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________________ 488 जीतकल्प सभाष्य से रहित को प्रायश्चित्त से मुक्त भी किया जा सकता है। 73. जीतव्यवहार के संदर्भ में अकृतकरण, अनभिगत आदि अनेक प्रकार के भिक्षु होते हैं। उनको जीतव्यवहार से यंत्रविधि के द्वारा तेले से लेकर निर्विगय तक का प्रायश्चित्त दिया जाता है। 2198. इस जीतव्यवहार में बहुत प्रकार के भिक्षु होते हैं, उनमें अकृतकरण और अनभिगत को भी जानना . चाहिए। 2199. सूत्र में आए 'च' शब्द से स्थिर और अस्थिर को भी संक्षेप में ग्रहण करना चाहिए। यंत्रकविधि के क्रम से जीत-अभिमत से प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2200. साधु दो प्रकार के होते हैं—कृतकरण और अकृतकरण। कृतकरण दो प्रकार के होते हैंगच्छवासी और गच्छविमुक्त। अकृतकरण नियमतः गच्छवासी होते हैं। 2201. वे अभिगत और अनभिगत दो प्रकार के होते हैं। अनभिगत भी स्थिर और अस्थिर दो प्रकार के होते हैं। कृतयोगी और अभिगत—गीतार्थ जिस प्रायश्चित्त का सेवन कर सकते हैं, उसके अनुसार उन्हें पूरा प्रायश्चित्त दिया जाता है। जो अगीतार्थ, अस्थिर और अकृतयोगी होता है, उसे आचार्य अपनी इच्छा के अनुसार श्रुतोपदेश से प्रायश्चित्त देते हैं। 2202. अथवा संक्षेप में पुरुष दो प्रकार के होते हैं–निरपेक्ष और सापेक्ष। जिन आदि निरपेक्ष होते हैं, वे नियमतः कृतकरण होते हैं। 2203. सापेक्ष तीन प्रकार के होते हैं आचार्य, उपाध्याय और भिक्षु। आचार्य और उपाध्याय कृतकरण और अकृतकरण दोनों प्रकार के होते हैं। 2204. भिक्षु दो प्रकार के होते हैं—गीतार्थ और अगीतार्थ। गीतार्थ दो प्रकार के जानने चाहिए-स्थिर और अस्थिर। ये दोनों दो प्रकार के होते हैं-कृतकरण और अकृतकरण। 2205. अगीतार्थ भी दो प्रकार के होते हैं-स्थिर और अस्थिर। दोनों के कृतकरण और अकृतकरण १.यंत्रविधि का विस्तृत वर्णन सिद्धसेनगणीकृत जीतकल्प की चूर्णि में मिलता है। 1. विस्तार हेतु देखें जीचू पृ. 24, 25 / 2. परीक्षा करने पर यदि साधु अगीतार्थ, अस्थिर अकृतयोगी और असमर्थ प्रतीत होता है तो उसे आचार्य न्यून, न्यूनतर और न्यूनतम प्रायश्चित्त-नवकारसहिता भी देते हैं। यदि यह भी करने में समर्थ न हो तो आलोचना करने मात्र से उसकी शद्धि का निर्देश दे देते हैं। १.व्यभा 160 मटी प.५३। ३.व्यवहारभाष्य में सापेक्ष को दिए जाने वाले प्रायश्चित्तों का वर्णन है-निर्विगय, पुरिमार्ध (दो प्रहर), एकासन, आचाम्ल, उपवास, लघुगुरु अहोरात्र, पंचक, लघुगुरु अहोरात्र दशक, लघुगुरु अहोरात्र पंचदशक, लघुगुरु बीस अहोरात्र, लघुगुरु पच्चीस अहोरात्र, लघुमास, गुरुमास, चतुर्लघुमास, चतुर्गुरुमास, लघुगुरु छह मास, छेद और मूल। १.व्यभा 163, 164 मटी प.५४।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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