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________________ अनुवाद-जी-७३ 489 ये दो भेद होते हैं। कृतकरण और अकृतकरण कैसे होते हैं, उसे तुम सुनो। 2206. जो गीतार्थ और अगीतार्थ दोनों अवस्थाओं में बेले-तेले आदि की तपस्या करते हैं, वे कृतकरण कहलाते हैं। कुछ आचार्यों का अभिमत है कि जो अधिगत अर्थात् गीतार्थ होते हैं, वे नियमतः कृतकरण होते हैं क्योंकि वे अध्ययन में दीर्घकाल तक योगों का वहन करते हैं। 2207. निरपेक्ष एक प्रकार के होते हैं। शिष्य प्रश्न करता है कि सापेक्ष साधु के आचार्य, उपाध्याय आदि तीन भेद क्यों किए गए? आचार्य कहते हैं कि उसके बारे में सुनो। 2208. जिस प्रकार लोक में व्यक्ति के आधार पर युवराज आदि को दंड दिया जाता है, वैसे ही व्यक्ति विशेष के आधार पर आचार्य आदि की आरोपणा होती है। 2209. आचार्य और उपाध्याय-ये दोनों नियमतः गीतार्थ होते हैं लेकिन भिक्षु गीतार्थ और अगीतार्थ दोनों प्रकार के होते हैं। 2210. प्रतिसेवना सकारण है अथवा अकारण, यतना से है अथवा अयतना से इन बातों का अगीतार्थ को बोध नहीं होता। इस कारण से आचार्य आदि तीन भेद किए गए हैं। 2211. जो अगीतार्थ, कार्य-अकार्य, यतना-अयतना को नहीं जानता हुआ प्रतिसेवना करता है, वह उसकी दर्प प्रतिसेवना है। यदि गीतार्थ भी दर्प और अयतना से प्रतिसेवना करता हैं तो उसे भी अगीतार्थ की भांति वही प्रायश्चित्त दिया जाता है। 2212. पाराञ्चित प्रायश्चित्तार्ह दोष सेवन करने पर भी सापेक्षता से प्रायश्चित्त दिया जाता है, जैसे कृतकरण आचार्य को अंतिम पाराञ्चित प्रायश्चित्त दिया जाता है लेकिन जो अकृतकरण आचार्य हैं, उनको अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त दिया जाता है। 2213. कृतयोगी उपाध्याय को अनवस्थाप्य, अकृतयोगी को मूल, गीतार्थ, स्थिर और कृतयोगी भिक्षु को मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। 2214. अकृतयोगी स्थिर को छेद, कृतयोगी अस्थिर को भी छेद, अकृतयोगी और अस्थिर को छहगुरु, अगीतार्थ और स्थिर को भी छहगुरु प्रायश्चित्त दिया जाता है। 2215. अगीतार्थ, स्थिर और अकृतयोगी को छह लघु प्रायश्चित्त जानना चाहिए। अगीतार्थ, अस्थिर और कृतयोगी को भी छह लघु तथा अगीतार्थ, अस्थिर और कृतयोगी को छह लघु तथा अकृतयोगी को चतुर्गुरु प्रायश्चित्त जानना चाहिए। 2216, 2217. यह प्रायश्चित्त का एक आदेश (विकल्प) है। इसका दूसरा आदेश इस प्रकार है - १.आचार्य और उपाध्याय गीतार्थ ही होते हैं। भिक्षु गीतार्थ और अगीतार्थः-दोनों होते हैं। इसलिए आचार्य आदि त्रिविध भेद हैं। व्यवहारभाष्य के अनुसार इन तीनों के आभवद् प्रायश्चित्त और उसकी दानविधि सामर्थ्य और असामर्थ्य के आधार पर भिन्न होती है।' १.व्यभा 169 मटी प.५८।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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