाप्रशिखाग्राच्छिथिलीभूताखिलावयवः॥२२॥ रूपं कान्तं पश्यन्नपि श्रृण्वन्नपि गिरं कलमनोज्ञाम् / जिघन्नपि च सुगन्धीन्यपि भुञ्जानो रसान् स्वादून।॥२३॥ भावान् स्पृशन्नपि मृदूनवारयन्नपि च चेतसो वृत्तिम् / परकलितौदासीन्यः प्रणष्टविषयभ्रमो नित्यम् // 24 // बहिरन्तश्च समन्ताच्चिन्ताचेष्टापरिच्युतो योगी / तन्मयभावं प्राप्तः कलयति भृशमुन्मनीभावम् // 25 // कलापक' स्पष्टम् // 22-25 // अथ कथमिन्द्रियप्रसरो न प्रतिषिध्यते ? इत्याह-- गृह्णन्ति ग्राह्याणि स्वानि स्वानीन्द्रियाणि नो रुन्थ्योत् / न खलु प्रवर्तयेद्वा प्रकाशते तवमचिरेण // 26 // // 778|| Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् // 779 // द्वादशः प्रकाशा स्पष्टः // उक्त चास्माभिर्वीतरागस्तोत्रेसंयतानि न चाक्षाणि नैवोच्छङ्खलितानि च / इति सम्यक् प्रतिपदा त्वयेन्द्रियजयः कृतः // 1 // 26 // मनोजयमप्यकृच्छ्प्राप्यमार्याद्वयेनाह-- चेतोऽपि यत्र यत्र प्रवर्तते नो ततस्ततो वार्य / अधिकीभवति हि वारितमवारितं शान्तिमुपयाति॥२७॥ मत्तो हस्ती यत्नान्निवार्यमाणोऽधिकीभवति यद्वत् / अनिवारितस्तु कामान् लब्ध्वा शाम्यति मनस्तद्वत्॥२८॥ स्पष्टे // 27-28 // यथा मनः स्थिरं भवति तथाऽऽर्याद्वयेनाह-- यर्हि यथा यत्र यतः स्थिरीभवति योगिनश्चलं चेतः। तर्हि तथा तत्र ततः कथञ्चिदपि चालयेन्नैव // 29 // अनया युक्त्या भ्यासं विदधानस्यातिलोलमपि चेतः / अगुल्यग्रस्थापितदण्ड इव स्थैर्यमाश्रयति // 30 // स्पष्टे // 29-30 // इन्द्रियजयविधिमार्याद्वयेनाह--- // 779 // Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशाखम् द्वादशः प्रकाश // 780 // निःसृत्यादौ दृष्टिः संलीना यत्र कुत्रचित्स्थाने / तत्रासाद्य स्थैर्य शनैः शनैर्विलयमाप्नोति // 31 // सर्वत्रापि प्रसृता प्रत्यग्भूता शनैःशनैदृष्टिः। परतचामलमुकुरे निरिक्षते ह्यात्मनाऽऽत्मानम्॥३२॥ स्पष्टे // 31-32 // मनोविजये विधिमार्यात्रयेणाह औदासीन्यनिमग्नः प्रयत्नपरिवर्जितः सततमात्मा / करणानि नाधितिष्ठत्युपेक्षितं चित्तमात्मना जातु / ग्राह्ये ततो निजनिजे करणान्यपि न प्रवर्तन्ते॥३४॥ नात्मा प्रेरयति मनो न मनःप्रेरयति यहि करणानि / उभयभ्रष्टं तर्हि स्वयमेव विनाशमाप्नोति // 35 // // 33-35 // मनोविजयस्य फलमाह नष्टे मनसि समन्तात्सकले विलयं च सर्वतो याते / निष्कलमुदेति तवं निर्वातस्थायिदीप इव // 36 // 780 // Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् // 781 // द्वादशः प्रकाशः नष्टे भस्मच्छन्नाग्निवत्समन्ततरिटरोहिते मनसि / तथा सह कलाभिश्चिन्तास्मृत्यादिरूपाभिर्वर्तते यत्तत्सकलं तस्मिन् जलप्रवाहप्लावितवहिवद्विलयं क्षयमुपगते सति तत्त्वमात्मज्ञानरूपं निष्कलं कर्म कलाविनिर्मुक्तमुदेति // 36 // तत्त्वज्ञानस्य प्रत्ययमाह अङ्गमृदुत्वनिदानं स्वेदनमर्दनविवर्जनेनापि / स्निग्धीकरणमतैलं प्रकाशमानं हि तवमिदम् // 37 // स्पष्टा // 37 // प्रत्ययान्तरमाह-- अमनस्कतया संजायमानया नाशिते मनःशल्ये शिथिलीभवति शरीरंछत्रमिव स्तब्धतां त्यक्त्वा // 38 // स्पष्टा // 38 // व्यतिरेकमाह-- शल्यीभृतस्यान्तःकरणस्य क्लेशदायिनः सततम् / अमनस्कतां विनाऽन्यद्विशल्यकरणौषधं नास्ति // 39 // स्पष्टा // 39 // अमनस्कत्वस्य फलमाह-- कदलीवचाविद्या लोलन्द्रियपत्रला मनःकन्दा। अमनस्कफले दृष्टे नश्यति सर्वप्रकारेण // 40 // // 78 // Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वादशः प्रकाशा // 782 // स्पष्टा // 40 // मनोजयेऽमनस्कतां परमं कारणमाह-- 18 अतिचञ्चलमतिसूक्ष्मं दुर्लभ वेगवत्तया चेतः। अश्रान्तमप्रमादादमनस्कशलाकया भिन्द्यात्।।