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________________ 136 जीतकल्प सभाष्य वायु का निरोध होने से गुरु अस्वस्थ हो सकते हैं।' ओघ नियुक्ति में इस संदर्भ में विमर्श किया गया है कि साधु को निष्क्रमण और प्रवेश के रास्ते को छोड़कर कायोत्सर्ग करना चाहिए। आने-जाने के रास्ते में कायोत्सर्ग करने से निम्न दोष उत्पन्न हो सकते हैं• उच्चार आदि से पीड़ित साधु वहां से बाहर नहीं जा सकने से उसे रोग हो सकता है। यदि वह उस रास्ते से जाता है तो कायोत्सर्ग का भंग होता है। * भिक्षा लेकर आने वाला साधु अंदर न जाने के कारण भार से क्लान्त हो सकता है। * कोई तपस्वी साधु गर्मी में संतप्त होकर भिक्षा लेकर आया है, वह यदि खड़े-खड़े प्रतीक्षा करे तो उसे मूर्छा हो सकती है। * अन्य सामान्य साधु भी गर्मी से तप्त होकर आया है तो उसको परिताप हो सकता है। * यदि ये सभी कायोत्सर्ग में स्थित उस मुनि को स्पर्श करते हुए या हटाते हुए अंदर प्रवेश करें तो आपस में कलह हो सकता है इसलिए अव्याबाध स्थान में कायोत्सर्ग करना चाहिए। * कायोत्सर्ग करते समय यदि वहां कोई गृहस्थ होता है तो मुनि को बिना प्रमार्जन किए ही कायोत्सर्ग में स्थित हो जाना चाहिए अन्यथा रजोहरण और निषद्या से कायोत्सर्ग के स्थान का प्रमार्जन करके कायोत्सर्ग में स्थित होना चाहिए। कायोत्सर्ग का प्रयोजन कायोत्सर्ग के प्रयोजन विकीर्ण रूप से आगम-साहित्य में मिलते हैं। आवश्यक सूत्र के अनुसार अविधिकृत आचरण का परिष्कार, प्रायश्चित्त, विशोधि, शल्य-उद्धरण के द्वारा पाप कर्मों का नाश करने के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग के कुछ मुख्य प्रयोजनों को निम्न बिन्दुओं में प्रस्तुत किया जा सकता है * कायोत्सर्ग पाप का निराकरण करने वाला तथा मंगल रूप अनुष्ठान है अतः कार्य में विघ्न न आए इस दृष्टि से वाचना आदि कार्य के प्रारम्भ में मंगल अनुष्ठान हेतु कायोत्सर्ग करना चाहिए।' 1. ओभा 153; पक्खे उस्सासाई, पुरतो अविणीय मग्गओ वाऊ। निक्खमपवेसवज्जण, भावासण्णे गिलाणाई / / 2. ओभा 154 टी पृ. 107 ; भारे वेयणखमगुण्हमुच्छपरियावछिंदणे कलहो। अव्वाबाहे ठाणे, सागारपमज्जणा जयणा।। 3. आव 5/3 ; तस्स उत्तरीकरणेणं, पायच्छित्तकरणेणं, विसोहीकरणेणं, विसल्लीकरणेणं, पावाणं कम्माणं णिग्घायणट्ठाए ठामि काउस्सग्गं। 4. आवनि 1031/4; पावुग्घाती कीरति, उस्सग्गो मंगलं ति उद्देसो। अणुवहियमंगलाणं, मा होज्ज कहिंचि णे विग्घं।।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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