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________________ अनुवाद-जी-७२,७३ 487 2187. प्रलम्ब सूत्र से प्रारम्भ कर इस षड्विध कल्पस्थिति सूत्र तक उत्सर्ग में अपवाद तथा अपवाद में उत्सर्ग क्रिया करने वाला शासन की आशातना करता है तथा दीर्घसंसारी होता है। 2188. स्थविरकल्पी उत्सर्ग में अपवाद का आचरण करता हुआ विराधक होता है। अपवाद की स्थिति प्राप्त होने पर उत्सर्ग का सेवन करना भजना है। 2189. वहां भजना कैसे होती है? जो संहनन और धृति से युक्त होता है, ऐसा साधु अपवाद में उत्सर्ग का सेवन करता हुआ शुद्ध होता है। 2190. धृति या संहनन-इन दोनों में से एक भी हीन होता है तो वह परीषहों को सहने में असमर्थ होता है, वह विराधना करता है। 2191. इस प्रकार सामायिक आदि छह प्रकार की कल्पस्थिति कही गई, अब मैं संक्षेप में वीर्य-द्वार को कहूंगा। 2192, 2193. जो गीतार्थ होते हैं, वे परिणत तथा अगीतार्थ अपरिणत होते हैं। जो उपवास, बेला आदि तप से भावित हैं, वे कृतयोगी कहलाते हैं तथा जो उपवास, बेला आदि तप से भावित नहीं होते, वे अकृतयोगी हैं। धृति और संहनन से युक्त को तरमाणक जानना चाहिए। 2194. जो धृति और संहनन में किसी एक से युक्त होते हैं, वे अतरमाणक होते हैं अथवा दोनों से हीन को अतरमाणक जानना चाहिए। 72. जो सत्त्व वाला तथा बहुतरगुण'-धृति और संहनन आदि गुणों से युक्त हो, उसे अधिक प्रायश्चित्त भी देना चाहिए। धृति और संहनन से हीनतर व्यक्ति को कुछ कम तथा धृति आदि से सर्वथा हीन को प्रायश्चित्त से मुक्त भी किया जा सकता है। 2195. कल्पस्थित आदि पुरुषों यावत् उभयथा अतरमाणक पुरुषों में जिसमें जैसा सत्त्व हो, उसको वैसा प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2196, 2197. जो धृति, संहनन आदि अनेक गुणों से युक्त होता है, वह बहुतरगुण सम्पन्न होता है। जो परिणत, कृतयोगी और उभय तरमाणक है—ऐसे गुण युक्त साधु को जीत व्यवहार से अधिक प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है। जो धृति, संहनन आदि से हीन होता है, उसको हीनतर तथा सम्पूर्णतः धृति और संहनन . 1. प्रलम्ब सूत्र से छह कल्पस्थिति सूत्र में पूरा कल्प (बहत्कल्पभाष्य) समाविष्ट हो जाता है। . २.व्यवहारसूत्र के अनुसार जो वय से स्थविर हो जाता है, वह दंड, भांड, छत्र, मात्रक, यष्टिका, वस्त्र, वस्त्र का पर्दा, चर्म, चर्मकोश (उपानत्) तथा चर्मपरिच्छेदनक रख सकते हैं। वे इन्हें अविरहित स्थान में रखकर किसी को संभलाकर या सूचित करके भिक्षार्थ जाते हैं / भिक्षा से लौटकर पुनः नियुक्त व्यक्ति से आज्ञा लेकर उसका उपयोग कर सकते हैं। १.व्यसू८/५;थेराणं थेरभूमिपत्ताणं कप्पइ दंडए वा भंडए वा छत्तए वा मत्तए वा लट्ठिया वा चेले वाचेलचिलिमिलिया . वा चम्मे वा चम्मकोसए वा चम्मपलिच्छेयणए वा अविरहिए ओवासे ठवेत्ता गाहावइकुलं पिंडवायपाडया। पविनिया ' वा निक्खमित्तए वा।कप्पड़ ण्हं संनियट्टचारीणंदोच्चंपिगई अणुण्णाटेला परिहरिना।।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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