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________________ 134 जीतकल्प सभाष्य कायोत्सर्ग के स्थान एवं श्वासोच्छ्वास का प्रमाण श्वेताम्बर परम्परा में अतिचारनिवृत्ति के लिए किया जाने वाला कायोत्सर्ग प्रायः श्वासोच्छ्वास पर आधारित है तथा अनेक प्रकार का है। दिगम्बर परम्परा में व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त में श्वासोच्छ्वास के प्रमाण के साथ काल-प्रमाण से भी अतिचार की विशोधि कही गई है। धवला के अनुसार ध्यानपूर्वक काय का व्युत्सर्ग करके एक मुहूर्त, एक दिन, एक पक्ष और एक महीना आदि काल तक स्थिर रहना व्युत्सर्ग नामक प्रायश्चित्त है। ____ विहार, शयन, स्वप्न-दर्शन, नौका से नदी-संतार तथा पैरों से नदी पार करने पर ईर्यापथिक प्रतिक्रमण में पच्चीस श्वासोच्छ्वास (एक लोगस्स) का कायोत्सर्ग होता है। इसी प्रकार भक्त-पान, शयन, आसन के लिए गमनागमन करने पर, अर्हत् शय्या (जिनालय) तथा श्रमणशय्या (उपाश्रय) में आने-जाने पर तथा उच्चार प्रस्रवण का परिष्ठापन करने पर पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग प्राप्त होता है। सूत्र के उद्देश (वाचना देना), समुद्देश (अर्थ प्रदान करना) और अनुज्ञा (सूत्र और अर्थ को पढ़ाने की अनुमति) में सत्तावीस तथा प्रस्थापना एवं काल-प्रतिक्रमण में आठ श्वासोच्छ्वास (नमस्कार महामंत्र) का कायोत्सर्ग होता है। इसी प्रकार अकाल में स्वाध्याय, अविनीत को वाचना देने, गलत विधि से वाचना देने, श्रुत की अवहेलना करने तथा दूसरों को अर्थ की वाचना देने में भी कायोत्सर्ग का विधान यदि मुनि दूसरे गांव में जाते समय अथवा भिक्षाचर्या में थककर विश्राम करे, भिक्षाकाल में कहीं प्रतीक्षा करे, प्रात:राश करने कहीं अन्यत्र शून्यगृह में जाए, वर्षा आदि के कारण किसी आच्छन्न स्थान की गवेषणा करके वहां जाए, किसी संखडी-जीमनवार में जाने के लिए प्रतीक्षा करे तो ऐर्यापथिकी विशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करते हुए पच्चीस श्वासोच्छ्वास के कायोत्सर्ग का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। भिक्षा आदि के समय यदि बीच में कहीं विश्राम न करना पड़े तो गमनागमन का एक साथ प्रतिक्रमण हो जाता है अर्थात् केवल पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग ही किया जाता है अन्यथा गमन और आगमन का अलग-अलग कायोत्सर्ग किया जाता है।' 1. षट्ध पु. 13/5, 4, 26 पृ. 61 / श्वासोच्छ्वास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। (मूला 663) 2. आवनि 1031, व्यभा 110, जीसू 18 / 5. आवनि 1031/1 / 3. जी 19, व्यभा 111 / 6. आवनि 1031/2 हाटी पृ. 204 / 4. मूलाचार में स्वाध्याय, वंदन और प्रणिधान में भी सत्तावीस 7. व्यभा 112, 113 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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