________________ 452 जीतकल्प सभाष्य 59. छेद आदि प्रायश्चित्त में श्रद्धा नहीं रखने वाले को, मृदु' तथा पर्याय-गर्वित को छेद आदि प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी तप प्रायश्चित्त देना चाहिए। जीतव्यवहार से गणाधिपति आचार्य को छेद प्रायश्चित्त की प्राप्ति होने पर भी तपोर्ह प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1790. शिष्य प्रश्न पूछता है कि विपुल तप नहीं करते हुए भी मुनि केवल छेद और मूल प्रायश्चित्त से . कैसे शुद्ध हो जाता है? आचार्य उत्तर देते हैं कि गुरु की आज्ञा मात्र से उसकी शुद्धि हो जाती है। जो छेद आदि प्रायश्चित्त में श्रद्धा नहीं करता, उसे तप प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1791. छेद और मूल प्रायश्चित्त दिए जाने पर भी जो मृदु और प्रसन्न रहता है, छेद मिलने पर भी जो वंदनीय रहता है, अवमरात्निक नहीं होता, उसको तीन बार तप प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1792, 1793. गर्वित साधु दो प्रकार का होता है-१. चिर पर्याय 2. तपबलिक। छेद प्रायश्चित्त देने पर दीर्घ पर्याय आदि के कारण साधु गर्वित होता है कि इतने पर्याय का छेद हुआ, फिर भी मैं तुमसे रात्निक हूं। इस प्रकार गर्व करने वाले को चिरपर्याय गर्वित जानना चाहिए। 1794. मैं तपबलिक हूं, मैं तप में समर्थ हूं अतः मुझे प्रायश्चित्त में तप दो, इस प्रकार जो गर्वित होता है, उसके दोष को दूर करने के लिए विपरीत प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1795, 1796. छेद प्रायश्चित्त प्राप्त गणाधिपति आचार्य की अपरिणत शैक्ष आदि में अवहेलना न हो अतः बुद्धि, बल, संहनन को जानकर तथा त्रिविध ग्रीष्म आदि ऋतुओं को जानकर दोष को हरने वाला तपोर्ह प्रायश्चित्त दिया जाता है। 60. यहां जीतव्यवहार में जिस-जिस प्रायश्चित्त की आप्राप्ति एवं उसके दान का संक्षेप में वर्णन नहीं किया है, वहां भिन्नमास से लेकर छहमास पर्यन्त प्रायश्चित्त कहूंगा। 1797, 1798. जिस दोष के बारे में जीतव्यवहार के द्वारा प्रायश्चित्त-दान के बारे में संक्षिप्त वर्णन नहीं है, उसकी विशोधि पणग प्रायश्चित्त से होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त निर्विगयं आदि होता है। यहां मैं विशेष रूप से कुछ कहूंगा। सूत्र में आए संक्षेप और समास शब्द एकार्थक हैं। यहां जीतव्यवहार से सब अतिचारों के प्रायश्चित्त का वर्णन क्यों नहीं किया? 1. आदि' शब्द से मूल, अनवस्थाप्य तथा पाराञ्चिक प्रायश्चित्त प्राप्तकर्ता को भी ग्रहण करना चाहिए।' १.जीचू पृ.२० आइसद्देण मूलाणवट्ठपारंचियपयावन्नाण वि। २.जो पर्याय के छेद होने पर भी संतप्त नहीं होता, वह मद होता है। १.जीचू पृ. 20; मिउणो त्ति जो छिज्जमाणे वि परियाए न संतप्पड़, जहा मे परियाओ छिन्नो त्ति। 59 में आए 'च' शब्द से आचार्य के अतिरिक्त कुल, गण और संघ के आचार्य को भी ग्रहण करना चाहिए। उन्हें भी जीत प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर तप प्रायश्चित्त दिया जाता है। 4. प्रायश्चित्त स्थान की प्राप्ति अप्राप्ति है। वह प्रायश्चित्त-प्राप्ति निशीथ, बृहत्कल्प और व्यवहारसूत्र में वर्णित है।' १.जीचू प २०;आवत्ती पायच्छित्तट्टाणसंपत्ती,साय निसीहकप्पववहाराभिहिया।