________________ योगशास्त्रम् बादका प्रकाशु पुंसामयत्नलभ्यं ज्ञानवतोमव्यय पदं नूनम् / यद्यात्मन्यात्मज्ञानमात्रमेते समीहन्ते // 11 // अव्ययं पदं परमात्मरूपता। शेषं स्पष्टम् // 11 // एतदेव स्पष्टयति-- श्रयते सुवर्णभावं सिद्धरसस्पर्शतो यथा लोहम् / आत्मध्यानादात्मा परमात्मत्वं तथाऽऽप्नोति // 12 // स्पष्टा // 12 // एतच्च मुज्ञानमेवेत्याइ जन्मान्तरसंस्कारात्स्वयमेव किल प्रकाशते तत्त्वम् / सुप्तोत्थितस्य पूर्वप्रत्ययवनिरुपदेशमपि // 13 // पैन जन्मान्तरे आत्मज्ञानमभ्यस्त तस्य सुप्तप्रबुद्धस्य पूर्वार्थप्रत्यय इवात्मज्ञानं भवति // 13 // इतरस्य तु अथवा गुरुप्रसादादिहैव तत्त्वं समुन्मिपति नूनम् / / गुरुचरणोपास्तिकृतः प्रशमजुषः शुद्धचित्तस्य // 14 // इहेव इह जन्मन्येव जन्मान्तरसंस्कारं विनापीत्यर्थः // 14 // उभयत्रापि गुरुमुखप्रेक्षित्वमनिवार्यमेवेत्याह-- | तत्र प्रथमे तत्त्वज्ञाने संवादको गुरुर्भवति / दर्शयिता त्वपरस्मिन् गुरुमेव सदा भजेत्तस्मात् // 15 // | // 776 //