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________________ 142 जीतकल्प सभाष्य के लिए इसके विपरीत छेद प्रायश्चित्त देना चाहिए। छेद प्रायश्चित्त प्राप्त गणाधिपति आचार्य की अपरिणत शैक्ष आदि में अवहेलना न हो अत: बुद्धि, बल, संहनन आदि को जानकर तथा ग्रीष्म आदि ऋतुओं के आधार पर तपोर्ह प्रायश्चित्त देना चाहिए। प्रायश्चित्त के संकेत और तप प्रायश्चित्त तप प्रायश्चित्त प्राप्ति के लिए भाष्य-साहित्य में कुछ सांकेतिक शब्दों का प्रयोग हुआ है। कुछ मुख्य सांकेतिक शब्द और उनका तप प्रायश्चित्त इस प्रकार हैं - 1. चतुर्गुरु - उपवास। 5. पणग - निर्विगय। 2. चतुर्लघु - आयम्बिल। 6. षड्गुरु - तेला। 3. गुरुमास - एकासन। 7. षड्लघु - बेला। 4. लघुमास - पुरिमार्ध। नवविध व्यवहार में तप प्रायश्चित्त व्यवहार का अर्थ है-प्रायश्चित्त। प्रायश्चित्त के आधार पर व्यवहार के संक्षेप में तीन तथा विस्तार से नौ भेद किए गए हैं। व्यवहार के तीन प्रकार हैं-गुरु, लघु और लघुस्वक। इन तीनों के तीनतीन प्रकार हैं१. गुरुक, गुरुकतरक, यथागुरुक। 2. लघुक, लघुतरक, यथालघुक। 3. लघुस्वक, लघुस्वतरक, यथालघुस्वक। गुरुक आदि नौ व्यवहारों का प्रायश्चित्त परिमाण एक मास आदि है, जो तेले आदि के तप से पूर्ण होता है। इसका चार्ट इस प्रकार है व्यवहार प्रायश्चित्त-परिमाण तप 1. गुरुक एकमास तेला गुरुतरक चार मास यथागुरुक छह मास पंचोला 4. लघुक तीस दिन बेला लघुतरक पच्चीस दिन उपवास चोला Mm- 3 1. जीभा 1790-96 / 2. जीभा 1804, 1805 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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