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________________ 482 जीतकल्प सभाष्य 2128. अर्हतों को पूछकर वे इस कल्प को स्वीकार करते हैं। अर्हत् उनको इस कल्प की विधि सभी प्रमाण तथा बहुविध अभिग्रह बताते हैं। 2129. अर्हत् उन्हें गण-प्रमाण, उपधि-प्रमाण तथा पुरुष-प्रमाण बताते हैं। वे द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव तथा अन्य निष्प्रतिकर्मता आदि पर्यायों के बारे में बताते हैं। 2130, 2131. संसृष्टा, असंसृष्टा आदि सात एषणाओं में प्रथम दो को छोड़कर शेष पांच में से किसी एक का अभिग्रह स्वीकार करते है। उपधि विषयक चार एषणाओं में अंतिम दो एषणाओं को स्वीकार करते हैं लेकिन उनमें से भी तीसरी या चौथी किसी एक का अभिग्रह स्वीकार करते हैं। 2132. सूर्योदय होते ही वे इस कल्प की देशना देते हैं तथा आलोचना-प्रतिक्रमण करके तीन गणों की स्थापना करते हैं। 2133. इन तीन गणों में जघन्यतः सत्तावीस पुरुष और उत्कृष्टतः हजार पुरुष होते हैं। यह उन निर्ग्रन्थ शूरवीर भगवानों की सर्व संख्या कही गई है। 2134. इन गणों की उत्कृष्ट संख्या सौ तथा जघन्य संख्या तीन होती है। प्रत्येक गण नौ पुरुषों का होता है-ये इनकी प्रतिपत्तियां हैं। 2135. नौ पुरुषों में एक को कल्पस्थित' चार को पारिहारिक तथा शेष चार को अनुपारिहारिक स्थापित किया जाता है। 2136. जो परिहारकल्प को स्वीकार करते हैं, उनके अठारह महीनों में किसी प्रकार का विघ्न, वेदना, आतंक या अन्य उपद्रव आदि नहीं होते। 2137. अठारह माह पूर्ण होने पर उपद्रव आदि हो सकते हैं। कोई मुनि दिवंगत हो जाए अथवा स्थविरकल्पी जिनकल्प में चला जाए तो गण न्यून होने पर यह मर्यादा होती है। . 2138. गण में जितने व्यक्ति कम हो जाएं उतने एक, दो या अनेक व्यक्तियों का वहां प्रक्षेप करना चाहिए, न्यून होने पर यह सामाचारी है। 2139. गण के अन्यून अर्थात् कम न होने पर यदि एक, दो या अनेक वहां उपसंपदा स्वीकार करते हैं तो उनकी सामाचारी इस प्रकार होती है२१४०. जब तक नौ की संख्या पूरी रहती है, तब तक वे उपसम्पदा की अवस्था में रहते हैं। उसके पश्चात् वे उनके पास परिहारकल्प को स्वीकार करते हैं। 2141. परिहारकल्प में यदि पारिहारिक से कोई अपराध हो जाए तो कल्पस्थित (आचार्य रूप) मुनि व्यवहार-प्रायश्चित्त देने में प्रमाणभूत होता है। अनुपारिहारिक के द्वारा अपराध-पद का आसेवन होने पर भी वही गीतार्थ कल्पस्थित (आचार्य रूप) मुनि प्रायश्चित्त देने में प्रमाण होता है। 1. एक-एक गण में नौ-नौ पुरुष होते हैं। 2. वह मुनि, जो परिहारविशद्धि चारित्र की साधना के समय गुरु का दायित्व निभाता है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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