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________________ 290 जीतकल्प सभाष्य 179. वाचना-सम्पदा' के चार भेद हैं-१. विदित्वा उद्देशना 2. विचिन्त्य समुद्देशना' 3. परिनिर्वाप्य वाचना 4. अर्थ-निर्यापना। . 180. यह शिष्य इस वाचना के योग्य है, यह अयोग्य है-वाचना विषयक गणों की परीक्षा करके जो जिसके योग्य हो, उसको वैसी ही उद्देशना देना विदित्वा उद्देशना है। 181, 182. अपरिणामी और अतिपरिणामी शिष्य को अपात्र समझकर वाचना नहीं देनी चाहिए। जैसे मिट्टी के कच्चे घड़े में अथवा खटाई से युक्त घड़े में दूध नहीं डाला जाता। यदि डाल दिया जाए तो वह नष्ट हो जाता है, वैसे ही अपरिणामी और अतिपरिणामी शिष्य को छेदसूत्र की वाचना नहीं देनी चाहिए। समुद्देशना को भी इसी प्रकार जानना चाहिए। 183. परिनिर्वाप्य वाचना का अर्थ है-आचार्य शिष्य को उतनी ही वाचना दे, जितनी वह ग्रहण कर सके तथा परिचित कर सके, यहां जाहक-कांटों वाले चूहे का दृष्टान्त ज्ञातव्य है। 184. अर्थ-निर्यापक का तात्पर्य है, जो सूत्र का अर्थ जानता है, जो अर्थ का निर्वहन करता है तथा जो कुछ कहता है, उसका अर्थ भी करता है। 185, 186. मति-सम्पदा के चार भेद हैं -1. अवग्रह 2. ईहा 3. अवाय 4. और धारणा। अवग्रह मति के छह भेद ज्ञातव्य हैं, वे इस प्रकार हैं-१. क्षिप्र 2. बहु 3. बहुविध 4. ध्रुव 5. अनिश्रित 6. असंदिग्ध / 1. प्रवचनसारोद्धार में वाचनासम्पदा के चार भेदों के नाम इस प्रकार हैं-१. योग्य वाचना 2. परिणत वाचना 3. निर्यापयिता 4. निर्वहन। इन चार भेदों में परिणत वाचना का टीकाकार ने अर्थ किया है कि पूर्व प्रदत्त वाचना को शिष्य सम्यक् रूप से ग्रहण कर ले, तब अगली वाचना दे। यह जीतकल्पभाष्य के तीसरे भेद परिनिर्वाप्य वाचना का संवादी है। निर्यापयिता का तात्पर्य है शिष्य के उत्साह से शीघ्र ही ग्रंथ को समाप्त करने वाला, बीच में नहीं छोड़ने वाला। इसमें कुछ अर्थ-भेद है क्योंकि जीतकल्पभाष्य में दूसरा भेद विचिन्त्य समुद्देशना है। निर्वाहक का अर्थ हैपूर्वापर संगति से सम्यक् अर्थ का निर्वहन करने वाला। 1. प्रसा 545 ; जोगो परिणयवायण, निजविया वायणाएँ निव्वहणे। 2. दशाश्रुतस्कंध (4/8) में विजयं वाएति --विदित्वा वाचना शब्द का प्रयोग हुआ है। 3. जैसे कांटों वाला चूहा दुग्धपात्र से थोड़ा दूध पीकर पात्र के पार्श्व को चाट लेता है। फिर दध पीता है और पात्र चाटता है, यह क्रम निरन्तर चलता है, वैसे ही बुद्धिमान् आचार्य शिष्य को पहले उतना ही पाठ पढ़ाए, जिससे वह उसे चिरपरिचित कर सके। इस प्रकार धीरे-धीरे वह शिष्य को सम्पूर्ण श्रुत ग्रहण करवा देता है। 1. विभा 1472; पाउं थोवं थोवं, खीरं पासाइं जाहगो जह लिहइ। एमेव जियं काउं, पुच्छइ मइमं न खेएइ॥ 4. आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने इस प्रसंग में एक प्रश्न उपस्थित किया है कि बहु-बहुविध आदि विशेषण स्पष्ट अर्थ के द्योतक हैं लेकिन व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह और ईहा में तो अव्यक्त ज्ञान होता है, उसमें ध्रुव, अनिश्रित आदि भेदों का समाहार कैसे संभव है? टीकाकार स्वयं इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहते हैं कि व्यञ्जनावग्रह आदि अवाय के कारण हैं। इनके अभाव में अवाय की स्थिति होना असंभव है। विशिष्ट कारण के बिना विशिष्ट कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। अवायगत बहु-बहुविध आदि का कारण व्यञ्जनावग्रह में भी है अतः अवग्रह आदि के भी छह-छह भेद कर दिए गए हैं। विस्तार हेतु देखें तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी 1/16 पृ. 84 १.विभामहेटी पृ. 92 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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