________________ 292 जीतकल्प सभाष्य पश्चात् धारणा होती है। धारणा के विषय में यह विशेष है। 191. धारणा' के छह भेद इस प्रकार हैं-१. बहु' 2. बहुविध 3. पोराण 4. दुर्धर 5. अनिश्रित 6. असंदिग्ध। पुराण का अर्थ है-जिसकी चिरकाल पहले वाचना दी हो। दुर्धर का अर्थ है-नय और भंगों के द्वारा गहन होने के कारण जिसको धारण करना कष्टप्रद हो। 192. अब आगे प्रयोगमति के चार भेद आनुपूर्वी से कहे जा रहे हैं-आत्मा (स्वयं), पुरुष, क्षेत्र और वस्तु-इन चारों को जानकर वाद का प्रयोग करना चाहिए। 193. जैसे प्रायोगिक वैद्य रोगी की व्याधि जिस उपाय से ठीक होती है, वह प्रयोग जानता है, वैसे ही अपनी शक्ति को जानकर वाद अथवा धर्मकथा करनी चाहिए। 194. प्रतिवादी उपासक आदि पुरुष अथवा ज्ञा–जानकार आदि परिषद् को जानकर फिर वाद का प्रयोग करना चाहिए। 195. क्षेत्र मालव आदि है अथवा साधुभावित, यह विधिपूर्वक जानकर फिर वाद का प्रयोग करना चाहिए। 196. वस्तु अर्थात् परवादी बहुत आगमों का ज्ञाता है अथवा नहीं तथा राजा और अमात्य दारुण स्वभाव वाले हैं अथवा भद्र स्वभाव वाले, यह जानकर वाद का प्रयोग करना चाहिए। 197. यह प्रयोगमति है, अब मैं संग्रहपरिज्ञा के बारे में कहूंगा। संग्रहपरिज्ञा भी चार प्रकार की है, उसके विभाग इस प्रकार हैं १.विशेषावश्यक भाष्य में धारणा के अलग भेदों का उल्लेख नहीं है। अवग्रह की भांति ही धारणा के भेद हैं। २.जीतकल्प भाष्य में धारणा के बह, बहविध, अनिश्रित और असंदिग्ध भेदों की व्याख्या नहीं की गई है लेकिन दशाश्रुतस्कन्ध में इनकी व्याख्या मिलती हैबहुधारण-विपुलश्रुत को धारण करना। बहुविधधारण-अनेकविध श्रुतपाठ का एक साथ अवधारण करना। ' अनिश्रितधारण-बिना किसी दूसरे आलम्बन के स्वयं अवधारण करना। असंदिग्धधारण-पाठ को असंदिग्ध रूप से धारण करना। 1. दश्रु 4/11 / 3. वाद आदि के प्रयोजन की सिद्धि के लिए किया जाने वाला व्यापार प्रयोग है तथा उस समय पदार्थ को जानने की मति प्रयोग मति संपदा कहलाती है। 1. प्रसाटी प.१३०; वादादिप्रयोजनसिद्धये व्यापारः तत्काले मतिः-वस्तुपरिच्छित्तिः प्रयोगमतिः / 4. नंदी सूत्र में परिषद् के तीन प्रकार निर्दिष्ट हैं-ज्ञा, अज्ञा और दुर्विदग्धा / ' १.नंदी 1/44/1; सा समासओ तिविहा पण्णत्ता,तं जहा-जाणिया अजाणिया दुब्बियड्डा।