________________ 294 जीतकल्प सभाष्य 203. स्वाध्याय, प्रतिलेखना, उपधि का उत्पादन तथा भिक्षाचर्या आदि-ये सब जिस काल में जो क्रिया करने योग्य हों, उसको उसी काल में करना चाहिए। 204, 205. जिसके द्वारा प्रवजित हुआ है तथा जिसकी सन्निधि में अध्ययन किया है, वे यथागुरु होते हैं अथवा जो उससे रत्नाधिक हैं, वे भी यथागुरु हैं। उनके आने पर अभ्युत्थान करना, दंड ग्रहण करना, उचित आहार की व्यवस्था करना, उनकी उपधि को वहन करना तथा उनकी विश्रामणा-पैर दबाना आदि वैयावृत्त्य करना, यह उनकी पूजा है। 206. इन बत्तीस स्थानों को जानकर जो इनमें स्थित होता है, वह व्यवहार का प्रयोग करने के योग्य होता है अथवा जो निम्न छत्तीस स्थानों का ज्ञाता है, वह व्यवहार करने में समर्थ होता है। 207, 208. जो आलोचनार्ह छत्तीस स्थानों में अपरिनिष्ठित होता है, वह मुनि व्यवहार का प्रयोग करने में समर्थ नहीं होता तथा जो इन स्थानों में परिनिष्ठित होता है, वह व्यवहार का प्रयोग करने में समर्थ होता है। 209, 210. जो आलोचनार्ह इन छत्तीस स्थानों में अप्रतिष्ठित होता है, वह मुनि व्यवहार का प्रयोग करने में समर्थ नहीं होता तथा जो इन स्थानों में सुप्रतिष्ठित होता है, वह व्यवहार का प्रयोग करने में समर्थ होता 211. जिन बत्तीस स्थानों का कथन किया था, उनमें विनय-प्रतिपत्ति के चार भेद मिलाने से छत्तीस स्थान होते हैं। 212. बत्तीस स्थानों का वर्णन किया जा चुका है। अब मैं विनय-प्रतिपत्ति' के चार भेद कहूंगा, जिससे आचार्य अपने अंतेवासी शिष्यों को विनीत बनाकर उऋण हो जाते हैं। 213. विनय की चार प्रतिपत्तियां इस प्रकार हैं-१. आचार विनय 2. श्रुत विनय 3. विक्षेपणा विनय 4. दोष-निर्घातन विनय। 214, 215. आचारविनय आनुपूर्वी से चार प्रकार का होता है-१. संयम-सामाचारी 2. तपः-सामाचारी 3. गणविहरण-सामाचारी 4. एकलविहार-सामाचारी। इनके विभाग-विस्तार को मैं यथानुपूर्वी कहूंगा। 216. * स्वयं संयम का आचरण करता है। * दूसरे को नियमतः संयम ग्रहण करवाता है। * संयम में विषण्ण को स्थिर करता है। * उद्यतचारित्र वाले का उपबृंहण करता है। 1. यहां आचार्य से सम्बन्धित विनय-प्रतिपत्ति का उल्लेख है, जिसमें आचार्य शिष्यों को विनीत बनाकर संघ से उऋण हो जाते हैं लेकिन दशाश्रुतस्कंध में अंतेवासी शिष्य की चार विनय-प्रतिपत्तियों का उल्लेख है। इसके द्वारा विनीत शिष्य आचार्य के भार को हल्का करता है। देखें दश्रु 4/19-23 / दशाश्रुतस्कन्ध में विनय-प्रतिपत्तियों का विस्तार से वर्णन है। देखें दश्रु 4/14-18 चू. पृ. 23, 24