________________ योगशास्त्रम् // 781 // द्वादशः प्रकाशः नष्टे भस्मच्छन्नाग्निवत्समन्ततरिटरोहिते मनसि / तथा सह कलाभिश्चिन्तास्मृत्यादिरूपाभिर्वर्तते यत्तत्सकलं तस्मिन् जलप्रवाहप्लावितवहिवद्विलयं क्षयमुपगते सति तत्त्वमात्मज्ञानरूपं निष्कलं कर्म कलाविनिर्मुक्तमुदेति // 36 // तत्त्वज्ञानस्य प्रत्ययमाह अङ्गमृदुत्वनिदानं स्वेदनमर्दनविवर्जनेनापि / स्निग्धीकरणमतैलं प्रकाशमानं हि तवमिदम् // 37 // स्पष्टा // 37 // प्रत्ययान्तरमाह-- अमनस्कतया संजायमानया नाशिते मनःशल्ये शिथिलीभवति शरीरंछत्रमिव स्तब्धतां त्यक्त्वा // 38 // स्पष्टा // 38 // व्यतिरेकमाह-- शल्यीभृतस्यान्तःकरणस्य क्लेशदायिनः सततम् / अमनस्कतां विनाऽन्यद्विशल्यकरणौषधं नास्ति // 39 // स्पष्टा // 39 // अमनस्कत्वस्य फलमाह-- कदलीवचाविद्या लोलन्द्रियपत्रला मनःकन्दा। अमनस्कफले दृष्टे नश्यति सर्वप्रकारेण // 40 // // 78 //