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________________ 296 जीतकल्प सभाष्य 228. धर्म और स्वभाव का एकार्थक है-सम्यग्दर्शन। जिसने पहले कभी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया, वह अदृष्टपूर्वधर्मा कहलाता है। उसको पूर्वदृष्ट की भांति धर्म ग्रहण करवाना। 229. जैसे मिथ्यादृष्टि भाई या पिता को सम्यक्त्व की प्राप्ति करवाना अथवा दृष्टपूर्व श्रावक को साधर्मिकत्व की दीक्षा देना विक्षेपणा विनय का दूसरा प्रकार है। 230. चारित्रधर्म अथवा दर्शनधर्म से जो च्युत हो गया है, उसको पुनः यथोद्दिष्ट धर्म में स्थापित करना विक्षेपणा विनय का तीसरा प्रकार है। 231, 232. उसी के चारित्रधर्म की वृद्धि हेतु अनेषणा आदि से रोकना तथा स्वयं के हित के लिए अनेषणीय वस्तु आदि ग्रहण नहीं करना, इहलोक और परलोक में जो हित, शुभ/सुख, क्षेम, निःश्रेयस, मोक्ष और आनुगामिक हो, उसके लिए उद्यत रहना (यह विक्षेपणा विनय का चौथा प्रकार है।) 233. यह विक्षेपणा विनय यथाक्रम से संक्षेप में वर्णित है। अब मैं दोष-निर्घातन विनय कहूंगा। 234. कषाय आदि अथवा आठ कर्म प्रकृतियों का बंध दोष है। इनका नियत और निश्चित विनाश दोषनिर्घातना विनय है। नियत और निश्चित तथा घात और विनाश-ये दोनों एकार्थक हैं। 235. दोषनिर्घातन विनय चार प्रकार का है * रुष्ट व्यक्ति के क्रोध का विनयन करना। * दुष्ट व्यक्ति के दोष का विनयन करना। * कांक्षित व्यक्ति की कांक्षा का छेदन करना। * आत्म-प्रणिधान करना। 236. जैसे शीतगृह-जलयन्त्रगृह दाह का अपनयन करता है, वंजुल वृक्ष सर्प के विष को दूर करता है, वैसे ही रुष्ट व्यक्ति के क्रोध का विनयन या उपशमन दोष-निर्घातन विनय का प्रथम भेद है। 237. जो कषाय, विषय, मान, माया आदि से तथा स्वभाव से दुष्ट है, उसके दोष का प्रविनयन करना, ध्वंस या नाश करना दोषनिर्घातन विनय का दूसरा भेद है। 238. जिस शिष्य को भक्तपान, परसमय अथवा संखडि आदि की कांक्षा है, उसकी कांक्षा का प्रविनयन 1. हित, शुभ (सुख), क्षेम, निःश्रेयस, मोक्ष और आनुगामिक-ये पांचों शब्द हितकारी अर्थ को ही ध्वनित करते हैं लेकिन आचार्य मलयगिरि ने इनकी अर्थ-भिन्नता को इस प्रकार प्रकट किया है हित-जिस कारण से इहलोक में अभ्युत्थान आदि हो। शुभ/सुख-जिससे परलोक में सुख अथवा शुभ हो। क्षेम-दोनों लोकों के प्रयोजन को सिद्ध करने में समर्थ / निःश्रेयस–निश्चित कल्याणकारी। आनुगामिक-जो मोक्ष का अनुगमन करवाए।' १.व्यभा 4149 मटी प.४४; यद्यस्मात्कारणात् तदभ्युत्थानमिह लोके वा हितं तेन हितमित्युच्यते।सुखं इह परलोके सुखकरणात्।क्षेममैहिकपारत्रिकप्रयोजनक्षमत्वात्।निःश्रेयसंकल्याणकारिकत्वात्।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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