Book Title: Jeetkalp Sabhashya
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण विरचित जीतकलपा सभाष्य वाचना प्रमुख | आचार्य तुलसी प्रधान सम्पादक आचार्य महाप्रज्ञा संपादकाअनुवादक समणी कुसुमपञ्जा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों के व्याख्या-साहित्य की श्रृंखला में अनेक भाष्य लिखे गए। उनमें व्यवहार, बृहत्कल्प और निशीथ के भाष्य विशालकाय हैं। उनकी तुलना में जीतकल्पभाष्य लघुकाय है किन्तु प्रायश्चित्त परंपरा की दृष्टि से यह बहुत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। समणी कुसुमप्रज्ञा ने इसका अनुवाद कर एक महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। आचार्य तुलसी के वाचना प्रमुखत्व में अनेक आगमों का संपादन हुआ, उन पर भाष्य लिखे गए किन्तु निर्यक्ति और भाष्य पर काम करना अवशेष था।समणी कुसुमप्रज्ञा ने अनेक नियुक्तियों और भाष्यों का संपादन कर उस दिशा में एक श्लाघनीय कार्य किया है। उनमें काम करने की लगन है और एक आंतरिक प्रवृत्ति है। उनकी यह आंतरिक प्रवृत्ति आगे बढ़ती रहे। नियुक्ति और भाष्य की श्रृंखला में उनका कार्य अनवरत चलता रहे। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण विरचित जीतकल्प सभाष्य वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी प्रधान संपादक आचार्य महाप्रज्ञ संपादक/अनुवादक समणी कुसुमप्रज्ञा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: जैन विश्व भारती, लाडनूं 341306 (राजस्थान) (c) जैन विश्व भारती, लाडनूं IS BN 0-81-7195-143-0 सौजन्य :- बीकानेर निवासी "अणुव्रतसेवी" स्व. जतनलाल एवं माता स्व. लक्ष्मीदेवी बैंगानी की स्मृति में पुत्र ज्योतिकुमार एवं चंदादेवी बैंगानी के आर्थिक सौजन्य से पौत्रियां-सीमा-विक्रम सुराना, सुधा-अभिषेक सुराना, हेमा-कैलाश संचेती, प्रेम-नरेश सेखानी द्वारा सप्रेम भेंट। प्रथम संस्करण : 2010 पृष्ठ :- 900 मूल्य :- 500 रुपये मुद्रक :- श्री वर्द्धमान प्रेस, दिल्ली नवीन शाहदरा, दिल्ली-३२ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण पुट्ठो -वि पण्णापुरिसो सुदक्खो, आणापहाणो जणि जस्स निच्चं / सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं // जिसका प्रज्ञापुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगमप्रधान था। सत्ययोग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से॥ विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीयमच्छं। सज्झाय-सज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं // जिसने आगम दोहन कर-कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत। श्रुत सध्यान लीन चिर चिन्तन, जयाचार्य को विमल भाव से। पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं // जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में, मेरे मन में। हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतस्तोष अंतस्तोष अनिर्वचनीय होता है उस माली का, जो अपने हाथों से उप्त और सिंचित द्रुमनिकुंज को पल्लवित-पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का, जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का, जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् ब देखता है। चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन आगमों का शोधपूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगें। संकल्प फलवान् बना और वैसा ही हुआ। मुझे केन्द्र मान मेरा, धर्मपरिवार इस कार्य में संलग्न हो गया अत: मेरे इस अंतस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूं, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। संविभाग हमारा धर्म है। जिन-जिन ने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि उनका भविष्य इस महान् कार्य का भविष्य बने। गणाधिपति तुलसी आचार्य महाप्रज्ञ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल संदेश आगमों के व्याख्या-साहित्य की श्रृंखला में अनेक भाष्य लिखे गए। उनमें व्यवहार, बृहत्कल्प और निशीथ के भाष्य विशालकाय हैं। उनकी तुलना में जीतकल्पसभाष्य लघुकाय है किन्तु प्रायश्चित्त परंपरा की दृष्टि से यह बहुत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। समणी कुसुमप्रज्ञा ने इसका अनुवाद कर एक महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। आचार्य तुलसी के वाचना प्रमुखत्व में अनेक आगमों का संपादन हुआ, उन पर भाष्य लिखे गए किन्तु नियुक्ति और भाष्य पर काम करना अवशेष था।समणी कुसुमप्रज्ञा ने अनेक नियुक्तियों और भाष्यों का संपादन कर उस दिशा में एक श्लाघनीय कार्य किया है। उनमें काम करने की लगन है और एक आंतरिक प्रवृत्ति है। उनकी यह आंतरिक प्रवृत्ति आगे बढ़ती रहे / नियुक्ति और भाष्य की श्रृंखला में उनका कार्य अनवरत चलता रहे। आचार्य महाप्रज्ञ 24 दिसम्बर 2009 श्रीडूंगरगढ़ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय भारतीय वाङ्मय में आगम-साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें अध्यात्म के साथ-साथ समाज, धर्म, दर्शन, आयुर्वेद, भूगोल और संस्कृति के महत्त्वपूर्ण तथ्य प्राप्त होते हैं / सन् 1955 में आचार्य तुलसी ने मुनि नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) आदि संतों के साथ इस महायज्ञ को प्रारम्भ किया। इसके फलस्वरूप अनेक आगम ग्रंथ तुलनात्मक संदर्भ के साथ प्रकाश में आ गए। हस्तप्रतियों से सम्पादन-कार्य सरल नहीं है, यह उन्हें सुविदित है, जिन्होंने इस दिशा में कोई प्रयत्न किया है। एक-दो हजार वर्ष पुराने ग्रंथों को सम्पादित करना तो और भी जटिल है, जिनकी भाषा और भावधारा आज के युग से मेल नहीं खाती है लेकिन ज्ञान-धरोहर को संरक्षित एवं संवर्धित करने के लिए हस्तप्रतियों के सम्पादन रूप गुरुतर कार्य को सम्पादित करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का प्रेरणा-पाथेय प्राप्त कर समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं। गत 30 वर्षों से आगम-व्याख्या-साहित्य के सम्पादन-कार्य में संलग्न समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने समाज को अनेक महत्त्वपूर्ण साहित्य-रत्न प्रदान किए हैं और इस कार्य में जैन विश्व भारती हमेशा उनकी सहयोगी रही है। उनके द्वारा सम्पादित ग्रंथ "जीतकल्प सभाष्य" को प्रकाशित करने का सुअवसर भी जैन विश्व भारती को प्राप्त हो रहा है, इसके लिए यह संस्था गौरव का अनुभव करती है। जीतकल्प सूत्र साध्वाचार पर आधारित जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित 103 गाथाओं में निबद्ध एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इस ग्रंथ के अन्तर्गत जीतव्यवहार से सम्बन्धित प्रायश्चित्तों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। इसी ग्रंथ पर स्वयं जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा स्वोपज्ञ भाष्य लिखा गया जो जीतकल्प भाष्य के नाम से प्राप्त होता है। यह भाष्य 2608 गाथाओं में निबद्ध है। इस विशाल ग्रंथ के सम्पादन रूप गुरुतर कार्य को समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने वैदुष्यपूर्ण ढंग से सम्पन्न किया है। यह कठिन कार्य उनके दृढ़ अध्यवसाय, सघन एकाग्रता और प्रस्फुरित ऊर्जा से ही संभव हुआ है। लगभग 900 पृष्ठों में सम्पादित इस ग्रंथ में 18 परिशिष्ट एवं विस्तृत भूमिका है, जिनमें विभिन्न प्रकार की आवश्यक जानकारी शोध-अध्येताओं को उपलब्ध हो सकेगी। इस श्रमसाध्य कार्य को पूर्ण करने में उन्होंने अहर्निश श्रम किया है। मैं आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं, जिन्होंने आगमों के शोधपरक ग्रंथों के प्रकाशन का गौरव जैन विश्व भारती को प्रदान किया। मैं समणी कुसुमप्रज्ञाजी के प्रति शुभकामना करता हूं कि भविष्य में भी जिनशासन की प्रभावना हेतु उनकी श्रुतयात्रा अनवरत चलती रहे और जैन विश्व भारती जन-जन तक आर्षवाणी को पहुंचाती रहे। संस्था परिवार को आशा है कि पूर्व प्रकाशनों की तरह यह प्रकाशन भी विद्वानों की दृष्टि में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। दिनांक 16-3-2010 अध्यक्ष सुरेन्द्र चोरड़िया जैन विश्व भारती, लाडनूं Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थानुक्रम समर्पण | * धारणा व्यवहार। अंतस्तोष जीत व्यवहार। मंगल संदेश * जीतव्यवहार के भेद। प्रकाशकीय * जीतकल्प के आधार पर प्रायश्चित्त में भिन्नता।४६ संकेत-सूची 11 * अन्य परम्पराओं में व्यवहार। . व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 13 व्यवहारी की अर्हता। छेदसूत्रों का महत्त्व एवं उनकी संख्या। 13 प्रायश्चित्त भाष्य एवं भाष्यकार। 15 * प्रायश्चित्त क्यों? जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण : कर्तृत्व एवं समय। 21 * प्रायश्चित्त के स्थान। * रचनाएं .. | * प्रायश्चित्त-प्राप्ति के प्रकार। * विशेषावश्यक भाष्य एवं स्वोपज्ञ टीका। * प्रायश्चित्त की स्थिति कब तक? "बृहत्संग्रहणी * प्रायश्चित्त के भेद। * बृहत्क्षेत्रसमास | * अपराध के आधार पर प्रायश्चित्त के भेद। * विशेषणवती * प्रायश्चित्त-प्रस्तार। ' * अनुयोगद्वारचूर्णि | * प्रायश्चित्त वाहक। जीतकल्पसूत्र एवं उसका भाष्य। 25 * प्रायश्चित्त के लाभ। 'ग्रंथ वैशिष्ट्य 28. स्थविरकल्पी और जिनकल्पी के * भाषा शैली का वैशिष्ट्य। 29 प्रायश्चित्त में अन्तर। * कथाओं का प्रयोग। 31 . प्रायश्चित्तों के प्रतीकाक्षर। जीतकल्प चूर्णि एवं व्याख्या ग्रंथ। 32 . निर्ग्रन्थ और संयत में प्रायश्चित्त। जीतकल्प भाष्य पर पूर्ववर्ती ग्रंथों का प्रभाव। 32 . प्रायश्चित्त-दान में सापेक्षता एवं तरतमता। परवी अन्य ग्रंथों पर प्रभाव। 33 प्रतिसेवना व्यवहार 33 * प्रतिसेवना के भेद। * व्यवहार के भेद। 35 * दर्प प्रतिसेवना। * व्यवहार पंचक का प्रयोग। 36 * कल्प प्रतिसेवना। * आगम व्यवहार। 37 * दर्पिका और कल्पिका प्रतिसेवना में भेद। ..श्रुत व्यवहार। 40 * मिश्र प्रतिसेवना। .आज्ञा व्यवहार। 41 / प्रतिसेवना और कर्मबन्ध / Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 111 112 114 116 117 117 118 m 120 121 121 122 * गूढ-पदों में प्रतिसेवना का कथन। 73 * प्रतिक्रमण के एकार्थक। आलोचना का स्वरूप एवं उसका महत्त्व। 74 | * प्रतिक्रमण के निक्षेप। * आलोचना के प्रकार। 76 * प्रतिक्रमण के प्रकार। * ओघ विहार आलोचना। 77 * प्रतिक्रमण किसका ? * विभाग विहार आलोचना। 77 * प्रतिक्रमण, सामायिक और * विहार आलोचना का क्रम। प्रत्याख्यान में अंतर। * उपसम्पद्यमान शिष्य की परीक्षा * प्रतिक्रमण और आलोचना। एवं आलोचना। 79 * प्रतिक्रमण और कल्प। * उपसम्पद्यमान की आलोचना। . 1. प्रतिक्रमण के अपराध-स्थान। * अपराध आलोचना किसके पास? 83 | * प्रतिक्रमण के लाभ। * अपराध आलोचना की विधि। . 84 | तदुभय प्रायश्चित्त * आलोचना करने का क्रम। * तदुभय प्रायश्चित्त के स्थान। * आलोचना के समय द्रव्य, क्षेत्र आदि विवेक प्रायश्चित्त का महत्त्व। | . विवेक प्रायश्चित्त के स्थान। * आलोचना के समय निषद्या एवं * विवेक में औचित्य। कृतिकर्म-विधि। 89 / * विशोधिकोटि और अविशोधि कोटि * साध्वियों की आलोचना किसके पास? का विवेक। * आलोचना के समय परिषद् / 91 | व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त * आलोचना काल में सहवर्ती साधु और * कायोत्सर्ग के प्रकार। साध्वी की अर्हता। * अभिभव कायोत्सर्ग का काल। * आलोचना और माया। | * कायोत्सर्ग कर्ता की अर्हता। * आलोचना-विधि के दोष। * कायोत्सर्ग की विधि। * आलोचनाह की योग्यता। 99 * कायोत्सर्ग के अपवाद। * आलोचक की योग्यता। * कायोत्सर्ग के दोष। * आगमव्यवहारी की स्मारणा विधि। * उच्छ्वास का कालप्रमाण। * आलोचना परसाक्षी से ही क्यों? * प्रतिक्रमण में उच्छ्वास और * आलोचना और आराधना। लोगस्स का प्रमाण। * आलोचना के लाभ। 107 * कायोत्सर्ग के स्थान एवं * आलोचना के अपराध-स्थान। 108 श्वासोच्छ्वास का प्रमाण। प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त 110 * कायोत्सर्ग करने का स्थान। 122 123 124 125 127 WU 127 129 130 130 131 132 103 133 134 135 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 155 140 163 * कायोत्सर्ग का प्रयोजन। 136 * परिहारी और अपरिहारी की * व्युत्सर्ग तप और व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त पात्र सम्बन्धी मर्यादा। 153 में अंतर। 138 / . परिहार तप प्रायश्चित्त के विकल्प। 154 * कायोत्सर्ग के लाभ। 138 / * पारिहारिक की संघ-सेवा। 154 तप प्रायश्चित्त 139 | * परिहार तप का झोष-क्षपण। * तप प्रायश्चित्त के प्रकार। * वादी पारिहारिक के प्रायश्चित्त में कमी। 156 * परिहार तप और शुद्ध तप में अन्तर। 140 * पारिहारिक का मार्ग में अवस्थान। * छेद में भी तप प्रायश्चित्त। 141 * परिहार तप प्रायश्चित्त के स्थान / 156 * प्रायश्चित्त के संकेत और तप प्रायश्चित्त। 142 * तप प्रायश्चित्त तथा अनवस्थाप्य * नवविध व्यवहार में तप प्रायश्चित्त। 142 | और पाराञ्चित तप में अन्तर। 157 * जीतव्यवहार के आधार पर तप प्रायश्चित्त 143 * तप प्रायश्चित्त-दान में तरतमता। 157 * चतुर्गुरु-उपवास प्रायश्चित्त के स्थान। 143 छेद प्रायश्चित्त 161 * चतुर्लघु-आयम्बिल के स्थान। 144 * छेद प्रायश्चित्त के प्रकार। 163 * गुरुमास-एकासन के स्थान। 144 | * छेद प्रायश्चित्त के अपराध-स्थान। * लघुमास-पुरिमार्ध के स्थान। 144 * आज्ञाव्यवहार में छेद प्रायश्चित्त का गूढार्थ। 164 * पणग-निर्विगय के स्थान। 145 मूल प्रायश्चित्त * बेला-(दो उपवास) के स्थान। 145 * मूल प्रायश्चित्त के स्थान। * तेला-(तीन उपवास) के स्थान। 145 अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त 166 परिहार तप 146 * अनवस्थाप्य के प्रकार। * परिहार तप की योग्यता। 146 . आशातना अनवस्थाप्य। * परिहार तप वहन का समय। 147 | * प्रतिसेवना अनवस्थाप्य। 167 * परिहार तप प्रायश्चित्त स्वीकार * साधर्मिक स्तैन्य। 167 करने की विधि। 147 * उपधि स्तैन्य। 167 * पारिहारिक को आचार्य द्वारा आश्वासन। 148 * आहार स्तैन्य। 168 * आलाप आदि दश पदों का परिहार। 148 * सचित्त शैक्ष आदि का स्तैन्य। 168 * कल्पस्थित और अनुपारिहारिक का सम्बन्ध। 150 * अन्यधार्मिक स्तैन्य। 169 * ग्लानत्व की स्थिति में परिकर्म। 151 * लिंग प्रविष्ट आहार स्तैन्य। 169 * पारिहारिक की आहार एवं भिक्षा * लिंग प्रविष्ट उपधि स्तैन्य। 170 सम्बन्धी मर्यादा। 152 | *लिंग प्रविष्ट सचित्त स्तैन्य। 170 . . पारिहारिक के प्रति आचार्य की सेवा। 153 | * गृहस्थ स्तैन्य। 170 164 165 166 166 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 187 188 265 529 531 571 621 * स्तैन्य ग्रहण के अपवाद। 171 * हस्तप्रति-परिचय। * शैक्ष अपहरण में अपवाद। 171 * ग्रंथ का अनुवाद। * हस्तताल। 172 * आगम कार्य में नियोजन का इतिहास। * हस्तालम्ब। 173 * कृतज्ञता-ज्ञापन। * हस्तादान। 173 * मूल पाठ : विषय सूची * अनवस्थाप्य का कालमान। 174 * जीतकल्प सभाष्य * अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त वाहक की देखभाल। 174 * अनुवाद * तप निर्वहन के बाद गृहीभूत और * परिशिष्ट उपस्थापना। 174 * पदानुक्रम * अनवस्थाप्य और पाराञ्चित में अंतर। 176 * कथाएं पाराञ्चित प्रायश्चित्त 176 * तुलनात्मक संदर्भ * पाराञ्चित के प्रकार। 177 * परिभाषाएं * आशातना पाराञ्चिक। 177 * एकार्थक * प्रतिसेवना पाराञ्चिक। 178 * दुष्ट पाराञ्चिक। * उपमा और दृष्टान्त / * कषाय दुष्ट पाराञ्चिक। * सूक्त-सुभाषित * विषय दुष्ट पाराञ्चिक। 179 * दो शब्दों का अर्थभेद * प्रमत्त पाराञ्चिक। * आयुर्वेद और चिकित्सा * अन्योन्य प्रतिसेवना पाराञ्चिक। 181 * देशी शब्द * आचार्य द्वारा पाराञ्चित तप का निर्वहन। 182 * विशेषनामानुक्रम * पाराञ्चित तप-वहनकर्ता की देखभाल। 182 * विषयानुक्रम * पाराञ्चित तप वहनकर्ता द्वारा संघीय-सेवा। 183 | * पाद-टिप्पण विषयानुक्रम * पाराञ्चित प्रायश्चित्त की समयावधि * वर्गीकृत विशेषनामानुक्रम में अल्पीकरण। 184 * जीतकल्प सूत्र से सम्बन्धित * पाराञ्चित प्रायश्चित्त के स्थान। 185 भाष्यगाथाओं का क्रम * अंतिम दो प्रायश्चित्तों का विच्छेद। * प्रयुक्त ग्रंथ-सूची * पाठ-संपादन की प्रक्रिया। * निरुक्त 644 652 654 657 659 178 179 662 180 663 666 672 681 684 695 186 696 187 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-सूची अंगु - अंगुत्तरनिकाय। गौतम - गौतमधर्मसूत्र। अनध - अनगारधर्मामृत। जी - जीतकल्पसूत्र। अनुद्वा - अनुयोगद्वार। जीचू - जीतकल्प चूर्णि। अनुद्वाचू - अनुयोगद्वार चूर्णि। जीचूवि - जीतकल्पचूर्णि विषमपद व्याख्या। अभिधान - अभिधान चिंतामणि नाममाला। जीभा - जीतकल्प भाष्य। अमर - अमरकोश। जीसू - जीतकल्प सूत्र। आ - आचारांग। जैन बौद्ध - जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शन आप्टे - संस्कृत हिन्दी शब्द कोश। का तुलनात्मक अध्ययन / आव - आवश्यक सूत्र। ज्ञा - ज्ञाताधर्मकथा। आवचू - आवश्यक चूर्णि। त - तत्त्वार्थसूत्र। आवनि - आवश्यक नियुक्ति। तभाटी - तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी टीका। आवहाटी - आवश्यक हारिभद्रीया टीका। तवा - तत्त्वार्थ राजवार्तिक। ओनि - ओघनियुक्ति। तश्रुतटी - तत्त्वार्थ श्रुतसागरीया टीका। ओभा - ओघनियुक्ति भाष्य। तस्वोभा - तत्त्वार्थ स्वोपज्ञ भाष्य। उ - उत्तराध्ययन। तु - तुलना। उनि - उत्तराध्ययन नियुक्ति। दशअचू - दशवैकालिक अगस्त्यसिंह चूर्णि। उपा - उपासकदशा। दशचू - दशवैकालिक चूलिका। उशांटी - उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका। दशनि - दशवैकालिक नियुक्ति। कपा - कषाय पाहुड। दश्रुचू - दशाश्रुतस्कंध चूर्णि। कसू - कल्पसूत्र (बृहत्कल्प)। देशी - देशी नाममाला। काअ - कार्तिकेय अनुप्रेक्षा। द्र - द्रष्टव्य। काअटी - कार्तिकेय अनुप्रेक्षा टीका। नंदीहाटी - नंदी हारिभद्रीया टीका। कौ - कौटिलीय अर्थशास्त्र। नि' - निशीथ भाष्य। गण - गणधरवाद। निर - निरयावलिका। गोक - गोम्मटसार कर्मकाण्ड। निचू - निशीथ चूर्णि। गोजी - गोम्मटसार जीवकाण्ड। निपीचू - निशीथ पीठिका भूमिका। 1. गाथाओं के पाठ-संपादन में निशीथभाष्य के लिए निभा के स्थान पर 'नि' संकेत का प्रयोग किया है। इसी प्रकार बभा के स्थान पर 'ब', पंकभा के स्थान पर 'पंक' तथा व्यभा के स्थान पर 'व्य' संकेत का प्रयोग किया है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य निभा - निशीथभाष्य। मनु - मनुस्मृति। निभा चू - निशीथभाष्य चूर्णि। मनुमिटी - मनुस्मृति मिताक्षरा टीका। निसा - नियमसार। मवि - मरणविभक्ति प्रकीर्णक। निसू - निशीथसूत्र। मूला - मूलाचार। पंकभा - पंचकल्पभाष्य। मूलाटी - मूलाचार टीका। पंचा - पंचाशक प्रकरण। याज्ञ - याज्ञावल्क्य स्मृति। पंव - पंचवस्तु। राजटी - राजप्रश्नीय टीका। पारा - पाराशर स्मृति। वशि - वशिष्ठ स्मृति। पिनि - पिण्डनियुक्ति। विपु - विष्णु पुराण। पिनिमटी - पिण्डनियुक्ति मलयगिरि टीका। विशे - विशेषणवती। पिभा - पिण्डनियुक्ति भाष्य। व्यभा - व्यवहारभाष्य। प्रकी - पइण्णयसुत्ताई। व्यभापीटी - व्यवहारभाष्य पीठिका टीका। प्रज्ञा - प्रज्ञापना। व्यभामटी - व्यवहारभाष्य मलयगिरि टीका। प्रसा - प्रवचनसारोद्धार। व्यसू - व्यवहार सूत्र। प्रसाटी - प्रवचनसारोद्धार टीका। शुक्र - शुक्रनीति। बृचू - बृहत्कल्प चूर्णि। षट्ध - षट्खण्डागम धवला। बृभा - बृहत्कल्पभाष्य। सं. हिं. कोश - संस्कृत हिन्दी शब्द कोश (आप्टे)। बृभाटी - बृहत्कल्पभाष्य टीका। सम - समवाओ। बृभापीटी - बृहत्कल्पभाष्य पीठिका टीका। समय - समयसार। बृसू - बृहत्कल्पसूत्र / ससि - सर्वार्थसिद्धि। भ - भगवती। सू - सूत्रकृतांगा भआ - भगवती आराधना। सूटी - सूत्रकृतांग टीका। भआविटी - भगवती आराधना विजयोदया टीका। स्था - स्थानांग। भटी - भगवती टीका। स्थाटी - स्थानांग टीका। भापा - भावपाहुड़। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श छेदसूत्रों का महत्त्व एवं उनकी संख्या जैन आगम ग्रंथों में छेदसूत्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये ग्रंथ साधु-जीवन का संविधान प्रस्तुत करने के साथ-साथ स्खलना होने पर दंड अथवा न्याय का विधान भी प्रस्तुत करते हैं। अर्थ की दृष्टि से पूर्वगत को छोड़कर अन्य आगमों की अपेक्षा छेदसूत्र अधिक शक्तिशाली हैं। निशीथ भाष्य में इनको उत्तम श्रुत कहा गया है। इसका कारण बताते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि छेदसूत्रों में प्रायश्चित्त-विधि वर्णित है। इससे चारित्र की शुद्धि होती है इसलिए ये उत्तम श्रुत हैं। आचार्यों ने इनके व्याख्या ग्रंथों की महत्ता भी स्थापित की है। भाष्यकार कहते हैं कि जो बृहत्कल्प और व्यवहार की नियुक्ति को अर्थतः जानता है, वह श्रुतव्यवहारी होता है। जीतकल्पचूर्णि में छेदसूत्रों के रूप में निम्न नाम मिलते हैं -कल्प, व्यवहार, कल्पिकाकल्पिक, क्षुल्लकल्पश्रुत, महाकल्पश्रुत और निशीथ। आवश्यक नियुक्ति में महाकल्पश्रुत का उल्लेख मिलता है। संभव है कि तब तक इस ग्रंथ का अस्तित्व था। कल्प, व्यवहार और निशीथ आज उपलब्ध हैं। छेदसूत्रों की संख्या के बारे में विद्वानों में मतभेद है। विंटरनित्स के अनुसार छेदसूत्रों के प्रणयन का क्रम इस प्रकार है-कल्प, व्यवहार, निशीथ, पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति और महानिशीथ। विंटरनित्स ने छेदसूत्रों में जीतकल्प का समावेश नहीं किया। अन्य जैन परम्पराओं में भी छेदसूत्रों की संख्या के बारे में मतभेद है। तेरापंथ में छेदसूत्र के रूप में चार ग्रंथ मान्य हैं-दशाश्रुत, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ। समयसुंदरगणि ने छेद सूत्रों की संख्या छह स्वीकार की है-१. दशाश्रुतस्कंध 2. व्यवहार 3. बृहत्कल्प 4. निशीथ 5. महानिशीथ 6. जीतकल्प। पंडित कैलाशचन्द्र शास्त्री ने इनमें जीतकल्प के स्थान पर पंचकल्प को छेदसूत्रों के अन्तर्गत माना है। हीरालाल कापड़िया के अनुसार पंचकल्पसूत्र के लोप होने के 1. व्यभा 1829; शिष्य अन्य गण की उपसम्पदा लेते थे। किसी गण जम्हा उ होति सोधी, छेदसुयत्थेण खलितचरणस्स। की यह मर्यादा होती थी कि जो यावज्जीवन उस आचार्य तम्हा छेदसुयत्थो, बलवं मोत्तूण पुव्वगतं // का शिष्यत्व स्वीकार करेगा, उसे महाकल्पश्रुत की वाचना 2. निभा 6184 चू पृ. 253; छेदसुयं कम्हा उत्तमसुतं? दी जाएगी। वहां उपसंपद्यमान शिष्य आचार्य को कह भण्णति जम्हा एत्थ सपायच्छित्तो विधी भण्णति- जम्हा सकता है कि वाचना दें या न दें, यह उनकी इच्छा है य तेण च्चरणविसुद्धी करेति, तम्हा तं उत्तमसुतं / / लेकिन यह जिनाज्ञा नहीं है कि यावज्जीवन शिष्यत्व . ३.जीभा५६१-६४, व्यभा 4432-35 / स्वीकार करने वाले को ही श्रुत दिया जाए। (निभा 5572) 4. जीचूपृ.१ कप्प-ववहार-कप्पियाकप्पिय-चुल्लकप्प- 6.A History of the Canonical Literature of Jains, महाकप्पसुय-निसीहाइएसु छेदसुत्तेसु / ____P.4461 ५.(क) आवनि ४८१;जंच महाकप्पसुतं, जाणि य सेसाणि 7. सामाचारी शतक (आगमाधिकार)। छेदसुत्ताणि। 8. जैन धर्म पृ. 259 / (ख) निशीथ भाष्य के अनुसार महाकल्पश्रुत के ज्ञानार्थ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य पश्चात् जीतकल्प को छेदसूत्रों के अन्तर्गत माना जाने लगा। वर्तमान में पंचकल्प अनुपलब्ध है। जैन ग्रंथावली के अनुसार सतरहवीं शती के पूर्वार्द्ध तक इसका अस्तित्व था। किन्तु निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता कि इसका लोप कब हुआ? पंचकल्प भाष्य की विषयवस्तु देखकर ऐसा लगता है कि किसी समय में पंचकल्प की गणना छेदसूत्रों में रही होगी। सामाचारी शतक में वर्णित प्रथम पांच छेदसूत्रों का नंदी में उल्लेख मिलता है। जीतकल्पसूत्र का नंदी में उल्लेख नहीं मिलता लेकिन महत्त्वपूर्ण होने के कारण तथा प्रायश्चित्त का विधान करने के कारण बाद के कुछ आचार्यों ने इसका समावेश छेदसूत्र में कर दिया। नंदी में छेदसूत्र जैसा कोई वर्गीकरण नहीं मिलता। वहां व्यवहार, बृहत्कल्प आदि को कालिक श्रुत के अन्तर्गत रखा है। दिगम्बर ग्रंथ गोम्मटसार तथा धवला में इनका समावेश अंगबाह्य में है। धवला और कषाय पाहुड़ में वर्णित कल्प, व्यवहार और . . निशीथ के अधिकार वर्तमान में उपलब्ध कल्प, व्यवहार और निशीथ से बहुत साम्य रखते हैं अतः संभव है आचार्य भद्रबाहु द्वारा निर्दृढ ये ग्रंथ दोनों परम्पराओं में समान रूप से मान्य थे। दिगम्बर साहित्य में जीतकल्प, पंचकल्प और महानिशीथ का उल्लेख नहीं मिलता। यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि इन ग्रंथों को विशेष महत्त्व देने हेतु इनका छेदसूत्र नामक एक नया वर्गीकरण बाद में कर दिया गया। 'छेदसूत्र' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आवश्यक नियुक्ति में मिलता है। वहां छेदसूत्रों के लिए 'पदविभाग सामाचारी' शब्द का प्रयोग हुआ है। उसके पश्चात् विशेषावश्यक, निशीथभाष्य आदि साहित्य में प्रचुर रूप से इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इन प्रायश्चित्तसूत्रों का नामकरण छेदसूत्र क्यों पड़ा, इस संदर्भ में विस्तार हेतु देखें जैन विश्व भारती से प्रकाशित व्यवहारभाष्य के अन्तर्गत व्यवहारभाष्यः एक अनुशीलन भूमिका पृ. 34, 35 / छेदसूत्रों का निर्वृहण क्यों किया गया, इस विषय में भाष्य-साहित्य में विस्तृत चर्चा मिलती है। भाष्यकार के अनुसार नवां पूर्व सागर की भांति विशाल है। उसकी सतत स्मृति के लिए बार-बार परावर्तन की अपेक्षा रहती है, अन्यथा वह विस्मृत हो जाता है। जब आचार्य भद्रबाहु ने धृति, संहनन, वीर्य, शारीरिक बल, सत्त्व, श्रद्धा, उत्साह एवं पराक्रम की क्षीणता देखी, तब चारित्र की विशुद्धि एवं रक्षा के लिए दशाश्रुतस्कंध, कल्प एवं व्यवहार का नि!हण किया। इसका दूसरा हेतु बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि 1.AHistoryoftheCanonical Literature of Jains, P. 371 2. नंदी 78 / 3. गोजी 367, 368 / 4. षट्ध पु. 1/1, 2 पृ. 97 / 5. (क) षट्ध पु. 1/1,2 पृ. 98, 99 ; कप्प-ववहारो साहूणं जोग्गमाचरणं अकप्पसेवणाए पायच्छित्तं च वण्णेइ / (ख) कपा पृ. 120 // 6. आवनि 481 / 7. विभा 2295, निभा 6184 / 8. व्यभा 1738 / 9. पंकभा 37-39 / Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श चरणकरणानुयोग के व्यवच्छेद होने से चारित्र का अभाव हो जाएगा अतः चरणकरणानुयोग की अव्यवच्छित्ति एवं चारित्र की रक्षा के लिए भद्रबाहु ने इन ग्रंथों का निर्वृहण किया। चूर्णिकार स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि आचार्य भद्रबाहु ने आयुबल, धारणाबल आदि की क्षीणता देखकर दशा, कल्प एवं व्यवहार का नि¥हण किया किन्तु आहार, उपधि, कीर्ति या प्रशंसा आदि के लिए नहीं। ___ नि!हण के प्रसंग को दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जैसे सुगंधित फूलों से युक्त कल्पवृक्ष पर चढ़कर फूल इकट्ठे करने में कुछ व्यक्ति असमर्थ होते हैं। उन व्यक्तियों पर अनुकम्पा करके कोई शक्तिशाली व्यक्ति उस पर चढ़ता है और फूलों को चुनकर अक्षम लोगों को दे देता है। उसी प्रकार चतुर्दशपूर्व रूप कल्पवृक्ष पर भद्रबाहु ने आरोहण किया और अनुकंपावश छेद ग्रंथों का संग्रथन किया। इस प्रसंग में भाष्यकार ने केशवभेरी एवं वैद्य के दृष्टान्त का भी उल्लेख किया है।' भाष्य एवं भाष्यकार मूलग्रंथ के हार्द को समझने के लिए उस पर व्याख्या ग्रंथ लिखने का क्रम प्राचीनकाल से चला आ रहा है। जैन आगमों पर अनेक प्रकार के व्याख्या ग्रंथ लिखे गए–नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, दीपिका, अवचूरि आदि। उसके बाद प्रादेशिक भाषाओं-राजस्थानी, गुजराती आदि में भी टब्बा, वार्तिक * आदि व्याख्याएं लिखी गईं। दिगम्बर परम्परा में नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि लिखने की विशेष परम्परा नहीं * रही, केवल कषाय पाहुड़ पर चूर्णि मिलती है। अनुयोग (व्याख्या) के पांच पर्याय मिलते हैं-१. अनुयोग 2. नियोग 3. भाषा 4. विभाषा और 5. वार्तिकइनमें वार्तिक को भाष्य का वाचक माना जा सकता है। आगम व्याख्या-साहित्य में भाष्य का दूसरा स्थान है। नियुक्ति-साहित्य की भांति भाष्य भी प्राकृत भाषा में निबद्ध पद्यबद्ध रचना है। नियुक्ति में संक्षिप्त शैली में केवल पारिभाषिक शब्दों की निक्षेपपरक व्याख्या है। अनेक स्थलों पर तो उसके गूढ़ अर्थ को बिना व्याख्या-साहित्य के समझना कठिन होता है अतः उसकी व्याख्या के लिए भाष्य-साहित्य की आवश्यकता पड़ी। ये विस्तृत शैली में लिखे गए व्याख्या ग्रंथ हैं, इनमें तत्सम्बद्ध आगम एवं उसकी नियुक्ति पर व्याख्या प्रस्तुत की गई है। नियुक्तियों की भांति भाष्य भी दश ग्रंथों पर लिखे गए हैं-१. आवश्यक 2. दशवैकालिक 3. उत्तराध्ययन 4. बृहत्कल्प 5. पंचकल्प 6. व्यवहार 7. निशीथ 8. जीतकल्प 9. ओघनियुक्ति 10. पिंडनियुक्ति। " 1. पंकभा 42 3. पंकभा 43-46 / मा यहु वोच्छिन्जिहिती, चरणऽणुओगो त्ति तेण णिज्जूढं। 4. पंकभा 47,48 / वोच्छिण्णे बहुतम्मी, चरणाभावो भवेज्जाहि।। 5. आवनि 116 / 2. दश्रुचू पृ.३। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य इनमें आवश्यक सूत्र पर तीन भाष्यों का उल्लेख मिलता है-१. मूलभाष्य 2. भाष्य 3. विशेषावश्यक भाष्य। मूलभाष्य एवं भाष्य की अनेक गाथाएं विशेषावश्यक भाष्य में मिलती हैं। इसी प्रकार बृहत्कल्प पर भी दो भाष्य लिखे गए-लघुभाष्य एवं बृहद्भाष्य। वर्तमान में छह खंडों में प्रकाशित बृहत्कल्पभाष्य लघुभाष्य है। बृहद्भाष्य अभी प्रकाशित नहीं हुआ है। अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई विद्या मंदिर में रूपेन्द्र पगारिया बृहत्कल्प बृहद्भाष्य के सम्पादन का कार्य कर रहे हैं। मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार व्यवहार और निशीथ पर भी बृहद्भाष्य लिखे गए थे लेकिन आज वे अनुपलब्ध हैं। यह अनुसंधान का विषय है कि तीन छेदसूत्रों पर बृहद्भाष्य लिखे गए फिर दशाश्रुतस्कन्ध पर क्यों नहीं लिखा गया, जबकि नियुक्तियां चारों छेदसूत्रों पर मिलती हैं। संभव है इस पर भी भाष्य लिखा गया हो लेकिन आज वह उपलब्ध नहीं है। दश भाष्यों में बृहत्कल्प, निशीथ और व्यवहार के ऊपर बृहत्काय भाष्य मिलते हैं। जीतकल्प, पंचकल्प और आवश्यक (विशेषावश्यक भाष्य) पर मध्यम, ओघनियुक्ति पर अल्प तथा दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और पिंडनियुक्ति पर अत्यल्प परिमाण में भाष्य लिखे गए हैं। इन भाष्यों की गाथा-संख्या इस प्रकार है१. बृहत्कल्पभाष्य 5. पंचकल्पभाष्य . 2666 2. निशीथ भाष्य 6703 6. जीतकल्प भाष्य 26082 3. व्यवहार भाष्य 4694 7. ओघनियुक्तिभाष्य , 322 4. विशेषावश्यक भाष्य 3603 8. दशवकालिक भाष्य 822 * मूल भाष्य 253 9. उत्तराध्ययन भाष्य 34 10. पिंडनियुक्तिभाष्य 375 उपर्युक्त दश भाष्यों में निशीथ और जीतकल्प पर लिखे गए भाष्य मौलिक रचना के साथ संकलनप्रधान अधिक हैं क्योंकि इनमें अन्य भाष्यों एवं नियुक्तियों की अनेक गाथाएं संकलित हैं। जीतकल्प भाष्य में तो जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण स्पष्ट कहते हैं कि कल्प, व्यवहार और निशीथ उदधि के 6490 १.विशेषावश्यक भाष्य पूरे आवश्यक सूत्र पर न होकर केवल और भी कुछ गाथाओं के भाष्यगत होने के तर्क प्रस्तुत सामायिक आवश्यक की व्याख्या प्रस्तुत करता है। 2. प्रकाशित जीतकल्प भाष्य में 2606 गाथाएं हैं लेकिन 4. नियुक्ति पंचक में इसके अतिरिक्त कुछ और गाथाओं को सभी हस्तप्रतियों में 2608 गाथाएं मिलती हैं। भी सतर्क और सटिप्पण भाष्यगाथा सिद्ध किया गया है। 3. प्रकाशित दशवैकालिक हारिभद्रीय टीका में भाष्य की 5. मलयगिरि की टीका सहित प्रकाशित पिण्डनियुक्ति में 15 83 गाथाएं हैं लेकिन जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित क्रमांक के बाद 25 का क्रमांक है अतः भाष्य गाथाएं नियुक्ति पंचक में भाष्य और नियुक्ति की गाथाओं का 47 न होकर 37 ही हैं। जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित समालोचनात्मक पृथक्करण हुआ है। वहां दशवैकालिक पिण्डनियुक्ति में अनेक नियुक्तिगाथाओं के भाष्यगाथा होने भाष्य की 82 गाथाएं सिद्ध की हैं। इसके अतिरिक्त वहां के तर्क प्रस्तुत किए हैं। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 17 समान विशाल हैं। उन श्रुतरत्नों का बिन्दुरूप अथवा नवनीत रूप सार यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। इस उद्धरण से स्पष्ट है कि जिनभद्रगणि के समक्ष तीनों छेदसूत्रों के भाष्य थे। उदधि सदृश विशेषण मूल सूत्रों के लिए प्रयुक्त नहीं हो सकता क्योंकि वे आकार में इतने बड़े नहीं हैं। ___ लगभग भाष्य मूलसूत्र एवं उनकी नियुक्तियों पर लिखे गए लेकिन जीतकल्प भाष्य केवल मूलसूत्र पर है, उस पर नियुक्ति नहीं लिखी गई। कुछ भाष्य केवल नियुक्ति पर भी हैं, जैसे-पिंडनियुक्तिभाष्य और ओघनियुक्तिभाष्य। डॉ. मोहनलाल मेहता ने ओघनियुक्ति पर दो भाष्यों का उल्लेख किया है, जिनमें एक की संख्या 322 है, जो द्रोणाचार्य की टीका समेत नियुक्ति के साथ प्रकाशित है। दूसरे भाष्य की संख्या 2517 है लेकिन वर्तमान में यह भाष्य अप्रकाशित है। ___ छेदसूत्रों पर लिखे जाने वाले भाष्यों में नियुक्ति और भाष्य मिलकर एक ग्रंथ रूप हो गए हैं / यद्यपि चूर्णिकार ने कहीं-कहीं नियुक्ति गाथा का संकेत किया है लेकिन सभी गाथाओं के बारे में निर्देश नहीं है। टीकाकार ने भी 'सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिर्भाष्यं चैको ग्रंथो जात:' का संकेत करके इनको एक ग्रंथ रूप मान लिया है। जैन, विश्व भारती से प्रकाशित व्यवहारभाष्य में नियुक्ति और भाष्य को पृथक् करने का प्रयास किया गया है। प्रकाश्यमान निशीथ भाष्य में भी नियुक्ति और भाष्य को पृथक् करने का प्रयास किया जाएगा लेकिन इस दिशा में और भी अन्वेषण की संभावनाएं हैं। - भाष्यकार के रूप में दो नाम प्रसिद्ध हैं-जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण तथा संघदासगणि। आचार्य जिनभद्र ने दो महत्त्वपूर्ण भाष्यों की रचना की-विशेषावश्यक भाष्य और जीतकल्प भाष्य। मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार भाष्यकार चार होने चाहिए -1. जिनभद्रगणि 2. संघदासगणि 3. व्यवहारभाष्य के कर्ता 4. बृहत्कल्प बृहद्भाष्य के कर्ता / अंतिम दो भाष्यकारों के नामों के बारे में उन्होंने कोई उल्लेख नहीं किया . भाष्य के कर्तृत्व के बारे में मुनि पुण्यविजयजी, पंडित दलसुखभाई मालवणिया आदि शीर्षस्थ विद्वानों के द्वारा गहरा विमर्श किया गया है लेकिन फिर भी विशेषावश्यक और जीतकल्पभाष्य के अतिरिक्त शेष भाष्यों के रचनाकार और उनके समय के बारे में मतैक्य नहीं मिलता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि प्राचीन काल में लेखक बिना किसी नामोल्लेख के कृतियां लिख देते थे। कालान्तर में यह निर्णय करना कठिन हो जाता था कि वास्तव में मूल लेखक कौन थे? कहीं-कहीं एक ही नाम के दो या तीन आचार्य या लेखक होने से भी सही निर्णय करना कठिन हो जाता था। बृहत्कल्प भाष्य की पीठिका में भी मलयगिरि ने भाष्यकार का नामोल्लेख न करके केवल 'सुखग्रहणधारणाय १.जीभा 2607 / Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य - भाष्यकारो भाष्यं कृतवान्' इतना सा उल्लेख मात्र किया है। निशीथ भाष्य की चूर्णि. एवं बृहत्कल्प भाष्य की टीका के अनेक उद्धरणों को देखकर पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने निशीथ पीठिका की भूमिका में अनेक हेतुओं से यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ भाष्य के कर्ता आचार्य सिद्धसेन होने चाहिए। यदि मालवणियाजी के इस तर्क को स्वीकार किया जाए तो एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि चूर्णिकार ने ग्रंथ के प्रारंभ में एवं प्रशस्ति श्लोकों में कहीं भी आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख क्यों नहीं किया? यदि आचार्य सिद्धसेन को भाष्यकार के रूप में स्वीकृत किया भी जाए तो एक प्रश्न पुनः उठता है कि ये सिद्धसेन कौन-से आचार्य थे? क्योंकि इतिहास में सिद्धसेन के रूप में अनेक आचार्यों के नाम प्रसिद्ध हैं। प्रथम सन्मतितर्कप्रकरण के कर्ता आचार्य सिद्धसेन दिवाकर तथा दूसरे तत्त्वार्थसूत्र पर भाष्यानुसारिणी टीका लिखने वाले सिद्धसेन क्षमाश्रमण। इसके अतिरिक्त जीतकल्प पर चूर्णि लिखने वाले सिद्धसेनगणि। निशीथ चूर्णि में भी आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने योनि-प्राभृत ग्रंथ से अश्व का निर्माण किया था। इनका सम्बन्ध सिद्धसेन क्षमाश्रमण या फिर अन्य सिद्धसेन नामक आचार्य से होना चाहिए। सिद्धसेन दिवाकर भाष्यकार नहीं थे, यह इस बात से भी स्पष्ट हो जाता है कि चूर्णिकार और टीकाकार ने सिद्धसेन नाम के साथ क्षमाश्रमण विशेषण का प्रयोग किया है, न कि दिवाकर का। वैसे भी कालक्रम के निर्धारण में सिद्धसेन दिवाकर सिद्धसेन क्षमाश्रमण से पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। पंडित दलसुखभाई मालवणिया का अभिमत है कि जीतकल्प चूर्णि के कर्ता आचार्य सिद्धसेन ही भाष्यकर्ता सिद्धसेन क्षमाश्रमण हैं लेकिन अभी इस विषय में और अधिक खोज की आवश्यकता है। यद्यपि निशीथ चूर्णिकार ने अनेक स्थलों पर 'अस्य सिद्धसेनाचार्यो व्याख्या करोति' का उल्लेख किया है। उस तर्क के आधार पर उनको सम्पूर्ण ग्रंथ का कर्ता नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त चूर्णिकार ने ग्रंथ के प्रारम्भ एवं अंतिम प्रशस्ति में कहीं भी आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख नहीं किया है। मुनि पुण्यविजयजी बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ-इन तीनों भाष्यों के कर्ता संघदासगणि को मानते हैं। बृहत्कल्प लघुभाष्य के छठे भाग की भूमिका में वे लिखते हैं कि यद्यपि मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है फिर भी ऐसा लगता है कि कल्प (बृहत्कल्प) लघुभाष्य, व्यवहार और निशीथ लघुभाष्य के प्रणेता श्री संघदासगणि हैं। उनके अभिमत से संघदासगणि नाम के दो आचार्य हुए। प्रथम संघदासगणि जो 'वाचक पद' से विभूषित थे, उन्होंने वासुदेवहिण्डी के प्रथम खण्ड की रचना की। द्वितीय संघदासगणि 1. बृभापीटी पृ. 2 / २.निपीभू पृ. 40-46 / 3. निभा. 2 चू पृ. 281; जोणिपाहुडातिणा जहा सिद्धसेणा यरिएण अस्साए कता। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श उनके बाद हुए, जिन्होंने बृहत्कल्प लघुभाष्य की रचना की, वे क्षमाश्रमण पद से अलंकृत थे। आचार्य संघदासगणि बृहत्कल्प भाष्य के कर्ता हैं, इसकी पुष्टि में सबसे बड़ा प्रमाण आचार्य क्षेमकीर्ति का निम्न उद्धरण है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कल्पेऽनल्पमहर्घ प्रतिपदमर्पयति योऽर्थनिकुरम्बम्। श्रीसंघदासगणये चिन्तामणये नमस्तस्मै / / "अस्य च स्वल्पग्रन्थमहार्थतया दुःखबोधतया च सकलत्रिलोकीसुभगङ्करणक्षमाश्रमणनामधेयाभिधेयैः श्रीसंघदासगणिपूज्यैः प्रतिपदप्रकटितसर्वज्ञाज्ञाविराधनासमुद्भूतप्रभूतप्रत्यपायजालं निपुणचरणकरणपरिपालनोपायगोचरविचारवाचालं सर्वथा दूषणकरणेनाप्यदूष्यं भाष्यं विरचयाञ्चक्रे।" क्षेमकीर्ति के इस उल्लेख के अतिरिक्त कहीं भी व्याख्याकारों ने भाष्यकार के रूप में संघदासगणि का उल्लेख नहीं किया है इसलिए उनके कर्तृत्व के बारे में प्रश्नचिह्न तो खड़ा ही रहता है। बृहत्कल्प भाष्य की प्रथम गाथा में कप्पव्ववहाराणं वक्खाणविहिं पवक्खामि' का उल्लेख मिलता है। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि बृहत्कल्प और व्यवहार / भाष्य के रचयिता एक ही हैं। बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ-इन तीन छेदसूत्रों के पौर्वापर्य पर भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। दलसुखभाई मालवणिया के अभिमत से सर्वप्रथम बृहत्कल्प भाष्य उसके बाद निशीथ भाष्य तथा तत्पश्चात् व्यवहार भाष्य की रचना हुई लेकिन हमारे अभिमत से बृहत्कल्प भाष्य के बाद व्यवहार भाष्य की रचना हुई। बृहत्कल्प भाष्य के बाद व्यवहार भाष्य की रचना हुई, इसका प्रबल हेतु यह है कि व्यवहार भाष्य में अनेक स्थलों पर 'जह कप्पे', 'वण्णिया कप्पे', 'पुव्वुत्तो' आदि का उल्लेख मिलता है। यह उल्लेख बृहत्कल्पभाष्य की ओर संकेत करता है। पंचकल्पभाष्य के रचनाकार के रूप में संघदासगणि का नाम प्रसिद्ध है लेकिन इसे भी ऐतिहासिक प्रमाणों से प्रमाणित नहीं किया जा सकता। केवल आचार्य क्षेमकीर्ति के उल्लेख 'कप्प' शब्द से संघदासगणि को बृहत्कल्प और पंचकल्प भाष्य के कर्ता के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। ऐसा संभव लगता है कि निशीथ भाष्य संकलित रचना है, जिसकी संकलना किसी एक आचार्य ने नहीं की। यदि बृहत्कल्प लघुभाष्य, व्यवहार भाष्य, पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति की गाथाएं इसमें से निकाल दी जाएं तो मूलग्रंथ का 15 प्रतिशत अंश भी बाकी नहीं रहेगा। भाष्य के रूप में संकलनकर्ता ने कहीं-कहीं निशीथ-नियुक्ति को स्पष्ट करने के लिए अथवा एक सूत्र से दूसरे सूत्र में सम्बन्ध स्थापित करने हेतु कुछ गाथाओं की रचना की है। भाष्यकार संघदासगणि का समय भी विवादास्पद है। अभी तक इस दिशा में विद्वानों ने विशेष Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 जीतकल्प सभाष्य ऊहापोह नहीं किया है। संघदासगणि आचार्य जिनभद्र से पूर्ववर्ती हैं-इस मत की पुष्टि में अनेक हेतु प्रस्तुत किए जा सकते हैं__ जिनभद्रगणि के विशेषणवती ग्रंथ में निम्न गाथा मिलती है सीहो चेव सुदाढो,जरायगिहम्मि कविलबडुओत्ति। सीसइ ववहारे गोयमोवसमिओ स णिक्खंतो॥ व्यवहार भाष्य में इसकी संवादी गाथा इस प्रकार मिलती है सीहो तिविट्ठनिहतो, भमिउंरायगिह कविलबडुगत्ति। जिणवीरकहणमणुवसम गोतमोवसम दिक्खा य॥ विशेषणवती में प्रयुक्त ववहारे' शब्द निश्चित रूप से व्यवहारभाष्य के लिए हुआ है क्योंकि मूलसूत्र में इस कथा का कोई उल्लेख नहीं है। विशेषावश्यकभाष्य की रचना व्यवहारभाष्य के पश्चात् हुई, इसका एक प्रबल हेतु यह है कि बृहत्कल्पभाष्य एवं व्यवहारभाष्य कर्ता के समक्ष यदि विशेषावश्यकभाष्य होता तो वे अवश्य विशेषावश्यकभाष्य की गाथाओं को अपने ग्रंथ में सम्मिलित करते क्योंकि यह ज्ञान का एक आकर ग्रंथ है, जिसमें अनेक विषयों का सांगोपांग वर्णन प्राप्त है। व्यवहारभाष्य की 'मणपरमोधिपुलाए' गाथा विशेषावश्यक भाष्य में मिलती है। वह व्यवहारभाष्य (4527) की गाथा है और विशेषावश्यकभाष्य (2593) के कर्ता ने इसे उद्धृत की है, ऐसा प्रसंग से स्पष्ट प्रतीत होता है। अत: व्यवहारभाष्य विशेषावश्यकभाष्य से पूर्व की रचना है, ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं लगती। व्यवहारभाष्य के कर्ता जिनभद्रगणि से पूर्व हुए, इसका एक प्रबल हेतु यह है कि जीतकल्प चूर्णि में स्पष्ट उल्लेख है कि कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि में प्रायश्चित का इतने विस्तार से निरूपण है कि पढ़ने वाले का मति-विपर्यास हो जाता है। शिष्यों की प्रार्थना पर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने संक्षेप में प्रायश्चित्तों का वर्णन करने हेतु जीतकल्प की रचना की। यहां कल्प और व्यवहार शब्द से मूलसूत्र से तात्पर्य न होकर उसके भाष्य की ओर संकेत होना चाहिए क्योंकि मूल ग्रंथ परिमाण में इतने बृहद् नहीं हैं और उनका निर्वृहण मूलतः आचार्य भद्रबाहु ने किया है। दूसरी बात व्यवहारभाष्य की प्रायश्चित्त संबंधी अनेक गाथाएं जीतकल्प में अक्षरशः उद्धृत हैं, जैसेजीतकल्प व्यभा जीतकल्प व्यभा 18 110 114 19 . 111 31,32 तु. 10,11 १.विशे 34 / 3. जीचू पृ. 1, 2 / २.व्यभा 2638 / 22 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श निशीथभाष्य जिनभद्रगणि से पूर्व संकलित हो चुका था, इसका एक प्रमाण यह है कि इसमें प्रमाद-प्रतिसेवना के संदर्भ में निद्रा का विस्तृत वर्णन मिलता है। स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदाहरण के रूप में 'पोग्गल-मोयग-दंते'' गाथा मिलती है। यह गाथा विशेषावश्यकभाष्य' में भी है। लेकिन वहां स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि व्यञ्जनावग्रह के प्रसंग में विशेषावश्यक भाष्यकार ने यह गाथा निशीथभाष्य से उद्धृत की है। विशेषावश्यकभाष्य में यह गाथा प्रक्षिप्त-सी लगती है। शेष ओघनियुक्ति, पिंडनियुक्ति, दशवैकालिक और उत्तराध्ययन पर लिखे जाने वाले भाष्य के कर्ता कौन हैं? इसका कहीं कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता। दशवैकालिक भाष्य के कर्ता तो स्वयं हरिभद्र होने चाहिए, इसको स्वयं हरिभद्र के कुछ प्रमाणों से सिद्ध किया जा सकता है। निष्कर्षतः आचार्य क्षेमकीर्ति के स्पष्ट उल्लेख के आधार पर आचार्य संघदासगणि बृहत्कल्प, व्यवहार और पंचकल्पभाष्य के कर्ता के रूप में सिद्ध होते हैं। निशीथभाष्य किसके द्वारा संकलित किया गया, यह अभी चिन्तन का विषय है। भाष्यकार संघदासगणि का समय पांचवीं-छठी शताब्दी होना चाहिए तथा आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का समय छठी-सातवीं शताब्दी सिद्ध होता है। भाष्य ग्रंथों का रचनाकाल चौथी से सातवीं शताब्दी का पूर्वार्ध तक ही होना चाहिए। यदि भाष्य का रचनाकाल इससे आगे माना जाए तो आगे के व्याख्या ग्रंथों के काल-निर्धारण में अनेक विसंगतियां उत्पन्न होती हैं। प्राचीन काल में आज की भांति मुद्रण की व्यवस्था नहीं थी अतः हस्तलिखित किसी भी ग्रंथ को प्रसिद्ध होने में कम से कम एक शताब्दी का समय तो लग ही जाता था। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण : कर्तृत्व एवं समय ... जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आगमिक परम्परा के महान् समर्थक आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने तर्क और हेतु को भी आगम के आधार पर सिद्ध किया। विशेषणवती ग्रंथ में वे इसी तथ्य को प्रस्तुति देते हुए कहते हैं . मोत्तूण हेउवायं,आगममेत्तावलंबिणो होउं। सम्ममणुचिंतणिज्जं, किं जुत्तमजुत्तमेयं ति।। केवलज्ञान और केवलदर्शन के उपयोग के संदर्भ में भी वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि केवलज्ञान और केवलदर्शन एकान्तरित अर्थात् क्रमबद्ध होते हैं, आगम द्वारा सिद्ध इस बात में मेरी अभिनिवेश बुद्धि नहीं है फिर भी जिनेश्वर भगवान् के मत को अन्यथा रूप में प्रतिपादित करने में मैं समर्थ नहीं हूं १.निभा 135 / २.विभा 235 3. विशे 248 / Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य न वि अभिणिवेसबुद्धी, अम्हं एगंतरोवयोगम्मि। तह वि भणिमो न तीरइ, जंजिणमयमन्नहा काउं॥ . जीतकल्पसूत्र और उसके भाष्य के कर्तृत्व के बारे में विद्वानों में मतभेद है क्योंकि सम्पूर्ण ग्रंथ में ग्रंथकार ने कहीं भी अपना अथवा अपनी गुरु-परम्परा के नाम का उल्लेख नहीं किया है। नंदीसूत्र की पट्टावलि तथा अन्य तपागच्छ और अंचलगच्छ आदि की पट्टावलियों में भी जिनभद्रगणि का कहीं नामोल्लेख नहीं है। खरतरगच्छीय पट्टावलियों में उल्लेख मिलता है पर उनमें अंतर्विरोध है, किसी में उल्लेख है कि वे महावीर के पैंतीसवें पट्ट पर विराजे, दूसरे में अड़तीसवें पट्टधर का उल्लेख है, कहीं-कहीं सत्तावीसवें पट्टधर का भी उल्लेख मिलता है। कुछ विद्वानों का मंतव्य है कि ये आचार्य हरिभद्र के पट्ट पर सुशोभित हुए लेकिन ये आचार्य हरिभद्र से पूर्व हो गए थे क्योंकि आचार्य हरिभद्र ने अपनी टीका में इनका उल्लेख किया है। ___ मुनि जिनविजयजी ने जीतकल्पचूर्णि की भूमिका में तथा पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने गणधरवाद' में विस्तार से उनके समय और कर्तृत्व पर प्रकाश डाला है। एक तर्क उपस्थित होता है कि आचार्य सिद्धसेन का सन्मतितर्क प्रकरण जितना प्रसिद्ध हुआ, महत्त्वपूर्ण और मौलिक ग्रंथ के प्रणेता होते हुए भी आचार्य जिनभद्र एवं उनका साहित्य पन्द्रहवीं शताब्दी तक किसी भी पट्टावलि में प्रकाश में क्यों नहीं आया? संभव लगता है कि उनके महत्त्वपूर्ण ग्रंथों को देखकर बाद के आचार्यों ने उन्हें प्रतिष्ठित करके युगप्रधान आचार्यों की श्रृंखला में जोड़ने का प्रयत्न किया। उत्तरवर्ती आचार्यों ने भाष्य सुधाम्भोधि, भाष्य पीयूषपाथोधि, भगवान् भाष्यकार, दुःषमान्धकार-निमग्न-जिनवचन-प्रदीप प्रतिभ आदि का सम्बोधन देकर उच्च कोटिक भाष्यकार के रूप में उनका स्मरण किया है। अंकोट्टक ग्राम से प्राप्त दो प्रतिमाओं पर लिखे गए अभिलेख से यह सिद्ध होता है कि जिनभद्रगणि निवृत्ति कुल के वाचनाचार्य थे। इनके माता-पिता तथा परिवार आदि के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है। जीतकल्पभाष्य की चूर्णि में आचार्य सिद्धसेनगणि ने छह गाथाओं में जिनभद्रगणि की प्रशस्ति की है। प्रशस्ति के अनुसार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, अनुयोगधर, युगप्रधान, ज्ञानियों में प्रमुख, श्रुतज्ञान में दक्ष तथा दर्शन और ज्ञान के उपयोग में लीन रहने वाले थे। ज्ञान मकरंद के पिपासु अनेक मुनि उनके मुख से नि:सृत ज्ञानामृत का पान करने के लिए समुत्सुक रहते थे। स्वसमय-परसमय के ज्ञान से उनका यश दशों दिशाओं में व्याप्त हो गया था। उनका छंद और शब्दशास्त्र का ज्ञान भी उच्च कोटि का था। उन्होंने छेदसूत्रों के आधार 1. विशे 247, विभा 3133 / २.गण प्रस्तावना पृ. 27-47 / Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 23 पर जीत व्यवहार से सम्बन्धित जीतकल्प सूत्र की रचना की। वे संयमी तथा क्षमाश्रमणों में अग्रणी थे। मुनि श्रीचन्द्रसूरि ने उनको जिनमुद्रा के समान माना है। . जीतकल्पभाष्य से पूर्व जिनभद्रगणि ने विशेषावश्यकभाष्य की रचना कर दी थी। इसका एक संवादी प्रमाण यह है कि प्रकाशित हाटी में इस गाथा का क्रमांक 30 है। तिसमयाऽऽहारादीणं...(जीभा 60) में ग्रंथकार ने 'जह हेटावस्सए भणियं' का उल्लेख किया है। पौर्वापर्य का संकेत देने हेतु ग्रंथकार स्वयं 'हेट्ठा' और 'उवरिं' शब्द का प्रयोग करते हैं। यदि इसके रचयिता कोई अन्य आचार्य होते तो वे 'हेट्ठा' शब्द का प्रयोग नहीं करके 'जह आवस्सए' का ही उल्लेख करते। इससे स्पष्ट है कि वे अपने द्वारा ग्रथित विशेषावश्यक भाष्य की गाथाओं के बारे में संकेत दे रहे हैं। आवश्यक नियुक्ति गा. 282 की व्याख्या में विशेषावश्यक' में आठ गाथाएं हैं। इससे यह फलित हो रहा है कि उन्होंने जीतकल्प भाष्य से पूर्व विशेषावश्यक भाष्य की रचना कर दी थी। जैसलमेर में मिलने वाली विशेषावश्यक भाष्य की एक प्रति की अंतिम दो गाथाओं के आधार पर मुनिश्री जिनविजयजी का मंतव्य है कि विशेषावश्यक भाष्य शक सं. 531 (वि. 666) में लिखा गया अत: उनका वही समय होना चाहिए। पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने उक्त तथ्य का विरोध करते हुए कहा है कि इन दोनों गाथाओं में कहीं भी जिनभद्रगणि एवं विशेषावश्यक भाष्य के नाम का उल्लेख नहीं हैं। संभव है यह प्रति लेखन के समय का संकेत है क्योंकि ये दोनों गाथाएं अन्य किसी प्रतियों में नहीं मिलती है और न ही टीकाकारों ने इन गाथाओं की व्याख्या की है। : पंडित दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार विशेषावश्यक भाष्य जिनभद्रगणि की अंतिम कृति है. तथा उसकी टीका भी स्वर्गवास के कारण अपूर्ण रही लेकिन यह बात तर्क संगत प्रतीत नहीं होती क्योंकि जीतकल्पभाष्य में उन्होंने अवधिज्ञान के प्रसंग में 'जह हेट्ठावस्सए भणियं' का उल्लेख किया है, इससे स्पष्ट है कि वे भाष्य पहले लिख चुके थे। विशेषावश्यक भाष्य की टीका उनकी अंतिम कृति कही जा सकती है। वह जीतकल्पभाष्य के बाद लिखी गई रचना है। इस संदर्भ में ऐसा संभव लगता है कि भाष्य की क्लिष्टता को देखकर जीवन के सान्ध्य काल में उनके शिष्य-समुदाय ने उन्हें टीका लिखने के लिए प्रेरित किया होगा लेकिन वे उसे पूर्ण नहीं कर सके, बीच में ही दिवंगत हो गए। निष्कर्ष रूप में जिनभद्रगणि सातवीं शताब्दी के आचार्य सिद्ध होते हैं। इस संदर्भ में पंडित १.जीचू पृ.१॥ २.यह संख्या जैन विश्वभारती द्वारा प्रकाशित आवश्यक नियुक्ति खण्ड 1 की है। 3. विभा 589-96 / ४.गण प्रस्तावना प.३३,३४। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 जीतकल्प सभाष्य दलसुखभाई का मंतव्य प्रस्तुत करना समीचीन होगा-"ऐसी जनश्रुति है कि आचार्य जिनभद्र की पूर्ण आयु 104 वर्ष की थी। उसके अनुसार उनका समय वि. 545 से 650 तक माना जा सकता है, जब तक इसके विरुद्ध प्रमाण न मिले, तब तक हम आचार्य जिनभद्र के इस समय को प्रामाणिक मान सकते हैं। उनके ग्रंथों में उपलब्ध उल्लेखों में भी वि. सं. 650 के बाद के किसी आचार्य का उल्लेख नहीं मिलता है। जिनदास की चूर्णि एवं नंदीचूर्णि में इनका उल्लेख भी इसी मत की पुष्टि करता है। रचनाएं जिनभद्रगणि जैसे महान् श्रुतधर आचार्य की सारी कृतियों का इतिहास सुरक्षित नहीं रहा है लेकिन उनका निम्न कृतियों का कर्तृत्व प्रसिद्ध है१. विशेषावश्यक भाष्य एवं स्वोपज्ञ टीका-जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने आवश्यक के सामायिक सूत्र पर विशेषावश्यक भाष्य तथा उस पर स्वोपज्ञ टीका लिखी। सामायिक आवश्यक एवं उसकी नियुक्ति पर लिखे विशेषावश्यक भाष्य में अनेक मौलिक तथ्यों का निरूपण है। भाष्यकार ने पांच ज्ञानों की खुलकर चर्चा की है। यह ग्रंथ अनेक विषयों का प्रतिनिधि ग्रंथ है। इस ग्रंथ को पढ़कर लगता है कि जिनभद्रगणि के समय से ही जैन आचार्यों का दर्शन और तर्क के युग में प्रवेश हो गया था। भाष्य में नय, निक्षेप, प्रमाण, ज्ञान, कर्म, आत्मा, पुनर्जन्म आदि का विस्तृत वर्णन है। जिनभद्रगणि का मंतव्य है कि इस भाष्य के श्रवण, अध्ययन और मनन से बुद्धि परिमार्जित हो जाती है। छठे गणधर व्यक्त तक ही टीका की रचना कर पाए, इसके बाद वे स्वर्गस्थ हो गए। कोट्याचार्य ने अवशिष्ट टीका को 13700 श्लोक प्रमाण में पूरा किया। 2. बृहत्संग्रहणी-जैन तत्त्वज्ञान एवं जैन भूगोल पर यह एक महत्त्वपूर्ण कृति है। अन्य संग्रहणी ग्रंथों की अपेक्षा इसमें पद्य परिमाण अधिक हैं अतः इसकी प्रसिद्धि बृहत्संग्रहणी नाम से हो गई। इस पर आचार्य मलयगिरि की महत्त्वपूर्ण टीका भी प्राप्त है। उन्होंने 'जिनवचनैकनिषण्णं जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणं' कहकर उनकी प्रशस्ति की है। इसमें 349 गाथाएं हैं। 3. बृहत्क्षेत्रसमास-पांच प्रकरण एवं 656 गाथाओं का यह ग्रंथ जैन भूगोल पर महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रस्तुत करने वाला है। इसमें गणितानुयोग की भी चर्चा है। इस पर भी आचार्य मलयगिरि ने महत्त्वपूर्ण टीका लिखी है। इस ग्रंथ पर अन्य आचार्यों ने भी टीकाएं लिखी हैं। जिनभद्रगणि ने इसका नाम समयक्षेत्रसमास अथवा क्षेत्रसमास प्रकरण रखा था लेकिन अन्य क्षेत्र समास कृतियों से बड़ा होने के कारण इसका नाम बृहत्क्षेत्रसमास प्रसिद्ध हो गया। 4. विशेषणवती-यह ग्रंथ 317 गाथाओं में निबद्ध है। इस पर संक्षिप्त टीका प्राप्त होती है। इस ग्रंथ में १.गण प्रस्तावना पृ.३४। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श बहुश्रुत आचार्य ने लगभग 100 गाथाओं में केवलज्ञान और केवलदर्शन के युगपत् होने का विरोध करके उनके क्रमवाद को सिद्ध किया है। आचार्य ने आगम और हेतुवाद में आगम की सर्वोपरि महत्ता प्रतिष्ठित की है तथा केवलज्ञान और केवलदर्शन को युगपद् मानने वाले सिद्धसेन दिवाकर की मान्यता का आगमिक युक्तियों से खण्डन किया है। 5. अनुयोगद्वारचूर्णि-अनुयोगद्वार में वर्णित अंगुल पद के आधार पर इस चूर्णि की रचना की थी लेकिन वर्तमान में इसके अंश जिनदासकृत अनुयोगद्वारचूर्णि एवं आचार्य हरिभद्र की अनुयोगद्वारटीका में उद्धृत इसके अतिरिक्त आवश्यक की हारिभद्रीय टीका में प्रकाशित ध्यान शतक को भी कुछ विद्वान् जिनभद्रगणि की रचना मानते हैं लेकिन इस संदर्भ में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। जीतकल्पसूत्र एवं उसका भाष्य जीतकल्प साध्वाचार से सम्बन्धित संक्षिप्त एवं महत्त्वपूर्ण कृति है। 103 गाथाओं में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने जीतव्यवहार से सम्बन्धित प्रायश्चित्तों का संक्षेप में वर्णन किया है। आचार्य ग्रंथ के प्रारम्भ में यह निर्देश करते हैं कि मोक्ष का कारण चारित्र है और चारित्र-शुद्धि का प्रायश्चित्त के साथ विशेष सम्बन्ध है। जीतकल्प में ग्रंथकार ने दस प्रायश्चित्त एवं उसके अपराध-स्थानों का संक्षिप्त वर्णन किया है। ग्रंथकार ने इस ग्रंथ में अल्प शब्दों में महान् अर्थ को भरने का प्रयत्न किया है। भगवती आराधना की टीका में उल्लेख मिलता है कि जीतकल्प, कल्पसूत्र आदि ग्रंथ निरतिचार रत्नत्रय को प्रकट करने वाले हैं। - जीतकल्प भाष्य में 26082 गाथाएं हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ग्रंथ के अंत में प्रकारान्तर से इसको संग्रह ग्रंथ के रूप में स्वीकार किया है। मंगलाचरण के पश्चात् ग्रंथकार ने 'प्रवचन' शब्द का निरुक्त एवं उसकी व्याख्या से ग्रंथ का प्रारम्भ किया है। यद्यपि ग्रंथकार का मूल उद्देश्य जीतव्यवहार के आधार पर दिए जाने वाले प्रायश्चित्तों का वर्णन करना था लेकिन उसकी व्याख्या से पूर्व अग्रिम चार व्यवहारों की व्याख्या करनी भी आवश्यक थी अतः प्रारम्भ में पांचों व्यवहारों का विस्तृत वर्णन है। आगम व्यवहार के अन्तर्गत उन्होंने इंद्रिय प्रत्यक्ष और नोइंद्रिय प्रत्यक्ष के संदर्भ में अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान-इन तीनों की विस्तृत व्याख्या की है। ज्ञान के प्रसंग में आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञान का उल्लेख नहीं किया क्योंकि ग्रंथकार का मूल लक्ष्य आगम व्यवहार की व्याख्या करना था, न कि ज्ञान का वर्णन करना। ग्रंथकार ने आलोचना का महत्त्व एवं उसकी विधि का वर्णन करते हुए दोष सेवन के कारणों का 1. भआ 411 विटी पृ. 314 / 2. मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित जीतकल्प भाष्य में 2606 गाथाएं है। प्रतियों में गा. 1681 के बाद दो गाथाएं और हैं जो मूल सूत्र की व्याख्या करने वाली गाथाएं हैं अतः जीतकल्पभाष्य की 2608 गाथाएं होनी चाहिए। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 जीतकल्प सभाष्य उल्लेख किया है। तत्पश्चात् आलोचना सुनकर प्रायश्चित्त देने वाले साधु की अर्हताओं का वर्णन किया है। ग्रंथकार को प्रायश्चित्त देने के योग्य व्यवहारी की विशेषताओं का वर्णन करना था अतः प्रसंगवश गणिसम्पदा के चार-चार भेद तथा विनय-प्रतिपत्ति के चार भेदों का विस्तृत वर्णन किया है। इन 36 स्थानों में प्रतिष्ठित एवं परिनिष्ठित आचार्य ही प्रायश्चित्त देने के योग्य हो सकता है। इसी प्रसंग में भाष्यकार ने दर्प प्रतिसेवना के दश भेद तथा कल्प प्रतिसेवना के चौबीस भेदों की विस्तृत चर्चा की है क्योंकि इन प्रतिसेवनाओं के आधार पर ही आचार्य प्रायश्चित्त का निर्धारण करते हैं। दर्प प्रतिसेवना में प्रायश्चित्त अधिक आता है। कल्प प्रतिसेवना ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि के निमित्त से होती है अतः प्रतिसेवना करता हुआ भी मुनि शुद्ध होता है। ____ बहुश्रुत आचार्य ने इस बात की विस्तार से चर्चा की है कि वर्तमान में प्रत्यक्षज्ञानी चतुर्दश पूर्वधर एवं अंतिम दो प्रायश्चित्तों का विच्छेद होने पर भी प्रायश्चित्त देकर शोधि करने वाले आचार्यों का सद्भाव है। कल्प और व्यवहार को अर्थतः जानने वाला तथा उसकी नियुक्तियों का ज्ञाता प्रायश्चित्त देने के योग्य होता है। आचार्य ने प्रारम्भिक आठ प्रायश्चित्तों का विच्छेद मानने वालों को प्रायश्चित्त का भागी बताया है। इसी संदर्भ में आचार्य ने सापेक्ष और निरपेक्ष प्रायश्चित्त-दान को ऋण दाता और ऋणधारण करने वाले व्यक्ति की उपमा द्वारा विस्तार से समझाया है। भाष्यकार ने भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण और प्रायोपगमन-इन तीनों अनशनों का 23 द्वारों से विस्तृत वर्णन किया है। यह सारा प्रसंग जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने व्यवहारभाष्य से लिया है, ऐसा संभव लगता है। यद्यपि आगम व्यवहार के अन्तर्गत तीनों अनशनों की विस्तृत व्याख्या अप्रासंगिक सी लगती है, चूंकि उनको वर्तमान में निर्यापकों के अस्तित्व की सिद्धि करनी थी इसलिए उन्होंने प्रसंगवश तीनों अनशनों का भी विस्तृत वर्णन कर दिया है। प्रायोपगमन अनशन में चाणक्य, चिलातपुत्र, कालासवैश्य एवं अवंतीसुकुमाल आदि की दृढ़ता का उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत व्यवहार की विस्तृत व्याख्या की गई है। चूंकि भाष्यकार का मूल लक्ष्य जीतकल्प के आधार पर प्रायश्चित्त का वर्णन करना था अतः उन्होंने जीतकल्प की विस्तृत व्याख्या की है। जीतव्यवहार के सम्बन्ध में भाष्यकार का स्पष्ट मंतव्य है कि जिस जीत से चारित्र की शुद्धि हो, उसी का व्यवहार करना चाहिए, जिससे चारित्र की शुद्धि न हो, उसका व्यवहार नहीं करना चाहिए। कोई जीतव्यवहार ऐसा भी हो सकता है, जिसका किसी एक ही संवेगपरायण, संयमी आचार्य ने अनुसरण किया हो, वैसा जीतव्यवहार भी अनुवर्तन करने योग्य है। प्रायश्चित्त की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए भाष्यकार ने दस प्रायश्चित्तों की सटीक परिभाषाएं प्रस्तुत की हैं। आलोचना के भेदों और उसके अपराध-स्थान का वर्णन करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि निरतिचार Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 27 रूप से सामाचारी का पालन करने वाले की आलोचना करने मात्र से विशोधि हो जाती है। प्रतिक्रमण के अपराध स्थान हैं-समिति-गुप्ति आदि में विराधना। ग्रंथकार ने लगभग 76 गाथाओं (784-860) में समिति-गुप्ति की व्याख्या एवं उससे सम्बन्धित कथानकों का उल्लेख किया है। इसी प्रकार आशातना, विनयभंग, सामाचारी तथा लघुस्वक मृषावाद आदि की भी रोचक व्याख्या प्रस्तुत की है। लघुस्वक मृषावाद के 14 उदाहरण प्रायः सभी भाष्य ग्रंथों में मिलते हैं। संभव है ग्रंथकार ने वहीं से इनको उद्धृत किया है। ये उदाहरण दैनिक व्यवहार में बोली जाने वाली मृषा एवं मानव मनोविज्ञान को सूक्ष्मता से प्रकट करने वाले हैं। इसके अतिरिक्त अविधिपूर्वक खांसी, जम्भाई, अधोवात, ऊर्ध्ववात, असंक्लिष्ट कर्म, हास्य, विकथा आदि अपराध-स्थानों में भी प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त के प्रयोग का संकेत किया है। संभ्रम, भय, सहसा, अनाभोग, अज्ञान, अनात्मवशता, दुश्चिन्तन, दुर्भाषण और दुश्चेष्टा-इन अपराध- स्थानों में तदुभय प्रायश्चित्त से विशोधि होती है। इसी प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र से सम्बन्धित अपराध- पदों में उपयुक्त साधु के भी तदुभय प्रायश्चित्त होता है। सुविहित श्रमण के यतनापूर्वक प्रयत्न करने पर भी कर्मोदय के कारण विराधना हो जाती है, उसके लिए तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ____उपयोगपूर्वक आहार, उपधि आदि लाने पर भी बाद में ज्ञात हो कि वह आहार अशुद्ध था तो उसका विधिपूर्वक परिष्ठापन करना विवेक प्रायश्चित्त है। इसी प्रकार कालातीत, अध्वातीत या सूर्योदय से पूर्व गृहीत आहार को विधिपूर्वक विवेक-परिष्ठापित करता हुआ श्रमण शुद्ध होता है। उसे फिर अन्य प्रायश्चित्त ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं रहती। .. पांचवा प्रायश्चित्त व्युत्सर्ग है। उसके अपराध-स्थान हैं-निष्कारण गमन-आगमन, विहार, श्रुत का उद्देशन, समुद्देशन, सावद्य स्वप्न, नदी-संतार, नौका-संतार, प्रतिक्रमण से सम्बन्धित कायोत्सर्ग आदि। इन सबमें कितने-कितने श्वासोच्छ्वास का व्युत्सर्ग होता है, इसका भी भाष्यकार ने उल्लेख कर दिया है। तप प्रायश्चित्त के अन्तर्गत आगाढ़योग, अनागाढ्योग तथा ज्ञानाचार, दर्शनाचार आदि के अतिचारों का विस्तार से वर्णन हुआ है। चारित्र आचार के अन्तर्गत उद्गम, उत्पादन, एषणा और परिभोगैषणा के दोषों का तथा उसमें प्राप्त उपवास, आयम्बिल आदि प्रायश्चित्तों का भी सूक्ष्म विवेचन हुआ है। यह सारा विस्तार आचार्य ने पिण्डनियुक्ति के आधार पर किया है, ऐसा संभव लगता है। ... तप प्रायश्चित्त के अन्तर्गत जीतकल्प सूत्र की गाथाओं का भी भाष्यकार ने विस्तार किया है, जैसे-धावन, डेवन, क्रीड़ा, कुहावना, गीत, सेण्टिका, पशु-पक्षियों की आवाज आदि करने पर तथा दिवाशयन, ल्हसुनग्रहण, पुस्तक-पंचक, तृण-पंचक, दूष्यपंचक, स्थापनाकुल आदि से सम्बन्धित दोषों में कौनसा तप प्रायश्चित्त मिलता है, इसका जीतव्यवहार के आधार पर वर्णन किया गया है। तप प्रायश्चित्त के Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 जीतकल्प सभाष्य अन्तर्गत और भी अनेक प्रमादों के वर्णन है, जैसे-उपधि गिरने पर, प्रतिलेखना विस्मृत होने पर तथा आचार्य को निवेदन न करने पर क्रमशः निर्विगय, पुरिमार्ध और एकासन प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार गुरु की आज्ञा के बिना स्थापना कुल में प्रवेश और निर्गमन करने पर तथा शक्ति होते हुए भी वीर्य का गोपन करने पर एकासन तप की प्राप्ति होती है। ____ तप प्रायश्चित्त के प्रसंग में ग्रंथकार ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पुरुष के आधार पर किस प्रकार सापेक्ष प्रायश्चित्त देना चाहिए, इसका विस्तार से वर्णन किया है। जहां आहार आदि सुलभ हों, वहां अधिक प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है तथा जहां सामान्य धान्य भी दुर्लभ हो, वहां कम प्रायश्चित्त भी दिया जाता है। पुरुष के आधार पर भिक्षु गीतार्थ है अथवा अगीतार्थ, सहनशील है अथवा असहनशील, शठ है अथवा अशठ, परिणामी है अथवा अपरिणामी, धृतिसंहनन से युक्त है अथवा धृतिसंहनन से रहित तथा आत्मतर, परतर, उभयतर, नोभयतर, अन्यतर आदि पुरुषों का भी वर्णन मिलता है। धृति-संहनन से युक्त को अधिक तथा इससे हीन को कम प्रायश्चित्त दिया जाता है। भाष्यकार ने छह कल्पस्थिति, आचेलक्य आदि दस प्रकार के कल्पों का भी विस्तार से वर्णन किया है। तप प्रायश्चित्त के अन्तर्गत ग्रंथकार ने भंगों के माध्यम से जीतयंत्र का विस्तृत वर्णन किया है। सम्पूर्ण तप प्रायश्चित्त लगभग 1281 गाथाओं में सम्पन्न हुआ है। कहने का तात्पर्य यह है कि आधा ग्रंथ तप प्रायश्चित्त से सम्बन्धित है। तप प्रायश्चित्त के पश्चात् छेद और मूल प्रायश्चित्त के अपराध-स्थानों का वर्णन है। अनवस्थाप्य के दो प्रकार हैं-आशातना और प्रतिसेवना। भाष्यकार ने आशातना के छह स्थानों का सुंदर वर्णन किया है तथा प्रतिसेवना अनवस्थाप्य के साधर्मिक स्तैन्य, अन्यधार्मिक स्तैन्य आदि का विशद विवेचन हुआ है। यह सारा वर्णन उस समय की साधु संस्कृति का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है। पाराञ्चित प्रायश्चित्त-प्राप्ति के कारण बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि अनवस्थाप्य की भांति तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत और आचार्य आदि की आशातना करने वाला पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त करता है, साथ ही दुष्ट, प्रमत्त और अन्योन्य प्रतिसेवना (गुदा सेवन) करने वाला पाराञ्चित प्रायश्चित्त का भागी होता है। ग्रंथ के अंत में भाष्यकार ने इस ग्रंथ के अध्ययन हेतु पात्र और अपात्र की चर्चा प्रस्तुत की है। सम्पूर्ण ग्रंथ अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों को अपने भीतर समेटे हुए है। ग्रंथ वैशिष्ट्य प्रायः भाष्य मूल सूत्र और उसकी नियुक्ति पर व्याख्या रूप में लिखे गए हैं। जीतकल्प सूत्र पर कोई नियुक्ति नहीं लिखी गई इसलिए जीतकल्प भाष्य ही एक मात्र ऐसा ग्रंथ है, जो केवल उसके सूत्र की Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श व्याख्या रूप में लिखा गया है। स्वोपज्ञ भाष्य भी एक मात्र यही प्राप्त होता है। यद्यपि जिनभद्रगणि ने मूलसूत्र के प्रायः प्रत्येक शब्द की व्याख्या प्रस्तुत की है लेकिन यह केवल व्याख्याग्रंथ ही नहीं है, प्रासंगिक रूप से अनेक विषयों का वर्णन होने के कारण स्वतंत्र ग्रंथ जैसा हो गया है। उदाहरणार्थ प्रथम मंगलाचरण गाथा की व्याख्या 705 भाष्य गाथाओं में हुई है, जिसमें ज्ञान पंचक, पांच व्यवहार, अनशन, आचार्य की सम्पदा आदि का विस्तृत वर्णन है। इसी प्रकार 35 वी गाथा की व्याख्या 593 भाष्यगाथाओं में है। इनमें पिण्डैषणा से सम्बन्धित दोष एवं उनके प्रायश्चित्तों का वर्णन है। जिनभद्रगणि प्रकाण्ड दार्शनिक थे अतः उन्होंने कहीं-कहीं अन्य दार्शनिक मतान्तरों का उल्लेख भी इस ग्रंथ में किया है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष के संदर्भ में उन्होंने वैशेषिक मत का उल्लेख करते हुए तर्क और हेतुओं से उसका खण्डन किया है। यह वर्णन उनके बाहुश्रुत्य को प्रकट करने वाला है। जीतकल्पसूत्र एवं उसका भाष्य एक आचार प्रधान ग्रंथ है अतः उन्होंने आचार के क्षेत्र में अन्य आचार्यों के मतभेदों का उल्लेख करके भी इस ग्रंथ को समृद्ध बनाया है, जैसे-प्रायश्चित्त के संदर्भ में उन्होंने संकेत किया है कि कुछ आचार्य वर्तमान में सभी प्रायश्चित्तों का लोप मानते हैं। लेकिन आज भी आठ प्रायश्चित्त विद्यमान हैं, इसकी उन्होंने अनेक हेतुओं एवं दृष्टान्तों से सिद्धि की है। इसी प्रकार अनवस्थाप्य तप के बाद उपस्थापना करने के सम्बन्ध में भी तीन परम्पराओं का अलग-अलग उल्लेख किया है। इस ग्रंथ को पढ़ने से एक प्रश्न उपस्थित होता है कि विशेषावश्यक भाष्य, विशेषणवती और बृहत्संग्रहणी जैसे गंभीर, दार्शनिक और समास-बहुल शैली में लिखे गए ग्रंथों को लिखने वाले आचार्य ने इतनी सरल और पुनरुक्त शैली में इस ग्रंथ की रचना कैसे की? इसका समाधान यही हो सकता है कि विशेषावश्यक भाष्य में उनको गंभीर दार्शनिक चर्चा करनी थी अतः उन्होंने उसी शैली को अपनाया लेकिन जीतकल्प और उसका भाष्य एक आचार परक ग्रंथ है अतः आचारपरक ग्रंथ को सरल, सुबोध और सहज भाषा में लिखना आवश्यक था, तभी वह सभी शिष्यों के हृदयंगम हो सकता था। जीतकल्प भाष्य में कहीं-कहीं पुनरुक्ति देखने को मिलती है, इसका कारण यह है कि उन्होंने मूल जीतकल्प की व्याख्या में भाष्य लिखा है अतः गाथा को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने उसी विषय की पुनरावृत्ति की है। कहीं-कहीं पुनरावृत्ति सहज है लेकिन कहीं-कहीं अधिक विस्तार भी प्रतीत होता है। भाषा शैली का वैशिष्ट्य .. जीतकल्पभाष्य प्राकृत महाराष्ट्री भाषा में रचित पद्यमयी व्याख्या है। जिनभद्रगणि संस्कृत और २.जीभा 14-18 // ३.जीभा 2028-34 / १.बीभा 256 / Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 जीतकल्प सभाष्य प्राकृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे। उनका वैदुष्य उनकी कृतियों में स्पष्टतया दृष्टिगत होता है। यद्यपि यह ग्रंथ सरल, सुबोध प्राकृत भाषा में लिखा गया है फिर भी संस्कृत भाषा का प्रभाव यत्र तत्र दृष्टिगोचर होता है। प्राकृत भाषा में संस्कृत विभक्ति एवं संधि के रूपों का प्रयोग भी कहीं-कहीं किया है, जैसे * भावतया (गा. 85) * मायया (गा. 146) * सोहय (गा. 145) * जद्दवी (गा. 130) जिनभद्रगणि को व्याकरण का भी अच्छा ज्ञान था। प्रसंगवश उन्होंने अनेक शब्दों की मूल धातु का उल्लेख किया है, जैसे-असु वावण धाऊओ (गा. 12), अस भोयणम्मि (गा. 13), तपु लज्जाए धातू (गा. 173), खिव पेरणे (गा. 227), धी धरणे (गा. 657), जीव त्ति पाणधरणे (गा. 704), अंचु गती पूजणयो (गा.७२९), जुजि जोगे (गा.७३२), गुपु रक्खणम्मि (गा. 784), दुत्ति दुगुंछा धातू (गा. 945), पिडि संघाते धातू (गा. 955), आस उवेसण धातू (गा. 981), अरह पूयाए धातू (गा. 982), जम उवरम (गा. 1107), वणि जायणम्मि धातू (गा. 1362) / ग्रंथकार ने संस्कृत संधि के साथ प्राकृत संधि का भी प्रयोग किया है। छंद की दृष्टि से जहां उन्हें मात्रा कम करनी थी, वहां दो या तीन शब्दों की संधि भी कर दी है। उदाहरणार्थ-दव्वस्सिणमो (गा. 2088) होतुवमा (गा. 2000), चत्तारेते (गा. 2034), तेहुवधी (गा. 2319) / जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण को कोश का भी अच्छा ज्ञान था। एक ही शब्द के लिए उन्होंने भिन्नभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न पर्यायवाची शब्दों का सटीक प्रयोग किया है, जैसे- रात्रि के लिए कालिया (गा. 359), सव्वरी (गा. 362), निसि (गा. 2529), राति (गा. 360) इसी प्रकार राजा के लिए पत्थिव (गा. 2569), णरीसर (गा. 2572), राया (गा. 2576), णराहिव (गा.), नरिंद (गा.) जिनभद्रगणि कुशल परिभाषाकार थे। दश प्रायश्चित्त के स्वरूप को प्रकट करने में उन्होंने सटीक परिभाषाएं प्रस्तुत की हैं। परिभाषाओं के लिए देखें परि. सं. 4 / महत्त्वपूर्ण शब्दों के एकार्थक लिखना भाष्यकार का भाषागत वैशिष्ट्य है। प्रसंगवश महत्त्वपूर्ण शब्दों के एकार्थकों का प्रयोग भी भाष्यकार ने किया है, देखें परि. सं.५। एक ही शब्द कितने अर्थों में प्रयुक्त होता है, उसका भी भाष्यकार ने कहीं-कहीं संकेत कर दिया है, जैसे-कल्पशब्द छह अर्थ में प्रयुक्त होता है'–१. सामर्थ्य 2. वर्णन 3. छेदन 4. करण 5. औपम्य और 6. अधिवास। 1. देखें जीभा 718-29 / 2. जीभा 2592 ; सामत्थे वण्णणाए य, छेदणे करणे तहा। ओवम्मे अहिवासे य, कप्पसद्दो तु वण्णितो।। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श एक ही उपसर्ग अनेक अर्थों में प्रयुक्त हो सकता है। प्रस्तुत प्रसंग में प्रयुक्त उपसर्ग किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उसका भी भाष्यकार ने कहीं-कहीं निर्देश कर दिया है, जैसे * वि–विण्णाणाभावम्मि (गा. 227) •सं-सं एगीभावम्मी (गा. 657) * आ-आ मज्जाया (गा. 718) _ •णि-णिसद्दो तहाऽहिगत्थम्मि (गा. 809) भाष्यकार ने मूलसूत्र के प्रायः सभी शब्द का अर्थ स्पष्ट किया है। यहां तक कि 'पुण' आदि अवयवों का भी अर्थ स्पष्ट किया है। * पादू पगासणम्मी (गा. 1238) * पुणसद्दो तु विसेसणे (गा. 2597) भाष्यकार ने अनेक शब्दों के निरुक्त भी प्रयुक्त किए हैं, देखें परि. सं. 6 / उपमा, लौकिक दृष्टान्त, उदाहरण और न्याय के प्रयोग से भाषा में विचित्रता और सरसता पैदा हो गई है। भाष्यकार ने अनेक जटिल सैद्धान्तिक विषयों को भी नयी उपमाओं और दृष्टान्तों के माध्यम से समझाया है, देखें परि. सं.७। ग्रंथ में अनेक महत्त्वपूर्ण सूक्त और सुभाषितों का प्रयोग भी हुआ है, देखें परि. सं. 8 / कहीं-कहीं दो शब्दों के अर्थभेद को भी स्पष्ट किया है, देखें परि.सं.९। ' प्रसंगवश भाष्यकार ने स्वास्थ्य और चिकित्सा के तथ्यों को भी प्रस्तुत किया है, जो आयुर्वेद की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, देखें परि. सं. 10 / भाष्यकार ने अनेक देशी शब्दों का प्रयोग भी किया है, देखें परि. सं. 11 / भाष्यकार ने प्रायः व्यास-विस्तृत शैली को अपनाया है। अनेक स्थलों पर उन्होंने द्वारगाथा में संक्षेप में विषयों का संकेत देकर फिर एक-एक द्वार की व्याख्या की है। . ... जहां भाष्यकार ने बृहत्कल्पभाष्य आदि की गाथाओं को अपने ग्रंथ का अंग बनाया है, वहां उन्होंने नियुक्ति और भाष्य सहित पूरे प्रकरण को उद्धृत कर दिया है। इससे कहीं-कहीं पुनरुक्ति भी प्रतीत हो सकती है क्योंकि प्रकाशित बृहत्कल्पभाष्य में नियुक्ति और भाष्य दोनों एक ग्रंथ हो गए हैं, जैसेराजपिण्ड की व्याख्या करने वाली गाथाएं (जीभा 1998-2014), जो बृहत्कल्पभाष्य (6381-97) से ली गई हैं। कथाओं का प्रयोग * किसी भी कथ्य को स्पष्ट करने के लिए कथाओं का प्रयोग प्राचीन शैली रही है। इसके द्वारा सरल और सरस शैली में अभिधेय को प्रकट किया जा सकता है। भाष्यकार का शैलीगत वैशिष्ट्य रहा है कि उन्होंने विषय के स्पष्टीकरण हेतु कथाओं का सहारा लिया है। पिण्ड के दोषों से सम्बन्धित प्रायः Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 जीतकल्प सभाष्य कथाओं का विस्तार पिण्डनियुक्ति की मलयगिरीया टीका एवं निशीथ भाष्य से किया गया है। समिति और गुप्ति से सम्बन्धित प्रायः कथानकों का विस्तार भाष्यकार ने स्वयं किया है। नंदिषेण की कथा लगभग बीस' गाथाओं में है। भाष्यकार ने कथाओं के माध्यम से सैद्धान्तिक विषयों की भी सुन्दर प्रस्तुति दी है। कथाओं के विस्तार हेतु देखें परि. सं. 2 / जीतकल्प चूर्णि एवं व्याख्या ग्रंथ ____ जीतकल्पसूत्र पर आचार्य सिद्धसेन ने चूर्णि लिखी है। संक्षिप्त होते हुए भी चूर्णि में गाथा की अच्छी व्याख्या है। चूर्णि में भाष्य गाथाओं का उल्लेख नहीं है, इससे यह संभावना की जा सकती है कि भाष्य से पूर्व ही चूर्णि लिखी जा चुकी थी। चूर्णिकार आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के बाद के हैं। सिद्धसेन दिवाकर जिनभद्रगणि से भी पूर्ववर्ती हैं। पंडित दलसुखभाई मालवणिया का अभिमत है कि बृहत्क्षेत्रसमास के टीकाकार और चूर्णिकार एक ही सिद्धसेन होने चाहिए अतः ये उपकेश गच्छ के देवगुप्त सूरि के शिष्य तथा यशोदेवसूरि के गुरु भाई थे। ___ आचार्य सिद्धसेन की चूर्णि के निम्न उद्धरण 'बितियचुन्निकाराभिप्पाएण' 'बिइयचुण्णिकारमएण पोत्थय से यह ज्ञात होता है कि इस पर एक चर्णि और लिखी गई लेकिन वर्तमान में वह उपलब्ध नहीं है। यदि दूसरे चूर्णिकार जिनदास की कृतियों के लिए यह निर्देश किया हो तो वह अन्वेषण का विषय है। वि. सं. 1227 में श्रीचंदसूरि ने जीतकल्प सूत्र पर 'विषमपद व्याख्या' नामक व्याख्या लिखी। संस्कृत भाषा में लिखी यह व्याख्या अनेक महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों को हृदयंगम करने में सहायक है। जीतकल्प पर 1700 श्लोक प्रमाण एक टीका तिलकाचार्य ने लिखी थी, जो वि. सं. 1275 में पूर्ण हुई। ये तिलकाचार्य शिवप्रभसूरि के शिष्य थे। जिनरत्नकोश के अनुसार इस पर एक अवचूरि भी लिखी गई, जिसका कर्तृत्व अभी अज्ञात है। जीतकल्प भाष्य पर पूर्ववर्ती ग्रंथों का प्रभाव पांच व्यवहार, आचार्य की गणिसंपदाएं, संलेखना, भक्तपरिज्ञा आदि तीनों पंडित मरण आदि विषयों का वर्णन भाष्यकार ने व्यवहारभाष्य से लिया है क्योंकि प्रायः गाथाएं कुछ शब्दभेद के साथ अक्षरशः मिलती हैं। साधु की भिक्षाचर्या एवं उसके दोषों का वर्णन आचारचूला, स्थानांग, भगवती और दशवैकालिक आदि ग्रंथों में मिलता है। पिण्डनियुक्ति में नियुक्तिकार ने व्यवस्थित रूप से भिक्षाचर्या के दोषों का वर्णन किया है। निशीथ सूत्र एवं उसके भाष्य में भिक्षाचर्या से सम्बन्धित विशद सामग्री है। भाष्यकार ने 1. जीभा 826-46 / २.जीचू पृ. 19 / Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 33 पिण्डनियुक्ति और निशीथ भाष्य से प्रभावित होकर उसके आधार पर यह सारा वर्णन किया है। कुछ दोषों के प्रायश्चित्तों का वर्णन निशीथ और बृहत्कल्प भाष्य में विकीर्ण रूप से मिलता है लेकिन भाष्यकार ने सुसम्बद्ध तरीके से भिक्षाचर्या के दोष एवं उनके भेद-प्रभेदों के प्रायश्चित्त निर्दिष्ट कर दिए हैं। उन्होंने दोषों के क्रम से प्रायश्चित्त का निरूपण नहीं करके तप प्रायश्चित्त के आधार पर दोष और उनके प्रायश्चित्तों का निर्देश किया है, जैसे उपवास प्रायश्चित्त से सम्बन्धित जितने दोष हैं, उनका एक ही स्थान पर समाहार कर दिया है। छह कल्पस्थिति, दशकल्प तथा अंतिम दो प्रायश्चित्त-अनवस्थाप्य और पारांचित आदि विषयों से सम्बन्धित गाथाएं बृहत्कल्पभाष्य और निशीथभाष्य तथा कुछ विषय व्यवहारभाष्य से भी समुद्धृत हैं, यह कहा जा सकता है। परवर्ती अन्य ग्रंथों पर प्रभाव प्राचीन साहित्य की एक विशेषता रही है कि लेखक किसी भी ग्रंथ के किसी अंश को बिना किसी नामोल्लेख के अपने ग्रंथ का अंग बना लेते थे। यह उस समय साहित्यिक चोरी नहीं मानी जाती थी। अनेक ग्रंथों के समान अंशों को देखकर आज यह निर्णय करना कठिन होता है कि कौन किससे प्रभावित है? जीतकल्प एवं उसके भाष्य से परवर्ती अनेक ग्रंथ प्रभावित हुए हैं। .. दिगम्बर ग्रंथ छेदपिण्ड और छेदसूत्र आदि ग्रंथ निशीथ, व्यवहार एवं जीतकल्प आदि ग्रंथों से प्रभावित होकर लिखे गए हैं। छेदपिण्ड में स्पष्ट उल्लेख है कि ये दशविध प्रायश्चित्त जो कल्प और व्यवहार में वर्णित हैं तथा जीतकल्प में जो पुरुषभेद के आधार पर प्रायश्चित्त देने का विधान है, उसी आधार पर यह वर्णन किया गया है। सोमप्रभसूरि ने यतिजीतकल्प तथा आचार्य मेरुतुंग ने जीतकल्पसार ग्रंथ जीतकल्प के आधार पर लिखा है, ऐसा विद्वानों का मंतव्य है। - इस भूमिका में मारणान्तिक संलेखना, अनशन, आचार्य की गणि-सम्पदा, समिति-गुप्ति, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, छह कल्प स्थिति में जिनकल्प, स्थविरकल्प, निर्विशमानक, निविष्टकायिक (परिहार विशुद्धि तप) आदि विषयों के बारे में विस्तार से लिखना था लेकिन ग्रंथ का आकार बृहद् होने से इन विषयों पर प्रकाश नहीं डाला जा सका। फिर भी पांच व्यवहार, प्रतिसेवना और दश प्रायश्चित्त के बारे में विस्तार से लिखा जा रहा है। व्यवहार - व्यवहार शब्द अनेक अर्थों में प्रचलित है। शुक्रनीतिसार में व्यवहार शब्द विवाद (मुकदमा 1. छेदपिण्ड 288; 2. बृहहिदीकोश पृ. 1098, शब्दकल्पद्रुम भाग 4 एवं दसविधपायच्छित्तं, भणियं तु कप्प-ववहारे। पृ. 534-43 / जीदम्मि पुरिसभेदं, णाउं दायव्वमिदि भणियं / / Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 जीतकल्प सभाष्य करना) के अर्थ में निर्दिष्ट है। अमर कोश एवं अभिधानचिन्तामणि कोश में व्यवहार शब्द विवाद अर्थ में प्रयुक्त है। आप्टे ने व्यवहार शब्द का अर्थ Administration of Justice किया है। लौकिक दृष्टि में व्यवहार शब्द आचरण के अर्थ में अधिक प्रयुक्त होता है। व्यवहार शब्द व्यापार के लिए भी प्रयुक्त होता है। प्राचीन काल में आयात-निर्यात संबंधी व्यापक व्यापार के लिए व्यवहार शब्द का प्रयोग होता था तथा स्थानीय क्रय-विक्रय के लिए पण शब्द प्रयोग होता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में व्यवहार शब्द न्याय के अर्थ में प्रयुक्त है। याज्ञवल्क्य स्मृति के दूसरे अध्याय का नाम ही व्यवहार है, जिसमें दण्डसंहिता का वर्णन है। उसके अनुसार स्मृति और आचार के प्रतिकूल मार्ग से दूसरे के द्वारा पीड़ित होने पर राजा को निवेदन करना व्यवहार है। आवश्यक हारिभद्रीय टीका में भी व्यवहार शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त है। विशेषावश्यक भाष्य में नय के प्रसंग में व्यवहार शब्द के निम्न अर्थों का उल्लेख है-१. प्रवृत्ति 2. प्रवृत्तिकर्ता 3. जिससे सामान्य का निराकरण किया जाए 4. सामान्य लोगों द्वारा आचरित 5. सब द्रव्यों के अर्थ का विनिश्चय।' आचार्य मलयगिरि ने व्यवहार के तीन एकार्थकों का उल्लेख किया है, जिससे व्यवहार शब्द का अर्थ आचार फलित होता है। व्यवहार शब्द भिन्न-भिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। दशवैकालिक नियुक्ति में आक्षेपणी कथा के चार भेदों में दूसरी कथा का नाम व्यवहार आक्षेपणी है। सत्य के दस भेदों में एक नाम व्यवहार सत्य है। राशि के दो प्रकारों में एक नाम व्यवहार राशि है। गणित के दस भेदों में एक भेद व्यवहार है, जिसे पाटी गणित भी कहते हैं।२ समयसार में नय की प्ररूपणा में व्यवहार शब्द का अर्थ अभूतार्थ-अयथार्थ किया है।३।। ___ कात्यायन ने व्यवहार शब्द के तीन घटकों का निरुक्तपरक अर्थ इस प्रकार किया है-वि+अव हार अर्थात् जो नाना प्रकार से संदेहों का हरण करता है, वह व्यवहार है। प्राकृत में वव+हार-इन दो शब्दों से व्यवहार शब्द की निष्पत्ति मानी गयी है। व्याख्याकारों ने अनेक रूपों में व्यवहार शब्द को व्याख्यायित किया है १.शुक्र 4/5/64 / 10. अभयदेवसूरि के अनुसार जिसमें व्यवहार प्रायश्चित्त का 2. अमर 1/6/9 / निरूपण हो, वह व्यवहार आक्षेपणी है। (देखे स्था 3. अभिधान 2/176 / 4/247 टी प.२००), यहां कुछ आचार्यों ने व्यवहार 4. सू 1/3/25 ; हिरण्णं ववहाराइ, तं पि दाहामु ते वयं। शब्द को ग्रंथ विशेष का द्योतक भी माना है। (देखें 5. याज्ञ 2/5 / स्था 4/247 टी. प. 200) 6. आवहाटी 1 पृ.८६। ११.स्था 10/89 / 7. विभा 2212, महेटी पृ. 453 / १२.स्था 10/100 / 8. व्यभा 153 मटी. प.५१; कल्पो व्यवहार आचार इत्यन- 13. समयसार 13 / र्थान्तरम्। 14. कात्या स्मृति; वि नानार्थेऽव संदेहे, हरणं हार उच्यते। 9. दशनि 167 / नानासंदेहहरणाद्, व्यवहार इति स्थितिः।। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श * दो व्यक्तियों में विवाद होने पर जो वस्तु जिसकी नहीं है, उससे वह वस्तु लेकर जिसकी वह वस्तु है, उसे देना, यह जो वपन-हरणात्मक व्यापार है, वह व्यवहार कहलाता है। मनुस्मृति की मिताक्षरा टीका में भी व्यवहार शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त है। * 'विविहं वा विहिणा वा, ववणं हरणं च ववहारो'३ अर्थात् विविध प्रकार से विधिपूर्वक अतिचारहरण हेतु तप, अनुष्ठान आदि का वपन/दान करना व्यवहार है।' * 'जेण य ववहरति मुणी, जं पि य ववहरति सो वि ववहारो' अर्थात् जिसके द्वारा मुनि आगम आदि व्यवहार का प्रयोग करता है, वह व्यवहार है अथवा जिस व्यवहर्त्तव्य का मुनि प्रयोग करता है, वह भी व्यवहार है। •"विविधो वा अवहारः व्यवहार :' अर्थात् विविध प्रकार से अपहार करना व्यवहार है। भाष्य में व्यवहार के चार एकार्थक प्राप्त हैं -1. व्यवहार 2. आलोचना 3. शोधि 4. प्रायश्चित। यद्यपि इनको एकार्थक नहीं माना जा सकता किन्तु व्यवहार विशोधि का कारण है और ये चारों शब्द विशोधि को क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैं अतः प्रस्तुत ग्रंथ में व्यवहार शब्द आलोचना, शोधि एवं प्रायश्चित्त–इन तीनों अर्थों में प्रयुक्त है। . भाष्यकार ने भाव व्यवहार के नौ एकार्थकों का उल्लेख किया है-१. सूत्र 2. अर्थ 3. जीत 4. कल्प 5. मार्ग 6. न्याय 7. ईप्सितव्य 8. आचरित 9. व्यवहार। भाष्यकार ने स्वयं यहां एक प्रश्न उपस्थित किया है कि ये एकार्थक जीतव्यवहार के सूचक हैं फिर इसके लिए भाव व्यवहार के एकार्थकों का उल्लेख क्यों किया? प्रश्न का समाधान करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि सूत्र शब्द से आगम और श्रुत व्यवहार गृहीत हैं। अर्थ शब्द से आज्ञा और धारणा व्यवहार का ग्रहण है। तथा शेष शब्द जीतव्यवहार के द्योतक हैं। व्यवहार के भेद निर्ग्रन्थों एवं संयतों के लिए दो प्रकार के व्यवहारों का उल्लेख है-आभवद् व्यवहार और 1. व्यभा 5, टी पृ.५; यस्य यन्नाभवति, तस्मात् तद् हृत्वा 4. उशांटी प 64; व्यवहारः प्रमादात् स्खलितादौ प्रायश्चित्त आदाय, यस्याभवति तस्मै द्वितीयाय वपति- प्रयच्छति दानरूपमाचरणम् / ........इति व्यवहारः। ५.व्यभा 3888 / 2. मनु मिटी ; 6. बृचू अप्रकाशित। . परस्परं मनुष्याणां, स्वार्थविप्रतिपत्तिषु। 7. व्यभा 1064 / वाक्यान्यायाद्यवस्थानं, व्यवहार उदाहृतः।। ८.व्यभा 7 / ३.व्यभा३। ९.व्यभापी.टी.प.७; द्वावप्यर्थात्मकत्वादर्थग्रहणेन सूचितौ। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य प्रायश्चित्त व्यवहार। सचित्तादि वस्तु को लेकर जो व्यवहार होता है, वह आभवद् व्यवहार है तथा प्रतिसेवना का आचरण करने पर अपराधी के प्रति जो व्यवहार किया जाता है, वह प्रायश्चित्त व्यवहार कहलाता है। आभवद व्यवहार के पांच प्रकार हैं-१. क्षेत्र, 2. श्रुत, 3. सुख-दुःख, 4. मार्ग, 5. विनय। पंचकल्पभाष्य में आभवद् व्यवहार के भेद इस प्रकार मिलते हैं-१. सचित्त 2. अचित्त 3. मिश्र 4. क्षेत्रनिष्पन्न 5. काल-निष्पन्न। प्रायश्चित्त व्यवहार के आज्ञा, श्रुत आदि पांच भेद हैं। ग्रंथकार ने आगम आदि पांचों व्यवहारों को द्वादशांग का नवनीत कहा है, जिसका निर्वृहण चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु ने द्वादशांगी से किया। भाष्यकार ने व्यवहार का महत्त्व यहां तक बता दिया कि जिसके मुख में एक लाख जिह्वा हों, वह भी व्यवहार के बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्रस्तुत नहीं कर सकता। ___ व्यवहार का मूल अर्थ है-करण अर्थात् न्याय के साधन / वे पांच हैं-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत। पांच व्यवहारों का उल्लेख स्थानांग एवं भगवती सूत्र में भी मिलता है। प्रसंग देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि व्यवहार सूत्र से ही यह पाठ स्थानांग एवं भगवती सूत्र में संक्रान्त हुआ है। व्यवहार पंचक का प्रयोग व्यवहार पंचक के प्रयोग के विषय में आगम में स्पष्ट उल्लेख है कि जहां आगम व्यवहार हो, वहां आगम से व्यवहार की प्रस्थापना करे, जहां आगम न हो वहां श्रुत से, जहां श्रुत न हो वहां आज्ञा से, जहां आज्ञा न हो वहां धारणा से तथा जहां धारणा न हो, वहां जीत से व्यवहार की प्रस्थापना करे। अर्थात् जिस समय जिस व्यवहार की प्रधानता हो, उस समय उस व्यवहार का प्रयोग राग-द्वेष से मुक्त होकर तटस्थ भाव से करना चाहिए। भाष्य में स्पष्ट उल्लेख है कि अनुक्रम से व्यवहार पंचक का प्रयोग विहित है। पश्चानुपूर्वी क्रम से या विपरीत क्रम से व्यवहार का प्रयोग करने वाला चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। आचार्य मलयगिरि ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि जिस समय 'पंचविहे ववहारे पण्णत्ते'....सूत्र की रचना की, उस समय आगम व्यवहार था, फिर उन्होंने श्रुत, आज्ञा आदि व्यवहारों की प्ररूपणा क्यों की? इसका उत्तर देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि सूत्र का विषय अनागत काल भी होता है। आगमव्यवहारी १.पंकभा 2393 / 4. व्यभा 4551 २.जीभा 560, व्यभा 4431 / को वित्थरेण वोत्तूण, समत्थो निरवसेसिते अत्थे। 3. यहां यह उल्लेख देना आवश्यक है कि भाष्यगत व्यवहार' ववहारो जस्स मुहे, हवेज्ज जिब्भासतसहस्सं।। शब्द का अर्थ टीकाकार मलयगिरि ने व्यवहारसूत्र किया ५.व्यभा 2 ; ववहारो होति करणभूतो उ। है लेकिन यहां व्यवहार शब्द पांच व्यवहार का वाचक ६.स्था 5/124, भ. 8/301 / होना चाहिए। (जीभा 696, व्यभा 4551) 7. व्यसू 10/6 / ८.व्यभा 3883 / Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श जानते हैं कि भविष्य में ऐसा समय भी आएगा, जब आगम का विच्छेद हो जाएगा। जिस काल में जो व्यवहार विच्छिन्न हो, उस समय अव्यवच्छिन्न व्यवहार का यथाक्रम से प्रयोग किया जाता है। - इसी प्रकार क्षेत्र और काल के अनुसार जहां जो व्यवहार संभव हो, उसी का प्रयोग करना चाहिए अथवा जिस क्षेत्र में युगप्रधान आचार्यों द्वारा जो व्यवस्था दी गई हो, उसी का व्यवहार करना चाहिए। संघ में व्यवहार के प्रयोग में और भी अनेक बातों का ध्यान रखा जाता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैयावृत्त्य-इन पांच प्रकार की उपसंपदाओं तथा क्षेत्र, काल और प्रव्रज्या का अवबोध कर संघ में व्यवहार करना चाहिए। . जैन आचार्यों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार नियम एवं प्रायश्चित्तों का विधान किया। इसीलिए नियम एवं प्रायश्चित्त-दान में कहीं रूढ़ता का वहन नहीं हुआ। मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि पर ही उन्होंने पांच व्यवहारों की प्रस्थापना की, ऐसा कहा जा सकता है। आगम व्यवहार जिसके द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थ जाने जाते हैं, वह आगम है। ज्ञान पर आधारित होने के कारण प्रथम व्यवहार का नाम आगम व्यवहार है। ज्ञान और आगम दोनों एकार्थक हैं। कारण में कार्य का उपचार करने से जो ज्ञान के साधन हैं, वे भी आगम कहलाते हैं। आगम व्यवहार के भेद-प्रभेदों को निम्न चार्ट से प्रदर्शित किया जा सकता है आगम व्यवहार प्रत्यक्ष परोक्ष इन्द्रिय ... नोइन्द्रिय... चौदहपूर्वी दशपूर्वी नवपूर्वी पांच इन्द्रियों से होने वाला लपादि का ज्ञान अवधि, मनःपर्यव, केवल - - १.व्यमा 3885/ ___अनिश्रोपश्रितं व्यवहर्त्तव्यम्। २.(क) भटी प.३८५ ; यदा यस्मिन् अवसरे यत्र प्रयोजने वा 3. व्यभा 1692 / क्षेत्र वा यो य उचितस्तं तदाकाले तस्मिन् प्रयोजनादौ। ४.भटी.प.३८४: आगम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते अतीन्द्रिया अर्था (ज) व्यमा 3385 मटी प. 10 ; तत्रापि व्यवहारः क्षेत्र अनेनेत्यागम उच्यते। कालच प्राप्य यो यथा संभवति, तेन तथा व्यवहरणीयम्। ५.व्यभा 4036; नातं आगमियं ति य एगटुं। का क्षेत्र युगप्रधानाचार्यः या व्यवस्था व्यवस्थापिता तथा 6. जीभा 9, 10, 23 / Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अक्ष का अर्थ आत्मा किया है अर्थात् जो ज्ञान सीधा आत्मा से होता है, वह प्रत्यक्ष है। अक्ष का अर्थ इन्द्रिय भी होता है, जो ज्ञान आत्मा के अतिरिक्त इन्द्रिय आदि से होता है, वह परोक्ष है। प्रश्न उपस्थित होता है कि आगम व्यवहार में इन्द्रिय प्रत्यक्ष का ग्रहण क्यों किया गया? इसका समाधान जीतकल्पभाष्य में प्राप्त होता है। भाष्यकार जिनभद्रगणि लिखते हैं कि प्रत्यक्ष आगमव्यवहारी (चतुर्दशपूर्वी आदि) भी श्रोत्रेन्द्रिय से दूसरे की प्रतिसेवना सुनकर, चक्षु से दूसरे को अनाचार का सेवन करते देखकर, घ्राण द्वारा धूप आदि की गन्ध से चींटी आदि की विराधना जानकर, कंदादि को खाते देखकर, अंधकार में स्पर्श से अभ्यंग आदि को जानकर इन्द्रिय प्रत्यक्ष से व्यवहार का प्रयोग करते हैं अतः आगम व्यवहार के अन्तर्गत इंद्रिय प्रत्यक्ष का ग्रहण किया गया है। नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष का विस्तृत वर्णन जीतकल्पभाष्य में मिलता है। आगम व्यवहार का प्रयोग करने वाला अठारह वर्जनीय स्थानों का ज्ञाता, छत्तीस गुणों में कुशल', आचारवान् आदि गुणों से युक्त', आलोचना आदि दश प्रायश्चित्तों का ज्ञाता', आलोचना के दश दोषों का ज्ञायक', षट्स्थानपतित स्थानों को साक्षात् रूप से जानने वाला तथा राग-द्वेष रहित होता है। जैसे सूर्य के प्रकाश के समक्ष दीपक का प्रकाश नगण्य है, उसके समक्ष कोई दीपक के प्रकाश का प्रयोग नहीं करता, वैसे ही आगम व्यवहारी आगम व्यवहार का ही प्रयोग करते हैं, श्रुत आदि व्यवहार का नहीं। आगमव्यवहारी अतिशयज्ञानी होते हैं अत: वे प्रतिसेवी व्यक्ति के संक्लिष्ट, विशुद्ध एवं अवस्थित परिणामों को साक्षात् जान लेते हैं इसलिए वे उतना ही प्रायश्चित्त देते हैं, जितने से आलोचक की विशुद्धि हो सके। आगम व्यवहारी छ: हैं केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी एवं नौ पूर्वी। केवलज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी एवं अवधिज्ञानी आगमतः प्रत्यक्ष व्यवहारी हैं। चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी, 1. जीभा 11; श्रुतविनय, विक्षेपणाविनय, दोषनिर्घातनविनय आदि चार जीवो अक्खो तं पति, जं वट्टति तं तु होति पच्चक्खं। विनय-प्रतिपत्तियां होती हैं। ये आचार्य के छत्तीस गुण परतो पुण अक्खस्सा, वढूतं होति पारोक्खं / / कहलाते हैं। (देखें जीभा 160-241) २.जीभा 20-22 / ६.स्था 10/72, व्यभा 520 / 3. जीभा 23-108 / ७.स्था 10/73, व्यभा 4180 / 4. व्रतषट्क, कायषट्क, अकल्प-समाचरण, गृहिभाजन का ८.स्था 10/70, व्यभा 523 / प्रयोग, पर्यंक, भिक्षा के समय गृहस्थ के घर में बैठना, ९.व्यभा 3884 / स्नान, विभूषा–ये अठारह वर्जनीय स्थान हैं। (देखें व्यभा १०.जीचू पृ.४; आगमववहारी अइसइणो संकिलिस्समाणं 4074) विसुज्झमाणं अवट्ठियपरिणाम वा पच्चक्खमुवलभन्ति, 5. आचार्य की आचार, श्रुत आदि आठ सम्पदाओं के चार- तावइयं च से दिन्ति जावइएण विसुज्झइ / चार गुण होते हैं। उनके 32 प्रकार हैं तथा आचारविनय, Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 39 नवपूर्वी एवं गंधहस्ती आचार्य आगमतः परोक्ष व्यवहार का प्रयोग करते हैं। जो आगमव्यवहारी गुणप्रत्ययिक अवधिज्ञानी होते हैं, वे अवधिज्ञान से तथा जो ऋजुमति और विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी होते हैं, वे मनःपर्यवज्ञान से व्यवहार की शोधि करते हैं। केवलज्ञानी केवलज्ञान से व्यवहार करते हैं।' यहां एक प्रश्न उपस्थित होता है कि चतुर्दशपूर्वी आदि श्रुत से व्यवहार करते हैं तो फिर उन्हें आगमव्यवहारी क्यों कहा गया? रूपक के माध्यम से इसका समाधान करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि चतुर्दशपूर्वी आदि प्रत्यक्ष आगम के सदृश हैं इसलिए इन्हें आगम व्यवहार के अन्तर्गत गिना है। जैसे चन्द्र के समान मुख वाली कन्या को चन्द्रमुखी कहा जाता है, वैसे ही आगम सदृश होने के कारण पूर्वो के ज्ञाता भी आगम व्यवहार के अन्तर्गत समाविष्ट हो जाते हैं। इसका दूसरा हेतु यह है कि पूर्वो का ज्ञान अतीन्द्रिय पदार्थों का विशिष्ट अवबोधक होता है, अतिशायी ज्ञान होने के कारण इसे आगम व्यवहार के अन्तर्गत लिया गया है, जैसे केवली सब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से पदार्थों को जानते हैं, वैसे श्रुतज्ञानी भी इनको श्रुत के बल से जान लेते हैं अतः चतुर्दशपूर्वी आदि को आगम व्यवहारी के अन्तर्गत रखा है। जिस प्रकार प्रत्यक्ष आगमव्यवहारी प्रतिसेवना करने पर राग-द्वेष विषयक हानि-वृद्धि के आधार पर कम या ज्यादा प्रायश्चित्त देते हैं। उपवास जितने प्रायश्चित्त की प्रतिसेवना करने पर पांच दिन का प्रायश्चित्त दे सकते हैं तथा पांच दिन जितनी प्रतिसेवना करने वाले को उपवास का प्रायश्चित्त दे सकते हैं, वैसे ही चतुर्दशपूर्वी आदि भी आलोचक की राग-द्वेष की वृद्धि एवं हानि के आधार पर प्रायश्चित्त प्रदान करते हैं। एक प्रश्न यह भी उपस्थित होता है कि प्रत्यक्ष आगमव्यवहारी तो प्रतिसेवक के भावों को साक्षात् जानते हैं लेकिन चतुर्दशपूर्वी आदि परोक्ष आगम व्यवहारी दूसरों के भावों को कैसे जानकर व्यवहार करते हैं? इस प्रश्न के समाधान में भाष्यकार ने नालीधमक का उदाहरण प्रस्तुत किया है। जैसे नालिका से पानी गिरने पर समय की अवगति होती है। नालिका द्वारा समय जानकर धमक शंख बजाकर दूसरों को भी समय की सूचना देता रहता है, वैसे ही परोक्षागम व्यवहारी भी दूसरों की शोधि और आलोचना को सुनकर आलोचक के यथावस्थित भावों को जान लेते हैं। वे आलोचक को पश्चात्ताप की उत्कटता, अनुत्कटता के आधार पर प्रायश्चित्त देते हैं, जैसे परोक्ष आगम व्यवहारी श्रुतबल से जीव, अजीव आदि की पर्यायों को १.जीभा 112, व्यभा 4037 / श्रुतत्वेऽप्यतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वा२.व्यभा 4032, 4033 / दागमव्यपदेश: केवलवदिति / 3. जीभा 108, व्यभा 4034 / ६.जीभा 114, व्यभा 4039 / 4. जीभा 110, व्यभा 4035, मटी प. 31 / 7. व्यभा 4040,4041 / 5. भटी प. 384 ; श्रुतं शेषमाचारप्रकल्पादिनवादिपूर्वाणां च ८.जीभा 121, 122, व्यभा 4046, 4047 / Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 जीतकल्प सभाष्य सब नयों से जानते हैं, वैसे ही दूसरों के भावों को भी श्रुतबल से जानकर उसकी शोधि के लिए प्रायश्चित्त देते हैं। भाष्यकार ने इस बात को एक रूपक से स्पष्ट किया है। जैसे चक्रवर्ती का प्रासाद वर्धकि रत्न द्वारा निर्मित होता है, उसे देखकर सामान्य राजा भी अपने वर्धकियों से प्रासाद का निर्माण करवाते हैं। उनके प्रासाद की शोभा उतनी नहीं होती फिर भी वे प्रासाद कहलाते हैं। इसी प्रकार प्रत्यक्ष आगमव्यवहारी की भांति परोक्षज्ञानी भी व्यवहार करते हैं।' श्रुत व्यवहार श्रुत व्यवहार में श्रुत का अनुवर्तन होता है। जो आचार्य या मुनि कल्प और व्यवहार के सूत्रों को बहुत पढ़ चुका है और उसके अर्थ को सूक्ष्मता से जानता है तथा दोनों ग्रंथों की नियुक्ति को अर्थतः जानता है, वह श्रुतव्यवहारी कहलाता है। टीकाकार के अनुसार कुल, गण आदि में करणीय-अकरणीय का प्रसंग उपस्थित होने पर पूर्वो से कल्प और व्यवहार का नि!हण किया गया। इन दोनों सूत्रों का निमज्जन करके, व्यवहार-विधि के सूत्र का स्पष्ट उच्चारण कर, उनके अर्थ का अवगाहन कर जो प्रायश्चित्त का विधान किया जाता है, वह श्रुतव्यवहार है। जीतकल्प चूर्णि के अनुसार पूर्वधर (1 से 8 पूर्व), 11 अंग के धारक, कल्प, व्यवहार तथा अवशिष्ट श्रुत के अर्थधारक मुनि श्रुतव्यवहार का प्रयोग करते हैं। जिस प्रकार कुशल चिकित्सक रोग के अनुसार औषध देता है, अधिक या कम नहीं, वैसे ही आगमव्यवहार एवं श्रुतव्यवहार का प्रयोग करने वाले जितने प्रायश्चित्त से व्यक्ति की शुद्धि होती है, उतना ही प्रायश्चित्त देते हैं। आज्ञा व्यवहार भक्त-प्रत्याख्यान में संलग्न, विशोधि एवं शल्योद्धरण का इच्छुक आचार्य या मुनि दूरस्थित छत्तीस गुण सम्पन्न आचार्य से आलोचना करना चाहता है। ऐसी अवस्था में आज्ञा व्यवहार की प्रयोजनीयता होती है। आज्ञा व्यवहार को व्याख्यायित करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि विशोधि का इच्छुक आचार्य या मुनि जब शोधिकारक आचार्य के समीप जाने में असमर्थ हो तथा शोधिकारक आचार्य भी जब शोधिकर्ता १.जीभा 123, व्यभा 4048 / २.जीभा 269-73 / 3. जीचू पृ. 4; आणाववहारो वि सुयववहाराणुसरिसो। 4. जीभा 561-64, व्यभा 4432-35 / ---५.व्यभा 4436 मटी.प.८१; कुलादिकार्येषु व्यवहारे उपस्थिते यद् भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पव्यवहारात्मकं सूत्रं नियूढं तदेवानमज्जननिपुणतरार्थे परिभावनेन तन्मध्ये प्रविशन् व्यवहारविधिं यथोक्तं सूत्रमुच्चार्य तस्यार्थे निर्दिशन् यः / प्रयुंक्ते स श्रुतव्यवहारी धीरपुरुषैः प्रज्ञप्तः। 6. नवपूर्वी तक आगमव्यवहारी होते हैं। ७.जीचू पृ.२ ;सुयववहारो पुण अवसेसपुव्वी एक्कारसंगिणो आकप्पववहारा अवसेससुए य अहिगयसुत्तत्था सुयववहारिणो त्ति। ८.व्यभा 326 / Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श के पास जाने में असमर्थ हो, उस स्थिति में शोधि का इच्छुक आचार्य अपने शिष्य को दूरस्थित शोधिकारक आचार्य के पास भेजकर शोधि की प्रार्थना करता है। तब आचार्य परीक्षा करके अपने आज्ञापरिणामक, धारणाकुशल तथा सूत्रार्थ के ज्ञाता शिष्य को उनके पास भेजते हैं। आचार्य द्वारा प्रेषित वह धारणा कुशल शिष्य आलोचक के ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र सम्बन्धी अतिचारों को सम्यक् प्रकार से सुनता है तथा दर्प विषयक और कल्प विषयक प्रतिसेवना को अच्छी तरह धारण करता है तथा आलोचक की अर्हता, संयत या गृहस्थ पर्याय का कालमान, शारीरिक एवं मानसिक बल तथा क्षेत्र विषयक बातें आलोचक आचार्य से ज्ञात कर स्वयं उसका परीक्षण कर अपने देश में लौट आता है। वह अपने गुरु के पास जाकर उसी क्रम में सब बातें गुरु को निवेदित करता है, जिस क्रम से उसने तथ्यों का अवधारण किया था। तब व्यवहार-विधिज्ञ आलोचनाचार्य कल्प और व्यवहार दोनों छेदसूत्रों के आलोक में पौर्वापर्य का आलोचन कर सूत्रगत नियमों के तात्पर्य की सही अवगति करते हैं। पुनः उसी शिष्य को आदेश देते हैं –'तुम जाओ और उस विशोधिकर्ता मुनि या आचार्य को यह प्रायश्चित्त निवेदित करके आ जाओ। इस प्रकार आचार्य के वचनानुसार प्रायश्चित्त देना आज्ञा व्यवहार है।' - आज्ञा व्यवहार की एक दूसरी व्याख्या भी मिलती है-दो गीतार्थ आचार्य गमन करने में असमर्थ हैं। दोनों दूर प्रदेशों में स्थित हैं। कारणवश वे एक दूसरे के पास जाने में असमर्थ हैं, ऐसी स्थिति में यदि उन्हें प्रायश्चित्त विषयक परामर्श लेना हो तो गीतार्थ शिष्य न होने पर अगीतार्थ शिष्य को जो धारणा में कुशल है, उसे गूढ़ पदों में अपने अतिचारों को निगूहित कर दूर देश स्थित आचार्य के पास भेजते हैं। आगंतुक शिष्य के निवेदन पर आचार्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, संहनन, धृति, शारीरिक बल आदि का विचार करके स्वयं वहां आ जाते हैं अन्यथा गीतार्थ शिष्य के न मिलने पर रहस्ययुक्त पदों को धारण करने वाले शिष्य के साथ गृह पदों में अतिचार विशुद्धि रूप प्रायश्चित्त बताते हैं, यह आज्ञा व्यवहार है। गूढ़ पदों में निहित प्रश्न एवं उत्तर को भाष्यकार ने विस्तार से प्रस्तुत किया है। धारणा व्यवहार व्यवहार का चौथा प्रकार है-धारणा। मतिज्ञान का चौथा भेद भी धारणा है। संभवतः उसी आधार पर व्यवहार का एक भेद धारणा रखा गया है। धारणा व्यवहार भी श्रुत व्यवहार के सदृश है। चूर्णिकार के 1. परिणामक अपरिणामक और अतिपरिणामक शिष्य के जाती है, वह कल्प प्रतिसेवना है, उसके 24 प्रकार हैं, दृष्टान्तं हेतु देखें जीभा 571-80, परि. 2, कथा सं.५४। देखें भूमिका में दर्प एवं कल्प प्रतिसेवना पृ. 68-71 / २.जीभा 566-70 / ४.जीभा 636-38, 653 / ३.जो अकारण की जाती है, वह दर्प प्रतिसेवना है। उसके 5. व्यभा 9 मटी. प.६, जीचू पृ. 2 / दस प्रकार हैं। कारण उपस्थित होने पर जो प्रतिसेवना की ६.जीभा 618-52 / Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 जीतकल्प सभाष्य अनुसार श्रुत व्यवहार और धारणा व्यवहार में इतना ही अंतर है कि श्रुत व्यवहार के एक अंश का प्रयोग करना धारणा व्यवहार है। भाष्यकार ने धारणा के चार एकार्थकों का उल्लेख किया है। ये सभी धारणा की क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैं - 1. उद्धारणा-छेदसूत्रों में उद्धृत अर्थपदों को विपुलता से धारण करना। 2. विधारणा-छेदसूत्रों में उद्धृत विशिष्ट अर्थपदों को विविध रूप से स्मृति में धारण करना। ३.संधारणा-धारण किए हए अर्थपदों को आत्मसात करना। 4. संप्रधारणा–सम्यक् रूप से अर्थपदों को धारण कर प्रायश्चित्त का विधान करना। ग्रंथकार ने धारणा व्यवहार को विविध रूपों में परिभाषित किया है। ये परिभाषाएं धारणा व्यवहार के बारे में प्रचलित उस समय की विविध अवधारणाओं एवं अवस्थाओं को प्रकट करने वाली हैं- . किसी गीतार्थ संविग्न आचार्य ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष और प्रतिसेवना के आधार पर दिये जाने वाले प्रायश्चित्त को देखा अथवा किसी को आलोचना-शुद्धि करते देखा, उसको उसी प्रकार धारण करके वैसी परिस्थिति में वैसा ही प्रायश्चित्त देना धारणा व्यवहार है।' जो शिष्य सेवा कार्य में नियुक्त है, देशाटन करने वाला है, दुर्मेधा या अल्पमेधा के कारण छेदसूत्रों के सम्पूर्ण अर्थपदों को धारण करने में समर्थ नहीं है, आचार्य उस पर अनुग्रह करके कुछ उद्धृत अर्थपद सिखाते हैं, छेदसूत्र के अर्थ का अंशतः धारक वह मुनि जो प्रायश्चित्त देता है, वह धारणा व्यवहार है।' आचार्य मलयगिरि ने वैयावृत्त्यकर, गच्छ पर उपग्रह करने वाला, स्पर्धकस्वामी (संघाटक नायक), देशदर्शन में आचार्य का सहयोगी तथा संविग्न-इन विशेषताओं का उल्लेख किया है। धारणा व्यवहार का प्रयोग कैसे मुनि पर किया जाता है, इसकी निम्न कसौटियां बताई गयी हैं - . प्रवचनयशस्वी-जो प्रवचन एवं श्रमण संघ का यश चाहता है। अनुग्रहविशारद-जो दीयमान प्रायश्चित्त या व्यवहार को अनुग्रह मानता है। तपस्वी–जो विविध तप में संलग्न है। सुश्रुतबहुश्रुत-जिसको आचारांग श्रुत विस्मृत नहीं होता अथवा जो बहुश्रुत होने पर भी श्रुत के ___ उपदेश के अनुसार चलता है। विशिष्टवाक्सिद्धियुक्त-विनय एवं औचित्य से युक्त वाक्शुद्धि वाला। १.जीचू पृ.४; सुयववहारेगदेसो धारणाववहारो। २.जीभा 655-58 / 3. जीभा 668-70, व्यभा 4515-17 / 4. जीभा 672, 673, व्यभा 4518, 4519 / 5. व्यभा 9 मटी प.००००००७। 6. व्यभा 4508-10 / Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श ___ उपर्युक्त गुणों से युक्त साधु की प्रमादवश मूलगुण अथवा उत्तरगुण विषयक स्खलना होने पर प्रथम तीन व्यवहारों के अभाव में कल्प, निशीथ तथा व्यवहार–तीनों के कुछ अर्थपदों की अवधारणा कर यथायोग्य प्रायश्चित्त देना धारणा व्यवहार है।' धारणा व्यवहार का प्रयोक्ता मुनि भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से छेदसूत्रों के अर्थ का सम्यग् पर्यालोचन करने वाला, धीर, दान्त, क्रोधादि से रहित, आलीन-ज्ञान आदि में लीन, प्रलीन एवं यतनायुक्त होता है। ऐसी विशेषताओं से युक्त मुनि द्वारा कथित तथ्यों के आधार पर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह धारणा व्यवहार है। जीत व्यवहार यह पांचवां व्यवहार है। इसका महत्त्व सार्वकालिक है। जीतव्यवहार प्रायश्चित्त का प्रवर्तन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष, प्रतिसेवना, शरीर-संहनन, धृतिबल आदि के आधार पर किया गया। व्यवहार भाष्यकार ने इसके तीन एकार्थकों का उल्लेख किया है-१. बहुजनआचीर्ण, 2. जीत, 3. उचित / चूर्णिकार सिद्धसेनगणि के अनुसार भी इसके तीन एकार्थक हैं-जीत, करणीय एवं आचरणीय। नंदी टीका में इसके पांच एकार्थक प्राप्त हैं -जीत, मर्यादा, व्यवस्था, स्थिति एवं कल्प।' चूर्णिकार के अनुसार ब्राह्मण परम्परा में भी जीवघात होने पर प्रायश्चित्त का विधान है किन्तु उनकी परम्परा में एकेन्द्रिय आदि प्राणी के संघट्टन, परितापन या अपद्रावण आदि होने पर प्रायश्चित्त का विधान नहीं है। निर्ग्रन्थ शासन में जीतव्यवहार विशोधि में विशेष रूप से निमित्तभूत बनता है। जिस प्रकार पलाश, क्षार एवं पानी आदि के द्वारा वस्त्र के मल को दूर किया जाता है, वैसे ही कर्ममल से मलिन जीव की अतिचार-विशुद्धि में जीतव्यवहार द्वारा निर्दिष्ट प्रायश्चित्त का विशेष महत्त्व है। प्रायश्चित्त-दान का यह भेद अन्यत्र किसी भी धर्म-परम्परा में उल्लिखित नहीं है। 1. जीभा 660-63 / 7. नंदीहाटी.पृ.११; जीतं मर्यादा व्यवस्था स्थितिः कल्प 2. जीभा 664-67, व्यभा 4512-14 / इति पर्यायाः। ३.(क) उशांटी प.६३; त्रिकालविषयत्वात् जीतव्यवहारस्य। ८.जीचू पृ.२ अन्ने वि मरुयादीया पायच्छित्तं देंति थूलबुद्धिणो (ख) जीच प.४;जीवेइ वा तिविहे वि काले तेण जीयं। जीवघायम्मि कत्थइ सामन्नेण ण पुण संघट्टण४,जीचू पृ.४;सो पुण दव्वखेत्तकालभावपुरिसपडिसेवणाणु- परितावणोद्दवण-भेएण-सव्वेसिमेगिंदियाईणं तस्स वत्तिं सरीरसंघयणधीबलपरिहाणिं वावेक्खिऊण तहा पज्जवसाणाणं दाउं जाणन्ति / उवएसो वा तेसिं समए एरिसो . पायच्छित्तदाणं जीयं। नत्थि। इह पुण सासणे सव्वमत्थि त्ति काउं विसेसेण सोहणं ५.व्यभा 9; बहुजणमाइण्णं पुण, जीतं उचियं ति एगटुं। भण्णइ / जहा य पलास-खारोदगाइ वत्थमलस्स सोहणं ६.जीचूप.४ जीयं ति वा करणिज्जं ति वा आयरणिज्जं ति तहा कम्ममलमइलियस्स जीवस्स जीय-ववहारनिद्दिटुं वाएगहुँ। पायच्छित्तं। ....न अण्णत्थ एरिसं ति जं भणियं होइ। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 जीतकल्प सभाष्य पांच व्यवहारों में जीतकल्प सबसे अधिक प्रचलित रहा अतः भिन्न-भिन्न आचार्यों ने जीतकल्प की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं की हैं। उन परिभाषाओं में कहीं-कहीं शाब्दिक अंतर है, उन सब परिभाषाओं को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है * जो व्यवहार एक बार, दो बार या अनेक बार किसी आचार्य द्वारा प्रवर्तित होता है तथा महान् आचार्य जिसका अनुवर्तन करते हैं, वह जीतव्यवहार है।' * जो प्रायश्चित्त जिस आचार्य के गण की परम्परा से अविरुद्ध है, जो पूर्व आचार्य की मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता, वह जीतव्यवहार है। * अमुक आचार्य ने, अमुक कारण उत्पन्न होने पर, अमुक पुरुष को अमुक प्रकार.से.प्रायश्चित्त दिया, अन्य आचार्य द्वारा वैसी ही स्थिति में वैसा ही प्रयोग करना जीतव्यवहार है। इसी बात को जीतकल्प चूर्णि में इस भाषा में कहा है कि गच्छ में किसी कारण से जो सूत्रातिरिक्त प्रायश्चित्त का प्रवर्तन हुआ, बहुतों के द्वारा अनेक बार उसका अनुवर्तन हुआ, यह जीतव्यवहार है। * प्रयोजन उपस्थित होने पर प्रमाणस्थ पुरुष द्वारा अशठभाव से जो निरवद्य आचरण किया जाता है, गीतार्थ के द्वारा उसका निवारण नहीं किया जाता अपितु उसके द्वारा जो अनुमत-सम्मत और आचीर्ण होता है, वह जीतकल्प है। * पूर्वाचार्यों ने जिन अपराधों की शोधि अत्यधिक तपस्या के आधार पर की, उन्हीं अपराधों की विशोधि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर चिन्तन करके तथा संहनन आदि की हानि को लक्ष्य में रखकर गीतार्थ मुनियों द्वारा प्रवर्तित समुचित तप रूप प्रायश्चित्त जीतव्यवहार है। जो आचार्य आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा आदि से रहित है, वह परम्परा से प्राप्त जीत व्यवहार का प्रयोग करता है। जीत व्यवहार के मूल में आगम आदि कोई व्यवहार नहीं, अपितु समय की सूझ एवं 1. जीभा 675, व्यभा 4521 / 2. व्यभा 12, जं जस्स व पच्छित्तं, आयरियपरंपराए अविरुद्धं / जोगा य बहुविकप्पा, एसो खलु जीयकप्पो उ।। 3. जीभा 679, व्यभा 4534 / 4. जीचू पृ.४ ; जो वा जम्मि गच्छे केणइ कारणेण सुयाइरित्तो पायच्छित्त-विसेसो पवत्तिओ अन्नेहिं य बहूहिं अणुवत्तिओ, न य पडिसिद्धो। ५.बृभा 4499; असढेण समाइण्णं, जं कत्थइ कारणे असावज्ज। ण णिवारियमण्णेहिं, बहुमणुमयमेतमाइण्णं / / ६.जीचूवि. पृ. 38 ; जीतव्यवहारस्तु येष्वपराधेषु पूर्वमहर्षयो बहुना तपःप्रकारेण शुद्धिं कृतवन्तस्तेष्वपराधेषु साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभावान् विचिन्त्य संहननादीनां च हानिमासाद्य समुचितेन केनचित्तपःप्रकारेण यां गीतार्थाः शुद्धिं निर्दिशन्ति तत् समयपरिभाषया जीतमित्युच्यते। ७.जीभा 678, व्यभा 4533 / Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श परम्परा होती है। यह प्रियधर्मा और पापभीरु व्यक्ति के द्वारा आचीर्ण होता है। भाष्यकार के समय में जीतकल्प के प्रवर्तन विषयक दो परम्पराएं प्रचलित थीं। एक परम्परा के अनुसार आचार्य जंबू के सिद्ध होने पर अंतिम तीन चारित्रों का विच्छेद हो गया, उस समय जीत व्यवहार का प्रवर्तन हुआ। दूसरे मत के अनुसार चतुर्दशपूर्वी के व्यवच्छिन्न होने पर प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान, अन्तर्मुहूर्त में चौदह पूर्वो का परावर्तन तथा आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा आदि चारों व्यवहारों का विच्छेद हो गया। उस समय जीत व्यवहार का प्रवर्तन ही शेष रहा। इन मान्यताओं का निराकरण करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जो चतुर्दशपूर्वधर के विच्छेद होने पर व्यवहार चतुष्क के विच्छेद की घोषणा करते हैं, वे मिथ्यावादी होने के कारण प्रायश्चित्त के भागी हैं। चतुर्दशपूर्वी के विच्छेद होने पर मन:पर्यवज्ञान, परमावधि, पुलाकलब्धि, आहारकलब्धि, क्षपक श्रेणी, उपशम श्रेणी, जिनकल्प, संयमत्रिक (अंतिम तीन संयम), केवली, सिद्धि-ये बारह अवस्थाएं विच्छिन्न हुईं किन्तु व्यवहार चतुष्क का लोप नहीं हुआ। चतुर्दशपूर्वी के विच्छेद होने पर प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान तथा अन्तर्मुहूर्त में चौदह पूर्वो का उपयोगइन तीन वस्तुओं का विच्छेद हो गया। तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी के कर्ता सिद्धसेनगणि के अनुसार वर्तमान में अधिकांश विशोधि जीतव्यवहार के आधार पर होती है। जीतव्यवहार के भेद प्रायश्चित्त के आधार पर जीत व्यवहार के दो भेद हैं -सावध और निरवद्य / व्यवहार का संबंध सावध जीत से नहीं अपितु निरवद्य जीत से है। अपराध की विशुद्धि के लिए शरीर पर राख का लेप करना, कारागृह में बंदी करना, हड्डियों की माला पहनाना, गधे पर बिठाकर सारे नगर में घुमाना, उदर से रेंगने का दण्ड देना -ये सब सावद्य जीत हैं। आलोचना आदि दस प्रकार का प्रायश्चित्त देना निरवद्य जीत है। कभी-कभी लोकोत्तर क्षेत्र में अनवस्था प्रसंग (दोषों की पुनरावृत्ति) के निवारण हेतु सावद्य जीत का प्रयोग भी किया जाता था। सावध जीत का प्रयोग उस व्यक्ति पर किया जाता था, जो बार-बार दोषसेवी, सर्वथा निर्दयी तथा प्रवचन से निरपेक्ष होता था। जो संविग्न, प्रियधर्मी, अप्रमत्त, पापभीरु होता था, उसके द्वारा यदि प्रमादवश स्खलना हो जाती तो उसके प्रति निरवद्य जीत व्यवहार का प्रयोग विहित था।' प्रकारान्तर से भी जीतव्यवहार के दो भेद किए गए हैं-१. शोधिकरजीत 2. अशोधिकरजीत / जो १.जीभा 681 / २.व्यभा 4523-25 / ३.व्यभा 4526, 4527 / ४.व्यभा 4528 // 5. त 9/22 भाटी पृ. 252 ; सम्प्रति पंचमव्यवहारप्रमाणेण ___यतयो भूयसा विशुद्धिमाचरंति। ६.जीभा 687 / 7. जीभा 689-91, व्यभा 4544-46 / Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 जीतकल्प सभाष्य व्यवहार संवेगपरायण एवं दान्त आचार्य द्वारा आचीर्ण होता है, वह शोधिकर जीत है, फिर चाहे वह एक ही व्यक्ति द्वारा आचीर्ण क्यों न हो। जो पार्श्वस्थ और प्रमत्त संयत द्वारा आचीर्ण व्यवहार होता है, वह अशोधिकर जीत है, फिर चाहे वह अनेक व्यक्तियों द्वारा भी आचीर्ण क्यों न हो। जीतकल्प के आधार पर प्रायश्चित्त में भिन्नता गच्छभेद से सामान्य जीत व्यवहार भी भिन्न-भिन्न होता था। इसे समझाने के लिए व्यवहारभाष्यकार ने कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं कुछ आचार्यों के गण में नवकारसी या पोरसी न करने पर आचाम्ल का प्रायश्चित्त विहित था। आवश्यकगत एक कायोत्सर्ग न करने पर दो प्रहर, दो कायोत्सर्ग न करने पर एकासन आदि का विधान था। कुछ गण में आवश्यकगत एक कायोत्सर्ग न करने पर निर्विगय, दो कायोत्सर्ग न करने पर दो प्रहरं, तीन कायोत्सर्ग न करने पर आयम्बिल तथा पूरा आवश्यक न करने पर उपवास का प्रायश्चित्त विहित था।' जीतकल्पभाष्य के अनुसार आवश्यकगत एक कायोत्सर्ग न करने पर पुरिमार्ध, दो कायोत्सर्ग न करने पर एकासन, तीन कायोत्सर्ग न करने पर आयम्बिल तथा सम्पूर्ण आवश्यक न करने पर उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। इस प्रकार उपधान तप विषयक भिन्न-भिन्न गच्छों की भिन्न-भिन्न मान्यताएं थीं। वे सभी अपनी-अपनी आचार्य-परम्परा से प्राप्त होने के कारण अविरुद्ध थीं। नागिलकुलवर्ती साधुओं के आचारांग से अनुत्तरौपपातिक तक की आगम-वाचना में उपधानतप के रूप में आचाम्ल नहीं, केवल निर्विगय तप का विधान था। आचार्य की आज्ञा से विधिपूर्वक कायोत्सर्ग कर उन आगमों को पढ़ते हुए भी विगय का उपयोग किया जा सकता था। कुछ परम्पराओं में कल्प, व्यवहार, चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति को आगाढ़योग के अन्तर्गत तथा कुछ परम्पराओं में अनागाढ़योग के अन्तर्गत माना जाता था। इसी प्रकार एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय के घट्टन, परितापन, अपद्रावण आदि के विषय में भिन्न-भिन्न आचार्यों के भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त निर्धारित थे। पृथ्वी, पानी आदि एकेन्द्रिय जीवों के संघट्टन होने पर निर्विकृतिक, अनागाढ़ परितापन देने पर पुरिमार्ध, आगाढ़ परिताप देने पर एकासन तथा प्राणव्यपरोपण होने पर आचाम्ल का प्रायश्चित्त विहित था।' विकलेन्द्रिय जीव एवं अनंतकाय जीवों का घट्टन होने पर पुरिमार्ध, अनागाढ़ परिताप देने पर एकासन, 1. व्यभा 4547-49, जीभा 692-94 / 2. व्यभा 12 टी प.८॥ ३.व्यभा 11 टोप.८॥ ४.जीभा 1759,1760 / 5. व्यभा 12 टी प.८। 6. व्यभा 4538-41, जीभा 683-86 / ७.जीमा 63 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 47 आगाढ़ परिताप देने पर आचाम्ल तथा प्राणव्यपरोपण होने पर उपवास का प्रायश्चित्त विहित था। पंचेन्द्रिय का घट्टन होने पर एकासन, अनागाढ़ परितापन देने पर आचाम्ल, आगाढ़ परितापन देने पर उपवास तथा प्राणव्यपरोपण होने पर पंचकल्याणक' का प्रायश्चित्त विहित था।' गच्छभेद से जिस प्रकार जीत व्यवहार के प्रायश्चित्त में भिन्नता होती है, वैसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष, प्रतिसेवना आदि के आधार पर भी जीत व्यवहार के अनुसार प्रायश्चित्त-दान में तरतमता रहती है। उदाहरणार्थ ग्लान को प्रायश्चित्त देने के निम्न विकल्प हैं * रोगी को अल्प प्रायश्चित्त या अशक्तता होने पर प्रायश्चित्त न दिया जाए। * जितनी वह तपस्या कर सके, उतना ही प्रायश्चित्त दिया जाए। * अथवा जब वह नीरोग या हृष्ट हो जाए, तब उससे प्रायश्चित्त स्वरूप तप कराया जाए। अन्य परम्पराओं में व्यवहार बौद्ध परम्परा में व्यवहार शब्द का प्रयोग नहीं मिलता किन्तु दीघनिकाय के 'महापरिनिब्बान सुत्त' में चार महापदेशों का उल्लेख मिलता है 1. बुद्ध द्वारा प्रवर्तित। 2. संघ द्वारा प्रवर्तित। 3. महान् भिक्षुओं द्वारा प्रवर्तित। 4. किसी विहार के महान् आचार्य द्वारा प्रवर्तित / इन चारों महापदेशों में सूत्र और विनय से संगत, संघवचन और भिक्षुवचन को ही ग्राह्य बताया गया है और उससे भिन्न को अग्राह्य / जैन दर्शन में जो स्थान आगम और श्रुत व्यवहार का है, बौद्ध दर्शन में वही स्थान सूत्र और विनय से संगत संघवचन और भिक्षुवचन का है। ब्राह्मण परम्परा में भी पांच व्यवहार के संवादी निम्न तत्त्व मिलते हैं१. संपूर्ण वैदिकशास्त्र के आधार पर। 2. ऋषियों द्वारा प्रणीत स्मृति ग्रंथों के आधार पर। 3. श्रुति और स्मृति के धारक व्यक्तियों द्वारा। १.जीभा 684 / 4. जी 64 / 2. यहां पंचकल्याणक का तात्पर्य निर्विगय, परिमार्द्ध एकासन. 5. इसके विस्तार हेतु देखें 'तप प्रायश्चित्त में तरतमता' आयम्बिल, उपवास- तपस्या के इन पांच भेदों से है। भूमिका पृ. 145-49 / ३.जीभा 685, व्यभा 4540 / 6. अंगु. 8/18/10 महापदेससुत्त पृ. 178-81 / Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 4. सदाचार-अन्यान्य स्थितियों, क्षेत्रों, व्यक्तियों में प्रचलित वे धारणाएं, जो श्रुतियों और स्मृतियों के विपरीत न हों। 5. स्वसमाधान-आत्मा की आवाज। व्यवहारी की अर्हता व्यवहारी शब्द हिन्दी शब्दकोशों में मुकदमा लड़ने वाला तथा वादी आदि अर्थों में प्रयुक्त है। सूत्रकृतांग में व्यवहारी' शब्द का प्रयोग व्यापारी के लिए हुआ है। कौटिल्य ने व्यवहारी शब्द न्यायकर्ता के लिए प्रयुक्त किया है। शब्दकल्पद्रुम में सोलह वर्ष के बाद व्यक्ति व्यवहारज्ञ बनता है, ऐसा उल्लेख मिलता व्यवहारी की अर्हताएं भाष्यसाहित्य में विकीर्ण रूप से मिलती हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी व्यवहारी (न्यायकर्ता) की कसौटियां वर्णित हैं। मनुस्मृति के अनुसार वेदविद ब्राह्मण प्रायश्चित्त देने का अधिकारी है क्योंकि ज्ञानी का वचन पवित्र होता है। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार जो श्रुति आदि के अध्ययन से युक्त, सत्यवादी, धर्मज्ञ और शत्रु तथा मित्र में समदृष्टि वाला है, वह व्यवहार-न्याय के योग्य होता है। नारद स्मृति भी इसी की संवादी है।" जो आगम आदि व्यवहार को सम्यक् रूप से जानकर प्रायश्चित्तदान में उसका सम्यक् प्रयोग करता है, वह व्यवहारी है। भाष्यकार के अनुसार व्यवहार करने का अधिकार उसे प्राप्त होता है, जो मुनि युगप्रधान आचार्य के पास तीन परिपाटियों से व्यवहार आदि छेद ग्रंथों का सम्पूर्ण रूप से सम्यक् अवबोध प्राप्त कर लेता है। वे तीन परिपाटियां इस प्रकार हैं 1. सूत्रार्थ का परिच्छेद पूर्वक उच्चारण। 2. पदविभाग पूर्वक पारायण। 3. निरवशेष पारायण। जब शिष्य तीनों परिपाटियों से सम्पूर्ण सूत्रार्थ का पारगामी हो जाता है, तब वह व्यवहार करने के 8. Aspects of Jain Monasticism p.31 2. सू 1/3/78 समुदं व ववहारिणो। 3. शब्दकल्पद्रुम भाग 4 पृ. 543 / 4. कौ अधि 3 पृ. 342 ; एवं कार्याणि धर्मस्थाः, कुर्युरच्छलदर्शिनः / समाः सर्वेषु भावेषु, विश्वास्या लोकसम्प्रियाः।। 5. मनु 11/85 / ६.यान 2/2; श्रुताध्ययनसम्पन्ना, धर्मज्ञाः सत्यवादिनः। राज्ञा सभासदः कार्या, रिपौ मित्रे च ये समाः।। 7. नारद स्मृति 1/44 / 8. व्यभा 520 टी. प.१८ / 9. व्यभा 1709 / Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श योग्य होता है। इसकी परीक्षा करने के लिए आचार्य उस ग्राहक-शिष्य को विषम स्थानों के विषय में पूछते हैं, जब वह उन विषयों के हार्द को सम्यक् रूप से व्यक्त करने में सक्षम हो जाता है, तब उसे व्यवहार करने के योग्य मान लिया जाता है। यदि व्यवहारी परिवार, ऋद्धि, धर्मकथा, वादलब्धि, तपस्या, निमित्त, विद्या और अधिक संयम-पर्याय-इन आठ विषयों में गौरव करके अपना प्रभुत्व स्थापित करता है तो वह व्यवहार करने के योग्य नहीं होता। अगीतार्थ मुनि गौरव से व्यवहार करता हुआ संसार में सारभूत चतुरंग-मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा और संयम में पराक्रम को खोकर भव-सागर में भटक जाता है। भाष्यकार ने व्यवहारी की निम्न विशेषताओं का उल्लेख किया हैप्रियधर्मा-कर्तव्यपरायण। दृढ़धर्मा-अपने निश्चय में अटल। संविग्न-संसारभीरु, वैरागी। वद्यभीरु-पापभीरु। सूत्रार्थविदु-सूत्र और अर्थ का सम्यक् ज्ञाता। अनिश्रितव्यवहारी-राग-द्वेष मुक्त होकर प्रायश्चित्त देने वाला। 'भाष्यकार का अभिमत है कि बहुश्रुत होते हुए भी जो मुनि न्याय नहीं करता, उसका व्यवहार प्रमाण नहीं हो सकता। न्याय से व्यवहार करना व्यवहारी की योग्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है। यदि आचार्य अप्रायश्चित्ती को प्रायश्चित्त अथवा अल्प प्रायश्चित्त प्राप्त कर्ता को अतिमात्रा में प्रायश्चित्त देता है तो धर्म की तीव्र आशातना होती है तथा मोक्षमार्ग की विराधना होती है। .. 'बत्तीस योगसंग्रह के इकतीसवें योगसंग्रह में इस बात का उल्लेख है कि जो जितने प्रायश्चित्त से शुद्ध होगा, उतना ही प्रायश्चित्त देने से प्रायश्चित्तदाता के योग संग्रहीत होते हैं। वहां धनगुप्त आचार्य का उदाहरण है, जो सम्यक् रूप से व्यवहार करते थे। वे छद्मस्थ व्यक्ति के अपराध भी इंगित-आकार आदि से जानकर, प्रायश्चित्त देकर उसके अपराधों की शुद्धि करते थे। उनके द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त साधु सुखपूर्वक निर्वहन कर लेते थे। इस प्रकार उपयुक्त होकर प्रायश्चित्त देने से उनको विपुल निर्जरा होती थी।' भगवती आराधना में पांच प्रकार के व्यवहारों को विस्तार से जानने वाले, अन्य आचार्यों को प्रायश्चित्त देते देखने वाले तथा स्वयं भी प्रायश्चित्त का प्रयोग करने वाले आचार्य को व्यवहारवान् अथवा १.व्यमा 1710 / ५.व्यभा 1704 / २.व्यमा 1719 / 6. पंकभा 1356 / व्यमा 1723, 1724 // 7. आवनि 905, हाटी प. 156 / *.व्यमा 15 मटी प.९॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 जीतकल्प सभाष्य प्रायश्चित्तदाता आचार्य कहा गया है। उसकी योग्यता है-जिनप्रणीत आगम में कुशल, धृतिसम्पन्न तथा राग-द्वेष से रहित होना। व्यवहारी दो प्रकार के होते हैं-प्रशंसनीय और अप्रशंसनीय। जो यथार्थ व्यवहारी होते हैं, वे प्रशंसनीय तथा जो यथार्थ व्यवहार नहीं करते, वे अप्रशंसनीय व्यवहारी होते हैं। इस प्रसंग में भाष्यकार ने तगरा नगरी के एक आचार्य के सोलह शिष्यों का उल्लेख किया है, जिनमें आठ शिष्य व्यवहारी तथा आठ अव्यवहारी थे। ___भाष्यकार ने आचार्य के आठ अव्यवहारी शिष्यों का नामोल्लेख न करते हुए केवल उनके दोषों को प्रतीक एवं रूपक के माध्यम से समझाया है। लेकिन व्यवहारी शिष्यों के नामों का उल्लेख किया है। उनकी विशेषताओं का उल्लेख नहीं किया। प्रश्न होता है कि अव्यवहारी शिष्यों के नामों का उल्लेख क्यों नहीं किया? इस प्रश्न के समाधान में ऐसी संभावना की जा सकती है कि अव्यवहारी शिष्य आठ से अधिक हो सकते हैं इसलिए उनको प्रतीक के माध्यम से समझाया है। दूसरी बात है कि गलती के रूप में किसी के नाम का उल्लेख करना अव्यवहारिक प्रतीत होता है इसलिए भी संभवतः भाष्यकार ने शिष्यों के नामों का उल्लेख नहीं किया हो। अव्यवहारी शिष्यों के आठ दोष इस प्रकार हैं१. कांकटुक-जैसे कोरडू धान्य अग्नि पर पकाने पर भी नहीं पकता, वैसे ही जिसका व्यवहार दुश्छेद्य होता है, सिद्ध नहीं होता। 2. कुणप-जैसे शव का मांस धोने पर भी पवित्र नहीं होता, वैसे ही जिसका व्यवहार निर्मल नहीं होता। 3. पक्व-पक्व फल की भांति जिस व्यक्ति का व्यवहार स्थिर नहीं रहता, गिर जाता है। जैसे चाणक्य के संन्यास लेने पर चन्द्रगुप्त की लक्ष्मी स्थिर नहीं रही, गिर गईं। पक्व का दूसरा अर्थ करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि वह इस प्रकार संभाषण करता है, जिससे दूसरे सद्वादी भी मौन हो जाते हैं। पंचकल्पचूर्णि में पक्व का अर्थ इस प्रकार किया है-भैंस पानी पीने के लिए तालाब में उतरती है, वह सारे पानी को गुदला देती है। उसी प्रकार पक्व भी व्यवहार को मलिन बना देता है। 4. उत्तर-छलपूर्वक उत्तर देने वाला। वह प्रतिसेवी के साथ दुर्व्यवहार करता है और गीतार्थ मुनि द्वारा उपालम्भ देने पर उन्हें छलपूर्वक उत्तर देता है। जैसे एक व्यक्ति ने दूसरे पर लात से प्रहार किया, पूछने पर वह कहता है कि मैंने पैरों से प्रहार नहीं किया, जूते पहने पैर ने प्रहार किया था। 1. भआ 450-53 / २.व्यभा 1694-1702 / 3. पंकचू (अप्रकाशित); पक्को जहा महिसो पाणीए ओइण्णो, एवं सो वि महिसो विव आडुयालं करेइ / Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 51 5. चार्वाक-जो निष्फल प्रयत्न करता है और बार-बार उसी का चर्वण करता है, उसका व्यवहार चार्वाक तुल्य होता है। 6. बधिर-बधिर की भांति कहता रहता है कि मैंने प्रतिसेवना सुनी ही नहीं। 7. गुंठ-माया से व्यवहार की समाप्ति करने वाला। 8. अम्ल-तीखे वचन बोलकर व्यवहार करने वाला। पंचकल्पचूर्णि' में इसका अर्थ अंधा व्यवहार किया है लेकिन यहां 'अंब व्यवहार' पाठ होना चाहिए, जिसका अर्थ है खट्टा-दिल फट जाए ऐसा व्यवहार करने वाला। इन आठ प्रकार के दोषों से युक्त आठ अव्यवहारी शिष्य थे। तगरा नगरी के आचार्य के जो आठ व्यवहारी शिष्य थे, उनके नाम इस प्रकार हैं-१. पुष्यमित्र 2. वीर 3. शिवकोष्ठक 4. आर्यास 5. अर्हन्नक 6. धर्मान्वग 6. स्कंदिल 7. गोपेन्द्रदत्त / ये अपने युग में प्रधान व्यवहारच्छेदक अर्थात् प्रायश्चित्तदाता माने जाते थे। अन्यान्य राज्यों में भी उनके व्यवहार की छाप थी। कोई उनके व्यवहार को चुनौती नहीं दे सकता था। प्रायश्चित्त , जैन परम्परा में निर्जरा के बारह भेदों में प्रायश्चित्त अंतरंग तप के अन्तर्गत है। प्रायश्चित्त शब्द के प्राकृत में दो रूप बनते हैं–पायच्छित्त और पच्छित्त। भाष्यकार ने इन दोनों प्राकृत रूपों की निरुक्तपरक व्याख्या की है। जो पूर्वकृत पाप को नष्ट करता है, वह पायच्छित्त–प्रायश्चित्त है अथवा जो प्रायः चित का विशोधन करता है, वह पच्छित्त–प्रायश्चित्त है। आवश्यकचूर्णि के अनुसार असत्य आचरण को स्मरण करके पश्चात्ताप करना प्रायश्चित्त है। आचार्य कुंदकुंद ने निश्चय नय के आधार पर प्रायश्चित्त को - परिभाषित किया है। उनके अनुसार व्रत, समिति, शील और इंद्रिय-संयम का जो परिणाम है, वह प्रायश्चित्त है। क्रोध आदि भावों को क्षय करने की भावना तथा निज गुणों का चिन्तन करना निश्चय प्रायश्चित्त है, यह निरन्तर करणीय है। हेमाद्रि कोश के अनुसार तप के निश्चय से युक्त होना प्रायश्चित्त है।' यह परिभाषा जैन आचार में प्रयुक्त प्रायश्चित्त की संवादी है। अनगारधर्मामृत की परिभाषा प्रायश्चित्त करेइ। 1. पंकच (अप्रकाशित); अंबिलसमाणो नाम अंधं ववहारं ६.निसा 113, 114; वदसमिदिसीलसंजमपरिणामो करणणिग्गहो भावो। 2. व्यभा 1705-07 / सो हवदि पायछित्तं, अणवरयं चेव कायव्वो।। . ३.स्था 6/66, मूला 361 ; पायच्छित्तं ति तवो जेण विसुज्झदि कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं। 'हु पुवकयपावं। पायच्छित्तं. भणिदं, णियगुणचिंता य णिच्छयदो।। 4. जीभा 5 / 7. संस्कृत हिन्दी शब्दकोश आप्टे पृ. 666; 5. आवचू 2 पृ. २५१चिती संज्ञाने प्रायशः वितथमाचरित प्रायो नाम तपः प्रोक्तं, चित्तं निश्चय उच्यते। मर्थमनुस्सरतीति वा प्रायश्चित्तम्। तपोनिश्चयसंयोगात्, प्रायश्चित्तमितीर्यते।। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य के प्रयोजन को भी प्रकट कर रही है। उसके अनुसार आवश्यक योग न करने पर तथा वर्जनीय का त्याग न करने पर जो अतिचार दोष लगता है, उसकी शुद्धि जिससे होती है, वह प्रायश्चित्त है। तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी के अनुसार प्रायः का अर्थ अपराध और चित्त का अर्थ शोधन करने से प्रायश्चित्त का अर्थ होगा अपराध का शोधन।' प्रकारान्तर से प्रायश्चित्त का निम्न निरुक्त भी मिलता है-प्र+अय और चितिइन तीन शब्दों के योग से प्रायश्चित्त की निष्पत्ति होती है-प्र अर्थात् विनष्ट, अय अर्थात् शुभ-विधि तथा चिति अर्थात् संचय-जो शुभ विधि नष्ट हो गई है, उसे पुनः प्राप्त करना प्रायश्चित्त है। इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थ राजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि', नियमसार, भगवती आराधना की टीका आदि अनेक ग्रंथों में प्रायश्चित्त के निरुक्त एवं परिभाषाएं मिलती हैं। ___जीतकल्पभाष्य में व्यवहार, आरोपणा, शोधि और प्रायश्चित्त को एकार्थक माना है। छेदपिण्ड में छेद, मलहरण, पापनाशन, शोधि, पुण्य, पवित्र और पावन-इन शब्दों को एकार्थक माना है। मूलाचार में पुराणकर्मक्षपण, क्षेपण, निर्जरण, शोधन, धोवण, पुंछण, उत्क्षेपण और छेदन-इनको प्रायश्चित्त का एकार्थक माना है। जो साधु अपनी ज्ञान स्वरूप आत्मा का बार-बार चिन्तन करता है, विकथा आदि प्रमादों से विरक्त रहता है, उसके उत्कृष्ट प्रायश्चित्त होता है। कार्तिकेय अनुप्रेक्षा के अनुसार केवल मुख से कहने मात्र से प्रायश्चित्त नहीं होता, गुरु के द्वारा जो भी प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ है, उसे पूर्ण श्रद्धा से पालन तथा मुझे कम या ज्यादा प्रायश्चित्त मिला है, इस प्रकार की शंका न करके पुनः उस दोष की पुनरावृत्ति नहीं करने वाले का प्रायश्चित्त सार्थक होता है। साधु को प्राप्त प्रायश्चित्त का वहन चारित्र की विशुद्धि के लिए करना चाहिए, १.अनध 7/34 ; यत्कृत्याकरणे वाऽवर्जने च रजोऽर्जितम्। प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत्। सोऽतिचारोऽत्र तच्छुद्धिः प्रायश्चित्तं.....। तच्चित्तग्राहकं कर्म, प्रायश्चित्तमिति स्मृतम्।। २.त 9/22 भाटी पृ. 254 ; प्रायः शब्देन वाऽपराधोऽभि- 8. जीभा 1844 / धीयते। तेनालोचनादिना सूत्रविहितेन सोऽपराधो विशुद्ध्यति 9. छेदपिण्ड 3 ; ........अस्माच्च हेतोः प्रायश्चित्तम्। पायच्छित्तं छेदो, मलहरणं पावणासणं सोही। 3. प्रमुख स्मृतियों का अध्ययन पृ.६७। पुण्ण पवित्तं पावणमिदि पायच्छित्तणामाई / / 4. तवा 9/22 पृ. 620; तत्र गुरवे प्रमादनिवेदनं दशदोष- / वर्जितमालोचनम्। पोराणकम्मखवणं, खिवणं णिज्जरण सोधणं धुवणं / 5. ससि 9/20 पृ. 336, प्रमाददोषपरिहारः प्रायश्चित्तम्। पुच्छणमुछिवण छिदणं ति पायच्छित्तस्स णामाई।। 6. निसा 113 विटी पृ. 229 ; प्रायः प्राचुर्येण निर्विकारं 11. काअ 455; चित्तं प्रायश्चित्तम्। जो चिंतइ अप्पाणं, णाणसरूवं पुणो पुणो णाणी। 7. भआ 531 विटी पृ. 390; विकहा-विरत्त-चित्तो, पायच्छित्तं वरं तस्स।। 12. काअ 453, 454 / Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श न कि उसे राजदण्ड की भांति भारभूत मानना चाहिए। मनुस्मृति के अनुसार अनजान में किए गए पापों का शमन वेदों के अध्ययन और चिन्तन-मनन से हो सकता है लेकिन जानबूझकर राग-द्वेष से किए गए पापों के शमन का एक मात्र उपाय प्रायश्चित्त है।' याज्ञवल्क्य ऋषि मानते हैं कि जानबूझकर किए गए पापों का नाश नहीं होता लेकिन प्रायश्चित्त कर लेने से पाप करने वाला अन्य लोगों के साथ रहने योग्य हो जाता है। दिगम्बर परम्परा में छेदपिण्ड, छेदशास्त्र, प्रायश्चित्त-संग्रह, यतिजीतकल्प, जीतकल्पसार तथा आचार दिनकर आदि ग्रंथ प्रायश्चित्त से सम्बन्धित हैं। बौद्ध परम्परा में विनयपिटक के पातिमोक्ख में प्रायश्चित्त का वर्णन मिलता है। वैदिक परम्परा में स्मृतिसाहित्य एवं श्रोत्रसूत्रों में प्रायश्चित्त का प्रचुर वर्णन मिलता है। गौतमधर्मसूत्र तथा वशिष्ठधर्मसूत्र के अनेक अध्याय प्रायश्चित्त से सम्बद्ध हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति के दूसरे अध्याय का नाम ही प्रायश्चित्त है। इसके अतिरिक्त प्रायश्चित्तसार, प्रायश्चित्तविवेक आदि ग्रंथ भी प्रायश्चित्त से सम्बन्धित हैं / जैन आचार्यों ने जहां साधु के अपराध से सम्बन्धित प्रायश्चित्तों का विधान किया है, वहां वैदिक परम्परा में गृहस्थ एवं राजधर्म से सम्बद्ध प्रायश्चित्तों का अधिक वर्णन है। पाश्चात्त्य विद्वानों ने नीतिशास्त्र में दण्ड सिद्धान्त के बारे में गंभीर विवेचन प्रस्तुत किया है, जो छेदसूत्रों में वर्णित प्रायश्चित्तविधि से तुलनीय है। प्रायश्चित्त क्यों? - प्रतिषिद्ध का आचरण करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। गुरु के द्वारा निर्दिष्ट प्रायश्चित्त का पालन अपराध की परम्परा को समाप्त करने के लिए आवश्यक है। प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि साधना के पथ पर आगे बढ़ने वाले आत्मानुशासी साधु के लिए प्रायश्चित्त का विधान क्यों? इस प्रश्न का समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र नहीं होता, चारित्र के अभाव में तीर्थ की स्थिति नहीं रहती, निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती तथा निर्वाण के अभाव में दीक्षा निरर्थक हो जाती है अतः चारित्र से भी अधिक महत्त्व प्रायश्चित्त का है। पाप करने के पश्चात् उसका अनुताप और प्रायश्चित्त कर लेने पर पाप वैसे ही छूटता जाता है, जैसे सांप से केंचुली। पाराशरस्मृति के अनुसार पाप लगने पर जब तक प्रायश्चित्त न हो, तब तक भोजन नहीं करना चाहिए। 1. मनु 11/46; अकामतः कृतं पापं, वेदाभ्यासेन शुद्ध्यति। कामतस्तु कृतं मोहात्, प्रायश्चित्तैः पृथग्विधैः।। 2. याज्ञ 3/226; . 'प्रायश्चित्तरपैत्येनो, यदज्ञानकृतं भवेत्। कामतो व्यवहार्यस्तु वचनादिह जायते।। 3. व्यभा 52 पडिसेवियम्मि दिज्जति, पच्छित्तं इहरहा उ पडिसेहे। 4. पंव 465 / ५.जीभा 315, 316 / 6. पारा 8/4 / Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य __ प्रायश्चित्त के द्वारा अपरिणामक और अतिपरिणामक मुनियों के मन में यह विश्वास पैदा किया जाता है कि प्रायश्चित्त के द्वारा संघ में विशुद्धि कराई जाती है तथा शेष मुनियों के मन में प्रतिसेवना के प्रति भय पैदा किया जाता है। प्रायश्चित्त प्रमादबहुल जीवों के चारित्र की रक्षा के लिए अंकुश के समान है। तत्त्वार्थवार्तिक में प्रायश्चित्त करने के अनेक प्रयोजनों का निर्देश किया गया है 1. प्रमाद जनित दोषों का निराकरण। 5. मर्यादा का पालन। २.मानसिक भावों की प्रसन्नता। 6. संयम की दृढ़ता। 3. शल्य रहित होना। 7. आराधना। 4. अनवस्था दोष का निवारण। प्रकारान्तर से शब्दभेद के साथ अनगारधर्मामृत में प्रायश्चित्त के प्रयोजन निम्न बिन्दुओं में निर्दिष्ट हैं * प्रमाद दोष का विच्छेद। * अपराध करने की परम्परा को रोकना। * मर्यादाहीनता का परिहार। * ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की सम्यक् आराधना। * भावों की निर्मलता। * संयम में दृढ़ता। * शल्यरहित होना। प्रायश्चित्त भाव-चिकित्सा का सशक्त माध्यम है। भाष्यकार के अनुसार प्रायश्चित्त औषध के . समान है, जो राग जनित रोगों का उपशमन करता है। यदि छोटे-छोटे अपराधों का प्रायश्चित्त नहीं किया जाता है तो वे बड़े अपराधों के कारण बन जाते हैं। इस संदर्भ में भाष्यकार ने चार उदाहरण प्रस्तुत किए हैं 1. संकरतृण-एक किसान नाली से खेत में पानी दे रहा था। उसमें संकरतृण तिरछा अटक गया। उसको नहीं निकालने से उसके सहारे अन्यान्य तृण भी वहां अटक गए। इससे सारणि से आने वाला पानी रुक गया और खेत सूख गया। 2. शकट-शकट पर छोटे-छोटे पत्थर डाले गए। उन पत्थरों को हटाया नहीं गया। एक दिन उस पर बड़ा पत्थर रखा गया, इससे शकट टूट गया। १.बृभा 6038; 3. तवा 9/22 पृ. 620 ; प्रमाददोषव्युदासः भावप्रसादो तेसिं पच्चयहेउं, जे पेसविया सुयं व तं जेहिं / नैःशल्यम् अनवस्थावृत्तिः मर्यादाऽत्यागः संयमदाढयभयहेउ सेसगाण य, इमा उ आरोवणारयणा / / माराधनमित्येवमादीना सिद्धयर्थं प्रायश्चित्त नवविध 2. निभा 6677 ; विधीयते। पच्छित्तेण विसोही, पमायबहुलस्स होइ जीवस्स। 4. अनध 7/35, 36, पृ.५११। तेण तदंकुसभूतं, चरित्तिणो चरणरक्खट्ठा।। 5. निभा 6507 / Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 55 3. सर्षप-एरण्ड मण्डप पर सरसों के दाने डाले गए। उनको नहीं हटाने से भार से आक्रान्त होकर वह मण्डप भग्न हो गया। 4. वस्त्र-साफ वस्त्र पर कर्दम बिंदु लगने पर उसे धोया नहीं गया। निरन्तर कर्दम बिंदु लगते रहने से एक दिन वह वस्त्र अत्यन्त मलिन होने से त्याज्य हो गया। ___ इन सब उदाहरणों की भांति जो दोष को अल्प समझकर प्रायश्चित्त नहीं लेता, उसका पूरा चारित्र नष्ट हो जाता है। स्मृतिकार के अनुसार जो व्यक्ति पापकर्म में लिप्त रहकर प्रायश्चित्त नहीं करते, वे अत्यन्त भयंकर और कष्टमय नरकों में जाते हैं। वशिष्ठ स्मृति के अनुसार प्रायश्चित्त करने वालों का इहलोक और परलोक-दोनों सुखद हो जाते हैं। भविष्यत् पुराण आदि ग्रंथों में भी प्रायश्चित्त की महत्ता पर बहुत कुछ लिखा गया है। ___यदि आचार्य दोष सेवन करने पर प्रायश्चित्त न दें तो संघ में अनवस्था दोष का प्रसंग आ जाता है। इस प्रसंग में भाष्यकार ने तिलहारक का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। एक बालक अपने गीले शरीर से तिल के देर में घुस गया। उसके पूरे शरीर में तिल चिपक गए। मां ने उसे कुछ नहीं कहा। धीरे-धीरे वह चोरी करने में दक्ष हो गया। एक बार वह पकड़ा गया। राजपुरुषों ने उसकी मां के भी स्तन काट लिए क्योंकि वह मां के निवारित न करने पर चोर बना था। दूसरा बालक भी अपने शरीर के साथ तिल लेकर आया। उसकी मां ने उसे डांटा और तिल वापस ढेर में डाल दिए। बालक चोरी की आदत से बच गया और मां को भी स्तन'छेद का कष्ट सहन नहीं करना पड़ा। इसी प्रकार आचार्य यदि प्रायश्चित्त दे देते हैं तो दोष का निवारण हो ' जाता है तथा अन्य शिष्य भी सावधान हो जाते हैं, अन्यथा दोषों की परम्परा चलती रहती है।' ...जैन परम्परा के अनुसार अपराध चाहें जानबूझकर किया जाए या अज्ञानवश, उसका गुरु के समक्ष प्रायश्चित्त करना आवश्यक है लेकिन स्मृति-साहित्य में इस संदर्भ में दो परम्पराएं मिलती हैं। एक परम्परा के अनुसार ज्ञात या अज्ञात अवस्था में किए गए पाप का प्रायश्चित्त करना चाहिए। दूसरी परम्परा के अनुसार केवल अजानकारी में हुए पापों का ही प्रायश्चित्त संभव है, जानबूझकर किए गए पाप का प्रायश्चित्त संभव नहीं है। प्रायश्चित्त के स्थान जितने स्खलना के स्थान हैं, उतने ही प्रायश्चित्त के स्थान हो सकते हैं। भाष्यकार के अनुसार बीस असमाधिस्थान, इक्कीस शबल दोष, बावीस परीषह और तीस मोहनीयस्थान-इन सब असंयम-स्थानों १.व्यभा 555 मटी प. 32, निभा 6601 चू पृ. 374 / 3. याज्ञ 3/221 // 3. वशि 1/1-2 / 4. जीभा 308, 309, व्यभा 4209, 4210 / Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 जीतकल्प सभाष्य का प्रयोग करने से प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। असंयम-स्थानों की राशि को उपमित करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि पल्योपम और सागरोपम में जितने बालाग्र होते हैं, उससे भी असंख्येय गुणा अधिक असंयमस्थान हैं। प्रायश्चित्त-स्थान भी उतने ही हैं। कुछ आचार्यों की मान्यता के अनुसार उन बालानों के परमाणु जितने खण्ड कर दिए जाएं, उतने असंयम-स्थान हैं। अप्रमत्त मुनि भी परीषहों को सहन न कर पाने से तथा इष्ट-अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष से अतिक्रमण करने पर प्रायश्चित्त के भागी हो जाते हैं। तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार असंख्येय लोकाकाश प्रदेश परिमाण जीव के परिणाम होते हैं। जितने परिणाम होते हैं, उतने ही अपराधस्थान होते हैं। जितने अपराध स्थान हैं, उतने ही प्रायश्चित्त-स्थान होने चाहिए लेकिन ऐसा संभव नहीं होता। व्यवहार नय की दृष्टि से दोषों की लघुता और गुरुता के आधार पर इन सबका समावेश आलोचना आदि दश प्रायश्चित्तस्थानों में हो जाता है। मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार शास्त्रोक्त कर्म न करने पर, शास्त्र-निषिद्ध हिंसा आदि निंदित कर्म करने पर तथा इंद्रियों में अत्यन्त आसक्त होने पर व्यक्ति प्रायश्चित्त का भागी बनता है। गौतमधर्मसूत्र में प्रायश्चित्त करने के निम्न निमित्त बताए गए हैं-अयोग्य व्यक्तियों के लिए यज्ञ करने पर, लहसुन आदि अभक्ष्य पदार्थ खाने पर, असत्य या अश्लील भाषण करने पर, विहित सन्ध्योपासन आदि कर्म न करने पर तथा हिंसा आदि निषिद्ध कर्म करने पर। इन स्थानों में भी कुछ ब्रह्मवादी मानते हैं कि प्रायश्चित्त करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि पृथ्वी के अंदर बोया बीज फलित होता है तथा भूमि में रखी गई निधि समाप्त नहीं होती, वैसे ही पापकर्म कम नहीं होते लेकिन कुछ मानते हैं कि प्रायश्चित्त करना चाहिए। प्रायश्चित्त-प्राप्ति के प्रकार पंचकल्पभाष्य में प्रायश्चित्त-प्राप्ति के आधार पर उसके दो भेद किए हैं औधिक और नैश्चयिक। स्वस्थान से जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह औधिक प्रायश्चित्त है, जैसे-मारक प्रहार करने पर 1. व्यभा 401 मटी प. 79; असमाहीठाणा खलु, सबला य परीसहा य मोहम्मि। पलितोवम-सागरोवम, परमाणु ततो असंखेज्जा।। 2. तवा 9/22 पृ.६२२। 3. मनु 11/44; अकुर्वन्विहितं कर्म, निंदितं च समाचरन्। प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु, प्रायश्चित्तीयते नरः।। 4. याज्ञ 3/219 विहितस्याननुष्ठानान्निंदितस्य च सेवनात्। अनिग्रहाच्चेन्द्रियाणां, नरः पतनमृच्छति।। 5. गौतम 9/1/2 पृ. 198 / 6. गौतम 9/1/3-6 पृ. 199, 200; तत्र प्रायश्चित्तं कुर्यान्न कुर्यादिति मीमांसान्ते न कुर्यादित्याहुः। न हि कर्म क्षीयते। कुर्यादित्यपरम्।। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 57 अनवस्थाप्य आदि। अर्थ से विमर्श करके जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह नैश्चयिक प्रायश्चित्त है। यह विमर्श छह पदों से किया जाता है-१. किसको? 2. कैसे? 3. कहां? 4. कब? 5. किसमें 6. कितने काल तक। इन पदों में अर्थ से विमर्श करके प्रायश्चित्त दिया जाता है• प्रथम पद में गीतार्थ अथवा अगीतार्थ किसने प्रतिसेवना की है, यह विमर्श होता है। * दूसरे पद में यतना से प्रतिसेवना की अथवा अयतना से, यह चिन्तन होता है। * तृतीय पद में मार्ग में प्रतिसेवना की या नगर में? यह विमर्श होता है। * चौथे पद में प्रतिसेवना सुभिक्ष में हुई या दुर्भिक्ष में अथवा रात में हुई या दिन में, यह विमर्श होता है। * पांचवें पद में प्रतिसेवना सकारण हुई या निष्कारण अथवा किस प्रकार के पुरुष से हुई, आचार्य से अथवा सामान्य साधु से? यह विमर्श होता है। * छठे 'केच्चिर' पद में कितनी बार प्रतिसेवना हुई तथा कितने समय तक अतिचार सेवन किया, इसका विमर्श होता है। ___इन छह पदों से चिन्तन करके प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह शुद्ध होता है। परिस्थिति समझे बिना राग-द्वेष पूर्वक दिया जाने वाला प्रायश्चित्त अशुद्ध होता है।' प्रायश्चित्त की स्थिति कब तक? ___ कुछ आचार्यों का अभिमत है कि आगमव्यवहारी का विच्छेद होने से प्रायश्चित्तदाता का अभाव हो गया अतः प्रायश्चित्त न रहने से शुद्ध चारित्र भी विद्यमान नहीं है। वर्तमान में संघ ज्ञान और दर्शनमय रह गया है। चारित्र के निर्यापकों का विच्छेद हो गया है। इस प्रश्न का समाधान भाष्य में अनेक हेतुओं से दिया गया है। भाष्यकार के अनुसार सब प्रायश्चित्तों का विधान प्रत्याख्यान प्रवाद नामक नौवें पूर्व में है। वहीं से निशीथ, कल्प और व्यवहार का निर्मूहण हुआ है अत: वर्तमान में चारित्र के प्रवर्तक, प्रायश्चित्त के प्रज्ञापक तथा प्रायश्चित्त-वाहक सभी विद्यमान हैं। जब तक षट्काय संयम है, तब तक सामायिक और छेदोपस्थापनीय-ये दो चारित्र रहेंगे। चारित्र की विद्यमानता में प्रायश्चित्त का अस्तित्व अनिवार्य है। भाष्यकार के अनुसार चतुर्दशपूर्वी और प्रथम संहनन का विच्छेद होने के बाद तीर्थ में अनवस्थाप्य और पाराञ्चित-इन अंतिम दो प्रायश्चित्तों का विच्छेद हो गया। प्रथम आठ प्रायश्चित्त तीर्थ की अवस्थिति तक रहेंगे, अंतिम दुःप्रसभ आचार्य के कालगत होने पर तीर्थ और चारित्र का भी विच्छेद हो 1. पंकभा 1850-54 / २.जीभा 268-80,311-19, व्यभा 1528-39 / बीमा 265 / 4. जीभा 265-68, व्यभा 4174, 4175 / ५.जीभा 317 / ६.जीभा 277 / Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 जीतकल्प सभाष्य जायेगा। जो छेदसूत्र के अर्थधर आचार्य होते हैं, वे आज्ञा और धारणा से व्यवहार करते हैं। आज भी छेद सूत्रों के सूत्र एवं अर्थ को धारण करने वाले मुनि हैं अतः व्यवहार चतुष्क का व्यवच्छेद चतुर्दशपूर्वी के साथ मानना युक्तिसंगत नहीं है। जब तक तीर्थ का अस्तित्व रहेगा, तब तक इन चारों का अस्तित्व रहेगा। प्रायश्चित्त के भेद सामान्य रूप से जैन परम्परा में दश प्रायश्चित्त प्रसिद्ध हैं लेकिन विवक्षा भेद से अलग-अलग भेद भी मिलते हैं-एक' दो' तीन चार छह सात आठ नौ और दस। सामान्यतया प्रायश्चित्त के दश भेद इस प्रकार हैं -1. आलोचना 2. प्रतिक्रमण 3. तदुभय 4. विवेक 5. व्युत्सर्ग 6. तप 7. छेद 8. मूल 9. अनवस्थाप्य 10. पाराञ्चित। तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी में दश और बीस प्रकार के प्रायश्चित्त आर्ष आगम में उल्लिखित हैं, ऐसा निर्देश है। बीस प्रकार के प्रायश्चित्त कौन से थे, वह परम्परा आज प्राप्त नहीं है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में प्रायश्चित्त के नौ भेद स्वीकृत किए हैं। वहां मूल, अनवस्थाप्य और पाराञ्चित-इन तीन प्रायश्चित्तों के स्थान पर परिहार, उपस्थापना-इन दो प्रायश्चित्तों का उल्लेख १.जीभा 267, व्यभा 4174 / प्रायश्चित्त है। (स्था 4/132) पंचकल्पभाष्य में चार भेदों 2. पंचकल्पभाष्य में असंयम को एकविध प्रायश्चित्त माना में प्रायश्चित्त के चार विकल्प प्रस्तुत हैंहै। (पंकभा 143) 1. ज्ञानवान्त, दर्शनवान्त, चारित्रवान्त और त्यक्तकृत्य। 3. राग और द्वेष (पंकभा 143) / 2. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव / , .. 4. ठाणं सूत्र में ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विषय में अतिक्रम, 3. अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार। व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार होने पर प्रायश्चित्त का 4. क्रोध, मान, माया, लोभ। (पंकभा 136, 137) विधान है। (स्था 3/444-47) अतः प्रायश्चित्त के तीन 6. प्रायश्चित्त के छह भेदों में आलोचना से तप पर्यन्त का भेद किए हैं-ज्ञान प्रायश्चित्त, दर्शन प्रायश्चित्त, चारित्र समाहार किया गया है। (स्था 6/19, पंकभा 141) प्रायश्चित्त। (स्था 3/470, पंकभा 137) पंचकल्पभाष्य 7. प्रायश्चित्त के सात भेदों में आलोचना से छेद पर्यन्त सात में आहार, उपधि और शय्या को त्रिविध प्रायश्चित्त के रूप भेद स्वीकृत किए गए हैं। (पंकभा 141) में स्वीकार किया है। (पंकभा 138) प्रकारान्तर से प्रायश्चित्त 8. आलोचना से मूल तक आठ प्रायश्चित्त स्वीकृत किए हैं। के तीन भेदों में आलोचना, प्रतिक्रमण और तदुभय का (स्था 8/20,) छेद के देशछेद और सर्वछेद-ये दो भेद उल्लेख भी मिलता है। (स्था 3/448, पंकभा 139) करने से अष्टविध प्रायश्चित्त होते हैं। मूल आदि का प्रायश्चित्त के त्रिविध भेद में भाष्यकार ने सचित्त, अचित्त सर्वछेद में समाहार हो जाता है। (पंकभा 141) और मिश्र-इन तीनों को भी स्वीकार किया है। (पंकभा 9. आलोचना से अनवस्थाप्य तक नौ प्रायश्चित्त स्वीकृत किए 139) हैं। (स्था 9/42) पंचकल्पभाष्य में सर्वछेद के दो भेद५. चौथे स्थान में प्रायश्चित्त के चार प्रकार हैं। ज्ञान, दर्शन संयम की उपस्थापना और मूल करने पर प्रायश्चित्त के और चारित्र के द्वारा चित्त की शुद्धि और पाप का नाश होता नौ भेद होते हैं। (पंकभा 142) है इसलिए कारण में कार्य का उपचार करके इन तीनों को १०.इसी में कुछ समय के लिए क्षेत्र से बाहर करना-यह प्रायश्चित्त माना है तथा चौथा प्रायश्चित्त है-व्यक्तकृत्य। जोड़ने पर प्रायश्चित्त के दश भेद होते हैं। (पंकभा 142) / इसका तात्पर्य है कि गीतार्थ मुनि जागरूकतापूर्वक जो 11. त 9/22 भाटी 2 पृ. 253 ; आर्षे तु दशधा विंशतिधा कार्य करता है, वह पापविशुद्धिकारक होता है इसलिए वह वाभिहितं प्रायश्चित्तम्। सवछदम Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श है। इनमें मूल के स्थान पर उपस्थापना तथा अनवस्थाप्य और पाराञ्चित-इन दोनों का परिहार में समावेश हो सकता है क्योंकि दोनों प्रायश्चित्तों में परिहार तप किया जाता है। धवलाकार ने भी इन दोनों का समावेश परिहार में किया है। मूलाचार में अनवस्थाप्य के स्थान पर परिहार तथा पाराञ्चित के स्थान पर श्रद्धान नामक प्रायश्चित्त का उल्लेख है। धवला में भी श्रद्धान नामक प्रायश्चित्त का उल्लेख है किन्तु प्रायश्चित्त के रूप में इसकी स्वीकृति गहन विमर्श की अपेक्षा रखता है। अपराध देश या सर्व जैसा होता है, उसी के आधार पर प्रतिसेवक को प्रायश्चित्त मिलता है। पणग से लेकर छेद प्रायश्चित्त तक देशभंग तथा मूल से ऊपर पाराञ्चित तक के प्रायश्चित्त सर्वभंग के अन्तर्गत आते हैं। ग्रंथकार ने प्रायश्चित्त के सभी भेदों के आगे अर्ह शब्द का प्रयोग किया है। प्रायश्चित्तार्ह शब्द प्रायश्चित्त दाता, प्रतिसेवक और प्रायश्चित्त-इन तीनों के लिए प्रयुक्त हो सकता है। जो जिस प्रायश्चित्त के योग्य हो, उसे द्रव्य, क्षेत्र आदि के आधार पर प्रायश्चित्त देने वाला प्रायश्चित्तार्ह अथवा जो प्रायश्चित्त के योग्य हो, (प्रतिसेवक) वह भी प्रायश्चित्तार्ह अथवा किस अपराध के लिए कौन सा प्रायश्चित्त उपयुक्त है, वह भी प्रायश्चित्तार्ह शब्द का वाचक है। बौद्ध परम्परा में आठ प्रकार के प्रायश्चित्तों का उल्लेख मिलता है-१. पाराजिक 2. संघादिशेष 3. नैसर्गिक 4. पाचित्तिय 5. अनियत 6. प्रतिदेशनीय 7. सेखिय 8. अधिकरण समय। इन सब प्रायश्चित्तों का विनयपिटक में विस्तार से वर्णन मिलता है। मनुस्मृति में पापमुक्ति के पांच स्थान निर्दिष्ट हैं-१. पाप को प्रकट करना, 2. पश्चात्ताप, 3. तपश्चरण, 4. वेदाध्ययन, 5. दान / ' उन्होंने जप को भी पाप-प्रक्षालन का हेतु माना है। गौतमधर्मसूत्र तथा वशिष्ठधर्मसूत्र में जप, तप, यज्ञ, उपवास एवं दान को पाप-मुक्ति का उपाय बताया है। अंगिराऋषि के अनुसार पाप का अनुताप और प्राणायाम-ये दो पापमुक्ति के साधन हैं। 1. त 9/22 / 2. षट्ध पु. 13, 5/4/26 पृ. 62 ; परिहारो दुविहो अणवट्ठओ पारंचिओ चेदि। 3. पंकभा 132, 133; पडिसेवगस्स होती, देसब्भंगो य सव्वभंगो य। अवराहे केरिसए, देसे सव्वे वि सो होति।। पणगादी जा छेदो, एसो खलु होति देसभंगो तु। मूलादिउवरिमेसं, णायव्वो सव्वभंगो तु / / 4. जैन बौद्ध भा. 2 पृ. 382 / 5. मनु 11/227; ख्यापनेनानुतापेन, तपसाऽध्ययनेन च। पापकृन्मुच्यते पापात् , तथा दानेन चापदि।। 6. मनु 11/251-53 / 7. गौतम 9/1/11 पृ. 201; तस्य निष्क्रयणानि जपस्तपो होम उपवासो दानम्। 8. प्रायश्चित्त विवेक पर उधत अंगिरा व्याख्या पृ.३०। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 जीतकल्प सभाष्य अपराध के आधार पर प्रायश्चित्त के भेद ___ अपराध के आधार पर व्यवहारभाष्य में प्रायश्चित्त के चार भेद मिलते हैं१. प्रतिसेवना-निषिद्ध आचार का समाचरण / व्यवहारभाष्य में प्रतिसेवना को ही प्रायश्चित्त कहा गया है। इसका हेतु बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि प्रतिसेवना होने पर ही प्रायश्चित्त दिया जाता है, अन्यथा प्रायश्चित्त का निषेध है। 2. संयोजना-शय्यातर, राजपिण्ड आदि भिन्न अतिचार जन्य प्रायश्चित्तों की संकलना। 3. आरोपणा-एक दोष से प्राप्त प्रायश्चित्त में दूसरे दोष के प्रायश्चित्त का आरोपण करना। 4. प्रतिकुञ्चना-माया से बड़े दोष को भी छोटे दोष के रूप में बताना। जीतकल्पभाष्य में केवल प्रतिसेवना का वर्णन है अतः आगे भूमिका में केवल प्रतिसेवना का वर्णन किया जाएगा। संयोजना आदि का विस्तार व्यवहारभाष्य में द्रष्टव्य है। प्रायश्चित्त-प्रस्तार प्रस्तार का अर्थ है-रचना या स्थापना। यदि कोई साधु अप्रमत्त और निर्दोष साधु के ऊपर दोषारोपण करता है तो वह पाप से भारी होकर स्वयं उस प्रायश्चित्त का भागी होता है। भाष्यकार ने चार प्रकार के प्रस्तारों का उल्लेख किया है-१. ज्योतिष प्रस्तार 2. छंद प्रस्तार 3. गणित प्रस्तार और 4. प्रायश्चित्त प्रस्तार।' प्रायश्चित्त प्रस्तार के छह भेद किए हैं-१. प्राणवधवाक्’२. मृषावादवाक् 3. अदत्तादानवाक् 4. अविरतिकावाक् (अब्रह्मचर्यवाद) 5. अपुरुष-नपुंसकवाक् 6. दासवाक् / यहां प्रायश्चित्त-प्रस्तार का तात्पर्य यही होना चाहिए कि यदि साधु वाणी के द्वारा अभ्याख्यान लगाकर बार-बार उसका समर्थक करता है, गृहस्थों से पूछने की बात कहता है तो उसके प्रायश्चित्त का विस्तार होता चला जाता है। भाष्यकार ने इन सबको अनेक दृष्टान्तों से समझाया है। यहां नपुंसकवाक् का एक उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है अवमरात्निक के सामाचारी आदि विषय में स्खलित होने पर रत्नाधिक मुनि के द्वारा बार-बार प्रेरित किए जाने पर अवमरात्निक मन में सोचता है कि मैं भी इसके साथ ऐसा व्यवहार करूंगा, जिससे यह अवम हो जाए अथवा प्रायश्चित्त का भागी हो जाए। अप्रमत्तता के कारण प्रयत्न करने पर भी वह रात्निक का कोई छिद्र नहीं देख पाता। वह मन में सोचता है कि मैं इसे नपुंसक सिद्ध करूंगा। यह सोचकर वह 1. व्यभा 52; पडिसेवणच्चिय पच्छित्तं.....। 3. बृभा 6130; सो जोतिस छंद गणित पच्छित्ते। २.व्यभा 36; पडिसेवणा य संजोयणा य आरोवणा य बोधव्वा। 4. बृभा 6133 / पलिउंचणा चउत्थी, पायच्छित्तं चउद्धा उ।। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 61 आचार्य के पास जाता है तो लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। गुरु के पास जाकर दोषारोपण लगाता है तो गुरुमास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उसकी बात सुनकर आचार्य उस रत्नाधिक मुनि को बुलाकर इस संदर्भ में उससे पूछते हैं और आलोचना करने को कहते हैं, उस समय वह कहता है कि मुझ पर झूठा आरोप है तो उस अवमरात्निक को चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, यदि अवमरात्निक कहता है कि मुझे इसके ज्ञातिजनों ने कहा है, ऐसा कहने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त / गृहस्थों से पूछने का कहने पर यदि साधु गृहस्थों से पूछते हैं तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त, यदि गृहस्थ निषेध करते हैं कि यह नपुंसक नहीं है तो उस अवम को षड्गुरु प्रायश्चित्त, अन्य साधुओं द्वारा नपुंसक का प्रतिषेध करने पर छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इतना होने पर भी वह अपनी बात का समर्थन करते हुए यह कहता है कि ये गृहस्थ असत्य बोलते हैं तो उस अवमरात्निक को मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। तुम दोनों साधु और गृहस्थ आपस में मिले हुए हो', ऐसा कहने पर उस अवमरानिक साधु को अनवस्थाप्य तथा 'तुम सब प्रवचन के बाहर हो', ऐसा कहने पर पाराञ्चित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। यहां एक छोटी सी घटना में केवल वाणी के असत् प्रयोग करने से प्रायश्चित्त का विस्तार होता गया अतः भाष्यकार ने इसे प्रायश्चित्त-प्रस्तार के रूप में व्याख्यायित किया है। इसी प्रकार प्राणातिपातवाक् आदि के दृष्टान्त भी ज्ञातव्य हैं। इस घटना प्रसंग में यदि अवमरात्निक एक बार दोषारोपण लगाकर फिर उसका समर्थन नहीं करता है तो उसकी प्रायश्चित्त-वृद्धि नहीं होती। रत्नाधिक भी यदि रुष्ट नहीं होता है तो उसको प्रायश्चित्त की प्राप्ति नहीं होती। यदि अवमरालिक आग्रहवश बार-बार अपनी बात का समर्थन करता है और रत्नाधिक बार-बार रुष्ट होता है तो प्रायश्चित्त में वृद्धि होती जाती है।' प्रायश्चित्त वाहक - प्रायश्चित्त वहन के आधार पर प्रायश्चित्त वाहक के दो भेद हैं-निर्गत और वर्तमान / जो छेद आदि अंतिम चार प्रायश्चित्तों का वहन करते हैं, वे निर्गत तथा तप पर्यन्त प्रथम छह प्रायश्चित्तों में स्थित हैं, वे वर्तमान कहलाते हैं। इनके दो भेद मिलते हैं -संचयित और असंचयित। छह मास तक का प्रायश्चित्त वहन करने वाले संचयित तथा इससे अधिक प्रायश्चित्त को वहन करने वाले असंचयित कहलाते हैं।' प्रायश्चित्त के लाभ रात्रि का सघन अंधकार सूर्य की एक किरण से समाप्त हो जाता है, वैसे ही प्रायश्चित्त से आत्मा १.इस सारे प्रसंग के विस्तार हेतु देखें बृभा 6129-62, टी पृ. 1620-27 २.व्यभा 472 / 3. इनके भेद-प्रभेद एवं विस्तार हेतु देखें व्यभा 472-78 मटी प.१-३। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य , का सघन अंधकार क्षणभर में विलीन हो जाता है। प्रायश्चित्त बंधन नहीं अपितु पाप-मुक्ति का सशक्त उपाय है। उत्तराध्ययन सूत्र में प्रायश्चित्त के लाभों का वर्णन करते हुए भगवान् महावीर कहते हैं कि इससे जीव पाप कर्मों की विशोधि करता है। वह जीव अतिचार जन्य मलिनता से रहित हो जाता है। सम्यक् प्रायश्चित्त करने से जीव मार्ग-सम्यक्त्व तथा उसके फल-सम्यग्ज्ञान को विशुद्ध कर लेता है तथा आचार-चारित्र और उसके फल-मोक्ष की आराधना करता है। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार प्रायश्चित्त . करने से व्यक्ति निर्मल अंत:करण वाला तथा मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त कर लेता है। महानिशीथ के अनुसार जैसे उपचार के अभाव में सर्प खाए व्यक्ति के न चाहने पर भी उसका विष आगे से आगे बढ़ता जाता है, वैसे ही जब तक व्यक्ति प्रायश्चित्त नहीं करता, उसका पाप बढ़ता जाता है। ग्रीष्मऋतु में सुस्वादु शीतल जल भीतर की गर्मी को उपशांत कर देता है, वैसे ही प्रायश्चित्त आत्मप्रदेशों . की उत्तप्तता को शान्त कर देता है। बड़े से बड़ा पाप करके भी प्रायश्चित्त कर लेने वाला व्यक्ति अपने परलोक को सुधार लेता है। स्थविरकल्पी और जिनकल्पी के प्रायश्चित्त में अंतर स्थविरकल्पी की अपेक्षा जिनकल्पी की साधना अधिक ऊंची होती है। जिनकल्पी के लिए अपवाद-सेवन का कोई विकल्प नहीं होता। स्थविरकल्पी को दश प्रायश्चित्त तथा जिनकल्पी को प्रारम्भ के आठ प्रायश्चित्तों की प्राप्ति होती है। दोष-सेवन के चार स्तरों-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार में स्थविरकल्पी को प्रारम्भिक तीन के लिए तप प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं होता, केवल मिथ्यादुष्कृत करने मात्र से उसके पाप की शुद्धि हो जाती है। जैसे कोई स्थविरकल्पी मुनि आधाकर्म आहार का निमंत्रण प्राप्त करके प्रस्थान कर देता है तथा उस आहार को ग्रहण कर लेता है तो वह उसको परिष्ठापित करके शुद्ध हो जाता है। उसे खाने पर अनाचार दोष होता है तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है लेकिन जिनकल्पी को अतिक्रम आदि चारों पदों में प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। प्रायः जिनकल्पी चारों पदों का सेवन नहीं करते जिनकल्पी को अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार में गुरुमास तथा अनाचार में चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। स्थविरकल्पी यदि मन से अगुप्त या असमित है तो भी उसे तप प्रायश्चित्त नहीं आता लेकिन जो जिनकल्पी हैं, वे यदि मन से भी अगुप्त या असमित होते हैं तो उन्हें चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। प्रायश्चित्तों के प्रतीकाक्षर प्राचीन हस्तप्रतियों में प्रायश्चित्त सम्बन्धी कुछ संक्षिप्त सांकेतिक संज्ञाओं का प्रयोग भी किया १.उ 29/17 / 4. व्यभा 434, निभा 6497, 6499 चू पृ. 338 / 2. याज्ञ 3/220 / ५.व्यभा 44 मटी. प. 18 / ३.जीभा 287 / 6. व्यभा 61 मटी प. 24 / Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श _ङा गया है। इसका सबसे अधिक प्रयोग निशीथ भाष्य एवं उसकी चूर्णि में किया गया है। उदाहरणार्थ कुछ प्रायश्चित्त एवं उनके प्रतीक इस प्रकार हैं• चतुर्लघु - ङ्क * लघुमास - * चतुर्गुरु - ङ्का * गुरु - द्दी या गु * षड्लघु - फु * लघु - द्दि या ल * शुद्ध - सु दशवैकालिक अगस्त्यसिंह चूर्णि में प्रायश्चित्त के प्रतीकाक्षर और प्रतीक अंक भी मिलते हैं। निर्ग्रन्थ और संयत में प्रायश्चित्त आचार-विशुद्धि की तरतमता के आधार पर जैन परम्परा में निर्ग्रन्थ के पांच भेद मिलते हैं१. पुलाक 2. बकुश 3. कुशील 4. निर्ग्रन्थ 5. स्नातक। भाष्यकार ने निर्ग्रन्थों में पाए जाने वाले प्रायश्चित्तों का उल्लेख किया है पुलाक निर्ग्रन्थ को तप प्रायश्चित्त तक प्रथम छह प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। बकुश एवं प्रतिसेवना कुशील में स्थविरकल्पी को दश तथा जिनकल्पिक को आठ प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं। निर्ग्रन्थ के लिए आलोचना एवं विवेक-इन दो प्रायश्चित्तों का विधान है। स्नातक के लिए केवल विवेक प्रायश्चित्त विहित है। चारित्र के आधार पर प्रायश्चित्तों की योजना इस प्रकार है सामायिक चारित्र वाले स्थविरकल्पी को छेद और मूल छोड़कर आठ प्रायश्चित्त दिए जाते हैं। जिनकल्पिक सामायिक संयमी को तप पर्यन्त छह प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं। छेदोपस्थापनीय में स्थित स्थविरकल्पी के लिए दस प्रायश्चित्त तथा जिनकल्पी के लिए मूल पर्यन्त आठ प्रायश्चित्तों का विधान है। परिहारविशुद्ध स्थविरकल्पी के लिए प्रथम आठ तथा परिहारविशुद्ध जिनकल्पी के लिए प्रथम छह प्रायश्चित्तों का विधान है। सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यातसंयत के लिए आलोचना तथा विवेक-ये दो प्रायश्चित्त विहित हैं। - जब तक तीर्थ का अस्तित्व है, तब तक निर्ग्रन्थों में बकुश एवं प्रतिसेवना कुशील तथा संयतों में इत्वरिक सामायिक संयत एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र–इनका अस्तित्व रहेगा।' 1. दशअचू पृ. 250-52 / ५.जीभा 284, व्यभा 4187 / 2. जीभा 281, व्यभा 4184 / ६.जीभा 286-89, व्यभा 4189-92 / ३.जीभा 282, व्यभा 4185 / 4. जीभा 283, व्यभा 4186 / Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 जीतकल्प सभाष्य प्रायश्चित्त-दान में सापेक्षता एवं तरतमता प्रायश्चित्त-दान में सापेक्षता का होना अत्यन्त अनिवार्य है। निरपेक्षता प्रायश्चित्त को विकलांग बना देती है। जैन आचार्यों ने प्रायश्चित्त-दान के प्रतिपादन में अनेकान्त दृष्टि का प्रयोग किया है। एस. बी. ड्यू के अनुसार जैनों की प्रायश्चित्त-विधि प्रजातान्त्रिक स्वरूप को लिए हुए है। इसमें लचीलापन भी है।' सापेक्षता और निरपेक्षता को स्पष्ट करने के लिए भाष्यकार ने सापेक्ष और निरपेक्ष धनिक और धारणक का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। निर्धन को उधार दिया हुआ धन यदि प्राप्त नहीं होता है तो सापेक्ष धनिक कुछ समय प्रतीक्षा करता है, वह उससे दूसरा काम करवाकर अपने धन को उपाय से प्राप्त कर लेता है लेकिन निरपेक्ष धनिक स्वयं, धन तथा धारणक–तीनों की हानि कर देता है। सापेक्ष प्रतिसेवक प्राप्त सारे प्रायश्चित्त को सहजता से स्वीकार कर लेता है लेकिन निरपेक्ष प्रतिसेवक को यदि परिस्थिति समझे बिना प्रायश्चित्त दिया जाता है तो वह उससे विमुख होकर साधु वेश को छोड़ देता है। एक-एक के जाने से तीर्थ की हानि होती है। सापेक्ष आचार्य चारित्र की रक्षा और तीर्थ की अविच्छिन्न परम्परा चलाने में समर्थ होते हैं। वे शिष्य के प्रति सापेक्ष होकर सामर्थ्य के अनुसार प्रायश्चित्त वहन की अनुमति देते हैं। वे प्रतिसेवक के सम्मुख प्रायश्चित्त के अनेक विकल्प प्रस्तुत करके इच्छानुसार विकल्प ग्रहण करने की बात कहते हैं, जिससे प्रतिसेवक सहजता से प्रायश्चित्त का वहन कर सके। प्रायश्चित्तवाही मुनि के प्रति आचार्य की इस अनुकम्पा से वह शिष्य संयम में स्थिर रह जाता है। जैसे जौहरी गुणहीन बड़े रत्न का कम तथा गुणयुक्त छोटे रत्न का भी बहुत बड़ा मूल्य आंकता है अथवा बड़ी काचमणि का काकिणी जितना तथा छोटे से वज्ररत्न का भी एक लाख मुद्रा का मूल्य समझता है, वैसे ही आलोचनार्ह राग-द्वेष के अपचय और उपचय के आधार पर कम या.अधिक प्रायश्चित्त देते हैं। व्यवहारभाष्य में इसी तथ्य को जलकुम्भ और वस्त्र की चतुर्भगी से समझाया गया है - * एक वस्त्र एक जलकुम्भ से स्वच्छ होता है। * एक वस्त्र अनेक जलकुम्भों से स्वच्छ होता है। * अनेक वस्त्र एक जलकुम्भ से स्वच्छ होते हैं। * अनेक वस्त्र अनेक जलकुम्भों से स्वच्छ होते हैं। जैसे मल की वृद्धि-होने से जलकुटों की वृद्धि होती जाती है, वैसे ही प्रायश्चित्तदाता अपराध एवं राग-द्वेष की वृद्धि-हानि के आधार पर प्रायश्चित्त देते हैं। जैसे छह घड़ों से साफ होने वाले वस्त्रों की धुलाई - 1. Jain monasticjuris prudence p.25 / २.जीभा 292-303 / 3. जीभा 118-20 / 4. व्यभा 505-08 / Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 65 घर में ही कर दी जाती है, अधिक मैले वस्त्र को नदी के तट पर जाकर नाना प्रयत्नों से साफ किया जाता है, वैसे ही छेद प्रायश्चित्त तक साधुत्व अवस्था में ही शुद्धि का उपक्रम होता है। बाद के प्रायश्चित्तों में साधुत्व से बाहर जाकर पुन: उपस्थापना दी जाती है। पंचकल्पभाष्य में इसके लिए संवासी और प्रवासी शब्द का प्रयोग हुआ है। समान अपराध होने पर भी प्रायश्चित्त-दान में दारुण स्वभाव वाले को अधिक तथा भद्र स्वभाव वाले को कम प्रायश्चित्त मिलता है। इस विषमता का हेतु पक्षपात नहीं, अपितु विवेक है। भाष्यकार कहते हैं कि इंद्रिय विषयों की प्राप्ति समान होने पर भी एक व्यक्ति उनसे विरक्त होता है और दूसरा आसक्त अत: इंद्रियों के विषय प्रधान नहीं, प्रधान है अध्यात्म और मनोभाव / प्रायश्चित्त-प्राप्ति में भी राग और द्वेष प्रमाण बनते हैं, इंद्रियों के अर्थ नहीं इसीलिए समान रूप से विषय-सेवन करने पर भी एक व्यक्ति महान् प्रायश्चित्त का भागी होता है, दूसरा अल्प। इसी प्रकार गलती की पुनरावृत्ति में भी प्रायश्चित्त-दान में अंतर आ जाता है। एक साधु मासिक प्रतिसेवना जितना अतिचार सेवन करके पुनः प्रतिसेवना न करने का संकल्प कर लेता है तो मासिक प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि हो जाती है लेकिन जो मुनि बार-बार प्रतिसेवना करता है उसे मासिक प्रतिसेवना जितने अतिचार के लिए मूल और छेद प्रायश्चित्त भी प्राप्त हो सकता है। - सापेक्ष आचार्य इस तथ्य को जानता है कि केवल अपराध प्रायश्चित्त की तुला नहीं हो सकता। वे जानते हैं कि प्रायश्चित्त देने में शारीरिक सामर्थ्य और मानसिक धृति भी निमित्त बनती है। इनके आधार पर कठोर या मृदु प्रायश्चित्त दिया जाता है। भाष्यकार ने इस बात को भी दृष्टान्त से स्पष्ट किया है कि समान रूप से रोग होने पर भी जो व्यक्ति शरीर से बलवान् है, उसे वमन-विरेचन आदि कर्कश क्रियाएं करवाई जा सकती हैं किन्तु जो शरीर से दुर्बल है, उसे मृदु क्रिया द्वारा स्वास्थ्य-लाभ करवाया जाता है। इसी प्रकार धृति और संहनन से युक्त को पूरा प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। इन दोनों से हीन को कम या प्रायश्चित्त से मुक्त भी किया जा सकता है। उदाहरणार्थ किसी प्रतिसेवी को पांच उपवास, पांच आयम्बिल, पांच एकासन, पांच पुरिमार्ध और पांच निर्विगय–ये पांच कल्याणक प्रायश्चित्त स्वरूप प्राप्त हुए हों तो सापेक्ष आचार्य उस प्रतिसेवक मुनि की स्थिति देखकर नानाविध विकल्प प्रस्तुत करते हैं और सामर्थ्य के अनुसार प्रायश्चित्त वहन करने की बात कहते हैं। पांच कल्याणकों को वहन करने में असमर्थ मुनि को चार, तीन, दो और एक कल्याणक प्रायश्चित्त वहन करने को कहते हैं। वह न कर सकने पर एक निर्विगय १.पंकभा 1945, 1946 / 2. व्यभा 4026, मटी प.३०; तुल्येऽप्यपराधे दारुणानामन्यत प्रायश्चित्तमन्यत् भद्रकाणाम्। 3. व्यभा 1028, 1029 मटी प. 15 / 4. व्यभा 339 / 5. व्यभा 544,545 / Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 जीतकल्प सभाष्य करने की बात कहते हैं। इस उपक्रम से मुनि की विशोधि हो जाती है और वह संयम में स्थिर हो जाता है। उपाय के अभाव में प्रतिसेवी विशोधि को भूलकर और अधिक कलुषित हो जाता है। कुछ भी प्रायश्चित्त न देने पर भी अनवस्था दोष होता है। दुर्बल को कम और बलिष्ठ को अधिक प्रायश्चित्त देने पर तर्क उपस्थित हो सकता है कि निर्बल के प्रति आचार्य का राग और बलिष्ठ के प्रति द्वेष है। इस तर्क का समाधान देते हुए आचार्य कहते हैं कि जैसे नवोदित अग्नि शीघ्र ही बुझ जाती है, वैसे ही दुर्बल व्यक्ति को अधिक प्रायश्चित्त देने से उसका धृतिबल और संहनन टूट जाता है लेकिन बड़े काष्ठ की प्रज्वलित अग्नि अन्य काष्ठों को भी जला देती है अतः धृति और संहनन से बलिष्ठ व्यक्ति बड़े से बड़े प्रायश्चित्त को वहन कर सकता है। इसी प्रकार दुर्बल को अधिक प्रायश्चित्त देने पर वह टूट जाता है और बलिष्ठ को कम प्रायश्चित्त देने पर उसकी शुद्धि नहीं होती। ___ यदि आचार्य दोष के अनुरूप प्रायश्चित्त न देकर कम प्रायश्चित्त देते हैं तो भी प्रतिसेवक की शोधि नहीं होती। इस संदर्भ में भाष्यकार ने राजकन्याओं का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। राजा की कन्याएं गवाक्ष आदि का अवलोकन करती थीं, अंत:पुर पालक उनका निवारण नहीं करता था। एक बार वे किसी धूर्त के साथ भाग गईं। इसी प्रकार दूसरे अंत:पुर पालक ने जैसे ही कन्या को गवाक्ष में देखा, उसे उपालम्भ देकर उसका निवारण किया। यह देखकर शेष कन्याओं के मन में भी भय उत्पन्न हो गया। राजा ने उस अंत:पुर पालक को सम्मानित किया। ___ गीतार्थ और अगीतार्थ को प्रायश्चित्त देने में भी आचार्य को सापेक्षता का प्रयोग करना पड़ता है। इस संदर्भ में भाष्यकार ने वणिक् और मरुक का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। वणिक् और मरुक बीस-बीस शकटों पर माल लेकर चले। सबमें समान वजन था। शुल्कपाल ने प्रत्येक शकट का बीसवां हिस्सा शुल्क मांगा। वणिक् ने तत्काल चतुराई से एक शकट उसको दे दिया लेकिन मरुक ने प्रत्येक शकट से बीसवां हिस्सा दिया। गीतार्थ साधु वणिक् के समान होता है, वह स्थापना आरोपणा के बिना ही प्रायश्चित्त स्वीकार कर लेता है लेकिन अगीतार्थ मरुक के समान होता है, उसे स्थापना आरोपणा के विधान से प्रायश्चित्त दिया जाता है, तभी उसे विश्वास होता है कि मेरी शुद्धि हुई है। अध्यवसाय भेद से भी प्रायश्चित्त में तरतमता हो जाती है। जो अपराध करके अनुताप करता है पश्चात्ताप करता हुआ मन ही मन दु:खी होता है, उसके अनुताप से प्रायश्चित्त भी कम हो जाता है। जो 1. जीभा 304-07, व्यभा 4205-08 / २.व्यभा 494 / 3. व्यभा६६६-६९। ४.व्यभा 453-57 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श जिनप्रज्ञप्त भावों पर श्रद्धा न करता हुआ दोष-सेवन करके निधि-प्राप्ति की भांति पुलकित होता है, उसका प्रायश्चित्त बढ़ता चला जाता है। श्रमण के आधार पर भी प्रायश्चित्त-दान में तरतमता आ जाती है। पार्श्वस्थ को जिस अपराध पद में जितना प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, उसी अपराधपद में यथाच्छंद का प्रायश्चित्त वृद्धिंगत हो जाता है। जैसे पार्श्वस्थ को लघुमास तो यथाच्छंद को चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। पार्श्वस्थ को चतुर्लघु तो यथाच्छंद को चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आचार्य मलयगिरि ने यथाच्छंद की प्रायश्चित्त-वृद्धि के ये कारण बताए हैं-आगम विरुद्ध आचरण और अधिक दोषयुक्त कुमत की प्ररूपणा। वैदिक परम्परा में भी सापेक्षता से दण्ड देने का विधान है। गौतमधर्मसूत्र के अनुसार पुरुष की शारीरिक शक्ति, अपराध और अपराध की पुनरावृत्ति का ज्ञान करके दण्ड देना चाहिए। मनुस्मृति में भी इसी तथ्य की स्वीकृति है। प्रतिसेवना प्रतिसेवना का अर्थ है-दोष का आचरण। प्रतिसेवना को परिहारस्थान भी कहा जाता है क्योंकि प्रतिसेवना परिहार करने योग्य होती है। ओघनियुक्ति में प्रतिसेवना के निम्न एकार्थक मिलते हैं -मलिनता, भंग, विराधना, स्खलना, उपघात, अशोधि और शबलीकरण / बिना कारण अकुशल परिणामों से की गई प्रतिसेवना अशुद्ध तथा प्रायश्चित्तार्ह होती है। सालम्बन एवं कुशल परिणामों से की गई प्रतिसेवना शुद्ध होती है। प्रतिसेवना के भेद .. जीतकल्प सूत्र में प्रतिसेवना करने के चार कारणों का उल्लेख मिलता है। कारण में कार्य का उपचार करके वहां प्रतिसेवना के चार भेद मिलते हैं - 1. आकुट्टिका-जानते हुए हिंसा आदि करना। 1. व्यभा५१५,५१६। 6. व्यभा 39 / 2. व्यभा 875 मटी प. 116 / 7. जी 74 / 3. गौतम 2/3/48 पृ. 130; पुरुषशक्त्यपराधानुबन्धविज्ञाना 8. निशीथ भाष्य में 'आकुट्टिका' के स्थान पर 'अनाभोग' - -दण्डनियोगः। शब्द का प्रयोग है। दोनों शब्दों में शाब्दिक अंतर भी है। 4. मनु 11/209 ; शक्तिं चावेक्ष्य पापं च, प्रायश्चित्तं अनाभोग का अर्थ है-अजानकारी अथवा विस्मृति से प्रकल्पयेत्। अतिचार सेवन करना। ईर्या आदि समिति में अत्यन्त ओनि.७८८; विस्मृति से उपयुक्त न होने के कारण प्राणातिपात नहीं पडिसेवणा मइलणा, भंगो य विराहणा य खलणा य।। होता लेकिन उपयोगशून्यता के कारण प्रतिसेवना होती उवधाओ य असोही, सबलीकरणं च एगट्ठा।। है। (निभा 90 चू. पृ. 42) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य . 2. दर्प-निष्कारण धावन, डेवन आदि करना। इसके दश भेदों की चर्चा आगे की जाएगी। 3. प्रमाद-कषाय, विकथा आदि प्रमाद से प्रतिसेवना करना। 4. कल्प-कारण उपस्थित होने पर अतिचार सेवन करना।' इसके चौबीस भेदों की व्याख्या आगे है। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के अनुसार दर्प प्रतिसेवना करने वाले के प्रायश्चित्त में एक स्थान की वृद्धि हो जाती है। यदि प्रमाद प्रतिसेवना से निर्विगय से तेले तक का प्रायश्चित्त मिलता है तो दर्प प्रतिसेवना में पुरिमार्थ से. चोले तक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आकुट्टिका प्रतिसेवना करने वाले को -- एकासन से लेकर पंचोले तक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि जानबूझकर प्राणातिपात आदि किया जाता है तो स्वंस्थान में मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। कल्प प्रतिसेवना होने पर मिथ्याकार-मिच्छामि दुक्कडं " प्रतिक्रमण तथा तदुभय प्रायश्चित्त से शुद्धि हो जाती है। ... प्रकारान्तर से चारित्र की मलिनता और उसकी सम्पूर्ण समाप्ति के आधार पर प्रतिसेवना के दो भेद * मिलते हैं-देशत्यागी और सर्वत्यागी। जिस अपराध से मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति नहीं होती, जो चारित्र के देशभाग को मलिन करती है, जिससे ज्ञान, दर्शन और चारित्र का अंश बाकी रहता है तथा जिसमें उत्तरगुण से सम्बन्धित प्रतिसेवना की जाती है, वह देशत्यागी प्रतिसेवना है। इसके विपरीत जिससे मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, ज्ञान आदि का सम्पूर्ण नाश हो जाता है, सम्पूर्ण चारित्र मलिन या विनष्ट हो जाता है तथा जो मूलगुण से सम्बन्धित प्रतिसेवना होती है, वह सर्वत्यागी प्रतिसेवना कहलाती है। - पंचकल्पभाष्य में 'प्रतिसेवना कल्प' के बारे में विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है, जिसमें प्रतिसेवना कब शुद्ध और कब अशुद्ध होती है, इसका विशद विवेचन है। मूलतः प्रतिसेवना के दो भेद हैं -दर्प एवं कल्प। ये दोनों प्रतिसेवनाएं दो-दो प्रकार की होती हैं-मूलगुण विषयक और उत्तरगुण विषयक। मूलगुण विषयक प्रतिसेवना प्राणातिपात आदि पांच प्रकार की तथा उत्तरगुण प्रतिसेवना पिण्डविशोधि आदि से सम्बन्धित होती हैं। दर्प प्रतिसेवना राग द्वेष के वशीभूत होकर निष्कारण दर्प से की जाने वाली दर्प प्रतिसेवना कहलाती है। निशीथभाष्य में इसे प्रमाद प्रतिसेवना भी कहा है। निष्कारण प्रतिसेवना करने वाला साधु अगाध सागर में 1. निशीथ भाष्यकार एवं चूर्णिकार ने इन चारों का समाहार 4. जी 76, जीभा 2271, 2272 / दर्प और कल्प-इन दो प्रतिसेवनाओं में कर दिया गया ५.निभा 481, 482, चू. पृ. 161 / है। (निचू 1 पृ.४२; तम्हा चउहा पडिसेवणा दुविहा भवति ६.पंकभा 2532-48 / दप्पिया कप्पिया य।) ७.व्यभा 41 / 2. जी 75 / 8. निभा 91 ; दप्पो तु जो पमादो। 3. जीभा 2269, 2270 / / Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श डूब जाता है। इसके दश भेद हैं१. दर्प-बिना कारण व्यायाम, बाहुयुद्ध एवं धावन आदि करना। 2. अकल्प्य उपभोग-पूर्णतः अचित्त हुए बिना सचित्त ग्रहण करना अथवा अगीतार्थ द्वारा लाए गए अकल्प्य आहार का भोग करना। 3. निरालम्ब-ज्ञान आदि के आलम्बन बिना दोष सेवन करना अथवा अमुक साधु ने दोष सेवन किया है तो फिर मैं भी करूं तो क्या दोष है, ऐसा सोचकर दोष सेवन करना। 4. त्यक्त-असाध्य रोग में जिस अपवाद का सेवन किया, स्वस्थ होने पर भी उसी का प्रयोग करना। 5. अप्रशस्त-बल, वर्ण आदि की वृद्धि के लिए अशुद्ध भोजन का सेवन करना। 6. विश्वस्त-लोक और लोकोत्तर के विरुद्ध अकृत्य का सेवन करते हुए भी परप्रक्ष तथा श्रावक आदि से लज्जित नहीं होना। . 7. अपरीक्ष्य-संयम में लाभ-हानि का विमर्श किए बिना प्रतिसेवना करना। 8. अकृतयोगी-तीन बार एषणीय की गवेषणा किए बिना प्रथम बार या दूसरी बार में अनेषणीय ग्रहण __करना। 9. अननुतापी-दूसरों को परितापित करके अथवा पृथ्वीकाय आदि का संघट्टन, परितापन करके बाद में पश्चात्ताप नहीं करना। 10. निःशंक -अकरणीय कार्य करते हुए इहलोक और परलोक कहीं से भी भय या शंका नहीं करके प्रतिसेवना करना। कल्प प्रतिसेवना . कुशल परिणामों से दर्शन, ज्ञान आदि की वृद्धि हेतु जो प्रतिसेवना की जाती है, वह कल्प प्रतिसेवना है। इसे अप्रमाद प्रतिसेवना भी कहा जाता है। निशीथ भाष्य के अनुसार महामारी, दुर्भिक्ष, राजप्रद्वेष, भय, ग्लानत्व, भयानक अटवी, नगर-अवरोध आदि उपद्रवों की स्थिति में यतनापूर्वक यदि मूलगुण और उत्तरगुण विषयक प्रतिसेवना की जाए तो वह भी कल्प-प्रतिसेवना है। गीतार्थ परिस्थिति 1. आवनि 775 / / 2. तीन बार एषणीय की एषणा करने पर भी यदि एषणीय की प्राप्ति न हो तो चौथी बार अनेषणीय ग्रहण किया जा सकता है। 3. जीभा 589-99, विस्तार हेतु देखें निभा 463-73 चू. . पृ.१५७-५९। 4. चूर्णिकार के अनुसार कारण उपस्थित होने पर गीतार्थ, कृतयोगी और उपयुक्त साधु यतनापूर्वक जो प्रतिसेवना करता है, वह कल्प प्रतिसेवना है। (जीभा 2267, जीचू पृ. 25; कप्पपडिसेवणा नाम कारणे गीयत्थो कडजोगी उवउत्तो जयणाए पडिसेवेज्जा।) 5. निभा 458; असिवे ओमोदरिए, रायट्टे भये य गेलण्णे। अद्धाणरोधए वा, कप्पिया तीस वी जतणा।। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 जीतकल्प संभाष्य आने पर राग-द्वेष से मुक्त होकर कल्प प्रतिसेवना करता है अत: वह प्रायश्चित का भागी नहीं होता। माया के साथ सालम्बन प्रतिसेवना करने पर चारित्र का भेद होता है। व्यवहारभाष्य की पीठिका में आचार्य के संदर्भ में जो सालम्ब प्रतिसेवना की बात कही है, उसका संकेत कल्पिका प्रतिसेवना की ओर होना चाहिए। आचार्य के ग्लान होने पर वे इस आलम्बन से सावध चिकित्सा रूप प्रतिसेवना करते हैं कि स्वस्थ होकर मैं तीर्थ की परम्परा अविच्छिन्न रखूगा, सूत्र और अर्थ का अध्ययन करूंगा, तपोपधान में उद्यम करूंगा तथा गण की नीति पूर्वक सारणा-वारणा करूंगा, इस प्रकार ऋजुता पूर्वक सालम्ब प्रतिसेवना करने वाला आचार्य मोक्ष को प्राप्त करता है। भाष्यकार के अनुसार कारण उपस्थित होने पर यद्यपि कल्प प्रतिसेवना अनुज्ञात है फिर भी सावध होने के कारण निश्चय नय में वह अकरणीय ही है। कारण उपस्थित होने पर लाभ-हानि का चिन्तन करने वाले वणिक् की भांति सोच समझकर अकरणीय प्रतिसेवना में प्रवृत्त होना चाहिए। भाष्यकार कहते हैं कि अनुज्ञात होने पर भी कल्पिका प्रतिसेवना का वर्जन करने में आज्ञाभंग का दोष नहीं है। कल्प प्रतिसेवना का प्रयोग न करने से दृढ़धर्मिता, बार-बार दोष-सेवन न होना तथा जीवों के प्रति करुणा आदि गुण प्रकट होते है अतः कल्पिका प्रतिसेवना का प्रयोग सहसा नहीं करना चाहिए। जीतकल्पभाष्य तथा निशीथभाष्य में कल्पिका प्रतिसेवना के 24 भेद प्राप्त होते हैं१. दर्शन-दर्शन प्रभावक सिद्धिविनिश्चय तथा सन्मतितर्कप्रकरण आदि ग्रंथों को अधिगम करने हेतु की जाने वाली प्रतिसेवना। 2. ज्ञान-सूत्रार्थ को धारण करने में समर्थ न होने पर असंथरण की स्थिति में ज्ञान के निमित्त की जाने वाली प्रतिसेवना। 3. चारित्र-चारित्र के अन्तर्गत अनिर्वाह की स्थिति में एषणा एवं स्त्री सम्बन्धी दोष उत्पन्न होने वाले क्षेत्र में विहरण करते हुए होने वाली प्रतिसेवना। 4. तप-'आगे तप करूंगा' यह सोचकर घृत आदि का सेवन करना तथा विकृष्ट तप के पारणे में दोष सहित चावल की पेया आदि का सेवन करना। 5. प्रवचन-प्रवचन की प्रभावना एवं उसके रक्षार्थ गृहस्थ आदि को अभिवादन करना, जैसे-विष्णु 1. निभा 4811, 4817 चू पृ. 510,511 / 3. निभा 459, ४६०चू पृ. 155, 156 ; 2. व्यभा 183; कारणपडिसेवा वि य, सावज्जा णिच्छए अकरणिज्जा। काहं अछित्तिं अदुवा अधीतं, तवोवधाणेसु य उज्जमिस्सं। बहुसो विचारइत्ता, अधारणिज्जेसु अत्थेसु।। गणं व नीइए य सारविस्सं,सालंबसेवी समवेति मोक्खं / / / जति वि य समणुण्णाता, तह वि य दोसो ण वज्जणे दिट्ठो। दढधम्मता हु एवं, णाभिक्खणिसेव-णिद्दयता।। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 71 अनगार ने एक लाख योजन की विकुर्वणा की थी। 6. समिति-आंख की ज्योति बिना मैं ईर्या की शुद्धि नहीं कर सकूँगा अतः आंख के उपचार हेतु सावद्य क्रिया करना। इसी प्रकार भाषा समिति और एषणा समिति आदि के बारे में जानना चाहिए। 7. गुप्ति-मन, वचन आदि की अगुप्ति होने पर मद्य आदि का सेवन करना। 8. साधर्मिक वात्सल्य-साधर्मिक वात्सल्य के लिए प्रतिसेवना करना। 9. कुल-कुल की रक्षा के लिए राजा आदि को वश में करने के लिए वशीकरण मंत्र आदि का प्रयोग करना। 10. गण-गण की रक्षा के लिए निमित्त आदि का प्रयोग करना। 11. संघ-संघ की प्रभावना के लिए चूर्ण, योग आदि का प्रयोग करना। 12-16. आचार्य, असहिष्णु राजा, ग्लान, बाल और वृद्ध की समाधि हेतु पंचक यतना से वस्तु की याचना करना। 17-21. उदक-प्लावन, अग्नि, चोर, श्वापदभय-इन चारों की भयपूर्ण स्थिति में स्तम्भिनी विद्या का प्रयोग, पलायन तथा वृक्ष पर चढ़ना आदि करना। 22. कान्तार–सघन अटवी में भक्त-पान के अभाव में प्रलम्ब आदि फल का सेवन करना। 23. आपत्ति-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धी आपदा में शुद्ध द्रव्य प्राप्त न होने पर की जाने वाली - प्रतिसेवना करना। 24. व्यसन-मद्यपान व्यसनी गायक के दीक्षित होने पर यतनापूर्वक मदिरा ग्रहण करना। दपिका और कल्पिका प्रतिसेवना में भेद दर्प प्रतिसेवना राग-द्वेष से तथा निष्कारण की जाती है। इसका प्रतिसेवी विराधक होता है। कल्पिका प्रतिसेवना में राग-द्वेष का अभाव होता है, यह सप्रयोजन की जाती है तथा इसका प्रतिसेवी आराधक होता है। अगीतार्थ कार्य-अकार्य अथवा यतना और अयतना को नहीं जानता हुआ जो प्रतिसेवना करता है, वह दर्प प्रतिसेवना है। यदि गीतार्थ भी दर्प प्रतिसेवना अथवा अयतना से कल्प प्रतिसेवना करता १.विष्ण मनि ने लक्षयोजन की विकुर्वणा की, वह उत्सेध पैर रखना संभव नहीं था। विष्णु कुमार की कथा के अंगुल से की या प्रमाण अंगुल से, यह एक प्रश्न है। विस्तार हेतु देखें राजेन्द्र अभि. भा.५ पृ.८८६,८८७। उत्तराध्ययन की टीका में उल्लेख मिलता है कि उन्होंने 2. जीभा 601-15, निभा 484-93 / उत्सेध अंगल प्रमाण से विकुर्वणा की। उन्होंने जम्बूद्वीप 3. निभा 363; के मध्य लवण समुद्र की खातिका में पूर्व से पश्चिम तक रागद्दोसाणुगता तु, दप्पिया कप्पिया तु तदभावा। अपने पैरों को रखा। बिना उत्सेध अंगुल के इस रूप में आराधतो तु कप्पे, विराधतो होति दप्पेणं / / Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य है तो वह प्रायश्चित्तभाक् होता है। दर्प प्रतिसेवना प्रमादी के तथा कल्प प्रतिसेवना अप्रमादी के होती है। मिश्र प्रतिसेवना निशीथभाष्य में मिश्र प्रतिसेवना का भी उल्लेख मिलता है। ज्ञान आदि का प्रशस्त आलम्बन लेकर जो सावध आचरण करता है किन्तु बाद में उसका पश्चात्ताप नहीं करता, वह मिश्र प्रतिसेवना है। इसमें सालम्बन पद शुद्ध तथा अननुताप पद अशुद्ध है। इसी प्रकार पश्चात्ताप युक्त प्रमाद प्रतिसेवना भी मिश्र प्रतिसेवना कहलाती है। इसमें पश्चात्ताप पद शुद्ध तथा प्रमाद पद अशुद्ध है। इसके दश भेद हैं - 1. दर्प-निष्कारण की जाने वाली प्रतिसेवना। 2. प्रमाद-प्रमाद से होने वाली प्रतिसेवना। 3. अनाभोग-विस्मृतिवश या अजानकारी में होने वाली प्रतिसेवना। 4. आतुर-ग्लान अवस्था में अथवा क्षुधा आदि से आतुर होने पर की जाने वाली प्रतिसेवना। 5. आपत्ति-द्रव्य, क्षेत्र आदि आपदा की स्थिति में शुद्ध द्रव्य न मिलने पर की जाने वाली प्रतिसेवना। 6. तिंतिण-पदार्थ की अप्राप्ति होने पर तिनतिनाहट करके की जाने वाली प्रतिसेवना। 7. सहसाकरण-सहसा अयतना से होने वाली प्रतिसेवना। 8. भय-राजा अथवा सिंह आदि के भय से की जाने वाली प्रतिसेवना। 9. प्रद्वेष-कषाय के वशीभूत होकर की जाने वाली प्रतिसेवना। 10. विमर्श-शिष्यों की परीक्षा के निमित्त की जाने वाली प्रतिसेवना। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार इन दश प्रतिसेवनाओं में अनाभोग और सहसाकरण-ये दो भेद कल्पिका प्रतिसेवना के वाचक होने चाहिए क्योंकि अनाभोग में प्रमाद नहीं अपितु उपयोगशून्यता की स्थिति होती है तथा सहसाकरण में उपयुक्तता होने पर भी शारीरिक स्थिति नियंत्रित न होने से या दैहिक चंचलता की विवशता के कारण हिंसा आदि का समाचरण होता है। स्थानांग और भगवती के इन भेदों को देखकर यह कल्पना की जा सकती है कि दर्प और कल्प प्रतिसेवना के भेदों की कल्पना उत्तरवर्ती आचार्यों १.व्यभा 171 / 2. निभा 91 / ३.निभा 475 चू पृ. 160; सालंबो सावज्जं, णिसेवते णाणुतप्पते पच्छा। जं वा पमादसहिओ, एसा मीसा तु पडिसेवा।। 4. निभा 477-80 / ५.स्था 10/69, भ 25/551, इन दोनों ग्रंथों में दर्प, प्रमाद आदि दस प्रकार प्रतिसेवना के भेद रूप में उल्लिखित हैं। वहां मिश्र प्रतिसेवना का उल्लेख नहीं है। स्थानांग में 'तिंतिण' के स्थान पर 'शंकित' शब्द का प्रयोग है तथा भगवती में 'तितिण' के स्थान पर 'संकिण्ण' शब्द का प्रयोग मिलता है। ६.स्था 10/69 का टिप्पण पृ. 976, 977 / Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 73 ने की है। आगम-साहित्य में प्रतिसेवना के दश भेद मिलते हैं। इनको निशीथ भाष्यकार ने मिश्र प्रतिसेवना के अन्तर्गत रखा, वह भी साधार है क्योंकि ये दसों प्रतिसेवनाएं परिस्थिति जन्य हैं। यदि इनका सेवन करके अनुताप होता है तो ये मिश्र प्रतिसेवना के अन्तर्गत आ सकती हैं। पंचकल्पभाष्य में दस प्रकार के कल्पों का वर्णन है-१. कल्प 2. प्रकल्प 3. विकल्प 4. संकल्प 5. उपकल्प 6. अनुकल्प 7. उत्कल्प 8. अकल्प 9. दुष्कल्प 10. सुकल्प। इनमें विकल्प, उत्कल्प, अकल्प और दुष्कल्प का प्रतिसेवना से सम्बन्ध है। संकल्प प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार का होता है अतः हेय संकल्प प्रतिसेवना के अन्तर्गत आता है।' प्रतिसेवना और कर्मबन्ध प्रतिसेवना होने पर भी कर्मबन्ध हो, यह आवश्यक नहीं है। कारण उपस्थित होने पर यतनापूर्वक की जाने वाली प्रतिसेवना कर्मक्षय करने वाली होती है, जैसे संघीय प्रयोजन प्रस्तुत होने पर की जाने वाली प्रतिसेवना कर्मक्षय करने वाली तथा दर्प से अयतना पूर्वक की जाने वाली प्रतिसेवना कर्मबंध का हेतु बनती है। भाष्यकार के अनुसार कर्मोदय से प्रतिसेवना होती है और प्रतिसेवना से कर्मबन्ध होता है अतः प्रतिसेवना और कर्म में बीज और अंकुर की भांति परस्पर हेतुहेतुमद् भाव का सम्बन्ध है। ज्ञान और ज्ञानी की भांति प्रतिसेवक और प्रतिसेवना में एकत्व है। प्रतिसेवक की शठता और अशठता के आधार पर कर्मबंध होता है। अकल्प्य का कल्प्य बुद्धि से सेवन करता हुआ साधु दोष का भागी नहीं होता क्योंकि वहां उसका भाव शठ नहीं है। जिसे गुण-दोष का विवेक नहीं है, वह दोष को नहीं जानता हुआ अशठ भाव से प्रतिसेवना करता है अत: वह निर्दोष होता है, उसके कर्मबन्ध नहीं होता। अध्यवसाय की मलिनता के कारण प्रतिसेवना करता है तो उसे दोष लगता है और कर्मबन्ध होता है। गूढ़-पदों में प्रतिसेवना का कथन . आज्ञा व्यवहार में जंघाबल से हीन आचार्य गूढ-पदों में अपने अतिचारों को धारणा शक्ति से समर्थ परिणामक शिष्य के साथ गीतार्थ आचार्य के पास भेजते हैं। उस समय उनकी भाषा होती है प्रथम कार्य के प्रथम पद से प्रथम षट्क के प्रथम स्थान में प्रतिसेवना हुई है। इसका तात्पर्य है प्रथमकार्य-दर्पप्रतिसेवना में प्रथमपद-निष्कारण दर्प से प्रथम षट्क का प्रथम-प्राणातिपात विषयक प्रतिसेवना हुई है। इससे 1. विस्तार हेतु देखें पंकभा 1513-1667 / २.व्यभा 225 / 13. व्यभा 226; पडिसेवणा उ कम्मोदएण कम्ममवि तं निमित्तागं। अण्णोण्णहेउसिद्धी, तेसि बीयंकुराणं च।। 4. व्यभा 40 / 5. व्यभा 174, 175 / ६.जीभा 618 / Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 जीतकल्प सभाष्य दूरस्थ गीतार्थ आचार्य जान जाते थे कि दर्प प्रतिसेवना से प्राणातिपात सम्बन्धी प्रतिसेवना हुई है। इसी प्रकार द्वितीय कार्य कहने पर कल्पिका प्रतिसेवना से सम्बन्धित प्रतिसेवना हुई है। प्रथम पद कहने से दर्शन के निमित्त तथा प्रथम षट्क अर्थात् प्राणातिपात विषयक अतिचार हुआ है। अपराध स्थान के तीन षट्क हैंप्रथम षट्क (प्राणातिपात आदि), द्वितीय षट्क (पृथ्वीकाय-विराधना आदि), तृतीय षट्क' (अकल्प्य ग्रहण आदि) दूरस्थ आलोचनाचार्य आलोचना सुनकर गूढ-पदों में प्रायश्चित्त देते थे। प्रथम कार्य अर्थात् दर्प प्रतिसेवना के दश भेदों से सम्बन्धित आलोचना सुनकर आचार्य कहते थे-'नक्षत्र (मास) जितने प्रायश्चित्त से शुद्धि हो सके, उतनी व्रत की पीड़ा हुई है अतः तुम शुक्ल (लघु) मासिक तप करो,' जीतकल्पभाष्य और व्यवहारभाष्य में इसका विस्तार से वर्णन प्राप्त है। आलोचना का स्वरूप एवं उसका महत्त्व प्रायश्चित्त का प्रथम भेद है-आलोचना। आ उपसर्ग के साथ लोचूं-दर्शने धातु से आलोचना शब्द निष्पन्न हुआ है। आलोचना का अर्थ है-मर्यादापूर्वक शुद्ध हृदय से गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना।' निशीथ चूर्णिकार के अनुसार जैसे शिष्य स्वयं अपने दोषों को जानता है, उसी रूप में गुरु के समक्ष प्रकट करना आलोचना है। आचार्य मलयगिरि के अनुसार अवश्यकरणीय कार्य करने के पहले तथा कार्य-समाप्ति के पश्चात् गुरु के समक्ष वाणी के द्वारा स्वयं के दोषों को प्रकट करना आलोचना है। कुंदकुंद निश्चय नय के आचार्य हैं अतः उनका मंतव्य है कि अपनी आत्मा को समभाव में स्थित करके अपने आत्म-परिणामों को देखना आलोचना है। मूलाराधना की टीका के अनुसार अपने अपराधों का गोपन न करने का संकल्प करना आलोचना है। ओघनियुक्ति में आलोचना, विकटना, शोधि, सद्भावदर्शन, निंदा, गर्दा, विकुट्टन, शल्योद्धरण, प्रकाशन, आख्यान और प्रादुष्करण-इन सबको एकार्थक माना है। जीतकल्पभाष्य में व्यवहार, आलोचना, १.जीभा 632 / पश्चादपि च गुरोः पुरतो वचसा प्रकटीकरणं सा चालोचना। २.जीभा 630 / 7. निसा 109; 3. जीभा 639 / जो पस्सदि अप्पाणं, समभावे संठवित्तु परिणामं / 4. जीभा 718 / आलोयणमिदि जाणह, परमजिणंदस्स उवएस।। ५.निचू 4 पृ. 271 ; आलोयणा णाम जहा अप्पणो जाणति, 8. मूला 621 टी पृ. 459 / तहा परस्स पागडं करेति। 9. ओनि 791; 6. व्यभापीटी प. 21; आलोचना नाम अवश्यकरणीयस्य आलोयणा वियडणा, सोही सब्भावदायणा चेव। कार्यस्य पूर्व वा कार्यसमाप्तेरूचं वा यदि वा पूर्वमपि निंदण गरिह विउट्टण, सल्लुद्धरणं ति एगट्ठा / / Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श शोधि और प्रायश्चित्त को एकार्थक माना है। उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका में आलोचन, विकटन, प्रकाशन, आख्यान और प्रादुष्करण-इन शब्दों को एकार्थक माना है।' तत्त्वार्थस्वोपज्ञभाष्य में विकटन के स्थान पर प्रकटन शब्द का प्रयोग है। भाष्यानुसारिणी में आचार्य सिद्धसेन ने इन शब्दों को एकार्थक मानते हुए भी आलोचना की क्रमिक अवस्था के रूप में इनकी व्याख्या की है। मर्यादापूर्वक गुरु को निवेदन करना आलोचन, गुरु के समक्ष द्रव्य, क्षेत्र आदि के भेद से अतिचारों को कहना विवरण, गुरु के चित्त में सम्यक् रूप से अतिचारों का समारोपण करना प्रकाशन, मृदुचित्त से अपने दोष बताना आख्यान तथा उसके पश्चात् निंदा और गर्दा के द्वारा अपने अतिचारों को प्रकट करना प्रादुष्करण है। __ अतिचार, स्खलना एवं अपराध होने के अनेक स्थान हो सकते हैं, जैसे-सहसा, अज्ञानवश, भय, परप्रेरणा, आपदा, रोग-आतंक, मूढ़ता और राग-द्वेष आदि। इन स्थानों से अतिचार होने पर आलोचना के द्वारा साधु अतीत के दोषों की स्वीकृति करके भविष्य में पुनः उस गलती को न दोहराने का संकल्प ग्रहण करता है। आचारांग में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि जो साधु अपनी गलती को स्वीकार नहीं करता, वह उसकी दोहरी मूढ़ता है। भाष्यकार के अनुसार साधु को मुहूर्त भर भी अतिचार शल्य को भीतर नहीं रखना चाहिए, अपराध होते ही तत्काल आलोचना करनी चाहिए। तत्काल निवेदन न करने से पुनः-पुनः अपराध करने का साहस बढ़ता जाता है। विनय पिटक में भी प्रकारान्तर से इसी तथ्य का समर्थन है। अपराध को तत्काल सूचित करने तथा कई दिनों तक छिपाकर प्रकट करने–इन दोनों स्थितियों में प्रायश्चित्त-दान में अंतर आ जाता है। आचार्य भिक्षु ने अपने साहित्य में इस तथ्य की मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति दी है। यदि कोई साधु अधिक समय का अंतराल बिताकर आचार्य को दूसरे साधु के दोष बताता है तो वह स्वयं प्रायश्चित्त का भागी बन जाता है। .. आगमों में अनेक ऐसे कथानक हैं, जहां धर्माचार्य, प्रवर्तनी आदि के द्वारा अकृत्य स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण करने की प्रेरणा दी गई है। जैसे सुकुमालिका द्रौपदी चुलनीपिता आदि। आनंद के १.जीभा 1844 / प्रथमं मृदुना चेतसा / प्रादुष्करणं निन्दा-गर्दाद्वारेण, इति 2. उशांटी प६०८ : आलोचनं विकटनं प्रकाशनमाख्यानं एवमनर्थान्तरम्-एकार्थत्वं परमार्थत इति। प्रादुष्करणमित्यनर्थान्तरम्। 6. जीभा 134, व्यभा 4056 / 3. तस्वोभा 9/22 ; आलोचनं प्रकटनं प्रकाशनमाख्यानं 7. व्यभा 4300 / प्रादुष्करणमित्यनान्तरम्।। 8. निभा 6309, व्यभा 229; 4. भाष्यानुसारिणी (9/22) में प्रकटन के स्थान पर विवरण तं न खमं खु पमातो, मुहत्तमवि अच्छितुं ससल्लेणं। शब्द का प्रयोग है। ___ आयरियपादमूले, गंतूण समुद्धरे सल्लं / / ५.तभा 9/22 टी पृ. 250; आलोचनं मर्यादनं मर्यादया 9. ज्ञा 1/16/115 / गुरोर्निवेदनम्। पिण्डिताख्यानस्य विवरणं द्रव्यादिभेदेन। 10. उपा 3/45,46 / प्रकाशनं गुरोश्चेतसि सम्यगतीचारसमारोपणम्। आख्यानं Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 जीतकल्प सभाष्य अवधिज्ञान की विशालता पर शंका करने पर भगवान् महावीर ने गौतम गणधर को उस स्थान की आलोचना करके प्रायश्चित्त तप स्वीकार करने को कहा। शुद्ध हृदय से आलोचना करने वाला भार उतारे हुए भारवाहक की भांति स्वयं को हल्का अनुभव करता है। नियुक्तिकार के अनुसार लज्जा, गौरव और बहुश्रुतता के अभिमान के कारण जो मुनि गुरु के समक्ष अपने दोषों की आलोचना नहीं करता, वह आराधक नहीं हो सकता। उसका इहलोक और परलोक-दोनों बिगड़ जाते हैं। आलोचना करने पर भी यदि गुरु द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त का पालन नहीं किया जाता तो वह बिना साफ किए धान्य की भांति महाफलदायक नहीं होता। जो साधु अपने अतिचार रूप शल्य का विशोधन नहीं करता, वह दुःख और परिक्लेश को प्राप्त करता है, इस बात को व्यवहारभाष्यकार में एक दृष्टान्त से समझाया है। एक शिकारी नंगे पैरों से जंगल में गया। उसके दोनों पैर कांटों से विद्ध हो गए। उसने न स्वयं कांटों को निकाला और न ही अपनी भार्या से निकलवाया। एक बार वह वन में गया। एक उन्मत्त हाथी ने उसका पीछा किया। शिकारी दौडने लगा लेकिन कांटों के कारण वह दौड़ नहीं सका। उसकी गति मंद हो गई। भय से मूछित होकर वह वहीं गिर गया। हाथी ने उसे रौंदकर मार डाला। दूसरा शिकारी भी जंगल में गया। उसके पैर में कांटे चुभे लेकिन उसने तत्काल उन कांटों को निकाला और शेष कांटों को अपनी पत्नी से निकलवाया। कांटों से विद्ध स्थानों को कर्णमैल और दंतमैल से भरा, जिससे वह पुनः स्वस्थ हो गया। हाथी ने उसे भी देखा लेकिन वह भागकर सुरक्षित घर लौट आया। भगवती आराधना में भी इसी तथ्य का प्रतिपादन है। बत्तीस योग-संग्रह में प्रथम योग आलोचना है', आवश्यकनियुक्ति में दी गई अट्टन मल्ल और मात्स्यिक मल्ल की कथा इसी तथ्य को प्रकट करने वाली है। महानिशीथ के प्रथम अध्याय शल्योद्धरण में विस्तार से प्रायश्चित्त और आलोचना का वर्णन किया गया है। आलोचना के प्रकार आलोचना तीन प्रकार की होती है 1. उपा 1/77-81 / 2. ओनि 806; उद्धरियसव्वसल्लो, आलोइय-निंदिओ गुरुसगासे। होइ अतिरेगलहुओ, ओहरियभरो व्व भारवहो।। 3. उनि 211; लज्जाए गारवेण य, बहुस्सुयमएण वावि दुच्चरियं। जे न कहंति गुरूणं, न हु ते आराहगा होति / / 4. तवा 9/22 ; कृतालोचनस्यापि गुरुदत्तप्रायश्चित्तम कुर्वतोऽपरिकर्मसस्यवद् महाफलं न स्यात्। 5. व्यभा 662, 663 / 6. भआ 538,539 / ७.सम 32/1 / 8. आवनि 869, हाटी प. 117 / Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श ওও 1. विहार आलोचना–बल और वीर्य होने पर भी तप, उपधान आदि में उद्यम न करने की आलोचना तथा दैनिकचर्या की आलोचना। 2. उपसम्पदा आलोचना -उपसम्पदा के लिए उपस्थित मुनि के द्वारा की जाने वाली आलोचना / उपसम्पदा आलोचना प्रशस्त-अप्रशस्त दिन में अथवा रात में कभी भी की जा सकती है। 3. अपराध आलोचना-अतिचार या अतिक्रमण की विशुद्धि हेतु की जाने वाली आलोचना। अपराध आलोचना में प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और दिशा आदि का ध्यान रखा जाता है। इन सबका वर्णन भूमिका में आगे किया जाएगा। तीनों प्रकार की उपसम्पदाएं दो-दो प्रकार की होती है -ओघ और विभाग। ओघ का अर्थ है- संक्षिप्त रूप में की जाने वाली आलोचना तथा विभाग का तात्पर्य है-विस्तारपूर्वक की जाने वाली आलोचना। उपसम्पदा का जघन्य समय छहमास तथा मध्यम बारह वर्ष तथा उत्कृष्ट यावज्जीवन होता है। ओघ विहार आलोचना कोई मुनि एक दिन या पन्द्रह दिनों के भीतर कहीं से आया है, वह यदि निरतिचार साधु है तो ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करके भोजन-वेला में ओघ आलोचना करके भोजन-मंडलि में प्रवेश कर सकता है। यह ओघ आलोचना है, जो एक दिवसीय होती है तथा दिन में ही की जाती है। इसी प्रकार मूलगुण और उत्तरगुण में अल्प विराधना होने पर तथा पार्श्वस्थ साधु को देने-लेने में अल्प विराधना होने पर ओघ आलोचना होती है। भगवती आराधना के अनुसार अपरिमित तथा बहुत अपराध करने पर, सम्यक्त्व आदि का घात होने पर ओघ आलोचना होती है। यह मूल प्रायश्चित्त प्राप्त साधु के होती है।' विभाग विहार आलोचना -पन्द्रह दिन से अधिक समय लगने पर भोजन-वेला के अतिरिक्त अन्य समय में समिति आदि की विशुद्धि के लिए विभाग आलोचना की जाती है। दूसरे गण से संविग्न साधुओं में से कोई साधु अन्य गण में आता है तो उसे अवश्य विभागत: आलोचना दी जाती है। जहां नियमतः पांच प्रकार की अथवा एक प्रकार की उपसम्पदा स्वीकार की जाती है, वहां निरतिचार होने पर भी विभागत: आलोचना देनी चाहिए। 1. व्यभा 246; दिव-रातो उवसंपय। २.व्यभा 246 ; अवराधे दिवसतो पसत्थम्मि। ३.भआ५३५ ; दिगम्बर साहित्य में 'विभाग' के स्थान पर .'पदविभाग' शब्द का प्रयोग हुआ है लेकिन वहां दोनों के स्वरूप में काफी अंतर है। ४.निभा 5452 / 5. निभा 6315 / ६.जीभा 773, निभा 6316 / 7. भआ 535,536 विटी पृ. 392 / ८.जीभा 774 / 9. जीभा 778 / 10. जीभा 780 / Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 जीतकल्प सभाष्य एक गच्छ के समनोज्ञ, सांभोजिक और गीतार्थ साधु यदि एक दिन, पांच दिन, पक्ष या चातुर्मास में जहां भी आपस में मिलते हैं, वहां विभागतः विहार आलोचना देनी चाहिए। विभाग आलोचना से पूर्व मंडलि में आहार नहीं किया जाता। अपवाद स्वरूप अग्नि-संभ्रम आदि कारण हो या सार्थ के साथ विहार हो, सार्थ जल्दी प्रस्थान करने वाला हो अथवा पात्र कम हों तो आगंतुक मुनि ओघ आलोचना करके एक साथ मंडलि में आहार करके तत्पश्चात् विभाग आलोचना कर सकता है। अपराध बहुलता के कारण यह एक या अनेक दैवसिकी हो सकती है। विहार विभाग आलोचना करने के सम्बन्ध में आचार्यों में मतभेद है। कुछ आचार्य मानते हैं कि जब शिष्य और प्रतीच्छक भिक्षार्थ, विचारभूमि या अन्य कार्य से बाहर चले जाएं तो अकेले आचार्य के पास स्पर्धकपति (अग्रणी) आलोचना करता है लेकिन कुछ आचार्यों की यह मान्यता है कि स्पर्धकस्वामी को अपने साथ आए हुए साधुओं के समक्ष आलोचना करनी चाहिए, जिससे कुछ विस्मृत हुआ हो तो वे स्मृति दिला सकें। भगवती आराधना के अनुसार दीक्षा ली, तब से हुई प्रतिसेवना के क्रम से आलोचना करना पदविभागी आलोचना है। विहार आलोचना का क्रम ___ जिस गांव में उपाश्रय छोटा हो, वहां साधु भिन्न-भिन्न उपाश्रय में रहते हैं। उस समय अलगअलग वसति में रहते हुए भी प्राभातिक और वैकालिक प्रतिक्रमण और आलोचना गुरु के पास की जाती है। यदि आचार्य का उपाश्रय दूर हो तो उद्घाट पौरुषी में आचार्य के पास जाकर आलोचना की जाती है। यदि गीतार्थ या गीतार्थ सहायक मुनि साथ न हो, प्रत्येक मुनि अलग-अलग आचार्य के पास जाकर आलोचना करते हैं तो आने-जाने में पौरुषी भंग होती है, उस स्थिति में गुरु स्वयं आलोचना देने उनके पास आते हैं। आचार्य यदि स्थविर हों, जंघाबल क्षीण हो तो अकृतश्रुत मुनि मध्याह्न में जाकर गुरु के पास आलोचना करते हैं। यदि उपाश्रय अत्यधिक दूर है तो आचार्य समनोज्ञ, धृतिमान् मध्यमवय से ऊपर वय वाले वृषभों को वहां भेजते हैं। यदि आचार्य का कोई नित्य सहायक नहीं है तो एक स्थान पर रात्रि-प्रवास करके आचार्य उनको अर्थ पौरुषी देकर मध्याह्न में दूसरे स्पर्धक मुनियों के पास जाकर आहार करते हैं। उनको प्रायश्चित्त देकर तीसरे स्पर्धक के पास आलोचना आदि देकर वहीं रह जाते हैं। इस प्रकार आचार्य एक दिन में तीन स्थानों पर स्पर्धकों की विशोधि करते हैं। किसी कारणवश आचार्य के आने की स्थिति न हो तो तीन दिन में आलोचना ली जाती है। यदि अगीतार्थ मुनि तीन पृथक्-पृथक् गांवों में हैं और आचार्य १.जीभा 781,782, व्यभा 234 / २.निभा 6315 3. व्यभा 239 / ४.भआ 537 / Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 79 आलोचना आदि की दृष्टि से उनकी संभाल नहीं करते हैं तो उन्हें चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि साधु भी आचार्य के न आने पर उनकी गवेषणा नहीं करते तो उन्हें लघुमास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। तीन स्थानों पर मुनि रुके हुए हैं और आचार्य स्थविर हैं तो वे एक दिन में एक-एक स्पर्धक मुनियों के पास रहकर आलोचना देते हैं और यदि वे सर्वथा अक्षम हैं तो दूसरे स्पर्धकद्वय आचार्य के पास आकर आलोचना करते हैं। स्पर्धक मुनियों में जो मेधावी होता है, वह सभी साधुओं के अतिचारों/अपराधों को एकत्रित करके आचार्य के पास आलोचना ग्रहण करता है। यदि आचार्य अत्यधिक दूर हैं तो पांचवें दिन अथवा पाक्षिक अथवा मासिक अथवा डेढ़ मास से आचार्य के समक्ष आलोचना ग्रहण करते हैं। यदि ऐसा भी संभव न हो तो चातुर्मासिक, वह भी संभव न हो तो सांवत्सरिक आलोचना की जाए। किसी कारण विशेष से ऐसा संभव न हो तो बारह वर्ष बीतने पर दूर से आकर भी विहार आलोचना अवश्य करनी चाहिए। ___ आचार्य हरिभद्र ने इस सारे प्रसंग का उपसंहार करते हुए पंचाशक प्रकरण में कहा है कि सुबह और शाम आलोचना करने पर भी पाक्षिकपर्व, चातुर्मासिक पर्व पर विहार आलोचना अवश्य करनी चाहिए। इसे दृष्टान्त से समझाते हुए वे कहते हैं कि जिस प्रकार जल का घड़ा प्रतिदिन साफ करने पर भी उसमें थोड़ी गंदगी रह जाती है, प्रतिदिन घर की सफाई करने पर भी पर्व दिवसों में घर की विशेष सफाई की जाती है, वैसे ही साधक को भी प्रतिदिन आलोचना करने पर भी पाक्षिक आदि पर्वो में आलोचना अवश्य करनी चाहिए। उपसम्पद्यमान शिष्य की परीक्षा एवं आलोचना अपने ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि के लिए एक गण से दूसरे गण में सम्मिलित होना उपसम्पदा है। भाष्यकार के अनुसार जो ज्ञान और चारित्र में नियुक्त है, चरणश्रेणी में स्थित है, जिसने पार्श्वस्थ आदि पांच स्थानों का त्याग कर दिया है तथा जो शिक्षापना-ग्रहणशिक्षा और आसेवन शिक्षा देने में कुशल है, ऐसे आचार्यों के पास उपसम्पदा ग्रहण करनी चाहिए।' उपसम्पद्यमान शिष्य दो प्रकार के होते हैं-समनोज्ञ और अमनोज्ञ। समनोज्ञ ज्ञान और दर्शन के लिए उपसम्पदा ग्रहण करता है। उसकी उपसम्पदा आलोचना विहार आलोचना की भांति होती है। अमनोज्ञ ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इन तीनों कारणों से उपसम्पदा ग्रहण करता है। १.व्यभा 2729-44 / २.व्यमा 234 / ३.पंचा 15/11 // 4. व्यभा 1933; नाण-चरणे निउत्ता, जा पुव्व परूविया चरणसेढी। सुहसीलठाणविजढे, निच्चं सिक्खावणा कुसला।। ५.व्यभा 247 / Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य अन्य गण से आगत उपसम्पद्यमान मुनि का आगमन और निर्गमन शुद्ध है या अशुद्ध, इसकी आचार्य पूरी परीक्षा करते हैं। यदि आचार्य उपसम्पदा के लिए इच्छुक मुनि से उसके आगमन का कारण नहीं पूछते हैं तो वे प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।' ____ यदि उपसम्पद्यमान शिष्य कलहकारी, विकृति-प्रतिबद्ध, योगोद्वहन में भयभीत, प्रत्यनीक, स्तब्ध, क्रूर, अलस, अनुबद्धवैर वाला तथा स्वच्छंदमति है तो आचार्य उसको उपसम्पदा देने का परिहार करते हैं। यदि आगत उपसम्पद्यमान भिक्षु अपने गण में आचार्य या गृहस्थ से कलह करके आया है, उसको यदि आचार्य स्वीकार करते है तो आचार्य को चतुर्लघु प्रायश्चित्त तथा संयतों से कलह करके आने वाले को स्वीकार करने पर चतर्गरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। कलह करके आए उपसम्पद्यमान साध को पांच दिनरात का छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। विकृति-प्रतिबद्ध आदि उपसम्पद्यमान शिष्यों के निवेदन का विस्तृत वर्णन भाष्यकार ने किया है। जो उपसम्पद्यमान शिष्य साधुओं को प्रत्यनीक मानकर आया है, विकृति प्रतिबद्धता के कारण आया है अथवा अनुबद्धवैर वाला आया है तो उन सबको चतुर्गुरु प्रायश्चित्त तथा शेष कारणों से आने वाले को चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इनको उपसम्पदा देने वाले आचार्य को भी यही प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसी प्रकार आचार्य को अकेला छोड़कर आने वाले, उनको अपरिणत शिष्य के पास छोड़कर आने वाले, आचार्य को अल्पाधार-(सूत्र और अर्थ की निपुणता से विकल) छोड़कर आने वाले, गुरु को स्थविर–वृद्ध अवस्था में छोड़कर आने वाले अथवा संघ में ग्लान, बहुत रोगों से आक्रान्त और मंदधर्मा शिष्यों को आचार्य के पास छोड़कर आने वाले तथा गुरु से कलह करके आने वाले को उपसम्पदा देने वाले आचार्य और उस उपसम्पद्यमान शिष्य को चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। . ___अवगुणों से युक्त उपसम्पद्यमान मुनियों का आचार्य उपाय-कौशल से निवारण करते हैं। यदि आगत मुनि ज्ञानार्थी होकर आया है तो आचार्य उसको कहते हैं कि मेरा ज्ञान अब शंकित हो गया है। शंकित ज्ञान किसी दूसरों को दिया नहीं जा सकता अतः तुम निःशंक श्रुत देने वाले आचार्य की गवेषणा करो। स्वच्छंदमति वाले शिष्य के निवारण हेतु आचार्य कहते हैं कि हमारे गण की यह सामाचारी है कि स्थण्डिलभूमि में भी मुनि एकाकी नहीं जा सकता। अनुबद्धवैर के निवारण हेतु आचार्य उसको कहते हैं कि हमारे गण में मुनि भोजनमण्डली, सूत्रमण्डली, अर्थमण्डली और स्वाध्यायमण्डली में ही नियुक्त होते 1. विस्तार हेतु देखें व्यभा 298-301 / 2. व्यभा 249 / 3. द्र.व्यभा 251-55 / ४.व्यभा 256 / ५.व्यभा 257-62 / Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श हैं, तुम ऐसा नहीं कर सकते अतः अन्यत्र किसी गण में चले जाओ। अलस उपसम्पद्यमान को कहते हैं कि हमारे गण में बाल-वृद्ध आदि अनेक मुनि हैं, वे भिक्षाचर्या हेतु नहीं जा सकते। यदि तुम भिक्षाचर्या कर सको तो रहो, अन्यथा यहां रहना ठीक नहीं है। प्रायश्चित्तभीरु को कहते हैं कि यहां छोटी सी स्खलना पर तत्काल प्रायश्चित्त दिया जाता है, कालक्षेप नहीं किया जाता। विकृति-प्रतिबद्ध को कहते हैं कि हमारे गण में योगवाही अथवा अयोगवाही सभी विकृति का वर्जन करते हैं अथवा बाल, वृद्ध, अतिथि, ग्लान आदि को उत्कृष्ट द्रव्य दिया जाता है। तुम्हारा शरीर दुर्बल है अतः विकृति के बिना तुम्हारा निर्वाह कठिन है। स्तब्ध को कहते हैं कि हमारे गण में यह सामाचारी हैं कि गुरु जब चंक्रमण करें तो शिष्य को अभ्युत्थान करना होगा अन्यथा प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ___ जिस उपसम्पद्यमान शिष्य का कलह आदि के कारण निर्गमन अशुद्ध है, वह यदि आचार्य के समक्ष यह कहे कि अब मैं इन गलतियों को नहीं दोहराऊंगा तो आचार्य उसे उपसम्पदा के लिए स्वीकार कर सकते हैं लेकिन इनमें भी जो कलह करके, अनुबद्धरोष वाला होकर आया है अथवा आचार्य को एकाकी छोड़कर आया है उसे आचार्य उपसम्पदा हेतु स्वीकार नहीं करते। जिस शिष्य का अपने गण से निर्गमन शुद्ध हो तो आचार्य उसकी तीन दिन तक परीक्षा करते हैं तथा शिष्य भी आचार्य की परीक्षा करता है। आचार्य उपसम्पद्यमान शिष्य की निम्न विषयों में परीक्षा करते हैं.–१. आवश्यक 2. प्रतिलेखन 3. स्वाध्याय 4. भोजन 5. भाषा 6. बहिर्भूमिगमन 7. ग्लान और 8. भिक्षाग्रहण। इसके अतिरिक्त गुरु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से परीक्षा करके उसे स्नुषा दृष्टान्त से यह समझाते हैं कि तुम्हारा अपना गच्छ पीहर के समान तथा हमारा गण तुम्हारे लिए श्वसुरकुल के समान है। पितृगृह में वधू का प्रमाद सहन किया जा सकता है लेकिन श्वसुरगृह में सहन करना कठिन होता . है। यहां तुम्हारा अल्प प्रमाद भी सहन नहीं होगा।' .' यदि उपसम्पद्यमान का गण निर्गमन शुद्ध है लेकिन रास्ते में गोकुल आदि में प्रतिबद्धता रहने के कारण आगमन अशुद्ध है तो उसे प्रायश्चित्त देकर उपसम्पदा दी जाती है। तीन दिन परीक्षा करने के बाद जिसका आगमन और निर्गमन दोनों शुद्ध प्रतीत होता है, उसको उपसम्पदा न देने पर आचार्य को चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। मुनि जिस लक्ष्य से उपसम्पदा ग्रहण करता है, वह लक्ष्य पूरा नहीं करता है तो उसे .१.व्यभा 277-79 टी प. 29, 30 / आवस्सग-पडिलेहण-सज्झाए भुंजणे य भासाए। २.व्यभा 265, 266 ; वीयारे गेलण्णे, भिक्खग्गहणे पडिच्छंति।। सुद्ध पडिच्छिऊणं, अपडिच्छणे लहग तिण्णि दिवसाणि। 3. गुरु के द्वारा की जाने वाली मनोवैज्ञानिक परीक्षा-विधि के सीसे आयरिए वा, पारिच्छा तत्थिमा होति।। विस्तार हेतु देखें व्यभा 267-72 / 4. बृभा 1256-61 / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 जीतकल्प सभाष्य लघुमास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि प्रमादी शिष्य की आचार्य सारणा नहीं करते तो आचार्य को लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। यदि दो-तीन बार कहने पर भी शिष्य जागरूक नहीं होता तो उस उपसम्पन्न शिष्य का आचार्य यह कहकर परित्याग कर देते हैं कि जैसे एक सड़ा हुआ ताम्बूल पत्र अन्य पत्रों को नष्ट कर देता है, वैसे ही तुम स्वयं विनष्ट होकर मेरे शिष्यों का नाश कर दोगे। यदि उपसम्पद्यमान क्षपक है और गण में पहले से ही एक क्षपक और है तो आचार्य को गण से पूछकर उसे उपसम्पदा देनी चाहिए क्योंकि दो-दो क्षपकों की वैयावृत्त्य में लगे रहने से साधुओं की सूत्र और अर्थ की हानि होती है। यदि गण अनुमति दे तो आचार्य क्षपक-तपस्वी को उपसम्पदा दे सकते हैं। बिना पूछे उपसम्पदा देने से आचार्य प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। उपसम्पद्यमान शिष्य भी उपसम्पदा ग्रहण करने से पूर्व आचार्य और संघ की परीक्षा करता है। वह गच्छवासी साधु को आवश्यक आदि क्रिया में प्रमत्त देखता है तो आचार्य को निवेदन करता है। उसकी बात सुनकर आचार्य यदि प्रमादी साधु को सावधान करते हैं, उचित प्रायश्चित्त देते हैं तो वह वहां उपसम्पदा ग्रहण करता है, अन्यथा नहीं। यदि अपराध आलोचना हेतु शिष्य उपसम्पदा लेने आया है तो आचार्य उससे पूछते हैं कि तुमने अपने गण में ही अपराध की विशोधि क्यों नहीं की? यदि आगंतुक कलह आदि की बात कहता है तो आचार्य उसे कहते हैं कि हमारे संघ में कोई प्रतिचारक नहीं है। यह क्षेत्र ऐसा है, जहां भिक्षा मिलना दुर्लभ है तथा यहां थोड़े से अपराध का भी उग्र प्रायश्चित्त दिया जाता है। हमारे संघ में विचारभूमि के लिए भी संघाटक के साथ जाना पड़ता है, अकेला साधु कहीं नहीं जा सकता। यदि इन कसौटियों पर आगंतुक उपसम्पद्यमान खरा उतरे तो आचार्य उसे उपसम्पदा देकर अपराध आलोचना करवाते हैं।' उपसम्पद्यमान की आलोचना यदि उपसम्पद्यमान पार्श्वस्थ के पास दीक्षित हुआ हो और वह स्वयं भी पार्श्वस्थ हो तो वह उस दिन से लेकर आज तक की आलोचना करता है। यदि संविग्न से मुंडित हो तो जब से अवसन्न हुआ, तब से आलोचना प्रारम्भ करता है। साम्भोजिक और असाम्भोजिक जब से अपने गच्छ से निकले हैं, तब से लेकर आलोचना करते हैं। आचार्य उन्हें तप, छेद आदि प्रायश्चित्त देकर अपने गच्छ की सामाचारी बताते हैं।' उपसम्पद्यमान मुनि आचार्य के समक्ष सर्वप्रथम मूलगुणों से सम्बन्धित अतिचारों की तथा उसके पश्चात् उत्तरगुण सम्बन्धित अतिचारों की आलोचना करता है। 1. बृभा 1272, तेण परं निच्छुभणा, आउट्टो पुण सयं परेहिं वा। तंबोलपत्तनायं, नासेहिसि मज्झ अन्ने वि।।। 2. व्यभा 293-97 / 3. व्यभा 303,304 / 4. बृभा 1262, 1263 टी पृ. 390 / 5. निशीथ भाष्य (5459-5593) और पंचकल्पभाष्य (1950-84) में उपसम्पदा के संदर्भ में विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श अपराध आलोचना किसके पास? व्यवहार सूत्र' में आलोचना किसके पास करनी चाहिए, इसका व्यवस्थित क्रम निर्दिष्ट है। अकृत्य स्थान का सेवन करने पर साधु को अपने गण के आचार्य या उपाध्याय के पास आलोचना करनी चाहिए। उनके अभाव में क्रमशः प्रवर्तक', स्थविर, गणावच्छेदक के पास आलोचना करनी चाहिए। इस क्रम का उल्लंघन करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अगीतार्थ के पास आलोचना करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अपने गण में इन पांचों के न होने पर आगमज्ञ, बहुश्रुत, गीतार्थ, साम्भोजिक साधर्मिक के पास आलोचना करनी चाहिए। इनके अभाव में क्रमशः बहुश्रुत गीतार्थ अन्यसांभोजिक के पास आलोचना करनी चाहिए। इस सूत्र की व्याख्या करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि बारह वर्ष तक आलोचना) की गवेषणा करने पर भी यदि उनकी प्राप्ति न हो तो पार्श्वस्थ के पास आलोचना करनी चाहिए। इनके अभाव में अगीतार्थ, सिद्धपुत्र या पश्चात्कृत को यावज्जीवन लिंग धारण करवाकर आलोचना करनी चाहिए। यदि वे यावज्जीवन लिंग धारण न करें तो इत्वरिक लिंग धारण कराकर सारूपिक' और पश्चात्कृत श्रमणोपासक के पास आलोचना करनी चाहिए। यदि ये सब सुलभ न हो तो सम्यक् भावित चैत्य में आलोचना करनी चाहिए। चैत्य में सम्यक्त्वी देवता के पास भी आलोचना का यही क्रम है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती होने के कारण उनमें सामायिक का आरोपण तथा लिंग-समर्पण नहीं किया जाता / चैत्य में आलोचना करने के संदर्भ में भाष्यकार ने भरुकच्छ के कोरंटक और राजगृह नगरी के ईशान कोण में स्थित गुणशिलक चैत्य का उल्लेख किया है। कोरंटक उद्यान में तीर्थंकर मुनि सुव्रतस्वामी तथा गुणशिलक चैत्य में भगवान् महावीर अनेक बार समवसृत हुए। वहां तीर्थंकर और गणधरों ने अनेक बार साधुओं को प्रायश्चित्त दिया, जिसे वहां के देवता ने सुना अतः ऐसे उद्यानों में जाकर तेले के अनुष्ठान में सम्यक्त्व भावित देवता का आह्वान करके उनके समक्ष आलोचना की जाती है। वह देवता पूर्व श्रुति के अनुसार यथार्थ प्रायश्चित्त देता है। यदि पूर्व स्थित देव का च्यवन हो गया है तो वह आलोचक से अनुज्ञा लेकर महाविदेह क्षेत्र में जाता है। वहां तीर्थंकर से पूछकर प्रायश्चित्त देता है। ___ यदि चैत्य सम्यक् देवता से भावित न हो तो ग्राम था नगर के बाहर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके आलोचक साधु कहे कि मैंने इतने अपराध इतनी बार किए हैं। मैंने तिल मात्र भी अपने दोषों को १.व्यसू. 1/33 / ३.जो संघ से बाहर निकलने पर भी मुनि वेश को नहीं २.जो तप, नियम और विनय रूप गुणनिधियों के प्रवर्तक, छोड़ते, वे सारूपिक कहलाते हैं। ज्ञान. दर्शन और चारित्र में सतत उपयोगवान् तथा शिष्यों 4. व्यभा 965-70 / के संग्रहण और उपग्रहण में कुशल होते हैं, वे प्रवर्तक 5. व्यभा 970, 971 / कहलाते हैं। (व्यभा 958) 6. व्यभा 975, 976 / Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य नहीं छिपाया है। ऐसा कहकर वह अर्हत् और सिद्धों की साक्षी से निंदा, गर्दा और शोधि करे और स्वयं ही यथायोग्य प्रायश्चित्त स्वीकार कर ले। मूल सूत्रकार ने अगीतार्थ को आलोचना देने के योग्य नहीं माना है लेकिन भाष्यकार ने इस संदर्भ में अन्य आचार्यों की मान्यता का भी उल्लेख किया है कि गीतार्थ की अनुपस्थिति में अगीतार्थ के पास भी आलोचना की जा सकती है। इसमें भी अगीतार्थ के पास केवल विहार आलोचना की जा सकती है, अपराध आलोचना नहीं की जाती। आलोचना के लिए गीतार्थ की खोज क्षेत्र की दृष्टि से सात सौ योजन तथा काल की दृष्टि से बारह वर्ष तक करनी चाहिए।' अपराध आलोचना की विधि आलोचना करने की विधि का प्रकीर्णक रूप से उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है। साधु जिसके पास आलोचना करे, सर्वप्रथम उसके प्रति गौरव और अहंकार से मुक्त होकर अभ्युत्थान कृतिकर्म करना चाहिए। फिर उत्कटुकासन में बैठकर बद्धाञ्जलि होकर आलोचना करनी चाहिए। आलोचक साधु यदि रुग्ण हो, अर्श आदि रोग हो अथवा बहु प्रतिसेवना के कारण आलोच्य विषय लम्बा हो तो वह आचार्य से निषद्या की अनुज्ञा लेकर औपग्रहिक पादप्रोञ्छन पर अथवा यथेच्छ आसन में बैठकर आलोचना कर सकता है। यह आचार्य के समक्ष स्वपक्ष–साधु के द्वारा की जाने वाली आलोचना की विधि है। साधु आचार्य के समक्ष एकान्त या निर्जन स्थान में आलोचना कर सकता है लेकिन साध्वी शून्यगृह, देवकुल, उद्यान, अरण्य, प्रच्छन्नस्थान, उपाश्रय का मध्यभाग-इन शंकास्पद स्थानों में आलोचना नहीं कर सकती। जहां लोग चलते-फिरते दिखाई दें, वैसे स्थान में साध्वी आलोचना कर सकती है।' साध्वी आलोचना करते समय खड़ी होकर कुछ झुकी हुई आलोचना करती है। अकेले आचार्य के समक्ष एक साध्वी के साथ जब दूसरी साध्वी आलोचना करे तो वह दिशा और विदिशा का अवलोकन नहीं करती और न ही किसी अन्य विषय पर वार्तालाप करती है। जिस समय गुरु का चित्त धर्मकथा करने में या अन्य किसी कारण से विक्षिप्त हो अथवा किसी अन्य कार्य में संलग्न हो, कथा करने में लीन हो, वैसी स्थिति में गुरु के पास आलोचना नहीं करनी चाहिए। 1. व्यभा 55 ; आलोयणा उ नियमा, गीतमगीते य केसिंचि। 5. मूला 620; 2. व्यभा 2198 / काऊण य किदियम्म, पडिलेहिय अंजलीकरणसुद्धो। 3. जीभा 367 / आलोचिज्ज सुविहिदो, गारव-माणं च मोत्तूण।। 4. मवि 100 6. व्यभा 315 / तम्हा सुत्तर-मूलं, अविकलमविविच्चुयं अणुव्विग्गो। 7. व्यभा 2370 / निम्मोहियमणिगूढं, सम्म आलोयए सव्वं / / 8 व्यभा 2373 ; ईसिं ओणा उद्धट्ठिया उ आलोयणा विपक्खम्मि। 9. बृभा 395 / - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 5 आहार करते समय गुरु से आलोचना करने पर आहार ठंडा होना तथा अंतराय आदि दोष लगते हैं तथा नीहार-उत्सर्ग के समय भी गुरु से आलोचना नहीं करनी चाहिए क्योंकि उस समय शारीरिक वेग धारण करने से कभी-कभी अकस्मात् मृत्यु भी हो सकती है। जिस समय गुरु का चित्त धर्मकथा आदि में क्षिप्त न हो, उपयोगयुक्त हो, उपशान्त हो, अनाकुल हो, उस समय गुरु से अनुज्ञा प्राप्त करके साधु को आलोचना करनी चाहिए। आलोचना सुनने वाले आचार्य को भी अव्याकुल और प्रसन्न चित्त से आलोचना सुननी चाहिए। एकाग्रचित्त होकर सुनने से आलोचना करने वाले का उत्साह नष्ट नहीं होता और आलोचक ऐसा नहीं सोचता कि गुरु का मेरे प्रति अनादर का भाव है। इस प्रकार विधिपूर्वक की गई आलोचना विशोधि की निमित्त बनती है। आलोचना करने का क्रम भावविशोधि हेतु साधु को आलोचना कैसे करनी चाहिए, इसको टीकाकार हरिभद्र ने मालाकार के दृष्टान्त से स्पष्ट किया है , जैसे कोई निपुण मालाकार अपने बगीचे का दोनों समय अवलोकन करता है। यदि फूल आ गए हों तो उनको ग्रहण करके विकसित, मुकुलित और अर्द्धमुकुलित के क्रम से उनका अलग-अलग विभाग करता है। उसके पश्चात् उनको धागे में पिरोकर माला बनाता है। फिर माला से अभिलषित अर्थ की प्राप्ति होने से उसका चित्त प्रसन्न हो जाता है। जो इस क्रम से अपने बगीचे की देखभाल आदि नहीं करता, उसको ईप्सित अर्थ की प्राप्ति नहीं होती। इसी प्रकार साधु भी अपनी हर क्रिया का सजगता से अवलोकन करता है। यदि कोई दोष लग जाए तो उनको चित्त में ग्रहण करके लघु और बृहद् दोषों का विभाग करता है और फिर प्रतिसेवना के क्रम से उनको ग्रथित करके गुरु के पास आलोचना करके भांवशुद्धि प्राप्त कर लेता है। इस प्रक्रिया से वह औदयिक भाव से क्षायोपशमिक भाव को प्राप्त कर लेता है। पंचकल्पभाष्य में आलोचनाकल्प के अन्तर्गत आलोचना करने के क्रम का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। नियमसार में इन चारों शब्दों को आलोचना के लक्षण के रूप में स्वीकार किया है लेकिन ये चारों आलोचना करने की क्रमिक अवस्थाएं हैं - 1. ओनि 514 ; वक्खित्तपराहुत्ते, पमत्ते मा कयाइ आलोए। आहारं च करेंतो, नीहारं वा जइ करेइ / / .२.ओनि 515 अव्यक्खित्ताउत्तं, उवसंतमुवदिअंच नाऊणं। अणुन्नवेत्तु मेहावी, आलोएज्जा सुसंजए।। 3. आवनि 834, हाटी 2 पृ. 48; आलोवणमालुंचण वियडीकरणं च भावसोही य। 4. पंकभा 1927-49 / ५.निसा 108 आलोयणमालुंछण, वियडीकरणं च भावसुद्धी य। चउविहमिह परिकहियं, आलोयणलक्खणं समए।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 1. आलोचन-दोषों का निवेदन / 2. आलुंछण-समूल वृक्ष की भांति अपने दोषों को उखाड़ना। 3. अविकृतीकरण-मध्यस्थ भावना से कर्म से भिन्न आत्मा के निर्मल गुणों का चिन्तन करना। 4. भावशुद्धि-भावों की शुद्धि / आलोचना दो प्रकार की होती है-मूलगुण आलोचना और उत्तरगुण आलोचना। साधु को सर्वप्रथम मूलगुण-महाव्रत सम्बन्धी आलोचना करनी चाहिए। सर्वप्रथम पृथ्वीकाय सम्बन्धी आलोचना करनी चाहिए, जैसे–मार्ग में चलते समय स्थण्डिल से अस्थण्डिल भूमि में जाना हुआ हो, काली मिट्टी से नीली मिट्टी में तथा नीली मिट्टी से काली मिट्टी में संक्रमण करते हुए पैरों का प्रमार्जन न किया हो, सचित्त रजों से युक्त हाथ या पात्र से भिक्षा ग्रहण की हो। अप्काय में सचित्त उदक से आई या स्निग्ध हाथ से भिक्षा ली हो, जल-मार्ग को अयतनापूर्वक पार किया हो। इसी प्रकार तेजस्काय, वायुकाय आदि के बारे में हुए अतिचारों की आलोचना करनी चाहिए। दूसरे महाव्रत में हास्य, भय आदि के कारण असत्य बोला हो, तीसरे महाव्रत में अयाचित ग्रहण किया हो, चौथे महाव्रत में स्त्री का स्पर्श, पूर्वक्रीडित का स्मरण, स्त्रियों के अवयवों का अवलोकन आदि किया हो। पांचवें महाव्रत में उपकरणों में मूर्छा तथा अतिरिक्त उपधि ग्रहण की हो, छठे व्रत में आहार के लेप से युक्त पात्र आदि अथवा औषधि या सौंठ रात्रि में रखे हों अथवा रात्रि में ग्रहण किया हो तो क्रमशः गुरु के समक्ष आलोचना करनी चाहिए। इसी प्रकार उत्तरगुण में समिति-गुप्ति आदि में अयतना हुई हो अथवा बल और पराक्रम होने पर भी तप-उपधान में उद्यम न किया हो तो मुनि ऋजुता से उसकी आलोचना करे। इसके अतिरिक्त राग-द्वेष, भय, हास्य, प्रमाद, रोग, आतंक और परप्रेरणा-इनमें से किस कारण से प्रतिसेवना की, उसकी भी गुरु के समक्ष आलोचना करनी चाहिए। आचार्य हरिभद्र के अनुसार प्रकारान्तर से ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य-इनसे सम्बन्धित अतिचारों की गुरु के समक्ष क्रमशः आलोचना करनी चाहिए। मरणविभक्ति प्रकीर्णक में आलोचना करने के क्रम का विशद विवेचन प्राप्त होता है। __आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक प्रकरण में आलोचना के क्रम को दो भागों में विभक्त किया हैविकट आलोचना और आसेवना आलोचना। पहले छोटे फिर क्रमशः बड़े अतिचारों की आलोचना करना विकट आलोचना है। जिस क्रम से दोष सेवन किया हो, उसी क्रम से दोषों को प्रकट करना आसेवना 1. निसा 109-12 / 2. व्यभा 240-44 मटी प. 19, 20 / 3. मवि 113 / 4. पंचा 15/28 / 5. मवि 94-124 / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श आलोचना है। गीतार्थ साधु विकट आलोचना के क्रम से आलोचना करे क्योंकि वह आलोचना के क्रम को जानता है। अगीतार्थ साधु आसेवन के क्रम से आलोचना करे क्योंकि वह आसेवना के क्रम से दोषों को याद रख सकता है, उसे आलोचना के क्रम का ज्ञान नहीं होता। आलोचना के समय द्रव्य, क्षेत्र आदि का महत्त्व आलोचना के समय द्रव्य, क्षेत्र आदि का भी प्रभाव पड़ता है अतः प्रशस्त द्रव्यों की उपस्थिति में अपराध आलोचना की जाती है। व्यवहारभाष्य में अप्रशस्त द्रव्यों का उल्लेख मिलता है, जैसे-तिल, उड़द आदि अमनोज्ञ धान्य राशि के ढेर के पास आलोचना नहीं करनी चाहिए। पत्र रहित करीर, कंटीला बबूल, विद्युतहत वृक्ष, क्षाररस युक्त वृक्ष, रोहिणी, कुटज, नीम आदि कटुक रस वाले वृक्ष, दावाग्नि से दग्ध वृक्ष-ये अमनोज्ञ वृक्ष हैं, इनके नीचे आलोचना नहीं करनी चाहिए। इसी प्रकार लोहा, जस्ता, तांबा और सीसा आदि अमनोज्ञ धातुओं के पास आलोचना नहीं करनी चाहिए। आलोचना के लिए शालि आदि धान्य का ढेर प्रशस्त होता है। इसी प्रकार मणि, स्वर्ण, मौक्तिक आदि रत्नों की राशि आलोचना के लिए प्रशस्त द्रव्य हैं। . क्षेत्र की दृष्टि से टूटा घर, भित्ति के अवशेष वाला घर, रुद्रगृह, ऊषरभूमि, प्रपात, दग्धभूमिइन स्थानों के पास आलोचना नहीं करनी चाहिए। रौद्र देवताओं के स्थान पर भी आलोचना नहीं करनी चाहिए। आलोचक की निर्विघ्नता के लिए ऐसे स्थानों पर आचार्य आलोचना नहीं करवाते। ऐसे स्थानों पर आलोचना करने से प्रारब्ध कार्य की सिद्धि नहीं होती। इक्षुवन, पुष्पित-फलित उद्यान, शालिवन, चैत्यगृह, भग्नत्व आदि दोषों से रहित स्थान, सानुनाद स्थान-वह स्थान, जहां प्रतिध्वनि होती है, प्रदक्षिणावर्त जल वाली नदी, पद्मसरोवर-ये आलोचना के लिए प्रशस्त स्थान हैं। भगवती आराधना के अनुसार अर्हत् और सिद्धों के स्थान, सागर, उद्यान में स्थित भवन, तोरण, प्रासाद, नाग और यक्षों के स्थान पर आलोचना करनी चाहिए। पाराशरस्मृति के अनुसार जब भी प्रायश्चित्त दिया जाए, तब देवमंदिर के सामने ही दिया जाए। आलोचना के साथ प्रशस्त काल का भी गहरा सम्बन्ध है। यदि आचार्य के पास पर्याप्त समय न 1. पंचा 15/16, 17 ; दुविहेणऽणुलोमेणं, आसेवणवियडणाभिहाणेणं। आसेवणाणुलोमं, जं जह आसेवियं वियडे।।। आलोयणाणुलोम, गुरुगऽवराहे उ पच्छओ वियडे। पणगादिणा कमेणं, जह जह पच्छित्तवुड्डी उ।। २.व्यभा 307,308, भआ 557,558 3. व्यभा 306 मटी प. 40 / 4. भआ 558,559 / 5. भआ 559 विटी पृ. 400 / 6. व्यभा 313 मटी प. 41 / ७.भआ 560 / ८.पारा 8/38 / Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य हो तो उस समय आलोचना नहीं करनी चाहिए। इसी प्रकार सूर्यास्त के समय, रोगी की परिचर्या के समय आलोचना नहीं करनी चाहिए। जिस समय आलोचक स्वयं श्रान्त हो अथवा आचार्य श्रान्त या क्लान्त हों, उस समय संक्षेप में आलोचना करनी चाहिए, जैसे-आज पुर:कर्म या पश्चात्कर्म का सेवन किया। यदि उस समय अन्य आवश्यक कार्य हो तो दोष सम्बन्धी उतनी बात अवश्य बतानी चाहिए, जिसे बताए बिना शुद्धि न हो अथवा वह आहार आदि न कर सके। ___ भाष्यकार के अनुसार शुक्ल और कृष्ण पक्ष की चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी और द्वादशी-ये तिथियां निसर्गतः शुभ कार्य के लिए वर्जनीय हैं अतः इन तिथियों में आलोचना नहीं करनी चाहिए। आलोचना के लिए अप्रशस्त सात नक्षत्र भी वर्जनीय हैं-१. सन्ध्यागत 2. रविगत 3. विद्वारिक 4. संग्रह 5. विलम्बिहराहहत और 7 ग्रहभिन्न / सन्ध्यागत नक्षत्र में आलोचना करने से कलह विलम्बि नक्षत्र में करने से कुभक्त की प्राप्ति, विद्वारिक नक्षत्र में शत्रु की विजय, रविगत नक्षत्र में असुख, संग्रह नक्षत्र में व्युद्ग्रह, राहुहत नक्षत्र में मरण तथा ग्रहभिन्न नक्षत्र में रक्त का वमन होता है। काल की दृष्टि से व्याघात आदि दोष रहित द्वितीया, तृतीया आदि तिथियां, प्रशस्त करण और मुहूर्त आलोचना के लिए प्रशस्त काल है। प्रशस्त भाव की दृष्टि से जब प्रशस्त ग्रह उच्च स्थानगत हों, तब आलोचना करनी चाहिए। टीकाकार मलयगिरि के अनुसार सूर्य का मेष, चन्द्रमा का वृषभ, मंगल का मकर, बुध का कन्या, बृहस्पति का कर्क , शुक्र का मीन और शनैश्चर का तुला-ये ग्रहों के उच्चस्थान हैं। आचार्य हरिभद्र के अनुसार क्षीरयुक्त वटवृक्ष आदि प्रशस्त द्रव्य, जिनमंदिर आदि प्रशस्त क्षेत्र, पूर्णिमा आदि शुभ तिथियां प्रशस्त काल तथा शुभोपयोग प्रशस्त भाव है। आलोचना के लिए पूर्व, उत्तर और चरंती दिशा-प्रशस्त दिशा है। जिस दिशा में तीर्थंकर, केवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, त्रयोदशपूर्वी यावत् नवपूर्वी अथवा युगप्रधान आचार्य विहरण करते हों, वह चरंती दिशा कहलाती है। यदि आलोचना देने वाले गुरु पूर्वाभिमुख हैं तो आलोचक १.ओनि 518,519 काले य पहुप्पंते, उच्चाओ वावि ओहमालोए। वेला गिलाणगस्स व, अइच्छइ गुरू व उच्चाओ।। पुरकम्मपच्छकम्मे, अप्पेऽसुद्धे य ओहमालोए। तुरियकरणम्मि जं से, न सुज्झई तत्तिअंकहए।। २.व्यभा 309-12 / 3. व्यभा 314 ; उच्चट्ठाणा गहा य भावम्मि। 4. व्यभा 314 मटी प.४१ / 5. पंचा 15/20; दव्वे खीरदुमादी, जिणभवणादी य होइ खेत्तम्मि। पुण्णतिहि पभितिकाले, सुहोवओगादि भावे उ।। 6. व्यभा 314 मटी प.४२। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 89 गुरु के दाहिनी ओर उत्तराभिमुख होकर बैठता है। यदि आचार्य उत्तराभिमुख होकर बैठें तो वह वामपार्श्व में पूर्वाभिमुख होकर बैठता है। यदि आलोचनार्ह आचार्य तीर्थंकर आदि विशिष्ट व्यक्तियों की विहरण दिशा के अभिमुख बैठे हों तो आलोचक द्वादशावर्त वंदना देकर हाथ जोड़कर खड़ा रहे। आलोचना के समय निषद्या एवं कृतिकर्म-विधि आलोचना करते समय आलोचक को औपचारिक विनय करना भी आवश्यक है। इसके बिना आचार्य की मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त नहीं किया जा सकता। भाष्यकार के अनुसार जिसके पास आलोचना की जाए, वह यदि अवमरात्निक हो तो भी उसके प्रति कृतिकर्म करना चाहिए। यदि साध्वी के पास आलोचना की जाए तो उसके प्रति भी कृतिकर्म करना चाहिए। आलोचक साधु आलोचनाह के लिए अपने नवीन कल्प-कंबल से निषद्या तैयार करता है। यदि कंबल न हो तो अन्य से प्रातिहारिक कल्प ग्रहण करके आचार्य की निषद्या करता है। निषद्या के संदर्भ में एक प्रश्न उपस्थित किया गया कि यदि कोई आलोचनार्ह स्वभावतः निषद्या पर नहीं बैठना चाहे तो उसके लिए निषद्या करनी चाहिए या नहीं? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि आचार्य चाहें या नहीं लेकिन शिष्य को औपचारिक विनय की दृष्टि से निषद्या अवश्य करनी चाहिए। जो शिष्य निषद्या किए बिना आलोचना करता है, वह प्रायश्चित्त का भागी होता है तथा निषद्या करने वाला विनीत एवं प्रशंसा का पात्र होता है। इस संदर्भ में व्यवहार भाष्यकार ने नापित और राजा का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। एक राजा के सिर में बाल नहीं थे, उसके दाढ़ी, मूंछ भी नहीं थी इसलिए नियुक्त नापित राजा की हजामत करने नहीं जाता था। राजा ने उसको निष्कासित करके दूसरा नापित नियुक्त कर दिया। वह हर सातवें दिन आकर राजा के बाल, मूंछ आदि काटने का अभिनय करता था। राजा ने समय आने पर उसको पुरस्कृत किया। गरु जितनी बार आलोचना देते हैं, उतनी ही बार निषद्या करनी चाहिए। यदि सभी अपराधों की एक साथ आलोचना की जाए तो एक ही निषद्या करनी होती है। निषद्या और आलोचना के सम्बन्ध में चतुर्भगी प्राप्त होती है 1. एक निषद्या, एक आलोचना। 2. (अतिचार विस्मृत होने पर) एक निषद्या, अनेक आलोचना। 3. अनेक निषद्या, एक आलोचना। 4. अनेक निषद्या, अनेक आलोचना। १.भा 4536 टी पृ. 1225; संयतीनामप्यालोचना- सूत्रार्थनिमित्तं कृतिकर्म कर्त्तव्यम्। 2. व्यभा 315 मटी प 42 / 3. व्यभा 586 मटी प 42, निचू 4 पृ. 382 / Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य चतुर्थ भंग में अनेक प्रतिसेवनाएं हो जाने के कारण अनेक दिनों तक निषद्या करके आलोचना करना तथा तृतीय भंग में गुरु को यदि बार-बार कायिकी भूमि जाना पड़े तो अनेक निषद्या में एक आलोचना होती है। जो सिंहानुग आलोचनार्ह होते हैं, वे अनेक कम्बलों वाली निषद्या पर स्थित होकर प्रायश्चित्त देते हैं। वृषभानुग एक कम्बल वाली निषद्या पर बैठकर प्रायश्चित्त देते हैं तथा क्रोष्टुकानुग रजोहरण निषद्या अथवा औपग्रहिक पादप्रोञ्छन पर स्थित होकर प्रायश्चित्त देते हैं। इसी प्रकार आलोचक भी तीन प्रकार के होते हैं-सिंहानुग, वृषभानुग और क्रोष्टुकानुग। सिंहानुग आचार्य के समक्ष यदि आलोचक सिंहानुग होकर आलोचना करता है तो वह अशुद्ध है, प्रायश्चित्त का भागी है। यदि वह वृषभानुगत्व या क्रोष्टुकानुगत्व के रूप में आलोचना करता है तो वह शुद्ध है। यदि वृषभानुग आचार्य के समक्ष क्रोष्टुकानुगत्व के रूप में आलोचना करता है तो शुद्ध है। इसी प्रकार क्रोष्टुकानुग गीतार्थ आचार्य के समक्ष क्रोष्टुकानुग की तरह या उत्कटुकासन में आलोचना करता है तो शुद्ध है। सिंहानुग आचार्य की यथायोग्य निषद्या न करने पर एक मासिक, वृषभानुग आचार्य की यथायोग्य निषद्या न करने पर द्विमासिक तथा क्रोष्टुकानुग आचार्य की यथायोग्य निषद्या न करने पर त्रैमासिक प्रायश्चित्त आता है। यदि आलोचक उत्कटुक आसन में आलोचना करता है तो वह शुद्ध है। निषद्या और पादप्रोञ्छन पर बैठकर आलोचना करने की भजना है।' सिंहानुग, वृषभानुग और क्रोष्टुकानुग के साथ सम आसन पर बैठकर आलोचना करने वाले को चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। बिना कारण बैठने या अप्रमार्जन आदि दोष में लघुमास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आलोचना के समय आलोचनार्ह ऊपर और आलोचक नीचे बैठे तो यह आलोचना की सम्यक् सामाचारी हैं। यदि आलोचनार्ह आज्ञा दे तो आलोचक किसी भी आसन में बैठ सकता है। यदि पार्श्वस्थ और पश्चात्कृत श्रमणोपासक से आलोचना करनी पड़े, वे कृतिकर्म न करवाना चाहें तो उनके लिए निषद्या की रचना करके उन्हें प्रणाम करके आलोचना करनी चाहिए। पश्चात्कृत को इत्वरिक सामायिक व्रत तथा रजोहरण आदि लिंग देकर उसकी निषद्या करके कृतिकर्म-वंदन करना चाहिए। यदि वह कृतिकर्म की अनिच्छा प्रकट करे तो वचन और काया से प्रणाम करके आलोचना करनी १.व्यभा 447 / __ वा सो कोल्लुगाणुगो। 2. निभा 4, चू. पृ. 382 ; तत्थ जो महंतणिसिज्जाए ठितो, ३.व्यभा 586, विस्तार हेतु देखें व्यभा 587-96 / सुत्तमत्थं वाएति चिट्ठइ वा सो सीहाणुगो। जो एक्कम्मि काम्म 4. निचू 4 पृ. 382; जइ उक्कुडुओ आलोएति तो सुद्धो। निच प3 कप्पे ठितो वाएति चिट्ठइ वा सो वसहाणुगो। जो रयहरण- णिसेज्जपादपुंछणेसु भयणा। णिसेज्जाए उवग्गहियपादपुंछणे वा ठितो वाएति चिट्ठति / शासक Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श चाहिए। साध्वियां आचार्य के लिए निषद्या की रचना नहीं करतीं।' साध्वियों की आलोचना किसके पास? आर्यरक्षित अंतिम आगम व्यवहारी (नवपूर्वधर) थे। वे अपने आगमबल से जान लेते थे कि अमुक साध्वी को छेदसूत्र की वाचना देने में दोष नहीं है तो वे उसको वाचना देते थे। आर्यरक्षित के पश्चात् श्रुतव्यवहारी साधुओं ने सोचा कि छेदसूत्र के अध्ययन से साध्वियां अपनी हानि न कर लें अतः उन्होंने साध्वियों को छेदसूत्र की वाचना देना बंद कर दिया इसलिए आर्यरक्षित के समय तक साध्वियां मूलगुण से सम्बन्धित अपराध की आलोचना छेदसूत्र सम्पन्न प्रवर्तिनी साध्वी के पास करती थीं। कभी-कभी गीतार्थ साधु के अभाव में श्रमण भी साध्वियों के पास आलोचना करते थे। गीतार्थ साध्वी के अभाव में साध्वियां कृतयोगी-छेदसूत्रधर साधु के पास आलोचना करती थीं। आर्यरक्षित के बाद साधुओं के पास ही साध्वियों की भी आलोचना होने लगी। उस समय भी कुछ आचार्यों की मान्यता थी कि चतुर्थ व्रत की आलोचना स्वपक्ष अर्थात् श्रमणी की श्रमणी के पास तथा श्रमण की श्रमण के पास होनी चाहिए क्योंकि ब्रह्मचर्य व्रत सम्बन्धी आलोचना परपक्ष से करने पर दृष्टिराग तथा मुखविकार से भाव को समझकर परस्पर सम्बन्ध स्थापित हो सकता है। निर्ग्रन्थी यदि निर्ग्रन्थ के पास आलोचना करती है तो निर्ग्रन्थ कह सकता है कि तुम मेरे साथ भी यह दोष सेवन करके फिर प्रायश्चित्त लेना।' आचार्य या साधुओं के पास साध्वी की आलोचना करने की भी विधि थी। भाष्यकार के अनुसार जहां लोहार आदि दिखाई देते हों लेकिन दूरी के कारण सुनाई न देता हो तो साध्वी बीच में पर्दा डाल कर आचार्य के पास आलोचना करे। यदि पर्दा लगाने का अवकाश न हो तो साध्वी भूमि पर दृष्टि टिकाकर आलोचना करे। आलोचना के समय यदि श्रमण साध्वी को विकार युक्त दृष्टि से देखता है तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। आलोचना के समय परिषद् आलोचना के समय आचार्य के पास राहस्यिकी परिषद् होती है। साधु और साध्वी की यदि स्वपक्ष में आलोचना होती है तो चतुष्कर्णा परिषद् होती है-दो आलोचनाह के कान तथा दो आलोचक के, इस प्रकार चतुष्कर्णा परिषद् होती है। आचार्य वृद्ध हों तो साध्वियों द्वारा की जाने वाली आलोचना के समय षट्कर्णा परिषद् भी होती है-आचार्य, प्रवर्तिनी और आलोचक साध्वी। यदि प्रवर्तिनी या अन्य साध्वी १.व्यभा 970, 971 / २.बृभाटी पृ. 115 ; निषद्यां चाचार्यस्य न करोति। ३.व्यभा 2365-67 / 4. व्यभा 2361-64 / ५.व्यभा 2374 / Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य तरुण आचार्य के पास आलोचना करती है तो उस समय अष्टकर्णा परिषद् होती है-एक आचार्य, एक साधु, एक प्रवर्तिनी और एक साध्वी। यदि आचार्य और आलोचक साध्वी दोनों तरुण हों तो उनके पास एक स्थविर और एक स्थविरा भी रहनी चाहिए। सदृश वय वाले सहायक का नियमतः वर्जन करना चाहिए। यदि ऐसा संभव न हो तो एक पटु क्षुल्लक या क्षुल्लिका को पास में रखना चाहिए। इस स्थिति में आलोचना के समय दशकर्णा परिषद् हो जाती है। इस प्रकार आलोचना काल में परिषद् के छह विकल्प हो सकते हैं 1. साधु साधु के पास - दो - चतुष्कर्णा परिषद्। 2. स्थविरा साध्वी स्थविर आचार्य के पास - तीन - षट्कर्णा परिषद्। .. 3. स्थविरा तरुण के पास –तीन - षट्कर्णा परिषद् / 4. तरुणी स्थविर के पास - तीन - षट्कर्णा परिषद् / 5. तरुणी तरुण के पास - चार - अष्टकर्णा परिषद् / 6. सदृश वय - पांच - दशकर्णा परिषद्। दिगम्बर परम्परा में आर्यिकाओं की आलोचना का उल्लेख नहीं मिलता अतः वहां स्पष्ट निर्देश है कि अकेले आचार्य को एकान्त में ही आलोचक की आलोचना सुननी चाहिए। चारित्रसार की टीका में उल्लेख है कि यदि स्त्री आलोचना करे तो दो स्त्री और एक गुरु अथवा दो गुरु और एक स्त्री होनी चाहिए। आलोचना अंधकारयुक्त स्थान में नहीं अपितु सूर्य के प्रकाश में होनी चाहिए। यदि अनेक आचार्य एक ही दोष को सुनें तो आलोचक लज्जा और खेद का अनुभव करता है। इसी प्रकार एक आचार्य अनेक क्षपकों की आलोचना एक साथ सुने तो अनेकों की आलोचना एक साथ याद रखनी कठिन होने के कारण योग्य प्रायश्चित्त देना संभव नहीं होता। आलोचना काल में सहवर्ती साधु और साध्वी की अर्हता आलोचना के समय साथ रहने वाला साधु और साध्वी भी अर्हता सम्पन्न होने चाहिए। भाष्यकार के अनुसार आचार्य के पास रहने वाला साधु ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और विनय से सम्पन्न, प्रतिलेखना आदि क्रियाओं में जागरूक, उपशम गुण से सम्पन्न, अवस्था से परिणत तथा शास्त्र के सही अर्थ का ज्ञाता 1. बृभा 391 टी पृ. 115 ; सल्लुद्धरणे समणस्स, चाउकण्णा रहस्सिया परिसा। अज्जाणं चउकण्णा, छक्कण्णा अट्ठकण्णा वा।। 2. व्यभा 2372, थेरो पुण असहायो, निग्गंथी थेरिया वि ससहाया। सरिसवयं च विवज्जे, असती पंचम पहुं कुज्जा।। 3. काअ 452 टी पृ. 343 ; एको गुरुः द्वे स्त्रियौ अथवा द्वौ गुरु एका स्त्रीति। 4. भआ 562 टी पृ.४०२। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93 व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श होना चाहिए। इसी प्रकार साथ में आने वाली साध्वी ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न, उचित और अनुचित का विवेक करने में सक्षम, अवस्था से परिणत होनी चाहिए। इन गुणों के बिना वह आलोचक साध्वी का विश्वास प्राप्त नहीं कर सकती। आलोचना और माया आलोचना और ऋजुता का गहरा संबंध है लेकिन छद्मस्थता के कारण साधक ऋजुतापूर्वक अपने दोषों को प्रकट नहीं कर पाता। स्थानांग सूत्र में मायावी व्यक्ति द्वारा आलोचना-प्रतिक्रमण न करने के आठ कारण बताए गए हैं-१. मैंने अकरणीय कार्य किया है 2. मैं अकरणीय कार्य कर रहा हूं 3. मैं अकरणीय कार्य करूंगा 4. मेरी अकीर्ति होगी 5. मेरा अवर्ण होगा 6. मेरा अविनय होगा 7. मेरी कीर्ति कम हो जाएगी 8. मेरा यश कम हो जाएगा। मायावी व्यक्ति माया करके भी तीन कारणों से आलोचना, निंदा और गर्दा करके गुरु से प्रायश्चित्त प्राप्त करके विशुद्ध हो जाता है -1. आलोचना करने वाले का वर्तमान जीवन गर्हित होता है। 2. उसका उपपात प्रशस्त होता है। 3. आगामी जन्म प्रशस्त होता है। ___ उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि यदि कदाचित् भिक्षु क्रोध में आकर कोई अकरणीय कार्य कर ले तो उसे छिपाए नहीं। गुरु के सामने स्वीकार करे कि मुझसे यह अपराध हुआ है। नियुक्तिकार के अनुसार शस्त्र, विष, दुःसाधित वेताल, दुष्प्रयुक्त यंत्र और क्रुद्ध सर्प भी उतना कष्टदायक नहीं होता, जितना कि माया आदि भावशल्य। स्थानांग सूत्र में मायावी व्यक्ति की माया से उसके भीतर होने वाली तप्ति को अनेक उपमाओं से उपमित किया है। मायावी व्यक्ति अकरणीय कार्य करके उसी प्रकार अंदर ही अंदर जलता है, जैसे लोहे को गालने की भट्टी, तांबे को गलाने की भट्टी, त्रपु को गलाने की भट्टी। लोहकार की भट्टी जैसे अंदर ही अंदर जलती है, उसी प्रकार मायावी माया करके अंदर ही अंदर जलता है आदि। यदि कोई बिना आलोचना या प्रतिक्रमण किए ही कालगत होता है तो ऋद्धिमान्, द्युतिमान्, यशस्वी और 1. बृभा 398 नाणेण दंसणेण य,चरित्त-तव-विणय-आलयगुणेहिं। वयपरिणामेण य अभिगमेण इयरो हवइ जुत्तो।। २.बृभा 396; नाण दंसणसंपन्ना, पोढा वयस परिणया। इंगियागारसंपन्ना, भणिया तीसे बिइज्जिया।। ३.स्था 8/9 / 4. स्था 3/342 / "4.31/11 / 6. ओनि 803,804; न वि तं सत्थं व विसं व, दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो। जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पो व पमाइणो कुद्धो।। जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धियं उत्तमट्ठकालम्मि। दुल्लभबोहीयत्तं, अणंतसंसारियत्तं च।। 7. पंचा 15/36; सम्म दुच्चरितस्सा, परसक्खिगमप्पगासणं जंतु। एयमिह भावसल्लं, पण्णत्तं वीयरागेहिं / / ___गीतार्थ के समक्ष अपने अकृत्य का प्रकाशन न करना भावशल्य है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य बलशाली देव नहीं बनता, न ही ऊंची गति वाला और दीर्घ आयु वाला देव बनता है। देवलोक की बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् उसे आदर और सम्मान नहीं देती। यदि वह भाषण देना प्रारम्भ करता है तो चारपांच देव बिना कहे ही खड़े होकर उसे बोलने से रोक देते हैं। देवलोक से च्युत होकर वह मनुष्य लोक में अंतकुल, प्रान्तकुल आदि में उत्पन्न होकर पराभव को प्राप्त करता है। इसके विपरीत जो आलोचना, प्रतिक्रमण करके कालगत होता है, वह उच्च देवलोक में ऋद्धिशाली देव बनकर आभ्यन्तर और बाह्य परिषद् में सम्मान को प्राप्त करता है तथा मनुष्यलोक में भी उच्चकुल आदि प्राप्त होता है। ___जैन आचार्य स्थान-स्थान पर इस बात का उल्लेख करते हैं कि जैसे बालक सरलता से अपने कार्य और अकार्य को प्रकट कर देता है. वैसे ही मनि को माया और अहंकार से मुक्त होकर गुरु के पास आलोचना करनी चाहिए। भगवती आराधना के अनुसार आलोचना के समय दोष छिपाने हेतु माया करना प्रतिकुञ्चन माया है। छेद सूत्रों में उल्लेख मिलता है कि मायापूर्वक आलोचना करने से प्रायश्चित्त की वृद्धि होती जाती है। जैसे कोई भिक्ष द्वैमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके ऋजता से आलोचना करता है तो उसे द्वैमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि वह मायापूर्वक आलोचना करता है तो उसे त्रैमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। माया के कारण एक गुरुमास अधिक प्राप्त होता है। चूर्णिकार के अनुसार मायारहित आलोचना करने वाले को लघु और गुरु-दोनों प्रकार का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है लेकिन मायापूर्वक आलोचना करने वाले को गुरु प्रायश्चित्त ही प्राप्त होता है। पाराशर स्मृति के अनुसार पाप करके माया नहीं करनी चाहिए क्योंकि उसको छिपाने से पाप बढ़ता चला जाता है। पाप करने के पश्चात् तब तक भोजन नहीं करना चाहिए. जब तक ब्राह्मणों की परिषद में बताया न जाए। पापी का पाप परिषद के आदेश से वैसे ही नष्ट हो जाता है, जैसे पत्थर पर पड़ा जल वायु और सूर्य की किरण से नष्ट हो जाता है। यदि आलोचक आगमव्यवहारी के पास आलोचना करता है तो वे उसके अतिचारों को साक्षात् जानते हैं लेकिन परोक्षज्ञानी चेहरे के आकार, इंगित, स्वर और पूर्वापरसंवादिनी भाषा के आधार पर जानते हैं कि आलोचक मायापूर्वक आलोचना कर रहा है या ऋजुता से। ऋजुता से आलोचना करने वाले का स्वर अक्षुब्ध, अव्याकुल और स्पष्ट होता है। श्रुतव्यवहारी आलोचक से तीन बार आलोचना सुनते हैं, जिससे वे १.स्था 8/10 / 2. व्यभा 4299; जह बालो जंपतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणति। तं तह आलोएज्जा, माया-मदविप्पमुक्को उ।। 3. व्यसू. 1/2, निसू 20/2 / ४.निचू 4 पृ. 271; अपलिकंचियं आलोण्माणसमा लहुगं गुरुगं वा पडिसेवणाणिप्फण्णं दिज्जति। जो पुण पलिकुंचियं आलोएइ, तस्स जं दिज्जति पलिउंचणमासो य मायाणिप्फण्णो गुरुगो दिज्जति। 5. पारा 8/4, 6, 17, 18 / ६.व्यभा 323 / Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श उसकी माया या ऋजुता को जान सकें। प्रथम बार आलोचना करने पर नींद का अभिनय करते हुए आचार्य कहते हैं कि मैं निद्रा प्रमाद में चला गया था। दूसरी बार आचार्य कहते हैं कि मैंने तुम्हारे अतिचारों की पूरी अवधारणा नहीं की, उस समय मैं अनुपयुक्त था। पुनः आलोचना करने पर यदि तीनों बार सदृश आलोचना होती है तो वे जान लेते हैं कि यह ऋजुता से आलोचना कर रहा है, यदि तीनों बार के कथन में विसंवादिता होती है तो उन्हें ज्ञात हो जाता है कि यह मायापूर्वक आलोचना कर रहा है। बौद्ध परम्परा में भी अपराध की स्वीकृति तीन बार करवाने का विधान है। लौकिक न्याय करते समय भी न्यायकर्ता अपराधी से तीन बार वस्तुस्थिति का ज्ञान करते थे। यदि अपराधी विसदृश बोलता तो उसे राजकुल में मृषा बोलने एवं माया करने का अधिक दंड मिलता था। जब श्रुतव्यवहारी को उसकी माया ज्ञात हो जाती है तो वे उसे अश्व के दृष्टान्त से प्रतिबोध देते हैं। एक राजा के पास सर्वलक्षणयुक्त अश्व था। अन्य राजाओं ने अश्व को अपहृत करना चाहा लेकिन कड़ी सुरक्षा के कारण अश्व का अपहरण करना संभव नहीं था। एक व्यक्ति ने गुप्त रूप से एक कोमल बाण के अग्र भाग में क्षुद्र कंटक लगाकर बाण छोड़ा। बाण अश्व के लगा और कंटक की अग्र अणी उसके शरीर में प्रविष्ट हो गई। उसी दिन से अश्व का शरीर सूखने लगा। राजा ने चिंतित होकर वैद्य को बुलाया। वैद्य ने एक साथ अनेक कर्मकरों से घोड़े के पूरे शरीर में लेप करवाया। शरीर के जिस भाग में लेप पहले सूख गया, उस आधार पर वैद्य ने जान लिया कि यहां कंटक चुभा है। वैद्य ने शल्योद्धरण कर दिया। शल्य निकलने से घोड़ा स्वस्थ हो गया। निगमन करते हुए आचार्य मायावी शिष्य को प्रतिबोध देते हैं कि तुम भी माया छोड़कर अपने हृदय को सरल बनाकर शल्य को दूर करो। माया बहुत बड़ा शल्य है, वह इहलोक और परलोक-दोनों को बिगाड़ देता है। . शिष्य गुरु के समक्ष चार प्रकार से माया करके अशुद्ध आलोचना करता है१. द्रव्य–सचित्त की प्रतिसेवना करके अचित्त की आलोचना करना द्रव्यतः अशुद्ध है। 2. पर्याय-अन्य अवस्था में प्रतिसेवना करके अन्य अवस्था की आलोचना करना पर्याय से अशुद्ध आलोचना है, जैसे स्वस्थ अवस्था में प्रतिसेवना करके ग्लान अवस्था की आलोचना करना। 3. क्षेत्र-जनपद में प्रतिसेवना करके अटवीगत मार्ग की आलोचना लेना क्षेत्रतः अशुद्ध आलोचना है। 4. काल-सुभिक्ष में प्रतिसेवना करके दुर्भिक्ष का कहना, रात्रि में प्रतिसेवना करके दिन का कहना कालतः अशुद्ध आलोचना है। १.व्यभा 320 मटी प.४३, अनध 7/39 ; स्वागस्विरार्जवाद्वा- 2. व्यभा 320,321 मटी प. 43, 44 / व्यम्। 3. जीभा 132, 133, व्यभा 149, 150 / Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 5. क्रम-आगे-पीछे या अक्रमपूर्वक करना क्रम से अशुद्ध आलोचना है। माया की अपेक्षा से आलोचना के चार भंग बनते हैं संकल्पकाल में ऋजुता, आलोचनाकाल में ऋजुता। संकल्पकाल में ऋजुता, आलोचनाकाल में माया। संकल्पकाल में माया, आलोचनाकाल में ऋजुता। संकल्पकाल में माया और आलोचनाकाल में भी माया। इस प्रसंग को भाष्यकार ने अनेक व्यावहारिक दृष्टान्तों से स्पष्ट किया है। एक शिकारी घर से . यह सोचकर चला कि मैं सारा मांस स्वामी को दे दूंगा। जाते ही स्वामी ने उसके साथ अच्छा व्यवहार किया। स्वामी के मृदु व्यवहार से प्रभावित होकर उसने प्रसन्नता से सारा मांस दे दिया। इसके विपरीत दूसरा शिकारी भी मालिक को सारा मांस देने की भावना से प्रस्थित हुआ। स्वामी के कर्कश व्यवहार और डांट-फटकार से क्षुभित होकर उसने कुछ मांस छिपाकर अपने पास रख लिया। दृष्टान्त को घटित करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि आलोचक गुरु के पास जाता है, उस समय यदि आचार्य कहें कि तुम धन्य हो, कृतपुण्य हो जो गुप्त अपराधों को प्रकट करके आलोचना के लिए उपस्थित हुए हो। प्रतिसेवना करना कोई बड़ी बात नहीं है, दुष्कर है आलोचना करना। आलोचना करने वाला हल्केपन का अनुभव करता है। मनोवैज्ञानिक ढंग से कही गई इस बात को सुनकर आलोचक ऋजुतापूर्वक आलोचना कर लेता है। यदि आचार्य उसे यह कहे कि तुम साधु बनकर भी ऐसी स्खलनाएं करते हो, धिक्कार है तुम्हें / इस बात को सुनकर वह अपनी पूर्ण आलोचना नहीं कर पाता, अपने दोषों को छिपा लेता है। कभी-कभी ताड़ना से कुपित होकर वह आचार्य का घात भी कर सकता है। भाष्यकार ने इसी प्रकार गाय का दृष्टान्त भी प्रस्तुत किया है। जंगल से लौटने वाली गाय को गृहस्वामी यदि मधुरता से नामोल्लेख पूर्वक पुचकारता है, पीठ थपथपाता है, आगे चारा रख देता है तो वह सारे दूध का क्षरण कर देती है। इसके विपरीत पीटना आदि कर्कश व्यवहार से वह लात मार देती है, पूरा दूध नहीं देती। उसी प्रकार आलोचना देने वाले आलोचक को यदि आचार्य प्रोत्साहन देते हैं, उसका उत्साह बढ़ाते हैं, उसके इस कृत्य की सराहना करते हैं तो वह ऋजुतापूर्वक आलोचना करता है। तिरस्कृत होने वाला आलोचक माया करके दोष को छिपा लेता है। भगवती आराधना में भी मायापूर्वक की जाने वाली आलोचना को अनेक दृष्टान्तों से स्पष्ट किया है। 1. व्यभा 580-84 मटी प. 39-41 / 2. भआ 567-69 / Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श आलोचना-विधि के दोष आलोचना को विधिवत् करना आवश्यक है। अविधि से की गई आलोचना फलदायी नहीं होती। जिस प्रकार कुवैद्य यदि अन्यथा रूप से रोग की चिकित्सा करे तो रोग का निवारण नहीं होता अथवा अविधि से विद्या सिद्ध की जाए तो वह सिद्ध नहीं होती, वैसे ही अविधि से की गई आलोचना से जिनेश्वर भगवान् की आज्ञा का भंग होता है। आलोचना-विधि के दश दोष हैं१. आकम्प्य-आलोचनाह की अशन-पान आदि से सेवा करके उनको प्रसन्न करके अथवा करुणा उत्पन्न करके आलोचना करना। दिगम्बर परम्परा में इसे आकम्पित दोष माना है। तत्त्वार्थ की श्रुतसागरीय टीका में इसका अर्थ किया है—'आचार्य मुझे दण्ड न दें' इस भय से आलोचना करना। 2. अनुमान्य-ये आचार्य मुझे कम दंड देंगे या अधिक, यह अनुमान करके मृदु दंड देने वाले के पास आलोचना करना। निशीथ चूर्णि के अनुसार यह अनुनय करके आलोचना करना कि मैं दुर्बल हूं, शरीर से रोगी हूं अत: मुझे कम दंड देना। आपकी कृपा से यदि कम दण्ड मिलेगा तो मैं अपराधमुक्त हो जाऊंगा। दिगम्बर साहित्य में इसे 'अनुमानित' दोष माना है। 3. यदृष्ट-मायापूर्वक उसी दोष की आलोचना करना, जो आचार्य अथवा किसी दूसरे के द्वारा देखा गया हो। तत्त्वार्थ राजवार्तिक में इसका नाम 'मायाचार' भी मिलता है।' 4. बादर-केवल स्थूल दोषों की आलोचना करना, सूक्ष्म अतिचारों को छिपा देना। राजवार्तिक में इसका नाम 'स्थूल' मिलता है। 5. सूक्ष्म-बड़े दोषों को छिपाकर केवल छोटे दोषों की आलोचना करना। इस भय से बड़े दोष छिपाना कि आचार्य मुझे बड़ा प्रायश्चित्त देंगे अथवा मुझे संघ से अलग कर देंगे। 6. छन-अप्रकट रूप से अथवा मंद शब्दों में आलोचना करना, जिससे आचार्य स्पष्ट रूप से न सुन सकें। दिगम्बर परम्परा में इसके लिए प्रच्छन्न शब्द का प्रयोग हुआ है। मूलगुण और उत्तरगुण में ऐसी विराधना होने पर क्या प्रायश्चित्त तप दिया जाता है, इस प्रकार प्रच्छन्न रूप से पूछना और उसके अनुसार अपनी शुद्धि कर लेना प्रच्छन्न दोष है। १.पंचा 15/5 / २.भ.२५/५५२, स्था 10/70, व्यभा 523, भआ 564 / ३.तश्रुतटी पृ.९। 1. तवा 9/22 पृ.६२१ / .निचू 4 पृ. 363 / 6. भआ 570-75 / 7. तवा 9/22 पृ. 621 ; अन्यादृष्टदोषगूहनं कृत्वा प्रकाशदोषनिवेदनं मायाचारस्तुतीयो दोषः। 8. तवा 9/22 पृ. 621 / 9. तवा 9/22 पृ.६२१ / Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 7. शब्दाकुल-जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना, जिससे अगीतार्थ भी सुन सके। भगवती आराधना के अनुसार जब सब मुनि एक साथ पाक्षिक, चातुर्मासिक और वार्षिक आलोचना करते हैं, तब अपने दोषों को कहना जिससे गुरु को दोष ज्ञात न हो सकें। 8. बहुजन-एक के पास आलोचना करके फिर उसी दोष की दूसरे के पास भी आलोचना करना अथवा एक आचार्य द्वारा दिए गए प्रायश्चित्त में अश्रद्धा करके अन्य आचार्य को पूछना कि आचार्य ने सम्यक् प्रायश्चित्त दिया है या नहीं अथवा अनेक लोगों के बीच आलोचना करना। तत्त्वार्थ की श्रुतसागरीय टीका में इसका अर्थ जब बहुत बड़ा संघ एकत्रित हो, तब दोष प्रकट करना किया है। 9. अव्यक्त-अगीतार्थ या बाल मुनि के पास आलोचना करना। 10. तत्सेवी-पार्श्वस्थ अथवा उस आचार्य के पास आलोचना करना, जो उस दोष का सेवन कर चुका हो या वर्तमान में कर रहा हो, जिससे उसे कम प्रायश्चित्त मिले। षट्प्राभृत में तत्सेवी का अर्थ जिस दोष का प्रकाशन किया है, उसका पुनः सेवन करना किया है। कहीं-कहीं तत्त्वार्थराजवार्तिक तथा श्रुतसागरीय वृत्ति में इन दोषों की व्याख्या में कुछ अंतर है। भगवती आराधना में विस्तार से इन दोषों का विवेचन हुआ है। आलोचना के प्रायः दोष माया के साथ जुड़े हुए हैं। माया रहित होकर आलोचना करने वाला आलोचक स्वतः इन दोषों से मुक्त हो जाता है। आलोचक को आलोचना के समय शारीरिक और वाचिक दृष्टि से होने वाले इन दोषों का वर्जन करना चाहिए नृत्य-अंगों को नचाते हुए आलोचना करना। वल-शरीर को मोड़ते हुए आलोचना करना। चल-अंगों को चालित करते हुए आलोचना करना। भाषा-असंयत या गृहस्थ की भाषा में आलोचना करना। मूक-मूक स्वर में बुदबुदाते हुए आलोचना करना। ढड्डर-उच्च स्वर में आलोचना करना। पंचवस्तु में वल दोष नहीं है केवल पांच दोष हैं। 1. मूलाचार में इसे शब्दाकुलित दोष माना है। 2. षट्प्राभृत 1/9 श्रुतसागरीय वृत्ति पृ.९। 3. तवा 9/22 पृ. 621 / 4. भआ 564-608 / 5. ओनि 516,517; नट्टं वलं चलं भासं, मूयं तह ढङ्करं च वज्जेज्जा। आलोएज्ज सुविहिओ, हत्थं मत्तं च वावारं / / एयद्दोसविमुक्कं, गुरुणा गुरुसम्मयस्स वाऽऽलोए। तं जह गहियं तु भवे ,पढमाओ जा भवे चरिमा।। 6. पंव 331-33, भआ 609 / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श आलोचनाह की योग्यता __ आलोचनाह की योग्यता का शास्त्रकारों ने विशद विवेचन किया है। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार बहुत आगमों का ज्ञाता, आलोचक के मन में समाधि उत्पन्न करने वाला तथा गुणग्राही आचार्य आलोचना सुनने के योग्य होता है। प्रायश्चित्त देने वाले आचार्य को सभी अपराधस्थानों का भी ज्ञान होना चाहिए, इनको जाने बिना वह प्रायश्चित्त नहीं दे सकता। आलोचनाह के आठ गुण बताए गए हैं - 1. आचारवान्–आचार के प्रति दृढ़ आस्थावान् तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य-इन पांच आचारों से युक्त। 2. अवधारवान्–आलोचक द्वारा आलोचित या आलोच्यमान समस्त अतिचारों को धारण करने में समर्थ। दिगम्बर परम्परा के अनुसार चौदहपूर्व, दशपूर्व एवं नवपूर्व का धारक, महामतिमान्, सागर के समान गंभीर, कल्प एवं प्रकल्प का धारक आचार्य आधारवान् या अवधारवान् होता है। 3. व्यवहारवान्–आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत–इन पांच व्यवहारों का ज्ञाता तथा इनके आधार पर प्रायश्चित्त देने में कुशल। 4. अपव्रीडक- आलोचक को मधुर वचनों से साहस उत्पन्न करने वाला, जिससे आलोचक लज्जामुक्त ..होकर निःसंकोच रूप से अपने दोषों को बता सके। 5. प्रकुर्वी-राग-द्वेष मुक्त होकर सम्यक् प्रायश्चित्त देकर आलोचक की भावविशोधि करने वाला। मरणविभक्ति प्रकीर्णक में प्रकुर्वी के स्थान पर विधिज्ञ शब्द का प्रयोग हुआ हैं, जो इसी का संवादी है।' भगवती आराधना के अनुसार अपने श्रम की गणना न करके आलोचक का उपकार करने वाला प्रकुर्वक होता है। 6. निर्यापक-ऐसा प्रायश्चित्त देने वाला, जिसे प्रतिसेवक निभा सके। स्थानांग की टीका में इसका अर्थ आलोचक बड़े से बड़े प्रायश्चित्त का निर्वहन कर सके, इस रूप में मानसिक सहयोग देने वाला किया है। आ. महाप्रज्ञ के अनुसार यहां टीका का अर्थ अधिक संगत है। आलोचना के समय कठोर शब्दों का प्रयोग करने वाला आचार्य प्रतिसेवक की शोधि नहीं कर सकता। इस तथ्य को भाष्यकार ने एक 1.3 36/262 बहुआगमविण्णाणा, समाहिउप्पायगा य गुणगाही। .. एएण कारणेणं, अरिहा आलोयणं सोउं।। २.भ 25/554 / ३.भआ४३०। 4. मवि 86 / 5. भआ 459 / 6. स्थाटी प. 461; निज्जवए यस्तथा प्रायश्चित्तं दत्ते यथा परो निर्वोढुमलं भवति। ७.स्था का टिप्पण पृ. 979 / Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 जीतकल्प सभाष्य दृष्टान्त से समझाया है। किसी खेत में सांड घुसने पर मालिक ने बाड़े को बंद करके उसकी खूब पिटाई की। भयाक्रान्त सांड के इधर-उधर भागने से सारी फसल नष्ट हो गई। इसी प्रकार अल्प अपराध या प्रतिसेवक की स्थिति जाने बिना उपाय-कौशल से रहित प्रेरणा देने वाला आलोचनार्ह प्रतिसेवक मुनि के शेष चारित्र को भी नष्ट कर देता है। 7. अपायदर्शी-सम्यक् आलोचना न करने पर उससे उत्पन्न ऐहलौकिक एवं पारलौकिक दोषों को बताने वाला, जिससे वह सरलता से हृदय की ग्रन्थियां खोल सके। मरणविभक्ति प्रकीर्णक में इसके लिए अपायविधिज्ञ शब्द का प्रयोग हुआ है।' 