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________________ अनुवाद-जी-६१-६६ 453 1799. प्रायश्चित्त किस सूत्र में वर्णित हैं? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि निशीथ, कल्प और व्यवहार में आज्ञा आदि व्यवहार का वर्णन सूत्रतः और अर्थतः विस्तार से कहा गया है। 1800. पणग (निर्विगय) से लेकर छह मास पर्यन्त अनेकविध प्रायश्चित्त-प्राप्ति का वर्णन निशीथ आदि सूत्रों में विस्तार से कहा गया है। 1801. यहां जीतव्यवहार के द्वारा निष्पन्न प्रायश्चित्त-प्राप्ति और उसके दान का संक्षेपतः वर्णन है। भिन्नमास से लेकर छहमास पर्यन्त जीतव्यवहार का यहां वर्णन करूंगा। 61. भिन्नमास सामान्य होता है। गुरुमास, लघुमास, चतुर्लघु, चतुर्गुरु, षड्गुरु और षड्लघु में निर्विगय से लेकर तेले की तपस्या तक का प्रायश्चित्त दिया जाता है। 1802. भिन्नमास' यह सामयिकी संज्ञा है, जिसका अर्थ है पच्चीस दिन / यह अविशिष्ट-एक ही प्रकार का होता है। विशिष्ट के बारे में इस प्रकार जानना चाहिए। 1803-05. पणग, दस, पन्द्रह, बीस, पच्चीस से लेकर निर्विकृतिक तक लघुमास में पुरिमार्ध, गुरुमास में एकासन, चतुर्लघुमास में आयम्बिल, चतुर्गुरुमास में उपवास, छह लघुमास में बेला, छह गुरुमास में तेला तप की प्राप्ति होती है। 1806. निर्विगय से लेकर तेले तक का तथा भिन्नमास से लेकर क्रमशः छह मास पर्यन्त प्रायश्चित्त दिया जाता है। 62. इस प्रकार सिद्धान्त में अभिहित सर्व प्रायश्चित्त-प्राप्ति के तप को जानकर यथाक्रम से जीतव्यवहार से निर्विगय आदि प्रायश्चित्त-दान देना चाहिए। 1807. इस क्रम से सर्व प्रायश्चित्त की प्राप्ति पणग आदि से लेकर छह मास पर्यन्त होती है। 1808. निर्विगय से लेकर तेले पर्यन्त सारा तप होता है। जीत व्यवहार से क्रमशः निर्विगय आदि तप का दान दिया जाता है। 1809. सूत्र (गा. 62) में निर्दिष्ट यथाभिहित का अर्थ है-सिद्धान्त में जिस रूप में निर्दिष्ट है, सामान्य रूप से संक्षेप में इसे जानना चाहिए। 63. यह सारा प्रायश्चित्त सामान्यतः बहुलता से निर्दिष्ट है। विस्तार से प्रायश्चित्त-दान द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के भेदों से जानना चाहिए। 1810. सूत्र (गा. 63) में प्रयुक्त 'एयं' शब्द यथोद्दिष्ट का वाचक है। 'पुण' शब्द विशेषण के रूप में जानना चाहिए। सारा प्रायश्चित्त-दान बहुलता से वर्णित है। 1811. सूत्र 63 में आए सामान्य का अर्थ है-अविशेषित, विनिर्दिष्ट का अर्थ है-विशेष रूप से १.चूर्णिकार के अनुसार भिन्नमास अनेक प्रकार का होता है, फिर भी वह एक ही गृहीत होता है। / १.जीचू पृ. 20; एस भिन्नमासो बहुभेओ वि एक्को चेव घेप्पड्।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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