________________ 606 जीतकल्प सभाष्य कहा—'तुम्हारी इस प्रकार की उन्मत्त चेष्टाओं को देखकर सकल निधान का कारण तुम्हारा पति तुमसे विरक्त हो गया है। यदि तुम उसे लौटा सको तो प्रयत्न करो, अन्यथा जीवन चलाने के लिए धन की याचना करो।' दोनों पत्नियां वस्त्र पहनकर आषाढ़भूति के पास दौड़ी और पैरों में गिर पड़ीं। उन्होंने निवेदन . करते हुए कहा—'स्वामिन्! हमारे एक अपराध को क्षमा करके आप पुनः घर लौट आओ। विरक्त होकर हमें इस प्रकार मझधार में मत छोड़ो।' उनके द्वारा ऐसा कहने पर भी उसका मन विचलित नहीं हुआ। पत्नियों ने कहा—'यदि आप गृहस्थ जीवन नहीं जीना चाहते हैं तो हमारे लिए जीवन चलाने जितने धन की व्यवस्था कर दो, जिससे आपकी कृपा से हम अपना शेष जीवन भलीभांति बिता सकें।' अनुकम्पावश आषाढ़भूति ने उनके इस निवेदन को स्वीकार कर लिया और पुनः घर आ गया। .... आषाढ़भूति ने भरत चक्रवर्ती के चरित्र को प्रकट करने वाले 'राष्ट्रपाल' नामक नाटक की तैयारी की। विश्वकर्मा ने राजा सिंहरथ को निवेदन किया कि आषाढ़भूति ने 'राष्ट्रपाल' नामक नाटक की रचना की है। आप उसका आयोजन करवाएं। नाटक के मंचन हेतु उनको आभूषण पहने हुए 500 राजपुत्र चाहिए। राजा ने 500 राजपुत्रों को आज्ञा दे दी। आषाढ़भूति ने उनको सम्यक् प्रकार से प्रशिक्षित किया। नाटक प्रारंभ हुआ। आषाढभूति ने भरतचक्रवर्ती का चरित्र प्रस्तुत किया और राजपत्रों ने भी यथायोग्य अभिनय किया। किस प्रकार भरत ने षट्खण्ड पर अधिकार किया, चतुर्दश रत्न एवं नौ निधियों को प्राप्त किया, आदर्श गृह में स्थित होकर कैवल्य प्राप्त किया तथा 500 राजकुमारों के साथ दीक्षा ग्रहण की, नाटक में यह सब अभिनय प्रस्तुत किया गया। अंत में नाटक से संतुष्ट राजा ने तथा सभी लोगों ने यथाशक्ति हार, कुंडल आदि आभरण तथा प्रभूत मात्रा में वस्त्र आदि फेंके। सब लोगों को धर्मलाभ देकर आषाढ़भूति 500 राजकुमारों के साथ राजकुल से बाहर जाने लगा। राजा ने उसको रोका। उसने उत्तर दिया 'क्या भरतचक्रवर्ती प्रव्रज्या लेकर वापिस संसार में लौटा था, वह नहीं लौटा तो मैं भी नहीं लौटूंगा।' सपरिवार आषाढ़भूति गुरु के समीप गया। वस्त्र-आभरण आदि सब अपनी दोनों पत्नियों को दे दिए और पुनः दीक्षा ग्रहण कर ली। वही नाटक विश्वकर्मा ने कुसुमपुर नगर में भी प्रस्तुत किया। वहां भी 500 क्षत्रिय प्रव्रजित हो गए। लोगों ने सोचा इस प्रकार क्षत्रियों द्वारा प्रव्रज्या लेने पर यह पृथ्वी क्षत्रिय रहित हो जाएगी अतः उन्होंने नाटक को अग्नि में जला दिया। (यह मायापिंड का उदाहरण है)। 46. लोभपिण्ड : सिंहकेशरक मोदक-दृष्टान्त चम्पा नामक नगरी में सुव्रत नामक साधु प्रवास कर रहा था। एक बार वहां मोदकोत्सव का आयोजन हुआ। उस दिन सुव्रत मुनि ने सोचा कि मुझे आज किसी भी प्रकार सिंहकेशरक मोदक प्राप्त करने हैं। लोगों के प्रतिषेध करने पर भी वह दो प्रहर तक घूमता रहा। मोदक की प्राप्ति न होने पर 1. जीभा 1398-1410, पिनि 219/9-15, मटी प 137-39 /