________________ योगशास्त्रम् दशमः प्रकाशा // 754aa चतुर्विधस्य धमध्यानस्य फलमाह-- अस्मिनितान्तवैराग्यव्यतिषङ्गतरङ्गिते। जायते देहिनां सौख्यं स्वसंवेद्यमतीन्द्रियम् // 17 // स्पष्टः / उक्तं च-- अलौल्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वं, गन्धः शुभो मृत्रपुरीषमल्पम् / कान्तिः प्रसादः स्वरसौम्यता च, योगप्रवृत्तेः प्रथमं हि चितम् // 1 // 17 // ___ आमुष्मिक फलं श्लोकचतुष्टयेनाह-- त्यक्तसङ्गास्तनुं त्यक्त्वा धर्मध्यानेन योगिनः। 7वेयकादिस्वगषु भवन्ति त्रिदशोत्तमाः // 18 // महामहिमसौभाग्यं शरश्चन्द्रनिभप्रभम् / प्राप्नुवन्ति वपुस्तत्र सरभूषाम्बरभूषितम् // 19 // विशिष्टवीर्यवोधाढयं कामार्तिज्वरवर्जितम् / निरन्तरायं सेवन्ते सुखं चानुपमं चिरम् // 20 // इच्छासंपन्नसर्वार्थमनोहारि सुखामृतम् / निर्विघ्नमुपभुञ्जाना गतं जन्म न जानते // 21 // दिव्यभोगावसाने च व्युत्वा त्रिदिवतस्ततः / उत्तमेन शरीरेणावतरन्ति महीतले // 22 // दिव्यवंशे समुत्पन्ना नित्योत्सवमनोरमान् / भुञ्जते विविधान् भोगानखण्डितमनोरथाः // 23 // 0 RRESOOCESSOCTER // 754 B90100