8. अपरिस्रावी-आलोचक के द्वारा प्रकट किए गए दोषों को दूसरों को नहीं बताकर गंभीरता से उसे भीतर पचाने वाला। अपरिस्रावी विशेषता को प्रकट करने में भाष्यकार ने दृढ़मित्र' का दृष्टान्तं प्रस्तुत किया है। भगवती आराधना में इन सभी गुणों का दृष्टान्त सहित विस्तृत वर्णन किया है।' स्थानांग और भगवती सूत्र में अंतिम तीन गुणों का क्रम इस प्रकार है-अपरिस्रावी, निर्यापक एवं अपायदर्शी / दसवें स्थानांग और भगवती सूत्र में दस गुणों का उल्लेख मिलता है। इन आठ गुणों के अतिरिक्त वहां प्रियधर्मा और दृढ़धर्मा-ये दो गुण अतिरिक्त मिलते हैं। ... व्यवहारभाष्य में आलोचना श्रवण के योग्य व्यवहारी आचार्य की निम्न विशेषताएं वर्णित हैं१. मवि 87 ; तह य अवायविहन्नू। कहा-'मैं सारी व्यवस्था कर दूंगा।' दृढ़मित्र ने वनचरों से 2. दंतपुर नगर में दंतवक्त्र नामक राजा राज्य करता था। मित्रता स्थापित करके उनसे दांत प्राप्त कर लिए। उन्होंने उसकी रानी का नाम सत्यवती था। उसके मन में दोहद घास के पुलों में छिपाकर दांतों का एक शकट भर दिया। उत्पन्न हुआ कि मैं दंतमय प्रासाद में क्रीड़ा करूं। उसने नगरद्वार पर एक बैल ने घास का पूला खींच लिया। इससे अपना दोहद राजा को बताया। राजा ने अमात्य को दंतमय उसमें छिपे दांत नीचे आकर गिर पड़े। चोर समझकर प्रासाद बनाने की आज्ञा दी। अमात्य ने नगर में घोषणा राजपुरुषों ने उसको पकड़ लिया। दृढ़मित्र बोला-'ये करवाई कि जो दूसरों से हाथी दांत खरीदेगा और अपने दांत मेरे अधिकार में हैं।' इतने में ही धनमित्र आकर घर में एकत्रित दांत नहीं देगा, उसे शूली की सजा भुगतनी बोला- 'ये दांत मेरे अधिकार में हैं।' दोनों अपनी बात होगी। पर दृढ़ थे। राजा ने कहा-'तुम दोनों निरपराधी हो, मुझे उसी नगर में धनमित्र नामक सार्थवाह की दो पलियां यथार्थ बात बताओ।' उन्होंने दांतों की पूरी बात बताई। थीं। एक का नाम धनश्री तथा दूसरी का नाम पद्मश्री था। राजा उनकी बात सुनकर बहुत संतुष्ट हुआ और दोनों एक बार दोनों में कलह होने पर पद्मश्री ने धनश्री को को मुक्त कर दिया। आलोचनाह को ऐसा ही अपरिनावीकहा-"तू क्यों गर्व करती है?" क्या तूने रानी सत्यवती अर्थात् दृढ़मित्र की भांति गोप्य बात को प्रकट नहीं करने की भांति अपने लिए दंतमय प्रासाद बनवाया है? धनश्री वाला होना चाहिए। (व्यभा 517 टी प. 17) को यह बात चुभ गई। उसने पति के समक्ष हठ पकड़ 3. व्यभा 520 / लिया कि मेरे लिए दंतमय प्रासाद बनवाना पड़ेगा। उसने 4. द्र. भआ 449-510 / अपने पति से आलाप-संलाप करना बंद कर दिया। धनमित्र 5. स्था 8/18, भ. 25/554 / ने अपने मित्र दृढ़मित्र को सारी बात कही। दृढ़मित्र ने 6. स्था 10/72, भ. 25/554 / Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 101 1. गीतार्थ-वह सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ में निपुण होना चाहिए। कम से कम कल्प (बृहत्कल्प) और व्यवहार आदि छेदसूत्र और उसकी नियुक्ति का ज्ञाता होना चाहिए।' 2. कृतकरण-जो आलोचना देने में सहयोगी रह चुका हो। 3. प्रौढ़-बिना किसी हिचकिचाहट के प्रायश्चित्त देने में समर्थ। 4. परिणामक-अपरिणामक और अतिपरिणामक आचार्य आलोचना देने के योग्य नहीं होता। जिसकी बुद्धि सूत्र और अर्थ तथा उत्सर्ग और अपवाद-दोनों में परिणत होती है, वह परिणामक कहलाता है। 5. गंभीर-आलोचक के महान् दोषों को सुनकर भी जो उसको पचाने में समर्थ हो। पूर्व वर्णित अपरिस्रावी योग्यता से इसकी तुलना की जा सकती है। 6. चिरदीक्षित जो कम से कम तीन वर्ष से अधिक दीक्षा पर्याय वाला हो। 7. वृद्ध-जो श्रुत, पर्याय और वय-इन तीनों से स्थविर हो।' इन विशेषताओं के अतिरिक्त आचार्य हरिभद्र ने आलोचनार्ह में कुछ और विशेषताओं का वर्णन किया है-वह. परहित में उद्यत, सूक्ष्मभावकुशलमति सम्पन्न, दूसरों के चित्त के भावों को अनुमान से जानने वाला होना चाहिए। धवला के अनुसार आस्रव से रहित, श्रुत रहस्य के ज्ञाता, वीतराग, रत्नत्रय में मेरु के समान स्थिर गुरु के समक्ष अपनी आलोचना करनी चाहिए। मूलाचार के अनुसार जो ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र-इन चारों आचारों में अविचल, धीर, आगम में निपुण और गुप्त दोषों को दूसरों के समक्ष प्रकट नहीं करने वाला आचार्य आलोचना सुनने के योग्य होता है / मरणविभक्ति प्रकीर्णक में विशोधि करने वाले आलोचनार्ह आचार्य के आचार की मेरुपर्वत, सागर, पृथ्वी, चन्द्रमा और सूर्य से तुलना की है। . इस प्रकार आलोचनार्ह तटस्थ, परिस्थिति का ज्ञाता, निर्दोष, मृदुभाषी तथा आत्मानुशासित होना चाहिए, जिससे उसके द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त प्रतिसेवक के लिए आदेय हो जाए। 1. वैदिक परम्परा के अनुसार वेदविद्या के जानकार अग्निहोत्री तह परहियम्मि जुत्तो, विसेसओ सुहुमभावकुसलमती। ___तीन या चार ब्राह्मणों के समूह की परिषद् ही प्रायश्चित्त भावाणुमाणवं तह, जोग्गो आलोयणायरिओ।। दे सकती है। जो धर्मशास्त्र जाने बिना प्रायश्चित्त बताता 4. षट्ध पु. 13/5, 4, 26 पृ. 60; गुरूणमपरिस्सवाणं है तो प्रायश्चित्त करने वाले की तो शुद्धि हो जाती है सुदरहस्साणं वीयरायाणं तिरयणे मेरुव्व थिराणं सगदोसलेकिन उसका पाप परिषद् को लग जाता है। (पारा 8/14, णिवेयणमालोयणा......। 5. मूला 57; 2. व्यभा 2378; णाणम्हि दंसणम्हि य, तवे चरिते य चउस वि अकंपो। गीतत्था कयकरणा, पोढा परिणामिया य गंभीरा। धीरो आगमकुसलो, अपरिस्साई रहस्साणं / / चिरदिक्खिया य वुड्डा, जतीण आलोयणा जोग्गा।। 6. मवि 93; 3. पंचा 15/15; तेसिं मेरु-महोयहि-मेयणि-ससि-सूरसरिसकप्पाणं। पामूले य विसोही, करणिज्जा सुविहियजणेणं / / Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 जीतकल्प सभाष्य आलोचक की योग्यता आलोचना विशोधि का सशक्त उपक्रम है। अपने अपराधों या अतिचारों की आलोचना करना इतना सरल नहीं होता। बिना धृति के व्यक्ति अपनी दुर्बलता को प्रकट नहीं कर सकता। निम्न गुणों से युक्त साधु ही विशुद्ध हृदय से अपनी आलोचना कर सकता है१. जाति सम्पन्न-जाति सम्पन्न मुनि प्रायः अकरणीय कार्य नहीं करता। यदि प्रमादवश अकृत्य हो जाए तो वह उसकी सम्यक् आलोचना कर लेता है। 2. कुल सम्पन्न-कुल सम्पन्न साधु प्राप्त प्रायश्चित्त का सम्यक् निर्वहन करता है। वह बहाने बनाकर प्रायश्चित्त को कम नहीं करवाता। 3. विनय सम्पन्न-विनय सम्पन्न साधु सहजता से गुरु के प्रायश्चित्त को स्वीकार करता है तथा सभी विनय-प्रतिपत्तियों का निर्वाह करता है। 4. ज्ञान सम्पन्न-ज्ञान सम्पन्न मुनि श्रुत के अनुसार सम्यक् आलोचना करता है। वह जान लेता है कि अमुक श्रुत के आधार पर मुझे प्रायश्चित्त दिया गया है, यह प्रायश्चित्त मेरी आत्मशोधि करने वाला है। 5. दर्शन सम्पन्न-दृष्टि की विशुद्धता के कारण दर्शन सम्पन्न साधु प्रायश्चित्त से शुद्धि में विश्वास करता है। वह प्राप्त प्रायश्चित्त के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण नहीं रखता। 6. चारित्र सम्पन्न-चारित्र सम्पन्न मुनि पुनः अतिचारों का सेवन नहीं करता। वह चारित्र की स्खलनाओं की सम्यक् आलोचना करता है। 7. क्षान्त-क्षमाशील और सहनशील मुनि गुरु के कठोर अनुशासन को भी सम्यक् रूप से ग्रहण करता 8. दान्त-इंद्रिय और मन पर संयम करने वाला कठोर तप के प्रायश्चित्त का भी सम्यक् वहन कर सकता है। 9. अमायी-अमायी साधु बिना कुछ छिपाए सरल हृदय से अपने सभी अपराधों की आलोचना करता है। 10. अपश्चात्तापी-अपश्चात्तापी मुनि अपने बड़े से बड़े अपराध की आलोचना करके भी पश्चात्ताप नहीं करता। वह यह मानता है कि मैं पुण्यशाली हूं, जो प्रायश्चित्त स्वीकार करके आराधक बन गया १.स्था 8/19, 10/71, भ 25/553 / Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 103 आचार्य हरिभद्र के अनुसार इन गुणों से युक्त साधु भाव-विशुद्धि के लिए आलोचना कर सकता है-संविग्न, अमायी, मतिमान्, कल्पस्थित, अनाशंसी (आकांक्षा रहित) प्रज्ञापनीय-जिसे समझाना सरल हो, श्रद्धालु, आज्ञावान्, दुष्कृत-अनुतापी। आगमव्यवहारी की स्मारणा विधि आगमव्यवहारी आलोचक के अपराध और उसकी शोधि को प्रत्यक्ष जानते हैं फिर भी वे दूसरों के द्वारा आलोचना करने पर उसे सुनकर ही प्रायश्चित्त का प्रयोग करते हैं। उनके सामने यदि आलोचक निसर्गत: अपने अतिचारों को भूल जाता है तो वे उसे अतिचारों की स्मृति करवाते हैं। स्मृति दिलाने पर यदि वह उस अपराध को सम्यक् रूप से स्वीकृत कर लेता है तो उसे प्रायश्चित्त देते हैं अन्यथा अन्यत्र शोधि करने की बात कहते हैं। यदि माया के कारण वह दोषों को छिपाता है अथवा वे यह जानते हैं कि यह अपराध याद कराने पर भी आलोचना स्वीकार नहीं करेगा तो वे आलोचनीय की स्मृति नहीं करवाते। आगमव्यवहारी आलोचक की द्रव्य, पर्याय, क्रम, क्षेत्र, काल और भाव से विशुद्ध आलोचना सुनते हैं उसके पश्चात् व्यवहार का प्रयोग करते हैं। यदि प्रतिसेवक अपने सभी अतिचारों की यथाक्रम से आलोचना नहीं करता तो वे उसे प्रायश्चित्त नहीं देते। 'किसी दोष को छिपाये बिना अतिचारों को कहो' ऐसा कहने पर भी यदि वह सरलता से आलोचना नहीं करता, दोष छिपाता है तो आगमव्यवहारी उसे अन्य आचार्य के पास जाकर शोधि करने की बात कहते हैं। आगमव्यवहारी आलोचना देते समय सूत्र और अर्थ-दोनों से आगम-विमर्श करते हैं। यदि आगम और आलोचना-दोनों में विषमता होती है अर्थात् जिस रूप में उसने आलोचना की है, उसके अतिचारों को उस रूप में नहीं देखते, न्यूनाधिक देखते हैं तो आगमव्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते। यदि आलोचना और आगम-दोनों समान होते हैं तो आगमव्यवहारी उसे प्रायश्चित्त देते हैं। आलोचना परसाक्षी से ही क्यों? ___प्रश्न हो सकता है कि जब व्यक्ति को अपने दुष्कृत्यों की आलोचना करनी है तो वह आत्मसाक्षी से भी की जा सकती है, दूसरे के पास करनी क्यों आवश्यक है? इस प्रश्न का समाधान करते हुए आचार्य . / १.पंचा 15/12; संविग्गो उ अमाई, मइमं कप्पट्टिओ अणासंसी। पण्णवणिज्जो सद्धो, आणाइत्तो दुकडतावी।। 2. जीभा 146, निभा 6394 / ३.जीभा 131 / 4. जीभा 143, भआ 620, व्यभा 4065 / 5. जीभा 145 / ६.जीभा 139 / ७.जीभा 147,148, व्यभा 4068,4069 / Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 जीतकल्प.सभाष्य कहते हैं कि गुरु के समक्ष आलोचना किए बिना भीतरी शल्य की विशोधि नहीं होती। जिस प्रकार शरीर में बढ़ते हुए फोड़े को यदि चिकित्सक को न बताया जाए तो वह मृत्यु का कारण भी बन सकता है, वैसे ही अपराधरूपी व्रण की चिकित्सा भी आचार्य के समक्ष ही करनी चाहिए अन्यथा भाव शल्य का उद्धरण नहीं हो सकता। भाष्यकार के अनुसार छत्तीस गुणों से युक्त, आगम आदि पांच व्यवहार के प्रयोगों में कुशल आचार्य को भी अन्य आचार्य के पास विशोधि करनी चाहिए। जैसे कुशल वैद्य भी अपनी व्याधि को किसी दूसरे वैद्य को बताता है, वह उसकी व्याधि सुनकर उसकी चिकित्सा प्रारम्भ करता है, वैसे ही निपुण प्रायश्चित्तवेत्ता को भी अन्य आचार्य के पास आलोचना करनी चाहिए। जंघाबल क्षीण होने पर जब आचार्य चलने-फिरने में अशक्त हो जाए तो उसे धारणा व्यवहार से अन्य आचार्य के पास आलोचना करनी चाहिए। टीकाकार अपराजितसूरि के अनुसार परसाक्षी अर्थात् आचार्य की साक्षी से आलोचना करने से मायाशल्य दूर होता है, मान कषाय जड़ से उखड़ जाती है, गुरुजनों के प्रति आदरभाव व्यक्त होता है तथा मोक्ष मार्ग प्रशस्त होता है। आलोचना और आराधना ___ उत्तम अर्थ की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करना आराधना है। औपपातिक टीका के अनुसार ज्ञान आदि गुणों की विशेष रूप से अनुपालना आराधना है। इन गुणों को खंडित न होने देना तथा खंडित होने पर उसको सरलता से प्रकट कर देना आराधना है। जैन धर्म में आराधक जीवन का विशेष महत्त्व है। बत्तीस योग-संग्रह में अंतिम योग मारणांतिक आराधना है। आराधना मुख्यतः तीन प्रकार की होती है-ज्ञान आराधना, दर्शन आराधना और चारित्र आराधना। इन तीनों के तीन-तीन भेद होते हैं -जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। आलोचना और आराधना का गहरा सम्बन्ध है। जो माया के कारण आलोचना नहीं करता, उसके तीनों जन्म गर्हित हो जाते हैं, वह विराधक बन जाता है। जो आलोचना करके निःशल्य हो जाता है, वह निश्चित रूप से आराधक होता है। जो यह सोचते हैं कि कल, परसों या आगे मैं दर्शन, ज्ञान और चारित्र 1. पंचा 15/39; पूजितो भवति। तत्परतंत्रया वृत्तेर्मार्गप्रख्यापनाच कृता स्यात्।। आलोयणं अदाउं,सति अण्णम्मि वि तहऽप्पणो दाउं। ५.सम 32/1/5 / जे वि ह करेंति सोहिं, तेऽवि ससल्ला विणिद्दिट्ठा।। ६.स्था 3/434, भ८/४५१ / 2. जीभा 411 / 7. भ८/४५२-५४। 3. जीभा 409, 410, ओनि 795,796 / ८.स्था८/१०। 4. भआ 536 विटी पृ. 392; परसाक्षिकायां शुद्धौ मायाशल्यं ९.भ 3/192, मवि 78 ; आलोइय निस्सल्ला, मरिउं आराहगा निरस्तं भवति। मानकषायो निर्मूलितो भवति। गुरुजनः ते वि। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 105 की शोधि कर लेंगे, वे काल को नहीं जानते हुए सशल्य मरण प्राप्त करके विराधक हो जाते हैं। नियुक्तिकार के अनुसार आलोचना करके आराधनापूर्वक मरण प्राप्त करने वाला उत्कृष्ट तीन भव में निर्वाण प्राप्त कर लेता है। भगवती सूत्र के अनुसार वह नियमित सात-आठ भवों में मोक्ष प्राप्त करता है। यदि साधु बिना आलोचना किए मृत्यु को प्राप्त हो जाए तो उसके चारित्र का नाश हो जाता है और वह अनंत संसार में परिभ्रमण करता रहता है। भगवती आराधना के अनुसार आलोचना करके ज्ञान, दर्शन की उत्कृष्ट आराधना करने वाला उसी भव में मुक्त हो जाता है। मध्यम आराधना करने वाला तीसरे भव में तथा जघन्य आराधना करने वाला सातवें भव में मुक्त होता है। निशीथभाष्य के अनुसार कोई मुनि आपत्ति के कारण मद्य, गीत आदि व्यसन में आसक्त होता है अथवा शारीरिक दौर्बल्य के कारण यथोक्त आचार का पालन करने में असमर्थ होता है, उसका चरणकरण अशुद्ध होता है फिर भी यदि वह अपने अशुद्ध आचरण की गुरु के समक्ष गर्दा करता है और शुद्ध मार्ग की प्ररूपणा करता है तो वह आराधक हो सकता है। इसी प्रकार संयम यात्रा में अवसन्न होने पर भी यदि विशुद्ध आचार की वृद्धि करता है, शुद्ध चारित्रमार्ग की प्ररूपणा करता है तो वह कर्मबंधन को शिथिल करके सुलभबोधि और आराधक होता है।' / कभी-कभी बिना आलोचना किए भी साधु आराधक होता है। भगवती सूत्र के आठवें शतक में आलोचना की अभिमुखता के आठ विकल्प बताए गए हैं। उसका फलितार्थ यही है कि कोई साधु अकृत्य स्थान का सेवन करके इस चिन्तन से गुरु के सम्मुख प्रस्थित होता है कि मुझे आलोचना करके प्रायश्चित्त स्वीकार करना है। बीच में उसके मुख का लकवा हो जाए या किसी रोग के कारण आचार्य बोल नहीं पाएं अथवा आचार्य कालगत हो जाएं तो आलोचना न करने पर भी वह साधु आराधक होता है क्योंकि वह मानसिक रूप से आलोचना करने के लिए कृतसंकल्प और समुत्सुक है तथा आलोचना करने के भाव में परिणत होने के कारण उसकी प्रवृत्ति निश्छल और सरल है। आचार्य महाप्रज्ञ ने इस आलापक पर भाष्य लिखते हुए कहा है --आराधक और विराधक का प्रयोग अनेक संदर्भो में होता है -* ज्ञान का आराधक और विराधक। * दर्शन का आराधक और विराधक।• चारित्र का आराधक और विराधक। * इहलोक का 4. व्यभा 921; ससल्लस्सा जीवितघाते चरणघातो। १.भआ 543; कल्ले परे व परदो, काहं दंसणणाणचरित्तसोधि त्ति। इय संकप्पमदीया, गयं पि कालं ण याणंति / / 2. ओनि 808 आराहणाइ जुत्तो, सम्म काऊण सुविहिओ कालं / उक्कोसं तिन्नि भवे, गंतूण लभेज्ज निव्वाणं / / ३.भ.८/४६६, पंचा 7/50 / 6. निभा 5435 च पृ.७०। 7. निभा 5436 / 8. आवनि 834; आलोइयम्मि आराधणा, अणालोइए भयणा। 9. भ 8/251-55, जीभा 128, 233 / 10. भभा 3 पृ. 99, 100 / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 जीतकल्प सभाष्य आराधक और विराधक।• परलोक का आराधक और विराधक।• स्वीकृत व्रत की निरतिचार अनुपालना करने वाला आराधक, न करने वाला विराधक होता है। ___अकृत्यस्थान की आलोचना न होने पर विशुद्धि कैसे हो सकती है? इसका समाधान ‘क्रियमाणकृत' के सिद्धांत द्वारा किया गया है। क्रिया-काल और निष्ठा-काल में अभेद होता है, प्रतिक्षण कार्य की निष्पत्ति होती है, इस सिद्धांत के अनुसार छिद्यमान को छिन्न, प्रक्षिप्यमान को प्रक्षिप्त और दह्यमान को दग्ध . कहा जाता है, वैसे ही आराधना में प्रवृत्त को आराधक कहा जा सकता है।' दसवें शतक में पुनः आराधक और विराधक के प्रसंग में जिज्ञासा प्रस्तुत की गई है कि यदि कोई भिक्षु अकृत्यस्थान का सेवन करके यह सोचता है कि मैं अंतिम समय में आलोचना करके प्रायश्चित्त प्राप्त करूंगा लेकिन किसी कारणवश वह आलोचना नहीं करता तो वह विराधक है। यदि संकल्प करके अंतिम समय में आलोचना कर लेता है तो वह आराधक होता है। नियुक्तिकार कहते हैं कि अल्प भावशल्य की भी यदि गुरु के पास आलोचना नहीं की जाती तो श्रुत से समृद्ध होने पर भी वह साधु आराधक नहीं होता। बड़े से बड़े शल्य की भी यदि गुरु के समक्ष आलोचना कर ली जाए तो वह आराधक हो जाता है। पर साक्षी के बिना शल्य की शुद्धि संभव नहीं है। भाष्यकार कहते हैं कि अपराध या अतिचार होते ही साधु को अश्व के समान कहीं भी प्रतिबद्ध हुए बिना तत्काल गुरु के पास आलोचना करनी चाहिए। यदि साधु का किसी के साथ कलह हो जाए, उस समय पश्चात्ताप करता हुआ उपशान्त हो जाता है तथा क्षमायाचना कर लेता है तो वह आराधक होता है। अन्यथा विराधक होता है। ___इसी संदर्भ में एक प्रश्न उठता है कि यदि किसी कारण से मुनि को प्रतिसेवना के अतिचार विस्मृत हो जाएं तो बिना सम्यक् आलोचना के वह निःशल्य कैसे बनेगा? इस प्रश्न का समाधान देते हुए आचार्य कहते हैं कि यदि आलोचक माया और गौरव से रहित होकर यह सोचता है कि मैंने जो-जो अपराध किए हैं, उन्हें जिनेश्वर भगवान् जानते हैं, मैं सर्वात्मना उनकी आलोचना के लिए उपस्थित हूं तो अतिचार विस्मृत होने पर भी भाव-विशोधि के कारण वह मुनि आराधक होता है। संघीय कार्य उपस्थित होने पर अथवा संघ के ऊपर संकट की स्थिति आने पर पंचेन्द्रिय का वध होने पर अथवा स्वयं के जीवन का नाश होने पर भी साधु आराधक होता है क्योंकि इसमें आलम्बन विशुद्ध है, ऐसा करने से तीर्थ की परम्परा 1. भ. 8/255 टी प 376 ; क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदेन अप्पं पि भावसल्लं, जे णालोयंति गुरुसगासम्मि। प्रतिक्षणं कार्यस्य निष्पत्तेः छिद्यमानं छिन्नमित्युच्यते एवम- धंतं पि सुयसमिद्धा ,न हु ते आराहगा होति / / सावालोचनापरिणतौ सत्यामाराधनाप्रवृत्त आराधक एवेति। 4. व्यभा 231; अहगं च सावराधी, आसो विव पत्थितो 2. भ 10/19-21 / गुरुसगासं। 3. मवि 225, 226; 5. कसू 1/34 / सुबहु पि भावसल्लं, आलोएऊण गुरुसगासम्मि। 6. जीभा 422 / निस्सल्लो संथारं, उवेइ आराहओ होइ / / Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 107 अविच्छिन्न रहती है। सामर्थ्य या विद्यातिशय होने पर भी जो साधु उसका उपयोग नहीं करता तो वह विराधक होता है। आलोचना के लाभ ___ जैन आगमों में अपनी स्खलना को गुरु के समक्ष स्पष्ट रूप से कहने का निर्देश स्थान-स्थान पर मिलता है। व्यक्ति जब मार्गदर्शक के समक्ष अपने अपराध स्वीकार कर लेता है तो वह हल्का हो जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में आलोचना के लाभ प्रकट करते हुए महावीर कहते हैं कि आलोचना से आंतरिक शल्यों की चिकित्सा होती है, सरल मनोभाव की विशेष उपलब्धि होती है, तीव्रतर विकारों से दूर रहने की क्षमता का विकास होता है तथा पूर्व संचित विकार के संस्कारों का विलय होता है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार आलोचना करने से निम्न गुण प्रकट होते हैं * मिथ्यात्व आदि पांच आश्रवों को दूर करके पंचविध आचार की सम्यक् आराधना। * माया का विनाश तथा विनयगुण का विस्तार। * चारित्र के नियमों में निरतिचार प्रवृत्ति। * अतिचार रूपी पंक से पंकिल आत्मा की विशोधि। * ऋजु भाव-संयम का विकास। * आर्जव और मार्दव का विकास। * अतिचार की गुरुता समाप्त होने से लाघव का अनुभव / * मैं शल्यमुक्त हो गया हूं, इस प्रकार की तुष्टि। ..अतिचार के समाप्त होने से प्रसन्नता की वृद्धि / ' ___ व्यवहारभाष्य में कुछ अंतर के साथ आलोचना करने के निम्न लाभों का उल्लेख मिलता है१. लाघवता-भारहीन व्यक्ति की भांति आलोचना करने वाला हल्केपन की अनुभूति करता है। अपराधबोध का भार उसके मस्तिष्क से हट जाता है। 2. प्रसन्नता-अतिचार जन्य आंतरिक ताप का शमन होने से अतिरिक्त मानसिक प्रसन्नता की अनुभूति होती है। 3. आत्मपरनिवृत्ति-आलोचना करने से स्वयं के दोषों की निवृत्ति होती है तथा उसे देखकर दूसरों के दोषों . की भी निवृत्ति हो जाती है। 4. आर्जव-अपने दोषों को प्रकट करने से स्वयं की ऋजुता का विकास होता है। १.जीभा 2386-91 / 4. व्यभा 317 ; 2.3 29/6 / लहयल्हादीजणणं, अप्पपरनियत्ति अज्जवं सोही। ३.जीभा 246-51, पंकभा 1310 / दुक्करकरणं विणओ, निस्सल्लत्तं व सोधिगुणा।। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 जीतकल्प सभाष्य 5. शोधि-जल से मलिन वस्त्र की भांति आलोचना से मलिन चारित्र की विशोधि होती है। 6. दुष्करकरण-प्रबल वैराग्य और उत्साह से ही व्यक्ति अपने दोषों की आलोचना कर सकता है अतः दोषों की प्रतिसेवना उतनी दुष्कर नहीं है, जितनी कि उसकी गुरु के समक्ष आलोचना करना। 7. विनय- अहंकार का नाश हुए बिना व्यक्ति आलोचना नहीं कर सकता अतः आलोचना करने वाले व्यक्ति में सहज ही विनय का गुण प्रकट हो जाता है। 8. निःशल्यता-आंतरिक शल्य भीतर ही भीतर व्यक्ति के आत्मबल को कमजोर कर देता है। आलोचना से माया आदि शल्यों का उद्धरण हो जाता है। ___ आचार्य अकलंक के अनुसार आलोचना के बिना बड़ी तपस्या भी उसी भांति इष्ट फल नहीं देती, जैसे विरेचन से शरीर के मल की शुद्धि किए बिना खाई गई औषधि। विशुद्ध हृदय से आलोचना के साथ किया गया प्रायश्चित्त साफ दर्पण में प्रतिबिम्बित रूप की भांति निखर उठता है। शुद्ध हृदय से आलोचना करने पर भी यदि आलोचक प्राप्त प्रायश्चित्त का सम्यक् वहन नहीं करता है तो उसका शोधन नहीं होता। वह व्यक्ति अपने आय और व्यय का हिसाब नहीं रखने वाले कर्जदार की भांति सदैव दुःखी रहता है। आलोचना के अपराध-स्थान दैनिक जीवन में अवश्य करणीय कार्यों को निरतिचार रूप से उपयुक्त होकर करने वाले छद्मस्थ मुनि की आलोचना मात्र से शुद्धि हो जाती है। प्रश्न हो सकता है कि जब मुनि करणीय योग में निरतिचार रूप से उपयुक्त है तो फिर आलोचना की क्या आवश्यकता है? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि सूक्ष्म आस्रव क्रिया अथवा सूक्ष्म प्रमाद से लगने वाले कर्म और अतिचार को छद्मस्थ नहीं जान सकता अत: उसकी शुद्धि गुरु के समक्ष आलोचना करने मात्र से हो जाती है अतः गुरु के समक्ष ज्ञात या अज्ञात तीनों योगों से सम्बन्धित क्रियाओं की आलोचना करनी चाहिए। सातिचार मुनि को ऊपर के प्रायश्चित्तों की प्राप्ति होती है। केवलज्ञानी कृत्कृत्य होते हैं अतः उनके आलोचना प्रायश्चित्त नहीं होता। 1. तवा 9/22, पृ.६२१ ; महदपि तपस्कर्म अनालोचनपूर्वकम् 3. व्यभा 56 / नाभिप्रेतफलप्रदम्, अविरिक्तकायगतौषधवत् / ४.जीभा 736-38 / 2. तवा 9/22 पृ. 621; कृतालोचनचित्तगतं प्रायश्चित्तं 5. प्रसाटी प. 218 : सातिचारस्य तपरितनप्रायश्चित्तसम्भवात। परिमृष्टदर्पणतलरूपवत् परिभ्राजते।.....परपरिभवादि- ६.प्रसाटी प. 218; केवलज्ञानिनश्च कृतकृत्यत्वेनालोचनाया गणनया निवेद्यातिचारं यदि न शोधयेद् अपरीक्षिताय- अयोगात्। व्ययाधमर्णवदवसीदति। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 109 सामान्यतया सौ हाथ की दूरी तक बाहर जाने पर समिति-गुप्ति की विशुद्धि के लिए आलोचना आवश्यक है। इसी प्रकार श्लेष्म, प्रस्रवण आदि के परिष्ठापन में प्रमत्त साधु की आलोचना से शुद्धि होती है। अप्रमत्त और उपयुक्त को आलोचना की आवश्यकता नहीं होती। सामान्यतया आलोचना करने के निम्न स्थान हो सकते हैं * कुल, गण या संघ के कार्य हेतु बाहर जाने पर। * प्रातिहारिक संस्तारक आदि लौटाने हेतु जाने पर। * आहार या औषध आदि लाने हेतु जाने पर। * उच्चारप्रस्रवण के परिष्ठापन हेतु या स्वाध्याय-भूमि में जाने पर। * क्षेत्र-प्रतिलेखना हेतु जाने पर। * शैक्ष का अभिनिष्क्रमण अथवा कोई आचार्य के संलेखना करने से वहां जाने पर। * बहुश्रुत तथा अपूर्व संविग्न आचार्य को वंदना करने या संशय को दूर करने हेतु जाने पर। * श्रावक अथवा अपने ज्ञातिजनों की श्रद्धा बढ़ाने हेतु जाने पर। * अवसन्न साधर्मिक का संयम में उत्साह बढ़ाने हेतु जाने पर। चूर्णिकार जिनदासगणी के अनुसार परस्पर अध्ययन-अध्यापन, परिवर्तना, केशलोच, वस्त्रों का आदान-प्रदान-इन कार्यों की गुरु के समक्ष आलोचना मात्र से शुद्धि हो जाती है। भिक्षा, विहार आदि स्थानों को गुरु की आज्ञा के बिना करने पर अथवा आलोचना न करने से गुरु का अविनय तथा अशुद्ध परिभोग होता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार निम्न स्थानों में आलोचना प्रायश्चित्त प्राप्त होता है• * आचार्य से पूछे बिना आतापना लेने पर। * दूसरे साधुओं की अनुपस्थिति में उनके उपकरण ग्रहण करने पर। * प्रमाद से आचार्य की आज्ञा का उल्लंघन करने पर। * आचार्य से पूछे बिना जाकर आने पर। * परसंघ से पूछे बिना अपने संघ में आने पर। * धर्मकथा आदि के कारण व्रत, नियम आदि का विस्मरण होने पर। १.जीसू 7, जीभा 759,760 / २.जीभा 762 / 3. जीभा 750-57, प्रसाटी प. 218 / ४.आवचू 2 पृ. 246 ; परोप्परस्स वायण-परियट्टण-वत्थ दाणादिए अणालोतिए गुरूणं अविणओ त्ति आलोयणारिहं। 5. व्यभा 57; भिक्ख-वियार-विहारे, अन्नेसु य एवमादिकज्जेसु। अविगडियम्मि अविणओ, होज्ज असुद्धे व परिभोगो।। 6. काअटी पृ. 343 / Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 जीतकल्प सभाष्य भाष्यकार के अनुसार प्रतिक्रमण प्रायश्चित में आलोचना नहीं की जाती लेकिन विवेक और व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त में आलोचना वैकल्पिक है।' 2. प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण आत्मा के मल को धोने के लिए साबुन के समान है। इसका अर्थ है-पीछे लौटना। अतीत के पाप की विशुद्धि के लिए मानसिक रूप से अतिचारों को याद करके उससे निवृत्त होना प्रतिक्रमण है। आचार्य हरिभद्र ने प्रतिक्रमण शब्द की दो रूपों में व्याख्या की है• शुभ योग से अशुभ योग में जाते हुए पुनः शुभ योग में विपरीत चलना प्रतिक्रमण है। अर्थात् औदयिक भाव से क्षायोपशमिक भाव में लौटना प्रतिक्रमण है। * प्रतिक्षण शुभ योगों में क्रमण–वर्तन करना प्रतिक्रमण है।' निश्चय नय के अनुसार जब तक आत्मा स्वयं प्रतिक्रमण नहीं बन जाती, तब तक वह द्रव्य प्रतिक्रमण होता है। नियमसार के अनुसार जब साधक वचन-रचना को छोड़कर, राग आदि भावों का निवारण करके अपनी आत्मा का ध्यान करता है, विराधना को छोड़कर आराधना में प्रवृत्त होकर प्रतिक्रमणमय हो जाता है, तब प्रतिक्रमण होता है। आचार्य जिनदास के अनुसार जब आत्मा में तीव्र संवेग की प्राप्ति होती है, तब व्यक्ति अपने अतीतकालीन पाप की स्मृति करके आत्मनिंदा और गर्दा करता है, पुनः वह अनाचरणीय को न करने का संकल्प करता है, वही वास्तविक प्रतिक्रमण है। धवला में भी इसी मत की पुष्टि है। प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त में गुरु के समक्ष आलोचना करने की आवश्यकता नहीं रहती, संवेगपूर्वक " मिथ्या दुष्कृत करने मात्र से पाप की शुद्धि हो जाती है। उदाहरण स्वरूप किसी साधु के श्लेष्म आदि बाहर निकलता है, उससे हिंसा आदि दोष लगता है लेकिन उसमें तप रूप प्रायश्चित्त नहीं मिलता, प्रतिक्रमण करने से शुद्धि हो जाती है। १.व्यभा 55; बितिए णत्थि वियडणा, वा उ विवेगे तधा आराहणाइ वट्टइ, मोतूण विराहणं विसेसेण। विउस्सग्गे। सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमणमओ हवे जम्हा।। 2. विभा 3572; पडिक्कमामि त्ति भूयसावज्जओ निवत्तामि। 6. अनुद्वाचू पृ. 18 / 3. आवहाटी 2 पृ.४१ ; शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य ७.षट्ध पु.१३/५,४,२६, पृ.६०;गुरुणमालोचणाए विणा शुभेष्वेव प्रतीपं प्रतिकूलं वा क्रमणं प्रतिक्रमणम्। ससंवेग-निव्वेयस्स पुणो ण करेमि त्ति जमवराहादो णियत्तणं 4. आवहाटी 2 पृ. 41 प्रति प्रति क्रमणं वा प्रतिक्रमणं, पडिक्कमणं णाम पायच्छित्तं। शुभयोगेषु प्रति प्रति वर्तनमित्यर्थः। 8. तवा 9/22 पृ.६२१; मिथ्यादुष्कृताभिधानाधभिव्यक्त५. निसा 83, 84; प्रतिक्रिया प्रतिक्रमणम्। मोत्तूण वयणरयणं, रागादि भाववारणं किच्चा। ९.जीभा 719,720 / अप्पाणं जो झायदि, तस्स दु होदि त्ति पडिकमणं।। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 111 चूर्णिकार के अनुसार प्रतिक्रमण का तात्पर्य है- दोष का पुनः सेवन न करने का संकल्प तथा उसके योग्य प्रायश्चित्त को स्वीकार करके उसका वहन करना। प्रतिक्रमण करके जो पुनः उन्हीं पापों का सेवन करता है, उसका प्रतिक्रमण सार्थक नहीं होता, वह प्रत्यक्ष मृषावादी और मायावी होता है। नियुक्तिकार के अनुसार किसी भी प्रकार का अकार्य हो जाने पर उसका प्रतिक्रमण करके हल्का हो जाना चाहिए, उसका हृदय में भार नहीं ढोना चाहिए।' प्रतिक्रमण का अर्थ यहां केवल अशुभ योगमय पापकर्म से निवृत्ति है, न कि शुभ योग या शुभ ध्यान से निवृत्ति। इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर दिगम्बर-साहित्य में अप्रतिक्रमण शब्द का प्रयोग हुआ है। अप्रतिक्रमण दो प्रकार का होता है-प्रशस्त और अप्रशस्त / ज्ञानी का शुभ भाव तथा ज्ञान, दर्शन से पीछे न लौटना प्रशस्त अप्रतिक्रमण तथा अज्ञानी का लोभ, विषय-कषाय से पीछे न लौटना अप्रशस्त अप्रतिक्रमण है। यहां प्रशस्त प्रतिक्रमणं का प्रसंग है। प्रतिक्रमण के एकार्थक ___प्रतिक्रमण के आठ पर्यायवाची शब्द मिलते हैं - प्रतिक्रमण-प्रमादवश संयम से बाहर चले जाने पर पुनः संयम में लौटना। प्रतिचरण-अकार्य का परिहार और कार्य में प्रवृत्ति। परिहरण-दोषों का परिहरण। वारण-अपने आपको दोषों से दूर रखना। निवृत्ति-अशुभ भावों से निवर्तन। निंदा-आत्म-संताप। गर्दा-गुरु के समक्ष आलोचना करना। शोधि -दोषों का उच्छेद करना। यद्यपि नियुक्तिकार ने इन आठों शब्दों को प्रतिक्रमण का पर्याय माना है लेकिन इन आठों शब्दों 1. आव 25.48 पडिक्कमामि णाम अपुणक्करणताए ' अन्भुमि, अहारिहं पायच्छित्तं पडिवज्जामि। 2. आवहाटी 1 पृ. 323 / 3. ओनि 800; जंकिंचि कयमकज्ज, न हु तं लब्भा पुणो समायरिउं। तस्स पडिक्कमियव्वं, न हु तं हियएण वोढव्वं / / 4. समयसार ता वृ 307/389/17 / 4.आवनि 824 // 6. आवचू 2 पृ.५२ स्वस्थानाद्यत् परस्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः। तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते।। 7. चर्णि में 'शोधि' के स्थान पर 'विशोधि' शब्द का प्रयोग मिलता है। (आवचू 2 पृ.५३) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 जीतकल्प सभाष्य को प्रतिक्रमण का पर्याय न मानकर उसकी क्रमिक अवस्थाएं कहा जा सकता है। ये एकार्थक न होकर प्रतिक्रमण के विविध भावों की अवस्थाएं हैं, इसका साक्षी है तिलोयपण्णत्ति, वहां प्रतिक्रमण, प्रतिचरण, प्रतिहरण, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्हा और शुद्धि-ये नाम मिलते हैं लेकिन वहां इनको एकार्थक न मानकर आत्मा के विविध भावों के रूप में स्वीकार किया है। आवश्यक नियुक्ति में इन आठों के निक्षेप तथा इनसे सम्बन्धित एक-एक कथा का वर्णन प्राप्त होता है। यहां केवल प्रतिक्रमण की कथा प्रस्तुत की जा रही है-एक राजा अपने नगर के बाहर प्रासाद का निर्माण करवाना चाहता था। उसने शुभ तिथि और नक्षत्र में प्रासाद-निर्माण का कार्य प्रारम्भ करवा दिया। उसने रक्षक नियुक्त करते हुए उससे कहा-'जो व्यक्ति इसमें प्रवेश करे, उसे मृत्युदंड देना है। जो उन्हीं पैरों वापस लौट जाए, उसे नहीं मारना है।' एक बार दो ग्रामीण व्यक्ति उस क्षेत्र में घुस गए। आरक्षकों के पकड़ने पर एक ने उदंडतापूर्वक कहा- भीतर आ गए तो क्या हुआ?' दूसरा अपनी गलती स्वीकार करता हुआ उन्हीं पैरों वापस लौट गया। उसके प्रतिक्रमण ने उसे बचा लिया। शेष सात कथाओं हेतु देखें आवहाटी 2 पृ. 43-48 प्रतिक्रमण के निक्षेप आवश्यक नियुक्ति में प्रतिक्रमण के छह निक्षेप मिलते हैं -नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। कुछ आचार्य प्रतिक्रमण के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-ये चार निक्षेप ही करते हैं। इनमें नाम, स्थापना प्रतिक्रमण स्पष्ट हैं। भाव से अनुपयुक्त होकर जो केवल द्रव्य प्रतिक्रमण करता है, उसका प्रतिक्रमण करने का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।' द्रव्य प्रतिक्रमण में कुम्भकार का उदाहरण प्रसिद्ध है। एक कुम्भकार के पास कुछ साधु ठहरे हुए थे। एक छोटा शिष्य पत्थर के टुकड़ों से घड़ों को खण्डित कर रहा था। कुम्भकार ने कहा-'तुम मेरे बर्तनों को खण्डित क्यों कर रहे हो? इस बात को सुनकर क्षुल्लक शिष्य ने 'मिच्छामि दुक्कडं' का उच्चारण किया लेकिन थोड़ी देर के बाद वह पुनः मिट्टी के बर्तनों को खण्डित करने लगा। तब कुम्भकार ने बाल साधु को शठ जानकर जोर से कान मरोड़ दिया और 'मिच्छामि दुक्कडं' का उच्चारण किया। इस प्रकार 'मिच्छामि दुक्कडं' का उच्चारण करके पुनः उसी पाप का सेवन करना द्रव्य प्रतिक्रमण है। क्षेत्र प्रतिक्रमण का अर्थ है-पानी, कीचड़ तथा त्रस-स्थावर जीवों से युक्त क्षेत्र में गमन का वर्जन 1. देखें आवनि 825-32 / 2. आवनि 833 हाटी 2 पृ.४३ / 3. मूला 626 / 4. आवहाटी 1 पृ. 323 / Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 113 करना अथवा जिस क्षेत्र में ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रय की हानि होती हो, उसका परिहार करना। काल प्रतिक्रमण दो प्रकार का होता है-ध्रुव और अध्रुव / प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के तीर्थ में ध्रुव प्रतिक्रमण तथा मध्यवर्ती बावीस तीर्थंकरों के तीर्थ में काल की दृष्टि से अध्रुव प्रतिक्रमण होता है। भाव प्रतिक्रमण भी दो प्रकार का होता है-प्रशस्त और अप्रशस्त / मिथ्यात्व आदि से सम्यक्त्व में लौटना प्रशस्त प्रतिक्रमण तथा सम्यक्त्व आदि से मिथ्यात्व आदि में लौटना अप्रशस्त प्रतिक्रमण है। आलोचना, निंदा, गर्दा के द्वारा जो प्रतिक्रमण करने के लिए उद्यत होता है, उसके भाव प्रतिक्रमण होता है, शेष के द्रव्य प्रतिक्रमण होता है। जब जीव प्रतिक्रमण के साथ तादात्म्य भाव को प्राप्त हो जाता है, द्वैतभाव नहीं रहता स्वयं प्रतिक्रमण मय बन जाता है, तब भाव प्रतिक्रमण होता है। आचार्य कुंदकुंद ने इसी तथ्य को प्रकट किया है। अनाचार को छोड़कर आचार में स्थिर होना, उन्मार्ग को छोड़कर जिनमार्ग में स्थिर होना, शल्य को छोड़कर निःशल्य बन जाना, अगुप्ति को छोड़कर त्रिगुप्ति से गुप्त होना, आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म और शुक्लध्यानमय बन जाना, मिथ्यादर्शन आदि को सम्पूर्ण रूप से छोड़कर सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र से स्वयं को भावित करना भाव प्रतिक्रमण है। भाव प्रतिक्रमण को स्पष्ट करने के लिए नियुक्तिकार ने नागदत्त और चार कषाय रूप सर्प के सुन्दर रूपक का उल्लेख किया है।' भाव प्रतिक्रमण में मृगावती की कथा प्रसिद्ध है। भगवान् महावीर के समवसरण में चांद और सूरज विमान सहित उपस्थित थे अतः मृगावती को रात्रि होने की अवगति नहीं मिली। शेष साध्वियां भगवान् को वंदना करके लौट गईं। मृगावती कुछ देरी से आर्या चंदना के पास आलोचना हेतु पहुंची। आर्या चंदना ने उसे कड़ा उपालम्भ दिया। साध्वी मृगावती 'मिच्छामि दुक्कडं' कहती हुई आर्या चंदना के चरणों में झुक गई / तीव्र संवेग से प्रतिक्रमण करते हुए आर्या मृगावती को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उसी समय एक सर्प आर्या चंदना के संस्तारक के पास से गुजरने लगा। चंदना का हाथ संस्तारक से नीचे लटक रहा था। मृगावती ने हाथ को ऊपर कर दिया। आर्या चंदना ने पूछा- क्या तुम अभी तक जग रही हो?' मृगावती ने कहा-'यह सर्प आपको डस न ले इसलिए मैंने आपका हाथ संस्तारक से ऊपर कर दिया है। आर्या चंदना को सांप दिखाई नहीं दिया तो उसने पूछा- क्या तुम्हें अतिशायी ज्ञान उत्पन्न हुआ है?' मृगावती ने कहा-'आपकी कृपा से केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।' तब आर्या चंदना मृगावती के चरणों में झुककर बोली-'मिच्छामि दुक्कडं' मैंने केवली की आशातना कर दी। यहां दोनों का भावप्रतिक्रमण है।' 1. मूला 625 2. निसा 85-91 / आलोचण-णिंदण-गरहणाहिं अब्भुट्टिओ य करणाए। 3. द्र. आवनि 844-62 ' तं भावपडिक्कमणं, सेसं पुण दव्वदो भणियं।। 4. आवहाटी 1 पृ. 323, 324 / Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 जीतकल्प.सभाष्य प्रतिक्रमण के प्रकार आचार्यों ने भिन्न-भिन्न विवक्षा से प्रतिक्रमण के भेदों की अनेक रूपों में व्याख्या की है। काल के आधार पर प्रतिक्रमण के आठ भेद मिलते हैं - 1. दैवसिक प्रतिक्रमण 5. पाक्षिक प्रतिक्रमण 2. रात्रिक प्रतिक्रमण 6. चातुर्मासिक प्रतिक्रमण 3. इत्वरिक प्रतिक्रमण 7. सांवत्सरिक प्रतिक्रमण 4. यावत्कथिक प्रतिक्रमण 8. उत्तमार्थ प्रतिक्रमण दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में साधु ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप से सम्बन्धित अतिचारों का अनुक्रम से चिन्तन करता है। प्रश्न उपस्थित होता है कि दैवसिक प्रतिक्रमण में साधु उन अंतिचारों का भी उच्चारण करता है, जिनका आसेवन दिन में संभव नहीं, इसी प्रकार रात्रिक प्रतिक्रमण में भी ऐसे अतिचार उच्चरित होते हैं, जो रात में संभव नहीं, फिर उनका उच्चारण क्यों किया जाता है? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि इसके मुख्य तीन हेतु हैं-१. संवेग-वृद्धि 2. अप्रमाद की साधना 3. निंदा-गर्दा।' इत्वरिक प्रतिक्रमण को स्पष्ट करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म तथा नाक का मल आदि परिष्ठापित करके किया जाने वाला तथा ज्ञात-अज्ञात अवस्था में, सहसा गलती होने पर किया जाने वाला इत्वरिक प्रतिक्रमण कहलाता है। पांच महाव्रत, रात्रिभोजन-विरति, चातुर्याम, भक्तपरिज्ञा तथा इंगिनीमरण-इनसे सम्बन्धित प्रतिक्रमण यावत्कथिक प्रतिक्रमण है। ___ तर्क उपस्थित होता है कि जब सुबह और शाम प्रतिक्रमण करना साधु की नित्य दिनचर्या का अंग है तो फिर पाक्षिक, चातुर्मासिक आदि प्रतिक्रमण की क्या आवश्यकता है? इस प्रश्न का समाधान करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि लोग अपने-अपने घरों को प्रतिदिन सुबह और शाम साफ करते हैं फिर भी पक्ष, मास आदि बीतने पर अथवा दीपावली आदि विशिष्ट पर्वो के अवसर पर घरों की लिपाई-पुताई आदि के द्वारा विशेष रूप से सफाई होती है, इसी प्रकार प्रतिदिन सुबह और शाम प्रतिक्रमण करने पर भी यदि कुछ अतिचार दोष शेष रह जाते हैं तो उनकी विशेष विशुद्धि के लिए पाक्षिक, चातुर्मासिक आदि प्रतिक्रमण किया जाता है। 1. आवनि 838 / २.उ 26/39-41 // 3. आवचू 2 पृ.७५। 4. आवनि 840 / 5. आवनि 839 / 6. आवचू 2 पृ.६४ ; जथा लोगे गेहं दिवसे-दिवसे पमज्जि ज्जंतं पि पक्षादिसु अब्भधितं अवलेवणपमज्जणादीहिं सज्जिज्जति, एवमिहावि ववसोहणविसेसे कीरति त्ति। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 115 अपराध-स्थानों के आधार पर स्थानांग सूत्र में प्रतिक्रमण के छह भेद भी मिलते हैं१. उच्चार प्रतिक्रमण -मल-त्याग करने के बाद वापस आकर ईर्यापथिकी सूत्र द्वारा प्रतिक्रमण करना। 2. प्रस्रवण प्रतिक्रमण -मूत्र त्याग करने के बाद ईर्यापथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना। 3. इत्वरिक प्रतिक्रमण -दैवसिक, रात्रिक आदि प्रतिक्रमण करना। 4. यावत्कथिक प्रतिक्रमण-हिंसा आदि से सर्वथा निवृत्त होना तथा आजीवन अनशन करना। 5. यत्किंचिद्मिथ्यादृष्कृत प्रतिक्रमण-साधारण अयतना या असावधानी होने पर उसकी विशुद्धि हेतु 'मिच्छामि दुक्कडं' अर्थात् मिथ्याकार प्रतिक्रमण करना। 6. स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण –सोकर उठने के पश्चात् ईर्यापथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना। दिगम्बर परम्परा में कुछ अंतर के साथ प्रतिक्रमण के सात भेद मिलते हैं१. दैवसिक प्रतिक्रमण-दिवस सम्बन्धी अतिचारों से निवृत्त होना। 2. रात्रिक प्रतिक्रमण –रात्रि सम्बन्धी अतिचारों से निवृत्त होना। 3. ऐपिथिक प्रतिक्रमण -चलते समय लगने वाले प्रमाद से निवृत्त होना। 4. पाक्षिक प्रतिक्रमण-पक्ष सम्बन्धी अतिचारों से निवृत्त होना। 5. चातुर्मासिक प्रतिक्रमण–चातुर्मास सम्बन्धी अतिचारों से निवृत्त होना। 6. सांवत्सरिक प्रतिक्रमण-एक साल में लगने वाले अतिचारों से निवृत्ति। 7. उत्तमार्थ प्रतिक्रमण -जीवन के अंत में आजीवन अनशन के समय किया जाने वाला प्रतिक्रमण। . ...मूलाचार में मरण-समाधि की आराधना के समय होने वाले तीन प्रतिक्रमणों का निर्देश मिलता 1. सर्वातिचार प्रतिक्रमण-दीक्षा ग्रहण से लेकर तपश्चरण के काल तक जितने दोष लगे हों, उनकी शुद्धि हेतु प्रतिक्रमण करना। 2. त्रिविध प्रतिक्रमण-जल के अतिरिक्त अशन, खाद्य, स्वाद्य आदि तीनों प्रकार के आहार का त्याग - करना। 3. उत्तमार्थ प्रतिक्रमण-जीवन पर्यन्त जल पीने से निवृत्त होना। यह प्रतिक्रमण उत्तम अर्थ-मोक्ष के लिए होता है। मूलाचार के टीकाकार ने उस समय होने वाले अन्य प्रतिक्रमणों का भी उल्लेख किया है ११.स्था 6/125 / 12. मूला 615 / ३.निसा 93 / 4. मूला 120 पढमं सव्वदिचारं, बिदियं तिविहं भवे पडिक्कमणं। पाणस्स परिच्चयणं, जावज्जीवायमुत्तमटुं च।। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 जीतकल्प सभाष्य योग प्रतिक्रमण, इंद्रिय प्रतिक्रमण, शरीर प्रतिक्रमण और कषाय प्रतिक्रमण आदि। ... कषाय पाहुड के अनुसार सर्वातिचार और त्रिविध आहार त्याग रूप प्रतिक्रमण उत्तमार्थ प्रतिक्रमण में समाविष्ट होते हैं। शेष रात्रिक आदि प्रतिक्रमण ईर्यापथिक प्रतिक्रमण में अन्तर्भूत हो जाते हैं इसलिए प्रतिक्रमण के सात ही भेद होते हैं। प्रकारान्तर से भगवती आराधना की विजयोदया टीका में प्रतिक्रमण के तीन भेद उल्लिखित हैं• मनः प्रतिक्रमण किए हुए अतिचारों की मन से आलोचना करना मानसिक प्रतिक्रमण है। * वाक्य प्रतिक्रमण-प्रतिक्रमण के सूत्रों का उच्चारण करना वाक्य प्रतिक्रमण है। * काय-प्रतिक्रमण-शरीर के द्वारा दुष्कृत्य नहीं करना काय प्रतिक्रमण है।'. प्रतिक्रमण किसका? आवश्यक नियुक्ति में प्रतिक्रमण, प्रतिक्रामक और प्रतिक्रमितव्य-इन तीन शब्दों का उल्लेख मिलता है। प्रतिक्रमितव्य अर्थात् प्रतिक्रमण करने योग्य तत्त्व। आवश्यक सूत्र में एक से लेकर 32 संख्या तक प्रतिक्रान्तव्यों का वर्णन है, जैसे-एकविध असंयम, द्विविध बंधन-रागबंधन, द्वेषबंधन, त्रिविध दण्ड-मनः दण्ड, वचन दण्ड और कायदण्ड, चतुर्विध कषाय आदि। नियुक्तिकार के अनुसार प्रतिक्रान्तव्य तत्त्व ये हैं * मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर। * असंयम से संयम की ओर। * कषाय से अकषाय की ओर। * अप्रशस्तयोग से प्रशस्तयोग की ओर। * संसार (नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति रूप संसार) से प्रतिक्रमण / स्थानांग सूत्र में इन्हीं विषयों के आधार पर प्रतिक्रमण के पांच भेद किए गए हैं१. आश्रव प्रतिक्रमण-प्राणातिपात आदि आस्रवों से प्रतिनिवृत्त होना। यह असंयम से संयम की ओर प्रतिक्रमण करने का संवादी है। 2. मिथ्यात्व प्रतिक्रमण-आभिग्रहिक आदि मिथ्यात्व से प्रतिक्रमण। 3. कषाय प्रतिक्रमण-क्रोध, मान, माया और लोभ से प्रतिक्रमण। 4. योग प्रतिक्रमण-मन, वचन और काय की अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्ति / 1. मूलाटी पृ. 103, 104 / 4. आव 4/8/ 2. कपा 1/1 पृ. 113, 114 / / 5. आवनि 841, 842 / 3. भआविटी पृ. 381 / ६.स्था 5/222 / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 117 5. भावप्रतिक्रमण-मिथ्यात्व आदि में स्वयं प्रवृत्त न होना, दूसरों को प्रवृत्त न करना तथा प्रवृत्त होने वाले का अनुमोदन नहीं करना। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार यदि विषय के आधार पर इनकी विवक्षा न की जाए तो प्रथम मिथ्यात्व आदि चार प्रतिक्रमणों का भाव प्रतिक्रमण में समावेश हो जाता है। प्रतिक्रमण, सामायिक और प्रत्याख्यान में अंतर प्रश्न हो सकता है कि प्रतिक्रमण, सामायिक और प्रत्याख्यान में क्या अंतर है क्योंकि तीनों में पाप की निवृत्ति होती है। इसका यह समाधान है कि सामायिक में वर्तमान के सावध योगों से निवृत्ति होती है प्रत्याख्यान में भविष्य का त्याग किया जाता है तथा प्रतिक्रमण में अतीत में हुए पापों से निवृत्ति की जाती है लेकिन आवश्यक नियुक्तिकार ने प्रतिक्रमण का सम्बन्ध तीनों कालों से जोड़ा है। प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रतिक्रमण तो अतीत का होता है फिर नियुक्तिकार ने इसका सम्बन्ध तीनों कालों से क्यों जोड़ा? आचार्य हरिभद्र ने टीका में इस प्रश्न का समाधान किया है। उनके अनुसार निंदा के द्वारा अशुभ योगों से निवृत्ति, यह अतीत का प्रतिक्रमण है। संवर द्वारा अशुभ योगों से निवृत्ति, यह वर्तमान का प्रतिक्रमण है तथा प्रत्याख्यान द्वारा अशुभ योगों से निवृत्ति, यह भविष्य का प्रतिक्रमण है। तत्त्वार्थ भाष्य की टीका में सिद्धसेनगणि ने प्रतिक्रमण का सम्बन्ध प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग-इन दो के साथ जोड़ा है। प्रतिक्रमण और आलोचना प्रायः सभी प्रायश्चित्त आलोचनापूर्वक होते हैं लेकिन प्रतिक्रमण में गुरु के समक्ष आलोचना करना आवश्यक नहीं है। इसका कारण बताते हुए दिगम्बर आचार्य कहते हैं कि छोटे अपराध की गुरु के समक्ष आलोचना करनी आवश्यक नहीं है, वह केवल प्रतिक्रमण से शुद्ध हो जाता है। प्रतिक्रमण और कल्प दश स्थितकल्पों में आठवां कल्प प्रतिक्रमण है। प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों का प्रतिक्रमण युक्त धर्म होता है लेकिन मध्यम तीर्थंकरों के समय में कारण उपस्थित होने पर प्रतिक्रमण होता है। प्रथम और चरम तीर्थंकर के साधु चंचल चित्त वाले तथा मूढलक्ष्य होते हैं अतः गमनागमन या विचारभूमि में लगने वाले अतिचारों के लिए नियमतः सुबह और शाम प्रतिक्रमण करते हैं लेकिन मध्यम तीर्थंकरों के साधु दृढ़ 1. आवनि 843 / 2. तवा 6/24 पृ.५३० : अतीतदोषनिवर्तनं प्रतिक्रमणम। 3. आवनि 822 हाटी 2 पृ. 41 / 4. व्यभा 55 / 5. षद्ध पु. 13, 5, 4, 26, पृ. 60; अप्पावराहे गुरूहि विणा वट्टमाणम्हि होदि। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 जीतकल्प सभाष्य बुद्धि वाले, एकाग्रचित्त तथा अमूढलक्ष्य होते हैं इसलिए वे अतिचार लगने पर तथा चित्त चंचल होने पर ही प्रतिक्रमण करते हैं। ईर्या सम्बन्धी, आहार-सम्बन्धी, स्वप्न आदि से सम्बन्धित दोष नहीं लगने पर भी प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के साधु नियमतः प्रतिक्रमण करते हैं। प्रश्न उपस्थित होता है कि अतिचार न लगने पर प्रतिक्रमण करना क्यों आवश्यक है? इस प्रश्न के समाधान में भाष्यकार ने एक दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। एक राजा अपने राजकुमार के लिए रसायन बनवाना चाहता था। उसके लिए तीन वैद्य उपस्थित हुए। प्रथम वैद्य बोला- 'यदि दोष होगा तो मेरा रसायन उसे नष्ट कर देगा, यदि दोष नहीं होगा तो रोग हो जाएगा।' दूसरा वैद्य बोला- 'मेरी औषधि से रोग का हरण होगा लेकिन रोग के अभाव में गुण और दोष कुछ भी नहीं होगा। तीसरा वैद्य बोला-'दोषरहित होने के कारण मेरी औषधि दोष का नाश तो करेगी ही, दोष न होने पर वह वर्ण, रूप, लावण्य और यौवन में परिणत हो जाएगी।' प्रतिक्रमण तीसरे कुशल चिकित्सक के रसायन के समान है। यदि दोष होता है तो यह नाश करता है और यदि दोष नहीं होता तो निर्जरा कर देता है। मूलाचार में इस संदर्भ को अंधे घोड़े के दृष्टान्त से भी समझाया है। प्रतिक्रमण के अपराध-स्थान / आवश्यक नियुक्ति में प्रतिक्रमण करने के निम्न स्थान निर्दिष्ट हैं• प्रतिसिद्ध का आचरण करने पर, जैसे अकाल में स्वाध्याय आदि। ' * करणीय कार्य न करने पर जैसे-काल में स्वाध्याय आदि न करने पर। * अर्हत् प्रज्ञप्त तत्त्वों पर अश्रद्धा करने पर। * विपरीत प्ररूपणा करने पर। हारिभद्रीय टीका में प्रतिक्रमण के जो स्थान निर्दिष्ट हैं, वे ईर्यापथिक प्रतिक्रमण की ओर निर्देश करते हैं। उसके अनुसार निम्न स्थानों में प्रतिक्रमण करना चाहिए - * प्रतिलेखन और प्रमार्जन करके। 1. जीभा 2051, 2052, मूला 628, 629 / गईं। इसी प्रकार प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के समय 2. मूला 630 / साधु के अतिचार लगे अथवा न लगे, पर वह प्रतिक्रमण ३.जीभा 2053-57 / के सभी दण्डकों का उच्चारण करे, जिससे उसके जहां 4. एक राजा का घोड़ा अंधा होने पर वैद्यपुत्र से उपचार हेतु दोष लगा है, उसका प्रमार्जन हो जाए। (मूला 632 टी कहा गया। उसे औषध आदि का विशेष ज्ञान नहीं था। पृ. 464, 465) उसने घोड़े की आंख पर क्रमश: आंख की सभी दवाओं 5. आवनि 863 / का प्रयोग किया इससे अचानक उसकी आंखें अच्छी हो Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 119 * भक्तपान का परिष्ठापन करके। * उपाश्रय का कूड़ा-कर्कट परिष्ठापित करके। * सौ हाथ की दूरी तय करके मुहूर्त भर उस स्थान में ठहरने पर। * यात्रापथ से निवृत्त होने पर। * नंदी-संतरण करने पर। * जो केवल अगुप्त अथवा केवल असमित है, किन्तु जिसने सहसा या अजानकारी में हिंसा नहीं की है, उसे प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। हिंसा होने पर उसे तप प्रायश्चित्त आता है।' जीतकल्प के अनुसार प्रतिक्रमण के निम्न अपराध-स्थान हैं१. समिति-गुप्ति में प्रमाद-दुश्चेष्टा, दुर्भाषण तथा दुश्चिन्तन रूप अगुप्ति करना तथा ऊंचा मुख करके बातें करते हुए चलना, गृहस्थ सम्बन्धी सावध भाषा बोलना, उद्गम, उत्पादन आदि के दोषों में सावधानी न रखना, उपकरणों को ग्रहण करने एवं रखने में असावधानी रखना, प्रमादपूर्वक प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करना। .. 2. गुरु की आशातना-गुरु के कहने पर, बुलाने पर, कार्य में नियुक्त करने पर, पूछने पर एवं आज्ञा देने पर-इन पांच गुरु-वचनों के प्रत्युत्तर में शिष्य चुप रहता है, केवल हुंकारा देता है आदि छह प्रतिक्रियाएं करता है तो आशातना होती है। इस प्रकार गुरु की आशातना करने पर अथवा गुरु से प्रद्वेष करने पर। 3. गुरु के प्रति विनय का भंग-गुरु के आने पर अभ्युत्थान, अभिग्रहण, आसन-दान, सत्कार, सम्मान, कृतिकर्म, जाते हुए गुरु को पहुंचाना-ये गुरु के प्रति विनय हैं अथवा ज्ञान-विनय, दर्शन-विनय आदि का पालन विनय है, इन दोनों प्रकार के विनय का भंग होने पर। 4. इच्छाकार मिथ्याकार आदि दशविध सामाचारी का पालन न करने पर। 5. लघुस्वक मृषा', अदत्त एवं पदार्थ के प्रति मूर्छा करने पर। 6. अविधि से खांसी आदि-मुख पर हाथ या मुखवस्त्र लगाए बिना जम्भाई, खांसी या छींक आने पर, 1. आवहाटी 2 पृ.५०। उदाहरण प्रायः सभी भाष्यों में मिलते हैं। उदाहरणार्थ, भिक्षार्थ २.व्यभा 61 / चलने पर मुनि कहता है कि आज मुझे एक ही द्रव्य ग्रहण 3. भाष्यकार ने गुरु के पांच वचन तथा शिष्य के छह करना है। अनेक द्रव्य ग्रहण करने पर जब उससे पूछा जाता प्रतिवचन से आशातना के तीस भेद किए हैं। (जीभा है तो वह कहता है-'मैं छह द्रव्यों में केवल एक द्रव्य 869-71) पुद्गल को ही ग्रहण कर रहा हूं।' यह लघुस्वक मृषावाद है। 4. भाष्यकार ने लघुस्वक मृषा के पन्द्रह भेद किए हैं। ये (जीभा 882-901) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 जीतकल्प सभाष्य मुख पर हाथ लगाए बिना डकार लेने पर, नीचे की ओर पुतकर्षण किए बिना अधोवात करने पर। 7. छेदन-भेदन आदि असंक्लिष्ट कर्म करने पर। 8. कंदर्प, हास्य, विकथा आदि करने पर। 9. क्रोध, मान आदि कषाय करने पर। 10. इंद्रिय-विषयों में आसक्त होने पर। उत्तरगुण प्रतिसेवना रूप अपराध में अतिक्रम और व्यतिक्रम होने पर तथा अनजान में मूलगुण प्रतिसेवना रूप अतिक्रम होने पर। मिथ्या दुष्कृत रूप (मिच्छामि दुक्कडं) प्रतिक्रमण के निम्न अपराध-स्थान हैं। * हिंसा न होने पर भी यतना युक्त मुनि के समिति-गुप्ति में स्खलना होने पर। * जानते हुए छोटी-छोटी बातों में स्नेह, भय, शोक तथा बकुशत्व आदि करने पर। दिगम्बर परम्परा में कुछ अंतर के साथ प्रतिक्रमण करने के ये स्थान निर्दिष्ट हैं• पांच इंद्रिय और मन का दुष्प्रयोग होने पर। * वचन का दुष्प्रयोग होने पर। * आचार्य से हाथ-पांव आदि टकराने पर। * पैशुन्य और कलह करने पर। * वैयावृत्त्य और स्वाध्याय आदि में प्रमाद करने पर। * गोचरी करते हुए लिंगोत्थान होने पर। * अन्य के साथ संक्लेश युक्त क्रिया करने पर। * व्रत, समिति, गुप्ति आदि में स्वल्प अतिचार लगने पर। प्रतिक्रमण के लाभ उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान् महावीर प्रतिक्रमण से होने वाले लाभों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि प्रतिक्रमण से साधक व्रत में होने वाले छेदों को ढ़क देता है। छोटा छेद भी आगे जाकर नौका को डुबो सकता है। प्रतिक्रमण करने से व्रतों में पुनः शक्ति का संचार हो जाता है। व्रत के छिद्र पिहित होने पर जीव 1. जीसू 9, 10 विस्तार हेतु देखें जीभा 784-912, त 9/22 भाटी पृ. 251 / 2. व्यभा 98 मटी प. 35 / 3. जीसू 11, 12 विस्तार हेतु देखें जीभा 913-31 / 4. काअटी पृ. 343, 344 / Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 121 के आस्रव आने का मार्ग रुक जाता है। आस्रव रुकने पर साधु का चारित्र अशबल-धब्बों से रहित हो जाता है। वह आठ प्रवचन-माताओं-समिति-गुप्ति में सावधान होकर संयम योग में एकरूप अर्थात् उससे अभिन्न हो जाता है। इससे जीव सुप्रणिहित इन्द्रिय वाला हो जाता है। तात्पर्य यह है कि वह असद् मार्ग से अपनी इंद्रियों को हटाकर सन्मार्ग में स्थापित कर लेता है। तदुभय प्रायश्चित्त तदुभय प्रायश्चित्त में आलोचना और प्रतिक्रमण का मिश्रण है। जिस पाप का सेवन करने के पश्चात् गुरु के पास सम्यक् आलोचना की जाती है तथा गुरु के द्वारा निर्दिष्ट प्रतिक्रमण किया जाता है, वह तदुभय प्रायश्चित्त है। इसका उभय प्रायश्चित्त नाम भी मिलता है। भाष्यकार कहते हैं कि जैसे तीक्ष्ण जल-प्रवाह में विषम अथवा गहरे कीचड़ युक्त मार्ग में प्रयत्नपूर्वक चलते हुए भी अवश होकर व्यक्ति उसमें गिर जाता है, वैसे ही यतनायुक्त सुविहित मुनि के द्वारा प्रयत्नपूर्वक चर्या करने पर भी सहसा कर्मोदय के कारण विराधना हो जाती है। ऐसे यतनाशील मुनि की विशोधि तदुभय प्रायश्चित्त से होती है। तदुभय प्रायश्चित्त के स्थान हाथी, अग्नि आदि दिखाई देने से हड़बड़ी होने पर, चोर आदि का भय होने पर, क्षुधा, पिपासा आदि परीषहों से आतुर होने पर, आपत्ति में सहसा या अजानकारी में अतिचार-सेवन करने पर, वात, पित्त एवं श्लेष्म आदि से संबंधित रोग से परवश होने अथवा यक्षावेश या मोहावेश से परवश होकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा विकलेन्द्रिय आदि जीवों की विराधना करने पर और महाव्रतों में अतिक्रम, व्यतिक्रम तथा अतिचार दोष की आशंका होने पर तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, जैसे-मैंने हिंसा की या नहीं, झूठ बोला या नहीं, चोरी की या नहीं, स्त्री का स्पर्श हुआ या नहीं, इंद्रिय विषयों के प्रति राग-द्वेष किया या नहीं, सूर्यास्त से पूर्व पात्र के लेप धोए या नहीं, इन सबकी सम्यक् अवगति न होने पर तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसी प्रकार अनेक प्रकार के शब्द सुनने पर कुछ शब्दों पर राग या द्वेष का भाव आया या नहीं, इस प्रकार का संदेह होने पर तदुभय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार अन्य इंद्रियों के विषयों में राग-द्वेष हुआ या नहीं, यह निर्णय न कर पाने पर तदुभय प्रायश्चित्त होता है। यदि यह निश्चित हो जाए कि अमुक शब्दों के प्रति राग या द्वेष आया है तो मुनि को तप प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1.29/12 / 4. जीभा 951-53 / . 2. जीभा 721 / 5. जीभा 933-44, व्यभा 100-102, आवचू 2 पृ. 246 / 3. षट्ध पु. 13/5,4,26 पृ.६०; सगावराहं गुरुणमालोचि य 6. व्यभा 103 / गुरुसक्खिया अवराहादो पडिणियत्ती उभयं णाम पायच्छित्तं। ७.व्यभा 104 / Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 जीतकल्प सभाष्य इसी प्रकार उपयुक्त मुनि के ज्ञान, दर्शन, चारित्र से संबंधित अपराध-पदों में तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार केशलोच, नख-छेदन, स्वप्न में मैथुन सेवन, इंद्रियों का अतिचार, रात्रिभोजन, पक्ष, मास तथा वर्ष आदि में लगने वाले दोषों में तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। धवला के अनुसार दुःस्वप्न आदि में तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।' __तत्त्वार्थ राजवार्तिक में आलोचना और प्रतिक्रमण के अपराधस्थानों का वर्णन है। बाद में तदुभय से तप प्रायश्चित्त तक के लिए ग्रंथकार ने उल्लेख किया है कि भय, त्वरा, विस्मरण, अनवबोध, अशक्ति तथा व्यसन आदि से महाव्रतों में अतिचार दोष लगने पर छेद से पहले के छह प्रायश्चित्त देने चाहिए। कार्तिकेय अनुप्रेक्षा की टीका के अनुसार दिन या रात्रि के अंत में गमनागमन करने पर भी तदुभय प्रायश्चित्त होता है। विवेक प्रायश्चित्त ___ कम या अधिक अकल्प्य आहार ग्रहण करने पर उसको विधिपूर्वक परिष्ठापित करना विवेक प्रायश्चित्त है। संसक्त अन्न-पान-उपकरण आदि का विभाग करना विवेक प्रायश्चित्त है। राजवार्तिक में इसके लिए उत्सर्जन प्रायश्चित्त शब्द का प्रयोग हुआ है। तत्त्वार्थ भाष्य में विवेक, विवेचन, विशोधन और प्रत्युपेक्षण को एकार्थक माना है। विवेक प्रायश्चित्त तब होता है, जब साधु अजानकारी में अशुद्ध ग्रहण करता है और बाद में उसे ज्ञात होता है कि गृहीत आहार अशुद्ध था। धवला में विवेक प्रायश्चित्त की व्याख्या बिल्कुल भिन्न है। विवेक प्रायश्चित्त के स्थान विवेक प्रायश्चित्त के ये स्थान हैं१. आधाकर्मिक वसति, शय्या, उपधि आदि ज्ञात होने पर।१२ / 1. जीसू 15 / 11. षट्ध पु. 13/5, 4, 26 पृ. 60,61 / 2. काअटी पृ. 344 / १२.शय्या, उपधि, वसति आदि प्रातिहारिक वस्तुओं के 3. षट्ध पु. 13/5, 4,26 पृ.६०। आधाकर्मिक आदि ज्ञात होने पर उसका परित्याग करना 4. तवा 9/22 पृ.६२२, अनध 7/53 / विवेक प्रायश्चित्त है, न कि परिष्ठापित करना / व्यवहार 5. काअटी पृ. 344 / भाष्य में इसे एक उदाहरण से समझाया है। कुछ मुनि 6. जीभा 722 / प्रचुर अन्न-पान वाले ग्राम में गए लेकिन वसति के 7. तवा 9/22, पृ.६२१; संसक्तान्नपानोपकरणादिविभजनं अभाव में वे वहां नहीं रुके। नहीं रुकने का कारण बताते विवेकः। हुए साधुओं ने कहा-'यहां उपयुक्त वसति नहीं है।' 8. तवा 9/22, पृ.६२२। साधुओं के जाने के बाद श्रावकों ने उपाश्रय का निर्माण 9. तस्वोभा 9/22 // करवा दिया। कुछ समय बाद अन्य मुनि वहां आए। 10. जीसू 16, त 9/22 भाटी पृ. 251; उपयुक्तेन गीतार्थेन सही स्थिति अवगत होने पर साधुओं ने उस वसति का गृहीतं प्राक् पश्चादवगतमशुद्धं विवेकार्हम्। विवेक-परित्याग कर दिया। (व्यभा 109) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 123 2. पर्वत, राहु, बादल, कुहासा और रज से सूर्य आवृत होने पर सूर्योदय हो गया है, इस अशठ भाव से अशन आदि ग्रहण करने पर, इसी प्रकार सूर्यास्त के बाद अशन आदि रहने पर। 3. प्रथम पौरुषी में आनीत अशन चतुर्थ पौरुषी तक कालातीत हो जाता है, उसे रखने पर। 4. आधे योजन से अधिक दूरी तक ले जाने वाले मार्गातीत अशन को रखने पर। 5. ग्लान, आचार्य, बाल और वृद्ध के निमित्त से लाए हुए आहार के बचने पर। विवेक में औचित्य आधाकर्म से होने वाले दोषों को जानकर साधु दो प्रकार से उसका विवेक-परिहार करता है१. विधि-परिहार 2. अविधि-परिहार। जो साधु अविधि से आधाकर्म का विवेक करता है, वह न साधुत्व का सम्यक् पालन कर सकता है और न ही ज्ञान आदि का लाभ प्राप्त कर सकता है। अविधि-परिहार में ग्रंथकार ने एक भिक्षु की कथा का उल्लेख किया है। भिक्षु के द्वारा पूछने पर गृहस्वामी ने बताया कि यह शाल्योदन मगध के गोबरग्राम से आया है। वह उसकी जानकारी हेतु गोबरग्राम जाने लगा। मार्ग का निर्माण तो कहीं अधाकर्मी नहीं है, इस आशंका से वह मूल मार्ग को छोड़कर कांटे, सांप आदि से युक्त उन्मार्ग से जाने लगा तथा वृक्ष की छाया को भी आधाकर्मिक समझकर छाया का भी परिहार करने लगा। वह रास्ते में ही मूर्च्छित होकर संक्लेश को प्राप्त हो गया। पंचकल्पभाष्य में भी इस विवेक का विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है। यदि साधु-शालि की उत्पत्ति कहां से हुई, कहीं हमारे शय्या-संस्तारक के लिए तो वृक्ष नहीं बोएं हैं। गाय साधु के लिए तो नहीं खरीदी या दुही गई है, इस प्रकार की गवेषणा करना अविधि विवेक है क्योंकि आहार-उपधि और शय्या की निष्पत्ति अनेक द्रव्यों से होती है, जैसे शाक में डाले गए मसालों में, हिमाचल प्रदेश में पीपल, मलय देश में मिर्च तथा रमढ देश में हींग आदि की निष्पत्ति होती है। उन सबके मूल की गवेषणा करने पर साधु के ज्ञान आदि की हानि होती है तथा खोज करते हुए रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो सकती है।' विधि-परिहरण में साधु चार बातों पर ध्यान देता है-द्रव्य, कुल, देश और भाव। इनकी व्याख्या करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि विवक्षित देश में असंभाव्य द्रव्य की उपलब्धि, छोटे परिवार में प्रचुर खाद्य की प्राप्ति तथा अत्यधिक आदरपूर्वक दान हो तो वहां आधाकर्म की संभावना हो सकती है। जो वस्तु जहां सामान्य रूप से लोगों के द्वारा प्रचुर रूप में काम में ली जाती है, वह यदि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो तो पृच्छा 3. पंकभा 1689-91 / १.जीसू 16, 17, विस्तार हेतु देखें 955-71 / 2. पिनि 89/1-3, मटी प. 72, 73 / Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 जीतकल्प सभाष्य की आवश्यकता नहीं रहती, जैसे मालवा देश में मण्डक (एक प्रकार की रोटी) प्रचुर मात्रा में होता है, वहां उस द्रव्य के विषय में आधाकर्म की आशंका नहीं होती लेकिन वहां भी यदि परिवार छोटा हो और द्रव्य प्रचुर मात्रा में हो तो आधाकर्म की शंका हो सकती है। यदि कोई दाता अनादरपूर्वक दान दे रहा है, वहां भी प्रायः आधाकर्म की आशंका नहीं रहती क्योंकि जो दाता आधाकर्म आहार निष्पन्न करता है, वह प्रायः आदर भी प्रदर्शित करता है। अमुक घर में आधाकर्म भोजन निष्पन्न हुआ है अथवा नहीं, इसकी परीक्षा करने की विधि को ग्रंथकार ने मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया है। मुनि के द्वारा पूछने पर यदि गृहस्वामिनी मायापूर्वक कहती है कि यह खाद्य-पदार्थ घर के सदस्यों के लिए बनाया गया है, आपके लिए नहीं / यह सुनकर यदि घर के अन्य सदस्य एक दूसरे को टेढ़ी नजरों से देखते हैं अथवा सलज्ज एक दूसरे को देखकर मंद हास्य करते हैं, तब साधु को उस देय वस्तु को आधाकर्मिक समझकर परिहार-विवेक कर देना चाहिए। यदि पूछने पर दानदात्री गुस्से में आकर यह कहती है कि आपको इसकी क्या चिन्ता है? ऐसी स्थिति में आधाकर्म की आशंका नहीं रहती, मुनि निःशंक रूप से वह आहार ग्रहण कर सकता है। इन सब कारणों से भी आहार शुद्ध है या नहीं, यह ज्ञात न हो तो नियुक्तिकार ने समाधान दिया है कि यदि मुनि उपयुक्त होकर शुद्ध आहार की गवेषणा कर रहा है तो वह आधाकर्म भोजन ग्रहण करता हुआ भी शुद्ध है अर्थात् कर्मों का बंधन नहीं करता। यदि वह अनुपयुक्त होकर वैचारिक दृष्टि से आधाकर्म आहार ग्रहण में परिणत है तो वह प्रासुक और एषणीय आहार ग्रहण करता हुआ भी अशुभ कर्मों का बंध करता है। विशोधिकोटि और अविशोधि कोटि का विवेक अविशोधिकोटि को उद्गमकोटि भी कहा जा सकता है। दोष से स्पृष्ट आहार को उतनी मात्रा में निकाल देने पर शेष आहार मुनि के लिए कल्पनीय हो जाता है, वह विशोधिकोटि कहलाता है तथा जो आहार जिस दोष से दूषित है, उस आहार को अलग करने पर भी जो आहार साधु के लिए कल्पनीय नहीं होता, वह अविशोधिकोटि कहलाता है। आधाकर्म, औद्देशिक, पूतिकर्म, मिश्रजात, बादरप्राभृतिका और अध्यवतर के अंतिम दो भेद-ये अविशोधिकोटि के अन्तर्गत आते हैं। इसमें भी औद्देशिक, मिश्रजात और अध्यवतर के कुछ भेद अविशोधिकोटि में तथा कुछ भेद विशोधिकोटि के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं। जैसे १.पिनि 89/4-7, मटी प.७३। 2. पिनि 89/8 मटी प.७३, 74 / 3. पिनि 90 मटी प.७४। 4. पिनिमटी प. 116 ; यद्दोषस्पृष्टभक्ते तावन्मात्रेऽपनीते सति शेष कल्पते स दोषो विशोधिकोटिः, शेषस्त्वविशोधि कोटिः। ५.पिनि 190 मटी प. 117 / Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 125 औद्देशिक के अन्तर्गत विभाग औद्देशिक के तीनों भेद अविशोधिकोटि के अन्तर्गत आते हैं। अध्यवपूरक के अंतिम दो भेद स्वगृहपाषंडिमिश्र तथा स्वगृहसाधुमिश्र-ये दो अविशोधिकोटि में तथा स्वगृहयावदर्थिकमिश्र विशोधिकोटि के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं। अविशोधिकोटि के अवयव से युक्त लेपकृद् या अलेपकृद् पदार्थ यदि विशुद्ध आहार के साथ मिल जाता है तो उस आहार को त्यक्त करने के पश्चात् भी पात्र को कल्पत्रय-तीन बार साफ करना आवश्यक है अन्यथा पूति दोष होता है। शेष ओघ औद्देशिक, मिश्रजात का आद्य भेद (यावदर्थिकमिश्र), उपकरणपूति, स्थापना, सूक्ष्म प्राभृतिका, प्रादुष्करण, क्रीत, प्रामित्य, परिवर्तित, अभ्याहृत, उद्भिन्न, मालापहृत, आच्छेद्य, अनिसृष्ट, अध्यवपूरक का आद्य भेद (स्वगृहयावदर्थिक)-ये सब दोष अविशोधिकोटि के अन्तर्गत आते हैं।' अविशोधिकोटि आहार के स्पृष्ट होने पर कल्पत्रय से शोधन करने की आवश्यकता नहीं रहती। अविशोधि कोटि के संदर्भ में ग्रंथकार ने विवेक की विस्तार से व्याख्या की है। चतुर्भगी के माध्यम से स्पष्ट करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि शुद्ध शुष्क चने आदि में यदि विशोधिकोटि शुष्क वल्ल आदि गिर जाएं तो बिना जल-प्रक्षेप के सुगमता से उनको अलग किया जा सकता है। यदि शुद्ध शुष्क चने आदि में विशोधिकोटिक आर्द्र तीमन आदि गिर जाए तो उसमें कांजिक आदि डालकर अशुद्ध तीमन को बाहर निकाला जा सकता है। तीसरे भंग में यदि शुद्ध आई तीमन में विशोधिकोटिक शुष्क चने आदि का प्रक्षेप हो जाए तो हाथ डालकर चने आदि को निकाला जा सकता है तथा चतुर्थ भंग में यदि अशुद्ध आर्द्र तीमन में विशोधिकोटि आई तीमन का मिश्रण हो जाए, उस स्थिति में यदि दुर्लभ द्रव्य है, जिसकी पुनः प्राप्ति संभव नहीं है तो अशठ भाव से उतना अंश निकाला जा सकता है, शेष का परित्याग कर दिया जाता हैं। यदि उसके बिना काम चलता हो तो सम्पूर्ण का परित्याग कर दिया जाता है क्योंकि आर्द्र से आई को पृथक् करना संभव नहीं होता। व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त आगमोक्त विधि से शरीर का त्याग अर्थात् ममत्व-विसर्जन करना व्युत्सर्ग अथवा कायोत्सर्ग है। 1. कुछ आचार्य विभाग के अन्तर्गत कर्म औद्देशिक के अंतिम तीन भेदों को अविशोधि कोटि में रखते हैं (पिंप्रटी प. 49) / २.जीभा 1297, 1298 / ३.पिनिमटी प.११७। ४.जीभा 1308-11, पिनि 192/2-5 मटी प. 118, 119 / ५.पिनिमटी प. 118; इह निर्वाहे सति विशोधिकोटिदोष__ सम्मिश्रं सकलमपि परित्यक्तव्यम्, अनिर्वाहे तु तावन्मात्रम्। 6. उशांटी प.५८१ ; कायः-शरीरं तस्योत्सर्गः-आगमोक्तनीत्या परित्यागः कायोत्सर्गः। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 जीतकल्प सभाष्य सिद्धसेनगणि के अनुसार प्रणिधानपूर्वक विशेष रूप से उत्सर्ग करना व्युत्सर्ग है। धवलाकार के अनुसार शरीर और आहार में मन और वचन की प्रवृत्ति को हटाकर ध्येय वस्तु में एकाग्रता से चित्त का निरोध करना व्युत्सर्ग है। सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक आदि की परिभाषा इसी की संवादी है। अनगारधर्मामृत में व्युत्सर्ग की निरुक्तपरक व्याख्या मिलती है। भगवान् महावीर ने इसे सब दुःखों से मुक्ति का उपाय माना है। उत्तराध्ययन के छब्बीसवें अध्ययन में मुनि की दिनचर्या में अनेक बार कायोत्सर्ग का विधान है। मुनि के लिए अभिक्खणं काउस्सग्गकारी विशेषण कायोत्सर्ग के महत्त्व को प्रकट करने वाला है। व्युत्सर्ग, उत्सर्ग और कायोत्सर्ग-ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। आवश्यक नियुक्ति में उत्सर्ग के ग्यारह पर्यायवाची नाम मिलते हैं-१. उत्सर्ग, 2. व्युत्सर्जन, 3. उज्झन, 4. अवकिरण, 5. छर्दन, 6. विवेक, 7. वर्जन, 8. त्यजन, 9. उन्मोचन, 10. परिशातन, 11. शातन / आचार्य उमास्वाति ने व्युत्सर्ग और प्रतिष्ठापन को एकार्थक माना है। यहां प्रतिष्ठापन शब्द परित्याग के अर्थ में है। आचार्य तुलसी ने कायिकध्यान, कायगुप्ति, कायविवेक, कायव्युत्सर्ग और कायप्रतिसंलीनता को एकार्थक माना है। ममत्व का छेदन किया जाता है। राजवार्तिक के अनुसार अनासक्ति, निर्भयता और जीवन की लालसा समाप्त होने पर व्युत्सर्ग सिद्ध होता है। जैन आचार्यों ने इसे भावचिकित्सा का बहुत बड़ा साधन माना है अतः व्रत में अतिचार लगने पर कायोत्सर्ग द्वारा उसकी शोधि का उपाय बताया गया है। कायोत्सर्ग करने मात्र से जिस पाप की शुद्धि हो जाती है, वह व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है।२ व्युत्सर्ग तीन प्रकार से किया जा सकता * ऊर्ध्व-खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना। * निषीदन-बैठे-बैठे कायोत्सर्ग करना। 1. त 9/22 भाटी पृ. 251 ; विशिष्टउत्सर्गो व्युत्सर्गः- ६.उ 26/38 / प्रणिधानपूर्वको निरोधः। 7. दशचू 2/7 / 2. षट्ध पु. 8/3, 41 पृ. 85 ; सरीराहारेसु हु मणवयणप- 8. आवनि 990 / वृत्तीओ ओसारियज्ञयम्मि एयग्गेण चित्तणिरोहो विओसग्गो 9. तस्वोभा 9/22 ; व्युत्सर्ग प्रतिष्ठापनमित्यनर्थान्तरम्। णाम। 10. त 9/22 भाटी पृ. 251 ; प्रतिष्ठापनशब्दः परित्यागार्थः। 11. तवा 9/26 टी पृ.६२५; नि:संगत्व-निर्भयत्वजीविताशा४. तवा 9/22 पृ. 621 / व्युदासाद्यर्थो व्युत्सर्गः। 5. अनध 7/94 ; बाह्याभ्यन्तरदोषा ये, विविधा बन्धहेतवः। 12. जीभा 723 / यस्तेषामुत्तमःसर्गः, स व्युत्सर्गो निरुच्यते।। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 127 * त्वग्वर्तन-सोए-सोए कायोत्सर्ग करना। कायोत्सर्ग के प्रकार कायोत्सर्ग दो प्रकार का होता है-चेष्टा कायोत्सर्ग और अभिभव कायोत्सर्ग। 1. चेष्टा कायोत्सर्ग-भिक्षु के लिए प्रायः सभी प्रवृत्तियों को सम्पन्न करने के पश्चात् कायोत्सर्ग का विधान है। भिक्षा आदि प्रवृत्ति के पश्चात् तथा दैवसिक अतिचारों की विशोधि हेतु किया जाने वाला कायोत्सर्ग चेष्टा कायोत्सर्ग है। सारी प्रायश्चित्त-विधि चेष्टा कायोत्सर्ग से सम्बन्धित है। 2. अभिभव कायोत्सर्ग- मोहनीय कर्म की भय आदि प्रकृतियों का अभिभव करने के लिए किया जाने वाला कायोत्सर्ग अभिभव कायोत्सर्ग कहलाता है। अभिभव कायोत्सर्ग किसी व्यक्ति का पराभव करने के लिए नहीं किया जाता, अपितु दैविक, मानुषिक और तिर्यञ्च सम्बन्धी उपद्रव होने की स्थिति में उत्पन्न भय तथा कर्म रूपी सेना के नायक क्रोध आदि कषायों का पराभव करने के लिए किया जाता है।' ___ अभिभव कायोत्सर्ग के दो प्रयोजन हैं –पराभिभूत और पराभिभव। चूर्णिकार के अनुसार हूण, शक्र आदि आक्रामक लोगों से अभिभूत होकर 'मैं शरीर आदि सबका व्युत्सर्ग करता हूं, इस संकल्प के साथ कायोत्सर्ग करना पराभिभूत अभिभव कायोत्सर्ग है तथा अनुलोम-प्रतिलोम उत्सर्ग करने वाले देव मनुष्य आदि को तथा भय, क्षुधा, अज्ञान, ममत्व और परीषह–इन सबको अभिभूत करने का संकल्प लेकर कायोत्सर्ग करना पराभिभव कायोत्सर्ग है। अभिभव कायोत्सर्ग का काल ... अभिभव कायोत्सर्ग का जघन्य काल अन्तमुहूर्त तथा उत्कृष्ट काल एक वर्ष होता है। बाहुबलि एक वर्ष कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थिर रहे। साध्वियों के लिए अभिभव कायोत्सर्ग प्रतिषिद्ध है। ... शुद्धि की अपेक्षा से आवश्यक नियुक्ति में कायोत्सर्ग के चार भेद मिलते हैं१. चारित्रशुद्धि सम्बन्धी कायोत्सर्ग, जो पचास श्वासोच्छ्वास प्रमाण होता है। 2. दर्शनविशोधि के निमित्त चतुर्विंशति का कायोत्सर्ग, यह पच्चीस श्वासोच्छ्वास प्रमाण होता है। १.ओभा 152; परं वा अभिभूय काउस्सग्गं करेति, जथा तित्थगरो देवमणुनिसीय-तुयट्टण, ठाणं तिविहं तु होइ नायव्वं / यादिणो अणुलोमपडिलोमकारिणो भयादी पंच अभिभूय २.आवनि 991 / काउस्सग्गं कातुं प्रतिज्ञां पूरेति। आवनि 991/2-5 / 5. आवनि 992 हाटी 2 पृ. 188 / आव 2 पृ. 248 ; अभिभवो णाम अभिभूतो वा परेणं ६.बभाटी प.१५७२ ; तत्राभिभवकायोत्सर्गस्तासां प्रतिषिद्ध परं वा अभिभूय कुणति, परेणाभिभूतो, तथा हूणादीहिं इति। अभिभूतो सव्वं सरीरादि वोसिरामि त्ति काउस्सग्गं करेति। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 जीतकल्प सभाष्य 3. श्रुतज्ञान की वृद्धि हेतु पच्चीस श्वासोच्छ्वास प्रमाण किया जाने वाला कायोत्सर्ग। 4. सिद्धों की स्तुति हेतु किया जाने वाला कायोत्सर्ग। आवश्यक नियुक्ति में शारीरिक और मानसिक-इन दो दृष्टियों से कायोत्सर्ग के भेदों पर विचार किया गया है। शरीर से स्थिर खड़े रहना द्रव्य उत्थान है तथा ध्येय में एकाग्र होकर शुभ ध्यान में कायोत्सर्ग करना भावोत्थान है। कभी-कभी कोई व्यक्ति बैठे-बैठे भी मानसिक ध्यान की दृष्टि से उत्थित हो सकता है और कोई खड़े-खड़े भी मानसिक दृष्टि से निषण्ण-बैठा हुआ हो सकता है अत: यहां विरोधाभास नहीं अपितु शारीरिक स्थिति और मानसिक भाव-धारा के आधार पर कायोत्सर्ग के नौ प्रकार निर्दिष्ट हैं१. उच्छ्रित उच्छ्रित-खड़े खड़े धर्म और शुक्ल-इन दो ध्यानों में प्रवृत्त होना उच्छ्रित उच्छ्रित कायोत्सर्ग है। स्तम्भ की भांति शरीर का उन्नत और निश्चल होना द्रव्य उच्छ्रित तथा धर्म और शुक्ल रूप ध्यान करना भाव उच्छ्रित है। यहां दोनों दृष्टियों से उत्थित है अतः उच्छ्रित उच्छ्रित भेद है। 2. खड़े होकर धर्म शुक्ल आदि किसी ध्यान में प्रवृत्त न होना यह उच्छ्रित कायोत्सर्ग है। 3. खड़े होकर आर्त और रौद्र-ये दो ध्यान करना द्रव्यतः उच्छ्रित और भावतः निषण्ण कायोत्सर्ग है। 4. बैठे-बैठे धर्म और शुक्ल ध्यान में संलग्न होना द्रव्यतः निषण्ण और भावतः उच्छ्रित कायोत्सर्ग है। 5. बैठकर धर्म और शुक्ल आदि किसी ध्यान में प्रवृत्त नहीं होना निषण्ण कायोत्सर्ग है। 6. बैठ-बैठे आर्त और रौद्र ध्यान में संलग्न होना निषण्ण-निषण्ण कायोत्सर्ग है।' 7. सोकर धर्म और शुक्ल ध्यान में संलग्न होना निषण्ण-उच्छ्रित कायोत्सर्ग है। 8. सोकर धर्म और शुक्ल आदि किसी भी ध्यान में संलग्न नहीं होना निषण्ण कायोत्सर्ग है। 9. सोकर आर्त और रौद्र ध्यान में संलग्न होना निषण्ण-निषण्ण कायोत्सर्ग है। . मूलाचार में इन नौ भेदों को चार भेदों में समाविष्ट कर दिया है। उसके अनुसार उत्थितोत्थित, उत्थित-निविष्ट, उपविष्टोत्थित और उपविष्ट-निविष्ट-कायोत्सर्ग के ये चार भेद हैं। भगवती आराधना में खड़े-खड़े कायोत्सर्ग के सात-भेद मिलते हैं१. साधारण-खम्भे आदि के सहारे निश्चल होकर खड़े रहना। 2. सविचार-दूसरे स्थान पर जाकर एक प्रहर अथवा एक दिन तक खड़े रहना। 3. संनिरुद्ध-अपने स्थान पर निश्चल होकर खड़े रहना। 4. वोसट्ट-शरीर की प्रवृत्ति को पूर्णतया छोड़कर कायोत्सर्ग करना। 1. आवनि 1025/7, पंव 482-86 / 3. मूला 675 ; उट्ठिदउट्ठिद उट्ठिदणिविट्ठ उवविट्ठउट्ठिदो चेव। 2. आवनि 996-1004 / उवविट्ठणिविट्ठो वि य, काओसग्गो चट्ठाणो।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 129 5. समपाद-पैरों को समश्रेणी में स्थापित करके खड़े रहना। 6. एकपाद -एक पैर पर खड़े रहना। 7. गृद्धोड्डीन-उड़ते हुए गीध के पंखों की भांति बाहों को फैलाकर खड़े होना। अपराजित सूरि ने भगवती आराधना की टीका में मानसिक, वाचिक और कायिक योग के आधार पर कायोत्सर्ग के तीन भेद किए हैं - 1. मनः कायोत्सर्ग-यह शरीर मेरा है, इस भाव से दूर होना मनः कायोत्सर्ग है। 2. वचन-कायोत्सर्ग-मैं शरीर का त्याग करता हूं, इस प्रकार का उच्चारण वचन कायोत्सर्ग है। 3. काय-उत्सर्ग-बाहु नीचे लटकाकर, दोनों पैरों के बीच चार अंगुल का अंतर करके समपाद निश्चल खड़े रहना काय उत्सर्ग है। सामान्यतः कायोत्सर्ग में तीनों ध्यान होते हैं लेकिन मुख्यतः कायिक ध्यान होता है। पूर्वगत में भंगिकश्रृंत के गुणन में तीनों ध्यान एक साथ होते हैं। कायोत्सर्ग कर्ता की अर्हता जो वसौले से काटने एवं चंदन का लेप करने पर तथा जीवन और मरण में सम रहता है, देह के प्रति ममत्व रहित होता है, वही व्यक्ति कायोत्सर्ग करने का अधिकारी होता है। इसके अतिरिक्त जो देव, मनुष्य और तिर्यञ्च कृत उपसर्गों को समभाव से सहन करता है, उसके विशुद्ध कायोत्सर्ग होता है।' . धवला के अनुसार व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त उसी के सिद्ध होता है, जो नव पदार्थ का ज्ञाता, वज्र संहनन वाला, शीतवात और आतप को सहने में समर्थ तथा शूरवीर होता है। मूलाचार के अनुसार जो मोक्ष का इच्छुक, निद्राविजयी, सूत्रार्थ में प्रवीण, करणशुद्ध, आत्मा के बल और वीर्य से युक्त तथा विशुद्ध आत्मा वाला होता है, वह कायोत्सर्ग कर सकता है। स्वामिकुमार का मंतव्य है कि जो शरीर के मल की सफाई की ओर ध्यान नहीं देता, दुःसह बीमारी में चिकित्सा नहीं कराता, मुख धोना आदि शारीरिक परिकर्म से विरत रहता है, भोजन, शय्या आदि के प्रति निरपेक्ष रहता है, सदैव स्वस्वरूप के चिंतन में रत रहता है, सज्जन और दुर्जन में मध्यस्थ रहता है, देह के प्रति निर्ममत्व होता है, उसके कायोत्सर्ग सिद्ध होता है।' 1. भआ 225%, साधारणं सवीचारं, सणिरुद्धं तहेव वोसट्टं। समपादमेगपाद, गिद्धोलीणं च ठाणाणि।। 22. व्यभा 122; 123 / आवनि 1038 / ४.आवनि 1039 / ६.पट्ध पु. 13/5,4, 26 पृ.६१; णाणेण दिगुणवट्ठस्स वज्जसंघडणस्स सीदवादादवसहस्स ओघसूरस्स साहुस्स होदि। 6. मूला 653 / 7. काअ 467, 468; जल्ल-मल-लित्त-गत्तो, दुस्सह-वाहीसु णिप्पडीयारो। मुह-धोवणादि-विरओ, भोयण-सेज्जादि-णिरवेक्खो।। ससरूवचिंतणरओ, दुज्जण-सुयणाण जो हु मज्झत्थो। देहे वि णिम्ममत्तो, काओसग्गो तओ तस्स / / Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 जीतकल्प सभाष्य कायोत्सर्ग की विधि माया रहित होकर अवस्था और शारीरिक बल को ध्यान में रखकर स्थाणु की भांति निष्पकम्प होकर कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग का प्रारम्भ कायोत्सर्ग-प्रतिज्ञा सूत्र बोलकर किया जाता है, जिसमें यह संकल्प किया जाता है कि मैं अतिचारों को संस्कृत करने के लिए, प्रायश्चित्त करने के लिए, विशोधि करने के लिए, शल्य रहित होने के लिए, पाप कर्मों का नाश करने के लिए कायोत्सर्ग कर रहा हूं। अंत में यह प्रतिज्ञा की जाती है कि जब तक मैं अर्हत् भगवान् को नमस्कार करके कायोत्सर्ग सम्पन्न न करूं, तब तक स्थिरमुद्रा, मौन और शुभध्यान के द्वारा अपने शरीर का विसर्जन करता हूं।' . कायोत्सर्ग करते समय समपाद आसन में पंजों के बीच चार अंगुल का अन्तर रखकर बाहु युगल को लटकाकर शरीर की प्रवृत्ति और परिकर्म का परित्याग किया जाता है। कायोत्सर्ग के पश्चात् नमस्कार महामंत्र के उच्चारण से कायोत्सर्ग को पूर्ण किया जाता है। शारीरिक दृष्टि से शक्ति का गोपन किए बिना जब तक खड़ा रह सके, तब तक खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना चाहिए उसके पश्चात् बैठकर तथा अधिक असामर्थ्य की स्थिति में लेटकर कायोत्सर्ग किया जा सकता है।' बलवान् होकर भी जो मुनि माया के वशीभूत होकर विधिवत् कायोत्सर्ग नहीं करता, उसके मायाप्रत्ययिक कर्म का बन्धन होता है तथा वह कायोत्सर्ग में क्लेश को प्राप्त होता है। कायोत्सर्ग के अपवाद कायोत्सर्ग में तीनों योगों की चंचलता का निरोध होता है लेकिन कुछ आवश्यक शारीरिक योगों में अपवाद रहता है१. कायोत्सर्ग में श्वास और प्रश्वास का निरोध नहीं होता क्योंकि श्वास-प्रश्वास के निरोध से सद्यः मौत हो सकती है अतः कायोत्सर्ग में यतनापूर्वक सूक्ष्म श्वासोच्छ्वास लिया जा सकता है। 2. खांसी, छींक और जम्भाई भी यतनापूर्वक की जाती है, जिससे भीतर की उष्ण वायु से बाहर के वायुकाय के जीवों का वध न हो। छींक आदि शारीरिक वेग रोकने से असमाधि तथा मरण तक संभव है। नियुक्तिकार के अनुसार मुंह के आगे हाथ लगाकर जम्भाई लेनी चाहिए, जिससे मच्छर आदि मुख में प्रवेश करके मर न जाएं। 1. आव 5/3 / 2. मूला 652 / 3. निभा 6134 / 4. आवचू 2 पृ. 250 / / 5. आवनि 1031/7 / 6. आवनि 1019 / 7. आवनि 1020 / Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 131 3. यतनापूर्वक ऊर्ध्व वात तथा पुतकर्षण पूर्वक अधो वातनिसर्ग करना। 4. पित्तजनित मूर्छा आने पर बैठना। 5. शरीर में सूक्ष्म अंग-संचार तथा श्लेष्म संचार। 6. नैसर्गिक आंखों का संचार। कायोत्सर्ग में मुनि प्रयत्नपूर्वक उन्मेष-निमेष नहीं करता। एकरात्रिकी प्रतिमा में स्थित साधु अनिमेष नयनों से पूरी रात कायोत्सर्ग करते हैं।' इसके अतिरिक्त अग्नि, छेदन, भेदन, चोर का भय, सर्पदंश आदि अपवादों में होने वाली अस्थिरता का अपवाद रहता है। कायोत्सर्ग के दोष ____ आवश्यक नियुक्ति में कायोत्सर्ग के इक्कीस दोष निर्दिष्ट हैं१. घोटक–अश्व की भांति पैरों को विषम स्थिति में रखकर कायोत्सर्ग करना। 2. लता-हवा से प्रेरित लता की भांति प्रकम्पित होकर कायोत्सर्ग करना। 3. स्तम्भ-खम्भे का सहारा लेकर कायोत्सर्ग करना। 4. कुड्य-दीवार का सहारा लेकर खड़े होकर कायोत्सर्ग करना। 5. माल-ऊपर की छत से सिर को सटाकर कायोत्सर्ग करना। 6. शबरी-नग्न भीलनी की भांति अपने गुह्य प्रदेश को हाथ से ढ़ककर खड़े होकर कायोत्सर्ग करना। 7. बहू-कुलवधू की भांति सिर को नमाकर कायोत्सर्ग करना। 8. निगड़-पैरों को सटाकर या चौड़ा करके खड़े होकर कायोत्सर्ग करना। 9. * लम्बोत्तर–चोलपट्ट को नाभि के ऊपर बांधकर नीचे घुटनों तक रखकर कायोत्सर्ग करना। 10. स्तनदृष्टि-दंश मशक से बचने अथवा अज्ञान से चोलपट्ट को स्तनों तक बांधकर खड़े होकर कायोत्सर्ग करना। 11. उद्धि-यह दोष दो प्रकार से होता है। एड़ियों को सटाकर, पंजों को फैलाकर खड़े होकर कायोत्सर्ग * करना बाह्य उद्धिका तथा दोनों पैरों के अंगूठे को सटाकर, एड़ियों को फैलाकर खड़े होकर कायोत्सर्ग करना आभ्यन्तरिका उद्धिका है। 12. संयती-सूती कपड़े या कम्बल से शरीर को साध्वी की भांति ढककर कायोत्सर्ग करना। 13. खलीन-रजोहरण को आगे करके खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना। 14. वायस-काक की भांति दृष्टि को घुमाते हुए कायोत्सर्ग करना। 1. आवनि 1024; न कुणइ निमेसजत्तं, तत्थुवयोगे न झाण झाएज्जा। एगनिसिं तु पवन्नो, झाति सह अनिमिसच्छो वि।। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 जीतकल्प सभाष्य 15. कपित्थ-जूं आदि के भय से गोलाकार कपड़ा जंघाओं के बीच रखकर कायोत्सर्ग करना। 16. शीष-प्रकंपन–यक्षाविष्ट व्यक्ति की भांति सिर को धुनते हुए कायोत्सर्ग करना। . 17. मूक-बिना बोले हूं हूं शब्द करते हुए कायोत्सर्ग करना। 18. अंगुलि-आलापकों को गिनने के लिए अंगुलियों को चालित करते हुए कायोत्सर्ग करना। 19. भू-भौहों को नचाते हुए कायोत्सर्ग करना। 20. वारुणी-मदिरा की भांति बुदबुदाते हुए कायोत्सर्ग करना। 21. प्रेक्षा-बंदर की भांति होठों को चालित करते हुए कायोत्सर्ग करना। मूलाचार तथा कार्तिकेय अनुप्रेक्षा की टीका में कायोत्सर्ग के निम्न 32 दोष मिलते हैं। इनमें अधिकांश दोष आवश्यक नियुक्ति से मिलते हैं। कुछ अतिरिक्त दोष भी हैं-१. घोटकपाद, 2. लतावक्र, 3. स्तम्भावष्टम्भ, 4. कुड्याश्रित, 5. मालिकोद्वहन, 6. शबरीगुह्यगूहन, 7. शृंखलित, 8. लम्बित, 9. उत्तरित, 10. स्तनदृष्टि, 11. काकावलोकन, 12. खलीनित, 13. युगकन्धर, 14. कपित्थमुष्टि, 15. शीर्षप्रकम्पित, 16. मूकसंज्ञा, 17. अंगुलिचालन, 18. भ्रूक्षेप, 19. उन्मत्त, 20. पिशाच, 21. पूर्वदिशावलोकन, 22. आग्नेयदिशावलोकन, 23. दक्षिणदिशावलोकन, 24. नैऋत्यदिशावलोकन, 25. पश्चिमदिशावलोकन, 26. वायव्यदिशावलोकन, 27. उत्तरदिशावलोकन, 28. ईशानदिशावलोकन, 29. ग्रीवोन्नमन, 30. ग्रीवावनमन, 31. निष्ठीवन, 32. अंगस्पर्श।' भगवती आराधना की विजयोदया टीका में कायोत्सर्ग के इन दोषों के क्रम में अंतर है तथा कहींकहीं दो दोषों को एक साथ मिला दिया है। टीकाकार ने आवश्यक नियुक्ति से इन दोषों को लिया है, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। - इसके अतिरिक्त कायोत्सर्ग के समय मुनि यदि नींद का बहाना करता है, सूत्र और अर्थ विषयक पृच्छा करता है, कांटा निकालने लगता है, मल और मूत्र का विसर्जन करने के लिए चला जाता है, धर्मकथा में प्रवृत्त हो जाता है, रोगी होने का बहाना करता है तो माया के कारण कायोत्सर्ग शुद्ध नहीं होता। उच्छ्वास का कालप्रमाण आचार्यों ने श्वासोच्छ्वास प्रमाण के आधार पर व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त को निर्धारित किया है। वैदिक परम्परा में भी प्राणायाम के द्वारा पाप-मुक्ति की बात कही गई है। मनुस्मृति के अनुसार प्रणव से युक्त 1. आवनि 1036, 1037 / 2. मूलाचार में दोषों के नामों में अंतर है। 3. मूला 670-72, टी पृ. 486-88 / 4. भआटी पृ. 163 / 5. आवनि 1033 / 6. विष्णुपुराण 2/6/40 / Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 133 सोलह प्राणायाम प्रतिदिन एक मास तक करने से ब्रह्मघाती भी शुद्ध हो जाता है। याज्ञवल्क्य ने उपपातक तथा सभी अनिर्दिष्ट पापों की शुद्धि हेतु सौ प्राणायाम का निर्देश किया है। ___ एक श्वास का कालमान श्लोक के एक चरण जितना होता है। उसी के आधार पर प्रायश्चित्त के श्वासोच्छ्वास पूरे किए जाते हैं। चार उच्छ्वास में एक श्लोक का चिंतन होता है। चतुर्विंशतिस्तव के छह श्लोकों के 24 चरण होते हैं और एक चरण चंदेसु निम्मलयरा' का मिलाने से 25 चरण होते हैं। प्रायश्चित्त रूप 'लोगस्स' में प्रायः पूरा लोगस्स किया जाता है। प्रायश्चित्त प्राप्ति में जघन्य आठ श्वासोच्छ्वास का तथा उत्कृष्ट एक हजार आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। दिगम्बर परम्परा में पूरे नमस्कार महामंत्र के उच्चारण में तीन उच्छ्वास काल प्रमाण होता है। प्रतिक्रमण में उच्छ्वास और लोगस्स का प्रमाण प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग का श्वासोच्छ्वास प्रमाण नियत होता है लेकिन दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में इनके प्रमाण में अंतर है, वह इस प्रकार हैंप्रतिक्रमण .. आवनि मूलाचार भआ विजयोदया रात्रिक प्रतिक्रमण पचास चौपन पचास दैवसिक प्रतिक्रमण एक सौ आठ पाक्षिक प्रतिक्रमण तीन सौ तीन सौ तीन सौ चातुर्मासिक प्रतिक्रमण पांच सौ चार सौ चार सौ सांवत्सरिक प्रतिक्रमण एक हजार आठ पांच सौ श्वासोच्छ्वास का प्रमाण लोगस्स के साथ होता है। दैवसिक प्रतिक्रमण के चार, रात्रिक के दो, पाक्षिक के बारह, चातुर्मासिक के बीस तथा वार्षिक प्रतिक्रमण के चालीस लोगस्स (चतुर्विंशतिस्तव) होते हैं। इनका श्लोक प्रमाण इस प्रकार होता है-दैवसिक प्रतिक्रमण में पच्चीस, रात्रिक में साढ़े बारह, पाक्षिक में पचहत्तर, चातुर्मासिक में एक सौ पच्चीस तथा वार्षिक में दो सौ बावन श्लोक होते हैं। दिगम्बर परम्परा में नमस्कारमंत्र के साथ श्वासोच्छ्वास का काल प्रमाण होता है। एक सौ आठ श्वासोच्छ्वास के लिए छत्तीस नमस्कार महामंत्र का जाप करना होता है। सौ पांच सौ 1. मनु 11/248 / 2. याज्ञ 3/305; प्राणायामशतं कार्य सर्वपापापनुत्तये। उपपातकजातानां, नादिष्टस्य चैव हि / / 3. आवनि 1027, व्यभा 121 / 4. पंकभा 1121 / 5. आवनि 1028, 1029 / 6. मूला 659, 660 7. भआ 118 विटी पृ. 162 / 8. आवनि 1030 / Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 जीतकल्प सभाष्य कायोत्सर्ग के स्थान एवं श्वासोच्छ्वास का प्रमाण श्वेताम्बर परम्परा में अतिचारनिवृत्ति के लिए किया जाने वाला कायोत्सर्ग प्रायः श्वासोच्छ्वास पर आधारित है तथा अनेक प्रकार का है। दिगम्बर परम्परा में व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त में श्वासोच्छ्वास के प्रमाण के साथ काल-प्रमाण से भी अतिचार की विशोधि कही गई है। धवला के अनुसार ध्यानपूर्वक काय का व्युत्सर्ग करके एक मुहूर्त, एक दिन, एक पक्ष और एक महीना आदि काल तक स्थिर रहना व्युत्सर्ग नामक प्रायश्चित्त है। ____ विहार, शयन, स्वप्न-दर्शन, नौका से नदी-संतार तथा पैरों से नदी पार करने पर ईर्यापथिक प्रतिक्रमण में पच्चीस श्वासोच्छ्वास (एक लोगस्स) का कायोत्सर्ग होता है। इसी प्रकार भक्त-पान, शयन, आसन के लिए गमनागमन करने पर, अर्हत् शय्या (जिनालय) तथा श्रमणशय्या (उपाश्रय) में आने-जाने पर तथा उच्चार प्रस्रवण का परिष्ठापन करने पर पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग प्राप्त होता है। सूत्र के उद्देश (वाचना देना), समुद्देश (अर्थ प्रदान करना) और अनुज्ञा (सूत्र और अर्थ को पढ़ाने की अनुमति) में सत्तावीस तथा प्रस्थापना एवं काल-प्रतिक्रमण में आठ श्वासोच्छ्वास (नमस्कार महामंत्र) का कायोत्सर्ग होता है। इसी प्रकार अकाल में स्वाध्याय, अविनीत को वाचना देने, गलत विधि से वाचना देने, श्रुत की अवहेलना करने तथा दूसरों को अर्थ की वाचना देने में भी कायोत्सर्ग का विधान यदि मुनि दूसरे गांव में जाते समय अथवा भिक्षाचर्या में थककर विश्राम करे, भिक्षाकाल में कहीं प्रतीक्षा करे, प्रात:राश करने कहीं अन्यत्र शून्यगृह में जाए, वर्षा आदि के कारण किसी आच्छन्न स्थान की गवेषणा करके वहां जाए, किसी संखडी-जीमनवार में जाने के लिए प्रतीक्षा करे तो ऐर्यापथिकी विशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करते हुए पच्चीस श्वासोच्छ्वास के कायोत्सर्ग का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। भिक्षा आदि के समय यदि बीच में कहीं विश्राम न करना पड़े तो गमनागमन का एक साथ प्रतिक्रमण हो जाता है अर्थात् केवल पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग ही किया जाता है अन्यथा गमन और आगमन का अलग-अलग कायोत्सर्ग किया जाता है।' 1. षट्ध पु. 13/5, 4, 26 पृ. 61 / श्वासोच्छ्वास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। (मूला 663) 2. आवनि 1031, व्यभा 110, जीसू 18 / 5. आवनि 1031/1 / 3. जी 19, व्यभा 111 / 6. आवनि 1031/2 हाटी पृ. 204 / 4. मूलाचार में स्वाध्याय, वंदन और प्रणिधान में भी सत्तावीस 7. व्यभा 112, 113 / Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 135 स्वप्न में प्राणिवध', मृषावाद, अदत्त, मैथुन और परिग्रह का सेवन करने पर सौ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। स्वप्न में मैथुन –दृष्टि-विपर्यास होने पर सौ तथा स्त्री-विपर्यास होने पर एक सौ आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है।' भगवती आराधना के अनुसार यदि उच्छ्वासों की संख्या विस्मृत हो जाए या संदेह हो जाए तो आठ उच्छ्वास अधिक करना चाहिए। आचार्य उमास्वाति के अनुसार अनेषणीय आहार, उपकरण आदि ग्रहण करने पर उसका परिष्ठापन करके कायोत्सर्ग करना चाहिए। जीवों से संसक्त सत्तू,दही, तक्र आदि वस्तुएं, जिनसे जीवों को अलग करना शक्य नहीं होता, उनको परिष्ठापित करके कायोत्सर्ग के साथ तप प्रायश्चित्त करना चाहिए। दिगम्बर परम्परा के अनुसार व्युत्सर्ग के निम्न स्थान हैं- बिना मौन आलोचना करने पर। * हरे तृणों पर चलने पर। * कीचड़ में चलने पर / * पेट से कीड़े निकलने पर। * शीत, मच्छर, वायु आदि के कारण रोमांचित होने पर। * आर्द्र भूमि के ऊपर चलने पर। * घुटने तक जल में प्रवेश करने पर। * दूसरे की आई हुई वस्तु का अपने लिए उपयोग करने पर। * नौका आदि द्वारा नदी पार करने पर। * पुस्तक के गिरने पर। * प्रतिमा के गिरने पर। * पांच स्थावर जीवों का विघात होने पर। * प्रतिक्रमण के समय व्याख्यान आदि में उपयुक्त होने पर। * मलमूत्र करने पर। कायोत्सर्ग करने का स्थान कायोत्सर्ग ऐसे स्थान पर करना चाहिए, जिससे स्वयं को एवं दूसरों को कोई विघ्न-बाधा न आए। उच्चार, प्रस्रवण आदि आवश्यक कार्य सम्पन्न करने के बाद भिक्षु जब गुरु के समक्ष ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण करे तो उस समय कायोत्सर्ग करते हुए गुरु के बगल में खड़ा होकर कायोत्सर्ग न करे, उसके उच्छ्वास के स्पर्श से गुरु को क्लान्ति हो सकती है। आगे भी खड़ा न रहे, इससे अविनय प्रकट होता है और लोकव्यवहार के विरुद्ध होता है। गुरु के पीछे खड़ा होकर भी कायोत्सर्ग न करे, इससे 1. मूलाचार में प्राणिवध आदि सारे अतिचारों में 108 श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। (मूला 661) २.जीसू 20 / ३.(क) आवचू 2 पृ. 267 ; मेहुणे दिट्ठीविप्परियासियाए . सतं, इत्थीए सह अट्ठसयं। (ख) व्यभा 120 इत्थीविप्परियासे तु सत्तावीससिलोइओ। 4. भआविटी पृ. 162 / ५.त 9/22 भाटी 251, 252 / 6. काअटी पृ.३४४ ; मौनादिना विना लोचनविधाने व्युत्सर्गः, हरिततृणोपरिगमने व्युत्सर्गः, कर्दमोपरि गमने व्युत्सर्गः, उदरकृमिनिर्गमने व्युत्सर्गः, हिमदंशमशकादिवातादिरोमाञ्चे व्युत्सर्गः, आर्द्रभूम्युपरिगमने व्युत्सर्गः, जानुमात्रजलप्रवेशे व्युत्सर्गः, परनिमित्तवस्तुनः स्वोपयोगविधाने व्युत्सर्गः, नावादिनदीतरणे व्युत्सर्गः, पुस्तकपतने व्युत्सर्गः, प्रतिमापतने व्युत्सर्गः, पञ्चस्थावरविघातादृष्टदेशतनुमलविसर्गादिषु व्युत्सर्गः, पक्षादिप्रतिक्रमणक्रियान्तरव्याख्यानप्रवृत्त्यादिषु व्युत्सर्गः, उच्चारप्रस्रवणादिषु व्युत्सर्गः। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 जीतकल्प सभाष्य वायु का निरोध होने से गुरु अस्वस्थ हो सकते हैं।' ओघ नियुक्ति में इस संदर्भ में विमर्श किया गया है कि साधु को निष्क्रमण और प्रवेश के रास्ते को छोड़कर कायोत्सर्ग करना चाहिए। आने-जाने के रास्ते में कायोत्सर्ग करने से निम्न दोष उत्पन्न हो सकते हैं• उच्चार आदि से पीड़ित साधु वहां से बाहर नहीं जा सकने से उसे रोग हो सकता है। यदि वह उस रास्ते से जाता है तो कायोत्सर्ग का भंग होता है। * भिक्षा लेकर आने वाला साधु अंदर न जाने के कारण भार से क्लान्त हो सकता है। * कोई तपस्वी साधु गर्मी में संतप्त होकर भिक्षा लेकर आया है, वह यदि खड़े-खड़े प्रतीक्षा करे तो उसे मूर्छा हो सकती है। * अन्य सामान्य साधु भी गर्मी से तप्त होकर आया है तो उसको परिताप हो सकता है। * यदि ये सभी कायोत्सर्ग में स्थित उस मुनि को स्पर्श करते हुए या हटाते हुए अंदर प्रवेश करें तो आपस में कलह हो सकता है इसलिए अव्याबाध स्थान में कायोत्सर्ग करना चाहिए। * कायोत्सर्ग करते समय यदि वहां कोई गृहस्थ होता है तो मुनि को बिना प्रमार्जन किए ही कायोत्सर्ग में स्थित हो जाना चाहिए अन्यथा रजोहरण और निषद्या से कायोत्सर्ग के स्थान का प्रमार्जन करके कायोत्सर्ग में स्थित होना चाहिए। कायोत्सर्ग का प्रयोजन कायोत्सर्ग के प्रयोजन विकीर्ण रूप से आगम-साहित्य में मिलते हैं। आवश्यक सूत्र के अनुसार अविधिकृत आचरण का परिष्कार, प्रायश्चित्त, विशोधि, शल्य-उद्धरण के द्वारा पाप कर्मों का नाश करने के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग के कुछ मुख्य प्रयोजनों को निम्न बिन्दुओं में प्रस्तुत किया जा सकता है * कायोत्सर्ग पाप का निराकरण करने वाला तथा मंगल रूप अनुष्ठान है अतः कार्य में विघ्न न आए इस दृष्टि से वाचना आदि कार्य के प्रारम्भ में मंगल अनुष्ठान हेतु कायोत्सर्ग करना चाहिए।' 1. ओभा 153; पक्खे उस्सासाई, पुरतो अविणीय मग्गओ वाऊ। निक्खमपवेसवज्जण, भावासण्णे गिलाणाई / / 2. ओभा 154 टी पृ. 107 ; भारे वेयणखमगुण्हमुच्छपरियावछिंदणे कलहो। अव्वाबाहे ठाणे, सागारपमज्जणा जयणा।। 3. आव 5/3 ; तस्स उत्तरीकरणेणं, पायच्छित्तकरणेणं, विसोहीकरणेणं, विसल्लीकरणेणं, पावाणं कम्माणं णिग्घायणट्ठाए ठामि काउस्सग्गं। 4. आवनि 1031/4; पावुग्घाती कीरति, उस्सग्गो मंगलं ति उद्देसो। अणुवहियमंगलाणं, मा होज्ज कहिंचि णे विग्घं।। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 137 * किसी कार्य हेतु बाहर जाते समय यदि अपशकुन हो जाए तो आठ श्वासोच्छ्वास (एक नमस्कार महामंत्र) का कायोत्सर्ग करके अथवा आगम के दो श्लोकों का ध्यान करके फिर जाना चाहिए। दूसरी बार अपशकुन होने पर सोलह श्वासोच्छ्वास का तथा तीसरी बार अपशकुन होने पर रुककर शुभ शकुन की प्रतीक्षा करनी चाहिए। व्यवहार भाष्य के अनुसार तीसरी बार अपशकुन होने पर बत्तीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करना चाहिए। चौथी बार अपशकुन होने पर बाहर नहीं जाना चाहिए और न ही कोई नया कार्य प्रारम्भ करना चाहिए। * अस्वास्थ्य की स्थिति में भी कायोत्सर्ग का प्रयोग किया जाता था। प्रथम दिन कायोत्सर्ग दूसरे दिन निर्विगय फिर तीसरे दिन कायोत्सर्ग और चौथे दिन निर्विगय–इस प्रकार नौ दिन का प्रयोग किया जाता था। * विजयोदया टीका के अनुसार यह शरीर अशुचि, अनित्य, अपाययुक्त, दुर्वह, असार और दुःख का हेतु है, यह चिन्तन करके शरीर की ममता का निवारण करने के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए तत्त्वार्थ राजवार्तिक के अनुसार नि:संगत्व, निर्भयत्व, जीवन की आकांक्षा का त्याग, दोषों का उच्छेद तथा मोक्षमार्ग की प्रभावना-इन कारणों से व्युत्सर्ग करना चाहिए। / * देवता के आह्वान के लिए कायोत्सर्ग किया जाता था। निशीथभाष्य में एक प्रसंग आता है कि भयंकर अटवी में रास्ता भूलने पर वृषभ साधुओं ने वनदेवी का आह्वान करने के लिए कायोत्सर्ग किया। उसका आसन कम्पित हुआ। प्रकट होकर उसने सही मार्ग का पथदर्शन किया। अमुक व्यक्ति व्यन्तरदेव से प्रभावित होकर उपद्रव कर रहा है अथवा धातुओं के कुपित होने के कारण, इसका ज्ञान करने के लिए देवता की आराधना हेतु कायोत्सर्ग किया जाता था। देवता के अनुसार चिकित्सा की जाती थी। दो के बीच कौन सही हैं और कौन गलत, यह निर्णय करने के लिए भी देवता का कायोत्सर्ग किया जाता था। * अनुयोग का प्रारम्भ करने के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है। निशीथभाष्य एवं चूर्णि में उल्लेख मिलता है कि स्वाध्याय की प्रस्थापना हेतु उद्घाट कायोत्सर्ग करना चाहिए। उपाश्रय में कहीं किसी का दांत गिर जाए तो उसकी गवेषणा करनी चाहिए। मिल जाने पर सौ हाथ की दूरी पर उसका - 1. आवचू 2 पृ. 266, 267 / दासः दोषोच्छेदो मोक्षमार्गभावनापरत्वमित्येवमाद्यों २.व्यभा 117. 118 / व्युत्सर्गोऽभिधीयते। 3. व्यभा 2135 मटी प. 77 / 6. निभा 5695 चू पृ. 118 / 4. भआविटी पृ. 161 / 7. व्यभा 1098 मटी प.३२। 5. तवा 9/26 पृ.६२५; नि:सङ्गत्वं निर्भयत्वं जीविताशाव्य- 8. व्यभा 1247 मटी प.६१। 9. व्यभा 2651 मटी प.३७ ; अनुयोगारंभणिमित्तं कायोत्सर्गम्। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 जीतकल्प सभाष्य परिष्ठापन करना चाहिए। यदि दांत न मिले तो उद्घाट कायोत्सर्ग करके स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिए। * सूक्ष्म प्रमाद पर विजय प्राप्त करने के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए। * स्वाध्याय के कालग्रहण के लिए पांच मंगल (आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग किया जाता है।) कुछ आचार्य मानते हैं कि पांच श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करना चाहिए। आचार्य मलयगिरि के अनुसार श्रद्धा, मेधा, धृति और धारणा के विकास हेतु कायोत्सर्ग करना चाहिए। * जैसे शकट और रथ का चक्र अथवा गृह के भग्न होने पर उसे सांधा जाता है, वैसे ही मूलगुण और उत्तरगुणों के खंडित और विराधित होने पर कायोत्सर्ग द्वारा उसको संस्कृत–परिष्कृत किया जाता है। सभी एकरात्रिकी आदि प्रतिमाओं के अनुष्ठान को उपसर्ग रहित पूर्ण करने के लिए कायोत्सर्ग किया जाता था। व्युत्सर्ग तप और व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त में अन्तर राजवार्तिक में आचार्य अकलंक ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि प्रायश्चित्त के भेदों में व्युत्सर्ग का उल्लेख है तथा निर्जरा के बारह भेदों में भी व्युत्सर्ग आन्तरिक तप है, यह पुनरुक्ति क्यों? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि अतिचार होने पर उसकी शुद्धि हेतु प्रायश्चित्त में प्राप्त व्युत्सर्ग नियत काल के लिए किया जाता है लेकिन तप रूप में उल्लिखित व्युत्सर्ग सतत करणीय है।' कायोत्सर्ग के लाभ कायोत्सर्ग के लाभ का आगमों में प्रकीर्ण रूप से वर्णन मिलता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कायोत्सर्ग के लाभ बताते हुए भगवान् महावीर कहते हैं-'कायोत्सर्ग से जीव अतीत और वर्तमान के प्रायश्चित्त योग्य कर्मों का विशोधन करता है। ऐसा करने से व्यक्ति भार को नीचे रख देने वाले भारवाहक की भांति हल्के हृदय वाला हो जाता है। वह प्रशस्त ध्यान में लीन होकर सुखपूर्वक विहार करता है। भाष्यकार ने चार अनंत निर्जरा के स्थानों में एक स्थान कायोत्सर्ग को माना है।' नियुक्तिकार ने कायोत्सर्ग की पांच निष्पत्तियां बताई हैं -- 1. देहजाड्यशुद्धि-श्लेष्म आदि दोषों के क्षीण होने से देह की जड़ता नष्ट होती है। १.निभा 6111 चू पृ. 237 ; जति दंतो पडितो सो पयत्ततो 4. व्यभा 546 मटी प. 29 / गवेसियव्वो, जइ दिट्ठो तो हत्थसतातो परं विगिंचियव्यो। 5. आवनि 1016 / अह ण दिवो तो उग्घाडकाउस्सग्गं काउं सज्झायं करेंति। 6. व्यभा 798 टी प. 96 / 2. पंव 479; 7. तवा 9/26 पृ.६२५ / जीवो पमायबहुलो, तब्भावणभाविओ अ संसारे। 8. उ 29/13 / तत्थ वि संभाविज्जइ, सुहमो सो तेण उस्सग्गो।। 9. जीभा 455, आवनि 1040/1 / 3. आवनि 954, हाटी 2 पृ. 173 / 10. आवनि 995/1 / Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 139 2. मतिजाड्यशुद्धि-जागरूकता के कारण बुद्धि की जड़ता नष्ट होती है। 3. सुख-दुःख-तितिक्षा-सुख-दुःख को सहन करने की शक्ति का विकास होता है। 4. अनुप्रेक्षा -अनित्य आदि भावनाओं से मन को भावित करने का अवसर प्राप्त होता है। 5. एकाग्रता -एकाग्रचित्त से शुभध्यान करने का अवसर प्राप्त होता है। कायोत्सर्ग की सबसे बड़ी फलश्रुति है-भेद विज्ञान की अनुभूति। जैसे म्यान में रखी तलवार और म्यान-दोनों भिन्न-भिन्न हैं, वैसे ही शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न है, इस अनुभूति को प्राप्त करना, विदेह की स्थिति का अनुभव करना कायोत्सर्ग है।' तप प्रायश्चित्त जिस पाप की शुद्धि तप से होती है, वह तप प्रायश्चित्त है। जीतकल्प भाष्य के अनुसार निर्विगय से लेकर छह मास पर्यन्त तप से जिस पाप की विशुद्धि होती है, वह तपोर्ह प्रायश्चित्त है। प्रश्न होता है कि छह मास से अधिक तप प्रायश्चित्त क्यों नहीं दिया जाता, इसका उत्तर देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जो तीर्थंकर छद्मस्थ काल में जितना उत्कृष्ट तप करते हैं, उनके तीर्थ में उतना ही उत्कृष्ट तप प्रायश्चित्त दिया जाता है, इससे अधिक नहीं। शक्ति होने पर भी इससे अधिक तप न तो देना चाहिए और न ही करना चाहिए क्योंकि इससे तीर्थंकरों की आशातना होती है। दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जैसे कोई राजा अपने राज्य में धान्यप्रस्थक को स्थापित करता है, उसके स्थापित होने पर यदि कोई पुराने धान्य प्रस्थक का व्यवहार करता है तो वह दण्डित होता है।' . प्रथम तीर्थंकर के समय तप का उत्कृष्ट समय बारह मास, मध्यम तीर्थंकरों के समय आठ मास तथा अंतिम महावीर के तीर्थ में तप का उत्कृष्ट समय छह मास होता है। यदि इतने तप को अतिक्रान्त करने वाला अतिचार होता है तो फिर छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। . पुनः प्रश्न उपस्थित होता है कि विषम तप प्रायश्चित्त देने से प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों की शोधि में भी अंतर आ जाएगा। इस तर्क का समाधान यह है कि प्रथम तीर्थंकर के काल में भूमि की स्निग्धता के कारण मनुष्यों का देहबल और धृतिबल-दोनों ही उत्कृष्ट होता है। चरम तीर्थंकर के समय में ये दोनों बल अनंतभाग हीन हो गए अतः शारीरिक और धृतिबल की विषमता के कारण विषम प्रायश्चित्त का विधान है। प्रथम तीर्थंकर के समय में दोनों बलों के प्रवर्धमान होने के कारण एक साल तक 1. व्यभा 4399, जीभा 540 / 4. व्यभा 141-43 / २.जीभा 724 / 5. जीभा 2287, 2288, व्यभा 144 / 3. निचू 4 पृ. 307 ; सत्तिजुत्तेण वि परतो तवो ण कायव्वो, आसायणभया। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 जीतकल्प सभाष्य तपस्या करने पर भी संयम-योगों की हानि नहीं होती थी। मध्यम तीर्थंकरों के शासन काल में दोनों बल कुछ कम हुए तथा अंतिम तीर्थंकर के समय ये दोनों बल कम होने के कारण छह मास के तप से भी उतनी ही विशोधि प्राप्त हो जाती है, जितनी प्रथम तीर्थंकर के समय होने वाले उत्कृष्ट तप में। तप प्रायश्चित्त के प्रकार निर्जरा के बारह भेदों में प्रारम्भ के चार भेद तप से सम्बन्धित हैं। जिससे पाप कर्म तप्त होते हैं, वह तप कहलाता है। मनुस्मृति के अनुसार मनुष्य मन, वचन और काया से जो कुछ भी पाप करता है, उसको तप की अग्नि शीघ्र भस्म कर देती है।' सामान्यतया तप दो भागों में विभक्त है-इत्वरिक और यावत्कथिक। उपवास से लेकर छह मास तक का तप इत्वरिक तप के अन्तर्गत है। यावज्जीवन अनशन स्वीकार करना यावत्कथिक प्रायश्चित्त है। जैन परम्परा में कनकावलि, रत्नावलि की भांति स्मृति-साहित्य में भी पादकृच्छ्रतप तथा प्राजापत्य आदि अनेक तपों का वर्णन मिलता है। ___ तप प्रायश्चित्त दो प्रकार से वहन किया जाता है-१. शुद्ध तप 2. पारिहारिक तप। परिहारतप और शुद्धतप में अंतर संघ में रहकर जो अपनी इच्छा से तप किया जाता है, वह शुद्ध तप कहलाता है। साधुओं के साथ इसमें आलाप-संलाप होने से यह इतना कठोर नहीं है तथा संघ में रहते हुए भी जिस तप प्रायश्चित्त में परस्पर साधुओं से आलाप-संलाप आदि दश पदों का परिहार किया जाता है, वह परिहार तप कहलाता है। चूर्णिकार ने परिहार शब्द के दो अर्थ किए हैं –वर्जन और वहन या धारण करना। पांच अहोरात्र यावत् भिन्न मास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना करने पर परिहार तप प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता। प्रतिसेवना जब मासिकी, द्विमासिकी आदि जितनी होती है, तब परिहार तप प्रायश्चित्त दिया जाता है। मायारहित होकर साधु जिस तप को करने में समर्थ होता है, उसका पालन करने से वह शुद्ध हो जाता है। जो अपने बल और वीर्य का गोपन करता है, वह शुद्ध नहीं होता। निशीथ चूर्णिकार के अनुसार उत्तरगुण सम्बन्धी दोष लगने पर तथा मूलगुण सम्बन्धी जघन्य और मध्यम अपराध में शुद्ध तप दिया जाता है लेकिन मूलगुण सम्बन्धी १.व्यभा 145-47 / लापानपानप्रदानादिक्रियया साधुभिरिति परिहारः। 2. निभा 46 चू पृ. 25 तप्पते अणेण पावं कम्ममिति तपो। 6. निचू 4 पृ. 371 ; परिहरणं परिहारो वज्जणं ति वुत्तं भवति, 3. मनु 11/241 / अहवा परिहारो वहणं ति वुत्तं भवति, तं प्रायश्चित्तम्। 4. याज्ञ 3/50 / 7. व्यभा 598 मटी प. 46 / 5. त 9/22 भाटी पृ. 253; परिहियते अस्मिन् सति वंदना- 8. निभा 6603, व्यभा 557 / Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 141 उत्कट दोष सेवन करने में मासिक अथवा छह मासिक परिहार तप का प्रायश्चित्त दिया जाता है। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार जो साधु निष्कारण प्रतिसेवना, कारण में अयतना से प्रतिसेवना करने वाला तथा स्वस्थ होने पर भी म्रक्षण आदि क्रिया को नहीं छोड़ने वाला होता है, उसे परिहार तप प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। गृहस्थ के द्वारा कुछ कहने पर जो साधु कलह करता है, उसको नियमतः परिहारतप प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसे आपन्न परिहार भी कहा जाता है। यह सातिचार के होता है। शुद्ध परिहार (परिहारविशुद्ध चारित्र) अनतिचार होता है। काल और तपःकरण की दृष्टि से शुद्ध तप और परिहारतप दोनों समान हैं। प्रश्न हो सकता है कि समान दोष होने पर भी किसी को परिहारतप और किसी को शुद्ध तप का प्रायश्चित्त देने का आधार क्या है? क्या उन दोनों की शुद्धि में कोई अंतर नहीं रहेगा? इसका उत्तर देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि यदि मण्डप पाषाण से बनाया है तो उसमें कितना भी भार रख दिया जाए, वह नहीं टूटता है लेकिन एरण्ड से बनाए गए मण्डप पर अधिक भार नहीं रखा जा सकता। इसी प्रकार जो साधु धृति और संहनन से बलवान् है, उन्हें परिहारतप तथा इन दोनों से दुर्बल को शुद्ध तप दिया जाता है। इसी बात को अन्य दृष्टान्त से समझाते हुए आचार्य कहते हैं कि जो रोगी शरीर से बलवान् होता है, उसको चिकित्सक वमन, विरेचन आदि कर्कश क्रियाएं करवाता है लेकिन जो रोगी दुर्बल होता है, उसे ये क्रियाएं नहीं करवाई जातीं। इसी प्रकार शुद्ध तप के योग्य साधु की शुद्ध तप से शोधि होती है, उसे यदि परिहारतप दे दिया जाए तो वह भग्न हो जाता है। परिहार तप वाले को शुद्ध तप दिया जाए तो उसकी पूरी शोधि नहीं होती अतः समर्थ साधु को परिहार तप ही दिया जाता है। भाष्यकार ने बालक की गाड़ी का दृष्टान्त भी दिया है। परिहार तप का विस्तार आगे किया जाएगा। छेद में भी तप प्रायश्चित्त - जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार जो छेद, मूल आदि प्रायश्चित्तों में श्रद्धा नहीं रखता, छेद और मूल प्रायश्चित्त दिए जाने पर भी प्रसन्न रहता है, छेद मिलने पर भी जो अन्य साधु से छोटा नहीं होता, वंदनीय रहता है और कहता है कि मेरा इतना पर्याय छेद होने पर भी मैं तुमसे बड़ा हूं, ऐसे पर्याय गर्वित को छेद प्रायश्चित्त होने पर भी तप प्रायश्चित्त देना चाहिए तथा जो तप गर्वित होता है, उसके दोष को दूर करने १.निभा 4 5 पृ. 280 / 4. निचू 4 पृ. 279 / २.बृभा 6033 / 5. व्यभा 542, 543 / 3. बृभा 5595 ; चोयण कलहम्मि कते, तस्स उ नियमेण ६.बृभा 5594 ; सहुस्स परिहार एव, न उ सुद्धो। परिहारो। 7. व्यभा 556 / Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 जीतकल्प सभाष्य के लिए इसके विपरीत छेद प्रायश्चित्त देना चाहिए। छेद प्रायश्चित्त प्राप्त गणाधिपति आचार्य की अपरिणत शैक्ष आदि में अवहेलना न हो अत: बुद्धि, बल, संहनन आदि को जानकर तथा ग्रीष्म आदि ऋतुओं के आधार पर तपोर्ह प्रायश्चित्त देना चाहिए। प्रायश्चित्त के संकेत और तप प्रायश्चित्त तप प्रायश्चित्त प्राप्ति के लिए भाष्य-साहित्य में कुछ सांकेतिक शब्दों का प्रयोग हुआ है। कुछ मुख्य सांकेतिक शब्द और उनका तप प्रायश्चित्त इस प्रकार हैं - 1. चतुर्गुरु - उपवास। 5. पणग - निर्विगय। 2. चतुर्लघु - आयम्बिल। 6. षड्गुरु - तेला। 3. गुरुमास - एकासन। 7. षड्लघु - बेला। 4. लघुमास - पुरिमार्ध। नवविध व्यवहार में तप प्रायश्चित्त व्यवहार का अर्थ है-प्रायश्चित्त। प्रायश्चित्त के आधार पर व्यवहार के संक्षेप में तीन तथा विस्तार से नौ भेद किए गए हैं। व्यवहार के तीन प्रकार हैं-गुरु, लघु और लघुस्वक। इन तीनों के तीनतीन प्रकार हैं१. गुरुक, गुरुकतरक, यथागुरुक। 2. लघुक, लघुतरक, यथालघुक। 3. लघुस्वक, लघुस्वतरक, यथालघुस्वक। गुरुक आदि नौ व्यवहारों का प्रायश्चित्त परिमाण एक मास आदि है, जो तेले आदि के तप से पूर्ण होता है। इसका चार्ट इस प्रकार है व्यवहार प्रायश्चित्त-परिमाण तप 1. गुरुक एकमास तेला गुरुतरक चार मास यथागुरुक छह मास पंचोला 4. लघुक तीस दिन बेला लघुतरक पच्चीस दिन उपवास चोला Mm- 3 1. जीभा 1790-96 / 2. जीभा 1804, 1805 / Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 143 यथालघुक बीस दिन आचाम्ल 7. लघुस्वक पन्द्रह दिन एक स्थान 8. लघुस्वतरक दस दिन पूर्वार्द्ध 9. यथालघुस्वक पांच दिन निर्विगया गुरु प्रायश्चित्त के तीन भेद होते हैं। उनमें तप का क्रम इस प्रकार होता है१. जघन्य गुरु प्रायश्चित्त- एक मासिक और दो मासिक। 2. मध्यम गुरु प्रायश्चित्त- त्रैमासिक और चातुर्मासिक। 3. उत्कृष्ट गुरु प्रायश्चित्त-पंचमासिक और षाण्मासिक। 4. जघन्य लघु प्रायश्चित्त-बीस दिन। 5. मध्यम लघु प्रायश्चित्त-भिन्नमास। 6. उत्कृष्ट लघु प्रायश्चित्त-लघुमास। 7. जघन्य लघुस्वक प्रायश्चित्त-पांच दिन। 8. मध्यम लघुस्वक प्रायश्चित्त-दस दिन / 9. उत्कृष्ट लघुस्वक प्रायश्चित्त-पन्द्रह दिन। भाष्यकार ने सभी ऋतुओं के आधार पर जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट तथा इनमें भी उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के आधार पर तप प्रायश्चित्त का वर्णन किया है।' जीतव्यवहार के आधार पर तप प्रायश्चित्त .. तप प्रायश्चित्त में पणग (निर्विगय) से लेकर चतुर्गुरु (उपवास) तक के प्रायश्चित्त उल्लिखित हैं। भाष्यकार ने दैनिक व्यवहार में होने वाले सैकड़ों छोटे-छोटे अतिचारों का जीतकल्प के आधार पर तप प्रायश्चित्त निर्धारित किया है। यह सारा वर्णन उन्होंने गा. 1022-1813 तक की गाथाओं में किया है। विस्तारभय से यहां उनका वर्णन नहीं किया जा रहा है। इनमें पिण्डैषणा के दोषों से सम्बन्धित प्रायश्चित्तों का पिण्डनियुक्ति की भूमिका में वर्णन किया गया है। (देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 129-36) यहां उदाहरणस्वरूप कुछ अतिचारों के तप का संकेत किया जा रहा हैचतुर्गुरु-उपवास प्रायश्चित्त के स्थान• सौंठ, बेहड़ा आदि शुष्क औषधि बासी रहने पर। १.जीभा 1838-43 / 2. जीभा 1848, 1849 / ३.जीभा 1826-1935 / 4. जीभा 1083 / Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 . जीतकल्प सभाष्य * मार्गातिक्रान्त आहार का परिभोग करने पर। * बिना कारण दिन में सोने पर। * पक्ष अथवा चातुर्मास के व्यतीत होने पर भी क्रोध रहने पर। * दौड़ प्रतियोगिता करने पर। * चौपड़, चौरस, जूआ आदि खेल खेलने पर। * कोयल, मयूर, बिल्ली आदि की आवाज निकालने पर। * वर्तमान तथा भविष्य सम्बन्धी निमित्त कथन करने पर।" चतुर्लघु-आयम्बिल के स्थान * चार काल की सूत्र पौरुषी न करने पर। * सर्वथा कायोत्सर्ग न करने पर। * पर्व तिथियों में अन्य उपाश्रय में स्थित मुनियों को वंदना न करने पर। * अतिप्रमाण आहार करने पर।११ गुरुमास-एकासन के स्थान• स्थापना कुल में गुरु से पूछे बिना प्रवेश करके भक्तपान ग्रहण करने पर।१२ * वीर्य का गोपन करने पर। लघुमास-पुरिमार्थ के स्थान * अर्थ पौरुषी न करने पर। * स्वाध्याय, कायोत्सर्ग एवं प्रतिलेखना न करने पर।५ 1. जीभा 1745 / 2. जीभा 1762 / 3. जीभा 1763, 1764 / 4. जीसू 45 / 5. जीभा 1723 / 6. जीभा 1725 / 7. जीभा 1683 / 8. व्यभा 130 / 9. व्यभा 131 / 10. व्यभा 133 / 11. जीसू 38 12. जीभा 1775 / १३.जीसू 56; भाष्यकार के अनुसार यह प्रायश्चित्त जीत व्यवहार के आधार पर है। श्रुतव्यवहार के अनुसार अन्यथा प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है। 14. सूत्र पौरुषी न करने पर गुरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अर्थ सूत्र के अधीन होता है। सूत्रपौरुषी यथाशक्ति सबको करनी पड़ती है। सूत्र के अभाव में सर्वस्व का अभाव हो जाता है इसलिए सूत्र पौरुषी अर्थ पौरुषी से महत्त्वपूर्ण है। (व्यभा 130, मटी प.४५) 15. व्यभा 129 / Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 145 * अष्टमी और पक्खी के दिन उपवास न करने पर। * आहार का अविधिपूर्वक परिष्ठापन करने पर। * आहार आदि का संवरण न करने पर।' * नवकारसी न करने पर। * अचित्त लहसुन तथा प्याज ग्रहण करने पर। * बछड़े को बंधनमुक्त करने पर। पणग--निर्विगय के स्थान * वसति से बाहर जाते समय 'आवस्सही' और प्रवेश के समय 'निस्सिही' का उच्चारण न करने पर।' * गुरु को प्रणाम न करने पर। * विकथा आदि के कारण कालातिक्रान्त आहार रखने पर। * दीर्घकालिक रोग की स्थिति में आधाकर्म फल आदि का सेवन करने पर। * दुष्प्रतिलेखन अथवा दुष्प्रमार्जन करने पर। * विहार से आकर पैरों का प्रमार्जन या प्रत्युपेक्षा न करने पर।१२ बेला-(दो उपवास ) के स्थान• गुड़, घृत, तेल आदि गीली वस्तुओं के बासी रहने पर / 23 * प्रमादी साधु के रजोहरण खोने या नष्ट होने पर।१४ तेला (तीन उपवास) के स्थान- * दिन में गृहीत रात्रि में भुक्त, रात्रि में गृहीत दिन में भुक्त, रात्रि में ग्रहण तथा रात्रि में भोग-इन तीनों भंगों की शोधि तेले के तप से होती है। ___ कहीं-कहीं पुरुष भेद से भी प्रायश्चित्त-प्राप्ति में भेद होता है * संयम में डांवाडोल साधु के प्रति प्रशस्त स्थिरीकरण न करने पर भिक्षु को पुरिमार्ध, वृषभ को .१.व्यभा 133 / २.जीभा 1745 / 3. जीभा 1748 / 4. जीभा 1749 / ५.जीभा 1766 / ६.जीभा 1767 / - ७.व्यभा 125 / 8. व्यभा 125 / 9. जीभा 1744 / १०.जीभा 1782 / 11. जीभा 1789 / १२.व्यभा 126 / 13. जीभा 1084 / 14. जीभा 1743 / Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 जीतकल्प सभाष्य एकासन, उपाध्याय को आयम्बिल तथा आचार्य को उपवास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।' * प्रतिदिन यथाशक्ति प्रत्याख्यान ग्रहण न करने पर क्षुल्लक को एकासन, भिक्षु को आयम्बिल, स्थविर को उपवास, उपाध्याय को बेला तथा आचार्य को तेले के तप का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। कहीं-कहीं वस्तुभेद से भी प्रायश्चित्त में अन्तर आता है• जघन्य उपधि खोने पर उसकी शोधि हेतु एकासन, मध्यम उपधि खोने पर आयम्बिल तथा उत्कृष्ट उपधि खोने पर उपवास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। सर्व उपधि खोने पर उसकी शोधि बेले के तप से होती * तीनों प्रकार की उपधि की प्रतिलेखना विस्मृत होने पर उसकी शोधि क्रमशः निर्विगय, पुरिमार्ध और एकासन से होती है तथा सर्व उपधि की प्रतिलेखना विस्मृत होने पर या आचार्य को निवेदन न करने पर आयम्बिल प्रायश्चित्त से शोधि होती है। * गुरु-आज्ञा के बिना जघन्य उपधि अन्य साधु को देने पर जीतव्यवहार से उसकी शोधि एकासन से, मध्यम उपधि देने पर आयम्बिल से, उत्कृष्ट उपधि देने पर उपवास से तथा सर्व उपधि देने पर बेले के तप से शोधि होती है। शुद्ध तप प्रायश्चित्त के संक्षिप्त वर्णन के पश्चात् अब परिहार तप प्रायश्चित्त का वर्णन किया जा रहा हैपरिहार तप की योग्यता ___ जिस साधु को परिहार तप दिया जाता है, उसकी निम्न बिन्दुओं से परीक्षा की जाती है• पृच्छा-अपने गण के साधु से पृच्छा नहीं की जाती क्योंकि वह सबके लिए परिचित होता है। अन्य गण से आगत मुनि की गीतार्थता आदि इंगित और आकार से जान ली जाती है तो पृच्छा नहीं की जाती। अपरिचित आगंतुक साधु से पूछा जाता है कि तुम गीतार्थ हो या अगीतार्थ? यदि वह उत्तर में गीतार्थ बताता है तो उससे आगे पूछा जाता है कि तुम कौन सा तप कर सकते हो? धृति-संहनन में दुर्बल हो या सबल? स्थिर हो अथवा अस्थिर? तपस्या में कृतयोगी हो या अकृतयोगी? यदि आगंतुक कृतयोगी हो तो उसे परिहार तप तथा अकृतयोगी को शुद्ध तप का प्रायश्चित्त दिया जाता है। * पर्याय-परिहार तप प्रायश्चित्त वहन कर्ता की जन्म पर्याय जघन्यतः उनतीस वर्ष तथा श्रमण पर्याय बीस वर्ष की होनी चाहिए। उत्कृष्ट रूप से दोनों ही पर्याय देशोन पूर्वकोटि हो सकती हैं। * सूत्रार्थ-उसका सूत्रार्थ जघन्यत: नवें पूर्व की तृतीय आचार वस्तु तथा उत्कृष्टत: कुछ कम दश पूर्व होना 1. जीभा 1060, 1061 / 4. जीभा 1737 / 2. जोभा 1754 / 5. जीभा 1735 / 3. जीभा 1736 / 6. जीभा 1741 / Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 147 चाहिए। संघ में श्रुत की अविच्छिन्न परम्परा हेतु सम्पूर्ण दशपूर्वी को यह तप नहीं दिया जाता क्योंकि उसके लिए स्वाध्याय ही महानिर्जरा का कारण है। * अभिग्रह-भिक्षाचर्या में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से सम्बन्धित अभिग्रह करने वाला। * तपःकर्म-रत्नावलि' कनकावलि' आदि तप से भावित।' ____ परिहार तप योग्य अपराध होने पर भी साध्वियों को यह प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता क्योंकि वे धृति और संहनन से दुर्बल तथा पूर्वो के ज्ञान से रहित होती हैं। अगीतार्थ तथा प्रथम तीन संहननों से रहित को भी शुद्ध तप दिया जाता है। जो धृति और संहनन से सम्पन्न हैं, उनको परिहारतप प्रायश्चित्त दिया जाता है। परिहार तप वहन का समय ग्रीष्म अथवा शीतकाल में प्राप्त परिहारतप का वहन आचार्य वर्षाकाल में करवाते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि काल की स्निग्धता के कारण यह काल तपस्या के लिए गुणकारी होता है तथा वर्षाकाल में एक स्थान में रहने के कारण परिहारतप प्रायश्चित्त का वहन सुखपूर्वक हो जाता है। परिहार तप प्रायश्चित्त स्वीकार करने की विधि परिहार तप स्वीकृति के समय आचार्य द्रव्य, क्षेत्र आदि का भी ध्यान रखते हैं। द्रव्य से वट आदि क्षीरवृक्ष के नीचे, क्षेत्र से जिनगृह में, काल से प्रशस्त दिन में पूर्वाह्न के समय तथा भाव से शुभ चन्द्रबल और शुभ नक्षत्रबल में इसकी प्रतिपत्ति करवाते हैं। परिहारतप स्वीकार करने से पूर्व गुरु पूर्व, उत्तर या चरन्ती दिशा की ओर अभिमुख होते हैं। पारिहारिक शिष्य गुरु के वामपार्श्व में कुछ पीछे की ओर स्थित होता है। उस समय आचार्य सम्पूर्ण संघ के साथ पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करते हैं अथवा चतुर्विंशतिस्तव करके नमस्कार महामंत्र का पाठ करके पुनः अस्खलित रूप से चतुर्विंशतिस्तव का कायोत्सर्ग करते हैं। ससंघ कायोत्सर्ग करने के दो कारण हैं -- 1. कायोत्सर्ग के द्वारा संघाटक साधु उसके भयभीत मन को आश्वस्त करके समर्थ बनाते हैं, जिससे वह निर्विघ्न रूप से परिहार तप की समाप्ति कर सके। 1. यह तप हार की कल्पना के अनुसार किया जाता है। हार - श्रीभिक्ष 2 प. 278 / - में ऊपर दोनों ओर दाडिम पुष्प तथा बीच में बड़ा दाडिम 3. निभा 6584-87 चू. पृ. 369, व्यभा 536-41 / पुष्प होता है, उसी कल्पना के अनुसार इस तप की विधि 4. निभा 6591 / होती है। विस्तार हेतु देखें श्रीभिक्षु 2 पृ. 277, 278 5. व्यभा 1338-40 / २.कनकावलि तप भी रत्नावलि तप के समान होता है। ६.निचू 3 पृ.६५। इसमें इतना ही अंतर होता है कि दाडिमपुष्पों में रत्नावलि 7. निचू 4 पृ. 371 / में बेले तथा इसमें तेले किए जाते हैं। विस्तार हेतु देखें Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 जीतकल्प सभाष्य 2. शेष साधुओं के मन में यह भय पैदा करने के लिए कि अमुक साधु ने ऐसी प्रतिसेवना की, जिससे इसे यह दुष्कर परिहार तप दिया जा रहा है। ऐसी प्रतिसेवना करने पर यह प्रायश्चित्त वहन करना पड़ेगा। कायोत्सर्ग के पश्चात् गुरु पारिहारिक को कहते हैं कि परिहार तप समाप्ति-काल तक मैं तुम्हारे लिए कल्पस्थित हूं अर्थात् वंदना, वाचना आदि के लिए कल्पभाव में स्थित हूं, परिहार्य नहीं हूं। यह गीतार्थ मुनि तुम्हारा अनुपारिहारिक रहेगा। परिहार तप का वहन करने के कारण यह सकल सामाचारी जानता है। पारिहारिक को आचार्य द्वारा आश्वासन परिहार तप को स्वीकार करते हुए यदि कभी पारिहारिक भयभीत हो जाए कि इस उग्र तप को मैं कैसे वहन करूंगा, इतना समय एकाकी कैसे व्यतीत करूंगा तो आचार्य उसे कूप, नदी और राजा के दृष्टान्त से समझाते हैं। कूप आदि के दृष्टान्त स्पष्ट करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि कोई व्यक्ति यदि कूप में गिर जाता है, उस समय यदि कोई व्यक्ति उसे यह कहे कि यह बेचारा मरकर बचा है तो वह भय से अंगों को ढीला छोड़ देता है और डूबकर मर जाता है। यदि तटस्थ व्यक्ति उसे आश्वस्त करे कि तुम डरो मत, तुम्हें डोरी से निकाल दिया जाएगा तो वह आश्वस्त हो जाता है। नदी में डूबने वाले को यदि यह कहा जाए कि तुम तट की ओर आने का प्रयत्न करो, यह तैराक व्यक्ति दृति लेकर तुमको नदी के पार उतार देगा तो वह भयमुक्त हो जाता है। यदि राजा कुपित होकर किसी को मृत्युदण्ड देता है उस समय अन्य व्यक्ति उसे यह कहते हैं कि तुम नष्ट हो गए तो वह उद्विग्न हो जाता है। यदि आश्वस्त करते हुए यह कहा जाता है कि तुम भयभीत मत बनो, हम राजा से प्रार्थना करके तुम्हें दण्ड से मुक्त करवा देंगे, राजा अन्याय नहीं करेगा। इस बात को सुनकर उसका मन समाहित हो जाता है। इन तीनों दृष्टान्तों की भांति आचार्य उसे आश्वस्त करते हैं कि तुम डरो मत, तुमको जो कुछ पूछना है, वह मुझसे पूछना, अनुपारिहारिकों के साथ तुम भिक्षार्थ भ्रमण करना। इस प्रकार आचार्य उसे आश्वस्त करके भय से उपरत कर देते हैं। आलाप आदि दस पदों का परिहार आचार्य सबाल वृद्ध संघ को निर्देश देते हुए कहते हैं कि यह परिहार तप स्वीकार करने वाला आत्मचिन्तन में लीन रहेगा। निम्न आलाप आदि दश स्थानों से तुम्हारा और प्रायश्चित्त वहन कर्ता का कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा१. आलाप --यह पारिहारिक किसी से बातचीत नहीं करेगा, तुम लोग भी इसके साथ आलाप-संलाप मत करना। यह स्वयं अपनी भिक्षा आदि की चिन्ता करेगा, आत्मार्थ चिन्तन करते हुए आत्मशोधन करेगा। 1. जीभा 2437, 2438 / 3. जीभा 2446-54, निचू 3 पृ. 65 / 2. जीभा 2439; 4. जीभा 2440, बृभा 5597 / कप्पट्टितो अहं ते अणुपरिहारी य एस गीतो ते। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 149 तुम लोग इसकी साधना में किसी प्रकार का व्याघात मत डालना। 2. प्रतिपृच्छा-यह पारिहारिक सूत्र और अर्थ से सम्बन्धित कोई भी प्रश्न तुमसे नहीं पूछेगा और तुम भी इससे कुछ भी नहीं पूछ सकते। 3. परिवर्तना–यह तुम्हारे साथ किसी भी प्रकार के सूत्रार्थ का परावर्तन नहीं करेगा और तुम भी इसके साथ परिवर्तना नहीं करोगे। 4. उत्थान-काल-वेला में न यह तुम्हें उठाएगा और न ही तुम इसे उठाओगे। 5. वंदन-न यह तुम्हें वंदन करेगा और न ही तुम इसको वंदन करोगे। 6. मात्रक-आनयन-न यह तुम्हें मात्रक लाकर देगा और न ही तुम इसे लाकर दोगे। 7. प्रतिलेखन-यह तुम्हारे किसी भी उपकरण की प्रतिलेखना नहीं करेगा, तुम भी इसकी प्रतिलेखना नहीं करोगे। 8, संघाटक-इससे तुम्हारा तथा तुम्हारा इससे संघाटक नहीं होगा। 9. भक्तदान –यह तुम्हें भक्तपान लाकर नहीं देगा और तुम भी इसे भक्तपान लाकर नहीं दोगे। जिस दिन भिक्षु परिहार तप प्रायश्चित्त स्वीकार करता है, उस दिन आचार्य उसे एक घर से आहार दिला सकते हैं, उस दिन के बाद विशेष परिस्थिति के अलावा उसे आहार-पानी न दे सकते हैं और न दिला सकते हैं। 10. सहभोजन-यह तुम्हारे साथ भोजन नहीं करेगा और तुम भी इसके साथ भोजन नहीं करोगे।' व्यवहार सूत्र के अनुसार यदि अनेक पारिहारिक और अनेक अपारिहारिक मुनि एक दिन यावत् छह मास भी साथ रहें तो भी वे सहभोजन नहीं कर सकते। इस संदर्भ में बृहत्कल्पभाष्य में एक अपवाद का वर्णन है। परिहारतप स्वीकार करने के पश्चात् विपुल अशन-पान देखकर उसके मन में यदि खाने की इच्छा हो जाए तो आचार्य उसके भावों को देखकर सोचते हैं कि यदि यह एक बार प्रणीत आहार कर लेगा तो सुखपूर्वक अग्रिम परिहार तप वहन कर सकेगा अतः अतिशयज्ञानी या आचार्य उसके भावों को जानकर इंद्र महोत्सव आदि के दिन प्रणीत भोजन वाले जीमनवार में ले जाते हैं, यदि पारिहारिक असमर्थ हो तो गुरु स्वयं उसे प्रणीत आहार लाकर देते हैं, इससे उसकी तृप्ति हो जाती है। वह शेष प्रायश्चित्त को सुखपूर्वक वहन करता है। उस दिन के बाद पारिहारिक को भक्तपान नहीं देते। छहमासिक परिहार तप पूरा होने पर . १.अजानकारी में अन्य गण से आगत भिक्षु उसे वंदना कर लेता है। (जीभा 2457) २.जीभा 2441, 2442, व्यभा 549, 550 / ३.व्यसू 2/27 / 4. बृभा 5602-07 / Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 जीतकल्प सभाष्य एक मास के पश्चात् वे सब एक साथ भोजन कर सकते हैं। जो एक मासिक परिहार तप वाला है, वह एक मास और पांच दिन पूरा होने पर साथ में भोजन कर सकता है। इस प्रकार पांच-पांच दिन की वृद्धि से संभोज वर्जित है। पांच, दस, यावत् एक मास के अतिरिक्त दिनों में आलापन आदि नौ पद आपस में किए जा सकते हैं। ___ एक मास अतिरिक्त संभोज क्यों नहीं किया जाता, इसका कारण बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जैसे कुथित मद्य आदि से दुर्गन्धित पात्र में जब तक गंध आती है, तब तक उसमें क्षीर आदि नहीं डाला जाता, वैसे ही दुश्चरित्र की दुर्गंध से भावित उसके साथ भोजन नहीं किया जाता। इस अतिरिक्त मास के दो नाम हैं-१. पूतिनिर्वलन मास 2. प्रमोदमास। यह मास दुर्गंध का नाश करने वाला है अतः पूतिनिर्वलन मास नाम है तथा संभाषण आदि करने से प्रसन्नता रहती है अतः इसका नाम प्रमोद मास भी है। पृथक् आहार करने का एक कारण भाष्यकार यह बतलाते हैं कि उसका शरीर तप से जर्जरित हो जाता है, जब तक वह पृथक् आहार करता है, तब तक सभी साधु करुणावश उसे बलवर्धक आहार देते हैं, इससे वह शीघ्र ही बाह्य और आभ्यन्तर तप के योग्य हो जाता है। इस प्रकार इन दस स्थानों से गच्छ उसका तथा वह गच्छ का परिहार कर देता है। परिहार तप प्रायश्चित्त कर्ता एक क्षेत्र अथवा एक उपाश्रय में रह सकता है लेकिन बिना कारण इन दस स्थानों का यदि परिहार नहीं करता है तो प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। आज्ञा भंग आदि दोष होते हैं, प्रमत्त देवता उसे छल सकता है अथवा आपस में टोकने पर कलह की संभावना रहती है। आलापन से संघाटक तक आठ पदों का व्यवहार करने पर गच्छगत साधु को लघुमास, भक्तपान देने पर चतुर्लघु तथा सहभोजन करने पर चार अनुद्घात मास-गुरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। आलापन से संघाटक तक आठ पदों का व्यवहार करने पर पारिहारिक को गुरुमास, भक्तपान देने तथा सहभोजन करने पर चार अनुद्घात मास अर्थात् चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। कल्पस्थित और अनुपारिहारिक का सम्बन्ध आचार्य अथवा आचार्य के द्वारा नियुक्त नियमतः गीतार्थ साधु, जो आचार्य के समान व्यवहार करता है, वह कल्पस्थित कहलाता है। यदि पारिहारिक कृतिकर्म करता है तो कल्पस्थित आचार्य उसे 1. व्यभा 1339; दो मास वाला बाद में दस दिन तक सहभोजन नहीं कर सकता। 2. व्यभा 1341, 1342 / ३.बृभा 5601 / 4. जीभा 2443 / 5. जीभा 2444 / 6. निचू भा 3 पृ. 65; आयरिओ, आयरियणिउत्तो वा णियमा गीतत्थो तस्स आयरियाण पदाणुपालगो कप्पट्ठितो भण्णति। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 151 स्वीकार करते हैं। उसे प्रत्याख्यान करवाते हैं। सूत्रार्थ विषयक पूछने पर आचार्य उसकी जिज्ञासा का समाधान करते हैं। पारिहारिक गुरु के आने पर खड़ा होता है। गुरु यदि उसके शारीरिक स्वास्थ्य के बारे में पूछते हैं तो वह उसका प्रत्युत्तर देता है। ___ जो पारिहारिक के चलने पर सर्वत्र उसका अनुगमन करता है, वह अनुपारिहारिक कहलाता है। आचार्य उसी शिष्य को अनुपारिहारिक के रूप में स्थापित करते हैं, जो पहले परिहार तप स्वीकार कर चुका हो। उसके अभाव में दृढ़ संहनन वाले किसी गीतार्थ मुनि को अनुपारिहारिक स्थापित करते हैं।' पारिहारिक भिक्षार्थ जाता है तो अनुपारिहारिक श्वान आदि से उसकी रक्षा करता है। बृहत्कल्पभाष्य में इस प्रसंग की विस्तार से चर्चा है। सामान्यतः अनुपारिहारिक पारिहारिक को भक्त- पान आदि लाकर नहीं देते हैं, न ही आलापन आदि करते हैं लेकिन कारण होने पर गोदृष्टान्त की भांति उसका सहयोग करते हैं। जैसे नवप्रसूता गाय उठने-बैठने में समर्थ नहीं रहती, उस समय ग्वाला गाय को उठाकर चरने के लिए अरण्य में ले जाता है। जो गाय चलने में समर्थ नहीं होती, उसके लिए घर पर चारा लाकर देता है। इसी प्रकार पारिहारिक भी उत्थान आदि करने में समर्थ नहीं होता तो अनुपारिहारिक सारा कार्य करता है।' उग्र तप आदि करने से जब पारिहारिक कृश अथवा दुर्बल शरीर वाला हो जाता है, उत्थान आदि करने में समर्थ नहीं रहता तो वह अनुपारिहारिक की सहायता लेता है। वह उसको कहता है, मुझे उठाओ, बिठाओ, भिक्षा करो, भंडक की प्रतिलेखना करो आदि। ऐसा कहने पर वह शीघ्र ही मौनभाव से कुपित प्रिय बांधव की भांति उसकी सारी क्रियाएं सम्पन्न करता है। यदि भिक्षार्थ गया हुआ पारिहारिक भिक्षा ग्रहण करने में असमर्थ, क्लान्त या मूर्च्छित हो जाता है तो अनुपारिहारिक भिक्षा ग्रहण करता है। यदि जाने में असमर्थ है तो अनुपारिहारिक अकेला भिक्षार्थ जाता है। यदि वह उपकरण आदि उठाने में समर्थ नहीं है तो अनुपारिहारिक उसकी प्रतिलेखना आदि भी कर देता है। जब तक वह पुनः स्वस्थ नहीं हो जाता, उसकी अग्लान भाव से सेवा करता है। ग्लानत्व की स्थिति में परिकर्म यदि कल्पस्थित, पारिहारिक और अनुपारिहारिक-ये तीनों ग्लान हो जाएं तो गच्छगत साधु पारिहारिक के पात्र में भिक्षा लाकर कल्पस्थित को देते हैं। कल्पस्थित वह भिक्षापात्र अनुपारिहारिक को देता है, वह उसे पारिहारिक को देता है। यदि गच्छवासी साधुओं के द्वारा देने पर भी कल्पस्थित और 1. जीभा 2445 / 2. जीभा 2439 / 3. बृभा 5609 टी पृ. 1484 / / 4. जीभा 2455, 2456, व्यभा 554 / 5. कसू 4/27, 28 / Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 जीतकल्प सभाष्य अनुपारिहारिक वहां नहीं जाते हैं तो साधु स्वयं पारिहारिक को वह भिक्षा-पात्र दे देते हैं। ___ मदन कोद्रव आदि खाने अथवा महामारी से संघगत साधु ग्लान हो जाएं अथवा शत्रु के द्वारा विष दे दिया जाए अथवा अवमौदर्य हो तो पारिहारिक मुनि गच्छवासी साधुओं के पात्र में आहार लाकर अनुपारिहारिक को देता है, अनुपारिहारिक कल्पस्थित को देता है फिर वह गच्छवासी साधुओं को वह आहार देता है। यदि आचार्य की सेवा करने वाला कोई साधु नहीं होता तो पारिहारिक यतनापूर्वक उनकी सेवा करता है। वह आचार्य के पात्र में भिक्षा लाकर अनुपारिहारिक को देता है। अनुपारिहारिक कल्पस्थित को देता है तथा वह उस आहार को संघ के आचार्य को देता है। यदि गच्छ के साधु आगाढ़ योग में संलग्न हों, उस समय यदि वाचना देने वाला उपाध्याय ग्लान हो जाए या कालगत हो जाए तो उस समय पारिहारिक अनुपारिहारिक या कल्पस्थित वाचना दे सकता है। पारिहारिक की आहार एवं भिक्षा सम्बन्धी मर्यादा ___मार्ग में भिक्षा करने के सम्बन्ध में भी भाष्यकार ने विशद चिन्तन किया है। विहार करते हुए पारिहारिक को छोटा ग्राम प्राप्त हो जाए, उस समय तक यदि संघगत साधु वहां नहीं पहुंचे हैं तो वह ग्राम पारिहारिक की भिक्षा हेतु स्थापित कर दिया जाए। यदि ग्राम दूर हो और भिक्षा-काल का अतिक्रमण हो रहा हो तो उसी ग्राम का आधा भाग पारिहारिक के लिए तथा शेष आधा गांव अन्य गच्छगत साधुओं की भिक्षा के लिए रख दिया जाए। यदि गच्छगत साधुओं को आहार पूरा न मिले तो पारिहारिक की भिक्षा के पश्चात् गच्छगत साधु पूरे गांव में भिक्षा कर सकते हैं। यदि एक गांव में ही प्रवास कर रहे हों तो भी आधे-आधे गांव में गण के साधु और पारिहारिक भिक्षा करते हैं।' ___सामान्यतः पारिहारिक आहार का दान-अनुप्रदान नहीं करता लेकिन आचार्य यदि उसे साधुओं को आहार-वितरण की अनुज्ञा दें तो वह आहार-वितरण कर सकता है। आचार्य उसे निम्न कारणों से आहार-वितरण की आज्ञा देते हैं - * परिहारी का शरीर तप से शोषित होता है। आहार-वितरण करने से विगय से खरंटित हाथ तथा शेष बचा हुआ आहार वह खा सके। * आहार परिमित हो और परिहारी यदि आहार-वितरण में कुशल हो। * अनेक प्रकार का प्रचुर आहार मिलने पर अगीतार्थ के व्यामोह की निवृत्ति हेतु। पारिहारिक गुरु की आज्ञा प्राप्त करके घृत आदि विकृति का सेवन कर सकता है। यदि वह गुरु 3. बृभा 5616 टी पृ. 1486 / 1. बृभा 5615 टी पृ. 1486, निचू 3 पृ. 67 / 2. बृभा 5614 टी पृ. 1485, 1486 / Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 153 की आज्ञा प्राप्त नहीं करता है तो आहार-वितरण के बाद विगय से संसृष्ट हाथ दूसरा साधु चाटकर साफ करता है अथवा वह उस लिप्त हाथ को दीवार या काष्ठ से साफ करता है। गुरु की अनुज्ञा के बिना स्वयं चाटकर साफ करता है तो लघुमास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आचार्य की अनुज्ञा से वह विकृति से लिप्त हाथ को चाट सकता है अथवा शेष बचे हुए आहार को भी खा सकता है, जैसे रसोइया बचे हुए भोजन का मालिक की आज्ञा से परिभोग करता है। भाष्यकार के अनुसार यह पारिहारिक की आचार मर्यादा है कि शक्तिसंवर्धन के लिए वह ऐसा कर सकता है। पारिहारिक के प्रति आचार्य की सेवा कल्पस्थित आचार्य पारिहारिक की तीन रूपों में सेवा करते हैं -१.अनुशिष्टि 2. उपालम्भ और 3. उपग्रह। अनुशिष्टि के माध्यम से वे पारिहारिक को प्रेरणा देते हैं कि अपराध होने पर दण्ड मिलना संसार में सुलभ है। तुम यह मत सोचो कि मुझे यह प्रायश्चित्त मिला है तो मैं दण्डित या तिरस्कृत हुआ हूं। यह प्रायश्चित्त तुम्हारे संसार का उद्धार करने वाला है। तुम्हारी आत्मा अतिचार दोष से मलिन है, इस प्रायश्चित्त से वह विशुद्ध हो जाएगी। उपालम्भ स्वरूप वे पारिहारिक को कहते हैं कि तुमने स्वयं ने यह प्रतिसेवना की है इसलिए तुमको यह प्रायश्चित्त दिया गया है। प्रायश्चित्त का वहन न करने से तुम इस भव में भले ही मुक्त हो जाओ लेकिन परलोक में दण्ड-मुक्त नहीं हो सकते। आचार्य पारिहारिक का द्रव्य और भाव-दो प्रकार से उपग्रह करते हैं। पारिहारिक और अनुपारिहारिक दोनों ग्लान या असमर्थ हो जाते हैं तो आचार्य भक्तपान लाते हैं, यह द्रव्यत: उपग्रह है तथा उसे सूत्रार्थ अथवा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि हेतु मार्गदर्शन देते हैं, यह भावतः उपग्रह है। परिहारी और अपरिहारी की पात्र सम्बन्धी मर्यादा * परिहारतप करने वाले के पात्र सम्बन्धी मर्यादा का भी व्याख्या-साहित्य में वर्णन मिलता है। परिहार तप प्रायश्चित्त वहनकर्ता पात्र लेकर स्वयं की भिक्षा के लिए जा रहा हो, उस समय यदि आचार्य कह दें कि मेरे लिए भी भिक्षा ला देना तो वह परिहारी अपने पात्र में आचार्य के लिए भिक्षा ला सकता है लेकिन अपरिहारी आचार्य परिहारी के पात्र में अशन-पान का प्रयोग नहीं कर सकते। वे अपने पात्र में वह 'आहार लेकर खा-पी सकते हैं। ... यदि परिहारी भिक्षु विशेष कारण में स्थविर (आचार्य) के लिए भिक्षार्थ जाए, उस समय यदि आचार्य कहे कि तुम अपने लिए भी आहार लेकर आ जाना। ऐसा कहने पर परिहारी स्वयं के लिए भी साथ 1. व्यसू 2/28, व्यभा 1344-48 / २.व्यभा 560-65 / Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 जीतकल्प सभाष्य में भिक्षा ला सकता है। पारिहारिक भी अपरिहारी के पात्र में खा-पी नहीं सकता। अपने पात्र में लेकर या हाथ में लेकर आहार कर सकता है। पारिहारिक भिक्षु की सामान्य मर्यादा यह है कि वह पहले अपने पात्र में स्वयं के योग्य भिक्षा लाकर फिर स्थविर के पात्र में स्थविर के योग्य भिक्षा लाता है अथवा पहले स्थविर योग्य आहार लाकर फिर अपने लिए आहार लाता है। किसी कारणवश यदि वह एक ही पात्र में साथ में आहार लाए तो स्थविर के खाने के पश्चात् वह स्वयं खाता है। इन तीनों स्थितियों के निम्न कारण हो सकते हैं - * अशिव आदि के कारण अन्य साधुओं को अन्यत्र भेज दिया हो। * स्थविर और परिहारी दो ही रह गए हों। * जंघाबल की क्षीणता के कारण स्थविर भिक्षाटन में असमर्थ हो गए हों। * अपरिहारी तप के कारण खिन्न हो। * द्रव्य दुर्लभ हो। * सब घरों में भिक्षा का समय एक ही हो। * समय की कमी हो। * पानी आदि की अल्पता हो तो पारिहारिक और अपारिहारिक दोनों एक साथ भोजन कर सकते हैं। परिहार तप प्रायश्चित्त के विकल्प ___ दो साधर्मिक एक साथ विहार कर रहे हों, उस समय उनके साथ संघ सहित आचार्य न हों, वैसी स्थिति में यदि एक मुनि अकृत्य स्थान का सेवन करके आलोचना करे तो वह परिहारतप स्वीकार करता है और दूसरा साधर्मिक अनुपारिहारिक के रूप में उसकी सेवा करता है। कल्पस्थित की भूमिका भी वही निभाता है। उसमें भी यदि आलोचक गीतार्थ है तो परिहार तप दिया जाता है अन्यथा अगीतार्थ को शुद्ध तप दिया जाता है। पारिहारिक की संघ-सेवा यदि पारिहारिक सूत्रार्थ विशारद तथा लब्धि सम्पन्न है तो उसे संघ के इन कारणों से अन्य गच्छों में भेजा जा सकता है * कोई नास्तिकवादी व्यक्ति राजा के समक्ष वाद करने की इच्छा व्यक्त करे। १.व्यसू 2/29,30 व्यभा.१३५२-५६। २.व्यसू 2/1 / Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श * साधु के प्रति प्रद्विष्ट राजा द्वारा किसी साधु को मारने-पीटने का प्रसंग हो। * दुर्भिक्ष आदि के कारण आहार-प्राप्ति न हो। * किसी साधु ने अनशन किया हो और उसके लिए निर्यापक की आवश्यकता हो। * कोई आचार्य ग्लान हो गए हों। * राजा आदि के द्वारा किसी साधु या साध्वी को उत्प्रव्रजित करके बंदी बना रखा हो। * अन्य मतावलम्बी शास्त्रार्थ करना चाहता हो।' इन परिस्थितियों में आचार्य कहते हैं कि इस पारिहारिक के अतिरिक्त अन्य कोई साधु ऐसा नहीं है, जो वादी का निग्रह कर सके या अन्य प्रयोजन सिद्ध कर सके, उस समय पारिहारिक स्वयं भी निवेदन कर सकता है कि उस वादी को मैंने शास्त्रार्थ में अनेक बार हराया है अतः आप अनुज्ञा दें तो मैं वहां जाऊं। प्रश्न उपस्थित होता है कि दुष्कर परिहारतप वहन करने वाले को बीच में ही तप स्थगित करके अन्यत्र क्यों भेजा जाता है? इसका समाधान देते हुए आचार्य कहते हैं कि तीक्ष्ण और तीक्ष्णतर कार्य उपस्थित होने पर पहले तीक्ष्णतर कार्य सम्पन्न किए जाते हैं। यदि दो महत्त्वपूर्ण कार्य एक साथ उपस्थित हो जाएं तो कार्य की गुरुता और लघुता का चिन्तन करके जो कार्य संघ के लिए हितकारी हो, उसे पहले करना चाहिए। इसी बात को दृष्टान्त से समझाते हुए भाष्यकार कहते हैं कि व्रण-चिकित्सा के समय यदि बीच में किसी को धनुग्रहवात जैसी घातक बीमारी हो जाए तो कुशल वैद्य पहले उस व्याधि की चिकित्सा करते हैं, तत्पश्चात् उस व्रण का शमन करते हैं। इसी प्रकार अनेक कार्य होने पर भी संघ कार्य को पहले करना चाहिए। यदि शक्ति होने पर भी मुनि संघ-कार्य के लिए उपस्थित नहीं होता तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। परिहार तप का झोष-क्षपण असमर्थ पारिहारिक गुरु के कहने पर तप को छोड़ देता है अथवा आचार्य उसे अवशिष्ट तप से मुक्त कर देते हैं। जिस पारिहारिक ने अभी तप प्रारम्भ ही किया है, सारा ही तप शेष है तो समर्थ पारिहारिक मार्ग में तप-वहन की बात कहता है अथवा प्रसन्न होकर गुरु उसे सम्पूर्ण तप से मुक्त कर देते हैं। गुरु यदि प्रायश्चित्त से मुक्त न करें तो प्रयोजन सम्पन्न कर अपने क्षेत्र में आकर देशभाग अथवा सर्वभाग प्रायश्चित्त को पूरा करता है। 1. व्यभा 694, 695 मटी प. 71 / २.व्यभा 696, 697 / 3. व्यभा 698-701 / 4. व्यभा 1655 / 5. देशभाग और सर्वभाग की व्याख्या हेतु देखें इसी ग्रंथ की भूमिका पृ. 184, 185 / 6. व्यभा 765,766 / Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 जीतकल्प सभाष्य / वादी पारिहारिक के प्रायश्चित्त में कमी वादी का निग्रह करना भी संघ की सेवा है। यदि पारिहारिक वादी का निग्रह करने हेतु राजसभा जाता है, उस समय प्रवचन की जुगुप्सा न हो इसलिए वह पैर धोता है, दंत-प्रक्षालन करता है, वाक्-पाटव एवं मेधा-वृद्धि के लिए प्रणीत आहार करता है, आन्तरिक उत्साह बढ़ाने हेतु वातिकमदिरा आदि पदार्थों का सेवन करता है, सभा में विजय प्राप्त करने के लिए शुक्ल वस्त्र धारण करता है, इन सब प्रतिसेवनाओं को जानकर आगमव्यवहारी उसे कहते हैं कि पहले तुमको दोष सेवन पर पारिहारिक तप दिया था लेकिन अब भविष्य में तुम ऐसा अपराध मत करना। तुमने परवादी का निग्रह करके प्रवचन की प्रभावना की है अतः तुम्हें अल्प प्रायश्चित्त दिया जाता है अथवा प्रायश्चित्त से मुक्त भी कर दिया जाता है। पारिहारिक का मार्ग में अवस्थान पारिहारिक संघीय या अन्य कारण उपस्थित होने पर अन्यत्र जाए तो निम्न छह कारणों से वह बीच में रुक सकता है• मार्ग में स्वयं ग्लान हो जाए अथवा अन्य किसी ग्लान साधु को देखे या सुने तो उसकी परिचर्या के लिए। * वर्षा या नदी का पूर आ जाने पर। * किसी के द्वारा सूत्रार्थ की पृच्छा करने पर। * किसी विशिष्ट विद्याधर या निमित्तज्ञ से निमित्त सीखने हेतु। * अनेक साधु आगाढ़ योग में प्रविष्ट हों, उस समय उनको वाचना देने वाले आचार्य के कालगत होने पर उन्हें वाचना देने के लिए। * मार्ग में ऐसा ग्रंथ मिलने पर, जिसे पढ़ने से प्रज्ञा का स्फुरण हो जाए तो उसे पढ़ने की इच्छा से। परिहार तप प्रायश्चित्त के स्थान * कुल और श्रुत से असदृश मुनि को आचार्य बनाने पर। * चिकित्साकाल में मनोज्ञ आहार का आसक्ति से सेवन करने पर। * गण द्वारा असम्मत और अप्रीतिकर शिष्य को आचार्य पद पर नियुक्त करने पर। * निष्कारण प्रतिसेवना तथा कारण होने पर अयतना से प्रतिसेवना करने पर। 1. बृभा 6034-36 टी पृ. 1592, 1593 / २.व्यभा 706 / ३.व्यभा 1334, 1335 / Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 157 * स्वस्थ होने पर भी म्रक्षण आदि क्रियाएं उसी रूप में करने पर। * स्थविर की अनुज्ञा के बिना अभिशय्या और नैषेधिकी में जाने पर। तप प्रायश्चित्त तथा अनवस्थाप्य और पाराञ्चित तप में अन्तर यद्यपि व्याख्याकारों ने कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं किया है कि तप प्रायश्चित्त में प्राप्त परिहार तप और अंतिम दो प्रायश्चित्तों में मिलने वाले परिहार तप में क्या अंतर है? ऐसा प्रतीत होता है कि परिहार तप कर्ता की योग्यता, आलाप आदि दश पदों का परिहार तथा पर्याय आदि की दृष्टि से दोनों में समानता है लेकिन तप की काल-मर्यादा की दृष्टि से तप प्रायश्चित्त वाले परिहार तप का जघन्य समय एक मास तथा उत्कृष्ट छह मास है। अनवस्थाप्य और पाराञ्चित तप में जघन्य छह मास तथा उत्कृष्ट बारह वर्ष है। . तप प्रायश्चित्त में पारिहारिक संघ में रहते हुए प्रायश्चित्त वहन करता है लेकिन पाराञ्चित में क्षेत्र के बाहर प्रायश्चित्त वहन किया जाता है। तप प्रायश्चित्त साधु को भी प्राप्त हो सकता है लेकिन अनवस्थाप्य उपाध्याय को तथा पाराञ्चित प्रायश्चित्त आचार्य को प्राप्त होता है। परिहार तप प्राप्ति के कारण तथा अनवस्थाप्य और पाराञ्चित प्रायश्चित्त में प्राप्त परिहार तप के कारणों में भी अन्तर है। तप प्रायश्चित्त-दान में तरतमता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अन्य प्रायश्चित्तों की अपेक्षा तप प्रायश्चित्त का विस्तार से वर्णन किया है। इस पूरे प्रसंग को पढ़कर कहा जा सकता है कि तप प्रायश्चित्त को उन्होंने अनेकान्त के प्रायोगिक रूप में प्रस्तुत किया है। भाष्यकार के अनुसार तप प्रायश्चित्त के निर्धारण में आचार्य निम्न बातों का ध्यान रखते ... 1. आहार आदि द्रव्य की सुलभता-दुर्लभता। 2. क्षेत्र की रूक्षता और स्निग्धता? . 3. काल की दृष्टि से कौन सी ऋतु है? 4. भाव की दृष्टि से ग्लान या स्वस्थ? अथवा मंद या तीव्र अनभाव? 5. प्रतिसेवक पुरुष गीतार्थ है या अगीतार्थ? 6. प्रतिसेवना कैसी है दर्प या कल्प? भगवती आराधना के अनुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, करण, परिणाम, उत्साह, शरीरबल, प्रव्रज्याकाल, आगम और पुरुष–इन दस बातों को जानकर फिर प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1. बृभा 6033 / .२.व्यभा 690 / 3. भआ 452; दव्वं खेत्तं कालं, भावं करणपरिणाममुच्छाह। संघदणं परियायं, आगमपुरिसं च विण्णाय।। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 जीतकल्प सभाष्य द्रव्य की दृष्टि से जहां शालि आदि उत्कृष्ट धान्य नित्य सुलभ होते हैं, वहां अधिक प्रायश्चित्त दिया जाता है तथा जहां काजिक आदि रूक्ष आहार कम या दुर्लभ हों, वहां कम प्रायश्चित्त दिया जाता है। रूक्ष क्षेत्र वात और पित्त को उत्पन्न करता है। शीत क्षेत्र बलप्रद होता है। शीत क्षेत्र में अधिक प्रायश्चित्त, रूक्ष क्षेत्र में हीनतर तथा साधारण क्षेत्र में मध्यम प्रायश्चित्त दिया जाता है। गर्मी में तपस्या करना कठिन होता है अतः काल की दृष्टि से भी भाष्यकार ने विस्तार से चर्चा की है। ग्रीष्म ऋतु में उत्कृष्ट तेला, शिशिर में चोला तथा वर्षाकाल में पंचोला तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए, यह उत्कृष्ट तप की अपेक्षा है। जघन्य दृष्टि से ग्रीष्म में उपवास, शीतकाल में बेला तथा वर्षाकाल में तेले का प्रायश्चित्त दिया जाता है। मध्यम तप की दृष्टि से ग्रीष्म में बेला, शीत में तेला तथा वर्षा में चोले का. प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसका भाष्यकार ने 1093 गाथाओं में विस्तार से वर्णन किया है। भाव के आधार पर स्वस्थ प्रतिसेवक को अधिक तप दिया जाता है। ग्लान को नहीं दिया जाता अथवा उतना ही दिया जाता है, जितना वह शरीर के आधार पर सहन कर सके। भाव में मंद और तीव्र अनुभाव भी प्रायश्चित्त की तरतमता में निमित्त बनते हैं। मंद अनुभाव से चरम प्रायश्चित्त जितना अतिचार सेवन करके भी पणग (निर्विगय) प्रायश्चित्त दिया जा सकता है तथा तीव्र अनुभाव से पणग प्रायश्चित्त जितना अतिचार सेवन करने पर चरम-पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त हो सकता है। यदि साधु मायावी नहीं है लेकिन कर्मोदय से सावधानी में कमी है तो अनेक बार गलती होने पर भी उसे कड़ा प्रायश्चित्त नहीं मिलता। यदि गलती करके दर्प प्रतिसेवना से वह गलती को स्वीकार नहीं करता अपितु दोषों की स्थापना करता है तो बोलने मात्र से उसका प्रायश्चित्त बढ़ता जाता है। भाष्यकार ने इन सबको अनेक दृष्टान्तों से विस्तार से समझाया है। __प्रतिसेवक के अध्यवसाय-भेद से प्रतिसेवना की भिन्नता होने पर भी समान प्रायश्चित्त से विशोधि हो जाती है। इस भेद के पीछे प्रायश्चित्तदाता का राग द्वेष नहीं, अपितु यथार्थ दृष्टिकोण और विवेक होता है। व्यवहारभाष्य में इस संदर्भ में चतुर्भंगी प्रस्तुत की गई है• एक भिक्षु ने तीव्र अध्यवसाय से निष्कारण मासिक प्रतिसेवना प्रायश्चित्त जितना अपराध किया, उसको एक मास का प्रायश्चित्त दिया जाता है। 1. जीसू 65 / 2. जीसू 66 / 3. जीभा 1826-1935 / 4. जीसू 68 / 5. जीभा 1938 / 6. देखें बृभा 6130-62 / Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 159 * दूसरे भिक्षु ने मंद अध्यवसाय से दो मास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना की, उसको प्रत्येक मास के पन्द्रह दिनों के अनुपात से एक मास का प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। * तीसरे भिक्षु ने मंदतम अध्यवसाय से तीन प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना की, उसको मास के दस-दस दिनों के अनुपात से एक मास का प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। * किसी चौथे भिक्षु ने अति मंदतम अध्यवसाय से चार मास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना की, उसको प्रत्येक मास के साढ़े सात दिन के अनुपात से एक मास का प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। इस चतुर्भगी को समझने के लिए भाष्यकार ने पांच वणिक् और पन्द्रह गर्दभ की मार्मिक कथा का संकेत किया है। पांच वणिकों के पास विषम मूल्य वाले पन्द्रह गधे थे। समान वितरण के समय पांचों में कलह होने लगा। यदि सबको समान वितरण किया जाता तो सबको तीन-तीन गधे मिलते चूंकि उनका मूल्य समान नहीं था अतः यह वितरण किसी को मान्य नहीं हुआ। एक मध्यस्थ व्यक्ति ने उनका वितरण किया। उसने साठ रुपए मूल्य वाला एक गधा एक व्यापारी को दिया। दूसरे को तीस-तीस रुपए मूल्य वाले दो गधे, तीसरे को बीस-बीस रुपए मूल्य वाले तीन गधे, चौथे को पन्द्रह-पन्द्रह रुपए मूल्य वाले चार गधे तथा पांचवें को बारह-बारह मूल्य वाले पांच गधे दिए। इसी प्रकार प्रायश्चित्त दाता रागद्वेष से मुक्त होकर अनेक परिस्थितियों के आधार पर प्रायश्चित्त देता है। .... पुरुष के आधार पर भी प्रायश्चित्त का निर्धारण होता है। जीतकल्पभाष्य के अनुसार पुरुषों के अनेक प्रकार हो सकते हैं-गीतार्थ-अगीतार्थ, समर्थ-असमर्थ, सहिष्णु-असहिष्णु, मायावी-ऋजु, परिणामक, अपरिणामक, अतिपरिणामक, ऋद्धिमान प्रव्रजित ऋद्धिहीन प्रव्रजित-इन सब पुरुषों में तुल्य अपराध होने पर भी प्रायश्चित्त-दान में भिन्नता रहती है। स्वभाव के आधार पर दारुण और भद्र पुरुष में भी समान अपराध में प्रायश्चित्त भेद होता है। . उदाहरणार्थ जो स्थिर गीतार्थ होते हैं, उन्हें अपराध के अनुसार पूर्ण प्रायश्चित्त दिया जाता है लेकिन अस्थिर अगीतार्थ को गुरु उसके सामर्थ्य के आधार पर कम या पूर्ण प्रायश्चित्त देते हैं। * अन्य विकल्प के अनुसार पुरुष चार प्रकार के होते हैं। उनमें भी प्रायश्चित्त-दान में तरतमता होती है। 1. उभयतरक-उत्कृष्ट छह मासिक तप करने पर भी आचार्य की अग्लान भाव से सेवा करने वाला उभयतरक कहलाता है। वह अपना और आचार्य-दोनों का उपग्रह करता है। १.व्यभा 329-31 / २.व्यभा 4025,4026 / Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 जीतकल्प संभाष्य 2. आत्मतरक-तप में बलिष्ठ किन्तु वैयावृत्त्य लब्धि से हीन आत्मतरक कहलाता है। वह तप द्वारा केवल स्वयं पर अनुग्रह करता है। 3. परतरक-तपोबल से हीन केवल वैयावृत्त्य करने वाला। 4. अन्यतरक-तप और वैयावृत्त्य दोनों में समर्थ लेकिन एक समय में एक ही कार्य करने वाला। जीतकल्पभाष्य में नोभयतरक को चौथा भेद मानकर अन्यतरक को पांचवां भेद माना है। उभयतरक और आत्मतरक-ये दोनों प्रायश्चित्त के अभिमुख होते हैं। परतरक और अन्यतरक जब तक वैयावृत्त्य करते हैं, तब तक उनका प्रायश्चित्त निक्षिप्त रहता है। उभयतरक को यदि इंद्रियों के अतिक्रमण आदि से पुनः तप प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तो पंच मास पर्यन्त प्रायश्चित्त भी भिन्नमास में समाविष्ट हो जाता है। परतरक पुरुष को बहुक प्रायश्चित्त स्थान में भी अल्प प्रायश्चित्त दिया जाता है क्योंकि वैयावृत्त्य आदि में संलग्न रहने के कारण वह तपोयोग का वहन नहीं कर सकता। प्रतिसेवक पुरुष के धृतिबल और संहनन को देखकर भी आचार्य तप प्रायश्चित्त में तरतमता करते हैं। धृति और संहनन के आधार पर दिए जाने वाले प्रायश्चित्त को भाष्यकार ने बैल और शकट की उपमा से उपमित किया है * भंडी दुर्बल, बैल बलिष्ठ। * भंडी सक्षम, बैल दुर्बल। * भंडी सक्षम, बैल बलिष्ठ। * भंडी दुर्बल, बैल भी दुर्बल। पुरुष के आधार पर इसकी चतुर्भगी इस प्रकार होती है• धृति से दुर्बल, देह से बलिष्ठ। * धृति से बली, देह से दुर्बल। * धृति और देह -दोनों से बली। * धृति और देह-दोनों से दुर्बल। धृति और देह से बलिष्ठ को पूरा प्रायश्चित्त दिया जाता है। धृति से हीन और शरीर से बलिष्ठ, धृति से बली और शरीर से दुर्बल को लघुक तथा उभय से हीन को कम प्रायश्चित्त दिया जाता है। क्षमता से अधिक प्रायश्चित्त देने से आचार्य को मृषा दोष तथा आशातना दोष लगता है तथा शिष्य के मन में भी आचार्य के प्रति अप्रीति हो जाती है। प्रायश्चित्त की तरतमता के पीछे आचार्य का दृष्टिकोण राग-द्वेष युक्त नहीं अपितु प्रतिसेवक को अच्छी तरह प्रायश्चित्त वहन करवाना होता है। जैसे एक माह के शिशु को चार माह के शिशु जितना आहार देने से वह अजीर्ण रोग से ग्रस्त हो जाता है तथा चार माह के शिशु को एक माह के शिशु जितना आहार देने 1. जीभा 1962-66 / ४.व्यभा 501 / २.व्यभा 479,480 / 5. व्यभा 660,661 / 3. व्यभा 483 / Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 161 पर वह दुर्बल हो जाता है, वैसे ही दुर्बल को कम और सबल को अधिक प्रायश्चित्त देने से आचार्य पक्षपात के दोष से दूषित नहीं होते। तप प्रायश्चित्त में जीतव्यवहार के आधार पर एक ही अपराध में भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त की प्राप्ति का विधान भी मिलता है। उदाहरणार्थ एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों का व्यापादन होने पर प्राप्त प्रायश्चित्त में तीन आदेश-पम्पराएं मिलती हैं१. एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों का व्यापादन होने पर क्रमशः उपवास से लेकर द्वादशभक्तपंचोला तक का प्रायश्चित्त मिलता है, यह एक आदेश है। अर्थात् एकेन्द्रिय के व्यापादन में उपवास, द्वीन्द्रिय में बेला, त्रीन्द्रिय में तेला, चतुरिन्द्रिय में चोला तथा पंचेन्द्रिय के व्यापादान में पंचोले तप का प्रायश्चित्त मिलता है। 2. क्रमशः एक कल्याणक से पांच कल्याणक तक की प्राप्ति होती है, यह दूसरा आदेश है। 3. तीसरे आदेश के अनुसार पृथ्वी, अप्, तैजस्, वायु और परित्त वनस्पति–इनका संघट्टन होने पर लघुमास, परितापन में गुरुमास तथा अपद्रावण में चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। साधारण वनस्पति काय के संघट्टन में गुरुमास, परितापन में चतुर्लघु तथा अपद्रावण में चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। / याज्ञवल्क्य स्मृति में भी उल्लेख मिलता है कि प्रायश्चित्त देते समय देश, काल, बल, आयु, योग्यता, विद्या आदि की स्थिति जानकर फिर प्रायश्चित्त देना चाहिए। प्रायश्चित्त में सापेक्षता अनेकान्त का प्रायोगिक रूप है। इसके द्वारा संघ की अव्यवच्छित्ति और प्रतिसेवक की शोधि-दोनों कार्य सुगमता से सम्पन्न हो जाते हैं। 7. छेद प्रायश्चित्त छेद का अर्थ है-काटना। दिवस, पक्ष, मास आदि पर्यन्त दीक्षा-पर्याय को कम करना छेद प्रायश्चित्त है। जैसे शरीर में विषैले फोड़े या व्याधिग्रस्त अंग को अन्य अंगों की रक्षा के लिए काट दिया जाता है, वैसे ही जिस अपराध के सेवन करने पर पूर्व पर्याय दूषित हो जाने से शेष पर्याय की रक्षा के लिए उतने पर्याय का छेद कर दिया जाता है, वह छेद प्रायश्चित्त है। चूर्णिकार के अनुसार अपराधों का उपचय, शासनविरुद्ध समाचरण तथा तप के योग्य प्रायश्चित्त का अतिक्रमण होने पर प्रव्रज्या के पांच दिन आदि का 1. व्यभा ४९४-टी प.८। २.निभा 116, 117 चू पृ. 49 / / 3. याज्ञ 1/368; .." ज्ञात्वापराधं देशं च, कालं बलमथापि वा। वयः कर्म च वित्तं च, दण्डं दण्ड्ये षु पातयेत्।। 4. तवा 9/22 पृ. 621; दिवस-पक्ष-मासादिना प्रव्रज्याहायनं छेदः। ५.जीभा 725 / Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 जीतकल्प सभाष्य छेद करना अर्थात् संयम-पर्याय को कम करना छेद प्रायश्चित्त है। आचार्य उमास्वाति ने छेद, अपवर्तन. और अपहार को एकार्थक माना है। परिहार तप से छेद प्रायश्चित्त बड़ा होता है। . जो तप-गर्वित, तप करने में असमर्थ, तप में श्रद्धा नहीं करने वाला, तप करने पर भी अदम्य स्वभाव वाला, अतिपरिणामक और अतिप्रसंगी होता है, उसको तप प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसके अतिरिक्त पिण्डविशोधि आदि उत्तर गुणों को अधिक भ्रष्ट करने वाला, बार-बार छेद प्रायश्चित्त को प्राप्त करने वाला, पार्श्वस्थ, कुशील आदि अथवा वैयावृत्त्य करने वाले साधुओं को तप्त करने वाले साधु को छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार जो उपवास आदि करने में समर्थ है, सब प्रकार से बलवान्, शूरवीर और अभिमानी है, उसके द्वारा अपराध करने पर उसको छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है। निशीथभाष्य में शिष्य प्रश्न पूछता है कि किसी साधु ने छह मास तप से अधिक प्रतिसेवना की तो भी उसे छेद प्रायश्चित्त क्यों नहीं दिया जाता? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि जो अगीतार्थ, अपरिणामक या अतिपरिणामक है, छेद को सहन करने में समर्थ नहीं है, उसके द्वारा अनेक वर्षों जितनी प्रतिसेवना करने पर भी स्थापनारोपणा के द्वारा छह मास तक का तप प्रायश्चित्त दिया जाता है। छेद और मूल प्रायश्चित्त जितना अपराध होने पर भी उसे तप ही दिया जाता है। यदि अविकोविद भी जान-बूझकर पञ्चेन्द्रिय का घात करता है, दर्प से मैथुन सेवन करता है तो उसे छेद या मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। एकेन्द्रिय की अयतना से विराधना या निष्कारण प्रतिसेवना करने अथवा बार-बार प्रतिसेवना करने पर छेद और मूल को प्राप्त अविकोविद को छह मास का तप प्रायश्चित्त ही दिया जाता है। जो विकोविद होता है, उसके द्वारा अनेक मास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना करने पर उद्घात प्रायश्चित्त, दूसरी बार प्रतिसेवना करने पर अनुद्घातिक प्रायश्चित्त दिया जाता है, छेद नहीं दिया जाता। तीसरी बार प्रतिसेवना करने पर छेद दिया जाता है, मूल प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता।। ___ तप और छेद–इन दोनों का स्वस्थान में प्रायश्चित्त-दान तुल्य होता है अर्थात् दोनों का आदि स्थान पांच अहोरात्र है फिर पांच-पांच दिन की वृद्धि होने से अंतिम स्थान छह मास है। कहने का तात्पर्य यह है कि तप प्रायश्चित्त में पांच अहोरात्र से कम और छह मास से अधिक प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता। 1. आवचू 2 पृ. 246, 247 / 2. तस्वोभा 9/22 ; छेदोऽपवर्तनमपहार इत्यनर्थान्तरम्। 3. व्यभा 718 मटी प. 78 ; परिहाराच्छेदो गरीयान्। 4. जीसू 80-82 / 5. षट्ध पु. 13/5, 4, 26 पृ. 61, 62; उववासादिखमस्स ओघबलस्स ओघसूरस्स गव्वियस्स कयावराहस्स साहुस्स होदि। 6. निभा 6524, चू पृ. 345, 346 / 7. धवला में एक वर्ष आदि की पर्याय छेद का उल्लेख मिलता है। (षट्ध पु. 13/5, 4, 26 पृ. 61) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श / 163 इसी प्रकार छेद में भी पांच से कम और छह मास से अधिक पर्याय का छेद नहीं किया जाता। यदि चिरप्रव्रजित का छह माह से अधिक दीक्षा-पर्याय छेद किया जाता है तो वह मूल के अन्तर्गत ही आता है अतः कुछ आचार्य प्रायश्चित्त आठ ही मानते हैं। कुछ आचार्य ऐसा भी मानते हैं कि जब तक सम्पूर्ण व्रतपर्याय का छेद न हो, तब तक छेद प्रायश्चित्त तथा सर्व पर्याय का छेद होने पर मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। तीन बार छेद प्रायश्चित्त देने के बाद भी यदि साधु पुनः प्रतिसेवना करता है तो उसे तीन बार मूल दिया जाता है। पुनः प्रतिसेवना करने पर तीन बार अनवस्थाप्य तथा पुनः अपराध करने पर एक बार पाराञ्चित प्रायश्चित्त दिया जाता है। निशीथचूर्णि में इस संदर्भ में विस्तृत वर्णन है।' छेद और मूल में मुख्य अंतर यह है कि छेद चिरघाती है। इसमें चिरकाल तक दीक्षा-पर्याय का छेद होता है, मूल सद्योघाती है, यह तत्काल दीक्षा-पर्याय को समाप्त कर देता है। छेद प्रायश्चित्त के प्रकार छेद दो प्रकार का होता है-१. देशछेद और 2. सर्वछेद। पांच अहोरात्र से छह मास पर्यन्त पर्याय का छेद देशछेद कहलाता है तथा मूल, अनवस्थाप्य और पाराञ्चित –इन तीनों का समावेश सर्वछेद प्रायश्चित्त के अन्तर्गत होता है। अंतिम तीनों प्रायश्चित्तों में श्रमण-पर्याय का एक साथ छेद होता है। यदि अंतिम तीन प्रायश्चित्तों का सर्वछेद में समावेश कर दिया जाए तो प्रायश्चित्त के सात ही प्रकार होते हैं। छेद प्रायश्चित्त के अपराध-स्थान छेद प्रायश्चित्त के अपराध-स्थान इस प्रकार हैं. * जानते हुए पञ्चेन्द्रिय का घात करने पर। * दर्प से मैथुन सेवन करने पर। * शेष मृषावाद, अदत्तादान तथा परिग्रह आदि की बिना कारण उत्कृष्ट प्रतिसेवना करने पर। * संघ सम्बन्धी आगाढ़ प्रयोजन उपस्थित होने पर भी संघीय कार्य न करने पर। 1. बृभा 707 / २.बृभा 711 / 3. जीचू पृ. 27 / 4. निभा 6538 तवतिगं छेदतिगं, मूलतिगं अणवट्ठाणतिगं च। चरिमं च एगसरयं, पढमं तववज्जियं बितियं / / 5. निचू 4 पृ. 352 / 6. बृभा 711; चिरघाई वा छेओ, मूलं पुण सज्जघाई उ। 7. बृभा 710 दुविहो अ होइ छेदो, देसच्छेदो अ सव्वछेदो अ। मूला-ऽणवट्ठ-चरिमा, सव्वच्छेओ अतो सत्त।। 8. जीसू 83 / 9. आगाढम्मि य कज्जे, दप्पेण वि ते भवे छेदो। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 जीतकल्प सभाष्य * निष्कारण ही तप प्रायश्चित्त के अपराध स्थानों का निरन्तर तीन बार अतिक्रमण करने पर उस मुनि के पांच अहोरात्र के संयम-पर्याय का छेद होता है। * बार-बार प्रमाद का सेवन करने पर। भाष्यकार ने छेद प्रायश्चित्त को एक उदाहरण से समझाते हुए कहा है कि कोई वस्त्र कम घड़े से साफ हो जाता है, किसी वस्त्र को छह घड़े से अधिक पानी की आवश्यकता होती है तो उसे नदी, तालाब पर बाहर ले जाना पड़ता है, वैसे ही राग-द्वेष के कारण दोषों की वृद्धि होती है तो छेद आदि प्रायश्चित्त बाहर जाकर वस्त्र धोने के समान हैं। आज्ञाव्यवहार में छेद प्रायश्चित्त का गूढार्थ जब अनशन में स्थित कोई आचार्य किसी दूरस्थित छत्तीस गुणों से सम्पन्न आचार्य में अपने अतिचारों की विशोधि करना चाहते हैं तो वे आज्ञापरिणामक एवं धारणाकुशल शिष्य को उनके पास भेजते हैं। व्यवहारभाष्य में पणग से लेकर छह माह तक के छेद का प्रायश्चित्त आने पर उसका विस्तार से वर्णन किया है। पांच दिन-रात का छेद आने पर आचार्य संदेश भेजे कि अंगुल के छठे भाग जितने भाजन का छेद करो। दस रात-दिन जितना छेद आने पर संदेश भेजे कि अंगुल के तीसरे भाग जितने भाजन का छेद करो। पन्द्रह दिन-रात जितना छेद आने पर कहे कि अंगुल के आधे भाग जितने भाजन का छेद करो। बीस दिन-रात जितना छेद आने पर कहे कि तीन भाग कम अंगुल जितने भाजन का छेद करो। पच्चीस दिन-रात का छेद आने पर कहे कि छह भाग न्यून अंगुल जितने भाजन का छेद करो। एक मास जितना छेद आने पर कहे कि पूर्ण अंगुल जितने भाजन का छेद करो, दो मास जितना छेद आने पर आचार्य कहे कि दो अंगुल जितने भाजन का छेद करो, चार मास जितना छेद आने पर आचार्य कहे कि चार अंगुल जितने भाजन का छेद करो तथा छह मास जितने छेद का प्रायश्चित्त आने पर कहे कि छह अंगुल जितने भाजन का छेद करो।' 8. मूल प्रायश्चित्त जिस पाप का सेवन करने पर पूर्व पर्याय का पूर्णतः छेद करके पुनः महाव्रतों का आरोपण किया जाता है, वह मूलाई प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त प्रगाढ़ अपराध करने पर प्राप्त होता है। 1. व्यभा 127; एतेसिं अण्णतरं, निरंतरं अतिचरेज्ज तिक्खुत्तो। निक्कारणमगिलाणे, पंच उ राइंदिया छेदो।। 2. तवा 9/22 पृ. 622 / 3. व्यभा 505-08,511 / 4. व्यभा 4498, 4499 टी प.८८। 5. जीभा 726, षट्ध पु. 13/5, 4, 26 पृ. 62 ; सव्वं परियायमवहारिय पुणो दीक्खणं मूलं णाम पायच्छित्तं / 6. आवचू 2 पृ. 246, 247; मूलं पगाढतरावराहस्स मूलतो परियातो छिज्जति। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श . 165 मूल प्रायश्चित्त के स्थान व्यवहारभाष्य के अनुसार आउ प्रकार के मुनि मूल प्रायश्चित्त को प्राप्त करते हैं१. तप-अतीत-छह माह पर्यन्त तप करने पर भी जिसकी शुद्धि न हो। 2. अश्रद्धालु--तप से पाप की विशुद्धि नहीं होती, ऐसी श्रद्धा रखने वाला। 3. तप गर्वित-जो महान् तप से भी क्लान्त न होकर यह सोचता है कि मैं प्रतिसेवना करके तप कर लूंगा अथवा पाण्मासिक तप देने पर वह कहता है कि मैं अन्य तप करने में भी समर्थ हूं। 4. छेद-छेद प्रायश्चित्त से भी शोधि न होने पर अथवा यह गर्व करने पर कि मैं रत्नाधिक हूं, छेद देने पर भी मैं अवमरानिक नहीं बनूंगा। 5. दुर्बल-अधिक तप को वहन करने में असमर्थ / 6. अपरिणामी-इस छह मासी तप से मेरी शुद्धि नहीं होगी, ऐसा कहने वाला। 7. अस्थिर–अधैर्य के कारण पुनः पुनः प्रतिसेवना करने वाला। 8. अबहुश्रुत-अनवस्थाप्य या पाराञ्चित प्राप्त होने पर भी अगीतार्थ होने के कारण जिसे मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। जीतकल्पभाष्य के अनुसार जो दर्प से पञ्चेन्द्रिय का वध करता है, मैथुन सेवन करता है, इसी प्रकार मृषा, अदत्त और परिग्रह का बार-बार प्रयोग करता है, उसे मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। अतिपरिणामी, अतिप्रसंगी, मूलगुण और उत्तरगुणों को बहुविध और अनेक बार भंग करने वाला, ज्ञान दर्शन का त्याग करने वाला, सम्पूर्ण संयम तथा दशविध सामाचारी को पूर्णतः त्यक्त करने वाला तथा . : अनवस्थाप्य शैक्ष-इन सबको मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। जो साधु अत्यन्त अवसन्न हैं, दर्प से गृहलिंग या अन्य यूथिक लिंग को धारण करता है, गर्भाधान और गर्भ-परिशाटन करवाता है, उसको मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। जो मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी बार-बार अपने गण में उन्हीं अपराधों को करता रहता है, उसे भी मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। चूर्णिकार के अनुसार दशविध दर्प प्रतिसेवना करने पर मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। भगवती आराधना के अनुसार उद्गम आदि दोषों से युक्त पिण्ड, उपधि और शय्या का उपयोग करने वाला मूल प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है। अनगारधर्मामृत के अनुसार अपरिमित अपराध करने वाले १.व्यभा 502 / २.जीभा 2290-96 / 3. जीसू 85, 86 // 4. निभा 474 चू पृ. 159; दससु दप्पादिसु मूलं भवतीत्यर्थः। 5. भआ 290 / Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 जीतकल्प सभाष्य पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील और स्वच्छंद को यह प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 9. अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त जिस प्रतिसेवना में कुछ काल तक मुनि को पांचों ही मूल व्रतों में अनवस्थाप्य रखा जाता है अर्थात् पुनः दीक्षा नहीं दी जाती फिर तप का आचरण करने के पश्चात्, उस दोष से उपरत होने के बाद महाव्रतों की आरोपणा की जाती है, वह अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त है। इस प्रायश्चित्त में तत्क्षण ही व्रतों से अनवस्थाप्य किया जाता है। तत्त्वार्थभाष्य में उपस्थापन, पुनर्दीक्षा, पुनश्चरण तथा पुनर्वतारोपण को एकार्थक माना है।' भाष्यानुसारिणी में आचार्य सिद्धसेन ने अनवस्थाप्य और पाराञ्चित को उपस्थापन के अन्तर्गत माना है।' इस प्रायश्चित्त और वहन कर्ता साध में अभेद होने से इस प्रायश्चित्त का नाम भी उपचार से अनवस्थाप्य होता है। बृहत्कल्पसूत्र एवं भाष्य में पहले पाराञ्चित प्रायश्चित्त का वर्णन है, उसके बाद अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त वर्णित है, जबकि प्रायश्चित्त के क्रम में नवां अनवस्थाप्य तथा दसवां पाराञ्चित प्रायश्चित्त है। इसका कारण संभवत: यह होना चाहिए कि पाराञ्चित प्रायश्चित्त आचार्य की शोधि से सम्बन्धित है तथा अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त उपाध्याय की शोधि से सम्बन्धित है। अनवस्थाप्य के प्रकार __ अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के दो प्रकार हैं-आशातना अनवस्थाप्य और प्रतिसेवना अनवस्थाप्य। इन दोनों में चारित्र की भजना है। किसी अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त योग्य अपराध में पूरा चारित्र समाप्त हो जाता है और किसी में चारित्र का अंश बच जाता है। इसका हेतु है कि तीव्र और मंद अध्यवसाय तथा जघन्य और उत्कृष्ट अपराध / आशातना अनवस्थाप्य आशातना के मुख्य छह स्थान हैं-तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर और महर्द्धिक मुनि। इनमें तीर्थंकर और संघ की देश आशातना से उपाध्याय को अनवस्थाप्य प्राप्त होता है। शेष श्रुत आदि चारों पदों में एक-एक की आशातना करने और सर्व अशातना करने पर प्रत्येक का चतुर्गुरु (उपवास) तथा सबकी आशातना करने पर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।" 1. अनध. 7/55 / 2. जीभा 727. 728 // 3. तस्वोभा 9/22; उपस्थापनं पुनर्दीक्षणं पुनश्चरणं पुन- व्रतारोपणमित्यनर्थान्तरम। 4. त 9/22 भाटी 2 पृ. 253 / ५.बृभा 5058 / 6. बृभा 5059 टी पृ. 1350 ; आसायण पडिसेवी, अणवटुप्पो वि होति दुविहो तु। एक्केक्को वि य दुविहो, सचरित्तो चेव अचरित्तो।। 7. जीभा 2305, बृभा 5061 टी पृ. 1350, आशातना के विस्तार हेतु देखें भूमिका पृ. 177, 174 / Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 167 प्रतिसेवना अनवस्थाप्य तीन कारणों से साधु को प्रतिसेवना अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त मिलता है - 1. साधर्मिकों की चोरी करना। 2. अन्यधार्मिकों की चोरी करना। 3. हस्तताल-मारक प्रहार करना। साधर्मिक स्तैन्य अपने साथ रहने वाले साधर्मिकों के उपकरणों की चोरी करना साधर्मिक स्तैन्य है। साधर्मिक स्तैन्य दो प्रकार का होता है-सचित्त और अचित्त। अचित्त भी दो प्रकार से होता है-उपधि और भक्त की चोरी करना। सचित्त में शैक्ष का अपहरण करना। उपधि स्तैन्य गुरु किसी संघाटक को त्रिविध उपधि लाने का निर्देश दे, उपधि प्राप्त करके मार्ग में ही 'यह तुम्हारी है और यह मेरी है' इस प्रकार उसको विभाजित करके आत्मार्थ कर लेना उपधि स्तैन्य है। स्वयं उस उपधि को काम में लेने पर लघुमास, गुरु को उपधि निवेदित न करने पर या नहीं देने पर चतुर्लुघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। भाष्यकार का स्पष्ट निर्देश है कि सूत्रादेश से ऐसे मुनि अनवस्थाप्य होते हैं।' साधर्मिक स्तैन्य करने पर उपाध्याय को नवां तथा आचार्य को दसवां प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। दूसरे आदेश से यदि आचार्य साधर्मिक स्तैन्य की बार-बार प्रतिसेवना करता है तो उसको नवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। शेष मुनि को बार-बार प्रतिसेवना करने पर भी मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। व्यापारित स्तैन्य का एक प्रकार यह भी हो सकता है कि कोई श्रावक आचार्य को वस्त्र आदि लेने का निमंत्रण दें, उस समय आचार्य वस्त्र आदि उपधि लेने का प्रतिषेध कर दे, उस वस्त्र को देखकर कोई मुनि मायापूर्वक श्रावक के पास जाकर बोले कि मेरी उपधि जल गई है अतः आचार्य ने उपधि लाने के लिए मुझे आपके पास भेजा है। श्रावक से उपधि लेकर मुनि उपाश्रय में आकर गुरु को नहीं दिखाता। श्रावक जब आचार्य के पास दर्शनार्थ आता है तो सहज जिज्ञासा वश पूछता है कि आज किसकी उपधि जल गई थी, साधु हमारे यहां वस्त्र लेने आए थे। आचार्य उसको प्रत्युत्तर देते हैं कि किसी की उपधि दग्ध नहीं हुई। कौन मुनि बिना आज्ञा वस्त्र लेकर आया है, यह सुनकर भी श्रावक यदि अनुग्रह मानता है तो मुनि को चतुर्लघु, यदि श्रावक को अप्रीति होती है तो चतुर्गुरु 'यह साधु चोर है' ऐसा प्रचार हो जाता है तो मूल तथा 1. कसू 4/3, जीभा 2307 / २.जीभा 2308 / 3. जीभा 2316, 2317 / 4. जीभा 2417, 2418 / Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 जीतकल्प सभाष्य शेष साधुओं के लिए अन्य द्रव्यों के विच्छेद का प्रसंग आ जाने पर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि यथार्थ रूप में उपधि जली हो, उस समय गुरु शिष्य को उपधि लाने को भेजे और बीच में ही शिष्य उस उपधि को आत्मार्थ बना ले तो उसे चतुर्लघु तथा गुरु को निवेदन न करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। भाष्यकार के अनुसार सूत्रादेश से वह अनवस्थाप्य होता है। इसी प्रकार कोई आचार्य पात्रकबंधयुक्त उत्कृष्ट पात्र किसी अन्य आचार्य के पास भेजे, वह शिष्य लुब्ध होकर उस पात्र को आत्मार्थ कर ले तो उसे उपर्युक्त प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।' आहार स्तैन्य असंदिष्ट स्थापना कुल में जाकर आहार आदि लाना आहार स्तैन्य है। साधु गुरु की आज्ञा के बिना आहार लाए तो उसे लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। स्थापना कुल में जाकर मायापूर्वक श्रावक को भ्रम में डालकर यह कहे कि गुरु ने मुझे भेजा है, अतिथि और ग्लान आदि के लिए आया हूं। इस प्रकार माया करके आहार प्राप्त करने पर गुरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अथवा आहार आदि लाकर गुरु के समक्ष उसकी आलोचना नहीं करने पर गुरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। साधु का मायापूर्ण स्तैन्य श्रावक को ज्ञात होने पर भी यदि श्रावक अनुग्रह मानता है तो चतुर्लघु, यदि अप्रीति करता है तो चतुर्गुरु, यदि.श्रावक विपरिणत होकर गुरु और ग्लान के योग्य भक्तपान का विच्छेद करता है तो चतुर्गुरु, यदि क्षपक और अतिथि साधु के योग्य आहार नहीं देता है तो चतुर्लघु, बाल और वृद्धों के योग्य आहार न देने पर गुरुमास तथा शैक्ष और बहुभक्षी को आहार न देने पर लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। सचित्त शैक्ष आदि का स्तैन्य 'मैं अमुक साधु के पास दीक्षा ग्रहण करूंगा' इस भावना से कोई शैक्ष मार्ग में मिल जाए, उसका यदि कोई बीच में ही अपहरण कर ले तो यह सचित्त स्तैन्य है। कोई साधु संज्ञाभूमि में किसी शैक्ष साधु को एकाकी देखकर भक्तपान आदि से उसे अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयत्न करे तो उसकी भावना अशुद्ध है। यदि वह साधर्मिक की अनुकम्पा वश धर्मकथा करे या भक्तपान दे तो वह शुद्ध है। व्यक्त या अव्यक्त शैक्ष-अपहरण के छह स्थान होते हैं१. भक्त-प्रदान-शैक्ष का अपहरण करने के लिए या विपरिणत करने के लिए उसे भक्त-पान देना। 2. धर्म-कथा-प्रभावित करने के लिए धर्मकथा करना। 1. जीभा 2318-22 / 2. जीभा 2323, 2324 / 3. जीभा 2325,2326 बृभा 5072 / 4. जीभा 2328, 2329 / 5. जीभा 2331, 2332, बृभा 5086,5087 / Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 169 3. निगूहना वचन -शैक्ष को किसी स्थान पर छिपा देना। 4. व्याप्त करना -उसे किसी अन्य कार्य में लगा देना। 5. झंपना —पलाल आदि से ढ़क देना। 6. प्रस्थापन -किसी अन्य ग्राम में उसे प्रस्थित कर देना।' __ जिसके दाढ़ी मूंछ नहीं आई है, ऐसा अव्यक्त शैक्ष जिसका सहायक किसी कारणवश भक्तपान आदि लेने गया हो, उसको अपनी ओर आकृष्ट करने की दृष्टि से भक्तपान देने पर गुरुमास, धर्मकथा करने पर चतुर्लघु, निगूहन वचन बोलने पर चतुर्गुरु, व्याप्त करने पर षड्लघु, झम्पन –ढ़कने पर षड्गुरु तथा प्रस्थापन–स्वयं हरण करने पर छेद प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। व्यक्त शैक्ष के अपहरण सम्बन्धी पदों में साधु को चतुर्लघु से मूल पर्यन्त, उपाध्याय को चतुर्गुरु से अनवस्थाप्य पर्यन्त तथा आचार्य को षड्लघु से पाराञ्चित पर्यन्त प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। / ____ यदि कोई असहाय या एकाकी शैक्ष अमुक आचार्य के पास दीक्षित होने का संकल्प लेकर जा रहा हो, साधु को ज्ञात हो जाए कि यह अमुक आचार्य के पास जा रहा है। वहां यदि अव्यक्त शैक्ष को भक्तपान अथवा धर्मकथा आदि करे तो भक्तपान प्रदान करने का गुरुमास तथा धर्मकथा करने का चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है। असहाय और एकाकी शैक्ष होने से शेष निगूहन आदि चार पद वहां नहीं होते। इसी प्रकार स्त्री शैक्ष के अपहरण के बारे में जानना चाहिए।' . व्यक्त या अव्यक्त शैक्ष को अपहृत करने में निम्न दोष होते हैं - 1. आज्ञाभंग 2. अनंतसंसार की वृद्धि 3. बोधि-दुर्लभता 4. साधर्मिक स्तैन्य 5. प्रमत्त साधु की प्रान्त देवता द्वारा छलना 6. आपसी * कलह / अन्यधार्मिक स्तैन्य प्रतिसेवना अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का दूसरा कारण है-अन्यधार्मिक अथवा परधार्मिक स्तैन्य। यह दो प्रकार का होता है-लिंगप्रविष्ट तथा गृहस्थ / इन सबका स्तैन्य भी साधर्मिक स्तैन्य की भांति तीन प्रकार का होता है-आहार, उपधि तथा शैक्ष आदि। लिंग प्रविष्ट आहार स्तैन्य .कोई आहार लोलुप मुनि बौद्ध भिक्षुओं के जीमनवार में बौद्ध लिंग धारण करके भोजन करता है 1. जीभा 2339, बृभा 5076 / / . 2. जीभा 2340, बृभा 5077 / 3. जीभा 2341, 2342, बृभा 5078 / 4. बृभा 5080 / ५.जीभा 2344 / Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 जीतकल्प सभाष्य तो यह परधार्मिक आहार स्तैन्य है। उस समय यदि कोई उसे पहचान ले तो चतुर्लघु, यदि संघ की अवहेलना हो तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। लोग प्रवचन की अवहेलना करते हुए यह कहें कि ये जैन साधु भोजन के लिए ही प्रव्रजित होते हैं। इन्होंने कभी दान दिया ही नहीं। गृहवास में भी ये गरीब थे। इनके.शास्ता ने इनका गला नहीं दबाया और सब कुछ कर दिया। लिंग प्रविष्ट उपधि स्तैन्य कोई बौद्ध भिक्षु अपनी उपधि छोड़कर भिक्षार्थ गया, उस समय यदि साधु उसकी उपधि चुरा ले तो उसे चतुर्लघु, यदि बौद्ध भिक्षु मुनि को पकड़ ले तो चतुर्गुरु, राजकुल के सम्मुख उसे घसीटे तो षड्गुरु, यदि राजा न्याय करे तो छेद, यदि उसे पुनः गृहस्थ बना दे तो मूल तथा देश से निष्काशित करे अथवा अपद्रावण करे तो अंतिम पाराञ्चित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार उसे अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। यहां बृहत्कल्पभाष्य का अभिमत सम्यक् प्रतीत होता है क्योंकि यहां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का प्रसंग है। यह भी संभावना की जा सकती है कि चरिम शब्द से जिनभद्रगणि का अभिप्राय अनवस्थाप्य से ही हो। लिंग प्रविष्ट सचित्त स्तन्य ___ कोई साधु अव्यक्त क्षुल्लक अथवा क्षुल्लिका को उसके सम्बन्धी से पूछे बिना चुराकर ले जाए तो उसे चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। साधु को खींचने पर षड्गुरु, न्यायालय में ले जाने पर छेद, पश्चात्कृत (गृहस्थ वेश पहनाना) करने पर मूल, लोगों में उड्डाह–अपमान होने पर तथा हाथ-पैर काटे जाने पर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। व्यक्त क्षुल्लक अथवा क्षुल्लिका के लिए पृच्छा की अपेक्षा नहीं है। क्षेत्र और उसकी शक्ति को जानकर प्रव्रजित किया जा सकता है। यदि वह क्षेत्र शाक्य आदि से प्रभावित है अथवा राजभवन में उसका प्रभाव है तो पृच्छा के बिना दीक्षित करना अकल्प्य है। गृहस्थ स्तैन्य गृहस्थ से सम्बन्धी स्तैन्य भी तीन प्रकार का होता है। किसी गृहस्थ महिला के घर सुखाई हुई पिष्टपिंडिका को देखकर कोई क्षुल्लिका साध्वी बिना पूछे उसे चुरा ले, उसको ग्रहण करते हुए यदि गृहस्वामिनी देख ले, उस समय वह क्षुल्लिका साध्वी कुशलता से अन्य साध्वी के पात्र में डाल दे तो यह गृहस्थ से सम्बन्धित आहार स्तैन्य है। आहार स्तैन्य करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है लेकिन अन्य आचार्यों के आदेश के अनुसार आहार स्तैन्य करने वाला अनवस्थाप्य होता है। 1. जीभा 2352-54 / २.जीभा 2355-57 / 3. बृभा 5093 / 4. जीभा 2359, बृभा 5095 / Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 171 इसी प्रकार सूत्राष्टिका वस्त्र आदि ग्रहण करना उपधि स्तैन्य है। माता-पिता आदि ज्ञातिजनों से पूछे बिना अप्राप्तवय पुरुष को दीक्षित करना गृहस्थ सम्बन्धी सचित्त स्तैन्य है। जिसके कोई माता-पिता आदि अभिभावक न हों, अपरिगृहीत हो तथा बाल, जड्ड आदि दोष से रहित हो तो अव्यक्त को भी दीक्षित करना कल्प्य है। नारी प्रायः अपरिगृहीत नहीं होती। उसके पिता या पति से पूछे बिना दीक्षा देना स्तैन्य है। अदत्त या अपरिगृहीत नारी को दीक्षित करना कल्प्य है, जैसे-करकंडु की माता पद्मावती तथा क्षुल्लककुमार की माता यशोभद्रा। स्तैन्य ग्रहण के अपवाद __आहार के सम्बन्ध में भाष्यकार एक अपवाद बताते हुए कहते हैं कि स्वलिंगी के यहां पहले देहली पर भोजन की याचना करनी चाहिए, उनके द्वारा न देने पर बलात् भी ग्रहण किया जा सकता है। दुर्गम मार्ग या दुर्भिक्ष आदि कारणों से अदत्त आहार भी ग्रहण किया जा सकता है। आपवादिक स्थिति में सारी उपधियों की चोरी हो जाने पर अदत्त उपधि ग्रहण की जा सकती है। यदि अन्यतीर्थिक दारुण या दुष्ट स्वभाव के हैं तो प्रच्छन्न रूप से भी उपधि आदि ग्रहण की जा सकती है। परलिंगियों से आगाढ़ स्थिति में यदि याचना करने पर आहार आदि नहीं मिलता है तो प्रच्छन्न रूप से अदत्त ग्रहण किया जा सकता है। गृहस्थों से भी आपवादिक स्थिति में अदत्त ग्रहण किया जा सकता है।' शैक्ष अपहरण में अपवाद भाष्यकार के अनुसार आपवादिक स्थिति में पूर्वगत और कालिकानुयोग के अंशों का विच्छेद होने की स्थिति आ जाए, उसका ज्ञान किसी अन्य साधु को न हो तो उस ज्ञान की अव्यवच्छित्ति के लिए ग्रहण और धारणा में समर्थ शिष्य को भक्तपान आदि के माध्यम से विपरिणत किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में गृहस्थ तथा अन्यतीर्थिक के बालक अथवा बालिका का भी अपहरण किया जा सकता है। यदि संघ में कोई आचार्य पद धारण करने योग्य साधु न हो अथवा संघ के आचार्य अभ्युद्यत मरण अथवा गुरुविहार स्वीकार कर रहे हों तो शैक्ष का अपहरण कल्प्य है। जब अपहृत शैक्ष प्रावचनिक बन जाए, गुरु के कालगत होने पर गण को धारण करे, उस समय गण में अन्य शिष्य निष्पन्न हो जाए तो फिर उसकी स्वयं की इच्छा है कि वह वहां रहे या न रहे। यदि निष्कारण ही शैक्ष का अपहरण हो तो वह स्वयं पूर्व आचार्य के पास चला जाए। 1. जीभा 2360-63 / समय की विशेष परिस्थितियों की ओर संकेत करते हैं। 2. बृभा 5098 / वर्तमान में ये अपवाद विमर्शनीय हैं। 3. जीभा 2364, बुभा 5099, कथा के विस्तार हेतु देखें ५.जीभा 2369, 2370 / परि.२, कथा सं.५६,५७। 6. जीभा 2345-49, बृभा 5082-84 टी पृ. 1355, 4. जीभा 2365-67, भाष्य में उल्लिखित ये अपवाद उस 1356 / Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 जीतकल्प सभाष्य स्तैन्य करने पर सामान्य साधु, आचार्य और उपाध्याय के प्रायश्चित्त में भी अंतर रहता है। साधर्मिक स्तैन्य और अन्यधार्मिक स्तैन्य के प्रायश्चित्त और उनके बारे में मतान्तरों का भी भाष्यकार ने विस्तृत विवेचन किया है। हस्तताल प्रतिसेवना अनवस्थाप्य का तीसरा प्रकार है-हस्तताल देना। भाष्यकार ने इसकी तीन संदर्भो में व्याख्या की है 1. हस्तताल-हाथ से मारक प्रहार करना। 2. हस्तालम्ब-दुःख से पीड़ित प्राणियों के दुःख को अभिचारुक आदि मंत्रों से दूर करना। 3. अर्थादान–निमित्त आदि के द्वारा गृहस्थ के लिए अर्थ को उत्पन्न करना। हस्तताल दो प्रकार का होता है -लौकिक और लोकोत्तर / लौकिक हस्तताल में पुरुष के वध हेतु खड्ग का प्रयोग करने पर 80 हजार का गुरुक दण्ड होता था। यदि मारक प्रहार करने पर भी पुरुष की मृत्यु नहीं होती तो दण्ड की भजना थी। लोकोत्तर हस्तताल में जो साधु प्रद्वेषवश हाथ, पैर या यष्टि आदि से प्रहार करता है तो वह अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का भागी होता है। इसमें भी प्रहार करने पर यदि कोई नहीं मरता है तो दण्ड की भजना है। व्यक्ति के मर जाने पर अंतिम पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ___ आपवादिक स्थिति में शिष्य को शिक्षा देने के लिए कान मरोड़ना, सिर पर ठोला मारना, चपेटा देना-ये सब सापेक्ष हस्तताल हैं। मर्मस्थानों की रक्षा करते हुए गुरु ऐसा कर सकते हैं क्योंकि इसके पीछे गुरु की भावना परिताप देना नहीं, अपितु अविनीत और दुःशील शिष्य को सन्मार्ग पर लाना है। इसी प्रसंग को भाष्यकार लौकिक उदाहरण से समझाते हुए कहते हैं कि ऐहलौकिक सिद्धि हेतु शिल्प, लिपि, गणित आदि कला सीखने के लिए जैसे व्यक्ति लौकिक गुरु का भी अभिघात, तर्जना आदि दण्ड सहन करता है। वैद्य भी रोगी को उपालम्भ के साथ कटु औषधि देता है, वैसे ही पारलौकिक हित के लिए आचार्य पहले मधुर वचनों से सारणा करते हैं, बाद में कठोर अनुशासना करते हैं।' आपवादिक स्थिति का उल्लेख करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि चोर, श्वापद आदि का भय होने पर अथवा गण या गणी के अत्यन्त विनाश की स्थिति में गीतार्थ साधु शीघ्र ही हस्तताल का प्रयोग कर सकते हैं। उस समय शक्ति-प्रदर्शन करके पंचेन्द्रियवध करता हुआ भी कृतकरण मुनि दोष को प्राप्त नहीं होता क्योंकि उसका आलम्बन विशुद्ध होता है। वह अल्प हिंसा के द्वारा भी संघ की महान् सेवा करता है। 3. जीभा 2376-84 / १.बृभा 5124-27 / 2. जीभा 2375, बृभाटी पृ. 1360 / Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 173 ऐसा करने से तीर्थ की परम्परा अविच्छिन्न रहती है। उस स्थिति में यदि उसका प्राणान्त हो जाए तो बिना आलोचना किए भी वह आराधक होता है। यदि आगाढ़ कारण उपस्थित होने पर मुनि अपने सामर्थ्य या विद्यातिशय का प्रयोग नहीं करता तो वह विराधक कहा गया है। हस्तताल आदि का प्रयोग करने में उपाध्याय को नवां अनवस्थाप्य तथा आचार्य को दसवां प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अथवा पाराञ्चित प्रायश्चित्त योग्य अपराध करने पर भी उपाध्याय को अनवस्थाप्य तथा आचार्य को पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। हस्तालम्ब दुःख से पीड़ित प्राणियों के अशिव उत्पन्न होने पर, नगर पर चढ़ाई तथा रोमाञ्चकारी दुःख उत्पन्न होने पर नागरिक लोग परेशान होकर समर्थ आचार्य के पास जाते हैं। आचार्य या साधु मरण या दुःखभय से पीड़ित उन नागरिकों पर अनुकम्पा करके अचित्त प्रतिमा बनाकर अभिचारुक मंत्रों का जाप करते हुए उस प्रतिमा को मध्य से बींधते हैं। जिससे अशिव आदि उपद्रव दूर हो जाते हैं। इससे कुलदेवता भाग जाता है और देवकृत सारा उपद्रव शान्त हो जाता है। हस्तादान . हस्तादान को अर्थादान भी कहते हैं। निमित्त आदि के द्वारा अर्थ को उत्पन्न करना हस्तादान है। इस संदर्भ में भाष्यकार ने दो वणिक् और उज्जयिनी के आचार्य की कथा का उल्लेख किया है। अर्थादान में क्षेत्रतः अनवस्थाप्य किया जाता है। निमित्त से अर्थ को उत्पन्न करने वाला कोई पुरुष दीक्षा के लिए उद्यत हो जाए तो उस क्षेत्र में उसकी उपस्थापना नहीं होती क्योंकि पूर्वाभ्यास के कारण लोग उससे निमित्त पूछ सकते हैं / वह ऋद्धि के गौरव से, स्नेह या भय से लाभ-अलाभ का कथन कर सकता है। जैसे खुजली का रोगी खुजली किए बिना नहीं रह सकता है, वैसे ही वह ज्ञान परीषह को सहन नहीं कर सकता। इसलिए उस स्थान पर भावलिंग नहीं देना चाहिए। यदि आपवादिक स्थिति में किसी कारण से लिंग देना पड़े तो अशिव, दुर्भिक्ष आदि कारणों के उपस्थित होने पर उसे लिंग दिया जा सकता है फिर उसको अकेला नहीं छोड़ा जाता। लोगों के द्वारा निमित्त आदि पूछने पर वह कहता है कि मैं निमित्त भूल गया। उत्तमार्थसंथारे की स्थिति में उसको उसी क्षेत्र में लिंग दिया जा सकता है। हस्तताल आदि तीनों पद करने वाले को लिंग देने के विषय में भाष्य में विस्तृत चर्चा है। 1. जीभा 2386-91 / 2. जीभा 2416-18 / ३.जीभा 2393,2394, बृभा 5112,5113 / 4. कथा के विस्तार हेतु देखें परि . 2, कथा सं५८। ५.जीभा 2406-11 / 6. जीभा 2413-18, बृभा 5120-22 / Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 जीतकल्प सभाष्य अनवस्थाप्य का कालमान आशातना और प्रतिसेवना अनवस्थाप्य का जघन्य और उत्कृष्ट कालमान इस प्रकार हैअनवस्थाप्य जघन्य उत्कृष्ट आशातना छह मास एक वर्ष प्रतिसेवना एक वर्ष बारह वर्ष संघीय सेवा का प्रयोजन उपस्थित होने पर प्रतिसेवना अनवस्थाप्य का कालमान न्यून भी हो सकता है तथा प्रायश्चित्त से पूर्णतया मुक्त भी किया जा सकता। दिगम्बर-परम्परा में इस प्रायश्चित्त के दो रूप हैं–निजगणानुपस्थापन तथा परगणानुपस्थापन / जो स्तैन्य, मारक आदि प्रयोग करते हैं, उनको निजगणानुपस्थापन प्रायश्चित्त तथा दर्प से इन दोषों का सेवन करने वाले को परगणानुपस्थापन प्रायश्चित्त दिया जाता है। हस्तताल आदि करने वाले को तप अनवस्थाप्य दिया जाता है, जिसमें गच्छ में रहते हुए साधु को आलापन आदि दस पदों से बहिष्कृत कर दिया जाता है। अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्तकर्ता मुनि की धृति, संहनन आदि वे ही विशेषताएं हैं, जो पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त कर्ता की हैं। यदि साधु उन गुणों से युक्त नहीं है तो अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी उसे मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त मुनि गुरु के समक्ष प्रशस्त द्रव्य–वटवृक्ष आदि क्षीरवृक्षों के नीचे, प्रशस्त क्षेत्र-इक्षुक्षेत्र में, प्रशस्त काल-पूर्वाह्न तथा प्रशस्तभाव-चन्द्रबल और ताराबल के प्रबल होने पर आलोचना करके इस तप को स्वीकार करता है। इसके स्वीकार की विधि परिहार तप प्रायश्चित्त की भांति है।' अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त वाहक की देखभाल भिक्षु जिस आचार्य के पास अनवस्थाप्य या पराञ्चित प्रायश्चित्त वहन करता हैं, वे आचार्य प्रायश्चित्त वहन काल में प्रतिदिन उसकी देखभाल और सुखपृच्छा करते हैं। अस्वस्थ होने पर आहार आदि की व्यवस्था भी करते हैं। तप निर्वहन के बाद गृहीभूत और उपस्थापना उपस्थापना का अर्थ है-संयम के उच्च स्थान पर स्थापना अथवा प्रबलता से स्थापना अर्थात् 1. विस्तार हेतु देखें पारांचित प्रायश्चित्त पृ. 184, 185 / 2. बृभा 5129-31, देखें जीभा 2432-34 / 3. देखें इसी भूमिका का पृ. 147, 148 / 4. जीभा 2556 , व्यभा 1211, विस्तार हेतु देखें पाराञ्चित प्रायश्चित्त पृ. 182, 183 / Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 175 उपस्थापना - छेदोपस्थापनीय चारित्र है। उपस्थापना के संदर्भ में भाष्य साहित्य में तीन आदेश --मतान्तर मिलते हैं - दस, छह और चार। प्रथम आदेश के अनुसार दस उपस्थाप्य इस प्रकार हैं-१. दुष्ट पाराञ्चिक 2. प्रमत्त पाराञ्चिक 3. अन्योन्य प्रतिसेवी 4. साधर्मिक स्तैन्य अनवस्थाप्य 5. अन्यधार्मिक स्तैन्य अनवस्थाप्य 6. हस्तताल अनवस्थाप्य 7. दर्शनवान्त'-जिसने सम्पूर्ण सम्यक्त्व को वान्त कर दिया हो 8. चारित्रवान्त 9. त्यक्तकृत्यसंयम को त्यक्त करके जीवकाय का समारंभ करने वाला 10. शैक्ष / दूसरे आदेश के अनुसार छह उपस्थाप्य होते हैं-१. पाराञ्चिकत्रिक 2. अनवस्थाप्यत्रिक 3. दर्शनवान्त 4. चारित्रवान्त 5. त्यक्तकृत्य 6. शैक्ष / तीसरे आदेश के अनुसार चार उपस्थाप्य हैं-१. दर्शनवान्त 2. चारित्रवान्त 3. त्यक्तकृत्य ४.शैक्ष। अनवस्थाप्य और पाराञ्चित तप का काल पूर्ण होने अथवा कुलादि कार्य सम्पन्न होने पर उसकी उपस्थापना होती है। अर्थात् पुनः व्रतों का आरोपण किया जाता है। इस संदर्भ में कुछ आचार्यों का यह मंतव्य है कि उसको गृहस्थवेश देकर फिर उसकी उपस्थापना की जाती है। आचार्य यदि गृहस्थ वेश कराए बिना उपस्थापना देते हैं तो उन्हें चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है अथवा आज्ञा भंग आदि दोष होते हैं। पाराञ्चित तप प्रायश्चित्त में जब तक वह क्षेत्र के बाहर रहता है, तब तक गृहस्थलिंग नहीं दिया जाता। वसति में आने पर गृहलिंग दिया जाता है। . गृहस्थ वेश करने के संदर्भ में आचार्यों का मतभेद है। कुछ आचार्य मानते हैं कि स्नान आदि का वर्जन करके उसे केवल श्रेष्ठ गृहस्थ वेश पहनाया जाना ठीक है। कुछ दक्षिणात्य आचार्य मानते हैं कि मात्र वस्त्र युगल पहनाना पर्याप्त है। वह गृहस्थ वेश में परिषद् के मध्य आकर निवेदन करता है कि मुझे सम्बोध दें, मैं धर्म सुनना चाहता हूं। आचार्य उसे धर्म कहते हैं। धर्म श्रवण करके वह पुनः निवेदन करता है कि मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा रखता हूं, मुझे पुनः प्रव्रजित करने की कृपा करे। तत्पश्चात् मुनिवेश देकर उसे प्रव्रजित किया जाता है। 1. जब दर्शन और चारित्र का पूर्णतः वमन होता है, तब उपस्थापना होती है। देशत: वमन में उपस्थापना की भजना है। (जीभा 2035) 2. अनवस्थाप्य और पाराञ्चित का अन्तर्भाव दर्शनवान्त और चारित्रवान्त में हो जाता है। (जीभा 2033) ३.जीभा 2028 / 4. जीभा 2460 / ५.जीभा 2461 / ६.व्यभा 1210 मटीं प.५३ ; स च बहिर्यावत्तिष्ठति तावन्न गृहस्थः क्रियते किन्त्वागत......। 7. जीभा 2462, व्यभा 1207 / Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 जीतकल्प सभाष्य उसको श्रेष्ठ गृहस्थ के कपड़े क्यों पहनाए जाते हैं? अथवा वस्त्र युगल क्यों पहनाए जाते हैं? उसको परिषद् के मध्य में धर्मकथा क्यों कही जाती है? इन सब प्रश्नों को समाहित करते हुए आचार्य कहते हैं कि इन सबको करने से उसका तिरस्कार होता है। तिरस्कार होने से वह भविष्य में वैसे अतिचार का सेवन नहीं कर सकता। गण में अन्य साधुओं तथा शैक्ष मुनियों के मन में भय पैदा हो जाता है कि गृहस्थभूत होना धर्म से रहित होना है अतः उसका यह रूप किया जाता है। पांच कारणों से प्रायश्चित्ती को गृहीभूत नहीं किया जाता१. राजानुवृत्ति-यदि राजा का यह आग्रह हो कि इस मुनि को गृहस्थ न बनाया जाए अथवा उस भिक्षु ने किसी राजा को संघ के अनुकूल बनाया हो। 2. गण-प्रद्वेष-बिना गलती स्वगण ने द्वेषवश उसे यह प्रायश्चित्त दिलाया हो। 3. परमोचापन-अपने उपकारी आचार्य या भिक्षु को कठोर प्रायश्चित्त वहन करते देखकर अनेक शिष्य संघ या संयम छोड़ने के लिए उद्यत हो जाएं। 4. इच्छा-प्रायश्चित्त वहन कर्ता भिक्षु या अन्य अनेक शिष्यों का यह आग्रह हो कि गृहीभूत न किया जाए। 5. विवाद-उस प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में दो गणों में विवाद हो। बौद्ध-परम्परा में संघादिशेष प्रायश्चित्त की अनवस्थाप्य से आंशिक तुलना की जा सकती है। वहां इस प्रायश्चित्त-प्राप्ति के तेरह कारण बताए हैं। इस प्रायश्चित्त का विस्तृत वर्णन विनयपिटक में मिलता है।' अनवस्थाप्य और पाराञ्चित में अंतर अनवस्थाप्य और पाराञ्चित-दोनों में परिहार तप वहन किया जाता है लेकिन अनवस्थाप्य में बारह वर्ष तक गण में रहते हुए यह प्रायश्चित्त वहन किया जाता है लेकिन पाराञ्चित में परिहारतप वहन करता हुआ मुनि सक्रोश योजन प्रमाण क्षेत्र से बाहर अकेला रहता है। उत्कृष्ट अवधि बारह वर्ष पूर्ण होने पर उसको पुनः व्रतों में उपस्थापित किया जाता है।' 10. पाराञ्चित प्रायश्चित्त अञ्चु गतिपूजनयोः धातु से पाराञ्चित शब्द बना है। जिस प्रायश्चित्त को वहन कर साधु संसारसमुद्र के तीर अर्थात् निर्वाण को प्राप्त कर लेता है, वह पाराञ्चित प्रायश्चित्त है। जिस प्रतिसेवना में तप 1. जीभा 2464 / 2. व्यभा 1210 अग्गिहीभूतो कीरति, रायणुवत्तिय पदुट्ठ सगणो वा। परमोयावण इच्छा, दोण्ह गणाणं विवादो वा।। .. 3. विनयपिटक (महावग्ग 150 पृ. 140, 141) / 4. बृभा 712 टी पृ. 216 / Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 177 आदि के द्वारा क्रमश: अपराध को पार पाया जाता है, वह पाराञ्चित प्रायश्चित्त है। इसका दूसरा निरुक्त करते हुए आचार्य कहते हैं कि जो प्रायश्चित्त के पार को प्राप्त है अर्थात् अंतिम प्रायश्चित्त है, वह पाराञ्चित है।' इस तप की पूर्णता से साधु अपूजित नहीं होता अपितु श्रमण संघ में पूजित होता है, वह पाराञ्चिक/पाराञ्चित प्रायश्चित्त है। इस योग से प्रायश्चित्तवहन कर्ता साधु पाराञ्चिक कहलाता है। यदि कुल से निकालकर पाराञ्चित दिया जाता है तो वह साधु कुल पाराञ्चिक, गण से निकालने पर गण पाराञ्चिक तथा संघ से निकालने पर संघ पाराञ्चिक कहलाता है। पाराञ्चित के प्रकार अनवस्थाप्य की भांति पाराञ्चित प्रायश्चित्त दो कारणों से मिलता है अत: कारण में कार्य का उपचार करके पाराञ्चित प्रायश्चित्त के दो भेद होते हैं -1. आशातना पाराञ्चित 2. प्रतिसेवना पाराञ्चित। आशातना और प्रतिसेवना- दोनों के दो-दो भेद हैं-जघन्य और उत्कृष्ट। आशातना पाराञ्चिक जघन्यतः छह मास और उत्कृष्टतः एक वर्ष तक गच्छ से निर्मूढ़ रहता है। प्रतिसेवना पाराञ्चिक जघन्यतः एक वर्ष और उत्कृष्टतः बारह वर्ष तक संघ से निर्मूढ़ रहता है। आशातना और प्रतिसेवना-दोनों पाराञ्चित सचारित्री और अचारित्री दोनों प्रकार के हो सकते हैं। किसी अपराध पद का सेवन करने से सारा चारित्र नष्ट हो जाता है तथा किसी अपराध-सेवन से चारित्र का एक देश रह जाता है। इसका कारण परिणामों की तीव्रता, मंदता अथवा अपराध की गुरुता और लघुता है।" आशातना पाराञ्चिक आशातना के छह स्थान हैं -तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर और महर्द्धिक / जो इनकी आशातना करता है, वह आशातना पाराञ्चिक कहलाता है। . 1. तीर्थंकर आशातना- तीर्थंकर देवों द्वारा रचित समवसरण की अनुमोदना करते हैं, यह ठीक नहीं है। वे अतिशायी ज्ञान युक्त होने के कारण संसार के स्वरूप को जानते हैं, फिर भोगों को क्यों भोगते हैं? स्त्री होने के कारण मल्लिनाथजी को तीर्थंकर कहना अयुक्त है। तीर्थंकरों ने बहुत कठोर चर्या का निरूपण किया 1. जीभा 729 / 3. बृभा 4971 टी पृ. 1330 / 2. (क) जीभा 2540, प्रसाटी प. 218 ; यद्वा पारं-अंतं 4. जीभा 2514 / प्रायश्चित्तानां तत उत्कृष्टतरप्रायश्चित्ताभावादपराधानां ५.बृभा 5032 / वा पारमंचति-गच्छतीत्येवंशीलं पाराञ्चि तदेव ६.बृभा 4972 / पाराञ्चिकमिति। 7. बृभा 4973 (ख) बृभा 4971 टी पृ. 1330 ; अपश्चिमं प्रायश्चित्तं... सव्वचरित्तं भस्सति, केणति पडिसेवितेण तु पदेणं। तत् पाराञ्चिकं पाराञ्चितं वाभिधीयते। कत्थति चिट्ठति देसो, परिणामऽवराहमासज्ज।। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 जीतकल्प सभाष्य है, उसका पालन दुष्कर है-इस प्रकार के वचनों का प्रयोग करने से तीर्थंकरों की आशातना होती है। 2. प्रवचन आशातना-आक्रोश और तर्जना से संघ पर आक्षेप करना तथा यह कहना कि सियार, ढंक आदि के भी समूह होते हैं, वैसे ही यह संघ है। 3. श्रुत आशातना-आगमों में व्रत, प्रमाद तथा षट्काय आदि का वर्णन बार-बार एक जैसा आया है, यह अनुपयुक्त है। आगमों में ज्योतिष्विद्या तथा निमित्त-विद्या का वर्णन निष्प्रयोजन है, इससे मुनि को क्या लेना-देना? इस प्रकार कहना श्रुत की आशातना है।' 4. आचार्य आशातना -आचार्य स्वयं तो ऋद्धि, रस और सुविधा से युक्त जीवन जीते हैं लेकिन हमको कठोर जीवन और उग्र विहार का उपदेश देते हैं। ब्राह्मणों की भांति केवल अपना पोषण करते रहते हैं, ऋद्धियों के आधार पर जीते हैं फिर भी कहते हैं कि हम अप्रतिबद्ध हैं, इस प्रकार बोलने से आचार्य की आशातना होती है। 5, 6. गणधर और महर्द्धिक आशातना-इसी प्रकार तीर्थंकर के प्रथम शिष्य गणधर और महर्द्धिक की आशातना के बारे में समझना चाहिए। इनमें तीर्थंकर और संघ की देशतः या सर्वतः आशातना करने पर पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। श्रुत, आचार्य और महर्द्धिक की देशतः आशातना से प्रत्येक का चतुर्गुरु तथा सर्व आशातना से पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। एक भी प्रथम शिष्य-गणधर की आशातना से पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसका कारण यह है कि तीर्थंकर अर्थ के प्रणेता होते हैं और गणधर सूत्र के प्रणेता। प्रतिसेवना पाराञ्चिक __ बृहत्कल्पसूत्र के अनुसार तीन कारणों से साधु पाराञ्चित प्रायश्चित्त को प्राप्त करते हैं१. दुष्ट पाराञ्चिक-कषाय और विषय से दूषित। 2. प्रमत्त पाराञ्चिक-स्त्यानर्द्धि निद्रा लेने वाला। 3. अन्योन्यप्रतिसेवी पाराञ्चिक-गुदा और मुख से आपस में मैथुन सेवन करने वाला। जीतकल्पभाष्य में ये तीनों प्रतिसेवना पारांचित के भेद हैं।" दुष्ट पाराञ्चिक दुष्ट पाराञ्चिक दो प्रकार का होता है-१. कषायदुष्ट 2. विषयदुष्ट / कषायदुष्ट दो प्रकार का होता है-स्वपक्ष दुष्ट और परपक्ष दुष्ट / १.जीभा 2466-68 / 2. जीभा 2469 / ३.जीभा 2470 / 4. जीभा 2471, 2472 / 5. बृभा 4983, 4984, जीभा 2473, 2477 / 6. कसू 4/2 / 7. जीभा 2480 / ८.जीभा 2481 / Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 179 कषाय दुष्ट पाराञ्चिक कषाय दुष्ट में स्वपक्ष दुष्ट के भाष्यकार ने चार दृष्टान्त प्रस्तुत किए हैं।' दृष्टांतों में शिष्य का क्रोध चरम सीमा पर वर्णित है। गुरु के अनशन स्वीकार करने पर भी उनका क्रोध शान्त नहीं हुआ। प्रथम दृष्टान्त में कुपित शिष्य ने गुरु के मृत कलेवर के दांतों का भञ्जन कर दिया। दूसरे दृष्टान्त में शिष्य ने क्रुद्ध होकर गुरु का गला दबा दिया। तृतीय दृष्टान्त में शिष्य ने गुरु के मृत शरीर से दोनों आंखें निकाल दी तथा चतुर्थ दृष्टान्त में शिष्य ने आवेश में आकर गुरु के मृत कलेवर को डंडे से पीटा। जो स्वपक्ष में दुष्ट होता है, उसको लिंग नहीं दिया जाता। अतिशयज्ञानी भविष्य को जानकर उसे लिंग दे सकते हैं। जो राजा अमात्य आदि के वध में परिणत है, वह परपक्ष दुष्ट होता है, यह भी लिंगतः पाराञ्चिक होता है। यदि आचार्य भी राजवध में सहयोगी हैं तो उन्हें भी पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसी प्रकार जो श्रावक या अश्रावक स्वपक्ष या परपक्ष में दुष्ट हैं, उन्हें भी लिंग नहीं दिया जाता। अतिशयधारी उसे लिंग दे सकते हैं। दूसरे आदेश के अनुसार जो राजा, युवराज अथवा धनाढ्य आदि का वध करने वाला है, उसको स्वदेश में दीक्षा नहीं दी जाती, कषाय उपशान्त होने पर अन्य देश में दीक्षित किया जा सकता विषय दुष्ट पाराञ्चिक विषय दुष्ट की भी स्वपक्ष और परपक्ष की दृष्टि से चतुर्भगी होती है। प्रथम भंग-स्वपक्ष स्वपक्ष-संयत की तरुणी संयती में आसक्ति। द्वितीय भंग-स्वपक्ष परपक्ष –संयत की शय्यातर की लड़की या परतीर्थिक साध्वी में आसक्ति। तृतीय भंग-परपक्ष स्वपक्ष-गृहस्थ की तरुणी साध्वी में आसक्ति। * चतुर्थ भंग-परपक्ष परपक्ष-गृहस्थ की गृहस्थ स्त्री में आसक्ति। - इस चतुर्भंगी में प्रथम और द्वितीय भंग से ही साधु का सम्बन्ध है, इनको लिंग विवेक रूप पाराञ्चित प्रायश्चित्त मिलता है। तीसरे और चौथे भंग में विकल्प से अर्थात् उपशान्त होने पर अन्य देश में लिंग दिया जा सकता है। भाष्यकार के अनुसार यदि लिंग युक्त साधु लिंग युक्त समणी के साथ प्रतिसेवना करता है तो साधु के नरक आयुष्य का बंध होता है। वह सभी तीर्थंकरों की आर्याओं तथा संघ की आशातना करता है। आशातना से अबोधि प्राप्त होती है और वह अनंत संसार में परिभ्रमण करता रहता है। प्रकट रूप में प्रतिसेवना करने वाले को लिंग पाराञ्चित दिया जाता है। 1. दृष्टान्तों के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 59-62 / 4. बृभा 4996 / 2. जीभा 2483-89, बृभा 4988-93 / 5. बृभा 5006, 5007 टी पृ. 1337 / 3. जीभा 2503, बृभा 4994 / 6. जीभा 2508-11 / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 जीतकल्प सभाष्य विषय दुष्ट को उपाश्रय, क्षेत्र आदि से पाराञ्चिक किया जाता है। यदि वह विषय दोष से उपरत नहीं होता है तो उसे लिंग पाराञ्चित प्रायश्चित्त दिया जाता है। विषय प्रतिसेवना में यदि वह सामान्य स्त्री के साथ प्रतिसेवना करता है तो उसे अंतिम पाराञ्चित प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता, यदि वह पटरानी के साथ प्रतिसेवना करता है तो उसे क्षेत्र और लिंग दोनों से पाराञ्चिक किया जाता है। इसका कारण बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि अग्रमहिषी के साथ प्रतिसेवना करने पर कुल, गण, संघ और स्वयं का भी विनाश हो सकता है लेकिन सामान्य महिलाओं के साथ प्रतिसेवना करने पर स्वयं के चारित्र का विनाश तथा शरीर की हानि होती है। प्रमत्त पाराञ्चिक प्रमाद के कारण जिसको अंतिम प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह प्रमत्त पाराञ्चिक कहलाता है। प्रमत्त पांच प्रकार का होता है 1. कषाय प्रमत्त-क्रोध आदि चार कषायों से प्रमत्त। 2 विकथा प्रमत्त-स्त्री कथा, राजकथा आदि में प्रमत्त। * 3. मद्य प्रमत्त-पूर्वाभ्यास के कारण मद्य सेवन में प्रमत्त / 4. इंद्रिय प्रमत्त-श्रोत्र आदि पांच इंद्रिय-विषयों में प्रमत्त। 5. निद्रा प्रमत्त-स्त्यानर्द्धि निद्रा के कारण प्रमत्त। यहां मुख्यतः स्त्यानर्द्धि निद्रा प्रमत्त का प्रसंग है। जैसे जमी हुई बर्फ और घी में कुछ भी दिखाई नहीं देता है, वैसे ही जिस निद्रा में व्यक्ति का चित्त प्रगाढ़ मूर्छा से जड़ीभूत हो जाता है, कुछ भान नहीं रहता, वह स्त्यानर्द्धि निद्रा है। इस निद्रा के उदयकाल में व्यक्ति के भीतर वासुदेव से आधा बल आ जाता है। यह बात प्रथम संहनन की अपेक्षा से है। वर्तमान में यह कहा जा सकता है कि इस निद्रा में चार गुना बल आ जाता है। भाष्यकार ने स्त्यानर्द्धि निद्रा के पांच उदाहरण दिए हैं–१. पुद्गल-मांस 2. मोदक 3. कुम्भकार 4. दांत 5. वटवृक्ष। इन उदाहरणों के विस्तार हेतु देखें परि 2, कथा सं. 65-69 / जैसे ही आचार्य को ज्ञात होता है कि अमुक साधु स्त्यानर्द्धि निद्रा वाला है तो वे उसे कहते हैं कि तुम लिंग छोड़ दो क्योंकि तुम्हारे अंदर चारित्र नहीं है। अब तुम देशव्रत धारण करके श्रावक बन जाओ या 1. जीभा 2522-24 / 2. जीभा 2525 / 3. जीभा 2528 / 4. जीभा 2534 / ५.निचू 1 पृ.५६। 6. जीभा 2527-33, बृभा 5018-22 / Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 181 सम्यक्त्व स्वीकार करके दर्शन श्रावक बन जाओ अथवा इच्छानुसार रमणीय वेश धारण करो। यदि वह लिंग उतारना नहीं चाहता है तो संघ के सभी सदस्य मिलकर उसके लिंग का हरण करते हैं। कोई अकेला साधु यह कार्य नहीं करता क्योंकि इससे उसका व्यक्तिगत प्रद्वेष हो सकता है। यदि संघ में शक्ति सम्पन्न साधु न हों तो संघ उसे रात्रि में सोया छोड़कर अन्य स्थान पर चला जाता है। स्त्यानर्द्धि निद्रा वाला उसी भव में केवली हो सकता है, यह संभावना होने पर भी अनतिशायी ज्ञानी उसे पुनः लिंग नहीं देते। अतिशयज्ञानी अपने ज्ञान के बल से यह जान लेते हैं कि अब इसके इस निद्रा का उदय नहीं होगा तो वे उसे पुनः लिंग दे सकते हैं, अन्यथा नहीं देते। अन्योन्य प्रतिसेवना पाराञ्चिक ____ एक साधु का दूसरे साधु के साथ मुख और गुदा का सेवन अकल्प्य है। जो साधु यह कार्य करता है, वह अन्योन्य प्रतिसेवी कहलाता है। अन्योन्य प्रतिसेवी को लिंग पाराञ्चित दिया जाता है। यदि राजा या मंत्री आदि यह प्रतिसेवना करते हैं तो उन्हें संघ की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए लिंग पाराञ्चित प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता। ... इस प्रायश्चित्त को चार प्रकार से दिया जाता है, इस आधार पर इसके चार भेद भी होते हैं 1. लिंग पाराञ्चित 2. क्षेत्र पाराञ्चित 3. काल पाराञ्चित 4. तप पाराञ्चित। 1. लिंग पाराञ्चित–साधु का लिंग उतारना लिंग पाराञ्चित है। कषायदुष्ट, प्रमत्त-स्त्यानर्द्धि निद्रा वाला तथा अन्योन्य प्रतिसेवी को लिंग पाराञ्चित दिया जाता है। 2. क्षेत्र पाराञ्चित -जहां दोष उत्पन्न हुआ अथवा जहां दोष उत्पन्न होगा, यह जानकर उस क्षेत्र से दूर करना क्षेत्र पाराञ्चित है। विषयदुष्ट को क्षेत्र पाराञ्चित दिया जाता है। . 3. काल पाराञ्चित-जितने काल का तप दिया जाता है, वह काल पाराञ्चित है। 4. तप पाराञ्चित-आलाप आदि दश पदों से मुक्त होकर परिहार तप वहन करना तप पाराञ्चित है। इंद्रिय दोष और प्रमाद दोष से उत्कृष्ट अपराध का सेवन करने पर भी जो सरलता से यह संकल्प स्वीकार कर लेता है कि अब ऐसा नहीं करूंगा तो उसे परिहार तप पाराञ्चित दिया जाता है। तप पाराञ्चित स्वीकर्ता मुनि में निम्न विशेषताएं होनी आवश्यक हैं-वज्रऋषभसंहनन से युक्त, वज्रकुड्य के समान धृति वाला, नवें पूर्व की आचार वस्तु के सूत्रार्थ का ज्ञाता, लघुनिष्क्रीड़ित आदि तप से भावित, इंद्रिय-विषय और कषाय का १.जीभा 2536, बृभा 5023,5024 टी पृ. 1341,1342 / ४.जीभा 2546 / 2. बृभा 5026 टी पृ. 1342 / / 5. जीसू 100 / 3. बृभा 5027 टी पृ. 1342 / / Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 जीतकल्प सभाष्य निग्रह करने में समर्थ, प्रवचन के सारभूत अर्थ का ज्ञाता, निर्वृहित करने पर तिल तुष मात्र भी अशुभ नहीं सोचने वाला पाराञ्चित तप के लिए निर्वृहण के योग्य होता है। इन गुणों से रहित साधु को पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। आचार्य द्वारा पाराञ्चित तप का निर्वहन यदि आचार्य को पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तो वह कुछ समय के लिए अन्य साधु को गण का भार सौंपकर फिर अन्य गण में जाकर प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में आलोचना करके पाराञ्चित प्रायश्चित्त स्वीकार करते हैं। इस संदर्भ में बृहत्कल्पभाष्य में कुछ मतभेद है। उसके अनुसार गण निर्गमन रूप तप पाराञ्चित प्रायश्चित्त स्वीकार करने वाला नियमतः आचार्य ही होता है। आचार्य को अपने गण में तप पाराञ्चित स्वीकार न करने के कारणों का वहां विशद वर्णन है। अपने गण में पाराञ्चित तप वहन करने से अगीतार्थ साधुओं के मन में यह विश्वास हो जाता है कि आचार्य ने अवश्य कोई बड़ा अकृत्य सेवन किया है। इससे उनके मन में आचार्य के प्रति जो भय, संकोच और सम्मान होता है, वह समाप्त हो जाता है। वे उनकी आज्ञा का उल्लंघन भी कर सकते हैं। स्वगण पर उनका कोई नियंत्रण नहीं रहता। दूसरे गण में तप पाराञ्चित स्वीकार करने से इन दोषों की संभावना नहीं रहती, अर्हत् की आज्ञा-अनुपालन में स्थिरता रहती है और आत्मा में पाप के प्रति भय रहता है अत: आचार्य एक योजन दूर अन्य गण में पाराञ्चित तप स्वीकार करते हैं। क्षेत्र से वे जिनकल्प के समान चर्या का वहन करते हैं। अलेपकृद् आहार ग्रहण करते हैं। तृतीय पौरुषी में भिक्षा करते हैं तथा बारह वर्ष तक एकाकी रूप से ध्यान-स्वाध्याय में लीन रहते हैं।' पाराञ्चित प्रायश्चित्त में पांच आभवद् व्यवहार से उसका संघ के साधुओं के साथ सम्बन्ध नहीं रहता। पाराञ्चित तप-वहनकर्ता की देखभाल क्षेत्र पाराञ्चित तप वहन करने वाले की देखभाल हेतु आचार्य प्रतिदिन वहां जाते हैं। आचार्य वहां जाने से पहले शिष्यों को सूत्रार्थ की वाचना देते हैं फिर पाराञ्चित तप वहनकर्ता की वर्तमान की शारीरिक स्थिति की अवगति हेतु क्षेत्र के बाहर जाते हैं। प्रायश्चित्त वहन कर्ता को आश्वस्त करके आचार्य पुनः अपने गच्छ में आ जाते हैं। यदि आचार्य शारीरिक दृष्टि से असमर्थ हों अथवा सूत्र और अर्थ की वाचना दिए बिना प्रात:काल ही चले गए हों तो एक संघाटक पीछे से उनके लिए भक्तपान लेकर आता है।" सामान्यतया पाराञ्चित तप वहन कर्ता स्वस्थ हो तो भक्तपान, प्रतिलेखन, उद्वर्तन आदि कार्य 1. जीभा 2549-51, बृभा 5029-30 / 2. जीभा 2552, बृभा 5031 / / 3. जीभा 2555 / 4. बृभा 5033 टी पृ. 1343 / 5. बृभा 5034, 5035 टी पृ. 1344 / ६.व्यभा 650 / 7. जीभा 2556-58 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 183 स्वयं ही करता है लेकिन यदि किसी कारणवश पाराञ्चित तप को वहन करते हुए उसके रोग हो जाए तो उसकी पूर्णतः देखभाल तथा चिकित्सा की जाती है। साधुओं के अभाव में आचार्य स्वयं भक्तपान लेकर आते हैं तथा उद्वर्तन-परावर्तन आदि वैयावृत्त्य करते हैं। जो आचार्य ग्लानत्व की स्थिति में उसकी उपेक्षा करता है तो उसे चतुर्गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। यदि ग्लानत्व आदि कारण से आचार्य स्वयं नहीं जा सकें, अत्यधिक उष्णकाल हो, शारीरिक दौर्बल्य हो अथवा कोई संघीय कार्य उपस्थित हो गया हो तो आचार्य उपाध्याय को, उनके अभाव में योग्य गीतार्थ को वहां भेजते हैं। वह वहां जाकर आचार्य के न आने का कारण प्रकट करता है तथा उसकी शारीरिक स्थिति की पृच्छा करता है। पाराञ्चित तप वहन कर्ता द्वारा संघीय सेवा पाराञ्चित तप वहन करने वाला यदि वादी, क्षीरास्रव लब्धि युक्त अथवा विद्यातिशय से युक्त हो तो संघीय सेवा का प्रयोजन उपस्थित होने पर आचार्य उसको कहते हैं कि संघ के ऊपर आपदा आई है, तुम इस कार्य को सम्पन्न करने में कुशल हो। यदि किसी कारणवश आचार्य उसकी शक्ति से परिचित न हों तो वह स्वयं आचार्य को निवेदन करता है कि संघ के इस कार्य को मैं भलीभांति सम्पन्न कर सकता हूं। वह बड़ा कार्य भी मेरे द्वारा लघु हो जाएगा। राजा के द्वारा संघ में उपस्थित बाधा के ये कारण हो सकते है * वाद-पराजय से राजा कुपित हो गया हो। * चैत्य अथवा चैत्य द्रव्य उसके द्वारा बंधक हों। .. राजा द्वारा साध्वी आदि का अपहरण हुआ हो। * संघ को देश निकाला दिया हो। . बृहत्कल्पभाष्य में राजा द्वारा प्रद्विष्ट होने पर चार प्रकार की आपदाओं का उल्लेख है• देश निकाला देना। * * भक्तपान देने का निषेध करना। .. * उपकरणों का हरण कर लेना। * मार डालना या चारित्र का भेद करना। 1. जीभा 2559, 2560 / 2. बृभा 5037 टी पृ. 1344 / / 3. जीभा 2562, 2563 / 4. जीभा 2564-66 / 5. जीभा 2573, 2574 / ६.बृभा 3121 / Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 जीतकल्प सभाष्य ____ पाराञ्चित तप वहन कर्ता शब्द और तर्कशास्त्र में निपुण तथा अनेक विद्वत् सभाओं में अपराजित होता है। वह राजभवन में जाता है। द्वारपाल द्वारा रोके जाने पर वह कहता है-- 'हे द्वारपालरूपिन्! तुम जाकर राजरूपी को कहो कि एक संयतरूपी आपसे मिलना चाहता है। द्वारपाल राजा की आज्ञा प्राप्त करके उसे राजा के पास ले जाता है। राजा साधु को वंदना करके उसे सुखपूर्वक आसन में बिठाता है। राजा साधु से प्रतिहाररूपी, राजरूपी और संयतरूपी का अर्थ पूछता है। पाराञ्चिक मुनि इन शब्दों का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहता है कि जैसे इन्द्र आदि के आत्मरक्षक होते हैं, वैसा आपका यह द्वारपाल नहीं है इसलिए मैंने प्रतिहाररूपी- द्वारपाल के समान शब्द का प्रयोग किया। तुम भी चक्रवर्ती के समान राजा नहीं हो। चक्रवर्ती के पास चौदह रत्न होते हैं लेकिन न्याय और शौर्य में चक्रवर्ती के प्रतिरूप हो अतः मैंने राजरूपी शब्द का प्रयोग किया है। वास्तविक साधु अठारह हजार शीलाङ्गों को धारण करते हैं लेकिन मैं अतिचार सेवन के कारण श्रमणप्रतिरूपी हूं। अपनी बात को जारी रखते हुए वह पाराञ्चित तप वहन कर्ता साधु कहता है कि अभी मैं संघ से निष्कासित हूं अतः श्रमणों के क्षेत्र में नहीं रह सकता। वर्तमान में मैं प्रमाद से होने वाले अतिचार की तप से विशोधि कर रहा हूं। उसकी धर्मकथा और कथन शैली से आकृष्ट होकर राजा उससे राजभवन में आने का प्रयोजन पूछता है। मुनि उसे स्पष्ट शब्दों में आने का कारण बताता है। उसकी बात को सुनकर राजा कहता है कि तुम्हारे कथन से प्रभावित होकर मैं अपने पूर्व प्रतिबंधों को वापिस लेता हूं। राजा संघ को आमंत्रित करके उसकी पूजा करता है। इस प्रकार जिस प्रयोजन को संघ नहीं कर पाता, उस कार्य को वह अचिन्त्य प्रभाव युक्त पाराञ्चिक मुनि पूरा कर देता है। उस समय राजा संघ से प्रार्थना करता है कि मैं तुम्हारा यह प्रयोजन सिद्ध करता हूं, तुम पाराञ्चित तप वहन करने वाले मुनि को प्रायश्चित्त से मुक्त कर दो। राजा के कहने पर अथवा स्वयं संघ संतुष्ट होकर उस मुनि को प्रायश्चित्त से मुक्त कर सकता है। पाराञ्चित प्रायश्चित्त की समयावधि में अल्पीकरण जब प्रायश्चित्त वहन कर्ता मुनि राजा को प्रसन्न करके संघ पर आई किसी विपत्ति को दूर करता है, उस समय काल की दृष्टि से उसका प्रायश्चित्त तीन रूपों वाला हो सकता है• आदि अर्थात् प्रायश्चित्त प्रारम्भ ही हुआ हो। * मध्य- प्रायश्चित्त का मध्यवर्ती काल हो। * अवसान- प्रायश्चित्त का अंतिम समय चल रहा हो। 1. जीभा 2567-77, बृभा 5046-53 / 2. बृभा 5054 / Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 185 संघ उस समय देश, देशदेश अथवा सारा प्रायश्चित्त भी वहन करवा सकता है अथवा उसे सारे प्रायश्चित्त से मुक्त भी कर सकता है। कुल प्रायश्चित्त का छठा भाग देश कहलाता है। आशातना पाराञ्चित में छह मास का छठा भाग एक मास तथा बारह वर्ष का दो मास होता है। एक वर्षीय जघन्य प्रतिसेवना प्रायश्चित्त का छठा भाग दो माह तथा बारह वर्ष का छठा भाग चौबीस मास होता है, यह देश प्रायश्चित्त वहन का काल है। देशदेश प्रायश्चित्त के वहन काल में आशातना पाराञ्चित में छह मास का दसवां भाग अठारह दिन तथा वर्ष का दशवां भाग छत्तीस दिन होते हैं। प्रतिसेवना पाराञ्चित के जघन्य एक वर्ष का दसवां भाग छत्तीस दिन तथा उत्कृष्ट बारह वर्षों का दसवां भाग एक वर्ष बहत्तर दिन होते हैं। यह देशदेश प्रायश्चित्त का काल है। यदि प्रायश्चित्त वहन कर्ता अगीतार्थ या अपरिणामक है तो उसके समक्ष नवविध व्यवहार का विस्तार करके लघुस्वक प्रायश्चित्त दिया जाता है। पाराञ्चित प्रायश्चित्त के स्थान ___स्थानांग सूत्र के अनुसार पांच स्थानों में श्रमण पाराञ्चित प्रायश्चित्त का भागी होता है१. कुल में भेद डालने वाला। 2. गण में भेद डालने वाला। 3. कुल और गण के सदस्यों की हिंसा करने वाला। 4. छिद्रान्वेषी। 5. बार-बार प्रश्नायतनों का प्रयोग करने वाला। ... बौद्ध-परम्परा में पाराजिक प्रायश्चित्त के चार अपराध-स्थान हैं१. संघ में रहकर मैथुन सेवन करना। 2. बिना दी हुई वस्तु ग्रहण करना। 3. मनुष्य की हत्या करना। 4. बिना जाने अलौकिक बातों का दावा करना। .. वहां भिक्षुणी को भी आठ कारणों से पाराजिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1. जीभा 2578-87 / प्रश्नविद्या का प्रयोग। रस के द्वारा वस्त्र, कांच, अंगुष्ठ २.स्थाटी प. 286; प्रश्न-अंगुष्ठकुड्यप्रश्नादयः सावधा- आदि में देवता को बुलाकर अनेकविध प्रश्नों का हल नुष्ठानपृच्छा वा त एवायतनान्यसंयमस्य प्रश्नायतनानि करना। प्रयोक्ता भवति-प्रश्नायतन का अर्थ है-अंगुष्ठ आदि ३.स्था 5/47 / Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 जीतकल्प सभाष्य अंतिम दो प्रायश्चित्तों का विच्छेद प्रथम संहनन और चतुर्दशपूर्वी-इन दोनों का एक साथ विच्छेद हुआ। उनके विच्छेद होने पर अनवस्थाप्य और पाराञ्चित-ये दोनों प्रायश्चित्त भी विच्छिन्न हो गए। अनवस्थाप्य और पाराञ्चित के लिंग, क्षेत्र, काल और तप-इन चार भेदों में तप अनवस्थाप्य और तप पाराञ्चित का चौदहपूर्वी के साथ विच्छेद हो गया, शेष लिंग पाराञ्चित आदि प्रायश्चित्त तीर्थ की अवस्थिति तक रहते हैं। और भाष्य ग्रंथों के आधार पर दस प्रायश्चित्तों का संक्षिप्त वर्णन किया है। इस संदर्भ में तुलनात्मक दृष्टि से और भी अन्वेषण करने की अपेक्षा है। पाठ-संपादन की प्रक्रिया शोध कार्यों में पाठ-संपादन का कार्य महत्त्वपूर्ण होते हुए भी अत्यन्त जटिल, नीरस और श्रमसाध्य है। पाठ-निर्धारण का अर्थ इतना ही नहीं है कि प्राचीन प्रतियों के विभिन्न पाठों में एक पाठ को मुख्य मानकर अन्य पाठों को पाठान्तर के रूप में दे दिया जाए। पाठ-निर्धारण में अनेक दृष्टियों से सूक्ष्मता से विचार किया जाता है। पाश्चात्त्य विद्वानों ने पाठानुसंधान के कार्य को चार भागों में विभक्त किया है१. सामग्री-संकलन 2. पाठ-चयन 3. पाठ-सुधार 4. उच्चतर आलोचना। प्रस्तुत ग्रंथ के संपादन में चारों बातों का ध्यान रखा गया है। पाठ-संपादन में हमारे समक्ष निम्न आधार मुख्य रहे हैं * जीतकल्प एवं उसके भाष्य की हस्तलिखित प्रतियां, जिनमें एक ताड़पत्रीय प्रति भी सम्मिलित है। * जीतकल्प का व्याख्या साहित्य (जीतकल्प चूर्णि आदि) * जीतकल्पभाष्य की अनेक गाथाएं, जो पिण्डनियुक्ति, व्यवहारभाष्य, निशीथभाष्य और बृहत्कल्पभाष्य में मिलती हैं। पाठ-सम्पादन एवं पाठ-चयन में प्रायः प्रतियों के पाठ को प्रमुखता दी है लेकिन किसी एक प्रति को ही पाठ-चयन का आधार नहीं बनाया है और न ही बहुमत के आधार पर पाठ का निश्चय किया है। अर्थ-मीमांसा का औचित्य, उस गाथा पर अन्य ग्रंथों की टीका और पौर्वापर्य के आधार पर जो पाठ संगत लगा, उसे मूल पाठ के अन्तर्गत रखा है। पाठ-सम्पादन के कुछ मुख्य बिन्दुओं को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है• कहीं-कहीं किसी प्रति में कोई शब्द, चरण या गाथा नहीं है, उसका पादटिप्पण में x के चिह्न से निर्देश कर दिया है। जहां पाठान्तर एक से अधिक शब्दों पर या एक चरण में है, उसे '' चिह्न से दर्शाया है। 1. जीसू 102, जीभा 2588, 2589 / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 187 * प्राचीनता की दृष्टि से जहां कहीं मूल व्यञ्जनयुक्त पाठ मिला, उसे मूल में स्वीकृत किया है लेकिन पाठ न मिलने पर यकार श्रुति वाले पाठ को भी स्वीकृत किया है। जैसे तित्थगर - तित्थयर। तकारश्रुति वाले पाठ को हमने प्राथमिकता नहीं दी है, जैसे-कातो, कणतो, विणतो आदि। * लिपिकार की भूल से जहां पाठभेद हुआ है, उन पाठान्तरों का प्रायः उल्लेख नहीं किया है लेकिन जहां उस शब्द से अन्य अर्थ निकलने की संभावना थी, उन पाठान्तरों का उल्लेख किया गया है। * पाश्चात्त्य विद्वान् ल्यूमन ने दशवैकालिक एवं एल्फसडोर्फ ने उत्तराध्ययन का छंद की दृष्टि से अनेक स्थलों पर पाठ-संशोधन एवं पाठ-विमर्श किया है। छंद तकनीक को उन्होंने उपकरण के रूप में काम लिया है। जेकोबी ने छंद के आधार पर गाथा की प्राचीनता और अर्वाचीनता का निर्धारण किया है। उनके अनुसार आर्याछंद में निबद्ध साहित्य बाद का तथा वेद छंदों में प्रयुक्त गाथाएं प्राचीन हैं। सभाष्य जीतकल्प के सम्पादन में भी अनेक पाठ छंद के आधार पर निर्धारित किए हैं। गाथा में यदि आर्या के अतिरिक्त छंद का प्रयोग हुआ है तो उसका पादटिप्पण में उल्लेख कर दिया है। हस्तप्रति-परिचय * जीतकल्प भाष्य के सम्पादन में मुख्यतः इन प्रतियों एवं स्रोतों का उपयोग किया गया है(पा) यह प्रति श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर पाटण गुजरात से प्राप्त है। प्रति का लेखन समय लगभग 16 वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध होना चाहिए। इसकी क्रमांक संख्या 10056 तथा पत्र संख्या 90 है। इसके पत्र अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण हैं लेकिन प्रति के अक्षर मोटे, स्पष्ट एवं साफ-सुथरे हैं। इसके अंत में 'इति जीतकल्पभाष्यं परिसमाप्तमिति' // छ॥ का उल्लेख है। इस प्रति में जीतकल्पसूत्र की गाथाएं भाष्य गाथाओं के साथ लिखी हुई हैं। (ब) यह प्रति लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या 14841 है। यह प्रति भी साफ-सुथरी एवं स्पष्ट अक्षरों वाली है। इसमें कुल 55 पत्र है, जिसमें प्रथम पत्र अनुपलब्ध है। प्रति के अंत में लगभग दो पृष्ठों की प्रशस्तिपरक भूमिका है। लिपिकार ने इसके समय के लिए 'शशिमुनितिथिमिति वर्षे' का उल्लेख किया है। जिसका तात्पर्य है यह प्रति वि. सं. 1518 में लिखी गई है। पुष्पिका का अंतिम पद्य इस प्रकार है निजमानसमोदभराद् लेखितमुत्तमविचित्ररचनाद्यं। श्रीजीतकल्पभाष्यं, जिनोदितं तच्चिरं जयतात्॥ इति प्रशस्तिः॥ (ला) यह प्रति लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या 36 है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 जीतकल्प सभाष्य यह मोटे अक्षरों में लिखी गई साफ-सुथरी प्रति है। इसके 60 पत्र हैं। प्रति का अंतिम पत्र खाली है। प्रति के अंत में लिपिकार ने निम्न पट्टावलि का उल्लेख किया है। इति जीतकल्पभाष्यं परिसमाप्तं संवत् 1581 वर्षे श्री पत्तननगरे श्री खरतरगच्छे श्रीजिनवर्द्धनसूरि, श्रीजिनचन्द्रसूरि, श्रीजिनसागरसूरि, श्रीजिनसुंदरसूरि, पूज्य श्रीजिनहर्षसूरि पट्टे श्रीजिनचंदसूरि जीतकल्पभाष्यं समाप्तं। श्री // शुभं भवतु // छ / जीतकल्प भाष्यं अवलेख्यत // छ।' इसमें प्रति के प्रारम्भ में जीतकल्पसूत्र लिखा हुआ है, उसके बाद भाष्य की गाथाएं लिखी गई हैं। (ता) यह ताड़पत्रीय प्रति महावीर आराधना केन्द्र कोबा (अहमदाबाद) से प्राप्त है। इसका समय तेरहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। यह प्रति 762 गाथा से प्रारम्भ है। प्रारम्भ के पत्र लुप्त हैं। इस प्रति की क्रमांक संख्या 10356 है। ताड़पत्र से जेरोक्स होने के कारण प्रति के पाठान्तर व्यवस्थित नहीं लिए जा सके। फिर भी यह साफ-सुथरी और शुद्ध प्रति है। मु-पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित जीतकल्पभाष्य। चू-जीतकल्प पर लिखी गई चूर्णि के पाठान्तर। नि-निशीथभाष्य, प्रकाशित। व्य-व्यवहारभाष्य, प्रकाशित (जैन विश्व भारती, लाडनूं) बृ-बृहत्कल्पभाष्य, प्रकाशित। पंक-पंचकल्पभाष्य, प्रकाशित / पिनि-पिण्डनियुक्ति, प्रकाशित (जैन विश्व भारती, लाडनूं) ग्रंथ का अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा में अनुवाद करना अत्यन्त दुरूह और जटिल कार्य है। इसे आधुनिक भाषा में स्रोतभाषा या लक्ष्यभाषा कहा जाता है। जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है, वह लक्ष्य भाषा तथा जिस भाषा की सामग्री अनुदित होती है, वह स्रोतभाषा कहलाती है। अनुवादक का स्रोत और लक्ष्यभाषाइन दोनों पर पूरा अधिकार होना चाहिए। आधुनिक विद्वानों ने अनुवाद के चार भेद किए हैं- 1. शाब्दिक अनुवाद 2. शब्द-प्रतिशब्द अनुवाद 3. भावानुवाद 4. छायानुवाद इस ग्रंथ में शाब्दिक अनुवाद के साथ भावानुवाद और छायानुवाद का भी ध्यान रखा गया है। हर संभव प्रयत्न किया गया है कि अनुवाद सहज और सरल भाषा में प्रस्तुत हो तथा पाठक को ऐसा अनुभव हो कि मूल रचना ही पढ़ी जा रही है। जीतकल्प भाष्य का अनुवाद अभी तक कहीं से प्रकाशित नहीं हुआ है। इस ग्रंथ के अनुवाद में एक कठिनाई यह थी कि इस पर कोई टीका और चूर्णि नहीं थी अतः अर्थ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 189 निर्धारण में अत्यन्त श्रम करना पड़ा। व्याख्या-साहित्य के अभाव में संभव है कहीं-कहीं ग्रंथकार के मूल हार्द को नहीं पकड़ा गया हो। भाष्यकार द्वारा निर्दिष्ट कथाओं का अनुवाद भी प्रायः दूसरे व्याख्या- साहित्य से किया गया है। किसी ग्रंथ के आद्योपान्त अनुवाद का कार्य प्रथम बार किया है अतः संभव है इसमें कहीं त्रुटि रह जाए, विद्वत् समाज ज्ञान की इयत्ता को समझकर उन त्रुटियों पर ध्यान नहीं देगा। साध्वी श्री सिद्धप्रज्ञाजी ने न केवल आद्योपान्त इसका अनुवाद सुना है, अपितु अनेक स्थलों पर अपने अमूल्य सुझाव एवं क्लिष्ट स्थलों के अनुवाद का सहयोग देकर भी मुझे लाभान्वित किया है। उनके लिए मैं यही शुभकामना करती हूं कि वे भविष्य में निरामय रहकर इसी प्रकार आगम श्रुतयात्रा में सहयोगी बनती रहें। आगम-कार्य में नियोजन का इतिहास आज से 31 वर्ष पूर्व महावीर जयंती के अवसर पर युवाचार्य महाप्रज्ञ (वर्तमान आचार्य महाप्रज्ञ) का प्रवास लाडनूं था। आचार्य तुलसी उस समय पंजाब यात्रा पर थे। युवाचार्यश्री ने मुमुक्षु बहिनों एवं कुछ साध्वियों की गोष्ठी आहूत की। उस समय कुछ मुमुक्षु बहिनें पारम्परिक स्नातक एवं स्नातकोत्तर के अध्ययन में नियुक्त थीं। युवाचार्यवर ने पूछा-'तुम लोग डिग्री प्राप्त करना चाहती हो या आगम-कार्य करना चाहती हो?' मुमुक्षु बहिनों एवं साध्वियों ने एक स्वर में कहा-'हम आगम-कार्य करना चाहती हैं। उस समय साध्वियों के निर्देशन में पांच मंडलियां बनाई गईं। कार्य द्रुत गति से प्रारम्भ हो गया। लगभग एक वर्ष के पश्चात् कार्य में नियुक्त कुछ बहिनों की विलक्षण दीक्षा घोषित हो गई। उसमें एक नाम मेरा भी था। दीक्षित होने के बाद भी आगम-कार्य चलता रहा। लाखों कार्ड बन गए लेकिन कुछ कारणों से वह कार्य-सम्पन्नता की दिशा में आगे नहीं बढ़ सका। कार्य स्थगित होने पर भी इससे हमारा अनुभव बढ़ा और फलस्वरूप तीन कोश सामने आ गए -एकार्थक कोश, निरुक्त कोश तथा देशीशब्द कोश।। एकार्थक कोश की सम्पन्नता के पश्चात् सन् 1984 में पूज्यवरों ने नियुक्तियों के सम्पादन-कार्य में जोड़ा। उस समय पाठ-सम्पादन क्या होता है, इसका मुझे कोई अनुभव नहीं था। मन में सोचा कि यह अत्यन्त सरल कार्य है। दो-तीन महीनों में सारा कार्य सम्पन्न हो जाएगा। लगभग दो-तीन महीनों में टीका में प्रकाशित नियुक्तियों की प्रतिलिपि करके, उनके क्रमांकों में रही त्रुटियों को ठीक करके जोधपुर चातुर्मास में पूज्यवरों को फाइलें निवेदित की। उस समय कार्य देखकर गुरुदेव ने फरमाया-" अहमदाबाद में लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर में आवश्यक नियुक्ति पर काम हुआ है, उसे देखने से कार्य को एक दिशा मिल सकती है। अहमदाबाद में फाइलें देखकर मालवणियाजी ने कहा-"हस्तप्रतियों से पाठसंपादन और गाथाओं की प्राचीनता और अर्वाचीनता के बारे में समालोचनात्मक टिप्पण के बिना पाठसंपादन का कार्य अधूरा होता है। आपका यह कार्य विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं होगा। अभी तक नियुक्ति Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 जीतकल्प सभाष्य साहित्य पर विशेष काम नहीं हुआ है। उन्होंने समय-समय पर कार्य के लिए मार्गदर्शन भी दिया। हस्तप्रतियों को पढ़ने की कला कनुभाई सेठ ने एक दिन में सिखा दी, साथ ही नियुक्तियों की मूल हस्तप्रतियां भी निकालकर दे दी। प्रतिलिपि आदि करने में समणी सरलप्रज्ञाजी का भी मुझे सहयोग मिला। हम लोग सुबह 8 बजे से सायं 4 या 5 बजे तक लाईब्रेरी में बैठकर कार्य करते। उस समय मध्याह्नकालीन आहार भी कभी-कभी ही लिया। कार्य में तन्मयता और एकाग्रता इतनी हो गई कि समय का भान ही नहीं रहता। उसके बाद नियुक्तियों की गाथा संख्या के निर्धारण में मुनिश्री दुलहराजजी का आत्मीय सहयोग और मार्गदर्शन भी मिला। नियुक्तियों के बीच में ही भाष्य-साहित्य के सम्पादन का कार्य भी प्रारम्भ हो गया। पूना भण्डारकर इंस्टीट्यूट से प्रो. कलघटके जी ने आचार्यवर को निवेदन करवाया कि यदि व्यवहारभाष्य का सम्पादन हो जाए तो हमारे यहां चल रहे कोश-साहित्य तथा अन्यान्य शोधकार्य करने में सुगमता हो सकती है। उनके सुझाव पर पूज्यवरों ने ध्यान दिया और मुझे व्यवहारभाष्य के संपादन में नियुक्त कर दिया। पूज्यवरों की कृपा से वह कार्य सन् 1996 में प्रकाशित हो गया। ___ यद्यपि वर्तमान में आवश्यक नियुक्ति खण्ड-२ का कार्य करना अत्यन्त आवश्यक था लेकिन नियति की प्रधानता ही माननी चाहिए कि उसके पूर्व जीतकल्प सभाष्य का कार्य प्रकाश में आ रहा है। आचार्यवर से प्राप्त आशीर्वाद से यह दृढ़ विश्वास हो गया है कि अब आगम व्याख्या-साहित्य के अन्य ग्रंथों का कार्य भी द्रुतगति से हो सकेगा। पूज्य गुरुदेव तुलसी पाठ-सम्पादन के कार्य को अत्यन्त महत्त्व देते थे। प्रारम्भ में जब-जब इस कार्य के प्रति मेरे मन में अरुचि या निराशा के भाव जागते, मेरे हाथ श्लथ होते, गुरुदेव प्रेरणा और प्रोत्साहन देकर नए प्राणों का संचार कर देते। अनेकों बार उनके मुखारविन्द से यह सुनने को मिला-"देखो, आगम का कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह कार्य करने का अवसर किसी भाग्यशाली को ही मिलता है। इससे नया इतिहास बनेगा और धर्मसंघ की अपूर्व सेवा होगी।" आचार्य तुलसी ने अपने जीवन में नारी-विकास के अनेक स्वप्न देखे और वे फलित भी हुए। एक स्वप्न की चर्चा करते हुए उन्होंने बीदासर में (दिनांक 12/2/67) कहा-"मैं तो उस दिन का स्वप्न देखता हूं, जब साध्वियों द्वारा लिखी गई टीकाएं या भाष्य विद्वानों के सामने आएंगे। जिस दिन वे इस रूप में सामने आएंगी, मैं अपने कार्य का एक अंग पूर्ण समझूगा।" पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी का यह स्वप्न सार्थक नहीं हो सका लेकिन आचार्य महाप्रज्ञजी की प्रेरणा से उनके निर्देशन में इस दिशा में प्रयास जारी है। कृतज्ञता-ज्ञापन यह ग्रंथ अपने निर्धारित लक्ष्य से लगभग सात माह पीछे चल रहा है। उज्जैन यात्रा के बाद लगभग Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 191 तीन-चार महीनों तक इस कार्य में मन एकाग्र नहीं हो सका। उस समय पूज्यप्रवर द्वारा प्रदत्त कल्प सूत्र का अनुवाद प्रायः सम्पन्न हो गया। पुनः 23 नवम्बर 2009 को इसकी भूमिका लिखनी प्रारम्भ की। आज इसकी परिसम्पन्नता पर जो आत्मिक तोष और आनंद की अनुभूति हो रही है, वह अनिर्वचनीय है। __ इस ग्रंथ में जो कुछ अच्छा है, वह सब पूज्यवरों की कृपा, संघ की शक्ति और बुजुर्गों के आशीर्वाद से संभव हुआ है। ग्रंथ में जो कुछ त्रुटि रही है, उसमें मेरी अनवधानता, प्रमाद या ज्ञान की कमी आदि कारण रहे हैं। आचार्य तुलसी की अभीक्ष्ण स्मृति मुझे सतत कर्मशील बने रहने की प्रेरणा देती रहती है। परम पूज्य आचार्यप्रवर एवं श्रद्धेय युवाचार्यश्री का आशीर्वाद मुझे सतत शक्ति प्रदान कर लक्ष्य की ओर गति करने का पाथेय. देता रहता है। आदरणीया महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्री जी का आत्मीय वात्सल्य मुझे सदैव प्रसन्न और उत्साहशील बनाए रखता है। सम्माननीया मुख्य नियोजिका विश्रुतविभजी का समुचित व्यवस्थागत सहयोग इस कार्य को अस्खलित गति से आगे बढ़ाने में निमित्तभूत है। साध्वीश्री सिद्धप्रज्ञाजी के सहयोग का उल्लेख पहले किया जा चुका है। आदरणीया नियोजिकाजी मधुरप्रज्ञाजी का मधुर, निश्छल व्यवहार . एवं सभी समणियों का हार्दिक सहयोग सतत स्मर्तव्य है। जैन विश्वभारती के अधिकारियों का उदार सहयोग उल्लेखनीय है। इस कार्य के कम्पोजिंग और संदर्भ आदि मिलाने में कुसुम सुराणा, सुनीता, प्रीति, रीना आदि बहिनों का सहयोग विशेष महत्त्व का है। अब एक ही इच्छा है कि जीवन की अंतिम सांस तक धर्मसंघ की श्रीवृद्धि में इस जीवन के बहुमूल्य क्षण समर्पित करती रहूं, निस्पृह और निष्कामभाव से श्रुतयात्रा में यात्रायित होती रहूं। समणी कुसुमप्रज्ञा Page #194 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची 1. प्रवचन की व्याख्या। 31. पुद्गल की अपेक्षा अनंत प्रकृतियां। प्रवचन का निरुक्त। 32. अवधिज्ञान के दो भेद-भवप्रत्ययिक और प्रवचन की परिभाषा। क्षायोपशमिक। दशविध प्रायश्चित्त के वर्णन की प्रतिज्ञा। 33. भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान में हानि-वृद्धि नहीं। प्रायश्चित्त का निरुक्त। | 34. गुणप्रत्ययिक अवधि क्षयोपशम जन्य। निर्विगय आदि प्रायश्चित्त-दान तथा संक्षेप | 35. अवधिज्ञान का विषय अरूपी द्रव्य नहीं। शब्द के एकार्थक। 36. अवधिज्ञान की सीमा। जीतव्यवहार के नाम का ही उल्लेख क्यों? | 37, 38. अवधिज्ञान के छह भेद। पंचविध व्यवहार की प्ररूपणा। 39-42. अंतगत अवधि के त्रिविध भेद एवं उनकी आगम व्यवहार के दो भेद-प्रत्यक्ष और | उपमाएं। परोक्ष। 43. मध्यगत अवधि की उपमा। 10. प्रत्यक्ष आगम व्यवहार के द्विविध भेद। / 44, 45. मध्यगत और अंतगत अवधिज्ञान में भेद। 11. प्रत्यक्ष शब्द का निरुक्त। 46-49, अनानुगामिक अवधि के कथन की प्रतिज्ञा 12, 13. अक्ष शब्द का निरुक्त। एवं उसकी उपमा। 14. . प्रत्यक्ष के संदर्भ में वैशेषिक दर्शन की | 50-61. वर्धमान अवधि का स्वरूप-कथन। .. मान्यता का निरसन। 62. हीयमान अवधि का स्वरूप-कथन / 15,16. जीव विषय का ग्राहक है, इंद्रियां नहीं। | 63, 64. प्रतिपाती अवधिज्ञान का स्वरूप-कथन / 17-19. लिंग के एकार्थक तथा लिंग द्वारा इंद्रियों | 65. अप्रतिपाती अवधिज्ञान का स्वरूप-कथन। - को ज्ञान। ६६-७३.अवधिज्ञान के भेद-प्रभेद। 20-22. इंद्रिय प्रत्यक्ष से व्यवहार। 74-88. मनः पर्यव ज्ञान का स्वरूप-कथन एवं 23. नोइंद्रिय प्रत्यक्ष व्यवहार के तीन भेद। | भेद-प्रभेद। 24, २५.अवधिज्ञान आदि का संक्षिप्त-वर्णन करने | 89. मनःपर्यव ज्ञानी व्यवहार करने के योग्य। की प्रतिज्ञा। 90-108. केवलज्ञान का स्वरूप-कथन / 26. अवधिज्ञान की असंख्य प्रकृतियां। / 109. प्रत्यक्ष आगम-व्यवहारी के दो भेद। 27-30. अवधिज्ञान की असंख्य प्रकृतियां क्यों? | 110. आगम व्यवहारी कौन? आचार्य का समाधान। | 111-13. परोक्ष आगम व्यवहारी का वर्णन / Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य | 264. 114-24. केवली से श्रुतज्ञानी की तुलना एवं | 211-41. विनयप्रतिपत्ति के चार भेद एवं उनकी उनके द्वारा व्यवहार का प्रयोग। व्याख्या। . . 125, 126. आगमव्यवहारी के द्वारा व्यवहार का | 242-45. आगमव्यवहारी का स्वरूप। प्रयोग। 246-51. आलोचना के दश गुण एवं उनकी 127-29. आराधक कौन? व्याख्या। 130. आलोचना का महत्त्व। 252-54. आगम व्यवहारी के अन्यान्य गुण। 131-33. व्यवहार का प्रयोग द्रव्य, क्षेत्र, काल | 255-62. शिष्य की जिज्ञासा-वर्तमान में आगम आदि के आधार पर। व्यवहारी, चतुर्दशपूर्वी और चारित्र१३४-३८. दोष सेवन के सहसाकरण, अज्ञान शुद्धि का व्यवच्छेद। आदि कारण तथा उनकी व्याख्या। | 263. प्रायश्चित्त विच्छेद विषयक आचार्य 139, 140. आगम विमर्श का स्वरूप। का समाधान। 141. आप्त का स्वरूप-कथन। सूत्र और अर्थ का विमर्श। 142. तदुभय का स्वरूप। 265. निशीथ, कल्प और व्यवहार का 143-48. आगमव्यवहारी किसको प्रायश्चित्त नहीं | निर्वृहण नौवें पूर्व से। देते तथा किसको देते हैं? छेदसूत्रों के ज्ञाता की विद्यमानता। 149-59. प्रायश्चित्त देने के योग्य कौन? स्वपद प्ररूपणा आदि द्वार। 160. __अष्टविध गणिसंपदा के बत्तीस स्थान। | 268-72. आठ प्रायश्चित्तों की यथावत् अवस्थिति 161. आठ गणिसम्पदाओं के नाम। में चक्रवर्ती के प्रासाद का उदाहरण। 162-66. आचार-सम्पदा के चार भेद। | 273. परोक्ष व्यवहारी का प्रत्यक्ष व्यवहारी 167-70. श्रुत-सम्पदा के चार भेद। की भांति व्यवहार। 171-74. शरीर-सम्पदा के चार भेद। 274. प्रायश्चित्त के दश प्रकार। 175-78. वचन-सम्पदा के चार भेद। 275, 276. दश प्रायश्चित्तों की चतुर्दशपूर्वी तक 179-84. वाचना-सम्पदा के चार भेद। अवस्थिति। 185-91. मति-सम्पदा के चार भेद। 277. उसके बाद अंतिम दो प्रायश्चित्तों का 192-96. प्रयोगमति-सम्पदा के चार भेद। विच्छेद। 197-05. संग्रहपरिज्ञा-सम्पदा के चार भेद। | 278. आठ प्रायश्चित्तों की वार्तमानिक 206-10. बत्तीस एवं छत्तीस स्थानों से युक्त अवस्थिति के बारे में शिष्य की आचार्य ही व्यवहार करने के योग्य। | जिज्ञासा। 266. 267. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची 382. 279. आठ प्रायश्चित्त का विच्छेद कहने वालों | निषेध एवं उससे होने वाली हानियां। को प्रायश्चित्त। 374-77. संविग्न की मार्गणा का निर्देश। 280-84. पुलाक आदि पांच निर्ग्रन्थ और उनके | 378-80. अनेक निर्यापक रखने का निर्देश। प्रायश्चित्त। 381. अनशन की पारगामिता हेतु देवता या 285-90. सामायिक आदि पांच प्रकार के संयत | निमित्त का सहयोग। और उनके प्रायश्चित्त। कंचनपुर में देवता-रुदन का वृत्तान्त। 291. प्रायश्चित्त वाहक के संदर्भ में शिष्य | 383. पारगामिता का चिंतन किए बिना की जिज्ञासा। अनशन कराने में प्रायश्चित्त। 292-03. धनिक का दृष्टान्त और उसका उपनय।। 384-87. भक्तप्रत्याख्यान करने में काल विषयक 304-07. सापेक्ष प्रायश्चित्तं-दान। चिन्तन। 308-10. अनवस्था दोष में तिलहारक चोर का | 388. अनशन में व्याघात होने पर की जाने दृष्टान्त एवं उपनय। वाली विधि। 311-19. तीर्थ में ज्ञान और दर्शन की अवस्थिति | 389.. गुरु को पूछे बिना अनशन करने पर विषयक जिज्ञासा एवं समाधान। प्रायश्चित्त। 320, 321. निर्यापक के भेद एवं उनका अनशन | 390, 391. गच्छ को पूछे बिना अनशन कराने से से सम्बन्ध। होने वाली हानियां। 322-27. भक्तपरिज्ञा के कथन की प्रतिज्ञा एवं | 392-07. अनशनी और गच्छ के साधुओं की उसके भेद-प्रभेद। आपस में परीक्षा तथा कोंकणक और 328-31. भक्तपरिज्ञा के गण निःसरण आदि द्वार। | अमात्य का दृष्टान्त। 332, 333. गण निःसरण की विधि। 408-11. अनशनकर्ता की शोधि का उपाय३३४-३७. परगण में जाने की विधि। आलोचना। 338-40. तृतीय श्रिति द्वार की व्याख्या। | 412, 413. आलोचना करने के गुण। .341-55. संलेखना के प्रकार एवं उसका क्रम। | 414-20. दर्शन, ज्ञान और चारित्र सम्बन्धी 356-65. अगीतार्थ के पास भक्त परिज्ञा स्वीकार अतिचारों की आलोचना। करने का निषेध तथा उसकी हानियां।। 421, 422. शल्योद्धरण की विधि। 366-69. गीतार्थ की मार्गणा का निर्देश। | 423. आराधक कौन? 370-73. असंविग्न के पास भक्तप्रत्याख्यान का | 424-28. अनशनकर्ता के लिए निषिद्ध स्थल। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 429. अनशनकर्ता के लिए प्रशस्त स्थान। | 514. इंगिनीमरण अनशन का स्वरूप। 430, 431. आहार और पानक रखने का स्थान। | 515,516. इंगिनीमरण अनशनकर्ता की योग्यता। 432. अनशनकर्ता के समक्ष धर्मचर्चा का | 517-21. प्रायोपगमन अनशन के भेद एवं उसका निर्देश। स्वरूप-कथन। 433. निर्यापक के गुण। | 522-27. प्रायोपगमन अनशनकर्ता की दृढ़ता 434-37. निर्यापकों की संख्या एवं उनके कार्य। और भेद-विज्ञान के उदाहरण। 438-50. अनशनकर्ता को चरम आहार देने की | 528,529. आचार्य स्कंदक का वृत्तान्त। विधि एवं उसके गुण। / 530. प्रायोपगमन अनशनकर्ता के ध्यान की 451,452. अनशनी के प्रति प्रतिचारकों का कर्तव्य।। स्थिरता। 453. भक्तप्रत्याख्याता और निर्यापक के | 531. चाणक्य का उदाहरण। विपुल निर्जरा। 532, 533. चिलातपुत्र की सहनशीलता। 454-57. विपुल निर्जरा के चार स्थान। 534-39. प्रायोपगमन अनशन में कालासवैश्य 458-60. अनशनकर्ता का संस्तारक। पुत्र तथा अवंतीसुकुमाल आदि के 461, 462. उद्वर्तन आदि में निर्यापक का सहयोग।। उदाहरण। 463-75. अनशन में मानसिक समाधि उत्पन्न | 540. प्रायोपगमन अनशनकर्ता के भेदविज्ञान करने में निर्यापकों का दायित्व।। का चिन्तन। 476-90. अनशनकर्ता द्वारा आहार-पानी मांगने | 541. प्रायोपगमन अनशनकर्ता की गति। ___पर निर्यापकों का दायित्व। | 542-55. अनुकूल उपसर्गों में अनशनकर्ता की 491, 492. अनशनकर्ता के कालगत होने पर दृढ़ता। परिष्ठापन की विधि। 556. चतुर्दशपूर्वी का विच्छेद होने पर प्रथम 493-96. अनशन में व्याघात होने पर गीतार्थ द्वारा संहनन एवं प्रायोपगमन का विच्छेद। करणीय उपाय। 557. प्रायोपगमन अनशन का महत्त्व। 497. अपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान के कथन 558. वर्तमान में भी शोधि और शोधि करने की प्रतिज्ञा। वालों का अस्तित्व। 498. अपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान का स्वरूप।। 559. श्रुतव्यवहार के कथन की प्रतिज्ञा। 499-11. व्याघातिम बालमरण के हेतु। | 560. पंचविध व्यवहार का आचार्य भद्रबाहु 512. इंगिनीमरण अनशन और पांच तुलाएं। द्वारा निर्गृहण। 513. भक्तपरिज्ञा और इंगिनीमरण में अंतर। | 561, 562. कल्प और व्यवहार में निपुण कौन? Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची 563-65. श्रुतव्यवहारी कौन? 709. सर्व संवर और देश निर्जरा किसके? 566-68. आज्ञा व्यवहार की व्याख्या। | 710. मोक्ष के हेतु संवर और निर्जरा। 569-86. आज्ञा व्यवहार में नियुक्ति हेतु शिष्य | 711. संवर और निर्जरा का कारण-तप। की परीक्षा, आम्र और ईमली का / 712. तप का प्रधान अंग-प्रायश्चित्त। दृष्टान्त। 713. सम्बन्ध गाथा। 587. अतिचार के अठारह स्थान। 714. चारित्र का सार-निर्वाण। 588-35. दर्पिका एवं कल्पिका प्रतिसेवना के | 715. ज्ञान की विशुद्धि से चारित्र-शुद्धि / भेद एवं व्याख्या। 716, 717. चारित्र-विशुद्धि से निर्वाण। 636-54. आज्ञा व्यवहार के प्रयोग की विधि। 718. आलोचनार्ह प्रायश्चित्त का स्वरूप। 655-58. धारणा व्यवहार के एकार्थक तथा | 719,720. प्रतिक्रमणार्ह प्रायश्चित्त का स्वरूप। निरुक्त। 721. तदुभयार्ह प्रायश्चित्त का स्वरूप। 659-61. धारणा व्यवहार का प्रयोग किसके प्रति? | 722.. विवेकार्ह प्रायश्चित्त का स्वरूप। 662-74. धारणा व्यवहार प्रयोक्ता की विशेषता। | 723. व्युत्सर्गार्ह प्रायश्चित्त का स्वरूप / 675-81. जीतव्यवहार की परिभाषा एवं व्याख्या। | 724. तपोर्ह प्रायश्चित्त का स्वरूप। 682-86. जीतव्यवहार प्रयोग के कुछ उदाहरण। | 725. छेदार्ह प्रायश्चित्त का स्वरूप। 687-94. सावध और निरवद्य जीतव्यवहार की | 726.. मूलार्ह प्रायश्चित्त का स्वरूप। व्याख्या। 727,728. अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का स्वरूप। * 695-97. व्यवहार का उपसंहार एवं उसकी महत्ता। | 729,730. पाराञ्चित प्रायश्चित्त का स्वरूप एवं 698-701. पांचों व्यवहार के प्रयोग का क्रम। उसके भेद। द्रव्य, क्षेत्र के आधार पर जीतव्यवहार | 731. करणीय कार्यों का निर्देश? का सापेक्ष प्रयोग। 732,733. योग (क्रिया) शब्द का निरुक्त एवं - 703. विशोधि से समाधि। व्याख्या। 704. जीव शब्द का निरुक्त। 734. आलोचना से शुद्धि के स्थान। 705,706. प्रायश्चित्त से आत्मविशुद्धि। घाती कर्म के चार प्रकार। 707. संवर शब्द के एकार्थक एवं 736-39. निरतिचार मुनि को आलोचना की उसके प्रकार। आवश्यकता क्यों? 708. संवर और निर्जरा का स्वरूप। 740. आहार के चार प्रकार। 735. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 806. 741. उपधियों के प्रकार। | 791-96. वचनगुप्ति में साधु का उदाहरण। . 742-49. आहार शय्या आदि ग्रहण के सम्बन्ध | | 797-03. कायगुप्ति के दो उदाहरण / में शिष्य की जिज्ञासा एवं आचार्य का | 804. समिति की परिभाषा एवं उसके प्रकार। समाधान। 805. ईर्यासमिति का प्रमाद। 750-52. निर्गमन के अनेक कारण। भाषा समिति का प्रमाद। 753,754. अवनि आदि शब्दों का अर्थ। 807. एषणा समिति का प्रमाद। 755-57. निर्गमन के अन्य कारण। 808. आदान-निक्षेप समिति का प्रमाद। 758-60. सौ हाथ के भीतर या दूर जाने के कारण। | 809. निक्षेप शब्द का मिरुक्त। 761-63. श्लेष्म, प्रस्रवण आदि करने में | 810-12. प्रतिलेखन और प्रमार्जन की चतुर्भगी। आलोचना नहीं। 813, 814. प्रतिलेखन प्रमार्जन के प्रमादयुक्त छह 764. गच्छ से निर्गमन के दो हेतु-सकारण | भंग। और निष्कारण। 815, 816. उच्चार और प्रस्रवण का निरुक्त। 765, 766. सकारण निर्गमन के हेतु। 817-19. ईर्यासमिति में अर्हन्नक साधु का 767, 768. निष्कारण निर्गमन के हेतु। उदाहरण। 769. आलोचना कब? 820-23. भाषा समिति में साधु का उदाहरण। 770. आलोचना के दो प्रकार-ओघ और | 824. भाषा समित की विशेषता। विभाग। 825. एषणा समित का वैशिष्ट्य। 771-73. ओघ आलोचना का स्वरूप। 826-47. एषणा समिति में नंदिषेण का उदाहरण। 774,775. विभाग आलोचना कब? 848,849. आदान भंड निक्षेपणा समित का 776, 777. अन्य गण से आगत साधु के प्रकार। स्वरूप। 778. अन्य गण से आगत साधु की विभाग | 850-53. चौथी समिति में दो साधुओं का आलोचना। उदाहरण। 779.. उपसंपदा के पांच प्रकार। 854. परिष्ठापन समित की विशेषता। 780-83. विभागतः आलोचना का वर्णन। / 855-60. परिष्ठापन समिति में धर्मरुचि अनगार 784. गुप्ति शब्द का निरुक्त। का उदाहरण। 785. त्रिविध अगुप्ति। 861-71. आशातना की व्याख्या एवं उसके 786-90. मनोगुप्ति में जिनदास का उदाहरण। / प्रकार। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची 872-79. गुरु के प्रति होने वाले विनय के भेद | 933. संभ्रम और भय की व्याख्या। एवं उनकी व्याख्या। | 934. आतुर कौन? 880. सामाचारी के दश प्रकार। 935, 936. आपत्ति के चार प्रकार एवं उनकी 881-01. लघुस्वक सूक्ष्म के प्रकार एवं उनकी व्याख्या। व्याख्या। 937-41. परवशता के कारण एवं उसके 902. लघुस्वक अदत्त की व्याख्या। अतिचार। 903-05. लघुस्वक परिग्रह की व्याख्या। / 942. पिंडविशोधि आदि में अतिचार लगने 906-12. खांसी, छींक, वातनिसर्ग आदि की पर तदुभय प्रायश्चित्त। अविधि और यतना। 943. तदुभय प्रायश्चित्त का स्वरूप। 913. स्खलना के दो प्रकार। 944. आशंका होने पर तदुभय प्रायश्चित्त / स्खलना के स्थान। 945-48. सूत्र में आए दुश्चिन्तित आदि पदों की यतनामुक्त मुनि के स्खलना होने पर व्याख्या। मिथ्याकार प्रतिक्रमण। 949, 950. जीसू 15 में आए शब्दों की व्याख्या। अनाभोग की परिभाषा। 951, 952. उपयुक्त होने पर भी कर्मोदय से 917. सहसाकरण की परिभाषा। विराधना। . 918. सहसा अनाभोग में मिथ्याकार 953. दर्शन आदि में अतिचार लगने पर प्रतिक्रमण। तदुभय प्रायश्चित्त। .919, 920. शय्यातर बालक तथा ज्ञातिजनों से स्नेह | 954. विवेक प्रायश्चित्त के कथन की प्रतिज्ञा। करने पर मिथ्याकार प्रतिक्रमण। | 955. . पिण्ड शब्द का अर्थ। 921-28. भय के सात प्रकार एवं उनके प्रायश्चित्त। | 956, 957. पिण्ड के भेद-प्रभेद। 929. वियोग में शोक करने पर मिथ्याकार | 958. उपधि के प्रकार। प्रतिक्रमण। 959. शय्या की परिभाषा। बकुश के पांच प्रकार। 960. गीतार्थ कौन? कंदर्प आदि में वर्तन करने पर | 961,962. अशुद्ध आहार ग्रहण करने पर शुद्धि प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त। का विवेक। तीसरे तदुभय प्रायश्चित्त-कथन की | 963. कालातीत आहार का स्वरूप। प्रतिज्ञा। | 964-66. अध्वातीत आहार का विवेचन। 931.. 932 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प संभाष्य 978. 967-69. सूर्योदय और सूर्यास्त से सम्बन्धित | 1069-87. सामान्य जीतव्यवहार से सम्बन्धित आहार-विवेक। प्रायश्चित्त। 970, 971. ग्लान आदि के लिए आनीत आहार 1088-94. उद्गम दोष की व्याख्या। का विवेक। 1095-97. उद्गम दोष के सोलह भेद। 972, 973. साधु का गमनागमन विहार। 1098-95. आधाकर्म की व्याख्या एवं उसके 974, 975. समिति की विशुद्धि एवं श्रुत हेतु प्रायश्चित्त। व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त। | 1196-02. औद्देशिक की व्याख्या एवं उसके . 976, 977. दुःस्वप्न आदि की विशोधि में व्युत्सर्ग | प्रायश्चित्त। प्रायश्चित्त। 1203-15. पूतिकर्म की व्याख्या एवं उसके नौका के चार प्रकार। प्रायश्चित्त। 979, 980. नदी-संतार के चार प्रकार तथा उनका | 1216-18. मिश्रजात के भेद एवं उसके प्रायश्चित्त। प्रायश्चित्त। 1219-23. स्थापना दोष की व्याख्या एवं उसके 981. भक्त-पान आदि की व्याख्या। प्रायश्चित्त। 982, 983. अर्हत् की परिभाषा एवं उसके निरुक्त।। 1224-37. प्राभृतिका दोष की व्याख्या एवं उसके 984, 985. भक्त-पान तथा गमनागमन में 25 प्रायश्चित्त।, श्वासोच्छ्वास का प्रायश्चित्त। / 1238-40. प्रादुष्करण दोष की व्याख्या एवं उसके 986-88. उच्चार और प्रस्रवण शब्द के निरुक्त प्रायश्चित्त। तथा इनसे सम्बन्धित प्रायश्चित्त।। | 1241-44. क्रीतकृत दोष की व्याख्या एवं उसके 989, 990. प्राणातिपात और मृषावाद आदि से - प्रायश्चित्त। सम्बन्धित स्वप्न आने पर प्रायश्चित्त।। 1245-48. प्रामित्य एवं परिवर्तित दोष के भेद 991-94. उच्छ्वास का प्रमाण तथा प्रतिक्रमण एवं उनके प्रायश्चित्त। से सम्बन्धित प्रायश्चित्त। | 1249-57. अभिहत और उद्भिन्न दोष के भेद 995-30. ज्ञान से सम्बन्धित अतिचार और एवं उनके प्रायश्चित्त। प्रायश्चित। 1258-69. पिहित दोष की व्याख्या एवं उसके 1031-36. आगाढ़ और अनागाढ़ योग की व्याख्या।। प्रायश्चित्त। 1037-68. दर्शनाचार के आठ प्रकार एवं उनसे | 1270-73. मालापहृत दोष की व्याख्या एवं सम्बन्धित प्रायश्चित्त। उसके प्रायश्चित्त। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची 1274. आच्छेद्य दोष के भेद एवं उसके एवं उनके कथानक। प्रायश्चित्त। 1398-11. मायापिण्ड में आषाढ़भूति का 1275-82. अनिसृष्ट दोष की व्याख्या एवं उसके कथानक। प्रायश्चित्त। 1412-17. लोभपिण्ड में सिंहकेशरक क्षपक का 1283-86. अध्वतर दोष के भेद एवं उसके कथानक। प्रायश्चित्त। 1418-20. क्रोधपिण्ड आदि का प्रायश्चित्त / 1287-04. कोटि की परिभाषा एवं उसके भेद- | 1421-36. संस्तवपिण्ड की व्याख्या एवं उसके प्रभेद। प्रायश्चित्त। 1305-12. आहार से सम्बन्धित द्रव्य, क्षेत्र आदि | 1437. विद्यापिण्ड और मंत्रपिण्ड का का विवेक। प्रायश्चित्त। 1313. उद्गम दोष गृहस्थ से तथा उत्पादन | 1438. विद्या और मंत्र में अंतर। दोष-साधु से सम्बन्धित। | 1439-43. विद्यापिण्ड में भिक्षु उपासक का 1314-18. उत्पादन के निक्षेप एवं उसकी व्याख्या। कथानक। 1319, 1320. उत्पादना के सोलह दोष। | 1444-47. मंत्रपिण्ड में पादलिप्त और मुरुण्ड 1321-24. धात्रीपिण्ड की व्याख्या एवं उसके राजा का कथानक। प्रायश्चित्त। 1448-57. चूर्णपिण्ड में चाणक्य एवं क्षुल्लकद्वय 1325-40. दूतीपिण्ड की व्याख्या एवं उसके का कथानक। . प्रायश्चित्त। 1458-67. योगपिण्ड में आर्य समित और ब्रह्म१३४१-४९. निमित्तपिण्ड की व्याख्या एवं उसके द्वीपवासी तापस का कथानक। प्रायश्चित्त। 1468-70. मूलकर्म के भेद एवं उनके प्रायश्चित्त / 1350-61. आजीवनापिण्ड की व्याख्या एवं 1471-76. ग्रहणैषणा के भेद एवं दोष / उसके प्रायश्चित्त। 1477-89. शंकित दोष की व्याख्या। 1362-83. वनीपकपिण्ड की व्याख्या एवं उसके | 1490-11. म्रक्षित दोष की व्याख्या एवं उसके प्रायश्चित्त। प्रायश्चित्त। 1384-93. चिकित्सापिण्ड की व्याख्या एवं | 1512-45. निक्षिप्त दोष की व्याख्या एवं - उसके प्रायश्चित्त। उसके प्रायश्चित्त। .1394-97. क्रोधपिण्ड एवं मानपिण्ड की व्याख्या | 1546-56. पिहित दोष के प्रायश्चित्त / Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य . 1557-68. संहत दोष के प्रायश्चित्त। 1732-41. उपधि के गिरने, विस्मृत आदि 1569-81. वर्जनीय दायक एवं उनके प्रायश्चित्त। | होने पर प्रायश्चित्त। 1582-86. उन्मिश्र दोष की व्याख्या। 1742-69. जीतव्यवहार से सम्बन्धित अन्य 1587-93. अपरिणत दोष की व्याख्या एवं उसके | प्रायश्चित्त। प्रायश्चित्त। 1770. पुस्तक पंचक और तृण पंचक 1594-99. लिप्त दोष की व्याख्या एवं उसके के प्रकार। प्रायश्चित्त। 1771, 1772. अप्रतिलेखित दूष्य पंचक। 1600-04. छर्दित दोष की व्याख्या एवं उसके 1773, 1774. चर्म पञ्चक के नाम। प्रायश्चित्त। 1775. स्थापना कुल में बिना आज्ञा जाने 1605-10. ग्रासैषणा के निक्षेप एवं उसके भेद पर प्रायश्चित्त। प्रभेद। 1776. वीर्य और गूहन शब्द के एकार्थक। 1611-20. संयोजना दोष की व्याख्या एवं उसके 1777-14. जीतव्यवहार से सम्बन्धित अन्य प्रायश्चित्त। प्रायश्चित्त। 1621-42. प्रमाण दोष की व्याख्या एवं उसके 1815-21. द्रव्य के आधार पर प्रायश्चित्तप्रायश्चित्त। दान। . 1643-48. अंगार दोष की व्याख्या एवं उसके 1822-25. क्षेत्र के प्रकार एवं उसके आधार प्रायश्चित्त। पर प्रायश्चित्त-दान। 1649-54. धूमदोष की व्याख्या एवं उसके 1826-30. काल के भेद एवं उसके आधार प्रायश्चित्त। पर प्रायश्चित्त-दान। 1655-70. कारण दोष एवं उसकी व्याख्या। 1671-74. पिण्डैषणा के 46 दोषों से शुद्ध भिक्षा | 182 1831-35. नवविध व्यवहार की व्याख्या। का निर्देश। 1936-38. भाव के आधार पर प्रायश्चित्त१६७५-२१. भिक्षाचर्या के दोषों से सम्बन्धित दान। प्रायश्चित्त। पुरुष के आधार पर प्रायश्चित्त 1722-26. धावण, क्रीड़ा आदि करने पर में अल्पता या अधिकता। प्रायश्चित्त। 1940, 1941. पुरुषों के विविध प्रकार। 1727-31. उपधि के जघन्य, मध्यम आदि तीन | 1942-59. परिणामक, अतिपरिणामक आदि भेद। शिष्यों की परीक्षा। 1939. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची 1960, 1961. धृति और बल के आधार पर / पुरुषों की चतुर्भगी। 2265-72. 1962-66. आत्मतर, परतर आदि पुरुषों के पांच प्रकार। 2273-77. 1967. कल्पस्थित, परिणत आदि पुरुषों | 2278-81. के आठ भेद। 1968. स्थिति के एकार्थक। 2282-89. 1969. छह प्रकार की कल्पस्थिति। | 2290-02. 1970-75. . स्थितकल्प एवं अनवस्थितकल्प | 2303-05. के भेद। 1976-91. आचेलक्य की व्याख्या। / 2306. 1992, 1993. औद्देशिक की व्याख्या। 2307. 1994-97. शय्यातरपिण्ड की व्याख्या। 1998-14. राजपिण्ड की व्याख्या। | 2308-50. 2015-18. कृतिकर्म की व्याख्या। 2019-24. पंचयाम और चातुर्याम की | 2351-71. व्याख्या। 2025-50.. पुरुषज्येष्ठ की व्याख्या। 2372-91. '2051-57.. प्रतिक्रमण की व्याख्या। 2058-94. मासकल्प की व्याख्या। 2392-94. 2095. स्थविरकल्प के दो प्रकार। 2096-11. पर्युषणाकल्प की व्याख्या। 2396-05. 2112-58. परिहारविशुद्धिकल्प का 2406-15. विवेचन। 2159-80. जिनकल्प का विवेचन। / 2416-23. 2181-94. स्थविरकल्प की व्याख्या। 2195-97. कल्पस्थित आदि को सापेक्ष | 2424-29. प्रायश्चित्त-दान का निर्देश। ___2198-64. भिक्षुओं के अनेक प्रकार और | 2430-64. उनके प्रति जीतव्यवहार। प्रतिसेवना की व्याख्या एवं प्रायश्चित्त। परिणाम के आधार पर प्रायश्चित्त / वैयावृत्त्यकर्ता मुनि के प्रायश्चित्त में अंतर। छेदार्ह प्रायश्चित्त की व्याख्या। मूलार्ह प्रायश्चित्त की व्याख्या। अनवस्थाप्य के दो भेद एवं उनकी व्याख्या। प्रद्विष्ट चित्त कौन? प्रतिसेवना अनवस्थाप्य के तीन भेद। साधर्मिक स्तैन्य की व्याख्या एवं उससे सम्बन्धित प्रायश्चित्त। अन्यधार्मिक स्तैन्य की व्याख्या एवं उससे सम्बन्धित प्रायश्चित्त। हस्तताल का वर्णन, उसके भेद, अपवाद एवं प्रायश्चित्त। हस्तालम्ब का स्वरूप। हस्तादान की व्याख्या। हस्तादान में दो वणिक् की कथा। हस्तादान करने वाले की उपस्थापना एवं प्रायश्चित्त। अनवस्थाप्य एवं पाराञ्चित में पुरुष भेद से भजना। अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के भेद एवं व्याख्या। पारिहारिक का विवेचन। 2395. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प. सभाष्य 2465-78. तीर्थंकर, प्रवचन आदि की 2542. आशातना करने पर पाराञ्चित | 2543-47. प्रायश्चित्त की प्राप्ति। 2479,2480. पाराञ्चित के तीन प्रकार। 2481. दुष्ट पाराञ्चित के दो भेद। / 2548. . 2482-89. स्वपक्ष-स्वपक्ष में कषाय दुष्ट | 2549-52. के चार दृष्टान्त। 2490-94. आचार्य के लिए आहार से | 2553-55. सम्बन्धित विशेष निर्देश। 2495-97. मंडलि-पात्र में डाला जाने वाला | 2556-64. आहार। 2498-2500. परपक्ष में का 2565-75. उदाहरण। 2501-06. परपक्ष-परपक्ष के प्रकार एवं | 2576-87. उसके प्रायश्चित्त। 2507-24. विषय दुष्ट की चतुर्भंगी, उसकी व्याख्या एवं प्रायश्चित्त। / 2588, 2589. 2525, 2526. प्रमाद के पांच प्रकार। 2527-36. स्त्यानर्द्धि निद्रा के पुद्गल आदि पांच उदाहरण एवं उनके | 2590-94. प्रायश्चित्त। 2595-01. 2537-41. अन्योन्य (गुदा-संभोग) 2602-05. प्रतिसेवक को पाराञ्चित 2606-08. प्रायश्चित्त। अनवस्थाप्य के दो प्रकार। दुष्ट आदि तीन प्रकार के पाराञ्चित तथा उनकी क्षेत्र और लिंग के आधार पर व्याख्या। तप पाराञ्चित किसको? पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त कर्ता की योग्यता। पाराञ्चित प्रायश्चित्त का कालमान। पाराञ्चित तप वहनकर्ता के प्रति आचार्य का कर्तव्य। लब्धिधारी पाराञ्चित के द्वारा की जाने वाली संघीय-सेवा। संघ-सेवा से उसके प्रायश्चित्तकाल में कमी या प्रायश्चित्तमुक्ति। आचार्य भद्रबाहु के बाद अनवस्थाप्य और पाराञ्चित प्रायश्चित्त का विच्छेद। जीतकल्प की व्याख्या। जीतकल्प प्रायश्चित्त के पात्र / अपात्र को वाचना देने का निषेध। जीतकल्प का महत्त्व। आदि Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 2. कयपवयणप्पणामो, वोच्छं पच्छित्त-दाणसंखेवं। जीयव्ववहारगतं, जीवस्स विसोहणं परमं॥१॥ पवयण दुवालसंगं, सामाइयमादि बिंदुसारंतं / अहव चउव्विध संघो, जत्थेव पतिट्ठियं नाणं // अहवा पगतपसत्थं, पहाणवयणं व पवयणं तेण। अहव' पवत्तयतीई, नाणादी पवयणं तेणं // जीवादिपयत्था वा, उवदंसिज्जंति जत्थ संपुण्णा। सो उवदेसो पवयण, तम्मि करेत्ता णमोक्कारं // वोच्छं वक्खामि त्ती, पच्छित्तं दसह एय उवरिं तु / वण्णेहामि सवित्थर, किं भणितं होति पच्छित्तं? // पावं छिंदति जम्हा, पायच्छित्तं ति भण्णते तेणं। पायेण वावि चित्तं२, सोहयती तेण पच्छित्तं // पणगादी आवत्ती, णिव्विगतियमादि एत्थ दाणं तु / संखेव समासो त्ति व, ओहो त्ति व होंति एगट्ठा // किं अत्थी अण्णे वी, ववहारा जेण जीतगहणं तु?। भण्णति चउरऽत्थऽण्णे, आगममादी इमे सुणसु॥ पंचविधो ववहारो, दुग्गतिभवमूरगेहिँ पण्णत्तो। आगम सुत आणा धारणा य जीते य पंचमगे / आगमतो ववहारो, सुणह जहा धीरपुरिसपण्णत्तो। पच्चक्खो य परोक्खो, सो वि य दुविधो मुणेतव्वो // 1. अहवा (पा)। २.चित्त इति जीवस्याख्येति (व्यमटी)। ३.विसोहए (व्य 35) / ४.पंचा 16/3 / 5. “गईय' (ला)। ६.संखेवो (पा)। 7. वचूरगेहि (व्य 4028) / ८.व्य 4029 / Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 जीतकल्प सभाष्य 10. पच्चक्खो वि य दुविधो, इंदियजो चेव नोयइंदियजो। इंदियपच्चक्खो ‘वि य, पंचसु" विसएसु णातव्वो' / जीवो अक्खो तं पति, जं वट्टति तं तु होति पच्चक्खं / परतो पुण अक्खस्सा, वटैंतरे होति पारोक्खं // असु वावण धाऊओ, अक्खो जीवो उ भण्णते णियमा। जं वावयए भावे, णाणेणं तेण अक्खो त्ति // अस भोयणम्मि अहवा, सव्वद्दव्वाणि भोगमेतस्स। आगच्छंती जम्हा, पालेति य तेण अक्खो त्ति॥... केसिंचि इंदियाई, अक्खाई तदुवलद्धि पच्चक्खं। तं 'तु ण जुज्जति जम्हा, अग्गाहगमिंदियं विसए / रूवादीविसयाणं, जीवो खलु इंदिएहिँ उवलभगो। जम्हा मतम्मि जीवे, ण इंदिया उवलभे विसयं // तम्हा विसयाणं खल, अग्गाहगमिंदियं हवइ सिद्ध। जं इंदिएहिँ नज्जति, तं नाणं लिंगियं होति / 17. लिंगं चिंध निमित्तं, कारणमेगट्ठियाइँ एनाई। जाणाति इंदिएहिं, जीवो धूमेण अग्गिं व्व॥ एवं खु इंदिएहिं, जं नज्जति लिंगियं तगं नाणं / तम्हा सिद्धं अक्खो, न इंदिया पंच सोयादी॥ एत पसंगाभिहितं, जहकण्हुइ * इंदियाइँ पच्चक्खं / अहुणा उ इंदिएहिं, णातूणं ववहरे इणमो॥ 20. ____ सोइंदिएण सोउं, तस्स व अण्णस्स वावि पडिसेवं / चक्खिदिएण पडिसेविज्जंतमणयारं // 21. धूवादिगंधवासे, मूइंगलियादियं व उद्दवितं। कंदादि व खज्जंतं, गंधो वि रसो वि तत्थेव // 1.x (ला)। 2. नेय' (व्य 4030) / 3. वच्चंतं (पा, ला)। 4. बृ 25 / ५.पुण (पा)। 6. गहिंदियं (पा)। 7. बृ 26, तु. विभा 91 / 8. दटुं (ला)। 9. मूतिंग (मु)। