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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 139 2. मतिजाड्यशुद्धि-जागरूकता के कारण बुद्धि की जड़ता नष्ट होती है। 3. सुख-दुःख-तितिक्षा-सुख-दुःख को सहन करने की शक्ति का विकास होता है। 4. अनुप्रेक्षा -अनित्य आदि भावनाओं से मन को भावित करने का अवसर प्राप्त होता है। 5. एकाग्रता -एकाग्रचित्त से शुभध्यान करने का अवसर प्राप्त होता है। कायोत्सर्ग की सबसे बड़ी फलश्रुति है-भेद विज्ञान की अनुभूति। जैसे म्यान में रखी तलवार और म्यान-दोनों भिन्न-भिन्न हैं, वैसे ही शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न है, इस अनुभूति को प्राप्त करना, विदेह की स्थिति का अनुभव करना कायोत्सर्ग है।' तप प्रायश्चित्त जिस पाप की शुद्धि तप से होती है, वह तप प्रायश्चित्त है। जीतकल्प भाष्य के अनुसार निर्विगय से लेकर छह मास पर्यन्त तप से जिस पाप की विशुद्धि होती है, वह तपोर्ह प्रायश्चित्त है। प्रश्न होता है कि छह मास से अधिक तप प्रायश्चित्त क्यों नहीं दिया जाता, इसका उत्तर देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जो तीर्थंकर छद्मस्थ काल में जितना उत्कृष्ट तप करते हैं, उनके तीर्थ में उतना ही उत्कृष्ट तप प्रायश्चित्त दिया जाता है, इससे अधिक नहीं। शक्ति होने पर भी इससे अधिक तप न तो देना चाहिए और न ही करना चाहिए क्योंकि इससे तीर्थंकरों की आशातना होती है। दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जैसे कोई राजा अपने राज्य में धान्यप्रस्थक को स्थापित करता है, उसके स्थापित होने पर यदि कोई पुराने धान्य प्रस्थक का व्यवहार करता है तो वह दण्डित होता है।' . प्रथम तीर्थंकर के समय तप का उत्कृष्ट समय बारह मास, मध्यम तीर्थंकरों के समय आठ मास तथा अंतिम महावीर के तीर्थ में तप का उत्कृष्ट समय छह मास होता है। यदि इतने तप को अतिक्रान्त करने वाला अतिचार होता है तो फिर छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। . पुनः प्रश्न उपस्थित होता है कि विषम तप प्रायश्चित्त देने से प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों की शोधि में भी अंतर आ जाएगा। इस तर्क का समाधान यह है कि प्रथम तीर्थंकर के काल में भूमि की स्निग्धता के कारण मनुष्यों का देहबल और धृतिबल-दोनों ही उत्कृष्ट होता है। चरम तीर्थंकर के समय में ये दोनों बल अनंतभाग हीन हो गए अतः शारीरिक और धृतिबल की विषमता के कारण विषम प्रायश्चित्त का विधान है। प्रथम तीर्थंकर के समय में दोनों बलों के प्रवर्धमान होने के कारण एक साल तक 1. व्यभा 4399, जीभा 540 / 4. व्यभा 141-43 / २.जीभा 724 / 5. जीभा 2287, 2288, व्यभा 144 / 3. निचू 4 पृ. 307 ; सत्तिजुत्तेण वि परतो तवो ण कायव्वो, आसायणभया।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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