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________________ अनुवाद-जी-१ 295 217. सतरह प्रकार के संयम में पृथ्वी आदि छह कायों का घट्टन, परितापन और अपद्रावण का नियमतः परिहार करना संयम सामाचारी है। 218-20. जो पाक्षिक पौषध में दूसरों को तप करवाता है तथा स्वयं तप करता है, इसी प्रकार भिक्षाचर्या में दूसरों को नियुक्त करता है तथा स्वयं भी भिक्षाचर्या में उद्यत रहता है। बारह प्रकार के तप में दूसरों को नियुक्त करता है तथा स्वयं को भी नियोजित करता है, (यह तपः सामाचारी है।) गण सामाचारी के अन्तर्गत वह विषाद प्राप्त गण को प्रेरित करता है। प्रतिलेखना में प्रस्फोटन आदि प्रमाद से शिष्यों को दूर करता है, बाल और ग्लान के वैयावृत्त्य में विषण्ण मुनियों को सेवा में नियुक्त करता है तथा स्वयं भी इन क्रियाओं में उद्यत रहता है। (यह गण-विहरण सामाचारी है।) 221, 222. एकलविहार आदि प्रतिमा को वह स्वयं स्वीकार करता है तथा दूसरों को भी स्वीकार करवाता है। यह आचारविनय यथाक्रम से संक्षेप में वर्णित किया गया है, अब मैं यथानुपूर्वी श्रुतविनय को कहूंगा। 223. सूत्र की वाचना देना, अर्थ की वाचना देना, हितकर वाचना देना तथा निःशेष वाचना देना –यह चार प्रकार का श्रुतविनय है। 224, 225. उद्युक्त होकर शिष्य को सूत्र ग्रहण करवाना सूत्रग्रहण विनय है। प्रयत्नपूर्वक शिष्य को अर्थ सुनाना अर्थ विनय है। परिणामक आदि शिष्यों के लिए जो जिसके योग्य हितकर है, उसको वही वाचना देना हितकर वाचना हैं। नि:शेष अर्थात सम्पूर्ण रूप से जब तक वाचना समाप्त नहीं होती, तब तक सूत्र और अर्थ की वाचना देना नि:शेष वाचना विनय है। यह चार प्रकार का श्रुतविनय है, अब मैं विक्षेपणा विनय के विषय में कहूंगा। 226. विक्षेपणा विनय के चार प्रकार हैं * अदृष्टधर्मा व्यक्ति को दृष्टधर्मा बनाना। * दृष्टधर्मा श्रावक को साधर्मिकत्व विनय से प्रव्रजित करना। . च्युतधर्मा को पुनः धर्म में स्थापित करना। ___ * उसके चारित्रधर्म की वृद्धि हेतु प्रयत्न करना। 227. वि उपसर्ग नाना भाव के अर्थ में प्रयुक्त होता है। वि उपसर्ग के साथ क्षिप्-प्रेरणे धातु से विक्षेपणा शब्द बनता है। अदृष्टधर्मा तथा दृष्टधर्मा को परसमय से विमुख करके स्वसमय के अभिमुख करना - विक्षेपणा विनय का प्रथम प्रकार है। 1. यहां आदि शब्द से प्रतिमागत विशेष अनुष्ठान का ग्रहण है। १.व्यभा 4139 मटी प.४३ ; आदिशब्दात् प्रतिमागतविशेषानुष्ठानपरिग्रहः। 2. दशाश्रुतस्कंध में 'हितवाचना' को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि परिणामक शिष्य को वाचना देने से इहलोक . और परलोक में हित होता है। अपरिणामी और अतिपरिणामी को वाचना देने से उभयलोक में अहित होता है। 1. दश्रु 4/16 चू प. 23 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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