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________________ 140 जीतकल्प सभाष्य तपस्या करने पर भी संयम-योगों की हानि नहीं होती थी। मध्यम तीर्थंकरों के शासन काल में दोनों बल कुछ कम हुए तथा अंतिम तीर्थंकर के समय ये दोनों बल कम होने के कारण छह मास के तप से भी उतनी ही विशोधि प्राप्त हो जाती है, जितनी प्रथम तीर्थंकर के समय होने वाले उत्कृष्ट तप में। तप प्रायश्चित्त के प्रकार निर्जरा के बारह भेदों में प्रारम्भ के चार भेद तप से सम्बन्धित हैं। जिससे पाप कर्म तप्त होते हैं, वह तप कहलाता है। मनुस्मृति के अनुसार मनुष्य मन, वचन और काया से जो कुछ भी पाप करता है, उसको तप की अग्नि शीघ्र भस्म कर देती है।' सामान्यतया तप दो भागों में विभक्त है-इत्वरिक और यावत्कथिक। उपवास से लेकर छह मास तक का तप इत्वरिक तप के अन्तर्गत है। यावज्जीवन अनशन स्वीकार करना यावत्कथिक प्रायश्चित्त है। जैन परम्परा में कनकावलि, रत्नावलि की भांति स्मृति-साहित्य में भी पादकृच्छ्रतप तथा प्राजापत्य आदि अनेक तपों का वर्णन मिलता है। ___ तप प्रायश्चित्त दो प्रकार से वहन किया जाता है-१. शुद्ध तप 2. पारिहारिक तप। परिहारतप और शुद्धतप में अंतर संघ में रहकर जो अपनी इच्छा से तप किया जाता है, वह शुद्ध तप कहलाता है। साधुओं के साथ इसमें आलाप-संलाप होने से यह इतना कठोर नहीं है तथा संघ में रहते हुए भी जिस तप प्रायश्चित्त में परस्पर साधुओं से आलाप-संलाप आदि दश पदों का परिहार किया जाता है, वह परिहार तप कहलाता है। चूर्णिकार ने परिहार शब्द के दो अर्थ किए हैं –वर्जन और वहन या धारण करना। पांच अहोरात्र यावत् भिन्न मास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना करने पर परिहार तप प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता। प्रतिसेवना जब मासिकी, द्विमासिकी आदि जितनी होती है, तब परिहार तप प्रायश्चित्त दिया जाता है। मायारहित होकर साधु जिस तप को करने में समर्थ होता है, उसका पालन करने से वह शुद्ध हो जाता है। जो अपने बल और वीर्य का गोपन करता है, वह शुद्ध नहीं होता। निशीथ चूर्णिकार के अनुसार उत्तरगुण सम्बन्धी दोष लगने पर तथा मूलगुण सम्बन्धी जघन्य और मध्यम अपराध में शुद्ध तप दिया जाता है लेकिन मूलगुण सम्बन्धी १.व्यभा 145-47 / लापानपानप्रदानादिक्रियया साधुभिरिति परिहारः। 2. निभा 46 चू पृ. 25 तप्पते अणेण पावं कम्ममिति तपो। 6. निचू 4 पृ. 371 ; परिहरणं परिहारो वज्जणं ति वुत्तं भवति, 3. मनु 11/241 / अहवा परिहारो वहणं ति वुत्तं भवति, तं प्रायश्चित्तम्। 4. याज्ञ 3/50 / 7. व्यभा 598 मटी प. 46 / 5. त 9/22 भाटी पृ. 253; परिहियते अस्मिन् सति वंदना- 8. निभा 6603, व्यभा 557 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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