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________________ अनुवाद-जी-७३ 491 2231. यह सकारण यतनासेवी के प्रायश्चित्त-दान का वर्णन किया गया अथवा आचार्य आदि का यह यथाक्रम प्रायश्चित्त है। 2232. आचार्य और उपाध्याय दो प्रकार के होते हैं –कृतकरण और अकृतकरण। भिक्षु भी दो प्रकार के होते हैं-अभिगत-गीतार्थ और अनभिगत-अगीतार्थ। 2233. गीतार्थ दो प्रकार के होते हैं-कृतकरण और अकृतकरण। अगीतार्थ भी दो प्रकार के हैं-स्थिर और अस्थिर। स्थिर दो प्रकार के होते हैं-कृतकरण और अकृतकरण / अस्थिर भी दो प्रकार के होते हैंकृतकरण और अकृतकरण। 2234. इन सबको समान रूप से पंचक (पांच दिन-रात) की प्राप्ति होने पर अविशेष रूप से पणग (निर्विगय) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, वह उपवास आदि से विज्ञेय है। 2235, 2236. कृतकरण आचार्य को पणग प्रायश्चित्त ही देना चाहिए। अकृतकरण आचार्य को उपवास तथा कृतकरण उपाध्याय को भी उपवास का प्रायश्चित्त देना चाहिए। अकृतकरण उपाध्याय को आयम्बिल, गीतार्थ और कृतकरण भिक्षु को आयम्बिल तथा गीतार्थ अकृतकरण भिक्षु को एकासन का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2237, 2238. अगीतार्थ, स्थिर और कृतकरण भिक्षु को एकासन, अकृतकरण को पुरिमार्ध, अगीतार्थ, अस्थिर, कृतकरण को नियमतः पुरिमार्ध, अस्थिर और अकृतकरण को निर्विगय अथवा अगीतार्थ और अस्थिर को आचार्य अपनी इच्छा से कोई अन्य प्रायश्चित्त भी दे सकते हैं। 2239. इसी प्रकार सबको यदि दश रात्रि प्रायश्चित्त की प्राप्ति हुई है तो कृतकरण आचार्य को दशरात्रि प्रायश्चित्त ही देना चाहिए। 2240, 2241. अकृतकरण आचार्य को पणग, कृतकरण उपाध्याय को भी पणग, अकृतकरण * उपाध्याय को उपवास-इसी प्रकार अंत में पुरिमार्ध तक अर्ध अपक्रान्ति से जानना चाहिए / इस प्रकार पन्द्रह से प्रारम्भ होकर अंत में एकासन तक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2242. बीस से प्रारम्भ होकर आयम्बिल में तथा भिन्नमास उपवास में स्थित होता है। मास से प्रारम्भ होकर पंचक में तथा दो मास दश रात्रि में स्थित होता है। 2243. तीन मास पन्द्रह में, चार मास बीस रात्रि में, पांच मास पच्चीस में तथा छह मास एक मास में स्थित होता है। 2244. छेद दो मास में, मूल तीन मास में, अनवस्थाप्य चार मास में तथा पाराञ्चित पांच मास में स्थित होता है। 2245. ये तप योग्य लघु प्रायश्चित्त संक्षेप में कहे गए हैं। इसी प्रकार गुरुक प्रायश्चित्त भी अर्धअपक्रान्ति से जानने चाहिए। 2246, 2247. इसी प्रकार मिश्र प्रायश्चित्त भी अर्धअपक्रान्ति से जानने चाहिए। इसी प्रकार दश दिन से
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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