________________ 492 जीतकल्प सभाष्य लेकर मास, सातिरेक मास यावत् छह मास तक जानना चाहिए। वहां भी उद्घात-अनुद्घात और मिश्र को अर्धअपक्रान्ति से सर्वत्र जानना चाहिए। 2248, 2249. अथवा निर्विगय, पुरिमार्ध, एकासन, आयम्बिल, उपवास, पणग, दस, पन्द्रह, बीस, पच्चीस, लघुमास, गुरुमास, चतुर्लघु, चतुर्गुरु, छड्लघु, छड्गुरु, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पाराञ्चितइसी प्रकार पणग आदि का हास होता है। 2250. गुरुक, लघुक, मिश्रक को यहां भी वैसे ही जानना चाहिए। यह दिया जाने वाला प्रायश्चित्त-दान बुद्धि से जानना चाहिए। 2251. इसी प्रकार साध्वी के लिए भी प्रायश्चित्त की यही विधि है। केवल इतना विशेष है कि अनवस्थाप्य और पाराञ्चिक प्रायश्चित्त साध्वी को नहीं दिया जाता। 2252. अथवा संक्षेप में पुरुष दो प्रकार के होते हैं-१. एकलविहारी 2. गणप्रतिबद्धविहारी। 2253. गच्छ से निर्गत एकलविहारी तीन प्रकार के होते हैं-१.प्रतिमाप्रतिपन्नक 2. जिनकल्पिक 3. स्वयंबुद्ध। 2254. वे नित्य अप्रमत्त होते हैं। कभी कर्म के उदय से यदि वे अतिचार का सेवन करते हैं तो उसी क्षण नियमतः साक्षी से प्रस्थापना-आलोचना करते हैं। 2255. संहनन और धृति से युक्त, सत्त्वाधिष्ठित, महान् योग को धारण करने वाले जिनकल्पी साधु अत्यधिक प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी निरनुग्रह रूप से सारे प्रायश्चित्त का वहन करते हैं। 2256. जो आलोचना में उपयुक्त हैं, वे आलोचना से शुद्ध हो जाते है। मूल प्रायश्चित्त तक वे स्वयं शुद्ध हो जाते हैं। 2257. बल और वीर्य का गोपन नहीं करने वाले, यथावादी तथाकारी, धीर तथा उत्तमश्रद्धा से युक्त जिनकल्पी मुनि नियमतः शुद्ध हो जाते हैं। 2258. गणप्रतिबद्ध साधु दो प्रकार के होते हैं-जिनप्रतिरूपी और स्थविर। जिनप्रतिरूपी दो प्रकार के होते हैं -परिहारविशुद्धि तप वाले तथा यथालंदक। 2259. परिहारविशुद्धि तप वाले नित्य अप्रमत्त होते हैं। यदि कर्म के उदय से कहीं थोड़ा भी प्रमाद हो जाए तो वे कल्पस्थित के पास तत्काल प्रस्थापना (आलोचना) करते हैं। 2260. संहनन और धृति से युक्त, सत्त्वसम्पन्न तथा महान् योग को धारण करने वाले वे धीर पुरुष अत्यधिक प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी निरनुग्रह रूप से उसका वहन करते हैं। १.जो अवसन्न साधुओं को संयम में स्थिर करता है, वह स्थविर कहलाता है। स्थविर तीन प्रकार के होते हैं १.जाति स्थविर-साठ वर्ष की वय वाला श्रमण। 2. पर्याय स्थविर-बीस वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण। 3. श्रुत स्थविर स्थानांग और समवायांग का धारक। स्थानांग सूत्र में दश प्रकार के स्थविरों का उल्लेख मिलता है। 1. स्था 10/136