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________________ अनुवाद-जी-७१ 483 2142. पारिहारिक और अनुपारिहारिक मुनि कल्पस्थित के समक्ष आलोचना, प्रत्याख्यान तथा वंदना आदि वहन करते हुए उसको उद्यान-विहरण के समान मानते हैं। 2143. जैसे गोपालक गायों के पीछे रहकर नित्य जागरूक होता है, वैसे ही अनुपारिहारिक पारिहारिकों के पीछे-पीछे घूमते हुए सतत उद्युक्त और आयुक्त रहते हैं। 2144. पारिहारिक आदि की आपस में सूत्रार्थ की प्रतिपृच्छा और वाचना के अतिरिक्त किसी प्रकार की वार्ता नहीं होती। कारण उपस्थित होने पर पारिहारिक आत्म-निर्देश रूप आलाप जैसे उलूंगा, बैलूंगा आदि कर सकता है। 2145. पारिहारिकों का वर्षाकाल में उत्कृष्ट तप पंचोला, मध्यम तप चोला तथा जघन्य तप तेला होता है। शिशिरकाल में उत्कृष्ट तप चोला, मध्यम तप तेला तथा जघन्य तप बेला होता है। 2146. ग्रीष्मकाल में उत्कृष्ट तप तेला, मध्यम तप बेला तथा जघन्य तप उपवास होता है। पारिहारिक मुनि तप का पारणा आयम्बिल से करते हैं तथा अभिगृहीत एषणा से भक्तपान लेते हैं। 2147. अनुपारिहारिक मुनि नित्य आयम्बिल करते हैं। कल्पस्थित के लिए भी वे अभिगृहीत एषणा से भक्तपान लेकर आते है। 2148. चारों पारिहारिक मुनि पृथक्-पृथक् भोजन करते हैं। अनुपारिहारिक और कल्प स्थित-इन पांचों का एक ही संभोज होता है। 2149. पारिहारिकों का तप पूरा होने पर अनुपारिहारिक उस तप का वहन करते हैं। उनका तप पूरा होने पर कल्पस्थित उस तप का वहन करता है। 2150. पारिहारिक मुनि छह मास तक तप करते हैं, अनुपारिहारिक और कल्पस्थित मुनि भी छह-छह मास तक तपस्या करते हैं, इस प्रकार सब मिलाकर अठारह मास हो जाते हैं। . 2151. जो अनुपारिहारिक और पारिहारिक हैं, वे अन्यान्य स्थानों में कालभेद से एक दूसरे की सेवा करते हुए अविरुद्ध होते हैं। 2152. पारिहारिक मुनि छह माह की तपस्या करने के बाद निर्विष्टकाय हो जाते हैं, उसके बाद अंनुपारिहारिक परिहार तप का वहन करते हैं। 2153. अनुपारिहारिक भी छह मास तक तपस्या करके निर्विष्टकाय हो जाते हैं, उसके बाद कल्पस्थित उसी रूप में यथाविधि परिहार तप का वहन करता है। 2154. जो इस तप का वहन करते हैं, वे नियमत: निर्विशमानक कहलाते हैं तथा जिनका तप पूरा हो जाता है, वे निर्विष्टकायिक कहलाते हैं। 1. बृहत्कल्पभाष्य में उज्जाणी के स्थान पर 'उज्जाणोवमं' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका भावार्थ यह है कि वे उद्यानविहरण के समान एकान्त सुख एवं समाधि का अनुभव करते हैं।' 1. बृभाटी पृ. 1702 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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