________________ कथाएं : परि-२ 607 उसका चित्त विक्षिप्त हो गया। अब वह हर घर के द्वार में प्रवेश करके 'धर्मलाभ' के स्थान पर 'सिंहकेशरक मोदक' कहने लगा। पूरे दिन और रात्रि के दो प्रहर बीतने पर भी वह मोदक के लिए घूमता रहा। आधी रात्रि में उसने एक श्रावक के घर प्रवेश किया। 'धर्मलाभ' के स्थान पर उसने 'सिंहकेशरक' शब्द का उच्चारण किया। वह श्रावक बहुत गीतार्थ और दक्ष था। उसने सोचा—'निश्चय ही इस मुनि ने कहीं भी सिंहकेशरक मोदक प्राप्त नहीं किए इसलिए इसका चित्त विक्षिप्त हो गया है।' मुनि की चैतसिक स्थिरता हेतु श्रावक बर्तन भरकर सिंहकेशरक मोदक लेकर आया और निवेदन किया मने। इन मोदकों को आप ग्रहण करो।' मनि सवत ने उनको ग्रहण कर लिया। मो करते ही उसका चित्त स्वस्थ हो गया। श्रावक ने पूछा-'आज मैंने पूर्वार्द्ध का प्रत्याख्यान किया था, वह पूर्ण हुआ या नहीं?' मुनि सुव्रत ने काल-ज्ञान हेतु उपयोग लगाया। मुनि ने आकाश-मण्डल को तारागण से परिमण्डित देखा। उसको चैतसिक भ्रम का ज्ञान हो गया। मुनि ने पश्चात्ताप करना प्रारंभ कर दिया—'हा! मूढ़तावश मैंने गलत आचरण कर लिया। लोभ से अभिभूत मेरा जीवन व्यर्थ है।' श्रावक को संबोधित करते हुए मुनि ने कहा—'तुमने पूर्वार्द्ध प्रत्याख्यान की बात कहकर मुझे संसार में डूबने से बचा लिया। तुम्हारी प्रेरणा मेरे लिए संबोध देने वाली रही।' आत्मा की निंदा करते हुए उसने विधिपूर्वक मोदकों का परिष्ठापन किया तथा ध्यानानल से क्षणमात्र में घाति-कर्मों का नाश कर दिया। आत्मचिंतन से मुनि को कैवल्य की प्राप्ति हो गई। 47. विद्या-प्रयोग : भिक्षु-उपासक का कथानक . गंधसमृद्ध नगर में धनदेव नामक भिक्षु उपासक था। साधुओं के घर आने पर वह उनको भिक्षा में कुछ नहीं देता था। एक बार कुछ तरुण साधु एक साथ एकत्रित होकर वार्तालाप करने लगे। एक युवक साधु ने कहा—'यह धनदेव अत्यन्त कंजूस है, साधुओं को कुछ भी नहीं देता है। क्या कोई साधु ऐसा है, जो इससे घृत, गुड़ आदि का दान ले सके?' उनमें से एक साधु बोला—'यदि तुम लोगों की इच्छा है तो मुझे विद्यापिंड की आज्ञा दो, मैं उससे दान दिलवाऊंगा।' साधु उसके घर गया। घर को अभिमंत्रित करके वह साधुओं से बोला-'क्या दिलवाऊं?' साधुओं ने कहा-'घृत, गुड़ और वस्त्र आदि।' धनदेव ने प्रचुर मात्रा में साधुओं को घृत, गुड़ आदि दिया। उसके बाद क्षुल्लक ने विद्या प्रतिसंहत कर ली। भिक्षु उपासक धनदेव के ऊपर से मंत्र का प्रभाव समाप्त हो गया। वह स्वभावस्थ हो गया। जब उसने घृत, गुड़ आदि को देखा तो उसे वे मात्रा में कम दिखाई दिए। उसने पूछा—'मेरे घी, गुड़ आदि की चोरी किसने की?' इस प्रकार कहते हुए उसने विलाप करना प्रारंभ कर दिया। तब परिजनों ने उसे समझाते हुए कहा—'तुमने स्वयं अपने हाथों 1. जीभा 1414-17, पिनि 220/1,2 मटी प. 139, निभा एवं उसकी चूर्णि में केवल क्रोधपिण्ड और मानपिण्ड से संबंधित कथाएं हैं / निशीथसूत्र में मायापिण्ड और लोभपिण्ड से संबंधित सूत्र का उल्लेख है लेकिन उसकी व्याख्या एवं कथा नहीं है। यह अन्वेषण का विषय है कि ऐसा क्यों हुआ? इस संदर्भ में यह संभावना की जा सकती है कि संपादित . निशीथ भाष्य एवं चूर्णि में वह प्रसंग छूट गया हो अथवा ग्रंथकार ने उसे सरल समझकर छोड़ दिया हो।