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________________ 454 जीतकल्प सभाष्य / चाहिए। निर्दिष्ट। प्रायश्चित्त-दान निर्विकृतिक आदि हैं। विभाग का अर्थ है-विस्तार से देना। 1812. आदि शब्द से द्रव्य आदि के क्रम से प्रतिसेवना तक ग्रहण करना चाहिए। आचार्य को विशेष रूप से द्रव्य (क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष और प्रतिसेवना) आदि देखकर कम प्रायश्चित्त भी देना चाहिए। 1813. अथवा अधिक अपराध जानकर जीत व्यवहार से अधिक प्रायश्चित्त भी देना चाहिए अथवा.. श्रुतोपदेश से उतना ही प्रायश्चित्त देना चाहिए। 64. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष और प्रतिसेवना को जानकर उतनी ही मात्रा में कम या ज्यादा प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1814, 1815. आहार आदि द्रव्य, रूक्ष या स्निग्ध आदि क्षेत्र, ग्रीष्म आदि काल, हृष्ट या ग्लान आदि भाव, गीतार्थ या अगीतार्थ पुरुष तथा जानबूझ कर की जाने वाली प्रतिसेवना आदि को जानकर जीतव्यवहार के अनुसार हीन या अधिक प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1816. द्रव्य आदि को जानकर कम, अधिक या उतनी ही मात्रा में प्रायश्चित्त देना चाहिए। यदि द्रव्य आदि हीन हैं तो कम प्रायश्चित्त तथा द्रव्य आदि अधिक हैं तो अधिक प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1817. द्रव्यादि का अक्षरार्थ क्रमशः वर्णित कर दिया गया, अब आचार्य पुनः द्रव्यादि को विस्तार से कहेंगे। 65. आहार आदि द्रव्य जिस क्षेत्र में अधिक मात्रा में या सुलभ हों, वहां अधिक प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है तथा जहां सामान्य धान्य भी कम मात्रा में या दुर्लभ हो, वहां कम प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है। 1818, 1819. द्रव्य की दृष्टि से आहार आदि द्रव्य जिस क्षेत्र में अधिक होते हैं, जैसे सजल देश में शालिधान्य स्वभावतः अधिक होते हैं, वहां वे नित्य सुलभ रहते हैं। शेष काल, भाव को भी ऐसे ही समझना चाहिए। 1820. यह जानकर जीतव्यवहार के आधार पर प्रायश्चित्त दिया जाता है। जहां वनस्पति में केवल वल्ल और कलम शालि आदि होते हैं, वहां प्रायश्चित्त अधिक दिया जाता है। 1821. कांजिक आदि रूक्ष आहार कम या दुर्लभ हो तो वहां जीतव्यवहार के अनुसार कम प्रायश्चित्त देना चाहिए। 66. क्षेत्र तीन प्रकार के होते हैं रूक्ष, शीतल और सामान्य। शीत क्षेत्र में अधिक तथा रूक्ष क्षेत्र में हीनतर प्रायश्चित्त देना चाहिए। इसी प्रकार त्रिविध काल में जानना चाहिए। 1822. रूक्ष का अर्थ है-स्नेहरहित, वह क्षेत्र, वात और पित्त को उत्पन्न करने वाला होता है। शीत क्षेत्र बलप्रद होता है अथवा सजल क्षेत्र शीतल होता है। 1. ग्रीष्मकाल रूक्ष, हेमन्तकाल साधारण तथा वर्षाकाल स्निग्ध होता है। १.जीचू पृ. 21; गिम्हो लुक्खो कालो।साहारणो हेमन्तो।वासारत्तो निद्धो।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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