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ फासेणऽब्भंगियमादि, फासतो अप्पगासें णाऊणं / इंदियपच्चक्खेणं, इय णाऊणं ववहरंति // 23. नोइंदियपच्चक्खो, ववहारो सो समासतो तिविहो। ओहि-मणपज्जवे या, केवलणाणे य पच्चक्खे // 24. अच्छउ ता ववहारो, ओहीमादीण लक्खणं तिण्हं / संखेवतो उ एतं', अस्सुन्नत्थं इमं वोच्छं / / तत्थोहिणाण पढम, सामित्ता कम-विसुद्धिओ होति / तो तं वोच्छ बहुविहं, केत्तिय भेदा भवे तस्स? / / संखातीताओ खलु, ओधीनाणस्स सव्वपगडीओ। काई भवपच्चइया, खओवसमिया य काओ वि // 27. किह संखातीताओ, पगडी ओहिस्स? भण्णते जम्हा। अंगुलअसंखभागा, आरब्भ पदेसवुड्डीए / उक्कोसेण मसंखा, जा लोगा होति खेत्तमाणेणं५ / काले वाऽऽवलियाए, असंखभागाउ आरब्भ // समउत्तरवुड्डीए', उक्कोसेणं असंख जाव भवे। ओसप्पिणि'-उस्सप्पिणिसमयपमाणा भवे पगडी॥ 30. इय होंति असंखाओ, ओहिण्णाणस्स सव्वपगडीओ। संखातीतग्गहणा, ण केवलं होतऽसंखेज्जा // 31. ता होंति अणंताओ, पोग्गलकायत्थिकायमहिकिच्च। संखातीतं ति ततो, असंख अणंता य गहिता हु // 32. सो पुण ओही दुविधो, भवपच्चइओ खओवसमिओ य। देवाण नारगाण य, नियमा भवपच्चओ ओही२ // १.व्य 4031 / 2. एय (पा), वेय (ला)। 3. आवनि 23 / 4. वड्डीए (पा, ब, ला)। 5. "णेण (ला)। 6. "खभंगाउ (पा), "खवासाउ (ला)। 7. “वड्डीए (पा, ब, ला)। 8. x (ला)। . 9. होंति (ब, मु)। 10. किच्चं (ला)। 11. छंद की दृष्टि से यहां 'ऽणंता' पाठ होना चाहिए। 12. तु. नंदी 7 / Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 33. उप्पज्जमाणओ खलु, भवपच्चइओ हि जत्तिओ विसओ। सव्वं तं ओभासति, ण उ वुड्डी' णेव हाणी उ॥ 34. गुणपच्चइओ ओधी, गब्भजमणु-तिरिय-संखमाऊणं / कम्माण खयोवसमे, तयवरणिज्जाण उप्पज्जे // अवधी मज्जायत्थो, परिमितदव्वं तु जाणते तेणं / मुत्तिमदव्वे विसयो, ण खलु अरूवीसु दव्वेसु॥ अच्चंतमणुवलद्धा, 'वि ओहिणाणस्स' होति पच्चक्खा। ओहीणाणपरिणता, दव्वा असमत्तपज्जाया॥ तं. पुण ओहीणाणं, समासतो छव्विधं इमं होति। अणुगामि अणणुगामी, वडंत य हायमाणं च॥ पडिवाति अपडिवाती, छव्विधमेवं तु होति विण्णेयं / अणुगामिओ. उ दुविधो, अंतगतो चेव मज्झगतो // अंतगतो वि य तिविधो, पुरतो तह मग्गतो य पासगतो। पुरतो पुण अंतगतं, इमं तु वोच्छं समासेणं // 40. जह कोई तु मणुस्सोर, उक्कंचुडुलिं व दीव मणिमादी / काउं पुरतो गच्छति, पणुल्लयंतो व्व जह पुरिसो५ // मग्गतों अंतगतो ऊ, तह चेव य नवरि मग्गतो काउं / अणुकड्डमाणु गच्छति, अंतगतो मग्गतो एस१६ // पासगतंऽतगतो ऊ, चुडुलादि तहेव जाव तु मणिं तु। परिकड्डमाणु गच्छति, अंतगतं एत तिह भणितं७ // 43. से किं मज्झगतो? तं, जह पुरिसो कोइ चुडुलिमादीणि। काउं सिरम्मि गच्छति, मज्झगतो एस ओही तु॥ . 1. वड्डी (पा, ला)। 10. तु. नंदी 11 / 2. जेणं (ला, मु)। 11. मणूसो (ला)। 3. ओही (ला, मु)। 12. चडुलिं (ब)। 4. ओहिण्णाणपरिगया (बृ३३)। 13. च (पा), व्व (ब)। 5.4 (ला)। 14. मणिवादी (पा, ला)। 6. हीण्णाणं (ला)। 15. तु. नंदी 12 / 7. च्छव्विहं (पा, ब, ला)। 16. तु. नंदी 13 / 8. वाती (ला, ब)। 17. तु. नंदी 14 / 9. तु. नंदी 10 / १८.तु. नंदी 15 / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 17 44. मज्झगतंऽतगतस्स य, ओहिण्णाणस्स को पतिविसेसो?। पुरतो अंतगतेणं, जोयण' संखेज्जऽसंखा वा // ___ पुरतो जाणति पासति, एस विसेसो उ मज्झअंतगतो। एवं तु मग्गतो ई', पासगतो चेव बोधव्वो / __ अणुगामिओ उ ओही, एमेसो वण्णितो समासेणं / एत्तो उ अणणुगामी, ओहिण्णाणं इमाऽऽहंसु॥ 47. जह णाम कोइ पुरिसो, एग महं अगणिठाण काउं जे। तस्सेव य पेरते, परिघोलणहिंडमाणो' तु॥ 48. तं चेव अगणिठाणं०, तत्थ गतो पासती ण अण्णत्थ / एवं जत्थुप्पज्जति, तत्थ ठितो जाण पासति वि॥ 49. ण वि जाणति अण्णत्था, संखमसंखे उ जोयणे जो उ। ओही तु अणणुगामी, समासतो एसमक्खातो॥ 50. अज्झवसाणेहिँ पसत्थएहिँ सुहवद्धमाणचारित्ते / उवरुवरिं सुझंते, समंततो वड्डते ओही२॥ तत्थ जहण्णादी तू, जाव उ३ उक्कोस ओहिणाणं तु। वडुंते परिणामे, गाहाहिँ इमं तु वोच्छामि // 52. जावइया तिसमयाहारगस्स सुहमस्स" पणगजीवस्स। ओगाहणा जहण्णा, ओहीखेत्तं जहण्णं तु५ // सव्वबहुअगणिजीवा, णिरंतरं जत्तियं भरिज्जंसु६ / खेत्तं सव्वदिसागं, परमोही खेत्तणिद्दिट्ठो॥ . 1. जोयणं (पा)। 2. ज्जा (पा)। 3. तु. नंदी 16 / 4. यी (ब), ई पादपूरण रूप अव्यय है। 5. च्चेव (पा, ला)। 6. इमेसो (ब)। 7. कोइं (पा)। 8. 'ट्ठाण (ला, ब)। . 9. माणं (पा, ब)। १०."णिट्ठाणं (ब)। 11. नंदी सूत्र में 'वद्धमाण' के स्थान पर 'वट्टमाण' पाठ मिलता है। 12. तु. नंदी 18 / 13. य (पा)। 14. सुहम (पा, ब, ला)। 15. आवनि 28, नंदी 18/1, विभा 588 / 16. ज्जंतु (पा, ब)। 17. आवनि 29, नंदी 18/2, विभा 598 / Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 54. अंगुलमावलियाणं, भागमसंखेज्ज दोसु संखेज्जा। ... अंगुलमावलियंतो', आवलिया अंगुलपुहत्तं // 55. हत्थम्मि मुहुत्तंतो, दिवसंतो गाउयम्मि बोद्धव्वो। जोयण दिवसपुहत्तं, पक्खंतो पण्णवीसाए / 56. भरहम्मि अद्धमासो, 'जंबुद्दीवे य" साधिगो मासो। वासं तु मणुयलोगे, वासपुहत्तं च रुयगम्मि॥ संखेज्जम्मि तु काले, दीव-समुद्दा उ होंति संखेज्जा। कालम्मि असंखेज्जे, दीव-समुद्दा वि भइयव्वा / / 58. काले चतुण्ह वुड्डी', कालो भइयव्वु खेत्तवुड्डीए। वुड्डीय' दव्व-पज्जव, भइतव्वा खेत्त-काला उ॥ ___ सुहुमो य होति कालो, तत्तो सुहुमतरगं हवति खेत्तं / अंगुलसेढीमेत्ते, ओसप्पिणीओ असंखेज्जा // 60. तिसमयऽऽहारादीणं, गाहाणऽ?ण्ह वी सरूवं तु। वित्थरतो वण्णेज्जा, जहर हेट्ठाऽऽवस्सगे भणितं // 61. एवं तु वड्डमाणो, ओही उ समासतो समक्खातो। एत्तो परिहायंतं, ओहीणाणं इमं होति॥ 62. अज्झवसाठाणेहिं, अपसत्थेहि२ वट्टमाणचारित्ते। संकिस्समाणचित्ते, समंततो हायते ओही // पडिवयमाणो ओही, अंगुलभागं तु संखऽसंखं वा। अंगुलमेव पुहत्तं, हत्थ धणू जोयणे तह य॥ जोयणसयं सहस्सं, संखमसंखा व जाव लोगं तु / पासित्ताण पडेज्जा, ओहीणाणेद पडिवाती५॥ 1. अंगुलि (ब)। 8. आवनि 34, नंदी 18/7, विभा 617 / 2. आवनि 30, नंदी 18/3, विभा 608 / 9. x (पा)। 3. पण्णु' (ला, ब), आवनि 31, नंदी 184, विभा 609 / 10. नंदी 1848, आवनि 35, विभा 621 / 4. दीवम्मि (आवनि 32, विभा 610, नंदी 18/5), 11. जहा (पा)। ___ जंबूदी (पा)। 12. अप्प (ब)। ५.वि (पा, ब, नंदी 18/6, आवनि 33, विभा 615) / 13. तु. नंदी 19 / 6. वड्डी (ला)। 14. x (पा, ला)। 15. परिवा' (पा, ब, ला), तु. नंदी 20 / Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 19 65. से किं अप्पडिवातिं, ओहिण्णाणं तु? जो अलोगस्स। आगासपदेसं तू, एगमवी पासती जाव // __ असंखेज्जाइँ अलोगे, पमाणमेत्ताइँ लोगखंडाई। जाणति पासति य तहा, खेत्तोही एसमक्खातो' / 67. एसो अप्पडिवाई', ओही तु समासतो समक्खातो। सव्वं पेतं चउहा, दव्वादि समासतो वोच्छं / 68. रूवीदव्वे विसओ, दव्वोही खेत्ततो इमाऽऽहंसु। अंगुलअसंखभाग, उक्कोसेणं इमं वोच्छं / ___ असंखेज्जाइँ अलोगे, पमाणमेत्ताइँ लोगखंडाइं। . जाणति पासति य तहा, खेत्तोही एसमक्खातो॥ 70. कालतों ओहिण्णाणी, असंखभागं तु आवलीए उ। सव्वजहण्णं जाणति, पासति या सो उ नियमेणं // 71. उस्सप्पिणि-ओसप्पिणिकालमतीतं अणागतं चेव। उक्कोसेण वि जाणति, पासति या एस कालोही॥ भावतो ओहिण्णाणी, अणंतभावे अणंतभागं च। जाणति पासति य तहा, भावोही एसमक्खातो॥ 73. ओही भवपच्चइओ, खओवसमिओ य वण्णितो दुविधो। तस्स उ बहू विगप्पा, दव्वे खेत्ते य कालादी // ... 74. तं मणपज्जवणाणं, दुविधं तु समासतो समक्खातं / उज्जुमती विमलमती, दव्वादि चउव्विहेक्केक्कं // दव्वओं उज्जुमती तू, अणंतपदेसे अणंतखंधा ऊ। जाणति पासति ते च्चिय, वितिमिरसुद्धे तु विउलमती / / 1. यह गाथा सभी हस्तप्रतियों में इसी क्रम में मिलती है।६६ अवधि का क्षेत्र की दृष्टि से वर्णन किया है तथा 69 वीं .वी गाथा 69 वीं गाथा की संवादी है अतः इस क्रम में यह गाथा में सामान्य अवधिज्ञान का क्षेत्रतः उत्कृष्ट अवधि गाथा नहीं होनी चाहिए। विषय की दृष्टि से भी 65 का वर्णन है अतः इसे भाष्यगाथा के क्रम में रखा है। वों गाथा 67 वी गाथा से सम्बद्ध है / ग्रंथकार ने 67 वी 2. वादी (पा, ब, ला)। गाथा में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अवधि का संकेत 3. भागे (पा, ब)। दिया है। 69 वी गाथा में क्षेत्र अवधि का वर्णन है अतः 4. नंदी 22/1 / यह गाथा पुनरुक्त सी प्रतीत होती है लेकिन यहां संभावना ५.नंदी 23 / * यह की जा सकती है कि 66 वीं गाथा में अप्रतिपाती Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 76. खेत्ततों उज्जुमती तू, ऽहे लोगे जाव रतणपुढवीए। . जाणति पासति उवरिमहेट्ठिल्ले खुड्डपतरे तु॥ ___एते च्चिय अब्भहिते, विउलतराए उ मुणति पासति य। सुद्धवितिमिरतराए, विउलमती उज्जुमतिणो उ॥ उज्जुमती उड्डे ऊ, जोतिसियाणं तु जाव सव्वुवरि / जाणति पासति ते च्चिय, वितिमिरसुद्धे तु विउलमती॥ तिरियं उज्जुमती तू, उदधिदुगे तह य दीव अद्धहिए। पंचिंदियजीवाणं, सण्णीपज्जत्तगाणं .. तु॥ भावे मणोगिहगते, सव्वे जाणति मणिज्जमाणे तु। ते चेव य विमलतरे, वितिमिरसुद्धे तु विउलमती॥ णवर विसेसो तु इमो, अड्डाइयअंगुलेहि खेत्तं तु। तिरि-उड्डमहे अहियं, वितिमिरसुद्धं तु विउलमती॥ ___ कालतों उज्जुमती तू', जहण्ण-उक्कोसगे वि पलियस्स। भागमसंखेज्जइमं, अतीत एस्से व कालदुगे। जाणति पासति ते तू, मणिज्जमाणे उ सण्णिजीवाणं। ते चेव य विउलमती, वितिमिरसुद्धे तु जाणति उ / भावतों उज्जुमती ऊ, अणंतभावे उप मुणति पासति य। सव्वेसिं भावाणं, ते - नवरमणंतभागे उ॥ ते सव्वे विउलमती, विसुद्धतर-वितिमिरे तु भावतया। जाणति पासति य तहा, मणपज्जवणाण चउभेदं॥ 86. तं मणपज्जवणाणं, जेण विजाणाति सण्णिजीवाणं / दहूँ मणिज्जमाणे, मणदव्वे माणसं भावं // 1. हीए (पा, ब)। 2. इयं अंगु (पा)। 3. तु (मु)। 4. य (ब)। 5. च (पा)। ६.बृ 35 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87. पाठ-संपादन-जी-१ जाणति पिहुज्जणो' वि हु, फुडमागारेहि माणसं भावं। एसुवमा तस्स भवे, मणदव्वपगासिते अत्थे। मणपज्जवणाणं पुण, जणमणपरिचिंतितत्थपागडणं / माणुसखेत्तणिबद्धं, गुणपच्चइयं चरित्तवतो // उज्जुमती' विउलमती, जे वटुंती सुतंगवी धीरा। मणपज्जवणाणत्थे, जाणसु ववहारसोधिकरें / पंकसलिले पसादो, जह होति कमेण तह इमो जीवो। आवरणे . झिज्जंते, विसुज्झती केवलं जाव // केवल' संभिण्णं तू, लोगमलोगं तु पासती नियमा। तं नत्थि जं ण पासति, भूतं भव्वं भविस्सं च॥ 92. सव्वेहि जियपदेसेहिं, जुगवं जाणति पासती'। . दंसणेण य णाणेणं, पदीवो अब्भयस्स वा // __ अंबरे व कतो संतो, तं सव्वं तु. पगासती। एवं उवणओ होति, संभिण्णं तु जं वयं // ___ 94. तं च लोगमलोग१२ च, सव्वतो पुव्वमादिसु। सव्वं सव्वे तु जे भावा, दव्वतो खेत्त-कालतो॥ 95. भावतो चेव जे भावा, णत्थि जे तु ण पासती। अभावा णत्थि ताए तु, जाणती पासती वि य॥ सव्वदव्वपरिणामभावविण्णत्तिकारणमणतं। सासयमव्वाबाहं१२, एगविहं 'केवलं नाणं''। 97. सव्वं णेयं चतुहा, एतस्स परूवणट्ठयाए तु। गाहासुत्तं वुत्तं, अह त्ति जं वण्णितं हेट्ठा / अह 1. य पिहुजणो (बृ 36) / २.नंदी 25/1, आवनि 73, विभा 810 / 3. मति (पा, ब, ला)। ४.व्य 4033 / 5. ज्झति (मु,ब, ला), ज्झए (बृ३७)। 6. केवलं (ला)। 7. पासति (पा)। 8. गाथा 92 से 95 तक चार गाथाओं में अनुष्टुप् छंद का प्रयोग है। 9. संबरे (ब)। 10. तू (ब)। 11. एवं तु (ब, ला)। 12. लोगं अ (ब, ला), x (पा)। 13. मप्पडिवाई (आवनि 74, नंदी 33/1) / 14. लण्णाणं (मु)। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 98. भिण्णग्गहणं खलु कालतो तु सो घेप्पती तु एतेसिं। दव्वादीण चउण्हं, परिणामो पज्जया जाणे // जीवाण अजीवाण य, उप्पाद-व्वय-धुवत्तपज्जाया। परपच्चएण तिण्हं, धम्मादीयाण परिणामो॥ 100. गति-ठिति'-अवगाहेहिं, संजोग-विओगओ य सो होति / ओदइयादीयाणं, परिणामो होति भावाणं // 101. एतेसिं चिय दव्वादियाण कालो तु होति परिणामो। कालं पतिरे पतिसुहुमादिएसु वण्णादिपरिणामो॥ . 102. दव्वादीपरिणामं, सव्वं जाणाति केवली अहिलं'। किं भवती परिणामो?, एतस्स उ कारणं इणमो॥ 103. वीससपयोग अब्भाइयाण खंधाण वीससुप्पाओ / पण्णरसहा पयोगो, तिविधे कालम्मि परिणामो॥ 104. जो केवली मणूसो, ण सो तु बाहं करेऽण्णसत्ताणं / नियमेण अणाबाहं', पावति मोक्खं खवियसेसं // 105. 'जं छउमत्थियणाणं", केवलिणो ण खलु विज्जते तं तु। जम्हा खयोवसमिए, वटैते छाउमत्था उ॥ 106. भावे केवलणाणं, वट्टति- णियमेण खाइए णिच्चं। न उ अक्खीणे मीसे, खाइयभावस्स उप्पत्ती॥ 107. तम्हा एगविधं खलु, केवलणाणं तु होति उववण्णं। जेणाऽऽह केवलम्मि वि', छठणाणा मोहया तेसिं॥ 108. आदिगरा धम्माणं, चरित्त-वरणाण-दसणसमग्गा। सव्वत्तगणाणेणं, ववहारं ववहरंति जिणा // 1. ट्ठिति (पा, ब)। 2. - (ला)। 3. अखिलं (पा, ब, ला)। 4. वीसमु (पा, ब)। 5. अण" (पा. ला)। 6. सेसा (ला)। 7. जज्छउ (ब)। 8. वर्ल्डति (पा)। 9.4 (मु)। 10. व्य 4034 / Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 3 109. पच्चक्खव्ववहारी, इंदिय-नोइंदिएसु वक्खातो। आगमतो' ववहारी, पारोक्खं तू इमं वोच्छं // 110. पच्चक्खागमसरिसो, होति परोक्खो वि आगमो जस्स। 'चंदमुहीव तु'२ सो वि हु', आगमववहारवं होति / णातं आगमितं ति य, एगटुं जस्स सो परायत्तो। सो पारोक्खो वुच्चति, तस्स पदेसा इमे होति / / पारोक्खं ववहारं, आगमतो सुतधरा ववहरंति। चोद्दस-दसपुव्वधरा, नवपुव्विय गंधहत्थी य // 113. किह आगमववहारी?, जम्हा जीवादओ ‘णव पदत्था। . उवलद्धा तेहिं तू, सव्वेहिं नयविगप्पेहिं // 114. जह केवली वियाणति , दव्वं खेत्तं च काल भावं च। __ तह चउलक्खणमेतं, सुतणाणी वी विजाणाति॥ 115. पणगं मासविवड्डी'०, मासिगहाणी य पणगहाणी य। एगाहे पंचाहं, पंचाहे चेव एगाहं // 116. राग-दोसविवड्डिं, हाणिं वा णातु देति पच्चक्खी। चोद्दसपुव्वादी वि हु, तह णाउं देंति हीणऽधिगं२२ // 117. चोदगपुच्छा पच्चक्खणाणिणो थो१३ कह बहुं देंति? __ भण्णति सुणसू एत्थं, दिलृतं वाणिएण इमं // . 118. जं जह मोल्लं रयणं, तं जाणति रयणवाणिओ णिउणो। थोवं तु महल्लस्स वि, कासति अप्पस्स वि बहुं तु५॥ 119. अहवा वि कायमणिणो१६, सुमहल्लस्सावि कागिणीमोल्लं। - वइरस्स तु अप्पस्स वि, मोल्लं होती सतसहस्सं / / 1. "मजो (पा, ब, ला)। 2. ही विव (पा,व्य 4035) / 3. य (ब)। 4. व्य 4036 / - 5. चोदस (ब, ला)। ६:व्य 4037 / 7. पयत्था उ (व्य 4038) / ८.वि जाणति (व्य 4039) / 9.x (पा)। 10. वड्डेि (पा, ब, ला)। 11. व्य 4040 / 12. व्य 4041 / 13. थेवे वि (ला, मु)। 14. इस गाथा का उत्तरार्ध (व्य 4042) में इस प्रकार है दिटुंतो वाणियए, जिणचोद्दसव्विए धमए। १५.व्य 4043 / 16. मणिस्स उ (व्य 4044) / 17. स्स विउ (व्य)। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 जीतकल्प सभाष्य 120. इय मासाण बहूण वि, राग-द्दोसऽप्पयाए थोवं तु। रागद्दोसोवचया, पणगे वि जिणा बहुं देंति' // . 121. पच्चक्खी पच्चक्खं, पासति पडिसेवगस्स सो भावं। किह जाणति पारोक्खी?, णातमिणं तत्थ धमएणं // 122. नालीधमएण जिणा, उवसंधारं करेंति पारोक्खे। जह सो कालं जाणति, सुतेण सोहिं तहा सोउं॥ 123. जेणं जीवा-ऽजीवा, उवलद्धा सव्वभावपरिणामा। तो पुव्वधरा सोहिं, कुव्वंति सुतोवदेसेणं // 124. तं पुण केण कतं तू, सुतणाणं जेण जीवमादीया। नजंति सव्वभावा?, केवलणाणीण तं तु कतं // 125. संते वि आगमम्मी', जाहे आलोइयं तु तेण भवे / सम्मं नाऽऽलोएती, पडिवज्जति सारिओ जइया / / 126. तो तस्स उ पच्छित्तं, जेण विसुज्झति तगं पयच्छंति। आगमववहारी छव्विधो वि पलिउंचिएँ ण देति // आलोइय-पडिकंते', होति आलोयणा' तु णियमेणं।' अणालोइयम्मिर भयणा, किह पुण भयणारे भवति तस्स? // 128. आलोयणापरिणतो, अंतर कालं करे अभिमुहो वा। अहवा वी आयरिओ, एमेव य होति संपत्तो३ // 129. आराहओ तु तह वी, जं सम्मालोयणापरिणतो तु। नाराहेति अपरिणतो, एवं भयणा भवति एसा॥ 130. अवराहं वियाणंति, तस्स सोधिं व जद्दवी। तहेवाऽऽलोयणा वुत्ता, आलोयंते बहू गुणा // १.व्य 4045/ २.व्य 4046 / 3. संहारं (व्य 4047) / 4. जेसिं (व्य)। ५.व्य (4048) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है- सव्वाहि नयविधीहिं, केण कतं आगमेण कयं / ६.व्य 4049 / ७.म्मिं (ला, ब)। 8. पडिकंतस्स (व्य 4052) / 9. होती (मु)। 10. आराधणा (व्य)। 11. लोयम्मि (व्य)। 12.4 (पा)। 13. संपत्ते (ब)। १४.व्य 4054 / Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 131. दव्वेहिँ पज्जवेहि य, कम खेते काल-भावपरिसुद्धं / आलोयणं सुणेत्ता, तो ववहारं पउंजंति // 132. दव्वे सच्चित्तादी, पज्जव दव्वा बहूविगप्पेहिं / पुव्वाणुपुव्विमादी, कमओ एवं तु आलोए॥ 133. अद्धाण जणवदे वा, खेत्ते काले सुभिक्ख-दुन्भिक्खे। भावे हट्ठ-गिलाणे, सेविय जह तं तहाऽऽलोए // 134. 'अहवा सहसऽण्णाणा", भीतेण व पेल्लितेण व परेहिं / वसणेण पमादेण व, मूढेण व राग-दोसेहिं // 135. पुव्वं अपासिऊणं, छुढे पादम्मि जं पुणो पासे। __ ण य तरति णियत्तेउं, पादं सहसाकरणमेतं // 136. अण्णतरपमादेणं, असंपउत्तस्स णोवउत्तस्स। इरियादिसु भूतत्थे, अवट्टतो एतदण्णाणं // 137. भीतो पलायमाणो, अभियोगभएण वावि जं कुज्जा। पडितो व अपडितो वा, पेल्लिज्जा' पेल्लितो पाणे // 138. जूतादि होति वसणं, पंचविधो खलु भवे पमादो उ। 'मिच्छत्तभावणा तू", मोहो तह° राग-दोसा ऊ॥ 139. एतेसिं ठाणाणं, अण्णतरे कारणे समुप्पण्णे। . तो आगमवीमंसं, करेंति अत्ता तदुभएणं१२ // 140. जदि आगमो य आलोयणा य दोण्णि वि समं तु निवतंति। एसा खलु वीमंसा, जो असहू" जेण वा सुज्झे // 141. नाणमादीणि अत्ताणि५, जेण अत्तो उ सो भवे / रागद्दोसप्पहीणे वा, जे व इट्ठा विसोहिए // 1. पउंज्जंति (ब, ला), व्य 4055 / 9. "णाओ (व्य 4060) / 2. सहसा अण्णाणेण व (व्य 4056), "सहस्स (पा, ब)। 10. तहा (पा, ला)। 3. परेण (व्य)। 11. ट्ठाणाणं (ब, ला)। 4. व्य 4057, नि 97 / १२.व्य 4061 / ५.रीया (नि 96) / १३.निवयंतो (व्य 4062) / 6. होतणाभोगो (नि), व्य 4058 / 14. वऽसहू (व्य)। 7: पेलिज्जउ (व्य 4059) / 15. अण्णाणि (ब, ला, मु)। '8. गीतादि (ब, ला)। १६.व्य 4063 / . Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 142. सुत्तं अत्थे उभयं, आलोयण आगमो ‘व इति" उभयं / जं तदुभयं ति वुत्तं, तत्थेसा' होति परिभासा॥ 143. पडिसेवणातियारे, जदि नाऽऽउद्दति जहक्कम सव्वे / ण हु देंती' पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स // 144. पडिसेवणातियारे, जदि आउदृति जहक्कमं सव्वे। देंति- तओ पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स // 145. कहेहि सव्वं जो वुत्तो, जाणमाणो वि गृहति। ण तस्स देंति पच्छित्तं, बेंति अण्णत्थ सोहय // .. 146. ण संभरति जो दोसे, सब्भावा ण य मायया।.. पच्चक्खी साहते ते उ, माइणो उ ण साहती // 147. जइ आगमो य आलोयणा य दोण्णि वि समं ण णिवइयाइं / ण हु ‘देंति उ'१२ पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स॥ 148. जइ आगमो य आलोयणा य दोण्णि३ वि समं णिवइयाइं / देंति ततो पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स // 149. को पुण पायच्छित्ते, दातव्वे अणरिहो ‘व अरिहो वा?। भण्णति इणमो सुणसू, अरिहो जो वा अणरिहो उ'१५ // 150. अट्ठारसेहिं१६ ठाणेहिं, जो होति ऽपरिणिद्वितो। नलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए / 151. अट्ठारसेहिं ठाणेहिं, जो होती८ सुपरिद्वितो१९ / अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए / 1. इती (ब, पा, मु)। 2. तत्थ इमा (व्य 4064) / 3. देती (ला)। ४.व्य 4065 / 5. देती (पा, ला)। ६.व्य 4065/1 / 7. बेति (ला)। 8. व्य 4066, 145 और 146 गाथा में अनुष्टुप् छंद का प्रयोग है। 9. साधए (व्य 4067) / 10. दोण्हि (पा, ब, ला)। ११.निवडियाइं (व्य)। 12. देंती (व्य 4068) / 13. दोण्हि (पा, ब, ला)। 14. निवडियाई (व्य 4069) / 15.4 (पा)। 16. रसहि (ब) सर्वत्र। 17. अप (व्य 4070) / 18. होति (पा, मु)। 19. परिणिट्ठितो (व्य 4071) / Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 152. अट्ठारसेहिं ठाणेहिं, जो होती' अपतिट्ठितो / नलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए / 153. 'अट्ठारसेहिं ठाणेहिं", जो होति. सुपतिद्वितो / अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए / 154. वयछक्ककायछक्कं, अकप्प गिहिभायणं च पलियंको / गोयर-णिसेज्ज-हाणे, भूसा अट्ठारठाणेते // 155. परिणिद्वित परिणात°, पतिट्ठितो जो ठितो उ तेसु भवे। 'अविदू सोहि 12 ण जाणति, अठितो पुण अण्णहा कुज्जा॥ 156. बत्तीसाए 'तु ठाणेहिं '13, जो होतऽपरिणिद्वितो। नलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए / 157. बत्तीसाए तु ठाणेहिं, जो होति परिणिद्वितो। अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए / 158. बत्तीसाए तु ठाणेहिं, जो होती अपतिट्ठितो। णलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए५ // 159. बत्तीसाए 'तु ठाणेहिं '16, जो होति सुपतिट्ठितो। अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए / 160. अट्ठविधा गणिसंपद, एक्के क्का" चउविहा उ बोद्धव्वा। एसा खलु बत्तीसा, ते खलु ठाणा इमे होंति // 161. आयार-सुत-सरीरे, वयणे वायण मती पओगमती। एतेसु संपदा खलु, अट्ठमिगा संगहपरिण्णा // 1. होति (मु)। 2. अपडिट्ठितो (ला)। 3. व्य 4072 / 4. “रसहि ट्ठाणेहिं (ब)। 5. होती (पा, ब, ला)। 6. सुपरिट्ठितो (पा)। 7. व्य 4073 / 8. “यणे (व्य)। 9. रसट्ठाणे (व्य 4074) / 10. णाता (पा, मु)। 11. द्वितो (ब, ला)। 12. अविदु सोहिं (व्य 4075) / 13. ठाणेसु (व्य 4076), सर्वत्र / 14. व्य 4077 / 15. व्य 4078 / 16. ठाणेसु (व्य 4079) / 17. पा प्रति में इस गाथा का संकेत मात्र है। 18. एक्केक्क (ला)। 19. पुण (व्य 4080) / 20. ट्ठाणा (पा, ब, ला)। 21. व्य 4081, प्रसा 542 / Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्यः 66. 162. एसा अट्ठविधा खलु, एक्केक्कीए' चउव्विधो भेदो। इणमो. उ समासेणं, वोच्छामी' आणुपुव्वीए // . 163. आयारसंपदाए, संजमधुवजोगजुत्तया पढमा। बितिय असंपग्गहिता, अणियतवित्ती भवे ततिया // तत्तो य वुड्डसीले, आयारे संपदा चउद्धेसा' / चरणमिहर्ष संजमो तू, तहियं णिच्चं तु उवउत्तो॥ 165. आयरिओ य' बहुस्सुत-तवस्सि-जच्चादिएहि व मदेहि। जो होति अणुस्सित्तो, 'सो तु असंपग्गहीउ त्ति" // . . . अणियतचारी अणियतवित्ती 'अगिहो य? होति 'जो अणिसो। . णिहुयसभाव अचंचल, णातव्वो वुड्डसीलो ति॥ 167. बहुसुत परिजितसुत्ते'२, विचित्तसुत्ते य होति बोद्धव्वे। घोसविसुद्धिकरे या, चउहा सुतसंपदा होति // 168. बहुसुत जुगप्पहाणो, अब्भंतर बाहिरं 'च बहु जाणे 15 / होति चसद्दग्गहणा, चारित्तं पी सुबहुयं तु॥ 169. सगणामं व परिजितप, उक्कम-कमओ बहूहि ‘व कमेहिं१७ / ससमय-परसमएहिं, उस्सग्ग-ऽववायओ चित्तं॥ 170. घोसा उदत्तमादी, तेहिँ विसुद्धं तु घोसपरिसुद्धं / एसा सुतोवसंपद, सरीरसंपदमतो वोच्छं / 1. 'क्काए (मु)। 10. अगिहितो वि (व्य 4086) / 2. वोच्छामि (पा)। 11. अणिकेतो (व्य)। 3. अधाणु (व्य 4082) / 12. परिचिय (व्य 4087) / 4. व्य 4083 / 13. वा (व्य)। 5. चउब्भेया (व्य 4084) / 14. होंति (पा, ला)। 6. चरणं तु (व्य)। 15. सुतं बहुहा (व्य 4088) / 7. उ (व्य)। 16. परिचितं (व्य 4089) / 8. ऽसंपग्गहितो भवे सो उ (व्य ४०८५),पा प्रति में इस गाथा १७.विगमेहिं (व्य)। का केवल 'आयरिओ' इतना ही संकेत मात्र मिलता है। १८.विचित्तं (पा. ला)। 9. x (पा)। १९.व्य 4090 / Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 171. आरोह-परीणाहो, तह य अणोत्तप्पया' सरीरस्स। पडिपुणिंदियमादिय, संघतणथिरे य बोद्धव्वो॥ 172. आरोहो दिग्घत्तं, विक्खंभो होति. तत्तिओप चेव। आरोह-परीणाहो, य संपदा एस णातव्वा / 173. तपु लज्जाए धातू, अलज्जणिज्जो' अहीणसव्वंगो। होति अणोत्तप्पो खलु', अविकलइंदी तु पडिपुण्णो॥ 174. पढमादीसंघयणो', बलियसरीरो 'थिरो मुणेतव्वो। एसा सरीरसंपद, एत्तो वयणम्मि वोच्छामि // .175. आदेज्ज' मधुरवयणो, अणिस्सितवयण तहा असंदिद्धो। आदेज्जगज्झवक्को, अत्थवगाढं भवे मधुरं२ / / अहवा अफरुसवयणो, खीरासवलद्धिमादिजुत्तो'३ वा। अहवा सूसर-सूहग-गंभीरजुओ महुरवक्को" / 177. णिस्सितों कोहादीहिं, रागद्दोसेहि वावि जं वयति। होति अणिस्सितवयणो, जो वयती एय वतिरित्तं // 178. अव्वत्तं अफुडत्तं५, अत्थबहुत्ता व होति संदिद्धं६ / विवरीतमसंदिद्धं, वयणेसा संपदा चतुधा // 179. वायणभेदा चतुरो, विधिउद्दिसणा' 'समुद्दिसणओ य८॥ परिणिव्वविया वाए, निज्जवणा चेव अत्थस्स / / 180. तेणेव गुणेणं तू, वाएयव्वा परिक्खितुं सीसा। उद्दिसई विजिणेउं, जं जस्स तु जोग्ग तं तस्स // .. 1. अणा (ला)। 2. रम्मि (व्य 4091), रस्सा (ला)। 3. "पुण्णइंदिएहि य (व्य), परिपु (मु)। 4. थिरसंघयणो (व्य)। 5. वि जइ (व्य 4092) / 6. तित्तिओ (पा, ब)। 7. “णीओ (व्य 4093) / 8. सो (व्य)। 9. पढमगसंघयणथिरो (व्य 4094) / .10. य होति नातव्वो (व्य)। 11. आदेज्ज त्ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादादेयवचन इति (व्यमटी)। १२.व्य 4095 / 13. "वमादिलद्धिजुत्तो (व्य)। 14. व्य (4096), में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है निस्सियकोधादीहिं,अहवा वी रागदोसेहिं। 15. 'डत्थं (पा, ब, व्य 4097) / 16. संतिटुं (पा)। 17. विजिओद्देसण (व्य 4098) / १८."णया तु (व्य)। 19. तस्सा (ला), व्य 4099 / Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 जीतकल्प सभाष्य 181. अपरीणामगमादी, वियाणितुमभायणे' ण वाएति / जह आममट्टियघडे, अंबेव ण छुब्भतीरे खीरं // 182. जदि छुब्भती विणस्सति, नस्सति वा एवमपरिणामादी। णोद्दिस्से छेदसुतं, समुद्दिसे यावि तं चेव // 183. परिणिव्वविया वाए,जत्तियमेत्तं तु तरति तुग्घेत्तुं / जाहगदिटुंतेणं, 'परिजित ताहऽण्णु उद्दिसति // 184. णिज्जवगो अत्थस्सा, जो उ विजाणेति अत्थ सुत्तस्स। .. अत्थेण वि णिव्वहती, अत्थं पि कहेति जं भणितं // मतिसंपद चउभेदा, उग्गह ईहा अवाय धारणया। उग्गहमति छब्भेदा, तत्थ 'इमे होंति छब्भेदा'॥ 186. खिप्प बहु बहुविहं वा, धुवऽणिस्सित तह य होतऽसंदिद्धं / ओगेण्हति एवीहा, अवायमिति१२ धारणा चेव॥ 187. 'परवाइण सिस्सेण '13 व, उच्चारितमेत्तमेव ओगिण्हे। तं खिप्पं बहुगं पुण, पंच व 'छ स्सत्त'१४ गंथसता / / 188. 'बहुविहऽणेगपगारं'१५, जह लिहति ऽवधारए६ गणेति वि य। अक्खाणगं कहेती, सद्दसमूहं व८ णेगविहं // 189. ण वि विस्सरति धुवत्तं, अनिस्सितं जं ण पोत्थगे लिहितं। अणुभासित व्व गेण्हति, निस्संकित ‘होतऽसंदिद्धं '21 // 190. उग्गहितस्स तु ईहा, ईहित पच्छा अणंतरअवायो२२ / अवगते पच्छा धारण, तीय विसेसो इमो णवरं / / 1. "तु अभा' (व्य 4100) / 2. छुब्भए (ब, मु)। 3. णोदिस्से (पा, ब, ला)। 4. वावि (व्य 4101) / 5. उग्गहिउं (व्य 4102) / 6. परिचिते ताव तमुद्दि (व्य)। 7. व (व्य 4103), विहि (ला)। 8. "हति इ (ब, ला, मु)। 9. धरणा य (व्य 4104) / 10. इमा होति णातव्वा (व्य)। 11. उग्गिण्हति (ब)। 12. 'यमवि (व्य 4105) / 13. सीसेण कुतित्थीण (व्य 4106) / 14. छ व सत्त (ब, ला, मु)। 15. विहे (ला)। 16. पहारए (ब, मु, ला)। 17. कहेति इ (मु, पा)। 18. व्व (ब, ला)। 19. व्य 4107 / 20. वस्सरइ (पा, ला)। 21. संदिटुं (पा, ला), होति सं (ब), व्य 4108 / 22. रमवाओ (व्य 4109) / Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 191. बहु 'बहुविह पोराणं", दुद्धर ऽनिस्सिय तहेव असंदिद्धं' / पोराण पुरा 'व जितं", दुद्धरणय-भंगगुविलत्ता // 192. एत्तो उ पओगमती, चउब्विहा होति आणुपुव्वीए। आय पुरिसं च खेत्तं, 'वत्थु वि५ पउंजए वादं / 193. जाणति पयोगभिसजो, 'वाही जेणाऽऽतुरस्स छिज्जति ऊ'६ / इय वादो व कहा वा, णियसत्तिं णाउ कातव्वा / / 194. पुरिसं उवासगादी, अहवा वी जाणगा इयं परिसं। पुव्वं तु गमेऊणं, ताहे वादो पउत्तव्वो॥ * 195. खेत्तं मालवमादी, अहवा वी साधुभावितं जं तु / नाऊण तहा विहिणा, वादो हु° तहिं पउत्तव्वो॥ 196. वत्थु 'पुण परवादी 11, बहुआगमितो न वावि नाऊणं / राया व 'रायऽमच्चो '12, दारुण- भद्दस्सभावो वा३ // 197. एसा उ पओगमती, एत्तो वोच्छामि संगहपरिण्णं / सा वि य चउव्विगप्पा, तीय विभागो इमो होति / 198. बहुजणजोग्गं 'पेहे, खेत्तं '14. तह पीढफलहमोगिण्हे५ / . वासासु एतें दोण्णि वि, काले य समाणए कालं // 199. पूए अहागुरुं ‘पि य१६, चउत्थ एसा उ संगहपरिण्णा। एत्तो एक्केक्कीय य, इमा विभासा मुणेतव्वा // . .1. “विधं पुराणं (व्य 4110) / 2. ऽणितयं (मु, पा, ब, ला)। . 3. छंद की दृष्टि से 'ऽसंदिद्धं' पाठ होना चाहिए। 4. वायित (व्य), ज्जितं (पा, ला)। 5. वत्थु विय (व्य 4111), वत्थु विउ (ब)। 6. जेण आतुरस्स छिज्जती वाही (व्य 4112) / 7. “सत्ती (मु, ब, ला)। 8. जाणिगा (व्य 4113) / 9. पुरिसं (ब)। १०.य (व्य 4114) / 11. परवादी ऊ (व्य 4115), वाइ (ला)। 12. 'मत्तो (ब)। 13. त्ति (व्य)। 14. खेत्तं पेहे (ब, व्य 4116) / 15. फलग-पीढमाइण्णो (व्य), हनिग्गिण्हे (ला)। १६.पी (व्य)। 17. चउहा (पा, व्य)। 18. व्य (4117) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है एतेसिं तु विभाग, वुच्छामि अहाणुपुव्वीए। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 जीतकल्प सभाष्य 200. वासे बहुजणजोग्गं, वित्थिण्णं जं तु गच्छपायोग्गं / पडिलेह बाल-दुब्बल-गिलाण-मादेसमादीणं // 201. 'खेत्त असति अगहित्ता'२, ताहे गच्छंति ते उ अण्णत्थ। 'पीढप्फलगग्गहणे, ण उ मइलंती णिसेज्जादी॥ 202. 'वासासु विसेसेणं, अण्णं कालं तु गमय अण्णत्थ"। पाणा सीतल-कुंथादिया य तो गहण वासासुं। 203. जं जम्मि होति काले, कातव्वं तं समाणए तम्मि। सज्झाय पेह उवधी, उप्पादण भिक्खमादी तु // 204. अहगुरु" जेणं पव्वावितो तु जस्स व अधीत पासम्मि। अहवा अहागुरू खलु, हवंति रातिणियतरगा उ॥ 205. तेसिं अब्भुट्ठाणं, डंडग्गह' तह य होति आहारे। उवधीवहणं विस्सामणं च संपूयणा एसा॥ 206. एसा खलु बत्तीसा, 'जाणाति जो पतिट्ठितो एत्थं। ववहारे अलमत्थो, अहवावि भवे इमेहिं तु॥ 207. छत्तीसाए तु• ठाणेहिं, जो 'होयऽपरिणिद्वितो 11 // नऽलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए / 208. छत्तीसाए तु ठाणेहि१२, जो होति परिणिट्ठितो / अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए / 209. छत्तीसाए तु ठाणेहिं, जो होति अपतिट्टितो। नऽलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए" // 1. अहवावि (व्य 4118) / 9. एयं जाणाति जो ठितो वेत्थ (व्य 4124, ब)। २.खेत्तऽसति असंगहिया (व्य 4119) / 10.4 (व्य 4125) / 3. न उ मइलेंति निसेज्जा, पीढगफलगाण गहणम्मि (व्य)। 11. होति अपरि (ला, पा, व्य)। 4. वितरे न तु वासासुं, अन्ने काले उ गम्मतेऽण्णत्थ (व्य 12. ट्ठाणेहिं (ब), सर्वत्र / 4120) / 13. सुपरि ,(व्य 4126) / 5. वासासु (ब)। 14. व्य 4127, हस्तप्रतियों एवं मुद्रित पुस्तक में गा. 207 ६.य (व्य 4121) / के बाद 209 की गाथा है लेकिन यहां उपर्युक्त क्रम 7. अधा" (व्य 4122) / संगत प्रतीत होता है। ८.दंड (व्य 4123) / Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 33 210. छत्तीसाए तु ठाणेहिं, जो होति सुपतिट्टितो। अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए' // 211. जा होतीबत्तीसा, तम्मी छोढूण विणयपडिवत्ती। चतुभेदं तो होती, छत्तीसाए उ ठाणाणं // 212. बत्तीस वण्णित च्चिय, वोच्छं चउभेद विणयपडिवत्तिं / आयरियंतेवासी', जह विणएत्ता भवे णिरिणो॥ 213. आयारे सुत विणए, विक्खिवणे चेव होति बोधव्वो। दोसस्स य णिग्याते, विणए चउहेस पडिवत्ती / / 214. आयारे विणयो खलु, चउव्विधो होति आणुपुव्वीए। संजमसामायारी, तवे य गणविहरणा चेव // 215. एगल्लविहारे या, सामायारी य एस 'चउधा तु९० / एतेसिंर तु विभागं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए॥ 216. संजममायरति सयं, परं च गाहेति संजमं नियमा। सीदंतथिरीकरणं, उज्जुतचरणं च उववूहे'२ // 217. सो सत्तरसो पुढवादियाण * घट्ट-परितावणोद्दवणं / परिहरितव्वं णियमा, संजमतो एस बोद्धव्वो / 218. 'पक्खे य पोसधेसुं१४, कारेति५ तवं सयं करेति६ वि य। भिक्खायरियाय तहा, णियुजति परं सयं वावि // 219. सव्वम्मि बारसविधे, णिउंजति परं सयं च उज्जमति / गणसामायारीए, गणं विसीदंत चोदेति // १.व्य 4128 / 2. भणिया (व्य 4129) / 3. तीए (व्य)। 4. वत्तिं (व्य)। 5. वासिं (व्य 4130) / ६.विणवित्ता (ब)। ७.व्य 4131 / 8. गणिवि' (ला, पा, मु)। ९.व्य 4132 // 10. चउभेया (व्य 4133) / / ११.एयासिं (व्य)। १२.व्य 4134 / 13. ताव उद्द' (व्य 4135) / 14. पक्खियपोसहिएसं (व्य 4136) / 15. कारयति (ला, व्य)। 16. करोति (पा), करोती (व्य)। 17. उज्जुत्तो (व्य 4137) / Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 220. पडिलेहण-पप्फोडण', बाल-गिलाणादिवेयवच्चेसुं। सीदंतं गाहेती, सयं च 'जुत्तो तु एतेसु॥ 221. एगल्लविहारादी, पडिमा पडिवज्जते ‘सयं वऽण्णं"। पडिवज्जावे एवं, अप्पाण परं च विणएति / / 222. आयारविणय एसो, जहक्कमं वण्णितो समासेणं / एत्तो ऊ सुतविणयं, जहाणुपुव्विं पवक्खामि // 223. सुत्तं अत्थं च तहा, हितकर 'णिस्सेसयं च वाएति"। एसो चउव्विधो खलु, सुतविणओ होति णातव्वो॥ 224. सुत्तं गाहेति उज्जुत्तो', अत्थं च सुणावए पयत्तेणं। जं जस्स होति जोग्गं, परिणामगमादियं तु हितं // 225. णिस्सेसमपरिसेसं, जाव समत्तं तु ताव वाएति। एसो सुतविणयो खलु, वोच्छं विक्खेवणाविणयं // 226. अद्दिष्टुं दिटुं० खलु, दिटुं साहम्मियत्तविणएणं। चुतधम्म ठावें धम्मे, तस्सेव हितट्ठ अब्भुट्टे // 227. 'विण्णाणाभावम्मि वि'२, खिव पेरणे विक्खिवित्तु परसमया। ससमएणमभिच्छुभे", अदिट्ठधम्मं तु५ 'दिटुं वा'१६ // 228. धम्म सहावो सम्मइंसण जं जेण पुव्वि ण उ लद्धं / सो होतऽदिट्ठपुव्वो, तं 'गाहे दिट्ठपुव्वमिच 17 // 229. जह भायरं व पितरं, 'व मिच्छदिटुिं"९ पि गाहें सम्मत्तं / दिट्ठप्पुव्वं सावग, साहम्मि करेति पव्वावे // 1. पक्खोडण (ला,ब)। 2. वच्चे य (व्य 4138), वच्चेसु (पा)। 3. उज्जुत्त (व्य)। 4. सयऽण्णं वा (व्य 4139) / 5. "सेसं तधा पवाएति (व्य 4140) / 6. सुत्त (ला)। 7. जुत्तो (मु, ब), प्रथम चरण में अनुष्टुप् छंद है। 8. "दिणं (व्य 4141) / 9. व्य 4142 / 11. मब्भुटे (ला, व्य 4143) / 12. म्मिं (पा), "म्मी (व्य 4144) / 13. वितु (पा)। 14. 'मयंतेणऽभिछुभे (व्य)। 15. य (ला)। 16. दिटुं ता (ला), वा शब्द उपमायां (व्यमटी)। 17. गाहिति पुव्वदिट्ठम्मि (व्य 4145) / 18. व्व (ब)। 19. मिच्छा (व्य 4146), दिटुं (ब)। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 230. चुतधम्म' णट्ठधम्मोरे, चरित्तधम्माउ दंसणाओ वा। तं ठावेति' तहिं चिय, पुणो वि धम्मे जहुद्दिढे // 231. तस्स त्ती तस्सेव उ, चरित्तधम्मस्स वुड्डिहेतुं तु / वारेतऽणेसणादी, ण य गिण्हे सयं हितट्ठाए // 232. जं इह-परलोगे या, हितं सुहं तं खमं मुणेतव्वं / णिस्सेयस मोक्खो तु, अणुगामऽणुगच्छते जं तु॥ 233. विक्खेवणविणएसो, जहक्कम वण्णितो समासेणं। एत्तो तु पवक्खामी'', विणयं दोसाण णिग्घाते // 234. दोसा कसायमादी, बंधो अहवा वि अट्ठपगडीओ। / णियतं व णिच्छितं वा, घात विणासो य एगट्ठा // 235. रुट्ठस्स२ कोधविणयण, दुट्ठस्स य दोसविणयणं जं.३ तु / . कंखिय कंखुच्छेदे", आयप्पणिहाण चउहेसा॥ 236. 'सीतघरम्मि व'५ डाहं, वंजुलरुक्खो६ व जह व उरगविसं। . रुट्ठस्स७ तहा कोधं, पविणेती उवसमेति त्ति // 237. दुट्ठो कसाय-'विसयादिएहिँ माण-मयभावदुट्ठो व८ / . तस्स पविणेति दोसं, णासयते धंसते व ति॥ 238. कंखा उ भत्त-पाणे, परसमए अहव संखडीमादी / तस्स पविणेति कंखं, संखडि अण्णावदेसेणं२० // 1. धम्मो (ब, ला)। 2. भट्ठ (व्य 4147) / 3. चरित्तं ध' (पा)। 4. टावति (पा)। 5. “ट्टिो (ला)। 6. वड्डि (ब)। 7. गेण्ह (व्य 41.48) / 8. मोक्खाय (व्य 4149) / 9. तह (पा)। 10. खामि (ब, पा)। ११.व्य 4150 / 12. कुद्धस्स (व्य 4151) / 13. x (पा)। 14. कंखाछेदो (व्य)। 15. घरं पिव (व्य 4152) / 16. लरेहा (ला)। 17. कुद्धस्स (व्य)। 18. 'सएहि माण-मायासभाव दुट्ठो वा (व्य 4153) / 19. कंख एमादी (मु, ब, ला)। 20. अण्णं व (पा, ब, मु, ला), व्य 4154 / Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 जीतकल्प सभाष्य 239. चरगादिमादिगेसू', अहिंसमक्खो व्व अत्थि जा कंखा। तं हेतु-कारणेहिं, विणयउ जह होति णिक्कंखो॥ 240. जो एतेसु ण वट्टति, कोधे दोसे तहेव कंखाए। सो होति सुप्पणिहितो, सोभणपरिणामजुत्तो वा॥ 241. छत्तीसेताणि ठाणाणि, भणिताणऽणुपुव्वसो"। जो कुसलो य एतेहिं, सो ववहारी समक्खातो' / 242. अट्ठहि अट्ठारसहि य, 'दसहि य" ठाणेहिं जे अपारोक्खा। आलोयणदोसेहिं, छहि अपारोक्ख विण्णेया // 243. आलोयणागुणेहिं, छहिं य ठाणेहिं जे अपारोक्खा। पंचहि य नियंठेहिं, पंचहि य चरित्तमंतेहिं 2 // 244. अट्ठायारवमादी, वयछक्कादी हवंति३ यऽगुरसा"। दसविहपायच्छित्ते, 'आलोयणमादिए चेव // 245. आलोयणदोसेहिं, आकंपणमादिएहिँ दसहिं तु। छहि काएहिँ वतेहि व, दसहिं चाऽऽलोयणगुणेहिं // 246. आयार "विणयगुण कप्पदीवणा'२७ अत्तसोहि उजुभावो। अज्जव-मद्दव-लाघव, तुट्ठी पल्हायकरणं८ च॥ 247. मिच्छत्ततवाऽऽयारे, पढमं आलोयणा तहिं पढमं / विणयो विणासणं ति य, मायाए विणयणगुणेसो॥ 1. एसु तु (मु), गाइएसुं (ला)। 2. गाथाओं के क्रम में व्य में यह गाथा अप्राप्त है। 3. पणिधाणजु (व्य 4155) / 4. भणिता अणु' (ला), ताणि अणु (ब)। 5. x (ब, मु)। 6. व्य 4156, गाथा के प्रथम तीन चरणों में अनुष्टुप तथा अंतिम चरण में आर्या छंद का प्रयोग हुआ है। 7. x (पा, ला)। 8. छहि य (ब,मु)। 9. विण्णाणा (व्य 4157) / 10. ट्ठाणेहिं (पा, ब, ला)। 11. अपरो" (पा)। १२.व्य 4158 / 13. हवति (पा)। 14. रसं (पा)। 15. “यण दोस दसहिं वा (व्य 4159) / 16. इस गाथा के स्थान पर व्य (4160) में निम्न गाथा मिलती हैछहि काएहि वतेहि व, गुणेहि आलोयणाय दसहिं च। छट्ठाणावडितेहिं छहि चेव तु जे अपारोक्खा / / 17. य कप्प गुणदी' (पंक१३१०), कप्पमादी (नि 3865), जीदकप्प गुणदी' (मूला 387, भआ 411) / 18. “यजणणं (व्य 4301, जीभा 413) / Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 37 248. चारित्त कप्प णियमा, निरतियारित्त विगडिते सो य। दीवित पभासिउ ति य, पगासितो चेव एगट्ठा // 249. अतियारपंकपंकंकितो य आया विसोहिओ होति। आलोइए य आया, उजुभावे ठावितो होति॥ 250. अज्जवभावे अज्जव, सयं' चियाऽऽलोइए कतो होति। मद्दवभावेणं पुण, अमाणि होऊण आलोए॥ 251. अतियारगुरुभरेणं', अक्कंतालोइए लहू होति। सुद्धो हं. ति य तुट्ठी, अतियारुण्हो य पल्हाणो॥ 252. आलोयणागुणेसू, जे ऊ एवं हवंतऽपारोक्खा। छट्ठाणयपडितेहिं, छहिँ चेव य जे अपारोक्खा // 253. संखाईया ठाणा', छहिँ ठाणेहिँ पडिताण ठाणाणं। .. जे संजया सरागा, 'एगे ठाणे विगतरागा" // 254. एताऽऽगमववहारी, पण्णत्ता राग-दोसणीहूया। __ आणाएँ जिणिंदाणं", जे ववहारं ववहरंति // 255. 'इय भणिते चोदेती", ते वोच्छिण्णा हु संपदं इहई। तेसु य वोच्छिण्णेसू, नत्थि विसुद्धी चरित्तस्स // .. 256. चोद्दसपुष्वधराणं, वोच्छेदो केवलीण वोच्छेदे। 'केसिंचि य" आदेसो, पायच्छित्तं पि० वोच्छिण्णं // 257. जं जत्तिएण सुज्झति, पावं तस्स तह देंति पच्छित्तं / जिण-चोद्दसपुव्वधरा, तविवरीता जहिच्छाए॥ 258. पारगमपारगं वा, जाणंते जस्सर जं च करणिज्ज। देति तहा पच्चक्खी, घुणक्खरसमो तु पारोक्खी" // १.सेयं (पा, ब)। 2. भएणं (मु, ला)। 3. टाणा (पा, ब, ला), सर्वत्र। 4.4 (ला), सेसा एक्कम्मि ठाणम्मि (व्य 4161) / ५.जिणंदाणं (ब)। 6. व्य 4162 / ७.एवं भणिते भणती (व्य 4163) / 8. इहयं (ब)। 9. केसिंची (व्य 4165) / 10.4 (ला)। ११.व्य 4166 / 12 कप्पं (पा, ब, ला)। १३.देंति (ब)। 14. व्य 4167 / Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 259. जा य ऊणाहिए वुत्ता', सुत्ते मग्गविराधणा। ण 'सुज्झे तीइ'२ देंतो उ, असुद्धो कं च सोधए / 260. देंता वि ण दीसंती, मास-चउम्मासियाउ सोधीओ। 'कुणमाणा वि य सोधिं', ण पासिमो 'जो व सिं देज्जा" // 261. सोहीए य अभावे, देंताण करेंतगाण य अभावे / वट्टति संपतिकाले, तित्थं सम्मत्त-णाणेहिं // 262. णिज्जवगा य ण संती, महपुरिसाणं तु तेसि वोच्छेदे / तम्हा संपयकाले, नत्थि विसुद्धी सुविहिताणं // 263. एवं तु चोइयम्मी, आयरिओ भणति ण हु तुमे णातं। पच्छित्तं कहितं तू, किं धरती किं च वोच्छिण्णं? // 264. अत्थं पडुच्च सुत्तं, अणागतं तं तु किंचि आमुसति / अत्था वि को वि सुत्तं, अणागतं चेव आमसति // 265. सव्वं पि१२ य पच्छित्तं, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थुम्मि। तत्तो च्चिय णिज्जूढं, कप्प-पकप्पो य ववहारो'२ // 266. ताणि धरंती अज्ज वि, तेसु धरतेसु कह तुम भणसि। वोच्छिण्णं पच्छित्तं?, तत्थ इमा तू परूवणया॥ 267. सपदपरूवण अणुसज्जणा य दस 'चोद्दसऽ?'५५ दुप्पसभे। अत्थि ण दीसति धणिएण विणा तित्थं च णिज्जवगे१६ // 268. पण्णवगस्स तु सपदं, पच्छित्तं चोदगस्स तमणिटुं। तं संपयं पि विज्जति, जहा तहा मे णिसामेहि // 1. दाणे (व्य 4168) / २.सुज्झइ (पा, ला), सुज्झति वि (व्य)। 3. माणे य विसोधिं (व्य 4170) / 4. संपई केई (व्य)। ५.तित्थ (ला)। ६.व्य 4171 / 7. वोच्छिन्ने (ब)। 8.4 (ला)। ९.व्य 4172 / 10. आमसति (पा, ब)। ११.व्य 4169 / 12. वि (पा, ला)। १३.व्य 4173 / 14. तु (पा)। 15. चउद्द (ब)। १६.व्य 4174 / 17. मेहिं (पा, ब, ला), व्य 4175 / Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 39 269. भुंजति चक्की भोगे, पासादे सिप्पिरयणणिम्मविते। तं दटुं' राईणं, अण्णेसिच्छा समुप्पण्णा // 270. अम्हे कारावेमो, पासादे एरिसे' त्ति इति तेहिं / चित्तकरा पेसविता, णिउणं लिहिण आणेह // 271. पासादस्सायणे मणहारितं तेहिँ चित्तकारेहिं'। लीलविहूणं णवरिं', आगारो होति सो चेव // 272. .जह रूवादिविसेसा, परिहीणा होति पागतजणस्स। ण य ते ण होंति गेहा, 'भुंजंति य तेसु ते भोगे'६ // 273. एमेव' य पारोक्खी, तदाऽणुरूवं तु सो व्व ववहरति / किं पुण ववहरितव्वं, पायच्छित्तं इमं दसहा॥ 274. आलोयण पडिकमणे, मीस 'विवेगे तहा विओसग्गे / तव छेद मूल अणवट्ठया य पारंचिए चेव // 275. एतुवरि भण्णिहिती, सवित्थरेणं तु आणुपुव्वीए। एतं पुण जह धरती, जं जत्था तं चिमाऽऽहंसु॥ 276. 'दस ता'११ अणुसज्जंती, जा चोद्दसपुव्वि पढमसंघयणे। तेणाऽऽरेणऽट्ठविहं, तित्थंतिम जाव दुप्पसभो२ // 277. दोसु तु वोच्छिण्णेसू, चोद्दसपुव्वाऽऽदिमे य संघयणे। तव पारंच-ऽणवट्ठा, णव-दस पच्छित्तवोच्छिण्णा॥ 1. दटुं (ला)। २.व्य (4177) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है- किंच न कारेति तधा, पासाए पागयजणो वि। 3. एरिसो (पा, ब, ला)। 4. व्य (4176) में गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है पासायस्स उ निम्मं, लिहावियं चित्तकारगेहि जहा। 5. नवर (व्य, ला)। 6. एमेव इमं पि पासामो (व्य 4178) / 7. एवमेव (ला)। ८.वि (व्य 4179) / 9. 4 (ला)। १०.विउस्स' (व्य 4180) / 11. दसहा (मु)। 12. तु. नि.६६८०, व्य (4181) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार हैतेण परेणऽटुविधं, जा तित्थं ताव बोधव्वं / इस गाथा के बाद प्रतियों में निम्न उल्लेख मिलता हैतम्मि कालगते तित्थं, चरित्तं च वोच्छिज्जिहीति। यह वाक्यांश गाथा का अंश नहीं है अत: टिप्पण में उल्लेख कर दिया है। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 278. सेस अट्ठहऽणुसज्जति, जा तित्थं णव दसे' य लिंगादी। 'चोदे तं" पि ण दीसति', एव भणंत गुरू भणति॥ 279. दोसु तु वोच्छिण्णेसू, अट्ठविहं देंतया करेंता य। ण य केई दीसंती, 'एव भणंतस्स चतुगुरुगा'५॥ 280. दोसु तु वोच्छिण्णेसू, अट्ठविह" देंतया करेंता य। पच्चक्खं दीसंती , जहा तहा मे णिसामेहि॥ 281. 'पंच णियंठा भणिता", पुलाग बगुसा कुसील निग्गंठा। तह य सिणाया तेसिं, पच्छित्त जहक्कम वोच्छं // . . 282. आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे तहा विओसग्गे। तत्तो य तवे छट्टे२, पच्छित्त पुलाग छऽप्पेते // 283. बगुस-पडिसेवगाणं, पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि। थेराण भवे कप्पे, जिणकप्पे५२ अट्ठधा होति // .. 284. आलोयणा विवेगो वा५, णियंठस्स दुवे भवे। विवेगो य सिणातस्स, एमेया'६ पडिवत्तिओ७ // 285. पंचव संजता खलु, नायसुतेणं कहिय जिणवरेणं। सामाइसंजतादी, पच्छित्तं तेसि वोच्छामि // 286. सामाइसंजताणं, पच्छित्ता छेद-मूलरहितऽ8। थेराण जिणाणं पुण, तवगंत२९ छव्विधं होति // 1. दस (ला)। 2. चोदेत (पा)। 3. दीसदि (पा, ब, मु)। 4. भणते (ब)। 5. वदमाणे भारिया चउरो (व्य 4182) / 6. “णेसुं (व्य 4183) / 7. “विह (ब)। 8. दंसंती (ला, ब, पा)। 9. पंचेव नियंठा खलु (व्य 4184) / 10. सिणाओ (मु, ला)। 11. विउस्स' (व्य 4185) / 12. छेदे (मु)। 13. 4 (ला)। 14. व्य 4186 / 15. य (व्य 4187) / 16. एमेव या (पा, ला)। 17. "वत्तीओ (ब)। 18. कहिता (ब)। 19. इस गाथा का उत्तरार्ध (व्य 4188) में इस प्रकार है तेसिं पायच्छित्तं, अहक्कम कित्तइस्सामि। 20. च्छेद (पा, ब)। 21. तवमंतं (व्य 4189) / Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 287. छेदोवट्ठावणिए, पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि।। थेराण जिणाणं पुण, मूलंतं अट्ठहा होति' // 288. परिहारविसुद्धीए, मूलंता अट्ट होंति पच्छित्ता। थेराण जिणाणं पुण, 'छव्विहमेतं चिय तवंतं" // आलोयणा विवेगे य, ततियं तु ण विज्जती। सुहुमम्मि संपराए, अहक्खाते तधेव य॥ 290. बकुस-पडिसेवगा खलु, इत्तिरि-छेदा य संजता दोण्णि। जा 'तित्थऽणुसज्जंती', अत्थि हु तेणं तु पच्छित्तं // -- 291. जदि अत्थि ण दीसंती, केइ 'करेंता उ भण्णती सुणसु"। दीसंतु उवाएणं, कुव्वंता तत्थिमं णातं // 292. जह धणिओ सावेक्खो, निरवेक्खो चेव होति दुविधो तु। धारणग संतविभवो, असंतविभवो य सो दुविधो॥ 293. संतविभवो तु जाहे, व मग्गितो ताहें देति तं सव्वं / जो पुण असंतविभवो, तस्स' विसेसो इमो होति॥ 294. निवेक्खों तिण्णि चयती, 'अत्ताण धणं च तह य२० धारणगं। सावेक्खो पुण रक्खति, अप्पाण धणं च धारणगं // 295. जो तू असंतविभवो, दब्भे घेत्तूण पडति पाडेणं१२ / सो अप्पाण धणं पि य, धारणगं चेव णासेति // 296. जो पुण सहती कालं, सो अत्थं लहति 'खखति यतं च। न किलिस्सति य सयं पी, एव उवाओ तु सव्वत्थ॥ १.व्य 4190 / 2. मूलं वा (पा)। ३.छव्यिध छेदादिवजं वा (व्य 4191) / 4. सुहम' (पा, ब, ला), सुहुमे य (व्य 4192) / 5. इत्तरि (व्य 4193) / 6. सज्जंति इ (पा), तित्थं अणु (ला, ब, मु)। 7. करेंतत्थ धणियदिटुंतो (व्य 4194) / 8. मग्गति (व्य 4195) / 9. तत्थ (व्य)। 10. अप्पाण धणागमं च (व्य 4196) / 11. दब्भं (मु), पाए (व्य 4197) / 12. पाडेण (ब)। 13. 'क्खती (व्य 4198) / 14. किलस्सति (ब)। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 297. जो तु 'धरेज्ज अवटुं", असंतविभवो सयं। कुणमाणो य कम्मं तु, णिव्विसे' करिसावणं // 298. अणमप्पेण कालेणं, सो तगं तु विमोयए। दिलुतेसो भणितो, अत्थोवणओ इमो तस्स // 299. संतविभवेहि तुल्ला, धिति-संघयणेहि जे उ संपण्णा। ते आवण्णा सव्वं, वहंति निरणुग्गहं धीरा' / 300. संघतण-धितीहीणा, असंतविभवेहि होंति तुल्ला तु। निरवेक्खो जदि तेसिं, देति तओ ते ‘ण सुज्झति // 301. ते तेण परिच्चत्ता, लिंगविवेगं तु काउ वच्चंति। तित्थुच्छेदो ‘एवं, अप्पा वि य चत्तों इणमो उ" // 302. ते उद्वेत्तु पलाणा, पच्छा एकाणिओ तओ होति। ताहे किं :तु करेतू"?, एवं अप्पा परिच्चत्तो // 303. सावेक्खो पवयणम्मिर, अणवत्थपसंगवारणाकुसलो। चारित्तरक्खणट्ठार, अव्वोच्छित्तीय तु विसुज्झे॥ 304. कल्लाणगमावण्णे, अतरंत जहक्कमेण३ काउं जे। दस कारेंति चतुत्थे, तब्बिउणाऽऽयंबिलतवे य" // 305. एक्कासण५ पुरिमड्ढा, णिव्विगती चेव बिगुणबिगुणाओ। पत्तेयाऽसह दाण६, कारेंति व सण्णिगासं ति॥ 306. चउ-तिग८-दुगकल्लाणा, एगं कल्लाणगं च कारिंति। जं जो उ तरति तं तस्स", देति असहुस्स झोसेंति // 1. धारेज्ज वद्धतं (व्य 4199) / (4203) में एक ही गाथा मिलती है। 2. निवेसे (व्य)। 11. "म्मी (पा, ब, ला)। 3. गाथा 297 एवं 298 में अनुष्टुप् छंद है। 12. णटुं (व्य 4204) / 4. व्य 4200 / 13. "मेणं (ला)। 5. व्य 4201 / 14. व (व्य 4205) / 6. विणस्संति (व्य 4202) / 15. सणा (पा, ला)। 7. अप्पा एगाणिय तेण चत्तो य (व्य 4203), 16. दाउं (व्य 4206) / "ऊ (ब, ला)। 17. तु (ला, व्य)। 8. 4 (ब)। १८.ति (पा)। 9. करेतत्थ (पा)। 19. तस्सा (ला)। 10. 301 एवं ३०२-इन दो गाथाओं के स्थान पर व्य 20. व्य 4207 / Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 307. एवं सदयं दिज्जति, जेणं सो संजमे थिरो होति / __ण य सव्वहा ण दिज्जति, अणवत्थपसंगदोसाओ / 308. तिलहारगदिटुंतो, पसंगदोसेण जह वधं पत्तो। जणणी य थणच्छेदं, पत्ता अणिवारयंती तु // 309. णिब्भत्थणाइ बितियाय, वारितो जीवितादि आभागी। नेव य थणछेदादी, पत्ता जणणी य अवराहं // 310. इय अणिवारितदोसा, संसारे दुक्खसागरमुवेंति / विणियत्तपसंगा पुण, करेंति संसारवोच्छेदं / 311. एवं धरती सोही, देंत करेंता वि एव दीसंति। जं पि य दंसण-णाणेहि, भाति तित्थं ति तं सुणसु // 312. एवं तु' भणंतेणं, सेणियमादी वि थाविया समणा। समणस्स 'उ सुत्तम्मी'', नत्थी णरगेसु उववातो॥ 313. जं पि य हु एक्कवीसं, वाससहस्साइँ होहिती तित्थं / . तं मिच्छा सिद्धी वा, सव्वगतीसुं पि' होज्जाहि // अण्णं च इमो दोसो, पच्छित्ताभावतो तु पावति हु। जह न वि चिट्ठति चरणं, तत्थ इमं गाहमाहंसु // ___315. पायच्छित्ते असंतम्मि, चरित्तं पि११ ण चिट्ठए१२ / चरित्तम्मि असंतम्मि, तित्थे णो सचरित्तया॥ 316. 'अचरित्तयाए तित्थे, णेव्वाणं पि२३ ण गच्छती। णिव्वाणम्मि" असंतम्मि, सव्वा दिक्खा णिरत्थिगा५ // 314. १.व्य 4208 / 8. य जुत्तस्स य (व्य 4213) / २.व्य (4209) में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा 9. व (व्य 4214) / मिलती है 10. गाथाओं के क्रम में व्य में यह गाथा नहीं है। दिद्वैतो तेणएण, पसंगदोसेण जध वहं पत्तो। 11. तु (पंक 2312) / पावंति अणंताई, मरणाइ अवारियपसंगा॥ 12. वट्टति (व्य 4215), चिट्ठती (नि 6678) / ३.व्य 4210, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.१। 13. रित्ताय तित्थस्स निव्वाणम्मि (व्य 4216), तित्थम्मि ४.खलु (व्य 4211) / असंतम्मि व्वाणं तु (पंक 2313), चरित्तम्मि 5. जाति (पा, ला)। असंतम्मि निव्वाणं पि (नि 6679) / ६.व्य 4212 / 14. णं पि (ब)। 7. ते (पा, ब, ला)। १५.निरत्थया (व्य)। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 317. ण विणा तित्थं णियंठेहिं, णियंठा व अतित्थगा। छक्कायसंजमो जाव, ताव 'दुण्हाऽणुसज्जणा" // 318. सव्वण्णूहिँ परूविय, छक्काय महव्वता य समितीओ। स च्चेव य पण्णवणा, संपयकालम्मि' साहूणं / 319. तं णो वच्चति तित्थं, दंसण-णाणेहि एव सिद्धं तु। णिज्जवगा वोच्छिण्णा, जं पि य भणितं तु तं ण तहा॥ 320. सुण जह णिज्जवगऽत्थी, दीसंति जहा य णिज्जविज्जता। इह दुविधा णिज्जवगा, अत्ताण परे य बोधव्वा // . . 321. पादोवगमे इंगिणि, दुविधा खलु होति आयणिज्जवगा। णिज्जवणा य परेण व, भत्तपरिण्णाय बोद्धव्वा // 322. पादोवगमे इंगिणि, दोण्णि वि चिटुंतु ताव मरणाई। भत्तपरिण्णाएँ विधि, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए॥ 323. पव्वज्जादी० काउं, णेयव्वं ताव जाव वोच्छित्ती। पंच तुलेऊण य सो, भत्तपरिण्णं परिणतो य॥ 324. सपरक्कमे२ य अपरक्कमे या वाघात आणुपुव्वीए / सुत्तत्थजाणएणं, समाधिमरणं तु कातव्वं // 325. भिक्ख५-वियारसमत्थो, जो अण्णगणं तु गंतु चाएति५ / एस सपरक्कमो खलु, तव्विवरीतो भवे इतरो॥ 326. एक्केक्कं तं दुविधं, णिव्वाघातं तहेव वाघातं / वाघातो वि य दुविधो, 'कालाइधरो व्व इतरो व्व'७॥ 1. णुसज्जणा दोण्हं (व्य 4217) / 2. काले वि (व्य 4218) / ३.सिद्धिं (ला)। 4. व्य 4219 / ५.व्य 4220 // 6. वगो (ला, ब)। 7. व्य 4221 / 8. "गम (ब)। ९.व्य 4222 / 10. पावज्जादी (पा, ब, मु)। 11. उ (व्य 4223), नि 3812 / 12. सपरि (पा, ब)। 13. च शब्दान्निाघाते च समुपस्थिते (व्यमटी)। 14. व्य 4224, आनि 282 / 15. भिक्खु (ला, ब)। १६.वाएति (व्य 4225) / 17. कालऽतियारो य इतरो वा (व्य 4226) / ' Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 पाठ-संपादन-जी-१ 327. सपरक्कमं तु तहियं, निव्वाघातं तहेव वाघातं / वोच्छामि समासेणं, ठप्पं अपरक्कम दुविधं // 328. तं पुण अणुगंतव्वं, दारेहि इमेहि आणुपुव्वीए। गणणिसिरणादिएहिं', तेसि विभागं तु वोच्छामि // 329. गणणिसिरणारे परगणे, सिति संलेहे अगीतऽसंविग्गे। एगाऽऽभोगण अण्णे, अणपुच्छ परिच्छ आलोए / 330. ठाण वसही पसत्थे, णिज्जवगा दव्वदायणा' चरिमे। हाणऽपरितंत णिज्जर, संथारुव्वत्तणादीणि / / 331. सारेऊण य कवयं, णिव्वाघातेण चिंधकरणं च। - 'वाघाते जतणा या'६, भत्तपरिण्णाय कायव्वा / 332. गणणिसिरणम्मि उ विही, जो कप्पे वण्णितो उ सत्तविहो। * सो चेव णिरवसेसो, भत्तपरिण्णाएँ 'इहई पि" // 333. णिसिरित्तु गणं वीरो, गंतूण य परगणं तु सो ताहे। कुणति- दढव्ववसायो, भत्तपरिणं परिणतो य॥ 334. किं 'कारणऽवक्कमणं'", थेराण इहं तवोकिलंताणं? / अब्भुज्जतम्मि मरणे, कालुणिया झाणवाघातो // 335. सगणे आणाहाणी, अप्पत्तिय होति एवमादीहिं। परगणे गुरुकुलवासो, अप्पत्तियवज्जितोर२ होति // 336. उवगरणगणणिमित्तं, तु वुग्गहं३ दिस्स वावि गणभेदं / ___ बालादी थेराण व, उचियाकरणम्मि वाघातो"। 1. निसरणा (व्य ४२२७),सर्वत्र। 2. निसरणे (व्य 4228) / ३.नि 3814 / 4. दावणं (व्य 4229) / ५.नि 3815 / 6. अंतोबहिवाघातो (व्य ४२३०,नि 3816) / 7. दसमम्मि (व्य 4231, नि 3819) / 8. कुणती (ला, ब)। 9. 'अवक्कमणं (मु), चंकमणं (नि 3820) / 10. व्य 4232 / 11. मादीयं (व्य 4233) / 12. अपत्ति (पा)। 13. वुग्गहो (ब)। 14. व्य 4234 / Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 337. सिणेहो पेलवी होती, णिग्गते उभयस्स वि। आहच्च वावि वाघाते, णो सेहादि' विउब्भमोरे // 338. दव्वसिती भावसिती', दव्वसिती होति दारुणिस्सेणी। भावसिति संजमो जा, तीय वि भंगा इमे होंति // 339. संजमठाणाणं कंडगाण लेस्साठितीविसेसाणं / उवरिल्लपरक्कमणं, भावसिती केवलं जाव // 340. भावसिती अहिगारो, विसुद्धभावेण तत्थ ठातव्वं / / ण हु उड्डगमणकज्जे, हेट्ठिल्लपदं पसंसंति // .. 341. संलेहणा उ तिविधा, जहण्ण मज्झा तहेव उक्कोसा। छम्मासा वरिसं वा, बारसवरिसा जहाकमसो० // 342. चिट्ठतु जहण्ण मज्झा, उक्कोसं तत्थ ताव वोच्छामि। जं संलिहिऊण मुणी, साहेती 'अप्पणो अटुं'१२ // 343. चत्तारि विचित्ताई, विगतीणिज्जूहिताइँ चत्तारि। दोसु चउत्थाऽऽयामं, अविगिट्ठ विगिट्ठ कोडेक्कं // 344. संवच्छराणि चउरो, तवं५ विचित्तं चउत्थमादीयं / काऊण सव्वगुणितं, पारेती उग्गमविसुद्धं // 345. पुणरवि चउरण्णा तू, विचित्त काऊण विगतिवज्जं तु। पारेति सो महप्पा, णिद्धं पणियं 'च वजेति.१७॥ 1. स होइ (मु,ब)। 9. इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में 'सिति त्ति गतं' 2. व्य 4235, नि 3821 / का उल्लेख है। 3, 4. सीती (ला, ब, पा)। 10. तु. व्य 4238 / व्य (4236), तथा नि (3822) में इस गाथा के 11. चिटुंतु (ब)। स्थान पर निम्न गाथा मिलती है 12. अत्तणो अत्थं (व्य 4239) / दव्वसिती भावसिती, अणुयोगधराण जेसिमुवलद्धा। 13. व्य (4240) तथा नि (3824) में गाथा का उत्तरार्ध न हु उड्डगमणकज्जे, हेट्ठिल्लपदं पसंसंति // इस प्रकार है६. लेसा (मु)। एगंतरमायाम णातिविगिद्धेऽविगिट्टे य। व्य 4237, नि 3823 / 14. राई (मु, ब)। 8. गा. 338 और 340 के स्थान पर नि और व्य में एक 15. होति (व्य 4241) / ही गाथा है। देखें गा. 338 के टिप्पण की गाथा। 16. रण्णे (व्य 4242) / 17. ववहोइ (ला)। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 346. अण्णा दोण्णि समाओ, चउत्थ काऊण पारें आयामं। कंजीएणं तु ततो, अण्णेक्कसमं 'दुहा काउं'२॥ 347. तत्थेक्कं छम्मासं, चतुत्थ छटुं च काउ पारेति। आयामेणं णियमा, बितिए छम्मासिय विगिटुं॥ 348. अट्ठम दसम दुवालस, 'काउं पारे तमेव आयामं५ / अण्णेक्कहायणं तू, कोडीसहितं तु काऊणं // 349. आयाम-चउत्थादी, काऊण अपारिए पुणो अण्णं / जं कुणयाऽऽयामादी, तं भण्णति कोडिसहितं तु // आयंबिल उसिणोदेण पारें हावंत' आणुपुव्वीए। . जह दीव-तेल्ल-वत्ती, खओ समं तह सरीरायु // 351. बारसमम्मि य वरिसे, जे मासा उवरिमा उ चत्तारि / पारणगे. तेसिं तू, एक्कंतरगं इमं धारे // 352. तेल्लस्स उ गंडूसं, णीसढे जाव खेलसंवुत्तो। तो णिसिरे खेलमल्ले१२, किं कारण? गल्लधरणं तु९२ // 353. लुक्खत्ता मुहतं, मा हु खुभेज्ज त्ति तेण धारेति। 'माऽह'१३ णमोक्कारस्सा, अपच्चलो सो 'हु होज्जाहि // * 354. उक्कोसिगा तु एसा, संलेहा मज्झिमा जहण्णा य। संवच्छर छम्मासा, एमेव य मास-पक्खेहिं५ / / 355. एत्तो एगतरेणं, संलेहेणं खवेत्तु अप्पाणं / कुज्जा भत्तपरिणं, इंगिणि पाओवगमणं च // 1. पारि (ब, व्य)। 2. इमं कुणति (व्य 4243) / 3. आयंबिलेण (व्य 4244) / . 4. "सिए (ब)। 5. काऊ (ब), काऊणायंबिलेण पारेति (व्य 4245) / 6. गाथाओं के क्रम में व्य में यह गाथा नहीं है। 7. हावंतो (ला, ब, पा)। 8. व्य 4246 / 9. उ (ब)। 10. धीरे (पा, ब)। 11. मत्ते (पा, मु)। 12. गाथा 351 और ३५२-इन दोनों गाथाओं के स्थान पर (व्य 4247) में निम्न गाथा हैपच्छिल्लहायणे तू, चउरो धारेंतु तेल्लगंडूसं। निसिरे खेल्लमल्लम्मि, किं कारण गल्लधरणं तु॥ 13. हु (व्य 4248) / 14. हविज्जाहि (व्य, ला)। 15. व्य 4249 / १६.वा (व्य 4250) / Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 356. अग्गीतसगासम्मी, भत्तपरिणं तु जो करेज्जाहि। चतुगुरुगा तस्स भवे, किं कारण? जेणिमे दोसा॥ 357. णासेति अगीतत्थो, चउरंगं सव्वलोगसारंगं / नट्ठम्मि य चतुरंगे, ण हु सुलभं होति चतुरंग' / / 358. किं पुण तं चउरंगं, जं णटुं दुल्लभं पुणो होति? / माणुस्सं धम्मसुती, सद्धा तह' संजमे विरियं / 359. किह णासेति अगीतो, 'पढम-बितियएहिँ" अद्दितो सो उ। ओभासे कालियाए', तो निद्धम्मो त्ति छड्डेज्जा // . . 360. अंतो वा बाहिं वा, दिया' व रातो व सो विवित्तो तु। अट्ट-दुहट्ट-वसट्टो, पडिगमणादीणि कुज्जाहि॥ 361. मरिऊण अट्टझाणो', 'गच्छेज्ज व तिरिय-वणसुरेसुं० वा। संभरिऊण य वेरं, पडिणीयत्तं करेज्जाहि॥ 362. अहवावि सव्वरीए, मोयं देज्जाहि जायमाणस्स। __सो डंडियादि१२ होज्जा, रुट्ठो साहे णिवादीणं // 363. कुज्जा कुलादिपत्थारं, सो वा रुट्ठो तु गच्छे मिच्छत्तं / तप्पच्चयं तु दीहं, भमेज्ज संसारकंतारं // 364. सो 'दिवो य विगिंचिंतों, संविग्गेहिं तु अण्णसाधूहिं / आसासियमणुसिट्ठो५, मरणजढ पुणो वि पडिवण्णो॥ 365. एते अण्णे य 'बहू, तहियं दोसा'१६ सपच्चवाया य। एतेहि कारणेहिं, अग्गीते ण कप्पति परिण्णा // १.व्य 4251 / २.व्य ४२५२,नि 3826, पंक 2389 / 3. तव (व्य 4253) / 4. बितिएहि (मु)। 5. कालिमाए (ला, मु)। ६.व्य 4254 / ७.दिवा (व्य 4255) / 8. अट्टज्झाणो (ब)। 9. तिरिया (ब)। १०.गच्छे तिरिएसु वणयरेसुं (व्य 4256) / ११.रुट्ठो (व्य)। 12. दंडि (व्य 4257) / 13. च (व्य 4258) / 14. उ विविंचिय दिट्ठो (व्य 4259) / 15. “सट्ठो (मु, ब, ला)। 16. तहिं बहवे दोसा य (व्य 4260, नि 3829) / - Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 366. तम्हा पंच व छ स्सत्त, वावि जोयणसते समहिए वा। गीतत्थपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो॥ 367. एक्कं व दो व तिण्णि' व, उक्कोसं बारसेव वासाई। गीतत्थपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो॥ 368. गीतत्थदुल्लभं खलु, 'पडुच्च कालं तु" मग्गणा एसा। ते खलु गवेसमाणे, खेत्ते काले य परिमाणं / / 369. . तेण य गीतत्थेणं, पवयणगहितत्थसव्वसारेणं / णिज्जवगेण समाधी, कातव्वा उत्तिमट्ठम्मि / 370. 'एवमसंविग्गे वी'६, पडिवजंतस्स होंति चउगुरुगा। किं कारणं तु? तहियं', जम्हा दोसा हवंति इमे॥ 371. णासेति असंविग्गो, चउरंगं सव्वलोगसारंगं / नट्ठम्मि य चउरंगे, ण हु सुलभं होति चउरंग // 372. आहाकम्मिय पाणग, पुप्फा सीया' य बहुजणे णातं / सेज्जा संथारो वि य, उवधी वि य होति अविसुद्धो॥ 373. एते अण्णे य तहिं, बहवे दोसा सपच्चवाया य। एतेण कारणेणं, असंविग्गे ण कप्पति परिण्णा // तम्हा पंच व छ स्सत्त, वा वि जोयणसते समहिए वा२। संविग्गपादमूलं, परिमग्गेज्जा. अपरितंतो॥ 1. या (ब),गाथा का पूर्वार्द्ध व्य (4261) और नि (3830) 6. असंविग्गसमीवे वि (व्य 4265) / में इस प्रकार है 7. गुरुगा उ (व्य)। ___पंच व छस्सत्तसते, अधवा एत्तो वि सातिरेगतरे। 8. जहियं (व्य)। २.ति वि (पा),तिसि (ला)। 9. व्य 4266, नि 3834 / 3. वासाणि (व्य 4262), वरिसातिं (नि 3831) / १०.सेया (व्य 4267), सिंगा (नि 3835) / . 4. कालं तु पडुच्च (व्य 4263, नि 3832) / 11. य पच्च' (व्य 4268, नि 3836) / ५.नि 3833, व्य 4264, ला और पा प्रति में गाथा के अंत १२.व्य (4269) तथा नि (3837) में गाथा का पूर्वार्द्ध में अग्गीय त्ति' ऐसा उल्लेख मिलता है। यह विषय की इस प्रकार हैसमाप्ति का संकेत है। .. पंच व छस्सत्तसया अहवा एत्तो वि सातिरेगतरे। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य . 375. एक्कं व दो व तिण्णि व, उक्कोसं बारसेव वासाई। संविग्गपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो / / संविग्गदुल्लभं खलु, कालं तु पडुच्च मग्गणा एसा। ते खलु गवेसमाणे, खेत्ते काले य परिमाणं // 377. 'तेण य" संविग्गेणं, पवयणगहितत्थसव्वसारेणं। णिज्जवगेण समाधी, कातव्वा उत्तिमट्ठम्मि // 378. एगम्मि उ णिज्जवगे, विराधणा होति कज्जहाणी य। सो सेहा वि य चत्ता, पावयणं चेव उड्डाहो // 379. तस्सट्ठगतोभासण, सेहादिअदाणे सो ‘य परिचत्तो"। 'दातुं व अदाउं वा", हवंति सेहा वि णिद्धम्मा // 380. कूवति" अदिज्जमाणे, मारेंति बल ति पवयणं चत्तं। सेहा य जं.२ पडिगता, जणे अवण्णं पगासेंति // 381. सयमेवाऽऽभोए]", अतिसेसि णिमित्तिओ५ व आयरिओ। देवयणिवेदणेण व, जह नगरे कंचणपुरम्मि॥ 382. कंचणपुर गुरुसण्णा, देवयरुयणा'६ य पुच्छ कहणा य। __पारणग खीर रुहिरं, आमंतण संघणासणया // 383. 'अहवा वि सो व्व परतो 18, पारगमिच्छंत९ ऽपारगे गुरुगा। असती. खेमसुभिक्खे, णिव्याघातेण पडिवत्ती॥ 1. वरिसाइं (नि 3838) / 9. दातु व्व (ब)। २.व्य 4270 / १०.व्व (पा, ला)। 3. व्य 4271, नि 3839 / ११.कूयति (व्य 4275) / 4. तम्हा (व्य 4272, नि 3840) / 12. सं (ला),जे (व्य)। 5. इस गाथा के बाद पा और ला प्रति में 'संविग्गे त्ति दारं' 13. पदाणे वि (नि 3843) / का उल्लेख है। 14. एत्तु (पा)। 6.4 (पा, ब)। १५.णिमित्तं यो (ला, पा)। ७.व्य 4273, नि (3841) में इस गाथा के स्थान पर पाठ- 16. रुवणा (व्य 4278) / भेद के साथ निम्न गाथा मिलती है 17. व्य और नि (3846) में इस गाथा में क्रम-व्यत्यय है, __ एगे उ कज्जहाणी, सो वा सेहा य पवयणं चत्तं / कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 2 / तव्वण्णिए निमित्ते, पत्तो चत्तो य उड़ाहो॥ 18. परतो सयं व णच्चा (व्य 4276), नि 3844 / / 8. परिच्चत्तो (व्य 4274), नि 3842 / 19. "मिच्छंता (पा)। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 51 384. सयं चेव चिरावासो', वासावासे तवस्सिणं / तेणरे तस्स विसेसेणं, वासासु पडिवज्जणं / / 385. असिवोमादीएसु तु, पडिवजंते इमे भवे दोसा। संजम-आयविराधण, आणादीया य दोसा उ // 386. असिवादीहि वहंता, तं उवगरणं व संजता चत्ता। उवहिं विणा य छड्डण, चत्तो सो पवयणं चेव // 387. एगो संथारगतो, बितिओ संलेहें ततिय पडिसेधो। अपहुच्चंतऽसमाही, तस्स व तेसिं च असमाही / 388. हवेज्ज जदि वाघातो, बितियं तत्थ ठावते। चिलिमिलिं' अंतरे काउं', बहिं वंदावए जणं // 389. अणपुच्छाएँ गणस्सा, पडिच्छए तं जती गुरू गुरुगा। . . चत्तारि तु विण्णेया, गच्छमणिच्छंतर जं पावे // 390. पाणगादीणि१२ जोग्गाणि,जाणि तस्स३ समाहिते। अलंभे तस्स जा हाणी४, परिक्केसो य जायणे१५ // 391. असंथरं अजोग्गो वा, जोगवाही व ते१६ भवे। एसणादिपरिक्केसो१७ जा य तस्स विराधणा८ // 392. अपरिच्छणम्मि गुरुगा, दोण्ह वि अण्णोण्णगं जधाकमसो। होति विराहण दुविधा, एक्को एक्को व जं पावे // 1. चिरं वासो (व्य 4277, नि 3845) / 2. तेणं (मु, ब, ला)। 3. "ज्जणा (व्य)। 4. य (ब)। ५.व्य 4279, तु.नि 3847 / 6. असतीए (व्य 4280), नि (3848) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है अण्णायपुच्छ असमाही, तस्स व तेसिंच असती य। 7. मिणि (व्य 4281), "मिणी (नि 3849) / 8. चेव (व्य, नि)। 9. गच्छस्स (व्य 4282) / १०.व (व्य, ला)। 11. च्छंते (पा, ब)। 12. "दीण (पा, ब)। 13. तत्थ (नि)। 14. ठाणा (नि 3850) / १५.व्य 4283 / 16. ज्जइ (पा, ब), जइ (मु)। 17. “णाए परि (व्य 4284) / 18. नि 3851 / १९.व्य 4285 / Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 जीतकल्प सभाष्य 393. तम्हा 'परिच्छणा खलु", दव्वे भावे य होति दोहं पि। तहियं तु जो परिच्छति, दव्वपरिच्छाएँ ते इणमो॥ 394. मोदणपयकढियादी', दव्वे आणेह मे त्ति तो उदिते। जदि उवहसंति ते तू, अहो इमो विगयगेहि त्ति // 395. किह मोच्छिइ त्ति भत्तं?, तेसेवं दव्वओ परिच्छा उ। भावे कसाइज्जती, तेसि सगासे ण पडिवज्जे // 396. अह पुण विरूवरूवे, आणीत दुगुंछते. भणंतऽण्णं / आणेमो त्ति ववसिते, पडिवज्जति तेसि सो पासे // 397. एवं भासी' ते तू, परिच्छए दव्व-भावओ विधिणा। ते वि य तं तु परिच्छे, दुविधपरिच्छाएँ इणमो तु॥ 398. कलमोयणो य पयसा, अण्णं व सभावअणुमतं तस्स। उवणीतं जो कुच्छति', 'दव्वपरिच्छाएँ सो सुद्धो" / 399. भावे पुण पुच्छिज्जति, किं संलेहो कतो त्ति ण कतो त्ति? इति उदिते सो ताहे, हंतूणं अंगुलिं दाए // 400. पेच्छह ता मे एतं, किं कतो ण कतो त्ति एव उदितम्मि। भणति गुरू तो ण तओ, एवं चिय२ ते ण संलीढं / / 401. ण हु ते दव्वसंलेहं, पुच्छे पासामि ते किसं। कीस ते अंगुली भग्गा?, भावं संलिहमाउर३ ! / / 1. च्छणं तू (व्य 4286) / 7. भासो (पा, ला),व्य और नि में गाथाओं के क्रम में यह 2. गाथा का उत्तरार्ध व्य में इस प्रकार है गाथा नहीं है। संलेह पुच्छ दायण, दिटुंतोऽमच्च कोंकणए। 8. कुंछइ (ला, मु)। 3. “यादि (पा, ला, ब), व्य (4287) में गा. 394 एवं 9. तं तु अलुद्धं पडिच्छंति (व्य, 4289, नि 3854) / 395 के स्थान पर निम्न गाथा मिलती है- 10. सल्लेहो (पा, ब, ला)। कलमोदण-पयकढियादि, दव्वे आणेह मे त्ति इति उदिते। ११.व्य (4290) में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा हैभावे कसाइजंति, तेसि सगासे न पडिवज्जे॥ अज्जो संलेहो ते, किं कतो न कतो ति एवमुदियम्मि। 4. तु.नि 3852, 3853 / भंतुं अंगुलि दावे, पेच्छह किं वा कतो न कतो॥ 5. दुगुच्छए (पा), दुगुंछिते (व्य 4288) / 12. चियं (ब)। 6. तो (व्य)। 13. व्य 4291, नि 3855, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.३। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 402. भावो च्चिय एत्थं तू, संलिहियव्वो सदा पयत्तेणं। तेणाऽऽयट्ट साहे, दिटुंतोऽमच्च-कोंकणगे॥ 403. रण्णा कोंकणगाऽमच्चा, दो वि णिव्विसया कता। दोद्धिए' कंजियं छोढुं, कोंकणो' तक्खणा गतो॥ 404. 'भंडी बइल्लए" काए, अमच्चो जा भरेति' तु। ताव पुण्णं तु पंचाहं, णलिए णिधणं गतो // 405. एवं जेहिं तु संलीढो, भावो ते तू साहगा। असंलीढे ण साति, अमच्चो इव ते खलु॥ 406. इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुण। 'ण चेयं० ते पसंसामो, किसं साधु! सरीरगं॥ एवं परिच्छिऊणं, जदि१ सुद्धो ताहें तं पडिच्छंति। ताहे य अत्तसोधिं, करेति विधिणा इमेणं तु॥ 408. आयरियपादमूलं, गंतूणं सति परक्कमे१२ ताहे। सव्वेण अत्तसोधी, 'परसक्खीयं तु कातव्वा // 409. जह सुकुसलो वि वेज्जो, अण्णस्स कहेति अप्पणो वाधी"। वेज्जस्स य सो सोतुं, तो परिकम्म५ समारभतिः // 410. 'जाणतेण वि एवं 17, पायच्छित्तविधिमप्पणो८ णिउणं। तह वि य पागडतरगं, आलोएतव्वगं होति // ... 1. दोडिए (व्य 4292) / 11. जहि (ब)। 2. कोंकणा (पा, ला)। .. 12. परि (ब, ला)। 3. नि 3856, कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं.४। 13. कायव्या एस उवदेसो (व्य 4295, नि 3859) / 4. भंडिओ बहिलए (पा), भणिओ बहिलए (ला), 14. वाहिं (व्य 4296) / . हिंडितो बहिले (नि 3857) / 15. पडिक' (व्य, नि 3860) / 5. भरति (ला)। 16. ओनि (795) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है६. णेलिए (पा, ला), पुण्णे (नि)। सोऊण तस्स विज्जस्स, सो वि परिकम्ममारभइ। 7. व्य 4293 / 17. “एयं (ब), एवं जाणंतेण वि (ओनि 796) / 8. तु (ब)। 18. "प्पणा (ब)। 9. कुरु (व्य ४२९४,नि 3858) / 19. सम्म (ओनि)। - १०.णो वयं (नि)। 20. व्य 4297, नि 3861 / Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 411. छत्तीसगुणसमण्णागतेण तेण वि अवस्स कातव्वा। आलोयण निंदण' गरहणा य ण पुणो यो बितियं ति॥ 412. किं कारणमालोयण, एव पयत्तेण होति दातव्वा?। भण्णति सुणसू इणमो, आलोयंतस्स जे उ गुणा॥ 413. आयार विणयगुण कप्पदीवणा अत्तसोहि उजुभावो। अज्जव मद्दव लाघव, तुट्ठी पल्हायजणणं च // 414. पव्वज्जादी आलोयणा तु तिण्हं चतुक्किय विसोही। ___जह अप्पणो तह परे, कातव्वा उत्तिमट्ठम्मिः / / 415. तिण्हं ती णाणादी, दव्वादि चउक्कगं मुणेतव्वं। जो अतियारो तेसू, कत आलोएति' तं सव्वं // 416. णाणे वितहपरूवण, जं वा आसेवितं तदट्ठाए। चेतणमचेतणं वा, दव्वे खेत्तादिसु इमं तु॥ 417. णाणणिमित्तं अद्धाणमेति ओमे वि' अच्छति तदट्ठा। णाणं च 'आगमेस्सइ, कुणती'५० परिकम्मणं देहे // 418. पडिसेवति विगतीओ, मेहादव्वे१२ व एसती पियति। वायंतस्स व१३ किरिया, कता तु पणगादिहाणीए / / 419. एमेव दंसणम्मि वि, सद्दहणा णवरि तत्थ" णाणत्तं / एसण इत्थीदोसे, वतं ति चरणे सिया से वा५ // 1. निंद (ला)। के साथ मिलती है२.वि (पा, ला)। नाणनिमित्तं आसेवियं तु वितहं परूवियं वावि। 3. व्य (4298), नि (3862) तथा प्रकी (2895) में इस चेतणमचेतणं वा, दव्वं सेसेसु इमगं तु॥ गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है 9. य (व्य 4304), व (मु, ब, ला)। परसक्खिगा विसोधी, सुट्ठ वि ववहारकुसलेणं। 10. मेस्सं ति कुणति (व्य)। 4. व्य 4301, नि 3865, पंक 1310, मूला 387 / ११.नि 3868 / 5. पाव' (पा, ला, मु)। 12. मेझं दव्वं (व्य 4305), मज्झे दव्वे (नि 3869) / 6. मटुंति (नि 3866), उत्त' (व्य 4302) / 13. वि (नि)। 7. आलोए (ला)। 14. तत्थं (ला)। 8. व्य (4303) एवं नि (3867) में यह गाथा कुछ अंतर १५.व्य 4306, नि 3870 / Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 420. अहवा तिगसालंबेण, दव्वमादी चउक्कमाहच्च'। आसेवितं णिरालंबओ व आलोयए तं तु // 421. पडिसेवणातियारा, जदि वीसरिता कहिंचि होज्जाहि। तेसु कह' वट्टितव्वं, सल्लुद्धरणम्मि समणेणं? // 422. जे मे जाणंति जिणा, अवराहे जेसु जेसु ठाणेसु। ते हं आलोएउं, उवट्ठितो सव्वभावेणं // 423. एवं आलोएंतो', विसुद्धभावपरिणामसंजुत्तो। आराहओ तह वि सो, गारवपलिकुंचणारहितो // .424. ठाणं पुण केरिसगं, होति पसत्थं तु तस्स जं जोग्गं?। भण्णति जत्थ ण होज्जा, झाणस्स उ तस्स वाघातो // 425. गंधव्य-नट्ट-जड्डुऽस्स-चक्क-जंत-ऽग्गिकम्म-फरुसे य। . तिक्क-रयग-देवड", डोंबिल-पाडहिय-रायपहे२ // 426. चारग-कोट्टग-कल्लाल, 'करकए पुप्फ-दगसमीवे य१३ / 'आराम अहेवियडे "", णागघरे'५ पुव्वभणिते 6 य॥ 427. पढम-बितिएसु कप्पे, उद्देसेसू उवस्सगा जे तु। विहिसुत्ते य णिसिद्धा, तव्विवरीते गवेसेज्जा // 428. उज्जाणरुक्खमूले", सुण्णघर ऽणिसट्टा हरितमग्गे य। एवंविधे ण ठायति', होज्ज समाधीय वाघातो // 1. 'च्चा (पा)। 2. व्य 4307, नि 3871 / 3. जा (पा, ला),जह (व्य 4308) / 4. कहं वि (नि 3872) / 5. कहं (पा)। 6. व्य ४३०९,नि 3873, प्रकी 869 / 7. 'एंति (नि 3874) / 8. व्य 4310 / 9. व्य 4311 / 10. पुरुसे (मु, व्य 4312) / 11. देवट्ट (पा)। '१२.नि 3875 / 13. करकय-पुप्फ-फल-दगसमीवम्मि (व्य 4313), करयपुप्फ-फलदगसमीवम्मि (नि 3876) / 14. आरामे अहवियडे (व्य)। 15. घडे (ला, पा)। 16. पूर्वभणित का तात्पर्य है कि यह वर्णन व्यवहार भाष्य (4312,4313) में वर्णित है। 17. भवे सिज्जा (मु, ला),व्य ४३१४,नि 3877 / 18. “णे तरुमूले (मु)। 19. अणिसट्ठ (मु)। 20. वायइ (पा)। 21. व्य ४३१५,नि 3879 / Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 जीतकल्प सभाष्य 429. इंदियपडिसंचारो, मणसंखोभकरणं जहिं णत्थि / चाउस्सालाई दुवे, अणुण्णवेऊण ठायंति // पाणगजोग्गाहारे, ठवेंति से तत्थ जत्थ ण उवेंति / अप्परिणता व सो वा, अप्पच्चय-गहिरक्खट्ठा / भुत्तभोगी पुरा जो तु', गीतत्थो वि य भावितो। 'संतेसाऽऽहारधम्मेसु', सो वि खिप्पं तु खुब्भती॥ पडिलोमाणुलोमा वा, विसया जत्थ दूरतो। ठावेत्ता तत्थ से णिच्चं, कहणा जाणगस्स वि॥ पासत्थोसण्णकुसीलठाणपरिवज्जिता तु णिज्जवगा। पियधम्मऽवज्जभीरू, गुणसंपण्णा अपरितंता // जो जारिसगो कालो, भरहेरवतेसु होति वासेसु। ते तारिसगा तइया, अडयालीसा तु णिज्जवगा // 435. 'उव्वत्त दार"२ संथार, कहग वादी य अग्गदारम्मि। भत्ते पाण वियारे, कहग दिसा जे समत्था य॥ 436. दुवालसेसु एतेसु, एक्केक्के चउरो भवे। दिसि चउसुं" एक्केक्के, अडयालीसं भवंती तु॥ 437. एवं खलु उक्कोसा, परिहायंता हवंति 'दो' च्चेव'५ / दो 'गीत किं णिमित्तं?'१६, असुण्णकरणं जहण्णेणं // 438. तस्स य चरिमाहारो, इट्ठो दातव्व तण्हछेदट्ठा। सव्वस्स चरिमकाले, अतीवतण्हा समुज्जलइ // 1. करं (नि 3878) / 2. लादि (व्य 4316) / ३.व्य और नि में इस गाथा में क्रम-व्यत्यय है। ४.गिद्धिर (नि ३८८०),व्य 4317 / ५.वि (नि 3881) / ६.संतेमा (व्य 4318) / 7. लोम अणु (मु, ब)। 8. ते (नि 3882), व्य 4319 / ९.व्य 4320, नि 3883 / 10. 'वते य (नि 3885) / 11. व्य 4322 / 12. 'त्तणाइ (नि 3884) / 13. व्य 4321 // १४.मु एवं हस्तप्रतियों में चउसु के बाद 'पुव्वे' पाठ अतिरिक्त 15. तिण्णेव (व्य 4323, नि 3886) / 16. गीयत्था ततिए (व्य)। 17. समुप्पज्जे (व्य 4324) / Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 57 439. णवविगति-सत्तओदण, अट्ठारस वंजणुच्चपाणं च। अणुपुब्विविहारीणं', समाधिकामाण उवहरई // 440. काल-सभावाणुमतो, पुव्वझुसितो 'सुतो व दिवो वा। झोसिज्जति सो वि तहा, जतणाय चउव्विहाहारों // 441. तण्हाछेदम्मि कते, ण तस्स तहियं पवत्तते भावो। अहव कहिंचुप्पज्जति, तह वि णियत्तेइ एवं तु // 442. 'किं च तं णोवभुत्तं'६ मे, परिणामासुयिं सुयिं? / दिट्ठसारो सुहं झाति, चोदणे सेव सीदते // * 443. चरिमं च एस. भुंजति, सद्धाजणणं च होति उभए वि। संजय-गिहियाणं वा, तो देंति इमीय तु विहीय // 444. तिविधं तु 'वोसिरिहीइ, सो ता" उक्कोसगाइँ दव्वाई। मग्गेत्ता जतणाए, चरिमाहारं पदंसेंति // 445. पासित्तु ताणि कोई, तीरप्पत्तस्स किं ममेतेहिं?। - वेरग्गमणुप्पत्तो, संवेगपरायणो होति // 446. सव्वं भोच्चा कोई, 'धिद्धीकारं इमेण२ किं मे? त्ति३ / वेरग्गमणुप्पत्तो, संवेगपरायणो होति // ... 447. सव्वं भोच्चा कोई, मणुण्णरसपरिणतो" हवेज्जाहि५ / तं 'चेवऽणुबंधतो '16, देसं सव्वं च गेहीया॥ 1. 'हारीण (ला)। 9. सिरेहिति ताहे (व्य 4329) / 2. हरिउं (व्य 4325), तु.नि 3887 / १०.नि 3891 / 3. सुओवइट्ठो (मु)। ११.व्य ४३३०,नि 3892 / 4. व्य 4326, नि 3888 / 12. इमेणं (पा)। ५.व्य (4327) तथा नि (3889) में गाथा का उत्तरार्ध इस 13. धिक्कार करइ इमेहि कम्मेहिं (नि 3894) / प्रकार है 14. 'सविपरि (नि)। - चरमं च एस भुंजति, सद्धाजणणं दुपक्खे वि। 15. भवे (व्य 4331, नि)। 6. किं पत्तो णो भुत्तं (नि 3890) / 16. णुवच्चंतो (ला, ब)। 7. सीययो (मु, ब), व्य 4328 // 17. रोचीया (नि 3895), रोहीया (ब)। '8. गाथाओं के क्रम में व्य में यह गाथा नहीं है। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 जीतकल्प सभाष्य 448. विगतीकताणुबंधे, आहारऽणुबंधणाएँ वोच्छेदो। परिहायमाणदव्वे, गुणवुड्डि' समाधि अणुकंपा // 449. 'दवियपरीमाणं ता", हाति दिणे दिणे तु जा तिण्णि। बिंति ण लभंति' दुलभे, सुलभम्मि वि होतिमा जतणा॥ 450. आहारे ताव छिंदाहि', गेधिं तो णं चइस्ससि / जं 'भुत्तं ण हु" पुव्वं ते, तीरं पत्तो तमिच्छसि॥ 451. वटुंति अपरितंता, दिया व रातो व सव्वपरिकम्म। . पडियरगा मुणिवरगा, कम्मरयं णिज्जरेमाणा॥ 452. जो जत्थ होति कुसलो, सो तु ण हावेति तं सति बलम्मि। उज्जुत्ता सनिजोगे१२, तस्स वि दीवेंति तं सहूं / 453. देहविओगो खिप्पं, व" होज्ज अहवा वि कालकरणेण५। दोण्हं पि निज्जरा वद्धमाणो१६ गच्छो उ एतट्ठा / 454. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। 'अण्णयरम्मि वि. जोगे, सज्झायम्मी विसेसेणं॥ 455. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। अण्णयरम्मि वि जोगे, काउस्सग्गे विसेसेणं // 456. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। अण्णयरम्मि वि जोगे, वेयावच्चे विसेसेणं // १.वोच्छेदे (ब)। 2. वड्डि (मु)। ३.नि 3896, व्य 4332 / 4. दव्वियपरीमाणं (ला, ब), विगयपरिमाणंता (पा), परिणामतो वा (व्य 4333, नि 3897) / 5. लब्भति (व्य,नि)। ६.च्छिंदाहि (पा), छिंदाही (व्य 4334) / 7. स्सति (पा, ला)। 8. वा भुत्तं न (व्य, नि 3898) / 9. परितंतो (ला), पडिकम्मं (व्य 4335) / 10. गुणरयणा (व्य)। 11. नि 3899 / 12. सति जोगे (मु)। 13. सद्धं (व्य 4336, ला),नि 3900 / 14. व्व (ब)। 15. कालहरणेणं (व्य 4337, नि)। 16. वट्टमाणो (मु, पा), वट्टमाणे (नि 3901) / 17. अन्नतरगम्मि (व्य) सर्वत्र। 18.454 से 457 तक की चार गाथाओं के लिए देखें व्य 4338-41, नि 3902-5 / Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 457. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। अण्णयरम्म वि जोगे, विसेसतो उत्तिमट्ठम्मि॥ 458. संथारों उत्तिमद्वे, भूमि-सिला-फलगमादि णातव्वो। संथारपट्टमादी, दुगचीरा ऊ बहू वावि // 459. तह वि असंथरमाणे, कुसमादी तिण्णि' अझुसिरतणाइ। तेसऽसति असंथरणे, व 'होज्ज सुसिरा वि तो पच्छा // 460. 'तह वि असंथर कोयव', पावारग णवय तूलि" भूमीए। एमेव अणहियासे, संथारगमादि पल्लंके॥ 461. पडिलेहण संथारं, पाणगउव्वत्तणादि णिग्गमणं / सयमेव करेति सहू, 'असहुस्स करेंति अण्णे उ" || 462. कायोवचितो बलवं, णिक्खमण-पवेसणं च सो कुणति। तह वि य अविसहमाणं, संथारगतं तु संधारे // 463. संथारों 'तस्स मउगो१०, समाधिहेतुं तु होति कातव्वो। तह वि य अविसहमाणे, समाधिहेउं उदाहरणं // 464. धीरपुरिसपण्णत्ते, सप्पुरिसणिसेविते परमरम्मे। धण्णा सिलातलगतार, 'णिरावयक्खा णिवजंति 3 // 465. जदि ताव सावयाकुल, गिरि-कंदर-विसमकडगदुग्गेसु। साधेति उत्तिमटुं, धितिधणियसहायगा धीरा" // 1. व्वे (व्य 4342), व्वा (मु)। 2. गा. 458 के स्थान पर नि (3906-08) में तीन अन्य गाथाएं हैंभूमिं सिलाए फलए, तणाए संथार उत्तिमट्ठम्मि। दोमादि संथरंति, बितियपद अणधियासे य॥ तण-कंबल-पावारे, कोयवतूली य भूमिसंथारे। एमेव अणहियासे, संथारगमादि पल्लंके॥ पडिलेहणसंथारे, पाणगउव्वत्तणादिणिग्गमणं। सयमेव करेति सहू, उस्सग्गाणेतरे करते॥ .३.णिंतु (व्य 4343) / 4. व्व (पा, ब)। 5. झुसिरतणाई ततो (व्य)। 6. कोतवं (पा)। 7. कोयव पावारग नवय तूलि आलिंगिणी य (व्य 4344) / 8. उस्सग्गाणेतरे करते (नि 3908), व्य 4345 / ९.संचारे (व्य ४३४६),संथारे (ब, ला, नि 3910) / 10. मउओ तस्स (व्य 4347), मउतो (पा)। 11. नि में यह गाथा नहीं है। 12. 'तलतले (मु, ब, ला)। 13. साहिंती अप्पणो अटुं (प्रकी 1023), व्य 4348, नि 3911 / 14. व्य 4349, नि 3912, तु. प्रकी 1020 / Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 466. किं पुण अणगारसहायगेण अण्णोण्णसंगहबलेणं। परलोइए ण सक्का, साहेडं अप्पणो अटुं? // 467. जिणवयणमप्पमेयं, णिउणं' कण्णाहुतिं सुणेताणं / सक्का हु साधुमज्झे, 'संसारमहोदधिं तरितुं" // 468. सव्वे सव्वद्धाए, सव्वण्णू सव्वकम्मभूमीसु। सव्वगुरु सव्वमहिता, सव्वे मेरुम्मि अभिसित्ता // 469. सव्वाहिं वि लद्धीहिं, सव्वे वि परीसहे पराइत्ता। सव्वे वि य तित्थगरा, पायोवगमेण सिद्धिगता // .. 470. अवसेसा अणगारा, तीत-पडुप्पण्ण-ऽणागता सव्वे। केई पादोवगता, पच्चक्खाणिंगिणी केई॥ 471. सव्वाओ अज्जाओ, सव्वे वि य पढमसंघयणवज्जा। सव्वे य देसविरता, पच्चक्खाणेण तु मरंति // . 472. सव्वसुहप्पभवाओ, जीवितसाराओ सव्वजणगाओ। आहाराओ रतणं, ण विज्जते 9 उत्तमं अण्णं 2 // 473. सेलेसि सिद्ध विग्गह, केवलिओघायए य मोत्तूणं। सव्वे सव्वावत्थं, आहारे होंति आयत्ता" // 474. तं तारिसगं रतणं, सारं जं सव्वलोगरयणाणं। सव्वं परिच्चइत्ता, पादोवगता पविहरंति५ // 1. उत्तमो (व्य 4350), उत्तिमो (नि 3913) / 2. मधुरं (व्य 4351), महुरं (नि 3914, प्रकी 1022) / 3. सुणेतेणं (मु, ब, ला)। 4. साहेउं अप्पणो अटुं (प्रकी)। ५.व्य 4352, नि 3915, प्रको 1288 / 6. पादोवगया तु (व्य 4353, नि 3916, प्रकी 1289) / 7. गिणिं (व्य 4354, नि 3917, प्रकी 1290) / 8. सव्वा वि य (प्रकी 1291) / 9. व्य 4355, नि 3918 / 10. जाणिगाओ (पा, ला)। 11. विज्जति हु (व्य 4356) / 12. लोए (नि 3919, प्रकी 1292) / 13. व्य (४३५७),नि (3920) तथा प्रकी (1293) में इस गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है विग्गहगते य सिद्ध य मोत्तु लोगम्मि जत्तिया जीवा। 14. उवउत्ता (व्य, नि)। 15. परिह' (नि 3921), व्य ४३५८,प्रकी 1294 / Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 475. एवं पादोवगमं, णिप्पडिकम्मं जिणेहिँ पण्णत्तं / जं 'सोऊण परिण्णी", ववसायपरक्कम कुणति // 476. कोईर परीसहेहिं, वाउलिओ वेदणट्टिओ' वावि। ओभासेज्ज कयाई, पढमं बितियं च आसज्ज // 477. गीतत्थमगीतत्थं, सारेउं 'तह विबोहणं'६ काउं। तो पडिबोहय छठे, पढमे पगते सिया बितिए / 478. 'हंदि दु" परीसहचम्, जोहेतव्वा मणेण कारण। तो मरणदेसकाले, कवयब्भूतो तु आहारो॥ 479. णातं संगामदुर्ग, महसिल-रहमुसलवण्णणा तेसिं / असुर-सुरिंदावरणं, चेडग 'एगो गह सरस्स' / 480. महसिलकंटे तहियं, वट्टते कूणिओ तु रहिएणं / रुक्खग्गविलग्गेणं', 'पहतो पट्टम्मि'१२ कणगेणं // 481. उप्फिडितुं सो कणगो, कवयावरणम्मि तोर ततो पडितो। तो तस्स कोणिगेणं", छिण्णं सीसं खुरप्पेणं५ // 482. दिटुंतस्सोवणओ, कवयत्थाणी इहं तहाऽऽहारो। सत्तू परीसहा खलु, आराहण रज्जथाणीया // 483. जह वाऽऽउंटियपादे, पादं काऊण हत्थिणो पुरिसो। आरुभति तह परिण्णी, आहारेणं तु झाणवरं // गाथाओं के स्थान पर नि (3926) में निम्न गाथा मिलती 1. सोऊणं खमओ (व्य 4359, नि 3922, प्रकी 1295) / 2. कोयिं (मु, पा, ब), केई (नि 3923) / 3. णद्दिओ (व्य 4360) / - 4. कयाई (ब)। 5. साहेउं (पा, ब, ला)। 6. मतिविसोहणं (नि 3924), मतिवि (व्य 4361) / ७.हंदी (व्य 4362) / 8. 'यतुल्लो (नि 3925) / 9. व्य (4363) में गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है- संगामदुगं महसिलरधमुसल चेव परूवणा तस्स। 10. एगोग्गह (पा, ला), गाथा 479 से 481 तक की तीन संगाम दुग परूवण वेडग एगसर उग्गहो चेव। असुर-सुरिंदावरणं, संवुभमं रहियकणगस्स / / 11. "ग्गवल' (मु, पा)। 12. पट्टे पहतो उ (व्य 4364) / 13. x (पा, ला)। 14. कूणि° (व्य 4365) / १५.खुरुप्पेणं (पा, ला), कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं.५। १६.व्य 4366 / 17. व्य 4367 / Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 484. उवगरणेहि विहूणो, जह वा पुरिसो ण साहते कज्ज / एवाऽऽहारपरिण्णी, दिटुंता तत्थिमे होति // 485. लावएरे पवए जोहे, संगामे पत्थिए' इय। आतुरे सिक्खगे चेव, 'दिटुंत समाहिकामेते" // 486. दत्तेणं णावाए, आउध तहोवाहणोसहेहि च। उवगरणेहिं च विणा, जहसंखमसाधगा सव्वे // 487. 'एवाऽऽहारेण' विणा, समाधिकामो ण साहएँ समाधिं / तम्हा समाधिहेतुं', दातव्वो तस्स आहारो॥ 488. धिति-संघयणविजुत्तो, असमत्थों परीसहेऽहियासेउं। फिट्टति चंदगवेज्झा, तेण विणा कवयभूतेणं / / 489. सरीरमुज्झितं जेण, को संगो तस्स भोयणे? समाधिसंधणाहेतुं, दिज्जते सो सि० अंतिए॥ 490. सुद्धं एसित्तु ठावेंति, हाणीए'२ वा दिणे दिणे। पुव्वुत्ताए तु जतणाए, तं तु गोवेंति अण्णहिं॥ 491. णिव्वाघातेणेवं, कालगतविगिंचणा विहीपुव्वं"। कातव्व चिंधकरणं, अचिंधकरणे भवे गुरुगा॥ 492. 'उवगरण-सरीरम्मि'५ य, अचिंधकरणम्मि 'दंडिओ तहियं। मग्गणगवेसणाए, गामाणं . घातणं कुंणति // १.व्य 4368 / 2. लवए (ब)। 3. पंथिगे (व्य 4369, नि 3927) / 4. दिटुंतो कवए ति या (व्य)। 5. पहुवा (व्य 4370) / 6. एव आहा' (पा)। 7. सोहए (ला)। 8. हेऊ (व्य 4371) / 9. “यरूवेण (पा, ब, ला)। 10. उ (व्य 4372) / 11. अंततो (नि 3930) / 12. हाणिओ (मु, ब, ला), हाणी उ (नि 3931) / 13. व्य 4373 / 14. विधिपुव्वं (व्य ४३७४),नि (3932) में इस गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है आयरितो कुंडिपदं, जे मूलं सिद्धिवासवसहीए। 15. सरीरउवगरणम्मि (व्य ४३७५,नि)। १६.डंडिओ (पा)। १७.सो उ रातिणिओ (व्य, नि 3933) / Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 493. ण पगासेज्ज लहुत्तं, परीसहुदएण' होज्ज वाघातो। उप्पण्णे वाघाते, जो गीतत्थाण तु उवाओ // 494. को गीताण उवाओ?, संलेहगतो ठविज्जते अण्णो। उच्छहते जो वऽण्णो, इतरे उ गिलाणपरिकम्मं // 495. वसभो वा ठाविज्जति, अण्णस्सऽसतीय तम्मि संथारे। कालगतो त्ति य काउं, संझाकालम्मि णीणेति / / 496. एवं तू णातम्मी, डंडिगमादीहि' होति जतणेसा / सयगमण पेसणं वा, खिंसण चउरो अणुग्घाता / / 497. सपरक्कमे य भणितं, णिव्वाघाइं तहेव वाघातं / णिव्वाघातिम इतरं, एत्तो अपरक्कम वोच्छं // अपरक्कमो बलहीणो, अण्णगण ण जाति कुणति गच्छम्मि। सपरक्कमो व्व सेसं, णिव्वाघाती गतो एसो॥ 499. वाघातिर आणुपुव्वी, रोगाऽऽतंकेहि नवरि अभिभूतो। बालमरणं पि 'य सिया'५३, मरेज्ज उ इमेहि हेऊहिं // 500. वाल-ऽच्छभल्ल-'विसगत-विसूयिगाऽऽतंक'४ सण्णिकोसलगे। ऊसास गद्ध रज्जू, ओमऽसिव-ऽहिघात-संबद्धे // 501. वालेण गोणसाइण५, खइओ होज्जाहि'६ सडिउमारद्धो। कण्णो?-णासिगादी, विभंगिता अच्छभल्लेणं॥ 498. 1. परिसहउदतेण (नि 3934) / २.व्य 4376 / 3. पडिक' (व्य 4377), गा. 494 से 496 -इन तीन गाथाओं के स्थान पर (नि 3935) में एक ही गाथा मिलती है। 4. 4 (पा, ब, ला)। ५.णीणम्मि (ब), व्य 4378 / 6. एव (पा, ला)। 7. दंडिग (ब, व्य 4379) / 8. जयमेसा (ला), जयणा उ (व्य)। 9.x (ब)। 10. जाती (ला)। 11. गा. 497 और 498 के स्थान पर (व्य 4380) में निम्न गाथा हैसपरक्कमें जो उ गमो, नियमा अपरक्कमम्मि सो चेव। नवरं पुण नाणत्तं, खीणे जंघाबले गच्छे / 12. एमेव (व्य 4381) / 13. सिया हु (व्य)। 14. विस विसूइकएँ आयंक (व्य 4382) / 15. सादी (व्य 4383) / १६.जोज्जाहि (पा, ला)। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 502. 'लद्धो व विसेणं तू', विसूइगा वा से उद्विता होज्जा। आतंको वा कोई, खयमादी उट्ठिओ होज्जा // 503. तिणि तु वारा किरिया, तस्स 'कता ण वि य उवसमो जातो"। जह वोमें कोसलेणं, सण्णीणं पंच उ सयाई / 504. सण्णीण' रुद्धाई, अहयं भत्तं तु तुब्भ दाहामि। लाभंतरं च णाउं, लुद्धेणं 'विक्कियं धण्णं॥ 505. तो गाउ वित्तिछेदं, ऊसासणिरोहमादिणि कताणि। अणहीयासे तेहिं, 'खुहवेदण ओमें साहूहिं '10 // 506. एवं ता कोसलगे, अण्णम्मि वि ओमें होज्ज एमेव।। सहसा छिण्णद्धाणे, असिवग्गहिता व कुज्जाहि // 507. अभिघातो वा विज्जू, गिरिभित्ती कोणगादि वा होज्जा। संबद्ध हत्थ-पादादओ व वारण होजाहि२ // 508. एतेहि कारणेहिं, वाघातिममरण होति णातव्वं / परिकम्ममकाऊणं, पच्चक्खाई ततो भत्तं३ // 509. अह पुण" जदि होज्जाही, पंडितमरणं तु काउ असमत्थो। ऊसासगद्धपटुं, रज्जुग्गहणं व कुज्जाहि // 510. अणुपुव्विविहारीणं, उस्सग्गणिवाइताण जा सोधी। विहरंतए ण सोधी, भणिता 'आहारलोवा या'५ // 511. एसा पच्चक्खाणे, आय परे भणित णिज्जवाण विही। इंगिणि-पाओवगमे, वोच्छामी आयणिज्जवणं // १.विसेण लद्धो होज्जा (व्य 4384) / 2. विसूयिया (पा, ब)। 3. होज्ज (ला)। 4. वी (पा, ब)। 5. कय हवेज्ज नो य उवसंतो (व्य 4385) / 6. ओमे (मु)। 7. साहूणं (व्य 4386, ब)। 8. तुज्झ (व्य)। 9. धण्णविक्कीयं (व्य)। 10. वेदण साधूहि ओमम्मि (व्य 4387) / 11. कुज्जाहिं (ला, मु), कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं.६। 12. व्य 4388 / 13.508 और 509 गाथा के स्थान पर व्य (4389) में निम्न गाथा है एतेहि कारणेहिं, पंडितमरणं तु काउ असमत्थो। ऊसासगद्धपटुं, रज्जुग्गहणं व कुज्जाही॥ 14. वा (ब)। 15. लोवेण (व्य 4390) / 16. गाथाओं के क्रम में व्य में यह गाथा नहीं है। (पा Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 65 512. पव्वज्जादी काउं, णेतव्वं जाव होतऽवोच्छित्ती। पंच तुलेऊण य सो', इंगिणिमरणं 'ववसितो तु॥ 513. आयप्परपरिकम्म', भत्तपरिणाएँ दो अणुण्णाता। परिवज्जिता य इंगिणि, चउव्विधाहारविरती य॥ 514. ठाण-णिसीय-तुयट्टण, इत्तिरियाई जहासमाधीए। . सयमेव य सो कुणती, उवसग्ग-परीसहऽहियासे // 515. संघयण-धितीजुत्तो, नव-दसपुव्वा सुतेण अंगा वा। 'इंगिणिमरणं नियमा'६, पडिवज्जति एरिसो साहू" // 516. पव्वज्जादी काउं, णेतव्वं जाव 'होतऽवोच्छित्ती। पंच तुलेऊण य सो, पायोवगमं परिणतो य॥ 517. तं दुविहं णातव्वं, णीहारि० चेव तह अणीहारिं / * बहिया गामादीणं, गिरि-कंदरमादि णीहारिं // 518. वइयादिसु जं अंतो, उट्ठेउमणा ण ठायऽणीहारिं / कम्हा पादवगमणं?, जं उवमा पादवेणेत्थं // 519. सम-विसमम्मि व पडितो, अच्छति जह पादवो व णिक्कंपो। णिच्चल-णिप्पडिकम्मो, णिक्खिवती जं जहिं अंग१२ // 520. तं ठित होति तह च्चिय, नवरं चलणं परप्पयोगातो / ___ वायादीहिं तरुस्स व, पडिणीयादीहि तह तस्स // 521. तसपाण-बीयरहिते, विच्छिण्णवियार थंडिलविसुद्धे। णिद्दोसा णिद्दोसे५, उर्वति'६ अब्भुज्जतं मरणं // 10. णीहारी (पा, ला)। 11. य (मु)। 1. तो (व्य 4391) / 2. परिणतो य (व्य)। 3. आयपरपरिक्कम्मं (ब), पडि (व्य 4392, नि 3937) / 4. इत्तरि (ला)। 5. यासी (नि ३९३८),व्य 4393 / ६.णिपाओवगमं (नि 3939) / ७.इंगिणि पादोवगमं नीहारी वा अनीहारी (व्य 4394) / 8. वोच्छिण्णं (ब)। / ९.नि 3940 / 13. 'योगो उ (ला)। 14. वा (ला)। १५.णिद्दोसा (ला)। 16. भवंति (नि 3943) / 17. व्य 4396 / Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प.सभाष्य 522. पुव्वभवियवरेणं, देवो साहरति कोवि पाताले। मा सो चरिमसरीरो', ण वेदणं किंचि पाविहिती // 523. उप्पण्णे उवसग्गे, दिव्वे माणुस्सगे तिरिक्खे य। सव्वे पराजिणित्ता, पायोवगता पविहरंति' / 524. 'देव-णर दुगतिगऽस्सा, केई" पक्खेवगं सिया कुज्जा। वोस?-चत्तदेहो, अहाउगं . कोइ पालेज्जा / / 525. अणुलोमा पडिलोमा', दुगं तु उभयसहिता तिगं होति। अहवा चित्तमचित्तं, दुगं तिगं मीसगसमग्गं // 526. पुढवि-दग-अगणि-मारुय-वणस्सति-तसेसु कोइ साहरति / वोस?-चत्तदेहो, अहाउगं कोइ पालेज्जा // 527. धिति-बलजुत्तेहि तहिं, उवसग्गा जह सढा उ धीरेहिं / णिदरिसणा केइ तहिं, वोच्छामि इमे समासेणं॥ 528. मुणिसुव्वयंतवासी', खंदगमणगार कुंभकारकडे। देवी पुरंदरजसा, डंडगिर२ पालक्क'३ मरुगे य॥ 529. पंचसता जंतेणं, 'रुद्रुण पुरोहितेण मलिया उ। राग-द्दोसतुलग्गं, समकरणं चिंतयंतेहिं५॥ 530. 'जंतेहिं करकएहि व, सत्थेहि 16 व सावएहि विविधेहिं / देहे विद्धसंते, 'ण य ते झाणातो७ फिटुंति'८ // 1. चरम (नि 3944) / 2. हिंति (ला),व्य 4397 / 3. व्य 4398, नि 3945 / 4. दिव्वमणुया उ दुग तिग अस्से (व्य 4402), दिव्व मणुया उ दुगतिगस्स (नि 3949) / 5. 'लोमं (मु, ब)। ६.व्य ४४०३,नि 3950 / 7. कोवि (व्य ४४०४),कोति (नि 3951) / 8. x (पा)। 9. यंतेवासी (ला, मु)। १०.खंदगदाहे य (व्य ४४१७,नि 3964), गपमुहा य (उनि 113) / 11. कडं (ब)। 12. दंडगि (ब)। 13. पालग्ग (पा, ला)। 14. वधिता तु पुरोहिएण रु?ण (उनि 114), “मलिताओ (ला)। १५.व्य 4418, नि 3965 / 16. जंतेण करकतेण व सत्थेण (व्य 4419, नि 3966) / 17. ठाणाहि (नि)। 18. ईसिं पि अकंपणा समणा (प्रकी 1231), कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.७। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 67 531. पडिणीययाएँ कोई, 'अग्गिंसि पदेज्ज असुभपरिणामो 2 / पादोवगते संते, जह चाणक्कस्स वा करिसे / / 532. पडिणीययाएँ कोई, चम्मं से खीलएहिँ विहुणित्ता / मधु-घतमक्खितदेहं, पिवीलियाणं तु दिज्जाहि॥ 533. जह सो चिलातपुत्तो, वोसट्ठ-णिसट्ठ-चत्तदेहो उ। सोणियगंधेण पिवीलियाहि जह चालणि व्व कतो // 534. 'मोगल्लसेलसिहरे, जह सो कालासवेसिओ भगवं"। खइतो . विउव्विऊणं, देवेण सियालरूवेणं // 535. जह से वंसिपदेसी, वोसट्ठ-णिसट्ठ-चत्तदेहो उ। वंसीपत्तेहि विणिग्गतेहि, आगासमुक्खित्तो // 536. जहऽवंतीसुकुमालो, वोसट्ठ-णिसट्ठ-चत्तदेहो उ। धीरो सपेल्लियाए, सिवाय खइतो तिरत्तेणं // 537. जह ते गोट्ठट्ठाणे, वोसट्ठ-णिसट्ठ-चत्तदेहागा। उदगेण वुब्भमाणा२, वियरम्मी१३ संकरे लग्गा // 538. जह सा बत्तीसघडा, वोसट्ठ-णिसट्ठ-चत्तदेहागा५ / .. 'धीरा घाएण'१६ 'उ दीविएण डिलयम्मि१७ ओलइया / 1. पडिणिय (ब)। 9. "मुज्झित्तो (मु), व्य 4424, नि 3971, प्रकी 1229, 2. अग्गिं से सव्वतो पदेज्जाहि (व्य ४४२०,नि 3967) / कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.११ / ३.प्रकी (1228) में इस गाथा की संवादी निम्न गाथा मिलती १०.व्य 4425, नि 3972, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.१२। गोब्बर पाओवगओ, सुबुद्धिणा णिग्घिणेण चाणक्को। 11. 'ढाणा (ला)। दड्डो न य संचलिओ, सा हु धिई चिंतणिज्जा उ॥ 12. वुज्झमाणा (व्य, नि 3973) / कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.८। १३.वियरम्मि उ (व्य 4426) / 4. केई (व्य 4421, प्रकी 1232, नि 3968) / 14. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 13 / ५.निहणित्ता (प्रकी)। 15. देहा उ (व्य 4428) / 6. व्य 4422, तु. नि 3969, कथा के विस्तार हेतु देखें 16. वारण (ब, प्रकी 1230) / परि. 2, कथा सं.९। 17. उदीरिएण विगलम्मि (प्रकी)। 7. जध सो कालायसवेसिओ वि मोग्गल्लसेलसिहरम्मि (व्य 18. नि 3975, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा . 4423, नि 3970) / सं. 14 / 8. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.१०। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 539. बावीस आणुपुव्वी', तिरिक्ख मणुया व भंसणत्थाए। विसयाणुकंपरक्खण, करेज देवा व मणुया वा॥ 540. जह णाम असी कोसी', 'अण्णा कोसी' असी वि खलु अण्णो"। इय मे 'अण्णो देहो, अण्णो जीवो त्ति मण्णंति" || 541. एगंतणिज्जरा से, दुविहा आराधणा धुवा तस्स। अंतकिरियं च साधू, करेज्ज देवोववत्तिं वा / / 542. एवं धिति-बलजुत्तो, अहियासेति पडिलोमउवसग्गे। एत्तो पुण अणुलोमे, जह सहती ते तहा वोच्छं / 543. सक्कारं सम्माणं, हाणादीयाणि तत्थ कुज्जाहि। वोसट्ठ-चत्तदेहो, अहाउगं कोइ पालेज्जा // पुव्वभवियपेमेणं, देवो 'देवकुरु-उत्तरकुरासु" / कोई हु साहरेज्जा, सव्वसुहा जत्थ अणुभावा / पुव्वभवियपेमेणं, देवो साहरति नागभवणम्मि। जहियं इट्ठा कंता, सव्वसुहा होति अणुभावा // 546. बत्तीसलक्खणधरो, पादोवगतो य पागडसरीरो। पुरिसव्वेसिणिकण्णा", रायविदिण्णा२ तु गिण्हेज्जा // 547. मज्जण-गंधं पुष्फोवकारपरियारणं 'च कुज्जाहिं। सा पवररायकण्णा, इमेहि जुत्ता गुणगणेहिं" / / 548. नवयंगसोतबोहिय५, अट्ठारसरतिविसेसकुसला तु। चोयट्ठीमहिलगुणा, णिउणा य बिसत्तरिकलाहिं // 544. 1. माणु' (व्य 4427), माणुपुट्विं (नि 3974) / 2. कोसे (व्य 4399) / 3. कोसो (प्रकी 1281), सर्वत्र / 4. असी वि कोसी वि दो वि खलु अण्णे (नि 3946) / 5. जोवो अन्नो देहो त्ति मन्नेज्जा (प्रकी)। 6. व्य 4405, नि 3952 / / 7. 542, 543 ये दोनों गाथाएं व्य में नहीं हैं। 8. 'कुरुत्तर (ला), 'कुरुवुत्त (ब)। 9. तु (व्य ४४०७,नि 3954) / १०.व्य ४४०८,नि 3955 / 11. पुरिसद्देसि' (नि 3957) / 12. राइवि (व्य 4409) / 13. सिया कुज्जा (व्य), सया कुज्जा (नि)। 14. व्य (4410) तथा नि (3958) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है वोसट्ठचत्तदेहो, अहाउयं कोवि पालेज्जा। 15. नवंगसुत्तप्पडिबोहयाए (व्य, नि)। 16. व्य (4411) और नि (3959) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार हैबावत्तरिकलापंडियाए, चोसट्ठिमहिलागुणेहिं च। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 549. दो सोत-णेत्तमादिग', णवंगसोता हवंति 'एते तु"। 'देसीभासऽट्ठारस", रतीविसेसा उ इगुवीस // 550. कोसल्लगेगवीसतिविधं तु एमादिएहि तु गुणेहिं / जुत्ताए रूव-जोव्वण-विलास-लावण्णकलियाए / 551. चउकण्णम्मि रहस्से, रागेणं रायदिण्णपसराए। तिमि-मगरेहि व उदधी, ण खोभितो जो मणो मुणिणों // 552. जाहे पराइया सा, ण समत्था सीलखंडणं. काउं। णेऊण सेलसिहरं, तो 'सिलमुवरि मुयति तस्स" // '553. एगंतणिज्जरा से, दुविधा आराधणा धुवा तस्स। अंतकिरियं व साधू, करेज्ज देवोववत्तिं वा // 554. एमादीहि बहुविधं, दुविधं तिविहेहि ते महाभागा। घोरेहि उवसग्गेहिं, चालिज्जंता वि णिद्दयया। 555. पुव्वा-ऽवर-दाहिण-उत्तरेहि२ वातेहि आवयंतेहिं / जह ण वि कंपति मेरू, 'तह ते४ झाणाउ न चलिंति५ // 556. पढमम्मि य संघयणे, वटुंता सेल-कुड्डसामाणा। तेसिं पि य वोच्छेदो, चउदसपुव्वीण६ वोच्छेदे // . 557. एतं८ पादोवगम, णिप्पडिकम्मं 'जिणेहि पण्णत्तं 19 / तित्थगर-गणहरेहि य, साधूहि य सेवितमुदारं // 1. मादी (व्य 4412) / 2. एतेसु (मु, पा)। 3. अठारस (मु, ला)। 4. उगु (ब), इगवीसं (व्य), गा.५४९ और 550 के स्थान पर नि (3960) में निम्न गाथा हैसोआती णवसोत्ता, अट्ठारस होति देसभासाओ। इगतीस रइविसेसा, कोसल्लं एक्कवीसतिहा॥ 5. लायण्ण' (मु, पा, ब), व्य 4413 / 6. कण्णंसि (व्य 4414) / .७.नि 3961 / ८.सीलक्खं (ला)। ' ९.से सिलं मुंचते उवरिं (व्य ४४१५,नि 3962) / 10. ववायं (नि)। 11. व्य 4405, 4416, नि 3952, 3963 / 12. उत्तरहिं (पा, ला)। 13. आवडतेहिं (प्रकी 1282) / 14. ते तह (ला)। 15. व्य 4400, नि 3947 / 16. चोद्दस (ला, व्य 4401, नि 3948) / 17. प्रकी 1283 / 18. एवं (व्य, नि, ब)। 19. तु वण्णितं सुत्ते (व्य 4429) / २०.नि 3976 / Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 जीतकल्प सभाष्य 558. एवं जहाणुरूवा, संपतिकालम्मि अस्थि जह सोधी। विजंति य सोधिकरा, तं सव्वेतं समक्खातं // 559. एसाऽऽगमववहारो, जहोवदेसं जहक्कम कहितो। एत्तो सुतववहारं, सुण वच्छ! जहाणुपुव्वीए'। 560. णिज्जूढं चोद्दसपुव्विएण' जं भद्दबाहुणा सुत्तं। पंचविधो ववहारो, दुवालसंगस्स नवणीतं // 561. जो सुतमहिज्जति बहुं, सुत्तत्थं च णिउणं ण याणाति। . कप्पे ववहारम्मि य, ‘ण सो'३ पमाणं सुतधराणं // 562. जो सुतमहिज्जति बहु, सुत्तत्थं च णिउणं वियाणाति। . कप्पे ववहारम्मि य, सो उ पमाणं सुतधराणं॥ 563. कप्पस्स य णिज्जुत्तिं, ववहारस्सेव परमणिउणस्स। जो अत्थतो न जाणति, सो ववहारी णऽणुण्णातो॥ 564. कप्पस्स य णिज्जुत्तिं, ववहारस्सेव परमणिउणस्स। जो अत्थतो विजाणति, ववहारी सो अणुण्णातो // 565. एसो सुतववहारो, जहोवदेसं जहक्कम कहितो। आणाए ववहारं, सुण वच्छ! जहक्कम वोच्छं॥ 566. समणस्स उत्तिमढे, सल्लुद्धरणकरणे अभिमुहस्स। __दूरत्था जत्थ भवे, छत्तीसगुणा उ आयरिया॥ 567. अपरक्कमो मि जातो, गंतुं जे. कारणं तु उप्पण्णं / अट्ठारसमण्णतरे, वसणगते इच्छिमो आणं // 568. अपरक्कमो तवस्सी, गंतुं ण चतेइ सोहिकरमूलं। सीसं पेसेति तहिं, जहिच्छ सोधिं तुमसमीवे // 1. गा. 559 से 567 तक की नौ गाथाओं की तुलना हेतु 6. इस गाथा के स्थान पर व्य 4440, 4441 में निम्न दो देखें व्य 4430 से 4435, 4437-39 / गाथाएं हैं२. पुव्वीएण (पा, ब, ला)। अपरक्कमो तवस्सी, गंतुं सो सोधिकारगसमीवं। ३.सोन (व्य)। आगंतु न चाएती, सो सोहिकरो वि देसातो॥ 4. “ज्जंति (पा, ला)। अध पट्ठवेति सीसं, देसंतरगमणनट्ठचेट्ठागो। 5. इस गाथा के बाद व्य (4436) में निम्न गाथा अतिरिक्त है इच्छामऽज्जो काउं, सोहिं तुब्भं सगासम्मि॥ तं चेवऽणुमज्जंते, ववहारविधिं पउंजति जहुत्तं / एसो सुतववहारी, पण्णत्तो धीरपुरिसेहिं // Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 569. सो वि अपरक्कमगती, सीसं पेसेति धारणाकुसलं। णातु तहिं जो जोग्गो, इमेण विहिणा परिच्छित्ता'। 570. अपरक्कमो य सीसं, आणापरिणामगं परिच्छेज्जा। रुक्खे व बीयकाए, सुत्ते 'वाऽमोहणाऽऽधारिं '2 // 571. दट्ठ महल्लमहीरुह', भणितो रुक्खे विलग्गितुं डेव। अपरिणतो बेति 'तओ, णो'६ वट्टति रुक्खें आरोढुं // 572. किं वा मारेतव्वो, अहयं? तो बेह डेव रुक्खातो। अतिपरिणामो भणती, इय होऊ अम्ह वेसिच्छा // 573. बेति गुरू अह तं तू, 'अपरिगतऽत्थे य भाससे" एवं / किं व मए तं भणितो, आरुभ रुक्खे तु सच्चित्ते? // 574. तव-णियम-णाणरुक्खं, आरुहिउं' भवमहण्णवावत्तं / * संसारागडमूलं', डेवेहि 'मए तुम 12 भणितो॥ 575. जो पुण परिणामो खलु, आरुभ भणितो तु सो विचिंतेती। णेच्छंति पावमेते, जीवाणं थावराणं पि" // 576. किं पुण पंचिंदीणं?, तं भवितव्वेत्थ कारणेणं तु। आरुहणववसितं तू, वारेति 'गुरूऽहवा थंभे 5 // 577. एवाऽऽणध बीयाई, भणिते पडिसेह अपरिणामो तु। अतिपरिणामो पोट्टल, बंधूणं आगतो तत्थ६ // 578. 'पच्चाह गुरू ते तू, जहोदिया 'ऽऽणेह अंबिलीबीए। ___ण विरोहसमत्थाई, सच्चित्ताई व भणिताइं१८ // १.व्य (4442) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है- * एयस्स दाणि पुरतो, करेति सोहिं जहावत्तं। 2. 'धारि (पा, ला),व्य 4443 / 3. महंतम' (व्य 4444) / 4. गणिओ (व्य)। ५.डेवे (ब)। 6. तहिं न (व्य)। ७.व्य 4445 / 8. 'रिच्छियत्थे पभाससे (व्य 4446) / 9. हियं (ब)। 10. वावण्णं (व्य 4447) / 11. संसारगडुकूलं (व्य)। १२.त्ती मए (व्य)। 13. तेति (ब)। 14. तु (पा), व्य 4448 / 15. गुरूऽववटुंभे (व्य 4449) / 16. व्य 4450 / 17. ते वि भणिया गुरूणं, मएँ भणिया (व्य 4451) / 18. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.१५। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 579. 'परिणामगो' हु तत्थ वि', भणती आणेमि केरिसाइं तु?। कित्तियमित्ताइं वा?, विरोहमविरोहजोग्गाई?॥ 580. सो वि गुरूहि भणितो, ण ताव कज्जं पुणो भणीहामी। हसितो व मए 'वाऽसी", वीमंसत्थं व भणितो सि॥ 581. पदमक्खरमुद्देसं, संधी सुत्तऽत्थ तदुभयं पुट्ठो'। अक्खर-वंजणसुद्धं, 'कहेति सव्वं जहाभणितं" / / 582. एवं परिच्छिऊणं', जोग्गं णाऊण पेसवे तं तु। वच्चाहि तस्सगासं, सोहिं सोऊण आगच्छ // ___ अध सो गतो उ तहियं, तस्स सगासम्मि सो करे सोधिं। दुग-तिग-चऊविसुद्धं, तिविधे काले विगडभावो॥ 584. दुविधं तु दप्प-कप्पे, तिविधं णाणादिणं तु अट्ठाए। दव्वे खेत्ते काले, भावे य चउव्विधं एतं / / तिविधं अतीतकाले, पच्चुप्पण्णे व सेवितं जं तु। सेविस्सं वा एस्से, पागडभावो विगडभावो॥ 586. किं पुण आलोएती?, अतियारं सो इमो य अतियारो। वतछक्कादीओ खलु, णातव्वो आणुपुष्वीए॥ 587. वयछक्कं कायछक्कं, अकप्पो गिहिभायणं / पलियंक णिसेज्जा य, सिणाणं सोभवजणं॥ 588. तं पुण होज्जाऽऽसेवित, दप्पेणं. अहव होज्ज कप्पेणं / दप्पेण दसविधं तू, इणमो वोच्छं समासेणं / / दप्प अकप्प णिरालंब, चियत्ते अप्पसत्थ वीसत्थे। अपरिच्छ अकडजोगी, अणाणुतावी य णीसंके। 590. वायाम-वग्गणादी, णिक्कारणधावणं तु दप्पो उ। कायापरिणतगहणं, अकप्पों जं वा अगीतेणं // 1. *णामो (पा)। 2. तत्थ वि परिणामो तू (व्य 4452) / 3. x (ला), ता वि (व्य 4453) / ४.चेव (व्य)। ५.जह भणितं सो परिकहेति (व्य 4454) / 6. पडिच्छि " (पा, ब, ला)। 7.582 से 588 तक की सात गाथाओं के लिए देखें व्य 4455-61 / 8. एति (ला)। ९.णिस्संके (नि ४६३),णिस्संको (व्य 4462) / १०.नि 464 / Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 73 591. संसारखडपडितो', णाणादवलंबितुं समुत्तरतिरे। मोक्खतडं जह पुरिसो, वल्लिविताणेण विसमाओ॥ 592. नाणादीपरिवुड्डी, ण भविस्सति मे असेवओ बितियं / तेसिं 'पसंधणट्ठ व, सालंबणिसेवणा होति / 593. 'जा पुण णिक्कारणओ", अपसत्थालंबणा य 'सेवा उ*। अमुगेण वि आयरियं, को दोसो वा' णिरालंबा // 594. जं सेवितं तु बितियं, गेलण्णादी' असंथरंतेणं। हट्ठो वि पुणो तं चिय, चियत्तकिच्चो णिसेवंतो॥ 595. बल-वण्ण-रूवहेतुं, फासुगभोई वि होति अपसत्थो। - किं पुण जो अविसुद्धं, णिसेवते वण्णमादट्ठा ? // 596. सेवंतो तु अकिच्चं, लोए लोउत्तरम्मि यर विरुद्ध / परपक्ख सपक्खे वा, वीसत्था सेवणमलज्जे // 597. अपरिच्छितुमायवए'२, णिसेवमाणो तु होति अपरिच्छो। तिगुणं जोगमकाउं, बितियासेवी अकडजोगी। 598. बितियपदे जो तु परं, तावेत्ता णाणुतप्पती२ पच्छा। सो होति अणणुतावी, किं पुण दप्पेणसेवित्ता? / / 599. 'करण-भएसु तु५ संका'६, करणे कुव्वं ण संकति कयाइ। इहलोगस्स ण भायति, परलोए वा भया एसा / / 600. एसा दप्पियसेवा, दसभेद समासतो समक्खाता। एत्तो कप्पियसेवं, चउवीसविहा इमाऽऽहंसु॥ 1. रगडु (नि 465) / 2. समारुहति (नि)। 3. णट्ठा (नि 466) / 4. एसा (नि)। ५.णिक्कारणपडिसेवा (नि 467) / ६.जा सेवा (नि)। ७.व (ला)। 8. 'लंब (मु)। 9. ण्णाइसु (नि 468) / 10. नि 469 / 11. वि (नि 470) / 12. अपरिक्खिउमा (नि 471) / 13. "प्पते (नि 472) / 14. दप्पो (पा, ला)। 15. करणे भए य (नि 473) / १६.संकत्ति इह छंदोभंगभया णिगारलोवो द्रष्टव्यः (निच 1 पृ. 159) / 17. कुव्वंति (ब)। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 जीतकल्प संभाष्य 601. दंसण-णाण-चरित्ते, तव-पवयण-समिति-गुत्तिहेतुं वा। साहम्मियवच्छल्लेण वावि कुलतो गणस्सेव' // 602. संघस्साऽऽयरियस्स य, असहुस्स गिलाण-बाल-वुड्डस्स। उदयऽग्गि चोर सावय, भय कंताराऽऽवई वसणे // 603. दंसणपभावगाणं, 'सत्थाणऽट्ठाएँ'३ सेवती जं तु। णाणे सुत्त-उत्थाणं, 'असंथरासेवणे सुद्धो" // 604. चरणे एसणदोसा, इत्थीदोसा य जत्थ खेत्तम्मि। तत्तो - विणिक्खमंतो, जं सेवाऽसंथरे सुद्धो॥ 605. नेहादि तवं काहं, कते विगिट्टे वि लागतरणादी। अभिवायणा पवयणे, विण्हुस्स विउव्वणा चेव // 606. इरियं ण सोहइस्सं, चक्खुणिमित्तकिरिया तु रीयाए। खित्तादि बीय ततिया, 'अहवा वि इमं तु तइयाए / 607. 'अद्धाणकप्पऽणेसी', अण्णं वऽसिवादिकारणेहिं तु। संकियमादी गिण्हे, जतणाए तत्थ सुद्धो तु२॥ 608. आदाणे चलहत्थो, पमज्जमाणेहिं अण्णहिं जाति। अहवा वि तस्स अट्ठा, ओसह किंची करेज्जाहि // 609. पंचमिएँ काइभूमादि बंधमाणे उ आरभे किंचि। विगडादि मणअगुत्ते, * वइ-काए खित्त-दित्तादी॥ 1. व्य 4464, नि 484 / 8. नि 487, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा 2. व्य 4465, नि 485 / सं.१६। 3. सट्ठाण (नि)। 9. इरियाए (नि)। 4. सेवए (ब)। 10. कप्पेण वऽणेसि संकाए (नि 488) / ५.नि (486) में गाथा के चौथे चरण में गा. 604 का 11. कप्पाणेसी (पा, ला)। संक्षिप्त पाठ है-चरणेसण इत्थिदोसा वा। वहां 604 १२.नि में गाथाओं के क्रम में यह गाथा अप्राप्त है। इसका गाथा नहीं है, गाथाओं के क्रम में व्य में 603 से 613 संक्षेपार्थ गा.६०६ के चौथे चरण में दे दिया गया है। तक की गाथाएं नहीं मिलती हैं। १३.नि (489) में गा.६०८ और 609 के स्थान पर निम्न ६.विगटे (पा, ला)। गाथा है७. लाया णाम वीहिया तिमिउं भट्ठे भुज्जित्ता ताण तंदुलेसु आदाणे चलहत्थो, पंचमिए कादि वच्चभोमादि। पेज्जा कज्जति, तं लायतरणं भण्णति (निचू 1 पृ.१६२)। विगडाइ मणअगुत्ते, वइ काए खित्तदित्तादी॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 610. 'वच्छल्ल असियमुंडो", नित्थारिओं जह तु अज्जवइरेहिं / कुल-गण-संघे अभिचारुगादि रायाइणं कुज्जा // 611. आयरिय-असहु-अतरा, बाले वुड्डे य जेण तु समाही। तं जायिऊण देंती, पणगादीहिं तु जतणाए / 612. निवदिक्खितादि असहू, बालो वइरो व्व दिक्खितो कज्जे। वुड्डो वी कज्जम्मी, जह दिक्खितों रक्खितज्जेहिं // 613. उदय-ऽग्गि-चोर-सावय-भएसु थंभणि पलाण रुक्खे वा। कंतारें पलंबादी, 'दव्वादी आवई' चउहा'६ // 614. कोई तु वियडवसणी, गोज्जादी वावि होज्ज णिक्खंतो। जतणाएँ वियडगहणं, गाएज्ज व गीतवसणी तु // 615. एयण्णतरागाढे, सदसणे णाण-चरणसालंबो। पडिसेवितुं कदाई, होति समत्थो पसत्थेसु॥ 616. एसा कप्पियसेवा, चउवीसविधा समासतो कहिता। अहुणा उ चारणा तू, इणमो वोच्छं समासेणं // 617. ठावेत्तु० दप्प-कप्पे, हेट्ठा * दप्पस्स दसपदे ठावे। कप्पाधो चउवीसति, तेसिमह ऽट्ठारसपदार उ॥ .. 618. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। पढमे छक्के अभिंतरं तु पढमं भवे ठाणं२ // ____619. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। पढमे छक्के अभिंतर३ तु इय जाव णिसिभत्तं // 1. ल्ले असिमुंडो (पा, ब)। ____2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 17 / 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 18,19 / 4. तेण (नि)। 5. आवई (ला), आवइ (पा)। 6. वसणं पुण वाइ गीतादी (नि 492) / 7. कोइं (पा, ब, ला)। 8. पसत्थो (पा, ब, ला)। ९.व्य 4466, नि 493 / 10. ठावेउ (व्य 4467) / 11. अट्ठार' (मु, ला)। 12.618 से 623 तक की गाथाएं व्य (4468-74) में मिलती हैं लेकिन वहां प्राय: गाथाओं के चौथे चरण में पाठभेद है। 13. अब्भंतरं (ला) सर्वत्र। 14. गा.६१९ से 623 तक की पांच गाथाओं का पा प्रति में संकेत मात्र है। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 620. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। बितिए छक्के अन्भिंतरं तु पढमं भवे ठाणं॥ 621. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। बितिए छक्के अभिंतरं तु इय जाव तसकायं // . पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। ततिए छक्के अभिंतरं तु पढमं भवे टाणं॥ 623. पढमस्स या कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। ततिए छक्के अभिंतरं तु इय जाव तु विभूसा॥ 624. पढमममुंचंतेणं, बितियादीए तु जाव दसमं तु। पढमच्छक्कादीसु उ, पुणो पुणो चारणिज्जाई // 625. दप्पियसेवाए तू, दप्पेणं चारियाणि अट्ठरस / दस अट्ठारसगुणिता, आसीतसतं तु गाहाणं॥ 626. एवं बीतिजस्स वि, कज्जस्सा गाह होति छच्चेव। सव्वाओ गाहाओ, चत्तारि सता तु बत्तीसा॥ 627. बितियस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। पढमे छक्के अभिंतरं तु पढमं भवे ठाणं // 628. एवं बितियस्सा वि हु, कज्जस्सा एय चेव गाहाओ। बितियगअभिलावेणं, सव्वाओ भाणियव्वाओ // 629. पढमं ठाणं दप्पो, दप्पो च्चिय तस्स वी भवे पढमं। पढमं छक्क वताई, पाणतिवाओ तहिं पढम // 630. एवं तु मुसावाओ, अदत्त मेहुण परिग्गहे चेव। बितिछक्के पुढवादी, ततिछक्के होतऽकप्पादी॥ 1. अब्भंतरं (ब)। 2. तमक्खायं (ब)। 3.4 (ब)। ४.व्य 4475 / 5. स्स (पा, ब)। 6.4 (पा, ला)। 7. गा.६२९ के स्थान पर व्य (4481) में कुछ अंतर के साथ निम्न गाथा मिलती हैपढम कज्ज नामं, निक्कारणदप्पतो पढमं पदं। पढमे छक्के पढमं पाणइवाओ मुणेयव्यो॥ 8. अदिन्न (व्य 4482) / Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 77 631. एवं दप्पपदम्मी, दप्पेणं चारिया उ अट्ठरस'। एवमकप्पादीसु वि, एक्केक्के होंति अट्ठरस // 632. बितियं कज्जं कप्पो', पढमपदं तत्थ दंसणणिमित्तं / पढमं छक्क वताई, तत्थ वि पढमं तु पाणवहो॥ 'दसण अणुम्मुयंतो", पुव्वकमेणं तु चारणीयाई। अट्ठारसठाणाई, एवं णाणादि एक्केक्के / 634. 'चउवीसऽट्ठारसगा"५, एवं एते हवंति कप्पम्मि। दस होति अकप्पम्मी, सव्वसमासेण मुण संखं // 635. दप्पेणाऽसीतसतं, गाहाणं कप्पें होंति चत्तारि। बत्तीसाऽऽयातेते, छस्सय होती तु बारस य॥ 636. सोतूण तस्स पडिसेवणं तु आलोयणं कमविधिं तु। आगम-पुरिसज्जातं, परियाग-बलं च खेत्तं च // 637. अह सो गतो सदेसं, संतस्साऽऽलोइयल्लयं सव्वं / आयरियाण कहेती, परियाग बलं च खेत्तं च // 638. सो ववहारविहिण्णू, अणुमज्जित्ता२ सुतोवदेसेणं / सीसस्स देति'३ आणं, तस्स इमं देह" पच्छित्तं // 639. पढमस्स य कज्जस्सा, दसविधमालोयणं णिसामेत्ता। ___णक्खत्ते 'पीला भे'१५, सुक्के पणगं तवं कुणह // १.व्य (4483) में गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है- निक्कारणदप्पेणं, अट्ठारसचारियाइ एताई। 2. मट्ठ (मु, ला)। 3. कारण (व्य 4484) / 4. णमणुमुयंतेण (व्य 4485) / 5. स अट्ठा (मु, पा, ब)। ६.कप्पंति (ब)। ७.व्य 4486 / 8. गाथाओं के क्रम में व्य में यह गाथा नहीं है। ९.व (व्य 4487) / १०.वा (ला)। 11. गा. 637 के स्थान पर व्य (4488) में निम्न गाथा मिलती है आराहेउं सव्वं, सो गंतृणं पुणो गुरुसगासं। तेसि निवेदेति तधा,जधाणपव्विं गतं सव्वं // 12. अणुस (मु)। 13. देहि (ला, पा)। 14. देहि (व्य 4489) / 15. भे पीला (व्य) सर्वत्र / 16. गा. 639 से 648 तक की गाथाएं व्य में कुछ अंतर के साथ मिलती हैं। द्र. व्य 4490-96 / Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 640. पढमस्स य कज्जस्सा, दसविधमालोयणं णिसामेत्ता। __णक्खत्ते पीला भे, सुक्के दसमं तवं कुणह॥ 641. पढमस्स य कज्जस्सा, दसविधमालोयणं णिसामेत्ता। णक्खत्ते पीला भे, सुक्के पक्खं तवं कुणह / / पढमस्स य कज्जस्सा, दसविधमालोयणं णिसामेत्ता। णक्खत्ते पीला भे, सुक्के वीसं तवं कुणह / / 643. पढमस्स य कज्जस्सा, दसविधमालोयणं णिसामेत्ता। णक्खत्ते पीला भे, पणुवीसतवं कुणह सुक्के / एवं ता उग्घाते, अणुघाते 'एत चेव गाहाओ"। ‘णवरं तू अभिलावो, किण्हे पणगादि वत्तव्वो" // 645. पढमस्स य कज्जस्सा, दसविधमालोयणं णिसामेत्ता। णक्खत्ते / पीला भे, चउमासतवं कुणह' सुक्के / 646. पढमस्स य कज्जस्सा, दसविधमालोयणं णिसामेत्ता / णक्खत्ते पीला भे, चउमासतवं कुणह किण्हे // __ पढमस्स य कज्जस्सा, दसविधमालोयणं णिसामेत्ता। णक्खत्ते पीला भे, छम्मासतवं कुणह सुक्के / 648. पढमस्स य कज्जस्सा, दसविधमालोयणं णिसामेत्ता। णक्खत्ते पीला भे, छम्मासतवं कुणह किण्हे // 649. छिंदंतु व तं भाणं, गच्छंतु 'व तस्स'६ साहुणो मूलं / अव्वावारा' गच्छे", अब्बितिया वा पविहरंतु // 650. पणगादिभाणछेदं, साहू मूलं. भवे पुणक्करणं। पुव्वमवहाय सव्वं, पंचाऽऽभवणाउ उवरिं तु॥ 1. पण (ब)। 2. उवग्घाए (पा)। 3. ताणि चेव किण्हम्मि (व्य)। 4. मासे चउमास-छमासियाणि छेदं अतो वुच्छं (व्य 4493) / 5. कुणसु (व्य) सर्वत्र। 6. तवस्स (मु, पा), य तस्स (व्य 4497) / ७.अव्वावडा व (व्य)। 8. गच्छो (पा)। 9. परिह' (ब)। 10. मूले (ब)। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ 79 651. लिंगादी जोगत्थे, जहण्ण उक्कोसओ व बोधव्वो' / उक्कोस जहण्णो वा, विहरउ सो अब्बितीओ उ॥ 652. बितियस्स य कज्जस्सा, तहियं चउवीसगं वियाणेत्ता। णवकारेणाउत्ता, हवंतु एवं भणेज्जासि // 653. एवं गंतूण तहिं, जहोवदेसेण देहि पच्छित्तं / आणाए ‘ववहारो, भणितेसो५ धीरपुरिसेहिं / / 654. एसाऽऽणाववहारो, जहोवदेसं जहक्कम भणितो। धारणववहारं पुण, सुण वच्छ! जहक्कम वोच्छं / उद्धारणा विहारण', संधारण संपहारणा चेव। धारणववहारस्स उ, नामा एगट्ठिता एते॥ 656. पाबल्लेण उवेच्च उ, उद्धितपदधारणा व उद्धारो। विविहेहि पगारेहिं, धारेतऽत्थं विधारो तु॥ 657. सं एगीभावम्मी, धी धरणे ताणि एक्क० भावेणं / तिधारेतऽत्थपदाणि तु, तम्हा संधारणा होति // 658. जम्हा संपहारेउं, ववहारं पशुंजती। तम्हा कारणा२ तेण, णातव्वा संपधारणा // .659. धारणववहारेसो, पउंजितव्वो तु केरिसे पुरिसे? / भण्णति गुणसंपण्णे, जारिसगे तं सुणेह त्ति। 660. पवयणजसंसि पुरिसे, अणुग्गहविसारदे तवस्सिम्मि। सुस्सुयबहुस्सुतम्मि य, विवक्कपरियागबुद्धिम्मि॥ १.व्य (पा, ला)। 2. 'व्वा (ला)। 3. सतिं (व्य 4500) / 4. देति (व्य)। 5. एस भणितो ववहारो (व्य 4501) / ६.व्य 4502 / 7. रणं (ला)। 8. ष्य (व्य 4503) में गाथा का टसरार्ध इस प्रकार है नाऊण धीरपुरिसा, धारणववहार तं बेति। 9. उ (व्य 4504, मु)। 10. एव (मु, पा)। ११.व्य 4505 / 12. कारणे (मु, ब)। 13. गाथा 658 से 662 तक की गाथाओं की तुलना हेतु देखें व्य 4506-10 / Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 661. एतेसु धीरपुरिसा, पुरिसज्जातेसु किंचि खलितेसु / रहिते विहारइत्ता, जहारिहं देति पच्छित्तं // 662. रहिते नाम असंते, आदिल्लम्मि ववहारतियगम्मि। ताहे विहारइत्ता, वीमसेऊण जं भणितं // 663. पुरिसस्स उ अवराह, विधारइत्ताण जस्स जं भणितं / तं देंती पच्छित्तं, केणं देंती उ? तं सुणसु॥ 664. जो धारितो सुतत्थो, अणुओगविधीय धीरपुरिसेहिं / अल्लीणपलीणेहिं', जतणाजुत्तेहिँ दंतेहिं // 665. अल्लीणा णाणादिसु, पइ पइ लीणा" उ होति पल्लीणा। कोधादी वा पलयं, जेसि गता ते पलीणा तु॥ जतणाजुतो पयत्तव, दंतो जो उवरतो तु पावेहिं / अहवा दंतो इंदियदमेण नोइंदिएणं च // 667. एरिसगा जे पुरिसा, अत्थधरा ते भवंति जोग्गा उ। धारणववहारण्णू', ववहरिउं धारणाकुसला। 668. अहवा 'जेणऽण्णइया'९० दिवा, सोधी परस्स कीरंती। तारिसगं चेव पुणो, उप्पण्णं कारणं तस्स" // 669. सो तम्मि चेव दव्वे, खेत्ते काले य कारणे पुरिसे। तारिसगं अकरेंतो, न हु सो आराहगो होति // 670. सो तम्मि चेव दव्वे, खेत्ते काले य कारणे पुरिसे। तारिसगं चिय भूतो, 'कुव्वंतो राहओ'१३ होति // 671. अहवा वि इमे अण्णे, धारणववहारजोग्गयमुर्वेति / धारणववहारेणं, जे ववहारं ववहरंति // १.अइयारं (व्य 4511) / 2. अरिहं (व्य)। 3. सुणह (व्य, पा)। 4. आलीण' (व्य 4512) / 5. ल्लीणा (पा)। 6. तु पलीणा (मु, ब)। ७.व्य 4513 / ८.व्य 4514 / 9. हारं तू (पा, ला)। 10. जेणं ईया (मु), जेणं इया (ला)। ११.व्य 4515 / 12. व्य 4516 / 13. कुव्वं आराहगो (व्य 4517) / 14. x (ला)। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ वेयावच्चकरो वा, सीसो वा देसहिंडगो वा वि। दुम्मेहत्ता ण तरति, अवधारेउं बहू जो तु॥ 673. तस्स तु उद्धरिऊणं, अत्थपदाइं तु देंति आयरिया। जेहिं करेतिर कज्ज, आधारेंतो तु सो देसं // 674. धारणववहारो 'खलु, जहक्कमं५ वण्णितो समासेणं। जीतेणं ववहारं, सुण वच्छ! जहक्कम वोच्छं / 675. वत्तणुवत्तपवत्तो, बहुसो आसेवितो महाणेणं / एसो तु जीतकप्पो, पंचमगो होति ववहारो॥ 676. वत्तो णामं एक्कसि, अणुवत्तो जो पुणो बितियवारे। ततियव्वारपवत्तो, परिग्गिहीतो महाणेणं / / 677. बहुसो बहुस्सुतेहिं, जो वत्तो ण य णिवारितो होति। .. वत्तऽणुवत्तपमाणं, जीतेण कतं हवति एतं // 678. जो आगमे य सुत्ते, या सुण्णतो आण-धारणाए य। सो ववहारं 'जीतेण, कुणति 10 वत्ताणुवत्तेणं // 679. अमुगो१२ अमुगत्थकतो, जह अमुगस्स अमुगेण ववहारो। अमुगत्थ वि य तह कओ, अमुगो अमुगेण ववहारो१२ // 680. तं 'चेवऽणुकज्जंतो', ववहारविधिं पयुंजति जहुत्तं। जीतेण एस भणितो, ववहारो धीरपुरिसेहिं / / 681. धीरपुरिसपण्णत्तो, पंचमगो आगमो विदुपसत्थो। पियधम्मऽवज्जभीरू, पुरिसज्जाताणुचिण्णो य५ // १.व्य 4518 / 2. करेहि (ला, ब, मु)। 3. आराहिंतो (पा, ला)। 4. देसो (व्य 4519) / 5. सो अधक्कम (व्य 4520) / 6. अणुवत्तिओ (व्य 4521) / ७.व्य 4522 / ८.व्य 4542 / 9. या (ब)। 10. जीतेणं कुणती (मु)। ११.व्य 4533 / १२.मु के स्थान पर पा प्रति में सर्वत्र सु पाठ है, जैसे असुतो। 13. व्य 4534 / 14. "णुमज्जंते (व्य 4535) / १५.व्य 4536 / Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 682. सो जह कालादीणं, अपडिक्कंतस्स' निव्विगतियं तु। मुहणंतफिडित पाणग, असंवरे' एवमादीसु॥ 683. एगिदिऽणंतवज्जे, घट्टण तावेऽणगाढ गाढे य। णिव्विगतियमादीयं, जा आयामंतमुद्दवणे // 684. विगलिंदऽणंतघट्टण, 'परितावऽणगाढ गाढ उद्दवणे। 'पुरिमड्डादिकमेण उप, णेतव्वं जाव खमणं तु // __पंचिंदि घट्ट तावणऽणगाढ गाढे तहेव उद्दवणे। एगासणमायाम', खमणं तह पंचकल्लाणं // 686. एमादीओ एसो, णातव्वो होति जीतववहारो। अणवज्जविसोधिकरो, संविग्गऽणगारचिण्णो ति॥ 687. जं जीतं सावज्जं, ण तेण जीतेण होति ववहारो। जं जीतमसावज्जं, तेण उ जीतेण ववहारो॥ 688. केरिस सावज्जं तू?, केरिसगं वा भवे असावज? केरिसगस्स व दिज्जति", सावज्जं वावि? इतरं वा? // 689. खार हडिर२ हड्डुमाला, पोट्टेण व रंगणं तु सावज्ज / दसविधपायच्छित्तं, होति असावज्जजीतं तु॥ 690. 'ओसण्णे बहुदोसे 12, निद्धंधस पवयणे य णिरवेक्खे। एयारिसम्मि पुरिसे, दिज्जति सावज्जजीतं तु॥ 691. संविग्गे पियधम्मे, य अप्पमत्ते. यऽवज्जभीरुम्मि। कम्ही पमादखलिते, देयमसावज्जजीतं तु॥ 1. गाथायां षष्ठी पञ्चम्यर्थे (व्यमटी)। 2. ऽसंवरणे (व्य 4537) / 3. “यामं तु उद्द' (व्य 4538) / 4. तावऽणगाढे य (व्य 4539) / 5. मेणं (व्य, ला)। 6. गाढा (पा)। 7. एक्कासणआयामं (व्य 4540) / 8. व्य (4541) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है आयरियपरंपरएण, आगतो जाव जस्स भवे। 9. व्य 4543 / 10. दिज्जति (पा)। 11. छार (व्य 4544) / 12. घडि (ब)। 13. उस्सण्णबहू दोसे (व्य 4545) / 14. कम्हिइ (व्य 4546) / . Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१ . 83 692. जं जीतमसोहिकरं, ण तेण जीतेण होति ववहारो। जं जीतं सोहिकरं, तेण 'उ जीतेण'' ववहारो॥ 693. जं जीतमसोहिकरं, पासत्थ-पमत्तसंजयाचिण्णं / जइ वि महाणाचिण्णं, ण तेण जीतेण ववहारो॥ 694. जं जीतं सोधिकरं, संविग्गपरायणेण दंतेणं। एक्केण वि आइण्णं, तेण उ जीतेण ववहारो॥ 695. एवं जहोवदिट्ठस्स, धीर-विदुदेसित-प्पसत्थस्स। णिस्संदो: ववहारस्स, एस कहितो समासेणं // 696. को वित्थरेण वोत्तूण, समत्थो णिरवसेसए अत्थे। ववहारो जस्स 'ठिता, जीहाण मुहे सतसहस्सं? // 697. किं पुण गुणोवदेसो, ववहारस्स तु विदुप्पसत्थस्स। एवं२ भे परिकहितं, दुवालसंगस्स णवणीतं / 698. ववहारे पंचसु वी, विज्जते१२ केण तू ववहरेज्जा?। आगमववहारेणं, तस्स अभावा सुतेणं तु॥ 699. सुतववहारअभावे, ववहारं ववहरेज्ज आणाए। जेणं सो उ सुतस्सा", अणुसरिसो एगदेसेणं // 700. आणाए ऽभावाओ, ववहारं ववहरेज्ज धरणाए। जेणेसा वि सुतस्सा, वट्टति तू एगदेसम्मि॥ 701. धारणऽणंतर जीतं, एत्थं५ पुण जीतकप्पें पगतं तु। जेणेसो सावेक्खो, अणुसज्जति जाव 'तित्थं ति'१६ // . 1. x (ला)। २.व्य 4547 / 3. तेणं (ला)। ४.व्य 4548 / 5. दंतेण (ब)। 6. एगेण (व्य 4549) / 7. पसत्थं (पा, ला)। 8. नीसंदो (व्य 4550) / ९.को वि (व्य)। १०.मुहे हवेज्ज जिब्भासतसहस्सं (व्य 4551), ___ "स्सा (पा, ला)। 11. विदुप (ला)। 12. एसो (व्य 4552) / 13. विज्जंत (ला)। 14. स्स (पा, ला)। 15. एयत्थं (ला)। १६.तित्थम्मि (ब)। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 702. दव्वं खेत्तं कालं, भावं पुरिस पडिसेवणाओ य। धिति-बल-संघयणं वा, आवेक्खति जीतकप्पो उ' // 703. एस पसंगाभिहितो, चोदगवयणाउ अहुण जीवस्स। वोच्छामि सोधणं तू, परमं सुसमाहितो एण्हि // 704. जीव त्ति पाणधरणे, पाणा पुण आउमादि णिद्दिट्ठा। अहवा जीवति जीविस्सई य जीवं ति होति जिओ॥ 705. होति विसोहण सोहण, जह तू वत्थस्स तोयमादीहिं। तह कम्ममलखउरल्लियस्सा जीवस्स पच्छित्तं // 706. एयं पुण पच्छित्तं, परम पहाणं ति होति एगटुं। कस्सेयं परमं? ती, जीवस्स उ होति पच्छित्तं / / संवर-विणिज्जराओ, मोक्खस्स पहो तवो पहो तासिं। तवसो य पहाणंगं, पच्छित्तं जं च णाणस्स॥२॥ 707. संवर घट्टण पिहणं, एगटुं सो य संवरो दुविधो। देसे सव्वे य तहा, एमेव य निज्जरा दुविहा॥ 708. संवरियासवदारो, नवकम्मोवज्जणं ण कुव्वति उ। पुव्वज्जितस्स खवणं, विणिज्जरा सा उ णातव्वा // 709. सेलेसिं पडिवण्णे, दुचरिमसमयम्मि वट्टमाणे य। तहिँ सव्वसंवरा णिज्जरा य अवसेसदेसम्मि॥ 710. संवर-विणिज्जराओ, उभयमवी मोक्खकारणं होति। मोक्खपहो हेतू कारणं ति एते उ एगट्ठा / 711. एतेसिं दोण्ह वि तू, तवो पहो हेउ कारणं होति। एतस्स वि पच्छित्तं, पहाणमंगं मुणेतव्वं // 712. जेण तवो बारसहा, पच्छित्ते णिवतती तु दसभेदे / तेण पहाणं अंगं, तवस्स तू होति पच्छित्तं // 1. इस गाथा से पूर्व प्रतियों में 'अण्णं च' का उल्लेख है। 2. जिवं (मु, पा, ब)। 3. हणा (म)। 4. क्खउरल्लियस्स (मु, ब, ला)। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-२-५ 713. गाहापच्छद्धेणं, तस्स वि जं भणित जं च णाणस्स। णंतर ततिगाहाए, सारं तू तं चिमं आह॥ सारो चरणं तस्सा', णिव्वाणं चरणसाहणत्थं च। पच्छित्तं तेण तयं, णेयं मोक्खत्थिणा ऽवस्सं॥३॥ 714. सामाइयमादीयं, सुतणाणं बिंदुसारपज्जतं / तस्स वि सारो चरणं, 'चरणस्स वि होति णेव्वाणं" / 715. जेव्वाणस्स अणंतर, चरणं चरणा अणंतरं णाणं / णाणविसुद्धीए पुण, चारित्तविसुद्धया होति // 716. चारित्तविसुद्धीए, णेव्वाणफलं तु पावती अचिरा। सा पुण चरित्तसुद्धी, पच्छित्ताहीण णातव्वा // 717. जम्हा एतेऽत्थ गुणा, पच्छित्ते वण्णिता तु सुत्तम्मि। तम्हा खलु णातव्वं, दसहा मोक्खत्थिणा जहिमं // तं दसविहमालोयण-पडिकमणोभय-विवेग-वोसग्गे। तव-छेद-मूल-अणवठ्ठया य पारंचिए चेव॥४॥ 718. आलोयणअरिहं ती, आ मज्जायाऽऽलोयणा गुरुसगासे / जं पाव विगडिएणं, सुज्झति पच्छित्त पढमेयं // 719. मिच्छादुक्कडमेत्तेण, चेव जं सुज्झती तु पावं तु / ण य विगडिज्जति गुरुणो, पडिकमणरिहं हवति एयं // 720. जह तु अणाभोगेणं, खेलादी णिसिरितं तु होज्जाहि। हिंसादिए य दोसे, ण य आवण्णो तु किंचिदवि // 721. जं पाव सेवितूणं, गुरुणो विगडिज्जती उ सम्मं तु / गुरुसंदिट्ठ पडिक्कम, तदुभयमेतं मुणेतव्वं // 1. तस्स (पा, ब), तस्स वि (ला)। 2. सव्वं (ब)। 3. जाव बिंदुसाराओ (आवनि 87) / 4. सारो चरणस्स णिव्वाणं (आवनि)। . 5. वोसग्गा (पा)। 6. मुद्रित पुस्तक तथा कुछ प्रतियों में 'आ' पाठ मिलता है लेकिन छंद की दृष्टि से यह अतिरिक्त पाठ प्रतीत होता है। 7. “समासे (पा, मु)। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 722. जं किंचि दव्वगहितं, अहियमकप्पं व अहव ऊणं तु। विहिणा तु विगिचंते, पच्छित्त विवेगअरिहेदं // 723. जं कायचे?मेत्तेण, णिरोहेणं तु सुज्झती पावं / जह दुस्सिमिणादीयं, पच्छित्तेयं वियोसग्गं // 724. णिव्वीतियमादीओ, छम्मासंतो उ जत्थ दिज्जति तु। एय तवारिह भणितं, इदाणि छेदारिहं वोच्छं // 725. जेण पडिसेवितेणं, दूसिज्जति जस्स पुव्वपरियाओ। तत्तियमेत्तं छिज्जति, सेसगपरियायरक्खट्ठा // . 726. जम्मि पडिसेवितम्मी, सव्वं छेत्तूण पुव्वपरियागं।' पुणरवि महव्वयाई, आरोविजंति मूलरिहे // 727. जम्मि पडिसेवितम्मी, अणवट्ठो किंचि काल कीरति तु। मूलवतेसुं / पंचसु, चिण्णतवो पच्छ होऊणं / / तद्दोसोवरतस्स उ, महव्वयारुवण कीरती तस्स। अणवट्ठप्पो एसो, एत्तो पारंचियं वोच्छं / 729. अंचु गती-पूजणयो, पारंचति गच्छती तु पारं तु / तवमादीणं कमसो, सो लिंगादीहि चतुधा तु॥ 730. आलोयणमादीणं, दसण्ह वी एस होति पिंडत्थो। सट्ठाणे सट्ठाणे, विभागतो इणमों वोच्छामि॥ करणिज्जा जे जोगा, तेसुवउत्तस्स निरतियारस्स। छउमत्थस्स विसोही, जइणो आलोयणा भणिता॥५॥ 731. के पुण करणिज्जा? जे, तित्थंकर-गणधरोवइट्ठा उ। सुत्ताणुसारओ तू, संजम-दुक्खक्खया हेऊ॥ 732. जे त्ति य जे निद्दिट्ठा, जुजि जोगे कायमादिया तिण्णि। जं जीवे जुंजयती, पेरयती वा ततो जोगा॥ १.विगिंचते (पा, ला)। 2. हेण (पा, ब, ला)। 3. दुस्सिम (ला, ब)। 4. एयं (पा, ब, ला)। ५.स्सा (ला)। 6. जे इति अणिद्दिट्टणिद्देसो (चू ) / Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-६ 87 733. संखेवतो उ एते, मुहपुत्तियमादि जाव उस्सग्गो। दिय-रायसमायारी', जा जहियं वुत्त सुत्तम्मि॥ 734. ते तु जदा उवउत्तो, असवत्त करेति निरतियारा य। ___ तद आलोयणमेत्तेण चेव सुद्धी तु छदुमस्स / / 735. छउमं कम्मं भण्णति, नाणावरणं च दंसणावरणं। मोहणिय अंतरायं, चउव्विधं . होति णातव्वं // 736. जे तु जदा करणिज्जे, उवयुत्त करेति णितियारो य। नणु तत्थ का व सुद्धी?, का व असुद्धी तु? चोदेति // 737. गुरुराह तत्थ चेट्ठा, जा किरिया सुहुम आसवेसुं वा। अहव पमादा सुहुमा, अतियार ण जाणती छदुमो // 738. ते अतियारा सुहुमा, आलोइयमेत्तया विसुझंति। .... सा आलोयण चोदग!, करणिज्जा तीसु जोगेसु॥ 739. को कारयो? जती तू, जइ साहु पयत्तिओ विणिद्दिट्ठो। पंचम गाह समत्ता, गाहं छटुं इमं वोच्छं / आहारादिग्गगहणे', तह बहियाणिग्गमेसु णेगेसु। उच्चार-विहारावणि, चेइयजइवंदणादीसुं॥ 6 // 740. आहारों जेसि आदी, सो चउहा होतिमो तु आहारो। भत्तं पाणं खादिम, सादिम होती चउत्थं तु॥ 741. आदिग्गहणेणं पुण, सेज्जा-संथार-वत्थ-पायट्ठा। पाउंछणअट्ठा वा, ओहोवहुवग्गहट्ठा वा॥ 742. अहव गिलाणस्सट्ठा, आयरिए बाल-वुड्ड-खमगे वा। दुब्बल सेहे व महोदरे व आदेसअट्ठा वा॥ 743. एतेसिं पाउग्गं, आहारो अहव होज्ज सेज्जादी। ओसध-भेसज्जाणि य, एमादी होज्ज अट्ठो उ॥ 1. रायो स (पा, ला)। 2. ते (पा, ब, ला)। ३.क्का (पा)। ४.च्छतुमो (ला, ब)। 5. रादीग (पा, मु)। 6. च्चारे (ला, ब)। 7. 'जह वंद (ला), "दीसु (ब), चेईयज' (ला)। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 744. एतेसिं अट्ठाए, गुरु पुच्छित्ता गुरूणऽणुण्णातो। . सुत्ताणुसारतो तू, उवयुत्तों विधीय घेत्तूणं // 745. आलोएती गुरुणो, जं जह गहितं तु भत्तमादीयं / सुत्ताणुसारतो तू, आलोयणमेत्तयो सुद्धो॥ 746. सीसाऽऽह जई एवं, विधिगहणं होति एवऽसुद्धं तु। तो गहणमेव' सव्वे, आहारादीण मा कुणउ // 747. चोदग! जदि एवं तू, संजमजोगा उ होंति संपुण्णा। आहारमादियाणं, को नाम परिग्गहं कुज्जा? // 748. अण्णं च इमो दोसो, अग्गहणा पावती महंतो उ। आयरियादी चत्ता, णाणादीणं च वोच्छेदो // 749. तम्हा अवस्सगहणं, आहारादीण होति विहिणा उ। आहारांदीगहणे, एगो पादो समत्तेसो॥ 750. निग्गम गुरुमूलाओ, सेज्जाओ 'वा हवेज्ज'२ निग्गमणं / ते य अणेगा निग्गम, कुलादिया इणमु वोच्छामि // 751. कुल-गण-संघे चेइय, तद्दव्वविणासणे दुविधभेदे / एतेसि णिवारणया, गुरुमूल करेज्ज णिग्गमणं / 752. संथारादीणऽहवा, अप्पिणणत्था उ पाडिहारीणं। निग्गम गुरुमूलाओ, वसहीओ वा करेज्जाहि // 753. गाहापच्छद्धेणं, जं भणितुच्चार अवणिसद्दो तु। अवणी भूमी भण्णति, तेण उ उच्चारभूमी उ॥ 754. सज्झायविहारो तू, अवणीसहितो विहारभूमी उ। चेइयवंदणहेतुं, गच्छे आसण्ण दूरं वा // 755. आयरिया तु अपुव्वा, अहवा साधू अतीव संविग्गा। वंदण-संसयहेउं, गच्छे आसन्न दूरं वा॥ 1. गहणं एव (ला)। 2. वाअग (ला, ब)। 3.4 (ला)। ४.व (पा)। 5. दूरे (ला)। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७,८ 756. आदीगहणेणं पुण, सड्ढा सण्णाय अहव ओसण्णा। दंसणगाहण निक्खामणं च' ओसण्णउच्छहणा // 757. एतेहि व कज्जेहिं, गुरुमूला णिग्गमो उ साधूणं / गाहा छ? समत्ता, अहुणा पुण सत्तमं वोच्छं / जं चऽण्णं करणिज्ज, जतिणो हत्थसयबाहिरायरियं। अवियडियम्मि असुद्धो, आलोएंतो तगं सुद्धो॥७॥ 758.. जं 'चऽण्णमवुत्तं'३ ती, करणिज्जं तं इमं तु खेत्तादी। हत्थसया आरेणं, परतो व इमं पवक्खामि // 759. खेत्तपडिलेह थंडिल, निक्खमणं अहव होज्ज सेहस्स। संलेहणं व कोई, आयरियादी व कुज्जा तु॥ 760. हत्थसयाउ परेणं, जं आयरियं तु होज्ज खेत्तादी। समितिविसुद्धिणिमित्तं, अवस्स आलोयणं कुज्जा / / 761. जं पुण हत्थसयाओ, अंतो आसेवितं हवेज्जाहि / तं विगडिज्जति किंची, अहव ण विगडिज्जती किंची // 762. पासवण-खेल-सिंघाणगादिउवयुत्ते नत्थि आलोया। आलोएति पमत्तोऽणालोइएँ होतऽसुद्धी" तु॥ 763. सत्तम गाह समत्ता, एत्तो वोच्छामि अट्ठमं गाहं / कारण निग्गम जत्थ तु, सपरगणाओ व आगमणं॥ कारणविणिग्गयस्स य', सगणाओ परगणं गतस्स वि य। उवसंपदा विहारे, आलोयण निरतियारस्स॥८॥ 764. दुविधो उ निग्गमो खलु, कारण निक्कारणा'२ व गच्छाओ। असिवादी कारणिओ, निक्कारण चक्क-थूभादी॥ 1. व्व (पा, ब, ला)। 2. एतो (पा, ला)। 3. चण्णे अवुत्तं (पा)। ४.थंडिलि (ला)। 5. ज्जाहिं (पा, ला)। ६.किंच (पा, ला), किंचि (मु, ब)। 7. सुद्धो (मु)। 8. निग्गमे (ब, ला)। 9. उ (ला), च सद्दो आलोयणाइपयं समुच्चिणइ (चू)। 10. "गणा (मु, ला)। 11. मणइया' (मु, पा)। 12. रणो (मु, पा, ब)। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य महिन 765. असिवे ओमोदरिए, रायढुढे भए व गेलण्णे। अहवा वि उत्तमढे, समाधिकामो तु गच्छेज्जा॥ 766. आयरियपेसणादी, विणिग्गमो' गच्छओ व होज्जाहि। कारण णिग्गम एसो, निक्कारणओ इमं वोच्छं // 767. चक्के थूभे पडिमा, जम्मण-णिक्खमण-णाण-णिव्वाणे / महिम समोसरणे वा, सण्णातग-वइयमादिसु वा // 768. असमत्तकप्पियाणं, णिक्कारण णिग्गमा भवे एते। एते च्चिय कारणतो, जतणाजुत्तस्स गीतस्स // .. 769. कारणविणिग्गतेणं, णिरतीयारेण वी अवस्सं तु। आलोयण दातव्वा, समितिविसुद्धीणिमित्तं तु॥ 770. सा आलोयण दुविधा, ओहेण विभागतो य णातव्वा। ओहो संखेवो ऊ, विभाग पुण वित्थरो भणितो // 771. ओहो तत्थ इमो खलु, अब्भंतरअद्धमासआयस्स। पडिकंतस्स य इरियं, साहुसमुद्दिसणवेला तु॥ 772. णिरतीयारो ‘य जती', भत्तट्ठी वि य हवेज्ज जदि सो तु। ओहेण तत्थ आलोइऊण तो मंडलिं पविसे // 773. अप्पा मूलगुणेसुं, 'विराधणा अप्प उत्तरगुणेसुं"। __ अप्पा' पासत्थादिसु, दाणग्गहणं तु आहेसा // 774. अण्णाय उ वेलाए, विभागआलोयणा तु दातव्वा। समितिविसुद्धिणिमित्तं, एमेव य पक्खपरओ वि // 775. एवं ता कारणिए, असिवादीणिग्गतस्स सगणातो। अतियारविरहियस्स वि, आलोयणमेत्तओ सुद्धी॥ १.णिग्गमो (पा, ला), उ णिग्गमो (ब)। 2. ओनि (119) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है- संखडि विहार आहार-उवहि तह दंसणट्ठाए। 3. जयई (ता)। 4. उत्तरगुणतो विराधणा अप्पा (व्य 238) / 5. अप्पं (ब)। 6. दाणगहसंपयोगोहा (व्य, नि 6316) / 7. "तिसुद्धि (ता)। 8. "परया (पा, ला)। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-९ जे बहियाऽऽगत साहू, ते दुविधा होंति तू मुणेतव्वा। 'समणुण्णऽमणुण्णा" वा, समणुण्ण सगच्छतो चेव॥ 777. परगणे जे अमणुण्णा, ते दुविहा होंति तू मुणेतव्वा। संविग्गमसंविग्गा, पासत्थादी असंविग्गा // 778. परगण संविग्गाओ, जो साधू आगतो तु अण्णगणं / तेण अवस्साऽऽलोयण, विभागतो होति दातव्वा / / 779. उवसंपद पंचविधा, सुत सुह दुक्खे य खेत्त मग्गे य। विणयोवसंपदा वि य, पंचमिगा' होति नातव्वा // 780. पंचविहाए नियमा, एगविहाए व जत्थ उवसंपे। निरतीयारेण ठिता', विभागतोऽवस्स दातव्वा // 781. विहरेंति एगसंभोइगा उ फड्डावती उ गीतत्था। तत्थऽण्णत्थ व खेत्ते, समणुण्णा एस गच्छम्मि॥ 782. एगाह पणग पक्खे, चउमासे वावि जत्थ व मिलंति / ___ तत्थ विभागालोयण, अवरोप्पर तेहि दातव्वा // 783. आलोयणारिहं ति इ, पढमं दारमेतं समक्खातं / पडिकमणारिहमेत्तो, बितियं दारं इमं वोच्छं / गुत्ती-समितिपमादे, गुरुणो आसायणा विणयभंगे। इच्छादीणमकरणे, लहुस मुसादिण्णमुच्छासु॥९॥ 784. गुपु रक्खणम्मि गुत्ती, ताणि मणादीणि होति तिण्णेव। तेहि कहिंचि पमादं, साहु करेज्जा इमं तं च॥ 785. दुच्चिंतिय दुब्भासिय, दुच्चेट्ठिय एसऽगुत्तिया होति। मणमादीणं कमसो, एस पमादो उ साधुस्स // 786. गुत्तो होति कहण्णू, मणमादीहिं तु साहुणा निच्चं / तत्थोदाहरणे तू, जिणदासादी इमे वोच्छं / 1. "णुण्णसमणुण्णा (ला)। 2. पंचविहा (ब)। 3. वि य (पा, ला)। 4. वि (मु, पा)। 5. मलंति (ता, ला, पा)। 6. पमत्तो (मु, पा)। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 787. मणगुत्तीए तहियं, जिणदासो सावगो उ सेट्ठिसुतो। सो सव्वराइपडिमं, पडिवण्णो जाणसालाए / 788. भज्जुब्भामिग पल्लंक, घेत्तु खीलजुयमागता' तत्थ। तस्सेव पायगुवरिं, मंचगपाद' ठवेऊणं // 789. अणयारमायरंती, पादो विद्धो य मंचखीलेणं। तो तं महं ति वियणं, अहियासेती तहिं सम्मं // 790. मणदुक्कडमुप्पण्णं, ण तस्स झाणम्मि निच्चलमतिस्स। दट्ठण तीय विलियं, इय मणगुत्ती करेतव्वा // 791. वइगुत्तीए साधू, सण्णातगपल्लि गच्छते दटुं। .. चोरग्गह सेणावति, विमोइतो भणिउ मा साह // 792. चलिया य जण्णजत्ता', सण्णातग मिलिया अंतरा चेव। माति-पिति-भातिमादी', सो वि णियत्तो समं तेहिं॥ 793. तेणेहि गहित मुसिता, दिट्ठो तो बेंति सो इमो समणो। अम्हे हिं गहित मुक्को, तो बेती' अम्मया तस्स॥ 794. तुम्हेहि गहित मुक्को? आम आणेह बेति तच्छुरियं / जा छिंदामि थणं ति इ.", किं? ती सेणावती भणति // 795. दुज्जातजम्म एसो, दिट्ठा 2 अम्हं तहा वि ण वि सिटुं। कह पुत्तो? त्ती आमं, कह ण वि सिटुं? ति धम्मकहा॥ 796. आउट्टो उवसंतो, मुक्को मज्झं पि तं सि माय त्ति। सव्वं समप्पियं ती, वइगुत्ती एव कातव्वा३ // 797. काइगगुत्ताहरणं, अद्धाणपवण्णगो जधा साधू / आवासियम्मि सत्थे, ण लभति तहिँ थंडिलं किंचि // जा छिप 1. जुगयमा (ता)। 2. गं पादं (ब)। 3. य (पा)। 4. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 20 / 5. जहण्णत्ता (ला)। ६.विलिय (ला)। 7. पति (ता, पा, ला)। 8. भातिगादी (मु)। 9. बेंती (ब)। 10. रिया (पा)। 11. ई (पा, ब)। 12. दिटुं (मु)। 13. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 21 / 14. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 22 / Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-९ 798. 'लद्धं च णेण किह वी", एगो पादो जहिं पइट्ठाइ। तहियं ठितेगपादो, सव्वं राइंर तहा थद्धो / / 799. ण य ठवितो तेणाथंडिलम्मि होतव्वमेव गुत्तेणं / सुमहब्भए वि अहवा, साहु ण भिंदे गती एगो॥ 800. सक्कपसंसा अस्सद्दहणा देवागमो विउव्वणया। मंडुक्कलि सुहुम बहू, जतणा सो संकमे सणियं // 801. हत्थी विगुव्वितो या, आगच्छति मग्गतो गुलगुलेंतो / ण य कुणति गतीभेदं, गएण हत्थेण उच्छूढो / 802. बेति पडतो मिच्छामिदुक्कडं जिय विराधितं में त्ति / ण वि अप्पाणे चिंता, देवो तुट्ठो णमंसति य॥ 803. गुत्तीदारं भणितं, अगुत्तगुत्ती वि हू पसंगण। * समितीदारं वोच्छं, समिति समतिं वि माताओ॥ 804. गमणकिरिया हु समिती, सामण्णे परिणयस्स वा गमणं। सम्ममयति त्ति समिती', सा पंचह इरियमादीया॥ 805. कह समितीसु पमादं, साधु करेज्जा तु? भण्णते सुणसु। उड्डमुहो कहरत्तो, वच्चति साधू पमादेसो॥ 806. सावज्ज भास भासति, गारत्थिय ढड्डर व्व भासेज्जा। एमादी तु पमादो, भासाए होति णातव्वो॥ 807. हिंडंतो गोयरम्मि, संकितमादीसु जो तु नाऽऽयुत्तो। भिक्खाएँ गहणकाले, एसण एसो पमादो तु॥ 808. आदाण-भंडणिक्खेवणम्मि जो होति एत्थऽणाउत्तो। एसो होति पमादो, एत्थ पमादम्मि छन्भंगा। 1.4 (ब)। 2. राइ (ता, ब)। 3. णं (पा, ला)। 4. 'गुलेयं (पा, ब)। 5. कुणते (ता)। * 6. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं. 23 / 7. मि (ब)। ८.समिति (पा)। 9. समिति (मु, ब)। 10.x (ला)। 11. रम्मिं (पा, ता)। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 जीतकल्प सभाष्य .. 809. गहणं आदाणं ती, होति णिसद्दो तहाऽहिगत्थम्मि। खिव पेरणे व भणितो, अहिउक्खेवो तु णिक्खेवो॥ 810. ण वि पेहे ण पमज्जे, ण' वि पेह पमज्जती तु बितिभंगो। पेहे ण पमज्ज ततिओं, पेह पमज्जे चतुत्थो तु॥ 811. जो सो चउत्थभंगो, पेहेति' पमज्जती य तस्स पुणो। भंगा भवंति चउरो, दुपेहदुपमज्जणे पढमो॥ 812. बितिओ दुपेहसुपमज्जणम्मि ततिओ सुपेहदुपमज्जे / सुपडिल्लेहियसुपमज्जितम्मि भंगो चउत्थेसो॥ 813. आदिमभंगा तिण्णि इ, अपेहअपमज्जणे य पढमादी। तिण्णि दुपेहादी वि य, छन्भंगा होंति एते तु // उच्चारे पासवणे, खेले सिंघाणमादियाणं च। परिठवणे एत्थं पि हु, पमादिणो होति छन्भंगा / / 815. परिठवणुच्चारादी, उच्चरती तेण होति उच्चारो। पस्सवति त्ति य तेणं, पासवणं भण्णते काई॥ 816. अहवुच्चरती काइय, पायं सवती य पासवणसण्णा। खे ललणाओ खेलो, ‘णासिगलाणाओ सिंघाणो" // 817. एस पमादो भणितो, पंचसु समितीसु इरियमादीसु। ___ अहुण पसंगेणं चिय, वोच्छामि इ' अप्पमादं तु॥ 818. जुगमेत्ततरदिट्ठी, पदं पदं नसति चक्खुपूतं च। अव्वक्खित्तायुत्तो, अरहण्णग एत्थुदाहरणं // 819. अह अरहण्णगसाधू, समितो असमीय गड्ड डेवंतो। छलिओ पादो छिण्णो, अण्णाए संठिओ यावि // 820. भासासमितो साहू, भिक्खट्ठा णगररोहए कोयी। णिग्गंतु बाहिकडए, हिंडंतो केणई पुट्ठो / १.णे (पा, ब, ला)। 2. पेहिति (पा, ला)। 3. गलणाओ सिंघाडो (ब)। 4. ई (ता, ब)। 5. मसति (ता, पा)। ६.संधिओ (मु)। 7. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कंथा सं. 24 / Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-९ 821. केवइय आस हत्थी?, धणणिचयो दारु-धण्णमादीणि / णिव्विण्णमणिव्विण्णं, णगरं तो बेइमं समितो॥ 822. बेति ण याणामो त्ती, सज्झाय-ज्झाण-जोगवक्खित्ता। हिंडंता ण वि पेच्छह, ण वि सुणहा किह हु? तो बेति॥ 823. बहुं' सुणेतिकण्णेहिं, बहु अच्छीहिं पेच्छति / ण य दिलृ सुतं सव्वं, भिक्खु अक्खाउमरहति / / 824. अहव य भासति कज्जे, णिरवज्जमकारणे ण भासति य। विकह-विसोत्तियपरिवज्जितो जती भासणासमितो / / 825. बायालमेसणाओ, भोयणदोसे य जो विसोधेति। सो एसणाएँ सहितो, दिटुंतो एत्थ वसुदेवो // 826. वसुदेव अण्णजम्मे, आहरणं एसणाए समितेणं / मगहा णंदिग्गामे, गोयम धेज्जाइ वक्कयरो" // 827. तस्स य वारुणि भज्जा, गब्भो तीए कदाइ संभूतो। धेज्जाइ मतो छम्मासि गब्भ धेज्जायणिज्जाए॥ 828. मातुलसंवड्डण कम्मकरण वेयारणा य लोएणं। णत्थि तुह एत्थ किंचि इ, तो बेती माउलो तं च॥ 829. मा सुण लोयस्स तुम, धूयाओ तिण्णि तासि जेट्ठतरी। दाहामि करे कम्मं, पकयो पत्ते य वीवाहे // 830. सा णेच्छई विसण्णो, माउलओ भणति अण्ण दाहामि। सा वि तहेव य णेच्छति, तइयं ती णेच्छती सा वि॥ 831. णिव्विण्ण नंदिवद्धण, आयरियाणं सगासें णिक्खंतो। जातो छट्ठक्खमगो, गिण्हति य अभिग्गहमिमं तु॥ 832. बाल-गिलाणादीणं, वेयावच्चं 'मए तु कातव्वं"। तं कुणति तिव्वसद्धो०, खातजसो सक्क गुणकित्ती॥ HERWHERE 1. बहू (ब)। 2. सुणेहि (ता)। 3. बहू (ब)। 4. पेच्छहिति (ला)। . 5. 'हसि (पा, ला, ता), 'मरिहइ (दश 8/20), कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 25 / 6. जति (पा, ब, ला)। 7. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 26 / 8. णेच्छइ य (मु, पा)। 9.x (ला)। 10. “सुद्धो (पा, ला)। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 833. अस्सद्दहणा' देवस्स आगमो कुणति दो समणरूवे। अतिसारगहितमेगो, अडवीय ठितो गतो बितिओ॥ 834. बेति य गिलाणो पडितो, वेयावच्चं तु सद्दहे जो उ। सो खिप्परे उद्धेतू, सुतं च तं नंदिसेणेणं // 835. छट्ठोववासपारणगमाणितो कवल घेत्तुकामेणं। तं सुत मोत्तुं रभसुट्टितो या भण केण कज्जं? ति // 836. पाणगदव्वं च तहिं, जं णत्थी तेण बेति कज्जं ति। णिग्गत आहिंडते', अणेसणं कुणति ण य पेल्ले // इत एक्कवार बितियं, च हिंडितो 'लद्ध ततियवाराए'।' अणुकंपा तूरंतो, गतो य तो तस्सगासं तु॥ 838. खर-फरुस-णिकैरेहिं, अक्कोसति सो गिलाणगो रुट्ठो। दे मंदभग्ग! घुक्किय, तूससि तं नाममेत्तेणं // 839. साहुवयारि त्ति तुमं, णामड्ड अहं तु उद्दिसिउ आओ। एयाएँ अवत्थाए, तं अच्छसि भत्तलोहिल्लो॥ 840. अमयमिव मण्णमाणो, तं फरुसगिरं तु सो ससंभंतो। चलणगतो खामेती, धुवति य तं समललित्तं तु // 841. उटेह वयामो त्ती, तह काहामो जहा उ अचिरेणं। होहिह निरुया तुब्भे, बेती ण तरामि गंतुं जे॥ 842. आरुभहा पट्ठीए, आरूढो ताहें तो पयारं तु। परमासुइ दुग्गंधं, मुंचति सो तस्स पट्ठीए॥ 843. फरुसं बेति दुमुण्डिय! , वेगविघातो कतो त्ति दुक्खवितो। इय बहुविहमक्कोसति, पदे पदे सो वि भगवं तु॥ 844. ण गणेती फरुसगिरं, न वि य हु दुव्विसहमसुइगंधं च। चंदणमिव मण्णंतो, मिच्छामी दुक्कडं भणति // 1. दहाण (ला, मु)। 2. सिग्धं (ला, मु)। 3. यं (ब)। 4. 'गउच्चं (ता, पा, ब, ला)। 5. डंतो (ला)। 6. तइय लद्धवा (ता)। 7. “य विव (ला)। 8. कत्तो (पा), करो (ब)। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-९ 97 845. चिंतेति किं करेमी, कह णु समाधी हवेज्ज साहुस्स?। इय बहुविधप्पगारं, ण वि तिण्णो जाहें खोभेउं // 846. ताहे अभित्थुणित्ता,गतो तओ आगतो य इतरो वि। ___ आलोएति गुरूहि य, धण्णो' त्ति ततो समणुसट्ठो॥ 847. जह तेणं ण वि पेल्लिय, एसण इय एव साहुणा निच्चं। जइयव्वं एमेसा, एसणसमिती समक्खाता॥ 848. पुट्विं चक्खु परिक्खिय, पमज्जितुं जो' ठवेति गिण्हति वा। आदाणभंडनिक्खेवणाएँ सो होति इह समितो॥ .849. एत्थ वि ते च्चिय भंगा, कातव्वा जाव होति अंतिमतो। सुप्पडिलेहित-सुपमज्जितं च भंगो चउत्थो उ॥ 850. एसो गज्झो एत्थं, तम्मुवयुत्तो स होति खलु समितो। आहरण गुरुण भणितो, साहू वच्चामु गामं ति // 851. ओगाहिते' पडिग्गह, ताहें ठिता कारणेण केणावि। तत्थेगो पेहेळं, णिक्खिवती' बितिओं पुण आह // 852. पेहितमेतं किं पेहणा, पुणो ? होज्ज एत्थ किं सप्पो?। सण्णिहितदेवताए, विउव्वितो तत्थ तो सप्पो॥ 853. उग्घाडिते य दिट्ठो, आउट्टो बेति मिच्छकारं च। समिताऽसमिता एते, उक्कोस-जहण्णगा होंति॥ 854. उच्चारं पासवणं, खेलादि व अण्णपाणमहितं च / सुविवेइए पदेसे, णिसिरंतो होति इह समितो // 855. एत्थ वि ते च्चिय भंगा', तहेव समितो तु अंतिमे होति / आहरणं धम्मरुई०, परिठावणसमितिमुज्जुत्तो५ // 1. धण्णु (ता)। 2. x (ब)। 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 27 / 4. उग्गा (ब)। ५.णिक्खिविई (ता)। ६.बितीओ (ता, पा, ला)। 7. x (ता)। 8. वा (मु, ता)। 9. भंगो (ता, पा)। 10. रुती (पा, ब, मु)। 11. "ट्ठावण (पा, ला)। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 18 856. काइयऽसमाहि परिट्ठावणे य गहितो अभिग्गहो तेणं। . सक्कपसंसा अस्सद्दहणा' देवागम विउव्वे // 857. सुबहू पिपीलियाओ, बाहाडा यावि काइयऽसमाही। अण्णो य काइयाए, उवट्ठितो बेतऽहं असहू॥ 858. अहयं तु काइयाडो, बेति परिठ्ठव समाहि मा अच्छ। णिग्गत णिसिरे जहिँ जहिँ, पिवीलिया ऊ सरे तत्थ // अह साहु किलामिज्जति, ताहे पीतो य धरितों देवेणं। सो मा य णिसिद्धो त्ती, मा पिय देवो य आउट्टो॥ 860. वंदित्तु गतो देवो, समितीसू एव होति जतितव्वं / एत पसंगाभिहितं, 'आसातण इणमु वोच्छामि" // 861. गुरवो आयरिया तू, णाणादीओ उ होति आयारो। आयरण परूवणया, वट्टति सो तेसिमाऽऽसाणा // 862. तीय विभासा इणमो, आसातण दुपद वयणमेव त्ति। आयाय सातयाणा, आयस्स उ साडणा जा उ॥ 863. सा होती आसातण, आओ लाभो त्ति आगमो यावि। णाणादीणं साया', सायण धंसो विणासो ति॥ 864. आतस्स 'साडणं ती", यकारलोवम्मि होति आसयणा। आयरियाणं इणमा, आसायण' होतिमेहिं तु॥ 865. डहरो अकुलीणो 'त्ति य१०, दुम्मेहो दमग मंदबुद्धि त्ति। अवि अप्पलाभलद्धी, सीसो परिभवति आयरियं // 866. अहवा वि वदे एवं, उवदेस परस्स देंति एवं तु। दसविधवेयावच्चं, कातव्व सयं ण कुव्वंति॥ 1. असद्द (ला)। 7. “डम्मी (ता)। 2. पवीतो (ता, ब)। 8. इणमो (पा, मु)। 3. मा (मु), सा (पा)। 9. आसायणा (पा)। 4. x (ता), कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२,कथा सं.२८। १०.त्ती (पा, ब, ता)। 5. ता प्रति में यह गाथा नहीं है। 11. बृ 772, नि 2760 / 6. सोया (पा, ब, ला)। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-९ 867. अहव तिहा आसायण, मण-वइ-कारण मणपदोसादी। वायाए आसातण, अंतरभासादि कुव्वेज्जा॥ 868. कारणं संघट्टण, जमलित पुरतो व वच्चती पंथे। अहवा आसायणमो, तुसिणीमादी मुणेतव्वा // 869. आलत्ते वाहित्ते, वावारित-पुच्छिते णिसटे या। गुरुवयणा पंचेते, सीसस्स तु छा इमेक्केक्के / 870. तुसिणीए हुंकारे, किं ति व किं चडकर करेसि? त्ति। किं णिव्वुति ण देसी?, केवइयं वावि रडसि? त्ति // 871. एवं छा' आलत्ते, तुसिणीमादी तु होति णातव्वा / . वाहित्तादि य छ च्चिय, एक्केक्कपदम्मि बोद्धव्वा / / 872. गुरुआसायण भणिता, एत्तो वोच्छामि विणयभंगं तु। णेगविध अब्भुट्ठाणे, अभिग्गहे आसणे चेव॥ 873. आसणदाणं सक्कारणा य सम्माणणा य कितिकम्मे। अंजलिपग्गहे अणुगती या ठितपज्जुवासणता / / 874. जंते पडिसंसाहण, आसणमादीहि होति सक्कारो। सम्माणो उवहीए, जोग्गं जं जस्स तं कुज्जा / 875. कप्पो संथारो वा, जहिं चेट्ठो अच्छती तु आयरिओ। णायागमस्स कालं, पडिलेहिय घेत्तु तं अच्छे / / 876. कितिकम्मं वंदणगं, हत्थुस्सेहो निडालदेसम्मि। अंजलिपग्गहमेतं, सेसा तु पदा हु कंठोत्ता // एमादी विणयं तू, जो ण वि कुणती तु सूरिमादीणं / विणयब्भंगो एसो, सत्तविधो अहव णाणादी। 878. णाणे दंसण चरणे, मण-वइ-कायोवयार सत्तविधो। एतेसु अवटुंते, समासतो एस भंगो तु॥ 1. पत्थे (पा, ला)। २.नि (863) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है फरुसवयणम्मि एए, पंचेव गमा मुणेयव्वा। ३.वि (ला)। 4. चदगरं (ला, ब)। ५.णिव्वुती (नि.८६६)। ६.बृ६१०५। 7. च्छा (पा, ब, ला)। 8. एतेसिं (ता, पा, ब, ला)। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 जीतकल्प सभाष्य 879. विणयब्भंगो' एसो, ओहेण समासतो समक्खातो। . इच्छादी दसहा तू, अकरणेणमो तुरे वोच्छामि // 880. इच्छा-मिच्छा-तहक्कारो, आवसिया य णिसीहिया। आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य निमंतणारे // 881. उवसंपया य काले, इच्छादिअकरणया तु दसहेसा। ___ लहुसमुसावादि त्ती, एत्तो उ समासतो वोच्छं / 882. पयला उल्ले मरुगे, पच्चक्खाणे य गमण-परियाए। समुद्देस-संखडीओं, खुड्डुग-परिहारिय मुहीउ // 883. अवस्सगमणं दिसासु', एगकुले चेव एगदव्वे य। एमादी तु पदेहिं, मुसं तु लहुसं वए साहू // पयलासि किं दिवा? ण पयलामि लहु बितिय णिण्हवे गुरुगो। अण्णद्दाविय० णिण्हवे, लहुगा गुरुगा बहुतराणं // णिण्हवणे णिण्हवणे, पच्छित्तं वड्डती तु" जा सपदं / लहु-गुरुमासो सुहुमो, लहुगादी बादरो होति२ // 886. किं 'वच्चसि वासंते?, ण गच्छे 13 णणु वासबिंदवो एते। भुंजंति णीह मरुगा, कह? ति णणु सव्वगेहेसु" // भुंजसु५ पच्चक्खाणं१६, महं ति तक्खण प|जितो पुट्ठो। किं च ण मे पंचविधा, पच्चक्खाता अविरतीओ? // 888. वच्चसि? णाहं वच्चे, तक्खण वच्चंत पुच्छितो भणति। सिद्धतं ण वि जाणह", णणु गम्मति गम्ममाणं तु? // 885. 1. “य भंगो (ता)। 9. दुच्च (बृ 6068), दोच्च (नि 300) / 2. तू (ब)। 10. 'दाइत (ब)। ३.गाथा में अनुष्टुप् छंद का प्रयोग हुआ है,आवनि 436/1 / 11. य (बृ 6069), ऊ (ब, मु)। 4. खडी (पा)। १२.नि 301 / ५.बृ 6066, नि 298,882 / 13. नीसि वासमाणे ण णीमि (66070) / 6. अवस' (पा, ता, ब, मु)। 14. गेहेहिं (नि 302) / 7. दिसासू (ला, मु), दिस्सासू (नि 299) / 15. भुंजंसु (ता, पा, ब, ला)। 8. (बृ६०६७ और नि 883) में इस गाथा का उत्तरार्ध 16. खातं (नि 303, बृ)। इस प्रकार है 17. रई उ (बृ६०७१)। पडियाखित्ता गमणं, पडियाखित्ता य भंजणयं। 18. जाणसि (नि 304,66072) / Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-९,१० 101 889. दस एतस्स य मज्झ य, पुच्छितों परियाग बेति तु छलेणं। 'मज्झ नव त्ति य वंदितें', भणाति बे पंचगा दस उ॥ 890. वट्टति तु समुद्देसो, किं अच्छह कत्थ एसरे गगणम्मि। 'वर्ल्डति संखडीओ", घरेसु नणु आउखंडणया' / / खुड्डग जणणी उ मुया, परुण्णों जियइ त्ति एव भणितम्मि। माइत्ता सव्वजिया, भविंसु तेणेस माता ते॥ ओसण्णे दट्टणं, दिट्ठा परिहारिग त्ति लहु कहणे / कत्थुज्जाणे गुरुगो, 'अदिट्ठ दिढे य" लहु-गुरुगा। छल्लहुगा उ नियत्ते, आलोएंतम्मि छग्गुरू होंति। परिहरमाणा वि कहं, अप्परिहारी भवे छेदो // 894. खाणुगमादी मूलं, सव्वे तुब्भेगो हं ति अणवट्ठो। सव्वे उ बाहिरा पवयणस्स तुब्भे त्ति पारंची // 895. भणइ य दिट्ठ णियट्टे, आलोयाम ति घोडगमुहीउ। * "किमणुस्सा सव्वेगो'११, सव्वे बाहिं पवयणस्स / / 896. मासो लहुगो गुरुगो, चउरो मासा हवंति लहु-गुरुगा। छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च२ // 897. गच्छसि ण ताव गच्छं, 'तक्खण वच्चंत 13 पुच्छितो भणति। वेला 'ताव ण'१४ जायति, परलोगं वावि मोक्खं वा। 898. 'कतरि दिसिं१५ गमिस्ससि?, पुव्वं अवरं गतो भणति पुट्ठो। किं वा ण होति पुव्वा, इमा दिसा अवरगामस्स? // 1. मम नव पवंदियम्मिं (बृ६०७३)। २.नि 305 / 3. एह (नि 306) / 4. वट्टइ संखडी उ (ता,ब)। ५.बृ६०७४। 6. ते (बृ६०७५, नि 307) / 7. करणे (ब)। ८.वयंतऽदिडेसु (बृ६०७६), दिद्वेसु (नि 308) / ९.नि 309, बृ६०७७। १०.नि 310, तु.बृ 6078, इस गाथा के बाद बृ (6079) में निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती है किं छागलेण जंपह, किं मं होप्पेह एवऽजाणंता। बहुएहिँ को विरोहो, सलभेहि व नागपोतस्स // 11. किं मणु' (नि 311), माणुस सव्वे एगे (बृ 6080) / 12. बृ६०८१, नि 312 / / 13. किं खुण जासि त्ति (बृ 6084, नि 313) / 14. ण ताव (बृ, नि)। 15. दिसं (बृ 6085), कतरं दिसं (नि 314) / Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 जीतकल्प सभाष्य 899. अहमेगकुलं गच्छं, वच्चह बहुकुलपवेसणे पुट्ठो। भणति कहं दोण्णि कुले, एगसरीरेण पविसिस्सं // 900. वच्चह एगं दव्वं, घेच्छं णेगगह पुच्छितो भणति। गहणं तु लक्खणं पोग्गलाण ‘णऽण्णेसि'२ तेणेगं // 901. पयलादी तु पदा खलु, एमेते वण्णिता समासेणं। लहु-गुरुगा जाव मुसं, लहुसगमेतं मुणेतव्वं // 902. तण-डगल-छार-मल्लग, उग्गहमणणुण्णवेत्तु जो गिण्हे। लहुसग अदत्तमेतं, अहवा रुक्खादिसू लहुसं॥ 903. मुहणंत पायकेसरि, पत्तट्ठवणं च गोच्छगो' चेव। लहुसपरिग्गहमेसो, मुच्छ करेंतस्स साहुस्स। 904. अहवा वि इमो अण्णो, सेज्जातर-गोण-साण-कागादी। धारण कप्पट्ठस्स व, रक्ख-ममत्तादि 'कुज्जा तु"॥ 905. बितियवय-ततिय-पंचम, लहुस्सगा एतें होंति णातव्वा। गाहेसा तु समत्ता, नवमा दसमं अतो वोच्छं // अविहीय कास-जंभिय-खुय वाया'ऽसंकिलिट्टकम्मेसु। कंदप्प-हास - विकहा - कसाय - विसयाणुसंगेसु॥१०॥ 906. अविही हत्थमदातुं, अहवा मुहणंतगं अदाऊणं। जंभाइए वि एवं, खुइए वी एव वत्तव्वं // 907. खु त्ति कतं तं सुइतं", छीयं वा होति इह उ खुइतं तु। वातणिसग्गो दुविधो, उड्डे य अहे य णातव्वो॥ 908. उड्डु उड्डोयादी, वातणिसग्गो अहे मुणेतव्यो। मुहणंतग हत्थं वा, उड्डोए तत्थ जतणाए॥ 1.66086, नि 315 / २.णिण्णेसि (ता)। 3. बृ 6087, नि 316 / 4. लुक्खा (ता)। 5. गोच्छतो (ता)। 6. x (ला)। 7. कुज्जासु (ता)। 8. खुह (ता)। 9. वाय त्ति पयं कम्मसःण सम्बज्झइ (च)। 10. खुइतं (मु)। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 103 पाठ-संपादन-जी-११, 12 909. पुयकड्णा उ हेटे, वातणिसग्गस्स होति जतणेसा। इय वतिरित्तो जो खलु, अविहीए सो णिसग्गो तु॥ 910. छेदण-भेदणमादी, असंकिलिटे य होति कम्मं तु। कंदप्पो वायाए, कारण व होति णातव्वो॥ 911. हामं तु हासमेव तु, विकहा पुण इत्थिमाइया चउहा। कोहादी उ कसाया, विसया सद्दादिया णेया॥ 912. जा तेसिं तु पसज्जण, सहसाऽणाभोगतो व साधूणं / सो होति विसयसंगो, अविहीगाहा समत्ता उ॥ खलितस्स या सव्वत्थ वि, हिंसमणावज्जगो जयंतस्स। - सहसाऽणाभोगेण व, मिच्छाकारो' पडिक्कमणं॥ 11 // 913. खलणा दुविहा भणिता, सहसाऽणाभोगतो व होज्जाहि / . सा कत्थ पुणो दुविहा, सव्वत्थ इमं पवक्खामि॥ 914. सव्ववतेसुं गुत्तिसु, समिती णाणादिएसु व हवेज्जा। . सव्वत्थ वि एतेसुं, खलणेसा होति णातव्वा॥ 915. सहसाऽणाभोगेण व, हिंसमणावज्जगो जयंतस्स। सहसाऽणाभोगेणं, को णु विसेसो? त्ति चोदेति // 916. आउत्तो वि य होउं, कारेंतो वि ण याणतीयारं / जह हं करेमि एतं, कते य नाऽयं अणाभोगो॥ 917. आउत्त पुव्वभासा, पडिसेवण सहस एव जा तु भवे। ण य तरति णियत्तेउं, सहसक्कारो भवे एसो॥ 918. सहसाऽणाभोगा तू, सव्वत्थ उ वण्णिता समासेणं / एस विसोहिट्ठाणं, मिच्छक्कारो पडिक्कमणं // आभोगेण वि तणुगेसु णेह-भय-सोग-बाउसादीसु। कंदप्प-हास-विगहादिगेसु णेयं पडिक्कमणं॥१२॥ 1. वा (पा, ब, ला)। 2. च सद्दो पडिक्कमणारोवणं समुच्चिणइ (चू)। '३.मिच्छक्का' (मु, पा)। 4. जवंत (पा, ला)। 5. प्रतियों में 'वि' पाठ है लेकिन छंद की दृष्टि से 'वी' अथवा 'वि य' पाठ होना चाहिए। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 जीतकल्प सभाष्य 919. आभोगे जाणंतो, तणुगो थोवे तु होति णातव्वो। तं पुण करेज्ज कप्पट्ठ-सेज्जतर-सण्णिमादिसु' वा॥ 920. एमादी णेहाऊ, जं कत कप्पट्ठगादि आभोगा। तस्स तु पायच्छित्तं, मिच्छक्कारो पडिक्कमणं // 921. तणुगो णेहो भणितो, भय सत्तविहं इमं तु वोच्छामि। इह परलोगाऽऽदाणे, अकम्ह आजीवियऽसिलोगे॥ 922. मरणभयं सत्तमगं, एतेसि समासतो विभागों इमो'। मणुओ मणुयस्सेव तु, देवो देवस्स तिरि तिरिए // 923. बीभेति सजातीए, इहलोगभए य होति बोद्धव्वं / परलोगभयं विसरिस, जह मणुओ बी. तिरिदेवे॥ 924. धणमादाणं भण्णति, तब्भय चोरादियाण जं बीभे। तस्सेव * य रक्खट्ठा, वइ-पागारादि जं कुणति॥ 925. अणिमित्त अकम्हभयं, ण वि किंची पासती तह वि बीभे। अडवीए रातीय व, आजीवभयं जहा अहणो॥ 926. दुक्कालो आदेसो, कह जीवी हं ति एस चिंतेति। मरणभयं सिद्ध चिय, मरणमिति महब्भयं जह तु॥ 927. असिलोगो त्ति इ. अयसो, जइ एव करिस्स होहिती अयसो। असिलोगभयं एतं, वेदणभय होति सीतादी। 928. सत्तविधं भयमेतं, एतेसु तु वट्टितं तु जं तणुगे। तस्स विसोहिट्ठाणं, मिच्छक्कारो पडिक्कमणं // 929. सोगं आभोगेण वि, चिंतादि करेंति' विप्पयोगम्मि। तस्स तु पायच्छित्तं, मिच्छक्कारो पडिक्कमणं // 930. आभोगमणाभोगे, संवुडमस्संवुडे य अहसुहुमे। पंचविधो बाउसिओ, सुहुमाभोगेण पगतेत्थं // 1. "माइ (ता, ब)। 2. भइ (पा, मु)। 3. इणमो (ता)। 4. 4 (पा, ब, ला)। ५.ई (ता, पा, ब, ला)। 6. यु (ता, पा, ब)। 7. करते (ब)। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१३-१५ 105 931. कंदप्पादी तु पदा, पुव्वुत्तकमा तु दसमगाहाए। एव जहुद्दिढेसू, तणुगे सोधी पडिक्कमणं॥ 932. बितियद्दार समत्तं, पडिक्कमणारिहमहुण ततियं तु। तदुभयदारं वोच्छं, तत्थ इमा होति गाहा तु॥ संभमभयातुरावतिसहसाणाभोगऽणप्पवसओ' वा। सव्वव्वयातियारे', तदुभयमासंकिते चेव॥ 13 // 933. संभमऽणेगविधो खलु, हत्थी अगणी व उदगमादी उ। भय दसुग मिलक्खू वा, मालवतेणादिओ' बहुहा॥ 934. पढमबितियादिएहि", परीसहेहाऽऽतुरो तु बहुहा तु। आवइ चउहा इणमो, समासतोऽहं पवक्खामि // 935. दव्वावति खेत्तावइ, कालावइ भावआवई चेव। दव्वावती तु दव्वं, जं दुलभं होति साहुस्स // 936. विच्छिण्णमडंबादी, खेत्तावति एस होति णातव्वा। कालावती तु ओमे, भावे तु गुरू-गिलाणादी। 937. सहसाऽणाभोगा तू', पुव्वुत्ता. अहुण वोच्छऽणप्पवसो। णप्पवसो उ परवसो, सो होति इमेहि कज्जेहिं // 938. वाइय-पित्तिय-सिंभिय', अहवा वी होज्ज सण्णिवाएणं। एतेहि अणप्पवसो, अहवा होज्जा इमेहिं तु॥ 939. जक्खाइट्टसरीरो, मोहणिए'• अहव होज्ज कम्मुदए। एतेहि अणप्पवसो, होज्जाही कारणेहिं तु॥ 940. एव जहुद्दिद्वेसुं, संभममादीसु कारणेसुं तु। सव्वव्वयातियारं, णासं तु 'करेज्जऽणप्पवसो'११ // 1. संभमो' (ब) 'भोगाऽणप्प' (ला)। 2. “यातीयारे (मु)। 3. “णाईओ (पा, ब, ला)। 4. "बितीया (पा)। 5. तु (ता)। 6. 4 (पा)। 7. रव्वसो (ता, ब)। ८.सिंब्भिय (ब)। 9. एतेसिं (ता, पा, ला)। 10. मोहणीए (ला, ब)। 11. "ज्जाण' (पा, ला)। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 जीतकल्प सभाष्य 941. पुढवि जल अगणि' मारुत, वणस्सती कुज्ज रुक्खरुहणं वा। बिय तिय चउरो पंचिंदियं च साहू विराहेज्जा॥ 942. एव मुसावादादी, अणपज्झो आयरेज्ज साहू तु। पिंडविसोहादीणि व, सेवेज्ज व उत्तरगुणाणि॥ 943. एमादी आवण्णे, अतियारविसोहि तदुभयं होति। तदुभय गुरुमालोइय, मिच्छामी दुक्कडं बेति॥ 944. आसंकिते तदुभयं, मूलगुणे उत्तरे य णातव्वं / __परिछिंदितु ण वि सक्के, कतमकतं एस आसंका॥ दुच्चिंतिय दुब्भासिय, दुच्चिट्ठिय एवमादिय बहुहा'। उवउत्तो वि ण याणति, जं देवसियातियारादी॥१४॥ 945. दु त्ति दुगुंछाधातू, संजमउवरोधि कुच्छितं होति। तं मणसा जदि चिंतित, दुच्चिंतित एव णातव्वं // 946. एवं तू दुब्भासित, दुच्चेट्ठिय एवमेव णातव्वं / दुप्पडिलेहियमादी, आदीसहेण बोद्धव्वं // 947. एमादियं तु बहुसो, अणेगसो होति हू मुणैतव्वं / उवउत्तो वि ण जाणति, ण वि संभरती ति जं' भणितं // 948. आदिग्गहणेणं पुण, राइय पक्खिय तहेव चउमासे"। संवच्छरिए य तहा, अतियारा होंति बोद्धव्वा // सव्वेसु ‘य बितियपदे 2, दंसण-णाण-चरणावराहेसु। आउत्तस्स तदुभयं, सहसक्कारादिणा चेव॥१५॥ 949. पढमं उस्सग्गपदं, अववादपदं तु बितिययं होति। सव्वग्गहणेणं पुण, 'सव्वऽवराहा'१४ मुणेतव्वा॥ 1. जलण (ब)। 2. एवमादी (पा)। ३.दुसद्दो कुच्छाभिहाणे (चू)। 4. “मादीयं (पा, ब, ला)। 5. बहुसो (ला)। ६.दुगुच्छा (पा, ब, ला)। 7. "मादीयं (पा, ब, ला)। 8. उ (ता, मु)। ९.जो (ला)। 10. x (ब)। 11. चउम्मासे (पा)। १२.वि बीय (ला)। 13. राहेह (ला, पा)। 14. सव्वं अव (पा), सव्वावराहा (ब), Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१६,१७ 107 950. दंसण-णाण-चरित्ते, जे अवराहा तु होंति गीतत्थे। कारणजतणाजुत्ते, एव जयंतस्स जे उ भवे // 951. 'जह तिक्खउदगवेगे, विसमम्मि" व विजलम्मि वच्चंतो। कुणमाणो वि पयत्तं, अवसो जह पावतेपडणं // 952. तह समणसुविहिताणं, सव्वपयत्तेण वी जयंताणं। ___ कम्मोदयपच्चइया, विराधणा कस्सइ हवेज्जा' // 953. एरिसजतणाजुत्ता, तस्स विसोहीय तदुभयं होति। सहसा वि होति तदुभय, आवण्णे दंसणादीसु॥ 954. तदुभयदारसमत्तं, विवेगदारं अओ पवक्खामि। कस्स पुण विवेगो ऊ, तत्थ इमा होति गाहा तु॥ पिंडोवहिसेज्जादी, गहितं कडजोगिणोवउत्तेणं। पच्छा णातमसुद्धं, सुद्धो विधिणा विगिंचंतो॥१६॥ 955. पिडि संघाते धातू, पिंडो संघाउ भण्णते तम्हा। * सो इह सच्चित्तादी, णव-णवभेदो पुणेक्केक्को॥ 956. पुढवी आउक्काए, तेऊ वाऊ वणस्सती' चेव। ... बेइंदिय तेइंदिय, चउरो पंचिंदिया चेव॥ 957. एक्केक्को पुण तिविधो, पुढवीमादी सचित्तमादी उ। सत्तावीसपभेदो, पिंडेस समासतो होति॥ 958. ओहिय ओवग्गहिओ, उवधी दुविधो समासतो होति। होति विभागेणं पुण, जह भणितो ओहजुत्तीए // 959. भण्णति सेज्जा' वसही, आदीसद्देण होति. डगलादी। ओसधभेसज्जाणि य, आदीसहेण लहियाणि // 1. 'तिक्खम्मि उद' (व्य 223, नि), वडपादव उम्मूलण तिक्खम्मि (ब)। 2. वि (नि 6305) / 3. पावती (नि 576, बृ 4929) / 4. किस्सइ (ता), कासति (बृ 4930) / 5. नि 577, 6306, व्य 224 / 6. 'जुत्ते (ता, ब, ला)। 7. वणसती (पा)। 8. 'जुत्तीण (पां)। 9. सेया (ब)। 10. होति (ता, मु)। 11. लदियाणि (ता, पा, ब)। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 जीतकल्प सभाष्य 960. कडजोगी गीतत्थो, जं वुत्तं होति जो' व गहितत्थो। पिंडेसण - पाणेसण - वत्थेसण - सेज्जमादीणं // 961. अहवा छेदसुतादी, सुत्तत्थाहिज्जितो तु गीतत्थो। गहितं तेणुवउत्तेण, णात पच्छा असुद्धं तु॥ 962. केण असुद्धं? भण्णति, उग्गम-उप्पायणेसणादीहिं। अहवा वि संकितादी, सो सुज्झति विहिविगिचंतो॥ 'कालद्धाणाऽतिच्छियमणुग्गयत्थमियगहितमसढो" उ। कारणगहिउव्वरिते', भत्तादिविगिंचणे सुद्धो॥१७॥ 963. पढमाएँ पोरिसीए, पडिगाहेत्ताण असण-पाणादी। जो ततियमइक्कामे, कालातीतं इमं होति॥ 964. अद्धोयणा परेणं, आणित णीतं व' असण-पाणादी। एयऽद्धाणातीतं, सो सढ असढो वइक्कामो // 965. विगहा-किड्डादीहिं, होति सढो एस होति असढो तु। गेलण्णवावडत्ता', होज्ज व सागारिया तत्थ // 966. थंडिल्लअभावा वा, तेणाहिभयं व तत्थ होज्जाहि। एमादीकज्जेहिं, असढो तू होति णातव्वो॥ 967. एमादी असढो जं, विधी विगिचंतों होति सुद्धो तु। अणुदित अत्थमितो वा, गहितं असढेणिमं वोच्छं / 968. गिरि• राहु-मेह-महिया-पंसु-रयावरिय होज्ज वा सविता। उग्गयबुद्धी साहू, एमेव य होतऽणत्थमिते // 969. पच्छा णातमणुग्गत, अहव अत्थमित'' तु एस एण्हिं तु। एयण्णातम्मि सढो१२, सुद्धो तु विही विगिंचंतो॥ 970. आयरिए य गिलाणे, पाहुणगे खमग-बाल-वुड्डे य। एतेसऽट्ठा गहितं, तं होती कारणग्गहितं // 1. x (ला)। 2. उ (पा, ब, ला, मु)। 3. गहितुं (मु)। 4. कालाद्धा' (पा, ब, ला), "खाण अति° (ता)। 5. "रियं (ला)। 6. "गिंचियं (ला)। 7. व्व (पा, ब, ला)। 8. यह गाथा ता प्रति में नहीं है। 9. “ण्णं वाव (पा)। 10. गिरि (ला, पा)। 11. "मियं (ता, ब, ला)। 12. असढो (ब)। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१८-२० 109 971. विहिपरिभुत्तुव्वरितं, विधी विगिचंत होति सुद्धं तु। एतं विवेगदारं, एत्तो वोच्छामि वोसग्गं // 'गमणागमणविहारे, सुतम्मि सावज्जसुविणयादिसु' य।२ णावा-णदिसंतारे, पायच्छित्तं वियोसग्गो // 18 // 972. वसही गुरुमूला वा, गमणं' अण्णत्थ पुणरवागमणं। एतं गमणागमणं, विहार सज्झायभूमी तु॥ 973. तो सज्झायणिमित्तं, गमणं अन्नत्थ होज्ज साहुस्स। गमणागमणविहारं, णातव्वं होति एतं तु // 974. समितिविसुद्धिणिमित्तं, एत्थं पच्छित्त होति उस्सग्गो' / होति सुतं सुतणाणं, उद्देसगमादि णातव्वं // 975. पट्ठवणुद्दिसणे या, समुदिसणे तह य होतऽणुण्णाए। कालपडिक्कमणम्मि य, सुतस्स एत्थं तु उस्सग्गो / 976. पाणतिवायादीओ, सावज्जो सुमिणओ तु णातव्वो। _ आदीगहणेणं पुण, अणवज्जपसत्थएK पि॥ 977. चस्सद्दग्गहणाओ, दुस्सउणा दुण्णिमित्त' गहिता उ। पढमवयादीएसु य, सव्वेसु विसोहि उस्सग्गो॥ 978. णावा चउव्विहा तू, समुद्दणाविक्क तिण्णि उ णदीए। उज्जाणी ओयाणी, तिरिच्छगामी भवे तइया // 979. जंघद्धा संघट्टो, णाभीलेवोवरिं तु लेवुवरिं / बाहोडुपाइओ खलु, णदिसंतारेवमादीओ // 1. 'सुमिणयाई (ला)। 2. "वियारे सुत्ते वा सुमिण-दंसणे राओ (व्य 110), च सद्देण दुन्निमित्त दुस्सउण-पडिहणणनिमित्तं (चू)। 3. विउस्सग्गो (व्य)। 4. गमण (पा)। 5. उवसग्गो (ता, ब, ला, पा)। 6. आदिग्ग' (मु)। 7. दुणिमित्त (ता)। 8. नि (183) में इस गाथा की संवादी निम्न गाथा मिलती हैणावातारिम चतुरो, एग समुद्दम्मि तिण्णि य जलम्मि। ओयाणे उज्जाणे, तिरिच्छ संपातिमे चेव // 9. “लेवो परेण (ओभा)। 10. ओभा (34) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार हैएगो जले थलेगो, निप्पगले तीरमुस्सग्गो। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 जीतकल्प सभाष्य 980. णावादीहि पदेहिं, जाव तु उडुपादिसंतरंतो तु। सव्वत्थ तु पच्छित्तं, जतणाजुत्तस्स उस्सग्गो॥ भत्ते पाणे सयणासणे' य, 'अरहंत-समणसेज्जासु। उच्चारे पासवणे, पणवीसं होंति उस्सासा // 19 // 981. भत्तं पाणं असणं, सयणं सेज्जा उ होति णातव्वा। आस उवेसण धातू, उवविसणं आसणं होति // 982. अरह पूयाएँ धातू, पूयामरिहं ति तेण अरहता। अरहं ति वंदण- णमंसणं च तम्हा तु अरहंता / / 983. कोधादी उ अरी ऊ, अहव रयं कम्म होति अट्ठविधं / अरिणो व रयं हंता, तम्हा उ हवंति अरिहंता / / 984. सयणं सेज्ज पडिस्सय, भत्तादी जाव होति सेज्जा ऊ। हत्थसयाउ परेणं, गमणागमणम्मि सव्वत्थ // 985. समितिविसुद्धिणिमित्तं, जतणाजुत्तस्स होति उस्सग्गो। पणुवीसं उस्सासा, उच्चारमतो तु वोच्छामि // 986. उच्चरती उच्चारं, पस्सवती तेण होति पस्सवणं / सण्णा काइय कमसो, अहव इमो होति सद्दत्थो / 987. उच्चरति काइयं तू, जम्हा तेणं तु होति उच्चारो। ____ पायं सवती जम्हा, तम्हा तू२ होति पासवणं // 988. परिठविएसेतेसुं, हत्थसया आरतो व परतो वा। सोही काउस्सग्गो, पणुवीसं होंति ऊसासा॥ हत्थसतबाहिरातो, गमणागमणादिगेसु पणुवीसं। पाणिवधादिसुमिणए", सतमट्ठसतं चउत्थम्मि॥२०॥ 1. सयणं जत्थ सुप्पइ, आसणं जत्थ निविसिज्जइ (चू)। 2. अरहंतसेज्जा चेइयघरं, समणसेज्जा पडिस्सओ (च)। 3. पणु (ब)। 4. ऊसासा (व्य 111), उस्सासं (ला)। 5. उवेसणं (मु)। 6. पूया अरिहं (पा)। 7. अरिहं (मु)। 8. तु. आवनि 583/3 / 9. “गमणं पि (ता)। 10. "त्था (ला)। 11. सद्देत्थो (पा, ब, ला)। 12. x (ता)। 13.4 (ला)। 14. पाणवधादीसुमिणे (ला)। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-२१-२३ 111 989. गाहद्ध पढम कंठं, पाणवहे सुमिणदंसणे रातो। कतकारितादिगेसुं, विसोहि ऊसास सतमेगं // 990. एव मुसावादादिसु, उस्सग्गो जाव होति णिसिभत्तं / सतमुस्सासाण भवे, अट्ठसतं पुण चउत्थम्मि / देसिय' राइय पक्खिय, 'चाउम्मास वरिसे सुपरिमाणं। सतमद्धं तिणि सता, पंच 'सतऽद्भुत्तर" सहस्सं॥२१॥ 991. देसियमादिपदाणं, कमसो ऊसासमाणमेतं तु। ते पुण कह विण्णेया, उस्सासा? तमिहवोच्छामि // 992. लोगस्सुज्जोयगरा, चउरो एगं सतं मुणेतव्वं / पंचासा दोहि भवे, तिण्णि सता होंति बारसहि // 993. पंच सता वीसाए, अट्ठसहस्सं च होति चत्ताए। देसियमाउस्सग्गे, होई एतं तु परिमाणं // 994. पणुवीस अद्धतेरस, सिलोग पण्णत्तरिं च बोधव्वा। सतमेगं पणवीस', दो बावण्णा य वरिसेणं // उद्देस समुद्देसे, सत्तावीसं 'तहेवऽणुण्णाए"। अट्ठेव य ऊसासा', 'पठ्ठवणा-पडिकमणमादी० // 22 // 995. उद्देसग अज्झयणे, सुतखंधे चेव होति अंगे य। उद्दिसणादिपदाणं, सत्तावीसं तु उस्सासा / / 996. पट्ठवणपडिक्कमणे, अट्ठस्सासा तु होति उस्सग्गो। आदिग्गहणेणं पुण, पट्ठवयंते वि अणुओगो' / 997. कालपडिक्कमणे वि य, अवसउणे चेव होति सव्वत्थ। उस्सासा अट्ठ भवे, काउस्सग्गो मुणेतव्वो॥ उद्देसग अज्झयणे, सुतखंधंगेसु कमसों पमादिस्स। कालाइक्कमणादिसु, णाणायाराइयारेसु // 23 // 1. देवसिय (ला)। 7. पणु (ब)। 2. मासे तहेव वरिसे य (पा, ब, मु)। 8. तहा अणु (व्य 114), अणुण्णवणियाए (ला)। 3. सत अट्ट (ब)। 9. उस्सासा (पा, ब, ला)। 4. तहिं मिह (ला)। 10. 'वण पडिक्क (मु, ता, ब)। 5. बारस उ (ता)। 11. 'ओगं (पा, ब, ला, मु)। 6. होइ (ता, पा, ब, ला)। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 जीतकल्प संभाष्य 998. णाणायारो दुविहो, ओहेण विभागतो य णातव्वो। उद्देसग अज्झयणे, सुतखंधंगे विभागो. तु / 999. उद्देसादिचतुण्ह' वि, अतियारो अट्टहा मुणेतव्वो। पत्तेयं पत्तेयं, कालादि इहं पवयणम्मि॥ 1000. काले विणए बहुमाणे, उवधाणे तहा अणिण्हवणे। वंजण-अत्थ-तदुभए, अट्ठविधो णाणमायारो // 1001. जो तु करेति अकाले, सज्झायं कुणति वा असज्झाए। सज्झाए वा ण कुणति, कालतियारो भवे एस॥ 1002. जच्चादिमदुम्मत्तो, थद्धो विणयं ण कुव्वति गुरूणं। हीलयति व जो तु गुरुं, विणयइयारो भवे एस // 1003. सुतणाणम्मि गुरुम्मि व, भत्ती बहुमाण' जो तु ण करेति। भत्ती होतुवयारो, बहुमाणो गोरवसिणेहो' / 1004. बहुमाणे अइयारो, एमेसो वण्णितो समासेणं। उवहाणं होति तवो, आयंबिलमादिओ सो य॥ 1005. जो तं ण कुणति साहू, अहवा वि ण सद्दहेयमुवहाणं। सो ‘उवहाणऽतियारो'६, णिण्हवणेत्तो पवक्खामि॥ 1006. णिण्हवणं अवलवणं, अमुगसगासे अहं णऽहिज्जामि / अण्णं जुगप्पहाणं, आयरियं सो उ उंद्दिसति // 1007. णिण्हवणे अतियारो, एमेसो वण्णितो समासेणं। वंजणमादिपदाणं, अतियारमतो पवक्खामि // 1008. भणितं वंजणमक्खर, तण्णिप्फण्णं सुतं मुणेतव्वं / पागतणिबद्धमेतं, सक्कयमादी करेज्जाहि // 1. "हं (ला)। 5. मुद्रित पुस्तक तथा प्रतियों में 'गोरवसिणेहो' पाठ है 2. नाणविणओ उ (व्य 63), दशनि 158, नि 8, लेकिन चूर्णि में 'ओरससिणेहो' पाठ मानकर व्याख्या पंचा 15/23, प्रसा 267, भआ 112, मूला 269 / की है। यहां चूर्णि का पाठ अधिक संगत लगता है। 3. अज्झायं (ता)। 6. “हाण अति (ता, ब, पा)। . 4. "मार्ण (ता)। 7. “ज्जाहि (ता)। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-२३-२६ 113 1009. धम्मो मंगलमुक्कटुं, दया संवर णिज्जरा। तस्सेव य अत्थस्सा, अण्णाणि य वंजणाणि करे। 1010. अहवा मत्ता बिंदू, अण्णभिहाणेण बाधितं अत्थं / वंजिज्जति जेण अत्थों, वंजणमिति भण्णते सुत्तं // 1011. वंजणभेदेण इहं, अत्थविणासो हवेज्ज तु कदाई। अत्थविणासा चरणं, चरणविणासे अमोक्खो तु॥ 1012. मोक्खाभावातो पुण, पयत्तदिक्खा निरत्थिगा होति। जम्हा एते दोसा, तम्हा सुत्तं ण भिंदेज्जा। 1013: वंजणभेदो भणितो, अत्थे भेदं अतो पवक्खामि। अत्थं तु वियप्पंती, तेहिं चिय वंजणेहऽण्णं / / 1014. आयारे सुत्तमिणं, आवंती पंचमम्मि अज्झयणे। .. आवंती केआवंती, लोगंसी विपरिमुसंति ति॥ 1015. अट्ठाएँ अणट्ठाए, एतेसुं विप्परामुसंती तु। एतं सुत्तं आरिस, अत्थ विकप्पेतिमं अण्णं // 1016. आवंति होति देसो, तत्थ तु अरहट्टकूवजा केया। सा पडिता हेढे तू, तं लोगो विप्परामुसति / / 1017. अत्थविसंवादेव', तदुभयदारं इमं पवक्खामि। जत्थ तु सुत्तत्था खलु, दो वि विणस्संति तं च इमं॥ 1018. धम्मो मंगलमुक्कत्थो, अहिंसा. पव्वतमत्थगे। देवा वि तस्स णस्संति, जस्स धम्मे सया मसी॥ 1019. अहाकरेसु रंधति, कडेसु रहकारओ। 'रत्तो भत्तंसिणो जत्थ, गद्दभो तत्थ दीसति // 1. गाथा के तीन चरण में अनुष्टुप् तथा चौथे चरण 7. "कडेहिं (निच)। में आर्या छंद है। 8. कठेहिं (निचू)। 2. कयाइं (पा, ब)। 9. लोहार समावुट्टा, जे भवंति अणीसरा (निचू), निचू 3. आवंती (ब)। में इस संदर्भ में निम्न गाथा और मिलती है४. 'वाएवं (ब)। रण्णो भत्तंसिणो जत्थ, गद्दहो तत्थ खज्जति। 5. डुंगरमस्तके (निचू 1) / सण्णज्झति गिही जत्थ, राया पिंडं किमच्छती॥ 6. दिवा (ला)। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 जीतकल्प सभाष्य 1020. एसो तदुभयभेदो, दोण्णि वि णासंति एत्थ सुत्तत्था। एवं तु ण कातव्वं, दोसा तेच्चेव पुव्वुत्ता / / 1021. णाणायारो एसो, अट्ठविगप्पो जिणेहिं पण्णत्तो। उद्देसगमादीणं, पच्छित्तुदितं इमं कमसो॥ णिव्विगतिय पुरिमड्डेगभत्त आयंबिलं चाणागाढे। पुरिमादी खमणतं, आगाढे एवमत्थे वि' // 24 // 1022. उद्देसे णिव्विगति, पुरिमडं सोहि होति' अज्झयणे। सुतखंधे एगभत्तं, अंगम्मि य होति आयामं // 1023. एवं ताऽणागाढे, आगाढजोगम्मि' होति पुरिमादी। अंतम्मि होति खमणं, एमेव य होति अत्थे वि॥ ___ सामण्णं पुण सुत्ते, मतमायाम' चतुत्थमत्थम्मि। अप्पत्तापत्तावत्तवायणुद्देसणादीसु // 25 // 1024. ओहो सामण्णं तू, सव्वम्मी चेव होति सुत्तम्मि। अविसेसित सुत्तत्थे, आयाम चउत्थ कमसो तु॥ . 1025. अप्पत्तो दुविधो तू, सुतेण अत्थेण चेव बोद्धव्वो। पुव्विल्ल सुत्त अत्थे, बितिय अपत्तो' मुणेतव्वो // 1026. तितिणिआदि अपत्तो, अव्वत्तो वय सुते य णातव्वो। वायंतस्स तु एते, चतुगुरुगा उद्दिसादिसु य॥ 1027. पत्तमवाएंतस्स वि, उद्दिसणादीसु चेव यं पदेसु। चतुगुरुगा बोद्धव्वा, अववादे कारणा सुद्धो॥ 'कालाऽविसजणादिसु मंडलिवसुहापमजणादिसुर य२। णिव्वीतियं अकरणे, अक्खणिसेज्जा अभत्तो" // 26 // HTHHHHHHHA १.णिवीतिय (ला)। 8. प्रतियों में इस गाथा के बाद 'अप्पत्ते त्ति गतं' का 2. ति (ब)। उल्लेख है। 3. होत (ता)। 9. तुद्दि (पा)। 4. पूर्वार्द्ध के दूसरे चरण में छंदभंग है, यहां 'आगाढ- 10. काल अवि (ला)। जोगम्मि' के स्थान पर 'अगाढ जोगम्मि' पाठ होना 11. "लिवसहि (ला)। चाहिए। 12. चसद्दा वंदण-काउसग्गे ण करेति तहावि खमणं 5. “याम (पा) चेव (चू)। 6. पत्तापत्त (ता), णादिसु य (ला)। 13. णिव्वि (पा, ब), णिव्वीयं च (ला)। 7. अप्पत्तो (पा, ब, ला)। 14. ण भत्तट्ठो (ला, ता)। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-२७ 115 1028. कालाविसज्जणादी, ण पडिक्कंतं तु जमिह कालस्स। __तिविधा य होति मंडलि, वसुधा भूमी मुणेतव्वा॥ 1029. भोयण सुत्ते अत्थे, तिविधेसा मंडली मुणेतव्वा / कालऽविसज्जण मंडलिभूमीअपमज्जणे' विगती॥ 1030. सुत्ते वा अत्थे वा, ण करि णिसेज्जं च अक्ख ण रएति। चस्सद्देणं वंदण, उस्सग्ग ण कुव्वति चउत्थं // 'आगाढऽणागाढम्मि'', सव्वभंगे य देसभंगे य। जोगे छट्ठ चउत्थं, चतुत्थमायंबिलं कमसो॥२७॥ .1031. जोगो तु होति दुविधो, आगाढो चेव तह अणागाढो। दुविधे वि होति भंगो, सव्वे देसे य णातव्वो॥ 1032. सव्वब्भंगे छटुं, होति चतुत्थं तु देखें आगाढे। ___णागाढे तु चतुत्थं, सव्वे देसे य आयामं // 1033. कह भंगो सव्वम्मी, कह वा देसम्मि एव चोदेति। भण्णति फुडविगडाहिं, गाहाहिं इमं पवक्खामि / 1034. विगति अणट्ठा भुंजति, न कुणति आयंबिलं ण सद्दहति / एसो तु सव्वभंगो, देसे भंगो इमो होति / 1035. काउस्सग्गमकाउं, भुंजति भोत्तूण वा कुणति पच्छा। संदिसह त्ति ण भणती, एवं देसे भवे भंगो।। 1036. णाणायारो भणितो, अट्ठविधो एस तू समासेणं। अहुणा अट्ठविधो च्चिय, आयारो दंसणे होति / 1037. णिस्संकित णिक्कंखित, णिव्वितिगिच्छा' अमूढदिट्ठी य। उववूह थिरीकरणे, वच्छल्ल' पभावणे अट्ठ / 1038. दंसणयारो अट्ठह', एमेसो होति तू समासेणं / एतेसि विवक्खो ऊ, अतियारो होति सो य इमो॥ 1. "ज्जणा (पा, ब, ला)। 2. x (ब)। 3. “ढअंणा' (पा, ता)। 4. तत्थ (नि 1595) / 5. णीसं (पा, ला)। 6. "तिगिंछा (ला)। 7. "ल्ले (ला)। 8. नि 23, दशनि 157, उ 28/31, प्रज्ञा 1/101/14, पंचा 15/24, मूला 201 / 9. अट्ठहा (पा, मु)। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 जीतकल्प सभाष्य 1039. संसयकरणं संका, कंखा अण्णोण्णदंसणग्गाहो। वितिगिच्छा अप्पणो उ, सोग्गति होज्जा ण वावि ति॥ 1040. अहवा वि दुगुंछारे ऊ, विउ त्ति साधू हवंति णातव्वा। ते उ दुगुंछति' निच्चं, मंडलि मोए य जल्लादी॥ 1041. णेगविधा इड्डीओ, पूर्व परतित्थिगाण' दट्ठणं / 'सोऊणं वा जस्स उ, मतिमोहो होति मूढेसा" / / 1042. उववूह होति दुविधा, पसत्थ अपसत्थिगा य णातव्वा। साऊणं तु पसत्था, चरगादीणऽप्पसत्था तु॥ 1043. दंसण-णाण-चरित्ते, तव-संजम-विणय-वेयवच्चादी। .. अब्भुज्जतस्स उच्छाहवद्धणं होति तु पसत्था / 1044. अपसत्था उववूहा, अण्णाणे अविरतीय मिच्छत्ते। चरगादी वट्टते, उववूहति दुविध 'एस गता // 1045. थिरिकरणा" वि य दुविधा, पसत्थ इतरा य होति णातव्वा। साधूण पसत्था तू, णाणादीएहि सीदंति // 1046. बहुदोसे माणुस्से, मा सीद थिरीकरेति एवं तु / एस पसत्था भणिता, अपसत्थेत्तो पवक्खामि // 1047. मिच्छादिट्ठीए तू, चरगादी थिरिकरेंत अपसत्था। पासत्थादी अहवा, थिरीकरेंतम्मि अपसत्था / 1048. वच्छल्ला वि य दुविधा, पसत्थ इतरा य होति णातव्वा / आयरियादि पसत्था, पासत्थादीण इतरा तु॥ 1049. आयरिय गिलाणे या, पाहुणगे असहु-बाल-वुड्डादी। आहारोवहिमादिण, समाधिकरणं पसत्थं तु॥ 1. गाथा का उत्तराध नि (24) में इस प्रकार है- 5. जस्स ण मुज्झइ दिदी, अमढदिद्रिं तयं बेंति (नि)। संतम्मि वि वितिगिच्छा, सिज्झेज्ज ण मे अयं अट्ठो। 6. x (पा)। 2. दुगंछा (ला, ब)। 7. थिर (मु)। 3. दुगुच्छति (पा, ला), दुगुच्छति (ब)। 8. थिर (ब)। 4. परवादिणं च (नि 26) / Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जो-२८-३१ 117 1050. पासत्थोसण्णाणं, कुसील-संसत्त-णीयवासीणं / अहव' गिहत्थादीणं, एमादी अप्पसत्था तु॥ 1051. दुविधा पहावणा वि य, पसत्थ इतरा य होति णातव्वा। तित्थगरादि पसत्था, मिच्छत्तऽण्णाण अपसत्था / / 1052. तित्थगर पवयणे वा, णाणादीणं च तिण्णि वी लोगे। मग्गं णेव्वाणस्स उ, पभावयंते पसत्थेसा॥ 1053. मिच्छत्तऽण्णाणादी, पभावयतेस होति अपसत्था। एसो दंसणयारो, पच्छित्तं तेसि वोच्छामि // संकादिगेसु देसे, खमणं मिच्छोववूहणादिसु य। पुरिमादी खमणंतं, भिक्खुप्पभितीण य चतुण्हं॥२८॥ 1054. संकादी अट्ठपदा, देसे सव्वे य होंति णातव्वा। संकादीण चउण्हं, देसे खमणं तु णातव्वं // 1055. उववूहादि चतुण्ह वि, अपसत्थे देसें होतऽभत्तटुं। सव्वम्मि' होति मूलं, एवं संकादिगेसुं पि॥ 1056. एवं ता ओहेणं, अविसेसो होति एस पच्छित्ते। - पुरिसविभागेणऽहुणा, देसे सोही इमा होति // 1057. संकादी अट्ठसु वी, देसे भिक्खुस्स होति पुरिमडं। वसभे एक्कासणगं, आयामं होति उज्झाए / 1058. आयरिय अभत्तट्ठो, एस विभागेण होति सोही तु। अहुणा' उववूहादिण, अकरणे सोही इमा जतिणो॥ एवं चिय पत्तेयं, उववहादीण अकरणे जतीणं। आयामंतं णिव्वीतिगादि पासत्थसड्ढेसु॥ 29 // 1059. एवं चिय पुरिम९, अणंतरुद्दिट्ठपुरिसभेदेणं / - पिह पिह जइ ण करेती, उववूह पसत्थसाहूणं // 1. अहवा (पा, ब, ला)। २..व (ला)। 3. सव्वे त्ति (पा, ला), सव्वे वि (ता)। 4. उवज्झाए (पा, ब, ला)। 5. अहूणा (ता)। 6. मकरणो (ला)। . Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 जीतकल्प सभाष्य 1060. एव थिरीकरणं तू, वच्छल्ल-पभावणा पसत्थेसु। * पवयण-जइमादीणं, अकरेंते तत्थिमा सोधी॥ 1061. भिक्खुस्स तु पुरिमड्डूं, वसभा भत्तेक्क होति सोधी तु। अभिसेगे आयाम, आयरिए 'होतऽभत्तटुं॥ 1062. गाहापच्छद्धस्साऽणंतरगाहाएँ होति संबंधो। एतस्स वियत्तपदे, संबंधो 'तं चिमं'२ वोच्छं / परिवारादिणिमित्तं, ममत्तपरिपालणादि वच्छल्लं। साहम्मिउ त्ति संजमहेतुं वा सव्वहिं सुद्धो॥ 30 // . 1063. पासत्थोसण्णाणं, कुसील-संसत्त णीयवासीणं / जो कुणति ममत्तादी, परिवारणिमित्तहेतुं च // 1064. तस्स इमं पच्छित्तं, निव्वीयादी तु अंत आयामं / भिक्खूमादीयाणं, चतुण्ह वी होति जहकमसो॥ 1065. आदीगहणेणं पुण', सड्डा सण्णातगा व सेज्जतरा। दाहंताऽऽहारादी, तेण ममत्तादि कुज्जा तु॥ 1066. अह पुण साहम्मि ती, संजमहेतुं च उज्जमिस्सति वा। कुल-गण-संघ-गिलाणे, तप्पिस्सति एव बुद्धी तु॥ 1067. एव ममत्त करेंते, परिवालण अहव तस्स वच्छल्लं। दढआलंबणचित्तो, सुज्झति . सव्वत्थ साहू तु॥ 1068. एसो अट्ठविगप्पो, अतियारो दंसणे समक्खातो। चारित्ते अतियारं, इणमो तु समासतो वोच्छं / / एगिदियाण घट्टणमगाढगाढपरितावणोद्दवणे। णिव्वीयं पुरिमहूं, आसणमायामगं कमसो॥३१॥ 1069. एगिंदिय पुढवादी, जा पत्तेया वणस्सती होति। एतेसिं पंचण्ह वि, पिह पिह संघट्टणे विगती॥ 4. आदिग्ग' (ला, मु)। 5. पुणा (पा)। 1. होतअभ' (ब)। 2. तेसिमं (ता)। 3. वा सद्देण कुल-गण-संघ-गिलाणकज्जाइएसु पडितप्पिस्सइ त्ति (चू)। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३२-३५ 119 1070. परितावितऽणागाढे, पुरिमडं गाढ़ें होति भत्तेक्कं। उद्दवणे आयामं, एत्तो अणंतादीणं वोच्छं / पुरिमादी खमणंत, अणंतविगलिंदियाण पत्तेयं। पंचिंदियम्मि एक्कासणादि कल्लाणगमहेगं // 32 // 1071. साहारणवणकाए, बिय तिय चउरिदिए य विगलम्मि। एतेसि चउण्हं पी, पिह पिह संघट्टणे पुरिमं॥ 1072. परितावितऽणागाढे, भत्तेक्कं गाढ़ें होति आयामं / उद्दवणेऽभत्तटुं, पंचिंदिविसोहिमं वोच्छं // 1073. पंचेंदियसंघट्टे, एक्कासणगं तु होति णातव्वं। अणगाढे आयामं, परितावित गाडे भत्तद्वं // 1074. उद्दवणे कल्लाणं, एगं चिय होति तत्थ णातव्वं / .. पढमवए सोहेसा, पमादसहितस्स णातव्वा / / मोसादिसु' मेहुणवज्जितेसु दव्वादिवत्थुभिण्णेसु। हीणे मझुक्कोसे, आसणआयामखमणाई // 33 // 1075. मोसाऽदत्तादाणं, परिग्गहो चेव होति णातव्वो। ... एते मोसादिऽवता, मेहुणवज्जा मुणेतव्वा / / . 1076. तत्थ मुसं चउभेदं, दव्वे खेत्ते य काल भावे य। तत्थ तिहा दव्वमुसं, जहण्ण मण्झ तहुक्कोसं // 1077. एवं खेत्तमुसं पी, कालमुसं तह य होति भावमुसं। हीणं मझुक्कोसं, सभेदभिण्णं मुणेतव्वं / / 1078. एवमदत्तपरिग्गह, दव्वादी चउह' होंति णातव्वा। हीणा मझुक्कोसा, तिविधं पत्तेय पत्तेयं // 1079. मोसम्मि चउन्भेदे, दव्वादी हीण मज्झ उक्कोसे। दव्वादीणं कमसो, इमं तु सोहिं पवक्खामि // 1. ताइणं (ब), छंद की दृष्टि से ऽणंतादिणं पाठ 4. माझे (पा, मु)। होना चाहिए। 5. हीण (पा)। 2. 'दिस (ता, पा, ब, ला)। 6. चउहा (ब, ला)। 3. 'णमाया' (ला)। 7. x (ला)। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 जीतकल्प सभाष्य 1080. दव्वमुसे तु जहण्णे, भत्तेक्कं मझें होति आयामं / . उक्कोसेसु चउत्थं, एवं खेत्तादिएसुं पि॥ 1081. एवमदत्तपरिग्गह', दव्वादीसुंर तु एस चेव गमो। हीणे मझुक्कोसे, आसण-आयामखमणाई। 1082. एव मुसावादादिसु, सोही भणिता समासतो एसा। एत्तो तु राइभत्ते, सोहिं वोच्छं समासेणं // लेवाडगपरिवासे, ऽभत्तट्ठोर सुक्कसण्णिहीए य। इतराए छट्ठभत्तं, अट्ठमगं सेस णिसिभत्ते॥ 34 // 1083. लेवाडय कंठोत्तं, सुंठि-बहेडादि अगयमादी वा। परिवासेंते एसिं, सोधी साहुस्सऽभत्तटुं / 1084. इतरा य गिल्लसण्णिहि, गुलघततेल्लादिया मुणेतव्वा। परिवासंते तेसिं, सोधी छटुं तु साहुस्स // 1085. निसिभत्त सेस तिविधं, दियगहितं राउभुत्त पढमं तु। राओगह दिवभुत्तं, गहभुंजणमुभयतो रातो॥ 1086. तिविधेवं णिसिभत्तं, सोधी एत्थं तु अट्ठमं होति। ___तिविधम्मि वि पत्तेयं, एय समत्तं तु निसिभत्तं / / उद्देसिगचरिमतिगे, कम्मे पासंडसंघरमीसे य / बादरपाहुडियाए, सपच्चवायाहडे लोभे॥३५॥ 1087. अच्छउ ता गाहत्थो, एतेसिं . उग्गमादिअट्ठण्हं / लक्खण आवत्ती दाणमेव वोच्छं सवित्थरतो॥ 108. सोलस उग्गमदोसा, सोलस उप्पादणाएँ दोसा उ। दस एसणाएँ दोसा, संजोयणमादि पंचेव // 1089. सो उग्गमो चतुद्धा, नामादी तत्थ दव्विमो होति / जोतिसतणोसहीणं, मेह-रिण-करेवमादीणं // 1. 'ग्गहं (पा, ब)। 2. दीसु (पा)। 3. अभत्तट्ठो (मु)। 4. "राय (ब, मु)। 5. कम्म (ता, पा, ब, ला)। 6. या (पा, ला)। 7. पिनि 322 / 8. “दीवं (ता)। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 121 1090. 'अहवा वि" लड्डुगादी, भावे तिविहुग्गमो मुणेतव्वो। दंसण णाण 'चरित्तुग्गमेण एत्थं अहीगारो'२॥ 1091. किं कारणं चरित्ते, अहिगारो एत्थ होति भणितो तु?। चोदग! सुण चारित्ते, जे तु गुणा ते तु होति इमे || 1092. दंसणणाणप्पभवं, चरणं 'सुद्धे तु तम्मि'६ तस्सुद्धी। चरणेण कम्मसुद्धी, उग्गमसुद्धी' - चरणसुद्धी॥ 1093. पिंडोवहिसेज्जासू, जेण असुद्धासु चरण ण विसुज्झे। पिंडोवहिसेज्जासू, सुद्धासू चरणसुद्धी तु॥ 1094. तो चरणसुद्धिहेतुं, पिंडस्स तु उग्गमेण अहिगारो। तस्स पुण उग्गमस्सा, सोलस दारा इमे होंति // 1095. आहाकम्मुद्देसिय, पूतीकम्मे य मीसजाते य। * ठवणा पाहुडियाए, पायोयर' कीत पामिच्चे // 1096. परियट्टिए अभिहडे, उब्भिण्णे मालोहडे तिय। अच्छेज्जे अणिसट्टे', 'अज्झोयरए य सोलसमे"॥ 1097. एते सोलसदारा, उद्दिट्ठमिदाणि विवरणं वोच्छं / एतेसि पढम आहा, तस्स इमे होंति नव दारा॥ 1098. आहाकम्मियणामा, एगट्ठा कस्स वावि किं वावि। परपक्खे य सपक्खे, चउरो गहणे य आणादी१३ // 1099. तत्थ इमे णामा खलु, आहाकम्मस्स होंति चत्तारि। आह-अहेकम्मे या, अहयम्मे४ अत्तकम्मे य५॥ 1. दव्वम्मि (पिनि 57) / 2. मेणिस्थ अहि (पिनि)। 3. चउदग (ब)। 4. गुणो (ला)। 5. इमो (ब, ला)। 6. सुद्धेसु तेसु (पिनि 57/5) / 7. सुद्धा (ब. ला)। 8. 'ज्जासुं (ब. ला)। 9. पायोर (ता, पा, ब, ला)। 10. पिनि 58, नि 3250, बृ 4275 / 11. अणिसिट्टे (बृ 4276, पिनि 59) / 12. धोते रत्ते य घटे य (नि 3251, बृ)। 13. पिनि 60 / 14. अयह (ता, ब)। 15. या (ला)। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 जीतकल्प सभाष्य 1100. ओरालसरीराणं, उद्दवणऽतिवायणं तु जस्सट्ठा। मणमाहित्ता कुव्वति, आहाकम्मं तगं बेंति॥ 1101. ओरालग्गहणेणं, तिरिक्खमणुयाऽहवा सुहुमवज्जा। उद्दवणं उत्तासण', 'अतिवातविवज्जिता पीला" / / 1102. काय-वइ-मणा तिण्णि उ, अहवा देहायु-इंदिय-प्पाणा। 'सामित्त अवायाणे", होति तिवाओ 'उ करणम्मि" // 1103. हिययम्मि समाहेउं, एगमणेगे व गाहगे जो तु। वहणं करेति दाता, कायाण तमाहकम्मं तु // 1104. जस्सट्ठा तं तु कतं, तं जो भुंजति सयं तु कायवधं। अणुमण्णति आहे ति य, स कम्मबंधं तमायाए / 1105. अवि य हु विवाहमंगे, भणितं भुंजतो आहकम्मं तु। पसिढिलबंधादीया, पगडीओं करेति धणियादी / 1106. संजमठाणाणं- कंडगाण लेस्साठितीविसेसाणं / भावं अहे करेती, तम्हा 'तु भाव अहेकम्मं // 1107. सं एगीभावम्मी, जम उवरम एगिभावउवरमणं। सम्म जमो वा संजम, मण-वइ-कायाण जमणं तु॥ 1108. चिट्ठति संजम जहियं, तं होति हु संजमस्स ठाणं तु। तं पुण चरित्तपज्जव, होति अणंतेक्कठाणं * तु॥ 1109. संजमठाणमसंखा, उ कंडगं कंडगा असंखा तु / हवति हु लेसाठाणं, ते तु असंखेज्ज जवमझं // 1110. तत्तो परिहायंता, लेसा कंडा य संजमट्ठाणा। एरिसगाणमसंखा, लोगा उ हवंति ठाणाणं // 1. च (पिनि 62) / 2. पुण जाणसु (पिभा 16) / 3. "ज्जितं पीडं (पिभा)। 4. "मित्तावा (पिभा 17) / 5. य करणेसुं (पिभा)। 6. ति (पिभा 18) / 7. इस गाथा के बाद प्रतियों में 'आहेत्ति गतं' पाठ का उल्लेख है। 8. “मट्ठाणा' (ब)। 9. लेसा (पिनि 64) / 10. तं भावहेकम्मं (पिनि)। 11. "म्मि (मु)। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 123 1111. एसा संजमसेढी, एत्थर विसुद्धीसु ठाणमादीसु / ___वटुंतुक्कोसाऊसुरठितिजोगेसु होऊणं // 1112. तं भुंजमहेकम्मं, हेट्ठिल्लेऽहिद्ववेति अप्पाणं। सुत्ते उदितमहे तू, करपकरचिणोवचिणमादी॥ 1113. बंधति अहेभवाउं, पकरेति अहोमुहाइँ कम्माइं। घणकरणं तिव्वेण उ, भावेण चयो उवचयो तु॥ 1114. तेसिं गुरूण उदएण, अप्पगं दुग्गतीएँ पवडतं / ण चएति विधारेउं, 'अहकम्मं भण्णते तम्हा" // 1115. अट्ठाएँ अणट्ठाए, छक्कायपमद्दणं तु जो कुणति। अणिदाए य णिदाए, 'बैंति तु दव्वाऽऽयहम्मं ती // 1116. जाणंतमजाणतो, 'वहेति णिद्दिसिय" ओहतो वावि। ... जाणगमजाणगे या', 'भणिता णिय अणिय होतेसा // 1117. दव्वायहम्ममेत०, भावाया तिण्णि णाणमादीणि। ____ परपाणपाडणरतो, भावायं५ अप्पणो हणति॥ 1118. निच्छयणयस्स चरणाऽऽयविघाते णाण-दंसणवधो वि। __ववहारस्स उ चरणे, हतम्मि भयणा उ सेसाणं१२ // 1119. आयाहम्मग एतं, एत्तो वोच्छामि अत्तकम्मं तु। जो परकम्मं अत्तीकरेति तं अत्तकम्मं तु॥ 1120. आहाकम्मपरिणतो, फासुगमवि संकिलिट्ठपरिणामो। आइयमाणो१३ बज्झति, तं जाणसु अत्तकम्मं तु५॥ 1. तत्थ (मु)। 8. य (ला), वा (पिभा)। ..2. "ठिती (पा, ला)। 9. वहेति अनिदा निदा एसा (पिभा)। 3. य (पिनि 64/2) / 10. दव्वाया खलु काया (पिनि 66) / 4. मुद' (पिनि 64/3) / 11. चरणायं (पिनि)। 5. अधरगतिं णेति कम्माई (पिनि), इसके बाद प्रतियों 12. पिनि 66/1 / में 'आहकम्मे ति गतं' का उल्लेख है। 13. आतिय” (ता, पा, ब), आयय (पिनि 671) / 6. आयाहम्मं तयं बेंति (पिनि 65), "तं (पा, ब)। 14. तक (ब)। 7. तहेव उद्दिसिय (पिभा 22) / 15. ति (पिनि)। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 जीतकल्प सभाष्य 1121. परकम्ममत्तकम्मीकरेति' तं जो उ गिहिउं भुजे। ... 'चोदेति परक्किरिया", कहण्णु अण्णत्थ संकमति? // 1122. भण्णति परप्पउत्तं, जह विसमइयं तु मारगं होति। तह परकडे वि बंधो, परिणामवसेण जीतस्स॥ 1123. बेती परकडभोयिण, तो तुब्भ वि एव होति बंधो तु। जह अण्णत्थ पउत्ते, कूडे जो पडति सो बज्झे // 1124. गुरुराह जो पमत्तो, जो य अदक्खो स बज्झते तत्थ। अपमत्तो ण वि बज्झति, तहेव दक्खे य जो होति // 1125. इय जो उ अप्पमत्तो, मण-वाया-कायजोगकरणेहिं / सो तु ण बज्झति णियमा, बज्झति इतरो परकडे वि॥ 1126. कामं सयं न कुव्वति, जाणंतो पुण तहावि तग्गाही। वड्डेति . तप्पसंगं, अगिण्हमाणो उ वारेति' / / 1127. तम्हा उ परकडम्मि वि, अत्तीकरणं तु होतऽसुद्धेहिं। मणमादीहि कहं पुण, अत्तिकरे? भण्णति इमेहिं // 1128. पडिसेवण पडिसुणणा, 'संवासऽणुमोदणा" 'चउण्हं पि" / एतेहिं पगारेहिं, अत्तिकरे तत्थिमे णाया' / 1129. पडिसेवणाएँ तेणा, पडिसुणणाए य रायपुत्तो तु। संवासम्मि य पल्ली, अणुमोदण रायट्ठो उ॥ 1130. आहाकम्मियणामा, एते चउरो समासतो भणिता। एगट्ठिताणि अहुणा, वोच्छामि समासतो चेव॥ 1131. एगट्ठ एगवंजण, एगटुं९२ णाणवंजणं चेव। णाण? एगवंजण, णाणट्ठा णाणवंजणया // 1. "म्म अत्त” (पिनि 67/2) / 2. व (पा)। 3. तत्थ भवे परकिरिया (पिनि)। 4. “करभो (पा)। 5. तु. पिनि 67/3 / 6. पिनि 67/5 / 7. “स अणु (ब)। 8. य चउरो वि (पिनि 69) / 9. पिनि में गाथा के उत्तरार्ध में पाठ-भेद है। 10. "दणे (ब)। 11. य (पिनि 68/6), कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 29-32 / 12. एगटे (ला)। 13. वंजणा नाणा (पिनि 70/1) / Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 125 1132. 'जह खीरं खीरं चिय", एगटुं एगवंजणं दिटुं। 'एगट्ठ णाणवंजण', दुद्ध पयो वालु खीरं च॥ 1133. णाणट्ठमेगवंजण, गो-महिस-अजादियाण खीरं ति। णाणट्ठ णाणवंजण, घड-पड-कड-सगड-रहमादी // 1134. एवमिहमाहकम्म, आहाकम्मं ति पढमतो भंगो। आह अहेकम्मादी, बितिओ सक्किंद इव भंगो॥ 1135. ततिओ भंगो तू आतकम्ममहकम्म पणगमादी य। आहाकम्म पडुच्चा, नियमा सुण्णो चउत्थो तु // 1136. इंदत्थं जहं सद्दा, पुरंदरादी तु णातिवत्तंति / अह-आह-अत्तकम्मा, तहा अहे णातिवत्तंति॥ 1137. आहाकम्मेण अहे, करेति जं हणति पाणभूताई। जं तं आइयमाणो, परकम्मं अत्तणो कुणति // 1138. एगट्ठितदारमिणं, अहुणा कस्स कडमाहकम्म भवे? भण्णति साहम्मिकडं, सो बारसहा इमो होति // 1139. णामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य पवयणे लिंगे। दंसण णाण चरित्ते, अभिग्गहे 'भावणाहिं च // 1140. णामेणं साहम्मी, जाव उ कालेण सव्व बोधव्वा। पवयण-लिंगेणं वा, साहम्मिय एत्थ चउभंगो॥ .1141. पवयणमणुम्मुयंते, दंसणमादी तु भावणा जाव। सव्वत्थ तु चतुभंगा, जोएतव्वा जहाकमसो॥ 1142. एवं लिंगेणं पी, तह दंसणमादिएहिँ चउभंगा / भइएसु उवरिमेसू, हेट्ठिल्लपदं तु छड्डेज्जार // 1. दिटुं खीरं खीरं (पिनि 70/2) / 2. एगटुं बहुनामं (पिनि), एगट्ठा णा' (ब)। 3. पीलु (पिनि)। 4. पिनि (70/3) में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा मिलती हैगो-महिसि-अजाखीरं, नाणटुं एगवंजणं णेयं। घड-पड-कड-सगड-रहा, होति पिहत्थं पिहं नामं॥ 5. वच्चंति (ता)। 6. तह (ब)। 7. आतिय (ता, पा, ब)। 8. पिनि 71 / 9. “णाओ य (पिनि 73) / 10. पिनि (73/20) में इस गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है एमेव य लिंगेणं, दंसणमादी उ होति भंगा उ। 11. वज्जेज्जा (पिनि)। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 जीतकल्प सभाष्य 1143. एवं बुद्धीए तू, सव्वे वि जहक्कमेण जोएज्जा। चउभंग जाव चरिमो, अभिग्गहे भावणाहिं च॥ 1144. पत्तेयबुद्ध' णिण्हग, उवासए केवली या आसज्ज। खइयादिए य भावे, पडुच्च भंगे तु जोएज्जा॥ 1145. जत्थ तु ततिओ भंगो, ण तत्थ कप्पति तु सेसगे भयणा। 'तित्थगरणिण्हगोवासगादि कप्पे ण'३ सेसाणं / / 1146. कस्स त्ति जहुद्दिटुं, एरिस साहम्मियाण ण वि कप्पे। किं ती आहाकम्मं, असणादीयं इमं तं च॥ 1147. सालीमादी अगडे, ‘फले य" सुंठी य साइमं होति। तस्स कडणिट्ठितम्मी', सुद्धासुद्धे य चत्तारि / / 1148. कोद्दवरालगगामे, वसही रमणिज्ज भिक्ख सज्झाए। खेत्तपडिलेह संजय, सावग पुच्छुज्जुए कहणा' / 1149. जुज्जति गणस्स खेत्तं, णवर गुरूणं ति णत्थि पाउग्गं। सालि त्ति कते रुप्पण", परिभायण णियगगेहेसु॥ 1150. वोलेंता ते व अण्णे वा, जाव तु किमियं? ति कहित सब्भावे। . वज्जेंति एव णाते, अहवा अण्णं वयंती तु॥ 1151. 'एवऽसणे११ कम्मं तू, हवेज्ज कह पाणगे हवेज्जाहिर?। तहविह'३ साहु ण ठंती, सावगपुच्छा दगं लोणं" // 1152. अह ताव सावगो तू, खणेज्ज 'महुरोदगं तहिं '25 अगडं। अच्छति य ढक्कितेणं, जावाऽऽगत साहुणो तत्थ६ // 1. बुद्धि (ब)। 10. रुंपण (पिनि)। 2. वि (पिनि 73/21) / 11. एसऽसणे (पा, ला, मु)। 3. तित्थंकरकेवलिणो, जहकप्पं नो य (पिनि 73/22) / 12. “ज्जाहिं (ब)। 4. फलादि (पिनि 75) / 13. तह वि य (पा, ब, मु)। 5. यम्मिं (ला, मु)। 14. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 34 / 6. सुद्धमसुद्धे (पिनि)। 15. 'रोदहिं तगं (पा)। 7. पिनि 76, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा 16. पिनि (77) में यह गाथा कुछ अंतर के साथ सं. 33 / मिलती है८. नवरि (पिनि 76/1) / लोणागडोदए एवं, खणित्तु महुरोदगं। 9. तु (पा, पिनि)। ढक्कितेणऽच्छते ताव, जाव साहु ति आगता॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 127 1153. एत्थ वि तहेव जाणण, वज्जण तह व होति णातव्वा। . एवं 'खाइम साइम', णेतव्व जहक्कमेणं तु॥ 1154. कक्कडिग अंबगा वा, दाडिम 'दक्खा व'२ 'बीयपूरा वा। 'एमादि खाइमं तू, साइम तह" तिगडुमादीयं // 1155. किं आहाकम्मं ती, एतं तं वण्णितं समासेणं। परपक्ख सपक्खे त्ती, अधुणा दारं अणुप्पत्तं // 1156. परपक्खो तु गिहत्थो', समणो समणी य होति तु सपक्खो। 'एत्थ कडनिट्ठितेहिं, चउभंगो होति तं वोच्छं / 1157. तस्स कड तस्स निट्ठित, तस्स काण्णस्स निद्रुितं चेव। 'अण्णकड तस्स निट्ठित, अण्णकडं निट्ठितऽण्णस्स / / 1158. वाविता लूया मलिता, कंडित 'एगच्छ दुच्छड कडा* तु। * तिच्छड निट्ठिय होती, तेरद्धा दुगुणमहकम्मं॥ 1159. कडनिविताण लक्खणमिणमो तु समासतो मुणेतव्वं। ___फासुकडं रद्धं वा, निट्टितमितरं कडं होति // 1160. समणट्ठ वावितादी, जा दुछडा एय होति तस्स कडं। तस्स? तिछडरद्धं, निद्रुितमेसो पढमभंगो / .. 1161. समणट्ठ जाव दुछडा", नवरि य तुरियऽण्णकारणुप्पण्णं। तेस? तिछडरद्धा, बितिभंगो एस णातव्यो / ___ 1162. जा दुछडा' अत्तद्वारे, पवरि य साहू तु पाहुणा आया। तेस? कया तिछडा, ततिभंगो एस णातव्वो // 1. खातिम सातिम (ता, ब)। तस्स कड-निद्रुितम्मि य, अन्नस्स कडम्मि निट्टिते तस्स। 2. दक्खाइ (पिनि 78) / चउभंगो एत्थ भवे, चरिमदुगे होति कप्पं तु॥ ... 3. रादी (पिनि)। 9. “च्छडकडा जे (मु, ला)। 4. खाइमऽधिकरणकरणं तु साइमं (पिनि)। 10. दुच्छडा (ता, ब)। 5. "डुआदीयं (ब).। 11. दुच्छडा (ता, ब) सर्वत्र / 6. गिहत्थे (ता)। 12. अत्त अट्ठा (ता, ला)। 7. फासुकडं रद्धं वा, निट्टितमितरं कडं सव्वं (पिनि 81) / 13. तिच्छडा (ता, ब, ला)। 8. पिनि (81/1) में यह गाथा कुछ अंतर के साथ मिलती है Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 जीतकल्प सभाष्य 1163. आयट्ठा जा दुछडा, आयट्ठा चेव तिछडरद्धा य। एस चउत्थो भंगो, कतरे कप्पे ण कप्पति वा? // 1164. पढम-ततिए ण कप्पे, बितिय-चउत्था उ दोण्णि वी कप्पे। एमेव पाणगे वी, खाइम तह साइमे चेव // 1165. साहुणिमित्ता रद्धं, जाव ण फासुं कडं तु ताव कडं। फासुकड णिट्ठितं तू, चाउलधुवणादि पाणम्मि // 1166. फलमादि छिण्णछोडित, फासुकडं निहितं मुणेतव्वं / एमेव साइमे वी, अल्लगमादी मुणेतव्वा॥ .. 1167. सव्वत्थ तु' चतुभंगो, जोएतव्वो जहक्कम होति। एत्थं तू परिहरणा, विहि अविही सव्व बोद्धव्वा // 1168. छायं पि विवज्जेंती, केयी फलहेतुगादि वुत्तस्स। तं तु ण जुज्जति जम्हा, फलं पि कप्पं बितियभंगे' / 1169. परपच्चइया छाया, ण वि सा 'रुक्खो व्व' वड्डिता कत्ता। नट्ठच्छाए य दुमे, कप्पति एवं भणंतस्स // 1170. वड्डति' हायति' छाया, तच्छिक्कं पूइयं पि व ण कप्पे। ___ण य आहाय सुविहिते, णिव्वत्तयती रवीछाया / / 1171. अघणघणचारिगगणे, छाया नट्ठा दिया पुणो होति / कप्पति णिरातवे णाम, आतवे तं विवज्जंतु // 1172. तम्हा ण एस दोसो, 'तु संभवे कम्मलक्खणविहूणो। तं पि य हु अतिघिणिल्ला, वज्जेमाणा अदोसिल्ला॥ 1173. परपक्ख सपक्खे त्ती, एमेतं वणितं समासेणं / चउरो त्ति दारमहुणा, वोच्छामि समासतो चेव॥ 1. मु (ता, ब)। 2. पिनि 80/1 / 3. रुक्खेव (पिनि 80/2) / 4. उ (पिनि)। 5. वड्डती (ता, पा. ब)। 6. हायती (ला, ब), हाती (ता, पा)। 7. च्छायं (पिनि 80/3), 'च्छाया (ता, ब)। 8. ज्जेउं (पिनि 80/4) / 9. संभवते (पिनि 80/5) / Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 129 1174. चउरो अतिक्कम वतिक्कमे य अतियार तह अणायारे। आहाकम्मे एते, चउरो वि जहक्कम जोए / 1175. तस्स पुण संभवो ऊ, आहाकम्मस्स कह उ होज्जाहि?। णिदरिसणं जह भरतेरे, सड्ढा दट्टण मरुपूयं // 1176. महसड्ढादीएसुं, तेसु वि सद्धा ततो समुप्पण्णा। _अम्हे वि य साहूणं, करेमि भत्तं तु सविसेसं॥ 1177. साली-घत-गुल-गोरस, नवेसु वल्लीफलेसु जातेसुं। 'दाणे अभिगमसड्डी', आहाकम्मे निमंतणया॥ 1178. आमंतिय पडिसुणणा, सव्वासु ऽसुभो अतिक्कमो होति। पदभेदादि वतिक्कम', गहिते होती अतीयारो // 1179. मुहछूढे ऽणायारो, केयी गिलियम्मि बेंति अणायारं / . किं कारण? छूढे वी, पुणरावत्ती कयाइ भवे॥ 1180. तो खेलमल्लगम्मी, णिग्गलति ण एव पत्तऽणायारं / गिलियम्मि अणायारो, तस्स णियत्ती ततो नत्थि // 1181. सेसेहि णियत्तेज्जा, एग दुग तिगे व एत्थ दिटुंतो। जह तिहि आगास ठितो, पदेहि विणियत्तिओं हत्थी // 1182. चउरो गहणे एवं, अतिक्कमादी तु वण्णिता एते। आणादी चउरो वि य, दारं एत्तो पवक्खामि / / 1183. आणं सव्वजिणाणं, गेण्हंतो तं अतिक्कमति लुद्धो। आणं च अतिक्कमंतों, कस्साऽऽदेसा कुणति सेसं? // 1. पिनि (82) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है निद्दरिसणं चउण्ह वि, आहाकम्मे निमंतणया। 2. सरए (ब)। 3. पुण्णट्ठ दाणसड्डा (नि 2662), दाणट्ठकरणसड्ढा (पंक 1285), पुण्णट्ठकरणसड्डा (बृ 5341) / 4. आहायकते (पिनि 82/1) / 5. 'क्कमो (ता, पा)। 6. पिनि 82/3 में यह गाथा कुछ अंतर के साथ मिलती है आहाकम्मामंतण, पडिसुणमाणे अइक्कमो होति। पदभेदादि वइक्कम, गहिते ततिएतरो गिलिए। 7. छंद की दृष्टि से ऽणायारं पाठ होना चाहिए। 8. ट्ठितो (ता, पा, ब, ला)। 9. णियत्तओ (ता, पा), णियत्तिउ (ला)। 10. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 35 / 11. पिनि 83/1 / Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 जीतकल्प सभाष्य 1184. एगेण कतमकज्जं, करेति तप्पच्चया पुणो अण्णो। साताबहुलपरंपर, वोच्छेदो संजम-तवाणं // 1185. जो जहवायं ण कुणति, मिच्छद्दिट्टी तओ हु को अण्णो? / वड्डेति य मिच्छत्तं, परस्स संकं जणेमाणो / 1186. दुविधा विराधणा खलु, संजमतो चेव तह य आयाए। आहाकम्मग्गहणे, तत्थ इमा संजमे होति / / 1187. वड्डेति तप्पसंगं, गेही य परस्स अप्पणो चेव। सजियं पि भिण्णदाढो, ण मुयति णिद्धंधसो पच्छा // 1188. खद्धे गिद्धे य रुया, सुत्ते हाणी तिगिच्छणे काया। पडियरगाण य हाणी, कुणति किलेसं 'च किस्संतो* // 1189. पाएण मकिच्चेण' य, आहाकम्मं तु भारियं होति। एसा आतविराधण', तम्हा तू तं ण भोत्तव्वं // 1190. अब्भोज्जे गमणादी, पुच्छा दव्व-कुल-देस-भावे य। एव जयंते छलणा, दिटुंता तत्थिमे दोण्णि // 1191. जह वंतादि अभोज्जं, जाव य चंदो य सूरउदयं च। - उज्जाणा दोण्णि भवे, सवित्थरं सव्व बोद्धव्वं // 1192. जह ते दंसणकंखी, अपूरितिच्छा विणासिता रण्णा। दिढे वितरे मुक्का, एमेव इहं समोतारो॥ 1193. आहाकम्मं भुंजति, ण पडिक्कमते य तस्स ठाणस्स। एमेव अडति बोडो, लुक्कविलुक्कोर जह कवोडो // 1194. आहाकम्मदारं", एवमिणं मे समासतो कहितं / आवत्ती दाणं वा, विसोहिमेतेसिमं वोच्छं / / 1. पिनि 83/2 / 9. “ज्जो (पा, ला)। 2. मिच्छादिट्ठी (ला, मु)। 10. पिनि 84/1, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, 3. पिनि 83/3 / कथा सं. 36, 37 / 4. गाथाओं के क्रम में पिनि में यह गाथा नहीं है। 11. पिनि 91/4 / 5. पिनि 83/4 / 12. लुक्कणिलु (ला, पा, मु)। 6. किलिस्संतो (पिनि 83/5) / 13. पिनि 92 / 7. पकिः (मु, ला), यहां मकार अलाक्षणिक है। 14. “कम्मियदारं (ता, पा)। . 8. “हणया (ता, ब. ला)। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 131 1195. आहाकम्मे चतुगुरु, आवत्ती दाण होतऽभत्तटुं। उद्देसियं पि दुविधं, ओहे य विभागतो चेव // 1196. ओहे मासलहुं तू, आवत्ती दाण होति पुरिमहूं। होंति विभागुद्देसे, मूलव्वत्थू इमेरे तिण्णि // 1197. उद्देसकडे कम्मे, एक्केक्क चउव्विहो भवे भेदो। कह होति चउब्भेदो?, इमाहि गाहाहि वोच्छामि // 1198. उद्देसियं समुद्देसियं च आदेसियं समादेसं। एमेव कडे चउरो, कम्मम्मि वि होंति चत्तारि // . 1199. जावंतिगमुद्देसो, पासंडीणं भवे समुद्देसो। समणाणं आदेसो, णिग्गंथाणं समादेसो' / 1200. उद्देसिगम्मि लहुगो, 'पत्तेयं होति चतुसु ठाणेसु / एमेव कडे गुरुगो, कम्मादिम लहुग तिसु गुरुगा॥ 1201. थी लहुमासा गुरुगा', चउगुरुगा तिण्णि तू मुणेतव्वा। तवकालेहि विसिट्ठा, दाणं तु अतो पवक्खामि॥ 1202. लहुमासे पुरिम९, गुरुमासे होति एगभत्तं तु। ___चउलहुगे आयाम, चउगुरुगे होतऽभत्तटुं // 1203. पूतीकम्मं दुविधं, दव्वे भावे य होति णातव्वं। दव्वम्मि छगणधम्मी', 'भावे दुविधं इमं होति // 1204. सुहुमं व बादरं वा, दुविधेयं होति हू मुणेतव्वं / बादर पुणरवि दुविधं, उवगरणे भत्त-पाणे य॥ 1205. इंधण गंधे धूमे, सुहुमेतं एत्थ णत्थि पूइत्तं / चुल्लुक्खलियादीणं, उवगरणे पूतियं होति // 1. मूलव' (ला, मु)। 2. इमि (पा, ला)। 3. तु. नि 2019, पिनि (97) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है एवं कडे य कम्मे, एक्केक्क चउव्विहो भेदो। 4. पासंडाणं (ता, पा, ब)। 5. पिनि 98, नि 2020 / 6. चउसु वि ठाणेसु होइ उ विसिट्ठो (नि 2022) / 7. गुरुमासा (ता, ब)। 8. हस्तप्रतियों में गा. 1202 के बाद 'उद्देसिए त्ति गयं' का उल्लेख है। 9. धम्मिय (पिनि 107, नि 804), कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 38 / 10. भावम्मि य बादरं सुहुमं (पिनि, नि)। 11. पच्छित्तं (ता, ब, ला)। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 जीतकल्प सभाष्य 1206. एवं मासलहुं तू, आवत्ती दाण होति पुरिमटुं। डाए लोणे हिंगू, संकामण भत्तपूतीयं // 1207. एत्थं मासगुरुं तू, आवत्ती दाणमेगभत्तं तु / उवगरण भत्तपाणे, पूतिस्स तु लक्खणं वोच्छं / 1208. सिझंतस्सुवगारं, 'सिद्धस्स करेति वावि जं दव्वं / तं उवगरणं 'भण्णति, चुल्लुक्खलि-दव्वि-डोयादी" || 1209. संघट्टकता चुल्ली, उक्खलि डोए तहेव दव्वी य। ' सो होति आहकम्मी, पूतीकम्म इमं होति // 1210. संघियचिक्खल्लेणं, सयचुल्लीखंडियाइ संठवणं / एमेव उक्खलीय वि, फड्डुगमादी तु जं लाए / 1211. एवं सयडोयीए', दव्वीए वावि संघदारूणं। अग्गिलियं . जदि लाए, गंडफलं वावि एगतरं // 1212. उवगरणपूति भणित, एत्तो वोच्छामि भत्तपूतिं तु। डाए लोणे हिंगू, संकामण 'फोड संधूमे // 1213. अत्तट्ठिय आदाणे, डागं लोणं व कम्म हिंगू वा। तं भत्तपाणपूर्ति, फोडणमण्णं व जं छुभति // 1214. संकामेउं कम्म, तेणेव य भायणेण संकामे। जं सुद्धं तं पूर्ति, अहवा रद्धं तहिं होज्जा // 1215. अंगारभूइ थाली, वेसण हेट्ठामुहीएँ जं धूमे। संघट्टकडे तम्मि उ, अत्तट्ठ करेंत पूतीयं // 1216. मीसज्जातं तिविधं, जावंतिगमीस बितिय पासंडे। साहूमीसं ततियं, पच्छित्तं तेसि वोच्छामि // 1. एव (ला)। 2. दिज्जंतस्स व करेति (पिनि 113) / 3. चुल्ली उक्खा दव्वी य डोयादी (पिनि)। 4. लोए (ब)। 5. सतडोतीए (ता, पा, ब)। 6. एयं (ता, ब)। 7. फोडणं धूमे (मु)। 8. च (पा, ला, पिनि)। 9. हिंगुं (पा, ब, ला, मु)। 10. “पूती (पिनि 113/4) / 11. इस गाथा के बाद हस्तप्रतियों में 'पति त्ति गर्य' का उल्लेख है। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 133 1217. पढमे चउलहुगा तू, बिति 'ततिए चउगुरू" मुणेतव्वा। तवकालेहि विसिट्ठा, चउगुरुगा होंति णातव्वा॥ 1218. चतुलहुगे आयामं, चउगुरुगे होति तूरे चउत्थं तु। मीसज्जातं भणितं, ठवणाभत्तं अतो वोच्छं / / 1219. ठवणाभत्तं दुविधं, इत्तरठवितं तहेव चिरठवितं। इत्तरठविते पणगं, चिरठविते होति मासलहुं // 1220. पणगे णिव्विगती तू, लहुमासे दाण होति पुरिमड्डं। इत्तर चिरठविते या, समासतो लक्खणं वोच्छं / 1221. संघाडग हिंडते, परिवाडिठितेसु तिसु तु गेहेसु। 'एक्को दोसुवयोगं, करेति भिक्खाएँ गेहेसु॥ 1222. बितिओ साणादीणं, देयुवओगं घरे तहेक्कम्मि। * तेण परेण चउत्थे, उक्खित्ता इत्तरट्ठविता॥ 1223. चतुथघरा तु परेणं, चिरठविता जाव पुव्वकोडी उ। / एतं ठविताऽभिहितं, एत्तो वोच्छामि पाहुडियं // 1224. 'सा पाहुडिया दुविधा, 'सुहुमा तह बादरा य बोद्धव्वा"। ओसक्कण उस्सक्के', 'एक्केक्का सा भवे दुविधा" / 1225. सुहुमाए लहुपणगं, आवत्ती दाण होति णिव्विगति। चउगुरुग बादराए, आवत्ती दाणऽभत्तटुं॥ 1226. एत्थं सुहुमा तु इमा, जह काइ अगारि कंतमाणी उ। भणिता तु चेडरूवेण, देहि अम्मो! महं' भत्तं // 1227. भणितोद्वितो त्ति होही, जाया! कंतामि ता इमं पेखें। जइ तं सुणेति साहू, ण गच्छते तत्थ आरंभो // 1228. 'अस्सुट्ठिता भणंती, तुज्झ मि" देमि त्ति किं ति परिहरति। किह दाणि ण उट्ठिस्से?, साधुपभावेण लब्भामो॥ 1. तति चेव गुरू (ता)। 2. तु (पा, ला), जु (ब)। 3. पाहुडिया वि य (पिनि 131) / 4. बादर सुहुमा य होति नातव्वा (पिनि)। 5. उस्सक्कण (पिनि)। 6. कप्पट्ठीए समोसरणे (पिनि)। 7. सहुं (पा)। 8. अन्नट्ठ उट्ठिया वा तुब्भ वि (पिभा 27) / 9. उट्ठिहिसी (पिभा)। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 जीतकल्प सभाष्य 1229. एवं णाऊण ततो, परिहरती एस होति ओसक्का। उस्सक्कण कंतंती', भणिता चेडेण दे भत्तं // 1230. कंतामि भणति' पेखें, तो ते दाहामि पुत्त! मा रोव। सा य समत्ता पेलू, देही एत्ताहें सो भणति // 1231. मा ताव झंख पुत्तय! परिवाडीए. इहेहिही साहू। एतट्ठमुट्ठिताए, दाहं सोउं विवज्जेति // 1232. अंगुलिए चालेउ', कडुति कप्पट्ठओ घरं जत्तो। किं ति? कहिते ण वच्चति", पाहुडिया एय सुहुमा तु // 1233. बादरपाहुडिया वि य, ओसक्काहिसक्कणे य दुविधा उ। कप्पट्ठगसंघाडग, ओसरणेणं च निद्देसो॥ 1234. 'जह पुत्तविवाहदिणो, ओसरणातिच्छिते" मुणिय सड्डो। 'ओसक्के ओसरणं, संखडिपाहेणगदवट्ठा // 1235. अप्पत्तम्मी ठवितं, ओसरणे 'होहिइ ति१० उस्सक्के / संपागडमितरं१२ वा, करेति उज्जूमणुज्जू वा॥ 1236. मंगलहेतुं पुण्णट्ठया व३ ओसक्कितं" 'च उस्सक्के 15 / 'किं कारणं? ति पुट्ठो, सिट्टे ताहे '16 विवज्जेंति // 1237. पाहुडिभत्तं भुंजति, ण पडिक्कमते य तस्स ठाणस्स। एमेव अडति बोडो, लुक्कविलुक्को जह कमेडो" // 1. कंतंतं (ला)। 10. होति (पा, ला)। 2. ताव (पिभा)। 11. "सकणं (पिनि 135) / 3. पिभा (26) में इसका उत्तरार्ध इस प्रकार है- 12. तं पाग (पिनि)। जइ तं सुणेति साहू , न गच्छते तत्थ आरंभो। 13. व्व (ता), च (ला, ब, पा)। 4. पिनि 132 / 14. उस्सक्केतं (ब)। 5. वा घेत्तुं (पिनि 133) / 15. दुहा पगतं (पिनि)। 6. जुत्तो (ब), तेण (पिनि)। 16. उस्सक्कितं पि किं ति य पुढे सिट्टे (पिनि 135/1) / 7. गच्छति (पिनि)। 17. लुक्कणिलु (मु)। 8. पत्तस्स विवाहदिणं ओसरण अइच्छिते (पिनि 134) / 18. कवोडो (पिनि 136) / 9. 'क्कंतोसरणे (पिनि)। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 135 1238. पाहुडिया भणितेसा', एत्तो पायोवगरण वोच्छामि। पादू पगासणम्मी, अपगासपगासणं जं तु॥ 1239. पायोकरणं दुविधं,पागडकरणं पगासकरणं च। पागड' मासलहुं तू, पगासकरणे उ चतुलहुगा // 1240. लघुमासे पुरिमटुं, चतुलहुगे दाण होति आयामं / पायोकरणं भणितं, कीतकडमतो तु वोच्छामि // 1241. कीतकडं पि य दुविधं, दव्वे भावे य दुविधमेक्केक्के। आयपरकीयमेवं, पच्छित्तं तेसि वोच्छामि // 1242. दव्वाय-परक्कीए, दुविधे वि चउल्लहू मुणेतव्वं / दाणं आयामं तू, भावम्मि अतो परं वोच्छं / 1243. भावे तु आयकीतं, चउलहुगा एत्थ वी मुणेतव्वा। दाणं आयामं तू, भावे परकीय वोच्छामि // 1244. मासलहुमिहावत्ती, दाणं पुण एत्थ होति पुरिमहूं। कोतकडेतं भणितं, पामिच्चमतो तु वोच्छामि // 1245. पामिच्चं पि य दुविधं, लोइग लोगुत्तरं समासेणं। लोइय चतुलहुगा तू, आवत्ती दाणमायामं // 1246. लोगुत्तरें मासलह, दाणं पुण एत्थ होति परिमड्डूं। पामिच्चेयं भणितं, परियट्टियमिणों वोच्छामि // 1247. परियट्टियं पि दुविधं, लोइग लोगुत्तरं समासेणं / लोइग चउलहुगा तू, आवत्ती दाणमायामं // 1248. लोगुत्तरें मासलहुं, आवत्ती दाण होति पुरिमहूं। परियट्टिय भणितेयं, अभिहडदारं अतो वोच्छं // 1249. तं होति दुहाऽभिहडं, आइण्णं चेव तह अणाइण्णं। .. आइण्ण णोणिसीहं, होति णिसीहं च दुविधं तु // 1. 'तेमा (पा)। 2. पागडे (ता, ब, ला)। 3. पिनि (137) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है- पागड संकामण कुडदारपाते य छिन्नेणं। 4. तु. पिनि 139, तु. नि 4475 / 5. परत्तीय (ता, पा, ब, ला)। 6. आतिण्णं (ता, ब)। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 जीतकल्प सभाष्य 1250. छण्ण णिसीह भण्णति, पगडं पुण होति णोणिसीहं ति। ‘एक्केक्कं परगामे, सग्गामे चेव बोद्धव्वं // 1251. सग्गामाहड दुविधं, आइण्णं चेव होतऽणाइण्णं। अणइण्णे मासलहुं, दाणेत्थं होति पुरिमटुं॥ 1252. परगामाहड दुविधं, सदेस परदेसतो व णातव्वं / एक्केक्कं पुण दुविधं, जलेण तह थलपहेणं च॥ 1253. सप्पच्चवाय णिरपच्चवाय' पुण होति दुविधमेक्केक्कं। संजमआतविराधण, सपच्चवायम्मि जोएज्जा॥ 1254. परदेसआहडम्मी, सपच्चवायम्मि होंति चउगुरुगा। णिप्पच्चवाएँ लहुगा, दाणं एतेसि' वोच्छामि // 1255. चउगुरुगे ऽभत्तटुं', दाणमिहं होति तू मुणेतव्वं / चउलहुगे आयामं, एमेव य होति सद्देसे // 1256. उब्भिण्ण होति दुविधं, पिहितुब्भिण्णं कवाडउब्भिण्णं / जं तं पिहितुब्भिण्णं, तं दुविधं फासुगमफासुं॥ 1257. फासुग छगणेणं तू, दद्दरएणं च एत्थ मासलहुं / तहियं पवहणदोसा, दाणं पुण एत्थ पुरिम९ // 1258. अप्फासुपुढविमादी, सच्चित्तेणं तु जं भवे लित्तं। तहियं उब्भिज्जंते, कायाण विराधणा इणमो॥ 1259. सच्चित्तपुढविलित्तं, लेलु सिलं वावि दाउमोलित्तं / सच्चित्तपुढविलेवो, चिरं पि उदगं अचिरलित्ते / / 1260. चिरलित्तपुढविकायो, तिम्मेतुं लिप्पमाण आउवहो। जतुमुद्दतावणम्मी, तेऊ वाऊ वि तत्थेव॥ 1261. पणगबियाइ-वणस्सति, तस-कुंथु-पिपीलि एवमादीहिं / एते ऊ लिप्पंते, इमे तु दोसा तु उल्लित्ते // 1. णिप्प (मु)। 2. एतेसिं (पा)। 3. अभ' (ब, मु)। 4. लित्तं (पिनि 163/1) / 5. वाते (ब)। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 137 1262. परस्स तं देति सए व गेहे, तेल्लं' व लोणं व घतं गुलं वा। उग्घाडितं तं तु 'करेयऽवस्सं", स विक्कयं तेण किणाति वऽणं॥ 1263. दाण-कय-'विक्कयादी, अहिगरणं होति'२ अजतभावस्स। णिवडंति जे य तहियं, जीवा मूइंगमूसादी' / 1264. जहेव कुंभादिसु पुव्वलित्ते, 'उब्भिज्जमाणम्मि वि कायघातो" / ओलिप्पमाणे वि तहेव घातो, उब्भिण्णमेतं पिहितं पि वुत्ते // 1265: आवत्ति दाणमेत्थं, ओहेणं चउलहू मुणेतव्वा / दाणं . आयामं तू, विभागतो कायणिप्फण्णं // 1266. एमेव कवाडम्मि वि, कायवहो होति ऊ मुणेतव्यो। उप्पिहित पिहिज्जंते, सविसेसा जंतमादीसु॥ 1267. घरकोइलसंचारा, आवत्तण पेढियाएँ हेटवरिं। णिते "ठिते य९ अंतो, डिंभादीपेल्लणे दोसा॥ 1268. एत्थ वि चउलहुगा तू, ओहेणं दाणमेत्थमायाम / होति विभागेणं पुण, पुढवादीकायणिप्फण्णं // 1269. उब्भिण्णेतं भणितं, अहुणा मालोहडं पवक्खामि। . तं तिविधं उड्डमहे, तिरियं मालोहडं चेव॥ 1270. उड्ड दुभूमादीयं, अह उड्डियकोट्ठियाइयं० होति। तिरि अद्धमालगादी, हत्थपसाराउ जं गिण्हे // 1271. 'सव्वं पि य तं५१ दुविधं, जहण्ण उक्कोसगं च बोद्धव्वं / अग्गपदेहि जहण्णं, तव्विवरीतं ति उक्कोसं // 1272. मालोहड उक्कोसे, आवत्ती चउलहू'२ मुणेतव्वा। दाणं आयामं तू, जहण्णमालोहडमिदाणिं // 1. तेलं (ब)। 2. करेति ऽव? (पिनि 163/4) / 3. विक्कए वा होई अधिगरण (पिनि 163/5) / 4. निवतंति (पिनि)। 5. मूइयंग (मु)। 6. "माणे वि हवंति काया (पिनि)। 7. पिनि (163/6) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है- उल्लिंपमाणे वि तहा तहेव, काया कवाडम्मि विभासितव्वा। 8. मूइंगणि' (ता)। 9. वि एय (पिनि 163/7) / 10. 'इहं (ता)। 11. मालोहडं पि (पिनि 165) / 12. "लहु (ता, ला)। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 जीतकल्प सभाष्य 1273. एत्थ तु मासलहुं तू, आवत्ती दाण' होति पुरिमर्छ। इय मालोहड भणितं, अच्छेज्जं अहुण वोच्छामि // 1274. 'तिविधं पुण अच्छेज्जंग, पभू य सामी य तेणए चेव। 'एक्केक्के चतुलहुगा, दाणं पुण एत्थमायाम" || 1275. अणिसिटुं पि य तिविधं, साधारण चोल्लगे य जड्डे य। तिविधे वि य अणिसट्टे, चतुलहुगा दाणमायामं // 1276. साहारणमणिसटुं, दाइयमादीण जं तु होज्जाहि। खीरे आपण संखडि, दिटुंतो गोट्ठिभत्तेणें // 1277. सो चोल्लगो वि दुविधो, छिण्णमछिण्णो समासतो होति। परिछिण्णं चिय दिज्जति, एसो छिण्णो मुणेतव्वो॥ 1278. अच्छिण्णपरीमाणो, सो वि णिसट्टो तहेव अणिसट्टो। णीसट्ठो तेसिं चिय, णेतूण समप्पितो जो तु॥ 1279. आणेति भुत्तसेसं, जं गहितं एय होति अणिसटुं। छिण्णम्मि चोल्लगम्मी, कप्पति घेत्तुं णिसट्टेतं // 1280. अणिसट्ठमणुण्णातं, कप्पति घेत्तुं तहेव अद्दिटुं। चोल्लग अणिसट्टेयं, जड्डणिसटुं अतो वोच्छं // 1281. रायकुलातो भत्तं, णीतं जड्डुस्स तं ण कप्पति तु / णिवपिंडमंतरायं", अदिण्णगहणादिदोसाय॥ 1282. जड्डो व पदोसगतो, परिपाडे वसहिमादि भंजेज्जा। डोंबस्स संतिओ वि हु, अद्दिट्ठो कप्पती घेत्तुं // 1283. अणिसट्ठ भणितमेतं, एत्तो अण्झोयरं पवक्खामि / अहियं उदरं अज्झोयरो तु जं सगिहमेगम्मि // 1284. अहिगं तु तंदुलादी, छुब्भति अज्झोयरो उ सो तिविधो। जावंतिग पासंडे, साधू अज्झोयरे चेव // 1. दाणे (ला)। 2. अच्छेज्ज पि य तिविधं (पिनि 172) / 3. अच्छिज्जं पडिकुटुं, समणाण ण कप्पते घेत्तुं (पिनि)। 4. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 39 / 5. "टे य (ब)। 6. तु. पिनि 184 / 7. "राइय (ब), राया (मु)। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 139 - 1285. जावंतिगम्मि लहुगो, आवत्ती दाणमेत्थ पुरिमटुं। पासंडी साहूण य, मासगुरू दाण भत्तेक्कं // 1286. एसो अज्झोयरओ, सोलस वी उग्गमस्स दोसेते। णवकोडीउ भवंतिह, किं भणितं होति कोडि'? त्ति // 1287. कोडिज्जंते जम्हा, बहवो दोसा उ सहियए गच्छं। कोडि त्ति तेण भण्णति, णवकोडीओ इमा ताओ॥ 1288. हणण हणावण अणुमोदणं ‘च पयणं'२ पयावणऽणुमोया। किणण किणावण अणुमोदणं च कोडीउ णव एता॥ 1289. णव चेवऽद्वारसगं, सत्तावीसा तहेव चउपण्णा। णउती दो चेव सया, 'तु सत्तरा" होंति कोडीणं // 1290. ता चेव य णवकोडी, रागद्दोसेहिं गुणित अट्ठरस। अण्णाण मिच्छ अविरति, तिहि गुणिते सत्तवीसा तु॥ 1291. पुढवादी छसु संजय, छहि. गुणिता होति एस चतुपण्णा। खंतीमादी दसहि उ, गुणिता णउती तु बोद्धव्वा // 1292. णउती तिहि गुणिता तू, दंसण-णाणेहि तह चरित्तेणं / सय दोन्नि होंति सयरा, कोडीणं एस वित्थारो॥ 1293. संखेवेण' दुहा ऊ', उग्गमकोडी विसोधिकोडी य। उग्गमकोडी छव्विधर, विसोधिकोडी अणेगविहा॥ 1294. हणणतिगं पयणतिगं, उग्गमकोडी तु छव्विधा एसा। अहवा वि इमा छव्विध, उग्गमकोडी मुणेतव्वा // 1295. आहाकम्मुद्देसिय, चरिमतिगं पूति मीसजातं च। बादरपाहुडिया वि य, अज्झोयरए य चरिमदुगे // 1. क्कोडि (ता, ब)। 2. 4 (ला)। 3. उ सत्तरी (पिनि 192/7) / 4. तिहं (ता, पा, ब, ला)। 5. च्छहिं (पा, ब, ला)। 6. 'वेण य (पा, ब, ला)। 7. कोडीकरणं दुविधं (पिनि 192/6) / 8. छक्कं (पिनि)। 9. "दुगं (पिनि 190) / Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 जीतकल्प सभाष्य 1296. एसा विसोधिकोडी, छव्विहभेदा समासतोऽभिहिता। एत्तो छद्धा' सुद्धं, वोच्छामी आणुपुव्वीए॥ 1297. उग्गमकोडी अवयव, लेवालेवे य 'अकतकप्पे या२। कंजिय आयामे चाउलोदसंसट्ठपूती य॥ 1298. सुक्केण वि जं छिक्कं', 'असुइण तं" धोव्वए जहा लोओ। इय सुक्केण वि छिक्कं, धोव्वति कम्मेण भाणं तु॥ 1299. लेवालेवे त्ति जं वुत्तं, जं पि दव्वमलेवडं। तं पि 'घेत्तुं ण कप्पेति, तक्कादी किमु लेवडं? // . 1300. कंजियमादीगहणं, कम्हा उ कतं तु? भण्णती सुणसु। साहुस्स तु आहेतुं, जं कीरति आहकम्मं तं॥ 1301. इय णाउमाह कोयी, साहुणिमित्ता य ओदणो उ कतो। ण तु कंजियमादीणिं, तो वज्जो ओदणो एगो॥ 1302. ण तु' कंजियमादीणिं, तो तग्गहणे कते तमेवं तु। जदि वि ण दिट्ठा आहा, ओदणमट्ठा तह वि वज्जे॥ 1303. सेसा विसोधिकोडी, ठवितगमादी तु जइ वऽणाभोगा। गहिता हवेज्ज छुद्धा', अण्णम्मी भत्तपाणम्मि॥ 1304. ताहे तु जहासत्तिं, विगिंचितव्वं तमण्णपाणं तु। दव्वादिकमेणं तू, इमेण . वोच्छं समासेणं॥ 1305. दव्वे तं चिय दव्वं, खेत पदेसेसु जेसु तं पडितं। काले अकालहीणं, जावऽण्णा भिक्ख णऽक्कमति / / 1306. भावे अरत्तदुट्ठो, असढो जं पासती तगं छड्डे। अणलखियमीसदव्वे१२, सव्वविवेगोऽवयवसुद्धो॥ 1. सुद्धा (ता), x (पा, ला)। 2. अकयए कप्पे (पिनि 191) / 3. छक्कं (ता)। 4. तु असुइणा (पिभा 28) / 5. घेतूण (ता, ब, ला)। 6. पिभा 29 / 7. य (ब)। 8. वुद्धो (ला), वुद्धा (पा, ब)। 9. खेत्ते (पा, ब, ला)। १०.पावती (ब)। ११.पिनि (192) में इस गाथा के पूर्वार्द्ध में पाठभेद है। 12. लक्खियमीसदवे (पिनि)। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 141 1307. अह पुण ण संथरेज्जा, ताहे परिठावणा तु तम्मत्तं / इत्थं चउभंगो तू, सुक्खोल्लणिवायगो इणमो॥ 1308. सुक्खे सुक्खं पडितं, सुक्खे उल्लं तु उल्लें सुक्खं तु। उल्ले उल्लं च तहा, एस चउत्थो भवे भंगो॥ 1309. 'सुक्खे सुक्खं पडितं, पढमगभंगो' विगिंचति सुहं तु"। बितियम्मि दवं छोईं, गालेंति दवं करं दाउं॥ 1310. ततियम्मि करं छोटं, उल्लिंचति' ओदणादि जं तरति। 'चरिमे सव्वविवेगो, दुलभदवे वावि तम्मत्तं // 1311. एव विगिचिंतऽसढो, जेसु पदेसुं तु सुज्झते साधू। * मायावी ण विसुज्झे, तम्हा असढेण होतव्वं // 1312. एवं गवेसणाए, उग्गमदारं समासतो भणितं। * उप्पायणमहुणा तू, समासतो हं पवक्खामि // 1313. सोलस उग्गमदोसे, गिहिणो' तु समुद्विते वियाणाहि। __उप्पादणाएँ दोसे, साहूउ समुट्ठिते जाण // 1314. णामं ठवणा दविए, भावे उप्पादणा मुणेतव्वा। 'दव्वे सचित्तादिविहाण', चित्ते दुपयादि तिविध इमा'१० // 1315. आसूयमादिएहिं", वालचिय-तुरंगबीयमादीसु२२ / सुत-आस-दुमादीणं, उप्पादणया तु सच्चित्ता / / 1. एत्थं (ब)। 2. x (ब)। 3. मभंगो (ब)। 4. सुक्के सुक्कं पडितं, विगिंचिउं होति तं सुहं पढमो . (पिनि 192/3) / 5. उत्तिंपइ (ला)। 6. दुल्लभदवम्मि चरिमे, तत्तियमेत्तं विगिंचंति (पिनि 192/4) / 7. गिहिणा (पा, ला)। 8. जाणं (पा, ब), पिनि 193 / 9. छंद की दृष्टि से 'दव्वे सच्चित्तादी' पाठ होना चाहिए। विहाण शब्द उत्पादना के भेद के लिए संकेत रूप में लिखा गया था, वह मूल पाठ के साथ जुड़ गया। १०.दव्वम्मि होति तिविधा, भावम्मि य सोलसपदा उ (पिनि 194) / ११.प्रतियों में तथा मुद्रित पुस्तक में 'आयासुयमादीहिं' पाठ मिलता है लेकिन हमने यहां मूल में पिण्ड नियुक्ति का पाठ स्वीकृत किया है। 12. 'मादीहिं (पिनि 194/1) / Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 जीतकल्प सभाष्य 1316. कणग-रययादियाणं, जहेट्ठधातुविहिता' तु अच्चित्ता।। मीसा उ सभंडाणं, 'दुपया तुप्पादणा दव्वे 2 // 1317. भावे पसत्थ इतरा, कोहादुप्पादणारे तु अपसत्था। कोधादिजुता धायादिणं च णाणादि 'तु पसत्था" // 1318. अपसत्थियभावुप्पादणाएँ एत्थं तु होति अहिगारो। सा सोलसहा तु इमा, धायादीया मुणेतव्वा॥ 1319. धाती दूती णिमित्ते, आजीव वणीमगे तिगिच्छा य। कोधे माणे माया, लोभे य हवंति दस एते' // . 1320. पुब्वि-पच्छासंथव, विज्जा मंते य चुण्ण-जोगे य। उप्पादणाएँ दोसा, सोलसमे मूलकम्मे य // 1321. धारयति धीयते वा, धयंति वा तमिति तेण धाती तु। जहविभवं आसि पुरा, खीरादी पंच धातीओ // 1322. खीरे य मज्जणे मंडणे य कीलावणंकधाती य। धाइत्तं कुणमाणो, एगतरं धातिपिंडो तु॥ 1323. तं दुविधं धातित्तं, करणे कारावणे य बोद्धव्वं / तं पुण दारगमादी, पडुच्च धाति व्व कुज्जाहि // 1324. पंचविध धातिपिंडे, आवत्ती चउलहू मुणेतव्वा / दाणं आयामं तू, दूतीपिंडं अतो वोच्छं / 1325. सग्गामर परग्गामे, दुविधा दूती तु होति णातव्वा। एक्केक्का वि य दुविहा, पागड छण्णा य णातव्वा // 1326. पागड णिस्संको च्चिय, अप्पाहेंतो व भणति इतरो वा। सेज्जातरखंतिया तु, धूया वा अण्णगामम्मि // 1. 'तुभिहि (ता, पा, ब, ला), यहां हमने पिण्डनियुक्ति 7. व (ला)। का पाठ स्वीकृत किया है। 8. धाई यु (ब), नि 4376, पिनि 198 / 2. “यादि कया उ उप्पत्ती (पिनि 194/2) / 9. पिनि (197) में इसका उत्तरार्ध इस प्रकार है३. "प्पायणे (ब)। एक्केक्का वि य दुविधा, करणे कारावणे चेव। 4. सप (पा, ला), पिनि 194/3 / 10. 'ज्जाहिं (ब)। 5. पिनि 195, पंव 754, प्रसा 567, पंचा 13/18 / 11. “गामे (ला)। 6. पिनि 196, पंव 755, प्रसा 568, पंचा 13/19 / Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 143 1327. भिक्खादी वच्चंते, अप्पाहणि णेति खंतिगादीणं / सा ते अमुगं माता, सो व पिता पागडं' भणति // 1328. छण्णा पुणाइ दुविधा, दूती एत्थं तु होति णातव्वा। लोगुत्तर तत्थेगा, बितिया पुण उभयपक्खे वि॥ 1329. लोगुत्तर संघाडग, संकेतो सावछण्णवयणेहिं / कह पुण छण्णं? सेज्जातरीय अप्पाहिओ गंतु // 1330. संघाडपच्चयट्ठा, बेती दूति त्ति अम्ह ण वि कप्पे। अविकोविया सुता ते, जा बेति इमं भणसु खंती / / 1331. सा वि य भणती होतू, वारिज्जिहिती अयाणिया सा उ। * लोउत्तरछण्णेसा, उभयच्छण्णं अतो वोच्छं / 1332. जामाइतित्थजत्तागतस्स उवाइपोक्कडेण कतं। . सो आगतो त्ति धूता, उभयच्छण्णं इमं भणति // 1333. एव भणेज्जहि खंती, तं किर तह चेव चिंतितं जं तु। जह ण वि संघाडो से, अण्णा व वियाणती कोई // 1334. उभयच्छण्णा एसा, सग्गामे . अभिहिता भवे दूती। एमेव परग्गामे, दुह दूती कह पुण करेज्जा? // 1335. गामाण दोण्ह वेरं, सेज्जातरिधूय तत्थ परगामे / सामत्थं गामस्स य, जह एतं हणिमु परगाम / / 1336. खंतो तु तत्थ पच्छा, भिक्खायरियाएँ तो तु सेज्जतरी। ____ अप्पाहेती खंतं, मम धूय भणेज्जसू एवं // 1337. जह गामों पडिउकामो, सा उ भणेज्जासु मा कुण पमादं। तीय कहितं तु तस्सा, तेण वि गामस्स तं कहितं॥ 1. रो इमं (पिनि 201/1) / 2. नि 4399 / 3. गंतु (ला)। . 4. 'डगप (ब)। 5. कोति (ब)। . 6. खंतस्स (पिनि 202) / 7. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 40 / 8. एयं (पा, ब, ला)। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 जीतकल्प सभाष्य 1338. ते य ठित' एगपासे, इतरे पडिता कतं तहिं जुद्धं / सेज्जातरिपति-पुत्ता, जामाता चेव वहिओ उ॥ 1339. बेति जणो केणेयं, कहितं? रोयंति बेति सेज्जतरी। जामाति-पुत्त-पतिमारएण खंतेण मे सिटुं॥ 1340. जम्हा' एते दोसा, दूतित्तं खू ण कप्पती तम्हा। दूतीपिंडे चउलहु, आवत्ती दाणमायामं // 1341. नियमा ‘तिकालविसयम्मि णिमित्ते" छव्विधे भवे दोसा। सज्जं तु वट्टमाणो, आउभए तत्थिमं णातं // 1342. आकंपिया' णिमित्तेण, भोइणी केणई तु लिंगीणं। भोइगचिरगतपुच्छा, केवतिकालेण एज्जाहि? // 1343. कल्लं चिय एति त्ती, इतरी पडिभणति पच्चयो को उ?। तुह गुज्झदेस तिलगो, सुविणादी पच्चए कहए। 1344. तीय कतं आउत्तं, पेसवितो परिजणो य पच्चोणी। इतरो वि अविदितो च्चिय, पविसिस्सं भोइओ चिंते॥ 1345. घरवित्तंतनिमित्तं, दिवो उवणिग्गतो य परिवग्गो। कह तुब्भे णातं? ती, पेसविता भोइणीए तु // 1346. पुट्ठा य दियत्तेणं, तीए' सिटुं सलाहमाणीए। समणो तीय भविस्सं, जाणति तिलगो य णे सिट्ठी // 1347. कोवो वलवागभं, च पुच्छितो पंचपुंडगाहंसु / फालण दिट्ठो जदि णेव तो तुहं अवितह कतेवं // 1348. तम्हा ण वागरेज्जा, णिमित्तपिंडेस वण्णितो तु मए। तीतणिमित्ते चउलहु, आवत्ती दाणमायामं // 1. ट्ठिय (ता, ब, ला)। 6. प्रतियों में 'आदियत्तेणं' पाठ मिलता है लेकिन छंद 2. तु. पिनि 203 / एवं अर्थ की दृष्टि से 'दियत्तेणं' पाठ होना चाहिए। 3. तम्हा (ला)। 7. तीय य (मु, ला)। 4. “सए विणि" (पिनि 204), "विसए ने (नि 4405) / 8. 'डमाहंसु (पिभा 34) / 5. "पिय (पा, ला)। 9. कइ वा (पिभा), कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 41 / Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 1349. पडुपण्णऽणागते या, चउगुरुगा दाण होतऽ भत्तटुं। आजीवपिंडमेत्तो', समासतो हं पवक्खामि॥ 1350. जाती कुल गण कम्मे, सिप्पे आजीवणा तु पंचविधा। सूयाएँ असूयाएँ व, 'कहेति अप्पाणमेक्केक्के 2 // 1351. जाती कुल गण कम्मे, सिप्पे आजीवणा तु पंचविधा। एक्केक्के चतुलहुगा, आवत्ती दाणमायामं // 1352. जाती माहणमादी, मातिसमुत्था व होति बोधव्वा। तहियं सूयाए तू, जाणावेमेहि अप्पाणं // . 1353. होमादिऽवितहकरणे, णज्जति जह सोत्तियस्स पुत्तो त्ति। . वसितो वेस गुरुकुले, आयरियगुणे व सूएति // 1354. सम्ममसम्मा किरिया, 'अणेण ऊणाहिगा" व विवरीता। समिधा-मंताऽऽहुति-ठाण-जाग'-काले य घोसादी // 1355. बेति फुडं चिय सुकतं, असोहणं वावि ते कतमियं ति। ____ तहियं भद्दगपंता, दोसा इणमो भवंती तु॥ 1356. भद्दो अम्ह सपक्खो, एस ती भिक्खु देज्जहेतस्स। पंतो ओभामेती, मुहमंगलि कुणति भिक्खट्ठा // 1357. उग्गादीयं तु कुलं, पितुवंसादि व्व तत्थ' वि तहेव। मल्लसरस्स तमादिण, जाएई मंडलपवेसं // 1358. देउलदरिसण-भासाउवणयणे मंडवादि सूएति। जंतुप्पीलणमादि तु, कम्मं तुण्णादियं सिप्पं // 1359. अहवा जं सिक्खिज्जति, आयरिउवदेसतो तगं सिप्पं / जं कीरती सयं तू, तं कम्मे तेसु सव्वेसु॥ 1. 'मेत्था (पा, ला)। 6. पिनि 207/2, नि 4414 / 2. अप्पाण कहेहि एक्केक्को (पिनि 206, नि 4411) / 7. तित्थ (ता)। 3. पिनि 207/1, नि 4413 / 8. जंपई (ता, ब, ला)। 4. अण्णेणं साहिया (ता, पा, ब, ला)। 9. तुम्हा (ता, ला), तुम्हासियं (ब)। 5. जाव (ता, पा, ब, ला)। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 जीतकल्प सभाष्य 1360. कत्तरिपयोयणट्ठा', वत्थू बहुवित्थरेसु 'तह चेव'२। कम्मेसु य सिप्पेसु य, सम्ममसम्मेसु सूइतरा // 1361. सव्वेसु भद्दपंता, नियमा दोसा हवंति विण्णेया। आजीवगपिंडेसो, एत्तो तु वणीमगं वोच्छं / / 1362. किं भणितं वणीमे त्ति, भण्णति वणि जायणम्मि धातू तु। वणिमग पायप्पाणं, वणिमो त्ती भण्णते तम्हा॥ 1363. ते पंचहा वणीमग, जायणवित्ती तु होति बोद्धव्वा। समणा माहण किवणे, अतिही साणे य पंचमगा। 1364. समणे माहण किवणे, अतिही साणे य जाण पंचसु वि। पत्तेगं चतुलहुगा, आवत्ती दाणमायामं // 1365. मयमातिवच्छगं पिव, वणेति आहारमादिलोभेणं / अप्पाण समण-माहण-किमिणा-ऽतिहि-साणभत्तेसु // 1366. निग्गंथ सक्क तावस, गेरुय आजीव पंचहा समणा। तेसि परिवेसणाएँ, लोभेण वणेइ' को अप्पं? // 1367. तच्चण्णियादि दटुं, भुंजते दातु पीतिअणुकूलं। साहु तुमे विप्प! कयं, दाउं जं देसि एतेसिं॥ 1368. भुंजंति चित्तकम्मट्ठित व्व कारुणिय' दाणरुइणो वा। अवि कामगद्दभेसु वि, ण वि णासति किं पुण जतीसु? // 1369. मिच्छत्तथिरीकरणं, उग्गमदोसा 'व ते पुण करेज्जा। चडुकारऽदिण्णदाणा, पच्चत्थिग मा 'पुणो एंतु // 1370. एमेव माहणेसु वि, दिजंतं दिस्स बेति अणुकूलं। दोण्हं भणितं दाणं, समणाणं माहणाणं च // 1. “यणावेक्ख (पिनि 207/4, नि 4416) / 5. वणेज्ज (नि 4420), वणिज्ज (पिनि 209) / 2. एमेव (पिनि, नि)। 6. विप्पयं (ता)। 3. सूतियतरा (ता, पा, ब), सूइय' (ला)। 7. कारुणीय (ला, पा)। 4. पिनि (208/1 तथा नि 4419) में गाथा का उत्तरार्ध 8. नस्सए (पिनि 209/1), णासए (नि 4421) / इस प्रकार है 9. य तेसु वा गच्छे (पिनि 210, नि 4422) / समणेस माहणेस य, किविणाऽतिहिसाणभत्तेसु। १०.पुण एवं तु (पा, ला)। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-ज़ी-३५ 147 1371. लोगाणुग्गहकारिसु, भूमीदेवेसु बहुफलं दाणं / अवि णाम बंभबंधुसु, किं पुण छक्कम्मणिरतेसु?' / / 1372. किमणा उ कुट्ठि-कर-पाद-अच्छिमादीसु जुंगिता जे तु। दट्टण तेसि देंतं, 'तस्स अणुकूलं'३ इमं भणति // 1373. "किमणेसु दुब्बलेसु" य, अबंधवा-ऽऽतंक-जुंगितंगेसु। पूयाहज्जे लोगे, दाणपडागं हरति देंतो' / 1374. ते च्चिय एत्थ वि दोसा, कोई पुण देति दाणमतिहीणं। तत्थ वि अणुप्पयं तू, दाणपतिस्सा इमं भणति॥ 1375. पाएण देति लोगो, उवगारी 'परिचिते व झुसिते” वा। जो पुण अद्धाखिण्णं, अतिहिं पूएति तं दाणं // 1376. कोइ पुण साणभत्तो, भत्तं साणादियाण दिज्जंतं। - तस्स य पियं ति भासति, तुममेगो जाणसी दाउं / / 1377. अवि णाम होज्ज सुलभो, गोणादीणं तणादिआहारो। छिच्छिक्कारहताणं, ण य सुलभो होति सुणगाणं / / 1378. केलासभवणा एते, आगता गुज्झगा महिं। ... चरंति० जक्खरूवेणं, पूयाऽपूय हिताऽहिता // 1379. पूयंति पूयणिज्जा, पूयाएँ हिताय आगता इहई। लोगस्स हिता एते, पूइय अहवाऽहिता होति / / 1380. अहवा वि पूयपूया, हिताहिता पूइता१२ हिता होति। अपूइता य अहिता२, तम्हा खलु पूणिज्जेते // 1381. एमादी अणुकूले, भणिते सव्वेसि माहणादीणं / ___दाता चिंतेति ततो, मज्झत्थो एस समणो त्ति / 1. पिनि 210/1, नि 4423 / 8. होति (नि 4426) / 2. दीसुं (पा, ला)। 9. साणाणं (पिनि 210/4) / 3. छंद की दष्टि से यहां तस्सऽणक्लं' पाठ होना चाहिए। 10. चरिति (ला)। 4. किवणेसु दुम्मणेसु (पिनि 210/2) / 11. पिनि 210/5, नि 4427 / 5. नि 4424 / 12. पूतिता (ता, पा)। 6. परिजितेव (पा, ला), "जितेसु (नि 4425) / 13. गाथा के तीसरे चरण में अनुष्टुप छंद है। 7. जुसिए (पिनि 210/3) / Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 148 जीतकल्प संभाष्य 1382. एतेण मज्झ भावो, विद्धो लोगे पणायहज्जम्मि। एक्केक्के पुव्वुत्ता, भद्दग-पंतादिया. दोसा॥ 1383. दाणं ण होति अफलं, 'पत्तमपत्ते य'३ सण्णिजुज्जंतं। 'ईय विभणिते" दोसा, पसंसिमो' किं पुण अपत्ते ? / / 1384. वणिमगपिंडो भणितो, एत्तो वोच्छं तिगिच्छपिंडं तु। सा दुविधा तु तिगिच्छा, सुहुमा तह बादरा चेव // 1385 सुहुमाए मासलहुँ', आवत्ती दाण होति पुरिमड़े। बादरतेगिच्छाए, चउलहुगा दाणमायाम॥ 1386. भिक्खादिगतं संतं, पुच्छति रोगी तु ओसधं किंची। . भणती किमहं वेज्जो?, पढमतिगिच्छा भवे एसा॥ 1387. वेज्जो त्ति पुच्छितव्वो, अत्थावत्तीय सूइतं. एतं / अबुहाण . बोहणं वा, अयाणमाणाण कतमेतं // 1388. 'बेति व एरिस दुक्खं, अमुगेणं ओसहेण 90 पउणं मे। सहसुप्पइयं च रुयं, वारेमो अट्ठमादीहिं॥ 1389. एसा बितिय तिगिच्छा, दो वेयाओ तु सुहुमतेगिच्छं। बादरतेगिच्छं पुण, सयमेव करेति वेज्जत्तं // 1390. संसोधण संसमणं, णिदाणपरिवज्जणं च जं जत्थ। आगंतुधातुखोभे, व आमए कुणति किरियं तु // 1391. अस्संजयतेगिच्छे, कीरंते तह य सुहुमकरणम्मि। तहियं तु अणेगविधा, दोसा इणमो पसज्जंति॥ 1392. अस्संजमजोगाणं, पसंधणं१२ कायघात अयगोलो। दुब्बलवग्घाहरणं९३, अच्चुदए गिण्हणुड्डाहो" // 1. पणामह' (मु, पिनि)। 2. पंताइणो (पिनि 211, नि 4428) / 3. “तेसु (पिनि 213) / 4. इय वि भणिते वि (पिनि, मु)। 5. पसंसतो (पिनि, नि 4430) / 6. अपत्तं (नि)। 7. लहु (ला)। 8. तीइ (ला)। 9. सूतियं (पा)। 10. एरिसगं वा दुक्खं, भेसज्जेण अमुगेण (पिनि 214/2, नि 4435) / 11. पिनि 214/3, नि 4436 / 12. पसंजणं (मु, पा)। 13. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 42 / 14. पिनि 215, नि 4437 / Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 149 1393. जम्हा एते दोसा, तम्हा कायव्विया ण हु तिगिच्छा। भणितो तिगिच्छपिंडो', एत्तो कोधादि वोच्छामि // 1394. कोधादीणं कमसो, आहरणा होंतिमे समासेणं। हत्थप्पं गिरिफुल्लित, रायगिहं चेव चंपा य॥ 1395. नगरम्मि हत्थकप्पे, करडुगभत्ते उ खमग दिटुंतो। कोसलदे से गिरिफुल्लिगामें वणकोट्ठकार म्मि // 1396. साहूण समुल्लावो, को हु हु अज्जं पगे तु साहूणं / आणेज्ज इट्टगाओ?, खुड्डाऽऽह तहिं अहं' आणे // 1397. घत-गुलसंजुत्ता वि य, जह आणित इट्टगा तु खुड्डेणं / सेडंगुलिमादीहिं, णातेहिं एत्थ भत्तटुं॥ 1398. रायगिहे धम्मरुई, असाढभूती तु खुड्डगो तस्स। रायणडगेहपविसण, संभोइय मोदगे लंभो // 1399. आयरिय उवज्झाए, संघाडग अप्पयस्स अट्ठाए। भुज्जो भुज्जो पविसति, काण-कुणी-खुज्जरूवेहिं // 1400. उवरितलत्थो य णडो, पासति चिंतेति बुद्धिमं सुट्ट। होज्ज णडो सारिक्खो, उवाययो एस घेत्तव्यो / 1401. चिंतित उवायमेतं, वाहरिता देमि मोदगे बहवे। भणितो य तओ एज्जसु, दिणे दिणे जाहें कज्जं तु॥ . . 1402. धूयदुगं संदिसती, हासखेड्डु-परिहास-संफासे। एतेण समं कुव्वह, जह भज्जति एस अचिरेणं॥ 1403. जदि णामं गिण्हेज्जा, तो बे जह मुयसु एय पव्वज्जं। ताहिँ तहक्कय खुभितो, रयहरणं लिंग मुयसु त्ति // 1404. गुरु सिट्ठ मोत्तुमातो, दिण्णा बीयाय भणित णेणं च। एसुत्तमपगतीओ, जत्तेणं उवयरेज्जाह // 1. तिगिंच्छि” (मु, ब)। 6. संहोइय (पा)। 2. करदुग' (ता)। 7. पिनि 219/9, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 43 / कथा सं. 45 / 4. अह (पा)। 8. वाहिरिया (ब)। . 5. तु. पिनि 219/1, तु. नि 4446, कथा के विस्तार 9. ज्जाहे (पा)। हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 44 / Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 जीतकल्प सभाष्य 1405. रायगिहे य कयाई, णिम्महिलं णाडग' णडाऽगच्छी। ताय' विरहम्मि मत्ता, उवरिगिहे दो वि पासुत्ता // 1406. वाघातेण 'पविट्ठो, दिट्ट विचेला विरागमावण्णो / __आयरियगुरुसमीवं, पट्ठित दिट्ठो णडेणं च // 1407. इंगितणाते धूया, खरंट पेसियय जीवणं देहि। देमि त्ति रट्ठपालं, णाडग णच्चीय कुसुमपुरे // 1408. कडगादिअत्थदाणं, बहुपडितं नच्चगम्मि णच्चंते। भरहो य वणादीया, भरहिड्डी तत्थ य णिबद्धा / 1409. इक्खागवंस भरहो, आदसघरे य केवलालोओ। ___हत्थे गहितो मा कुण, किं भरहों णियत्त? पच्चाह' // 1410. ण हु तं पऽक्खउ एवं, वेलंबो होति जइ णियत्तामि। पंच सता तेण समं, पव्वइता नाडगे डहणं // 1411. एमादि मायपिंडो, ण कप्पती णवरि कारणे कप्पे। गेलण्ण-खमग पाहुण, थेरादद्वेवमादीसु॥ 1412. मायापिंडो भणितो, एत्तो वोच्छामि लोभपिंडं तु। सो कोहपिंडमादिसु, सव्वत्थऽणुपाति अहव इमो॥ 1413. लब्भंतं पि ण गिण्हति", अण्णं२ अमुगं ति अज्ज घेच्छामि। भद्दरसं ति व काउं, गिण्हति. खद्धं सिणिद्धादी / 1414. तत्थोदाहरणमिणं, चंपाएँ छणम्मि को वि खमगो तु। गेण्हति अभिग्गहं तू, सीहेसरमोदगे घेच्छं५ // 1. 4 (पा)। १०.पिनि (219/14) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस 2. ताव (ता, मु)। प्रकार है३. पिनि 219/12 / हारादिखिवण गमणं, उवसग्ग न सो नियत्तो त्ति। 4. नियत्तो दिस्स (पिनि 219/13) / 11. गिण्हेति (ला)। 5. “गसंबोधी (पिनि)। 12. अण्णे (पा)। 6. वा (ला), पिनि में गाथा के उत्तरार्ध में पाठभेद है। 13. लब्भामो (पिनि 220) / 7. देहिं (ब)। 14. णिसिद्धादी (ता)। 8. तत्थगम्मि (पा, ला)। 15. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 46 / 9. केवलं लोओ (ता, पा, ब, ला)। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 151 1415. भिक्ख पविट्ठो य तओ, पडिसेहे अण्ण लब्भमाणं पि। सीहेसरमलहतो, संकिस्सति भावतो अह सो॥ 1416. सीहेसरगतचित्तो, विसरिसचित्तो य धम्मलाभो त्ति। बेती सीहे सरए, सूरत्थमिते वि हिंडति तु॥ 1417. सड्ढड्डत्त केसरभायणभरणं च पुच्छ पुरिमड्डे। उवओग चंदजोयण', साहु त्ति विगिंचणेरे गाणं // 1418. कोहादीणं कमसो, एमेते वण्णिता तु आहरणा। एतेसिं चिय कमसो, आवत्ती दाण वोच्छामि॥ 1419.. कोधे माणे चतुलहु, आवत्ती दाण होति आयामं / मायाए मासगुरू, आवत्ती दाण भत्तेक्कं // 1420. लोभे चउगुरुगा तू, आवत्ती दाण होतऽभत्तटुं। संथुणण संथवो तू, थुणणारे वंदणगमेगटुं॥ 1421. दुविहो यो 'संथवो खलु'५, संबंधी वयणसंथवो चेव। एक्केक्को पुण' दुविहो, पुट्विं पच्छा य णातव्वो॥ 1422. संबंध पुव्व दुविधो, इत्थी पुरिसे य होति णातव्वो। . एमेव य पच्छा वी, आवत्ती दाण वोच्छामि // 1423. इत्थीए चतुगुरुगा, पुरिसेसू चतुलहू मुणेतव्वा। चतुगुरुए तु चतुत्थं, चतुलहुगे दाणमायामं / / 1424. वयणे वि पुव्व दुविधो, इत्थी पुरिसे य होति णातव्वो। एमेव य पच्छा वी, आवत्ती दाण वोच्छामि॥ 1425. इत्थीए मासगुरुं, आवत्ती दाण होति भत्तेक्कं / पुरिसे मासलहुं तू, आवत्ती दाण पुरिमटुं 1426. संबंधपुव्वसंथवों, माय-पियादी तु होति णातव्वो। सासुय-ससुरादीओ, संबंधीसंथवो . पच्छा // 1. संत चोदण (पिनि 220/2) / 5. भावसंथवो (नि 1040) / 2. चणा (पिनि)। 6. वि य (पिनि, नि)। 3. थुणणो (पा, ला)। 7. x (पा, ला)। 4. उ (पिनि 221, नि ) / 8. सासुर (ता)। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 जीतकल्प सभाष्य 1427. आयवयं च परवयं, णाउं संबंधती' तदणुरूवं / मम 'माता एरिसियार, ससा व धूता व णत्तादी॥ 1428. अद्धिति दिट्ठीपण्हय', पुच्छा कहणं ममेरिसी जणणी। थणखेवो संबंधो, 'विहवासुण्हाय दाणं च // 1429. एमेव य पुरिसेसु वि, पियभातादीहिँ होति संबंधो। एमेव पच्छसंथव, अद्धिति दिट्ठादि पुच्छादी॥ 1430. पच्छासंथवदोसा, सासुय-विहवादिधूतदाणं च। भज्जा 'मम एरिसिया, सज्ज 10 घातो व संगोर वा॥ 1431. संबंधसंथवेसो, एत्तो वोच्छामि संथवं वयणे। पुट्विं पच्छा व तहा, संथुणणे कुणति दाताए॥ 1432. गुणसंथवेण पुव्वं, संतासंतेण जो थुणेज्जाहि। दातारमदिण्णम्मिं१२, सो ‘वयणे संथवो पुव्विं 13 // 1433. सो एसो जस्स गुणा, पयरंति" अवारिता दसदिसासु। इहरा कहासु सुव्वति'५, पच्चक्खं अज्ज दिट्ठो, त्ति // 1434. गुणसंथवेण७ पच्छा, संतासंतेण जो थुणेज्जाहि। दातारं दिण्णम्मी, सो पच्छासंथवो वयणे१८ // 1435. 'विमलीकत णे२९ चक्खू, जहत्थतो वियरिता० गुणा .तुब्भं / ___ आसि पुरा णे संका, 'इदाणि णीसंकितं'२२ जातं // 1. धते (पिनि 222/1) / 2. एरिसिया माया (नि 1042) / 3. सुण्हा (नि)। 4. अद्धी (ता, पा, ब)। 5. “पम्हय (पा, ब, ला)। 6. “सुण्हापदाणं (पिनि 222/2) / 7. नि 1043 / 8. एतेव (पा)। , 9. सासू (पिनि 223) / 10. ममेरिसिच्चिय सज्जो (पिनि), ममेरिसि त्ति य" (नि 1044) / 11. भंगो (मु, पिनि, नि) / 12. “म्मि उ (पिनि 225), "म्मि (पा, ब, ला), "म्मी (नि)। 13. पुट्विं संथवो होति (पिनि, नि 1046) / 14. विय' (पिनि 225/1, नि)। 15. सुणिमो (पिनि, नि 1047) / 16. सि (पिनि, नि)। 17. “वेस (मु, ला, ब)। 18. होति (पिनि 226, नि 1048) / 19. कयम्ह (पिनि 226/1, नि 1049) / 20. विसरिता (नि), विचरिया (पिनि)। 21. तुझं (पा, ला, नि, मु)। 22. संपइ णिस्संकियं (पिनि, नि)। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 153 1436. तत्थ वि भद्दग-पंता, दोसा तह चेव होंति णातव्वा। भणितेस संथवो तू, विज्जा-मंते अतो वोच्छं / / 1437. विज्जा-मंते चतुलहु, आवत्ती दाण होति आयामं / विज्जा-मंतविसेसं, उल्लिंगेऽहं समासेणं // 1438. विज्जा-मंतविसेसो, विज्जित्थी पुरिस होति मंतो तु। अहव ससाहण विज्जा, मंतो पुण पढितसिद्धो तु // 1439. विज्जाएँ उ णिदरिसणं, जह कोई भिच्छुवासगो पत्तो। साहूण. पिंडिताणं, अह उल्लावोर इमो तत्थ // 1440. इय पंतभिच्छुवासो, साहूण ण देति तत्थ भणएक्को। जइ इच्छह विज्जाए, घत-गुल-वत्थाणि दावेमि॥ 1441. पेच्छामो ति य भणिते, गंतुं विज्जाभिमंतिओ बेति। किं देमि? त्ती घत-गुल-वत्थाणिं दिण्ण साहरणं॥ 1442. अण्णेहि य सो भणितो, कह' ते दिण्णं ति भत्त-पाणादी? / तो बेति तगो रुट्ठो, केण हितं? केण मुट्ठो मि?॥ 1443. पडिविज्जथंभणादी, सो वा अण्णो व से करेज्जाहि। पावाजीवी मायी, कम्मणकारी ‘य गहणादी" // 1444. मंतम्मि उदाहरणं, पाडलिपुत्ते मुरुंडराइस्स। उप्पण्ण सीसवेदण, पालित्तयकहण ओमज्जे // 1445. जह जह पदेसिणि जाणुगम्मि पालित्तओ भमाडेति / तह तह सीसे वियणा, पणस्सति° मुरुंडरायस्स" // 1446. मंतेणं अभिमंतिय, तह चेव दवाव दिज्ज कोयिं तु। तत्थ वि तेच्चिय दोसा, पडिमंतादी इमे होंति॥ .. Ta 1. कोयिं (ता, ब)। 8. ओमग्गे (ब), कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, 2. उल्लावा. (ला)। कथा सं. 48 / 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 47 / 9. सिणी (मु, ला)। . 4. इयं (ता, ला)। 10. णस्सती (ता), य णस्सति (पा)। 5. किह (मु, पा, ब)। 11. "डयाणस्स (ता), “स्सा (ला), 6. पावजीवी (ला)। पिनि 228/1, नि 4460 / 7. भवे बितिए (नि 4459), पिनि 228 / Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 जीतकल्प सभाष्य 1447. पडिमंतथंभणादी, सो वा अण्णो व से करेज्जाहि। .. पावाजीवी मायी, कम्मणकारी 'य गहणादी' // 1448. विज्जा-मंताभिहिता, अहुणा वोच्छामि चुण्ण-जोगादी। वसिकरणादी चुण्णा, अंतद्धाणंजणादीया / 1449. चुण्णे जोगे चउलहु, आवत्ती दाणमेत्थ आयामं / णिदरिसणं दोण्हं पी, उल्लिंगेऽहं समासेणं॥ 1450. दिटुंत चुण्ण-जोगे, जह कुसुमपुरम्मि केइ आयरिया। जंघाबलपरिहीणा, ओमे सीसस्स तु रहम्मि / 1451. कहयंति चुण्णजोगा, अंतद्धाणादि तत्थ दो खुड्डा। पच्छण्णठित णिसामे, अवधारे अंजणं एक्कं // 1452. वीसज्जिता वि साहू, गुरूहि देसंत खुड्डग णियत्ता। आयरिएहिँ य भणिता, दुखू कतं जं णियत्ता' भे॥ 1453. भिक्खे परिहायंते, थेराणं 'ओमें तेसि'६ देंताण। किं ओम गुरूणं तू, कुव्वामो? खुड्ड सामत्थे // 1454. कुणिमो अंतद्धाणं, दव्वे मेलित्तु अच्छियंजणया। सह भोज्ज चंदगुत्ते, ओमोदरियाएँ दोब्बल्लं // 1455. चाणक्क पुच्छ इट्टालचुण्ण 'दारपिहणं तु धूमो'" य। दटुं० कुच्छ- पसंसा, थेरसमीवे उवालंभो // 1456. एवं वसिकरणादिसु, चुण्णेसु वसीकरेत्तु जो तु परं। उप्पाएती पिंडं, सो होती चुण्णपिंडो तु॥ 1457. जे विज्ज-मंतदोसा, ते च्चिय वसिकरणमादिचुण्णेहिं / एगमणेगपदोसं, कुज्जा पत्थारओ वावि२ // 1. भवे बीयं (पिनि 229, नि 4461) / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 49 / 3. दिसंत (ला)। 4. दुट्ठ (पा)। 5. भणित्ता (ता)। 6. तेसि ओमें (पिभा)। 7. x (पा, ला)। 8. पिभा 36 तथा नि 4464 में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है सहभुज्ज चंदगुत्ते, ओमोदरियाएँ दोब्बल्लं। 9. दारं पिहित्तु धूमे (पिभा 37), दारं पिहेउ धूमो (नि 4465) 10. दिस्सा (नि)। 11. तुवा' (ब)। 12. पिनि 231, नि 4466 / Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 155 1458. भणितेस चुण्णपिंडो, अहुणा वोच्छामि जोगपिंडं तु। तहियं जोग अणेगा, इणमो तू संपवक्खामि॥ 1459. सूभग-दोभग्गकरा, 'जोगा आहारिमा" य इतरे य। आघंस धूववासो', पादपलेवाइणो इतरे // 1460. तत्थाहरणं इणमो, अणहारिमपादलेवजोगम्मि। __ आभीरगविसयम्मी, जह कत सुण तावसेहिं तु // 1461. नदिकण्ह वेण्णदीवे, पंचसया तावसाण णिवसंति। पव्वदिवसेसु कुलवति, 'पालेवे लिंप पादे तु"॥ 1462. पाउगदुरूढ सलिलुप्परेण उत्तरिउ एति णगरं ति। आउट्ट लोग पूया, पच्चक्खा एतें देव त्ति॥ 1463. जणसावगाण 'खिंसण, तहियं तू वइरसामिमाउलया। * आयरियअज्जसमिता, तेसिं च णिवेदितं तेहिं // 1464. तेहि भणिता य वच्चह, ते मातिट्ठाणि पादलेवेणं / ___णदिमुत्तरंति' सगिहे, णेउसिणोदेण धोव्वह णं॥ 1465. तेहि य सगिहे णेउं, पाय बला धोयऽणिच्छमाणाणं। .. किं जाणति लोगो? ती, दिण्णं विणएण बहुफलयं॥ 1466. पडिलाभित वच्चंता, णिबुड्डु णदिकूल मिलिय समियाए। विम्हय' पंचसता तावसाण पव्वज्ज साहा य // 1467. एमादीजोगेहिं, आउट्टावेत्तु एसती पिंडं। सो ण वि कप्पे एत्तो, वोच्छामी मूलकम्मं तु॥ 1468. दुविधं तु मूलकम्म, गब्भादाणे तहेव परिसाडे। दुविधे वि मूलकम्मे, पच्छित्तं होति मूलं तु॥ 1. जे जोगाऽऽहारिमे (नि 4469) / 2. वास धूवा (नि)। 3. पिनि 231/1 / 4. पालेवुत्तारसक्कारो (पिनि 231/2), ___ पादलेवुत्तारसक्कारो (नि 4470) / 5. खिंसणा तहिं (ला)। 6. "टाणिं (ता)। 7. णति' (पा, ला)। 8. मिलण (पिनि 231/4, नि 4472) / 9. विम्हिय (मु, ब)। १०.कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 50 / Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 जीतकल्प संभाष्य 1469. आदाणे अहिगरणं, पडिबंधो छोभगादिदोसा य। पाणवध-साडणम्मी', छोभग-पडिणीय उड्डाहो // 1470. इय मूलक्कम्मेणं, पिंडो उप्पादितो ण कप्पति तु / उप्पादणेस भणिता, गवेसणा चेव य समत्ता॥ 1471. एवं तु गविट्ठस्सा', उग्गम-उप्पादणाविसुद्धस्स। गहणविसोधिविसुद्धस्स होति गहणं तु पिंडस्स // 1472. उग्गमदोस गिहीतो, उप्पादण होति समणउत्थाणा / गहणेसणाइ दोसे, आय-परसमुट्ठिते वोच्छं / / 1473. दोण्णि वि समणसमुत्था, संकित तह भावतोऽपरिणतं च। सेसा अट्ठ वि णियमा, गिहिणो तु समुट्ठिते जाण // 1474. सा गहणेसण चतुहा, णामं ठवणा य दव्व भावे य। दव्वे वाणरजूहं, सव्वं वत्तव्व वित्थरतो // 1475. दव्वम्मि एस भणिता, भावे गहणेसणं तु वोच्छामि। दसहि पदेहिं सुद्धं, संकितमादी इमेहिं तु॥ 1476. संकित मक्खित णिक्खित्त, पिहित साहरण दायगुम्मीसे। अपरिणत लित्त छड्डित, एसणदोसा दस हवंति // 1477. संकाए चउभंगो, पढमो गहणे य भोयणे चेव। "बितिओ गहण ण भोयण५०, ततिओ पुण संकितो भोगे॥ 1478. णीसंकितो तु चरिमे, किह पुण संका हवेज्ज? जह कोई। भिक्ख पविट्ठों लद्धम्मि, हिरिमं भिक्खं विगिंचेति // 1479. किण्णु हु खद्धा भिक्खा, 'लद्धा? ण य तरति पुच्छिउं तहियं। 1 'हिरिमं इति संकाए, भुंजति इइ 12 संकितो चेव॥ 1. णम्मि (मु, ता)। 2. स्स (पा, ला)। 3. x (ता, पा), पिनि 233 / 4. पिनि (234) में गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है- उप्पादणाएँ दोसा, साहूउ समुट्ठिते वियाणाहि। 5. उ (पिनि 235) / 6. x (ला)। 7. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2. कथा सं. 51 / 8. साहरिय (पिनि 237, प्रसा)। 9. प्रसा 568, पंव 762, पंचा 13/26, तु. मूला 462 / 10.x (ब)। ११.दिज्जति न य तरह पुच्छिउँ हिरिमं (पिनि 240/1) / १२.इति संकाए घेत्तुं तं भुंजति (पिनि)। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 157 1480. बीएण गहित संकित, विगडंतऽन्ने य णवरि संघाडे / पगतं पहेणगं वा, सोउं णिस्संकितो भुंजे॥ .. 1481. णीसंकगाहि ततिओ, विगडेंत णिसम्ममण्णसंघाडं / संका पुणाइ जारिस, लद्ध मए अमुगगेहम्मि॥ 1482. महती भिक्खा तारिस, एतेहि वि लद्ध किण्ण' होज्जाहि?। णीसंकित काऊणं, भुंजति तं संकितो चेव॥ 1483. पढमो दोसु वि लग्गो, बितिओ पुण गहण भोयणे ततिओ। जं संकितमावण्णो, पणुवीसा चरिमए सुद्धो॥ * 1484. छउमत्थो सुतणाणी, गवेसती उज्जुगं पयत्तेणं / - आवण्णो पणुवीसं, सुतणाणपमाणतो सुद्धो॥ 1485. साहू सुतोवउत्तो, सुतणाणी जइ वि गिण्हति असुद्धं / ___ तं केवली वि भुंजति, अपमाण सुतं भवे इहरा // 1486. सुत्तस्स अप्पमाणे, चरणाभावो ततो य मोक्खस्स। _ 'मोक्खाभावाओ चिय, पयत्तदिक्खा"५ णिरत्था उ॥ 1487. 'सोलस उग्गमदोसा'१०, णव एसणदोस संक मोत्तूणं। पणुवीसेते दोसा, संकितमासंकितो वोच्छं / 1488. जदि संका दोसकरी, एवं सुद्धं पि होति तु असुद्धं / णीसंकमेसितं१२ ति व, अणेसणिज्जं पि निद्दोसं // 1489. भण्णति संकितभावो, अविसुद्धो अवडितकतरपक्खे५३ / एसिं पि कुणय ऽणेसिं, अणेसिमेसिं विसुद्धो तु॥ 1. पिनि (240/2) में गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है- हियएण संकितेणं, गहिता अन्नेण सोहिता सा य। - 2. णिस्सम्म" (ता, ला)। 3. पुणाई (पा, ला)। 4. लद्धं (पा)। 5. x. (ला)। 6. उज्जुओ (पिनि 239) / / 7. ओहो (पिनि 239/1) / 8. तु (पिनि 240) / 9. मोक्खस्स वि य अभावे दिक्खपवित्ती (पिनि)। 10. उग्गमदोसा सोलस (पिनि 238/2) / 11. "त निस्संकिते (पिनि)। 12. निस्संक' (पिनि 240/4) / 13. पिनि (241) में गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है अविसुद्धो परिणामो, एगतरे अवडितो उ पक्खम्मि। 14. कुणति (पिनि)। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 जीतकल्प सभाष्य 1490. णिस्संक काउ तम्हा, भोत्तव्वं संकितं भणितमेतं। मक्खितमिदाणि वोच्छं, मक्खित जं होति संसत्तं // 1491. दुविधं च मक्खितं खलु, सच्चित्तं चेव होति अच्चित्तं। सच्चित्तं तत्थ तिधा, पुढवी आऊ य वणकाए / 1492. पुढवीससरक्खेणं, हत्थे मत्ते व सुक्ख पणगं तु। आवत्ती दाणं पुण, णिव्वितियं होति दातव्वं // 1493. कद्दममक्खितमीसे, लहुगो णिम्मीस होंति लहुगा तु। लहुमासे पुरिम, चतुलहुगे होति आयामं // 1494. ससणिद्भुदउल्ले या, 'पुर-पच्छाकम्म" मक्खितं चतुहा। उक्कुट्ठ-पिट्ठ-कुक्कुसमक्खितमेवादि वणकाए / 1495. ससणिद्ध हत्थमत्ते, पणगं आवत्ति दाण' णिव्विगतिं। उदउल्ले - मासलहुं, आवत्ती दाण पुरिमढें / 1496. पुरकम्म पच्छकम्मे, आवत्ती चतुलहू' मुणेतव्वा। दाणं आयामं तू, वणकाय अतो तु वोच्छामि // 1497. उक्कुट्ठ-पिट्ठ-मक्खित,परित्तहत्थे य मत्त सच्चित्ते। मासलहू आवत्ती, दाणं पुण होति पुरिमहूं। 1498. एते चेव उ मक्खित, हत्थे मत्ते य होतऽणंतेसु। आवत्ती मासगुरुं, दाणं पुण होति भत्तेक्कं // 1499. छिंदंति एव सागं, छिंदंती एव जं रसालित्त / उक्कुट्ठमक्खितेतं, परित्तऽणतेण वा होज्जा / 1500. सेसेहि तु काएहिं, तीहि वि तेऊ-समीरण-तसेहिं / सच्चित्तमीसगेण व, मक्खित ण विवज्जते किंची॥ 1. संसटुं (ता, ब, ला)। 2. पिनि (242) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है- तिविधं पुण सच्चित्तं, अच्चित्तं होति दुविधं तु। 3. णिव्वी (पा, ला)। 4. “पच्छा अओ (ता, ला)। 5. दाणे (ला)। 6. 'मद्धं (ला)। 7. लहुं (ब)। 8. रसो (ब)। 9. पिनि (243/3) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है सच्चित्तं मीसं वा, न मक्खितं अस्थि उल्लं वा। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 159 1501. सच्चित्तमक्खितम्मि उ, हत्थे मत्ते य होति चउभंगो। पढमम्मि दो वि मक्खित, हत्थो बितियम्मि ण वि मत्तो' / 1502. ततिए मत्तो मक्खित, ण वि हत्थो चरिमए ण एक्को वि। आदितिगे पडिसेधो, चरिमो भंगो अणुण्णातो॥ 1503. अच्चित्तमक्खित दुहा, गरहितदव्वेण वावि इतरेणं / गरहित होति दुहा तू, लोगे तह उभयतो वावि // 1504. मंस-वस-सोणियाऽऽसव-लसुणादी गरहितेस लोगम्मि। मुत्तपुरीसादीहिं, गरहितमेतं भवे उभए / . 1505. दुविधे तु 'गरहिते तू, आवत्ती चउलहू मुणेतव्वा। दाणं आयामं तू, अगरहितेत्तो पवक्खामि॥ 1506. अगरहित कूरकुसणं, गोरस-घत-तेल्लमादिहिं जं तु। संसत्तमसंसत्तं, दुविहं पी होति णातव्वं // 1507. अच्चित्तमक्खितम्मी, चउसु वि भंगेसु होति भयणा तु। . अगरहितेण तु गहणं, पडिसेधो गरहिते होति // 1508. संसज्जिमेहिं वज्जं, अगरहितेहिं पि गोरसदवेहि। मधु-घत-तेल्ल-'गुलेहि य", मा मच्छि-पिवीलियाघातो॥ 1509. गोरससंसत्ते या, घत-तेल्ल-गुलादि-कीडिसंसत्ते। चतुलहुगा आवत्ती, दाणं पुण होति आयामं // 1510. लोइयगरहित मज्जा-मंस-वसादीहिँ मक्खितं जं तु। नवरं पुराण भावित, देसि व पडुच्च गहणं तु॥ 1511. दोहिं पि गरहितेहिं, मुत्तुच्चाराइ होति अग्गहणं / मक्खित भणितं एतं, एत्तो वोच्छामि णिक्खित्तं // 1.1501 और 1502 गाथा के स्थान पर पिनि (244) में निम्न गाथा प्राप्त होती हैसच्चित्तमक्खितम्मी, हत्थे मत्ते य होति चउभंगो। आदितिगे पडिसेधो, चरिमे भंगे अणुण्णातो॥ 2. हितेए (ला)। 3. लहु (ला)। 4. 'मादीहिं (म)। 5. x (ब, ला), पि य (पा, मु)। 6. पिनि 245 / 7. 'दव्वेहिं (पा, ला)। 8. गुलेहिं (पिनि 245/1) / Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 जीतकल्प सभाष्य 1512. णिक्खित्तं ठवितं ति य, एगटुं ठाणमग्गणा एत्थं / तं तिविह होति ठाणं, सच्चित्तं मीस अच्चित्तं // 1513. एत्थं चतुभंग भवे, सच्चित्तादी' अणेगह इमों तु। सच्चित्तं सच्चित्ते, सचित्त' मीसे वऽचित्ते वा।। 1514. मीसं वा ससचित्ते, मीसं मीसे व होति णिक्खित्तं / चित्तेणं मीसेण य, एवेक्को होति चतुभंगो // 1515. अहुणा चित्ताचित्ते, चित्तं चित्तम्मि होति णिक्खेवो। चित्तं वा अच्चित्ते', अचित्त चित्तोभयमचित्ते / / 1516. अहुणा मीसं मीसे, मीसमचित्ते अचित्त मीसम्मि। अच्चित्तं अच्चित्ते, ततिएसो होति चउभंगो॥ 1517. चतुभंगेसेतेसुं, संजोगाऽणेगहा मुणेतव्वा। पुढवादिएसु छस्सु वि, काएसु सठाण परठाणे // 1518. सच्चित्तपुढविकाए, सच्चित्तो चेव पुढविनिक्खेिवो / सच्चित्ते अच्चित्तो, अच्चित्ते वावि सच्चित्तो॥ 1519. अच्चित्ते अच्चित्तो, सट्टाणे एस होति चउभंगो। परठाणे पंचऽण्णे, आऊमादीसिमे , होति / / 1520. सच्चित्तपुढविकाओ, सच्चित्ताउम्मि होति णिक्खित्तो। सच्चित्तो अच्चित्ते, अच्चित्तो चेव सच्चित्ते / 1521. अच्चित्तो अच्चित्ते, एवं सेसेसु तेउमादीसुं। संजोगा णेतव्वा, पंचसु. परठाणे चउभंगो॥ 1522. एमेव आउ-तेऊ-वाउ-वणस्सति-तसाण चतुभंगा। एक्केक्के विण्णेया, छच्चतुभंगाण संजोगा। 1523. चित्ते सच्चित्तेणं, ते छत्तीसं हवंति संजोगा। अच्चित्तमीसएण वि, एवतिया चेव संजोगा। 1524. मीसे अच्चित्तेण वि, एवतिय च्चिय हवंति संजोगा। तिण्णि वि छत्तीसा तू, मिलिता अट्ठत्तरसयं तु / / 1. सचित्ता (ता, पा, ला)। 5. x (ला)। 2. सचित्तं (ता, पा, ला)। 6. छसु (ब)। 3. या (ला)। 7. "णिक्खित्तो (मु)। 4. “च्चित्ते (पा)। 8. "दीसु (पा, ला, ब)। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 161 1525. अहव ण' सचित्तमीसो, यो एगओ एगओ य अच्चित्तो। _ 'एत्थं चतुभंगो तू', 'तत्थाऽऽदितिगे" कहा णत्थि॥ 1526. जं पुण अचित्तदव्वं, णिक्खिप्पति चेतणेसु कायेसु / तहिं मग्गणा तु इणमो, अणंतर परंपरा होति / 1527. चित्तपुढविइ अणंतर, ओगाहिमगाइ होति निक्खित्तं / होती परंपरं पुण, पिहडगतं जं तु पुढविठितं // 1528. उदगमणंतर णवणीतमादि पारंपरं तु णावादी। ते उ अणंतर पारंपरे य दुयगा इमे सत्त // 1529. विज्झातमुम्मुरिंगालमेव अप्पत्त- पत्त-समजाले। वोलीणे सत्तदुगा, 'एते तु अणंतर परे य"॥ 1530. विज्झाउ त्ति ण दीसति, 'अग्गी दीसति'१० य इंधणे छूढे। __ छारुम्मीसा पिंगल, अगणिकणा मुम्मुरो होति // 1531. णिज्जाला हिलिहलया२, इंगाला ते भवे मुणेतव्वा। . होति चउत्थो भंगो, ते 'जालाऽपत्तपिहडं'१३ तु॥ 1532. पंचम पत्ता पिहुडं, छ?म्मि य होति कण्णसमजाला। सत्तमगे समतीता, अणंतरा होंति सत्तसु वी॥ 1533. पारंपर पिहुडादिसु, अगणीघट्टादि तत्थ दोसा तु। भयणा तु जंतचुल्लिसु, इणमो तु तहिं मुणेतव्वा / / 1534. पासोलित्त कडाहे, परिसाडी" णत्थि तं पि य विसालं। सो वि य अचिरच्छूढो, उच्छुरसो णातिउसिणो य५ // 1535. गहणमघट्टित कण्णे, घट्टित छारादिपडण अग्गिवहो। उसिणोदगस्स गुलरसपरिणामित गहणऽणच्चुसिणो॥ . 1. णेति वाक्यालंकारे (पिनिमटी)। 2. उ (पिनि 251/1) / 3. एत्थ तु चउक्कभंगो (पिनि)। 4. “दिदुए (ता, पा, ब, ला)। 5. मीसेसु (पिनि 251/2) / 6. अणंत (पा, ला)। 7. पिहुड (ब)। 8. “पर (पा)। 9. जंतोलित्ते य जतणाए (पिनि 252) / 10. x (ला)। 11. पिनि (252/1) में इसके उत्तरार्ध में पाठभेद है आपिंगलमगणिकणा, मुम्मुर निज्जाल इंगाला। 12. हिलहिलया (ब)। 13. "पियडं (ता), "पिहुडं (ब)। 14. पडिसाडी (पा, ला, ब)। 15. पिनि 253 / Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 जीतकल्प सभाष्य 1536. दुविध ‘विराधण उसिणे', छड्डण हाणी य भाणभेदो य। अच्चुसिणातों ण घेप्पति, जंतोलित्तेस जतणा तु॥ 1537. वाउक्खित्ताणंतर, पप्पडिगादी तु होति णातव्वा / वत्थि-दतिपूरितोवरि, पतिट्ठित परंपरं होति // 1538. हरितादि अणंतर पूवितादि पारंपरे पिहुडमादी। गोणादिपिट्ठ पूवादणंतरे भरगकुतिगितरं // 1539. सव्वं ण कप्पएतं, णिक्खित्त समासतो समक्खातं / पुढवादीणं एत्तो, आवत्ती दाण वोच्छामि // 1540. पुढवादी जाव तसे, अणंतवणकाय मोत्तु णिक्खित्ते / संति अणंतर . लहुगा, परंपरे होति मासलहुं // 1541. चतुलहुगे आयाम, मासलहू दाण होति पुरिमखु / एती सच्चित्तम्मी, भणितं मीसे अतो वोच्छं / / 1542. एतेसु चेव पुढवादिएसु मीसे अणंतरे लहुगो। होति परंपर' पणगं, दाणं एत्तो तु वोच्छामि / / 1543. लघुमासे पुरिमटुं, पणगे पुण दाण होति पिव्विगतिं / वणकायमणंतेसुं, आवत्ती दाण वोच्छामि। 1544 वणकायअणंतेसुं, णिक्खित्त अणंतरे तु चतुगुरुगा। होति परंपरि गुरुगो, दाणं तु अतो तु वोच्छामि // 1545. चतुगुरुगे तु चउत्थं, गुरुमासे दाणमेगभत्तं तु। आवत्ती दाणं पि य, पिहितम्मि अतो उ वोच्छामि / / 1546. आवत्ती दाणे वा, पुढवादीणिक्खिवंत भणितं तु / एत्तो समासतो च्चिय, पिहितद्दारं पवक्खामि // 1. “हणा उसिणो (पा, ला)। 2. तु. पिनि 254 / 3. "दिपट्ठ (ता, ब, ला)। 4. जाण (पा, ला)। 5. परे (पा, ला)। 6. व्व (ला)। 7. “तदारं (पा, ब)। 8. हस्तप्रतियों में गा. 1545 के बाद पिहिताणंता (1547) गाथा मिलती है लेकिन विषय की दृष्टि से 'आवत्ती दाणे वा' गाथा 1546 की होनी चाहिए क्योंकि ग्रंथकार पिहितद्वार की व्याख्या का संकल्प प्रस्तुत कर रहे हैं उसके बाद ही पिहिताणंता.....गाथा होनी चाहिए। . Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 163 1547. पिहिताणंताऽणंतर, परंपरे चेव होति गुरुपणगं / लहुपणगं तु परित्ते, दोसु वि दाणं तु णिव्विगती॥ 1548. सच्चित्तादिसु अच्चित्तपिहित चतुभंग तह य संजोगा। जह भणिता णिक्खित्ते, तह चेव य होति पिहिते वि॥ 1549. सच्चित्त मीस एक्को, एक्कं तोऽचित्त एत्थ चउभंगो। आदिदुवे पडिसेधो, ततिए भंगम्मि मग्गणया॥ 1550. अच्चित्त सचित्तेणं, अतिरं सतिरं च जं भवे पिहितं। पुढवादिएसु छस्सु' वि, लोट्टादी अतिर पुढवीए॥ 1551. पच्छिया-पिहुडादिऽतिरं, ओगाहिमगादिऽणंतरं होति। वद्धणियादि परंपर, अगणिक्काए इमं होति // 1552. अतिरं अंगारादी, तहियं पुण संतरो सरावादी। ___ तत्थेव अतिर वायू, परंपरो वत्थिणा पिहितं // 1553. अइरं फलादिपिहितं, वणम्मि इतरं तु पच्छि-पिहुडादी। कच्छवसंचारादी, अतिरतिरं पच्छियादीहिं // 1554. ततिए भंगे मग्गण, भणितेस चउत्थभंगभयणा तु। - अच्चित्त अचित्तेणं, पिहिते का भयण? सुणसु इमा॥ 1555. चतुभंगो पिहितेणं, गुरुगं गुरुगेण लहग लहगेणं। लहुगं गुरुगेण तहा, लहुगं लहुगेण तहिं गेज्झो / 1556. पुढवादीणं कमसो, आवत्ती दाण जह तु णिक्खित्ते। आतविराधण गुरुगं, ति कातु णवरं तु चतुगुरुगा। 1557. एत्थ उ दाण चतुत्थं, एत्तो वोच्छामि साहरणदारं / ____साहरणं उक्किरणं, विरेयणं चेव एगटुं॥ 1558. मत्तेण जेण दाहिति, तत्थ 'अदेज्जं तु होज्ज तं दव्वं / तं साहरितुं अण्णहिं, मत्तेणं देति साहरणा // 1. छसु (पा, ब)। 2. पिच्छिय (ला)। 3. पिहिते (मु)। 4. जं (मु)। 5. अदेज्जा व होज्ज असणादी (पिनि 262) / 6. पिनि में गाथा के उत्तरार्ध में पाठभेद है। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 जीतकल्प सभाष्य 1559. सा पुण छसु' णातव्वा, सचित्तमीसा तहेव अच्चित्ता। एत्थ वि जह णिक्खित्ते, भंगा संजोग तह चेव / / 1560. सच्चित्तमीस आदिल्लगेसु दुसु णत्थि मग्गण विवेगो' / ततियम्मि मग्गणा तू, छसु भोमादीसु साहरणे // 1561. चरिमे भंगे भयणा, जं दुहमच्चित्त का तहिं भयणा?। भण्णति सुणसू तहियं, चउभंगो होति इणमो तू॥ 1562. सुक्के सुक्कं पढम, सुक्के उल्लं तु 'बितियओ भंगो"। उल्ले सुक्खं ततिओ, उल्ले उल्लं चतुत्थो तु॥ 1563. एक्केक्के चउभंगो, सुक्कादीएसु चउसु भंगेसु। थोवे थोवं थोवे, बहुयं 'बहु थोव बहु बहुगं"। 1564. जत्थ तु थोवे थोवं, सुक्खे' उल्लं च छुभति तं गेझं। जइ तं तु समुक्खित्तुं, थोवाहारं दलति मन्नं // 1565. सेसेसू तीसुं पी, दाता भंगेसु होति. णातव्वो। थोव बहु' बहुग थोवो, बहु बहुगो चेव इणमो तु॥ 1566. उक्खेवे णिक्खेवे, महल्लभाणम्मि लुद्ध वध * डाहो। - छक्कायवधो 'य तहा", अचियत्तं चेव वोच्छेदो' / 1567. थोवे थोवं छूटं, सुक्खे उल्लं 'तु उल्लें सुक्खं तु / बहुगं तु अणाइण्णं, कडदोसो सो त्ति काऊणं // 1568. साहरणेतं भणितं, आवत्ती दाण जह तु णिक्खित्ते / दायगदारं अहुणा, समासतो हं . पवक्खामि // 1569. बाले वुड्ढे मत्ते, उम्मत्ते वेविते य जरिते य। अंधेल्लए पगलिते, आरूढे पाउयाहिं च // 1. च्छसु (ता, पा)। 2. तहेव (ता, ब)। 3. बितिय चउभंगो (पिनि 263/1) / 4. विवरीत दो अन्ने (पिनि 263/2) / 5. सुक्खं (पा, ब, ता), सुक्के (पिनि)। 6. अन्नं (पिनि 263/3) / 7. बहुं (मु)। 8. x (ला)। 9. पिनि (264) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है अचियत्तं वोच्छेदो छक्कायवहो य गुरुमत्ते। १०.च तं तु आइन्नं (पिनि 264/1). ११.पिनि 265 / Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 165 1570. हत्थंदु-णिगलबद्धे, विवज्जिते चेव हत्थ-पादेहिं / तेरासि गुव्विणी बालवच्छ भुंजंति घुसुलेंती // 1571. भज्जेंती या दलेंती, कंडेंती चेव तह य पीसेंती। पिज्जंती रुंचंती, कत्तंती पमद्दमाणी य॥ 1572. छक्कायवग्गहत्था, समणट्ठा णिक्खिवित्तु ते चेव। ते चेवोगाहेंती, संघटुंताऽऽरभंती य॥ 1573. संसत्तेण तु दव्वेण, लित्तहत्था य लित्तमत्ता य। * ओयत्तेती साधारणं च देंती य चोरियगं // 1574. पाहुडियं च ठवेंती, सपच्चवाया परं च उद्दिस्स। . आभोग अणाभोगेण', दलंती वजणिज्जा तु // 1575. एतेसि दायगाणं, गहणं केसिंचि होति भइयव्वं / केसिंची अग्गहणं, तप्पडिवक्खे भवे गहणं // 1576. एते दायगदोसा, एतेहिं दिज्जमाण ण वि कप्पे। जे तु अकारण गेहे, पच्छित्तं तेसि वोच्छामि॥ 1577. बाले वुड्डे मत्ते, उम्मत्ते वेविते य जरिते य। एतेसिं मासलहुं, आवत्ती दाण पुरिमर्दु / 1578. अंधेल्ल-पगलितादी, जाव तु दारं तु बालवच्छ त्ति। पत्तेयं चतुगुरुगा, दाणं पुण होतऽभत्तटुं। 1579. भुंजण घुसुलेंतीए, आवत्ती चतुलहू मुणेतव्वा। दाणं आयामं ती, भज्जणमादी अतो वोच्छं / / 1580. भज्जेती य दलेंती, जाव तु छक्कायवग्गहत्थ त्ति। समणट्ठा ते चेव तु, णिक्खिव आगाह घटुंती॥ 1581. एत्थ तु विसरिसदाणं, पच्छित्तं होति कायणिप्फण्णं / सेसेसुं० दारेसुं, चतुलहुगा दाणमायामं // 1. पिनि 266 / 2. व (पिनि 267) / 3. पिनि 268 / 4. उव्वतंती (पिनि 269) / 5. मणा (पिनि 270) / 6. तव्विवरीते (पिनि 271), "डियक्खे (ब)। 7. तस्स (ता, ब)। 8. मड्डे (पा, ब, ला)। 9. चेव होति (ता)। 10. सेसेसु तु (ता, ब)। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 जीतकल्प सभाष्य 1582. एते दायग भणिता, एत्तो उम्मीसगं पवक्खामि। ___ तं तिह सचित्त मीसग, अच्चित्तेणं च उम्मीसं॥ 1583. जह चेव य संजोगो, कायाणं हे?ओ तु साहरणे। तह चेव य उम्मीसे, होति विभागो णिरवसेसो॥ 1584. चोदेति को विसेसो, साहरणुम्मीसगाण दोण्हं पि?। भण्णति साहरणं तू, भिक्खट्ठा भत्तयं रेये॥ 1585. उम्मीसं पुण दायव्वयं च दो वेतें मीसितुं देज्जा। बीय हरितादिएहिं, जह ओदण-कुसणमादीणिं // 1586. तं पि य 'सुक्खे सुक्खं", भंगा चत्तारि जह तु साहरणे। अप्पबहुगे वि चउरो, तहेव चाइण्णऽणाइण्णं // 1587. उम्मीस भणितमेतं, एत्तो वोच्छामि परिणतं दुविधं / दव्वे भावे य तहा, दव्वे पुढवादि छक्कं तु // 1588. जीवत्तम्मि अविगते, अपरिणतं परिणतं गते जीवे। दिटुंतो दुद्ध दही, 'इय अपरिणतं परिणतं चेव'२॥ 1589. दव्वे अपरिणतम्मी, पच्छित्तं होति कायणिप्फण्णं / भावे अपरिणतं पुण, एत्तो वोच्छं समासेणं // 1590. सज्झिल्लगादिणं तू, अहवा अण्णेहिं होति सामण्णं / तत्थेगस्स परिणतो, भावो देमि त्ति साहुस्स॥ 1591. सेसाण ण वि परिणतो, अपरिणतं भावतो भवे एयं / अहवा वि दाणमण्णं, अपरिणतं भावतो होति // 1592. संघाडग हिंडंतो, एगस्स मणम्मि' परिणतं एसी। बितिएण तु परिणमती, तं पि अघेत्तव्व मा कलहो॥ 1593. पढमिल्लुग भावम्मी, अप्परिणयगेण्हणे तु लहुमासो। ___ तस्सावत्ती भवती, दाणं पुण होति पुरिमडूं। 1. सुक्के सुक्कं (पिनि 291/1) / 2. अपरिणतं परिणतं तं च (पिनि 293), छंद की दृष्टि से 'चेव' के स्थान पर 'च' पाठ होना चाहिए। 3. सेसाणं (ता, पा, ब)। 4. गणम्मि (ब)। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 167 1594. भणित अपरिणतमेतं, एत्तो वोच्छामि लित्तदारं तु। लित्तम्मि जत्थ लेवो, लब्भति' कुसणादिदव्वस्स // 1595. तं खलु ण गेण्हितव्वं, मा तहियं होज्ज पच्छकम्मं तु। तम्हा तु अलेवकडं, णिप्फावादी गहेतव्वं // 1596. इति उदिते चोदेती, जदि पच्छाकम्मदोस एवं तु। तो ण वि भोत्तव्वं चिय, जावज्जीवाएँ भणति गुरू॥ 1597. को कल्लाणं नेच्छति, आवस्सगजोग जदि ण हायंति। तो अच्छतु मा भुंजतु, अह ण तरे तत्थ भंगऽट्ठा / / 1598. संसट्ठहत्थ-मत्ते, सव्वम्मी सावसेस भंगऽट्ठा। गहणं तु सावसेसे, सेसयभंगेसु भयणा तु॥ 1599. संसत्तहत्थ-मत्ते, लित्ते लहुगा तु दाणमायामं। ... अवसेस लित्त लहुगो, दाणं पुण होति पुरिमड़ें। 1600. लित्तं ति गतं एतं, एत्तो वोच्छामि छड्डितं अहुणा। तं पि तिह छड्डितं तू, सचित्त मीसं च अच्चित्तं // 1601. छड्डित चउलहुगा तू, आवत्ती दाण होति आयामं। अहव सचित्तादीणं', आवत्ती कायणिप्फण्णं // 1602. सच्चित्त मीसगे या, चउभंगो छड्डणम्मि एत्थ भवे। चउभंगे पडिसेधो, गहणे आणादिणो दोसा॥ 1603. उसिणस्स छड्डुणे देंतओ व डज्झेज्ज कायडाहो वा। सीतपडणम्मि काया, पडिते मधुबिंदुआहरणं // 1604. छड्डित भणितं एतं, गहणेसण एस परिसमत्ता तु। गहितस्स अतो विहिणा, घासेसण पत्तमहुणा तु // 1605. सा चतुहा नामादी, सव्वं वण्णेत्तु एत्थ दारम्मि। ___एतस्सेवोवणयं, वोच्छामि इमं समासेणं॥ 1. लज्जति (ता, पा, ब, ला)। 2. 'च्चित्ता' (ब)। .. 3. "णिप्पण्णं (ब)। 4. “दुदाह" (पिनि 301), कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 52 / Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 जीतकल्प सभाष्य 1606. मच्छत्थाणी साहू, मंसत्थाणी य भत्तपाणं तु। रागादीण समुदयो, मच्छियथाणी मुणेतव्वो॥ 1607. जह ण छलितो तु मच्छो, उवायगहणेण एव साधू वि। अप्पाणमप्पण च्चिय, अणुसासे भुंजमाणो उ॥ 1608. बायालीसेसणसंकडम्मि गेण्हंतो जीव! ण सि' छलितो। एण्हिं जह ण छलिज्जसि, भुंजतो राग-दोसेहि // 1609. घासेसणा तु भावे, होति पसत्था य अप्पसत्था य। अपसत्था पंचविधा, तव्विवरीता पसत्था तु // 1610. संजोइय अतिबहुयं, संगाल' सधूमगं अणट्ठाए। पंचविधा अपसत्था, तव्विवरीता पसत्था तु॥ 1611. संजोयणेत्थ दुविधा, दव्वे भावे य दव्वें बहिअंतो। भिक्खं चिय हिंडता, संजोए बाहिरेसा तु॥ 