________________ 138 जीतकल्प सभाष्य परिष्ठापन करना चाहिए। यदि दांत न मिले तो उद्घाट कायोत्सर्ग करके स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिए। * सूक्ष्म प्रमाद पर विजय प्राप्त करने के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए। * स्वाध्याय के कालग्रहण के लिए पांच मंगल (आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग किया जाता है।) कुछ आचार्य मानते हैं कि पांच श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करना चाहिए। आचार्य मलयगिरि के अनुसार श्रद्धा, मेधा, धृति और धारणा के विकास हेतु कायोत्सर्ग करना चाहिए। * जैसे शकट और रथ का चक्र अथवा गृह के भग्न होने पर उसे सांधा जाता है, वैसे ही मूलगुण और उत्तरगुणों के खंडित और विराधित होने पर कायोत्सर्ग द्वारा उसको संस्कृत–परिष्कृत किया जाता है। सभी एकरात्रिकी आदि प्रतिमाओं के अनुष्ठान को उपसर्ग रहित पूर्ण करने के लिए कायोत्सर्ग किया जाता था। व्युत्सर्ग तप और व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त में अन्तर राजवार्तिक में आचार्य अकलंक ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि प्रायश्चित्त के भेदों में व्युत्सर्ग का उल्लेख है तथा निर्जरा के बारह भेदों में भी व्युत्सर्ग आन्तरिक तप है, यह पुनरुक्ति क्यों? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि अतिचार होने पर उसकी शुद्धि हेतु प्रायश्चित्त में प्राप्त व्युत्सर्ग नियत काल के लिए किया जाता है लेकिन तप रूप में उल्लिखित व्युत्सर्ग सतत करणीय है।' कायोत्सर्ग के लाभ कायोत्सर्ग के लाभ का आगमों में प्रकीर्ण रूप से वर्णन मिलता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कायोत्सर्ग के लाभ बताते हुए भगवान् महावीर कहते हैं-'कायोत्सर्ग से जीव अतीत और वर्तमान के प्रायश्चित्त योग्य कर्मों का विशोधन करता है। ऐसा करने से व्यक्ति भार को नीचे रख देने वाले भारवाहक की भांति हल्के हृदय वाला हो जाता है। वह प्रशस्त ध्यान में लीन होकर सुखपूर्वक विहार करता है। भाष्यकार ने चार अनंत निर्जरा के स्थानों में एक स्थान कायोत्सर्ग को माना है।' नियुक्तिकार ने कायोत्सर्ग की पांच निष्पत्तियां बताई हैं -- 1. देहजाड्यशुद्धि-श्लेष्म आदि दोषों के क्षीण होने से देह की जड़ता नष्ट होती है। १.निभा 6111 चू पृ. 237 ; जति दंतो पडितो सो पयत्ततो 4. व्यभा 546 मटी प. 29 / गवेसियव्वो, जइ दिट्ठो तो हत्थसतातो परं विगिंचियव्यो। 5. आवनि 1016 / अह ण दिवो तो उग्घाडकाउस्सग्गं काउं सज्झायं करेंति। 6. व्यभा 798 टी प. 96 / 2. पंव 479; 7. तवा 9/26 पृ.६२५ / जीवो पमायबहुलो, तब्भावणभाविओ अ संसारे। 8. उ 29/13 / तत्थ वि संभाविज्जइ, सुहमो सो तेण उस्सग्गो।। 9. जीभा 455, आवनि 1040/1 / 3. आवनि 954, हाटी 2 पृ. 173 / 10. आवनि 995/1 /