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________________ अनुवाद-जी-१ 289 173. 'त्रपू' धातु लज्जा के अर्थ में प्रयुक्त होती है, जो सर्वांग प्रतिपूर्ण होता है, वह अलज्जनीय होता है, यह अनपत्रपता है। पांचों इंद्रियों से युक्त प्रतिपूर्ण इंद्रिय होता है।' 174. वज्रऋषभनाराच आदि संहनन से युक्त बलिष्ठ शरीर वाला स्थिर संहननी होता है। यह शरीरसंपदा है। अब मैं वचन-सम्पदा के विषय में कहूंगा। 175-77. वचन-सम्पदा के चार भेद हैं -1. आदेय वचन 2. मधुर वचन 3. अनिश्रित वचन 4. असंदिग्ध वचन। जिसके वचन को सब स्वीकार करते हैं, वह आदेय वाक्य होता है। मधुर वचन का अर्थ है-अर्थ से युक्त वचन अथवा अपरुष वचन या क्षीराश्रव आदि लब्धियों से युक्त वचन अथवा सुस्वर, सुभग और गाम्भीर्य गुण से युक्त वचन। जो क्रोध आदि से तथा राग-द्वेष से युक्त बोलता है, वह निश्रित वचन होता है। जो इनसे रहित बोलता है, वह अनिश्रित वचन कहलाता है। 178. संदिग्ध वचन का अर्थ है-अव्यक्त वचन, अस्पष्ट वचन अथवा अनेक अर्थों वाला वचन। इसके विपरीत जो व्यक्त, स्फुट और अर्थगाम्भीर्य से युक्त होता है, वह असंदिग्ध वचन कहलाता है। यह चार प्रकार की वचन-सम्पदा है। 1. बृहत्कल्प भाष्य में आचार्य के शरीर-वैशिष्ट्य का वर्णन मिलता है -जो आरोह-परिणाह से युक्त, उपचित और सुगठित शरीर वाला तथा प्रतिपूर्ण इंद्रिय वाला होता है, वह ओजस्वी कहलाता है। जिसका शरीर अलज्जनीय तथा दीप्ति युक्त होने के कारण अनभिभवनीय हो, वह तेजस्वी होता है। इस प्रकार के शारीरिक वैशिष्ट्य से युक्त व्यक्ति ही गणधर बनने योग्य होता है। १.बृभा 2051 ; आरोह-परीणाहा, चियमंसो इंदिया य पडिपुण्णा। अह ओओ तेओ पुण, होइ अणोतप्पया देहे // 2. निशीथ भाष्य में प्रकारान्तर से आचार्य के शरीर के कुछ लक्षणों का वर्णन इस प्रकार मिलता है' * मान-उन्मान-प्रमाण युक्त शरीर। * रेखा –मणिबंध से अंगुष्ठपर्यंत रेखा, जो गण और ज्ञान आदि की समृद्धि में हेतुभूत होती है। उससे आचार्य को सुयश प्राप्त होता है, वे लोकमान्य पुरुष बन जाते हैं। * सत्त्व-महान् संकटकाल में भी अदीन। * वपु-तेजस्वी आभा वाला शरीर। . . अंगोपांग-सुसंस्थित अवयव। * लक्षण-श्रीवत्स, स्वस्तिक आदि लक्षणों और तिल आदि व्यंजनों से युक्त शरीर / ' 1. निभा 5977,5980,5981 चू पृ. 197, 198 / / 3. प्रवचनसारोद्धार में वचनसम्पदा के चार भेदों में कुछ शाब्दिक भिन्नता है। -१.वादी 2. मधुरवचन 3. अनिश्रित वचन 4. स्फुट वचन / इसमें आदेयवचन के स्थान पर वादी तथा असंदिग्धवचन के स्थान पर स्फुटवचन का प्रयोग अर्थ-साम्य का द्योतक है। 1. प्रसा५४४ ; वाई महुरत्तऽनिस्सिय, फुडवयणो संपया वयणे त्ति। 2. प्रसाटी प.१२९ ; वादी आदेयवचन इत्यर्थः।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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