1612. खीर-दहि-कट्टरादिण, लंभे गुड-सालि-कूर-घतमादी। जाइत्ता संजोगे, हिंडंतंतो अतो वोच्छं / 1613. अंतो तिह पायम्मी', लंबण वयणे य होति बोद्धव्वं। . जं जं रसोवकारिं, संजोययए तु तं पाए / 1614. वालुंक'-वडग-वाइंगणादि संजोएँ लंबणेण समं / वयणम्मि छोढु' लंबण, तो सालणगं छुभे पच्छा // 1615. दव्वम्मि एस संजोयणा तु संजोएँ जं तु दव्वाई। रसहेतुं तेहिं पुण, संजोयण होति भावम्मि / 1616. संजोएंतो दव्वे, राग-दोसेहिँ अप्पगं जोए। राग-दोसणिमित्तं, संजोययए तु तो कम्मं // 1617. कम्मेहिंतो य भवं, संजोययए'. भवा तु दुक्खेणं / संजोययए अप्पं, एसा संजोयणा भावे॥ 1. गहणम्मि (पिनि 302/5, पंव 354, ओनि 545) / 6. पादम्मि (पा, ता)। 2. x (ता), हु (पिनि, पंव, ओनि)। 7. वालंक (ब)। 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 53 / 8. “णेणं (ला)। 4. पिनि 303 / 9. छोढुं (ला)। 5. सेंगाल (ब), इंगाल (पिनि 303/1) / 10. संजोए य (ता)। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 169 1618. रसहेतुं पडिकुट्ठो', संजोगो कप्पते गिलाणट्ठा / जस्स व अभत्तछंदो, सुहोचितोऽभावितो जो य॥ 1619. अहव ण जाती दव्वं, पत्ते य घतादिगा वि मेलति। सत्तुगमादीहि समं, मा होतु विगिंचणीयं ति॥ 1620. अंतो बहि चतुगुरुगा, बितियादेसेण बाहि चतुलहुगा। . चतुगुरुगेऽभत्तद्वं, चतुलहुगे होति आयामं // 1621. संजोयण भणितेसा, अहुण पमाणं भणामि आहारे। 'जावतियं भोत्तव्वं, साहूहिं जावणट्ठाए / . 1622. बत्तीसं किर कवला, आहारो कुच्छिपूरओ भणितो। पुरिसस्स महिलियाए, अट्ठावीसं भवे कवला // 1623. चउवीस पंडगस्सा, ते ण गहित जेण पुरिस-इत्थीणं / पव्वज्ज ण पंडस्स उ, तम्हा ते ण गहिता एत्थं // 1624. एत्तो किणावि हीणं, अद्धं अद्धद्धगं च आहारं / साहुस्स बेंति धीरा, जायामायं च ओमं च // 1625. पकामं च निकामं च, जो पणियं भत्त-पाणमाहारे। अतिबहुयं अतिबहुसो, * पमाणदोसो मुणेतव्वो॥ 1626. बत्तीसाउ परेणं, पकाम णिच्चं तमेव तु णिकाम। जं पुण गलंतणेहं, पणीतमिति तं बुहा बॅति // 1627. अतिबहुयं अतिबहुसो, अतिप्पमाणेण भोयणं भुत्तं / हादेज्ज व वामेज्ज व, मारेज्ज व तं अजीरंतं // 1628. नियगाहारादीयं, अतिबहुयं अइबहुसो तिण्णि वारा उ। ... तिण्ह परेण तु जं तू, तं चेव अतिप्पमाणं तु॥ 1629. अहवा अतिप्पमाणो, आतुरभूतो तु भुंजते जं तु। तं होति अतिपमाणं, हादणदोसा'२ उ पुव्वुत्ता // 1. पडिसिद्धो (पिनि 309) / 2. त्ति (पा, ब, ला)। 3. पिनि. 310, प्रसा 866 / 4. x (ब)। 5. पिनि 311 / 6. पणीतं (पिनि 312) / 7. पिनि 312/1 / 8. x (ला)। 9. पिनि 312/2 / 10. x (ब, ला)। 11. अतिप्प" (पा, ब, ला)। 12. हावण' (पा, ब, ला)। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 जीतकल्प सभाष्य ' 1630. जम्हा एते दोसा, अतिरित्ते तेण होति चतुलहुगा। आवत्ती दाणं पुण, आयामं होति णातव्वं / 1631. दोसा अतिप्पमाणे, तम्हा भोत्तव्व होति केरिसगं?। भण्णति सुणसू जारिस, भोत्तव्वं होति साहूहिं // 1632. हिताहारा मिताहारा, अप्पाहारा य जे नरा। ण ते विज्जा तिगिच्छंति', अप्पाणं ते तिगिच्छगा // 1633. हितमहितं होति दुहा, इह परलोगे य होति चउभंगो। इहलोग हितं ण परे, किंचि परे णेय इहलोगे॥ 1634. किंचि हितमुभयलोगे, णोभयलोगे' चतुत्थओ भंगो। पढमगभंगो तहियं, जे दव्वा होंति अविरुद्धा॥ 1635. जह खीर-दहि-गुलादी, अणेसणिज्जा व रत्तदुढे वा। भुजंते होति. हितं, इहइं ण पुणाइँ परलोगे॥ 1636. अमणुण्णेसणसुद्धं, परलोगहितं ण होति इहलोगे। पत्थं एसणसुद्धं, उभयहितं होति णातव्वं // 1637. अहितोभयलोगम्मी, अपत्थदव्वं अणेसणिज्जं च। अहवा वि रत्तदुट्ठो, भुंजति एत्तो मितं वोच्छं / / 1638. अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भागे। वायुपवियारणट्ठा', छब्भागं ऊणगं कुज्जा / / 1639. सीतो उसिणो साहारणो य कालो तिधा मुणेतव्वो। एतेसुं तीसुं पी, आहारे होतिमा मत्ता' / 1640. एगो दवस्स भागो, अवट्ठितो भोयणस्स दो भागा। वटुंति व हायंति व, दो दो भागा तु एक्केक्के / 1. चिगि (ला, ब, मु)। 2. चिगि (मु, ला), पिनि 313, ओनि 578 / 3. x (ता)। 4. एत्थं (ला, ब)। 5. वातप (पिनि 313/2, व्य 3701) / 6. x (ता, ब)। 7. पिनि (313/3) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है साहारणम्मि काले, तत्थाहारे इमा मत्ता। 8. पिनि 313/5 / Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५ 171 1641. एत्थ तु ततियचतुत्था, दोण्णि वि' अणवट्ठिता भवे भागा। पंचम छट्ठो पढमो, बितिओ य अवट्ठिता भागा॥ 1642. एतर तु मितं भणितं, एत्तो वी हीणगं भवे अप्पं / एय पमाणाऽभिहितं, संगालादी अतो वोच्छं / 1643. संगाले चतुगुरुगा, आवत्ती दाण होतऽभत्तटुं। चतुलहुगा तु सधूमे, आवत्ती दाणमायामं // 1644. णिक्कारण भुंजते, एत्थ वि लहुगा तु दाणमायामं / बितियादेसे लहुगो, आवत्ती दाण पुरिम९॥ 1645. ण वि भुंजति कारणतो, एत्थ वि लहुगा तु दाणमायामं। सेंगालादिण कमसो, सरूवमिणमो पवक्खामि // 1646. जह इंगाला जलिता, डहति जं तत्थ इंधणं पडितं / इह चिय रागिंगाला, डहंति चरणिंधणं णियमा॥ 1647. रागेण सइंगालं', जं आहारेति मुच्छितो साहू। सुगु सुसंभित णिद्धं, सुपक्क सुरसं अहो सुरहिं॥ 1648. 'रागग्गीय पजलितो", भुंजतो फासुगं पि आहारं / णिद्दडिंगालणिभं, करेति चरणिंधणं खिप्पं // 1649. भणितं संगालेतं, अहुणा वोच्छं सधूमगं पगते। केवलवियणं तं तू, धूमायंतं तहा छगणं // 1650. जह वावि चित्तकम्म, धूमेणोरत्तयं ण सोभति उ। तह धूमदोसरत्तं, चरणं पि ण सोभते मइलं // 1651. दोसेण सधूमं तू', जं आहारेति साहु जिंदंतो। विरसमलोणं कुहितं, रोरो भोक्खेति णं एतं // 1652. दोसग्गी वि जलंतो', अप्पत्तियधूमधूमियं चरणं। अंगारमेत्तसरिसं, जा ण भवति णिड्डहति ताव॥ 1. य (पिनि 313/6) / 2. एत्थं (पा)। 3. सयंगालं (ब)। 4. 'ग्गिसंपलित्तो (पिनि 314/2), गीपज्जलिओ (मु, ता)। 5. तं (पा, ला)। 6. भोक्खंति (पा, ब, ला)। 7. x (पा)। 8. निद्दहति (पिनि 314/3) / Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 जीतकल्प सभाष्य 1653. रागेण सइंगालं, दोसेण सधूमगं मुणेतव्वं / राग-द्दोससहगतं, तम्हा तु ण होति भोत्तव्वं // 1654. आहारेंति तवस्सी, विगतिंगालं' च विगतधूमं च। 'झाण-ऽज्झयणणिमित्तं 2, एसुवदेसो पवयणस्स॥ 1655. भणितं सधूममेतं, एत्तो वोच्छामि कारणद्दारं। तं पुण पडिक्कमंतो, चरिमुस्सग्गे विचिंतेति॥ 1656. भोत्तव्व कारणम्मी, किं अत्थी' अहव नत्थि' जइ अत्थी। तो भुंजेज्जा साहू, के पुण ते कारणा? सुणसु॥ 1657. छहिं कारणेहिं साहू, आहारंतो उप आयरति धम्म। छहिं चेव कारणेहिं, णिज्जूहंतो उ आयरति॥ 1658. वेदण वेयावच्चे, इरियट्ठाए य संजमट्ठाए। तह पाणवत्तियाए, छटुं पुण धम्मचिंताए / 1659. नत्थि छुहाएँ सरिसिया, वियणा भुंजेज्ज तप्पसमणट्ठा। छादो वेयावच्चं, ण तरति काउं अओ भुंजे // 1660. इरियं च ण सोहेती, खुहितो भमलीय पेच्छ अंधारं। थामो वा परिहायति, पेहादी संजमं ण तरे // 1661. आयु-सरीरप्पाणादि छव्विधे पाण ण तरती मोत्तुं / तद्धारणट्ठतेणं, भुंजेज्जा पाणवत्तीयं // 1662. धम्मज्झाणं ण तरति, चिंतेउं पुव्वरत्तकालम्मि। अहवा वी पंचविधं, ण तरति सज्झाय काउं जे॥ 1663. एतेहिं कारणेहिं, छहिं आहारेति संजतो णियमा। छहिं चेव कारणेहिं, णाहारेती इमेहिं तु॥ 1. पिनि (315) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस 6. वि (पिनि 317) / / प्रकार है 7. ठाणं 6/41, पिनि 318, उ 26/32, प्रसा 737, छायालीसं दोसा, बोधव्वा भोयणविधीए। ओनि 580, तु. मूला 479, पंक 891, प्रकी 2. वीतंगालं (पिनि 316), वीतिंगालं (ला)। 785, पंव 365 / 3. झाणाज्झ (पा, ब)। 8. छुहिओ (पंव 366) / 4. अत्थि (पा, ला)। 9. पिनि 318/1, ओभा 290 / . 5. नत्थिं (पा), वित्थि (ला)। 10. वि (ता)। 11. तु. पिनि 318/2 / Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३५-३७ 173 1664. आतंके उवसग्गे, तितिक्खया बंभचेरगुत्तीए / पाणिदया-तवहेतू', सरीरवोच्छेदणट्ठाए / 1665. आतंको जरमादी, तम्मुप्पण्णे ण भुंजें भणितं च। सहसुप्पइया वाही, वारेज्जा अट्ठमादीहिं / / 1666. राया सण्णायादी, उवसग्गो तम्मि वी ण भुजेज्जा। सहणट्ठा तु तितिक्खा, वाहिज्जते तु विसएहिं // 1667. भणितं च जिणिंदेहिं, अवि आहारं जती हु वोच्छिदे। लोगे वि भणित विसया, विणिवत्तंते अणाहारे // 1668. तो बंभरक्खणट्ठा, ण वि भुंजेज्जा हि एवमाहारं / पाणदय वास महिया, पाउसकाले व ण वि भुंजे॥ 1669. तवहेतु चतुत्थादी, जाव तु छम्मासिगो तवो होति। छ8 'णिच्छिण्णभरो, छड्डेतुमणो सरीरं तु" / 1670. असमत्थों संजमस्स उ, कतकिच्चोवक्खरं व तो देहं / छड्डेमि त्ति न भुजति, सव्वह वोच्छेद आहारं // 1671. सोलस उग्गमदोसा, सोलस उप्पादणाएँ दोसा तु / दस एसणाएँ दोसा, संजोयणमादि पंचेव // 1672. सीयालीसं एते, सव्वे वी पिंडिता भवे दोसा। जेहिं अविसुद्ध पिंडे, चरणुवघातो जतीण भवे // 1673. एतद्दोसविमुक्को, ‘भणिताऽऽहारो'" जिणेहिं साधूणं / धम्मावस्सगजोगा, जेण ण हायंति तं कुज्जा // 1674. उग्गममादीणं तू, कारणपज्जंतपत्थडो एस। लक्खण आवत्ती दाणमेव कमसो समक्खातं // 1. ‘त्तीसु (पिनि 320, प्रसा 738) / 2. "हेडं (पिनि, ओभा 292) / 3. ठाणं 6/42, उ 26/34, मूला 480, प्रकी 788 / 4. सरीरवोच्छेदणट्ठया होतऽणाहारो (पिनि 320/2) / 5. इस गाथा के बाद प्रतियों में 'घासेसणा सम्मत्ता' का उल्लेख है। 6. पिनि 322 / . 7. हार (पा, ला)। 8. प्रतियों में इस गाथा के बाद 'पिंडपत्थारो सम्मत्तो 8. अहुणा गाहत्थो' का उल्लेख है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 जीतकल्प सभाष्य 1675. अहुणा गाहाणं तू, वोच्छामी अक्खरत्थमिणमो तू। उद्देस कम्म मोत्तुं, चरमतिगं होति सेसं . तु॥ 1676. पासंडाणं पढम, बितियं समणाण ततिय साधूणं / चरिमतिगं एवं तू, कम्मं ती आहकम्मं तु // 1677. पासंड मीसजाते, साहूमीसे य सघरमीसे य। बादरपाहुडिया तू, विवाह उस्सक्क ओसक्का॥ 1678. आहड सपच्चवायं, विराधणा जत्थ होति आयाए। लोभेण जो उ एसति, सो होती लोभपिंडो तु॥ 1679. सव्वेसु वि एतेसुंरे, उद्देसिगमादिलोभपज्जंते। ____ पत्तेयं पत्तेयं, सोधी एत्थं तु ऽभत्तटुं॥ अतिरं अणंतणिक्खित्त-पिहित-साहरित-मीसिगादीसुं। संजोग सइंगाले, दुविध णिमित्ते य खमणं तु॥३६॥ 1680. अतिर णिरंतर भण्णति, अणंतकायो तु होति वणकायो। पूवलिमादी किंची, णिक्खित्तं होति एत्थं तु॥ 1681. पिहितं अणंतकाए, साहरियमणंतमीसियं वावि। आदिग्गहणेणं पुण, 'अपरिणतेऽणंतकाए'५ वि॥ 1682. संजोए रसहेतुं, सेंगालं रागसहित तव्वं / पडुपण्ण ऽणागतं वा, दुविध निमित्तं च णातव्वं // 1683. सव्व जहुद्दिढेसुं, दुविध निमित्तादि पज्जयंतेसु / पत्तेयं पत्तेयं, सोधी एत्थं तु ऽभत्तट्ठ / कम्मुद्देसिय-मीसे, धायादि-पगासणादिएसुं च। पुर-पच्छकम्म-कुच्छित संसत्तालित्तकरमत्ते॥३७॥ 1. जीतकल्प की मूल 35 वी गाथा भाष्य की 1086 4. अतिरं (पा, ला)। वी गाथा के बाद है लेकिन उसकी व्याख्या गा. 5. अणंत' (ब)। 1675 से 1679 में की गई है। 6. णेयव्वं (पा)। 2. तू (ता), पा प्रति में 1675 एवं 1676 ये दोनों 7. 1682 एवं १६८३-ये दोनों गाथाएं मुद्रित पुस्तक गाथाएं नहीं है। में नहीं हैं। ये गाथाएं मूलतः जीतकल्प भाष्य की 3. एतेसू (ला)। हैं क्योंकि इनमें जीतकल्प भाष्य गाथा 36 के उत्तरार्ध की व्याख्या है। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-३८-४१ 175 1684. जावंतिकम्म पढमे, जावंतिगमीसजातमादिल्ले। पंचविध धातिपिंडे, खीरादी अंकपज्जते / 1685. आदिग्गहणेणं पुण, दूतीपिंडे णिमित्तऽतीते य। आजीव वणिमपिंडो, बादरतेगिच्छणाहिं च // 1686. कोधे माणे य तहा, संबंधी वयणसंथवे थी। विज्जा मंते चुण्णे, जोगे एमेतें आदिपदा / / 1687: पादोकरण पगासे, दव्वे कीते य आयपरकीते। भावे तु आयकीते, लोइयपामिच्चिएसुं च॥ 1688. लोइयपरियट्टे वी, परगामे आहडम्मि णिरवाए। पिहिउब्भिण्णसचित्ते, तह य कवाडे य णातव्वे॥ 1689. मालोहडमुक्कोसे, अच्छेज्जे तह य होति अणिसटे। एमेते तु पगासणमादिपदा होंति णातव्वा॥ 1690. पुरकम्म' पच्छकम्मे, कुच्छितदव्वेण मक्खितं जं तु। __संसत्तदव्वलित्ते, हत्थे मत्ते व णातव्वं // 1691. एतेसु जहुद्दिट्ठो, कम्मादिसु लित्तपज्जवसितेसु / पत्तेयं पत्तेयं, सोधी एत्थं तु आयामं // अतिरं परित्तणिक्खित्त-पिहित-साहरित-मीसियादीसु। अइमाण-धूम-कारण विवज्जते . विहियमायाम॥३८॥ 1692. अतिर णिरंतर भणितं, परित्तकाए उ होति णिक्खित्तं / परितेण य जं पिहितं, 'साहरितं वा परित्तेणं॥ 1693. मीस परित्तेणं चिय, आदिग्गहणा परित्तलित्ते वि / परितेसु छड्डितम्मि वि, आदिग्गहणा तु एमेते // 1694. अइमाण सधूमे या, आहारे कारणे विवच्चासे। . कारणविवज्जओ तू, केरिसओ होतिमं वोच्छं / 1. त्थीसु (ब)। 2. कम्मे (ला)। 3. परित्ति” (ला)। - 4. निहितं (ता, ला)। 5. x (पा)। 6. x (ला)। 7. परित्तेसु (पा)। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 जीतकल्प सभाष्य 1695. आहारेति अकज्जे, ण 'समुद्दिसे व'' कारणे जो तु। एस विवज्जो भणितो, सव्वत्थ वि सोधि आयामं // अज्झोतर-कड-पूतिय-मायाणंते परंपरगते य। मीसाणंताणंतरगतादिए चेगमासणगं॥ 39 // 1696. पासंडऽज्झोयरओ, साहूअज्झोतरो य णातव्वो। ___होति कडो चउधा तू, जावंतिगमादि विण्णेयो॥ 1697. आहारें पूतियम्मी, मायापिंडे य होति णातव्वे। ___ सच्चित्तऽणंतकाए, परंपरे जं तु णिक्खित्तः / / 1698. मीसाणंतअणंतरणिक्खित्ते चेव होति णातव्वे / आदिग्गहणे पिहिते, साहरिते मीसगे चेव॥ 1699. गहिताणंतपरंपरमीसऽतिरं पिहितमादि बोद्धव्वं / एव जहुद्दिढेसू, सव्वत्थ वि सोधि भत्तेक्कं // ओह-विभागुद्दे सोवकरण-पूतीय-ठवित-पागडिए। लोगुत्तर-परियट्टिय, पमेय'-परभावकीते . य॥ 40 // 1700. ओहुद्देसविभागे, उद्देस चउब्विधे तु णातव्वे। उवगरणपूतिए या, चिरठविते पागडे चेव॥ 1701. लोउत्तरपामिच्चे, परियट्टिय उत्तरे य णातव्वे। पर भावकीय मंखादिगे सु . सव्वेसु उद्दिढे // 1702. पत्तेयं पत्तेयं, सोधी एत्थं तु होति पुरिमड्डूं। सग्गामाहडमादी, एत्तो एवं पवक्खामि॥ सग्गामाहड-दद्दर-जहण्णमालोहडोतरे पढमे। सुहुमतिगिच्छा - संथवतिग - मक्खित - दायगोवहते॥४१॥ 1703. सग्गामाहड-दद्दर, उब्भिण्णे अहव गंठिसहिते" तु। मालोहडे जहण्णे, उयरो अज्झोयरो होति // 1. “द्दिसेए (पा), "द्दिसे एवं (ला, मु)। 5. पामिच्च (मु)। 2. 'क्खित्ते (मु, ता)। 6. पत्ते (मु, पा, ला)। 3. महि" (ता, पा, ला)। 7. गट्ठि (ता, पा)। 4. सव्वट्ठ (ब)। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-४२-४५ 177 1704. पढमो जावंतज्झोयरो तु एसो यहो मुणेतव्वो। सुहुमतिगिच्छा संथव, वयणे तू होति णातव्वो॥ 1705. कद्दममक्खित पुढवी-आऊ-उदउल्लमक्खिते जं तु। वणकायपरित्तेणं, उक्कुटे मक्खिततिगेणं / / 1706. दायगउवहत एत्तो, दायग बालादियऽप्पभू जे य। एतेसेत्थऽहिगारो, ते य इमे' होंति बालादी॥ 1707. बाले वुड्डे मत्ते, उम्मत्ते वेविते य जरिते य। एते देति तु जं तू, तं होती दायगोवहतं // * 1708. एतेसु जहुद्दिढेसाऽऽहडमादीसु जरितयंतेसु। पत्तेयं पत्तेयं, सोधी एत्थं तु पुरिम९॥ पत्तेयपरंपरठवित-पिहित-मीसे अणंतरादीसु। पुरिमर्दू संकाए, जं संकति तं समावज्जे॥४२॥ 1709. वणकायपरित्तेणं, सच्चित्तपरंपरं तु णिक्खित्ते / - तेणेव य पिहितं तू, परंपरं होति विण्णेयं // 1710. एमेव य साहरिते, सच्चित्तपरंपरे परित्तम्मि। मीसपरित्त अणंतर, णिक्खित्ते होंतिर णातव्वं // 1711. आदिग्गहणेणं तू, पिहिते उ अणंतरे तु मीसम्मि। एमेव य साहरणे, मीसेसु अणंतरे होति // 1712. सव्वेसु जहुद्दिढेसु, सोधिर पुरिमड्डमेत्थ पत्तेयं / संकाए जं संकति, तस्सेव य होति पच्छित्तं // इत्तरठविते सुहुमे, ससणिद्ध सरक्ख मक्खिते चेव। मीसपरंपरठवियादिगेसु बितिएसु वा विगती॥४३॥ 1713. इत्तरठवणा भत्ते, पाहुडिया सुहुम तह य ससिणिद्धे / आऊ मक्खितमेतं, ससरक्खं पुढविए होति // 1. इमो (ला)। 5. सुहुमं (ला, ब)। 2. होति (मु)। 6. बीएसु (ला)। 3. सोहिं (ब)। 7. ससिणद्धे (ब)। 4. इतर?' (पा)। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 जीतकल्प सभाष्य 1714. पुढवी आउक्काए, तेऊ वाऊ परित्तवणकाए। बेइंदिय तेइंदिय, चउरो पंचिंदिएसुं च॥ 1715. एतेसुं पुढवादिसु, मीसे उ परंपरे उ णिक्खित्ते। पत्तेयं पत्तेयं, लघुपणगं दाण णिव्विगती॥ 1716. वणकायऽणंतमीसे, णिक्खित्ते परंपरं तु सोहीमा। गुरुपणगं आवत्ती, दाणं पुण होति णिव्विगतिं / / 1717. बितियाणंताऽणंतरणिक्खित्ते गुरुगपणगर आवत्ती। दाणं णिव्विगती तू, परंपरे होति एमेव / / 1718. 'बितियपरित्ताणंतरणिक्खित्ते लहुगपणगमावत्ती' / दाणं णिव्विगति तू, परंपरे होति एमेव // सहसाऽणाभोगेण व, जेसु पडिक्कमणमादियं तेसु। आभोगओ वि बहुसो, अतिप्पमाणे व निविगती॥४४॥ 1719. सहसा-अणभोगा तू, पुव्वुत्ता जेसु जेसु ठाणेसु। ____ सव्वेसु वि तेसु भवे, पडिक्कमण' पुव्वविहितं तु॥ 1720. तेसु त्ति कारणेसुं, आभोगे एत्थ जाणमाणो उ। बहुसो होति पुणो पुणों, अतिप्पमाणे वि एमेव॥ 1721. सव्वत्थ तु णिव्विगति, सोधी आभोगतो मुणेतव्वा। बहुसो वि सोहि एसा, अतिप्पमाणे वि णांतव्वा॥ धावण-डेवण-संघरिस-गमण -किड्डा-कुहावणादीसु। उक्कुट्ठि-गीत-छेलिय-जीवरुयादीसु य चउत्थं // 45 // 1722. धावण गतिमतिरित्ता, वाडि त्ति व डेवणं तु उड्डवणं / संघरिस जमलिओ तू, को सिग्घगति त्ति वच्चति तु॥ 1. “परे (ब), पर (पा, ला)। 2. गुरुप' (ता, पा, ब, ला)। 3. “णंतरपरंपरे तु लहुग (ता)। 4. "गयं (ला, पा)। 5. णमभिहियं (ला)। 6. य (ला)। 7. पडिकमणं (पा, ब, ला)। 8. गमणि (पा, ला)। 9. उक्कुट्ठी (ता, ला)। 10. डवणं (ला)। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-४६-४८ 179 1723. किड्डा होतऽट्ठावय, चउरंगा' जूतमादि णातव्वा / वट्टादि इंदजालं, खेड्डा उ कुहावणा एसा॥ 1724. आदिग्गहणेणंरे तू, समासतों पहेलिया कुहेडादी। उक्कुट्ठी पुक्कारो, गीतं पुण होति कंठं तु॥ 1725. छेलिय सेण्टा भण्णति, संगारो कीरती तु सासण्णा। जीवरुत मयूरादी, कोइलमादी व णातव्वं / / 1726. धावणमादिपदेसुं', सव्वेसु जहक्कमेण' विष्णेयं / पत्तेयं पत्तेयं, सोधी साहुस्सऽभत्तटुं। * तिविहोवहिणो विच्चुत-विस्सरितापेहिताणिवेदणए। 'णिव्वितियं पुरिमेक्कासणाई सव्वम्मि चायामं॥ 46 // 1727. तिविधो तु होति उवधी, जहण्णगो मज्झिमो य उक्कोसो। . चतुविध छविध चतुभेदओ य कमसो मुणेतव्वो / 1728. मुहपोत्ति पायकेसरि, पत्तट्ठवणं तु गोच्छगो चेव। * एसो जहण्णगो तू, मज्झिमगमतो पवक्खामि // 1729. पडलय रयहरणं वा, पत्ताबंधो य चोलपट्टो य। मत्तग रयहरणं वा, मज्झिमगो एस णातव्वो॥ 1730. पच्छादतिग पडिग्गह, एसो उक्कोसगो चतुब्भेदो। ओहोवही उ' एसो, तिविधो तु समासतो होति / 1731. ओवग्गहिओ तिविधो, जहण्ण मज्झो तहेव उक्कोसो। सव्वो वण्णेतव्वो, जह भणितो कप्पअज्झयणे॥ 1732. विच्चुत पडितं भण्णति, पुणरवि लद्धे जहण्णमादीसु। सोधी पमादमूला, णिव्वियमादी य इणमो तु॥ 1733. णिव्विगति जहण्णम्मी', मज्झिमगे सोहि होति पुरिमड़े। एक्कासणमुक्कोसे, सव्वम्मि य होति आयामं // 1. चउभंगा (ब)। 2. आदीग” (ता, ब)। 3. देसूं (ता, ला), देसू (ब)। :. 4. अह' (पा, ला, मु)। 5. णिव्वीयं (ला)। 6. 'मेका” (पा, ब, ला)। 7. व (ला)। 8. "म्मिं (मु)। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 जीतकल्प संभाष्य 1734. तिविधोवधि विस्सरिते, ण वि पडिलेहेति तत्थ सोधि इमा। णिव्वितिगं पुरिमेक्कासणं तु सव्वम्मि चायामं // 1735. तिविधोवधि विस्सरिते, आयरियादीण जो तु ण णिवेदे। सोधी णिव्वितिगादी, आयामंता मुणेतव्वा॥ हारितधोतुग्गमियाणिवेदणादिण्णभोगदाणेसु। __आसणमायामचतुत्थयाइ' सव्वम्मि छटुं तु॥४७॥ 1736. जहण्णुवधि हारेती, सोधी एक्कासणं तु दातव्वं / मज्झिमगे आयामं, उक्कोसे होतऽभत्तटुं॥ 1737. सव्वोवधि हारेती, सोधी छटुं तु होति णातव्वं / एत्तो धोए' वोच्छं, सोधी उ जहण्णमादीणं // 1738. धोतें जहण्णेक्कासण, मज्झिमगे सोधि होति आयामं / उक्कोसेऽभत्तटुं, धोते सव्वम्मि छटुं तु॥ 1739. तिविहोवधिमुग्गमितुं, आयरियाणं तु जो ण णिव्वेदे। आसणमायामचतुत्थाई सव्वम्मि छटुं तु॥ 1740. उवधी जहण्णमादी, गुरुहिं अविदिण्ण जो तु परिभुंजे। सोहिक्कासणमादी, छटुंता होति सव्वम्मि॥ 1741. अणणुण्णात गुरूहिं, उवधि जहण्णादि देति' अण्णस्स। सोहिक्कासणमादी, छटुंतो होति जीतेणं // मुहणंतग रयहरणे, फिडिते णिव्विगतिय चतुत्थं तु। नासित हारविते वा, जीतेण चतुत्थछट्ठाइं॥४८॥ 1742. मुहणंत फिडित उग्गह, सोधी णिव्विगतियं तु दातव्वं / रयहरणे तु चतुत्थं, फिडिते सोहेस लद्धम्मि॥ 1743. मुहणंत पमादेणं, हारविते नासिते वऽभत्तटुं। ___रयहरणे छटुं तू, सोहेस पमादिणो जीते॥ 1. चतुत्थाई (पा)। 2. सोए (ता, ब, ला)। 3. देंति (पा, ला)। 4. व्विीतयं (ला)। 5. च (ला)। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-४९-५३ 181 कालद्धाणातीए, णिव्विगती' खमणमेव परिभोगे। अविहिविगिंचणियाए, भत्तादीणं तु पुरिमटुं॥४९॥ 1744. विकहादिपमादेणं, कालाईयं करेंत भत्तादी। सोधी णिव्विगती तू, परिभोगे होतऽभत्तटुं। 1745. एवऽद्धाणाईए', अप्परिभोगे वि सोहि णिव्विगतिं / परिभोगेऽभत्तट्ठो, अविधीय विगिंचणे पुरिमं॥ पाणस्सासंवरणे, भूमितिगापेहणे य णिव्विगती। सव्वस्सासंवरणे, अगहणभंगे य पुरिमटुं॥ 50 // 1746. पाणस्सासंवरणे, सोधी साहुस्स होति णिव्विगतिं / भूमीतिगं इमं तू, वोच्छामि समासतो इणमो॥ 1747. उच्चारभूमि पढमा, बितिया पुण होति पासवणभूमी। 'ततिया तु कालभूमी'५, सोहेत्थ अपेहणे ऽविगतिं // 1748. असणादी चतुभेदो, सव्वो वि य एत्थ होति आहारो। तस्स असंवरणम्मी, सोधी साहुस्स पुरिमटुं॥ 1749. अहव णमुक्कारादी, पच्चक्खाणं ण गेण्हते सव्वं / गहितं वा जो भंजति, सोधी सव्वत्थ पुरिमटुं॥ एयं चिय सामण्णं, तव-पडिमा-ऽभिग्गहादियाणं पि। णिव्विइयादी पक्खिय-पुरिसादिविभागतो णेयं // 51 // 1750. एतं चिय पुरिमर्द, सामण्ण विसेसितं मुणेतव्वं / ____ तव पडिम अभिग्गहें या, अगहणभंगे इमं वोच्छं / 1751. तवो बारसहा होति, पडिमा तू एगराइगा। दव्वादी तु अभिग्गह, अगहणभंगे तु पुरिमर्ल्ड 1752. गाहापच्छद्धस्स तु, इमा विभासा तु होति णातव्वा / .. खुड्डादी पंचण्ह वि, णिव्विगतिं अंतऽभत्तट्ठो॥ 1. गति (ला)। 2. खवण' (ला)। 13. 'णातीए (पा)। 4. गह' (ता)। 5.4 (ता)। ६.णिव्वीतिगाइ (ला)। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 जीतकल्प सभाष्य 1753. चाउम्मासिग खुड्डग, भिक्खू थेरो 'उवज्झ आयरिए"। पुरिमड्ड एगभत्तं, आयाम चतुत्थ छटुंता // 1754. पतिदिणपच्चक्खाणं, जहसत्ति अगेण्हणे तु मब्भहितं। खुड्डादी पंचण्ह वि, एक्कासणमट्ठमं अंतो॥ फिडिते सतमुस्सारित, भग्गे' वेगादि ऽवंदणुस्सग्गे / णिव्विगती'-पुरिमेगासणादि सव्वेसु चायामं॥५२॥ 1755. फिडितुस्सग्गे एक्के, पमादिणो सोहि होति णिव्विगति / दोहिं पुरिमड्ड भवे, तिहि फिडिते सोहि भत्तेक्कं // 1756. सव्वे काउस्सग्गे, फिडिते जुयओ पडिक्कमे जो तु। सोधी पच्छाऽऽयामं, उस्सारते इमं वोच्छं // 1757. सतमुस्सारे एक्कं, काउस्सग्गं ति एत्थ णिव्विगतिं। दोसु तु . पुरिमड्ड भवे, एक्कासणगं भवे तीहिं॥.. 1758. सव्वे सयमुस्सारे, आयंबिल एत्थ होति सोधी तु। भग्गे वि य एस च्चिय, सोधी तह वंदणमदेंति॥ अकतेसु तु पुरिमा-ऽऽसणमायाम सव्वसो चउत्थं तु। पुव्वमपेहितथंडिल', निसिवोसिरणे दियासुवणे // 53 // 1759. ण करेंतस्सुस्सग्गं, सोधी एत्थं तु होति पुरिमड़े। दोहि य एक्कासणगं, तिहि अकरणे सोधि आयामं // 1760. सव्वं चिय आवसयं, अकरेंते सोधि होतऽभत्तट्ठो। काउस्सग्गे तह वंदणस्स सोधी तहा ऽकरणे॥ 1761. गाहापच्छद्धेण तु, पुव्वं तु अपेहिते ‘उ थंडिल्ले 11 / णिसिवोसिरणे सोधी, साहुस्स भवे. अभत्तटुं॥ 1762. दियसुवणे णिक्कारण, सोधी साहुस्स होतऽभत्तदें। कोहं परिवसमाणे, कक्कोल्लादीमतो वोच्छं / 1. ज्झाय' (पा, ब, ला)। 2. मगे' (ता)। 3. भंगे (ब, मु)। 4. वंदणादीसु (पा, मु)। 5. गतिय (मु),णिव्वीतिय (ला)। 6. "मड्डे (ता)। 7.x (ता)। 8. x (ला)। 9. डिलि (ला)। 10. सुयणे (ला)। 11. त्थंडि" (ता, ब)। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-५४-५७ 183 कोहे बहुदेवसिए, आसव-कक्कोलगादिगेसुं' च। लसुणादिसु पुरिमड़े, 'तण्णादीबंधमुयणे य" // 54 // 1763. पक्खियमतिकामेंतो, बहुदेवसिओ त्ति एस कोधो तु। __ अहवा बहुदेवसिए, 'चाउम्मासादिरित्ते तु॥ 1764. एतं बहुदेवसियं, एत्थ उ सोधी तु होतऽभत्तटुं। आसव वियर्ड भण्णति, तमाइयंते अभत्तटुं॥ 1765. कक्कोलग सेवंते, सोधी साधुस्स होतऽभत्तटुं। " पूगप्फल-जातीफल-लवंग-तंबोलमादिसु य॥ 1766. आदिग्गहणे णेयो, पत्तेयं एत्थ सोधऽभत्तटुं। लसुणाचित्ते पुरिमं, आदिग्गहणा पलंडुम्मि॥ 1767. तण्णगबंधणमुयणे, सोधी एत्थं तु होति पुरिमटुं। आदिग्गहणेणं पुण, हंस-मयूरादिएसुं पि॥ अझुसिरतणेसु निविगतियं तु सेसपणगेसु पुरिम। अप्पडिलेहितपणगे, एगासण तसवहे जं च॥५५॥ 1768. अज्झुसिरं तु कुसादी, परिभोगाकारणे तु णिव्विगति। सेसपणगं तु पंचह, . सपंचभेदं पुणेक्केक्कं // . 1769. पोत्थग-तणपणगं वा, दूसे पणगं च दुप्पडिल्लेहे। अप्पडिलेहियदूसे, पंचमगं चम्मपणगं च॥ 1770. गंडी कच्छवि मुट्ठी, "छिवाडि संपुडगपोत्थगे चेव"। 'साली बीही कोद्दव, रालग ऽरण्णे तणाई च॥ 1771. अप्पडिलेहितदूसे, तूली उवहाणगे य णातव्वे / गंडुवहाणाऽऽलिंगिणि, मसूरगे चेव पोत्तमगे // 1772. पल्हवि कोयवि पावार, णवतए तह य दाढिगाली• य। दुप्पडिलेहितदूसे, एतं बितियं भवे पणगं१२ // 1. 'लमादि (ला)। 'पोत्थगा पंच (बृ)। 2. णादी (पा, मु)। 8. तिण-सालि-वीहि-कोद्दव-रालग-आरण्णगतणं च 3. धणुम्मयणे (ला)। (बृ 3822) / 4. रित्तेसु (ता)। 9. 'तणए (मु), "मए (प्रसा 677), नि 4001 / 5. फलजाई (ब)। 10. दाढीयाली (ता, पा, ब, ला)। . ६.णिव्वीतियं (ला)। 11. उ (नि 4002) / 7. संपुड फलए तहा छिवाडी य (नि 4000), 12. प्रसा 678 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 जीतकल्प सभाष्य 1773. गो-महिस-अया-एलग-मिगचम्मं पंचगं मुणेतव्वं / अहवा वि चम्मपणगं, एतं बितियं तु विण्णेयं / 1774. तलिगा खल्लग वझे, कोसग कत्ती य पंचगं' पणगं। एते पंच उ पणगा, सयं च भेदा समक्खाता // ठवणमणापुच्छाए, णिव्विसणे विरियगृहणाए य। जीतेणेक्कासणगं, सेसगमायासु खमणं तु॥५६॥ 1775. ठवणकुल-दाणसड्ढादियाइ ताई तु गुरुमणापुच्छा। पविसति णिव्विसणा तू, पडिगाहे" जं तु भत्तादी॥.. 1776. विरियं सामत्थं वा, परक्कमो चेव होंति एगट्ठा। गृहण गोवण णूमण, पलियंचणमेव एगटुं॥ 1777. एरिसमायासहिते, जीतेणं देज्ज एगभत्तं तु। सुतववहारे अण्णह, सेसं मायं अतो वोच्छं // 1778. भद्दगं भद्दगं भोच्चा, विवण्णं विरसमाहरे / आयरियाण सगासे, जसोत्थी एव चिंतए॥ 1779. लूहवित्ती महाभागो, एस साधू जितिंदिओ। रसचागं करेइ त्ती, अंतपंतेहिं लाढए / दप्पेणं पंचिंदियवोरमणे संकिलिङ्ककम्मे य। दीहद्धाणासेवी गिलाणकप्पावसाणेसु॥५७॥ 1780. दप्पो वग्गण-धावण-डेवणमादी तु होति णातव्वो। पंचिंदियवोरमणं, उद्दवण विराहणेगटुं॥ 1781. कम्मं तु संकिलिटुं, करकम्मं कुणति अंगदाणे'• तु / दीहेणऽद्धाणेणं, कम्म पलंबादि बहु सेवे॥ 1. पंचमं (मु)। 5. पडिग्गाहे (ता, ब, ला)। 2. गा 1773 और 1774 के स्थान पर नि (4003) में निम्न 6. "माहारे (ता, पा, ब, ला)। गाथा है 7. गाथा में अनुष्टुप् छंद का प्रयोग है। अय-एलि-गावि-महिसी, मिगाणमजिणं च पंचमं होति। 8. “सेविय (मु, ब)। तलिगा-खल्लग-वज्झे, कोसग कत्ती य बितिएणं॥ 9. "साणे य (ला)। 3. पंचमं (ला, मु)। 10. अंगा' (ला, पा)। 4. खवणं (ता, मु)। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-५८-६१ 185 1782. गेलण्णम्मि तु दीहे, आहाकम्मादि सण्णिहीमादी। बहुअतियारणिसेवी, सोधी एत्थं तु अवसाणे // 1783. एतम्मि जहुद्दिवे, वोरमणादी गिलाणपज्जते। पत्तेयं पत्तेयं, सोधी तू पंचकल्लाणं // सव्वोवहिकप्पम्मि य, पुरिमत्तापेहणे य चरिमाए। चाउम्मासे वरिसे, य सोधणं पंचकल्लाणं॥५८॥ 1784. पाउसकाले सव्वोवहिम्मि जतणा वि कप्पिए सोधी। पुरिमत्ताएँ पमादा, चरिमाएँ अपेहिते चेव॥ 1785. उवधी धोतऽवसाणे, पुरिमत्तापेहणाएँ चरिमाए। पत्तेयं पत्तेयं', सोहेत्थं पंचकल्लाणं // 1786. चाउम्मासिग वरिसे, णिरतीयारे यऽवस्स दातव्वं / .. आलोइयम्मि सोधी, णियमेणं पंचकल्लाणं॥ 1787. किं कारणमिह सोधी, णिरतीयारे वि दिज्जते एवं?। चोदग! 'सुहुमऽतियारे', कते वि ण वि जाणति कयाई // 1788. अहव ण संभरती तू, जह ‘पादोसीय अड्डरत्तीए / वेरत्तिय पाभातिय, अग्गहणा काल अतियारं / / . 1789. सुत्तत्थपोरिसीअकरणम्मि दुप्पेह दुप्पमज्जासु। एतेण कारणेणं, सोधी तू पंचकल्लाणं // छेदादिमसद्दहओ, मिउणो परियायगव्वितस्स वि य। छेदादीए वि तवो, जीतेण गणाहिवतिणो य॥ 59 // 1790. विपुलं तवमकरेंतो, किह सुज्झति छेदमूलमत्तेणं? / गुरुआणामेत्तेणं, असद्दहंते तवो देयो॥ 1791. मउओ वि छेद मूले, व दिज्जमाणम्मि होति परितुट्ठो। .. इहरा वि वंदणिज्जो, तिक्खुत्तो तस्स देह तवं // 1.4 (ला)। 2. अति (ता, पा, ब, ला)। 3. कयावि (पा, ब, ला)। 4. त्तीय (ब)। 5. 'त्तीय (ता, ब)। 6. छेदातीए (पा, ब, ला)। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 जीतकल्प सभाष्य 1792. दुविधो य गव्वितो खलु, चिरपरियाओ तहेव तवबलिओ। छेदम्मि दिज्जमाणे, परियादी गव्वितो होति // 1793. केत्तियमेतं छिंदह?, तह वि य हं तुब्भ होमि राइणिओ। एसो तु गवितो खलु, चिरपरियादी मुणेतव्वो॥ 1794. तवबलिओ देह तवं, अहं समत्थो त्ति गव्वितो होति। तम्हा तद्दोसहरं, विवरीतं तेसि दातव्वं // 1795. गणअहिवति आयरियो, तस्स वि छेदादि होति पत्तस्स। अप्परिणतसेहादिसु, मा होज्जा हीलणिज्जो त्ति // 1796. धीबलसंघयणं वा, णातुं कालं च तिविध गिम्हादी। तम्हा तद्दोसहरं, तवारिहं दिज्जते तस्स // जं जंण भणितमिहइं, तस्सावत्तीय दाणसंखेवं। भिण्णादिया य वोच्छं, छम्मासंता य जीतेणं॥६०॥ 1797. जं जं ति हति मिच्छ, प वि भणितमिहं ति जीतववहारे। पच्छित्तविसोधी तू, तस्सावत्ती पणगमादी॥ 1798. दाणं णिव्वितिगादी, से य विसेसेणमेत्थ भणिहामि। संखेवो तु समासो, किह ण वि जीतेण भणितमिहं? / / 1799. कम्ही वा भणितं? ती, गुरुराह णिसीह-कप्प-ववहारे। सुत्तत्थओ य भणितं, आणादि सवित्थरेणं तू॥ 1800. पणगादी छम्मासावसाण आवत्तिविरयणाओ य। णेगविहा भणिताओ, णिसिहादिसु वित्थरेणं तु॥ 1801. इह पुण' जीतेणं तू, णिवणावत्तिदाणसंखेवं / भिण्णादी छम्मासा, णेदाणजिएणिमं वोच्छं / भिण्णो अविसिट्टो च्चिय', मासो चउरो य छच्च लहुगुरुगा। णिव्वितियादी अट्ठमभत्तंतं दाणमेतेसिं॥६१॥ १.छिंदिह (पा)। 2. जे (पा, ला)। 3. यमिहियं (ला)। 4. आवत्ती पायच्छित्तट्ठाणसंपत्ती (चू)। 5.4 (ता, ला)। ६.चिय (ला)। ७.णिव्वीयगादि (ला)। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-६२-६५ 187 1802. पणुवीसदिणा भिण्णो, अविसिट्ठो एस गुरु लहू वावि। अविसेसिओ विसिट्ठो, एसो तू होति णातव्वो॥ 1803. मासो ‘लहुगो गुरुगो" 'चतुरो मासा य होति लहुगुरुगा'। छम्मासा लहुगुरुगा, 'दाणं एतेसि वोच्छामि'३ // 1804. पणगं दस पण्णरसं, वीसा पणुवीस जाव णिव्विगती। लहुमासे पुरिम९, गुरुमासे दाण भत्तेक्कं // 1805. चतुलहुगे आयाम, चतुगुरुगे होति दाणऽभत्तटुं। छल्लहुगे छठें तू, छग्गुरुगे दाणमट्ठमगं॥ .1806. णिव्विगतिगमादीयं, अट्ठमभत्तंतमेय दाणं ति। .. भिण्णादीणं कमसो, छम्मासंताऽवसाणाणं॥ इय सव्वावत्तीओ, तवसो णाउं जहक्कम' समए। जीतेण देज णिव्वीतिगादि दाणं जहाभिहितं // 62 // 1807. इय एतेण कमेणं, एव पगारेण अहव इतिसद्दो। 'सव्वा आवत्ती" पणगादिया तु छम्मासपज्जंता॥ 1808. णिव्वीतियमादीओ, अट्ठमपज्जंत होति सव्वतवो। जीतेण देज्ज दाणं, णिव्वीतिगमादिगं कमसो॥ 1809. जहभिहितं जह भणितं, तह तह देज्जाहिऽभिहितमेतं ति। __सामण्णेणं एतं, समासतो होति णातव्वं // एतं पुण सव्वं चिय, पायं सामण्णतो विणिढ़ि। दाणं विभागतो पुण, दव्वादिविसेसितं णेयं // 63 // 1810. एतं ति जहुद्दिटुं, पुणसद्दों विसेसणे तु णातव्वो। सव्वं पायच्छित्तं, दाणं पाएण बाहुल्ला // 1811. सामण्णं अविसेसित, णिद्दिट्ठ विसेसितं विणिद्दिटुं। दाणं णिव्वितिगादी, विभागतो देज्ज वित्थरतो // 1. गुरुगो लहुगो (ता)। 2. चउरो लहुगा य होंति गुरुगा य (व्य)। 3. छेदो मूलं तह दुगं च (व्य 621, नि 3279) / 4. दीयं (ब), दीणि (ला)। ५.अह (मु)। ६.णिव्वितियगादि (ला)। 7. जहा भणितं (ला)। 8. सव्वा आवत्ती' के स्थान पर छंद की दृष्टि से सव्वावत्ती' पाठ होना चाहिए। 9. जाण (पा, मु)। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 जीतकल्प सभाष्य 1812. दव्वादीया पडिसेवणा तु लतिया तु आदिसद्देणं / होति विसेसेणाऽवेक्खिऊण देज्जाहि ऊणं पि॥ 1813. अहवा वि समतिरित्तं, दाणं णाऊण देज्ज जीतेणं। अहवा वि तत्तियं चिय, देज्जाहि सुतोवदेसेणं // दव्वं खेत्तं कालं, भावं पुरिस पडिसेवणाओ य। __णातुमियं चिय देज्जा, तम्मत्तं हीणमहिगं वा // 64 // 1814. आहारादी दव्वं, खेत्तं लुक्खादि काल गिम्हादी। हिट्ठादी भावं तू, पुरिसं गीतादि जाणित्ता॥ 1815. आउट्टिगमादीया, पडिसेवण होति तू मुणेतव्वा। णाऊण जाणितूणं, इति मि त्ति जए य जीतेणं॥ 1816. देज्जाही तम्मत्तं, हीणं अहिगं व णातु दव्वादी। हीणे दव्वादीए, हीणं देज्जाऽहिगे अहिगं॥ 1817. एसो तु अक्खरत्थो, दव्वादीणं तु वण्णितो कमसो। पुणरवि दव्वादीहिं, विभागतो सूरिमाहंसु / आहारादी दव्वं, बलियं सुलभं च णातुमहिगं पि। देज्जाहि दुब्बलं दुल्लभं च णाऊण हीणं पि॥६५॥ 1818. आहारों जेसिमादी', दव्वाणं ताइँ होंति दव्वाई। आहारादीयाई, बलियाई जम्मि देसम्मि॥ 1819. जह अणुवदेस' सालीकूरों सभावेण होति बलिओ तु। सुलभो य सो तु णिच्चं, सेसा वटुंति एमेव // 1820. एतं णाऊण तहिं, जं भणितं दाण जीतववहारे। तं देज्ज समब्भहियं, जहिं पुण चण-वल्ल-कलमादी॥ 1821. कंजियरुक्खाहारो, दुब्बल दुलभो य एव णाऊणं। 'देज्ज से तत्थ हीणं'९, जीतव्ववहारभणिता उ॥ 1. तच्चियं (ता)। २.व (मु)। 3. दीणं (पा, ब, ला)। 4. माईसु (ता)। 5. जिसि (ब), सियादी (पा, ला, ब)। 6. अणू (ता, पा)। 7. हारं (ला)। ८.जेहिं (ता)। 9. प्रतियों में 'देज्ज से त्थ हीणं' पाठ मिलता है लेकिन यहां 'देज्ज से तत्थ हीणं' पाठ होना चाहिए। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-६६,६७ 189 * लुक्खं सीतल साहारणं च खेत्तमहिगं पि सीतम्मि। लुक्खम्मि य हीणतरं, एवं काले वि तिविधम्मि॥६६॥ 1822. लुक्खं तु णेहरहितं, जं खेत्तं वातपित्तलं वावि। सीतं बलियं , भण्णति, अहव' अणूवं भवे सीतं / / 1823. साहारणं समं तू, जं ण वि निद्धं ण चेव लुक्खं पि। एतं तिविधं खेत्तं, दाणं एतेसि वोच्छामि / / 1824. इय मेव जीतदाणं, णिद्धे खेत्तेऽहिगं पि देज्जाहि / साहारण तम्मत्तं, लुक्खे खेत्ते तु हीणतरं / / 1825. लुक्खादी तिह खेत्तं, एवेतं वणितं समासेणं। अहुणा तु तिविधकालं, गिम्हादि समासतो वोच्छं / गिम्ह-सिसिर-वासासू, देज्जऽटुम-दसम'-बारसंताई। णातुं विधिणा णवविहसुतववहारोवदेसेणं॥६७॥ 1826. गिम्हासु चतुत्थं देज्जा, छटुं च हिमागमे। ___वासासु अट्ठमं देज्जा, तवो एस जहण्णगो॥ 1827. गिम्हासु छटुं देज्जा, अट्ठमं च हिमागमे। . वासासु दसमं देज्जा, एस मज्झिमगो तवो॥ 1828. गिम्हासु अट्टमं देज्जा, दसमं च हिमागमे। वासासु दुवालसमं, एस उक्कोसतो तवो॥ 1829. जहासंखेणेसो, गिम्हादितवो समासतो होति। एतं पुण कह देज्जा?, णवविहसुत्तोवदेसेणं / 1830. सुतववहारेण हवा, नवभेदविगप्प सुहुम जाणित्ता। देज्जाहि तिविधकाले, ववहारो सो इमो णवधा॥ 1831. अहलहुसग लहुसतरो, लहुसो त्ती होति लहुसपक्खम्मि। __ अहलहुगो लहुगतरो, लहुगो त्ती लहुगपक्खम्मि // 1. अहवा (पा, ला)। 2. एव (मु), यहां मकार अलाक्षणिक है। 3. देज्जाहिं (पा, ब, ला)। 4. सासुं (ला) 5. दसमा (ला)। 6. "खेण्णेसो (ला)। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 जीतकल्प सभाष्य 1832. गुरुगो गुरुगतरागो, अहगुरुगो एस होति गुरुपक्खे। णवविधववहारेसो, आवत्ती तेसि वोच्छामि // 1833. पण दस पण्णरसं वा, तिविधेसो होति लहुसपक्खम्मि'। वीसा य पण्णवीसा', तीसा वि य लहुगपक्खम्मि // 1834. गुरुमासो चतुमासो, छम्मासो चेव होति गुरुपक्खे। णवविह आवत्तेसा, णवविहदाणं अतो वोच्छं। 1835. णिव्विगतिं पुरिमड्डे, एक्कासणगं च लहुसपक्खम्मि। आयंबिलऽभत्तटुं, छटुं वा होति लहुपक्खे // 1836. अट्ठम दसम दुवालस, गुरुपक्खे एय होति दाणं तु। आवत्ती तवों एसो, समासतो णवहमक्खातो॥ 1837. णवविहववहारेसो, लहुसादि समासतो समक्खातो। पुणरवि ओहेण विभागतो य गुरुमादि वोच्छामि॥ 1838. गुरुगो गुरुगतरागो, अहागुरूगो व होति ववहारो। लहुगो लहुगतरागो, 'अहालहू चेव'६ ववहारो॥ 1839. लहुसो लहुसतरागो, अहालहूसो य होति ववहारो। एतेसिं पच्छित्तं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए॥ 1840. गुरुगो य होति मासो, गुरुगतरागो ‘य होति चतुमासो"। अहगुरुगो छम्मासो, 'गुरुपक्खे एस" पडिवत्ती॥ 1841. तीसा य पण्णवीसार, वीसा 'वि य होति लहुगपक्खम्मि 92 / 'पण्णरस दस य पंच य", 'लहुसगपक्खम्मि पडिवत्ती'५ // 1. 'खम्मी (ता, पा, ब, ला)। 2. पणुवी (पा, ब, ला)। 3. लहुस (पा, ब, ला)। 4. x (पा)। 5.4 (ला)। 6. लहू होइ (बृ 6039), हूसो य (व्य 1065) / 7. बृ 6040,6236, व्य 1066, 1118 / 8. भवे चउम्मासो (बृ 6041, व्य 1067, 1119) / 9. गुरुगे पक्खम्मि (बृ 6237, व्य)। १०.पा प्रति में इसके संदर्भ में निम्न उल्लेख संस्कृत भाषा में मिलता है-अत्र तीसा य त्ति थूलतायैवोक्तं अन्यथा लघुमासे सार्द्ध सप्तविंशतिरेव दिनानि भवंति (पा)। 11. पण्णु (ता, पा, ला)। 12. पण्णरसेव य (व्य 1068,1120) / 13. पणरस (पा, ब, ला)। 14. दस पंच य दिवसाई (व्य)। 15. अहालहुसगम्मि सुद्धो वा (बृ६०४२)। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-६७ 191 1842. गुरुगं च अट्ठमं खलु, गुरुगतरागं च होति दसमं तु। अहगुरुगं 'बारसमं, गुरुपक्खे एस२ पडिवत्ती॥ 1843. छटुं च चउत्थं वा, आयंबिल एगठाण पुरिमड़े। णिव्वितिगं दातव्वं, 'अहलहुसे अहव' सुद्धो वा॥ 1844. ववहारो आरोवण, सोधी पच्छित्तमेयमेगटुं। थोवो तु अहालहुसो, पट्ठवणा होति दाणं तु॥ 1845. ओहेण एस भणितो, एत्तो वोच्छं पुणो विभागेणं / तिग नव सत्तावीसग', एक्कासीती च भेदेणं // 1846. गुरुपक्खो लहुपक्खो, लहुसगपक्खो य तिविध एस भवे। एक्केक्को पुण' तिविधो, उक्कोसादी इमं वोच्छं / 1847. गुरुपक्खे उक्कोसा, मज्झ जहण्णो य एव लहुगे वि। ... एमेव लहुसगे वी, उक्कोसो मज्झिम जहण्णो॥ 1848. गुरुपक्खे छम्मासो, पणमासो चेव होति उक्कोसो। मज्झिम चतु' तेमासो, दुमास गुरुमासिग जहण्णो॥ 1849. लघुमास भिण्णमासो, वीसा वि य तिविधमेग लहुपक्खे। पण्णरस दसम पंचग, लहुसुक्कोसादि तिविधेसो / 1850. आवत्तितवो एसो, नवभेदो वण्णितो समासेणं / अहुणा तु सत्तवीसो, दाणतवो तस्सिमो होति / 1851. गुरु-लहु-लहुसगपक्खे, एक्केक्को नवविधो मुणेतव्वो। उक्कोसुक्कोसो या, उक्कोसगमज्झिम जहण्णो॥ 1852. मज्झिमउक्कोसो या, मज्झिममज्झो तहा जहण्णो य। होति जहण्णुक्कोसो, जहण्णमझो दुहजहण्णो // 1853. उक्कोसुक्कोसो या, उक्कोसगमज्झिमो जहण्णो य। ..मज्झिमउक्कोसो तू, मज्झिममज्झो जहण्णो य॥ 1. च (ब)। 5. पुणो (पा, ला)। २.दुवालसमं, गुरुगे पक्खम्मि (बृ६०४३, व्य 1069,1121) / 6. मज्झम (पा, ला)। 3. अहालहुसगम्मि (बृ६०४४,६२४०,व्य 1070,1122) / 7. तू (ब, ला, मु)। 4. वीसा (ला)। 8. प्रतियों में इस गाथा के बाद 'गुरुपक्खो' का उल्लेख है / Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 जीतकल्प सभाष्य 1854. होति जहण्णुक्कोसो, जहण्णमज्झो जहण्णगजहण्णो। नवविधववहारेसो, लघुपक्खे होति णातव्वो॥ 1855. उक्कोसुक्कोसो तू, उक्कोसगमज्झिमो जहण्णो य। मज्झिमउक्कोसो तू, मज्झिममज्झो जहण्णो य॥ 1856. होति जहण्णुक्कोसो, जहण्णमज्झो जहण्णगजहण्णो। नवविधववहारेसो, लहुसगपक्खे मुणेतव्वो॥ 1857. बारसम दसम अट्ठम, छप्पणमासेसु तिविध दाणेदं / चउ-तेमासे दसमऽट्ट, छट्ठ उक्कोसगादि तिहा। 1858. एमेवुक्कोसादी, दुमास गुरुमासिगे तिहा दाणं / अट्ठम छ? चउत्थं, नवविधमेतं तु गुरुपक्खो // 1859. दसमं अट्ठम छटुं, लहुमासुक्कोसगादि तिह दाणं / अट्ठम छट्ठ चउत्थं, उक्कोसादेय तिह भिण्णे // 1860. छट्ठ चउत्थाऽऽयामं, उक्कोसादेय दाण वीसाए। लहुपक्खम्मी नवगो, बीओ एसो मुणेतव्वो॥ 1861. अट्ठम छट्ठ चउत्थं, एवुक्कोसादि दाण पण्णरसे। छट्ठ चउत्थाऽऽयामं, दससू तिविहेत दाण भवे // 1862. खमणाऽऽयामेक्कासण, तिविहोक्कोसादि दाण पणगेतं / लघुसेस ततियणवगो', सत्तावीसेस' वासासु // 1863. सिसिरे दसमादी पुण, चारणभेदेण सत्तवीसे य। ठायति पुरिमड्डम्मी, अड्डोक्कंती य तह चेव // 1864. अट्ठममादी गिम्हे, चारणभेदेण सत्तवीसेण / तह चेव अड्डक्कंति', ठायति णिव्वीतिगे नवरिं // 1865. अहुणा उ चारणा तू, उक्कोसुक्कोसगादि गुरुगादी। वासासू सिसिरे या, गिम्हे य समासतो वोच्छं / / 3. अड्डोक्कंती (पा, मु)। 1. वगा (ता, पा, ब, ला)। 2. सत्तावी (ला)। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 193 पाठ-संपादन-जी-६७ 1866. अहगुरुगे वासासू, उक्कोसुक्कोसगे य बारसमं / उक्कोसमज्झ दसमं', उक्कोसजहण्णमट्ठमगं॥ 1867. अहगुरुगे सिसिरेसुं, उक्कोसुक्कोसगे य दसमं तु। उक्कोसमज्झिमऽट्ठम', उक्कोसजहण्णगे छटुं॥ 1868. अहगुरुगे गिम्हासुं, उक्कोसुक्कोसमट्ठमं देज्जा। उक्कोसमज्झ छटुं, उक्कोसजहण्णग चउत्थं // 1869. गुरुगतरा वासासुं, मज्झिमउक्कोसगे य दसमं तु। मज्झिममज्झे अट्ठम, मज्झजहण्णेण छटुं तु / / 1870. गुरुगतरा सिसिरेसुं, मज्झिमउक्कोसमट्ठमं देज्जा। मज्झिममज्झे छटुं, मज्झजहण्णे चउत्थं तु॥ . 1871. गुरुगतरा गिम्हेसुं, मज्झिमउक्कोस देज्ज छटुं तु। ... मज्झिममज्झ चउत्थं, मज्झजहण्णेण आयाम // 1872. गुरुगे वास जहण्णे, उक्कोसे अदमं तु देज्जाहि। छटुं जहण्णमझे, होति चउत्थं दुहजहण्णे // 1873. गुरु 'सिसिरेऽत्थ५ जहण्णे, उक्कोसं देज छट्ठभत्तं तु। जहणगमज्झ चउत्थं, दुहओं जहण्णेण आयामं // . 1874. गुरुगे गिम्ह जहण्णे, उक्कोसा देज्ज तू चउत्थं तु। जहण्णमज्झाऽऽयामं, एक्कासणगं दुहजहण्णे // 1875. लहुगे वासारत्ते, उक्कोसुक्कोसगम्मि दसमं तु। उक्कोसमज्झिमऽट्ठम, उक्कोसजहण्णगे छटुं॥ 1876. लहुगे उक्कोसुक्कोसगम्मि' सिसिरम्मि अट्ठमं देज्जा। उक्कोसमज्झ. छटुं, उक्कोसजहण्णग चउत्थं // 1. x (ला)। 2. अट्ठम (मु)। ३.प्रतियों में इस गाथा के बाद अहागुरुपक्खे'का उल्लेख है। 4. छटुं तु (पा, ला, मु), इस गाथा के बाद प्रतियों में 'गुरुअतरपक्खे' का उल्लेख है। 5. सिरत्थ (पा, ला)। 6. इस गाथा के बाद प्रतियों में 'गुरुपक्खे' शब्द का उल्लेख है। 7. सतम्मि (पा, ब, ला)। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 जीतकल्प सभाष्य 1877. लहुपक्खे उक्कोसे, गिम्हम्मी देज छट्ठभत्तं तु। मज्झिमगं तु चउत्थं, उक्कोसजहण्णमायाम // 1878. लहुगतरे वासासुं, 'मज्झिमउक्कोसमट्ठमं देज्जा'२। मज्झिममझे छटुं, मज्झजहण्णेणऽभत्तटुं॥ 1879. लहुगतरा सिसिरेसुं, मज्झिमउक्कोस देज्ज छटुं तु। मज्झिममज्झ चउत्थं, मज्झजहण्णेणमायाम / / 1880. लहुगतरा गिम्हेसुं, मज्झिमउक्कोस देज्जऽभत्तटुं। मज्झिममज्झायामं, मज्झजहण्णेण भत्तेक्कं // 1881. अहलहुगा वासासुं, जहण्णउक्कोस छट्ठ देज्जाहि। मज्झिमगम्मि चउत्थं, जहण्णगजहण्णमायामं // 1882. अहलहुयग सिसिरेसुं, जहण्णउक्कोस देज्जऽभत्तटुं। मज्झिमगे आयामं, जहण्णगजहण्ण भत्तेक्कं // 1883. अहलहुगे गिम्हासुं, जहण्णमुक्कोस' देज आयामं। एक्कासणगं मझे, पुरिमटुं दुहजहण्णम्मि / 1884. लहुसग वासासुक्कोसगम्मि उक्कोसमट्ठमं देज्जा। उक्कोसमझ छटुं, उक्कोसजहण्णगें चउत्थं // 1885. लहुसग सिसिरासुक्कोसगं तु उक्कोस छ? देजाहि / मज्झिमगं . तु चउत्थं, उक्कोसजहण्णमायामं // 1886. लहुसग गिम्हासुक्कोसगम्मि उक्कोस देज्जऽभत्तटुं। मज्झिमगं आयामं, उक्कोसजहण्ण भत्तेक्कं // 1887. लहुसतरा वासासुं, मझुक्कोसेण छट्ठभत्तं तु। मज्झिममज्झ चउत्थं, मज्झजहण्णेण आयामं // 1888. लहुसतरा सिसिरासुं, मझुक्कोसेण देज्जऽभत्तटुं। मज्झिममज्झायाम, मज्झजहण्णेण भत्तेक्कं // . १.इस गाथा के बाद प्रतियों में 'लहुयपक्खे' का उल्लेख है। 5. इस गाथा के बाद प्रतियों में 'अहालहुयपक्खे' का 2.x (पा)। उल्लेख है। 3. इस गाथा के बाद प्रतियों में 'लयतरपक्खे'का उल्लेख है। ६.इस गाथा के बाद प्रतियों में 'लहुसपनखे'का उल्लेख है। 4. एणगुक्कोस (पा, ला)। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-६७ 195 1889. लहुसतरा गिम्हेसुं, मज्झुक्कोसेण देज आयामं। मज्झिममज्झक्कासण, मज्झजहण्णेण पुरिमहुँ / 1890. अहलहुसग वासासुं, जहण्णमुक्कोस देज्जऽभत्तटुं। मज्झिमगं आयामं, भत्तेक्कं दुहजहण्णेणं // 1891. अहलहुसग सिसिरासुं, जहण्णमुक्कोस देज आयामं। जहण्णमज्झेक्कासण, जहणजहण्णेण पुरिम९ // 1892. अहलहुसग गिम्हासुं, जहण्णमुक्कोस देज्ज भत्तेक्कं / मज्झिमगं पुरिमटुं, दुहयो जहण्णेण णिव्विगति // 1893. एतेहिं ठाणेहिं, आवत्तीओ सदा.... णियमा / वोढव्वा सव्वाओ, असहुस्सेक्केक्कहासणया॥ 1894. जाव ठितं. एक्केक्कं, तं पि य हावेज्ज असहुणो ताहे। दाउं सट्ठाणेवं, परठाणं देज्ज एमेव // 1895. एवं ठाणे - ठाणे, हेट्ठाहुत्तो कमेण हासेत्ता। णेतव्वं जाव ठितं, णियमा णिव्वीगिय एक्कं // 1896. णवविहववहारेसो, आवत्तीदाणसहितकालजुतो। बुद्धीओ विण्णेओ, विभागतो एसमक्खातो॥ 1897. अहव तिमो लहुसादी, तिविधादि समास वित्थरे वोच्छं। हीणो मज्झुक्कोसो, तिविधेसो होति णातव्वो। 1898. लहुसगपक्खे पणगं, दस पण्णर तिविध एय णातव्वं / वीसा य भिण्णमासो, लहुमासो तिविध लहुपक्खे // 1899. गुरुमासो चतुमासो, छम्मासो चेव एस गुरुपक्खे। णवविहआवत्तेसा, दाणं णवहा तिमं वोच्छं / 1900. णिव्विगतिय पुरिमटुं, एक्कासण लहुसगे य दाणं ति। आयाम चतुत्थं 'वा, छटुं" तू लहुगपक्खम्मि / / 1. इस गाथा के बाद प्रतियों में 'लहुसतरपक्खे' का 4. गाथा के दूसरे चरण में छंदभंग है। यहां कुछ पाठ का उल्लेख है। लोप हो गया है, ऐसा संभव लगता है। 2. इस गाथा के बाद प्रतियों में 'अहालहसपक्खे' का ५.णिव्विगिय (पा, ब,ला)। उल्लेख है। 6. एसु (पा, ब, ला)। 3. प्रतियों में 'ठाणेहिं' दो बार लिखा हुआ है। 7.x (ला)। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 जीतकल्प सभाष्य 1901. अट्ठम दसम दुवालस, गुरुपक्खे एय होति दाणं तु। नवविहदाणं एसो, अहवाऽऽवत्ती इमा णवधा॥ 1902. पण दस पण्णरसं वा, लहुगुरुगा लहुसगे तु पक्खम्मि। वीसा य भिण्णमासो, लहु-गुरु लहुगे य मासेक्को / 1903. गुरुमासों दुण्णि मासा, लहुगुरुगा तिग चतुक्क लहुगुरुगा। पंचग छम्मासा या, लहुगुरुगा एस णवधा तु॥ 1904. आवत्तितवो एसो, नवभेदो वण्णितो समासेणं / अहुणा तु सत्तवीसो, दाणतवो तस्सिमो होति॥ 1905. लहुसग लहुगुरुपक्खो', एक्केक्को नवविधो मुणेतव्वो। दुहओ जहण्ण जहणगमज्झो यो जहण्णगुक्कोसो॥ 1906. मज्झिमजहण्णगं तू, मज्झिममज्झं तु मज्झिमुक्कोसं। उक्कोसगे जहण्णं, उक्कोसगमज्झ उक्कोसं // 1907. लहुसगपक्खे चेयं, नवभेद समासतो समक्खातं / लहुपक्खे वि नवविधं, गुरुपक्खे वी मुणेतव्वं // 1908. वासासु अहालहुसो, दुहओ जहणेण देज्ज भत्तेक्कं / जहणगमज्झायामं, जहण्णगुक्कोसगे चउत्थं // 1909. लहुसतर मज्झिमजहण्णगम्मि वासासु देज्जा आयाम। मज्झिममज्झें चउत्थं, मज्झिमउक्कोसगे छटुं॥ 1910. लहुसग उक्कोसजहण्णगम्मि वासासु देज्जऽभत्तटुं। उक्कोसमझ छटुं, उक्कोसुक्कोसमट्ठमगं // 1911. अहलहुगे वासासुं, जहणजहण्णे तु देज्ज आयामं। जहण्णमज्झ चउत्थं, जहण्णउक्कोसगे छटुं॥ 1912. लहुगतरा वासासुं, मज्झजहण्णम्मि हवयऽभत्तटुं। मज्झिममज्झे छटुं, मज्झिमउक्कोसमट्ठमगं // 3. देज्जा (पा, ला)। 1. पक्खा (पा)। 2.x (पा, ला)। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 197 पाठ-संपादन-जी-६७ 1913. लहुगे वासासुक्कोसगम्मि जहणे तु देज्ज छटुं तु। उक्कोसमज्झमट्ठम, उक्कोसुक्कोसगे दसमं॥ 1914. गुरुपक्खे जहण्णम्मि', जहण्ण होती चतुत्थभत्तं तु / हीणगमज्झे छटुं, जहण्णउक्कोसमट्ठमगं // 1915. गुरुगतरा वासासुं, मज्झजहण्णेण देज्ज छटुं तु। मज्झिममज्झं अट्ठम, मज्झिमउक्कोसगे दसमं॥ 1916. अहगुरुगे वासासुं, उक्कोसजहण्णमट्ठमं देज्जा। उक्कोसमज्झ दसमं, उक्कोसुक्कोस बारसमं // 1917. अहलहुसग सिसिरेसुं, जहण्णजहण्णेण होति पुरिमड्डूं। हीणगमज्झेक्कासण, जहण्णउक्कोस आयामं // 1918. लहुसतरा सिसिरेसुं, मज्झजहण्णेण भत्तमेक्कं तू। मज्झिममज्झाऽऽयामं, मज्झिमउक्कोसमें चतुत्थं // 1919. लहुसग सिसिरुक्कोसे, जहण्ण एतं तु देज्ज आयामं / ___मज्झिमगं तु चतुत्थं, उक्कोसुक्कोस छटुं तु॥ 1920. अहलहुसग सिसिरेसुं, दुहा जहण्णेण देज्ज भत्तेक्कं / - जहणगमज्झाऽऽयामं, जहण्णमुक्कोसर्गे चतुत्थं // 1921. लहुसतरा सिसिरेसुं, मज्झजहण्णेण देज आयामं / मज्झिममज्झ चतुत्थं, मज्झिम उक्कोसगे छटुं॥ 1922. लहुगे सिसिरुक्कोसे, होति जहण्णं चतुत्थभत्तं तु। 'उक्कोसमज्झ छटुं', उक्कोसुक्कोसमट्ठमगं / 1923. गुरुगे सिसिर जहण्णे, जहण्णगेणं तु देज्ज आयामं। जहणगमज्झ चउत्थं, जहण्णउक्कोसगे छटुं॥ 1924. गुरुगतरा सिसिरेसुं, मज्झजहण्णेण देज्जऽभत्तटुं। मज्झिममण्झे छटुं, मज्झिमउक्कोसमट्ठमगं // 3.4 (ला)। 1. णम्मी (ला)। 2. ण्णगुक्को (ब)। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 जीतकल्प सभाष्य 1925. अहगुरुगे सिसिरेसुं, उक्कोसजहण्णगेण छटुं तु। उक्कोसमज्झिमऽ?म, उक्कोसुक्कोसगे दसमं // 1926. अहलहुसग गिम्हासुं, जहण्णजहणेण होति णिव्विगति। हीणगमज्झे पुरिमं, जहण्णउक्कोस भत्तेक्कं // 1927. लहुसतरा गिम्हेसुं, मज्झजहण्णेण होति पुरिमर्छ / मज्झिममज्झेक्कासण, मज्झिमउक्कोसमायाम // 1928. लहुसग गिम्हुक्कोसे', जहण्णगे होति भत्तमेक्कं तु। उक्कोसमज्झ आयंबिलं तु उक्कोसमें चतुत्थं // 1929. अहलहुयग गिम्हेसुं, पुरिमर्ल्ड होति दुहजहण्णेणं / मज्झजहण्णेक्कासण, जहण्णउक्कोसमायामं // 1930. लहुगतरा . गिम्हेसुं, मज्झजहण्णेण भत्तमेक्कं तु। मज्झिममज्झाऽऽयामं, मज्झिमउक्कोसमें चतुत्थं // 1931. लहुयग गिम्हुक्कोसे', जहण्णगेणं तु होति आयाम। मज्झिमगं तु चतुत्थं, उक्कोसुक्कोसगे , . छटुं॥ 1932. गुरुगे गिम्ह जहण्णे, जहण्णगं होति भत्तमेक्कं तु। हीणगमज्झाऽऽयामं, जहण्णउक्कोसमें चतुत्थं // 1933. गुरुगतरा गिम्हेसुं, मज्झजहण्णेण होति आयामं। मज्झिममज्झ चतुत्थं, मज्झिमउक्कोसगे छटुं॥ 1934. अहगुरुगे गिम्हासुं, उक्कोसजहण्णगे चतुत्थं तु / उक्कोसमज्झ छटुं, उक्कोसुक्कोसमट्ठमगं॥ 1935. नवविहववहारेसो, आवत्ती-दाणसहितकालजुतो। बुद्धीए विण्णेयो, विभागतो एसमक्खातो॥ हट्ठगिलाणा भावम्मि, देज हट्ठस्स ण तु गिलाणस्स। जावतियं वावि सहति, तं देज सहेज्ज' वा कालं॥ 68 // 1. 'कोसेणायाम (पा, ब, ला)। 2,3. गिम्ह उक्कोसे (ब)। 4. एणुक्को (ब, ला)। 5.x (ब)। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-६८,६९ 199 1936. भावं पडुच्च अहिगं, देज्जाही हट्ठ-बलिय-णिरुयस्स। गिलाणस्स तु ऊणतरं, ण व देज्ज सहेज्ज वा कालं // 1937. असुभ सुभो वा भावो', लेस्साभेदेण होति णातव्वो। तिव्वो 'तिव्वतरो वा, तिव्वतमो एव मंदो वि॥ 1938. पणगे वि सेवितम्मी, चरिमं भाओ उ केइ पावंति। चरिमाओ वा पणगं, एवमिणं भावणिप्फण्णं // 1939. पुरिसं पडुच्च अहिगं, ऊणं वा देज्ज अहव तम्मत्तं / ते पुण पुरिसादीया, इमे समासेण णातव्या॥ - पुरिसा गीतागीता, सहासहा तह सढासढा केई। परिणामाऽपरिणामा, अतिपरिणामा य वत्थूणं॥६९॥ 1940. केई पुरिसा गीता, केइ अगीतत्थ होंति णातव्या। धिति-संघयणादीहिं, केइ सहा केइ तू असहा // 1941. मायावी होंति सढा, असढा पुण उज्जपण्ण णेतव्वा। परिणामादी इणमो, समासतो हं पवक्खामि // 1942. परिणामा ऽपरिणामा, अतिपरिणामा य वत्थु चरिमदुगे। अंबादीदिटुंता, होति विभागो इमो तेसिं // 1943. जो दव्वखेत्तकतकालभावओ जं जहा जिणक्खातं। तं तह सद्दहमाणं, जाणसु परिणामगं साधु // 1944. जाणति दव्व जहट्ठिय, सच्चित्ताचित्त मीसगं चेव। कप्पाकप्पं . च तहा, जोगं वा जस्स जं होति // 1945. खेत्ते. जं कायव्वं, अद्धाणे जतण एव सद्दहति। काले सुभिक्ख-दुब्भिक्खमादिसू जो जहा कप्पो॥ 1946. भावे हटुगिलाणं, आगाढे जं जहा' व कातव्वं / .. तं सद्दहति करेति य, एसो परिणामगो साधू // . 1.x (पा, ला)। 5.0 (792) में यह गाथा पाठभेद के साथ मिलती है। 2.x (ला)। ६.बृ७९३। 3. इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में भावेत्ति गतं' का उल्लेख है। 7. खेत्तं (ब)। 34. अप' (ब, मु)। 8.x (पा,ला)। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 जीतकल्प सभाष्य 1947. जो दव्वखेत्तकतकालभावओ जं जहा जिणक्खातं / . तं तह असद्दहंतं, 'अप्परिणामं वियाणाहि // 1948. जो दव्वखेत्तकतकालभावओ जं. जहा जिणक्खातं। तल्लेसुस्सुत्तमती, अतिपरिणामं वियाणाहि // 1949. परिणमति जहत्थेणं, मती तु परिणामगस्स कज्जेसु। बितिए ण तु परिणमती, अहिगमती परिणमे ततिए' // 1950. दोसु तु परिणमति मती, उस्सग्गऽववायतो तु पढमस्स। बितियस्स तु उस्सग्गे, अतिअववाए तु ततियस्स॥ 1951. अंबादीदिटुंतेहिँ, परिक्खा तेसि होति कातव्वा। . . जह कोई गुरुहिं तू, भणितो अंबाणि आणेहि // 1952. परिणामगोऽत्थ भणती, किं 'सच्चित्ते अचित्ते वाणेमि?" / भावियः केवइए वा?, किं टाले? भिण्णऽभिण्णे वा?॥ 1953. बेति गुरू लद्ध च्चिय, पुणो व वोच्छिसु अहव वीमंसा। भणितो सि त्ती एवं, अप्परिणामो इमं बेति॥ 1954. किं ते पित्तपलावो?, मा बितियं एरिसाइँ:०. जंपाहि। मा परो' वि सोच्छिति 2, अहं३ पि णेच्छामि एयस्स॥ 1955. अतिपरिणामो भणती", कालों सिं अतिच्छए अहो ताव। किं एच्चिरस्स वुत्तं?, इत्थऽम्ह वि ण तरिमो भणितुं५॥ 1956. घेत्तूण भारमागतों, भणती अण्णे वि किं नु आणेमि?। तो दो वि गुरू भणती, उवालभंतो इमं तहियं // 1957. णाभिप्पायं गिण्हसि, असमत्ते चेव भाससी६ वयणे। सुक्कंबिललोणकए, भिण्णे अहवा वि दोच्चंगे८॥ १.जाण अपरिणामयं साहुं (बृ 794 ) / 10. एरिस्सई (पा, ला)। 2. x (पा)। 11. पुरो (ब)। 3. जहिं (बृ 795) / . 12. सोच्छिहि (बृ 799) / 4. परिणामति (पा, ब)। 13. कहं (पा, बृ)। 5. तितिए (ला), तइओ (बृ 796) / 14. भणति (मु, ब)। 6. वि (बृ 797) / 15. तु. बृ 800 / 7. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 54 / 16. भाससि (मु, पा)। 8. "ते चित्ते व आणेमि (मु)। 17. सुत्तंबि' (ब, ला)। 9. भावतो (मु, ब)। 18. बृ८०१। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७०,७१ 201 1958. एमेव य' रुक्खे वी, भंजितु आणेह बेति अपरिणतो। णिप्फावादी रुक्खे, भणामि ण दुमे अहं हरिते // 1959. एमेव य बीयाई, आणेती आणिते गुरू भणति। अंबिलि विद्धत्थाणि व, भणामि न वि रोहणि समत्थे // तह धितिसंघयणोभयसंपण्णा तदुभएण हीणा य। आतपरोभयणोभयतरगा तह अण्णतरगा य॥७०॥ 1960. धितिदुब्बल देहें बली, धितिबलिओ देहदुब्बलो कोइ। - कोई५ दोहि वि बलिओ, दोहिं पी दुब्बलो कोइ॥ 1961. दोहि वि बलिए सव्वं, धितिहीणे जत्थ चिट्ठति धिती से। ___ आसज्ज व देहबलं, देज्जा लहुगं उभयहीणे // 1962. केयी पुरिसा पंचह, आयतरादी इमे उ णातव्वा। ... पढमो आयतरो तू, णो परओ परतरे बितिओ // 1963. उभयतरो तू ततिओ, णोभयह चउत्थगो उ णातव्वो। अण्णतरो परओ तू, पंचमगो होति णातव्वो॥ 1964. आयतर-परतराणं, को णु विसेसो? त्ति एत्थ चोदेति। . . आततरो-चउत्थादी, जं दिज्जति तं तु नित्थरति // 1965. वेयावच्चकरो तू, गच्छस्स उवग्गहम्मि वट्टति तु। एसो तु होति परतरों, चतुभंगो एव णातव्वो॥ 1966. वयावच्चतराणं, एक्कं सक्केति दो न णित्थरति। पंचमगो तू पुरिसो, अण्णतरो एस णातव्वो॥ कप्पट्ठियादयो वि य, चतुरो जे सेतरा समक्खाता। सावेक्खेतरभेदादयो य जे ताण पुरिसाणं॥ 71 // 1. x (पा, ला.)। 3. अण्णयरतरगा (ता, ब)। 2. गा. 1958 और 1959 के स्थान पर ब (802) 4. "बलीओ (ला)। में निम्न गाथा मिलती है 5. कोयी (ब)। . निष्फाव-कोद्दवाईणि बेमि रुक्खाणि न हरिए रुक्खे। 6. इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में 'अहवा पंच ' अंबिल विद्धत्थाणि अ, भणामि न विरोहण समत्थे॥ विकप्पा' का उल्लेख है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 जीतकल्प सभाष्य 1967. कप्पट्ठिता परिणता, कडजोगी चेव होंति तरमाणा। पडिपक्खेण वि चतुरो, ऽकप्पट्ठियमादि नातव्वा / 1968. पतिट्ठा 'ठवणा ठवणी", ववत्था संठिती ठिती। __अवत्थाणं अवत्था य', एगट्ठा चिट्ठणा ति य॥ 1969. सामाइए य छेदे, णिव्विसमाणे तहेव णिविटे। जिणकप्पे थेरेसु य, छव्विध कप्पट्ठिती होति // 1970. सो पुण ठिति मज्जाया, णासो कप्पो य होति कतिहा उ?। भण्णति सो दसभेदो, इणमो वोच्छं समासेणं.॥ 1971. आचेलक्कुद्देसिय, सेज्जातर . रायपिंड कितिकस्मे। वत-जेट्ठ पडिक्कमणे, मासं पज्जोसवणकप्पे // 1972. कतिहिं ठिता अठिता वा, सामाइयकप्पसंठिती णियमा?। . कतिठाणपतिट्ठो वा, छेदोवट्ठाणकप्पो उ?॥ 1973. चतुहिँ ठिता छहिँ अठिता, सामाइयसंजता मुणेतव्वा। दससु वि णियमा तु ठिता, छेदोवट्ठा मुणेतव्वा // 1974. सेज्जातरपिंडे या, 'कितिकम्मे चेव चाउजामे' य। 'पुरिसज्जेट्टे य तहा", चत्तारि अवट्ठिता कप्पा // 1975. आचेलक्कुद्देसिय, 'रायपिंडे तहा पडिक्कमणे"। मासं पज्जोसवणा, छप्पेतऽणवट्ठिता कप्पा॥ 1976. दसठणठितो कप्पो, पुरिमस्स य 'पच्छिमस्स य२० जिणस्स। आचेलक्कादीसुं, तेसिं तु परूवणा इणमो॥ 1. ठावणा ठाणं (बृ 6356) / 2. अवत्था (ब)। . 3. या (मु, पा)। 4. बृ 6357 / 5. बृ 6364, पंक 1271 / 6. चाउज्जामे य पुरिसजेटे (बृ 6361) / 7. कितिकम्मस्स य करणे (ब)। 8. राइणिय पुरिसजेट्ठो, चउसु वि एतेसु होति ठितो (पंक 1273) / 9. सपडिक्कमणे य रायपिंडे य (बृ 6362) / 10. x (पा)। 11. बृ (6363) तथा पंक (1270) में गाथा का उत्तरार्ध क्रमशः इस प्रकार है• एसो धुतरतकप्पो, दसठाणपतिट्ठितो होति। * कतरे दसठाणा तू, भण्णति आचेलगाइ इमे। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७१ 203 1977. दुविधा होंति अचेला, संताचेला असंतचेला य। तित्थगरऽसंतचेला, संताचेला भवे सेसा॥ 1978. संतेहिँ वि चेलेहिं, किह पुण समणा अचेलगा होति?। भण्णति सुणसू चोदग!, जह संतेहिं अचेला तु // 1979. सीसावेढियपोत्ति, णदिसंतरणम्मि णग्गयं बेति। जुण्णेहिं णग्गिय म्हिं, तुर सालिय! देहि मे पोत्तिं // 1980. जुण्णेहिं खंडिएहि य, असव्वतणुपाउएहिं ण य णिच्चं। संतेहिं . वि. णिग्गंथा, अचेलगा होंति चेलेहि // 1981. एवं दुग्गतपहिया, 'वाचेलगा" होति ते भवे बुद्धी। ते खलु असंततीए, धरंति ण तु धम्मसद्धाए // 1982. सति लाभम्मिं साधू, गेहंतऽसहवणाइँ ताई तु। ताणि वि खंडियमादी', धरेंति तह धम्मबुद्धीए / 1983. आचेलक्को धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमगाण जिणाणं, होति 'सचेलो अचेलो११ वा॥ 1984. पडिमाएँ पाउया वा, णऽतिक्कमंते तु मज्झिमा समणा। पुरिमचरिमाण अमहद्धणा तु भिण्णाणिमो१२ मोत्तुं / 1985. णिरुवहतलिंगभेदे, णिक्कारणतो ण कप्पते कातुं / किं पुण तं णिरुवहतं?, भण्णति. अहजातलिंगं तु॥ 1986. जम्मं दुविधं होती, मातूकुच्छिम्मि पढम जं जम्म। भवसंसारचउक्के, निप्फिडितो. बितिय पव्वजं // 1. वृ (6365) में इस गाथा का पूर्वार्द्ध एक वचन दुविहो होति अचेलो, संताचेलो असंतचेलो य। 2. सिस्सा' (मु), "यपुत्तं (बृ 6366) / 3. णदिउत्तर (ब)। 4. पोती (पा, ला, मु)। 5. मि (पा, ला)। 6. बृ 6367 / 7. अचे (बृ 6368) / 8. धम्मबुद्धीए (ब)। 9. खंडय' (ब)। 10. “स्सा (मु)। 11. अचेलो सचेलो (बृ 6369) / 12. भिण्णा इमे (बृ 6370) / Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 जीतकल्प सभाष्य 1987. तस्स इमे भेदा खलु, खंधदुवारे य समण पाउरणे। गरुलद्धंसे पट्टे, लिंगदुवे या इमा भयणा // 1988. लहुगो लहुगो लहुगा, तिसु चतुगुरुगा य होति बोद्धव्वा। गिहिलिंग-अण्णलिंगे, दोसु वि मूलं तु बोद्धव्वं // 1989. कुव्विज्ज कारणे पुण, भेदं लिंगस्सिमेहि कज्जेहिं / गेलण्ण रोग लोए, सरीरवेयावडियमादी // 1990. आसज्ज खेत्तकप्पं, वासावासे अभाविते असहू। “काले अद्धाणम्मि य, सागरि तेणे य पंगुरणं / 1991. असिवे ओमोदरिए, रायगुडे पवादिदुढे वा। आगाढे अण्णलिंगं, कालक्खेवो व गमणं वा // 1992. संघस्सोह-विभागे, समणा 'समणी य कुल-गणस्सेव"। - कडमिह ठिते ण कप्पति, अद्वितकप्पे जमुद्दिस्स // . 1993. आयरिए अभिसेगे, भिक्खुम्मि गिलाणगम्मि भयणा उ। 'तिक्खुत्तऽडविपवेसे'", तियपरियट्टे० ततो गहणं // 1994. तित्थंगरपडिकुट्ठो१२, आणा अण्णात उग्गमो ण सुज्झे। अविमुत्ति अलाघवता, दुल्लभसेज्जा विउच्छेदो१३ // 1995. पुरपच्छिमवज्जेहिँ, अवि कम्मं जिणवरेहिं लेसेणं / वुत्तं४ विदेहगेहिं, ण य सागरियस्स पिंडो तु५ // 1. 1987 एवं १९८८-इन दो गाथाओं के स्थान पर 7. “णीण कुल गणे संघे (बृ 6376) / बृ (6373) में निम्न गाथा मिलती है- 8. पंक 1296 / खंधे दुवार संजति, गरुलद्धंसे य पट्ट लिंगदुवे। 9. अडविपवेसे असती (पंक 1297) / लहुगो लहुगो लहुगा, तिसु चउगुरु दोसु मूलं तु॥ 10. चउप (बृ 6377) / 2. इस गाथा के बाद प्रतियों में 'अहवा इमेहिं कारणेहिं' 11. प्रतियों में इस गाथा के बाद 'उद्देसिय त्ति गतं' का का उल्लेख है। उल्लेख है। 3. वासाठाई (मु)। 12. तित्थगरप्प (ला), तित्थगरपडिक्कुट्ठो (ता)। 4. पाउरणं (बृ 6371) / 13. य वोच्छेदो (नि 1159, बृ 3540), बृ 6378, 5. व वादि' (बृ 6374) / पंक 1298, प्रसा 806 / 6. पंकभा 1284, इस गाथा के बाद प्रतियों में 'अचेल 14. भुत्तं (मु, नि 1160, प्रसा 807) / ' त्ति गतं' का उल्लेख है। 15. बृ. 3541 / Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७१ 205 1996. दुविधे गेलण्णम्मी', निमंतणारे दव्वदुल्लभे असिवे / ओमोदरिय-पदोसे, भए व गहणं अणुण्णातं // 1997. तिक्खुत्तो सक्खेत्ते, चउद्दिसिं मग्गिऊण कडजोगी। दव्वस्स य दुल्लभता, 'सागारियसेवणा दव्वे // 1998. 'केरिसगो तू* राया?, भेदा पिंडस्स के व? सिं' दोसा?। केरिसगम्मि व कज्जे, कप्पति काए व जतणाए? // 1999. मुदिते मुद्धऽभिसित्ते, मुदितो जो होति 'जोणिसुद्धो तु"। अभिसित्तो व परेहिं, सयं व भरहो जहा राया // . 2000. पढमगभंगे वज्जो, होतुवमा वावि जे भणित'• दोसा। . सेसेसु 'होतऽपिंडो'११, जहिं दोसा 'तं विवज्जेज्जा'१२ // 2001. असणादीया चतुरो, वत्थे पादे य कंबले चेव। पाउंछणगे य तधा, अट्ठविधो रायपिंडो तु३ // 2002. अट्ठविधरायपिंडं, अण्णतरागं तु जो पडिग्गाहे। __सो आणा-अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे // 2003. ईसर-तलवर- माडं बिएहिं सेट्ठीहिँ सत्थवाहे हिं। णितेहिं अइंतेहि य, वाघातो होति साहुस्स५ // 2004. ईसर भोइयमादी, तलवरपट्टेण तलवरो होति। वेट्ठणबद्धो६ सेट्ठी, पच्चंतणिवो७ तु माडंबी॥ 2005. जा णितिऽइंति 'ता अच्छतो'१८ तु सुत्तादि-भिक्खपरिहाणी। इरिया अमंगलं ति य, पेल्लाहणणा इहरहा तु॥ . 1. णम्मि वि (पंक 1305), णम्मिं (बृ 6379) / 10. तहिं (बृ 6383, नि)। 2. 'तणे (बृ)। . . 11. होति पिंडो (नि 2499) / 3. नि 2532, पंक 1299 / 12. जंति (नि), ते विवज्जति (बृ)। 4. जोयणम्मि (बृ 6380, पंक 1300) / 13. बृ 6384, नि 2500 / 5. "रिणिसेवणा ताहे (ब), नि 1174, इस गाथा के 14. बृ 6385, नि 2501 / ___ बाद प्रतियों में 'सेज्जायरे त्ति गयं' का उल्लेख है। 15. भिक्खुस्स (बृ 6386, नि 2502) / 6. “सगु त्ति व (बृ 6381) / 16. वेंटण (नि 2503), णवट्टो (मु)। ...7. से (ब)। 17. “तऽहिवो (बृ 6387) / 8. जोणितो सुद्धो (नि 2498) / 18. तावऽच्छणे (नि 2504) / '9. बृ 6382, पंक 1301 / 19. भिक्खहाणी य (बृ 6388) / Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 जीतकल्प सभाष्य 2006. लोभे एसणघातो, संका तेणे 'नपुंस इत्थी य"। इच्छंतमणिच्छंते, चातुम्मासा भवे गुरुगा // 2007. अण्णत्थ एरिसं दुल्लभं, ति गेण्हेज्जऽणेसणिज्जं पि। अण्णेण वि अवहरिते, संकिज्जति एस तेणो त्ति // 2008. संका चारिग चोरे, मूलं 'णिस्संकिते य" अणवट्ठो। परदारि अहिमरे वा, नवमं णीसंकिते' दसमं // 2009. अलभंता 'य वियारं , इत्थि-णपुंसा बला वि गेण्हेज्जा। आयरिय-कुल-गणे वा, संघे 'वा कुज्ज" पत्थारं // 2010. अण्णे वि अस्थि- दोसा, 'गोम्मियआइण्णरतणमादी य"। तण्णीसाएँ पविसे, तिरिक्ख-मणुया भवे दुट्ठा // 2011. गोम्मियगहणा हणणा, रण्णो य णिवेइयम्मि जं पावे। आइण्णरतणमादी", सय गेण्हेतरों व तण्णीसा // 2012. चारियचोराभिमरा, कामी व विसंति तत्थ तण्णीसा। वारण-तरच्छ-वग्घा, 'मेच्छा य११ नरा व घातेज्जा / / 2013. दुविधे गेलण्णम्मी, निमंतणा दव्वदुल्लभे असिवे। ओमोदरिय पदोसे, भए व गहणं अणुण्णातं५ // 2014. तिक्खुत्तो सक्खेत्ते, चउद्दिसिं मग्गितूण * कडजोगी। दव्वस्स य दुल्लभता, 'जतणाए कप्पती ताहे '16 // 1. चरित्तभेदे य (नि 2523) / 2. बृ 6389, नि 2505 / 3. बृ 6390, नि 2506 / 4. “कियम्मि (बृ 6391) / 5. णिस्सं (बृ)। 6. पवियारं (बृ 6392) / 7. व करेज्ज (बृ)। 8. होंति (बृ 6393) / 9. आइण्णे गुम्म रतणमादीया (ब)। 10. पवेसो (ब)। 11. आदीणर' (पा, ब, ला)। 12. बृ (6394) में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा मिलती हैआइण्णे रतणादी, गेण्हेज सयं परो व तन्निस्सा। गोम्मियगहणा-ऽऽहणणं, रण्णो व णिवेदिए जंतु॥ 13. वाणर (बृ)। 14. मिच्छादि (बृ 6395, नि 2511) / 15. पंक 1305, बृ 6396, नि 2532 / 16. सागारियसेवणा दव्वे (बृ 3555), बृ 6397, इस गाथा के बाद प्रतियों में 'रायपिंडे ति गतं' का उल्लेख है। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७१ 207 2015. कितिकम्मं 'पि य दुविधं, अब्भुट्ठाणं तहेव वंदणगं / समणेहि य समणीहि य, जहारिहं होति कातव्वं // 2016. सव्वाहिं संजतीहिं, कितिकम्मं संजताण कातव्वं / पुरिसुत्तरिओ धम्मो, सव्वजिणाणं पि तित्थम्मि // 2017. तुच्छत्तणेण गव्वो, जायति ण य संकते परिभवेणं / _अण्णो वि होज्ज दोसो, थियासु माहुज्जहज्जासु' / 2018. अवि य हु पुरिसपणीतो, धम्मो पुरिसो य रक्खितुं सत्तो। ___ लोगविरुद्धं चेयं, तम्हा समणाण कातव्वं // 2019. पंचज्जामो' धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। .. मज्झिमगाण जिणाणं, चातुज्जामो भवे धम्मो // 2020. पुरिमाण दुव्विसोझो, चरिमाणं दुरणुपालओ कप्पो। मज्झिमगाण जिणाणं, सुविसोज्झो सुरणुपालो' य० // 2021. जड्डुत्तणेण हंदी", आइक्ख-विभागउवणता दुक्खं / सुहसम्मुयदंताण१२ य, तितिक्ख अणुसासणा दुक्खं / 2022. मिच्छत्तभावियाणं, दुवियड्डमतीण वामसीलाणं / 'आइक्खितु अतिदुक्खं"", उवणेउं वावि दुक्खं तु॥ . 2023. दुक्खेहि भच्छियाणं५, तणुधितिअबलत्तयो य दुतितिक्खं / एमेव दुरणुसासं, माणुक्कडयाय" चरिमाणं // 2024. एते चेव य ठाणा, सुपण्णउज्जुत्तणेण८ मज्झाणं / सुह-दुहउभयबलाण य, विमिस्सभावा भवे सुगमा // 1. x (ता)। 11. हंदि (बृ 6404) / 2. बृ 6398, पंक 1338 / 12. समुदिय' (बृ)। 3. बृ६३९९, पंक 1339 / 13. ‘त्तगोवि (मु)। 4. धियासु (पा, ब, मु)। 14. "क्खिउं विभइउं (बृ 6405) / . 5. बृ६४००। 15. भत्थिताणं (बृ 6406) / 6.. बृ 6401, सभी प्रतियों में इस गाथा के बाद 16. "धितीअ (पा, ब, ला)। 'किइकम्मो त्ति गयं' का उल्लेख है। 17. 'डओ य (बृ)। 7. पंचायामो (बृ 6402) / 18. सुप्पण्णुज्जु (बृ 6407) / 8. पंक 1340 / 19. सुहुमा (पा, ब, मु), इस गाथा के बाद सभी - 9. सुहणु' (पंचा 17/42) / प्रतियों में 'वए त्ति गयं' पाठ का उल्लेख है। / ' 10. तु. उ 23/27, बृ 6403, पंक 1341 / Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 जीतकल्प सभाष्य 2025. पुव्वतरं सामइयं, जस्स कतं जो वतेसु वा ठवितो। एस कितिकम्मजेट्ठो, न जाति-सुततो दुपक्खे वि॥ 2026. सा जेसि तुवट्ठवणारे, जेहि य ठाणेहिं पुरिम-चरिमाणं। पंचायामे धम्मे, आदेसतिगं चिमं सुणसु / 2027. दस चेव छच्च चतुरो, एते खलु तिण्णि होति आदेसा। कतरे हवंति दस तू?, भण्णति सुणसू इमे ते तू // 2028. तओ पारंचिया वुत्ता, 'अणवट्ठा य'६ तिण्णि तु। दसणम्मि य वंतम्मि', चरित्तम्मि . य केवले // 2029. अदुवा चियत्तकिच्चे, जीवकायं समारभे। सेहे य दसमे . वुत्ते, 'जस्सोवट्ठावणा भवे // 2030. एते दस तू वुत्ता, अण्णादेसेण होंति छत्तु इमे। तिण्णि वि पारंचेक्कं, अणवठ्ठप्पा० वि तिण्णेक्कं // 2031. दंसणवंते ततिए, चरित्तवंते भवे चतुत्थं तु। पंचम चियत्तकिच्चो, छट्ठो सो होउवट्ठप्पो॥ 2032. एसो बितियादेसो, ततियादेसो इमो मुणेतव्वो। - चत्तारि उवट्ठप्पा, कतरे तु? इमे मुणेतव्वा // 2033. पारंची अणवट्ठा, दंसण चरणे सुतोपदिट्ठार२ तु। दंसण-चरित्तवंता, तो दोण्णेते भवंती तु॥ 2034. चियत्तकिच्चो सेहो य, . चत्तारेते हवंतुवटुप्पा। एते तिण्णादेसा, उवठवणाए मुणेतव्वा // 2035. केवलगहणं१३ कसिणं, जइ वमती दंसणं चरितं वा। तो तस्स उवट्ठवणा, देसे वंतम्मि भयणा तु॥ 1. वी (बृ६४०८)। 2. उव (बृ 6409) / 3. च मे (बृ)। 4. सुणह (ब)। 5. गाथाओं के क्रम में ब में यह गाथा नहीं है। 6. वटुप्पाति (पंक 1344) / 7. "म्मिं (बृ 6410) / 8. अहवा (मु)। 9. जस्स उवट्ठावणा भणिया (बृ६४११), जस्सुवठावणा भणिता (पंक 1345) / 10. वट्ठा (पा, ला)। 11. चत्तारि व (मु), रि य (ब)। 12. पहिट्ठा (ता, पा, ब, ला)। 13. "हणा (बृ६४१५)। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७१ 209 2036. एमेव य किंचि पदं, सुतं च असुतं च अप्पदोसेणं / __अविकोविओ कहेंतो, चोदिय आउट्ट सुद्धो तु॥ 2037. सो पुण दसणवंतो, अणभोगेणं व अहव आभोगा। अणभोगेणं तहियं, कोयी सड्ढो तु संवेगा। 2038. दट्ठण णिण्हगे तू, एते साहू जहुत्तकारि त्ति। ___णिक्खंतो अणभोगा, दिट्ठो अण्णेहिं साधूहि // 2039. भणितो य णिण्हगाणं, कीस सगासे तुम सि निक्खंतो। तो बेति ण याणामि, एय विसेसं अहं भंते ! / / 2040. एवमणाभोगेणं, मिच्छत्तगतो पुणो वि सम्मत्तं / जो पडिवण्णो सो तू, आलोइयणिंदितो सुद्धो॥ 2041. सो चेव य परियाओ, नत्थि उवट्ठावणा पुणो तस्स। . तं चिय पच्छित्तं से, जं चिय सम्मं तु पडिवज्जे॥ 2042. जो पुण जाणतो च्चिय, गतो तु होज्जाहि णिण्हगेसुं तु। - पुणरागतो य सम्म, तस्स उवट्ठावणा भणिता॥ 2043. छण्हं जीवनिकायाणं, अणपज्झो तु विराधओ। आलोइयपडिक्कंतो, सुद्धो हवति संजतो / / 2044. छण्हं जीवनिकायाणं, अप्पज्झो तू विराधओ। आलोइयपडिक्कतों, मूलच्छेज्जं तु कारए / 2045. खेत्तादिअणप्पज्झो, अणभोगेणं व जो गतो मिच्छं। सो तु अपायच्छित्तो, विराध ती तस्स देंतो तु॥ 2046. जं जो तु समावण्णो, जं पाउग्गं व्व जस्स वत्थुस्स। तं तस्स तु दातव्वं, 'असरिसदाणा इमं होति'५ // 2047. अप्पच्छित्ते य पच्छित्तं. पच्छित्ते अतिमत्तया। धम्मस्साऽऽसायणा तिव्वा, मग्गस्स य विराधणा // 1.66416 / 2.76419, पंक 1354 / ३.तिविहेण पडिक्कंते (पंक 1353) / 4.76420 // ५.व्व (ला, पा, ब)। 6. दाणे इमे दोसा (बृ 6421) / 7. अपायच्छित्ते (पंक 1356) / 8.6 6422, निभा 2864 / Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 जीतकल्प सभाष्य 2048. उस्सुत्तं ववहरतो, कम्मं बंधति चिक्कणं / संसारं च पवड्डेति, मोहणिज्जं व कुव्वती // 2049. 'उम्मग्गदेसए मग्गदूसए मग्गविप्पडीवाए। परं मोहेण रंजेतो, महामोहं पकुव्वती॥ 2050. एवं तु उवट्ठवितो, जो पढमतरं तु अहव सामइए। ठवितो सो जेट्टयरो, कप्पपकप्पट्ठिताणं च // 2051. सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य' पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमगाण जिणाणं, कारणजाते पडिक्कमणः // 2052. गमणागमणविहारे, सायं पाओ य पुरिम-चरिमाणं। नियमेण पडिक्कमणं, अतियारो होउ वा मा वा // 2053. अतियारस्स तु असती, नणु होति णिरत्थगं पडिक्कमणं / भण्णति एवं चोदग!, तत्थ इमं होति णातं तु॥ 2054. जह कोइ डंडिगो तू, रसायणं कारवेति पुत्तस्स। तत्थेगो तेगिच्छी, बेती मज्झं तु एरिसगं / / 2055. जति° दोसे 'होअगतं, अह'११ दोसो नत्थि तो गतो होति। बितियस्स हरतिर दोसं, न गुणं दोसं व तदभावा // 2056. दोसं हतूण गुणं, करेति गुणमेव दोसरहिते वि३ / ___ततियसमाहिकरस्स तु, रसायणं डंडियसुतस्स" // 2057. 'इय सइ दोसं छिंदति'१५, असती दोसम्मि निज्जरं कुणति। कुसलतिगिच्छरसायण, उवणीतमिणं१६ पडिक्कमणं / १.बृ 6423, पंक 1357 / 9. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.५५ / 2. सणाए य, मग्गं विप्पडिवातए (बृ६४२४, पंक 1358) / 10. सति (बृ 6428) / 3. इस गाथा के बाद प्रतियों में पुरिसजे? त्ति गतं' का 11. “गतो जति (बृ)। उल्लेख है। 12. हणति (बृ)। 4. इ (बृ६४२५)। 13. त्ति (पा, मु, ला)। 5. आवनि 836, पंक 1359, प्रकी 3989, प्रसा 654, 14. बृ६४२९। पंचा 17/32 / 15. जति दोसो तं छिंदति (बृ 6430) / 6. वियारे (बृ 6426) / .. 16. मुवणीयमिदं (ब)। 7. पंचा 17/33 / 17. इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में 'पडिक्कमणे त्ति गतं' 8. ण भवति (बृ६४२७)। का उल्लेख है। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७१ 211 2058. जिणथेरअहालंदे, परिहारिग अज्ज मासकप्पो तु। खेत्ते कालमुवस्सयपिंडग्गहणे य नाणत्तं // 2059. एतेसिं 'पंचण्ह वि२, अण्णोण्णस्सा चतुप्पएहिं तु। खेत्तादीहि विसेसो, जह तह वोच्छं समासेणं // 2060. नत्थि तु खेत्तं, जिणकप्पियाण उडुबद्ध मासकालो तु। वासासुं चउमासा, वसधी अममत्तऽपरिकम्मा / 2061. पिंडो तु अलेवकडो, गहणं तू एसणाहुवरिमाहिं / तत्थ वि कातुमभिग्गह, पंचण्हं अण्णयरियाए / 2062. थेराण अस्थि खेत्तं, तु उग्गहो जाण' जोयण सकोसं। ... नगरे पुण वसहीए, कालो उडुबद्ध मासो तु॥ 2063. 'उस्सग्गेण य” भणितो, अववाएणं तु होज्ज अहिगो वि। एमेव य वासासु वि, चतुमासो होज्ज अहिगो वा // 2064. अममत्त-अपरिकम्मो, उवस्सओ एत्थ 'भंगया चतुरो' / उस्सग्गेणं पढमो, तिण्णि तु 'अववायओ भंगा // 2065. भत्तं लेवकडं वा, ऽलेवकडं९ वा वि ते तु गेहंति। सत्तहि वि१२ एसणाहिं, सावेक्खो गच्छवासो त्ति५२ // 2066. अहलंदियाण गच्छे, अप्पडिबद्धाण जह जिणाणं तु / नवरं कालविसेसो, उदुमासो४ पणग चतुमासो / 2067. गच्छे पडिबद्धाणं, अहलंदीणं तु अह पुण विसेसो। 'जो तेसि उग्गहो खलु, सोमोऽऽयरियाण'१५ आहवति / / 1. पंक 2550 / 2. हं (ला)। 3. स्स उ (पंक 2551) / 4. पंक 2552 / 5. पंक 2553 / 6. जाव (पंक 2554) / 7. गेणं (पंक 2555) / ८.वि (पंक)। 9. भंग चउरो उ (पंक 2556) / १०.सेसाववादेणं (पंक)। 11. अले" (पा, ला, मु)। 12. व (पा, मु)। 13. पंक 2557 / 14. उडुवासे (पंक 2558), उउवासे (प्रसा 615) / 15. उग्गहो जो तेसिं तू सो' (पंक 2559), उग्गह जो तेसिंतु सो आयरि (प्रसा 616) / Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 जीतकल्प सभाष्य 2068. एगवसहीएँ पणगं, छव्वीहीओ या गामें कुव्वंति। दिवसे दिवसे अण्णं, अडंति 'वीहिं तु'२ नियमेणं / / 2069. परिहारविसुद्धीणं, जहेव जिणकप्पियाण नवरं तु। आयंबिलं तु भत्तं, 'बोद्धव्वो थेरकप्पो तु" // 2070. अजाण परिग्गहिताण उग्गहो जो तु सो हु' आयरिए। काले' दो दो मासा, उदुबद्धे तासि कप्पो तु // 2071. सेसं जह थेराणं, पिंडो य उवस्सयो य तह तासिं। सो सव्वो वि य दुविधो', जिणकप्पो थेरकप्पो य॥ 2072. जिणकप्पियऽहालंदी, परिहारविसुद्धियाण जिणकप्पो। . थेराण अज्जियाण' य, बोद्धव्वो थेरकप्पो . तु॥ 2073. दुविहो उ० मासकप्पो, जिणकप्पो चेव थेरकप्पो य। णिरणुग्गहो जिणाणं, थेराण अणुग्गहपवत्तो॥ 2074. उदुवासकाल २ऽतीते, जिणकप्पीणं तु गुरुग गुरुगा य। होंति दिणम्मि दिणम्मी, थेराणं ते च्चिय लहू तु // 2075. तीसं पदाऽवराहे, पुट्ठो अणुवासियं अणुवसंतो। जे जत्थर३ पदे दोसा, ते तत्थ ततो समावण्णो" // 2076. पण्णरसुग्गमदोसा, दस एसणदोस एते१५ पणुवीसं। संजोयणाइ पंच य, एते तीसं तु * अवराहा // 2077. एतेहिं दोसेहिं, 'ऽसंपत्तीए वि लग्गती नियमा'। दिवसे दिवसे सो ऊस, कालातीते वसंतो तु॥ 1. व (पंक)। 2. वीही (मु), वीहीइ (पंक २५६०),वीहीस (प्रसा६१७)। 3. गेण्हंती वासकप्पं च (पंक 2561) / 4. तु (पंक)। 5. कालतो (मु, ब)। 6. पंक 2562 / 7. x (ला)। 8. यं (ला), पंक 2563 / 9. अज्जाण (पंक 2564) / 10. य (ब, पंक 2565) / 11. बृ (6431) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है एक्केक्को वि य दुविहो,अट्ठियकप्पो य ठियकप्पो। 12. उडुवा (पंक 2566) / 13. तत्थ (मु)। 14. पंक 2567 / 15. एय (ला)। १६.पंक 2568 / 17. जदि असंपत्ति लग्गती तह वि (पंक 2569) / 18. खलु (पंक)। 19. काल अतीते (पा, ला)। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७१ 213 2078. वासावासपमाणं, आयारउदुप्पमाणितं कप्पं / एतं अणुम्मुयंतो, जाणसु अणुवासकप्पो तु॥ 2079. आयारपकप्पम्मी, जह भणितं तीय संवसंतो वि। होति अणुवासकप्पो, तह संवसमाण दोसा तु॥ 2080. दुविधे विहारकाले, वासावासे तहेव उदुबद्धे। 'मासातीतेऽणुवधी'५, वासातीते भवे उवधी // 2081. उडुबद्धिगेसु अट्ठसु, 'तीतेसुं वास तत्थ ण वि" कप्पे। घेत्तूणं . उवहिं खलु, वासातीतेसु कप्पति तु // 2082. वासउदुअहालंदे, इत्तिरिसाहारणोग्गहपुहत्ते / संकमणट्ठा दव्वे, गच्छे पुप्फावकिण्णा तु॥ 2083. वासासु चउम्मासो, उदुबद्धे मासो लंद पंच दिणा। इत्तिरिओ रुक्खमूलें, वीसमणट्ठा ठिताणं तु // 2084. साहारणा तु एते, समट्ठिताणं१२ बहूण गच्छाणं। एक्केण परिग्गहिता, सव्वे वोहत्तिया होति // 2085. 'संकमणऽण्णोण्णस्सा'१५, सगासे जइ तु ते अहीयते। सुत्तत्थतदुभयाई, सव्वो६ अहवा वि पडिपुच्छे / 2086. ते पुण मंडलियाए, आवलियाए व तं तु गिण्हेज्जा। मंडलियमहिज्जंते, सच्चित्तादी तु. जो लाभो // 1. आयारे उ प्पमा (पंक 2570), आयारे से भाष्यकार का तात्पर्य निशीथ अथवा निशीथभाष्य से है। 2. कप्पं (पंक)। 3. पंक 2571 / 4. उडु (पंक 2572) / 5. मास अती (पा, ला), ते अणुवहि (ब, पंक)। 6. उव्यट्टिएसु (ता, पा, ला)। 7. मासातीतेसुं तत्थ वास ण तु (पंक 2573) / 8. वासासु तु तीते (मु, पा)। ९.ति (ब)। 10. रणे पुहुत्ते य (पंक)। ११.पंक (2574) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है उग्गह संकमणं वा, अण्णोण्णसकासऽहिज्जते। १२.पंक 2575 / 13. समगठि” (मु, ब)। 14. वोहित्तिया (पंक 2576) / 15. "णण्णमण्णस्स (पंक 2577) / 16. संघे (पंक)। 17. पंक 2578 / Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 जीतकल्प सभाष्य 2087. सो तु परंपरएणं, संकमती' ताव जाव सट्ठाणं / जहियं पुण आवलिया, तहियं पुण 'ठाति अंतम्मि" // 2048. ते पुण 'जहा तु एक्काए, वसहीए अहव पुप्फकिण्णा तु। अहवा वि तु संकमणे, दव्वस्सिणमो विधी अण्णो॥ 2089. सुत्तत्थतदुभयविसारयाण थोवे य. संततीभेदे / 'संकमणट्ठा दव्वे, जोगे कप्पे य आवलिया" // 2090. पुव्वट्ठिताण खेत्ते, जदि आगच्छेज्ज अण्ण आयरिओ। बहुसुत बहुआगमितो, तस्स सगासम्मि जइ खेत्ती // 2091. किंचि अहिज्जेज्जाही, थोवं खेत्तं च तं जदि हवेज्जा। ताहे असंथरंता', दोण्णि वि साधू विवज्जेंति // 2092. अण्णोण्णस्स सगासे, तेसिं पि य तत्थऽहिज्जमाणाणं / आभवणा तह चेव य, जह भणितमणंतरे सुत्ते // 2093. एवं णिव्वाघाते, मास चतुम्मासिओ - तु थेराणं। कप्पो कारणतो पुण, अणुवासो कारणं जाव'५ // 2094. एसो तु मासकप्पो, थेरकप्पो य वण्णिओघेणं / अहुणा ठितमठितं तू, थेराणं इणमु वोच्छामि। 2095. सो थेरकप्पों दुविहो, अद्वितकप्पो य होति ठितकप्पो। एमेव जिणाणं पी, ठितमठितो होति कप्पो तु२॥ 2096. पज्जोसवणाकप्पो, होति ठितो अद्वितो य थेराणं। एमेव जिणाणं पी, 'दुह ठितमठितो य णातव्वो '13 // 2097. चातुम्मासुक्कोसे, सत्तरि राइंदिया . जहण्णेणं / ठितमट्टितमेगतरे, कारणवच्चासितऽण्णतरे५॥ १.संकामति (पंक 2579) / 2. अंतरे ठाति (पंक)। 3. ठित (पंक 2580) / 4. संकमणदव्व मंडलि, आवलिया कप्पअणुवासा (पंक 2581) / 5. पंक 2582 / 6. तह ति (ब)। 7. असंवरंता (पा, ब, ला)। 8. विसज्जेंति (पंक 2583) / 9. पंक 2584 / 10. कप्पा (ता)। 11. पंक 2585 / 12. इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में 'मासकप्पे त्ति गतं' का उल्लेख है। 13. कप्पो ठितमट्ठितो होति (बृ 6432, पंक 1361) / 14. “एग (पा, ला, मु)। 15. बृ 6433, पंक 1362 / Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७१ 215 2098. थेराण सत्तरी खलु, वासासु ठितो उडुम्मि मासो तु। वच्चासितो तु कज्जे, जिणाण णियमट्ठ चतुरो वा // 2099. दोसासतिरे मज्झिमगा, अच्छंती जाव पुव्वकोडी तु। विहरंति य वासासु वि, अकद्दमे पाणरहिते य॥ 2100. भिण्णं पि मासकप्पं, करेंति तणुगं पि कारणं पप्प। जिणकप्पिया वि एवं, एमेव 'महाविदेहे वि५॥ 2101. एतं ठितम्मि मेरं, अद्वितकप्पे य जो पमादेति। सो वट्टति पासत्थे, ठाणम्मि 'तगम्मि वज्जेज्जा // -- 2102. पासत्थसंकिलिटुं, ठाणं जिणवुत्तं थेरेहि य। - तारिसं तु गवेसंतो, सो विहारे ण सुज्झति // 2103. पासत्थसंकिलिटुं, ठाणं जिणवुत्तं थेरेहि य। तारिसं तु विवज्जतो, सो विहारे 'तु सुज्झति" // 2104. जो कप्पठितीमेत०, सद्दहमाणो करेति सट्ठाणे। तारिसं तु गवेसेज्जा, जतो गुणाणं अपरिहाणी॥ 2105. ठितमठितम्मि'२ दसविधे, ठवणाकप्पे य दुविधमण्णतरे। उत्तरगुणकप्पम्मि१३ य, जो सरिकप्पो स संभोगो // 2106. ठवणाकप्पो दुविधो, अकप्पठवणा य सेहठवणा य। पढमो अकप्पिएणं१५, आहारादी ण गिण्हावे.६ // 2107. अट्ठारसेव पुरिसे, वीसं इत्थीउ१७ दस नपुंसे य। दिक्खेति जो न एते, सेहट्ठवणाएँ सो कप्पो॥ 1. य (बृ 6434) / 2. दोसा असति (ता, ब, ला)। ३.वि (बृ६४३५)। ४.विचरंति (ब)। 5. हेसु (बृ६४३६)। 6. एवं (बृ 6437) / 7. तगं विव' (बृ)। 8.66438 / ९.विसु (बृ६४३९)। 10. ठितिं एयं (बृ 6440) / 11. ण परि. (ब)। १२.ठियकप्पम्मि (बृ६४४१), ठितिकप्पम्मि (नि 2149) / 13. "प्पं ति (ब)। 14. सरिसो उ (नि 5932) / 15. अकल्पिकेन अनधीतपिण्डैषणादिसूत्रार्थेन (बभाटी)। 16. बृ 6442 / 17. इत्थीण (मु, पा)। 18.66443 / Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 जीतकल्प सभाष्य 2108. आहार-उवधि-सेज्जा, उग्गमउप्पादणेसणासुद्धं / . जो परिगिण्हति णियतं, उत्तरगुणकप्पिओ स खलु // 2109. सरिकप्पे सरिछंदे, तुल्लचरित्ते विसिट्ठतरगे वा। ___'साधूहिं संथवं कुज्जा', णाणीहिं चरित्तगुत्तेहिं // 2110. सरिकप्पे सरिछंदे, तुल्लचरित्ते विसिट्ठतरगे वा। आदेज्ज भत्तपाणं, सएण लाभेण वा तुस्से // 2111. इय सामाइयछेदे, जिणथेराणं ठिती समक्खाता। एत्तो णिव्विसमाणे, णिव्विढे यावि वोच्छामि॥ 2112. परिहारकप्पं वोच्छामि', परिहरति जहा . विद्। आदी मज्झऽवसाणे य, आणुपुव्विं जहक्कमं॥ 2113. भरहेरवयवासेसु, जदा तित्थगरा भवे। . पुरिमा पच्छिमा चेव, 'परिहारी तेसु होति तु"॥ 2114. मज्झिमाण न संती तु, तित्थेसुं परिहारिया। न यावि य विदेहेसु, विज्जती परिहारिया // 2115. केवतियकालसंजोगो, गच्छो तु० अणुसज्जती। तित्थंकरेसु पुरिमेसु, तहा पच्छिमगेसु य॥ 2116. पुव्वसतसहस्साई, पुरिमस्सऽणुसज्जती। जम्हा ण पडिवजंति, दोण्ह गच्छा परेण तु // 2117. देसूणपुव्वकोडीओ, दो सा दोण्ह भवंति तु। दो सा एगूणतीसा तु, तेण ऊणा ततो भवे // 2118. वीसग्गसो य वासाई, चरिमस्सऽणुसज्जते। जाव देसूणगा दोण्णि२, सया वासाण होति तु॥ १.बृ 6444 / 2. कुव्वे संथव तेहिं (नि 2147) / 3. बृ 6445, पंक 1510 / 4. बृ 6446, पंक 1509, नि 2148 / 5. पवक्खामि (बृ 6447) / 6. हरितव्वं (पा, ला, मु)। 7. कप्पं देसेंति ते इमं (बृ 6448) / 8. हारीया (ता, पा, ला)। 9. इयं कालसंजोगं (बृ 6449) / 10. तू (मु, ब)। 11.6 (6450) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है वीसग्गसो य वासाई, पच्छिमस्साणुसज्जती। 12. दोण्णिं (मु)। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७१ 217 2119. पव्वज्जा अट्ठवासस्स, उवट्ठा नवमम्मि उ। एगूणवीसपरियाए, दिट्ठिवादो य तस्स तु॥ 2120. उद्दिस्सति वरिसेण य, तस्स य सो तु समप्पती। नव वीसा य मेलीणा, ऊणतीसा भवंति तु॥ 2121. इति एगूणतीसाए, सयमूणं तु पच्छिमे। एसो दोसु तु एतेणं, ऊणाई दो सताणि य॥ 2122. पालइत्ता सयं ऊणं, ठाणं ते तु पच्छिमे। काले देसेंति अण्णेसिं, इति ऊणा उ बे सता॥ 2123. पडिवजंति' जिणिंदस्स, पादमूलम्मि जे विदू। ठावयंती उ ते अण्णे, नो तु ठावितठावगा। 2124. सव्वे चरित्तमंता य, दंसणे परिणिहिता। नवपुवी' जहण्णेणं, उक्कोस दसपुव्विगा॥ 2125. पंचविधे ववहारे, कप्पे ते दुविधम्मि य। दसविधे य पच्छित्ते, सव्वे ते परिणिट्ठिता / / 2126. अत्तणो' आउगं सेसं, जाणित्ता ते महामुणी। परक्कमं बलं विरियं, पच्चवाए तहेव य॥ 2127. जइ जीतपच्चवाया, ण होंति तेसिं तु अण्णतरा। तो तं पडिवज्जंती, वाघातेणं तु तेण वी // 1. गा. 2119 से लेकर 2122 तक की चार गाथाओं के स्थान पर बृ (6451, 6452) में दो गाथाएं हैं। 2. उ (पा, ला, मु)। 3. पडिवण्णा (बृ 6453) / 4. यंते (ता, ब, ला), "यंति (बृ)। 5. पुव्विया (बृ६४५४)। 6.66455, ता प्रति में यह गाथा नहीं है। 7. अप्पणो (बृ६४५६)। 8. च बल (ता, बृ)। 9. इस गाथा के बाद प्रतियों में निम्न गद्यांश मिलता है- पडिवज्जंते वीसग्गसो कहं देसूणा दो सया भवंति? वीसाए परेण वि एयमग्गं, पव्वज्जा सिलोगा 3 वाससयाउगा मणुस्सा जम्मातो, सेसं तहेव सव्वं तत्थ जे उसभसामिस्स तित्थे पुव्वसतसहस्सा ते देसूणा दो पुव्वकोडी भवंति। कहं? अट्ठवासपरियातो, सिलोगा 3 / ते पुव्वकोडिआऊगा मणुस्सा जम्माओ 8 पव्वइता, 29 वासाए दिट्ठिवाओ व समप्पति, सो उसभसामिकालपडिवण्णो, एसा एगा पुव्वकोडी देसूणा। एयस्स मूले एवं च अण्णो पडिवज्जति तस्स वि समप्पती णव वीसा य मेलीणा कुणती सा भवे देसूणाओ दो पुव्वकोडीओ। एतस्स अण्णा मूले ण पडिवज्जंति। उसभसामिस्स आउयं 84 (लक्खपुव्वाणि)। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 जीतकल्प सभाष्य 2128. आपुच्छिऊण अरहंते, मग्गं देसेंति ते इमं / पमाणाणि य सव्वाणि, 'ऽभिग्गहे' य बहूविहे '2 // 2129. गणोवहिपमाणाइ, पुरिसाणं च जाणि तु। दव्वं खेत्तं च कालं च, 'भावं अण्णे" य पज्जवे॥ 2130. संसट्ठमाइयाणं, सत्तण्हं एसणाण तु। आदिल्लाहिं दोहिं तु, अग्गहो गह पंचहिं॥ 2131. तत्थ वि अण्णतरीए, एगीएँ अभिग्गहं तु काऊणं। उवहिणो' अग्गहो दोसुं, इतरो एगतरीय तु॥ 2132. अइरुग्गयम्मि सूरे, कप्पं देसेंति ते इम। आलोइय-पडिक्कंता, ठावयंति तओ. गणे॥ 2133. सत्तावीसं जहण्णेणं, उक्कोसेणं सहस्ससो। णिग्गंथसूरा भगवंतो, सव्वग्गेणं वियाहिया // 2134. सयग्गसो य उक्कोसा, जहण्णेण तओ गणा। गणो य नवगो वुत्तो, एमेता पडिवत्तिओ // 2135. एगं कप्पट्ठियं कुज्जा, चत्तारि पारिहारिगा। अणुपारिहारिगा चेव, चतुरो तेसि ठावए" // 2136. ण तेसिं जायते१२ विग्घ, जा मासा दस अट्ठ य। ण वेदणा ण वाऽऽतंको, ‘ण वा'१३ अण्णे उवद्दवा // 2137. अट्ठारससु पुण्णेसु, होज्ज एते उवद्दवा। ऊणिए ऊणिए यावि, गणे मेरा इमा" भवे५ // 1. मग्गहे (पा, ला)। 2. अभिग्गहे य बहुविहे (बृ 6457) / 3. उवहीगणपमाणाणि (ता, पा, ब, ला), यहां हमने बृहत्कल्पभाष्य के पाठ को मूल में रखा है। 4. भावमण्णे (बृ 6458) / 5. हिणा (ला)। 6. सूरम्मि (ता, पा, ब)। 7.06460 / 8. बृ६४६१। 9. "वत्तीओ (पा, ला, मु),बृ६४६२। 10. एतेसि (मु, ब), तेसिं (बृ)। 11. बृ 6463 / 12. जायती (बृ६४६४)। 13. णेव (बृ)। 14. इमे (ता, ला, ब)। 15. बृ 6465 / Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७१ 219 2138. जत्तिएण गणो ऊणो, तत्तिए तत्थ पक्खिवे। एगं दुवे अणेगा वा, एस कप्पे तु ऊणिए // 2139. एते अणूणिए कप्पे, उवसंपज्जति जो तहिं / एगे दुवे अणेगा वा, तेसिं कप्पो इमो भवे॥ 2140. अच्छंति ता उ दिक्खंता, जाव पुण्णा तु ते नव। पच्छा तु पडिवज्जंति, जं कप्पं तेसि अंतिए / 2141. पमाण कम्पट्ठितो तत्थ, ववहारं ववहरित्तए। अणुपरिहारियाणं पि, पमाणं होति 'सेव तु॥ 2142. आलोयण कप्पठिते, पच्चक्खाणं तहेव वंदणगं। तं च वहंते ते तू, उज्जाणी एव मण्णंति // 2143. अणुपरिहारी गोवालगव्व गावीण णिच्चमुज्जुत्ता। परिहारियाण मग्गतों, हिंडंती णिच्चमुज्जुत्ता॥ 2144. पडिपुच्छं वायणं चेव, मोत्तूणं नत्थि संकहा। ___ आलावो अत्तणिद्देसो, परिहारिस्स कारणे // 2145. परिहारियाण उ तवो, वासासुक्कोस मज्झिम जहण्णो। बारसम दसम अट्ठम, दसमऽट्ठम छट्ठ सिसिरेसु // 2146. अट्ठम छ8 चउत्थं, गिम्हे उक्कोस मज्झिम जहण्णो। आयंबिलपारणगं, अभिगहिता'. एसणाए तु॥ 2147. अणुपरिहारीया पुण, निच्चं पारिति ते उ आयामे। कप्पट्टिते वि ते च्चिय, आणिंति अभिग्गहीताहिं // 2148. परिहारिय पत्तेयं, अणुपरिहारीण तह य कप्पठिते। __पंचण्ह वि तेसिं तू, संभोगेक्को मुणेतव्वो॥ 2149. परिहारिएसु वूढे, अणुपरिहारी ततो वहंती तु। ___ कप्पट्ठितो य पच्छा, वहती वूढेसु तेसुं तु॥ 1. से विऊ (बृ 6469) / बारस दसऽ8 दस अट्ठ छच्च अद्वैव छच्च चउरो य। 2.66471 / उक्कोस-मज्झिम-जहण्णगा उ वासा सिसिर गिम्हे // 3. गा. 2145 और 2146 के स्थान पर बृ (6472) में 4. छच्च (ला)। निम्न गाथा मिलती है 5. अभिग्ग’ (ता, पा)। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 जीतकल्प सभाष्य 2150. परिहारिगा वि छम्मासे, अणुपरिहारिगा वि छम्मासे। कप्पट्ठितो वि छम्मासे, एते अट्ठारस तु मासा' // 2151. अणुपरिहारिगा चेव, जे य ते परिहारिगा। अण्णमण्णेसु ठाणेसु, अविरुद्धा भवंति / ते // 2152. गतेहिं छहिँ मासेहिं, णिविट्ठा भवंति ते। अणुपरिहारिगा पच्छा, परिहारं परिहरंति तु // 2153. गतेहिं छहिं मासेहिं, णिव्विट्ठा भवंति ते। वहती कप्पट्ठितो पच्छा, परिहारं अहाविहिं॥ 2154. एतेसिं जे वहंती, णिव्विसमाणा हवंति ते नियमा। जेहिं बूढं पुण तेसिं, हवंति- णिव्विट्ठकाइया // 2155. अट्ठारसेहिं मासेहिं, कप्पो होति समाणितो। मूलट्ठवणा एसा, समासेण वियाहिता // 2156. एवं समाणिए कप्पे, जे तेसिं जिणकप्पिया। तमेव कप्पं ऊणा वि, पालए जावजीवियं // 2157. अट्ठारसेहिं पुण्णेहि, मासेहिं थेरकप्पिया। पुणों गच्छं णियच्छंति, एसा तेसिं जहाविधी // 2158. ततिय चउत्था कप्पा, समोयरंते० तु बितियकप्पम्मि। पंचमछट्ठठितीसुं, हेट्ठिल्लाणं समोतारे // 2159. अहुणा जिणकप्पठिती, सा पुव्वं मासकप्पसुत्तम्मि। भणिता स च्चेव इहं, नवरमसुण्णत्थ भणित'२ इमं // 1.66474 / २.बृ 6475 / 3. गाथा का उत्तरार्ध बृ (6476) में इस प्रकार है ततो पच्छा ववहारं, पट्ठवंति अणुपरिहारिया। 4. तहाविहं (बृ 6477) / 5. गाथा के उत्तरार्ध में अनुष्टुप छंद का प्रयोग है। छंद के अनुसार 'हवंति' के स्थान पर होंति' पाठ होना चाहिए। 6. गाथा का उत्तरार्ध बृ (6478) में इस प्रकार है- मूलट्ठवणाएँ समं, छम्मासा तु अणूणगा। 7. बृ 6479 / 8. पुण (मु, ब)। 9. अहाठिती (बृ 6480) / 10. रंति (बृ 6481) / 11. इस गाथा के बाद प्रतियों में निम्न गद्यांश मिलता है सामा छेदो णिव्विस, णिव्विट्र एते जिण-थेरे ओयति। 12. भणति (पा, ब)। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७१ 221 2160. गच्छम्मि य णिम्माया, 'धीरा जाहे य मुणितपरमत्था। अग्गह 'अभिग्गहे या'२, उवेंति जिणकप्पिगविहारं / / 2161. नवपुव्वि जहण्णेणं, उक्कोसेणं तु दस असंपुण्णा। चोद्दसपुव्वी तित्थं, तेण तु जिणकप्प ण पवज्जे // 2162. वइरोसभसंघतणा, सुत्तस्सऽत्थो तु होति परमत्थो। . संसारसभावो वा, णातो तो मुणितपरमत्थो / 2163. 'अग्गहो ततियादीया'", पडिमाहिं गहण भत्तपाणस्स। दोहिं तु उवरिमाहिं, गेहंती वत्थपायाई॥ * 2164. 'दव्वं अभिग्गहा पुण, रतणावलिमादिगादि बोद्धव्वा। - एतेसु विदितभावो, उति जिणकप्पियविहारं // 2165. दुविधा अतिसेसा वि य, तेसि इमे वण्णिता समासेणं / . बाहिर अभिंतरगा, तेसि विसेसं पवक्खामि / / 2166. बाहिरओं सरीरस्सा, अतिसेसो तेसिमो तु बोद्धव्वो। ___ अच्छिद्दपाणिपादा, वइरोसभसंघतण धीरा // 2167. वग्गुलिपक्खसरिसगं, पाणितलं तेसि धीरपुरिसाणं / होति खओवसमेणं, लद्धी तेसिं इमाऽऽहंसु॥ 2168. माएज्ज घडसहस्सं, धारेज्ज व सो तु सागरा सव्वे। जो एरिसलद्धीए, सो पाणिपडिग्गही होति // 2169. अभिंतरअतिसेसोर, इमो उ तेसिं समासतो भणितो। उदही विव अक्खोभा, सूरो इव तेयसा जुत्ता // 2170. अव्वावण्णसरीरा, व१२ गंधा ण होति से सरीरस्स। खतमवि ण कुच्छ तेसिं३, परिकम्मं ण वि य कुव्वंति॥ 1. थेरा जे मुणितसव्वप (पंक 1364) / 2. जोग अभिग्गहे (बृ 6483) / 3. "वियारं (ता), "प्पियचरितं (ब)। 4. पंक 1365 / 5. 'रसंभओ (पा, ब, ला)। 6. पंक 1366 / 7. दोहग्गह ततियादी (पंक 1367) / 8. दव्वादभि (पंक 1368) / 9. पंक 1445 / 10. धीरो (ला); पंक 1446 / 11. “तरमति (पंक 1447) / 12. वइ (ब, पंक 1448) / 13. तेसि (ला)। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 जीतकल्प सभाष्य 2171. 'पाणिपडिग्गहिता तू', एरिसगा णियमसो मुणेतव्वा। अतिसेसे वोच्छामि, अण्णे वि विसेसतो तेसिं॥ 2172. दुविहो 'तेसऽतिसेसो'३, णाणातिसयो तहेव सारीरो। णाणातिसयो ओही, मणपज्जव तदुभयं चेव॥ 2173. 'अहवाऽऽभिणिबोहीयं", सुतणाणं चेव णाणअतिसेसो। तिवलीअभिण्णवच्चा, एसो सारीरअतिसेसो // 2174. रयहरणं मुहपोत्ती, जहण्णमुवगरण पाणिपत्तस्स। . उक्कोसं कप्पतिगं, सव्वो वि य एस पंचविधो // 2175. 'पडिगहधारि जहण्णो, नवधा उक्कोस बारसविकप्पो"। तेसिं 'एताणिं च्चिय'", अतिरेगे पायणिज्जोगो॥ 2176. रूढणह णियणमुंडो, दुविधो उवधी जहण्णगो तेसिं। एसो लिंगो तेसिं, णिव्वाघातेण तव्वो॥ 2177. रयहरणं मुहपोत्ती, संखेवेणं तु दुविध उवधी तु। वाघात विगतलिंगे, 'अरिसासु व होति'' कडिपट्टो॥ 2178. सत्त य पडिग्गहम्मी, रयहरणं चेव होति मुहपोत्ती। एसो तु नवविकप्पो, उवधी पत्तेयबुद्धाणं // 2179. एगो तित्थगराणं, णिक्खममाणाण होति उवधी तु / तेण पर णिरुवधी तू, जावज्जीवाएँ तित्थगरा // 2180. एसा जिणकप्पठिती, ठाणासुण्णत्थया समक्खाता। वित्थरतो पुण णेया, जह भणितं मासकप्पम्मि२ // 2181. अहुणा थेरठिती३ तू, सा वि य भणिता तु पुव्वमेवं तु। दारमसुण्णत्थमियं, नवरं संखेवतो वोच्छं / 1. "गहधारी (पंक 1449) / 2. समासतो (पंक)। 3. अतिसेस तेसिं (पंक 1450) / 4. आभिणिबोहियणाणं (पंक 1451) / 5. रीरमति (पंक)। 6. तु. पंक 1452 / 7. णवहा पडिग्गहीणं, जहण्णमुक्कोस होति बारसहा (पंक 1453) / 8. वेयाणिं दिय (पंक)। 9. अरिस पमेहे (पंक 1444) / 10. पंक 1483 / 11. पंक 1484 / 12. इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में 'णिज्जुत्तीए' शब्द का उल्लेख है। 13. थेरथिती (म)। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७१-७३ 223 2182. संजमकरणुज्जोया', णिप्फादग णाण-दसण-चरित्ते। 'दीहो य'२ वुड्डवासो, वसहीदोसेहि य विमुक्को॥ 2183. दीहो त्ति वुड्डवासो, थेरा ण तरंति जाहे कातुं जे। अब्भुज्जतमरणं वा, अहवा अब्भुज्जतविहारं // 2184. दीहं च आउगं तू, वुड्डावासं तयो वसे। उग्गमादीहिं दोसेहिं, विप्पमुक्काएँ वसहीए॥ 2185. मोत्तुं जिणकप्पठितिं, जा मेरा एस वण्णिता हेट्ठा। एसा तु दुपदजुत्ता, होति ठिती थेरकप्पम्मि // -- 2186. दुपदं ती उस्सग्गो, अववादो चेव होंति दोण्णेते / - एतेहिं होति जुत्तो, नियमा खलु थेरकप्पो तु // 2187. पलंबाउ जाव ठिती, उस्सग्गऽववाइयं करेमाणो। अववादे उस्सग्गं, आसायण दीहसंसारो // 2188. अह उस्सग्गेऽववायं, आयरमाणो विराधगो होति। ' अववादे पुण पत्ते, उस्सग्गणिसेवगो भइओ। 2189. कह होती भइयव्वो?, संघतणधितीजुतो' समग्गो तु। एरिसगो अववाए, उस्सग्गणिसेवगो सुद्धो॥ . 2190. इतरो उ. विराहेती, असमत्थो जेण परिसहे सहितुं / धितिसंघतणेहिं तू, एगतरेणं व सो हीणो॥ 2191. इति सामाइयमादी, छव्विह कप्पद्रुिती समक्खाता। विरियं दारं अहुणा, इणमो वोच्छं समासेणं // 2192. परिणत गीतत्था तू, विपक्खभूता अपरिणता होति। __ कडजोगी ऽकयजोगी, चतुत्थमादीहिं णातव्वा // 2193. अकडज्जोगा ऽजोग्गवियचतुत्थादीहिँ होंति णातव्वा। धितिसंघयणादीहिं, तरमाणा होंति णातव्वा / / .. - 1. “ज्जोवा (बृ 6485, ता, ब)। 2. दीहाउ (बृ)। 3. बूढावा (ता, ब, ला)। 4. "कप्पस्स (बृ६४८६)। 5. एतेण (ब)। 6. 'बादी (बृ 6487) / 7. "धितिजुत्तो (पा)। 8. अ (ब)। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 जीतकल्प सभाष्य 2194. धितिसंघयणेणं तू, एगतरजुता उ होंति अतरा उ। अहवा दोहि विजुत्ता, अतरगपुरिसा मुणेतव्वा / / जो जह सत्तो बहुतरगुणो व तस्साहियं पि देज्जाहि। 'हीणस्स हीणतरगं'२, झोसेज्ज व सव्वहीणस्स॥७२॥ 2195. कप्पट्ठितमादीणं, पुरिसाणं जाव उभयहा अतरो। जो जह सत्तो उ भवे', तस्स तहा होति दातव्वं / / 2196. बहुतरगुणसमगो तू, धितिसंघतणादि जो तु संपण्णो। परिणत कडजोगी वा, अहवा वि हवेज्ज उभयतरो॥ 2197. एयगुणसमग्गस्स तु, जीयमया अहियगं पि देजाहि। हीणस्स तु हीणतरं, मुंचेज्ज व सव्वहीणस्स॥ 'एत्थ पुण बहुतरा" भिक्खुणो त्ति अकयकरणाणभिगता य। जंतेण जीतमट्ठमभत्तंतमविगतिमादीयं // 73 // 2198. एत्थं इमम्मि जीते, बहुतरगा भिक्खुणो * भवंती तु। अकतकरणा उ जे तू, अणभिगता चेव णातव्वा / / 2199. चस्सद्देण थिराथिर, गहिता तू एत्थ तू समासेणं / जंतयविधीकमेणं, जीताभिमतेण देज्जाहि॥ 2200. 'कतकरण अकतकरणा', कतकरणा गच्छवासि इतरे य। अकतकरणा तु नियमा, णातव्वा गच्छवासी तु॥ 2201. ते अभिगत अणभिगता, अणभिगता थिरऽथिरा व होज्जाहि। कत अभिगत जं सेवे, अणभिगते अत्थिरे इच्छा // 2202. अहवा णिरवेक्खितरा, दुविधा पुरिसा समासतो होति। निरवेक्खा जिणमादी, ते णियमा होति कतकरणा। 2203. सावेक्खा होति तिहा, आयरिय उवज्झ भिक्खुणो चेव। कतकरणमकतकरणा, आयरिया चेवुवज्झाया / 1. व्व (पा, मु)। 2. हीणतरे हीणतरं (ता, पा, मु)। 3. भवं (ता, पा, ब)। 4. एत्थं पुण बहुतर (ला)। 5. तंतं णिव्विगादीयं (ला)। 6. रणाकत (ला)। 7. उवज्झि (ला)। 8. चेव उव (ब)। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७३ 225 2204. भिक्खू गीताऽगीता, गीतत्थ थिराऽथिरा य बोद्धव्वा। कतकरण अकतकरणा, एक्केक्का होंति ते दुविधा। 2205. अग्गीता वि थिराऽथिर, कताऽकता चेव होंति एक्केक्का। कतकरण अकतकरणा, केरिसगा होति? सुणसु इमे / / 2206. छट्ठऽट्ठमादिएहिं, कतकरणा ते तु उभयपरियाए। अभिगतकतकरणतं, 'जं जोग तवारिहार केई॥ 2207. निरवेक्खा एगविहा, सावेक्खाणं तु किं निमित्तेणं / .तिविधो भेदो तु कतो, आयरियादी? इमं सुणसु // 2208. भण्णति जुवरायादी, वत्थुविसेसेण दंडों जह लोगे। तह वत्थुविसेसेणं, आयरियादीण आरुवणा // 2209. आयरिय-उवज्झाया, दोण्णि वि णियमेण होति गीतत्था। गीतत्थमगीतत्था, भिक्खू पुण होंति णातव्वा॥ . * 2210. कारणमकारणं वा, जतणाऽजतणा व 'णत्थऽगीतत्थे'३ / एतेण कारणेणं, आयरियादी 'तिविध भेदो" // 2211. कज्जाऽकज्ज जताऽजत, अविजाणंतो अगीतो जं सेवे। सो होति तस्स दप्पो, गीते दप्पाऽजते दोसा / / 2212. अविसिट्ठा आवत्ती, चरिमं सव्वेसि तेण सावेक्खो। चरिमं चिय कतकरणे, आयरिए अकत अणवट्ठो / 2213. कतकरणउवज्झाए, अणवट्ठो होति मूलमकतम्मि। भिक्खूगीतथिरम्मी, कतकरणे मूलमेव भवे // 2214. अकतथिरम्मी छेदो, अत्थिरकतकरणे होति सो च्चेव। अत्थिरअकते छग्गुरु, अगीतथिरकरण ते चेव // 2215. अग्गीत थिरे अकते, छल्लहुगा होंति तू' मुणेतव्वा। अग्गीतअथिरकतकरण छल्लहू चउगुरू अकते॥ 1. 'रियारा (नि)। 2. जोगा य तवांरिहा (नि 6652), जोगायतगारिहा (व्य 162, 607) / ... 3. नत्थि गी (व्य 613) / / 14. भवे तिविहा (नि 6653, व्य 170) / ' 5. कज्जमकज्ज (नि 6654) / 6. गीत (ला)। 7. व्य 171,614 / 8. थेर (ता)। 9. तु (ला)। 10. लहु (ला)। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 जीतकल्प सभाष्य 2216. एसाऽऽदेसो एक्को, अयमण्णो बितियओ तु आदेसो। चरिमं चिय आवण्णे, कतकरणगुरुम्मि अणवट्ठो // 2217. अकतकरणम्मि मूलं, मूलमुवज्झाएँ होति कतकरणे। अकतकरणम्म छेदो, इय' णेयं अड्डकंतीए // 2218. एमेव य अणवटुं, आवण्णे होंति दोण्णि आदेसा। निरवेक्खो ण भणितेत्थ', जं दोण्णि ण होंति तस्सेते॥ 2219. अहुणा मूलावण्णो, सव्वे मूलं तु होति निरवेक्खे। मूलं चेव गुरुस्स वि, कतकरणे अकत छेदो तु॥ 2220. कतकरणउवज्झाए, छेदे अकतम्मि होंति छग्गुरुगा। इय अड्डोकंतीए, णेयं अयमण्ण आदेसो॥ 2221. सावेक्खो त्ति व काउं, गुरुस्स कडजोगिणो भवे छेदो। अकतकरणम्मि छग्गुरु, 'कतकरण उवज्झें छग्गुरुगा"। 2222. अकते छल्लहुगा तू, इय अड्डोकंतिए तु णातव्वं / अहुणा छग्गुरुगे तू, आढत्तं ठाति गुरु भिण्णे // 2223. छल्लहुगाढत्तम्मी, ठायति लहुगे तु भिण्णमासम्मि। चतुगुरुआढत्तम्मी, अन्नम्मी ठाति गुरुवीसे // 2224. चतुलहुगे वीसाए, 'गुरुमासे ठाति पण्णरसहिं तु / लहुगे लहुपण्णरसे, गुरुभिण्णे ठाति गुरुदसहिं / 2225. लहुभिण्णे दसलहुगे, गुरुवीसा अंतें ठाति गुरुपणगे। लहुवीसा आढत्तं, अंतम्मी ठाति लहुपणगे। 2226. पण्णरसहिं गुरुगेहिं, अंतम्मी अट्ठमम्मि ठायति तु / पण्णरसहिं लहुगेहिं, अंतम्मी ठाति छट्ठम्मि॥ 2227. दसगुरुगे आढत्तं, अंतम्मी ठायती चतुत्थम्मि। दसलहुगे आढत्ते, ठायति तू अंतें आयामे // 1. अयं (ला)। 2. अड्ड (ब)। 3. भणिएत्थं (पा, ब, ला)। 4. इति अड्डोकंतिए नेयं (व्य 167), अड्डोक्कंतीए णेयव्वं (नि 6657) / 5. गुरुमीसे (ता)। 6. इस पाठ के स्थान पर सभी प्रतियों में गुरुमासे ठाति गुरुग पण्णरसे' इति प्रत्यन्तरे का उल्लेख है। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७३ 227 2228. गुरुपणगे आढत्ते, एक्कासणगम्मि अंतें ठायति तू। लहुपणगे आढत्ते, अंतम्मी ठाति पुरिमड्डे॥ 2229. अट्ठमभत्ताऽऽढत्तं, अंतम्मी ठायती य निव्विगती। जंतविहीपत्थारो, समासतो एसमक्खातो॥ 2230. एतं तु अजतणाए, सावेक्खाणं तु होति पच्छित्तं / अह गीतत्थो सेवे, कारण जतणाएँ तो सुद्धो॥ 2231. एतंर तु कारणम्मी, जतणासेविस्स वणितं दाणं / * अहवा वि इमं अण्णं, आयरियादी जहाकमसो॥ .2232. आयरिय उवज्झाए, कतकरणे अकतकरण दुविधा तु। भिक्खुम्मि अभिगते या, अणभिगते चेव दुविधो तु॥ 2233. अभिगत कत अकते या, अणभिगतें थिरे तहेव अथिरे य। थिर कतकरणे अकते, अथिरे कतकरणमकते य॥ '2234. एते सव्वेऽवेगं, आवत्ती पंचराइगाऽऽवण्णा। तं पणगं अविसिटुं, चतुत्थमादीहिं विण्णेयं / 2235. आयरिए कतकरणे, तं चिय पणगं तु होति दातव्वं / अकतकरणे चउत्थं, कतकरणे उवज्झि तं चेव / / . 2236. अकतम्मी आयाम, भिक्खुम्मी अभिगतम्मि कतकरणे। आयाम दातव्वं, अकतकरणे उ भत्तेक्कं // 2237. भिक्खुम्मी' अणभिगते, थिरकतकरणे य एगभत्तं तु। अकतम्मी पुरिम९, अणभिगते अत्थिरें कतम्मि॥ 2238. पुरिमड्डो च्चिय नियमा, अत्थिरअकतम्मि' होति निविगति / . अहवाऽणभिगत अथिरे , इच्छाए तं च अण्णं वा॥ 2239. एमेव य दसरायं, सव्वे आवण्णमेगमावत्तिं / ___ कतकरणे आयरिए, दसरायं चेव दातव्वं // 1. अंतम्मिं (पा, ला)। 5. अथिर' (ब)। 2. एवं (ता)। 6. अत्थिरे (पा, ब, ला)। ३.छंद की दष्टि से यहां 'अकतक्करणे' पाठ होना चाहिए। ७."वत्ती (ला)। 4. मिमं (पा, ब, ला)। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 जीतकल्प सभाष्य 2240. अकतकरणम्मि पणगं, कतकरणे पणगमेवुवज्झाए। अकतकरणे चतुत्थं, एवं तू अड्डकंतीए // 2241. ता णेतव्व कमेणं, जाव उ अंतम्मि होति पुरिम९। इय पण्णरसाऽऽरद्धं, ठायति एक्कासणगमंते // 2242. वीसाऽऽरद्धं ठायति, आयामे भिण्णमासऽभत्तढे / मासाऽऽरद्धं पणगे, दुमास दसराएँ ठायति तु॥ 2243. तेमासे पण्णरसे, चतुमासे ठाति वीसरायम्मि। पणमासे पणुवीसे, छम्मासे मासिगे ठाति // 2244. छेदो दोमासीए, मूलो तेमासियम्मि ठायति' तु। अणवढे चतुमासे, 'पारंचिइए तु पणमासे'२ // 2245. एते भणिता लहुगा, सव्वे वि तवारिहा. समासेणं / एमेव य गुरुगा वी, तव्वा अड्डकंतीए // 2246. एमेव य मीसा वी, अड्डक्कंतीएँ होंति णेतव्वा / एमेव पंचपंचहिँ, मासादी सातिरेगादी / / 2247. जा छम्मासा णेया, तत्थ वि उग्घात तह अणुग्घाता। ___ मीसा वि य णेतव्वा, अड्डोक्कंतीएँ ' सव्वत्थ // 2248. अहवा वी णिव्विगती, पुरिमेक्कासण तहेव आयामं। तत्तो चतुत्थ पणगं, दस पण्णर वीस पणुवीसा / / 2249. मासो लघु गुरु चतु छच्च, लघु गुरु च्छेद मूल अणवठ्ठो। पारंचिए य तत्तो, पणगादीहासण तहेव॥ 2250. लहु गुरुग मीसगा वि य, तहेव एत्थं पि होति णातव्वा। एवं एयं दाणं, बुद्धीए होति विण्णेयं // 2251. एमेव य समणीणं, नवरं दुगवज्जितं तु कातव्वं। __ अणवट्ठो पारंची, एय दुगं नत्थ समणीणं // 2252. अहवा पुरिसा दुविधा, समासतो होंतिमे तु णातव्वा। एगविहारी य तहा, गणबद्धविहारिणो चेव॥ 3. x (पा)। 1. अड्डे (ब)। 2. त्तट्टो (ता)। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७३-७७ 229 2253. गच्छाहि णिग्गता जे, पडिमापडिवण्णगा य जिणकप्पी। जे यावि सयंबुद्धा, इय एगविहारिणो तिविधा // 2254. ते णिच्चमप्पमत्ता, जइ आवजे कहंचि कम्मुदया। तक्खणमेव तु तं पट्ठवेंति णियमा य सक्खी वा॥ 2255. संघतणधितिसमग्गा', सत्ताहिट्ठियमहंतजोगधरा। सुबहु पि हु आवण्णा, वहंति निरणुग्गहं सव्वं // 2256. आलोयणोवयुत्ता, ते तू आलोयणाएँ सुझंति। तेसिं जाव तु मूलं, करेंति सयमेव सुज्झंति // 2257. अणिगूहितबल-विरिया, जहवादीकारगा य ते धीरा। उत्तमसद्धसमण्णागता य सुज्झति ते नियमा॥ 2258. गणपडिबद्धा दुविधा, जिणपडिरूवी य होंति थेरा य। जिणपडिरूवी दुविधा, 'विसुद्धपरिहारऽहालंदी"५॥ 2259. ते णिच्चमप्पमत्ता, जइ आवजे कहंचि कम्मुदया। तक्खणमेव हु तं पट्टवेंति कप्पट्ठियसगासे / 2260. संघतणधितिसमग्गा, सत्ताहिट्ठियमहंतजोगधरा। सुबहुं पि हु आवण्णा, वहति णिरणुग्गहं धीरा॥ 2261. अट्ठविधा पट्टवणा, तेसिं आलोयणाइ मूलता। तं पट्ठवेत्तु धीरा, सुज्झंति विसुज्झचारित्ता॥ 2262. थेरा वि विसुद्धतरा, तेसु वि जइ केइ किंचि आवजे। तक्खणमेव हु तं पट्टवेंति नियमा गुरुसगासे / 2263. एत्थ य पट्ठवणं पति, आयरिओ विहिमिणं अजाणतो। लंछेति य अप्पाणं, तं पि य सीसं ण सोधेति // 2264. पुरिसे त्ति गतं दारं, इमं तु पडिसेवणं पवक्खामि / सा पुण चतुहा सेवण, आउट्टियमादिमाहंसु॥ 1. संचयण' (पा)। 4. सुज्झति (ला)। 2. गा. 2255 से 2257 तक की गाथाएं ता प्रति में नहीं हैं। ५.र अहा" (ता)। 3. 'लोवणो (पा, ब, ला)। 6. सेवणा (ता, मु)। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 जीतकल्प सभाष्य आउट्टियाय दप्पप्पमादकप्पेहिँ वा निसेवेग्जा। दव्वं खेत्तं कालं, भावं वाऽऽसेवगो पुरिसो॥ 74 // 2265. आउट्टिया उवेच्चा, दप्पो पुण होति वग्गणादीओ। कंदप्पादि पमादो, अहव कसायादिओ णेओ॥ 2266. कसाय विकहा वियडे, इंदिय णिद्दप्पमाद पंचविधे। एस पमादो भणितो, कप्पं तु इमं पवक्खामि // 2267. गीतत्थो कडजोगी, उवउत्तो जयणजुत्तों सेवेज्जा। गाहापच्छद्धस्स तु, इणमो तु समासतो वोच्छं // 2268. दव्वं आहारादी, खेत्तं अद्धाणमादि णातव्वं / कालो ओमादीओ, हट्ठगिलाणादि भावो तु॥ जं जीतदाणमुत्तं, एयं पायं पमायसहितस्स। एत्तो च्चिय ठाणंतरमेगं वड्डेज दप्पवओ॥ 75 // 2269. जं जीतदाण भणितं, णिव्वीतियमादि' अट्ठमं अंते। ततियपडिसेवणाए, पमादसहितस्स एतं . तु॥ 2270. दप्पपडिसेवणाए, पुरिमड्डादी तु होति दातव्वं / अंते दसमं देज्जा, आउट्टीए तु वोच्छामि // आउट्टियाएँ ठाणंतरं व सट्टाणमेव वा, देग्जा। 'कप्पेण पडिक्कमणं", तदुभयमहवा विणिहिटुं॥ 76 // 2271. आउट्टियावराहे, एक्कासणमादि अंतें बारसमं / पाणतिवातऽवराहे, सट्ठाणं होति मूलं तु॥ 2272. कप्पेण उ सेवाए, तह सुद्धो अहव मिच्छकारं तु। अहवा तदुभयमुत्तं, आलोय पडिक्कमाहि ति॥ आलोयणकालम्मि व, संकेस विसोहि भावतो णातुं। हीणं वा अहिगं वा, तम्मत्तं वावि देग्जाहि॥७७॥ 1. णिव्विति (ता, पा, ब, ला)। 4. अहवा (पा, ला)। 2. कप्पेणं पडिक' (पा, ला)। 5. इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में 'कप्पपडिसेवणा गता' 3. इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में 'आउट्टिय त्ति गतं' का का उल्लेख है। उल्लेख है। ६.वि (ला, पा)। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-७८-८३ 231 2273. आलोयणकालम्मि व, गृहति अहवा वि कुंचती किंची। ___ सो संकिलिट्ठचित्तो, तस्सऽहिगं देज्ज ऊणं वा॥ 2274. जो पुण आलोएंतो, काले संवेगमुवगतो जो उ। जिंदण-गरहादीहिं, विसुद्धचित्तो तु तस्सऽप्पं // 2275. जो पुण आलोएंतो, न वि गृहति ण वि य निंदते जो तु। ___ सो मज्झिमपरिणामो, तस्स उ देज्जाहि तम्मत्तं // 78. इति' दव्वादिबहुगुणे, गुरुसेवाए य बहुतरं देज्जा। हीणतरे हीणतरं, हीणतरे जाव 'झोसो ति"॥७॥ 2276. इति एस दव्व खेत्ते, काले भावेसु बहुगुणेसू तु। गुरुसेवा तु पहाणा, एतेसुं बहुतरं देज्जा // 2277. हीणतरे हीणतरं, ति देज्ज- दव्वादिमादिहीणेहिं / तह तह हीणं देज्जा, झोसेज्ज व सव्वहीणस्स॥ झोसिज्जति सुबहुं पि हु, जीतेणऽण्णं तवारिहं वहओ। वेयावच्चकरस्स य, दिज्जति साणुग्गहतरं वा॥७९॥ 2278. झोसण' खवणा मुंचण, एगट्ठा तं तु मुच्चते कस्स?। ____ अण्ण वच्चंतु वहंतें, जह पट्ठविते उ छम्मासे // 2279. पंचदिणेहिं गतेहिं, पुणरवि जइ सो उ अण्णमावज्जे। तो से तं तहिँ छुब्भति, एवं झवणा तु तस्स भवे // 2280. वेयावच्च करेंतो, जइ आवज्जति तु किंचि अण्णतरं। तावइयं से दिज्जति, जं णित्थरती तु सो वोढुं / 2281. कालं ठावितु दिक्खे, णित्थिण्णे तं तु' काहिती सो तु। एय तवारिह भणितं, अहुणा छेदारिहं वोच्छं // तवगवितो तवस्स य, असमत्थो तवमसहहतो य। तवसा य जो ण दम्मति, अतिपरिणामप्पसंगी य॥८०॥ 1. इय (ला)। २.ज्झोसो ति (ता, ब)। 3. णेसु (ला)। ४.'देज्जा (पा, ब, ला)। 5. तदारिहं (पा, ला)। 6. सोसण (ता, ब, ला)। 7. x (ता)। 8. काहीति (ला)। 9. तुं (पा, ला), तू (ता, ब)। १०.या (ला)। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 जीतकल्प सभाष्य सुबहुत्तरगुणभंसी', छेदावत्तिसु पसज्जमाणो य। पासत्थादी जो वि य, जतीण पडितप्पितो बहुसो॥८१॥ उक्कोसं तवभूमि, समतीतो सावसेसचरणो य। छेदं पणगादीयं, पावति जा धरति परियाओ॥८२॥ 2282. तवबलिओ देह तवं, अहं समत्थो त्ति गव्वितो एस। तवअसमत्थ गिलाणो, बालादी अहव असमत्थो / 2283. जो उ ण सद्दहति तवं, अहवा वी जो तवेण ण वि दम्मे। अतिपरिणामो जो तू, पुणो पुणो सेवति पसंगी॥.. 2284. उत्तरगुण बहुगा तू, पिंडविसोहादिगा उ णेगविधा। भंसेति विणासेती, पुणो पुणो जो तु ताई तु॥ 2285. छेदावत्तीओ वा, पकरेति पसज्जती य जो तेसुं। अहुणा पासत्थादी, आदीसद्देणिमाहंसु॥ 2286. पासत्थोसण्णो वा, कुसील-संसत्त अहव णीओ वा। वेयावच्चकराइण, जतीण पडितप्पितो , बहुसो / / 2287. उक्कोसा तवभूमी, आदिजिणिंदस्स होति वरिसं तु। मज्झिमगाण जिणाणं, अट्ठ उ मासा भवे भूमी // 2288. चरिमस्स जिणिंदस्सा, उक्कोसा भूमि होति छम्मासा। एतं तू उक्कोसं, समतीओ चरणसेसो य॥ 2289. एव जहुद्दिवाणं, तवगव्वितमादियाण सव्वेसिं। छेदं पणगादीयं, देज्जा जा धरति परियाओ // आउट्टियाय पंचिंदियघाते मेहुणे य दप्पेणं। सेसेसुक्कोसाभिक्खसेवणादीसु तीसुं पि॥ 83 // 2290. आउट्टि उवेच्चा तू, पंचिंदि वहेति मिहुण दप्पेणं। सेस वय मुसाऽदिन्नं, परिग्गहो चेव णातव्वो॥ 4. 'कोस अभि' (ब)। 5. दत्तं (ला, ब)। 1. "हुतरगुणब्भंसी (मु), सुबहुउत्त' (ला)। 2. भूमी (पा), भूमी (मु)। 3. इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में 'छेदारिहं गयं' का उल्लेख है। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-८४-८७ 233 2291. एतेसुक्कोसाणिं', पडिसेवयऽभिक्खणं तु मिच्छा तु। एतेसिं सव्वेसिं, मूलं तू होति दातव्वं // तवगव्वितादिगेसु य, मूलुत्तरदोसवतियरगतेसुं। दंसण-चरित्तवंते, चियत्तकिच्चे य सेहे य॥ 84 // 2292. तवगव्वितमादीया, जावऽतिपरिणाम अतिपसंगि त्ति / एत जहुद्दिवाणं, मूलं तू होति णातव्वं // 2293. मूलगुण उत्तरगुणे, बहुविध बहुसो य दूसें भंजति वा। वतिकरमेतं होती, एरिसजुत्तस्स मूलं तु॥ 2294. णिच्छयनयस्स चरणातविघाते णाणदंसणवहो वि। ववहारस्स तु चरणे, हतम्मि भयणा तु सेसाणं // 2295. चत्तं जेण दरिसणं, चारित्तं वावि सो तु णातव्वो। चत्तक्किच्चो वेसो, चियत्तकिच्चो मुणेतव्वो॥ 2296. संजम सकलं किच्चं, जेणं चत्तं स चत्तकिच्चो तु / सेहो अणुवट्ठविओ, मूलं एतेसि सव्वेसिं॥ अच्चंतोसण्णेसु य, परलिंगदुवे य मूलकम्मे य। भिक्खुम्मि य विहिततवे, ऽणवठ्ठपारंचियं पत्ते॥८५॥ 2297. ओसण्णे पव्वावित, संविग्गेहिं व जप्पभीतिं तु। ओसण्णाए विहरिओ, सो भणितऽच्चंतयोसण्णो॥ 2298. गिहिलिंग अण्णउत्थिय, परलिंगदुवे' य कुणति दप्पेणं / गब्भादाणे साडण, दुविधमिहं मूलकम्मं तु॥ 2299. भिक्खणसीला भिक्खू, विहिततवं उवणयं तु णातव्वं / तवअणवटुं उवणय, पारंचितवं च णातव्वं / / 2300. अतियारसेवणाए, पत्ते एतं तु होति दुविधतवं / एतेसिं सव्वेसिं, दातव्वं होति मूलं तु॥ 1. 'साणि (ता, ब, ला)। २.पंचा 11/45 ३.चित्ताकि (ला)। 4. परिलिं' (ता, ब, ला)। 5. अण' (पा, ला, मु)। 6. “ण्णयाए (मु)। 7. परिलिं (ता), सर्वत्र। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 जीतकल्प सभाष्य 'छेदेणापरियाएऽणवट्ठपारंचियावसाणे य / मूलं मूलावत्तिसु, बहुसो य पसज्जणे भणितं॥८६॥ 2301. छिज्जते परियाए, जस्स तु छिण्णो हु णिरवसेसो तु। ____तवअणवढे ढे, पारंचित वावसाणेसु॥ 2302. मूलावत्तिसु एसू, पुणो पुणो सज्जते तु जो सगणे। सव्वेसु वि एतेसुं, मूलं तू होति दातव्वं // उक्कोसं बहुसो वा, पदुद्दचित्तो तु तेणियं कुणति। पहरति जो य सपक्खे, णिरवेक्खो घोरपरिणामो // 87 // 2303. अणवटुप्पो दुविधो, आसायण तह य होति पडिसेवी। आसायणअणवटुं, समासतोऽहं इमं वोच्छं / 2304. 'तित्थकरं संघ सुतं, आयरियं गणधरं महिड्डीयं"। एते आसाएंते, पच्छित्ते मग्गणा इणमो' / 2305. पढम बिति देस सव्वे, नवमं सेसेसु चउगुरू देसे। पडिसेवणअणवटुं, अहुणा तु इमं पवक्खामि // 2306. उक्कोसं तु विसिटुं, पुणो पुणो एय होति बहुगं तु। कोहादी व अतीव तु, पदुट्ठचित्तो मुणेतव्वो॥ 2307. पडिसेवणअणवट्ठो, 'होती तिविधो इमों समासेणं' / 'साहम्मिअण्णधम्मियतेण्णे तह हत्थताले य" / / 2308. साहम्मितेण्ण दुविधं, सच्चित्तं तह य होति अच्चित्तं / अच्चित्तोवधि भत्ते, सचित्त सेहावहारो तु॥ 2309. साहम्मिउवधिहरणं, 'वावारण झामणा'५ य पत्थवणा। तं पुण सेहमसेहो, हरेज्ज अद्दि8 दिटुं वा॥ 1. 'साणेसु (ला)। 4. “यर पवयण सुते, आयरिए गणहरे महिड्डीए (ब)। 2. इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में 'मूलारिहं गतं' 5. होड़ (ब 4975.5060) / का उल्लेख है। 6. तिविधो सो होइ आणुपुव्वीए (बृ 5062) / 3. प्रतियों एवं मु में जीसू 87 की गाथा 2305 वीं भाष्य 7. धम्मिय हत्थादालं व दलमाणे (ब)। गाथा के बाद है लेकिन यह गा. 2302 के बाद होनी ८.(ला)। चाहिए क्योंकि गा.२३०२ तक मूल प्रायश्चित्त का वर्णन 9. वावाण सारवणा (ब, ला), झावणा (मु)। है, उसके बाद अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का वर्णन है। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-८७ 235 2310 सेहो त्ति अगीतत्थो, जो वा गीतो अणिड्डिसंपण्णो। उवधी पुण वत्थादी, अपरिग्गह' एतरो तिविधो॥ 2311. अपरिग्गहितो तहियं, साहम्मी मोत्तु पवसितो जस्स। अवहरमाणेरे सोधी, होति इमा खेत्तणिप्फण्णा // 2312. अण्णोवस्सयबाहिं, णिवेस वाडे य गाममुजाणे / सीमाए जा णेयं, सव्वत्थ वि अंत बहिया या' / 2313. एतेसुं तेणेते मासलघु आइकाउ जा छेदो। - अड्डोक्कंती णेयं, अद्दिद्वेसा भवे सोधी॥ 2314. मासगुरुगादि दिवे, मूलं सेहस्स- एयणिट्ठाई। अभिसेगाऽऽयरियाणं, एक्केक्कं ठाणगं . वड्डे // 2315. एवं तुवस्सयाओ, साहम्मीणुवहिमवहरंतस्स। वावारिते इदाणि", वोच्छं सयमेव गेण्हते॥ 2316. वावारिता गुरूहिं, वच्चह आणेह 'तिविधमुवहि ति। तं लद्धं तत्तो च्चिय, तुझ मज्झे य अत्तट्ठी // 2317. लहुगो अत्तटुंते, जइ पुण आणेत्तु गुरुण न णिवेदे। तो होती चतुलहुगा, अणवठ्ठप्पो व आदेसा॥ . 2318. वावारिततेण्णेतं, अण्णो पुण सावए णिमंतेते। पडिसिद्धाऽऽयरिएणं, दणं तत्थ गंतूणं // 2319. बेती झामित उवधी, अहगं च गुरूहिँ पेसितो देह / तो दिण्णो तेहुवधी, किह° पुण सड्ढेहिँ सो णातो? // 2320. सो तं घेत्तूण गतो, णवरं ते आगता गुरुसगासं। पुच्छंति य ते सड्ढा, उवधिं पहुत्तों व९ ण पहुत्तो? // 1. सपरि (बृ५०६५)। 2. आह. (मु)। 3. वा (मु)। 4. तेण्णेत्ते (ता, ला)। ५.सेहस्सा (ला)। 6. एव (पा)। 7. इदाणि (ला)। 8. वहिं ति (ला, पा, मु)। 9. तुब्भं (ता)। 10. किं (पा, ला)। 11. x (ता, पा, ब, ला)। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 जीतकल्प सभाष्य 2321. केवइयं वा दड्ड?, ता बेंति ण डज्झते हु उवहि त्ति। केण व णीतो उवधी?, इति सोच्चा पत्तिमप्पत्ति // 2322. लहुगा अणुग्गहम्मी, गुरुगा 'अप्पत्तिए मुणेतव्वा'। मूलं च तेणसदे, वोच्छेदपसज्जणा सेसे // 2323. एवं ताव अडझंते, अह सव्वं झामितो भवे उवधी। पेसवितो य गुरूहिरे, लद्धे तहिं अंतरा जो तु॥ 2324. लद्धे अत्तद्रुती, चतुलहुगा अह गुरूण ण णिवेदे। तो चतुगुरुगा तहियं, अणवठ्ठप्पो व आदेसा॥ 2325. एवं झामणहेतुं, अवहारो अह इदाणि पत्थवितं / आयरियादिण केणति, आयरियाणं तु अण्णेसिं॥ 2326. 'उक्कोसो सणिजोगो", पडिग्गही अंतरा तहिं लुद्धो। 'अत्तटुंते लहुगा, गुरुगा अदत्ते ऽणवट्ठो वा // 2327. एवं ता उवधिम्मी, अहुणा भत्तम्मि तेण्ण वोच्छामि। जइ पविसे असंदिट्ठो, ठवणकुले तो भवे लहुगा // 2328. अज्ज अहं संदिट्ठो, पुट्ठोऽपुट्ठो व२ साहते१३ , एवं / पाहुणगिलाणगट्ठा, तं च पलोट्टंति तो बितियं // 2329. मायाणिप्फण्णं तू, एव भणंतस्स होति मासगुरू / अहवा आगंतूणं, णालोए तह वि मासगुरू५ // 2330. कह पुण हवेज्ज णातं, साहूहिं तह य तेहिँ सड्डेहिं / जह खलु पविट्ठों अण्णो, ठवणकुलाई असंदिट्ठो? // 2331. गुरुसंघाडम्मि गते, भणंति गुरुजोग्ग णीयमेत्ताहे। ___णत्थि 'तूऽणुग्गहम्मी'१६, लहुगा अप्पत्तिए गुरुगा॥ १.त्तियम्मि कायव्वा (बृ५०७०)। 'ऽदत्ते' पाठ होना चाहिए। 2. गुरुणं (ब)। 10. लहुगा अदेंतें गुरुगा, अणवठ्ठप्पो व आदेसा (ब)। 3. गाथा के प्रथम चरण में अनुष्टुप् छंद का प्रयोग है। 11. प्रतियों में 'असंदिट्ठो' पाठ मिलता है लेकिन छंद की 4. णिविदे (पा, मु)। दृष्टि से 'ऽसंदिट्ठो' पाठ होना चाहिए। 5. एव (ला)। 12. वा (ला)। 6. वहारो (पा, ब)। 13. साहती (बृ 5086) / 7. उक्कोस सनिज्जोगो (बृ 5072) / 14. “गुरुं (ब)। ८.गहण (बृ)। 15. "गुरुं (ता, पा, ब, ला)। ९.प्रतियों में 'अदत्ते' पाठ मिलता है लेकिन छंद की दृष्टि से 16. तू ण उग्ग' (ब)। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-८७ 237 2332. वोच्छेद गुरुगिलाणे, गुरुगा लहुगा य खमगपाहुणगे। गुरुगो य बालवुड्डे, सेहे य महोदरे लहुगो॥ 2333. भत्तम्मि भणितमेतं, तेण्णं भणितं च मेयमच्चित्ते। अहुणा सच्चित्तम्मी, सेहे सेहीय वोच्छामि॥ 2334. तं पुण णिज्जंतो वा, अभिहारेंतो व आसियाडेज्जा। भिक्खादि पविढे वा, गाम बहि ठवेत्तु णिज्जतो // 2335. तं पुण सण्णादिगतो, अद्धाणीओ व कोइ पासेज्जा। वंदितपुट्ठो कोई', भणे अहं पव्वतिउकामो // 2336. ससहाओ असहाओ?, त्ति पुच्छतो भणति ताहें ससहायो। सो कत्थ? मज्झ कज्जे, छात पिवासस्स वा अडति // 2337. तो बेति अण्णपासं, इम भुंजऽणुकंपयाएँ सुद्धो तु। धम्मं च 'पुट्ठऽपुट्ठो'२, कहेति सुद्धो असढभावो / 2338. सढयाए पुण दोसो, भत्तं देंतस्स अहव कहयंते। आसीआवणहेतुं, सोहि इमेहिं तु ठाणेहिं / 2339. भत्ते पण्णवण णिगृहणा य वावार झंपणा चेव / पत्थवण सयंहरणे, सेहे अव्वत्त वत्ते य॥ 2340. गुरुगो चतुलहु चतुगुरु, छल्लहु 'छग्गुरुग छेदमव्वत्ते। _ 'वत्ते भिक्खुणों मूलं, दुगं तु अभिसेग आयरिए' // 2341. एवं ता जो णिज्जति, अभिधारेंतो' पुणोति- जो जाति। सो वि य तहेव पुट्ठो, भणाति वच्चामऽमुगमूलं / / 2342. तह चेव भत्तपाणं, पण्णवणा चेव होति एत्थं पि। सेसा णिगृहणादी, सव्वे वि पदा ण संति इहं // 2343. एमेव य इत्थीए, णिज्जंतऽभिधारयंति एमेव। वत्तऽव्वत्ताएँ गमो, दोसा य इमे हरंतस्स // 1. कोती (पा, ब, ला)। 2. पुट्ट अपुट्ठो (ता, ब)। 3. पट्ठवण (नि 2703) / ४.बृ५०७६। 5. रुगमेव छेदो य (बृ 5077, नि 2704) / ६.भिक्खु-गणा-ऽऽयरियाणं, मूलं अणवट्ठ पारंची (ब,नि)। 7. अहिहारेंतो (पा, ब, मु)। 8. पुणोतिं (पा, ला)। 9. तु. बृ५०८०। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 जीतकल्प सभाष्य 2344. आणादऽणंतसंसारियत्त बोहीय दुल्लभत्तं च। साहम्मियतेण्णम्मी', पमत्तछलणाऽधिकरणं च // 2345. 'बितियपदं वोच्छेदे", पुव्वगते कालियाणुजोगे य। 'एतेहिं कारणेहिं", कप्पति सेहाऽवहारो तु॥ 2346. एवं तु सो अवहितो, जाहे जातो सयं तु पावयणी। कारणजाते य जया, होज्जाही अवहितो तेणं // 2347. सो तं चिय धरति गणं, कालगत गुरुम्मि तं विहारेंते। जावेक्को णिप्फण्णो, ताहे से अप्पणो इच्छा॥ 2348. अह हरिते णिक्कारण, ताहे पुरिमाण चेव सो जाति। अह अब्भुज्जतमरणं, पडिवण्णो गुरुविहारं वा॥ 2349. अण्णम्मि अविजंते, आयरियपदारुहे तमेव गणं। धारेति जाव अण्णो, णिम्मातो तम्मि गच्छम्मि॥ 2350. सच्चित्ततेण्णमेतं, साहम्मीणं तु एवमक्खातं / आभवणं दोसा या, परधम्मियतेण्ण वोच्छामि / 2351. परधम्मिया वि दुविधा, लिंगपविट्ठा तहा गिहत्था य। तेसिं 'तिविधं तेण्णं", आहारे उवधि सच्चित्ते // 2352. भिक्खूमादी संखडि, तं लिंग काउ भुंजते लुद्धो। आभोगम्मि उ लहुगा, गुरुगा उद्धंसणे . होति // 2353. कूरणिमित्तं चेव उ, अजियंता एतें एत्थ पव्वइता। अविदिण्णदाणगा खलु, पवयणहीला दुरप्प ति॥ 2354. गिहवासे वि वरागा', धुवं खु एतें अदिट्ठकल्लाणा। गलओ णवर ण बलिओ, एतेसिं सत्थुणा चेव // 1. म्मिं (बृ 5079) / 2. णाऊण य वोच्छेदं (बृ 5083) / 3. अज्जाकारणजाते (ब)। 4. कप्पेति (पा)। ५.बृ (5081) और नि (2707) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है निक्कारणे य गहितो, वच्चति ताहे पुरिल्लाणं। 6. एणगेयं (ब)। 7. तिण्णं तिविहं (बृ 5088) / 8. ति (ता, ला)। 9. वरागो (ला)। 10. णवरि (बृ 5090) / Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-८७ 239 2355. एवं ता आहारे, उवधीतेण्णं पुणो इहं होज्जा। जह 'कोइ भिक्खुगादी", उवस्सए मोत्तु उवगरणं // 2356. भिक्खादिगतो तं तू, जइ गिण्हति चतुलहू भवे तत्थ। गिण्हण कड्डण ववहार, पच्छकड तह य णिव्विसए / 2357. गिण्हणे गुरुगा छम्मास, कड्डणे छेद होति ववहारे। पच्छाकडम्मि मूलं, 'णिव्विसयोद्दावणे चरिमं'२॥ 2358. जम्हा एते दोसा, तम्हा अविदिण्णगं ण घेत्तव्वं / उवधीतेण्णं एतं, एत्तो वोच्छामि सच्चित्ते // 2359. खुड्डु व खुड्डियं वा, 'तेणेति अवत्त ऽ पुच्छितुं गुरुगा। . वत्तम्मि नत्थि पुच्छा, खेत्तं थामं च णातूणं // 2360. 'लिंगपविट्ठाणेवं, एमेव तिधा अदिण्ण गिहियाणं"। गहणादीया' दोसा, सविसेसतरा भवे तेसु // 2361. आहारे पिट्ठादी, विरल्लियं दल खुड्डिया गेहे। . गेण्हंती दिट्ठा वि य, ता कुसलपरंपरा छुभणा / / 2362. तहियं होति चतुलहू, अणवठ्ठप्पो व होति आदेसा। एमेव य उवधिम्मि वि, सुत्तट्ठी वत्थमादीया // 2363. णीएहिं तु अविदिण्णं, अप्पत्तवयं पुमं ण दिक्वंति। 'अपरिग्गहमव्वत्तो, कप्पति तु जढो सदोसेहिं " // 2364. अपरिगह पारी पुण, ण भवति तो सा प कप्पति अदिण्णा। सा वि य हु काई कप्पइ, जह पउमा खुड्डुमाता वा // 2365. बितियपदं पाऽऽहारे'', अद्धाणोमादिगेसु कज्जेसु / उवधीविचित्तमादिसु, आगाढे गहणमविदिण्णे // 1. कोदि भिच्छु (पा, ला, मु)। 2. उहण विरंगणे नवमं (बृ५०९३), उड्डहण विरुंगणे नवमं - (बृ 2500) / ३.णेति अवत्तं अपुच्छियं तेणे (बृ५०९५)। 4. एमेव होति तेण्णं, तिविहं गारत्थियाण जं वुत्तं (बृ५०९६)। 5. णादिगा य (ब)। 6. अपरिग्गहो उ कप्पति, विजढो जो सेसदोसेहिं (बु 5098) / 7. काय (बृ५०९९)। 8. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.५६ / 9. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.५७। 10. माहारे (ला)। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 जीतकल्प सभाष्य 2366. सथलीसु' ताव पुव्वं, बला व गेण्हंति तत्थ अदलेते। बलवंतें दुढेसु पुण, छण्णं पी ता. गेण्हंति // 2367. ताहे परलिंगीण वि, जाति य पुव्वं अदत्त छण्णम्मि। गारत्थीसु वि एवं, आगाढे होति गहणं तु॥ 2368. आहारे उवधिम्मि य, बितियपदे गहणमेतमक्खातं / एत्तो सचित्तगहणं, वोच्छामि अदिण्ण बितियपदे // 2369. णाऊण य वोच्छेदं, पुव्वगते कालियाणुओगे य। उवउज्जिऊण पुव्वं, होहिंति जुगप्पहाण त्ति' // 2370. ताहे खुड्डग खुड्डी, हरेज्ज गिहि-अण्णतित्थिगाणं वा। साहम्मि-अण्णधम्मिय, एतं तेण्णं समक्खातं // 2371. गाहापुव्वद्धस्स तु, इति एसा अभिहिता इहं तेण्णा। अहुणा . पच्छद्धस्स तु, गाहासुत्तं इमाऽऽहंसु॥ 2372. अह एत्तो वोच्छामी', हत्थातालं जहक्कमेणं तु। किं पुण हत्थातालं?, भण्णति इणमो णिसामेहि // 2373. हत्थाताले हत्थालंबे, अत्थादाणे य होति * बोद्धव्वे / एतेसिं णाणत्तं, वोच्छामि जहाणुपुव्वीए' // 2374. हत्थेणं जं तालण, हत्थायालं तगं मुणेतव्वं / तहियं हवति य डंडो', लोइय लोउत्तरो. इणमो॥ 2375. उग्गिण्णम्मि य गुरुगो, डंडो पडितम्मि होति भयणा तू। एवं खु लोइयाणं, 'लोउत्तरियं अतो वोच्छं // 2376. हत्थेण व पादेण व, अणवठ्ठप्पो तु होति उग्गिण्णे। पडितम्मि होति भयणा, उद्दवणे होति पारंची // 1. सघलीसु (ता)। 2. ठवणम्मि (ता)। 3. गाथा का उत्तरार्ध बृ (5102) में इस प्रकार है गिहि अण्णतित्थियं वा, हरिज्ज एतेहिँ हेतूहि। 4. छामि (पा, ब)। 5. 'मेहिं (पा, ब, ला)। 6. हत्थायाणे (ला, मु)। 7. बृ५१०३। 8. दंडो (ला, मु)। 9. रियाण वोच्छामि (बृ५१०४)। 10. चरिमपदं (बृ५१०५)। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-८७ 241 2377. बितियपद खुड्ड विणयं', गाहेंते अहव बोहिगादीसु। सावग-भये व घोरे, देज्जाही हत्थतालं तु॥ 2378. "विणयग्गाहण खुड्डे, कण्णामोड-खडुहा'-चवेडादी। सावेक्ख हत्थतालं, दलाति मम्माणि रक्खंतो // 2379. परपरितावणकरणं, चोदेति असातबंधहेतु त्ति। तं कह तस्साणुण्णा, तुब्भेहिँ कता? इमं सुणसु॥ 2380. कामं परपरितावो, असातहेतू जिणेहिं पण्णत्तो। आतपरहितकरो तू', इच्छिज्जति दुस्सीले स खलु॥ 2381. सिप्पंणेउणियट्ठा', 'घाते वि८ सहति लोइगा गुरुणो। 'ते इहलोगफलाणं, महुरविवागेस उवमा तु॥ 2382. अहवा वि रोगियस्सा, ओसह चाडूहि दिज्जते पुव्वं / पच्छा 'ताडेतुं पी१, देहहितट्ठाएँ दिज्जति से२॥ 2383. इय भवरोगत्तस्स वि, अणुकूलेणं तु सारणा पुव्वं / पच्छा पडिकूलेण वि, परलोगहितट्ठ कातव्वा // 2384. इहपरलोगे य फलं, विणीतविणयो अणुत्तरं लभति। संविग्गादिगुणेहिं, इमेहिं जुत्तो महाभागी॥ 2385. संविग्गो मद्दवितो, अमुई१३ अणुयत्तओ विसेसण्णू। उज्जुत्तमपरितंतो, इच्छितमत्थं लभति" साधू // 2386. बोहिभयसावगादिसु५, गणस्स६ गणिणो व अच्चए पत्ते। इच्छंति हत्थतालं, कालाइचरं७ व सज्जं वा॥ 1. विणयणं (ब)। 10. ओसह त्ति विभक्तिलोपादौषधमिति मंतव्यम् 2. यस्स उ गाहणया (बृ 5107) / (बृटी पृ. 1361) / 3. खडुगा (ब),खदुहा (ता, पा)। 11. तालेत्तुमवी (बृटी)। 4. फेडिंतो (ब)। 12. 2382 एवं २३८३-ये दोनों गाथाएं बृहत्कल्पभाष्य की 5. पुण (बृ 5108) / टीका में 'अत्रायं बृहद्भाष्योक्तः' उल्लेख के साथ (प. 6. दुस्सले (ब), छंद की दृष्टि से 'दुस्सिले' पाठ होना 1361) उदधत हैं। चाहिए। 13. अमुदी (ला, पा, ब), अमुती (पंक 1241) / __७.सिप्पं ति मकारोऽलाक्षणिकः (बृभाटी)। 14. लभई (ता), लहइ (बृ५११०)। 8. वाघाते (मु, पा, ला)। 15. बोहिकतेणभयादिसु (बृ५१११)। ..णय मधुरणिच्छया ते,ण होंति एसेविहं उवमा (बृ५१०९)। 16.4 (ला)। 17. 'इवरं (मु)। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 जीतकल्प सभाष्य 2387. एरिसगे आगाढे, बोहिगमादीसु जीतसंदेहे। जं जस्स तु सामत्थं, सो तु ण हावेति एत्थं तु॥ 2388. कुणमाणो वि हु करणं', कतकरणो णेव दोसमब्भेति। अप्पेण बहु' इच्छति, विसुद्धमालंबणो समणो॥ 2389. आयरियस्स विणासे, गच्छे अहवा वि कुल गणे संधे। पंचिंदियवोरमणं, पि कातु नित्थारणं कुज्जा // 2390. एवं तु करेंतेणं, अव्वोच्छित्ती कता तु तित्थम्मि। जइ वि सरीरावायो, तह वि य आराधगो सो * उ॥ 2391. जो पुण सइ सामत्थे, विज्जातिसती व अहव सारीरे। एरिसगे आगाढे, हावेंतों विराधगो' भणितो॥ 2392. एतं हत्थायालं, हत्थालंबं इमं मुणेतव्वं / दुक्खेण अभिदुताणं, जं सत्ताणं परित्ताणं / / 2393. असिवे पुरोवरोधे, एमादी वइससेसु अभिभूता। संजातपच्चया खलु, अण्णेसु य एवमादीसु॥ 2394. मरणभएणऽभिभूते, ते णातुं 'तेहिं वावि भणिता तु"। पडिमं काउं मझे, चिट्ठति मंते परिजवेंतो / 2395. एतं हत्थालंब, हत्थादाणं अओ परं वोच्छं। जो अत्थं उप्पाए, णिमित्तमादी इमं णातं // 2396. उज्जेणी उस्सण्णं, दो वणिया पुच्छिऊण आयरियं। 'ववहारं ववहरंति'", तं ताहे तेसि सो साहे // 2397. तस्स य भगिणीपुत्तो, भोगहिलासी तु मुंचते लिंग। तो अणुकंपा भणती, किं काहिसि तं विणऽत्थेणं // 1. कडणं (ला, मु)। 2. बहू (ब)। 3. राहगो (ब)। 4. बृ५११२। 5. देवतं वुवासंते (65113), वावि भणियत्थे (ता)। 6. पुच्छियं (ला)। 7. जं जाहे भंडमग्घति (ता, ब, ला)। 8. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं.५८। 9. भोग अहि' (ता, ब, ला)। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-८७ 243 2398. तो वच्च ते वणीए, भणाहि अत्थं पयच्छहा मझं / तेणाऽऽगंतुं भणितो, तो तेसिं बेति अह एक्को॥ 2399. कत्तो अत्थो अम्हं?, किं सउणी रूवए इहं हगती? / बीओ चंगेरि भरेत्तु, णिग्गतो णउलयाणं' तु॥ 2400. गिण्हसु जावइएहिं, कज्जं ती गहित तेण जावऽट्ठो। - बितियम्मि हायणम्मी, किं गिण्हामो? त्ति ते बेंति // 2401. भणितो सउणि हगंतो, तण-कटुं वत्थ-रूत-कप्पासे। णेह-गुल-धण्णमादी, अंतो णगरस्स ठावेहि // 2402. बितिओ य तहिं भणितो, सव्वादाणेण गिण्ह तणकट्ठ। 'णगरबहिद्धा ठावय, गहिते णवरिं५ च वासासुं। 2403. छइएसुं६ गेहेसुं, पलित्तें दटुं ततो उ तं णगरं / .. तणकट्ठाणं पुंजो, रूवयपुंजो तु सो जातो॥ 2404. दड्डमितरस्स सव्वं, ताहे सो गंतु भणति आयरियं / उच्छाइओ अहोऽहं, किह व ण णातं समं तुब्भे? // 2405. किं सउणिगा निमित्तं, हगंति अम्हं? ति भणति णेमित्ती। होति कयाइ० 'तहऽण्णह' 19, रुटुं णातुं तओ खामे॥ 2406. एमादिणिमित्तेहिं, उप्पाए ऽत्थम्मि अत्थदाण भवे। सो एरिसगो पुरिसो, अब्भुटेज्जा जइ कयाइ॥ 2407.. तस्स तु ण उवढवणार, तम्मि३ खेत्तम्मि जाव संचिक्खे। एस च्चिय अणवट्ठो, जऽणुवट्ठवणा तहिं खेत्ते // 1. णतुल" (ता, ब)। 2. तो (मु), वी (ला)। 3. बेमि (ब)। 4. रूतं (पा), रूव (ता, ला)। 5. णवरि (ला)। 6. ठइएसुं (ब, मु)। 7. अइवमहग्यो (पा, मु)। 8. जो (ब, ला)। 9. भणित (ला)। 10. कइयाइ (ता, ला)। 11. तह अण्णह (ब)। 12. हु उवठवणा (ला, पा)। 13. तम्मि (ब)। 14. क्खं (ता, ब, ला)। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 - जीतकल्प सभाष्य 2408. णेतूण अण्णखेत्तं, तस्स उवट्ठावणा तु कातव्वा! तहिँ णोवट्ठा खेत्ते, किं कारण? भण्णती सुणसु॥ 2409. पुव्वब्भासा भासेज्ज, किंचि गोरव सिणेह भयतो वा। ण सहति परिस्सहं पि य, णाणे कंडुव्व कच्छुल्लो // 2410. तेण तु तहियं थाणे, ण हु देती तस्स भावलिंग तु। देज्जा व कारणम्मी, असिवोमादीसु तप्पिहिति // 2411. ण य मुच्चति असहाओ, तहियं पुट्ठो तु भणति वीसरियं। अहवा वि उत्तिमढे, देज्जाही लिंग तत्थेव॥ 2412. एवं ता ओसण्णे, गिहत्थे पुण दव्वभावलिंगाई। दोण्णि वि ‘ण वि" दिज्जंती, दिज्जेज्ज व उत्तिमट्ठम्मि॥ 2413. एवं अत्थादाणे, जे पुण सेसा हवंति. अणवट्ठा। साहम्मि-अण्णधम्मियतेणादी ते उ भयणिज्जा / / 2414. का पुण भयणा एत्थं?, आहारे उवहितेण अच्चित्ते। लहुगो लहुगा गुरुगा, अणवठ्ठप्पो व आदेसा॥ 2415. कह पुण आदेसेणं, अणवट्ठो होतिमं 'णिसामेह / अणुवरमंतो कीरति, अहवा उस्सण्णदोसो तु॥ 2416. अहवा भिक्खू पावति, एतेसु पदेसु तिविध पच्छित्तं / णवमं पुण बोद्धव्वं, अभिसेगे सूरिणो दसमं॥ 2417. तुल्लम्मि वि अवराधे, तुल्लमतुल्लं च दिज्जते दोण्हं / पारंचिए वि नवमं, 'अभिसेग गुरुस्स पारंची'॥ 2418. अहवा अभिक्खसेवी, अणुवरमं पावती गणी नवमं। पावंति मूलमेव तु, अभिक्खपडिसेविणो सेसा // 1. 2406-08 तक की तीन गाथाओं के स्थान पर बृ 3. ता और पा प्रति में गाथा का पूर्वार्द्ध नहीं है। (5118) में निम्न गाथा है 4.4 (ला)। एयारिसो उ पुरिसो, अणवटुप्पो उ सो सदेसम्मि। 5.4 (पा)। णेतूण अण्णदेसं, चिट्ठउवट्ठावणा तस्स॥ 6. गणिस्स गुरुणो उ तं चेव (बृ 5126) / २.बृ 5119, इस गाथा का पा प्रति में केवल 'पुव्वब्भासा' 7. सेवणा (ता, ला)। इतना ही संकेत मात्र है। ८.बृ५१२७। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-८८-९३ 245 2419. अत्थादाणे ततिओ, अणवट्ठो खेत्तओ समक्खातो। गच्छे चेव वसंता, निज्जूहिजंति अवसेसा // अभिसेगो सव्वेसु य, बहुसो पारंचियावराधेसु। अणवठ्ठप्पावत्तिसु, पसन्जमाणो अणेगासु॥ 88 // 2420. अभिसेगो उज्झाओ, पुणो पुणो होति बहुससद्दो ऊ। पारंचियावराहे, आवज्जति सव्वसद्दो तु॥ 2421. अणवठ्ठप्पावत्ती, उ सेवते णेगसो त्ति बहुसो तु। ___णंतरगाधाए सो, अणवठ्ठप्पो त्ति कीरति तु॥ 2422. जुत्तं तावऽणवढे, दिज्जति अणवट्ठमेव अभिसेगे। पारंचियावराधे, पत्ते किह पावती नवमं? // 2423. भण्णति जह णवदसमे, आवण्णस्सावि भिक्खुणो मूलं। दिज्जति तहाऽभिसेगे, परं पदं होति णवमं तु॥ कीरति अणवटुप्पो, सो लिंगक्खेत्तकालतो तवओ। लिंगेण दव्व भावे, भणितो पव्वावणाऽणरिहो॥ 89 // अप्पडिविरयोसण्णो, ण भावलिंगारिहोऽणवठ्ठप्पो। जो जेण जत्थ दूसति, पडिसिद्धो तत्थ सो खेत्ते॥९०॥ जत्तियमेत्तं कालं, तवसा उ जहण्णगेण छम्मासा। संवच्छरमुक्कोसं, आसायइ' जो जिणादीणं॥ 91 // वासं बारसवासा, पडिसेवी 'कारणेण सव्वे५ वि। थोवं थोवतरं वा, वहेज मुंचेज वा सव्वं // 92 // वंदति ण य वंदिग्जति, परिहारतवं सुदुच्चरं चरति। संवासो से कप्पति, णालवणादीणि सेसाणि॥ 93 // 2424. परपक्ख सपक्खे वा, ण वि विरतो तेणगादिदोसेहिं / अप्पडिविरतो अहवा, हत्थायालादिसु पदेसु॥ १.सेसा 3 (बृ५१२८)। २.वि (ला)। 3. उवण्याओ (मु, ब)। 4. आसाती (ब)। 5. कारणे तु सव्वे (पा, मु)। 6. मुच्वेज्ज (मु, पा)। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 जीतकल्प सभाष्य 2425. ओसण्णमादिया तू, अणुवरता दोस लिंगसहिता ऊ। अणवठ्ठप्पा ते ऊ, कातव्वा भावलिंगेणं // 2426. कालतों अणवठ्ठप्पो, अणउवरतदोस जत्तियं कालं। सो अणवट्ठो कीरति, जत्तियमेत्तं तगंरे कालं // 2427. तवअणवट्ठो दुविधो, आसायणयाय' होति पडिसेवी। एक्केक्को वि य दुविधो, जहण्णगो चेव उक्कोसो॥ 2428. तवअणवट्ठोऽऽसायण, जहण्ण छम्मास वरिसमुक्कोसं। के पुण आसाएंती?, जिणमादी जा महिड्डीयं / / 2429. पडिसेवी अणवट्ठो, जहण्ण वरिसं तु बारसुक्कोसा। किं पुण पडिसेवति तू?, तेण्णादीया पदा सव्वे // 2430. कारणमादिपदा तू, उवरि वोच्छिंसु अहुण परिहारं / वंदणमादी य पदा, समासतो हं इमं वोच्छं / 2431. परिहरणं परिहारो, आलावणमादि दसहि तु पदेहिं / सेहादिए वि वंदति, सो पुण ण वि वंदणिज्जो तु॥ 2432. केरिसगुणसंजुत्तो, अणवट्ठो कीरती? इमं सुणसु। संघतण-विरिय-आगम-सुत्तत्थ-विधीय उववेतो / 2433. उवरिमतिगसंघतणो, सव्वगुणो केवलं अजितणिदो। देज्जा से सव्वतवं, अणवटुं वावि पारंची॥ 2434. नवदसपुव्वकतत्थो, सड्ढो इव उग्गमधितिकतकरणो। परिणामसमग्गो त्ति य, अणवठ्ठप्पं स दातव्वं / / 2435. एवं तु गुणसमग्गो, चरित्तसेढिं तु णट्ठ भिण्णं वा। पोराणियगुणसेढिं, निरवयवं सो तु पूरेति // 2436. 'सो वंदति सेहादि वि, पग्गहिततवो जहा*६ जिणो चेव। विहरति बारसवरिसे', अणवट्ठप्पो गणे चेव॥ 1. इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में 'खेत्ततो गतं' का उल्लेख . ५.धितीय (ब, ला, मु)। 6. सेहाई वंदंतो पग्गहियमहातवो (ब 5135) / स जा 2. गतं (ब)। 2 दम्प गाथा के बाद सभी प्रतियों में काले त्ति गतं 'का उल्लेख है। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-९३ 247 2437. तस्स य परिहारतवं, पडिवज्जंतस्स कीरउस्सग्गो। संघाडठवणभीते, आससय समत्थकरणं च॥ 2438. किं कारणमुस्सग्गो?, भण्णति सेहाण जाणणट्ठाए। भयजणणट्ठाय तहा, णिरुवस्सग्गट्ठया चेव' / 2439. कप्पद्वितो. अहं ते, अणुपरिहारी य एस 'गीतो ते 2 / पुव्वं कतपरिहारो, 'तस्सऽसतिऽण्णो'२ वि दढदेहो / 2440. एस तवं पड्विज्जति, ण किंचि आलवति मा प' आलवहाँ / अत्तट्ठचिंतगस्सा, वाघातो भे ण कातव्वो // 2441. ताहे य परिहरिज्जति, गच्छेणं सो य परिहरति गच्छं। अपरिहरंताऽऽरोवण, दसहिँ पदेहिं इमेहिं तु॥ 2442. आलावण पडिपुच्छण, परियदृट्ठाण वंदणग मत्ते। पडिलेहण संघाडग, भत्तदाण संभुंजणा चेव // 2443. 'जा संघाडो ताव* तु, लहगो मासो 'तु होति गच्छस्स२० / लहुगा य भत्तदाणे, संभुंजण होतऽणुग्घाता॥ 2444. संघाडगो तु जाव उ, गुरुगो मासो दसण्ह तु पदाणं। ‘भत्तस्स दाण११ संभुंजणे य परिहारिगे गुरुगा। 2445. कितिकम्मं च पडिच्छति, परिण 'पडिपुच्छ देति य गुरू से२। सो वि य गुरुमुवचिट्ठति, उदंतमवि पुच्छितो कहते२ // 2446. एवं तू ठवणाए, ठवियाएँ भयं तु कस्सतुववज्जे। किह नु मए एक्केणं, णित्थरियव्वेत्तिओ कालो? // 1. इस गाथा के बाद प्रतियों में 'उस्सग्गो त्ति' का उल्लेख है। 8. व्य 550, बृ 5137,5598, नि 2881 / 2. ते गीओ (नि)। 9. संघाडगो उ जाव (बृ 5599), ३."तितरो (व्य 548), सयण्णो (नि 2879) / संघाडगाओ जाव (नि 2882) / .४.इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में संघाडे त्ति गतं' का १०.दसण्ह उ पदाणं (बृ, व्य 551) / उल्लेख है। 11. भत्तपयाणे (व्य ५५२,नि 2883) / 5.5 (व्य 549), यहां'ण' वाक्यालंकार के अर्थ में प्रयुक्त है। 12. च्छणं पि से देति (व्य 553, नि 2884) / 6. वह (व्य, नि 2880) / 13. कहतो (ता, पा, ब, ला),सभी प्रतियों में इस गाथा के * 7.15597 / बाद 'ठवणे त्ति गतं' का उल्लेख है। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 जीतकल्प.सभाष्य 2447. ताहे आसासेती, आयरिओ मा हु एव तं बीभे। अणुपरिहारी एस य, अहवा' 'कप्पट्ठितो एसो'२ // 2448. जं किंचि पाडिपुच्छं, तं सव्व मए समं करेज्जाहि। हिंडिहिसी भिक्खं पि य, अणपरिहारीण तं सद्धिं // 2449. एव भणितो तु संतो, आसासति' तं च ताहें णित्थरति। किह पुण होआसासो?, भण्णति इणमो णिसामेहि // 2450. जह कोइ अगडपडितो, जइ भण्णति एस हा! मतोवरतो। तो मुंचति अंगाई, पच्छा मरती य सो ताहे // 2451. अह पुण भण्णति एवं, मा बीहसु एस आणिया रज्जू। उत्तारिज्जसि / एवं, आसासो से हवति ताहे // 2452. एवं णदिवुब्भंते, राया रुट्ठो व कासती होज्जा। सो वि जइ विणट्ठो सि त्ति भण्णते तो विराएज्जा॥ 2453. अह भण्णति मा बीभे, राया असमिक्खिते अकज्जे वा। ण वि किंचि करेइ त्ती, मोइज्जेहिसि व आससति // 2454. एवासासो तस्स वि, होती आसासियस्स संतस्स। ___इय पडिवण्णो सो ऊ, वहति हु उग्गं तवोकम्मं // 2455. तो उग्गेण तवेणं, सो जाहे खामदुब्बलसरीरो। ण तरेज्जुट्ठाणादी, काउं. ताहे इमं भणति // 2456. उद्वेज्ज णिसीएज्जा, भिक्खं हिंडेज्जर भंडगं पेहे। 'कुवितपियबंधवो विय, तुसिणी संघाडों तो कारे'१२ // 2457. बितियपद अण्णगच्छा, पेसेज्जा वंदणं अयाणंतो। गेलण्णे उभयस्स व, कुज्जा करणिज्ज जतणाए॥ 1. अहव (पा, ला)। 2. कप्पट्ठिती एसा (मु)। 3. आससती (ता, ला)। 4. किं (ला, पा)। 5. मेहिं (मु, पा)। 6. उत्तरेज्जसि (ता)। 7. ति (पा, ला)। 8. आसास (ब), आसती (ता, ला)। 9. इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में आसासो त्ति गतं' का उल्लेख है। 10. "एज्ज (मु)। 11. गेण्हेज्ज (नि 2885) / 12. धवस्स व करोति इतरो च तसिणीओ (नि)। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-९३,९४ 249 2458. गच्छिल्लया 'गुरुस्स उ", गुरु अणुपरिहारिगे समप्पेंति। __ अणुपरिहारी परिहारियस्स देंतेस' जतणा तु॥ 2459. सो वा करेग्ज तेसिं, आगाढ परंपरेण एमेव। गुरुणो एगागिस्स व, अण्णऽसतीए करेज्जाहि // 2460. ताहे णित्थिण्णतवो, कुलादिकज्जे व तप्पितो जो तु। उवठावण तस्स भवे, केई गिहिवेस काऊणं // 2461. गिहिवेसमकाऊणं, उवट्ठवेंते उ होति चउगुरुगा। आणादिणो य दोसा, पावति अहवा इमे दोसे // 2462. वरणेवत्थं एगे, हाणविवज्जमवरे जुवलमत्तं / परिसामज्झे धम्मं, सुणेज्ज कहणा पुणो दिक्खा // 2463. किं तस्स तु गिहिवेसं?, किं वरणेवत्थ? किं व जुयलं तु?। किं वा परिसामज्झे, धम्मो सें कहिज्जते तस्स? // 2464. ओभामितो ण कुव्वति, पुणो वि सो तारिसं अतीयारं। होति भयं 'सेहाण य'६, 'गिहिभूते ऽधम्मया" चेव॥ . तित्थगर पवयण सुतं, आयरियं गणधरं महिड्डीयं। आसाएंतो बहुसो, आभिणिवेसेण पारंची॥९४॥ 2465. किह पुण आसाएती?, अवण्णवायाइ वयति जं तेसिं। केरिसओ तु अवण्णो?, भण्णइ इणमो णिसामेहि // 2466. पाहुडियं उवजीवति', जाणतो किं व्व. भुंजते भोग?। 'अजुतं च इत्थितित्थं", अतिकक्खड 'देसिता चरिया१२ // 1.4 (ला)। २.देंतेसु (ब)। 3. 'ज्जाहि (ला)। 4. केयी (पा)। 5. जुगल' (व्य 1207) / 6. सेसाणं (व्य 1208) / ७.गिहिरूवे धम्मता (व्य), इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में 'अणवटुप्पे त्ति गतं' का उल्लेख है। 8. तित्थं (पा)। 9. अणुमण्णति (बृ 4976) / 10. व (मु, बृ)। 11. थीतित्थं पि य वुच्चति (ब)। 12. देसणा यावि (ब)। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 जीतकल्प सभाष्य 2467. अण्णं व एवमादी, अवि पडिमासु वि तिलोगमहिताणं। जइ भणति' कीस कीरति, मल्लालंकारमादीयं? // 2468. जो वि पडिरूवविणयो, तं सव्वं अवितहं अकुव्वंतो। वंदण-थुतिमादीयं, तित्थगरासायणा एसा // 2469. अक्कोसतज्जणादिसु', संघमहिक्खिवति संघपडिणीए / अण्णे वि अत्थि संघा, सियाल-णंतिक्क-ढंकादी // 2470. काया वया य ते च्चिय, ते चेव पमाद अप्पमादा य। मोक्खाहिकारियाणं, जोतिसविज्जाहि' किं च पुणो? // 2471. इड्डि-रस-सातगुरुगा, परोवदेसुज्जता जहा मंखा। अत्तट्ठपोसणरता, 'आयरिया जह दिया चेव'१॥ 2472. अब्भुज्जतं विहारं, देसेंति परेसि सयमुदासीणा। उवजीवंति य 'इड्डिं, णीसंगा'१२ मो त्ति य भणंति३ // 2473. गणहर एव महिड्डी, महातवस्सी व वादिमादी वा। तित्थगरपढमसीसा", आदिग्गहणेण गहिता वा॥ 2474. सा दुह देसे सव्वे, देसम्मी एगदेसमादीया। जं वयति सव्व देसो, सव्वेसिं वावि सव्वेसो॥ 2475. तित्थकरं संघं वा, देसेणं वावि अहव सव्वेणं / आसाएंते चरिमं, सेसेसुं चतुगुरू देसे॥ 1. भण्णति (पा)। त्ति गतं' का उल्लेख है। 2. ब (4977) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है- 8. मप्प (बु 4979) / पडिरूवमकुव्वंतो, पावति पारंचियं ठाणं / 9. “ज्जासु (बु), 'सजोणीहिं (बृ 1303) / 3. व (ला)। 10. इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में 'सुते त्ति गतं' का 4. इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में 'तित्थगरे त्ति गतं' का उल्लेख है। उल्लेख है। 11. पोसेंति दिया व अप्पाणं (बृ 4980) / 5. अक्कोस-तज्जणाइस त्ति विभक्ति व्यत्ययाद आक्रोश- 12. रिद्धिं निस्संगा (ब 4981) / तर्जनादिभिः (बृभाटी)। 13. इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में आयरिए त्ति गतं' का 6. *णीतो (बृ 4978) / उल्लेख है। 7. ढंकाणं (ब), इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में 'पवयणे 14. सिस्सा (बृ 4982) / Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-९४,९५ 251 2476. सव्वे वाऽऽसाएंतो, पावति पारंचितं तु सो ठाणं / ___ एत्थं पुण सचरित्ती, देसे सव्वे य अचरित्ती॥ 2477. तित्थगरपढमसीसं', एक्कं 'वी सादयंतों'२ पारंची। अत्थस्सेव जिणिंदो, पभवो 'सुत्तस्स सो जेणं 2 // 2478. आसायणपारंची, एमेसो वण्णितो समासेणं। पडिसेवणपारंची, एत्तो वोच्छं समासेणं / / जो य सलिंगे दुट्ठो, कसायविसएहिं रायवहगो य। रायग्गमहिसिपडिसेवगो य बहुसो पगासो य॥ 95 // 2479. पडिसेवणपारंची, तिविहेसो वण्णितो तु सुत्तम्मि। दुट्ठादीहिँ पदेहिं, समासतो हं पवक्खामि // 2480. दुट्ठो य पमत्तो या, अण्णोण्णासेवणापसत्तो उ। एतेसि विभागं तू, वोच्छामि जहक्कमेणेव // 2481. दुविधो य होति दुट्ठो, कसायदुट्ठो य विसयदुट्ठो य। दुविधो कसायदुट्ठो, सपक्ख-परपक्ख-चतुभंगो // 2482. सासवणाले मुहणंतगे य उलुगच्छि सिहरिणी चेव। एते. सपक्खदुट्ठा, 'एतेसि परूवणा इणमो" // 2483. सासवणाले 'लद्धं, गुरु छंदिय खइय सव्वितर कोधो 10 / खामण अणुवसमंते, गणी ठवेत्तऽण्णहि परिण्णा२॥ 2484. पुच्छंतमणक्खाते, सोच्चऽण्णतों गंतु कत्थ से सरीरं? / 'गुरु पुव्वकहित ऽदाइय५, 'पडियरणं दंतभंजणया'१६ // 1. सिस्सं (बृ 4984) / 2. पाऽऽसादयंतु (ब)। 3. सो जेण सुत्तस्स (बृ)। 4.4 (ता, ला)। 5. तु.बृ 4985 / 6. य (ता), 4 (पा)। 7.6 4986, पंक 451, नि 3681 / 8. एसो (बृ 4987) / 9. परपक्खे होति णेगविधो (ब)। १०.छंदण गुरु सव्वं भुजें एतरें कोवो (बृ४९८८,नि 3683) / 11. गणिं (ब)। 12. तु. पंक 453, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.५९। 13. देहं (पंक 454) / 14. गुरुणा पुव्वं कहिते (पंक 454, नि 3684) / 15. ऽदातण (बृ 4989) / 16. चरण दंतवहो (पंक, नि)। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 253 जीतकल्प सभाष्य 2485. मुहणंतगमालोयण, आणियमुक्कोस गहित गुरुणा य। कुवितेण णिसी गंतुं, गलए लइओ य पासुत्तो' / 2486. सम्मूढेणितरेण वि, गलए लइओ उ तो मता दो वि। अण्णो पुण सिव्वंतो, अत्थमिते गुरुहिँ अह भणितो॥ 2487. अत्थमितम्मि वि सिव्वसि, उलुगसरिच्छच्छि तो वदे रुसितो। तुह उक्खणामि' अच्छी, खामिजंतो वि ण. वि पसिए / 2488. तो ठवित गणिं गच्छे, भत्तपरिण्णं करेति अण्णगणे। ___जह पढमो णवरि इहं, उलुगच्छीउ त्ति ढोकें ति // 2489. अवरो वि सिहरिणीए, छंदिय सव्वाइयं तो उग्गिरणा। तत्थेव तू परिण्णा, ण गच्छती णवर अण्णत्थं // 2490. जम्हा एते दोसा, तम्हा ण वि गेण्हितव्वगं गुरुणा। एगस्सेव - तु सव्वं, अण्णायायारसीलस्स॥ 2491. गहणम्मि विधी इणमो, जइ गहिता मत्तगा तु सव्वेहिं / तेसि णिमंतेंताणं, अलाहि पज्जतमो बेंति // 2492. णिब्बंधे थोवथोवं, सव्वेसिं गेण्हते णः एगस्स। सव्वेसिं पि ण गेण्हति, बितियादेसेण गहितं पि॥ 2493. गुरुभत्तिमं जो 'य मणाणुकूलो", सो गिण्हती णिस्समणिस्सयो वा। तस्सेव सो गेण्हति णेतरेसिं, अलब्भमाणम्मि व थोब थोवं॥ 2494. सति ‘लाभम्मि व" गेहति, इतरेसिं जाणिऊण णिब्बंध। मुंचति य० सावसेसं, जाणति उवयारभणितं च॥ १.कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं.६०। 4. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.६१। 2. अक्खणामि (ता)। 5. तु. पंक 457, तु.७ 4992, कथा के विस्तार हेतु देखें 3. यहां छंद की दृष्टि से 'पसीए' के स्थान पर 'पसिए' पाठ परि. 2, कथा सं.६२। है, गा. 2487 तथा २४८८-इन दोनों गाथाओं के स्थान 6. वा (ब)। पर ब (4991) तथा पंक (456) में निम्न गाथा मिलती 7. हिययाण' (बु 5000) / 8. थोवा (ला)। अत्थंगए वि सिव्वसि, उलुगच्छी ! उक्खणामि ते अच्छी। 9. लंभम्मि वि (बृ५००१)। पढमगमो नवरि इहं, उलुगच्छीउ त्ति ढोक्केति॥ १०.व (ता)। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-९५ 253 2495. गुरुसंसट्टव्वरितं', बालादसतीय मंडलिं जाति। 'जो अण्णायरमत्तग, गिलाणभुत्तुव्वरित्ते वि॥ 2496. सेसाणं संसटुं, न छुब्भती मंडलीपडिग्गहए। पत्तेग गहित छुब्भति, उब्भासण' लंभ मोत्तूणं॥ 2497. पाहुणगट्ठा व तर्ग', धरेत्तु अतिबाहडं विगिंचंति। इति गहणभुंजणविधी, 'अविधीगहणेण दोसेते // 2498. एते सपक्खदुट्ठा, परपक्खें उदायिमारगादीया / परपक्खसपक्खम्मि य, पालक्कादी मुणेतव्वा / 2499. पालक्को तु पुरोहित, खंदगपमुहाण जेण पंच सता। पुट्विं विराहितेणं, जंते पीलाविता जतिणो" // 2500. मुणिसुव्वयतित्थम्मी, वादेण पराइतो स पुट्विं तु। . खंदग रण्णो ताहे, पावो स पदोसमावण्णो॥ 2501. परपक्खो परपक्खे, रायादी अभिमरा जहा केई। वधपरिणता व वहगा, भणिता चत्तारि दुद्रुते॥ 2502. एतेसि चतुण्डं पी, पच्छित्तमहाविधिं पवक्खामि। जे सासवणालादी, लिंगविवेगो भवे तेसिं॥ 2503. 'जो वि सपक्खो रायादियाण वधपरिणतो व वहगो वा१२ / सो लिंगतों पारंची, जो वि य परिवडते' तं तु॥ 2504. सण्णी व असण्णी वा, जो 'परपक्खे सपक्खें दुट्ठो तु। तस्स णिसिद्धं लिंगं, अतिसेसी वावि 'से देज्जा'१५ // 1. गुरुणो भुत्तुव्व (बृ५००२)। 2. पण सेसंगगहितं गिलाणमादीण तं दिति (ब)। 3. सेसाण (पा, ला)। 4. 'हतं (ला)। 5. पत्ते गहितं (ब, मु)। 6. ओभा' (बृ 5003) / ७.वयं (ता)। ८.इह (बृ५००४)। 9. अविधीऍ इमे भवे दोसा (बृ)। 10. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं.६३। 11. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.६४। 12. रायवधादिपरिणतो, अहवा वि हवेज्ज रायवहओ तु __ (बृ 4994) / 13. परिककृती (बृ)। 14. दुट्ठो होति तू सपक्खम्मि (बृ 4995) / 15. दिज्जाहि (ब)। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 जीतकल्प सभाष्य .. 2505. परपक्खो परपक्खे, रायामादीपदुट्ठों जो वि भवे। तस्स सदेसें ण कप्पति, कप्पति अण्णम्मि उवसंते॥ 2506. एसो कसायदुट्ठो, विसयपदुटुं इदाणि वोच्छामि। तस्स वि सपक्खपरपक्खतो य चतुभंग तह चेव॥ 2507. संजति कप्पठितें पढमों, सेज्जातरि अण्णतित्थिणी बीओ। परपक्खे संजतीएँ, उभयपरो होति उ चतुत्थो / 2508. लिंगेण लिंगिणीए, संपत्ति जइ निगच्छती पावो। निरयाउगं णिबंधति, 'आसायणओ अबोही य॥ 2509. लिंगेण लिंगिणीए, संपत्तिं जो निगच्छती' पावो। सव्वजिणाणऽज्जाओ, संघो आसादितो तेणं // 2510. पावाणं पावतरो, 'दगुण ण वट्टए हु साहूणं"। जो जिणपुंगवमुई, णमिऊण तमेव धरिसेति // 2511. संसारमणवयग्गं, जाति-जरा-मरण-वेदणापउरं / पावमलपडलछन्ना, भमंति मुद्दाधरिसणेणं // 2512. एसो पढमगभंगो, पारंचियमेत्थ होति पच्छित्तं / बितियगभंगम्मि तहा, अणुवरयम्मी भवे चरिमं // 2513. जत्थुप्पज्जति दोसो, कीरति पारंचिओ स तम्हा तु / सो पुण 'सेवि असेवी'', गीतमगीतों व एमेव // 2514. 'वसहि-णिवेसण-वाडग, साही तह गाम देस रज्जे य। कुल गण संघे णिज्जूहणाएँ पारंचिओ होति // 2515. उवसंतो वि समाणो, वारिज्जति तेसु तेसु ठाणेसु / हंदि हु पुणो वि दोसं, तट्ठाणाऽऽसेवणा कुणति / / 2516. जेसु विहरंति ताओ, वारिज्जति णवर तेसु ठाणेसु / ____ पढमगभंगे ताई", सेसेसु वि ताइँ ठाणाई। 1. संपत्ती (नि 1690) / 2. मूढो (नि)। 3. यण दीहसंसारी (नि)। ४.णियच्छती (बृ 5008) / 5. दिविऽब्भासे वि सो ण वट्टति हु (बृ 5009) / . 6. बृ५०१०। 7. सेवीमसेवी (बृ५०११)। 8. उवस्सय कुले निवेसण वाडग साहि (बृ५०१२)। 9. बृ५०१३। 10. एवं (बृ५०१४)। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-९५,९६ 255 2517. एत्थं पुण अधिगारो, पढमगभंगेण उभयदुद्वेण / उच्चारितसरिसाई, सेसाइं विकोवणट्ठाए॥ 2518. इति एस अभिहितो तू, उभयपदुट्ठो य रायवधगो य। रायग्गमहिसिपडिसेवगो उ अहुणा इमो होति॥ 2519. रायस्स महादेवी, अहवा जा जस्स होति इट्ठा तु। सा तस्स होति अग्गा, अग्ग पहाण त्ति एगट्ठा // 2520. तं पडिसेवति जो तू, पुणो पुणो होति बहुससद्दो तु। लोगपगासो अहवा, सो पावति चरिमठाणंरे तु॥ 2521. चस्सद्दा अण्णाण वि, जा इट्ठा सा हु' तेसि होअग्गा। जुवरायादीयाणं, तेसिं पि जहेव राइस्स / / 2522. इतरमहिलासु चरिमं, ण विज्जती कीस? एव चोदेति। भण्णति बहुयाऽवाया, इतरासुं. अप्पणो चेव॥ 2523. रायस्स अग्गमहिसीएँ अप्पणो कुल गणे व संघे वा। पत्थारादी दोसा, पागतमहिलासु तस्सेव // 2524. वतलोवों सरीरे वा, दोसा' ण हु कुल-गणादिपत्थारो। ___एतेण कारणेणं, इतरासु ण होति चरिमपदं / - 2525. दुद्वेसो पारंची, भणितो अहुणा पमत्त वोच्छामि। सो कलुस विकह वियडे, इंदिय-णिद्दा य पंचविधे // 2526. कोधादि चउह कलुसा, विकहा पुण इत्थिमादिया चतुहा। पुव्वब्भासा वियडं, इंदिय सोयादिए पणगं / 2527. पोग्गल मोदग 'फरुसग, दंते'" वडसालभंजणे चेव / . 'थीणद्धीआहरणा, वोच्छामि विभागमेतेसिं॥ - १.दुविह दुढे वी (बृ५०१५)। 6. फरुसगशब्देन समयप्रसिद्धया कुम्भकारोऽभिधीयते २.हाणं (ता, पा, ला)। (विभामहेटी)। ३.६(ला)। .. 7. भंते (ता, ब, ला), दंते फरुसग (नि 135, विभा 235) / 8. सुत्ते (बृ५०१७) १.स.माथा के बाद प्रतियों में 'दुट्टपारंचिए त्ति गतं' का 9. एतेहिं पुणो तस्सा विविंचणा होति जतणाए (ब), उल्लेख है। णिद्दप्यमादे एते, आहरणा एवमादीया (नि 135), “गमो तेसिं (ता, ला)। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 जीतकल्प सभाष्य थीणद्धिमहादोसो', अण्णोण्णासेवणापसत्तो य। चरिमट्ठाणावत्तिसु, बहुसो य पसज्जते जो उ॥१६॥ 2528. जह उदगम्मि घते वा, थीणम्मी णोवलब्भते किंची। इदं चित्तं भण्णति, तं थीणं तेण थीणद्धी॥ 2529. पिसितासि पुव्वमहिसं, विगिंचित दिस्स तत्थ णिसि गंतुं। अण्णं हतुं खायति', उवस्सयं सेसगं णेति // 2530. मोदगभत्तमलद्धं, भंतु कवाडे घरस्स णिसि खाति। भाणं च भरे ऊणं, आगतों आवासए वियडे / 2531. अवरो 'वि फरुसमुंडो", मट्टियपिंडे व छिंदिउं सीसें। एगते पव्विंधति', पासुत्ताणं विगडणा य॥ 2532. अवरो विवाडितो९ मत्तहत्थिणा पुरकवाड भंतूणं१२ / तस्सुक्खणित्तु दंते, वसहीबाहिं विगडणा य॥ 2533. उब्भामग वडसालेण घट्टितो केइ पुव्व" वणहत्थी। वडसालभंजणाऽऽणण५, 'उस्सग्गाऽऽलोयण पभाते'१६ // 2534. तस्सोदयकालम्मी, हवती जं केसवस्स अद्धबलं / ण वि देति अणतिसेसी, लिंगं अवि केवली होज्जा। 2535. णातम्मि पण्णविज्जति, मुय लिंगं णत्थि तुज्झ चारित्तं / देसवत दंसणं वा, गिण्हसु इच्छंत रमणिज्ज // 1. दोसा (ब, मु)। 10. या (पा), कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.६७। २.विविंचियं (ता, मु), विगच्चियं (बृ 5018) / 11. वि घाडिओ (बृ 5021) / 3. दट्ट (नि 136) / 12. भेत्तूण (नि 139) / 4. खइतं (नि)। १३.तु (नि), कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं.६८। 5. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.६५। / 14. पुण (पा, ब, ला)। 6. भेत्तु (नि 137) / 15. “णय (नि 140) / 7.65019, कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं.६६। 16. “यणा गोसे (65022), उवस्सयालोयण पभाते (नि 140), 8. फरुसग मुंडो (बृ 5020, नि 138) / कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.६९। 9. अवयज्झइ (बृ), पाडेति (नि)। 17. लम्मि (ता, मु)। शा Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-९७-१०० 257 2536. अह णेच्छति तो संघो, लिंगं हरती' ण' हरति सिं एगो। ___ मा गच्छेज्ज पदोसं, छड्डत्तऽसत्तीऍ पासुत्तं / / 2537. णिद्दपमत्तो एसो, पारंची लिंगतो समक्खातो। कुणमाण अण्णमण्णं, पारंचीयं अतो वोच्छं / / 2538. करणं तु अण्णमण्णे, समणाण ण कप्पती सुविहिताणं। किह करण अण्णमण्णे?, भण्णति इणमो णिसामेहि // 2539. आसयपोसयसेवी, केई पुरिसा दुवेदगा होति। तेसिं लिंगविवेगो, 'कातव्वो होति णियमेणं'२ // 2540. चरिमं अंतं भण्णति, तं पुण पारंचियं ति णातव्वं / 'पारंचियावराहे, पुणो पुणो सज्जते जो तु॥ 2541. थीणद्धिमादियाणं, सोहिं वोच्छं पुणो वि सव्वेसिं। __ लिंगादीणं कमसो, एत्थ इमा होति गाहाओ। सो कीरति पारंची, लिंगाओ खेत्तकालतो तवतो। संपाडगपडिसेवी, लिंगाओ थीणगिद्धी य॥ 97 // वसहि-णिवेसण-वाडग-साहि-णियोग-पुर-देसरज्जाओ। खेत्ताओ पारंची, कुल-गण-संघालयाओ वा // 98 // जत्थुप्पण्णो दोसो, उप्पज्जिस्सति व जत्थ णाऊणं। तत्तो तत्तो कीरति, खेत्ताओ खेत्तपारंची॥ 99 // जत्तियमेत्तं कालं, तवसा पारंचियस्स उप स एव। कालो दुविगप्पस्स वि', अणवठ्ठप्पस्स जोऽभिहितो॥ 100 // 2542. आसातण पडिसेवण, दुह अणवट्ठम्मि जो भवे कालो। पारंचिए वि सो चेव, होति 'उक्कोसग जहण्णो" / 1. हरति (ब, ला)। २.णे (ला)। 3. बितियपदं रायपव्वइते (बृ 5026), इस गाथा के बाद प्रतियों में 'अण्णोण्णसेवणे त्ति गतं' का उल्लेख है। 4. पाडग (ला)। 5. य (ब)। ६.वि (ला)। 7. ति (ता)। 8. समजह (ला), पा प्रति में गाथा का उत्तरार्ध नहीं है। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 जीतकल्प सभाष्य 2543. पारंचिया उ एते, तिण्णि वि सामण्णतो विणिद्दिट्ठा / एत्तो जोर जारिसओ, विसेसमेतेसिँ वोच्छामि॥ 2544. दुढे य पमत्ते या, अण्णोण्णासेवणापसत्ते य। एतेसिं तिण्हं पी, विसेसमेत्तोपवक्खामि॥ 2545. तहियं तु विसयदुट्ठो, सपक्खपरपक्खतो व जो होज्जा। सो कीरति पारंची, खेत्तेणं तू ण लिंगेणं // 2546. अणुवरमंतो कीरति, सेसो णियमेण लिंगपारंची। खेत्तेण य लिंगेण य, पारंची अभिहिता एते॥ 2547. किं एते च्चिय भेदा, पारंचीए उदाहु अण्णे वि?। भण्णति तवपारंची, अण्णो वि हु केरिसो स खलु?॥ 2548. इंदियपमाददोसा, जो तू अवराहमुत्तमं पत्तो। सब्भावसमाउट्टो, जइ य गुणा से इमे होंति // 2549. वइरोसहसंघतणो, धितीय जो वज्जकुडुसामाणो। णवमस्स ततियवत्थु, सुत्तऽत्थेहिं च जोऽहीतो॥ 2550. खुड्डगसीहतवादीहिँ भावितो जो य इंदियकसाए / निग्घेत्तूण समत्थो, पवयणसारं अभिगतत्थो॥ 2551. 'निज्जूहितस्स असुभो, तिलतुसमेत्तो वि जस्स ण य भावो। निज्जूहणाएँ अरिहो, सेसे णिज्जूहणा णत्थि // 2552. एयगुणसंपउत्तो, पावति 'पारंचियं तु सो- ठाणं / एयगुणविप्पमुक्के, तारिसगम्मी भवे मूलं // 2553. पारंचियं तु पावति, आसाएंतो तहेव पडिसेवी। एक्केक्को होति दुहा, जहण्ण उक्कोसगो चेव // 1.x (ला)। 2. व सेस (ता, ला)। 3. पुण (बृ५०२८)। 4. पुणो (ता, ब, ला)। 5. गा. 2549 और 2550 के स्थान पर बृ (5029) में निम्न गाथा मिलती है संघयण-विरिय-आगम-सुत्तत्थ-विहीए जो समग्गो तु। तवसी निग्गहजुत्तो, पवयणसारे अभिगतत्थो॥ 6. "सारे (पा, ब)। ७.तिलतुसतिभागमित्तो वि जस्स असभो ण विज्जती भावो। (बृ५०३०)। 8. चियारिहं (बृ 5031) / Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१०१ 259 2554. आसायणा जहण्णो, छम्मासुक्कोस बारस तु मासा। वासं बारसवासा, पडिसेवी कारणे भइओ // 2555. जइ होज्जा आयरिओ, तो गणणिक्खेवमित्तिरि कातुं / गंतूणं अण्णगणे, दव्वादिसुभे विगडणा तू॥ एगागी खेत्तबहिं, कुणति तवं सुविपुलं महासत्तो। अवलोयणमायरिओं, पतिदिणमेगो कुणति तस्स॥ 101 // 2556. ओलोयणं गवेसणमायरिओ कुणति निच्चकालं पि। 'खेत्तबहिचिट्ठियस्सा, इमेण विधिणा पवक्खामि / 2557. 'उभयं पि" दाऊण स पाडिपुच्छं, वोढुं सरीरस्स य वट्टमाणिं। .. आसासइत्ताण तवोकिलंतं, तमेव 'गच्छं पुणरेंति" थेरा॥ 2558. असहू सुत्तं दातुं, दो वि अदाउं व गच्छति पगे वि। संघाडो से भत्तं, पाणं चाऽऽणेति मग्गेणं // 2559. पारंचितस्स तहियं, तं वहमाणस्स होज्ज गेलण्णं / ताहे से पडिकम्मं, तेहि पयत्तेण कातव्वं // 2560. आहरति भत्तपाणं, उव्वत्तणमादियं पि से कुणति / सयमेव गणाधिवती, 'वेयावच्चं जहत्थामं // 2561. जो उ उवेहं कुज्जा, आयरिओ केणई पमादेणं। 'आरोवण तस्स भवे, गिलाणसुत्तम्मि जा भणिता'५ // 2562. अह पुण ण तरेज्ज गुरू, गंतुं गेलण्णमादीहिँ तहियं। कालुण्हे दुब्बलों वा, कुलादिकज्जेण वऽण्णेण // 2563. 'अभिसेगं तो पेसे१२, अण्णं गीतं व३ जो तहिं जोग्गो। पुट्ठो व अपुट्ठो वा, 'सो वि य'१४ दीवेति तं कज्जं॥ 1. सेवओं (बृ५०३२)। 2. भतिओ (ब)। 3. कुणते (ता)। 4. आलोयण (ता)। 5. सव्यकालं (बृ५०३६, व्य 1211) / 6. उप्पणे कारणम्मिं, सव्वपयत्तेण कायव्वं (ब, व्य)। 7. यम्मि (ता, ला, मु)। ८.खेत्तं समुवेंति (बृ 5039, व्य 1214) / 9. संघाडओं (बृ५०४०)। 10. अह अगिलाणो सयं कुणति (बृ 5038, व्य 1213) / 11. आरोवणा उ तस्सा, कायव्वा पुव्वनिद्दिट्टा (बृ 1983, 5037, व्य 1075, 1212, नि 3084) / 12. पेसेइ उवज्झायं (बृ 5043) / 13. व्व (ब, ला)। १४.स चावि (बृ)। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 जीतकल्प सभाष्य 2564. सो य समत्थो होज्जा, संपाडेतुमिह तस्स कज्जस्स। खीरादिलद्धिजुत्तो, विज्जादिगअतिसएहिं च॥ 2565. जाणंता माहप्पं, सयमेव 'गुरू वदंति तं जोगं"। अत्थि मम एत्थ विसओ, अजाणए 'ते व सो२ बेंति / / 2566. अच्छउ महाणुभावो', जहासुहं गुणसयागरो संघो। गुरुगं पि इमं कज्जं, मं पप्प भविस्सते लहुगं॥ 2567. अभिधाणहेतुकुसलो, बहूसु णीराइतो विदुसभासु। गंतूण रायभवणं, 'भणाइमं रायदारिद्रु" // 2568. पडिहाररूवी! भण रायरूवी, तमिच्छते' संजतरूवि दटुं। णिवेदइत्ताण स पत्थिवस्स, जहिं णिवो तत्थ तगं पवेसे॥ 2569. तं पूयइत्ताण सुहासणत्थं, पुच्छिंसु राया गतकोउहल्लो। पण्हे उगले असुए कदाई', स यावि आइक्खति पत्थिवस्स // 2570. जारिसगा 'सक्कादीण आयरक्खा'११ ण - तारिसो एसो। तुह राय! दारपालो, तं पि य चक्कीण पडिरूवी॥ 2571. अट्ठारससीलसहस्सधारगा होति साधुणो' अहयं। तं१२ पति पडिरूवित्तं, अतियारणिसेवणापत्तो॥ 2572. णिज्जूढो मि परीसर!, खेते वि जतीण अच्छितुं ण लभे। अतियारस्स विसोधिं, पकरेमि पमादमूलस्स" // 2573. 'धम्मकहा आउट्टाण पुच्छणं'१५ दीवणा य कज्जस्स। 'किं पुण हवेज्ज कज्जं?, इमेहिँ होज्जाहि एगतरं'१६ // 1. भणंति एत्थ तं जोग्गो (बृ 5044, व्य 1217) / 2. सो व ते (बृ, व्य)। 3. भागो (बृ५०४५, व्य 1218) / 4. अणिरा' (मु)। 5. भणाति तं रायदारटुं (बृ५०४६), भणाति तं रायदारिद्वं (व्य 1219) / 6. रूविं (बृ५०४७, व्य 1220) / 7. तं इच्छते (व्य)। 8. ता य (बृ, व्य)। 9. कयाइ (ब)। 10. बृ 5048, व्य 1221 / / 11. आयरक्खा सक्कादीणं (बृ५०४९, व्य 1222) / 12. ते (ब, ला)। 13. अच्छितं (ता, ब, ला)। 14. व्य 1224, बृ५०५१। 15. कहणाऽऽउट्टण आगमणपुच्छणं (बृ५०५२, व्य 1225) / १६.वीसज्जियंति य मए, हासुस्सलितो भणति राया (ब, व्य)। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१०१-१०३ 261 2574. वादपरायणकुवितो, चेतियतद्दव्व संजतीगहणे। "णिव्विसयादि चतुण्ह वि, कज्जाण हवेज्ज एगतरं" // 2575. संघो ण लभति कज्ज, लद्धं कज्जं महाणुभावेणं। तुभं ति विसज्जेमी, सो' वि य संघो त्ति पूएति // 2576. भणति य राया संघ, तुब्भं कज्जं करेमि अहमेतं / तुब्भे वि कुणह मज्झं, एयस्सेतं विसज्जेह // 2577. अब्भत्थितो 'सयं वा, रण्णा" संघो विसज्जते तुट्ठो। आदी मज्झऽवसाणे, सो यावि 'हवेज्ज सोहीए'६ // 2578. देसं व देसदेसं, सव्वं व वहेज्ज अहव मुंचेन्जा। छब्भागो से देसो, दसभागो देसदेसो तु॥ 2579. छम्मास परे बारसमासाणं बारसण्ह य समाणं। एक्के दो दो मासा, चउवीसा होति छब्भागो॥ 2580. अट्ठारस छत्तीसा, दिवसा छत्तीसमेव वरिसं च। . बावत्तरिं च दिवसा, 'दसभागेणं हवेज्जा वा" // 2581. आसायणपारंची, जहण्ण . छम्मास मास छब्भागो। छब्भागेणं वरिसे, दो मासा होति णातव्वा // 2582. पडिसेवणपारंची, वरिसे दो मास होति छब्भागे। वरिसाण बारसहं, मासा चतुवीस छब्भागे॥ 2583. दसभागेणऽट्ठारस, दिवसा छण्हं हवंति मासाणं। वरिसस्स तु दसभागे, दिवसा छत्तीसइं होंति // 2584. वरिसाण बारसण्हं, वरिसं बावत्तरि 'चऽहोरत्ता' / दसभागेण हवंति हु, एसो खलु देसदेसो तु॥ 2585. एवं तस्स तु संघो, तुट्ठो देसं व देसदेसं वा। मुंचेज्ज वहेज्जा वा", अहवा सव्वं व झोसेज्जा // १.व्युत्ताण चउण्ह वि, कज्जाण हवेज्ज अण्णतरं (व्य 1226) / २.से (ता, ला, पा)। 15053, व्य 1227 / ४.परण्णा सयं वि (व्य 1228,65054) / 7. दसभाग वहेज्ज बितिओ तु (बृ५०५६)। 8. होति (पा, ला)। 9. होज्ज व ऽहो (ता)। 10. व्व (पा, ब, ला)। 11. 4 (ला)। 6. दोसो धुओ होइ (ब)। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 जीतकल्प सभाष्य . 2586. अहव अगीतणिमित्तं, अप्परिणामे' य तस्स ववहारं / नवविह पत्थारेत्ता, गेण्हसु एतं लहुसभत्ते / / 2587. हत्थं तु भमाडेतुं, दरिसेतुं णवविहं पि ववहारं / ताहे भण्णति एवं, सो गेहसु लहुसगं एतं // अणवटुप्पो तवसा, तवपारंची य दो वि वोच्छिण्णा। . चोद्दसपुव्वधरम्मी, धरेंति सेसा तु जा तित्थं // 102 // 2588. पारंचिय अणवट्ठा, तवसा आरेण भद्दबाहूओ। वोच्छिण्णा दो तेसिं, सेसा तु धरेंति जा .तित्थं // 2589. लिंगेण खेत्त काले, धरेंति पारंचियाऽणवट्ठा. जे / लिंगेणं अणुसज्जति, दुव्वे भावे य जा तित्थं // इति' एस जीतकप्पो, समासतो सुविहिताणुकंपाए। कहितो देयोऽयं पुण, पत्तेसु परिच्छितगुणेसु॥१०३॥ 2590. इति एस अणंतरतो, उद्दिवो होति जीतकप्पो तु। जीतं आयरणिज्ज, कप्पो पुण छव्विधो इणमो॥ 2591. आजीवियधरणाओ, व अहव जीतं इमं मुणेतव्वं / जीतस्स तस्स कप्पो, एत्थं जो जीतकप्पो सो॥ 2592. सामत्थे वण्णणाए य, छेदणे करणे तहा। ओवम्मे अहिवासे य, कप्पसद्दो तु वण्णितो // 2593. छेदणे वण्णणे चेव, कप्पसद्दो इहं कतो। जीतस्स वण्णणा जीतकप्पों तह छेदणं चेव // 2594. एतस्स जीतकप्पस्स, समासो इति इहं मुणेतव्वो। संखेवो य समासो, ओहो त्ति व होति एगट्ठा // 2595. सोभणविही तु जेसिं, सोभणविहिता व सुविहिता ते तु। तेसिं अणुकंपाए, कहितो देयो य पत्तेसु॥ 1. अपरि (ला)। 2. जो (ला)। 3. इय (ला)। 4. पुणो (ला)। 5. 'तगुणम्मि (ला)। 6. यचर (ला)। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-संपादन-जी-१०३ 263 2596. सुत्तेण वि अत्थेण वि, जो पत्तो स खलु जीतकप्पस्स। जोग्गो भणितो इतरो, होति अजोगो त्ति णातव्वो॥ 2597. पुणसद्दो तु विसेसणे, किन्नु विसेसेति? तितिणादीयं / एते तु विसेसेती, विवरीता होंति पत्ता तु॥ 2598. संविग्गऽवज्जभीरू, परिणामो जो य होति गीतत्थो / आयरियवण्णमादी, संगहसीलो अपरितंतो / / . 2599. मेहावी य बहुसुतो, गुरुअमुयी णिच्चमप्पमत्तो य। एमादिगुणसमग्गो, जीतस्स स होति पत्तो त्ति // 2600. जह ताव छेज्ज' णिहसे, अविकोवि सुवण्णगं मुणेतव्वं / तह अविकारी जो खलु, आदी मज्झे य अवसाणे // 2601. एवं देज्जा सुपरिक्खितस्स णऽन्नस्स जीतववहारं / * अणरिहदेंताऽऽरोवण, आणादी जं च पाविहिती॥ 2602. पंचमहव्वयभेदो, छक्कायवधो य तेणऽणुण्णातो। सुहसीलणीयगाणं, कहयति जो पवयणरहस्सं // 2603. आमे घडे णिहित्तं, जहा' जलं तं घडं विणासेति। इय सिद्धतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेति॥ 2604. मरेज्ज सह विज्जाए, काले णं आगते विदू। अपत्तं तु ण वाएज्जा, पत्तं च ण विमाणए / - 2605. बितियपदे वाएज्जा, अद्धाणादीहिँ कारणज्जाते। बहुसो तप्पिस्सति वा, वेयावच्चादिणा अम्हं / / 2606. अप्पग्गंथ महत्थो, इति एसो वण्णितो समासेणं / पंचमओ ववहारो, नामेणं जीतकप्पो त्ति // 2607. कप्प-व्ववहाराणं, उदधिसरिच्छाण तह णिसीहस्स। सुतरतणबिंदुणवणीतभूतसारेस णातव्वो॥ - 2608. कप्पादीए तिण्णि वि, जो सुत्तत्थेहि णाहिती णिउणं। णिगदिस्सति सो एयं, सीसपसीसाण ण हु अण्णो॥ ज्ज (पा, ला)। 1. लवियत्ताणं (7770, नि 6209) / 3. जम्हा (पा)। 4. च (नि 6230) / Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ................................... जीभा 1632 ण ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा॥ अप्पाहारा य जे नरा। मिताहारा, हिताहारा . . . Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद 1. प्रवचन' को प्रणाम करके मैं संक्षेप में प्रायश्चित्त-दान के बारे में कहूंगा। वह प्रायश्चित्त जीतव्यवहार के अन्तर्गत है तथा जीव की परम विशोधि' करने वाला है। 1. द्वादशांगी प्रवचन है / वह सामायिक से लेकर बिंदुसार पर्यन्त है अथवा संघ चार प्रकार का है, जहां ज्ञान प्रतिष्ठित रहता है। 2. स्वाभाविक रूप से प्रशस्त अथवा प्रधान वचन वाला अथवा जो ज्ञानादि का प्रवर्तन करता है, वह . प्रवचन कहलाता है। 3. जीव आदि पदार्थ जहां सम्पूर्ण रूप से उपदिष्ट होते हैं, वह उपदेश प्रवचन है। उसको नमस्कार करके (मैं प्रायश्चित्त-विधि कहूंगा।) 4. मैं आगे विस्तार से दस प्रकार के प्रायश्चित्त का वर्णन करूंगा। प्रायश्चित्त किसे कहते हैं? 5. जिससे पाप का छेदन होता है, वह प्रायश्चित्त कहलाता है अथवा जिससे चित्त का शोधन होता है, वह प्रायश्चित्त है। : 6. पणग (पांच दिन-रात) आदि प्रायश्चित्त में तप रूप निर्विकृतिक (निर्विगय) आदि का प्रायश्चित्त 1. यहां संघ' एवं द्वादशांगी श्रुत' के लिए प्रवचन शब्द का प्रयोग हुआ है। श्रुतोपयोग कभी निराश्रय नहीं होता, वह हमेशा संघ के आश्रय से होता है अत: संघ के लिए प्रवचन शब्द का प्रयोग हुआ है। पंचवस्तु में गण, समुदाय, संघ, प्रवचन और तीर्थ को एकार्थक कहा है। १.जीचूवि. पृ. 32; संघ एव प्रवचनशब्द वाच्यः यतः प्रवचनं श्रुतमुच्यते। . . . 2. उचू प.१; प्रवचनं द्वादशांगं, तदुपयोगानन्यत्वाद् वा संघः। 3. पंव 1135; गण-समुदाओ संघो, पवयण तित्थं ति होंति एगट्ठा। 2. चूर्णिकार 'विसोहणं परमं' की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि ब्राह्मण आदि भी जीवघात होने पर सामान्य रूप से प्रायश्चित्त देते हैं। वे एकेन्द्रिय तथा त्रसजीवों के संघट्टन, परितापन, अपद्रावण आदि के बारे में नहीं जानते लेकिन निर्ग्रन्थ-प्रवचन में इसका सूक्ष्म विवेचन है अतः ग्रंथकार ने सलक्ष्य 'विसोहणं परमं' शब्द का प्रयोग किया है। १.जीचू पृ. 2 / 3. आवश्यक चूर्णि के अनुसार असत्य आचरण का अनुस्मरण करना प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त करने का प्रयोजन है-अपराध से मलिन आत्मा की विशोधि तथा शल्य के उद्धरण हेतु प्रयत्न। उत्तराध्ययन के अनुसार सम्यक् प्रायश्चित्त करने वाला निरतिचार हो जाता है। वह मार्ग (सम्यक्त्व), मार्गफल (ज्ञान) को निर्मल करता है तथा आचार (चारित्र) और आचारफल (मुक्ति) की आराधना करता है। छेदपिण्ड ग्रंथ में छेद, मलहरण, पापनाशन, शोधि, पुण्य, पवित्र और पावन-ये सात प्रायश्चित्त के एकार्थक हैं। * १.आव 2 पृ. २५१चिती-संज्ञाने प्रायशः वितथमाचरितमर्थमनुस्सरतीति वा प्रायश्चित्तं। 2. उ 29/17 / 3. छेदपिण्ड 3 / Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 जीतकल्प सभाष्य दिया जाता है। संक्षेप, समास और ओघ-ये एकार्थक शब्द हैं। 7. शिष्य प्रश्न पूछता है कि जीत के अलावा क्या और भी व्यवहार हैं, जिसके कारण जीत व्यवहार का विशेष उल्लेख किया गया है? आचार्य कहते हैं कि आगम आदि चार व्यवहार और हैं, उनके बारे में सुनो। 8. दुर्गति रूप संसार का दलन करने वाले तीर्थंकरों ने पांच प्रकार के व्यवहारों का वर्णन किया है। वे इस प्रकार हैं-१. आगम 2. श्रुत 3. आज्ञा 4. धारणा 5. जीत। 9. धीर पुरुष द्वारा प्रज्ञप्त आगम व्यवहार को सुनो, वह दो प्रकार का जानना चाहिए -प्रत्यक्ष और परोक्ष। 10. प्रत्यक्ष आगम व्यवहार भी दो प्रकार का है-इंद्रियज और नोइंद्रियज। इंद्रिय प्रत्यक्ष भी पांच इंद्रिय-विषयों से सम्बन्धित जानना चाहिए। 11. जीव अक्ष कहलाता है। उसके प्रति या उसके द्वारा जो ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष कहलाता है। अक्ष 1. जीतकल्प भाष्य में आगम व्यवहार के दो भेद प्राप्त होते हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। जबकि नंदी में प्रत्यक्ष और परोक्ष-ये दो ज्ञान के भेद हैं। आचार्य कुंदकुंद ने भी ज्ञान के दो भेद किए हैं। आचार्य सिद्धसेन प्रत्यक्ष और परोक्ष को प्रमाण का भेद मानते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार उमास्वाति का यह नया प्रस्थान है कि उन्होंने प्रमाण के दो विभाग करके उनका सम्बन्ध ज्ञान पंचक के साथ स्थापित किया है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार प्रत्यक्ष और परोक्ष-ये दो विभाग उत्तरकालीन हैं। प्राचीन साहित्य में ज्ञान के पांच भेद ही उपलब्ध होते हैं। वहां प्रत्यक्ष या परोक्ष जैसा कोई भेद उल्लिखित नहीं है। दर्शन युग में जब प्रमाण की चर्चा प्रबल हुई, तब जैन आचार्यों ने भी ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष के साथ जोड़ दिया। परोक्ष शब्द का प्रयोग केवल जैन ज्ञान-मीमांसा में मिलता है। 1. नंदी 3 / 2. प्रव 1/58 / 3. न्यायावतार। 4. नंदी का टिप्पण पृ.५१,५२। 2. अतीन्द्रिय ज्ञान नोइंद्रिय प्रत्यक्ष है। यहां'नो' शब्द सर्वथा निषेधवाचक है। मन भी किसी अपेक्षा से इंद्रियरूप में स्वीकृत है इसलिए उसके माध्यम से होने वाला ज्ञान भी प्रत्यक्ष नहीं होता। 1. नंदीचू पृ. 15; णोइंदियपच्चक्खं ति इंदियातिरित्तं। २.नंदीमवृ प.७६; नोशब्दः सर्वनिषेधवाची,तेन मनसोऽपिकथञ्चिदिन्द्रियत्वाभ्युपगमात्तदाश्रितं ज्ञानं प्रत्यक्षंन भवतीति। 3. नंदीचूर्णि में इंद्रियप्रत्यक्ष ज्ञान होने की प्रक्रिया का वर्णन प्राप्त है। पुद्गलों से इंद्रिय-संस्थान निर्मित होता है, वह द्रव्येन्द्रिय है। सर्व आत्मप्रदेशों में श्रोत्र आदि इंद्रियों के आवरण का क्षयोपशम होने से शब्द आदि का ज्ञान कराने की क्षमता को भावेन्द्रिय कहते हैं। जो ज्ञान भावेन्द्रिय के प्रत्यक्ष है, वह इंद्रियप्रत्यक्ष है।' विशेषावश्यक भाष्य में इंद्रिय प्रत्यक्ष के स्थान पर सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग हुआ है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने उपचार से इंद्रियप्रत्यक्ष को प्रत्यक्षज्ञान के अन्तर्गत समाविष्ट किया है। इसका हेत बताते हुए उन्होंने कहा है कि इस ज्ञान में धूम आदि अन्य लिंग या निमित्त की अपेक्षा नहीं रहती। 1. नंदीचू पृ. 14 / २.विभा 95; एगंतेण परोक्खं,लिंगियमोहाइयं, च पच्चक्खं। इंदियमणोभवं जं, तं संववहारपच्चक्खं॥ ३.विभा 471, इंदिय-मणोनिमित्तं, पि नाणुमाणाहि भिज्जए किंतु। नाविक्खइ लिंगंतरमिइ पच्चक्खोवयारो स्थ॥ 4. इंद्रियों की सहायता के बिना आत्मा स्वयं जिसके द्वारा ज्ञेय को जानती है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान है।. 1. आवचू 1 पृ.७; जं सयं चेव जीवो इंदिएण विणा जाणति, तं पच्चक्खं भण्णति। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 267 से परे जो ज्ञान होता है, वह परोक्ष कहलाता है। 12. असु-अशूइत्-व्याप्तौ धातु से अक्ष शब्द बना है। अक्ष नियमतः जीव कहलाता है, जो ज्ञान से सभी भावों-पदार्थों में व्याप्त रहता है, वह अक्ष कहलाता है। 13. अशश् धातु भोजन के अर्थ में प्रयुक्त होती है। अक्ष के लिए सब द्रव्य भोग में आते हैं तथा जो पालन/ रक्षण करता है, वह अक्ष कहलाता है। 14. कुछ दार्शनिक (वैशेषिक आदि) इंद्रियों को अक्ष मानते हैं, उनके द्वारा उपलब्ध ज्ञान प्रत्यक्ष है लेकिन उनकी यह मान्यता युक्ति संगत नहीं है क्योंकि इंद्रियां विषय की अग्राहक हैं। 15. जीव रूप आदि विषयों का इंद्रियों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है इसीलिए मृत जीव की इंद्रियां विषयज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकतीं। . 16. इसलिए यह सिद्ध है कि इंद्रियां विषय की अग्राहक हैं। जो इन्द्रियों के द्वारा जाना जाता है, वह लैंगिक ज्ञान है। 1. इंद्रिय और मन के द्वारा आत्मा को जो ज्ञान होता है, वह परोक्ष है। विशेषावश्यक भाष्य में इंद्रिय और मन से होने वाले ज्ञान की परोक्षता का हेतु प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि आत्मा अमूर्त और अपौद्गलिक है तथा द्रव्येन्द्रियां पौद्गलिक होने से आत्मा से भिन्न हैं अत: इंद्रिय और मन से होने वाला ज्ञान धूम से अग्निज्ञान की भांति परनिमित्त होने के कारण परोक्ष है। इसके अतिरिक्त इंद्रिय और मन से होने वाला ज्ञान संशय आदि दोषों से युक्त हो सकता है। इसका अन्य हेतु बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जैसे पूर्व उपलब्ध सम्बन्ध की स्मृति से उत्पन्न अनुमान ज्ञान परोक्ष होता है, वैसे ही इंद्रिय और मन से होने वाला मतिश्रुत ज्ञान भी परोक्ष है।' १.बृभापीटी पृ.१२ ; इंद्रियद्वारेण मनोद्वारेण वात्मनो ज्ञानमुपजायते तत् परोक्षम्। २.विभा 90%; अक्खस्स पोग्गलकया, जं दव्विंदियमणा परा तेणं। तेहिं तो जं नाणं, परोक्खमिह तमणुमाणं व॥ ३.विभा 93; इंदिय-मणोनिमित्तं, परोक्खमिह संसयादिभावाओ। तक्कारण पारोक्खं,जहेह साभासमणुमाणं॥ 4. विभा 94 ; होंति परोक्खाई मइ-सुयाई जीवस्स परनिमित्ताओ। पुव्वोवलद्धसंबंधसरणाओं वाणुमाणं व॥ ग्रंथकार ने इस गाथा में वैशेषिक आदि दर्शन का मत प्रस्तुत किया है। वैशेषिक लोग अक्ष का अर्थ इंद्रिय करते हैं। उससे जो ज्ञान की उपलब्धि होती है, वह प्रत्यक्ष होती है इसीलिए वे प्रत्यक्ष की 'चाक्षुषादिविज्ञानं प्रत्यक्षम्' परिभाषा करते हैं। गाथा के उत्तरार्ध में ग्रंथकार ने उनके मत का खंडन किया है। चक्षु आदि इंद्रियां घट की भांति पौद्गलिक और अचेतन होने के कारण रूप आदि विषय की अग्राहक होती हैं। इसी बात को स्पष्ट करते हुए बृहत्कल्पभाष्य में कहा गया है कि जैसे घर के गवाक्ष से पुरुष बाहर की वस्तु देखता है फिर गवाक्ष के न होने पर वह पुरुष उस वस्तु को याद रखता है। इसी प्रकार इंद्रियां न होने पर भी पुरुष उस विषय की स्मृति रखता है अत: इंद्रियों के द्वारा जो ज्ञान होता है, वह लैंगिक ज्ञान है, जैसे-धूम को देखकर अग्नि का ज्ञान / ' लैंगिक ज्ञान इन्द्रिय और मन से होने के कारण परोक्ष है। कुछ दार्शनिक इंद्रियों से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं लेकिन जैन आचार्यों ने इसे सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष की कोटि में रखा है। जीतकल्पभाष्य में इसे इंद्रिय प्रत्यक्ष के रूप में स्वीकार किया है। १.बृभा 27, 28 टी पृ.१२, 13, विभा 91,92 / 2. विभा 95 / Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 जीतकल्प सभाष्य 17. लिंग, चिह्न, निमित्त और कारण -ये सब एकार्थक शब्द हैं। इंद्रियों के द्वारा धूम को देखकर जीव . अग्नि को जानता है। 18. इस प्रकार इंद्रियों के द्वारा जो जाना जाता है, वह लैङ्गिक ज्ञान' है इसलिए यह सिद्ध है कि जीव जानता है, श्रोत्र आदि पांच इंद्रियां नहीं जानतीं। 19. यह सारा वर्णन प्रसंग के अनुसार किया गया है क्योंकि कहीं-कहीं कोई (दार्शनिक) इंद्रियों को प्रत्यक्ष मानते हैं। इंद्रियों के द्वारा जानकर इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए। 20-22. श्रोत्रेन्द्रिय से किसी अन्य की प्रतिसेवना को सुनकर, चक्षुरिन्द्रिय से किसी को अनाचार का सेवन करते हुए देखकर, धूप आदि सुगंधित द्रव्यों में पिपीलिका आदि की हिंसा देखकर, किसी के द्वारा सचित्त कंद आदि फल खाने से गंध और रस का अनुभव होने पर, अंधकार में स्पर्श से अभ्यङ्गन आदि को जानकर-इन सब बातों को इंद्रिय-प्रत्यक्ष से जानकर व्यवहार किया जाता है। 23. नोइंद्रिय प्रत्यक्ष व्यवहार संक्षेप में तीन प्रकार का है-१. अवधि प्रत्यक्ष 2. मनःपर्यव प्रत्यक्ष 3. केवल प्रत्यक्ष। 24. व्यवहार को एक बार रहने दें। अवधिज्ञान आदि तीनों के लक्षण संक्षेप में अशून्यार्थ के लिए कहूंगा। 25. नोइंद्रिय प्रत्यक्ष का प्रथम भेद अवधिज्ञान है। उसके स्वामित्व, क्रम और विशुद्धि को मैं अनेक प्रकार से कहूंगा। अवधिज्ञान के कितने भेद हैं? 26. अवधिज्ञान की सर्व प्रकृतियां संख्यातीत' हैं। इनमें कुछ भवप्रत्ययिक तथा कुछ क्षायोपशमिक हैं। 27-29. अवधिज्ञान की प्रकृतियां संख्यातीत क्यों कही गई हैं? क्षेत्रप्रमाण की दृष्टि से अवधिज्ञान जघन्य रूप से अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर प्रदेशवृद्धि के कारण उत्कृष्टतः लोकप्रमाण असंख्यात खंडों 1. न्याय वैशेषिक दर्शन में ज्ञान को आत्मा का लिंग माना गया है। १.न्या.-१/१/१०; इच्छा-द्वेष-प्रयत्न-सख-दःख-ज्ञानान्यात्मनो लिंगम्। 2. ज्ञेयभेद से ज्ञानभेद हो जाता है अत: अवधिज्ञान की संख्यातीत प्रकृतियां कही गई हैं। 1. आवनि 23 हाटी 1 पृ. 18; ज्ञेयभेदाच्च ज्ञानभेद इत्यतः संख्यातीताः तत्प्रकृतयः इति। 3. व्रत, सम्यक्त्व आदि के कारण क्षयोपशमजन्य आत्मविशुद्धि होने से गुणों के कारण जो ज्ञान प्रकट होता है, वह क्षायोपशमिक अवधिज्ञान है। इसे गुणप्रत्ययिक भी कहा जाता है। आचार्य वीरसेन ने इसके लिए गुणहेतुक शब्द का प्रयोग भी किया है। क्षायोपशमिक ज्ञान गुण-प्रतिपत्ति के बिना भी होता है। जैसे लकड़ी में घुणाक्षरन्याय से स्वत: अक्षरों की रचना प्रकट हो जाती है, वैसे ही जन्म-जन्मान्तर में परिभ्रमण करते हुए अवधि ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से यथाप्रवृत्त अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 269 को जानता है इसलिए अवधिज्ञान की प्रकृतियां संख्यातीत कही गई हैं। काल की दृष्टि से अवधिज्ञान जघन्यतः आवलिका के असंख्य भाग से प्रारम्भ होकर समय की उत्तरोत्तर वृद्धि होने से उत्कृष्टतः असंख्य उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी प्रमाण काल को जानता है। 30, 31. इस प्रकार अवधिज्ञान की सर्व प्रकृतियां असंख्य होती हैं। 'संख्यातीत' शब्द के ग्रहण से केवल असंख्य का ही ग्रहण नहीं हुआ है, पुद्गलास्तिकाय की पर्यायों की अपेक्षा से अवधिज्ञान की प्रकृतियां अनंत भी होती हैं। संख्यातीत शब्द से 'असंख्य' और 'अनंत' दोनों का ग्रहण हो जाता है। 32. अवधिज्ञान दो प्रकार का होता है-भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक। देवता और नारक के नियम 1. अवधिज्ञान के असंख्य स्थान होते हैं, इस संदर्भ में आचार्य महाप्रज्ञ का टिप्पण पठनीय है-'अवधिज्ञान विचित्र प्रकार का होता है। कोई भावितात्मा अनगार वैक्रिय समुद्घात से समवहत वैक्रिय विमान में बैठकर जाते हुए देव को देखता है, विमान को नहीं देखता। कोई अनगार विमान को देखता है, देव को नहीं देखता। कोई अनगार देव को भी देखता है और विमान को भी देखता है। कोई अनगार न देव को देखता है और न विमान को देखता है। कोई भावितात्मा अनगार वृक्ष के अन्तर्वर्ती भाग को देखता है, बहिर्वर्ती भाग को नहीं देखता। कोई अनगार वृक्ष के बहिर्वर्ती भाग को देखता है, अन्तर्वर्ती भाग को नहीं देखता। कोई अनगार वृक्ष के मूल को देखता है, कंद को नहीं देखता। कोई अनगार वृक्ष के कंद को देखता है, मूल को नहीं देखता। इसी प्रकार बीजपर्यंत अनेक विकल्प हैं।" १.भभा. 2,3/154-163 का टिप्पण पृ.७३,७४। 2.. आचार्य हरिभद्र सूरि के अनुसार क्षेत्र और काल की अपेक्षा से अवधिज्ञान की प्रकृतियां असंख्य तथा द्रव्य और भाव रूप ज्ञेय की अपेक्षा से अवधिज्ञान की प्रकृतियां अनंत हैं।' -:आबहाटी 1 पृ.१८द्रव्यभावाख्यज्ञेयापेक्षया चानन्ता इति। 3. जिस अवधिज्ञान के क्षयोपशम में भव-जन्म कारण बनता है, वह भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान है, जैसे पक्षियों में उड़ने की क्षमता जन्मजात होती है। इस प्रसंग में विशेषावश्यक भाष्य में एक प्रश्न उपस्थित किया है कि अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव है, जबकि देवगति और नरकगति औदयिक भाव, फिर वह ज्ञान भवप्रत्ययिक कैसे हो सकता है? आचार्य समाधान देते हुए कहते हैं कि देव और नारकों को अवधिज्ञान क्षयोपशम से ही मिलता है लेकिन वह उस भव में अवश्य होता है इसलिए इसे भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहा गया है। 1. आवहाटी 1 पृ. 18 / २.विभा 573, 574 - ओही खओवसमिए, भावे भणिओ भवो तहोदईए। तो किह भवपच्चइओ, वोत्तुं जुत्तोऽवही दोण्हं॥ सो विहु खओवसमओ, किंतु स एव खओवसमलाभो। तम्मि सइ होयवस्सं,भण्णइ भवपच्चओ तो सो।। 4. नंदी चूर्णिकार ने क्षयोपशम जन्य अवधिज्ञान को दो भागों में विभक्त किया है-गुण के बिना होने वाला क्षयोपशम, गुण की प्रतिपत्ति से होने वाला क्षयोपशम। बिना गुण के होने वाले अवधिज्ञान को नंदी चूर्णिकार ने बादल की उपमा से समझाया है। जैसे बादलों से आच्छन्न आकाश में कोई छिद्र रह जाता है तो उसमें से सूर्य की किरणें निकलकर द्रव्य को प्रकाशित करती हैं, वैसे ही अवधि ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर बिना गुण के अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है। क्षयोपशम जन्य अवधि का दूसरा हेतु है-गुण की प्रतिपत्ति। यहां गुण का अर्थ है-चारित्र / चारित्र गुण की विशुद्धि होने से अवधिज्ञान की उत्पत्ति के योग्य क्षयोपशम होता है। यह गुण-प्रतिपत्ति से होने वाला क्षयोपशम है।' 1. नंदीचू पृ. 15 / Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 जीतकल्प सभाष्य से भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान होता है। 33. उत्पन्न होता हुआ भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान जितने विषय को जानता है, भव-पर्यन्त उतना ही जानता है। न उसमें वृद्धि होती है और न ही हानि। 34. गुणप्रत्ययिक अवधिज्ञान संख्यात आयुष्य वाले गर्भज तिर्यञ्च और मनुष्यों के तदावरणीय (अवधि ज्ञानावरणीय) कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। 35. अवधि' का अर्थ है-मर्यादा। यह परिमित द्रव्यों को जानता है इसलिए इसका नाम अवधि है। यह केवल मूर्त द्रव्यों को जानता है, अरूपी द्रव्य इसका विषय नहीं है। 36. अत्यन्त अनुपलब्ध द्रव्य अवधिज्ञान के प्रत्यक्ष होते हैं। अवधिज्ञान में परिणत द्रव्य समस्त पर्यायों को प्रकट करने में समर्थ नहीं होते। १.जिसके द्वारा मर्यादापूर्वक ज्ञान होता है, वह अवधि है। दिगम्बर आचार्य अकलंक ने अवधि शब्द को अव उपसर्ग पूर्वक धा धातु से निष्पन्न माना है। उनके अनुसार अव उपसर्ग अधोवाचक है। जो ज्ञान अधोवर्ती वस्तुओं को जानता है, वह अवधिज्ञान है। विशेषावश्यक भाष्य में अवधि का अर्थ अवधान किया है। जो अवधान से जानता है, वह अवधिज्ञान है। तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी के रचयिता सिद्धसेनगणी ने अव को विषयबहुलता का द्योतक माना है। उनके अनुसार अवधिज्ञान केवल नीचे ही देखे, यह युक्तिसंगत नहीं है, वह ऊर्ध्व और तिर्यक् दिशा में स्थित मूर्त पदार्थों को भी साक्षात् जानता है। धवला के टीकाकार वीरसेन के अनुसार जो अवाङ् -- पुद्गल को धारण करता है, वह अवधिज्ञान है। 1. तवा 1/9/3 पृ. 44 ; अवशब्दोऽध:पर्यायवचनः, यथा अधः क्षेपणम् अवक्षेपणमिति / अधोगतभूयोद्रव्य विषयो ह्यवधिः / २.विभा८२; तेणावहीयए तम्मि वावहाणं तओऽवही सोय मज्जाया।जंतीए दव्वाई,परोप्पर मुणइ तओऽवहि त्ति॥ 3. त 1/9 भाटी पृ. 70 / 4. षट्ध पु. 13, 5/5/21 पृ. 210, 211 / २.बृहत्कल्पभाष्य में अवधिज्ञान के प्रसंग में अत्यन्त अनुपलब्ध पदार्थों के उदाहरण दिए हैं-कपड़े बदलने से, गुटिका-प्रयोग से, स्वर या वर्ण परिवर्तन से, विपरीत वेश धारण करने से, विद्यासिद्ध, अञ्जनसिद्ध अथवा देवता के द्वारा छिपाए हुए अत्यन्त अनुपलब्ध पदार्थ अवधिज्ञान के प्रत्यक्ष होते हैं। इसके अतिरिक्त पृथ्वी, वृक्ष, पहाड में अथवा शरीर के अंदर जो द्रव्य हैं, वे तथा इंद्रिय और मन से सम्बन्धित सुख-दुःख अवधिज्ञान के प्रत्यक्ष होते १.बृभा 31,32; विवरीयवेसधारी, विजंजणसिद्धदेवताए वा। छाइयसेवियसेवी, बीयादीओ वि पच्चक्खा॥ पुढवीइ तरुगिरीया, सरीरादिगया यजे भवे दव्वा / परमाणू सुहदुक्खादओ य ओहिस्स पच्चक्खा / / 3. अवधिज्ञानी जघन्यतः प्रत्येक द्रव्य के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श रूप चार पर्यायों को जानता है, मध्यम अवधिज्ञानी संख्येय पर्यायों को तथा उत्कृष्ट अवधिज्ञानी असंख्येय पर्यायों को जानता है। अवधिज्ञानी द्रव्य की अनंत पर्यायों को कभी नहीं जानता। १.(क) आवनि 62; दव्वाओ असंखेज्जे, संखेजे यावि पज्जवे लभति।दो पज्जवे दुगुणिते,लभति य एगाउ दव्याओ। (ख) विभा 761, 762; एगंदव्वं पेच्छं, खंधमणुं वा स पज्जवे तस्स। उक्कोसमसंखिज्जे, संखिज्जे पेच्छए कोइ॥ दो पज्जवे दुगुणिए, सव्वजहण्णेण पेच्छए ते यावण्णाईया चउरो, नाणंते पेच्छड़ कयाइ। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 271 37, 38. अवधिज्ञान संक्षेप में छह प्रकार का जानना चाहिए'–१. आनुगामिक' 2. अनानुगामिक 3. वर्धमान 4. हीयमान 5. प्रतिपाती 6. अप्रतिपाती। आनुगामिक अवधिज्ञान दो प्रकार का होता हैअंतगत और मध्यगत / 1. षट्खण्डागम में अवधिज्ञान के तेरह भेद उल्लिखित हैं-१. देशावधि 2. परमावधि 3. सर्वावधि 4. हीयमान, 5. वर्धमान 6. अवस्थित 7. अनवस्थित 8. अनुगामी 9. अननुगामी 10. सप्रतिपाति 11. अप्रतिपाति 12. एकक्षेत्र 13. अनेक क्षेत्र / तत्त्वार्थ वार्तिक में प्रकारान्तर से अवधिज्ञान के तीन भेद मिलते हैं -1. देशावधि 2. परमावधि 3. सर्वावधि। आचार्य महाप्रज्ञ ने नंदी सूत्र में इसका विस्तार से वर्णन किया है। 1. षध पु. 13,5/5, 56 / / 2. तवा 1/22 पृ.८१ 3. नंदी पृ. 55, 56 / 2. आनुगामिक अवधि का अर्थ है-जिस क्षेत्र में यह ज्ञान उत्पन्न होता है, वह उस क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी अनुगमन करता है। तत्त्वार्थ भाष्य में इसे सूर्य के प्रकाश एवं पाक के समय घट जनित रक्तता से समझाया गया है। जैसे सूर्य का प्रकाश तथा घट की रक्तता सर्वत्र व्याप्त होती है, वैसे ही इस अवधिज्ञान में आत्मप्रदेशों की विशेष विशुद्धि होती है। नंदी चूर्णि के अनुसार आंख की भांति जो साथ-साथ अनुगमन करता है, वह आनुगामिक अवधिज्ञान है। धवला में आनुगामिक अवधि के तीन भेद निर्दिष्ट हैं१. क्षेत्रानुगामी-एक क्षेत्र में उत्पन्न होकर अन्य क्षेत्र में भी साथ जाने वाला। 2. भवानुगामी-एक भव में उत्पन्न होकर अन्य भव में भी साथ जाने वाला। 3. क्षेत्रभवानुगामी-क्षेत्र और भव-दोनों में अनुगमन करने वाला, यह संयोग जनित विकल्प है। इस सम्बन्ध में विस्तार हेतु देखें नंदी पृ.५६-५८। / 1. तस्वोभा 1/23 आनुगामिकं यत्र क्वचिदुत्पन्न क्षेत्रान्तरगतस्यापिन प्रतिपतति भास्करप्रकाशवत्, घटरक्तभाववच्च। २.नंदीचू पृ.१५;अणुगमणसीलो अणुगामितो तदावरणखयोवसमाऽऽतप्पदेसविसुद्धगमणत्तातो लोयणं व॥ 3. षट्ध पु. 13, 5/5/56, पृ. 294 / 3. नंदी के टीकाकार ने अंतगत अवधिज्ञान की व्याख्या तीन प्रकार से की है-१. जो पर्यन्तवर्ती आत्मप्रदेशों से साक्षात् जानता है। 2. जो औदारिक शरीर के अंत-किसी एक भाग से जानता है। 3. सब आत्मप्रदेशों का क्षयोपशम होने पर भी जो ज्ञान औदारिक शरीर के एक भाग से एक दिशागत वस्तुओं को जानता है, वह अंतगत अबधिज्ञान है। 1. नंदीमटी प.८३। 4. अवधिज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशम से जब सारे स्पर्धक विशुद्ध हो जाते हैं, सम्पूर्ण स्थूलशरीर जब ज्ञान का करण बन जाता है, तब व्यक्ति को दाएं-बाएं और आगे-पीछे सब ओर से ज्ञान होने लगता है। वह सभी दिशाओं में संख्यात-असंख्यात योजन क्षेत्र एवं तत्रस्थ ज्ञेय पदार्थों को जान लेता है। नंदी चूर्णिकार के अनुसार मध्यगत अवधि के तीन अर्थ हैं-१. जिसके मध्यवर्ती आत्मप्रदेश अवधिज्ञान के स्पर्धक बनते हैं, वह सब दिशाओं को जानता है। २.जिस अवधिज्ञान का क्षयोपशम सारे आत्मप्रदेशों में होता है तथा करण औदारिक शरीर के मध्यवर्ती अवयव बनते हैं। औदारिक शरीर के मध्य में स्थित होने वाला ज्ञान मध्यगत अवधि है। 3. मध्यगत अवधि के द्वारा पुरोवर्ती, पश्चाद्वर्ती और उभयपार्श्ववर्ती क्षेत्र के ज्ञेय जाने जाते हैं। अवधिज्ञानी अपने ज्ञेय क्षेत्र के मध्य में रहता है, पर्यन्तभाग में नहीं अत: यह मध्यगत अवधिज्ञान है। टीकाकार ने भी इसकी तीन रूपों में व्याख्या की है। १.नंदीमटी प.८३,८४, द्र. श्रीभिक्षु आगम भा.१ पृ.५०। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 जीतकल्प सभाष्य 39. अंतगत अवधिज्ञान भी तीन प्रकार का होता है-१. पुरतः 2. पृष्ठतः 3. पार्श्वतः। पुरतः अंतगत अवधिज्ञान को मैं संक्षेप में कहूंगा। 40. जैसे कोई मनुष्य उल्का, दीपिका, चुडुलि-मशाल, दीप या मणि आदि को आगे प्रेरित करके चलता है, वह पुरतः अंतगत अवधिज्ञान है। 41. इसी प्रकार कोई पुरुष उल्का आदि को पृष्ठभाग में रखता हुआ चलता है, वह पृष्ठतः अंतगत अवधिज्ञान है। 42. जो कोई पुरुष मशाल यावत् मणि आदि को पार्श्व भाग में करके दायीं अथवा बायीं ओर रखता हुआ चलता है, वह पार्श्वत: अंतगत अवधिज्ञान है। इस प्रकार अंतगत के ये तीन भेद कहे गए हैं। 43. मध्यगत अवधिज्ञान क्या होता है? जैसे कोई पुरुष मशाल आदि को सिर पर रखकर चलता है, वह मध्यगत अवधिज्ञान है। 1. सामने के संख्यात और असंख्यात योजन क्षेत्र में स्थित पौद्गलिक पदार्थों को इंद्रिय और मन की सहायता के बिना जानने वाला ज्ञान पुरतः अंतगत अवधिज्ञान है। इस अवधिज्ञान में शरीर के सामने के वक्षस्थल आदि अवयव अवधिज्ञान के करण बनते हैं। १.नंदीमटीप 84; तत्र पुरतः अवधिज्ञानिनः स्वव्यपेक्षया अग्रभागेऽन्तगतं पुरतोऽन्तगतम्। 2. पृष्ठतः अर्थात् पीछे के संख्यात-असंख्यात योजन क्षेत्र में विद्यमान पदार्थों का अतीन्द्रियज्ञान पृष्ठतः अन्तगत अवधिज्ञान कहलाता है। आवश्यक चूर्णि में पृष्ठतः अवधिज्ञान के लिए स्पर्शन इंद्रिय का उदाहरण दिया गया है। १.आवचू 1 पृ.५६ ; जत्थ जत्थ सो ओहिणाणी गच्छति, तत्थ तत्थ सोइंदिएणमिव पासतो अवत्थिता रूवावबद्धा अत्था ओहिणा जाणति पासति य। 3. ग्रथकार ने आनुगामिक अवधि की तुलना दीपिका, चुडुलिका आदि प्रकाशक द्रव्यों से की है। ये प्रकाश के ऐसे साधन हैं, जिन्हें व्यक्ति जहां चाहे, वहां ले जा सकता है। इनसे आगे-पीछे, दाएं-बाएं किसी भी दिशा को प्रकाशित किया जा सकता है। ये जिस दिशा को प्रकाशित करते हैं, आंखें उसी दिशा के पदार्थों को जानती हैं, उसी प्रकार इस अवधिज्ञान में ज्ञानी के शरीर का जो भाग प्रभावित होता है, उसी दिशा से अवधिज्ञान की रश्मियां बाहर निकलती हैं और ज्ञेय पदार्थ को प्रकाशित करके अतीन्द्रिय ज्ञान करवाती हैं। 4. दाएं और बाएं पार्श्व की ओर संख्यात-असंख्यात योजन क्षेत्रवर्ती पदार्थों को साक्षात् करने वाला अवधिज्ञान पार्श्वतः अन्तगत अवधिज्ञान कहलाता है। इससे कांख आदि पार्श्वस्थ चैतन्यकेन्द्र के जागृत होने पर पार्श्ववर्ती ज्ञेयों का ज्ञान होता है। ग्रंथकार ने पुरतः अंतगत के लिए पणुल्लयंत, मार्गत: अंतगत के लिए अणुकड्माण तथा पार्श्वत: अंतगत के लिए परिकड्डमाण शब्द का प्रयोग किया है। 5. नारक, देव और तीर्थंकरों के नियमत: अबाह्य अवधिज्ञान होता है। इनका भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान मध्यगत होता है। मध्यगत अवधिज्ञान में ही सर्वतः देखने की शक्ति होती है। शेष मनुष्य और तिर्यञ्च अंतगत अवधिज्ञान वाले होते हैं, वे एक देश से देखते हैं। चूर्णिकार ने मध्यगत अवधिज्ञान की स्पर्शन इंद्रिय से तुलना की है। 1. नंदी 22/2, आवनि 64 / 2. आवचू 1 पृ५६, 57; जहा फरिसिदिएणं, समंतओ फरिसिए जीवो अत्थे उवलभति, एवं सो वि, ओहिणाणी जत्थ जत्थ गच्छति॥ तत्थ तत्थ समंतओ रूवावबद्धे अत्थे ओहिणा जाणति पासति य, से तं मझगयं ओहिणाणं॥ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 273 44, 45. अंतगत और मध्यगत अवधिज्ञान में क्या भेद है? पुरतः अंतगत अवधिज्ञान पुरोवर्ती संख्येय या असंख्येय योजन प्रमाण क्षेत्र को जानता-देखता है, जबकि मध्यगत अवधिज्ञान चारों ओर संख्येयअसंख्येय योजन तक के पदार्थों को जानता-देखता है। इसी प्रकार पृष्ठतः और पार्श्वगत को जानना चाहिए। 46. इस प्रकार आनुगामिक अवधिज्ञान का मैंने संक्षेप में वर्णन कर दिया, अब अनानुगामिक' अवधिज्ञान को कहूंगा। 47-49. जैसे कोई पुरुष एक विशाल ज्योतिकुंड को बनाकर उसी के आसपास चारों ओर चक्कर लगाता हुआ उस ज्योति-स्थान को देखता है, अन्यत्र जाने पर वह उसे नहीं देखता, वैसे ही अनानुगामिक अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न होता है, उसी क्षेत्र से सम्बद्ध संख्येय अथवा असंख्येय योजन प्रमाण क्षेत्र को जानता देखता है, अन्यत्र जाने पर वह उसे नहीं देखता। यह मैंने संक्षेप में अनानुगामिक' अवधिज्ञान का वर्णन किया है। 50. जो प्रशस्त अध्यवसाय तथा शुद्ध चारित्र में वर्तमान है, आगे से आगे विशुद्ध्यमान चारित्र वाला है, 1. जी अवधिज्ञान जहां उत्पन्न होता है, उस क्षेत्र से या भव से अन्यत्र जाने पर साथ नहीं जाता, वह अनानुगामिक अवधिज्ञान कहलाता है। इसकी तुलना ग्रंथकार ने स्थिर ज्योतिकुण्ड से की है। व्यक्ति उस ज्योतिकुण्ड के चारों : ओर की क्षेत्रगत वस्तुओं को जान लेता है किन्तु अन्यत्र जाने पर प्रकाश साथ न चलने से वह जान-देख नहीं पाता। नंदीचूर्णि में ज्योतिकुंड या ज्योतिस्थान के स्थान पर सांकल से बंधे दीपक का उदाहरण दिया है। आकारभेद और शब्दभेद होने पर भी दोनों का भावार्थ एक ही है। चूर्णिकार के अनुसार अनानुगामिक अवधिज्ञान क्षेत्र सापेक्ष क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य में प्रश्नादेशिक पुरुष के उदाहरण से अनानुगामिक अवधिज्ञान को स्पष्ट किया है। जैसे-प्रश्नादेशिक पुरुष (प्रश्नकुंडली के आधार पर उत्तर देने वाला) अपने नियत स्थान में प्रश्न का उत्तर सम्यक रूप से दे सकता है, वैसे ही क्षेत्र प्रतिबद्ध अवधिज्ञान अपने क्षेत्र में ही साक्षात् जान सकता है। - 1. नंदीचू पृ.१७ ; संकलापडिबद्धट्टितप्पदीवो व्व, तस्स य खेत्तावेक्खखयोवसमलाभत्तणतो अणाणुगामित्तं। २.तस्वोभा 1/23 ; तत्रानानुगामिकं यत्र क्षेत्रे स्थितस्योत्पन्नं ततः प्रच्युतस्य प्रतिपतति प्रश्नादेशपुरुषज्ञानवत्। 2. नारक और देवों का अवधिज्ञान अनानुगामिक होता है। मनुष्य और तिर्यञ्चों का अवधिज्ञान आनुगामिक, अनानुगामिक और मिश्र अर्थात् एक देश में अनुगमनशील–तीनों प्रकार का होता है।' १.आवनि ५४;अणुगामिओ उ ओधी, नेरइयाणं तधेव देवाणं।अणुगामि अणणुगामी, मीसो य मणुस्सतेरिच्छेि। 3. नंदी चूर्णिकार के अनुसार तैजस, पद्म और शुक्ल-इन तीन प्रशस्त लेश्याओं से अनुरंजित चित्त वाला प्रशस्त अध्यवसाय वाला कहलाता है। 1. नंदीचूपृ.१८; पसत्थज्झवसाणट्ठाणा तेआदिपसत्थलेसाणुगता भवंति, पसत्थदव्वलेसाहि अणुरंजितं चित्तं पसत्थ ज्झवसाणो भण्णति। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 जीतकल्प सभाष्य उसका अवधिज्ञान सब ओर से बढ़ता जाता है। (यह वर्धमान अवधिज्ञान है।)। 51. वर्धमान परिणामों से होने वाले जघन्य से लेकर उत्कृष्ट अवधिज्ञान को मैं इन गाथाओं में कहूंगा। 52. तीन समय के आहारक सूक्ष्म पनक जीव (वनस्पति विशेष) के शरीर की जितनी जघन्य अवगाहना होती है, उतना ही अवधि ज्ञान का जघन्य क्षेत्र परिमाण होता है। 1. नंदीचूर्णि के अनुसार पूर्व अवस्था की अपेक्षा जो उत्तरोत्तर बढ़ता है, वह वर्धमान अवधिज्ञान कहलाता है। यह वृद्धि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चारों में होती है। वर्धमान अवधि को आचार्य मलयगिरि ने एक उपमा से समझाया है। जैसे प्रचुर शुष्क ईंधन डालने से अग्नि बढ़ती जाती है, वैसे ही प्रशस्त प्रशस्ततर अध्यवसायों के कारण उत्तरोत्तर बढ़ने वाला वर्धमान अवधिज्ञान कहलाता है। इसकी वृद्धि गुण-विशुद्धि सापेक्ष होती है। आवश्यक चूर्णि के अनुसार प्रशस्त अध्यवसाय से वर्धमान अवधिज्ञानी अधिक से अधिक अचित्तमहास्कंध तथा कम से कम परमाणु पुद्गल तक देखता है। भाष्यकार ने अवधिज्ञान की वृद्धि के दो कारण बताए हैंअध्यवसायों की शुद्धि तथा चारित्र की विशुद्धि। 1. नंदीचू पृ. 18; पुव्वावत्थातो उवरुवरि वड्डमाणं ति। 2. आवचू 1 पृ.४८; विसुद्धपरिणामगो ओहिणा परिवड्डमाणेण उवरिंजाव अचित्तमहाखंधो ताव पासति, हेट्ठा वि जाव परमाणू पोग्गला ताव पासति। 2. षट्खण्डागम में वर्धमान अवधि को शुक्लपक्ष के चन्द्रमण्डल से उपमित किया गया है। टीकाकार वीरसेन के अनुसार वर्धमान अवधिज्ञान बढ़ता हुआ केवलज्ञान की उत्पत्ति के पूर्व क्षण तक जा सकता है। 1. षट्ध पु.१३, 5/5/56, पृ. 293, 294 / 3. यह गाथा मूलत: आवश्यक नियुक्ति (28) की है। इसमें अवधिज्ञान के जघन्य क्षेत्र का परिमाण बताया गया है। अंगुल का असंख्यातवां भाग कितना सूक्ष्म होता है, इसे पनक के उदाहरण से बताया गया है। प्रथम और द्वितीय समय में पनक जीव की अवगाहना अत्यन्त सूक्ष्म होती है। चतुर्थ और पंचम आदि समयों में वह स्थूल हो जाती है इसलिए तृतीय समय में उसकी जितनी अवगाहना होती है, उतना क्षेत्र जघन्य अवधिज्ञान का विषय बनता है। षट्खण्डागम के अनुसार लब्धि से अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद जीव की अवगाहना अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र है। इस प्रसंग में आचार्य महाप्रज्ञ ने आचार्य हरिभद्रसूरि और मलयगिरि द्वारा उल्लिखित सम्प्रदाय-भेद का वर्णन किया है-'हजार योजन लम्बा मत्स्य, जो अपने ही शरीर के बाह्य भाग के एक देश में उत्पन्न होने वाला है, वह प्रथम समय में अपने शरीर में व्याप्त सब आत्म-प्रदेशों की मोटाई को संकुचित करके प्रतर बनाता है। उस प्रतर की मोटाई अंगल के असंख्येय भाग प्रमाण तथा लम्बाई-चौडाई अपने देह प्रमाण होती है। दूसरे समय में उस प्रतर को संकुचित कर वह मत्स्य अपने देहप्रमाण लम्बाई-चौड़ाई वाले आत्म-प्रदेशों की सूची बनाता है। उस सूची की मोटाई-चौड़ाई अंगुल के असंख्येय भाग प्रमाण होती है। तीसरे समय में उस सूची को संकुचित कर अंगुल के असंख्येय भाग प्रमाण अपने शरीर के बाहरी प्रदेश में सूक्ष्म परिणति वाले पनक के रूप में उत्पन्न होता है। उत्पत्ति के तीसरे समय में पनक के शरीर का जितना प्रमाण होता है, उतने प्रमाण वाला क्षेत्र अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र है। इतने क्षेत्र में अवस्थित वस्तु जघन्य अवधिज्ञान का विषय बनती है।"२ आचार्य जिनभद्रगणि ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि महामत्स्य तीन समयों में आत्म-प्रदेशों का संकुचन करके अपने प्रयत्न विशेष से सूक्ष्म अवगाहना वाला होता है इसलिए महामत्स्य का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। 1. विभा 595; पढम-बिईए अतिसण्हो जमइत्थूलो चउत्थयाईसु।तईयसमयम्मि जोग्गो, गहिओ तो तिसमयाहारो॥ 2. नंदी का टिप्पण पृ.६०, नंदीहाटी पृ. 26, नंदीमटी प. 91, 92 / 3. विभा 592-95 / Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 53. (भगवान् अजितनाथ के समय उत्कृष्ट परिमाण में अग्निकायिक जीवों की उत्पत्ति हुई थी) उन सर्वाधिक अग्नि जीवों ने निरन्तर जितने क्षेत्र को व्याप्त किया था, सब दिशाओं में उतना परमावधि का क्षेत्र होता है। 54. अंगुल के असंख्येय भाग जितने क्षेत्र को देखने वाला अवधिज्ञान काल की दृष्टि से आवलिका के असंख्येय भाग तक देखता है। अंगुल के संख्येय भाग जितने क्षेत्र को देखने वाला आवलिका के संख्येय भाग तक देखता है। अंगुल जितने क्षेत्र को देखने वाला भिन्न आवलिका तक देखता है। काल की दृष्टि से एक आवलिका तक देखने वाला क्षेत्र की दृष्टि से अंगुलपृथक्त्व (दो से नौ अंगुल) क्षेत्र को देखता है। 55. एक हाथ जितने क्षेत्र को देखने वाला अंतर्मुहूर्त जितने काल तक देखता है। एक गव्यूत क्षेत्र को देखने वाला अंतर्दिवस काल (एक दिन से कुछ न्यून) तक देखता है। एक योजन जितने क्षेत्र को देखने वाला दिवसपृथक्त्व (दो से नौ दिवस) काल तक देखता है। पच्चीस योजन जितने क्षेत्र को देखने वाला अंत: पक्षकाल (कुछ कम एक पक्ष) तक देखता है। 56. भरत जितने क्षेत्र को देखने वाला अर्द्धमास काल तक देखता है। जंबूद्वीप जितने क्षेत्र को देखने वाला साधिक मास (एक महीने से कुछ अधिक) काल तक देखता है। मनुष्य लोक जितने क्षेत्र को देखने वाला एक वर्ष तक देखता है। रुचकद्वीप जितने क्षेत्र को देखने वाला वर्षपृथक्त्व (दो से नौ वर्ष) तक देखता है। 57. संख्येय द्वीप-समुद्र जितने क्षेत्र को देखने वाला संख्येय काल तक देखता है। असंख्येय काल तक देखने वाला असंख्येय द्वीप समुद्र जितने क्षेत्र को देख सकता है, पर इसमें भजना है। 58. (अवधिज्ञान के प्रसंग में) कालवृद्धि के साथ द्रव्य, क्षेत्र और भाव की वृद्धि निश्चित होती है। 1. इस गाथा में परमावधि के उत्कृष्ट क्षेत्र-परिमाण का निरूपण है। जब पांच भरत और पांच ऐरवत में मनुष्यों की संख्या पराकाष्ठा पर होती है, तब सबसे अधिक अग्नि के जीव होते हैं क्योंकि लोगों की बहुलता होने पर षचन-पाचन आदि क्रियाएं भी प्रचुर होती हैं। तीर्थंकर अजित के समय में अग्नि के जीव पराकाष्ठा प्राप्त थे क्योंकि उस समय मनुष्यों की संख्या अत्यधिक थी। मनुष्यों का आयुष्य लम्बा था। पुत्र-पौत्रों की संख्या अधिक थी। उस समय अग्निजीवों की उत्पत्ति में महावृष्टि आदि का व्याघात नहीं था। इस प्रकार सर्वबहु अग्निकाय के जीव सब दिशाओं में जितने क्षेत्र को व्याप्त करते हैं, वह परमावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र है। विशेषावश्यक भाष्य में अवधिज्ञान के इस सामर्थ्य को एक कल्पना द्वारा समझाया गया है। 1. आवचू 1 पृ. 39 / २.विस्तार हेतु देखें विभा६०२-०४ एवं उसकी टीका, नंदी का टिप्पण पृ.६०,६१ तथा श्रीभिक्षु भा.१ पृ.५४,५५। 2. काल और क्षेत्र की वृद्धि के सम्बन्ध में दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में कुछ मतभेद है। इस संदर्भ में विस्तार ___हेतु देखें ज्ञान मीमांसा पृ. 273-75 / 3. गा.५४ से 57 तक की चार गाथाओं में अवधिज्ञान का ज्ञेय क्षेत्र और उससे सम्बन्धित काल के बारे में विवेचन किया गया है। नंदी सूत्र की टीका में आचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट निरूपण किया है कि क्षेत्र और काल का वर्णन उपचार की दृष्टि से प्रतिपादित है। इसका तात्पर्य यह है कि अवधिज्ञान क्षेत्र में स्थित दर्शन योग्य द्रव्यों एवं विवक्षित कालान्तरवर्ती पर्यायों को जानता-देखता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने नंदी सूत्र में षट्खण्डागम में वर्णित समय-अवधि और क्षेत्र परिमाण का तुलनात्मक चार्ट प्रस्तुत किया है। 1. नंदीहाटी पृ. 27 / 2. देखें नंदी का टिप्पण पृ.६१। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 जीतकल्प सभाष्य क्षेत्रवृद्धि में कालवृद्धि की भजना है। द्रव्य और पर्याय की वृद्धि होने पर क्षेत्र और काल की वृद्धि में भजना होती है। 59. काल सूक्ष्म होता है लेकिन क्षेत्र उससे भी सूक्ष्मतर होता है। अंगुलश्रेणिमात्र आकाश-प्रदेश का परिमाण असंख्येय अवसर्पिणी की समय-राशि जितना होता है। 60. त्रिसमयआहारक आदि आठ गाथाओं (गाथा 52-59) के स्वरूप का विस्तार से वर्णन करना चाहिए, जैसा आवश्यक (विशेषावश्यक भाष्य) में कहा गया है। 61. इस प्रकार वर्धमान अवधिज्ञान संक्षिप्त में कहा गया। हीयमान अवधिज्ञान का स्वरूप इस प्रकार है। 62. जो अप्रशस्त अध्यवसायों और अशुद्ध चारित्र में वर्तमान है तथा जो संक्लिश्यमान चित्त से युक्त है, उसका अवधिज्ञान सब ओर से घटता जाता है। 63, 64. जो अवधिज्ञान अंगुल के संख्येय भाग, असंख्येय भाग, अंगुल पृथक्त्व, हस्त, धनु, योजन, सौ योजन, सहस्र योजन, संख्येय योजन, असंख्येय योजन यावत् सर्वलोक को देखकर प्रतिपतित हो जाता है, वह प्रतिपाती अवधिज्ञान है। 1. क्षेत्र अत्यन्त सूक्ष्म है। उसकी अपेक्षा काल स्थूल है। यदि अवधिज्ञान की क्षेत्रवृद्धि होती है तो कालवृद्धि भी होती है। द्रव्य क्षेत्र से भी अधिक सूक्ष्म होता है क्योंकि एक आकाश प्रदेश में भी अनंत स्कंधों का अवगाहन हो सकता है। पर्याय द्रव्य से भी सूक्ष्म है क्योंकि एक ही द्रव्य में अनंत पर्याय होती हैं। द्रव्य की वृद्धि होने पर पर्याय-वृद्धि निश्चित है लेकिन क्षेत्र और काल की वृद्धि में भजना है। अवधिज्ञानी प्रत्येक द्रव्य की संख्येय और असंख्येय पर्यायों को जानता है। पर्यायवृद्धि होने पर द्रव्यवृद्धि की भजना है-वृद्धि होती भी है और नहीं भी होती। अवधिज्ञान के विषयभूत क्षेत्र और काल की वृद्धि चार प्रकार की होती हैं। द्रव्यों की वृद्धि-हानि दो प्रकार की तथा पर्यायों में वृद्धि-हानि छह प्रकार की होती है। विस्तार हेतु देखें विभा 729-33, श्रीभिक्षु भा. 1 पृ. 52, 53 1. नंदीमटी प.९५। 2. धवला में हीयमान अवधि को कृष्ण पक्ष के चन्द्रमण्डल से उपमित किया है। इसका अन्तर्भाव देशावधि में होता है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार जो उत्पत्तिकाल के साथ ही बुझती हुई अग्निज्वाला के समान क्षीण होने लगता है, वह हीयमान अवधिज्ञान है। 1. षट्ध पु. 13, 5/5/56, पृ. 293 / 2. नंदीहाटी पृ.२३; उदयसमयसमनन्तरमेव हीयमानं दग्धेन्धनप्रायधूमध्वजार्चिव्रतिवदित्यर्थः / 3. नंदी चूर्णि के अनुसार अप्रशस्त लेश्या से रंजित चित्त तथा अनेक अशुभ विषयों का चिन्तन करने वाला संक्लिष्ट चित्त कहलाता है। भाष्यकार ने वर्धमान अवधि की भांति हीयमान अवधि के ह्रास के सम्बन्ध में कुछ भी उल्लेख नहीं किया है। १.नंदीचू प.१९; अप्पसत्थलेस्सोवरंजितं चित्तं अणेगासुभत्थचिंतणपरं चित्तं संकिलिटुंभण्णति। 4. जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के बाद क्षयोपशम के अनुरूप कुछ समय अवस्थित रहकर बाद में प्रदीप की भांति पूर्णतः बुझ जाता है, वह प्रतिपाती अवधिज्ञान है। आचार्य हरिभद्र ने प्रतिपाती अवधि को जात्यमणि के दृष्टान्त से समझाया है, जिसकी प्रभा किसी कारण से नष्ट हो गई है। नंदीसूत्र में प्रतिपाती अवधि का विषय विस्तार से वर्णित है। १.नंदीमटी प.८२; यत्पुनः प्रदीपइव निर्मलमेककालमपगच्छति तत्प्रतिपाति। २.नंदीहाटी पृ. 23; कथञ्चिदापादितजात्यमणिप्रभाजालवत्। ३.नंदी 20 // Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 277 65. अप्रतिपाती' अवधिज्ञान क्या है? जो अलोक के एक आकाश प्रदेश यावत् उससे अधिक देखने की क्षमता रखता है, वह अप्रतिपाती अवधिज्ञान है। 66. जो अलोक में लोक-प्रमाण असंख्येय खंडों को जानता-देखता है (देखने की क्षमता रखता है), वह क्षेत्रतः अप्रतिपाती अवधिज्ञान है। 67. यह अप्रतिपाती अवधिज्ञान संक्षिप्त में कहा गया। वह संक्षेप में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से चार प्रकार का होता है, उसे मैं कहूंगा। 68. द्रव्य से अवधिज्ञान का विषय रूपी द्रव्य है। क्षेत्र से जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग को जानता है, उत्कृष्ट क्षेत्र-प्रमाण इस प्रकार कहूंगा। 69. जो अलोक में लोक प्रमाण असंख्येय खंडों को जानता-देखता है (देखने की क्षमता रखता है), वह क्षेत्रतः अप्रतिपाती अवधिज्ञान है। 70. काल से अवधिज्ञानी जघन्य रूप से नियमतः आवलिका के असंख्यातवें भाग को जानता-देखता है। 71. उत्कृष्टतः वह (असंख्य) उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण अतीत और भविष्य के काल को जानतादेखता है। 72. भाव से जो अनंत पर्यायों तथा समस्त पर्यायों के अनंतभाग को जानता-देखता है, वह भावतः अवधिज्ञान कहा गया है। 1. जो ज्ञान उत्पन्न होने के बाद विनष्ट नहीं होता, वह अप्रतिपाती अवधिज्ञान कहलाता है। आचार्य हरिभद्र ने इसको उस निर्मल जात्यमणि से उपमित किया है, जिस पर पुनः मलिनता नहीं जमती। परमावधि और सर्वावधि ज्ञान नियमत: अप्रतिपाती होते हैं। १.नंदीहाटी पृ. २३;क्षार-मृत्पुटपाकाद्यापाद्यमानजात्यमणिकिरणनिकरवदित्यभिप्रायः। 2. आवश्यक नियुक्ति और विशेषावश्यक भाष्य में परमावधि का विस्तृत वर्णन है लेकिन जीतकल्पभाष्य में इसका .. उल्लेख नहीं है। यह शोध का विषय है कि उन्होंने यहां इसका वर्णन क्यों नहीं किया? परमावधि के विस्तार हेतु देखें श्रीभिक्षु भा. 1 पृ.५५, 56 / 3. द्रव्य से अवधिज्ञानी जघन्यतः अनंत रूपी द्रव्यों को जानता-देखता है तथा उत्कृष्टतः सभी रूपी द्रव्यों को जानता-देखता है। इस विषय में आवश्यक नियुक्ति में विस्तार से वर्णन मिलता है। 1. द्र. आवनि 36-42 / 4. इस गाथा में अवधिज्ञान के विषय-निरूपण के सामर्थ्य का वर्णन है। इसका तात्पर्य यह है कि अप्रतिपाती __ अवधिज्ञान लोकाकाश में स्थित पुद्गल-पर्यायों को और अधिक सूक्ष्मता से जानता है। 5. अवधिज्ञानी भाव की दृष्टि से जघन्य और उत्कृष्ट रूप से अनंत भावों को जानता है, यह सापेक्ष कथन है। टीकाकार हरिभद्र ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि आधारभूत ज्ञेय द्रव्य अनंत हैं अत: इस कारण वह अनंत पर्यायों को जानता है लेकिन प्रतिद्रव्य की अनंत पर्यायों को नहीं जान सकता। सब पदार्थों की सम्पूर्ण पर्यायों को केवलज्ञान द्वारा ही जाना जा सकता है अत: अवधिज्ञानी सब भावों के अनंतवें भाग को जानता है। मलयगिरि के अनुसार अवधिज्ञानी प्रतिद्रव्य की संख्येय और असंख्येय पर्यायों को जानता है। 1. नंदीहाटी पृ.३०; भावतोऽवधिज्ञानी जघन्येनानन्तानन्तान् भावान् पर्यायान् आधारद्रव्यानन्तत्वाद् न तु प्रतिद्रव्यमिति। / २.नंदीमटी पृ. 98 प्रतिद्रव्यं संख्येयानामसंख्येयानाम् वा पर्यायाणां दर्शनात्। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 जीतकल्प सभाष्य 73. अवधिज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से उसके बहुत विकल्प हो जाते हैं। 74. मन:पर्यव ज्ञान संक्षेप में दो प्रकार का है-ऋजुमति 2. विमलमति। दोनों द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चार-चार प्रकार के होते हैं। 75. द्रव्य से ऋजुमति मन:पर्यवज्ञान मनोवर्गणा के अनंतप्रदेशी अनंत स्कन्धों को जानता-देखता है। विपुलमति मनःपर्यव ज्ञान उसी को और अधिक उज्ज्वलतर और विशुद्धतर जानता-देखता है। 7677 क्षेत्र से ऋजमति मन:पर्यवजानी अधोलोक में रत्नप्रभा पथ्वी के ऊर्ध्ववर्ती क्षल्लकप्रतर से अधोवर्ती क्षुल्लकप्रतर तक वर्तमान समनस्क जीवों के मनोगत भावों को जानता-देखता है। विपुलमति अवधिज्ञानी इससे अधिक विपुल, विशुद्ध और उज्ज्वलतर क्षेत्र को जानता-देखता है। . 78. ऋजुमति मन:पर्यवज्ञान ऊर्ध्वलोक में ज्योतिष्चक्र के ऊपरी भाग तक जानता-देखता है, विपुलमति उसी क्षेत्र को अधिक उज्ज्वलतर, विशुद्धतर जानता-देखता है। 79, 80. तिर्यक् लोक में ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी दो समुद्र (लवणोदधि तथा कालोदधि) तथा ढ़ाई द्वीप (जंबूद्वीप, धातकीखंड तथा पुष्करार्ध) में वर्तमान पर्याप्तक समनस्क पंचेन्द्रिय जीवों के मन्यमान मनोगत भावों को जानता-देखता है। विपुलमति मन:पर्यवज्ञानी उन्हीं को अधिक विमल और उज्ज्वलतर जानतादेखता है। 81. विपुलमति मनःपर्यव ज्ञानी की यह विशेषता है कि वह तिर्यक्, ऊर्ध्व और अध:लोक में ऋजुमति मन:पर्यव ज्ञानी की अपेक्षा अढ़ाई अंगुल अधिक क्षेत्र को उज्ज्वलतर और शुद्ध रूप में जानता-देखता है। 1. ऋजुमति की व्याख्या करते हुए जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कहते हैं कि ऋजु का अर्थ है -सामान्य / जो सामान्य रूप से मनोद्रव्य को जानता है, वह ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान है। यह विशेष पर्याय को नहीं जानता। ऋजुमति मनः पर्यवज्ञानी इतना ही जानता है कि अमुक व्यक्ति ने घट का चिन्तन किया है। वह देश, काल आदि से सम्बद्ध घट की अन्य अनेक पर्यायों को नहीं जानता।' 1. विभा 784; रिजु सामण्णं तम्मत्तगाहिणी रिजुमई मणोनाणं। पायं विसेसविमुहं, घडमेत्तं चिंतियं मुणए॥ २.यहां विपुलमति के स्थान पर विमलमति शब्द का प्रयोग हुआ है। विशेषग्राहिणी मति विपुलमति है। किसी व्यक्ति ने घट का चिन्तन किया। वह घड़ा स्वर्णनिर्मित है, पाटलिपुत्र में बना है, आज ही बना है, आकार में बृहद् है, कक्ष में स्थित है, फल से आच्छादित है-इस प्रकार के अध्यवसायों के हेतुभूत अनेक विशिष्ट मानसिक पर्यायों का ज्ञान विपुलमति मनःपर्यवज्ञान है। १.नंदीमटी प.१०८ ; घटोऽनेन चिन्तितः, स च सौवर्णः पाडलिपुत्रकोऽद्यतनो महान् अपवरकस्थितः फलपिहित इत्याद्यध्यवसायहेतुभूता प्रभूतविशेषविशिष्टमनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः। 3. दिगम्बर आचार्य मनःपर्यव ज्ञान की उत्पत्ति में दो कर्मों के क्षयोपशम को मुख्य मानते हैं -1. वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम 2. मन:पर्यव ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम / 1. ससि 1/23/218, तवा 1/23 पृ.८४। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 279 82. काल की दृष्टि से ऋजुमति मन:पर्यवज्ञानी जघन्यतः और उत्कृष्टतः भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग अतीत और भविष्य -दोनों कालों को जानता-देखता है। 83. ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी संज्ञी जीवों के मन्यमान भावों को जानता-देखता है। विपुलमति उसी को अधिक विशुद्ध और निर्मल रूप में जानता-देखता है। 84, 85. भाव से ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी अनंत भावों को जानता-देखता है। वह उन सब भावों के अनन्तवें भाग को ही जानता-देखता है। विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी उन भावों को अधिक विशुद्धतर और उज्ज्वलतर जानता-देखता है। मनःपर्यव ज्ञान के ये चार भेद हैं। 86. मन:पर्यव ज्ञान संज्ञी जीवों के मन्यमान मनोवर्गणा के पुद्गलों से मानसिक भावों को जानता-देखता 1. आचार्य हरिभद्र ने नंदी टीका में एक प्रश्न उठाया है कि मन:पर्यव दर्शन स्वतंत्र रूप से प्रतिपादित नहीं है फिर ‘पश्यति' का प्रयोग क्यों हुआ है? इस प्रश्न का समाधान देते हुए टीकाकार कहते हैं कि कोई व्यक्ति घट का चिन्तन कर रहा है तो मनःपर्यवुज्ञानी उसके मनोद्रव्य को साक्षात् जानता है और मानस अचक्षुदर्शन से उन्हीं का विकल्प करता है अतः मानस अचक्षुदर्शन की अपेक्षा 'पासइ' शब्द का प्रयोग हुआ है। विशेष उपयोग की अपेक्षा से वह जानता है और सामान्य अर्थोपयोग की अपेक्षा से देखता है। इस ज्ञान की विशेषता यह है कि इसमें क्षयोपशम की पटुता होती है अतः वह मन द्रव्य के विशेष पर्यायों को ग्रहण करता है। विशेष का ग्राहक ज्ञान होता है, दर्शन नहीं अतः मनःपर्यव दर्शन नहीं होता। कुछ आधुनिक विद्वान् ‘जाणइ पासइ' इन दो क्रियापदों को भाषा शैली का प्रतीक मानते हैं, जैसे-पण्णवेमि परूवेमि.....आदि क्रियापद समानार्थ के रूप में प्रयुक्त होते हैं, वैसे ही जाणइ पासइ' समानार्थक क्रियाएं हैं, ज्ञान और दर्शन के वाचक नहीं। १.नंदीहाटी पृ. 122%; परस्य घटादिकमर्थं चिन्तयतः साक्षादेव मनःपर्यायज्ञानी मनोद्रव्याणि तावज्जानाति, तान्येव च मानसेनाचक्षुदर्शनेन विकल्पयति अतो मानसाचक्षुर्दर्शनापेक्षया पश्यतीत्युच्यते। 2. आवमटी प.८२। 3. इस विषय में विस्तार हेतु देखें ज्ञान-मीमांसा पृ.३३८,३३९। 2. मनःपर्यवज्ञानी तिर्यक् लोक में संज्ञी जीवों द्वारा गृहीत मन रूप में परिणत द्रव्य मन की अनंत पर्यायों तथा तद्गत वर्ण आदि भावों को जानता-देखता है। वह द्रव्य मन से प्रकाशित वस्तु घट-पट आदि को अनुमान से जानता है। इसका तात्पर्य यह है कि मनःपर्यवज्ञानी चिन्तित पदार्थ को प्रत्यक्ष नहीं देखता अपितु अनुमान से देखता है इसीलिए उसकी पश्यत्ता बताई गई है। यद्यपि मन का आलम्बन मूर्त्त-अमर्त्त दोनों पदार्थ होते हैं लेकिन छद्मस्थ अमर्त को साक्षात् नहीं देख सकता। मन:पर्यवज्ञान का विषय मन द्वारा चिन्त्यमान वस्तु है या चिन्तनप्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएं, इस विषय में जैन परम्परा में मत-विभेद है। नियुक्तिकार ने प्रथम पक्ष मान्य किया है। इस संदर्भ में आचार्य महाप्रज्ञ ने विस्तार से चिन्तन प्रस्तुत किया है। देखे नंदी सूत्र 23 का टिप्पण पृ. 24 / १.विभा 813, 814; मुणइ मणोदव्वाई, नरलोए सो मणिज्जमाणाई। काले भूय-भविस्से, पलियाऽसंखिन्जभागम्मि॥ दव्यमणोपज्जाए, जाणइ पासइ य तग्गएणंते। तेणावभासिए उण, जाणइ बझेऽणुमाणेणं॥ 2. नंदीचू पृ. 24; मणितमत्थं पुण पच्चक्खंण पेक्खति,जेण मणालंबणं मुत्तममुत्तं वा सो य छदुमत्थो तं अणुमाणतो पेक्खति त्ति अतो पासणता भणिता। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 जीतकल्प सभाष्य 87. जैसे साधारण व्यक्ति भी स्पष्ट रूप से चेहरे के संकेत आदि से मानसिक भावों को जान लेता है, वैसे ही मनःपर्यवज्ञान मनोवर्गणा के पुद्गलों से मानसिक भावों को प्रकाशित करता है। 88. मन:पर्यवज्ञान जन अर्थात् पर्याप्तक संज्ञी जीवों के मन द्वारा चिन्तित अर्थ को प्रकट करता है। यह मनुष्य क्षेत्र तक सीमित होता है। यह चारित्र सम्पन्न साधु के गुण प्रत्ययिक होता है. (अर्थात् इसकी . उपलब्धि साधना जन्य गुणों के कारण होती है)। 89. जो श्रुतांगविद् (द्वादशांगविद्) और धीर मुनि ऋजुमति अथवा विपुलमति मनःपर्यवज्ञान में वर्तमान हैं, उन मन:पर्यवज्ञानी मुनियों को व्यवहार शोधिकर जानना चाहिए। 90. जिस प्रकार पंकिल जल क्रमशः स्वच्छ होता है, वैसे ही जीव भी आवरण के क्षय होने पर क्रमशः केवलज्ञान तक की विशोधि को प्राप्त करता है। 91. जो सम्पूर्ण रूप से लोक और अलोक को नियमत: देखता है, वह केवलज्ञान' है। भूत, भविष्य या वर्तमान का ऐसा कोई विषय नहीं है, जिसे वह न जानता हो। 92, 93. जैसे सूर्य आकाशगत कृत (निर्मित) पदार्थों को एक साथ प्रकाशित करता है, वैसे ही 1. व्यक्ति जब चिन्तन करता है तो मनोवर्गणा के पुद्गल उसी रूप में आकार ग्रहण कर लेते हैं। उसके आधार पर मनःपर्यवज्ञानी दूसरों के मानसिक चिन्तन को जान लेता है। 2. नंदी सूत्र में मनःपर्यव ज्ञानी की नौ योग्यताओं का उल्लेख है --1. ऋद्धिप्राप्त 2. अप्रमत्त संयत 3. संयत 4. सम्यग्दृष्टि 5. पर्याप्तक 6. संख्येयवर्षायुष्क 7. कर्मभूमिज 8. गर्भज मनुष्य 9. मनुष्य / इन विशेषताओं का तात्पर्य है कि अवधिज्ञान ऋद्धिप्राप्त, अप्रमत्त संयत, सम्यग् दृष्टि, पर्याप्तक, संख्यात वर्ष आयुष्य वाले कर्मभूमि में उत्पन्न गर्भज मनुष्य को होता है। १.नंदी 23 / 3. नंदी की हारिभद्रीय टीका में केवलज्ञान के लिए पांच विशेषणों का प्रयोग किया गया है 1. एक-केवलज्ञान मति, श्रुत आदि ज्ञानों से निरपेक्ष होता है। . 2. शुद्ध-आवरण एवं मल से रहित। 3. सकल-केवलज्ञान अखण्ड और विभाग रहित होता है। आवरण के कारण ज्ञान विकल होता है, आवरण क्षीण होने पर वह स्वभावतः सकल होता है। 4. असाधारण-दूसरे ज्ञानों से विशिष्ट। 5. अनन्त-अनन्त ज्ञेय को जानने के कारण अनन्त / अथवा केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद कभी लुप्त नहीं होता इसलिए वह अनन्त है। बृभा में केवलज्ञान के ये लक्षण प्राप्त हैं -एक, अनिवारित व्यापार, अनंत, अविकल्पित और नियत। 1. नंदीहाटी पृ. 19; केवलम्-असहाय मत्यादिज्ञाननिरपेक्षम्। शुद्धं वा केवलम् आवरणमलकलंङ्काकरहितम्। सकलं वा केवलम्, तत्प्रथमतयैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेः। असाधारणं वा केवलम्, अनन्यसदृशमिति हृदयम्। ज्ञेयानन्तत्वादनन्तं वा केवलम्। २.बृभा 38 टी पृ.१५; दव्वादिकसिणविसयं, केवलमेगं तु केवलन्नाणं। अणिवारियवावारं, अणंतमविकप्पियं नियतं॥ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 281 केवलज्ञानी सब आत्मप्रदेशों से आकाशगत सत् पदार्थों को युगपत्' (एक साथ) जानता-देखता है। यह निष्कर्ष प्राप्त कथन है। जो 'संभिण्ण' विशेषण कहा गया है, उसकी व्याख्या आगे है। 94. केवलज्ञान लोक और अलोक को तथा पूर्व आदि सब दिशाओं में द्रव्य, क्षेत्र और काल से सब पदार्थों को सर्व आत्म-प्रदेशों से पूर्णतः जानता-देखता है। 95. भाव से जो पदार्थ नहीं हैं, उनको वह नहीं देखता। जिनका अभाव नहीं है, उन पदार्थों को जानतादेखता है। 96. जो सभी द्रव्यों, द्रव्य के परिणामों और उनके भावों की विज्ञप्ति का कारण है, अनंत, शाश्वत, अव्याबाध और एक ही प्रकार का है, वह केवलज्ञान है। 1. प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त जुगवं-युगपद् शब्द कुछ विमर्श की अपेक्षा रखता है। आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आगमिक परम्परा के अनुसार केवली के ज्ञान एवं दर्शन में क्रमवाद के पक्षधर हैं। विशेषणवती ग्रंथ (गा. 153249) में उन्होंने विस्तार से अनेक हेतुओं के द्वारा इस विषय पर चर्चा की है। उन्होंने अनेक पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष भी प्रस्तुत किए हैं। यहां ग्रंथकार द्वारा प्रयुक्त युगपद् शब्द का प्रयोग केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपद् होता है, इस अर्थ में नहीं है। डॉ. सागरमलजी जैन के अनुसार यहां इसका अर्थ सभी आत्मप्रदेशों से एक साथ जानना और देखना होना चाहिए क्योंकि केवली का ज्ञान इंद्रिय-सापेक्ष न होकर सभी आत्मप्रदेश सापेक्ष होता है अर्थात् सभी आत्म-प्रदेशों से एक साथ होता है। केवली में जानने और देखने की क्षमता का प्रकटीकरण एक साथ होता है क्योंकि ज्ञानावरण और दर्शनावरण का क्षय एक साथ ही होता है किन्तु ज्ञानोपयोग और दर्शनापयोग एक साथ नहीं होता, यह आगमिक परम्परा है। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि केवली में सत्ता या अस्तित्व की अपेक्षा ज्ञान और दर्शन अभिन्न अर्थात् युगपद् हैं लेकिन उपयोग की अपेक्षा एक समय में एक ही उपयोग सम्भव है। केवलज्ञान और केवलदर्शन के विषय में तीन अभिमत मिलते हैं-१. क्रमवाद 2. युगपद्वाद 3. अभेदवाद। आवश्यक नियुक्ति में केवलज्ञान और केवलदर्शन को युगपद् स्वीकार नहीं किया है। युगपद्वाद के प्रवक्ता मल्लवादी तथा अभेदवाद के प्रवक्ता सिद्धसेन दिवाकर हैं। अभेदवाद के माध्यम से आचार्य सिद्धसेन एक ओर केवलज्ञान के सादि-अनंत होने के आगमिक वचन की तार्किक सिद्धि करना चाहते थे तो दूसरी ओर क्रमवाद . और युगपद्वाद की विरोधी धारणाओं का समन्वय भी करना चाहते थे। उपाध्याय यशोविजयजी ने इन तीनों वादों का नय की दृष्टि से समन्वय किया है। इस विषय में आचार्य महाप्रज्ञ ने विस्तार से विशद चिन्तन प्रस्तुत किया है। १.जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय, पृ. 234 / 2. देखें नंदी का टिप्पण पृ.७५,७६ / 2. पर्याय अनंत होने से केवलज्ञान अनंत है। सदा उपयोगयुक्त होने से वह शाश्वत है। इसका व्यय नहीं होता इसलिए अप्रतिपाती है। आवरण की पूर्ण शद्धि के कारण वह एक प्रकार का है। बहत्कल्पभाष्य की टीका में ज्ञान की अनंत पर्यायों को सहेतुक स्पष्ट किया है। एक-एक आकाशप्रदेश पर अनंत अगुरुलघु पर्याय हैं। भिन्न-भिन्न स्वभाव (ज्ञान-भेद) से भिन्न-भिन्न पर्यायों को जाना जाता है। इसलिए सर्व आकाशप्रदेशों से ज्ञान के पर्यव अनंत गुणा हैं। केवलज्ञान उन सबको जानता है इसलिए वह अनंत है। १.विभा 828 पज्जायओ अणंतं,सासयमिट्ठ सदोवओगाओ।अव्वयओऽपडिवाई,एगविहं सव्वसुद्धीए॥ 2. बृभा 64 टी प. 22 // Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 जीतकल्प सभाष्य 97. ज्ञेय चार प्रकार (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) का जानना चाहिए। उसकी प्ररूपणा के लिए केवलज्ञान के चार प्रकार हैं। गा. 96 में जो अह (अथ) सर्वद्रव्य आदि शब्द कहे गए हैं, उनका वर्णन पहले किया जा चुका है। 18. भिन्न (संभिन्न) शब्द का ग्रहण इसलिए किया गया है कि एक ही काल में वह द्रव्य, क्षेत्र आदि चारों. के परिणमन से होने वाली पर्यायों को एक साथ जानता है। 99. जीव और अजीव की उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यत्व की पर्यायों को केवलज्ञान जानता-देखता है। धर्मअधर्म और आकाश इन तीनों का परिणमन परप्रत्ययिक होता है। 100. गति, स्थिति, अवगाहना तथा जीव-अजीव के संयोग और वियोग से धर्मास्तिकाय आदि में परिणमन होता है। जीव के औदयिक आदि भावों का भी परिणमन होता है। 101. इन द्रव्य आदि के परिणमन का हेतु काल है। काल के कारण ही प्रत्येक पदार्थों के वर्ण आदि में सूक्ष्म और स्थूल परिणमन होता है। 102. द्रव्य आदि के परिणामों को केवली सम्पूर्ण रूप से जानता है। परिणाम क्या होता है? उसका कारण यह है। १०३.परिणमन दो कारणों से होता है-विस्रसा (स्वाभाविक) और प्रयोगजन्य। बादल आदि स्कन्धों का उत्पाद और परिणमन विनसा-स्वाभाविक है। प्रयोगजन्य परिणमन 15 प्रकार का होता है। यह परिणमन तीनों कालों में होता है। 104. जो मनुष्य केवली होता है, वह अन्य प्राणियों को बाधा उत्पन्न नहीं करता। वह नियमतः शेष कर्मों का क्षय करके अनाबाध मोक्ष को प्राप्त करता है। 105. जो छद्मस्थों का ज्ञान होता है, वह केवलियों में नहीं होता इसलिए छद्मस्थ क्षायोपशमिक ज्ञान में रहते हैं। 106. केवलज्ञान नियमतः क्षायिकभाव में वर्तमान रहता है। तदावरणीय कर्मों के क्षीण हुए बिना अथवा क्षयोपशमभाव (मति आदि ज्ञान) में क्षायिकभाव की उत्पत्ति नहीं होती। 107. इसलिए केवलज्ञान को एकविध स्वीकार किया गया है क्योंकि केवलज्ञान होने पर छद्मस्थ को होने वाले चारों ज्ञान (मतिज्ञान आदि) व्यर्थ हो जाते हैं। 108. जो धर्म के आदिकर्ता हैं, श्रेष्ठ दर्शन, ज्ञान और चारित्र से सम्पन्न हैं, वे जिनेश्वर भगवान् सर्वत्रकज्ञान-केवलज्ञान से व्यवहार का प्रयोग करते हैं। (वे आगम व्यवहारी होते हैं।) 1. प्रयोगज परिणमन के पन्द्रह भेद इस प्रकार हैं-चार मन के, चार वचन के तथा सात काया के। समवायांग में प्रयोग के 13 भेद मिलते हैं। यहां काया के पांच ही प्रयोग उल्लिखित हैं। आहारक काय प्रयोग और आहारक मिश्र कायप्रयोग गृहीत नहीं है। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 283 109. प्रत्यक्ष आगम व्यवहारी दो प्रकार के होते हैं-इंद्रिय प्रत्यक्ष और नोइंद्रिय प्रत्यक्ष। अब मैं परोक्ष आगम व्यवहारी को इस प्रकार कहूंगा।। 110. जिसका आगम (चतुर्दशपूर्व का ज्ञान) परोक्ष होने पर भी प्रत्यक्ष आगम के समान होता है, वह भी आगम व्यवहारी होता है। जैसे चन्द्र के समान मुख वाली कन्या को चन्द्रमुखी कहा जाता है। 111, 112. ज्ञात और आगमिक (ज्ञान और आगम)-ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। जिसका आगम ज्ञान परायत्त–पराधीन होता है, उसे परोक्ष कहा जाता है। श्रुतधर परोक्ष आगम से व्यवहार करते हैं। उसके ये भेद हैं-चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर, नवपूर्वी अथवा गंधहस्ती के समान आचार्य। 113. श्रुतज्ञान से व्यवहार करने वाले आगम व्यवहारी कैसे हैं? (आचार्य उत्तर देते हैं-)उन चतुर्दशपूर्वधर आदि आचार्यों ने जीव आदि नवपदार्थों को सभी नय-विकल्पों से प्राप्त कर लिया है अर्थात् ज्ञात कर लिया है। 114. जैसे केवली केवलज्ञान के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जानता है, वैसे ही श्रुतज्ञानी भी श्रुतबल से चतुर्लक्षण (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) को जानता है। 115, 116. प्रत्यक्ष आगम व्यवहारी प्रतिसेवक की राग-द्वेष की हानि-वृद्धि के आधार पर न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देते हैं। वे पांच दिन की प्रतिसेवना करने वाले को पांच दिन या मासिक प्रायश्चित्त तथा दूसरे को मासिक जितनी प्रतिसेवना करने पर पच्चीस दिन या पांच दिन का प्रायश्चित्त भी दे सकते हैं। वे एक उपवास जितनी प्रतिसेवना करने वाले को पांच उपवास तथा दूसरे को पांच उपवास जितनी प्रतिसेवना करने पर एक उपवास जितना प्रायश्चित्त देते हैं। इसी प्रकार चतुर्दशपूर्वी आदि भी आलोचक की राग-द्वेष की हानि-वृद्धि के आधार पर न्यूनाधिक प्रायश्चित्त देते हैं। " 117. चोदक प्रश्न करता है कि प्रत्यक्षज्ञानी अल्प अपराध में बहुत और अधिक अपराध में थोड़ा प्रायश्चित्त कैसे देते हैं? आचार्य कहते हैं कि यहां वणिक् का दृष्टान्त सुनो। .118. जैसे निपुण रत्नवणिक् जिस रत्न का जो मूल्य है, उसको जानता है। वह बड़े रत्न का थोड़ा मूल्य तथा किसी छोटे रत्न का भी बहुत मूल्य करता है। 119. अथवा बहुत बड़े काचमणि का भी काकिणी जितना मूल्य होता है और छोटे से वज्रमणि का भी शतसहस्र-लाख जितना मूल्य होता है। 120. इसी प्रकार जिनेश्वर भगवान् अनेक मास प्रायश्चित्त के योग्य अपराध में भी राग-द्वेष की अल्पता के कारण स्तोक प्रायश्चित्त देते हैं और राग द्वेष की वृद्धि से पंचक-पांच दिन जितने अपराध में भी बहुत प्रायश्चित्त देते हैं। 121. प्रत्यक्षज्ञानी प्रतिसेवक के भाव को प्रत्यक्ष रूप से देखता है। परोक्ष चतुर्दशपूर्वी आदि उसे कैसे जानते हैं? इस प्रसंग में धमक (शंख बजाने वाले) का दृष्टान्त है। 122. जैसे नाली (पानी की घड़ी) से गिरते हुए पानी के परिमाण के आधार पर धमक शंख बजाकर समय की सूचना देता है, वैसे ही परोक्षज्ञान की स्थिति में चतुर्दशपूर्वी भी आलोचना को सुनकर श्रुत से Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 जीतकल्प सभाष्य - व्यक्ति के यथावस्थित भावों को जानकर शोधि करते हैं। 123. जिस श्रुतज्ञान से जीव-अजीव आदि सब पदार्थों के पर्यायों को जाना जाता हैं, उसी श्रुतोपदेश से पूर्वधर शोधि को करते हैं। 124. वह श्रुतज्ञान किसके द्वारा कृत है, जिससे जीव आदि सब पदार्थ जाने जाते हैं। (आचार्य उत्तर देते हैं) केवलज्ञानियों ने वह श्रुतज्ञान प्रस्तुत किया है। 125, 126. आगम व्यवहारी के होने पर भी जब अपराधकर्ता आलोचनीय की सम्यक् आलोचना नहीं करता, तब आलोचनीय की स्मृति कराने पर वह अपराध को स्वीकार कर लेता है, आगमव्यवहारी जितने प्रायश्चित्त से उसकी विशुद्धि होती है, उतना प्रायश्चित्त देते हैं। छहों प्रकार के आगम व्यवहारी माया करने या दोष छिपाने पर प्रायश्चित्त नहीं देते। 127. जो अपराध की आलोचना करता है, उसका प्रतिक्रमण कर लेता है, उसके नियमतः आलोचना . (आराधना) होती है। आलोचना न करने पर आराधना की भजना रहती है (शिष्य प्रश्न पूछता है) उसके भजना कैसे होती है? 128, 129. आलोचना में उद्यत परिणाम वाला मुनि आलोचना के लिए गुरु की दिशा में प्रस्थित होने पर बीच में ही कालगत हो जाए अथवा आचार्य कालगत हो जाए और वह आलोचना न कर पाए तो भी वह आराधक होता है क्योंकि वह सम्यक् आलोचना के भाव में परिणत है। आलोचना के परिणाम में अपरिणत मुनि आराधना नहीं कर पाता। इस प्रकार आलोचना न करने पर भजना कही गई है। 130. यद्यपि आगम व्यवहारी आलोचक के अपराध को तथा उसकी शोधि-प्रायश्चित्त को जानते हैं, फिर भी भगवान् ने आचार्य के समक्ष आलोचना करने की बात कही है। आलोचना करने वाले में बहुत गुण निष्पन्न होते हैं। 131. द्रव्य', उसकी पर्याय-अवस्था विशेष, क्रमबद्ध , क्षेत्र, काल और भाव से परिशुद्ध आलोचना को सुनकर आगम व्यवहारी प्रायश्चित्त का प्रयोग करते हैं। 1. व्यवहारभाष्य में एक अन्य कारण और बताया गया है कि आलोचना में परिणत मुनि यदि मार्ग में ही रोग के कारण अमुख-मुंह का लकवा या बोलने में असमर्थ हो जाए अथवा आचार्य बोलने में समर्थ न रहे तो आलोचना न करने पर भी वह आराधक होता है। १.व्यभा 4053; कालं कुव्वेज्ज सयं, अमुहो वा होज्ज अहव आयरिओ।अप्पत्ते पत्ते वा, आराधण तह वि भयणेवं॥ 2. जब प्रतिसेवक सचित्त का सेवन करके सचित्त की आलोचना करता है तो वह द्रव्यत: शुद्ध आलोचना है। जब वह सचित्त की प्रतिसेवना करके अचित्त की आलोचना करता है तो वह द्रव्यत: अशुद्ध आलोचना है। ३.जिस अवस्था में प्रतिसेवना की, उसी अवस्था की आलोचना करे तो वह पर्याय शुद्ध आलोचना है। यदि अन्य अवस्था में प्रतिसेवना करके अन्य अवस्था की आलोचना करता है तो वह पर्याय से अशद्ध आलोचना है।। ४.जनपद या मार्ग में जहां प्रतिसेवना की, उसी रूप में आलोचना करता है तो क्षेत्र से शुद्ध आलोचना है। जनपद में प्रतिसेवना करके अटवीगत मार्ग की आलोचना करने से वह क्षेत्रतः अशुद्ध आलोचना है। ५.सुभिक्ष-दुर्भिक्ष अथवा रात्रि या दिन में प्रतिसेवना करने पर उसी रूप में आलोचना करना काल से शुद्ध आलोचना है। सुभिक्ष में प्रतिसेवना करके दुर्भिक्ष का कहना रात्रि में प्रतिसेवना करके दिन का कहना कालत: अशुद्ध आलोचना है। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 285 132, 133. द्रव्य से सचित्त आदि, पर्याय से द्रव्य के बहुविध विकल्प, क्रम से पूर्वानुपूर्वी क्रम', क्षेत्र से मार्ग या जनपद में, काल से सुभिक्ष अथवा दुर्भिक्ष में, भाव से स्वस्थ अवस्था में या ग्लान अवस्था में, जिस रूप में प्रतिसेवना की है, उसकी उसी प्रकार आलोचना करे। 134. अथवा सहसा, अज्ञानवश, भय से, दूसरे के द्वारा प्रेरित होकर, व्यसन-द्यूत आदि से, प्रमाद से, मूढ़ता से अथवा राग-द्वेष से (इन कारणों से प्रतिसेवना करने पर उसी रूप में आलोचना करने पर आगम व्यवहारी प्रायश्चित्त देते हैं, अन्यथा नहीं।) 135. पहले भूमि पर जीव दिखाई नहीं दिया अतः आगे रखने के लिए पैर उठा लिया, बाद में देखने पर ज्ञात हुआ कि वहां जीव हैं किन्तु पैर को पुनः पीछे करना शक्य नहीं है, उससे जो जीव का व्याघात होता है, वह सहसाकरण है। 136. पांच प्रकार के प्रमाद में से जो किसी एक भी प्रमाद में संप्रयुक्त नहीं है फिर भी भूतार्थ क्रियाओं में अनुपयुक्त है, वह अज्ञान है। 137. अभियोग के भय से भयभीत होकर भागने वाला व्यक्ति जीव-हिंसा करता है। दूसरे के द्वारा प्रेरित होकर व्यक्ति गिरे अथवा न गिरे पर वह अन्य जीवों को पीड़ा पहुंचाता है। 138. द्यूत आदि व्यसन हैं। प्रमाद पांच प्रकार का होता है। मिथ्यात्व भावना से मोह होता है। राग और द्वेष सहज गम्य हैं। 139. इन कारणों में किसी भी कारण के उत्पन्न होने पर आगम व्यवहारी आलोचना देते समय सूत्र और अर्थ-दोनों से आगम-विमर्श करते हैं। 140. यदि आगम और आलोचना दोनों सम रूप में अर्थात् अविसंवादी रूप में प्रस्तुत होते हैं तो वह आगम-विमर्श कहलाता है अथवा यह आलोचक इस प्रायश्चित्त को सहन कर सकता है अथवा नहीं, 'किस प्रायश्चित्त से इसकी विशोधि होगी, यह विमर्श आगम-विमर्श है। 141. जिन्होंने ज्ञान, दर्शन और चारित्र को प्राप्त कर लिया है, राग-द्वेष को क्षीण कर दिया है अथवा जो शोधि-प्रायश्चित्त के लिए इष्ट हैं, वे आप्त कहलाते हैं। 142. जो तदुभय कहा गया है, उसकी यह परिभाषा है-सूत्र और अर्थ उभय तथा आलोचना और आगम उभय। 143. यदि आलोचना करने वाला प्रतिसेवना के सभी अतिचारों की यथाक्रम से आलोचना नहीं करता है १.प्रतिसेवक को क्रमबद्ध आलोचना करनी चाहिए। आगे-पीछे या अक्रमपूर्वक करने से सम्यक आलोचना नहीं हो सकती। २.निशीथ चूर्णि में भूतार्थ क्रिया का अर्थ है-विचार, विहार, संस्तारक तथा भिक्षा आदि संयम-साधिका क्रिया। १.निभा 96 चू पृ. 44 ; भूयत्थो णाम विआर-विहार-संथार-भिक्खादिसंजमसाहिका किरिया भूतत्थो। .3. अज्ञान को अनाभोग प्रतिसेवना भी कहा जा सकता है। इसमें हिंसा की प्रवृत्ति नहीं होने पर भी उपयोग का अभाव होने से प्रतिसेवना होती है। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 जीतकल्प सभाष्य तो आगम व्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते हैं। 144. यदि आलोचना करने वाला प्रतिसेवना के सभी अतिचारों की यथाक्रम से आलोचना करता है तो आगम व्यवहारी उसे प्रायश्चित्त देते हैं। 145. आगम व्यवहारी आलोचक को कहते हैं कि सारे अतिचारों को कह दो। इतना कहने पर वह यदि जानता हुआ भी अतिचारों को छिपाता है तो आगम-व्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते। वे उसे कहते हैं कि तुम अन्यत्र शोधि–प्रायश्चित्त करो। 146. जो माया से नहीं अपितु सहजभाव से दोषों की स्मृति नहीं करता, उसे प्रत्यक्षज्ञानी उस दोष के बारे में बताते हैं अथवा याद दिलाते हैं लेकिन मायावी को कुछ नहीं बताते। 147. यदि आगम और आलोचना दोनों विषम-विसंवादी होते हैं तो आगम व्यवहारी उसको प्रायश्चित्त नहीं देते। 148. यदि आगम और आलोचना दोनों संवादी होते हैं तो आगम व्यवहारी उसको प्रायश्चित्त देते हैं। 149. प्रायश्चित्त देने में कौन योग्य या अयोग्य होता है, इसके बारे में कहा जा रहा है, उसे तुम सुनो। 150, 151. जो मुनि अठारह स्थानों में अपरिनिष्ठित अर्थात् सम्यक् ज्ञाता नहीं होता, वह व्यवहार का प्रयोग करने योग्य नहीं होता। इसी प्रकार जो मुनि अठारह स्थानों में परिनिष्ठित-सम्यक् ज्ञाता होता है, वह व्यवहार का प्रयोग करने के योग्य होता है। 152, 153. जो मुनि अठारह स्थानों में अप्रतिष्ठित-सम्यक् स्थित नहीं होता, वह व्यवहार का प्रयोग करने के योग्य नहीं होता। जो मुनि अठारह स्थानों में सुप्रतिष्ठित-सम्यक् स्थित होता है, वह व्यवहार का प्रयोग करने के योग्य होता है। 154. अठारह स्थान इस प्रकार हैं-छहव्रत (प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह तथा रात्रिभोजन से विरति), छहकाय (पृथ्वी, अप्, तैजस, वायु, वनस्पति और त्रसकाय का संयम), अकल्प', गृहि-पात्र, पर्यंक, गोचर-निषद्या', स्नान और विभूषा का वर्जन। 1. चूर्णि की विषमपद व्याख्या के अनुसार अकल्प दो प्रकार का होता है -1. शैक्षस्थापना अकल्प २.अकल्प्यस्थापना अकल्प। पिण्डनियुक्ति आदि ग्रंथों को नहीं पढ़ने वाले साधु के द्वारा आनीत आहार अकल्प्य होता है तथा उद्गम उत्पादन दोष से युक्त आहार अकल्प्यस्थापना अकल्प होता है। १.जीचूवि पृ. 35; तत्राकल्पो द्विविधः-शिक्षकस्थापनाकल्पः अकल्प्यस्थापनाकल्पश्च तत्राद्य:-अनधीतपिण्ड निर्युक्त्यादिशास्त्रसाधुना आनीतमाहारादि साधुभ्यो न कल्पते....। 2. भिक्षार्थ गए साधु को सामान्यतः गृहस्थ के घर बैठना कल्पनीय नहीं है। दशवैकालिक सूत्र के अनुसार अपवाद स्वरूप तीन प्रकार के साधु गृहस्थ के घर बैठ सकते हैं -1. वृद्ध साधु 2. रोगी साधु 3. तपस्वी साधु / यद्यपि ये तीनों भिक्षार्थ नहीं जाते हैं लेकिन आत्मलब्धि से प्राप्त भिक्षा-ग्रहण का अभिग्रह करने वाले साधुओं की अपेक्षा से इन तीन प्रकार के साधुओं को गृहस्थ के घर बैठना कल्पनीय है। १.दश६/५९। 3. निशीथभाष्य में स्नान करने के निम्न दोषों का उल्लेख है-१.षड्जीवनिकाय की विराधना 2. पुन:-पुनः स्नान करने की इच्छा होना 3. गौरव की भावना 4. विभूषा 5. परीषहभीरुता 6. अविश्वास। १.निभा 911; छक्कायाण विराधण, तप्पडिबंधोय गारव-विभूसा। परिसहभीरुत्तंपिय, अविस्सासो चेव ण्हाणम्मि॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 287 155. परिनिष्ठित का अर्थ है-सम्यक् परिज्ञाता तथा प्रतिष्ठित का अर्थ है-अठारह स्थानों में सम्यक् स्थित। ऐसा व्यक्ति ही आलोचना देने के योग्य होता है। जो अजानकार है, वह शोधि को नहीं जानता तथा जो अठारह स्थानों में स्थित नहीं है, वह अन्यथा प्रायश्चित्त देता है। 156. जो आलोचनाह बत्तीस स्थानों में अपरिनिष्ठित होता है, वह प्रायश्चित्त का व्यवहरण करने में योग्य नहीं होता। 157. जो आलोचनाह बत्तीस स्थानों में परिनिष्ठित होता है, वह प्रायश्चित्त का व्यवहरण करने में योग्य होता है। 158. जो आलोचनाह बत्तीस स्थानों में अप्रतिष्ठित होता है, वह प्रायश्चित्त का व्यवहरण करने में योग्य नहीं होता है। 159. जो आलोचनार्ह बत्तीस स्थानों में सम्यक् प्रतिष्ठित होता है, वह प्रायश्चित्त का व्यवहरण करने में योग्य होता है। 160. आचार्य की आठ प्रकार की संपदाएं होती हैं। प्रत्येक संपदा चार-चार प्रकार की होती है। इनके बत्तीस स्थान इस प्रकार हैं१६१. आचारसंपदा, श्रुतसंपदा, शरीरसंपदा, वचनसंपदा, वाचनासंपदा, मतिसंपदा, प्रयोगमतिसंपदा और आठवीं संपदा है-संग्रहपरिज्ञा। 162. ये आठ प्रकार की गणिसंपदाएं हैं। एक-एक संपदा के चार-चार भेद हैं। अब मैं इनको संक्षेप में क्रमशः कहूंगा। 163, 164. आचार-संपदा का प्रथम भेद है-संयमध्रुवयोगयुक्तता, दूसरा भेद है-असम्प्रग्रहीता, तीसरा है-अनियतवृत्तिता और चौथा है-वृद्धशीलता-ये आचार-संपदा के चार भेद हैं। संयम का अर्थ है-चरण, उसके ध्रुवयोग में नित्य उपयुक्त होना संयमध्रुवयोगयुक्तता है। 165. मैं आचार्य हूं, बहुश्रुत हूं, तपस्वी हूं, आभिजात्य हूं, इस प्रकार के मदों से जो रहित है, वह असंप्रग्रहीत कहलाता है। 166. जो अनियतचारी, अनियतवृत्ति', अगृह-अनिकेत और अनिश्रित है तथा जो शान्तस्वभाव वाला 1. प्रवचनसारोद्धार में आचार-सम्पदा के निम्न चार भेद मिलते हैं-१. चरणयुक्त 2. मदरहित 3. अनियतवृत्ति 4. अचंचल। इनमें शाब्दिक भिन्नता है, फलितार्थ समान है। 1. प्रसा 543 ; चरणजुओ मयरहिओ, अनिययवित्ती अचंचलो चेव। 2. दशाश्रुतस्कंध में अनियतवृत्ति की व्याख्या मिलती है। वहां अनियतवृत्ति के अनेक अर्थ किए हैं• ग्राम में एक दिन तथा नगर में पांच दिन का प्रवास करना, अन्य-अन्य वीथियों में भिक्षा करना। * अगृही-अनिकेत होना। * उपवास आदि तपस्या करना तथा एषणा सम्बन्धी अभिग्रह विशेष धारण करना। 1. दश्रु 4/4, चू प. 21 / Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 जीतकल्प सभाष्य और अचंचल है, उसे वृद्धशील' जानना चाहिए। 167. श्रुतसंपदा' चार प्रकार की होती है-१. बहुश्रुत 2. परिचितश्रुत 3. विचित्रश्रुत 4. घोषविशुद्धिकर। 168. जिसको आभ्यन्तर और बाह्य-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत अनेक प्रकार से ज्ञात होता है तथा इस गाथा के पूर्वार्द्ध में प्रयुक्त 'च' शब्द के ग्रहण से जिसका चारित्र सुबहुक होता है, वह युगप्रधान बहुश्रुत कहलाता है। 169. जिसका श्रुत उत्क्रम से तथा क्रम से बहुत विकल्पों के साथ अपने नाम की भांति परिचित होता है, वह परिचितश्रुत कहलाता है। जो स्वसमय-परसमय से युक्त तथा उपसर्ग और अपवाद की विचित्रता का ज्ञाता होता है, वह विचित्रश्रुत कहलाता है। 170. उदात्त-अनुदात्त आदि घोषों से जिसका घोष विशुद्ध होता है, वह घोषविशुद्धकर कहलाता है, ये श्रुत की संपदाएं हैं। अब मैं शरीर-संपदा को कहूंगा। 171. शरीर-संपदा के चार भेद हैं --1. आरोह-परिणाह' 2. अनपत्रपता-अलज्जनीयता 3. प्रतिपूर्ण इंद्रिय 4. स्थिर (सुदृढ़) संहनन। 172. आरोह का अर्थ है-दीर्घता या लम्बाई तथा विष्कम्भ का अर्थ है-विशालता-चौड़ाई। लम्बाई के अनुरूप चौड़ाई का होना आरोह-परिणाह सम्पदा है। 1. दशाश्रुतस्कंध में वृद्धशील के निम्न गुण बताए हैं -1. विशुद्धशीलता 2. निभृतशीलता-शान्त स्वभाव 3. अबालशीलता 4. अचंचलशीलता 5. मध्यस्थशीलता। 1. दश्रु४/४ चूप. 21 ; विसुद्धसीलो निहुतसीलो अबालसीलो अचंचलसीलो मज्झत्थसील इत्यर्थः। 2. प्रवचनसारोद्धार में श्रुतसम्पदा के चार भेद इस प्रकार हैं -1. युग (युगप्रधानता) 2. परिचितसूत्र 3. उत्सर्गी 4. उदात्तघोष। प्रवचनसारोद्धार की टीका की व्याख्या के अनुसार इनमें केवल शाब्दिक भिन्नता है, अर्थ की दृष्टि से विशेष अन्तर नहीं है। 1. प्रसा 543 ;जुग परिचिय उस्सग्गी, उदत्तघोसाइ विन्नेओ। 3. आचार्य मलयगिरि ने सुबहुक का अर्थ किया है, जिसके चारित्र के पर्यव अत्यधिक निर्मल होते हैं।' 1. व्यभा 4088 मटी प. 38 / 4. प्रवचनसारोद्धार में शरीरसम्पदा के भेद इस प्रकार हैं' -1. चतुरस्र 2. अकुंटादि-परिपूर्ण कर्मेन्द्रिय वाला 3. बधिरत्ववर्जित-अविकल इंद्रिय वाला 4. तप:समर्थ / इसमें प्रथम, तृतीय और चतुर्थ भेद में शब्द-भेद होते हुए भी आर्थिक दृष्टि से समानता है लेकिन अनपत्रपता के स्थान पर अकुण्टादि में कुछ अर्थभेद माना जा सकता है। 1. प्रसा 544 ; चउरंसोऽकुंटाई, बहिरत्तणवज्जिओ तवे सत्तो। 5. बृहत्कल्पभाष्य की टीका में आरोह का अर्थ न अधिक दीर्घता और न अधिक बौनापन किया है अर्थात शरीर की लम्बाई प्रमाणोपेत होनी चाहिए। परिणाह का अर्थ किया है-न अधिक स्थूलता और न अधिक दुर्बलता। इसका वैकल्पिक अर्थ किया है-आरोह अर्थात् शरीर की लम्बाई और परिणाह-भुजाओं की मोटाई-ये दोनों तुल्य प्रमाण में हों, हीन या अधिक न हों। 1. बृभाटी पृ.५९३;आरोहो नाम-शरीरेण नातिदैर्घ्यं नातिहस्वता, परिणाहो नाम नातिस्थौल्यं नातिदुर्बलता ; अथवा आरोहः-शरीरोच्छ्रायः, परिणाहः-बाह्वोर्विष्कम्भः, एतौ द्वावपि तुल्यौ, न हीनाधिकप्रमाणौ। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 289 173. 'त्रपू' धातु लज्जा के अर्थ में प्रयुक्त होती है, जो सर्वांग प्रतिपूर्ण होता है, वह अलज्जनीय होता है, यह अनपत्रपता है। पांचों इंद्रियों से युक्त प्रतिपूर्ण इंद्रिय होता है।' 174. वज्रऋषभनाराच आदि संहनन से युक्त बलिष्ठ शरीर वाला स्थिर संहननी होता है। यह शरीरसंपदा है। अब मैं वचन-सम्पदा के विषय में कहूंगा। 175-77. वचन-सम्पदा के चार भेद हैं -1. आदेय वचन 2. मधुर वचन 3. अनिश्रित वचन 4. असंदिग्ध वचन। जिसके वचन को सब स्वीकार करते हैं, वह आदेय वाक्य होता है। मधुर वचन का अर्थ है-अर्थ से युक्त वचन अथवा अपरुष वचन या क्षीराश्रव आदि लब्धियों से युक्त वचन अथवा सुस्वर, सुभग और गाम्भीर्य गुण से युक्त वचन। जो क्रोध आदि से तथा राग-द्वेष से युक्त बोलता है, वह निश्रित वचन होता है। जो इनसे रहित बोलता है, वह अनिश्रित वचन कहलाता है। 178. संदिग्ध वचन का अर्थ है-अव्यक्त वचन, अस्पष्ट वचन अथवा अनेक अर्थों वाला वचन। इसके विपरीत जो व्यक्त, स्फुट और अर्थगाम्भीर्य से युक्त होता है, वह असंदिग्ध वचन कहलाता है। यह चार प्रकार की वचन-सम्पदा है। 1. बृहत्कल्प भाष्य में आचार्य के शरीर-वैशिष्ट्य का वर्णन मिलता है -जो आरोह-परिणाह से युक्त, उपचित और सुगठित शरीर वाला तथा प्रतिपूर्ण इंद्रिय वाला होता है, वह ओजस्वी कहलाता है। जिसका शरीर अलज्जनीय तथा दीप्ति युक्त होने के कारण अनभिभवनीय हो, वह तेजस्वी होता है। इस प्रकार के शारीरिक वैशिष्ट्य से युक्त व्यक्ति ही गणधर बनने योग्य होता है। १.बृभा 2051 ; आरोह-परीणाहा, चियमंसो इंदिया य पडिपुण्णा। अह ओओ तेओ पुण, होइ अणोतप्पया देहे // 2. निशीथ भाष्य में प्रकारान्तर से आचार्य के शरीर के कुछ लक्षणों का वर्णन इस प्रकार मिलता है' * मान-उन्मान-प्रमाण युक्त शरीर। * रेखा –मणिबंध से अंगुष्ठपर्यंत रेखा, जो गण और ज्ञान आदि की समृद्धि में हेतुभूत होती है। उससे आचार्य को सुयश प्राप्त होता है, वे लोकमान्य पुरुष बन जाते हैं। * सत्त्व-महान् संकटकाल में भी अदीन। * वपु-तेजस्वी आभा वाला शरीर। . . अंगोपांग-सुसंस्थित अवयव। * लक्षण-श्रीवत्स, स्वस्तिक आदि लक्षणों और तिल आदि व्यंजनों से युक्त शरीर / ' 1. निभा 5977,5980,5981 चू पृ. 197, 198 / / 3. प्रवचनसारोद्धार में वचनसम्पदा के चार भेदों में कुछ शाब्दिक भिन्नता है। -१.वादी 2. मधुरवचन 3. अनिश्रित वचन 4. स्फुट वचन / इसमें आदेयवचन के स्थान पर वादी तथा असंदिग्धवचन के स्थान पर स्फुटवचन का प्रयोग अर्थ-साम्य का द्योतक है। 1. प्रसा५४४ ; वाई महुरत्तऽनिस्सिय, फुडवयणो संपया वयणे त्ति। 2. प्रसाटी प.१२९ ; वादी आदेयवचन इत्यर्थः। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 जीतकल्प सभाष्य 179. वाचना-सम्पदा' के चार भेद हैं-१. विदित्वा उद्देशना 2. विचिन्त्य समुद्देशना' 3. परिनिर्वाप्य वाचना 4. अर्थ-निर्यापना। . 180. यह शिष्य इस वाचना के योग्य है, यह अयोग्य है-वाचना विषयक गणों की परीक्षा करके जो जिसके योग्य हो, उसको वैसी ही उद्देशना देना विदित्वा उद्देशना है। 181, 182. अपरिणामी और अतिपरिणामी शिष्य को अपात्र समझकर वाचना नहीं देनी चाहिए। जैसे मिट्टी के कच्चे घड़े में अथवा खटाई से युक्त घड़े में दूध नहीं डाला जाता। यदि डाल दिया जाए तो वह नष्ट हो जाता है, वैसे ही अपरिणामी और अतिपरिणामी शिष्य को छेदसूत्र की वाचना नहीं देनी चाहिए। समुद्देशना को भी इसी प्रकार जानना चाहिए। 183. परिनिर्वाप्य वाचना का अर्थ है-आचार्य शिष्य को उतनी ही वाचना दे, जितनी वह ग्रहण कर सके तथा परिचित कर सके, यहां जाहक-कांटों वाले चूहे का दृष्टान्त ज्ञातव्य है। 184. अर्थ-निर्यापक का तात्पर्य है, जो सूत्र का अर्थ जानता है, जो अर्थ का निर्वहन करता है तथा जो कुछ कहता है, उसका अर्थ भी करता है। 185, 186. मति-सम्पदा के चार भेद हैं -1. अवग्रह 2. ईहा 3. अवाय 4. और धारणा। अवग्रह मति के छह भेद ज्ञातव्य हैं, वे इस प्रकार हैं-१. क्षिप्र 2. बहु 3. बहुविध 4. ध्रुव 5. अनिश्रित 6. असंदिग्ध / 1. प्रवचनसारोद्धार में वाचनासम्पदा के चार भेदों के नाम इस प्रकार हैं-१. योग्य वाचना 2. परिणत वाचना 3. निर्यापयिता 4. निर्वहन। इन चार भेदों में परिणत वाचना का टीकाकार ने अर्थ किया है कि पूर्व प्रदत्त वाचना को शिष्य सम्यक् रूप से ग्रहण कर ले, तब अगली वाचना दे। यह जीतकल्पभाष्य के तीसरे भेद परिनिर्वाप्य वाचना का संवादी है। निर्यापयिता का तात्पर्य है शिष्य के उत्साह से शीघ्र ही ग्रंथ को समाप्त करने वाला, बीच में नहीं छोड़ने वाला। इसमें कुछ अर्थ-भेद है क्योंकि जीतकल्पभाष्य में दूसरा भेद विचिन्त्य समुद्देशना है। निर्वाहक का अर्थ हैपूर्वापर संगति से सम्यक् अर्थ का निर्वहन करने वाला। 1. प्रसा 545 ; जोगो परिणयवायण, निजविया वायणाएँ निव्वहणे। 2. दशाश्रुतस्कंध (4/8) में विजयं वाएति --विदित्वा वाचना शब्द का प्रयोग हुआ है। 3. जैसे कांटों वाला चूहा दुग्धपात्र से थोड़ा दूध पीकर पात्र के पार्श्व को चाट लेता है। फिर दध पीता है और पात्र चाटता है, यह क्रम निरन्तर चलता है, वैसे ही बुद्धिमान् आचार्य शिष्य को पहले उतना ही पाठ पढ़ाए, जिससे वह उसे चिरपरिचित कर सके। इस प्रकार धीरे-धीरे वह शिष्य को सम्पूर्ण श्रुत ग्रहण करवा देता है। 1. विभा 1472; पाउं थोवं थोवं, खीरं पासाइं जाहगो जह लिहइ। एमेव जियं काउं, पुच्छइ मइमं न खेएइ॥ 4. आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने इस प्रसंग में एक प्रश्न उपस्थित किया है कि बहु-बहुविध आदि विशेषण स्पष्ट अर्थ के द्योतक हैं लेकिन व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह और ईहा में तो अव्यक्त ज्ञान होता है, उसमें ध्रुव, अनिश्रित आदि भेदों का समाहार कैसे संभव है? टीकाकार स्वयं इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहते हैं कि व्यञ्जनावग्रह आदि अवाय के कारण हैं। इनके अभाव में अवाय की स्थिति होना असंभव है। विशिष्ट कारण के बिना विशिष्ट कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। अवायगत बहु-बहुविध आदि का कारण व्यञ्जनावग्रह में भी है अतः अवग्रह आदि के भी छह-छह भेद कर दिए गए हैं। विस्तार हेतु देखें तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी 1/16 पृ. 84 १.विभामहेटी पृ. 92 / Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 291 इसी प्रकार ईहा, अवाय और धारणा के भी भेद जानने चाहिए।' 187. शिष्य अथवा परतीर्थी द्वारा उच्चारित मात्र का तत्काल अवग्रहण कर लेना क्षिप्र अवग्रह है। इसी प्रकार पांच सौ, छह सौ अथवा सात सौ श्लोकों का अवग्रहण बहु' अवग्रह है। 188. एक साथ अनेक प्रकार का अवग्रहण बहुविध अवग्रह है, जैसे-लेखन, दूसरे के वचनों का अवधारण. वस्तओं की गणना. आख्यानक-कथन आदि क्रियाओं को एक साथ ग्रहण करना अथवा एक साथ अनेक प्रकार के शब्द-समूह का श्रवण करना बहुविध अवग्रहण है। 189. (अधीत पाठ का) चिरकाल तक विस्मरण नहीं करना ध्रुव अवग्रहण है। जो पुस्तकों में लिखा हुआ नहीं है तथा जो अभाषित है, उसको ग्रहण करना अनिश्रित अवग्रह है। जो निःशंकित है, वह असंदिग्ध अवग्रह है। 190. अवगृहीत अर्थ की ईहा होती है, ईहित करने के पश्चात् अवाय होता है। अवगत या अवाय होने के 1. भाष्यकार ने अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा–मतिज्ञान के इन चारों भेदों के छह-छह भेद किए हैं-क्षिप्र, बहु, बहुविध, ध्रुव, अनिश्रित और असंदिग्ध / आवश्यक नियुक्ति और नंदी में जहां भी मतिज्ञान की चर्चा है, वहां इन भेदों का उल्लेख नहीं है। विशेषावश्यक भाष्य में इनका क्रम और नाम इस प्रकार हैं-बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिश्रित, निश्चित और ध्रुव तथा इन छह के प्रतिपक्ष / ' '. यहां आचार्य की मति-सम्पदा का वर्णन है अत: बहु, बहुविध के प्रतिपक्ष अबहु, अबहुविध आदि छह भेदों का उल्लेख नहीं किया गया है। भाष्यकार ने मतिज्ञान के 28 भेदों के साथ इन 12 भेदों का गुणा करके मतिज्ञान के 336 भेद स्वीकृत किए हैं। १.विभा 307 ;जं बहु-बहुविह-खिप्पाऽनिस्सिय-निच्छिय-धुवेयरविभिन्ना। पुणरुग्गहादओ तो,तं छत्तीसत्तिसयभेयं / 2. विशेषावश्यक भाष्य में 'बहु' की परिभाषा इस प्रकार की गई है -भिन्नजातीय अनेक शब्दों के समूह को अलग-अलग रूप से एक साथ ग्रहण करना बहु ग्रहण है, जैसे—यह पटह का शब्द है, यह भेरी का शब्द है, यह शंख का शब्द है आदि। . १.विभा 308 ; नाणासद्दसमूह, बहुं पिहं मुणइ भिन्नजाईयं। 3. बहुविध का अर्थ है-अनेक पदार्थों की अनेक पर्यायों को जानना। विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार शंख, भेरी आदि के एक-एक शब्द के स्निग्धत्व, मधुरत्व आदि धर्मों को एक साथ ग्रहण करना बहुविध ग्रहण है। १.विभा 308 ; बहुविहमणेगभेयं, एक्केक्कं निद्ध-महुराई। 4. भाष्यकार के अनुसार बिना हेतु का सहारा लिए स्वरूप को जानना अनिश्रित है अथवा गाय और अश्व में जो विपर्यास है, उसे अलग करना और दोनों को सही-सही जानना अनिश्रित है। ...१.विभा 309; अणिस्सियमलिंग। 5. विशेषावश्यक भाष्य में असंदिग्ध के स्थान पर निश्चित शब्द का प्रयोग हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बरीय परम्परा में असंदिग्ध के स्थान पर 'अनुक्त' तथा संदिग्ध के स्थान पर 'उक्त' शब्द का प्रयोग हुआ है। १.विभा 309; निच्छियमसंसयं। २.त 1/16; बहुबहुविधक्षिप्रानि:श्रितानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम्। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 जीतकल्प सभाष्य पश्चात् धारणा होती है। धारणा के विषय में यह विशेष है। 191. धारणा' के छह भेद इस प्रकार हैं-१. बहु' 2. बहुविध 3. पोराण 4. दुर्धर 5. अनिश्रित 6. असंदिग्ध। पुराण का अर्थ है-जिसकी चिरकाल पहले वाचना दी हो। दुर्धर का अर्थ है-नय और भंगों के द्वारा गहन होने के कारण जिसको धारण करना कष्टप्रद हो। 192. अब आगे प्रयोगमति के चार भेद आनुपूर्वी से कहे जा रहे हैं-आत्मा (स्वयं), पुरुष, क्षेत्र और वस्तु-इन चारों को जानकर वाद का प्रयोग करना चाहिए। 193. जैसे प्रायोगिक वैद्य रोगी की व्याधि जिस उपाय से ठीक होती है, वह प्रयोग जानता है, वैसे ही अपनी शक्ति को जानकर वाद अथवा धर्मकथा करनी चाहिए। 194. प्रतिवादी उपासक आदि पुरुष अथवा ज्ञा–जानकार आदि परिषद् को जानकर फिर वाद का प्रयोग करना चाहिए। 195. क्षेत्र मालव आदि है अथवा साधुभावित, यह विधिपूर्वक जानकर फिर वाद का प्रयोग करना चाहिए। 196. वस्तु अर्थात् परवादी बहुत आगमों का ज्ञाता है अथवा नहीं तथा राजा और अमात्य दारुण स्वभाव वाले हैं अथवा भद्र स्वभाव वाले, यह जानकर वाद का प्रयोग करना चाहिए। 197. यह प्रयोगमति है, अब मैं संग्रहपरिज्ञा के बारे में कहूंगा। संग्रहपरिज्ञा भी चार प्रकार की है, उसके विभाग इस प्रकार हैं १.विशेषावश्यक भाष्य में धारणा के अलग भेदों का उल्लेख नहीं है। अवग्रह की भांति ही धारणा के भेद हैं। २.जीतकल्प भाष्य में धारणा के बह, बहविध, अनिश्रित और असंदिग्ध भेदों की व्याख्या नहीं की गई है लेकिन दशाश्रुतस्कन्ध में इनकी व्याख्या मिलती हैबहुधारण-विपुलश्रुत को धारण करना। बहुविधधारण-अनेकविध श्रुतपाठ का एक साथ अवधारण करना। ' अनिश्रितधारण-बिना किसी दूसरे आलम्बन के स्वयं अवधारण करना। असंदिग्धधारण-पाठ को असंदिग्ध रूप से धारण करना। 1. दश्रु 4/11 / 3. वाद आदि के प्रयोजन की सिद्धि के लिए किया जाने वाला व्यापार प्रयोग है तथा उस समय पदार्थ को जानने की मति प्रयोग मति संपदा कहलाती है। 1. प्रसाटी प.१३०; वादादिप्रयोजनसिद्धये व्यापारः तत्काले मतिः-वस्तुपरिच्छित्तिः प्रयोगमतिः / 4. नंदी सूत्र में परिषद् के तीन प्रकार निर्दिष्ट हैं-ज्ञा, अज्ञा और दुर्विदग्धा / ' १.नंदी 1/44/1; सा समासओ तिविहा पण्णत्ता,तं जहा-जाणिया अजाणिया दुब्बियड्डा। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 293 198, 199. संग्रह-परिज्ञा' सम्पदा (संघ व्यवस्था-कौशल) के चार प्रकार हैं 1. वर्षाकाल में बहुजन योग्य क्षेत्र की प्रेक्षा करना। 2. पीठ और फलक का अवग्रहण क्योंकि ये दोनों वर्षाऋतु में आचीर्ण हैं। 3. समय का समानयन करना। 4. रत्नाधिक की पूजा करना। इन भेदों की व्याख्या इस प्रकार जाननी चाहिए। 200. वर्षाकाल में बहुजनयोग्य क्षेत्र का तात्पर्य यह है कि वह क्षेत्र विस्तीर्ण और समस्त गच्छ के प्रायोग्य हो तथा बाल, दुर्बल, ग्लान और अतिथि आदि के प्रायोग्य हो, ऐसी प्रतिलेखना करनी चाहिए। 201. योग्य क्षेत्र के अभाव में साधु अगृहीत हो जाते हैं, वे अन्यत्र चले जाते हैं। पीठ और फलक आदि के ग्रहण करने से निषद्या मलिन नहीं होती है। 202. वर्षाकाल के अतिरिक्त काल में अन्यत्र जाया जा सकता है। वर्षाकाल में विशेष रूप से भूमि की शीतलता से कुंथु आदि, प्राणी सम्मूर्च्छित हो जाते हैं अतः वर्षाकाल में पीठ और फलक का ग्रहण करना चाहिए। 1. ठाणं सूत्र में आचार्य और उपाध्याय के लिए सात संग्रह-स्थानों का उल्लेख मिलता है१. गण में आज्ञा और धारणा का सम्यक् प्रयोग करें। 2. बड़े-छोटे के क्रम से कृतिकर्म का सम्यक् प्रयोग करें। ३.जिन-जिन सूत्र पर्यवजातों को धारण किया, उनकी उचित समय पर वाचना दें। 4. ग्लान एवं शैक्ष की यथोचित सेवा हेतु जागरूक रहें। 5. गण को पूछकर अन्य प्रदेश में विहार करें, पूछे बिना विहार न करें। 6. अनुपलब्ध उपकरणों को यथाविधि उपलब्ध करवाएं। ७.गण में प्राप्त उपकरणों का सम्यक संरक्षण व संगोपन करें। विधि का अतिक्रमण करके संरक्षण और संगोपन न करें। १.स्था 7/6 / .प्रवचनसारोद्धार में संग्रह-परिज्ञा के चार भेदों के नाम इस प्रकार हैं -1. गणयोग्य उपग्रह 2. संसक्त संपद् 3. स्वाध्याय संपद् 4. शिक्षा उपसंग्रह संपद् / / सरे भेद के अतिरिक्त शेष तीन भेदों में केवल शाब्दिक अन्तर है। अर्थ की दृष्टि से प्रायः समान है। दूसरे संसक्त संपद् का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं कि भद्रपुरुष के अनुरूप देशना देकर उन्हें संघ के प्रति आकृष्ट करना संसक्त संपद् है लेकिन जीतकल्पभाष्य में पीठ और फलक का अवग्रहण है। प्रवचनसारोद्धार में जीतकल्पभाष्य के प्रथम और द्वितीय भेद का प्रथम भेद में समाहार करके संसक्तसंपद् कमक नया भेद प्रस्तुत किया गया है। १.प्रसा 546 ; गणजोग्गं संसत्तं, सज्झाए सिक्खणं जाणे। १.प्रसाटी प.१३०। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 जीतकल्प सभाष्य 203. स्वाध्याय, प्रतिलेखना, उपधि का उत्पादन तथा भिक्षाचर्या आदि-ये सब जिस काल में जो क्रिया करने योग्य हों, उसको उसी काल में करना चाहिए। 204, 205. जिसके द्वारा प्रवजित हुआ है तथा जिसकी सन्निधि में अध्ययन किया है, वे यथागुरु होते हैं अथवा जो उससे रत्नाधिक हैं, वे भी यथागुरु हैं। उनके आने पर अभ्युत्थान करना, दंड ग्रहण करना, उचित आहार की व्यवस्था करना, उनकी उपधि को वहन करना तथा उनकी विश्रामणा-पैर दबाना आदि वैयावृत्त्य करना, यह उनकी पूजा है। 206. इन बत्तीस स्थानों को जानकर जो इनमें स्थित होता है, वह व्यवहार का प्रयोग करने के योग्य होता है अथवा जो निम्न छत्तीस स्थानों का ज्ञाता है, वह व्यवहार करने में समर्थ होता है। 207, 208. जो आलोचनार्ह छत्तीस स्थानों में अपरिनिष्ठित होता है, वह मुनि व्यवहार का प्रयोग करने में समर्थ नहीं होता तथा जो इन स्थानों में परिनिष्ठित होता है, वह व्यवहार का प्रयोग करने में समर्थ होता है। 209, 210. जो आलोचनार्ह इन छत्तीस स्थानों में अप्रतिष्ठित होता है, वह मुनि व्यवहार का प्रयोग करने में समर्थ नहीं होता तथा जो इन स्थानों में सुप्रतिष्ठित होता है, वह व्यवहार का प्रयोग करने में समर्थ होता 211. जिन बत्तीस स्थानों का कथन किया था, उनमें विनय-प्रतिपत्ति के चार भेद मिलाने से छत्तीस स्थान होते हैं। 212. बत्तीस स्थानों का वर्णन किया जा चुका है। अब मैं विनय-प्रतिपत्ति' के चार भेद कहूंगा, जिससे आचार्य अपने अंतेवासी शिष्यों को विनीत बनाकर उऋण हो जाते हैं। 213. विनय की चार प्रतिपत्तियां इस प्रकार हैं-१. आचार विनय 2. श्रुत विनय 3. विक्षेपणा विनय 4. दोष-निर्घातन विनय। 214, 215. आचारविनय आनुपूर्वी से चार प्रकार का होता है-१. संयम-सामाचारी 2. तपः-सामाचारी 3. गणविहरण-सामाचारी 4. एकलविहार-सामाचारी। इनके विभाग-विस्तार को मैं यथानुपूर्वी कहूंगा। 216. * स्वयं संयम का आचरण करता है। * दूसरे को नियमतः संयम ग्रहण करवाता है। * संयम में विषण्ण को स्थिर करता है। * उद्यतचारित्र वाले का उपबृंहण करता है। 1. यहां आचार्य से सम्बन्धित विनय-प्रतिपत्ति का उल्लेख है, जिसमें आचार्य शिष्यों को विनीत बनाकर संघ से उऋण हो जाते हैं लेकिन दशाश्रुतस्कंध में अंतेवासी शिष्य की चार विनय-प्रतिपत्तियों का उल्लेख है। इसके द्वारा विनीत शिष्य आचार्य के भार को हल्का करता है। देखें दश्रु 4/19-23 / दशाश्रुतस्कन्ध में विनय-प्रतिपत्तियों का विस्तार से वर्णन है। देखें दश्रु 4/14-18 चू. पृ. 23, 24 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 295 217. सतरह प्रकार के संयम में पृथ्वी आदि छह कायों का घट्टन, परितापन और अपद्रावण का नियमतः परिहार करना संयम सामाचारी है। 218-20. जो पाक्षिक पौषध में दूसरों को तप करवाता है तथा स्वयं तप करता है, इसी प्रकार भिक्षाचर्या में दूसरों को नियुक्त करता है तथा स्वयं भी भिक्षाचर्या में उद्यत रहता है। बारह प्रकार के तप में दूसरों को नियुक्त करता है तथा स्वयं को भी नियोजित करता है, (यह तपः सामाचारी है।) गण सामाचारी के अन्तर्गत वह विषाद प्राप्त गण को प्रेरित करता है। प्रतिलेखना में प्रस्फोटन आदि प्रमाद से शिष्यों को दूर करता है, बाल और ग्लान के वैयावृत्त्य में विषण्ण मुनियों को सेवा में नियुक्त करता है तथा स्वयं भी इन क्रियाओं में उद्यत रहता है। (यह गण-विहरण सामाचारी है।) 221, 222. एकलविहार आदि प्रतिमा को वह स्वयं स्वीकार करता है तथा दूसरों को भी स्वीकार करवाता है। यह आचारविनय यथाक्रम से संक्षेप में वर्णित किया गया है, अब मैं यथानुपूर्वी श्रुतविनय को कहूंगा। 223. सूत्र की वाचना देना, अर्थ की वाचना देना, हितकर वाचना देना तथा निःशेष वाचना देना –यह चार प्रकार का श्रुतविनय है। 224, 225. उद्युक्त होकर शिष्य को सूत्र ग्रहण करवाना सूत्रग्रहण विनय है। प्रयत्नपूर्वक शिष्य को अर्थ सुनाना अर्थ विनय है। परिणामक आदि शिष्यों के लिए जो जिसके योग्य हितकर है, उसको वही वाचना देना हितकर वाचना हैं। नि:शेष अर्थात सम्पूर्ण रूप से जब तक वाचना समाप्त नहीं होती, तब तक सूत्र और अर्थ की वाचना देना नि:शेष वाचना विनय है। यह चार प्रकार का श्रुतविनय है, अब मैं विक्षेपणा विनय के विषय में कहूंगा। 226. विक्षेपणा विनय के चार प्रकार हैं * अदृष्टधर्मा व्यक्ति को दृष्टधर्मा बनाना। * दृष्टधर्मा श्रावक को साधर्मिकत्व विनय से प्रव्रजित करना। . च्युतधर्मा को पुनः धर्म में स्थापित करना। ___ * उसके चारित्रधर्म की वृद्धि हेतु प्रयत्न करना। 227. वि उपसर्ग नाना भाव के अर्थ में प्रयुक्त होता है। वि उपसर्ग के साथ क्षिप्-प्रेरणे धातु से विक्षेपणा शब्द बनता है। अदृष्टधर्मा तथा दृष्टधर्मा को परसमय से विमुख करके स्वसमय के अभिमुख करना - विक्षेपणा विनय का प्रथम प्रकार है। 1. यहां आदि शब्द से प्रतिमागत विशेष अनुष्ठान का ग्रहण है। १.व्यभा 4139 मटी प.४३ ; आदिशब्दात् प्रतिमागतविशेषानुष्ठानपरिग्रहः। 2. दशाश्रुतस्कंध में 'हितवाचना' को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि परिणामक शिष्य को वाचना देने से इहलोक . और परलोक में हित होता है। अपरिणामी और अतिपरिणामी को वाचना देने से उभयलोक में अहित होता है। 1. दश्रु 4/16 चू प. 23 / Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 जीतकल्प सभाष्य 228. धर्म और स्वभाव का एकार्थक है-सम्यग्दर्शन। जिसने पहले कभी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया, वह अदृष्टपूर्वधर्मा कहलाता है। उसको पूर्वदृष्ट की भांति धर्म ग्रहण करवाना। 229. जैसे मिथ्यादृष्टि भाई या पिता को सम्यक्त्व की प्राप्ति करवाना अथवा दृष्टपूर्व श्रावक को साधर्मिकत्व की दीक्षा देना विक्षेपणा विनय का दूसरा प्रकार है। 230. चारित्रधर्म अथवा दर्शनधर्म से जो च्युत हो गया है, उसको पुनः यथोद्दिष्ट धर्म में स्थापित करना विक्षेपणा विनय का तीसरा प्रकार है। 231, 232. उसी के चारित्रधर्म की वृद्धि हेतु अनेषणा आदि से रोकना तथा स्वयं के हित के लिए अनेषणीय वस्तु आदि ग्रहण नहीं करना, इहलोक और परलोक में जो हित, शुभ/सुख, क्षेम, निःश्रेयस, मोक्ष और आनुगामिक हो, उसके लिए उद्यत रहना (यह विक्षेपणा विनय का चौथा प्रकार है।) 233. यह विक्षेपणा विनय यथाक्रम से संक्षेप में वर्णित है। अब मैं दोष-निर्घातन विनय कहूंगा। 234. कषाय आदि अथवा आठ कर्म प्रकृतियों का बंध दोष है। इनका नियत और निश्चित विनाश दोषनिर्घातना विनय है। नियत और निश्चित तथा घात और विनाश-ये दोनों एकार्थक हैं। 