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________________ 608 जीतकल्प सभाष्य से साधुओं को घी, गुड़ आदि का दान दिया है, फिर तुम इस प्रकार विलाप क्यों कर रहे हो?' उनकी बात सुनकर वह मौन हो गया। 48. मंत्र-प्रयोग : मुरुण्ड राजा एवं पादलिप्तसूरि कथानक पाटलिपुत्र' नगर में मुरुण्ड नामक राजा राज्य करता था। वहां पादलिप्त आचार्य का प्रवास था। एक बार मुरुण्ड राजा के शिर में अतीव वेदना प्रादुर्भूत हो गई। विद्या, मंत्र आदि के द्वारा भी कोई उसे शान्त नहीं कर सका। राजा ने पादलिप्त आचार्य को बुलाया, उनका स्वागत करते हुए राजा ने अकारण होने वाली शिरोवेदना के बारे में बताया। लोगों को ज्ञात न हो इस प्रकार मंत्र का ध्यान करते हुए वस्त्र के मध्य में अपनी दाहिनी जंघा के ऊपर अपने दाहिने हाथ की प्रदेशिनी अंगुलि को जैसे-जैसे घुमाया, वैसे-वैसे राजा की शिरोवेदना दूर होने लगी। धीरे-धीरे पूरे शिर का दर्द दूर हो गया। मुरुण्ड राजा आचार्य पादलिप्त का अतीव भक्त बन गया। उसने आचार्य को विपुल भक्त-पान आदि का दान दिया। 49. चूर्ण-प्रयोग : क्षुल्लकद्वय एवं चाणक्य कथानक कुसुमपुर नगर में चन्द्रगुप्त नामक राजा राज्य करता था। उसके मंत्री का नाम चाणक्य था। वहां जंघाबल से हीन सुस्थित' नामक आचार्य प्रवास करते थे। एक बार वहां भयंकर दुर्भिक्ष हो गया। आचार्य ने सोचा 'समृद्ध नामक शिष्य को आचार्य पद पर स्थापित करके सकल गच्छ को सुभिक्ष वाले स्थान में भेज दूंगा।' आचार्य ने उसको एकान्त में योनिप्राभृत की वाचना देनी प्रारंभ की। किसी भी प्रकार दो क्षुल्लकों ने अदृश्य करने वाले अञ्जन बनाने की व्याख्या सुन ली। उस अञ्जन को आंखों में आंजने से व्यक्ति किसी को दिखाई नहीं देता। योनिप्राभृत की व्याख्या में समर्थ होने के बाद आचार्य ने अपने शिष्य समृद्ध को आचार्यपद पर स्थापित कर दिया। आचार्य ने सकल गच्छ के साथ उसको देशान्तर में भेज दिया। आचार्य स्वयं एकाकी रूप से वहां रहने लगे। कुछ दिनों के बाद आचार्य के स्नेह से अभिभूत होकर वे दोनों क्षुल्लक आचार्य के पास आए। जो कुछ भी प्राप्त होता, आचार्य उसे क्षुल्लक भिक्षुओं को बांटकर आहार करते थे। वे स्वयं कम आहार लेते भिक्षुओं को अधिक देते थे। आहार की कमी से आचार्य का शरीर दुर्बल हो गया। तब क्षुल्लकद्वय ने सोचा आचार्य को ऊणोदरी हो रही है अतः हम पूर्वश्रुत अञ्जन का प्रयोग करके चन्द्रगुप्त के साथ भोजन करेंगे। उन्होंने वैसा ही किया। आहार की कमी से चन्द्रगुप्त का शरीर १.जीभा 1439-42, पिनि 227/1,2 मटी प.१४१,१४२, निभा 4457,4458, चू पृ. 422 / 2. पिनि की मलयगिरीया टीका में पाटलिपुत्र के स्थान पर प्रतिष्ठानपुर नाम का उल्लेख मिलता है। 3. जीभा 1444, 1445, पिनि 228/1, मटी प. 142, निभा 4460, चू पृ. 423 / 4. निशीथ चूर्णि (भा. 3 पृ. 423) तथा पिण्डविशुद्धिप्रकरण में पाटलिपुत्र नाम का उल्लेख है। पाटलिपुत्र का पुराना नाम कुसुमपुर था। ५.पिण्डविशुद्धिप्रकरण प.६७ में आचार्य का नाम संभूतविजय है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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