________________ 494 जीतकल्प सभाष्य 2269. जो जीत प्रायश्चित्त का दान निर्विगय से तेले तक का कहा गया, वह तृतीय प्रमाद प्रतिसेवना युक्त के लिए है। 2270. दर्प प्रतिसेवना में पुरिमार्ध से लेकर अंत में चोले तक का प्रायश्चित्त देना चाहिए। अब आकुट्टिका-जानते हुए प्रतिसेवना के बारे में कहूंगा। 76. जानते हुए अपराध सेवन करने पर स्थानान्तर अथवा स्वस्थान प्रायश्चित्त देना चाहिए। कल्पप्रतिसेवना करने पर प्रतिक्रमण अथवा तदुभय प्रायश्चित्त निर्दिष्ट है। 2271. जानबूझकर किए जाने वाले अपराध में एकासन से लेकर अंत में पंचोला तप तक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। प्राणातिपात अपराध के अन्तर्गत स्वस्थान' में मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2272. कल्प प्रतिसेवना होने पर मिथ्याकार-मिच्छामि दुक्कडं अथवा तदुभय-आलोचना और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त से शुद्धि होती है। 77. आलोचना काल में संक्लिष्ट, विशुद्ध या मध्यम भावों को जानकर कम, अधिक या उतनी ही मात्रा में प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2273. आलोचना के काल में यदि साधु दोष को छिपाता है अथवा माया करता है तो वह संक्लिष्ट चित्त वाला होता है। उसको कम प्रतिसेवना में भी अधिक प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2274. जो आलोचना-काल में संवेग को प्राप्त होता है, वह निंदा और गर्हा से विशुद्ध चित्त वाला होता है, उसे अल्प प्रायश्चित्त दिया जाता है। 2275. जो आलोचना करता हुआ न दोष को छिपाता है और न अपने दोषों की निंदा करता है, वह मध्यम परिणाम वाला होता है, उसको प्रतिसेवना के अनुसार उसी मात्रा में प्रायश्चित्त देना चाहिए। 78. इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र आदि से अधिक गुण वाला अथवा गुरु-सेवा में नियुक्त के द्वारा अपराध होने वाले को अधिक प्रायश्चित्त देना चाहिए। द्रव्य आदि से हीन को हीनतर प्रायश्चित्त अथवा उससे मुक्त भी कर देना चाहिए। 2276. इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि बहुगुण के आधार पर प्रायश्चित्त देना चाहिए। गुरु की सेवा प्रधान होती है, उसमें अधिक प्रायश्चित्त भी देना चाहिए। 2277. द्रव्य आदि के हीन या हीनतर होने पर प्रायश्चित्त भी हीन देना चाहिए। द्रव्य आदि से पूर्णतः हीन को प्रायश्चित्त मुक्त किया जा सकता है। 79. यदि प्रतिसेवक अन्य तप का वहन करता है तो अधिक प्रायश्चित्त को भी जीतव्यवहार से प्रायश्चित्त-मुक्त किया जा सकता है। वैयावृत्त्य करने वाले साधु को अनुग्रहपूर्वक उतना ही प्रायश्चित्त दिया जाता है, जितना वह वैयावृत्त्य करते हुए वहन कर सके। 2278, 2279. जोषण, क्षपण और मुंचन-ये एकार्थक शब्द हैं। प्रायश्चित्त से मुक्त किसको किया जाता है? यदि वह छहमास आदि अन्य तप का वहन कर रहा है, उस समय पांच दिन बीतने पर यदि उसने 1. जिस अपराध में प्रायः जो प्रायश्चित्त निश्चित होता है, वह स्वस्थान प्रायश्चित्त कहलाता है। . १.जीचू पृ. 25 ; सट्ठाणं जं जम्मि वा अवराहे सव्वबहुयं तस्स दिज्जइ, तं चेव सट्ठाणं होइ।