235. दोषनिर्घातन विनय चार प्रकार का है * रुष्ट व्यक्ति के क्रोध का विनयन करना। * दुष्ट व्यक्ति के दोष का विनयन करना। * कांक्षित व्यक्ति की कांक्षा का छेदन करना। * आत्म-प्रणिधान करना। 236. जैसे शीतगृह-जलयन्त्रगृह दाह का अपनयन करता है, वंजुल वृक्ष सर्प के विष को दूर करता है, वैसे ही रुष्ट व्यक्ति के क्रोध का विनयन या उपशमन दोष-निर्घातन विनय का प्रथम भेद है। 237. जो कषाय, विषय, मान, माया आदि से तथा स्वभाव से दुष्ट है, उसके दोष का प्रविनयन करना, ध्वंस या नाश करना दोषनिर्घातन विनय का दूसरा भेद है। 238. जिस शिष्य को भक्तपान, परसमय अथवा संखडि आदि की कांक्षा है, उसकी कांक्षा का प्रविनयन 1. हित, शुभ (सुख), क्षेम, निःश्रेयस, मोक्ष और आनुगामिक-ये पांचों शब्द हितकारी अर्थ को ही ध्वनित करते हैं लेकिन आचार्य मलयगिरि ने इनकी अर्थ-भिन्नता को इस प्रकार प्रकट किया है हित-जिस कारण से इहलोक में अभ्युत्थान आदि हो। शुभ/सुख-जिससे परलोक में सुख अथवा शुभ हो। क्षेम-दोनों लोकों के प्रयोजन को सिद्ध करने में समर्थ / निःश्रेयस–निश्चित कल्याणकारी। आनुगामिक-जो मोक्ष का अनुगमन करवाए।' १.व्यभा 4149 मटी प.४४; यद्यस्मात्कारणात् तदभ्युत्थानमिह लोके वा हितं तेन हितमित्युच्यते।सुखं इह परलोके सुखकरणात्।क्षेममैहिकपारत्रिकप्रयोजनक्षमत्वात्।निःश्रेयसंकल्याणकारिकत्वात्। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 297 करना। संखडि की कांक्षा का अन्यापदेश-अन्योक्ति से अपनयन करना। (यह दोष-निर्घातन विनय का तीसरा भेद है।) 239. चरक आदि में अहिंसा कही गई है, शिष्य की ऐसी कांक्षा होने पर हेतु और कारण से उसका विनयन करना, जिससे वह कांक्षारहित हो जाए। 240. जो क्रोध, द्वेष और कांक्षा में वर्तमान नहीं है, वह सुप्रणिहित अथवा श्रेष्ठ परिणाम से युक्त होता है। 241. ये छत्तीस स्थान क्रमशः कहे गए हैं। जो इन स्थानों के प्रति कुशल है, वह व्यवहारी व्यवहार करने के योग्य कहा गया है। 242, 243. जो आचारवान् आदि आठ स्थानों, व्रतषट्क आदि अठारह स्थानों, दश प्रायश्चित्त, दश आलोचना के दोष', छह स्थान–छह काय, छह व्रत आदि, दश आलोचना के गुण, षट्स्थान पतित स्थान, पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ तथा पांच प्रकार के चारित्र में प्रत्यक्षज्ञानी होता है, वह आगमव्यवहारी होता है। 1. आलोचनार्ह आचारवान् आदि आठ गुणों से युक्त होता है, वे इस प्रकार हैं 1. आचारवान्-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य-इन पांच आचारों से युक्त। 2. आधारवान्-आलोचक द्वारा आलोच्यमान सभी अतिचारों को धारण करने में समर्थ। 3. व्यवहारवान्-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत-इन पांच व्यवहारों का सम्यक प्रयोक्ता। 4. अपव्रीडक-मधुर वचनों से आलोचक में अतिचारों को कहने का साहस उत्पन्न करने में समर्थ, जिससे आलोचना करते समय वह उसके समक्ष लज्जा का अनुभव न करे। 5. प्रकुर्वी -सम्यक् प्रायश्चित्त देकर विशोधि करने वाला। 6. अपरिस्रावी-आलोचक के द्वारा प्रकट किए गए दोषों को दूसरे के सामने प्रकट नहीं करने वाला। व्यवहारभाष्य में पिछले तीनों गुणों में क्रमव्यत्यय है। 7. निर्यापक-आलोचक बड़े प्रायश्चित्त का भी वहन कर सके, इस प्रकार सहयोग देने वाला। 8. अपायदर्शी-सम्यक् आलोचना न करने पर उत्पन्न दोषों को बताने वाला। १.स्था 8/18, 2. व्यभा 520 / 2. देखें जीभा गा. 154 का अनुवाद। 3. आलोचना के दश दोष इस प्रकार हैं 1. आकम्प्य-सेवा आदि से आकृष्ट करके आलोचना करना। 2. अनुमान्य –'मैं कमजोर हूं' अत: मुझे कम प्रायश्चित्त देना, इस प्रकार अनुनय करके आलोचना करना। 3. यदृष्ट-आचार्य आदि के द्वारा जो दोष देखा गया है, केवल उसी की आलोचना करना, शेष को छुपा लेना। . 4. बादर-केवल बड़े-बड़े दोषों की आलोचना करना। 5. सूक्ष्म-केवल छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना। . 6. छन्न-आचार्य पूरा सुन न पाए, वैसे आलोचना करना। 7. शब्दाकुल-दूसरे अगीतार्थ मुनि भी सुने, ऐसे जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना। 8. बहुजन -एक के पास आलोचना करके फिर उसी दोष की दूसरे के पास आलोचना करना। 9. अव्यक्त-अगीतार्थ के पास दोषों की आलोचना करना। 10. तत्सेवी-आलोचना देने वाले स्वयं जिन दोषों का सेवन करते हैं, उनके पास दोषों की आलोचना करना। १.स्था 10/70, व्यभा 523 / Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 जीतकल्प सभाष्य 244, 245. जो आचारवान् आदि आठ स्थानों, व्रतषट्क आदि अठारह स्थानों, आलोचना आदि दश प्रकार के प्रायश्चित्त (गा. 274), आकम्प्य आदि आलोचना के दश दोष, व्रतषट्क, कायषट्क, आलोचना के दश गुणों (गा. 246) तथा षट्स्थान पतित के छहों स्थानों के प्रत्यक्षज्ञानी होते हैं, वे आगम व्यवहारी कहलाते हैं। 246. आचार, विनयगुण, कल्पदीपना', आत्मशोधि, ऋजुभाव, आर्जव, मार्दव, लाघव, तुष्टि और प्रह्लादकरण-ये आलोचना के दश गुण हैं। 247. मिथ्यात्व आदि पांच आश्रव को दूर करके तप आदि आचार में स्थित होना आलोचना का प्रथम गुण है। विनय का अर्थ है-विनाश। माया का विनाश करना विनय गुण है। 248. आलोचना करने से चारित्र के कल्प तथा नियमों में निरतिचार प्रवृत्ति होती है। दीपित, प्रभासित और प्रकाशित –ये तीनों एकार्थक शब्द हैं। 249. अतिचार पंक से पंकिल आत्मा की विशोधि करना आत्मशोधि है। आलोचना करने पर आत्मा ऋजुभाव में स्थित होती है। 250. ऋजुभाव में रहकर सरल मुनि स्वयं ही अतिचारों की आलोचना करता है। मार्दवभाव से अभिमान रहित होकर आलोचना होती है। 251. अतिचार की गुरुता (भारीपन) के भय से आक्रान्त मुनि आलोचना करके लघु हो जाता है। मैं शुद्ध हो गया हूं' ऐसा सोचकर वह तुष्टि-तोष का अनुभव करता है तथा अतिचार के नष्ट होने पर वह प्रह्लाद का अनुभव करता है। 252. आलोचना के गुणों से सम्पन्न छहों प्रत्यक्षव्यवहारी षट्स्थानपतित होते हैं। 253. षट्स्थानपतित' के असंख्यात स्थान होते हैं। जो सराग संयमी हैं, उनमें ये स्थान पाए जाते हैं। वीतराग संयमी में एक ही स्थान पाया जाता है। 254. जो जिनदेव की आज्ञा से व्यवहार का प्रयोग करते हैं, वे आगम व्यवहारी राग-द्वेष से रहित होते हैं। 255. ऐसा कहने पर शिष्य जिज्ञासा करता है कि आगम व्यवहारी वर्तमान में यहां (भरतक्षेत्र में) व्युच्छिन्न हैं अतः उनका विच्छेद होने से चारित्र की विशुद्धि नहीं होगी। 256. केवली का व्यवच्छेद होने पर (कुछ समय बाद) चतुर्दश पूर्वधरों का भी व्यवच्छेद हो गया। कुछ आचार्यों का यह अभिमत है कि उनका व्यवच्छेद होने पर प्रायश्चित्त भी व्युच्छिन्न हो गया। 1. भगवती आराधना में आयारजीदकप्प गुणदीवणा ' पाठ मिलता है। वहां विजयोदया टीका में आचार, जीत और कल्प-इन तीनों को ग्रंथ रूप में व्याख्यायित किया है लेकिन मूलाचार (387) में टीकाकार ने भिन्न व्याख्या की है। 2. षट्स्थानपतित संयम-स्थान का परिमाण असंख्येय लोकाकाश के प्रदेश के परिमाण जितना होता है। सराग संयत वीतराग के कभी संयमस्थान बढ़ते हैं, कभी घटते हैं लेकिन वीतराग संयत के चारित्र का एक ही स्थान अर्थात् समान चारित्र होता है। कषाय के अभाव में उनके संयम-स्थान न घटते हैं और न बढ़ते हैं, अवस्थित रहते हैं। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 299 257. जितने प्रायश्चित्त से जिसका पाप शुद्ध होता है, उसको जिनेश्वर भगवान् तथा चतुर्दश पूर्वधर उतना ही प्रायश्चित्त देते हैं। इसके विपरीत जो आगम व्यवहारी नहीं हैं, वे अपनी इच्छा के अनुसार प्रायश्चित्त देते हैं। 258. प्रत्यक्षज्ञानी-आगमव्यवहारी यह जानते हैं कि यह मुनि प्रायश्चित्त को वहन करने में समर्थ होगा या असमर्थ। जिसके लिए जितना प्रायश्चित्त करणीय है, उसको जानकर वे उतना ही प्रायश्चित्त देते हैं। परोक्ष व्यवहारी घुणाक्षर न्याय से प्रायश्चित्त देते हैं। 259. न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देने से मोक्षमार्ग की विराधना होती है, ऐसा सूत्र में प्रतिपादित है। प्रायश्चित्त देने पर भी उसकी शुद्धि नहीं होती। जो स्वयं अशुद्ध है, वह दूसरों को कैसे शुद्ध कर सकता है? 260. वर्तमान में मासिक और चातुर्मासिक प्रायश्चित्त देने वाले भी दिखाई नहीं देते और न ही प्रायश्चित्त के द्वारा शोधि करने वाले देखे जाते हैं। 261. शोधि के अभाव में प्रायश्चित्त देने वाले और प्रायश्चित्त करने वाले के अभाव में वर्तमान में तीर्थ सम्यक्त्व (दर्शन) और ज्ञान वाला ही है (अर्थात् चारित्र का अभाव है)। 262. महापुरुषों (प्रत्यक्ष व्यवहारी) का व्यवच्छेद होने पर वर्तमान में निर्यापक भी नहीं हैं इसलिए वर्तमान में सुविहित मुनियों की विशुद्धि संभव नहीं है। 263. शिष्य के द्वारा इस प्रकार जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर आचार्य उसको कहते हैं कि तुम यह नहीं जानते कि प्रायश्चित्त कहां (किस ग्रंथ में) कहा गया है और वह कितना व्युच्छिन्न हो गया है? 264. अर्थ की अपेक्षा से कुछ सूत्र अनागत होते हैं। (अर्थात् उन सूत्रों का अर्थ ज्ञातव्य नहीं होता) कुछ सूत्र अर्थ का पूरा स्पर्श करते हैं। कुछ अर्थ भी अनागत सूत्र का स्पर्श करते हैं। (चतुर्दश पूर्वधर इसके पूर्ण ज्ञाता होते हैं।) 265. सारा प्रायश्चित्त नौवें प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु में निबद्ध है। प्रकल्प-निशीथ, कल्प और व्यवहार उसी पूर्व से निमूढ़ हैं। 266. उन ग्रंथों (निशीथ, व्यवहार और कल्प) को धारण करने वाले मुनि आज भी हैं। तुम यह कैसे कह सकते हो कि प्रायश्चित्त का विच्छेद हो गया? यहां यह प्ररूपणा ज्ञातव्य है। 267. स्वपदप्ररूपणा, दश प्रायश्चित्त चौदहपूर्वी तक, आठ प्रायश्चित्त दुःप्रसभ आचार्य तक, प्रायश्चित्त हैं, प्रायश्चित्त देने वाले नहीं देखे जाते, धनिक का दृष्टांत, तीर्थ और निर्यापक' / 268. प्रज्ञापक का स्वपद है-प्रायश्चित्त। उसकी व्याख्या चोदक को अभीष्ट नहीं है। वर्तमान में वह जिस रूप में विद्यमान है, उस रूप में मुझसे सुनो। 269. चक्रवर्ती शिल्पी रत्न द्वारा निर्मित प्रासाद में भोगों को भोगता है। उसको देखकर अन्य राजाओं के मन में भी वैसे प्रासाद में रहने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है। 270, 271. हम भी ऐसे ही प्रासाद करवाएंगे, ऐसा सोचकर उन्होंने चित्रकारों को संदेश भेजा कि अच्छी 1. यह द्वारगाथा है, इसके द्वारों की व्याख्या आगे अनेक गाथाओं में की गई है। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 जीतकल्प सभाष्य तरह फलक पर प्रासाद को चित्रित करके लाओ। चित्रकार मनोहारी प्रासाद को फलक पर चित्रित करके लाए। वैसा ही प्रासाद वर्धकि ने बनाया। उस प्रासाद का आकार चक्रवर्ती के प्रासाद जैसा होने पर भी वह लीलाविहीन होता है। 272. जैसे सामान्य लोगों के प्रासाद आकार और रूप आदि में विशिष्ट नहीं होते लेकिन क्या वे घर नहीं / कहलाते? उसमें भी वे लोग भोगों को भोगते हैं। 273. इसी प्रकार परोक्षव्यवहारी आचार्य प्रत्यक्षव्यवहारी के अनुरूप व्यवहार का प्रयोग करता है। व्यवहर्तव्य क्या है? दश प्रकार के प्रायश्चित्त व्यवहर्तव्य हैं। 274. 1. आलोचना 2. प्रतिक्रमण 3. मिश्र-आलोचना प्रतिक्रमण दोनों 4. विवेक 5. व्युत्सर्ग 6. तप 7. छेद 8. मूल 9. अनवस्थाप्य 10. पारांचित -ये दस प्रायश्चित्त हैं। 275. इसके बाद अनुक्रम से इन प्रायश्चित्तों को जैसे और जहां धारण करता है, उसको विस्तारपूर्वक यथानुपूर्वी कहा जाएगा। 276. जब तक चतुर्दशपूर्वी और प्रथम संहनन का अस्तित्व रहता है, तब तक दश प्रायश्चित्तों का अनुवर्तन होता है। उसके बाद दुःप्रसभआचार्य तक तीर्थ में आठ प्रकार के प्रायश्चित्तों का प्रयोग होगा। 277. चतुर्दशपूर्वी तथा प्रथम संहनन --इन दोनों के विच्छेद होने पर नवां-अनवस्थाप्य और दशवां पारांचित –ये दोनों प्रायश्चित्त विच्छिन्न हो गए। 278. जब तक नवपूर्वी, दशपूर्वी, लिंगधारी साधु और तीर्थ रहेगा, तब तक आठ प्रायश्चित्तों का अनुवर्तन होगा, शिष्य प्रश्न करता है कि आज यह भी दिखाई नहीं देता, ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं२७९. दो प्रकार के प्रायश्चित्तों (नवमां, दसवां) का विच्छेद होने पर आठ प्रायश्चित्तों को देने वाले और पालन करने वाले दिखाई नहीं देते, इस प्रकार कहने वाले को चतुर्गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। 280. दो प्रकार के प्रायश्चित्तों का विच्छेद होने पर आठ प्रायश्चित्तों को देने वाले और पालन करने वाले प्रत्यक्ष कैसे दिखाई देते हैं, उसे मुझसे सुनो। 281. पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ हैं -पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक। इनके प्रायश्चित्तों का यथाक्रम से वर्णन करूंगा। 282. पुलाक निर्ग्रन्थ के छह प्रायश्चित्त ज्ञातव्य हैं-आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, व्युत्सर्ग और तप। 1. दोषों की लघुता और गुरुता के आधार पर दशविध प्रायश्चित्तों की कल्पना की गई है। यद्यपि प्रायश्चित्त-स्थान और भी हो सकते हैं लेकिन यहां पिण्डरूप में सबका समाहार दश प्रायश्चित्तों में हुआ है। आचार्य अकलंक के अनुसार असंख्य लोक जितने जीव के परिणाम हैं। परिणाम के अनुसार अपराध होते हैं। जितने अपराध होते हैं, उनके उतने ही प्रायश्चित्त होने चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता। व्यवहार नय की दृष्टि से प्रायश्चित्त के दश भेद हैं। तत्त्वार्थसूत्र में प्रायश्चित्त के नौ प्रकार हैं। वहां नवां भेद उपस्थापना है, दशवें पारांचित प्रायश्चित्त का वहां उल्लेख नहीं है। 1. तवा 9/22 पृ. 622 / 2. दुःप्रसभ आचार्य के कालगत होने पर तीर्थ और चारित्र का विच्छेद हो जाएगा। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 301 283. बकुश और प्रतिसेवना कुशील के सभी (दश) प्रायश्चित्त होते हैं। उनके स्थविर जो जिनकल्प' कल्प में स्थित हैं, उनके आठ प्रायश्चित्त होते हैं। 284. निर्ग्रन्थ के दो प्रायश्चित्त होते हैं -आलोचना और विवेक। स्नातक निर्ग्रन्थ के केवल एक विवेक प्रायश्चित्त होता है। ये पुलाक आदि निर्ग्रन्थों की प्रतिपत्तियां हैं। 285. ज्ञातपुत्र जिनेश्वर महावीर ने सामायिक संयत आदि पांच प्रकार के संयत बताए हैं। अब मैं सामायिक संयत के प्रायश्चित्तों को कहूंगा। 286. स्थविरकल्पी सामायिक संयतों के छेद और मूल को छोड़कर आठ प्रायश्चित्त होते हैं। जिनकल्पिक सामायिक संयतों के तप पर्यन्त छह प्रायश्चित्त होते हैं। 287. छेदोपस्थापनीय स्थविरकल्पी मुनियों के सभी प्रायश्चित्त होते हैं। छेदोपस्थापनीय जिनकल्पिक के मूल पर्यन्त आठ प्रायश्चित्त होते हैं। 288. परिहारविशुद्धि चारित्र में वर्तमान स्थविरों के मूल पर्यन्त आठ प्रायश्चित्त तथा जिनकल्पिक परिहारविशुद्धि के तप पर्यन्त छह प्रायश्चित्त होते हैं। 289. सूक्ष्मसम्पराय तथा यथाख्यात चारित्र में आलोचना और विवेक-ये दो ही प्रायश्चित्त होते हैं, तीसरा नहीं होता। 290. बकुश और प्रतिसेवना कुशील निर्ग्रन्थ तथा सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयत-ये चारों तीर्थ पर्यन्त विद्यमान रहते हैं इसलिए वर्तमान में भी प्रायश्चित्त हैं। 291. (शिष्य पूछता है-) यदि प्रायश्चित्त हैं तो उन्हें करने वाले कोई दिखाई नहीं देते। (आचार्य उत्तर देते हैं-) आचार्य उपाय से प्रायश्चित्त देते हैं, इस संदर्भ में तुम यह उदाहरण सुनो। - 292. जैसे धनिक दो प्रकार के होते हैं -सापेक्ष और निरपेक्ष, वैसे ही धारणक भी दो प्रकार के होते हैं. 1. वैभवयुक्त और 2. वैभवरहित। 293. जो वैभवयुक्त धारणक होता है, उससे जब भी धन मांगा जाता है, वह उसी समय सारा ऋण चुका देता है। जो वैभव रहित होता है, उसके लिए यह विशेष विधि है। 294. निरपेक्ष धनिक तीनों की हानि कर देता है-१. स्वयं की 2. धन की तथा 3. धारणक की। सापेक्ष धनिक तीनों की रक्षा करता है-१. स्वयं की 2. धन की 3. तथा धारणक की। 295. निरपेक्ष धनिक के पास जब वैभव रहित धारणक तृण लेकर आता है तो वह उसके पैरों को पकड़कर 1. जिनकल्प के साथ यहां उपलक्षण से यथालंद कल्प का भी ग्रहण है। १.व्यभा 4186 मटी प. 49 / 2. जो पापयुक्त बाह्य और आभ्यन्तर ग्रंथ से मुक्त है, वह निर्ग्रन्थ है। आभ्यन्तर ग्रंथ से सर्वथा मुक्त न होने पर भी जो अपने क्रोध आदि दोषों को जानता है तथा उस पर विजय पाने का प्रयत्न करता है, वह भी निर्ग्रन्थ है। १.बृभा 832; सावजेण विमुक्का, सब्जिंतर-बाहिरेण गंथेण। निग्गहपरमा य विदू, तेणेव य होंति निग्गंथा। २.बृभा 836 / Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 जीतकल्प सभाष्य अपने पैरों से मिलाकर उसे नीचे गिरा देता है। वह धनिक स्वयं धन तथा धारणक-तीनों की हानि कर देता है। 296. जो धनिक ऋणधारक से ऋणप्राप्ति के काल को सहन करता है अर्थात् कुछ समय प्रतीक्षा करता है, वह समय पर अर्थ को प्राप्त कर लेता है। वह धारणक की रक्षा भी कर लेता है तथा स्वयं भी क्लेश का अनुभव नहीं करता इसलिए यह उपाय सर्वत्र करना चाहिए। 297, 298. जो वैभव रहित व्यक्ति आधे ब्याज' में ऋण को धारण करता है, वह उसके घर में काम करते हुए, कार्षापण का निवेश करते हुए अल्पकाल में ही उस ऋण से मुक्त हो जाता है। यह दृष्टान्त कहा गया है, इसका उपनय इस प्रकार है२९९. जो धृति और संहनन से युक्त हैं, वे वैभवयुक्त व्यक्ति के समान हैं। वे धीर पुरुष प्राप्त सारे प्रायश्चित्त को अनुग्रह रहित होकर वहन करते हैं। 300. जो मुनि धृति और संहनन से हीन हैं, वे वैभव रहित व्यक्ति के समान हैं। यदि निरपेक्ष होकर उनको कोई प्रायश्चित्त देता है तो वे शुद्ध नहीं हो सकते। 301. वे प्रायश्चित्त से विमुख होकर साधु-वेश को छोड़कर चले जाते हैं। एक-एक के जाने से तीर्थ का विच्छेद हो जाता है और स्वयं आचार्य भी त्यक्त हो जाते हैं। 302. शिष्य विमुख होकर पलायन कर जाते हैं। प्रायश्चित्तदाता पीछे अकेला रह जाता है, इस प्रकार स्वयं परित्यक्त होकर वह अकेला क्या करेगा? 303. जो आचार्य प्रवचन के प्रति सापेक्ष होता है, वह अनवस्था दोष के निवारण में कुशल होता है, वह चारित्र की रक्षा एवं तीर्थ की अविच्छिन्न परम्परा चलाकर उसे शुद्ध बनाए रखने में समर्थ होता है। 304,305. जिस मुनि को अपराध के प्रायश्चित्त स्वरूप पंच कल्याणक (पांच उपवास, पांच आयम्बिल, पांच एकाशन, पांच पुरिमार्ध तथा पांच निर्विकृतिक) प्राप्त हैं, वह यदि उनकी क्रमशः अनुपालना में समर्थ नहीं होता तो आचार्य उसके बदले में उससे दस उपवास करवाते हैं। यह भी करने में समर्थ नहीं हो तो दुगुने आचाम्ल अर्थात् बीस आयम्बिल करवाते हैं। इसके असामर्थ्य में दुगुने से दुगुना अर्थात् चालीस एकासन, उससे दुगुने अस्सी पुरिमार्ध तथा उससे दुगुने एक सौ साठ निर्विकृतिक करवाते हैं। जो पंच कल्याण (प्रायश्चित्त विशेष) के प्रायश्चित्त को क्रमश: करने में समर्थ नहीं होता, उससे उसके सदश दूसरा प्रायश्चित्त करवाते हैं। 306. जो पंच कल्याणक को यथाक्रम से करने में असमर्थ होता है, उसको चार, तीन, दो अथवा एक कल्याणक ही करवाते हैं, जो प्रायश्चित्त वहन करने में समर्थ होता है, उसे प्रायश्चित्त देते हैं, जो एक 1. व्यवहारभाष्य (4199) में 'वद्धतं' पाठ मिलता है। वहां टीकाकार ने 'सौ रूप्यक पर एक कार्षापण के ब्याज से उधार लेता है', ऐसी व्याख्या की है। 2. आचार्य मलयगिरि की व्याख्या के अनुसार सदृश प्रायश्चित्त का तात्पर्य यह है कि पांच कल्याणक प्रायश्चित्त प्राप्तकर्ता को आचार्य प्रथम, दूसरा और तीसरा कल्याणक क्रमश: करवाकर शेष कल्याणकों को विच्छिन्न क्रम से करवाते हैं। १.व्यभा 4206 मटी प.५१। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 303 कल्याणक को करने में भी समर्थ नहीं होता, उसका प्रायश्चित्त कम कर देते हैं।' 307. इस प्रकार प्रायश्चित्तदाता सदय होकर प्रायश्चित्त देता है, जिससे मुनि संयम में स्थिर रह सके। ऐसा नहीं हो सकता कि बिल्कुल प्रायश्चित्त न दे क्योंकि इससे अनवस्था दोष उत्पन्न होता है। 308. अनवस्था दोष के प्रसंग में तिलहारक चोर का दृष्टान्त है, जो प्रसंग-दोष के कारण वध को प्राप्त हो गया। दोष-प्रसंग का निवारण नहीं करने से माता का स्तनछेद किया गया। 309. चोरी करने पर दूसरे बालक की मां ने भर्त्सना की और उसे चोरी करने से निवारित किया। वह जीवित रहकर सुखों का उपभोक्ता बन गया। उसकी मां भी स्तनछेद आदि के दुःख को प्राप्त नहीं हुई। 310. दोषों का निवारण न करने पर जीव दु:ख-सागर को प्राप्त करते हैं और दोषों के प्रसंग का निवारण करने पर जीव भव-परम्परा का विच्छेद कर देते हैं। 311. इस प्रकार तीर्थ शोधि–प्रायश्चित्त को धारण करता है। तीर्थ में प्रायश्चित्त देने वाले और करने वाले भी देखे जाते हैं। जो कहा गया कि तीर्थ ज्ञान-दर्शन से ही सुशोभित है, इस विषय में सुनो। 312. इस प्रकार कहते हुए तुमने श्रेणिक आदि को भी श्रमण के रूप में स्थापित कर दिया। सूत्र में उल्लेख है कि श्रमण का नरक में उपपात नहीं होता। 313. सूत्रों में वर्णन मिलता है कि तीर्थ का अस्तित्व 21 हजार वर्षों तक होगा। तुम्हारे इस कथन से यह बात भी मिथ्या हो जाएगी। सभी गतियों में ज्ञान और दर्शन रहता है अतः सिद्धि भी सभी गतियों में प्राप्त हो / जाएगी। (अतः तीर्थ केवलज्ञान और दर्शन युक्त है, यह बात सिद्ध नहीं होती।) 314. प्रायश्चित्त के अभाव में यह दोष और पाया जाता है। जो कहते हैं कि चारित्र नहीं है, उनको यह गाथा कहनी चाहिए। १.व्यवहारभाष्य में भी यह गाथा प्राप्त होती है। वहां 'झोसेंति' के स्थान पर 'भासंति' पाठ मिलता है-इसकी : व्याख्या में टीकाकार मलयगिरि ने अंत में एक विकल्प और प्रस्तुत किया है कि उलाहने के पश्चात आचार्य उसे एक आयम्बिल अथवा एक एकासन अथवा एक पुरिमार्ध अथवा एक निर्विगय का प्रायश्चित्त देते हैं। आचार्य यदि उसे प्रायश्चित्त न दें अथवा कुछ नहीं कहें तो दोषों की अनवस्था का प्रसंग उपस्थित हो जाता है। १.व्यभा 4207,4208 मटी. प.५१।। २.कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.१। ३.सम्यग्दर्शन और ज्ञान से युक्त तथा चारित्र से रहित जीव सभी गतियों में मिलते हैं। यदि ज्ञान और दर्शन को ही मुख्य मानेंगे तो टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि अनुत्तरौपपातिक देव नियमतः तद्भव सिद्धिगतिगामी हो जाएंगे क्योंकि उनके अनुत्तर ज्ञान और दर्शन होता है अत: यह स्पष्ट है कि जब तक चारित्र है, तब तक ही तीर्थ का अस्तित्व रहता है। 1. व्यभा 4214 मटी. प.५२। ४.निशीथभाष्य में उल्लेख मिलता है कि जो यह कहते हैं कि वर्तमान में चारित्र नहीं है, वे विद्यमान चारित्र-गुणों का नाश करते हैं / प्रवचन का परिभव करते हैं, असत्य बोलते हैं। इससे चारित्रधर्म की अवमानना होती है, साधुओं से प्रद्वेष होता है तथा संसार-जन्म-मरण की वृद्धि होती है। तीर्थंकर के समय में भी क्षायिक,क्षायोपशमिक तथा औपशमिक चारित्र होता था। क्षायोपशमिक चारित्र से ही क्षायिक और औपशमिक चारित्र प्राप्त होता है। क्षायोपशमिक चारित्र के अनेक स्तर होते हैं। उसमें दोष लगाने वाले भी होते हैं पर प्रायश्चित्त से चारित्र की विशोधि होती है। 1. निभा 5429-31 चू पृ. 69,70 / Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 जीतकल्प सभाष्य 315. प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र' का अस्तित्व भी नहीं रहता। चारित्र के अभाव में तीर्थ की सचारित्रता नहीं रहती। 316. तीर्थ में चारित्र के अभाव से साधु निर्वाण को प्राप्त नहीं करता। निर्वाण के अभाव में सारी दीक्षा निरर्थक हो जाती है। 317. निर्ग्रन्थों के बिना तीर्थ नहीं होता। तीर्थ के बिना निर्ग्रन्थ भी अतीर्थिक हो जाते हैं। जब तक षट्काय संयम है, तब तक तीर्थ और निर्ग्रन्थ की अनुवर्तना है। 318. सर्वज्ञों ने षट्काय-संयम, महाव्रत और समितियों की जैसी प्ररूपणा की, वैसी ही प्ररूपणा वर्तमान काल में भी साधुओं के लिए है। 319. इसीलिए यह सिद्ध नहीं होता कि ज्ञान और दर्शन से ही तीर्थ चलता है। जो यह कहा गया कि निर्यापक विच्छिन्न हो गए, यह बात भी तथ्यपूर्ण नहीं है। 320. निर्यापक तथा निर्याप्यमान जिस रूप में रहते हैं, उसे तुम सुनो। निर्यापक दो प्रकार के होते हैं-१. आत्मनिर्यापक 2. परनिर्यापक। 321. प्रायोपगमन और इंगिनीमरण –इन दो अनशनों में आत्मनिर्यापक होते हैं। भक्तपरिज्ञा में परनिर्यापक होते हैं। 322. प्रायोपगमन और इंगिणी-इन दोनों मरणों का वर्णन अभी रहने दो। अब मैं यथाक्रम से भक्तपरिज्ञा की विधि कहूंगा। 323. प्रव्रज्या से लेकर जीवन के अंतिम समय तक पांच तुलाओं से अपनी आत्मा को तोलकर मुनि को भक्तपरिज्ञा अनशन के प्रति परिणत होना चाहिए। 324. भक्तपरिज्ञा के दो प्रकार हैं-सपराक्रम और अपराक्रम। सपराक्रम के दो भेद हैं-१. व्याघातिम और निर्व्याघातिम। सूत्रार्थ के ज्ञाता मुनि को समाधिपूर्वक मरण करना चाहिए। 1. निशीथ भाष्य में भी एक प्रश्न उठाया गया है कि अतिशयज्ञानी के अभाव में चारित्र की शुद्धि और अशुद्धि का ज्ञान कैसे संभव है? इस प्रश्न के समाधान में आचार्य कहते हैं कि जैसे दूसरों के मुख की आकृति को देखकर सामान्यज्ञानी उसके अन्तर्भाव को जान लेता है, वैसे ही परोक्षज्ञानी आचार्य आलोचना को सुनते समय पूर्वापर सम्बद्धता तथा वाणी और आकार से चारित्र की शुद्धाशुद्धि को जान लेते हैं। परोक्षज्ञानी आगम के आधार पर चारित्रशुद्धि करते हैं। १.निभा 5433 चू पृ.७०। 2. टीका में 'पाओवगमण' की संस्कृत छाया पादोपगमन तथा पादपोपगमन मिलती है लेकिन आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार इसकी संस्कृत छाया प्रायोपगमन होनी चाहिए। प्रायः का अर्थ है मृत्यु तथा उपगमन का अर्थ है समीप जाना। 1. भभा 1, 2/49 पृ. 230 / 3. टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि प्रव्रज्या के पश्चात् साधु ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा, तत्पश्चात् महाव्रतों की साधना, तदनंतर सूत्र के अर्थ का ग्रहण, अनियतवास तथा गच्छ की निष्पत्ति करके फिर तप, सत्त्व आदि भावना से स्वयं को तोलकर भक्तपरिज्ञा अनशन से मृत्यु को प्राप्त करे। 1. व्यभा 4223 मटी प.५३। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 305 325. जो भिक्षा करने एवं विचारभूमि जाने में समर्थ होता है तथा अन्य गण में जाकर वाचना दे सकता है, उसके सपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान अनशन होता है, इसके विपरीत जो इन कार्यों को करने में समर्थ नहीं होता है. उसके अपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान अनशन होता है। 326. प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं -1. निर्व्याघात तथा 2. व्याघात / व्याघात के भी दो प्रकार हैं-काल को धारण करने वाला तथा काल को धारण नहीं करने वाला। 327. सपराक्रम के दो भेद हैं -निर्व्याघात और व्याघात, उन्हें मैं संक्षेप में कहूंगा। द्विविध अपराक्रम मरण स्थाप्य हैं। 328. उनको गण-नि:सरण आदि द्वारों से क्रमशः जानना चाहिए। गण-निःसरण आदि विभागों को मैं कहूंगा। 329-31. गण-नि:सरण, परगण, सिति-निःश्रेणी, संलेखना, अगीतार्थ, असंविग्न, एक निर्यापक, आभोजन, अन्य, अनापृच्छा, परीक्षा, आलोचना, प्रशस्त स्थान, प्रशस्त वसति, निर्यापक, द्रव्य-दर्शन, चरमकाल, हानि, अपरिश्रान्त, निर्जरा, संस्तारक, उद्वर्तना आदि, स्मारणा, कवच, निर्व्याघात, चिह्नकरण, व्याघात (आंतरिक और बाह्य) में यतना-ये उपाय भक्त-परिज्ञा में करने चाहिए। 332. गण-निःसरण की सप्तधा विधि जिस रूप में बृहत्कल्पभाष्य में वर्णित है, वही निरवशेष रूप में यहां भक्तपरिज्ञा में भी जाननी चाहिए। 333. भक्तपरिज्ञा में परिणत वीर गण से निकलकर परगण में जाकर दृढ़ निश्चय करता है। 334,335. परगण के आचार्य पूछते हैं-आप स्थविर हैं, संलेखना तप से क्लान्त हैं, फिर अपने गण से अपक्रमण करने का क्या कारण है? (स्थविर भक्तप्रत्याख्याता उत्तर देते हैं-अभ्युद्यत मरण स्वीकृत 1. व्याघात मरण का अर्थ है-भालू, रीछ आदि के द्वारा आक्रमण करने पर होने वाला मरण। * 2. कालधर का अर्थ है, जो काल को धारण करता है, तत्काल भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार करने की इच्छा नहीं करता। इसके विपरीत दूसरा जो काल को धारण नहीं करता, वह कालसह नहीं होता, तत्काल मरण की इच्छा करता है। व्यवहार भाष्य में 'कालऽतिचारो' पाठ है, जिसका तात्पर्य है कि जो काल का अतिक्रमण कर देता है अर्थात् काल को सहता है। टीकाकार मलयगिरि के अनुसार पूति सर्प के द्वारा काटे हुए व्यक्ति का 20 दिन-रात बीतने पर भी मरण हो सकता है। दूसरा काल अनतिचार अर्थात् जो काल को नहीं सहता। उसी दिन मरने की इच्छा से भक्तप्रत्याख्यान कर लेता है। १.व्यभा 4226 मटी.प.५४। 3. निशीथ भाष्य' में 'इहई पि' के स्थान पर 'दसमम्मि' पाठ मिलता है, जिसका अर्थ है व्यवहार भाष्य के दशवें उद्देशक में भी निरवशेष रूप से यह वर्णन प्राप्त है। . १.निभा 3819 / 4. स्थानांग' में गण से अपक्रमण के पांच कारणों का उल्लेख मिलता है। सातवें स्थान में सात कारणों का उल्लेख भी मिलता है। निशीथभाष्य में गण से अपक्रमण के आठ हेतुओं का उल्लेख मिलता है-१.अभ्युद्यत मरण, 2. अभ्युद्यत विहार 3. विहार-अवधावन ४.लिंग-अवधावन 5. ज्ञान 6. दर्शन 7. चारित्र 8. कलहउपशमन। इनमें तीसरा, चौथा और आठवां अप्रशस्त कारण है।' 1. स्था 5/167 / २.स्था 7/1 / 3. निभा 5594,5595 चू. पृ. 101 / Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 जीतकल्प सभाष्य करने से शिष्यों का रुदन और अश्रुपात देखकर) मेरे मन में करुणा उत्पन्न होती है, इससे मेरे ध्यान में व्याघात होता है इसलिए मैंने परगण में अपक्रमण किया है। दूसरी बात मेरे गण में आचार्य-आज्ञा की अवहेलना तथा मुनियों में अप्रीति आदि कारणों को देखकर मैंने गण से अपक्रमण किया है, परगण का गुरुकुलवास अप्रीति से रहित होता है। 336. उपकरण और गण के कारण व्युद्ग्रह तथा गणभेद को देखकर, बाल और स्थविरों की उचित वैयावृत्त्य की उपेक्षा देखकर अप्रीति होती है, जिससे ध्यान में व्याघात होता है। 337. स्वगण से निष्क्रमण कर देने पर आचार्य और गण-दोनों का स्नेह कम हो जाता है। भक्तपरिज्ञा में व्याघात देखकर शैक्ष मुनियों का व्युद्गम या विपरिणमन भी हो सकता है। 338, 339. श्रिति-निःश्रेणी दो प्रकार की होती है-द्रव्यथिति और भावश्रिति / द्रव्य निःश्रेणी काष्ठनिर्मित होती है। भाव निःश्रेणी संयम है, जिसके भंग इस प्रकार होते हैं -संयम-स्थान, कंडक और लेश्या की स्थिति विशेष / इनको ऊर्ध्व से ऊर्ध्व ले जाते हुए केवलज्ञान तक पहुंचना भावश्रिति है। 340. यहां भावश्रिति का अधिकार है, उसमें विशुद्धभाव से स्थित रहना चाहिए। ऊर्ध्वगमन के लिए कोई भी अधःस्थान की प्रशंसा नहीं करता। .. 341. संलेखना' तीन प्रकार की होती है-१. जघन्य 2. मध्यम 3. उत्कृष्ट। जघन्य संलेखना का काल है-छह मास तथा उत्कृष्ट संलेखना का काल है-बारह वर्ष। 342. जघन्य और मध्यम को रहने दो, मैं उत्कृष्ट संलेखना का वर्णन करूंगा। जिस संलेखना को करके मुनि अपने आत्महित के प्रयोजन को सिद्ध करते हैं। 343. मुनि चार वर्षों तक विचित्र तप (कभी उपवास, कभी बेला, कभी तेला, कभी चोला, पंचोला आदि) करता है। फिर चार वर्ष विचित्र तप के पारणे में निर्विगय करता है; इसके पश्चात् दो वर्षों तक एकान्तर तप तथा उसके पारणे में आचाम्ल तप करता है। ग्यारहवें वर्ष के प्रथम छह मास में कोई विकृष्ट 1. संलेखना का अर्थ है-सम्यक् रूप से शरीर को कृश करना। उत्तराध्ययन सूत्र और उसकी टीका में संलेखना कब करनी चाहिए, इसका सुंदर वर्णन प्राप्त है। जब तक अपूर्व ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों की प्राप्ति हो, तब तक साधक को अन्न-पान आदि के द्वारा जीवन को पोषण देना चाहिए। जब साधक को यह ज्ञान हो जाए कि शरीर ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विशिष्ट गुणों को प्राप्त करने में असमर्थ है, निर्जरा करने में अक्षम है,रोग और बुढ़ापे से आक्रान्त है, धर्माराधना करने में समर्थ नहीं है तो उसको शरीर से निरपेक्ष होकर विधिपूर्वक संलेखना आदि करके अन्त में अनशन द्वारा शरीर का त्याग करना चाहिए। आहार न करने के छह कारणों में भी एक कारण अंतिम मारणान्तिक अनशन है। 1. उ 4/7 शांटी. प. 217, 218 / 2. व्यवहारभाष्य में संलेखना के दो प्रकार हैं-१. जघन्य और 2. उत्कृष्ट / ' 1. व्यभा 4238 / 3. उत्तराध्ययन सूत्र में संलेखना के क्रम में कुछ अंतर है। वहां प्रारम्भ के चार वर्षों में विकृति का परित्याग किया जाता है, दूसरे चार वर्षों में विचित्र तप (उपवास, बेला, तेला) आदि किया जाता है। 1. उ 36/252 / Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 307 तप नहीं करता, अंतिम छह महीनों में विकृष्ट तप करता है, अतिविकृष्ट तप नहीं करता लेकिन पारणे में आचाम्ल करता है तथा (परिमित खाता है) बारहवें वर्ष में कोटिसहित आचाम्ल करता है। 344. संलेखना करने वाला प्रथम चार वर्षों में उपवास आदि विचित्र तप करता है तथा पारणे में उद्गम विशुद्ध तथा सर्व गुणों से युक्त आहार करता है। 345. पुनः अगले चार वर्षों में वह महात्मा मुनि विचित्र तप करके पारणे में विगय नहीं लेता। उसमें भी स्निग्ध और प्रणीत आहार का वर्जन करता है। 346-50. अगले दो वर्ष वह उपवास करके आचाम्ल से पारणा करता है, फिर अगले एक वर्ष उपवास का पारणा कांजी के द्वारा करता है। ग्यारहवें वर्ष के प्रथम छह महीनों में उपवास अथवा बेला करके नियमतः आचाम्ल' से पारणा करता है। दूसरे छह मास में विकृष्ट तप तेला, चोला या पंचोला करके आचाम्ल से पारणा करता है। अन्तिम एक वर्ष (बारहवें वर्ष) में कोटिसहित तप करके आचाम्ल तथा उष्णोदक से पारणा करता है तथा क्रमशः एक-एक कवल कम करता है। जैसे दीपक में तैल और बाती दोनों साथ-साथ क्षीण होते हैं, वैसे ही शरीर और आयुष्य साथ-साथ क्षीण हो जाते हैं। 351-53. बारहवें वर्ष के अंतिम चार मास के प्रत्येक पारणे में एकान्तरित रूप से वह एक चुल्लू भर तैल मुंह में धारण करें। जब तक वह तैल श्लेष्म जैसा न हो जाए, तब तक धारण करे फिर उसे श्लेष्मपात्र में विसर्जित कर दे। (शिष्य जिज्ञासा करता है) गले में तैल क्यों धारण करना चाहिए? आचार्य उत्तर देते हुए कहते हैं कि तपस्या जनित रूक्षता से मुखयंत्र क्षुभित न हो तथा व्यक्ति नमस्कार मंत्र का उच्चारण करने में असमर्थ न हो इसलिए मुंह में तैल धारण किया जाता है। . 354. यह उत्कृष्ट संलेखना का कथन है। मध्यम संलेखना एक वर्ष की तथा जघन्य संलेखना छह मास की होती है। मध्यम और जघन्य संलेखना में मास और पक्षों की स्थापना करके तपोविधि पूर्ववत् करनी चाहिए। 355. उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य-इन तीन प्रकार की संलेखनाओं में से किसी एक संलेखना से अपने शरीर को क्षीण करके मुनि भक्तपरिज्ञा, इंगिनी अथवा प्रायोपगमन अनशन को स्वीकृत करे। 356, जो मुनि अगीतार्थ मुनि के पास भक्तपरिज्ञा अनशन स्वीकार करता है, उसको चतुर्गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसका कारण यह है कि उससे निम्न दोष उत्पन्न होते हैं३५७. अगीतार्थ सर्वलोक में सारभूत अंग-चतुरंग का नाश कर देता है। चतुरंग के नष्ट हो जाने पर पुनः उसकी प्राप्ति सुलभ नहीं होती। 1. आचाम्ल अथवा उपवास करके बिना पारणा किए पुन: आचाम्ल आदि करने को कोटिसहित तप कहा जाता है। 2. निशीथ चूर्णि में पारणे में कांजी का उल्लेख है।' 1. निचू भा. 3 पृ. 294 ; एक्कारसमे वरिसे पढमं छम्मास अविकिट्ठ तवं कातुं कजिएण पारे।। 3. उत्तराध्ययन के अनुसार बारहवें वर्ष में मुनि कोटि सहित आचाम्ल करके पक्ष या मास का आहार परित्याग करता है। 1. उ 36/255 / Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 जीतकल्प सभाष्य 358. वे चार अंग कौन से हैं, जिनके नष्ट हो जाने पर पुनः उनकी प्राप्ति दुर्लभ होती है। वे चार अंग ये हैं-१. मनुजत्व, 2. धर्मश्रुति, 3. श्रद्धा और 4. संयम में पराक्रम। 359. अगीतार्थ चतुरंग का नाश कैसे करता है? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि भक्तप्रत्याख्याता यदि प्रथम और द्वितीय परीषह-भूख और प्यास से पीड़ित होकर रात्रि में भक्तपान की याचना करे तो अगीतार्थ उसे निर्धर्मा -असंयमी समझकर छोड़कर जा सकता है। 360. उपाश्रय के बाहर अथवा भीतर, रात में अथवा दिन में भक्तप्रत्याख्याता को अकेला छोड़ने पर वह आर्त, दुःखार्त्त और वशार्त्त होकर प्रतिगमन-व्रतभंग आदि कर सकता है। 361. आर्त्तध्यान में मरकर वह तिर्यञ्च अथवा व्यन्तर देवों में उत्पन्न होता है। पूर्वभव के वैर का स्मरण करके वह शत्रुता का व्यवहार करता है। 362, 363. अथवा रात्रि में पानी मांगने पर अगीतार्थ उसे प्रस्रवण देता है। भक्तप्रत्याख्याता यदि दंडिक आदि हो तो रुष्ट होकर राजा को निवेदन कर सकता है। राजा कुल, गण आदि का नाश कर सकता है। वह भक्तप्रत्याख्याता रुष्ट होकर मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है। मिथ्यात्व के कारण वह संसार रूपी अटवी में दीर्घकाल तक भ्रमण कर सकता है। 364. अन्य संविग्न मुनियों के द्वारा जब वह एकाकी देखा जाता है तो वे उसे आश्वस्त करके प्रेरणा देते हैं, जिससे वह त्यक्त अभ्युद्यत मरण को पुनः स्वीकृत कर लेता है। 365. अगीतार्थ के पास भक्तप्रत्याख्यान करने पर ये अथवा अन्य दोष और अपाय. उत्पन्न हो जाते हैं। इन कारणों से अगीतार्थ के पास भक्तपरिज्ञा अनशन करना कल्पनीय नहीं है। 366. इसलिए पांच सौ, छह सौ, सात सौ अथवा इससे अधिक योजन तक अपरिश्रान्त होकर जाए और गीतार्थ की सन्निधि प्राप्त करने की अन्वेषणा करे। 367. एक, दो, तीन अथवा उत्कृष्ट रूप से बारह वर्ष तक अपरिश्रान्त होकर गीतार्थ की सन्निधि प्राप्त करने की खोज करे। 368. गीतार्थ की दुर्लभता की अपेक्षा से यह क्षेत्रतः और कालत: मार्गणा कही गई है। गीतार्थ को खोजते हुए काल और क्षेत्र विषयक यह उत्कृष्ट परिमाण है। 369. प्रवचन के सर्व सार को ग्रहण करने वाला गीतार्थ मुनि निर्यापक के रूप में उत्तमार्थ-भक्तप्रत्याख्यान में समाधि देने का प्रयत्न करे। 370. इसी प्रकार अंसविग्न के पास भक्तप्रत्याख्यान ग्रहण करने वाले को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसका कारण क्या है? आचार्य कहते हैं-इसमें ये दोष होते हैं। 371. अंसविग्न मुनि सर्वलोक के सारभूत चतुरंग का नाश कर देता है। चतुरंग के नष्ट हो जाने पर पुनः उसकी प्राप्ति सुलभ नहीं होती। 372. असंविग्न निर्यापक अनेक लोगों को ज्ञात कर देता है। वह भक्तप्रत्याख्याता के लिए आधाकर्मिक Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 309 पानक, पुष्प आदि लेकर आ जाता है। शरीर पर चंदन आदि का सेचन करता है। उसके द्वारा लाए गए शय्या, संस्तारक, उपधि आदि भी अशुद्ध होते हैं। 373. अंसविग्न के पास भक्तप्रत्याख्यान ग्रहण करने पर ये तथा अन्य अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। इन कारणों से असंविग्न के पास भक्तपरिज्ञा ग्रहण करना नहीं कल्पता। 374. अतः पांच सौ, छह सौ, सात सौ तथा इससे भी अधिक योजन तक अपरिश्रान्त होकर संविग्न की सन्निधि प्राप्त करने की गवेषणा करनी चाहिए। 375. मुनि एक, दो, तीन अथवा उत्कृष्टत: बारह वर्षों तक बिना परिश्रान्त हुए संविग्न की सन्निधि प्राप्त करने की मार्गणा करे। 376. संविग्न की दुर्लभता के आधार पर काल की यह मार्गणा कही गई है। संविग्न की गवेषणा करते हुए क्षेत्र और काल विषयक यह उत्कृष्ट परिमाण है। 377. इसलिए प्रवचन के सर्वसार को ग्रहण करने वाला संविग्न मुनि निर्यापक के रूप में उत्तमार्थभक्तप्रत्याख्यान में समाधि उत्पन्न करे। 378. एक ही निर्यापक होने से विराधना और कार्यहानि होती है। (किसी कार्यवश निर्यापक के बाहर जाने पर) अनशनी और शैक्ष त्यक्त हो जाते हैं, इससे प्रवचन की अवमानना होती है। 379. निर्यापक कभी भक्तप्रत्याख्याता मुनि हेतु पानी आदि के लिए बाहर जाए, उस समय अनशनी अव्यक्त शैक्ष से भक्त की याचना करे और वह न दे तो असमाधि से मृत्यु को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार वह भक्तप्रत्याख्याता त्यक्त हो जाता है। शैक्ष उसे भोजन दें अथवा न दें लेकिन उनके मन में प्रत्याख्यान के प्रति अरुचि पैदा हो जाती है इसलिए वे धर्म से विपरीत हो जाते हैं। 380. भक्त न देने पर वह अनशनी जोर-जोर से चिल्लाते हुए कहता है कि ये मुझे बलपूर्वक मार रहे हैं। इस प्रकार प्रवचन त्यक्त हो जाता है। शैक्ष के वापस जाने पर वे जनता में प्रवचन की अवज्ञा फैलाते हैं। 381. आचार्य स्वयं अपने अतिशायी ज्ञान से अथवा किसी नैमित्तिक से जाने (कि यह भक्तप्रत्याख्यान का पारगामी होगा अथवा नहीं?) अथवा देवता के निवेदन से जाने, जैसे कंचनपुर में आचार्य ने जाना था। 382. कंचनपुर नगर में गुरु संज्ञाभूमि-विचारभूमि में गए। वहां क्षेत्र-देवता का रुदन सुनकर उनसे कारण पूछा। देवता ने रुदन का कारण बताया और कहा कि यदि मेरी बात सत्य है तो कल तपस्वी के पारणे में आया हुआ दूध रक्त में बदल जाएगा। गुरु ने संघ को आमंत्रित किया और दूसरे स्थान पर प्रस्थान कर दिया। (संघ के मुनियों ने अनशन स्वीकार कर लिया।) 383. अथवा आचार्य स्वयं या दूसरे के द्वारा जाने कि यह भक्तप्रत्याख्यान की इच्छा रखने वाला मुनि पारगामी होगा अथवा नहीं? यदि वे अपारगामी को भक्तप्रत्याख्यान करवाते हैं तो उन्हें चार गुरुमास का 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 2 / Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 जीतकल्प सभाष्य प्रायश्चित्त आता है। यदि क्षेम और सुभिक्ष न हो तो निर्व्याघात रूप से भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार करना चाहिए। 384. वर्षावास में तपस्वी मुनियों का चिरकाल तक एकस्थान पर निवास होता है इसलिए मुनि को विशेष रूप से वर्षाकाल में भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार करना चाहिए। 385. अशिव और दुर्भिक्ष आदि के समय में भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार करने के ये दोष हैं-संयमविराधना, आत्मविराधना तथा आज्ञाभंग आदि। 386. अशिव आदि कारणों से उपयोग लगाए बिना अनशन करवा दे तो भक्तप्रत्याख्याता तथा उसकी उपधि का वहन करना पड़ता है, (इससे आत्म-विराधना होती है)। यदि कारणवश दोनों-उपधि और भक्तप्रत्याख्याता को छोड़कर चले जाते हैं तो भक्तप्रत्याख्याता त्यक्त होता ही है, प्रवचन की अवहेलना से वह स्वयं भी त्यक्त हो जाता है। 387. एक मुनि संस्तारकगत भक्तप्रत्याख्याता है, दूसरा मुनि संलेखना कर रहा है तो तीसरे को भक्तप्रत्याख्यान करने का प्रतिषेध करना चाहिए क्योंकि तीनों के लिए निर्यापक नहीं मिलते। इससे उस तीसरे को, प्रथम दोनों को अथवा निर्यापक को असमाधि हो सकती है। 388. यदि भक्तप्रत्याख्याता के कोई व्याघात हो तो जो दूसरा संलेखना कर रहा है, उसको वहां स्थापित करके बीच में चिलिमिली-पर्दा लगा दिया जाए। जो लोग वंदना करने आएं, उनको बाहर से ही वंदना करवाई जाए। 389. यदि गच्छ को पूछे बिना गुरु भक्तप्रत्याख्याता मुनि को स्वीकार कर लेता है तो उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। गच्छ की अनिच्छा के कारण भक्तप्रत्याख्याता को जो असमाधि होती है, उसका प्रायश्चित्त भी चतुर्गुरु आता है। 390, 391. भक्तप्रत्याख्याता मुनि को समाधि के योग्य पानक आदि की प्राप्ति न होने से उसकी समाधि भंग होती है। योग्य पानक आदि की याचना में मुनियों को क्लेश की अनुभूति होती है। असमर्थ एवं अयोग्य निर्यापकों के कारण क्लेश का अनुभव होता है तथा योगवाही मुनियों को समाधिकारक द्रव्यों की गवेषणा में क्लेश होता है। इन सब कारणों से उस भक्तप्रत्याख्याता मुनि को विराधना होती है (अतः गच्छ से पृच्छा करनी चाहिए।) 392. भक्तप्रत्याख्याता मुनि एवं गच्छ के साधुओं को एक दूसरे की परीक्षा न करने पर दोनों को चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है तथा आत्म-विराधना और संयम-विराधना होती है। अकेला गच्छ अथवा एकाकी भक्तप्रत्याख्याता जो अनर्थ प्राप्त करता है, उसके निमित्त जो प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, वह भी आचार्य को प्राप्त होता है। 1. व्यवहारभाष्य की टीका में आचार्य मलयगिरि ने गच्छ को पूछने का कारण स्पष्ट करते हुए कहा है कि गच्छ के साधु सब स्थानों में घूमते हैं अतः उन्हें यह ज्ञात रहता है कि किस क्षेत्र में भक्तप्रत्याख्याता के योग्य शय्या-संस्तारक आदि द्रव्य सुलभ या दुर्लभ हैं। यदि द्रव्य सुलभ हों तो आचार्य भक्तप्रत्याख्यान करवाए, अन्यथा प्रतिषेध कर दे। १.व्यभा 4282 मटी प.६२। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 311 393-95. इसलिए दोनों-भक्तप्रत्याख्याता और गच्छ एक दूसरे की द्रव्य और भाव से परीक्षा करे। द्रव्य रूप परीक्षा इस प्रकार होती है-'मेरे लिए कलमोदन, दूध और कढ़ी आदि द्रव्य लाओ' भक्तप्रत्याख्याता मुनि के ऐसा कहने पर यदि गच्छगत साधु उपहास करते हैं कि देखो यह विगय में आसक्त है या उसे कहते हैं कि तुम भक्त की इच्छा क्यों करते हो? इस प्रकार गच्छगत साधुओं की द्रव्य परीक्षा की जाती है। यदि वे भाव परीक्षा में कषाय करते हैं तो उनके पास भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार नहीं करना चाहिए। 396. विकृत आहार लाने पर यदि भक्तप्रत्याख्याता जुगुप्सा करता है तो वे साधु कहते हैं कि हम दूसरा आहार ला देंगे। यदि वे जाने के लिए तत्पर हो जाएं तो उनके पास भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार करना चाहिए। 397. इस प्रकार कहकर द्रव्यतः और भावतः विधिपूर्वक मुनियों की परीक्षा करनी चाहिए। वे भी भक्तप्रत्याख्याता मुनि की द्विविध परीक्षा इस प्रकार करें। 398. कलम (उत्कृष्ट तण्डुल) को दूध के साथ लाने पर अथवा उसको जो स्वभावतः रुचिकर द्रव्य हैं, वे सम्मुख लाने पर यदि भक्तप्रत्याख्याता मुनि उस भोजन की निंदा करता है तो वह द्रव्य-परीक्षा में शुद्ध (उत्तीर्ण) हो जाता है। (उसको आहार के प्रति अलुब्ध जानकर भक्तप्रत्याख्याता के रूप में स्वीकृत कर लिया जाता है। जो उस भोज्य की प्रशंसा करता है, उसे लोलुप जानकर स्वीकार नहीं किया जाता।) 399, 400. भाव-परीक्षा में उससे पूछा जाता है कि तुमने संलेखना की या नहीं? ऐसा कहने पर यदि वह अंगुलि तोड़कर दिखाता है और कहता है कि देखो, मैंने संलेखना की है या नहीं? भक्तप्रत्याख्याता के ऐसा कहने पर गुरु कहते हैं कि तुमने अभी (भाव) संलेखना नहीं की है। 401. आचार्य कहते हैं कि मैं तुम्हारी द्रव्य-संलेखना के बारे में नहीं पूछ रहा हूं। तुम्हारे कृश शरीर को तो मैं देख ही रहा हूं। तुमने अपनी अंगुलि को भग्न क्यों किया? तुम क्रोधातुर मत बनो, भाव-संलेखना करो। 402. मुनि को प्रयत्नपूर्वक भाव-संलेखना करनी चाहिए इसलिए मैं तुमको कोंकणक और अमात्य का दृष्टान्त कहता हूं। 403, 404. राजा ने कोंकण देशवासी व्यक्ति और अमात्य को देश-निष्काशन का आदेश दिया। कोंकणक तुम्बे और कांजी को छोड़कर तत्काल वहां से चला गया। अमात्य भण्डी-गाड़ी, बैल और कापोती आदि में सामान भरने लगा। इतने में पांच दिन बीत गए। घर पर ही उसका वध करवा दिया गया। 405. इसी प्रकार जो भाव-संलेखना करते हैं, वे साधक हैं। जो भाव-संलेखना को सिद्ध नहीं करते, वे उस अमात्य की भांति होते हैं। 406. (आचार्य कहते हैं)-'शिष्य! तुम इंद्रिय, कषाय एवं गौरव (ऋद्धि, रस, सात) को कृश करो। हम तुम्हारे कृश शरीर की प्रशंसा नहीं करते।' 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं .3 / २.कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं .4 / Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 जीतकल्प सभाष्य 407. इस प्रकार परीक्षा करने पर यदि वह शुद्ध-उत्तीर्ण होता है तो आचार्य उसको स्वीकार करते हैं। तब वह भक्तप्रत्याख्याता मुनि इस विधि से आत्मविशुद्धि करता है। 408. यदि भक्तप्रत्याख्याता पराक्रम युक्त हो तो उसे आचार्य के पास जाकर दूसरों की साक्षी से पूर्ण रूप से आत्मशुद्धि करनी चाहिए। 409, 410. जैसे कुशल वैद्य भी अपनी व्याधि किसी दूसरे वैद्य को कहता है। वह वैद्य उसको सुनकर उसका परिकर्म करता है। इसी प्रकार प्रायश्चित्त-विधि को स्वयं भलीभांति जानते हुए भी किसी दूसरे आचार्य आदि के पास स्पष्ट रूप से आलोचना करनी चाहिए। 411. छत्तीस गुणों से युक्त होने पर भी आचार्य को किसी दूसरे आचार्य के पास आलोचना, निंदा एवं गर्दा अवश्य करनी चाहिए। 412. प्रयत्नपूर्वक आलोचना क्यों करनी चाहिए? आचार्य कहते हैं कि तुम आलोचना करने के गुणों को मुझसे सुनो। 413. आलोचना करने के निम्न गुण हैं - * पंचविध आचार की सम्यक् आराधना। * विनयगुण का विस्तार। * आलोचना करने की परिपाटी का प्रवर्तन। * आत्मा की विशोधि। * ऋजु भाव-संयम का विकास। * आर्जव, मार्दव, लाघव और संतोष की वृद्धि। * मैं शल्यमुक्त हो गया हूं, इस प्रकार की तुष्टि। * आलोचना के संदर्भ में चिन्ता का नाश होने से प्रसन्नता की वृद्धि। 414. प्रव्रज्या ग्रहण करने से लेकर भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार करने तक त्रिक-ज्ञान, दर्शन और चारित्र में लगे अतिचारों की आलोचना कर चतुर्धा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः विशुद्धि करनी चाहिए। उत्तमार्थ-भक्तप्रत्याख्यान में जैसे स्वयं की आलोचना करे, वैसे ही पर की भी आलोचना करे। 415. तीन-ज्ञान, दर्शन और चारित्र तथा चतुष्क में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का समावेश होता है। इनमें जो अतिचार दोष लगता है, वह उन सबकी आलोचना करता है। 416. ज्ञान के निमित्त-अकल्पनीय द्रव्य का सेवन करने तथा चेतन-अचेतन से सम्बन्धित मिथ्या प्ररूपणा करने के विषय में आलोचना करना-यह ज्ञान सम्बन्धी द्रव्यतः आलोचना है। क्षेत्र आदि शेष की आलोचना इस प्रकार है४१७, 418. ज्ञान के निमित्त विहार करना क्षेत्र से सम्बन्धित अतिचार है। दुर्भिक्ष में भी ज्ञान-प्राप्ति हेतु उसी स्थान पर रहना-यह काल सम्बन्धी अतिचार है। भविष्य में ज्ञान होगा इसलिए शरीर का परिकर्म Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 313 करना', प्रतिदिन विगय का सेवन करना, मेधा बढ़ाने वाले मेध्य द्रव्यों की एषणा तथा उनका पान करना और वाचनाचार्य की पंचक हानि से क्रिया करना-ये ज्ञान से सम्बन्धित अतिचार हैं। 419. इसी प्रकार दर्शन में भी द्रव्य आदि से सम्बन्धित अतिचारों की आलोचना होती है लेकिन उसमें भेद यही है कि दर्शन का सम्बन्ध श्रद्धा से होता है। चारित्र के विषय में भी एषणा, स्त्री-दोष युक्त वसति तथा व्रतों से सम्बन्धित अतिचारों की आलोचना होती है। 420. अथवा त्रिक -ज्ञान, दर्शन और चारित्र का कभी आलम्बन सहित द्रव्य, क्षेत्र आदि चतुष्क से सम्बन्धित अकल्प्य का आसेवन होता है और कभी निरालम्बन–कारण बिना भी होता है, मुनि उन सबकी आलोचना करे। . 421. यदि कहीं प्रतिसेवना सम्बन्धी अतिचार विस्मृत हो जाएं तो उनका शल्योद्धरण करने के लिए कैसे वर्तन करना चाहिए? (इस संदर्भ में आचार्य कहते हैं-) 422. जिन-जिन स्थानों में मेरे द्वारा अपराध हुए हैं, उन सबको जिन भगवान् जानते हैं। मैं उन सबकी आलोचना करने के लिए सर्वात्मना उपस्थित हुआ हूं। 423. इस प्रकार विशुद्ध परिणाम से युक्त होकर आलोचना करता हुआ गौरवत्रिक और माया से रहित होने के कारण वह आराधक होता है। 424. भक्तप्रत्याख्याता के लिए प्रशस्त और योग्य स्थान कौन सा होता है? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि जहां ध्यान का व्याघात न हो, वह प्रशस्त स्थान है। 425, 426. ध्यान के व्याघात-स्थल निम्न हैं -1. गंधर्वशाला 2. नाट्यशाला 3. हस्तिशाला 4. अश्वशाला 5. चक्रशाला 6. यंत्रशाला 7. अग्निकर्मशाला-लोहकारशाला 8. परुष–कुंभकारशाला' ९.णंतिक्क-रंगरेजशाला 10. रजकशाला-वस्त्रधावनशाला, 11. देवड़-चर्मकारशाला, 12. डोंबशालानटशाला अथवा चांडाल जाति के गायकों की गायनशाला, 13. वादित्रशाला, 14. राजपथ', 15. चारक१. टीकाकार मलयगिरि ने शारीरिक परिकर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि व्याख्या प्रज्ञप्ति या महाकल्पश्रुत जैसे विशालकाय ग्रंथ का योग वहन करने के लिए घी पीना, प्रणीत आहार करना अथवा किसी रोग के होने पर वह वृद्धि को प्राप्त न हो इसलिए भी परिकर्म करना अतिचार है। १.व्यभा 4304 मटी प.६५। 2. शुद्ध आहार-पानी का लाभ न होने पर पांच दिनों के प्रायश्चित्त-स्थान का आसेवन कर उसकी प्राप्ति करना। इतने पर भी प्राप्ति न हो तो दस दिन की यावत् चार गुरुमास के प्रायश्चित्त-स्थान का आसेवन कर उनकी उपलब्धि करना। जहां गान्धर्विक संगीत का अभ्यास करते हैं, वह गन्धर्वशाला कहलाती है। १.व्यभा 4312 मटी. प.६६; गन्धर्वशालायां यत्र गान्धर्विका : संगीतं कुर्वन्ति। 4. तिल पीलने के स्थान को चक्रशाला कहते हैं। १.व्यभा 4312 मटी. प.६६; चक्रशालायां तिलपीडनशालायाम्। 5. इक्षु रस पीलने के स्थान को यंत्रशाला कहते हैं। 6,7. लोहकारशाला में लोहे के कूटने तथा कुंभकारशाला में अग्नि के परिताप से ध्यान में व्याघात उत्पन्न होता है। 8. राजपथ पर राजा की सवारी आने-जाने से उसकी समृद्धि देखकर कोई मुनि निदान कर सकता है इसलिए वह वर्जित है। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 जीतकल्प सभाष्य बंदीशाला, 16. कौष्ट्रकशाला-बढ़ईशाला, 17. कल्लाल-मद्यपानशाला, 18. क्रकच-काठ चीरने का स्थान, 19. पुष्पवाटिका, 20: उदक अर्थात् सरोवर, तालाब आदि के पास, 21. उद्यान, 22. यथाविकटअसंगुप्त द्वार वाला स्थान, 23. नागगृह तथा पूर्वभणित (बृहत्कल्प) में कथित स्थान भक्तप्रत्याख्याता के लिए उपयुक्त नहीं होते। 427. कल्पाध्ययन के प्रथम और द्वितीय उद्देशक में तथा विधिसूत्र (आचारचूला) में जिन उपाश्रयों का निषेध किया गया है, मुनि उनमें न रहे, इसके विपरीत स्थान में रहे। 428. उद्यान, वृक्षमूल, शून्यगृह, अननुज्ञात और हरियाली से युक्त मार्ग तथा इस प्रकार के अन्य स्थानों में भक्तप्रत्याख्याता मुनि नहीं रहता क्योंकि वहां समाधि में व्याघात होता है। 429. जहां इंद्रियप्रतिसंचार (इष्ट-अनिष्ट शब्द, रूप, गंध आदि) नहीं होता तथा मानसिक क्षोभ पैदा करने वाली स्थितियां नहीं होतीं, वैसी दो चतुःशालाओं की आज्ञा लेकर एक में भक्तप्रत्याख्याता तथा दूसरे में गच्छ के अन्य साधु रहते हैं। 430. वृषभ मुनि पानक और योग्य आहार को वहां स्थापित करे, जहां अपरिणत साधु और भक्तप्रत्याख्याता न जाए। अपरिणत मुनियों के वहां जाने से उनके मन में अविश्वास तथा भक्तप्रत्याख्याता के वहां जाने से उसके मन में खाने के प्रति आसक्ति हो सकती है। (अविश्वास और गृद्धि से बचाने के लिए वृषभ मुनि ऐसा करते हैं।) 431. गीतार्थ और भावित होने पर भी पहले भुक्तभोगी और आहारधर्मा होने के कारण वह आहार को देखकर शीघ्र ही क्षुब्ध हो सकता है। 432. जहां अनुकूल-प्रतिकूल विषय दूर हों, वहां भक्तप्रत्याख्याता को स्थित करके ज्ञानी होने पर भी उसके समक्ष धर्मचर्चा करनी चाहिए। 433. पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील आदि स्थानों से परिवर्जित, प्रियधर्मा, पापभीरु, गुणसम्पन्न और अपरिश्रान्त–इन गुणों से युक्त निर्यापक होते हैं। 434. भरत और ऐरवत क्षेत्र में जब जिस रूप में जैसा काल होता है, उसी के अनुसार अड़तालीस निर्यापक होते हैं। 435. निर्यापक के बारह चतुष्क और उनके कार्य इस प्रकार हैं-एक चतुष्क उद्ववर्तन-परावर्तन कराने वाला, दूसरा अभ्यन्तर मूलद्वार में स्थित रहने वाला, तीसरा संस्तारक करने वाला, चौथा धर्म-कथा कहने वाला, पांचवां वाद करने वाला, छठा अग्रद्वार पर स्थित रहने वाला, सातवां योग्य भक्त लाने वाला, आठवां योग्य पानक लाने वाला, नौवां उच्चार का परिष्ठापनकर्ता. दसवां प्रस्रवण का परिष्ठापक. ग्यारहवां आगंतुक लोगों को कथा कहने वाला तथा बारहवां चारों दिशाओं में स्थित चार समर्थ पुरुषों का चतुष्क। 1. निशीथ चूर्णि के अनुसार एक ही वसति में रहने से चतुर्गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। एक ही वसति में रहने से अन्न और पानक की गंध से भक्तप्रत्याख्याता का ध्यान विचलित हो सकता है।' 1. निचू 3 पृ. 297 / Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 315 436. इन बारह कार्यों में एक-एक में चार-चार मुनि नियुक्त होते हैं। पूर्व आदि चारों दिशाओं में भी एकएक निर्यापक रहता है। इस प्रकार निर्यापकों की संख्या 1244-48 हो जाती है। 437. निर्यापकों की उत्कृष्ट संख्या 48 है। कम से कम दो निर्यापक होने आवश्यक हैं। दो गीतार्थ क्यों रहने चाहिए? इसका कारण बताते हुए आचार्य कहते हैं कि यदि एक भिक्षा के लिए जाए तो कम से कम एक निर्यापक भक्तप्रत्याख्याता के पास रहे, भक्तप्रत्याख्याता अकेला न रहे। 438. सभी भक्तप्रत्याख्याता को अंतिम काल में अतीव तृष्णा-आहार की आकांक्षा उत्पन्न होती है अतः चरम आहार के रूप में उसे इष्ट आहार देना चाहिए। 439. अनुपूर्वीविहारी समाधि का इच्छुक भक्तप्रत्याख्याता मुनि को निर्यापक नौ प्रकार की विगय', सात प्रकार के ओदन, अठारह प्रकार के व्यञ्जन तथा प्रशस्त पानक आदि उपहृत करे। (वैसा करने से उसकी तृष्णा का अपनयन हो जाता है।) 440. भक्तप्रत्याख्याता ने कालानुमत और स्वभावानुमत (काल के अनुकूल एवं इच्छा के अनुकूल) अमुक प्रकार का आहार पहले सेवन किया है, यह किसी से सुनकर अथवा देखकर निर्यापक उसे वैसा ही चतुर्विध आहार यतनापूर्वक लाकर दे। 441. आहार की आकांक्षा का उच्छेद हो जाने पर पुनः आहार के प्रति उसका वैसा भाव उत्पन्न नहीं होता। यदि कदाचित् आकांक्षा उत्पन्न हो भी जाती है तो निम्न चिंतन से उसका निवर्तन कर लेता है। 442. भक्तप्रत्याख्याता चिन्तन करता है कि वह कौन सी वस्तु है, जिसका मैंने उपभोग नहीं किया है। शुचि पदार्थ भी शरीर में परिणत होकर अशुचि स्वरूप हो जाते हैं। वह तत्त्वदर्शी मुनि शुभ ध्यान में लीन रहता है। आहार के लिए प्रेरित करने पर वह अवसन्न होता है। 443. यह अंतिम आहार कर रहा है, ऐसा सोचकर उभयपक्ष-गृहस्थ और निर्यापक संयत -दोनों के मन में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। भक्तप्रत्याख्याता को इस विधि से चरम आहार दिया जाता है४४४. यह भक्तप्रत्याख्याता त्रिविधा आहार-(अशन, खादिम, स्वादिम) छोड़ेगा इसलिए निर्यापक उत्कृष्ट द्रव्यों की यतनापूर्वक याचना करके उसे चरम आहार देते हैं। 445. उसको देखकर कोई तीरप्राप्त (संसार का किनारा पाने वाला) मुनि चिन्तन करता है कि मुझे इन वस्तुओं से अब क्या प्रयोजन? इस प्रकार वैराग्य को प्राप्त करके वह संवेगपरायण हो जाता है। 446. कोई भक्तप्रत्याख्याता मनोज्ञ आहार का भोग करके सोचता है कि मुझे धिक्कार है। अब मुझे इस 1. व्यवहार और निशीथ भाष्य में कम से कम तीन निर्यापक होने चाहिए, ऐसा उल्लेख मिलता है। 1. व्य 4323, नि 3886 / / २.निभा (3887) में 'णवविगति सत्तओदण' के स्थान पर 'णवसत्तए दसमवित्थरे' पाठ मिलता है। इसमें दसमवित्थरे से विस्तृत अवगाहिम विगय को गृहीत किया गया है, जिसमें मिठाई, व्यञ्जन आदि अनेक द्रव्यों का ग्रहण होता है। 3. व्यवहारभाष्य की टीका में त्रिविध का अर्थ मन, वचन और काया किया है। 1. व्यभा 4329 मटी प.६९। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 जीतकल्प सभाष्य आहार से क्या प्रयोजन? इस प्रकार वह वैराग्य को प्राप्त होकर संवेगपरायण हो जाता है। 447. कोई भक्तप्रत्याख्याता सब प्रकार का आहार-भोग करके मनोज्ञ रस में परिणत होकर देशतः या सर्वतः आसक्ति से प्रतिबद्ध हो जाता है। 448. चरम आहार में द्रव्यतः एवं परिमाणतः न्यूनता करके विगय अथवा आहार में अनुबंध-आसक्ति का व्यवच्छेद करना चाहिए। आहार के प्रति अनुबंध रखने वाले को तीन कारणों से आहार दिया जाता है-१. गुणवृद्धि अर्थात् कर्मनिर्जरा 2. समाधि 3. अनुकम्पा। 449. चरम आहार में द्रव्यतः और परिमाणतः तीन दिनों तक प्रतिदिन आहार की न्यूनता करनी चाहिए। (परिमाण में प्रतिदिन द्रव्य की हानि करनी चाहिए, जैसे पहले दिन खीर लाए तो दूसरे दिन दही और तीसरे दिन ध।) दुर्लभ द्रव्य के विषय में भक्तप्रत्याख्याता को कहना चाहिए कि मुने! यह आहार प्राप्त नहीं होता तथा सुलभ द्रव्य के विषय में यह यतना है। 450. मुने! आहार सम्बन्धी आसक्ति का व्यवच्छेद करो। जो तुमने पहले नहीं खाया था, तीरप्राप्त होने पर भी तुम उसकी इच्छा क्यों कर रहे हो? 451. कर्म निर्जरा करने वाले श्रेष्ठ निर्यापक मुनि भक्तप्रत्याख्याता मुनि के सब प्रतिकर्म करने में रातदिन अपरिश्रान्त होकर लगे रहते हैं। 452. जो प्रतिचारक जिस प्रतिकर्म में कुशल होता है, शक्ति होते हुए वह उस प्रतिकर्म को नहीं छोड़ता। सभी निर्यापक अपने कर्म में उद्यत रहते हैं और भक्तप्रत्याख्याता की श्रद्धा को उद्दीप्त.करते रहते हैं। 453. देह का वियोग शीघ्र हो अथवा विलम्ब से, फिर भी भक्तप्रत्याख्याता और निर्यापक-दोनों के प्रवर्धमान निर्जरा होती है। गच्छ इसीलिए होता है कि परस्पर उपकार से दोनों की निर्जरा हो। 454. किसी भी संयम-योग में लगा हुआ मुनि प्रतिसमय अर्थात् क्षण-क्षण असंख्य भव में उपार्जित कर्मों का क्षय करता है। स्वाध्याय में लगा हुआ मुनि विशेष रूप से कर्मों का क्षय करता है। 455. किसी भी संयम-योग में लगा हुआ मुनि प्रतिसमय अर्थात् क्षण-क्षण असंख्य भव में उपार्जित कर्मों का क्षय करता है। कायोत्सर्ग में लगा हुआ मुनि विशेष रूप से कर्मक्षय करता है। 456. किसी भी संयम-योग में लगा हुआ मुनि प्रतिसमय अर्थात् क्षण-क्षण असंख्य भव में उपार्जित कर्मों का क्षय करता है। वैयावृत्त्य में लगा हुआ मुनि विशेष रूप से कर्मक्षय करता है। 457. किसी भी संयम-योग में लगा हुआ मुनि प्रतिसमय अर्थात् क्षण-क्षण असंख्य भव में उपार्जित कर्मों का क्षय करता है। उत्तमार्थ (अनशन) में लगा हुआ मुनि विशेष रूप से कर्मक्षय करता है। 458. भक्तप्रत्याख्याता मुनि का संस्तारक भूमि-शिला, फलक आदि का हो सकता है। संस्तारक के उत्तरपट्ट' एक, दो अथवा अनेक भी हो सकते हैं। १.यदि एक उत्तरपद बिछाने से भक्तप्रत्याख्याता को असमाधि हो तो दो अथवा अनेक उत्तरपद्र भी हो सकते हैं। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 317 459. यदि वह भी पर्याप्त न हो तो अझुषिर तृण आदि के तीन संस्तारक करे। उसके अभाव में यदि असमाधि हो तो शुषिर तृणों का संस्तारक करे। 460. यदि तृण-संस्तारक से समाधि न रहे तो भूमि पर कोयव-रुई से भरा वस्त्र (रजाई), उसके प्रावरण, नवय-ऊन का बना आस्तरण, दोनों पार्श्व में तूली अथवा आलिंगिनी रखे। यदि यह भी सहन न होता हो तो पर्यंक पर संस्तारक आदि करे। 461. यदि भक्तप्रत्याख्याता समर्थ हो तो वह स्वयं अपने वस्त्र एवं उपकरणों का प्रतिलेखन करता है, संस्तारक बिछाता है, पानक पीता है, उद्ववर्तन तथा गमन-निर्गमन आदि क्रियाएं करता है। यदि वह असमर्थ हो तो ये सारी क्रियाएं दूसरे मुनि करते हैं। 462. जो निर्यापक शरीर से पुष्ट तथा बलवान् है, वह उस भक्तप्रत्याख्याता को वसति से निष्क्रमण और प्रवेश करवाता है। यदि वह उसे सहन नहीं कर पाता तो संस्तारक में ही सारी क्रियाएं करवाता है। 463. उसकी समाधि के लिए मृदु संस्तारक करना चाहिए। उसे भी सहन नहीं करने पर उसकी समाधि के लिए इस उदाहरण को प्रस्तुत करना चाहिए। 464. धीर पुरुष द्वारा प्रज्ञप्त, सत्पुरुषों द्वारा सेवित, परम रम्य अभ्युद्यत मरण को स्वीकृत करके जो शिलातल पर स्थित होकर निरपेक्ष रूप से मरण की साधना कर रहे हैं, वे धन्य हैं। 465, 466. जिनकी धृति अत्यन्त सहायक है, ऐसे अतिशय धीर मुनि श्वापद-जंगली पशुओं से आकुल गिरि-कंदराओं में, विषम कटक तथा दुर्गों में उत्तमार्थ (अनशन) की साधना करते हैं तो फिर अनगारों की सहायता से तथा अन्यान्य बल के संग्रह से पारलौकिक उत्तमार्थ की साधना शक्य क्यों नहीं हो सकती है? - 467. जिनेश्वर के वचनों का माधुर्य अपरिमित होता है, वे अग्नि में घृताहुति की भांति कानों को तृप्त करते हैं। जो साधुओं के पास उन वचनों को सुनते हैं, वे संसार-समुद्र तर सकते हैं। 468, 469. सब काल में, सभी कर्मभूमियों में होने वाले सर्वज्ञ, सर्वगुरु, सर्वपूजित, मेरु पर्वत पर अभिषिक्त, सभी लब्धियों से सम्पन्न, सर्व परीषहों को पराजित करके सभी तीर्थंकर प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करके सिद्धिगति को प्राप्त हुए। 470. अतीत, अनागत और वर्तमान के शेष सारे अनगारों में कुछ प्रायोपगमन, कुछ भक्त-प्रत्याख्यान तथा कुछ इंगिनीमरण को प्राप्त हुए। 471. सभी आर्याएं (साध्वियां), सभी प्रथम संहनन से रहित मुनि तथा सभी देशविरत श्रावक भक्तप्रत्याख्यान अनशन से मरते हैं। 472. सब सुखों को उत्पन्न करने वाला, जीवन का सार तथा सभी का जनक आहार से बढ़कर और कोई उत्तम रत्न इस संसार में नहीं है। 473. शैलेशी अवस्था को प्राप्त अयोगी केवली, सिद्ध, विग्रह गति में स्थित जीव तथा केवलि-समुद्घात वाले जीवों को छोड़कर सभी संसारस्थ जीव सभी अवस्थाओं में आहार में उपयुक्त होते हैं। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 जीतकल्प सभाष्य 474. समस्त लोक के रत्नों में सारभूत ऐसे आहार-रत्न का सर्वथा त्याग करके साधु प्रायोपगमन अनशन में विहरण करते हैं। (वे धन्य हैं।) 475. इस प्रकार प्रायोपगमन अनशन को जिनेश्वर भगवान् ने निष्प्रतिकर्म प्ररूपित किया है। इसको सुनकर अनशनधारी अध्यवसाय और पराक्रम करता है। 476, 477. कोई अनशनग्रहण कर्ता परीषहों से व्याकुल होकर अथवा वेदना से आर्त होकर कदाचित् अशन या पानक की याचना करे तो उसे 'तुम गीतार्थ हो या अगीतार्थ' यह स्मृति कराकर प्रतिबोध देकर छठे रात्रिभोजन विरमण सम्बन्धी बोध देकर पहले अशन तथा फिर पानक प्रस्तुत करे। 478. भक्तप्रत्याख्याता को परीषह रूप सेना के साथ मन, वचन और काया से युद्ध करना पड़ता है अतः मरण के समय कवचभूत आहार उसे दिया जाता है। 479. दो संग्राम हुए -महाशिलाकंटक तथा रथमुशल। इनका वर्णन भगवती सूत्र में है। असुरेन्द्र चमर और देवेन्द्र शक्र ने कूणिक के लिए वज्रमय कवच का निर्माण किया। राजा चेटक युद्ध में एक ही बाण चलाते थे। 1. अनशन स्वीकार करने के पश्चात् कभी-कभी भक्तप्रत्याख्याता प्रान्त देवता से प्रभावित होकर भी भक्त-पान की याचना कर लेता है। स्पष्टीकरण के लिए उससे प्रश्न पूछना चाहिए। यदि वह सब प्रश्नों के उत्तर सही दे तो. जान लेना चाहिए कि यह प्रान्त देवता से अधिष्ठित नहीं अपितु परीषहों से प्रभावित होकर याचना कर रहा है। 1. व्यभा 4361 मटी प. 72 / 2. भगवती सूत्र में महाशिलाकंटक और रथमुशल संग्राम का वर्णन मिलता है। युद्ध की पृष्ठभूमि का विस्तृत वर्णन निरयावलिका सूत्र में मिलता है। ये दोनों युद्ध राजा चेटक और कूणिक के मध्य हुए। इनमें असुरेन्द्र चमर और देवेन्द्र शक्र ने कूणिक को पूर्ण सहयोग दिया। देवेन्द्र शक्र ने वज्रमय अभेद्य कवच का निर्माण किया। राजा कूणिक ने दोनों युद्धों में नौ मल्ल और नौ लिच्छवियों को हराया। महाशिलाकंटक संग्राम में अश्व, हाथी या योद्धा आदि पर तृण, काष्ठ या कंकर का भी प्रहार किया जाता तो दिव्य प्रभाव से शत्रु सेना को ऐसा अनुभव होता मानो महाशिला से प्रहार किया जा रहा हो। इस युद्ध में चौरासी लाख मनुष्य मारे गए। दूसरे रथमुशल संग्राम में भी राजा कूणिक ने नौ मल्ल और नौ लिच्छवियों को जीता। इस युद्ध में एक रथ चल रहा था, जिसमें न घोड़ा जुता हुआ था और न ही कोई सारथी उसे चला रहा था। उसमें कोई योद्धा भी बैठा हुआ नहीं था। उसमें एक मुशल था, जिसके द्वारा फेंका गया एक पत्थर या कंकर भी मुशल जैसा प्रहार करता था। वह प्रलय करता हुआ योद्धाओं का वध कर रहा था अतः उस संग्राम का नाम रथमुशल संग्राम हुआ। इस युद्ध में छियानवें लाख मनुष्य मारे गए। कुल मिलाकर इन दोनों युद्धों में एक करोड़ अस्सी लाख मनुष्य मारे गए। इस युद्ध में चेटक ने अपने देवप्रदत्त बाण से कूणिक के दस भाइयों को मार दिया। तब कोणिक ने दुःखी होकर त्रिदिवसीय अनुष्ठान किया तथा सौधर्मेन्द्र और चमरेन्द्र की आराधना की। पूर्व मित्रता के कारण चमर ने महाशिलाकंटक और रथमुशल युद्ध प्रदान किया। बौद्ध साहित्य में अजातशत्रु विदेहपुत्र और वज्जी गणराज्य के बीच युद्ध का वर्णन प्राप्त होता है, वहां चेटक के नाम का उल्लेख नहीं है। 1. भ. 7/173-211 / 2. निर. 1/94-141 / 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.५। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 319 480, 481. महाशिलाकंटक संग्राम में चेटक के रथिक ने वृक्ष पर चढ़कर बाण से कोणिक की पीठ पर प्रहार किया। वह बाण भी कोणिक के वज्रमय कवच के आवरण से टकराकर नीचे गिर गया। तब कोणिक ने क्षुरप्र से चेटक के शिर का छेद कर दिया। 482. इस दृष्टान्त का उपनय यह है कि कवच स्थानीय है-आहार, शत्रु है परीषह और राज्यस्थानीय है आराधना। 483. जैसे हाथी पर चढ़ने वाला व्यक्ति हाथी के पैरों को मोड़कर उन पर अपना पैर रखकर हाथी पर चढ़ता है, वैसे ही भक्तपरिज्ञा को स्वीकार करने वाला आहार के द्वारा उत्तम ध्यान में आरूढ़ होता है। 484. जैसे उपकरण से रहित पुरुष अपने कार्य को सिद्ध नहीं कर सकता, वैसे ही आहार के बिना भक्तप्रत्याख्याता मुनि परीषहों को नहीं जीत सकता। यहां ये दृष्टान्त हैं४८५-८७. जैसे फसल काटने वाला दात्र -दांती के बिना, नदी पार करने वाला नौका के बिना, संग्राम में योद्धा शस्त्रों के बिना, पथिक जूतों के बिना, रोगी औषध के बिना, शिक्षक (संगीत आदि सिखाने वाला) उपकरणों के बिना अपने कार्य को नहीं साध सकते। इसी प्रकार समाधि का इच्छुक व्यक्ति आहार के बिना समाधि को नहीं साध सकता अतः समाधि के लिए उस भक्तप्रत्याख्याता को आहार देना चाहिए। 488. धृति और संहनन से हीन तथा परीषहों को सहने में असमर्थ व्यक्ति चन्द्रकवेध्य' –पुतली की आंखों को वेधने से चूक जाता है, वैसे ही कवचभूत आहार के बिना भक्तप्रत्याख्याता विचलित हो जाता है। 489. (शिष्य पूछता है-) जिसने शरीर को छोड़ दिया, उसके मन में भोजन के प्रति कैसी आसक्ति? (आचार्य उत्तर देते हैं-) समाधि की प्राप्ति के लिए उसे अंत समय में आहार दिया जाता है। 490. निर्यापक साधु शुद्ध आहार-पानी की गवेषणा करते हैं। प्रतिदिन आहार की हानि होने पर या शुद्ध आहार की प्राप्ति न होने पर पूर्वोक्त पंचक यतना' से गवेषणा कर अन्यत्र गुप्त रूप से उस आहार को स्थापित करते हैं। 491. निर्व्याघात रूप से भक्तप्रत्याख्याता के कालगत हो जाने पर उसके शरीर का विधिपूर्वक परिष्ठापन करना चाहिए। उसके शरीर पर चिह्न करना चाहिए। चिह्न न करने पर चार गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 492. उपकरण और शरीर पर चिह्न न करने पर शव को देखकर कोई दण्डिक मार्गणा-गवेषणा करता 1. चन्द्रकवेध्यक का अर्थ है-आठ अर वाले चक्र के ऊपर पुत्तलिका की अक्षिचन्द्रिका को बींधना।' १.निभा 3424 चू पृ. 212; चक्राष्टकमुपरिपुत्तलिकाक्षिचन्द्रिकावेधवत् दराराध्यमनशनं। 2. पंचकहानि के लिए देखें गा. 418 का दूसरा टिप्पण। . 3. मृत साधु के शरीर और उपकरण-दोनों पर चिह्न किया जाता है। शिर का लोच किया जाता है। मुख पर मुखवस्त्रिका बांधी जाती है। हाथ-पैर बांधे जाते हैं। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 जीतकल्प सभाष्य हुआ आसपास के अनेक गांव के लोगों का घात कर सकता है। (अतः भक्तप्रत्याख्याता के शरीर और उपकरणों पर चिह्न करके विधिपूर्वक उसका परिष्ठापन करना चाहिए।) 493. यदि परीषहों के उदय से भक्तप्रत्याख्याता को व्याघात हो जाए तो निर्यापक साधु उसे प्रकाशित न करे क्योंकि इससे प्रवचन का लघुत्व होता है। व्याघात उत्पन्न होने पर गीतार्थ को उपाय करना चाहिए। 494, 495. गीतार्थ को क्या उपाय करना चाहिए, इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि व्याघात की स्थिति में संलेखनागत किसी अन्य उत्साहित मुनि को भक्तप्रत्याख्याता के संस्तारक पर सुला देना चाहिए तथा भक्तप्रत्याख्याता का एकान्तस्थान में ग्लान-परिकर्म करना चाहिए। अन्य मुनि की अनुपस्थिति में उस संस्तारक पर वृषभ मुनि को स्थापित किया जाए फिर लोगों के सामने यह प्रकाशित किया जाए कि वह भक्तप्रत्याख्याता मुनि कालगत हो गया तथा सन्ध्याकाल में उसे उपाश्रय से बाहर निकाल दिया गया। 496. यदि दण्डिक आदि को यह बात ज्ञात हो जाए तो यह यतना करनी चाहिए-सभी साधु वहां से चले जाएं अथवा किसी अन्य सहायक के साथ भक्तप्रत्याख्याता को अन्यत्र प्रेषित कर दे। भक्तप्रत्याख्याता की निंदा करने पर चार अनुद्घात-गुरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 497. सपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान के व्याघातिम और निर्व्याघातिम भेदों के बारे में वर्णन कर दिया, अब मैं दूसरे अपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान के निर्व्याघातिम भेद के बारे में कहूंगा। 498. पराक्रम तथा बल से हीन भक्तप्रत्याख्याता अन्य गण में नहीं जाता, वह अपने गण में ही अनशन स्वीकार करता है। सपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान की भांति अपराक्रम के बारे में भी जानना चाहिए। निर्व्याघात अनशन का वर्णन पूर्ण हो गया। 499. इस प्रकार आनुपूर्वी व्याघातिम भक्तप्रत्याख्यान के विषय में जानना चाहिए। इसमें अन्तर केवल इतना ही है कि मुनि रोग और आतंक से अभिभूत होकर अनशन को स्वीकार करता है। यदि निम्न कारणों से मरता है तो वह व्याघातिम भक्तप्रत्याख्यान बालमरण भी हो सकता है। . 500. व्याल, भालू, विष, विसूचिका-हैजा, आतंक, कौशलक श्रावक, उच्छ्वास, गृध्रपृष्ठ', रज्जू आदि से 1. टीकाकार मलयगिरि के अनुसार यदि अनशन स्वीकार करने के बाद भी बाल बढ़ जाएं तो लोच अवश्य कर देना चाहिए तथा उपकरण आदि उसके पास रख देने चाहिए। चिह्न न होने पर कोई मृत शरीर को देखकर यह सोच सकता है कि इस गृहस्थ को किसी ने बलपूर्वक मार दिया है। यदि यह बात दंडिक के पास पहुंचती है तो मार्गणा और गवेषणा के लिए वह पांच-दश गांवों का घात कर सकता है। 1. व्यभा 4375 मटी प. 74 / 2. गृध्रपृष्ठ मरण में हाथी, ऊंट, गीध आदि बृहत्काय पशओं के कलेवर में प्रविष्ट होने से उस कलेवर के साथ साथ उस जीवित शरीर को भी गीध, चील, शृगाल आदि जानवर नोच-नोचकर मार देते हैं। खाल में प्रविष्ट जीवित मनुष्य उनको निवारित नहीं करता है। गृध्रपृष्ठ का अर्थ है-गीध आदि के द्वारा खाए जाने वाले शरीर के पीठ, उदर आदि अवयव / परिस्थिति आने पर संयम की रक्षा हेतु इस मरण को कोई बलशाली व्यक्ति ही स्वीकार कर सकता है, यह कर्मनिर्जरा का प्रधान साधन है। 1. उशांटी प. 234 // Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 321 फांसी', वैहायस मरण, दुर्भिक्ष, अशिव, अभिघात, संबद्ध –जकड़न आदि कारणों से होने वाला मरण बालमरण हो सकता है। 501-07. व्याल अर्थात् सर्प आदि के द्वारा खाने से शरीर सड़ने पर, भालू के द्वारा कान, होठ या नाक आदि काट लेने पर, विष व्याप्त होने पर, विसूचिका रोग उत्पन्न होने पर, तीन बार चिकित्सा-क्रिया करा लेने पर भी रोग शान्त नहीं हो ऐसा क्षय आदि आतंक उत्पन्न होने पर, दुर्भिक्ष में कौशलक श्रावक ने अन्यत्र विहार करके पांच सौ साधुओं को यह कहकर रोका कि मैं आप लोगों को भक्तपान दूंगा। बाद में लाभ को जानकर उस लुब्ध ने धान्य को बेच दिया। वृत्तिछेद–भोजन आदि न मिलने पर उस दुर्भिक्ष काल में क्षुधा वेदना को सहन न कर पाने के कारण कौशल देश में साधुओं ने श्वास-निरोध आदि करके बालमरण को प्राप्त किया। कौशल देश की भांति अन्य देश में भी दर्भिक्ष होने पर यह स्थिति हो सकती है अथवा जंगल में मार्ग छूटने पर गृध्रपृष्ठ आदि मरण तथा अशिव गृहीत होने पर, विद्युत् का अभिघात होने पर, गिरिभित्ति अथवा पहाड़ के कोने से गिरने पर तथा वायु से हाथ-पैर जकड़ जाने पर होने वाला मरण बालमरण होता 508. इन कारणों से होने वाले मरण को व्याघातिम मरण जानना चाहिए। परिकर्म किए बिना वह भक्तप्रत्याख्यान स्वीकृत करता है। 509. यदि साधु उपर्युक्त पंडित मरण करने में असमर्थ होता है तो श्वासनिरोध, गृध्रपृष्ठ और रज्जु का फंदा लगाकर मरण प्राप्त करते हैं। 510. अनुपूर्वी विहारी-ऋतुबद्धकाल में मासकल्प तथा वर्षावास में चार मास के कल्प से विहार करने 1. गले में रस्सी बांधकर वृक्ष की शाखा पर लटकने, पर्वत से गिरने, प्रपात से झंपा लेने से होने वाले मरण को वैहायस . मरण कहा जाता है। भाष्यकार ने यहां वैहायसमरण को बालमरण के अन्तर्गत सम्मिलित किया है लेकिन गध्रपृष्ठ और वैहायस-ये दोनों मरण दर्शन की मलिनता और चारित्र में अधीरता आदि प्रसंग आने पर तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात * हैं। उदायी राजा के मरने पर आचार्य ने इन दोनों में से किसी एक मरण को स्वीकार किया था।' आचारांग में ब्रह्मचर्य की सुरक्षा हेतु मुनि को वैहायस मरण के प्रयोग की स्वीकृति दी गई है। ठाणं में भी शील रक्षा हेतु ये दोनों मरण अनुज्ञात हैं। टीकाकार शान्त्याचार्य के अनुसार गृध्रपृष्ठ मरण का अन्तर्भाव वैहायस मरण में हो जाता है। अल्पशक्ति वाले इस मरण को स्वीकार नहीं कर सकते अतः इसका पृथक्ग्रहण किया गया है। गृध्रपृष्ठ और वैहायस मरण के बारे में आचार्य महाप्रज्ञ की समालोचनात्मक टिप्पणी पठनीय है। 1. उशांटी प. 234, 235 / 2. उशांटी प. 234, 235 / 3. आ८/५८; तवस्सिणो हुतं सेयं, जमेगे विहमाइए। 4. स्था 2/413 / 5. उशांटी प. 234; एवं गध्रपृष्ठस्याप्यात्मघातरूपत्वाद्वैहायसिकेऽन्तर्भावः, सत्यमेतत्, केवलमल्पसत्त्वरध्यवसातुम शक्यताख्यापनार्थमस्य भेदेनोपन्यासः। 6. भभा 1,2/49, पृ. 227-30 / / २.कथा के विस्तार हेतु देखें परि 2, कथा सं.६। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 जीतकल्प सभाष्य वालों तथा उत्सर्ग में संयम-पालन करने वालों की जो शोधि होती है, वह शोधि व्याल आदि खाए जाने पर विहरण करने वालों की नहीं होती क्योंकि आहार-लोप के कारण उत्तर गुणों की वृद्धि नहीं हो सकती। 511. भक्तप्रत्याख्यान में स्वयं तथा दूसरे निर्यापकों की विधि कही, अब इंगिनीमरण और प्रायोपगमन में आत्म-निर्यापन-आत्मसेवा के बारे में कहूंगा। 512. प्रव्रज्या ग्रहण करके जब तक जीवन का विच्छेद न हो, तब तक मुनि पांच तुलाओं से स्वयं को तोलकर इंगिनीमरण अनशन में प्रवृत्त होता है। 513. भक्तपरिज्ञा में आत्म परिकर्म और पर परिकर्म-ये दोनों अनुज्ञात हैं / इंगिनीमरण में चतुर्विध आहार की विरति तथा परपरिकर्म वर्जित होता है। 514. उपसर्ग और परीषहों को सहन करता हुआ इंगिनीमरण स्वीकार करने वाला साधु खड़े होना, बैठना, सोना आदि इत्वरिक क्रियाएं यथासमाधि स्वयं करता है। 515. संहनन (प्रथम तीन संहनन) और धृति से सम्पन्न, श्रुत में नवपूर्वी, दशपूर्वी अथवा अंगों का धारक मुनि नियम से इंगिनीमरण अनशन स्वीकार करता है। 516. प्रव्रज्या आदि स्वीकार करके जब तक जीवन का विच्छेद न हो, तब तक पांच तुलाओं से स्वयं को तोलकर साधु प्रायोपगमन अनशन में परिणत होता है। 517. प्रायोपगमन अनशन दो प्रकार का जानना चाहिए-निर्हारी तथा अनिर्हारी। ग्राम आदि के बाहर गिरि-कंदरा में प्रायोपगमन अनशन को स्वीकार करना निर्हारी अनशन है। 518. गोकुल आदि के अंदर जब साधु उठने की स्थिति में न हो तो वह अनिर्हारी प्रायोपगमन अनशन है। इसका नाम पादपगमन क्यों है? क्योंकि यहां पादप-वृक्ष की उपमा दी गई है। 519. जैसे पादप सम या विषम भूमि पर जिस रूप में भी गिरता है, वह निष्कम्प रहता है। पादप की भांति साधु जब अपने अंगों को निश्चल और निष्प्रतिकर्म रखता है तो वह पादपोपगमन–प्रायोपगमन अनशन कहलाता है। 520. जैसे वायु आदि परप्रयोग से वृक्ष चलित होता है, वैसे ही प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करने वाला शत्रु आदि के द्वारा हिलाए जाने पर चलित होता है। 521. त्रस प्राणी और बीज आदि से रहित, विस्तीर्ण, विशुद्ध और निर्दोष स्थण्डिल भूमि में निर्दोष साधु अभ्युद्यत मरण स्वीकार करते हैं। 1. व्यवहारभाष्य की टीका में निर्दारिम और अनि रिम की व्याख्या में कुछ अंतर है। वहां ग्राम आदि के अंदर स्वीकार किया जाने वाला अनशन, जिसमें दिवंगत होने पर मृत शरीर का निष्काशन किया जाता है, वह निर्दारिम प्रायोपगमन अनशन है तथा जो अनशन ग्राम आदि के बाहर स्वीकार किया जाता है, वह अनिर्झरिम प्रायोपगमन अनशन कहलाता है। १.व्यभा 4394 मटी प.७६;-निर्हारिमं नाम यद्ग्रामादीनामन्तः प्रतिपद्यते ततो हि मृतस्य स ततस्तस्यशरीरं निष्काशनीयं भवति, अनिििरमं नाम यद् ग्रामादीनां बहिः प्रतिपद्यते। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 323 522. पूर्वभव के वैर के कारण कोई देवता प्रायोपगमन अनशनी का पाताल में संहरण कर लेता है तो भी चरमशरीरी होने के कारण वह किंचित् भी वेदना को प्राप्त नहीं करता। 523. प्रायोपगमन' अनशन स्वीकार करने वाले दिव्य, मानुष तथा तिर्यञ्च सम्बन्धी सभी उपसर्गों को पराजित करके विहरण करते हैं। 524. देव या मनुष्य कोई उसके मुख में द्विक या त्रिक प्रक्षिप्त कर दे तो भी वह व्युत्सृष्ट और त्यक्त देह वाला अनशनी जीवन पर्यन्त अपनी प्रतिज्ञा का वहन करता है। 525. द्रव्यों का द्विक -अनुलोम और प्रतिलोम द्रव्य, त्रिक-अनुलोम, प्रतिलोम और उभय सहित अथवा सचित्त और अचित्त का द्विक तथा सचित्त, अचित्त और मिश्र-यह त्रिक होता है। 526. कोई प्रायोपगमन अनशनी को पृथ्वी, अप्, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय पर संहृत कर दे तो भी वह व्युत्सृष्ट त्यक्तदेह अनशनी यावज्जीवन प्रतिज्ञा का पालन करता है। 527. धृति और बल से युक्त उन धीर पुरुषों के द्वारा जिस रूप में उपसर्ग सहन किए गए हैं, उनके उदाहरणों को मैं संक्षेप में कहूंगा। 528, 529. कुंभकारकट नगर में दंडकी राजा, पुरंदरयशा रानी तथा पालक नामक पुरोहित था। तीर्थंकर मुनि सुव्रतस्वामी के शिष्य स्कन्दक अनगार को 500 शिष्यों के साथ रुष्ट पुरोहित ने कोल्हू में पील दिया। सभी मुनि राग-द्वेष के तुलाग्र को सम करते हुए, समभाव का चिंतन करते हुए समाधि-मरण को प्राप्त हुए। * 530. यंत्र, करवत, शस्त्र और विविध श्वापदों के द्वारा शरीर का विध्वंस होने पर भी प्रायोपगमन अनशनी ध्यान से विचलित नहीं होते। 531. शत्रुभाव से प्रेरित होकर अशुभ परिणाम वाला कोई व्यक्ति प्रायोपगमन अनशनी के चारों ओर अग्नि प्रज्वलित कर दे तो भी उसका ध्यान विचलित नहीं होता, जैसे कंडों की अग्नि के बीच चाणक्य का ध्यान विचलित नहीं हुआ। 532. शत्रुतावश कोई व्यक्ति प्रायोपगमन में स्थित मुनि के शरीर की चमड़ी को कीलों से उधेड़कर शरीर को घृत और मधु से चुपड़कर चींटियों को देदे, तब भी वह मुनि अविचल भाव से उस कष्ट को सहन करता है। 533. जैसे व्युत्सृष्ट और निसृष्टदेह वाले चिलातपुत्र के रक्त की गंध से चींटियों ने उसके शरीर को 1. प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करने वाला सर्वप्रथम अर्हत् और गुरु को वंदना करके गिरिकंदरा में जाकर दंडायत आदि किसी आसन में स्थिर हो जाता है। वह यावज्जीवन निश्चेष्ट होकर उसी मुद्रा में स्थिर रहता है। 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.७ / 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.८। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 जीतकल्प सभाष्य चलनी जैसा बना दिया, फिर भी वह ध्यान से विचलित नहीं हुआ। 534. मोद्गल्य शैल शिखर पर जैसे शृगाल रूप में विकुर्वित देव ने प्रायोपगमन में स्थित कालासवैश्य पुत्र मुनि के शरीर को खा लिया। 535. जैसे व्युत्सृष्ट त्यक्त देह वाले प्रायोपगमन अनशन में स्थित मुनि को किसी शत्रु ने बांस के बने झुरमुट में फेंक दिया। जब बांस के पत्ते और डंडे बाहर निकले तो मुनि उनके द्वारा आकाश में उछाला गया। (उसने समभाव से उस वेदना को सहन किया।) 536. जैसे व्युत्सृष्ट, निसृष्ट, त्यक्तदेह और धीर अवन्तीसुकुमाल मुनि के शरीर को शृगाली ने अपने बच्चों के साथ तीन रात तक भक्षण किया। 537. जैसे व्युत्सृष्ट, निसृष्ट और त्यक्तदेह वाले कुछ मुनि गोट्ठस्थान-स्थान विशेष में प्रायोपगमन अनशन में स्थित थे। पानी से बहते हुए वे नदी के गर्त के कचरे में फंस गए। (समभाव से वेदना सहन करते हुए वे कालगत हो गए।') 538. जैसे बत्तीस धीर युवकों का समूह व्युत्सृष्ट, निसृष्ट और त्यक्त देह होकर अनशन में स्थित था। उन सबको द्वीपान्तरवर्ती एक म्लेच्छ ने वृक्ष की शाखा पर लटका दिया। 539. कोई तिर्यञ्च अथवा मनुष्य प्रायोपगमन अनशन में स्थित मुनि को विचलित करने के लिए बावीस परीषहों की आनुपूर्वी (पुर्वानुपूर्वी, पश्चादनुपूर्वी अथवा अनानुपूर्वी) क्रम से उदीरणा करे अथवा अनुकम्पा से प्रेरित होकर इष्ट विषयों की उदीरणा अथवा मुनि की रक्षा करे तो भी मुनि समभाव से उसे सहन करे। 540. प्रायोपगमन अनशनकर्ता मानता है कि जिस प्रकार तलवार म्यान में रहती है पर म्यान और तलवार दोनों अलग-अलग हैं, उसी प्रकार मेरा शरीर और जीव दोनों भिन्न-भिन्न हैं। 541. (उपसर्गों को समभाव से सहन करने पर) मुनि के एकान्त निर्जरा होती है तथा दो प्रकार की निश्चित आराधना होती है-अंतक्रिया-सिद्धिगति की प्राप्ति अथवा देवलोक में उत्पत्ति / 542. इस प्रकार धृति और बल से युक्त अनशनी प्रतिलोम उपसर्गों को समता से सहन करता है। वह अनुकूल उपसर्ग जिस रूप में सहता है, उसको मैं उसी रूप में कहूंगा। 543. कोई व्यक्ति अनशनकर्ता का सत्कार-सम्मान अथवा उसको स्नान आदि कराता है तो भी व्युत्सृष्ट 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 9 / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 10 / 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 11 / 4. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं. 12 / 5. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 13 / 6. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 14 / Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 325 और त्यक्त देह वाला वह मुनि जीवन-पर्यन्त अपने नियम का पालन करता है। 544. पूर्वभव के प्रेम के कारण कोई देव अनशन में स्थित उस मुनि का संहरण करके देवकुरु अथवा उत्तरकुरु क्षेत्र में ले जाता है, जहां सभी प्रकार के शुभ अनुभाव होते हैं तो भी मुनि जीवन-पर्यन्त अपनी प्रतिज्ञा का पालन करता है। 545. पूर्वभविक प्रेम के कारण कोई देव अनशन स्थित मुनि का संहरण करके नागभवन में ले जाता है, जहां सभी प्रकार के इष्ट, कान्त और शुभ अनुभाव होते हैं, (फिर भी मुनि यथायुः प्रतिज्ञा का पालन करता है।) 546, 547. कोई बत्तीस लक्षणों से युक्त नग्न शरीर वाला मुनि प्रायोपगमन अनशन में स्थित है, तब यदि कोई पुरुषद्वेषिणी राजकन्या राजा की आज्ञा से उसको पकड़कर स्नान तथा गंध द्रव्य का लेप करती है, पुष्पोपचार करके परिचारणा-गले लगाना, चुम्बन आदि करती है, वह श्रेष्ठ राजकन्या इन गुण-समूहों से युक्त होती है५४८. श्रोत्र आदि नौ अंग जिसके विकसित हो गए हैं, जो अठारह प्रकार की देशीभाषा तथा रति-क्रीड़ा विशेष में कुशल; चौंसठ महिला गुणों तथा बहत्तर कलाओं में निपुण है। 549-52. दो श्रोत्र, दो नेत्र, दो नासापुट, जिह्वा, स्पर्शन और मन-ये नौ अंग स्रोत हैं, देशी भाषा अठारह प्रकार की हैं। रति क्रीड़ाएं उन्नीस हैं, कौशल इक्कीस प्रकार का है-इन सभी गुणों से युक्त तथा रूप, यौवन, विलास और लावण्य से युक्त, चतुःकर्ण रहस्य से युक्त राजकन्या रागवश राज जा की आज्ञा से प्रायोपगमन में स्थित मुनि को ग्रहण कर लेती है। अनेक प्रकार से मुनि को क्षुब्ध करने पर भी जैसे सागर मछलियों एवं मगरमच्छों से क्षुब्ध नहीं होता, वैसे ही वह मुनि का चित्त क्षुभित नहीं कर पाती। जब वह पराजित हो जाती है, मुनि का शील खंडन करने में समर्थ नहीं होती, तब वह मुनि को पर्वत-शिखर पर ले जाकर नीचे गिराकर उसके ऊपर शिला फेंक देती है। 553. समभाव से सहन करने वाले उस मुनि के एकान्त निर्जरा होती है तथा दो प्रकार की आराधना निश्चित होती है-अंतक्रिया-सिद्धिगति की प्राप्ति अथवा देवलोक में उत्पत्ति / 554, 555. इस प्रकार देव, मनुष्य और तिर्यञ्च के द्वारा उत्पन्न बहुविध अनुलोम और प्रतिलोम घोर उपसर्गों से निर्दयतापूर्वक विचलित करने पर भी प्रायोपगमन अनशन में स्थित मुनि वैसे ही ध्यान से विचलित नहीं होता, जैसे मेरु पर्वत पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण-इन चारों दिशाओं से आकर टकराने वाली हवाओं से प्रकम्पित नहीं होता। 556. प्रायोपगमन अनशकर्ता वज्रऋषभनाराच संहनन वाला होता है। उसकी धृति शैलकुड्य के समान 1. दो आंख, दो कान, दो नासापुट, जिह्वा, स्पर्शन और मन-ये नौ अंग जब तक यौवन न आए, तब तक सुप्त रहते हैं। उस समय आलिङ्गन आदि में वह रति-सुख प्राप्त नहीं होता। यौवन आने पर ये प्रतिबुद्ध-विकसित हो जाते हैं। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 जीतकल्प सभाष्य होती है। चौदह पूर्वी के विच्छेद के साथ ही प्रथम संहनन और प्रायोपगमन अनशन का विच्छेद हो गया। 557. यह निष्प्रतिकर्म प्रायोपगमन अनशन जिनेश्वर भगवान् द्वारा प्ररूपित है। तीर्थंकर, गणधर और साधुओं के द्वारा यह उदारभाव से सेवित है। 558. इसी प्रकार वर्तमानकाल में भी यथानुरूप जिस प्रकार शोधि होती है तथा शोधिकारक हैं, उन सबका मैंने वर्णन किया है। 559. इस आगम व्यवहार को मैंने यथोपदिष्ट यथाक्रम से कहा है। अब मैं श्रुत व्यवहार का यथाक्रम से निरूपण करूंगा। हे वत्स! उसे तुम सुनो। 560. चौदहपूर्वी भद्रबाहु ने श्रुत का निर्वृहण किया। पंचविध व्यवहार द्वादशांग का नवनीत है। 561. जिसने सूत्र–कल्प और व्यवहार आदि बहुत ग्रंथ पढ़ लिए फिर भी जो सूत्रार्थ में निपुण नहीं है, वह श्रुतधरों के लिए कल्प और व्यवहार में निपुण नहीं होता। 562. जो इन सूत्रों को बहुत पढ़ता है और इनके अर्थ में भी निपुण होता है, वह कल्प और व्यवहार में श्रुतधरों के लिए प्रमाणभूत होता है। 563, 564. जो परम निपुण कल्प (बृहत्कल्प) तथा व्यवहार की नियुक्ति को अर्थतः नहीं जानता, वह व्यवहारी के रूप में अनुज्ञान नहीं होता। जो परमनिपुण कल्पाध्ययन तथा व्यवहार की नियुक्ति को अर्थतः जानता है, वह व्यवगार्टी के रूप में अनुज्ञात होता है। 565. यह श्रुतव्यवहार यथोपदिष्ट तथा यथाक्रम से कहा गया है। वत्स! अब मैं आज्ञाव्यवहार का यथाक्रम से वर्णन करूंगा। 566. कोई श्रमण उत्तमार्थ अर्थात् भक्तप्रत्याख्यान को करने के लिए तत्पर होकर अपने शल्यों का उद्धरण करने के लिए अभिमुख हो किन्तु छत्तीस गुणों के धारक प्रायश्चित्त व्यवहारी आचार्य वहां से दूर हों तो (वहां आज्ञाव्यवहार का प्रवर्तन होता है।)। 567. (आलोचना करने का इच्छुक मुनि सोचता है कि) अब आचार्य के पास जाने का कारण उपस्थित हो गया है लेकिन अब मैं अशक्त हो गया हूं। व्रतषट्क आदि अठारह स्थानों में से किसी एक स्थान में मेरे द्वारा अतिचार का सेवन हुआ है। मैं अतिचार में पड़ा हूं अतः आज्ञाव्यवहार की इच्छा करता हूं। 568. अपराक्रमी तपस्वी शोधिकर आचार्य के पास जाने में समर्थ नहीं होता तो वह उनके पास शोधि हेतु अपने शिष्य को भेजकर कहता है-'मैं आपके पास शोधि करना चाहता हूं।' 569. गति में असमर्थ शोधिकर आचार्य भी अपने धारणाकुशल शिष्य को उसके पास भेजते हैं। वहां भेजने के योग्य शिष्य की इस विधि से परीक्षा करते हैं। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 327 570. गति में असमर्थ वह आलोचनाचार्य आज्ञापरिणामक' शिष्य की परीक्षा करता है। वह वृक्ष और बीज के आधार पर उसकी परीक्षा करता है। इस परीक्षा के बाद वह यह देखता है कि वह सूत्र और अर्थ को मोहरहित होकर धारण कर सकता है या नहीं? 571, 572. एक बड़े वृक्ष को देखकर आचार्य ने परीक्षा हेतु शिष्य से कहा-'वत्स! इस वृक्ष पर चढ़कर कूद जाओ।' इस बात को सुनकर अपरिणत शिष्य कहता है कि वृक्ष पर चढ़ना साधु के लिए कल्प्य नहीं है। क्या आप मुझे मारना चाहते हो जो यह कह रहे हो कि वृक्ष पर चढ़कर नीचे गिर जाओ। अतिपरिणामक शिष्य कहता है कि ऐसा ही होगा, मेरी भी यही इच्छा है। 573. यह उत्तर सुनकर अतिपरिणामक शिष्य को आचार्य कहते हैं कि तुम मेरे कथन का तात्पर्य समझे बिना ही ऐसा कह रहे हो कि मेरी भी इच्छा वृक्ष पर चढ़ने की है। अपरिणामक शिष्य को आचार्य कहते हैं कि क्या मैंने तुम्हें सचित्त वृक्ष पर चढ़ने के लिए कहा था? 574. आचार्य कहते हैं कि मेरे कथन का तात्पर्य था कि भवार्णव में प्राप्त तप, नियम और ज्ञान रूपी वृक्ष पर चढ़कर संसार रूपी अगड-कूप के मूल का उल्लंघन करो। 575, 576. परिणामक शिष्य 'वृक्ष पर चढ़ो' इस बात को सुनकर सोचता है कि आचार्य स्थावर जीवों की भी हिंसा नहीं करना चाहते तो फिर पंचेन्द्रिय प्राणी की हिंसा की बात कैसे संभव है? गुरु के इस वचन के पीछे कुछ कारण होना चाहिए। यह सोचकर शिष्य वृक्ष पर चढ़ने के लिए तत्पर होता है। चढ़ते हुए शिष्य का गुरु निवारण करते हैं। 577. इसी प्रकार गुरु के द्वारा ईमली के बीज लाने का कहने पर अपरिणामक शिष्य उसे लाने का निषेध कर देता है लेकिन अतिपरिणामक शिष्य पोटली भरकर बीज लेकर वहां आ जाता है। 578. गुरु उनको कहते हैं-'मैंने तुमको उगने में असमर्थ तथा अचित्त अम्लिका के बीज लाने को कहा 579. परिणामक शिष्य पूछता है कि मैं किस प्रकार के बीज लेकर आऊं? जो उगने में समर्थ हों अथवा असमर्थ? तथा यह भी बताएं कि कितनी मात्रा में लेकर आऊं? 580. गुरु उसको कहते हैं –'अभी बीज का प्रयोजन नहीं है। जब आवश्यकता होगी, तब कहूंगा। मैंने विनोद में बीज लाने को कहा था अथवा तुम्हारा विमर्श-परीक्षण करने के लिए ऐसा कहा था।' २.आज्ञापरिणामक शिष्य को जो कुछ करने के लिए आज्ञा दी जाती है, वह उसका कारण नहीं पूछता कि ऐसा क्यों किया जाए? वह आज्ञा को कर्त्तव्य के रूप में स्वीकार करता है। ...त्यभा 4443 मटी प.८२; आज्ञापरिणामको नाम यद् आज्ञाप्यते तत्कारणं न पृच्छति किमर्थमेतदिति किन्त्वाज्ञयैव कर्तव्यतया श्रद्दधाति, यदत्र कारणं तत् पूज्या एव जानते एवं यः परिणामयति स आज्ञापरिणामकः। र.कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 15 / Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 जीतकल्प सभाष्य 581. गुरु उस शिष्य को पद, अक्षर, उद्देश, संधि, सूत्र, अर्थ और तदुभय-इन सबको अक्षर और व्यञ्जन से शुद्ध धारण करवाते हैं, जो यथाभणित को पुनः कह सके। 582. इस प्रकार शिष्य की परीक्षा करके योग्य समझकर उसको भेजते हुए आचार्य कहें कि तुम आलोचना के इच्छुक उस मुनि के पास जाओ और आलोचना सुनकर लौट आओ। 583, 584. आलोचनाचार्य द्वारा भेजा गया वह शिष्य आलोचक के पास जाए और वह आलोचक उसके पास इस प्रकार शोधि करे–'द्विक अर्थात् दर्प' प्रतिसेवना' और कल्प प्रतिसेवना, त्रिक अर्थात् ज्ञान, दर्शन और चारित्र से सम्बन्धित, चतुविशुद्ध अर्थात् प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से शुद्ध। 585. वह शिष्य त्रिविध काल में वर्तमान, अतीत और भविष्य के अतिचारों की स्पष्ट रूप से आलोचना करता है। 586. वह किस चीज की आलोचना करता है? आचार्य कहते हैं कि वह अतिचार की आलोचना करता है। व्रतषट्क आदि क्रमशः अतिचार हैं। 587. अतिचार के 18 स्थान ये हैं -व्रतषट्क, कायषट्क, अकल्प्य पिंड, गृहि-भाजन में भोजन', पर्यंक १.बिना कारण दर्प से की जाने वाली प्रतिसेवना दर्प प्रतिसेवना कहलाती है। निशीथ भाष्य में इसे प्रमाद प्रतिसेवना भी कहा है। १.निभा 91 ; दप्पो तु जो पमादो। 2. प्रतिसेवना के विस्तार हेतु देखें जीभा 588 और जी 74 का टिप्पण। ३.ज्ञान आदि कारण उपस्थित होने पर अकल्प्य का सेवन कल्प प्रतिसेवना है। 4. अकल्प दो प्रकार का होता है -शैक्षस्थापना अकल्प तथा अकल्प स्थापना अकल्प। जिस मुनि ने पिण्डनियुक्ति का अध्ययन न किया हो, उसके द्वारा आनीत आहार शैक्षस्थापना अकल्प है तथा सचित्त आदि अकल्प्य भक्तपान, वस्त्र आदि ग्रहण करना अकल्प्य स्थापना अकल्प है। अकल्प्य आदि के वर्जन का प्रयोजन बताते हुए जिनदास चूर्णिकार कहते हैं कि जैसे पांच महाव्रतों की रक्षा के लिए पच्चीस भावनाएं होती हैं, वैसे ही व्रत और छह काय की रक्षा के लिए अकल्प्य आदि षट्क का वर्जन करना चाहिए। जैसे कुड्य और कपाटयुक्त घर के लिए दीपक और जागरण -ये दो रक्षा के हेतु होते हैं, वैसे ही पांच महाव्रत युक्त साधु के लिए ये उत्तरगुण सुरक्षा के हेत होते हैं। 1. दशजिचू पृ. 226; सेहटवणाकप्पो नाम जेण पिंडणिज्जुत्तीण सुता, तेसु आणियंन कप्पड़ भोत्तुं। 2. दशजिचू पृ. 226 ; जहा वा गिहस्स कुड्डकवाडजुत्तस्स वि पदीवजागरमाणादि रक्खणाविसेसा भवंति तह पंचमहव्वय जुत्तस्सवि साहुणो तेसिमणुपालणत्थं इमे उत्तरगुणा भवंति। 5. गृहस्थ के बर्तन में भोजन करने से पश्चात्कर्म और पुर:कर्म की संभावना रहती है इसलिए निर्ग्रन्थ के लिए यह कल्प्य नहीं है। जो भिक्षु गृहस्थ के पात्र में भोजन करता है और खाने वाले का अनुमोदन करता है, वह चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। 1. निसू 12/11 / Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 329 पर बैठना', भिक्षा में गृहस्थ के घर बैठना, स्नान और विभूषा-वर्जन। (ये अठारह आचार हैं, इनका लोप करना अतिचार है।) 588. दर्प से अथवा कल्प से प्रतिसेवना' की हो तो उसकी आलोचना करनी चाहिए। दर्प से दश प्रकार 1. दशवैकालिक सूत्र में साधु के लिए पर्यंक पर बैठना अनाचीर्ण है। पर्यंक आदि में गंभीर छिद्र होते हैं, इनमें प्राणियों की प्रतिलेखना करना कठिन होता है इसलिए पलंग आदि पर बैठना या सोना वर्जित है। 1. दश 6/53-55 / 2. गृहस्थ के घर में बैठने से निम्न दोष उत्पन्न होते हैं-आचार का विनाश, अवध काल में प्राणियों का वध क्योंकि साधु को घर में बैठा हुआ देखकर गृहस्थ जल्दी-जल्दी खाना बनाता है, भिक्षाचरों के अंतराय, गृहस्थों के मन में अप्रीति, ब्रह्मचर्य की असुरक्षा तथा स्त्री के प्रति शंका उत्पन्न होती है। दशवैकालिक सूत्र के अनुसार तीन प्रकार के व्यक्ति भिक्षा के समय गृहस्थ के घर बैठ सकते हैं -वृद्ध, रोगी और तपस्वी।२ 1. दश 6/57, 58 2. दश 6/59 / 3. स्नान की अभिलाषा रखने वाला साधु आचार का उल्लंघन करता है तथा संयम से च्युत हो जाता है। अप्रासुक जल से स्नान करने पर भी पोली भूमि में उसे डालने से प्राणियों की हिंसा होती है। 1. दश 6/60,61 / 4. विभूषा करने वाला भिक्षु सघन कर्मों का बंधन करता है और दुस्तर संसार-सागर में भ्रमण करता रहता है। विभूषा की इच्छा रखना भी चिकने कर्मों के बन्धन का कारण तथा सावध बहुल है।' 1. दश 6/65, 66 / 5. प्रतिसेवना जीव का परिणाम है। वह परिणाम कुशल और अकुशल-दोनों प्रकार का हो सकता है। कुशल परिणाम से की गई कल्प प्रतिसेवना तथा अकुशल परिणाम से की गई दर्प प्रतिसेवना' कहलाती है। दर्प प्रतिसेवना राग-द्वेष के वशीभूत होकर निष्कारण की जाती है, कल्प प्रतिसेवना में उसका अभाव होता है। प्राणातिपात आदि से सम्बन्धित मूलगुण प्रतिसेवना तथा पिण्डविशोधि आदि से सम्बन्धित उत्तरगुण विषयक प्रतिसेवना कहलाती है। निशीथ भाष्य में मिश्र प्रतिसेवना का भी उल्लेख मिलता है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि ज्ञान आदि का प्रशस्त आलम्बन लेकर जो सावध आचरण करता है, किन्तु उसका पश्चात्ताप नहीं करता, वह मिश्र प्रतिसेवना है। इसमें सालम्बन पद शुद्ध तथा अननुतापी पद अशुद्ध है। इसी प्रकार प्रमाद से जो प्रतिसेवना की जाती हैं, वह अशुद्ध और उसका अनुताप करना शुद्ध है। इस प्रकार पश्चात्ताप युक्त प्रमाद प्रतिसेवना भी मिश्र प्रतिसेवना है। इसके दश भेद हैं -1. दर्प-निष्कारण प्रतिसेवना करना। 2. प्रमाद-प्रमाद के कारण प्रतिसेवना करना। 3. आतुर-ग्लान अवस्था में क्षुधा आदि से आतुर होने पर की जाने वाली प्रतिसेवना। 4. आपत्ति-आपत्ति की स्थिति में शुद्ध द्रव्य न मिलने पर की जाने वाली प्रतिसेवना। 5. तिंतिण-पदार्थ की अप्राप्ति पर तिनतिनाहट करके की जाने वाली प्रतिसेवना।६. सहसाकार-सहसा अयतना से होने वाली प्रतिसेवना।७. भय-राजा के भय से अथवा सिंह आदि के भय से अकल्प्य कार्य करना। 8. प्रद्वेष-कषाय के वशीभूत होकर की जाने वाली - प्रतिसेवना।९. विमर्श-परीक्षा के निमित्त की जाने वाली प्रतिसेवना। ठाणं में ये प्रतिसेवना के भेद हैं, वहां एक दो नामों में तथा क्रम में अंतर है-दर्प, प्रमाद, अनाभोग, आतुर, आपत्ति, शंकित, सहसाकरण, भय, प्रद्वेष, विमर्श। ठाणं सूत्र (10/69) में दश प्रतिसेवनाओं में कल्पिका प्रतिसेवना का उल्लेख नहीं है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार अनाभोग और सहसाकरण कल्पिका प्रतिसेवना के वाचक होने चाहिए क्योंकि अनाभोग में प्रमाद नहीं अपितु उपयोग शून्यता की स्थिति है तथा सहसाकरण में उपयुक्तता होने पर भी शारीरिक स्थिति नियंत्रित न होने के कारण हिंसा आदि का समाचरण हो जाता है। 1. दर्प प्रतिसेवना हेतु देखें 589-600 तक की गाथाओं का अनुवाद। २.व्यभा 39; कुसलेण होति कप्पो, अकुसलपरिणामतो दप्यो। 3. निभा 363 ; रागद्दोसाणुगता तु, दप्पिया कप्पिया तु तदभावा। ४.निभा 477 / Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 जीतकल्प सभाष्य के आसेवन का कथन इस प्रकार कहूंगा। 589. 1. दर्प अर्थात् निष्कारण धावन आदि करना 2. अकल्प्य का उपभोग 3. निरालम्ब प्रतिसेवना 4. चियत्त-बिना प्रयोजन अकृत्य की प्रतिसेवना 5. अप्रशस्त बल, वर्ण आदि के निमित्त प्रतिसेवना 6. विश्वस्त और निर्भय होकर प्राणातिपात आदि की प्रतिसेवना 7. अपरीक्ष्य-युक्तायुक्त के विवेक से विकल होकर की जाने वाली प्रतिसेवना 8. अकृतयोगी-अगीतार्थ 9. अननुतापी 10. नि:शंक-इहलोक और परलोक की शंका से रहित। 590. निष्कारण व्यायाम', वल्गन-कूदना आदि तथा निष्कारण धावन आदि करना दर्प प्रतिसेवना है। षट्काय के जीव अपरिणत-पूर्ण अचित्त न हुए हों, उसे ग्रहण करना तथा अगीतार्थ के द्वारा लाए गए अकल्प्य आहार का भोग अकल्प्य प्रतिसेवना है। 591. विषम गर्त में गिरा हुआ व्यक्ति जैसे लता-वितान का सहारा लेकर बाहर आ जाता है, वैसे ही संसार रूपी गर्त में गिरा हुआ व्यक्ति ज्ञान का आलम्बन लेकर मोक्षतट को प्राप्त कर लेता है। 592. यदि मैं अपवाद पद का आसेवन नहीं करूंगा तो ज्ञान आदि की वृद्धि नहीं होगी अतः ज्ञान आदि के संधान हेतु जो अपवाद सेवन किया जाता है, वह सालम्ब-प्रतिसेवना है। 593. ज्ञान आदि आलम्बन के बिना दोष सेवन करना अथवा अप्रशस्त आलम्बन से दोष सेवन करना, जैसे-अमुक व्यक्ति ने दोष का सेवन किया है फिर मैं भी सेवन करूं तो क्या दोष है, यह निरालम्ब प्रतिसेवना है। 594. असाध्य रोग आदि की स्थिति में जिस अपवाद का सेवन किया, स्वस्थ होने पर भी उसी का सेवन करने वाला त्यक्तकृत्य कहलाता है, यह त्यक्त प्रतिसेवना है। 595. प्रासुकभोजी मुनि भी यदि बल, वर्ण और रूप के लिए खाता है तो वह भी अप्रशस्त है, फिर जो बल, वर्ण, रूप आदि के लिए अशुद्ध भोजन का सेवन करते हैं, उनका तो कहना ही क्या? (यह पांचवीं अप्रशस्त दर्प प्रतिसेवना है।) 596. जो कार्य लोक और लोकोत्तर में विरुद्ध है, ऐसे अकृत्य का सेवन करते हुए भी जो स्वपक्ष-श्रावक तथा परपक्ष-मिथ्यादृष्टि से लज्जित नहीं होता, यह छठी विश्वस्त प्रतिसेवना है। 597. लाभ और हानि का विमर्श किए बिना प्रतिसेवना करना अपरीक्ष्य दर्प प्रतिसेवना है। त्रिगुण योग'को नहीं करके अपवाद पद का सेवन करने वाला अकतयोगी होता है। 1. लाठी घुमाना तथा पत्थर आदि फेंकना व्यायाम है। १.निचू 1 पृ. 157; वायामो जहा लगुडिभमाडणं, उवलयकड्डणं। 2. निशीथ चूर्णिकार ने त्रिगुण योग की व्याख्या प्रस्तुत की है। असंथरण की स्थिति में तीन बार एषणीय की अन्वेषणा करने पर भी यदि एषणीय की प्राप्ति न हो तो चौथी बार अनेषणीय ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार के त्रिगुण योग को न करके दूसरी बार में अनेषणीय को ग्रहण करके अपवादपद का सेवन करने वाला अकृतयोगी होता है। १.निचू 1 पृ.१५९; असंथरातीसु तिण्णिवारा एसणियं अण्णेसिउंजता ततियवाराए विण लब्भति तदा घउत्थपरिवाडीए अणेसणियं घेत्तव्वं। एवं तिगुणं जोगमकाऊण", बितियवाराए चेव अणेसणीयं गेहति जो सो अकडजोगी भण्णति। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 331 598. द्वितीय पद (अपवाद स्थिति) में जो दूसरों को परितापित करके बाद में पश्चात्ताप नहीं करता, वह अननुतापी होता है। फिर दर्प से प्रतिसेवना का सेवन करने वाले का तो कहना ही क्या है? (यह नवीं अननुतापी दर्प प्रतिसेवना है।) 599. शंका दो प्रकार की होती है-१. करण–क्रिया आदि करते हुए आशंकित होना / 2. भय–दोष के प्रति उद्वेग। अकरणीय करते हुए इहलोक और परलोक कहीं से भी भय या शंका नहीं करना, निःशंक नामक दसवीं दर्प प्रतिसेवना है। 600. यह दर्प सम्बन्धी दशविध प्रतिसेवना संक्षेप में कही गई है। अब कल्प सम्बन्धी चौबीस प्रकार की प्रतिसेवना कहूंगा।' 601, 602. कल्पिकारे प्रतिसेवना के 24 भेद इस प्रकार हैं-१. दर्शन 2. ज्ञान 3. चारित्र 4. तप 5. प्रवचन ६.समिति 7. गप्ति ८.साधर्मिक वात्सल्य 9. कल १०.गण 11. संघ 12. आचार्य 13. असहअसमर्थ 14. ग्लान 15. बाल 16. वृद्ध 17. उदक-प्लावन 18. अग्नि-दावाग्नि 19. चोर 20. श्वापद 21. भय २२.कान्तार 23. आपदा और 24. व्यसन-मद्यपान आदि। इनके लिए की जाने वाली प्रतिसेवना कल्प प्रतिसेवना है। 603. दर्शन प्रभावक शास्त्रों के ग्रहण हेतु प्रयोजनवश जो प्रतिसेवना की जाती है, वह दर्शन प्रतिसेवना है। सूत्र और अर्थ को धारण करने में समर्थ न होने पर असंथरण की स्थिति में ज्ञान से सम्बन्धित जो आसेवना होती है, वह शुद्ध है। 604. चारित्र के अन्तर्गत जिस क्षेत्र में एषणा के दोष और स्त्री सम्बन्धी दोष हों, अनिर्वाह की स्थिति में वहां विहरण करते हुए जो प्रतिसेवना होती है, वह शुद्ध है। 605. 'आगे तप करूंगा' यह सोचकर घृत आदि का सेवन करना तथा विकृष्ट तप के पारणे में दोषसहित 1. निशीथ भाष्य में दर्प और कल्प के अतिरिक्त मिश्र प्रतिसेवना के भी 10 भेदों का विस्तार प्राप्त है, देखें निभा 475-83 / 2. कल्पिका प्रतिसेवना के बारे में निशीथ भाष्य में व्याख्या मिलती है। भाष्यकार कहते हैं कि कारण उपस्थित होने पर कल्प प्रतिसेवना की अनुज्ञा है फिर भी सावध होने के कारण निश्चय नय से वह अकरणीय ही है। कारण उपस्थित होने पर भी भलीभांति लाभ-हानि का चिन्तन करने के पश्चात् अकरणीय प्रतिसेवना में प्रवृत्त होना चाहिए। भाष्यकार कहते हैं कि कल्पिका प्रतिसेवना अनुज्ञात है, फिर भी इसका वर्जन करने में आज्ञाभंग आदि दोष नहीं हैं। कल्प प्रतिसेवना न करने से दृढ़धर्मिता, बार-बार दोष-सेवन न होना तथा जीवों के प्रति करुणा आदि गुण प्रकट होते है अतः कल्पिका प्रतिसेवना का प्रयोग भी सहसा नहीं करना चाहिए। १.निभा 459, 460 चू पृ. 155, 156; कारण पडिसेवा वि य, सावज्जा णिच्छए अकरणिज्जा। बहुसो विचारइत्ता, अधारणिज्जेसु अत्थेसु।। ..जति वि यसमणुण्णाता, तह विय दोसो ण वज्जणे दिट्ठो। दढधम्मता हु एवं,णाभिक्खणिसेवणिद्दयता।। 3. निशीथ चूर्णि के अनुसार सिद्धि विनिश्चय तथा सन्मतितर्कप्रकरण आदि दर्शनप्रभावक ग्रंथ हैं। इनको ग्रहण ' करने हेतु यतनापूर्वक प्रतिसेवना करता हुआ मुनि शुद्ध होता है, प्रायश्चित्त का भागी नहीं होता। 1. निचू 1 पृ. 162 / Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 जीतकल्प सभाष्य लागतरण'–चावलों की पेया आदि का सेवन करना तप हेतुक प्रतिसेवना है। प्रवचन की प्रभावना या उसके हित के लिए गृहस्थ आदि को अभिवादन करता हुआ मुनि शुद्ध होता है, जैसे-विष्णु मुनि की विकुर्वणा।' 606. मैं ईर्या की शुद्धि नहीं कर सकूँगा इसलिए ईर्या-शोधन के लिए आंख के उपचार हेतु क्रिया करना ईर्या समिति हेतुक कल्पिका प्रतिसेवना है। क्षिप्त चित्त होने पर भाषा से सम्बन्धित प्रलाप के प्रशमन हेतु औषधपान करना द्वितीय-भाषा समिति हेतुक प्रतिसेवना है। तृतीय समिति की प्रतिसेवना इस प्रकार है६०७. रास्ते में अशिव आदि कारणों से अनेषणीय और शंकित आदि आहार यतनापूर्वक ग्रहण करने वाला शुद्ध होता है। 608. कम्पमान हाथ (कम्पन वात से पीड़ित) वाला मुनि उपकरणों का ग्रहण तथा प्रमार्जन आदि अन्यथा रूप से करता है, उसके लिए औषध आदि करता हुआ मुनि शुद्ध होता है। (यह आदान-निक्षेप समिति हेतुक प्रतिसेवना है।) 609. पंचमी समिति में कायिकी भूमि का संधान आदि से सम्बन्धित आरम्भ करता हुआ मुनि शुद्ध होता है। मन से अगुप्त होने पर विकट-मद्यपान करता हुआ मुनि शुद्ध होता है। इसी प्रकार वचन गुप्त तथा क्षिप्तचित्त और दृप्तचित्त होने पर प्रतिसेवना करना जानना चाहिए। (यह गुप्ति हेतुक कल्पिका प्रतिसेवना है।) 610. साधर्मिक वात्सल्य के लिए प्रतिसेवना करना, जैसे आर्य वज्र ने असित मुंड का उद्धार किया था। कुल, गण और संघ के लिए राजा आदि को अभिचारक' मंत्र से वशीकृत करता हुआ. मुनि शुद्ध होता है। 1. लाया का अर्थ है-चावलों की खील / उसको भट्टी में पूंजकर जो पेया तैयार की जाती है, वह लागतरण कहलाती है। १.जीचूवि पृ. 34 ; लाया नाम वीहिया भुज्जिया भट्टे ताण तंदुलेसु पेया कज्जइ, तं लायातरणं भन्नइ। 2. मूल पाठ में कथा का संकेत नहीं है लेकिन निशीथ चूर्णि (भा 1 पृ. 163) में इस प्रसंग में कथा का संकेत है। कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 16 तथा राजेन्द्र अभिधान कोश भा. 5 पृ. 886, 887 / 3. विष्णु मुनि ने प्रवचन की प्रभावना हेतु रुष्ट होकर एक लाख योजन प्रमाण शरीर की विकुर्वणा की तथा एक पैर से लवण समुद्र का आलोड़न किया। विशेषावश्यक भाष्य और उसकी चूर्णि में 500 आदेशों का उल्लेख है, जिनका वर्णन अंग और उपांग में नहीं मिलता। वहां विष्णु मुनि की विकुर्वणा को 500 आदेशों के अंतर्गत माना है। वहां एक लाख योजन से अधिक विकुर्वणा की, ऐसा उल्लेख है। १.निभा 487 चू पृ.१६२; जहा विण्हु अणगारो, तेणरुसिएण लक्खजोयणप्पमाणं विगुब्वियं रूवं,लवणो किल आलोडिओ चरणेण तेण। 2. विभा 3357 महेटी पृ. 640 / 4. क्रिया का अर्थ है-वैद्य के कथनानुसार औषध लेना। १.निचू 1 पृ. 163 ; क्रिया नाम वैद्योपदेशाद् औषधपानम्। 5. ग्रंथकार ने समिति के अन्तर्गत पांचों समितियों के उदाहरण दिए हैं। 6. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2. कथा सं. 17 / 7. अभिचारक का अर्थ है-वशीकरण या उच्चाटन आदि करना। १.निचू 1 पृ.१६३; अभिचारकं णाम वसीकरणं उच्चाटणं वा। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 333 611. आचार्य, असमर्थ, रुग्ण, बाल और वृद्ध को जैसे समाधि हो, वैसी पंचक यतना' से वस्तु की याचना करके देता हुआ मुनि शुद्ध होता है। 612. प्रयोजन होने पर असहिष्णु राजा आदि को दीक्षित करना शुद्ध है, जैसे-कारणवश आर्यवज्र को दीक्षित किया गया। कारण होने पर वृद्ध भी दीक्षित होता है, जैसे आर्यरक्षित ने वृद्ध पिता को दीक्षित किया। 613. उदग-प्लावन, अग्नि, चोर, श्वापद आदि भयों में स्तम्भनी विद्या का प्रयोग, पलायन तथा वृक्ष पर आरोहण करना कल्प प्रतिसेवना है। कान्तार में भक्तपान का अभाव होने से प्रलम्ब फल आदि का सेवन करना कान्तार हेतुक प्रतिसेवना है। आपत्ति में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि चार प्रकार की आपदाएं जाननी चाहिए। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धी आपदा में शुद्ध द्रव्य प्राप्त न होने पर की जाने वाली प्रतिसेवना। 614. कोई मद्यपान का व्यसनी गायक दीक्षित हो जाए तो वह गीतव्यसनी मुनि यतनापूर्वक मदिरा को ग्रहण करके गाता हुआ शुद्ध होता है। (यह व्यसन सम्बन्धी कल्पिका प्रतिसेवना है।) 615. चौबीस कल्पविषयक किसी प्रयोजन के उपस्थित होने पर आगाढ़ ज्ञान, दर्शन और चारित्र का सालम्ब प्रतिसेवी कदाचित् प्रशस्त प्रयोजन सम्पन्न करने में समर्थ हो सकता, यह कल्पिका प्रतिसेवना है। 616. यह चौबीस प्रकार की कल्पिका प्रतिसेवना कही गई। अब मैं संक्षेप में इनकी चारणा के बारे में कहूंगा। 617. दर्प और कल्प प्रतिसेवना को स्थापित करके दर्प प्रतिसेवना के दश पद तथा कल्प प्रतिसेवना के चौबीस पदों को यथास्थान उन-उन विभागों के नीचे स्थापित करना चाहिए। तत्पश्चात् उन दस और चौबीस पदों के नीचे अठारह पदों (व्रतषट्क) आदि की स्थापना करनी चाहिए। 618, 619. प्रथम कार्य अर्थात् दर्प प्रतिसेवना, प्रथम पद अर्थात् निष्कारण दर्प (दशविध दर्प प्रतिसेवना का प्रथम भेद) से तथा प्रथम षट्क के अन्तर्गत प्रथम स्थान प्राणातिपात का आसेवन किया हो। इसी प्रकार 1. आचार्य आदि के लिए आहार-पानी का लाभ न होने पर पांच दिनों के प्रायश्चित्त-स्थान का आसेवन करके उनकी प्राप्ति करना / यदि इतने पर भी लाभ न हो तो दस दिन का यावत् चार गुरुमास के प्रायश्चित्त का आसेवन करके उनकी उपलब्धि करना। 2. निशीथ चूर्णि के अनुसार राजा, युवराज, श्रेष्ठी, अमात्य और पुरोहित-ये सब असहिष्णु होते हैं क्योंकि ये अंत-प्रान्त आदि खाने के अभ्यस्त नहीं होते। १.निभा 491 चू 1 पृ. 164; णिवो राया आदिसद्दातो जुवराय-सेट्ठि-अमच्च-पुरोहिया य एते असहू पुरिसा भण्णंति। .....अंतः-पंतादीहिं अभावितत्वात्। ३.आर्य वज्र बहुत छोटी अवस्था में दीक्षित हो गए थे। उस अवस्था में वे मनिचर्या के अनेक कार्य करने में असमर्थ थे। कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 18 / 4. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 19 / Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 जीतकल्प सभाष्य दूसरे स्थान से यावत् छठे व्रत-रात्रिभोजन विरमण पर्यन्त सभी स्थानों का आसेवन किया हो तो मुनि उसकी आलोचना करे। 620, 621. प्रथम कार्य अर्थात् दर्प प्रतिसेवना, प्रथम पद अर्थात् निष्कारण दर्प से द्वितीय षट्क (काय षट्क) के अन्तर्गत प्रथम स्थान पृथ्वीकाय आदि की विराधना की हो। इसी प्रकार दूसरे स्थान अप्काय . आदि से लेकर त्रसकाय आदि पदों में जानना चाहिए। 622, 623. प्रथम कार्य अर्थात् दर्प प्रतिसेवना, प्रथम पद अर्थात् निष्कारण दर्प से तृतीय षट्क (अकल्प्य,गृहिभाजन, पल्यंक, निषद्या, स्नान और विभूषा) के अन्तर्गत प्रथम स्थान अकल्प्य पिंड ग्रहण आदि का आसेवन किया हो, इसी प्रकार दूसरे स्थान गृहिभाजन यावत् विभूषा पर्यन्त सभी स्थानों का आसेवन किया हो तो उसकी आलोचना करे। 624. प्रथमपद अर्थात् दर्प प्रतिसेवना को नहीं छोड़ता हुआ दूसरे अकल्प्य उपभोग से लेकर दसवीं निःशंक आदि को प्रथम षट्क आदि 18 स्थानों में पुनः पुनः संचरित करना चाहिए। 625. दर्प प्रतिसेवना में दर्प आदि दश पदों में अठारह स्थानों का संचरण करना चाहिए। दर्प प्रतिसेवना के 10 भेदों से अठारह पदों का गुणा करने पर 180 गाथाएं होती हैं। 626. इसी प्रकार दूसरी कल्पप्रतिसेवना के दर्शन आदि 24 पदों का 18 से गुणा करने पर 432 गाथाएं होती हैं। 627. द्वितीय कार्य अर्थात् कल्प प्रतिसेवना प्रथम पद अर्थात् दर्शन से सम्बन्धित प्रथम षट्क (प्राणातिपात आदि) के प्रथम षट्क (प्राणातिपात आदि) का आसेवन किया हो तो मुनि उसकी आलोचना करे। 628. द्वितीय कार्य अर्थात् सकारण कल्प प्रतिसेवना, द्वितीय पद अर्थात् ज्ञान द्वितीय अभिलाप से (प्रथम कार्य एवं प्रथम पद की भांति) सारी गाथाएं कहनी चाहिए। 629. प्रथम स्थान है दर्प प्रतिसेवना। दर्प में भी प्रथम अर्थात् निष्कारण धावन आदि, प्रथम षट्क का अर्थ है-छह व्रत। उनमें भी प्रथम है प्राणातिपात। 630. इसी प्रकार मृषावाद, अदत्त, मैथुन, परिग्रह और रात्रिभोजन के बारे में जानना चाहिए। द्वितीय षट्क में पृथ्वीकाय आदि षट्काय तथा तृतीय षट्क में (अकल्प, गृहिभाजन, पर्यंक, निषद्या, स्नान और विभूषा) का समावेश होता है। 631. इस प्रकार दर्प पद में अठारह पदों की चारिका तथा दूसरी अकल्प्य प्रतिसेवना आदि के सभी भेदों के साथ भी अठारह पदों की योजना होती है। 1. प्रथम कार्य का अर्थ है-दर्प प्रतिसेवना तथा द्वितीय कार्य का तात्पर्य है-कल्प प्रतिसेवना। प्रथम, द्वितीय आदि पद से दर्प प्रतिसेवना के दश भेद तथा कल्प प्रतिसेवना के 24 भेद जानने चाहिए। दोष-सेवन के तीन षट्क हैं-प्रथम षट्क-प्राणातिपात विरमण से रात्रिभोजन विरमण तक, द्वितीय षट्क-पृथ्वीकाय आदि षड्जीवनिकाय, तृतीय षट्क-अंतिम छह स्थान (अकल्प, गृहिपात्र, पर्यंक, निषद्या, स्नान और विभूषा।) Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 335 632. दूसरा कार्य है-कल्प प्रतिसेवना अर्थात् सकारण, उसका प्रथम पद है-दर्शन के निमित्त, प्रथम षट्क है प्राणातिपात आदि तथा उसमें भी प्रथम है प्राणवध। 633. दर्शनपद को नहीं छोड़ते हुए पूर्वक्रम के अनुसार अठारह स्थानों को संचरित करना चाहिए। इसी प्रकार ज्ञान आदि प्रत्येक पद के साथ भी इन अठारह स्थानों का संचरण होता है। 634. कल्प प्रतिसेवना के चौबीस भेदों के साथ इन अठारह पदों का तथा दर्प के दश भेदों के साथ भी इन अठारह पदों का संचरण करने पर होने वाली संख्या को जानना चाहिए। 635. दर्प से 180 तथा कल्प से 432 गाथाएं होती हैं। इन दोनों को जोड़ने पर 612 गाथाएं होती हैं। 636. (वह आने वाला मुनि) आलोचना करने वाले की प्रतिसेवना और आलोचना की क्रमविधि को सुनकर, उसका अवधारण कर, प्रतिसेवक का आगमज्ञान, पुरुषजात अर्थात् वह अष्टम तप से भावित है या नहीं, उसकी व्रतपर्याय और वय-पर्याय, बल-शारीरिक सामर्थ्य और क्षेत्र कैसा है, इन सबकी अवधारणा करके आलोचना देने वाले अपने आचार्य के पास प्रस्थित होता है। 637. अपने देश में जाकर वह मुनि आलोचना करने योग्य सब बातों को आचार्य को बताता है, साथ ही आलोचना करने वाले मुनि की पर्याय, बल और क्षेत्र आदि के बारे में भी बताता है। 638. वह व्यवहार विधिज्ञ आचार्य गूढ पद से आलोचित अतिचार को अनुमान से जानकर श्रुतोपदेश के अनुसार प्रायश्चित्त निर्धारित करके उसी शिष्य को आज्ञा देते हैं कि तुम जाकर उनको यह प्रायश्चित्त दो। 639. प्रथम दर्प लक्षण वाले कार्य सम्बन्धी दशविध आलोचना को सुनकर आलोचनाचार्य यह निर्धारित करते हैं कि तुम्हारी आलोचना नक्षत्र'-मास प्रायश्चित्त विषयक है अतः शुक्ल' अर्थात् उद्घात मास (लघुमास) में पणग पांच दिन का तप करो। 640. प्रथम दर्प लक्षण वाले कार्य सम्बन्धी दशविध आलोचना को सुनकर आलोचनाचार्य यह निर्धारित 1. यहां नक्षत्र शब्द मास अर्थ का सूचक है। इसका तात्पर्य है कि एक मास जितना प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ है। जीतकल्पचर्णि की विषमपद व्याख्या में नक्षत्र शब्द की व्याख्या में अन्य आचार्य का मत प्रस्तुत किया है-चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा-इन पंचविध ज्योतिष्चक्र में चौथा स्थान नक्षत्र का है अत: यहां तात्पर्य है कि चौथे ब्रह्मचर्य व्रत में पीड़ा-अतिचार का सेवन हुआ है। कुछ आचार्य मानते हैं कि नक्षत्र शब्द से मूलगुण में विराधना का संकेत है। 1. व्यभा 4490 मटी. प.८७; नक्षत्रशब्देनात्र मासः सूचितः, मासे मासप्रमेयप्रायश्चित्तविषयो भवतः। २.जीचूवि पृ. 36; नक्षत्रे कोऽर्थः-चन्द्रादित्यग्रहनक्षत्रतारकभेदतः पंचविधज्योतिश्चक्रमध्ये नक्षत्रभेदश्चतुर्थस्थानी। अतस्तेन चतुर्थव्रतगोचरा पीडा सूच्यते-इत्येके व्याचक्षते। 2. यहां शुक्ल शब्द पारिभाषिक है, इसका अर्थ उद्घात मास-लघुमास है तथा कृष्ण का अर्थ अनुद्घातगुरुमास है। चूर्णि की विषमपद व्याख्या के अनुसार शुक्लमास शब्द से उत्तर गुण की विराधना निर्दिष्ट है तथा कृष्णमास शब्द से मूलगुण की विराधना गृहीत है। .१.व्यभा 4490 मटी. प.८७;शुक्लेति सांकेतिकी संज्ञेति उद्घातं मासं तपः कुर्यात्। २.जीचूवि पृ. 36 / Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 जीतकल्प सभाष्य करते हैं कि तुम्हारी आलोचना नक्षत्र -मास प्रायश्चित्त विषयक है अतः शुक्ल' अर्थात् उद्घात मास में दश दिन का तप करना चाहिए। 641. प्रथम दर्प लक्षण वाले कार्य सम्बन्धी दशविध आलोचना को सुनकर आलोचनाचार्य यह निर्धारित करते हैं कि तुम्हारी आलोचना नक्षत्र अर्थात् मास प्रायश्चित्त विषयक है अत: उद्घातमास के अन्तर्गत पाक्षिक तप करना चाहिए। 642. प्रथम दर्प लक्षण वाले कार्य सम्बन्धी दशविध आलोचना को सुनकर आलोचनाचार्य यह निर्धारित करते हैं कि तुम्हारी आलोचना नक्षत्र-मास प्रायश्चित्त विषयक है अत: उद्घातमास के अन्तर्गत 20 दिन का तप करना चाहिए। 643. प्रथम दर्प लक्षण वाले कार्य सम्बन्धी दशविध आलोचना को सुनकर आलोचनाचार्य यह निर्धारित करते हैं कि तुम्हारी आलोचना नक्षत्र-मास प्रायश्चित्त विषयक है अतः उद्घातमास के अन्तर्गत 25 दिन का तप करना चाहिए। 644. इस प्रकार उद्घात' की गाथाओं की भांति अनुरात-लघुमास की गाथाओं को जानना चाहिए। अंतर केवल इतना है कि शुक्ल पंचक के स्थान पर कृष्ण पंचक आदि आलापक वक्तव्य हैं। 645. प्रथम दर्प लक्षण वाले कार्य सम्बन्धी दशविध प्रतिसेवना की आलोचना को सुनकर आचार्य प्रायश्चित्त स्वरूप कहे कि तुम्हें नक्षत्र-मास जितने तप का प्रायश्चित्त है। यदि तीनों षट्कों में विराधना हुई हो तो शुक्ल अर्थात् लघु चातुर्मासिक तप करना चाहिए। 646. प्रथम कार्य अर्थात् दर्प से हुई दशविध प्रतिसेवना की आलोचना सुनकर आलोचनाचार्य प्रायश्चित्त स्वरूप यह निर्धारित करते हैं कि तुम्हें नक्षत्र-मास जितने तप का प्रायश्चित्त है। यदि तीनों षट्कों में विराधना हुई है तो कृष्ण अर्थात् चार गुरुमास का तप करना चाहिए। 647. प्रथम कार्य अर्थात् दर्प से हुई दशविध प्रतिसेवना को सुनकर आलोचनाचार्य प्रायश्चित्त स्वरूप यह निर्धारित करते हैं कि तुम्हें नक्षत्र-मास का प्रायश्चित्त है / यदि तीनों षट्कों में विराधना हुई है तो तुम्हें छह लघुमास का तप करना चाहिए। 648. प्रथम कार्य अर्थात् दर्प से हुई दशविध प्रतिसेवना की आलोचना को सुनकर आचार्य प्रायश्चित्त स्वरूप कहे कि तुम्हें नक्षत्र अर्थात् मास का प्रायश्चित्त है। यदि तीनों षट्कों में विराधना हुई हो तो तुम्हें छह गुरुमास का प्रायश्चित्त करना चाहिए। १.बृहत्कल्पभाष्य की टीका में लघुक, उद्घात और शुक्ल को एकार्थक माना है। 1. बृभा 299 टी पृ. 91 ; लघुकमिति वा उद्घातितमिति वा शुक्लमिति वा लघुकस्य नामानि। 2. उद्घात का अर्थ लघुमास तथा अनुद्घात का अर्थ गुरुमास है। कृष्णमास से अनुद्घात तथा शुक्ल मास से उद्घात का सम्बन्ध है। उत्तरगुण की विराधना में शुक्लमास तथा मूलगुण की विराधना में कृष्णमास की प्राप्ति होती है। 3. बृभा की टीका में गुरुक, अनुद्घात तथा कालक (कृष्ण) को एकार्थक माना है। १.बृभा 299 टी पृ.९१ ; गुरुकमिति वा अनुद्घातीति वा कालकमिति वा गुरुकस्य नामानि Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 337 649. यदि प्रतिसेवक को छेद' प्रायश्चित्त प्राप्त हो तो (सांकेतिक रूप में) कहे कि भाजन का छेदन कर दो। यदि मूल प्रायश्चित्त प्राप्त हो तो कहे कि आचार्य के मूल-पास जाकर प्रायश्चित्त लो। यदि अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त हो तो कहे कि गच्छ में अव्यापृत होकर रहो। यदि पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त हो तो कहे कि अद्वितीय-एकाकी होकर विचरण करो। 650. पांच दिन से लेकर छह माह आदि का छेद आने पर भाजन के छेद का माप कहा जाता है। साधु के मूल-पास में जाने का कहने पर मूल प्रायश्चित्त तथा पहले का सारा छोड़ने का तात्पर्य हैअनवस्थाप्य। पाराञ्चित प्रायश्चित्त में पांच आभवद् व्यवहार से सम्बन्ध नहीं रहता। 651. लिंग आदि का योग दो प्रकार का जानना चाहिए-जघन्य उत्कृष्ट तथा उत्कृष्ट जघन्य। इसमें साधु पाराञ्चित प्रायश्चित्त अर्थात् अद्वितीय-एकाकी होकर विचरण करे। 652. द्वितीय कार्य अर्थात् कल्प प्रतिसेवना से सम्बन्धित चौबीस प्रकार की आलोचना सुनकर आलोचनाचार्य सांकेतिक शब्दों में कहलवाते हैं कि तुमको नमस्कारसहिता-नवकारसी में आयुक्त होना चाहिए। 353. इस प्रकार आचार्य के वचनों को धारण करके वहां जाकर वह मुनि आलोचना करने के इच्छुक मुनि को यथोपदिष्ट रूप में प्रायश्चित्त देता है, धीर पुरुषों ने इसे आज्ञाव्यवहार कहा है। 654. आज्ञाव्यवहार का यह यथोपदिष्ट यथाक्रम वर्णन किया गया, अब मैं धारणा व्यवहार के बारे में कहूंगा, वत्स! उसे तुम सुनो। 655. धारणा व्यवहार के ये एकार्थक हैं-१. उद्धारणा 2. विधारणा 3. संधारणा 4. संप्रधारणा। 656-58. प्रबलता से अथवा अर्थ के निकट पहुंचकर छेदसूत्रों में उद्धृत अर्थपदों को धारण करना उद्धारणा है। विविध प्रकार से अर्थपदों को धारण करना विधारणा, सं उपसर्ग एकीभाव अर्थ में तथा धृ धातु 1. महावीर के तीर्थ में अतिचार-विशुद्धि हेतु उत्कृष्ट छह मास के तप का प्रायश्चित्त मिलता है। छह मास के तप से भी शुद्धि संभव न हो तो छेद आदि प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2. व्यवहारभाष्य में पणग से लेकर छह माह तक के छेद का प्रायश्चित्त आने पर उसके गूढार्थ का विस्तार से वर्णन किया है। पांच दिन-रात का छेद आने पर आचार्य संदेश भेजे कि अंगुल के छठे भाग जितने भाजन का छेद करो। दस दिन-रात जितना छेद आने पर संदेश भेजे कि अंगुल के तीसरे भाग जितने भाजन का छेद करो। पन्द्रह दिन-रात जितना छेद आने पर कहे कि अंगुल के आधे भाग जितने भाजन का छेद करो। बीस दिन. रात जितना छेद आने पर कहे कि तीन भाग कम अंगुल जितने भाजन का छेद करो। पच्चीस दिन-रात का छेद आने पर कहे कि छह भाग न्यून अंगुल जितने भाजन का छेद करो। एक मास जितना छेद आने पर कहे कि पूर्ण अंगुल * जितने भाजन का छेद करो, दो मास जितना छेद आने पर आचार्य कहे कि दो अंगुल जितने भाजन का छेद करो, चार मास जितना छेद आने पर आचार्य कहे कि चार अंगुल जितने भाजन का छेद करो तथा छह मास जितने छेद का प्रायश्चित्त आने पर कहे कि छह अंगल जितने भाजन का छेद करो। १.व्यभा 4498,4499 मटी. प.८८। 3. छेदसूत्र के अर्थ को धारण करके जिस व्यवहार का प्रयोग किया जाता है, वह धारणा व्यवहार है।' ११:व्यभा 4503 मटी. प.८८; छेदश्रुतार्थावधारणलक्षणया यः सम्यग् ज्ञात्वा व्यवहारः प्रयुज्यते, तं धारणाव्यवहार धीरपुरुषा ब्रुवते। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338 जीतकल्प सभाष्य धरण-धारण अर्थ में है, उन अर्थपदों को आत्मा के साथ एकीभाव से धारण करना संधारणा है। सम्यक् प्रकार से प्रकर्ष रूप में अर्थ का अवधारण कर व्यवहार का प्रयोग करना संप्रधारणा है। 659. धारणा व्यवहार का प्रयोग कैसे पुरुष के प्रति करना चाहिए। जिस प्रकार के गुण से युक्त व्यक्ति के प्रति यह प्रयोग किया जाता है, उसे तुम सुनो। 660. जो पुरुष प्रवचन'-यशस्वी, अनुग्रहविशारद, तपस्वी, सुश्रुतबहुश्रुत तथा जिसकी वाणी विनय आदि गुणों के परिपाक से विशुद्ध हो, ऐसे गुणों से युक्त व्यक्ति के प्रति धारणा व्यवहार का प्रयोग किया जाता है। 661. इस प्रकार के गुणों से युक्त व्यक्ति यदि किञ्चित् स्खलना करते हैं तो धीरपुरुष प्रथम तीन व्यवहारों के न होने पर सूत्र के अर्थपदों को धारण करते हुए यथार्ह प्रायश्चित्त देते हैं। 662, 663. प्रथम तीन व्यवहारों के अभाव होने पर भी सूत्रार्थ को धारण करके, देश और काल की अपेक्षा से विमर्श करके तथा पुरुष के अपराध पर सभी अपेक्षाओं से विचार करके जिसके लिए जो योग्य है, वह प्रायश्चित्त उसे देते हैं। वे किस आधार पर प्रायश्चित्त देते हैं, उसे तुम सुनो। 664. जिस आचार्य या मुनि ने आलीन, प्रलीन, यतनाशील और दान्त धीरपुरुषों से अनुयोग-विधि से सूत्रार्थ को धारण किया है, वह यह प्रायश्चित्त देता है। 665-67. ज्ञान आदि में सम्पूर्ण रूप से लीन आलीन कहलाता है। प्रत्येक पद में लीन होने वाला प्रलीन होता है अथवा जिसका क्रोध आदि नष्ट हो गया हो, वह प्रलीन कहलाता है। यतनायुक्त-सूत्र के अनुसार प्रयत्न करने वाला, पापों से उपरत अथवा इंद्रिय और नोइंद्रिय का दमन करने वाला दान्त होता है। इस प्रकार के गुणों से युक्त अर्थ को धारण करने वाले जो पुरुष होते हैं, वे धारणाकुशल आचार्य धारणा व्यवहार का प्रयोग करने के योग्य होते हैं। 668-70. अथवा जिस आचार्य ने अतीत में किसी दूसरे को शोधि करते हुए देखा, उसने उसकी धारणा कर ली। वैसा ही कारण उत्पन्न होने पर उसको यदि वह वैसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में वैसा ही प्रायश्चित्त नहीं देता तो वह आराधक नहीं होता। उसी प्रकार के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में उस दोषयुक्त मुनि को वैसा ही प्रायश्चित्त देता है तो वह आराधक होता है। 1. यहां प्रवचन का अर्थ द्वादशांगी तथा संघ दोनों है। 1. व्यभा 4508 मटी. प.८९; प्रवचनं द्वादशांगं श्रमणसंघो वा। 2. जो दिए जाने वाले प्रायश्चित्त को अनुग्रह के रूप में स्वीकार करता है, वह अनुग्रहविशारद कहलाता है। १.व्यभा 4508 मटी प.८९; यो दीयमानं प्रायश्चित्तं दीयमानव्यवहारं त्वनुग्रहं मन्यते सोऽनुग्रहविशारदः। 3. आचार्य मलयगिरि ने व्यवहारभाष्य की टीका में सुश्रुतबहुश्रुत की द्विविध व्याख्या की है-१. बहुत श्रुत को सुनकर भी उसको विस्मृत नहीं करने वाला 2. बहुश्रुत होने पर भी प्रायश्चित्तकर्ता आचार्य दूसरे के उपदेश के अनुसार प्रवृत्ति करता है, वह मार्गानुसारी श्रुत से युक्त होने के कारण सुश्रुतबहुश्रुत होता है। १.व्यभा 4508 मटी प.८९; यस्य बह्वपि श्रुतं न विस्मृतिपथमुपयाति स श्रुतबहुश्रुतः। अथवा बहुश्रुतोऽपि सन् यस्तस्योपदेशेन वर्तते स मार्गानुसारि श्रुतत्वात् सुश्रुतबहुश्रुतः। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१ 339 671. अथवा इन अन्य योग्यताओं से युक्त आचार्य धारणा व्यवहार से व्यवहार का प्रयोग करते हैं। 672, 673. वैयावृत्त्यकर तथा देशाटन करने वाला शिष्य अपने बुद्धि-दौर्बल्य के कारण अधिक छेदसूत्रार्थ को धारण नहीं कर सकता, वैसी परिस्थिति में आचार्य कुछ उद्धृत अर्थपदों को देते हैं, उन छेदसूत्रों के आंशिक अर्थपदों को धारण करके व्यवहार का सम्पादन किया जाता है, यह धारणा व्यवहार 674. वत्स! धारणा व्यवहार का मैंने संक्षेप में यथाक्रम से वर्णन किया, अब मैं जीत व्यवहार को यथाक्रम से कहूंगा, उसे तुम सुनो। 675. जो व्यवहार आचार्य अथवा बहुश्रुत के द्वारा वृत्त, अनुवृत्त तथा प्रवृत्त हुआ है, वह पांचवां जीतकल्प नामक व्यवहार है। 676. जो महापुरुषों के द्वारा एक बार प्रयुक्त होता है, वह वृत्त, दूसरी बार प्रयुक्त होता है, वह अनुवृत्त तथा अनेक बार प्रयुक्त होता है, वह प्रवृत्त होता है। 677. बहुश्रुत आचार्यों के द्वारा अनेक बार प्रयोग किये जाने पर जिसका निवारण नहीं होता, वह वृत्तानुवृत्त जीत से प्रामाणिक हो जाता है। (वह जीतव्यवहार से प्रमाणयुक्त है।) 678. जो आचार्य आगम, श्रुत, आज्ञा और धारणा व्यवहार से रहित होता है, वह वृत्तअनुवृत्तप्रमाण से जीत व्यवहार द्वारा व्यवहार करता है। 679, 680. अमुक व्यक्ति के द्वारा अमुक प्रायश्चित्तार्ह कार्य करने पर अमुक आचार्य ने अमुक प्रायश्चित्त का प्रयोग किया, वह वृत्त है। दूसरे अमुक व्यक्ति के द्वारा वैसा ही कार्य करने पर अमुक आचार्य ने उसी व्यवहार का प्रयोग किया, यह अनुवृत्त है। इस वृत्तानुवृत्त जीत व्यवहार का आश्रय लेता हुआ जो यथोक्त व्यवहार का प्रयोग करता है, उसे धीर पुरुषों ने जीत व्यवहार कहा है। 681. धीर पुरुषों द्वारा प्रज्ञप्त तथा श्रुतज्ञानी द्वारा प्रशंसनीय यह पांचवां जीतव्यवहार है। प्रियधर्मा तथा पापभीरु पुरुषों द्वारा यह आचीर्ण है। 682. जैसे काल आदि का प्रतिक्रमण न करने पर, मुखवस्त्रिका के इधर-उधर हो जाने पर, पानक का प्रत्याख्यान न करने पर निर्विगय प्रायश्चित्त होता है, यह जीत व्यवहार है। 683. अनंतकाय वर्जित एकेन्द्रिय प्राणियों (पृथ्वी, अप्, तेजस्, वायु, प्रत्येक वनस्पति) के घट्टन में निर्विगय, अनागाढ़ परिताप देने में पुरिमार्ध, आगाढ़ परिताप देने में एकाशन तथा उनका अपद्रावण करने में आयम्बिल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 684. विकलेन्द्रिय एवं अनंतकाय जीवों के घट्टन में पुरिमार्ध, अनागाढ़ परिताप देने में एकासन, आगाढ़ परिताप देने में आयम्बिल तथा अपद्रावण में उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 685. पञ्चेन्द्रिय जीवों के घट्टन में एकासन, अनागाढ़ परिताप देने में आयम्बिल, आगाढ़ परिताप देने में उपवास तथा अपद्रावण में पंचकल्याणक प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 जीतकल्प सभाष्य 686. यह सारा जीतव्यवहार जानना चाहिए। यह जीतव्यवहार अनवद्य-पापरहित, विशोधिकर तथा संविग्न मुनियों के द्वारा आचीर्ण है। 687. जो जीतव्यवहार सावध है, उस जीत से व्यवहार नहीं होता। जो जीत निरवद्य है, उस जीत से व्यवहार होता है। 688. (शिष्य प्रश्न पूछता है-) कौन सा जीत सावध होता है और कौन सा निरवद्य? किसको सावध दिया जाता है और किसको निरवद्य? 689. अपराधी के शरीर पर राख लगाना, कारागृह में बंदी बनाना. हड़ियों की माला पहनाना तथा पेट के बल पर रेंगने का दण्ड देना -ये सावध जीत हैं। दशविध प्रायश्चित्त निरवद्य जीत हैं। 690. प्रायः दोष का सेवन करने वाला, निद्धंधस-अकृत्यसेवी तथा प्रवचन के प्रति निरपेक्ष-इन दोषों से युक्त साधु को सावध जीत का प्रायश्चित्त दिया जाता है। 691. संविग्न, प्रियधर्मा, अप्रमत्त, पापभीरु साधु यदि कदाचित् प्रमाद से स्खलना कर ले तो उस साधु को निरवद्य जीत का प्रायश्चित्त दिया जाता है। 692. जो जीत अशोधिकर होता है, उस जीत से व्यवहार नहीं होता। जो जीत शोधिकर होता है, उस जीत से व्यवहार होता है। 693. जो जीत अशोधिकर है, पार्श्वस्थ तथा प्रमत्त संयतों के द्वारा आचीर्ण है, महान् व्यक्तियों द्वारा आचरित होने पर भी उस जीत से व्यवहार नहीं करना चाहिए। 694. संवेगपरायण और दान्त एक भी आचार्य के द्वारा जिस जीत का प्रयोग किया गया हो, उस जीत से व्यवहार करना चाहिए। 695. इस प्रकार जो धीर और विद्वान् श्रुतधरों के द्वारा देशित तथा प्रशंसित है, उस यथोपदिष्ट पंचविध व्यवहार का सार मैंने संक्षेप में कहा है। 696, 697. जिसके मुख में लाख जिह्वाएं हैं, वह भी व्यवहार के सम्पूर्ण अर्थ को विस्तार से कहने में समर्थ नहीं होता किन्तु विद्वानों द्वारा प्रशंसित इस व्यवहार के गुणों का कथन आप लोगों को कहा गया है, यह द्वादशांगी का नवनीत है। 698, 699. पांचों व्यवहार के रहते हुए किस व्यवहार का प्रयोग करना चाहिए? शिष्य के पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं -आगम व्यवहार का प्रयोग करना चाहिए, उसके अभाव में श्रुत से, श्रुत व्यवहार के 1. आचार्य मलयगिरि के अनुसार गाथा में आए 'तु' शब्द से गधे पर बिठाकर पूरे ग्राम में घुमाना आदि भी सम्मिलित है। १.व्यभा 4544 मटी प.९३ ; तु शब्दत्वात् खरारूढं कृत्वा ग्रामे सर्वतः पर्यटनम्। 2,3. टीकाकार मलयगिरि ने धीर का अर्थ तीर्थंकर तथा विदु का अर्थ चतुर्दशपूर्वी किया है। १.व्यभा 4550 मटी प. 93 / आगमव्यवहारी आगम से व्यवहार करता है, श्रुत से नहीं, इसे भाष्यकार ने एक उदाहरण से समझाया है। दीपक का प्रकाश सूर्य के प्रकाश को विशिष्ट नहीं बनाता अतः बलीयान् के रहने पर कम शक्ति वाले का प्रयोग उचित नहीं होता अतः आगम व्यवहार के उपस्थित होने पर श्रुत से व्यवहार नहीं किया जाता। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-२-४ 341 अभाव में आज्ञा व्यवहार से व्यवहार करना चाहिए, जो कुछ अंशों में श्रुतव्यवहार के समान है। 700. आज्ञा व्यवहार के अभाव में धारणा व्यवहार का प्रयोग करना चाहिए, जो श्रुत व्यवहार के एक देश में प्रवर्तित होता है। 701. धारणा व्यवहार के पश्चात् जीत का क्रम है। यहां जीतकल्प का प्रसंग है। यह व्यवहार सापेक्ष है, जब तक तीर्थ का अस्तित्व है, तब तक जीतव्यवहार का प्रयोग होता है। 702. जीतव्यवहार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष, प्रतिसेवना, धृतिबल, संहनन आदि की अपेक्षा से दिया जाता है। 703. शिष्य की जिज्ञासा पर यह सब मैंने प्रसंगानुसार कहा। अब मैं जीव की शोधि के बारे में कहूंगा, जसे प्राप्त करके वह परम सुसमाहित बन जाता है। 704. 'जीव' धातु प्राण-धारण करने के अर्थ में है। आयु आदि प्राण हैं अथवा जो जीता है, जीएगा या जिसने जीया है, वह जीव है। 705. जैसे वस्त्र का शोधन पानी आदि से होता है, वैसे ही कर्म-मल से कलुषित जीव की विशोधि प्रायश्चित्त से होती है। 706. यह प्रायश्चित्त उत्कृष्ट है। परम और प्रधान -ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। किसकी परम विशोधि है? प्रायश्चित्त करने वाले जीव की। 2. संवर और निर्जरा मोक्ष के पथ हैं। इनका भी हेतु तप है, तप का प्रधान अंग प्रायश्चित्त है। 707. संवर, घट्टन और पिधान' - ये तीनों शब्द एकार्थक हैं। संवर दो प्रकार का होता है-देश संवर और सर्व संवर। इसी प्रकार निर्जरा भी दो प्रकार की होती है। (देश निर्जरा और सर्व निर्जरा) 708. आस्रव द्वार का संवरण करने वाला व्यक्ति नए कर्मों का उपार्जन नहीं करता है, पूर्व अर्जित कर्म के क्षपण को निर्जरा जानना चाहिए। 709. शैलेशी दशा को प्राप्त अंतिम दो समय में स्थित जीव के सर्व संवर होता है। शेष समय में देश निर्जरा होती है। १.जीतव्यवहार के संदर्भ में व्यवहारभाष्य की टीका में एक प्रश्न उपस्थित किया गया है कि जिस समय गौतमस्वामी ने पंचविध व्यवहार' सूत्र की प्ररूपणा की, तब आगम व्यवहार था, उन्होंने श्रुत, आज्ञा आदि व्यवहारों का प्रवर्तन क्यों किया? इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है कि सूत्र का विषय अनागत काल भी होता है। भविष्य में चार व्यवहार नहीं रहेंगे अत: जीतव्यवहार का प्रवर्तन किया गया। व्यवहार का प्रयोग काल और क्षेत्र सापेक्ष होता है। तीर्थ की अवस्थिति तक जीत व्यवहार रहता है अत: इसका उपदेश पहले ही दे दिया गया है। १.व्यभा 3885 सुत्तमणागयविसयं, खेत्तं कालं च पप्प ववहारो। होहिंति न आइल्ला, जा तित्थं ताव जीतो तु। २.जीसू 2 में आए 'जं च णाणस्स' पाठ का सम्बन्ध जीसू गा.३ से है अत: उसका अनुवाद अगली गाथा में देखें। ३.पिधान का प्राकृत में पिहण रूप बन गया है। 4. चूर्णिकार के अनुसार प्राणवध आदि आस्रवों का निरोध संवर है। १.दशजिघू प.१६२,१६३, संवरो नाम पाणवहादीण आसवाणं निरोहो भण्णइ। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 जीतकल्प सभाष्य 710. संवर और निर्जरा-ये दोनों मोक्ष के कारण हैं। मोक्षपथ, मोक्ष-हेतु और मोक्ष-कारण-ये तीनों एकार्थक हैं। 711. संवर और निर्जरा-इन दोनों का पथ, हेतु और कारण तप है। तप का प्रधान अंग प्रायश्चित्त जानना चाहिए। 712. बारह प्रकार का तप प्रायश्चित्त के दश भेदों में समाविष्ट होता है इसलिए तप का प्रधान अंग प्रायश्चित्त है। 713. दूसरी गाथा के पश्चार्द्ध में जो ज्ञान की बात कही है, उसका सार इस तीसरी गाथा में वर्णित है। 3. ज्ञान का सार चारित्र है, चारित्र का सार निर्वाण' है। चारित्र को साधने के लिए मोक्षार्थी व्यक्ति को अवश्य ही प्रायश्चित्त को जानना चाहिए। 714. सामायिक (आचारांग) आदि ग्रंथ से लेकर बिंदुसार पर्यन्त श्रुत ज्ञान का सार चारित्र है। चारित्र का सार निर्वाण है। 715. निर्वाण का अनन्तर चारित्र तथा चारित्र का अनन्तर ज्ञान है, ज्ञान की विशुद्धि से चारित्र की विशुद्धि होती है। 716. चारित्र की विशुद्धि से शीघ्र ही निर्वाण का फल प्राप्त होता है। वह चारित्रशुद्धि प्रायश्चित्त के अधीन जाननी चाहिए। 717. इसलिए सूत्र में प्रायश्चित्त के ये गुण कहे गए हैं। मोक्षार्थी व्यक्ति को ये दश प्रकार के प्रायश्चित्त जानने चाहिए। 4. दश प्रकार के प्रायश्चित्त हैं-१. आलोचना 2. प्रतिक्रमण' 3. उभय 4. विवेक 5. व्युत्सर्ग 6. तप 7. छेद 8. मूल 9. अनवस्थाप्य 10. पाराञ्चित। 718. आलोचनार्ह का अर्थ है-जो पाप किए हैं, उनको आ-मर्यादा से गुरु के समक्ष प्रकट करना, जिससे कृत पाप की विशोधि हो, यह प्रायश्चित्त का प्रथम भेद है। १.निर्वाण का अनन्तर कारण चारित्र तथा उसका कारण ज्ञान है। चारित्र के लिए ज्ञान अनन्तर कारण है अत: ज्ञान से चारित्र और चारित्र से निर्वाण की प्राप्ति होती है। १.जीचू पृ.५; निव्वाणस्स अणंतरकारणं चरणं, कारणकारणं नाणं। चरणस्स कारणं नाणमणंतरं। नाणाओ चरणं, चरणाओ निव्वाणं ति। 2. आवश्यक नियुक्ति में प्रतिक्रमण के निम्न पर्याय मिलते हैं -प्रतिक्रमण, प्रतिचरण, परिहरण, वारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्दा और शोधि। प्रतिक्रमण का अर्थ है-भूतकाल के सावद्ययोग से निवृत्ति / आवश्यक चूर्णि के अनुसार प्रतिक्रमण का अर्थ है-दोषों का पुनः सेवन न करने का संकल्प तथा उचित प्रायश्चित्त का स्वीकरण अथवा प्रमादवश असंयमस्थान में चले जाने पर पुनः स्वस्थान (संयम में आना) अथवा औदयिकभाव से क्षायोपशमिक भाव में लौटना। 1. आवनि 824 ; पडिकमणं पडियरणा, परिहरणा वारणा नियत्ती य। निंदा गरिहा सोधी, पडिकमणं अट्टहा होति॥ 2. विभा 3572; पडिक्कमामि त्ति भूयसावज्जओ निवत्तामि। 3. आवचू 2 पृ. 48; पडिक्कमामि नाम अपुणक्करणताए अब्भुटेमि अहारिहं पायच्छित्तं पडिवग्जामि। 4. आवचू 2 पृ. 52 / Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-४,५ 343 719. गुरु के समक्ष जिसकी आलोचना नहीं की जाती, मिथ्या दुष्कृत करने मात्र से जो पाप शुद्ध हो जाता है, वह प्रतिक्रमणार्ह प्रायश्चित्त है। 720. जिस प्रकार अजानकारी में श्लेष्म आदि बाहर निकलता है, उससे हिंसा आदि दोष लगता है लेकिन उसमें तप रूप प्रायश्चित्त कुछ नहीं मिलता। 721. जिस पाप का सेवन करने के पश्चात् उसकी गुरु के पास सम्यक्आलोचना की जाती है, गुरु द्वारा निर्दिष्ट प्रतिक्रमण किया जाता है, उसे तदुभयार्ह प्रायश्चित्त जानना चाहिए। 722. अधिक या कम अकल्प्य आहार ग्रहण करने पर उसका विधिपूर्वक परिष्ठापन किया जाता है, वह विवेकार्ह प्रायश्चित्त है। 723. कायिक चेष्टा के निरोध मात्र से जो पाप शुद्ध हो जाता है, वह व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त कहलाता है, जैसे, दुःस्वप्न आदि का प्रायश्चित्त। 724. निर्विगय से लेकर छह मास पर्यन्त तप से जिस पाप की विशुद्धि होती है, वह तपोर्ह प्रायश्चित्त कहलाता है। अब मैं छेदार्ह प्रायश्चित्त के बारे में कहूंगा। 725. जिस पाप के प्रतिसेवन से पूर्वपर्याय दूषित होने के कारण शेष पर्याय की रक्षा के लिए उतने पर्याय का छेद कर दिया जाता है, वह छेदार्ह प्रायश्चित्त है। 726. जिस पाप का प्रतिसेवन करने पर पूर्व पर्याय का पूर्ण छेद करके पुनः महाव्रतों का आरोपण किया जाता है, वह मूलाई प्रायश्चित्त है। 727,728. जिस प्रतिसेवना में कुछ काल तक मुनि को पांचों ही मूल व्रतों में अनवस्थाप्य रखा जाता है अर्थात् पुनः दीक्षा नहीं दी जाती फिर तप का आचरण करने के पश्चात् उस दोष से उपरत होने के बाद महाव्रतों की आरोपणा की जाती है, वह अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त है। अब मैं पाराञ्चित प्रायश्चित्त के बारे में कहूंगा। 729. 'अञ्चु' धातु गति और पूजा के अर्थ में है। जिस प्रतिसेवना में तप आदि के द्वारा क्रमशः अपराध का पार पाया जाता है, वह पाराञ्चित' प्रायश्चित्त है। वह लिंग, क्षेत्र, काल और तप के भेद से चार प्रकार १.बृहत्कल्पभाष्य में भी पाराञ्चित तप के निम्न निरुक्त मिलते हैं• साधु जिस प्रायश्चित्त का वहन करके संसार-समुद्र के तीर-अनुत्तर निर्वाण को प्राप्त कर लेता है, वह पाराञ्चित है। . •जो शोधि प्रायश्चित्त के पार को प्राप्त है अर्थात् अंतिम प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त प्राप्त कर्ता जिस तप की पूर्णता पर अपूजित नहीं होता अपितु श्रमण संघ की पूजा प्राप्त करता है, वह पाराञ्चित है, उपचार से साधु भी पाराञ्चित कहलाता है। * जिसमें लिंग, क्षेत्र, काल एवं तप के द्वारा अपराध का पार पाया जाता है, वह पाराञ्चित है। १.बभा 4971 ; अंचुगति पूयणम्मि य, पारं पुणऽणुत्तरं बुधा बिंति।सोधीय पारमंचइ,ण यावि तदपूतियं होति॥ २.निरुक्त कोश पृ.१९९। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 जीतकल्प सभाष्य 730. आलोचना आदि दसों प्रायश्चित्तों का यह संक्षेपार्थ है। अपने-अपने स्थान पर मैं विस्तारपूर्वक इनको कहूंगा। 5. जो अवश्यकरणीय योग हैं, उनमें निरतिचार रूप से उपयुक्त रहने वाले छद्मस्थ की विशोधि' को यति लोगों ने आलोचना कहा है। 731. करणीय कार्य कौन से हैं? (आचार्य उत्तर देते हैं-) जो तीर्थंकर और गणधरों द्वारा उपदिष्ट हैं, सूत्रानुसारी हैं, संयम को पुष्ट करने वाले तथा दुःख-क्षय करने के हेतु हैं। 732. 'जे' शब्द से जितने निर्दिष्ट हैं। युज-योगे धातु से काय (मन, वचन) आदि तीन योग गृहीत हैं। जो जीव को योजित करते हैं, प्रेरित करते हैं, वे योग हैं। 733. संक्षेप में ये मुखवस्त्रिका (प्रतिलेखन) से लेकर उत्सर्ग तक तथा सूत्र में दिन-रात सम्बन्धी सामाचारी जो जहां कही गई है, उसे योग जानना चाहिए। 734. जब मुनि बिना बाधा के निरतिचार रूप से उन योगों में उपयुक्त रहता है, तब आलोचना मात्र से पाप की शुद्धि हो जाती है। 735. कर्म को छद्म कहा गया है, वह चार प्रकार का है-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय। 736. शिष्य प्रश्न पूछता है कि जब मुनि करणीय योग में निरतिचार रूप से उपयुक्त होता है, तब उसके क्या शुद्धि होती है और क्या अशुद्धि? 737. गुरु कहते हैं जो सूक्ष्म आस्रव क्रिया अथवा सूक्ष्म प्रमाद है, उससे लगने वाला कर्म और अतिचार छद्मस्थ नहीं जान सकता। 738. वे सूक्ष्म अतिचार आलोचना करने मात्र से शुद्ध हो जाते हैं अतः तीनों योगों से सम्बन्धित आलोचना करनी चाहिए। 739. आलोचना करने वाला कौन होता है? (आचार्य उत्तर देते हैं -) यति आलोचना करता है। यति शब्द से साधु निर्दिष्ट है। पांचवीं गाथा की व्याख्या समाप्त हो गई, अब छठी गाथा को इस प्रकार कहूंगा। 6. आहार आदि ग्रहण में तथा उच्चारभूमि, विहारभूमि', चैत्य-वंदन, यति-वंदन आदि अनेकविध 1. चूर्णिकार के अनुसार विशोधि का अर्थ है-कर्मबंधन से निवृत्ति तथा शल्यरहित होना / १.जीचू पृ.७ ; विसोही कम्मबंधनिवित्ती निसल्लया य। 2. दशवैकालिक जिनदासचूर्णि में उन योगों का उल्लेख है, जिनकी शुद्धि आलोचना करने मात्र से हो जाती है। परस्पर अध्ययन-अध्यापन, परिवर्तना, केशलुंचन, वस्त्रों का आदान-प्रदान आदि के आज्ञा के बिना करने से अविनय होता है, इसकी शुद्धि आलोचना से हो जाती है। १.दशअचूप.१४; परोप्परस्स-वायण-परियट्टण-लोयकरण-वत्थदाणादि अणालोइए गुरुणंअविणयो त्ति आलोयणारिहं। 3. उपाश्रय में अस्वाध्यायिक के समय जो स्वाध्यायभूमि होती है, उसे विहारभमि कहा जाता है। १.निचू 2 पृ.१२० ; असज्झाए सज्झायभूमी जा सा विहारभूमी। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-६ 345 कार्यों के लिए उपाश्रय से बाहर निर्गमन होता है। 740. आहार जिसके आदि में है (मूलसूत्र की छठी गाथा में), वह आहार चार प्रकार का होता है-१. भक्त 2. पान 3. खाद्य और 4. स्वाद्य। 741. मूलसूत्र (जीसू 6) में आए 'आदि' शब्द से शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, पादप्रोञ्छन, ओघ उपधि और उपग्रह उपधि आदि गृहीत हैं। 742-45. अथवा ग्लान, आचार्य, बाल, वृद्ध, क्षपक, दुर्बल, शैक्ष, महोदर और प्राघूर्णक के प्रायोग्य आहार, शय्या, औषध, भैषज आदि के लिए गुरु से पूछकर उनकी अनुज्ञा लेकर सूत्रानुसार उपयुक्त विधि से जिस रूप में आहार आदि ग्रहण किया है, उसकी गुरु के समक्ष आलोचना करता है। सूत्र के अनुसार आलोचना करने मात्र से वह शुद्ध हो जाता है। 746. शिष्य प्रश्न पूछता है कि विधिपूर्वक ग्रहण करने से भी अशुद्ध होता है, तब फिर आहार आदि को ग्रहण ही नहीं करना चाहिए। 747. आचार्य उत्तर देते हैं-'शिष्य! यदि बिना आहार ग्रहण किए ही संयम-योग सध जाएं तो आहार आदि का परिग्रह कौन करेगा? 748. आहार आदि ग्रहण न करने से एक बड़ा दोष यह होता है कि आचार्य आदि परित्यक्त हो जाते हैं तथा ज्ञान आदि का विच्छेद हो जाता है। 749. इसलिए आहार आदि को विधिपूर्वक अवश्य ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार मूल गाथा का 'आहारादीगहणे' एक चरण समाप्त हो गया। 750. निर्गम गुरु के पास से तथा अपने स्थान से भी होता है अतः निर्गम अनेक हैं। कुल आदि से सम्बन्धित निर्गम के बारे में कहूंगा। 751. कुल', गण, संघ और चैत्य सम्बन्धी कार्य तथा तत्रस्थ द्रव्य-विनाश का निवारण-इन दो कारणों के उपस्थित होने पर गुरु के पास से निर्गमन करना चाहिए। 752. प्रातिहारिक संस्तारक आदि को पुनः लौटाने के लिए गुरु के पास से अथवा वसति से निर्गमन करना चाहिए। 753. गाथा (मूलसूत्र की छठी गाथा) के पश्चार्द्ध में जो उच्चार और अवनि शब्द आया है, उसमें अवनि शब्द भूमि का वाचक है इसलिए यहां उच्चारभूमि अर्थ होगा। 754. विहार शब्द स्वाध्याय का सूचक है। अवनि सहित विहार शब्द स्वाध्याय-भूमि का वाचक है। चैत्य-वंदन के लिए दूर या निकट निर्गमन होता है। 1-3. एक आचार्य के शिष्य-समूह को कुल, तीन आचार्य के शिष्य-समूह को गण तथा अनेक आचार्यों के शिष्य समूह को संघ कहा जाता है। कुछ आचार्यों के अनुसार एक सामाचारी का पालन करने वाले साधु-समुदाय को , गण कहा जाता है। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 जीतकल्प सभाष्य 755. अपूर्व आचार्य अथवा अतीव संविग्न साधु को वंदन करने अथवा संशय-निवारण हेतु गच्छ से दूर : या पास निर्गमन होता है। 756. 'आदि' शब्द के ग्रहण से श्रद्धालु ज्ञातिजन अथवा अवसन्न विहारी को श्रद्धा ग्रहण कराने हेतु अथवा साधर्मिक साधु को संयम में उत्साहित करने के लिए गुरु के पास से निर्गमन करना चाहिए। 757. इन प्रयोजनों से साधु को गुरु के पास से निर्गमन करना चाहिए। छठी गाथा समाप्त हो गई, अब मैं सातवीं गाथा कहूंगा। 7. साधु उपाश्रय से सौ हाथ दूर जो कुछ करता है, उसकी आलोचना न करने पर अशुद्ध तथा आलोचना करते हुए शुद्ध होता है। 758. गाथा (7) में जो ‘जं चऽण्णं करणिज्ज' कहा गया है, वह क्षेत्र आदि से सम्बन्धित है। मैं सौ हाथ के भीतर अथवा उससे दूर जाने के कारणों को कहूंगा। 759, 760. क्षेत्र-प्रतिलेखना, स्थण्डिल भूमि की प्रतिलेखना, शैक्ष का अभिनिष्क्रमण अथवा कोई आचार्य आदि संलेखना करे-इन कारणों से सौ हाथ से दूर जाने पर जो आचरण किया जाता है, उसमें समिति की विशुद्धि के लिए अवश्य आलोचना करनी चाहिए। 761, 762. यदि सौ हाथ के भीतर कुछ आसेवना की हो तो कुछ की आलोचना की जाती है, कुछ की नहीं की जाती, जैसे—प्रस्रवण, श्लेष्म, नाक का मल आदि में उपयुक्त होने पर आलोचना नहीं होती। प्रमत्त साधु आलोचना करने पर शुद्ध होता है, आलोचना न करने पर अशुद्ध रहता है। 763. सातवीं गाथा की व्याख्या समाप्त हो गई, अब मैं आठवीं गाथा की व्याख्या करूंगा। जहां स्वगण और परगण से कारणपूर्वक निर्गमन और आगमन होता है। 8. स्वगण से सकारण निर्गमन करने वाले तथा परगण से आने वाले निरतिचार साधु के उपसम्पदा और विहार में आलोचना करने से शुद्धि होती है। 764. गच्छ से निर्गमन सकारण और अकारण-इन दो हेतुओं से होता है। अशिव आदि होने पर सकारण तथा चक्र और स्तूप आदि देखने के लिए होने वाला निर्गमन अकारण कहलाता है। 765. समाधि की इच्छा रखने वाले साधु को इन कारणों से निर्गमन करना चाहिए-१. अशिव 2. अवमौदर्य 3. राजा का प्रद्वेष 4. भय 5. रोग 6. तथा उत्तमार्थ (अनशन)। 766. आचार्य के द्वारा प्रेषित करने पर गच्छ से होने वाला निर्गमन सकारण कहलाता है। मैं निष्कारण Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-८ 347 निर्गमन' के कारणों को कहूंगा। 767, 768. असमाप्त कल्प वाले साधु का इन कारणों से होने वाला निर्गमन अकारण है-चक्रधर्मचक्र', स्तूप तथा जीवन्त स्वामी की प्रतिमा का दर्शन', तीर्थंकरों की जन्मभूमि, निष्क्रमणभूमि, केवलज्ञानभूमि तथा निर्वाणभूमि को देखने, महिमा, समवसरण, ज्ञातिजनों का स्थान, गोकुल आदि स्थानइन स्थानों में यतनायुक्त गीतार्थ मुनि का निर्गमन अकारण होता है।" 769. कारण से निर्गमन करने पर निरतिचार साधुओं को भी समिति की विशुद्धि के लिए अवश्य आलोचना देनी चाहिए। 770. आलोचना दो प्रकार की होती है-ओघतः और विभागतः। संक्षिप्त आलोचना को ओघ तथा विस्तृत आलोचना को विभाग आलोचना कहा गया है। 771, 772. ओघ आलोचना इस प्रकार है-कोई मुनि पन्द्रह दिन के भीतर कहीं से आया है, वह ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करके भोजन-वेला में आलोचना करता है। निरतिचार यति यदि भक्तार्थी है तो वह संक्षेप में आलोचना करके भोजन-मंडलि में प्रवेश करे। 773. मूलगुण और उत्तरगुण की अल्प विराधना होने पर तथा पार्श्वस्थ साधु आदि को देने और लेने में अल्प विराधना होने पर ओघ आलोचना होती है। 774. अर्धमास से अधिक समय से आने पर भोजन-वेला के अतिरिक्त अन्य समय में समिति की विशुद्धि के लिए विभाग आलोचना होती है। परगण से आया हुआ साधु भी इसी प्रकार आलोचना करता है। १.निशीथ भाष्य में निष्कारण गमन के निम्न हेतु बताए हैं–१. अमुक आचार्य विशिष्ट चारित्र सम्पन्न, श्रुतविशारद या शिष्य-परिवार से युक्त हैं, उनके दर्शन हेतु जाना। 2. अमुक साधु निरतिचार चारित्र वाला तथा ज्ञान आदि गुणों से युक्त है, उसके दर्शनार्थ जाना। 3 अपूर्व या अभिनव चैत्य के वंदन हेतु जाना। 4. आत्मीय या श्रावक लोगों को दर्शन दूंगा, . . उनको आध्यात्मिक सहयोग दूंगा और मुझे भी विशिष्ट आहार आदि की प्राप्ति होगी। 5. नए-नए क्षेत्र देखने को मिलेंगे। 6. गोकुल में जाने से दूध आदि मिलेगा। ये सभी निष्कारण गमन के हेतु है। वहां निष्कारण विहार से होने वाले मार्गश्रम आदि अनेक दोषों की चर्चा भी है। १.निभा 1055-60 चू पृ. 113 / २.जीतकल्पचूर्णि की विषम पद व्याख्या में तक्षशिला नगरी में बाहुबलि द्वारा निर्मित रत्नमय धर्मचक्र का उल्लेख मिलता है। यह बात तर्क संगत प्रतीत नहीं होती क्योंकि इतना समय बीतने के पश्चात् मानव निर्मित वस्तु का - अस्तित्व संभव नहीं लगता। ... १.जीचूवि पृ.४०; चक्कथूभत्ति-ऋषभजिनपदस्थाने बाहुबलिविनिर्मितं तक्षशिलानगर्यां रत्नमयधर्मचक्रं तद्दर्शनाय व्रजति। 3. धर्मचक्र बनारस में, स्तूप मथुरा में, जीवन्त स्वामी की प्रतिमा पुरिका (पुरी) में है। १.जीचूवि पृ. 40 ; स्तूपो मथुरायाम्। प्रतिमा जीवन्तस्वामिसम्बन्धिनी पुरिकायाम्। 4. ओघनियुक्ति में निष्कारण-गमन के ये हेतु और बताए हैं-१.संखडि-भोज के लिए निर्गमन 2. विहार-उस स्थान में मन नहीं लगने से होने वाला निर्गमन ३.जिस देश में स्वभावतः आहार मिलता हो, वहां निर्गमन 4. अमुक देश में उपधि अच्छी मिलती है, उसके लिए गमन 5. दर्शनीय स्थल को देखने के लिए निर्गमन / ' 1. ओनि 119 टी. प.६०। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 जीतकल्प सभाष्य 775. इस प्रकार अशिव आदि कारण होने पर स्वगण से निर्गत निरतिचार साधु की आलोचना मात्र से शुद्धि हो जाती है। 776. जो साधु बाहर से आते हैं, वे दो प्रकार के होते हैं-समनोज्ञ और असमनोज्ञ / समनोज्ञ अपने गच्छ से ही आते हैं। 777. दूसरे गण में जो असमनोज्ञ साधु होते हैं, वे दो प्रकार के होते हैं -संविग्न और असंविग्न / पार्श्वस्थ आदि असंविग्न होते हैं। 778. दूसरे गण से जो संविग्न साधु अन्य गण में आता है, उसे अवश्य ही विभागत: आलोचना देनी चाहिए। 779. उपसंपदा' पांच प्रकार की होती है -1. श्रुत 2. सुख-दुःख 3. क्षेत्र 4. मार्ग 5. विनय। 780. जहां नियमत: पांच प्रकार की या एक प्रकार की उपसम्पदा स्वीकार की जाती है, वहां निरतिचार होने पर भी अवश्य विभागत: आलोचना देनी चाहिए। 781,782. जो एक गच्छ में हैं, समनुज्ञ हैं, वे एक सांभोजिक, स्पर्धकपति और गीतार्थ साधु उस अथवा अन्य क्षेत्र में विहरण करते हैं, वे यदि एक दिन, पांच दिन, पक्ष या चातुर्मास में जहां भी आपस में मिलते हैं, वहां विभागतः आलोचना देनी चाहिए। 783. आलोचनाह का प्रथम द्वार मैंने कहा, अब मैं प्रतिक्रमणार्ह नामक दूसरा द्वार कहूंगा। 9. गुप्ति और समिति में प्रमाद, गुरु की आशातना, विनय का भंग, इच्छाकार आदि सामाचारी न करना तथा लघुस्वक मृषा, अदत्त और मूर्छा करने पर (प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है।) १.जीतकल्प भाष्य में श्रुत, सुख-दु:ख आदि को पांच उपसम्पदा के रूप में स्वीकार किया है। व्यवहारभाष्य में ये पांच प्रकार के आभवद् व्यवहार के अन्तर्गत समाविष्ट हैं लेकिन शाब्दिक भेद होते हुए भी दोनों में अर्थभेद नहीं है। पांचों उपसम्पदाओं की संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार है• श्रुत ग्रहण करने के लिए अन्य आचार्य के पास उपसम्पदा स्वीकार करना श्रुत-उपसम्पदा है। यह दो प्रकार की होती है-अभिधारण और पठन / इनके भी दो-दो भेद हैं -अनंतर और परम्पर। दो साधुओं के मध्य होने वाली अनंतर श्रुतोपसंपद् तथा तीन आदि के मध्य होने वाली परम्पर श्रुतोपसम्पद् कहलाती है। इसके विस्तार हेतु देखें व्यभा 3958-80 * सुख-दुःख सम्यक् रूप से सहन करना सुख-दुःख उपसम्पदा है। इसके भी दो भेद है-अभिधारण और उपसम्पन्न / इनके विस्तार हेतु देखें व्यभा 3981-92 / * आठ ऋतुमास और चार वर्षाकाल के लिए क्षेत्र की मार्गणा करना क्षेत्र उपसम्पदा है। इसके विस्तार हेतु देखें व्यभा 3993-99 / * क्षेत्र में रहते हुए या मार्ग में जाते हुए यह क्षेत्र किसका है, यह निर्णय करना क्षेत्रोपसम्पदा है। वसति में रहने वाले और आगन्तुक मुनियों के विनय-व्यवहार को प्रकट करने वाली विनय उपसम्पदा कहलाती है। विस्तार हेतु देखें व्यभा 4000-05 / Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-९ 349 784. 'गुपू' धातु रक्षण अर्थ में है, उससे गुप्ति' शब्द निष्पन्न हुआ है। वह मन आदि तीन प्रकार की होती है। उसमें साधु जो कुछ भी प्रमाद करता है, वह इस प्रकार है७८५. दुश्चिन्तन, दुर्भाषण और दुश्चेष्टा-यह अगुप्ति होती है। साधु के मन आदि से सम्बन्धित यह प्रमाद होता है। 786. साधु मन आदि से नित्य गुप्त कैसे रह सकता है? यहां जिनदास आदि के उदाहरण कहूंगा। 787. मन गुप्ति में जिनदास श्रावक का उदाहरण है। जिनदास श्रेष्ठिपुत्र और श्रावक था। उसने यानशाला में सर्वरात्रिकी प्रतिमा स्वीकार की। 788, 789. उसकी भार्या उद्भामिका-स्वैरिणी थी। वह उसी यानशाला में कील युक्त पलंग लेकर आई। (अंधेरे में दिखाई न देने के कारण) वह जिनदास के पैर के ऊपर मंचक के पाए को स्थिर करके (अपने उपपति के साथ) अनाचार का सेवन करने लगी। पर्यंक की कीलिका से जिनदास का पैर बिंध गया। महान् वेदना होने पर भी उसने उसको समभाव से सहन किया। 790. उस निश्चलमति जिनदास के मन में पत्नी को देखकर भी दुश्चिन्तन उत्पन्न नहीं हुआ। इस प्रकार की मनगुप्ति का अभ्यास करना चाहिए। 791. वचनगुप्ति में एक साधु का उदाहरण है, जो ज्ञातिजनों की पल्लि में उन्हें देखने गया। चोरों ने उसे पकड़ लिया पर सेनापति ने उसे यह कहकर छोड़ दिया कि इस बारे में किसी से कुछ मत कहना। 792. यज्ञयात्रा प्रस्थित हुई। साधु को उसके ज्ञातिजन मार्ग के बीच में ही मिल गए। वह साधु भी माता, पिता और भाई के साथ लौट आया। 793-95. चोरों ने उन्हें पकड़ लिया और धन चुरा लिया। चोरों ने जब साधु को देखा तो कहा कि यह वही साधु है, जो हमारे द्वारा छोड़ा गया था। यह सुनकर उसकी मां ने कहा-'क्या यह तुम्हारे द्वारा पकड़कर छोड़ा गया है?' चोरों ने कहा-'हां, यह वही साधु है।' मां बोली कि छुरी लेकर आओ, मैं अपने स्तन काटती हूं। सेनापति ने पूछा-'स्तन क्यों काटना चाहती हो?' मां ने कहा-'यह कुपुत्र है, इसने चोरों को देखा फिर भी हमें कुछ नहीं कहा, यह मेरा पुत्र कैसे हुआ?' जब साधु से पूछा कि तुमने चोरों के बारे में क्यों नहीं कहा तो मुनि ने धर्म-कथा कही। 1. उत्तराध्ययन के अनुसार अशुभ विषयों से निवृत्त होना गुप्ति है। टीकाकार शान्त्याचार्य के अनुसार आगमोक्त विधि से प्रवृत्ति करना तथा उन्मार्ग से निवृत्त होना गुप्ति है। उत्तराध्ययन के उनतीसवें अध्ययन में त्रिविध गुप्ति के लाभों का वर्णन मिलता है।' | १.उ२४/२६ ; गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्थेसु सव्वसो।। 2. उशांटी प५१४ ; प्रवचनविधिना मार्गव्यवस्थापनमुन्मार्गगमननिवारणं गुप्तिः। .3. उ 29/54-56 / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 20 / 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 21 / Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 जीतकल्प सभाष्य 796. धर्म-कथा से प्रेरित होकर चोर-सेनापति उपशान्त हो गया। उसने माता आदि सबको छोड़ दिया और सारा धन समर्पित कर दिया। साधु को ऐसी ही वचनगुप्ति करनी चाहिए। 797. कायगुप्ति में मार्गवर्ती साधु का उदाहरण है। सार्थ के रहने पर उसको कहीं स्थण्डिल भूमि की प्राप्ति नहीं हुई। 798, 799. किसी भी प्रकार उसको एक पैर टिकाने जितना स्थान मिला। उसने एक पैर पर स्थित होकर सारी रात बिता दी। उसका शरीर अकड़ गया लेकिन अस्थण्डिल भूमि में उसने पैर नहीं रखा। साधु को इसी प्रकार कायगुप्त होना चाहिए। (अथवा कायगुप्ति का दूसरा उदाहरण है) अत्यधिक भय होने पर भी एक साधु ने गति-भेद नहीं किया। 800. शक्र ने उस साधु की प्रशंसा की। शक्र की बात पर अश्रद्धा करने वाले देवता ने आकर अनेक सूक्ष्म मेंढकों की विकुर्वणा कर दी। यतनापूर्वक वह धीरे-धीरे चलने लगा। 801, 802. देवता ने हाथी की विकुर्वणा की, वह उसके पीछे चिंघाड़ता हुआ आने लगा लेकिन फिर भी साधु की गति में अंतर नहीं आया। हाथी ने साधु को सूंड से ऊपर उठाकर नीचे गिरा दिया। नीचे गिरता हुआ वह साधु बोला-'यदि मेरे द्वारा जीवों की विराधना हुई हो तो मेरे पाप मिथ्या हों।' उसने स्वयं की चिन्ता नहीं की। देव संतुष्ट होकर प्रणाम करके चला गया। 803. गुप्तिद्वार का कथन कर दिया। अब प्रसंग से अगुप्त गुप्ति अर्थात् समिति द्वार को कहूंगा। समिति माताएं हैं/समिति में प्रवचन समाया हुआ है। 804. गमन क्रिया को समिति कहते हैं। श्रामण्य में परिणत साधु का सम्यक् रूप से गमन करना समिति है। वह ईर्या आदि पांच प्रकार की है। 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 22 / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 23 / 3. जिन-प्रवचन के अनुरूप सम्यक् प्रवृत्ति करना समिति है। उत्तराध्ययन सूत्र में तीन गुप्तियों का भी समिति में समावेश करके आठ समितियों को स्वीकार किया है। इसका कारण यह है कि गुप्ति में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों होती है। गुप्ति के तीन रूप बनते हैं -1. अशुभ योगों की निवृत्ति 2. शुभ योगों की प्रवृत्ति तथा 3. शुभ योगों से भी निवृत्ति। 1. उ 24/3, शांटी प.५१४ ; समितिः सम्यक् सर्ववित् प्रवचनानुसारितया इतिः, आत्मनः चेष्टा समितिः तान्त्रिकी संज्ञा ईर्यादिचेष्टासु पंचसु। 2. उशांटी प.५१३, 514 / 4. मांक-माने धातु के आधार पर 'मायाओ' का अर्थ है-समाया हुआ है। समिति में द्वादशांग प्रवचन समाया हुआ है। यदि मायाओ की मातरः संस्कृत छाया की जाए तो इसका अर्थ प्रवचन-माता होगा। जिसका तात्पर्य है कि समितियों से प्रवचन की उत्पत्ति होती है। भगवती आराधना में उल्लेख मिलता है कि समिति और गुप्तियां ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वैसे ही रक्षा करती हैं, जैसे माता अपने पुत्र की।' 1. उशांटी प.५१३,५१४। २.भआ 1179 विटी पृ.५९३ ; यथा माता पुत्राणां अपायपरिपालनोद्यता एवं गप्तिसमितयोऽपि व्रतानि पालयन्ति। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-९ 351 805. साधु समिति में प्रमाद कैसे करता है, उसे सुनो। साधु ऊंचा मुख करके वार्ता में रत रहकर चलता है तो वह प्रमाद है। 806. यदि साधु गृहस्थ सम्बन्धी सावध भाषा बोलता है, ऊंची आवाज में बोलता है तो उसे भाषा सम्बन्धी प्रमाद जानना चाहिए। 807. भिक्षाचर्या के लिए भ्रमण करते हुए भिक्षा-ग्रहण के समय जो शंका आदि दोषों में उपयुक्त नहीं होता, वहां एषणा समिति में प्रमाद होता है। 808. उपकरणों को ग्रहण करने एवं रखने में जो अनुपयुक्त होता है, वह चौथी समिति का प्रमाद है। इस प्रमाद के छह भंग हैं। 809. आदान का अर्थ है-ग्रहण, नि उपसर्ग अधिक अर्थ में प्रयुक्त होता है। खिव-क्षिप् धातु फेंकने के अर्थ में प्रयुक्त होती है। अधिक उत्क्षेप को निक्षेप कहते हैं। 810. प्रतिलेखन और प्रमार्जन की चतुर्भगी इस प्रकार है• न प्रतिलेखन, न प्रमार्जन। * प्रतिलेखन, प्रमार्जन नहीं। * प्रतिलेखन नहीं, प्रमार्जन। * प्रतिलेखन और प्रमार्जन दोनों। 811, 812. प्रतिलेखन और प्रमार्जन रूप चतुर्थ भंग की चतुर्भंगी इस प्रकार है दुष्प्रतिलेखन दुष्प्रमार्जन। दुष्प्रतिलेखन सुप्रमार्जन। सुप्रतिलेखन दुष्प्रमार्जन। सुप्रतिलेखन सुप्रमार्जन। 813. प्रथम चतुर्भंगी के प्रथम तीन भंग (न प्रतिलेखन, न प्रमार्जन आदि) तथा द्वितीय चतुर्भंगी के भी प्रथम तीन भंग (दुष्प्रतिलेखन, दुष्प्रमार्जन आदि)-ये छह भंग प्रमादी के होते हैं। 814. उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म और नासिकामल आदि के परिष्ठापन में भी प्रमादी साधु के छह भंग होते 815. उच्चार आदि का परिष्ठापन होता है। जो शरीर से तीव्र गति से बाहर निकलता है, वह उच्चारमल है। प्रस्रवित होने के कारण कायिकी को प्रस्रवण कहा जाता है। 816. जो शरीर को उत्सर्ग के लिए प्रेरित करता है, वह उच्चार तथा जो प्रायः सवित होता है, उसकी प्रसवण संज्ञा है। जो खे-शून्य में घूमता है, वह खेल/श्लेष्म है। नासिका का मल सिंघाण है। 1. उत्तराध्ययन सूत्र में प्रतिलेखना के छह दोष बताए हैं। -1. आरभटा 2. सम्मर्दा 3. मोसली 4. प्रस्फोटना ६.विक्षिप्तता 6. वेदिका। वहां सात दोषों का उल्लेख भी मिलता है। इस संदर्भ में विस्तार हेतु देखें श्री भिक्षु भा. 1 पृ. 442, 443 / Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 जीतकल्प सभाष्य 817. ईर्या आदि पांच समितियों में प्रमाद का वर्णन किया गया। अब प्रसंगवश मैं समिति में अप्रमाद के बारे में कहूंगा। 818. ईर्या समिति में अर्हन्नक साधु का उदाहरण है, जो अव्याक्षिप्त और जागरूक चित्त से पग-पग पर दृष्टिपूत युग प्रमाण मात्र भूमि पर दृष्टि टिकाए हुए चलता था। 819. अर्हन्नक साधु समिति से समित था। वह गड्ढे में गिर गया। प्रान्त देवता के द्वारा छलित होने से उसका पांव छिन्न हो गया। अन्य देवता ने उसके पैर का संधान कर दिया। 820-23. भाषा समिति से समित साधु भिक्षा के लिए निकला। घूमते हुए नगर पर चढ़ाई करने वाले किसी बाहर के सैनिक ने पूछा - "यहां कितने घोड़े और हाथी हैं? कितनी धन-राशि, कितना काष्ठ तथा धान्य आदि हैं? नगर सुखी है अथवा दुःखी?" वह भाषा समित साधु इस प्रकार बोला- 'मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता क्योंकि मैं स्वाध्याय और ध्यान-योग में लीन रहता हूं।" पुनः मुनि से उसने पूछा"घूमते हुए तुमने कुछ नहीं देखा या कुछ नहीं सुना, यह कैसे संभव है?" इस प्रश्न का उत्तर देते हुए मुनि ने कहा- "मुनि बहुत बातें कानों से सुनता है, अनेक दृश्य आंखों से देखता है लेकिन देखा हुआ या सुना हुआ सब कुछ कह नहीं सकता।" 824. जो साधु प्रयोजन होने पर निरवद्य भाषा का प्रयोग करता है, बिना कारण नहीं बोलता, विकथा और विस्रोतसिका-लक्ष्य से प्रतिकूल वार्ता से रहित होता है, वह साधु भाषा समिति से युक्त होता है। 825. जो मुनि बायालीस एषणा से सम्बन्धित आहार के दोषों का शोधन करता है, वह एषणासमित कहलाता है, यहां वसुदेव का दृष्टान्त है। 826-27. एषणा समिति में वसुदेव का उदाहरण है। वसुदेव किसी जन्म में मगध के नंदिग्राम में गौतम नामक उपदेष्टा ब्राह्मण था। उसकी भार्या का नाम वारुणि था। एकदा उसके गर्भ उत्पन्न हुआ। जब ब्राह्मणी का गर्भ छह मास का था, तब ब्राह्मण मर गया। 828-30. मामा ने बालक का पालन-पोषण किया। बालक मामा के यहां काम करता था। लोगों ने उसे कहा–'तुम्हारा यहां कुछ नहीं है।' मामा ने उसे कहा-'तुम लोगों की बातों को मत सुनो। मेरी तीन पुत्रियां हैं, उनमें जो ज्येष्ठा है, उसके साथ मैं तुम्हारा विवाह कर दूंगा।' मामा की बात सुनकर वह वहां कार्य करने लगा। विवाह का अवसर प्राप्त हुआ। उसकी बड़ी पुत्री ने विवाह के लिए अनिच्छा प्रकट कर दी। मामा ने कहा-'दूसरी लड़की के साथ विवाह कर दूंगा।' दूसरी पुत्री ने भी वैसे ही अनिच्छा व्यक्त कर दी। तीसरी पुत्री ने भी विवाह से इंकार कर दिया। 831-34. नंदिषेण ने विरक्त होकर नंदिवर्धन आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण कर ली और बेले-बेले की १.कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 24 / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 25 / 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं. 26 / Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-९ 353 तपस्या अंगीकार करके यह अभिग्रह किया कि मैं बाल और ग्लान आदि की सेवा करूंगा। उसने तीव्र श्रद्धा से सेवा की। उसका यश प्रख्यात हो गया। स्वयं इंद्र ने उसके गुणों का उत्कीर्तन किया। एक देव ने इस बात पर श्रद्धा नहीं की। उसने दो श्रमण रूपों की विकुर्वणा की। उनमें एक श्रमण अतिसार से ग्रसित होने पर अटवी में स्थित हो गया और दूसरा श्रमण मुनियों के समक्ष जाकर बोला-'एक ग्लान साधु अटवी में पड़ा है, जो साधु वैयावृत्त्य करना चाहता है, वह शीघ्र तैयार हो जाए।' यह बात नंदिषेण ने सुनी। 835-37. बेले की तपस्या के पारणे हेतु लाए हुए आहार को ग्रहण करने की इच्छा होने पर भी मुनि की बात सुनकर वह सहसा उठा और बोला-'वहां क्या कार्य है और क्या अपेक्षा है?' आगंतुक मुनि ने कहा-"वहां पानक नहीं है, उसकी अपेक्षा है।" मुनि नंदिषेण उपाश्रय से पानक के लिए निकला। देव ने वहां पानक को अनेषणीय कर दिया। पहली बार और दूसरी बार पानक नहीं मिला। तीसरी बार उसे पानक की प्राप्ति हुई। अनुकम्पावश नंदिषेण तुरन्त ग्लान मुनि के पास गया। 838,839. ग्लान ने रुष्ट होकर खर, परुष और निष्ठुर शब्दों में आक्रोश प्रकट किया-'हे मंदभाग्य!' तुम अपने नाम मात्र से संतुष्ट हो कि साधुओं के उपकारी के रूप में प्रसिद्ध हो। मैं तुमसे सेवा लेने के उद्देश्य से आया हूं लेकिन मेरी इस अवस्था में भी तुम्हारा आहार के प्रति इतना लोभ है?" 840, 841. ग्लान साधु के उन कठोर वचनों को अमृत की भांति मानता हुआ वह शीघ्रता से मुनि के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। उसने मल से लिप्त मुनि के शरीर को धोया और कहा–'मुनिवर! उठो, हम आगे चलें। चिकित्सा की ऐसी व्यवस्था करेंगे, जिससे आप शीघ्र स्वस्थ हो जाएं।' ग्लान साधु बोला-'मैं चलने में समर्थ नहीं हूं।' 842, 843. (नंदिषेण बोला)-तुम मेरी पीठ पर चढ़ जाओ। वह ग्लान साधु उसकी पीठ पर चढ़ गया। जब चलने लगा तो ग्लान साधु ने उसकी पीठ पर अत्यन्त दुर्गन्ध युक्त अपवित्र मल का विसर्जन कर दिया और कठोर शब्दों में बोला-'हे दुर्मुण्डित! शीघ्र चलने से तुमने मेरे शरीर में दर्द पैदा कर दिया। इस प्रकार वह पग-पग पर उसके ऊपर गुस्सा करने लगा।' 844-46. नंदिषेण मुनि ने न कठोर वचनों पर ध्यान दिया और न ही असह्य दुर्गन्ध पर। उस दुर्गन्ध को चंदन की भांति मानते हुए उसने मिथ्या दुष्कृत किया। नंदिषेण मन में चिन्तन करने लगा कि मैं क्या करूं? जिससे इस ग्लान साधु को मानसिक समाधि उत्पन्न हो। अनेक प्रकार से प्रयत्न करने पर भी वह नंदिषेण को क्षुब्ध करने में समर्थ नहीं हो सका। तब ग्लान मुनि मूल स्वरूप में आया और उसकी स्तुति-प्रशंसा करके चला गया। दूसरे मुनि ने भी गुरु से आलोचना करके उनके समक्ष नंदिषेण मुनि की धन्यता का अनुमोदन किया। 847. जिस प्रकार मुनि नंदिषेण विपरीत परिस्थिति आने पर भी एषणा समिति से विचलित नहीं हुआ, वैसे ही साधु को एषणा समिति में नित्य यतना रखनी चाहिए, यह एषणा समिति कही गई है। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 जीतकल्प सभाष्य 848. जो साधु पहले आंखों से निरीक्षण और प्रमार्जन करके उपकरणों को रखता है अथवा ग्रहण करता है, वह आदानभंडनिक्षेपणा समिति से समित होता है। 849-52. यहां भी पूर्ववत् चतुर्भंगी करनी चाहिए। (द्र. 810-12 गाथा का अनुवाद) इसमें अंतिम भंग सुप्रतिलेखित सुप्रमार्जित ग्राह्य है, इसमें जो उपयुक्त होता है, वह आदानभंडनिक्षेपणा समिति से समित कहलाता है। चौथी समिति का गुरु उदाहरण बताते हैं। कुछ साधु ग्राम में गए। एक साधु ने बिना प्रतिलेखना किए पात्र आदि को एक स्थान पर रख दिया। उनमें से एक साधु प्रतिलेखना करके पात्र आदि रखने लगा तो वह साधु बोला-'इन प्रेक्षित पात्र आदि उपकरणों की पुनः प्रेक्षा क्यों कर रहे हो? क्या यहां सर्प है? यह बात सुनकर सन्निहित देवता ने सर्प की विकुर्वणा कर दी। 853. उपकरणों को खोलने पर वहां सांप दिखाई दिया। साधु के कथन पर उसने मिथ्याकार का उच्चारण किया। समित और असमित-ये दोनों उत्कृष्ट और जघन्य दो प्रकार के होते हैं। 854. मल, मूत्र, श्लेष्म आदि तथा अहितकर अशन-पान आदि को अच्छी तरह से देखे गए प्रदेश में परिष्ठापित करने वाला पांचवीं उत्सर्ग समिति से समित होता है। 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 27 / / 2. परिष्ठापन करने का प्रदेश स्थण्डिल कहलाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में चार प्रकार की स्थण्डिल-भूमियों का उल्लेख मिलता है• अनापात-असंलोक-जहां लोगों का आवागमन न हो, वे दूर से भी दिखाई न दें। , * अनापात-संलोक-जहां लोगों का आवागमन न हो, किन्तु वे दूर से दीखते हों। आपात-असंलोक-जहां लोगों का आवागमन भी हो, किन्तु वे दूर से न दीखते हों। * आपात-संलोक-जहां लोगों का आवागमन भी हो और वे दूर से दीखते भी हों। जो स्थण्डिल अनापात-असंलोक, पर के लिए अनुपघातकारी, सम, अशुषिर (पोल या दरार रहित), कुछ समय पहले ही निर्जीव बना हुआ, कम से कम एक हाथ विस्तृत,नीचे से चार अंगुल निर्जीव परत वाला, गांव आदि से दूर, बिलरहित, त्रस प्राणी तथा बीजों से रहित हो-उसमें मुनि उच्चार आदि का उत्सर्ग करे।' 1. उ 24/16-18 / / 3. उत्सर्ग समिति को परिष्ठापनिका समिति भी कहा जाता है। ओघनियुक्ति में परिष्ठापन करने के बाद की विधि का व्यवस्थित वर्णन मिलता है। मुनि कायिकी आदि का परिष्ठापन करके ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण करे। यदि वह आनप्राणलब्धि से सम्पन्न हो तो चतुर्दश पूर्वो का स्मरण करे। यदि ऐसा करने में समर्थ न हो तो कम से कम तीन गाथाओं की अनुप्रेक्षा अवश्य करे। बृहत्कल्पभाष्य में परिष्ठापन के समय मुनि को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए, इसका सुंदर विवेचन मिलता है। दिशा-मल-मूत्र उत्सर्ग के समय मुनि पूर्व और उत्तर दिशा में पीठ करके नहीं बैठे क्योंकि ये पूज्य दिशाएं हैं तथा रात्रि में भिक्षाचरों के आवागमन के कारण दक्षिण की ओर पीठ न करे। वायु का वेग जिस ओर हो, उस ओर पीठ करके बैठने में अशभ गंध के परमाण नासिका में प्रविष्ट हो जाते हैं। सूर्य और ग्राम की ओर पीठ करने से भी लोक में अवज्ञा होती है। यदि मुनि के उदर में कृमि हों तो वह वृक्ष की छाया में मलोत्सर्ग करे। मुनि को भूमि का तीन बार प्रमाण: करना चाहिए। १.ओनि २०८:आगम्म पडिक्कतो, अणुपेहे जाव चोद्दस वि पुवे।परिहाणिजातिगाहा, निद्दपमाओ जढो एवं। 2. बृभा 456-58 / Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-९ 355 855. यहां भी उसी प्रकार चतुर्भगी के अंतिम भंग' में समित होता है। यहां धर्मरुचि अनगार का उदाहरण है', जो परिष्ठापन समिति में जागरूक था। 856. उसने मल, मूत्र के उत्सर्ग में जागरूक रहने का अभिग्रह ग्रहण किया, इंद्र ने उसकी प्रशंसा की। एक देव को इस बात पर श्रद्धा नहीं हुई, वह वहां आया और उसने बहुत सारी चींटियों की विकुर्वणा कर 857-60. प्रस्रवण की बाधा से पीड़ित होने पर दूसरा साधु बोला-'तुम परिष्ठापित कर दो।' वह प्रस्रवण को परिष्ठापित करने के लिए जहां-जहां गया, वहां चींटियां चलती हुई दिखाई दीं। जब साधु क्लान्त हो गया तो वह उस प्रस्रवण को पीने लगा। देवता ने उसे रोकते हुए कहा-'तुम इसे मत पीओ।' देवता उसे वंदना करके चला गया। समितियों में इस प्रकार यतनाशील होना चाहिए। यह सब प्रसंगानुसार कह दिया, अब मैं आशातना के बारे में कहूंगा। 861. गुरु आचार्य होते हैं। ज्ञान आदि आचार हैं। वे आचार की प्ररूपणा करते हैं। उनकी यह आशातना 862, 863. आशातना पद की व्याख्या इस प्रकार है। इसमें दो पद हैं-आय और शातना। आय, लाभ और आगम एकार्थक हैं। ज्ञान आदि के लाभ की शातना-विनाश आशातना' कहलाती है। शातन, ध्वंस और विनाश-ये तीनों शब्द एकार्थक हैं। 864. आय-आत्मा की शातना में यकार लोप होने पर आशातना शब्द निष्पन्न होता है। आचार्य की ये आशातनाएं होती हैं८६५. यह आचार्य छोटा, अकुलीन, दुर्मेधा वाला, द्रमक-रंक, मंदबुद्धि तथा अल्पलाभ की लब्धि वाला 1. देखें गा.८१० का अनुवाद। 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 28 / 3. 'आसायणा' शब्द के दो संस्कृत रूप बनते हैं-आशातना और आसादना। प्रथम का अर्थ है-मिथ्याप्रतिपत्ति और दूसरे का अर्थ है-लाभ। मिथ्याप्रतिपत्ति अर्थात् सम्यक् रूप से स्वीकार न करना। सद्भूत अर्थ को अयथार्थ रूप से स्वीकार करना आशातना है। निशीथ चूर्णि के अनुसार ज्ञान, विनय आदि के लाभ का विनाश करने वाली प्रवृत्ति आशातना कहलाती है। दूसरे लाभ के अर्थ में आसादना' का विस्तार दशाश्रुतस्कन्ध की नियुक्ति और चूर्णि में मिलता है। नियुक्तिकार के अनुसार दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और विनय-ये गुरुमूलक होते हैं। जो गुरु की आशातना करता है, वह इन गुणों की आशातना करता है और इन गुणों में विषण्ण रहता है। १.दभुमि 19; मिच्छापडिवत्तीए, जे भावा जत्थ होंति सब्भूता। तेसिं तु वितहपडिवज्जणाए आसायणा तम्हा॥ 2. निभा 2644 चू पृ.८। ३.दनि 24 ; सो गुरुमासायंतो,दंसण-णाण-चरणेसु सयमेव।सीयति कतो आराहणा,से तो ताणि वज्जेज्जा। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356 जीतकल्प सभाष्य है, इस प्रकार कहकर शिष्य आचार्य का पराभव करता है। 866. अथवा शिष्य ऐसा कहे कि आचार्य दूसरों को दशविध वैयावृत्त्य का उपदेश देते हैं लेकिन स्वयं वैयावृत्त्य नहीं करते। 867. अथवा आशातना' तीन प्रकार की होती है-मानसिक आशातना, वाचिक आशातना और कायिक आशातना। आचार्य के प्रति मन से प्रद्वेष रखना मानसिक आशातना है। आचार्य के बीच में बोलना वाचिक आशातना है। 868. गुरु के शरीर से संघटन करना, मार्ग में बराबर चलना या गुरु से आगे चलना-यह कायिक आशातना है अथवा गुरु के पूछने पर मौन रहना आदि भी आशातना है। 869-71. गुरु के ये पांच वचन हैं -1. कहना 2 . बुलाना 3. कार्य में नियुक्त करना 4. पूछना एवं 5. आज्ञा देना। गुरु के इन वचनों के प्रति शिष्य के छह प्रतिवचन (प्रतिक्रिया) होते हैं-१. चुप रहना 2. हुंकारा देना 3. क्या है, ऐसा कहना, 4. क्यों बकवास कर रहे हो, ऐसा कहना 5. तुम शांति से क्यों नहीं रहने देते, यह कहना? 6. किस कारण चिल्ला रहे हो, ऐसा कहना? आलाप पद के तूष्णीक आदि छह प्रतिवचन हैं। इसी प्रकार व्याहृत आदि प्रत्येक पद के तूष्णीक आदि छह-छह भेद हैं। .. 872-74. गुरु की आशातना के बारे में कथन कर दिया, अब मैं गुरु के प्रति विनय का भंग कैसे होता 1. जीतकल्पभाष्य में आशातना के तीन भेद किए हैं लेकिन समवायांग तथा दशाश्रतस्कन्ध आदि ग्रंथों में तेतीस ___ आशातनाओं का वर्णन प्राप्त है। उनको यदि साधु प्रयोजन वश करता है तो वह न भारीकर्मा होता है और न आशातना का भागी होता है। जैसे गुरु के आगे चलना आशातना है लेकिन यदि गुरु मार्ग से अनजान हैं, प्रज्ञाचक्षु हैं तो उनके आगे चलना आशातना नहीं है। इसी प्रकार विषम स्थान में गिरने का भय हो या रात्रि का समय हो तो साथ-साथ चलना आशातना नहीं है। १.दश्रुनि 23 ; जाई भणियाई सुत्ते, ताई जो कुणइ कारणज्जाए। सो नहुभारियकम्मो, गणेती गुरुं गुरुवाणे। 2. 'आलत्ते' आदि पांचों स्थानों में कठोर वचनों की उत्पत्ति होती है, ऐसा निशीथभाष्य और बृहत्कल्पभाष्य में उल्लेख मिलता है। बृहत्कल्पभाष्य में इस प्रसंग में चण्डरुद्र का कथानक उल्लिखित है तथा चुप रहना, हुंकारा देना आदि कठोर वचन के प्रकार के रूप में उल्लिखित हैं। १.निभा 863; आलत्ते वाहित्ते, वावारित पुच्छिते णिसटे य। फरुसवयणम्मि एए, पंचेव गमा मुणेयव्या॥ 2. बृभा 6102 / 3. बृभा 6103, 6104 / 4. बृभा 6105, निभा८६६ 3. निशीथ भाष्य के अनुसार आचार्य द्वारा आलाप आदि किए जाने पर यदि शिष्य तूष्णीक-चुप रहना आदि प्रतिक्रिया करता है तो क्रमशः लघुमास आदि प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं।' १.निभा 867; मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुगा य होंति गुरुगा या छम्मासा लहुगुरुगा, छेदो मूल तह दुगंच॥ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-९ 357 है, यह कहूंगा। गुरु का विनय' अनेक प्रकार से होता है-१. गुरु के आने पर अभ्युत्थान 2. अभिग्रहणउनके हाथ से सामान लेना 3. आसन देना 4. सत्कार करना 5. सम्मान करना 6. कृतिकर्म करना 7. अंजलि-प्रग्रह-हाथ जोड़ना 8. अनुगति-अनुगमन करना 9. गुरु के बैठने पर उनकी उपासना करना, 10. जाते हुए गुरु को पहुंचाने जाना। आसन आदि देने से सत्कार तथा योग्य उपधि देने से सम्मान होता है। 875. जहां आचार्य बैठे या स्थित रहें, वहां कल्प और संस्तारक करना और उनके आगमन का काल जानकर काल-प्रतिलेखन करके स्थित रहना। 876. कृतिकर्म का अर्थ है-वंदना। दोनों हाथ ऊपर करके ललाट पर लगाना अंजलिप्रग्रह है। शेष अनुगति और स्थित-पर्युपासना-आदि पद कंठ्य-स्वतः ज्ञातव्य हैं। 877. जो शिष्य आचार्य के प्रति इस प्रकार के विनय का आचरण नहीं करता, उसके विनय का भंग होता है। अथवा ज्ञान विनय आदि सात प्रकार का विनय होता है। 878. विनय सात प्रकार का होता है-१. ज्ञान 2. दर्शन 3. चारित्र 4. मन 5. वचन 6. काया 7. औपचारिक। इनका आचरण न करना विनयभंग है। 879. विनयभंग का मैंने संक्षेप में वर्णन कर दिया। अब मैं इच्छाकार आदि सामाचारी न करना-इस संदर्भ में कहूंगा। १.जो आठ प्रकार के कर्म का अपनयन करता है, वह विनय है। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार अभ्युत्थान, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरु की भक्ति और शुश्रूषा करना विनय है। दशवैकालिक नियुक्ति में इनको कायिक विनय के अन्तर्गत समाविष्ट किया है। वहां कायिक विनय आठ प्रकार का निर्दिष्ट है-१. अभ्युत्थान 2. अंजलीकरण 3. आसनदान 4. अभिग्रह 5. कृतिकर्म 6. शुश्रूषा 7. अनुगमन 8. संसाधन-पहुंचाने जाना। गुरु के प्रति * विनय के विस्तार हेतु देखें-उत्तराध्ययन का प्रथम अध्ययन, दशवैकालिक का नौवां अध्ययन तथा दशवैकालिक नियुक्ति की गाथाएं 286-301 / १.आवनि ८०९;जम्हा विणयति कम्म, अट्ठविधं चाउरंतमोक्खाए। तम्हा उवयंति विऊ, विणओ त्ति विलीणसंसारा॥ २.उ 30/32 अब्भुटाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं गुरुभत्तिभावसुस्सूसण, विणओ एस वियाहिओ॥ 3. दशनि २९८;अब्भुटाणं अंजलि,आसणदाणं अभिग्गह-किती य।सुस्सूसण अणुगच्छण, संसाधण-काय अट्ठविहो। * 2. दशवैकालिक की हारिभद्रीय टीका में संसाहण का-संसाधनं व्रजतोऽनुव्रजनं अर्थ किया है अर्थात् जाने के लिए उद्यत गुरु को पहुंचाने जाना। यहां पर भाष्यकार ने 'पडिसंसाहण' शब्द का प्रयोग किया है, जो इसी अर्थ का द्योतक है। 1. दशहाटी प. 241 / 3. आगमोक्त विधि से स्वाध्याय आदि के काल का ग्रहण, निर्धारण तथा प्रज्ञापन करना। प्राचीन काल में दिक और नक्षत्र-अवलोकन के द्वारा काल का ज्ञान किया जाता था। काल-प्रतिलेखना के लिए विशेष रूप से मुनि नियुक्त रहते थे। काल-प्रतिलेखना किए बिना स्वाध्याय करने वाला चतुर्लघु प्रायश्चित्त का भागी होता है। * 1. व्यभा 3153-55 / Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 जीतकल्प सभाष्य 880, 881. सामाचारी' दशविध हैं-१. इच्छाकार 2. मिथ्याकार 3. तथाकार 4. आवश्यकी 1. शान्त्याचार्य के अनुसार साधुओं के कर्त्तव्य को सामाचारी कहा जाता है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार सामाचारी का अर्थ है -मुनि का पारस्परिक आचार-व्यवहार / मूलाचार में सामाचारी के लिए 'समाचार' शब्द का प्रयोग हुआ है। इच्छाकार, मिच्छाकार आदि ओघ सामाचारी के दश भेद हैं। भगवती (25/555) और ठाणं (10/102) में सामाचारी का यही क्रम है लेकिन उत्तराध्ययन में क्रमभेद है (उ 26/2-4) / वहां निमंत्रणा के स्थान पर अभ्युत्थान है। यहां शब्दभेद का अंतर है, तात्पर्य एक ही है। शान्त्याचार्य ने अभ्युत्थान का अर्थ किया है-सब कार्यों को करने में उद्यत रहना। सामाचारी के विस्तार हेतु देखें उत्तराध्ययन के छब्बीसवें अध्ययन का आमुख पृ. 409, 410 / 1. उशांटी प.५३३; यतिजनेति कर्त्तव्यतारूपा.......सामाचारी। 2. मूला 123 / 3. उशांटी प.५३४; तथेति प्रतिपद्य च सर्वकृत्येषूद्यमवता भाव्यमिति तदनु तद्रूपमभ्युत्थानम्। . .. 2. जहां औचित्य हो, वहां स्वयं या अन्य के कार्य में प्रवृत्त होना इच्छाकार सामाचारी है। इसके दो रूप हैं 1. आत्मसारण-इच्छा हो तो मैं आपका यह कार्य करूं। 2. अन्यसारण -आपकी इच्छा हो तो आप मुझे सूत्र की वाचना दें, पात्र के लेप लगा दें आदि। नियुक्तिकार कहते हैं कि प्रयोजनवश यदि दूसरों से कार्य करवाना हो तो रत्नाधिक साधुओं को छोड़कर शेष साधुओं के समक्ष इच्छाकार शब्द का प्रयोग करना चाहिए अर्थात् आपकी इच्छा हो तो आप यह कार्य करें किन्तु जबरदस्ती कार्य नहीं करवाना चाहिए। आवश्यक नियुक्ति की हारिभद्रीय टीका के अनुसार आपवादिक मार्ग में आज्ञा और बलाभियोग का प्रयोग किया जा सकता है। 1. आवनि 436/12-15 / २.आवहाटी 1 पृ. 174 ; अपवादस्त्वाज्ञाबलाभियोगावपि दुर्विनीते प्रयोक्तव्यौ। 3. संयम योगों में अन्यथा आचरण होने पर, उसकी जानकारी होने पर 'मिच्छामि दुक्कडं' का प्रयोग करना मिथ्याकार सामाचारी है। जिस कार्य का मिथ्यादुष्कृत किया है, उस आचरण को पुनः नहीं दोहराना ही वास्तविक मिथ्याकार सामाचारी है। 1. आवनि 436/17, 18 / 2. आवनि 436/19 / 4. गुरु के वचन सुनकर तथाकार अर्थात् 'यह ऐसा ही है' का प्रयोग करना तथाकार सामाचारी है। तथाकार का प्रयोग किसके प्रति करना चाहिए, इसका स्पष्टीकरण करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं-जो कल्प-अकल्प (विधि-निषेध) का ज्ञाता है, महाव्रतों में स्थित है, संयम और तप से सम्पन्न है, उसके प्रति तथाकार (तहत्) का प्रयोग करना चाहिए अथवा गुरु जब सूत्र की वाचना दें, सामाचारी का उपदेश दें, सूत्र का अर्थ बताएं या अन्य कोई बात कहें तो शिष्य तथाकार-आपका कथन सत्य है, ऐसा प्रयोग करे। 1. आवनि 436/23, 24 / 5. आवश्यक कार्य हेतु स्थान से बाहर जाते समय 'मैं आवश्यक कार्य हेतु स्थान से बाहर जा रहा हूं' अतः 'आवस्सही' उच्चारण के द्वारा स्वयं के जाने की सूचना देना आवश्यकी सामाचारी है। 1. उशांटी प.५३४ ; गमने तथाविधालम्बनतो बहिनि:सरणे आवश्यकेषु अशेषावश्यककर्त्तव्यव्यापारेषु सत्सु भवाऽऽवश्यकी। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-९ 359 5. नैषेधिकी' 6. आपृच्छा' 7. प्रतिपृच्छा' 8. छंदना 9. निमंत्रणा' 10. उपसंपदा। अब मैं लघुस्वक मृषावाद आदि के बारे में संक्षेप में कहूंगा। 882, 883. 1. प्रचला-नींद 2. उल्ल-आर्द्र 3. मरुक-ब्राह्मण 4. प्रत्याख्यान 5. गमन 6. पर्याय 7. समुद्देश 8. संखडि-जीमनवार 9. क्षुल्लक 10. पारिहारिक 11. घोटकमुखी 12. अवश्यगमन 1. कार्य से निवृत्त होकर स्थान में प्रवेश करते समय 'नैषेधिकी' शब्द का उच्चारण करना। आवश्यक चूर्णि के अनुसार प्रतिषिद्ध के आसेवन का निवर्तन करने वाली क्रिया नैषेधिकी सामाचारी है। 1. उ 26/5 ; ठाणे कुज्जा निसीहियं। 2. आव 2 पृ.४६ पडिसिद्धनिसेवणनियत्तस्स किरिया निसीहिया। २.कार्य करने से पूर्व गुरु से अनुमति लेना आपच्छना सामाचारी है। शान्त्याचार्य के अनुसार श्वासोच्छवास को छोड़कर स्व और पर से सम्बन्धित प्रत्येक कार्य गुरु से पूछकर करना आपृच्छना सामाचारी है। १.(क) उशांटी प५३५; उच्छ्वासनिःश्वासौ विहाय सर्वकार्येष्वपि स्वपरसम्बन्धिषु गुरवः प्रष्टव्याः.....। (ख) विभा 3464; उस्सासाई पमोत्तुं तदणापुच्छाई पडिसिद्ध। 3. एक कार्य सम्पन्न होने पर दूसरा कार्य करते समय गुरु से पूछना प्रतिप्रच्छना है। आवश्यक नियुक्ति के अनुसार पूर्व निषिद्ध कार्य करने के लिए गुरु की पुनः आज्ञा लेना प्रतिपृच्छा है। शान्त्याचार्य के अनुसार गुरु के द्वारा किसी कार्य में नियुक्त करने पर भी प्रवृत्ति काल में पुनः आज्ञा लेनी चाहिए क्योंकि संभव है गुरु को उस समय कोई दूसरा कार्य कराने की अपेक्षा हो अथवा पूर्व निर्दिष्ट कार्य किसी अन्य साधु के द्वारा सम्पादित हो चुका हो। 1. आवनि 436/31 पुष्वनिसिद्धेण होति पडिपुच्छा। 2. उशांटी प.५३४ ; गुरुनियुक्तोऽपि हि पुनः प्रवृत्तिकाले प्रतिपृच्छत्येव गुरुं, स हि कार्यान्तरमप्यादिशेत् सिद्धं वा तदन्यतः स्यादिति। 4. भिक्षा में प्राप्त अशन आदि द्रव्यों से गुरु आदि को निमंत्रित करना छंदना सामाचारी है, इसे निमंत्रणा भी कहा जाता है। * 5. अशन आदि से अगृहीत दूसरे मुनियों को आहार आदि लाने की भावना निमंत्रणा सामाचारी है। 1. आवनि 436/31; निमंतणा होयगहिएणं। ६.ज्ञान आदि की उपलब्धि हेतु सीमित काल के लिए अन्य गण के आचार्य का शिष्यत्व स्वीकार करना उपसम्पदा सामाचारी है। 7. लघुस्वक मृषावाद निशीथ भाष्य में विस्तार से व्याख्यायित है। वहां इसके चार भेद किए गए हैं-१. द्रव्य 2. क्षेत्र 3. काल और 4. भाव / वस्त्र-पात्र आदि के बारे में मृषा बोलना द्रव्य विषयक लघुस्वक मृषावाद है, जैसेकिसी साधु का वस्त्र नहीं है फिर भी कहना यह वस्त्र मेरा है अथवा गाय को घोड़ा कहना तथा द्रव्यभूत अर्थात् भावक्रिया से रहित अनुपयुक्त अवस्था में बोलना, यह सब द्रव्य संबंधी लघुस्वक मृषा है। संस्तारक, वसति आदि के बारे में मृषा बोलना क्षेत्रविषयक मृषावचन है। अतीत या अनागत के विषय में मृषा बोलना काल विषयक मृषा है। भाष्यकार ने प्रचला, आर्द्र आदि 15 पदों को भाव लघुस्वक मृषावाद के अन्तर्गत रखा है।' भाष्यकार ने निम्न कारणों से लघुस्वक मृषावचन को विहित माना है-१. लोकापवाद 2. संयमरक्षा 3. म्लेच्छ 4. स्तेन 5. क्षेत्र 6. प्रत्यनीक 7. शैक्ष 8. वाद-विवाद। . १.विस्तार हेतु देखें निभा 875-84 / २.इनकी व्याख्या हेतु देखें निभा 885 चू प.८१। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 जीतकल्प सभाष्य 13. दिशा 14. एककुल 15. एकद्रव्य-इन कारणों से मुनि लघुस्वक मृषा' बोलता है। (इन सब द्वारों की व्याख्या आगे की गाथाओं में है।) 884. एक साधु ने दूसरे साधु से कहा-'क्या तुम दिन में नींद लेते हो?' उसने उत्तर दिया-'मैं नींद नहीं ले रहा हूं।' इस प्रकार प्रथम बार अपलाप करने पर लघुमास, दूसरी बार अपलाप करने पर गुरुमास, तीसरी बार किसी दूसरे साधु को दिखाया फिर भी अपलाप करने पर चतुर्लघु तथा अनेक साधुओं के कहने पर भी स्वीकार न करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 885. इस प्रकार बार-बार अपलाप करने पर स्वपद-पाराञ्चित तक प्रायश्चित्त बढ़ता चला जाता है। प्रस्तुत प्रसंग में जिस मृषावाद में जहां-जहां लघुमास या गुरुमास है, वहां सूक्ष्म मृषावाद है और जहां चतुर्लघुक आदि प्रायश्चित्त वाले स्थान हैं, वहां बादर मृषावाद है। 886. वर्षा में साधु को जाते देख किसी अन्य साधु ने पूछा-'तुम वर्षा में क्यों जा रहे हो?' वह बोलामैं वासंतरे वर्षा में नहीं जा रहा हूं। पुनः जाने पर पूछा तो वह बोला-'ये तो वर्षा की बूंदे हैं।' साधु ने उपाश्रय में आकर कहा-'साधुओं! वहां जाओ, ब्राह्मण भोजन कर रहे हैं।' साधु ने पूछा-'ब्राह्मण कहां भोजन कर रहे हैं?' साधु बोला-'सभी अपने-अपने घरों में भोजन कर रहे हैं।' 887. साधु के द्वारा आहार का कहने पर मुनि बोला-'मुझे प्रत्याख्यान है।' तत्क्षण खाते हुए उसे देखकर पूछा कि प्रत्याख्यान में अभी तुमने कैसे खाया? उत्तर देते हुए मुनि बोला-'क्या मैंने प्राणातिपात आदि पांच प्रकार की अविरति का त्याग नहीं किया है?' 888. साधु ने पूछा-'क्या तुम जा रहे हो?' उसने कहा-'नहीं।' तत्क्षण चलने पर साधुओं ने पूछा'निषेध करने पर भी तुम अभी कैसे चले?' उसने उत्तर दिया-'तुम सिद्धान्त को नहीं जानते हो। चलने वाला ही चलता है, उस समय मैं गम्यमान नहीं था।" 889. दो साधु खड़े थे। तीसरे साधु ने पूछा-'आपका संयम-पर्याय कितना है?' एक ने छलपूर्वक उत्तर दिया-'इसका और मेरा दश वर्ष का संयम-पर्याय है।' आगंतुक मुनि ने कहा-'मेरा संयम-पर्याय नौ वर्ष का है। वह उन साधुओं को वंदना करने लगा। तब उसने कहा-'मेरा संयम-पर्याय पांच वर्ष का तथा 1. निशीथ भाष्य में भाव मृषावाद के दो भेद किए हैं -सूक्ष्म और बादर। उसमें भी सूक्ष्म लोकोत्तर मृषावाद के प्रचला आदि 15 स्थान बताए हैं। 2. पांचवी बार अपलाप करने पर षड्लघु, छठी बार षड्गुरु, सातवीं बार छेद, आठवीं बार मूल, नौवीं बार अनवस्थाप्य और दसवीं बार पाराञ्चित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।' १.बृभाटी पृ.१६०४। 3. वास धातु शब्द करने में है। वर्षा में शब्द होता है तो जाने का निषेध है', इस प्रकार छल से उत्तर देने पर प्रथम, द्वितीय बार आदि में प्रचला द्वार की भांति प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 4. भगवती के प्रथम शतक में 'चलमाण चलित' आदि का विस्तृत वर्णन है। आचार्य महाप्रज्ञ ने भगवती भाष्य में इसकी विस्तार से व्याख्या की है। 1. भभा-१ पृ. 21-23 / Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-९ 361 इसका भी पांच वर्ष का-दोनों मिलकर दस वर्ष होते हैं। 890. साधु ने कहा-'आज समुद्देश है, ऐसे ही क्यों बैठे हो?' इतना सुनते ही साधु गोचरी के लिए तैयार हुए और पूछा-'कहां है समुद्देश?' उसने कहा-'गगन में देखो, आज राहु के द्वारा सूर्य का समुद्देशभक्षण हो रहा है।' साधु ने कहा-'यहां प्रचुर संखड़ियां-जीमनवार हैं।' मुनि गोचरी के लिए उद्यत हुए। उन्होंने पूछा-'कहां हैं संखड़ियां?' उसने कहा-'घर-घर में संखड़ी है क्योंकि घर-घर में आयु का खंडन हो रहा है।' 891. एक साधु ने उपाश्रय के पास मृत कुतिया को देखकर क्षुल्लक मुनि से कहा-'तुम्हारी जननी मर गई।' क्षुल्लक रोने लगा। तब साधु बोला-'तुम क्यों रोते हो, तुम्हारी मां तो जीवित है।' (मुनि बोला-'तब तुमने ऐसा कैसे कहा कि मेरी मां मर गई?') साधु बोला मैंने ठीक ही कहा–'यह जो कुतिया मरी है, वह कभी तुम्हारी माता रही होगी। अतीत में सभी जीव माता रूप में रह चुके हैं अतः यह कुतिया तुम्हारी मां है।' 892. अवसन्न साधु को देखकर मुनि बोला-'आज मैंने पारिहारिक' साधुओं को देखा।' इस प्रकार छलपूर्वक कहने वाले को लघुमास प्रायश्चित्त, कहां देखा यह पूछने पर यदि वह कहता है कि उद्यान में देखा तो गुरुमास प्रायश्चित्त, पारिहारिक साधुओं को देखने हेतु मुनि चले, जब तक वे उन्हें नहीं देख लेते, तब तक कहने वाले को चतुर्लघु और देख लेने पर भी अपनी बात पर दृढ़ रहने वाले को चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 893, 894. 'ये साधु अवसन्न हैं'-ऐसा सोचकर लौटकर आने पर भी अपनी बात पुष्ट करे तो षड्लघु, साधु आचार्य के पास आलोचना करते हैं कि आज साधु द्वारा छले गए फिर भी वैसा ही कहने पर षड्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। मुनि पूछते हैं –'उद्यानस्थ मुनि परिहार योग्य है फिर भी पारिहारिक कैसे हुए?' साधु कहता है कि वे परिहार करते हैं अतः अपारिहारिक कैसे हुए? ऐसा कहने वाले को छेद प्रायश्चित्त / साधुओं ने उससे पूछा-'वे किसका परिहार करते हैं? ' वह उत्तर देता है कि वे स्थाणु, कंटक आदि का परिहार करते हैं, इस प्रकार कहने वाले को मूल प्रायश्चित्त, जब वह कहता है कि तुम सब एक हो, मैं अकेला हूं तो अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त तथा तुम सब प्रवचन से बाहर हो, ऐसा कहने वाले को पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1. 'समुद्देश' सामयिक शब्द है, जिसका सामान्य अर्थ है भोजन अथवा विवाह आदि के उपलक्ष्य में बनाए गए खाद्य पदार्थ, जिसको सब साधु-संन्यासियों में बांटने का संकल्प हो। 2. यहां सूक्ष्म मषा इसलिए है क्योंकि घर में सामान्य रूप से बनने वाले भोजन को संखडी नहीं कहा जाता लेकिन सूक्ष्म मृषाभाषी मुनि ने उसका अन्य अर्थ करते हुए कहा कि घर में पचन-पाचन आदि में पृथ्वीकाय आदि जीवों के आयुष्य का खंडन हो रहा है। '3. छल के कारण साधु के कहने का आशय यह था जिससे दूसरे साधु यह समझें कि इसने परिहारविशुद्धि चारित्र का पालन करने वाले साधुओं को देखा है। Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 जीतकल्प सभाष्य 895, 896. बाहर से उपाश्रय में आकर साधु बोला-'आज मैंने घोड़े के मुंह वाली एक स्त्री को देखा।' ऐसा कहने पर लघुमास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। साधुओं ने पूछा-'कहां?' तो उसने कहा उद्यान में, ऐसा कहने वाले को गुरुमास, देखने के लिए साधुओं के प्रस्थित होने पर चतुर्लघु, घोड़ियों को देखने पर भी अपनी बात पर दृढ़ रहने पर चतुर्गुरु, देखकर लौटने पर षड्गुरु, गुरु के समक्ष आलोचना करने पर षड्लघु, फिर भी कहना कि घोटकमुखी स्त्रियों को देखा तो छेद, साधुओं ने उससे कहा-'उनको तुम स्त्रियां कैसे कहते हो?' ऐसा कहने पर वह बोला-'तो क्या वे मनुष्य हैं' ऐसा कहने पर मूल, तुम सब एक हो गए हो, मैं अकेला हूं, ऐसा कहने पर अनवस्थाप्य, 'तुम सब प्रवचन से बाहर हो', ऐसा कहने पर पारांचित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 897. साधुओं ने कहा-'तुम अभी जा रहे हो?' साधु ने कहा-'अभी नहीं जाऊंगा।"तत्क्षण चलने पर उससे पूछा कि तुम अभी कैसे जा रहे हो? यह पूछने पर वह बोला-'मेरे कथन का तात्पर्य था अभी तक परलोक या मोक्ष जाने का समय नहीं आया है।' 898. एक साधु ने दूसरे साधु से पूछा-'तुम किस दिशा में भिक्षार्थ जाओगे?' उसने कहा-'पूर्व दिशा में।' वह पश्चिम दिशा में चला गया। उसने पूछा कि तुम पूर्व दिशा में क्यों नहीं गए? साधु बोला'पश्चिम दिशावर्ती गांव की अपेक्षा क्या यह पूर्व दिशा नहीं है?' 899. भिक्षार्थ प्रस्थित मुनि ने दूसरे मुनि से कहा-'तुम लोग जाओ, मैं एक ही कुल में जाऊंगा।' अनेक कुलों में जाने पर साधुओं ने उससे पूछा-'तुम अनेक कुलों में कैसे जा रहे हो?' साधु बोला'मैं एक शरीर से दो कुलों में एक साथ कैसे प्रवेश कर सकता हूं' अतः एक समय में एक ही कुल में जा रहा हूं। 900. भिक्षा हेतु चलने के लिए कहने पर दूसरा मुनि बोला-'तुम भिक्षार्थ जाओ, मुझे एक ही द्रव्य ग्रहण करना है।' अनेक द्रव्य ग्रहण करने पर उससे पूछा गया कि तुम अनेक द्रव्य क्यों ग्रहण कर रहे हो? उसने उत्तर दिया-'छह द्रव्यों में ग्रहण लक्षण वाला केवल पुद्गलास्तिकाय है अतः मैं केवल एक ही द्रव्य को ग्रहण कर रहा हूं।' 901. पचला आदि पदों को संक्षेप में वर्णित किया है, इनमें लघुमास या गुरुमास प्रायश्चित्त तक लघुस्वक सूक्ष्म मृषा जानना चाहिए। 902. तृण, डगलक-पत्थर का टुकड़ा, क्षार-राख, मल्लक, अवग्रह आदि को बिना आज्ञा लेना 1. बृहत्कल्पभाष्य में अंतिम तीन प्रायश्चित्त प्रकारान्तर से वर्णित हैं। तुम सब एक साथ मिल गए हो, ऐसा कहने पर मूल, मैं अकेला रह गया, क्या करूं ऐसा कहने वाले को अनवस्थाप्य तथा तुम सब प्रवचन से बाहर हो, ऐसा कहने वाले को अंतिम पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1. बृभा 6082 / Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-ज़ी-१०-१२ 363 लघुस्वक अदत्त है। अथवा वृक्ष आदि के नीचे बिना आज्ञा रहना भी लघुस्वक अदत्त' है। 903. मुखवस्त्र, पात्रकेशरिका, पात्रस्थापना, गोच्छक आदि उपकरणों पर साधु की मूर्छा होने पर लघुस्वक परिग्रह होता है। 904. अथवा शय्यातर के घर बैल, श्वान, काक आदि को आने से रोकना, बालक को गोद में लेना, रक्षा या ममत्व आदि करना लघुस्वक परिग्रह है। 905. ये द्वितीय, तृतीय और पंचम व्रत से सम्बन्धित लघुस्वक जानने चाहिए। नवीं गाथा समाप्त हो गई, अब मैं दसवीं गाथा कहूंगा। 10. अविधिपूर्वक खांसी, जम्भाई, छींक, वात-निसर्ग, असंक्लिष्ट कर्म तथा कंदर्प, हास्य, विकथा, कषाय और विषय में आसक्ति करने पर मिथ्याकार प्रतिक्रमण होता है। 906. मुंह के आगे हाथ या मुखवस्त्र लगाए बिना जम्भाई या छींक आदि लेना अविधि है। 907. 'खु' ऐसा शब्द करना छींक है। वात-निसर्ग दो प्रकार का होता है-ऊर्ध्ववायु निसर्ग तथा अधोवायु निसर्ग। 908. डकार आदि आना ऊर्ध्व वात-निसर्ग है। नीचे से वायु निकलना अधः वात-निसर्ग है। डकार लेने में जतना के लिए मुखवस्त्र या हाथ को मुंह के आगे रखना चाहिए। 909. नीचे की ओर पुतकर्षण करना अधोवात निसर्ग यतना है। इससे अन्यथा करना अविधि निसर्ग है। 910. छेदन-भेदन आदि करना असंक्लिष्ट कर्म है। वचन और काया से कंदर्प होता है। 911. हंसना हास्य कहलाता है। स्त्रीकथा, भक्तकथा आदि चार प्रकार की विकथाएं हैं। क्रोध आदि चार कषाय तथा शब्द, रूप आदि को विषय जानना चाहिए। * 1. निशीथ चूर्णि के अनुसार घास, पत्थर का टुकड़ा, राख और शराब आदि अदत्त ग्रहण करने पर पणग प्रायश्चित्त, वृक्ष आदि के नीचे बिना अनुज्ञा विश्राम करने पर लघुमास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। भाष्यकार के अनुसार निम्न कारणों से अदत्त ग्रहण किया जा सकता है१. अध्वान-अटवी में कोई आज्ञा देने वाला न हो तो तृण आदि लिया जा सकता है। 2. आगाढ़ रोग-अत्यधिक रोग की स्थिति में शीघ्रता के कारण द्रव्य आदि बिना आज्ञा लिए जा सकते हैं। 3. दुर्भिक्ष में अदत्त भक्त स्वयं ग्रहण कर सकता है। 4. अशिव गृहीत के लिए अदत्त संस्तारक आदि ले सकता है। ५.विकाल वेला में वसति उपलब्ध न होने पर श्वापद आदि के उपद्रव की स्थिति में गहस्वामी के न होने पर बिना अनुज्ञा रुक जाए फिर स्वामी से अनुज्ञा ली जा सकती है। 1. निचू 2 पृ. 82 / 2. विस्तार हेतु देखें निभा 890-94, चू. पृ. 82, 83 / 2. चूर्णिकार के अनुसार 'आदि' शब्द से संघर्षण, ईक्षु आदि पीलना, अभिघात, सिंचन, शरीर पर क्षार लगाना आदि / ' को भी असंक्लिष्ट कर्म के अन्तर्गत ग्रहण करना चाहिए। १.जीचू पृ.९। Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 जीतकल्प सभाष्य . 912. शब्द आदि विषयों में साधु की सहसा या अनाभोग से जो आसक्ति है, वह विषयसंग है। अविधि विषयक गाथा समाप्त हो गई। 11. हिंसा न होने पर भी यतनायुक्त मुनि के सहसा या अजानकारी में सर्वत्र समिति-गुप्ति आदि में स्खलना होने पर मिथ्याकार प्रतिक्रमण होता है। 913. स्खलना दो प्रकार की होती है-सहसा तथा अजानकारी में। वह कहां दो प्रकार की होती है, वह . सब मैं कहूंगा। 914. सब व्रतों में, गुप्ति में, समिति में तथा ज्ञान आदि में सर्वत्र यह स्खलना होती है। 915. हिंसा नहीं होने पर भी यतना युक्त मुनि के सहसा और अजानकारी में स्खलना होने पर (मिथ्याकार प्रतिक्रमण होता है।) 916. उपयुक्त होकर करने पर भी जो अतिचार को नहीं जानता कि मैं यह कर रहा है अथवा करके भूल जाता है, वह अनाभोग' है। 917. पहले उपयुक्त होकर बोलने वाला सहसा प्रतिसेवना कर लेता है, वह वहां से निवृत्त नहीं हो पाता, यह सहसाकरण है। 918. सहसा और अनाभोग का संक्षेप में वर्णन कर दिया, इसका विशुद्धिस्थान मिथ्याकार प्रतिक्रमण है। 12. जानते हुए छोटी-छोटी बातों में स्नेह, भय, शोक', बकुशत्व आदि करने पर तथा कंदर्प, हास्य, विकथा आदि का प्रयोग होने पर प्रतिक्रमणार्ह प्रायश्चित्त होता है। 919, 920. आभोग का अर्थ जानते हुए तथा तनु का अर्थ थोड़ा जानना चाहिए। बालक, शय्यातर या ज्ञाति आदि के प्रति यदि थोड़ा स्नेह आदि किया जाता है तो उसका प्रायश्चित्त मिथ्याकार प्रतिक्रमण होता है। 1. 'सर्वत्र' शब्द से यहां दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, समिति, गुप्ति, इंद्रिय आदि में स्खलना को ग्रहण करना चाहिए। १.जीचूपृ.९; सव्वत्थ वि त्ति सव्वपएसुदंसण-णाण-चरित्त-तव-समिइ-गुत्तिंदियाइसु खलियस्स। 2. यद्यपि अनाभोग में प्राणातिपात नहीं होता, फिर भी अनुपयुक्त भाव के कारण यह प्रतिसेवना है। 3. सचित्त, अचित्त अथवा मिश्र द्रव्य के संयोग और वियोग से उत्पन्न होने वाली मानसिक स्थिति शोक है।' १.जीचूपृ.९; सोगो सच्चित्ताचित्तमीसदव्वाण संजोगेण विओगेण य कओ होज्जा। 4. चूर्णिकार के अनुसार शरीर की सेवा में रत रहना तथा बार-बार हाथ-पांव धोना बकुशत्व' है। बकुश, शबल और कर्बुर-ये एकार्थक शब्द हैं। जिसका चारित्र अतिचार के पंक से चितकबरा हो जाता है, वह बकुश कहलाता है। १.जीचूपृ.९; बाउसत्तं सरीरसुस्सूसापरायणत्तं हत्थपायाइधोवणं। २.जीचूवि पृ. 43; बउसं सबलं कब्बुरमेगटुं तमिह जस्स चारित्तं।अइयारपंकभावा, सो बउसो होइ नायव्यो॥ 5. चूर्णि के अनुसार 'आदि' शब्द से पार्श्वस्थ, अवसन्न और संसक्त आदि गृहीत हैं।' १.जीचू पृ.९,१०;आइसद्देण कुसील-पासत्थोसन्नसंसत्ता घेण्यंति। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१२, 13 365 921-23. अल्प स्नेह का वर्णन कर दिया, अब मैं सात प्रकार के भय को कहूंगा-१. इहलोकभय 2. परलोकभय 3. आदानभय 4. अकस्माद्भय 5. आजीविकाभय' 6. अश्लोक-अकीर्ति भय 7. तथा मरणभय। इनकी संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार है-अपनी जाति से मनुष्य-मनुष्य से, देव-देव से तथा तिर्यञ्च-तिर्यञ्च से भयभीत होता है, इसे इहलोकभय जानना चाहिए। मनुष्य यदि विसदृश-तिर्यञ्च या देव आदि से भयभीत होता है तो वह परलोकभय है। 924. चोर आदि द्वारा धन लेने पर जो भय पैदा होता है, वह आदान भय है। उसकी रक्षा के लिए मनुष्य बाड़ या प्राकार-परकोटे आदि का निर्माण करवाता है। 925, 926. अटवी में रात्रि में कुछ दिखाई नहीं देने पर भी बिना कारण जो भय पैदा होता है, वह अकस्मात् भय कहलाता है। दुष्काल है, अतिथि आ गए हैं, अब मैं कैसे जीवन-यापन करूंगा, निर्धन का यह चिन्तन आजीविकाभय है। मरण महान् भय है अत: वह सिद्ध ही है। 927. अश्लोक का अर्थ है-अयश। यदि ऐसा कार्य करूंगा तो लोक में अयश होगा, शीत आदि से जो भय पैदा होता है, वह वेदनाभय है। 928. यह सात प्रकार का भय है। इनमें अल्प मात्रा में वर्तन करने पर उसका विशोधिस्थान मिथ्याकार प्रतिक्रमण है। 929. जानते हुए वियोग में शोक और चिन्ता आदि करने पर उसका प्रायश्चित्त मिथ्याकार प्रतिक्रमण है। 930. बाकुशिक पांच प्रकार का होता है-१. आभोग 2. अनाभोग 3. संवृत 4. असंवृत तथा 5. यथासूक्ष्म। यहां सूक्ष्म आभोग का प्रसंग है। . 1. निशीथ भाष्य में भय उत्पत्ति के चार कारण बताए हैं। वहां इन सात भयों का समवतार भी इन चार प्रकार के भयों में किया गया है. दिव्यभय-राक्षस, पिशाच आदि से उत्पन्न। मानुष्यभय-चोर आदि से उत्पन्न। तैरश्चिकभय-जल, अग्नि, वाय, हाथी आदि से उत्पन्न। अकस्माद्भय-निर्हेतुक भय। इन चारों के दो-दो भेद हैं-सत और असत् / पिशाच, सिंह आदि का भय सत् तथा बिना देखे भय उत्पन्न होना असत् है। चूर्णिकार के अनुसार इहलोकभय का मानुष्य भय में, परलोकभय का दिव्य और तिर्यञ्चभय में समवतार होता है तथा आदान, आजीविका आदि चारों भयों का दिव्यभय आदि तीनों में समवतार होता है। 1. निभा 3314, 3315 चू पृ. 185, 186 / 2. स्थानांग सूत्र में आजीविका भय के स्थान पर वेदना भय का नामोल्लेख है। वहां छठे और सातवें भय में क्रमव्यत्यय है। पहले मरणभय तथा बाद में अश्लोक भय है। १.स्था 7/27 / Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 जीतकल्प सभाष्य 931. कंदर्प आदि पद तो दसवीं गाथा के अनुसार पूर्वोक्त क्रम से हैं। इनमें थोड़ा वर्तन होने पर इनकी विशोधि प्रतिक्रमण से होती है। 932. दूसरा प्रतिक्रमण द्वार समाप्त हो गया, अब तीसरा तदुभय द्वार कहूंगा। उसकी यह गाथा है। 13. संभ्रम-हड़बड़ी, भय, आतुरता, आपदा, सहसा, अनाभोग और परवशता आदि-इन सब कारणों से अतिचार होने पर तदुभय प्रायश्चित्त होता है, आशंकित होने पर भी तदुभय प्रायश्चित्त होता है। 933. हाथी, अग्नि, उदक आदि से संभ्रम होता है, वह अनेक प्रकार का है। दस्यु, म्लेच्छ तथा मालवस्तेन आदि का भय भी बहुत प्रकार का होता है। 934. क्षुधा और पिपासा आदि परीषहों से पीड़ित आतुर होता है, वह भी बहुविध होता है। आपदा चार प्रकार की होती है, उसको मैं संक्षेप में कहूंगा। 935. द्रव्य आपदा, क्षेत्र आपदा, काल आपदा और भाव आपदा-ये चार प्रकार की आपदाएं होती हैं। साधु के लिए जिस द्रव्य की प्राप्ति दुर्लभ होती है, वह द्रव्य आपत्ति है। 936. विच्छिन्न मडम्ब' आदि को क्षेत्र आपत्ति जानना चाहिए। दुर्भिक्ष का समय काल-आपत्ति तथा अत्यधिक ग्लान होना भाव आपत्ति है। 937, 938. सहसा और अनाभोग-अजानकारी की व्याख्या पहले हो चुकी, अब अनात्मवशपरवशता के बारे में कहूंगा। जो परवश होता है, वह अनात्मवश कहलाता है। वात, पित्त, श्लेष्म और सन्निपात आदि कारणों से व्यक्ति अनात्मवश-परवश होता है अथवा इन कारणों से व्यक्ति परवश होता 939. यक्षाविष्ट शरीर और मोहनीय कर्म का उदय-इन कारणों से व्यक्ति अनात्मवश-परवश होता है। १.जहां पास में सब दिशाओं में कोई गांव या नगर नहीं होता, वह विच्छिन्न मडम्ब कहलाता है। इसका दूसरा अर्थ -चारों ओर से छिन्न पर्वत पर बसा गांवा व्याख्या-साहित्य में विच्छिन्न मडम्ब के तीन विकल्प मिलते 1. जिसके एक योजन तक कोई दूसरा गांव न हो। २.जिसके ढाई योजन तक कोई दूसरा गांव न हो।' 3. जिसके चारों ओर आधे योजन तक गांव न हो।' १.जीचूवि पृ. 43; वोच्छिन्ना जत्थ सव्वासु वि दिसासु नत्थि कोइ अन्नो गामो नगरं वा तं, पार्श्वग्रामादिरहितं मडम्बं तथा चमडम्बं सव्वओ च्छिन्नमिति पव्वते। २.निचू, भा.३, पृ.३४६; जोयणब्भंतरे जस्स गामादी णत्थितं मडंबं। 3. उशांटी प.६०५मडंब त्ति देशीपदं यस्य सर्वदिश्वर्द्धतृतीययोजनान्तर्ग्रामो नास्ति। 4. स्थाटीप.८३; मडम्बानि सर्वतोऽर्द्धयोजनात् परतोऽवस्थितग्रामाणि। Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१४-१६ 367 940. इस प्रकार संभ्रम आदि यथोद्दिष्ट कारणों के होने पर साधु सर्व व्रतों के अतिचारों को परवश होकर करता है। 941-43. परवश होकर साधु पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति की विराधना, वृक्ष-आरोहण, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिंदिय और पंचेन्द्रिय की विराधना करे, इसी प्रकार अनात्मवश होकर मृषावाद आदि का आचरण करे, पिंडविशोधि आदि उत्तरगुणों में विराधना करे तो उस अतिचार की विशुद्धि तदुभय प्रायश्चित्त से होती है। तदुभय प्रायश्चित्त का अर्थ है-गुरु के पास आलोचना तथा उनके कहने पर 'मिच्छामि दुक्कडं' बोलना। 944. मूलगुण और उत्तरगुण में इस अतिचार का सेवन किया या नहीं, जहां इसका ज्ञान करना संभव नहीं होता, वहां आशंका होती है। आशंका होने पर तदुभय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 14. उपयुक्त होने पर भी साधु दुश्चिन्तित, दुर्भाषित, दुश्चेष्टित आदि' बहुविध प्रवृत्तियों में होने वाले दैवसिक आदि अतिचारों को नहीं जानता है। 945. दु धातु जुगुप्सा अर्थ में है, संयम का उपरोधी होने के कारण वह कुत्सित होता है। उसको यदि मन से चिन्तित किया जाता है तो वह दुश्चिन्तित जानना चाहिए। 146. इसी प्रकार दुर्भाषित और दुश्चेष्टित जानना चाहिए। मूलसूत्र में आए 'आदि' शब्द से दुष्प्रतिलेखित दुष्प्रमार्जित आदि को भी जानना चाहिए। 947. इस प्रकार के अतिचार बहुत बार होते हैं। उपयुक्त होने पर भी वह उन्हें नहीं जानता, स्मरण नहीं करता। 948. आदि' शब्द के ग्रहण से रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक अतिचारों को जानना चाहिए। 15. सब अपवाद पदों में दर्शन, ज्ञान और चारित्र से सम्बन्धित अपराध पदों में उपयुक्त साधु के बदुभय प्रायश्चित्त होता है। सहसाकरण आदि में भी यही प्रायश्चित्त होता है। 149. (उत्सर्ग पद प्रथम और अपवाद पद द्वितीय कहलाता है।) सर्व शब्द के ग्रहण से सब अपराधपद जानने चाहिए। 150. कारण होने पर यतनायुक्त गीतार्थ मुनि के दर्शन, ज्ञान और चारित्र में ये अपराध-पद होते हैं१५१, 952. जैसे तीक्ष्ण उदक के वेग में तथा विषम और कीचड़ युक्त मार्ग पर चलते हुए प्रयत्न करने पर भी अवश होकर व्यक्ति उसमें गिर जाता है, वैसे ही सुविहित श्रमण के पूर्ण प्रयत्न से यतना करने पर भी कर्मोदय के कारण विराधना हो जाती है। - 1. तदुभय प्रायश्चित्त का अर्थ है -गुरु के पास आलोचना तथा उसके बाद गुरु के द्वारा मिथ्यादुष्कृत का उच्चारण। 2. आदि' शब्द के ग्रहण से दुष्प्रतिलेखित तथा दुष्प्रमार्जित का ग्रहण करना चाहिए। 1. जीचू पृ.१०; आइसहसंगहियाणाभोगेण य। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 जीतकल्प सभाष्य 953. इस प्रकार के यतनायुक्त साधु की विशोधि तदुभय प्रायश्चित्त से होती है। दर्शन आदि में सहसा अतिचार लगने पर भी तदुभय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 954. तदुभय द्वार समाप्त हो गया, अब विवेक द्वार कहूंगा। किसका विवेक करना चाहिए, उसको स्पष्ट करने के लिए यह गाथा है। 16. गीतार्थ साधु ने उपयोगपूर्वक आहार, उपधि और शय्या आदि को ग्रहण किया। ग्रहण करने के पश्चात् ज्ञात हुआ कि वह अशुद्ध था। वहां विधिपूर्वक अशुद्ध का विवेक-परिष्ठापन करता हुआ वह मुनि शुद्ध-निरतिचार होता है। 955. पिडि धातु संघात अर्थ में प्रयुक्त होती है। पिण्ड शब्द संघात-समूह का वाचक है। पिण्ड सचित्त आदि भेद से नौ-नौ प्रकार का होता है। 956. पिण्ड नौ प्रकार का होता है—१. पृथ्वीकाय 2. अप्काय 3. तेजस्काय 4. वायुकाय 5. वनस्पतिकाय 6. द्वीन्द्रिय 7. त्रीन्द्रिय 8. चतुरिन्द्रिय 9. पंचेन्द्रिय। 957. पृथ्वी आदि प्रत्येक के सचित्त, अचित्त और मिश्र आदि तीन-तीन भेद होते हैं। प्रभेद करने पर सत्तावीस भेद होते हैं। यह संक्षेप में पिण्ड का वर्णन किया गया है। 958. संक्षेप में उपधि' दो प्रकार की होती है–१. औधिक' 2. औपग्रहिक। इनके विभाग भी होते हैं, वह औघनियुक्ति में वर्णित है। 959. शय्या को वसति कहा जाता है, आदि शब्द से डगलग और औषध-भेषज को भी ग्रहण करना चाहिए। 960. जो आचारचूला के पिण्डैषणा, पानैषणा, वस्त्रैषणा तथा शय्या आदि अध्ययनों के अर्थ को जानता है, वह गीतार्थ-कृतयोगी होता है। 961, 962. अथवा छेदसूत्र आदि के सूत्रार्थ को जानने वाला गीतार्थ कहलाता है। उपयुक्त होकर ग्रहण करने पर बाद में उसे ज्ञात हुआ कि यह आहार उद्गम, उत्पादना एवं एषणा आदि के दोषों से अशुद्ध है अथवा शंका आदि होने पर विधिपूर्वक उसको अलग करने पर वह शुद्ध हो जाता है। १.जो संयम के धारण और पोषण में सहायक होती हैं, वह उपधि है। ओघनिर्यक्ति में उपधि शब्द के आठ एकार्थक मिलते हैं -उपधि, उपग्रह, संग्रह, प्रग्रह, अवग्रह, भंडक, उपकरण और करण। १.ओनिटी प.१२ ; उपदधातीत्युपधिः, उप-सामीप्येन संयमंधारयति पोषयति चेत्यर्थः। 2. ओनि 666; उवही उवग्गहे संगहे य तह पग्गहुग्गहे चेव। भंडग उवगरणे या, करणे वि य हुंति एगट्ठा // २.औधिक उपधि-सदा पास में रखी जाने वाली उपधि। ३.औपग्रहिक उपधि-प्रयोजन विशेष से ग्रहण की जाने वाली उपधि। 4. बृहत्कल्पभाष्य की टीका के अनुसार जिसको तप करने का अभ्यास हो, वह कृतयोगी कहलाता है।' 1. बृभा 4946 टी पृ. 1323; कृतयोगी तपःकर्मणि कृताभ्यासः / Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१७, 18 369 17. कालातीत, अध्वातीत तथा सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद ग्रहण किए हुए आहार का अशठभाव से परिष्ठापन करता हुआ मुनि शुद्ध होता है। ग्लान आदि के कारण से ग्रहण किया हुआ आहार बचने पर उसका परिष्ठापन करने वाला शुद्ध होता है। 963. प्रथम प्रहर में गृहीत अशन और पान आदि को तृतीय प्रहर अतिक्रान्त करके रखना कालातीत' आहार कहलाता है। 964. अर्द्ध योजन से अधिक दूरी से आनीत या नीत भक्त और पान आदि अध्वातीत या मार्गातीत आहार कहलाता है। मार्ग का अतिक्रमण दो कारणों से होता है-शठता से तथा अशठता से। 965, 966. विकथा और क्रीड़ा आदि से मार्ग का अतिक्रमण करने वाला शठ होता है तथा ग्लान में व्याप्त होने से, सागारिक के कारण, स्थण्डिल भूमि के अभाव में, स्तेन तथा सांप आदि के भय से मार्ग अतिक्रान्त हो जाए तो वह अशठ होता है। 967. इन कारणों से अशठ साधु विधिपूर्वक आहार का विवेक-परित्याग करता हुआ शुद्ध होता है। सूर्य के उदित न होने पर तथा अस्तमित होने पर आहार ग्रहण करने पर भी निम्न कारणों से साधु अशठ होता है९६८-७१. पर्वत, राहु, मेघ, धूअर, पांशु, रज का आवरण-इन कारणों से सूर्य न उगने पर भी वह उग गया है तथा अस्त होने पर भी अस्त नहीं हुआ है, ऐसा सोचकर आहार ग्रहण करना, बाद में ज्ञात हुआ कि सूर्य उदित नहीं हुआ था अथवा अस्त हो गया था, यह जानने पर भी उसका भोग करने वाला शठ तथा आचार्य, ग्लान, प्राघूर्णक, क्षपक, बाल और वृद्ध-इनके लिए जो ग्रहण किया जाता है, उस कारण गृहीत आहार का विधिपूर्वक उपभोग तथा बचने पर विधिपूर्वक परिष्ठापन करने पर शुद्ध होता है। यह विवेक द्वार है, अब मैं व्युत्सर्ग द्वार कहूंगा। 18. गमन, आगमन, विहार, श्रुत के उद्देश, समुद्देश आदि, सावध स्वप्न आदि तथा नौका से नदी पार करने पर व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त से शुद्धि होती है। 972, 973. वसति या गुरु के पास से जाना गमन तथा दूसरे स्थान से पुनः आना आगमन है, यह गमनागमन कहलाता है। स्वाध्याय के लिए साधु का अन्यत्र जाना गमनागमन विहार जानना चाहिए। 974. समिति की विशुद्धि के लिए उत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है। उद्देश आदि श्रुतज्ञान श्रुत कहलाता है। १.साधु संचय और सन्निधि नहीं कर सकता। संचय करने वाला साधु गृहस्थ की भांति हो जाता है। जिनकल्पी जिस प्रहर में आहार ग्रहण करता है, उसी प्रहर में उसका भोग करते हैं। स्थविरकल्पी प्रथम प्रहर में आनीत आहार का तीसरी प्रहर तक भोग कर सकते हैं, उसके बाद वह आहार परिष्ठापनीय हो जाता है। उस आहार को स्वयं खाने वाला अथवा दूसरों को देने वाला चतुर्लघू प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है। १.कसू 4/12 / Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 जीतकल्प सभाष्य 975. श्रुत की प्रस्थापना', उद्देशन (अध्ययन का निर्देश), समुद्देशन (पठित ज्ञान के स्थिरीकरण का निर्देश), अनुज्ञा (अध्यापन का निर्देश) तथा काल-प्रतिक्रमण में व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है। 976. प्राणातिपात आदि से सम्बन्धित स्वप्न सावध कहलाता है। आदि' शब्द के ग्रहण से अनवद्य और प्रशस्त स्वप्न का भी ग्रहण हो जाता है। 977. (सूत्र 18) में आए 'च' शब्द के ग्रहण से दुःस्वप्न और दुर्निमित्त भी ग्रहण हो जाते हैं। प्रथम व्रत (प्राणातिपात) आदि में सर्वत्र व्युत्सर्ग से विशोधि होती है। 978. नौका चार प्रकार की होती है-१. समुद्री नौका 2. उद्यानी 3. अवयानी 4. तिर्यक्गामिनी। इनमें प्रथम समुद्र में चलने वाली तथा अंतिम तीन नदी में चलने वाली होती हैं। 979. नदी-संतार चार प्रकार का होता है१. संघट्ट-पादतल से आधी जंघा तक पानी का होना। 2. लेप-नाभि तक जल का होना। 3. लेपोपरि-नाभि से ऊपर तक जल का होना। 4. बाहु तथा उडुप-बाहु तथा छोटी नौका आदि से नदी को पार करना। 1. अनयोग के प्रारम्भ में की जाने वाली क्रिया विशेष प्रस्थापना कहलाती है। 2. चूर्णिकार के अनुसार दुनिमित्त और दुःस्वप्न आदि में प्रायश्चित्त स्वरूप आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग प्राप्त होता है। १.जीचू पृ. 11 / 3. प्रतिस्रोतगामिनी नौका उद्यानी, अनुस्रोतगामिनी अवयानी तथा एक तट से दूसरे तट तक नदी के जल को काटकर तिरछी चलने वाली तिर्यक्गामिनी नौका कहलाती है।' १.जीचूप.११; उज्जाणी पडिसोत्तगामिणी। ओयाणी पुण अणुसोयगामिणी।तिरिच्छगामिणी णदि छिंदंती गच्छड़। 4. ओघनियुक्ति में नौका-संतरण की विधि का उल्लेख मिलता है। नौका-संतरण के समय यदि गृहस्थ न हो तो मुनि नालिका से नदी के जल को मापकर अपने उपकरणों के पास लौटता है फिर वह अपने उपकरणों और पात्रों को बांधता है। यदि नदी को नौका से पार करना है तो मुनि नौका पर पहले नहीं चढ़ता, कुछ यात्रियों के चढ़ने के बाद नदी पर चढ़ता है। वह नौका में चढ़ने के समय सागारी अनशन करता है। वह नौका के आगे, पीछे या मध्य में नहीं बैठता, एक पार्श्व में अप्रमत्त होकर बैठता है और नमस्कार महामंत्र के जप में लीन रहता है। नौका के तट पर पहुंचने पर मुनि सबसे पहले नहीं उतरता। सब यात्रियों के उतरने के बाद भी नहीं उतरता। कुछ यात्रियों के उतरने के बाद उतरता है। तट पर आने के बाद एक पैर को जल में तथा दूसरे पैर को आकाश में ऊपर रखता है, जब पानी झर जाता है तब पैर को सूखी भूमि पर रखता है। दूसरे पैर को रखने की भी यही विधि है फिर मुनि 25 श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करता है। निशीथ (12/43) में नंदी-संतरण का निषेध है। उसके भाष्य में नदी-संतरण के अनेक दोष बताए है। 1. ओनि 34-38 // २.निभा 4224 ; सावयतेणे उभयं, अणुकंपादी विराहणा तिण्णि। संजम आउभयं वा, उत्तर-णावुनरंते य॥ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१९-२३ 371 980. नौका आदि पद से लेकर उडुप-संतरण तक यतनायुक्त मुनि को सर्वत्र उत्सर्ग प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 19. भक्त, पान, शयन, आसन, अर्हत्-शय्या-चैत्यगृह, श्रमण-शय्या-उपाश्रय आदि के लिए जाने पर तथा उच्चार-प्रस्रवण आदि परिष्ठापित करने पर पच्चीस श्वासोच्छ्वास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 981. भक्त, पान को आहार तथा शयन को शय्या जानना चाहिए। आस धातु उपवेशन-बैठने के अर्थ में है अतः आसन का अर्थ है-बैठना। 982. अर्ह धातु पूजा के अर्थ में है। जो पूजा के योग्य हैं, वे अर्हत् हैं। वंदना और नमस्कार के योग्य होने के कारण वे अर्हत्' कहलाते हैं। 983. क्रोध आदि अरि' हैं अथवा अष्टविध कर्म रज हैं। अरि और रज का हनन करने से वे अरिहंत कहलाते हैं। 984, 985. शयन, शय्या, उपाश्रय तथा भक्त से लेकर शय्या तक के लिए सौ हाथ से ऊपर जाने पर, गमन और आगमन होने पर समिति की विशुद्धि के लिए यतनायुक्त मुनि के लिए सर्वत्र पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। अब मैं उच्चार आदि के बारे में कहूंगा। 186. जो शब्द के साथ निःसृत होता है, वह उच्चार है। जो प्रसवित होता है, वह प्रस्रवण है। उच्चार और प्रस्रवण क्रमशः संज्ञा और कायिकी कहलाते हैं अथवा इनका शब्दार्थ इस प्रकार है९८७, 988. मल के साथ कायिकी-प्रस्रवण भी प्रायः सवित होता है अतः उच्चार कहलाता है। प्रायः स्रवित होने के कारण प्रस्रवण कहलाता है। सौ हाथ से दूर या पहले इनको परिष्ठापित करने पर पच्चीस श्वासोच्छ्वास से विशुद्धि होती है। 29. सौ हाथ के ऊपर गमन या आगमन करने पर पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। प्राणिवध से सम्बन्धित स्वप्न आदि देखने पर सौ तथा मैथुन सम्बन्धी स्वप्न देखने पर 108 श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। 989. गाथा का प्रथम अर्धभाग कंठ्य है। रात्रिकालीन स्वप्नदर्शन में प्राणवध करने या कराने पर 100 श्वासोच्छ्वास के कायोत्सर्ग से विशोधि होती है। 990. इसी प्रकार मृषावाद, अदत्त, परिग्रह और रात्रिभोजन से सम्बन्धित स्वप्न आने पर 100 श्वासोच्छ्वास 1. आवश्यक नियुक्ति में अर्ह का एक अर्थ योग्यता किया है। जो सिद्धिगमन के योग्य हैं, वे अर्हत् कहलाते हैं।' १.आवनि 583/3; सिद्धिगमणंच अरहा, अरहंता तेण वुच्चंति। 2. भाष्यकार ने क्रोध आदि को अरि कहा है। आवश्यक नियुक्ति में इंद्रियविषय, कषाय, वेदना, परीषह और उपसर्ग -इनको अरि कहा गया है। १.आवनि 583/1; इंदिय-विसय-कसाए, परीसहे वेयणा उवस्सग्गे। एते अरिणो हंता, अरिहंता तेण वुच्चंति। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 जीतकल्प सभाष्य का कायोत्सर्ग होता है। मैथुन से सम्बन्धित स्वप्न आने पर 108 श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है।' 21. दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण का पचास, पाक्षिक का तीन सौ, चातुर्मासिक का पांच सौ तथा संव्वत्सरी से सम्बन्धित प्रतिक्रमण का 1008 श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। 991. दैवसिक आदि पदों के क्रमशः उच्छ्वास का प्रमाण कैसे होता है, उसको मैं कहूंगा। 992, 993. 'लोगस्स उज्जोयगरे' इस स्तवपाठ का चार बार पुनरावर्तन करने पर सौ श्वासोच्छ्वास होते हैं। दो बार परावर्तन करने से पचास तथा बारह बार लोगस्स करने से तीन सौ श्वासोच्छ्वास होते हैं। बीस लोगस्स के पांच सौ तथा चालीस लोगस्स के एक हजार आठ श्वासोच्छ्वास का परिमाण होता है। इस प्रकार दैवसिक आदि कायोत्सर्ग का यह परिमाण होता है। 994. अथवा दैवसिक आदि कायोत्सर्ग का परिमाण इस प्रकार है-दैवसिक का पच्चीस, रात्रिक का साढे बारह. पाक्षिक का पचहत्तर. चातर्मासिक का एक सौ पच्चीस तथा वार्षिक का दो सौ बावन श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग। 22. उद्देश (पढ़ने की आज्ञा), समुद्देश (पठित ज्ञान के स्थिरीकरण का निर्देश) और अनुज्ञा ( अध्यापन की आज्ञा ) में सत्ताईस श्वासोच्छ्वास, प्रस्थापन तथा काल-प्रतिक्रमण में आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। 995. उद्देशक, अध्ययन, श्रुतस्कन्ध और अंग के उद्देशन आदि पदों में सत्ताईस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। 996, 997. प्रस्थापन और काल-प्रतिक्रमण में आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। 'आदि' शब्द के ग्रहण से अनुयोग का प्रस्थापन काल, प्रतिक्रमण तथा अपशकुन होने पर सर्वत्र आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग जानना चाहिए। 23. उद्देशक, अध्ययन, श्रुतस्कन्ध, अंग तथा काल-प्रतिक्रमण आदि में प्रमत्त साधु के ज्ञान आदि अतिचार होते हैं। 1. आवश्यकचूर्णि में मैथुन सम्बन्धी कायोत्सर्ग का स्पष्टीकरण मिलता है। स्वप्न में दृष्टि-विपर्यास होने पर सौ श्वासोच्छ्वास तथा स्त्री-विपर्यास होने पर एक सौ आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है।' 1. आवचू 2 पृ. 267 ; मेहुणे दिट्ठीविप्परियासियाए सतं, इत्थीए सह अट्ठसयं। 2. मान्यता विशेष का उल्लेख करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में चालीस लोगस्स का एक हजार श्वासोच्छ्वास का प्रमाण होता है फिर नमस्कार महामंत्र के आठ श्वासोच्छ्वास और किए जाते हैं, इससे 1008 की संख्या पूरी हो जाती है। सांवत्सरिक कायोत्सर्ग का कालमान लम्बा होता है। वह निर्विघ्न समाप्त हुआ इसलिए मंगल के लिए अंत में नमस्कार महामंत्र का कायोत्सर्ग किया जाता है। १.जीचू पृ. 11; वारिसिय पडिक्कमणे चत्तालीसाए उज्जोएहिं पणुवीसा गुणिया सहस्समुस्सासाणं होइ।अन्ने अट्ठ ऊसासा नमोक्कारे कज्जन्ति। तओ अट्टत्तरं सहस्सं होइ।सो य नमोक्कारो संवच्छरिए बहुओ कालो निविग्घेणं गओ त्ति चिन्तिज्जड़ मंगलत्थं पज्जंते। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-२३ 373 998. ओघ और विभाग-इन दो भेदों से ज्ञानाचार दो प्रकार का होता है। उद्देशक, अध्ययन, श्रुतस्कन्ध और अंग में विभागतः ज्ञानाचार होता है। 999. प्रवचन में उद्देशक, अध्ययन आदि चारों के काल, विनय आदि आठ प्रकार के अतिचार कहे गए हैं। 1000. ज्ञानाचार आठ प्रकार का होता है-१. काल 2. विनय 3. बहुमान 4. उपधान 5. अनिहवन 6. व्यञ्जन 7. अर्थ 8. और तदुभय। 1001. जो अकाल में स्वाध्याय करता है अथवा अस्वाध्याय में स्वाध्याय करता है, स्वाध्याय-काल में स्वाध्याय नहीं करता, वह काल से सम्बन्धित ज्ञानाचार है।' 1002. जो जात्यादि से उन्मत्त और स्तब्ध होकर गुरु का विनय नहीं करता, गुरु की अवहेलना करता है, वह विनय अतिचार है। 1003, 1004. श्रुतज्ञान और गुरु के प्रति जो भक्ति और बहुमान नहीं करता, वह बहुमान अतिचार है। भक्ति उपचार कहलाती है तथा अंतरंग अनुराग बहुमान कहलाता है। यह बहुमान सम्बन्धित अतिचार . संक्षेप में वर्णित है। आयम्बिल आदि तप उपधान' कहलाता है। १.यथाभिहित काल के अतिरिक्त दूसरा समय अकाल कहलाता है, जैसे प्रथम पौरुषी में अर्थ तथा दूसरी पौरुषी में सूत्र करना अकाल स्वाध्याय है। निशीथ भाष्य में एक प्रश्न उपस्थित किया है कि रोगी की चिकित्सा का और वस्त्रों को धोने का क्या काल और क्या अकाल? इसी प्रकार मोक्ष का हेतु ज्ञान है, उसका भी काल और अकाल क्यों? समाहित करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि आहार और विहार भी मोक्ष के साधन हैं अत: काल से सम्बद्ध हैं। जैसे विद्या की साधना काल-प्रतिबद्ध है, वैसे ही काल में किया हुआ ज्ञान निर्जरा का हेतु बनता है। अकाल में किया हुआ ज्ञान उपघातकारक तथा कर्मबंध का हेतु बनता है। १.निचू 1 पृ.७; जहाभिहियकालाओ अण्णो अकालो भवति,जहा सुत्तं बितियाए अत्थं पढमाए पोरुसिए वा। २.गुरु से नीचे बैठना तथा हाथ जोड़कर रहना विनय आचार है। . १.निभा 13; णीयासणंजलीपग्गहादि विणयो। ३.सत्र ग्रहण के समय विनय नहीं करने पर लघमास तथा अर्थ से सम्बन्धित विनय न करने पर गरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। १.निचू 1 पृ. 9; सुत्ते मासलहु, अत्थे मासगुरु। ४.निशीथ भाष्य एवं उसके चूर्णिकार ने भक्ति और बहुमान का अंतर स्पष्ट किया है। अभ्युत्थान, दंडग्रहण, पादप्रोञ्छन तथा आसन आदि प्रदान करके जो सेवा की जाती है, वह भक्ति है तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, भावना आदि गुणों से युक्त के प्रति जो आंतरिक प्रीति होती है, वह बहुमान कहलाता है। बहुमान में भक्ति की भजना है लेकिन भक्ति में बहुमान की नियमा है। भक्ति और बहुमान न करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। १.निचूपृ. 10; अब्भुट्ठाणं डंडग्गह-पायपुंच्छणासणप्पदाणग्गहणादीहिं सेवा जा सा भत्ती भवति।णाण-दसण-चरित्त तव-भावणादिगुणरंजियस्स जो रसो पीतिपडिबंधो सो बहुमाणो भवति॥ २.निभा 14 / जो अध्ययन को पुष्ट करता है, वह उपधान तप है। जिस श्रुत के अध्ययन काल में जो आगाढ़ और अनागाढ़ तप हो, उसे अवश्य करना चाहिए। उपधानपूर्वक श्रुतग्रहण करने से ही श्रुतोपलब्धि सफल होती है। 1. व्यभा६३ मटी प. 25 ; उपदधाति पुष्टिं नयत्यनेनेत्युपधानं तपः। Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 जीतकल्प सभाष्य 1005. जो साधु उपधान' तप नहीं करता अथवा उस पर श्रद्धा नहीं करता, वह उपधान सम्बन्धी अतिचार है। अब मैं निह्नवन के बारे में कहूंगा। 1006, 1007. निह्नवन का अर्थ है-अपलाप करना। मैंने अमुक आचार्य के पास अध्ययन नहीं किया, अन्य युगप्रधान आचार्य ने वाचना दी, इस प्रकार ज्ञानदाता के नाम को छिपाना निह्नवन अतिचार है। इसका मैंने संक्षेप में वर्णन किया, अब मैं व्यञ्जन आदि पदों के अतिचारों को कहूंगा। 1008. व्यञ्जन अक्षर कहलाता है। अक्षर से निष्पन्न को श्रुत जानना चाहिए। प्राकृत में निबद्ध श्रुत को संस्कृत आदि में करना व्यञ्जन अतिचार है। 1009. अथवा मूल व्यञ्जन के स्थान पर दूसरा व्यञ्जन करना भी व्यञ्जन अतिचार है। जैसे धर्म उत्कृष्ट मंगल है। दया, संवर और निर्जरा उसके अंग हैं। 1010. अथवा मात्रा, बिन्दु और अन्य पर्यायवाची शब्द का प्रयोग करके अर्थ को बाधित करना व्यञ्जन अतिचार है। जिसके द्वारा अर्थ व्यक्त होता है, वह व्यञ्जन श्रुत कहलाता है। . 1011. व्यञ्जन के भेद से कभी अर्थ का नाश हो जाता है। अर्थ विनष्ट होने पर चारित्र का नाश तथा चारित्र का नाश होने पर मोक्ष का अभाव होता है। 1012. मोक्ष के अभाव में दीक्षा आदि प्रयत्न निरर्थक हो जाते हैं। इन दोषों के कारण सूत्र का भेद नहीं करना चाहिए। 1013. व्यञ्जन भेद के बारे में वर्णन कर दिया, अब मैं अर्थ-भेद के बारे में कहूंगा। उन्हीं व्यञ्जनों के द्वारा अन्य अर्थ की कल्पना करना अर्थ-भेद है। 1014. आचारांग सूत्र के पांचवें आवंति' अध्ययन में आवंती केआवंती लोयंसि विप्परामुसंति' (5/1) पाठ मिलता है। 1015, 1016. यह आर्ष सूत्र है। सप्रयोजन या निष्प्रयोजन इसके अर्थ में मूढ़ होना या अन्य अर्थ करना 1. दुर्गति में गिरती हुई आत्मा को जिससे धारण किया जाता है, वह उपधान है। सूत्र दो प्रकार के होते हैं -आगाढ़ और अनागाढ़। आगाढ़ सूत्र में भगवती आदि तथा अनागाढ़ में आचारांग आदि सूत्र आते हैं। इन दोनों सूत्रों में उपधान तप करना चाहिए। उपधान के अन्तर्गत निशीथ भाष्य में अशकटपिता का दृष्टान्त दिया गया है। १.निभा 15; दोग्गइ पडणुपधरणा उवधाणं। 2. निचू 1 पृ. 11 / २.मूल पाठ में 'अहिंसा संजमो तवो' (दश 1/1) पाठ है लेकिन यहां अहिंसा के स्थान पर दया, संयम के स्थान पर संवर तथा तप के स्थान पर निर्जरा शब्द का प्रयोग हुआ है। निशीथ चूर्णि में 'पुण्णं कल्लाणमुक्कोस, दया संवर निज्जरा' पाठ मिलता है। यहां धम्म के स्थान पर पुण्ण, मंगल के स्थान पर कल्लाण तथा उक्किट्ठ के स्थान पर उक्कोस व्यञ्जनभेद का उदाहरण है। ३.प्राकृत से संस्कृत करने पर, मात्रा, बिंदु, अक्षर या पद को बदलने पर लघुमास तथा सूत्र को अन्यथा करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। १.निचू 1 पृ.१२, सक्कयमत्ताबिंदुअक्खरपयभेएसु वट्टमाणस्स मासलहु / अण्णंसुत्तं करेति चउलहुँ। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-२४, 25 375 अर्थ-भेद' है। उदाहरणस्वरूप 'आवंति' का अर्थ देश या जनपद, केया का अर्थ अरघट्ट के कूप की डोरी, वंती-वह नीचे गिर गई अतः लोग आपस में विवाद करते हैं। 1017. यह अर्थ-विसंवाद का उदाहरण है, अब मैं तदुभय द्वार को कहूंगा। जहां सूत्र और अर्थ दोनों विनष्ट हो जाते है, वह तदुभय अतिचार कहलाता है। 1018. धर्म उत्कर्ष रूप मंगल है। अहिंसा मस्तक पर पर्वत है। जिसकी धर्म में सदा बुद्धि रहती है, उसको देवता भी नष्ट कर देते हैं। 1019. यथाकृत काष्ठ पर बढ़ई भोजन पकाता है। जहां भक्तार्थी आसक्त होते हैं, वहां गधा दिखाई देता 1020. जहां सूत्र और अर्थ-दोनों का नाश हो जाता है, वह तदुभय भेद है। इस प्रकार नहीं करना चाहिए, इसमें पूर्वोक्त दोष होते हैं। (देखें 1011, 1012 गाथा का अनुवाद) 1021. यह आठ प्रकार का ज्ञानाचार जिनेश्वर के द्वारा प्रज्ञप्त है। उद्देशक आदि के प्रायश्चित्त क्रमश: इस प्रकार हैं२४. अनागाढ़ में उद्देशक आदि का निर्विगय, पुरिमार्ध, एकासन और आयम्बिल तथा आगाढ़ में पुरिमार्ध से उपवास पर्यन्त प्रायश्चित्त जानना चाहिए। इसी प्रकार अर्थ में जानना चाहिए। 1022, 1023. अनागाढ़ स्थिति में उद्देशक सम्बन्धी अतिचार में निर्विगय, अध्ययन सम्बन्धी अतिचार में पुरिमार्ध, श्रुतस्कन्ध में एकासन, अंग सम्बन्धी अतिचार में आयम्बिल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आगाढ़ कारण में उद्देशक में पुरिमार्ध, अध्ययन में एकासन, श्रुतस्कन्ध में आयम्बिल तथा अंग सम्बन्धी अतिचार में उपवास प्रायश्चित्त होता है। इसी प्रकार अर्थ आदि में भी प्रायश्चित्त जानना चाहिए। 25. सामान्यतः अप्राप्त, अपात्र और अव्यक्त' को उद्देशन आदि की वाचना देने पर सूत्र के सम्बन्ध 1. अन्य व्यञ्जन करने पर गुरुमास तथा अन्य अर्थ करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। १.लिचू 1 पृ.१३; अत्थस्स अण्णाणि वंजणाणि करेंतस्स मासगुरु,अह अण्णं अत्थं करेति तो चउगुरुगा। २.इस गाथा में अर्थ और व्यञ्जन दोनों के भेद का उदाहरण दिया गया है। गाथा का पूर्वार्द्ध मूलतः दशवैकालिक 1/4 का पाठ है-'अहागडेसु रीयंति, पुप्फेसु भमरा जहा'। इसके स्थान पर भाष्यकार ने अधाकरेसुरंधंति कट्ठसु रहकारी उ' पाठ दिया है, यह तदुभय भेद का उदाहरण है। निशीथ भाष्य की चूर्णि में तदुभय भेद का निम्न पाठ मिलता है-'अहाकडेहि रंधंति, कट्टेहिं रहकारिया' (निचू 1 पृ. 13) / गाथा का उत्तरार्ध मूलतः दशवैकालिक 3/4 का पाठ है-'राइभत्ते सिणाणे य, गंधमल्ले य वीयणे' इसके स्थान पर भाष्यकार के अनुसार 'रण्णो भशंसिणो जत्थ, गद्दभो जत्थ दीसति' पाठ तदुभय भेद का उदाहरण है। निशीथ चूर्णि में इसका भिन्न पाठ इस प्रकार है-'रण्णो भत्तंसिणो जत्थ, गद्दहो तत्थ खज्जति'। इन उदाहरणों में व्यञ्जनभेद से अर्थभेद भी स्पष्ट है। 3. सोलह वर्ष पहले साधु वय से अव्यक्त होता है, बाद में व्यक्त कहलाता है। श्रुत से निशीथ पढ़ने वाला व्यक्त कहलाता है। १.तत्र सोलसवरिसारेण वयसाऽव्यत्तो परेण वत्तो, श्रुतेन च अधीतनिशीथो व्यक्तः। Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 जीतकल्प सभाष्य में आयम्बिल तथा अर्थ के संदर्भ में उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1024. सामान्य रूप से समग्र सूत्र सम्बन्धी अतिचार में आयम्बिल तथा सूत्रार्थ में उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1025. अप्राप्त दो प्रकार के होते हैं -सूत्र से अप्राप्त' तथा अर्थ से अप्राप्त। प्रथम 'अपत्त' का अर्थ सूत्र और अर्थ से अप्राप्त तथा दूसरे 'अपत्त' का अर्थ अपात्र जानना चाहिए। 1026. चिड़चिड़ाहट आदि अवगुणों के कारण मुनि अपात्र होता है। अव्यक्त दो प्रकार से होता है-वय से, श्रुत से। अपात्र और अप्राप्त को उद्देश आदि की वाचना देने से चतुर्गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1027. पात्र को उद्देशन आदि पदों की वाचना न देने पर चतुर्गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। आपवादिक स्थिति में कारण होने पर यदि वाचना नहीं दे सके तो वह शुद्ध होता है। . 26. काल-विसर्जन आदि न करने पर, मण्डली-भूमि का प्रमार्जन आदि न करने पर निर्विगय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। सूत्र और अर्थ में अक्ष-रचना और निषद्या न करने पर उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1028. काल-विसर्जन न करने का अर्थ हैं-काल का प्रतिक्रमण नहीं करना। मण्डली तीन प्रकार की होती है। वसुधा को भूमि जानना चाहिए। 1029. मण्डली के तीन प्रकार हैं-भोजनमण्डली, सूत्रमण्डली और अर्थमण्डली। काल-प्रतिक्रमण और मण्डली-भूमि का प्रमार्जन न करने पर निर्विगय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1. विवक्षित शास्त्रों के सूत्र और अर्थ को क्रम से पढ़ते हुए जिस ग्रंथ को पढ़ने की दीक्षापर्याय पूरी नहीं हो, वह अप्राप्त कहलाता है। व्यवहारभाष्य में इसका क्रम प्राप्त होता है। जीतकल्प चूर्णि की विषमपद व्याख्या में आचार्य श्रीचंद्रसूरि ने दीक्षापर्याय के आधार पर पढ़े जाने वाले ग्रंथों का क्रम प्रस्तुत किया है। तीन वर्ष दीक्षापर्याय वाले साधु को आचारप्रकल्प (निशीथ), चार वर्ष के दीक्षित को सूत्रकृतांग, पांच वर्ष दीक्षित पर्याय वाले को दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार, आठ वर्ष दीक्षापर्याय वाले को स्थानांग और समवायांग, दस वर्ष दीक्षापर्याय वाले को भगवती, ग्यारह वर्ष दीक्षापर्याय वाले को क्षुद्रिकाविमान आदि पांच अध्ययन, बारह वर्ष के दीक्षित साधु को अरुणोपपात आदि पांच अध्ययन, तेरह वर्ष पर्याय वाले साधु को उत्थानश्रुत आदि चार ग्रंथ, उन्नीस वर्ष दीक्षापर्याय वाले को दृष्टिवाद नामक बारहवां अंग पढ़ना कल्प्य है। इससे अन्यथा करने पर आज्ञाभंग और महापाप होता है। 1. जीचूवि पृ. 44 ; तत्सूत्रमर्थं वा विवक्षितशास्त्रसत्कं क्रमेणाधीयानो न प्राप्नोति; पठनविषये व्रतादिपर्यायो वा यस्य न पूर्यते सोऽप्राप्तः। 2. जीचूवि पृ. 44 / 2. चूर्णिकार के अनुसार 'आदि' शब्द से अनुयोग का विसर्जन न करना भी गृहीत है। १.जीचू पृ.१२; आइसद्देण अणुओगस्स अविसज्जणं। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-२६, 27 377 1030. सूत्र और अर्थ में निषद्या तथा अक्ष-रचना नहीं करना। सूत्र में आए 'च' शब्द से वंदना और कायोत्सर्ग गृहीत हैं, इन्हें न करने पर उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 27. आगाढ़ योग के सर्वभंग में बेला, देश भंग में उपवास तथा अनागाढ़ योग के सर्वभंग में उपवास और देशभंग में आयम्बिल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1031. योग दो प्रकार का होता है-आगाढ़' और अनागाढ़। आगाढ़ और अनागाढ़ भंग के दो-दो भेद होते हैं -देश और सर्व। 1032. आगाढ़ योग के सर्वभंग में बेला तथा देशभंग में उपवास तप की प्राप्ति होती है। अनागाढ़ के सर्व भंग में उपवास तथा देशभंग में आयम्बिल तप की प्राप्ति होती है। 1033. शिष्य प्रश्न पूछता है कि देश और सर्व में भंग कैसे होता है? (आचार्य उत्तर देते हैं)-मैं इसका स्फुट और स्पष्ट गाथाओं में वर्णन करूंगा। 1034. जो बिना प्रयोजन विकृति का सेवन करता है, आयम्बिल नहीं करता तथा उस पर श्रद्धा भी नहीं रखता, वह सर्वभंग है। देशभंग का वर्णन इस प्रकार है१०३५. जो कायोत्सर्ग किए बिना भोजन करता है अथवा भोजन करके बाद में कायोत्सर्ग करता है अथवा गुरु से कायोत्सर्ग की आज्ञा लिए बिना कायोत्सर्ग करता है, यह देश भंग कहलाता है। 1036. यह आठ प्रकार का ज्ञानाचार संक्षेप में वर्णित है। दर्शनाचार आठ प्रकार का होता है। 1037. दर्शनाचार के आठ प्रकार हैं-१. नि:शंकित 2. नि:कांक्षित 3. निर्विचिकित्सा 4. अमूढदृष्टि 5. उपबृंहण 6. स्थिरीकरण 7. वात्सल्य 8. प्रभावना। 1038. संक्षेप में यह अष्टविध दर्शनाचार है। इसके विपरीत दर्शन के आठ अतिचार इस प्रकार होते हैं 1. जिस योग-वहन में आहार आदि से सम्बन्धित अत्यन्त नियंत्रण होता है, वह आगाढ़ योग कहलाता है। आगाढ़ योग में अवगाहिम (पक्वान्न) के अतिरिक्त शेष नौ विकृतियों का वर्जन किया जाता है लेकिन भगवती के अध्ययन काल में अवगाहिम कल्प्य हैं। महाकल्पश्रुत में एक मोदक विकृति कल्प्य है। आगाढ़योग जघन्य तीन साल और उत्कृष्ट छ: मास का होता हैं। १.निभा 1594 चूपृ. 238 ; आगाढतरा जम्मि जोगे जंतणा सो आगाढो यथा भगवतीत्यादि।आगाढे ओगाहिमवज्जा णवविगतीओ वज्जिजंति, दसमाए भयणा।सव्वा ओगाहिमविगती पण्णत्तीए कप्पति। महाकप्पसुत्ते एक्का परं मोदगविगती कप्पति। - २.व्यभा 2121 / 2. जिस ग्रंथ के अध्ययन काल में विकृति आदि से सम्बन्धित कड़ा नियंत्रण नहीं होता, वह अनागाढ़ योग होता है। जैसे उत्तराध्ययन, नंदी आदि सूत्रों के अध्ययन-काल में विकृति-वर्जन आदि का कठोर नियंत्रण नहीं होता। अनागाढ़ योग में गुरु की आज्ञा हो तो दसों विकृतियां ग्राह्य होती हैं, अन्यथा एक भी ग्राह्य नहीं होती। १.निभा 1594 चू पृ. २३९;अणागाढे पुण दसविगतीतो भतिताओ।जओ गुरुअणुण्णातो कप्पंति, अणुण्णाए विणा ण कम्पति,एस भयणा। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 जीतकल्प सभाष्य 1039. संशय करना शंका' है। अन्यान्य दर्शनों को ग्रहण करने की इच्छा करना कांक्षा है। धर्म करने पर भी मेरी सद्गति होगी या नहीं, यह सोचना विचिकित्सा है। 1040. अथवा विदुगुच्छा–साधु की कुत्सा-निंदा करना विचिकित्सा है। विदु का अर्थ साधु जानना चाहिए। ये साधु नित्य मंडलि, मोक-प्रस्रवण और जल्ल-मैल आदि धारण करते हैं, इस प्रकार जुगुप्सा करना विचिकित्सा है। 1041. परतीर्थिकों की पूजा और अनेकविध ऋद्धि को देखकर अथवा दूसरे से सुनकर जो मति-मोह होता है, वह मूढ़ता है। 1042. उपबृंहण' दो प्रकार का होता है-प्रशस्त और अप्रशस्त / साधु के सद्गुणों को बढ़ावा देना प्रशस्त तथा चरक आदि के गुणों को बढ़ावा देना अप्रशस्त उपबृंहण है। 1. भव्यत्व और अभव्यत्व के संदर्भ में देश शंका को स्पष्ट करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि जीवत्व तुल्य होने पर भी कोई जीव भव्य और कोई अभव्य कैसे है? इसी प्रकार अन्य विषयों पर भी ऐसा सोचना देश शंका है। निशीथ चर्णिकार ने एक अन्य उदाहरण से इसे व्याख्यायित किया है। व्यक्ति यह सोचे कि एक परमाणु एक आकाश प्रदेश पर स्थित है, अन्य परमाणु भी उसी आकाश-प्रदेश पर अवगाहित होता है, यह कैसे संभव है क्योंकि एक परमाणु से दूसरा परमाणु सूक्ष्मतर नहीं होता और न ही आत्मा की भांति दूसरे को अवगाह देता है, यह देशशंका है। सारा द्वादशांग प्राकृतभाषा में निबद्ध है, यह कुशल (सर्वज्ञ) पुरुषों द्वारा रचित नहीं है। भगवद्वाणी के बारे में ऐसा सोचना सर्वशंका है। 1. जीचू पृ. 13 / 2. निचू 1 पृ. 15 / 2. मंडली में एक साथ भोजन करने से सबकी लार से भोजन अशुचि हो जाता है। मोक-प्रस्रवण करने के बाद साधु पानी का प्रयोग नहीं करते, उन्हीं हाथों से खाने के पात्र छू लेते हैं, इस प्रकार जुगुप्सा करना भी विचिकित्सा है। निशीथ भाष्य में जल्ल-मैल के स्थान पर असिणाण-अस्नान शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका तात्पर्य भी यही है कि साधु के शरीर से स्वेद और मल झरता रहता है। 1. निचू 1 पृ.१६। 3. जिनदास गणी के अनुसार अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, कंबल आदि जो जिसके प्रायोग्य है, वह उसको देना पूजा है। 1. दशजिचू प. पूय त्ति असण-पाण-खातिम सातिम-वत्थ-कंबलाती जस्स वाजं पाउग्गं तेण से पडिलाभणं पूया। 4. ऋद्धि का अर्थ है-ऐश्वर्य / वह विद्या और तप दो प्रकार का होता है। यहां ऋद्धि का सम्बन्ध साधु से है अतः विद्या और तप-ये दो भेद किए गए हैं। वैक्रिय लब्धि, आकाशगमन तथा विभंगज्ञान आदि ऐश्वर्य को देखकर विमूढ़ होना अमूढदृष्टि है। चरक आदि परतीर्थिकों से सम्बन्ध होने से यहां विभंगज्ञान का उल्लेख हुआ है। १.निभा 26 चू१ पृ.१७; इड्डित्ति इस्सरियं, तं पुण विज्जामतं तवोमतं वा, विउव्वणागासगमणविभंगणाणादिऐश्वर्य। 5. निशीथ चूर्णि में उपबृंहण के चार पर्याय बताए हैं -उपबंह, प्रशंसा, श्रद्धाजनन, श्लाघा / ' १.निचू 1 पृ.१८ ; उववूहत्ति वा पसंस त्ति वा सद्धाजणणं ति वा सलाघणं ति वा एगट्ठा। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-२६-३० 379 1043. दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप-संयम, विनय और वैयावृत्त्य में अभ्युद्यत साधु का उत्साह बढ़ाना प्रशस्त उपबृंहण है। 1044. चरक आदि अज्ञान, अविरति और मिथ्यात्व में वर्तन करते हैं, उनकी प्रशंसा करना अप्रशस्त उपबृंहण है। 1045. स्थिरीकरण भी दो प्रकार का जानना चाहिए-प्रशस्त और अप्रशस्त / ज्ञान आदि में विषाद का अनुभव करने वाले साधु को स्थिर करना प्रशस्त स्थिरीकरण है। 1046. यह मनुष्य जीवन दोषबहुल है अतः तुम विषाद का अनुभव मत करो, ऐसी प्रेरणा देना प्रशस्त स्थिरीकरण है। अब मैं अप्रशस्त स्थिरीकरण को कहूंगा। 1047. मिथ्यादृष्टि चरक आदि का असंयम में स्थिरीकरण अप्रशस्त है अथवा पार्श्वस्थ आदि साधुओं को स्थिर करना भी अप्रशस्त है। 1048. वात्सल्य भी दो प्रकार का होता है-प्रशस्त और अप्रशस्त / मोक्षमार्ग, आचार्य आदि का वात्सल्य प्रशस्त तथा पार्श्वस्थ आदि का वात्सल्य अप्रशस्त है। 1049. आचार्य, ग्लान, प्राघूर्णक-अतिथि, असमर्थ, बाल और वृद्ध आदि को आहार, उपधि आदि से समाधि पहुंचाना प्रशस्त वात्सल्य है। 1050. पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त, नित्यवासी तथा गृहस्थ आदि को समाधि पहुंचाना अप्रशस्त 1051. प्रभावना भी दो प्रकार की होती है-प्रशस्त और अप्रशस्त। मोक्षमार्ग, तीर्थंकर आदि की प्रभावना प्रशस्त तथा मिथ्यात्व और अज्ञान की प्रभावना करना अप्रशस्त प्रभावना है। 1. निशीथ भाष्य में अमूढदृष्टि में सुलसा, उपबृंहण में श्रेणिक, स्थिरीकरण में आचार्य आषाढ़ तथा वात्सल्य में आर्य वज्र के उदाहरणों का संकेत है। १.निभा 32; सुलसा अमूढदिट्ठि, सेणिय उववूह थिरीकरणसाढो।वच्छल्लम्मि य वइरो, पभावगा अट्ठ पुण होंति॥ 2. निशीथ भाष्य के अनुसार आचार्य और ग्लान के प्रति वात्सल्य का प्रयोग न करने पर चतुर्गुरु, तपस्वी और प्राघूर्णक के प्रति वात्सल्य न करने पर चतुर्लघु, बाल और वृद्ध के प्रति न करने पर गुरुमास तथा शैक्ष और महोदर --पेटू के प्रति वात्सल्य न करने पर लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। १.निभा 30; आयरिए य गिलाणे, गुरुगा लहुगा य खम गपाहुणए। गुरुगो य बाल-वुड्ढे, सेहे य महोदरे लहुओ। 3. जिस साधु के पास जो गुण विशिष्ट है, वह उससे प्रवचन की प्रभावना करे, यह प्रभावना नामक दर्शनाचार है। प्रभावना के संदर्भ में भाष्यकार कहते हैं कि जिनेश्वर भगवान् का प्रवचन स्वभाव से प्रसिद्ध है, वह स्वयं दीप्त है फिर भी प्रभावना का विशेष महत्त्व है। प्रवचन के प्रभावक आठ कहे गए हैं -1. अतिशय ऋद्धिधारी (विशिष्ट ज्ञानी) 2. अतिशायी धर्मकथक 3. अतिशायी वादी 4. अतिशायी आचार्य 5. अतिशायी तपस्वी 6. अतिशायी नैमित्तिक 7. विद्यासिद्ध तथा 8. राजा आदि। १.निभा 31; कामं सभावसिद्धं, तु पवयणं दिप्पते सयं चेव। तह वि य जो जेणऽहिओ, सो तेण पभावते तंतु॥ २.निभा 33 / Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 जीतकल्प सभाष्य 1052. लोक में तीर्थंकर, प्रवचन, मोक्षमार्ग-ज्ञान, दर्शन, चारित्र की प्रभावना करना प्रशस्त है। 1053. मिथ्यात्व, अज्ञान आदि की प्रभावना करना अप्रशस्त है। यह दर्शनाचार है, अब मैं इनके प्रायश्चित्त को कहूंगा। 28. शंका आदि चार पदों के देशभंग होने पर तथा मिथ्या उपबृंहण आदि चार पदों में उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। पुरुष विभाग से भिक्षु, वृषभ आदि चारों को क्रमशः पुरिमार्ध से उपवास तक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1054. शंका आदि आठों पद देश और सर्व के भेद से दो प्रकार के होते हैं। शंका आदि चारों पदों में देश अतिक्रमण में उपवास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1055. उपबृंहण आदि चारों पदों में देश अप्रशस्त का प्रयोग होने पर उपवास तथा सर्व अप्रशस्त का प्रयोग होने पर मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार सर्व शंका आदि में भी मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1056. यह सामान्य रूप से प्रायश्चित्त-विधि कही गई है। पुरुष विभाग से देश-विशोधि इस प्रकार होती है१०५७, 1058. शंका आदि आठ पदों में देश शंका आदि होने पर भिक्षु को पुरिमार्ध, वृषभ को एकासन, उपाध्याय को आयम्बिल तथा आचार्य को उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। यह विभागतः प्रायश्चित्त का वर्णन है। अब उपबृंहण आदि न करने पर साधु की शोधि कैसे होती है, इसका वर्णन करूंगा। 29. यदि साधुओं का प्रशस्त उपबृंहण आदि नहीं करके पार्श्वस्थ या श्राद्ध (श्रावक) का उपबृंहण आदि किया जाता है तो भिक्षु आदि चारों को क्रमशः निर्विगय से लेकर आयम्बिल तक प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1059. यदि प्रशस्त साधुओं का उपबृंहण नहीं होता तो पुरुष भेद से भिक्षु, वृषभ आदि को पृथक्-पृथक् प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1060, 1061. इसी प्रकार प्रशस्त स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना न करने पर भिक्षु आदि की इस प्रकार विशुद्धि होती है-भिक्षु को पुरिमार्ध, वृषभ को एकासन, उपाध्याय को आयम्बिल और आचार्य को उपवास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1062. गाथा (जीसू 29) के पश्चार्द्ध का अगली गाथा के साथ सम्बन्ध है। इसको स्पष्ट करने के लिए मैं इसका सम्बन्ध कहूंगा। 30. सहयोग के लिए यदि साधु ममत्व, परिपालन आदि वात्सल्य करता है तो उपर्युक्त गाथा 29 में वर्णित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। यह साधर्मिक संयम की वृद्धि करेगा, संघ की सेवा करेगा, इस दृष्टि से वात्सल्य किया जाता है तो साधु सर्वत्र शुद्ध रहता है। 1. निशीथ भाष्य एवं उसकी चूर्णि में विस्तार से प्रायश्चित्त का वर्णन मिलता है। 2. गाथा 29 का पश्चार्द्ध 30 वीं गाथा के साथ जुड़ा हुआ है। Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३१-३४ 381 1063, 1064. पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और नित्यवासी साधुओं पर तथा परिवार के लिए ममत्व आदि करता है तो भिक्षु आदि चारों को क्रमशः निर्विगय से लेकर आयम्बिल पर्यन्त प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1065. (जीसू 30) में आए 'आदि' शब्द के ग्रहण से श्रद्धालु, ज्ञाति और शय्यातर का ग्रहण करना चाहिए। इनके द्वारा आहार आदि दिए जाने पर ममत्व आदि करे तो भी प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1066, 1067. वात्सल्य देने से यह साधर्मिक संयम में उद्यम करेगा, कुल, गण, संघ और ग्लान की चिन्ता करेगा, इस दृढ़ आलम्बन से यदि साधु उसकी ममत्व-परिपालना या संभाल करे अथवा वात्सल्य दे तो वह सर्वत्र शुद्ध रहता है। 1068. ये अष्टविध दर्शन अतिचार कहे गए हैं, अब मैं संक्षेप में चारित्र के अतिचार कहूंगा। 31. एकेन्द्रिय आदि जीवों का घट्टन करने पर निर्विगय, अनागाढ़ योग में परितापित करने पर पुरिमार्ध, आगाढ़ योग में परितापित करने पर एकासन तथा इनका अपद्रावण-पीड़ित करने पर आयम्बिल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1069. एकेन्द्रिय में पृथ्वी, अप् आदि तथा प्रत्येक वनस्पति-इन पांचों के पृथक्-पृथक् संघट्टन में निर्विगय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1070. यदि अनागाढ़ योग में परितापित किया जाता है तो पुरिमार्ध, आगाढ़ योग में परितापित करने पर एकासन तथा इन पांचों का अपद्रावण करने पर आयम्बिल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अब मैं अनंतकाय वनस्पति आदि से सम्बन्धित प्रायश्चित्त कहूंगा। 32. साधारण वनस्पति और विकलेन्द्रिय-इनमें से प्रत्येक के संघट्टन में पुरिमार्ध से उपवास पर्यन्त प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। पंचेन्द्रिय के संघट्टन आदि में एकासन आदि तथा अपद्रावण में एक कल्याणक की प्राप्ति होती है। 1071. साधारण वनस्पति काय में तथा विकलेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय-इन चारों का पृथक्-पृथक् संघटन करने पर पुरिमार्ध प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1072. अनन्तकाय वनस्पति के अनागाढ़ परितापन में एकासन, आगाढ़ परितापन में आयम्बिल तथा अपद्रावण करने पर उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अब मैं पंचेन्द्रिय की विशोधि इस प्रकार कहूंगा। 1073. पंचेन्द्रिय का संघट्टन करने पर एकासन प्रायश्चित्त जानना चाहिए। अनागाढ़ परितापित करने पर आयम्बिल तथा आगाढ़ परितापित करने पर उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1074. पंचेन्द्रिय का अपद्रावण करने पर एक कल्याणक की प्राप्ति होती है। प्रमादसहित मुनि की प्रथमव्रत में यह शोधि होती है। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 जीतकल्प सभाष्य 33. मैथुन वर्जित मृषादि अव्रत द्रव्य, क्षेत्र आदि के भेद से चार-चार प्रकार का होता है। ये सभी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट-तीन-तीन प्रकार के होते हैं। जघन्य सम्बन्धी अतिक्रमण होने पर एकासन, मध्यम में आयम्बिल तथा उत्कृष्ट में उपवास प्रायश्चित्त जानना चाहिए। 1075. मृषावाद, अदत्तादान और परिग्रह-ये मृषादि अव्रत कहलाते हैं। इसमें मैथुन का वर्जन जानना. चाहिए। 1076. मृषावाद के चार भेद हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। द्रव्य मृषावाद तीन प्रकार का होता हैजघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट / 1077. इसी प्रकार क्षेत्रमृषा, कालमृषा और भावमृषा के भी तीन-तीन भेद होते हैं-१. जघन्य 2. मध्यम और 3. उत्कृष्ट। इनको भेद सहित भिन्न-भिन्न जानना चाहिए। 1078. इसी प्रकार अदत्त और परिग्रह आदि के भी द्रव्य आदि चार-चार भेद होते हैं। पुनः प्रत्येक के तीन-तीन भेद होते हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। 1079. मृषा आदि के द्रव्य आदि चारों भेदों के तीन-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद होते हैं। अब मैं द्रव्य आदि की क्रमशः शोधि कहूंगा। 1080. द्रव्यमृषा के जघन्य अतिचार में एकासन, मध्यम अतिचार में आयम्बिल तथा उत्कृष्ट अतिचार में उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार क्षेत्र आदि के भेदों में भी जानना चाहिए। 1081. इसी प्रकार अदत्त और परिग्रह के द्रव्य आदि के भंगों के जघन्य अतिचार में एकासन, मध्यम में आयम्बिल तथा उत्कृष्ट में उपवास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1082. इस प्रकार मृषावाद आदि के बारे में मैंने संक्षेपतः शोधि कही है। अब मैं रात्रिभोजन की शोधि को संक्षेप में कहूंगा। 34. लेपकृद् और शुष्क वस्तुओं के रात्रि में बासी रहने पर उपवास, गुड़ आदि आर्द्र वस्तु रात्रि में रहने पर बेला तथा रात्रिभोजन करने पर तेले से शोधि होती है। 1083. लेपकृद् सर्व विदित है। सोंठ, बेहडा आदि शुष्क औषध रात्रि में बासी रहने पर साधु की विशुद्धि उपवास प्रायश्चित्त से होती है। 1084. गुड़, घृत, तेल आदि गीली वस्तुओं की सन्निधि-रात्रि में बासी रहने पर साधु की विशुद्धि बेले के तप से होती है। 1. मूल गुण के अतिचार में यहां चार व्रतों से सम्बन्धित प्रायश्चित्त का वर्णन किया है। मैथुन के अतिचार सम्बन्धी प्रायश्चित्त का वर्णन मूलस्थान में कहा जाएगा। १.जीचू प.१४%, मेहुणाइयारस्स पुण मूलढाणे भणिहिई। Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 383 1085, 1086. दिन में गृहीत रात्रि में भुक्त, रात्रि में गृहीत दिन में भोग, रात्रि में ग्रहण रात्रि में भोग-रात्रि भोजन से सम्बन्धित इन त्रिविध भंगों की शोधि तेले के तप से होती है। रात्रिभोजन का वर्णन सम्पन्न हो गया। 35. कर्म औद्देशिक के चरमत्रिक, पाषंडमिश्रजात, साधुमिश्रजात, स्वगृहमिश्रजात, बादर प्राभृतिका, प्रत्यपाय सहित आहृत आहार और लोभपिण्ड। (इन सबकी शोधि उपवास प्रायश्चित्त' से होती 1087. जीतकल्पसूत्र की 35 वीं गाथा का अर्थ रहने दो। उद्गम आदि आठों के लक्षण, प्रायश्चित्तप्राप्ति तथा उसका तप रूप में प्रायश्चित्त-दान-इन सबको मैं विस्तार से कहूंगा। 1088. उद्गम के सोलह, उत्पादना के सोलह, एषणा के दस तथा (परिभोगैषणा के) संयोजना आदि पांच दोष-ये एषणा के दोष हैं। 1089. उद्गम नाम, स्थापना आदि चार प्रकार का है। उसमें द्रव्य उद्गम ये हैं-ज्योतिष्-सूर्य, चन्द्र आदि, तृण, औषधि-शालि आदि धान, मेघ, ऋण और कर (राजदेय)। 1090. अथवा लड्डक आदि उद्गम होता है। भाव उद्गम तीन प्रकार का होता है-दर्शन, ज्ञान और चारित्र। यहां चारित्र उद्गम का अधिकार है। 1091. यहां चारित्र उद्गम का अधिकार किस कारण से कहा गया है? (आचार्य उत्तर देते हैं) शिष्य! चारित्र में होने वाले गुणों को सुनो। 1092. दर्शन और ज्ञान से चारित्र का उद्गम होता है। इन दोनों की शुद्धि होने पर चारित्र शुद्ध होता है। 1. जीतकल्प के प्रणेता आचार्य भद्रबाहु ने एक प्रायश्चित्त से सम्बन्धित सभी दोषों का एक साथ समाहार करके वर्णन किया है, जैसे उपवास प्रायश्चित्त से सम्बन्धित सभी दोषों का एक साथ उल्लेख कर दिया है। २.भाष्यकार ने उद्गम, उत्पादन तथा एषणा के दोषों का वर्णन पिंडनियुक्ति के आधार पर किया है। उन्होंने कहीं पाठभेद, कहीं विस्तार तो कहीं संक्षिप्त वर्णन भी किया है। 3. पिण्डनियुक्ति में उद्गम, उत्पादना, एषणा, संयोजना, प्रमाण, इंगाल, धूम और आहार के कारण-ये आठ अर्थाधिकार हैं। भाष्यकार का लक्ष्य इन आठों की विस्तार से व्याख्या करने का है। १.पिनि 1 पिंडे उग्गम-उप्पायणेसणा जोयणा पमाणे या इंगाल-धम-कारण, अविहा पिंडनिज्जत्ती। 4. ज्योतिष् तथा मेघों का आकाश से, तण, शालि आदि का पृथ्वी से, ऋण का व्यापार से, करों का नपति नियुक्त पुरुषों से उद्गम होता है। समय के अनुसार ज्योतिश्चक्र के बीच सूर्य का प्रभात में तथा शेष चन्द्र आदि का अन्यान्य समयों में, तृणों का प्रायः श्रावण आदि मास में तथा ज्योतिष् चक्र और मेघों का आकाश में देर रात्रि तक विस्तृत होने से, तृण, शालि आदि का भूमि को फोड़कर ऊपर आने से, ऋण का ब्याज आदि से एवं करों का प्रतिवर्ष संकलन करने से उद्गम होता है। १.पिनिमटी प.३३। Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 जीतकल्प सभाष्य चारित्र से कर्मशुद्धि होती है तथा उद्गम की शुद्धि होने से चारित्र की शुद्धि होती है। 1093. पिण्ड, उपधि और शय्या में अशुद्धि होने पर चारित्र की शुद्धि नहीं रहती। पिण्ड, उपधि और शय्या की शुद्धि होने पर चारित्र की शुद्धि होती है। 1094. इसलिए चारित्र की शुद्धि के लिए पिण्ड के उद्गम का अधिकार है। उद्गम के सोलह द्वार ये.' होते हैं१०९५, 1096. 1. आधाकर्म 2. औद्देशिक 3. पूतिकर्म 4. मिश्रजात 5. स्थापना 6. प्राभृतिका 7. प्रादुष्करण 8. क्रीत 9. प्रामित्य 10. परिवर्तित 11. अभिहत 12. उद्भिन्न 13. मालापहत 14. आच्छेद्य 15. अनिसृष्ट 16. अध्यवपूरक। 1097, 1098. उद्गम के ये सोलह द्वार निर्दिष्ट हैं। अब मैं इनका विवरण कहूंगा। इनमें प्रथम आधाकर्म है, उसके ये नौ द्वार हैं-१. आधाकर्म के नाम 2. उसके एकार्थक 3. किसके लिए निर्मित 4. क्या? 5. परपक्ष-गृहस्थ वर्ग 6. स्वपक्ष–साधु वर्ग 7. चार (अतिक्रम आदि चार दोष) 8. ग्रहण 9. आज्ञा-भंग दोष आदि। 1099. आधाकर्म के ये चार नाम हैं-१. आधाकर्म 2. अध:कर्म 3. आत्मघ्न तथा 4. आत्मकर्म। 1100. जिसके लिए मन में सोचकर औदारिक' शरीर वाले प्राणियों का अपद्रावण' तथा विनाश करके द्रव्य निष्पादित किया जाता है, उसे आधाकर्म कहते हैं। 1. टीकाकार मलयगिरि ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि औदारिक शरीर तिर्यञ्च और मनुष्यों के होता है। तिर्यञ्च में एकेन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों का ग्रहण होता है। एकेन्द्रिय में सूक्ष्म जीव भी होते हैं। सूक्ष्म होने के कारण उनका अपद्रावण मनुष्यों के द्वारा संभव नहीं है अत: उनका यहां ग्रहण क्यों किया गया है? इसका उत्तर देते हुए टीकाकार कहते हैं कि जो जिस वस्तु से अविरत है, वह उस कार्य को नहीं करता हुआ भी परमार्थतः उसे करता हुआ जानना चाहिए, जैसे रात्रिभोजन से अविरत गृहस्थ रात्रिभोजन नहीं करता हुआ भी रात्रिभोजन के पाप से लिप्त होता है, वैसे ही गृहस्थ सूक्ष्म एकेन्द्रिय के अपद्रावण से अविरत है अत: यहां साधु के लिए समारम्भ करते हुए वे सूक्ष्म एकेन्द्रिय के अपद्रावण को करते हैं। भाष्यकार ने अपनी व्याख्या में सूक्ष्म एकेन्द्रिय का वर्जन किया है। १.पिनिमटी प. 37 / 2. भाष्यकार ने उद्दवण-अपद्रावण का अर्थ अतिपात रहित पीड़ा किया है। साधुओं के लिए शाल्योदन आदि पकाने में वनस्पतिकाय का जब तक प्राणातिपात नहीं होता, उससे पूर्व की सारी पीड़ा अपद्रावण कहलाती है। जैसे साधु के लिए शाल्योदन पकाने में शालि का दो बार कण्डन किया जाता है, कण्डन कृत पीड़ा अपद्रावण कहलाती है। तीसरी बार कण्डन करने में शालि जीवों का अवश्य ही अतिपात हो जाता है। १.पिभा 16 ; उद्दवणं पुण जाणसु, अतिवातविवज्जितं पीलं। २.पिनिमटी प.३७; यथा साध्वर्थ शाल्योदनकृते शालिकरटेर्यावद्वारद्वयं कण्डनं, तृतीयं तु कण्डनमतिपातः। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 385 1101. औदारिक शब्द ग्रहण से तिर्यञ्च, मनुष्य और सूक्ष्म वर्जित एकेन्द्रिय का ग्रहण होता है। अपद्रावण अर्थात त्रास देना जिसका वास्तविक अर्थ है-प्राणातिपात रहित पीडा।। 1102. काय, मन और वचन अथवा देह (कायबलप्राण), आयु (आयुष्यप्राण) और इंद्रियप्राण –इन तीनों का स्वामित्व' अर्थात् षष्ठी तत्पुरुष, अपादान' अर्थात् पञ्चमी तत्पुरुष तथा करण-तृतीया तत्पुरुष से तिपात-अतिपात करना त्रिपातन है। 1103. एक या अनेक साधुओं का मन में संकल्प कर दाता जो षट्काय का वध करता है, वह आधाकर्म कहलाता है। 1104. जिसके लिए आधाकर्म निष्पन्न हुआ, जो उसको भोगता है अथवा स्वयं कायवध करता है या उसका अनुमोदन करता है, वह आत्मा से कर्मबंध करता है। 1105. भगवती सूत्र में कहा गया है कि आधाकर्म आहार का भोग करता हुआ मुनि शिथिलबंधन वाली कर्म प्रकृतियों को गाढ़ बंधन वाली करता है। 1106. संयमस्थान, कंडक'-संयमश्रेणी, लेश्या तथा शुभ कर्मों की स्थिति विशेष में वर्तमान शुभ अध्यवसाय और शभलेश्या को जो हीन-नीचे से नीचे करता है. वह भाव अध:कर्म है। 1. तिर्यञ्च में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के प्राणी समाविष्ट होते हैं / एकेन्द्रिय के दो भेद होते हैं -सूक्ष्म और बादर। सूक्ष्म एकेन्द्रिय का अपद्रावण मनुष्य के द्वारा संभव नहीं है, इसलिए उसका यहां वर्जन किया गया है। 