________________ 190 जीतकल्प सभाष्य साहित्य पर विशेष काम नहीं हुआ है। उन्होंने समय-समय पर कार्य के लिए मार्गदर्शन भी दिया। हस्तप्रतियों को पढ़ने की कला कनुभाई सेठ ने एक दिन में सिखा दी, साथ ही नियुक्तियों की मूल हस्तप्रतियां भी निकालकर दे दी। प्रतिलिपि आदि करने में समणी सरलप्रज्ञाजी का भी मुझे सहयोग मिला। हम लोग सुबह 8 बजे से सायं 4 या 5 बजे तक लाईब्रेरी में बैठकर कार्य करते। उस समय मध्याह्नकालीन आहार भी कभी-कभी ही लिया। कार्य में तन्मयता और एकाग्रता इतनी हो गई कि समय का भान ही नहीं रहता। उसके बाद नियुक्तियों की गाथा संख्या के निर्धारण में मुनिश्री दुलहराजजी का आत्मीय सहयोग और मार्गदर्शन भी मिला। नियुक्तियों के बीच में ही भाष्य-साहित्य के सम्पादन का कार्य भी प्रारम्भ हो गया। पूना भण्डारकर इंस्टीट्यूट से प्रो. कलघटके जी ने आचार्यवर को निवेदन करवाया कि यदि व्यवहारभाष्य का सम्पादन हो जाए तो हमारे यहां चल रहे कोश-साहित्य तथा अन्यान्य शोधकार्य करने में सुगमता हो सकती है। उनके सुझाव पर पूज्यवरों ने ध्यान दिया और मुझे व्यवहारभाष्य के संपादन में नियुक्त कर दिया। पूज्यवरों की कृपा से वह कार्य सन् 1996 में प्रकाशित हो गया। ___ यद्यपि वर्तमान में आवश्यक नियुक्ति खण्ड-२ का कार्य करना अत्यन्त आवश्यक था लेकिन नियति की प्रधानता ही माननी चाहिए कि उसके पूर्व जीतकल्प सभाष्य का कार्य प्रकाश में आ रहा है। आचार्यवर से प्राप्त आशीर्वाद से यह दृढ़ विश्वास हो गया है कि अब आगम व्याख्या-साहित्य के अन्य ग्रंथों का कार्य भी द्रुतगति से हो सकेगा। पूज्य गुरुदेव तुलसी पाठ-सम्पादन के कार्य को अत्यन्त महत्त्व देते थे। प्रारम्भ में जब-जब इस कार्य के प्रति मेरे मन में अरुचि या निराशा के भाव जागते, मेरे हाथ श्लथ होते, गुरुदेव प्रेरणा और प्रोत्साहन देकर नए प्राणों का संचार कर देते। अनेकों बार उनके मुखारविन्द से यह सुनने को मिला-"देखो, आगम का कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह कार्य करने का अवसर किसी भाग्यशाली को ही मिलता है। इससे नया इतिहास बनेगा और धर्मसंघ की अपूर्व सेवा होगी।" आचार्य तुलसी ने अपने जीवन में नारी-विकास के अनेक स्वप्न देखे और वे फलित भी हुए। एक स्वप्न की चर्चा करते हुए उन्होंने बीदासर में (दिनांक 12/2/67) कहा-"मैं तो उस दिन का स्वप्न देखता हूं, जब साध्वियों द्वारा लिखी गई टीकाएं या भाष्य विद्वानों के सामने आएंगे। जिस दिन वे इस रूप में सामने आएंगी, मैं अपने कार्य का एक अंग पूर्ण समझूगा।" पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी का यह स्वप्न सार्थक नहीं हो सका लेकिन आचार्य महाप्रज्ञजी की प्रेरणा से उनके निर्देशन में इस दिशा में प्रयास जारी है। कृतज्ञता-ज्ञापन यह ग्रंथ अपने निर्धारित लक्ष्य से लगभग सात माह पीछे चल रहा है। उज्जैन यात्रा के बाद लगभग