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________________ अनुवाद-जी-५७-६० 451 1777. वीर्य का गोपन करने वाले ऐसे माया युक्त साधु को जीत व्यवहार से एकासन तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। श्रुत व्यवहार के अनुसार अन्यथा प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है। अब शेष माया का वर्णन करूंगा। 1778, 1779. पहले अच्छा-अच्छा भोजन करके यश की इच्छा से मायापूर्वक आचार्य के पास विवर्ण और विरस आहार इस चिन्तन से करना जिससे वे समझें कि यह साधु रूक्ष वृत्ति वाला, महाभाग, जितेन्द्रिय और रस-परित्याग करने वाला है तथा अंत और प्रान्त खाकर जीवन-यापन करता है। (इसका प्रायश्चित्त उपवास तप है) 57. दर्प-निष्कारण पंचेन्द्रिय प्राणी का व्यपरमण, संक्लिष्ट कर्म, दीर्घ मार्ग में फल आदि का सेवन, ग्लानत्व के समय सकारण अतिचार सेवन होने पर अंत में शोधि करनी चाहिए। 1780. दर्प अर्थात् निष्कारण वल्गन-कूदना, दौड़ना और डेवण-उल्लंघन करना, पंचेन्द्रिय का व्यपरोपण करना दर्प प्रतिसेवना है। व्यपरोपण, अपद्रावण और विराधना-ये तीनों शब्द एकार्थक हैं। 1781. संक्लिष्ट कर्म, जैसे-हस्तकर्म, अंगादान आदि तथा लम्बे रास्ते में आधाकर्मिक प्रलम्ब फल आदि बहत मात्रा में सेवन करने पर। 1782. दीर्घकालिक रोग की स्थिति में आधाकर्म का सेवन, सन्निधि रखने तथा अधिक अतिचार सेवन करने से रोग का अवसान होने पर शोधि करनी चाहिए। 1783. उपर्युक्त यथोद्दिष्ट पंचेन्द्रिय-व्यपरमण से लेकर ग्लानत्व पर्यन्त प्रत्येक दोष की शोधि पंचकल्याणक से होती है। 58. सर्व उपधि का कल्प होने पर, प्रथम और अंतिम प्रहर में प्रतिलेखना न करने पर चातुर्मासिक और वार्षिक आलोचना में पंचकल्याणक से शोधि होती है। .1784, 1785. चातुर्मास काल में सर्व उपधि में यतना रखने पर भी कल्पिका शोधि होती है। प्रथम और अंतिम प्रहर में प्रमाद से प्रतिलेखना नहीं करने पर, उपधि धोने के बाद प्रथम और अंतिम प्रहर में प्रतिलेखना न करने पर-इन सबकी शोधि पंचकल्याणक से होती है। 1786. चातुर्मासिक और सांवत्सरिक आलोचना करने पर निरतिचार होने पर भी नियमतः शोधि हेतु पंचकल्याणक का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1787. शिष्य प्रश्न पूछता है कि निरतिचार रहने पर भी किस कारण से प्रायश्चित्त देना चाहिए? आचार्य उत्तर देते हैं कि कभी-कभी सूक्ष्म अतिचार लगने पर भी कदाचित् व्यक्ति जान नहीं पाता कि अतिचार दोष लगा है क्या? 1788, 1789. अथवा कभी-कभी व्यक्ति को अतिचार दोष याद नहीं आते हैं, जैसे-प्रादोषिक, अर्धरात्रिक, वैरात्रिक और प्राभातिक काल अग्रहण करने पर, सूत्रार्थ पौरुषी न करने पर अथवा दुष्प्रतिलेखन या दुष्प्रमार्जन करने पर उसकी शोधि पंचकल्याणक से होती है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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