________________ 288 जीतकल्प सभाष्य और अचंचल है, उसे वृद्धशील' जानना चाहिए। 167. श्रुतसंपदा' चार प्रकार की होती है-१. बहुश्रुत 2. परिचितश्रुत 3. विचित्रश्रुत 4. घोषविशुद्धिकर। 168. जिसको आभ्यन्तर और बाह्य-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत अनेक प्रकार से ज्ञात होता है तथा इस गाथा के पूर्वार्द्ध में प्रयुक्त 'च' शब्द के ग्रहण से जिसका चारित्र सुबहुक होता है, वह युगप्रधान बहुश्रुत कहलाता है। 169. जिसका श्रुत उत्क्रम से तथा क्रम से बहुत विकल्पों के साथ अपने नाम की भांति परिचित होता है, वह परिचितश्रुत कहलाता है। जो स्वसमय-परसमय से युक्त तथा उपसर्ग और अपवाद की विचित्रता का ज्ञाता होता है, वह विचित्रश्रुत कहलाता है। 170. उदात्त-अनुदात्त आदि घोषों से जिसका घोष विशुद्ध होता है, वह घोषविशुद्धकर कहलाता है, ये श्रुत की संपदाएं हैं। अब मैं शरीर-संपदा को कहूंगा। 171. शरीर-संपदा के चार भेद हैं --1. आरोह-परिणाह' 2. अनपत्रपता-अलज्जनीयता 3. प्रतिपूर्ण इंद्रिय 4. स्थिर (सुदृढ़) संहनन। 172. आरोह का अर्थ है-दीर्घता या लम्बाई तथा विष्कम्भ का अर्थ है-विशालता-चौड़ाई। लम्बाई के अनुरूप चौड़ाई का होना आरोह-परिणाह सम्पदा है। 1. दशाश्रुतस्कंध में वृद्धशील के निम्न गुण बताए हैं -1. विशुद्धशीलता 2. निभृतशीलता-शान्त स्वभाव 3. अबालशीलता 4. अचंचलशीलता 5. मध्यस्थशीलता। 1. दश्रु४/४ चूप. 21 ; विसुद्धसीलो निहुतसीलो अबालसीलो अचंचलसीलो मज्झत्थसील इत्यर्थः। 2. प्रवचनसारोद्धार में श्रुतसम्पदा के चार भेद इस प्रकार हैं -1. युग (युगप्रधानता) 2. परिचितसूत्र 3. उत्सर्गी 4. उदात्तघोष। प्रवचनसारोद्धार की टीका की व्याख्या के अनुसार इनमें केवल शाब्दिक भिन्नता है, अर्थ की दृष्टि से विशेष अन्तर नहीं है। 1. प्रसा 543 ;जुग परिचिय उस्सग्गी, उदत्तघोसाइ विन्नेओ। 3. आचार्य मलयगिरि ने सुबहुक का अर्थ किया है, जिसके चारित्र के पर्यव अत्यधिक निर्मल होते हैं।' 1. व्यभा 4088 मटी प. 38 / 4. प्रवचनसारोद्धार में शरीरसम्पदा के भेद इस प्रकार हैं' -1. चतुरस्र 2. अकुंटादि-परिपूर्ण कर्मेन्द्रिय वाला 3. बधिरत्ववर्जित-अविकल इंद्रिय वाला 4. तप:समर्थ / इसमें प्रथम, तृतीय और चतुर्थ भेद में शब्द-भेद होते हुए भी आर्थिक दृष्टि से समानता है लेकिन अनपत्रपता के स्थान पर अकुण्टादि में कुछ अर्थभेद माना जा सकता है। 1. प्रसा 544 ; चउरंसोऽकुंटाई, बहिरत्तणवज्जिओ तवे सत्तो। 5. बृहत्कल्पभाष्य की टीका में आरोह का अर्थ न अधिक दीर्घता और न अधिक बौनापन किया है अर्थात शरीर की लम्बाई प्रमाणोपेत होनी चाहिए। परिणाह का अर्थ किया है-न अधिक स्थूलता और न अधिक दुर्बलता। इसका वैकल्पिक अर्थ किया है-आरोह अर्थात् शरीर की लम्बाई और परिणाह-भुजाओं की मोटाई-ये दोनों तुल्य प्रमाण में हों, हीन या अधिक न हों। 1. बृभाटी पृ.५९३;आरोहो नाम-शरीरेण नातिदैर्घ्यं नातिहस्वता, परिणाहो नाम नातिस्थौल्यं नातिदुर्बलता ; अथवा आरोहः-शरीरोच्छ्रायः, परिणाहः-बाह्वोर्विष्कम्भः, एतौ द्वावपि तुल्यौ, न हीनाधिकप्रमाणौ।