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________________ 484 जीतकल्प सभाष्य 2155. यह कल्प अठारह महीनों में समाप्त होता है, यह मूल स्थापना संक्षेप में कही गई है। 2156. इस प्रकार अठारह महीनों का कल्प समाप्त होने पर जो उनके बीच जिनकल्पिक होते हैं, वे संख्या में न्यून होने पर भी उस कल्प का यावज्जीवन पालन करते हैं। 2157. स्थविरकल्पी मुनि अठारह मास पूर्ण होने पर पुनः गच्छ में आ जाते हैं, यह उनकी विधि है। . 2158. तृतीय निर्विशमानक और चतुर्थ निर्विष्टकायिक-इन दोनों कल्पस्थिति का दूसरे छेदोपस्थापनीय कल्प में समवतार होता है। प्रथम चारों (सामायिक, छेदोपस्थापनीय, निर्विशमानक और निर्विष्टकायिक) का पांचवीं जिनकल्प और छठी स्थविरकल्प में समवतार होता है। 2159. अब मैं जिनकल्प की स्थिति का वर्णन करूंगा, जो पहले ही पंचकल्प नियुक्ति के मासकल्प सूत्र में वर्णित है। वर्णन को अशून्यार्थ रखने के लिए वही वर्णन यहां किया जा रहा है। .. 2160. गच्छ में ही निर्मित धीर पुरुष जब इस तथ्य को जान लेते हैं कि अब हमारा उद्यतविहार करने का अवसर है तो वे संसृष्ट और असंसृष्टा एषणाओं का परिहार, अंतिम पांच एषणाओं से ग्रहण का अभिग्रह रखते हुए तथा उनमें भी एक का ही परिभोग करने वाले जिनकल्पिक विहार को प्राप्त करते हैं। 2161. वे जघन्यतः नवपूर्वी, उत्कृष्टतः असम्पूर्ण दशपूर्वी होते हैं। चौदहपूर्वी तीर्थ में रहते हैं, वे जिनकल्प प्रव्रज्या स्वीकार नहीं करते। 2162. वे वज्रऋषभनाराच संहनन से युक्त तथा सूत्रार्थ के परमार्थ को जानने वाले होते हैं। वे संसार के स्वभाव को जानने के कारण परमार्थ के ज्ञाता होते हैं। 2163. वे प्रथम और द्वितीय संसृष्टा और असंसृष्टा एषणा' से आहार ग्रहण नहीं करते, तीसरी से लेकर सातवीं एषणा से भक्तपान ग्रहण करते हैं तथा ऊपर की दो एषणाओं से वस्त्र और पात्र ग्रहण करते हैं। 2164. द्रव्य से वे रत्नावलि आदि तप का अभिग्रह स्वीकार करते हैं। इन सब बातों से ज्ञात होता है कि वे जिनकल्प-विहार को स्वीकार कर चुके हैं। 2165. ये दो अतिशय संक्षेप में वर्णित किए गए हैं। अब बाह्य और आभ्यन्तर अतिशय के बारे में विशेष रूप से कहूंगा। 2166. शरीर का बाह्य अतिशय तो यह जानना चाहिए कि उनके हाथ और पैर की अंगुलियां मिलाने पर 1. एषणा सात प्रकार की होती हैं - 1. संसृष्टा-खाद्य वस्तुओं से लिप्त हाथ या पात्र से देने पर भिक्षा लेना। 2. असंसृष्टा-भोजन से अलिप्त हाथ या पात्र से देने पर भिक्षा लेना। 3. उद्धृता-अपने प्रयोजन के लिए रांधने के पात्र से दूसरे पात्र में निकाला हुआ आहार लेना। 4. अल्पलेपा-अल्पलेप वाली अर्थात् चना, चिड़वा आदि रूखी वस्तु लेना। 5. अवगृहीता-खाने के लिए थाली में परोसा हुआ आहार लेना। 6. प्रगृहीता–परोसने के लिए कड़छी या चम्मच से निकाला हुआ आहार लेना। 7. उज्झितधर्मा -जो भोजन अमनोज्ञ होने के कारण परित्याग करने योग्य हो, उसे लेना।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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