2. षष्ठी तत्पुरुष समास में काय, वचन और मन का पातन अर्थात् विनाश। यह परिपूर्ण गर्भज पंचेन्द्रिय मनुष्य और तिर्यञ्चों की दृष्टि से जानना चाहिए। एकेन्द्रियों के केवल काय का, विकलेन्द्रिय एवं सम्मूर्छिम तिर्यञ्च और मनुष्यों के काय और वचन का अतिपात जानना चाहिए। देह, आयु और इंद्रिय का अतिपात सभी तिर्यञ्च और मनुष्यों पर घटित होता है। इनमें भी एकेन्द्रिय की दृष्टि से औदारिक देह, आयु की अपेक्षा से तिर्यग् आयु . . तथा इंद्रिय की अपेक्षा से स्पर्श इंद्रिय जानना चाहिए। द्वीन्द्रिय में स्पर्शन और रसन-इन दो इंद्रियों का समावेश होता है। १.पिनिमटी प. 37 / 3. अपादान-पंचमी तत्पुरुष की अपेक्षा से त्रिपात का निरुक्त होगा-काय, वचन और मन से तथा देह, आयु .' और इंद्रिय से पातन-च्या वन करना त्रिपातन है। १.पिनिमटी प. 37 / 4. करण अर्थात् साधन की दृष्टि से काय, वचन और मन-इन तीन करणों से अतिपात करना त्रिपातन है। ५.भ. 1/436 / 6. कंडक का अर्थ है-अंगुल मात्र क्षेत्र का असंख्येयभाग गत प्रदेश राशि प्रमाण संख्या। कंडक एवं संयमस्थानक की व्याख्या हेतु देखें श्री भिक्षुआगम विषयकोश भाग-२ पृ. 341, 342 / अंगुल मात्र क्षेत्र के असंख्येय भागगत प्रदेश राशि प्रमाण कंडक होते हैं / मलयगिरि ने यहां कंडक को स्पष्ट करने हेतु एक पद उद्धृत किया है-'कण्डं ति इत्थ भण्णइ, अंगुलभागो असंखेज्जो।' ___ १.पिनिमटी प.३९। Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 जीतकल्प सभाष्य 1107. सं उपसर्ग एकीभाव अर्थ में तथा यमु धातु उपरमण-विरति के अर्थ में प्रयुक्त होती है। अथवा सम्यक् रूप से यम-संयम अथवा मन, वचन और काया का निग्रह करना संयम है। 1108. जहां संयम है, वह संयम का स्थान कहलाता है। उसके एक स्थान में चारित्र के अनंत पर्यव होते 1109. संयमस्थान असंख्य होते हैं इसलिए कंडक भी असंख्य हैं। लेश्यास्थान भी यवमध्य की भांति. असंख्य हैं। 1110-12. लेश्या, कंडक और संयमस्थान कम होते हुए असंख्य लोक जितने स्थान वाले हो जाते हैं, वह संयमश्रेणी' कहलाती है। स्थान, कंडक और लेश्या आदि के विशुद्ध होने से उत्कृष्ट देव आयु स्थिति बंध के योग्य होकर भी आधाकर्म भोजी साधु अपने आपको नीचे से नीचे गिरा देता है। सूत्र (भगवती. सूत्र) में कहा गया है कि वह कर्मों का बंधन, चय और उपचय करता है। 1113. आधाकर्मग्राही मुनि अधोगति का आयुष्य बांधता है तथा अन्यान्य कर्मों को भी अधोगति के अभिमुख करता है। वह तीव्र-तीव्रतर भावों से बंधे हुए कर्मों का निधत्ति, निकाचना रूप में घनकरण करता हुआ प्रतिपल कर्मों का चय-उपचय करता है।' 1114. उन भारी कर्मों के उदय से वह आधाकर्मग्राही मुनि दुर्गति में गिरती हुई अपनी आत्मा को नहीं . बचा सकता इसलिए इसे अध:कर्म कहा गया है। 1115. जो प्रयोजन से अथवा निष्प्रयोजन जानते हुए अथवा अनजान में षड्जीवनिकाय का प्राणव्यपरोपण करता है, उसे द्रव्य आत्मघ्न कहते हैं। जो जानते हुए वध करता है, वह निदा तथा नहीं जानते हुए अज्ञान अवस्था में वध करता है, वह अनिदा कहलाती है। 1116,1117. जो जानते या नहीं जानते हुए सामान्यतः निर्देश करके वध करता है, वह द्रव्य आत्मघ्न है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र-ये तीन भाव आत्मा हैं, जो प्राणियों के प्राणों का विनाश करने में रत है, वह अपनी भाव आत्मा का हनन करता है। 1118, 1119. निश्चयनय के अनुसार चारित्र आत्मा का विनाश होने पर ज्ञान और दर्शन का घात होता है। व्यवहारनय के अनुसार चरण-चारित्र का विघात होने पर ज्ञान और दर्शन के विघात की भजना है, यह 1. असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण षट्स्थानक संयमश्रेणी कहलाती है। १.पिनिमटी प.४१; चासंखेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानकानि संयमश्रेणिरुच्यते। 2. भगवती सूत्र में उल्लेख मिलता है कि आधाकर्म का भोग करने वाला साधु आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों के शिथिल बंधन को गाढ़ बंधन वाली, अल्पस्थिति वाली कर्म-प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली, मंद विपाक वाली प्रकृतियों को तीव्र विपाक वाली तथा अल्प प्रदेश-परिमाण वाली प्रकृतियों को बहुप्रदेश परिमाण वाली करता है। आयुष्य का बंधन कभी करता है, कभी नहीं करता। 1. भ१/४३६। Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 387 भाव आत्मघ्न है। अब मैं आत्मकर्म को कहूंगा। जो परकर्म-पचन-पाचन आदि कर्म को आत्मीकृत करता है, वह आत्मकर्म है। 1120. आधाकर्म द्रव्य ग्रहण में परिणत मुनि संक्लिष्ट परिणाम वाला होता है। वह प्रासुक द्रव्य ग्रहण करता हुआ भी कर्मों से बंधता है, इसे आत्मकर्म जानना चाहिए। 1121. जो आधाकर्म को ग्रहण कर उसका उपभोग करता है, वह परकर्म-गृहस्थ के पचन-पाचन आदि कर्म को आत्मकर्म कर लेता है। शिष्य जिज्ञासा करता है कि परक्रिया अन्यत्र कैसे संक्रान्त होती है? 1122. इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि जैसे दूसरे के द्वारा प्रयुक्त विष मारक होता है, वैसे ही परकृत कर्म भी जीव के परिणाम विशेष से बंध का कारण हो सकता है। 1123. शिष्य पुनः जिज्ञासा करता है कि यदि परप्रयुक्ति बंध का कारण है तो फिर परकृत भोजन करने वाले के भी कर्मबंध होगा। (इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं) दूसरे के द्वारा प्रयुक्त जाल में जो गिरता है, वही उसमें बंधता है। 1124, 1125. गुरु कहते हैं कि जो मृग प्रमत्त और अदक्ष है, वही उस जाल में बंधता है। जो अप्रमत्त और दक्ष होता है, वह बंधन को प्राप्त नहीं होता। इसी प्रकार जो मन, वचन और काया के योगों से अप्रमत्त होता है, वह नियमतः बंधन को प्राप्त नहीं होता लेकिन दूसरा परकृत में भी बंधन को प्राप्त हो जाता है। 1126. यह सम्मत बात है कि मुनि स्वयं आधाकर्म भोजन निष्पन्न नहीं करता (और न ही दूसरों से करवाता है). किन्तु आधाकर्म को जानता हुआ भी जो उसे ग्रहण करता है, वह आधाकर्म भोजन ग्रहण करने के प्रसंग को बढ़ावा देता है। जो उसको ग्रहण नहीं करता, वह उसका निवारण करता है। 1127. इसलिए अशुद्ध मन आदि से परकृत को भी आत्मीकृत किया जाता है, आत्मीकृत कैसे किया जाता है, उसके ये कारण हैं - * 1128. प्रतिसेवना, प्रतिश्रवण, संवास और अनुमोदना'-इन चारों प्रकारों से व्यक्ति परकृत पचन-पाचन आदि क्रिया को आत्मीकृत करता है। उनके उदाहरण ये हैं - ". 1. टीकाकार मलयगिरि और अवचूरिकार के अनुसार मृग और कूट का दृष्टान्त यशोभद्रसूरि का है। उनके अनुसार दक्ष और अप्रमत्त मृग जाल से बचकर चलता है और यदि किसी कारणवश वह जाल में फस भी जाता है तो जाल बंद होने से पहले तत्काल वहां से निकल जाता है लेकिन प्रमत्त और अकुशल मृग बंध ही जाता है अतः केवल परप्रयुक्ति मात्र से कोई बंधनग्रस्त नहीं होता। इसी प्रकार आधाकर्म आहार बनाने मात्र से साधु के पाप कर्म का बंधन नहीं होता। जो अशुभ अध्यवसाय से उसको ग्रहण करता है, वह परकर्म-गृहस्थ के पचन-पाचन आदि कर्म को आत्मकर्म बनाता है। यहां उपचार से आधाकर्म को आत्मकर्म कहा गया है। १.पिनिमटी प.४४, 45 / 2. प्रतिसेवना, प्रतिश्रवण आदि के विस्तार हेतु देखें पिनि 68/2-69/4, यह जैन विश्व भारती से प्रकाशित / पिण्डनियुक्ति की संख्या है। Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 जीतकल्प सभाष्य 1129. प्रतिसेवना में चोर, प्रतिश्रवण में राजपुत्र, संवास के अन्तर्गत पल्ली में रहने वाले वणिक् तथा अनुमोदना में राजदुष्ट का उदाहरण ज्ञातव्य है। 1130. आधाकर्म के अध:कर्म आदि नाम संक्षिप्त में कहे गए हैं। अब मैं संक्षेप में इसके एकार्थकों को कहूंगा। 1131. व्यञ्जन और अर्थ की चतुर्भंगी होती है 1. एक अर्थ, एक व्यञ्जन। 3. नाना अर्थ, एक व्यञ्जन। 2. एक अर्थ, नाना व्यञ्जन। 4. नाना अर्थ, नाना व्यञ्जन। 1132. एक अर्थ और एक व्यञ्जन वाले शब्द, जैसे-क्षीर क्षीर / एक अर्थ और नाना व्यञ्जन वाले शब्द, जैसे-दूध, पयस्, पालु और क्षीर।। 1133. एक व्यञ्जन और नाना अर्थ वाला शब्द, जैसे-गाय, भैंस और बकरी आदि के दूध के लिए क्षीर शब्द का प्रयोग। नाना अर्थ और नाना व्यञ्जन, जैसे-घट, पट, कट, शकट, रथ आदि शब्द। 1134, प्रथम भंग - एक अर्थ एक व्यंजन-आधाकर्म, आधाकर्म। 1135. द्वितीय भंग - नाना व्यञ्जन एक अर्थ-आधाकर्म, अधःकर्म, आत्मघ्न अथवा इन्द्र, शक्र आदि। तृतीय भंग - नाना व्यञ्जन एक अर्थ-आधाकर्म, अध:कर्म, आत्मघ्न और आत्मकर्म। चतुर्थ भंग - नाना व्यञ्जन नाना अर्थ-शून्य। 1136. जैसे पुरन्दर आदि शब्द इन्द्र के अर्थ का अतिक्रमण नहीं करते, वैसे ही अध:कर्म, आत्मघ्न तथा आत्मकर्म आदि शब्द भी आधाकर्म के अर्थ का अतिक्रमण नहीं करते। 1137. आधाकर्म का उपभोग करने वाला अपनी आत्मा का अध:पतन करता है (अतः इसका एक नाम 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 29-32 / २.व्यवहारभाष्य में व्यञ्जन और अर्थ की चतुर्भंगी एवं उसके उदाहरण में निम्न दो गाथाओं का उल्लेख मिलता है। इन गाथाओं में शब्दभेद तथा उदाहरण में भिन्नता है लेकिन वाच्यार्थ एक ही हैनाणत्तं दिस्सए अत्थे, अभिन्ने वंजणम्मि वि। वंजणस्स य भेदम्मि, कोइ अत्थो न भिज्जति॥ पढमो त्ति इंद-इंदो, बितीयओ होइ इंद सक्को त्ति / ततिओ गो-भूप-पसू, रस्सी चरमो घड-पडो त्ति // व्यभा 155, 156 3. यद्यपि आधाकर्म के प्रसंग में चौथा भंग शून्य है लेकिन पिण्डनियुक्ति की टीका में मलयगिरि ने स्पष्ट किया है कि यदि कोई व्यक्ति अशन के लिए आधाकर्म, पानक के लिए अध:कर्म,खादिम के लिए आत्मघ्न तथा स्वादिम के लिए आत्मकर्म का प्रयोग करे तो ये नाम नाना अर्थ और नाना व्यञ्जन वाले हो जाते हैं। इस दृष्टि से चरम भंग भी प्राप्त हो सकता है। १.पिनिमटी प.५१; यदा तु कोऽप्यशनविषये आधाकर्मेति नाम प्रयुङ्क्ते पानविषये त्वधःकर्मेति खादिमविषये त्वात्मनमिति खादिमविषये त्वात्मकर्मेति तदाऽमूनि नामानि नानार्थानि नानाव्यञ्जनानि चेति चरमोऽपि भङ्गः प्राप्यते। Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 389 अध:कर्म है।) वह प्राण और भूतों के हनन के साथ आत्मा के चारित्र आदि गुणों का नाश करता है इसलिए इसका एक नाम आत्मघ्न है। आधाकर्म लेने वाला परकर्म-पाचक आदि के पापकर्म को स्वयं आत्मसात् करता है अतः इसका एक नाम आत्मकर्म है। 1138. एकार्थक द्वार कहा गया है, अब आधाकर्म भोजन किसके लिए निष्पन्न होता है, यह बताया जा रहा है। आधाकर्म साधर्मिक के लिए कृत होता है। साधर्मिक बारह प्रकार के होते हैं। 1139. (निक्षेप की दृष्टि से) साधर्मिक' बारह प्रकार के होते हैं१. नाम साधर्मिक 7. लिंग साधर्मिक 2. स्थापना साधर्मिक 8. दर्शन साधर्मिक 3. द्रव्य साधर्मिक 9. ज्ञान साधर्मिक 4. क्षेत्र साधर्मिक 10. चारित्र साधर्मिक 5. काल साधर्मिक 11. अभिग्रह साधर्मिक 6. प्रवचन साधर्मिक 12. भावना साधर्मिक 1140. नाम से किसी का नाम साधर्मिक है, वह नाम साधर्मिक कहलाता है। स्थापना से लेकर काल साधर्मिक तक की व्याख्या स्वयं जान लेनी चाहिए। प्रवचन और लिंग से साधर्मिक की चतुर्भगी होती है। 1141. प्रवचन छोड़ देता है लेकिन लिंग नहीं, इस प्रकार दर्शन साधर्मिक से लेकर भावना साधर्मिक तक सबकी यथाक्रम से चतुर्भंगी करनी चाहिए। 1142. इसी प्रकार लिंग के साथ भी दर्शन आदि की चतुर्भगी होती है। ऊपर के तीन भंगों में भजना है लेकिन अंतिम भंग का वर्जन करना चाहिए। १.निशीथ भाष्य में तीन प्रकार के साधर्मिकों का उल्लेख है-१.लिंग साधर्मिक 2. प्रवचन साधर्मिक 3. लिंगप्रवचन साधर्मिक। वहां वैकल्पिक रूप से साधर्मिक के तीन-तीन भेद और किए हैं-१.साध 2. पार्श्वस्थ 3. श्रावका दूसरा विकल्प है-१. श्रमण 2. श्रमणी 3. श्रावक।' १.निभा 336 चू. पृ. 117 / २.टीकाकार मलयगिरि ने पूर्वाचार्य कृत व्याख्या का उल्लेख करते हुए कहा है कि प्रवचन, लिंग आदि सप्तक के द्विसंयोग से 21 भेद होते हैं। प्रवचन के लिंग यावत् भावना तक छह भंग होते हैं। लिंग के दर्शन आदि के साथ पांच, दर्शन के ज्ञान आदि के साथ चार, ज्ञान के चारित्र आदि के साथ तीन, चारित्र का अभिग्रह और भावना के साथ दो तथा अभिग्रह का भावना के साथ एक-इस प्रकार सब मिलकर इक्कीस भेद होते हैं। इन इक्कीस भेदों में प्रत्येक की एक-एक चतुर्भगी होती है। १.पिनिमटी प. 55 / ३.साधर्मिक के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति 73/1-22 गाथाओं का अनुवाद एवं उनके टिप्पण। ६.१.लिंग से साधर्मिक, प्रवचन से नहीं। 2. प्रवचन से साधर्मिक, लिंग से नहीं। 3. प्रवचन से साधर्मिक, लिंग से भी साधर्मिक। 4. न लिंग से साधर्मिक.न प्रवचन से साधर्मिक। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 जीतकल्प सभाष्य 1143. इस प्रकार अभिग्रह और भावना तक सब भंगों की बुद्धि द्वारा यथाक्रम से चतुर्भंगी की योजना करनी चाहिए। 1144. प्रत्येकबुद्ध, निह्नव, उपासक, केवली और शेष साधु आदि के साथ क्षायिक भावों के अनुसार (दर्शन, ज्ञान, चारित्र, अभिग्रह और भावना के आधार पर ) विकल्पों की योजना करनी चाहिए। ... 1145. जहां तीसरा भंग-प्रवचन से साधर्मिक तथा लिंग से भी साधर्मिक, वहां साधु को आहार नहीं कल्पता। (इस विकल्प में प्रत्येकबुद्ध और तीर्थंकरों को छोड़कर शेष मुनि आ जाते हैं।) शेष भंगत्रय में भजना है-क्वचित् कल्पता है, क्वचित् नहीं। तीर्थंकर, निह्नव और उपासक आदि के निमित्त से किया हुआ आहार कल्पता है। शेष साधुओं के लिए किया हुआ अन्न-पानी आदि नहीं कल्पता। .. 1146. आधाकर्म आहार किसके लिए? यह यथाक्रम से उद्दिष्ट हो गया कि इस प्रकार के साधर्मिकों के लिए आधाकर्म आहार कल्प्य नहीं है। आधाकर्म क्या है? (इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं) कि अशन, पान आदि आहार-पानी का निर्माण आधाकर्म है। 1147. अशन-शालि आदि, पान-अवट (कूप आदि) से निकला पानी, खादिम-फल आदि और / स्वादिम-सोंठ आदि हैं। इनमें कृत और निष्ठित के आधार पर शुद्ध और अशुद्ध चार भंग होते हैं। 1148, 1149. गांव में कोद्रव और रालक दो प्रकार के धान्यों की प्रचुरता थी। साधुओं के स्वाध्याय के योग्य रमणीय वसति थी। क्षेत्र-प्रतिलेखना हेतु साधुओं का आगमन हुआ। श्रावकों ने पूछा- क्या यह क्षेत्र आचार्य के चातुर्मास योग्य है?' साधुओं ने ऋजुता से सब कुछ कहा -' क्षेत्र गण के योग्य है लेकिन गुरु के चातुर्मास योग्य नहीं है क्योंकि यहां आचार्य के योग्य शाल्योदन नहीं हैं।' शालि के लिए श्रावक ने शालिबीजों का वपन किया और स्वजनों के घरों में शालि को बंटवा दिया।' 1150, 1151. समय बीतने पर वे या कुछ अन्य मुनि उस गांव में आए। भिक्षार्थ जाने पर उन्होंने - पूछा-'यह क्या है?' लोगों ने सरलता से यथार्थ बात बता दी। आधाकर्मी आहार ज्ञात होने पर उन्होंने उस आहार का वर्जन कर दिया। अथवा अन्य मुनियों को कहा कि यह अशन आधाकर्मिक है। (शिष्य प्रश्न पूछता है कि) अशन आधाकर्मी होता है लेकिन पानक आधाकर्मी कैसे होगा? (आचार्य उत्तर देते हैं) 1. पिण्डनियुक्ति में तीर्थंकर, निह्नव और केवली-इन शब्दों का ही प्रयोग हुआ है। गाथा की व्याख्या में टीकाकार मलयगिरि ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि तीर्थंकर और केवली-इन शब्दों का प्रयोग क्यों किया गया? इसका स्पष्टीकरण करते हुए स्वयं टीकाकार कहते हैं कि केवली का कैवल्य सबको ज्ञात हो, यह आवश्यक नहीं है इसलिए तीर्थंकर और केवली दोनों को अलग-अलग ग्रहण किया है। तीर्थंकर' शब्द के उपलक्षण से प्रत्येकबुद्ध का ग्रहण भी हो जाता है। जीतकल्पभाष्य में तीर्थंकर के साथ निह्नव और उपासक शब्द का प्रयोग हुआ है। 'आदि' शब्द से संभवतः प्रत्येकबुद्ध और केवली का ग्रहण हो सकता है। १.पिनिमटी प.६२। 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 33 / Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ - 391 अशन के उदाहरण की भांति कोई भी साधु किसी गांव में नहीं रुकता था। श्रावकों ने साधुओं से इसका कारण पूछा तो साधुओं ने कहा कि यहां का पानी लवणयुक्त है। 1152. तब एक श्रावक ने मीठे पानी का कूप खुदवाया। उसने उस कूप को तब तक ढ़ककर रखा, जब तक साधु वहां नहीं आ गए। 1153. यहां पानक के उदाहरण में आधाकर्म कूप का ज्ञान, उसका वर्जन आदि अशन के उदाहरण के समान जानना चाहिए। इसी प्रकार यथाक्रम से खादिम और स्वादिम के बारे में भी जानना चाहिए। 1154. ककड़ी, आम, दाडिम-अनार, द्राक्षा और बिजौरा आदि पदार्थ खादिम के अन्तर्गत हैं तथा त्रिकटुक आदि स्वादिम कहलाते हैं। 1155. आधाकर्म क्या है? यह संक्षेप में वर्णित हो गया। अब क्रमशः परपक्ष और स्वपक्ष द्वार का प्रसंग 1156, 1157. गृहस्थ परपक्ष तथा श्रमण और श्रमणी स्वपक्ष हैं। यहां कृत और निष्ठित के आधार पर चतुर्भंगी कहूंगा * साधु के लिए कृत, साधु के लिए निष्ठित। * साधु के लिए कृत, गृहस्थ के लिए निष्ठित। ..* गृहस्थ के लिए कृत, साधु के लिए निष्ठित / * गृहस्थ के लिए कृत, गृहस्थ के लिए निष्ठित। 1158. शालि आदि को बोना, काटना, मर्दन करना तथा एक बार या दो बार कंडित-साफ करना कृत कहलाता है तथा उनको तीन बार कंडित करके रांधना निष्ठित कहलाता है, यह दुगुना आधाकर्म है। 1159. कृत और निष्ठित का यह लक्षण संक्षेप में जानना चाहिए। अथवा जो प्रासुक किया जाता है अथवा रांधा जाता है, वह निष्ठित तथा शेष सारा कृत कहलाता है। 1160. श्रमण के लिए बोना तथा दो बार कंडित करना कृत है तथा साधु के लिए शालि धान्य को तीन बार कड़ित करके रांधना निष्ठित कहलाता है, यह चतुर्भगी के प्रथम भंग की व्याख्या है। 1161. श्रमण के लिए दो बार कंडित करने पर शीघ्र ही किसी अन्य कारण के उपस्थित होने पर गृहस्थ के लिए तीसरी बार कंडित करके उसको निष्ठित करना-यह चतुर्भंगी का दूसरा भंग है। 1162. दो बार गृहस्थ ने अपने लिए धान्य को साफ किया, इसी बीच प्राघूर्णक साधु के आने पर उसने 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 34 / 2. त्रिकटुक-सौंठ, पीपल और कालीमिर्च को त्रिकटुक कहते हैं। / . दुगुना आधाकर्म को व्याख्यायित करते हुए पिण्डनियुक्ति के टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि एक आधाकर्म तो कृत तंडुल रूप तथा दूसरा पाक-क्रियारूप होने से यह दुगुना आधाकर्म है। १.पिनि 80 मटी प.६५,६६। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 जीतकल्प सभाष्य तीसरी बार साधु के लिए धान्य को कंडित किया, इसे चतुर्भंगी का तीसरा विकल्प जानना चाहिए। 1163. गृहस्थ ने अपने लिए दो बार धान्य को कंडित किया तथा तीसरी बार साफ करके गृहस्थ ने अपने लिए पकाया, यह चतुर्भंगी का चौथा विकल्प है। इन चार भंगों में कितने भंग कल्प्य हैं और कितने अकल्प्य हैं? 1164. प्रथम और तृतीय भंग में आहार ग्रहण अकल्प्य है। दूसरे और चौथे विकल्प में कल्प्य है।' इसी . प्रकार पान, खादिम और स्वादिम के बारे में जानना चाहिए। 1165. साधु के निमित्त धान्य रांधा गया, जब तक वह प्रासुक नहीं हुआ, तब तक कृत है। प्रासुक होने के / बाद निष्ठित कहलाता है। पानक में चावल धोना आदि कृत तथा उसे रांधना निष्ठित है। 1166. फल आदि को टुकड़ों में काटकर बघार देने पर, जब तक वह प्रासुक न हो, तब तक कृत तथा . प्रासुक होने पर उसे निष्ठित जानना चाहिए। इसी प्रकार स्वादिम में आर्द्रक आदि को जानना चाहिए। 1167. यहां अशन, पान आदि में सर्वत्र यथाक्रम से चतुर्भगी करनी चाहिए। सम्पूर्ण रूप से विधिपरिहरणा और अविधि-परिहरणा जाननी चाहिए। 1168. कुछ आचार्य फल-पुष्प आदि के प्रयोजन से अथवा अन्य किसी प्रयोजन से साधु के लिए बोए गए वृक्ष की छाया का वर्जन करते हैं लेकिन यह उचित नहीं है। उस वृक्ष का फल दूसरे भंग में लेना कल्पनीय है अर्थात् साधु के लिए कृत तथा गृहस्थ के लिए निष्ठित रूप में। 1169. वृक्ष की छाया आधाकर्मिकी नहीं होती क्योंकि छाया परप्रत्ययिका अर्थात् सूर्यहेतुकी होती है, वृक्षमात्रहेतुकी नहीं होती, जैसे मालाकार वृक्ष को बढ़ाता है, वैसे छाया उसके द्वारा बढ़ाई नहीं जाती। (जो उसे आधाकर्मिकी मानकर उसके नीचे बैठने का निषेध करते हैं, उनके अनुसार तो) मेघाच्छन्न आकाश से वृक्ष की छाया लुप्त हो जाने पर उस वृक्ष के नीचे बैठना भी कल्पनीय हो जाएगा। 1. टीकाकार मलयगिरि ने इस प्रसंग में वृद्ध-सम्प्रदाय का उल्लेख करते हुए कहा है कि यदि चावलों को एक बार या दो बार साधुओं के लिए कंडित किया और तीसरी बार गृहस्थ ने अपने लिए कंडित किया और पकाया तो वे तण्डुल साधु के लिए कल्पनीय हैं। इस संदर्भ में अन्य परम्पराओं का भी उल्लेख मिलता है। पान, खादिम और स्वादिम आदि के बारे में भी कृत और निष्ठित को समझना चाहिए। साधु के लिए कूप आदि का खनन किया, उसमें से जल निकाला तथा उसे प्रासुक किया। जब तक वह पानी प्रासुक नहीं होता, तब तक वह कृत कहलाता है तथा प्रासुक होने के बाद निष्ठित कहलाता है। इसी प्रकार खादिम में ककड़ी आदि का वपन करके उसे निष्पन्न किया फिर उसे टुकड़ों में काटा, जब तक वे टुकड़े प्रासुक नहीं हुए, तब तक कृत तथा प्रासुक होने के बाद निष्ठित कहलाते हैं। १.पिनिमटी प.६५,६६। २.टीकाकार के अनसार वक्ष के नीचे का कछ भाग सचित्त कणों से संपृक्त होता है अत: वह पति होता है। उस स्थान पर बैठना कल्पनीय नहीं है लेकिन वृक्ष की छाया आधाकर्मिकी नहीं होती। १.पिनिमटी प.६६। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 393 1170. (शिष्य प्रश्न पूछता है) छाया बढ़ती है, घटती है। वृक्ष की बढ़ती हुई छाया अनेक घरों का स्पर्श करती है, इससे सारे घर और आहार पूति दोष से दुष्ट होने के कारण कल्पनीय नहीं होंगे। (यह बात आगमोक्त नहीं है, आचार्य कहते हैं-) सूर्य सुविहित मुनियों के लिए छाया का प्रवर्तन नहीं करता, वह स्वतः होती है इसलिए छाया आधाकर्मिकी नहीं होती। 1171. आकाश में यत्र-तत्र विरल मेघों के घूमने पर उनसे छाया मिट जाती है तथा दिन में पुनः छाया हो जाती है। सूर्य के मेघाच्छन्न हो जाने पर उस वृक्ष के अधःस्तन प्रदेश का आसेवन कल्पता है परन्तु आतप में उसका विवर्जन करना चाहिए। (यह तथ्य न आगम सम्मत है और न पूर्वपुरुषों द्वारा आचीर्ण इसलिए असत् है।) 1172. इस प्रकार छाया संबंधी यह दोष संभव नहीं है, यह आधाकर्म विहीन है। इतना होने पर भी जो अति दयालु पुरुष उसका विवर्जन करते हैं तो वे दोषी नहीं हैं। 1173. स्वपक्ष और परपक्ष का मैंने संक्षेप में वर्णन कर दिया। अब 'चार' इस द्वार को संक्षेप में कहूंगा। 1174. अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार-इन चारों को आधाकर्म में यथाक्रम से जोड़ना चाहिए। 1975. आधाकर्म का इन चारों में होना कैसे संभव है? यहां भरत का उदाहरण है। ब्राह्मणों की पूजा देखकर श्राद्ध भरत के पास गए। 1176. उत्सव में श्रावकों की श्रद्धा उत्पन्न हुई कि हम भी साधुओं के लिए विशेष रूप से भोजन तैयार करेंगे। 1177. कोई नया श्रावक मुनि के लिए निष्पादित शालि, घृत, गुड़, गोरस तथा अचित्त किए हुए वल्ली फलों का दान देने के लिए मुनि को निमंत्रण देता है। 1178-80. आधाकर्म के आमंत्रण को स्वीकृत करना अथवा शालि आदि को ग्रहण करने के सम्बन्ध में अशुभ चिन्तन अतिक्रम है। उसको लाने के लिए पैर उठाना व्यतिक्रम, उसको पात्र में ग्रहण करना अतिचार तथा उसको खाने के लिए मुंह में रखना अनाचार दोष है। कुछ आचार्य उसको निगलने पर अनाचार दोष मानते हैं। इसका क्या कारण है, यह पूछने पर वे बताते हैं कि मुख में कवल रखने पर कदाचित् पुनः श्लेष्म पात्र में निकाला जा सकता है फिर वह अनाचार नहीं माना जाएगा अतः निगलने पर 'अनाचार दोष होता है क्योंकि वहां से पुनः लौटना संभव नहीं होता। 1181. शेष एक, दो और तीन अर्थात् अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार से पुनः स्वस्थान में लौटा जा सकता है। जैसे (नुपूरहारिका कथानक' में) तीन पैरों से आकाश में स्थित हाथी को पुनः मूलस्थान में स्थित कर 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं. 35 / Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 जीतकल्प सभाष्य दिया गया। 1182. 'चार'-इस द्वार में भिक्षा ग्रहण सम्बन्धी अतिक्रम आदि का मैंने वर्णन किया है। अब आज्ञा आदि 'चार' इस द्वार का वर्णन करूंगा। 1183. जो अशन आदि में लुब्ध होकर आधाकर्म आहार ग्रहण करता है, वह सभी तीर्थंकरों की आज्ञा का अतिक्रमण करता है। जो आज्ञा का अतिक्रमण करता है, वह शेष अनुष्ठानों का अनुपालन किसकी आज्ञा से करता है? 1184. एक मुनि अकार्य करता है, (आधाकर्म का परिभोग करता है) तो दूसरे मुनि भी उसके विश्वास के आधार पर वही कार्य करने लग जाते हैं। इस प्रकार साताबहुल मुनियों की परम्परा से संयम और तप का विच्छेद होने से तीर्थ का विच्छेद होने लगता है। (यह अनवस्था दोष का उदाहरण है।) 1185. जो मुनि यथावाद-आगमोक्त विधि के अनुसार अनुष्ठान नहीं करता, उससे बड़ा अन्य कौन मिथ्यादृष्टि हो सकता है? क्योंकि वह दूसरों में आशंका पैदा कर मिथ्यात्व की परम्परा को आगे बढ़ाता है। 1186. विराधना दो प्रकार की होती है-संयम-विराधना और आत्म-विराधना। आधाकर्म आहार ग्रहण करने के प्रसंग में संयम-विराधना होती है। 1187. आधाकर्म आहार ग्रहण करता हुआ मुनि उस आहार के ग्रहण प्रसंग' को बढ़ावा देता है। वह अपनी तथा दूसरों की आसक्ति को बढ़ाता है। वह भिन्न दंष्ट्रा-अत्यन्त रस लम्पट मुनि सर्वथा निर्दयी होकर सजीव पदार्थों को भी नहीं छोड़ता। 1188. जो मुनि प्रचुर मात्रा में स्निग्ध आहार करता है, वह रुग्ण हो जाता है। रोगग्रस्त मुनि के सूत्र और अर्थ की हानि होती है। रोग-चिकित्सा में षट्काय की विराधना होती है। प्रतिचारकों के भी सूत्र और अर्थ की हानि होती है। परिचर्या के अभाव में रोगी मुनि स्वयं क्लेश को प्राप्त होता है तथा परिचारकों के मन में भी क्लेश उत्पन्न करता है। 1189. पाक आदि क्रिया से आधाकर्म आहार भारी कर्मबंधन का कारण होता है, यह आत्मविराधना है अतः आधाकर्म आहार का भोग नहीं करना चाहिए। 1. जैसे हाथी छिन्न टंक वाले पर्वत पर एक, दो या तीन पैर ऊपर करने में समर्थ हो सकता है लेकिन चारों पैर ऊपर करने पर वह निश्चित रूप से भूमि पर गिर जाएगा, वैसे ही अतिचार दोष तक साधु विशिष्ट शुभ अध्यवसाय से स्वयं को शद्ध करने में समर्थ हो सकता है किन्तु अनाचार होने पर संयम का नाश हो जाता है। टीकाकार कहते हैं कि यद्यपि कथानक के दृष्टान्त में हाथी के द्वारा चारों पैर ऊपर नहीं उठाए गए लेकिन दार्टान्तिक रूप से बात को सिद्ध करने हेतु यह प्रतिपादन किया गया है। १.पिनिमटी प.६८। 2. मुनि यदि एक बार आधाकर्म आहार ग्रहण कर लेता है तो मनोज्ञ रस की लोलुपता से वह बार-बार उसे ग्रहण करने में प्रवृत्त होता है। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 395 1190. (आधाकर्म आहार, उससे स्पृष्ट अन्य पदार्थ, कल्पत्रय' से अप्रक्षालित पात्र में डाला हुआ आहार-) यह सारा अभोज्य है। अविधि-परिहार में गमन आदि के दोष तथा विधि-परिहार' में द्रव्य, काल, देश और भाव की पृच्छा करनी चाहिए। इस यतना में यदि छलना होती है तो ये दो दृष्टान्त हैं११९१. जैसे वान्त आदि अभोज्य यावत् सूर्योदय और चन्द्रोदय-दोनों उद्यान-इन सबके बारे में विस्तार से जानना चाहिए। 1192. जो मनुष्य अन्तःपुर की स्त्रियों को देखने के इच्छुक थे, उनकी इच्छा पूरी नहीं हुई, फिर भी वे राजाज्ञा का भंग करने के कारण राजा से दंडित हुए। अन्तःपुर को देखने वाले जो अन्य पुरुष थे, उनको बिना दंडित किए मुक्त कर दिया गया क्योंकि वे राजाज्ञा का भंग करने वाले नहीं थे। आधाकर्म के विषय में इसी प्रकार यहां. समवतार करना चाहिए। 1193. जो साधु आधाकर्म का परिभोग करके उस अकरणीय स्थान का प्रतिक्रमण नहीं करता, वह बोड-मुंडित व्यक्ति संसार में वैसे ही व्यर्थ परिभ्रमण करता है, जैसे लुंचित-विलुंचित (पंख रहित) कपोत। १.तीन लेपों तक पूति होती है, इसकी व्याख्या करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि एक बर्तन में आधाकर्म भोजन पकाया। उसको किसी दूसरे बर्तन में निकालकर अंगुलि से साफ कर दिया, यह एक लेप है। इसी प्रकार तीन बार साफ करके पकाने तक वह आहार पूति कहलाता है। उसी बर्तन में चौथी बार पकाया गया आहार पूति .. : नहीं होता। अथवा उसी बर्तन में कल्पत्रय-तीन बार प्रक्षालन किए बिना शुद्ध आहार पकाया जाए तो वह पूति - आहार है। तीन बार धोने पर उस पात्र में पकाया गया आहार शुद्ध होता है। .१.पिनिमटी प.८७।। २.विधि-परिहार एवं अविधि-परिहार की विस्तृत व्याख्या हेतु देखें पिनि 89/1-90/4 / ३.कथा के विस्तार हेतु देखें परि 2, कथा सं. 36 / ४.पिण्डनियुक्ति में अभोज्य की विस्तार से व्याख्या प्राप्त है। नियुक्तिकार ने उपमा द्वारा इसको स्पष्ट करते हुए कहा है कि जिस प्रकार वेद आदि धार्मिक ग्रंथों में भेड़नी और ऊंटनी का दूध, लहसुन, प्याज, मदिरा और गोमांसये वस्तुएं अखाद्य हैं, उसी प्रकार जिनशासन में भी आधाकर्म भोजन अखाद्य और अपेय है। जैसे अच्छे तिलचूर्ण से निष्पन्न उपहार, जिस पर नारियल रखा हुआ हो, वह अच्छा आहार भी अशुचि से स्पृष्ट होने पर अभोज्य हो जाता है, वैसे ही आधाकर्म के अवयव से स्पृष्ट शुद्ध आहार भी अभोज्य हो जाता है। प्रकारान्तर से अभोज्य की व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जिस पात्र में आधाकर्म आहार लिया, उस भाजन से आधाकर्म निकाल दिया, फिर भी यदि कल्पत्रय से प्रक्षालित नहीं किया तो उसमें डाला हुआ शुद्ध आहार भी अभोज्य हो जाता है। १.पिनि 86/2-88 / ५.कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2. कथा सं. 37 / 6. आधाकर्म दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि भूमिका पृ.५०-६५ / Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396 जीतकल्प सभाष्य 1194. आधाकर्म द्वार को संक्षेप में कहा गया। अब मैं प्रायश्चित्त-प्राप्ति, उसका दान तथा उसकी विशोधि के बारे में कहूंगा। 1195. आधाकर्म आहार-ग्रहण करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त उपवास होता है। औद्देशिक' आहार भी दो प्रकार का होता है-ओघ औद्देशिक और विभाग औद्देशिक। 1196, 1197. ओघ औद्देशिक आहार ग्रहण करने पर लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका .. तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध होता है। विभाग औद्देशिक मूलतः तीन प्रकार का होता है -उद्देश', कृत और कर्म इन तीनों के चार-चार भेद होते हैं। वे चार भेद कैसे होते हैं, उसे मैं आगे गाथाओं में कहूंगा। 1198. उद्देश के चार भेद होते हैं-औद्देशिक, समुद्देशिक, आदेशिक और समादेशिक। इसी प्रकार कृत और कर्म के भी चार-चार भेद होते हैं। 1199. जितने भिक्षाचरों के संकल्प से आहार-पानी बनाया जाता है, वह उद्देश है। पाषंडियों (अन्य दर्शनी) को देने के लिए निर्मित आहार समुद्देश अथवा समुद्देशिक कहलाता है। श्रमणों के लिए निर्मित आहार आदेश तथा निर्ग्रन्थ के लिए निर्मित आहार समादेश कहलाता है। 1. निशीथ भाष्य में औद्देशिक के दो भेद अतिरिक्त मिलते हैं - १.यावन्तिका- कार्पटिक आदि से लेकर चाण्डाल पर्यन्त सबके उद्देश्य से बनाया हुआ भोजन।' २.प्रगणिता-शाक्य, परिव्राजक आदि की जाति या नाम से गणना करके दी जाने वाली भिक्षा। औद्देशिक दोष . के विस्तार हेतु देखें पिनि भूमिका पृ. 65-67 / १.निभा 1472,1473 / 2. दिन का आधा भाग अर्थात् प्रथम दो प्रहर के काल तक खान-पान का त्याग करना पुरिमार्ध कहलाता है। 3. जीतकल्पभाष्य में विभाग औद्देशिक के मूलत: तीन भेद किए हैं-१. उद्देश 2. कृत और कर्म। फिर तीनों के चार-चार भेद प्राप्त हैं -उद्देश, समुद्देश, आदेश और समादेश। पिण्डनियुक्ति में विभाग औद्देशिक के मूलतः उद्देश, समुद्देश आदि चार भेद हैं फिर प्रत्येक के उद्दिष्ट, कृत और कर्म आदि तीन-तीन भेद किए हैं। यद्यपि दोनों में ही विभाग औद्देशिक के बारह भेद होते हैं, केवल व्याख्या-भेद या प्रकार-भेद के कारण ऐसा संभव हुआ है। १.पिनिमटी प.७७। 4. गृहस्थ के लिए निष्पन्न आहार, जो भिक्षाचरों को देने के लिए अलग रख दिया जाता है, वह उद्दिष्ट कहलाता १.पिनिमटी प.७७। 5. उद्धरित शाल्योदन, जो भिक्षादान हेतु करम्ब (दही-भात मिलाकर तैयार किया गया पदार्थ) आदि के रूप में तैयार किया जाता है, वह कृत कहलाता है।' १.पिनिमटी प.७७, पिंप्र 31 ; वंजणमीसाइकडं / 6. विवाह में बचे हुए मोदक के चूरे को अनेक भिक्षाचरों को देने हेतु गुड़पाक आदि से पुन: मोदक बनाने को कर्म कहा जाता है। पिण्डविशुद्धिप्रकरण में अग्नि से तापित करके पुनः संस्कारित करने को कर्म माना है। १.पिनिमटी प.७७। 2. पिंप्र 31; अग्गितवियाइ पुण कम्मं / Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 397 1200. उद्दिष्ट के उद्देश, समुद्देश आदि चारों भेदों में लघुमास प्रायश्चित्त, कृत के चारों भेदों में गुरुमास, कर्म के प्रथम भेद में चतुर्लघु तथा अंतिम तीन भेदों में चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1201. मैं लघुमास, गुरुमास तथा चतुर्गुरु-इन तीनों का तप की दृष्टि से प्रायश्चित्त-कथन कर रहा हूं। 1202. लघुमास में पुरिमार्ध, गुरुमास में एकासन, चतुर्लघु में आयम्बिल तथा चतुर्गुरु में उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1203, 1204. पूतिकर्म' दो प्रकार का होता है-द्रव्यपूति और भावपूति। द्रव्यपूति में छगण धार्मिक का उदाहरण है। भावपूति दो प्रकार की जाननी चाहिए -सूक्ष्म और बादर। बादरपूति दोष पुनः दो प्रकार का होता है-उपकरणपूति और भक्तपानपूति। 1205. (आधाकर्मिक के अवयव) ईंधन, गंध और धूम-ये सूक्ष्म हैं, इनसे स्पृष्ट होने पर पूति दोष नहीं होता। चूल्हा और स्थाली यदि आधाकर्मिक हैं तो वह उपकरणपूति होता है। 1206. उपकरणपूति युक्त आहार ग्रहण करने पर लघुमास (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। शाक, लवण, हींग से संक्रामण-आधाकर्म से संस्पृष्ट स्थाली आदि में शुद्ध अशन आदि रखना या पकाना, भक्तपानपूति है। 1207. भक्तपानपूति ग्रहण करने पर गुरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त एकासन होता है। अब मैं उपकरणपूति और भक्तपानपूति का लक्षण कहूंगा। 1208. सीझते हुए अन्न के लिए चुल्ली तथा दीयमान पक्व भक्तपान के लिए कुड़छी आदि उपकारी होते हैं इसलिए ये उपकरण कहलाते हैं। चुल्ली, स्थाली, दर्वी, बड़ी कुड़छी-ये सारे उपकरण हैं। 1. निशीथ चूर्णिकार ने पूति और कर्म की अलग-अलग व्याख्या की है। पूति का अर्थ है-कुथित तथा कर्म का अर्थ है-आधाकर्म। सिद्धान्त में आधाकर्म को अग्राह्य होने के कारण पूति कहा है। आधाकर्म से संसृष्ट को भी पूति .' कहा जाता है तथा पूति से संसृष्ट को भी पूति कहा जाता है। पूतिदोष के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 67-70 / १.निभा 804 चू पृ. 64 / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 38 / 3. निशीथभाष्य में विस्तार से पूतिदोष का वर्णन किया गया है। वहां बादरपूति के तीन भेद हैं-१. आहार 2. उपधि और 3. वसति। विकल्प से आहारपूति के दो भेद किए हैं -1. उपकरणपूति और आहारपूति। उपधिपूति के वस्त्र और पात्र दो भेद किए गए हैं तथा वसतिपूति के मूलगुण और उत्तरगुण के अन्तर्गत सात-सात भेद किए - हैं। मूलाचार में पूति के पांच प्रकार हैं-१.चुल्ली 2. उक्खलि (ऊखल) 3. दर्वी-चम्मच 4. भाजन 5. गंध। १.निभा 806,807 / २.निभा 811 / 3. मूलाचार 428 / 4. पिण्डनियुक्ति में सूक्ष्मपूति का विस्तार से वर्णन किया गया है। देखें पिनि गा. 115-117/3 का अनुवाद और 'उनके टिप्पण। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 जीतकल्प सभाष्य 1209-11. यदि चुल्ली, स्थाली, बड़ा चम्मच तथा दर्वी आदि आधाकर्म आहार से युक्त हैं तो वहां आधाकर्म दोष होता है। पूतिदोष इस प्रकार होता है-आधाकर्मिक कर्दम से मिश्रित चुल्ली अथवा खंडित चुल्ली का पुनः संस्थापन, स्थाली में किसी अंश को जोड़ना, बड़ी कुड़छी या दर्वी में लकड़ी का आगे से या पीछे से दण्ड का भाग जोड़ना-यह सब उपकरणपूति' है। 1212. उपकरणपूति का वर्णन किया गया, अब मैं भक्तपानपूति कहूंगा। आधाकर्मिक शाक को लवण, हींग से मिश्रित करना भक्तपानपूति' है। संक्रामण-आधाकर्म से संस्पृष्ट थाली आदि में शुद्ध अशन रखना या पकाना, स्फोटन-आधाकर्मिक राई आदि से भोजन को संस्कारित करना तथा हींग आदि का बघार देना-यह सारा भक्तपान विषयक पूति है। 1213. अपने लिए तक्र आदि का पान करने के लिए आधाकर्मिक शाक, लवण तथा हींग आदि को उस तक्र में मिलाना या बघार में अन्य चीज डाल देना भक्तपानपूति है। 1214. जिस स्थाली में पहले आधाकर्म आहार पकाया, उस पात्र को खाली करके उसमें शुद्ध आहार निकाला जाए अथवा रांधा जाए तो वहां भक्तपानपूति होता है। 1215. निर्धूम अंगारों की राख पर बेसन, हींग, जीरा आदि डालकर स्थाली आदि को नीचे मुंह करके उस पर ढ़क दिया जाता है तो उससे निकलने वाले धूम से व्याप्त स्थाली, तक्र आदि भी पूति दोष युक्त हो जाते हैं। 1216. मिश्रजात' तीन प्रकार का है --यावदर्थिक मिश्र, पाषंडिमिश्र तथा साधुमिश्र। इनके प्रायश्चित्तों को मैं आगे कहूंगा। 1217, 1218. प्रथम यावदर्थिक मिश्र लेने पर चतुर्लघु, दूसरे पाषंडिमिश्र तथा तीसरे साधुमिश्र को लेने पर तप और काल से विशिष्ट चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। चतुर्लघु प्रायश्चित्त आने पर आयम्बिल तथा चतुर्गुरु प्रायश्चित्त में उपवास की प्राप्ति होती है। मिश्रजात कहने के बाद अब मैं स्थापनाभक्त को कहूंगा। १.किसी व्यक्ति ने साधु के निमित्त डोय-बड़ा चम्मच या दर्वी बनवाई, वह आधाकर्मिक है। एक नई दर्वी अपने लिए बनवाई, जिसमें आधाकर्मिक दर्वी का कोई अवयव आगे या पीछे के भाग में लगा दिया। उस दर्वी को यदि शुद्ध आहार में डाल दिया जाए तो इस मिश्रण से उपकरणपूति होने के कारण वह आहार कल्पनीय नहीं होता। 1. निभा 808 चू पृ. 64 / 2. गृहस्थ ने साधु के निमित्त शाक आदि बनाया, नमक और हींग को पीसा या पकाया। इन आधाकर्मी द्रव्यों को अपने लिए पकाए जाने वाले भोजन में थोड़ा डाल दिया, यह आहारपूति है। 3. नियुक्तिकार के अनुसार मिश्रजात आहार सहस्रान्तरित अर्थात् जिसने मिश्रजात पकाया उसने दूसरे को, दूसरे ने तीसरे को-इस प्रकार हजार व्यक्ति को देने पर भी वह आहार साधु के लिए कल्प्य नहीं होता। मिश्रजात की विस्तृत व्याख्या हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 70, 71 / १.पिनि 120 / Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 399 1219, 1220. स्थापनाभक्त दो प्रकार का होता है। -इत्वरिक स्थापित तथा चिर स्थापित / इत्वरिक स्थापित लेने पर पणग (पांच दिन रात) तथा चिरस्थापित लेने पर लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। पणग प्रायश्चित्त आने पर निर्विकृति (निर्विगय) तथा लघुमास प्रायश्चित्त में पुरिमार्ध तप की प्राप्ति होती है। अब मैं इत्वरिक और चिरस्थापित के लक्षण संक्षेप में कहूंगा। 1221-23. पंक्ति में स्थित घरों में भिक्षा के लिए घूमते हुए कोई संघाटक दो घरों में उपयोगपूर्वक भिक्षा ग्रहण करता है। दूसरा साधु श्वान आदि के लिए देय में उपयोग रखता हुआ तीसरे घर से भिक्षा ग्रहण करता है। इससे आगे चौथे घर में उत्क्षिप्त भिक्षा इत्वरिक स्थापित है। वह देशोनपूर्वकोटि तक स्थापित हो सकती है। इस प्रकार स्थापित दोष कहा गया, अब मैं प्राभतिका दोष को कहंगा। 1224. प्राभृतिका दोष दो प्रकार का जानना चाहिए -सूक्ष्म और बादर। सूक्ष्म और बादर प्राभृतिका भी दो-दो प्रकार की होती है-अवष्वष्कण और उत्प्वष्कण। 1225. सूक्ष्म प्राभृतिका से युक्त आहार लेने पर लघुपणग, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त निर्विगय तथा बादर प्राभृतिका में चतुर्गुरु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त उपवास है। 1226, 1227. सूक्ष्म प्राभृतिका का स्वरूप इस प्रकार है-जैसे कोई सूत कातती हुई स्त्री को उसका बालक कहे कि मां! मुझे भोजन दो। उस समय वह कहे-'वत्स! अभी मैं सूत कात रही हूं। जब मैं उलूंगी, तब तुम्हें भोजन दूंगी।' यदि इस बात को साधु सुन ले तो वह वहां न जाए क्योंकि उसके जाने से आरंभ-हिंसा संभव है। १.जो आहार साधु के उद्देश्य से स्व-स्थान या परस्थान में स्थापित है, वह स्थापना दोष युक्त होता है। स्थापना दोष के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 71, 72 / १.व्यभा 1520 मटी प. 35; स्थापितं यत् संयतार्थं स्वस्थाने परस्थाने वा स्थापितम्। २.पिण्डनियुक्ति में स्थापित दोष के दो भेद हैं -स्वस्थान स्थापित तथा परस्थान स्थापित / इन दोनों के भी दो-दो भेद किए गए हैं -अनन्तर और परम्पर।' १.पिनि 126 / ३.स्थापना दोष का उत्कृष्ट कालमान देशोनपूर्वकोटि है क्योंकि चारित्र ग्रहण करने का कालमान आठ वर्ष कम पूर्वकोटि होता है। इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि कोई बालक आठ वर्ष की आयु में साधु बना। उसका आयुष्य पूर्वकोटि प्रमाण था। उसने पूर्वकोटि आयुष्य वाली किसी गृहिणी से घृत की याचना की। उसने कहा-'मैं कुछ समय बाद घृत दूंगी।' मुनि को अन्यत्र घृत की प्राप्ति हो गई। गृहिणी के कहने पर मुनि ने कहा-'अभी प्रयोजन नहीं है, जब आवश्यकता होगी, तब लूंगा।' गृहिणी ने उस घृत को साधु के निमित्त स्थापित कर दिया और उसको तब तक रखा, जब तक कि मुनि दिवंगत नहीं हो गए। साधु के दिवंगत होने पर वह घृत स्थापना दोष से मुक्त हो गया।' १.पिनिमटी प.९०, 91 / ... ४.प्राभूतिका दोष के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ.७२-७४। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 जीतकल्प सभाष्य 1228-30. (साधु के आने पर बालक मां से कहता है कि) तुमने साधु के आने पर आहार देने का कहा था अब साधु आने पर भी तुम क्यों नहीं उठती हो, तुम मुझे आहार देने का परिहार क्यों कर रही हो? साधु के प्रभाव से हमें भी भोजन मिल जाएगा। यह जानकर यदि वह स्त्री सूत कातना छोड़ती है तो यह सूक्ष्म अवष्वष्कण प्राभृतिका दोष है। सूत कातती स्त्री से बालक आहार की मांग करे, उस समय यदि वह कहे कि अभी मैं सूत कात रही हूं, तुम रोओ मत। सूत समाप्त होने पर भी भोजन मांगने पर वह कहती है - 1231, 1232. पुत्र! बार-बार मत मांग। अभी परिपाटी-बारी-बारी से घरों में भिक्षा लेते हुए साधु यहां आएंगे, जब मैं उनके लिए उलूंगी, तभी तुम्हें भोजन दूंगी। यह सुनकर साधु उस आहार का वर्जन कर दे। वह बालक यदि साधु की अंगुलि पकड़कर उन्हें अपने घर ले जाए। साधु पूछे कि तुम मेरी अंगुलि क्यों खींच रहे हो? यह पूछने पर बालक यथार्थ बात बता देता है। यह सुनकर साधु उस घर की भिक्षा का वर्जन करे क्योंकि वहां उत्सर्पण रूप सूक्ष्म प्राभृतिका दोष होता है। 1233. बादर प्राभृतिका भी दो प्रकार की होती है-अवष्वष्कण और अभिष्वष्कण। यहां संघाटक तथा साधुओं के एकत्रित होने का निर्देश है। 1234. साधु समुदाय के जाने का दिन निश्चय होने पर कोई श्रावक संखडि में बनने वाली मिठाई और द्रव-तण्डुल-धोवन आदि साधु को देने के लिए नियतकाल से पूर्व पुत्र-विवाह का कार्यक्रम रखता है, यह अवष्वष्कण रूप बादर प्राभृतिका है। 1235. स्थापित विवाह-भोज में साधु समुदाय का आगमन न होने से विवाह को नियतकाल से आगे करना उत्सर्पण रूप बादर प्राभृतिका है। इस अवष्वष्कण और उत्ष्वष्कण रूप बादर प्राभृतिका को कोई ऋजु व्यक्ति प्रकट कर देता है और कोई कुटिल व्यक्ति प्रच्छन्न रूप से रखता है। 1236. दो कारणों से विवाह आदि के दिनों का उत्ष्वष्कण और अवष्वष्कण होता है-मंगल के प्रयोजन से तथा पुण्य के प्रयोजन से। कारण पूछने पर यदि गृहस्थ यथार्थ बात बता दे तो मुनि उस विवाह आदि में निर्मित आहार का वर्जन करता है। 1237. जो मुनि प्राभृतिका भक्त का उपभोग करके उस स्थान (दोष) का प्रतिक्रमण नहीं करता, वह मुंड वैसे ही व्यर्थ परिभ्रमण करता है, जैसे लुंचित विलुंचित पंख वाला कपोत। 1238. प्राभृतिका दोष का वर्णन कर दिया, अब मैं प्रादुष्करण दोष को कहूंगा। प्रादुः अवयव प्रकाशन के १.पिण्डनियुक्ति में इसी गाथा के उत्तरार्ध को स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं कि ऋजु व्यक्ति के द्वारा प्रकट की गई यथार्थ बात को जन-परम्परा से जानकर मुनि उस आहार को ग्रहण न करे। खोज करने पर भी यदि साधु न जान पाए तो उसे ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है क्योंकि साधु के परिणाम शुद्ध हैं। १.पिनिमटी प.९३। Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 401 अर्थ में है, प्रादुष्करण का अर्थ है-अंधकार में प्रकाश करना। 1239, 1240. प्रादुष्करण' दोष दो प्रकार का होता है-प्रकटकरण और प्रकाशकरण। प्रकटकरण में भिक्षा लेने पर लघुमास तथा प्रकाशकरण में आहार लेने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है। लघुमास में पुरिमार्ध तथा चतुर्लघु में आयम्बिल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। प्रादुष्करण दोष वर्णित किया, अब मैं क्रीतकृत दोष को कहूंगा। 1241. क्रीतकृत' दोष भी दो प्रकार का है-द्रव्य और भाव। ये दोनों भी दो-दो प्रकार के हैं -आत्मक्रीत और परक्रीत। अब मैं इनके प्रायश्चित्तों को कहूंगा। 1242, 1243. द्रव्यआत्मक्रीत और द्रव्यपरक्रीत ग्रहण करने पर दोनों का चतुर्लघु प्रायश्चित्त जानना चाहिए। इनका तप रूप प्रायश्चित्त-दान आयम्बिल होता है। भावआत्मक्रीत और भावपरक्रीत के प्रायश्चित्त को मैं अब कहूंगा। 1244. भावआत्मक्रीत का भी चतुर्लघु प्रायश्चित्त जानना चाहिए, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल है। भावपरक्रीत लेने पर लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त-दान हैपुरिमार्ध। क्रीतकृत दोष वर्णित कर दिया, अब मैं प्रामित्य दोष को कहूंगा। 1245, 1246. प्रामित्य दोष भी संक्षेप में दो प्रकार का है-लौकिक और लोकोत्तर। लौकिक प्रामित्य दोष में चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त-दान आयम्बिल होता है। लोकोत्तर में लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसमें पुरिमार्ध तप की प्राप्ति होती है। प्रामित्य दोष का कथन कर दिया, अब मैं परिवर्तित दोष को कहूंगा। 1247, 1248. परिवर्तित दोष भी संक्षेप में दो प्रकार का है-लौकिक और लोकोत्तर। लौकिक परिवर्तित दोष में चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त-दान आयम्बिल होता है। लोकोत्तर में लघुमास, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध है। परिवर्तित दोष कह दिया, अब मैं अभिहृत द्वार को कहूंगा। 1. प्रादुष्करण दोष के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ.७४,७५ तथा पिनि गा.१३७-१३८/६ तक की गाथाओं का अनुवाद। 2. क्रीतकृत दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 139-143/3 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की . भूमिका पृ.७५-७७। 3. प्रामित्य दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 144-46 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की भूमिका ' पृ.७७, 78 / 4. परिवर्तित दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 147-50 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 78 / 5. अभ्याहत दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 151-61 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 78-81 / Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 जीतकल्प सभाष्य 1249. अभिहत दोष दो प्रकार का होता है-आचीर्ण और अनाचीर्ण। आचीर्ण के दो भेद हैं -निशीथ और नोनिशीथ। 1250. निशीथ को प्रच्छन्न तथा नोनिशीथ को प्रकट कहते हैं। इन दोनों के दो-दो भेद हैं -स्वग्राम और परग्राम। 1251. स्वग्राम से आहत दो प्रकार का होता है-आचीर्ण और अनाचीर्ण / अनाचीर्ण में लघुमास, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध होता है। 1252, 1253. परग्राम आहत दो प्रकार का होता है-स्वदेश और परदेश। इनके भी दो-दो प्रकार हैंजलपथ, स्थलपथ। ये दोनों पुनः दो भागों में विभक्त हैं-सप्रत्यपाय और निष्प्रत्यपाय। सप्रत्यपाय पथ में संयमविराधना और आत्मविराधना होती है। 1254, 1255. प्रत्यपाय सहित परदेश आहत आहार लेने पर चतुर्गुरु तथा निष्प्रत्यपाय में चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त-दान क्रमशः उपवास और आयम्बिल जानना चाहिए। इसी प्रकार स्वदेश अभ्याहृत में जानना चाहिए। 1256, 1257. उद्भिन्न दोष दो प्रकार का होता है-पिहितोद्भिन्न और कपाटोद्भिन्न। पिहितोद्भिन्न दो प्रकार का होता है-प्रासुक और अप्रासुक। प्रासुक पिहित-गोबर अथवा कपड़े से पिहित को खोलने . 1. गृहस्थ यदि तीन घरों की दूरी से सम्मुख जाकर भिक्षा देता है तो उसमें उपयोग संभव है अत: वह आचीर्ण है। तीन घरों के आगे से लाने में उपयोग संभव नहीं रहता अत: वह अनाचीर्ण है। इसमें भी जो अभिहत भिक्षा साधु को ज्ञात न हो वह निशीथ अनाचीर्ण तथा जो साधु को ज्ञात हो, वह नोनिशीथ अनाचीर्ण अभ्याहत है। 1. व्यभा 857 मटी प. 111 / 2. जिस गांव में साधु रहते हैं, वह स्वग्राम तथा शेष परग्राम कहलाते हैं। 3. नियुक्तिकार ने जलपथ और स्थलपथ से होने वाली आत्मविराधना का वर्णन इस प्रकार किया है-गहरे पानी के कारण निमज्जन हो सकता है। जलचर विशेष की पकड़ हो सकती है। कीचड़, मगरमच्छ, कच्छप आदि के कारण पैर फस सकते हैं। स्थलमार्ग के दोष इस प्रकार हैं-कंटक, सर्प,चोर, श्वापद आदि के दोष। 1. पिनि 154 / 4. उद्भिन्न दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 162-64 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 81, 82 / 5. कुतुप-तैल आदि भरने का चर्ममय पात्र अथवा घट आदि। उसके मुख को खोलकर साधु को दिया जाने वाला आहार पिहितोद्भिन्न कहलाता है। 6. टीकाकार कपाट के उद्घाटन के संबंध में व्याख्या करते हुए कहते हैं कि वहां जल से भरा मटका आदि रखा हो तो उसके भेदन होने पर पार्श्व स्थित चूल्हे में भी वह पानी प्रवेश कर सकता है, जिससे अग्निकाय की विराधना संभव है। अग्निकाय की विराधना होने पर वायुकाय की विराधना अवश्यंभावी है। चींटी आदि के बिल में पानी प्रवेश करने से त्रसकाय की विराधना भी संभव है। कपाटोद्भिन्न आहार लेने में क्रय, विक्रय, अधिकरण आदि दोषों की संभावना भी रहती है। १.पिनिमटी प. 107 / Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 403 पर यदि उसमें घी या तैल फैल जाता है तो लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध होता है। 1258. अप्रासुक पिहित -पृथ्वीकाय या सचित्त वस्तु से लिप्त पिहित को खोलकर दिया जाए तो उसमें षट्काय-विराधना की संभावना रहती है। 1259-61. सचित्त पृथ्वी से लिप्त मिट्टी का ढेला, शिला आदि को पानी से आर्द्र करके पिहित किया जाए तो वह तत्काल लिप्त सचित्त पृथ्वी लेप जल के कारण चिरकाल तक सचित्त रहता है। पृथ्वीकाय को आर्द्र करने पर अप्काय की हिंसा होती है, लाख से मुद्रित को तपाने में भी तेजस्काय और वायुकाय की विराधना होती है। पणग, बीज आदि वनस्पति तथा कुंथु, पिपीलिका आदि त्रस जीवों की विराधना भी संभव है। लेप को खोलने में भी ये ही दोष होते हैं। 1262. साधु के निमित्त कुतुप आदि का मुख उद्भिन्न करने पर गृहस्वामी याचक को अथवा पुत्र आदि को तैल, लवण, घी और गुड़ आदि देता है। उद्घाटित करने पर वह अवश्य विक्रय करता है और दूसरे उसे खरीदते हैं। 1263. दान, क्रय या विक्रय में अधिकरण-कलह आदि संभव है तथा अयतना से मुख उद्घाटित करने से वहां चींटी, मूषक आदि जीव भी गिर सकते हैं। 1264. जिस प्रकार पूर्वलिप्त कुंभ आदि को उद्भिन्न करने पर पृथ्वीकाय आदि पटकाय जीवों की विराधना होती है, वैसे ही लिंपन आदि करने पर भी दोष उत्पन्न होते हैं, यह पिहित उद्भिन्न कहा गया 1265. उद्भिन्न दोष में सामान्यतः चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। प्रायश्चित्त का विस्तार से निर्धारण काय आदि की हिंसा के आधार पर होता है। 1266. इसी प्रकार कपाट आदि को खोलने में भी षट्काय वध को जानना चाहिए। खुले हुए कपाट को बंद करने पर विशेष रूप से यंत्र आदि पीलने में होने वाले दोष जानने चाहिए। 1267. कपाट खोलने से छिपकली आदि की विराधना होती है। आवर्तन-पीठिका के ऊपर-नीचे होने से कुंथु आदि जीवों की विराधना संभव है। कपाट के पीछे जाने पर अंदर स्थित बालक आदि को चोट लगने की संभावना रहती है। 1268. कपाट आदि खोलने का सामान्य प्रायश्चित्त चतुर्लघु है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। विभागतः प्रायश्चित्त षट्काय आदि की हिंसा के आधार पर निश्चित होता है। 1269. उद्भिन्न दोष का वर्णन कर दिया, अब मैं मालापहृत दोष के बारे में कहूंगा। मालापहत दोष' तीन प्रकार का होता है-ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् / 1. मालापहत दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 165-71 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 82, 83 / Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 जीतकल्प सभाष्य 1270. दुमंजिला मकान ऊर्ध्व मालापहत है। ऊंची कोठी (धान्य आदि की) अधः मालापहृत तथा अर्ध माले पर हाथ ऊंचा करके वस्तु को ग्रहण किया जाए, वह तिर्यक् मालापहृत है। 1271. तीनों प्रकार के मालापहृत दो प्रकार के हैं-जघन्य और उत्कृष्ट। पैरों के अग्रभाग पर ऊर्ध्वस्थित होकर ऊपर से दी जाने वाली भिक्षा जघन्य मालापहृत है तथा निःसरणी आदि पर चढ़कर ऊपर से उतारकर देना उत्कृष्ट मालापहत है। 1272. उत्कृष्ट मालापहृत का प्रायश्चित्त चतुर्लघु जानना चाहिए, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त-दान आयम्बिल होता है। अब मैं जघन्य मालापहृत के बारे में कहूंगा। 1273. जघन्य मालापहत में लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध होता है। मालापहृत दोष का वर्णन कर दिया, अब मैं आच्छेद्य दोष के बारे में कहूंगा। 1274. आच्छेद्य दोष तीन प्रकार का होता है-१. प्रभुविषयक 2. स्वामिविषयक' 3. स्तेनविषयको प्रत्येक का प्रायश्चित्त चतुर्लघु है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल है। .. 1275. अनिसृष्ट'-अननुज्ञात दोष तीन प्रकार का होता है–१. साधारण 2. चोल्लक 3. और जड्ड। इन तीनों प्रकार के अनिसृष्ट दोष में चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। 1276. साधारण अनिसृष्ट दाता आदि के आधार पर अनेक प्रकार का होता है -क्षीर, दुकान, संखडिभोज। यहां समान वय वाले लोगों के मंडलि-भोज का दृष्टान्त है। 1277. चोल्लक (आहार) भी संक्षेप में दो प्रकार का होता है-छिन्न और अच्छिन्न / जब स्वामी अपने 1. आच्छेद्य दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 172-177/2 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ.८४, 85 / 2. अपने घर का नायक प्रभु कहलाता है। 3. ग्राम का नायक स्वामी कहलाता है। 4. टीकाकार ने इस गाथा की विस्तृत एवं स्पष्ट व्याख्या की है। उनके अनुसार स्तेनाच्छेद्य का प्रसंग सार्थ में जाते हुए मुनियों के समक्ष उपस्थित होता है। उस समय गरीब सार्थिकों से बलात् लेकर चोर उनको दे तो उसे साधु ग्रहण न करे। यदि वे सार्थ चोरों के द्वारा बलात् लेने पर ऐसा कहते हैं कि हमारे सामने घृत-सक्तु का दृष्टान्त उपस्थित हुआ है अर्थात् सक्तु के मध्य डाला हुआ घी विशिष्ट संयोग के लिए होता है अत: चोर को अवश्य हमारा आहार ग्रहण करना चाहिए। यदि चोर साधु को देंगे तो हमें महान् समाधि होगी। इस प्रकार सार्थिक के द्वारा अनुज्ञात देय को साधु ग्रहण कर सकते हैं। फिर चोरों के चले जाने पर साधु वह द्रव्य सार्थिकों को देते हुए कहे कि उस समय हमने चोर के भय से वह आहार ले लिया अब वे गए अत: यह द्रव्य तुम ग्रहण कर लो। इस प्रकार वे ग्रहण करने की अनुज्ञा दें तो साधु के लिए वह आहार कल्पनीय है। 1. पिनिमटी प. 113 / 5. अनिसृष्ट दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 178-85 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति भूमिका पृ. 85-87 / 6. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 39 / Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 405 कर्मकरों को अलग- अलग भोजन देता है, उसे छिन्न' चोल्लक जानना चाहिए। 1278. अच्छिन्न भोजन भी दो प्रकार का होता है-अनुज्ञात और अननुज्ञात। जो भोजन लाकर कर्मकरों को समर्पित कर दिया जाता है और स्वामी उसको साधु को देने की आज्ञा दे देता है, वह अनुज्ञात अच्छिन्न चोल्लक कहलाता है। 1279. खाने के बाद जो शेष बचता है, वह यदि लिया जाए तो वह अनिसृष्ट कहलाता है। छिन्न भोजन अनुज्ञात होने के कारण साधु के लिए कल्प्य होता है। 1280. अनिसृष्ट आहार यदि स्वामी के द्वारा अनुज्ञात है तो स्वामी के द्वारा नहीं देखने पर भी वह कल्प्य है। यह चोल्लक अनिसृष्ट है। अब मैं जड्ड अनिसृष्ट के बारे में कहूंगा। 1281. राजकुल से हाथी के लिए आनीत राजपिंड आहार साधु के लिए अकल्प्य है। इससे साधु को अंतराय, अदत्त-ग्रहण आदि दोष लगते हैं। 1282. हाथी भी (प्रतिदिन महावत को देते देखकर) प्रद्वेष में आकर साधु को सूंड से गिरा सकता है तथा साधु के उपाश्रय आदि को तोड़ सकता है। महावत के पास हाथी के द्वारा अदृष्ट आहार साधु के लिए कल्पनीय है। 1283. अनिसृष्ट द्वार का कथन कर दिया, अब मैं अध्यवतर दोष के बारे में कहूंगा। घर में स्वयं के लिए निष्पन्न आहार में साधु के निमित्त अधिक डालकर भोजन पकाना अध्यवतर दोष है। 1284. तण्डुल आदि को साधु के निमित्त अधिक डालना अध्यवतर दोष है, वह तीन प्रकार का होता 1. जिसके निमित्त से छिन्न किया गया है, यदि वह दाता स्वयं उस छिन्न चुल्लक को देना चाहे तो वह कल्पनीय ... १.पिनिमटी प. 114 / 2. जब स्वामी सब हालिकों के लिए एक ही बर्तन में भोजन भेजता है तो वह अच्छिन्न कहलाता है। इसी प्रकार उद्यापनिका आदि में भी छिन्न-अच्छिन्न चुल्लक समझना चाहिए। अच्छिन्न में यदि सभी स्वामी अनुज्ञा दें, तब . वह वस्तु साधु को ग्रहण करना कल्पनीय है। १.पिनिमटी प. 114 / 3. इस गाथा की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं कि राजा के द्वारा अननुज्ञात लेने पर कभी वह रुष्ट होकर महावत को नौकरी से निकाल सकता है। साधु के कारण उसकी आजीविका का विच्छेद होता है अतः साधु को अंतराय का दोष लगता है। १.पिनिमटी प. 115 / 4. पिण्डनियुक्ति में मिश्रजात और अध्यवपूरक का भेद स्पष्ट किया गया है। मिश्रजात में यावदर्थिक आदि के लिए प्रारंभ में ही अधिक पकाया जाता है और अध्यवपूरक में बाद में तंडुल आदि का अधिक परिमाण किया जाता है। १.पिनिमटी प. 115, 116 / 5. अध्यवतर दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 186-188/1 गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ.८७। Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 जीतकल्प सभाष्य है-१.यावदर्थिक-अध्यवतर 2. पाषंडि-अध्यवतर 3. साधु-अध्यवतर। 1285. यावदर्थिक अध्यवतर आहार ग्रहण करने पर लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्थ होता है। पाषंडी-अन्य दर्शनी और साधु से सम्बन्धित अध्यवतर आहार ग्रहण करने पर गुरुमास (एकासन) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1286. यह अध्यवतर का वर्णन है। ये उद्गम के सोलह दोष हैं / भिक्षा से सम्बन्धित नौ कोटियां होती हैं। कोटि किसे कहते हैं? 1287. जिससे गच्छ में बहुत सारे दोष एकत्रित हो जाते हैं, उसे कोटि कहा जाता है। नव कोटियां इस प्रकार हैं१२८८.१. हनन करना 2. हनन करवाना 3. हनन का अनुमोदन करना 4. पचन 5. पाचन 6. पाचन का अनुमोदन 7. क्रय करना 8. क्रय करवाना तथा 9. क्रीत का अनुमोदन करना -ये नौ कोटियां हैं। 1289. कोटिकरण नव, अठारह, सत्तावीस, चौपन, नब्बे तथा दो सौ सत्तर प्रकार का होता है। 1290. इन नव कोटियों को राग और द्वेष से गुणा करने पर अठारह तथा अज्ञान, मिथ्यात्व और अविरति से गुणा करने पर सत्तावीस भेद होते हैं। 1291. पृथ्वी आदि छह काय-संयम से गुणा करने पर चौपन तथा क्षांति आदि दशविध श्रमणधर्म से गुणा करने पर नब्बे भेद होते हैं। 1292. नब्बे को दर्शन, ज्ञान और चारित्र-इन तीन से गुणा करने पर 270 भेद होते हैं। यह कोटियों का विस्तार है। 1293. संक्षेप में कोटि दो प्रकार की होती है -1. उद्गमकोटि 2. विशोधिकोटि / उद्गमकोटि छह प्रकार की तथा विशोधिकोटि अनेकविध होती है। 1294, 1295. हननत्रिक और पचनत्रिक-ये छह प्रकार की कोटियां उद्गमकोटि कहलाती हैं। अथवा ये छह प्रकार की उद्गमकोटि कहलाती हैं-१.आधाकर्म 2. औद्देशिक के अंतिम तीन भेद, 3. पूति 4. मिश्रजात 5. बादरप्राभृतिका 6. अध्यवपूरक के अंतिम दो भेद-(स्वगृह पाषंडिमिश्र तथा स्वगृहसाधुमिश्र।) 1296. संक्षेप में छह प्रकार की अविशोधिकोटि का वर्णन किया, अब तीन प्रकार की विशोधिकोटि को क्रमशः कहूंगा। 1297. उद्गमदोष रूप अविशोधिकोटिक आहार के अवयव से स्पृष्ट, लेप अथवा अलेप से युक्त पात्र, जो तीन कल्पों से परिमार्जित नहीं है, उसमें आहार लेना पूतिदोष दुष्ट आहार है। इसी प्रकार काञ्जिक, अवश्रावण, चाउलोदक से संस्पृष्ट पात्र या आहार भी पूतिदोष दुष्ट होता है। 1298. जिस प्रकार शुष्क अशुचि से स्पृष्ट होने पर भी लोक में उस भाजन या वस्तु को धोया जाता है, वैसे ही अलेप आधाकर्मिक वल्ल, चणक आदि का स्पर्श होने पर भी पात्र का कल्पत्रय से शोधन करना अनिवार्य है। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 407 1299. अलेपकृद् आधाकर्मिक वल्ल, चणक आदि के ग्रहण करने पर भी कल्पत्रय के बिना उस पात्र में भोजन कल्पनीय नहीं होता फिर तक्र आदि लेपयुक्त पदार्थ का तो कहना ही क्या? 1300. काजिक आदि का ग्रहण किसलिए किया गया? आचार्य उत्तर देते हैं, उसे तुम सुनो। साधु को ध्यान में रखकर जो निष्पन्न किया जाता है, वह आधाकर्म है। 1301, 1302. आधाकर्म ओदन को जानकर कोई यह कहे कि ओदन साधु के निमित्त बनाए गए हैं, न कि काजी, अवश्रावण-मांड आदि अतः साधु को केवल ओदन का वर्जन करना चाहिए, काञ्जिक आदि का वर्जन करना आवश्यक नहीं है। इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि यद्यपि काञ्जिक, अवश्रावण आदि आधाकर्मिक नहीं हैं फिर भी ओदन के निमित्त से काञ्जी आदि बनते हैं अतः ओदन के साथ काजी का भी वर्जन करना चाहिए। 1303. शेष विशोधिकोटि के स्थापना आदि दोष युक्त आहार यदि अजानकारी में ग्रहण कर लिया गया हो तो उतने भक्तपान को अलग करने पर शेष आहार शुद्ध हो जाता है। 1304. इसलिए उस अशन और पान को यथाशक्ति अलग कर देना चाहिए। अब मैं द्रव्य आदि के क्रम से संक्षिप्त में व्याख्या करूंगा। 1305. जिस द्रव्य का परित्याग किया जाता है, वह द्रव्य विवेक है। जिस प्रदेश में परित्याग किया जाता है, वह क्षेत्र विवेक है। दोष से युक्त आहार का तत्काल परित्याग कर देना, जिससे दूसरी भिक्षा उससे मिलकर अशुद्ध न हो, यह काल विवेक है। 1306. अशठ मुनि राग द्वेष रहित होकर दोष युक्त आहार को देखते ही परित्याग कर देता है, यह भावविवेक है। यदि अनलक्षित-जिसे अलग करना कठिन हो अथवा कोई तक्र आदि द्रव पदार्थ का मिश्रण हो तो कणमात्र भी न रहे ऐसा सर्व विवेक-परित्याग करना चाहिए। यदि कुछ सूक्ष्म अवयव लगे रह जाएं तो कल्पत्रय किए बिना भी आहार ग्रहण करने वाला साधु शुद्ध है। 1307. यदि उस द्रव्य के बिना निर्वाह होना संभव न हो तो जितना अशुद्ध है, उतने आहार का परित्याग करना चाहिए। यहां शुष्क और आर्द्र निपात की चतुर्भंगी है। 1308. शुष्क और आर्द्र निपात की चतुर्भंगी इस प्रकार है * शुष्क में शुष्क का निपात। * शुष्क में आर्द्र का निपात। * आर्द्र में शुष्क का निपात। * आर्द्र में आर्द्र का निपात। . १.सदृश वर्ण आदि के कारण जिसको अलग रूप से जानना कठिन हो, वह अनलक्षित कहलाता है। Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 जीतकल्प सभाष्य 1309, 1310.* प्रथम भंग में शुष्क में शुष्क द्रव्य गिर जाने पर उसको सरलता से निकाल कर दूर किया जा सकता है। * दूसरे भंग में शुष्क द्रव्य में तीमनादि (विशोधिकोटिक दोष वाला) मिल गया, तब उसमें काञ्जी आदि द्रव मिलाकर पात्र को टेढ़ा कर पात्र मुख पर हाथ देकर उसमें से द्रव अलग किया जा सकता है। * तीसरे भंग में शुद्ध आई तीमन आदि में अशुद्ध शुष्क द्रव्य गिर गया तो उसमें हाथ डालकर जितना निकालना संभव हो सके, उतना निकाल दिया जाता है फिर तीमन आदि कल्पनीय होता है। * चतुर्थ भंग में शुद्ध आर्द्र द्रव्य में अशुद्ध आई द्रव्य मिश्रित हो जाने पर, वह द्रव्य यदि दुर्लभ हो तो उतनी ही मात्रा में अशुद्ध द्रव्य निकालकर शेष का परिभोग करना कल्पनीय है। 1311. इस प्रकार अशठ होकर परित्याग करने वाला साधु जिन स्थानों में शुद्ध होता है, मायावी उन स्थानों . से शुद्ध नहीं होता अत: मुनि को अशठ होना चाहिए। 1312. इस प्रकार गवेषणा में उद्गम द्वार का मैंने संक्षेप में वर्णन किया, अब मैं उत्पादना के दोषों के बारे में संक्षेप में कहूंगा। 1313. उद्गम के सोलह दोष गृहस्थ से समुत्थित जानने चाहिए तथा उत्पादन के दोष साधु से समुत्थित जानने चाहिए। 1314. उत्पादना के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्रव्य उत्पादना सचित्त, अचित्त और मिश्र आदि तीन प्रकार की होती है। सचित्त उत्पादना द्विपद (चतुष्पद, अपद) आदि तीन प्रकार की होती 1315. औपयाचितक रूप से केश-रोम युक्त लोमश पुरुष, घोड़े या बीज के द्वारा अश्व और पुत्र एवं वृक्ष-वल्लि आदि का उत्पादन सचित्त द्रव्य उत्पादना है।' 1316. कनक, रजत आदि यथेष्ट धातुओं से इच्छानुरूप आभूषण आदि की उत्पत्ति अचित्तद्रव्यउत्पादना है। दास, दासी आदि को वेतन आदि देकर आत्मीय बनाना मिश्रद्रव्यउत्पादना है। 1317. भावउत्पादना के दो प्रकार हैं-प्रशस्तभावउत्पादना तथा अप्रशस्तभावउत्पादना। क्रोध आदि से युक्त धात्रीत्व आदि की उत्पादना अप्रशस्तभावउत्पादना है तथा ज्ञान आदि की उत्पादना प्रशस्तभावउत्पादना 1318. यहां अप्रशस्त भाव उत्पादना का अधिकार है, वह धात्री आदि सोलह प्रकार की है। 1. किसी व्यक्ति के किसी भी उपाय से पुत्र न होने पर देवता की मनौती--औपयाचितक रूप से ऋतुकाल में लोमश पुरुष द्वारा संयोग कराकर पुत्र आदि की उत्पत्ति करना सचित्त द्रव्य उत्पादना है। इसी प्रकार भाड़ा देकर अन्य व्यक्ति के घोड़े का अपनी घोड़ी से संयोग कराकर घोड़ा आदि पैदा करना तथा बीजारोपण करके पानी के सिंचन से वृक्ष आदि पैदा करना सचित्त द्रव्य उत्पादना है। १.पिनिमटी प. 120 / Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 409 1319,1320. उत्पादना के सोलह दोष हैं१. धात्री 9. माया 2. दूती 10. लोभ 3. निमित्त 11. पूर्व संस्तव, पश्चात् संस्तव 4. आजीविका 12. विद्या 5. वनीपक 13. मंत्र 6. चिकित्सा 14. चूर्ण 7. क्रोध 15. योग 8. मान 16. मूलकर्म 1321. धात्री शब्द की व्युत्पत्ति * जो बालक को धारण करती है, वह धात्री है। * जो बालक का पोषण करती है, वह धात्री है। * बालक जिसको पीते हैं (जिसका स्तनपान करते हैं), वह धात्री है। प्राचीन काल में अपने ऐश्वर्य के अनुसार धनाढ्य व्यक्ति क्षीर आदि पांच प्रकार की धात्रियों की नियुक्ति करते थे। 1322. धात्री के पांच प्रकार हैं 1. क्षीरधात्री - स्तनपान कराने वाली। 2. मज्जनधात्री - स्नान कराने वाली। 3. मंडनधात्री - बालक का मंडन-विभूषा करने वाली। 4. क्रीड़नधात्री -- बालक को क्रीड़ा कराने वाली। 5. अंकधात्री - बालक को गोद में रखने वाली। इनमें से किसी एक धात्रीत्व का प्रयोग करना धात्रीपिण्ड है। 1323. धात्रीत्व दो प्रकार का होता है-स्वयं करना, दूसरों को नियुक्त करना। बालक आदि को धाय की भांति क्रीड़ा कराना धात्रीपिंड है। . 1324. पंचविध धात्रीपिंड ग्रहण करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल है। अब मैं दूतीपिंड' को कहूंगा। 1325. दूती के दो प्रकार हैं-स्वग्राम और परग्राम। इनके भी दो-दो भेद हैं -प्रकट और छन्न (गुप्त)। 1326. नि:संकोच रूप से शय्यातर की मां या बेटी को अन्यग्राम में संदेश देना प्रकट दूतीत्व है। 1. दूतीपिण्ड के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 92 / Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 जीतकल्प सभाष्य 1327. भिक्षा आदि के लिए जाता हुआ मुनि जननी आदि का संदेश ले जाता है कि तुम्हारी माता ने अथवा पिता ने ऐसा कहा है। (यह भी प्रकट दूतीत्व है।) 1328-30. छन्न दूती के दो प्रकार हैं-लोकोत्तर और उभयपक्ष / लोकोत्तर छन्न दूतीत्व में संघाटक के साधु से शंकित होता हुआ साधु छन्न वचनों में बोलता है। वह छन्न दूतीत्व कैसे होता है? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि शय्यातरी को संदेश देने के लिए साधु उसके पास गया। साथ वाले साधु के विश्वास के लिए मुनि प्रकट रूप में यह कहता है कि हमारे लिए दूतीत्व कल्पनीय नहीं है। तुम्हारी पुत्री अकोविद है, तभी उसने मुझे कहा है कि मेरी मां को ऐसा कह देना। 1331. मां भी कहती है कि इस विषय में उसे जानकारी नहीं है अतः मैं उसे मना कर दूंगी। यह लोकोत्तर प्रच्छन्न दूतीत्व है। अब मैं उभयच्छन्न दूतीत्व को कहूंगा। 1332, 1333. जामाता के तीर्थयात्रा से आने पर पुत्री ने बिलाव को पकाया। मुनि के आने पर पुत्री ने उभयच्छन्न दूतीत्व करते हुए कहा कि मेरी मां को ऐसा कहना कि चिन्तित कार्य उसी रूप में सम्पादित कर दिया है। इस प्रकार के दूतीत्व में न संघाटक जानता है और न पार्श्ववर्ती व्यक्ति कुछ भी जानता है। 1334. यह स्वग्राम उभयच्छन्न दतीत्व है। इसी प्रकार परग्राम विषयक दतीत्व को जानना चाहिए। फिर दूती के दो भेद क्यों किए? 1335. दो ग्रामों के बीच वैर था। परग्राम (निकटवर्ती ग्राम) में शय्यातरी की बेटी रहती थी। ग्राम में चिन्तन हुआ कि परग्राम का हनन करेंगे। 1336, 1337. पिता मुनि शय्यातरी की पुत्री के यहां भिक्षार्थ गया। वह शय्यातरी अपने पिता मुनि को कहती है कि मेरी बेटी को ऐसा कह देना कि पड़ोसी गांव आक्रमण करने वाला है अतः प्रमाद मत करना। उसके कहने पर दूसरे गांव में पिता मुनि ने वैसा ही संदेश दे दिया। उसने भी गांववासियों को यह सूचना दे दी। 1338. सूचना मिलने पर बेटी के गांव वाले एक पार्श्व में स्थित हो गए। दूसरे गांव की सेना का आक्रमण होने पर दोनों गांव के बीच युद्ध होने लगा। युद्ध में शय्यातरी का पति, पुत्र और दामाद मारे गए। 1339. लोग कहने लगे कि यह संदेश किसने दिया? शय्यातरी बोली-'जामाता, पुत्र और पति को मारने वाले मेरे पिता ने ऐसा कहा था।' 1340. इन दोषों के कारण दूतीत्व करना मुनि के लिए कल्पनीय नहीं है। दूतीपिण्ड ग्रहण करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। 1. लोकोत्तर में पास वाले साधु को भी ज्ञात होता है। उभयपक्ष में वार्ता साधु और गृहस्थ-दोनों से छन्न रहती है। 1. पिनिमटी प. 126 / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 40 / Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 411 1341. निमित्त त्रिकाल विषयक होता है, इसके छह भेदों में जो दोष होते हैं, उनमें वर्तमानकाल विषयक निमित्त-कथन तत्क्षण परघातकारी होता है, इसका यह उदाहरण है। 1342. किसी लिंगवेशधारी संन्यासी ने निमित्त के द्वारा गृहस्वामिनी को आकृष्ट किया। गृहस्वामिनी ने चिरकाल से गए हुए अपने पति के बारे में पूछा कि वे कब तक घर आएंगे? 1343. नैमित्तिक ने कहा-'कल ही तुम्हारा पति आ जाएगा।' गृहस्वामिनी ने कहा-'इसका विश्वास कैसे हो?' नैमित्तिक ने कहा-'तुम्हारे गुह्य प्रदेश में तिल है।' प्रत्यय के लिए नैमित्तिक ने स्वप्न आदि के बारे में भी बताया। 1344, 1345. गृहस्वामिनी ने उपयोग लगाया और पति के सम्मुख परिजनों को भेज दिया। इधर पति ने सोचा कि बिना सूचना के घर में प्रवेश करूंगा और घर के वृत्तान्त को देखूगा। पति ने मित्रवर्ग एवं परिजनों को सम्मुख देखकर पूछा-'तुम लोगों को मेरे आगमन की बात कैसे ज्ञात हुई?' परिजनों ने कहा–'तुम्हारी पत्नी ने हमें भेजा है।' 1346. यात्रा से आए हुए पति ने इसका कारण पूछा। पत्नी ने प्रशंसा करते हुए पति को कहा कि श्रमण नैमित्तिक ने तिल आदि के बारे में बताया तथा वह अतीत और भविष्य के बारे में भी जानता है। 1347. कोप से गृहनायक ने पूछा-'घोड़ी के गर्भ में क्या है?' नैमित्तिक साधु ने कहा-'पंचपुंड्र-पांच तिलक वाला किशोर (घोड़ी का बच्चा) है।' घोड़ी का पेट फाड़ने पर वही निकला। (पति बोला-)यदि ऐसा नहीं होता तो तुम्हारा भी वध हो जाता। ऐसे कितने नैमित्तिक हैं, जो यथार्थ निमित्त का कथन करते हैं। 1348, 1349. इसलिए साधु को निमित्त का कथन नहीं करना चाहिए। यह मैंने निमित्तपिंड का वर्णन किया। अतीत का निमित्त-कथन करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। वर्तमान और अनागत का निमित्त-कथन करने पर चतुर्लघु जिसका तप रूप प्रायश्चित्त उपवास प्राप्त होता है। अब मैं संक्षेप में आजीवपिंड के बारे में कहूंगा। 1350. आजीवना के पांच प्रकार हैं-जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैंसूचा से कहना अर्थात् विशेष शब्दों से कहना अथवा असूचा-स्फुट वचनों से कहना। 1351. जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प-ये पंचविध आजीव (आजीविका के साधन) हैं। इनका प्रयोग करके आहार लेने पर प्रत्येक का प्रायश्चित्त चतुर्लघु है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल है। 1352. मातृ समुत्थ ब्राह्मण आदि जाति कहलाती है। वहां मुनि सूचा-स्पष्ट रूप से प्रकट करता है। 1. निमित्त दोष के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 93 / / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.४१। 3. आजीवना दोष के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 93-95 / * 4. मल्ल आदि के समूह को गण कहा जाता है।' १.पिनि 207; गणो उ मल्लादि। Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 जीतकल्प सभाष्य / 1353. ब्राह्मण पुत्र द्वारा सही रूप से होम आदि क्रिया करते देखकर मुनि यह जान लेता है कि यह ब्राह्मण पुत्र है अथवा यह गुरुकुल में रहा हुआ है अथवा (मुनि उसके पिता से कहता है कि तुम्हारा पुत्र) आचार्य के गुणों को प्रकट करता है। 1354. (मुनि अपनी जाति प्रकट करने के लिए ब्राह्मण-पिता के सामने कहता है)-"तुम्हारे पुत्र ने होम आदि क्रिया सम्यक् या असम्यक् रूप से संपादित की है।" असम्यक् क्रिया के तीन रूप हैं-न्यून, अधिक तथा विपरीत। सम्यग् क्रिया के ये घटक हैं-समिधा-यज्ञ की लकड़ी, मंत्र, आहुति-स्थान, याग-यज्ञ, काल, घोष आदि। (यह सुनकर ब्राह्मण जान लेता है कि मुनि भी ब्राह्मण जाति का है, यह जाति से आजीवना है।) 1355. भिक्षार्थ गया मुनि प्रकट रूप में कहता है कि यह क्रिया ठीक की अथवा नहीं की। वहां भद्र या . दुष्ट व्यक्ति होने से ये दोष उत्पन्न होते हैं। 1356. भद्र गृहस्थ सोचता है कि यह हमारे पक्ष का है, यह भिक्षु है अतः इसको आधाकर्म आहार देना चाहिए। प्रान्त-दुष्ट गृहस्थ सोचता है कि यह भिक्षा के लिए चापलूसी कर रहा है। 1357, 1358. पिता का उग्र' आदि वंश कुल कहलाता है। इसको भी जाति की भांति जानना चाहिए। मल्ल की आवाज सुनकर युद्ध के मंडल' में प्रवेश करना। युद्ध प्रवेश में देवकुल-दर्शन', प्रतिमल्ल के आह्वान हेतु वैसी ही भाषा का प्रयोग, मंडप में दण्ड आदि क्रिया को देखकर जानना कि यह मल्ल है (यह गण के आधार पर उपजीवना है) यंत्र-पीड़न आदि कार्य कर्म कहलाते हैं तथा सिलाई आदि करना शिल्प कहलाता है। 1359. अथवा जो आचार्य के उपदेश से सीखा जाता है, वह शिल्प तथा जो स्वयं सीखा जाता है, वह कर्म कहलाता है। 1. उग्रकुल में प्रविष्ट पुत्र को आरक्षक कर्म में नियुक्त देखकर मुनि कहता है कि लगता है तुम्हारा पुत्र पदाति सेना के नियोजन में कुशल है। इस बात को सुनकर पिता जान लेता है कि यह साधु उग्र कुल में उत्पन्न है। यह सूचा के द्वारा स्वकुल का प्रकाशन है। जब वह स्पष्ट वचनों में अपने कुल को प्रकट करता है कि मैं उग्र या भोग कुल का हूं तो यह असूचा के द्वारा कुल को प्रकट करना है।' १.पिनिमटी प. 129 / 2. मण्डल-एक मल्ल के लिए जो लभ्य भूखण्ड है, वह मंडल कहलाता है। १.पिनिमटी प. 129; इहाकरवलके प्रविष्टस्यैकस्य मल्लस्य यल्लभ्यं भूखण्डं तन्मण्डलम्। ३.युद्ध के लिए प्रस्थान करते समय चामुण्डा देवी की प्रतिमा को प्रणाम किया जाता था। १.पिनिमटी प. 130; देवकुलदर्शनं युद्धप्रवेशे चामुण्डाप्रतिमाप्रणमनम्। 4. कृषि आदि को कर्म तथा बुनाई, सिलाई आदि को शिल्प कहा जाता है अथवा अप्रीति, अरुचि पैदा करने वाला कर्म तथा प्रीति उत्पन्न करने वाला अर्थात् मन को आकृष्ट करने वाला शिल्प कहलाता है। आचार्यों ने मतान्तर प्रस्तुत करते हुए कहा है कि अनाचार्य के द्वारा उपदिष्ट कर्म तथा आचार्य द्वारा उपदिष्ट शिल्प कहलाता है। १.पिनिमटी प. 129, निभा 4412 चू पृ. 412 / Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 413 1360. कर्म अथवा शिल्प विषयक कर्ता के प्रयोजन के निमित्त एकत्रित अनेक वस्तुओं को देखकर यह सम्यक् है अथवा असम्यक्, ऐसा अपने कौशल से जताना अथवा स्पष्ट रूप से कहना कर्म और शिल्प की उपजीवना है। 1361. इन सबमें नियमतः भद्रक और प्रान्त दोष होते हैं, यह आजीवकपिण्ड का वर्णन है, अब मैं वनीपकपिण्ड' के बारे में कहूंगा। 1362. (शिष्य पूछता है-) वनीपक किसको कहते हैं? आचार्य कहते हैं-वनु-याचने धातु से वनीपक शब्द निष्पन्न है। स्वयं को श्रमण आदि का भक्त बताकर याचना करने वाला वनीपक कहलाता है। 1363. याचना के द्वारा जीवन चलाने वाले वनीपक के पांच प्रकार जानने चाहिए-श्रमण, माहण, कृपण, अतिथि और श्वान। 1364. श्रमण, माहन, कृपण, अतिथि और श्वान-इन पांचों से सम्बन्धित वनीपकत्व करने पर प्रत्येक का चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। 1365. जिसकी मां मर गई हो, ऐसे बछड़े के लिए ग्वाला अन्य गाय की खोज करता है, वैसे ही आहार आदि के लोभ से जो श्रमण, माहण, कृपण, अतिथि अथवा श्वान के भक्तों के सामने स्वयं को उनका भक्त दिखाकर याचना करता है, वह वनीपक है। 1366. श्रमण के पांच प्रकार हैं-निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक तथा आजीवक। भोजन देते समय कोई मुनि आहार आदि के लोभ से स्वयं को शाक्य आदि का भक्त बताता है, यह उसकी वनीपकता है। 1367. बौद्ध भिक्षु आदि को देखकर उनको प्रीतिपूर्वक भोजन देते देखकर साधु उनके अनुकूल बोलता है-'विप्र! तुमने अच्छा किया, जो इनको दान दे रहे हो।' 1368. ये शाक्य भिक्षु भित्ति-चित्र की भांति अनासक्त रूप से भोजन करते हैं। ये परम कारुणिक एवं दानरुचि हैं। कामगर्दभ-मैथुन में अत्यंत आसक्त इन ब्राह्मणों को दिया हुआ भी नष्ट नहीं होता तो भला शाक्य आदि भिक्षुओं को दिया हुआ व्यर्थ कैसे होगा? 1369. शाक्य आदि की प्रशंसा से मिथ्यात्व का स्थिरीकरण होता है, उद्गम आदि दोषों का समाचरण होता है। लोगों में वह अवर्णवाद होता है कि ये साधु चाटुकारी हैं, इन्होंने कभी दान नहीं दिया है अथवा शाक्य आदि के भक्त यदि द्वेषी हैं तो यह कह देते हैं कि यहां फिर मत आना। 1370. इसी प्रकार ब्राह्मण को दिए जाने पर भी उनके अनुकूल बोलता है। श्रमण और ब्राह्मण दोनों का वर्णन कर दिया गया। 1371. (मुनि ब्राह्मण-भक्तों के समक्ष ब्राह्मणों की प्रशंसा रूप वनीपकत्व करते हुए कहता है-) लोकोपकारी भूमिदेव-ब्राह्मणों को दिया हुआ दान बहुत फलदायी होता है। ब्राह्मण बंधु अर्थात् जातिमात्र 1. वनीपकपिण्ड के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 95, 96 / Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414 जीतकल्प सभाष्य , से ब्राह्मण को दिया गया दान भी बहुत फल वाला होता है तो भला षट्कर्म में निरत ब्राह्मण को दान देने से होने वाले फल की तो बात ही क्या है? 1372, 1373. कुष्ठ रोगी तथा हाथ, पैर, आंख आदि से विकल कृपणों को दान देते देखकर मुनि उनके अनुकूल इस प्रकार की भाषा बोलता है-यह लोक पूजाहार्य-पूजितपूजक है। जो व्यक्ति कृपण, दुःखी, अबन्धु, रोगग्रस्त तथा लूले-लंगड़े को अनाकांक्षा से दान देता है, वह दानपताका का हरण करता है अर्थात् दान की पताका को अपने हाथ में ले लेता है। (कृपण-भक्तों के सम्मुख ऐसा कहना कृपण आदि की वनीपकता है।) 1374. कोई व्यक्ति अतिथियों को दान देता है, उनका वनीपकत्व करने पर भी उपर्युक्त दोष हैं। वहां मुनि दानपति के अनुकूल इस भाषा का प्रयोग करता है१३७५. प्रायः लोग अपने उपकारी, परिचित तथा आश्रितों को दान देते हैं परन्तु जो व्यक्ति मार्ग खिन्न अतिथि को दान देता है, वही वास्तव में दान है। (अतिथि-भक्तों के सम्मुख ऐसा कहना अतिथि वनीपकत्व है।) 1376. श्वानभक्त व्यक्ति को श्वान आदि को आहार देते देखकर मुनि उनके अनुकूल भाषा बोलता है कि तुम अकेले ही दान देना जानते हो। 1377. गाय, बैल आदि को तृण आदि का आहार सुलभ होता है परन्तु छिच्छिक्कार से तिरस्कृत कुत्तों को आहार-प्राप्ति सुलभ नहीं होती। 1378. ये श्वान कैलाश पर्वत के देव विशेष हैं। पृथ्वी पर ये यक्षरूप में विचरण करते हैं। इनकी पूजा हितकारी और अपूजा अहितकारी होती है। (श्वान-भक्तों के समक्ष ऐसा कहना श्वान वनीपकत्व है।) 1379, 1380. पूजित होने पर ये श्वान लोक के लिए हितकर तथा अपूजित होने पर अहितकर होते हैं। पूजनीय पूजे जाते हैं। पूजित होने पर ये श्वान हितकर तथा अपूजित होने पर अहितकर होते हैं अतः ये श्वान पूजनीय हैं। 1381. माहण आदि भक्तों के समक्ष उनकी प्रशंसा या अनुकूल वचन बोलने पर दाता सोचता है कि यह श्रमण मध्यस्थ है। 1382. इस मुनि ने मेरा भाव जान लिया है कि लोक में ब्राह्मण आदि प्रणामाई हैं। उपर्युक्त प्रत्येक विषय 1. मनुस्मृति (10/75) में ब्राह्मणों के योग्य षट्कर्म ये हैं - अध्यापनमध्ययनं, यजनं याजनं तथा / दानं प्रतिग्रहश्चैव, षट्कर्माण्यग्रजन्मनः।। ब्राह्मणों से संबंधित षट्कर्म इस प्रकार हैंउञ्छं प्रतिग्रहो भिक्षा, वाणिज्यं पशुपालनम्। कृषिकर्म तथा चेति, षट्कर्माण्यग्रजन्मनः॥ सन्ध्यास्नानं जपो होमो, देवतानां च पूजनम्। आतिथ्यं वैश्वदेवं च, षट्कर्माणि दिने दिने॥ पारा 1/39 योग से संबंधित षटकर्म इस प्रकार हैं-१. धौति २.वस्ति 3. नेती 4. नौली 5. त्राटक 6. कपालभाति / ' 1. आप्टे पृ. 999 / Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 415 के वनीपकत्व में भद्रक और प्रान्त आदि दोष होते हैं। (यदि व्यक्ति भद्रक होता है तो वह प्रशंसावचन सुनकर मुनि को आधाकर्म से प्रतिलाभित करता है और यदि वह प्रान्त होता है तो मुनि को घर से बाहर निकाल देता है।) 1383. 'पात्र या अपात्र को दिया हुआ दान व्यर्थ नहीं होता'-ऐसा कहना भी दोषयुक्त है तो भला अपात्र- दान की प्रशंसा करना महान् दोषप्रद है। 1384. वनीपकपिण्ड का वर्णन कर दिया, अब मैं चिकित्सापिण्ड' के बारे में कहूंगा। चिकित्सा दो प्रकार की होती है-सूक्ष्म और बादर। 1385. सूक्ष्म चिकित्सा करके आहार ग्रहण करने पर लघुमास, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध प्राप्त होता है। बादर चिकित्सा करके आहार ग्रहण करने पर चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। 1386, 1387. भिक्षार्थ जाने पर यदि कोई रोगी किसी औषधि के बारे में पूछता है तो मुनि कहता है कि क्या मैं वैद्य हूं? यह प्रथम सूक्ष्म चिकित्सापिण्ड है। इसमें अर्थापत्ति से सूचित किया गया है कि तुमको अपने रोग के बारे में वैद्य से पूछना चाहिए। यह अबुध और अज्ञानी को बोध देने वाली सूक्ष्म चिकित्सा है। 1388. रोगी के पूछने पर मुनि कहता है- 'मैं भी इस दुःख अथवा रोग से ग्रस्त था, अमुक औषधि से मैं रोगमुक्त हो गया। हम मुनि सहसा समुत्पन्न रोग का निवारण तेले आदि की तपस्या से करते हैं।' 1389. यह द्वितीय चिकित्सा का प्रकार है। ये दो सूक्ष्म-चिकित्सा के प्रकार हैं। बादर चिकित्सा में मुनि स्वयं ही वैद्य बनकर चिकित्सा करता है। 1390. आगंतुक अथवा धातुक्षोभज रोग के समुत्पन्न होने पर मुनि जो क्रिया करता है, वह इस प्रकार है-पहले पेट का संशोधन करता है फिर पित्त आदि का उपशमन करता है, तदनन्तर रोग के कारण का परिहार करता है। (यह तीसरे प्रकार की चिकित्सा है।) 1391. असंयत की चिकित्सा करने पर तथा सूक्ष्म चिकित्सा-क्रिया करने पर अनेकविध दोष उत्पन्न होते हैं। 1392. चिकित्सा-क्रिया में असंयम योगों का सतत प्रवर्तन होता है क्योंकि गृहस्थ तप्त लोहे के गोले के समान होता है। (गृहस्थ यावज्जीवन षड्जीवनिकाय के घात में प्रवर्तित होता है अतः उसकी चिकित्सा सतत असंयमयोगों का कारण बनती है)। इस प्रकरण में दुर्बल व्याघ्र का दृष्टान्त जानना चाहिए। यदि चिकित्सा करने पर भी रोग अत्युग्र हो जाता है तो गृहस्थ उसका निग्रह करता है, जिससे प्रवचन की निंदा होती है। 1. चिकित्सापिण्ड के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 96, 97 / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.४२। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 जीतकल्प सभाष्य 1393. इन दोषों के कारण साधु को गृहस्थ की चिकित्सा नहीं करनी चाहिए। मैंने चिकित्सापिण्ड का वर्णन किया, अब क्रोधपिण्ड आदि के बारे में कहूंगा। 1394. क्रोधपिण्ड आदि के संक्षेप में क्रमशः ये उदाहरण हैं -1. हस्तकल्प नगर (घेवर), 2. गिरिपुष्पित नगर (सेवई), 3. राजगृह (मोदक), 4. चम्पा (केशरिया मोदक)।' 1395, 1396. हस्तकल्प नगर में मृतकभोज के अन्तर्गत क्षपक का दृष्टान्त है। कौशल देश के गिरिपुष्पित नगर के वनकोष्ठक चैत्य में साधु आपस में वार्तालाप करने लगे कि आज प्रातः साधुओं के लिए सेवई लेकर कौन आएगा? एक क्षुल्लक साधु बोला-'मैं सेवई लेकर आऊंगा।'३ 1397. साधुओं ने कहा-'सेवई घृत और गुड़ से संयुक्त होनी चाहिए।' क्षुल्लक ने कहा-'जैसी आज्ञा दोगे, वैसी सेवई लेकर आऊंगा।' सेवई के लिए उस क्षुल्लक ने श्वेताङ्गलि आदि के उदाहरण से सेवई देने वाले को समझाया। 1398. राजगृह नगर में धर्मरुचि नामक आचार्य के आषाढ़भूति नामक छोटा शिष्य था। एक बार वह भिक्षार्थ राज-नट के घर में प्रविष्ट हुआ। वहां उसे मोदक प्राप्त हुए। 1399. आचार्य, उपाध्याय, संघाटक साधु तथा स्वयं के लिए लड्ड प्राप्त करने के लिए उसने काने मुनि, कुष्ठ रोगी एवं कुब्ज आदि का रूप बनाकर बार-बार नट के घर में प्रवेश किया। 1400. ऊपर माले में बैठे हुए नट ने यह दृश्य देखा तो उस बुद्धिमान् नट ने अच्छी तरह सोचा कि नट इसके जैसा होना चाहिए अतः उपायपूर्वक इसे ग्रहण करना चाहिए। 1401. उसके दिमाग में एक उपाय आया कि मुनि को बुलाकर उन्हें बहुत मोदक दूंगा। उसने मुनि से कहा-'जब भी प्रयोजन हो, आप प्रतिदिन यहां आया करें।' 1402. नट ने अपनी दोनों कन्याओं को समझाया-'इनके साथ हास्य, क्रीड़ा, परिहास और स्पर्श आदि क्रियाएं करो, जिससे यह शीघ्र ही चारित्र से भ्रष्ट हो जाए।' 1403. यदि यह तुम दोनों का नाम ले या तुम्हारे प्रति आकृष्ट हो तो तुम कहना कि प्रव्रज्या का त्याग कर दो। दोनों कन्याओं ने वैसा ही किया, जिससे मुनि का मन क्षुभित हो गया। कन्याओं ने कहा-'इस 1. मूलाचार (गा. 454) में मान, माया और लोभ से सम्बन्धित नगरों के नामों में अंतर है। मान से सम्बन्धित वेणातट, माया से सम्बन्धित वाराणसी तथा लोभ से सम्बन्धित राशियान नगर का उल्लेख है। मूलाचार में खाद्य पदार्थ के नामों का निर्देश नहीं है। 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 43 / 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 44 / 4. साधु ने उसके समक्ष छह प्रकार के अधम पुरुषों के बारे में बताया, वे नाम इस प्रकार हैं -1. श्वेताङ्गलि 2. बकोड्डायक 3. किंकर 4. स्नायक 5. गृध्रइवरिंखी 6. हदज्ञ / इनके विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति का परि. 2 कथा सं. 31-36 पृ. सं. 252-54 / 5. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2. कथा सं.४५। Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 417 रजोहरण और साधु लिंग को छोड़ दो।' 1404. गुरु से कहकर लिंग को छोड़कर वह वहां आ गया। उसने अपनी दोनों पुत्रियों के साथ उसकी शादी कर दी और कहा -'यह उत्तम प्रकृति का है अतः इसके साथ यत्नपूर्वक व्यवहार करना है।' 1405. राजगृह में राजा द्वारा एक दिन बिना महिलाओं (नटनियों) के नाटक का आदेश हुआ। एकान्त में वे दोनों नटकन्याएं मदोन्मत्त होकर घर के ऊपरी मंजिल में जाकर सो गईं। 1406. व्याघात होने के कारण नाटक नहीं हुआ। आषाढ़भूति ने घर में प्रवेश करके दोनों पत्नियों को निर्वस्त्र देखा। उन्हें देखकर उसे वैराग्य हो गया। वह आचार्य गुरु के पास जाने के लिए प्रस्थित हुआ। नट ने उसे देख लिया। 1407. नट ने इंगित से उसकी विरक्ति को जान लिया। अपनी दोनों पुत्रियों को उसने कड़े शब्दों में उपालम्भ देते हुए आषाढ़भूति के पास आजीविका की मांग हेतु भेजा। मैं आजीविका जितना धन दूंगा' यह स्वीकृति देकर उसने कुसुमपुर नगर में 'राष्ट्रपाल' नाटक का मंचन किया। 1408. लोगों ने कड़े आदि आभूषण तथा धन का दान किया। नाटक करते हुए उसे बहुत धन की प्राप्ति हुई। नाटक में उसने भरत की ऋद्धि आदि का भी प्रदर्शन किया। 1409. नाटक में इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न भरत को आदर्शगृह में कैवल्य का आलोक प्राप्त हुआ, यह दृश्य दिखाया गया। लोगों ने उसको रोका कि तुम पुनः प्रव्रज्या मत लो। उसने कहा-'क्या राजा भरत वापस लौटा था?' 1410, 1411. आषाढ़भूति ने कहा-"तुम ऐसा मत कहो। यदि मैं लौटता हूं तो विडम्बना होगी।" उसके साथ पांच सौ क्षत्रिय राजकुमार भी प्रव्रजित हो गए। (इस नाटक से पृथ्वी क्षत्रिय रहित हो जाएगी अतः) लोगों ने उस नाटक को जला दिया। इस प्रकार का मायापिण्ड साधु के लिए कल्प्य नहीं है लेकिन कारण उपस्थित होने पर ग्लान, क्षपक, अतिथि साधु अथवा स्थविर आदि के लिए मायापिण्ड ग्रहण करना * कल्पनीय है। 1412. मायापिण्ड का कथन कर दिया, अब मैं लोभपिण्ड के बारे में कहूंगा। वह क्रोधपिण्ड आदि में सर्वत्र उपस्थित रहता है अथवा लोभपिण्ड इस प्रकार है१४१३. 'आज मैं अमुक द्रव्य (मोदक आदि) ही ग्रहण करूंगा'-इस संकल्प के कारण वह सहज प्राप्त होने वाले अन्य द्रव्य को ग्रहण नहीं करता, यह लोभपिण्ड है। अथवा स्निग्ध पदार्थ को भद्रकरस युक्त जानकर उसको प्रचुर मात्रा में ग्रहण करना भी लोभपिण्ड है। 1414. लोभपिण्ड का उदाहरण इस प्रकार है। चम्पा नगरी में उत्सव के समय किसी साधु ने यह अभिग्रह ग्रहण किया कि मैं आज सिंहकेशरक मोदक ग्रहण करूंगा। 1415. भिक्षार्थ प्रविष्ट उस मुनि ने अन्य वस्तुओं की प्राप्ति होने पर भी उनका निषेध कर दिया। 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2. कथा सं.४६ / Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 जीतकल्प सभाष्य सिंहकेशरक मोदक की प्राप्ति न होने पर वह भाव से संक्लिष्ट हो गया। 1416. सिंहकेशरकमय चित्त होने से वह असामान्य हो गया इसलिए वह 'धर्मलाभ' के स्थान पर 'सिंहकेशरक' शब्द का उच्चारण करने लगा। सूर्यास्त होने पर भी वह घरों में घूमता रहा। 1417. श्रावक के घर अर्ध रात्रि में उसने 'सिंहकेशरक' शब्द का उच्चारण किया। श्रावक ने सिंहकेशरक मोदकों से पात्र भर दिया। श्रावक ने मुनि से पूछा-'पुरिमार्ध का काल आ गया क्या?' मुनि ने उपयोग लगाया। आकाश में चांद की ज्योत्स्ना देखकर मुनि का मन शान्त हो गया। मुनि ने कहा-'तुमने मुझे समय पर सही प्रेरणा दी।' मुनि ने मोदकों का परिष्ठापन किया। प्रायश्चित्त करते हुए उसे केवलज्ञान हो गया। . 1418. क्रोध आदि के क्रमशः ये उदाहरण कहे गए हैं, अब मैं इनके सम्बन्ध में प्रायश्चित्त-दान के बारे में कहूंगा। 1419. क्रोधपिण्ड और मानपिण्ड ग्रहण करने पर चतुर्लघु, मायापिण्ड ग्रहण करने पर गुरुमास, जिनका तप रूप प्रायश्चित्त क्रमशः आयम्बिल और एकासन होता है। 1420. लोभपिण्ड ग्रहण करने पर चतुर्गुरु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त उपवास होता है। संस्तवन, संस्तव, स्तवना और वंदना-ये सब एकार्थक हैं। 1421. संस्तव दो प्रकार का होता है -सम्बन्धी संस्तव और वचन संस्तव। इन दोनों के भी दो-दो भेद जानने चाहिए ---पूर्व सम्बन्धी संस्तव और पश्चात् सम्बन्धी संस्तव, पूर्व वचन संस्तव तथा पश्चाद् वचन संस्तव। 1422. स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध होने से पूर्व सम्बन्धी संस्तव दो प्रकार का होता है। इसी प्रकार पश्चात् सम्बन्धी संस्तव के भी स्त्री और पुरुष दो भेद हैं। अब मैं इनके प्रायश्चित्त के बारे में कहूंगा। 1423. स्त्री सम्बन्धी संस्तव होने पर चतुर्लघु तथा पुरुष सम्बन्धी संस्तव होने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त क्रमशः उपवास और आयम्बिल होता है। 1424. स्त्री और पुरुष-इन दो से सम्बन्धित होने के कारण पूर्व वचन संस्तव के दो भेद होते हैं। इसी प्रकार पश्चाद् वचन संस्तव के भी दो भेद होते हैं। अब मैं इनके प्रायश्चित्त के बारे में कहूंगा। 1425. स्त्री सम्बन्धी वचन संस्तव करके आहार लेने पर गुरुमास प्रायश्चित्त, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त एकासन होता है। पुरुष सम्बन्धी वचन संस्तव करके आहार ग्रहण करने पर लघुमास, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध प्राप्त होता है। 1426. पूर्व सम्बन्धी संस्तव में माता-पिता आदि को जानना चाहिए। पश्चात् सम्बन्धी संस्तव में सास और श्वसर का सम्बन्ध होता है। 1427. भिक्षार्थ गया हुआ मुनि अपनी वय तथा गृहिणी की वय जानकर तदनुरूप संबंध स्थापित करते हुए कहता है कि मेरी माता ऐसी ही थी अथवा मेरी बहिन, बेटी या पौत्री भी ऐसी ही थी। 1428. भिक्षार्थ प्रविष्ट मुनि स्त्री को देखकर अधृतिपूर्वक अश्रुविमोचन करते हुए कहता है-'मेरी माता Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 419 तुम्हारे जैी थी।' वह स्त्री मुनि के मुख में स्तन-प्रक्षेप करती है, जिससे दोनों के मध्य स्नेह-सम्बन्ध हो जाता है। वह अपनी विधवा पुत्रवधू का दान भी कर सकती है। 1429. इसी प्रकार पिता, भ्राता आदि का सम्बन्ध पूर्व संस्तव है तथा सास-ससुर आदि का सम्बन्ध पश्चात् संस्तव है। अधृतिपूर्वक अश्रुविमोचन तथा पृच्छा आदि स्त्री संस्तव की भांति जानना चाहिए। 1430. पश्चात्संस्तव के ये दोष हैं -सास अपनी विधवा पुत्री का दान कर सकती है। 'मेरी भार्या ऐसी ही थी' ऐसा कहने पर उसका पति मुनि का सद्यः घात कर सकता है अथवा स्त्री द्वारा भार्यावत् आचरण करने पर (चित्त-विक्षोभ से) मुनि का व्रत-भंग भी हो सकता है। 1431. यह सम्बन्धी संस्तव का वर्णन है, अब मैं वचन सम्बन्धी संस्तव का वर्णन करूंगा। दाता का भिक्षा से पूर्व या पश्चात् संस्तव करना वचन संस्तव है। 1432. दाता द्वारा भक्तपान देने से पहले ही जो मुनि उसके सद्-असद् गुणों की प्रशंसा करता है, वह वचन संबंधी पूर्वसंस्तव है। 1433. मुनि कहता है-'यह वह है, जिसके गुण दसों दिशाओं में निर्बन्ध घूमते हैं। इतने दिन तुम्हारे बारे में हम ऐसा सुनते थे, आज प्रत्यक्ष तुमको देखा है।' 1434. दाता द्वारा भक्तपान देने पर मुनि उसके सद्-असद् गुणों की प्रशंसा करता है, वह पश्चात्संस्तव कहलाता है। 1435. तुम्हारे गुण यथार्थ रूप में सर्वत्र प्रचलित हैं। तुम्हें देखकर मेरे चक्षु विमल हो गए। पहले मुझे तुम्हारे गुणों के बारे में शंका थी, अब तुम्हें देखकर मेरा मन निःशंक हो गया है। 1436. यहां भी भद्रक और प्रान्त दोष पूर्ववत् जानने चाहिए। (देखें गाथा 1430 का अनुवाद) संस्तव दोष का वर्णन कर दिया, अब मैं विद्या और मंत्र के बारे में कहूंगा। 1437. विद्या और मंत्र का प्रयोग करके आहार ग्रहण करने पर चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल प्राप्त होता है। अब मैं विद्या और मंत्र में क्या अंतर है, इसका वर्णन करूंगा। 1438. विद्या और मंत्र में यह अंतर है कि विद्या का सम्बन्ध स्त्री देवता तथा मंत्र पुरुष देवता से सम्बन्धित होता है अथवा जिसको सिद्ध किया जाए, वह विद्या तथा जो उच्चारण मात्र से सिद्ध हो जाए, वह मंत्र कहलाता है। 1439, 1440. विद्या में भिक्षु-उपासक का उदाहरण है। साधु एकत्रित होकर इस प्रकार संलाप करने लगे-'यह भिक्षु उपासक श्रावक अत्यन्त कंजूस है, यह साधुओं को कुछ नहीं देता है।' उनमें से एक साधु बोला-'यदि आप लोगों की इच्छा हो तो मैं विद्या प्रयोग के द्वारा उससे घृत, गुड़ तथा वस्त्र आदि दिला सकता हूं।" 1. गहिणी मुनि को कहती है कि आप मुझे अपनी मां ही समझ लें, इस प्रकार मातृत्व प्रकट करना स्तेन-प्रक्षेप है। 2. मंत्र और विद्या से सम्बन्धित दोष के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ.१००। 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 47 / Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 जीतकल्प सभाष्य 1441, 1442. साधुओं ने कहा-'हम तुम्हारी शक्ति देखेंगे।' वह विद्या से अभिमंत्रित होकर वहां गया और भिक्षु उपासक को कहा-'तुम क्या दोगे?' साधु के द्वारा पूछने पर उसने घृत, गुड़, वस्त्र आदि दिए। मुनि ने विद्या का संहरण किया। अन्य लोगों ने भिक्षु उपासक को कहा-'तुमने भक्त-पान आदि कैसे दिया?' तब वह रुष्ट होकर बोला-'किसने मेरी वस्तु चुराई तथा किसके द्वारा मैं ठगा गया हूं?' 1443. विद्या से अभिमंत्रित वह व्यक्ति अथवा अन्य कोई व्यक्ति स्तम्भन आदि प्रतिविद्या से मुनि का अनिष्ट कर सकता है। लोगों में यह अपवाद होता है कि ये मुनि पापजीवी, मायावी तथा कार्मणकारी हैं। इस अपवाद से उनका राजपुरुषों द्वारा निग्रह अथवा अनिष्ट भी हो सकता है। 1444. मंत्र में पाटलिपुत्र के मुरुंड राजा का उदाहरण है। शीर्ष वेदना उत्पन्न होने पर उन्होंने पादलिप्त आचार्य को कहा। उन्होंने स्पर्श किया। 1445. जैसे-जैसे पादलिप्त आचार्य ने घुटने पर प्रदेशिनी अंगुलि को घुमाया, वैसे-वैसें मुरुंड राजा की शीर्ष-वेदना समाप्त हो गई। 1446. मंत्र से अभिमंत्रित करके कोई मुनि विद्या-प्रयोग की भांति किसी को वस्तु दिलाता है या देता है तो वहां भी वे ही दोष होते हैं। प्रतिमंत्र आदि के दोष इस प्रकार हैं१४४७. मंत्र से अभिमंत्रित वह व्यक्ति अथवा अन्य कोई व्यक्ति प्रतिमंत्र से साधु को स्तम्भित कर सकता है। (लोगों में यह अपवाद होता है कि) ये साधु पापजीवी, मायावी और कार्मणकारी हैं। राजपुरुष उसका. निग्रह आदि कर सकते हैं। 1448. विद्यापिण्ड और मंत्रपिण्ड के बारे में वर्णन किया, अब मैं चूर्णपिण्ड और योगपिण्ड के बारे में कहूंगा। अन्तर्धान करने वाले अञ्जन आदि तथा वशीकरण करने वाले चूर्ण हैं। 1449. चूर्णपिण्ड और योगपिण्ड ग्रहण करने पर चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल प्राप्त होता है। अब मैं इन दोनों के उदाहरण कहंगा।। 1450. चूर्णयोग में कुसुमपुर के किसी आचार्य का दृष्टान्त है। जंघाबल क्षीण होने से दुर्भिक्ष में उन्होंने एकान्त में अपने शिष्य को चूर्णयोग तथा अदृश्य होने की विद्या के बारे में वाचना दी। प्रच्छन्न रूप से दो क्षुल्लक मुनियों ने अदृश्य होने की विद्या सुनी। उनमें से एक क्षुल्लक ने वह विद्या ग्रहण कर ली। 1451, 1452. दुर्भिक्ष होने के कारण गुरु ने सभी शिष्यों को देशान्तर में भेज दिया लेकिन वे दोनों क्षुल्लक मुनि गुरु के पास पुनः लौट आए। आचार्य ने कहा-'तुमने लौटकर अच्छा कार्य नहीं किया।' 1453, 1454. दुर्भिक्ष में भिक्षा की कमी होने पर भी आचार्य क्षुल्लकद्वय को बांटकर आहार करते थे। इस दुर्भिक्ष में गुरु के लिए क्या करें? दोनों क्षुल्लक मुनियों ने इस विषय में चिन्तन किया। उन्होंने सोचा १.कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 48 / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 49 / Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 421 कि हम अदृश्य होने का प्रयोग करेंगे। उन्होंने द्रव्यों का मेल करके आंखों में उस चूर्ण को आंज लिया। क्षुल्लकद्वय अदृश्य होकर राजा चन्द्रगुप्त के साथ भोजन करने लगे। ऊणोदरी के कारण चन्द्रगुप्त को दुर्बलता का अनुभव होने लगा। 1455. चाणक्य ने कारण पूछा। उसने ईंट का बारीक चूर्ण सब जगह फैला दिया और द्वार बंद करके चारों ओर धुंआ कर दिया। क्षुल्लकद्वय को देखकर चन्द्रगुप्त ने जुगुप्सा की। चाणक्य ने उनकी प्रशंसा की। समीप जाने पर आचार्य ने चाणक्य को उपालम्भ दिया। 1456. इस प्रकार वशीकरण आदि के प्रयोग में चूर्ण द्वारा दूसरों को वशीकृत करके पिण्ड का उत्पादन करना चूर्णपिण्ड कहलाता है। 1457. मंत्र और विद्या के संदर्भ में जो दोष बतलाए गए हैं, वे ही दोष वशीकरण आदि चूर्ण में जानने चाहिए। मुनि द्वारा कृत चूर्ण-प्रयोग एक अथवा अनेक मुनियों के प्रति प्रद्वेष उत्पन्न कर देता है तथा उनका नाश भी कर सकता है। 1458. चूर्णपिण्ड के बारे में वर्णन कर दिया, अब मैं योगपिण्ड के बारे में कहूंगा। योग अनेक प्रकार के होते हैं, उनका मैं वर्णन करूंगा। 1459. सौभाग्यकर और दुर्भाग्यकर योग दो-दो प्रकार के हैं -आहार्य तथा अनाहार्य। आहार्य के दो प्रकार हैं-आघर्ष तथा धूपवास / अनाहार्य है-पादप्रलेपन आदि। 1460. यहां योगपिण्ड का यह उदाहरण कहा। अब अनाहार्य पादलेप योग में आभीर जनपद का उदाहरण है, जहां तापसों ने जो किया, उसे तुम सुनो। 1461. कृष्णा और वेणा नदी के मध्य (ब्रह्म नामक) द्वीप में पांच सौ तापस रहते थे। पर्व दिनों में कलपति पाद-लेप करके कृष्णा नदी को पार करता था। 1462. पादुका को पहनकर वह कुलपति पानी के ऊपर चलकर नदी पार करके नगर में जाता था। आकृष्ट होकर लोग उसकी पूजा करते और कहते कि ये प्रत्यक्ष देव रूप हैं। 1463. श्रावकों के समक्ष लोग निंदा करते थे। श्रावकों ने यह बात वज्रस्वामी के मामा आचार्य समित को निवेदित की। 1464. आचार्य समित ने कहा-'वह मायापूर्वक पादलेप करके नदी पार करता है।' तुम लोग वहां जाओ और नदी पार करने के पश्चात् घर ले जाकर गर्म पानी से उनके पैर प्रक्षालित कर दो। 1. जो पानी आदि के साथ पीए जाते हैं, वे आहार्य योग हैं। इनके दो प्रकार है-आघर्ष अर्थात् पानी आदि के साथ घिसकर लिया जाने वाला द्रव्य तथा धूपवास-सुगंधित द्रव्यों की धूप। चूर्ण और वास दोनों ही क्षोद रूप में होते हैं। टीकाकार इनका भेद स्पष्ट करते हए कहते हैं कि सामान्य द्रव्यों से निष्पन्न शष्क अथवा आर्द्र क्षोद 'चूर्ण' कहलाता है। सुगन्धित द्रव्यों से निष्पन्न अत्यंत सूक्ष्म रूप में पीसा हुआ क्षोद 'वास' कहलाता है। १.पिनिमटी प.१४३। / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2. कथा सं.५०। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 जीतकल्प सभाष्य 1465. श्रावक कुलपति को अपने घर ले गए। बिना इच्छा के बलपूर्वक उनके पैर यह कहते हुए धो दिए कि लोग इस परम्परा को नहीं जानते कि विनयपूर्वक दिया गया दान महान् फल वाला होता है। 1466. भिक्षा लेकर जब वह जाने लगा तो लेप न होने के कारण नदी में डूबने लगा। आचार्य समित ने . जब नदी को पार किया तो नदी के दोनों किनारे मिल गए। यह देखकर पांच सौ तापस विस्मित हो गए। कुलपति सहित सभी तापस आर्य समित के पास प्रव्रजित हो गए। वह समूह ब्रह्मशाखा' के रूप में प्रसिद्ध हुआ। 1467. इस प्रकार इन योगों का प्रयोग करके जो पिण्ड की एषणा करता है, वह मुनि के लिए कल्प्य नहीं है। अब मैं मूलकर्म के बारे में कहूंगा। 1468. मूलकर्म' दो प्रकार का होता है-गर्भाधान और गर्भ-परिशाटन-दोनों प्रकार के मूलकर्म के प्रयोग में मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1469. गर्भाधान में अधिकरण, प्रतिबन्ध तथा दोषारोपण आदि दोष होते हैं। गर्भ-परिशाटन में प्राणवध, दोषारोपण, शत्रुता तथा लोक में अपकीर्ति आदि दोष होते हैं। 1470. मूलकर्म से उत्पादित पिण्ड साधु के लिए कल्प्य नहीं होता। उत्पादना के दोषों का वर्णन किया। गवेषणा के दोषों का वर्णन सम्पन्न हो गया। 1471. इस प्रकार उद्गम-उत्पादना के दोषों से विशुद्ध तथा ग्रहण-विशोधि से विशुद्ध गवेषित पिंड का ग्रहण होता है। 1472. उद्गम के दोष गृहस्थ से, उत्पादना के दोष साधु से तथा ग्रहणैषणा के दोष दोनों-गृहस्थ और साधु से समुत्थ होते हैं। 1473. शंकित तथा भावतः अपरिणत-ग्रहणैषणा के ये दो दोष साधु-समुत्थित होते हैं। शेष आठ दोष नियमतः गृहस्थों से उत्पन्न जानने चाहिए। 1. कृष्णा और वेणा नदी के संगमस्थल पर ब्रह्मद्वीप नामक द्वीप था। वहां कुलपति सहित पांच सौ तापस रहते थे। वे आचार्य वज्र के मामा आर्य समित के पास दीक्षित हुए। ब्रह्मद्वीप में रहने के कारण उनकी प्रसिद्धि ब्रह्मद्वीपक शाखा के रूप में हो गई। पज्जोसवणाकप्प' से भी इस बात की सिद्धि होती है. कि आर्य समित से ब्रह्मद्वीपक शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। ब्रह्मदीपक शाखा का उल्लेख नंदी सत्र में भी मिलता है. जिसमें प्रवजित होने वाले सिंह मुनि उत्तम वाचक पद से विभूषित हुए। 1. निचू 3 पृ. 426; ततो य बंभद्दीवा साहा संवुत्ता। 2. पज्जो 215; थेरेहिंतोणं अज्जसमिएहितो, एत्थ णं बंभद्दीविया साहा निग्गया। 3. नंदी 1/32 / २.पिण्डनियुक्ति के अनुसार किसी के कौमार्य को क्षत करना, इसके विपरीत किसी दूसरे में योनि का निवेशन करना अर्थात् अक्षत करके उसे भोग भोगने योग्य बना देना मूलकर्म है।' १.पिनि 231/5 ; अवि य कुमारखयं, जोणी विवरिट्ठा निवेसणं वावि। गम्मपए पायं वा, जो कुव्वति मूलकम्मं तु॥ 3. मूलकर्म के विस्तार हेतु देखें पिनि 231/5-232 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 101-03 / Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 423 1474. ग्रहणैषणा चार प्रकार की होती है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्रव्य ग्रहणैषणा में वानरयूथ का दृष्टान्त विस्तार से कहना चाहिए।' 1475. द्रव्य ग्रहणैषणा के बारे में वर्णन कर दिया, अब मैं भाव ग्रहणैषणा के बारे में कहूंगा। यह शंकित आदि दश पदों की शुद्धि से शुद्ध होता है। 1476. एषणा के दस दोष होते हैं१. शंकित ६.दायक 2. म्रक्षित 7. उन्मिश्र ३.निक्षिप्त 8. अपरिणत . 4. पिहित 9. लिप्त 5. संहृत 10. छर्दित। 1477-79. शंकित के चार विकल्प हैं * ग्रहण में शंकित- भोजन में शंकित। * ग्रहण में शंकित - भोजन में नहीं। * भोजन में शंकित - ग्रहण में नहीं। * न ग्रहण में शंकित और न भोजन में शंकित। शंका कैसे होती है? (यह पूछने पर आचार्य कहते हैं-) भिक्षा के लिए प्रविष्ट मुनि प्रचुर भिक्षा-सामग्री को देखकर भी लज्जावश पूछताछ करने में समर्थ नहीं होता। वह शंकित होकर भिक्षा ग्रहण करता है और शंकित अवस्था में ही उसका उपभोग करता है। (यह प्रथम विकल्प है।) .1480. मुनि ने शंकित हृदय से भिक्षा ग्रहण की। दूसरे मुनि ने गुरु के समक्ष आलोचना करते हुए यह कहा कि यह भोजन प्रकरणवश किसी अतिथि आदि के लिए बनाया हुआ था अथवा यह प्रहेणक-किसी अन्य घर से आई हुई भोजन सामग्री थी। यह सुनकर मुनि ने निःशंकित होकर उस भिक्षा का उपभोग किया। (यह चतुर्भगी का दूसरा विकल्प है।) 1481. तृतीय भंग में मुनि आहार को निःशंक रूप में ग्रहण करता है लेकिन अन्य साधु को आचार्य के समक्ष आलोचना के समय वैसी ही वस्तु को देखकर उसके मन में शंका हो जाती है कि अमुक घर में मैंने जैसी भिक्षा ग्रहण की थी, वैसी ही इस मुनि के पास है अतः यह दोषदुष्ट होनी चाहिए। 1482. इन साधुओं ने इस प्रकार की महती भिक्षा प्राप्त की है तो मुझे भी क्यों नहीं प्राप्त हो सकती, इस प्रकार निःशंकित होकर साधु भिक्षा ग्रहण करता है और नि:शंकित होकर ही उसका भोग करता है (यह चतुभंगी का चौथा भंग है)। 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.५१। २.शंकित आदि दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि भूमिका, पृ.१०४। Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 जीतकल्प सभाष्य 1483. शंकित की चतुर्भंगी में प्रथम दोनों-ग्रहण और भोजन में शंकित होता है, दूसरा ग्रहण में शंकित भोजन में नहीं, तृतीय भोजन में शंकित होता है, ग्रहण में नहीं, चरम भंग ग्रहण और भोजन में निःशंकित होने के कारण शुद्ध है। (सोलह उद्गम तथा नौ एषणा) इन पच्चीस दोषों में जिस दोष से शंकित होता है, वह उसी दोष से सम्बद्ध होता है। 1484. छद्मस्थ श्रुतज्ञानी उपयुक्त होकर ऋजुता से प्रयत्नपूर्वक गवेषणा करता है। वह पच्चीस दोषों में से किसी एक दोष से अशुद्ध आहार ग्रहण करने पर भी शुद्ध है क्योंकि श्रुतज्ञान प्रमाण से वह शुद्ध है। 1485. सामान्यतः श्रुतोपयुक्त श्रुतज्ञानी मुनि यदि अशुद्ध आहार ग्रहण करता है, फिर भी उसको केवलज्ञानी खाता है, अन्यथा श्रुतज्ञान अप्रमाण हो जाता है। 1486. सूत्र का अप्रामाण्य होने पर चारित्र का अभाव हो जाएगा, चारित्र का अभाव होने पर मोक्ष का अभाव हो जाएगा और मोक्ष के अभाव में दीक्षा की प्रवृत्ति निरर्थक हो जाएगी। 1487. उद्गम के सोलह दोष तथा शंका को छोड़कर एषणा के नौ दोष-ये पच्चीस दोष शंकित हो सकते हैं। 1488. (शिष्य प्रश्न पूछता है-) यदि शंका दोषकरी है तो शुद्ध भिक्षा के प्रति भी शंका होने पर वह अशुद्ध हो जाएगी तथा नि:शंकित रूप में एषणा करने पर अनेषणीय भी निर्दोष हो जाएगी। 1489. वह शंकाग्रस्त होकर कहता है कि एक पक्षीय अध्यवसाय अशुद्ध होता है। वह एषणीय को अनेषणीय बना देता है तथा विशुद्ध अध्यवसाय अनेषणीय को भी एषणीय बना देता है। 1490. इसलिए मुनि को नि:शंक होकर भोजन करना चाहिए। शंकित द्वार का वर्णन कर दिया, अब मैं मेक्षित दोष के बारे में कहूंगा। मेक्षित का अर्थ है -किसी सचित्त या अचित्त द्रव्य से संसक्त। 1491. म्रक्षित दोष के दो भेद हैं –सचित्त और अचित्त। सचित्त म्रक्षित तीन प्रकार का है-पृथ्वीकाय मेक्षित, अप्काय म्रक्षित तथा वनस्पतिकाय म्रक्षित।। 1492. शुष्क सरजस्क पृथ्वी से लिप्त हाथ और पात्र से भिक्षा ग्रहण करने पर पणग (पांच दिन-रात), जिसका तप रूप प्रायश्चित्त निर्विगय प्राप्त होता है। 1. उदाहरण स्वरूप यदि आधाकर्म दोष में शंका उत्पन्न हुई है तो उस आहार को ग्रहण करता हुआ या भोगता हुआ मुनि आधाकर्म दोष से सम्बद्ध होता है। १.पिनिमटीप.१४७;षोडशोद्मदोषनवैषणादोषरूपाणां पंचविंशतिदोषाणांमध्ये येन दोषेणशतिं-सम्भावितमापन: वर्तते तेन दोषेण सम्बद्धः। 2. टीकाकार इस गाथा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि आगमोक्त विधि से शुद्ध गवेषणा से प्राप्त अशुद्ध आहार भी शुद्ध होता है क्योंकि व्यवहार में श्रुतज्ञान ही प्रमाण होता है।' १.पिनिमटी प.१४८। ३.दिन में एक बार खाना, जिसमें दूध, दही आदि विकृति न खाकर छाछ, रोटी, चना आदि का भोग करना निर्विगय है। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 425 1493. कर्दम मिश्रित पृथ्वी से म्रक्षित हाथ या पात्र से भिक्षा ग्रहण करने पर लघुमास तथा शुष्क पृथ्वीकाय से प्रक्षित हाथ से भिक्षा लेने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त क्रमशः पुरिमार्ध और आयम्बिल होता है। 1494. मेक्षित दोष के चार प्रकार हैं-१. सस्निग्ध प्रक्षित 2. उदकाई म्रक्षित 3. पुरःकर्म मेक्षित 4. पश्चात्कर्म मेक्षित। वनस्पतिकाय में उक्कुट्ठ-वनस्पति के श्लक्ष्ण खंड, पिट्ठ-तण्डुल आदि का आटा तथा कुक्कुस-धान्य आदि के छिलके से युक्त हाथ या पात्र को जानना चाहिए। 1495, 1496. सस्निग्ध हाथ या पात्र से भिक्षा लेने पर पणग-निर्विगय, उदका से लेने पर लघुमास (पुरिमार्ध), पुर:कर्म और पश्चात्कर्म से युक्त हाथ या पात्र से भिक्षा लेने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। चतुर्लघु में तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल की प्राप्ति होती है। अब मैं वनस्पतिकाय म्रक्षित के बारे में कहूंगा। 1497. वनस्पति के श्लक्ष्ण खंड, चावल का आटा आदि प्रत्येक वनस्पति से प्रक्षित हाथ या पात्र से भिक्षा लेने पर लघुमास, जिसका तप रूप में प्रायश्चित्त पुरिमार्ध प्राप्त होता है। 1498. इसी प्रकार अनंत वनस्पति से मेक्षित हाथ या पात्र से भिक्षा ग्रहण करने पर गुरुमास, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त एकासन' होता है। 1499. शाक, रसयुक्त वनस्पति, वनस्पति के श्लक्ष्ण खंड, जो प्रत्येक या अनंतकाय वनस्पति के हो सकते हैं, इनका छेदन करने वाले के हाथ वनस्पतिकाय म्रक्षित होते हैं। 1500. शेष तीनों काय-तेजस्, वायु और बस के सचित्त रूप और मिश्ररूप म्रक्षित नहीं होता। / 1501, 1502. सचित्त म्रक्षित हाथ और पात्र की चतुर्भगी इस प्रकार है * हस्त म्रक्षित तथा पात्र मेक्षित। * हस्त म्रक्षित, पात्र नहीं। * पात्र मेक्षित, हस्त नहीं। * न हस्त म्रक्षित और न पात्र मेक्षित। प्रथम तीन विकल्प प्रतिषिद्ध हैं, चौथा विकल्प अनुज्ञात है। 1503. अचित्त म्रक्षित दो प्रकार का होता है -गर्हित द्रव्य तथा अगर्हित द्रव्य। गर्हित द्रव्य दो प्रकार के होते हैं-१. लौकिक गर्हित 2. उभयलोक गर्हित। 1504. मांस, चर्बी, शोणित, मदिरा, लहसुन आदि पदार्थ इस लोक में गर्हित हैं। मूत्र, मल आदि उभय लोक-लौकिक और लोकोत्तर में गर्हित हैं। 1505. दोनों प्रकार के गर्हित से म्रक्षित हाथ या पात्र से भिक्षा ग्रहण करने पर चतुर्लघु , जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। अब मैं आगे अगर्हित के बारे में कहूंगा। . १.दिन में एक स्थान पर एक आसन में बैठकर एक बार भोजन करना एकासन है। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 जीतकल्प सभाष्य 1506. अगर्हित म्रक्षित दो प्रकार का होता है-आर्द्र ओदन, गोरस-घृत, तैल आदि से संसक्त तथा असंसक्त। 1507. अचित्त म्रक्षित के चारों भंगों में आहार ग्रहण की भजना होती है। (देखें गा. 1501, 1502 का .. अनुवाद) अगर्हित में आहार ग्रहण कल्प्य है, गर्हित में प्रतिषिद्ध है। 1508. जीवों से संसक्त, अगर्हित गोरसद्रव तथा मधु, घृत, तैल, गुड़ आदि से खरंटित हाथ या पात्र से दी जाने वाली भिक्षा भी वर्ण्य है, इसका कारण है कि मक्षिका, पिपीलिका आदि की हिंसा न हो। 1509. गोरस अथवा घृत, तैल, गुड़ और चींटी आदि जीवों से संसक्त हाथ या पात्र से भिक्षा ग्रहण करने पर चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल प्राप्त होता है। 1510. मद्य, मांस, वसा आदि से मेक्षित अर्थात् बहुत पुरानी, बासी आदि वस्तु का भी लौकिक गर्हित में / ग्रहण हो जाता है। 1511. दोनों ही गर्हित में मूत्र और उच्चार आदि से म्रक्षित हाथ से भिक्षा का ग्रहण अकल्प्य है। म्रक्षित का वर्णन पूर्ण हुआ, अब मैं निक्षिप्त दोष के बारे में कहूंगा। 1512. निक्षिप्त और स्थापित -ये दोनों एकार्थक हैं। अब स्थान (स्थापित) की व्याख्या का प्रसंग है। स्थान तीन प्रकार का होता है -सचित्त, मिश्र और अचित्त / 1513-16. यहां सचित्त आदि के साथ अनेकविध चतुर्भगियां होती हैं - * सचित्त पर सचित्त निक्षिप्त। * मिश्र पर सचित्त निक्षिप्त। * सचित्त पर मिश्र निक्षिप्त। * मिश्र पर मिश्र निक्षिप्त आदि। सचित्त और मिश्र की एक ही चतुर्भगी होती है। सचित्त-अचित्त की चतुर्भगी इस प्रकार है• सचित्त पर सचित्त निक्षिप्त। * अचित्त पर सचित्त निक्षिप्त। * सचित्त पर अचित्त निक्षिप्त। * अचित्त पर अचित्त निक्षिप्त। मिश्र और अचित्त की तृतीय चतुर्भंगी इस प्रकार है• मिश्र पर मिश्र निक्षिप्त। 1. वृत्तिकार का कथन है कि यह निर्देश जिनकल्पिक की दृष्टि से है / स्थविरकल्पी मुनि यथाविधि घृत, गुड़ आदि से खरंटित हाथों से भिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। १.पिनिमटी प.१५०; एतच्चोत्कृष्टानुष्ठानं जिनकल्पिकाद्यधिकृत्योक्तमवसेयं, स्थविरकल्पिकास्तु यथाविधि यतनया घृताद्यपि, गुडादिम्रक्षितमशोकवाद्यपि च गहन्ति। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 427 * अचित्त पर मिश्र निक्षिप्त। * मिश्र पर अचित्त निक्षिप्त। * अचित्त पर अचित्त निक्षिप्त। 1517. इन चतुर्भगियों के अनेकविध संयोग जानने चाहिए। पृथ्वीकाय आदि छहों कायों में भी स्वस्थान और परस्थान भेद जानने चाहिए। 1518, 1519. पृथ्वीकाय में स्वस्थान की चतुर्भंगी इस प्रकार है * सचित्त पृथ्वी पर सचित्त पृथ्वी का निक्षेप। * सचित्त पृथ्वी पर अचित्त पृथ्वी का निक्षेप। * अचित्त पृथ्वी पर सचित्त पृथ्वी का निक्षेप। * अचित्त पृथ्वी पर अचित्त पृथ्वी का निक्षेप। परस्थान में अप्काय, तेजस्काय आदि पांच अन्य का निक्षेप जानना चाहिए। 1520, 1521. सचित्त अप्काय पर सचित्त पृथ्वीकाय का निक्षेप, अचित्त अप्काय पर सचित्त पृथ्वी का निक्षेप, सचित्त अप्काय पर अचित्त पृथ्वी का निक्षेप, अचित्त अप्काय पर अचित्त पृथ्वी का निक्षेप। इसी प्रकार तेजस्काय आदि परस्थान पर निक्षिप्त पृथ्वीकाय संयोगों की चतुर्भंगियां जाननी चाहिए। 1522. इसी प्रकार अप्, तेजस, वायु, वनस्पति और त्रस-प्रत्येक की संयोग जन्य छह चतुर्भंगियां जाननी चाहिए। 1523. सचित्त के साथ सचित्त के छत्तीस संयोग होते हैं। मिश्र के साथ अचित्त के भी इतने ही संयोग जानने चाहिए। .1524. अचित्त के साथ मिश्र के भी इतने ही संयोग होते हैं। छत्तीस का त्रिक मिलाने से सारे एक सौ आठ भंग होते हैं। 1525. अथवा सचित्त पर मिश्र, सचित्तमिश्र पर अचित्त, अचित्त पर सचित्तमिश्र तथा अचित्त पर अचित्त –इस चतुर्भंगी में प्रथम तीन भंगों में भक्तपान ग्रहण करने की बात ही नहीं होती, चतुर्थ भंग में भक्तपान ग्रहण करना कल्प्य है। 1526. सचित्त पृथ्वी आदि काय पर जो अचित्त द्रव्य को रखा जाता है, उसकी मार्गणा दो प्रकार से होती है-अनंतर और परम्पर। 1527. सचित्त पृथ्वी पर अवगाहिम-पक्वान्न आदि निक्षिप्त होता है, वह अनंतर निक्षिप्त कहलाता है। १.पृथ्वीकाय से संबंधित छह प्रकार के निक्षेप इस प्रकार हैं-१. पृथ्वीकाय का पृथ्वीकाय पर 2. पृथ्वीकाय का अप्काय पर 3. पृथ्वीकाय का तेजस्काय पर 4. पृथ्वीकाय का वायुकाय पर 5. पृथ्वीकाय का वनस्पतिकाय पर 6. पृथ्वीकाय का त्रसकाय पर। इसी प्रकार अप्काय आदि के भी छह-छह भेद होते हैं। १.पिनिमटी प.१५१। Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 जीतकल्प सभाष्य पृथ्वी पर रखे पिठर पर जो आहार आदि निक्षिप्त होता है, वह परम्पर निक्षिप्त कहलाता है। 1528. सचित्त उदक आदि पर रखा नवनीत अनंतर निक्षिप्त तथा नाव पर रखा गया नवनीत परम्पर निक्षिप्त कहलाता है। तेजस्काय पर अनंतर और परम्पर निक्षिप्त सात प्रकार का होता है। 1529. अग्नि के सात प्रकार हैं-विध्यात, मुर्मुर, अंगारा, अप्राप्तज्वाला, प्राप्तज्वाला, समज्वाला तथा व्युत्क्रान्तज्वाला। प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं -अनन्तर और परंपर। 1530. जो अग्नि पहले दिखाई नहीं देती लेकिन बाद में ईंधन डालने पर स्पष्ट दिखाई देती है, वह विध्यात कहलाती है। राख से ढके हुए आपिंगल रंग के अर्धविध्यात अग्निकण मुर्मुर हैं। 1531. ज्वाला रहित जलते हुए अग्निकण अंगार कहलाते हैं। चूल्हे पर स्थित बर्तन से न छूती हुई अग्नि अप्राप्तज्वाला कहलाती है, यह अग्नि का चौथा भेद है। 1532. पिठरक का स्पर्श करने वाली पांचवीं प्राप्तज्वाला, जो अग्नि पिठर के ऊपरी भाग तक अर्थात् किनारे तक स्पर्श करती है, वह छठी समज्वाला तथा जो बर्तन के ऊपरी भाग को अतिक्रान्त कर देती है, वह सातवीं व्युत्क्रान्तज्वाला कहलाती है। इन सातों पर निक्षिप्त वस्तु अनंतर निक्षिप्त होती है। .. 1533. अग्नि का स्पर्श करते पिठर आदि पर रखा भक्तपान परम्पर निक्षिप्त कहलाता है। उस भक्तपान को ग्रहण करने से दोष होते हैं लेकिन यंत्र में इक्षुरस पकाने वाले चूल्हे पर रखे पिठर से ग्रहण करने में यह भजना है। 1534. पार्श्व में मिट्टी से अवलिप्त', विशाल मुख वाली कड़ाही या बर्तन से बिना गिराए हुए इक्षुरस लेना कल्पनीय है लेकिन वह अग्नि पर तत्काल चढ़ाया हुआ अर्थात् अधिक उष्ण नहीं होना चाहिए।' 1535. इक्षुरस लेते समय पिठर के किनारे का उपरितन भाग (कर्ण) का स्पर्श नहीं होना चाहिए। स्पर्श करने से रस नीचे राख आदि में गिरने से अग्निकाय के जीवों का वध हो सकता है। गुड़ रस से परिणामित जो उष्णजल है, वह ग्रहण करते समय अधिक गर्म नहीं होना चाहिए। १.अग्निकाय के सप्त भेद की व्याख्या हेतु देखें गा. 1530-32 का अनुवाद। 2. मिट्टी से अवलिप्त कड़ाही, अनत्युष्ण इक्षुरस, अपरिशाटी रस तथा अघटुंत-इन चार पदों के आधार पर 16 भंगों की रचना होती है। इन भंगों की रचना के विस्तार हेतु देखें पिनि की भूमिका पृ. 106-09 / 3. यह गाथा पिण्डनियुक्ति (253) में भी है। वहां इसकी व्याख्या करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि बर्तन में चारों ओर मिट्टी के लेप का अर्थ यह है कि इक्षुरस लेते हुए यदि कुछ बिन्दु नीचे गिर जाएं तो उसे मिट्टी ही सोख ले, वे बिन्दु चूल्हे के मध्य अग्निकाय पर न गिरें। विशालमुख भाजन का तात्पर्य यह है कि इक्षुरस निकालते समय रस पिठरक के किनारे पर न लगे तथा पिठरक के ऊपर का भाग भग्न न हो। अघटुंत का अर्थ है कि रस आदि निकालते समय पिठर के ऊपरी भाग का स्पर्श न हो। १.पिनिमटी प. 153 / ४.गुड़ के कारण कम गर्म जल भी ग्राह्य होता है क्योंकि कड़ाही में लगे गुड रस के कारण वह जल शीघ्र ही अचित्त हो जाता है। Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 429 1536. अत्युष्ण रस ग्रहण करने से दो प्रकार की विराधना होती है-आत्मविराधना और परविराधना। इक्षुरस का छर्दन होने से द्रव्य की हानि होती है तथा वह भाजन छूटकर गिरने से टूट सकता है अतः साधु अत्यधिक उष्ण रस ग्रहण नहीं करता। यह इक्षुरस पकाने वाले चूल्हे की यतना है। 1537. (अग्निकाय के पश्चात् अब वायुकाय के अनंतर और परम्पर निक्षिप्त का कथन है) वायु द्वारा उत्क्षिप्त पर्पटिका-धान्य का छिलका अनंतर निक्षिप्त तथा वायु से भरी वस्ति और दृति पर रखी वस्तु परम्पर निक्षिप्त होती है। 1538. हरियाली पर निक्षिप्त मालपुआ आदि अनंतर निक्षिप्त तथा हरियाली पर रखे पिठरक आदि में निक्षिप्त मालपुआ परम्पर निक्षिप्त होता है। बैल आदि की पीठ पर रखा मालपुआ अनंतर निक्षिप्त तथा कुतुप आदि में भरकर बैल की पीठ पर रखा हुआ परम्पर निक्षिप्त होता है। 1539. यह सब साधु के लिए कल्प्य नहीं है। निक्षिप्त दोष का मैंने संक्षेप में वर्णन किया, अब पृथ्वीकाय आदि पर निक्षिप्त के प्रायश्चित्त-दान के बारे में कहूंगा। 1540. अनंतकाय वनस्पति को छोड़कर पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के निक्षिप्त दोष के अनंतर निक्षिप्त में चतुर्लघु तथा परम्पर निक्षिप्त में लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1541. चतुर्लघु का तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल तथा लघुमास का पुरिमार्ध प्रायश्चित्त होता है। यह सचित्त निक्षिप्त का प्रायश्चित्त है। अब मैं मिश्र पृथ्वीकाय आदि पर निक्षिप्त का प्रायश्चित्त कहूंगा। 1542. पृथ्वीकाय आदि पर अनन्तर मिश्र निक्षिप्त लेने पर लघुमास तथा परम्पर मिश्र लेने पर पणग (पांच दिन-रात) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अब मैं इनका तप रूप प्रायश्चित्त-दान कहूंगा। 1543. लघमास में परिमार्ध तथा पणग में निर्विगय तप की प्राप्ति होती है। अब मैं अनंतकाय वनस्पति के निक्षिप्त का प्रायश्चित्त-दान कहूंगा। 1544. अनंत वनस्पतिकाय में अनन्तर निक्षिप्त लेने पर चतुर्गुरु तथा परम्पर निक्षिप्त आहार लेने पर 'गुरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अब मैं इनका तप रूप प्रायश्चित्त-दान कहूंगा। 1545. चतुर्गुरु का उपवास तथा गुरुमास का एकासन तप प्राप्त होता है। अब मैं पिहितदोष के बारे में कहूंगा। 1546. अनन्तकाय वनस्पति की अनन्तर और परम्पर पिहित भिक्षा ग्रहण करने पर गुरुपणग तथा प्रत्येक वनस्पति पर अनन्तर और परम्पर पिहित भिक्षा ग्रहण करने पर लघुपणग प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। दोनों का तप रूप प्रायश्चित्त निर्विगय है। 1547. पृथ्वी आदि पर निक्षिप्त आदि के प्रायश्चित्त-दान का वर्णन किया, अब मैं संक्षेप में पिहित द्वार को कहूंगा। 1548. सचित्त आदि पर अचित्त पिहित की चतुर्भंगी होती है तथा निक्षिप्त दोष की भांति पिहित दोष में भी संयोगकृत भेद होते हैं। Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 जीतकल्प सभाष्य 1549. पिहित दोष में भी सचित्त, मिश्र और अचित्त से सम्बन्धित तीन चतुर्भगियां होती हैं। इनमें प्रथम दो-सचित्त और मिश्र की चतुर्भगी में आहार-ग्रहण प्रतिषिद्ध है, तीसरे भंग की चतुर्भंगी के चौथे विकल्प में ग्राह्य है। 1550. सचित्त से अचित्त पिहित दो प्रकार का होता है-अतिरोहित और सतिरोहित। यह पृथ्वी आदि छहों काय पर होता है, जैसे-पृथ्वी पर अतिरोहित चावल का आटा। 1551. छाबड़ी, पिठर आदि से अतिरोहित पक्वान्न आदि अनन्तर पिहित होता है। सम्मार्जनी से पिहित परम्पर पिहित होता है। अग्निकाय से पिहित इस प्रकार है१५५२. अंगार आदि से अतिरोहित वस्तु अनन्तर पिहित तथा अंगार आदि से भरे हुए सिकोरे आदि से पिहित वस्तु परम्पर पिहित कहलाती है। अंगार धूपित में अतिरोहित वायु अनन्तर पिहित तथा वायु से भरी दृति से पिहित परम्पर पिहित होता है। 1553. अतिरोहित फल आदि से पिहित आहार अनन्तर पिहित तथा फलों से भरी छाबड़ी एवं पिठर आदि से ढका हुआ आहार परम्पर पिहित कहलाता है। इसी प्रकार त्रसकाय विषयक जो कच्छप या चींटी आदि से पिहित है, वह अनन्तर पिहित तथा कच्छप, चींटी आदि से गर्भित छब्बक आदि से पिहित परम्पर पिहित होता है। 1554. इसके तृतीय भंग में मार्गणा है, चौथे भंग में भजना है। प्रश्न उपस्थित होता है कि अचित्त से अचित्त पिहित होने पर भजना की क्या आवश्यकता है? (आचार्य कहते हैं-) इसका कारण सुनो। 1555. अचित्त देय वस्तु से पिहित की चतुभंगी इस प्रकार है * भारी वस्तु से पिहित भारी देय वस्तु। * भारी वस्तु से पिहित हल्की देय वस्तु। * हल्की वस्तु से पिहित भारी देय वस्तु। * हल्की वस्तु से पिहित हल्की देय वस्तु।' इसके चरम भंग में वस्तु ग्राह्य है। 1556, 1557. पृथ्वी आदि का क्रमशः प्रायश्चित्त-दान निक्षिप्त दोष की भांति समझना चाहिए। गुरु से पिहित वस्तु लेने में आत्मविराधना की संभावना रहती है अतः उससे पिहित आहार ग्रहण करने में चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त उपवास है। अब मैं संहरण द्वार के बारे में कहूंगा। संहरण–संहृत, उत्किरण और विरेचन-ये तीनों शब्द एकार्थक हैं। 1. इस चतुर्भगी की व्याख्या करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि गुरु अर्थात् भारी पदार्थ को उठाने में वस्तु हाथ से छूटने पर पैर आदि में चोट या अंगभंग संभव है। द्वितीय भंग में देय वस्तु गुरु है पर उसे उठाकर देना आवश्यक नहीं, कटोरी आदि से भी भिक्षा दी जा सकती है अत: दूसरे विकल्प में भिक्षा लेना कल्पनीय है। १.पिनिमटी प. 155 / २.पिण्डनिर्यक्ति की मलयगिरीया टीका के अनुसार द्वितीय और चतुर्थ भंग में आहार ग्रहण करना कल्प्य है। Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 431 1558. जिस मात्रक से दाता दान देता है, उसमें यदि अदेय अशन आदि हो तो उसको भूमि पर या अन्यत्र डालकर अन्न आदि देना संहत दोष है। 1559. संहरण छह कायों पर होता है तथा इसके भी तीन भेद हैं-१. सचित्त 2. अचित्त और 3. मिश्र। यहां भी निक्षिप्त दोष की भांति भंग एवं संयोग करने चाहिए। 1560. सचित्त और मिश्र आदि की दो चतुर्भंगियों में आहार की मार्गणा नहीं होती। तीसरी अचित्त की चतुर्भंगी में मार्गणा होती है। संहरण पृथ्वी आदि छह जीवनिकायों पर होता है। 1561,1562. तृतीय अचित्त चतुर्भगी के चौथे भंग में ग्रहण की भजना होती है। शिष्य प्रश्न पूछता है कि जब दोनों अचित्त हैं तो फिर भजना कैसे? आचार्य कहते हैं कि यहां यह चतुर्भंगी है * शुष्क पर शुष्क संहरण। * आर्द्र पर शुष्क संहरण। * शुष्क पर आई संहरण। * आर्द्र पर आर्द्र संहरण। 1563. शुष्क आदि प्रत्येक भंग की स्तोक और बहु के आधार पर चतुर्भगी होती है, जैसे * थोड़े शुष्क पर थोड़ा शुष्क। * बहु शुष्क पर थोड़ा शुष्क। * थोड़े शुष्क पर बहु शुष्क। * बहु शुष्क पर बहु शुष्क। 1564. जिस विकल्प में थोड़े शुष्क पर अल्प शुष्क संहत होता है, वह कल्पनीय है। इसके अतिरिक्त शुष्क पर आई, आर्द्र पर शुष्क या आर्द्र पर आर्द्र-इन तीन भंगों में आहार अग्राह्य होता है। यदि आदेय वस्तु कम भार वाली है, उस पर लघु भार वाली वस्तु को अन्यत्र डालकर दिया जाता है तो वह वस्तु कल्पनीय होती है। 1565. शेष तीन भंग स्तोक पर बहुत, बहुत पर स्तोक तथा बहुत पर बहुत-ये तीन भंग दाता के आधार पर जानने चाहिए। 1566. बड़े पात्र को उठाने तथा नीचे रखने में दाता को पीड़ा होती है। लोक में निंदा होती है कि यह मुनि ..कितना लोलुप है, जो पर-पीड़ा को नहीं देखता। भारी पात्र को उठाते समय दाता का वध, अंगभंग अथवा शरीर-दाह हो सकता है। भारी पात्र से वस्तु के बिखरने से षट्काय का वध हो सकता है। दाता के मन में मुनि के प्रति अप्रीति तथा उस द्रव्य के कारण अन्य देय द्रव्यों का व्यवच्छेद हो सकता है। 1567. स्तोक पर स्तोक (अथवा बहुत पर स्तोक) निक्षिप्त होने पर भी यदि वस्तु शुष्क पर शुष्क है तो कल्प्य है। शुष्क पर आई, आर्द्र पर शुष्क तथा आई पर आर्द्र निक्षिप्त होने पर वह आचीर्ण है। स्तोक पर बहुत तथा बहुत पर बहुत का संहरण अनाचीर्ण है। इससे पूर्वगाथा (गा. 1566) में उक्त दोष समापन्न होते हैं अतः अनाचीर्ण है। 1568. संहरण दोष का कथन कर दिया। इसमें प्रायश्चित्त की प्राप्ति एवं प्रायश्चित्त-दान निक्षिप्त दोष की भांति है। अब मैं संक्षेप में दायक द्वार के बारे में कहूंगा। 1569-74. वर्जनीय दायक के चालीस प्रकार हैं Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 जीतकल्प सभाष्य 1. बालक-आठ वर्ष की अवस्था से कम। 22. रुई पीजती हुई स्त्री। 2. वृद्ध-सत्तर वर्ष की अवस्था वाला। 23. कपास का मर्दन करती हुई स्त्री। 3. मत्त-मदिरापान किया हुआ। 24. सूत कातती हुई स्त्री। 4. उन्मत्त-भूत आदि से आविष्ट। 25. रुई की बार-बार छंटनी करती हुई स्त्री। 5. कम्पमान शरीर वाला। 26. षट्जीवनिकाय से युक्त हाथ वाली स्त्री। . 6. ज्वरित -ज्वर से पीड़ित। 27. भिक्षा देते समय उन्हीं छह जीवनिकायों को 7. अन्ध। भूमि पर डालने वाली स्त्री। 8. गलत्कुष्ठरोगी। 28. उन्हीं छह जीवनिकायों को कुचलती हुई स्त्री। 9. पादुका पहने हुए। 29. उन्हीं छह जीवनिकायों का शरीर के अन्य 10. दोनों हाथों में हथकड़ी पहने हुए। __ अवयवों से स्पर्श करती हुई स्त्री। 11. पैरों में बेड़ी पहने हुए। 30. षड्जीवनिकायों का हनन करती हुई स्त्री। 12. हाथ-पैर से विकल। 31. दही आदि से लिप्त हाथ वाली स्त्री। .. 13. त्रैराशिक-नपुंसक। 32. दही आदि से लिप्त पात्र से देने वाली स्त्री। 14. गर्भवती स्त्री। 33. बड़े बर्तन से भिक्षा देने वाली स्त्री। 15. बालवत्सा स्त्री-स्तन्योपजीवी शिशु वाली। 34. अनेक व्यक्तियों की वस्तु स्वयं देती हुई स्त्री। 16. भोजन करती हुई स्त्री। 35. चुराई हुई वस्तु देने वाली स्त्री। 17. दही आदि मथती हुई स्त्री। 36. प्राभृतिका की स्थापना करने वाली स्त्री। 18. चने आदि भंजती हुई स्त्री। 37. अपाययुक्त दात्री। 19. गेहूं आदि दलती हुई स्त्री। 38. अन्य साधु के लिए स्थापित वस्तु देने वाली स्त्री। 20. ऊखल में तंडुल आदि का कंडन करती हुई स्त्री 39. आभोग-ज्ञात होने पर भी अशुद्ध देने वाली स्त्री। 21. शिला पर तिल आदि पीसती हुई स्त्री। 40. अनाभोग-अज्ञान से अशुद्ध देने वाली स्त्री। 1. मतान्तर से साठ वर्ष वाला भी वृद्ध होता है। १.पिनिमटी प.१५८% वृद्ध : सप्ततिवर्षाणां मतान्तरापेक्षया षष्टिवर्षाणां वोपरिवर्ती। 2. टीकाकार मलयगिरि इस गाथा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि नवमास वाली गर्भवती स्त्री के हाथ की भिक्षा स्थविरकल्पी मुनि परिहार करते हैं। इससे कम मास वाली गर्भवती के हाथ से स्थविरकल्पी भिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। वह बालक जो केवल मां के दूध पर ही आधृत है, उसका स्थविरकल्पी परिहार करते हैं। जो बालक बाह्य आहार भी ग्रहण करता है, उसकी मां से स्थविरकल्पी भिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। दूसरी त वह शरीर से भी बड़ा हो जाता है अत: उसे मार्जार आदि का भय भी नहीं रहता। जिनकल्पी साधु आपन्नसत्त्वा (गर्भवती) एवं बालवत्सा स्त्री का सर्वथा परिहार करते हैं। 1. पिनिमटी प. 164 / ३-६.भोजन करने बैठी हुई स्त्री ने यदि मुख में कवल नहीं डाला है तो उसके हाथ से भिक्षा कल्प्य है। भूनती हुई स्त्री यदि सचित्त गेहूं आदि को कड़ाही में डालकर निकाल चुकी है, दूसरी बार हाथ में गेहूं नहीं लिए हैं, इसी बीच यदि साधु आ जाता है तो उसके हाथ से भिक्षा ग्रहण की जा सकती है। मूंग आदि दलती हुई स्त्री सचित्त मूंग आदि दलकर घट्टी को छोड़ चुकी है, इसी बीच साधु आए तो वह उठकर भिक्षा दे सकती है अथवा वह अचित्त मूंग दल रही है तो उसके हाथ से भिक्षा कल्पनीय है। कंडन करती हुई स्त्री यदि मुशल को ऊपर उठा चुकी है, उस मुशल में यदि कोई बीज नहीं लगा है, इसी बीच साधु के आने पर दोष रहित स्थान में उस मुशल को रखकर भिक्षा दे तो वह ग्राह्य है। १.पिनिमटी प. 164 / Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 433 1575. इन चालीस दायकों में कुछ दायकों से ग्रहण करने की भजना है तथा कुछ दायकों से ग्रहण करने की वर्जना है। इसके विपरीत बाल आदि के अतिरिक्त दायकों से ग्रहण किया जा सकता है। 1576. ये दायक दोष से युक्त हैं, इनके द्वारा दिया गया आहार कल्प्य नहीं होता। जो मुनि अकारण इनके हाथ से भिक्षा ग्रहण करता है, उसके लिए मैं प्रायश्चित्त कहूंगा। 1577. बाल, वृद्ध, मत्त, उन्मत्त, कम्पित शरीर वाला तथा ज्वरित-इनके हाथ से भिक्षा ग्रहण करने पर प्रत्येक का प्रायश्चित्त लघुमास, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध होता है। 1578. अंध, गलत्कुष्ठरोगी से लेकर बालवत्सा स्त्री-स्तनपायी शिशु वाली स्त्री से आहार लेने पर प्रत्येक का प्रायश्चित्त चतुर्गुरु है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त उपवास प्राप्त होता है। 1579. भोजन करती हुई तथा दही आदि मथती हुई स्त्री से आहार ग्रहण करने पर चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। अब मैं धान्य-भर्जन आदि से सम्बन्धित प्रायश्चित्त के बारे में कहूंगा। 1580, 1581. चने आदि पूंजती हुई, गेहूं आदि दलती हुई स्त्री यावत् षड्जीवनिकाय से युक्त हाथ वाली स्त्री, श्रमण को भिक्षा देने के लिए छहजीवनिकायों को भूमि पर डालती हई,उनका अवगाह करती हुई तथा उनका घट्टन-स्पर्श करती हुई स्त्री-इन सबमें षड्जीवनिकाय की हिंसा के कारण अलग-अलग प्रायश्चित्त-दान होता है। शेष द्वारों में चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल प्राप्त होता है। 1582. वर्जित दायकों का वर्णन कर दिया, अब मैं उन्मिश्र दोष के बारे में कहूंगा। वह तीन प्रकार का होता है-सचित्त, मिश्र और अचित्त। 1583. संहरण द्वार में पृथ्वीकाय आदि के जो सांयोगिक भंग हैं, वैसे ही उन्मिश्र दोष में भी निरवशेष रूप से भेद होते हैं। 1584, 1585. शिष्य प्रश्न करता है कि संहरण और उन्मिश्र इन दोनों दोषों में क्या अन्तर है? संहरण दोष में भिक्षा देने के लिए अदेय वस्तु को बाहर फेंकता है। उन्मिश्र दोष में दातव्य और अदातव्य दोनों द्रव्यों को मिलाकर साधु को भिक्षा देता है, जैसे-बीज, हरियाली आदि से उन्मिश्र करके अथवा ओदन को कुशन-दही तीमन आदि से मिश्रित करके देना। 1. पिण्डनियुक्ति के टीकाकार मलयगिरि के अनुसार प्रथम पच्चीस दायकों से ग्रहण की भजना है, ऐसा कुछ आचार्य मानते हैं तथा कुछ आचार्यों की यह मान्यता है कि 26 से 40 तक के दाता का वर्जन ही करना चाहिए। 2. आचार्य मलयगिरि ने बालवत्सा स्त्री से भिक्षा लेने का एक और दोष बताते हुए कहा है कि साधु को भिक्षा देने से हाथ आहार से खरंटित हो जाते हैं। आहार से लिप्त शुष्क हाथ कर्कश होते हैं, उससे बालक को उठाने में उसे कष्ट होता है। १.पिनिमटी प. 161 / . 3. संहरण आदि प्रत्येक द्वार के भंगों के आधार पर 432 भंग इस प्रकार बनते हैं -सचित्त पृथ्वी का सचित्त पृथ्वीकाय पर संहरण, सचित्त पृथ्वीकाय का सचित्त अप्काय पर संहरण / इसी प्रकार स्वकाय और परकाय की , अपेक्षा से 36 भंग होते हैं। इनके सचित्त, अचित्त और मिश्र पद से प्रत्येक की तीन-तीन चतुर्भंगी होने से 12 भेद होते हैं। 12 का 36 से गुणा करने पर 432 भेद होते हैं, इसी प्रकार उन्मिश्र आदि के भंग जानने चाहिए। १.पिनिमटी प. 165 / Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 जीतकल्प सभाष्य . 1586. इसमें भी संहरण दोष की भांति शुष्क से शुष्क उन्मिश्र आदि चार भंग होते हैं तथा अल्प और बहुत की चतुर्भगी भी जाननी चाहिए। इन दोनों चतुर्भगियों में अनाचीर्ण और आचीर्ण का भी वही क्रम है। 1587. उन्मिश्र दोष का कथन सम्पन्न हुआ, अब मैं द्विविध परिणत के बारे में कहूंगा। अपरिणत के दो भेद हैं-द्रव्य अपरिणत और भाव अपरिणत / द्रव्य अपरिणत में पृथ्वीकाय आदि षड्जीवनिकाय हैं। 1588. सचेतन पृथ्वी आदि जब तक सजीव है, तब तक अपरिणत है और व्यपगत जीव होने पर परिणत होती है। यहां दूध-दही का दृष्टान्त है। दूध जब दही बनता है, तब परिणत कहलाता है और दूध दुग्धभाव में अवस्थित रहने पर अपरिणत कहलाता है। 1589. द्रव्य से अपरिणत आहार षड्जीवनिकाय की हिंसा से सम्बन्धित होता है अतः उसका प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अब मैं संक्षिप्त में भाव से अपरिणत के बारे में कहूंगा। 1590, 1591. दो भाई आदि का अथवा अन्य के साथ संयुक्त आहार में एक व्यक्ति भाव से मुनि को देना चाहता है, दूसरा भाव से अपरिणत अर्थात् मुनि को देना नहीं चाहता अथवा अन्य को देना चाहता है तो वह भावतः अपरिणत' आहार है। 1592. भिक्षार्थ गए संघाटक में से एक मुनि ने देय वस्तु को मन ही मन एषणीय माना तथा दूसरे ने एषणीय नहीं माना, उसे भी ग्रहण नहीं करना चाहिए, जिससे आपस में कलह न हो। 1593. द्रव्यतः अपरिणत तथा भावतः अपरिणत को ग्रहण करने पर लघुमास प्रायश्चित्त, जिसका तप . रूप प्रायश्चित्त-दान पुरिमार्ध होता है। 1594. अपरिणत द्वार के बारे में कह दिया, अब मैं लिप्त द्वार के बारे में कहूंगा। जहां तीमन आदि द्रव्य का लेप होता है, वहां लिप्त दोष होता है। 1595. साधु को लिप्त दोष युक्त आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए, जिससे पश्चात्कर्म की संभावना न रहे। साधु को दोषरहित अलेपकृत आहार ग्रहण करना चाहिए। 1596, 1597. आचार्य द्वारा ऐसा कहने पर शिष्य प्रश्न पूछता है कि यदि इस प्रकार पश्चात्कर्म दोष लगता है, तब तो यावज्जीवन आहार नहीं करना चाहिए। गुरु उत्तर देते हैं कि कौन ऐसा व्यक्ति है, जो कल्याण की इच्छा नहीं करता। यदि आवश्यक योगों की हानि नहीं होती है तो आहार छोड़ा जा सकता है। यदि मुनि आहार छोड़ने में समर्थ न हो तो वहां आठ भंग हैं१५९८. संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य-ये तीन तथा इनके प्रतिपक्षी तीन-असंसृष्ट हाथ, 1. टीकाकार मलयगिरि अनिसृष्ट और दातृभाव से अपरिणत का अंतर स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सामान्यतः अनिसृष्ट में दाता परोक्ष होता है लेकिन दातभाव से अपरिणत में दाता समक्ष होता है। १.पिनिमटी प.१६६। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 435 असंसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य-इनके परस्पर संयोग से आठ विकल्प होते हैं - 1599. संसृष्ट हाथ एवं पात्र वाले भंगों में आहार लेने पर चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल प्राप्त होता है तथा सावशेष लिप्त वाले भंगों में आहार लेने पर लघुमास, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध होता है। 1600. लिप्त द्वार का वर्णन पूरा हुआ, अब मैं छर्दित द्वार कहूंगा। छर्दित दोष भी तीन प्रकार का होता है-सचित्त, मिश्र और अचित्त। 1601. छर्दित दोष में चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है अथवा सचित्त पृथ्वीकाय आदि की हिंसा होने पर प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1602. छर्दन के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। इनकी तीन चतुर्भगियां होती हैं। इसके सारे विकल्पों में आहार का ग्रहण प्रतिषिद्ध है। यदि इन विकल्पों में ग्रहण किया जाता है तो आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व तथा विराधना आदि दोष होते हैं। 1603. उष्ण द्रव्य के छर्दन से दाता जल सकता है। पृथ्वी आदि षड्जीवनिकाय जीवों का दहन हो सकता है। शीत द्रव्य के छर्दन से पृथ्वी आदि के जीवों की विराधना होती है। इस विषय में मधु-बिन्दु का उदाहरण ज्ञातव्य है। : 1604. छर्दित दोष का वर्णन कर दिया। ग्रहणैषणा के दोषों का वर्णन सम्पन्न हो गया। अब गृहीत आहार की विधिपूर्वक ग्रासैषणा (परिभोगैषणा) का प्रसंग है। / 1.. संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य। . . संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य। * संसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य / * संसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य। * असंसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य। * असंसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य। * असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य। * असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य। ___ इन आठ विकल्पों में सावशेष भंग वाले विकल्पों में आहार ग्रहण करना कल्प्य है, शेष निरवशेष वाले भंगों में भजना है। हाथ और पात्र के संसृष्ट होने पर तथा भिक्षा के पश्चात् द्रव्य सावशेष रहता है तो दात्री उस पात्र का प्रक्षालन नहीं करती अतः विषम भंगों में पश्चात्कर्म की संभावना नहीं रहती लेकिन यदि द्रव्य निरवशेष रूप से साधु को दे दिया जाए तो दान के पश्चात् नियमतः उस बर्तन का. तथा हाथ और पात्र का प्रक्षालन किया जाता है अतः द्वितीय आदि सम भंगों में पश्चात्कर्म की संभावना से आहार लेना कल्पनीय नहीं है।' १.पिनिमटी प. 169 / २.कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं.५२। Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 436 जीतकल्प सभाष्य 1605. ग्रासैषणा चार प्रकार की है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। इन सबका वर्णन करके अब मैं संक्षेप में इनके उपनय (दृष्टान्त) का कथन करूंगा। 1606. मत्स्य स्थानीय साधु, मांस स्थानीय भक्तपान, मच्छीमार स्थानीय राग-द्वेष आदि का समूह जानना चाहिए। 1607. जिस प्रकार वह मत्स्य उपाय के द्वारा भी नहीं छला गया, वैसे ही साधु भी भोजन के समय स्वयं के द्वारा स्वयं को अनुशासित करे। 1608. हे जीव! तुम एषणा के बयालीस दोषों से विषम आहार-पानी के ग्रहण में नहीं ठगे गए अतः अब उनका उपभोग करते हुए तुम राग-द्वेष से मत ठगे जाना। 1609. भाव ग्रासैषणा दो प्रकार की होती है-प्रशस्त और अप्रशस्त / अप्रशस्त के पांच प्रकार हैं, इन दोषों से रहित प्रशस्त भावग्रासैषणा है। 1610. संयोजना, अतिप्रमाण में भोजन, इंगालदोष, धूमदोष तथा कारण दोष-ये पांच ग्रासैषणा के अप्रशस्त भेद हैं तथा इसके विपरीत संयोजना आदि नहीं करना प्रशस्त ग्रासैषणा है। 1611. संयोजना के दो प्रकार हैं-द्रव्य संयोजना और भाव संयोजना। द्रव्य संयोजना के पुनः दो प्रकार हैं-बाह्य और आंतरिक। भिक्षा ग्रहण करते समय अनुकूल द्रव्यों का संयोग करना बाह्य संयोजना है। 1612. रस पैदा करने के लिए दूध, दही, कट्टर-तीमन मिश्रित घी का बड़ा आदि प्राप्त होने पर भिक्षा के लिए घूमते हुए गुड़, चावल, कूर तथा घी आदि मांगकर उनका संयोग करना बाह्य संयोजना है। अब मैं अंतः संयोजना के बारे में कहूंगा। 1613. उपाश्रय में की जाने वाली अंतः संयोजना तीन प्रकार की होती है-पात्र में, कवल में तथा मुंह में। जो-जो रस के उपकारी द्रव्य हैं, उनको पात्र में मिलाना पात्र संयोजना है। " 1614. वालुंक-पक्वान्न विशेष, बड़ा तथा बैंगण आदि को कवल के साथ मिलाना कवल संयोजना है। मुंह में कवल डालकर बाद में सालणक-कढ़ी के समान एक प्रकार का द्रव्य आदि डालना मुख संयोजना है। 1615. द्रव्यों की संयोजना करना द्रव्य संयोजना है। रस के लिए जो द्रव्यों की संयोजना करता है, वह भाव संयोजना है। 1616. राग-द्वेष से द्रव्यों की संयोजना करता हुआ जीव राग-द्वेष के कारण अपनी आत्मा के साथ कर्मों का संयोग करता है। 1617. कर्म से जीव भव-परम्परा को संयोजित करता है तथा भव से जीव दुःख से स्वयं को संयोजित करता है, यह भाव संयोजना है। 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.५३। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 437 1618. विशेष रस (स्वाद) को बढ़ाने के लिए संयोग का प्रतिषेध किया गया है। ग्लान के लिए संयोग किया जा सकता है तथा जिसको आहार अरुचिकर लगता हो अथवा जो सुखोचित-राजपुत्र आदि रहा हो अथवा जो अभावित -अपरिणत शैक्ष आदि हो-उनके लिए संयोजना करना विहित है। 1619. यदि खाने के बाद भी द्रव्य शेष नहीं हुआ हो, घी आदि पर्याप्त मात्रा में बचा हो तो उसकी सत्तु आदि के साथ संयोजना की जा सकती है ताकि उसे परिष्ठापित न करना पड़े। 1620. आंतरिक और बाह्य संयोजना करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। दूसरे विकल्प में बाह्य संयोजना में चतुर्लघु और आंतरिक संयोजना में चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। चतुर्गुरु का तप रूप प्रायश्चित्त उपवास तथा चतुर्लघु का आयम्बिल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1621. संयोजना का वर्णन सम्पन्न हुआ, अब मैं आहार के प्रमाण के बारे में कहूंगा। साधु को जीवन चलाने जितना ही भोजन करना चाहिए। 1622. पुरुष के लिए बत्तीस कवल प्रमाण आहार कुक्षिपूरक माना गया है तथा महिलाओं के लिए अट्ठावीस कवल पर्याप्त माने जाते हैं। 1623. नपुंसक का आहार चौबीस कवल प्रमाण होता है। स्त्री और पुरुष दो की ही दीक्षा होती है अतः नपुंसक का कवल-प्रमाण यहां गृहीत नहीं है। 1624. इस प्रमाण से किंचित्मात्रा में अर्थात् एक कवल, आधा कवल न्यून अथवा आधा आहार अथवा आधे से भी आधा आहार लिया जाता है, उसे तीर्थंकरों ने संयमयात्रा के लिए पर्याप्त कहा है, यही न्यून आहार है। 1. बचे हुए घी को बिना मिश्री या खांड के केवल रोटी के साथ खाना संभव नहीं है क्योंकि भोजन करने के बाद सबको तृप्ति हो जाती है। उसका परिष्ठापन भी उचित नहीं होता क्योंकि परिष्ठापन से उस चिकनाई पर अनेक कीटिकाओं की हिंसा संभव है अत: यह संयोजना का अपवाद है कि बचे हुए घी में खांड आदि द्रव्य को मिलाना विहित है। 1. पिनिमटी प 173 / 2. एक कवल का प्रमाण मुर्गी के अंडे जितना माना गया है। कुक्कुटी दो प्रकार की होती है-द्रव्य कुक्कुटी और भाव कुक्कुटी / द्रव्य कुक्कुटी के दो प्रकार हैं-उदर कुक्कुटी और गल कुक्कुटी। जितने आहार से साधु का उदर न भूखा रहे और न अधिक भरे, वह आहार उदर कुक्कुटी है। मुख को विकृत किए बिना गले के अंदर जो कवल . समा सके, वह गल कुक्कुटी है। टीकाकार दूसरे नय से व्याख्या करते हुए कहते हैं कि शरीर ही कुक्कुटी है और मुख अण्डक है। जिस कवल से आंख, भ्रू आदि विकृत न हों, वह प्रमाण है अथवा कुक्कुटी का अर्थ हैपक्षिणी, उसके अंडे जितना कवल प्रमाण है। जिस आहार से धृति बनी रहे तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि हो, उतना आहार करना भाव कुक्कुटी है। मूलाचार की टीका में एक हजार चावल जितने को एक कवल का प्रमाण माना है। * १.पिनिमटी प. 173 / 2. मूला 350 टी प. 286 ; सहस्रतंदुलमात्रः कवल आगमे पठितः। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 जीतकल्प सभाष्य 1625. जो मुनि प्रकाम, निकाम और प्रणीत भक्त-पान का उपभोग करता है, अति बहुल मात्रा में अथवा बहुत अधिक बार भोजन करता है, उसे प्रमाणातिक्रान्त दोष जानना चाहिए। . . 1626. बत्तीस कवल से अधिक आहार को प्रकाम आहार कहते हैं। प्रमाणातिरिक्त आहार यदि प्रतिदिन किया जाता है तो वह निकाम तथा जिस आहार से घी आदि टपकता हो, वह प्रणीत आहार है, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। 1627. अतिबहुक, अतिबहुशः तथा अतिप्रमाण में किया हुआ भोजन अतिसार पैदा कर सकता है, उससे वमन हो सकता है तथा वह आहार जीर्ण न होने पर व्यक्ति को मार भी सकता है। 1628. अपने आहार की मात्रा से अधिक, दिन में तीन बार अथवा तीन बार से अधिक खाना अतिप्रमाण अथवा प्रमाणातिक्रान्त आहार है। 1629. अथवा अतृप्त रहता हुआ आतुर होकर जो आहार करता है, वह अतिप्रमाण कहलाता है। इसमें अतिसार आदि पूर्वोक्त दोष (गा. 1627) भी होते हैं। 1630. इन दोषों के कारण अतिरिक्त आहार करने पर चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। 1631. अतिप्रमाण आहार करने में दोष हैं तो फिर कैसा आहार करना चाहिए? शिष्य के द्वारा ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं कि साधु को जैसा भोजन करना चाहिए, उसको आगे कहा जा रहा है, वह सुनो। 1632. जो मुनि हितकारी', परिमित तथा अल्प-आहार करते हैं, उनकी चिकित्सा वैद्य नहीं करते। वे स्वयं अपने चिकित्सक होते हैं। (अर्थात् उनके रोग होता ही नहीं।) 1633-35. हितकर और अहितकर आहार दो प्रकार का होता है-इहलोक में हितकर तथा परलोक में हितकर। इसकी चतुर्भंगी इस प्रकार है * इहलोक में हितकर, परलोक में नहीं। . * परलोक में हितकर. इहलोक में नहीं। * न परलोक में हितकर, न इहलोक में। * इहलोक में हितकर, परलोक में भी हितकर। प्रथम भंग में जो अविरोधी द्रव्य होते हैं, वे ग्राह्य हैं, जैसे खीर, दधि, गुड़ आदि। इनको अनेषणीय ग्रहण करके राग और द्वेष से भोग करना इहलोक में हितकर है, परलोक के लिए नहीं। 1. हितकर आहार दो प्रकार का होता है -द्रव्यतः तथा भावतः। अविरुद्ध आहार करना द्रव्यतः हितकर है तथा एषणीय आहार करना भावतः हितकर आहार है।' १.पिनिमटी प.१७४। २.प्रमाणोपेत आहार मित आहार है। 3. बत्तीस कवल प्रमाण आहार से कम आहार करना अल्पाहार है। Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५ 439 1636. शुद्ध एषणा से प्राप्त अमनोज्ञ आहार परलोक के लिए हितकर है, इस लोक के लिए नहीं। पथ्य और एषणा से शुद्ध आहार को दोनों लोकों के लिए हितकर जानना चाहिए। 1637. अपथ्य और अनेषणीय आहार दोनों लोकों के लिए अहितकर है। अथवा राग और द्वेष से आहार करना दोनों लोकों के लिए अहितकर है। अब मैं मिताहार के बारे में कहूंगा। 1638. उदर के छह भाग करके, आधे उदर अर्थात् तीन भागों को व्यंजन सहित आहार के लिए, दो भाग पानी के लिए तथा छठा भाग वायु-संचरण के लिए खाली रखना चाहिए। 1639. काल तीन प्रकार का जानना चाहिए-शीत, उष्ण और साधारण। इन तीनों कालों में होने वाली आहार की मात्रा इस प्रकार है१६४०. पानी का एक भाग तथा भोजन के दो भाग अवस्थित हैं, ये घटते-बढ़ते नहीं हैं। एक-एक में शेष दो-दो भाग बढ़ते-घटते हैं, जैसे-अतिशीतकाल में भोजन के दो भाग बढ़ जाते हैं तथा अतिउष्णकाल में पानी के दो भाग बढ़ जाते हैं। अतिउष्णकाल में भोजन के दो भाग कम हो जाते हैं तथा अतिशीतकाल में पानी के दो भाग कम हो जाते हैं। 1641. यहां तीसरा और चौथा–ये दोनों भाग अनवस्थित अथवा अस्थिर हैं। पांचवां, छठा, पहला और दूसरा-ये अवस्थित भाग हैं। 1642. मिताहार का वर्णन कर दिया, इससे भी कम आहार करना अल्पाहार है। प्रमाण आहार का वर्णन कर दिया, अब अंगार दोष का वर्णन करूंगा। 1643. स-अंगार दोष आहार करने पर चतुर्गुरु, जिसका प्रायश्चित्त-दान है-उपवास। सधूम आहार करने पर चतुर्लघु, जिसका प्रायश्चित्त दान है-आयम्बिल। 1644. निष्कारण भोजन करने पर चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल प्राप्त होता है। दूसरे 'विकल्प में लघुमास, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध होता है। 1645. यदि कारण उपस्थित होने पर मुनि आहार नहीं करता है, तब भी चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल प्राप्त होता है। स-अंगार आदि का स्वरूप मैं क्रमशः कहूंगा। 1646. जिस प्रकार प्रज्वलित अंगारे बीच में पड़े हुए ईंधन को जला देते हैं, वैसे ही राग रूपी अंगारे नियमतः चरण रूप ईंधन को जला देते हैं। 1647. यह आहार अच्छा है, सुसंभृत है, स्निग्ध है, सुपक्व है, सरस और सुगंध युक्त है, इस प्रकार आहार की प्रशंसा करते हुए राग से मूर्च्छित होकर आहार करना स-अंगार दोष है। 1648. मुनि प्रासक आहार को भी यदि रागाग्नि से प्रज्वलित होकर करता है तो वह चारित्र रूपी ईंधन को शीघ्र ही निर्दग्ध अंगारे की भांति बना डालता है। 1649. स-अंगार दोष का वर्णन कर दिया, अब मैं प्रसंगवश सधूम दोष का वर्णन करूंगा। जैसे धूमयुक्त गोबर का कंडा केवल पीड़ा देता है। Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 1650. जिस प्रकार धूम से आच्छादित चित्र सुशोभित नहीं होता, वैसे ही धूमदोष से युक्त मलिन चारित्र भी सुशोभित नहीं होता। 1651. जो साधु विरस, लवणरहित और दुर्गंधयुक्त आहार को द्वेषपूर्वक शोर मचाते हुए या निंदा करते हुए खाता है, वह सधूम दोष है। 1652. जलती हुई द्वेषाग्नि अप्रीति के धूम से चारित्र रूपी ईंधन को जब तक अंगार सदृश नहीं बना . डालती, तब तक वह जलती रहती है। 1653. रागभाव से किया गया भोजन स-अंगार तथा द्वेषभाव से किया जाने वाला भोजन सधूम कहलाता 1654. प्रवचन का यह उपदेश है कि तपस्वी मुनि ध्यान और अध्ययन के निमित्त विमत अंगाररागरहित तथा विगतधूम-द्वेष रहित होकर आहार करे। 1655. सधूम दोष का वर्णन कर दिया, अब मैं कारणद्वार का वर्णन करूंगा। प्रतिक्रमण करता हुआ मुनि चरम आवश्यक-कायोत्सर्ग में उसका चिंतन करे। 1656. साधु को कारण उपस्थित होने पर भोजन करना चाहिए। कारण है अथवा नहीं, यह चिन्तन करके यदि कारण है तो भोजन करना चाहिए। 1657. मुनि छह कारणों से आहार करता हुआ धर्म का आचरण करता है, छह ही कारणों से आहार का त्याग करता हुआ धर्माचरण करता है। 1658. आहार करने के छह कारण ये हैं-१. भूख की वेदना को उपशांत करने के लिए। 2. वैयावृत्त्य करने के लिए। 3. ईर्यापथ के शोधन हेतु। 4. प्रेक्षा आदि संयम के निमित्त / 5. प्राणप्रत्यय-प्राण-धारण के लिए तथा 6. धर्म-चिंतन-धर्म की अभिवृद्धि-ग्रंथ-परावर्तन आदि के लिए। 1659. क्षुधा के समान कोई वेदना नहीं होती अत: उसे शान्त करने के लिए भोजन करना चाहिए। भूखा वैयावृत्त्य करने में समर्थ नहीं होता अतः भोजन करना चाहिए। 1660. बुभुक्षित ईर्यापथ का शोधन नहीं कर सकता। पित्तजनित मूर्छा के कारण भूखे व्यक्ति की आंखों के आगे अंधेरा छा जाता है। आहार न करने से शरीर का बल क्षीण हो जाता है। वह प्रेक्षा आदि संयम करने में समर्थ नहीं रहता। 1661. आयु ,शरीर, प्राण आदि षड्विध प्राण भोजन के बिना नहीं चल सकते अतः प्राणों को धारण करने के लिए आहार करना चाहिए। 1662. बुभुक्षित व्यक्ति पूर्वरात्रि में धर्मध्यान करने में अथवा पंचविध स्वाध्याय करने में समर्थ नहीं होता (इसलिए आहार करना चाहिए)। 1663. इन छह कारणों से संयमी भिक्षु नियमतः आहार करता है तथा निम्न छह कारणों से वह आहार नहीं करता। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-३५-३९ 441 1664. आहार-परित्याग के छह कारण ये हैं-१. आतंक-रोग-निवारण हेतु 2. उपसर्ग-तितिक्षा-- उपसर्ग-सहन करने के लिए, 3. ब्रह्मचर्य की गुप्तियों की परिपालना के लिए, 4. प्राणिदया के लिए, 5. तपस्या के निमित्त तथा 6. शरीर-व्यवच्छेद के लिए। 1665. ज्वर आदि आतंक उत्पन्न होने पर आहार नहीं करना चाहिए। कहा गया है कि सहसा उत्पन्न व्याधि का तेले आदि की तपस्या से निवारण करना चाहिए। 1666, 1667. राजा तथा स्वजन आदि का उपसर्ग होने पर उसे सहन करने के लिए आहार नहीं करना चाहिए। विषयों के द्वारा बाधित होने पर जिनेश्वर भगवान् ने कहा है कि साधु को आहार नहीं करना चाहिए। लौकिक ग्रंथ (गीता) में भी कहा गया है कि निराहार व्यक्ति के विषय समाप्त हो जाते हैं। 1668. इसलिए ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए साधु को आहार नहीं करना चाहिए। वर्षाकाल में वर्षा और ओस आदि में प्राणियों की दया के लिए आहार नहीं करना चाहिए। 1669. उपवास से लेकर पाण्मासिक तप के लिए आहार नहीं करना चाहिए तथा संयम-भार निस्तीर्ण होने पर शरीर को छोड़ने की इच्छा से आहार नहीं करना चाहिए। 1670. अब यह शरीर संयम को वहन करने में असमर्थ है, इस कृत्कृत्य शरीर रूपी उपकरण को अब छोड़ना है। इस चिन्तन से वह आहार नहीं करता, आहार का सर्वथा विच्छेद कर देता है। 1671. उद्गम के 16 दोष, उत्पादना के 16 दोष, एषणा के 10 दोष तथा ग्रासैषणा के संयोजना आदि 5 दोष-ये एषणा के 47 दोष होते हैं। 1672. आहार से सम्बन्धित कुल मिलाकर सैंतालीस दोष होते हैं। इनसे अशुद्ध पिंड को ग्रहण करने से संयमी साधु के चारित्र का उपघात होता है। 1673. तीर्थंकरों ने साधु के लिए इन दोषों से रहित आहार की विधि कही है। मुनि इनका पालन इस रूप में करे जिससे धर्म और आवश्यक (प्रतिक्रमण ) आदि योगों की हानि न हो। 1674. उद्गम आदि से लेकर कारण पर्यन्त यह विस्तार है। अब मैं इन दोषों के लक्षण, दोष-प्रसंग (प्राप्ति) तथा प्रायश्चित्त-दान आदि के बारे में क्रमश: कहूंगा। - 1675-79. अब मैं गाथा (जीसू गा. 35) का अक्षरार्थ कहूंगा। विभाग औद्देशिक के कर्म उद्देश को छोड़कर चरम त्रिक-कर्म समुद्देश, कर्म आदेश तथा कर्म समादेश, पाषंडमिश्रजात, साधुमिश्रजात, आधाकर्म, बादर उत्प्वष्कण प्राभृतिका, बादर अवष्वष्कण प्राभृतिका, परग्राम से सप्रत्यपाय आहृत आहार, जिसमें आत्मविराधना हो, लोभ के द्वारा गवेषित लोभपिण्ड, औद्देशिक से लेकर लोभपिण्ड पर्यन्त प्रत्येक की शोधि उपवास तप से होती है। 36. अतिरोहित अनंतकाय वनस्पति पर निक्षिप्त और पिहित तथा अनंतकाय मिश्र पर संहत, संयोजना, स-अंगार तथा द्विविध निमित्त-इन सब दोषों की शोधि उपवास प्रायश्चित्त से होती है। 1680, 1681. अतिर का अर्थ है निरन्तर। अनंतकाय से वनस्पति गृहीत है। मालपूआ आदि अनंतकाय Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 जीतकल्प सभाष्य पर निक्षिप्त, अनंतकाय से पिहित, अनंतकाय मिश्र से संहृत तथा आदि ग्रहण से अपरिणत अनंतकाय का ग्रहण करना चाहिए। इन सबकी शोधि उपवास प्रायश्चित्त से होती है। 1682, 1683. रस के लिए संयोग करना, राग सहित स-अंगार भोजन करना, वर्तमान और भविष द्विविध निमित्त-कथन-यथोद्दिष्ट निमित्त पर्यन्त प्रत्येक दोष की शोधि उपवास प्रायश्चित्त से होती है। 37. कर्मउद्देश, मिश्रजात, धात्री आदि पिण्ड, प्रकाशकरण आदि, पुरःकर्म, पश्चात्कर्म, गर्हित द्रव्य से प्रक्षित, संसक्त द्रव्य से लिप्त हाथ और पात्र से युक्त भिक्षा ग्रहण करने पर-इन सबकी शोधि आयम्बिल तप से होती है। 1684-91. प्रथम कर्म उद्देश, प्रथम यावदर्थिक मिश्रजात, पंचविध धात्रीपिण्ड-क्षीरधात्री से अंकधात्री पर्यन्त, आदिग्रहण से दूतीपिण्ड, अतीत सम्बन्धी निमित्त, आजीवपिण्ड, वनीपकपिण्ड; बादर-चिकित्सा, क्रोधपिण्ड, मानपिण्ड, स्त्री सम्बन्धी वचनसंस्तव, विद्यापिण्ड, मंत्रपिण्ड, चूर्णपिण्ड, योगपिण्ड, प्रकाशकरण, प्रादुष्करण, द्रव्यआत्मक्रीत, द्रव्यपरक्रीत, भावआत्मक्रीत, लौकिक प्रामित्य, लौकिक परिवर्त, निरपाय परग्राम अभ्याहत, सचित्त उद्भिन्न पिहित, कपाट उद्भिन्न, उत्कृष्ट मालापहत, आच्छेद्य, अनिसृष्टअननुज्ञात पुर:कर्म, पश्चात्कर्म, गर्हित द्रव्य से मेक्षित एवं संसक्त द्रव्य से लिप्त हाथ और पात्र-इनमें कर्म उद्देश आदि से लेकर लिप्त दोष पर्यन्त प्रत्येक की शोधि आयम्बिल तप से होती है। 38. अतिरोहित प्रत्येक वनस्पति से निक्षिप्त, पिहित और संहृत तथा प्रत्येक मिश्र वनस्पति से निक्षिप्त, पिहित और संहृत, अतिप्रमाण, धूमदोष, आहार करने के कारण एवं कारण का वर्जनइन सबकी शोधि में आयम्बिल तप विहित है। 1692-95. अतिर का अर्थ है-निरन्तर। प्रत्येक वनस्पति पर निक्षिप्त, परित्त वनस्पति से पिहित तथा संहत, मिश्र प्रत्येक वनस्पति से निक्षिप्त, संहृत तथा पिहित, सूत्र में आदि शब्द के ग्रहण से प्रत्येक वनस्पति से लिप्त, प्रत्येक वनस्पति पर छर्दित, अति प्रमाण आहार, सधूम दोष युक्त आहार, कारण होने या न होने पर आहार। शिष्य प्रश्न करता है कि कारण विवर्ज शब्द का प्रयोग क्यों किया गया? इसके बारे में मैं कहूंगा। बिना प्रयोजन आहार करता है अथवा जो कारण उपस्थित होने पर आहार नहीं करता, वह विवर्ज कहलाता है। इन सब दोषों की शोधि आयम्बिल तप से होती है। 39. अध्यवतर, कृत औद्देशिक, पूतिदोष युक्त, मायापिण्ड, अनन्तकाय वनस्पति से परम्पर निक्षिप्त, मिश्र अनंतकाय से परम्पर एवं अनंतर निक्षिप्त आदि-इन सभी दोषों की शोधि एकासन तप से होती है। 1696-99. अध्यवतर में पाषंड अध्यवतर तथा साधु अध्यवतर, कृत औद्देशिक के यावदर्थिक आदि चार भेद-पूतियुक्त आहार, मायापिण्ड, सचित्त अनंतकाय पर परम्पर निक्षिप्त, आदि शब्द के ग्रहण से पिहित और संहृत, मिश्र अनंत वनस्पति से परम्पर पिहित तथा अतिरोहित, मिश्र अनंतकाय से पिहित-इन यथोद्दिष्ट दोषों की शोधि एकासन तप से होती है। Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-४०-४६ 443 40. ओघ और विभाग औद्देशिक, उपकरण पूति, स्थापना, प्रकट प्रादुष्करण, लोकोत्तर परिवर्त, प्रामित्य तथा परभावक्रीत की शोधि पुरिमार्ध तप से होती है। 1700-02. ओघ औद्देशिक, विभाग औद्देशिक में उद्देश के चारों भेद, उपकरणपूति, चिरस्थापित प्रकट प्रादुष्करण, लोकोत्तर प्रामित्य तथा परिवर्त, मंख आदि द्वारा परभावक्रीत-इन सब दोषों की शुद्धि पुरिमार्ध तप से होती है। अब मैं स्वग्राम आहृत आदि के प्रायश्चित्त को कहूंगा। 41. स्वग्राम आहृत, दर्दर उभिन्न, जघन्य मालापहृत, प्रथम अध्यवतर (यावदर्थिक), सूक्ष्म चिकित्सा, संस्तव (वचन सम्बन्धी), त्रिक प्रक्षित तथा निषिद्ध दायक-(इन दोषों से युक्त भिक्षा लेने पर पुरिमार्ध तप से शोधि होती है।) 1703-08. स्वग्राम आहृत, गांठ सहित दर्दरक उदिभन्न, जघन्य मालापहृत, अध्यवतर का अर्थ है और अधिक डालना। प्रथम यावदर्थिक अध्यवतर, सूक्ष्म चिकित्सा, वचन सम्बन्धी संस्तव, प्रक्षित त्रिक-कर्दम युक्त पृथ्वीकाय म्रक्षित, उदकार्द्र-अप्काय म्रक्षित, उक्कुट्ठ-(चावल का आटा) परित्त वनस्पति काय म्रक्षित, निषिद्ध बाल, वृद्ध, मत्त, उन्मत्त, कम्पमान शरीर, ज्वरित-ये सब निषिद्ध दायक कहलाते हैं। यथोद्दिष्ट इन सभी परग्राम आहृत से लेकर ज्वरित तक दोषों से युक्त भिक्षा लेने पर प्रत्येक की शोधि परिमार्ध तप से होती है। 42. प्रत्येक वनस्पति पर परम्पर स्थापित, परम्पर पिहित, मिश्र प्रत्येक वनस्पति पर अनन्तर निक्षिप्त आदि तथा शंकित आहार ग्रहण करने पर पुरिमार्ध प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1709-12. सचित्त प्रत्येक वनस्पतिकाय पर परम्पर निक्षिप्त, पिहित और संहत होने पर, सचित्त प्रत्येक मिश्र वनस्पति पर अनन्तर निक्षिप्त होने पर, आदि शब्द ग्रहण से मिश्र वनस्पति के अनन्तर पिहित और संहत होने पर तथा शंकित दोष युक्त भिक्षा ग्रहण करने पर यथोद्दिष्ट इन प्रत्येक दोषों की शोधि का प्रायश्चित्त पुरिमार्ध तप होता है। 43. इत्वरिक स्थापित, सूक्ष्म प्राभृतिका, सस्निग्ध अप्काय प्रक्षित, सस्निग्ध पृथ्वीकाय म्रक्षित तथा मिश्र परम्पर स्थापित आदि प्रत्येक दोष में निर्विगय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1713-16. इत्वरिक स्थापित भक्त, सूक्ष्म प्राभृतिका, सस्निग्ध अप्काय म्रक्षित, सरजस्क पृथ्वीकाय प्रक्षित, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, प्रत्येक वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय आदि पर मिश्र परम्पर निक्षिप्त-इन सब दोषों में प्रत्येक का प्रायश्चित्त लघुपणग (निर्विगय) है। अनंतकाय वनस्पति पर मिश्र परम्पर निक्षिप्त रखने पर गुरुपणग, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त निर्विगय है। 1717. द्वितीय विकल्प के अनुसार अनंतकाय वनस्पति के अनन्तर निक्षिप्त में गुरुपणग प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त निर्विगय है। परम्पर निक्षिप्त में भी यही प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1718. दूसरे विकल्प में प्रत्येक वनस्पति के अनन्तर निक्षिप्त में लघु पणग प्रायश्चित्त में निर्विगय तप ' की प्राप्ति होती है। परम्पर निक्षिप्त में भी यही प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 जीतकल्प सभाष्य . 44. सहसा या अनाभोग से जिन स्थानों में प्रतिक्रमण कहा है, उनको जानते हुए करने पर, बहुत बार या अतिप्रमाण में खाने पर निर्विगय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1719-21. सहसा या अनाभोग से पूर्वोक्त जिन-जिन स्थानों में प्रतिक्रमण कहा गया है, उन सब स्थानों को जानते हुए करने पर तथा बहुश:-बार-बार खाने या अतिप्रमाण में आहार करने पर सर्वत्र निर्विगय से शोधि होती है। 45. धावन, डेवन-लांघना, साथ में दौड़-प्रतियोगिता, क्रीड़ा, कुहावणा-आश्चर्य पैदा करने वाली दम्भक्रिया, पुत्कार, गीत, श्लेष्म की आवाज, जीव विशेष की आवाज करने पर उसका प्रायश्चित्त उपवास है। 1722-26. अतिरिक्त तेज गति से चलने पर, नाले आदि को लांघने पर, संघर्ष गमन-दो व्यक्तियों में कौन शीघ्र गति से चलता है-यह स्पर्धा करने पर, चौपड़, चौरस, जूआ आदि खेल खेलने पर, कुहावणा' का अर्थ है-इंद्रजाल, वृत्त खेल, आदि शब्द से समास, प्रहेलिका तथा कुहेटक-चमत्कार उत्पन्न करने वाला मंत्र-तंत्र आदि जानना चाहिए। उत्कृष्टि का अर्थ है-तीव्र ध्वनि से द्वारा कंठ गाया जाने वाला गीत। सीटी बजाना, सीत्कार करना छेलिय कहलाता है। संकेत करना संगार है। कोयल, मयूर आदि प्राणियों की आवाज जीवरुत कहलाती है। धावण आदि समस्त स्थानों में यथाक्रम से प्रत्येक की शोधि उपवास तप से होती है। 46. जघन्य आदि तीनों प्रकार की उपधि के गिरने पर, प्रतिलेखना विस्मृत होने पर तथा आचार्य को निवेदन न करने पर क्रमशः निर्विगय, पुरिमार्ध और एकासन प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है और सर्व उपधि में आयम्बिल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1727. उपधि तीन प्रकार की होती है-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, जो क्रमश: चार, छह तथा चार प्रकार की होती है। १.लोगों से द्रव्य हासिल करने के लिए किया हआ कपट भेष। 2. बालकों के खेलने का गोल खिलौना। 3. चूर्णिकार के अनुसार 'आदि' शब्द से अजीव की आवाज, जैसे-अरहट्ट, गाड़ी तथा जूते आदि की आवाज को ग्रहण करना चाहिए। १.जीचू पृ. 17 / 4. चूर्णिकार जिनदास ने उपधि के उपग्रह -उपकार को प्रकट करते हुए कहा है कि शीत से पीड़ित होकर मुनि अग्नि आदि का सेवन न करे इसलिए मुनि वस्त्र रखे। पात्र के अभाव में संसक्त और परिशाटन आदि दोष न हों अतः मुनि पात्र रखे तथा वर्षाकाल में जल-जीवों की हिंसा से बचने हेतु कम्बल तथा लज्जा के लिए चोलपट्टक आदि धारण करे। १.दशजिच प. 221 संजमनिमित्तं वा वत्थस्स गहणं कीरड,मा तस्स अभावे अग्गिसेवणादिदोसा भविस्संति, पाताभावेऽवि संसत्तपरिसाडणादी दोसा भविस्संति, कंबलं वासकप्पादी तं उदगादिरक्खणा घेप्पति, लज्जानिमित्तं चोलपट्टको घेप्पति। Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-४६-५० 445 1728. मुखपोत्ति, पात्रकेशरिका, पात्रस्थापना तथा गोच्छक-ये चार जघन्य उपधि हैं। अब मैं मध्यम उपधि के बारे मैं कहूंगा। 1729. पटलक, रजस्त्राण, पात्रबंध, चोलपट्ट, मात्रक, रजोहरण-ये छह मध्यम उपधि हैं। 1730. प्रच्छादकत्रिक, पतद्ग्रह-ये चार प्रकार की उत्कृष्ट उपधि हैं। ओघ' उपधि संक्षेप में तीन प्रकार की है। 1731. औपग्रहिक उपधि तीन प्रकार की होती है-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। यह सारा वर्णन कल्प अध्ययन (बृहत्कल्पभाष्य तथा पंचकल्पभाष्य) की भांति कहना चाहिए। 1732. सूत्र (जीसू 46) में आए 'विच्युत' शब्द का अर्थ है-गिरना। जघन्य आदि उपधि के कहीं गिरने के बाद पुनः मिलने पर प्रमाद जन्य शोधि होती है। वह निर्विकृतिक आदि इस प्रकार है। 1733. जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट उपधि में प्रमाद होने पर क्रमशः निर्विगय, पुरिमार्ध और एकासन प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है तथा सब उपधियों में प्रमाद होने पर आयम्बिल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1734. तीनों प्रकार की उपधि की विस्मृति होने पर या प्रतिलेखना विस्मृत होने पर उसकी शोधि क्रमशः इस प्रकार होती है-निर्विगय, पुरिमार्थ, एकासन तथा सर्व प्रकार की उपधि की प्रतिलेखना विस्मृत होने पर आयम्बिल से शोधि होती है। 1735. जघन्य आदि तीनों प्रकार की उपधि की प्रतिलेखना विस्मृत होने से, आचार्य को निवेदन न करने पर उसकी शोधि क्रमशः निर्विगय, पुरिमार्ध और एकासन से होती है तथा सर्व उपधि विस्मृत होने से, आचार्य को निवेदन न करने पर आयम्बिल प्रायश्चित्त से शोधि होती है। 47. त्रिविध उपधि खोने पर, धोने पर, प्राप्त उपधि आचार्य को निवेदन न करने पर, गुरु को दिए बिना उपधि का उपभोग करने पर, बिना आज्ञा उपधि को दूसरे साधु को देने पर क्रमशः एकासन, * आयम्बिल और उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। सर्व उपधि खोने आदि प्रमाद पर बेले प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1736. जघन्य उपधि खोने पर उसकी शोधि हेतु एकासन, मध्यम उपधि खोने पर आयम्बिल तथा उत्कृष्ट उपधि खोने पर उपवास प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1737. सर्व उपधि खोने पर उसकी शोधि बेले के तप से जाननी चाहिए। अब मैं जघन्य आदि उपधि के धोने पर होने वाले प्रायश्चित्त को कहूंगा। 1738. जघन्य उपधि के धोने पर एकासन, मध्यम उपधि धोने पर आयम्बिल, उत्कृष्ट उपधि धोने पर उपवास तथा सर्व उपधि धोने पर बेले के तप से शोधि होती है। 1739. त्रिविध उपधि प्राप्त होने पर जो आचार्य को निवेदन नहीं करता, उसको जघन्य उपधि के लिए 1. प्रतिदिन काम में आने वाली तथा सदा पास में रहने वाली ओघ उपधि कहलाती है। 2. प्रयोजन विशेष में ग्रहण करके उपयोग में आने वाली औपग्रहिक उपधि कहलाती है। Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446 जीतकल्प सभाष्य . एकासन, मध्यम उपधि के लिए आयम्बिल, उत्कृष्ट उपधि के लिए उपवास तथा सर्व उपधि के लिए बेले के प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1740. गुरु को दिए बिना जघन्य उपधि का उपभोग करने पर एकासन, मध्यम उपधि का परिभोग करने पर आयम्बिल, उत्कृष्ट उपधि का परिभोग करने पर उपवास तथा सर्व उपधि का परिभोग करने पर बेले के तप से शोधि होती है। 1741. गुरु की आज्ञा के बिना जघन्य आदि उपधि किसी अन्य साधु को देने पर उसकी शोधि जीत व्यवहार से एकासन से लेकर बेले पर्यन्त तप से होती है। 48. मुखवस्त्र के स्खलित होने पर निर्विगय तथा रजोहरण के स्खलित होने पर उपवास प्रायश्चित्त से शोधि होती है। मखवस्त्र के खोने या नष्ट होने पर उपवास तथा रजोहरण के खोने या नष्ट होने पर जीत व्यवहार से बेले के तप द्वारा शोधि होती है। 1742. मुखवस्त्र के स्खलित होने पर उसकी शोधि के लिए निर्विगय प्रायश्चित्त देना चाहिए। रजोहरण के स्खलित होने पर उपवास प्रायश्चित्त से शोधि होती है। 1743. प्रमाद से मुखवस्त्र खोने या नष्ट होने पर उपवास तथा रजोहरण के खोने या नष्ट होने पर प्रमादी साधु की जीतव्यवहार के द्वारा बेले के तप से शोधि होती है। 49. कालातिक्रान्त और मार्गातिक्रान्त आहार रहने पर निर्विगय, उसका परिभोग करने पर उपवास : तथा अविधिपूर्वक आहार-परिष्ठापन करने पर पुरिमार्ध प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1744. विकथा आदि प्रमाद से कालातिक्रान्त आहार रखने पर उसकी शोधि निर्विगय से तथा कालातिक्रान्त आहार का परिभोग करने पर उसकी शोधि उपवास तप से होती है। 1745. इसी प्रकार मार्गातिक्रान्त आहार का परिभोग न करने पर भी उसकी शोधि निर्विगय से तथा परिभोग करने पर उपवास से होती है। उस आहार का अविधिपूर्वक परिष्ठापन करने पर पुरिमार्ध तप की प्राप्ति होती है। 50. प्राणी का असंवरण तथा भूमित्रिक' का प्रतिलेखन न करने पर निर्विगय प्रायश्चित्त से शोधि होती है। चतर्विध आहार का संवरण न करने पर. नवकारसी आदि प्रत्याख्यान ग्रहण न करने पर अथवा प्रत्याख्यान का भंग करने पर पुरिमार्ध प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1746. प्राणी का असंवरण करने पर साधु की शोधि निर्विगय तप से होती है। भूमि त्रिक की शोधि मैं संक्षेप में इस प्रकार कहूंगा। 1747. प्रथम भूमि का नाम है-उच्चारभूमि, दूसरी का नाम प्रस्रवणभूमि तथा तीसरी का नाम कालभूमि है। इनकी प्रतिलेखना न करने पर निर्विगय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1. चूर्णिकार के अनुसार तीनों में से एक की भी प्रतिलेखना न करने पर निर्विगय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। १.जीचू पृ. 18; भूमितिगं ति-उच्चार-पासवण-कालभूमि। एगतर-अपडिलेहणाए वि निव्विईयं। Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-५१-५४ 447 1748. अशन, पान, खादिम, स्वादिम आदि चार प्रकार का आहार होता है। उनका संवरण न करने पर साधु की पुरिमार्ध तप से शोधि होती है। 1749. अथवा साधु यदि नमस्कारसहिता (नवकारसी) आदि सब प्रकार के प्रत्याख्यान स्वीकृत नहीं करता है अथवा स्वीकार करके उसका भंग करता है तो उसकी शोधि पुरिमार्ध तप से होती है। 51. इसी प्रकार सामान्य रूप से तप, प्रतिमा', अभिग्रह आदि ग्रहण न करने पर पुरिमार्ध तप की प्राप्ति होती है। पाक्षिक आदि तप न करने पर पुरुष भेद से निर्विगय आदि तप से शोधि जाननी चाहिए। 1750. पुरिमार्ध तप सामान्य रूप से जानना चाहिए। तप, प्रतिमा तथा अभिग्रह आदि ग्रहण न करने पर या उसका भंग करने पर होने वाले प्रायश्चित्त को मैं कहूंगा। 1751. तप बारह प्रकार का होता है, प्रतिमा एकरात्रिकी आदि होती है, द्रव्य आदि अभिग्रह होते हैं, इनको ग्रहण न करने पर अथवा भंग करने पर पुरिमार्ध तप की प्राप्ति होती है। 1752. पश्चार्द्ध गाथा की व्याख्या इस प्रकार जाननी चाहिए। क्षुल्लक, भिक्षु आदि पांचों को पाक्षिक तप न करने पर उसकी शोधि निर्विगय से लेकर उपवास तप पर्यन्त होती है। 1753. चातुर्मासिक तप न करने पर क्षुल्लक को पुरिमार्ध, भिक्षु को एकासन, स्थविर को आयम्बिल, उपाध्याय को उपवास तथा आचार्य को बेले के तप की प्राप्ति होती है। 1754. प्रतिदिन यथाशक्ति प्रत्याख्यान ग्रहण न करने पर क्षुल्लक, भिक्षु, स्थविर, उपाध्याय तथा आचार्य की क्रमशः एकासन, आयम्बिल, उपवास, बेला तथा तेले के तप से शोधि होती है। 52. कायोत्सर्ग में (निद्रा आदि प्रमाद से) विचलित होने पर, गुरु से पहले स्वयं कायोत्सर्ग पूरा करने पर, बीच में ही कायोत्सर्ग भंग करने पर, वंदना आदि न करने पर क्रमशः निर्विगय, पुरिमार्ध, एकासन तथा सर्व कायोत्सर्ग से विचलित आदि होने पर आयम्बिल तप से शोधि होती है। 1755, 1756. एक बार कायोत्सर्ग से विचलित होने पर निर्विगय, दो बार विचलित होने पर पुरिमार्ध, तीन बार विचलित होने पर एकासन तथा सम्पूर्ण कायोत्सर्ग से विचलित होने पर अथवा एक साथ प्रतिक्रमण करने पर उसकी शोधि आयम्बिल तप से होती है। उत्सार-कायोत्सर्ग सम्पन्न करने का प्रायश्चित्त इस प्रकार कहूंगा। १.प्रतिमा का अर्थ है-साधना की विशिष्ट पद्धति। श्रावक की ग्यारह तथा भिक्षु की बारह प्रतिमाएं होती हैं। भिक्षु की बारह प्रतिमाएं इस प्रकार हैं-१. एकमासिकी 2. द्विमासिकी 3. त्रैमासिकी 4. चातुर्मासिकी 5. पंचमासिकी 6. पाण्मासिकी 7. सप्तमासिकी 8. सप्त अहोरात्रिकी 9. सप्त अहोरात्रिकी 10. सप्त अहोरात्रिकी 11. एक अहारोत्रिकी १२..एकरात्रिकी। 1. विस्तार हेतु देखें दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं दशा तथा श्रीभिक्षु आगम शब्द कोश भा. 1 पृ. 438,439 / 2. गाथा के पूर्वार्द्ध का पिछली जीसू५० वीं गाथा से सम्बन्ध है अतः पुरिमार्ध तप की प्राप्ति का वहां से अध्याहार करना होगा। 3. अभिग्रह का अर्थ है-प्रतिज्ञा लेना। यह अभिग्रह चार प्रकार का होता है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 जीतकल्प सभाष्य" 1757, 1758. एक कायोत्सर्ग गुरु से पहले स्वयं पूरा करे तो निर्विगय, दो कायोत्सर्ग पूरा करने पर पुरिमार्ध, तीन कायोत्सर्ग पूरा करने पर एकासन तथा सभी कायोत्सर्ग गुरु से पहले पूरे करने पर आयम्बिल तप से शोधि होती है। कायोत्सर्ग भग्न होने पर तथा वंदना न करने पर भी उसकी शोधि इसी प्रकार होती है। 53. एक बार कायोत्सर्ग न करने पर पुरिमार्ध, दो बार न करने पर एकासन, तीन बार न करने पर .. आयम्बिल तथा सम्पूर्ण आवश्यक न करने पर उपवास प्रायश्चित्त से शोधि होती है। रात्रि में व्युत्सर्ग करने हेतु पहले भूमि की प्रतिलेखना न करने पर तथा दिन में सोने पर उसकी शोधि उपवास प्रायश्चित्त से होती है। 1759. एक बार कायोत्सर्ग न करने पर उसकी शोधि पुरिमार्ध तप से होती है। दो बार कायोत्सर्ग न करने पर एकासन तथा तीन बार न करने पर उसकी शोधि आयम्बिल तप से होती है। 1760. सम्पूर्ण आवश्यक न करने पर तथा कायोत्सर्ग की भांति वंदना न करने पर उसकी शोधि उपवास तप से होती है। 1761. गाथा के पश्चार्द्ध में रात्रि में व्युत्सर्ग करने के लिए पहले दिन में स्थण्डिल भूमि की प्रतिलेखना न करने पर साधु की शोधि उपवास तप से होती है। 1762. बिना कारण दिन में सोने पर साधु की शोधि उपवास तप से होती है। क्रोध के वशीभूत होना तथा कर्कोलक-सुगंधित द्रव्य विशेष के प्रयोग के बारे में अब वर्णन करूंगा। . 54. बहुदैवसिक क्रोध, मदिरा और कर्कोलक-सुगंधित वस्तु आदि का उपभोग करने पर उपवास तप का प्रायश्चित्त तथा लहसुन आदि का प्रयोग और गाय आदि के बछड़े को खोलने पर पुरिमार्ध तप की प्राप्ति होती है। 1763, 1764. पक्ष के अतिक्रान्त होने पर बहुत दिनों तक रहने वाला क्रोध बहुदैवसिक कहलाता है अथवा चातुर्मास के अतिरिक्त बहुत दिनों तक रहने वाला क्रोध भी बहुदैवसिक होता है। उसकी शोधि उपवास तप से होती है। आसव को विकट कहते हैं। उसको ग्रहण करने पर उपवास तप से उसकी शोधि होती है। 1765, 1766. कर्कोलक आदि सुगंधित वस्तु का सेवन करने पर मुनि की उपवास तप से शोधि होती है। आदि शब्द के ग्रहण से सुपारी, जायफल, लवंग तथा तम्बोल आदि ग्रहण करने पर प्रत्येक की शोधि उपवास तप से होती है। अचित्त लहसुन को ग्रहण करने पर तथा सूत्र (जीसू 54) में आए 'आदि' शब्द से पलंडु-प्याज ग्रहण करने पर पुरिमार्ध तप से शोधि होती है। 1767. बछड़े को बंधन-मुक्त करने पर उसकी शोधि पुरिमार्थ तप से होती है। सूत्र (जीसू 54) में आए आदि शब्द से हंस, मयूर आदि के बच्चों को भी ग्रहण करना चाहिए। 55. छिद्र रहित तृण आदि का सेवन करने पर निर्विगय, शेष पांच प्रकार के पणग का उपयोग १.जीतकल्प चूर्णि के अनुसार पुस्तक पंचक ग्रहण करने पर आयम्बिल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है तथा दूसरे चूर्णिकार के अभिमत से पुस्तक पंचक ग्रहण करने में भी परिमार्ध तप की प्राप्ति होती है। . १.जीचूप. 19; पोत्थयपणगग्गहणे आयाम....बिइयचुन्निकारमएण पोत्थयपणगे वि पुरिमड़े। Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-५५,५६ 449 करने पर पुरिमार्ध, दूष्य पंचक की प्रतिलेखना न करने पर एकासन तप की प्राप्ति होती है। त्रसकाय के वध में जिस प्रायश्चित्त की प्राप्ति विहित है, वह प्राप्त होता है। 1768. कुश आदि अशुषिर हैं। इनका अकारण परिभोग करने पर उसकी शोधि निर्विगय तप से होती है। शेष पंचविध पणग' के पुनः पांच-पांच भेद होते हैं। 1769. पुस्तक पंचक, तृण पंचक, दूष्य पंचक-इनकी सम्यक् प्रतिलेखना न करने पर अथवा दूष्य पंचक और चर्म पंचक की प्रतिलेखना न करने पर पुरिमार्ध तप से शोधि होती है। 1770. पंचविध पुस्तक' के नाम इस प्रकार हैं-१. गंडी 2. कच्छपी 3. मुष्टि 4. छिवाडी 5. संपुटक। पंचविध तृण ये हैं-शालि, ब्रीहि, कोद्रव, रालक, जंगली घास / 1771,1772. अप्रतिलेखित दूष्य पंचविध हैं-१. तूली 2. अंग-उपधान 3. गंड-उपधान 4. आलिंगिणी 5. मसूरक। दुष्प्रतिलेखित पंचविध दूष्य का दूसरा पंचक इस प्रकार हैं-१. पल्हवि 2. कोयवी-रुई से भरा हुआ कपड़ा 3. प्रावारक-कम्बल 4. नवतक-ऊन का बना हुआ आस्तरण विशेष 5. दाढ़ियाली। १.पंचविध पणग इस प्रकार हैं-पुस्तक पंचक, तृण पंचक, चर्म पंचक और द्विविध दूष्य पंचक-दुष्प्रतिलेखित दृष्यपंचक तथा अप्रतिलेखित दृष्यपंचक। २.पुस्तक पंचक की व्याख्या इस प्रकार है१. गंडी-मोटाई और चौड़ाई में तुल्य तथा चोकोर पुस्तक। 2. कच्छपी-अंत में पतली, मध्य में विस्तीर्ण तथा कम मोटाई वाली पुस्तक। 3. मुष्टि-चार अंगुल लंबी और वृत्ताकार अथवा चार अंगुल लम्बी चतुष्कोण पुस्तक। 4. छिवाडी-लम्बी या छोटी, विस्तीर्ण और कम मोटाई वाली पुस्तक अथवा पतले पन्ने वाली ऊंची पुस्तक। 5. संपुटफलक-दोनों ओर जिल्द बंधी पुस्तक। आचार्य महाप्रज्ञ ने 'पुस्तक' शब्द पर भाष्य लिखते हुए कहा है कि भाषाशास्त्रीय दृष्टि से 'पुस्त' शब्द "पहलवी' भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है-चमड़ा। चमड़े में चित्र आदि बनाए जाते थे। उसमें भी ग्रंथ लिखे जाते थे इसलिए उसका नाम पुस्तक हो गया। हरिभद्रसूरि ने पुस्तकर्म का अर्थ वस्त्रनिर्मित पुतली, वर्तिका से लिखित पुस्तक तथा ताड़पत्रीय प्रति किया है। बृहत्कल्पभाष्य में पुस्तकपंचक रखने में होने वाली यतना को चार दृष्टान्तों से समझाया है। १.निभा 4000 चू पृ. 320, 321; दीहो बाहल्लपुहत्तेण तुल्लो चउरंसो गंडीपोत्थगो।अंते तणुओ, मझे पिहुलो, अप्पबाहल्लो कच्छवी। चउरंगुलदीहो वृत्ताकृती मुट्ठीपोत्थगो। अहवा चउरंगुलदीहो चउरस्सो मुट्ठिपोत्थगो। दुमाइफलगसंपुडं दीहो हस्सो वा पिहुलो अप्पबाहल्लो छेवाडी।अहवा तणुपत्तेहिं उस्सीओ छेवाडी। 2. अनु 1/10 का टिप्पण पृ.१९। 3. बृभा 3827-30 / ३.तूली-रुई से भरा हुआ मोटा बिछौना, उपधान-तकिया, गंडउपधान-कपोल पर लगाया जाने वाला तकिया, आलिंगिणी-शरीर प्रमाण उपधान, मसूरक-वस्त्र या चर्म का वृत्ताकार आसन। ४.जीतकल्प चूर्णि एवं बृहत्कल्पभाष्य में दुष्प्रतिलेखित दूष्य पंचक के नामों में कुछ अंतर है-१. कोयवी 2. प्रावारक 3. पूरी-स्थूल सणमय डोरी से निष्पन्न वस्त्र 4. दाढ़ियाली 5. विराली-द्विसर वाली सूत्रपटी। - 1. जीचू पृ. 19, बृभा 3823 टी पृ. 1054 / Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 जीतकल्प सभाष्य 1773. चर्म पंचक इस प्रकार है-१. गाय 2. महिष 3. अजा 4. एलक 5. तथा मृग / 1774. अथवा दूसरा चर्मपञ्चक इस प्रकार है-१. तलिका 2. खल्लक' 3. वर्ध 4. कोशक 5. कत्ती —इन पांचों पंचक के भेद स्वयं व्याख्यायित करने चाहिए। 56. गुरु की आज्ञा के बिना स्थापना कुल में प्रवेश और निगमन करने पर तथा वीर्य का गोपन करने पर जीतव्यवहार से एकासन प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है तथा शेष अन्य प्रकार की माया. करने पर उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1775. दानश्राद्ध आदि के स्थापना-कुलों में गुरु से बिना पूछे प्रवेश-निगर्मन तथा भक्तपान आदि ग्रहण करने पर एकासन प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1776. वीर्य, सामर्थ्य, पराक्रम-ये तीनों शब्द एकार्थक हैं। गूहन, गोपन, णूमन, पलिकुंचन-ये चारों शब्द माया के एकार्थक हैं। 1. आधे या पूरे पैर का जूता। निशीथ चूर्णि के पाद-टिप्पण में उल्लेख है कि जो आधे पैर को आच्छादित करता है, वह अर्धखल्लक है तथा जो सम्पूर्ण पैर को आच्छादित करता है, वह समस्त खल्लक है। १.निचू भा. 2 पृ.८७ ; या पादार्धमाच्छादयति सा अर्धखल्लका।या च सम्पूर्णपादमाच्छादयति सा समस्तखल्लका। 2. पाषाण आदि से प्रतिस्खलित होकर पैर के नख भग्न न हों, इस बुद्धि से अंगुलि और अंगुष्ठ को जिससे आच्छादित किया जाता है, वह कोशक है। निशीथ भाष्य में वग्गुरी, खपुस आदि उपानत् तथा इनसे सम्बन्धित प्रायश्चित्त का विस्तार से वर्णन है। विस्तार हेतु देखें निभा 914-47 / १.निचू भा. 2 पृ. 87 ; यत्र तु पाषाणादिषु प्रतिस्खलिताः पादनखा मा भज्यन्तामिति बुद्ध्याङ्गुलिरंगुष्ठो वा प्रक्षिप्यते स कोशकः। 3. दान देने वाले श्रद्धालु, यथाभद्र श्रावक आदि के घर स्थापना कुल कहलाते हैं। इन कुलों में एक संघाटक आहार लेकर निर्गमन कर देता है तो शेष उस कुल में प्रवेश नहीं करते। स्थापना कुल का दूसरा अर्थ है-जो स्थाप्यअभोज्य कुल है, वह स्थापना कुल कहलाता है। इसका अन्य अर्थ है-गीतार्थ द्वारा स्थापित विशिष्ट कुला निशीथ सूत्र एवं उसके व्याख्या साहित्य में स्थापना कुल का विस्तार से वर्णन मिलता है। स्थापना कुल दो प्रकार का होता है-लौकिक और लोकोत्तर / लौकिक स्थापना कुल-सूतक और मृतक वाले कुल इत्वरिक काल के लिए निषिद्ध स्थापित होते हैं लेकिन जो कुल, कर्म, शिल्प और जाति आदि से जुगुप्सित या अभोज्य होते हैं, वे यावत्कथिक स्थापना कुल हैं। लोकोत्तर स्थापना कुल भी दो प्रकार के होते हैं -वसति से संबद्ध-उपाश्रय के पास वाले सात घर सम्बद्ध कहलाते हैं। इनमें आधाकर्म की संभावना रहती है अत: वहां से आहार-पानी नहीं लेना चाहिए। वसति से असम्बद्ध, श्रद्धालु, अणुव्रती, सम्यग्दृष्टि आदि के कुल गीतार्थ के अलावा शेष के लिए निषिद्ध होते हैं अथवा अप्रीतिकर कुल सर्वथा स्थाप्य होते हैं। बिना पृच्छा के स्थापनाकुलों में प्रवेश करने वाला लघुमासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। १.जीचूप.१९; दाणसङ्क-अहाभद्दसन्निमाईणि ठवणकुलाणि..तेस्य कुलेसएगोचेव संघाडगोणिव्विसइ सेसा न पविसंति। २.निचू२ पृ. 243 ठप्पा कुला ठवणाकुला अभोज्ज इत्यर्थः।साधुठवणाए वा ठविज्जति त्ति ठवणकुला सेज्जातरादित्यर्थः / / 3. निभा 1617, 1618 चू. पृ. 243 / 4. निभा 1619-22 चू. पृ. 244 / Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-५७-६० 451 1777. वीर्य का गोपन करने वाले ऐसे माया युक्त साधु को जीत व्यवहार से एकासन तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। श्रुत व्यवहार के अनुसार अन्यथा प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है। अब शेष माया का वर्णन करूंगा। 1778, 1779. पहले अच्छा-अच्छा भोजन करके यश की इच्छा से मायापूर्वक आचार्य के पास विवर्ण और विरस आहार इस चिन्तन से करना जिससे वे समझें कि यह साधु रूक्ष वृत्ति वाला, महाभाग, जितेन्द्रिय और रस-परित्याग करने वाला है तथा अंत और प्रान्त खाकर जीवन-यापन करता है। (इसका प्रायश्चित्त उपवास तप है) 57. दर्प-निष्कारण पंचेन्द्रिय प्राणी का व्यपरमण, संक्लिष्ट कर्म, दीर्घ मार्ग में फल आदि का सेवन, ग्लानत्व के समय सकारण अतिचार सेवन होने पर अंत में शोधि करनी चाहिए। 1780. दर्प अर्थात् निष्कारण वल्गन-कूदना, दौड़ना और डेवण-उल्लंघन करना, पंचेन्द्रिय का व्यपरोपण करना दर्प प्रतिसेवना है। व्यपरोपण, अपद्रावण और विराधना-ये तीनों शब्द एकार्थक हैं। 1781. संक्लिष्ट कर्म, जैसे-हस्तकर्म, अंगादान आदि तथा लम्बे रास्ते में आधाकर्मिक प्रलम्ब फल आदि बहत मात्रा में सेवन करने पर। 1782. दीर्घकालिक रोग की स्थिति में आधाकर्म का सेवन, सन्निधि रखने तथा अधिक अतिचार सेवन करने से रोग का अवसान होने पर शोधि करनी चाहिए। 1783. उपर्युक्त यथोद्दिष्ट पंचेन्द्रिय-व्यपरमण से लेकर ग्लानत्व पर्यन्त प्रत्येक दोष की शोधि पंचकल्याणक से होती है। 58. सर्व उपधि का कल्प होने पर, प्रथम और अंतिम प्रहर में प्रतिलेखना न करने पर चातुर्मासिक और वार्षिक आलोचना में पंचकल्याणक से शोधि होती है। .1784, 1785. चातुर्मास काल में सर्व उपधि में यतना रखने पर भी कल्पिका शोधि होती है। प्रथम और अंतिम प्रहर में प्रमाद से प्रतिलेखना नहीं करने पर, उपधि धोने के बाद प्रथम और अंतिम प्रहर में प्रतिलेखना न करने पर-इन सबकी शोधि पंचकल्याणक से होती है। 1786. चातुर्मासिक और सांवत्सरिक आलोचना करने पर निरतिचार होने पर भी नियमतः शोधि हेतु पंचकल्याणक का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1787. शिष्य प्रश्न पूछता है कि निरतिचार रहने पर भी किस कारण से प्रायश्चित्त देना चाहिए? आचार्य उत्तर देते हैं कि कभी-कभी सूक्ष्म अतिचार लगने पर भी कदाचित् व्यक्ति जान नहीं पाता कि अतिचार दोष लगा है क्या? 1788, 1789. अथवा कभी-कभी व्यक्ति को अतिचार दोष याद नहीं आते हैं, जैसे-प्रादोषिक, अर्धरात्रिक, वैरात्रिक और प्राभातिक काल अग्रहण करने पर, सूत्रार्थ पौरुषी न करने पर अथवा दुष्प्रतिलेखन या दुष्प्रमार्जन करने पर उसकी शोधि पंचकल्याणक से होती है। Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 जीतकल्प सभाष्य 59. छेद आदि प्रायश्चित्त में श्रद्धा नहीं रखने वाले को, मृदु' तथा पर्याय-गर्वित को छेद आदि प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी तप प्रायश्चित्त देना चाहिए। जीतव्यवहार से गणाधिपति आचार्य को छेद प्रायश्चित्त की प्राप्ति होने पर भी तपोर्ह प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1790. शिष्य प्रश्न पूछता है कि विपुल तप नहीं करते हुए भी मुनि केवल छेद और मूल प्रायश्चित्त से . कैसे शुद्ध हो जाता है? आचार्य उत्तर देते हैं कि गुरु की आज्ञा मात्र से उसकी शुद्धि हो जाती है। जो छेद आदि प्रायश्चित्त में श्रद्धा नहीं करता, उसे तप प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1791. छेद और मूल प्रायश्चित्त दिए जाने पर भी जो मृदु और प्रसन्न रहता है, छेद मिलने पर भी जो वंदनीय रहता है, अवमरात्निक नहीं होता, उसको तीन बार तप प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1792, 1793. गर्वित साधु दो प्रकार का होता है-१. चिर पर्याय 2. तपबलिक। छेद प्रायश्चित्त देने पर दीर्घ पर्याय आदि के कारण साधु गर्वित होता है कि इतने पर्याय का छेद हुआ, फिर भी मैं तुमसे रात्निक हूं। इस प्रकार गर्व करने वाले को चिरपर्याय गर्वित जानना चाहिए। 1794. मैं तपबलिक हूं, मैं तप में समर्थ हूं अतः मुझे प्रायश्चित्त में तप दो, इस प्रकार जो गर्वित होता है, उसके दोष को दूर करने के लिए विपरीत प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1795, 1796. छेद प्रायश्चित्त प्राप्त गणाधिपति आचार्य की अपरिणत शैक्ष आदि में अवहेलना न हो अतः बुद्धि, बल, संहनन को जानकर तथा त्रिविध ग्रीष्म आदि ऋतुओं को जानकर दोष को हरने वाला तपोर्ह प्रायश्चित्त दिया जाता है। 60. यहां जीतव्यवहार में जिस-जिस प्रायश्चित्त की आप्राप्ति एवं उसके दान का संक्षेप में वर्णन नहीं किया है, वहां भिन्नमास से लेकर छहमास पर्यन्त प्रायश्चित्त कहूंगा। 1797, 1798. जिस दोष के बारे में जीतव्यवहार के द्वारा प्रायश्चित्त-दान के बारे में संक्षिप्त वर्णन नहीं है, उसकी विशोधि पणग प्रायश्चित्त से होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त निर्विगयं आदि होता है। यहां मैं विशेष रूप से कुछ कहूंगा। सूत्र में आए संक्षेप और समास शब्द एकार्थक हैं। यहां जीतव्यवहार से सब अतिचारों के प्रायश्चित्त का वर्णन क्यों नहीं किया? 1. आदि' शब्द से मूल, अनवस्थाप्य तथा पाराञ्चिक प्रायश्चित्त प्राप्तकर्ता को भी ग्रहण करना चाहिए।' १.जीचू पृ.२० आइसद्देण मूलाणवट्ठपारंचियपयावन्नाण वि। २.जो पर्याय के छेद होने पर भी संतप्त नहीं होता, वह मद होता है। १.जीचू पृ. 20; मिउणो त्ति जो छिज्जमाणे वि परियाए न संतप्पड़, जहा मे परियाओ छिन्नो त्ति। 59 में आए 'च' शब्द से आचार्य के अतिरिक्त कुल, गण और संघ के आचार्य को भी ग्रहण करना चाहिए। उन्हें भी जीत प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर तप प्रायश्चित्त दिया जाता है। 4. प्रायश्चित्त स्थान की प्राप्ति अप्राप्ति है। वह प्रायश्चित्त-प्राप्ति निशीथ, बृहत्कल्प और व्यवहारसूत्र में वर्णित है।' १.जीचू प २०;आवत्ती पायच्छित्तट्टाणसंपत्ती,साय निसीहकप्पववहाराभिहिया। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-६१-६६ 453 1799. प्रायश्चित्त किस सूत्र में वर्णित हैं? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि निशीथ, कल्प और व्यवहार में आज्ञा आदि व्यवहार का वर्णन सूत्रतः और अर्थतः विस्तार से कहा गया है। 1800. पणग (निर्विगय) से लेकर छह मास पर्यन्त अनेकविध प्रायश्चित्त-प्राप्ति का वर्णन निशीथ आदि सूत्रों में विस्तार से कहा गया है। 1801. यहां जीतव्यवहार के द्वारा निष्पन्न प्रायश्चित्त-प्राप्ति और उसके दान का संक्षेपतः वर्णन है। भिन्नमास से लेकर छहमास पर्यन्त जीतव्यवहार का यहां वर्णन करूंगा। 61. भिन्नमास सामान्य होता है। गुरुमास, लघुमास, चतुर्लघु, चतुर्गुरु, षड्गुरु और षड्लघु में निर्विगय से लेकर तेले की तपस्या तक का प्रायश्चित्त दिया जाता है। 1802. भिन्नमास' यह सामयिकी संज्ञा है, जिसका अर्थ है पच्चीस दिन / यह अविशिष्ट-एक ही प्रकार का होता है। विशिष्ट के बारे में इस प्रकार जानना चाहिए। 1803-05. पणग, दस, पन्द्रह, बीस, पच्चीस से लेकर निर्विकृतिक तक लघुमास में पुरिमार्ध, गुरुमास में एकासन, चतुर्लघुमास में आयम्बिल, चतुर्गुरुमास में उपवास, छह लघुमास में बेला, छह गुरुमास में तेला तप की प्राप्ति होती है। 1806. निर्विगय से लेकर तेले तक का तथा भिन्नमास से लेकर क्रमशः छह मास पर्यन्त प्रायश्चित्त दिया जाता है। 62. इस प्रकार सिद्धान्त में अभिहित सर्व प्रायश्चित्त-प्राप्ति के तप को जानकर यथाक्रम से जीतव्यवहार से निर्विगय आदि प्रायश्चित्त-दान देना चाहिए। 1807. इस क्रम से सर्व प्रायश्चित्त की प्राप्ति पणग आदि से लेकर छह मास पर्यन्त होती है। 1808. निर्विगय से लेकर तेले पर्यन्त सारा तप होता है। जीत व्यवहार से क्रमशः निर्विगय आदि तप का दान दिया जाता है। 1809. सूत्र (गा. 62) में निर्दिष्ट यथाभिहित का अर्थ है-सिद्धान्त में जिस रूप में निर्दिष्ट है, सामान्य रूप से संक्षेप में इसे जानना चाहिए। 63. यह सारा प्रायश्चित्त सामान्यतः बहुलता से निर्दिष्ट है। विस्तार से प्रायश्चित्त-दान द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के भेदों से जानना चाहिए। 1810. सूत्र (गा. 63) में प्रयुक्त 'एयं' शब्द यथोद्दिष्ट का वाचक है। 'पुण' शब्द विशेषण के रूप में जानना चाहिए। सारा प्रायश्चित्त-दान बहुलता से वर्णित है। 1811. सूत्र 63 में आए सामान्य का अर्थ है-अविशेषित, विनिर्दिष्ट का अर्थ है-विशेष रूप से १.चूर्णिकार के अनुसार भिन्नमास अनेक प्रकार का होता है, फिर भी वह एक ही गृहीत होता है। / १.जीचू पृ. 20; एस भिन्नमासो बहुभेओ वि एक्को चेव घेप्पड्। Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 जीतकल्प सभाष्य / चाहिए। निर्दिष्ट। प्रायश्चित्त-दान निर्विकृतिक आदि हैं। विभाग का अर्थ है-विस्तार से देना। 1812. आदि शब्द से द्रव्य आदि के क्रम से प्रतिसेवना तक ग्रहण करना चाहिए। आचार्य को विशेष रूप से द्रव्य (क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष और प्रतिसेवना) आदि देखकर कम प्रायश्चित्त भी देना चाहिए। 1813. अथवा अधिक अपराध जानकर जीत व्यवहार से अधिक प्रायश्चित्त भी देना चाहिए अथवा.. श्रुतोपदेश से उतना ही प्रायश्चित्त देना चाहिए। 64. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष और प्रतिसेवना को जानकर उतनी ही मात्रा में कम या ज्यादा प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1814, 1815. आहार आदि द्रव्य, रूक्ष या स्निग्ध आदि क्षेत्र, ग्रीष्म आदि काल, हृष्ट या ग्लान आदि भाव, गीतार्थ या अगीतार्थ पुरुष तथा जानबूझ कर की जाने वाली प्रतिसेवना आदि को जानकर जीतव्यवहार के अनुसार हीन या अधिक प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1816. द्रव्य आदि को जानकर कम, अधिक या उतनी ही मात्रा में प्रायश्चित्त देना चाहिए। यदि द्रव्य आदि हीन हैं तो कम प्रायश्चित्त तथा द्रव्य आदि अधिक हैं तो अधिक प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1817. द्रव्यादि का अक्षरार्थ क्रमशः वर्णित कर दिया गया, अब आचार्य पुनः द्रव्यादि को विस्तार से कहेंगे। 65. आहार आदि द्रव्य जिस क्षेत्र में अधिक मात्रा में या सुलभ हों, वहां अधिक प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है तथा जहां सामान्य धान्य भी कम मात्रा में या दुर्लभ हो, वहां कम प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है। 1818, 1819. द्रव्य की दृष्टि से आहार आदि द्रव्य जिस क्षेत्र में अधिक होते हैं, जैसे सजल देश में शालिधान्य स्वभावतः अधिक होते हैं, वहां वे नित्य सुलभ रहते हैं। शेष काल, भाव को भी ऐसे ही समझना चाहिए। 1820. यह जानकर जीतव्यवहार के आधार पर प्रायश्चित्त दिया जाता है। जहां वनस्पति में केवल वल्ल और कलम शालि आदि होते हैं, वहां प्रायश्चित्त अधिक दिया जाता है। 1821. कांजिक आदि रूक्ष आहार कम या दुर्लभ हो तो वहां जीतव्यवहार के अनुसार कम प्रायश्चित्त देना चाहिए। 66. क्षेत्र तीन प्रकार के होते हैं रूक्ष, शीतल और सामान्य। शीत क्षेत्र में अधिक तथा रूक्ष क्षेत्र में हीनतर प्रायश्चित्त देना चाहिए। इसी प्रकार त्रिविध काल में जानना चाहिए। 1822. रूक्ष का अर्थ है-स्नेहरहित, वह क्षेत्र, वात और पित्त को उत्पन्न करने वाला होता है। शीत क्षेत्र बलप्रद होता है अथवा सजल क्षेत्र शीतल होता है। 1. ग्रीष्मकाल रूक्ष, हेमन्तकाल साधारण तथा वर्षाकाल स्निग्ध होता है। १.जीचू पृ. 21; गिम्हो लुक्खो कालो।साहारणो हेमन्तो।वासारत्तो निद्धो। Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-६७ 455 1823. साधारण क्षेत्र वह होता है, जो न अधिक स्निग्ध हो और न अधिक रूक्ष / इस प्रकार त्रिविध क्षेत्र के प्रायश्चित्त-दान को कहूंगा। 1824. जीत व्यवहार से स्निग्ध क्षेत्र (शीतल) में अधिक प्रायश्चित्त भी देना चाहिए। साधारण क्षेत्र में उतनी ही मात्रा में तथा रूक्ष क्षेत्र में हीनतर प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1825. रूक्ष आदि तीनों प्रकार के क्षेत्र का संक्षेप में वर्णन कर दिया। अब त्रिविध ग्रीष्म आदि काल के बारे में संक्षेपतः कहूंगा। 67. नवविध श्रुतव्यवहार के उपदेश से विधि जानकर ग्रीष्म ऋतु में उत्कृष्ट तेला, शिशिर में चोला तथा वर्षाकाल में पंचोला तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1826. ग्रीष्म आदि ऋतु में उपवास, शीतकाल आने पर बेला तथा वर्षाकाल में तेले का प्रायश्चित्त देना चाहिए, यह जघन्य तप है। 1827. ग्रीष्मकाल में बेला, शीतऋतु में तेला तथा वर्षाकाल में चोले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए, यह मध्यम तप है। 1828. ग्रीष्म ऋतु में तेला, सर्दी में चोला तथा वर्षाकाल में पंचोला-यह उत्कृष्ट तप-शोधि है। 1829. यथाक्रम से ग्रीष्म आदि ऋतु का तप संक्षेप में वर्णित है। इसको कैसे देना चाहिए, यह पूछने पर आचार्य कहते हैं कि नवविध श्रुतोपदेश से प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1830. श्रुतव्यवहार से अथवा नवभेद के अनेक विकल्पों को सूक्ष्मता से जानकर त्रिविध काल में प्रायश्चित्त देना चाहिए। नवविध व्यवहार इस प्रकार है१८३१. यथालघुस्वक, लघुस्वतर, लघुस्व-यह लघुस्वक पक्ष में तथा यथालघुक, लघुतर तथा लघुकये तीन लघुकपक्ष में होते हैं। * 1832. गुरुक, गुरुकतर तथा यथागुरुक-ये गुरुपक्ष में होते हैं, यह नवविध व्यवहार है, इनमें तप रूप प्रायश्चित्त की प्राप्ति कहूंगा। 1833. पांच, दस और पन्द्रह दिन-यह त्रिविध प्रायश्चित्त लघुस्वक पक्ष में तथा बीस, पच्चीस और तीस दिन का प्रायश्चित्त लघुकपक्ष में प्राप्त होता है। 1834. गुरुमास, चतुर्मास तथा षण्मास-यह गुरुपक्ष में प्रायश्चित्त प्राप्ति होती है। यह नवविध प्रायश्चित्तप्राप्ति है, अब मैं नवविध प्रायश्चित्त-दान को कहूंगा। 1835. लघुस्वक पक्ष में निर्विगय, पुरिमार्ध, एकासन तथा लघुक पक्ष में आयम्बिल, उपवास और बेला प्राप्त होता है। . . 1836. तेला, चोला और पंचोला-इस त्रिविध तप का दान गुरुपक्ष में होता है। यह नवविध तप की प्राप्ति मैंने संक्षेप में कही है। 1837. यह लघुस्वक आदि नवविध व्यवहार कहा गया है। अब मैं ओघ और विभाग से गुरुलघु आदि व्यवहार को कहूंगा। Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 जीतकल्प सभाष्य - 1838. (व्यवहार के तीन प्रकार हैं-गुरुक, लघुक और लघुस्वक) गुरुक के तीन प्रकार हैं-गुरुक, गुरुकतर और यथागुरुक / लघुक के तीन प्रकार हैं-लघुक, लघुकतर तथा यथालघुक। 1839. लघुस्वक के तीन प्रकार हैं-लघुस्वक, लघुस्वतर तथा यथालघुस्व / इन नवविध व्यवहारों का यथाक्रम से प्रायश्चित्त कहूंगा। 1840. गुरुक व्यवहार मासपरिमाण वाला होता है। गुरुकतर चातुर्मास परिमाण वाला और यथागुरुक छह . मास परिमाण वाला होता है। गुरुक पक्ष में यह प्रायश्चित्त की प्रतिपत्ति है। 1841. लघुक व्यवहार तीस दिन परिमाण, लघुकतर पच्चीस दिन और यथालघुक बीस दिन परिमाण वाला होता है, यह लघुक पक्ष में प्रायश्चित्त की प्रतिपत्ति है। लघुस्वक व्यवहार पन्द्रह दिन, लघुस्वतर दश दिन और यथालघुस्वक पांच दिन प्रायश्चित्त परिमाण वाला होता है। यह लघुस्वक पक्ष में प्रायश्चित्त की. प्रतिपत्ति है। 1842. एक मास परिमाण वाले गुरुक व्यवहार में तेला, चातुर्मास प्रमाण वाले गुरुकतर व्यवहार में चोला तथा छह मास प्रमाण वाले यथागुरुक व्यवहार में पंचोले तप की प्राप्ति होती है। यह गुरुक पक्ष में तप विषयक प्रतिपत्ति है। 1843. तीस दिन प्रमाण वाले लघक व्यवहार में बेला. पच्चीस दिन प्रमाण वाले लघकतर व्यवहार में उपवास तथा बीस दिन प्रमाण वाले यथालघुक व्यवहार में आयम्बिल तप की प्राप्ति होती है। (यह लघुकपक्ष में तप विषयक प्रतिपत्ति है।) पन्द्रह दिन वाले लघुस्वकव्यवहार में एकस्थान' (एकलठाणा), दस दिन प्रमाण वाले लघुस्वतरक व्यवहार में पुरिमार्ध तथा पांच दिन प्रमाण वाले यथालघुस्वक व्यवहार में निर्विगय तप की प्राप्ति होती है। अथवा यथालघुस्वक व्यवहार शुद्ध होता है अर्थात् इसमें कोई प्रायश्चित्त की प्राप्ति नहीं भी होती। 1844. व्यवहार, आरोपण, शोधि और प्रायश्चित्त-ये सब एकार्थक हैं। यथालघुस्वक में प्रायश्चित्त की प्रस्थापना कम होती है। 1845. ओघ रूप से प्रायश्चित्त का वर्णन किया गया। अब मैं विभाग-विस्तार से वर्णन करूंगा। गुरुक, लघुक और लघुस्वक-ये तीनों नौ, सत्तावीस और इक्यासी भेद वाले भी होते हैं। 1846, 1847. गुरुपक्ष, लघुपक्ष, लघुस्वकपक्ष-ये तीन भेद होते हैं। प्रत्येक के उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य भेद कहूंगा। गुरुपक्ष में उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य-तीन भेद होते हैं। लघुक और लघुस्वक पक्ष में भी उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य भेद होते हैं। 1848. गुरुपक्ष में छहमास और पांच मास उत्कृष्ट, चार मास और तीन मास मध्यम तथा दो मास और गुरुमास जघन्य होता है। 1. दिन में 48 मिनिट में एक आसन में एक बार भोजन करना एकस्थान कहलाता है। इसमें शरीर का संकोच-विकोच और संभाषण विहित नहीं है। Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-६७ 457 1849. लघुमास, भिन्नमास तथा बीस दिन-ये त्रिविध लघुपक्ष में प्राप्त होते हैं। पन्द्रह, दश और पांच दिन-ये लघुस्वक में उत्कृष्ट आदि त्रिविध प्रायश्चित्त होते हैं। 1850. नव भेद की तप-प्राप्ति के बारे में संक्षेप में वर्णन किया। अब सत्तावीस प्रकार के तप-दान का वर्णन इस प्रकार है१८५१, 1852. गुरुपक्ष, लघुपक्ष और लघुस्वक पक्ष में प्रत्येक के नौ-नौ भेद होते हैं-उत्कृष्टउत्कृष्ट, उत्कृष्ट-मध्यम तथा उत्कृष्ट-जघन्य, मध्यम-उत्कृष्ट, मध्यम-मध्यम और मध्यम-जघन्य, जघन्य-उत्कृष्ट, जघन्य-मध्यम तथा जघन्य-जघन्य। . 1853, 1854. उत्कृष्ट-उत्कृष्ट, उत्कृष्ट-मध्यम, उत्कृष्ट-जघन्य, मध्यम-उत्कृष्ट, मध्यम-मध्यम और मध्यम-जघन्य, जघन्य-उत्कृष्ट, जघन्य-मध्यम तथा जघन्य-जघन्य-यह नवविध व्यवहार लघुपक्ष में होता है। 1855, 1856. उत्कृष्ट-उत्कृष्ट, उत्कृष्ट-मध्यम, उत्कृष्ट-जघन्य, मध्यम-उत्कृष्ट, मध्यम-मध्यम तथा मध्यम- जघन्य, जघन्य-उत्कृष्ट, जघन्य-मध्यम और जघन्य-जघन्य-यह नवविध व्यवहार लघुस्वक पक्ष में जानना चाहिए। 1857. छह और पांच मास में उत्कृष्ट आदि त्रिविध प्रायश्चित्त-दान इस प्रकार होता है-पंचोला, चोला और तेला। चतुर्मास और तीन मास में चोला, तेला और बेला---ये उत्कृष्ट आदि त्रिविध प्रायश्चित्त हैं। 1858. दो मास और गुरुमास में उत्कृष्ट आदि त्रिविध प्रायश्चित्त-दान इस प्रकार हैं-तेला, बेला और उपवास। यह गुरु पक्ष का नवविध व्यवहार है। 1859. लघुमास का उत्कृष्ट आदि त्रिविध प्रायश्चित्त-दान चोला, तेला और बेला तथा भिन्नमास में उत्कृष्ट आदि त्रिविध प्रायश्चित्त-दान तेला, बेला और उपवास प्राप्त होता है। .1860. बीस दिन में उत्कृष्ट आदि त्रिविध प्रायश्चित्त-दान बेला, उपवास और आयम्बिल है। यह लघुपक्ष का दूसरा नवविध व्यवहार जानना चाहिए। 1861. पन्द्रह दिन में उत्कृष्ट आदि त्रिविध प्रायश्चित्त-दान तेला, बेला और उपवास तथा दस दिन में बेला, उपवास और आयम्बिल-ये विविध प्रायश्चित्त-दान हैं। 1862. पणग-पांच दिन-रात में उत्कृष्ट आदि प्रायश्चित्त-दान उपवास, आयम्बिल और एकासन प्राप्त होता है। यह तृतीय लघुस्वक पक्ष का नवविध व्यवहार है। यह वर्षाकाल में सत्तावीस प्रकार का व्यवहार है। 1863. शिशिरकाल में चोले आदि से लेकर पुरिमार्ध तक चारणिका भेद से अर्ध-अपक्रान्ति से सत्तावीस भेद होते हैं। 1864. ग्रीष्मकाल में तेला आदि से लेकर निर्विगय तक चारणिका भेद से अर्ध अपक्रान्ति से सत्तावीस भेद होते हैं। Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 जीतकल्प सभाष्य 1865. अब मैं वर्षा, शिशिर और ग्रीष्म में उत्कृष्ट-उत्कृष्ट आदि तथा गुरुक, लघुक आदि की चारणिका संक्षेप में कहूंगा। 1866. वर्षाकाल में यथागुरुक के उत्कृष्ट-उत्कृष्ट में पंचोला, उत्कृष्ट-मध्यम में चोला तथा उत्कृष्टजघन्य में तेले तप की प्राप्ति होती है। 1867. शिशिर काल में यथागुरुक के उत्कृष्ट-उत्कृष्ट में चोला, उत्कृष्ट-मध्यम में तेला तथा उत्कृष्टजघन्य में बेला तप की प्राप्ति होती है। 1868. ग्रीष्मकाल में यथागुरुक के उत्कृष्ट-उत्कृष्ट में तेला, उत्कृष्ट-मध्यम में बेला तथा उत्कृष्टजघन्य में उपवास तप की प्राप्ति होती है। 1869. वर्षाकाल में गुरुकतर के मध्यम-उत्कृष्ट में चोला, मध्यम-मध्यम में तेला तथा मध्यम-जघन्य में बेले के तप की प्राप्ति होती है। 1870. शिशिरकाल में गुरुकतर के मध्यम-उत्कृष्ट में तेला, मध्यम-मध्यम में बेला तथा मध्यम-जघन्य में उपवास तप की प्राप्ति होती है। 1871. ग्रीष्मकाल में गुरुक के मध्यम-उत्कृष्ट में बेला, मध्यम-मध्यम में उपवास तथा मध्यम-जघन्य में आयम्बिल तप की प्राप्ति होती है। 1872. वर्षाकाल में गुरुक के जघन्य-उत्कृष्ट में तेला, जघन्य-मध्यम में बेला तथा जघन्य-जघन्य में उपवास तप की प्राप्ति होती है। 1873. शिशिरकाल में गुरुक के जघन्य-उत्कृष्ट में बेला, जघन्य-मध्यम में उपवास तथा जघन्य-जघन्य में आयम्बिल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1874. ग्रीष्मकाल में गुरुक के जघन्य-उत्कृष्ट में उपवास, जघन्य-मध्यम में आयम्बिल तथा जघन्यजघन्य में एकासन तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1875. वर्षाकाल में लघुक के उत्कृष्ट-उत्कृष्ट में चोला, उत्कृष्ट-मध्यम में तेला तथा उत्कृष्ट-जघन्य में बेले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1876. शिशिरकाल में लघुक के उत्कृष्ट-उत्कृष्ट में तेला, उत्कृष्ट-मध्यम में बेला तथा उत्कृष्टजघन्य में उपवास तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1877. ग्रीष्मकाल में लघुक पक्ष के उत्कृष्ट-उत्कृष्ट में बेला, उत्कृष्ट-मध्यम में उपवास तथा उत्कृष्ट-जघन्य में आयम्बिल तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1878. वर्षाकाल में लघुकतर के मध्यम-उत्कृष्ट में तेला, मध्यम-मध्यम में बेला तथा मध्यम-जघन्य में उपवास तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1879. शिशिरकाल में लघुकतर के मध्यम-उत्कृष्ट में बेला, मध्यम-मध्यम में उपवास तथा मध्यमजघन्य में आयम्बिल तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-६७ 459 1880. ग्रीष्मकाल में लघुकतर के मध्यम-उत्कृष्ट में उपवास, मध्यम-मध्यम में आयम्बिल तथा मध्यम-जघन्य में एकासन तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1881. वर्षाकाल में यथालघुक के जघन्य-उत्कृष्ट में बेला, जघन्य-मध्यम में उपवास तथा जघन्यजघन्य में आयम्बिल तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1882. शिशिरकाल में यथालघुक के जघन्य-उत्कृष्ट में उपवास, जघन्य-मध्यम में आयम्बिल तथा जघन्य-जघन्य में एकासन तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1883. ग्रीष्मकाल में यथालघुक के जघन्य-उत्कृष्ट में आयम्बिल, जघन्य-मध्यम में एकासन तथा जघन्य-जघन्य में पुरिमार्ध तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1884. वर्षाकाल में लघुस्वक के उत्कृष्ट-उत्कृष्ट में तेला, उत्कृष्ट-मध्यम में बेला तथा उत्कृष्टजघन्य में उपवास तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1885. शिशिरकाल में लघुस्वक के उत्कृष्ट-उत्कृष्ट में बेला, उत्कृष्ट-मध्यम में उपवास तथा उत्कृष्टजघन्य में आयम्बिल तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1886. ग्रीष्मकाल में लघुस्वक के उत्कृष्ट-उत्कृष्ट में उपवास, उत्कृष्ट-मध्यम में आयम्बिल तथा उत्कृष्ट-जघन्य में एकासन तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। . 1887. वर्षाकाल में लघुस्वतर पक्ष के मध्यम-उत्कृष्ट में बेला, मध्यम-मध्यम में उपवास तथा मध्यमजघन्य में आयम्बिल तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1888. शिशिरकाल में लघुस्वतर पक्ष के मध्यम-उत्कृष्ट में उपवास, मध्यम-मध्यम में आयम्बिल तथा मध्यम-जघन्य में एकासन तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1889. ग्रीष्मकाल में लघुस्वतर के मध्यम-उत्कृष्ट में आयम्बिल, मध्यम-मध्यम में एकासन तथा मध्यम-जघन्य में पुरिमार्ध तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1890. वर्षाकाल में यथालघुस्व के जघन्य-उत्कृष्ट में उपवास, जघन्य-मध्यम में आयम्बिल तथा जघन्य-जघन्य में एकासन तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1891. शिशिरकाल में यथालघुस्व के जघन्य-उत्कृष्ट में आयम्बिल, जघन्य-मध्यम में एकासन तथा जघन्य-जघन्य में पुरिमार्ध तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1892. ग्रीष्मकाल में यथालघुस्व के जघन्य-उत्कृष्ट में एकासन, जघन्य-मध्यम में पुरिमार्ध तथा जघन्य-जघन्य में निर्विगय तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1893. इन स्थानों से नियमतः इन प्रायश्चित्तों की प्राप्ति होती है, इन सबका वहन करना चाहिए। असमर्थ साधु का प्रायश्चित्त क्रमशः एक-एक स्थान से हीन होता जाता है। ............ 1894. असहु-असमर्थ साधु को एक-एक पद कम करते हुए स्वस्थान में प्रायश्चित्त देना चाहिए, परस्थान में भी इसी प्रकार प्रायश्चित्त देना चाहिए। Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 जीतकल्प सभाष्य / 1895. इस प्रकार प्रत्येक स्थान में क्रमशः नीचे की ओर कम करके नियमतः प्रायश्चित्त को निर्विगय तक जानना चाहिए। 1896. नवविध व्यवहार की काल के साथ जो प्रायश्चित्त-प्राप्ति की बात विस्तार से कही गई है, उसे बुद्धि से जानना चाहिए। 1897. अथवा लघुस्वक आदि त्रिविध को संक्षेप में कहा, अब विस्तार से कहूंगा। यह जघन्य, मध्यम . और उत्कृष्ट भेद से तीन प्रकार का होता है। 1898. लघुस्वक पक्ष में पांच, दस तथा पन्द्रह दिन तप की प्राप्ति होती है। लघुक पक्ष में बीस दिन, भिन्नमास (पच्चीस दिन) तथा लघुमास (तीस दिन) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1899. गुरुपक्ष में गुरुमास, चतुर्मास तथा छह मास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। यह नवविध प्रायश्चित्त की प्राप्ति है, इसका तप रूप प्रायश्चित्त-दान नौ प्रकार का है, वह इस प्रकार कहूंगा। 1900. लघुस्वक पक्ष में निर्विगय, पुरिमार्ध तथा एकासन प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है तथा लघुकपक्ष में आयम्बिल, उपवास तथा बेले तप की प्राप्ति होती है। 1901. गुरुपक्ष में तेला, चोला तथा पंचोले तप की प्राप्ति होती है। यह नवविध प्रायश्चित्त-दान है अथवा इसकी नवविध प्रायश्चित्त की प्राप्ति इस प्रकार है। 1902. लघुस्वक पक्ष में लघुगुरु के त्रिविध प्रायश्चित्त होते हैं-पांच दिन, दस दिन तथा पन्द्रह दिन। लघुपक्ष में लघुगुरु के त्रिविध प्रायश्चित्त होते हैं-बीस दिन, भिन्न मास (पच्चीस दिन) तथा एक मास। 1903. गुरुकपक्ष में लघुगुरु के त्रिविध प्रायश्चित्त हैं-गुरुमास-दो मास, तीन-चार मास, पांच-छह मास-ये लघुगुरु के नवविध प्रायश्चित्त होते हैं। 1904. यह नवविध प्रायश्चित्त-प्राप्ति का संक्षेप में वर्णन किया गया, सत्तावीस प्रकार का तपदान इस प्रकार होता है। 1905, 1906. लघुस्वक पक्ष, लघुक पक्ष और गुरुपक्ष-इन तीनों में प्रत्येक के नौ-नौ भेद होते हैं१. जघन्य-जघन्य 2. जघन्य-मध्यम 3. जघन्य-उत्कृष्ट 4. मध्यम-जघन्य 5. मध्यम-मध्यम 6. मध्यमउत्कृष्ट 7. उत्कृष्ट-जघन्य 8. उत्कृष्ट-मध्यम और 9. उत्कृष्ट-उत्कृष्ट। 1907. लघुस्वक व्यवहार के ये नौ भेद संक्षेप में कहे गए। लघुपक्ष और गुरुपक्ष में भी ये ही भेद जानने चाहिए। 1908. वर्षाकाल में यथालघुस्व के जघन्य-जघन्य में एकासन, जघन्य-मध्यम में आयम्बिल तथा जघन्य-उत्कृष्ट में उपवास का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1909. वर्षाकाल में लघुस्वतर के मध्यम-जघन्य में आयम्बिल, मध्यम-मध्यम में उपवास तथा मध्यमउत्कृष्ट में बेले का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1910. वर्षाकाल में लघुस्वक के उत्कृष्ट जघन्य में उपवास, उत्कृष्ट मध्यम में बेला तथा उत्कृष्टउत्कृष्ट में तेले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-६८ 461 1911. वर्षाकाल में यथालघुक के जघन्य-जघन्य में आयम्बिल, जघन्य-मध्यम में उपवास तथा जघन्यउत्कृष्ट में बेले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1912. वर्षाकाल में लघुकतर के मध्यम-जघन्य में उपवास, मध्यम-मध्यम में बेला तथा मध्यमउत्कृष्ट में तेले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1913. वर्षाकाल में लघुक के उत्कृष्ट-जघन्य में बेला, उत्कृष्ट-मध्यम में तेला तथा उत्कृष्ट-उत्कृष्ट में चोले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1914. वर्षाकाल में गुरुपक्ष के जघन्य-जघन्य में उपवास, जघन्य-मध्यम में बेला तथा जघन्य-उत्कृष्ट में तेले का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1915. वर्षाकाल में गुरुकतर के मध्यम-जघन्य में बेला, मध्यम-मध्यम में तेला तथा मध्यम-उत्कृष्ट में चोले का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1916. वर्षाकाल में यथागुरुक के उत्कृष्ट-जघन्य में तेला, उत्कृष्ट-मध्यम में चोला तथा उत्कृष्टउत्कृष्ट में पंचोले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1917. शिशिरकाल में यथालघुस्वक के जघन्य-जघन्य में पुरिमार्ध, जघन्य-मध्यम में एकासन तथा जघन्य-उत्कृष्ट में आयम्बिल तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1918. शिशिरकाल में लघुस्वतर के मध्यम-जघन्य में एकासन, मध्यम-मध्यम में आयम्बिल तथा मध्यम-उत्कृष्ट में उपवास तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1919. शिशिरकाल में लघुस्वक के उत्कृष्ट-जघन्य में आयम्बिल, उत्कृष्ट-मध्यम में उपवास तथा उत्कृष्ट-उत्कृष्ट में बेले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1920. शिशिरकाल में यथालघुस्व के जघन्य-जघन्य में एकासन, जघन्य-मध्यम में आयम्बिल तथा * ' जघन्य-उत्कृष्ट में उपवास तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1921. शिशिरकाल में लघुस्वतर के मध्यम-जघन्य में आयम्बिल, मध्यम-मध्यम में उपवास तथा मध्यम-उत्कृष्ट में बेले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1922. शिशिरकाल में लघुक के उत्कृष्ट-जघन्य में उपवास, उत्कृष्ट-मध्यम में बेला तथा उत्कृष्टउत्कृष्ट में तेले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1923. शिशिरकाल में गुरुक के जघन्य-जघन्य में आयम्बिल, जघन्य-मध्यम में उपवास तथा जघन्यउत्कृष्ट में बेले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1924. शिशिरकाल में गुरुकतर के मध्यम-जघन्य में उपवास, मध्यम-मध्यम में बेला तथा मध्यमउत्कृष्ट में तेले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1925. शिशिरकाल में यथागुरुक के उत्कृष्ट-जघन्य में बेला, उत्कृष्ट-मध्यम में तेला तथा उत्कृष्ट• उत्कृष्ट में चोले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 जीतकल्प सभाष्य 1926. ग्रीष्मकाल में यथालघुस्वक के जघन्य-जघन्य में निर्विगय, जघन्य-मध्यम में पुरिमार्ध तथा जघन्य-उत्कृष्ट में एकासन तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1927. ग्रीष्मकाल में लघुस्वतर के मध्यम-जघन्य में पुरिमार्ध, मध्यम-मध्यम में एकासन तथा मध्यमउत्कृष्ट में आयम्बिल तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1928. ग्रीष्मकाल में लघुस्वक के उत्कृष्ट-जघन्य में एकासन, उत्कृष्ट-मध्यम में आयम्बिल तथा उत्कृष्ट-उत्कृष्ट में उपवास तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1929. ग्रीष्मकाल में यथालघुक के जघन्य-जघन्य में पुरिमार्ध, जघन्य-मध्यम में एकासन तथा जघन्यउत्कृष्ट में आयम्बिल तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1930. ग्रीष्मकाल में लघुकतर के मध्यम-जघन्य में एकासन, मध्यम-मध्यम में आयम्बिल तथा . मध्यम-उत्कृष्ट में उपवास तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1931. ग्रीष्मकाल में लघुक के उत्कृष्ट-जघन्य में आयम्बिल, उत्कृष्ट-मध्यम में उपवास तथा उत्कृष्टउत्कृष्ट में बेले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1932. ग्रीष्मकाल में गुरुक के जघन्य-जघन्य में एकासन, जघन्य-मध्यम में आयम्बिल तथा जघन्यउत्कृष्ट में उपवास तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1933. ग्रीष्मकाल में गुरुकतर के मध्यम-जघन्य में आयम्बिल, मध्यम-मध्यम में उपवास तथा मध्यमउत्कृष्ट में बेले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1934. ग्रीष्मकाल में यथागुरुक के उत्कृष्ट-जघन्य में उपवास, उत्कृष्ट-मध्यम में बेला तथा उत्कृष्टउत्कृष्ट में तेले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1935. यह नवविध व्यवहार की काल के साथ प्रायश्चित्त-प्राप्ति और उसके दान का विस्तृत वर्णन किया गया है, उसे बुद्धि से जानना चाहिए। 68. भाव में हृष्ट और ग्लान के सम्बन्ध में हृष्ट को प्रायश्चित्त देना चाहिए, ग्लान को नहीं देना चाहिए अथवा ग्लान को उतना ही प्रायश्चित्त देना चाहिए, जितना वह काल के आधार पर सहन कर सके। १९३६.भाव के आधार पर हृष्ट, बलवान् और स्वस्थ को अधिक प्रायश्चित्त देना चाहिए। ग्लान को कुछ कम देना चाहिए, जिससे वह काल के आधार पर उसको सहन कर सके। 1937. लेश्या के भेद से शुभ और अशुभ भाव तीन-तीन प्रकार के होते हैं -तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम तथा मंद, मंदतर और मंदतम। 1938. पणग (निर्विगय) प्रायश्चित्त जितना अतिचार सेवन करने पर भी कोई साधु चरम-पाराञ्चित जितना प्रायश्चित्त प्राप्त करते हैं तथा कुछ साधु चरम–पाराञ्चित प्रायश्चित्त की प्राप्ति जितना अतिचार सेवन करने पर भी पणग (निर्विगय) प्रायश्चित्त को प्राप्त करते हैं, यह भाव निष्पन्न प्रायश्चित्त-प्राप्ति है। Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-६९ 463 1939. पुरुष के आधार पर कम, अधिक या उतनी ही मात्रा में प्रायश्चित्त देना चाहिए। वे पुरुष आदि संक्षेप में इस प्रकार जानने चाहिए। 69. पुरुष अनेक प्रकार के होते हैं -गीतार्थ-अगीतार्थ, समर्थ-असमर्थ,मायावी-ऋजु, परिणामक', अपरिणामक तथा अतिपरिणामक इनकी आम्र आदि वस्तु से परीक्षा होती है। 1940. कुछ पुरुष गीतार्थ तथा कुछ अगीतार्थ होते हैं। धृति और संहनन के आधार पर कुछ समर्थ तथा इनके न रहने पर कुछ असमर्थ जानने चाहिए। 1941. मायावी शठ तथा ऋजुप्राज्ञ साधु अशठ होते हैं। परिणामक आदि शिष्यों के बारे में मैं अब संक्षेप में कहूंगा। 1942. परिणामक, अपरिणामक और अतिपरिणामक–ये तीन प्रकार के शिष्य होते हैं। अंतिम दो में आम्र आदि का दृष्टान्त है, उसका विस्तार इस प्रकार है१९४३. जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से जिनेश्वर द्वारा कथित उपदेश को उसी रूप में श्रद्धा करता है, उस साधु को परिणामक जानना चाहिए। 1944. जो जिसके लिए कल्प्य या अकल्प्य होता है, उस सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य को यथार्थ रूप में जानता है, वह परिणामक शिष्य कहलाता है। : 1945, 1946. क्षेत्र की दृष्टि से मार्ग में जो यतना रखनी है, उसको उसी रूप में श्रद्धा करता है, काल की दृष्टि से सुभिक्ष-दुर्भिक्ष आदि में जो जिस रूप में कल्पनीय है, भाव से आगाढ़ स्थिति में स्वस्थ और ग्लान के लिए जो जिस रूप में करणीय है, उसको उसी रूप में श्रद्धा करके कार्य करने वाला परिणामक साधु कहलाता है। १.गुरु के द्वारा जैसा निर्देश दिया जाता है, उसी रूप में श्रद्धा करने वाला तथा आचरण करने वाला परिणामक शिष्य ''होता है। १.जीचू पृ.२३;जहा भणियं सद्दहंता आयरंताय परिणामगा भण्णंति। २.जो उत्सर्ग में ही श्रद्धा करता है, अपवाद में श्रद्धा नहीं करता और न ही उसका आचरण करता है, वह अपरिणामक शिष्य होता है। १.जीचू पृ. 23; अपरिणामगा पुणजे उस्सग्गमेव सद्दहति आयरन्ति य, अववायं पुणन सद्दहति नायरंति य। ३.जो अपवाद का ही आचरण करता है, उसी में आसक्त रहता है, उत्सर्ग में श्रद्धा नहीं करता, वह अतिपरिणामक शिष्य होता है। १.जीचू पृ. 23; अइपरिणामगाजे अववायमेवायरंति तम्मि चेव सज्जंति, न उस्सग्गे। ४.निशीथ को नहीं पढ़ने वाला अगीतार्थ होता है। १.जीचूवि पृ.५३; अणहीयनिसीहो अग्गीयत्थो। ५.परिणामक शिष्य दो प्रकार के होते हैं -1. आज्ञा परिणामक-जो जिनेश्वर भगवान् द्वारा प्रज्ञप्त तत्त्व पर असंदिग्ध भाव से श्रद्धा रखता है, वह आज्ञापरिणामक है। 2. दृष्टान्त परिणामक-जो हेतुगम्य परोक्ष पदार्थ को - प्रत्यक्ष दृष्टान्त से बुद्धि में आरोपित करता है, उस पर श्रद्धा करता है, वह दृष्टान्त परिणामक है। Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 जीतकल्प सभाष्य 1947. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से जिनेश्वर द्वारा उपदिष्ट तत्त्व को उसी रूप में श्रद्धा नहीं करने वाले साधु को अपरिणामक जानना चाहिए। 1948. जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से जिनाख्यात तत्त्व के कुछ अंश को उत्सूत्र रूप में प्ररूपित करता है, उसे अतिपरिणामक साधु जानना चाहिए। 1949. परिणामक की मति कार्य में यथार्थ रूप से परिणमित होती है, अपरिणामक की मति उस रूप में परिणत नहीं होती लेकिन अतिपरिणामक की बुद्धि अधिक रूप में परिणत होती है। 1950. परिणामक शिष्य की बुद्धि उत्सर्ग और अपवाद-इन दोनों में परिणत होती है, अपरिणामक की * उत्सर्ग में परिणत होती है लेकिन तीसरे अतिपरिणामक की बुद्धि अतिअपवाद में ही परिणत होती है। 1951. आम आदि के दृष्टान्त से शिष्य की परीक्षा करनी चाहिए, जैसे कोई गुरु शिष्य से कहे कि आम लेकर आओ। 1952. परिणामक शिष्य कहता है कि मैं सचित्त लाऊं अथवा अचित्त? लवण आदि से भावित लाऊं या अभावित? कितने प्रमाण वाले अर्थात् छोटे या बड़े लेकर आऊं? गुठली वाले लेकर आऊं या गुठली रहित, टुकड़े किए हुए लेकर आऊं अथवा बिना टुकड़े किए हुए? 1953, 1954. यह सुनकर गुरु कहते हैं कि मैंने आम्र प्राप्त कर लिए, यदि अपेक्षा होगी तो पुनः कहूंगा। जो अपरिणामक होता है, वह आम लाने के लिए कहने पर इस प्रकार बोलता है-"क्या आप पित्त-प्रकोप के कारण प्रलाप कर रहे हैं? दुबारा ऐसी बात मत कहना। कोई दूसरा इसको न सुन ले, मैं भी यह सावध वचन सुनना नहीं चाहता।" 1955. अतिपरिणामक शिष्य कहता है कि अहो! आम का काल व्यतीत हो रहा है, आपने इतनी देर से क्यों कहा? हमारी भी आम खाने की इच्छा है पर यह बात कहने में हम समर्थ नहीं हैं। 1956. वह अतिपरिणामक शिष्य आमों का भार लेकर आया और बोला-"अन्य फल और लेकर आऊ क्या?" तब गुरु ने अपरिणामक और अतिपरिणामक शिष्य को उपालम्भ देते हुए कहा१९५७. तुम लोग मेरे कथन के अभिप्राय को नहीं समझे। मेरे वचन को पूरा सुने बिना तुम ऐसा वचन कह रहे हो। मेरे कथन का अभिप्राय था कि शुक्लाम्ल लवण से भावित, छिन्न-भिन्न किए हुए, दोच्वंगभोजन का द्वितीय अंग अर्थात् शाक रूप में पकाए गए आम लाने हैं। 1958. इसी प्रकार वृक्ष के प्रसंग में भी अपरिणत शिष्य को आचार्य कहते हैं कि मैंने निष्पाव-वल्लधान्य आदि वृक्ष के लिए कहा, न कि हरित वृक्ष के लिए। 1959. इसी प्रकार अतिपरिणामक शिष्य द्वारा सचित्त बीजों को लाने पर गुरु कहते हैं कि मैंने इमली के विध्वस्त-योनिक बीजों को लाने के लिए कहा था, न कि उगने में समर्थ बीजों को लाने के लिए। 70. धृति और संहनन से युक्त तथा इन दोनों से हीन पुरुष के आधार पर चतुर्भंगी होती है। पंचविध 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं.५४। Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-७०,७१ 465 पुरुष होते हैं-आत्मतरक, परतरक, उभयतरक, नोभयतरक तथा अन्यतरक। 1960. पुरुष चार प्रकार के होते हैं * धृति से दुर्बल, देह से बलिष्ठ। * धृति और देह-दोनों से बली। * धृति से बली, देह से दुर्बल। * धृति और देह-दोनों से दुर्बल। 1961. धृति और देह से बलशाली को पूरा प्रायश्चित्त, धृति से हीन तथा शरीर से बलिष्ठ को लघुक तथा . उभय से हीन को भी लघुक प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1962, 1963. कुछ आचार्य पुरुषों के आत्मतरक आदि पांच विकल्प बताते हैं। प्रथम आत्मतरक, दूसरा परतरक', तीसरा उभयतरक' तथा चौथे और पांचवें को क्रमशः नोभयतरक तथा अन्यतरक जानना चाहिए। 1964. शिष्य प्रश्न पूछता है कि आत्मतरक और परतरक में क्या अन्तर है? आचार्य कहते हैं कि आत्मतरक को उपवास आदि जो भी प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह उसे वहन कर लेता है। 1965. जो वैयावृत्त्य करके गच्छ का उपग्रह-उपकार करने में संलग्न रहता है, वह परतरक कहलाता है। इस प्रकार आत्मतरक और परतरक की चतर्भगी जाननी चाहिए। 1966. जो वैयावृत्त्य करने में समर्थ होता है, दो की वैयावृत्त्य करने में समर्थ नहीं होता, उसे पांचवां अन्यतरक पुरुष जानना चाहिए। 71. कल्पस्थित आदि चतुर्विध पुरुष, इसके प्रतिपक्ष अकल्पस्थित आदि चतुर्विध पुरुष, सापेक्ष और निरपेक्ष आदि-इन सब पुरुषों की (कल्पस्थिति का वर्णन करूंगा)। 1967. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-१. कल्पस्थित 2. परिणत 3. कृतयोगी 4. तरमाणक। इसके प्रतिपक्ष में भी चार प्रकार के पुरुष होते हैं-१. अकल्पस्थित 2. अपरिणत 3. अकृतयोगी 4. अतरमाणक। 1, 2. परतरक पुरुष को बहुक प्रायश्चित्त स्थान में भी अल्प प्रायश्चित्त दिया जाता है क्योंकि वैयावृत्त्य में संलग्न रहने के कारण वह तपोयोग का वहन नहीं कर सकता। उभयतरक को यदि इंद्रियों के अतिक्रमण आदि से पुनः प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तो पंचमास पर्यन्त प्रायश्चित्त भी भिन्नमास में समाविष्ट हो जाता है। १.व्यभा 501 २.व्यभा 483 3. व्यवहारभाष्य में नोभयतरक भेद न होकर पुरुषों के चार प्रकार ही प्रज्ञप्त हैं। १.व्यभा 479 4. आत्मतरक वैयावृत्त्य करने में समर्थ होने पर भी तप ही करता है, वैयावृत्त्य नहीं करता। परतरक तपस्या करने में समर्थ होने पर भी वैयावृत्त्य ही करता है, तप नहीं। 5. * आत्मतरक है, परतरक नहीं * परतरक है, आत्मतरक नहीं . * आत्मतरक भी, परतरक भी •न आत्मतरक, न परतरक। 6. मध्यवर्ती 22 तीर्थंकरों के साधु तथा महाविदेह के साधु अकल्पस्थित होते हैं। 7. जो धृति और संहनन सम्पन्न होते हैं, वे तरमाणक पुरुष कहलाते हैं।' १.निभा 78 चू पृ. 38; संघयणे संपण्णा,धितिसंपण्णा य होंति तरमाणा। Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 जीतकल्प सभाष्य 1968. प्रतिष्ठा, स्थापना, स्थान, व्यवस्था, संस्थिति, स्थिति, अवस्थान, अवस्था, चिट्ठणा-ये सब एकार्थक हैं। 1969. कल्पस्थिति के छह प्रकार हैं-१. सामायिक 2. छेदोपस्थापनीय 3. निर्विशमान 4. निर्विष्टकाय ५.जिनकल्प 6. स्थविरकल्प। 1970. स्थिति, मर्यादा, न्यास और कल्प-ये एकार्थक हैं। शिष्य प्रश्न पूछता है कि यह कितने प्रकार का होता है। गुरु उत्तर देते हैं कि वह दस प्रकार का होता है, उसे मैं संक्षेप में कहूंगा। 1971. स्थितकल्प के दस प्रकार हैं१. आचेलक्य ६.व्रत 2. औद्देशिक 7. पुरुषज्येष्ठ धर्म 3. शय्यातरपिण्ड 8. प्रतिक्रमण 4. राजपिंड 9. मासकल्प 5. कृतिकर्म 10. पर्युषणाकल्प। 1972. सामायिक कल्प की संस्थिति नियमतः कितने स्थानों से स्थित अथवा अस्थित है? छेदोपस्थापनीय कल्प कितने स्थानों में स्थित है? 1973. वह सामायिक संयत चार स्थानों से स्थित, छह स्थानों से अस्थित तथा छेदोपस्थापनीय संयत दश स्थानों से नियमतः स्थित होते हैं। 1974. ये चार अवस्थित कल्प हैं-शय्यातरपिण्ड 2. कृतिकर्म 3. चातुर्याम धर्म 4. पुरुषज्येष्ठ। 1975. ये छह अनवस्थित कल्प हैं-१. आचेलक्य 2. औद्देशिक 3. राजपिंड 4. सप्रतिक्रमणधर्म 5. मासकल्प 6. पर्युषणाकल्प। 1. मुनि की आचार-मर्यादा, प्रथम, चरम और मध्यम तीर्थंकरों के शासन में होने वाला आचार-व्यवस्था का भेद। 2. प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के साधु दश कल्प में स्थित होते हैं। मध्यम बावीस तीर्थंकरों के साधु तथा महाविदेह क्षेत्र के साधु शय्यातरपिण्ड, चातुर्याम, पुरुषज्येष्ठ और कृतिकर्म-इन चार में स्थित कल्प वाले होते हैं तथा शेष आचेलक्य आदि छह कल्पों में अस्थित होते हैं / दश कल्पों में कुछ स्थानों का सभी पालन करते हैं अतः अनियत होने के कारण मध्यम बावीस तीर्थंकरों के साधु एवं महाविदेह के साधु अस्थितकल्प वाले होते हैं। 3. अचेल-वस्त्र सम्बन्धी राग-द्वेष होने पर वे अचेल रहते हैं अन्यथा सचेल रहते हैं। वे महामूल्यवान् और प्रमाण से अधिक वस्त्र भी रखते हैं। औद्देशिक-साधु के उद्देश्य से बनाया गया आधाकर्मिक भोजन दूसरे साधु के लिए कल्प्य हो जाता है। जिसके उद्देश्य से बनाया गया, उसके लिए कल्प्य नहीं होता। प्रतिक्रमण-वे अतिचार लगने पर प्रतिक्रमण करते हैं, अन्यथा नहीं करते। राजपिण्ड-दोष की संभावना होने पर वे राजपिण्ड का परिहार करते हैं, अन्यथा नहीं करते। मासकल्प-दोष की संभावना न हो तो वे एक स्थान पर पूर्व कोटि वर्ष तक रह सकते हैं, दोष की संभावना में मासकल्प पूर्ण हो या नहीं, विहार कर देते हैं। पर्युषणाकल्प-वर्षा के समय दोष संभावना की स्थिति में एक क्षेत्र में रहते हैं। दोष की संभावना न होने पर वर्षारात्र में भी विहार कर सकते हैं। Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-७१ 467 1976. पूर्व और पश्चिम अर्थात् प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के शासन काल में छेदोपस्थापनीय साधुओं के आचेलक्य आदि जो दश कल्प होते हैं, उनकी प्ररूपणा इस प्रकार है१९७७. अचेलक दो प्रकार के होते हैं -सदचेल तथा असदचेल। तीर्थंकर असदचेल तथा शेष सभी साधु सदचेल होते हैं। 1978. वस्त्र होने पर भी साधु अचेल कैसे होते हैं? आचार्य कहते हैं कि जिन कारणों से साधु अचेल होता है, उसे तुम सुनो। 1979. नदी को पार करते समय शिर पर कपड़ा बांधा जाता है लेकिन वस्त्र होने पर भी लोग उसको नग्न कहते हैं। परिजीर्ण वस्त्र वाली स्त्री जुलाहे से कहती है कि हे तंतुवाय! तुम शीघ्रता करके शाटिका दो, मैं निर्वस्त्र हूं। 1980. जीर्ण और खंडित वस्त्रों के कारण तथा शरीर को पूर्ण रूप से प्रावृत न कर सकने के कारण वस्त्रों के होते हुए भी निर्ग्रन्थ अचेलक होते हैं। 1981. आचार्य कहते हैं कि यदि तुम यह सोचते हो कि दरिद्र पथिक भी अचेल होने चाहिए, इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि दरिद्र पथिक आदि अभाव के कारण जीर्ण वस्त्र धारण करते हैं, न कि धर्मश्रद्धा से अतः वे अचेलक नहीं होते। 1982. वस्त्र प्राप्त होने पर भी साधु अल्प मूल्य वाले और खंडित वस्त्रों को धर्मबुद्धि से धारण करते हैं अतः वे सदचेल हैं। . 1983. प्रथम और अंतिम जिनेश्वर के तीर्थ में आचेलक्य धर्म होता है। मध्यम तीर्थंकरों के तीर्थ में सचेल और अचेल-दोनों प्रकार के धर्म होते हैं। 1984. बीच के बावीस तीर्थंकरों के श्रमण अचेल' रहने अथवा वस्त्र धारण करने पर भी भगवान् की * आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के श्रमण स्वल्प मूल्य वाले तथा भिन्न खंडित वस्त्रों को धारण करते हैं। उनके लिए इन कारणों का अपवाद है१९८५. बिना कारण स्वस्थ व्यक्ति को लिंगभेद करना कल्पनीय नहीं है। शिष्य पूछता है कि निरुपहत क्या है? आचार्य कहते हैं कि यथाजात लिंग निरुपहत कहलाता है। 1986. जन्म दो प्रकार का होता है-प्रथम माता की कुक्षि से तथा दूसरा प्रव्रज्या ग्रहण करने पर। चतुर्विध संसार से मुक्ति हेतु प्रव्रज्या ग्रहण की जाती है। . 1. उत्तराध्ययन में प्रतिरूपता (अचेलता) से होने वाले लाभों का वर्णन मिलता है। अचेलता से जीवन हल्केपन को प्राप्त करता है, उपकरणों से हल्का बना जीव अप्रमत्त, प्रकट लिंग वाला (व्यक्त लिंगधारी), प्रशस्त लिंग वाला, विशुद्ध सम्यक्त्व वाला, पराक्रम और समिति से परिपूर्ण, सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए विश्वसनीय, अल्प प्रतिलेखन वाला, जितेन्द्रिय तथा विपुल, तप और समितियों का सर्वत्र प्रयोग करने वाला होता है। १.उ 29/43 / Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 जीतकल्प सभाष्य 1987, 1988. निष्कारण लिंग-भेद के प्रकार एवं प्रायश्चित्त इस प्रकार हैं-कंधे पर प्रावरण रखने एवं शीर्षद्वारिका' करने पर लघुमास, संयती प्रावरण करने पर चतुर्लघु, गरुड़ पक्षी की भांति प्रावरण करने पर, अर्धांश करने पर तथा कटिपट्ट बांधने पर-इन तीनों में चतुर्गुरु प्रायश्चित्त जानना चाहिए। गृहस्थलिंग या परलिंग करने पर मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1989. कारण उपस्थित होने पर इन कारणों से साधु लिंग-भेद कर सकता है-ग्लानत्व, रोग, लोच, शरीर-वैयावृत्त्या आदि। 1990. अथवा इन कारणों से लिंग-भेद किया जा सकता है-क्षेत्रकल्प-देश विशेष के आचार के अनुसार अभिन्न वस्त्र धारण करना। वर्षावास में, अभावित अवस्था में, असहिष्णु अवस्था में, प्रात:काल, मार्ग में, सागारिक प्रतिबद्ध उपाश्रय में तथा स्तेन की आशंका से बहुमूल्य उपधि को कंधे पर रखकर पुनः शरीर को प्रावृत कर रास्ते को पार किया जा सकता है। 1991. अशिव में, दुर्भिक्ष में, राजप्रद्वेष होने पर, वादि के प्रद्विष्ट होने पर, आगाढ़ कारण होने पर-इन सब में अन्यलिंग करके कालक्षेप या गमन कर देना चाहिए। 1992. साधु-साध्वियों के लिए ओघतः या विभागतः कुल, संघ या गण का संकल्प करके जो भक्तपान तैयार किया जाता है, वह स्थितकल्प साधु-साध्वियों के लिए कल्प्य नहीं होता, अस्थितकल्प में जिसके उद्देश्य से कृत होता है, उसको नहीं कल्पता, दूसरों को कल्पता है। 1993. आचार्य, अभिषेक'-उपाध्याय तथा भिक्षु के ग्लान होने पर आधाकर्म की भजना है। अटवी में प्रवेश करने पर यदि तीन बार अन्वेषण करने पर भी शुद्ध आहार न मिले तो चौथे परिवर्त में आधाकर्म आहार ग्रहण करने की भजना है। 1994. शय्यातरपिण्ड तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिषिद्ध है। शय्यातरपिण्ड ग्रहण करने से आज्ञाभंग, अज्ञातोञ्छ का सेवन तथा उद्गम दोषों की शुद्धि नहीं होती। गृद्धि का अभाव नहीं होता, लाघवता नहीं होती, (भविष्य में) शय्या की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है अथवा उसका सर्वथा विच्छेद हो जाता है। 1995. प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों को छोड़कर मध्यम बावीस तीर्थंकरों तथा विदेहज तीर्थंकरों ने आधाकर्म ग्रहण की लेश मात्र आज्ञा दी है लेकिन सागारिक या शय्यातरपिण्ड की आज्ञा नहीं दी। 1996. आगाढ़ या अनागाढ़ द्विविध ग्लानत्व की स्थिति में शय्यातरपिण्ड ग्रहण किया जा सकता है। शय्यातर द्वारा निमंत्रण देने पर, द्रव्य की दुर्लभता होने पर, अशिव, दुर्भिक्ष, राजप्रद्वेष तथा तस्कर आदि के भय में शय्यातरपिण्ड अनुज्ञात है। 1. कल्प से शिर को आच्छादित करना शीर्षद्वारिका है। 2. बृभाटी पृ. 1682 / 3. जो सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ का ज्ञाता है, आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने योग्य है, वह अभिषेक कहलाता है। 1. बृभा 4336 टी पृ. 1174 ; अभिषेकःसूत्रार्थतदुभयोपेत आचार्यपदस्थापनार्हः। Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-७१ 469 1997. अपने क्षेत्र की चारों दिशाओं में एक योजन तक तीन बार गवेषणा करने पर भी यदि दुर्लभ द्रव्य की प्राप्ति नहीं होती तो कृतयोगी मुनि सागारिकपिण्ड का सेवन कर सकता है। 1998. किस राजा के राजपिण्ड का परिहार किया जाए? राजपिण्ड के कितने भेद हैं? उसके ग्रहण में दोष क्या है? किस स्थिति में राजपिंड ग्रहण कल्पनीय है? उसके ग्रहण में यतना कैसी होनी चाहिए? (इन द्वारों की मीमांसा करनी चाहिए।) 1999. दो प्रकार के राजा होते हैं-१. मुदित 2. मूर्धाभिषिक्त। जो योनि शुद्ध (जिसके माता-पिता राजवंशीय हों) होता है, वह मुदित तथा जो दूसरों के द्वारा राजा के रूप में अभिषिक्त होता है अथवा स्वयं राजा भरत की भांति अभिषिक्त होता है, वह मूर्धाभिषिक्त कहलाता है। 2000. मुदित और अभिषिक्त की चतुर्भंगी' के प्रथम भंग में राजपिण्ड वर्ण्य है, चाहे उसे ग्रहण करने में दोष हो अथवा न हो। शेष तीन भंगों में वह राजपिण्ड नहीं होता। जिन भंगों में दोष हों, उनका वर्जन करना चाहिए। 2001. राजपिण्ड आठ प्रकार का होता है-१. अशन 2. पान 3. खाद्य 4. स्वाद्य 5. वस्त्र 6. पात्र 7. कम्बल 8. पादप्रोञ्छन। 2002. अष्टविध राजपिण्ड में से यदि साधु किसी भी प्रकार का राजपिण्ड ग्रहण करता है तो वह आज्ञाभंग, अनवस्था, मिथ्यात्व और विराधना को प्राप्त होता है। 2003. ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, श्रेष्ठी और सार्थवाह-इनके निर्गमन तथा प्रवेश करते समय भिक्षार्थ गए साधु के व्याघात होता है। 2004. भोजिक-ग्रामस्वामी आदि ईश्वर' कहलाता है। राजा द्वारा प्रदत्त स्वर्णपट्ट से अंकित सिर वाला तलवर', वेष्टनक (श्रीदेवता से अध्यासित) बद्ध श्रेष्ठी तथा प्रत्यन्त नृप माडम्बिक' कहलाता है। 1. मुदित और मूर्धाभिषिक्त की चतुर्भगी इस प्रकार है-१. मुदित है, मूर्धाभिषिक्त भी है। 2. मुदित है, मूर्धाभिषिक्त नहीं। 3. मुदित नहीं, मूर्धाभिषिक्त है। 4. न मुदित, न मूर्धाभिषिक्त। 2. भाष्यकार ने ग्रामवासी को ईश्वर कहा है। आचार्य अभयदेवसूरि ने ईश्वर के अनेक अर्थ किए हैं -युवराज, मांडलिक-चार हजार राजाओं का अधिपति, अमात्य अथवा अणिमा आदि आठ लब्धियों से युक्त / ' 1. स्थाटी प. 439; ईश्वरो-युवराजो माण्डलिकोऽमात्यो वा, अन्ये च व्याचक्षते-अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्त ईश्वर इति। 3. राजा के समान ऐश्वर्यसम्पन्न व्यक्ति, केवल जिसके पास चामर नहीं होता, वह तलवर कहलाता है। १.निभा 2502 चू पृ. 450, रायप्रतिमो चामरविरहितो तलवरो भण्णति। 4. राजा द्वारा जिसे श्रीदेवी के चिह्न से अंकित शिरोवेष्टनक की अनुज्ञा प्राप्त हो, वह श्रेष्ठी कहलाता है। १.निभा 2502 चूप. 450, जम्मिय पट्टेसिरियादेवी कज्जति तं वेंटणगं,तं जस्स रण्णा अणुण्णातं, सो सेट्ठी भण्णति। ५.जो सब दिशाओं से छिन्न हो, जिसके आसपास ढ़ाई गव्यूत अथवा ढ़ाई योजन तक कोई ग्राम आदि न हो, वह __ स्थान मडम्ब कहलाता है, उसका अधिपति माडम्बिक होता है। . १.निभा 2503 चूपृ. 450, जो छिण्णमडंब जति सो माडंबिओ, पच्चंतविसयणिवासी राया माडंबिओ, जो सरज्जे पररज्जे य पच्चभिण्णातो। Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 जीतकल्प सभाष्य 2005. जब तक ईश्वर आदि निर्गमन या प्रवेश करते हैं, तब तक भिक्षार्थ गया हुआ मुनि प्रतीक्षा में खड़ा रहता है। इससे सूत्रार्थ एवं भिक्षा की हानि होती है। अश्व आदि के संघट्टन-भय से ईर्या का शोधन नहीं होता। प्रवेश या निर्गम के समय साधु को अमंगल मानकर कोई हाथी, घोड़े आदि का हनन कर सकता है अन्यथा लोगों की भीड़ से साधु के संघट्टन हो सकता है। 2006. राजकुल में प्रविष्ट होकर मुनि लोभवश एषणा का घात कर सकता है। राजपुरुषों को यह आशंका हो सकती है कि यह कोई स्तेन है। नपुंसक अथवा स्त्रियां साधु को उपसर्ग दे सकती हैं। चाहते हुए या न चाहते हुए भी संयमविराधना आदि दोष हो सकते हैं। वहां जाने पर साधु को चतुर्गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2007. ऐसा उत्कृष्ट द्रव्य अन्यत्र मिलना दुर्लभ है, यह सोचकर राजभवन में गया हुआ मुनि अनेषणीय भी ग्रहण कर लेता है। राजभवन में अन्य के चोरी करने पर भी यह साधु चोर है' ऐसी आशंका हो सकती है। 2008. यह मुनि गुप्तचर अथवा चोर है, ऐसी शंका होने पर मूल, निःशंकित अवस्था में अनवस्थाप्य, पारदारिक अथवा अभिमर' आदि की शंका होने पर नौवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त तथा निःशंकित होने पर दसवां पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2009. राजभवन से बाहर विचरण नहीं होता इसलिए स्त्री और नपुंसक साधु को बलपूर्वक भी पकड़ सकते हैं। इससे राजा रुष्ट होकर आचार्य, कुल, गण और संघ का विनाश भी कर सकता है। 2010. राजभवन में जाने पर अन्य दोष भी होते हैं। वहां रत्न आदि बिखरे रहते हैं अत: गौल्मिकस्थानपाल आदि पकड़कर परितापना दे सकते हैं। साधु की निश्रा में चोर भी प्रवेश कर सकते हैं। राजभवन में दुष्ट तिर्यञ्च अथवा मनुष्य साधु को कष्ट दे सकते हैं। 2011. राजभवन में आकीर्ण रत्न आदि को स्वयं साधु तथा उसकी निश्रा में आने वाला व्यक्ति भी ग्रहण कर सकता है। गौल्मिक उसे पकड़कर आहनन कर सकता है। राजा को निवेदन करने पर प्रायश्चित्त की प्राप्ति हो सकती है। 2012. साधु की निश्रा में गुप्तचर, चोर, अभिमर और कामी आदि राजभवन में प्रवेश कर सकते हैं। हाथी, तरक्ष, बाघ, म्लेच्छ आदि साधु का घात कर सकते हैं। १.धनादि के लोभ में दूसरों का घात करने वाला। 2. यह गाथा बृभा (6392) में भी प्राप्त है। वहां गाथा के पूर्वार्ध को स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं कि स्त्री या नपुंसक भोगासक्ति से साधु को पकड़ ले, उस समय यदि साधु प्रतिसेवना करता है तो चारित्र की विराधना होती है, यदि प्रतिसेवना नहीं करता तो लोकापवाद होता है। 1. बृभाटी पृ. 1686 / Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-७१ 471 2013. आगाढ़ एवं अनागाढ़ द्विविध ग्लानत्व में राजपिण्ड ग्रहण किया जा सकता है। राजा द्वारा आग्रहपूर्वक निमंत्रण देने पर, द्रव्य की दुर्लभता होने पर, अशिव, दुर्भिक्ष, राजप्रद्वेष तथा तस्कर आदि का भय-इन कारणों से राजपिण्ड का ग्रहण अनुज्ञात है। 2014. अपने क्षेत्र की चारों दिशाओं में एक योजन तक तीन बार गवेषणा करने पर भी यदि दुर्लभ द्रव्य की प्राप्ति न हो तो कृतयोगी मुनि के लिए यतनापूर्वक राजपिण्ड का ग्रहण करना कल्प्य है। 2015. कृतिकर्म दो प्रकार का है-अभ्युत्थान और वंदना। श्रमण और श्रमणियों को यथार्ह दोनों करने चाहिए। 2016. सभी श्रमणियों को साधुओं का कृतिकर्म करना चाहिए क्योंकि सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में पुरुषोत्तर धर्म होता है। 2017. साधु के द्वारा वंदित होने पर साध्वियां तुच्छता के कारण गर्वित हो जाती हैं। वह साधु का परिभव करने में भी शंका नहीं करती। स्त्रियों में एक अन्य दोष भी होता है कि वे माधुर्य से ग्राह्य हो जाती हैं। 2018. अथवा जिनधर्म पुरुषों द्वारा प्रणीत है, पुरुष ही इसकी रक्षा करने में समर्थ हैं। पुरुष द्वारा स्त्री को वंदना करना लोकविरुद्ध भी है इसलिए श्रमणियों को चाहिए कि वे श्रमणों को वंदना करें। 2019. प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के तीर्थ में पंचयाम धर्म अर्थात् पंच महाव्रत रूप धर्म होता है। मध्यम तीर्थंकरों के तीर्थ में चातुर्याम धर्म होता है। 2020. प्रथम तीर्थंकरों के साधुओं का कल्प दुर्विशोध्य और अंतिम तीर्थंकरों के साधुओं का कल्प दुरनुपाल्य होता है। मध्यम तीर्थंकरों का कल्प सुविशोध्य और सुखपूर्वक पालन करने योग्य होता है। 2021. जड़ता के कारण प्रथम तीर्थंकरों के मुनियों को यथार्थ तत्त्व का आख्यान करना, विभाग करना उपनय अर्थात् हेतु और दृष्टान्तों से समझाना दुःशक्य होता है। काल आदि की स्निग्धता के कारण वे साधु सुखों से युक्त होते हैं अतः परीषह सहना उनके लिए दुष्कर होता है। वे स्वभाव से दान्त और उपशान्त होते हैं अतः शिष्यों पर अनुशासन करना उनके लिए कष्टप्रद होता है। १.प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजुजड़ होते हैं / ऋजुता के कारण वे अपने अतिचारों की आलोचना करते हैं किन्तु मतिजड़ता के कारण तज्जातीय दोषों का वर्जन नहीं कर सकते। यही बात तत्कालीन गृहस्थों की है। उनको जिस रोष कार्य का निषेध किया जाता है, उसका वर्जन करते हैं लेकिन उससे सम्बन्धित अन्य कार्यों का वर्जन नहीं करते। - ऋजुजड़ साधु यदि नाटक देखते हैं तो ऋजुता से आकर गुरु को निवेदन करते हैं। पुनः बहुरूपिए का कौतुक देखने पर गुरु यदि पूछते हैं कि तुमने कौतुक क्यों देखा तो वे कहते हैं कि आपने नाटक का निषेध किया था, कौतुक का नहीं। ऋजुता के कारण जितना निषेध किया जाता है, उतना ही वर्जन करते हैं। सर्व नाटक का निषेध करने पर समग्रता से उसका वर्जन करते हैं। १.बृभा५३५६ उजुत्तणं सें आलोयणाएँ जहुतणं सें जं भुण्जो।तजातिएणयाणति, गिही वि अन्नस्स अन्नं वा॥ २.बृभा 5352; नडपेच्छं दट्टणं, अवस्स आलोयणाण सा कप्पे। कउयादी सो पेच्छति, ण ते वि पुरिमाण तो सव्वे॥ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 जीतकल्प सभाष्य - 2022. मिथ्यात्व से भावित, दुर्विदग्ध मति वाले तथा वामशील होने के कारण अंतिम तीर्थंकर के साधुओं के लिए यथार्थ वस्तुतत्त्व का आख्यान करना तथा उपनय आदि देना दःखप्रद होता है। 2023. चरम तीर्थंकर के साधु दुःखों से भर्त्सित होते हैं। शारीरिक बल और मानसिक धृति से दुर्बल होने के कारण परीषहों को सहन करना उनके लिए कठिन होता है। इसी प्रकार चरम तीर्थंकरों के साधुओं के मान की उत्कटता के कारण उन पर अनुशासन करना कठिन होता है। 2024. ये आख्यान आदि स्थान मध्यम तीर्थंकरों के साधुओं के लिए इसलिए सुगम हो जाते हैं क्योंकि वे सुप्राज्ञ और ऋजु होते हैं। वे शरीर-बल और मनोबल से युक्त होने के कारण सुख और दुःख को सहन करने में सक्षम होते हैं तथा विमिश्रभाव होने से उन पर अनुशासन करना भी सुगम होता है। 2025. जिस व्यक्ति पर सामायिक पहले आरोपित किया जाता है अथवा जिसको महाव्रतों में पहले स्थापित किया जाता है, वह कृतिकर्म ज्येष्ठ कहलाता है। साधु जन्म या श्रुत के आधार पर ज्येष्ठ नहीं माना जाता। दोनों पक्षों-संयतपक्ष और संयतीपक्ष में यही व्यवस्था है। 2026. प्रथम और चरम तीर्थंकर के पंचयाम धर्म में स्थित साधुओं की जिन स्थानों में उपस्थापना होती है, उस विषय में तीन आदेश हैं, वे मुझसे सुनो। 2027. दश, छह और चार-ये तीन आदेश होते हैं। दश कौन से होते हैं, उनके बारे में सुनो। 2028, 2029. पहला आदेश-दश स्थान 1-3. तीन पारांचिक-दुष्ट, प्रमत्त और अन्योन्य सेवन करने वाला। .. 4-6. तीन अनवस्थाप्य-साधर्मिक स्तेन, अन्यधार्मिक स्तेन तथा मारक प्रहार करने वाला। १.अंतिम तीर्थंकर के साधु वक्रजड़ होते हैं। वक्र होने के कारण वे दोष का सेवन करके न उसे बताते हैं और न ही उसकी आलोचना करते हैं, यह उनकी जड़ता है। आचार्य उससे पूछते हैं कि तुमने मार्ग में नाटक देखा? तो वक्रजड शिष्य निषेध करता है कि मैंने नहीं देखा। जब गुरु उसे कहते हैं कि तुम वहां क्यों खड़े थे तो वह कहता है कि मैं गर्मी से आहत हो गया था इसलिए खड़ा था अथवा मेरे पैर में कांटा चुभ गया था इसलिए खड़ा था। अंतिम तीर्थंकर के गृहस्थ भी एषणा आदि के विषय में सही उत्तर नहीं देते। वे कहते हैं-'यह भोजन अतिथियों के लिए बनाया है अथवा यह भोजन मुझे रुचिकर है अथवा आज हमारे घर में उत्सव है।" 1. बृभा 5358; वंका उण साहंती, पुट्ठा उ भणंति उण्ह-कंटादी। पाहुणग सद्ध ऊसव, गिहिणो वि य वाउलंतेवं॥ २.मध्यम तीर्थंकरों के साधु ऋजुप्राज्ञ होते हैं। वे जिस दोष का सेवन करते हैं, उसकी आलोचना करते हैं, यह उनकी . ऋजुता है। प्राज्ञ होने के कारण वे तज्जातीय दोषों का वर्जन करते हैं / तत्कालीन गृहस्थ भी एक दोष के आधार पर तज्जातीय शेष सब दोषों का परिहार करते हैं।' १.बुभा५३५७; उज्जुत्तणं सें आलोयणाएँ पण्णा उसेसवज्जणया।सण्णायगा वि दोसे,ण करेंतऽण्णेण यऽण्णेसिं॥ ३.मध्यम बावीस तीर्थंकरों के साधु न एकान्ततः दान्त होते हैं और न उत्कट कषाय युक्त होते हैं, इस कारण वे विमिश्रभाव से युक्त होते हैं। १.बुभाटी प.१६८९; विमिस्सभाव त्ति नैकान्तेनोपशान्ता,नवा उत्कटकषायास्ते। Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-७१ 473 . 7. जिसने सम्पूर्ण दर्शन-सम्यक्त्व को वान्त कर दिया हो। 8. जिसने सम्पूर्ण चारित्र को वान्त कर दिया हो। 9. त्यक्तकृत्य-संयम को त्यक्त कर षड्जीवनिकाय का समारंभ करने वाला। 10. शैक्ष–अभिनव दीक्षित। 2030, 2031. ये दश प्रकार की उपस्थापनाएं प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के द्वारा कही गई हैं। अन्य आदेश से छह प्रकार की उपस्थापनाएं इस प्रकार हैं-प्रथम में तीनों पारांचिक, द्वितीय में तीनों अनवस्थाप्य, तृतीय दर्शनवान्त, चौथा चारित्रवान्त, पांचवां त्यक्तकृत्य तथा छठा शैक्ष, जिसकी उपस्थापना बाकी है। 2032. यह दूसरा आदेश है। तृतीय आदेश निम्न प्रकार से जानना चाहिए। उसके चार उपस्थाप्य होते हैं, वे कौन से हैं? आचार्य कहते हैं कि वे ये जानने चाहिए२०३३, 2034. श्रुतोपदिष्ट अनवस्थाप्य और पाराञ्चिक का दर्शन और चारित्र में अन्तर्भाव हो जाने से दर्शनवान्त और चारित्रवान्त-ये दो भंग होते हैं। त्यक्तकृत्य (षट्कायविराधक) और शैक्ष-ये चार उपस्थाप्य होते हैं। उपस्थापना के ये तीन आदेश जानने चाहिए। 2035. दर्शन और चारित्र के साथ केवल पद का ग्रहण सम्पूर्ण अर्थ में है। यदि दर्शन और चारित्र का पूर्णतः वमन होता है तो उसकी उपस्थापना (छेदोपस्थापनीय चारित्र) होती है। देशतः वमन होने पर उपस्थापना की भजना रहती है अर्थात् कदाचित् उपस्थापना हो भी सकती है और नहीं भी होती। 2036. इसी प्रकार कोई अगीतार्थ मुनि अल्पदोष के कारण सूत्रार्थ विषयक किसी श्रुत या अश्रुत पद को अन्यथा रूप में कहता है, उस समय गुरु के प्रेरित करने पर वह यदि उसे सम्यक् रूप से स्वीकार कर लेता है तो मिथ्या दुष्कृत मात्र से शुद्ध हो जाता है। 2037-40. दर्शनवान्त दो प्रकार का होता है-१. जानकारी में सम्यक्त्व का वमन करने वाला 2. अजानकारी में वमन करने वाला। अनाभोग दर्शनवान्त का तात्पर्य है कि कोई श्रावक निह्नव को देखता है कि ये यथोक्त क्रिया करने वाले हैं, ऐसा सोचकर संवेग से उनके पास दीक्षित हो जाता है। अन्य साधु उसे वहां दीक्षित देखकर कहते हैं कि तुम निह्नवों के पास दीक्षित क्यों हुए हो? वह साधु उत्तर देता है कि भंते ! मैं इस बारे में विशेष कुछ नहीं जानता हूं। इस प्रकार अनाभोग-अजानकारी में मिथ्यात्व को प्राप्त करके यदि वह पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करता है तो वह साधु आलोचना और निंदा करने मात्र से शुद्ध हो जाता 2041. वह उसी पर्याय में शुद्ध दर्शनी के पास आ जाता है, उसकी पुनः उपस्थापना नहीं होती। उसका यही प्रायश्चित्त है कि उसने सम्यक्त्व को पुनः स्वीकार कर लिया। 2042. जो जानता हुआ निह्नवों के पास दीक्षित होता है, वह यदि पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करता है तो उसके लिए पुनः उपस्थापना कही गई है। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 जीतकल्प सभाष्य 2043. जो मुनि परवश होकर षड्जीवनिकाय की विराधना करता है, वह गुरु के पास आलोचना करके प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो जाता है। 2044. जो मुनि आत्मवश होकर षड्जीवनिकाय की विराधना करता है तो गुरु के पास आलोचना और प्रतिक्रमण करने पर भी उसकी मूलतः उपस्थापना करवानी चाहिए। 2045. क्षेत्र आदि से परवश होकर जो अजानकारी में मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, उसको कोई प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं होता, उसको प्रायश्चित्त देने वाला विराधक होता है। 2046. जिसने जो प्रायश्चित्त प्राप्त किया है तथा जिस व्यक्ति के प्रायोग्य जो प्रायश्चित्त हो, उसे वही प्रायश्चित्त देना चाहिए। असदृश अर्थात् विपरीत प्रायश्चित्त देने पर ये दोष होते हैं२०४७. अप्रायश्चित्ती को प्रायश्चित्त देने से तथा प्रायश्चित्त प्राप्त करने वाले को अतिमात्रा में प्रायश्चित्त देने से धर्म की तीव्र आशातना तथा मोक्षमार्ग की विराधना होती है। 2048. उत्सूत्र से व्यवहार करता हुआ अर्थात् सूत्र से अतिरिक्त प्रायश्चित्त देता हुआ आचार्य चिकने कर्मों का बंधन करता है। वह संसार को बढ़ाता है तथा मोहनीय कर्म का बंध करता है। 2049. उन्मार्ग की देशना देने वाला मार्ग को दूषित करता है तथा मार्ग की विप्रतिपत्ति से वह दूसरों को मोह से रंजित करता हुआ महामोह का बंधन करता है। 2050. इस प्रकार जो पहले उपस्थापित होता है अथवा सामायिक को पहले स्वीकार करता है, वह कल्प और आचार-प्रकल्प धारण करने वालों में ज्येष्ठ होता है। 2051. प्रथम और अंतिम तीर्थंकर का प्रतिक्रमणयुक्त धर्म होता है। मध्यम तीर्थंकरों के तीर्थ में कारण उत्पन्न होने पर प्रतिक्रमण होता है। 2052. प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के साधु गमनागमन तथा विचारभूमि में जाते हुए वहां लगने वाले अतिचार के लिए नियमतः सुबह और शाम प्रतिक्रमण करते हैं फिर चाहें अतिचार लगें या न लगें। 2053. शिष्य जिज्ञासा करता है कि अतिचार न होने पर प्रतिक्रमण निरर्थक होता है। आचार्य उत्तर देते हुए कहते हैं कि वत्स! (अतिचार न होने पर भी प्रतिक्रमण करना निरर्थक नहीं होता,) उसकी सार्थकता में यह उदाहरण है। 2054-56. जैसे कोई राजा अपने पुत्र के लिए रसायन करवाता है, वहां एक चिकित्सक कहता है कि मेरा रसायन ऐसा है कि यदि दोष होगा तो वह दोष का नाश करेगा यदि दोष नहीं होगा तो रोग हो जाएगा। दूसरा वैद्य कहता है -'मेरी औषधि रोग का हरण करेगी लेकिन रोग के अभाव में गुण और दोष कुछ भी नहीं करेगी।' तीसरा वैद्य बोला-'मेरी औषधि दोषरहित होने के कारण दोष का नाश करके गुण ही करेगी।' तृतीय वैद्य की औषधि समाधिकारक होने से राजपुत्र के लिए रसायन है। 2057. प्रतिक्रमण तीसरे कुशल चिकित्सक के रसायन के समान है। यदि दोष होता है तो उसका नाश कर देता है, यदि दोष नहीं होता तो निर्जरा करता है। १.कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.५५ / Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-७१ 475 2058. जिनकल्प, स्थविरकल्प, यथालंद, पारिहारिक और आर्यिका-इन पांचों के मासकल्प में क्षेत्र, काल, उपाश्रय और पिण्डग्रहण में नानात्व होता है। 2059. इन पांचों का आपस में क्षेत्र आदि चार पदों से क्या विशेष होता है, उसको मैं संक्षेप में कहूंगा। 2060. जिनकल्पिक के ऋतुबद्ध काल में नियमतः मासकल्प होता है। उनके क्षेत्र सम्बन्धी अवग्रह नहीं होता। वर्षाकाल में वे चार मास तक एक स्थान पर रहते हैं, उनका वसति के प्रति ममत्व नहीं होता और वे उसका परिकर्म भी नहीं करते। 2061. जिनकल्पिक सात पिण्डैषणाओं में से अंतिम पांच एषणाओं से किसी एक एषणा से अलेपकृद् आहार ग्रहण करते हैं। उसमें भी उनकी एषणा अभिग्रह युक्त होती है। 2062. स्थविरकल्पी के नगर या वसति में क्षेत्र का अवग्रह कोश सहित एक योजन होता है तथा ऋतुबद्ध काल में एक मास का अवग्रह होता है। 2063. यह उत्सर्ग-विधि कही गई है। अपवाद स्थिति में अधिक भी हो सकता है। इसी प्रकार वर्षाकाल में भी चातुर्मास या अपवाद की स्थिति में अधिक काल का प्रवास हो सकता है। 2064. उपाश्रय के प्रति अममत्व और अपरिकर्म होता है। अममत्व और अपरिकर्म की दृष्टि से उपाश्रय सम्बन्धी चतुर्भंगी होती है। उत्सर्ग स्थिति में प्रथम भंग का पालन होता है। आपवादिक स्थिति में ममत्व और परिकर्म सम्बन्धी तीनों भंग हो सकते हैं। 2065. लेपकृद् या अलेपकृद् आहार सात प्रकार की एषणाओं से ग्रहण करते हैं क्योंकि गच्छवास सापेक्ष होता है। 2066. गच्छ से अप्रतिबद्ध यथालंदिक साधुओं की चर्या जिनकल्पिक की भांति होती है। केवल काल सम्बन्धी अन्तर है। ऋतुबद्ध काल में वे एक स्थान पर पांच दिन तथा वर्षाकाल में चार मास रहते हैं। १.जिनकल्पिक का मासकल्प स्थविरकल्पी की भांति दो प्रकार का होता है-अस्थितकल्प और स्थितकल्प। मध्यम ' तीर्थंकरों के जिनकल्पिकों का मासकल्प अस्थित होता है तथा प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के जिनकल्पिकों का स्थितकल्प होता है। प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के साधु नियम से मासकल्प से विहार करते हैं, मध्यम तीर्थंकरों के साधु कभी मासकल्प पूरा किए बिना भी विहार कर देते हैं और कभी देशोनपूर्वकोटि वर्ष तक भी एक स्थान पर रह सकते हैं। 1. बृभा 6431 टी. पृ. 1694 / 2. उपाश्रय सम्बन्धी चतुर्भंगी-१. अममत्व-अपरिकर्म, 2. अममत्व-परिकर्म, 3. ममत्व-अपरिकर्म, 4. ममत्व परिकर्म। ३.लंद शब्द काल का वाचक है। जितने काल में जल से आई हाथ सूखता है, उतने काल भी जो प्रमाद नहीं करते, वे साधु यथालंदिक होते हैं। ऋतुबद्ध काल में ये पांच अहोरात्र तक एक ही वीथी में रहते हैं और वहीं भिक्षाचर्या करते हैं। इस काल का अतिक्रमण नहीं करते। ये दो प्रकार के होते हैं -गच्छ प्रतिबद्ध और गच्छ अप्रतिबद्ध। जो प्रस्तुत कल्प की समाप्ति के बाद जिनकल्प स्वीकार करते हैं, वे जिन तथा जो गच्छ में पुनः स्थविरकल्प को स्वीकार कर लेते हैं, वे स्थविरकल्पी कहलाते हैं। इनके जघन्य तीन गण तथा उत्कृष्ट शतपृथक्त्व (दो सौ से नौ ' सौ) गण एक साथ इस कल्प को स्वीकार कर सकते हैं। पुरुष प्रमाण की अपेक्षा जघन्य 15 पुरुष तथा उत्कृष्ट शतपृथक्त्व (दो हजार से नौ हजार) व्यक्ति इस कल्प को स्वीकार करते हैं। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- 476 जीतकल्प सभाष्य' 2067. गच्छ से प्रतिबद्ध यथालंदिकों की यह विशेषता है कि उनका जो अवग्रह होता है, वह आचार्यों के अधीन होता है। 2068. गांव को छह वीथियों में बांटकर प्रत्येक वीथी में पांच-पांच दिन तक भिक्षा करते हैं फिर अन्य वीथियों में नियमतः पांच-पांच दिन भिक्षार्थ परिव्रजन करते हैं। 2069. परिहारविशुद्धि कल्प वाले के जिनकल्पिक जैसा ही आचार होता है। अंतर इतना ही है कि . परिहारविशुद्धि वाले आयम्बिल करते हैं। अब स्थविरकल्प ज्ञातव्य है। 2070. आर्यिकाओं का अवग्रह आचार्य के अधीन होता है। उनका ऋतुबद्ध काल में एक स्थान पर दो मास रहने का कल्प होता है। 2071. शेष पिण्ड, उपाश्रय आदि का वर्णन स्थविरकल्प के समान होता है। सारा कल्प दो प्रकार का हैजिनकल्प और स्थविरकल्प। 2072. जिनकल्पिक, यथालंदिक और परिहारविशुद्धिक के जिनकल्प होता है। स्थविर और आर्यिकाओं का स्थविरकल्प जानना चाहिए। 2073. मासकल्प दो प्रकार का होता है जिनकल्प और स्थविरकल्प। जिनकल्प अनुग्रह रहित तथा स्थविरकल्प अनुग्रह युक्त होता है। 2074. ऋतुबद्धकाल और वर्षावास पूर्ण होने के पश्चात् जिनकल्पी को अधिक दिन रहने पर ऋतुबद्ध काल के प्रत्येक दिन के लिए गुरुमास तथा वर्षाकाल का चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तथा स्थविरकल्पी को ऋतुबद्ध काल के प्रत्येक दिन के लिए लघुमास तथा चातुर्मास काल बीतने पर प्रत्येक दिन के लिए चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2075. वर्षावास के प्रमाण से अधिक रहने वाला तीस अपराध-पदों से स्पृष्ट होने पर जिस अपराधपद का सेवन करता है, वह उसी अपराध से स्पृष्ट होता है। 2076. पन्द्रह उद्गम-दोष, दश एषणा के दोष-ये पच्चीस दोष होते हैं। संयोजना आदि पांच दोषों को मिलाने से आहार से सम्बन्धित तीस अपराध-पद होते हैं। 2077. इन दोषों की प्राप्ति न होने पर भी कालातिक्रान्त प्रवास करने पर प्रतिदिन का वही प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, जो पहले कहा गया है। (देखें गाथा 2074 का अनुवाद) 2078. वर्षावास प्रमाण तथा ऋतुबद्धकाल में जितना रहने का कल्प है, उतना रहने के बाद भी उस स्थान को नहीं छोड़ना अनुवासकल्प कहलाता है। 2079. वर्षावास का प्रमाण आचारप्रकल्प (निशीथ) में जैसा कहा गया है, वहां रहने पर भी अनुवासकल्प होता है। वहां रहते हुए दोष होते हैं। १.निरनुग्रह का तात्पर्य है कि उनके अशिव आदि कारणों के होने पर अपवाद नहीं होता। स्थविरकल्पी के अशिव आदि कारणों का अपवाद होता है अतः वह सानुग्रह है। २.पंचकल्प चूर्णि में तीस अपराध पद की दो रूपों में व्याख्या की गई है। प्रथम व्याख्या भिक्षा के दोष से सम्बन्धित है। पन्द्रह उद्गम दोष, दस एषणा के दोष तथा पांच संयोजना के दोष-ये तीस अपराधपद हैं। दूसरी व्याख्या के अनुसार मास में तीस दिन होते हैं। कल्प से अधिक यतनापूर्वक रहने पर भी प्रत्येक दिन का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-७१ 477 2080. विहारकाल के दो प्रकार हैं-वर्षावासकाल और ऋतुबद्धकाल। ऋतुबद्ध मासकल्प बीतने पर उपधि ग्रहण नहीं होती, वर्षावास बीतने पर उपधि-ग्रहण संभव है। 2081. ऋतुबद्ध काल के आठ मास व्यतीत होने पर वहां प्रवास कल्प्य नहीं होता, वर्षावास बीतने पर उपधि ग्रहण करके विहार कल्प्य होता है। 2082. वर्षाकाल और ऋतुबद्ध काल में इत्वरिक और साधारण अवग्रह पृथक्-पृथक् होता है। द्रव्यों के संक्रमण हेतु गच्छ में अवग्रह होता है। 2083. वर्षावास में चार मास और ऋतुबद्ध काल में एक-एक मास का कालावग्रह होता है। यथालंदिक का ऋतुबद्ध काल में एक स्थान पर पांच दिन का कालावग्रह होता है। विश्राम के लिए वृक्ष के नीचे स्थित मुनियों का इत्वरिक अवग्रह होता है। 2084. अनेक गच्छों के एक साथ रहने पर क्षेत्रावग्रह साधारण अर्थात् सबका होता है। एक के ग्रहण करने पर वह सबके लिए गृहीत हो जाता है। 2085. साधु परस्पर सूत्र, अर्थ और तदुभय का अध्ययन करते हैं अथवा प्रतिपृच्छा करते हैं तो उनके अवग्रह का परस्पर संक्रमण होता है। 1. वर्षाकाल में उपधि का ग्रहण भगवान् के द्वारा अनुज्ञात नहीं है। उस काल में उपधि ग्रहण करने से अदत्तादान विरमण का व्रत भंग होता है तथा चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। (निभा 335) 2. सर्वसाधारण क्षेत्र में जो साधु सूत्र या अर्थ का कथन करता है, वह क्षेत्र उसके अधिकार में होता है। यदि बारी बारी से कथन किया जाता है तो जो जितने दिन, पौरुषी या मुहूर्त श्रुत-वाचना देता है, उतने काल तक उसका .. अवग्रह रहता है। 3. 