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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 137 * किसी कार्य हेतु बाहर जाते समय यदि अपशकुन हो जाए तो आठ श्वासोच्छ्वास (एक नमस्कार महामंत्र) का कायोत्सर्ग करके अथवा आगम के दो श्लोकों का ध्यान करके फिर जाना चाहिए। दूसरी बार अपशकुन होने पर सोलह श्वासोच्छ्वास का तथा तीसरी बार अपशकुन होने पर रुककर शुभ शकुन की प्रतीक्षा करनी चाहिए। व्यवहार भाष्य के अनुसार तीसरी बार अपशकुन होने पर बत्तीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करना चाहिए। चौथी बार अपशकुन होने पर बाहर नहीं जाना चाहिए और न ही कोई नया कार्य प्रारम्भ करना चाहिए। * अस्वास्थ्य की स्थिति में भी कायोत्सर्ग का प्रयोग किया जाता था। प्रथम दिन कायोत्सर्ग दूसरे दिन निर्विगय फिर तीसरे दिन कायोत्सर्ग और चौथे दिन निर्विगय–इस प्रकार नौ दिन का प्रयोग किया जाता था। * विजयोदया टीका के अनुसार यह शरीर अशुचि, अनित्य, अपाययुक्त, दुर्वह, असार और दुःख का हेतु है, यह चिन्तन करके शरीर की ममता का निवारण करने के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए तत्त्वार्थ राजवार्तिक के अनुसार नि:संगत्व, निर्भयत्व, जीवन की आकांक्षा का त्याग, दोषों का उच्छेद तथा मोक्षमार्ग की प्रभावना-इन कारणों से व्युत्सर्ग करना चाहिए। / * देवता के आह्वान के लिए कायोत्सर्ग किया जाता था। निशीथभाष्य में एक प्रसंग आता है कि भयंकर अटवी में रास्ता भूलने पर वृषभ साधुओं ने वनदेवी का आह्वान करने के लिए कायोत्सर्ग किया। उसका आसन कम्पित हुआ। प्रकट होकर उसने सही मार्ग का पथदर्शन किया। अमुक व्यक्ति व्यन्तरदेव से प्रभावित होकर उपद्रव कर रहा है अथवा धातुओं के कुपित होने के कारण, इसका ज्ञान करने के लिए देवता की आराधना हेतु कायोत्सर्ग किया जाता था। देवता के अनुसार चिकित्सा की जाती थी। दो के बीच कौन सही हैं और कौन गलत, यह निर्णय करने के लिए भी देवता का कायोत्सर्ग किया जाता था। * अनुयोग का प्रारम्भ करने के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है। निशीथभाष्य एवं चूर्णि में उल्लेख मिलता है कि स्वाध्याय की प्रस्थापना हेतु उद्घाट कायोत्सर्ग करना चाहिए। उपाश्रय में कहीं किसी का दांत गिर जाए तो उसकी गवेषणा करनी चाहिए। मिल जाने पर सौ हाथ की दूरी पर उसका - 1. आवचू 2 पृ. 266, 267 / दासः दोषोच्छेदो मोक्षमार्गभावनापरत्वमित्येवमाद्यों २.व्यभा 117. 118 / व्युत्सर्गोऽभिधीयते। 3. व्यभा 2135 मटी प. 77 / 6. निभा 5695 चू पृ. 118 / 4. भआविटी पृ. 161 / 7. व्यभा 1098 मटी प.३२। 5. तवा 9/26 पृ.६२५; नि:सङ्गत्वं निर्भयत्वं जीविताशाव्य- 8. व्यभा 1247 मटी प.६१। 9. व्यभा 2651 मटी प.३७ ; अनुयोगारंभणिमित्तं कायोत्सर्गम्।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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