________________ अनुवाद-जी-६७ 455 1823. साधारण क्षेत्र वह होता है, जो न अधिक स्निग्ध हो और न अधिक रूक्ष / इस प्रकार त्रिविध क्षेत्र के प्रायश्चित्त-दान को कहूंगा। 1824. जीत व्यवहार से स्निग्ध क्षेत्र (शीतल) में अधिक प्रायश्चित्त भी देना चाहिए। साधारण क्षेत्र में उतनी ही मात्रा में तथा रूक्ष क्षेत्र में हीनतर प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1825. रूक्ष आदि तीनों प्रकार के क्षेत्र का संक्षेप में वर्णन कर दिया। अब त्रिविध ग्रीष्म आदि काल के बारे में संक्षेपतः कहूंगा। 67. नवविध श्रुतव्यवहार के उपदेश से विधि जानकर ग्रीष्म ऋतु में उत्कृष्ट तेला, शिशिर में चोला तथा वर्षाकाल में पंचोला तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1826. ग्रीष्म आदि ऋतु में उपवास, शीतकाल आने पर बेला तथा वर्षाकाल में तेले का प्रायश्चित्त देना चाहिए, यह जघन्य तप है। 1827. ग्रीष्मकाल में बेला, शीतऋतु में तेला तथा वर्षाकाल में चोले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए, यह मध्यम तप है। 1828. ग्रीष्म ऋतु में तेला, सर्दी में चोला तथा वर्षाकाल में पंचोला-यह उत्कृष्ट तप-शोधि है। 1829. यथाक्रम से ग्रीष्म आदि ऋतु का तप संक्षेप में वर्णित है। इसको कैसे देना चाहिए, यह पूछने पर आचार्य कहते हैं कि नवविध श्रुतोपदेश से प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1830. श्रुतव्यवहार से अथवा नवभेद के अनेक विकल्पों को सूक्ष्मता से जानकर त्रिविध काल में प्रायश्चित्त देना चाहिए। नवविध व्यवहार इस प्रकार है१८३१. यथालघुस्वक, लघुस्वतर, लघुस्व-यह लघुस्वक पक्ष में तथा यथालघुक, लघुतर तथा लघुकये तीन लघुकपक्ष में होते हैं। * 1832. गुरुक, गुरुकतर तथा यथागुरुक-ये गुरुपक्ष में होते हैं, यह नवविध व्यवहार है, इनमें तप रूप प्रायश्चित्त की प्राप्ति कहूंगा। 1833. पांच, दस और पन्द्रह दिन-यह त्रिविध प्रायश्चित्त लघुस्वक पक्ष में तथा बीस, पच्चीस और तीस दिन का प्रायश्चित्त लघुकपक्ष में प्राप्त होता है। 1834. गुरुमास, चतुर्मास तथा षण्मास-यह गुरुपक्ष में प्रायश्चित्त प्राप्ति होती है। यह नवविध प्रायश्चित्तप्राप्ति है, अब मैं नवविध प्रायश्चित्त-दान को कहूंगा। 1835. लघुस्वक पक्ष में निर्विगय, पुरिमार्ध, एकासन तथा लघुक पक्ष में आयम्बिल, उपवास और बेला प्राप्त होता है। . . 1836. तेला, चोला और पंचोला-इस त्रिविध तप का दान गुरुपक्ष में होता है। यह नवविध तप की प्राप्ति मैंने संक्षेप में कही है। 1837. यह लघुस्वक आदि नवविध व्यवहार कहा गया है। अब मैं ओघ और विभाग से गुरुलघु आदि व्यवहार को कहूंगा।