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________________ 486 जीतकल्प सभाष्य 2176. जो बढ़े हुए नख वाले तथा नित्यमुण्ड हैं, उनकी जघन्य उपधि दो प्रकार की होती है। निर्व्याघात रूप से उनका यह लिंग जानना चाहिए। 2177. संक्षेप में जिनकल्पिक के रजोहरण और मुखवस्त्रिका-ये दो प्रकार की उपधि होती हैं। व्याघात होने पर, लिंग के विकृत होने पर या बवासीर आदि होने पर कटिपट्ट धारण किया जा सकता है। . 2178. पात्र सम्बन्धी सात उपकरण, रजोहरण और मुखवस्त्रिका-ये नवविध उपधि प्रत्येकबुद्धों के होती है। 2179. निष्क्रमण करने के समय तीर्थंकरों के एक उपधि होती है। उसके बाद तीर्थंकर यावज्जीवन उपधि रहित रहते हैं। 2180. स्थान को अशून्य रखने के लिए यह जिनकल्प की स्थिति कही गई है। विस्तार से पंचकल्पनियुक्ति के मासकल्प प्रकरण में देखना चाहिए। 2181. अब मैं स्थविरकल्प की स्थिति को कहूंगा, वह भी पहले ही (पंचकल्पभाष्य में) व्याख्यायित है। यहां स्थान अशून्य रखने के लिए संक्षेप में वर्णन करूंगा। 2182. स्थविरकल्पी मुनि संयम का पालन करने में उद्यत, प्रवचन के उद्योतक, शिष्यों में ज्ञान, दर्शन और चारित्र के निष्पादक, जंघाबल से हीन होने के कारण दीर्घ-काल तक एक स्थान पर रहने वाले तथा वसति के दोषों से मुक्त होते हैं। 2183. जब वे स्थविर दीर्घकाल तक एक स्थान पर रहने में समर्थ नहीं होते तो वे अभ्युद्यत मरण अथवा अभ्युद्यत विहार स्वीकार करते हैं। 2184. दीर्घ आयुष्य होने के कारण वे वृद्धावास–एक स्थान पर रहते हैं तथा उद्गम आदि दोषों से मुक्त वसति में रहते हैं। 2185. जिनकल्प स्थिति को छोड़कर इस अध्ययन में जो मर्यादा वर्णित है, वह स्थविरकल्प में द्विपदयुक्त अर्थात् उपसर्ग और अपवाद–इन दो पदों से युक्त होती है। 2186. द्विपद का अर्थ उत्सर्ग और अपवाद–इन दोनों से है। स्थविरकल्प नियमतः इन दोनों से युक्त होता है। 1. वर्तमान में पंचकल्पनियुक्ति और भाष्य-दोनों मिलकर एक ग्रंथ रूप हो गए हैं। 2. जंघाबल से क्षीण मुनि का प्रवास वृद्धवास कहलाता है अथवा रोग के कारण एक स्थान पर अधिक रहना वृद्धवास है। वृद्धवास के अन्तर्मुहूर्त के बाद मुनि कालगत हो जाए तो उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट काल गृहि-पर्याय के नौ वर्ष कम पूर्वकोटि होता है। इसका गणित इस प्रकार है कि कोई पूर्वकोटि आयुष्य वाला साधु 9 वर्ष की अवस्था में दीक्षा ले, दीक्षित होते ही कर्मोदय से जंघाबल क्षीण हो जाए अथवा रोग के कारण चलने-फिरने में असमर्थ हो जाए तो उत्कृष्ट वृद्धवास 9 वर्ष कम पूर्वकोटि होता है। यहां उत्कृष्ट काल का प्रमाण भगवान ऋषभ के तीर्थ की अपेक्षा से है। 1. व्यभा 2256 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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