________________ अनुवाद-जी-१ 293 198, 199. संग्रह-परिज्ञा' सम्पदा (संघ व्यवस्था-कौशल) के चार प्रकार हैं 1. वर्षाकाल में बहुजन योग्य क्षेत्र की प्रेक्षा करना। 2. पीठ और फलक का अवग्रहण क्योंकि ये दोनों वर्षाऋतु में आचीर्ण हैं। 3. समय का समानयन करना। 4. रत्नाधिक की पूजा करना। इन भेदों की व्याख्या इस प्रकार जाननी चाहिए। 200. वर्षाकाल में बहुजनयोग्य क्षेत्र का तात्पर्य यह है कि वह क्षेत्र विस्तीर्ण और समस्त गच्छ के प्रायोग्य हो तथा बाल, दुर्बल, ग्लान और अतिथि आदि के प्रायोग्य हो, ऐसी प्रतिलेखना करनी चाहिए। 201. योग्य क्षेत्र के अभाव में साधु अगृहीत हो जाते हैं, वे अन्यत्र चले जाते हैं। पीठ और फलक आदि के ग्रहण करने से निषद्या मलिन नहीं होती है। 202. वर्षाकाल के अतिरिक्त काल में अन्यत्र जाया जा सकता है। वर्षाकाल में विशेष रूप से भूमि की शीतलता से कुंथु आदि, प्राणी सम्मूर्च्छित हो जाते हैं अतः वर्षाकाल में पीठ और फलक का ग्रहण करना चाहिए। 1. ठाणं सूत्र में आचार्य और उपाध्याय के लिए सात संग्रह-स्थानों का उल्लेख मिलता है१. गण में आज्ञा और धारणा का सम्यक् प्रयोग करें। 2. बड़े-छोटे के क्रम से कृतिकर्म का सम्यक् प्रयोग करें। ३.जिन-जिन सूत्र पर्यवजातों को धारण किया, उनकी उचित समय पर वाचना दें। 4. ग्लान एवं शैक्ष की यथोचित सेवा हेतु जागरूक रहें। 5. गण को पूछकर अन्य प्रदेश में विहार करें, पूछे बिना विहार न करें। 6. अनुपलब्ध उपकरणों को यथाविधि उपलब्ध करवाएं। ७.गण में प्राप्त उपकरणों का सम्यक संरक्षण व संगोपन करें। विधि का अतिक्रमण करके संरक्षण और संगोपन न करें। १.स्था 7/6 / .प्रवचनसारोद्धार में संग्रह-परिज्ञा के चार भेदों के नाम इस प्रकार हैं -1. गणयोग्य उपग्रह 2. संसक्त संपद् 3. स्वाध्याय संपद् 4. शिक्षा उपसंग्रह संपद् / / सरे भेद के अतिरिक्त शेष तीन भेदों में केवल शाब्दिक अन्तर है। अर्थ की दृष्टि से प्रायः समान है। दूसरे संसक्त संपद् का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं कि भद्रपुरुष के अनुरूप देशना देकर उन्हें संघ के प्रति आकृष्ट करना संसक्त संपद् है लेकिन जीतकल्पभाष्य में पीठ और फलक का अवग्रहण है। प्रवचनसारोद्धार में जीतकल्पभाष्य के प्रथम और द्वितीय भेद का प्रथम भेद में समाहार करके संसक्तसंपद् कमक नया भेद प्रस्तुत किया गया है। १.प्रसा 546 ; गणजोग्गं संसत्तं, सज्झाए सिक्खणं जाणे। १.प्रसाटी प.१३०।