'अन्योन्य संक्रमण' शब्द की पंचकल्प चूर्णिकार ने विस्तार से व्याख्या की है। एक साधु दूसरे साधु के पास दशवैकालिक का अध्ययन करता है। उस दशवैकालिक पढ़ने वाले के पास कोई अन्य साधु उत्तराध्ययन पढ़ता है। उत्तराध्ययन पढ़ने वाला साधु सचित्त आदि जो कुछ प्राप्त करता है, वह दशवैकालिक पढ़ने वाले को देता है। जो साधु उत्तराध्ययन पढ़ता है, उसके पास अन्य साधु ब्रह्मचर्य (आचारांग) यावत् विपाकश्रुत तक का अध्ययन करते हैं। इसमें क्रमशः उत्तर उत्तर बलशाली हैं अर्थात् उत्तराध्ययन की अपेक्षा ब्रह्मचर्य (आचारांग) अधिक बलीयान् है। अर्थ की दृष्टि से एक साध दसरे के पास आवश्यक की गाथाएं पढता है.अन्य साध आवश्यक का अर्थ कहता है, इसमें अर्थ कराने वाला बलिक है। एक साधु दशवैकालिक सूत्र का वाचन करता है, दूसरा उसका अर्थ कराता है, इसमें अर्थकर्ता बलिक है। इसी प्रकार विपाकश्रुत तक जानना चाहिए। अर्थ की बलवत्ता को स्पष्ट करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि एक साधु भगवती की वाचना देता है, दूसरा दशवैकालिक आदि यावत् कल्प और व्यवहार का अर्थ कहता है तो इसमें अर्थकर्ता बलिक है। - एक साधु कल्प और व्यवहार का अर्थ करता है, दूसरा दृष्टिवाद सूत्र की वाचना देता है। इसमें सूत्रकर्ता अर्थात् दृष्टिवाद की वाचना देने वाला बलिक है। पूर्वगत सर्वत्र बलिक होता है। जहां स्वाध्याय-मण्डली छिन्न होती है तो वह क्षेत्र और सचित्त आदि की प्राप्ति अधस्तन वाले को प्राप्त होती है। घोटककण्डूयित मंडली में जो जब जिसको पूछता है, तब वह उसका प्रतीच्छक होता है तथा जो उत्तर देता है, तब वह क्षेत्र उसके अधीन होता है। क्षेत्र आभवद् के सम्बन्ध में व्यवहारभाष्य में विस्तार से उल्लेख है। १.पंकभा चू पृ. 367 / Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 जीतकल्प सभाष्य 2086, 2087. साधु मंडली और आवलिका में श्रुत ग्रहण करते हैं। मंडली में अध्ययन करते हुए क्षेत्रगत सचित्त आदि वस्तुओं का जो लाभ होता है, वह परम्परा से स्वस्थान तक संक्रान्त होता है। जहां तक आवलिका होती है, अंत में वहां तक परम्परा चलती है। 2088. वे साधु एक वसति में अथवा पुष्पावकीर्ण-अलग-अलग वसतियों में रहते हैं, तब द्रव्य के . संक्रमण की यह अन्य विधि है। 2089. सूत्र, अर्थ और तदुभय विशारद आचार्य के पास स्थान की कमी होने पर साधुओं के दो स्थानों में विभक्त होने पर अन्य गांव में गए साधुओं के द्रव्य का संक्रमण योग (आगाढ़-अनागाढ़) कल्प और आवलिका पूर्ववत् होती है। 2090, 2091. पूर्वस्थित आचार्य के क्षेत्र में यदि अन्य बहुश्रुत या बहुत आगमों का ज्ञाता आचार्य आ. जाए और वह क्षेत्रवर्ती आचार्य उनके पास कुछ अध्ययन करे, वहां यदि क्षेत्र अल्प हो तो असंथरण की स्थिति में दोनों अपने-अपने साधुओं का वर्जन करते हैं। १.सूत्र-अर्थ संभाषण के तीन प्रकार हैं -मंडलिका-जो मंडली एकान्त अच्छिन्न प्रदेश में होती है। आवलिका जो अपने ही स्थान में छिन्न प्रदेश में होती है। आवलिका में उपाध्याय अंतर विविक्त प्रदेश में बैठता है, जबकि मंडलिका में वह स्वस्थान पर बैठता है। सूत्र अर्थ-संभाषण का तीसरा प्रकार है-घोटक कण्डूयित। जिस प्रकार घोड़े आपस में खुजली करते हैं, वैसे ही जिस मंडली में साधु बारम्बार परस्पर सूत्र और अर्थ का ग्रहण करते हैं। जैसे-आज मैं तुम्हारे पास पढूंगा, कल तुम मेरे पास पढ़ना। मंडली-विधि का उपक्रम करने के निम्न कारण हैं• पूर्व अधीत विस्मृत श्रुत का पुनः स्मरण करने के लिए। * धर्मकथा तथा वादशास्त्रों के स्मरण-अध्ययन के लिए। * अध्ययन हेतु। 1. व्यभा 1831, 1832 मटी प. 21 / २.व्यवहारभाष्य में तीन प्रकार के उपाश्रयों का उल्लेख मिलता है-१. पुष्पावकीर्ण 2. मण्डलिकाबद्ध और 3. आवलिकास्थित। टीकाकार ने इन तीनों उपाश्रयों की व्याख्या नहीं की है। इनकी अर्थ-परम्परा यह होनी चाहिए१. पुष्पावकीर्ण-अलग-अलग बिखरी हुई वसतियां 2. मंडलिबद्ध-अच्छिन्न प्रदेश में स्थित 3. आवलिकाएकान्त छिन्न प्रदेश में स्थित। १.व्यभा 1806 ; पुष्फावकिण्ण मंडलियावलिय उवस्सया भवे तिविधा। ३.यह द्वारगाथा है। यह पंचकल्पभाष्य में भी मिलती है। चूर्णिकार इस गाथा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि एक सूत्रार्थविशारद आचार्य पहले से ही किसी गांव में प्रवास कर रहे हों, वहां अन्य साधु उनके पास अध्ययन हेतु आ जाएं, उस समय यदि स्थान का अभाव हो अथवा भक्तपान अपर्याप्त हो तो दो पढ़ने वाले साधुओं को छोड़कर शेष को अन्य स्थान में भेज दिया जाता है। अन्य क्षेत्र में गए साधुओं के वहां आपस में पढ़ते हुए साधुओं के संक्रमण-स्थान आदि पूर्ववत् होते हैं।' १.पंकचू पृ. 367 / ४.व्यवहारभाष्य के अनुसार जहां सब अगीतार्थ हों, वहां यदि कोई गीतार्थ आ जाए तो उसकी उपसम्पदा स्वीकार न करने पर गुरु प्रायश्चित्त आता है। Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-७१ 479 2092. एक दूसरे के पास वहां अध्ययन करते हुए मुनि के आभवद् व्यवहार वैसे ही होता है, जैसे सूत्र (व्यवहार भाष्य') में कहा गया है। 2093. इस प्रकार व्याघात न होने पर स्थविरकल्पी का ऋतुबद्धकाल में एक मास तथा वर्षाकाल में चार मास का एक स्थान पर प्रवास होता है लेकिन कारण होने पर जब तक वह कारण उपस्थित रहे, तब तक अनुवास-कल्प से अधिक प्रवास किया जा सकता है। 2094. यह स्थविरकल्पिक का मासकल्प संक्षेप में वर्णित है, अब स्थितकल्प और अस्थितकल्प स्थविरों के बारे में कहूंगा। 2095. वह स्थविरकल्प दो प्रकार का होता है-अस्थितकल्प और स्थितकल्प। इसी प्रकार जिनकल्पी के भी स्थितकल्प और अस्थितकल्प-ये दो भेद होते हैं। 2096. पर्युषणाकल्प स्थविरकल्पिक एवं जिनकल्पिक दोनों के होता है तथा दोनों के यह स्थित और अस्थित-दोनों प्रकार का होता है। 2097. पर्युषणाकल्प उत्कृष्टतः चार मास का (आषाढ़ी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा) और जघन्य सत्तर रात-दिन (भाद्रव शुक्ला 5 से कार्तिक पूर्णिमा) तक होता है। यह स्थितकल्प (प्रथम और चरम तीर्थंकर के साधु) के लिए होता है। शेष तीर्थंकरों के अस्थितकल्प होता है। स्थितकल्प के लिए अशिव आदि कोई कारण उत्पन्न होने पर मासकल्प एवं पर्युषणाकल्प में विपर्यास भी हो सकता है। 2098. प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के स्थितकल्प वाले स्थविरकल्पी साधुओं के वर्षाकाल में सत्तर दिन का पर्युषणाकल्प होता है। उनके ऋतुबद्धकाल में एक मास का स्थितकल्प होता है। अशिव आदि कारण उपस्थित होने पर विपर्यास-हीन या अधिक भी होता है। जिनकल्पिक साधुओं के नियमतः ऋतुबद्धकाल में आठ मास तथा वर्षाकाल में चार मास होते हैं।२ / .2099. जो मध्यम तीर्थंकरों के अस्थितकल्पिक साधु हैं, वे दोषों के अभाव में पूर्वकोटि वर्ष तक भी एक क्षेत्र में रहते हैं। यदि कर्दमरहित और प्राणरहित भूमि हो तो वे वर्षाकाल में भी विहार कर सकते हैं। 2100. मध्यम तीर्थंकरों के साधु थोड़ा कारण होने पर भी मासकल्प पूरा किए बिना विहार कर देते हैं। मध्यम तीर्थंकरों के जिनकल्पिक साधु और महाविदेह क्षेत्र के स्थविरकल्पी और जिनकल्पी साधु अस्थित कल्प वाले होते हैं। 2101. इस प्रकार स्थितकल्प और अस्थितकल्प सम्बन्धी जो मर्यादा कही गई है, उसमें जो प्रमाद करता है, वह पार्श्वस्थ स्थान में होता है। साधु को उस स्थान का विवर्जन करना चाहिए। 2102. जिनेश्वर भगवान् ने तथा स्थविरों ने पार्श्वस्थ के स्थान को संक्लिष्ट कहा है। वैसे स्थान की गवेषणा करने वाला मुनि विहारचर्या में विशुद्ध नहीं होता। १.व्यभा 1824-37 / २.जिनकल्पिक साधु के ऋतुबद्धकाल और चातुर्मास निरपवाद होता है। Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 जीतकल्प सभाष्य 2103. जिनेश्वर तथा स्थविरों ने पार्श्वस्थ के स्थान को संक्लिष्ट कहा है। वैसे स्थान का विवर्जन करने - वाला मुनि विहारचर्या में विशुद्ध होता है। 2104. जो इस कल्पस्थिति पर श्रद्धा रखता हुआ स्वस्थान' में उसका पालन करता है, वैसे संविग्नविहारी मुनि की गवेषणा करनी चाहिए, जिससे गुणों की हानि न हो। 2105. जो दसविध स्थितकल्प, द्विविध स्थापना कल्प तथा उत्तरगुणकल्प में समान आचार वाला होता है, उसके साथ संभोज करना चाहिए। 2106. स्थापनाकल्प दो प्रकार का होता है-अकल्पस्थापनाकल्प तथा शैक्षस्थापनाकल्प। अकल्पिक अर्थात् जिसने पिण्डैषणा न पढ़ा हो, उससे आहार आदि ग्रहण नहीं करना चाहिए। 2107. अठारह प्रकार के पुरुष, बीस प्रकार की स्त्रियां तथा दस प्रकार के नपुंसक-इनको दीक्षा नहीं देना शैक्षस्थापनाकल्प.कहलाता है। 2108. जो आहार, उपधि और शय्या को उद्गम, उत्पादना और एषणा के दोषों से शुद्ध ग्रहण करता है, वह उत्तरगुणकल्पिक कहलाता है। 2109. सदृश आचार वाला, सदृश सामाचारी वाला, समान चारित्र वाला अथवा विशिष्ट संयमस्थानों में वर्तमान-इन गुणों से युक्त ज्ञानी और चारित्रगुप्त साधु के साथ संस्तव आदि करना चाहिए। 2110. सदृशकल्प', सदृश सामाचारी, समान चारित्र वाला तथा विशिष्टतर संयमस्थानों में वर्तमान-इन गुणों से युक्त साधु से भक्तपान ग्रहण करना चाहिए अथवा अपने लाभ में संतुष्ट रहना चाहिए। 2111. सामायिक, छेदोपस्थापनीय, जिनकल्प और स्थविरकल्प की स्थिति का वर्णन किया। अब मैं निर्विशमानक और निर्विष्टकायिक कल्पस्थिति का वर्णन करूंगा। 2112. मैं परिहारकल्प के विषय में कहूंगा, जिसका विद्वान् मुनि आसेवन करते हैं। मैं उसकी आदि, मध्य और अवसान में होने वाली सामाचारी की परिपाटी का यथाक्रम से वर्णन करूंगा। 2113. भरत और ऐरवत क्षेत्रों में जब तीर्थंकर होते हैं तो प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के शासनकाल में पारिहारिक होते हैं। 1. स्वस्थान का तात्पर्य है कि स्थितकल्प का अनुवर्तन करते हुए स्थितकल्प की सामाचारी को तथा अस्थित कल्प में रहते हुए अस्थित कल्प की सामाचारी को करना।। १.बृभा 6440 टी पृ.१६९६; स्वस्थानं नाम स्थितकल्पेऽनुवर्तमाने स्थितकल्पसामाचारीम् ,अस्थितकल्पे पुनरस्थित कल्पसामाचारी करोति। 2. निशीथ भाष्य में संभोज-विधि के छह भेद बताए गए हैं-१. ओघ, 2. अभिग्रह, 3. दान-ग्रहण, 4. अनुपालना, 5. उपपात, 6. संवास। 1. निभा 2070 / 3. उद्गम आदि दोषों से रहित भिक्षाग्रहण, समिति, गुप्ति आदि शीलांग, क्षमा आदि श्रमणधर्म-इन उत्तर गुणों का समान रूप से पालन करने वाला सदृशकल्पी होता है अथवा जो संविग्न और सांभोजिक होता है, वह सदृश कल्पी है। 1. निभा 5935, 5936 / Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-७१ 481 2114. मध्यम तीर्थंकरों के तीर्थ में पारिहारिक नहीं होते और न ही महाविदेह क्षेत्र में पारिहारिक तप करने वाले होते हैं। 2115. शिष्य प्रश्न पूछता है कि पूर्व और पश्चिम तीर्थंकरों के परिहारकल्पिकों का गच्छ कितने काल तक अनुवर्तित होता है? 2116. आचार्य उत्तर देते हैं कि प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ में परिहारकल्प एक लाख पूर्व तक अनुवर्तित होता है इसलिए दो गच्छ से आगे उसको स्वीकार नहीं किया जाता। 2117. कुछ कम दो पूर्व कोटि तक दोनों पारिहारिकों का आयुष्य होता है, उनमें दो उनतीस अर्थात् अट्ठावन वर्ष कम करे, उतना उत्कृष्ट समय होता है। 2118. अंतिम तीर्थंकर के कतिपय बीस वर्ष अर्थात् कुछ कम दो सौ वर्ष तक परिहारकल्प स्थिति अनुवर्तित होती है। 2119. आठवें वर्ष में प्रव्रज्या तथा नवें वर्ष में उपस्थापना होती है। दीक्षा के 19 वर्ष पूर्ण होने पर मुनि को दृष्टिवाद का ग्रहण कराया जाता है। 2120. शिष्य को एक वर्ष तक दृष्टिवाद की वाचना दी जाती है अतः नौ और बीस वर्ष मिलाने पर उनतीस वर्ष होते हैं। 2121. पश्चिम तीर्थंकर के तीर्थ में दो उनतीस अर्थात् अट्ठावन वर्ष न्यून दो सौ वर्ष तक परिहारविशुद्धि कल्प का अनुवर्तन होता है। 2122. पश्चिम तीर्थंकर के तीर्थ में किसी साधु ने उनतीस वर्ष न्यून सौ वर्ष तक स्वयं कल्प का प्रवर्तन किया फिर जीवन के अन्तिमकाल में दूसरों को कल्प का प्ररूपण कराया। (वे भी 29 वर्ष न्यून 100 वर्ष तक कल्प का पालन कर सकते हैं।) इस प्रकार कुछ न्यून दो सौ वर्ष होते हैं। 2123. जो विद्वान् साधु तीर्थंकर के पादमूल में इस कल्प को स्वीकृत करते हैं, वे ही दूसरों को इसमें स्थापित करते हैं न कि स्थापित स्थापक। 2124., 2125. परिहारकल्प स्वीकार करने वाले सभी मुनि चारित्रसम्पन्न, दर्शन में पूर्णता को प्राप्त, जघन्यतः नवपूर्वी, उत्कृष्टतः दशपूर्वी (कुछ न्यून दशपूर्वी), आगम आदि पंचविध व्यवहार के ज्ञाता, द्विविध कल्प-(अकल्पस्थापना कल्प तथा शैक्षस्थापना कल्प अथवा जिनकल्प और स्थविरकल्प) तथा दश प्रकार के प्रायश्चित्त-इन सबमें परिनिष्ठित होते हैं। 2126. वे महामुनि अपने शेष आयुष्य को जानकर तथा अपने बल, वीर्य, पराक्रम को समझकर परिहारकल्प स्वीकार करते हैं, रोग आदि अपायों पर वे पहले ही ध्यान दे देते हैं। 2127. यदि उनके कोई अन्य व्याघात या प्रत्यपाय नहीं होते तो वे परिहारकल्प को स्वीकार करते हैं अन्यथा स्वीकार नहीं करते। 1. यह कल्प तीर्थंकरों के पास स्वीकार किया जाता है या जिस साधु ने तीर्थंकर के पास इस कल्प को स्वीकृत किया ___ है, उनके पास इसे ग्रहण किया जा सकता है। आगे इसकी परम्परा नहीं चलती अतः स्थापित स्थापक से यह कल्प स्वीकृत नहीं किया जा सकता। Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482 जीतकल्प सभाष्य 2128. अर्हतों को पूछकर वे इस कल्प को स्वीकार करते हैं। अर्हत् उनको इस कल्प की विधि सभी प्रमाण तथा बहुविध अभिग्रह बताते हैं। 2129. अर्हत् उन्हें गण-प्रमाण, उपधि-प्रमाण तथा पुरुष-प्रमाण बताते हैं। वे द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव तथा अन्य निष्प्रतिकर्मता आदि पर्यायों के बारे में बताते हैं। 2130, 2131. संसृष्टा, असंसृष्टा आदि सात एषणाओं में प्रथम दो को छोड़कर शेष पांच में से किसी एक का अभिग्रह स्वीकार करते है। उपधि विषयक चार एषणाओं में अंतिम दो एषणाओं को स्वीकार करते हैं लेकिन उनमें से भी तीसरी या चौथी किसी एक का अभिग्रह स्वीकार करते हैं। 2132. सूर्योदय होते ही वे इस कल्प की देशना देते हैं तथा आलोचना-प्रतिक्रमण करके तीन गणों की स्थापना करते हैं। 2133. इन तीन गणों में जघन्यतः सत्तावीस पुरुष और उत्कृष्टतः हजार पुरुष होते हैं। यह उन निर्ग्रन्थ शूरवीर भगवानों की सर्व संख्या कही गई है। 2134. इन गणों की उत्कृष्ट संख्या सौ तथा जघन्य संख्या तीन होती है। प्रत्येक गण नौ पुरुषों का होता है-ये इनकी प्रतिपत्तियां हैं। 2135. नौ पुरुषों में एक को कल्पस्थित' चार को पारिहारिक तथा शेष चार को अनुपारिहारिक स्थापित किया जाता है। 2136. जो परिहारकल्प को स्वीकार करते हैं, उनके अठारह महीनों में किसी प्रकार का विघ्न, वेदना, आतंक या अन्य उपद्रव आदि नहीं होते। 2137. अठारह माह पूर्ण होने पर उपद्रव आदि हो सकते हैं। कोई मुनि दिवंगत हो जाए अथवा स्थविरकल्पी जिनकल्प में चला जाए तो गण न्यून होने पर यह मर्यादा होती है। . 2138. गण में जितने व्यक्ति कम हो जाएं उतने एक, दो या अनेक व्यक्तियों का वहां प्रक्षेप करना चाहिए, न्यून होने पर यह सामाचारी है। 2139. गण के अन्यून अर्थात् कम न होने पर यदि एक, दो या अनेक वहां उपसंपदा स्वीकार करते हैं तो उनकी सामाचारी इस प्रकार होती है२१४०. जब तक नौ की संख्या पूरी रहती है, तब तक वे उपसम्पदा की अवस्था में रहते हैं। उसके पश्चात् वे उनके पास परिहारकल्प को स्वीकार करते हैं। 2141. परिहारकल्प में यदि पारिहारिक से कोई अपराध हो जाए तो कल्पस्थित (आचार्य रूप) मुनि व्यवहार-प्रायश्चित्त देने में प्रमाणभूत होता है। अनुपारिहारिक के द्वारा अपराध-पद का आसेवन होने पर भी वही गीतार्थ कल्पस्थित (आचार्य रूप) मुनि प्रायश्चित्त देने में प्रमाण होता है। 1. एक-एक गण में नौ-नौ पुरुष होते हैं। 2. वह मुनि, जो परिहारविशद्धि चारित्र की साधना के समय गुरु का दायित्व निभाता है। Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-७१ 483 2142. पारिहारिक और अनुपारिहारिक मुनि कल्पस्थित के समक्ष आलोचना, प्रत्याख्यान तथा वंदना आदि वहन करते हुए उसको उद्यान-विहरण के समान मानते हैं। 2143. जैसे गोपालक गायों के पीछे रहकर नित्य जागरूक होता है, वैसे ही अनुपारिहारिक पारिहारिकों के पीछे-पीछे घूमते हुए सतत उद्युक्त और आयुक्त रहते हैं। 2144. पारिहारिक आदि की आपस में सूत्रार्थ की प्रतिपृच्छा और वाचना के अतिरिक्त किसी प्रकार की वार्ता नहीं होती। कारण उपस्थित होने पर पारिहारिक आत्म-निर्देश रूप आलाप जैसे उलूंगा, बैलूंगा आदि कर सकता है। 2145. पारिहारिकों का वर्षाकाल में उत्कृष्ट तप पंचोला, मध्यम तप चोला तथा जघन्य तप तेला होता है। शिशिरकाल में उत्कृष्ट तप चोला, मध्यम तप तेला तथा जघन्य तप बेला होता है। 2146. ग्रीष्मकाल में उत्कृष्ट तप तेला, मध्यम तप बेला तथा जघन्य तप उपवास होता है। पारिहारिक मुनि तप का पारणा आयम्बिल से करते हैं तथा अभिगृहीत एषणा से भक्तपान लेते हैं। 2147. अनुपारिहारिक मुनि नित्य आयम्बिल करते हैं। कल्पस्थित के लिए भी वे अभिगृहीत एषणा से भक्तपान लेकर आते है। 2148. चारों पारिहारिक मुनि पृथक्-पृथक् भोजन करते हैं। अनुपारिहारिक और कल्प स्थित-इन पांचों का एक ही संभोज होता है। 2149. पारिहारिकों का तप पूरा होने पर अनुपारिहारिक उस तप का वहन करते हैं। उनका तप पूरा होने पर कल्पस्थित उस तप का वहन करता है। 2150. पारिहारिक मुनि छह मास तक तप करते हैं, अनुपारिहारिक और कल्पस्थित मुनि भी छह-छह मास तक तपस्या करते हैं, इस प्रकार सब मिलाकर अठारह मास हो जाते हैं। . 2151. जो अनुपारिहारिक और पारिहारिक हैं, वे अन्यान्य स्थानों में कालभेद से एक दूसरे की सेवा करते हुए अविरुद्ध होते हैं। 2152. पारिहारिक मुनि छह माह की तपस्या करने के बाद निर्विष्टकाय हो जाते हैं, उसके बाद अंनुपारिहारिक परिहार तप का वहन करते हैं। 2153. अनुपारिहारिक भी छह मास तक तपस्या करके निर्विष्टकाय हो जाते हैं, उसके बाद कल्पस्थित उसी रूप में यथाविधि परिहार तप का वहन करता है। 2154. जो इस तप का वहन करते हैं, वे नियमत: निर्विशमानक कहलाते हैं तथा जिनका तप पूरा हो जाता है, वे निर्विष्टकायिक कहलाते हैं। 1. बृहत्कल्पभाष्य में उज्जाणी के स्थान पर 'उज्जाणोवमं' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका भावार्थ यह है कि वे उद्यानविहरण के समान एकान्त सुख एवं समाधि का अनुभव करते हैं।' 1. बृभाटी पृ. 1702 / Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 जीतकल्प सभाष्य 2155. यह कल्प अठारह महीनों में समाप्त होता है, यह मूल स्थापना संक्षेप में कही गई है। 2156. इस प्रकार अठारह महीनों का कल्प समाप्त होने पर जो उनके बीच जिनकल्पिक होते हैं, वे संख्या में न्यून होने पर भी उस कल्प का यावज्जीवन पालन करते हैं। 2157. स्थविरकल्पी मुनि अठारह मास पूर्ण होने पर पुनः गच्छ में आ जाते हैं, यह उनकी विधि है। . 2158. तृतीय निर्विशमानक और चतुर्थ निर्विष्टकायिक-इन दोनों कल्पस्थिति का दूसरे छेदोपस्थापनीय कल्प में समवतार होता है। प्रथम चारों (सामायिक, छेदोपस्थापनीय, निर्विशमानक और निर्विष्टकायिक) का पांचवीं जिनकल्प और छठी स्थविरकल्प में समवतार होता है। 2159. अब मैं जिनकल्प की स्थिति का वर्णन करूंगा, जो पहले ही पंचकल्प नियुक्ति के मासकल्प सूत्र में वर्णित है। वर्णन को अशून्यार्थ रखने के लिए वही वर्णन यहां किया जा रहा है। .. 2160. गच्छ में ही निर्मित धीर पुरुष जब इस तथ्य को जान लेते हैं कि अब हमारा उद्यतविहार करने का अवसर है तो वे संसृष्ट और असंसृष्टा एषणाओं का परिहार, अंतिम पांच एषणाओं से ग्रहण का अभिग्रह रखते हुए तथा उनमें भी एक का ही परिभोग करने वाले जिनकल्पिक विहार को प्राप्त करते हैं। 2161. वे जघन्यतः नवपूर्वी, उत्कृष्टतः असम्पूर्ण दशपूर्वी होते हैं। चौदहपूर्वी तीर्थ में रहते हैं, वे जिनकल्प प्रव्रज्या स्वीकार नहीं करते। 2162. वे वज्रऋषभनाराच संहनन से युक्त तथा सूत्रार्थ के परमार्थ को जानने वाले होते हैं। वे संसार के स्वभाव को जानने के कारण परमार्थ के ज्ञाता होते हैं। 2163. वे प्रथम और द्वितीय संसृष्टा और असंसृष्टा एषणा' से आहार ग्रहण नहीं करते, तीसरी से लेकर सातवीं एषणा से भक्तपान ग्रहण करते हैं तथा ऊपर की दो एषणाओं से वस्त्र और पात्र ग्रहण करते हैं। 2164. द्रव्य से वे रत्नावलि आदि तप का अभिग्रह स्वीकार करते हैं। इन सब बातों से ज्ञात होता है कि वे जिनकल्प-विहार को स्वीकार कर चुके हैं। 2165. ये दो अतिशय संक्षेप में वर्णित किए गए हैं। अब बाह्य और आभ्यन्तर अतिशय के बारे में विशेष रूप से कहूंगा। 2166. शरीर का बाह्य अतिशय तो यह जानना चाहिए कि उनके हाथ और पैर की अंगुलियां मिलाने पर 1. एषणा सात प्रकार की होती हैं - 1. संसृष्टा-खाद्य वस्तुओं से लिप्त हाथ या पात्र से देने पर भिक्षा लेना। 2. असंसृष्टा-भोजन से अलिप्त हाथ या पात्र से देने पर भिक्षा लेना। 3. उद्धृता-अपने प्रयोजन के लिए रांधने के पात्र से दूसरे पात्र में निकाला हुआ आहार लेना। 4. अल्पलेपा-अल्पलेप वाली अर्थात् चना, चिड़वा आदि रूखी वस्तु लेना। 5. अवगृहीता-खाने के लिए थाली में परोसा हुआ आहार लेना। 6. प्रगृहीता–परोसने के लिए कड़छी या चम्मच से निकाला हुआ आहार लेना। 7. उज्झितधर्मा -जो भोजन अमनोज्ञ होने के कारण परित्याग करने योग्य हो, उसे लेना। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-७१ 485 उनमें बीच में छिद्र नहीं रहता तथा वे धीर पुरुष वज्रऋषभसंहनन से युक्त होते हैं। 2167. उन धीर पुरुषों की हथेली वल्गुलि पक्षी के पंख के समान होती है। यह लब्धि उनको क्षयोपशम से प्राप्त होती है, ऐसा कहा जाता है। 2168. जिसके हाथ रूपी पात्र में हजारों घड़े समा सकते हैं तथा जो सारे सागरों को धारण कर सकता है, ऐसी लब्धि वाला व्यक्ति पाणिपतद्ग्रही होता है। 2169. उनका आभ्यन्तर अतिशय संक्षेप में कहा गया है। वे सागर की भांति अक्षुभित तथा सूर्य की भांति तेजस्वी होते हैं। 2170. उनका शरीर कुथित नहीं होता तथा उनके शरीर में से किसी प्रकार की गंध नहीं आती। उनके शरीर में जुगुप्सित व्रण आदि नहीं होते। वे शरीर सम्बन्धी किसी प्रकार का परिकर्म नहीं करते। 2171. जिनकल्पी नियमतः पाणिपात्र होते हैं अर्थात् हाथ में ही आहार ग्रहण करते हैं। मैं उनके अन्य अतिशय भी विशेष रूप से कहूंगा। 2172. उनके दो प्रकार के अतिशय होते हैं-ज्ञानातिशय, शारीरिक अतिशय। ज्ञानातिशय में उनके अवधिज्ञान और मनःपर्यव ज्ञान-दोनों होते हैं। 2173. उनका आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञान भी अतिशय युक्त ही होता है। उनका मल अभिन्न होने से वह गुदा से लिप्त नहीं होता। यह उनका शारीरिक अतिशय होता है। 2174. पाणिपात्र-जिनकल्पिक की जघन्य उपधि रजोहरण और मुखवस्त्रिका होती है तथा उत्कृष्ट उपधि कल्पत्रिक सहित पांच प्रकार की होती है। 2175. पात्रधारी जिनकल्पी की जघन्य उपधि नौ तथा उत्कृष्ट बारह होती है। उनके पास पात्रनिर्योगपात्र परिकर अतिरिक्त होता है। 1. जिनकल्पिक साधु का मल अत्यल्प एवं अभिन्न होता है इसलिए वे शौच-क्रिया से निवृत्त होकर आचमन नहीं लेते। आचमन न करना उनका आचार है। दीर्घकालिक उपसर्ग आदि होने पर भी वे उच्चार और प्रस्रवण का विसर्जन अस्थण्डिल भूमि में नहीं करते। १.बृभा 1390, अप्पमभिन्नं वच्चं। २.ओघनियुक्ति में रजोहरण का प्रमाण इस प्रकार वर्णित है-रजोहरण की लम्बाई बत्तीस अंगुल प्रमाण, दण्ड चौबीस अंगुल तथा दशिका आठ अंगुल प्रमाण होती है। इसमें कुछ न्यूनाधिक्य भी हो सकता है।' 1. ओनि 708; बत्तीसंगुलदीह, चउवीसं अंगुलाई दंडो से।अटुंगुला दसाओ, एगयरं हीणमहियं वा॥ .३.कल्प शरीर प्रमाण लम्बा तथा ढ़ाई हाथ चौड़ा होता है, मुनि दो सूती और एक ऊनी-ऐसे तीन कल्प रख सकता है। नियुक्तिकार ने कल्प रखने के अनेक प्रयोजनों का उल्लेख किया है।' 1. ओनि 705,706 / 4. ओधनियुक्ति में जिनकल्पिक की बारह प्रकार की उपधियां इस प्रकार वर्णित हैं-पात्र, पात्रबन्ध, पात्रस्थापन, पात्रकेशरिका (पात्र-मुखवस्त्रिका) पटल, रजस्त्राण, गोच्छक, पात्र-निर्योग, तीन प्रच्छादक (कल्प), रजोहरण और मुखवस्त्रिका। इसमें उपधियों की संख्या 13 होती है। जीतकल्पभाष्य में पात्र-निर्योग को बारह उपधि से अतिरिक्त रखा है। 1. ओनि 668,669 // Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 जीतकल्प सभाष्य 2176. जो बढ़े हुए नख वाले तथा नित्यमुण्ड हैं, उनकी जघन्य उपधि दो प्रकार की होती है। निर्व्याघात रूप से उनका यह लिंग जानना चाहिए। 2177. संक्षेप में जिनकल्पिक के रजोहरण और मुखवस्त्रिका-ये दो प्रकार की उपधि होती हैं। व्याघात होने पर, लिंग के विकृत होने पर या बवासीर आदि होने पर कटिपट्ट धारण किया जा सकता है। . 2178. पात्र सम्बन्धी सात उपकरण, रजोहरण और मुखवस्त्रिका-ये नवविध उपधि प्रत्येकबुद्धों के होती है। 2179. निष्क्रमण करने के समय तीर्थंकरों के एक उपधि होती है। उसके बाद तीर्थंकर यावज्जीवन उपधि रहित रहते हैं। 2180. स्थान को अशून्य रखने के लिए यह जिनकल्प की स्थिति कही गई है। विस्तार से पंचकल्पनियुक्ति के मासकल्प प्रकरण में देखना चाहिए। 2181. अब मैं स्थविरकल्प की स्थिति को कहूंगा, वह भी पहले ही (पंचकल्पभाष्य में) व्याख्यायित है। यहां स्थान अशून्य रखने के लिए संक्षेप में वर्णन करूंगा। 2182. स्थविरकल्पी मुनि संयम का पालन करने में उद्यत, प्रवचन के उद्योतक, शिष्यों में ज्ञान, दर्शन और चारित्र के निष्पादक, जंघाबल से हीन होने के कारण दीर्घ-काल तक एक स्थान पर रहने वाले तथा वसति के दोषों से मुक्त होते हैं। 2183. जब वे स्थविर दीर्घकाल तक एक स्थान पर रहने में समर्थ नहीं होते तो वे अभ्युद्यत मरण अथवा अभ्युद्यत विहार स्वीकार करते हैं। 2184. दीर्घ आयुष्य होने के कारण वे वृद्धावास–एक स्थान पर रहते हैं तथा उद्गम आदि दोषों से मुक्त वसति में रहते हैं। 2185. जिनकल्प स्थिति को छोड़कर इस अध्ययन में जो मर्यादा वर्णित है, वह स्थविरकल्प में द्विपदयुक्त अर्थात् उपसर्ग और अपवाद–इन दो पदों से युक्त होती है। 2186. द्विपद का अर्थ उत्सर्ग और अपवाद–इन दोनों से है। स्थविरकल्प नियमतः इन दोनों से युक्त होता है। 1. वर्तमान में पंचकल्पनियुक्ति और भाष्य-दोनों मिलकर एक ग्रंथ रूप हो गए हैं। 2. जंघाबल से क्षीण मुनि का प्रवास वृद्धवास कहलाता है अथवा रोग के कारण एक स्थान पर अधिक रहना वृद्धवास है। वृद्धवास के अन्तर्मुहूर्त के बाद मुनि कालगत हो जाए तो उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट काल गृहि-पर्याय के नौ वर्ष कम पूर्वकोटि होता है। इसका गणित इस प्रकार है कि कोई पूर्वकोटि आयुष्य वाला साधु 9 वर्ष की अवस्था में दीक्षा ले, दीक्षित होते ही कर्मोदय से जंघाबल क्षीण हो जाए अथवा रोग के कारण चलने-फिरने में असमर्थ हो जाए तो उत्कृष्ट वृद्धवास 9 वर्ष कम पूर्वकोटि होता है। यहां उत्कृष्ट काल का प्रमाण भगवान ऋषभ के तीर्थ की अपेक्षा से है। 1. व्यभा 2256 / Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-७२,७३ 487 2187. प्रलम्ब सूत्र से प्रारम्भ कर इस षड्विध कल्पस्थिति सूत्र तक उत्सर्ग में अपवाद तथा अपवाद में उत्सर्ग क्रिया करने वाला शासन की आशातना करता है तथा दीर्घसंसारी होता है। 2188. स्थविरकल्पी उत्सर्ग में अपवाद का आचरण करता हुआ विराधक होता है। अपवाद की स्थिति प्राप्त होने पर उत्सर्ग का सेवन करना भजना है। 2189. वहां भजना कैसे होती है? जो संहनन और धृति से युक्त होता है, ऐसा साधु अपवाद में उत्सर्ग का सेवन करता हुआ शुद्ध होता है। 2190. धृति या संहनन-इन दोनों में से एक भी हीन होता है तो वह परीषहों को सहने में असमर्थ होता है, वह विराधना करता है। 2191. इस प्रकार सामायिक आदि छह प्रकार की कल्पस्थिति कही गई, अब मैं संक्षेप में वीर्य-द्वार को कहूंगा। 2192, 2193. जो गीतार्थ होते हैं, वे परिणत तथा अगीतार्थ अपरिणत होते हैं। जो उपवास, बेला आदि तप से भावित हैं, वे कृतयोगी कहलाते हैं तथा जो उपवास, बेला आदि तप से भावित नहीं होते, वे अकृतयोगी हैं। धृति और संहनन से युक्त को तरमाणक जानना चाहिए। 2194. जो धृति और संहनन में किसी एक से युक्त होते हैं, वे अतरमाणक होते हैं अथवा दोनों से हीन को अतरमाणक जानना चाहिए। 72. जो सत्त्व वाला तथा बहुतरगुण'-धृति और संहनन आदि गुणों से युक्त हो, उसे अधिक प्रायश्चित्त भी देना चाहिए। धृति और संहनन से हीनतर व्यक्ति को कुछ कम तथा धृति आदि से सर्वथा हीन को प्रायश्चित्त से मुक्त भी किया जा सकता है। 2195. कल्पस्थित आदि पुरुषों यावत् उभयथा अतरमाणक पुरुषों में जिसमें जैसा सत्त्व हो, उसको वैसा प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2196, 2197. जो धृति, संहनन आदि अनेक गुणों से युक्त होता है, वह बहुतरगुण सम्पन्न होता है। जो परिणत, कृतयोगी और उभय तरमाणक है—ऐसे गुण युक्त साधु को जीत व्यवहार से अधिक प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है। जो धृति, संहनन आदि से हीन होता है, उसको हीनतर तथा सम्पूर्णतः धृति और संहनन . 1. प्रलम्ब सूत्र से छह कल्पस्थिति सूत्र में पूरा कल्प (बहत्कल्पभाष्य) समाविष्ट हो जाता है। . २.व्यवहारसूत्र के अनुसार जो वय से स्थविर हो जाता है, वह दंड, भांड, छत्र, मात्रक, यष्टिका, वस्त्र, वस्त्र का पर्दा, चर्म, चर्मकोश (उपानत्) तथा चर्मपरिच्छेदनक रख सकते हैं। वे इन्हें अविरहित स्थान में रखकर किसी को संभलाकर या सूचित करके भिक्षार्थ जाते हैं / भिक्षा से लौटकर पुनः नियुक्त व्यक्ति से आज्ञा लेकर उसका उपयोग कर सकते हैं। १.व्यसू८/५;थेराणं थेरभूमिपत्ताणं कप्पइ दंडए वा भंडए वा छत्तए वा मत्तए वा लट्ठिया वा चेले वाचेलचिलिमिलिया . वा चम्मे वा चम्मकोसए वा चम्मपलिच्छेयणए वा अविरहिए ओवासे ठवेत्ता गाहावइकुलं पिंडवायपाडया। पविनिया ' वा निक्खमित्तए वा।कप्पड़ ण्हं संनियट्टचारीणंदोच्चंपिगई अणुण्णाटेला परिहरिना।। Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 जीतकल्प सभाष्य से रहित को प्रायश्चित्त से मुक्त भी किया जा सकता है। 73. जीतव्यवहार के संदर्भ में अकृतकरण, अनभिगत आदि अनेक प्रकार के भिक्षु होते हैं। उनको जीतव्यवहार से यंत्रविधि के द्वारा तेले से लेकर निर्विगय तक का प्रायश्चित्त दिया जाता है। 2198. इस जीतव्यवहार में बहुत प्रकार के भिक्षु होते हैं, उनमें अकृतकरण और अनभिगत को भी जानना . चाहिए। 2199. सूत्र में आए 'च' शब्द से स्थिर और अस्थिर को भी संक्षेप में ग्रहण करना चाहिए। यंत्रकविधि के क्रम से जीत-अभिमत से प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2200. साधु दो प्रकार के होते हैं—कृतकरण और अकृतकरण। कृतकरण दो प्रकार के होते हैंगच्छवासी और गच्छविमुक्त। अकृतकरण नियमतः गच्छवासी होते हैं। 2201. वे अभिगत और अनभिगत दो प्रकार के होते हैं। अनभिगत भी स्थिर और अस्थिर दो प्रकार के होते हैं। कृतयोगी और अभिगत—गीतार्थ जिस प्रायश्चित्त का सेवन कर सकते हैं, उसके अनुसार उन्हें पूरा प्रायश्चित्त दिया जाता है। जो अगीतार्थ, अस्थिर और अकृतयोगी होता है, उसे आचार्य अपनी इच्छा के अनुसार श्रुतोपदेश से प्रायश्चित्त देते हैं। 2202. अथवा संक्षेप में पुरुष दो प्रकार के होते हैं–निरपेक्ष और सापेक्ष। जिन आदि निरपेक्ष होते हैं, वे नियमतः कृतकरण होते हैं। 2203. सापेक्ष तीन प्रकार के होते हैं आचार्य, उपाध्याय और भिक्षु। आचार्य और उपाध्याय कृतकरण और अकृतकरण दोनों प्रकार के होते हैं। 2204. भिक्षु दो प्रकार के होते हैं—गीतार्थ और अगीतार्थ। गीतार्थ दो प्रकार के जानने चाहिए-स्थिर और अस्थिर। ये दोनों दो प्रकार के होते हैं-कृतकरण और अकृतकरण। 2205. अगीतार्थ भी दो प्रकार के होते हैं-स्थिर और अस्थिर। दोनों के कृतकरण और अकृतकरण १.यंत्रविधि का विस्तृत वर्णन सिद्धसेनगणीकृत जीतकल्प की चूर्णि में मिलता है। 1. विस्तार हेतु देखें जीचू पृ. 24, 25 / 2. परीक्षा करने पर यदि साधु अगीतार्थ, अस्थिर अकृतयोगी और असमर्थ प्रतीत होता है तो उसे आचार्य न्यून, न्यूनतर और न्यूनतम प्रायश्चित्त-नवकारसहिता भी देते हैं। यदि यह भी करने में समर्थ न हो तो आलोचना करने मात्र से उसकी शद्धि का निर्देश दे देते हैं। १.व्यभा 160 मटी प.५३। ३.व्यवहारभाष्य में सापेक्ष को दिए जाने वाले प्रायश्चित्तों का वर्णन है-निर्विगय, पुरिमार्ध (दो प्रहर), एकासन, आचाम्ल, उपवास, लघुगुरु अहोरात्र, पंचक, लघुगुरु अहोरात्र दशक, लघुगुरु अहोरात्र पंचदशक, लघुगुरु बीस अहोरात्र, लघुगुरु पच्चीस अहोरात्र, लघुमास, गुरुमास, चतुर्लघुमास, चतुर्गुरुमास, लघुगुरु छह मास, छेद और मूल। १.व्यभा 163, 164 मटी प.५४। Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-७३ 489 ये दो भेद होते हैं। कृतकरण और अकृतकरण कैसे होते हैं, उसे तुम सुनो। 2206. जो गीतार्थ और अगीतार्थ दोनों अवस्थाओं में बेले-तेले आदि की तपस्या करते हैं, वे कृतकरण कहलाते हैं। कुछ आचार्यों का अभिमत है कि जो अधिगत अर्थात् गीतार्थ होते हैं, वे नियमतः कृतकरण होते हैं क्योंकि वे अध्ययन में दीर्घकाल तक योगों का वहन करते हैं। 2207. निरपेक्ष एक प्रकार के होते हैं। शिष्य प्रश्न करता है कि सापेक्ष साधु के आचार्य, उपाध्याय आदि तीन भेद क्यों किए गए? आचार्य कहते हैं कि उसके बारे में सुनो। 2208. जिस प्रकार लोक में व्यक्ति के आधार पर युवराज आदि को दंड दिया जाता है, वैसे ही व्यक्ति विशेष के आधार पर आचार्य आदि की आरोपणा होती है। 2209. आचार्य और उपाध्याय-ये दोनों नियमतः गीतार्थ होते हैं लेकिन भिक्षु गीतार्थ और अगीतार्थ दोनों प्रकार के होते हैं। 2210. प्रतिसेवना सकारण है अथवा अकारण, यतना से है अथवा अयतना से इन बातों का अगीतार्थ को बोध नहीं होता। इस कारण से आचार्य आदि तीन भेद किए गए हैं। 2211. जो अगीतार्थ, कार्य-अकार्य, यतना-अयतना को नहीं जानता हुआ प्रतिसेवना करता है, वह उसकी दर्प प्रतिसेवना है। यदि गीतार्थ भी दर्प और अयतना से प्रतिसेवना करता हैं तो उसे भी अगीतार्थ की भांति वही प्रायश्चित्त दिया जाता है। 2212. पाराञ्चित प्रायश्चित्तार्ह दोष सेवन करने पर भी सापेक्षता से प्रायश्चित्त दिया जाता है, जैसे कृतकरण आचार्य को अंतिम पाराञ्चित प्रायश्चित्त दिया जाता है लेकिन जो अकृतकरण आचार्य हैं, उनको अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त दिया जाता है। 2213. कृतयोगी उपाध्याय को अनवस्थाप्य, अकृतयोगी को मूल, गीतार्थ, स्थिर और कृतयोगी भिक्षु को मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। 2214. अकृतयोगी स्थिर को छेद, कृतयोगी अस्थिर को भी छेद, अकृतयोगी और अस्थिर को छहगुरु, अगीतार्थ और स्थिर को भी छहगुरु प्रायश्चित्त दिया जाता है। 2215. अगीतार्थ, स्थिर और अकृतयोगी को छह लघु प्रायश्चित्त जानना चाहिए। अगीतार्थ, अस्थिर और कृतयोगी को भी छह लघु तथा अगीतार्थ, अस्थिर और कृतयोगी को छह लघु तथा अकृतयोगी को चतुर्गुरु प्रायश्चित्त जानना चाहिए। 2216, 2217. यह प्रायश्चित्त का एक आदेश (विकल्प) है। इसका दूसरा आदेश इस प्रकार है - १.आचार्य और उपाध्याय गीतार्थ ही होते हैं। भिक्षु गीतार्थ और अगीतार्थः-दोनों होते हैं। इसलिए आचार्य आदि त्रिविध भेद हैं। व्यवहारभाष्य के अनुसार इन तीनों के आभवद् प्रायश्चित्त और उसकी दानविधि सामर्थ्य और असामर्थ्य के आधार पर भिन्न होती है।' १.व्यभा 169 मटी प.५८। Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 490 जीतकल्प सभाष्य पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त कृतयोगी आचार्य को अनवस्थाप्य, अकृतयोगी आचार्य को मूल, कृतकरण उपाध्याय को मूल तथा अकृतकरण उपाध्याय को छेद–इस प्रकार इनको अर्धअपक्रांति से जानना चाहिए। 2218. इसी प्रकार अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त की प्राप्ति में भी दो आदेश हैं -यहां निरपेक्ष की बात नहीं कही गई है क्योंकि निरपेक्ष में अनवस्थाप्य और पारञ्चित-ये दोनों प्रायश्चित्त नहीं होते हैं। 2219, 2220. अब मूल प्रायश्चित्त-प्राप्ति का प्रसंग है। निरपेक्ष में सबको मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होने पर भी कृतयोगी गुरु को मूल, अकृतयोगी को छेद, कृतकरण उपाध्याय को छेद तथा अकृतकरण उपाध्याय को छहगुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। इसे अर्धअपक्रांति से जानना चाहिए, यह दूसरा आदेश है। 2221, 2222. सापेक्ष की अपेक्षा से कृतयोगी गुरु को छेद, अकृतकरण गुरु को छह गुरु, कृतकरण उपाध्याय को छह गुरु, अकृतयोगी उपाध्याय को छहलघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। इस प्रकार इसे अर्धअपक्रांति से जानना चाहिए। यह छहगुरु प्रायश्चित्त से प्रारंभ होकर गुरु भिन्नमास तक जाकर स्थित होता है। 2223. छहलघु से प्रारम्भ होकर लघु भिन्नमास में तथा चतुर्गुरु से प्रारम्भ होकर गुरु बीस में स्थित होता है। 2224. चतुर्लघु बीस में, गुरुमास गुरु पन्द्रह में, लघुमास लघु पन्द्रह में तथा गुरुभिन्न गुरुदश में स्थित होता 2225. लघुभिन्न दशलघु में, गुरु बीस अंत में गुरु पणक में आकर स्थित होता है। लघु बीस प्रारम्भ होकर अंत में लघु पणग में आकर स्थित होता है। 2226. गुरु पन्द्रह से प्रारम्भ होकर अंत में तेले में स्थित होता है। पन्द्रह लघु से प्रारम्भ होकर अंत में बेले तक आकर स्थित होता है। 2227. गुरुदश से प्रारम्भ होकर अंत में उपवास तक तथा लघुदश से प्रारम्भ होकर अंत में आयम्बिल तक स्थित होता है। 2228. गुरु पणक से प्रारम्भ होकर अंत में एकासन तथा लघु पणक से प्रारम्भ होकर अंत में पुरिमार्ध तक स्थित होता है। 2229. उपवास से प्रारम्भ होकर अंत में निर्विगय प्रायश्चित्त में स्थित होता है। यह यंत्रविधि की रचना संक्षेप में कही गयी है। 2230. यह अयतना से सापेक्षों का प्रायश्चित्त-विधान है। यदि गीतार्थ सकारण और यतना से दोष सेवन करता है तो वह शुद्ध है। 1. व्यवहारभाष्य की टीका में यंत्रकविधि बनाने की विस्तार से चर्चा की गई है। १.व्यभापीटी प.५५-५७। Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-७३ 491 2231. यह सकारण यतनासेवी के प्रायश्चित्त-दान का वर्णन किया गया अथवा आचार्य आदि का यह यथाक्रम प्रायश्चित्त है। 2232. आचार्य और उपाध्याय दो प्रकार के होते हैं –कृतकरण और अकृतकरण। भिक्षु भी दो प्रकार के होते हैं-अभिगत-गीतार्थ और अनभिगत-अगीतार्थ। 2233. गीतार्थ दो प्रकार के होते हैं-कृतकरण और अकृतकरण। अगीतार्थ भी दो प्रकार के हैं-स्थिर और अस्थिर। स्थिर दो प्रकार के होते हैं-कृतकरण और अकृतकरण / अस्थिर भी दो प्रकार के होते हैंकृतकरण और अकृतकरण। 2234. इन सबको समान रूप से पंचक (पांच दिन-रात) की प्राप्ति होने पर अविशेष रूप से पणग (निर्विगय) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, वह उपवास आदि से विज्ञेय है। 2235, 2236. कृतकरण आचार्य को पणग प्रायश्चित्त ही देना चाहिए। अकृतकरण आचार्य को उपवास तथा कृतकरण उपाध्याय को भी उपवास का प्रायश्चित्त देना चाहिए। अकृतकरण उपाध्याय को आयम्बिल, गीतार्थ और कृतकरण भिक्षु को आयम्बिल तथा गीतार्थ अकृतकरण भिक्षु को एकासन का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2237, 2238. अगीतार्थ, स्थिर और कृतकरण भिक्षु को एकासन, अकृतकरण को पुरिमार्ध, अगीतार्थ, अस्थिर, कृतकरण को नियमतः पुरिमार्ध, अस्थिर और अकृतकरण को निर्विगय अथवा अगीतार्थ और अस्थिर को आचार्य अपनी इच्छा से कोई अन्य प्रायश्चित्त भी दे सकते हैं। 2239. इसी प्रकार सबको यदि दश रात्रि प्रायश्चित्त की प्राप्ति हुई है तो कृतकरण आचार्य को दशरात्रि प्रायश्चित्त ही देना चाहिए। 2240, 2241. अकृतकरण आचार्य को पणग, कृतकरण उपाध्याय को भी पणग, अकृतकरण * उपाध्याय को उपवास-इसी प्रकार अंत में पुरिमार्ध तक अर्ध अपक्रान्ति से जानना चाहिए / इस प्रकार पन्द्रह से प्रारम्भ होकर अंत में एकासन तक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2242. बीस से प्रारम्भ होकर आयम्बिल में तथा भिन्नमास उपवास में स्थित होता है। मास से प्रारम्भ होकर पंचक में तथा दो मास दश रात्रि में स्थित होता है। 2243. तीन मास पन्द्रह में, चार मास बीस रात्रि में, पांच मास पच्चीस में तथा छह मास एक मास में स्थित होता है। 2244. छेद दो मास में, मूल तीन मास में, अनवस्थाप्य चार मास में तथा पाराञ्चित पांच मास में स्थित होता है। 2245. ये तप योग्य लघु प्रायश्चित्त संक्षेप में कहे गए हैं। इसी प्रकार गुरुक प्रायश्चित्त भी अर्धअपक्रान्ति से जानने चाहिए। 2246, 2247. इसी प्रकार मिश्र प्रायश्चित्त भी अर्धअपक्रान्ति से जानने चाहिए। इसी प्रकार दश दिन से Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 492 जीतकल्प सभाष्य लेकर मास, सातिरेक मास यावत् छह मास तक जानना चाहिए। वहां भी उद्घात-अनुद्घात और मिश्र को अर्धअपक्रान्ति से सर्वत्र जानना चाहिए। 2248, 2249. अथवा निर्विगय, पुरिमार्ध, एकासन, आयम्बिल, उपवास, पणग, दस, पन्द्रह, बीस, पच्चीस, लघुमास, गुरुमास, चतुर्लघु, चतुर्गुरु, छड्लघु, छड्गुरु, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पाराञ्चितइसी प्रकार पणग आदि का हास होता है। 2250. गुरुक, लघुक, मिश्रक को यहां भी वैसे ही जानना चाहिए। यह दिया जाने वाला प्रायश्चित्त-दान बुद्धि से जानना चाहिए। 2251. इसी प्रकार साध्वी के लिए भी प्रायश्चित्त की यही विधि है। केवल इतना विशेष है कि अनवस्थाप्य और पाराञ्चिक प्रायश्चित्त साध्वी को नहीं दिया जाता। 2252. अथवा संक्षेप में पुरुष दो प्रकार के होते हैं-१. एकलविहारी 2. गणप्रतिबद्धविहारी। 2253. गच्छ से निर्गत एकलविहारी तीन प्रकार के होते हैं-१.प्रतिमाप्रतिपन्नक 2. जिनकल्पिक 3. स्वयंबुद्ध। 2254. वे नित्य अप्रमत्त होते हैं। कभी कर्म के उदय से यदि वे अतिचार का सेवन करते हैं तो उसी क्षण नियमतः साक्षी से प्रस्थापना-आलोचना करते हैं। 2255. संहनन और धृति से युक्त, सत्त्वाधिष्ठित, महान् योग को धारण करने वाले जिनकल्पी साधु अत्यधिक प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी निरनुग्रह रूप से सारे प्रायश्चित्त का वहन करते हैं। 2256. जो आलोचना में उपयुक्त हैं, वे आलोचना से शुद्ध हो जाते है। मूल प्रायश्चित्त तक वे स्वयं शुद्ध हो जाते हैं। 2257. बल और वीर्य का गोपन नहीं करने वाले, यथावादी तथाकारी, धीर तथा उत्तमश्रद्धा से युक्त जिनकल्पी मुनि नियमतः शुद्ध हो जाते हैं। 2258. गणप्रतिबद्ध साधु दो प्रकार के होते हैं-जिनप्रतिरूपी और स्थविर। जिनप्रतिरूपी दो प्रकार के होते हैं -परिहारविशुद्धि तप वाले तथा यथालंदक। 2259. परिहारविशुद्धि तप वाले नित्य अप्रमत्त होते हैं। यदि कर्म के उदय से कहीं थोड़ा भी प्रमाद हो जाए तो वे कल्पस्थित के पास तत्काल प्रस्थापना (आलोचना) करते हैं। 2260. संहनन और धृति से युक्त, सत्त्वसम्पन्न तथा महान् योग को धारण करने वाले वे धीर पुरुष अत्यधिक प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी निरनुग्रह रूप से उसका वहन करते हैं। १.जो अवसन्न साधुओं को संयम में स्थिर करता है, वह स्थविर कहलाता है। स्थविर तीन प्रकार के होते हैं १.जाति स्थविर-साठ वर्ष की वय वाला श्रमण। 2. पर्याय स्थविर-बीस वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण। 3. श्रुत स्थविर स्थानांग और समवायांग का धारक। स्थानांग सूत्र में दश प्रकार के स्थविरों का उल्लेख मिलता है। 1. स्था 10/136 Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-७४-७९ 493 2261. आलोचना से लेकर मूल पर्यन्त आठ प्रकार की प्रस्थापना होती है-इनकी प्रस्थापना करके धीर और विशुद्ध चारित्र वाले मुनि शुद्ध हो जाते हैं। 2262. स्थविर भी विशुद्धतर होते हैं। उनके द्वारा भी कहीं कोई अतिचार का सेवन होता है तो वे तत्काल गुरु के पास उसकी प्रस्थापना-आलोचना करते है। 2263. प्रस्थापना की विधि को नहीं जानता हुआ आचार्य स्वयं को लांछित करता है तथा शिष्य की शुद्धि भी नहीं कर सकता। 2264. पुरुष द्वार सम्पन्न हो गया अब मैं प्रतिसेवना के बारे में कहूंगा। वह प्रतिसेवना आकुट्टिका आदि चार प्रकार की कही गई है। 74. प्रतिसेवना' चार कारणों से होती है-जान बूझकर, दर्प से, प्रमाद' से और कल्प से। प्रतिसेव्य के चार प्रकार हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव और प्रतिसेवक का अर्थ है-पुरुष। 2265. आकुट्टिका-जानते हुए हिंसा आदि प्रतिसेवना करना, वल्गन-कूदना आदि दर्प प्रतिसेवना है। कंदर्प आदि अथवा कषाय आदि को प्रमाद प्रतिसेवना जानना चाहिए। 2266. कषाय, विकथा, विकट-मदिरा, इंद्रिय और निद्रा-ये पंचविध प्रमाद हैं। प्रमाद का वर्णन किया गया, अब मैं कल्प प्रतिसेवना कहूंगा। 2267. गीतार्थ, कृतयोगी, उपयुक्त और यतनायुक्त मुनि जो प्रतिसेवना करता है, वह कल्प प्रतिसेवना है। गाथा (जीसू 74) के पश्चार्द्ध का अर्थ मैं संक्षेप इस प्रकार कहूंगा। 2268. द्रव्य से आहार आदि तथा क्षेत्र से मार्ग आदि जानना चाहिए। दुर्भिक्ष आदि काल तथा हष्ट और ग्लान आदि भाव कहलाता है। 75. जो जीत प्रायश्चित्त का दान कहा गया, वह प्रायः प्रमाद सहित का होता है। दर्प प्रतिसेवना वाले के प्रायश्चित्त में एक स्थान की वृद्धि हो जाती है।' १.प्रतिसेवना का अर्थ है-दोष का आचरण / ओघनियुक्ति में प्रतिसेवना के निम्न एकार्थक मिलते हैं-मलिनता, भंग, विराधना, स्खलना, उपघात, अशोधि और शबलीकरण। यह दो प्रकार की होती है-१. मूलगुण प्रतिसेवना 2. उत्तरगुण प्रतिसेवना। जीतकल्पभाष्य में प्रतिसेवना के चार भेद किए हैं-१. दर्प प्रतिसेवना 2. कल्प प्रतिसेवना। 3. आकुट्टिका प्रतिसेवना 4. प्रमाद प्रतिसेवना। निशीथ चूर्णिकार ने इनका समाहार दो में कर दिया है-दर्पप्रतिसेवना 2. कल्प प्रतिसवेना। दर्प प्रतिसेवना मूलगुण और उत्तरगुण दोनों से सम्बन्धित होती है। विस्तार हेतु देखें इसी ग्रंथ की गा. 588 का टिप्पण। १.ओनि 788; पडिसेवणा मइलणा, भंगो य विराहणाय खलणाय। उवघाओ य असोही,सबलीकरणं च एगट्ठा। २.निचू भा.१ पृ. 42, तम्हा चउहा पडिसेवणा दुविहा भवति दप्पिया कप्पिया य। 2. प्रमाद प्रतिसेवना का अर्थ है-दिन या रात में प्रतिलेखन या प्रमार्जन नहीं करते हुए प्राणातिपात आदि करना। १.जीचू पृ.२५; पमाओ नाम जं राओ दिया वा अप्पडिलेहंतो अपमज्जयंतो य पाणाइवायाइयमावज्जइ। 3. इस गाथा का तात्पर्य यह है कि यदि प्रमाद से निर्विकृतिक से तेले तक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तो दर्प से . प्रतिसेवना करने पर साधु को पुरिमा से लेकर चोले तक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। . Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 494 जीतकल्प सभाष्य 2269. जो जीत प्रायश्चित्त का दान निर्विगय से तेले तक का कहा गया, वह तृतीय प्रमाद प्रतिसेवना युक्त के लिए है। 2270. दर्प प्रतिसेवना में पुरिमार्ध से लेकर अंत में चोले तक का प्रायश्चित्त देना चाहिए। अब आकुट्टिका-जानते हुए प्रतिसेवना के बारे में कहूंगा। 76. जानते हुए अपराध सेवन करने पर स्थानान्तर अथवा स्वस्थान प्रायश्चित्त देना चाहिए। कल्पप्रतिसेवना करने पर प्रतिक्रमण अथवा तदुभय प्रायश्चित्त निर्दिष्ट है। 2271. जानबूझकर किए जाने वाले अपराध में एकासन से लेकर अंत में पंचोला तप तक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। प्राणातिपात अपराध के अन्तर्गत स्वस्थान' में मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2272. कल्प प्रतिसेवना होने पर मिथ्याकार-मिच्छामि दुक्कडं अथवा तदुभय-आलोचना और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त से शुद्धि होती है। 77. आलोचना काल में संक्लिष्ट, विशुद्ध या मध्यम भावों को जानकर कम, अधिक या उतनी ही मात्रा में प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2273. आलोचना के काल में यदि साधु दोष को छिपाता है अथवा माया करता है तो वह संक्लिष्ट चित्त वाला होता है। उसको कम प्रतिसेवना में भी अधिक प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2274. जो आलोचना-काल में संवेग को प्राप्त होता है, वह निंदा और गर्हा से विशुद्ध चित्त वाला होता है, उसे अल्प प्रायश्चित्त दिया जाता है। 2275. जो आलोचना करता हुआ न दोष को छिपाता है और न अपने दोषों की निंदा करता है, वह मध्यम परिणाम वाला होता है, उसको प्रतिसेवना के अनुसार उसी मात्रा में प्रायश्चित्त देना चाहिए। 78. इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र आदि से अधिक गुण वाला अथवा गुरु-सेवा में नियुक्त के द्वारा अपराध होने वाले को अधिक प्रायश्चित्त देना चाहिए। द्रव्य आदि से हीन को हीनतर प्रायश्चित्त अथवा उससे मुक्त भी कर देना चाहिए। 2276. इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि बहुगुण के आधार पर प्रायश्चित्त देना चाहिए। गुरु की सेवा प्रधान होती है, उसमें अधिक प्रायश्चित्त भी देना चाहिए। 2277. द्रव्य आदि के हीन या हीनतर होने पर प्रायश्चित्त भी हीन देना चाहिए। द्रव्य आदि से पूर्णतः हीन को प्रायश्चित्त मुक्त किया जा सकता है। 79. यदि प्रतिसेवक अन्य तप का वहन करता है तो अधिक प्रायश्चित्त को भी जीतव्यवहार से प्रायश्चित्त-मुक्त किया जा सकता है। वैयावृत्त्य करने वाले साधु को अनुग्रहपूर्वक उतना ही प्रायश्चित्त दिया जाता है, जितना वह वैयावृत्त्य करते हुए वहन कर सके। 2278, 2279. जोषण, क्षपण और मुंचन-ये एकार्थक शब्द हैं। प्रायश्चित्त से मुक्त किसको किया जाता है? यदि वह छहमास आदि अन्य तप का वहन कर रहा है, उस समय पांच दिन बीतने पर यदि उसने 1. जिस अपराध में प्रायः जो प्रायश्चित्त निश्चित होता है, वह स्वस्थान प्रायश्चित्त कहलाता है। . १.जीचू पृ. 25 ; सट्ठाणं जं जम्मि वा अवराहे सव्वबहुयं तस्स दिज्जइ, तं चेव सट्ठाणं होइ। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-८०-८४ 495 कोई दूसरा अतिचार सेवन किया है तो उस अतिचार का प्रायश्चित्त उसी में समाहित हो जाता है, वह प्रायश्चित्त से मुक्त हो जाता है। 2280. वैयावृत्त्य करता हुआ यदि किसी अन्य अतिचार का सेवन करता है तो वह जितना प्रायश्चित्त वहन करने में समर्थ हो, उतना ही प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2281. वैयावृत्त्य करने वाले का प्रायश्चित्त कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया जाता है, जिसको वह वैयावृत्त्य के बाद में पूरा कर सके। यह तपोर्ह प्रायश्चित्त का वर्णन किया, अब मैं छेदाह प्रायश्चित्त के बारे में कहूंगा। 80. तप गर्वित', तप करने में असमर्थ, तप में श्रद्धा नहीं करने वाला, तपस्या करने पर भी अदम्य स्वभाव वाला, अतिपरिणामक और अतिप्रसंगी-इन सबको तप प्रायश्चित्त की प्राप्ति होने पर भी छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है। 81. पिण्डविशोधि आदि उत्तरगुणों को अधिक भ्रष्ट करने वाला, बार-बार छेद प्रायश्चित्त को प्राप्त करने वाला, पार्श्वस्थ', कुशील आदि (साधुओं की सेवा में तप्ति का अनुभव करने वाला) अथवा वैयावृत्त्य करने वाले साधुओं को तप्त करने वाला (छेद प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है)। 82. उत्कृष्ट तपोभूमि अर्थात् छहमास तप के प्रायश्चित्त को अतिक्रान्त करने वाले साधु का जितने दिन का पर्याय है, उसमें पणग आदि का छेद' प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2282, 2283. मेरा शरीर तपबलिक है, मैं तप करने में समर्थ हूं, इस प्रकार तप का गर्व करने वाला तथा तप करने में असमर्थ ग्लान या बाल आदि जो तप के प्रति श्रद्धा नहीं करता अथवा तप से भी जिसका १.छह मास का तप करने वाला अथवा अन्य विकृष्ट तप करने वाला साधु यह सोचे कि इस तप प्रायश्चित्त से मेरा क्या होगा, इस प्रकार गर्व करने वाला तपगर्वित कहलाता है। २.जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और प्रवचन में सम्यक् रूप से आयुक्त नहीं है तथा ज्ञान आदि के पार्श्व-तट पर स्थित है, वह पार्श्वस्थ है। भाष्यकार ने इसका दूसरा अर्थ किया है कि जो बंध के हेतुभूत प्रमाद आदि पाशों में स्थित है, वह पार्श्वस्थ है। आचार्य महाप्रज्ञ ने पार्श्वस्थ शब्द की सुंदर परिकल्पना प्रस्तुत की है। उनके अनुसार 'पासत्थ' का संस्कृत रूप पार्श्वस्थ ही होना चाहिए। भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा में स्थित पार्श्वस्थ / पार्श्वनाथ की परम्परा के जो साधु श्रमण महावीर के शासन में सम्मिलित नहीं हुए, उन्हीं के लिए पार्श्वस्थ शब्द का प्रयोग हुआ। भगवान् पार्श्व का आचार मृदु था अतः जब तक शक्तिशाली आचार्य थे, तब तक दोनों परम्पराओं में सामञ्जस्य रहा। जब शक्तिसम्पन्न आचार्य नहीं रहे, तब पार्श्वनाथ के शिष्यों के प्रति महावीर के शिष्यों में हीन भावना बढ़ने लगी अतः 'पार्श्वस्थ' शब्द शिथिलाचारी के अर्थ में रूढ़ हो गया। 1. व्यभा 854 ; दंसण-नाण-चरित्ते, सत्थो अच्छति तहिं न उज्जमति। एतेण उ पासत्थो, एसो अन्नो वि पज्जाओ। 2. व्यभा 855 पासो त्ति बंधणं ति य, एगटुंबंधहेतवो पासा।पासत्थिय पासत्थो, अन्नो वि एस पज्जाओ। 3. देखें सू 1/1/32 का टिप्पण। ३.इस गाथा का भावार्थ यह है कि महावीर के तीर्थ में उत्कृष्ट तपस्या छहमास की विहित है। जो साधु छह मास के तप प्रायश्चित्त से अधिक अतिचार का सेवन कर लेता है तो उसे फिर तप प्रायश्चित्त न देकर अतिचार-विशुद्धि , हेतु छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है। Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 496 जीतकल्प सभाष्य .. दमन नहीं होता अथवा अतिपरिणामक साधु, जो बार-बार उस अतिचार प्रसंग का सेवन करता है। 2284-86. पिण्डविशोधि आदि अनेक प्रकार के उत्तर गुण होते हैं। उनका पुनः पुनः भंग करने वाला, छेद प्रायश्चित्त प्राप्ति जैसा अतिचार सेवन-कर्ता अथवा आदि शब्द से पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त तथा नित्यवासी तथा वैयावृत्त्य करने वाले साधुओं को परितापित करने वाला। (छेद प्रायश्चित्त प्राप्त करता है।) 2287. आदि तीर्थंकर ऋषभ की उत्कृष्ट तपोभूमि एक वर्ष की होती है। मध्यम तीर्थंकरों की आठ मास . होती है। 2288. अंतिम तीर्थंकर की उत्कृष्ट तपोभूमि छह मास पर्यन्त होती है। इस उत्कृष्ट तप-सीमा को अतिक्रान्त करने वाला छेद प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है। 2289. जितनी संयम-पर्याय है, उसमें से इन यथोद्दिष्ट तप गर्वित आदि सबको पांच दिन आदि का छेद . प्रायश्चित्त देना चाहिए। 83. जानते हुए पंचेन्द्रिय का घात, दर्प से मैथुन-सेवन तथा शेष मृषावाद आदि में अभीक्ष्ण प्रतिसेवना-इन तीनों का छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2290, 2291. जानबूझकर यदि साधु पंचेन्द्रिय का वध करता है। दर्प से मैथुन सेवन करता है, शेष मृषावाद, अदत्तादान, परिग्रह आदि व्रतों में व्यर्थ ही बार-बार उत्कृष्ट प्रतिसेवना करता है, इन सबमें मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए। 84. तप गर्वित आदि में तथा मूल और उत्तर गुणों में दोष सेवन करने वाला, दर्शनवान्त, चारित्रवान्त, त्यक्तकृत्य-संयम छोड़ने वाला तथा अनवस्थाप्य शैक्ष-इन सबको मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2292. तपगर्वित से लेकर अतिपरिणामक और अतिप्रसंगी-इन सबको यथोपदिष्ट मूल प्रायश्चित्त जानना चाहिए। 2293. बहुविध मूलगुण और उत्तरगुणों को जो अनेक बार दूषित करता है या उनका भंग करता है, वह व्यतिकर कहलाता है, ऐसे साधु को मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2294. निश्चयनय से चरणघात और आत्मविघात होने पर ज्ञान और दर्शन का वध भी होता है। व्यवहारनय से चारित्र का हनन होने पर शेष दर्शन और ज्ञान की भजना रहती है। 2295. जिसने दर्शन को त्यक्त कर दिया है, उसके चारित्र का त्याग भी जानना चाहिए। लिंग छोड़ने वाले को त्यक्तलिंग जानना चाहिए। 2296. अथवा जिसने सम्पूर्ण संयम का त्याग कर दिया, उसे त्यक्तकृत्य जानना चाहिए। उपस्थापना 1. जीतकल्पचूर्णि की विषमपद व्याख्या में दर्प से मैथुन-सेवन को स्पष्ट करते हुए कहा है कि इसके सतीत्व को नष्ट करूंगा, इस बुद्धि से कोई साधु स्त्री के साथ प्रतिसेवना करता है तो वह दर्प युक्त मैथुन-सेवन है।' 1. जीचूवि पृ.५४। Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-८५-८७ 497 रहित अनुपस्थाप्य शैक्ष'-इन सबके लिए मूल प्रायश्चित्त जानना चाहिए। 85. अत्यन्तअवसन्न, गृहस्थलिंग, अन्यतीर्थिक लिंग करने वाला, मूलकर्म का सेवन करने वाला, विहित तप अर्थात् अनवस्थाप्य और पाराञ्चित तप प्राप्त कर्ता भिक्षु को भी मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2297. अवसन्न के द्वारा प्रव्रजित अथवा संविग्न से दीक्षित होने पर भी अवसन्न के साथ विहरण करने वाला अत्यन्त अवसन्न कहलाता है। 2298. जो दर्प से गृहस्थलिंग तथा अन्ययूथिक-इन दो परलिंगों को स्वीकार करता है, उसे मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। गर्भाधान और गर्भपरिशाटन –ये दोनों मूलकर्म हैं। 2299. भिक्षाशील भिक्षु कहलाता है। विहित तप को उपनय जानना चाहिए। वह दो प्रकार का होता हैअनवस्थाप्य तप और पाराञ्चित तप।। 2300. अतिचार सेवन से जिसको अनवस्थाप्य और पाराञ्चित -इन दोनों प्रकार के प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, ऐसे भिक्षु को मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। 86. छेद प्रायश्चित्त से श्रमण पर्याय का निरवशेष छेद होने पर उसका अवसान अनवस्थाप्य और पाराञ्चित तप में होता है। जो अपने गण में पुनः पुनः मूल प्रायश्चित्ताह अपराध करता है, उसे मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2301. पर्याय का छेद होते-होते जिसका सम्र्पूण पर्याय छिन्न हो जाता है, अनवस्थाप्य तप वहन कर लेने पर उसका अवसान पाराञ्चित प्रायश्चित्त में होता है। 2302. मूल प्रायश्चित्तार्ह प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी जो बार-बार अपने गण में अपराध सेवन करता है, उपर्युक्त सबको मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2303. अनवस्थाप्य दो प्रकार का होता है -आशातना करने वाला और प्रतिसेवी। मैं आशातना अनवस्थाप्य को संक्षेप में इस प्रकार कहूंगा। 2304. तीर्थंकर, संघ, श्रुत, आचार्य, गणधर और महर्धिक की आशातना करने वाले की प्रायश्चित्तमार्गणा इस प्रकार है२३०५. प्रथम और द्वितीय अर्थात् तीर्थंकर और संघ की आंशिक या सर्व आशातना करने पर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। शेष श्रुत आदि की देश आशातना करने पर चतुर्गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अब मैं प्रतिसेवना अनवस्थाप्य को कहूंगा। 87. विशेष रूप से बार-बार प्रद्विष्ट चित्त होकर जो चोरी करता है, निरपेक्ष और घोर परिणाम वाला होकर स्वपक्ष पर प्रहार करता है. उसे अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2306. उत्कृष्ट का अर्थ है विशिष्ट / बहुक का अर्थ है-बार-बार। जो अत्यधिक क्रोध आदि करता है, उसे प्रद्विष्टचित्त जानना चाहिए। 1. नवदीक्षित शैक्ष की उपस्थापना होती है अतः उसका यहां उल्लेख है। उसको मूल प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं होता। 2. गाथा में आए 'च' शब्द से परपक्ष को भी ग्रहण करना चाहिए। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 जीतकल्प सभाष्य 2307. प्रतिसेवना अनवस्थाप्य संक्षेप में तीन प्रकार का होता है-१. साधर्मिक स्तैन्य 2. अन्यधार्मिक स्तैन्य 3. हस्तताल या हस्तादान। 2308. साधर्मिक स्तैन्य दो प्रकार का होता है-सचित्त और अचित्त। अचित्त में उपधि और भक्त की चोरी करने वाला तथा सचित्त में शैक्ष का अपहरण करने वाला। 2309. साधर्मिक की उपधि को चुराना, गुरु को कहे बिना उसको स्वयं ले लेना, उपधि दग्ध हो गई, इस बहाने से गृहस्थ से नए वस्त्र लेना, गुरु ने किसी के लिए पात्र, वस्त्र आदि भेजा, वह उसे न देकर बीच में स्वयं ले लेना-ये सब अदत्त व्यवहार शैक्ष करे या अशैक्ष, देखते हुए करे या बिना देखते हुए, उसे प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2310. शैक्ष पद से यहां अगीतार्थ मुनि तथा आचार्यपद आदि ऋद्धि से रहित गीतार्थ जानना चाहिए। उपधि अर्थात् वस्त्र, पात्र आदि। उपधि परिगृहीत और अपरिगृहीत दोनों प्रकार की होती है। इन दोनों के तीन-तीन भेद हैं -जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। 2311. यदि उपधि अपरिगृहीत है, साधर्मिक को छोड़कर अन्य प्रवासी साधु की है तो उसे चुराने पर क्षेत्र के आधार पर शोधि इस प्रकार होती है२३१२, 2313. उपाश्रय के अंदर और बाहर निवेशन–घर, वाटक', ग्राम, उद्यान और सीमा का अतिक्रमण—इन सबके अंदर और बाहर अदृष्ट चोरी करने पर लघुमास' से प्रारम्भ होकर छेद प्रायश्चित्त . तक अर्ध अपक्रान्ति से शोधि होती है। 2314. शैक्ष के द्वारा दृष्ट स्तैन्य करने पर गुरुमास से लेकर मूल पर्यन्त प्रायश्चित्त निर्दिष्ट है। उपाध्याय और आचार्य के एक-एक स्थान की वृद्धि हो जाती है।' 2315. यह उपाश्रय से साधर्मिक की उपधि हरण करने का प्रायश्चित्त कहा। अब गुरु की आज्ञा के बिना स्वयं ही ग्रहण करके उसका प्रयोग करने का प्रायश्चित्त कहूंगा। 2316, 2317. गुरु ने त्रिविध उपधि लाने के लिए भेजा। उसको वहीं प्राप्त करके यह तुम्हारी है, यह मेरी है' बाहर ही उसका विभाजन करके आत्मार्थ कर लिया, ऐसी स्थिति में स्वयं काम में लेने पर 1. वाटक की पाटक छाया भी संभव है। आप्टे में पाटक शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं, उनमें दो अर्थ यहां संगत हैं 1. गांव का एक भाग, 2. गांव का आधा हिस्सा। 1. आप्टे पृ. 580 / 2. उपाध्याय और आचार्य के द्वारा अदृष्ट चोरी करने पर गुरुमास से लेकर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का विधान है तथा दृष्ट स्तैन्य करने पर चतुर्गुरु से लेकर पाराञ्चित पर्यन्त प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 3. उपाश्रय के भीतर यदि साधर्मिक की चोरी करता है तो लघुमास, उपाश्रय के बाहर करने पर गुरुमास, निवेशन के भीतर गुरुमास, उसके बाहर चतुर्लघु, वाटक के भीतर चतुर्लघु, वाटक के बाहर चतुर्गुरु, ग्राम के अंदर चतुर्गुरु, ग्राम के बाहर षड्लघु, उद्यान के अंदर षड्लघु, उसके बाहर षड्गुरु, सीमा के भीतर षड्गुरु, सीमा का अतिक्रमण करने पर छेद प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1. बृभा 5066 टी पृ. 1351 / Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-८७ 499 लघुमास, आकर उपधि गुरु को निवेदित नहीं करने पर या नहीं देने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। सूत्र के आदेश के अनुसार ऐसे मुनि अनवस्थाप्य होते हैं। 2318, 2319. व्यापारित स्तैन्य का दूसरा प्रकार यह है किसी श्रावक ने वस्त्र आदि लेने के लिए निमंत्रण दिया। आचार्य ने वस्त्र आदि उपधि लेने का प्रतिषेध कर दिया। वस्त्र देखकर वह मुनि श्रावक के पास जाकर बोला कि मेरी उपधि जल गई है। गुरु ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है अतः मुझे उपधि दो। श्रावक ने उसे उपधि दे दी। श्रावकों को कैसे ज्ञात हुआ? 2320-22. मुनि उपधि लेकर उपाश्रय पहुंचा। श्रावकों ने गुरु के पास आकर पूछा-'उपधि किसकी जल गई थी?' गुरु ने कहा-'उपधि किसी की दग्ध नहीं हुई है। कौन मुनि उपधि लेकर आया है?' यह सुनकर श्रावक को प्रीति या अप्रीति होती है। यदि श्रावक अनुग्रह मानता है तो मुनि को चतुर्लघु, यदि श्रावक को अप्रीति उत्पन्न होती है तो चतुर्गुरु, यदि लोगों में 'चोर' शब्द प्रचारित होता है तो मूल, शेष साधुओं के लिए अन्य द्रव्यों के विच्छेद का प्रसंग होता है तो शेष प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं। 2323, 2324. उपधि न जलने पर यह प्रायश्चित्त-विधि है-यथार्थ रूप में उपधि दग्ध होने पर गुरु ने शिष्य को उपधि लाने के लिए भेजा, बीच में ही शिष्य द्वारा अच्छी उपधि को अपनी बना लेने पर चतुर्लघु', गुरु को निवेदन नहीं करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। सूत्र के आदेश से वह अनवस्थाप्य होता है। 2325, 2326. उपधि दग्ध होने पर स्तैन्य का प्रायश्चित्त कहा, अब प्रस्थापित स्तैन्य के बारे में कहूंगा। एक आचार्य ने किसी अन्य आचार्य को सनियोग-पात्रकबंधयुक्त उत्कृष्ट पात्र भेजा। बीच में साधु उसे स्वयं ग्रहण कर ले तो चतुर्लघु, गुरु को नहीं देने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। सूत्र के आदेश से वह अनवस्थाप्य होता है। 2327. इस प्रकार उपधि-स्तैन्य का वर्णन किया, अब आहार-स्तैन्य के बारे में कहूंगा। यदि साधु असंदिष्ट स्थापनाकुल में भिक्षार्थ जाता है तो चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2328, 2329. गुरु की आज्ञा के बिना स्थापनाकुल में प्रवेश करके पूछने या न पूछने पर साधु कहता है कि आचार्य ने मुझे भेजा है तो उसको लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। यदि साधु कहता है कि अतिथि और ग्लान के लिए आया हूं, इस प्रकार श्रावक को भ्रम में डालने पर और मायापूर्वक कहने पर 'गुरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अथवा आकर गुरु के समक्ष उस आहार की आलोचना नहीं करने पर गुरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2330. साधु और श्रावक को कैसे ज्ञात होता है कि साधु ने स्तैन्य किया है? आचार्य उत्तर देते हुए कहते 1. द्र. निभा 333 चू पृ. 116 / २.बृभा (5071) में लघुमास प्रायश्चित्त का उल्लेख है। ३.दानश्राद्ध आदि के कुल को स्थापनाकुल कहा जाता है। स्थापना कल के विस्तार हेतु देखें गा.१७७५ का टिप्पण। Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 जीतकल्प सभाष्य हैं कि कोई अन्य असंदिष्ट व्यक्ति स्थापनाकुल में प्रविष्ट होता है। 2331, 2332. गुरु संघाटक के चले जाने पर भी श्रावक यदि कहते हैं कि गुरु के योग्य आहार आदि ले जाओ। 'गुरु नहीं है' यह बात ज्ञात होने पर भी यदि श्रावक अनुग्रह मानते हैं तो चतुर्लघु, यदि अप्रीति करते हैं तो चतुर्गुरु, यदि श्रावक विपरिणत होकर गुरु और ग्लान के योग्य भक्त का विच्छेद करते हैं तो चतुर्गुरु, यदि क्षपक और प्राघूर्णक के प्रायोग्य आहार नहीं देते तो चतुर्लघु, बाल और वृद्धों के योग्य आहार न देने पर गुरुमास तथा शैक्ष और बहुभक्षी को आहार न देने पर लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2333. अचित्त भक्त सम्बन्धी स्तैन्य का कथन कर दिया, अब सचित्त स्तैन्य के अन्तर्गत शैक्ष सम्बन्धी स्तैन्य के बारे में कहूंगा। 2334-37. 'मैं अमुक साधु के पास दीक्षा ग्रहण करूंगा', यह सोचकर कोई शैक्ष जा रहा हो, बीच में ही यदि कोई साधु उसका अपहरण कर ले अथवा कोई साधु ग्राम के बाहर दीक्षा लेने वाले शैक्ष को एक स्थान पर ठहराकर स्वयं भिक्षार्थ चला जाए। संज्ञाभूमि में गया कोई पथिक साधु उस शैक्ष साधु को देखे। वंदना करने पर साधु शैक्ष से पूछे-'तुम कौन हो?' शैक्ष कहे –'मैं दीक्षा लेना चाहता हूं।' तब मुनि पूछे कि तुम ससहाय हो अथवा असहाय? शैक्ष कहे कि मैं ससहाय हूं। मुनि पूछे कि तुम्हारा सहायक कहां है? शैक्ष कहे-'वे मुझ भूखे और प्यासे के लिए भक्तपान लेने के लिए घूम रहे हैं।' तब वह मुनि कहे कि मेरे पास. अन्न आदि है अतः तुम इसको खाओ। यदि वह अनुकम्पा से भोजन दे तो शुद्ध है। शैक्ष के द्वारा पूछने या न पूछने पर अनुकम्पा और अशठभाव से धर्मकथा करे तो वह शुद्ध है। " 2338. यदि शठता से भोजन दे अथवा धर्मकथा करे तो उसमें दोष होता है। शैक्ष को अपहृत करने के निम्न स्थान हैं२३३९. व्यक्त या अव्यक्त शैक्ष के अपहरण से सम्बन्धित संक्षेप में ये छह पद होते हैं-१. भक्तप्रदानशैक्ष का अपहरण करने के लिए उसे भक्तपान देना। 2. धर्मकथा-धर्मकथा करना। 3. निगूहनवचनकिसी स्थान पर छिपा देना। 4. व्यापृत करना-किसी अन्य कार्य में लगा देना। 5. झंपना-पलाल आदि से ढक देना। 6. प्रस्थापन-उसे लेकर किसी अन्य ग्राम में प्रस्थित कर देना। 2340. अव्यक्त शैक्ष अर्थात् जिसके अभी दाढ़ी-मूंछ नहीं आई है, उस शैक्ष सम्बन्धी अपहरण के छह स्थानों के निम्न प्रायश्चित्त हैं –भक्तपान देने पर गुरुमास, धर्मकथा करने पर चतुर्लघु, निगूहनवचन बोलने पर चतुर्गुरु, व्याप्त करने पर षड्लघु, झम्पन करने-ढकने पर षड्गुरु तथा प्रस्थापन -स्वयं हरण करने पर छेद प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। व्यक्त शैक्ष के अपहरण सम्बन्धी पदों में साधु को चतुर्लघु से मूल पर्यन्त, उपाध्याय को चतुर्गुरु से अनवस्थाप्य पर्यन्त तथा आचार्य को छहलघु से पाराञ्चित पर्यन्त प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1. बृभा 5076 टी पृ. 1354 / Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-८७ 501 2341, 2342. कोई शैक्ष अमुक आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण का संकल्प लेकर अभिनिष्क्रमण करे, मार्ग में पूछे जाने पर वह कहे कि मैं अमुक आचार्य के पास प्रव्रजित होने जा रहा हूं। वहां भी अव्यक्त शैक्ष को यदि साधु भक्तपान-दान और धर्मकथा आदि करे तो (भक्तपान का गुरुमास और धर्मकथा का चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है।) यहां असहाय शैक्ष' होने के कारण शेष निगूहन आदि चार पद नहीं होते। 2343. इसी प्रकार प्रव्रज्या लेने की इच्छुक कोई स्त्री शैक्ष अमुक आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण करने की बात सोचती हुई जा रही हो तो उसका हरण करने में होने वाले दोष पुरुष शैक्ष की भांति जानने चाहिए। व्यक्त या अव्यक्त शैक्ष का अपहरण करने में ये दोष हैं२३४४. (शैक्ष का अपहरण करने में निम्न दोष हैं-) * आज्ञा-भंग आदि दोष। * साधर्मिक स्तैन्य। * अनंतसंसारिकत्व। * प्रमत्त साधु की प्रान्त देवता द्वारा छलना। * बोधि की दुर्लभता। * अधिकरण-कलह। 2345. आपवादिक स्थिति में पूर्वगत और कालिकानुयोग के कुछ अंशों का विच्छेद होने आदि कारणों के उपस्थित होने पर शैक्ष का अपहरण कल्प्य होता है। 2346, 2347. कारण उपस्थित होने पर अपहृत शैक्ष जब स्वयं प्रावनिक हो जाए तो वह गुरु के कालगत होने पर स्वयं गण को धारण करे, जब एक शिष्य निष्पन्न हो जाए तो फिर उसकी स्वयं की इच्छा है कि वह वहां रहे या न रहे। 2348, 2349. यदि निष्कारण ही शैक्ष का अपहरण हो तो वह स्वयं पूर्व आचार्य के पास चला जाए। यदि उस संघ के आचार्य अभ्युद्यत मरण या गुरु विहार स्वीकार कर लें तो अन्य किसी योग्य शिष्य के न होने पर उसी गण में उसको आचार्य पद पर आरूढ़ किया जाता है। वह वहां आचार्य पद तब तक धारण करे, जब तक उस गण में अन्य शिष्य तैयार न हो जाएं। 2350. साधर्मिक के सचित्त स्तैन्य का वर्णन सम्पन्न हुआ, अब परधार्मिक स्तैन्य से होने वाले दोषों को कहूंगा। 1. गाथा 2334-40 का कथन ससहाय शैक्ष के संदर्भ में था। इस गाथा में असहाय शैक्ष के संदर्भ में व्याख्या की २.कोई बहुश्रुत आचार्य पूर्वगत या कालिकश्रुत के अध्ययनों का ज्ञाता है। उसका ज्ञान यदि किसी अन्य साधु को नहीं हो तो उस ज्ञान की अव्यवच्छित्ति के लिए ग्रहण और धारणा में समर्थ शिष्य को भक्तपान आदि के माध्यम से विपरिणत करके उसका अपहरण किया जा सकता है। 1. बृभा 5083 टी पृ. 1355 / 3. सूत्र और अर्थ की अव्यवच्छित्ति के पश्चात् आचार्य मध्यरात्रि में यह चिंतन करते हैं कि मैंने दीर्घकाल तक संयम का पालन किया, शिष्यों को वाचना दी, तीर्थ की अव्यवच्छित्ति हेतु शिष्यों का निर्माण किया, अब मेरे लिए आत्महित करना श्रेयस्कर है। अब मैं अनुत्तर गुणों वाला गुरुविहार स्वीकार करूं अथवा अभ्युद्यत मरण का वरण करूं। गुरुविहार का अर्थ है-जिनकल्प आदि की विशेष साधना का स्वीकरण / अभ्युद्यत विहार के तीन प्रकार हैं-जिनकल्प, परिहारविशुद्ध और यथालंदिक की साधना / 1. बृभा 1284 टी पृ. 396 / Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502 जीतकल्प सभाष्य 2351. परधार्मिक भी दो प्रकार के होते हैं -लिंगप्रविष्ट और गृहस्थ। इन सबका स्तैन्य तीन प्रकार का होता है—आहार, उपधि और सचित्त-शैक्ष विषयक। 2352. कोई लुब्ध मुनि बौद्ध भिक्षुओं की संखड़ी में उनका लिंग धारण करके भोजन करता है, उस समय कोई उसे पहचान ले तो चतुर्लघु और यदि उसकी भर्त्सना हो तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2353, 2354. लोग प्रवचन की हीलना करते हैं कि ये लोग भोजन के लिए ही प्रव्रजित होते हैं, इन्होंने कभी दान दिया ही नहीं है तथा ये दुष्ट आत्मा वाले हैं। गृहवास में भी ये गरीब ही थे। निश्चित ही इन्होंने अपना कल्याण नहीं देखा है। इनके शास्ता ने इनका गला नहीं दबाया और सब कुछ कर दिया। 2355-57. यह आहारविषयक स्तैन्य का वर्णन है। उपधि विषयक स्तैन्य का वर्णन इस प्रकार है कि कोई बौद्ध भिक्षु अपने मठ में उपधि छोड़कर भिक्षार्थ गया। यदि उसकी उपधि को साधु चुराए तो चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। यदि वह बौद्ध भिक्षु मुनि को पकड़ ले तो चतुर्गुरु, राजकुल के सम्मुख उसे घसीटे तो छड्गुरु, यदि राजा व्यवहार-न्याय करे तो छेद, यदि उसे पश्चात्कृत (पुनः गृहस्थ बनाना) करे तो मूल तथा देश से निष्काशित करे अथवा अपद्रावण करे तो अंतिम पारांचित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2358. इन दोषों के कारण अदत्त को ग्रहण नहीं करना चाहिए। यह उपधि स्तैन्य का वर्णन है, अब मैं सचित्त स्तैन्य के बारे में कहूंगा। 2359. जो साधु अव्यक्त क्षुल्लक अथवा क्षुल्लिका को उसके सम्बन्धी से पूछे बिना चुराकर ले जाए तो उसको चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। व्यक्त के लिए पृच्छा की अपेक्षा नहीं है। व्यक्त के क्षेत्र और उसकी शक्ति को जानकर प्रव्रजित किया जा सकता है। 2360. यह लिंगप्रविष्टों (अन्यधार्मिकों) के स्तैन्य का वर्णन किया गया। गृहस्थों का स्तैन्य भी इसी प्रकार तीन प्रकार का होता है। इसमें ग्रहण, कर्षण आदि दोष विशेष रूप से होते हैं। 2361. घर में सुखाने के लिए फैलाई हुई पिष्टपिंडिका आदि को देखकर कोई क्षुल्लिका साध्वी उसे ग्रहण कर ले। ग्रहण करती हुई उस क्षुल्लिका को गृहस्वामिनी भी देख ले, वह क्षुल्लिका साध्वी भी कुशलता से अन्य साध्वी के पात्र में वस्तु डाल दे तो यह आहार स्तैन्य है। 2362. आहार स्तैन्य करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। एक आदेश के अनुसार वह अनवस्थाप्य होता है। इसी प्रकार सूत्राष्टिका वस्त्र आदि का ग्रहण उपधि स्तैन्य है। 1. इनका प्रायश्चित्त पूर्ववत् जानना चाहिए। २.यहां शाक्य आदि की क्षुल्लक या क्षुल्लिका होने से उसे अन्यधार्मिक स्तैन्य जानना चाहिए। बृहत्कल्पभाष्य की वृत्ति के अनुसार यदि क्षेत्र शाक्य आदि से प्रभावित है तथा राजभवन में उनका प्रभाव है तो पुच्छा के बिना व्यक्त क्षुल्लक या क्षुल्लिका को भी दीक्षित करना कल्प्य नहीं है। . Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-८७ 503 2363. निजक माता-पिता आदि सम्बन्धियों की आज्ञा के बिना अप्राप्तवय वाले पुरुष को दीक्षित नहीं करना चाहिए। यदि वह अपरिगृहीत है तथा शेष बाल, जड्ड आदि दोषों से रहित है तो अव्यक्त को प्रव्रजित करना कल्प्य है। 2364. नारी प्रायः अपरिगृहीता नहीं होती अतः बिना आज्ञा उसे दीक्षा देना कल्प्य नहीं होता। कोई अदत्त नारी भी दीक्षा के लिए कल्प्य होती है, जैसे-करकंडु की माता रानी पद्मावती' और क्षुल्लक कुमार की माता यशोभद्रा। 2365. आहार के सम्बन्ध में अपवाद यह है कि दुर्गम मार्ग या दुर्भिक्ष आदि कारणों से अदत्त ग्रहण किया जा सकता है। आगाढ़ स्थिति में विविध उपधि चुराई जाने पर अदत्त उपधि ग्रहण की जा सकती है। 2366. स्वलिंगियों की थली-देहली में पहले भोजन की याचना करनी चाहिए -उनके द्वारा न देने पर बलात् भी ग्रहण किया जा सकता है। यदि अन्यतीर्थिक दुष्ट या दारुण स्वभाव के हैं तो प्रच्छन्न रूप से भी उपधि आदि ग्रहण की जा सकती है। 2367. परलिंगियों में भी पहले याचना करने पर नहीं मिलता तो प्रच्छन्न रूप से अदत्त ग्रहण किया जा सकता है। गृहस्थों से भी आगाढ़ कारण में अदत्त ग्रहण किया जा सकता है। 2368. आहार और उपधि के ग्रहण सम्बन्धी आपवादिक स्थिति का वर्णन सम्पन्न हुआ, अब अपवाद स्थिति में सचित्त अदत्त ग्रहण के विषय में कहंगा। 2369, 2370. पूर्वगत और कालिकानुयोग का विच्छेद जानकर कोई आचार्य उपयोग लगाए कि यह बालक युगप्रधान आचार्य होगा, तब वह गृहस्थ या अन्यतीर्थिक के बालक या बालिका का हरण कर सकता है। यह साधर्मिक स्तैन्य और अन्यधार्मिक स्तैन्य के बारे में वर्णन किया गया है। 2371. गाथा जीसू 87 के पूर्वार्द्ध में स्तैन्य के बारे में कहा गया, अब गाथा के पश्चार्द्ध का अर्थ कहूंगा। 2372. अब मैं यथाक्रम से हस्तताल के बारे में कहूंगा। हस्तताल क्या होता है? जो कहा जा रहा है, उसे तुम सुनो। 2373. हस्तताल, हस्तालम्ब और अर्थादान -ये तीन शब्द जानने चाहिए। इनमें जो नानात्व है, वह मैं यथाक्रम से कहूंगा। 2374. हाथ के द्वारा ताड़न करने को हस्तताल जानना चाहिए। वहां दण्ड होता है, वह लौकिक और लोकोत्तर दो प्रकार का इस रूप में है 1. नारी बचपन में पिता के, यौवन में पति के तथा वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन होती है अतः नारी प्रायः स्वतंत्र नहीं होती। इस संदर्भ में व्यवहारभाष्य में निम्न श्लोक प्राप्त होता है जाता पितिवसा नारी, दिण्णा नारी पतिव्वसा। विहवा पुत्तवसा नारी, नत्थि नारी सयंवसा // व्यभा 1589/1 / 2,3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.५६,५७। Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 जीतकल्प सभाष्य 2375. लौकिक हस्तताल' में पुरुषवध हेतु प्रयुक्त खड्ग आदि का गुरुक दण्ड होता है। केवल दण्डप्रहार में भजना है। अब मैं लोकोत्तरिक दण्ड के बारे में कहूंगा। 2376. जो साधु हाथ-पैर अथवा यष्टि आदि से प्रहार करता है, वह अनवस्थाप्य होता है। प्रहार करने पर भी यदि कोई नहीं मरता है तो दण्ड की भजना है। मर जाने पर पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2377. अपवाद पद में शिष्य को विनय-शिक्षा देते हुए हस्तताल का प्रयोग किया जा सकता है अथवा : घोर जंगल में चोर, श्वापद आदि का भय होने पर हस्तताल का प्रयोग किया जा सकता है। 2378. शिष्य को विनय-शिक्षा देने के लिए कान मोड़ना, सिर पर ठोला मारना, चपेटा देना–ये सब सापेक्ष हस्तताल हैं, मर्मस्थानों की रक्षा करते हुए यह सब किया जाता है। 2379. शिष्य प्रश्न पूछता है कि दूसरे को परिताप देना असाता वेदनीय कर्मबंध का हेतु है, फिर आपने . इसकी अनुज्ञा कैसे दी? आचार्य कहते हैं कि इसका कारण सुनो। 2380. यह सत्य है कि जिनेश्वर भगवान् ने परपरिताप को असाता का हेतु बताया है। किन्तु यह परिताप दुःशील और अविनीत शिष्य के लिए आत्महित और परहित होने के कारण वांछनीय है। 2381. शिल्प तथा नैपुण्य-लिपि, गणित आदि कला को सीखने के लिए लौकिक गुरु का व्याघात आदि सहन किया जाता है, वह इहलोक के लिए मधुर फल देने वाला होता है, यह उपमा है। 2382. अथवा रोगी को पहले मधुर वचनों से औषध दी जाती है, बाद में देहहित के लिए ताड़न आदि के द्वारा भी औषधि दी जाती है। 2383. इसी प्रकार भव रोग से पीड़ित की भी पहले अनुकूल वचनों से सारणा की जाती है, बाद में परलोक के हित के लिए प्रतिकूल अनुशासना भी की जाती है। 2384. विनय से युक्त शिष्य इहलोक और परलोक में अनुत्तर फल को प्राप्त करता है। वह महाभाग संवेग आदि इन गुणों से युक्त होता है। 2385. संविग्न, मार्दवयुक्त, गुरु को नहीं छोड़ने वाला, गुरु के अनुकूल चलने वाला, विशेषज्ञ, उद्युक्तस्वाध्याय में लीन रहने वाला, वैयावृत्त्य आदि में अपरितान्त-इन गुणों से युक्त साधु इष्ट प्रयोजन को प्राप्त कर लेता है। 1. बृहत्कल्प की टीका के अनुसार लौकिक हस्तताल में खड्ग आदि का प्रयोग करने पर पुरुषवध हो जाने से 80 हजार रुपयों का गुरुक दंड होता है। यदि प्रहार करने पर पुरुष नहीं मरता है तो दंड की भजना है। आनंदपुर में प्रहार करने पर यदि व्यक्ति नहीं मरता तो केवल पांच रुपए का दंड होता था। १.बृभा 5104 टी पृ. 1360 / 2. व्यभा 6 मटी प.६। 2. यहां विनय शब्द का प्रयोग शिक्षा के अर्थ में भी प्रयुक्त है। ग्रहण शिक्षा और विनय शिक्षा देते हुए आचार्य शिष्य के विकास हेत हस्त-ताडन का प्रयोग कर सकते हैं। १.बृभाटी पृ.१३६० ; इह विनयशब्दः शिक्षायामपि वर्तते....ततोऽयमर्थः-'विनयस्य' ग्रहणशिक्षाया आसेवनाशिक्षाया वा ग्राहणायां क्रियमाणायां कर्णामोटकेन खड्डकाभिः चपेटाभिर्वा / Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-८७ 505 2386. चोर तथा श्वापद आदि का भय होने पर तथा गण और गणी के अत्यन्त विनाश की स्थिति उत्पन्न होने पर गीतार्थ साधु कालातिक्रम--शीघ्र ही हस्तताल की इच्छा करते हैं। 2387. इस प्रकार बोधिक-चोर आदि आगाढ़ स्थिति उत्पन्न होने पर जिस साधु का जो सामर्थ्य हो, वह उसको समाप्त नहीं करता, काम में लेता है। 2388. हिंसा करता हुआ भी कृतकरण मुनि दोष को प्राप्त नहीं होता। विशुद्ध आलम्बन वाला वह श्रमण अल्प से बहुत को प्राप्त करने की इच्छा करता है। 2389, 2390. आचार्य अथवा गच्छ, कुल, गण या संघ के विनाश का अवसर होने पर यदि पंचेन्द्रिय का वध होता है तो भी उस स्थिति का निस्तारण करना चाहिए। ऐसा करने पर तीर्थ की अव्यवच्छित्ति होती है। यदि शरीर का विनाश हो जाए तो भी वह आराधक होता है। 2391. ऐसे आगाढ़ कारण उपस्थित होने पर सामर्थ्य या विद्यातिशय होने पर जो उसका प्रयोग नहीं करता है, उसको विराधक कहा गया है। 2392-95. यह हस्तताल का वर्णन है, हस्तालम्ब इसे जानना चाहिए। दुःख से पीड़ित प्राणियों के परित्राण हेतु, अशिव, नगर पर चढ़ाई, वैशस-रोमाञ्चकारी दुःख उत्पन्न होने पर अथवा अन्य इसी प्रकार के कष्टों से अभिभूत होने पर लोगों को यह विश्वास हो जाता है कि अमुक आचार्य दुःख को उपशान्त कर सकते हैं। मरणभय से अभिभूत उन पौरजनों के दुःख को जानकर अथवा उनके द्वारा कहने पर आचार्य या साधु प्रतिमा करके (अभिचारुक) मंत्रों का जाप करते हुए उस प्रतिमा को मध्य से बींधते हैं, यह हस्तालम्ब है। अब मैं हस्तादान-अर्थादान के बारे में कहूंगा। निमित्त आदि के द्वारा अर्थ को उत्पन्न करना हस्तादान है, इसमें यह उदाहरण है। 2396. उज्जयिनी नगरी में अवसन्न आचार्य रहते थे। वहां दो व्यापारी आचार्य से पूछकर व्यापार करते 'थे। आचार्य जैसा कहते, वे वैसा ही करते थे। 2397-01. भोगाभिलाषी होने के कारण आचार्य के भानजे ने लिंग छोड़ दिया था। आचार्य ने अनुकम्पा वश कहा कि बिना अर्थ के तुम क्या करोगे? अतः तुम उन वणिकों के पास जाओ और कहो कि मुझे धन दो। भानजे ने वहां जाकर धन के लिए कहा। उनमें से एक वणिक् ने कहा- 'मेरे पास अर्थ कहां से आया? क्या शकुनिका रुपए देती है?' दूसरा वणिक् टोकरी भरकर नौली लेकर आया और बोला कि तुमको जितनी नौली चाहिए, उतनी ग्रहण कर लो। प्रयोजन के अनुसार उसने नौलियां ले लीं। दूसरे वर्ष व्यापारियों ने पूछा कि हम क्या ग्रहण करें? जिस व्यापारी ने कहा था कि क्या शकुनिका १.बृहत्कल्पभाष्य की टीका में इस गाथा का स्पष्टीकरण किया गया है। जब नागरिक लोग परेशान होकर आचार्य ___ के पास जाते हैं तो आचार्य उन पर अनुकम्पा करके अचित्त प्रतिमा बनाकर अभिचारुक मंत्रों का जप करते हुए उस प्रतिमा को मध्य से बींध देते हैं। इससे कुलदेवता भाग जाता है और देवकृत सारा उपद्रव शान्त हो जाता है। '२.कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.५८। Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 506 जीतकल्प सभाष्य रुपए देती है? उसको आचार्य ने कहा कि तृण, काष्ठ, वस्त्र, रूई, कपास, तेल, गुड़, धान्य आदि नगर के अंदर स्थापित कर दो। . 2402, 2403. दूसरे वणिक् को आचार्य ने कहा कि सब कुछ देकर तुम तृण, काष्ठ आदि ग्रहण करके नगर के बाहर वर्षाकाल तक स्थापित कर दो। घर में तृण आदि स्थापित करने पर आग लगने से नगर जल गया। तृण और काष्ठ का पुंज अत्यन्त मूल्यवान् हो गया। 2404. दूसरे वणिक् का सब कुछ जल गया। तब वह आचार्य के पास आकर बोला-'अहो! मैं उत्साहित बना हुआ आपके पास से सही बात कैसे नहीं जान सका?' 2405. नैमित्तिक आचार्य बोले- क्या शकुनिका निमित्त देती है?' आचार्य को रुष्ट जानकर वणिक् बोला-'कभी भूल हो जाती है, आप मुझे क्षमा करें।' 2406, 2407. इस प्रकार के निमित्त से अर्थ उत्पन्न करने वाला कोई ऐसा पुरुष दीक्षा हेतु उद्यत हो जाए तो वैसे पुरुष की उस क्षेत्र में उपस्थापना नहीं होती। उस क्षेत्र में जितने समय तक रहे, तब तक भी उसकी उपस्थापना नहीं होती। यदि उसी क्षेत्र में उपस्थापना होती है तो वह अनवस्थाप्य है। 2408. अन्य क्षेत्र में ले जाकर उसकी उपस्थापना करनी चाहिए। उस क्षेत्र में उपस्थापना न करने के क्या कारण है? आचार्य कहते हैं कि उन कारणों को सुनो। 2409. पूर्वाभ्यास के कारण नैमित्तिक से लोग निमित्त पूछते हैं। वह ऋद्धि के गौरव से, स्नेह या भय से लाभ और अलाभ का कथन कर सकता है। जैसे खुजली का रोगी खुजली किए बिना नहीं रह सकता, वैसे ही वह ज्ञान परीषह को सहन नहीं कर सकता। 2410. इसलिए उस स्थान पर उसको भावलिंग नहीं देना चाहिए। यदि कारणवश देना पड़े तो अशिव, दुर्भिक्ष आदि कारणों के उपस्थित होने पर उसे लिंग दिया जा सकता है। 2411. उसको असहाय या अकेला नहीं छोड़ा जाता। वहां लोगों के द्वारा निमित्त पूछने पर वह कहता है कि मैं निमित्त भूल गया हूं। अथवा उत्तमार्थ-संथारे के लिए उसे वहीं लिंग दिया जा सकता है। 2412. इस प्रकार अवसन्न गृहस्थ को द्रव्य और भाव-दोनों ही लिंग नहीं दिए जाते। उत्तमार्थ के लिए दिया जा सकता है। 2413. इस प्रकार अर्थादान में जो शेष अनवस्थाप्य होते हैं, उनमें साधर्मिक स्तेन, अन्यधार्मिक स्तेनइन दोनों के प्रायश्चित्त में भजना है। 2414. वह भजना क्या है? आहार का स्तैन्य करने पर लघुमास, उपधि का स्तैन्य करने पर चतुर्लघु तथा सचित्त का स्तैन्य होने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है अथवा एक आदेश से ये अनवस्थाप्य हैं। 2415. मतान्तर से उसे अनवस्थाप्य क्यों कहा गया है, इसका कारण सुनो। वह कषाय आदि को शान्त नहीं करता तथा प्रायः दोषों का सेवन करता है। 2416. अथवा भिक्षु हस्तताल आदि पदों में तीन प्रकार का प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। उपाध्याय को नवां Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-८८-९३ 507 तथा आचार्य को दसवां प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2417. आचार्य और उपाध्याय के द्वारा तुल्य अपराध करने पर भी दोनों को तुल्य या अतुल्य प्रायश्चित्त दिया जाता है। पाराञ्चित प्रायश्चित्त योग्य अपराध करने पर भी उपाध्याय को नवां-अनवस्थाप्य तथा आचार्य को पाराञ्चित प्रायश्चित्त दिया जाता है। 2418. अथवा जो आचार्य साधर्मिक स्तैन्य की बार-बार प्रतिसेवना करता है, उससे उपरत नहीं होता, उसको नवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, शेष मुनि जो बार-बार प्रतिसेवना करते हैं, उन्हें मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2419. तृतीय अर्थादान में क्षेत्रतः अनवस्थाप्य कहा गया है। उस व्यक्ति को उस क्षेत्र में उपस्थापना नहीं दी जाती। शेष को गच्छ में रहते हुए भी आलाप आदि पदों से बहिष्कृत कर दिया जाता है। 88. पाराञ्चित प्रायश्चित्त योग्य दोष सेवन करने पर उपाध्याय को अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। बहुत बार पाराञ्चित प्रायश्चित्त योग्य दोष सेवन करने पर भी उन्हें अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2420. अभिषेक का अर्थ है-उपाध्याय। बहुश शब्द पुनः-पुनः अर्थ में है। सर्व शब्द पाराञ्चित अपराध से जुड़ता है। 2421. अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त करने वाला अनेक बार दोष सेवन करता है। अनन्तर जीसू 89 गाथा में जिसे अनवस्थाप्य किया जाता है, उसका वर्णन है। 2422. शिष्य पूछता है कि उपाध्याय को अनवस्थाप्य प्राप्त होने पर अनवस्थाप्य दिया जाए, यह तो युक्त है लेकिन पाराञ्चित अपराध प्राप्त कर्ता को भी नवां अनवस्थाप्य क्यों दिया जाता है? 2423. आचार्य उत्तर देते हैं कि नवम और दशम प्रायश्चित्त की प्राप्ति होने पर भी भिक्षु को मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है तथा उपाध्याय का भी उत्कृष्ट प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य होता है। 89. अनवस्थाप्य चार प्रकार से किया जाता है-१. लिंग 2. क्षेत्र 3. काल और 4. तप। लिंग से अनवस्थाप्य दो प्रकार का कहा गया है-द्रव्यलिंग और भावलिंग', वह दीक्षा के अयोग्य होता है। 90. अप्रतिविरत और अवसन्न साधु भावलिंग ग्रहण करने के अयोग्य होते हैं। जो जिस क्षेत्र में दोष 1. चूर्णिकार ने द्रव्यलिंग और भावलिंग के आधार पर चतुर्भंगी का निर्देश किया है। जीतकल्प की विषमपद व्याख्या में इनका विस्तार प्राप्त है• द्रव्यलिंग रजोहरण आदि से अनवस्थाप्य, भावलिंग महाव्रत आदि से भी अनवस्थाप्य। * द्रव्यलिंग से अनवस्थाप्य, भावलिंग से नहीं। * भावलिंग से अनवस्थाप्य, द्रव्यलिंग से नहीं। •न द्रव्यलिंग से अनवस्थाप्य, न भावलिंग से (यह भंग असंभव है।) Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508 जीतकल्प सभाष्य . से दूषित होता है, वह उस क्षेत्र में दीक्षा के लिए प्रतिषिद्ध होता है। 91. जितने काल तक वह दोष से विरत नहीं होता, उतने समय तक वह काल से अनवस्थाप्य है। तीर्थंकर आदि की आशातना करने वाला जघन्यतः छह मास और उत्कृष्टतः एक वर्ष तक तप से अनवस्थाप्य होता है। 92. प्रतिसेवना करने वाला जघन्यतः एक वर्ष और उत्कृष्टतः बारह वर्ष तक तप से अनवस्थाप्य होता है। कारण होने पर न्यून और न्यूनतर भी वहन करता है अथवा सारे प्रायश्चित्त से मुक्त भी किया जा सकता है। 93. अनवस्थाप्य तप वहन करने वाला स्वयं वंदन करता है लेकिन उसको कोई वंदना नहीं करता, वह दुष्कर परिहार तप का पालन करता है। उसके साथ संवास कल्प्य है लेकिन आलाप आदि पद वर्ण्य हैं। 2424, 2425. जो स्वपक्ष या परपक्ष में चोरी आदि दोषों से विरत नहीं होते अथवा हस्तताल आदि पदों से अविरत रहते हैं, जो अवसन्न आदि हैं, दोषों से अनुपरत हैं तथा द्रव्यलिंग युक्त हैं, उन्हें भावलिंग से अनवस्थाप्य करना चाहिए। 2426. काल से जितने समय तक दोष से उपरत नहीं होता, उतने काल तक अनवस्थाप्य किया जाता है। 2427. तप अनवस्थाप्य दो प्रकार का होता है-आशातना अनवस्थाप्य और प्रतिसेवना,अनवस्थाप्य। दोनों के दो-दो भेद होते हैं -जघन्य और उत्कृष्ट। 2428. आशातना से सम्बन्धित तप अनवस्थाप्य का समय जघन्य छह मास तथा उत्कृष्ट एक वर्ष होता है। वह किसकी आशातना करता है? भाष्यकार कहते हैं कि तीर्थंकर से लेकर महर्धिक आदि की आशातना करता है। 2429. प्रतिसेवी अनवस्थाप्य का जघन्य समय एक वर्ष तथा उत्कृष्ट बारह वर्ष होता है / शिष्य जिज्ञासा करता है कि वह किसकी प्रतिसेवना करता है? आचार्य उत्तर देते हैं कि वह साधर्मिक स्तैन्य, अन्य धार्मिक स्तैन्य आदि सब पदों की प्रतिसेवना करता है। 2430. कारण आदि पदों का वर्णन पहले कर दिया, अब परिहार -तप के बारे में कहूंगा। वंदन आदि परिहरणीय पदों को मैं संक्षेप में कहूंगा। 2431. परिहरण को परिहार कहते हैं। अनवस्थाप्य में आलापन आदि दस पदों का परिहार किया जाता है, वह शैक्ष आदि को वंदना करता है पर वह स्वयं वंदनीय नहीं होता। 1. व्यवहारभाष्य के अनुसार पांच अहोरात्र यावत् भिन्नमास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना करने पर परिहारतप प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता, किन्तु मास, दो मास आदि स्थानों में यह प्रायश्चित्त दिया जाता है। . 1. व्यभा 598 मटी प.४६ / Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-९३ 509 2432. किन गुणों से युक्त को अनवस्थाप्य किया जाता है, उसे तुम सुनो। जो संहनन, वीर्य, आगम के सूत्रार्थ और धृति से युक्त होता है, उसे अनवस्थाप्य प्राप्त होता है। 2433. प्रथम तीन संहनन, निद्राविजय को छोड़कर सभी गुणों से युक्त साधु, जिसे अनवस्थाप्य प्राप्त हो या पाराञ्चित, उसे सर्व तप दिया जाता है। 2434. नौ और दश पूर्वो के अर्थ का ज्ञाता, उद्गम दोष से रहित, धृतियुक्त, कृतयोगी तथा शुभ परिणामों से युक्त-इन गुणों से युक्त साधु को अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2435. इन गुणों से युक्त साधु की यदि चारित्रश्रेणी नष्ट या भग्न हो जाती है तो वह पुरानी गुणश्रेणी को पूर्णतः भर देता है। मुनि गण में ही बारह वर्ष तक विहरण करता है। 2437. उसके द्वारा परिहारतप को स्वीकार करने के समय सम्पूर्ण संघ को कायोत्सर्ग करना चाहिए। संघाटक साधु उसके भयभीत मन को स्थापित करते हैं, आश्वस्त करते हैं और उसके मन को समर्थ बनाते 2438. कायोत्सर्ग क्यों किया जाता है? यह बात शैक्ष को ज्ञान कराने के लिए कही जा रही है। शेष १.परिहार तप स्वीकार करने वाले साधु की योग्यता के प्रसंग में व्यवहार भाष्य में शिष्य गुरु से प्रश्न पूछता है कि परिहारतप स्वीकार करने वाले साधु में इन गुणों का होना क्यों आवश्यक है? इन गुणों से विहीन को परिहार क्यों नहीं दिया जाता? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य दो प्रकार के मंडपों का दृष्टान्त देते हुए कहते हैं कि पत्थर के मंडप पर जो कुछ डाला जाता है, वह उसको धारण कर लेता है, भग्न नहीं होता लेकिन एरण्ड मंडप में ऐसा नहीं होता। इसी प्रकार जो धृति और संहनन से बलशाली है, गीतार्थ आदि गुणों से युक्त है, उसे ही परिहारतप दिया जाता है। १.व्यभा 541, 542 / २.जीतकल्प भाष्य में नौ और दश पूर्व के ज्ञाता का उल्लेख है लेकिन निशीथ भाष्य में इसका स्पष्टीकरण मिलता है। वह जघन्यतः नौवें पूर्व की तृतीय आचारवस्तु तथा उत्कृष्टत: कुछ कम दश पूर्व का ज्ञाता होना चाहिए। संघ में ज्ञान की परम्परा अविच्छिन्न रखने के लिए सम्पूर्ण दशपूर्वी को अनवस्थाप्य रूप परिहारतप नहीं दिया जाता। यह परिहार तप स्वीकार करने वाले के सूत्रार्थ का प्रमाण है।' 1. निभा 2873 पृ. 63, 64 / 3. सम्पूर्ण संघ निरुपसर्ग के लिए तथा दूसरों में भय पैदा करने के लिए कायोत्सर्ग करता है। निशीथ चूर्णिकार ने इस संदर्भ में विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है। द्रव्य से वट आदि क्षीरवृक्ष के नीचे, क्षेत्रतः जिनगृह, कालतः प्रशस्त छह मास का परिहार तप स्वीकार किया जाता है। १.निचू 3 पृ.६५ सो य दव्वओ वडमादिखीररुक्खे,खेत्तओजिणघरादिसु, कालओ पुव्वसूरे पसत्थादिदिणेसु य, भावतो चंदताराबलेसु, तस्सप्पणो गुरुणो य साहए सुपडिवत्ती भवति। Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510 जीतकल्प सभाष्य साधुओं के मन में भय पैदा करने के लिए तथा परिहार तप की निर्विघ्न समाप्ति के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है। 2439. जब तक यह परिहारकल्प समाप्त न हो, तब तक मैं तुम्हारे लिए कल्पस्थित' (आचार्य) हूं। यह गीतार्थ मुनि अनुपारिहारिक' है। अनुपारिहारिक पूर्व में पारिहारिक तप स्वीकार करने वाला होना चाहिए उसके अभाव में दृढ़ संहनन वाले किसी गीतार्थ मुनि को अनुपारिहारिक स्थापित किया जाता है। 2440. आचार्य सब साधुओं को कहते हैं कि यह परिहार तप स्वीकार कर रहा है। अब यह किसी के साथ आलाप आदि नहीं करेगा। तुम भी इसके साथ आलाप आदि मत करना। आत्मचिंतन में लीन इस मुनि को तुम लोग कोई व्याघात पैदा मत करना। 2441. निम्न दस स्थानों से गच्छ उसका परिहार करता है तथा वह गच्छ का परिहार करता है। परिहार न करने पर प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2442. परिहार के दस स्थान इस प्रकार हैं-१. आलापन 2. प्रतिपृच्छा 3. परिवर्तना-पूर्व अधीत की परावर्तना 4. उत्थान 5. वंदना ६.मात्रक लाकर देना 7. प्रतिलेखन ८.संघाटक रूप में उसके र 1. आचार्य अथवा आचार्य के द्वारा नियुक्त नियमत: गीतार्थ साधु, जो आचार्यों के समान व्यवहार करता है, वह कल्पस्थित कहलाता है। १.निचू भा.३ पृ.६५;आयरिओ आयरियणिउत्तो वा णियमा गीतत्थो तस्स आयरियाण पदाणुपालगो कम्पट्टितो भण्णति। 2. पारिहारिक के चलने पर सर्वत्र जो उसका अनुगमन करता है, वह अनुपारिहारिक कहलाता है। अनुपारिहारिक भी नियमत: गीतार्थ होता है। पारिहारिक भिक्षार्थ जाता है तो अनुपारिहारिक श्वान आदि से उसकी रक्षा करता है। यदि वह उपकरण आदि उठाने में समर्थ नहीं है तो अनुपारिहारिक उसकी प्रतिलेखना आदि भी कर देता है। बृहत्कल्प भाष्य में इस प्रसंग की विस्तार से चर्चा है। सामान्यतः अनुपारिहारिक पारिहारिक को भक्त पान आदि लाकर नहीं देते हैं, न ही आलापन आदि करते हैं लेकिन कारण होने पर गोदृष्टान्त की भांति उसका सहयोग करते हैं। जैसे नवप्रसूता गाय उठने-बैठने में समर्थ नहीं रहती, उस समय ग्वाला गाय को उठाकर चरने के लिए अरण्य में ले जाता है। जो चलने में समर्थ नहीं होती, उसके लिए घर पर चारा लाकर देता है। इसी प्रकार पारिहारिक भी उत्थान आदि करने में समर्थ नहीं होता तो अनुपारिहारिक सारा कार्य करता है। १.निचू भा. 3 पृ.६५ ; परिहारियं गच्छंतं सव्वत्थ अणुगच्छति जो सो अणुपरिहारितो, सो वि णियमा गीयत्थो। 2. बृभा 5607 टी. पृ. 1484 / 3. परिहारकल्प करने वाला एक क्षेत्र, एक उपाश्रय में एक साथ रह सकता है पर आलापन आदि दश पदों का परिहार करता है। बिना कारण आलापन आदि करने पर दोनों को आज्ञा-भंग आदि दोष लगते हैं। कोई देवता प्रमत्त मुनि को छल सकता है। कोई साधु सजग करता है कि तुम लोग आलाप आदि क्यों कर रहे हो तो ऐसा कहने पर कलह की संभावना रहती है। १.बृभा५६०१ कुव्वंताणेयाणि उ, आणादि विराहणा दुवेण्हं पि।देवय पमत्त छलणा, अधिगरणादी य उदितम्मि।। Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-९३ 511 9. भक्तपान देना १०.साथ में भोजन करना आदि। इन दस स्थानों से गच्छ उसका और वह गच्छगत साधुओं का परिहार करता है। 2443. आलापन से संघाटक तक आठ पदों का व्यवहार करने पर गच्छ के साधु को लघुमास, भक्तपान देने पर चतुर्लघु तथा साथ में भोजन करने पर चार अनुद्घात मास (गुरुमास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2444. आलापन से संघाटक तक आठ पदों का व्यवहार करने पर पारिहारिक को गुरुमास, भक्तपान देने तथा साथ में आहार करने पर चार अनुद्घात मास (गुरुमास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2445. यदि पारिहारिक कृतिकर्म करता है तो गुरु उसे स्वीकार करते हैं। उसे परिज्ञा–प्रत्याख्यान करवाते हैं। सूत्रार्थ विषयक पूछने पर गुरु उसका उत्तर देते हैं। वह पारिहारिक भी गुरु के आने पर खड़ा होता है। गरु यदि शारीरिक स्वास्थ्य के बारे में पछते हैं तो वह उस सम्बन्ध में बताता है। 2446-49. इस प्रकार पारिहारिक की स्थापना करने पर यदि किसी को यह भय हो जाए कि मैं अकेला इतना समय कैसे व्यतीत करूंगा? तो आचार्य उसे आश्वस्त करते हैं किं तुम डरो मत तुम्हारे पास यह अनुपारिहारिक है, कल्पस्थित है। जो कुछ पूछना है, वह मुझसे पूछो। तुम अनुपारिहारिक के साथ भिक्षार्थ भ्रमण करना। इस प्रकार कहकर उसको आश्वस्त करके भय से उपरत करते हैं। वे उसको कैसे आश्वासन देते हैं, उसे तुम सुनो। 2450, 2451. जैसे कोई व्यक्ति कुएं में गिर जाए, उस समय (तटस्थ व्यक्ति) कोई यह कहे कि हा! यह मरकर बचा है तो वह भय से अंगों को ढीला छोड़ देता है, जिससे वह मर जाता है। यदि कोई ऐसा कहे कि तुम डरो मत। तुम्हारे लिए रस्सी लाई गई है, उससे तुम्हें कुएं से बाहर निकाल दिया जाएगा तो यह सुनकर वह आश्वस्त हो जाता है। 2452-54. इसी प्रकार नदी में डूबने पर तथा किसी व्यक्ति पर राजा के रुष्ट होने पर यदि उसको यह कहा जाता है कि तुम नष्ट हो गए हो तो वह उद्विग्न हो जाता है। यदि यह कहा जाता है कि तुम डरो मत। राजा इस असमीक्षित कार्य के लिए कुछ भी नहीं करेगा, वह मुक्त कर देगा। इस प्रकार आश्वासन देने पर वह आश्वस्त हो जाता है। इसी प्रकार पारिहारिक को आश्वस्त करने पर वह उग्र तपःकर्म का वहन कर लेता है। 2455, 2456. उग्र तप से जब पारिहारिक कृश और दुर्बल शरीर वाला हो जाता है, उत्थान आदि करने में समर्थ नहीं रहता, तब वह अनुपारिहारिक को कहता है कि उठो, बैठो, भिक्षा करो, भंडक की प्रतिलेखना करो तो वह मौन भाव से कुपित प्रिय बंधु की भांति सारी क्रियाएं सम्पन्न करता है। 2457. अपवाद स्थान में अन्य गण से आया हुआ साधु अजानकारी में उसे वंदना कर लेता है। 1. जीतकल्प के भाष्यकार ने नदी के दृष्टान्त की पूरी व्याख्या नहीं की है। निशीथ चूर्णि में इसकी व्याख्या मिलती है। नदी में डूबने वाले को यदि यह कहा जाता है कि तुम तट का आलम्बन लेने का प्रयत्न करो, यह तैराक व्यक्ति दृति आदि लेकर तुमको नदी से पार उतार देगा तो वह भयमुक्त होकर आश्वस्त हो जाता है। 1. निचू भा. 3 पृ.६५। Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 जीतकल्प सभाष्य अनुपारिहारिक और आचार्य के ग्लान होने पर गच्छगत साधु सारा कार्य यतनापूर्वक करते हैं।' 2458. गच्छ के साधु भक्तपान आदि लाकर गुरु को सौंपते हैं। गुरु अनुपारिहारिक को तथा अनुपारिहारिक पारिहारिक को देते हैं, यह यतना है। 2459. गुरु के एकाकी होने पर या अन्य साधु के न होने पर आगाढ़ स्थिति में वह भी उसकी सेवा करता है। 2460. परिहार तप पूर्ण होने पर, कुलादि के कार्य से निवृत्त होने पर उसकी उपस्थापना होती है। कुछ आचार्य ऐसा मानते हैं कि गृहस्थ वेश करके उसका उपस्थापन होता है। 2461. गृहस्थ वेश किए बिना उपस्थापना करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। आज्ञा आदि दोष होते हैं अथवा निम्न दोष होते हैं२४६२. स्नान आदि का वर्जन करके वेश मात्र पहनाना अच्छा है, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। दूसरे आचार्य कहते हैं कि मात्र वस्त्रयुगल पहनाना पर्याप्त है। वह परिषद् के मध्य आकर कहता है कि मैं धर्म सुनना चाहता हूं। आचार्य उसे धर्म कहते हैं फिर उसकी दीक्षा होती है। 2463. शिष्य प्रश्न पूछता है कि उसको गृहस्थ वेश क्यों दिया जाता है? वस्त्र मात्र पहनाना क्यों श्रेष्ठ है? युगलवस्त्र क्यों पहनाया जाता है? परिषद् के मध्य क्यों रखा जाता है? उसको धर्म क्यों कहा जाता है? 2464. आचार्य उत्तर देते हैं कि तिरस्कार करने पर वह पुनः वैसा अतिचार सेवन नहीं करता। शैक्ष मुनियों के मन में भी भय पैदा हो जाता है। गृहस्थभूत होना धर्म से रहित होना है अतः यह रूप किया जाता है। 94. तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर और महर्धिक की बार-बार आशातना करते हुए मुनि 1. यतना कैसे करनी चाहिए, इसकी निशीथ चूर्णिकार ने विस्तार से व्याख्या की है। चूर्णिकार ने 'उभयगेलण्ण' की व्याख्या में कल्पस्थित, पारिहारिक और अनुपारिहारिक-इन तीनों के ग्लानत्व को स्वीकार किया है। ऐसी स्थिति में गच्छगत साधु पारिहारिक के पात्र में भिक्षा लाकर कल्पस्थित को देते हैं। कल्पस्थित वह भिक्षापात्र अनुपारिहारिक को देता है, वह उसे पारिहारिक को देता है। यदि गच्छवासी साधुओं के द्वारा देने पर भी कल्पस्थित और अनुपारिहारिक वहां नहीं जाते हैं तो साधु स्वयं पारिहारिक को वह भिक्षा-पात्र दे देते हैं। संघगत साधुओं के ग्लान होने पर पारिहारिक गच्छवासी साधुओं के पात्र में आहार लाकर अनुपारिहारिक को देता है। अनुपारिहारिक कल्पस्थित को देता है फिर वह गच्छवासी साधुओं को वह आहार देता है। यदि आचार्य की सेवा करने वाला कोई साधु नहीं होता तो पारिहारिक यतनापूर्वक सेवा करता है। वह आचार्य के पात्र में भिक्षा लाकर अनुपारिहारिक को देता है। अनुपारिहारिक कल्पस्थित को देता है तथा वह उस आहार को संघ के आचार्य को देता है। 1. निचू भा. 3 पृ.६७। 2. मलयगिरि ने व्यवहारभाष्य की टीका में 'अपरे' शब्द से दाक्षिणात्य आचार्य का संकेत दिया है। १.व्यभा 1207 मटी प.५२; अपरे दाक्षिणात्या : पुनरेवमाहुर्वस्त्रयुगलमात्रं परिधाप्यते। 3. व्यवहारभाष्य (1210) में गृहस्थीभत किए बिना उपस्थापना करने के निम्न कारण बताए हैं-१. राजा की आज्ञा से। 2. स्वगण के प्रदुष्ट हो जाने पर। 3. बलात् दूसरों द्वारा मुक्त कराने की स्थिति में। 4. इच्छापूर्ति के लिए। 5. दो गणों में विवाद होने पर। Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-९४,९५ 513 को अभिनिवेश के कारण पाराञ्चित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2465, 2466. वह आशातना कैसे करता है? आचार्य उत्तर देते हैं कि वह उनका अवर्णवाद बोलता है। पुनः शिष्य प्रश्न करता है कि वह किस रूप में अवर्णवाद करता है? आचार्य कहते हैं कि तुम सुनो, वह किस रूप में अवर्णवाद बोलता है * प्राभृतिका'-देवरचित समवसरण, महाप्रातिहार्य, पूजा आदि कार्य का अर्हत् अनुमोदन करते हैं। * जानते हुए भी अर्हत् भोगों को क्यों भोगते हैं? * स्त्री तीर्थंकर होती है, यह अयुक्त है। * तीर्थंकरों ने अत्यन्त कठोर चर्या का उपदेश दिया है। 2467, 2468. इस प्रकार तथा अन्य प्रकार से भी तीर्थंकर का अवर्णवाद बोलता है। वह त्रिलोक पूजित तीर्थंकरों की प्रतिमा की निंदा करता हुआ कहता है कि प्रतिमा को माल्य, अलंकार आदि से क्यों विभूषित किया जाता है? वंदन, स्तुति आदि प्रतिरूप विनय को समीचीन रूप से नहीं करता, यह तीर्थंकरों की आशातना है। 2469. जो आक्रोश तथा तर्जना से संघ पर आक्षेप करता है, वह संघ प्रत्यनीक होता है। वह कहता है कि सियार, णंतिक्क और ढंक आदि के भी संघ होते हैं, यह संघ भी वैसा ही है। 2470. आगमों में षट्काय, व्रत, प्रमाद और अप्रमाद के वे ही स्थान हैं। इनका बार-बार वर्णन है, यह उचित नहीं है। मोक्षाधिकारी मुनियों को ज्योतिष्-विद्या से क्या प्रयोजन? (यह श्रुत की आशातना है।) 2471. आचार्य ऋद्धि, रस, साता से भारी होते हैं। ये मंखों की भांति परोपदेश में उद्यत रहते हैं तथा ब्राह्मणों की भांति अपने पोषण में रत रहते हैं। (यह आचार्य की आशातना है।) 2472. ये आचार्य दूसरों को अभ्युद्यत विहार की देशना देते हैं किन्तु स्वयं इसमें उदासीन रहते हैं। ये ऋद्धियों के आधार पर जीते हैं, फिर भी कहते हैं कि हम नि:संग हैं। 2473. गणधर ही महर्धिक होते हैं अथवा महातपस्वी, वादी आदि महर्धिक माने जाते हैं। तीर्थंकर के प्रथम शिष्य गणधर होते हैं। 'आदि' शब्द के ग्रहण से अन्य महर्धिक भी गृहीत होते हैं। 2474. आशातना दो प्रकार की होती है-देश और सर्व। देशतः आशातना करना देश आशातना है। आचार्य आदि सबकी एकदेशीय आशातना अथवा सबकी सर्वतः आशातना करना सर्व आशातना है। 2475. तीर्थंकर तथा संघ की देशतः अथवा सर्वतः आशातना करने वाला पाराञ्चित प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है। शेष की देशतः आशातना करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2476. सबकी आशातना करता हुआ पाराञ्चित प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है। यहां पर देशतः आशातना करने वाला सचारित्री तथा सर्वतः आशातना करने वाला अचारित्री होता है। 2477. तीर्थंकर के प्रथम शिष्य गणधरों में एक की भी आशातना करने वाले को पाराञ्चित प्रायश्चित्त 1. प्राभृतिका का अर्थ है-देव विरचित समवसरण में महाप्रातिहार्य की पूजा। Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514 जीतकल्प सभाष्य प्राप्त होता है क्योंकि जिनेन्द्र तो केवल अर्थ की देशना देते हैं, गणधरों से सूत्र की उत्पत्ति होती है। 2478. आशातना के द्वारा पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त करने वाले का मैंने संक्षेप में वर्णन किया, अब प्रतिसेवना पाराञ्चित का संक्षेप में वर्णन करूंगा। 95. जो कषाय और विषय के कारण स्वलिंग में दुष्ट होता है, राजा का वध तथा उसकी पटरानी के साथ प्रतिसेवना करता है, उसकी प्रतिसेवना लोगों में प्रकाशित होती है तो वह प्रतिसेवना पारांचित है। 2479. सूत्र में दुष्ट, प्रमत्त आदि तीन प्रकार के प्रतिसेवना पारांचित वर्णित हैं, उनका मैं संक्षेप में वर्णन करूंगा। 2480. दुष्ट पारांचित, प्रमत्त पारांचित और अन्योन्य प्रतिसेवना प्रसक्त-इन तीनों का विस्तार से यथाक्रम वर्णन करूंगा। 2481. दुष्ट पारांचित दो प्रकार का होता है-कषाय दुष्ट और विषय दुष्ट। कषाय दुष्ट दो प्रकार का होता है-स्वपक्ष दुष्ट और परपक्ष दुष्ट। यहां स्वपक्ष और परपक्ष दुष्ट की चतुर्भंगी है। 2482. सरसों की भाजी, मुखवस्त्रिका, उलूकाक्ष, शिखरिणी-ये चार दृष्टान्त स्वपक्ष कषायदुष्ट के हैं। इनकी प्ररूपणा इस प्रकार है। 2483. सरसों की भाजी प्राप्त करके शिष्य ने गुरु को निमंत्रित किया। गुरु ने सारी भाजी खा ली। शिष्य कुपित हो गया। गुरु ने क्षमायाचना की पर वह उपशान्त नहीं हुआ, तब गुरु ने उस गण में अन्य को आचार्य स्थापित करके स्वयं अन्य गच्छ में जाकर भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया। ' 2484. दुष्ट शिष्य ने गुरु के बारे में पूछा लेकिन किसी ने गुरु के बारे में नहीं बताया। किसी दूसरे से उसने पूछा कि गुरु ने शरीर कहां त्यागा है? गुरु ने पहले ही कह दिया था कि उस दुष्ट शिष्य को मेरे बारे में मत बताना अतः किसी ने नहीं बताया। अंत में वह जानकारी प्राप्त कर गुरु के परिष्ठापित शरीर के पास पहुंचा और उनके दांतों को तोड़ दिया। 2485, 2486. शिष्य उत्कृष्ट मुखवस्त्रिका लेकर आया। गुरु को दिखाने पर गुरु ने वह ले ली। रुष्ट होकर उसने रात्रि में प्रसुप्त गुरु का गला पकड़ लिया। सम्मूढ़ होकर गुरु ने भी उसका गला पकड़ लिया। वे दोनों कालधर्म को प्राप्त हो गए। 2487, 2488. सूर्यास्त होने पर भी तुम सिलाई कर रहे हो अत: तुम उल्लू के समान आंखों वाले हो। गुरु के द्वारा ऐसा कहने पर वह रुष्ट होकर बोला -'मैं तुम्हारी आंखों को उखाड़ दूंगा।' क्षमा मांगने पर भी * स्वपक्ष में स्वपक्ष दुष्ट। * स्वपक्ष में परपक्ष दुष्ट / * परपक्ष में स्वपक्ष दुष्ट। * परपक्ष में परपक्ष दुष्ट / इन चारों चतुर्भंगियों के उदाहरण निशीथभाष्य एवं पंचकल्पाष्य में मिलते हैं। देखें निभा 3688-90, पंकभा 458-60 / 2, 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 59, 60 / Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-९५ 515 उसका क्रोध उपशान्त नहीं हुआ। गुरु ने अन्य को आचार्य स्थापित करके स्वयं अन्य गण में भक्तपरिज्ञा अनशन स्वीकृत कर लिया। शेष प्रथम आख्यान की भांति जानना चाहिए। मृत्यु के पश्चात् उसने यह कहकर दोनों आंखें निकाल ली कि तुमने मुझे उलूकाक्ष कहा था। 2489. एक शिष्य ने शिखरिणी-श्रीखण्ड के लिए गुरु को निमंत्रित किया। गुरु ने सारी शिखरिणी खा ली। शिष्य ने डंडा उठाया। उसी प्रकार गुरु ने अन्य गण में न जाकर वहीं भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया। 2490. इन दोषों के कारण गुरु को अज्ञात आचार और शील वाले अकेले शिष्य का सारा आहार आदि ग्रहण नहीं करना चाहिए। 2491. ग्रहण करने की विधि यह है कि यदि सब शिष्य मात्रक ग्रहण करके गुरु को निमंत्रित करें तो गुरु कहे कि मुझे इतना पर्याप्त है। 2492. आग्रह करने पर वह थोड़ा-थोड़ा सबसे ग्रहण करे, न कि एक से सारा ग्रहण करे। दूसरे विकल्प के अनुसार एक शिष्य से भी गुरु आहार ग्रहण कर सकते हैं। 2493. जो गुरु के प्रति भक्ति रखता है, उनके मनोनुकूल है, गुरु के प्रायोग्य आहार को निश्रागृहों अथवा अनिश्रागृहों से ग्रहण करता है, उसी से गुरु को भक्तपान ग्रहण करना चाहिए, दूसरों से नहीं। एक के द्वारा पर्याप्त प्राप्त न होने पर गुरु थोड़ा-थोड़ा सभी से ग्रहण करे। 2494. लाभ होने पर भी आचार्य दूसरे साधुओं का आग्रह देखकर उनका लाया हुआ आहार ग्रहण करे। ग्रहण करने के पश्चात पीछे अवशिष्ट छोडे क्योंकि वे जानते हैं कि कौन उपचार से कह रहा है और कौन भावना से। 2495. गुरु के द्वारा भोजन करने पर जो अवशेष बचता है, वह बाल मुनियों को दिया जाता है, उनके . अभाव में उसे मंडलि-पात्र में डाल दिया जाता है। जो अन्य मात्रक में ग्लान के खाने पर बचा है, वह भी मंडलि-पात्र में डाल दिया जाता है। 2496. गुरु के अतिरिक्त शेष साधुओं का अवशिष्ट भक्तपान मंडलि-पात्र में नहीं डाला जाता। जो भक्तपान ग्लान आदि के लिए पृथक्-पृथक् गृहीत है, उनमें से बचा हुआ आहार मंडलि-पात्र में डाला जाता है। याचना से प्राप्त भक्तपान को मंडलि-पात्र में नहीं डाला जाता। 2497. अतिथि साधुओं के लिए अथवा ग्लान के लिए लाया आहार यदि अधिक हो जाए तो उसे परिष्ठापित कर दिया जाता है। यह ग्रहण और भोजन की विधि है। अविधि ग्रहण के ये दोष हैं - 2498. सरसों की भाजी आदि स्वपक्ष दुष्ट के उदाहरण हैं। परपक्ष में स्वपक्ष के अन्तर्गत उदायी मारक साधु का उदाहरण है। स्वपक्ष में परपक्ष के अन्तर्गत पालक मंत्री का उदाहरण ज्ञातव्य है। 1-3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2. कथा सं.६१-६३। Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 516 जीतकल्प सभाष्य 2499. पालक पुरोहित ने स्कंदक प्रमुख पांच सौ शिष्यों को पूर्व विराधना के कारण यंत्र में पील दिया।' 2500. मुनि सुव्रतस्वामी के तीर्थ में स्कंदक ने पालक को पहले वाद में पराजित किया था। उस समय वह प्रद्वेष को प्राप्त हो गया था। 2501. परपक्ष में परपक्ष के अन्तर्गत चार प्रकार के दुष्ट होते हैं -1. राजा 2. अभिमर 3. वधपरिणत 4. और वधक। 2502. इन चारों के प्रायश्चित्तों को मैं यथाविधि कहूंगा। सरसों की भाजी आदि से सम्बन्धित दुष्टता में साधु का लिंग-परित्याग किया जाता है। 2503. जो साधु स्वपक्ष में राजा आदि के वध में परिणत या वधक है, उसे लिंग पाराञ्चित दिया जाता है। जो उसकी अनुमोदना करता है, वह भी लिंग पारांचिक है। 2504. जो श्रावक या अश्रावक परपक्ष या स्वपक्ष में दुष्ट है, उसके लिए लिंग निषिद्ध है। अतिशयधारी उसे लिंग दे सकते हैं। 2505. परपक्ष में परपक्ष-राजा आदि के प्रति कोई प्रदुष्ट हो जाए तो उसे उस देश में दीक्षित करना कल्पनीय नहीं होता। अन्य देश में उपशान्त होने पर दीक्षित करना कल्पता है। 2506. यह कषायदुष्ट का वर्णन है, अब मैं विषयदुष्ट के बारे में कहूंगा। उसकी भी स्वपक्ष और परपक्ष से चतुर्भंगी होती है। 2507. संयत यदि तरुणी संयती में आसक्त है, यह प्रथम भंग है। संयत शय्यातर की लड़की या परतीर्थिक साध्वी में आसक्त है, यह दूसरा भंग है। गृहस्थ तरुणी साध्वी में आसक्त है, यह तीसरा भंग है तथा एक गृहस्थ गृहस्थ स्त्री में आसक्त है, यह चौथा भंग है। 2508. यदि रजोहरण आदि लिंग से युक्त संयमी लिंग युक्त साध्वी के साथ प्रतिसेवना करता है तो वह पापी साधु नरक आयुष्य का बंध करता है तथा आशातना से उसे अबोधि की प्राप्ति होती है। 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.६४।। २.बृहत्कल्पभाष्य में इस संदर्भ में एक अपवाद दिया गया है कि जो व्यक्ति राजा, युवराज अथवा सम्पन्न श्रेष्ठी आदि का वधक है, उसे उस देश में दीक्षा देना नहीं कल्पता किन्तु अन्य देश में अज्ञात स्थिति में दीक्षा देना कल्प्य है। १.बुभा 4996 ; रन्नो जुवरन्नो वा, वधतो अहवा वि इस्सरादीणं।सो उसदेसिण कप्पड़,कप्पति अण्णम्मि अण्णाओ।। 3. इसकी चतुर्भंगी इस प्रकार बनेगी• स्वलिंगी साधु की स्वलिंगी साध्वी के साथ प्रतिसेवना। * स्वलिंगी साधु की गृहस्थ स्त्री के साथ प्रतिसेवना। * स्वलिंगी साधु की अन्यलिंगी परिव्राजिका के साथ प्रतिसेवना। * अन्यलिंगी साधु की अन्यलिंगी साध्वी के साथ प्रतिसेवना। इसमें चौथा भंग शन्य है। Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-९५,९६ 517 2509. यदि रजोहरण आदि लिंग से युक्त संयमी लिंग युक्त साध्वी के साथ प्रतिसेवना करता है तो वह पापी साधु सभी तीर्थंकरों की आर्याओं तथा संघ की आशातना करता है। 2510. वह सभी पापियों में पापतर होता है। वैसे साधु को देखकर उसके साथ किसी प्रकार का व्यवहार नहीं करना चाहिए जो जिनपुंगवमुद्रा-श्रमणी को नमन करके उसी को भ्रष्ट करता है। 2511. जिनमुद्रा के तिरस्कार से वह जन्म, जरा, मरण और वेदना से संकुल तथा पापमल के समूह से आच्छन्न इस अपार संसार में परिभ्रमण करता रहता है। 2512. यह प्रथम भंग (स्वपक्ष स्वपक्ष) है। इसमें पारांचित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। द्वितीय भंग में भी उपशान्त न होने पर चरम-पारांचित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2513. जिस क्षेत्र में दोष उत्पन्न होता है, उसको उसी क्षेत्र से पाराञ्चित कर दिया जाता है। वह दोष का सेवी या असेवी अथवा गीतार्थ या अगीतार्थ हो सकता है। 2514. जिस उपाश्रय, निवेशन' -गृह, वाटक, साही-गली, ग्राम, देश, राज्य, कुल, गण या संघ में दोष का सेवन करता है, वहां से निकालकर उसे पाराञ्चित कर दिया जाता है। (जो कुल, गण या संघ से अलग किया जाता है. वह क्रमश: कल पाराञ्चित. गण पाराञ्चित तथा संघ पाराञ्चित आदि कहलाता है।) 2515. शिष्य प्रश्न करता है कि साधक के उपशान्त हो जाने पर भी उन-उन स्थानों में विहार करने या जाने का निषेध क्यों किया गया है? आचार्य उत्तर देते हुए कहते हैं कि उस स्थान में जाने से पुनः वही दोष पुनरुक्त हो सकता है। 2516. जिन ग्राम या स्थानों में साध्वियां विहरण करती हैं, उन स्थानों में साधु को विहरण करने का वर्जन है। यह प्रथम भंग स्वपक्ष स्वपक्ष में दुष्ट की बात है। शेष द्वितीय आदि भंगों में भी वे स्थान वर्जनीय हैं। 2517. यह प्रथम भंग कषाय दुष्ट है। शेष द्वितीय आदि तीन भंग उच्चारित सदृश तथा शिष्य की मति को व्युत्पन्न करने के लिए हैं। 2518. यहां उभयदुष्ट (कषायदुष्ट और विषयदुष्ट) तथा राजवधक का वर्णन किया गया है। राजा की पटरानी का प्रतिसेवक इस प्रकार होता है। 2519. राजा की पटरानी अथवा जो जिसको इष्ट होती है, वह उसके लिए प्रधान होती है। अग्र और प्रधान-ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। 2520. राजा की पटरानी के साथ जो बार-बार प्रतिसेवना करता है तथा लोक में यह बात प्रकट हो जाती है तो अंतिम पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2521. सूत्र (95) में आए 'च' शब्द से अन्य युवराज आदि को जो इष्ट होती हैं, वह भी राज-पटरानी की भांति ज्ञातव्य हैं। १.दो गांवों के बीच दो या अनेक घर, जिनका प्रवेश और निर्गम का एक ही द्वार हो। १.बृभाटी पृ.१३३८ निवेशनम्-एकनिर्गमप्रवेशद्वारो द्वयोामयोरपान्तराले यादिगृहाणां सन्निवेशः। Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518 जीतकल्प सभाष्य 2522. शिष्य जिज्ञासा करता है कि अन्य महिलाओं के साथ प्रतिसेवना करने पर चरम-पाराञ्चित क्यों नहीं दिया जाता? आचार्य उत्तर देते हैं कि राजपत्नी के साथ प्रतिसेवना करने पर बहुत दोष होते हैं। अन्य महिलाओं के साथ प्रतिसेवना करने पर अपना ही अनिष्ट होता है। २५२३.राजा की अग्रमहिषी-पटरानी के साथ प्रतिसेवना करने पर कल, गण.संघ तथा स्वयं का विनाश आदि दोष होते हैं लेकिन सामान्य महिलाओं के साथ दोष सेवन करने पर मुनि के स्वयं का विनाश होता . है। 2524. व्रत का लोप और शरीर की हानि आदि दोष तो होते हैं लेकिन कुल, गण आदि का विनाश नहीं होता इसलिए अन्य महिलाओं के साथ प्रतिसेवना करने पर अंतिम प्रायश्चित्त -पाराञ्चित प्राप्त नहीं होता। 2525. यह दुष्ट से सम्बन्धित पाराञ्चित का वर्णन किया, अब मैं प्रमत्त के बारे में कहूंगा। वह पांच ... प्रकार का होता है-१. कषाय-कलुषता, 2. विकथा 3. मद्य 4. इंद्रिय और 5. निद्रा। 2526. क्रोध आदि चार कषाय, स्त्रीकथा-भक्तकथा आदि चार विकथाएं, पूर्वाभ्यास के कारण मद्यसेवन तथा श्रोत्र आदि इन्द्रियों के शब्द आदि इंद्रिय-विषय हैं। 2527. स्त्यानर्द्धि निद्रा के ये उदाहरण हैं -1. पुद्गल-मांस 2. मोदक 3. कुम्भकार 4. दांत 5 वटवृक्ष शाखा का भंजक। मैं इन सबका विस्तार कहूंगा। 96. स्त्यानर्द्धि निद्रा महान् दोष से युक्त है। परस्पर प्रतिसेवना में आसक्ति भी दोष-बहुल है। जो व्यक्ति बार-बार इसमें प्रसक्त होता है, उसको अंतिम पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2528. जमे हुए पानी (बर्फ) और घी में कुछ भी दिखाई नहीं देता। इद्ध शब्द का अर्थ है चित्त, जिस निद्रा में चित्त प्रगाढ़ मूर्छा से जड़ीभूत हो जाता है, कुछ ज्ञान (भाव) नहीं रहता, वह स्त्यानर्द्धि निद्रा' है। 2529. गृहस्थ जीवन में कोई साधु मांसभक्षी था। एक बार महिष को काटते देखकर उसे मांस खाने की इच्छा हो गई। वह रात्रि में वहां गया और एक अन्य महिष को मारकर उसका मांस खाने लगा। वह शेष बचा मांस उपाश्रय में ले गया। यह सारा कार्य उसने स्त्यानर्द्धि निद्रा में सम्पन्न किया। 2530. भिक्षा में मोदक भक्त न मिलने पर घर के कपाट तोड़कर वह रात्रि में मोदक खाने लगा। शेष 1. सामान्य महिलाओं के साथ दोष सेवन करने पर मल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2. स्त्यानर्द्धि निद्रा में प्रमत्त साधु दिन में देखे कार्य को रात्रि में उठकर करता है। यह निद्रा प्रथम संहनन वालों के होती है। आचार्य अभयदेवसूरि ने थीणगिद्धी या थीणद्धि के दो संस्कृत रूप किए हैं-१. स्त्यानर्द्धि 2. स्त्यान- . गद्धि / तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार इस निद्रा में विशेष शक्ति का आविर्भाव हो जाता है। इसकी प्राप्ति से जीव निद्रावस्था में ही अनेक रौद्र कर्म तथा बहविध क्रियाएं कर लेता है। गोम्मद्रसार के अनुसार स्त्यानगद्धि के उदय से जीव जागने के बाद भी सोता रहता है। १.तवा पृ.५७२; यत् सन्निधानाद्रौद्रकर्मकरणं बहुकर्मकरणं च भवति सा स्त्यानगृद्धिः। २.गोकर्म 23-25 / 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.६५ / Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-९६-१०० 519 मोदकों को पात्र में भरकर उपाश्रय में लेकर आ गया। प्राभातिक आवश्यक में उसने आलोचना की। 2531. एक कुम्भकार प्रव्रजित हुआ। पूर्वाभ्यास के कारण मृत्तिकापिण्ड के छेदन की भांति वह पास में सोए साधुओं के शिरों का छेदन करके एकान्त में रखने लगा। प्रात:काल उसने आलोचना की। 2532. एक साधु को मत्त हाथी ने उछाल दिया। रात्रि में स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदय से वह नगर के दरवाजे को तोड़कर हस्तिशाला में गया और वहां उस हाथी के दांत उखाड़कर उन्हें उपाश्रय के बाहर रखकर सो गया। प्रात:काल उसने गुरु के समक्ष इसकी आलोचना की। 2533. एक घुमक्कड़ साधु था। वटवृक्ष की शाखा से उसका शिर टकरा गया। कुछ आचार्य कहते हैं कि वह पूर्वभव में वनहस्ती था। वटवृक्ष की शाखा उखाड़कर उसकी शाखा तोड़कर उसे उपाश्रय में लाकर रख दिया। प्रातः उत्सर्ग-कायोत्सर्ग के समय उसने आलोचना की। 2534. स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदयकाल में उसमें वासुदेव से आधा बल आ जाता है। वह भविष्य में केवली होगा फिर भी अनतिशायी आचार्य उसे लिंग नहीं देते हैं। 2535. स्त्यानर्द्धि निद्रा ज्ञात होते ही आचार्य उसे कहते हैं कि तुम लिंग छोड़ दो क्योंकि तुम्हारे में चारित्र नहीं है। तुम अब देशव्रत या दर्शन-सम्यक्त्व को स्वीकार करो अथवा इच्छानुसार रमणीय वेश धारण करो। 2536. यदि वह लिंग उतारना नहीं चाहता तो संघ के सदस्य मिलकर उसके लिंग का हरण करते हैं। कोई अकेला साधु यह प्रयत्न नहीं करता। इसका कारण है कि उसका किसी से व्यक्तिगत प्रद्वेष न हो। शक्ति न होने पर संघ रात्रि में उसे अकेला सोया हुआ छोड़कर अन्य स्थान पर चला जाए। 2537. निद्राप्रमत्त लिंग पारांचित की व्याख्या सम्पन्न हुई। अब आपस में (गुदा द्वारा) संभोग करने वाले पारांचित को कहूंगा। 2538. सुविहित श्रमणों को परस्पर आपस में मुख और पायु-गुदा सेवन कल्प्य नहीं है। अन्योन्य करण किसे कहते हैं? उसे तुम सुनो। 2539. कुछ पुरुष द्विवेदक होते हैं, वे मुख और पायु-गुदा का सेवन करते हैं। उनका नियमतः लिंग परित्याग कर देना चाहिए। . 1-4. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.६६-६९ / चूर्णिकार के अनुसार वासुदेव से आधा बल प्राप्त होने वाली बात प्रथम संहनन की अपेक्षा से है। वर्तमान में इस निद्रा में सामान्य व्यक्ति से दुगुना, तिगुना अथवा चार गुना बल प्राप्त हो जाता है। १.निचू 1 पृ.५६। 6. अतिशायी मुनि या तीर्थकर उसे लिंग दे सकते हैं क्योंकि अतिशयज्ञानी यह जानते हैं कि इसको भविष्य में स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय नहीं होगा। बृहत्कल्प की टीका में द्विवेदक का अर्थ स्त्री-पुरुष वेद युक्त अर्थात् नपुंसकवेदी किया है।' १.बृभाटी पृ. 1342 ; द्विवेदकाः स्त्रीपुरुषवेदयुक्ता भवन्ति, नपुंसकवेदिन इत्यर्थः / Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520 जीतकल्प सभाष्य 2540. चरम शब्द अंतिम का वाचक है। पाराञ्चित प्रायश्चित्तार्ह अपराध करने पर पुनः-पुनः उसमें प्रसक्त होने पर उसे अंतिम पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2541. स्त्यानद्धि पारांचित आदि की शोधि को कहूंगा। लिंग पारांचित आदि की क्रमशः ये गाथाएं हैं९७. उसको लिंग, क्षेत्र, काल और तप से पारांचित किया जाता है। प्रकट रूप से प्रतिसेवना करने वाला तथा स्त्यानर्द्धि नींद वाला लिंग पाराञ्चित होता है। 98. वसति, निवेशन' -गृह, वाटक', साही-गली, नियोग, नगर, देश, राज्य, कुल, गण और संघ में जहां दोष से दूषित होता है, वहां से दूर करना क्षेत्र पाराञ्चित है। 99. जहां दोष उत्पन्न हुआ अथवा जहां दोष उत्पन्न होगा, यह जानकर उस-उस क्षेत्र से उसे दूर कर दिया जाता है, वह क्षेत्र पाराञ्चित है। 100. जितने काल का तप दिया जाता है, वह काल पाराञ्चित है। तप अनवस्थाप्य की भांति पाराञ्चित भी दो प्रकार का कहा गया है। 2542. आशातना और प्रतिसेवना अनवस्थाप्य में जितना काल है, पाराञ्चित में उत्कृष्ट और जघन्य उतना ही काल है। 2543. सामान्यतः तीन प्रकार के पाराञ्चित कहे गए हैं, इनमें जो विशेष है, उसको मैं कहूंगा। 2544. दुष्ट, प्रमत्त और अन्योन्य सेवन में प्रसक्त–इन तीनों के बारे में विशेष वर्णन को कहूंगा। 2545. इनमें जो स्वपक्ष और परपक्ष से विषयदुष्ट हैं, उसे क्षेत्र से पाराञ्चित किया जाता है, लिंग से नहीं। 2546. जो दोषों से अनुपरत होता है, उसे लिंग से पाराञ्चित कर दिया जाता है। शेष कषाय दुष्ट, प्रमत्त, अन्योन्यसेवी-ये नियमतः लिंग पाराञ्चित होते हैं। ये क्षेत्रतः और लिंग से पारांचित कहे गए हैं। 2547. शिष्य प्रश्न पूछता है कि पाराञ्चित के इतने ही भेद हैं या अन्य भी हैं? आचार्य उत्तर देते हैं कि अन्य भी भेद होते हैं। वे कैसे होते हैं? 2548. जो मुनि इंद्रिय-दोष और प्रमाद-दोष से उत्कृष्ट अपराध-पद को प्राप्त होता है। यदि वह सद्भाव समावृत अर्थात् पुनः ऐसा नहीं करूंगा, ऐसे निश्चय से युक्त हो जाता है और निम्न गुणों से युक्त होता है तो उस साधु को तप पाराञ्चित दिया जाता है। 2549-51. वज्रऋषभ संहनन से युक्त, धृति में वज्रकुड्य के समान, नवें पूर्व की तृतीय आचारवस्तु का १.जिस घर में निष्क्रमण और प्रवेश का एक ही द्वार हो, वह निवेशन कहलाता है। १.जीचूवि पृ.५८ निवेशनं एकनिष्क्रमणप्रवेशानि....गृहाणि। 2. ग्राम आदि से व्यवच्छिन्न सन्निवेश वाटक-पाटक कहलाता है। इसे मुहल्ला भी कहा जा सकता है।' १.जीचूवि पृ.५८ ; पाटको ग्रामादे र्व्यवच्छिन्नः सन्निवेशः। 3. दो साधुओं के द्वारा आपस में मुख और गुदा के द्वारा मैथुन सेवन करना। Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१०१ 521 सूत्र और अर्थ से अध्ययन करने वाला, लघुसिंहनिष्क्रीड़ित' आदि तप से भावित, इंद्रिय-विषय और कषाय का निग्रह करने में समर्थ, प्रवचन के सारभूत अर्थ को जानने वाला, निर्वृहित करने पर जिसके मन में तिल तुष मात्र भी अशुभ भाव न आए, वह नि!हण के योग्य होता है। इन गुणों से रहित शेष व्यक्ति नि!हण के योग्य नहीं होते। 2552. इन गुणों से युक्त साधु पाराञ्चित स्थान को प्राप्त करता है। इन गुणों से रहित साधु को पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। 2553. आशातना और प्रतिसेवना करता हुआ साधु पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। प्रत्येक के दोदो भेद होते हैं-जघन्य और उत्कृष्ट / 2554. आशातना पाराञ्चित जघन्यतः छह माह और उत्कृष्टतः बारह मास तक गच्छ से नियूंढ रहता है। प्रतिसेवना पाराञ्चित जघन्यतः एक वर्ष और उत्कृष्टतः बारह वर्ष तक संघ से निर्मूढ़ रहता है। कुल, गण आदि का कारण उपस्थित होने पर इसमें भजना है अर्थात् वह पहले भी गण में प्रवेश कर सकता है। 2555. यदि आचार्य हो तो वह अन्य शिष्य को इत्वरिक-कुछ समय के लिए गण में निक्षेप-गण का भार सौंपकर फिर अन्य गण में जाकर प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में आलोचना करके पाराञ्चित प्रायश्चित्त को स्वीकार करता है। 101. वह महान् शक्ति सम्पन्न एकाकी रूप से क्षेत्र के बाहर जाकर विपुल तप करता है। आचार्य उसका प्रतिदिन अवलोकन-देखभाल करते हैं। 2556. क्षेत्र के बाहर स्थित पाराञ्चित तप को वहन करने वाले का आचार्य नित्य अवलोकन और गवेषणा करते हैं, उस विधि को मैं कहूंगा। 1. यह तप सिंह की चाल से उपमित है। सिंह दो कदम आगे बढ़ता है फिर एक कदम पीछे रखता है फिर दो कदम आगे बढ़ता है। पूर्व पूर्व आचरित तप की पुनः आराधना करता हुआ साधक आगे बढ़ता है। इसमें न्यूनतम एक उपवास तथा अधिकतम नौ उपवास का तप किया जाता है, जैसे -उपवास के पारणे पर बेला, बेले के पारणे पर उपवास, उसके पारणे पर तेला फिर पारणे पर बेला। इस क्रम से नौ तक चढ़ा जाता है फिर उसी क्रम से उतरा जाता है। इस तप की एक परिपाटी में छह माह सात दिन लगते हैं। (विस्तार हेतु देखें श्रीभिक्षु आगम 2 पृ. 278) 2. बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार गण-निर्गमन रूप पाराञ्चित तप प्रायश्चित्त नियमत: आचार्य ही वहन करते हैं। उन्हें अपने गण में पाराञ्चित तप स्वीकार नहीं करना चाहिए क्योंकि स्वगण में पाराञ्चित तप वहन करने से अगीतार्थ साधुओं के मन में आचार्य के प्रति यह विश्वास हो जाता है कि आचार्य ने अवश्य अकृत्य का सेवन किया है। स वे आचार्य की आज्ञा का भंग कर सकते हैं। स्वगण में उन पर कोई नियंत्रण नहीं रहता अतः आचार्य एक योजन दूर अन्य गण में पाराञ्चित तप स्वीकार करते हैं। वे जिनकल्प के सदृश चर्या का वहन करते हैं। अलेपकृद् आहार ग्रहण करते है। बारह वर्ष तक एकाकी रूप से ध्यान-स्वाध्याय में लीन रहते हैं।' 1. बृभा 5034,5035, टी पृ. 1344 / Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522 जीतकल्प सभाष्य 2557. आचार्य शिष्य और प्रतीच्छकों को सूत्र और अर्थ की वाचना देकर उनके प्रश्नों का उत्तर देते हैं उसके पश्चात् वे पारांचित प्रायश्चित्त वहन करने वाले के शरीर की वर्तमान स्थिति के बारे में पूछते हैं। तप से क्लान्त उसको आश्वस्त करके आचार्य पुनः उसी क्षेत्र में आ जाते हैं, जहां गच्छ रहता है। 2558. यदि आचार्य शारीरिक दृष्टि से सूत्र की वाचना देने में असमर्थ हों अथवा सूत्र और अर्थ पौरुषी की वाचना दिए बिना प्रात:काल ही चले गए हों तो उनके पीछे से एक संघाटक भक्तपान लेकर आता है। . 2559. पाराञ्चित तप वहन करते हुए कभी रोग हो जाए तो सर्वप्रयत्न से उसका प्रतिकर्म-चिकित्सा करनी चाहिए। 2560. आचार्य स्वयं भक्तपान लेकर आते है। उनका उद्वर्तन, परावर्तन आदि वैयावृत्त्य यथाशक्ति करते 2561. जो आचार्य किसी कारण से प्रायश्चित्त वहन कर्ता ग्लान की उपेक्षा करता है तो उसे ग्लान सूत्र में कथित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2562, 2563. यदि ग्लानत्व आदि कारणों से गुरु वहां जाने में समर्थ न हों, उष्णकाल हो, दुर्बलता हो अथवा कुल आदि का कोई अन्य कार्य हो तो उपाध्याय को वहां भेजे अथवा वहां कोई योग्य गीतार्थ शिष्य को भेजे। पाराञ्चित प्रायश्चित्त वहन कर्ता के पूछने या न पूछने पर भी वह आचार्य के न आने के कारण को प्रकट करे। 2564. पारांचित तप वहन करने वाला क्षीरास्रव आदि लब्धि तथा विद्यादि अतिशयों से युक्त होता है तो वह उस संघ-कार्य को सम्पादित करने में समर्थ होता है। 2565. उसके माहात्म्य को जानते हुए गुरु स्वयं उसे कहते हैं कि संघ का प्रयोजन उपस्थित हुआ है, इस कार्य के लिए तुम योग्य हो। यदि वे उसकी शक्ति को नहीं जानते हैं तो वह स्वयं उनको कहता है कि यह मेरा विषय है। (मैं इस कार्य को करने में समर्थ हूं।) 2566. संघ अचिन्त्य प्रभाव वाला तथा गुणों का आकार है, वह सुखपूर्वक अखण्ड रहे। पाराञ्चित वहनकर्ता कहता है कि यह बड़ा कार्य भी मेरे द्वारा लघु हो जाएगा। 2567, 2568. वह अभिधान और हेतु (शब्द और तर्कशास्त्र) में निपुण, अनेक विद्वत् सभाओं में अपराजित पाराञ्चित तप वहन कर्ता मुनि राजभवन में जाकर द्वारपाल से कहता है- "हे द्वारपालरूपिन्! तुम जाकर राजरूपी को कहो कि एक संयतरूपी आपको देखना चाहता है।" राजा के पास निवेदन करके वह द्वारपाल उस संयत को राजा के पास ले जाता है। 1. यदि पाराञ्चित प्रायश्चित्त वहनकर्ता स्वस्थ हो तो भक्तपान, प्रतिलेखन, उद्वर्तन आदि कार्य वह स्वयं ही करता है। 2. उपेक्षा करने पर आचार्य को चतुर्गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1. बृभा 5037 टी पृ. 1344 / Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१०१, 102 523 2569. साधु को वंदना करके राजा उसे सुखपूर्वक आसन पर बिठाता है और कौतूहल वश साधु से गंभीर अर्थ वाले कभी नहीं सुने हुए प्रतिहाररूपी, राजरूपी और श्रमणरूपी शब्दों के अर्थ पूछता है। पाराञ्चित मुनि राजा को उसका अर्थ कहना प्रारम्भ करता है२५७०. राजन् ! जैसे शक्र आदि के आत्मरक्षक होते हैं, आपका यह द्वारपाल वैसा नहीं है इसलिए मैंने प्रतिहाररूपी शब्द का प्रयोग किया है। तुम भी चक्रवर्ती के समान नहीं हो लेकिन चक्रवर्ती के प्रतिरूपी हो अतः मैंने आपके लिए राजरूपी' शब्द का प्रयोग किया। 2571. साधु अठारह हजार शीलांग को धारण करने वाले होते हैं लेकिन मैं अतिचार सेवन के कारण श्रमणप्रतिरूपी हूं। 2572. हे नरेश्वर! मैं अभी संघ से निष्कासित हूं। अभी श्रमणों के क्षेत्र में भी नहीं रह सकता। मैं अभी प्रमाद के कारण होने वाले अतिचार की विशोधि कर रहा हूं। 2573, 2574. धर्मकथा से आकृष्ट राजा मुनि से राजभवन में आने का प्रयोजन पूछता है। मुनि उसे प्रयोजन बताता है। वह इन चार कारणों में से कोई भी एक हो सकता है 1. वाद-पराजय से राजा कुपित हो गया हो। 2. चैत्य द्रव्य उनके द्वारा बंधक हों। 3. संयती आदि को मुक्त करने के लिए। 4. संघ को देश निकाला दिया हो। 5. इन चार कारणों में से कोई एक कारण उपस्थित होने पर। 2575. संघ जिस कार्य को नहीं कर पाता, अचिन्त्य प्रभाव युक्त पाराञ्चिक मुनि उस प्रयोजन को प्राप्त कर लेता है। राजा कहता है-'तुम्हारे कथन से मैं पूर्व प्रतिबंधों का विसर्जन करता हूं।' (मुनि कहता है'मैं कुछ नहीं हूं, संघ महान् है।') तब राजा संघ को निमंत्रित करके उसकी पूजा करता है। 2576, 2577. राजा स्वयं संघ से अभ्यर्थना करता है कि मैं तुम्हारा यह कार्य करता हूं, तुम इस पाराञ्चित प्रायश्चित्त वहन करने वाले मुनि को प्रायश्चित्त से मुक्त कर दो। राजा के कहने पर अथवा तुष्ट 1. चक्रवर्ती के पास चौदह रत्न होते हैं, वह सामान्य राजा के पास नहीं होते लेकिन शौर्य और न्याय की अनुपालना में राजा चक्रवर्ती का प्रतिरूप होता है अतः राजरूपी शब्द का प्रयोग किया गया। 2. बृहत्कल्पभाष्य में राजा के द्वारा प्रद्विष्ट होने पर चार प्रकार के दण्ड का उल्लेख है * देश निकाला देना। * भक्त-पान देने का निषेध करना। * उपकरणों का हरण कर लेना। * मार डालना अथवा चारित्र का भेद करना। १:बृभा 3121 ; निव्विसउत्तिय पढमो, बितिओमा देह भत्त-पाणं से।ततितो उवकरणहरो,जीय चरित्तस्स वा भेदो।। Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524 जीतकल्प सभाष्य होकर संघ उस मुनि को प्रायश्चित्त से मुक्त कर दे। पारांचित प्रायश्चित्त उस समय आदि, मध्य या अवसान वाला हो सकता है। उतना प्रायश्चित्त ही उसकी शोधि के लिए पर्याप्त होता है। 2578. संघ उस समय देश, देशदेश अथवा सारा प्रायश्चित्त वहन करवा सकता है तथा सम्पूर्ण प्रायश्चित्त से मुक्त भी कर सकता है। कुल प्रायश्चित्त का छठा भाग देश तथा दसवां भाग देशदेश कहलाता 2579. आशातना पाराञ्चित में छह मास का छठा भाग एक मास तथा एक वर्ष का दो मास होता है तथा प्रतिसेवना पाराञ्चित में एक वर्ष का दो मास तथा बारह वर्ष का चौबीस मास छठा भाग होता है। (यह देश प्रायश्चित्त वहन का काल है।) 2580. देशदेश प्रायश्चित्त वहन में आशातना पाराञ्चित में छह महीनों का दसवां भाग अठारह दिन और वर्ष का दसवां भाग छत्तीस दिन होते हैं। प्रतिसेवना पाराञ्चित में संव्वत्सर का दसवां भाग छत्तीस दिन तथा प्रतिसेवना पाराञ्चित के बारह वर्षों का दसवां भाग एक वर्ष बहत्तर दिन होते हैं। (यह दूसरा देशदेश प्रायश्चित्त वहन का कालमान है।) 2581. आशातना पाराञ्चित का जघन्य काल छह मास है, उसका छठा भाग एक मास है। उत्कृष्ट एक वर्ष के काल का छठा भाग दो मास जानना चाहिए। 2582. प्रतिसेवना पाराञ्चित का जघन्य काल एक वर्ष, जिसका छठा भाग दो मास तथा उत्कृष्ट बारह वर्षों का छठा भाग चौबीस मास होते हैं। 2583. छह महीनों का दसवां भाग अठारह दिन तथा वर्ष का दसवां भाग छत्तीस दिन होते हैं। 2584. बारह वर्षों का दसवां भाग एक वर्ष बहत्तर दिन-रात होते हैं। यह देशदेश प्रायश्चित्त का काल है। 2585. तुष्ट होकर संघ देश (प्रायश्चित्त का छठा भाग) अथवा देशदेश (दसवां भाग) भी प्रायश्चित्त से मुक्त कर सकता है अथवा उतना ही वहन करवा सकता है अथवा सम्पूर्ण प्रायश्चित्त से उसे मुक्त भी कर सकता है। 2586. अथवा अगीतार्थ और अपरिणामक के लिए व्यवहार इस प्रकार है-नवविध व्यवहार का विस्तार करके उसे कहे कि वह लघुस्वक प्रायश्चित्त स्वीकार करे। . 2587. हाथ घुमाकर नवविध व्यवहार दिखाकर उसे कहा जाता है कि इस लघुस्वक व्यवहार को ग्रहण करो। 102. अनवस्थाप्य और पाराञ्चित-ये दोनों प्रायश्चित्त विच्छिन्न हो गए हैं। जब तक चौदहपूर्वी रहते हैं, तब तक ये प्रायश्चित्त रहते हैं। शेष प्रायश्चित्त जब तक तीर्थ रहता है, तब तक उनका अस्तित्व रहता है। 2588. तप पाराञ्चित और तप अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त भद्रबाहु (प्रथम) के बाद विच्छिन्न हो गए। शेष प्रायश्चित्त तीर्थ की स्थिति तक विद्यमान रहते हैं। Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी- 103 525 2589. लिंग, क्षेत्र और काल से जो पाराञ्चित और अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का वहन करते हैं, वे द्रव्यतः और भावतः लिंग पाराञ्चित आदि प्रायश्चित्त तीर्थ की अवस्थिति तक वहन करते हैं। 103. सुविहित साधुओं के प्रति अनुकम्पा के लिए यह जीतकल्प संक्षेप में कहा गया है। पात्र के गुणों की परीक्षा करके यह प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2590. इस प्रकार अनंतर रूप से जीतकल्प उद्दिष्ट किया गया है। जीत, आचरणीय या कल्प छह प्रकार का होता है। 2591. आजीवन धारण किया जाने वाला जीतकल्प है अथवा जीत का कल्प जीतकल्प कहलाता है। 2592. कल्पशब्द निम्न अर्थों में प्रयुक्त होता है-१. सामर्थ्य 2. वर्णन 3. छेदन 4. करण 5. औपम्य और 6. अधिवास। 2593. यहां छेदन और वर्णन के अर्थ में कल्प शब्द का प्रयोग हुआ है। जीत का वर्णन तथा छेदन जीतकल्प कहलाता है। 2594. यह जीतकल्प का संक्षिप्त अर्थ जानना चाहिए। संक्षेप, समास और ओघ-ये तीनों शब्द एकार्थक 2595. जिनकी विधि अर्थात् आचार अच्छा है, वे साधु सुविहित कहलाते हैं। उनके प्रति अनुकम्पा करके यह कहा गया है। यह प्रायश्चित्त पात्र को देना चाहिए। 2596. सूत्र से और अर्थ से भी जो जीतकल्प का पात्र होता है, वह योग्य कहलाता है, इसके विपरीत अयोग्य जानना चाहिए। . 2597. सूत्र 103 में आया 'पुनः' शब्द विशेषण के अर्थ में प्रयुक्त है। यह किसको विशेषित करता है? 1. कल्प शब्द की सामर्थ्य आदि अर्थ की व्याख्या इस प्रकार है१.सामर्थ्य अतिचार से मलिन मुनि भी प्रायश्चित्त के द्वारा विशोधि करने में कल्प-समर्थ होता है अथवा आठ वर्ष का व्यक्ति श्रामण्य पालन में कल्प-समर्थ होता है। 2. वर्णन–प्रायश्चित्त के जितने प्रकार हैं, उन सबका अथवा मूलगुण और उत्तरगुणों का इस सूत्र में कल्प-वर्णन है। 3. छेदन-तप प्रायश्चित्त अतिक्रान्त होने पर इस अध्ययन के द्वारा पांच दिन अथवा अधिक दिन के मुनि-पर्याय ___का कल्प-छेदन किया जाता है। 4. करण-कल्पाध्ययनवेत्ता वैसा प्रयत्न करता है, जिससे मुनि प्राप्त प्रायश्चित्त की सम्यक् अनुपालना कर सके अथवा कल्पविद् प्रायश्चित्त देने में आचार्य के सदृश होता है। 5. औपम्य-कल्पअध्ययन पढ़ लेने से प्रायश्चित्त-विधि में आचार्य पूर्वधर के कल्प-सदृश हो जाता है। 6. अधिवास-कल्पाध्ययनवेत्ता मासकल्प और वर्षाकल्प में एकस्थान पर परिपूर्ण कल्प-अधिवास कर सकता है तथा प्रयोजन होने पर न्यून या अधिक समय तक भी रह सकता है। 1. पंकभा 154-62, बृभापीटी पृ.४। Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 526 जीतकल्प सभाष्य तितिणी-चिड़चिड़े व्यक्ति को निर्दिष्ट करता है। जिनके स्वभाव में चिड़चिड़ापन आदि नहीं होता, वे पात्र कहलाते हैं। 2598, 2599. संविग्न, पापभीरु, परिणामक, गीतार्थ, आचार्य के गुणों का वर्णवाद करने वाला, संग्रहशील, अपरितान्त-वैयावृत्त्य, स्वाध्याय आदि में थकान का अनुभव नहीं करने वाला, मेधावी, बहुश्रुत', गुरु के पास रहने वाला, नित्य अप्रमत्त–इन गुणों से युक्त मुनि जीतकल्प का पात्र होता है। . 2600. जिस प्रकार एक सामान्य व्यक्ति भी ताप, छेद और निकष-कसौटी के द्वारा स्वर्ण की पहचान कर लेता है, वैसे ही जो आदि, मध्य और अवसान में अविकारी होता है, वह जीतव्यवहार के योग्य होता 2601. इस प्रकार सुपरीक्षित साधु को जीत व्यवहार का प्रायश्चित्त देना चाहिए, दूसरे को नहीं। अयोग्य को प्रायश्चित्त देने पर आचार्य को आरोपणा प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है तथा वह आज्ञा-भंग आदि दोष को प्राप्त होता है। 2602. जो सुखशील'-सुविधावादी और नित्यवासी' को प्रवचन का रहस्य कहता है, उसके द्वारा पांच महाव्रत का भेद तथा षट्काय वध का अनुमोदन होता है। 2603. कच्चे घड़े में निहित जल जैसे उस घड़े का विनाश कर देता है, वैसे ही अपात्र सिद्धान्त के रहस्य को विनष्ट कर देता है। 1. विविध आगमों के श्रवण और अध्ययन से जिसकी बुद्धि निर्मल हो जाती है, वह बहुश्रुत कहलाता है। भाष्यकार ने बहुश्रुत के तीन प्रकार किए हैं-१. जघन्य बहुश्रुत-निशीथ का ज्ञाता। 2. मध्यम बहुश्रुत-कल्प और व्यवहार का ज्ञाता। 3. उत्कृष्ट बहुश्रुत-नवें एवं दशवें पूर्व का ज्ञाता। निशीथ चूर्णि में निशीथ और चौदहपूर्व के मध्यवर्ती ज्ञाता को मध्यम बहुश्रुत तथा चतुर्दशपूर्वी को उत्कृष्ट बहुश्रुत माना है। धवला में द्वादशांगी के ज्ञाता को बहुश्रुत कहा गया है। 1. उशांटीप 253; बहुश्रुता विविधागमश्रवणावदातीकृतमतयः। २.बृभा ४०२;तिविहो बहुस्सुओखलु, जहण्णओ मज्झिमो उ उक्कोसो। आयारपकप्पे कप्प नवम-दसमे उ उक्कोसो॥ 3. निभा 495 चू पृ 165 / 4. षट्ध पु.८/३/४१। 2. जो शरीर के सुख में ही लीन रहते हैं, वे सुखशील/पार्श्वस्थ कहलाते हैं। १.बृभाटी पृ. 241, सुखं-शरीरशुश्रूषादिकं शीलयन्तीति सुखशीला: पावस्थादयः। 3. बृहत्कल्प और निशीथ भाष्य में णीयगाणं-नित्यवासी के स्थान पर 'ऽवियत्ताणं' पाठ है। अव्यक्त का अर्थ है श्रुत और वय से अव्यक्त। निशीथ चूर्णिकार ने इसका दूसरा अर्थ किया है कि जिसकी आत्मा मोक्ष सुख से रहित है, वह सुखशीलव्यात्मा है। १.निचू भा. 4 पृ. 257 ; मोक्खसुहे सीलं जं तम्मि विगतो आया जेसिं ते सुहसीलवियत्ता। Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद-जी-१०३ 527 2604. काल आने पर विद्वान् व्यक्ति भले विद्या के साथ मर जाए पर अपात्र को वाचना' न दे तथा पात्र की अवमानना न करे। 2605. आपवादिक स्थिति में मार्ग आदि कारण उपस्थित होने पर आचार्य अपात्र को भी वाचना दे। यह सोचकर कि यह वैयावृत्त्य आदि के द्वारा हमको बहुत तृप्त करेगा। 2606. अल्पअक्षर और महान् अर्थ वाला यह पांचवां व्यवहार-जीतकल्प संक्षेप में वर्णित है। 2607. इस जीतकल्प को उदधि सदृश बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ' जैसे श्रुतरत्न का बिन्दु तथा नवनीत के समान सारभूत जानना चाहिए। 2608. जो आचार्य बृहत्कल्प आदि तीनों के सूत्रार्थ को निपुणता से जानता है, वही शिष्य-प्रशिष्यों को इसकी वाचना दे सकता है, दूसरा नहीं। 1. बृहत्कल्पभाष्य में उल्लेख मिलता है कि परोक्षज्ञानी गुरु सूत्र और अर्थ की वाचना देते समय शिष्य के अभिप्राय को जानकर अपात्र को वाचना नहीं देते क्योंकि अपात्र को वाचना देने से श्रुत की आशातना होती है और शिष्यों का विनाश होता है। बृहत्कल्प सूत्र में तीन व्यक्तियों को वाचना देने के अयोग्य माना है-१. अविनीत 2. रसलोलुप 3. कलह को उपशान्त नहीं करने वाला। भाष्यकार उपमा द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जैसे ग्वाला गायों के आगे आकर जब पताका दिखाता है तो गायों की गति में तीव्रता आ जाती है, वैसे ही अपात्र को श्रुत देने से वह उसके अहंकार को बढ़ाता है। पात्र को वाचना न देने से आचार्य का अपयश, सूत्रार्थ का विच्छेद तथा प्रवचन की हानि होती है तथा लोगों में यह चर्चा होती है कि ये मात्सर्य और पक्षपात से युक्त है। १.बृभा 214 टी पृ.६८। 2. बृभा 5202 टी पृ.१३८२, 1383 / ३.निभा 6233 ; अयसो पवयणहाणी,सुत्तत्थाणं तहेव वोच्छेदो। पत्तं तु अवाएंते, मच्छरिवाते सपक्ख वा।। 2. ग्रंथकार का तात्पर्य यहां तीनों ग्रंथों के भाष्यों से होना चाहिए। Page #722 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / परिशिष्ट 621 644 654 657 * पदानुक्रम * कथाएं * तुलनात्मक संदर्भ * परिभाषाएं * एकार्थक 652 * निरुक्त * उपमा और दृष्टान्त * सूक्त-सुभाषित 659 * दो शब्दों का अर्थभेद 662 * आयुर्वेद और चिकित्सा 663 * देशी शब्द 666 * विशेषनामानुक्रम * विषयानुक्रम 681 * पाद-टिप्पण विषयानुक्रम 684 * वर्गीकृत विशेषनामानुक्रम * जीतकल्प सूत्र से सम्बन्धित भाष्यगाथाओं का क्रम 695 * प्रयुक्त ग्रंथ-सूची 672 689 696 Page #724 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-2 पदानुक्रम अइमाण सधूमे या अइरं फलादिपिहितं अइरुग्गयम्मि सूरे अंगारभूइ थाली अंगुलमावलियाणं अंगुलिए चालेलं अंचु गती-पूजणयो अंतगतो वि य तिविधो अंतो तिह पायम्मी अंतो बहि चतुगुरुगा अंतो वा बाहिं वा अंधेल्ल-पगलितादी . अंबरे व कतो संतो अंबादीदिटुंतेहिँ अकडज्जोगा ऽजोग्गविय... अकतकरणम्मि पणगं अकतकरणम्मि मूलं अकतथिरम्मी छेदो अकतम्मी आयाम अकते छल्लहुगा तू अकतेसु तु पुरिमासण.... अक्कोसतज्जणादिसु अगरहित कूरकुसणं अग्गहो ततियादीया अग्गीत-थिरे अकते अग्गीतसगासम्मी अग्गीता वि थिराऽथिर अघणघणचारिगगणे अचरित्तयाए तित्थे अच्चंतमणुवलद्धा अच्चंतोसण्णेसु य 93 | अज्जा 1694| अच्चित्तमक्खित दुहा 1553 अच्चित्तमक्खितम्मी 2132 अच्चित्त सचित्तेणं 1215 | अच्चित्ते अच्चित्तो | अच्चित्तो अच्चित्ते 1232 | अच्छउ ता गाहत्थो 729 | अच्छउ ता ववहारो ___39 अच्छउ महाणुभावो 1613 | अच्छंति ता उ दिक्खंता 1620 | अच्छिण्णपरीमाणो 360 अज्ज अहं संदिट्ठो 1578 | अज्जवभावे अज्जव अज्जाण परिग्गहिताण 1951 अज्झवसाठाणेहिं 2193 | अज्झवसाणेहिं पसत्थ.... 2240 | अज्झुसिरं तु कुसादी 2217 अझुसिरतणेसु निव्विग.... 2214 | अज्झोतर-कड-पूतिय 2236 अट्ठम छट्ठ चउत्थं 2222 | अट्ठम दसम दुवालस 53 अट्ठमभत्ताऽऽढत्तं 2469 अट्ठममादी गिम्हे 1506 | अट्ठविधरायपिंडं 2163 | अट्ठविधा गणिसंपद 2215 || अट्ठविधा पट्ठवणा 356 | अट्ठहि अट्ठारसहि य 2205 | अट्ठाएँ अणट्ठाए 1171 | अट्ठायारवमादी 316 | अट्ठारस छत्तीसा ___36 | अट्ठारससीलसहस्स.... 85 | अट्ठारससु पुण्णेसु 1503 1507 1550 1519 1521 1087 24 2566 2140 1278 2328 250 2070 62 50 1768 1861,2146 348,1836,1901 2229 1864 2002 160 2261 242 1015, 1115 244 2580 2571 2137 Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532 जीतकल्प सभाष्य 2312 1955 1627 251 249 2300 2053 1552 अट्ठारसेव पुरिसे अट्ठारसेहिं ठाणेहिं अट्ठारसेहिं पुण्णेहिं अट्ठारसेहिं मासेहिं अणणुण्णात गुरूहिं अणपुच्छाएँ गणस्सा अणमप्पेण कालेणं अणयारमायरंती अणवठ्ठप्पावत्ती अणवठ्ठप्पो तवसा अणवठ्ठप्पो दुविधो अणिगूहितबल-विरिया अणिमित्त अकम्हभयं अणियतचारी अणियत.... अणिसट्ठ भणितमेतं अणिसट्ठमणुण्णातं अणिसिटुं पि य तिविधं अणुगामिओ उ ओही अणुपरिहारिगा चेव अणुपरिहारी गोवालग.... अणुपरिहारीया पुण अणुपुव्विविहारीणं अणुलोमा पडिलोमा अणुवरमंतो कीरति अण्णं च इमो दोसो अण्णं व एवमादी अण्णतरपमादेणं अण्णत्थ एरिसं दुल्लभं अण्णम्मि अविज्जंते अण्णा दोण्णि समाओ अण्णाय उ वेलाए अण्णे वि अत्थि दोसा अण्णेहि य सो भणितो अण्णोण्णस्स सगासे 2107 | अण्णोवस्सयबाहिं 150-153 | अतिपरिणामो भणती 2157 | अतिबहुयं अतिबहुसो 2155 अतियारगुरुभरेणं 1741 | अतियारपंकपंकं.... 389 | अतियारसेवणाए 298 | अतियारस्स तु असती 789 | अतिरं अंगारादी 2421 | अतिरं अणंतणिक्खित्त 102 अतिरं परित्तणिक्खित्त 2303 | अतिर णिरंतर भणितं 2257 | अतिर णिरंतर भण्णति 925 | अत्तट्ठिय आदाणे 166 | अत्तणो आउगं सेसं 1283 | अत्थं पडुच्च सुत्तं 1280 | अत्थमितम्मि वि सिव्वसि 1275 | अत्थविसंवादेवं 46 अत्थादाणे ततिओ 2151 अदुवा चियत्तकिच्चे 2143 | अद्दिटुं दिटुं खलु 2147 | अद्धमसणस्स सव्वं.... 510 अद्धाणकप्पऽणेसी 525 | अद्धाण जणवदे वा 2546 | अद्धिति दिट्ठीपण्हय 314,748 | अद्धोयणा परेणं 2467 | अध सो गतो उ तहियं 136 अपरक्कमो तवस्सी 2007 | अपरक्कमो बलहीणो 2349 अपरक्कमो मि जातो 346 अपरक्कमो य सीसं 774 अपरिग्गह णारी पुण 2010 | अपरिग्गहितो तहियं 1442 | अपरिच्छणम्मि गरुगा 2092 | अपरिच्छितुमायवए 38 1692 1680 1213 2126 264 2487 1017 2419 2029 226 1638 607 133 1428 964 583 568 498 567 570 2364 2311 392 Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदानुक्रम : परि-१ 533 470 883 1377 2018 1105 2212 10 906 178 2170 66,69 391 1748 2001 अपरीणामगमादी अपसत्था उववूहा अपसत्थियभावुप्पाद.... अप्पग्गंथ महत्थो अप्पच्छित्ते य पच्छित्तं अप्पडिलेहितदूसे अप्पडिविरयोसण्णो अप्पत्तम्मी ठवितं अप्पत्तो दुविधो तू अप्पा मूलगुणेसुं अप्फासुपुढविमादी . अब्भत्थितो सयं वा अभिंतरअतिसेसो अब्भुज्जतं विहारं अब्भोज्जे गमणादी . अभिगत कत अकते या अभिघातो वा विज्जू अभिधाणहेतुकुसलो अभिसेगं तो पेसे अभिसेगो उज्झाओ . अभिसेगो सव्वेसु य अमणुण्णेसणसुद्धं अममत्त-अपरिकम्मो अमयमिव मण्णमाणो अमुगो अमुगत्थकतो अम्हे कारावेमो अरह पूयाएँ धातू अलभंता य वियारं अल्लीणा णाणादिसु अवधी मज्जायत्थो अवराहं वियाणंति अवरो वि फरुसमुंडो अवरो विवाडितो मत्त.... अवरो वि सिहरिणीए 181 | अवसेसा अणगारा 1044 अवस्सगमणं दिसासु 1318 अवि णाम होज्ज सुलभो 2606 अवि य हु पुरिसपणीतो 2047 अवि य हु विवाहमंगे 1771 अविसिट्ठा आवत्ती 90 अविहीय कास-जंभिय 1235 अविही हत्थमदातुं 1025 अव्वत्तं अफुडत्तं 773 अव्वावण्णसरीरा 1258 असंखेज्जाइँ अलोगे 2577 | असंथरं अजोग्गो वा 2169 असणादी चतुभेदो 2472 असणादीया चतुरो 1190 अस भोयणम्मि अहवा 2233 | असमत्तकप्पियाणं 507 असमत्थों संजमस्स उ 2567 असहू सुत्तं दातुं 2563 असिलोगो त्ति इ अयसो 2420 असिवादीहि वहंता 88 असिवे ओमोदरिए 1636 असिवे पुरोवरोधे 2064 असिवोमादीएसु तु 840 असुभ सुभो वा भावो 679 असु वावण धाऊओ 270 अस्संजमजोगाणं 982 अस्संजयतेगिच्छे 2009 अस्सद्दहणा देवस्स 665 अस्सुट्ठिता भणंती 35 अह अरहण्णगसाधू 130 अह उस्सग्गेऽववायं 2531 | अह एत्तो वोच्छामी 2532 अहगुरुगे गिम्हासुं 2489 अहगुरुगे वासासुं 768 1670 2558 927 386 765, 1991 2393 385 1937 12 1392 1391 833 1228 819 2188 2372 1868,1934 1916 Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 534 जीतकल्प सभाष्य 867 824 1629 176 2418 961 1359 668 2202 .420 2 2453 2252 2416 2173 1010 671 अहगुरुगे वासासू अहगुरुगे सिसिरेसुं अहगुरु जेणं पव्वा.... अह णेच्छति तो संघो अह ताव सावगो तू अह पुण जदि होज्जाही अह पुण ण तरेज्ज गुरू अह पुण ण संथरेज्जा अह पुण भण्णति एवं अह पुण विरूवरूवे अह पुण साहम्मि त्ती अह भण्णति मा बीभे अहमेगकुलं गच्छं अहयं तु काइयाडो अहलंदियाण गच्छे अहलहुगा वासासुं अहलहुगे गिम्हासुं अहलहुगे वासासुं अहलहुयग गिम्हेसुं अहलहुयग सिसिरेसुं अहलहुसग गिम्हासुं अहलहुसग लहुसतरो अहलहुसग वासासुं अहलहुसग सिसिरासुं अहलहुसग सिसिरेसुं अहव अगीतणिमित्तं अहव गिलाणस्सट्ठा अहव ण जाती दव्वं अहव णमुक्कारादी अहव ण संभरती तू अहव ण सचित्तमीसो अहव तिमो लहुसादी 1866 | अहव तिहा आसायण 1867,1925 | अहव य भासति कज्जे 204 | अहवा अतिप्पमाणो | 2536 | अहवा अफरुसवयणो 1152 | अहवा अभिक्खसेवी 509 | अहवा छेदसुतादी 2562 | अहवा जं सिक्खिज्जति 1307 अहवा जेणऽण्णइया 2451 अहवा णिरवेक्खितरा 396 अहवा तिगसालंबेण 1066 अहवा पगतपसत्थं अहवा पुरिसा दुविधा अहवा भिक्खू पावति 858 अहवाऽऽभिणिबोहीयं 2066 अहवा मत्ता बिंदू 1881 अहवा वि इमे अण्णे 1883 अहवा वि इमो अण्णो 1911 अहवा वि कायमणिणो अहवा वि दुगुंछा ऊ 1882 अहवा वि पूयपूया . 1892,1926 अहवा वि रोगियस्सा 1831 | अहवा वि लड्डगादी 1890 | अहवा वि वदे एवं 1891 अहवा वि समतिरित्तं 1917, 1920 अहवावि सव्वरीए 2586 | अहवा वि सो व्व परतो 742 अहवा वी णिव्विगती 1619 अहवा सहसऽण्णाणा 1749 अहवुच्चरती काइय 1788 | अह सव्वदव्वपरिणाम... 1525 अह साह किलामिज्जति 1897 | अह सो गतो सदेसं 1929 | 904 119 1040 1380 2382 1090 866 1813 362 383 2248 134 816 Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदानुक्रम : परि-१ 535 1665 864 808 1469 608 108 1711,1724 741,948, 1685 1766 813 756,1065 175 2128 930 919 अह हरिते णिक्कारण अहाकरेसु रंधंति अहिगं तु तंदुलादी अहितोभयलोगम्मी अहुणा उ चारणा तू अहुणा गाहाणं तू अहुणा चित्ताचित्ते अहुणा जिणकप्पठिती अहुणा थेरठिती तू अहुणा मीसं मीसे अहुणा मूलावण्णो आउट्टि उवेच्चा तू आउट्टिामादीया आउट्टिया उवेच्चा . आउट्टियाएँ ठाणं.... आउट्टियाय दप्पप्प..... आउट्टियाय पंचिंदिय आउट्टियावराहे आउट्टो उवसंतो आउत्त पुव्वभासा आउत्तो वि य होउं आकंपिया णिमित्तेण आगमतो ववहारो आगाढऽणागाढम्मि आचेलक्कुद्देसिय आचेलक्को धम्मो आजीवियधरणाओ आणं सव्वजिणाणं आणाए ऽभावाओ आणादऽणंतसंसा.... आणेति भुत्तसेसं आतंके उवसग्गे 2348 | आतंको जरमादी 1019 | आतस्स साडणं ती 1284 आदाण-भंडणिक्खेव.... 1637 | आदाणे अहिगरणं 1865 आदाणे चलहत्थो 1675 | आदिगरा धम्माणं 1515 आदिग्गहणेणं तू 2159 | आदिग्गहणेणं पुण 2181 | आदिग्गहणे णेयो 1516 आदिमभंगा तिण्णि इ 2219 आदीगहणेणं पुण 2290 | आदेज्ज मधुरवयणो 1815 आपुच्छिऊण अरहते 2265 | आभोगमणाभोगे 76 आभोगे जाणतो 74| आभोगेण वि तणुगेस 83 आमंतिय पडिसुणणा 2271 आमे घडे णिहित्तं आयंबिल उसिणोदेण 917 आयट्ठा जा दुछडा 916 आयतर-परतराणं 1342 आयप्परपरिकम्म आयरिए अभिसेगे 27 आयरिए कतकरणे 1971,1975 आयरिए य गिलाणे आयरिओ य बहुस्सुत 2591 आयरिय अभत्तट्ठो 1183 आयरिय-असहु-अतरा 700 आयरिय उवज्झाए 2344 आयरिय-उवज्झाया 1279 आयरिय गिलाणे या 1664 आयरियपादमूलं 796 1178 2603 350 1163 1964 513 1993 2235 970 165 1058 611 1399,2232 2209 1049 408 1983 Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 536 जीतकल्प सभाष्य' 783 289 2256 1016 1850, 1904 1265 1546 944 1999 873 आयरियपेसणादी आयरियस्स विणासे आयरिया तु अपुव्वा आयवयं च परवयं आयाम-चउत्थादी आयारपकप्पम्मी आयारविणय एसो आयार विणयगुण कप्प... आयारसंपदाए आयार-सुत-सरीरे आयारे विणयो खलु आयारे सुत विणए आयारे सुत्तमिणं आयाहम्मग एतं आयु-सरीरप्पाणादि आराहओ तु तह वी आरुभहा पट्ठीए आरोह-परीणाहो आरोहो दिग्घत्तं आलत्ते वाहित्ते आलावण पडिपुच्छण आलोइय-पडिकंते आलोएती गुरुणो आलोयणअरिहं ती आलोयण कप्पठिते आलोयणकालम्मि व आलोयणदोसेहिं आलोयण पडिकमणे आलोयणमादीणं आलोयणागुणेसू आलोयणागुणेहिं आलोयणापरिणतो 766 | आलोयणारिहं ति इ 2389 आलोयणा विवेगे य 755 आलोयणा विवेगो वा 1427 | आलोयणोवयुत्ता 349 आवंति होति देसो 2079 | आवत्तितवो एसो 222 आवत्ति दाणमेत्थं 246, 413 | आवत्ती दाणे वा 163 | आसंकिते तदुभयं 161 आसज्ज खेत्तकप्पं 214 आसणदाणं सक्कारणा 213 | आसयपोसयसेवी 1014 आसातण पडिसेवण 1119 आसायणपारंची 1661 आसायणा जहण्णो 129 आसूयमादिएहिं 842 आहड सपच्चवायं 171 आहरति भत्तपाणं आहाकम्मं भुंजति 869 आहाकम्मदारं 2442 आहाकम्मपरिणतो 127 आहाकम्मियणामा आहाकम्मिय पाणग 718 आहाकम्मुद्देसिय 2142 आहाकम्मे चतुगुरु 2273,77 आहाकम्मेण अहे 245 आहार-उवधि-सेज्जा 274, 282 | आहारादिग्गगहणे 730 | आहारादी दव्वं 252 | आहारे उवधिम्मि य 243 आहारेंति तवस्सी 128 | आहारे ताव छिंदाहि 2539 2542 2478, 2581 . 2554 1315 1678 2560 1193 1194 1120 1098,1130 172 372 1095, 1295 1195 1137 2108 6 1814, 65 2368 1654 450 Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 537 पदानुक्रम : परि-१ आहारेति अकज्जे आहारे पिट्ठादी आहार पूतियम्मी आहारों जेसि आदी आहारों जेसिमादी इंगितणाते धूया.... इंदत्थं जह सद्दा इंदियपडिसंचारो इंदियपमाददोसा इंदियाणि कसाए य 1125 1301 1440 255 2383 120 1470 1824 2057 62 इंधण गंधे धूमे इक्खागवंस भरहो इच्छा-मिच्छा-तहक्कारो इड्डि-रस-सातगुरुगा. इत एक्कवार बितियं इतरमहिलासु चरिमं इतरा य गिल्लसण्णिहि इतरो उ विराहेती इति उदिते चोदेती . इति एगूणतीसाए इति एस अणंतरतो इति एस अभिहितो तू इति एस जीतकप्पो इति एस दव्व खेत्ते इति दव्वादिबहुगुणे इति सामाइयमादी इत्तरठवणा भत्ते इत्तरठविते सुहुमे इत्थीए चतुगुरुगा इत्थीए मासगुरुं इय अणिवारितदोसा इय एतेण कमेणं 1695 इय जो उ अप्पमत्तो 2361 इय णाउमाह कोयी 1697 इय पंतभिच्छुवासो इय भणिते चोदेती 1818 इय भवरोगत्तस्स वि 1407 | इय मासाण बहूण वि 1136 इय मूलक्कम्मेणं 429 इय मेव जीतदाणं 2548 इय सइ दोसं छिंदति 406 इय सव्वावत्तीओ 1205 इय सामाइयछेदे 1409 इय होंति असंखाओ 880 इरियं च ण सोहेती 2471 इरियं ण सोहइस्सं 837 इहपरलोगे य फलं 2522 इह पुण जीतेणं तू 1084 ईसर-तलवर-माडंबि.... 2190 | ईसर भोइयमादी 1596 उक्कुट्ठ-पिट्ठ-मक्खित 2121 उक्कोसं तवभूमी 2590 उक्कोसं तु विसिटुं 2518 उक्कोसं बहुसो वा 103 उक्कोसा तवभूमी 2276 उक्कोसिगा तु एसा 78 उक्कोसुक्कोसो तू 2191 उक्कोसुक्कोसो या 1713 उक्कोसेण मसंखा 43 | उक्कोसो सणिजोगो 1423 | उक्खेवे णिक्खेवे 1425 | उग्गमकोडी अवयव | उग्गमदोस गिहीतो 1807 उग्गममादीणं तू 2111 30 1660 606 2384 1801 2003 2004 1497 82 2306 87 2287 354 1855 1853 28 2326 1566 1297 1472 1674 Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538 जीतकल्प सभाष्य 655 33 523 481 2533 1256 1269 2557 1334 1963 2049 1585 1587 428 78 336 उग्गहितस्स तु ईहा उग्गादीयं तु कुलं उग्गिण्णम्मि य गुरुगो उग्घाडिते य दिट्ठो उच्चरति काइयं तू उच्चरती उच्चारं उच्चारं पासवणं उच्चारभूमि पढमा उच्चारे पासवणे उज्जाणरुक्खमूले उज्जुमती उड्डे ऊ उज्जुमती विउलमती उज्जेणी उस्सण्णं उद्वेज्ज णिसीएज्जा उढेह वयामो ती उडुबद्धिगेसु अट्ठसु उड्ढे उड्डोयादी उड्ड दुभूमादीयं उत्तरगुण बहुगा तू उदगमणंतर णवणीत..... उदय-ऽग्गि-चोर-सावय उदुवासकालऽतीते उद्दवणे कल्लाणं उद्दिस्सति वरिसेण य उद्देसकडे कम्मे उद्देसग अज्झयणे उद्देस समुद्देसे उद्देसादि चतुण्ह वि उद्देसिगचरिमतिगे उद्देसिगम्मि लहुगो उद्देसियं समुद्देसियं उद्देसे णिव्विगतिं 190 उद्धारणा विहारण 1357 उप्पज्जमाणओ खलु 2375 उप्पण्णे उवसग्गे 853 उप्फिडितुं सो कणगो 987 उब्भामग वडसालेण 986 उब्भिण्ण होति दुविधं 854 उब्भिण्णेतं भणितं उभयं पि दाऊण स पाडिपुच्छं 814 उभयच्छण्णा एसा उभयतरो तू ततिओ उम्मग्गदेसए मग्ग... उम्मीसं पुण दायव्वयं 2396 उम्मीस भणितमेतं 2456 उवगरणगणणिमित्तं 841 उवगरणपूति भणितं / 2081 उवगरण सरीरम्मि य 908 उवगरणेहि विहूणो 1270 उवधी जहण्णमादी 2284 उवधी धोतऽवसाणे 1528 उवरितलत्थो य णडो. 613 उवरिमतिगसंघतणो 2074 उववूह होति दुविधा 1074 उववूहादि चतुण्ह वि 2120 उवसंतो वि समाणो 1197 उवसंपद पंचविधा 23, 995 उवसंपया य काले 22 | उव्वत्त दार संथार 999 उसिणस्स छड्डुणे देंतओ उस्सग्गेण य भणितो 1200 उस्सप्पिणि-ओसप्पिणि.... 1198 उस्सुत्तं ववहरेंतो 1022 एक्कं व दो व तिण्णि व 1212 492 484 1740 1785 1400 2433 1042 1055 2515 779 881 435 1603 2063 35 उस्सन 71 2048 367,375 Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदानुक्रम : परि-१ 539 2395 1673 एक्कासण पुरिमड्डा एक्केक्कं तं दुविधं एक्केक्के चउभंगो एक्केक्को पुण तिविधो 1783 2594 254 275 2139 373 365 1498 2024 1069 एगंतणिज्जरा से एगट्ठ एगवंजण एगट्ठितदारमिणं एगम्मि उ णिज्जवगे एगल्लविहारादी एगल्लविहारे या एगवसहीएँ पणगं एगागी खेत्तबहिं एगाह पणग पक्खे , एगिंदिऽणंतवज्जे एगिंदिय पुढवादी एगिंदियाण घट्टण..... एगेण कतमकज्जं एगो तित्थगराणं एगो दवस्स भागो एगो संथारगतो एतं चिय पुस्मिटुं एतं ठितम्मि मेरं एतं णाऊण तहिं एतं ति जहुद्दिटुं एतं तु अजतणाए एतं तु कारणम्मी एतं तु मितं भणितं एतं पादोवगमं . एतं पुण सव्वं चिय एतं बहुदेवसियं एतं हत्थायालं 305, एतं हत्थालंबं 326 एतद्दोसविमुक्को 1563 एत पसंगाभिहितं 957 एतम्मि जहुद्दिढे 2135 एतस्स जीतकप्पस्स 541, 553 एताऽऽगमववहारी 1131 एतुवरिं भण्णिहिती 1138 एते अणूणिए कप्पे 378 एते अण्णे य तहिं 221 एते अण्णे य बहू 215 एते चेव उ मक्खित 2068 एते चेव य ठाणा 101 एते च्चिय अब्भहिते 782 एतेण मज्झ भावो 683 | एते दस तू वुत्ता | एते दायगदोसा 31 एते दायग भणिता 1184 एते भणिता लहुगा 2179 एते सपक्खदुट्ठा 1640 एते सव्वेऽवेगं 387 एतेसिं अट्ठाए 1750 एतेसिं चिय दव्वादि... 2101 एतेसिं जे वहंती 1820 एतेसिं ठाणाणं | एतेसिं दोण्ह वि तू 2230 | एतेसिं पंचण्ह वि एतेसिं पाउग्गं 1642 एतेसि चतुण्डं पी 557 एतेसि दायगाणं | एतेसुं तेण्णेते 1764 | एतेसुं पुढवादिसु 2392 | एतेसुक्कोसाणिं 1382 2030 1576 1582 2245 2498 2234 744 101 2154 139 711 2059 743 2502 1575 2313 1715 2291 Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 540 जीतकल्प सभाष्य एतेसु चेव पुढवादि.... एतेसु जहुद्दिढे एतेसु जहुद्दिट्ठो एतेसु धीरपुरिसा एते सोलसदारा एतेहिं कारणेहिं एतेहिं ठाणेहिं एतेहिं दोसेहिं एतेहि कारणेहिं एतेहि व कज्जेहिं एत्तो उ पओगमती एत्तो एगतरेणं एत्तो किणावि हीणं एत्थ उ दाण चतुत्थ एत्थं इमम्मि जीते एत्थं चतुभंग भवे एत्थं पुण अधिगारो एत्थं मासगुरुं तू एत्थं सुहुमा तु इमा एत्थ तु ततियचतुत्था एत्थ तु मासलहुं तू एत्थ तु विसरिसदाणं एत्थ पुण बहुतरा भिक्खुणो एत्थ य पट्ठवणं पति एत्थ वि चउलहुगा तू एत्थ वि तहेव जाणण एत्थ वि ते च्चिय भंगा एमादिणिमित्तेहिं एमादि मायपिंडो एमादियं तु बहुसो एमादी अणुकूले एमादी असढो जं 1542 एमादी आवण्णे 1708 एमादीओ एसो 1691 एमादीजोगेहिं 661 / एमादी णेहाऊ 1097 एमादी विणयं तू 1663 एमादीहि बहुविधं 1893 एमेव आउ-तेऊ 2077 एमेव कवाडम्मि वि 508 एमेव दंसणम्मि वि 757 एमेव माहणेसु वि 192 एमेव य अणवटुं 355 एमेव य इत्थीए 1624 एमेव य किंचि पदं 1557 एमेव य दसरायं 2198 एमेव य पारोक्खी 1513 एमेव य पुरिसेसु वि 2517 | एमेव य बीयाई 1207 एमेव य मीसा वी 1226 एमेव य रुक्खे वी 1641 एमेव य समणीणं 1273 एमेव य साहरिते 1581 एमेवुक्कोसादी 73 एयं चिय सामण्णं 2263 | एयं पुण पच्छित्तं 1268 | एयगुणसंपउत्तो 1153 एयगुणसमग्गस्स तु 849,855 एयण्णतरागाढे 2406 | एरिसगा जे पुरिसा 1411 एरिसगे आगाढे 947 | एरिसजतणाजुत्ता 1381 एरिसमायासहिते 967 एवं अत्थादाणे 943 686 1467 920. 877 554 1522 1266 419 1370 2218 2343 2036 2239 273 1429 1959 2246 1958 2251 1710 1858 51 706 2552 2197 615 667 2387 953 1777 2413 Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 541 263 312 630 61 2315 2346 2446 496 946 631 1981 2601 311 1895 एवं शिश 542 407,582 पदानुक्रम : परि-१ एवं आलोएंतो एवं खलु उक्कोसा एवं खु इंदिएहिं एवं खेत्तमुसं पी एवं गंतूण तहिं एवं गवेसणाए एवं चिय पत्तेयं एवं चिय पुरिमटुं एवं छा आलत्ते एवं जहाणुरूवा एवं जहोवदिट्ठस्स एवं जेहिं तु संलीढो एवं झामणहेतुं एवं ठाणे ठाणे एवं णदिवुब्भंते एवं णाऊण ततो एवं णिव्वाघाते एवं तस्स तु संघो एवं ता आहारे एवं ता उग्घाते एवं ता उवधिम्मी एवं ता ओसण्णे एवं ता ओहेणं एवं ता कारणिए एवं ता कोसलगे एवं ता जो णिज्जति एवं ताऽणागाढे एवं ताव अडझंते एवं तु उवट्ठवितो. एवं तु करेंतेणं एवं तु गविट्ठस्सा एवं तु गुणसमग्गो 475 423 | एवं तु चोइयम्मी 437 एवं तु भणंतेणं 18 एवं तु मुसावाओ 1077 एवं तु वड्डमाणो 653 | एवं तुवस्सयाओ 1312 एवं तु सो अवहितो 29 एवं तू ठवणाए 1059 एवं तू णातम्मी 871 एवं तू दुब्भासित एवं दप्पपदम्मी 695 एवं दुग्गतपहिया 405 एवं देज्जा सुपरिक्खि... एवं धरती सोही एवं धिति-बलजुत्तो 2452 एवं परिच्छिऊणं 1229 एवं पादोवगमं 2093 एवं बितियस्सा वि हु 2585 एवं बीतिज्जस्स वि 2355 एवं बुद्धीए तू एवं भासी ते तू 2327 एवं मासलहुं तू 2412 एवं लिंगेणं पी 1056 एवं वसिकरणादिसु 775 एवं सदयं दिज्जति 506 एवं समाणिए कप्पे 2341 एवं सयडोयीए 1023 एव जहुद्दिट्ठाणं 2323 एव जहुद्दिढेसुं 2050 एव थिरीकरणं तू 2390 एवऽद्धाणाईए 1471 एव भणितो तु संतो 2435 एव भणेज्जहि खंती 628 626 1143 397 1206 1142 1456 307 2156 1211 2289 940 1060 1745 2449 1333 Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 542 जीतकल्प सभाष्य 850 1020 1817 2094 2512 2032 565 1311 851 2464 1101 1100 2556 1731 2425 487 89 एवमणाभोगेणं एवमदत्तपरिग्गह एव ममत्त करेंते एवमसंविग्गे वी एवमिहमाहकम्म एव मुसावादादिसु एव मुसावादादी एव विगिंचिंतऽसढो एवऽसणे कम्मं तू एवाऽऽणध बीयाई एवासासो तस्स वि एवाऽऽहारेण विणा एस तवं पडिवज्जति एस पमादो भणितो एस पसंगाभिहितो एसा अट्ठविधा खलु एसा उ पओगमती एसा कप्पियसेवा एसा खलु बत्तीसा एसाऽऽगमववहारो एसा जिणकप्पठिती एसाऽऽणाववहारो एसा दप्पियसेवा एसाऽऽदेसो एक्को एसा पच्चक्खाणे एसा बितिय तिगिच्छा एसा विसोधिकोडी एसा संजमसेढी एसो अज्झोयरओ एसो अट्ठविगप्पो एसो अप्पडिवाई एसो कसायदुट्ठो 2040 | एसो गज्झो एत्थं 1078,1081 एसो तदुभयभेदो 1067 एसो तु अक्खरत्थो 370 एसो तु मासकप्पो 1134 एसो पढमगभंगो 990,1082 एसो बितियादेसो 942 एसो सुतववहारो ओगाहिते पडिग्गह 1151 ओभामितो ण कुव्वति 577 ओरालग्गहणेणं 2454 ओरालसरीराणं ओलोयणं गवेसण 2440 ओवग्गहिओ तिविधो 817 ओसण्णमादिया तू 703 ओसण्णे दट्टणं 162 ओसण्णे पव्वावित 197 ओसण्णे बहुदोसे 616 ओह-विभागुद्देसो... 206 ओहिय ओवग्गहिओ 559 ओही भवपच्चइओ . 2180 ओहुद्देसविभागे 654 ओहेण एस भणितो 600 ओहे मासलहुं तू 2216 ओहो तत्थ इमो खलु ओहो सामण्णं तू 1389 कंखा उ भत्त-पाणे 1296 कंचणपुर गुरुसण्णा कंजियमादीगहणं 1286 कंजियरुक्खाहारो 1068 कंतामि भणति पेलु 67 कंदप्पादी तु पदा 2506 कक्कडिग अंबगा वा 2297. 690 x0 73 1700 1845 1196 771 1024 238 382 1300 1821 1230 931 1154 Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 543 398 1343 304 2266 1146 2415 2330 1033 1451 805 पदानुक्रम : परि-१ कक्कोलग सेवंते कज्जाऽकज्ज जताऽजत कडगादिअत्थदाणं कडजोगी गीतत्थो कडनिहिताण लक्खण.... कणग-रययादियाणं कतकरण अकतकरणा कतकरणउवज्झाए कतरिं दिसिं गमिस्ससि कतिहिं ठिता अठिता वा कत्तरिपयोयणट्ठा कत्तो अत्थो अम्हं? कद्दममक्खित पुढवी कद्दममक्खितमीसे कप्पट्ठितमादीणं कप्पट्ठिता परिणता .. कप्पट्टितो अहं ते कप्पट्ठियादयो वि य कप्प-व्ववहाराणं कप्पस्स य णिज्जुत्तिं कप्पादीए तिण्णि वि कप्पेण उ सेवाए.. कप्पो संथारो वा कम्मं तु संकिलिटुं कम्ममसंखेज्जभवं कम्मुद्देसिय-मीसे कम्मेहिंतो य भवं कम्ही वा भणितं ती कयपवयणप्पणामो करणं तु अण्णमण्णे करण-भएसु तु संका करणिज्जा जे जोगा 1765 कलमोयणो य पयसा 2211 | कल्लं चिय एति त्ती 1408 कल्लाणगमावण्णे 960 कसाय विकहा वियडे 1159 कस्स त्ति जहुद्दिटुं 1316 कह पुण आदेसेणं 2200 कह पुण हवेज्ज णातं 2213, 2220 | कह भंगो सव्वम्मी 898 कहयंति चुण्णजोगा 1972 | कह समितीसु पमादं 1360 कह होती भइयव्वो 2399 | कहेहि सव्वं जो वुत्तो 1705/ काइगगुत्ताहरणं 1493 काइयऽसमाहि परिट्ठावणे 2195 काउस्सग्गमकाउं 1967 काएणं संघट्टण 2439 का पुण भयणा एत्थं? 71 कामं परपरितावो 2607 कामं सयं न कुव्वति 563,564 काय-वइ-मणा तिण्णि उ 2608 काया वया य ते च्चिय 2272 कायोवचितो बलवं 875 कारणमकारणं वा 1781 कारणमादिपदा तू 454-57 कारणविणिग्गतेणं कारणविणिग्गयस्स य 1617 कालं ठावितु दिक्खे 1799 कालतों अणवठ्ठप्पो 1 कालतों उज्जुमती तू 2538 कालतों ओहिण्णाणी 599| कालद्धाणाऽतिच्छिय.... 5. कालद्धाणातीए 2189 145 323 856 1035 868 2414 2380 1126 1102 2470 462 2210 2430 769 37 2281 2426 82 50 17 49 Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 544 जीतकल्प सभाष्य 876 1372 1373 113. 359 2465 395 27 1241 334 कालपडिक्कमणे वि य काल-सभावाणुमतो कालाऽविसज्जणादिसु कालाविसज्जणादी काले चतुण्ह वुड्डी काले विणए बहुमाणे किं अत्थी अण्णे वी किं आहाकम्मं ती किं एते च्चिय भेदा किं कारणं चरित्ते किं कारणमालोयण किं कारणमिह सोधी किं कारणमुस्सग्गो? किं कारणऽवक्कमणं किं च तं णोवभुत्तं मे किंचि अहिज्जेज्जाही किंचि हितमुभयलोगे किं तस्स तु गिहिवेसं किं ते पित्तपलावो किं पुण अणगारसहाय... किं पुण आलोएती? किं पुण गुणोवदेसो किं पुण तं चउरंगं किं पुण पंचिंदीणं? किं भणितं वणीमे त्ति किं वच्चसि वासंते किंवा मारेतव्वो किं सउणिगा निमित्तं किड्डा होतऽट्ठावय किण्णु हु खद्धा भिक्खा कितिकम्मं च पडिच्छति कितिकम्मं पि य दुविधं 997 कितिकम्मं वंदणगं 440 किमणा उ कुट्ठि-कर-पाद 26 किमणेसु दुब्बलेसु य / 1028 किह आगमववहारी 58 किह णासेति अगीतो 1000 किह पुण आसाएती 7 किह मोच्छिइ त्ति भत्तं 1155 किह संखातीताओ 2547 कीतकडं पिय दविधं 1091 कीरति अणवठ्ठप्पो 412 कुज्जा कुलादिपत्थारं 1787 कुणमाणो वि हु करणं 2438 कुणिमो अंतद्धाणं कुल-गण-संघे चेइय 442 कुव्विज्ज कारणे पुण: 2091 कूरणिमित्तं चेव उ / 1634 कूवति अदिज्जमाणे 2463 केई पुरिसा गीता 1954 केण असुद्धं? भण्णति केत्तियमेत्तं छिंदिह . 586 के पुण करणिज्जा जे . 697 केयी पुरिसा पंचह 358 केरिसगुणसंजुत्तो / 576 केरिसगो तू राया 1362 केरिस सावज्जं तू? 886 केलासभवणा एते 572 केवइय आस हत्थी 2405 केवइयं वा दटुं? 1723 केवतियकालसंजोगो 1479 केवलगहणं कसिणं 2445 केवल संभिण्णं तू 2015 केसिंचि इंदियाई 363 2388 1454 751 1989 2353 380 1940 962 1793 731 1962 2432 1998 688 1378 466) 821 2321 2115 Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पदानुक्रम : परि-१ 545 907 201 195 76 759 1287 2045 1945 1770 425 2160 897 2253 2458 2067 1795 332 कोइ पुण साणभत्तो कोई तु वियडवसणी कोई परीसहेहिं को कल्लाणं नेच्छति को कारयो? जती तू को गीताण उवाओ कोडिज्जंते जम्हा कोद्दवरालगगामे कोधादी उ अरी ऊ कोधे माणे चतुलहु कोधे माणे य तहा को पुण पायच्छित्ते को वित्थरेण वोत्तूण कोवो वलवागब्भं कोसल्लगेगवीसति... कोहादि चउह कलुसा कोहादीणं कमसो कोहे बहुदेवसिए खंतो तु तत्थ पच्छा खद्धे णिद्धे य रुया खमणाऽऽयामेक्कासण खर-फरुस-णिटुरेहिं खलणा दुविहा भणिता खलितस्स य सव्वत्थ वि खाणुगमादी मूलं खार हडि हड्डमाला खिप्प बहु बहुविहं वा खीर-दहि-कट्टरादिण खीरे य मज्जणे मंडणे खुडं व खुड्डियं वा खुड्डग जणणी उ मुया खुड्डगसीहतवादीहिँ 1376 खु त्ति कतं तं सुइतं 614 खेत्त असति अगहित्ता 476 खेत्तं मालवमादी 1597 | खेत्ततों उज्जुमती तू 739 खेत्तपडिलेह थंडिल 494 खेत्तादिअणप्पज्झो खेत्ते जं कायव्वं 1148/ गंडी कच्छवि मुट्ठी 983 गंधव्व-नट्ट-जड्डऽस्स 1419 गच्छम्मि य णिम्माया 1686 गच्छसि ण ताव गच्छं 149 गच्छाहि णिग्गता जे 696 गच्छिल्लया गुरुस्स उ 1347 गच्छे पडिबद्धाणं 550 गणअहिवति आयरियो 2526 गणणिसिरणम्मि उ विही 1394,1418/ गणणिसिरणा परगणे 54 गणपडिबद्धा दुविधा 1336 | गणहर एव महिड्डी 1188 गणोवहिपमाणाई 1862 गति-ठिति-अवगाहेहिं 838 गतेहिं छहिँ मासेहिं गमणकिरिया हु समिती गमणागमणविहारे 894 गहणं आदाणं ती 689 गहणमघट्टित कण्णे 186 गहणम्मि विधी इणमो 1612 गहिताणंतपरंपर... 1322 गामाण दोण्ह वेरं 2359 गाहद्ध पढम कंठं 891 | गाहापच्छद्धस्स तु 2550 गाहापच्छद्धस्सा 329 913 2258 2473 2129 100 2152, 2153 804 2052, 18 809 1535 2491 1699 1335 989 1752 1062 Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 546 जीतकल्प सभाष्य 2228 गाहापच्छद्धेणं गाहापच्छद्धेण तु गाहापुव्वद्धस्स तु गिण्हणे गुरुगा छम्मास गिण्हसु जावइएहिं गिम्ह-सिसिर-वासासू गिम्हासु अट्ठमं देज्जा गिम्हासु चतुत्थं देज्जा गिम्हासु छटुं देज्जा गिरि राहु-मेह-महिया गिहवासे वि वरागा गिहिलिंग अण्णउत्थिय गिहिवेसमकाऊणं गीतत्थदुल्लभं खलु गीतत्थमगीतत्थं गीतत्थो कडजोगी गुणपच्चइओ ओधी गुणसंथवेण पच्छा गुणसंथवेण पुव्वं गुत्तीदारं भणितं गुत्ती समितिपमादे गुत्तो होति कहण्णू गुपु रक्खणम्मि गुत्ती गुरवो आयरिया तू गुरुआसायण भणिता गुरुगं च अट्ठमं खलु गुरुगतरा गिम्हेसुं गुरुगतरा वासासुं गुरुगतरा सिसिरेसुं गुरुगे गिम्ह जहण्णे गुरुगे वास जहण्णे गुरुगे सिसिर जहण्णे 713,753 गुरुगो गुरुगतरागो 1832,1838 1761 गुरुगो चतुलहु चतुगुरु 2340 2371 गुरुगो य होति मासो 1840 2357 गुरुपक्खे उक्कोसा 1847 2400 गुरुपक्खे छम्मासो 1848 67 गुरुपक्खे जहण्णम्मि 1914 . 1828 गुरुपक्खो लहुपक्खो 1846 1826 गुरुपणगे आढत्ते 1827 | गुरुभत्तिमं जो य मणाणुकूलो 2493 968 गुरुमासो चतुमासो . .. 1834,1899 2354 गुरुमासों दुण्णि मासा 1903 2298 गुरुराह जो पमत्तो 1124 2461 गुरुराह तत्थ चेट्ठा 737 368 गुरु-लहु-लहुसगपक्खे 1851 477 | गुरुसंघाडम्मि गते 2331 2267 | गुरुसंसट्टव्वरितं 2495 34 गुरु सिट्ठ मोत्तुमातो 1404 1434 गुरु सिसिरेऽत्थ जहण्णे , 1873 | गेलण्णम्मि तु दोहे 1782 गो-महिस-अया-एलग 1773 गोम्मियगहणा हणणा 2011 786 गोरससंसत्ते या 1509 घत-गुलसंजुत्ता वि य 1397 861 घरकोइलसंचारा 1267 872 घरवित्तंतनिमित्तं घासेसणा तु भावे 1609 1871, 1933 घेतूण भारमागतों 1956 1869, 1915 घोसा उदत्तमादी 1870,1924 चउकण्णम्मि रहस्से 551 1874, 1932 चउगुरुगेऽभत्तटुं 1255 1872 चउ-तिग-दुगकल्लाणा 306 1923 चउरो अतिक्कम वतिक्कमे . 1174 784 1345 1842 170 Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदानुक्रम : परि-१ 547 चउरो गहणे एवं चउवीसऽट्ठारसगा चउवीस पंडगस्सा चक्के थूभे पडिमा चतुगुरुगे तु चउत्थं चतुथघरा तु परेणं चतुभंगेसेतेसुं चतुभंगो पिहितेणं चतुलहुगे आयामं चतुलहुगे वीसाए चतुहिँ ठिता छहिँ अठिता चत्तं जेण दरिसणं चत्तारि विचित्ताई चरगादिमादिगेसू चरणे एसणदोसा चरिमं अंतं भण्णति चरिमं च एस भुंजति चरिमस्स जिणिंदस्सा चरिमे भंगे भयणा चलिया य जण्णजत्ता चस्सद्दग्गहणाओ चस्सद्दा अण्णाण वि चस्सद्देण थिराथिर चाउम्मासिंग खुड्डग चाउम्मासिग वरिसे .चाणक्क पुच्छ इट्टाल.... चातुम्मासुक्कोसे चारग-कोट्टग-कल्लाल चारित्त कप्प णियमा चारित्तविसुद्धीए चारियचोराभिमरा चिंतित उवायमेतं 1182 | चिंतेति किं करेमी 634 चित्तपुढविइ अणंतर 1623 | चित्ते सच्चित्तेणं 767 चिट्ठति संजम जहियं 1545 चिट्ठतु जहण्ण मज्झा 1223 | चियत्तकिच्चो सेहो य 1517 | चिरलित्तपुढविकायो 1555 चुण्णे जोगे चउलहु 1218, 1541, 1805 चुतधम्म णट्ठधम्मो 2224 चोदग! जदि एवं तू 1973 चोदगपुच्छा पच्चक्ख... 2295 चोदेति को विसेसो 343 | चोद्दसपुव्वधराणं 239 छइएसुं गेहेसुं 604 छउमं कम्मं भण्णति 2540 छउमत्थो सुतणाणी छक्कायवग्गहत्था 2288 छद्रं च चउत्थं वा 1561 छ? चउत्थाऽऽयामं 792 छट्ठऽट्ठमादिएहिं 977 | छट्ठोववासपारण... 2521 छड्डित चउलहुगा तू 2199 छड्डित भणितं एतं 1753 | छण्ण णिसीहं भण्णति 1786 छण्णा पुणाइ दुविधा 1455 छण्हं जीवनिकायाणं 2097 छत्तीसगुणसमण्णा..... 426 छत्तीसाए तु ठाणेहिं 248 छत्तीसेताणि ठाणाणि 716 छम्मास परे बारस.... 2012 छल्लहुगा उ नियत्ते 1401 छल्लहुगाढत्तम्मी 845 1527 1523 1108 342 2034 1260 1449 230 747 117 1584 256 2403 735 1484 1572 1843 1860 2206 443 835 1601 1604 1250 1328 2043,2044 411 207-10 241 2579 893 2223 Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548 जीतकल्प सभाष्य 75 692,693 2046 874 530 - 721 313 1526 761 ...594 छहिं कारणेहिं साहू छायं पि विवज्जेंती छिंदंति एव सागं छिंदतु व तं भाणं छिज्जंते परियाए छेदण-भेदणमादी छेदणे वण्णणे चेव छेदादिमसद्दहओ छेदावत्तीओ वा छेदेणापरियाए छेदो दोमासीए छेदोवट्ठावणिए छेलिय सेण्टा भण्णति जइ आगमो य आलोयणा जइ जीतपच्चवाया जइ होज्जा आयरिओ जं इह परलोगे या जंकायचे?मेत्तेण जं किंचि दव्व गहितं जं किंचि पाडिपुच्छं जंघद्धा संघट्टो जंचऽण्णं करणिज्जं जं चऽण्णमवुत्तं ती जं छउमत्थियणाणं जंजण भणितमिहइं जं जं ति होति मिच्छा जं जत्तिएण सुज्झति जं जम्मि होति काले जं जह मोल्लं रयणं जं जीतं सावज्ज जं जीतं सोधिकरं जं जीतदाण भणितं 1657 | जंजीतदाणमुत्तं 1168 | जं जीतमसोहिकरं 1499 | जं जो तु समावण्णो 649 | जंते पडिसंसाहण 2301 जंतेहिं करकएहि व 910 | जं पाव सेवितूणं 2593 | जं पि य हु एक्कवीसं जं पुण अचित्तदव्वं 2285 जं पुण हत्थसयाओ जं सेवितं तु बितियं 2244 | जक्खाइट्ठसरीरो 287 | जच्चादिमदुम्मत्तो 1725 जडुत्तणेण हंदी 147, 148 जड्डो व पदोसगतो 2127 जणसावगाण खिंसण 2555 जतणाजुतो पयत्तव 232 जति दोसे होअगतं | जत्तिएण गणो ऊणो . 722 जत्तियमेतं कालं 2448 जत्थ तु ततिओ भंगो जत्थ तु थोवे थोवं जत्थुप्पज्जति दोसो 758 | जत्थुप्पण्णो दोसो 105 | जदि अत्थि ण दीसंती 60 | जदि आगमो य आलोयणा 1797 जदि छुब्भती विणस्सति 257 | जदि णामं गिण्हेज्जा 203 | जदि ताव सावयाकुल 118 जदि संका दोसकरी 687 | जम्मं दुविधं होती 694 जम्मि पडिसेवितम्मी 2269 | जम्हा एतेऽत्थ गुणा / 939 1002 2021 1282 1463 . 666 2055 2138 91, 100 1145 1564 2513 723 979 1403 465 1488 1986 726,727 717 Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 549 536 483 1650 538 409 535 533 1829 1264 2247 1116 2565 410 1944 193 पदानुक्रम : परि-१ जम्हा एते दोसा 1340, 1393, 1630, जहऽवंतीसुकुमालो 2358, 2490 जह वाऽऽउंटियपादे जम्हा संपहारे 658 जह वावि चित्तकम्म जस्सट्ठा तं तु कतं 1104 जह सा बत्तीसघडा जह अणुवदेस साली... 1819 जह सुकुसलो वि वेज्जो जह इंगाला जलिता 1646 जह से वंसिपदेसी जह उदगम्मि घए वा 2528 | जह सो चिलातपुत्तो जह केवली वियाणति 114 जहासंखेणेसो जह कोइ अगडपडितो 2450 जहेव कुंभादिसु पुव्वलित्ते जह कोइ डंडिगो तू . 2054 जा छम्मासा णेया जह कोई तु मणुस्सो 40 जाणंतमजाणतो जह खीरं खीरं चिय 1132 | जाणंता माहप्पं जह खीर-दहि-गुलादी 1635 जाणंतेण वि एवं जह गामों पडिउकामो . 1337 जाणति दव्व जहट्ठिय जह चेव य संजोगो 1583 जाणति पर्योगभिसजो जह जह पदेसिणिं जाणु..... 1445 जाणति पासति ते तू जह ण छलितो तु मच्छो 1607 जाणति पिहुज्जणो वि हु जह णाम असी कोसी 540 जा णितिऽइंति ता अच्छतो जह णाम कोइ पुरिसो 47 जाती कुल गण कम्मे जहण्णुवधि हारेती . 1736 जाती माहणमादी जह ताव छेज्ज णिहसे 2600 जा तेसिं तु पसज्जण जह तिक्खउदगवेगे 951 जा दुछडा अत्तट्ठा जह तु अणाभोगेणं 720 जा पुण णिक्कारणओ जह ते गोट्ठट्ठाणे 537 जामाइतित्थजत्ता..... जह तेणं ण वि पेल्लिय 847 जा य ऊणाहिए वुत्ता जहं ते दंसणकंखी 1192 जारिसगा सक्कादीण जह धणिओ सावेक्खो 292 जावइया तिसमयाहा... जह पुत्तविवाहदिणो 1234 जावंतिकम्म पढमे जह भायरं व पितरं 229 जावंतिगमहेसो जहभिहितं जह भणितं 1809 जावंतिगम्मि लहुगो जह रूवादिविसेसा 272 जाव ठितं एक्केक्कं जह वंतादि अभोज्जं 1191 जा संघाडो ताव तु 87 2005 1350,1351 1352 912 1162 593 1332 259 2570 52 1684 1199 1285 1894 2443 Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 550 जीतकल्प सभाष्य 295 818 575 2422 13 जाहे पराइया सा जा होती बत्तीसा जिणकप्पियऽहालंदी जिणथेरअहालंदे जिणवयणमप्पमेयं जीवत्तम्मि अविगते जीव त्ति पाणधरणे जीवाण अजीवाण य जीवादिपयत्था वा जीवो अक्खो तं पति जुगमेत्तंतरदिट्ठी जुज्जति गणस्स खेत्तं जुण्णेहिं खंडिएहि य जुत्तं तावऽणवढे जूतादि होति वसणं जेणं जीवा-ऽजीवा जेण तवो बारसहा जेण पडिसेवितेणं जे तु जदा करणिज्जे जे ति य जे निद्दिट्ठा जे बहियाऽऽगत साहू जे मे जाणंति जिणा जे विज्ज-मंतदोसा जेसु विहरंति ताओ जो आगमे य सुत्ते जो उ उवेहं कुज्जा जो उ ण सद्दहति तवं जो एतेसु ण वट्टति जो कप्पठितीमेतं जो केवली मणूसो जोगो तु होति दुविधो जो जत्थ होति कुसलो 552 | जो जहवायं ण कुणति 1185 211 जो जह सत्तो बहुतर... 72 2072 जो जारिसगो कालो 434 2058 जो तं ण कुणति साहू 1005 467 जो तु करेति अकाले 1001 1588 जो तु धरेज्ज अवड्ढे 297 704 | जो तू असंतविभवो | जो दव्वखेत्तकतकाल.... 1943, 1947, 1948 | जो धारितो सुतत्थो 664 जो पुण आलोएंतो 2274, 2275 जो पुण जाणतो च्चिय 2042 1149 जो पुण परिणामो खलु जो पुण सइ सामत्थे .2391 जो पुण सहती कालं 296 | जोयणसयं सहस्सं . 64 123 जो य सलिंगे दो | जो वि पडिरूवविणयो ,. 2468 | जो वि सपक्खो राया.. 2503 | जो सुतमहिज्जति बहुं 561,562 732 | जो सो चउत्थभंगो . 811 776 झोसण खवणा मुंचण 2278 422 झोसिज्जति सुबहु पि हु 79 1457 ठवणकुल-दाणसड्डा... 1775 2516 ठवणमणापुच्छाए 678 ठवणाकप्पो दुविधो 2106 2561 ठवणाभत्तं दुविधं 1219 2283 ठाणं पुण केरिसगं 424 240 ठाण-णिसीय-तुयट्टण 514 2104 ठाण वसही पसत्थे 330 104 ठावेत्तु दप्प-कप्पे 1031 ठितमठितम्मि दसविधे 2105 452 डहरो अकुलीणो त्ति य 725 617 865 Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदानुक्रम : परि-१ 551 1302 णउती तिहि गुणिता तू ण करेंतस्सुस्सग्गं ण गणेती फरुसगिरं ण तु कंजियमादीणिं ण तेसिं जायते विग्धं ण पगासेज्ज लहुत्तं ण य ठवितो तेणाथंडि.... ण य मुच्चति असहाओ णव चेवऽट्ठारसगं णवर विसेसो तु इमो णवविगति-सत्तओदण . णवविहववहारेसो ण वि जाणति अण्णत्था ण विणा तित्थं णियंठेहिं ण वि पेहे ण पमज्जे ण वि भुंजति कारणतो ण वि विस्सरति धुवत्तं ण संभरति जो दोसे ण हु तं पऽक्खउ एवं ण हु ते दव्वसंलेहं णाऊण य वोच्छेदं णाणट्ठमेगवंजण णाणणिमित्तं अद्धाण.... णाणायारो एसो णाणायारो दुविहो णाणायारो भणितो णाणे दंसण चरणे णाणे वितहपरूवण णातं आगमितं ति य णातं संगामदुर्ग णातम्मि पण्णविज्जति णाभिप्पायं गिण्हसि 1292 | णामं ठवणा दविए 1759 णामेणं साहम्मी 844 णावा चउव्विहा तू | णावादीहि पदेहिं 2136 णासेति अगीतत्थो 493 | णासेति असंविग्गो 799 |णिक्कारण भुंजते 2411 | णिक्खित्तं ठवितं ति य 1289 | णिच्छयनयस्स चरणा... 81 णिज्जवगा य ण संती 439 णिज्जवगो अत्थस्सा 1837, 1896 |णिज्जाला हिलिहलया 49 णिज्जूढं चोद्दसपुब्वि.... 317 णिज्जूढो मि णरीसर! 810 णिण्हवणं अवलवणं 1645 णिण्हवणे अतियारो 189 णिण्हवणे णिण्हवणे 146 णिद्दपमत्तो एसो 1410 णिब्बंधे थोवथोवं 401 णिब्भत्थणाइ बितियाय 2369 णिरतीयारो य जती 1133 | णिरुवहतलिंगभेदे 417 | णिव्वाघातेणेवं 1021 णिव्विगतिं पुरिम४ 998 णिव्विगतिगमादीयं 1036 | णिव्विगति जहण्णम्मी 878 णिव्विगतिय पुरिम... 416 णिव्विगतिय पुरिमर्ल्ड 111 णिव्विण्ण नंदिवद्धण 479 | णिव्वीतियमादीओ 2535 |णिसिरित्तु गणं वीरो 1957 णिस्संक काउ तम्हा 1139,1314 1140 978 980 357 371 1644 1512 2294 262 184 1531 560 2572 1006 1007 885 2537 2492 309 772 1985 491 1835 1806 1733 24 1900 831 724,1808 333 1490 Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 552 जीतकल्प सभाष्य . 1367 902 921 1767 441 1554 1502 1135 2158 .1310 . . 1110 164 1099 णिस्संकित णिक्कंखित णिस्सितों कोहादीहिं णिस्सेसमपरिसेसं णीएहिं तु अविदिण्णं णीसंकगाहि ततिओ णीसंकितो तु चरिमे णेगविधा इड्डीओ णेतूण अण्णखेत्तं णेव्वाणस्स अणंतर तओ पारंचिया वुत्ता तं खलु ण गेण्हितव्वं तं च लोगमलोगं च तं चेव अगणिठाणं तं चेवऽणुकज्जंतो तं ठित होति तह च्चिय तं णो वच्चति तित्थं तं तारिसगं रतणं तं दसविहमालोयण तं दुविधं णातव्वं तं दुविधं धातित्तं तं पडिसेवति जो तू तं पि य सुक्खे सुक्खं तं पुण अणुगंतव्वं तं पुण ओहीणाणं तं पुण केण कतं तू तं पुण णिज्जंतो वा तं पुण सण्णादिगतो तं पुण होज्जाऽऽसेवित तं पूयइत्ताण सुहासणत्थं तं भुंजमहेकम्म तं मणपज्जवणाणं तं होति दुहाऽभिहडं 1037 तच्चण्णियादि दटुं 177 | तण-डगल-छार-मल्लग 225 तणुगो णेहो भणितो 2363 तण्णगबंधणमुयणे 1481 तण्हाछेदम्मि कते 1478 ततिए भंगे मग्गण 1041 | ततिए मत्तो मक्खित 2408 ततिओ भंगो तू आत.... 715 dिo-चउत्था कप्पा 2028 ततियम्मि करं छो, तत्तो परिहायंता | तत्तो य वुड्डसीले तत्थ इमे णामा खलु 680 तत्थ जहण्णादी तू 520 तत्थ मुसं चउभेदं 319 तत्थ वि अण्णतरीए 474 तत्थ वि भद्दग-पंता ___4 तत्थाहरणं इणमो 517 तत्थेक्कं छम्मासं 1323 तत्थोदाहरणमिणं 2520 तत्थोहिणाण पढमं 1586 तदुभयदारसमत्तं 328 तद्दोसोवरतस्स उ 37 तपु लज्जाए धातू 124 तम्हा अवस्सगहणं 2334 तम्हा उ परकडम्मि वि 2335 / तम्हा एगविधं खलु 588 तम्हा ण एस दोसो 2569 तम्हा ण वागरेज्जा 1112 तम्हा पंच व छ स्सत्त 74,86 तम्हा परिच्छणा खलु 1249 / तम्हा विसयाणं खलु 1076 2131 1436 1460 347 1414 954 728 173 749 1127 107 1172 1348 366,374 393 Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदानुक्रम : परि-१ 553 266 2241 846 2447 तलिगा खल्लग वज्झे तवअणवठ्ठो दुविधो तवअणवट्ठोऽऽसायण तवगव्वितमादीया तवगव्वितादिगेसु य तवगव्वितो तवस्स य तव-णियम-णाणरुक्खं तवबलिओ देह तवं तवहेतु चतुत्थादी तवो बारसहा होति तसपाण-बीयरहिते तस्स इमं पच्छित्तं तस्स इमे भेदा खलु तस्स कड तस्स निट्ठिततस्सट्ठगतोभासण तस्स तु उद्धरिऊणं तस्स तु ण उवट्ठवणा तस्स त्ती तस्सेव उ तस्स पुण संभवो ऊ तस्स य चरिमाहारो तस्स.य परिहारतवं तस्स य भगिणीपुत्तो तस्स य वारुणि भज्जा तस्सोदयकालम्मी तह चेव भत्तपाणं तह धितिसंघयणोभय... तह वि असंथर कोयव तह वि असंथरमाणे तह समणसुविहिताणं तहियं तु विसयदुट्ठो तहियं होति चतुलहू ता चेव य णवकोडी 1774 | ताणि धरंती अज्ज वि 2427 ता णेतव्व कमेणं 2428 | ताहे अभित्थुणित्ता 2292 ताहे आसासेती 84 ताहे खुड्डग खुड्डी 80 ताहे णित्थिण्णतवो 574 ताहे तु जहासत्तिं 1794, 2282 ताहे परलिंगीण वि 1669 ताहे य परिहरिज्जति 1751 ता होंति अणंताओ 521 तितिणिआदि अपत्तो 1064 तिक्खुत्तो सक्खेत्ते 1987 तिण्णि तु वारा किरिया 1157 तिहं ती णाणादी 379 तित्थंगरपडिकुट्ठो 673 तित्थकरं संघं वा 2407 तित्थकरं संघ सुतं 231 तित्थगरपढमसीसं 1175 तित्थगर पवयण सुतं 438 तित्थगर पवयणे वा 2437 तिरियं उज्जुमती तू 2397 / तिलहारगदिटुंतो 827 तिविधं अतीतकाले 2534 तिविधं तु वोसिरिहीइ 2342 तिविधं पुण अच्छेज्जं 70 तिविधेवं णिसिभत्तं 460 तिविधो तु होति उवधी तिविधोवधि विस्सरिते 952 तिविहोवधिमुग्गमितुं. 2545 तिविहोवहिणो विच्चुत 2362 तिसमयऽऽहारादीणं 1290 तीय कतं आउत्तं 2370 2460 1304 2367 2441 31 1026 1997, 2014 503 415 1994 2475 2304 2477 94 1052 79 308 585 444 1274 1086 1727 1734,1735 1739 459 46 60 1344 Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 554 जीतकल्प सभाष्य 1180 1094 2488 505 126. 1668 2337 2398 973 966:. 1045 2541 1201 . . 2062 तीय विभासा इणमो तीसं पदाऽवराहे तीसा य पण्णवीसा तुच्छत्तणेण गव्वो तुम्हेहि गहित मुक्को तुल्लम्मि वि अवराधे तुसिणीए हुंकारे ते अतियारा सुहुमा ते अभिगत अणभिगता ते उद्वेत्तु पलाणा ते च्चिय एत्थ वि दोसा तेण तु तहियं थाणे तेण य गीतत्थेणं तेण य संविग्गेणं ते णिच्चमप्पमत्ता तेणेव गुणेणं तू तेणेहि गहित मुसिता ते तु जदा उवउत्तो ते तेण परिच्चत्ता ते पंचहा वणीमग ते पुण जहा तु एक्काए ते पुण मंडलियाए तेमासे पण्णरसे ते य ठित एगपासे तेल्लस्स उ गंडूसं ते सव्वे विउलमती तेसिं अब्भुट्ठाणं तेसिं गुरूण उदएण तेसु त्ति कारणेसुं तेहि भणिता य वच्चह तेहि य सगिहे णे तो उग्गेण तवेणं 862 तो खेलमल्लगम्मी 2075 तो चरणसुद्धिहेतुं 1841 तो ठवित गणिं गच्छे 2017 | तो णाउ वित्तिछेदं 794 | तो तस्स उ पच्छित्तं तो बंभरक्खणट्ठा 870 तो बेति अण्णपासं 738 | तो वच्च ते वणीए 2201 | तो सज्झायणिमित्तं 302 थंडिल्लअभावा वा 1374 | थिरिकरणा वि य दुविधा 2410 थीणद्धिमहादोसो 369 थीणद्धिमादियाणं 377 थी लहुमासा गुरुगा 2254, 2259 थेराण अत्थि खेत्तं | थेराण सत्तरी खलु 793 थेरा वि विसुद्धतरा 734 | थोवे थोवं छूढं 301 दंसण अणुम्मुयंतो 1363 दसण-णाण-चरित्ते / 2088 | दंसणणाणप्पभवं 2086 | दंसणपभावगाणं 2243 दंसणयारो अट्ठह 1338 दंसणवंते ततिए 352 दट्ठ महल्लमहीरुह 85 | दट्ठण णिण्हगे तू 205 दड्डमितरस्स सव्वं दत्तेणं णावाए 1720 दप्प अकप्प णिरालंब 1464 दप्पपडिसेवणाए 1465 दप्पियसेवाए तू 2455 दप्पेणं पंचिंदिय..... 180 2098 2262 1567 633 601,950,1043 1092 603 1038 2031 571 2038 2404 1114 486 589 2270 625 57 Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदानुक्रम : परि-१ 555 482 1762 2184 2183 926 2023 785, 14 795 2544 2525 237 2480 945 2186 436 दप्पेणाऽसीतसतं दप्पो वग्गण-धावण... दवियपरीमाणं ता दव्वओं उज्जुमती तू दव्वं अभिग्गहा पुण दव्वं आहारादी दव्वं खेत्तं कालं दव्वमुसे तु जहण्णे दव्वम्मि एस भणिता दव्वम्मि एस संजोयणा दव्वसिती भावसिती दव्वादीपरिणाम दव्वादीया पडिसेवणा दव्वाय-परक्कीए . दव्वायहम्ममेतं दव्वावति खेत्तावइ दव्वे अपरिणतम्मी दव्वे तं चिय दव्वं दव्वे सच्चित्तादी . दव्वेहिं पज्जवेहि य दस एतस्स य मज्झ य दसगुरुगे आढत्तं दस चेव छच्च चतुरो दसठाणठितो कप्पो दस ता अणुसज्जंती दसभागेणऽट्ठारस दसमं अट्ठम छटुं दाणं ण होति अफलं दाणं णिव्वितिगादी दाण-कय-विक्कयादी दायगउवहत एत्तो दिटुंत चुण्ण-जोगे 635 दिटुंतस्सोवणओ 1780 दियसुवणे णिक्कारण 449 दीहं च आउगं तू ___75 दीहो त्ति वुड्डवासो 2164 दुक्कालो आदेसो 2268 दुक्खेहिं भच्छियाणं 702, 64 दुच्चिंतिय दुब्भासिय 1080 | दुज्जातजम्म एसो 1475 दुढे य पमत्ते या 1615 दुढेसो पारंची 338 दुट्ठो कसाय-विसया.... 102 दुट्ठो य पमत्तो या 1812 | दुत्ति दुगुंछा धातू 1242 दुपदं ती उस्सग्गो / 1117 दुवालसेसु एतेसु 935 दुविधं च मक्खितं खलु 1589 दुविधं तु दप्प-कप्पे 1305, दुविधं तु मूलकम्म 132 दुविध विराधण उसिणे 131 दुविधा अतिसेसा वि य 889 दुविधा पहावणा वि य 2227 दुविधा विराधणा खलु 2027 दुविधा होति अचेला 1976 दुविधे गेलण्णम्मी 276 दुविधे तु गरहिते तू 2583 दुविधे विहारकाले 1859 दुविधो उ निग्गमो खलु 1383 दुविधो य गव्वितो खलु 1798 दुविधो य होति दुट्ठो 1263 दुविहो उ मासकप्पो 1706 दुविहो तेसऽतिसेसो 1450 दुविहो य संथवो खलु 1491 584 1468 1536 2165 1051 1186 1977 1996, 2013 1505 2080 764 1792 2481 2073 2172 1421 Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 556 जीतकल्प सभाष्य 1722 45 1726 1960 527 488 2194 1796 464 681 1402 21 1738 1395 1659 देउलदरिसण-भासा... देंता वि ण दीसंती देज्जाही तम्मत्तं देव-णर दुगतिगऽस्सा देसं व देसदेसं देसियमादिपदाणं देसिय राइय पक्खिय देसूणपुव्वकोडीओ देहविओगो खिप्पं दोण्णि वि समणसमुत्था दोसं हंतूण गुणं दोसग्गी वि जलंतो दोसा अतिप्पमाणे दोसा कसायमादी दोसासति मज्झिमगा दोसु तु परिणमति मती दोसु तु वोच्छिण्णेसू दोसेण सधूमं तू दो सोत-णेत्तमादिग दोहिं पि गरहितेहिं दोहि वि बलिए सव्वं धणमादाणं भण्णति धम्मकहा आउट्टाण धम्मज्झाणं ण तरति धम्म सहावो सम्मइंसण धम्मो मंगलमुक्कट्ठ धम्मो मंगलमुक्कत्थो धाती दूती णिमित्ते धारणऽणंतर जीतं धारणववहारेसो धारणववहारो खलु धारयति धीयते वा 1358 धावण गतिमतिरित्ता 260 धावण-डेवण-संघरिस 1816 धावणमादिपदेसुं 524 धितिदुब्बल देहें बली 2578 | धिति-बलजुत्तेहि तहिं 991 धिति-संघयणविजुत्तो 21 | धितिसंघयणेणं तू 2117 | धीबलसंघयणं वा 453 धीरपुरिसपण्णत्ते 1473 | धीरपुरिसपण्णत्तो 2056 धूयदुगं संदिसती 1652 धूवादिगंधवासे 1631 धोतें जहण्णेक्कासण 234 नगरम्मि हत्थकप्पे 2099 नत्थि छुहाएँ सरिसिया 1950 नत्थि तु खेत्तं जिणकप्पि... 277, 279, 280 नदिकण्ह वेण्णदीवे 1651 नवदसपुव्वकतत्थो 549 नवपुव्वि जहण्णेणं 1511 नवयंगसोतबोहिय 1961 / नवविहववहारेसो 924 नाणमादीणि अत्ताणि 2573 | नाणादीपरिवुड्डी 1662 नालीधमएण जिणा 228 निग्गंथ सक्क तावस 1009 निग्गम गुरुमूलाओ 1018 निच्छयणयस्स चरणा... 1319 निज्जूहितस्स असुभो 701 नियगाहारादीयं 659 / नियमा तिकालविसयम्मि 674 निरवेक्खा एगविहा 1321 निरवेक्खों तिण्णि चयती 2060 1461 2434 2161 548 1935 141 592 122 1366 750 1118 2551 1628 1341 2207 294 Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 557 2096 996 975 1729 2175 531,532 2144 1447 1984 1466 220 2602 | 461 432 2123 63 पदानुक्रम : परि-१ निवदिक्खितादि असहू निसिभत्त सेस तिविधं नेहादि तवं काहं नोइंदियपच्चक्खो पंकसलिले पसादो पंचज्जामो धम्मो पंच णियंठा भणिता पंचदिणेहिं गतेहिं पंचम पत्ता पिहुडं पंचमहव्वयभेदो पंचमिएँ काइभूमादि पंचविध धातिपिंडे पंचविधे ववहारे पंचविधो ववहारो पंचविहाए नियमा पंचसता जंतेणं पंच सता वीसाए पंचिंदि घट्ट तावण पंचेंदियसंघट्टे पंचव संजता खलु पकामं च निकामं च पक्खियमतिकामेंतो पक्खे य पोसधेसुं पच्चक्खव्ववहारी पच्चक्खागमसरिसो पच्चक्खी पच्चक्खं पच्चक्खो वि य दुविधो पच्चाह गुरू ते तू पच्छा णातमणुग्गत पच्छादतिग पडिग्गह पच्छासंथवदोसा पच्छिय-पिहुडादिऽतिरं 612 पज्जोसवणाकप्पो 1085 पट्ठवणपडिक्कमणे 605 पट्ठवणुद्दिसणे या पडलय रयहरणं वा 90 पडिगहधारि जहण्णो 2019 पडिणीययाएँ कोई 281 पडिपुच्छं वायणं चेव 2279 पडिमंतथंभणादी 1532 पडिमाएँ पाउया वा पडिलाभित वच्चंता 609 पडिलेहण-पप्फोडण 1324 पडिलेहण संथारं 2125 पडिलोमाणुलोमा वा पडिवज्जंति जिणिंदस्स 780 पडिवयमाणो ओही 529 पडिवाति अपडिवाती 993 पडिविजथंभणादी 685 पडिसेवणअणवट्ठो 1073 पडिसेवण पडिसुणणा 285 पडिसेवणपारंची 1625 पडिसेवणाएँ तेणा पडिसेवणातियारा 218 पडिसेवणातियारे 109 पडिसेवति विगतीओ 110 पडिसेवी अणवट्ठो 121 पडिहाररूवी! भण रायरूवी 10 पडुपण्णऽणागते या 578 पढमं उस्सग्गपदं 969 पढमं ठाणं दप्पो 1730 पढमगभंगे वज्जो 1430 पढम-ततिए ण कप्पे 1551 पढम बितिएसु कप्पे 1443 2307 1128 2479,2582 1129 421 143, 144 418 2429 2568 1349 949 629 2000 1164 427 Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 558 जीतकल्प सभाष्य पढम बिति देस सव्वे पढमबितियादिएहिं पढमममुंचतेणं पढमम्मि य संघयणे पढमस्स य कज्जस्सा 581 2141 882 901 884 1121 778 | 999 1252 1254 2351 1173 2424 1156 पढमाएँ पोरिसीए पढमादीसंघयणो पढमिल्लुग भावम्मी पढमे चउलहुगा तू पढमो जावंतज्झो.... पढमो दोसु वि लग्गो पणगं दस पण्णरसं पणगं मासविवड्डी पणगबियाइ वणस्सति पणगादिभाणछेदं पणगादी आवत्ती पणगादी छम्मासा.... पणगे णिव्विगती तू पणगे वि सेवितम्मी पण दस पण्णरसं वा पणुवीस अद्धतेरस पणुवीसदिणा भिण्णो पण्णरसहिं गुरुगेहिं पण्णरसुग्गमदोसा पण्णवगस्स तु सपदं पतिट्ठा ठवणा ठवणी पतिदिणपच्चक्खाणं पत्तमवाएंतस्स वि पत्तेयं पत्तेयं पत्तेयपरंपरठवित पत्तेयबुद्ध णिण्हग 2305 पदमक्खरमुद्देसं 934 पमाण कप्पट्टितो तत्थ 624 पयला उल्ले मरुगे 556 पयलादी तु पदा खलु 618-623,639- | पयलासि किं दिवा ण 643, 645-648 परकम्ममत्तकम्मी..... 963 परगण संविग्गाओ 174 परगणे जे अमणुण्णा 1593 परगामाहड दुविधं 1217 | परदेसआहडम्मी 1704 | परधम्मिया वि दुविधा 1483 परपक्ख सपक्खे त्ती 1804 परपक्ख सपक्खे वा 115 परपक्खो तु गिहत्थो 1261 परपक्खो परपक्खे 650 परपच्चइया छाया परपरितावणकरणं 1800 | परवाइण सिस्सेण 1220 परस्स तं देति सए व गेहे 1938 परिठवणुच्चारादी . 1833, 1902 परिठविएसेतेसुं 994 परिणत गीतत्था तू 1802 परिणमति जहत्थेणं 2226 परिणामगोऽत्थ भणती 2076 परिणामगो हु तत्थ वि 268 परिणामा ऽपरिणामा 1968 परिणिट्ठित परिण्णात 1754 परिणिव्वविया वाए 1027 परितावितऽणागाढे 1702 परियट्टिए अभिहडे | परियट्टियं पि दुविधं 1144 परिवारादिणिमित्तं 2501, 2505 1169 2379 187 1262 815 988 2192 1949 1952 579 1942 155 183 1070,1072 1096 1247 * 30 42 Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 559 2431 | पायोकरणं दुविधं 2112 | पारंचितस्स तहियं 288 | पारंचिय अणवठ्ठा 2069 | पारंचियं तु पावति 2149 पारंचिया उ एते 2150 पारंची अणवट्ठा 2148 पारंपर पिहुडादिसु 1239 2559 2588 2553 2543 2033 1533 258 112 2122 2499 2145 पारगमपारगावा 660 2510 1696 1677 पदानुक्रम : परि-१ परिहरणं परिहारो परिहारकप्पं वोच्छामि परिहारविसुद्धीए परिहारविसुद्धीणं परिहारिएसु वूढे परिहारिगा वि छम्मासे परिहारिय पत्तेयं परिहारियाण उ तवो पलंबाउ जाव ठिती पल्हवि कोयवि पावार पवयणजसंसि पुरिसे पवयण दुवालसंगं पवयणमणुम्मुयंते पव्वज्जा अट्ठवासस्स पव्वज्जादी आलोयणा पव्वज्जादी काउं पाउगदुरूढ सलिलुप्परेण पाउसकाले सव्वो.... पाएण देति लोगो पाएण मकिच्चेण य पागड णिस्संको च्चिय पाणगजोग्गाहारे . पाणगदव्वं च तहिं पाणगादीणि जोग्गाणि पाणतिवायादीओ पाणस्सासंवरणे पाणिपडिग्गहिता तू पादोकरण पगासे पादोवगमे इंगिणि पाबल्लेण उवेच्च उ पामिच्चं पि य दुविधं पायच्छित्ते असंतम्मि 1676 2187 पारोक्खं ववहारं 1772 पालइत्ता सयं ऊणं पालक्को तु पुरोहित पावं छिंदति जम्हा 1141 / पावाणं पावतरो 2119 पासंडऽज्झोयरओ 414 पासंड मीसजाते 323,512,516 पासंडाणं पढमं 1462 | पासगतंऽतगतो ऊ 1784 पासत्थसंकिलिटुं 1375 पासत्थोसण्णकुसील.... 1189 पासत्थोसण्णाणं 1326 पासत्थोसण्णो वा 430 पासवण-खेल-सिंघाण... 836 पासादस्सायणे 390 पासित्तु ताणि कोई 976 पासोलित्त कडाहे 1746, 50 पाहुडिभत्तं भुंजति 2171 पाहुडियं उवजीवति 1687 | पाहुडियं च ठवेंती 321, 322 पाहुडिया भणितेसा 656 पाहुणगट्ठा व तगं 1245 पिंडो तु अलेवकडो 315 पिंडोवहिसेज्जादी 2102,2103 433 1050,1063 . 2286 762 271 445 1534 1237 2466 1574 1238 2497 2061 Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560 जीतकल्प सभाष्य 544,545 522 2116 555. 848 1320 199 1203 1379 ,400 1441 852 2527 1769 1166 पिंडोवहिसेज्जासू पिडि संघाते धातू पिसितासि पुव्वमहिसं पिहितं अणंतकाए पिहिताणंताऽणंतर पुच्छंतमणक्खाते पुट्ठा य दियत्तेणं पुढवादी छसु संजय पुढवादी जाव तसे पुढवादीणं कमसो पुढवि जल अगणि मारुत पुढवि-दग-अगणि-मारुय पुढवी आउक्काए पुढवीससरक्खेणं पुणरवि चउरण्णा तू पुणसद्दो तु विसेसणे पुयकड्डणा उ हेतु पुरकम्म पच्छकम्मे पुरतो जाणति पासति पुरपच्छिमवज्जेहिँ पुरिमड्डो च्चिय नियमा पुरिमाण दुव्विसोज्झो पुरिमादी खमणंतं पुरिसं उवासगादी पुरिसं पडुच्च अहिगं पुरिसस्स उ अवराह पुरिसा गीतागीता पुरिसे त्ति गतं दारं पुव्वं अपासिऊणं पुवट्ठिताण खेत्ते पुव्वतरं सामइयं पुव्वब्भासा भासेज्ज 1093 पुव्वभवियपेमेणं 955 पुव्वभवियवेरेणं 2529 पुव्वसतसहस्साई 1681 | पुव्वा-ऽवर-दाहिण-उत्तरेहि 1547 पुव्विं चक्खु परिक्खिय 2484 पुव्विं-पच्छासंथव 1346 | पूए अहागुरुं पि य 1291 पूतीकम्मं दुविधं 1540 पूयंति पूयणिज्जा 1556 पेच्छह ता मे एतं 941 पेच्छामो त्ति य भणिते 526 | पेहितमेतं किं पेहणा 956, 1714 | पोग्गल मोदग फरुसग 1492 पोत्थग-तणपणगं वा 345 फरुसं बेति दुमुण्डिय 2597 फलमादि छिण्णछोडित 909 फासुग छगणेणं तू 1496, 1690 फासेणऽब्भंगियमादि / 45 फिडितुस्सग्गे एक्के 1995 फिडिते सतमुस्सारित 2238 बंधति अहेभवाउं 2020 बकुस-पडिसेवगा खलु 32 बगुस-पडिसेवगाणं 194/ बत्तीसं किर कवला 1939 | बत्तीसलक्खणधरो | बत्तीस वण्णित च्चिय | बत्तीसाउ परेणं 2264 बत्तीसाए तु ठाणेहिं 135 बल-वण्ण-रूवहेतुं 2090 / बहुं सुणेति कण्णेहिं 2025 बहुजणजोग्गं पेहे 2409 बहुतरगुणसमगो तू 1257 22 1755 1113 290 283 1622 546 663 212 1626 156-159 595 823 . 198 2196 Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदानुक्रम : परि-१ 561 923 573 1953 1339 822 802 1355 834 1388 2319 1123 2386 404 1571,1580 788 बहुदोसे माणुस्से 1046 | बीभेति सजातीए बहु बहुविह पोराणं 191 | बेति गुरू अह तं तू बहुमाणे अइयारो 1004 बेति गुरू लद्ध च्चिय बहुविहऽणेगपगारं 188 बेति जणो केणेयं बहुसुत-जुगप्पहाणो 168 बेति ण याणामो ती बहुसुत परिजितसुत्ते 167 | बेति पडतो मिच्छामि.... बहुसो बहुस्सुतेहिं 677 | बेति फुडं चिय सुकतं बादरपाहुडिया विय 1233 / बेति य गिलाणो पडितो बायालमेसणाओ 825 / बेति व एरिस दुक्खं बायालीसेसणसंकडम्मि 1608 बेती झामित उवधी बारसम दसम अट्ठम / 1857 | बेती परकडभोयिण बारसमम्मि य वरिसे 351 बोहिभयसावगादिसु बाल-गिलाणादीणं 832 | भंडी बइल्लए काए बाले वुड्ढे मत्ते 1569, 1577, 1707 | भज्जेंती य दलेंती बावीस आणुपुव्वी 539 भज्जुब्भामिग पल्लंक बाहिरओं सरीरस्सा 2166 भणइ य दिट्ठ णियट्टे बितिओ दुपेहसुपमज्ज... 812 भणति य राया संघ बितिओ य तहिं भणितो 2402 भणित अपरिणतमेतं बितिओ साणादीणं 1222 भणितं च जिणिंदेहिं बितियं कज्जं कप्पो 632 भणितं वंजणमक्खर बितियद्दार समत्तं 932 भणितं संगालेतं बितियपद अण्णगच्छा 2457 भणितं सधूममेतं बितियपदं पाऽऽहारे 2365 भणितेस चुण्णपिंडो बितियपदं वोच्छेदे 2345 भणितोट्ठितो त्ति होही बितियपद खुड्डु विणयं 2377 | भणितो य णिण्हगाणं बितियपदे जो तु परं 598 भणितो सउणि हगंतो बितियपदे वाएज्जा 2605 भण्णति जह णवदसमे बितियपरित्ताणंतर.... 1718 भण्णति जुवरायादी बितियवय-ततिय-पंचम 905 भण्णति परप्पउत्तं बितियस्स य कज्जस्सा 627, 652 | भण्णति संकितभावो बितियाणंताऽणंतर... 1717 भण्णति सेज्जा वसही बीएण गहित संकित 1480 | भत्तं पाणं असणं 895 2576 1594 1667 1008 1649 1655 1458 1227 2039 2401 2423 2208 1122 1489 959 981 Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562 जीतकल्प सभाष्य . 1453 2100 98 . 1936 84 भत्तं लेवकडं वा भत्तम्मि भणितमेतं भत्ते पण्णवण णिगू.... भत्ते पाणे सयणासणे भद्दगं भद्दगं भोच्चा भद्दो अम्ह सपक्खो भरहम्मि अद्धमासो भरहेरवयवासेसु भावं पडुच्च अहिगं भावतों उज्जुमती ऊ भावतो ओहिण्णाणी भावतो चेव जे भावा भावसिती अहिगारो भावे अरत्तदुट्ठो भावे केवलणाणं भावे तु आयकीतं भावे पसत्थ इतरा भावे पुण पुच्छिज्जति भावे मणोगिहगते भावे हट्ठगिलाणं भावो च्चिय एत्थं तू भासासमितो साहू भिक्खणसीला भिक्खू भिक्ख पविट्ठो य तओ भिक्ख-वियारसमत्थो भिक्खादिगतं संतं भिक्खादिगतो तं तू भिक्खादी वच्चंते भिक्खुम्मी अणभिगते भिक्खुस्स तु पुरिमड़े भिक्खू गीताऽगीता भिक्खूमादी संखडि 2065 भिक्खे परिहायंते 2333 | भिण्णं पि मासकप्पं 2339 भिण्णग्गहणं खलु कालतो . 19 भिण्णो अविसिट्ठो च्चिय 1778 भीतो पलायमाणो 1356 भुंजंति चित्तकम्मट्टित ___56 भुंजण-घुसुलेंतीए 2113 भुंजति चक्की भोगे | भुंजसु पच्चक्खाणं | भुत्तभोगी पुरा जो तु | भोत्तव्व कारणम्मी 95 भोयण सुत्ते अत्थे 340 मउओ वि छेद मूले 1306 | मंगलहेतुं पुण्णट्ठया 106 मंतम्मि उदाहरणं 1243 मंतेणं अभिमंतिय 1317 मंस-वस-सोणियाऽऽसव 399 / | मग्गों अंतगतो ऊ . | मच्छत्थाणी साहू 1946 मज्जण-गंधं पुप्फोवकार... 402 मज्झगतंऽतगतस्स य 820 मज्झिमउक्कोसो या .. 2299 मज्झिमजहण्णगं तू 1415 मज्झिमाण न संती तु 325 मणगुत्तीए तहियं 1386 मणदुक्कडमुप्पण्णं 2356 मणपज्जवणाणं पुण मतिसंपद चउभेदा 2237 मत्तेण जेण दाहिति 1061 मयमातिवच्छगं पिव 2204 मरणभएणऽभिभूते 2352 मरणभयं सत्तमगं 137 1368 1579 269 -887 431 1656 1029 1791 .1236 1444 1446 1504 80 1606 547 86 1852 1906 2114 787 790 1327 1558 1365 2394 922 Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदानुक्रम : परि-१ 563 1179 2485 48 1743 / 903 1742 मरिऊण अट्टझाणो मरेज्ज सह विज्जाए महती भिक्खा तारिस महसड्ढादीएसुं महसिलकंटे तहियं माएज्ज घडसहस्सं मा ताव झंख पुत्तय मातुलसंवड्डण कम्म.... मायाणिप्फण्णं तू मायापिंडो भणितो मायावी होंति सढा / मालोहड उक्कोसे मालोहडमुक्कोसे मासगुरुगादि दिढे मासलहुमिहावत्ती - मा सुण लोयस्स तुमं मासो लघु गुरु चतु छच्च मासो लहुगो गुरुगो मिच्छत्तऽण्णाणादी मिच्छत्ततवाऽऽयारे मिच्छत्तथिरीकरणं मिच्छत्तभावियाणं मिच्छादिट्ठीए तू मिच्छादुक्कडमेत्तेण मीसंवा ससचित्ते मीसज्जातं तिविधं मीस परित्तेणं चिय मीसाणंतअणंतर.... मीसे अच्चित्तेण वि मुणिसुव्वयंतवासी मुणिसुव्वयतित्थम्मी मुदिते मुद्धऽभिसित्ते 361 मुहछूढेऽणायारो 2604 मुहणंतगमालोयण 1482 | मुहणंतग रयहरणे 1176 मुहणंत पमादेणं 480 | मुहणंत पायकेसरि 2168 | मुहणंत फिडित उग्गह | मुहपोत्ति पायकेसरि 828 | मूलगुण उत्तरगुणे 2329 | मूलावत्तिसु एसू 1412 | मेहावी य बहुसुतो 1941 | मोक्खाभावातो पुण 1272 | मोगल्लसेलसिहरे 1689 मोत्तुं जिणकप्पठितिं 2314 मोदगभत्तमलद्धं 1244 मोदणपयकढियादी 829 मोसम्मि चउब्भेदे 2249 मोसाऽदत्तादाणं 896,1803 मोसादिसु मेहुणवज्जि... 1053 | रण्णा कोंकणगाऽमच्चा 247 | रयहरणं मुहपोत्ती 1369 रसहेतुं पडिकुट्ठो 2022 रहिते नाम असंते 1047 रागग्गीय पजलितो 719 राग-द्दोसविवड्ढेि 1514 | रागेण सइंगालं 1216 रायकुलातो भत्तं 1693 रायगिहे धम्मरुई 1698 रायगिहे य कयाई 1524 रायस्स अग्गमहिसीएँ 528 रायस्स महादेवी 2500 राया सण्णायादी 1999 रुट्ठस्स कोधविणयण 1728 2293 2302 2599 1012 534 2185 2530 394 1079 1075 403 2174, 2177 1618 662 1648 116 1647,1653 1281 1398 1405 2523 2519 1666 235 Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564 जीतकल्प सभाष्य 1885 1919 1909 1889, 1927. 1887 1888 1918, 1921 * 1839 485 17 1912 2360 651 रूढणह णियणमुंडो रूवादीविसयाणं रूवीदव्वे विसओ लघुमास भिण्णमासो लघुमासे पुरिमड़े लद्धं च णेण किह वी लद्धे अत्तद्रुती लद्धो व विसेणं तू लब्भंतं पि ण गिण्हति लहुगतरा गिम्हेसुं लहुगतरा वासासुं लहुगतरा सिसिरेसुं लहुगतरे वासासुं लहुगा अणुग्गहम्मी लहु गुरुग मीसगा वि य लहुगे उक्कोसुक्कोस.... लहुगे वासारत्ते लहुगे वासासुक्कोस... लहुगे सिसिरुक्कोसे लहुगो अत्तटुंते लहुगो लहुगो लहुगा लहुपक्खे उक्कोसे लहुभिण्णे दसलहुगे लहुमासे पुरिमड़े लहुयग गिम्हुक्कोसे लहुसग उक्कोसजहण्ण... लहुसग गिम्हासुक्कोस... लहुसग गिम्हुक्कोसे लहुसगपक्खे पणगं लहुसगपक्खे चेयं लहुसग लहुगुरुपक्खो लहुसग वासासुक्कोस... 2176 | लहुसग सिसिरासुक्को.... 15 लहुसग सिसिरुक्कोसे 68 लहसतर मज्झिमजहण्ण... 1849 लहुसतरा गिम्हेसुं 1240,1543 | लहुसतरा वासासुं 798 लहुसतरा सिसिरासुं 2324 लहुसतरा सिसिरेसुं 502 | लहुसो लहुसतरागो 1413 | लावए पवए जोहे 1880,1930 लिंगं चिंध निमित्तं | लिंगपविट्ठाणेवं 1879 लिंगादी जोगत्थे 1878 लिंगेण खेत्त काले 2322 लिंगेण लिंगिणीए 2250 लित्तं ति गतं एतं 1876 लुक्खं तु णेहरहितं 1875 लुक्खं सीतल साहारणं 1913 लुक्खत्ता मुहतं 1922 लुक्खादी तिह खेत्तं 2317 | लूहवित्ती महाभागो . 1988 लेवाडगपरिवासे लेवाडय कंठोत्तं लेवालेवे त्ति जं वुत्तं . 1202 लोइयगरहित मज्जा 1931 लोइयपरियट्टे वी 1910 लोउत्तरपामिच्चे 1886 लोगस्सुज्जोयगरा 1928 लोगाणुग्गहकारिसु 2589 2508, 2509 .1600 1825 1779 1877 2225 1083 1299 1510 1688 1701 992 1371 1329 1246, 1248 2006 * 1420 1898 लागुत्तर सवाउन 1907 लोगुत्तरें मासलहुं 1905 लोभे एसणघातो 1884 लोभे चउगुरुगा तू Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदानुक्रम : परि-१ 565 495 2514, 98 972 826 938 1537 499 1406 890 वइगुत्तीए साधू वइयादिसु जं अंतो वइरोसभसंघतणा वइरोसहसंघतणो वंजणभेदेण इहं वंजणभेदो भणितो वंदति ण य वंदिज्जति वंदित्तु गतो देवो वग्गुलिपक्खसरिसगं वच्चसि? णाहं वच्चे. वच्चह एगं दव्वं वच्छल्ल असियमुंडो वच्छल्ला वि य दुविधा वटंति अपरितंता .. वट्टति तु समुद्देसो वड्डति हायति छाया वड्डेति तप्पसंगं वणकायअणंतेसुं वणकायऽणंतमीसे वणकायपरित्तेणं वणिमगपिंडो भणितो वतलोवों सरीरे वा वत्तणुवत्तपवत्तो वत्तो णामं एक्कसि वत्थु पुण परवादी वयछक्कं कायछक्कं वयछक्ककायछक्कं वयणे वि पुव्व दुविधो वरणेवत्थं एगे वरिसाण बारसण्हं ववहारे पंचसु वी ववहारो आरोवण 791 | वसभो वा ठाविज्जति 518 | वसहि-णिवेसण-वाडग 2162 | वसही गुरुमूला वा 2549 / वसुदेव अण्णजम्मे 1011 / वाइय-पित्तिय-सिंभिय 1013 | वाउक्खित्ताणंतर वाघाति आणुपुव्वी 860 वाघातेण पविट्ठो 2167 वादपरायणकुवितो 888 वायणभेदा चतुरो 900 वायाम-वग्गणादी 610 वाल-ऽच्छभल्लविसगत 1048 | वालुंक-वडग-वाइंग... वालेण गोणसाइण | वावारिततेण्णेतं 1170 | वावारिता गुरूहिं 1187 / वाविता लूया मलिता 1544 वासउदुअहालंदे 1716 वासं बारसवासा 1709 वासावासपमाणं 1384 वासासु अहालहुसो 2524 वासासु चउम्मासो वासासु विसेसेणं वासे बहुजणजोग्गं विकहादिपमादेणं विक्खेवणविणएसो विगति अणट्ठा भुंजति 1424 विगतीकताणुबंधे 2462 विगलिंदऽणंतघट्टण. 2584 विगहा-किड्डादीहिं 698 विच्चुत पडितं भण्णति 1844 विच्छिण्णमडंबादी 2574 179 590 500 1614 501 2318 2316 1158 2082 92 2078 1908 2083 202 200 1744 233 1034 448 676 154 684 - 965 1732 936 Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 566 जीतकल्प सभाष्य 1054 1057 1214 1476 253 57 733 1293 1643 1209 2255, 2260 .. 300 विज्जाएँ उ णिदरिसणं विज्जा-मंतविसेसो विज्जा-मंताभिहिता विज्जा-मंते चतुलहु विज्झाउ त्ति ण दीसति विज्झातमुम्मुरिंगाल.... विणयग्गाहण खुड्डे विणयब्भंगो एसो विण्णाणाभावम्मि वि. विपुलं तवमकरेंतो विमलीकत णे चक्खू विरियं सामत्थं वा विहरेंति एगसंभोइगा विहिपरिभुत्तुव्वरितं वीसग्गसो य वासाइं वीसज्जिता वि साहू वीससपयोग अब्भाइ.... वीसाऽऽरद्धं ठायति वेज्जो त्ति पुच्छितव्वो वेदण वेयावच्चे वेयावच्च करतो वेयावच्चकरो तू वेयावच्चकरो वा वेयावच्चतराणं वोच्छं वक्खामि त्ती वोच्छेद गुरुगिलाणे वोलेंता ते व अण्णे वा सं एगीभावम्मी संकमणऽण्णोण्णस्सा संकाए चउभंगो संका चारिग चोरे संकादिगेसु देसे 1439 | संकादी अट्ठपदा 1438 | संकादी अट्ठसु वी 1448 | संकामेउं कम्म 1437 | संकित मक्खित णिक्खित्त 1530 | संखाईया ठाणा 1529 | संखातीताओ खलु 2378 संखेज्जम्मि तु काले 879 | संखेवतो उ एते 227 | संखेवेण दुहा ऊ 1790 | संगाले चतुगुरुगा 1435 | संघट्टकता चुल्ली 1776 संघतणधितिसमग्गा 781 संघतण-धितीहीणा 971 संघयण-धितीजुत्तो 2118 | संघस्साऽऽयरियस्स य 1452 | संघस्सोह-विभागे 103 | संघाडग हिंडते 2242 | संघाडग हिंडंतो 1387 / संघाडगो तु जाव उ 1658 | संघाडपच्चयट्ठा / 2280 | संघियचिक्खल्लेणं 1965 संघो ण लभति कज्जं 672 संजति कप्पठितें पढमों संजमकरणुज्जोया 4 संजमठाणमसंखा 2332 | संजमठाणाणं कंडगाण 1150 संजममायरति सयं 657,1107 | संजम सकलं किच्चं 2085 / संजोइय अतिबहुयं 1477 | संजोएंतो दव्वे 2008 संजोए रसहेतुं 28 संजोयण भणितेसा 515 602 1992 1221 1592 2444 1330 1210 2575 1966 2507 2182 1109 339, 1106 216 2296 1610 1616 1682 1621 Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदानुक्रम : परि-१ 567 125 752/ संजोयणेत्थ दुविधा संतविभवेहि तुल्ला संतविभवो तु जाहे संते वि आगमम्मी संतेहिं वि चेलेहि संथारादीणऽहवा संथारों उत्तिमद्वे संथारों तस्स मउगो संबंध पुव्व दुविधो संबंधपुव्वसंथवों . संबंधसंथवेसो संभमऽणेगविधो खलु संभमभयातुरावति.. संलेहणा उ तिविधा संवच्छराणि चउरो संवर घट्टण पिहणं . संवर-विणिज्जराओ संवरियासवदारो संविग्गदुल्लभं खलु संविग्गऽवज्जभीरू * संविग्गे पियधम्मे संविग्गों मद्दवितो संसज्जिमेहिं वज्जं संसट्ठमाइयाणं संसट्ठहत्थ-मत्ते संसत्तहत्थ-मत्ते संसत्तेण तु दव्वेण संसयकरणं संका संसारखड्डपडितो संसारमणवयग्गं संसोधण संसमणं सक्कपसंसा अस्सद्द... 1611 | सक्कारं सम्माणं 299 सगणामं व परिजितं 293 | सगणे आणाहाणी सग्गाम परग्गामे 1978 सग्गामाहड-दद्दर सग्गामाहड दुविधं 458 सच्चित्ततेण्णमेतं 463 सच्चित्तपुढविकाए 1422 सच्चित्तपुढविकाओ 1426 सच्चित्तपुढविलित्तं 1431 सच्चित्तमक्खितम्मि उ 933 सच्चित्तमीस आदिल्ल... 13 सच्चित्त मीस एक्को 341 सच्चित्त मीसगे या 344 सच्चित्तादिसु अच्चित्त... 707 सज्झायविहारो तू 710, 2 सज्झिल्लगादिणं तू 708 सड्ढडरत्त केसर.... 376 सढयाए पुण दोसो 2598 सण्णीणं रुद्धाई सण्णी व असण्णी वा 2385 सतमुस्सारे एक्कं 1508 सति लाभम्मिं साधू 2130 सति लाभम्मि व गेण्हति 1598 सत्तम गाह समत्ता 1599 सत्त य पडिग्गहम्मी 1573 सत्तविधं भयमेतं 1039 सत्तावीसं जहण्णेणं 591 सथलीसु ताव पुव्वं 2511 सपडिक्कमणो धम्मो 1390 सपदपरूवण अणुसज्जणा 800 सपरक्कमं तु तहियं 543 169 335 1325 1703, 41 1251 2350 1518 1520 1259 1501 1560 1549 1602 1548 754 1590 1417 2338 504 2504 1757 1982 2494 763 2178 928 2133 2366 2051 267 327 Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 568 जीतकल्प सभाष्य 472 471 469 2016 1756 2124 2476 1758 468 .1712 1361 15 1679 1737 सपरक्कमे य अपरक्कमे सपरक्कमे य भणितं सप्पच्चवाय णिरपच्च.. समउत्तरवुड्डीए समणट्ठ जाव दुछडा समणट्ठ वावितादी समणस्स उत्तिमढे समणे माहण किवणे सम-विसमम्मि व पडितो समितिविसुद्धिणिमित्तं सम्ममसम्मा किरिया सम्मूढेणितरेण वि सयं चेव चिरावासो सयग्गसो य उक्कोसा सयणं सेज्ज पडिस्सय सयमेवाऽऽभोएतुं सरिकप्पे सरिछंदे सरीरमुज्झितं जेण सव्वं चिय आवसयं सव्वं ण कप्पएतं सव्वं णेयं चतुहा सव्वं पि य तं दुविधं सव्वं पि य पच्छित्तं सव्वं भोच्चा कोई सव्व जहुद्दिढेसुं सवण्णूहिँ परूविय सव्वत्थ तु चतुभंगो सव्वत्थ तु णिव्विगतिं सव्वबहुअगणिजीवा सव्वब्भंगे छटुं सव्वम्मि बारसविधे सव्ववतेसुं गुत्तिसु 324 सव्वसुहप्पभवाओ 497 सव्वाओ अज्जाओ 1253 सव्वाहिं वि लद्धीहिं 29 सव्वाहिं संजतीहिं 1161 | सव्वे काउस्सग्गे 1160 सव्वे चरित्तमंता य 566 सव्वे वाऽऽसाएंतो 1364 सव्वे सयमुस्सारे सव्वे सव्वद्धाए 974,985 सव्वेस जहद्दिट्रेस 1354 सव्वेसु भद्दपंता 2486 सव्वेसु य बितियपदे 384. सव्वेसु वि एतेसुं 2134 सव्वेहि जियपदेसेहिं 984 सव्वोवधि हारेती 381 सव्वोवहिकप्पम्मि य 2109, 2110 ससणिद्ध हत्थमत्ते 489 ससणिद्भुदउल्ले या 1760 ससहाओ असहाओ 1539 | सहसा-अणभोगा तू 97 | सहसाऽणाभोगा तू 1271 सहसाऽणाभोगेण व 265 सा आलोयण दुविधा 446, 447 | सा गहणेसण चतुहा 1683 | सा चतुहा नामादी 318 सा जेसि तुवट्ठवणा 1167 सा णेच्छई विसण्णो 1721 सा दुह देसे सव्वे 53 सा पाहुडिया दुविधा 1032 सा पुण छसु णातव्वा 219 सामण्णं अविसेसित 914 | सामण्णं पुण सुत्ते 1495 1494 2336 1719 918,937 915, 44 770 1474 1605 2026 830 2474 1224 1559 1811 25 Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदानुक्रम : परि-१ 569 1639 1672 1979 746 1416 1298 1562 1308,1309 320 1003 699 1830 223 142 सामत्थे वण्णणाए य सामाइए य छेदे सामाइयमादीयं सामाइसंजताणं सारेऊण य कवयं सारो चरणं तस्सा साली-घत-गुल-गोरस सालीमादी अगडे सावज्ज भास भासति सा वि य भणती होतू सावेक्खा होंति तिहा सावेक्खो त्ति व काउं सावेक्खो पवयणम्मि सासवणाले मुहणंतगे सासवणाले लड़े साहम्मिउवधिहरणं साहम्मितेण्ण दुविधं साहरणेतं भणितं साहारणं समं तू . साहारणमणिसटुं साहारणवणकाए साहारणा तु एते साहुणिमित्ता रद्धं साहुवयारि त्ति तुमं साहूण समुल्लावो साहू सुतोवउत्तो सा होती आसातण सिझंतस्सुवगारं सिणेहो पेलवी होती सिप्पणेउणियट्ठा सिसिरे दसमादी पुण सीतघरम्मि व डाहं 2592 | सीतो उसिणो साहारणो 1969 सीयालीसं एते 714 सीसावेढियपोत्तिं 286 सीसाऽऽह जई एवं 331 सीहेसरगतचित्तो सुक्केण वि जं छिक्कं 1177 | सुक्के सुक्कं पढमं 1147 | सुक्खे सुक्खं पडितं 806 | सुण जह णिज्जवगऽत्थी 1331 सुतणाणम्मि गुरुम्मि व 2203 | सुतववहारअभावे 2221 सुतववहारेणऽहवा 303 सुत्तं अत्थं च तहा 2482 सुत्तं अत्थे उभयं 2483 | सुत्तं गाहेति उज्जुत्तो 2309 सुत्तत्थतदुभयविसार.. 2308 | सुत्तत्थपोरिसीअकर... 1568 | सुत्तस्स अप्पमाणे 1823 | सुत्तेण वि अत्थेण वि 1276 | सुत्ते वा अत्थे वा 1071 / सुद्धं एसित्तु ठावेंति 2084 सुबहुत्तरगुणभंसी 1165 | सुबहू पिपीलियाओ 839 | | सुहुमं व बादरं वा 1396 सुहुमाए मासलहुं 1485 सुहुमाए लहुपणगं 863 सुहुमो य होति कालो 1208 | सूभग-दोभग्गकरा 337 से किं अप्पडिवाति 2381 से किं मज्झगतो?तं 1863 सेज्जातरपिंडे या 236 सेलेसिं पडिवण्णे 224 2089 1789 1486 2596 1030 490 81 857 1204 1385 1225 1459 43 1974 709 Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 570 जीतकल्प सभाष्य 2436 638 2459 569 . 580 217 261 478 68 1294 1288 2587 .. 1570 55 सेलेसि सिद्ध विग्गह सेवंतो तु अकिच्चं सेसं अट्ठहऽणुसज्जति सेसं जह थेराणं सेसाणं संसटुं सेसाण ण वि परिणतो सेसा विसोधिकोडी सेसेसू तीसुं पी सेसेहि णियत्तेज्जा सेसेहि तु काएहिं सेहो त्ति अगीतत्थो सोइंदिएण सोउं सो उग्गमो चतुद्धा सो एसो जस्स गुणा सो कीरति पारंची सोगं आभोगेण वि सो चेव य परियाओ सो चोल्लगो वि दुविधो सो जह कालादीणं सो तं घेत्तूण गतो सो तं चिय धरति गणं सो तम्मि चेव दव्वे सो तु परंपरएणं सोतूण तस्स पडिसेवणं सो थेरकप्पों दुविहो सो दिट्ठो य विगिंचिंतों सो पुण ओही दुविधो सो पुण ठिति मज्जाया सो पुण दंसणवंतो सोभणविही तु जेसिं सो य समत्थो होज्जा सोलस उग्गमदोसा सोलस उग्गमदोसे 473 | सो वंदति सेहादि वि 596 सो ववहारविहिण्णू 278 सो वा करेज्ज तेसिं 2071 सो वि अपरक्कमगती 2496 सो वि गुरूहि भणितो 1591 सो सत्तरसो पुढवा... 1303 सोहीए य अभावे 1565 हंदि दु परीसहचमू 1181 हट्टगिलाणा भावम्मि 1500 हणणतिगं पयणतिगं 2310 हणण हणावण अणुमोदणं 20 हत्थं तु भमाडेतुं 1089 हत्थंदु-णिगलबद्धे 1433 हत्थम्मि मुहुत्तंतो 97 हत्थसतबाहिरातो 929 हत्थसयाउ परेणं 2041 हत्थाताले हत्था.... हत्थी विगुम्वितो या ' हत्थेणं जं तालण 2320 2347 हत्थेण व पादेण व 669,670 हरितादि अणंतर पूवितादि . 2087 हवेज्ज जदि वाघातो 636 हारितधोतुग्गमिया... 2095 हासं तु हासमेव तु 64 हिंडंतो गोयरम्मि 32 हितमहितं होति दुहा 1970 हिताहारा मिताहारा 2037 हिययम्मि समाहेउं 2595 हीणतरे हीणतरं 2564 होति जहण्णुक्कोसो 1088, 1487, 1671 | होति विसोहण सोहण 1313 होमादिऽ वितहकरणे 1277 760 2373 801 2374 2376 1538 388 47 911 فاه 1633 1632 1103 2277 1854,1856 705 1353 Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ 573 cm * 3 574 591 591 ; 592 ** कथाएं : विषय-सूची संस्कारों का प्रभाव: | 25. भाषा समिति : साधु तिलहारक दृष्टान्त। की जागरूकता। 588 संघ सहित अनशन। 573 | 26. एषणा समिति : नंदिषेण कथानक। 589 द्रव्य-संलेखना। 574 | 27. आदान निक्षेप समिति : आज्ञा का महत्त्व। 574 प्रतिलेखना क्यों? संग्राम द्वय : महाशिला परिष्ठापना समिति : कंटक और रथमुशल। मुनि धर्मरुचि। दुर्भिक्ष : कौशलक श्रावक। 576 29. प्रतिसेवना : चोर-दृष्टान्त। आचार्य स्कंदक। 576 | 30. प्रतिश्रवण : राजपुत्र-दृष्टान्त। 592 चाणक्य का अनशन। 577 संवास : पल्ली-दृष्टान्त। चिलातपुत्र की समता। 578 | 32. अनुमोदना : राजदुष्ट-दृष्टान्त। 593 कालासवैशिक का उपसर्ग। 579 33. आधाकर्म : शाल्योदन-दृष्टान्त। 593 बांसों के झुरमुट की वेदना। 580 | 34. आधाकर्म : पानक-दृष्टान्त। 594 12. अवंतीसुकुमाल। 580 35. . नूपुरपंडिता। 595 युवक-समूह का अनशन। | 36. आधाकर्म की अभोज्यता : अनशन में म्लेच्छ का उपद्रव।। 581 वमन-दृष्टान्त। 597 शिष्यों की परीक्षा। आज्ञा की आराधना-विराधना : प्रवचन की प्रभावना। उद्यान द्वय दृष्टान्त। 598 ____ आर्य वज्र द्वारा श्रावक का उद्धार। 582 द्रव्यपूति : गोबर-दृष्टान्त। 599 आर्य वज्र की दीक्षा। अनिसृष्ट दोष : लड्डुक-दृष्टान्त। 599 आरक्षित द्वारा पिता की दीक्षा। 585 | 40. दूती दोष : धनदत्त कथा। 600 मनोगुप्ति : जिनदास कथा। 587 | 41. निमित्त दोष : ग्रामभोजक-दृष्टान्त। 601 वचनगुप्ति : साधु का वाक्संयम। 587 चिकित्सा दोष : सिंह-दृष्टान्त। 602 कायगुप्ति : स्थण्डिल भूमि क्रोधपिण्ड : क्षपक-दृष्टान्त। 602 की यतना। 588 | 44. 588 मानपिण्ड : सेवई-दृष्टान्त। 602 कायगुप्ति : देव-परीक्षा। 588 | 45. मायापिण्ड : आषाढ़भूति कथानक। 604 24. ईर्यासमिति : अर्हन्नक साधु की लोभपिण्ड : सिंहकेशरक मोदकसजगता। दृष्टान्त। 607 581 581 582 583 22. 588 / Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 572 जीतकल्प सभाष्य 607 विद्या-प्रयोग : भिक्षु-उपासक 57. का कथानक। मंत्र-प्रयोग : मुरुण्ड राजा एवं पादलिप्तसूरि कथानक। ___ चूर्ण-प्रयोग : क्षुल्लकद्वय / एवं चाणक्य कथानक। 608 62. योग-प्रयोग : कुलपति एवं आर्य समित कथानक। 609 द्रव्य ग्रहणैषणा : वानरयूथ-दृष्टान्त। 610 छर्दित दोष : मधु-बिन्दु-दृष्टान्त। 611 53. द्रव्य ग्रासैषणा : मत्स्य-दृष्टान्त। 612 54. परिणामक आदि शिष्यों की परीक्षा। 612 | 68. 55. प्रतिक्रमण : रसायन दृष्टान्त। 613 56. पद्मावती की दीक्षा। 613 69. खुड्डककुमार को वैराग्य। 615 हस्तालम्ब : वणिग्द्वय कथा। 616 सरसों की भाजी। 617 मुखवस्त्रिका। 617 उलूकाक्ष। 618 . शिखरिणी। 618 उदायिमारक। 618 आचार्य स्कन्दक और पालक। 620 स्त्यानर्द्धि निद्रा : पुद्गल-दृष्टान्त। 620. स्त्यानर्द्धि निद्रा : मोदक-दृष्टान्त। 620 स्त्यानर्द्धि निद्रा : कुम्भकार-दृष्टान्त। 620 स्त्यानर्द्धि निद्रा : दंत-उन्मूलन- .. दृष्टान्त। 621 स्त्यानर्द्धि निद्रा : वटशाखा-दृष्टान्त। 621 : 64. Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं (जीतकल्पभाष्य में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने प्रसंगवश अनेक कथाओं का संकेत किया है। वहां प्रायः कथाओं का संक्षिप्त उल्लेख है लेकिन कहीं-कहीं नंदिषेण आदि की कथाएं विस्तृत रूप से भी वर्णित हैं। चूंकि इस भाष्य पर न चूर्णि उपलब्ध है और न ही टीका अतः इस ग्रंथ में निर्दिष्ट प्रायः कथाओं का अनुवाद निशीथचूर्णि, आवश्यक चूर्णि, बृहत्कल्पभाष्य टीका, पिण्डनियुक्ति टीका तथा उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका आदि ग्रंथों के आधार पर किया गया है। जहां कहीं अन्य ग्रंथों को आधार बनाया है, वहां नीचे पाद-टिप्पण में उल्लेख कर दिया है।) १.संस्कारों का प्रभाव : तिलहारक दृष्टान्त एक बालक अधूरा स्नान करके बाहर खेलने चला गया। खेलते-खेलते वह तिलों के ढेर पर पहुंचा और उसमें लोटने लगा। लोगों ने उसे बालक समझकर नहीं रोका। उसका शरीर गीला था इसलिए उस पर तिल चिपक गए। वह तिलों सहित घर पहुंचा। मां ने शरीर पर चिपके हुए तिल देखे। उसने बालक के शरीर पर लगे सारे तिल झाड़ लिए और उन्हें एक पात्र में संगृहीत कर लिया। मां के मन में तिलों का लोभ जाग गया अतः उसने पुनः बालक को अधूरा स्नान कराकर भेजा। वह पुनः तिलों के ढेर पर गया और गीले शरीर से उस ढेर में प्रवेश कर तिलों सहित घर आ गया। मां ने उसे न डांटा और न ही वहां जाने से रोका। वह धीरे-धीरे तिल चुराने वाला बड़ा चोर बन गया। एक बार चोरी करते हुए उसे राजपुरुषों ने पकड़ लिया। राजा ने उसके वध की आज्ञा दे दी। वह मारा गया। राजा ने सोचा यह बालक मां के दोष से चोर हुआ है। राजपुरुषों ने माता को दंडित करने के लिए उसके स्तनों का छेद कर दिया। मां को गलत संस्कार देने का दंड मिल गया। एक दूसरा बालक भी अपूर्ण स्नान करके तिलों के ढेर में जा छिपा। उसके गीले शरीर पर तिल चिपक गए। तिल सहित शरीर से वह बालक घर पहुंचा। मां ने उसे डांटते हुए कहा कि पुनः ऐसा कभी मत करना। उसने शरीर से तिल झाड़ कर मूल स्वामी को वापस दे दिए। उस बालक में चोरी की आदत नहीं पनपी। वह सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगा। मां को भी स्तनछेद जैसी पीड़ा सहन नहीं करनी पड़ी। २.संघ सहित अनशन कलिंग जनपद के काञ्चनपुर नगर में अनेक शिष्य परिवार के साथ बहुश्रुत आचार्य विहरण करते थे। वे एक दिन शिष्यों को सूत्र पौरुषी और अर्थपौरुषी की वाचना देकर संज्ञाभूमि में गए। जाते हुए रास्ते में एक बड़े वृक्ष के नीचे उन्होंने किसी देवी को स्त्री रूप में रोते हुए देखा। दूसरे और तीसरे दिन भी उन्होंने १.जीभा 308,309, व्यभा 4209, 4210 टी प.५२। Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 574 जीतकल्प सभाष्य वही दृश्य देखा। आचार्य के मन में शंका हुई। उन्होंने उससे रोने का कारण पूछा। उस स्त्री ने कहा-"मैं इस नगर की अधिष्ठात्री देवी हूं। यह सारा नगर शीघ्र ही जल-प्रवाह से नष्ट हो जाएगा। यहां बहुत से स्वाध्यायी और बहुश्रुत मुनि निवास करते हैं। उनके बारे में चिन्तन करके मैं रो रही हूं।" आचार्य ने पूछा'इस बात का विश्वास कैसे हो?' नगरदेवी ने कहा-"अमुक तपस्वी के पारणे में आया हुआ दूध रक्त रूप में परिवर्तित हो जाएगा। जहां तक जाने पर वह दूध स्वाभाविक रूप में परिणत हो जाए, वहां क्षेम होगा।" दूसरे दिन पारणे में क्षपक के लिए आया हुआ दूध रक्त में बदल गया। तब सम्पूर्ण संघ के मुख्य व्यक्तियों ने चिन्तन किया और अनशन स्वीकार कर लिया। 3. द्रव्य-संलेखना एक बार एक शिष्य आचार्य के पास भक्त-प्रत्याख्यान अनशन की आज्ञा लेने उपस्थित हुआ। आचार्य ने पूछा-"अनशन से पूर्व तुमने संलेखना की या नहीं?" शिष्य ने सोचा-'आचार्य मेरे कृश शरीर को देख रहे हैं, जो केवल हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया है फिर भी मुझे संलेखना की बात पूछ रहे हैं।' यह सोचकर क्रोध के आवेश में उसने अपनी अंगुलि तोड़कर दिखाते हुए कहा-'क्या आपको कहीं रक्त और मांस दिखाई देता है, जो आप यह पूछ रहे हैं कि मैंने संलेखना की है या नहीं?' शिष्य की बात सुनकर आचार्य बोले-"मैंने द्रव्य-संलेखना के विषय में नहीं पूछा था। यह तो तुम्हारे शरीर को देखकर : प्रत्यक्षतः जान लिया है।" मैंने भाव-संलेखना के विषय में जानना चाहा था और यह स्पष्ट दिखाई देता है कि तुमने भाव-संलेखना-कषायों का उपशमन नहीं किया है। जाओ, भाव-संलेखना का अभ्यास करो और फिर अनशन की बात सोचना। 4. आज्ञा का महत्त्व एक राजा ने अमात्य और कोंकण देशवासी नागरिक-इन दोनों को अपराधी मानकर उनको यह आज्ञा दी कि यदि दोनों पांच दिन के भीतर देश को छोड़कर नहीं जाएंगे तो उनका वध कर दिया जाएगा। दोनों ने आदेश सुना। कोंकण देशवासी नागरिक के पास तुम्बे और कांजी के पानी से भरे बर्तन थे। वह तत्काल तुम्बे और कांजी जल को छोड़कर उस देश से निकल गया। मंत्री घर आकर गाड़ी, बैल आदि की व्यवस्था कर घर को समेटने लगा। उस व्यवस्था में उसके पांच दिन निकल गए। छठे दिन राजा ने उसे शूली पर चढ़ा दिया। आज्ञा-भंग के कारण अमात्य मृत्यु को प्राप्त हो गया। ५.संग्राम द्वय : महाशिला कंटक और रथमुशल राजा कूणिक और चेटक के मध्य लड़े गए ये दो प्रमुख संग्राम थे। युद्ध का मुख्य कारण था १.जीभा 382, व्यभा 4278 टी प.६१ / 2. जीभा 399-402, व्यभा 4290,4291 टी प.६३। 3. जीभा 403, 404, व्यभा 4292, 4293 टी प.६३ / Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 575 कूणिक की पटरानी पद्मावती द्वारा सेचनक हाथी और अठारह लड़ियों के हार की मांग करना। जब पद्मावती ने लोगों के मुख से यह सुना कि असली राजा तो बेहल्लकुमार है, जो राज्य-सुख को भोग रहा है तो कूणिक से आग्रह किया कि ये दोनों वस्तुएं बेहल्लकुमार से प्राप्त करें। प्रारम्भ में कूणिक ने रानी पद्मावती की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन बाद में उसने बेहल्लकुमार से इन दोनों वस्तुओं की मांग की। बेहल्लकुमार ने कहा- ये दोनों वस्तुएं मुझे पिताश्री ने दी हैं। यदि आप मुझे आधा राज्य दें तो मैं आपको ये दोनों वस्तुएं दे सकता हूं।' बेहल्लकुमार सेचनक हाथी और अठारह लड़ियों वाले हार की सुरक्षा हेतु अपनी रानियों के साथ नाना चेटक की शरण में चला गया। कूणिक ने चेटक के पास दूत के साथ संदेश भेजा कि वे बेहल्लकुमार के साथ हाथी एवं हार वापस भेजें। चेटक ने दूत के साथ प्रत्युत्तर दिया कि जिस प्रकार तुम मेरे दोहित्र हो, वैसे ही बेहल्ल भी है। यदि तुम उसको आधा राज्य दो तो मैं इनको वापस कर सकता हूं, अन्यथा यह मेरी शरण में है। कूणिक ने पुनः दूत भेजा लेकिन चेटक ने उसकी बात स्वीकृत नहीं की। क्रोधित होकर कूणिक ने अपने काल आदि दश भाइयों को बुलाकर कहा कि तुम लोग चेटक के साथ युद्ध के लिए तैयार हो जाओ और अपने तीन हजार हाथियों, तीन हजार रथों, तीन हजार घोड़ों तथा तीन करोड़ सैनिकों से सन्नद्ध होकर नगर के बाहर पहुंच जाओ। काल आदि दसों भाई सन्नद्ध होकर नगर की सीमा पर पहुंच गए। राजा कूणिक ने तेतीस हजार हाथियों, तेतीस हजार घोड़ों, तेतीस हजार रथों तथा तेतीस करोड़ सैनिकों से युक्त होकर वैशाली की ओर प्रस्थान कर दिया। - जब चेटक को यह बात ज्ञात हुई तो उसने नौ मल्लवी, नौ लच्छवी तथा काशी और कौशल आदि अठारह देशों के राजाओं को युद्ध की सूचना दी। वे भी अपने सैन्यबल के साथ वहां पहुंच गए। राजा चेटक ने सत्तावन हजार हाथी, सत्तावन हजार घोड़े, सत्तवान हजार रथ तथा सत्तावन करोड़ मनुष्यों के साथ राज्य की सीमा के पास पड़ाव डाल दिया। कूणिक ने सर्वप्रथम गरुड़ व्यूह की रचना की। उसके विरुद्ध राजा चेटक ने शकट-व्यूह की रंचना की। कूणिक के दश भाई चेटक के बाण द्वारा मारे गए। यह देखकर कूणिक ने सोचा कि कहीं मेरा भी राजा चेटक के हाथ से वध न हो जाए अतः उसने पूर्वभव के दो मित्रों को याद किया, जो शक्रेन्द्र और चमरेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुए थे। वे दोनों इन्द्र सहायतार्थ पहुंचे। देवेन्द्र शक्र ने कूणिक के शरीर पर वज्रमय कवच का आवरण डाल दिया। महाशिलाकंटक युद्ध में कूणिक हस्तिरत्न उदाई पर आरूढ़ होकर युद्ध क्षेत्र में गया। शक्रेन्द्र ने महाशिलाकंटक संग्राम की विकुर्वणा की, जिसमें एक कंकर भी शिलारूप बन जाता था। इस संग्राम में चौरासी लाख मनुष्य मारे गए। चमरेन्द्र ने रथमुशल संग्राम की रचना की। बिना सारथी के रथ में एक मुशल रखा हुआ था, जिसके द्वारा फेंका गया कंकर भी मुशल जैसा प्रहार करता था। इस युद्ध में भी छियानवें लाख मनुष्यों का विनाश हुआ। १.निरयावलिका में केवल रथमुशल संग्राम का उल्लेख है। यह युद्ध किसने प्रवर्तित किया, युद्ध का स्वरूप कैसा था आदि का वर्णन वहां नहीं है। Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 576 जीतकल्प सभाष्य चेटक के साथ नौ मल्लवी और नौ लिच्छवी-ये अठारह गणराजा पराजित हुए। युद्ध में चेटक के रथिक ने राजा कूणिक के वध हेतु निरन्तर बाणों की वर्षा की लेकिन वज्रमय कवच के कारण वे बाण व्यर्थ हो गए। तब उसने वृक्ष पर चढ़कर क्रोधपूर्वक क्षुरप्र से चेटक के शिर का छेदन कर दिया। 6. दुर्भिक्ष : कौशलक श्रावक एक बार दुर्भिक्ष के समय कौशल देश के श्रावक ने अन्यत्र विहार करते हुए पांच सौ साधुओं को यह निवेदन करके रोक लिया कि मैं आप लोगों को भक्त-पान दूंगा। बाद में लाभ विशेष के लोभ से उसने अपने धान्य को बेच दिया। दुर्भिक्ष के समय भिक्षा न मिलने के कारण पांच सौ साधुओं में कुछ श्वास निरोध आदि करके, कुछ गृध्रपृष्ठ से तथा कुछ फांसी के द्वारा बाल-मरण को प्राप्त हो गए। 7. आचार्य स्कंदक श्रावस्ती नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम धारिणी तथा युवराज स्कन्दक था। राजा की पुत्री का नाम पुरंदरयशा था। उसका विवाह उत्तरापथ में कुंभकारकट नगर के दंडकी राजा के साथ किया गया। दंडकी राजा के पुरोहित का नाम पालक था। एक बार श्रावस्ती नगरी में तीर्थंकर मुनिसुव्रतस्वामी पधारे। उनके समवसरण में अनेक व्यक्ति उपस्थित हुए। स्कन्दक भी देशना सनने गया। धर्मवार्ता सनकर उसने श्रावक-व्रत स्वीकार कर लिए। एक बार पालक पुरोहित दूत के रूप में श्रावस्ती नगरी आया। सभा के बीच में ही वह जैन साधुओं की निंदा करने लगा। उस समय कुमार स्कन्दक ने अपनी तेजस्वी वाणी से उसे निरुत्तरित कर राज्य से बाहर निकाल दिया। इस घटना से उसके मन में स्कन्दक के प्रति रोष उमड़ पड़ा। उसी दिन से पालक गुप्तचरों के माध्यम से स्कन्दक का छिद्रान्वेषण करने लगा। कालान्तर में कुमार स्कन्दक पांच सौ व्यक्तियों के साथ मुनिसुव्रत तीर्थंकर के पास दीक्षित हुआ। ज्ञानाभ्यास से उसने बाहुश्रुत्य को प्राप्त कर लिया। उसकी योग्यता का मूल्यांकन करके कुछ समय बाद तीर्थंकर मुनिसुव्रत ने उसे पांच सौ शिष्यों का प्रमुख बना दिया। एक बार स्कन्दक ने भगवान् को निवेदन किया कि मैं अपनी संसारपक्षीय बहिन पुरंदरयशा को प्रतिबोध देने जाना चाहता हूं। यह सुनकर तीर्थंकर मुनिसुव्रत ने कहा-'वत्स! वहां मारणान्तिक कष्ट आ सकता है।' स्कन्दक ने पूछा-'उपसर्ग में हम सब आराधक होंगे या विराधक?' भगवान् ने प्रत्युत्तर दिया-'तुमको छोड़कर अन्य सभी साधु आराधक होंगे।' उसने कहा-'अच्छा है, इतने मुनि यदि आराधक होते हैं तो शुभ है। भगवान् के मना करने पर भी आचार्य स्कन्दक अपने पांच सौ मुनियों के साथ कुंभकारकट नगर में पहुंचे। सभी मुनि नगर के बाहर एक उद्यान में ठहरे। 1. जीभा 479-81, भ 7/173-210, भा. 2 पृ. 385, 386, निर. 1, व्यभा 4363-65 टी प.७३। 2. जीभा 503-06, व्यभा 4385 / 3. यह कथा जीतकल्पभाष्य में दो स्थानों पर आई है। देखें जीभा 2499, 2500 / Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 577 पालक को जब स्कन्दक मुनि के आने का वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो उसने उद्यान में गुप्त रूप से शस्त्र छिपा दिए। दूसरे दिन पालक ने राजा के पास आकर उसको भ्रमित करने के लिए कहा'स्कन्दक मुनि परीषहों से पराजित होकर यहां आया है। वह बहिन से मिलने के बहाने यहां आपको मारकर राज्य ग्रहण करना चाहता है। यदि मेरी बात पर विश्वास न हो तो आप उद्यान में जाकर देखें, वहां अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र छिपाए हुए हैं।' राजा ने गुप्तचरों को उद्यान में भेजा। छिपे शस्त्रों की बात जानकर राजा का विश्वास स्थिर हो गया। राजा ने सभी मुनियों का निग्रह कर उन्हें पालक पुरोहित को सौंप दिया। पालक ने एक-एक कर पांच सौ मुनियों को कोल्हू में पील दिया। सभी मुनियों ने समतापूर्वक उस वध परीषह को सहन किया। पूर्ण समाधिस्थ रहने से सबको कैवल्य उत्पन्न हुआ और सभी सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। आचार्य स्कन्दक पास में खड़े थे। उन्होंने यह सारा दृश्य देखा। रुधिर से भरे कोल्हू यंत्र की ओर उनकी दृष्टि गई। उन्होंने कहा-'इस बाल मुनि को मैं यंत्र में पीलते हुए नहीं देख सकता अत: पहले मुझे पील दो।' पर उनके देखते-देखते सैनिकों ने छोटे शिष्य को यंत्र में पील दिया। यह दृश्य देखकर आचार्य स्कन्दक कुपित हो गए। उन्हें सबसे अंत में पीला गया। वे निदान कर अग्निकुमार देव के रूप में उत्पन्न हुए। उसी समय एक गृद्ध आचार्य स्कन्दक के रक्तलिप्त रजोहरण को पुरुष का हाथ समझकर उठाकर ले गया। उसके साथ में पुरंदरयशा द्वारा दत्त कंबल भी था। वह रजोहरण पुरंदरयशा के सामने गिरा। रजोहरण और कंबल को देखते ही पुरंदरयशा ने पहचान लिया कि यह मेरे भाई का है। जब उसे ज्ञात हुआ कि मेरे भाई सहित सभी मुनियों को मरवा दिया गया है तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हो गयी। उसने राजा से कहा-'अरे पापिष्ट राजा! तुमने आज विनाश का कार्य किया है। अब मैं स्वयं भी दीक्षा लेना चाहती हूं।' उसकी प्रबल भावना जानकर देवों ने उसे मुनिसुव्रत स्वामी के पास पहुंचा दिया। उधर अग्निकुमार देव ने निदानं के कारण पूर्वभव का बदला लेने के लिए पूरे नगर को जलाकर भस्म कर डाला। पुत्र और पत्नी सहित पालक को कुत्ते के साथ कुंभी में पकाया गया। आज भी वह क्षेत्र दण्डकारण्य कहलाता है। 8. चाणक्य का अनशन - चाणक्य चन्द्रगुप्त मौर्य का महामात्य था। अंतिम समय में उसने गोबर गांव में प्रायोपगमन अनशन स्वीकृत किया। मंत्री सुबुद्धि चाणक्य की प्रसिद्धि को सहन नहीं करता था अतः उसके मन में चाणक्य के प्रति ईर्ष्या के भाव थे। उसने अनशन में स्थित चाणक्य के शरीर के चारों ओर गोबर निर्मित कंडे रखकर उनमें आग लगा दी। चाणक्य का पूरा शरीर जलने लगा लेकिन उसकी धृति किंचित् भी विचलित नहीं हुई 1. जीभा 528-30, उनि 112-14 शांटी प. 115, 116, निभा 5741-43 चू. पृ. 127, 128, बृभा 3272-74 टी पृ. 915,916 / Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 578 जीतकल्प सभाष्य और न ही शरीर में किसी प्रकार का कंपन हुआ अंत में उसने समाधि-मरण को प्राप्त किया। ९.चिलातपुत्र की समता क्षितिप्रतिष्ठित नगर में एक पंडितमानी ब्राह्मण जैन शासन की निन्दा करता था। एक बार एक मुनि ने वाद में प्रतिज्ञा के अनुसार उसे पराजित कर दिया। फिर देवता द्वारा प्रेरित होने पर उसने दीक्षा स्वीकार कर ली। दीक्षित होने पर भी वह जुगुप्सा छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। उसके सभी पारिवारिक जन उपशान्त थे लेकिन उसकी पत्नी उस पर बहुत अधिक अनुरक्त थी। उसने पति बने साधु को वश में करने के लिए कार्मण आदि वशीकरण का प्रयोग किया। वह मरकर देवलोक में उत्पन्न हुआ। उसकी पत्नी भी विरक्त होकर प्रव्रजित हो गई। दोष की ओलाचना किए बिना वह मरकर देवलोक में उत्पन्न हुई। मुनि देवलोक से च्युत होकर राजगृह नगर में धन नामक सार्थवाह के घर में चिलाता नामक दासी के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। बालक का नाम चिलातक रखा गया। ब्राह्मण-पत्नी भी च्युत होकर उसी सार्थवाह के घर में पांच पुत्रों के बाद पुत्री रूप में उत्पन्न हुई। उसका नाम सुंसुमा रखा गया। चिलातक को सुंसुमा की देखरेख के लिए रखा गया। उसको सुंसुमा के साथ कुचेष्टा करते देख सेठ ने चिलातक को घर से निकाल दिया। वह वहां से सिंह गफा नामक चोरपल्ली में चला गया। वहां वह अग्रप्रहारी और क्रर बन गया। सेनापति के मरने पर चिलातक को चोर-सेनापति बना दिया गया। एक बार उसने अपने साथियों से कहा-'राजगृह नगर में धन सार्थवाह रहता है। उसकी पुत्री का नाम सुंसुमा है, वहां चलें। जो धन प्राप्त हो, वह सब तुम्हारा और सुंसुमा मेरी होगी।' चोर-सेनापति चिलातक चोरों के साथ वहां गया। उसने अवस्वापिनी विद्या से धन और उसके सभी पुत्रों को निद्राधीन कर डाला। चोर उसके घर में घुसे। वे धन और सुंसुमा को लेकर भाग गए। धन सेठ ने नगर-रक्षकों को बुलाकर कहा–'मेरी पुत्री को लाकर दो। जो धन मिले, वह सब तुम बांट लेना।' पीछा होता देख चोर धन की गठरियों को फेंक कर भाग गए। नगर-रक्षक धन की गठरियों को लेकर लौट आए। चिलातक सुंसुमा को लेकर भागता रहा। धनश्रेष्ठी अपने पुत्रों के साथ चिलातक का पीछा करने लगा। चिलातक सुंसुमा के भार से दब गया। जब वह उसे उठाने में समर्थ नहीं रहा और पीछा करने वालों को निकट आते देखा तो उसने संसमा का सिर काट दिया। वह धड़ को वहीं जमीन पर छोड़कर सिर लेकर भाग गया। यह देखकर पीछा करने वाले लौटने लगे। वे सभी क्षुधा से आकुल-व्याकुल हो रहे थे। तब धन ने पुत्रों से कहा-'तुम मुझे मारकर खा लो और नगर में सकुशल पहुंच जाओ।' पितृभक्ति के कारण वे ऐसा करना नहीं चाहते थे। बड़ा पुत्र बोला-'मुझे खा लो।' इस प्रकार सभी पुत्रों ने अपने आपको प्रस्तुत किया। तब पिता ने उनसे कहा'एक-दूसरे को क्यों मारें? चिलातक के द्वारा मारी गई सुसुमा को ही खा लें।' इस प्रकार पुत्री का मांस खाकर वे नगर में पहुंचे। १.जीभा 531, प्रकी 1228, व्यभा 4420, चाणक्य की कथा के विस्तार हेतु देखें दशअचू पृ. 42, 43 Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 579 चिलातक सुंसुमा का सिर लिए भागा जा रहा था। वह दिग्मूढ़ हो गया। उस समय उसने एक मुनि को आतापना लेते हुए कायोत्सर्ग की स्थिति में देखा। चिलातक उसके निकट जाकर बोला-'मुने! संक्षेप में मुझे धर्म की बात कहो, अन्यथा मैं तुम्हारा भी सिर काट डालूंगा।' मुनि बोले-'संक्षेप में धर्म हैउपशम, विवेक और संवर।' चिलातक इन शब्दों को ग्रहण कर वहां से उठा और एकान्त में जाकर चिन्तन करने लगा-'मुझे क्रोध आदि कषायों का उपशमन करना चाहिए। मैं क्रुद्ध हूं, मुझे क्रोध को शांत करना है।' दूसरा शब्द है-विवेक, इसका अर्थ है-त्याग। मुझे धन और स्वजन का त्याग करना है। उसने तत्काल सुंसुमा के कटे सिर तथा तलवार को फेंक दिया। तीसरा शब्द है-संवर। मुझे इन्द्रिय और नोइन्द्रिय-मन का संवरण करना है। वह ध्यानलीन हो गया। रुधिर की गंध से चींटियां चिलातक को काटने लगीं। उन्होंने उसके शरीर को चालनी जैसा बना डाला। चींटियां पैरों से शरीर के भीतर प्रवेश कर सिर की चोटी के भाग से बाहर निकलीं। चींटियों ने शरीर के भीतरी भाग को आवागमन का मार्ग बना डाला। फिर भी मुनि ध्यान से विचलित नहीं हुए। ढाई दिन तक उसने वेदना को समभाव से सहा। मरकर वह वैमानिक देव बना। 10. कालासवैशिक का उपसर्ग मथुरा नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसी नगर में काला नामक वेश्या रहती थी। वह बहुत सुन्दर थी अतः राजा ने उसे अपने अंत:पुर में रख लिया। उस वेश्या के कालवैशिक नामक एक पुत्र हुआ। वेश्या की एक पुत्री भी थी, जिसका विवाह हतशत्रु राजा के साथ हुआ। ... एक बार कालवैशिक कुमार श्रमणों के पास दीक्षित हो गया। दीक्षित होकर उसने एकलविहार प्रतिमा स्वीकृत की। विहार करते हुए कालवैशिक मुनि अपनी बहिन के ससुराल मुद्गशैलपुर पहुंचे। वहां उनके अर्श (मस्सा) रोग उत्पन्न हो गया। रोग के कारण मुनि बहुत पीड़ित थे। पीड़ा देखकर बहिन ने वैद्य से उपचार पूछा। वैद्य ने कुछ दवाइयां दी और कहा कि आहार के साथ इस औषध को मिलाकर मुनि को भिक्षा में दे देना। उसने मुनि को औषध मिश्रित आहार भिक्षा में दे दिया। मुनि ने गंध से जान लिया कि मोह के वशीभूत होकर मेरी बहिन ने औषध मिश्रित आहार बहराया है तथा मेरे निमित्त हिंसा की है। __मुनि ने चिंतन किया कि ऐसे जीवन से क्या लाभ? ऐसा चिन्तन करके मुनि ने मुद्गशैल शिखर पर भक्त-प्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया। कालवैशिक मुनि जब बालक थे तब उन्होंने रात्रि में सियार के शब्द सुनकर अपने राजपुरुषों से पूछा-'यह आवाज किसकी है?' राजपुरुषों ने उत्तर दिया'ये सभी जंगली सियार हैं?' कुमार ने एक सियार को बांधकर लाने की आज्ञा दी। राजपुरुष सियार को पकड़कर ले आए। कुमार कालवैशिक उसको पीटने लगा। पीटने से सियार ‘खी-खी' की आवाज करने लगा। आवाज सुनकर कुमार को बहुत प्रसन्नता हुई। इस प्रकार अत्यधिक पीटने से सियार मर गया। अकाम निर्जरा के कारण वह व्यन्तर देव के रूप में पैदा हुआ। १.जीभा 532,533, आवनि 565/7-10, आवचू.१ पृ. 496-98 हाटी.१ पृ. 247, 248, आवमटी प. 479, 480, व्यभा 4422 / Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 580 जीतकल्प सभाष्य व्यन्तर देव ने अनशन में स्थित कुमार कालवैशिक मुनि को देखा तो तीव्र वैर उत्पन्न हो गया। उसने वैक्रिय शक्ति से सियार के बच्चों की विकुर्वणा की। अपने बच्चों सहित वह सियार रूप देव 'खीखी' शब्द करके मुनि के शरीर को नोंचने लगा। इधर राजा ने जब मुनि के भक्त-प्रत्याख्यान की बात सुनी तो राजपुरुषों को रक्षा के लिए भेज दिया। राजपुरुष वहां रहते तो देव चला जाता। जब आवश्यक कार्य के लिए वे जाते तो 'खी-खी' शब्द करता हुआ वह देव रूप सियार मुनि के शरीर को खाने लगता। इस प्रकार मुनि ने समता-पूर्वक अनशन को पूर्ण किया। 11. बांसों के झुरमुट की वेदना एक मुनि प्रायोपगमन अनशन में स्थित था। उसे अनशन में स्थित देखकर कुछ प्रत्यनीक व्यक्तियों ने उसे उठाकर बांसों के झुरमुट में डाल दिया। कुछ समय बाद बांस फूटने लगे। बढ़ते हुए बांसों ने मुनि के शरीर को बींध डाला और ऊपर आकाश में उछाल दिया फिर भी मुनि ने उस वेदना को समभाव से सहन किया। 12. अवन्ति-सुकुमाल एक बार आचार्य सुहस्ति पाटलिपुत्र के उद्यान में ठहरे। उन्होंने संतों से कहा कि वसति की मार्गणा करो। वहां एक साधुओं का सिंघाड़ा सुभद्रा सेठानी के यहां भिक्षा के लिए गया। सुभद्रा ने पूछा"किस आचार्य का आगमन हुआ है?" साधुओं ने कहा कि आचार्य सुहस्ति का आगमन हुआ है अतः हम वसति की याचना कर रहे हैं। सुभद्रा ने अपनी यानशाला दिखाई। साधु वहां ठहर गए। एक बार आचार्य प्रदोषकाल में नलिनीगुल्म अध्ययन का परावर्तन कर रहे थे। सुभद्रा का पुत्र अवन्ति-सुकुमाल सप्तभौम प्रासाद में अपनी बत्तीस पत्नियों के साथ क्रीड़ा कर रहा था। जागृत होने पर उसने श्रुत को सुना। अवन्तिसुकुमाल ने सोचा कि यह नाटक तो नहीं है। वह सप्तभौम प्रासाद से उतरते हुए नीचे आया। वह अपने प्रासाद से बाहर निकला। उसके मन में विकल्प उठा कि ऐसा वर्णन मैंने कहीं देखा है। सोचतेसोचते उसको जाति स्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। वह आचार्य के पास आया। उसने आचार्य से कहा-"मैं अवन्ति-सुकुमाल नलिनीगुल्म विमान में देव था।" उत्सकुता के कारण उसने आचार्य से कहा-"मैं प्रव्रजित होना चाहता हूं लेकिन श्रामण्य-पर्याय का पालन करने में असमर्थ हूं अतः मैं प्रव्रजित होकर इंगिनीमरण अनशन स्वीकार कर लूंगा।" आचार्य ने कहा-'अपनी पत्नियों को भी गृहस्थावस्था से मुक्त करो।' उसने पत्नियों से पूछा लेकिन कोई भी पत्नी तैयार नहीं हुई। अवन्ति-सुकुमाल ने स्वयं ही लोच कर लिया। यह स्वयं ही लिंग ग्रहण न कर ले इसलिए आचार्य ने उसको मुनि वेश धारण करवाया। श्मशान में एक विशेष स्थान पर उसने भक्तप्रत्याख्यान कर लिया। अवन्ति-सुकुमाल के पैरों में लगे रुधिर के गंध से एक लोमड़ी वहां आई। लोमड़ी एक पैर को खाने लगी तथा दूसरा पैर उसके बच्चे खाने लगे। रात्रि के 1. जीभा 534, उनि 116, शांटी प. 120, 121 / 2. जीभा 535, व्यभा 4424 / Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 581 प्रथम प्रहर में उसने जानु को खाया, दूसरे प्रहर में ऊरु तथा तीसरे प्रहर में पेट का मांस खाने लगी। वेदना को समभाव से सहते हुए अवन्ति-सुकुमाल कालधर्म को प्राप्त हो गया। आकाश से गंधोदक एवं पुष्पों की वर्षा होने लगी। भार्याओं ने आपस में अवन्ति-सुकुमाल के बारे में पूछा / आचार्य ने उन्हें सारी बात बताई। आचार्य पूरी ऋद्धि के साथ उन पलियों के साथ श्मशान में गए। सभी पलियां विरक्त होकर प्रव्रजित हो गयीं। उनमें एक गर्भवती थी, उसको दीक्षा नहीं दी गयी। उसके पुत्र ने देवकुल का निर्माण करवाया। वह आज महाकाल के नाम से प्रसिद्ध है। लोगों ने इसे स्वीकार कर लिया। उत्तरचूलिका में कहा गया है कि वही पाटलिपुत्र है। 13. युवक-समूह का अनशन कुछ मुनि सामूहिक रूप से नदी के किनारे प्रायोपगमन अनशन में स्थित थे। वर्षा होने से नदी के प्रवाह में वे एक संकरे स्रोत में फंस गए। वेदना को समभाव से सहन करते हुए वे वहीं दिवंगत हो गए। 14. अनशन में म्लेच्छ का उपद्रव बत्तीस मित्रों ने एक साथ प्रायोपगमन अनशन को स्वीकार किया। उस द्वीप में अनेक म्लेच्छ रहते थे। एक म्लेच्छ ने सोचा कि ये सभी कल मेरे भोजन में काम आएंगे अतः उसने उनको एक वृक्ष पर लटका दिया। वे उस वेदना को समभाव से सहन करके दिवंगत हो गए। १५.शिष्यों की परीक्षा एक आचार्य ने शिष्यों की परीक्षा लेने का चिन्तन किया। एक बड़ा सा वृक्ष देखकर उन्होंने शिष्यों से कहा कि इस वृक्ष पर चढ़कर कूद जाओ। इस आदेश को सुनकर अपरिणामक शिष्य बोला-"साधु को वृक्ष पर चढ़ना अकल्पनीय है। इस वृक्ष पर चढ़ाकर क्या आप मुझे मारना चाहते हैं?" अतिपरिणामक शिष्य ने कहा-"ऐसा ही होगा मेरी भी यही इच्छा है।" परिणामक शिष्य ने इस आदेश को सुनकर सोचा कि आचार्य स्थावर जीवों की हिंसा की अनुमोदना भी नहीं करते फिर पंचेन्द्रिय प्राणी की हिंसा की बात कैसे संभव है? गुरु के इस कथन के पीछे कोई रहस्य होना चाहिए। यह सोचकर शिष्य वृक्ष पर चढ़ने के लिए तत्पर हो गया लेकिन गुरु ने उसे चढ़ने से रोक दिया। गुरु ने उन दोनों शिष्यों को प्रेरणा देते हुए कहा-"तुम लोग मेरे कथन का तात्पर्य नहीं समझे इसीलिए तुम ऐसा कह रहे हो।" मैंने तुम्हें सचित्त वृक्ष पर चढ़ने के लिए नहीं कहा था। मेरे कथन का तात्पर्य था कि भवार्णव में प्राप्त तप, नियम और ज्ञान रूपी वृक्ष पर चढ़कर संसार रूपी कूप का उल्लंघन करो। इसी प्रकार गुरु के द्वारा ईमली के बीज लाने का आदेश देने पर अपरिणामक शिष्य ने 'ये 1. जीभा 536, आवचू 2 पृ. 157, हाटी 2 पृ. 120 / २.जीभा 537, व्यभा 4426 / 3. जीभा 538, व्यभा 4428 / Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 582 जीतकल्प सभाष्य अकल्पनीय हैं' यह कहकर उसे लाने का निषेध कर दिया। अतिपरिणामक शिष्य पोटली बांधकर बीज लेकर आ गया। गुरु ने कहा- "मैंने तुमको उगने में असमर्थ अचित्त ईमली के बीज लाने को कहा था।" इस प्रसंग में परिणामक शिष्य ने गुरु को निवेदन किया कि मैं किस प्रकार के बीज लेकर आऊं? उगने में समर्थ अथवा असमर्थ? साथ ही यह भी बताने की कृपा करें कि बीज कितनी मात्रा में लेकर आऊं?" इस बात को सुनकर गुरु ने कहा-"अभी बीज का प्रयोजन नहीं है, जब मुझे आवश्यकता होगी, तब तुमको बता दूंगा। अभी तो मैंने विनोद में तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए ऐसा कहा था।" 16. प्रवचन की प्रभावना ___एक राजा ने साधुओं को कहा कि ब्राह्मणों के पैरों में पड़ो। उसे बहुत समझाया गया लेकिन वह नहीं माना। तब संघ को एकत्रित किया गया। वहां साधुओं को कहा गया कि जिसके पास प्रवचन- . प्रभावना की शक्ति हो, वह उसका प्रयोग करे फिर चाहें वह सावध हो या निरवद्य। तत्र उपस्थित एक साध ने कहा-'मैं विद्या का प्रयोग करूंगा।' संघ के प्रतिनिधि व्यक्ति राजा के पास गए और निवेदन किया कि जिन ब्राह्मणों के चरण-स्पर्श करने हैं. उन सबको एक स्थान पर एकत्रित कर दो। हम एक साथ उनके चरणों का स्पर्श करेंगे। किसी एक या दो ब्राह्मणों का नहीं। राजा ने वैसा ही किया। एक ओर श्रमण समुदाय एकत्रित हो गया तथा दूसरी ओर ब्राह्मण समुदाय। विद्यातिशय धारी मुनि ने कनेर की लता को हाथ में लेकर उसे अभिमंत्रित करके सुखासन में बैठे ब्राह्मणों की ओर अलातचक्र के आकार में घुमाया। तत्काल ही सारे ब्राह्मणों के सिर नीचे की ओर झुक गए। तब रुष्ट साधु ने राजा को कहा-'भो राजन्! यदि अब भी तुम अपने आदेश को वापस नहीं लेते हो तो इसी प्रकार सेना और वाहन सबको समाप्त कर दूंगा।' तब भयभीत होकर राजा संघ के समक्ष प्रणत हो गया और उसका क्रोध उपशान्त हो गया। अन्य मान्यता के अनुसार वह राजा भी वहां समाप्त हो गया। इस प्रकार प्रवचन की प्रभावना के लिए प्रतिसेवना करता हुआ साधु शुद्ध होता है। 17. आर्य वज्र द्वारा श्रावक का उद्धार अनेक विद्याओं के धारक आचार्य वज्र विहार करते हुए पूर्वदेश से उत्तरापथ की ओर गए। वहां दुर्भिक्ष की स्थिति आ गई। सारे मार्ग व्युच्छिन्न हो गए। सम्पूर्ण संघ एकत्रित होकर आचार्य वज्र के पास आकर बोला—'भंते ! हमारा निस्तार करें।' आचार्य पटविद्या के जानकार थे। उन्होंने एक पट (वस्त्र) पर संघ को बिठाया और वह पट आकाश में उड़ने लगा। उस समय शय्यातर चारा लाने के लिए कहीं गया १.जीभा 571-80 / 2. यद्यपि इस कथा का भाष्यकार ने कोई संकेत नही दिया है। निशीथ भाष्य (487) में इसी गाथा के अभिवायणा पवयणे' पाठ की व्याख्या में चूर्णिकार ने इस कथा का उल्लेख किया है अत: यहां भी प्रसंगवश इस कथा का निशीथ चूर्णि से अनुवाद कर दिया गया है। 3. जीभा 605, निभा 487, चू 1 पृ. 163 / Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 583 हुआ था। उसने संघ को आकाश-मार्ग से जाते देखा। तत्काल अपने हासिये से चोटी को काटकर वह बोला—'भगवन् ! मैं भी आपका साधर्मिक हूं।' तब वह भी इस सूत्र को पढ़ते हुए उनके साथ लग गया साहम्मियवच्छल्लम्मि, उज्जता उज्जता य सज्झाए। चरणकरणम्मि य तहा, तित्थस्स पभावणाए य॥ 18. आर्य वज्र की दीक्षा ___ अवंती जनपद के तुंबवन नामक सन्निवेश में धनगिरि नामक श्रेष्ठी रहता था। धनगिरि प्रव्रज्या ग्रहण करने को इच्छुक था। उसके माता-पिता निषेध करते थे। जहां-जहां माता-पिता उसके विवाह की बात करते, वहां-वहां उन कन्याओं को वह यह कह कर विपरिणत कर देता कि वह दीक्षा लेगा। उसी नगर में सेठ धनपाल की पुत्री सुनन्दा ने पिता से कहा—'मैं धनगिरि के साथ विवाह करूंगी।' पिता ने उसका विवाह कर दिया। सुनंदा का भाई आर्य समित आचार्य सिंहगिरि के पास पहले ही दीक्षित हो गया था। देवलोक से च्युत होकर एक वैश्रमण सामानिक देव सुनन्दा के गर्भ में उत्पन्न हुआ। तब धनगिरि ने सुनन्दा से कहा—'गर्भ से उत्पन्न पुत्र के कारण तुम दो हो जाओगी, अकेली नहीं रहोगी।' यह कहकर धनगिरि आचार्य सिंहगिरि के पास दीक्षित हो गया। . गर्भ के नौ मास बीते। सुनन्दा ने बालक का प्रसव किया। वहां आने वाली महिलाएं कहने लगीं 'यदि इस बालक के पिता प्रव्रजित नहीं होते तो अच्छा होता।' बालक ने जब यह सुना कि उसका पिता प्रव्रजित हो गया है तो वह चिंतन की गहराई में उतरा। उसे जातिस्मृति ज्ञान की प्राप्ति हो गई। अब वह रातदिन रोने लगा। उसने सोचा—'यदि निरंतर रोता रहूंगा तो परिवार के लोगों को मेरे से विरक्ति हो जाएगी, तब मुझे प्रव्रज्या लेने में सुविधा होगी।' इस प्रकार छह मास बीत गए। एक बार आचार्य उस नगरी में आए। तब मुनि आर्यसमित और धनगिरि ने आचार्य से पूछा'भंते! हम दोनों ज्ञातिजनों को दर्शन देने जाना चाहते हैं, आप आज्ञा प्रदान करें।' पक्षी की आवाज सुनकर आचार्य बोले-'आज महान् लाभ होगा। तुम्हें सचित्त या अचित्त—जो भी मिले, वह ले आना।' वे दोनों सुनंदा के यहां भिक्षार्थ गए। लोग उन्हें बुरा-भला कहकर पीड़ित करने लगे। बालक छह महीनों से रो रहा था अतः मां अत्यंत दु:खी थी। अन्य स्त्रियों ने सुनन्दा से कहा—'इस बालक को मुनियों के समक्ष रख दो।' सनन्दा बोली 'महाराज! मैंने इतने दिनों तक इसकी अनपालना की. अब आप इसकी संभाल करें।' मनि बोले 'बाद में तुम्हें पश्चात्ताप न हो।' दूसरे को साक्षी बनाकर मुनियों ने उस छह महीने के बालक को चोलपट्टे की झोली बनाकर उसमें ले लिया। बालक ने रोना बंद कर दिया। वे दोनों मुनि आचार्य के पास आए। भाजन भारी है, यह सोचकर आचार्य ने हाथ पसारे। उन्होंने झोली आचार्य के हाथ में दी। भार के कारण हाथ भूमि पर जा टिका। आचार्य बोले—'प्रतीत होता है कि इसमें वज्र है।' फिर देखा कि उसमें 1. जीभा 610, आवचू 1 पृ. 396, हाटी 1 पृ. 197 / Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 584 जीतकल्प सभाष्य देवकुमारसदृश एक बालक है। बालक को देखकर आचार्य ने कहा 'इसका संरक्षण करो। यह भविष्य में जिन-प्रवचन का आधार होगा।' उसका नाम 'वज्र' रखा गया। आचार्य ने बालक साध्वियों को सौंप दिया। उन्होंने शय्यातर को दे दिया। शय्यातर जैसे अपने बालकों को स्नान कराता, आभूषण पहनाता, दूध पिलाता, वैसे ही सबसे पहले बालक वज्र की सार-संभाल करता। इस प्रकार वह बड़ा होने लगा। बालक को प्रासुक -प्रतिकार इष्ट था। साधु वहां से विहार कर अन्यत्र चले गए। सुनन्दा ने शय्यातर से अपना पुत्र मांगा। शय्यातर ने बालक को देने का निषेध कर दिया और कहा—यह बालक अमुक द्वारा दिया गया है अतः यह हमारी धरोहर है। सुनन्दा वहां आकर रोज उस स्तनपान कराती / इस प्रकार वह बालक तीन वर्ष का हो . गया। एक बार मुनि विहार करते हुए वहां आए। राजकुल में बालक विषयक विवाद पहुंचा। शय्यातर .. ने राजा से कहा—'इन साध्वियों ने मुझे यह बालक सौंपा है।' सारा नगर सुनन्दा के पक्ष में था। वह बहुत सारे खिलौने लेकर वहां उपस्थित हुई। राजा के समक्ष इस विवाद का निपटारा होना था। राजा पूर्वाभिमुख होकर बैठा। उसके दक्षिण दिशा में मुनि तथा वामपार्श्व में सुनन्दा और उसके पारिवारिक जन बैठ गए। . राजा ने कहा—'ममत्व से प्रेरित होकर यह बालक जिस ओर जाएगा, वह उसी का होगा।' सभी ने इस बात को स्वीकार किया। पहले कौन बुलाए इस प्रश्न पर राजा ने कहा—धर्म का आदि है पुरुष इसलिए पहले पुरुष बुलाए। तब नागरिकों ने कहा 'यह इनके परिचित है इसलिए अच्छा हो कि पहले माता बुलाए क्योंकि मां दुष्करकारिका तथा कोमलांगी होती है।' मां आगे आई। उसके हाथ में अश्व, हाथी, रथ, वृषभ आदि खिलौने थे। वे मणि, सोना, रत्न आदि से जटित थे। वे सभी खिलौने बालक को लुभाने वाले थे। उन्हें दिखाती हुई मां सुनन्दा ने बालक की ओर देखकर कहा—'आओ, वज्रस्वामी!' यह सुनकर बालक उस ओर देखता रहा। उसने मन ही मन जान लिया कि यदि मैं संघ की अवमानना करता हूं तो दीर्घसंसारी बनूंगा। अन्यथा मां भी प्रव्रजित होगी। यह सोचकर मां के द्वारा तीन बार बुलाने पर भी बालक वज्र मां की ओर नहीं गया। तब मुनि बने हुए पिता ने कहा-'यदि तुमने प्रव्रज्या का मन बना लिया है तो वज्र! इस ऊपर उठाए हुए धर्मध्वज रजोहरण को आकर ले लो। यह कर्मरूपी रजों का अपहरण करने वाला है।' बालक वज्र तत्काल आगे आया और शीघ्रता से रजोहरण को ग्रहण कर लिया। लोगों ने 'धर्म की जय हो' कहकर जोर से जयनाद किया। तब माता सुनन्दा ने सोचा—'मेरा भाई, पति और पुत्र ये तीनों प्रव्रजित हो गए। मैं अकेली घर में क्यों रहूं?' यह सोचकर वह भी प्रव्रजित हो गई। बालक वज्र ने जब स्तनपान करना छोड़ दिया, तब साध्वियों ने उसे प्रव्रज्या दे दी। वह साध्वियों के पास ही रहने लगा। ग्यारह अंग का पाठ करती हुई साध्वियों से उसने ग्यारह अंग सुने / पदानुसारी लब्धि के कारण सुनने मात्र से वह उनका ज्ञाता हो गया। जब बालक आठ वर्ष का हो गया, तब उसे साध्वियों के उपाश्रय से आचार्य के पास रख दिया। 1. जीभा 612, आवचू 1 पृ. 390-92, हाटी 1 पृ. 193, 194 / Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 585 19. आर्यरक्षित द्वारा पिता की दीक्षा आर्यरक्षित ने अपने समस्त स्वजनवर्ग को दीक्षित कर दिया लेकिन लज्जा के कारण उनके पिता मुनि वेश को धारण करने के इच्छुक नहीं थे। अनुराग वश वे आर्यरक्षित के साथ रहने लगे। वे सोचते थे'मैं श्रमणदीक्षा कैसे ले सकता हूं? यहां मेरी लड़कियां, पुत्रवधुएं तथा पौत्र आदि हैं, मैं उन सबके समक्ष नग्न कैसे रह सकता हूं?' आचार्य आर्यरक्षित ने अनेक बार उन्हें प्रव्रज्या की प्रेरणा दी। प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा—'यदि वस्त्र-युगल, कुंडिका, छत्र, जूते तथा यज्ञोपवीत रखने की अनुमति दो तो मैं प्रव्रज्या ग्रहण कर सकता हूं।' आचार्य ने उनकी सब मांगें स्वीकार कर ली। वे प्रव्रजित हो गए। उन्हें चरण-करण स्वाध्याय करने वालों के पास रखा गया। वे कटिपट्टक, छत्र, जूते, कुंडिका तथा यज्ञोपवीत आदि को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। एक बार आचार्य चैत्य-वंदन के लिए जाने वाले थे। आचार्य ने पहले से ही बालकों को सिखा रखा था। बाहर निकलते ही सभी बालक एक साथ बोल पड़े-'हम सभी मुनियों को वंदना करते हैं, एक छत्रधारी मुनि को छोड़कर।' तब उस वृद्ध मुनि ने सोचा, ये मेरे पुत्र-पौत्र सभी वंदनीय हो रहे हैं। मुझे वंदना क्यों नहीं की गयी? वृद्ध ने बालकों से कहा—'क्या मैं प्रव्रजित नहीं हूं।' वे बोले—'जो प्रव्रजित होते हैं, वे छत्रधारी नहीं होते।' वद्ध ने सोचा. ये बालक भी मझे प्रेरित कर रहे हैं। अब मैं छत्र का परित्याग कर देता हं। स्थविर ने अपने पत्र आचार्य से कहा 'पत्र! अब मझे छत्र नहीं चाहिए।' आचार्य ने कहा 'अच्छा है. जब गर्मी हो, तब अपने सिर पर वस्त्र रख लेना।' बालक फिर बोले—'कुंडिका क्यों? संज्ञाभूमि में जाते समय पात्र ले जाया जा सकता है।' उन्होंने कुंडिका भी छोड़ दी। यज्ञोपवीत का भी परित्याग कर दिया। आचार्य आर्यरक्षित बोले-'हमें कौन नहीं जानता कि हम ब्राह्मण हैं।' वृद्ध मुनि ने सारी चीजें छोड़ दीं, एक कटिपट्ट रखा। बालक फिर बोल पड़े-'हम सभी को वंदना करते हैं, केवल एक कटिपट्टधारी मुनि को छोड़कर।' वृद्ध मुनि बालकों से बोले—'तुम अपनी दादी-नानी को वंदना करो। मुझे और कोई वंदना करेगा। मैं कटिपट्टक नहीं छोडूंगा।' उस समय वहां एक मुनि ने भक्तप्रत्याख्यान किया था। आचार्य रक्षित ने कटिपट्टक के परिहार के लिए एक उपाय सोचा। उन्होंने साधुओं से कहा—'जो इस मृत मुनि के शव को वहन करेगा, उसे महान् फल होगा।' जिन मुनियों को पहले से ही समझा रखा था, वे परस्पर कहने लगे इस शव को हम वहन करेंगे।' आचार्य का स्वजनवर्ग बोला-'इसको हम वहन करेंगे।' वे आपस में कलह करते हुए आचार्य के पास पहुंचे। आचार्य बोले- क्या मेरे स्वजनवर्ग इस निर्जरा के अधिकारी नहीं हैं? जो तुम लोग शव को वहन करने की बात कह रहे हो।' तब स्थविर पिता ने आर्यरक्षित से पूछा—'क्या इसमें बहुत निर्जरा है?' आचार्य बोले—'हां।' तब स्थविर पिता ने कहा कि शव का वहन मैं करूंगा। आचार्य बोले—'इसमें उपसर्ग उत्पन्न होंगे। बालक नग्न कर देंगे। यदि तुम सहन कर सको तो वहन करो। यदि तुम सहन नहीं कर सकोगे तो हमारा अपमान होगा, अच्छा नहीं लगेगा।' इस प्रकार आचार्य ने स्थविर को स्थिर कर दिया। Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 586 जीतकल्प सभाष्य स्थविर बोला—'मैं सहन करूंगा।' जब उसने शव को उठाया, तब उसके पीछे-पीछे मुनि उठे। बालकों ने एक बालक से कहा—'इनका कटिवस्त्र खोल दो।' उसने कटिवस्त्र खोलना शुरू कर दिया। दूसरे बालक ने कटिवस्त्र आगे करके डोरे से बांध दिया। वह लज्जित होकर भी शव का वहन करने लगा। उसने सोचा_पीछे से मेरी पुत्रवधुएं देख रही हैं। उपसर्ग है. किन्त मझे सहन करना है. इस दष्टि से वह चलता रहा और पुनः उसी अवस्था में लौट आया।' स्थविर को बिना शाटक देख आचार्य ने पूछा-'अरे यह क्या?' स्थविर बोला—'उपसर्ग उत्पन्न हुआ था।' आचार्य बोले—'क्या दूसरा शाटक मंगवाएं?' स्थविर बोला- 'अब शाटक का क्या प्रयोजन? जो देखना था, वह देख लिया। अब चोलपट्टक ही पहनूंगा।' उसे चोलपट्टक दे दिया गया। वह स्थविर भिक्षाचर्या के लिए नहीं जाता था। आचार्य ने सोचा—'यदि यह भिक्षाचर्या नहीं करेगा . तो कौन जानता है, कब क्या हो जाए? फिर यह एकाकी क्या कर सकेगा? इसे निर्जरा भी तो करनी है। इसलिए ऐसा उपाय करना चाहिए, जिससे यह भिक्षा के लिए जाए। इससे आत्म-वैयावृत्य होगी। फिर यह पर-वैयावृत्य भी कर सकेगा।' एक दिन आचार्य ने मुनियों से कहा—'मैं अन्यत्र जा रहा हूं। तुम सभी स्थविर के समक्ष एकाकी-एकाकी भिक्षा के लिए जाना।' सभी ने स्वीकार कर लिया। आचार्य ने दूसरे गांव जाते हुए साधुओं से कहा 'स्थविर की सार-संभाल रखना।' आचार्य चले गए। सभी मुनि एकाकी रूप से अलग-अलग भिक्षा के लिए गए, भक्तपान ले आए और अकेले भोजन करने लगे। स्थविर निरन्तर सोचते रहे—'यह मुनि मुझे भोजन देगा, यह मुनि मुझे भोजन देगा।' परन्तु किसी ने भोजन नहीं दिया। स्थविर क्रुद्ध हो गए परन्तु कुछ नहीं बोले। मन ही मन स्थविर ने सोचा- आचार्य को कल आने दो, फिर देखना, इन मुनियों को क्या-क्या उपालंभ दिलवाता हूं।' दूसरे दिन आचार्य आ गए। आचार्य ने स्थविर से पूछा'स्वास्थ्य कैसा रहा, दिन कैसा बीता?' स्थविर ने कहा—'यदि तुम नहीं रहो तो मैं एक दिन भी जीवित नहीं रह सकता। ये मेरे पुत्र-पौत्र जो मुनि हैं, उन्होंने भी मुझे कुछ आहार लाकर नहीं दिया।' तब आचार्य ने स्थविर के सामने उन सबकी निर्भर्त्सना की। उन्होंने उसे स्वीकार किया। आचार्य बोले 'पात्र लाओ! मैं स्वयं स्थविर पिता मुनि के लिए पारणक लेकर आता हूं।' तब स्थविर ने सोचा-'आचार्य कहां-कहां घूमेंगे? ये कभी लोगों के समक्ष भिक्षा के लिए नहीं गए हैं। मैं ही भिक्षा के लिए जाऊं।' स्थविर स्वयं भिक्षा लेने गए। चिरकाल तक गृहवास में रहने के कारण लोगों से उनका परिचय था। वे घूम रहे थे। उन्हें ज्ञात नहीं था कि द्वार कौनसा है और अपद्वार कौनसा? घूमते-घूमते वे एक घर में अपद्वार से प्रविष्ट हुए। उस घर में उस दिन लड्डु (मिठाई) बने थे। गृहस्वामी बोला—'तुम मुनि हो, अपद्वार से कैसे आए?' स्थविर बोला—'आती हुई लक्ष्मी के लिए क्या द्वार और क्या अपद्वार, जिस रास्ते से वह आए, वही सुंदर है।' गृहस्वामी ने अपने व्यक्तियों से कहा—'इनको भिक्षा दो।' वहां स्थविर को बत्तीस मोदक मिले। वे उन्हें लेकर स्थान पर आए, भिक्षाचरी की आलोचना की। आचार्य बोले 'परंपर से शिष्य-परंपरा चलाने वाले तुम्हारे बत्तीस शिष्य होंगे।' आचार्य ने स्थविर से पूछा Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 587 'गृहस्थावस्था में यदि किसी राजकुल से विशेष द्रव्य प्राप्त होता तो किसको देते?' स्थविर बोला—'ब्राह्मणों को।' आचार्य बोले-'इसी प्रकार ये मुनि भी पूजनीय हैं। तुम्हारा यह प्रथम लाभ इनको दो।' स्थविर ने सभी साधुओं में बत्तीस मोदक बांट दिए। स्थविर स्वयं के लिए भक्तपान लाने पुनः प्रस्थित हुए। उन्हें घृतमधु संयुक्त परमान्न मिला। उसने उसे स्वयं खाया। इस प्रकार वह स्थविर मुनि स्वयं की भिक्षा के लिए घूमते परन्तु अनेक बाल, दुर्बल मुनियों के लिए आधारभूत बन गए। 