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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 141 उत्कट दोष सेवन करने में मासिक अथवा छह मासिक परिहार तप का प्रायश्चित्त दिया जाता है। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार जो साधु निष्कारण प्रतिसेवना, कारण में अयतना से प्रतिसेवना करने वाला तथा स्वस्थ होने पर भी म्रक्षण आदि क्रिया को नहीं छोड़ने वाला होता है, उसे परिहार तप प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। गृहस्थ के द्वारा कुछ कहने पर जो साधु कलह करता है, उसको नियमतः परिहारतप प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसे आपन्न परिहार भी कहा जाता है। यह सातिचार के होता है। शुद्ध परिहार (परिहारविशुद्ध चारित्र) अनतिचार होता है। काल और तपःकरण की दृष्टि से शुद्ध तप और परिहारतप दोनों समान हैं। प्रश्न हो सकता है कि समान दोष होने पर भी किसी को परिहारतप और किसी को शुद्ध तप का प्रायश्चित्त देने का आधार क्या है? क्या उन दोनों की शुद्धि में कोई अंतर नहीं रहेगा? इसका उत्तर देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि यदि मण्डप पाषाण से बनाया है तो उसमें कितना भी भार रख दिया जाए, वह नहीं टूटता है लेकिन एरण्ड से बनाए गए मण्डप पर अधिक भार नहीं रखा जा सकता। इसी प्रकार जो साधु धृति और संहनन से बलवान् है, उन्हें परिहारतप तथा इन दोनों से दुर्बल को शुद्ध तप दिया जाता है। इसी बात को अन्य दृष्टान्त से समझाते हुए आचार्य कहते हैं कि जो रोगी शरीर से बलवान् होता है, उसको चिकित्सक वमन, विरेचन आदि कर्कश क्रियाएं करवाता है लेकिन जो रोगी दुर्बल होता है, उसे ये क्रियाएं नहीं करवाई जातीं। इसी प्रकार शुद्ध तप के योग्य साधु की शुद्ध तप से शोधि होती है, उसे यदि परिहारतप दे दिया जाए तो वह भग्न हो जाता है। परिहार तप वाले को शुद्ध तप दिया जाए तो उसकी पूरी शोधि नहीं होती अतः समर्थ साधु को परिहार तप ही दिया जाता है। भाष्यकार ने बालक की गाड़ी का दृष्टान्त भी दिया है। परिहार तप का विस्तार आगे किया जाएगा। छेद में भी तप प्रायश्चित्त - जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार जो छेद, मूल आदि प्रायश्चित्तों में श्रद्धा नहीं रखता, छेद और मूल प्रायश्चित्त दिए जाने पर भी प्रसन्न रहता है, छेद मिलने पर भी जो अन्य साधु से छोटा नहीं होता, वंदनीय रहता है और कहता है कि मेरा इतना पर्याय छेद होने पर भी मैं तुमसे बड़ा हूं, ऐसे पर्याय गर्वित को छेद प्रायश्चित्त होने पर भी तप प्रायश्चित्त देना चाहिए तथा जो तप गर्वित होता है, उसके दोष को दूर करने १.निभा 4 5 पृ. 280 / 4. निचू 4 पृ. 279 / २.बृभा 6033 / 5. व्यभा 542, 543 / 3. बृभा 5595 ; चोयण कलहम्मि कते, तस्स उ नियमेण ६.बृभा 5594 ; सहुस्स परिहार एव, न उ सुद्धो। परिहारो। 7. व्यभा 556 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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