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________________ अनुवाद-जी-७१ 485 उनमें बीच में छिद्र नहीं रहता तथा वे धीर पुरुष वज्रऋषभसंहनन से युक्त होते हैं। 2167. उन धीर पुरुषों की हथेली वल्गुलि पक्षी के पंख के समान होती है। यह लब्धि उनको क्षयोपशम से प्राप्त होती है, ऐसा कहा जाता है। 2168. जिसके हाथ रूपी पात्र में हजारों घड़े समा सकते हैं तथा जो सारे सागरों को धारण कर सकता है, ऐसी लब्धि वाला व्यक्ति पाणिपतद्ग्रही होता है। 2169. उनका आभ्यन्तर अतिशय संक्षेप में कहा गया है। वे सागर की भांति अक्षुभित तथा सूर्य की भांति तेजस्वी होते हैं। 2170. उनका शरीर कुथित नहीं होता तथा उनके शरीर में से किसी प्रकार की गंध नहीं आती। उनके शरीर में जुगुप्सित व्रण आदि नहीं होते। वे शरीर सम्बन्धी किसी प्रकार का परिकर्म नहीं करते। 2171. जिनकल्पी नियमतः पाणिपात्र होते हैं अर्थात् हाथ में ही आहार ग्रहण करते हैं। मैं उनके अन्य अतिशय भी विशेष रूप से कहूंगा। 2172. उनके दो प्रकार के अतिशय होते हैं-ज्ञानातिशय, शारीरिक अतिशय। ज्ञानातिशय में उनके अवधिज्ञान और मनःपर्यव ज्ञान-दोनों होते हैं। 2173. उनका आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञान भी अतिशय युक्त ही होता है। उनका मल अभिन्न होने से वह गुदा से लिप्त नहीं होता। यह उनका शारीरिक अतिशय होता है। 2174. पाणिपात्र-जिनकल्पिक की जघन्य उपधि रजोहरण और मुखवस्त्रिका होती है तथा उत्कृष्ट उपधि कल्पत्रिक सहित पांच प्रकार की होती है। 2175. पात्रधारी जिनकल्पी की जघन्य उपधि नौ तथा उत्कृष्ट बारह होती है। उनके पास पात्रनिर्योगपात्र परिकर अतिरिक्त होता है। 1. जिनकल्पिक साधु का मल अत्यल्प एवं अभिन्न होता है इसलिए वे शौच-क्रिया से निवृत्त होकर आचमन नहीं लेते। आचमन न करना उनका आचार है। दीर्घकालिक उपसर्ग आदि होने पर भी वे उच्चार और प्रस्रवण का विसर्जन अस्थण्डिल भूमि में नहीं करते। १.बृभा 1390, अप्पमभिन्नं वच्चं। २.ओघनियुक्ति में रजोहरण का प्रमाण इस प्रकार वर्णित है-रजोहरण की लम्बाई बत्तीस अंगुल प्रमाण, दण्ड चौबीस अंगुल तथा दशिका आठ अंगुल प्रमाण होती है। इसमें कुछ न्यूनाधिक्य भी हो सकता है।' 1. ओनि 708; बत्तीसंगुलदीह, चउवीसं अंगुलाई दंडो से।अटुंगुला दसाओ, एगयरं हीणमहियं वा॥ .३.कल्प शरीर प्रमाण लम्बा तथा ढ़ाई हाथ चौड़ा होता है, मुनि दो सूती और एक ऊनी-ऐसे तीन कल्प रख सकता है। नियुक्तिकार ने कल्प रखने के अनेक प्रयोजनों का उल्लेख किया है।' 1. ओनि 705,706 / 4. ओधनियुक्ति में जिनकल्पिक की बारह प्रकार की उपधियां इस प्रकार वर्णित हैं-पात्र, पात्रबन्ध, पात्रस्थापन, पात्रकेशरिका (पात्र-मुखवस्त्रिका) पटल, रजस्त्राण, गोच्छक, पात्र-निर्योग, तीन प्रच्छादक (कल्प), रजोहरण और मुखवस्त्रिका। इसमें उपधियों की संख्या 13 होती है। जीतकल्पभाष्य में पात्र-निर्योग को बारह उपधि से अतिरिक्त रखा है। 1. ओनि 668,669 //
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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