20. मनोगुप्ति : जिनदास कथा . जिनदास नामक श्रेष्ठीपुत्र था। वह श्रावक के व्रतों का पालन करता था। एक बार उसने यानशाला में सर्वरात्रिकी प्रतिमा स्वीकार की। अनुशासन को सहन न करने के कारण उसकी पत्नी स्वैरिणी हो गई थी। वह उसी यानशाला में अपने उपपति (जार) के साथ आई। उसके साथ लोहे का कीलयुक्त पलंग था। अंधेरे में दिखाई न देने के कारण उसने जिनदास के पैर पर मंचक को स्थापित किया और उपपति के साथ अनाचार का सेवन करने लगी। पर्यंक की कीलिका और भार के कारण उसका पैर लहुलुहान हो गया। अत्यन्त वेदना होने पर भी उसने समभाव से उस वेदना को सहन किया। पत्नी के दुराचरण को देखकर भी उस स्थिरमति जिनदास के मन में दुश्चिन्तन पैदा नहीं हुआ। 21. वचनगुप्ति : साधु का वाक्संयम ___ एक साधु अपने ज्ञातिजनों को सम्भालने हेतु उनकी पल्लि में जाने लगा। रास्ते में उसे चोरों ने पकड़ लिया पर चोर सेनापति ने उसे यह कहकर छोड़ दिया कि इस बारे में किसी से कुछ मत कहना। यज्ञयात्रा प्रस्थित हुई। साधु के परिजन विवाह के निमित्त कहीं जा रहे थे अतः वे साधु को रास्ते में ही मिल गए लेकिन उसने चोरों के बारे में उन्हें कुछ नहीं बताया। वह साध भी माता-पिता और भाई आदि के साथ वापिस लौट गया। रास्ते में चोरों ने ज्ञातिजनों को पकड़ लिया और सारा धन चरा लिया। चोरों ने जब साध को देखा तो कहा कि यह वही साधु है, जो हमारे द्वारा छोड़ा गया था। यह सुनकर मां ने आश्चर्यपूर्वक पूछा-"क्या यह साधु तुम लोगों के द्वारा पकड़ा जाकर छोड़ा गया है?" चोरों ने कहा "हां, यह वही साधु है।" मां ने कहा-"छुरी लेकर आओ, मैं अपने स्तन काटूंगी।" चोर सेनापति ने पूछा "तुम अपने स्तन क्यों काटना चाहती हो?" मां ने कहा "मैंने इसको दूध पिलाया है, यह कुपुत्र है। इसने चोरों को देखकर भी इस विषय में हमको कोई सूचना नहीं दी। यह मेरा पुत्र कैसे हुआ?" जब मुनि से पूछा गया कि तुमने ज्ञातिजनों को इसकी सूचना क्यों नहीं दी तो मुनि ने धर्मोपदेश देना प्रारम्भ कर दिया। धर्मकथा से प्रेरित होकर चोर सेनापति उपशान्त हो गया। उसने माता आदि सबको छोड़ दिया तथा सारा धन समर्पित कर दिया। साधु को ऐसी ही वचनगुप्ति करनी चाहिए।' 1. जीभा 612, आवचू 1 पृ. 406-09, हाटी 1 पृ. 203-05 / 2. आवश्यक चूर्णि के अनुसार उसने शून्यगृह में प्रतिमा स्वीकार की। 3. जीभा 787-90, आव 2 पृ.७८ / 4. जीभा 791-96, आवचू 2 पृ. 78 / Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 588 जीतकल्प सभाष्य 22. कायगुप्ति : स्थण्डिल भूमि की यतना एक साधु सार्थ के साथ विहार कर रहा था। उसे मार्ग में कहीं भी स्थण्डिल भूमि नहीं मिली। बहुत खोज करने पर उसे पैर टिकाने जितना स्थान मिला। उसने एक पैर पर स्थित होकर सारी रात बिता . दी। उसका सारा शरीर अकड़ गया लेकिन उसने अस्थण्डिल भूमि में पैर नहीं रखा। साधु को इसी प्रकार कायगुप्त होना चाहिए। 23. कायगुप्ति : देव-परीक्षा एक साधु ईर्यासमिति में बहुत सजग था। वह किसी भी भय की परिस्थिति में गति-भेद नहीं करता था। एक दिन सुधर्मा-सभा में इन्द्र ने उसकी प्रशंसा की। इन्द्र की बात पर एक देवता को विश्वास नहीं हुआ। वह साधु की परीक्षा करने आया। देवता ने साधु के रास्ते में अनेक सूक्ष्म मेंढ़कों की विकुर्वणा * कर दी। साधु ने यतनापूर्वक धीरे-धीरे अन्य स्थान पर उनको संक्रमित कर दिया। तत्पश्चात् देवता ने हाथी की विकुर्वणा की। वह उसके पीछे चिंघाड़ता हुआ आने लगा लेकिन फिर भी साधु की गति में कोई अंतर नहीं आया। हाथी ने साधु को सूंड से ऊपर उठाकर नीचे पटक दिया। नीचे गिरता हुआ भी वह साधु बोला "यदि मेरे द्वारा जीवों की विराधना हुई हो तो मेरे पाप मिथ्या हों।" नीचे गिरते हुए भी उसने स्वयं की चिंता न करके जीवों की विराधना न हो, इस बात का चिन्तन किया। साधु की ईर्या समिति में सजगता देखकर देव संतुष्ट होकर वंदना करके चला गया। 24. ईर्यासमिति : अर्हन्नक साधु की सजगता अर्हन्नक नामक साधु ईर्या समिति में सजग था। एक बार वह गड्ढे में गिर गया। प्रान्त देवता के . छल से उसका पांव छिन्न हो गया लेकिन अन्य देवता ने उसके पैर का संधान कर दिया। 25. भाषा समिति : साधु की जागरूकता एक साधु भाषा समिति में अत्यन्त सजग था। वह भिक्षार्थ निकला। उस नगर पर किसी अन्य राज्य के राजा ने आक्रमण कर दिया। नगर पर चढ़ाई करने वाले किसी सैनिक ने पूछा "यहां कितने हाथी और घोड़े हैं?" कितनी धन राशि, काष्ठ तथा धान्य आदि हैं? नगर सुखी है अथवा दुःखी? राजा से रुष्ट नागरिक कितने हैं? भाषा समिति में सजग उस साधु ने उत्तर दिया कि मैं स्वाध्याय और ध्यानयोग में लीन रहता हूं अतः मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता हूं। सैनिक ने पुनः साधु से पूछा-"भिक्षार्थ घूमते हुए तुमने कुछ नहीं देखा, कुछ नहीं सुना, यह कैसे संभव है?'' मुनि ने उत्तर देते हुए कहा'मुनि बहुत बातें कान से सुनता है, अनेक दृश्य आंखों से देखता है लेकिन देखा या सुना हुआ सब कुछ मुनि कह नहीं सकता। १.जीभा 797,798 / २.जीभा 799-802 / 3. जीभा 819 / 4. जीभा 820-23, आवचू 2 पृ. 93,94 / / Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 589 26. एषणा समिति : नंदिषेण कथानक वसुदेव किसी अन्य जन्म में मगध के नंदिग्राम में गौतम नामक उपदेष्टा ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम वारुणि था। एक बार वह गर्भवती हुई। जब गर्भ छह माह का था, तभी ब्राह्मण दिवंगत हो गया। बालक का जन्म हुआ, उसका नाम नंदिषेण रखा गया। ननिहाल में मामा ने उसका भरण-पोषण किया। बड़ा होने पर बालक मामा के यहां काम करने लगा। लोगों ने बालक से कहा-"तुम मामा के यहां कार्य करते हो पर तुम्हारा यहां कुछ नहीं है।" बालक ने इस संदर्भ में अपने मामा से बात की। मामा ने कहा'तुम लोगों की बात में मत आओ मेरी तीन पुत्रियां हैं, उनमें जो ज्येष्ठा है, उसके साथ तुम्हारा विवाह कर दूंगा।' मामा की बात सुनकर वह निश्चिन्त होकर कार्य करने लगा। विवाह का समय आने पर बड़ी पुत्री ने उसके साथ विवाह की अनिच्छा प्रकट कर दी। मामा ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा "तुम चिन्ता मत करो, मैं दूसरी लड़की के साथ तुम्हारी शादी कर दूंगा।" दूसरी पुत्री ने भी उसके साथ विवाह की अनिच्छा व्यक्त कर दी। इसी प्रकार तीसरी पुत्री ने भी अपनी असहमति प्रकट कर दी। इस घटना से नंदिषेण विरक्त हो गया। ___ एक बार ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधुओं के साथ नंदिवर्धन आचार्य उस गांव में आए। साधु भिक्षार्थ गए। नंदिषेण ने साधुओं से पूछा “आप कौन हैं? आपका धर्म कैसा है?" साधुओं ने कहा-" इस प्रश्न का उत्तर आचार्य देंगे। वे अभी उद्यान में हैं, वहां जाकर उनसे पूछ लो।" नंदिषेण वहां गया और आचार्य के समक्ष जिज्ञासा प्रकट की। आचार्य से समाधान सुनकर वह उनके पास प्रव्रजित हो गया। उसने बेले-तेले की तपस्या अंगीकार करके यह अभिग्रह ग्रहण किया कि मैं बाल और ग्लान आदि की सेवा करूंगा। दीक्षित होते ही नंदिषेण सेवा के कार्य में संलग्न हो गया। वृद्ध, ग्लान और शैक्ष की सेवा करने से उसका यश फैलने लगा। ..एक बार इंद्र ने सुधर्मासभा में उसके गुणों की उत्कीर्तना करते हुए कहा "नंदिषेण मुनि अदीन भाव से ग्लान, वृद्ध आदि साधुओं की सेवा में उपस्थित रहता है। जिस साधु को जिस वस्तु की अपेक्षा रहती है, वह उसको लाकर देता है।" एक मिथ्यादृष्टि देव को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने दो श्रमणों के रूप की विकुर्वणा की। एक श्रमण अतिसार रोग से ग्रसित होने के कारण अटवी में स्थित हो गया, दूसरा श्रमण साधुओं के समक्ष जाकर बोला "एक साधु अटवी में ग्लान हो गया है। जो साधु उसकी सेवा करना चाहे, वह अतिशीघ्र तैयार हो जाए। नंदिषेण ने यह बात सुनी। बेले की तपस्या का पारणा करने हेतु आहार आया हुआ था लेकिन उसने पारणा न करके मुनि से पूछा कि वहां क्या कार्य करना है? किस 1. आवश्यकचूर्णि में नंदिग्राम के स्थान पर शालिग्राम नाम का उल्लेख है तथा वहां उपदेष्टा ब्राह्मण के स्थान पर बिना नामोल्लेख के गाथापति का उल्लेख है। (आव 2 पृ. 94) Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 590 जीतकल्प सभाष्य वस्तु की अपेक्षा है?" आए हुए श्रमण ने कहा "वहां पानी की अपेक्षा है।" अटवी स्थित मुनि प्यास से व्याकुल है। मुनि नंदिषेण बिना पारणा किए पानक की गवेषणा हेतु उपाश्रय से निकला। देव ने पानक को अनेषणीय कर दिया। दूसरे घर जाने पर भी उसको प्रासुक और एषणीय पानक नहीं मिला। तीसरी बार मुनि को शुद्ध पानी की प्राप्ति हुई। अनुकम्पा के साथ नंदिषेण त्वरित गति से अटवी की ओर प्रस्थित हुआ। उसे अटवी में साधु दिखाई नहीं दिया। उसने तीव्र स्वर से आवाज लगाई। देव ने अतिसार रोग युक्त मल लिप्त साधु की विकुर्वणा की। ग्लान मुनि ने कठोर शब्दों में नंदिषेण को उपालम्भ देते हुए कहा "हे मंदभाग्य! तुम साधुओं के उपकारी के रूप में प्रसिद्ध हो लेकिन मेरी इस अवस्था को सुनकर भी तुम्हारा आहार के प्रति इतना लोभ है? तुमने इतना विलम्ब क्यों किया?" बिना किसी प्रतिक्रिया के ग्लान साधु के कठोर वचनों को अमृत की भांति मानते हुए नंदिषेण ने / मुनि के चरणों में प्रणिपात करके क्षमा मांगी फिर मल से लिप्त मुनि के शरीर को साफ किया। नंदिषेण ने ग्लान मुनि को कहा "मुनिवर! अगले गांव में चलकर चिकित्सा की व्यवस्था करेंगे, जिससे आप शीघ्र ही स्वस्थ हो जाएंगे।" ग्लान साधु बोला-"मैं चलने में असमर्थ हूं।" नंदिषेण ने विनम्रता से कहा-“आप मेरी पीठ पर बैठ जाएं।" मुनि नंदिषेणं की पीठ पर चढ़ गया। चलते-चलते साधु ने नंदिषेण की पीठ पर अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त मल का विसर्जन कर दिया और देवशक्ति से अपने शरीर को भारी बना लिया। मुनि ने कठोर शब्दों में कहा "शीघ्र चलने से मेरे पूरे शरीर में दर्द हो गया।" मुनि पग-पग पर बिना कारण उस पर गुस्सा करता रहा लेकिन नंदिषेण मुनि पूर्णत: उपशान्त रहा। ____ नंदिषेण मुनि ने न कठोर वचनों पर ध्यान दिया और न ही असह्य दुर्गन्ध से उसका मन विचलित . हुआ। उस दुर्गन्ध को चंदन की भांति मानते हुए साधु को हुई असाता के लिए मिथ्या दृष्कृत किया। चलते समय नंदिषेण के मन में एक ही चिन्तन था कि मैं किसी भी प्रकार से मुनि के मन में समाधि उत्पन्न कर सकुँ / ग्लान मुनि अनेकविध प्रयत्नों से भी नंदिषेण के मन को क्षुब्ध नहीं कर सका। अंत में ग्लान मुनि अपने मूल दिव्य स्वरूप में प्रकट हुआ और मुनि की प्रशंसा करके चला गया। दूसरा मुनि भी मूल स्वरूप में प्रकट हुआ। उसने गुरु के समक्ष आलोचना करके नंदिषेण मुनि की धन्यता एवं एषणा के प्रति जागरूकता का अनुमोदन किया। 1. जीभा 826-46, आव 2 पृ.९४, आवश्यक चूर्णि में एषणा समिति के अन्तर्गत निम्न कथा का और उल्लेख मिलता है। शोध विद्यार्थियों की सुविधा हेतु उस कथा का अनुवाद भी यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। एक बार पांच साधु दीर्घ अटवी के मार्ग से विहार कर रहे थे। रास्ते में वे भूख-प्यास के परीषह से क्लान्त हो गए। अटवी को अतिक्रान्त करके वे वैताली ग्राम में पहुंचे। वहां उन्होंने शुद्ध पानक की एषणा की लेकिन वहां के लोगों ने अपने घर के पानक को अनेषणीय कर दिया। मुनियों को एषणीय पानक नहीं मिला। पांचों मुनि पानी के अभाव में दिवंगत हो गए लेकिन उन्होंने एषणा समिति में दोष नहीं लगाया। (आव 2 पृ. 94, 95) . Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 591 27. आदान निक्षेप समिति' : प्रतिलेखना क्यों? एक गांव में कुछ साधुओं का पदार्पण हुआ। एक साधु ने बिना प्रतिलेखना किए पात्रों को एक स्थान पर रख दिया। उनमें से एक साधु प्रतिलेखना करके पात्र रखने लगा तो वह साधु बोला "इन प्रेक्षित पात्र आदि की पुनः प्रतिलेखना क्यों कर रहे हो, क्या यहां सांप है?" इस बात को सुनकर सन्निहित क्षेत्र रक्षक देवता ने सांप की विकुर्वणा कर दी। जब प्रथम साधु ने उपकरणों को खोला तो उसे सांप दिखाई दिया। उसे अपनी त्रुटि का अहसास हुआ। उसने साधु के समक्ष मिथ्याकार का उच्चारण किया। 28. परिष्ठापना समिति : मुनि धर्मरुचि ___मुनि धर्मरुचि ने दीक्षित होते ही मल-मूत्र आदि के उपसर्ग में जागरूक रहने का अभिग्रह ग्रहण किया। उसकी जागरूकता से एक बार सुधर्मा-सभा में इंद्र का आसन चलित हुआ। इन्द्र ने उसकी देवताओं के मध्य प्रशंसा की। एक मिथ्यादृष्टि देव को इंद्र की बात पर श्रद्धा नहीं हुई। वह मर्त्यलोक में आया और उसने साधु के उत्सर्ग स्थान में चींटियों की विकुर्वणा कर दी। प्रस्रवण की बाधा से पीड़ित होने पर दूसरे साधु ने कहा—'तुम प्रस्रवण का परिष्ठापन कर दो।' साधु प्रस्रवण को परिष्ठापित करने हेतु जहां-जहां गया, वहां उसे चींटियां दिखाई दीं। जब साधु क्षेत्र की प्रतिलेखना करते-करते क्लान्त हो गया तो वह उस प्रस्रवण को पीने लगा। देवता मूल रूप में प्रकट हुआ और उसे रोकते हुए कहा कि तुम इसे मत पीओ। मैं तुम्हारी दृढ़ता की परीक्षा ले रहा था। देव धर्मरुचि मुनि को भक्तिपूर्वक वंदना करके लौट गया। 29. प्रतिसेवना : चोर-दृष्टान्त ... किसी गांव में बहुत डाकू रहते थे। एक बार वे किसी सन्निवेश से गाय चुराकर अपने गांव की ओर जाने लगे। रास्ते में उनको अन्य डाकू भी मिल गए। वे भी उनके साथ चलने लगे। चलते-चलते वे अपने गांव के पास आ गए। गांव की सीमा आने पर वे निर्भय हो गए। भोजन-वेला में उन्होंने कुछ गायों को मारकर उनका मांस पकाना प्रारंभ किया। इसी बीच कुछ अन्य पथिक भी वहां आ गए। डाकुओं ने उन्हें भी भोजन हेतु आमंत्रित किया। गोमांस पकने पर कुछ दस्यु एवं पथिकों ने उसे खाना प्रांरभ कर दिया। गोमांस का भक्षण बहुत बड़े पाप का हेतु है, यह सोचकर कुछ पथिकों ने वह भोजन नहीं किया। केवल दूसरों को परोसने का कार्य किया। इसी बीच हाथ में तलवार धारण किए हुए कुछ राजपुरुष वहां आ गए। उन्होंने 1. आवश्यक चूर्णि भाग 2 पृ.९५ में आदान-निक्षेप समिति के अन्तर्गत निम्न कथा का उल्लेख है। किसी आचार्य के पास एक श्रेष्ठि-पुत्र दीक्षित हुआ। पांच सौ साधुओं के संघ में वह सबसे छोटा था। पांच सौ साधुओं में कोई भी आता तो वह शैक्ष मुनि उनके दंड को उठाकर भूमि का प्रमार्जन करके उसे रखता था। जो कोई मुनि आता या बाहर जाता तो वह शैक्ष सभी के दंड लेकर उनको व्यवस्थित रखता था। वह शैक्ष साधु यतनापूर्वक चपलता रहित होकर त्वरित गति से यह क्रिया करता था। बहुत समय बीतने पर भी वह इस क्रिया को करता हुआ क्लान्त या श्रान्त नहीं हुआ। यह चौथी समिति की जागरूकता का उदाहरण है। 2. जीभा 850-53, आवचू 2 पृ. 95 / 3. जीभा 855-60, आवचू 2 पृ. 95 / Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 592 जीतकल्प सभाष्य चोरों के साथ भोजन करने वालों और परोसने वालों को भी पकड़ लिया। जिन पथिकों ने कहा कि हम तो रास्ते में मिले थे, हम चोर नहीं हैं, उनको राजपुरुषों ने कहा कि तुम गोमांस को परोसने वाले हो अतः चोर की भांति अपराधी हो। उन सबको प्राणदंड की सजा दी गई। 30. प्रतिश्रवण : राजपुत्र-दृष्टान्त गुणसमृद्ध नगर में महाबल नामक राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम शीला था। उसके बड़े पुत्र का नाम विजितसमर था। राज्य को प्राप्त करने के लिए उसने पिता के बारे में गलत ढंग से सोचना प्रारंभ कर दिया—'यह मेरा पिता वृद्ध होते हुए भी मरण को प्राप्त नहीं होता, लगता है यह दीर्घजीवी होगा। मैं अपने सैनिकों की सहायता से इसको मारकर राजगद्दी पर बैलूंगा।' उसने अपने सैनिकों के साथ मंत्रणा करनी प्रारंभ कर दी। उनमें से कुछ सैनिक बोले 'राजकुमार! हम आपकी सहायता करेंगे।' दूसरे बोले-'आप इस प्रकार कार्य करें तो ठीक रहेगा।' कुछ सैनिक उस समय मौन रहे। कुछ सैनिकों को यह बात अच्छी नहीं लगी अत: उन्होंने राजा को सारी स्थिति का निवेदन कर दिया। राजा ने सहायता करने वाले, सुझाव देने वाले तथा मौन रहने वाले सैनिकों के साथ ज्येष्ठ राजकुमार को अग्नि में डाल दिया। जिन सैनिकों ने आकर इस बात की सूचना दी, उनको सम्मानित किया। 31. संवास : पल्ली-दृष्टान्त ___ बसन्तपुर नामक नगर में अरिमर्दन राजा और प्रियदर्शना पटरानी थी। बसन्तपुर के पास भीमा नामक पल्ली थी, वहां अनेक भील, दस्यु और वणिक् रहते थे। वे दस्यु सदैव अपनी पल्ली से निकलकर अरिमर्दन राजा के नगर में उपद्रव करते थे। राजा का कोई भी सामन्त और माण्डलिक उनका निग्रह नहीं कर सका। नगर में होने वाले उपद्रवों को सुनकर अत्यन्त क्रुद्ध होकर साधन-सामग्री के साथ राजा स्वय भील दस्युओं की पल्ली की ओर गया। भील सामने आकर संग्राम के लिए उद्यत हो गए। प्रबल सेना के कारण राजा ने उत्साहित होकर उन सबको पराजित करके मारना प्रारंभ कर दिया। उनमें से कुछ मृत्यु को प्राप्त हो गए तथा कुछ वहां से भाग गए। राजा ने क्रोधपूर्वक उस पल्ली पर अपना अधिकार कर लिया। वहां रहने वाले वणिकों ने सोचा कि हम चोर नहीं हैं अतः राजा हमारा क्या कर सकेगा? यही सोचकर उन्होंने वहां से पलायन नहीं किया। राजा ने उनको भी बंदी बना लिया। वणिकों ने राजा से निवेदन किया'हम बनिए हैं, चोर नहीं।' उनकी बात सुनकर राजा ने कहा—'तुम लोग चोर से भी अधिक अपराधी हो क्योंकि तुम अपराध करने वाले चोरों के साथ रहते हो।' राजा ने उन सब वणिकों का निग्रह कर लिया। 32. अनुमोदना : राजदुष्ट-दृष्टान्त श्रीनिलय नगर में गुणचन्द्र नामक राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम गुणवती था। उस १.जीभा 1129 पिनि 68/7,8 मटी प.४७। 2. जीभा 1129, पिनि 68/9 मटी प. 47 / 3. जीभा 1129, पिनि 69/1 मटी प. 48, 49 / Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 593 नगर में सुरूप नामक वणिक् निवास करता था। उसका शरीर कामदेव से भी अधिक सुंदर था। सुंदर स्त्रियां उसकी अभिलाषा करती रहती थीं। वह परस्त्री में अनुरक्त रहता था। एक बार वह राजा के अंत:पुर के समीप से गुजर रहा था। अंत:पुर की रानियों ने रागयुक्त दृष्टि से उसे देखा। उसने भी उसी दृष्टि से उनको देखा। उनका आपस में अनुराग हो गया। दूती के माध्यम से वह प्रतिदिन उनके साथ भोग भोगने लगा। राजा के पास यह वृत्तान्त पहुंचा। जब वह अंत:पुर में पहुंचा तो राजपुरुषों ने उसको पकड़ लिया। वह जिन आभूषणों को पहनकर अंत:पुर में प्रविष्ट हुआ था, उन्हीं आभूषणों से युक्त उसको सब लोगों के समक्ष नगर के चौराहे पर अपमानपूर्वक मार दिया गया। अपने अंत:पुर का विनाश देखकर राजा बहुत दुःखी हो गया। उसका प्राणघात करने पर भी राजा का क्रोध शान्त नहीं हुआ। उसने अपने दूतों को बुलाकर कहा'नगर में जाकर ज्ञात करो कि कौन उस दुष्ट की प्रशंसा कर रहा है और कौन उसकी निंदा कर रहा है।' दोनों की मुझे जानकारी-दो। कार्पटिक वेश में राजपुरुष पूरे नगर में घूमने लगे। कुछ लोग कह रहे थे कि जन्म लेने वाला हर व्यक्ति मरता है। हम लोग अधन्य हैं क्योंकि अंत:पुर की रानियां कभी हमारी दृष्टिपथ पर नहीं आतीं लेकिन वह व्यक्ति धन्य है, जो चिरकाल तक उनका सुख भोगकर मरा है। दूसरे कुछ व्यक्ति कहने लगे—'यह व्यक्ति निंदा का पात्र है, अधन्य है जिसने उभय लोक के विरुद्ध कार्य किया है। राजा की रानियां मां के समान होती हैं। उनके साथ भोग भोगने वाला शिष्ट व्यक्तियों के द्वारा प्रशंसा का पात्र कैसे हो सकता है?' राजपुरुषों ने उन दोनों प्रकार के लोगों को राजा के समक्ष प्रस्तुत किया। जो उसकी निंदा करने वाले थे, उनको बुद्धिमान् मानकर राजा ने सम्मानित किया तथा प्रशंसा करने वालों को मौत के मुख में डाल दिया। 33. आधाकर्म : शाल्योदन-दृष्टान्त . संकुल नामक गांव में जिनदत्त नामक श्रावक रहता था। उसकी पत्नी का नाम जिनमति था। उस गांव में कोद्रव और रालक धान्य अधिक मात्रा में उगते थे। साधु लोग भी वही भोजन ग्रहण करते थे। गांव का उपाश्रय स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित सम भूतल वाला तथा अत्यन्त रमणीय था। उस उपाश्रय में स्वाध्याय भी निर्विघ्न रूप से होता था। उस गांव में शाल्योदन नहीं था अतः किसी भी आचार्य का प्रवास वहां नहीं होता था। - एक दिन संकुल गांव के पास भदिल नामक ग्राम में आचार्य का आगमन हुआ। उन्होंने क्षेत्रप्रतिलेखन के लिए साधुओं को संकुल ग्राम में भेजा। साधुओं ने श्रावक जिनदत्त के पास आकर वसति की याचना की। जिनदत्त ने अत्यन्त प्रसन्नता से कल्पनीय वसति में रहने की अनुज्ञा प्रदान की। साधुओं ने स्थण्डिल भूमि एवं सम्पूर्ण गांव की प्रतिलेखना की। उपाश्रय में आकर जिनदत्त श्रावक ने ज्येष्ठ साधु से 1. जीभा 1129, पिनि 69/3 मटी प. 49 / Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 594 जीतकल्प सभाष्य पूछा—'क्या आपको यह क्षेत्र पसंद आया? क्या आचार्य इस क्षेत्र में पदार्पण कर सकते हैं?' उनमें से ज्येष्ठ साधु ने उत्तर दिया—'वर्तमानयोग से।' उनके उत्तर से जिनदत्त को ज्ञात हुआ कि इनको क्षेत्र पसंद नहीं आया है। जिनदत्त ने सोचा कि अन्य साधु भी यहां आते हैं लेकिन यहां कोई रुकता नहीं है, इसका कारण अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। मूल कारण को जानने के लिए उसने किसी अन्य साधु को पूछा। उसने सरलतापूर्वक सारी बात बताते हुए कहा—'इस क्षेत्र में सारे गुण हैं, यह क्षेत्र गच्छ के योग्य है लेकिन यहां आचार्य के योग्य शाल्योदन नहीं हैं।' इस बात को जानकर जिनदत्त श्रावक दूसरे गांव से शालि-बीज लेकर आया और अपने गांव में उनका वपन कर दिया। वहां प्रभूत शालि की उत्पत्ति हुई। ___ एक बार विहार करते हुए उन साधुओं के साथ कुछ अन्य साधु भी उस गांव में आए। श्रावक जिनदत्त ने सोचा—'मुझे इन साधुओं को शाल्योदन की भिक्षा देनी चाहिए, जिससे आचार्य के योग्य क्षेत्र समझकर ये साधु आचार्य को भी इस क्षेत्र में लेकर आएं। यदि मैं केवल अपने घर से शाल्योदन दूंगा और अन्य घरों में कोद्रव आदि धान्य की प्राप्ति होगी तो साधुओं को आधाकर्म की शंका हो जाएगी।' उसने * सभी स्वजनों के घर शाल्योदन भेजकर कहा—'तुम स्वयं शाल्योदन पकाकर खाओ और साधुओं को भी दान दो।' यह बात सब बालकों को भी ज्ञात हो गई। साधु जब भिक्षार्थ गए तो उन्होंने बालकों के मुख से अनेक बातें सनीं। कोई बालक बोला 'ये वे साध हैं. जिनके लिए घर में शाल्योदन बना है।' अन्य बालक बोला—'साधु संबंधी शाल्योदन को मेरी मां ने मुझे दिया। कहीं-कहीं कोई दानदात्री श्राविका बोली-'यह . परकीय शाल्योदन दिया, अब मेरे घर की भिक्षा भी लो।' कोई गृहस्वामी अपनी पत्नी से बोला—'परकीय शाल्योदन भिक्षा में दे दिया, अब अपना बनाया हुआ आहार भी भिक्षा में दो।' कोई अनभिज्ञ बालक अपनी मां से कहने लगा—'मुझे साधु से संबंधित शाल्योदन दो।' दरिद्र व्यक्ति सहर्ष बोला-'हमारे यहां भक्त का अभाव होने पर भी शालि भक्त बना है। यह अवसर पर अवसर के अनुकूल बात हुई है।' कहीं कोई बालक अपनी मां से बोला—'मां! शालि तण्डुलोदक साधु को दो', दूसरा बालक बोला...' साधु को शालिकाजिक दो।' सबके मुख से अनेक प्रकार की बातें सुनकर साधुओं ने लोगों से पूछा—'यह क्या बात है?' पूछने पर उन्होंने ऋजुता से सारी बात बता दी कि यह शाल्योदन साधुओं के लिए बनाया गया है। सारा शाल्योदन आधाकर्मिक है' यह जानकर साधुओं ने उन सब घरों का परिहार कर दिया और भिक्षार्थ अन्य घरों में चले गए। कुछ साधु जिनकी भिक्षा वहां पूरी नहीं हुई, वे प्रत्यासन्न गांव में भिक्षार्थ चले गए। 34. आधाकर्म : पानक-दृष्टान्त किसी गांव में सारे कूप खारे पानी के थे। उस लवण प्रधान क्षेत्र में क्षेत्र-प्रत्युपेक्षण के लिए कुछ साधु आए। उन्होंने पूरे क्षेत्र की प्रतिलेखना की। तत्रस्थ निवासी श्रावकों के द्वारा सादर अनुरोध करने पर भी साधु वहां नहीं रुके। श्रावकों ने उनमें से किसी सरल साधु को वहां न रुकने का कारण पूछा। उसने सरलता से यथार्थ बात बताते हुए कहा-'इस क्षेत्र में और सब गुण हैं केवल पानी खारा है इसलिए साधु यहां नहीं 1. जीभा 1148-50, पिनि 76-76/5 मटी प.६३, 64 / Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 595 रुकते हैं।' साधुओं के जाने पर श्रावक ने मीठे पानी का कूप खुदवाया। उसको खुदवाकर लोकप्रवृत्ति जनित पाप के भय से कूप का मुख फलक से तब तक ढ़क दिया, जब तक कोई अन्य साधु वहां न आए। साधुओं के आने पर उसने सोचा कि केवल मेरे घर मीठा पानी रहेगा तो साधुओं को आधाकर्म की आशंका हो जाएगी अतः उसने सब घरों में मीठा पानी भेज दिया। पूर्वोक्त कथानक के अनुसार साधुओं ने बालकों के मुख से संलाप सुनकर जान लिया कि यह पानी आधाकर्मिक है। उन्होंने उस गांव को छोड़ दिया। 35. नूपुरपंडिता जंबूद्वीप के भारतवर्ष में बसन्तपुर नामक नगर था। वहां के राजा का नाम जितशत्रु और रानी का नाम धारिणी था। एक बार स्नान हेतु कुछ महिलाएं तालाब के किनारे आईं। वहां एक महिला के साथ सुदर्शन नामक पुरुष का आपस में अनुराग हो गया। दूती के माध्यम से उनका आपस में संबंध स्थापित हो गया। कृष्णा पंचमी को संकेतित स्थान अशोक वनिका में उन दोनों का समागम हुआ। वे वहीं निद्राधीन हो गए। चतुर्थ याम में श्वसुर ने उन दोनों को साथ सोते हुए देख लिया। उसने धीरे से पुत्रवधू के पैरों से नूपुर निकाल लिया। श्वसुर के इस वृत्तान्त को जानकर उसने उस जार पुरुष को वहां से बाहर भेज दिया और स्वयं पति के पास जाकर सो गई। थोड़ी देर बाद उसने पति को जगाकर कहा—'यहां गर्मी है अतः अशोक-वनिका में चलते हैं।' वे दोनों वहां चले गए। थोड़ी देर में पति को उठाकर उसने कहा—'क्या यह हमारे कुल के अनुरूप आचार है कि पति के साथ रति-सुख का अनुभव करती हुई पुत्रवधू के पैरों से श्वसुर नूपुर निकालकर ले जाएं।' पति ने पूछा- क्या यह सत्य है?' प्रातःकाल पुत्र ने अपने पिता से इस संदर्भ में पूछा। पिता ने कहा-'तुम्हारी पत्नी स्वैरिणी है, वह रात्रि में किसी अन्य पुरुष के साथ सोई थी अतः मैंने उसके पैरों से नूपुर निकाल लिया।' पुत्र ने कहा'अशोक-वनिका में मैं ही था।' वृद्ध पिता बोल—'मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि रात्रि में उसके साथ कोई अन्य पुरुष था।' इसी बीच पुत्रवधू ने आकर उच्च स्वर में कहा-'जब तक मेरी कलंकशुद्धि नहीं होगी, तब तक मैं भक्त-पान ग्रहण नहीं करूंगी।' - कोलाहल सुनकर लोग एकत्रित हो गए। उसने सबके समक्ष कहा—'मैं दिव्य-घट लेकर स्वयं को शुद्ध प्रमाणित करूंगी।' वृद्ध नागरिकों ने कहा—'कुत्रिकापण में यक्ष के समक्ष परीक्षा दो।' वह स्नान आदि से शुद्ध होकर बलिकर्म करके नागरिकों के साथ वहां पहुंची। वहां राजा आदि भी उपस्थित थे। इसी बीच वह सुदर्शन नामक जार पुरुष भी पागल का रूप बनाकर फटे-पुराने कपड़े पहनकर वहां आ गया। वह लोगों का आलिंगन करता हुआ उसके पास आया और पुत्रवधू का बलात् आलिंगन करने लगा। लोकपालों को संबोधित करके उसने यक्ष से कहा-'मेरे माता-पिता ने जिस व्यक्ति के साथ मेरा विवाह किया, उसको तथा इस ग्रहाविष्ट पुरुष को छोड़कर यदि मैंने मन से भी किसी अन्य पुरुष का चिन्तन नहीं किया है तो मैं यक्ष के नीचे से कुशलतापूर्वक निकल जाऊंगी।' उसकी बात सुनकर यक्ष किंकर्तव्यविमूढ़ होकर कुछ 1. जीभा 1151, 1152, पिनि 77 मटी प.६५। Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 596 जीतकल्प सभाष्य / सोचने लगा। इतने में वह शीघ्रता से यक्ष की प्रतिमा के नीचे से निकल गयी। लोगों में उसकी जय-जयकार होने लगी। सभी स्थविर को धिक्कारने लगे। यक्ष ने सोचा 'इसने मुझे भी ठग लिया।' सत्यवादी होने पर भी वृद्ध झूठा साबित हो गया। इस चिन्ता से स्थविर की निद्रा उड़ गई। उसको अंत:पुर की रानियों के द्वारपाल के रूप में नियुक्त कर दिया गया। रात्रि का प्रथम प्रहर बीतने पर सभी रानियां निद्राधीन हो गईं लेकिन एक रानी को नींद नहीं आ रही थी। स्थविर ने सोचा अवश्य ही कोई कारण होना चाहिए अतः उसने कपट-निद्रा लेनी प्रारंभ कर दी। रानी हाथी की सूंड के सहारे महावत के पास चली गई। देरी से आने के कारण महावत ने रोषपर्वक लोहे की सांकल से उसे ताडित किया। रानी ने कहा—'गुस्सा मत करो। अंत:पुर में एक ऐसा वृद्ध नियुक्त हुआ है, जिसे बहुत देरी से नींद आई।' प्रात:काल हाथी पर चढ़कर वह पुनः अंत:पुर में चली गई। वृद्ध ने सोचा-'जब उभयकुल. विशुद्ध राजा .. की पत्नियां भी ऐसा विरुद्ध आचरण कर सकती हैं तो फिर मेरी पुत्रवधू ने जो किया, उसमें कोई आश्चर्य नहीं है।' ऐसा सोचकर वह चिंतामुक्त होकर गहरी नींद में चला गया। सूर्योदय होने पर भी वह नहीं उठा। राजा तक उसकी शिकायत पहुंची। राजा ने उसको बुलाया लेकिन वद्ध बोला कि मझे मत उठाओ। सातवें दिन उसकी नींद टूटी तब राजा ने पूछा—'क्या बात है?' तब उसने सारी बात राजा को बताई। राजा ने पूछा—'क्या तुम उस रानी को जानते हो?' वृद्ध ने कहा—'मैं उस रानी को नहीं पहचानता हूं।'. राजा ने मिट्टी का हाथी बनवाया। सब रानियों ने उस हाथी को लांघ दिया। एक रानी बोली- : 'मिट्टी के हाथी से मुझे भय लगता है।' शंका होने पर राजा ने उत्पल-नाल से उसको ताड़ित किया। वह / मूर्छित होकर धरती पर गिर गई। उसकी पीठ पर लोहे की सांकल के प्रहार दिखाई दिए। राजा ने कहामदोन्मत्त हाथी पर चढ़ते हुए तुम्हें भय नहीं लगा, श्रृंखला से प्रहार करने पर भी तुम मूर्च्छित नहीं हुई लेकिन मेरे द्वारा उत्पल-नाल का प्रहार करने पर तुम मूछित हो गई। राजा ने जान लिया कि यह स्वैरिणी है। राजा ने उसी समय आदेश दिया कि रानी, महावत और हाथी ये तीनों वध करने योग्य हैं। पर्वत पर ले जाकर इनका वध करना है। छिन्न टंक पर ले जाकर महावत ने हाथी का एक पैर ऊपर उठाया। लोगों ने राजा को निवेदन किया कि बेचारा हाथी तिर्यञ्च है, यह क्या जानता है अतः इसको मत मारो लेकिन राजा ने उनकी बात स्वीकृत नहीं की। आगे के दो पैरों को भी उसने कष्टपूर्वक उठाया। प्रार्थना करने पर भी राजा ने आदेश वापस नहीं लिया। तीन पैर ऊपर उठाने पर लोग चर्चा करने लगे कि राजा निर्दोष हाथी का वध करवा रहा है। उस समय कोप शान्त होने पर राजा ने कहा—'क्या तुम हाथी के पैरों को वापस धरती पर रखवाने में समर्थ हो?' महावत ने कहा—'यदि आप हम लोगों को अभयदान दो तो मैं हाथी को मूल स्थिति में ला सकता हूं।' राजा ने उनको अभयदान दे दिया। महावत ने अंकुश के माध्यम से हाथी को मूल स्थिति में लौटा दिया। राजा ने रानी के साथ महावत को देश-निकाला दे दिया। इस कथा का उपसंहार करते हुए पिण्डनियुक्ति के टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि छिन्न 1. जीभा 1181, पिनि 82/2 मटी प. 68, धर्मोपदेशमाला पृ. 46-52 / Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 597 टंक पर एक पैर उठाने पर हाथी थोड़े कष्ट से वापस उस पैर को नीचे रख सकता है। इसी प्रकार अतिक्रम दोष होने पर थोड़े विशुद्ध परिणामों से मुनि पुनः संयम में स्थित हो जाता है। आगे के दो पैर उठाने पर वह हाथी क्लेशपूर्वक अपने पैरों को पुनः मूल स्थिति में लाता है। इसी प्रकार साधु भी व्यतिक्रम दोष होने पर विशिष्ट शुभ अध्यवसाय से स्वयं को विशुद्ध कर सकता है। जैसे तीन पैर को ऊपर उठाकर पीछे एक पैर पर खड़ा हाथी अत्यन्त कष्टपूर्वक स्वयं को पूर्व स्थिति में लौटा सकता है, इसी प्रकार अतिचार दोष लगने पर विशिष्टतर शुभ अध्यवसाय से मुनि स्वयं को शुद्ध कर सकता है। जैसे वह हाथी चारों पैरों को आकाश में स्थित करके पुनः उसे लौटाने में समर्थ नहीं होता, वह नियमतः ही भूमि पर गिरकर विनष्ट हो जाता है। इसी प्रकार साधु भी अनाचार में स्थित रहकर नियम से संयम रूपी आत्मा का नाश कर लेता है। टीकाकार कहते हैं कि इस कथानक में हाथी ने चारों पैर ऊपर नहीं उठाए लेकिन दार्टान्तिक में संभावना के आधार पर अनाचार की योजना की है। 36. आधाकर्म की अभोज्यता : वमन-दृष्टान्त ___ वक्रपुर नामक नगर में उग्रतेज नामक सैनिक रहता था। उसकी पत्नी का नाम रुक्मिणी था। एक बार उग्रतेज का बड़ा भाई सौदास पास के गांव से अतिथि के रूप में आया। उग्रतेज भोजन के लिए मांस लाया और उसे पकाने के लिए रुक्मिणी को दे दिया। घर के कार्य में व्यस्त रहने के कारण वह मांस मार्जार खा गया। इधर सौदास और उग्रतेज की भोजन-वेला होने पर वह व्याकुल हो गई। इसी बीच किसी मृत कार्पटिक के कुत्ते ने मांस को खाकर वायु-संक्षोभ के कारण उसके घर के आंगन में वमन कर दिया। रुक्खिमणी ने सोचा 'यदि मैं किसी दुकान से मांस खरीदकर लाऊंगी तो बहुत देर लग जाएगी। पति और जेठ के भोजन का समय हो गया है अतः इस वमित मांस को अच्छी तरह से धोकर मसाले से उपस्कृत कर दूंगी।' उसने वैसा ही किया। सौदास और उग्रतेज भोजन के लिए उपस्थित हुए। उसने उन दोनों को वह मांस परोसा। गंध विशेष से उग्रतेज ने जान लिया कि यह वान्त मांस है। उसने भृकुटि चढ़ाकर रुक्मिणी को मांस के संबंध में पूछा। क्रोधयुक्त चढ़ी हुई भृकुटि देखकर वह वृक्ष की शाखा की भांति कांपने लगी और यथार्थ स्थिति बता दी। उस मांस को फेंककर उसने दूसरा मांस पकाया, तब दोनों ने भोजन किया। 1. इस कथा का अनुवाद 'धर्मोपदेशमाला' ग्रंथ से संक्षेप रूप में किया गया है क्योंकि टीकाकार ने 'नूपुरपण्डितायाः कथानकमतिप्रसिद्धत्वात् बृहत्वाच्च न लिख्यते किंतु धर्मोपदेशमालाविवरणादेरवगन्तव्यं' का उल्लेख किया है। वहां कथानक आगे भी चलता है लेकिन यहां इतना ही प्रासंगिक है अतः आगे के कथानक का अनुवाद नहीं किया गया है। 2. जीभा 1191, पिनि 86 मटी प.७१, इस कथानक में मतान्तर भी मिलता है। टीकाकार मलयगिरि ने मतान्तर वाली कथा का संकेत भी किया है। उनके अनुसार रुक्मिणी के घर में किसी अतिसार रोग से पीड़ित दुष्प्रभ नामक कार्पटिक ने एकान्त स्थान की याचना की। उसने अतिसार रोग के कारण मांसखंडों का उत्सर्ग किया। मार्जार द्वारा मांस खाने पर पति और जेठ की भोजन-वेला उपस्थित होने पर तथा अन्य मांस प्राप्त न होने पर भयभीत होकर उसने अतिसार में त्यक्त मांसखण्डों को लेकर जल से धोकर उनको मसाले आदि से उपस्कृत करके पका दिया और भोजन-वेला आने पर उन दोनों को परोस दिया। उसी समय मृत सपत्नी के पुत्र गुणमित्र ने अपने पिता और पितृव्य का हाथ पकड़कर उन्हें खाने से रोकते हुए सारी बात बताई। उग्रतेज ने अपनी पत्नी की भर्त्सना की और उस मांस का परिहार कर दिया। (पिनिमटी प.७१) Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 598 जीतकल्प सभाष्य 37. आज्ञा की आराधना-विराधना : उद्यान द्वय दृष्टान्त चन्द्रानना नामक नगरी में चन्द्रावतंसक राजा राज्य करता था। त्रिलोकरेखा आदि उसकी अनेक रानियां थीं। राजा के पास दो उद्यान थे—एक पूर्व दिशा में, जिसका नाम सूर्योदय था। दूसरा पश्चिम दिशा में, जिसका नाम चन्द्रोदय था। एक दिन बसन्त मास में राजा ने अंत:पुर के साथ क्रीड़ा करने की घोषणा करवाते हुए पटह फिरवाया—'प्रात:काल राजा सूर्योदय नामक उद्यान में अपने अंत:पुर के साथ यथेच्छ . विहरण करेंगे अतः वहां कोई नागरिक न जाए।' सारे तृणहारक और काष्ठहारक भी चन्द्रोदय उद्यान में चले जाएं। पटह फिरवाने के पश्चात् राजा ने सूर्योदय उद्यान की रक्षा हेतु सैनिकों की नियुक्ति कर दी और आदेश दिया कि कोई भी व्यक्ति उस उद्यान में प्रवेश न करे। रात्रि में राजा ने चिन्तन किया कि सूर्योदय उद्यान में जाते हुए प्रात:काल सूर्य सामने रहेगा और लौटते हुए मध्याह्न में भी सामने रहेगा। सम्मुख सूर्य की किरणें कष्टदायक होती हैं अत: मैं चन्द्रोदय उद्यान जाऊंगा। ऐसा सोचकर राजा ने वैसा ही किया। इधर पटह को सुनने के बाद भी कुछ दुश्चरित्र व्यक्तियों ने सोचा कि हमने कभी भी राजा के अंत:पुर को साक्षात् नहीं देखा है। प्रातः राजा सूर्योदय उद्यान में अंत:पुर के साथ आएगा और यथेच्छ विहरण करेगा। हम लोग पत्र बहुल वृक्ष की शाखा में इस प्रकार छिप जाएंगे कि कोई भी हमें देख न पाए। इस प्रकार हम राजा के अंत:पुर को देख पाएंगे। उन्होंने वैसा ही किया। उद्यान रक्षकों ने वृक्ष की शाखा के बीच छिपे हुए उन लोगों को देख लिया। उनको पकड़कर डंडे से पीटा और रज्जु आदि से बांध दिया। जो दूसरे तृणहारक थे, वे सब चन्द्रोदय उद्यान में गए। उन्होंने यथेच्छ क्रीड़ा करते हुए राजा के अंत:पुर की रानियों को देखा। उनको भी राजपुरुषों ने पकड़ लिया। उद्यान से बाहर नगर के अभिमुख जाते हुए राजा के सन्मुख उद्यान-पालकों ने दोनों प्रकार के व्यक्तियों को उपस्थित किया और सारा वृत्तान्त बताया। जिन्होंने आज्ञा का भंग किया, उनकी अंत:पुर दर्शन की इच्छा पूरी नहीं हुई फिर भी उनको समाप्त कर दिया गया तथा जो चन्द्रोदय उद्यान में गए थे, उन्होंने आज्ञा का पालन किया था अतः अंत:पुर देखने पर भी उनको मुक्त कर दिया गया। 38. द्रव्यपूति : गोबर-दृष्टान्त समिल्ल नामक नगर के बाहर उद्यान में माणिभद्र यक्ष का यक्षायतन था। एक दिन उस नगर में शीतलक नामक अशिव उत्पन्न हो गया। तब कुछ लोगों ने सोचा कि यदि इस अशिव से हम बच जाएंगे तो एक वर्ष तक अष्टमी आदि पर्व-तिथियों में उद्यापनिका करेंगे। नगर के सभी लोग उस अशिव से निस्तीर्ण हो गए। उन लोगों के मन में निश्चय हो गया कि यह सब यक्ष का चमत्कार है। तब देवशर्मा नामक व्यक्ति को वैतनिक रूप से पुजारी के रूप में नियुक्त करते हुए लोगों ने कहा—'तुमको एक वर्ष तक अष्टमी आदि दिनों में प्रात:काल यक्ष-सभा को गोबर से लीपना है। उस स्वच्छ एवं पवित्र स्थान पर हम १.जीभा 1191, 1192, पिनि 91-91/4 मटी प.७६ / Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 599 लोग आकर उद्यापनिका करेंगे।' देवशर्मा ने यह बात स्वीकार कर ली। एक दिन उद्यापनिका के लिए सभा को लीपने हेतु वह सूर्योदय से पूर्व किसी कुटुम्बी के यहां गोबर लेने गया। वहां रात्रि में किसी कर्मचारी को मण्डक, वल्ल और सुरा का पान करने से अजीर्ण हो गया था। पश्चिम रात्रि में उसने गाय के बाड़े में दुर्गन्धयुक्त अजीर्ण मल का विसर्जन किया। उसके ऊपर किसी भैंस ने आकर गोबर कर दिया। ऊपर गोबर होने से वह दुर्गन्धयुक्त मल ढ़क गया अतः देवशर्मा को अंधेरे में ज्ञात नहीं हो सका। वह गोबर सहित मल को लेकर गया और उससे सभा को लीप दिया। उद्यापनिका करने वाले लोग अनेकविध भोजन-सामग्री लेकर वहां प्रविष्ट हुए। वहां उनको अतीव दुर्गन्ध आने लगी, उन्होंने देवशर्मा से पूछा कि यह अशुचिपूर्ण दुर्गन्ध कहां से आ रही है? उसने कहा—'मुझे ज्ञात नहीं है।' उन लोगों ने सभा के आंगन को ध्यान से देखा तो वहां वल्ल आदि के अवयव दिखाई दिए तथा मदिरा की गंध भी आने लगी। उम लोगों को ज्ञात हुआ कि गोबर के मध्य में पुरीष भी था। सभी लोगों ने भोजन को अशुचि मानकर छोड़ दिया। आंगन के लेप को समूल उखाड़कर दुबारा दूसरे गोबर से सभा का लेप करवाया तथा भोजन भी दूसरा पकाकर खाया।' '39. अनिसृष्ट दोष : लड्डुक-दृष्टान्त रत्नपुर नगर में माणिभद्र प्रमुख 32 युवक साथी रहते थे। एक बार उन्होंने उद्यापन के लिए साधारण मोदक बनवाए और समूह रूप से उद्यापनिका में गए। वहां उन्होंने एक व्यक्ति को मोदक की रक्षा के लिए छोड़ दिया। शेष 31 साथी नदी में स्नान करने हेतु चले गए। इसी बीच कोई लोलुप साधु वहां भिक्षार्थ उपस्थित हआ। उसने मोदकों को देखा। लोलुपता के कारण उस साधु ने धर्म-लाभ देकर उस पुरुष से मोदकों की याचना की। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- ये मोदक केवल मेरे अधीन नहीं हैं, अन्य 31 साथियों की भी इसमें सहभागिता है अतः मैं अकेला इन्हें कैसे दे सकता हूं?' ऐसा कहने पर साधु बोला'वे कहां गए हैं?' वह बोला—'वे सब नदी में स्नान करने हेतु गए हैं।' उसके ऐसा कहने पर साधु ने पुनः कहा—'क्या दूसरों के मोदकों से तुम पुण्य नहीं कर सकते? तुम मूढ़ हो जो मेरे द्वारा मांगने पर भी दूसरों के लड्डुओं को दान देकर पुण्य नहीं कमा रहे हो? यदि तुम 32 मोदक मुझे देते हो तो भी तुम्हारे भाग में एक ही मोदक आता है। यदि 'अल्पवय और बहुदान' इस सिद्धान्त को सम्यक् हृदय से जानते हो तो मुझे सारे मोदक दे दो।' साधु के द्वारा ऐसा कहने पर उसने सारे मोदक साधु को दे दिए। लड्डुओं से पात्र भरने पर हर्ष से आप्लावित होकर वह साधु उस स्थान से जाने लगा। - इसी बीच साधु को माणिभद्र आदि साथी सम्मुख आते हुए मिल गए। उन्होंने साधु से पूछा'भगवन् ! आपको यहां किस वस्तु की प्राप्ति हुई?' साधु ने सोचा कि यदि ये मोदक के स्वामी हैं तो मोदक-प्राप्ति की बात सुनकर पुनः मुझसे मोदक ग्रहण कर लेंगे इसलिए 'मुझे कुछ भी प्राप्ति नहीं हुई' 1. जीभा 1203, पिनि 108/1,2 मटी प.८३ / Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 600 जीतकल्प सभाष्य ऐसा कहूंगा। उसने वैसा ही कहा। माणिभद्र आदि साथियों को भार से आक्रांत पात्र को देखकर शंका हो गई। उन्होंने कहा 'हम आपका पात्र देखना चाहते हैं।' साधु ने पात्र नहीं दिखाया, तब उन्होंने बलपूर्वक साधु का पात्र देख लिया। तब कोपारुण नेत्र से उन्होंने मोदक रक्षक पुरुष से पूछा-'तुमने इस साधु को सारे मोदक कैसे दिए?' वह भय से कांपता हुआ बोला-'मैंने इनको मोदक नहीं दिए।' यह सुनकर माणिभद्र आदि सभी साथी साधु से बोले—'तुम चोर हो तथा साधु-वेश की विडम्बना करने वाले हो। तुम्हारा मोक्ष कहां है' ऐसा कहकर उन्होंने साधु का वस्त्र खींचा। फिर सारे पात्र, रजोहरण आदि ग्रहण करके उसको गृहस्थ बनाकर 'पच्छाकड़' बना दिया। वे सब साधु को राजकुल में ले गए और धर्माधिकारी को सारी बात बताई। उन्होंने साधु को सारी बात पूछी किन्तु लज्जा के कारण वह कुछ भी कहने में समर्थ नहीं हो सका। तब उन न्याय करने वाले अधिकारियों ने चिंतन किया 'यह निश्चित ही चोर है लेकिन यह साधु वेशधारी है अत: उसे जीवित छोड़कर देश निकाला दे दिया।" 40. दूती दोष : धनदत्त कथा विस्तीर्ण ग्राम के पास गोकुल नामक गांव था। वहां धनदत्त नामक कौटुम्बिक था। उसकी पत्नी का नाम प्रियमति तथा पुत्री का नाम देवकी था। उसी गांव में सुंदर नामक युवक से उसका विवाह हुआ। उसके पुत्र का नाम बलिष्ठ और पुत्री का नाम रेवती था। पुत्री का विवाह गोकुल ग्राम में संगम - के साथ हुआ। आयु कम होने पर प्रियमति कालगत हो गई। धनदत्त भी दीक्षा लेकर गुरु के साथ विहरण करने लगा। कालान्तर में ग्रामानुग्राम विहार करते हुए धनदत्त अपनी पुत्री देवकी के गांव में आया। उस समय उन दोनों गांवों में परस्पर वैर चल रहा था। विस्तीर्ण ग्रामवासियों ने गोकुल ग्राम के ऊपर हमला करने की सोची। धनदत्त मुनि गोकुल ग्राम में भिक्षा के लिए प्रस्थित हुआ, तब शय्यातरी देवकी ने कहा—'आप गोकुल ग्राम में जा रहे हैं, वहां अपनी दौहित्री रेवती को कहना कि तुम्हारी मां ने संदेश भेजा है कि यह गांव तुम्हारे गांव के ऊपर दस्यु-दल के साथ प्रच्छन्न रूप से हमला करने आएगा अतः अपने सभी आत्मीयों को एकान्त में सुरक्षित स्थान पर पहुंचा देना।' साधु ने सारी बात रेवती को कह दी। उसने अपने पति को सारी बात बताई। पति ने सारे गांव को यह सूचना दे दी। सम्पूर्ण गांव कवच आदि पहनकर युद्ध के लिए तैयार हो गया। दूसरे दिन धाटी विस्तीर्ण गांव में पहुंच गई। उन दोनों में युद्ध प्रारंभ हो गया। सुंदर और बलिष्ठ दस्युदल के साथ गए / संगम गोकुल ग्राम में था। वे तीनों युद्ध में काल-कवलित हो गए। देवकी ने पति, पुत्र और जंवाई के मरण को सुनकर विलाप करना प्रारंभ कर दिया। लोग उसे समझाने के लिए आए। उन्होंने कहा 'यदि गोकुल ग्राम में धाटी आने की सूचना नहीं होती तो वे सन्नद्ध होकर युद्ध नहीं करते और न ही तुम्हारे पति आदि की मृत्यु होती। किस दुरात्मा ने गोकुल गांव में सूचना भेजी?' लोगों से इस प्रकार की १.जीभा 1276, पिनि 179, 180 मटी प. 113,114, निभा 4517-19 चू पृ. 437 / Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 601 बात सुनकर क्रोधित होकर देवकी बोली—'जानकारी के अभाव में मैंने अपने पिता मुनि के साथ अपनी पुत्री को संदेश भेजा था।' सारे लोक में मुनि धनदत्त को धिक्कार मिलने लगी। प्रवचन की भी अवहेलना होने लगी। 41. निमित्त दोष : ग्रामभोजक-दृष्टान्त एक गांव में अवसन्न नैमित्तिक साधु रहता था। उस गांव का नायक अपनी पत्नी को छोड़कर दिग्यात्रा पर गया हुआ था। उसकी पत्नी को उस नैमित्तिक ने अपने निमित्त ज्ञान से आकृष्ट कर लिया। दूरस्थ ग्रामनायक ने सोचा-'मैं प्रच्छन्न रूप से अकेला जाकर अपनी पत्नी की चेष्टाएं देखूगा कि वह दुःशीला है अथवा सुशीला?' उस नैमित्तिक साधु से अपने पति के आगमन की बात जानकर उसने अपने परिजनों को सामने भेजा। ग्रामनायक ने परिजनों से पूछा-'तुम लोगों को मेरे आगमन की बात कैसे ज्ञात हुई?' उन्होंने कहा—'तुम्हारी पत्नी ने यह बात बताई है।' उसने मन में चिन्तन किया कि मेरी पत्नी ने मेरे आगमन की बात कैसे जानी? - साधु उस समय ग्रामभोजक के घर आ गया। उसने विश्वासपूर्वक पति के साथ हुए वार्तालाप, चेष्टा, स्वप्न तथा शरीर के मष, तिलक आदि के बारे में बताया। इसी बीच ग्रामभोजक अपने घर आ गया। उसने पति का यथोचित सत्कार किया। उसने पूछा 'तुमने मेरे आगमन की बात कैसे जानी?' वह बोली"साधु के निमित्त-ज्ञान से मुझे जानकारी मिली।' भोजक ने कहा—'क्या उसकी और भी कोई विश्वासपूर्ण बात है?' तब उसने बताया कि आपके साथ जो भी वार्तालाप, चेष्टाएं आदि की हैं, जो मैंने स्वप्न आदि देखें हैं, मेरे गुह्य प्रदेश में जो तिलक है, वह भी इस नैमित्तिक साधु ने यथार्थ बता दिए हैं। भोजक ने ईर्ष्या और क्रोधवश उस साधु से पूछा-'इस घोड़ी के गर्भ में क्या है?' साधु ने बताया 'पंचपुंड्र वाला घोड़ी का बच्चा।' तब उसने सोचा—' यदि यह बात सत्य होगी तो मेरी भार्या को बताए गए मष, तिलक आदि का कर्थन भी सत्य होगा। अन्यथा अवश्य ही यह विरुद्ध कर्म करने वाला व्यभिचारी है अतः मारने योग्य है।' इस प्रकार चिन्तन करके उसने घोड़ी का पेट चीरा, उसमें से परिस्पंदन करता हुआ पंचपुंड्र किशोर निकला। उसको देखकर उसका क्रोध शांत हो गया। वह साधु से बोला—'यदि यह बात सत्य नहीं होती तो तुम भी इस दुनिया में नहीं रहते।'२ ४२.चिकित्सा दोष : सिंह-दृष्टान्त एक अटवी में एक व्याघ्र अंधा हो गया। अंधेपन के कारण उसे भक्ष्य मिलना दुर्लभ हो गया। एक वैद्य ने उसका अंधापन मिटा दिया। स्वस्थ होते ही व्याघ्र ने सबसे पहले उसी वैद्य का घात किया, फिर वह जंगल में अन्य पशुओं को भी मारने लगा। १.जीभा 1335-39, पिनि 202,203 मटी प.१२७, निभा 4401,4402, चू पृ. 410 / 2. जीभा 1342-47, पिनि 205, पिभा 33, 34 मटी प. 128, निभा 2694-96 चू. पृ. 20 / 3. जीभा 1392, पिनि 215 मटी प. 133 / Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 602 जीतकल्प सभाष्य. / 43. क्रोधपिण्ड :क्षपक दृष्टान्त हस्तकल्प नगर में किसी ब्राह्मण के घर में मृतकभोज था। उस भोज में एक मासखमण की तपस्या वाला साधु पारणे के लिए भिक्षार्थ पहुंचा। उसने ब्राह्मणों को घेवर का दान देते हुए देखा। उस तपस्वी साधु को द्वारपाल ने रोक दिया। साधु कुपित होकर बोला—'आज नहीं दोगे तो कोई बात नहीं, अगले महीने तुम्हें मुझको देना होगा।' ऐसा कहते हुए वह घर से निकल गया। दैवयोग से उस घर का अन्य कोई व्यक्ति कुछ दिनों के बाद दिवंगत हो गया। उसके मृतकभोज वाले दिन वही साधु मासखमण के पारणे हेतु वहां पहुंचा। उस दिन भी द्वारपाल ने उसको रोक दिया। वह मुनि कुपित होकर पुनः बोला—'आज नहीं तो फिर कभी देना होगा।' मुनि की यह बात सुनकर स्थविर द्वारपाल ने चिन्तन किया कि पहले भी इस साधु ने दो बार इसी प्रकार श्राप दिया था। घर के दो व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो . गए, इस बार तीसरा अवसर है। अब घर का कोई व्यक्ति न मरे अतः उसने गृहनायक को सारी बात' बताई / गृहनायक ने आदरपूर्वक साधु से क्षमायाचना की तथा घेवर आदि वस्तुओं की भिक्षा दी। (यह क्रोधपिण्ड है)। 44. मानपिण्ड : सेवई-दृष्टान्त __कौशल जनपद के गिरिपुष्पित नगर में सिंह नामक आचार्य अपने शिष्य-परिवार के साथ आए। एक बार वहां सेवई बनाने का उत्सव आया। उस दिन सूत्र पौरुषी के बाद सब तरुण साधु एकत्रित हुए। उनका आपस में वार्तालाप होने लगा। उनमें से एक साधु बोला—'इतने साधुओं में कौन ऐसा है, जो प्रात:काल ही सेवई लेकर आएगा।' गुणचन्द्र नामक क्षुल्लक बोला—'मैं लेकर आऊंगा।' साधुओं ने कहा—'यदि सेवई सब साधुओं के लिए पर्याप्त नहीं होगी अथवा घृत या गुड़ से रहित होगी तो उससे हमको कोई प्रयोजन नहीं है, तुम्हें घृत और गुड़ से युक्त पर्याप्त सेवई लानी होगी।' क्षुल्लक बोला—'जैसी तुम्हारी इच्छा होगी, वैसी ही सेवई मैं लेकर आऊंगा।' ऐसी प्रतिज्ञा करके वह नांदीपात्र को लेकर भिक्षार्थ गया। उसने किसी कौटुम्बिक के घर में प्रवेश किया। साधु ने वहां पर्याप्त सेवई देखी। वह प्रचुर घी और गुड़ से संयुक्त थी। साधु ने अनेक वचोविन्यास से सुलोचना नामक गृहिणी से सेवई की याचना की। गृहस्वामिनी ने साधु को भिक्षा देने के लिए सर्वथा प्रतिषेध करते हुए कहा—'मैं तुमको कुछ भी नहीं दूंगी।' तब क्रोधपूर्वक क्षुल्लक मुनि ने कहा-'मैं निश्चित रूप से घी और गुड़ से युक्त इस सेवई को ग्रहण करूंगा।' क्षुल्लक के वचनों को सुनकर सुलोचना भी क्रोधावेश में आकर बोली-'यदि तुम इस सेवई को किसी भी प्रकार प्राप्त करोगे तो मैं समझूगी कि तुमने मेरे नासापुट में प्रस्रवण किया है।' तब क्षुल्लक ने सोचा 'मुझे अवश्य ही इस घर से सेवई प्राप्त करना है।' दृढ़ निश्चय करके वह घर से निकला और पार्श्व के किसी व्यक्ति से पूछा-'यह किसका घर है?' व्यक्ति 1. जीभा 1395, पिनि 218/1, मटी प. 134, निभा 4442, चू पृ. 418 / Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 603 ने बताया कि यह विष्णुमित्र का घर है। क्षुल्लक ने पुनः पूछा कि वह विष्णुमित्र इस समय कहां है? व्यक्ति ने उत्तर दिया-'वह अभी परिषद् के बीच है।' __क्षुल्लक ने परिषद् के बीच में जाकर पूछा 'तुम लोगों के बीच में विष्णुमित्र कौन है?' लोगों ने कहा—'विष्णुमित्र से आपको क्या प्रयोजन है।' साधु ने कहा—'मैं उससे कुछ याचना करूंगा।' विनोद करते हुए उन्होंने कहा—'यह बहुत कृपण है अतः आपको कुछ नहीं देगा। आपको जो मांगना है, वह हमसे मांगो।' तब विष्णुमित्र ने सोचा कि इतने लोगों के बीच मेरी अवहेलना न हो अतः उनके सामने बोला_'मैं ही विष्णुमित्र हूं, मुझसे कुछ भी मांगो।' ___तब क्षुल्लक बोला—'यदि तुम छह महिलाप्रधान व्यक्तियों में से नहीं हो तो मैं याचना करूंगा।' तब परिषद् के लोगों ने पूछा-'वे छह महिलाप्रधान पुरुष कौन से हैं?' क्षुल्लक ने कहा कि उन छह पुरुषों के नाम इस प्रकार हैं-१. श्वेताङ्गुलि 2. बकोड्डायक 3. किंकर 4. स्नायक 5. गृध्रइवरिडी 6. हदज्ञ / ' इस प्रकार क्षुल्लक द्वारा छहों व्यक्तियों का वर्णन सुनकर परिषद् के लोगों ने अट्टहास करते हुए कहा'इसमें छहों पुरुषों के गुण हैं इसलिए इस महिलाप्रधान पुरुष से मांग मत करो।' विष्णुमित्र बोला-'मैं इन छह पुरुषों के समान नहीं हूं, तुम मांग करो।' उसके आग्रह पर क्षुल्लक बोला-'मुझे घृत और गुड़ संयुक्त पात्र भरकर सेवई दो।' विष्णुमित्र बोला—'मैं तुमको यथेच्छ सेवई दूंगा।' तब वह विष्णुमित्र क्षुल्लक को लेकर अपने घर की ओर गया। घर के द्वार पर पहुंचने पर क्षुल्लक ने कहा 'मैं पहले भी तुम्हारे घर आया था लेकिन तुम्हारी भार्या ने प्रतिज्ञा की थी कि मैं तुमको कुछ भी नहीं दूंगी इसलिए तुमको जो उचित लगे, वह करो।' क्षुल्लक के ऐसा कहने पर विष्णुमित्र बोला—'यदि ऐसी बात है तो तुम कुछ समय के लिए घर के बाहर रुको, मैं स्वयं तुमको बुला लूंगा।' विष्णुमित्र' घर में प्रविष्ट हुआ। उसने अपनी पत्नी से पूछा- क्या सेवई पका ली?' उनको घी और गुड़ से युक्त कर दिया?' पत्नी ने कहा 'मैंने सारा कार्य पूर्ण कर दिया।' विष्णुमित्र ने गुड़ को देखकर कहा—'यह गुड़ थोड़ा है, इतना गुड़ पर्याप्त नहीं होगा अतः माले पर चढ़कर अधिक गुड़ लेकर आओ, जिससे मैं ब्राह्मणों को भोजन करवाऊंगा।' पति के वचन सुनकर वह निःश्रेणि के माध्यम से माले पर चढ़ी। चढ़ते ही विष्णुमित्र ने निःश्रेणि वहां से हटा दी। विष्णुमित्र ने क्षुल्लक को बुलाकर पात्र भरकर सेवई का दान दिया। उसके बाद उसने घी और गुड़ आदि देना प्रारंभ किया। इसी बीच गुड़ लेकर सुलोचना माले से उतरने के लिए तत्पर हुई लेकिन वहां निःश्रेणि को नहीं देखा। उसने आश्चर्यचकित होकर क्षुल्लक को घृत, गुड़ से युक्त सेवई देते हुए देखकर सोचा कि मैं इस क्षुल्लक से पराजित हो गई अतः उसने ऊपर खड़े-खड़े ही चिल्लाते हुए बार-बार कहा—'इस क्षुल्लक को दान मत दो।' क्षुल्लक ने भी उसकी ओर देखकर अपनी नाक पर अंगुलि रखकर यह प्रदर्शित किया कि मैंने तुम्हारे नासापुट में प्रस्रवण कर दिया है। 1. इन छह कथाओं के विस्तार हेतु देखें पिनि कथा सं. 31-36 / 2. निचू भा. 3 (पृ. 420) में विष्णुमित्र के स्थान पर इंद्रदत्त नाम का उल्लेख मिलता है। Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 604 जीतकल्प सभाष्य क्षुल्लक घृत और गुड़ से युक्त सेवई का पात्र लेकर अपने उपाश्रय में चला गया। (यह मानपिण्ड का उदाहरण है)। 45. मायापिण्ड : आषाढ़भूति कथानक राजगृह नगरी में सिंहरथ नामक राजा राज्य करता था। उसी नगरी में विश्वकर्मा नामक नट की दो पुत्रियां थीं, वे अत्यन्त सुरूप एवं सुघड़ देह वाली थीं। एक बार ग्रामानुग्राम विहार करते हुए धर्मरुचि आचार्य वहां आए। उनके एक अंत:वासी शिष्य का नाम आषाढ़भूति था। वह भिक्षार्थ घूमते हुए विश्वकर्मा नट के घर में प्रविष्ट हुआ। वहां उसने विशिष्ट मोदक प्राप्त किया। नट के गृह-द्वार से बाहर निकलने पर आषाढ़भूति मुनि ने सोचा—'यह मोदक तो आचार्य के लिए होगा अतः रूप-परिवर्तन करके अपने लिए भी एक मोदक प्राप्त करूंगा।' उसने आंख से काने मुनि का रूप बनाया और दूसरा मोदक प्राप्त किया। बाहर निकलकर पुनः चिन्तन किया—'यह उपाध्याय के लिए होगा' अतः पुनः कुब्ज का रूप बनाकर नट के घर में प्रवेश किया। तीसरा मोदक प्राप्त करके मुनि ने सोचा कि यह सिंघाड़े के मुनि के लिए होगा अतः इस बार कुष्ठी का रूप धारण करके घर में प्रवेश किया। मुनि को चौथा मोदक प्राप्त हो गया। माले के ऊपर बैठे विश्वकर्मा ने इतने रूपों का परिवर्तन करते हुए देखा। उसने सोचा कि यदि यह हमारे बीच रहे तो.. अच्छा रहेगा। इसको किस विधि से आकृष्ट करना चाहिए, यह सोचते हुए नट के मन में एक युक्ति उत्पन्न / हुई। उसने सोचा पुत्रियों के द्वारा मुनि के मन को विचलित करके ही इसका मन संसार की और खींचा जा सकता है। नट माले से उतरकर मुनि के पास गया और आदरपूर्वक पात्र भरकर मोदकों का दान दिया। नट ने कहा—'आपको प्रतिदिन हमारे घर भक्तपान ग्रहण करने का अनुग्रह करना है।' वह अपने उपाश्रय में चला गया। विश्वकर्मा ने अपने परिवार के समक्ष आषाढ़भूति की रूप-परिवर्तन विद्या के बारे में बताया तथा अपनी दोनों पुत्रियों से कहा कि तुमको स्नेहयुक्त दृष्टि से दान देते हुए मुनि को अपनी ओर आकृष्ट करना है। आषाढ़भूति प्रतिदिन भिक्षार्थ आने लगा। दोनों पुत्रियों ने वैसा ही किया। मुनि को अपनी ओर अनुरक्त देखकर एक बार एकान्त में उन्होंने मुनि से कहा 'हमारा मन आपके प्रति अत्यधिक आकृष्ट है अतः हमारे साथ विवाह करके भोगों का सेवन करो।' यह सुनकर मुनि आषाढ़भूति का चारित्रावरणीय कर्म उदय में आ गया, जिससे गुरु का उपदेश रूपी विवेक हृदय से निकल गया। कुल और जाति का अभिमान समाप्त हो गया। मुनि ने दोनों नटकन्याओं को कहा—'ऐसा ही होगा लेकिन पहले मैं गुरु-चरणों में मुनि-वेश छोड़कर आऊंगा।' आषाढ़भूति मुनि गुरु-चरणों में प्रणत हुआ और अपने अभिप्राय को प्रकट कर दिया। गुरु ने प्रेरणा देते हुए कहा'वत्स! तुम जैसे विवेकी, शास्त्रज्ञ व्यक्ति के लिए उभयलोक में जुगुप्सनीय यह आचरण उचित नहीं है। 1. जीभा 1395-97, पिनि 219/1-8, मटी प.१३४-३६, निभा 4446-53, चू पृ. 419-21 / Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 605 दीर्घकाल तक शील का पालन करके अब विषयों में रमण मत करो। क्या समुद्र को बाहों से तैरने वाला व्यक्ति गोपद जितने स्थान में डूब सकता है?' आषाढ़भूति ने कहा—'आपका कथन सत्य है लेकिन प्रतिकूल कर्मों के उदय से, प्रतिपक्ष भावना रूप कवच के दुर्बल होने पर, कामदेव का आघात होने से तथा मृगनयनी रमणी की कटाक्ष से मेरा हृदय पूर्णरूपेण जर्जर हो गया है।' इस प्रकार कहकर उसने गुरु-चरणों में रजोहरण छोड़ दिया। 'मैं ऐसे निष्कारण उपकारी गुरु को पीठ कैसे दिखाऊं' यह सोचकर वह पैरों को पीछे करता रहा। 'पुनः किस प्रकार गुरु के चरण-कमलों को प्राप्त करूंगा' इस प्रकार विविध विकल्पों के साथ वसति से निकलकर वह विश्वकर्मा के भवन में आ गया। नटकन्याओं ने आदरपूर्वक मुनि के शरीर को अनिमिष दृष्टि से देखा। उन्होंने अनुभव किया कि मुनि का रूप आश्चर्यजनक है। शरद चन्द्रमा के समान मनोहर इसका मुख मण्डल है। कमलदल की भांति दोनों आंखें हैं, नुकीली नाक तथा कुंद के फूलों की भांति श्वेत और स्निग्ध दंत-पंक्ति है। कपाट की भांति विशाल और मांसल वक्षस्थल है। सिंह की भांति कटिप्रदेश तथा कर्म की भांति चरणयगल हैं। विश्वकर्मा ने आदरसहित मुनि को कहा—'अहोभाग! ये मेरी दोनों कन्याएं आपको समर्पित हैं। आप इन्हें स्वीकार करें।' नट ने दोनों कन्याओं के साथ आषाढभति का विवाह कर दिया। विश्वकर्मा ने अपनी दोनों कन्याओं को कहा—'जो व्यक्ति मन की ऐसी स्थिति को प्राप्त करके भी गुरु-चरणों की स्मृति करता है. वह नियम से उत्तम प्रकति वाला होता है अत: इसके चित्त को आकष्ट करने के लिए तम्हें स मद्यपान से रहित रहना है अन्यथा यह तुमसे विरक्त हो जाएगा।' आषाढ़भूति सकल कलाओं के ज्ञान में कुशल तथा नाना प्रकार के विज्ञानातिशय से युक्त था अतः सभी नटों में अग्रणी हो गया। वह सर्वत्र प्रभूत धन तथा वस्त्र-आभरण आदि प्राप्त करता था। एक बार राजा ने नटों को बुलाया और आदेश दिया कि आज बिना महिलाओं का नाटक करना है। सभी नट अपनी युवतियों को घर पर छोड़कर राजकुल में गए। आषाढ़भूति की पत्नियों ने सोचा कि हमारा पति राजकुल में गया है अतः सारी रात वहीं बीत जाएगी। आज हम यथेच्छ मदिरा-पान करेंगी। उन्होंने वैसा ही किया तथा उन्मत्तता के कारण वस्त्र रहित होकर घर की दूसरी मंजिल में सो गईं। इधर राजकुल में किसी दूसरे राष्ट्र का दूत आ गया अतः राजा का चित्त विक्षिप्त हो गया। यह नाटक का समय नहीं है', यह सोचकर राजा ने सारे नटों को वापस लौटा दिया। जब आषाढ़भूति ने दूसरी 'मंजिल में पहुंचकर अपनी दोनों पत्नियों को विगतवस्त्रा एवं बीभत्स रूप में देखा तो उसने चिन्तन किया'अहो! मेरी कैसी मूढ़ता है? विवेक विकलता है, जो मैंने इस प्रकार की अशुचियुक्त तथा अधोगति की कारणभूत स्त्रियों के लिए मुक्तिपद के साधन संयम को छोड़ दिया। अभी भी मेरा कुछ नहीं बिगड़ा है। मैं गुरु-चरणों में जाकर पुन: चारित्र ग्रहण करूंगा तथा पाप-पंक का प्रक्षालन करूंगा।' यह सोचकर आषाढ़भूति अपने घर से निकलने लगा। विश्वकर्मा ने उसको देख लिया। आषाढ़भूति के चेहरे के हाव-भाव से उसने जान लिया कि यह संसार से विरक्त हो गया। उसने अपनी दोनों पुत्रियों को उठाकर उपालम्भ देते हुए Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 606 जीतकल्प सभाष्य कहा—'तुम्हारी इस प्रकार की उन्मत्त चेष्टाओं को देखकर सकल निधान का कारण तुम्हारा पति तुमसे विरक्त हो गया है। यदि तुम उसे लौटा सको तो प्रयत्न करो, अन्यथा जीवन चलाने के लिए धन की याचना करो।' दोनों पत्नियां वस्त्र पहनकर आषाढ़भूति के पास दौड़ी और पैरों में गिर पड़ीं। उन्होंने निवेदन . करते हुए कहा—'स्वामिन्! हमारे एक अपराध को क्षमा करके आप पुनः घर लौट आओ। विरक्त होकर हमें इस प्रकार मझधार में मत छोड़ो।' उनके द्वारा ऐसा कहने पर भी उसका मन विचलित नहीं हुआ। पत्नियों ने कहा—'यदि आप गृहस्थ जीवन नहीं जीना चाहते हैं तो हमारे लिए जीवन चलाने जितने धन की व्यवस्था कर दो, जिससे आपकी कृपा से हम अपना शेष जीवन भलीभांति बिता सकें।' अनुकम्पावश आषाढ़भूति ने उनके इस निवेदन को स्वीकार कर लिया और पुनः घर आ गया। .... आषाढ़भूति ने भरत चक्रवर्ती के चरित्र को प्रकट करने वाले 'राष्ट्रपाल' नामक नाटक की तैयारी की। विश्वकर्मा ने राजा सिंहरथ को निवेदन किया कि आषाढ़भूति ने 'राष्ट्रपाल' नामक नाटक की रचना की है। आप उसका आयोजन करवाएं। नाटक के मंचन हेतु उनको आभूषण पहने हुए 500 राजपुत्र चाहिए। राजा ने 500 राजपुत्रों को आज्ञा दे दी। आषाढ़भूति ने उनको सम्यक् प्रकार से प्रशिक्षित किया। नाटक प्रारंभ हुआ। आषाढभूति ने भरतचक्रवर्ती का चरित्र प्रस्तुत किया और राजपत्रों ने भी यथायोग्य अभिनय किया। किस प्रकार भरत ने षट्खण्ड पर अधिकार किया, चतुर्दश रत्न एवं नौ निधियों को प्राप्त किया, आदर्श गृह में स्थित होकर कैवल्य प्राप्त किया तथा 500 राजकुमारों के साथ दीक्षा ग्रहण की, नाटक में यह सब अभिनय प्रस्तुत किया गया। अंत में नाटक से संतुष्ट राजा ने तथा सभी लोगों ने यथाशक्ति हार, कुंडल आदि आभरण तथा प्रभूत मात्रा में वस्त्र आदि फेंके। सब लोगों को धर्मलाभ देकर आषाढ़भूति 500 राजकुमारों के साथ राजकुल से बाहर जाने लगा। राजा ने उसको रोका। उसने उत्तर दिया 'क्या भरतचक्रवर्ती प्रव्रज्या लेकर वापिस संसार में लौटा था, वह नहीं लौटा तो मैं भी नहीं लौटूंगा।' सपरिवार आषाढ़भूति गुरु के समीप गया। वस्त्र-आभरण आदि सब अपनी दोनों पत्नियों को दे दिए और पुनः दीक्षा ग्रहण कर ली। वही नाटक विश्वकर्मा ने कुसुमपुर नगर में भी प्रस्तुत किया। वहां भी 500 क्षत्रिय प्रव्रजित हो गए। लोगों ने सोचा इस प्रकार क्षत्रियों द्वारा प्रव्रज्या लेने पर यह पृथ्वी क्षत्रिय रहित हो जाएगी अतः उन्होंने नाटक को अग्नि में जला दिया। (यह मायापिंड का उदाहरण है)। 46. लोभपिण्ड : सिंहकेशरक मोदक-दृष्टान्त चम्पा नामक नगरी में सुव्रत नामक साधु प्रवास कर रहा था। एक बार वहां मोदकोत्सव का आयोजन हुआ। उस दिन सुव्रत मुनि ने सोचा कि मुझे आज किसी भी प्रकार सिंहकेशरक मोदक प्राप्त करने हैं। लोगों के प्रतिषेध करने पर भी वह दो प्रहर तक घूमता रहा। मोदक की प्राप्ति न होने पर 1. जीभा 1398-1410, पिनि 219/9-15, मटी प 137-39 / Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 607 उसका चित्त विक्षिप्त हो गया। अब वह हर घर के द्वार में प्रवेश करके 'धर्मलाभ' के स्थान पर 'सिंहकेशरक मोदक' कहने लगा। पूरे दिन और रात्रि के दो प्रहर बीतने पर भी वह मोदक के लिए घूमता रहा। आधी रात्रि में उसने एक श्रावक के घर प्रवेश किया। 'धर्मलाभ' के स्थान पर उसने 'सिंहकेशरक' शब्द का उच्चारण किया। वह श्रावक बहुत गीतार्थ और दक्ष था। उसने सोचा—'निश्चय ही इस मुनि ने कहीं भी सिंहकेशरक मोदक प्राप्त नहीं किए इसलिए इसका चित्त विक्षिप्त हो गया है।' मुनि की चैतसिक स्थिरता हेतु श्रावक बर्तन भरकर सिंहकेशरक मोदक लेकर आया और निवेदन किया मने। इन मोदकों को आप ग्रहण करो।' मनि सवत ने उनको ग्रहण कर लिया। मो करते ही उसका चित्त स्वस्थ हो गया। श्रावक ने पूछा-'आज मैंने पूर्वार्द्ध का प्रत्याख्यान किया था, वह पूर्ण हुआ या नहीं?' मुनि सुव्रत ने काल-ज्ञान हेतु उपयोग लगाया। मुनि ने आकाश-मण्डल को तारागण से परिमण्डित देखा। उसको चैतसिक भ्रम का ज्ञान हो गया। मुनि ने पश्चात्ताप करना प्रारंभ कर दिया—'हा! मूढ़तावश मैंने गलत आचरण कर लिया। लोभ से अभिभूत मेरा जीवन व्यर्थ है।' श्रावक को संबोधित करते हुए मुनि ने कहा—'तुमने पूर्वार्द्ध प्रत्याख्यान की बात कहकर मुझे संसार में डूबने से बचा लिया। तुम्हारी प्रेरणा मेरे लिए संबोध देने वाली रही।' आत्मा की निंदा करते हुए उसने विधिपूर्वक मोदकों का परिष्ठापन किया तथा ध्यानानल से क्षणमात्र में घाति-कर्मों का नाश कर दिया। आत्मचिंतन से मुनि को कैवल्य की प्राप्ति हो गई। 47. विद्या-प्रयोग : भिक्षु-उपासक का कथानक . गंधसमृद्ध नगर में धनदेव नामक भिक्षु उपासक था। साधुओं के घर आने पर वह उनको भिक्षा में कुछ नहीं देता था। एक बार कुछ तरुण साधु एक साथ एकत्रित होकर वार्तालाप करने लगे। एक युवक साधु ने कहा—'यह धनदेव अत्यन्त कंजूस है, साधुओं को कुछ भी नहीं देता है। क्या कोई साधु ऐसा है, जो इससे घृत, गुड़ आदि का दान ले सके?' उनमें से एक साधु बोला—'यदि तुम लोगों की इच्छा है तो मुझे विद्यापिंड की आज्ञा दो, मैं उससे दान दिलवाऊंगा।' साधु उसके घर गया। घर को अभिमंत्रित करके वह साधुओं से बोला-'क्या दिलवाऊं?' साधुओं ने कहा-'घृत, गुड़ और वस्त्र आदि।' धनदेव ने प्रचुर मात्रा में साधुओं को घृत, गुड़ आदि दिया। उसके बाद क्षुल्लक ने विद्या प्रतिसंहत कर ली। भिक्षु उपासक धनदेव के ऊपर से मंत्र का प्रभाव समाप्त हो गया। वह स्वभावस्थ हो गया। जब उसने घृत, गुड़ आदि को देखा तो उसे वे मात्रा में कम दिखाई दिए। उसने पूछा—'मेरे घी, गुड़ आदि की चोरी किसने की?' इस प्रकार कहते हुए उसने विलाप करना प्रारंभ कर दिया। तब परिजनों ने उसे समझाते हुए कहा—'तुमने स्वयं अपने हाथों 1. जीभा 1414-17, पिनि 220/1,2 मटी प. 139, निभा एवं उसकी चूर्णि में केवल क्रोधपिण्ड और मानपिण्ड से संबंधित कथाएं हैं / निशीथसूत्र में मायापिण्ड और लोभपिण्ड से संबंधित सूत्र का उल्लेख है लेकिन उसकी व्याख्या एवं कथा नहीं है। यह अन्वेषण का विषय है कि ऐसा क्यों हुआ? इस संदर्भ में यह संभावना की जा सकती है कि संपादित . निशीथ भाष्य एवं चूर्णि में वह प्रसंग छूट गया हो अथवा ग्रंथकार ने उसे सरल समझकर छोड़ दिया हो। Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 608 जीतकल्प सभाष्य से साधुओं को घी, गुड़ आदि का दान दिया है, फिर तुम इस प्रकार विलाप क्यों कर रहे हो?' उनकी बात सुनकर वह मौन हो गया। 48. मंत्र-प्रयोग : मुरुण्ड राजा एवं पादलिप्तसूरि कथानक पाटलिपुत्र' नगर में मुरुण्ड नामक राजा राज्य करता था। वहां पादलिप्त आचार्य का प्रवास था। एक बार मुरुण्ड राजा के शिर में अतीव वेदना प्रादुर्भूत हो गई। विद्या, मंत्र आदि के द्वारा भी कोई उसे शान्त नहीं कर सका। राजा ने पादलिप्त आचार्य को बुलाया, उनका स्वागत करते हुए राजा ने अकारण होने वाली शिरोवेदना के बारे में बताया। लोगों को ज्ञात न हो इस प्रकार मंत्र का ध्यान करते हुए वस्त्र के मध्य में अपनी दाहिनी जंघा के ऊपर अपने दाहिने हाथ की प्रदेशिनी अंगुलि को जैसे-जैसे घुमाया, वैसे-वैसे राजा की शिरोवेदना दूर होने लगी। धीरे-धीरे पूरे शिर का दर्द दूर हो गया। मुरुण्ड राजा आचार्य पादलिप्त का अतीव भक्त बन गया। उसने आचार्य को विपुल भक्त-पान आदि का दान दिया। 49. चूर्ण-प्रयोग : क्षुल्लकद्वय एवं चाणक्य कथानक कुसुमपुर नगर में चन्द्रगुप्त नामक राजा राज्य करता था। उसके मंत्री का नाम चाणक्य था। वहां जंघाबल से हीन सुस्थित' नामक आचार्य प्रवास करते थे। एक बार वहां भयंकर दुर्भिक्ष हो गया। आचार्य ने सोचा 'समृद्ध नामक शिष्य को आचार्य पद पर स्थापित करके सकल गच्छ को सुभिक्ष वाले स्थान में भेज दूंगा।' आचार्य ने उसको एकान्त में योनिप्राभृत की वाचना देनी प्रारंभ की। किसी भी प्रकार दो क्षुल्लकों ने अदृश्य करने वाले अञ्जन बनाने की व्याख्या सुन ली। उस अञ्जन को आंखों में आंजने से व्यक्ति किसी को दिखाई नहीं देता। योनिप्राभृत की व्याख्या में समर्थ होने के बाद आचार्य ने अपने शिष्य समृद्ध को आचार्यपद पर स्थापित कर दिया। आचार्य ने सकल गच्छ के साथ उसको देशान्तर में भेज दिया। आचार्य स्वयं एकाकी रूप से वहां रहने लगे। कुछ दिनों के बाद आचार्य के स्नेह से अभिभूत होकर वे दोनों क्षुल्लक आचार्य के पास आए। जो कुछ भी प्राप्त होता, आचार्य उसे क्षुल्लक भिक्षुओं को बांटकर आहार करते थे। वे स्वयं कम आहार लेते भिक्षुओं को अधिक देते थे। आहार की कमी से आचार्य का शरीर दुर्बल हो गया। तब क्षुल्लकद्वय ने सोचा आचार्य को ऊणोदरी हो रही है अतः हम पूर्वश्रुत अञ्जन का प्रयोग करके चन्द्रगुप्त के साथ भोजन करेंगे। उन्होंने वैसा ही किया। आहार की कमी से चन्द्रगुप्त का शरीर १.जीभा 1439-42, पिनि 227/1,2 मटी प.१४१,१४२, निभा 4457,4458, चू पृ. 422 / 2. पिनि की मलयगिरीया टीका में पाटलिपुत्र के स्थान पर प्रतिष्ठानपुर नाम का उल्लेख मिलता है। 3. जीभा 1444, 1445, पिनि 228/1, मटी प. 142, निभा 4460, चू पृ. 423 / 4. निशीथ चूर्णि (भा. 3 पृ. 423) तथा पिण्डविशुद्धिप्रकरण में पाटलिपुत्र नाम का उल्लेख है। पाटलिपुत्र का पुराना नाम कुसुमपुर था। ५.पिण्डविशुद्धिप्रकरण प.६७ में आचार्य का नाम संभूतविजय है। Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 609 कृश होने लगा। चाणक्य ने उनसे पूछा-'आपका शरीर दुर्बल क्यों दिखाई दे रहा है?' राजा चन्द्रगुप्त ने कहा—'परिपूर्ण आहार की प्राप्ति न होने से।' तब चाणक्य ने चिन्तन किया-'इतना आहार परोसने पर भी आहार की कमी कैसे हो सकती है? ऐसा लगता है कि निश्चित ही कोई अञ्जनसिद्ध व्यक्ति राजा के साथ भोजन करता है।' तब उसने अञ्जनसिद्ध को पकड़ने के लिए भोजनमण्डप में अत्यन्त सूक्ष्म इष्टकचूर्ण विकीर्ण कर दिया। चाणक्य ने चूर्ण पर मनुष्य के पदचिह्नों को अंकित देखा। चाणक्य को निश्चय हो गया कि दो अञ्जनसिद्ध व्यक्ति यहां आते हैं। चाणक्य ने द्वार को ढककर भोजनमण्डप में चारों ओर धूम कर दिया। धूम से बाधित नयनों से आंसू बहने के साथ अञ्जन भी साफ हो गया। अञ्जन का प्रभाव समाप्त होने पर दोनों क्षुल्लक प्रकट हो गए। चन्द्रगुप्त ने जुगुप्सा के साथ कहा-'अहो! इनके उच्छिष्ट भोजन करने से मैं इनके द्वारा दूषित कर दिया गया।' चाणक्य ने शासन तथा प्रवचन की अवहेलेना न हो इसलिए एक समाधान खोजा। उसने राजा को कहा—'राजन् ! तुम धन्य हो। इन बालब्रह्मचारी यतियों ने तुमको पवित्र कर दिया है लेकिन तुम्हारे उच्छिष्ट भोजन से ये अपवित्र हो गए हैं। चाणक्य ने क्षुल्लकद्वय को वंदना करके भेज दिया। रात्रि में चाणक्य आचार्य के पास गया और आचार्य को उपालम्भ देते हए कहा 'तम्हारे दोनों क्षुल्लक प्रवचन की अप्रभावना कर रहे हैं।' तब आचार्य ने चाणक्य को उपालम्भ देते हुए कहा—'इसके लिए तुम ही अपराधी हो क्योंकि श्रावक होते हुए भी तुम क्षुल्लकों के जीवन-निर्वाह की चिन्ता नहीं करते हो। इस दुर्भिक्ष काल में साधु का जीवन भलीभांति कैसे चलता है, क्या तुमने इसके बारे में कभी सोचा?' 'भगवन्! आपका कथन सत्य है' ऐसा कहते हुए चाणक्य उनके पैरों में गिर पड़ा और क्षमायाचना की। इसके बाद चाणक्य ने सकल संघ की भिक्षा हेतु यथायोग्य चिन्ता की। 50. योग-प्रयोग : कुलपति एवं आर्य समित कथानक ___.. अचलपुर नामक नगर के पास कृष्णा और वेन्ना नामक दो नदियां थीं। दोनों नदियों के बीच ब्रह्म नामक द्वीप था। वहां पांच सौ तापस के साथ देवशर्मा नामक कुलपति निवास करता था। वह संक्रांति आदि पर्व दिनों में अपने तीर्थ की प्रभावना के लिए सब तापसों के साथ पाद-लेप करके कृष्णा नदी को पैरों से पार करके अचलपुर जाता था। लोग उसके इस अतिशय को देखकर विस्मित हो जाते तथा विशेष रूप से भोजन आदि से सत्कार करते थे। लोग साधुओं की निंदा करते हुए श्रावकों को कहते थे –'तुम लोगों के पास ऐसी शक्ति नहीं हो सकती।' श्रावकों ने यह बात वज्रस्वामी के मामा आचार्य समित को बताई। उन्होंने चिन्तन करके श्रावकों से कहा—'यह कुलपति मायापूर्वक पादलेप करके नदी पार करता है, तप-शक्ति के प्रभाव से नहीं। यदि गर्म जल से इसके पैर धो दिए जाएं तो वह नदी पार नहीं कर सकेगा।' तब श्रावकों ने उसकी माया को प्रकट करने के लिए सपरिवार कुलपति को भोजन के लिए आमंत्रित किया। भोजन१. जीभा 1450-55, पिनि 230 पिभा 35-37, मटी प. 143, निभा 4463-65, चू पृ. 423, 424 / 2. निशीथ चूर्णि (भा. 3 पृ. 425) तथा जीभा 1460 में आभीर जनपद का उल्लेख मिलता है। ऐसा संभव लगता है कि आभीर जनपद में अचलपुर नामक नगर था। Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 610 जीतकल्प सभाष्य वेला में कुलपति वहां पहुंचा। श्रावकों ने उसका पाद-प्रक्षालन करना प्रारंभ किया लेकिन पाद-लेप दूर होने के भय से उसने पैरों को आगे नहीं किया। तब श्रावकों ने कहा—'बिना पाद-प्रक्षालन किए आपको भोजन करवाने से हमको अविनय दोष लगेगा। विनयपूर्वक दिया गया दान अधिक फलदायी होता है।' श्रावकों ने बलपूर्वक पैर आगे करके उनको प्रक्षालित कर दिया। भोजन के बाद कुलपति अपने स्थान पर जाने के लिए तैयार हुआ। श्रावक भी सब लोगों को बुलाकर उनके पीछे-पीछे चलने लगे। कुलपति ने सपरिवार कृष्णा नदी को पार करने हेतु नदी में पैर रखा लेकिन पादलेप के अभाव में वह डूबने लगा। लोगों में उसकी निंदा होने लगी। __इसी बीच कुलपति को बोध देने के लिए आचार्य समित वहां आए। उन्होंने सब लोगों के सामने नदी से कहा—'हे कृष्णे! हम उस पार जाना चाहते हैं।' तब कृष्णा नदी के दोनों किनारे आपस में मिल गए। नदी की चौड़ाई उनके पैरों जितनी हो गई। आचार्य कदम रखकर नदी के उस पार चले गए। पीछे से नदी चौड़ी हो गई पुनः उसी प्रकार वे वापस आ गए। यह देखकर सपरिवार कुलपति एवं सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए। कुलपति ने अपने पांच सौ तापसों के साथ आर्य समित के पास दीक्षा ग्रहण कर ली, आगे जाकर वह ब्रह्मशाखा के रूप में प्रसिद्ध हुई। 51. द्रव्य ग्रहणैषणा : वानरयूथ-दृष्टान्त विशालशृंग नामक पर्वत था। उसके एक वनखण्ड में वानरों का समूह रमण करता था। उसी पर्वत पर दूसरा वनखण्ड भी सब प्रकार के पुष्प-फल आदि से समृद्ध था। उसके मध्यभाग में स्थित हृद में एक शिशुमार रहता था। जो कोई मृग आदि पशु पानी पीने हेतु हृद में प्रवेश करते, वह उन सबको खींचकर खा जाता था। एक बार पुष्प और फलों से रहित वनखण्ड को देखकर वानर यूथपति ने जीवन निर्वाह योग्य अन्य वनखण्ड की खोज हेतु वानरयुगल को भेजा। खोज करके वानरयुगल ने यूथाधिपति को निवेदन किया 'अमुक प्रदेश में एक वनखण्ड है, जो सब ऋतुओं में पुष्प-फल आदि से समृद्ध तथा हमारे जीवन-यापन के योग्य है।' यूथाधिपति अपने यूथ के साथ वहां गया। वह समस्त वनखण्ड को ध्यान से देखने लगा। यूथपति ने जल से परिपूर्ण हृद को देखा। हृद में प्रवेश करते हुए श्वापदों के पदचिह्न थे लेकिन वहां से वापस निकलते हुए श्वापदों के पदचिह्न नहीं थे। तब यूथ को बुलाकर वानर-यूथपति ने कहा'कोई भी इस हद में प्रवेश करके पानी न पीए। तट पर स्थित नाले से ही पानी पीए, यह हृद उपद्रव रहित नहीं है।' यहां मृग आदि के प्रवेश करते हुए के पदचिह्न दिखाई देते हैं लेकिन निकलते हुए के दिखाई नहीं देते। जिन वानरों ने उसके वचन का पालन किया, वे सुखपूर्वक विहार करते रहे। जिन्होंने यूथपति के वचनों का पालन नहीं किया, वे समाप्त हो गए। 1. जीभा 1460-66, पिनि 231/2-4, मटी प. 144, निभा 4470-72, चू पृ 425 / 2. जीभा 1474, पिनि 236/1-3, मटी प. 146 / Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 611 52. छर्दित दोष : मधु-बिन्दु-दृष्टान्त __ वारत्तपुर' नामक नगर में अभयसेन नामक राजा था। उसके मंत्री का नाम वारत्रक था। एक बार एषणा समिति से धीरे-धीरे चलते हुए धर्मघोष नामक संयमी साधु भिक्षार्थ किसी घर में प्रविष्ट हुआ। मंत्री की पत्नी ने साधु को भिक्षा देने के लिए घृत शर्करा युक्त पायस के पात्र को उलटा / शर्करा मिश्रित एक घृत बिंदु भूमि पर गिर गया। तब मुक्ति-प्राप्ति में दत्तचित्त, सागर की भांति गंभीर, मेरु की भांति निष्प्रकम्प, वसुधा की भाति सर्वंसह, शंख की भांति राग आदि से निर्लेप, महासुभट की भांति कर्मविदारण में कटिबद्ध, भगवान् के द्वारा उपदिष्ट भिक्षा-ग्रहण की विधि में संलग्न मुनि धर्मघोष ने सोचा कि छर्दित दोष से दुष्ट आहार मेरे लिए कल्पनीय नहीं है अतः बिना भिक्षा लिए वे घर से बाहर निकल गए। मदोन्मत्त हाथी पर बैठे मंत्री वारत्रक ने मुनि को बाहर निकलते हुए देखा तो सोचा कि मुनि ने मेरे घर से भिक्षा क्यों नहीं ग्रहण की? मंत्री के चिन्तन करते-करते ही उस शर्करा यक्त घी के बिन्द पर अनेक मक्खियां आ गईं। उनको खाने के लिए छिपकली आ गई। छिपकली को मारने के लिए शरट आ गया। शरट का भक्षण करने हेतु मार्जारी दौड़ी और उसके वध हेतु प्राघूर्णक कुत्ता दौड़ा। उसके वध हेतु भी कोई वसति का रहने वाला दूसरा कुत्ता दौड़ा। दोनों कुत्तों में लड़ाई होने लगी। अपने-अपने कुत्ते के पराभव से चिन्तित मन वाले उनके मालिकों में भी यद्ध छिड गया। यह सारा दश्य अमात्य वारत्रक ने देखा और मन में चिन्तन किया'घृत आदि का बिन्दु मात्र भी भूमि पर गिरने से कलह हो गया इसीलिए हिंसा से डरने वाले मुनि ने घृतबिन्दु को भूमि पर देखकर भिक्षा ग्रहण नहीं की। अहो! भगवान् का धर्म बहुत सुदृष्ट है। सर्वज्ञ के अलावा कौन व्यक्ति ऐसे दोषरहित धर्म का उपदेश दे सकता है?' इस प्रकार चिन्तन करते हए वह संसार से विमख चित्त वाला हो गया। सिंह जैसे गिरिकन्दरा से निकलता है. वैसे ही अपने प्रासाद से बाहर निकलकर मंत्री वारत्रक ने धर्मघोष साध के पास आकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। उस महात्मा ने शरीर से अनासक्त रहकर संयम-अनुष्ठान एवं स्वाध्याय से भावित अंत:करण से दीर्घकाल तक संयम-पर्याय का पालन किया फिर क्षपक श्रेणी में आरोहण कर घातिकर्मों का समूल नाश होने पर केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी को प्राप्त किया और कालक्रम से सिद्धिगति को प्राप्त किया। 53. द्रव्य ग्रासैषणा : मत्स्य-दृष्टान्त एक मच्छीमार मत्स्य को ग्रहण करने के लिए सरोवर के पास गया। सरोवर के निकट जाकर उसने एक मांसपेशी से युक्त जाल सरोवर के बीच में फेंका। उस सरोवर में दक्ष तथा परिणत बुद्धि वाला एक वृद्ध मत्स्य रहता था। कांटे में लगे मांस की सुगंध पाकर उसका भक्षण करने हेतु वह वृद्ध मत्स्य कांटे के पास गया और यत्नपूर्वक आस-पास का सारा मांस खा गया। फिर पूंछ से कांटे को दूर कर दिया। मच्छीमार ने सोचा कि मत्स्य जाल में फंस गया है अतः उसने कांटे को अपनी ओर खींचा। उसने मत्स्य 1. जीभा 1603, पिनि 301, मटी प. 169, 170 / २.पिण्डविशुद्धिप्रकरण (प.७६) में यह कथा विस्तृत रूप में दी गई है। Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 612 जीतकल्प सभाष्य और मांस से रहित कांटे को देखा। मच्छीमार ने पुनः मांसपेशी लगाकर कांटे को सरोवर में फेंका। पुनः वह मत्स्य मांस खाकर पूंछ से कांटे को धकेलकर पलायन कर गया। इस प्रकार उसने तीन बार मांस खाया लेकिन मच्छीमार उसको पकड़ नहीं सका। ___मांस समाप्त होने पर चिंता करते हुए मच्छीमार को मत्स्य ने कहा—'तुम इस प्रकार क्या चिन्तन कर रहे हो? तुम मेरी कथा सुनो, जिससे तुमको लज्जा का अनुभव होगा। मैं तीन बार बलाका के मुख में जाकर भी उससे मुक्त हो गया। एक बार मैं बलाका के द्वारा पकड़ा गया। उसने मुझे मुख में डालने के लिए ऊपर की ओर फेंका। मैंने सोचा कि यदि मैं सीधा इसके मुख में गिर जाऊंगा तो मेरे प्राणों की रक्षा संभव नहीं है। इसलिए इसके मुख में तिरछा गिरूंगा। ऐसा सोचकर मैंने फुर्ती से वैसा ही किया। मैं उसके मुख से बाहर निकल गया। पुनः दूसरी बार भी मैं उसके मुख में जाकर बाहर निकल गया। तीसरी बार मैं जल . में गिरा अतः दूर चला गया। तीन बार मैं समुद्री तट पर भट्टी के रूप में जलती बालू में गिरा लेकिन शीघ्र ही लहरों के साथ ही वापस समुद्र में चला गया। इसी प्रकार मच्छीमार द्वारा बिछे जाल में इक्कीस बार फंसने पर भी जब तक मात्स्यिक ने जाल का संकोच किया, उससे पहले मैं जाल से निकल गया। एक बार मात्स्यिक ने हृद के जल को बाहर निकालकर उसे खाली करके अनेक मत्स्यों के साथ मुझे पकड़ा। वह सभी मत्स्यों को एकत्र करके तीक्ष्ण लोहे की शलाका में उनको पिरो रहा था। तब मैं दक्षता से मात्स्यिक की दृष्टि बचाकर स्वयं ही उस लोहे के शलाका के मुख पर स्थित हो गया। जब वह मच्छीमार कर्दम लिप्त मत्स्यों को धोने के लिए सरोवर पर गया तब शीघ्र ही मैं जल में निमग्न हो गया। इस प्रकार मुझ शक्ति सम्पन्न को तुम कांटे से पकड़ना चाहते हो , यह तुम्हारी निर्लज्जता है।' इस कथा का निगमन करते हुए कथाकार कहते हैं कि एषणा के 42 दोषों से बचने पर भी हे जीव! यदि तुम ग्रासैषणा के दोषों में लिप्त होते हो तो यह तुम्हारी निर्लज्जता है। 54. परिणामक आदि शिष्यों की परीक्षा एक आचार्य ने शिष्यों की परीक्षा लेने की दृष्टि से उन्हें आदेश दिया कि मुझे आम की आवश्यकता है। उनमें जो परिणामक शिष्य था उसने आचार्य से पूछा-'भंते ! मैं सचित्त आम लाऊं या अचित्त, नमक आदि से भावित लाऊं या अभावित? टुकड़े किए हुए लाऊं या बिना टुकड़े किए हुए, गुठली सहित लाऊं या गुठली रहित? तथा संख्या में कितने लेकर आऊं?' आचार्य ने कहा "प्रयोजन होने पर तुम्हें आम के बारे में कहूंगा। अभी तो मैंने तुम्हारी परीक्षा के लिए ऐसा कहा था।" शिष्यों में जो अपरिणामक शिष्य था वह बोला-'आचार्यप्रवर! क्या आपको पित्त का प्रकोप हो गया है, जो इस प्रकार का आदेश दे रहे हैं। आज मेरे सामने कह दिया लेकिन आगे कभी ऐसी बात मत कहना। दूसरा कोई व्यक्ति आपकी बात न सुन ले। अतिपरिणामक शिष्य बोला—“मैं अभी आम लेकर आता हूं। अभी आम का मौसम है फिर बीत १.जीभा 1606-08, पिनि 302/2-4, मटी प. 170, 171 / Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 613 जाएगा। हमारी भी आम खाने की इच्छा है लेकिन आपके भय से हम ऐसा नहीं कर सके। यदि आम कल्प्य है तो आपने इतना समय बीतने पर क्यों कहा? क्या आम के साथ दूसरे फल भी लेकर आ जाऊं?" आचार्य ने अपरिणामक और अतिपरिणामक शिष्य को कहा—'तुम लोगों ने मेरे कथन के अभिप्राय को नहीं समझा। मैंने अपनी बात पूरी नहीं की, इससे पूर्व ही तुम लोग बोलने लगे। मैंने लवणयुक्त आम के टुकड़े मंगवाए थे, जो शाक रूप में पकाए हुए हों तथा परिणत हों। यदि मैं निष्पाव, कोद्रव आदि मंगवाता हूं तो उसका तात्पर्य भी सूखे और अचित्त से है। ईमली के बीज मंगवाने का तात्पर्य भी अचित्त बीजों से है, सचित्त से नहीं।' 55. प्रतिक्रमण : रसायन दष्टान्त एक राजा को राजकुमार से अत्यन्त स्नेह था। उसने सोचा-"मैं भविष्य के लिए एक ऐसे रसायन का निर्माण करवाऊंगा, जिससे मेरे पुत्र को कभी रोग न हो।" राजा ने सारे वैद्यों को बुलवाया और कहा कि मेरे पुत्र की इस भांति चिकित्सा करो, जिससे वह नीरोग रहे। वैद्यों ने स्वीकृति दी। राजा ने पूछा-'तुम्हारी औषधि की क्या विशेषता है?' एक वैद्य बोला-'मेरी औषध की यह विशेषता है कि यदि रोग होगा तो वह उपशांत हो जायेगा, यदि रोग नहीं होगा तो वह जीवन का नाश कर देगा।' दूसरा वैद्य बोला- 'मेरी औषधि रोग को उपशान्त करेगी, यदि रोग नही है तो किसी प्रकार का कोई अच्छा या बुरा असर नहीं होगा।' तीसरा वैद्य बोला—'यदि रोग होगा तो मेरी औषधि उसे उपशान्त कर देगी। यदि रोग नहीं होगा तो वह औषधि वर्ण, रूप, यौवन और लावण्य में परिणत हो जाएगी, उससे भविष्य में कोई रोग उत्पन्न नहीं होगा।' यह सुनकर राजा ने तीसरे वैद्य से चिकित्सा करवाई। प्रतिक्रमण तीसरे रसायन के समान है, जो दोष होने पर उसका छेदन कर देता है तथा दोष न होने पर भविष्य की सुरक्षा कर देता है। 56. पद्मावती की दीक्षा चंपानगरी में दधिवाहन नामक राजा था। चेटक की पुत्री पद्मावती उसकी पत्नी थी। जब वह गर्भवती हुई तब उसके मन में दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं राजा के कपड़े पहनकर उद्यान, कानन आदि में विहरण करूं। दोहद पूरा न होने से उसका शरीर कृश होने लगा। राजा ने कृश-काय होने का कारण पूछा। रानी ने राजा को दोहद की बात बताई। यह सुनकर राजा और रानी जय नामक हाथी पर आरूढ़ हुए। राजा ने रानी के सिर पर छत्र धारण किया। वे दोनों उद्यान में गए। वर्षाऋतु होने के कारण मिट्टी की गंध से हाथी वन की ओर दौड़ने लगा। राजकीय लोग उस हाथी को रोकने में समर्थ नहीं हो सके। हाथी राजा और रानी दोनों को लेकर अटवी में प्रविष्ट हो गया। राजा ने एक वटवृक्ष को देखकर रानी से कहा—'जब हाथी इस वटवृक्ष के नीचे से गुजरे, तब तुम इस वटवृक्ष की शाखा को पकड़ लेना।' रानी पद्मावती ने राजा की बात सुनी पर वह वृक्ष की शाखा को पकड़ने में असमर्थ रही। राजा दक्ष था अतः उसने तुरन्त शाखा पकड़ ली। 1. जीभा 1951-58, बृभा 798-802 टी पृ. 251, 252 / 2, जीभा 2054-57 बृभा 6428-30 टी पृ. 1693, आवहाटी 2 पृ.५३। Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 614 जीतकल्प सभाष्य अकेली रानी हाथी पर रह गई। राजा वृक्ष से नीचे उतरा और दुःखी मन से चंपा नगरी लौट आया। इधर हाथी रानी को निर्जन अटवी में ले गया। वहां हाथी को प्यास का अनुभव हुआ। उसने एक बड़ा तालाब देखा और उसमें उतरकर क्रीड़ा करने लगा। रानी भी धीरे-धीरे नीचे उतरी, तालाब से बाहर आई। वह अपने नगर की दिशा नहीं जानती थी। 'अहो! कर्मों की गति कितनी विचित्र है। मैं अकल्पित विपत्ति में फंस गई हूं। अब मैं क्या करूं? कहां जाऊं? मेरी क्या गति होगी?' ऐसा सोचते-सोचते वह रोने लगी। क्षण भर बाद उसने धैर्य धारण करके सोचा-'हिंसक एवं जंगली पशुओं से युक्त इस भीषण वन में कुछ भी हो सकता है अतः हर क्षण अप्रमत्त रहना चाहिए।' उसने अर्हत् आदि चार शरणों को स्वीकार किया। अनाचरणीय की आलोचना की और सकल जीव-राशि के साथ मानसिक रूप से क्षमायाचना की। उसने सागारिक भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया। वह नमस्कार महामंत्र का जाप करती हुई एक दिशा में प्रस्थित हुई। बहुत दूर जाने पर उसे एक तापस दिखाई पड़ा। तापस के पास जाकर उसने अभिवादन किया। तापस ने पूछा- 'मां! आप : कौन है? यहां निर्जन वन में कहां से आईं हैं?' वह बोली—'मैं चेटक की पुत्री हूं। राजा दधिवाहन की पत्नी हूं। हाथी मुझे यहां तक ले आया।' वह तापस चेटक से परिचित था। उसने रानी को आश्वासन दिया कि तुम डरो मत। तापस ने भोजन के लिए उसे फल दिए और अटवी के पार पहुंचा दिया। तापस ने कहा'यहां से आगे हल के द्वारा जोती हुई भूमि है अतः मैं आगे नहीं जा सकता। आगे दन्तपुर नगर है। वहां का राजा दन्तवक्र है।' वह अटवी से बाहर निकली और दंतपुर नगर में आर्याओं के पास प्रव्रजित हो गयी। पूछने पर भी उसने अपने गर्भ के बारे में कुछ नहीं बताया। कुछ समय पश्चात् महत्तरिका को गर्भ के बारे में ज्ञात हुआ। प्रसव होने पर उसने नाममुद्रिका के साथ बालक को कंबलरत्न से आवेष्टित कर श्मशान में छोड़ दिया। श्मशान में रहने वाले चांडाल ने उस बालक को उठा लिया और अपनी पत्नी को दे दिया। उसका नाम अवकीर्णक रख दिया। आर्या पद्मावती ने उस चांडाल के साथ मैत्री स्थापित कर ली। अन्य साध्वियों ने उससे पछा'तुम्हारा गर्भ कहां है?' उसने कहा—'मृतक पुत्र पैदा हुआ था अतः उसे श्मशान में डाल दिया।' वह बालक बढ़ने लगा और बच्चों के साथ खेलने लगा। वह बच्चों से कहता-'मैं सब का राजा हूं अतः तुम सब मुझे 'कर' दो। एक बार उसे सूखी खाज हो गई। वह बालकों से कहता कि मेरे खाज करो। हाथ से खाज करने के कारण बच्चों ने उसका नाम करकंडु रख दिया। बालक करकंडु भी उस साध्वी के प्रति अनुरक्त हो गया। वह साध्वी भी भिक्षा में जो मोदक आदि अच्छी चीज मिलती, बालक को देती थी। बड़ा होने पर वह श्मशान की रक्षा करने लगा। 57. खुड्डगकुमार को वैराग्य साकेत नगर में पुंडरीक राजा राज्य करता था। उसके युवराज का नाम कंडरीक था। युवराज की , १.जीभा 2364, उशांटी प. 300, 301 // Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 615 पत्नी का नाम यशोभद्रा था। एक दिन उसे देखकर पुंडरीक उस पर आसक्त हो गया लेकिन वह उसे नहीं चाहती थी। राजा पुंडरीक ने युवराज कंडरीक को मार दिया। पति की मृत्यु के पश्चात् यशोभद्रा एक सार्थ के साथ वहां से पलायन कर गयी। अधुनोपपन्न गर्भवती रानी श्रावस्ती नगरी पहुंची। श्रावस्ती नगरी में अजितसेन आचार्य थे। वहां महत्तरिका का नाम कीर्तिमती था। वह उस महत्तरिका के पास वैसे ही प्रव्रजित हो गयी, जैसे रानी पद्मावती। कालान्तर में प्रसव के बाद भी उसने अपने पुत्र को नहीं छोड़ा। उस नवजात बालक का नाम खुड्डुककुमार रखा गया। क्रमशः वह यौवन को प्राप्त हुआ। उसने सोचा कि मैं दीक्षा लेने में समर्थ नहीं हूं अतः उसने माता साध्वी से जाने की आज्ञा मांगी। उसने उसे अनेकविध समझाया पर वह नहीं माना। साध्वी ने कहा—'मेरे कहने से तुम बारह वर्ष तक और इंतजार करो। उसने माता साध्वी की बात स्वीकार कर ली।' बारह वर्ष पूर्ण होने पर उसने जाने की आज्ञा मांगी। साध्वी ने कहा- 'मैं महत्तरिका साध्वी से पूछकर तुम्हें आज्ञा दूंगी।' उसने भी बारह वर्ष की अवधि मांगी। महत्तरिका की आज्ञा से वह बारह वर्ष तक वहां रहा फिर आचार्य की आज्ञा से बारह वर्ष रहा फिर उपाध्याय की इच्छा से बारह वर्ष तक रहा। इतने वर्ष बीतने पर भी वह प्रव्रजित होने के लिए तैयार नहीं हुआ। सबने उसे जाने की आज्ञा दे दी। जाते हए साध्वी माता ने उसे शिक्षा देते हए कहा 'तुम ऐसे-वैसे स्थान पर मत जाना। तुम्हारे बड़े पिता राजा पुंडरीक है।' यह तुम्हारे पिता के नाम की मुद्रिका तथा कंबलरत्न है, तुम इन्हें अपने साथ ले जाओ।" वह साकेत नगर पहुंचा। वहां राजा की यानशाला में यह सोचकर ठहरा कि कल राजा से मिलूंगा। आभ्यन्तर परिषद् में उसने नाटक देखा। वह नर्तकी पूरी रात नाचने के बाद प्रभातकाल में निद्राधीन होने लगी। नर्तकी की मुखिया ने सोचा–परिषद् संतुष्ट हो गयी है, उससे बहुत उपहार पाना है।' यदि यह प्रमाद करेगी तो हमारा तिरस्कार होगा। अन्यथा बहुत धन की प्राप्ति हो सकेगी। उसने गीत गाते हुए कहा'पूरी रात्रि तुमने अच्छा गाया और अच्छा नृत्य किया, अब रात्रि के अंत में प्रमाद मत करो।' इसी बीच उस खुड्डक ने अपना कम्बलरत्न नर्तकी की ओर फेंक दिया। युवराज यशोभद्र ने कुंडल, श्रीकान्ता सार्थवाही ने हार, जयसंधि मंत्री ने कंगन, कर्णपाल महावत ने अंकुश फेंक दिया। ये सब चीजें लाख मूल्य वाली थीं। राजा ने कहा—'नर्तकी से संतुष्ट होकर व्यक्ति जो कुछ भी दे, वह सब लिखा जाए। यदि ज्ञात रहेगा तो राजा उससे संतुष्ट होगा अन्यथा दंड मिलेगा।' सब व्यक्तियों के उपहार लिख लिए गए। प्रातः उन सब व्यक्तियों को बुलाया गया। राजा ने उनसे पूछा-'खुड्डुककुमार! तुमने नर्तकी को रत्नकम्बल क्यों दिया?' उसने पितृमारक राजा के बारे में पूरी बात बताई। साथ ही यह कहा कि संयमपालन करने में मैं स्वयं को समर्थ नहीं समझ रहा था अतः तुम्हारे पास राज्य की अभिलाषा से आया हूं। राजा पुंडरीक ने कहा—'मैं तुम्हें राज्य दूंगा।' खुड्डक ने कहा—'अब मेरे लिए राज्य व्यर्थ है क्योंकि अब स्वप्नान्त-जीवन का सान्ध्यकाल चल रहा है, कभी भी मर सकता हूं। राज्य लेने से मेरा पूर्वकृत संयम भी नष्ट हो जाएगा। युवराज ने बहुमूल्य कुंडल देने का कारण बताते हुए कहा—'मैं आपको मारना चाहता था क्योंकि मेरे मन में चिंतन था कि वृद्ध होने पर भी आप मुझे राज्य नहीं दे रहे हैं।' राजा ने अपने पुत्र को राज्य Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 616 जीतकल्प सभाष्य देना चाहा लेकिन उसने इंकार कर दिया। सार्थवाह की पत्नी ने हार देने का कारण बताते हुए कहा—'मेरे पति को परदेश गए हुए बारह वर्ष हो गए। मैं किसी अन्य के साथ जाना चाहती थी।' मंत्री ने कंगन देने का कारण बताते हुए कहा कि मैं अन्य राजा के साथ मिलकर आपके साथ विद्रोह करना चाहता था। महावत ने कहा-"प्रत्यन्त राजा ने मुझे हाथी लाने को कहा अथवा राजा को मारने की बात कही।" उन सबकी बात सुनकर राजा ने वैसा करने को कहा लेकिन सबने अपनी अनिच्छा व्यक्त की। खुडककुमार वापिस जाकर प्रव्रजित हो गया और सभी ने अपना-अपना लोभ छोड़ दिया। 58. हस्तालम्ब : वणिग्द्वय कथा उज्जयिनी नगरी में अवसन्न आचार्य रहते थे, वे निमित्त शास्त्र के ज्ञाता थे। उनके दो वणिक् मित्र थे। वे आचार्य से पूछकर व्यापार करते थे कि अभी उपकरणों को खरीदें या बेचें? इस प्रकार व्यापार करते हुए वे ऐश्वर्य सम्पन्न हो गए। आचार्य का एक भानजा था, वह भोगों में आसक्त था। एक दिन आचार्य के पास आकर उसने कुछ मांग की। आचार्य ने क्षुल्लक शिष्य के साथ उसे व्यापारी मित्र के पास भेजा और कहलवाया कि इसे एक हजार रुपये दे दो। आचार्य के कथनानुसार उसने वहां जाकर रुपयों की मांग की। एक व्यापारी ने कहा "क्या पक्षी रुपये पैदा करते हैं? मेरे पास इतने रुपए नहीं हैं। मैं तुमको केवल 20 रुपए दूंगा।" उसने रुपये नहीं लिए और आचार्य के पास जाकर सारी स्थिति का निवेदन किया। तब आचार्य ने उसे दूसरे वणिक् के पास भेजा। उसने वहां जाकर भी आचार्य के कथनानुसार रुपयों की मांग की। व्यापारी ने टोकरी में बहुत सारी नौलियां दिखाई और कहा...'इनमें तुमको जितने रुपयों की इच्छा है, उतने ग्रहण कर लो।' दूसरे वर्ष दोनों व्यापारियों ने आचार्य से व्यापार के सम्बन्ध में पूछा कि इस वर्ष हम क्या खरीदें? आचार्य ने प्रथम वणिक् को कहा—'तुम्हारे घर में जितना धन है, उससे तुम कपास, घी, गुड़ आदि खरीदकर घर के अंदर रख लो।' दूसरा वणिक् जिसके पास धन कम था, उसे कहा "तुम बहुत सा तृण, काष्ठ, धान्य आदि खरीदकर नगर के बाहर अग्नि से रहित स्थान पर छिपाकर रख दो।" उस वर्ष अनावृष्टि हुई अतः अग्नि का प्रकोप हो गया। अग्नि के कारण सारा नगर जल गया। प्रथम वणिक् की सारी कपास आदि वस्तुएं जलकर भस्म हो गईं। दूसरे वणिक् की सारी वस्तुएं सुरक्षित रह गईं। उसने तृण, काष्ठ, धान्य आदि अधिक कीमत पर बेच दिए। उसको लाखों रुपयों की कमाई हो गई। तब प्रथम वणिक् ने आकर आचार्य को कहा'आपके निमित्त में इतना विसंवाद कैसे हुआ?' आचार्य ने प्रत्युत्तर दिया-क्या शकुनि निमित्त पैदा करती है?' यह सुनकर व्यापारी को अपनी भूल का अहसास हुआ। उसने आचार्य से अपनी त्रुटि के लिए क्षमायाचना की। आचार्य की अनुकम्पा से वह पुनः ऐश्वर्य सम्पन्न हो गया। १.जीभा 2364, आव 2 पृ. 191, १९२,हाटी 2 पृ. 141, 142 / 2. जीभा 2396-2405, बृभा 5114, टी पृ. 1362, 1363 / Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 617 59. सरसों की भाजी एक साधु ने सरसों की सुसंभृत सब्जी प्राप्त की। उसको उस सब्जी में अत्यन्त आसक्ति थी। भिक्षा के बाद उसने आचार्य को वह सब्जी निवेदित की। आचार्य को निमंत्रण देने पर उन्होंने वह सारी सब्जी खा ली। यह देखकर मुनि को तीव्र द्वेष उत्पन्न हो गया। ज्ञात होने पर आचार्य ने क्षमायाचना की, मिथ्या दुष्कृत किया फिर भी उसका रोष शान्त नहीं हुआ। मुनि ने आचार्य से कहा-“मैं तुम्हारे दांतों को तोडूंगा।" गुरु ने सोचा कहीं असमाधिमरण से मेरी मौत न हो अतः अन्य योग्य शिष्य को आचार्य रूप में स्थापित करके अन्य गण में जाकर वहां भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया। आचार्य ने समाधिमरण प्राप्त कर लिया। उस दुष्ट शिष्य ने अपने साथी मुनियों से गुरु के बारे में पूछा। उन लोगों ने इस संदर्भ में कुछ नहीं बताया। उसने दूसरे स्थान पर जाकर आचार्य के बारे में जानकारी प्राप्त की। साधुओं ने कहा "आचार्य समाधिमरण में कालगत हो गए हैं।" शिष्य ने पूछा "आचार्य के शरीर का कहां परिष्ठापन किया गया है?" आचार्य ने प्राणत्याग से पूर्व ही साधुओं से कह दिया था कि मेरे शरीर को जहां परिष्ठापित किया जाए, उस बारे में उस शिष्य को कुछ मत बताना। शिष्यों ने उसे कुछ नहीं बताया। अन्य स्रोत से उसने आचार्य के परिष्ठापित शरीर के बारे में जानकारी प्राप्त कर ली। वह उस स्थान पर पहुंचा, जहां आचार्य का शरीर परिष्ठापित किया गया था। उसने आचार्य के शरीर को बाहर निकाला। गोल पत्थर लेकर उसने आचार्य के दांतों को तोड़ते हुए कहा "तुमने इन्हीं दांतों से सरसों की भाजी खाई थी।" इस प्रकार उसने अपने क्रोध को उपशांत किया। 60. मुखवस्त्रिका एक साधु ने अत्यन्त उज्ज्वल मुखवस्त्रिका प्राप्त की। उसने जब गुरु को मुखवस्त्रिका दिखाई तो वह मुखवस्त्रिका गुरु ने ले ली। उसके मन में गुरु के प्रति तीव्र प्रद्वेष उत्पन्न हो गया। ज्ञात होने पर गुरु ने मुखवस्त्रिका उसे पुनः लौटाते हुए क्षमायाचना की। उसने मुखवस्त्रिका वापिस नहीं ली। उसके प्रद्वेष को जानकर गुरु ने अपने गण में ही भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया। रात्रि में एकान्त पाकर शिष्य ने गुरु के पास जाकर उनका गला दबा दिया। संमूढ होकर गुरु ने भी उस दुष्ट शिष्य का गला दबा दिया। गुरु और शिष्य दोनों कालगत हो गए। 61. उलूकाक्ष ___ एक साधु सूर्यास्त के समय भी कपड़े सी रहा था। आचार्य ने उससे कहा-"अरे उलूकाक्ष! तूं सूर्यास्त होने पर भी क्यों सी रहा है?" वह रुष्ट होकर बोला "तुमने मुझे उलूकाक्ष कहा है अत: मैं तुम्हारी दोनों आंखें उखाड़ दूंगा।" आचार्य ने क्षमायाचना की लेकिन उसका कोप शान्त नहीं हुआ। यह जानकर १.जीभा 2483, 2484, बृभा 4988, 4989 टी पृ. 1333 / २.जीभा 2485, 2486, बृभा 4990 टी पृ. 1333,1334 / Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 618 जीतकल्प सभाष्य आचार्य ने किसी अन्य शिष्य को आचार्य स्थापित करके अन्य गण में अनशन स्वीकार कर लिया। सरसों की भाजी की भांति कथानक का विस्तार समझना चाहिए। 62. शिखरिणी __एक साधु को उत्कृष्ट शिखरिणी-श्रीखण्ड की प्राप्ति हुई। उसने गुरु को शिखरिणी निवेदित की तथा खाने के लिए निमंत्रण भी दिया। गुरु ने सारी शिखरिणी का पान कर लिया। यह देखकर शिष्य के मन में प्रद्वेष उत्पन्न हो गया। शिष्य ने गुरु को मारने के लिए डंडा उठाया। आचार्य ने क्षमायाचना की लेकिन उसका रोष शान्त नहीं हुआ। गुरु ने अपने गण में ही भक्त प्रत्याख्यान अनशन स्वीकार करके समाधिमरण को प्राप्त किया। आचार्य के कालगत होने पर द्वेषवश उसने गुरु के शरीर को डंडे से खूब पीटा, तब उसका क्रोध शान्त हुआ। 63. उदायिमारक उदायी राजा कोणिक का पुत्र था। उसने अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् पाटलिपुत्र नगर को बसाया। जैनधर्म के प्रति उसकी दृढ़ आस्था थी। वह पर्व तिथियों में पौषध करके धर्म-चिन्तन में समय व्यतीत करता था। धार्मिक होने के साथ-साथ वह अत्यन्त पराक्रमी भी था। उसने अपने तेज से सभी राजाओं को अपने अधीन कर लिया था। सभी राजा यही चिन्तन करते थे कि जब तक उदायी राजा जीवित. है, हम स्वतंत्रता की सांस नहीं ले सकते। एक बार किसी राजा ने कोई अपराध कर लिया। क्रोधित होकर उदायी ने उसका राज्य छीन लिया। राजा वहां से पलायन करके अन्यत्र कहीं जा रहा था लेकिन मार्ग में ही उसकी मृत्यु हो गई। उसका पुत्र घूमता हुआ उज्जयिनी नगरी में आ गया और राजा के पास रहने लगा। उज्जयिनी का राजा भी उदायी से नाराज था अतः दोनों ने मिलकर उदायी को मारने का षड़यन्त्र रचा। राजपुत्र उज्जयिनी से पाटलिपुत्र आया और उदायी का सेवक बनकर रहने लगा। उदायी को यह ज्ञात नहीं था कि यह उसके शत्रु राजा का पुत्र है। वह राजा को मारने के लिए अवसर की खोज करने लगा लेकिन उसे कोई छिद्र नहीं मिला। राजकुमार ने जैन मुनियों को उदायी के प्रासाद में बिना रोक-टोक के आते-जाते देखा। उसके मन में भी राजप्रासाद में जाने की इच्छा जागृत हुई। वह एक जैन आचार्य के पास दीक्षित हो गया। वह साधु-आचार का पूर्णतः पालन करने लगा। उसकी आचारनिष्ठा और सेवाभावना से आचार्य अत्यन्त प्रसन्न थे। राजा उदायी प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को पौषध करते थे। उस समय आचार्य उनको धर्मकथा सुनाते थे। एक बार पौषध के दिन आचार्य सायंकाल उदायी के निवास स्थान पर पहुंचे। वह प्रव्रजित राजपुत्र भी आचार्य के उपकरण लेकर उनके साथ गया। उदायी को मारने की इच्छा से उसने अपने पास तीखी कैंची छिपाकर रख ली। वह भी उदायी के समीप आचार्य के साथ बैठ गया। आचार्य 1. बृहत्कल्पभाष्य की टीका में कथानक में कुछ अंतर है। उलूकाक्ष शब्द का प्रयोग आचार्य ने नहीं अपितु किसी साधु ने किया था। उसने अपने गण में ही भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार किया। 2. जीभा 2487, 2488, बृभा 4991 टी पृ. 1334 / 3. जीभा 2489, बृभा 4992, 4993 टी पृ. 1334 / Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाएं : परि-२ 619 धर्म-प्रवचन करके सो गए। महाराज उदायी भी थकने के कारण वहीं भूमि पर सो गए। वह मुनि जागता रहा। रात्रि के एकान्त में अवसर का लाभ उठाते हुए उसने कैंची राजा के गले पर फेंक दी। राजा का गला छिन्न हो गया और वहां से रक्त बहने लगा। ___ वह दुष्ट श्रमण वहां से बाहर चला गया। पहरेदारों ने भी उसे नहीं रोका। रक्त की धारा बहती हुई आचार्य के संस्तारक के पास पहुंच गई। आचार्य ने उठकर सारा दृश्य देखा, वे अवाक् रह गए। शिष्य को न देखकर उन्होंने जान लिया कि यह सारा कार्य उस कपटी श्रमण का ही होना चाहिए इसीलिए वह यहां से भाग गया है। आचार्य ने चिन्तन किया- राजा की इस मृत्यु से जैन शासन कलंकित होगा और लोग कहेंगे कि जैन आचार्य ने अपने श्रावक राजा को मार दिया।' प्रवचन की अवहेलना न हो इसलिए अच्छा है मैं स्वयं का भी घात कर लूं। इससे लोग यह सोचेंगे कि राजा और आचार्य को किसी ने मार डाला। इससे शासन का अपयश नहीं होगा। आचार्य ने अंतिम अनशन स्वीकार करके उसी कैंची से अपना गला छेद डाला। प्रातः सारे नगर में यह बात फैल गई कि उस शिष्य ने राजा और आचार्य की हत्या कर दी। सैनिक उसकी तलाश में गए लेकिन वह नहीं मिला। वह उदायीमारक श्रमण उज्जयिनी नगरी पहुंचा और वहां के राजा को सारा वृत्तान्त कहा। राजा ने कहा-'अरे दुष्ट!' इतने दिन तक श्रामण्य का पालन करने पर भी तेरी कपटता समाप्त नहीं हुई। तेरे जैसे दुष्ट को अपने पास रखने से क्या लाभ? राजा ने उसकी भर्त्सना की और देश निकाला दे दिया।' 64. आचार्य स्कन्दक और पालकर (जीभा 2499.2500. कथा के विस्तार हेतु देखें कथा सं.७) 65. स्त्यानर्द्धि निद्रा : पुद्गल दृष्टान्त - एक कौटुम्बिक आहार के साथ पकाए हुए या तले हुए मांस को खाता था। एक बार तथारूप स्थविर साधु के पास धर्म सुनकर वह प्रव्रजित होकर ग्रामानुग्राम विहार करने लगा। एक गांव में उसने भैंसे को काटते हुए देखा। उसे देखकर उसकी मांस खाने की तीव्र अभिलाषा उत्पन्न हो गई। उस तीव्र अभिलाषा के साथ ही उसने भिक्षा की। तीव्र अभिलाषा के साथ ही आहार किया तथा मांस खाने की तीव्र अभिलाषा के साथ ही वह विचारभूमि गया। उसी अभिलाषा से उसने अंतिम सूत्र-पौरुषी और प्रतिक्रमण किया। अंत में उसी अभिलाषा के साथ वह सो गया। सोते ही उसके स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हो गया। वह नींद में उठा और महिषमंडल के बीच में पहंच गया। एक महिष को मारकर उसका मांस खाकर शेष मांस को उपाश्रय के ऊपर डालकर वह पुनः सो गया। प्रात:काल उसने गुरु के समक्ष आलोचना करते हुए कहा कि मैंने ऐसा स्वप्न देखा। साधुओं ने दिशाओं का अवलोकन करते हुए उपाश्रय के ऊपर और बाहर मांस देखा। इससे उन्होंने जान लिया कि यह स्त्यानर्द्धि निद्रा का प्रभाव है। गुरु ने उसे लिंग पारांचित प्रायश्चित्त दे दिया। 66. स्त्यानर्द्धि निद्रा : मोदक दृष्टान्त एक साधु ने भिक्षा करते हुए मोदक का भोजन देखा। उसने दीर्घकाल तक मोदक हेतु भ्रमण .1. जीभा 2498, परि. पर्व सर्ग 6 पृ. 64, 65 / 2. जीभा 2529, निभा 136 चू पृ.५५, बृभा 5018 टी पृ. 1340 / Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 620 जीतकल्प सभाष्य किया लेकिन उसे मोदक की प्राप्ति नहीं हुई। मोदक प्राप्त न होने से वह उन्हीं विचारों में सो गया। रात्रि में वह मोदक वाले घर में गया और कपाट को तोड़कर मोदक खाने लगा। शेष मोदकों को पात्र में लेकर वह उपाश्रय आ गया। प्रात:काल आवश्यक के समय उसने गुरु के समक्ष आलोचना करते हुए कहा कि मैंने इस प्रकार का स्वप्न देखा है। प्रात:काल मोदक से भरे पात्र को देखकर गुरु ने जान लिया कि यह स्त्यानर्द्धि निद्रा के प्रभाव से हुआ है। गुरु ने उसको लिंग पारांचित प्रायश्चित्त दिया। 67. स्त्यानर्द्धि निद्रा : कुम्भकार दृष्टान्त एक बड़े गच्छ में कुम्भकार ने दीक्षा ग्रहण की। रात्रि में सोते हुए उसके अचानक स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हो गया। पूर्व जीवन में मिट्टी के छेदन आदि का अभ्यास होने से उसने समीप सोए हुए साधुओं के सिर को छेदना प्रारम्भ कर दिया। कलेवर रूप सिरों को उसने एकान्त में डाल दिया। शेष साधु वहां से दूर चले गए। वह साधु पुनः सो गया। प्रातः उसने गुरु के समक्ष स्वप्न की आलोचना की। साधुओं के सिर और मृत कलेवरों को देखकर गुरु ने जान लिया कि यह स्त्यानर्द्धि निद्रा का प्रभाव है। गुरु ने उसे लिंग पारांचित प्रायश्चित्त प्रदान किया। 68. स्त्यानर्द्धि निद्रा : दंत-उन्मूलन दृष्टान्त भिक्षार्थ घूमते हुए एक साधु को मदोन्मत्त हाथी ने सूंड में पकड़कर हवा में उछाल दिया। किसी प्रकार से पलायन करके वह वहां से भाग गया। वह साधु हाथी के द्वारा कृत पराभव को याद करके उस हाथी के प्रति द्वेष युक्त मन से सो गया। स्त्यानर्द्धि निद्रा के कारण नगर-द्वार को तोड़कर वह साधु हस्तिशाला में गया। हाथी को मारकर उसके दांत उखाड़कर उन्हें उपाश्रय के बाहर रखकर मधु पुनः सो गया। प्रात:काल गुरु को स्वप्न बताकर उसकी आलोचना की। साधुओं ने क्षेत्र-प्रतिलेखना के समय हाथी के दांतों को देखकर जान लिया कि स्त्यानर्द्धि निद्रा में यह सब हुआ है। गुरु ने उसे लिंग पारांचित प्रायश्चित्त प्रदान किया। 69. स्त्यानर्द्धि निद्रा : वटशाखा दृष्टान्त एक साधु भिक्षा के लिए दूसरे गांव में गया। वहां दो गांवों के बीच एक बड़ा वटवृक्ष था। वह साधु गर्मी से तप्त था, भिक्षा से उसके पात्र भरे हुए थे। वह भूखा-प्यासा ईर्या में उपयुक्त होकर वेगपूर्वक चल रहा था। वटवृक्ष की शाखा से उसका सिर टकरा गया। इससे उसके मन में वटवृक्ष के प्रति प्रद्वेष पैदा हो गया। उन्हीं अध्यवसायों में वह सो गया। स्त्यानर्द्धि निद्रा में उठकर वह वटवृक्ष के पास गया और वटवृक्ष को उखाड़कर उसकी शाखा को उपाश्रय के बाहर फेंक दिया। प्रात:काल प्रतिक्रमण के बाद उसने गुरु के समक्ष अपने स्वप्न की आलोचना की। क्षेत्र-प्रतिलेखना के समय ज्ञात हुआ कि यह स्त्यानर्द्धि निद्रा का प्रभाव था। गुरु ने उसे लिंग पारांचित प्रायश्चित्त प्रदान किया। 1. जीभा 2530, निभा 137 चू पृ.५५, बृभा 5019 टी पृ. 1340 / 2. जीभा 2531, निभा 138 चू पृ. 55,56, बृभा 5020 टी पृ. 1340 / 3. जीभा 2532, निभा 139 चू पृ.५६, बृभा 5021 टी पृ. 1341 / 4. जीभा 2533, निभा 140 चू पृ.५६, बृभा 5022 टी पृ. 1341 / Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ तुलनात्मक संदर्भ 2132 अइरुग्गयम्मि सूरे बृ 6460 | 2107 अट्ठारसेव पुरिसे बृ६४४३ 54 अंगुलमावलियाणं आवनि ३०,नंदी 18/3, | 150-53 अट्ठारसेहिं ठाणेहिं व्य 4070-73 विभा 608 / 2157 अट्ठारसेहिं पुण्णेहिं / बृ६४८० 1232 अंगुलिए चालेउं पिनि 133 / 2155 अट्ठारसेहिं मासेहिं तु. बृ 6478 39 अंतगतो वि य तिविधो तु. नंदी 11 | 389 अणपुच्छाएँ गणस्सा व्य 4282 360 अंतो वा बाहिं वा व्य 4255 / 298 अणमप्पेण कालेणं व्य 4200 2469 अक्कोसतज्जणादिसु बृ४९७८ अणियतचारी अणियत... व्य 4086 2163 अग्गहो ततियादीया पंक 1367 1280 अणिसट्ठमणुण्णातं तु. पिनि 184 356 अग्गीतसगासम्मी व्य 4251 | 2151 अणुपरिहारिगा चेव बृ६४७५ 1171 अघणघणचारिगगणे पिनि 80/4 | 510 अणुपुव्विविहारीणं व्य 4390 316 अचरित्तयाए तित्थे नि 6679, | 525 अणुलोमा पडिलोमा नि 3950, पंक 2313, व्य 4216 | व्य 4403 36 अच्चंतमणुवलद्धा बृ 33 / 2467 अण्णं व एवमादी तु. बृ 4977 1507 अच्चित्तमक्खितम्मी पिनि 245 | 136 . अण्णतरपमादेणं नि 96, व्य 4058 2566 अच्छउ महाणुभावो बृ 5045, | 2007 अण्णत्थ एरिसं दुल्लभं नि 2506, व्य 1218 बृ६३९० .2328 अज्ज अहं संदिट्ठो बृ 5086 | 346 अण्णा दोण्णि समाओ व्य 4243 2070 अज्जाण परिग्गहिताण पंक 2562 | 2010 अण्णे वि अस्थि दोसा बृ६३९३ 62 अज्झवसाठाणेहिं तु. नंदी 19 / 2092 अण्णोण्णस्स सगासे पंक 2584 50 अज्झवसाणेहिँ पसत्थ.... तु. नंदी 18 | 1955 अतिपरिणामो भणती तु. बृ 800 348 अट्ठम दसम दुवालस व्य 4245 | 1627 अतिबहुयं अतिबहुसो पिनि 312/2 2002 अट्ठविधरायपिंडं नि 2501, 66385 / 2053 अतियारस्स तु असती बृ६४२७ 160 अट्ठविधा गणिसंपद व्य 4080 | 1213 अत्तट्ठिय आदाणे पिनि 113/4 242 अट्ठहि अट्ठारसहि य व्य 4157 / 2126 अत्तणो आउगं सेसं बृ६४५६ 1115 अट्ठाएँ अणट्ठाए पिनि 65 / 264 अत्थं पडुच्च सुत्तं व्य 4169 244 अट्ठायारवमादी व्य 4159 / 2419 अत्थादाणे ततिओ बृ५१२८ 2580 अट्ठारस छत्तीसा बृ 5056 / 2029 अदुवा चियत्तकिच्चे पंक 1345, 2137 अट्ठारससु पुण्णेसु बृ६४६५ बृ 6411 Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 622 जीतकल्प सभाष्य / नि 138, अलभंता य वियारं बृ६३९२ अल्लीणा णाणादिसु . व्य 4513 अवराहं वियाणंति व्य 4054 अवरो वि फरुसमुंडो बृ५०२० अवरो विवाडितो मत्त.... नि 139, बृ५०२१ अवरो वि सिहरिणीए तु.पंक 457, तु. बृ४९९२ अवसेसा अणगारा नि 3917, . प्रकी 1290, व्य 4354 अवस्सगमणं दिसासु नि 299, 883, बृ६०६७ अवि णाम होज्ज सुलभो नि 4426, पिनि 210/4 226 अद्दिटुं दिटुं खलु व्य 4143 | 2009 1638 अद्धमसणस्स सव्वं.... पिनि 313/2, | 665 व्य 3701 / 130 1428 अद्धिति दिट्ठीपण्हय नि 1043, | 2531 पिनि 222/2 583 अध सो गतो उ तहियं व्य 4456 / 2532 567 अपरक्कमो मि जातो व्य 4439 570 अपरक्कमो य सीसं व्य 4443 | 2489 2364 अपरिग्ग बृ५०९९ 392 अपरिच्छणम्मि गुरुगा व्य 4285 | 470 597 अपरिच्छितुमायवए नि 471 181 अपरीणामगमादी व्य 41008 3 2047 अप्पच्छित्ते य पच्छित्तं निभा 2864, पंक 1356, बृ६४२२ | 1377 1771 अप्पडिलेहितदूसे नि 4001, प्रसा 677 | 2018 1235 अप्पत्तम्मी ठवितं पिनि 135 | 178 773 अप्पा मूलगुणेसुं व्य 238, 6316 | 2170 2577 अब्भत्थितो सयं वा बृ५०५४, | 391 व्य 1228 2169 अन्भिंतरअतिसेसो पंक 1447 / 2001 2472 अब्भुज्जतं विहारं बृ 4981 1190 अब्भोज्जे गमणादी पिनि 84/1 / 2558 507 अभिघातो वा विज्जू व्य 4388 | 386 2567 अभिधाणहेतुकुसलो बृ 5046, व्य 1219 | 1991 2563 अभिसेगं तो पेसे बृ५०४३ | 2393 2064 अममत्त-अपरिकम्मो पंक 2556 | 1392 679 अमुगो अमुगत्थकतो व्य 4534 982 अरह पूयाएँ धातू तु. आवनि 583/3 | 1228 अवि य हु पुरिसपणीतो. अव्वत्तं अफुडत्तं अव्वावण्णसरीरा असंथरं अजोग्गो वा बृ६४०१ व्य 4097 पंक 1448 नि 3851, असणादीया चतुरो असहू सुत्तं दातुं असिवादीहि वहंता व्य 4284 नि 2500, बृ 6384 बृ५०४० तु.नि 3847, व्य 4279 बृ६३७४ बृ५११२ असिवे ओमोदरिए असिवे पुरोवरोधे अस्संजमजोगाणं नि 4437, पिनि 215 पिभा 27 अस्सुट्ठिता भणंती Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक संदर्भ : परि-३ 623 204 अहगुरु जेणं पव्वा..... व्य 4122 | 108 आदिगरा धम्माणं व्य 4034 396 अह पुण विरूवरूवे व्य 4288 | 175 आदेज्ज मधुरवयणो व्य 4095 899 अहमेगकुलं गच्छं नि 315, बृ 6086 | 2128 आपुच्छिऊण अरहंते बृ 6457 2066 अहलंदियाण गच्छे पंक 2558, | 350 आयंबिल उसिणोदेण व्य 4246 प्रसा 6155 आयप्परपरिकम्म नि 3937, 1525 अहव ण सचित्तमीसो पिनि 251/1 व्य 4392 176 अहवा अफरुसवयणो तु. व्य 4096 | 1993 आयरिए अभिसेगे पंक 1297, 2418 अहवा अभिक्खसेवी बृ५१२७ बृ६३७७ 668 अहवा जेणऽण्णइया . व्य 4515 | 165 आयरिओ य बहुस्सुत व्य 4085 420 अहवा तिगसालंबेण नि 3871, | 408 आयरियपादमूलं नि 3859, व्य 4307 व्य 4295 2173 अहवाऽऽभिणिबोहीयं / पंक 1451 / 1427 आयवयं च परवयं नि 1042, 119 अहवा-वि कायमणिणो व्य 4044 पिनि 222/1 1090 अहवा वि लड्डगादी पिनि 57 | 2079 आयारपकप्पम्मी पंक 2571 362 . अहवावि सव्वरीए व्य 4257 | 246 आयार विणयगुण कप्प.... नि 3865, 383 . अहवा वि सो व्व परतो नि 3844, पंक 1310, मूला 387, व्य 4276 व्य 4301 134 अहवा सहसऽण्णाणा व्य 4056 | 163 आयारसंपदाए व्य 4083 96 अह सव्वदव्वपरिणाम.... आवनि 74, | 161 आयार-सुत-सरीरे प्रसा 542, नंदी 33/1 व्य 4081 आगमतो ववहारो व्य 4029 / 214 . आयारे विणयो खलु व्य 4132 1971 - आचेलक्कुद्देसिय पंक 1271, | 213 आयारे सुत विणए व्य 4131 बृ 6364 | 171 आरोह-परीणाहो व्य 4091 1975 आचेलक्कुद्देसिय बृ 6362 | 172 आरोहो दिग्घत्तं व्य 4092 1983 आचेलक्को धम्मो बृ 6369 | 869 आलत्ते वाहित्ते तु.नि८६३ 1183 आणं सव्वजिणाणं पिनि 83/1 | 2442 आलावण पडिपुच्छण नि 2881, 2344 आणादऽणंतसंसारि..... बृ५०७९ बृ५१३७,५५९८,व्य 550 1664 आतंके उवसग्गे उ 26/34, 127 आलोइय-पडिकंते व्य 4052 ओभा 292, ठाणं 6/42, पिनि 320, | 274 आलोयण पडिकमणे व्य 4180 प्रकी 788, प्रसा 738, मूला 480 | 282 आलोयण पडिकमणे व्य 4185 9 . Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 624 जीतकल्प सभाष्य 243 आलोयणागुणेहिं व्य 4158 | 310 इय अणिवारितदोसा व्य 4211 289 आलोयणा विवेगे य व्य 4192 | 255 इय भणिते चोदेती व्य 4163 284 आलोयणा विवेगो वा व्य 4187 | 120 इय मासाण बहूण वि व्य 4045 1990 आसज्ज खेत्तकप्पं बृ 6371 | 2057 इय सइ दोसं छिंदति बृ६४३० 2539 आसयपोसयसेवी बृ५०२६ / 1660 इरियं च ण सोहेती तु. पिनि 318/2 2554 आसायणा जहण्णो बृ 5032 | 606 इरियं ण सोहइस्सं . नि 488 1315 आसूयमादिएहिं पिनि 194/1 | 2003 ईसर-तलवर-माडंबि... नि 2502, 2560 आहरति भत्तपाणं बृ 5038, बृ 6386 व्य 1213 | 2004 ईसर भोइयमादी नि 2503, बृ 6387 1193 आहाकम्मं भुंजति पिनि 92 | 354 उक्कोसिगा तु एसा व्य 4249 1120 आहाकम्मपरिणतो पिनि 67/1 | 2326 उक्कोसो सणिजोगो बृ५०७२ 1098 आहाकम्मियणामा पिनि 60 | 1566 उक्खेवे णिक्खेवे तु.पिनि 264 372 आहाकम्मिय पाणग नि 3835, | 1297 उग्गमकोडी अवयव पिनि 191 व्य 4267 | 1472 उग्गमदोस गिहीतो . तु.पिनि 234 1295 आहाकम्मुद्देसिय पिनि 190 | 190 उग्गहितस्स तु ईहा व्य 4109 1095 आहाकम्मुद्देसिय नि 3250, | 2375 उग्गिण्णम्मि य गुरुगो , बृ 5104 पिनि 58, बृ 4275 | 428 उज्जाणरुक्खमूले नि 3879, 1137 आहाकम्मेण अहे पिनि 71 व्य 4315 2108 आहार-उवधि-सेज्जा बExxxI/९ राजनापती निग्लानी व्य 4033 1654 आहारेंति तवस्सी पिनि 316 | 2456 उद्वेज्ज णिसीएज्जा नि 2885 450 आहारे ताव छिंदाहि नि 3898, | 2081 उडुबद्धिगेसु अट्ठसु पंक 2573 व्य 4334 | 613 उदय-ऽग्गि-चोर-सावय नि 492 429 इंदियपडिसंचारो नि 3878, | 2074 उदुवासकालऽतीते . पंक 2566 व्य 4316 | 22 उद्देस समुद्देसे व्य 114 2548 इंदियपमाददोसा बृ५०२८ | 1200 उद्देसिगम्मि लहुगो नि 2022 406 इंदियाणि कसाए य नि 3858, | 1198 उद्देसियं समुद्देसियं तु.नि 2019, व्य 4294 तु.पिनि 97 1409 इक्खागवंस भरहो तु. पिनि 219/14 | 655 उद्धारणा विहारण व्य 4503 880 इच्छा-मिच्छा-तहक्कारो आवनि 436/1 | 523 उप्पण्णे उवसग्गे नि 3945, व्य 4398 2471 इड्डि-रस-सातगुरुगा बृ 4980/ 481 उप्फिडितुं सो कणगो व्य 4365 Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक संदर्भ : परि-३ 625 2533 उब्भामग वडसालेण नि 140, | 221 एगल्लविहारादी बृ 5022 | 215 एगल्लविहारे या 2557 उभयं पि दाऊण स पाडिपुच्छं बृ५०३९, | 2068 एगवसहीएँ पणगं व्य 1214 2049 उम्मग्गदेसए मग्ग.... पंक 1358, | 683 एगिदिऽणंतवज्जे बृ 6424 | 1184 एगेण कतमकज्जं 336 उवगरणगणणिमित्तं व्य 4234 | 2179 एगो तित्थगगणं 492 उवगरण-सरीरम्मि य . नि 3933, | 1640 एगो दवस्स भागो व्य 4375 | 387 एगो संथारगतो 484 उवगरणेहि विहूणो व्य 4368 2515 उवसंतो वि समाणो बृ५०१३ | 2101 एतं ठितम्मि मेरं 435 उव्वत्त दार संथार नि 3884, | 557 एतं पादोवगमं . व्य 4321 1603 उसिणस्स छड्डुणे देंतओ पिनि 301 / 254 एताऽऽगमववहारी 2063 उस्सग्गेण य भणितो पंक 2555 | 373 एते अण्णे य तहिं 2048 उस्सुत्तं ववहरेंतो पंक 1357, बृ६४२३ | 365 एते अण्णे य बहू 375 एक्कं व दो व तिण्णि व नि 3838, व्य 4270 | 2024 एते चेव य ठाणा 367. . एक्कं व दो व तिण्णि व नि 3831, | 1382 एतेण मज्झ भावो व्य 4262 305 एक्कासण पुरिमड्डा व्य 4206 | 139 एतेसिं ठाणाणं 326 एक्केक्कं तं दुविधं व्य 4226 | | 2059 एतेसिं पंचण्ह वि 1563 एक्केक्के चउभंगो पिनि 263/2 | 1575 एतेसि दायगाणं 2135 एगं कप्पट्ठियं कुज्जा बृ६४६३ | 661 एतेसु धीरपुरिसा 541 . एगंतणिज्जरा से नि 3952, | 2077 एतेहिं दोसेहिं .. 3963, व्य 4405, 4416 | 192 एत्तो उ पओगमती 1131 एगट्ठ एगवंजण पिनि 70/1 | 355 एत्तो एगतरेणं 378 एगम्मि उ णिज्जवगे तु.नि 3841, | 1624 एत्तो किणावि हीणं तु. व्य 4273 | 2517 एत्थं पुण अधिगारो व्य 4139 व्य 4133 पंक 2560, प्रसा 617 व्य 4538 पिनि 83/2 पंक 1484 पिनि 313/5 तु.नि 3848, तु.व्य 4280 बृ६४३७ नि 3976, व्य 4429 व्य 4162 नि 3836, व्य 4268 नि 3829, व्य 4260 बृ 6407 नि 4428, पिनि 211 व्य 4061 पंक 2551 पिनि 271 व्य 4509 पंक 2569 व्य 4111 व्य 4250 पिनि 311 बृ५०१५ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 626 जीतकल्प सभाष्य नि 2880, 1641 एत्थ तु ततियचतुत्था पिनि 313/6 | 307 एवं सदयं दिज्जति व्य 4208 686 एमादीओ एसो . तु.व्य 4541 | 2156 एवं समाणिए कप्पे बृ६४७९ 419 एमेव दंसणम्मि वि नि 3870, | | 370 एवमसंविग्गे वी व्य 4265 व्य 4306 | 577 एवाऽऽणध बीयाई व्य 4450 2343 एमेव य इत्थीए / तु.बृ५०८० | 487 एवाऽऽहारेण विणा व्य 4371. 2036 एमेव य किचि पदं बृ६४१६ 2440 एस तवं पडिवज्जति 273 एमेव य पारोक्खी व्य 4179 व्य 549 2552 एयगुणसंपउत्तो बृ५०३१ | 162 / एसा अट्ठविधा खलु व्य 4082 615 एयण्णतरागाढे नि 493, व्य 4466 | 206 एसा खलु बत्तीसा .. . व्य 4124 423 / एवं आलोएंतो नि 3874, व्य 4310 | 559 एसागमववहारो व्य 4430 437 एवं खलु उक्कोसा नि 3886, | 654 / एसाऽऽणाववहारो व्य 4502 व्य 4323 एसो सुतववहारो व्य 4437. 653 ' एवं गंतूण तहिं व्य 4501 / 2464 ओभामितो ण कुव्वति व्य 1208 695 एवं जहोवदिट्ठस्स व्य 4550 | 1101 ओरालग्गहणेणं पिभा 16 2093 एवं णिव्वाघाते पंक 2585 / 1100 ओरालसरीराणं पिनि 62 644 एवं ता उग्घाते व्य 4493 | 2556 ओलोयणं गवेसण ..... बृ५०३६, 1471 एवं तु गविट्ठस्सा पिनि 233 व्य 1211 263 एवं तु चोइयम्मी व्य 4172 | 892 ओसण्णे दट्ठणं नि 308, बृ६०७६ 312 एवं तु भणंतेणं व्य 4213 ओसण्णे बहुदोसे व्य 4545 630 एवं तु मुसावाओ व्य 4482 ओही भवपच्चइओ नंदी 22/1 2346 एवं तु सो अवहितो तु.नि 2707, कंखा उ भत्त-पाणे व्य 4154 तु.६५०८१ | 382 कंचणपुर गुरुसण्णा नि 3846, 496 एवं तू णातम्मी व्य 4379 व्य 4278 631 एवं दप्पपदम्मी तु.व्य 4483 | 1230 कंतामि भणति पेलुं तु.पिभा 26 1981 एवं दुग्गतपहिया बृ 6368 | 1154 कक्कडिग अंबगा वा पिनि 78 311 एवं धरती सोही व्य 4212 | 2211 कज्जाऽकज्ज जताऽजत नि 6654, 582 एवं परिच्छिऊणं व्य 4455 व्य 171, 614 475 एवं पादोवगमं नि 3922, | 1316 कणग-रययादियाणं पिनि 194/2 प्रकी 1295, व्य 4359 / 898 कतरिं दिसिं गमिस्ससि नि 314, 1142 एवं लिंगेणं पी तु. पिनि 73/20 | बृ६०८५ | 238 Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक संदर्भ : परि-३ 627 697 1360 कत्तरिपयोयणट्ठा नि 4416, | 442 किं च तं णोवभुत्तं मे नि 3890, पिनि 207/4 व्य 4328 2439 कप्पट्ठितो अहं ते नि 2879, व्य 548 / 2091 किंचि अहिज्जेज्जाही पंक 2583 563 कप्पस्स य णिज्जुत्तिं व्य 4434 | 1954 किं ते पित्तपलावो बृ७९९ 564 कप्पस्स य णिज्जुत्तिं व्य 4435 | 466 किं पुण अणगारसहाय.... नि 3913, 454-57 कम्ममसंखेज्जभवं नि 3902-05, व्य 4350 व्य 4338-41 किं पुण आलोएती? व्य 4459 599 करण-भएसु तु संका नि 473 किं पुण गुणोवदेसो व्य 4552 398 कलमोयणो य पयसा नि 3854, किं पुण तं चउरंगं व्य 4253 व्य 4289 | 576 किं पुण पंचिंदीणं? व्य 4449 304 कल्लाणगमावण्णे व्य 4205 | 886 किं वच्चसि वासंते नि 302, 66070 145 कहेहि सव्वं जो वुत्तो व्य 4066 | | 572 किं वा मारेतव्वो व्य 4445 2380 कामं परपरितावो बृ५१०८ | 1479 किण्णु हु खद्धा भिक्खा पिनि 240/1 1126 कामं सयं न कुव्वति पिनि 67/5 / 2445 कितिकम्मं च पडिच्छति नि 2884, 1102. काय-वइ-मणा तिण्णि उ पिभा 17 व्य 553 2470 काया वया य ते च्चिय बृ 1303, | 2015 कितिकम्मं पि य दुविधं पंक 1338, 4979 बृ६३९८ 462 कायोवचितो बलवं नि 3910, | 1373 किमणेसु दुब्बलेसु य नि 4424, व्य 4346 पिनि 210/2 2210 कारणमकारणं वा नि 6653, 113 किह आगमववहारी व्य 4038 व्य 170, 613 | 359 किह णासेति अगीतो व्य 4254 440 काल-सभावाणुमतो नि 3888, | 1241 कोतकडं पि य दुविधं तु.नि 4475, व्य 4326 तु.पिनि 139 58 काले चतुण्ह वुड्डी आवनि 34, | 363 / / कुज्जा कुलादिपत्थारं व्य 4258 ___ नंदी 1807, विभा 617 | 380 कूवति अदिज्जमाणे नि 3843, 1000 काले विणए बहुमाणे दशनि 158, व्य 4275 नि 8, पंचा 15/23, प्रसा 267, | 1998 केरिसगो तू राया बृ६३८१ भआ 112, मूला 269, व्य 63 | 1378 केलासभवणा एते नि 4427, 334 किं कारणऽवक्कमणं नि 3820, | पिनि 210/5 व्य 4232 | 2115 केवतियकालसंजोगो बृ६४४९ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 628 जीतकल्प सभाष्य 2035 केवलगहणं कसिणं बृ 6415 / 332 गणणिसिरणम्मि उ विही नि 3819, 14 केसिंचि इंदियाई बृ 26, तु. विभा 91 | व्य 4231 476 कोई परीसहेहिं नि 3923, व्य 4360 | 329 गणणिसिरणा परगणे नि 3814, 494 को गीताण उवाओ नि 3935, व्य 4228 व्य 4377 / 2473 गणहर एव महिड्डी बृ 4982 1148 कोद्दवरालगगामे पिनि 76 / 2129 गणोवहिपमाणाइं . बृ६४५८ 696 को वित्थरेण वोत्तूण व्य 4551 / 2152 गतेहिं छहिँ मासेहिं तु. बृ६४७६ 1347 कोवो वलवागभं पिभा 34 | 2153 गतेहिं छहिं मासेहिं बृ६४७७ 550 कोसल्लगेगवीसति.... व्य 4413 | 2052 गमणागमणविहारे पंचा 17/33, 1188 खद्धे गिद्धे य रुया पिनि 83/5 बृ६४२६ 894 खाणुगमादी मूलं नि 310, 18 गमणागमणविहारे व्य 110 तु.६६०७८ | 1335 गामाण दोण्ह वेरं पिनि 202 689 खार हडि हड्डमाला व्य 4544 | 2357 गिण्हणें गुरुगा छम्मास बृ 2500, 5093 . 186 खिप्प बहु बहुविहं वा व्य 4105 / 2354 गिहवासे वि वरागा बृ५०९० . 1322 खीरे य मज्जणे मंडणे तु.पिनि 197 | 368 गीतत्थदुल्लभं खलु नि 3832, . 2359 खुटुं व खुड्डियं वा बृ५०९५ / व्य 4263 891 खुड्डग जणणी उ मुया . नि 307, | 477 गीतत्थमगीतत्थं नि 3924, व्य 4361 बृ६०७५ | 1434 गुणसंथवेण पच्छा नि 1048, 201 खेत्त असति अगहित्ता व्य 4119 . . पिनि 226 195 खेत्तं मालवमादी व्य 4114 | 1432 गुणसंथवेण पुव्वं नि 1046, पिनि 225 1770 गंडी कच्छवि मुट्ठी नि 4000, | 1842 गुरुगं च अट्ठमं खलु बृ६०४३, बृ 3822 ___ व्य 1069, 1121 425 गंधव्व-नट्ट-जड्डऽस्स। नि 3875, | 1838 गुरुगो गुरुगतरागो 66039, व्य 4312 व्य 1065 2160 गच्छम्मि य णिम्माया पंक 1364, | 2340 गुरुगो चतुलहु चतुगुरु नि 2704, बृ६४८३ बृ५०७७ 897 गच्छसि ण ताव गच्छं नि 313, 1840 गुरुगो य होति मासो बृ६०४१, 6237, बृ६०८४ व्य 1067, 1119 2067 गच्छे पडिबद्धाणं पंक 2559, | 2493 गुरुभत्तिमं जो य मणाणुकूलो बृ५००० प्रसा 616 | 1124 गुरुराह जो पमत्तो तु.पिनि 67/3 . Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक संदर्भ : परि-३ 629 2495 गुरुसंसट्ठव्वरितं बृ५००२ | 2044 छण्हं जीवनिकायाणं पंक 1353, 1267 घरकोइलसंचारा पिनि 163/7 बृ६४२० 1609 घासेसणा तु भावे पिनि 303 / 2043 छण्हं जीवनिकायाणं पंक 1354, 170 घोसा उदत्तमादी व्य 4090 बृ६४१९ 551 चउकण्णम्मि रहस्से नि 3961, | 411 छत्तीसगुणसमण्णा.... तु. प्रकी 2895, व्य 4414 तु.नि 3862, तु. व्य 4298 306 चउ-तिग-दुगकल्लाणा व्य 4207 | 207-10 छत्तीसाए तु ठाणेहिं व्य 4125-28 1174 चउरो अतिक्कम वतिक्कमे तु.पिनि 82 | 241 छत्तीसेताणि ठाणाणि व्य 4156 634 चउवीसऽट्ठारसगा . व्य 4486 | 893 छल्लहुगा उ नियत्ते नि 309, बृ 6077 767 चक्के धुंभे पडिमा तु. ओनि 119 / 1657 पिनि 317 343 चत्तारि विचित्ताई तु.नि 3824, 1968 छायं पि विवज्जेती पिनि 80/1 तु. व्य 4240 | 649 छिंदंतु व तं भाणं व्य 4497 1455 चाणक्क पुच्छ इट्टाल... नि 4465, | 287 छेदोवट्ठावणिए व्य 4190 पिभा 37 | 147, जइ आगमो य आलोयणा व्य 4068, 2097 चातुम्मासुक्कोसे पंक 1362, 4069 बृ 6433 | 232 जं इह-परलोगे या व्य 4149 426 चारग-कोट्टग-कल्लाल नि 3876, 979 जंघद्धा संघट्टो तु. ओभा 34 व्य 4313 257 जं जत्तिएण सुज्झति व्य 4166 2012 चारियचोराभिमरा नि 2511, | 203 जं जम्मि होति काले व्य 4121 बृ६३९५ / 118 जं जह मोल्लं रयणं व्य 4043 342 चिट्ठतु जहण्ण मज्झा व्य 4239 | 687 जं जीतं सावज्जं व्य 4543 230 चुतधम्म णट्ठधम्मो व्य 4147 जं जीतं सोधिकरं व्य 4549 117 चोदगपुच्छा पच्चक्ख... तु.व्य 4042 / 692, जं जीतमसोहिकरं व्य 4547, 4548 .256 चोद्दसपुव्वधराणं व्य 4165693 1484 छउमत्थो सुतणाणी पिनि 239 | 2046 जं जो तु समावण्णो बृ 6421 1572 छक्कायवग्गहत्था पिनि 268 | 530 जंतेहिं करकएहि व नि 3966, 1843 छटुं च चउत्थं वा बृ६०४४, 6240, प्रकी 1231, व्य 4419 व्य 1070, 1122 | 313 जंपि य हु एक्कवीसं व्य 4214 2206 छट्ठऽट्ठमादिएहिं नि 6652, | 1526 जं पुण अचित्तदव्वं पिनि 251/2 व्य 162, 607 | 594 जं सेवितं तु बितियं नि 468 Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 630 जीतकल्प सभाष्य 2021 जड्डत्तणेण हंदी बृ६४०४ | 538 जह सा बत्तीसघडा 666 जतणाजुतो पयत्तव व्य 4514 व्यापकी 2055 जति दोसे होअगतं बृ६४२८ | 409 जह सुकुसलो वि वेज्जो तु. ओनि 795, 1145 जत्थ तु ततिओ भंगो पिनि 73/22 नि 3860, व्य 4296 1564 जत्थ तु थोवे थोवं पिनि 263/3 | 535 जह से वंसिपदेसी नि 3971, 2513 जत्थुप्पज्जति दोसो बृ५०११ ___ प्रकी 1229, व्य 4424 291 जदि अस्थि ण दीसंती व्य 4194 | 533 जह सो चिलातपुत्तो तु.नि 3969, 140 जदि आगमो य आलोयणा व्य 4062 व्य 4422 182 जदि छुब्भती विणस्सति व्य 4101 | 1264 जहेव कुंभादिसु पुव्वलित्ते तु.पिनि 163/6 465 जदि ताव सावयाकुल नि 3912, | 1116 जाणंतमजाणतो पिभा 22 तु. प्रकी 1020, व्य 4349 / 2565 जाणंता माहप्पं बृ५०४४, व्य 1217 1488 जदि संका दोसकरी पिनि 240/4 | 410 जाणंतेण वि एवं ओनि 796, 658 जम्हा संपहारेउ व्य.४५०६ नि 3861, व्य 4297 114 जह केवली वियाणति व्य 4039 | 193 जाणति पयोगभिसो . व्य 4112 40 जह कोई तु मणुस्सो तु. नंदी 12 / 87 जाणति पिहुज्जणो वि हु बृ३६ 1132 जह खीरं खीरं चिय पिनि 70/2 | 2005 जा णिति ऽइंति ता अच्छतो - नि 2504, 1445 जह जह पदेसिणिं जाणुगम्मि नि 4460, बृ६३८८ पिनि 228/1 | 1350 जाती कुल गण कम्मे . पिनि 206, 540 जह णाम असी कोसी नि 3946, नि 4411 ___ प्रकी 1281, व्य 4399 593 जा पुण णिक्कारणओ नि 467 951 जह तिक्खउदगवेगे नि 576, 6305, | 259 जा य ऊणाहिए वुत्ता - व्य 4168 बृ 4929, व्य 223 | 2570 जारिसगा सक्कादीण बृ५०४९, 537 जह ते गोट्ठट्ठाणे नि 3973, व्य 4426 | व्य 1222 1192 जह ते दंसणकंखी पिनि 91/4 | 52 जावइया तिसमयाहार... आवनि 28, 1234 जह पुत्तविवाहदिणो पिनि 134 नंदी 18/1, विभा 588 229 जह भायरं व पितरं व्य 4146 | 1199 जा तगमुद्देसो नि 2020, पिनि 98 272 जह रूवादिविसेसा व्य 4178 | 2443 जा संघाडो ताव तु नि 2882, 536 जहऽवंतीसुकुमालो नि 3972, बृ५५९९, व्य 551 व्य 4425 | 552 जाहे पराइया सा नि 3962, 483 जह वाऽऽउंटियपादे व्य 4367 | व्य 4415 Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक संदर्भ : परि-३ 631 211 जा होती बत्तीसा व्य 4129 | 1943 जो दव्वखेत्तकतकाल.... बृ 793 2072 जिणकप्पियऽहालंदी पंक 2564 | 1947, जो दव्वखेत्तकतकाल... बृ 794,795 2058 जिणथेरअहालंदे पंक 2550 | 1948 467 जिणवयणमप्पमेयं नि 3914, | 664 जो धारितो सुतत्थो व्य 4512 प्रकी 1022, व्य 4351 / 575 जो पुण परिणामो खलु व्य 4448 1588 जीवत्तम्मि अविगते पिनि 293 | 296 जो पुण सहती कालं व्य 4198 11 जीवो अक्खो तं पति बृ 25 / 64 जोयणसयं सहस्सं तु. नंदी 20 1149 जुज्जति गणस्स खेत्तं पिनि 76/1 | 2503 जो वि सपक्खो राया..... बृ 4994 1980 जुण्णेहिं खंडिएहि य 66367 | 561 / / जो सुतमहिज्जति बहुं व्य 4432 138 जूतादि होति वसणं व्य 4060 | 562 जो सुतमहिज्जति बहुं व्य 4433 123 जेणं जीवा-ऽजीवा तु.व्य 4048 | 2106 ठवणाकप्पो दुविधो बृ 6442 422 जे मे जाणंति जिणानि 3873, 424 ठाणं पुण केरिसगं व्य 4311 प्रकी 869, व्य 4309 | 514 ठाण-णिसीय-तुयट्टण / नि 3938, 1457 जे विज्ज-मंतदोसा / नि 4466, व्य 4393 पिनि 231 | 330 ठाण वसही पसत्थे नि 3815, 2516 जेसु विहरंति ताओ बृ५०१४ व्य 4229 678 जो आगमे य सुत्ते व्य 4533 | 617 / ठावेत्तु दप्प-कप्पे व्य 4467 2561 जो उ उवेहं कुज्जा . नि 3084, | 2105 ठितमठितम्मि दसविधे नि 2149, बृ 1983,5037, 5932, बृ 6441 व्य 1075,1212 / 865 डहरो अकुलीणो त्ति य नि 2760, 240 जो एतेसु ण वट्टति व्य 4155 बृ 772 2104 जो कप्पठितीमेतं बृ 6440 | 2136 ण तेसिं जायते विग्धं बृ६४६४ 452 जो जत्थ होति कुसलो नि 3900, 493 ण पगासेज्ज लहुत्तं नि 3934, व्य 4336 व्य 4376 1185 जो जहवायं ण कुणति पिनि 83/3 | 1289 णव चेवऽट्ठारसगं पिनि 192/7 434 जो जारिसगो कालो नि 3885, | 439 णवविगति-सत्तओदण तु.नि 3887, व्य 4322 व्य 4325 297 जो तु धरेज्ज अवटुं व्य 4199 | 317 ण विणा तित्थं णियंठेहिं व्य 4217 295 जो तू असंतविभवो व्य 4.97 | 189 ण वि विस्सरति धुवत्तं व्य 4108 Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 632 जीतकल्प सभाष्य - 146 ण संभरति जो दोसे व्य 4067/ 225 णिस्सेसमपरिसेसं व्य 4142 401 ण हु ते दव्वसंलेहं . नि 3855, | 2363 णीएहिं तु अविदिण्णं बृ५०९८ व्य 4291 | 1041 णेगविधा इड्डीओ नि 26 2369 णाऊण य वोच्छेद तु. बृ 5102 / 2028 तओ पारंचिया वुत्ता पंक 1344, 417 णाणणिमित्तं अद्धाण... नि 3868, बृ६४१० व्य 4304 680 तं चेवऽणुकज्जंतो व्य 4535 416 णाणे वितहपरूवण तु.नि 3867, तं णो वच्चति तित्थं व्य 4219 तु.व्य 4303 | 474 तं तारिसगं रतणं नि 3921, व्य 4036 प्रकी 1294, व्य 4358 479 णातं संगामदुगं व्य 4363 | 1586 तं पि य सुक्खे सुक्खं पिनि 291/1 1957 णाभिप्पायं गिण्हसि __ बृ८०१ | 328 तं पुण अणुगंतव्वं व्य 4227 1139 णामं ठवणा दविए ‘पिनि 73 | 124 तं पुण केण कतं तू व्य 4049 1314 णामं ठवणा दविए पिनि 194/ 588 तं पुण होज्जाऽऽसेवित व्य 4461 357 णासेति अगीतत्थो नि 3826, | 2569 तं पूयइत्ताण सुहासणत्थं बृ 5048, पंक 2389, व्य 4252|| व्य 1221 371 णासेति असंविग्गो नि 3834, | 74 तं मणपज्जवणाणं . नंदी 23 व्य 4266 | 86 तं मणपज्जवणाणं बृ 35 2294 णिच्छयनयस्स चरणा.... पंचा 11/45 | 441 तण्हाछेदम्मि कते तु.नि 3889, णिज्जवगो अत्थस्सा व्य 4103 तु. व्य 4327 560 णिज्जूढं चोद्दसपुव्विएण व्य 4431 | 2158 ततिय-चउत्था कप्पा बृ६४८१ 2572 णिज्जूढो मि णरीसर! बृ५०५१, 1310 ततियम्मि करं छोढुं / पिनि 192/4 व्य 1224 | 164 तत्तो य वुड्डसीले व्य 4084 णिण्हवणे णिण्हवणे मि 301, 347 तत्थेक्कं छम्मासं व्य 4244 बृ 6069 | 173 तपु लज्जाए धातू व्य 4093 309 णिब्भत्थणाइ बितियाय व्य 4210 | 1172 तम्हा ण एस दोसो पिनि 80/5 491 णिव्वाघातेणेवं तु.नि 3932, 366 तम्हा पंच व छ स्सत्त तु.नि 3830, व्य 4374 तु. व्य 4261 1037 णिस्संकित णिक्कंखित उ 28/31, 374 तम्हा पंच व छ स्सत्त / तु.नि 3837, दशनि 157, नि 23, पंचा 15/24, तु. व्य 4269 प्रज्ञा 1/101/14, मूला 201 | 393 तम्हा परिच्छणा खलु तु.व्य 4286 184 الجاد ولد Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक संदर्भ : परि-३ 574 तव-णियम-णाणरुक्खं व्य 4447 | 2417 तुल्लम्मि वि अवराधे बृ५१२६ 1669 तवहेतु चतुत्थादी पिनि 320/2] 870 तुसिणीए हुंकारे नि 866, बृ 6105 521 तसपाण-बीयरहिते नि 3943, | 369 तेण य गीतत्थेणं नि 3833, व्य 4396 व्य 4264 379 तस्सट्ठगतोभासण नि 3842, व्य 4274 377 तेण य संविग्गेणं नि 3840, 673 तस्स तु उद्धरिऊणं व्य 4519 व्य 4272 231 तस्स त्ती तस्सेव उ | 180 तेणेव गुणेणं तू व्य 4099 438 तस्स य चरिमाहारो व्य 4324/2 | 2088 ते पुण जहा तु एक्काए पंक 2580 460 तह वि असंथर कोयव व्य 4344 | 2086 ते पुण मंडलियाए पंक 2578 459 तह वि असंथरमाणे व्य 4343 205 तेसिं अब्भटाणं व्य 4123 952 तह समणसुविहिताणं नि 577, 1114 तेसिं गुरूण उदएण पिनि 64/3 6306, बृ 4930, व्य 224 | 505 तो णाउ वित्तिछेदं व्य 4387 2441 ताहे य परिहरिज्जति बृ५५९७ / 2062 थेराण अत्थि खेत्तं पंक 2554 1997 तिक्खुत्तो सक्खेत्ते नि 1174, | 2098 थेराण सत्तरी खलु बृ 6434 पंक 1300,66380/ 1567 थोवे थोवं छुळे पिनि 264/1 2014 तिक्खुत्तो सक्खेत्ते बृ 3555, 6397 | 633 सण अणुम्मुयंतो व्य 4485 503 तिण्णि तु वारा किरिया व्य 4385 / 601 सण-णाण-चरित्ते नि 484, 1994 तित्थंगरपडिकुट्ठो नि 1159, | व्य 4464 पंक 1298, प्रसा 806, 1092 दंसणणाणप्पभवं पिनि 57/5 बृ 3540,6378 571 दट्ठ महल्लमहीरुह व्य 4444 2304 तित्थकरं संघ सुतं बृ 4975, 5060 486 व्य 4370 2477 तित्थगरपढमसीसं बृ 4984 / 589 दप्प-अकप्प-णिरालंब 585 तिविधं अतीतकाले / व्य 4458 व्य 4462 444 तिविधं तु वोसिरिहीइ नि 3891, | 449 दवियपरीमाणं ता नि 3897, व्य 4329 व्य 4333 1274 तिविधं पुण अच्छेज्जं पिनि 172 | 2164 दव्वं अभिग्गहा पुण पंक 1368 2075 तीसं पदाऽवराहे पंक 2567 | 1117 दव्वायहम्ममेतं पिनि 66 1841 तीसा य पण्णवीसा बृ६०४२, | 131 दव्वेहि पज्जवेहि य व्य 4055 व्य 1068,1120 - दस एतस्स य मज्झ य नि 305, . 2017 तुच्छत्तणेण गव्वो बृ६४०० बृ६०७३ नि 463, . Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 634 जीतकल्प सभाष्य 1976 दसठाणठितो कप्पो तु. पंक 1270, | 1473 दोण्णि वि समणसमुत्था पिनि 235 तु. बृ६३६३ | 2056 दोसं हंतूण गुणं / बृ 6429 276 दस ता अणुसज्जंती तु.नि 6680, | 1652 दोसग्गी वि जलंतो पिनि 314/3 तु. व्य 4181 | 234 दोसा कसायमादी व्य 4150 1383 दाणं ण होति अफलं नि 4430, 2099 दोसासति मज्झिमगा बृ६४३५ पिनि 213 | 1950 दोसु तु परिणमति मती बृ७९७ 1263 दाण-कय-विक्कयादी पिनि 163/5 / 279 दोसु तु वोच्छिण्णेसू व्य 4182 482 दिटुंतस्सोवणओ व्य 4366 | 280 दोसु तु वोच्छिण्णेसू व्य 4183 2023 दुक्खेहिं भच्छियाणं बृ६४०६ | | 549 दो सोत-णेत्तमादिग व्य 4412 237 दुट्ठो कसाय-विसया... व्य 4153 | 2573 धम्मकहा आउट्टाण बृ५०५२, 1491 दुविधं च मक्खितं खलु तु.पिनि 242 . व्य 1225 584 दुविधं तु दप्प-कप्पे व्य 4457 / 228 धम्मसहावो सम्मइंसण व्य 4145 1536 दुविध विराधण उसिणे तु.पिनि 254 | 1319 धाती दूती णिमित्तें पंचा 13/18, 2165 दुविधा अतिसेसा वि य पंक 1445 पंव 754, पिनि 195, प्रसा 567. 1977 दुविधा होति अचेला बृ६३६५ / 659 धारणववहारेसो व्य 4507 1996 दुविधे गेलण्णम्मी नि 2532, | 674 धारणववहारो खलु व्य 4520 पंक 1299, 1305, 66379,6396 | 1321 धारयति धीयते वा निभा 4376, 2080 दुविधे विहारकाले पंक 2572 पिनि 198 2481 दुविधो य होति दुट्ठो नि 3681, | 464 धीरपुरिसपण्णत्ते . नि 3911, पंक 451, बृ 4986 . प्रकी 1023, व्य 4348 2073 दुविहो उ मासकप्पो पंक 2565, 681 / / धीरपुरिसपण्णत्तो व्य 4536 तु. बृ६४३१ | 1659 नत्थि छुहाएँ सरिसिया ओभा 290, 2172 दुविहो तेसऽतिसेसो पंक 1450 पंव 366, पिनि 318/1 1421 दुविहो य संथवो खलु ___नि 1040, | 2060 नत्थि तु खेत्तं जिणकप्पि... पंक 2552 पिनि 221 | 1461 नदिकण्ह वेण्णदीवे नि 4470, 260 देता वि ण दीसंती व्य / 170 पिनि 231/2 524 देव-णर दुगतिगऽस्सा नि 3949, | 2161 नवपुव्वि जहण्णेणं पंक 1365 व्य 4402 | 548 नवयंगसोतबोहिय तु.नि 3959, 453 देहविओगो खिप्पं नि 3901, तु.व्य 4411 व्य 4337 | 141 नाणमादीणि अत्ताणि व्य 4063 Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक संदर्भ : परि-३ 635 पंक 1361, 592 नाणादीपरिवुड्डी नि 466 / 2096 पज्जोसवणाकप्पो 122 नालीधमएण जिणा व्य 4047 बृ 6432 1366 निग्गंथ सक्क तावस नि 4420, 2175 पडिगहधारि जहण्णो तु. पंक 1453 पिनि 209 532 पडिणीययाएँ कोई नि 3968, 1118 निच्छयणयस्स चरणा... पिनि 66/1 प्रकी १२३२,व्य 4421 2551 निज्जूहितस्स असुभो बृ५०३० | 531 पडिणीययाएँ कोई नि 3967, 1341 नियमा तिकालविसयम्मि निभा 4405, व्य 4420 पिनि 204 | 2144 पडिपुच्छं वायणं चेव बृ६४७१ 294 निरवेक्खों तिण्णि चयती व्य 4196 / 1447 पडिमंतथंभणादी नि 4461, 605 नेहादि तवं काहं नि 487 पिनि 229 नोइंदियपच्चक्खो व्य 4031 | 1984 पडिमाएँ पाउया वा बृ 6370 90 पंकसलिले पसादो बृ 37 | 1466 पडिलाभित वच्चंता नि 4472, 2019 पंचज्जामो धम्मो पंक 1340, पिनि 231/4 बृ६४०२/ 220 / पडिलेहण-पप्फोडण व्य 4138 . : 281 पंच णियंठा भणिता व्य 4184 | 461 पडिलेहण संथारं नि 3908, 2602 पंचमहव्वयभेदो नि 6209, बृ 770 व्य 4345 2125 पंचविधे ववहारे बृ६४५५ | 432 . पडिलोमाणुलोमा वा नि 3882, 8 पंचविधो ववहारो व्य 4028 व्य 4319 529 पंचसता जंतेणं उनि 114, | 2123 पडिवज्जंति जिणिंदस्स बृ 6453 नि ३९६५,व्य 4418 पडिवाति अपडिवाती तु. नंदी 10 645 पंचिंदि घट्ट तावण व्य 4540 | 1443 पडिविज्जथंभणादी। नि 4459, पंचव संजता खलु तु.व्य 4188 पिनि 228 1625 पकामं च निकामं च पिनि 312 | 2307 पडिसेवणअणवट्ठो बृ५०६२ 218 पक्खे य पोसधेसुं व्य 4136 | 1128 पडिसेवण पडिसुणणा पिनि 69 110 पच्चक्खागमसरिसो व्य 4035 | 2479 पडिसेवणपारंची तु.बृ 4985 121 पच्चक्खी पच्चक्खं व्य 4046 | 1129 पडिसेवणाएँ तेणा पिनि 68/6 10 पच्चक्खो वि य दुविधो / व्य 4030 | 421 पडिसेवणातियारा नि 3872, 578 पच्चाह गुरू ते तू व्य 4451 व्य 4308 1430 पच्छासंथवदोसा नि 1044, | 143 पडिसेवणातियारे व्य 4065 पिनि 223 | 144 पडिसेवणातियारे व्य 4065/1 | 3/ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 636 जीतकल्प सभाष्य. 418 पडिसेवति विगतीओं नि 3869, | 155 परिणिट्ठित परिण्णात व्य 4075 . व्य 4305 | 183 परिणिव्वविया वाए व्य 4102 2568 पडिहाररूवी! भण रायरूवी बृ 5047, 1096 परियट्टिए अभिहडे नि 3251, व्य 1220 पिनि ५९,बृ 4276 2000 पढमगभंगे वज्जो नि 2499, बृ 6383 | 2112 परिहारकप्पं वोच्छामि बृ६४४७ 427 पढम-बितिएसु कप्पे नि 3877, | 288 परिहारविसुद्धीए . व्य 4191 व्य 4314 | 2069 परिहारविसुद्धीणं पंक 2561 556 पढमम्मि य संघयणे नि 3948, | 2150 परिहारिगा वि छम्मासे बृ६४७४ प्रकी 1283, व्य 4401 | 2187 पलंबाउ जाव ठिती . बृ६४८७ 174 पढमादीसंघयणो व्य 4094 | 1772 पल्हवि कोयवि पावार / नि 4002, 115 पणगं मासविवड्डी व्य 4040 प्रसा 678 2076 पण्णरसुग्गमदोसा पंक 2568 / 660 / पवयणजसंसि पुरिसे व्य 4508 268 पण्णवगस्स तु सपदं व्य 4175 | 414 पव्वज्जादी आलोयणा नि 3866, 1968 पतिट्ठा ठवणा ठवणी बृ 6356 व्य 4302 1144 पत्तेयबुद्ध णिण्हग पिनि 73/21 | 323 पव्वज्जादी काउं नि 3812, व्य 4223 581 पदमक्खरमुद्देसं व्य 4454 | 512 पव्वज्जादी काउं , व्य 4391 2141 पमाण कप्पट्ठितो तत्थ बृ६४६९ | 516 / पव्वज्जादी काउंनि 3940 882 पयला उल्ले मरुगे नि 298, 882, 1375 पाएण देति लोगो नि 4425, बृ६०६६ पिनि 210/3 884 पयलासि किं दिवा ण पय.... नि 300, 430 पाणगजोग्गाहारे नि 3880, व्य 4317 बृ६०६८ | 390 पाणगादीणि जोग्गाणि नि 3850, 1121 परकम्ममत्तकम्मी... पिनि 67/2 व्य 4283 1156 परपक्खो तु गिहत्थो पिनि 81 | 2171 पाणिपडिग्गहिता तू पंक 1449 1169 परपच्चइया छाया पिनि 80/2/ 321 पादोवगमे इंगिणि व्य 4221 2351 परधम्मिया वि दुविधा बृ५०८८ | 322 पादोवगमे इंगिणि व्य 4222 187 परवाइण सिस्सेण व व्य 4106 / 656 पाबल्लेण उवेच्च उ व्य 4504 1262 परस्स तं देति सए व गेहे पिनि 163/4 | 315 पायच्छित्ते असंतम्मि नि 6678, 1949 परिणमति जहत्थेणं बृ 796 | ___पंक 2312, व्य 4215 579 परिणामगो हु तत्थ वि व्य 4452 | 1239 पायोकरणं दुविधं तु.पिनि 137 1942 परिणामा ऽपरिणामा तु. बृ 792 | 258 पारगमपारगंवा व्य 4167 Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक संदर्भ : परि-३ 637 112 पारोक्खं ववहारं व्य 4037 | 194 पुरिसं उवासगादी व्य 4113 5 पावं छिंदति जम्हा ___व्य 35, 663 पुरिसस्स उ अवराहं व्य 4511 पंचा 16/3 | 135 पुव्वं अपासिऊणं नि 97, व्य 4057 2510 पावाणं पावतरो बृ५००९ / 2090 पुव्वट्ठिताण खेत्ते पंक 2582 42 पासगतंऽतगतो ऊ तु. नंदी 14 | 2025 पुव्वतरं सामइयं बृ६४०८ 2102, पासत्थसंकिलिटुं बृ६४३८, | 2409 पुव्वब्भासा भासेज्ज बृ५११९ 2103 6439 | 544 पुव्वभवियपेमेणं नि 3954, 433 पासत्थोसण्णकुसील... नि 3883, व्य 4407 व्य 4320 | 545 पुव्वभवियपेमेणं नि 3955, 271 पासादस्सायणे मण.... तु. व्य 4176 व्य 4408 445 पासित्तु ताणि कोई नि 3892, | 522 पुव्वभवियवेरेणं नि 3944, व्य 4330 व्य 4397 1534 पासोलित्त कडाहे पिनि 253 | 2116 पुव्वसतसहस्साई तु.बृ६४५० 1237 पाहुडिभत्तं भुंजति पिनि 136 | 555 पुव्वाऽवर-दाहिण-उत्तरेहि नि 3947, 2466 पाहुडियं उवजीवति बृ४९७६ प्रकी 1282, व्य 4400 1574 पाहुडियं च ठवेंती पिनि 270 | 1320 पुव्विं पच्छासंथव पंव 755, 2497. पाहुणगट्ठा व तगं बृ५००४ - पंचा 13/19, पिनि 196, प्रसा 568 2061 पिंडो तु अलेवकडो पंक 2553 | 199 पूए अहागुरुं पि य तु. व्य 4117 2529 पिसितासि पुव्वमहिसं नि 136, 1203 पूतीकम्मं दुविधं नि 804, बृ५०१८ पिनि 107 2484 पुच्छंतमणक्खाते नि 3684, | 2527 पोग्गल मोदग फरुसग नि 135, पंक 454, बृ५०१७, तु. विभा 235 बृ 4989 1113 बंधति अहेभवाउं पिनि 64/2 526 पुढवि-दग-अगणि-मारुय नि 3951, | बकुस-पडिसेवगा खलु व्य 4193 व्य 4404 | 283 बगुस-पडिसेवगाणं व्य 4186 345 पुणरवि चउरण्णा तू व्य 4242 | 1622 बत्तीसं किर कवला पिनि 310, 1995 पुरपच्छिमवज्जेहिँ नि 1160, प्रसा 866 प्रसा 807, बृ 3541 | 546 बत्तीसलक्खणधरो नि 3957, 2020 पुरिमाण दुव्विसोझो तु. उ 23/27, व्य 4409 पंक 1341, पंचा 17/42, बृ 6403 / 212 बत्तीस वण्णित च्चिय व्य 4130 Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 638 जीतकल्प सभाष्य नि 311, 1626 बत्तीसाउ परेणं पिनि 312/1 / 895 भणइ य दिट्ठ णियट्टे 156-59 बत्तीसाए तु ठाणेहिं व्य 4076-79 बृ६०८० 595 बल-वण्ण-रूवहेतुं नि 469 | 1489 भण्णति संकितभावो तु.पिनि 241 823 बहुं सुणेति कण्णेहिं दश 8/20 | 2065 भत्तं लेवकडं वा पंक 2557 198 बहुजणजोग्गं पेहे व्य 4116 | 2339 भत्ते पण्णवण णिगृहणा नि 2703, 191 बहु बहुविह पोराणं व्य 4110 बृ५०७६ 188 बहुविहऽणेगपगारं व्य 4107 | 19 भत्ते पाणे सयणा... व्य 111 168 बहुसुत जुगप्पहाणो व्य 4088 | 56 भरहम्मि अद्धमासो आवनि 32, 167 बहुसुत परिजितसुत्ते व्य 4087 नंदी 18/5, विभा 610 677 बहुसो बहुस्सुतेहिं व्य 4542 | 2113 भरहेरवयवासेसु बृ६४४८ 1608 बायालीसेसणसंकडम्मि ओनि 545, | 1306 भावे अरत्तदुट्ठो तु.पिनि 192 पिनि 302/5, पंव 354 | 1317 भावे पसत्थ इतरा . पिनि 194/3 . 1569 बाले वुड्डे मत्ते पिनि 265 | 325 भिक्ख-वियारसमत्थो व्य 4225. : 539 बावीस आणुपुव्वी नि 3974, | 1327 भिक्खादी वच्चंते नि 4399, व्य 4427 पिनि 201/1 2166 बाहिरओं सरीरस्सा पंक 1446 / 2100 भिण्णं पि मासकप्पं बृ६४३६ 632 बितियं कज्जं कप्पो व्य 4484 | 1453 भिक्खे परिहायंते तु.नि 4464, 2345 बितियपदं वोच्छेदे बृ५०८३ तु. पिभा 36 652 बितियस्स य कज्जस्सा व्य 4500 | 137 / / भीतो पलायमाणो. व्य 4059 627 बितियस्स य कज्जस्सा व्य 4475 / 269 भुजति चक्की भोगे . तु. व्य 4177 598 बितियिपदे जो तु परं नि 472 | 1368 भुंजंति चित्तकम्मट्टित नि 4421, 1480 बीएण गहित संकित तु. पिनि 240/2 पिनि 209/1 573 बेति गुरू अह तं तू व्य 4446 भुंजसु पच्चक्खाणं नि 303, 1339 बेति जणो केणेयं तु.पिनि 203 बृ६०७१ 1388 बेति व एरिस दुक्खं नि 4435, | 431 / भुत्तभोगी पुरा जो तु नि 3881, पिनि 214/2 व्य 4318 2386 बोहिभयसावगादिसु बृ 5111 / 1236 मंगलहेतुं पुण्ण?..... पिनि 135/1 404 भंडी बइल्लए काए नि 3857, | 41 मग्गतों अंतगतो ऊ तु. नंदी 13 व्य 4293 | 547 मज्जण-गंधं पुप्फो.... तु.नि 3958, 1571 भज्जेती य दलेंती पिनि 267 तु.व्य 4410 Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक संदर्भ : परि-३ 639 44 मज्झगतंऽतगतस्स य तु. नंदी 16 | 2174 रयहरणं मुहपोत्ती तु. पंक 1452 88 मणपज्जवणाणं पुण आवनि 73, | 2177 रयहरणं मुहपोत्ती पंक 1444 नंदी 25/1, विभा 810 | 1618 रसहेतुं पडिकुट्ठो पिनि 309 185 मतिसंपद चउभेदा व्य 4104 | 662 रहिते नाम असंते व्य 4510 1558 मत्तेण जेण दाहिति तु.पिनि 262 | 1648 रागग्गीय पजलितो पिनि 314/2 1365 मयमातिवच्छगं पिव तु.नि 4419, | 116 राग-द्दोसविवड्डिं व्य 4041 तु. पिनि 208/1, 1653 रागेण सइंगालं तु.पिनि 315 2394 मरणभएणऽभिभूते बृ 5113 | 1398 रायगिहे धम्मरुई पिनि 219/9 361 मरिऊण अट्टझाणो . व्य 4256 | 1405 रायगिहे य कयाई पिनि 219/12 2604 मरेज्ज सह विज्जाए नि 6230 | 235 रुटुस्स कोधविणयण व्य 4151 480 महसिलकंटे तहियं व्य 4364 | 502 लद्धो व विसेणं तू व्य 4384 1231 मा ताव झंख पुत्तय! पिनि 132 | 1413 लब्भंतं पि ण गिण्हति पिनि 220 1803 मासो लहुगो गुरुगो नि 3279, | 2322 लहुगा अणुग्गहम्मी बृ५०७० व्य 621 / 1839 लहुसो लहुसतरागो बृ६०४०, : 896 मासो लहुगो गुरुगो नि 312, 6236, व्य 1066, 1118 बृ६०८१] 485 लावए पवए जोहे नि 3927, 1369 मिच्छत्तथिरीकरणं नि 4422, व्य 4369 पिनि 210 | 2360 लिंगपविट्ठाणेवं बृ५०९६ 2022 मिच्छत्तभावियाणं बृ६४०५ / 2508 लिंगेण लिंगिणीए नि 1690 . 528 . मुणिसुव्वयंतवासी उनि 113, | 2509 लिंगेण लिंगिणीए बृ५००८ नि 3964, व्य 4417 | 353 लुक्खत्ता मुहर्जतं व्य 4248 1999 . मुदिते मुद्धऽभिसित्ते नि 2498, | | 1299 लेवालेवे त्ति जं वुत्तं पिभा 29 ___पंक 1301, 66382/ | 1371 लोगाणुग्गहकारिसु नि 4423, 534 मोगल्लसेलसिहरे नि 3970, पिनि 210/1 व्य 4423 | 2006 लोभे एसणघातो नि 2505, 2185 मोत्तुं जिणकप्पठितिं बृ६४८६ 2523, बृ 6389 2530 मोदगभत्तमलद्धं नि 137, | 2162 वइरोसभसंघतणा पंक 1366 बृ५०१९ / 888 वच्चसि? णाहं वच्चे नि 304, 403 रण्णा कोंकणगाऽमच्चा। नि 3856, बृ 6072 व्य 4292 / 900 वच्चह एगं दव्वं नि 316, बृ 6087 Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 640 जीतकल्प सभाष्य 451 वटुंति अपरितंता नि 3899, | 1530 विज्झाउत्ति ण दीसति तु. पिनि 252/1 व्य 4335 | 1529 विज्झातमुम्मुरिंगाल.... पिनि 252 890 वट्टति तु समुद्देसो नि 306, | 2378 विणयग्गाहण खुड्डे बृ५१०७ बृ६०७४ | 227 विण्णाणाभावम्मि वि व्य 4144 1170 वड्डति हायति छाया पिनि 80/3 | 1435 विमलीकत णे चक्खू नि 1049, 1187 वड्डेति तप्पसंगं पिनि 83/4 पिनि 226/1 675 वत्तणुवत्तपवत्तो व्य 4521 | 1658 वेदण वेयावच्चे उ 26/32, 676 वत्तो णामं एक्कसि व्य 4522 ओनि 580, ठाणं 6/41, पंक 891, 196 वत्थु पुण परवादी व्य 4115 पंव 365, प्रकी 785, पिनि 318, 587 वयछक्कं कायछक्कं व्य 4460 प्रसा 737, तु. मूला 479 154 वयछक्ककायछक्कं व्य 4074 | 672 वेयावच्चकरो वा व्य 4518 2462 वरणेवत्थं एगे व्य 1207 | 657 सं एगीभावम्मी व्य 4505 495 वसभो वा ठाविज्जति व्य 4378 / 2085 संकमणऽण्णोण्णस्सा पंक 2577 2514 वसहि-णिवेसण-वाडग बृ५०१२ | 2008 संका चारिग चोरे बृ६३९१ 499 वाघाति आणुपुव्वी संकित मक्खित णिक्खित्त पंव 762, 1406 वाघातेण पविट्ठो तु. पिनि 219/13 | पंचा 13/26, पिनि 237, प्रसा 568, 2574 वादपरायणकुवितो . व्य 1226 तु. मूला 462 179 वायणभेदा चतुरो व्य 4098 / 253 संखाईया ठाणा . व्य 4161 590 वायाम-वग्गणादी नि 464 | 26 संखातीताओ खलु . आवनि 23 500 वाल-ऽच्छभल्ल-विसगत व्य 4382 | 57 संखेज्जम्मि तु काले आवनि 33, 501 वालेण गोणसाइण व्य 4383 नंदी 18/6, विभा 615 2082 वासउदुअहालंदे तु. पंक 2574 | 1293 संखेवेण दुहा ऊ पिनि 192/6 2078 वासावासपमाणं पंक 2570 | 300 संघतण धितीहीणा व्य 4202 2083 वासासु चउम्मासो पंक 2575 | 515 संघयण-धितीजुत्तो नि 3939, 202 वासासु विसेसेणं व्य 4120 व्य 4394 200 वासे बहुजणजोग्गं व्य 4118 / 602 संघस्साऽ ऽयरियस्स य नि 485, 1034 विगति अणट्ठा भुंजति नि 1595 व्य 4465 448 विगतीकताणुबंधे नि 3896, | 1992 संघस्सोह-विभागे पंक 1296, व्य 4332 बृ६३७६ 684 विगलिंदऽणंतघट्टण व्य 4539 / 2444 संघाडगो तु जाव उ नि 2883, व्य 552 Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 01 तुलनात्मक संदर्भ : परि-३ 641 2575 संघो ण लभति कज्जं बृ 5053, 504 सण्णीणं रुद्धाइं व्य 4386 व्य 1227 / 2504 सण्णी व असण्णी वा बृ 4995 2182 संजमकरणुज्जोया बृ 6485 / 2494 सति लाभम्मि व गेहति बृ५००१ 1106 संजमठाणाणं कंडगाण / पिनि 64 | 2178 सत्त य पडिग्गहम्मी पंक 1483 339 . संजमठाणाणं कंडगाण नि 3823, | 2133 सत्तावीसं जहण्णेणं बृ६४६१ व्य 4237 | 2051 सपडिक्कमणो धम्मो आवनि 836, 216 संजममायरति सयं व्य 4134 पंक 1359, पंचा 17/32, प्रकी 3989, 1610 संजोइय अतिबहुयं . पिनि 303/1 ___प्रसा 654, बृ 6425 299 संतविभवेहि तुल्ला सपदपरूवण अणुसज्जणा व्य 4174 293 संतविभवो तु जाहे ___व्य 4195 / 324 सपरक्कमे य अपरक्कमे आनि 282, 458 संथारों उत्तिमढे . व्य 4342 व्य 4224 463 संथारों तस्स मउगो व्य 4347 | 566 समणस्स उत्तिमढे व्य 4438 341 संलेहणा उ तिविधा तु. व्य 4238 | 519 सम-विसमम्मि व पडितो तु. नि 3941 344 संवच्छराणि चउरो व्य 4241 / 1354 सम्ममसम्मा किरिया नि 4414, 376 संविग्गदुल्लभं खलु नि 3839, | पिनि 207/2 व्य 4271 | 384 सयं चेव चिरावासोनि 3845, 691 . संविग्गे पियधम्मे व्य 4546 व्य 4277 2385. संविग्गो मद्दवितो पंक 1241, | 2134 सयग्गसो य उक्कोसा बृ 6462 बृ 5110 | 2109 सरिकप्पे सरिछंदे नि 2147, 1508, संसज्जिमेहिं वज्ज पिनि 245/1 पंक 1510, बृ 6445 1573 संसतेण तु दव्वेण पिनि 269 / 2110 सरिकप्पे सरिछंदे नि 2148, 1039 संसयकरणं संका तु. नि 24| पंक 1509, बृ६४४६ 591 संसारखड्डपडितो नि 465 / 489 सरीरमुज्झितं जेण नि 3930, 2511 संसारमणवयग्गं बृ५०१० व्य 4372 1390 संसोधण संसमणं नि 4436, | 1271 सव्वं पि य तं दुविधं पिनि 165 पिनि 214/3 | 265 सव्वं पि य पच्छित्तं व्य 4173 169 सगणामं व परिजितं व्य 4089 / 446 सव्वं भोच्चा कोई नि 3894 335 सगणे आणाहाणी व्य 4233 | 447 सव्वं भोच्चा कोई नि 3895, 1259 सच्चित्तपुढविलित्तं पिनि 163/1 व्य 4331 1417. सड्ढड्डत्त केसर... पिनि 220/2 | 318 सव्वण्णूहिँ परूविय व्य 4218 Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्प सभाष्य 53 सव्वबहुअगणिजीवा आवनि 29, | 2084 साहारणा तु एते पंक 2576 ___ नंदी 18/2, विभा 598 | 1396 साहूण समुल्लावो .नि 4046, 219 सव्वम्मि बारसविधे व्य 4137 तु. पिनि 219/1 472 सव्वसुहप्पभवाओ नि 3919, | 1485 साहू सुतोवउत्तो / पिनि 239/1 प्रकी 1292, व्य 4356 | 1208 सिझंतस्सुवगारं पिनि 113 471 सव्वाओ अज्जाओ नि 3918, | 337 सिणेहो पेलवी होती नि 3821, प्रकी 1291, व्य 4355 व्य 4235 469 सव्वाहिं वि लद्धीहिं नि 3916, | 2381 सिप्पंणेउणियट्ठा। बृ५१०९ प्रकी 1289, व्य 4353 | 236 सीतघरम्मि व डाहं व्य 4152 2016 सव्वाहिं संजतीहिं पंक 1339, | 1639 सीतो उसिणो साहारणो तु. पिनि 313/3 बृ 6399 | 1979 सीसावेढियपोत्तिं बृ६३६६ . 2124 सव्वे चरित्तमंता य बृ 6454 | 1298 सुक्केण वि जं छिक्कं . पिभा 28 468 सव्वे सव्वद्धाए नि 3915, | 1562 सुक्के सुक्कं पढमं पिनि 263/1 प्रकी 1288, व्य 4352 | 1309 सुक्खे सुक्खं पडितं पिनि 192/3 2026 सा जेसि तुवट्ठवणा बृ६४०९ / 320 सुण जह णिज्जवगऽत्थी व्य 4220 / 1224 सा पाहुडिया दुविधा पिनि 131 | 223 सुत्तं अत्थं च तहा व्य 4140 1969 सामाइए य छेदे बृ६३५७ | 142 सुत्तं अत्थे उभयं ' व्य 4064 714 सामाइयमादीयं आवनि 87 सुत्तं गाहेति उज्जुत्तो व्य 4141 286 सामाइसंजताणं व्य 4189 / 2089 सुत्तत्थतदुभयविसार...... पंक 2581 331 सारेऊण य कवयं नि 3816, | 1486 सुत्तस्स अप्पमाणे . पिनि 240 व्य 4230 | 490 सुद्धं एसित्तु ठावेंति नि 3931, 1177 साली-घत-गुल-गोरस नि 2662, व्य 4373 __पंक 1285, बृ५३४१, पिनि 82/1 | 59 सुहुमो य होति कालो आवनि 35, 1147 सालीमादी अगडे पिनि 75 नंदी 18/8, विभा 621 2221 सावेक्खो त्ति व काउंनि 6657, | 1459 सूभग-दोभग्गकरा नि 4469, व्य 167 पिनि 231/1 303 सावेक्खो पवयणम्मि व्य 4204 | 65 से किं अप्पडिवातिं तु.नंदी 21 2482 सासवणाले मुहणंतगे बृ 4987 | 43 से किं मज्झगतो? तं तु. नंदी 15 2483 सासवणाले लढे नि 3683, | 1974 सेज्जातरपिंडे या पंक 1273, तु.पंक 453, बृ 4988 | बृ६३६१ 2 Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक संदर्भ : परि-३ 643 473 सेलेसि सिद्ध विग्गह तु.नि 3920, | 2436 सो वंदति सेहादि वि बृ५१३५ तु. प्रकी 1293, तु. व्य 4357 | 638 सो ववहारविहिण्णू व्य 4489 596 सेवंतो तु अकिच्चं नि 470 | 569 सो वि अपरक्कमगती तु.व्य 4442 2071 सेसं जह थेराणं पंक 2563 580 सो वि गुरूहिं भणितो व्य 4453 2496 सेसाणं संसटुं बृ५००३ सो सत्तरसो पुढवा... व्य 4135 1500 सेसेहि तु काएहिं तु. पिनि 243/3 | 261 सोहीए य अभावे व्य 4171 2310 सेहो त्ति अगीतत्थो बृ५०६५ / 478 हंदि दु परीसहचमू नि 3925, 1433 सो एसो जस्स गुणा नि 1047, व्य 4362 पिनि 225/1 | 1570 हत्थंदु-णिगलबद्ध पिनि 266 682 सो जह कालादीणं व्य 4537 55 हत्थम्मि मुहुत्तंतो आवनि 31. 669 सो तम्मि चेव दव्वे व्य 4516, नंदी 18/4, विभा 609 670 सो तम्मि चेव दव्वे व्य 4517 / 2373 हत्थाताले हत्थालंबे बृ५१०३ 2087 सो तु परंपरएणं पंक 2579 / 2376 हत्थेण व पादेण व बृ५१०५ 636 सोतूण तस्स पडिसेवणं व्य 4487 | 388 हवेज्ज जदि वाघातो नि 3849, 364 सो दिट्ठो य विगिंचिंतों व्य 4259 / व्य 4281 32 सो पुण ओही दुविधो तु. नंदी 7 | 1632 हिताहारा मिताहारा ओनि 578, 1088 सोलस उग्गमदोसा पिनि 322 | पिनि 313 1487 सोलस उग्गमदोसा पिनि 238/2 | 1103 हिययम्मि समाहेउं पिभा 18 1313. सोलस उग्गमदोसे पिनि 193 | 1353 होमादिऽवितहकरणे नि 4413, पिनि 207/1 Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४. परिभाषाएं अंगार-• णिज्जाला हिलिहलया, इंगाला ते भवे मुणेतव्वा। (गा. 1531) अकृतयोगी-• अकडजोगिणो अपरिकम्मवियसरीरा। (जीचू पृ. 24) अतिपरिणामक-• जो दव्वखेत्तकतकालभावओ जं जहा जिणक्खातं / __ तल्लेसुस्सुत्तमती, अतिपरिणामं वियाणाहि॥ (गा. 1948) * अइपरिणामगा जे अववायमेवायरन्ति तम्मि चेव सज्जन्ति, न उस्सग्गे। (जीचू पृ. 23) अधःकर्म• तेसिं गुरूण उदएण, अप्पगं दुग्गतीऍ पवडतं। ण चएति विधारेउं, अहकम्मं भण्णते तम्हा।। (गा. 1114) * संजमठाणाणं कंडगाण लेस्साठितीविसेसाणं / भावं अहे करेती, तम्हा तु भाव अहेकम्मं॥ (गा. 1106). . अर्धापक्रान्ति-तत्रार्धस्यासमप्रविभागरूपस्य एकदेशस्य वा एकादिपदात्मकस्य-अपक्रमणमवस्थानम्। शेषस्य बुद्ध्यादिपदसङ्घातरूपस्यैकदेशस्योर्ध्वगमनं यस्यां रचनायां सा समयपरिभाषयार्धापक्रान्तिरुच्यते। (जीचूवि पृ. 53) अध्यवतर-अहिगं तु तंदुलादी, छुब्भति अज्झोयरो उ। (गा. 1284) अध्वानानीत-अद्धोयणा परेणं, आणित णीतं व असण-पाणादी। एयऽद्धाणातीतं......। (गा. 964) अननुगामी अवधि–ण वि जाणति अण्णत्था, संखमसंखे उ जोयणे जो उ। ओही तु अणणुगामी, समासतो एसमक्खातो॥ , (गा. 49) अननुतापी-बितियपदे जो तु परं, तावेत्ता णाणुतप्पती पच्छा। सो होति अणणुतावी....। (गा. 598) अनवस्थाप्य-तद्दोसोवरतस्स उ, महव्वयारुवण कीरती तस्स। अणवट्ठप्पो एसो....॥ (गा.७२८) * जम्मि पडिसेविए उवट्ठावणा अजोगो, कंचि कालं न वएसु ठाविज्जइ ; जाव पइविसिट्ठतवो न चिण्णो, पच्छा य चिण्णतवो तद्दोसोवरओ वएसु ठाविज्जइ ; एयं अणवटुप्पारिहं / (जीचू पृ.६) अनाभोग- अण्णतरपमादेणं, असंपउत्तस्स णोवउत्तस्स। इरियादिसु भूतत्थे, अवट्टतो एतदण्णाणं॥ (गा. 136) अनिश्रितवचन-णिस्सितों कोहादीहिं, रागद्दोसेहि वावि जं वयति। होति अणिस्सितवयणो... (गा. 177) अनुवासकल्प-• वासावासपमाणं, आयारउदुप्पमाणितं कप्पं / एतं अणुम्मुयंतो, जाणसु अणुवासकप्पो तु॥ (गा. 2078) अन्यतरक-अन्नतरगो नाम जो एक्कं सक्केइ काउं, तवं वेयावच्चं वा, न पुण दो वि सक्केइ। (जीचू पृ. 23) अपरिणत-जीवत्तम्मि अविगते, अपरिणतं। (गा. 1588) अपरिणामक-• अपरिणामगा पुण जे उस्सग्गमेव सद्दहन्ति आयरन्ति य; अववायं पुण न सद्दहन्ति नायरन्ति य। (जीचू पृ. 23) Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभाषाएं : परि-४ 645 * जो दव्वखेत्तकतकालभावओ जं जहा जिणक्खातं। तं तह असद्दहतं, अप्परिणामं वियाणाहि॥ (गा. 1947) अपात्र-• अपत्तो अजोगो। तितिणिचवलचित्त गाणंगणियाइ-णेगदोस-संजुत्तो। (जीचू पृ. 12) * गणाद् गणान्तरं संक्रमणशीलो वाऽपात्रम्। (जीचूवि पृ. 44) अप्रशस्त प्रतिसेवना-बलवर्णाद्यर्थं प्रासुकभोज्यपि जं पडिसेवइ, सा अप्रशस्तपडिसेवणा॥ (जीचूवि पृ. 34) अप्राप्त-कमेण अहिज्जंतो न ताव पावइ तं सुत्तं अत्थं वा परियाओ वा न पूरइ सो अपत्तो। (जीचू पृ. 12) अवयानी-ओयाणी पुण अणुसोयगामिणी। (जीचू पृ. 11) अश्लोकभय-असिलोगो त्ति इ अयसो, जइ एव करिस्स होहिती अयसो। असिलोगभयं एतं....। (गा. 927) आकार-आकारः स्थूलधीसंवेद्यः प्रस्थानादिभावसूचको दिगवलोकनादिः। (जीचूवि पृ. 38) आकुट्टिका-आउट्टिया नाम जं उवेच्च पाणाइवायं करेइ। (जीचू पृ. 25) आचेलक्य-अविद्यमानं चेलं वस्त्रं यस्यासावचेलकस्तद्भाव आचेलक्यम्। (जीचूवि पृ. 53) आजीवन (भिक्षा का एक दोष)-जाति-कुल-गण-कर्म-शिल्पानां कथनादिना आजीवनम्। (जीचूवि पृ. 46) आज्ञाव्यवहार-केनापि शिष्येण निजातिचारालोचकेन आलोचनाचार्यः सन्निहितोऽप्राप्तः, दूरे त्वसौ तिष्ठति। ततः केनचित्कारणेन स्वयं तावत्तत्र गन्तुं न शक्नोति। अगीतार्थस्तु कश्चित्तत्र गन्ता विद्यते। तस्य हस्ते आगमभाषया गूढानि अपराधपदानि लिखित्वा यदा शिष्यं प्रस्थापयतिः ; गुरुरपि तथैव गूढपदैः प्रायश्चित्तं लिखित्वा प्रेषयति तदासौ आज्ञालक्षणस्तृतीयो व्यवहारः। (जीचूवि पृ. 33) आत्मकर्म-जो परकम्मं अत्तीकरेति तं अत्तकम्मं तु। (गा. 1119) - * आहाकम्मपरिणतो, फासुगमवि संकिलिट्ठपरिणामो। ... आइयमाणो बज्झति, तं जाणसु अत्तकम्मं तु॥ (गा.११२०) आत्मतर-आततरो-चउत्थादी, जं दिज्जति तं तु नित्थरति। (गा. 1964) आत्मतरक-दृढोऽपि वैयावृत्त्ये तप एव करोति, न वैयावृत्यम् इत्यात्मतरकः।। (जीचूवि पृ. 53) आधाकर्म-• ओरालसरीराणं, उद्दवणऽतिवायणं तु जस्सट्ठा। ___ मणमाहित्ता कुव्वति, आहाकम्मं तगं बेंति // (गा. 1100) * हिययम्मि समाहेउं, एगमणेगे व गाहगे जो तु। वहणं करेति दाता, कायाण तमाहकम्मं तु॥ (गा. 1103) आलोचनाह-जं पावं आलोइयमेत्तेणं चेव सुज्झइ, एवं आलोयणारिहं। (जीचू पृ.६) आवश्यकी (सामाचारी)-अवश्यकर्तव्यैर्योगैर्निष्पन्ना आवश्यकी वसतेर्निर्गच्छद्भिर्या क्रियते। (जीचूवि पृ. 41) Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 646 जीतकल्प सभाष्य / उववूहणं। आशंकित-कयमकयं वा जत्थ परिच्छेयं काउं न तरइ तमासंकियं / (जीचू पृ. 10) आशातना-आयो नाणाइतियं, तस्स साडणा अवणयणं विणासो आसायणा भण्णइ। (जीचू पृ.८) इङ्गित–इङ्गितं निपुणमतिगम्यं प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचकमीषद्धूशिरः कम्पादि। (जीचूवि पृ. 38) इच्छाकार (सामाचारी)-इच्छया बलाभियोगमन्तरेण करणं इच्छाकारः। (जीचूवि पृ. 41) ईर्ष्या-परसम्पदामसहनमीा / / (जीचूवि पृ. 38) उद्यानी-उज्जाणी पडिसोत्तगामिणी। (जीचू पृ. 11) उन्मिश्र (भिक्षा का एक दोष)-उत्प्राबल्येन मिश्रितं दाडिमगुलिकादिना, पुष्पादिना वा सह यन्मिलितं तदुन्मित्रं भण्यते। (जीचूवि पृ. 48) उपकरण-सिझंतस्सुवगारं, सिद्धस्स करेति वावि जं दव्वं / तं उवगरणं भण्णति। (गा..१२०८) उपधान-उवहाणं होति तवो, आयंबिलमादिओ सो य। (गा.१००४) / उपधान अतिचार-जो तं ण कुणति साहू, अहवा वि ण सद्दहेयमुवहाणं। सो उवहाणऽतियारो। - (गा.१००५) . उपबृंहण–पसत्था साहूसु नाण-दसण-तव-संजम-खमण-वेयावच्चाइसु अब्भुज्जयस्स उच्छाहवड्डणं (जीचू पृ. 13) कर्म औद्देशिक-अग्गितवियाइ पुण कम्मं गुलं विग्घारेऊण मोयए बंधिज्जा-इति कौदेशिकं। __ (जीचूवि पृ. 45) कल्पप्रतिसेवना-कप्पपडिसेवणा नाम कारणे गीयत्थो कडजोगी उवउत्तो जयणाए पडिसेवेज्जा। (जीचू पृ. 25) कांक्षा-कंखा अण्णोण्णदंसणग्गाहो। (गा. 1039) कालातिचार-• जो तु करेति अकाले, सज्झायं कुणति वा असज्झाए। सज्झाए वा ण कुणति, कालतियारो भवे एस॥ . (गा. 1001) कालातीत (भिक्षा का एक दोष)-• पढमाएँ पोरिसीए, पडिगाहेत्ताण असण-पाणादी। जो ततियमइक्कामे, कालातीतं इमं होति॥ (गा. 963) केवलज्ञान-• अह सव्वदव्वपरिणामभावविण्णत्तिकारणमणंतं। सासयमव्वाबाहं, एगविहं केवलं नाणं॥ (गा. 96) कोतवी-कोयवि-रूतपूरितः पटः पुरओट्ठीति यदुच्यते। (जीचूवि पृ. 51) कृतयोगी-• कडजोगी गीयत्थो भण्णइ। (जीचू पृ. 10) * कडजोगिणो चउत्थछट्टट्ठमाईहिं विविहतवोवहाणेहिं जोगवियसरीरा।। (जीचू पृ. 24) क्षम-जं इह-परलोगे या, हितं सुहं तं खमं मुणेतव्वं / (गा. 232) गणधर-गणहरो तित्थगराणन्तरसीसो। (जीचू पृ. 28) गीतार्थ-छेदसुतादी सुत्तत्थाहिज्जितो तु गीतत्थो। (गा. 961) ग्रहभिन्न–ग्रहभिन्नं यन्मध्ये ग्रहो विभिद्य निर्गच्छति। (जीचूवि पृ. 56) Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभाषाएं : परि-४ 647 चलचित्त-सम्यक्त्वादिषु योऽस्थिरः स चलचित्तः। __ (जीचूवि पृ. 32) चूर्णपिण्ड (भिक्षा का दोष)-• एवं वसिकरणादिसु, चुण्णेसु वसीकरेत्तु जो तु परं। / ___ उप्पाएती पिंडं, सो होती चुण्णपिंडो तु॥ (गा. 1456) छिन्नमडम्ब-अड्डाइयजोयणभ्यन्तरे जत्थ वसिमं अन्नं नत्थि तं छिन्नमडम्बं। (जीचूवि पृ.५४) छेदाह (प्रायश्चित्त का भेद)-छेयारिहं-जम्मि य पडिसेविए संदूसियपुव्वपरियायदेसावछेयणं कीरइ। (जीचू पृ. 6) जीतव्यवहार-• सुत्ताओ पुण हीणं समं अइरित्तं वा जीयदाणमिति। (जीचू पृ. 4) * वत्तणुवत्तपवत्तो, बहुसो आसेवितो महाणेणं। एसो तु जीतकप्पो....। (गा. 675) * जीतव्यवहारस्तु येष्वपराधेषु पूर्वमहर्षयो बहुना तपःप्रकारेण शुद्धिं कृतवन्तस्तेष्वपराधेषु साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभावान् विचिन्त्य संहननादीनां च हानिमासाद्य समुचितेन केनचित्तपः प्रकारेण यां गीतार्थाः शुद्धिं निर्दिशन्ति तत्समयपरिभाषया जीतमित्युच्यते। (जीचूवि पृ. 38) जीव-सव्व-कालमुवओग-लक्खणत्तणओ जीवो। (जीचू पृ. 2) तथाकार-तथाकरणं तथाकारः, स च सूत्रप्रश्नगोचरो यथा भवद्भिरुक्तं तथेदमित्येवंरूपः। (जीचूवि पृ. 41) तदुभय (प्रायश्चित्त का भेद)-• जं पाव सेवितूणं, गुरुणो विगडिज्जती उ सम्मं तु। ___ गुरुसंदिट्ठ पडिक्कम, तदुभयमेतं मुणेतव्वं॥ (गा.७२१) तपोऽहं (प्रायश्चित्त का भेद)-णिव्वीतियमादीओ, छम्मासंतो उ जत्थ दिज्जति तु। एय तवारिह भणितं। (गा.७२४) तरमाणक-तरमाणगा-जे जं तवोकम्मं आढवेति तं नित्थरंति। (जीचूवि पृ.५९) तलवर-तलवरपट्टेण तलवरो होति। (गा. 2004) तितिणिक-तितिणिओ स्तोकोक्तेऽपि यत्किञ्चनभाषी। (जीचूवि पृ. 44) तिर्यक्गामिनी (नौका)-तिरिच्छगामिणी णदिं छिन्दन्ती गच्छइ। (जीचू पृ. 11) त्यक्तकृत्य- चत्तं जेण दरिसणं, चारित्तं वावि सो तु णातव्वो। चत्तक्किच्चो.... // (गा. 2295) * जं अववायेण निसेवियं गिलाणाइकारणे असंथरे वा, पुणो ते चेव हट्ठसमत्थो वि होउ निसेवंतो चियत्तकिच्चो भवइ। (जीचूवि पृ. 34) श्रुतव्यवहार-जे पुण सुयववहारी ते सुयमणुवत्तमाणा इंगिआगार-वत्त-णेत्त-वयण-विगाराइएहिं भाव मुवलक्खिऊण तिक्खुत्तो अइयारं आलोयावेऊण ; तं जहा-सुओवएसेण पलिउंचियमपलिउंचियं वा आलोयणाकाले जं जहा आलोएज्जा तं तहा सुओवएसेण ववहरन्तीति, एस सुयववहारो। (जीचू पृ. 4) श्रुतोपसम्पत्–श्रुतग्रहणायान्याचार्यमुपसम्पद्यमानस्य श्रुतोपसम्पत्। (जीचूवि पृ. 41) Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 648 जीतकल्प सभाष्य . शृङ्गनादित-उत्तमं कार्यं बहुजनसाध्यं शृङ्गनादितकार्यमुच्यते। (जीचूवि पृ.५५) दंत- दंतो जो उवरतो तु पावेहिं। . * अहवा दंतो इंदियदमेण नोइंदिएणं च। दर्प प्रतिसेवना-दप्पो नाम धावणडेवणवग्गणाइओ कंदप्पो वा दप्पो। (जीचू पृ. 25) दुश्चिन्तित-संजमविराहणाजायं कुच्छियं चिन्तियं दुच्चिन्तियं। (जीचू पृ. 10) धारणाकुसल-• एरिसगा जे पुरिसा, अत्थधरा ते भवंति जोग्गा उ। धारणववहारण्णू, ववहरिउं धारणाकुसला॥ (गा.६६७) धारणाव्यवहार-• वेयावच्चगरस्स गच्छोवग्गहकारिणो फड्डगपइणो वा संविग्गस्स देसदरिसणसहायस्स वा बहुसो पडितप्पियस्स अवसेससुयाणुओगस्स उचियपायच्छित्तट्ठाणदाणधारणं धारणाववहारो भन्नइ। (जीचू पृ. 4) / * संविग्गेण गीयत्थेणायरिएणं दव्व-खेत्त-काल-भाव-पुरिस-पडिसेवणासु अवलोएऊण जम्मि जं अवराहे दिन्नं पच्छित्तं तं पासिऊण अन्नो वि तेसु चेव दव्वाइएसु तारिसावराहे तं चैव पच्छित्तं देइ; एस धारणाववहारो। (जीचू पृ. 4) धृति-धृतिश्चेतसोऽवष्टम्भः। (जीचूवि पृ. 53) नालिका-सिरसो उवरि चउरङ्गलदीहा नालिया। (जीचूवि पृ. 50) / निमित्त-अतीताद्यर्थसूचकं निमित्तं। (जीचूवि पृ. 46) निरनुतापी-निरणुतावी-जो अकिच्चं काऊण नाणुतप्पइ; जहा मए दु? कयं। (जीचू पृ. 3) निरपेक्ष-निरवेक्खो अणुवसन्तवेरो जो। (जीचू पृ. 27) निवेशन-निवेसनं एकनिष्क्रमणप्रवेशानि व्यादीनि गृहाणि। (जीचूवि पृ.५८) निह्नवन (ज्ञान का एक अतिचार)-• णिण्हवणं अवलवणं, अमुगसगासे अहं णंऽहिज्जामि। अण्णं जुगप्पहाणं, आयरियं सो उ उद्दिसंति॥ (गा. 1006) नैषिधिकी-निषेधेन निर्वत्ता नैषिधिकी, वसतौ प्रविशद्भिर्या विधीयते। (जीचूवि पृ. 41) परतर-• परतरस्तपस्यपि शक्तः परं न करोति, किन्तु वैयावृत्यमेव विधत्ते। (जीचूवि पृ. 53) * वेयावच्चकरो तू, गच्छस्स उवग्गहम्मि वट्टति तु। एसो तु होति परतरो....। (गा. 1965) परिणामक- जहा भणियं सद्दहन्ता आयरन्ता य परिणामगा भन्नंति। (जीचू पृ. 23) * जो दव्वखेत्तकतकालभावओ जं जहा जिणक्खातं। तं तह सद्दहमाणं, जाणसु परिणामगं साधुं॥ (गा. 1943) * उस्सग्गे उस्सग्गं, अववाए अववायं, जहा भणियं सहंता आयरंता य परिणामगा भण्णन्ति। (जीचूवि पृ. 52) * परिणमति जहत्थेणं, मती तु परिणामगस्स कज्जेसु। (गा. 1949) पाटक-पाटको ग्रामादेर्व्यवच्छिन्नः सन्निवेशः। (जीचूवि पृ. 58) Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 649 परिभाषाएं : परि-४ पाणिपतद्ग्रही-• वग्गुलिपक्खसरिसगं, पाणितलं तेसि धीरपुरिसाणं। माएज्ज घडसहस्सं, धारेज्ज व सो तु सागरा सव्वे। जो एरिसलद्धीए, सो पाणिपडिग्गही होति॥ (गा. 2167, 2168) पाराञ्चित-पारं तीरं तपसा अपराधस्य अंचति गच्छति ततो दीक्ष्यते यः स पाराञ्ची। (जीचूवि पृ. 39) जम्मि पडिसेविए लिंगखेत्तकालविसिट्ठाणं, तं पारञ्चियारिहं। (जीचू पृ. 6) प्रकटकरण (भिक्षा का दोष)-आहारसेज्जाइयं साहुणो भुंजिस्संति, रंधिउं अन्नो सव्वमेवाहारं बहिं नीणेइ साहुअट्ठाए, एयं पागडकरणं। (जीचूवि पृ. 45) प्रकाशकरण-रयणप्पईवजोईवायायणकुड्डछेड्डाइएहिं उज्जोयकरणं साहुअट्ठाए एवं पगासकरणं। (जीचूवि पृ. 45) प्रणीत-जं पुण गलंतणेहं, पणीतमिति तं बुहा बेंति। (गा. 1626) प्रतिक्रमणार्ह-• मिच्छादुक्कडमेत्तेण, चेव जं सुज्झती तु पावं तु। ण य विगडिज्जति गुरुणो, पडिकमणरिहं हवति एयं॥ (गा.७१९) प्रतिपृच्छा-• प्रतिपृच्छा सा च प्राग्नियुक्तेनापि कार्यकरणकाले कार्या। (जीचूवि पृ. 41) __* पुन्वनिसिद्धेन होइ पडिपुच्छा। प्रदुष्टचित्त-कोहादी व अतीव तु, पदुद्दचित्तो मुणेतव्वो। (गा. 2306) प्रमाणदोष-• पकामं च निकामं च, जो पणियं भत्त-पाणमाहारे। अतिबहुयं अतिबहुसो, पमाणदोसो मुणेतव्वो॥ (गा.१६२५) प्रमाद (प्रतिसेवना)-पमाओ नाम जं राओ दिया वा अप्पडिलेहंतो अपमज्जयंतो य पाणाइवायाइयमावज्जइ। (जीचू पृ. 25) प्रवयण-जीवादिपयत्था वा, उवदंसिज्जंति जत्थ संपुण्णा। सो उवदेसो पवयण....। (गा. 3) . बकुश-• बउसं सबलं कब्बुरमेगटुं तमिह जस्स चारित्तं / - अइयारपंकभावा, सो बउसो होइ नायव्वो॥ (जीचूवि पृ. 43) बकुशत्व-बाउसत्तं सरीरसुस्सूसापरायणत्तं। (जीचू पृ. 9) भाव अपरिणत-यत्र द्वयोः साध्वोर्भिक्षार्थं गतयोरेकस्य मनसि तदशुद्धं परिणतम्, अन्यस्य तदेव शुद्धं मनसि परिणतं, तदपि भावापरिणतम्। (जीचूवि पृ. 48) भाषासमित-अहव य भासति कज्जे, णिरवज्जमकारणे ण भासति य। __विकह-विसोत्तियपरिवज्जितो जती भासणासमितो॥ (गा.८२४) मध्यगत अवधि-• जह पुरिसो कोइ चुडुलिमादीणि काउं सिरम्मि गच्छति, मज्झगतो एस ओही तु॥ (गा. 43) मनःपर्यवज्ञान- तं मणपज्जवणाणं, जेण विजाणाति सण्णिजीवाणं / दटुं मणिज्जमाणे, मणदव्वे माणसं भावं॥ (गा. 86) Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 650 जीतकल्प सभाष्य . . * मणपज्जवणाणं पुण, जणमणपरिचिंतितत्थपागडणं। माणुसखेत्तणिबद्धं, गुणपच्चइयं चरित्तवतो॥ (गा.८८) मालापहृत-मालं सीककप्रासादोपरितलादिकमभिप्रेतम्। तस्मादाहृतं करग्राह्यं यदन्नादि दात्री ददाति तन्मालापहृतम्। (जीचूवि पृ. 46) मिथ्याकार(सामाचारी) संयमयोगवितथाचरणे विदितजिनवचनसाराः साधवस्तत्क्रियाया वैतथ्यप्रदर्शनाय ___ मिथ्याकारं कुर्वते मिथ्याक्रिया। ___ (जीचूवि पृ. 41) मुर्मुर-छारुम्मीसा पिंगल, अगणिकणा मुम्मुरो होति। (गा. 1530) मूलार्ह-जम्मि पडिसेवितम्मी, सव्वं छेत्तूण पुव्वपरियागं पुणरवि महव्वयाइं, आरोविजंति मूलरिहे॥ . (गा.७२६) राजा-अभिसित्तो व परेहिं, सयं व भरहो जहा राया। (गा. 1999) राहुहत-• राहुणा मुखेनाक्रान्तं पुच्छेन वा तद्राहुहतम्। (जीचूवि पृ.५६) * यस्मिन् नक्षत्रे ग्रहणमासीत्तद्यावद् विणा न युक्तं तावत्तद्राहुहतम्। (जीचूवि पृ.५६) लायातरण-• लाया नाम वीहिया, भुज्जिया भट्टे ताण तंदुलेसु पेया कज्जइ, तं लायातरणं भन्नइ। (जीचूवि पृ. 34) लिप्तदोष-संसक्तेन दध्यादिना करमात्रकखरण्टकेनाशनादिग्रहणे लिप्तदोषाः। (जीचूवि पृ. 48) लैंगिक ज्ञान-जं इंदिएहिँ नज्जति, तं नाणं लिंगियं होति। __(गा. 16) लोभपिण्ड-लोभेण जो उ एसति, सो होती लोभपिंडो तु। (गा. 1678) वर्धमान अवधि–अज्झवसाणेहिं पसत्थएहि सुहवद्धमाणचारित्ते। उवरुवरि सुज्झंते, समंततो वड्डते ओही॥ (गा.५०) वनीपक-वनीपकत्वं पिंडट्ठा समणा तिहि-माहण-किविण-सुणगाइ-भत्ताणं अप्पाणं तब्भत्तं दंसइ जो सो . (जीचूवि पृ. 46) विचिकित्सा-वितिगिच्छा अप्पणो उ, सोग्गति होज्जा ण वावि त्ति। (गा. 1039) विनय-विणओ अब्भुट्ठाणासणदाणञ्जलिपग्गहवन्दणाईओ। (जीचू पृ. 9) विनय (ज्ञान का एक अतिचार)-• जच्चादिमदुम्मत्तो, थद्धो विणयं ण कुव्वति गुरूणं। ____हीलयति व जो तु गुरुं, विणयइयारो भवे एस॥ (गा. 1002) विनय उपसम्पदा-विनयकरणार्थमुपसम्पद्यते यत्र गच्छान्तरे सा (विनयोपसम्पत्)। (जीचूवि पृ. 41) विनिर्जरा-पुव्वज्जितस्स खवणं, विणिज्जरा सा उ णातव्वा। ___(गा. 708) विलम्बित-सूर्यास्तगमनकाले यन्नक्षत्रमुदयमुपयाति तद्विलम्बितम्। (जीचूवि पृ. 56) विवेकाह (प्रायश्चित्त का भेद)-• जं किंचि दव्व गहितं, अहियमकप्पं व अहव ऊणं तु। विहिणा तु विगिंचंते, पच्छित्त विवेगअरिहेदं॥ (गा.७२२) विहार-विहारो सज्झायनिमित्तं जं अन्नत्थगमणं। (जीचू पृ. 11) वणीमगो त्ति। Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभाषाएं : परि-४ 651 व्यञ्जनभेद-सुत्तं मत्तऽक्खरबिन्दूहिं ऊणमइरित्तं वा करेइ, सक्कयं वा करेइ, अन्नाभिहाणेण वा भणइ, एस वञ्जणभेओ। (जीचू पृ. 12) व्युत्सर्ग-जंकायचे?मेत्तेण, णिरोहेणं तु सुज्झती पावं। जह दुस्सिमिणादीयं, पच्छित्तेयं वियोसग्गं॥ (गा.७२३) वृद्धशील-अणियतचारी अणियतवित्ती अगिहो य होति जो अणिसो। _णिहुयसभाव अचंचल, णातव्वो वुड्डसीलो त्ति // (गा.१६६) शिल्प-अहवा जं सिक्खिज्जति, आयरिउवदेसतो तगं सिप्पं / (गा. 1359) शैक्ष-सेहो जो अभिणवो सिक्खं गाहिज्जइ। (जीचू पृ. 26) शोक-अनिष्टानां द्रव्याणां संयोगेन शोकः। इष्टानां वियोगेन। (जीचूवि पृ. 43) संक्लिष्टकर्म-अङ्गादानं-मेहनं तस्य परिमर्दनेन शुक्रपुद्गलनिर्घातनं निष्काशनं इत्येतत्संक्लिष्टकर्मोच्यते। (जीचूवि पृ.५१) संवर-मिच्छादसणाविरइकसायपमायजोगनिरोहो संवरो। (जीचू पृ.५) संवरण-संवरणं नवस्स कम्मस्स अणायाणं। (जीचू पृ.५) संहृत-संहृतम्-येन मात्रकेण दात्री दास्यति साधोरशनादिकं-तत्र पृथिव्यादिकं तुषादिकं वा यत्स्यात्तदन्यत्र सचित्ते अचित्ते वा क्षिप्त्वा तेन रिक्तीकृतेन यदि साधोर्ददाति तत्संहृतमशनाद्युच्यते। (जीचूवि पृ. 48) सग्रहण-सूर्ययुक्तादनन्तरनक्षत्रं सग्रहणम्। (जीचूवि पृ.५६) सत्कार-आसणमादीहि होति सक्कारो। (गा.८७४) समिति-गमणकिरिया हु समिती। (गा.८०४) सम्मान-सम्माणो उवहीए, जोग्गं जं जस्स तं कुज्जा। (गा. 874) * सहसाकरण- पुव्वं अपासिऊणं, छूढे पादम्मि जं पुणो पासे। ' ण य तरति णियत्तेउं, पादं सहसाकरणमेतं॥ . (गा. 135) साही-गली-साही ग्रामगृहाणामेकपाटी। (जीचूवि पृ. 58) सुखदुःखउपसम्पत्-सुखं वा दुःखं वा समं सोढव्यमिति सुखदु:खोपसम्पत्। (जीचूवि पृ. 41) सुप्रणिहित-• जो एतेसु ण वट्टति, कोधे दोसे तहेव कंखाए। सो होति सुप्पणिहितो, सोभणपरिणामजुत्तो वा॥ (गा. 240) हस्तताल-हत्थातालो जट्ठिमुट्ठिलउडोपलपहाराईहिं मरणभयणिरवेक्खो अप्पणो परस्स य पहरइ। (जीचू पृ. 27) हस्तालम्ब-हत्थालम्बो असिवपुररोहउवसमणत्थमभिचारगाइ करेइ। (जीचू पृ. 27) Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट एकार्थक (गा. 2519) (जीचू पृ.२८) (गा.८६३) (गा.१०९९) (गा. 1776.) (गा. 234) (जीचू पृ. 4) अग्ग - प्रधान, प्रमुख / अग्ग पहाण त्ति एगट्ठा। आय - 'लाभ। आयो लाभो संपत्ती य एगट्ठा। * आओ लाभो त्ति आगमो यावि। आहाकम्म - आधाकर्म, भोजन का एक दोष। तत्थ इमे णामा खलु, आहाकम्मस्स होंति चत्तारि। आह-अहेकम्मे या, अहयम्मे अत्तकम्मे य॥ गृहण - माया, छिपाना / गृहण गोवण णूमण, पलियंचणमेव एगटुं। घात - विनाश / घात विणासो य एगट्ठा। जीय - आचरणीय। जीयं ति वा करणिज्जं ति वा आयरणिज्ज ति वा एगटुं। जोग - योग, वीर्य। जोगो विरियं थामो, उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा। सत्ती सामत्थं ति य, जोगस्स हवंति पज्जाया॥ झोसण - छोड़ना। झोसण खवणा मुंचण एगट्ठा। णात - ज्ञात / णातं आगमितं ति य एगटुं। णासयते - ध्वंस करना। णासयते धंसते व त्ति (एगटुं)। णिक्खित्त - स्थापित। णिक्खित्तं ठवितं ति य एगटुं। णियत - नियत, निश्चित। णियतं व णिच्छितं वा (एगट्ठा)। दीपित - प्रकाशित। दीवित पभासिउ त्ति य, पगासितो चेव एगट्ठा। दुद्ध - दूध। दुद्ध पयो वालु खीरं च। धम्म - धर्म, स्वभाव। धम्म सहावो सम्मईसण। धारणववहार - धारणा व्यवहार। उद्धारणा विहारण, संधारण संपहारणा चेव। धारणववहारस्स उ, नामा एगट्ठिता एते॥ पणमन - प्रणाम। पणमणं पणामो पूया इति एगट्ठियं। पतिट्ठा - अवस्था, व्यवस्था। पतिट्ठा ठवणा ठवणी, ववत्था संठिती ठिती। अवत्थाणं अवत्था य, एगट्ठा चिट्ठणा ति य॥ (जीचूपृ.६) (गा. 2278) (गा. 111) (गा.२३७) (गा. 1512) (गा. 234) (गा. 248) (गा.११३२) (गा. 228) (गा.६५५) (जीचू पृ.२) (गा.१९६८) Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकार्थक : परि-५ 653 परक्कम - पराक्रम। परक्कम बलं विरियं। परम - प्रधान / परम पहाणं ति होति एगटुं। पह - हेतु, कारण। पहो हेतू कारणं ति एते उ एगट्ठा। * पहो मग्गो हेऊ। पावारग - बड़ा कम्बल। पावारगो बृहत्कम्बल : परियच्छिा / पुन - पुण्य, कल्याण। पुन्नं कल्लाणमुत्तमं / बउस - चितकबरा / बउसं सबलं कब्बुरमेगहूँ। मिथ्या - असत्य। मिथ्यावितथानृतमिति पर्यायः। मिथ्याकरण - (सामाचारी)। मिथ्याकरणं मिथ्याकारः मिथ्याक्रियेत्यर्थः। लिंग - चिह्न। लिंगं चिंध निमित्तं, कारणमेगट्ठियाइँ एताई। वण्णणा - वर्णन, प्ररूपणा। वण्णणा परूवण त्ति एगट्ठा। ववहार - शोधि, प्रायश्चित्त / ववहारो आरोवण, सोधी पच्छित्तमेयमेगटुं। विणिज्जरा - शोधन। विणिज्जरा सोहणमिति एगटुं। विनय - विनाश। विणयो विणासणं ति य (एगटुं)। विरिय - पराक्रम। विरियं सामत्थं वा, परक्कमो चेव होंति एगट्ठा। वोच्छं - कहूंगा। वोच्छं वक्खामि त्ती। वोरमण - व्यपरमण, विराधन / वोरमणं उद्दवण विराहणेगटुं। संखेव - संक्षेप। संखेव समासो त्ति व, ओहो त्ति व होंति एगट्ठा। संथुणण - स्तुति। संथुणण संथवो तू, थुणणा वंदणगमेगटुं। संवर - संवरण। संवर घट्टण पिहणं एगटुं। संवरण - संवरण, ढकना। संवरणं संवरं ढक्कणं पिहाणं ति एगट्ठा। सायण - विनाश। सायण धंसो विणासो त्ति / साहरण - फेंकना / साहरणं उक्किरणं, विरेयणं चेव एगटुं। (गा.२१२६) (गा.७०६) (गा.७१०) (जीचू पृ.५) (जीचूवि पृ. 51) (जीचूवि पृ. 44) (जीचूवि पृ. 43) (जीचूवि पृ. 41) (जीचूवि पृ. 41) (गा.१७) (जीचूपृ.३०) (गा.१८४४) (जीचू पृ.५) (गा.२४७) (गा.१७७६) (गा.४) (गा.१७८०) (गा.६) (गा.१४२०) (गा.७०७) (जीचूवि पृ.५) (गा.८६३) (गा.१५५७) Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-६ . निरुक्त अक्ख -अक्ष। * असु वावण धाऊओ, अक्खो जीवो उ भण्णते णियमा। जं वावयए भावे, णाणेणं तेण अक्खो ति॥ (गा. 12) * अस भोयणम्मि अहवा, सव्वद्दव्वाणि भोगमेतस्स। आगच्छंती जम्हा, पालेति य तेण अक्खो त्ति / / (गा. 13) अज्झोयर-अध्यवतर (भिक्षा का दोष)। अहियं उदरं अज्झोयरो तु। (गा. 1283) अत्त-आप्त। नाणमादीणि अत्ताणि, जेण अत्तो उ सो भवे। (गा. 141) अप्राप्तश्रुत-जिसने श्रुत का अध्ययन नहीं किया। येन नाधीतं श्रुतं सोऽप्राप्तश्रुतः। (जीचूवि पृ. 32) अरहंत-अर्हत् / अरह पूयाएँ धातू, पूयामरिहं ति तेण अरहंता। (गा. 982) * अरहं ति वंदण-णमंसणं च तम्हा तु अरहता। अरिहंत-अर्हत्। कोधादी उ अरी ऊ, अहव रयं कम्म होति अट्ठविधं / अरिणो व रयं हंता, तम्हा उ हवंति अरिहंता॥ , (गा. 983) आगम-आगम। आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अतीन्द्रियाः पदार्था अनेनेत्यागम उच्यते। (जीचूवि पृ. 33) आज्ञा-आज्ञा / आज्ञायत आदिश्यत इत्याज्ञा / (जीचूवि पृ. 33) आसण-आसन। आस उवेसण धातू, उवविसणं आसणं होति। (गा. 981) आसायणा-आशातना। आतस्स साडणं ती, यकारलोवम्मि होति आसयणा। (गा. 864) * आयाय सातयाणा, आयस्स उ साडणा जा उ। (गा. 862) उच्चार–मल। उच्चरति काइयं तू, जम्हा तेणं तु होति उच्चारो। (गा.९८७) * उच्चरती तेण होति उच्चारो। (गा.८१५) उद्धार-धारणा व्यवहार। पाबल्लेण उवेच्च उ, उद्धितपदधारणा व उद्धारो। (गा. 656) कोडि-कोटि। कोडिज्जंते जम्हा, बहवो दोसा उ सहियए गच्छं। ___ कोडि त्ति तेण भण्णति..........। (गा. 1287) खुइत-खु त्ति कतं तं सुइतं, छीयं वा होति इह उ खुइतं तु / (गा.९०७) खेल-श्लेष्म। खे ललणाओ खेलो। (गा.८१६) गुत्ति-गुप्ति। गुपु रक्खणम्मि गुत्ती। (गा.७८४) Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त : परि-६ 655 (जीचू पृ.८) (गा. 2591) (गा.७०४) (जीचू पृ. 4) (गा.७३२) (गा. 809) (जीचूवि पृ. 34) गुरु-गुरु। गिणाति सत्थमिति गुरू। जीतकप्प-जीतकल्प। जीतस्स तस्स कप्पो, एत्थं जो जीतकप्पो सो। जीव-जीव। अहवा जीवति जीविस्सई य जीवं ति होति जिओ। * जीवेइ वा तिविहे वि काले तेण जीयं। जोग-योग। जं जीवे मुंजयती, पेरयती वा ततो जोगा णिक्खेव-निक्षेप। अहिउक्खेवो तु णिक्खेवो। त्यक्तकृत्य-त्यक्तकृत्य। त्यक्तं कृत्यं करणीयं येन स त्यक्तकृत्यः। दुच्चिंतित-दुश्चिन्तित। दु त्ति दुगुंछा धातू, संजमउवरोधि कुच्छितं होति। तं मणसा जदि चिंतित, दुच्चिंतित एव णातव्वं // धाती-धात्री, धाय। धारयति धीयते वा, धयंति वा तमिति तेण धाती तु। निव्वाणंग-निर्वाणाङ्ग। नेव्वाणं गमयतीति निव्वाणंगं। पच्चक्ख--प्रत्यक्ष। जीवो अक्खो तं पति, जं वट्टति तं तु होति पच्चक्खं / पर्युषण-पर्युषण। परि-सर्वथा वसनमेकत्रनिवासः स निरुक्तविधिना पर्युषणम्। परिहार-परिहार, छोड़ना। परिहरणं परिहारो। पवयण-प्रवचन। पवत्तयतीई नाणादी पवयणं तेणं। . * पगय-वयणं ति वा पहाण-वयणं ति वा पसत्थ-वयणं ति वा-पवयणं। * पवुच्चंति तेण जीवादयो पयत्था इति पवयणं। पायच्छित्त-प्रायश्चित्त / पावं छिंदति जम्हा, पायच्छित्तं ति भण्णते तेणं। * पाएण वावि चित्तं सोहइ अइयार-मल-मइलियं तेण पायच्छित्तं / पारंचिय–प्रायश्चित्त का भेद। अंचु गती-पूजणयो पारंचति गच्छती तु पारं तु। पारोक्ख-परोक्ष / परतो पुण अक्खस्सा, वटुंतं होति पारोक्खं। पासवण-प्रस्रवण, मूत्र। पायं सवती जम्हा, तम्हा तू होति पासवणं। * पस्सवति त्ति य तेणं पासवणं / प्रगत-प्राप्त। प्रकर्षण गतं स्थितं जीवादिवस्तुवाचकतयेति प्रगतम्। प्रलीन-जिसके क्रोध आदि नष्ट हो गए हों। पइ पइ लीणा उ होंति पल्लीणा।। * कोधादी वा पलयं, जेसि गता ते पलीणा तु। प्रवचन-प्रवचन। वक्तीति प्रवदतीति वा प्रवचनम्। * प्रतिष्ठावचनं वा प्रवचनम्। (गा. 945) (गा. 1321) (जीचू पृ. 1) (गा. 11) (जीचूवि पृ. 53) (गा. 2431) (गा.२) (जीचू पृ. 2) (जीचू पृ. 2) (गा.५) (जीचू पृ. 2) (गा.७२९) (गा.११) (गा. 987) (गा. 815) (जीचूवि पृ. 31) (गा.६६५) (जीचूवि पृ. 32) Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 656 जीतकल्प सभाष्य वंजण-व्यञ्जन। वंजिज्जति जेण अत्थों वंजणमिति। (गा. 1010) वनीपक-याचक वणि जायणम्मि धातू तु। वणिमग पायप्पाणं, वणिमो त्ती भण्णते तम्हा॥ (गा. 1362) * वनीं लब्धार्थरूपां पाति पालयतीति वनीपः स एव वनीपकः। (जीचूवि पृ. 46) विणिज्जरण-विशेष निर्जरा। विसेसेण निज्जरणं विणिज्जरणं। (जीचू पृ.५). विणिहिटु-विनिर्दिष्ट। णिद्दिढ विसेसितं विणिद्दिटुं। (गा. 1811) * विसेसेण निद्दिटुं विणिद्दिढ़। (जीचू पृ. 21) विधार-धारणाव्यवहार। विविहेहि पगारेहिं धारेतऽत्थं विधारो तु। (गा. 656) शय्यातर-शय्यातर। सय्यया वसत्या तरति संसारसागरमिति शय्यातरः। (जीचूवि पृ. 53) संका-शंका। संसयकरणं संका। . (गा. 1039) संजम–संयम। सं एगीभावम्मी, जम उवरम एगिभावउवरमणं / सम्म जमो वा संजम, मण-वइ-कायाण जमणं तु॥ (गा. 1107) संधारणा–धारणाव्यवहार। सं एगीभावम्मी, धी धरणे ताणि एक्क भावेणं। धारेतऽत्थपदाणि तु, तम्हा संधारणा होति / / (गा. 657) संपधारणा–धारणाव्यवहार। जम्हा संपहारेउं, ववहारं पशुंजती। तम्हा कारणा तेण, णातव्वा संपधारणा॥ (गा. 658) समिति-सम्ममयति त्ति समिती। (गा.८०४) सिद्धार्थ-सिद्धा अनादिप्रवाहतया नित्याः प्रसिद्धा अर्था जीवादयो यत्र श्रुते तत् सिद्धार्थम्। सिद्धा निष्पन्ना अर्थाः प्रयोजनानि यस्य ज्ञानावाप्तौ सत्यां स सिद्धार्थः। (जीचूवि पृ. 31) सुविहित-सोभणविही तु जेसिं, सोभणविहिता व सुविहिता ते तु। (गा. 2595) * सोहणं विहियं जेसिं नाणाइयं ते सुविहिया। (जीचूवि पृ. 30) Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-७ उपमा और दृष्टान्त * धूमेण अग्गिं व्व। (गा.१७) * पणुल्लयंतो व्व जह पुरिसो। (गा. 40) * जाणति पिहुज्जणो वि हु, फुडमागारेहि माणसं भावं। एसुवमा तस्स भवे.....। (गा. 87) * पंकसलिले पसादो, जह होति कमेण तह इमो जीवो। (गा. 90) * चंदमुहीव तु सो वि हु, आगमववहारवं होति। (गा. 110) * जं जह मोल्लं रयणं, तं जाणति रयणवाणिओ णिउणो। (गा. 118) * णातमिणं तत्थ धमएणं। (गा. 121) * जह आममट्टियघडे, अंबेव ण छुब्भती खीरं। (गा.१८१) * जाहगदिटुंतेणं। (गा. 183) * जाणति पयोगभिसजो, वाही जेणाऽऽतुरस्स छिज्जति ऊ। (गा. 193) * सीतघरम्मि व डाहं। (गा. 236) * वंजुलरुक्खो व जह व उरगविसं। (गा. 236) * घुणक्खरसमो तु पारोक्खी। (गा. 258) * जह धणिओ सावेक्खो, निरवेक्खो चेव होति दुविधो तु। (गा. 292) * तिलहारगदिटुंतो। (गा. 308) * जह दीव-तेल्ल-वत्ती, खओ समं तह सरीरायुं। (गा. 350) * जह सुकुसलो वि वेज्जो, अण्णस्स कहेति अप्पणो वाधी। (गा. 409) * जह वाऽऽउंटियपादे, पादं काऊण हत्थिणो पुरिसो। (गा. 483) * उवगरणेहि विहूणो, जह वा पुरिसो ण साहते कजं। (गा. 484) * लावए पवए जोहे, संगामे पत्थिए इय। आतुरे सिक्खगे चेव, दिटुंत समाहिकामेते॥ (गा. 485) * सम-विसमम्मि व पडितो, अच्छति जह पादवो व णिक्कंपो। (गा.५१९) * वायादीहिं तरुस्स व। (गा. 520) * जह चालणि व्व कतो। (गा.५३३) * जह णाम असी कोसी, अण्णा कोसी असी वि खलु अण्णो। (गा.५४०) * जह ण वि कंपति मेरू। (गा.५५५) Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 658 जीतकल्प सभाष्य * संसारखड्डपडितो, णाणादवलंबितुं समुत्तरति। (गाः 591) * होति विसोहण सोहण, जह तू वत्थस्स तोयमादीहिं। (गा.७०५) * अमयमिव मण्णमाणो। (गा.८४०) * चंदणमिव मण्णंतो। (गा.८४४) * जह तिक्खउदगवेगे, विसमम्मि व विज्जलम्मि वच्चंतो। (गा. 951) * जह विसमइयं तु मारगं होति। (गा. 1122) * जह अण्णत्थ पउत्ते, कूडे जो पडति सो बज्झे। (गा. 1123) * चित्तकम्मट्टित व्व। (गा..१३६८) * जह इंगाला जलिता, डहति जं तत्थ इंधणं पडितं / (गा. 1646) * धूमायंतं तहा छगणं। (गा. 1649) * जह वावि चित्तकम्मं, धूमेणोरत्तयं ण सोभति उ। (गा. 1650) * उदही विव अक्खोभा। (गा. 2169) * सूरो इव तेयसा जुत्ता। (गा. 2169) * सिप्पंणेउणियट्ठा, घाते वि सहति लोइगा गुरुणो। ते इहलोगफलाणं, महुरविवागेस उवमा तु॥ (गा. 2381) * कंडुव्व कच्छुल्लो। (गा. 2409) * कुवितपियबंधवो विय। (गा. 2456) * परोवदेसुज्जता जहा मंखा। (गा. 2471) * आयरिया जह दिया चेव। (गा. 2471) * जह उदगम्मि घते वा। (गा. 2528) * जह ताव छेज्ज णिहसे, अविकोवि सुवण्णगं मुणेतव्वं / (गा. 2600) * आमे घडे णिहित्तं, जहा जलं तं घडं विणासेति। (गा. 2603) Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-८ सूक्त-सुभाषित 251 सूक्ति का शाब्दिक अर्थ है-सुष्ठु-कथन / जिस उक्ति में अनुभूति और अभिव्यक्ति का चमत्कार होता है, वह सूक्ति कहलाती है। जो भीतरी चेतना के परिवर्तन के लिए स्पंदन पैदा कर देते हैं, वे सुभाषित कहलाते हैं। सूक्ति में जीवनभर का अनुभव थोड़े से शब्दों में उड़ेल दिया जाता है। इससे भाषा-शैली में गतिशीलता और सौष्ठव आ जाता है। जीतकल्पभाष्य में प्रयुक्त सूक्तियां और सुभाषित केवल उपदेशात्मक ही नहीं, बल्कि जीवनस्पर्शी और प्रेरणास्पद भी हैं। ___नियुक्तिभाष्य साहित्य का अध्यनन करने से प्रतीत होता है कि भाष्यकार ने कहीं भी प्रयत्न नहीं किया बल्कि सहज रूप से विषय का निरूपण करते हुए वे गाथाएं या चरण सूक्त रूप में अवतरित हो गए। यहां जीतकल्पभाष्य एवं उसकी चूर्णि के सूक्ति एवं सुभाषित संकलित हैं• अविदू सोहि ण जाणति। 155 * अतियारपंकपंकंकितो य आया विसोहिओ होति। आलोइए य आया॥ 249 * अतियारगुरुभरेणं, अक्कंतालोइए लहू होति। * पायच्छित्ते असंतम्मि, चरित्तं पि ण चिट्ठए। चरित्तम्मि असंतम्मि, तित्थे णो सचरित्तया॥ * अचरित्तयाए तित्थे, व्वाणं पि ण गच्छती। णिव्वाणम्मि असंतम्मि, सव्वा दिक्खा णिरत्थिगा। 316 •ण विणा तित्थं णियंठेहिं। 317 * ण हु उड्डगमणकज्जे, हेट्ठिल्लपदं पसंसंति। 340 * णासेति अगीतत्थो, चउरंगं सव्वलोगसारंगं। नट्ठम्मि य चतुरंगे, ण हु सुलभं होति चतुरंगं॥ 357 * किं पुण तं चउरंगं, जं णटुं दुल्लभं पुणो होति? माणुस्सं धम्मसुती, सद्धा तह संजमे विरियं॥ 358 * णासेति असंविग्गो, चउरंगं सव्वलोगसारंगं। नट्ठम्मि य चउरंगे, ण हु सुलभं होति चउरंगं॥ * कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। अण्णयरम्मि वि जोगे, सज्झायम्मी विसेसेणं॥ 454 315 371 Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 660 जीतकल्प सभाष्य 455 . . * कम्ममसंखेजभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो अण्णयरम्मि वि जोगे, काउस्सग्गे विसेसेणं // * कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। अण्णयरम्मि वि जोगे, वेयावच्चे विसेसेणं॥ * कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। अण्णयरम्म वि जोगे, विसेसतो उत्तिमट्ठम्मि॥ * परलोइए ण सक्का, साहेउं अप्पणो अटुं? * जिणवयणमप्पमेयं। णिउणं कण्णाहुतिं सुणेताणं॥ * आहाराओ रतणं, ण विज्जते उत्तमं अण्णं। * सरीरमुज्झितं जेण, को संगो तस्स भोयणे? * जह णाम असी कोसी, अण्णा कोसी असी वि खलु अण्णो। इय मे अण्णो देहो, अण्णो जीवो त्ति मण्णंति॥ * बल-वण्ण-रूवहेतुं, फासुगभोई वि होति अपसत्थो। किं पुण जो अविसुद्धं, णिसेवते वण्णमादट्ठा? / / * संवर-विणिज्जराओ मोक्खस्स पहो। * सामाइयमादीयं, सुतणाणं बिंदुसारपज्जंतं। तस्स वि सारो चरणं, चरणस्स वि होति णेव्वाणं॥ * जेव्वाणस्स अणंतर, चरणं चरणा अणंतरं णाणं। णाणविसुद्धीए पुण, चारित्तविसुद्धया होति॥ * चारित्तविसुद्धीए, णेव्वाणफलं तु पावती अचिरा। * समितिविसुद्धिणिमित्तं, अवस्स आलोयणं कुज्जा। * बहुं सुणेति कण्णेहिं, बहुं अच्छीहिं पेच्छति। ण य दिलै सुतं सव्वं, भिक्खु अक्खाउमरहति॥ * मरणमिति महब्भयं। * चरणविणासे अमोक्खो तु। * मोक्खाभावातो पुण, पयत्तदिक्खा निरत्थिगा होति। * बहुदोसे माणुस्से, मा सीद। 595 जीसू 2 714 715 716 823 926 1011 1012 1046 Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्त-सुभाषित : परि-८ 661 1383 1465 1486 1597 1621 1632 1646 1648 * दाणं ण होति अफलं। * विणएण बहुफलयं। * सुत्तस्स अप्पमाणे, चरणाभावो ततो य मोक्खस्स। मोक्खाभावाओ चिय, पयत्तदिक्खा णिरत्था उ॥ * को कल्लाणं नेच्छति? * जावतियं भोत्तव्वं, साहूहिं जावणट्ठाए। •हिताहारा मिताहारा, अप्पाहारा य जे नरा। ण ते विजा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा॥ * जह इंगाला जलिता, डहति जं तत्थ इंधणं पडितं / इह चिय रागिंगाला, डहति चरणिंधणं णियमा॥ * रागग्गीय पजलितो, भुंजतो फासुगं पि आहारं। णिद्दड्डिंगालणिभं, करेति चरणिंधणं खिप्पं * दोसग्गी वि जलंतो, अप्पत्तियधूमधूमियं चरणं। अंगारमेत्तसरिसं, जा ण भवति णिड्डहति ताव // * नत्थि छुहाएँ सरिसिया वियणा। * धम्मावस्सगजोगा, जेण ण हायंति तं कुज्जा। * पुरिसुत्तरिओ धम्मो, सव्वजिणाणं पि तित्थम्मि। * उस्सुत्तं ववहरेंतो, कम्मं बंधति चिक्कणं। संसारं च पवड्डेति, मोहणिज्ज व कुव्वती॥ * उम्मग्गदेसए मग्गदूसए मग्गविप्पडीवाए। परं मोहेण रंजेतो, महामोहं पकुव्वती॥ * गुरुसेवा तु पहाणा। * अप्पेण बहुं इच्छति, विसुद्धमालंबणो समणो। * इय सिद्धतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेति। * मरेज्ज सह विज्जाए, काले णं आगते विदू। अपत्तं तु ण वाएज्जा, पत्तं च ण विमाणए॥ 1652 1659 1673 2016 2048 2049 2276 2388 2603 2604 Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-९ दो शब्दों का अर्थभेद भाष्यकार और चूर्णिकार ने प्रसंगवश दो शब्दों में होने वाले अर्थभेद को प्रकट किया ... है। भाषाविज्ञान के क्षेत्र में शोध करने वाले विद्यार्थियों के लिए यह परिशिष्ट अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होगा। जीव और प्राण * जीव त्ति पाणधरणे, पाणा पुण आउमादि णिद्दिट्ठा। अहवा जीवति जीविस्सई य जीवं ति होति जिओ॥ (गा.७०४) भक्ति और बहुमान * भत्ती होतुवयारो, बहुमाणो गोरवसिणेहो। (गा.१००३) * भत्ती उवयारमेत्तं, बहुमाणो ओरसो। (जीचू पृ. 12) कर्म और शिल्प * जंतुप्पीलणमादि तु, कम्मं तुण्णादियं सिप्पं / (गा. 1358). वत्त और अणुवत्त * वत्तो णामं एक्कसि, अणुवत्तो जो पुणो बितियवारे। (गा.६७६) विद्या और मंत्र * विज्जा-मंतविसेसो, विज्जित्थी पुरिस होति मंतो तु। अहव ससाहण विज्जा, मंतो पुण पढितसिद्धो तु॥ (गा. 1438) . मुदित और राजा * मुदितो जो होति जोणिसुद्धो तु। अभिसित्तो व परेहिं, सयं व भरहो जहा राया॥ (गा. 1999) शयन और आसन * सयणं जत्थ सुप्पइ, आसणं जत्थ निविसिज्जइ। (जीचूपृ. 11) अवम (दुष्काल) और दुर्भिक्ष * ओमं परिपूर्णे यत्र भक्तादि न लभ्यते। * दुर्भिक्षं यत्र सर्वथा न लभ्यते। (जीचूवि पृ.५४) 1. यत्र मंत्रे देवता स्त्री सा विद्या, अम्बाकुष्माण्ड्यादि। यत्र तु देवता पुरुषः स मंत्र, यथा विद्याराजः, हरिणेगमेषिरित्यादि। (आवहाटी 1 पृ. 274) Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१० आयुर्वेद एवं चिकित्सा 507 सीतघरम्मि व डाहं, वंजुलरुक्खो व जह व उरगविसं। 236 शीतगृह दाह का अपनयन करता है और वंजुल वृक्ष सर्प के विष को दूर कर देता है। तेल्लस्स उगंडूस....गल्लधरणं तु, लुक्खत्ता मुहजंतं, मा हु खुभेज त्ति तेण धारेति। 352,353 तेल का कुल्ला गले को ठीक करता है। रूक्षता से मुखयंत्र क्षुभित न हो इसलिए मुख में तैल धारण किया जाता है। मेहादव्वे व एसती पियति। 418 मेधा बढ़ाने के लिए मेध्य द्रव्यों का पान किया जाता है। संबद्ध हत्थ-पादादओ व वारण होज्जाहि। अत्यधिक वायु से हाथ पैर जकड़ जाते हैं अर्थात् लकवा हो जाता है। वाइय-पित्तिय-सिंभिय, अहवा वी होज्ज सण्णिवाएणं। एतेहि अणप्पवसो। 938 वात, पित्त, श्लेष्म और सन्निपात आदि कारणों से व्यक्ति परवश हो जाता है। खद्धे णिद्धे य रुया। 1188 अत्यधिक स्निग्ध भोजन करने से रोग उत्पन्न हो जाते हैं। * संसोधण संसमणं, णिदाणपरिवजणं च जं जत्थ। आगंतुधातुखोभे, व आमए कुणति किरियं तु॥ 1390 * आगंतुक और धातुक्षोभज रोग उत्पन्न होने पर विविध क्रियाएं की जाती हैं-१. पेट का शोधन 2. पित्त का शमन और फिर रोग का परिहार। बत्तीसं किर कवला, आहारो कुच्छिपूरओ भणितो। पुरिसस्स महिलियाए, अट्ठावीसं भवे कवला॥ चउवीस पंडगस्सा, ते ण गहित जेण पुरिस-इत्थीणं। पव्वज ण पंडस्स उ, तम्हा ते ण गहिता एत्थं // 1622, 1623 पुरुषों के लिए बत्तीस कवल तथा स्त्रियों के लिए 28 कवल आहार कुक्षिपूरक माना जाता है। नपुंसक का आहार चौबीस कवल प्रमाण होता है। अतिबहुयं अतिबहुसो, अतिप्पमाणेण भोयणं भुत्तं। हादेज्ज व वामेज व, मारेग्ज व तं अजीरंतं॥ 1627 Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 664 जीतकल्प सभाष्य अतिबहुक, अतिबहुशः तथा अतिप्रमाण में किया हुआ भोजन अतिसार पैदा कर देता है, उससे वमन हो सकता है। वह आहार जीर्ण न होने पर व्यक्ति को मार भी सकता है। . हितमहितं होति दुहा, इह परलोगे य होति चउभंगो। इहलोग हितं ण परे, किंचि परे णेय इहलोगे॥ किंचि हितमुभयलोगे, णोभयलोगे चतुत्थओ भंगो। पढमगभंगो तहियं, जे दव्वा होति अविरुद्धा॥ जह खीर-दहि-गुलादी, अणेसणिज्जा व रत्तदुढे वा। भुंजंते होति हितं, इहइं ण पुणाइँ परलोगे॥ अमणुण्णेसणसुद्धं, परलोगहितं ण होति इहलोगे। पत्थं एसणसुद्धं, उभयहितं होति णातव्वं॥ अहितोभयलोगम्मी, अपत्थदव्वं अणेसणिज्जं च। अहवा वि रत्तदुट्ठो, भुंजति एत्तो मितं वोच्छं॥ . 1633-37 आहार दो प्रकार का होता है-हितकर और अहितकर। इहलोक में हितकर तथा परलोक में हितकर की चतुर्भंगी इस प्रकार है * इहलोक में हितकर, परलोक में नहीं। * परलोक में हितकर, इहलोक में नहीं। न परलोक में हितकर, न इहलोक में। * इहलोक में हितकर, परलोक में भी हितकर। प्रथम भंग में जो अविरोधी द्रव्य होते हैं, वे ग्राह्य हैं, जैसे खीर, दधि, गुड़ आदि। इनको अनेषणीय ग्रहण करके राग और द्वेष से भोग करना इहलोक में हितकर है लेकिन परलोक के लिए हितकर नहीं है। शुद्ध एषणा से प्राप्त अमनोज्ञ आहार परलोक के लिए हितकर है, इस लोक के लिए नहीं। पथ्य और एषणा से शुद्ध आहार को दोनों लोकों के लिए हितकर जानना चाहिए। अपथ्य और अनेषणीय आहार दोनों लोकों के लिए अहितकर है अथवा राग और द्वेष से आहार करना दोनों लोकों के लिए अहितकर है। अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भागे। वायुपवियारणट्ठा, छब्भागं ऊणगं कुज्जा॥ 1638 उदर के छह भाग करके आधे उदर अर्थात् तीन भागों को व्यंजन सहित आहार के लिए; दो Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुर्वेद और चिकित्सा : परि-१० 665 भाग पानी के लिए तथा छठा भाग वायु-संचरण के लिए खाली रखना चाहिए। एगो दवस्स भागो, अवट्ठितो भोयणस्स दो भागा। वखंति व हायंति व, दो दो भागा तु एक्केक्के॥ 1640 एत्थ तु ततियचतुत्था, दोण्णि वि अणवट्ठिता भवे भागा। पंचम छट्ठो पढमो, बितिओ य अवट्ठिता भागा॥ 1641 पानी का एक भाग तथा भोजन के दो भाग अवस्थित हैं, ये घटते-बढ़ते नहीं हैं। एक-एक में शेष दो-दो भाग बढ़ते-घटते हैं, जैसे-अतिशीतकाल में भोजन के दो भाग बढ़ जाते हैं तथा अतिउष्णकाल में पानी के दो भाग बढ़ जाते हैं। अतिउष्णकाल में भोजन के दो भाग कम हो जाते हैं तथा अतिशीतकाल में पानी के दो भाग कम हो जाते हैं। यहां तीसरा और चौथा-ये दोनों भाग अनवस्थित अर्थात् अस्थिर हैं। पांचवां, छठा, पहला और दूसस-ये अवस्थित भाग हैं। आतंको जरमादी, तम्मुप्पण्णे ण भुंजे...। सहसुप्पइया वाही, वारेज्जा अट्ठमादीहिं॥ 1665 ज्वर आदि आतंक उत्पन्न होने पर आहार नहीं करना चाहिए। सहसा उत्पन्न व्याधि का तेले आदि की तपस्या से निवारण करना चाहिए। लुक्खं तु णेहरहितं, जं खेत्तं वातपित्तलं वावि। सीतं बलियं भण्णति, अहव अणूवं भवे सीतं॥ 1822 रूक्ष का अर्थ है-स्नेहरहित, वह क्षेत्र, वात और पित्त को उत्पन्न करने वाला होता है। शीत क्षेत्र बलप्रद होता है अथवा सजल क्षेत्र शीतल होता है। अहवा वि रोगियस्सा, ओसह चाडूहि दिग्जते पुव्वं। पच्छा ताडेतुं पी, देहहितहाए दिज्जति से॥ 2382 रोगी को पहले मधुर वचनों से औषध दी जाती है, बाद में देहहित के लिए ताड़न आदि के द्वारा भी औषधि दी जाती है। मा अन्नेण दोसीणाइणा रोगो हवेज्जा। पारणगे आमलगसर्करादयो वा दीयन्ते। जीचूवि पृ. 34 बासी अन्न से रोग न हो इसलिए पारणे में आंवला और मिश्री दी जाती है। Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-११. देशी शब्द जिन शब्दों का कोई प्रकृति-प्रत्यय नहीं होता, जो व्युत्पत्तिजन्य नहीं होते तथा जो किसी परम्परा या प्रान्तीय भाषा से आए हों, वे देशज शब्द कहलाते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने देशीनाम माला में देशी शब्दों का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है जे लक्खणे ण सिद्धाऽपसिद्धा सक्कयाहिहाणेसु। न य गहणलक्खणा सत्तिसंभवा ते इह निबद्धा॥ वैयाकरण त्रिविक्रम का कहना है कि आर्ष और देश्य शब्द विभिन्न भाषाओं के रूढ़ प्रयोग हैं अतः इनके लिए व्याकरण की आवश्यकता नहीं होती। अनुयोगद्वार में वर्णित नैपातिक शब्दों को देशी शब्दों के अन्तर्गत माना जा सकता है। आगम एवं उनके व्याख्या ग्रन्थों में 18 प्रकार की देशी भाषाओं का उल्लेख मिलता है। वे 18 भाषाएं कौनसी थीं, इनका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। भिन्न-भिन्न प्रान्त के व्यक्ति दीक्षित होने के कारण आचार्य शिष्यों का कोश-ज्ञान एवं शब्द-ज्ञान समद्ध करने के लिए विभिन्न प्रान्तीय शब्दों का प्रयोग करते थे। नियुक्ति साहित्य में अनेक प्रान्तीय देशी शब्दों का प्रयोग हुआ है। संख्यावाची शब्द जैसे-पणपण्ण, पण्णास, बायालीस आदि को भी कुछ आचार्य देशी मानते हैं। इस संग्रह में हमने संख्यावाची शब्दों का संग्रह नहीं किया है। अनुकरणवाची शब्दों एवं आदेश प्राप्त धातुओं के बारे में विद्वानों में मतभेद है पर हमने इनको देशी शब्दों के रूप में स्वीकृत किया है। अनेक शब्द जो संस्कृत कोश में भी मिलते हैं लेकिन उनको यदि देशीनाम माला में देशी माना है तो उनका इस संकलन में संग्रह किया है। जैन विश्वभारती, लाडनूं से प्रकाशित 'देशीशब्दकोष' में दस हजार से अधिक देशी शब्दों का चयन किया गया है। अइर–अतिरोहित। गा. 1553 अम्मया-मां गा.७९३ अंधेल्लय-अंधा। गा. 1569 | अम्मो-मां। गा.१२२६ अंबिलि-इमली गा. 578 | आड-जबरदस्ती, बलपूर्वक। गा.८५८ अचियत्त-अप्रीति। गा. 1566 | आसीआवण-अपहरण करना। गा.२३३८ अड्डाइय-ढ़ाई। __गा. 81 आसूय-मनौती से प्राप्त।। गा.१३१५ अणिदा-ज्ञान शून्य। गा. 1115 इट्टगा-सेवई। गा.१३९६ अप्पाहणि-संदेश। गा.१३२७ इट्टाल-ईंट। गा.१४५५ 1. देशी 1/3 / 2. राजटी पृ. 341 / Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशी शब्द : परि-११ 667 इद्ध-चित्त-इद्धं चितं भण्णति। गा. 2528 कल्लाल-मदिरा बेचने वाला। गा. 426 उक्कुट्ठ-वनस्पति का कूटा हुआ चूर्ण। गा. 1494 काइय-मूत्र, प्रस्रवण। गा.८५६ उक्कुट्ठि-ऊंचे स्वर से आवाज करना। गा. 1724 काइयाड-मूत्र से बाधित होना। गा. 858 उक्खलि-स्थाली। गा. 1209 कामगद्दभ-काम में अति प्रवृत्त। गा. 1368 उक्खलिया-स्थाली। गा. 1205 कुक्कुस-धान्य आदि का छिलका। गा. 1494 उक्खलीय-स्थाली। गा. 1210 कुसण-दही और चावल से बना उड्डाह-तिरस्कार। गा.१४६९ | हुआ करम्बा, खाद्य-विशेष। गा. 1594 उड्डोय-डकार, ऊर्ध्व वायु। गा.९०८ | कुहावणा-बहुरूपिये की वृत्ति से उत्थाण-अतिसार रोग। गा.१४७२ अर्थार्जन करना। गा.१७२३ उदउल्ल-आर्द्र। गा. 1705 केया-रज्जू। गा.१०१६ उप्पर-ऊपर। गा. 1462 कोट्टग-बढई। गा.४२६ उल्लिंचति-खाली करना। गा. 1310 कोट्टिय-दुर्ग। गा. 1270 उव्वरित-अधिक, बचा हुआ। गा. 971 कोणग-कोना। गा.५०७ उस्सक्क-आगे करना। गा. 1224 | कोयव-रूई से भरे हुए कपड़े का उस्सण्ण-प्रायः। गा. 2396 / बना हुआ प्रावरण-विशेष, रजाई। ओलइय-संलग्न, लटका हुआ। गा.५३८ कोयवि-रूई से भरा कपड़ा। गा.१७७२ ओल्ल-आर्द्र। जीचू पृ. 9 खउरल्लिय-कलुषित, लिप्त। गा.७०५ ओसक्कण-पीछे करना। गा. 1224 खंत-पिता। गा.१३३६ . . ओसण्ण-प्रायः। गा. 892 खंतिया-मां। गा.१३२६ अंदु-शृंखला, बेडी। गा. 1570 खडुहा-आघात, ठोला। गा. 2378 कक्कडिग-ककड़ी। गा. 1154 खड्ड-खड्डा, गर्त। गा.५९१ कट्टर-कढ़ी में डाला हुआ घी का बड़ा। गा.१६१२ खद्ध-शीघ्र, प्रचुर। गा. 1413, 1188 कढिया-कढी, खाद्य पदार्थ-विशेष। गा. 394 खरंट-डांटना, उपालम्भ देना। कप्पट्ठ-बालक। गा. 919 खल्लग-एक प्रकार का जूता। गा. 1774 कप्पट्ठग-बालक। गा. 920 खुइय-खांसी। गा.९०६ कमढग-पिठर, स्थाली। जीचू पृ. 18 खुड्डु-छोटा साधु, लघु शिष्य। गा.१७५२ करडुग-मृतक-भोज। गा. 1395 खुड्डुग-लघु शिष्य। गा.१७५३ कलम-उत्तम चावल। गा.३९८ खुड्डिया-छोटी साध्वी। गा. 2361 Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 668 जीतकल्प सभाष्य / खुम्पक-वृष्टि को रोकने के लिए बनाया छाद-भूखा-छादो वेयावच्चं ण गया एक तृणमय उपकरण। जीचूवि पृ. 50 तरति काउं। गा. 1659 खेड्डा-क्रीड़ा। गा. 1723 | छिक्क-स्पृष्ट। गा. 1970 गड्ड-गर्त। गा. 819 छिच्छिक्कार-कुत्तों के पीछे की जाने गिल्ल-गीली, आर्द्र। गा. 1084 वाली छी छी की आवाज। गा.१३७७ गुलगुलेंत-हाथी का चिंघाड़ना। गा.८०१ | छिवाड़ी-पतले पन्नों वाली ऊंची गोज्ज-गायक। गा.६१४ पुस्तक। गा. 1770 गोट्टी-मित्र। छेलिय-नाक से छींकने की आवाज। गा. 1725 गोण-बैल। गा. 1377 छोडित-राई से बघारा हुआ घडा-गोष्ठी, मंडली। शाक आदि। . गा: 1166 घरकोइल-छिपकली। गा. 1267 जड्ड-हाथी। . गा. 1280 घुक्किय-अपमानजनक शब्द। गा. 838 जल्ल-मैल। गा.१०४० घुसुल-दही मथना, विलोड़न करना। गा. 1570 जीण-अश्व की पीठ पर बिछाया जाने चंगेरी-तृण निर्मित टोकरी। गा. 2399 वाला चर्ममय आसन-विराली चडकर-बहाना, आरोप। गा.८७० ___ नवओ जीणो त्ति भन्नइ। जीचूवि पृ. 51 चाउल-चावल। गा. 1165 जुंगित-जाति, कर्म या शरीर से हीन। गा. 1372 चिंचा-इमली। जीचू पृ. 16 झंख-बार बार कहना। गा.१२३१ चिक्खल्ल-कीचड़। गा. 1210 झंपणा-आच्छादन। गा. 2339 चिलिमिलि–पर्दा। गा. 388 झामण-जलाना। * गा.२३२५ चुडुल-उल्का, जलती हुई लकड़ी। गा. 42 | झामित-दग्ध। गा.२३२३ चुडुलि-अलात, जलती हुई लकड़ी। गा. 40 | झोसण-छोड़ना। गा.२२७८ चुल्ल-चूल्हा। गा. 1205 टाल-गुठली सहित। गा. 1952 चुल्लि-चूल्हा। गा. 1533 डंडिग-राजा। गा. 496, 2054 चेड-बालक। गा. 1226 डगल-पत्थर। गा.९०२ चोलपट्ट-जैन मुनि का कटिवस्त्र। गा. 1729 डहर छोटा। गा.८६५ चोल्ल-भोजन। गा.१२७९ | डाग-पत्ती वाला शाक। गा. 1213 छइय-आच्छादित। गा. 2403 | डिलय-शाखा–डिलयम्मि ओलइया। गा. 538 छगण-गोबर, कंडा। गा. 1203 डेवण-कूदना-फादना। गा. 1722 Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशी शब्द : परि-११ 669 डोंब-महावत। गा. 1282 | दुसुंठ-उद्धत, अविनीत। जीचूवि पृ. 52 डोंबिल-डोम, चाण्डाल। गा. 425 / दे-अपशब्द-सूचक अव्यय। गा. 838 डोय-चम्मच। गा. 1209 देवड-चर्मकार। गा. 425 डोयी-बड़ा चम्मच। गा. 1211 देसिं-बासी।। गा. 1510 ढंक-काक, कौआ। गा. 2469 दोद्धिअ-चर्मकूप, मशक। गा. 403 ढक्कित-ढका हुआ। गा. 1152 धणिय-अत्यधिक। गा.११०५ ढड्डर-तेज आवाज। गा.८०६ नहरणी-नख-कर्तनी। जीचू पृ. 17 णउलय-नौली। गा. 2399 नियंसणी-साध्वियों का वस्त्र विशेष / णंतिक्क-बुनकर, जुलाहा। गा. 425 जीचू पृ.१८ णग्गय-नग्न। . गा. 1979 पंगुरण-प्रावरण। गा. 1990 णलिय-घर, गृह। गा. 404 | पच्चोणी-सम्मुख आना। गा.१३४४ णवतय-ऊन का बना हुआ पच्छिय-पात्र विशेष। गा.१५५१ आस्तरण विशेष। गा. 1772 | पणग-काई, अनंत काय विशेष। गा.५२ णवय-ऊन का बना हुआ आस्तरण पत्थार-विनाश। गा. 363 विशेष गा. 460 | पप्पडिग-खाद्य वस्तु-विशेष। गा. 1537 णिदा-जानते हुए प्राणवध करना। गा.१११५ पल्हवि-एक प्रकार का वस्त्र, जो हाथी णिद्धंधस-निर्दय, अकृत्यसेवी। गा. 1187 की पीठ पर बिछाया जाता है। गा. 1772 णूमण-गोपन, छिपाना-गूहण गोवण पाहेण-मोदक आदि मिठाई। गा. 1234 - णूमण पलियंचणमेव एगटुं। गा. 1776 पूरी-हाथी की पीठ पर बिछाया जाने तच्चण्णिय-बौद्ध भिक्षु। गा.१३६७ | वाला वस्त्र-पूरी-पल्हवी तलवर-कोतवाल। गा. 2003 हस्त्यास्तरणम्। जीचूवि पृ.५१ तलिगा-जूता। जीचू पृ. 18 पेलु-पूनी, रूई की पहल। गा.१२२७ तिंतिण-चिड़चिड़े स्वभाव वाला। गा. 2597 | पेल्लण-पीड़ा। गा.१२६७ तितिणिअ-चिड़चिड़े स्वभाव वाला। गा. 1026 पेल्लिय-पशु, पक्षी का बच्चा। गा.५३६ दहर-कुतुप आदि का मुखबंध रूप पोक्कड-पकाना। गा.१३३२ ढक्कन। गा. 1703 पोट्ट-पेट। . गा. 689 दाइय-दर्शित। गा. 2484 पोट्टल-पोटली। गा.५७७ दाविय-दिखाया हुआ। गा.८८४ | पोत्ति-वस्त्र। गा. 1979 Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 670 जीतकल्प सभाष्य फड्डग-अंश। गा. 1210 करने की क्रिया। गा. 1571 फड्डावती-गण के अवान्तर विभाग रुक्ख-वृक्ष / गा. 480 का नायक। गा. 781 रुवई-रूई। जीचूवि पृ. 55 फरुस-कुम्भकार। गा. 2531 रेल्लय-पानी का प्रवाह। जीचूवि पृ. 44 बाहाडा-प्रचुर, अत्यधिक। गा. 857 रोट्ट-तंडुल पिष्ट, चावल आदि भोइग-पति। गा. 1342 का आटा। जीचू पृ. 16 भोइणी-भार्या। गा. 1342 रोर-दरिद्र, सामान्य। गा. 1651 भोइय-ग्राम का नायक। गा. 2004 लइअ-पहना हुआ। गा. 2485 मइल-मैला। गा. 1650 लंबण-कवल। गा. 1613 मंडुक्कलि-मेंढकी। गा. 800 | लागतरण-भूने हुए चावलों से बनाया / मग्गत-पीछे। गा. 41 गया पेय विशेष। गया पेय विशेष। गा.६०५ मल्लग-पात्र। गा. 902 | लाढय-निर्दोष आहार से जीवन महल्ल-बड़ा। गा. 1566 यापन करना। गा. 1779 महिलिया-महिला, स्त्री। गा. 1622 लाण-नाक का मैल। गा.८१६ मालग-घर का ऊपरी भाग, मंजिल। गा. 1270 लुक्क-मुण्डित। गा. 1237 मुदित-योनि-शुद्ध राजा-'मुदिओ | वइया-लघु गोकुल। गा.५१८ जो होति जोणिसुद्धो तु।' गा. 1999 वट्ट -जादू का खेल, इंद्रजाल। गा. 1723 मुहणंत-मुखवस्त्र। गा. 682 वडग-बड़ा। गा.१६१४ मुहमंगलि-चापलूसी। गा. 1356 वत्त-एक बार-वत्त णामं एक्कसि। गा. 676 मूइंग-चींटी। गा. 1263 वद्धणिया-झाडू गा.१५५१ मूडक-लकड़ी और मूंज का बना व ब्भ-जूता विशेष। जीचूपृ.१८ हुआ बैठने का साधन। जीचूवि पृ. 46 वरंडा-भीत, दीर्घ काष्ठ। जीचूवि पृ. 51 मूतिंगलिया-चींटी। गा. 21 वलवा-घोड़ी। गा.१३४७ मूरग-भञ्जक, तोड़ने वाला। गा.८ वाइंगण-बैंगण। गा. 1614 मोय-प्रस्रवण। गा. 1040 वाडि-बाड़, वृति। गा.१७२२ रुंचंत-रूई से कपास को अलग वालुंक-पक्वान्न विशेष। गा.१६१४ 1. एकस्मिन् हस्ते गोलकद्वयमेकस्मिन् गोलकत्रयं, दर्शयित्वा पुनरिन्द्रजालप्रयोगेन केचिद् व्यत्ययेन गोलकान्यत्र दर्शयन्तीन्द्रजालिकास्तद् वट्टखिड़मुच्यते (आवटि प.५३)। Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 671 गा.१५९० गा. 1550 गा. 2366 गा. 882 गा. 362 जीसू 98 गा. 1335 देशी शब्द : परि-११ वालु-दूध-दुद्ध पयो वालु खीरं च। गा. 1132 | सज्झिल्लग-भाई। विजल-पंकिल मार्ग। गा. 951 | सतिर-तिरोहित। वियर-नदी आदि जलाशय सूख सथली-देहली। जाने पर पानी निकालने हेतु समुद्देस-भोज, सूर्यमंडल। उसमें किया गया गर्त। गा. 537 साह-कथन करना। विरल्लिय-फैला हुआ। गा. 2361 साही-गली, मुहल्ला। विराली-वस्त्र विशेष। विराली सामस्थ-पर्यालोचन। नवओ जीणो त्ति भन्नइ। जीचूवि पृ.५१ सालणग-कढ़ी के समान एक विरोलती-मथती हुई, विलोड़न प्रकार का खाद्य। करती हुई। जीचू पृ.१६ साला-शाखा। विलुक्क-लुंचित। गा. 1237 सिति-सीढी, निःश्रेणी। वोलीण-अतिक्रान्त। गा. 1529 सेंटा-नाक छींकने का शब्द।। वोहत्तिय-गृहीत। गा. 2084 | सेंटिय-नाक छींकने का शब्द।। संकर-मार्ग। गा. 537 सेह-शैक्ष, लघु शिष्य। संखडी-विवाह आदि के उपलक्ष्य हडि-बंधन-विशेष / ... में दिया जाने वाला भोज, मिठाई। गा.८८२, हड्ड-हड्डी। 890,1234 हादण-अतिसार। संगार-संकेत। गा. 1725 हिलिहलय-प्रज्वलित / संघाडी-उत्तरीय, वस्त्र विशेष। जीचू पृ. 18 हेछिल्ल-अधस्तन, नीचे का।। संघिय-दुर्गन्ध युक्त। गा. 1210 गा.१६१४ गा. 2527 गा.३२९ गा.१७२५ जीचू पृ. 17 गा. 2107 गा. 689 गा.६८९ गा.१६२९ गा. 1531 गा.११४२ पुक्ता Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१२ विशेषनामानुक्रम (तप) . 343 (ग्रंथ) जीचू पृ.१ अंगुल अंगुलि अंतराय अंधेल्लय अंब अंबग अंबिलि .9 अच्छ अच्छवी 236 अच्छि अजा अट्ठावय अभत्तट्ठ (माप) 54 आयाम (अवयव) 399 आयार (कर्म) 735 आयारपकप्प (रोगी) 1569 आलिंगिणि (फल) 181 आवलिया (फल) 1154 आवस्सग (वनस्पति) आस (तिर्यञ्च) आसय (तिर्यञ्च) इंगिणि (अवयव) 2487/ इक्खाग (तिर्यञ्च) 1133, 1773 >>z (खेल) 1723 उक्कुट्ठ (तप) 1835 उज्जाणी (धातु) 1392 उज्जेणी (तिर्यञ्च) 1773 | उडुप (साधु) 818,819 / उत्तरकुरु (रोग) 2177 उत्तरज्झयण (मुनि) 1398 | उदायि (शस्त्र) (अवयव) 524 उवहाणग (विशिष्ट साधु) 2258 उस्सप्पिणि 1409 ऊसास (देश) 1460 एक्कासण (तप) 304 | एगराइगा (देव) 2500 / एगल्लविहार (ग्रंथ) 2079 (वस्त्र) (काल) (ग्रंथ) (तिर्यञ्च) (अवयव) (अनशन) (वंश) 1409 (सेवई) 1397 (खाद्य विशेष) , 1494 (नाव) 978 (नगर) 2396 (वाहन) . 980 (क्षेत्र) 544 (ग्रंथ) जीचू पृ.१ (राजर्षि) 2498 (तिर्यञ्च) 2482 (वस्त्र) 1771 (काल) 29 अय अया अरहण्णग अरिस असाढभूति असि 540 उलुग अस्स (गृह) (मरण) अहालंदि आदंस आभीरग आयंबिल आयरक्ख 305 (तप) (प्रतिमा) (प्रतिमा) 1751 221 Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनामानुक्रम : परि-१२ 673 (क्षेत्र) 501 कंडु (रोग) एगासण (तप) कण्हा (नदी) 1461. एरवय 434,2113 कत्ती (उपानत्) 1774 एलग (तिर्यञ्च) 1773 कप्प (ग्रंथ) 265,332, ओट्ठ (अवयव) 427,561,562,564, ओदण (खाद्य विशेष) 1585 1731, 1799,1945, ओयाणी (नाव) 978 2159, 2607, 2608 ओसप्पिणि (काल) - 29 कप्पनिज्जुत्ति (ग्रंथ) 563 ओहजुत्ति (ग्रंथ) . 958 कप्पास (वनस्पति) 2401 कंचणपुर (नगर) 381, 382 कप्पियाकप्पिय (ग्रंथ) जीचू पृ.१ कंजिय (खाद्य) 346, 403, कर (अवयव) 1372 1301, 1821 करकय (शस्त्र) 530 2409 | करिसावण (मुद्रा) 297 कंबल (वस्त्र) . 2001 कलम (खाद्य) 1820 कक्कडिग (फल) . 1154 कलमोयण (खाद्य) 398 कक्कोलग ___ (वृक्ष विशेष) . जीसू 54 कल्लाणग (प्रायश्चित्त) 304 कच्छव (तिर्यञ्च) 1553 काग . (तिर्यञ्च) कच्छवि (पुस्तक) 1770 कागिणी (मुद्रा) कच्छुल्ल . . (रोगी) 2409 काण (रोगी) 1399 कंट्टर ... (खाद्य) 1612 कालासवेसिअ (मुनि) 534 कड (उपकरण) 1133 कालिय . (अनुयोग) 2369 कडग (आभूषण) 1408 कास (रोग) जीसू 10 कडाह (गृह-उपकरण) 1534 कीडी (तिर्यञ्च) 1509 कडिपट्ट (साधु-उपकरण) 2177 कुंथु (तिर्यञ्च) 202 कढिय (खाद्य) 394 कुंभ (उपकरण) 1264 कणग .. (धातु) 1316 कुंभकारकड (नगर) 528 कणग . (शस्त्र) .. 480 कुट्ठि (रोगी) 1372 कण्ण (अवयव) 501 कुणी (रोगी) 1399 903 119 Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 674 जीतकल्प सभाष्य कुम्म कुसण कुसील कुसुमपुर कूणिय 1019 कर 509 .80 केलास केसर 352 कोइल कोंकण कोंकणग कोणिग कोद्दव कोयव कोयवि कोसग कोसल कोसलग खंदग (तिर्यञ्च) जीचू पृ.६ खुय (खाद्य) 1585, 1594 खुरप्प (निर्ग्रन्थ) 281 गंडी (नगर) 1407, 1450 | गंडुवहाण (राजा) गद्दभ (खाद्य) 1612 | गद्धपट्ठ (पर्वत) 1378 गय (मोदक) 1417 गरुल (तिर्यञ्च) 1725 गलय (देश) __ 403 | गल्ल (व्यक्ति) 402, 403 गाउग (राजा) गावी (धान्य) 1148, 1770 | गिम्ह (वस्त्र) ___ 460 गिरिफुल्लि (वस्त्र) 1772 गिरिफुल्लित (उपानत्, जूता) 1774 | गुड (देश) (व्यक्ति) 500,503 (आचार्य) 528, 2499 गोच्छग (तप) 1862 / गोण (रोग) 502 | गोणस (उपानत्, जूता) 1774 गोयम (आहार) ___740 | गोरस (खाद्य) 181 घड (लब्धि) ___ 176 घत (रोगी) 1399 / घरकोइल (तप) 2550 (रोग) जीसू 10 (शस्त्र) 481 (पुस्तक) 1770 (वस्त्र विशेष ) 1771 (तिर्यञ्च) (मरण) (तिर्यञ्च) (तिर्यञ्च) 1987 (अवयव) 2485 (अवयव) (माप) 55 (तिर्यञ्च) 2143 (ऋतु) 1826 (ग्राम) (ग्राम) 1394 (खाद्य) 1612 (खाद्य) 1084 (तिर्यञ्च) .1133, 1773 (साधु-उपकरण) 903, 1728 (तिर्यञ्च) 904,1377 (तिर्यञ्च) 501 (व्यक्ति) (खाद्य) 1177 (उपकरण) 1133 (खाद्य) 532 (तिर्यञ्च) 1267 (तिर्यञ्च) . 258 1395 1395, गुल खमण खय 826 खल्लग खादिम खीर खीरासव खुज्ज खुड्डगसीहतव घुण Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनामानुक्रम : परि-१२ 675 787 चंउरंग चंद-उदय चंदगुत्त चंदण 1445 1765 चंपा 183 2253 786,787 चक्खु चण 2590 चणक चरग 1723 जीचू पृ. 28 2470 चाउल (देव) 78 528 (खेल, चौरस) 1723 जाणसाला (स्थान) (उद्यान) 1191 जाणुग (अवयव) (राजा) | जातीफल (वनस्पति) (वृक्ष) 844 जाहग (तिर्यञ्च) (नगरी) 1394, 1414 जिणकप्पि (विशिष्ट साधु) (अवयव) 818 जिणदास (व्यक्ति) (धान्य) 1820 | जीतकप्प (ग्रंथ) (धान्य) ____जीचू पृ. 21 जूत (व्यसन) . (परिव्राजक) 239,1042 जोणिपाहुड / (ग्रंथ) (धान्य) 1297 जोतिस (विद्या) (मंत्री) 531,1455 जोतिसिय (उपकरण) जोयण . (माप) (वनस्पति) जीचू पृ. 16 डंडगि (राजा) (साधु) 533 ढंक (तिर्यञ्च) (ग्रंथ) | णंदिग्गाम (ग्राम) (गृह-उपकरण) 1533 णत्ता (परिजन) (राजा) 479 णमोक्कार (मंत्र) (साधु-उपकरण) 1729 णलिय (घर) (पुस्तक) 1770 णवकार (मंत्र) (शस्त्र) 794 णवणीत (खाद्य) (ग्रंथ) 182 णवतय (वस्त्र) (अवयव) 979 णवय (वस्त्र) (द्वीप) 56 णह (अवयव) (तिर्यञ्च) 425 णाभि (अवयव) (आचार्य) जीचू पृ.१ णाव (वाहन) (रोग) 1665 णावा (वाहन) (रोगी) 1707 | णासिगा (अवयव) 2469 चाणक्क चालणि चिंचा चिलातपुत्त चुल्लकप्प चुल्लि चेडग चोलपट्ट छिवाडी छुरिय छेदसुत्त जंघा 826 1427 404 652 1528 1772 460 2176 979 978 जम्बु जर जरित 1528 501 Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 676 जीतकल्प सभाष्य / णिज्जुत्ति (ग्रंथ) (ग्रंथ) जीचू पृ.१ जापू.. . जीचू पृ.१ णिप्फाव णिव्विगति णिव्विगतिय (खाद्य) णिसीह 1588,1612 1154 1772 / 1588 267, 276 णिसेज्जा णेत्त तक्क (फल) (वस्त्र) (खाद्य) (आचार्य) (क्षेत्र) (खाद्य) (माप) (आचार्य) (साधु) (परिजन) (आचार्य) . 403 तच्चण्णिय 63 तरच्छ 1398 तलिगा तिगडु (ग्रंथ) 564 दसकालिय (धान्य) 1595, 1958 दसाकप्प (तप) 305 दहि (तप) दाडिम (ग्रंथ) 1799, 1800 दाढिगाली ___2607, जीचू पृ. 1 दुद्ध (साधु-उपकरण) 201 दुप्पसभ (अवयव) 549 देवकुरु (खाद्य) 1299 दोद्धिय (बौद्ध भिक्षु) 1367 धणू (तिर्यञ्च) 2012 धम्मरुई (उपानत्, जूता) 1774 धम्मरुई (औषध) 1154 धूता (तिर्यञ्च) जीचू पृ. 17 नंदिवद्धण (तिर्यञ्च) नंदिसेण (नाव) नाणावरण (तिर्यञ्च) 1315 | नायसुत (वस्त्र) 1771 निप्फाव (खाद्य) 352,1084, पउमा 1262 पंडित (विद्या) 613 पकप्प (अवयव) 1428 पगलित (अवयव) 2484 पच्चक्खाण (कर्म) 735 पच्छिय (फल) 1154 पट्ठ (गृह-उपकरण) 1537 पडलय (शस्त्र) 486 पडिग्गह तित्तिर तिमि (साधु) 551 978 तिरिच्छगामि तुरंग तूली तेल्ल 509 थंभणि (कर्म) (तीर्थंकर) 285 (धान्य) . जीचू पृ. 21 (रानी) 2364 (मरण) (ग्रंथ) 265 (रोगी) 1569 (ग्रंथ) 265 (गृह-उपकरण) 1553 (अवयव) 480 (साधु-उपकरण) 1729 (साधु-उपकरण) * 1730 थण दंत दसणावरण दक्खा दति Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनामानुक्रम : परि-१२ 677 पणग पत्तट्ठवण पत्ताबंध पदेसिणी पप्पडिग (वस्त्र) (खाद्य) (तिर्यञ्च) 460 2361 533,857, 1508 1527 909 528 पभव पय पलंडु पलंब (उपकरण) (अवयव) (रानी) (तप) (निर्ग्रन्थ) (ग्रंथ) (वनस्पति) 305 281 2369 1765 (प्रायश्चित्त) पावारग (साधु-उपकरण) 903 | पिट्ठ (साधु-उपकरण) पिवीलिया (अंगुलि) 1445 / (खाद्य) 1537 पिहड (आचार्य) जीचू पृ.१ पुय (खाद्य) 394 | पुरंदरजसा (वनस्पति) .जीचू पृ. 19 पुरिमड्ड (फल) 613,1781, पुलाग 2187 पुव्वगत (काल) पूगप्फल “(गृह-उपकरण) 154 पूर्व (गृह-उपकरण) 788 / पूवलि (वस्त्र) 1772 पूवित (साधु-उपकरण) 741 पोसय (साधु-उपकरण) 2001 | फलग (उपानत्, जूता) ___ 1569 बइल्ल (अनशन) 355 बगुस (भाषा) 1008 बहेड (नगर) 1444 बहेडग (अवयव) 2166 बाह (अवयव) ___789 बिंदुसार (अनशन) बीयपुर (साधु-उपकरण) 903 बीही (पुरोहित) 528, 2499 भंडी (आचार्य) 1444,1445 भत्त (वस्त्र) 1772 भत्तपरिण 458 पलिय पलियंक पल्लंक पल्हवि पाउंछण पाउंछणग पाउया . * पाओवगमण पागत पाडलिपुत्त पाणि पाद पादोवगम पायकेसरि 404 (खाद्य) 1538 (खाद्य) 1680 (खाद्य विशेष) 1538 (अवयव) 2539 (साधु-उपकरण) (तिर्यञ्च) (निर्ग्रन्थ) 281 (औषध) 1083 (औषध) जीचूपृ.१४ (अवयक) 979 (ग्रंथ) 1,714 (फल) 1154 (धान्य) 1770 (वाहन) 404 पालक्क पालित्तय (आहार) 740 'पावार (अनशन) 356 Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 678 जीतकल्प सभाष्य / भद्दबाहु भरत भरह भरह 500 मेरु भल्ल मंडुक्कलि मंच मंचग ... 394 मगर मगह 826 मच्छ मच्छि मच्छिय मत्तग (आचार्य) 560, 2588 मुहणंत (राजा) 1175 मुहणंतग (चक्रवर्ती) 1408, 1409. मुहपुत्तिय (क्षेत्र) 434, 1999 मूइंगलिय (तिर्यञ्च) (तिर्यञ्च) मोगल्ल (गृह-उपकरण) मोदक (उपकरण) मोदण (तिर्यञ्च) मोहणिय (जनपद) रक्खितज्ज (तिर्यञ्च) 1606 रज्जु (तिर्यञ्च) 1508 रट्ठपाल (तिर्यञ्च) 1606 रतणपुढवी (साधु-उपकरण) 1729 रतणावलि (खाद्य) 1603 रयय (तिर्यञ्च) 1725 रयहरण (वस्त्र) 1771 रह (संग्राम) 479,480 रहमुसल (ग्रंथ) जीचू पृ.१ रायगिह (क्षेत्र) 2100 (तिर्यञ्च) 1133, 1773, रालग 2529 राहु (देश) 195,933 लड्डग (तिर्यञ्च) 1773 लवंग (पुस्तक) 1770 लसुण (तीर्थंकर) 528, 2500 लागतरण (राजा) 1444, 1445 लोट्ट (साधु-उपकरण) 682 (साधु-उपकरण) - 2482 (साधु-उपकरण) 733 (तिर्यञ्च) 21 (पर्वत) . 468,555 (पर्वत) 534 (खाद्य) 1398 (खाद्य) (कर्म) . 939 (आचार्य) 612 (मरण) 509. (नाटक) 1407 (नरक) (तप) 2164 (धातु) 1316 (साधु-उपरकण) 1729 (वाहन) 1133 - (संग्राम) (नगर) 1394, 1398, 1405 (धान्य) 1148, 1770 968 (खाद्य) 1090 (तम्बोल) 1765 (वनस्पति) 1504 (खाद्य-विशेष) . 605 1550 मधु मयूर मसूरग महसिल 479 महाकप्प महाविदेह महिस (ग्रह) मालव मिग मुणिसुव्वय मुरुंड (खाद्य). Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 679 वइर वंजुल वग्घ वज्झ. विशेषनामानुक्रम : परि-१२ . लोण (खाद्य) ___ 1262 वारुणि वइर (आचार्य) 610,612, | वाल 14633 वालुंक (रत्न) 119 वासा वइरोसभ (संहनन) 2166 विग (वृक्ष) 236 विण्हु वंतीसुकुमाल (मुनि) __ 536 विवाह वग्गुलि (तिर्यञ्च) 2167 विसूइगा (तिर्यञ्च) 1392, वेण्ण वच्छग (तिर्यञ्च) 1365 संथार वज्ज (रत्न) 2549 | संपुडग . * (उपान) 1774 | सक्कय (खेल) 1723 सगड वडग (खाद्य) 1614 सत्तुग वत्थि (गृह-उपकरण) 1537 सप्प वद्धणिया . (गृह-उपकरण) 1551 समित वलवा (तिर्यञ्च) 1347 सर * 'वल्ल .. (धान्य) 1820 सराव ववहार (ग्रंथ) 265, 561, सव्वराइ 562,564, 1799, ससा 2607, जीचू पृ. 1 साण ववहारनिज्जुत्ति (ग्रंथ) 563 | सादिम वसुदेव (व्यक्ति) 825, 826 सामाइय वाइंगण (वनस्पति) 1614 सारस वाघातिम (मरण) 508 सालणग वाणर (तिर्यञ्च) 1474 सालि 'वारण (तिर्यञ्च) 2012 (महिला) 827 (तिर्यञ्च) 500 (खाद्य) 1614 (ऋतु) 1826 (तिर्यञ्च) जीचू पृ. 28 (साधु) 605 (ग्रंथ) 1105 (रोग) 500,502 (द्वीप) 1461 (साधु-उपकरण) 741 (पुस्तक) 1770 (भाषा) 1008 (वाहन) 1133 (खाद्य) 1619 (तिर्यञ्च) 852 (आचार्य) 1463, 1466 (शस्त्र) 479 (गृह-उपकरण) 1552 (प्रतिमा) 787 (परिजन) 1427 (तिर्यञ्च) 904 (आहार) 740 (ग्रंथ) 1,714 (तिर्यञ्च) जीचू पृ. 17 (खाद्य) 1614 (धान्य) 1149,1612 1770 Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 680 जीतकल्प सभाष्य सासवणाल सिणाय सियाल (वनस्पति) (निर्ग्रन्थ) (तिर्यञ्च) (तिर्यञ्च) 2482 | सेज्जा ____281 सेडंगुलि 534,2469 सेणिय 536 | सोत 1882 | हंस 2482 | हत्थ 741 1397 312 549 1767 2587 सिवा (उपकरण) (व्यक्ति) (राजा) (अवयव) (तिर्यञ्च) (अवयव) (माप) (नगर) (तिर्यञ्च) सिसिर सिहरिणी 1445 हत्थ सीस सीहेसर सुंठी सुग सुवण्णग सूयगड सूरउदय (खाद्य) (अवयव) (मोदक) (औषध) (तिर्यञ्च) (धातु) (ग्रंथ) (उद्यान) 1414 हत्थप्प 1147 | हत्थि जीचू पृ. 17 2600 हरड जीचू पृ. 1 | हिम 1191 | . 1394 . 801,933, 2532 जीचूपृ. 14 1826 (औषध) (ऋतु) Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 13 विषयानुक्रम अक्ष अंगार दोष 1643-48 , आप्त 141 अक्ष 12, 13 / आलोचना 127-134,246-51, अगीतार्थ 357 408-23,624-82, अज्ञान 136 718,731-38,758-62 अतिपरिणामक 1948,1955,1956 आशातना 861-72, 2465-78 अदत्तादान 902 आहार 472,473 अध्यवतर (भिक्षा-दोष) 1283-85 | इंगिनीमरण 512-15 अध्वानातीत दोष 964 इंद्रियप्रत्यक्ष 20-22 अनवस्थाप्य 2303-2419 उत्पादना दोष 1313-20 अनात्मवश 937-39 उद्गम दोष . 1088-97 अनाभोग 916 उद्भिन्न (भिक्षा-दोष) 1256-68 अनिसृष्ट (भिक्षा-दोष) 1275-82 | उन्मिश्र (भिक्षा-दोष) 1582-86 अपरिणत दोष . 1587-93 उपधि 1727-31 अपरिणामक 1947-1954 औद्देशिक (भिक्षा-दोष) 1195-1202, अपात्र 1225-27,2603-05 1992, 1993 अभिहत (भिक्षा-दोष) 1249-55 कल्प 561, 562 अवधिज्ञान. .. 24-73 कल्पस्थिति 1969-75 असंविग्न 371-74 कायोत्सर्ग 455 अर्हत् 982, 983 कारणदोष 1655-70 आगमव्यवहार 109-142 कालातीत दोष 963 आगमव्यवहारी 108,143-48 कृतिकर्म 2015-18 आचेलक्य 1976-91 केवलज्ञान 90-107 आच्छेद्य (भिक्षा-दोष) 1274 | कोटि 1286-1303 आजीवनापिण्ड (भिक्षा-दोष) 1350-61 क्रीतकृत 1241-44 आज्ञाव्यवहार 566-653 क्रोधपिण्ड 1395 आधाकर्म (भिक्षा-दोष) 1098-1195 गणि-संपदा 160-205 आपत्ति 935,936 गीतार्थ 961 Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 682 जीतकल्प सभाष्य 23 जीव गुप्ति 784-802 निर्यापक 320,321,378-80, ग्रहणैषणा 1471-76 433-37, 451-53, 461 ग्रासैषणा 1605-10 नोइंद्रियप्रत्यक्ष चतुर्दशपूर्व 256 पंचयाम-चतुर्याम 2019-24 चतुरंग 358 पर्युषणाकल्प 2096-2111 चिकित्सापिण्ड (भिक्षा-दोष) 1384-93 | परिग्रह 903,904 चूर्णपिण्ड (भिक्षा-दोष) 1449-57 | परिणामक 1943-46, 1952, 1953 छति (भिक्षा-दोष) 1600-04 | परिवर्तित (भिक्षा दोष) 1247, 1248 छेदाह प्रायश्चित्त 2282-89 | परिहारविशुद्धिकल्प 2112-58 जिनकल्प 2159-80 पाराञ्चित 2479-2587 जीतकल्प 2590-96, 2601, 2606 | पारिहारिक 2430-64 जीतव्यवहार 675-94 पिण्ड 955-57 704 | पिहित (भिक्षा-दोष) 1546-56 ज्ञानाचार 1000-21 पुरुषज्येष्ठ 2025-50 तदुभयाई प्रायश्चित्त 720,721,933-44, | पुरुष-प्रकार 1940-42,1960-67 949-54 पूतीकर्म 1203-15 तप प्रायश्चित्त 1675-1726,1732-1936, प्रतिक्रमणार्ह 719, 913-18, 1814-1938, 2217-64 2051-57 दर्शनाचार 1037-62 प्रतिसेवना 584-616, 2265 दायक दोष 1569-81 प्रत्यक्ष 10, 11 दुश्चिन्तित 945 प्रद्विष्ट चित्त 2306 दूतीपिण्ड (भिक्षा-दोष) 1325-40 प्रमाणदोष 1621-42 धात्रीपिण्ड (भिक्षा-दोष) 1321-24 प्रवचन 1-3 धारणाव्यवहार 654-74 प्रादुष्करण (भिक्षा-दोष) 1238-40 धूमदोष 1649-54 प्रामित्य . (भिक्षा-दोष) 1245, 1246 निक्षिप्त (भिक्षा-दोष) 1512-45 प्राभृतिका(भिक्षा-दोष) 1224-37 निर्गमन 764-68 प्रायश्चित्त ५,६,२६५-९०,३०४निर्ग्रन्थ 281 ३०९,३१४-१७,७१८निमित्तपिण्ड (भिक्षा-दोष) 1341-49 / 30,2273-75,2278-81 Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम : परि-१३ 683 भय प्रायोपगमन 469,474, 475,516-57 वैयावृत्य 456 बालमरण 499-501 व्यवहार 7-179,560-62, भक्तपरिज्ञा 322 695-702 921-26 व्यवहारी 149-59, २०६-१०,२४१मंडली 1028-30 45, 252-59,292-303, मंत्रपिण्ड (भिक्षा-दोष) 1444-47 307-11 मन:पर्यवज्ञान 74-89 व्युत्सर्गार्ह 972-97 महसिल (युद्ध) 479-81 शंकित (भिक्षा-दोष) 1477-89 मानपिण्ड (भिक्षा-दोष) 1396, 1397 शय्यातरपिण्ड 1994-97 मायापिण्ड (भिक्षा-दोष) 1398-1411 शिष्य-परीक्षा 571-80 मालापहत (भिक्षा-दोष) 1269-73 संभ्रम 933 मासकल्प . 2058-95 संयोजना दोष 1611-20 मिश्रजात (भिक्षा-दोष) 1216-18 संलेखना 341-55, 399-406 मूलकर्म (भिक्षा-दोष) 1468-70 संवर-निर्जरा 707-12 मूलाई प्रायश्चित्त 2290-2302 संस्तवपिण्ड (भिक्षा-दोष) 1421-36 मृषावाद 882-901 संहृत (भिक्षा-दोष) 1557-68 म्रक्षित (भिक्षा-दोष) 1490-1511 समिति 803-60 योगपिण्ड (भिक्षा-दोष) 1458-67 सहसाकरण 135, 917 रथमुशल. (युद्ध) 479-81 साधर्मिक 1139,1140 राजपिण्ड (भिक्षा-दोष) 1998-2014 | | सामाचारी 879-81 लिप्त (भिक्षा-दोष) 1594-99 सुप्रणिहित 240 लोभपिण्ड (भिक्षा-दोष) 1412-17 सुविहित 2595 लैंगिकइंद्रियज्ञान 14-19 सूत्र और अर्थ 264 वनीपकपिण्ड (भिक्षा-दोष) 1362-83 स्खलना 913,914 विद्यापिण्ड (भिक्षा-दोष) 1437-43 स्थविरकल्प 2181-94 विनय-प्रतिपत्ति 212-39 स्थापना (भिक्षा-दोष) 1219-23 विनय-भंग 872-79 स्वाध्याय 454 विवेकार्ह प्रायश्चित्त 963-71 | श्रुतव्यवहार 559-65 Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्गशष्ट 14 पाद-टिप्पण विषयानुक्रम ... 1993 (यह परिशिष्ट शोध विद्यार्थियों की सुविधा के लिए दिया जा रहा है। इसके आधार पर अनवाद में दिए गए पाद-टिप्पणों के संदर्भ स्थलों को जाना जा सकेगा। इस परिशिष्ट में जिस गाथा के जिस शब्द पर टिप्पण है, उसका संकेत दिया गया है। इसमें जहां गहरे रंग में संख्या हैं, वे जीतकल्पसूत्र की गाथा संख्याएं हैं।) विषय गाथाङ्क | विषय गाथाङ्क अंतगत आनुगामिक अवधि 30 अभिषेक (उपाध्याय) अकल्प 154,587 | अभोज्य 1191 अकल्पस्थित अभ्याहृत दोष 1249, 1253 अकाल स्वाध्याय 1001 | अभ्युद्यत विहार 2348 अगीतार्थ 1940 | अमूढदृष्टि 1041 .. अतिपरिणामक अवधिज्ञान 35, 36 अदत्त 902 अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र अनागाढ़ योग 1031 अवधिज्ञान का परिमाण अनानुगामिक 46,49 अवधिज्ञान की प्रकृतियां अनियतवृत्ति (आचार-संपदा) 166 अवधिज्ञान के भेद . 37 अनिसृष्ट और अपरिणत 1591 अवधिज्ञानी 36,68 अनिसृष्ट दोष | अवधिज्ञानी का ज्ञेय अनुग्रहविशारद 660 अव्यक्त 25 अनुपारिहारिक 2439 अस्थित कल्प 1975 अन्यधार्मिक स्तैन्य 2359 अर्हत् 982 अन्योन्य संक्रमण 2089 | आगमव्यवहार अपक्रमण 334 आगाढ़ योग 1031 अपद्रावण 1100 आचार-संपदा 164 अपराध पद 2075 आचेलक्य 1976 अपरिगृहीता 2364 आजीवना दोष 1357 अपरिणामक 69 आज्ञापरिणामक 570 अपात्र 2604 आत्मतरक 1964 अप्रतिपाती अवधि 65,69 | आधाकर्म 1113,1124,1158 अप्राप्त 1025 | आनुगामिक अवधि 37,40 अभिचारक 610 | आप्रच्छना सामाचारी 880 1281 ___72 698 Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F पाद-टिप्पण विषयानुक्रम : परि-१४ 685 विषय गाथाङ्ग 875 963 1197 आराधक आलोचना आलोचना के प्रकार आलोचना के स्थान आलोचनाह आवलिका आवश्यकी सामाचारी आशातना आहार्य योग इच्छाकार सामाचारी. इन्द्रिय प्रत्यक्ष ईश्वर उत्सर्ग समितिउद्गम उद्घात मास उद्देश 'उपधान तप उपधि उपबृंहण उपसम्पदा के प्रकार उपसम्पदा सामाचारी उपस्थापना ऋजुजड़ ऋजुप्राज्ञ ऋजुमति मनः पर्यव एषणा ओघ उपधि औद्देशिक औपग्रहिक उपधि कंडक कपाटोद्भिन्न गाथाङ्क | विषय 129 कर्म 1197 | कर्म और शिल्प 1359 773 | कल्प 2592 734 कल्पत्रय 1190 242 कल्पत्रिक 2174 2086 कल्पप्रतिसेवना 584,601,75 880 | कल्पस्थित 2135, 2439 863,867 कल्पस्थिति 1969 1459 कवल-प्रमाण 1622 880 कालधर 326 10 कालप्रतिलेखना 2004 कालातीत 854 कुल, गण और संघ 751 1089 कृत 644 कृत और निष्ठित 1164 1197 कृतयोगी 960 1004,1005 कृष्ण 1727 केवलज्ञान 91,96 1042 केवलज्ञान-केवलदर्शन की उत्पत्ति 92. 779 कोटिसहित तप 881 कोशक (जूता) 1774 2464 क्षायोपशमिक अवधि 26,32 2021 क्षेत्रावग्रह 2084 2024 खल्लक (जूता) 1774 74 गंधर्वशाला 2163 | गुप्ति 784 958,1730 गृद्धपृष्ठमरण 1197 गृहनिषद्या 587 958,1731 गृहि-भाजन 1106 गोचर निषद्या 154 1256 | चक्रशाला 425 REER EEEEEEEEEEEEEEEEEE EFF F146 646 343 425 500 587 Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 686 जीतकल्प सभाष्य 979 880 विषय गाथाङ्क विषय गाथाङ्ग चन्द्रकवेध्यक . 488 नदी-संतार चारित्र-शुद्धि 315 निक्षिप्त दोष 1521, 1534. छंदना सामाचारी 880 निर्ग्रन्थ 284 छेद प्रायश्चित्त 649,650,82 नित्यवासी 2602 जाहक 183 निमंत्रणा सामाचारी जिनकल्पिक 2173 निवेशन 2514, 98 जिनकल्पिक की उपधि 2175 निर्वाण जीतव्यवहार 701 निर्विगय 1492 ज्ञान अतिचार 1009, 1010, निष्कारण निर्गमन 766,767 1015, 1019 निर्हारिम-अनिर्हारिम ज्ञान-दर्शन चारित्र और तीर्थ 313, 314 नैषेधिकी सामाचारी तथाकार सामाचारी 880 नोइंद्रिय प्रत्यक्ष तदुभय प्रायश्चित्त 944 पंचक-यतना तपगर्वित 80 पंचक-हानि तरमाणक 1967 पर्यंक निषद्या तलवर 2004 परमावधि तिर्यग्गामिनी नौका 978 | | परमावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र 53 त्रिकटुक परस्पर संक्रमण 2085 त्रिगुण योग 597 परिकर्म 417 त्रिपातन 1102 परिणमन 103 दर्प प्रतिसेवना 584 परिणामक दर्शन प्रतिसेवना 603 परिषद् 194 दायक दोष 1570,1574,1575, परिहार तप 2429, 2432, 2434, 1578 2437, 2438, 2442, 2452, 2457 दूष्य-पंचक 1772 | परिहारविशुद्ध चारित्र - 2123 देवकुल-दर्शन 1358 परोक्ष द्रव्य-उत्पादना 1315 पारांचित प्रायश्चित्त 729,2555 द्विवेदक 2539 पार्श्वतः अंतगत अवधि धारणा 191 पार्श्वस्थ धारणा व्यवहार 655 पिहितोद्भिन्न नक्षत्र 639 पुरतः अंतगत अवधि 1154 Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 687 गाथाङ्ग 64 1802 136 1357 2086 2087 936 185-189 38,43 84,86 87,88 479 पाद-टिप्पण विषयानुक्रम : परि-१४ विषय गाथाङ्क विषय पुष्पावकीर्ण उपाश्रय 2088 भावलिंग पुस्तक-पंचक 1770 भिन्नमास पूतिकर्म 1203,1211, 1212 भूतार्थ क्रिया पृष्ठतः अंतगत अवधि मंडल प्रतिक्रमण मंडली प्रतिपाती (अवधि) मंडली-विधि प्रतिप्रच्छना सामाचारी 880 मडम्ब प्रतिमा मतिज्ञान के भेद प्रतिलेखना के दोष 811 मध्यगत अवधि प्रतिसंसाधन 874 मनःपर्यवज्ञान प्रतिसेवना 74, 588, 635 | मनःपर्यवज्ञानी प्रत्यक्ष 11, 14 महाशिलाकंटक प्रत्यक्ष और परोक्ष माडम्बिक प्रभावना 1051 मासकल्प प्रमाद प्रतिसेवना 74 मितआहार प्रयोगमति संपदा मिथ्याकार सामाचारी प्रवचन मिश्रजात प्रवचन-प्रभावना 605 | मिश्रजात और अध्यवपूरक प्रशस्त अध्यवसाय 50 मुदित और मूर्धाभिषिक्त प्रस्थापना 975 मूलकर्म प्राभृतिका 2466 मृषावाद प्रायश्चित्त 5,274, 306, 2201 यंत्रशाला प्रायोपगमन 322, 523 यथालंदिक बकुशत्व 12 रजोहरण बहुश्रुत 2599 रथमुशल ब्रह्मशाखा 1466 | राज-प्रद्वेष भक्तपरिज्ञा 323 राजरूपी भक्तप्रत्याख्याता 477,492 लागतरण भक्ति और बहुमान 1003 लौकिक हस्तताल वक्रजड़ भवप्रत्ययिक अवधि 32 वचन-सम्पदा 2004 2060 1632 880 1216 1283 2000 1466,1468 881,883 425 2066 2174 479 2574 2570 605 2375 भय 921 202-2 175 Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 688 जीतकल्प सभाष्य विषय वर्धमान अवधि वाचना-सम्पदा वाटक वात्सल्य विचिकित्सा विनय विनय-अतिचार विनय-आचार विनय-प्रतिपत्ति विपुलमति मनःपर्यव विभूषा विमिश्रभाव विशोधि विहारभूमि वृद्धवास गाथाङ्क विषय गाथाङ्ग 50,51,57 संभोग 2105 179, 183 संयमश्रेणी 1110,1111 2312, 98 संयोजना दोष 1619 1049 संलेखना 341,343 1040 संवर 872, 2378 संसृष्ट दोष 1598 1002 संहरण दोष 1583 1002 सदृश कल्पी 2110 212 समिति .803 74 समुद्देश 890 587 साधर्मिक स्तैन्य . 2313, 2314, 2345 2024 साधार्मिक 1139, 1140 5 सापेक्ष निरपेक्ष प्रायश्चित्त 2202 सामाचारी 880 2184 साही 2514 166 सुखशील 2602 500 सुश्रुतबहुश्रुत 1660 1133-35 स्तेनाच्छेद्य 1274 326 स्त्यानर्द्धि निद्रा 2528 590 स्थण्डिल भूमि 854 167 स्थविर 2258 2004 स्थापना कुल 1775 1371 स्थापना दोष 1220-23 253 स्नान 154,587 1039 स्वस्थान 2104, 2271 171, 173, 174 स्थितकल्प-अस्थितकल्प 1972 639, 640 हस्तालम्ब 2394 हितकर आहार 1632 62 हित वाचना 890 हित-शुभ...... 198! हीयमान अवधि / (आचार-संपदा) वैहायस मरण व्यञ्जन और अर्थ व्याघात मरण व्यायाम श्रुतसम्पदा श्रेष्ठी षट्कर्म षट्स्थानपतित शंका शरीर-सम्पदा शुक्ल शोक संक्लिश्यमान चित्त संखडी संग्रह-परिज्ञासंपदा 224 232 Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१५ वर्गीकृत विशेषनामानुक्रम 1612 532, 1084, 1612 1528 1299 1588,1612 1588 403 1537 394 1538 आचार्य | गुड (गुड़) खंदग (स्कन्दक) 528, 2499, 2500 | घत (घृत) दुप्पसभ (दुःप्रसभ) 267, 276 णवणीत (नवनीत) नंदिवद्धण (नंदिवर्धन) 831 तक्क (तक्र) पालित्तय (पादलिप्त) 1444, 1445 दही (दधि) भद्दबाहु (भद्रबाहु) . 560, 2588 | दुद्ध (दुग्ध) रक्खितज्ज (रक्षितार्थ) 612 | दोद्धिय वइर (वज्र) 610, 612, 1463 | पप्पडिग (तिलपपड़ी) समित (समित) 1463, 1466 | पय (दूध) उद्यान पूव (मालपूआ) चंदोदय (चन्द्रोदय) | पूवलि (मालपूआ) सूरउदय (सूर्योदय) 1191 पूवित (मालपूआ) औषध मोदक (मोदक) तिगडु (त्रिकटु) 1154 लड्डग (लड्डू) बहेड (बिभीतक) 1083 लागतरण (चावल की पेया) सुंठी (सूंठ) 1147 लोट्ट (कच्चा चावल) . खाद्य लोण (लवण) इट्टगा (सेवई) 1397 वडग (बड़ा) कंजिय (काञ्जिक) 346, 403 वालुंक (पक्वान्न विशेष) कट्टर (कढ़ी में डाला घी का बड़ा) 1612 | सत्तुग (सत्तू) कढिया (कढ़ी) 394 सालणग (खाद्य विशेष) कलम (श्रेष्ठ चावल) 1820 सिहरिणी (श्रीखण्ड) कलमोयण (कलमोदन) 398 | सीहेसर (सिंहकेशर मोदक) केसर (केशरिया मोदक) 1417 खेल, चौपड़ खीर (खीर) 181 अट्ठावय (अष्टापद) 1680 1538 1398, 2527 1090 605 1550 1262 1614 1614 1619 1614 .2482 1414 1723 Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 690 जीतकल्प सभाष्य चू पृ.१ ग्रंथ 202 . चउरंग (चौरस) 1723 | सामाइय (सामायिक) 1,714 वट्ट (इंद्रजाल का खेल) . 1723 सूयगड (सूत्रकृतांग) तिर्यञ्च आयार (आचाराङ्ग) __चू पृ.१ अच्छ (ऋक्ष) 500 आयारपकप्प (निशीथ) 2079 अजा (बकरी) 1133, 1773 आवस्सग (आवश्यक) 60 आस (अश्व) 821 उत्तरज्झयण (उत्तराध्ययन) चू पृ.१ उलुग (उलूक) 2482 ओहजुत्ति (ओघनियुक्ति) 958 | एलग (एडक) 1773 कप्प (बृहत्कल्प) 332, 427, 561, कच्छव (कच्छप) 1553 562, 1731, 1799, काग (काक) 904 1945, 2607, 2608 | कीडी (कीटिका) 1509 कप्पनिज्जुत्ति (बृहत्कल्पनियुक्ति) 563, 564 कुंथु (कुन्थु) कप्पियाकप्पिय (कल्पिकाकल्पिक) चू पृ.१ | कुम्म (कूर्म) चू प.६ चुल्लकप्प (क्षुल्लकल्प) चू पृ.१ कोइल (कोकिल) 1725 जीतकप्प (जीतकल्प) 2590 गद्दभ (गर्दभ) जोणिपाहुड (योनिप्राभृत) चू पृ. 28 गय (गज) णिसिह (निशीथ) 1800 गरुल (गरुड़) णिसीह (निशीथ) 1799, गावी (गाय) 2143 2607, चूपृ.१ गो (गाय) 1133,1773 दसकालिय (दशवैकालिक) चू पृ.१ गोण (वृषभ, बैल) . 904,1377 दसा (दशाश्रुतस्कन्ध) चू पृ. 1 गोणस (गोनस) 501 पुव्वगत (पूर्वगत) 2369 | घरकोइल(गृहकोकिल, छिपकली) 1267 बिंदुसार (बिंदुसार) 1,714 घुण (घुण) महाकप्प (महाकल्प) ___चू पृ. 1 जड्ड (हाथी) ववहार (व्यवहार) 561, 562, जाहग (जाहक) 183 1799, 2607, चू पृ.१ ढंक (कौआ) 2469 ववहारनिज्जुत्ति (व्यवहारनियुक्ति) 563,564 | तरच्छ (तरक्ष) 2012 विवाह (व्याख्याप्रज्ञप्ति) 1105 तित्तिर (तित्तिर) चू पृ. 17 1019 801 1987 '258 425 Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गीकृत विशेषनामानुक्रम : परि-१५ 691 285 तिमि (मत्स्य) 551 सुग (शुक) चू पृ. 17 / तुरंग (तुरङ्ग) 1315 हंस (हंस) 1767 पिपीलिया (पिपीलिका) हत्थि (हस्ति) 801,933 बइल्ल (बैल). 404 तीर्थंकर और गणधर भल्ल (भालू) 500 गोयम (गौतम गणधर) 826 मंडुक्कलि (मेंढकी) 800 नायसुत (ज्ञातसुत) मगर (मकर) 551 मुणिसुव्वय (मुनिसुव्रत) 528,2500 मच्छ (मत्स्य) 1606 | देश (ग्राम, नगर, देश तथा क्षेत्र) मच्छि (मक्षि) 1508 आभीरग (आभीरक) 1460 मच्छिया (मक्षिका) 1606 उज्जेणी (उज्जयिनी) 2396 मयूर (मयूर) 1725 | उत्तरकुरु (उत्तरकुरु) 544 महिस (महिष) 1133, 1773, 2529 | | एरवत (ऐरवत) 434,2113 मिग (मृग) 1773 कंचणपुर (कञ्चनपुर) 381, 382 मूइंगलिया (चींटी) कुंभकारकड(कुम्भकारकट) 528 वग्गुलि (बगुली) 2167 कुसुमपुर (कुसुमपुर) 1407, 1450 वग्घ (व्याघ्र) 1392, 2012 कोंकण (कोङ्कण) 403 वच्छग (वत्सक, बछड़ा) 1365 कोसल (कौशल) 503,1395 वलवा (वलवा, घोड़ी) 1347 गिरिफुल्लित (गिरिपुष्पित) 1394 वाणर (वानर) 1474 चंपा (चम्पा) 1394,1414 वारण (वारण) 2012 णंदिग्गाम(नंदिग्राम) 826 वाल (व्याल) 500 देवकुरु (देवकुरु) 544 विग (वृक) चू पृ. 28 | पाडलिपुत्त (पाटलिपुत्र) 1444 सप्प (सर्प) 852 भरह (भरत) 434,1999 साण (श्वान) 904 मगह (मगध) 826 सारस (सारस) चू पृ. 17 महाविदेह (महाविदेह) 2100 सियाल (शृगाल) 534, 2469 मालव (मालव) 195, 933 सिवा (शिवा) 536 रायगिह (राजगृह) 1394,1405 21 Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 692 जीतकल्प सभाष्य हत्थप्प (हत्थप्प?) धातु ... 1008 1008 1316 531,1455 अय (अयस्) कणग (कनक) रयय (रजत) सुवण्णग (स्वर्ण) धान्य कोद्दव (कोद्रव) चण (चणक) चाउल (चावल) णिप्फाव (निष्पाव) बीही (ब्रीहि) रालग (रालक) वल्ल (वल्ल) सालि (शालि) 1394 | भाषा | पागत (प्राकृत) 1392 | सक्कय (संस्कृत) 1316 मंत्री 1316 चाणक्क (चाणक्य) 2600 माप | अंगुल (अङ्गुल) 1148, 1770 गाउय (गव्यूत) 1820 जोयण (योजन) 1297 धणु (धनुष्) 1595, 1958 | हत्थ (हस्त) 1770 - मुद्रा 1148, 1770 | | करिसावण (कार्षापण) 1820 | कागिणी (काकिनी) 1149,1612, 1770 | राजा | उदायि (उद्रायण) 1461 कूणिय (कूणिक) कोणिग (कूणिक) | चंदगुत्त (चन्द्रगुप्त) 1378 चेडग (चेटक) 468,555 डंडगि (दंडकी) 534 | भरत (भरत) भरह (भरत) 528, 2499 मुरुंड (मुरुण्ड) सेणिय (श्रेणिक) 1751 | रानी 787 | पउमा (पद्मावती) नदी 2498 480 481 1454 479 कण्हा (कृष्णा) वेण्णा (वेन्या) पर्वत केलास (कैलाश) मेरु (मेरु) मोगल्ल (मौद्गल्य) पुरोहित पालक्क (पालक) प्रतिमा एगराइगा (एकरात्रिकी) सव्वराइ (सर्वरात्रिकी) 528 1175 1408, 1409 1444, 1445 312 2364 Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गीकृत विशेषनामानुक्रम : परि-१५ 693 1765 978 पुरंदरजसा(पुरंदरयशा) रोग एवं रोगी अंधेल्लय (अंध) अरिस (अर्श, मस्सा). कंडु (कण्डु, खुजली) कच्छुल्ल (कच्छुल्ल, खुजली) काण (काण) कास (काश) कुट्ठि (कुष्ठी) कुणि (कुणि) खय (क्षय) खुज्ज (कुब्ज) खुय (क्षुत) जर . (ज्वर) जरित (ज्वरित) पगलित (प्रगलित, कोढ़ी) विसूइगा (विसूचिका) वनस्पति जगत् अंब (आम्र) कक्कडिगा (कर्कटिका, ककड़ी) कक्कोलग (कर्कोलक) कप्पास (कर्पास) चंदण (चंदन) जातीफल (जातीफल) दक्खा (द्राक्षा) दाडिम : (दाडिम) पलंडु (पलण्डु) 528 पलंब (प्रलम्ब) 613, 1781, 2187 पूगप्फल (पूगफल) 1765 1569 बीयपुर (बीजपूर) 1154 2177 लवंग (लवङ्ग) 2409 लसुण (ल्हसुन) 1504 2409 वंजुल (वञ्जुल) 236 1399 वाइंगण (बैंगण) 1614 10 सासवणाल (सर्षपनाल) 2482 1372 वाहन 1399 | उज्जाणी (उद्यानी, नौका) 978 502 उडुप (उडुप) 980 1399 ओयाणी (अवयानी, नौका) 10 णावा (नाव) 978,1528 1665 तिरिच्छगामी (तिर्यक्गामिनी नौका) 978 1707 भंडी . (गाड़ी) 404 1569 रह (रथ) 1133 500,502 सगड (शकट) 1133 शस्त्र 181, असि (असि) 540 1154 कणग (कनक) 480 54 करकय (करक्रच) 530 2401 खुरप्प (क्षुरप्र) 844 छुरिया (क्षुरिका) 794 1765 दत्त (दात्र) 1154 सर (शर) 1154 संग्राम 1766 | महसिल (महाशिला कंटक) 479,480 481 486 479 Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 694 जीतकल्प सभाष्य 1729 1729 1730 903 1729 741 रहमुसल (रथमुशल) साधु अरहण्णग (अर्हन्नक) असाढभूती (आषाढ़भूति) कालासवेसिअ (कालासवैशिक) चिलातपुत्त (साधु) धम्मरुई (धर्मरुचि) नंदिसेण (नंदिषेण) विण्हु (विष्णु) साधु-उपकरण कडिपट्ट (कटिपट्ट) गोच्छग (गोच्छक) 479 चोलपट्ट (चोलपट्ट) | पडलय (पटलक) 818, 819 पडिग्गह (पतद्ग्रह) 1398 पत्तट्ठवण (पात्रस्थापन) 534 पत्ताबंध (पात्रबन्ध) 533 | पाउंछण (पात्रप्रोञ्छन) | पायकेसरि(पात्रकेशरी) | फलग (फलक) 605 मत्तग (मात्रक) मुहणंत (मुखानन्तक) 2177 | मुहपुत्तिया(मुखवस्त्रिका) 903, 1728 रयहरण (रजोहरण) 903 458 1729 682,903 733 . 1729 Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१६ जीतकल्प सूत्र से सम्बन्धित भाष्यगाथाओं का क्रम 74. >> 3 ; जीसू भाष्यगाथा | जीसू भाष्यगाथा | जीसू भाष्यगाथा जीसू भाष्यगाथा 1. 1-706 25. 1024-27 1744,1745 2195-97 2. 707-13 1028-30 | 50. 1746-49 2198-2264 714-17 27. 1031-53 1750-54 2265-68 718-30 | 28. 1054-58 1755-58 2269-70 731-39 29. 1059-62 53. 1759-62 2271,2272 740-57 30. 1063-68 1763-67 2273-75 758-63 1069,1070 | 55. 1768-74 | 78. 2276, 2277 764-83 1071-74 1775-79 / 2278-81 784-905 1075-82 1780-83 | 80-82. 2282-89 906-12 34. 1083-86 | 58. 1784-89 83. 2290, 2291 11. 913-18 | 35. 1087-1679 59. 1790-96 2292-96 12. 919-32 1680-83 60. 1797-1801 85. 2297-2300 13. 933-44 37. 1684-91 61. 1802-06 86. 2301-05 14. 945-48 | 38. 1692-95 62. 1807-9 87. 2306-2419 15. 949-54 1696-99 63. 1810-13 88. 2420-23 16. 955-62 1700-02 1814-17 | 89-93. 2424-64 17. 963-71 1703-08 1818-21 | 94. 2465-78 972-80 | 42. 1709-12 66. 1822-25 | 95. 2479-2527 981-88 43. 1713-18 67. 1826-1935 96. 2528-41 20. 989,990 1719-21 68. 1936-39 97-100. 2542-55 21. 991-94 / 1722-26 1940-59 . 101. 2556-87 22. 995-9746. 1727-35 70. 1960-66 102. 2588, 2589 23. 998-1021 / 47. 1736-41 71. 1967-2194 103. 2590-2608 24. 1022, 1023 48. 1742, 1743 | 40. | 41. Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१७ प्रयुक्त ग्रंथ सूची मूलग्रंथ सूची अंगुत्तरनिकाय-सं. भिक्खु जगदीश कस्सपो, पालि प्रकाशन मण्डल, बिहार / अनगारधर्मामृत-सं. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, सन् 1977 / अनुयोगद्वार-वाप्र. गणाधिपति तुलसी, सं. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं, सन् 1996 / अनुयोगद्वारचूर्णि-जिनदासगणि, श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन् 1928 / . अष्टपाहुड-आचार्य कुंदकुंद, सं. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, श्री कुंदकुंद कहान दिगम्बर जैन तीर्थ, जयपुर, सन् 1994 / आचारचूला-(अंगसुत्ताणि भा. 1) वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. मुनि नथमल, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), वि. सं. 2031 / आचारांग-(अंगसुत्ताणि भा. 1) वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. मुनि नथमल, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), वि. सं. 2031 / आचारांग चूर्णि-जिनदासगणि, श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम, सन् 1941 / आचारांग नियुक्ति (नियुक्तिपंचक)-वाप्र. आचार्य तुलसी, प्र सं. आचार्य महाप्रज्ञ, सं. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं, प्र सं. सन् 1999 / आवश्यक चूर्णि भा. 1 -आचार्य जिनदास, श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम, सन् 1928 / आवश्यक चूर्णि भा. २-आचार्य जिनदास, श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम, सन् 1929 / आवश्यकनियुक्ति भा. 1 –सं. डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज.), सन् 2001 / आवश्यक नियुक्ति भा. २-प्रकाशनाधीन, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.)। आवश्यक मलयगिरि टीका भा. 1, २-देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार एवं आगमोदय समिति, मुम्बई, सन् 1928 / आवश्यक सूत्र-(नवसुत्ताणि-५) वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् 1987 / आवश्यक हारिभद्रीया टीका भा. 1, २-आचार्य हरिभद्र, भैरुलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, मुम्बई, वि. सं. 2038 / उत्तराध्ययन-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती संस्थान, सन् 1993 / उत्तराध्ययन नियुक्ति (नियुक्ति पंचक)-आचार्य भद्रबाहु, वाप्र. आचार्य तुलसी, प्र सं. आचार्य महाप्रज्ञ, सं. डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1999 / Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रंथ सूची : परि-१७ 697 उत्तराध्ययन शांत्याचार्य टीका-देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, मुम्बई, सन् 1973 / उपासकदशा (अंगसुत्ताणि भा. ३)-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, ___लाडनूं, सन् 1974 ओघनियुक्ति-आचार्य भद्रबाहु, श्री आगमोदय समिति, महेसाणा, सन् 1919 / ओघनियुक्ति टीका-द्रोणाचार्य, श्री आगमोदय समिति, महेसाणा, सन् 1919 / ओघनियुक्ति भाष्य-श्री आगमोदय समिति, महेसाणा, सन् 1919 / कल्पसूत्र (नवसुत्ताणि-५)-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् 1987 / कषाय पाहुड-श्रीगुणधर आचार्य, भा. दि. जैनसंघ ग्रंथमाला चौरासी, मथुरा, वि. सं. 2000 / कार्तिकेयानुप्रेक्षा-स्वामिकुमार, श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, तृ सं. सन् 1990 / कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका-स्वामिकुमार, श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, तृ सं. सन् 1990 / कौटिलीय अर्थशास्त्र-सं. वाचस्पति गैरोला, चौखम्भा विद्या भवन, वाराणसी, च. सं. सन् 2000 / गणधरवाद-संपण्डित दलसुखभाई मालवणिया, राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर, सन् 1982 गोम्मटसार कर्मकाण्ड-नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, डॉ. ए. एन. उपाध्ये, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, प्रसं. 1981 / गोम्मटसार जीवकाण्ड-नेमिचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री, जैन पब्लिशिंग हाऊस, लखनऊ, सन् 1927 / गौतमधर्मसूत्राणि-व्या., डॉ. उमेशचन्द्र पाण्डेय, चौखम्भा संस्कृत सीरिज, वाराणसी-१, प्रसं. सन् 1966 / छेदपिण्ड-सं.माणिकचन्द जैन ग्रन्थमाला, वि. सं. 1978 / 'छेदशास्त्र -सं.माणिकचन्द जैन ग्रन्थमाला, वि. सं. 1978 / जीतकल्पचूर्णि-सं. मुनि जिनविजय, जैन साहित्य संशोधक समिति, अहमदाबाद, वि. सं. 1983 / जीतकल्पचूर्णि विषमपद व्याख्या-सं. मुनि जिनविजय, जैन साहित्य संशोधक समिति, अहमदाबाद, वि.सं. 1982 / ज्ञाताधर्मकथा-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 2003 / तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी टीका भा.१-सिद्धसेनगणि, सं. हीरालाल जैन, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, प्रसं. 1982 / तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी टीका भा. २-सिद्धसेनगणि, सं. हीरालाल जैन, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, प्रसं. 1986 / तत्त्वार्थ राजवार्तिक भा. 1, २-श्री अकलंक देव, भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, सन् 1989, 1990 / तत्त्वार्थसत्र श्रतमागरीय वन्नि Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 698 जीतकल्प सभाष्य . तत्त्वार्थाधिगमसूत्र –उमास्वाति, श्री परमश्रुतप्रभावक जैनमंडल, मुम्बई, सन् 1932 / तिलोय पण्णत्ति - श्री यतिवृषभाचार्य, सं. हीरालाल जैन, आदिनाथ उपाध्याय, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, सन् 1951 / दशवैकालिक -आ. शय्यंभव, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), द्वि सं. 1964 / दशवैकालिक अगस्त्यसिंहचूर्णि-सं. मुनि पुण्यविजय, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद, प्र सं. सन् 1973 / दशवैकालिक जिनदासचूर्णि-जिनदासगणि, श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम, सन् 1933 / दशवैकालिक नियुक्ति (नियुक्तिपंचक)-आचार्य भद्रबाहु , वाप्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. आचार्य महाप्रज्ञ, सं. समणी ____ कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), प्र सं. सन् 1999 / . दशवैकालिक हारिभद्रीया टीका-आचार्य हरिभद्र, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सूरत। दशाश्रुतस्कन्ध (नवसुत्ताणि)–वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), __ प्रसं. सन् 1987 / दशाश्रुतस्कन्ध चूर्णि-आ. जिनदास, श्री मणिविजयजीगणि ग्रंथमाला, भावनगर, प्र सं. वि. सं. 2011 / दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति (नियुक्ति पंचक)-वाप्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. आचार्य महाप्रज्ञ, सं. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं प्र सं. सन् 1999 / द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका -आचार्य यशोविजय, दिव्य दर्शन ट्रस्ट, धोलका, वि. सं. 2060 / धवला-वीरसेनाचार्य, सेठ शीतलराय लक्ष्मीचन्द्र अमरावती, सन् 1942 / नंदी-देवर्धिगणि, वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज.), प्रसं. सन् 1997 / नंदी चूर्णि-जिनदासगणि, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, बनारस, प्र सं. सन् 1966 / नंदी मलयगिरीया टीका-आगमोदय समिति, सूरत प्र सं. 1917 / नंदी हारिभद्रीया टीका -सं. मुनि पुण्यविजय, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, बनारस, प्रसं. 1966 / / नियमसार-आचार्य कुंदकुंद, सं. डॉ. हुकमचन्द्र भारिल्ल, श्री सत्साहित्य प्रकाशक, नवम सं. सन् 1960 नियुक्ति पंचक-वाप्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. आचार्य महाप्रज्ञ, सं. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), प्र सं. सन् 1999 / निरयावलिका–(उवंगसुत्ताणि-४) खण्ड-२, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् 1988 / निशीथसूत्र (नवसुत्ताणि)-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), प्रसं. सन् 1987 / Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रंथ सूची : परि-१७ 699 निशीथ चूर्णि भा. १-४-सं. उपाध्याय अमरमुनि, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, सन् 1982 / निशीथ भाष्य भा. १-४-सं. मुनि कन्हैयालाल, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, सन् 1982 / निसीहज्झयणं-सं. मुनि नथमल, जैन श्वे. तेरापंथ महासभा, पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट, कोलकाता, प्रसं. सन् 1967 / न्यायदर्शनम् –सं. श्री नारायण मिश्रा, चौखम्भा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी, सन् 1970 / पइण्णयसुत्ताइं–सं. मुनि पुण्यविजयजी, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, प्र सं. सन् 1984 / पंचकल्पभाष्य-सं. लाभसागरगणि, आगमोद्धारक ग्रंथमाला, वि.सं. 2028 / पंचकल्पभाष्य चूर्णि-अप्रकाशित। पंचवस्तु–आ. हरिभद्र, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था, सूरत, प्र सं. सन् 1927 / पंचाशक प्रकरण-आ. हरिभद्र, सं.डॉ. दीनानाथ शर्मा, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्रसं.सन् 1997 / पज्जोसवणा कप्पो (नवसुत्ताणि)–वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं, . प्रसं. सन् 1987 / परिशिष्ट पर्व-आचार्य हेमचन्द्र, श्री जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर, वि. सं. 1968 / पाराशरस्मृति-सं. श्री मन्नालाल 'अभिमन्यु',चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, द्वि सं. सन् 1998 / पिण्डनियुक्ति–वाप्र. आचार्य तुलसी, प्र सं. आचार्य महाप्रज्ञ, सं. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं, प्र सं. सन् 2008 पिण्डनियुक्ति अवचूरि-श्री देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, मुम्बई, सन् 1958 / पिण्डनियुक्ति भाष्य–वाप्र. आचार्य तुलसी, प्र सं. आचार्य महाप्रज्ञ, सं. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं, प्र सं. सन् 2008 पिण्डनियुक्ति मलयगिरि टीका–देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, मुम्बई, सन् 1918 / पिण्डविशुद्धिप्रकरण-श्री जिनवल्लभसूरि, ज्ञानभण्डार शीतलवाड़ी उपाश्रय, सूरत, वि.सं. 2011 / प्रज्ञापना (उवंगसुत्ताणि 4) खण्ड-२–वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् 1989 / प्रवचनसार-आचार्य कुंदकुंद, श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, च. सं. 1984 / प्रवचनसारोद्धार-आ. नेमिचन्द्र, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सूरत, सन् 1926 / प्रवचनसारोद्धारटीका-देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सूरत, सन् 1926 / बृहत्कल्प चूर्णि-अप्रकाशित। . बृहत्कल्पभाष्य भा. १-६–सं. मुनि पुण्यविजय, मुनि चतुरविजय, श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् 2002 / Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 700 जीतकल्प सभाष्य बृहत्कल्पभाष्य टीका भा. १-६-सं. मुनि पुण्यविजय, जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् 2002 / भगवती (अंगसुत्ताणि-२)-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), वि.सं. 2049 / भगवती आराधना भा. १,२-शिवार्य, सं.पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, सन् 1978 / भगवती आराधना विजयोदया टीका-जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर, सन् 1978 / भगवती टीका-आचार्य अभयदेवसूरि, आगमोदय समिति, मुम्बई, सन् 1918 / भगवती भाष्य भा. १-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज.), सन् 1994 / भगवती भाष्य भा. २-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 2000 / भगवती भाष्य भा. ३–वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 2005 / भगवती भाष्य भा. ४–वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 2007 / भविष्यत्पुराण-सं. नागशरणसिंह, नाग पब्लिकेशन, नई दिल्ली। भावपाहुड (अष्टपाहुड)-सं. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, श्री कुंदकुंद कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर, सन् 1994 / मज्झिमनिकाय–सं. भिक्खु जे कश्यप, पालि प्रकाशन मण्डल, बिहार, सन् 1958 / मनुस्मृति-सं. गोपालशास्त्री नेने, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, द्वि सं. सन् 1970 / मनुस्मृति मिताक्षरा टीका मनोनुशासनम्-आचार्य तुलसी, व्या. युवाचार्य महाप्रज्ञ, आदर्श साहित्य संघ, चूरू, सन् 1986 / / मरणविभक्ति-(पइण्णयसुत्ताई) सं. मुनि पुण्यविजयजी, श्री महावीर जैन विद्यालय, मुम्बई, सन् 1984 / मूलाचार भा. 1, २-आचार्य वट्टकेर, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, द्वि सं. सन् 1992 / मूलाचार टीका–सं. पं. कैलाशचन्द्रशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, द्वि सं. सन् 1992 / मोक्षपाहुड (अष्टपाहुड़)-सं. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, कुंदकुंद कहान दिगम्बर जैन तीर्थ, जयपुर, सन् 1994 / याज्ञवल्क्यस्मृति-सं. नारायण मिश्र, डॉ. उमेशचन्द्र पाण्डेय, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, वि. सं. 2060 / राजप्रश्नीय (उवंगसुत्ताणि खण्ड १)-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1989 / राजप्रश्नीय टीका-गूर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय, अहमदाबाद, वि.सं. 1994 / विनयपिटक महावग्गपालि-विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी सन् 1998 / Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रंथ सूची : परि-१७ 701 विशेषणवतीविशेषावश्यकभाष्य-आ. जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, दिव्य दर्शन ट्रस्ट, मुम्बई, वि. सं. 2039 / विशेषावश्यकभाष्य मलधारी हेमचन्द्र टीका-आ. जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, दिव्य दर्शन ट्रस्ट, मुम्बई, वि.सं. 2039 / विशेषावश्यकभाष्य स्वोपज्ञ टीका-आ. जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, सं. दलसुखभाई मालवणिया, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर, सन् 1968 / व्यवहारभाष्य-वाप्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. आचार्य महाप्रज्ञ, सं. डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं सन् 1996 / व्यवहारभाष्य मलयगिरि टीका-सं. मुनि माणेक वकील त्रिकमलाल अगरचन्द, सन् 1928 / व्यवहार सूत्र (नवसुत्ताणि)-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् 1987 / शुक्रनीति-शुक्राचार्य, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, च सं. वि. सं. 2056 / षट्खण्डागम धवला टीका-१–सं. हीरालाल जैन, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, सन् 2000 / षट्खण्डागम धवला टीका-८-सं. हीरालाल, जैन साहित्य उद्धारक फंड, अमरोठी, सन् 1947 / षट्खण्डागम धवला पुस्तक-१३-सं. हीरालाल जैन, जैन साहित्योद्धारक फंड कार्यालय, प्र सं. सन् 1955 / / षट्प्राभृत श्रुतसागरीय टीकासभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र-आ. उमास्वाति, सेठ मणिलाल रेवाशंकर जगजीवन जौहरी, सन् 1932 / समवाओ-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1984 / समवायांग टीका-सं. आ. सागरानंद, मोतीलाल बनारसीदास इण्डोलाजिकल ट्रस्ट, दिल्ली, सन् 1985 / सर्वार्थसिद्धि-सं. पंडित फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, द्वि सं. सन् 1971 / सामाचारी शतक-समयसुंदरगणि, जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार, सूरत, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, वि. सं. 1996 / सूयगडो-वाप्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 2006 / स्थानांग (ठाणं)-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. मुनि नथमल, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), प्रसं. सन् 1976 / स्थानांग टीका-आ. अभयदेव, सेठ माणेकलाल चुन्नीलाल, अहमदाबाद, द्वि सं. 1937 / सहायक ग्रंथ सूची अपराध एवं दण्ड-डॉ. प्रतिभा त्रिपाठी, राका प्रकाशन, प्रसं. सन् 1991 / आगम युग का जैन दर्शन-पं. दलसुखभाई मालवणिया, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, सन् 1990 / जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति-रेखा चतुर्वेदी, अनामिका पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, सन् 2000 / Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 702 जीतकल्प सभाष्य जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज-डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, सन् 1965 / . जैन आचार मीमांसा-साध्वी पीयूषप्रभा, जैन विश्व भारती, लाडनूं, प्र सं. सन् 2005 / जैन धर्म-पं. कैलाशन्द्र, भारतीय दिगम्बर जैन संघ मथुरा, प्र सं. सन् 1966 / जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय-डॉ. सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ बनारस, प्र सं. 1996 / जैन धर्म के प्रभावक आचार्य-साध्वी संघमित्रा, जैन विश्व भारती, लाडनूं, प्र सं. सन् 2006 / जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भा. 1, २-प्रो. सागरमल जैन, प्राकृत भारती __ अकादमी, जयपुर, सन् 1982 / जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज-डॉ. मोहनचंद्र, इस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, सन् 1989 / .. जैन साहित्य और इतिहास-नाथूराम प्रेमी, हेमचन्द्र मोदी, हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर, मुम्बई, सन् 1942 / जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा.१-पण्डित बेचरदास दोशी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी-५, सन् 1966 / जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. २-डॉ. मोहनलाल मेहता, डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, द्वि सं. सन् 1989 / जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ३-डॉ. मोहनलाल मेहता, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, द्वि सं. सन् 1989 / ज्ञान मीमांसा-डॉ. साध्वी श्रुतयशा, जैन विश्व भारती प्रकाशन, प्र सं. सन् 1999 / / दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. मुनि नथमल, जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, सन् 1967 / दर्शन और चिन्तन-पण्डित सुखलालजी, श्री दलसुखभाई मालवणिया, गुजरात विद्यासभा, अहमदाबाद, प्र सं. सन् 1957 पाराशर स्मृति : एक अध्ययन-जाह्नवी शेखरराय, रामानन्द विद्या भवन, दिल्ली, प्र सं. सन् 1995 / प्रमुख स्मृतियों का अध्ययन-डॉ. लक्ष्मीदत्त ठाकुर, हिन्दी समिति सूचना विभाग, लखनऊ, प्र सं. सन् 1965 / प्राचीन जैन साहित्य में आर्थिक जीवन-डॉ. कमल जैन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, सन् 1988 मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन-डॉ. फूलचन्द प्रेमी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, प्रसं. 1987 / याज्ञवल्क्य स्मृति का समीक्षात्मक अध्ययन–डॉ. श्रीमती ऊषा गुप्ता, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, प्र सं. सन् 1998 / सागर जैन विद्या भारती भा.१-प्रो. सागरमल जैन , पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, सन् 1994 / कोश-साहित्य Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रंथ सूची : परि-१७ 703 अभिधानचिन्तामणि कोश-आ. हेमचन्द्र, चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, द्वि सं. 1996 / अभिधान राजेन्द्र कोश-श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि, अभिधान राजेन्द्र कोश प्रकाशन संस्था, अहमदाबाद, द्वि सं. 1986 / अमरकोश-पं. अमरसिंह, चौखम्भा संस्कृत सिरीज, वाराणसी, सन् 1968 / आगम शब्दकोश-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् 1980 / एकार्थक कोश-सं. मुनि दुलहराज, समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 2003 / जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा. १-४-सं. क्षु. जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, सन् 1985 / देशीनाममाला-सं. आर. पिशेल, मुम्बई संस्कृत सिरीज 17, द्वि सं. 1938 / देशी शब्द कोश-वाप्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, सं. मुनि दुलहराज, जैन विश्व भारती, ___ लाडनूं (राज.), सन् 1988 / निरुक्तकोश-वाप्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, सं. सा. सिद्धप्रज्ञा, सा. निर्वाणश्री, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) प्र सं. 1984 / / पाइयसद्दमहण्णवो-पं. हरगोविन्ददास सेठ, प्राकृत ग्रंथ परिषद्, वाराणसी, सन् 1963 / बृहहिन्दी कोश-कालिका प्रसाद, ज्ञानमण्डल, वाराणसी, पंचम सं. 1984 / भिक्षु आगम शब्द कोश भा. १-मुनि दुलहराज, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1996 / भिक्षु आगम शब्द कोश भा. २-मुनि दुलहराज, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 2005 / संस्कृत हिन्दी कोश-वामन शिवराम आप्टे, मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स, दिल्ली, सन् 2001 / A History of Indian literature Maurice winternitz, vol II, Motilal Banarsidas, Delhi, Sec Ad.19931 A History of the Canonical literature of jain's--Hiralal Rasikadas Kapadia 1 Jain Monastic Juris Pridence-Jaina Cultural Research Society, Banaras Sec Ad. 1960 The Doctrine of the Jainas-Walther schubring. Motilal Banarsidas Publishers, Delhi, Year 20001 Page #898 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण महान् श्रुतधर आचार्य थे। उन्होंने कुछ कालजयी कृतियों की रचना की, जिसमें विशेषावश्यक भाष्य का नाम प्रमुख रूप से आता है। आचार्य तुलसी ने व्यवहार बोध' में उसकी प्रशस्ति में इस गाथा की रचना की है - आगम का वह कौनसा,सुविशद व्याख्या ग्रंथ। क्षमाश्रमण जिनभद्र का, जोन बना रोमन्थ।। जीतकल्प और उसका स्वोपज्ञ भाष्य उनकी कालजयी रचना है। इसमें बहुश्रुत आचार्य ने दस प्रायश्चित्त एवं उनके अपराधस्थानों का वर्णन किया है। प्रसंगवश गणिसम्पदा, संलेखना, अनशन, समिति-गुप्ति, छह कल्पस्थिति, स्थितकल्प, अस्थित कल्प आदि का वर्णन किया है। ग्रंथकार ने पांच व्यवहारों का वर्णन किया है लेकिन उनका मुख्य उद्देश्य जीतव्यवहार के आधार पर प्रायश्चित्त निर्धारित करना था। इस ग्रंथ रत्न का अध्ययन करने से विद्वत् समाज जैन साधु की आचार-परम्परा के साथ प्राचीन भारतीय संस्कृति का दिग्दर्शन भी कर सकेगा। Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्सो जान जैन विश्व भारती लाडनूं (राज०)