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________________ 456 जीतकल्प सभाष्य - 1838. (व्यवहार के तीन प्रकार हैं-गुरुक, लघुक और लघुस्वक) गुरुक के तीन प्रकार हैं-गुरुक, गुरुकतर और यथागुरुक / लघुक के तीन प्रकार हैं-लघुक, लघुकतर तथा यथालघुक। 1839. लघुस्वक के तीन प्रकार हैं-लघुस्वक, लघुस्वतर तथा यथालघुस्व / इन नवविध व्यवहारों का यथाक्रम से प्रायश्चित्त कहूंगा। 1840. गुरुक व्यवहार मासपरिमाण वाला होता है। गुरुकतर चातुर्मास परिमाण वाला और यथागुरुक छह . मास परिमाण वाला होता है। गुरुक पक्ष में यह प्रायश्चित्त की प्रतिपत्ति है। 1841. लघुक व्यवहार तीस दिन परिमाण, लघुकतर पच्चीस दिन और यथालघुक बीस दिन परिमाण वाला होता है, यह लघुक पक्ष में प्रायश्चित्त की प्रतिपत्ति है। लघुस्वक व्यवहार पन्द्रह दिन, लघुस्वतर दश दिन और यथालघुस्वक पांच दिन प्रायश्चित्त परिमाण वाला होता है। यह लघुस्वक पक्ष में प्रायश्चित्त की. प्रतिपत्ति है। 1842. एक मास परिमाण वाले गुरुक व्यवहार में तेला, चातुर्मास प्रमाण वाले गुरुकतर व्यवहार में चोला तथा छह मास प्रमाण वाले यथागुरुक व्यवहार में पंचोले तप की प्राप्ति होती है। यह गुरुक पक्ष में तप विषयक प्रतिपत्ति है। 1843. तीस दिन प्रमाण वाले लघक व्यवहार में बेला. पच्चीस दिन प्रमाण वाले लघकतर व्यवहार में उपवास तथा बीस दिन प्रमाण वाले यथालघुक व्यवहार में आयम्बिल तप की प्राप्ति होती है। (यह लघुकपक्ष में तप विषयक प्रतिपत्ति है।) पन्द्रह दिन वाले लघुस्वकव्यवहार में एकस्थान' (एकलठाणा), दस दिन प्रमाण वाले लघुस्वतरक व्यवहार में पुरिमार्ध तथा पांच दिन प्रमाण वाले यथालघुस्वक व्यवहार में निर्विगय तप की प्राप्ति होती है। अथवा यथालघुस्वक व्यवहार शुद्ध होता है अर्थात् इसमें कोई प्रायश्चित्त की प्राप्ति नहीं भी होती। 1844. व्यवहार, आरोपण, शोधि और प्रायश्चित्त-ये सब एकार्थक हैं। यथालघुस्वक में प्रायश्चित्त की प्रस्थापना कम होती है। 1845. ओघ रूप से प्रायश्चित्त का वर्णन किया गया। अब मैं विभाग-विस्तार से वर्णन करूंगा। गुरुक, लघुक और लघुस्वक-ये तीनों नौ, सत्तावीस और इक्यासी भेद वाले भी होते हैं। 1846, 1847. गुरुपक्ष, लघुपक्ष, लघुस्वकपक्ष-ये तीन भेद होते हैं। प्रत्येक के उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य भेद कहूंगा। गुरुपक्ष में उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य-तीन भेद होते हैं। लघुक और लघुस्वक पक्ष में भी उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य भेद होते हैं। 1848. गुरुपक्ष में छहमास और पांच मास उत्कृष्ट, चार मास और तीन मास मध्यम तथा दो मास और गुरुमास जघन्य होता है। 1. दिन में 48 मिनिट में एक आसन में एक बार भोजन करना एकस्थान कहलाता है। इसमें शरीर का संकोच-विकोच और संभाषण विहित नहीं है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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