________________ पोगशाखम्। // 751 // दशमः प्रकाशः। स्पष्टः अन्नान्तरश्लोका: अस्पृष्टजिनमार्गाणामविज्ञातपरात्मनाम् / अपरामृष्टयतीनामपायाः स्युः सहस्रशः // 1 // मायामोहान्धतम3 सविवशीकृतचेतसा / किं किं नाकारि कलुषं कस्कोऽपायोऽप्यवापि न // 2 // यद्यदुःखं नारकेषु तिर्यक्षु मनुजेषु च / मया प्रापि प्रमादोऽयं ममैव हि विचेतसः // 3 // प्राप्यापि परमां बोधि मनोवाकायकर्मजः दुश्चेष्टितमयवायं शिरसि ज्वालितोऽनलः // 4 // स्वाधीने मुक्तिमार्गेऽपि कुमार्गपरिमार्गणैः। अहो आत्मंस्त्वयैवैष स्वात्मा| ऽपायेषु पातितः // 5 // यथा प्राप्तेऽपि सौराज्ये भिक्षां भ्राम्यति बालिशः। आत्मायत्ते तथा मोक्षे भवाय भ्रान्त-18 वानसि // 6 / / इत्यात्मनः परेषां च ध्यात्वाऽपायपरंपराम् / अपायविचय ध्यानमधिकुर्वीत योगवित् // 7 // 11 // ___ अथ विपाकविचयमाह| प्रतिक्षणसमुद्भूतो यत्र कर्मफलोदयः चिन्त्यते चित्ररूपः स विपाकविचयो मतः // 12 // ___स्पष्टः // 12 // एतदेव भावयति-- या संपदाऽर्हतो या च विपदा नारकात्मनः। एकोतपत्रता तत्रा पुण्यापुण्यस्य कर्मणः // 13 // आ अईतः आ नारकात्मन इति चभिव्याप्तौ पञ्चमी शेषं स्पष्टम् / अत्रान्तरश्लोकाः विपाकः फलमाम्नातः कर्मणां स शुभाशुभः। द्रव्यक्षेत्रादिसामग्रथा चित्ररूपोऽनुभूयते // 1 // शुभस्तत्राङ्गनामाल्यखाद्यादिद्रव्यभोगतः / अशुभस्त्वहिशस्त्राग्निविषादिभ्योऽनुभूयते // 2 // क्षेत्र सौधविमानोपवनादौ वसना // 751 //