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________________ अनुवाद-जी-१ 291 इसी प्रकार ईहा, अवाय और धारणा के भी भेद जानने चाहिए।' 187. शिष्य अथवा परतीर्थी द्वारा उच्चारित मात्र का तत्काल अवग्रहण कर लेना क्षिप्र अवग्रह है। इसी प्रकार पांच सौ, छह सौ अथवा सात सौ श्लोकों का अवग्रहण बहु' अवग्रह है। 188. एक साथ अनेक प्रकार का अवग्रहण बहुविध अवग्रह है, जैसे-लेखन, दूसरे के वचनों का अवधारण. वस्तओं की गणना. आख्यानक-कथन आदि क्रियाओं को एक साथ ग्रहण करना अथवा एक साथ अनेक प्रकार के शब्द-समूह का श्रवण करना बहुविध अवग्रहण है। 189. (अधीत पाठ का) चिरकाल तक विस्मरण नहीं करना ध्रुव अवग्रहण है। जो पुस्तकों में लिखा हुआ नहीं है तथा जो अभाषित है, उसको ग्रहण करना अनिश्रित अवग्रह है। जो निःशंकित है, वह असंदिग्ध अवग्रह है। 190. अवगृहीत अर्थ की ईहा होती है, ईहित करने के पश्चात् अवाय होता है। अवगत या अवाय होने के 1. भाष्यकार ने अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा–मतिज्ञान के इन चारों भेदों के छह-छह भेद किए हैं-क्षिप्र, बहु, बहुविध, ध्रुव, अनिश्रित और असंदिग्ध / आवश्यक नियुक्ति और नंदी में जहां भी मतिज्ञान की चर्चा है, वहां इन भेदों का उल्लेख नहीं है। विशेषावश्यक भाष्य में इनका क्रम और नाम इस प्रकार हैं-बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिश्रित, निश्चित और ध्रुव तथा इन छह के प्रतिपक्ष / ' '. यहां आचार्य की मति-सम्पदा का वर्णन है अत: बहु, बहुविध के प्रतिपक्ष अबहु, अबहुविध आदि छह भेदों का उल्लेख नहीं किया गया है। भाष्यकार ने मतिज्ञान के 28 भेदों के साथ इन 12 भेदों का गुणा करके मतिज्ञान के 336 भेद स्वीकृत किए हैं। १.विभा 307 ;जं बहु-बहुविह-खिप्पाऽनिस्सिय-निच्छिय-धुवेयरविभिन्ना। पुणरुग्गहादओ तो,तं छत्तीसत्तिसयभेयं / 2. विशेषावश्यक भाष्य में 'बहु' की परिभाषा इस प्रकार की गई है -भिन्नजातीय अनेक शब्दों के समूह को अलग-अलग रूप से एक साथ ग्रहण करना बहु ग्रहण है, जैसे—यह पटह का शब्द है, यह भेरी का शब्द है, यह शंख का शब्द है आदि। . १.विभा 308 ; नाणासद्दसमूह, बहुं पिहं मुणइ भिन्नजाईयं। 3. बहुविध का अर्थ है-अनेक पदार्थों की अनेक पर्यायों को जानना। विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार शंख, भेरी आदि के एक-एक शब्द के स्निग्धत्व, मधुरत्व आदि धर्मों को एक साथ ग्रहण करना बहुविध ग्रहण है। १.विभा 308 ; बहुविहमणेगभेयं, एक्केक्कं निद्ध-महुराई। 4. भाष्यकार के अनुसार बिना हेतु का सहारा लिए स्वरूप को जानना अनिश्रित है अथवा गाय और अश्व में जो विपर्यास है, उसे अलग करना और दोनों को सही-सही जानना अनिश्रित है। ...१.विभा 309; अणिस्सियमलिंग। 5. विशेषावश्यक भाष्य में असंदिग्ध के स्थान पर निश्चित शब्द का प्रयोग हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बरीय परम्परा में असंदिग्ध के स्थान पर 'अनुक्त' तथा संदिग्ध के स्थान पर 'उक्त' शब्द का प्रयोग हुआ है। १.विभा 309; निच्छियमसंसयं। २.त 1/16; बहुबहुविधक्षिप्रानि:श्रितानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम्।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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