________________ अनुवाद-जी-७४-७९ 493 2261. आलोचना से लेकर मूल पर्यन्त आठ प्रकार की प्रस्थापना होती है-इनकी प्रस्थापना करके धीर और विशुद्ध चारित्र वाले मुनि शुद्ध हो जाते हैं। 2262. स्थविर भी विशुद्धतर होते हैं। उनके द्वारा भी कहीं कोई अतिचार का सेवन होता है तो वे तत्काल गुरु के पास उसकी प्रस्थापना-आलोचना करते है। 2263. प्रस्थापना की विधि को नहीं जानता हुआ आचार्य स्वयं को लांछित करता है तथा शिष्य की शुद्धि भी नहीं कर सकता। 2264. पुरुष द्वार सम्पन्न हो गया अब मैं प्रतिसेवना के बारे में कहूंगा। वह प्रतिसेवना आकुट्टिका आदि चार प्रकार की कही गई है। 74. प्रतिसेवना' चार कारणों से होती है-जान बूझकर, दर्प से, प्रमाद' से और कल्प से। प्रतिसेव्य के चार प्रकार हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव और प्रतिसेवक का अर्थ है-पुरुष। 2265. आकुट्टिका-जानते हुए हिंसा आदि प्रतिसेवना करना, वल्गन-कूदना आदि दर्प प्रतिसेवना है। कंदर्प आदि अथवा कषाय आदि को प्रमाद प्रतिसेवना जानना चाहिए। 2266. कषाय, विकथा, विकट-मदिरा, इंद्रिय और निद्रा-ये पंचविध प्रमाद हैं। प्रमाद का वर्णन किया गया, अब मैं कल्प प्रतिसेवना कहूंगा। 2267. गीतार्थ, कृतयोगी, उपयुक्त और यतनायुक्त मुनि जो प्रतिसेवना करता है, वह कल्प प्रतिसेवना है। गाथा (जीसू 74) के पश्चार्द्ध का अर्थ मैं संक्षेप इस प्रकार कहूंगा। 2268. द्रव्य से आहार आदि तथा क्षेत्र से मार्ग आदि जानना चाहिए। दुर्भिक्ष आदि काल तथा हष्ट और ग्लान आदि भाव कहलाता है। 75. जो जीत प्रायश्चित्त का दान कहा गया, वह प्रायः प्रमाद सहित का होता है। दर्प प्रतिसेवना वाले के प्रायश्चित्त में एक स्थान की वृद्धि हो जाती है।' १.प्रतिसेवना का अर्थ है-दोष का आचरण / ओघनियुक्ति में प्रतिसेवना के निम्न एकार्थक मिलते हैं-मलिनता, भंग, विराधना, स्खलना, उपघात, अशोधि और शबलीकरण। यह दो प्रकार की होती है-१. मूलगुण प्रतिसेवना 2. उत्तरगुण प्रतिसेवना। जीतकल्पभाष्य में प्रतिसेवना के चार भेद किए हैं-१. दर्प प्रतिसेवना 2. कल्प प्रतिसेवना। 3. आकुट्टिका प्रतिसेवना 4. प्रमाद प्रतिसेवना। निशीथ चूर्णिकार ने इनका समाहार दो में कर दिया है-दर्पप्रतिसेवना 2. कल्प प्रतिसवेना। दर्प प्रतिसेवना मूलगुण और उत्तरगुण दोनों से सम्बन्धित होती है। विस्तार हेतु देखें इसी ग्रंथ की गा. 588 का टिप्पण। १.ओनि 788; पडिसेवणा मइलणा, भंगो य विराहणाय खलणाय। उवघाओ य असोही,सबलीकरणं च एगट्ठा। २.निचू भा.१ पृ. 42, तम्हा चउहा पडिसेवणा दुविहा भवति दप्पिया कप्पिया य। 2. प्रमाद प्रतिसेवना का अर्थ है-दिन या रात में प्रतिलेखन या प्रमार्जन नहीं करते हुए प्राणातिपात आदि करना। १.जीचू पृ.२५; पमाओ नाम जं राओ दिया वा अप्पडिलेहंतो अपमज्जयंतो य पाणाइवायाइयमावज्जइ। 3. इस गाथा का तात्पर्य यह है कि यदि प्रमाद से निर्विकृतिक से तेले तक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तो दर्प से . प्रतिसेवना करने पर साधु को पुरिमा से लेकर चोले तक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। .