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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 191 तीन-चार महीनों तक इस कार्य में मन एकाग्र नहीं हो सका। उस समय पूज्यप्रवर द्वारा प्रदत्त कल्प सूत्र का अनुवाद प्रायः सम्पन्न हो गया। पुनः 23 नवम्बर 2009 को इसकी भूमिका लिखनी प्रारम्भ की। आज इसकी परिसम्पन्नता पर जो आत्मिक तोष और आनंद की अनुभूति हो रही है, वह अनिर्वचनीय है। __ इस ग्रंथ में जो कुछ अच्छा है, वह सब पूज्यवरों की कृपा, संघ की शक्ति और बुजुर्गों के आशीर्वाद से संभव हुआ है। ग्रंथ में जो कुछ त्रुटि रही है, उसमें मेरी अनवधानता, प्रमाद या ज्ञान की कमी आदि कारण रहे हैं। आचार्य तुलसी की अभीक्ष्ण स्मृति मुझे सतत कर्मशील बने रहने की प्रेरणा देती रहती है। परम पूज्य आचार्यप्रवर एवं श्रद्धेय युवाचार्यश्री का आशीर्वाद मुझे सतत शक्ति प्रदान कर लक्ष्य की ओर गति करने का पाथेय. देता रहता है। आदरणीया महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्री जी का आत्मीय वात्सल्य मुझे सदैव प्रसन्न और उत्साहशील बनाए रखता है। सम्माननीया मुख्य नियोजिका विश्रुतविभजी का समुचित व्यवस्थागत सहयोग इस कार्य को अस्खलित गति से आगे बढ़ाने में निमित्तभूत है। साध्वीश्री सिद्धप्रज्ञाजी के सहयोग का उल्लेख पहले किया जा चुका है। आदरणीया नियोजिकाजी मधुरप्रज्ञाजी का मधुर, निश्छल व्यवहार . एवं सभी समणियों का हार्दिक सहयोग सतत स्मर्तव्य है। जैन विश्वभारती के अधिकारियों का उदार सहयोग उल्लेखनीय है। इस कार्य के कम्पोजिंग और संदर्भ आदि मिलाने में कुसुम सुराणा, सुनीता, प्रीति, रीना आदि बहिनों का सहयोग विशेष महत्त्व का है। अब एक ही इच्छा है कि जीवन की अंतिम सांस तक धर्मसंघ की श्रीवृद्धि में इस जीवन के बहुमूल्य क्षण समर्पित करती रहूं, निस्पृह और निष्कामभाव से श्रुतयात्रा में यात्रायित होती रहूं। समणी कुसुमप्रज्ञा
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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