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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 135 स्वप्न में प्राणिवध', मृषावाद, अदत्त, मैथुन और परिग्रह का सेवन करने पर सौ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। स्वप्न में मैथुन –दृष्टि-विपर्यास होने पर सौ तथा स्त्री-विपर्यास होने पर एक सौ आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है।' भगवती आराधना के अनुसार यदि उच्छ्वासों की संख्या विस्मृत हो जाए या संदेह हो जाए तो आठ उच्छ्वास अधिक करना चाहिए। आचार्य उमास्वाति के अनुसार अनेषणीय आहार, उपकरण आदि ग्रहण करने पर उसका परिष्ठापन करके कायोत्सर्ग करना चाहिए। जीवों से संसक्त सत्तू,दही, तक्र आदि वस्तुएं, जिनसे जीवों को अलग करना शक्य नहीं होता, उनको परिष्ठापित करके कायोत्सर्ग के साथ तप प्रायश्चित्त करना चाहिए। दिगम्बर परम्परा के अनुसार व्युत्सर्ग के निम्न स्थान हैं- बिना मौन आलोचना करने पर। * हरे तृणों पर चलने पर। * कीचड़ में चलने पर / * पेट से कीड़े निकलने पर। * शीत, मच्छर, वायु आदि के कारण रोमांचित होने पर। * आर्द्र भूमि के ऊपर चलने पर। * घुटने तक जल में प्रवेश करने पर। * दूसरे की आई हुई वस्तु का अपने लिए उपयोग करने पर। * नौका आदि द्वारा नदी पार करने पर। * पुस्तक के गिरने पर। * प्रतिमा के गिरने पर। * पांच स्थावर जीवों का विघात होने पर। * प्रतिक्रमण के समय व्याख्यान आदि में उपयुक्त होने पर। * मलमूत्र करने पर। कायोत्सर्ग करने का स्थान कायोत्सर्ग ऐसे स्थान पर करना चाहिए, जिससे स्वयं को एवं दूसरों को कोई विघ्न-बाधा न आए। उच्चार, प्रस्रवण आदि आवश्यक कार्य सम्पन्न करने के बाद भिक्षु जब गुरु के समक्ष ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण करे तो उस समय कायोत्सर्ग करते हुए गुरु के बगल में खड़ा होकर कायोत्सर्ग न करे, उसके उच्छ्वास के स्पर्श से गुरु को क्लान्ति हो सकती है। आगे भी खड़ा न रहे, इससे अविनय प्रकट होता है और लोकव्यवहार के विरुद्ध होता है। गुरु के पीछे खड़ा होकर भी कायोत्सर्ग न करे, इससे 1. मूलाचार में प्राणिवध आदि सारे अतिचारों में 108 श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। (मूला 661) २.जीसू 20 / ३.(क) आवचू 2 पृ. 267 ; मेहुणे दिट्ठीविप्परियासियाए . सतं, इत्थीए सह अट्ठसयं। (ख) व्यभा 120 इत्थीविप्परियासे तु सत्तावीससिलोइओ। 4. भआविटी पृ. 162 / ५.त 9/22 भाटी 251, 252 / 6. काअटी पृ.३४४ ; मौनादिना विना लोचनविधाने व्युत्सर्गः, हरिततृणोपरिगमने व्युत्सर्गः, कर्दमोपरि गमने व्युत्सर्गः, उदरकृमिनिर्गमने व्युत्सर्गः, हिमदंशमशकादिवातादिरोमाञ्चे व्युत्सर्गः, आर्द्रभूम्युपरिगमने व्युत्सर्गः, जानुमात्रजलप्रवेशे व्युत्सर्गः, परनिमित्तवस्तुनः स्वोपयोगविधाने व्युत्सर्गः, नावादिनदीतरणे व्युत्सर्गः, पुस्तकपतने व्युत्सर्गः, प्रतिमापतने व्युत्सर्गः, पञ्चस्थावरविघातादृष्टदेशतनुमलविसर्गादिषु व्युत्सर्गः, पक्षादिप्रतिक्रमणक्रियान्तरव्याख्यानप्रवृत्त्यादिषु व्युत्सर्गः, उच्चारप्रस्रवणादिषु व्युत्सर्गः।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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