________________ 490 जीतकल्प सभाष्य पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त कृतयोगी आचार्य को अनवस्थाप्य, अकृतयोगी आचार्य को मूल, कृतकरण उपाध्याय को मूल तथा अकृतकरण उपाध्याय को छेद–इस प्रकार इनको अर्धअपक्रांति से जानना चाहिए। 2218. इसी प्रकार अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त की प्राप्ति में भी दो आदेश हैं -यहां निरपेक्ष की बात नहीं कही गई है क्योंकि निरपेक्ष में अनवस्थाप्य और पारञ्चित-ये दोनों प्रायश्चित्त नहीं होते हैं। 2219, 2220. अब मूल प्रायश्चित्त-प्राप्ति का प्रसंग है। निरपेक्ष में सबको मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होने पर भी कृतयोगी गुरु को मूल, अकृतयोगी को छेद, कृतकरण उपाध्याय को छेद तथा अकृतकरण उपाध्याय को छहगुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। इसे अर्धअपक्रांति से जानना चाहिए, यह दूसरा आदेश है। 2221, 2222. सापेक्ष की अपेक्षा से कृतयोगी गुरु को छेद, अकृतकरण गुरु को छह गुरु, कृतकरण उपाध्याय को छह गुरु, अकृतयोगी उपाध्याय को छहलघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। इस प्रकार इसे अर्धअपक्रांति से जानना चाहिए। यह छहगुरु प्रायश्चित्त से प्रारंभ होकर गुरु भिन्नमास तक जाकर स्थित होता है। 2223. छहलघु से प्रारम्भ होकर लघु भिन्नमास में तथा चतुर्गुरु से प्रारम्भ होकर गुरु बीस में स्थित होता है। 2224. चतुर्लघु बीस में, गुरुमास गुरु पन्द्रह में, लघुमास लघु पन्द्रह में तथा गुरुभिन्न गुरुदश में स्थित होता 2225. लघुभिन्न दशलघु में, गुरु बीस अंत में गुरु पणक में आकर स्थित होता है। लघु बीस प्रारम्भ होकर अंत में लघु पणग में आकर स्थित होता है। 2226. गुरु पन्द्रह से प्रारम्भ होकर अंत में तेले में स्थित होता है। पन्द्रह लघु से प्रारम्भ होकर अंत में बेले तक आकर स्थित होता है। 2227. गुरुदश से प्रारम्भ होकर अंत में उपवास तक तथा लघुदश से प्रारम्भ होकर अंत में आयम्बिल तक स्थित होता है। 2228. गुरु पणक से प्रारम्भ होकर अंत में एकासन तथा लघु पणक से प्रारम्भ होकर अंत में पुरिमार्ध तक स्थित होता है। 2229. उपवास से प्रारम्भ होकर अंत में निर्विगय प्रायश्चित्त में स्थित होता है। यह यंत्रविधि की रचना संक्षेप में कही गयी है। 2230. यह अयतना से सापेक्षों का प्रायश्चित्त-विधान है। यदि गीतार्थ सकारण और यतना से दोष सेवन करता है तो वह शुद्ध है। 1. व्यवहारभाष्य की टीका में यंत्रकविधि बनाने की विस्तार से चर्चा की गई है। १.व्यभापीटी प.५५-५७।