१।। ___ अमनस्कमेव शलाका प्रहरणविशेषः शेष स्पष्टम् // 41 // पुनरमनस्कोदये योगिनः फलमाह विश्लिष्टमिव प्लुष्टमिवोडीनमिव प्रलीनमिव कायम् / अमनस्कोदयसमये योगी जानात्यसत्कल्पम् // 42 // स्पष्टा // 42 // तथा-- समदैरिन्द्रियभुजगै रहिते विमनस्कनवसुधाकुण्डे / मग्नोऽनुभवति योगी परामृतास्वादमसमानम् // 43 // स्पष्टा // 43 // तथा रेचकपूरककुम्भककरणाभ्यासक्रमं विनाऽपि खलु / स्वयमेव नश्यति मरुद्विमनस्के सत्ययत्नेन // 44 // स्पष्टा // 45 // तथा 1782 Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् // 783 // द्वादशः प्रकाशा स्पष्टा // 46 / तथा-- चिरमाहितप्रयत्नैरपि धतु यो हि शक्यते नैव / सत्यमनस्के तिष्ठति स समीरस्तत्क्षणादेव // 45 // जातेऽभ्यासे स्थिरतामुदयति विमले च निष्कले तवे / मुक्त इव भाति योगी समृलमुन्मुलितश्वासः // 46 // यो जाग्रदवस्थायां स्वस्थः सुप्त इव तिष्ठति लयस्थः / श्वासोच्छ्वासविहीनः स होयते न खलु मुक्तिजुषः // 47 // स्पष्टा // 47 // तथा-- जागरणस्वप्नजुषो जगतीतलवर्तिनः सदा लोकाः / तषविदो लयमग्ना नो जाग्रति शेरते नापि // 48 // स्पष्टा // 48 // तथा-- भवति खलु शून्यभावः स्वप्ने विषयग्रहश्च जागरणे / एतद्वितयमतीत्यानन्दमयमवस्थितं तच्चम् // 49 // 1178 // Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् द्वादशः प्रकाशा // 784 // स्पष्टा / / 49 // सोपालम्भमुपदेशसर्वस्वमाह-- | कर्माण्यपि दुःखकृते निष्कर्मत्वं सुखाय विदितं तु / न ततः प्रयते कथं निष्कर्मत्वे सुलभमोक्षे॥५०॥ स्पष्टा // 50 // यदिवा-- मोक्षोऽस्तु मास्तु यदिवा परमान्दस्तु वेद्यते स खलु / यस्मिन्निखिलसुखानि प्रतिभासन्ते न किश्चादव // 51 // स्पष्टा // 51 // तथाहीत्यादिना एतदेव प्रपश्चयतिमधु न मधुरं नैताः शीतास्त्विषस्तुहिनद्युतेरमृतममृतं नामैवास्याः फले तु मुधा सुधा / तदलममुना संरम्भेण प्रसीद सखे मनः, फलमविकलं त्वय्येवैतत्प्रसादमुपेयुषि // 52 // स्पष्टः // 52 // स्वसंविदितामनस्कोपदेशदायिना गुरून् व्यतिरेकभङ्गया स्तौति-- सत्येतस्मिन्नरतिरतिदं गृह्यते वस्तु दूरा-दप्यासन्नेऽप्यसति तु मनस्याप्यते नैव किञ्चित् / पुंसामित्यप्यवगतवतामुन्मनीभावहेता-विच्छा बाढं न भवति कथं सद्गुरूपासनायाम् // 53 // एतस्मिन्मनसि सति दूरादपि अरतिरतिकारणं वस्तु गृह्यते, अरतिकारणं व्याघ्रादि रतिकारणं वनितादि / आसन्नदेशवयंप्यसति तु मनसि न अरतिरतिदं वस्तु गृह्यते / सुख दुखे मनःसंबन्धनिबन्धने, न तु विषयसंपर्क // 784 // Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् // 785| द्वादशः प्रकाशः जनिते इत्यर्थः / इत्यप्यवगतवता पुंसां सदगुरूपासनायां कथमिच्छा न भवति / किविशिष्टायां ? उन्मनीभावहेतो उन्मनस्त्वकारणभूतायाम् // 43 // इदानीममनस्कतोपायभूतामात्मप्रसादनां वृत्तनाह-- तांस्तानापरमेश्वरादपि परान् भावैः प्रसादं नयन् , तैस्तैस्तत्तदुपायमूढ भगवन्नात्मन् किमायस्यसि / हतात्मानमपि प्रसादय मनाग येनासतां संपदः, साम्राज्यं परमेऽपि तेजसि तव प्राज्यं समुज्जृम्भते // 54 // तान तान् उच्चनीचभेदेन बहुप्रकारान् परान् आत्मव्यतिरिक्तान्, किमपरं ? परमेश्वरं परमात्मानमप्यभिव्याप्य प्रसादं नयन् अनुग्रहपरान् कुर्वन्, कैः? तैस्तैर्भावरभिप्रायधनयशोविद्याराज्यस्वर्गाधर्थप्रार्थनारूप रोगदारिद्रयाद्रोपद्रवाद्यनर्यपरिहारेच्छारूपैश्च हेतुभूतैः, किं कुतो हेतोः? हे आत्मन् आयस्यसि आयासमनुभवसि ? तत्तदुपायमृदेत्यात्मनो विशेषणं, ते च ते उपायनसेवादानपूजादय उपायास्तेषु मृढ केनोपायेनायमयं च परः प्रसादनीय इत्यत्र भ्रान्तः (न्त) भगवत्रिति भाविप्रसादयुक्ततया आत्मनः पूज्यत्वमाह / तेति प्रत्यक्षीकृतस्यात्मनः संबोधन / आत्मानमपि स्वमपि प्रसादय रजस्तमोमलापनयनेन प्रसादयन्तं कुरू / मनागिति क्षणमात्रं, आस्तां चिरकालं। येनात्मप्रसादनेन, आसतामन्याः संपदः अर्थप्राप्त्यनर्थपरिहाररूपा यावत् परमेऽपि तेजसि परम Page / / 783) Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगशास्त्रम् ज्योतीरूपेऽपि प्रकाशे साम्राज्यं परमाधिपत्य प्राज्य प्रचुर तव समुज्जम्भते आविर्भवति / अयमर्थ:-निखिलग द्वादेशः प्रकाशा // 786 // साम्राज्यसपदि सुलभ उन्मनीनाव इति // 54 // इदानीं श्रुताम्भोधेरधिगमादिति यन्मुखे प्रतिज्ञातं तन्निर्वहणेऽनूद्योपसंहरति योगस्योपनिषद्विवेकिपरिषच्चेतश्चमत्कारिणी / श्रीचौलुक्यकुमारपालनृपतेरत्यर्थमभ्यर्थना दाचार्येण निवेशिता पथि गिरां श्रीहेमचन्द्रेण सा // 55 // या योगस्योपनिषद्रहस्यमज्ञायि ज्ञाता / कुत्तः ? शास्त्रात् द्वादशाङ्गादागमात्, मुगुरोः सदागमव्याख्यातुः मुखात् साक्षादुपदेशात्, अनुभवाच्च स्वसंवेदनरूपात् / किश्चिदिति स्वप्रज्ञानुसारेण / क्वचिदिति एकत्र सर्वस्य ज्ञातुमशक्यत्वात् प्रदेशभेदे क्वचन / उपनिषदमेव विशिनष्टि-विवेकिनां योगरुचीनां या परिषत् सभा, तस्या यच्चेतः, तच्चमत्कारोतीत्येवंशीला / सा योगस्योपनिषत्, श्रीचौलुक्यो यः कुमारपालनृपतिः तस्यात्यर्थमभ्यर्थनया, स हि योगोपासनप्रियो दृष्टयोगशास्त्रान्तरश्च इति स पूर्वेभ्यो योगशास्त्रेभ्यो विलक्षणं योगशास्त्रं Baa // 786 // Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग शास्त्रम् द्वादशः प्रकाशा // 787 // शुश्रूषमाणोऽत्यर्थमभ्यर्थितान्, ततस्तदभ्यर्थनतो वचनस्यागोचरामपि उपनिषदं गिरां पथि निवेशितवान् आचार्यश्रीहेमचन्द्रः / इति शुभम् / श्री चौलुक्यक्षितिपतिकृतप्रार्थनाप्रेरितोऽहं, तत्वज्ञानामृतजलनिधेर्योगशास्त्रस्य वृत्तिम् / स्वोपज्ञस्य व्यरचयमिमां तावदेषा च नन्द्या-द्यावज्जैनप्रवचनवती भूर्भुवःस्वस्त्रयीयम् // 1 // संप्रापि योगशास्त्रात्तद्विवृतेश्चापि यन्मया सुकृतम् / तेन जिनबोधिलाभप्रणयी भव्यो जनो भवतात् // 2 // इति श्रीपरमाईतश्रीकुमारपालभूपालशुपिते आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितेऽध्यात्मोपनिषन्नाम्नि संजातपट्टबन्धे श्रीयोगशास्त्रे स्वोपज्ञं द्वादशप्रकाशविवरणम् // 12 // / इति योगशास्त्रे द्वितीयो विभागः। / इति संपूर्ण योगशास्त्रं सविवरणम् / Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाखम् प्रकाशा | Sect 未来添添添毒素;D:泰港杀毒毒毒毒毒毒毒毒毒毒毒毒毒毒毒毒毒毒毒毒毒毒素 賽 | 政府又可 本本本本本本本集本事奉奉來帶出來事奉奉來事奉奉本本本之本率未来 EZ||